70 वेंस्वतंत्रता दिवस की हादििक शु का ा...

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70 व वतंता दिवस की हादि िक श भकामानाएं ......... अपनी बात आज यदि हम अपने आस-पास नजर िौड़ाते ह तो शायि ही कोई ऐसा यत होगा जसके हाथ म मोबाइल न हो। आज के िौर म मोबाइल आवयकता की ेणी म आ गया है इससे आप भी सहमत हगे। हमारे दिन की शरआत ही मोबाइल के साथ होती है, जब हम अपने नजिीकी, करीबी, िोत वारा भेजे गए शुभ संिेश को पढ़कर करते ह। एक समय था जब हमारी पीढ़ी से पहले के लोग (जनकउ ५५-६० के बीच की है) सुबह अपने बतर से उठने से पहले भगवान का मरण करते थे और अपने िोन हाथ की हथेललय को रगड़कर अपनी आँख म लगाते ह ए अपनी आँखे खोलते थे। समय बिला, अब नजररया भी बिल गया है। आज हम िखते ह कक, हमारे अपने बचे के हाथ म ही सुबह की शरआत से ही मोबाइल नजर आता है। हमम से छ लोग की भी यही थतत है और हमारी भशरआत सुबह के ात गुडमॉतनग मैसेज को पढ़कर हो होती है। इस किया से आप लोग भी गुजरते हगे। एक िो रोज पहले की ही बात है जो मने पढ़ी और मुझे अछी भी लगी, सो अपनी बात के मायम से आपके साथ साझा कर रहा ह सिेश म ललखा था- दिन-आज काम- खुश रहना - बस इतना ही ललख पाया आप भी शायि इस सोच म ह कक, इसम नई बात तया है ? सच कह तो आपने जब ललखा पढ़ा तो आप थोडा मुकराए बबना नहीं रह सक हगे और इस ललखे ह ए वातय ने अपना मकसि परा कर ललया है। इसी संिभभ म म यह भी कहना चाहता ह क, छोटी-छोटी अछी बात 17

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  • 70 वें स्वतंत्रता दिवस की हादििक शुभकामानाएं .........

    अपनी बात आज यदि हम अपने आस-पास नजर िौड़ाते हैं तो शायि ही कोई ऐसा व्यक्तत होगा क्जसके हाथ में मोबाइल न हो। आज के िौर में मोबाइल आवश्यकता की शे्रणी में आ गया है इससे आप भी सहमत होंगे। हमारे दिन की शरुआत ही मोबाइल के साथ होती है, जब हम अपने नजिीकी, करीबी, िोस्त द्वारा भेजे गए शुभ संिेशों को पढ़कर करत ेहैं। एक समय था जब हमारी पीढ़ी से पहले के लोग (क्जनकी उम्र ५५-६० के बीच की है) सुबह अपने बबस्तर से उठने से पहले भगवान का स्मरण करत े थे और अपने िोनों हाथों की हथेललयों को रगड़कर अपनी आँखों में लगात े हुए अपनी आँखे खोलत े थे। समय बिला, अब नजररया भी बिल गया है। आज हम िेखत ेहैं कक, हमारे अपने बच्च ेके हाथ में ही सुबह की शरुआत से ही मोबाइल नजर आता है। हममें से

    कुछ लोगों की भी यही क्स्थतत है और हमारी भी शरुआत सुबह के प्राप्त गुडमॉतनिंग मैसेज को पढ़कर हो होती है। इस प्रकिया से आप लोग भी गुजरत ेहोंगे।

    एक िो रोज पहले की ही बात है जो मैंने पढ़ी और मुझ े अच्छी भी लगी, सो अपनी बात के माध्यम से आपके साथ साझा कर रहा ह ँ।

    सन्िेश में ललखा था- दिन-आज काम- खुश रहना - बस इतना ही ललख पाया आप भी शायि इस सोच में हैं कक, इसमें नई बात तया है ? सच कह ँ तो आपने जब ललखा पढ़ा तो आप थोडा मुस्कराए बबना नहीं रह सक होंगे और इस ललखे हुए वातयों ने अपना मकसि प रा कर ललया है। इसी संिभभ में मैं यह भी कहना चाहता ह ँ कक, छोटी-छोटी अच्छी बातें

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  • इसललए कामयाब होती हैं कक, इन पर इंसान तुरंत ही अमल करना शरू कर िेता है या कम से कम ललखी बात पर सोचता जरूर है। सही सन्िभभ में आपने सुववचार, स क्ततयां भी अपना गहरा असर हम पर छोड़ती हैं, इसकी मुख्य वजह यह है कक, सुववचार में क्जंिगी का अनुभव तछपा होता है तथा ि सरों के ललए पे्ररणा बन जाता है। ये अच्छी बातें हैं, कारण इसमें सच का अंश भी तछपा होता है। इसमें कोरी लफ्फाजी नहीं होती। इनको पढने के बाि जो उत्साह का संचार होता है, वो भले ही उस पल के ललए ही हो, लेककन वह उस चचड़ड़या की तरह लगता है जो मन की मुंडरे पर आकर बैठ जाती है और उसकी जरा-सी चहक िो नन्ही-सी फुिकानी मोह लेती है। ललखे वातयों से उपजी पे्ररणा क्जंिगी के आंच से तपी उतारी ताज़ी करारी रोटी ही है क्जसकी न तो खुशब से बचा जा सकता है और ना ही उसको खोलने की चाह को िबा सकत ेहैं।

    करीब एक सिी पहले एक ववचारक ने कहा था कक, मेरी सिी की सबसे बड़ी खोज यह है कक, अगर हम इंसानों को अपनी क्जंिगी बिलना हो तो नजररया बिलना होगा। ये बात आज भी साथभक है। हम बड़ े ही भाग्यशाली हैं कक, हमनें भारत जैसे सुसम्पन्न सांस्कृततक ववरासत में पल बढ़ रहे हैं।

    जहाँ हमें इततहास या ग्रंथों में संत गुरुजनों के ज्ञान से तनलमभत अमतृ तुल्य वाणी को पढ़कर समझने का अवसर लमल रहा है।

    सच प छा जाय तो इन सब का असल मकसि तब प रा होगा जब हम आप और आपके पररवार के सिस्यगण हर ललखी बात का अनुसरण पे्ररणा हमें कुछ नया करने के ललए पे्रररत करती है।

    अंत में गुरुिेव रवीन्रनाथ टैगोर की ललखी बात को ललवपबद्ध कर रहा ह ँ - "ककनारे पर खड़े होकर धारा को िेखत ेरहने से नहीं पार नहीं की जा सकती।"

    यह छोटी-सी बात है इस पर आप गौर कीक्जएगा और हमें अपनी मंशा से अगले अंक में पररचय करवाइये।

    सािर

    आपका (ए. के. लसहं)

    *****************************************

    खुशशयों के पल इंसान को अपनी खुलशयों और धन को सिा सम्भालकर और संजोकर सुरक्षित रखना चादहए। जीवन में खुलशयों के पल बहुत काम समय के ललए आत ेहैं। इन्हें सहेजकर रखना अतनवायभ है, ककसी भी म ल्य पर इन्हें नहीं गँवाना चादहए। मनुष्य को अपने व्यवहार और अपनी सोच पर सिैव तनयन्रण रखने की कौलशश करनी चादहए। यदि कोई उसकी सत्ता को न मानकर उसे चुनौती िेता है तो तब भी उसे अपना संयम नहीं खोना चादहए। मनुष्य को सिा प्रसन्नचचत्त रहना चादहए और अपनी क्जन्िगी से तनराश नहीं होना चादहए। जीवन में सफल व्यक्तत कहलाने के ललए पैसों की आवश्यकता होती है। हमें पैसे को सिा अपनी जेब में रखना चादहए। उसे अपने मन-मक्स्तष्क पर हावी नहीं होने िेना चादहए।

