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77 () वतं भारत और सािह᭜य के मान का ᮧ वतं भारत और सािह᭜य के मान का ᮧ से ता᭜पयᭅ है सन् 1947 . के बाद बदलते मानव-मू᭨य और जीवन-दृि के साथ सािह᭜य मᱶ जो बदलाव आया उसके माप- तौल का पैमाना । वतंता के बाद सामािजक संबंधᲂ तथा िवचारᲂ मᱶ पᳯरवतᭅन ᱟआ, िजसके चलते सािह᭜यकार के िवचार मᱶ भी पᳯरवतᭅन पᳯरलिᭃत ᱟए, साथ ही सािह᭜य के मानदंड़ बदले और पाठक तथा िवचारक के भाव, िवचार एवं अनुभूित मᱶ भी बदलाव देखने को िमला । िशवहान ᳲसह चौहान का मानना है – “वतंता के बाद, दुभाᭅय से , मन और जीवन कᳱ गितयाँ िवपरीत ᳰदशा मᱶ चलने लगᱭ । जीवन तो आगे बढ़ा , यᲂᳰक राजनीितक वतंता ही जीवन का लय नहᱭ था। लेᳰकन मन और बुि धोखा खा गए। कुछ लोग वतंता को ही अंितम मंिजल समझ कर आगे बढ़ने से ᱨक गए । 1 वतंता पूवᭅ लोगᲂ के मन मᱶ जो उ᭨लास और उमंग थी उसपर पानी ᳰफर गया । भारत वतं होने के बाद भी सब कुछ पुराना ही है , नया कुछ भी नहᱭ ᱟआ, केवल शासक बदला इस तरह धीरे -धीरे वाथᭅ बढ़ता गया । बुिजीिवयᲂ मᱶ संघषᭅ ᱟआ । वतंता असल मᱶ दािय᭜व है , वह सᱫा का उपभोग नहᱭ, न मंिजल कᳱ ᮧाि। वाᳶथयᲂ पर न केवल आम जनता कᳱ दृि थी, बि᭨क सािह᭜यकार भी उनसे ᱨ थे । सािह᭜यकार के साथ-साथ आलोचक भी ᮧितब है । सािह᭜य के मान मू᭨यᲂ का ᮧ उठाते ᱟए िशवदान ᳲसह चैहान ने िलखा है – “वाथᭅ का संघषᭅ ᭃण थायी है , अिधक ᳰदन नहᱭ चलेगा बुिजीिवयᲂ और सािह᭜यकारᲂ को अपना ᮪म छोड़कर वातिवकता से आँखᱶ दो -चार करनी ही पड़ेगी और युग कᳱ कᱶीय समयाᲐ को ᮧितᳲबिबत करने के िलए जीवन स᭜य से जूझना पड़ेगा । इसिलए नए भारत मᱶ सािह᭜य के मान-मू᭨यᲂ का ᮧ उठाना अब

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    (क) वतं भारत और सािह य के मान का