    यदि मनुष्य इस धन का उपयोग घर-पररवार की आवश्यकताओं प ततभ करने, िान करने जैसे कृत्यों में व्यय करता है तो उसका सिपुयोग होता है। इसके उलट यदि यही धन लसर पर चढ़कर बोलने लगे तो मनुष्य का दिमाग खराब होने लगता है। वह अपने

  • बराबर ककसी ि सरे को नहीं समझता। वह स्वयं को सातवें आसमान पर समझने लगता है। इंसान को अपने पैर सिैव जमीं पर ही रखने चादहयें।

    अन्यथा उसके बच्च ेभी उसकी िेखा िेखी घमण्डी बनने लगत ेहैं जो ककसी भी तरह से समाज के ललए उचचत नहीं कहा जा सकता। वह हर ककसी को िेख लेने की धमकी िेने लगता है। यह ठीक वैसा

    ही है कक,

    नफ़रत करने वाले भी, ग़जब का प्यार करत ेहैं मुझसे।

    जब भी लमलत ेहैं, कहत ेहैं, तुझ ेछोड़ेंगे नहीं ।

    यहाँ तक कक, इंसान स्वयं को भी भगवान समझने लगता है। ईश्वर की सत्ता को भी चुनौती िेने से परहेज नहीं करता। यहाँ एक बात बताना चाहता ह ँ कक, मनुष्य अपनी गरीबी से गरीब नहीं होता बक्ल्क अपनी जरूरत के अनुसार गरीब होता है। जब-तब मनुष्य अपनी कामनाओं और वासनाओं को बड़ा बनता रहेगा, तब तक वह चैन की सासँ नहीं लेगा। यही उसकी परेशानी का म ल कारण बन जाता है। इसी भाव को हम ि सरे शब्िों में इस प्रकार कह सकत ेहैं कक, यदि इन्सान अपनी चािर से अचधक पैर

    पसारता है तो उसे सिा ही िुुःख-तकलीफों का सामना करना पड़ता है। इस शाश्वत सत्य को कभी नहीं भ लना चादहए कक, जब तक इन्सान के पास पैसा है तभी तक यह तनष्ठुर ितुनया उसे प छती है और सम्मान िेती है। अन्यथा इस शरीर रूपी लमट्टी का कोई मोल नहीं है। सो िोस्तों, इस धन-िौलत पर अलभमान करना व्यथभ है। केवल उसे साधन मानना उचचत है, उसे साध्य मान लेने से जीवन में भटकाव की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। कफर जीवन में क्स्थरता की संभावना नहीं रहती। इस जीवन का एक सच यह भी है कक, माया बहुत ही महाठचगनी और चंचल है। इस पर कभी ववश्वास नहीं करना चादहए। यह पलक झपकत ेही, िण भर में राजा को रंक और रंक को सम्राट बना िेती है ।

    ितुनया में शुरू से ही पीठ पीछे बुराई करने वालों की कमी नहीं रही है। हमें यह मान कर चलना चादहए कक, वे कायर हैं। उनमें सामने से आकर कुछ बोलने की सामर्थयभ एवं समझ नहीं होती है। अतुः हमें यह बात पले बाँध लेनी चादहए कक, उन िोगले लोगों पर कभी ववश्वास नहीं करना है। यह समाज के ललए बहुत बड़ा खतरा है। हमें ितुनया की परवाह तभी तक करनी चादहए तब तक वे आपके और आपके सपनों के बीच में न आएँ। जब तक इन्सान में सामर्थयभ है, तब तक उसे सफल होने से कोई ताकत रोक नहीं सकती।

    हर समस्या का हल हम दृढ़ प्रततज्ञा से डटकर कर तत्काल कर सकते हैं। उससे मुँह मोड़कर या पीठ दिखाकर भाग जाने से ककसी भी समस्या का समाधान कर पाना असम्भव होता है। संसार के सभी अनुराग-ववराग की परवाह छोड़कर, बेपरवाह प्रसन्न रहने का अभ्यास कीक्जए। बेपरवाह ही सब शाहों का शाह होता है।

    डॉ. मनोज कुमार सहायक प्रबंधक (राजभाषा)

    राजभाषा ववभाग, वेकोलल मुख्यालय, नागपुर

  • सादहत्यकार - अमतृलाल नागर

    दहिंी के प्रलसद्ध सादहत्यकार श्री अमतृलाल नागर का जन्म 17 अगस्त, 1916 को उत्तर प्रिेश में आगरा के पास क्स्थत गोकुलपुरा में हुआ। उन्होंने दहिंी भाषा की ववलभन्न ववधाओं कहानी, उपन्यास, नाटक, ररपोताभज, तनबंध, संस्मरण, व्यंग्य, बाल सादहत्य, अनुवाि एवं संपािन के िेर में महत्वप णभ कायभ ककया था।

    उपन्यास : महाकाल (1947) (1970 से ‘भ ख’ शीषभक प्रकालशत), ब ँि और समुर (1956), शतरंज के मोहरे (1959), सुहाग के नुप र (1960), अमतृ और ववष (1966), सात घ घँट वाला मुखड़ा (1968), एकिा नैलमषारण् ये (1972), मानस का हंस (1973), नाच् यौ बहुत गोपाल (1978), खंजन नयन (1981), बबखरे ततनके (1982), अक्ग्नगभाभ (1983), करवट (1985),

    पीदढ़याँ (1990)। कहानी सगं्रह : वादटका (1935), अवशेष (1937), तुलाराम शास् री (1941), आिमी, नही! नही! (1947), पाँचवा िस् ता (1948), एक दिल हजार िास् ताँ (1955), एटम बम (1956), पीपल की परी (1963), कालिंड की चोरी (1963), मेरी वप्रय कहातनया ँ(1970), पाँचवा िस् ता और सात कहातनयाँ (1970), भारत पुर नौरंगीलाल (1972), लसकंिर हार गया (1982), एक दिल हजार अफसाने (1986 - लगभग

    सभी कहातनयों का संकलन)। सम्मान : ‘ब ँि और

    समुर’ पर काशी नागरी प्रचाररणी सभा का वविम संवत 2015 से 2018 तक का बटुक प्रसाि पुरस् कार एवं सुधाकर पिक, ‘सुहाग के न पुर’ पर उत्तरप्रिेश शासन का वषभ 1962-63 का पे्रमचंि पुरस् कार, ‘अमतृ और ववष’ पर वषभ 1970 का सेववयत लैंड नेहरू पुरस् कार, वषभ 1967 का ‘अमतृ और ववष’ पर सादहत् य अकािेमी पुरस् कार, ‘मानस का हंस’ पर मध् य प्रिेश शासन सादहत् य पररषि का वषभ 1972 का अखखल भारतीय वीरलसहं िेव पुरस् कार, ‘मानस का हंस’ पर उत्तर प्रिेश शासन का वषभ 1973-74 का राज् य सादहक्त्यक पुरस् कार, दहिंी रंगमंच की ववलशष् ट सेवा हेतु सन 1970-71 का उत्तर प्रिेश संगीत नाटक अकािमी पुरस् कार, ‘खंजन नयन’ पर भारतीय भाषा, कलकत्ता (कोलकाता) का वषभ 1984 का नथमल भुवालका पुरस् कार, वषभ 1985 का उ.प्र. दहिंी संस् थान का सवोच् च भारत भारती सम् मान (22 दिसंबर, 1989 को प्रित्त), दहिंी सादहत् य सम् मेलन, प्रयाग द्वारा सादहत् य वाचस् पतत उपाचध से ववभ वषत ककया गया। 23 फरवरी, 1990 को उनका तनधन हो गया। उनके जन्मदिन के अवसर पर प्रस्तुत है उनकी कहानी :

    धमि संकट शाम का समय था, हम लोग प्रिेश, िेश और ववश् व की राजनीतत पर लंबी चचाभ करने के बाि उस ववषय से ऊब चुके थे। चाय बड़ ेमौके से आई, लेककन उस ताजगी का सुख हम ठीक तरह से उठा भी न पाए थे कक नौकर ने आकर एक सािा बंि ललफाफा मेरे हाथ में रख दिया। मैंने खोलकर िेखा, सामनेवाले पड़ोसी रायबहािरु चगराभजककशन (चगररराज कृष् ण) का पर था, काँपत ेहाथों अनलमल अिरों और टेढ़ी पंक्ततयों में ललखा था :

  • माई डियर प्रताप,

    "मैंने फुल् ली को आिेश िे रत खा है कक मेरी मतृ् यु के बाि यह पर तुम् हें फौरन पहँुचाया जाए। तुम मेरे अलभन् न लमर के पुर हो। रमेश से अचधक सिा आज्ञाकारी रहे हो। मेरी तनम् नललखखत तीन अंततम इच् छाओं को प रा करना - "

    1. रमेश को तुरंत स चना िेना। मेरी आत् मा को तभी शांतत लमलेगी, जब उसके हाथों मेरे अंततम संस् कार होंगे। मैंने उसके साथ अन्याय ककया है।

    2. फुल् ली को मैंने पाँच हजार रुपये दिए हैं और पाँच-पाँच सौ रुपये बाकी चारों नौकरों को। नोट मेरे तककए में रूई की परत के अंिर हैं। उसी में वसीयत और ततजोरी की चाभी भी है। घर में ककसी को यह रहस् य नहीं माल म। तककया अब फौरन अपने कब्जे में कर लेना। घर के भंडार-घर और संि कों की चालभयाँ ततजोरी में हैं। रमेश के आने पर पाँच पंचों के सामने उसे सौंप िेना।

    3. मैंने अपनी वसीयत में यह शतभ रत खी है कक मेरी पत् नी अगर मुझ ेमाफ कर िे और गलत ही सही, मगर जो पततव्रत उस पर आन पड़ा है उसे साधकर, रमेश को छोड़कर, बाइज् जत यहाँ रहे तो

    यह मकान और िस हजार रुपया उसे दिया जाए लेककन यह काम उसी हालत में होना चादहए, जबकक हम और तुम् हारे द्वारा तनयुत त मुहल् ले के चार भले आिमी मेरी पत् नी की सच् चरररता के संबंध में आवश् स् त हो जाएँ।

    पर पर छह रोज पहले की तारीख पड़ी थी। मुझे यह समझने में िेर न लगी कक रायबहािरु साहब गत हो चुके हैं। पर मैंने बड़े बाब के सामने मेज पर रखा दिया। इंजीतनयर साहब और प्रोफेसर साहब भी झुककर पढ़ने लगे।

    चाय बेमजा हो गई। हम सभी उठकर रायबहािरु साहब के यहाँ गए। उनका रोबीला चेहरा रोग और मानलसक चचतंाओं से जजभर होकर मतृ् यु के बाि भी उनके अंततम दिनों के असीम कष् टों का पररचय िे रहा था। मतृ रायबहािरु के चहेरे को िेखत ेहुए उनके साथ बीत ेइतने वषों की स् मतृतयाँ मेरे मन में जाग उठी।

    रायबहािरु बाब चगराभजककशन बी.ए. उन दहिंसु् तातनयों में से थे, क्जन् हें तकिीर की च क के कारण इंग्लैंड में जन्म नहीं लमल पाया था। उनका रंग भी गोरा न था, बक्ल्क गेहुएँ से काले की ओर ही अचधक झुकता हुआ था। कफर भरसक उन् होंने अपने-आपको अंगे्रजनुमा ही बनाए रत खा। गरीब दहिंसु्तातनयों पर अकड़ दिखाने में वे सिा अंगे्रजों से चार ज त ेआगे रहे। कई दहिंीवादियों ने उनसे शुद्ध नाम चगररराजकृष् ण रखने को कहा, मगर वे उन् हें म खभ बतलाकर चगराभज ही बने रहे। रायबहािरु चगराभजककशन के नाम के साथ बी.ए. जोड़ना भी तनतांत आवश् यक था। सन 23 में रायबहािरु चगराभज अपनी बबरािरी के रायसाहेब िीनानाथ की बिौलत इलाहाबाि में छोटे लाट के िफ्तर में भरती

  • हुए थे। अपनी अंगे्रजपरस् ती और हाईत लास खुशामि के िम पर रामबहािरु ऊँची कुलसभयों पर चढ़ बैठे। स् वराज् य होने पर आंतररक कष् ट भोगने के बावज ि तीन वषों तक स् वराजी अफसरों, नेताओं और मंबरयों की भी बाअिब खुशामि की। चगराभज बाब इन लोगों के सामने क्जस प्रकार खुि िमु दहलात ेउसी प्रकार अपने सामने अपने मातहतों की भी दहलवात े थे। आजािी के बाि भी िफ्तर में अपना भला चाहनेवाला कोई बाब उनके आगे दहिंी का एक शब् ि नहीं बोल सकता था और घर के ललए भी यही मशह र था कक रायबहािरु की भैंस तक अंगे्रजी में ही डकारती। अगर कोई कसर थी तो सही कक 'लेडी चगराभज' के वास् त े अंगे्रजी का कररया अिर भी भैंस बराबर ही था।

    रायबहािरु चगराभज पहली लड़ाई के जमाने के मॉडनभ आिमी थे। सुबह आँख खुलते ही घंटी बजात,े सफिे कोट, पतल न और साफे से लैस फुल् ली आया का लड़का घसीटे 'छोटी हाक्जरी' लेकर हाक्जर होता। ठीक आठ बजे बड़ी हाक्जरी पर बैठते, बेटी-बेटा साथ होते, पर लेडी चगराभज अंडा-बबस् कुट-समाज में कभी न बैठीं। परम कट्टर छ त-पाकवाली न होत े हुए भी मांस-मछली से उन् हें परहेज था। बशीरत चपरासी के बाप मुन् ने बावची को हफ्त ेमें िो दिन ड्य टी िेनी पड़ती थी। घर के तनचले दहस् से में ववलायती रसोई थी। एक तरह से कहना चादहए कक नीच ेका प रा घर ही ववलायती था। वहाँ लेडी चगराभज के बजाय फुल् ली आया का साम्राज् य था। फुल् ली पहले अंगे्रजी कोदठयों में काम करती थी। अंगे्रजी ढंग से दहिंसु् थानी बोलती है। अंगे्रजी घर के कायिे जानती है। छोटी-बड़ी हाक्जरी, लंच, ड़डनर, चाय सबका समय साधती थी, इसललए चगराभज बाब के बाब तनयम से िो पेग खाने से

    पहले चुसककयों में मयाभिा करत ेथे। फुल्ली उसका इंतजाम भी बख बी कर िेती थी। इसललए आमतौर पर मजाक-मजाक में ही मशह र हो गया था कक रायबहािरु साहब से कोई काम करवाने के वास् त ेबजाय लेडी चगराभज के लेडी फुल् ली की लसफाररश ज्यािह पुरअसर होती है।

    वैसे राजबहािरु चगराभज में ककसी ने भी कोई ऐब की बात नहीं िेखी-सुनी थी, अगर ऐब था तो यही कक वे मॉडनभ थे। चुरुट मुँह में लगाए बगैर वे बात नहीं कर पात े थे। अगर कोई दहिंी सभा का चंिा माँगने आए तो उससे अकड़कर कहत े कक मॉडनभ जमाने में गँवारू भाषाओं का उद्धार करना दहमाकत की बात है। धमभ के संबंध में पहले तो वे यह कहा करत ेथे कक यह ढोंग और पागलपन की वस् तु है, मगर बाि में उसे इंड़डयन कल् चर का एक सनातन रूप मानकर सहन कर जात े थे। चगराभज साहब थोड़ा-बहुत लेने-िेने का काम करत े थे और उसकी बिौलत उन् होंने हैलसयत भी बनाई। अच् छा मॉडनभ ढंग का मकान बनवाया। उसका नाम 'दि नाइदटगेंल' रतखा। मोटर खरीिी। सिा िो-चार नौकर पाले। घर से लेकर िफ्तर तक घड़ी साधकर सबसे ड्य टी करवाई। पत् नी को भी लमलने के वास् त े फुल् ली के द्वारा उनसे 'अप् वाइंटमेंट' लेना पड़ता था। लेडी इससे जल-फँुक गई कक मैं फुल् ली से भी गई-बीती हो गई।

    लेडी चगराभज ने अपने फ हड़पन में उनके ऊपर एक बहुत बड़ा लांछन लगा दिया। रायबहािरु साहब लसद्धांततुः और स् वभावतुः अवैध ररश् तों से नफरत करत े थे, इसललए अपनी पत् नी के द्वारा झ ठा लांछन लगाए जाने के बाि कफर उन् होंने कभी उनका मुँह न िेखा। बड़ी लड़की के वववाह के अवसर पर उन् होंने कन् यािान इसललए स् वयं न

  • ककया कक उन् हें प जा के पटरे पर अपनी पत् नी के साथ बैठना पड़ता।

    इसके बाि िो वषभ में लेडी चगराभज घुल-घुलकर मर गईं; मगर मरीं भी तो तनयतत के साथ षड्यंर करके ठीक इनके ररटायर होने के दिन। रायबहािरु चगराभज को बहुत लशकायत हुई; अपने बेटे-बेटी से कहा, "तुम् हारी मम्मी को कभी टाइम का सेंस नहीं रहा। अगर मरना ही था तो कल सुबह मरतीं, परसों सुबह मर सकती थीं। आज शाम को िफ्तर में मेरी फेयरवेल पाटी हो जाने के बाि कभी मर सकती थीं। क्जंिगी में एड्रसे पाने का यह पहला मौका आया था सो इस तरह तबाहोबबाभि कर दिया। ईड़डयट कहीं की!"

    इसके बाि, मरनेवाली तो खैर, मर ही चुकी थी मगर जो भी मातम-पुरसी के ललए मुँह बबस रत ेहुए आए, उन् हें भी रायबहािरु साहब की डाँट खानी पड़ी। जो कहता कक साहब सनुकर बड़ा िखु हुआ, उससे ही कहते, "आपको िखु करने की जरूरत त या है? मुझ ेकोई िखु नहीं हुआ। जो आिमी पैिा होता हैं, उन सबको एक साथ फौरन मर जाना चादहए। जाइए, मेरे यहाँ मातम-पुरसी के ललए आने की जरूरत नहीं।"

    छोटी लड़की की शािी उन् होंने पत् नी की मतृ् यु के तीन महीने बाि प वभ तनश् चय के अनुसार ही की। स् वयं ब् याहनेवाली लड़की और उनके पुर को इसमें आपवत्त थी, मगर उन् होंने ककसी की एक न सुनी, कहा, "आई हैव नो ररगाडभ फॉर योर मम् मी। शी वाज एक परफेत ट फ ल !" लड़की की शािी बड़ी ध मधाम से की। एक आई.सी.एस. के बेटे को अपना िामाि बनाया और बहुत कुछ िान-िहेज िेकर ररटायर होने के बाि भी रोब जतलाया।

    लड़का रमेश तब एम.ए. फाइनल में पढ़ रहा था। नामी तजे था; सिा फस् टभ त लास रेकाडभ रहा। एम.ए. के बाि आई.ए.एस. में बैठनेवाला था। लड़कीवाले अनेक व् यक्तत रमेश की माँग करने के ललए रायबहािरु की सेवा में आने लगे। रायबहािरु चगराभज को अब मातहत त लकों पर न सही तो बेटीवालों पर ही चुरुट का रोब झाड़कर भरप र संतोष लमल जाता था। िहेज के मामले में वे पत के मॉडनभ थे यानी पच् चीस हजार माँगत े थे। एकाध वपछले जानकार ने िहुाई िी कक आप तो िहेज के ववरुद्ध थे, उसको पुरानी प्रथा बतलात ेथे तो बोले, "साहब, जब मुझ से बड़ े अफसर, आई.सी.एस. आिमी, यानी मेरे समधी साहब, िहेज लेने को मॉडनभ प्रथा मानत े हैं तो मैंने भी अपने ववचार बिल दिए हैं। तनहायत साइंदटकफक बात है कक आपको िामाि चादहए और मुझ े25 हजार रुपया। मेरा रमेश आई.ए.एस. पास करेगा। आप अपनी लड़की का फ्य चर िेखकर अगर इतनी रत कम िेना स् वीकार करत ेहैं तो बैदठए, वरना मेरी कुरसी की गद्िी मैली मत ककक्जए।"

    वे ऐसी लड़की चाहत े थे, जो सुंिर हो, बी.ए. हो, गाती नाचती हो, सीना-वपरोना-बुनना जानती हो, अंगे्रजी में फटाफट बात करें। अफसर ककस्म के मॉडनभ मेहमानों की खाततर करने में तमीजिार हो और ऊपर से उसका बाप नगि पच् चीस हजार रुपये भी िे जाए। बबरािरी के कई अच् छी हैलसयतवाले बेदटयों के बापों के चहेरे रायबहािरु चगराभज के चुरुट की अकड़ से धुआँ-छुआँ हो गए।

    एक दिन इनके द्वारा नौकर रखाए गए पुराने मातहत एक सजातीय बाब िेवीशंकर पधारे चगराभज की मदहमाओं का बखान करत े हुए उन् होंने कहा, "सर, मैं आपकी च् वायस को जानता ह ँ और एक

  • लड़की मेरी नजर में है।"

    इन बाब के साथ उन् होंने रीता को िेखने का अवसर पाया। रीता रायसाहब चमनलाल की इकलौती बेटी थी। रायसाहब चमनलाल ने अपने जमाने में बड़ े ऐश, बड़ े नाम ककए। व े शहर की तवायफों के सरताज थे, रेस के घोड़ों के सरपस् त थे और बड़ े ही औला-पौला आिमी थे। अपने जीवन-काल में लाखों कमाए और लाखों फ ँ के। एक लड़की हुई, उसे बड़ ेलाड़ से पाला-पोसा, पढ़ाया। हाई स् क ल तक रीता ने परीिाओं तथा वाि-वववाि और नतृ् य-प्रततयोचगताओं में अनेक पुरस् कार प्राप् त कर अपने वपता को संतुष् ट ककया था। रायसाहब ववधुर थे, रीता की एक ववधवा मौसी उनकी लड़की की िेखभाल करने के ललए उनके यहाँ रहती थी, सो तब तरह से उनकी ही हो गई थी। रायसाहब ने आँख म ँिकर अपना घर अपनी रक्षिता साली को सौंप रत खा था।

    बाि में रायसाहब चमनलाल की जन् मकंुडली के ग्रह-निर पहटे, बड़ा घाटा आया। दिवाललए होने की नौबत आ गई। अपनी लड़की के वास् ते कुछ रकम बचाने की नीयत से उन् होंने एक बँगला अपनी साली के नाम से खरीिा और लगभग एक लाख रुपया नगि और जेवरों के रूप में बचाकर उसी के नाम से जमा करवा दिया। कफर रायसाहब दिवाललए हो गए और क्जस दिन उन् हें अपनी महलनुमा कोठी सिा के ललए छोड़नी थी, उस दिन उन् होंने गहरे नशे में अपनी कनपटी पर ररवाल् वर रखकर अपनी इहलीला समाप् त कर िी। रायसाहब की मतृ् यु के बाि मौसी सयानी हो गई और रीता अनाथ।

    लड़की िेखने गए तो उसकी िो चोदटयों में

    तततललयों जैसे ररबन िेखकर रायबहािरु साहब के पेशन प्राप् त जीवन में नई रस की गुलाबी आई। अनेक वषों का सोया हुआ मॉडनभ पत् नी का अभाव जाग उठा। लड़की रीता बातचीत में तेंज, आँखें नचाने में बाकमल और हँसने में बबजली थी। िेखकर लौटे तो रास् त े में िेवीशंकर से बोले, "लड़की तो अच् छी है और िहेज का भी मुझ ेकोई खास नहीं, त योंकक तुम तो जानत ेही हो कक मैं इन सब मामलों में बड़ा मॉडनभ ह ँ। खाली एक प्रयोजन हैं के - अ - त या नाम के, आई मीन, तुम् हारा त या खयाल है, िेवीशंकर, अभी तो मैं भी शािी कर सकता ह ँ?"

    िेवीशंकर रायबहािरु को घ रत े लगे। मुँह पर खुशामि से 'हाँ' के बजाय 'ना' भला त यों कर कहत।े मौसी के ललए इससे बढ़कर काई शुभ संवाि न हो सकता था। अठारह वषभ की आयु की रीता छप्पन वषीय रायबहािरु चगराभजककशन की पत् नी बनी।

    और इसके बाि की तमाम बातें अपने िम में बढ़ गईं। रीता ने प्रथम दिन से ही अपने पतत से कोई संबंध न रतखा। हठप वभक अपने कमरे के अंिर बंि रही। रायबहािरु रुपये-पैसे, गहनों और खुशामिों की बड़ी-बड़ी नुमायशें लगाकर हार गए। कफर एक दिन फुल् ली ने बतलाया कक रमेश और रीता रायबहािरु द्वारा स् थावपत संबधं को भ लकर परस् पर नया संबंध स् थावपत कर रहे हैं। रायबहािरु आग हो गए। रमेश तब एम.ए. के अंततम वषभ में पढ़ रहा था। वपता ने िोध में अंध होकर उस पर प्रहार ककया और घर से तनकाल दिया। रीता तब भी उनकी न हुई।

    रमेश को िो महीने बाि ही दिल् ली में कोई नौकरी

  • लमल गई और उसके महीने-भर बाि ही रीता रायबहािरु के घर से गायब होकर दिल् ली पहँुच गई। जाने से प वभ वह एक अलबेला काम कर गई थी। मुहल् ले के पच् चास घरों में हर पत ेपर उनका ललखा पोस् टकाडभ उसके गायब होने के ि सरे ही दिन पहली डाक से पहँुचा। उसमें मार इतना ही ललखा था : "बाब चगररराजकृष् ण ने मुझ े जबरिस् ती अपनी पत् नी बनाया था, मगर मैंने उन् हें कभी अपना पतत न माना और न अपना धमभ ही दिया। वववाह से पहले मुझ े बतलाया गया कक मैं उनके पुर को ब् याही जाऊँगी। तब से मैंने उनके पुर को ही अपना पतत माना; इस घर में आकर भी उन् हें ही भगवान की सािी में अपने को सौंपा और अब मैं अपने पतत के पास ही जा रही ह ँ।"

    रीता के भागने से रायबहािरु बाब चगराभजककशन को इतना कष् ट नहीं पहँुचा था, क्जतना कक उसके द्वारा भेजे गए इस सावभजतनक पर से व े िखुी हुए। इसके बाि रायबहािरु का जीवन बिल गया। उनमें प जा-पाठ और आक्स्तकता की भावना जागी, साथ ही अकेलापन भी हठ पकड़ गया। वपछले आठ वषों में व ेएक दिन भी अपने घर से बाहर तनकलकर कहीं न गए। लेन-िेन का काम करत ेथे, वह भी धीरे-धीरे समाप् त कर दिया। मुहल् ले में ककसी से भी संपकभ न रत खा। वपछले कुछ दिनों से बीमार थे, मगर मुहल् लेवाले उनकी हालत िेखने-प छने भी न गए, जात े तो लमलत ेभी नहीं और अचानक मेरे पास अब यह पर आया।

    हम सभी मुहल् लेवाले एकाएक यह तनणभय न कर पाए कक इस क्स्थतत में त या करना चादहए। वैद्यजी और बड़ ेबाब इस पि में थे कक पुललस को स चना िे िी जाए और इस पर को ललखी हुई बातों का अमल भी कान न के हाथों ही हो, परंतु मैं

    तो मतृ व् यक्तत की अंततम इच् छा प री करने के पि में था। रायबहािरु कैसे भी रहे हों, इसी मुहल् ले के थे। कइयों को उन् होंने कभी नौकररयाँ भी दिलाई थीं, उपकार ककया था। इंजीतनयर साहब भी मेरे ही मत के थे। बाि में सभी राजी हो गए। मुहल् ले के एक लमर के पास रमेश के पर आया करत े थे। उसी से पता लेकर तार भेजा गया, क्जसमें यह स् पष् ट ललख दिया था कक यदि कल प्रातुःकाल तक तुम स् वयं अथवा तुम् हारा पर उत्तर न आएगा तो रायबहािरु की अंत् योक्ष्ट किया मुहल् लेवालों द्वारा ही पंचनामें से संपन् न कर िी जाएगी।

    सुबह चार बजे तार का जवाब आया कक रमेश टैत सी द्वारा दिल् ली से चल रहा है और सुबह तक पहँुच जाएगा। प्रातुःकाल करीब-करीब सभी मुहल् लेवाले रायबहािरु के घर पर उ पक्स्थत थे, तभी टैत सी िरवाजे पर रुकी। रमेश, रीता और तीन बच् च ेउतरे। रमेश के मुँह पर तो सामाक्जक लज् जा और संकोच की मललन छाया थी, परंतु रीता का चहेरा सतजे और तनववभकार था।

    रीता के आने का संवाि पाकर अनेक क्स्रयाँ कौत हलवश आ गईं। रीता ने रायबहािरु की लाश के पास अपनी च ड़ड़याँ तोड़ीं और माँग का लसिं र पोंछा। रमेश ने वपता का अंततम संस् कार ककया। क्स्रयाँ रीता से तरह-तरह के प्रश् न करती थीं, परंतु वह कोई उत्तर न िेती थी। कियाकमभ इत् यादि में रायबहािरु के सजातीय, नात-ेररश् तिेार आदि बहुत कम आए। ब्रह्मभोज में गरीबी से एकिम ट टे हुए ब्राह्मण ही आए। ककसी प्रकार कियाकमभ समाप् त हुआ। रमेश के वहाँ से चलने का समय आया।

    मैंने रायबहािरु के अंततम पर के अनुसार संभ्ांत

  • मुहल् लेवालों के साथ रीता-रमेश को बुलाकर सबके सामने उनका वह अंततम पर पढ़ा और वह तककया, जो मुहरबंि पेटी में मैंने रखवा दिया था, खुलवाया। फुल् ली और नौकरों को रायबहािरु की इच् छानुसार रुपये िे दिए गए। रायबहािरु की अंततम माँग पर रीता का तनणभय सुनने के ललए हम सभी उत् सकु बैठे थे। रीता बोली, "मैं धमभ और ईश् वर के सम् मखु सच्चररर ह ँ। मैंने अपने तन-मन से उन् हें सिा ससुर ही माना। धालमभक कान न की क्जस मजब री से उन् होंने मुझे अपनी पत् नी बनाया था, उसे मैंने ववचधवत उनकी लाश को सौंप भी दिया। उनकी च ड़ड़याँ, उनका लसिं र उन् हें सौंपा, लेककन मेरी च ड़ड़याँ, मेरा लसिं र अिय है।" कहकर उसने िेर से अपने हाथ के नीच ेिबी हुई रूमाल की पोटली को उठाया, उसमें हरी च ड़ड़याँ थीं और एक चाँिी की ड़डबबया थी। च ड़ड़याँ पहनीं और ड़डबीया खोलकर रमेश की और रखत े हुए बोली, "क्जन् होंने मेरी गोि भरी है, उन् होंने मेरी माँग भी भरी है - लीक्जए मेरी माँग भर िीक्जए।"

    रमेश ने रीता की माँग में लसिं र की रेखा खींच िी। कफर रीता बोली, "घर के संबंध में मुझ ेकेवल यही कहना है कक अगर आप पाँच पंच मुझे िशु् चररर मानत ेहों तो उसे धमभशाला बना िीक्जए।"

    हममें से कोई खम ठोंककर एकाएक यह नहीं कह पाया कक रीता िशु् चररर है। मैंने अनुभव ककया कक सभी के मनों को इस प्रश् न से धत का लगा था। अपने परंपरागत धालमभक, सामाक्जक संस् कारों के कारण हम रीता को सचरररा मानने से भी मन ही मन दहचकत ेथे, पर यों त या कहें।

    रीता हमारी दहचक पर एक बार कहकर उठ गई। उसने कहा, "मुझ े रायबहािरु साहब का घर और

    िस हजार रुपये पाने की इच् छा नहीं। मेरे पतत ने मुझ ेसुहाग की छाँव िे रत खी है। लेककन मैं आपके सामने कसौटी रखती ह ँ - बोललए घर ककसका है?"

    घर को छोड़कर बाकी सब सामान के साथ रमेश, रीता और उनके बच् च ेदिल् ली चले गए। हम अभी तक कोई तनणभय नहीं कर पाए। घर की चाभी मेरे पास है। वह तोले डढ़े का लोहे का टुकड़ा इस समय मेरे मन-प्राणों का बोझ बना हुआ है।

    ("एक दिल हजार अफसाने" से श्री सुनील कुमार श्रीवास्तव, वररष्ट प्रबधंक (राजभाषा) द्वारा संकललत)

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    एक श्रदधांजशल - बबस्स्मल्ला खा़ाँ

    भारत रत्न सम्मातनत बबक्स्मल्ला खाँ (जन्म- 21 माचभ 1916 – मतृ्यु- 21 अगस्त, 2006) एक प्रख्यात शहनाई वािक थे। 1969 में एलशयाई संगीत सम्मेलन के रोस्टम पुरस्कार तथा अनेक अन्य पुरस्कारों से सम्मातनत बबक्स्मल्ला खाँ ने शहनाई को भारत के बाहर एक पहचान प्रिान की।

    जीवन पररचय 1916 में बबहार के डुमरांव में जन्मे उस्ताि बबक्स्मल्ला खाँ ववश्व के सवभशे्रष्ठ शहनाईवािक माने जात ेहैं। बबक्स्मल्ला खाँ के परिािा शहनाई नवाज़ उस्ताि सालार हुसैन खाँ से शुरू यह पररवार वपछली पाँच पीदढ़यों से शहनाई वािन का प्रततपािक रहा है। खाँ को उनके चाचा अली बतश

  • ‘ववलायतु’ ने संगीत की लशिा िी, जो बनारस के पववर ववश्वनाथ मक्न्िर में अचधकृत शहनाई वािक थे। बबक्स्मल्ला खाँ ने जदटल संगीत की रचना, क्जसे तब तक शहनाई के ववस्तार से बाहर माना जाता था, में पररवद्भधन करके अपनी प्रततभा का प्रिशभन ककया और शीघ्र ही उन्हें इस वाद्य से ऐसे जोड़ा जाने लगा, जैसा ककसी अन्य वािक के साथ नहीं हुआ। उस्ताि बबक्स्मल्ला खाँ ने भारत के पहले गणतंर दिवस समारोह की प वभ संध्या पर नई दिल्ली में लाल क़िले से अत्यचधक ममभस्पशी शहनाई वािक प्रस्तुत ककया। उन्होंने अफ़ग़ातनस्तान, य रोप, ईरान, इराक, कनाडा, पक्श्चम अफ़्रीका, अमेररका, भ तप वभ सोववयत संघ, जापान, हांगकांग और ववश्व भर की लगभग सभी राजधातनयों में प्रिशभन ककया है। मज़हबी लशया होने के बावज़ ि खाँ ववद्या की दहन्ि िेवी सरस्वती के परम उपासक हैं। बनारस दहन्ि ववश्वववद्यालय और शांतततनकेतन ने उन्हें डॉतटरेट की मानि उपाचध प्रिान की है। शहनाई ही बेगम और मौशसकी

    भारतीय शास्रीय संगीत और ससं्कृतत की कफजा में शहनाई के मधुर स्वर घोलने वाले प्रलसद्ध शहनाई वािक बबक्स्मल्ला खान शहनाई को अपनी बेगम कहत ेथे और संगीत उनके ललए उनका प रा जीवन था। पत्नी के इंतकाल के बाि शहनाई ही उनकी बेगम और संगी-साथी िोनों थी, वहीं संगीत हमेशा ही उनका प रा जीवन रहा। उस्ताि बबक्स्मल्ला के नाम के साथ भी दिलचस्प वाकया जुड़ा है। उनका जन्म होने पर उनके िािा रस ल बख्श खान ने उनकी तरफ िेखत ेहुए बबक्स्मल्ला कहा, इसके बाि उनका नाम बबक्स्मल्ला ही रख दिया गया। उनका एक और नाम कमरूद्िीन था। उनके प वभज बबहार के भोजपुर रजवाड़ ेमें िरबारी संगीतकार थे। उनके वपता पैंगबर खान इसी प्रथा से जुड़ते हुए डुमराव ररयासत के महाराजा केशव प्रसाि लसहं के िरबार

    में शहनाई वािन का काम करने लगे। छह साल की उम्र में बबक्स्मल्ला को बनारस ले जाया गया। यहां उनका संगीत प्रलशिण भी शुरू हुआ और गंगा के साथ उनका जुड़ाव भी। खान काशी ववश्वनाथ मंदिर से जुड़ े अपने चाचा अली बख्श ‘ववलायतु’ से शहनाई वािन सीखने लगे। खान के ऊपर ललखी एक ककताब ‘सुर की बारािरी’ में लेखक यतीन्र लमश्र ने ललखा है, ‘खां कहत ेथे कक संगीत वह चीज है, क्जसमें जात-पात कुछ नहीं है। संगीत ककसी मजहब का बुरा नहीं चाहता।’ ककताब में लमश्र ने बनारस से खान के जुड़ाव के बारे में भी ललखा है। उन्होंने ललखा है, ‘खान कहत ेथे कक उनकी शहनाई बनारस का दहस्सा है। वह क्जंिगी भर मंगलागौरी और पतका महल में ररयाज करत ेहुए जवान हुए हैं तो कहीं ना कहीं बनारस का रस उनकी शहनाई में टपकेगा ही।

    स्वतंत्रता दिवस पर शहनाई

    भारत की आजािी और खान की शहनाई का भी खास ररश्ता रहा है। 1947 में आजािी की प वभ संध्या पर जब लालककले पर िेश का झंडा फहरा रहा था तब उनकी शहनाई भी वहां आजािी का संिेश बांट रही थी। तब से लगभग हर साल 15 अगस्त को प्रधानमंरी के भाषण के बाि बबक्स्मल्लाह का शहनाई वािन एक प्रथा बन गयी। खान ने िेश और ितुनया के अलग अलग दहस्सों में अपनी शहनाई की ग ंज से लोगों को मोदहत ककया। अपने जीवन काल में उन्होंने ईरान, इराक, अफगातनस्तान, जापान, अमेररका, कनाडा और रूस जैसे अलग-अलग मुल्कों में अपनी शहनाई की जािईु धुनें बबखेरीं।

  • फ़िल्मी स़िर

    बबक्स्मल्ला खाँ ने कई कफल्मों में भी संगीत दिया। उन्होंने कन्नड़ कफल्म ‘सन्नािी अपन्ना’, दहिंी कफल्म ‘ग ंज उठी शहनाई’ और सत्यजीत रे की कफल्म ‘जलसाघर’ के ललए शहनाई की धुनें छेड़ी। आखखरी बार उन्होंने आशुतोष गोवाररकर की दहन्िी कफल्म ‘स्विेश’ के गीत ‘ये जो िेश है तरेा’ में शहनाई की मधुर तान बबखेरी थी।

    संत संगीतकार संगीतकारों का मानना है कक उस्ताि बबक्स्मल्लाह खान साहब की बिौलत ही शहनाई को पहचान लमली है और आज उसके वविेशों तक में िीवाने हैं। वो ऐसे इंसान और संगीतकार थे कक उनकी प्रशंसा में संगीतकारों के पास भी शब्िों की कमी नज़र आई। पंड़डत जसराज हों या हररप्रसाि चौरलसया सभी का मानना है कक वो एक संत संगीतकार थे। सम्मान एवं पुरस्कार

    सन 1956 में बबक्स्मल्लाह खाँ को संगीत नाटक अकािमी, सन 1961 में उन्हें पद्म श्री, सन 1968 में उन्हें पद्म भ षण, सन 1980 में उन्हें पद्म ववभ षण, 2001 में उन्हें भारत रत्न और मध्य प्रिेश में उन्हें सरकार द्वारा तानसेन पुरस्कार से सम्मातनत ककया गया।

    ननधन

    बबक्स्मल्ला खान ने एक संगीतज्ञ के रूप में जो कुछ कमाया था वो या तो लोगों की मिि में खचभ हो गया या अपने बड़े पररवार के भरण-पोषण में। एक समय ऐसा आया जब वो आचथभक रूप से मुक्श्कल में आ गए थे, तब सरकार को उनकी मिि के ललए आगे आना पड़ा था। उन्होंने अपने

    अंततम दिनों में दिल्ली के इंड़डया गेट पर शहनाई बजाने की इच्छा व्यतत की थी लेककन उस्ताि की

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    मैनेजमेंट गुरू स्टीफन कोवे के शसदधांत

    एडवडभ ड े बोनो, पीटर एफ ड्रकर और कफललप कोटलर इन सबमें कौन-सी बात समान है? ये सब ऐसे लीडर हैं, क्जनके कामों ने कुछ वषों में ितुनयाभर में बबजनेस करने के तौर-तरीकों को बिल दिया है। इनकी पुस्तक "बबजनेस गुरु िैट चेंज्ड ि वल्डभ" में सभी बड़ े मैनेजमेंट गुरुओं के लसद्धांतों को शालमल ककया गया है। यहां हम इस ककताब से मैनेजमेंट गुरू स्टीफन कोवे के लसद्धांतों को िे रहे हैं, क्जन्हें आप नौकरी या बबजनेस िोनों जगह अमल में लाया जा सकता है। पहल करें पररक्स्थततयों के लशकार न बनें। ववलभन्न कायभिमों और उत्पन्न क्स्थततयों को अपने तनयंरण में बनाए रखने के ललए नए तरीकों

  • को आजमाएं। अपनी िमताओं का ववस्तार करें। आप पहल करने में आगे रहत ेहैं या पररक्स्थततयों के लशकार बनत े हैं, इसकी जांच करने के ललए स्टीफन अपने वातयों पर ध्यान िेने के ललए कहते हैं। मैं ऐसा ही ह ं, मैं इसमें कुछ भी नहीं कर सकता, उसने मुझे पागल बना रखा है, मैं भावनाओं पर काब नहीं रख पाता, मुझ े यह काम करना पड़ता है, मुझ ेखुि से कुछ करने की स्वतंरता नहीं है आदि वातय आपको पररक्स्थततयों का लशकार बतात े हैं। यदि आपके साथ ऐसा है तो इस पर ध्यान िें। पहले समझों और फफर समझ ववकशसत करें इस आित पर पकड़ बनाने का सबसे अच्छा तरीका है कक आप सुनें। स्टीफन कहते हैं, अपने सहयोचगयों, पररवार, िोस्तों, ग्राहकों को सुनें, पर आपका उद्िेश्य उनकी बात का जवाब िेना, उन्हें अपनी बात से सहमत कराना या जोड़-तोड़ करना नहीं होना चादहए। ि सरों को सुनें, तयोंकक आप जानना चाहते हैं कक ि सरे लोग क्स्थततयों को ककस तरह िेखत े हैं। यहां समानुभ तत का कौशल ववकलसत करना जरूरी है। ि सरे के स्तर पर जाकर बातों को सुनने का अथभ यह नहीं है कक आप उनकी बातों से सहमत हैं। इसका मतलब ि सरों को बौद्चधक व भावनात्मक स्तर पर समझना है। आपसी तालमेल यह शब्ि गलत अथभ ग्रहण कर लेता है, जब आप इसे अचधक कीमतों पर अचधग्रहण की नीततयों के तौर पर इस्तमेाल करत े हैं। स्टीफन आपसी तालमेल में रचनात्मक सहयोग के लसद्धांत पर जोर िेने की बात करत े हैं। उनके अनुसार ववलभन्न टुकड़ों में बंटे होने से बेहतर है उसे प णभ रूप में हालसल करना। ऐसी नीतत में व्यक्तत अपने से जुड़ े हर पि की उपयोगी ििताओं और

    संभावनाओं को साथ लेने और इस्तमेाल करने पर जोर िेता है। इस आित का ववस्तार करने पर नतीजे 2+2 =4 न होकर पांच से अचधक लमलत ेहैं। जो काम पहले करना जरूरी है, उसे पहले करें इस आित का ववकास करने पर आप स्व-प्रबंधन सीखत ेहैं। जो चीज पहले की जानी है, उसे पहले करना यह खुि को व्यवक्स्थत करने का सही तरीका है। मुख्य चीजें तया हैं, उनका तनणभय करना और उनका प्रबंधन करना एक तरह से अपनी योजना को कियाक्न्वत करने के ललए जरूरी अनुशासन का पालन करना है। ऐसे में आप अपने कामों को चार भागों में बांट लें। महत्वप णभ, गैर महत्वप णभ, तुरंत ककए जाने वाले कायभ, महत्वप णभ पर बाि में ककए जा सकने वाले कायभ। इस तरह कामों को प्रभावी ढंग से कर सकें गे। जीत और केवल जीत

    स्टीफन कहत ेहैं जीत और लसफभ जीत के बारे में ही सोचें। इससे मानवीय सबंंधों का आधार तय होता है। जीत-जीत के अलावा जीत-हार, हार-जीत, हार-हार की शे्रणी बनती है। वह कहत े हैं, जब नजररया जीत-जीत का होता है, तब आपका आशय होता है कक मैं जीतना चाहता ह ं और मैं ि सरे पि की भी जीत चाहता ह ं। यदि आप ि सरे पि के

  • साथ अपनी बातचीत को इस क्स्थतत में नहीं बाटं पात े हैं तो उसके साथ इस बात पर सहमत हो जाएं कक कफलहाल डील नहीं हो सकती। भववष्य में यदि क्स्थतत बनेगी तो ऐसा करेंगे। जीत-जीत वाली शे्रणी में सभी के ललए फायिे की संभावनाएं तनदहत होती हैं। सफलता साम दहक सोच के साथ सहज रूप से आगे बढ़ती है। इसमें डील ककसी एक की जीत या हार पर आधाररत नहीं होती। आरी की धार तजे करें स्टीफन इस आित को एक कहानी से समझात ेहैं, क्जसके अनुसार भले ही आपको लकड़ी काटने का काम करत े हुए वषो हो गए हों, पर यदि आप बीच-बीच में बे्रक लेकर आरी की धार को तजे नहीं करत ेतो वही काम करने में आपको अचधक समय लगेगा। कहने का आशय है कक आप खुि को आरी मानत े हुए बीच-बीच में बे्रक लेकर खुि को ववकलसत करने पर ध्यान िें। अपने काम करने के तरीकों में नयापन ववकलसत करें। शुरुआत अंनतम पररणाम को सोचत े हुए करें यहां स्टीफन तनजी स्तर पर खुि को तैयार करने और अपनी तनजी योजनाओं को ववकलसत करने पर जोर िेत ेहैं। इसे वह पसभनल लीडरलशप का नाम िेत ेहैं, क्जससे व्यक्तत पररक्स्थततयों का लशकार न बन कर खुि को सही दिशा की ओर बढ़ाने के ललए तत्पर रहता है। इस आित का ववकास करने पर व्यक्तत अपनी समस्त ऊजाभ को अपने अंततम लक्ष्यों की ओर ले जाने वाली गततववचधयों पर लगा पाता है। आप ववलभन्न ववकल्पों में उलझत ेनहीं हैं। खुि को अचधक उत्पािक और सफल बनने की प्रकिया की ओर ले जात ेहैं।

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    ग़जल दिन सलीके से उगा रात दिकाने से रही

    दिन सलीके से उगा रात दठकाने से रही िोस्ती अपनी भी कुछ दिन ज़माने से रही

    चंि लम्हों को ही बनती हैं मुसाववर आँखें क्ज़न्िगी रोज तस्वीर बनाने से रही

    इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला िेगी रात जंगल में कोई शमा जलाने से रही

    फासला चाँि बना िेता है पत्थर को ि र की रौशनी नज़िीक आने से रही

    शहर में सब को कहाँ लमलती है रोने की फुसभत अपनी इज्ज़त भी यहाँ हंसने-हंसाने से रही..

    - प्रशसदध शायर - ननिा फाज़ली

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  • राजभाषा समाचार औपचाररकता से आगे ननकलकर मन से राजभाषा में कायि करें - िॉ. संजय कुमार

    वेकोशल में "पारंगत" पाठ्यक्रम का प्रारंभ

    दिनांक 25 जुलाई, 2016 को वेस्टनभ कोलफील्ड्स लललमटेड (वेकोलल) मुख्यालय के मानव संसाधन ववकास ववभाग में वेकोलल के राजभाषा ववभाग के तत्वावधान में केन्रीय दहन्िी प्रलशिण संस्थान, राजभाषा ववभाग, गहृ मंरालय, भारत सरकार के सौजन्य से "पारंगत" पाठ्यिम का ि सरा सर (जुलाई-नवम्बर 2016) का प्रारम्भ ककया गया।

    इस अवसर पर वेकोलल के तनिेशक (कालमभक) डॉ. संजय कुमार मुख्य अततचथ के रूप में उपक्स्थत रहे। इस अवसर पर डॉ. संजय कुमार ने कहा कक, भाषा सरल, सहज और बोधगम्य होनी चादहए। उन्होंने प्रततभाचगयों को राजभाषा दहिंी में अचधक-से-अचधक कायभ करने की बात पर बल दिया। आगे उन्होंने कहा कक, हमें औपचाररकता से आगे तनकलकर मन से राजभाषा में कायभ करना चादहए। उन्होंने कहा कक, हमें धीरे-धीरे सीखने की प्रकिया को जारी रखत े हुए अपने शब्ि भंडार में श्रीवदृ्चध करते रहना चादहए। इसके ललए सतत अभ्यास की आवश्यकता है। डॉ. कुमार में कफल्मों, सोशल मीड़डया और बाजारवाि में बढ़ रहे दहिंी भाषा के चलन और रोजगार की संभावनाओं पर भी चचाभ की।

  • केन्रीय दहन्िी प्रलशिण संस्थान, नागपुर के प्राध्यापक डॉ. सोमपाल लसहं कलमभयों को "पारंगत" का प्रलशिण प्रिान करेंगे। इस पाठ्यिम में कायाभलयीन दहिंी का स्वरूप एवं पाररभावषक शब्िावली, प्रशासन, ववत्त, बैंककंग, ववज्ञान एवं प्रौद्योचगकी जैसे ववषयों की ववस्ततृ जानकारी िी जाएगी। ज्ञातव्य हो कक, जनवरी-ज न 2016 के प्रथम सर में वेकोलल कलमभयों का उत्तीणभ प्रततशत लगभग 90 प्रततशत रहा था।

    इस अवसर पर तनिेशक (कालमभक) के तकनीकी सचचव एवं वररष्ठ प्रबंधक श्री एम. वी. मुरलीधरन, प्रबंधक (राजभाषा/सचचवीय) श्री चतेन यािव, एम.डी.आई. के प्राचायभ श्री वी. के. झा., सहायक प्रबंधक (राजभाषा) डॉ. मनोज कुमार, ववलभन्न ववभागों के प्रततभागीगण (अचधकारी/कमभचारीगण) ववशेष रूप से उपक्स्थत रहे।

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    तात्काशलक राजभाषा शलखखत प्रनतयोगगता

    कायाभलय के अचधकाररयों और कमभचाररयों में दहिंी के प्रतत रूचच और रूझान पैिा करन े के ललये तथा कायाभलय में दहिंी के प्रगामी प्रयोग में तजेी लाने के उद्िेश्य से दहिंी प्रततयोचगताओं का आयोजन वेकोलल मुख्यालय में जारी है।

    इसी की अगली कड़ी में अगला किम बढ़ात ेहुए राजभाषा ववभाग की ओर से ववगत जुलाई, 2016 को मुख्यालय के कालमभक (ईई) और सुरिा एवं संरिण ववभाग के अचधकाररयों एवं कमभचाररयों के बीच तात्काललक राजभाषा ललखखत प्रततयोचगता का आयोजन ककया गया। इस आयोक्जत प्रततयोचगता में ववभाग से संबंचधत दटप्पणी, वातयांश एवं शब्िावली प छी गयी। इस प्रततयोचगता में ववभाग के अचधकाररयों एवं कमभचाररयों ने सहषभ दहस्सा लेकर अपनी सहभाचगता िजभ की।

  • इस ललखखत प्रततयोचगता में श्री राजेश दिवेिी, वररष्ट प्रबंधक (कालमभक), श्री तनलेश डोंगरे, डाटा एंट्री ऑपरेटर एवं श्रीमती श्वेता स यभवंशी, ललवपक गे्रड-II को िमश: प्रथम, द्ववतीय एवं ततृीय स्थान प्राप्त ककए।

    ववजेताओं को मुख्यप्रबंधक (कालमभक), कालमभक ववभाग के श्री ए. के. लसहं, और वररष्ट प्रबंधक (राजभाषा) श्री सुनील कुमार श्रीवास्तव ने उप प्रबंधक (राजभाषा/सचचवीय) श्री चतेन यािव एव ं ववभाग के अचधकाररयों/ कमभचाररयों की गररमामय उपक्स्थतत नकि पुरस्कार िेकर पुरस्कृत ककया।

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