    वतं भारत और सािह य के मान का से ता पय ह ै– सन ्1947 ई. के बाद

    बदलते मानव-मू य और जीवन-दिृ के साथ सािह य म जो बदलाव आया उसके माप-

    तौल का पैमाना । वतं ता के बाद सामािजक संबंध तथा िवचार म प रवतन आ,

    िजसके चलते सािह यकार के िवचार म भी प रवतन प रलि त ए, साथ ही सािह य

    के मानदड़ं बदले और पाठक तथा िवचारक के भाव, िवचार एवं अनुभूित म भी बदलाव

    दखेने को िमला । िशवहान सह चौहान का मानना ह ै– “ वतं ता के बाद, दभुा य से,

    मन और जीवन क गितयाँ िवपरीत दशा म चलने लग । जीवन तो आगे बढ़ा, य क

    राजनीितक वतं ता ही जीवन का ल य नह था। ले कन मन और बुि धोखा खा गए।

    कुछ लोग वतं ता को ही अंितम मंिजल समझ कर आगे बढ़ने से क गए ।”1 वतं ता

    पूव लोग के मन म जो उ लास और उमंग थी उसपर पानी फर गया । भारत वतं

    होने के बाद भी सब कुछ पुराना ही ह,ै नया कुछ भी नह आ, केवल शासक बदला ।

    इस तरह धीरे-धीरे वाथ बढ़ता गया । बुि जीिवय म संघष आ । वतं ता असल म

    दािय व ह,ै वह स ा का उपभोग नह , न मंिजल क ाि । वा थय पर न केवल आम

    जनता क दिृ थी, बि क सािह यकार भी उनसे थे । सािह यकार के साथ-साथ

    आलोचक भी ितब ह ै । सािह य के मान मू य का उठाते ए िशवदान सह

    चैहान ने िलखा ह ै – “ वाथ का संघष ण थायी ह,ै अिधक दन नह चलेगा ।

    बुि जीिवय और सािह यकार को अपना म छोड़कर वा तिवकता से आँख दो-चार

    करनी ही पड़ेगी और युग क क ीय सम या को ित बिबत करने के िलए जीवन स य

    से जूझना पड़ेगा । इसिलए नए भारत म सािह य के मान-मू य का उठाना अब

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    अिनवाय हो गया ह ै ।”2 आगे मधुरेशजी िलखते ह – “ वाधीन भारत म सािह य के

    मान-मू य का सवाल उठाते ए िशवदान सह चौहान ि वादी और कंु ठत मानव

    क ित ा के थान पर ‘पूणमानव’ क ित ा पर बल दतेे ह।”3 चौहानजी न े

    छायावादी का म ि वाद को रा ीय चेतना और वधीनता से जोड़ा ह ैऔर

    योगवादी का म ि वाद को ि क कंुठा और अहमं वृि से जोड़ा

    ह।ै उनक दिृ उन सािह यकार क ओर ह,ै जो ि से ऊपर उठकर रा क

    सम या एवं समाधान क ओर और उ ित के िलए सदवै अ सर है । वा तव म समाज

    के िवकास म रा क गित आव यक ह ै और रा तभी उ त हो सकता ह,ै जब

    सामािजक, आ थक, राजनैितक और सािहि यक आ द क उ ित हो ।

    जैसा क पहले कहा जा चुका ह ै वतं ता मा राजनीितक प रवतन नह ह ै ।

    शासन बदल जाने से लोग वतं नह हो जाते, उसके िलए भाव बदलना होगा, िवचार

    बदलना होगा और ईमानदारी बरतनी होगी । िशवदान सह चौहान का मानना ह ै–

    “राजनीितक पा टयाँ या सरकार बदल सकती ह, ले कन नए भारत के बनने के म म

    फक नह आ सकता – हर पाट को अपने अि त व क र ा के िलए नए भारत के

    िनमाण का बीड़ा उठाना होगा, और ईमानदारी से उसके िनमाण म भाग लेना होगा,

    नह तो इितहास उसे िमटा दगेा । भगवान चाहे धिनक और शि मान का ही साथ

    दतेा हो, ले कन इितहास इतना अंधा और प पाती नह ह,ै य क इितहास का िनमाण

    मनु य करते ह । इितहास क या मानव गित क या ह,ै इसिलए उसक

    कसौटी भी मानव गित ही ह ै। इस कसौटी पर जो पाट , रा य, वग, स यता, ि

    या िवचार खोटा िस होगा, उसे इितहास अंतत: िमटा दगेा, इसम संदहे नह । हमारा

    मानव समाज के दीघकालीन इितहास का अनुभव यही बताता ह ै।”4 इितहास का संबंध

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    अतीत से है । दसूरी ओर हर ि अपना इितहास रचता ह ै । इितहास का योग

    अतीत क घटना के िववरण के थान पर वयं अतीतकालीन घटना और ि य

    के िलए भी होता ह,ै जैसे- महा मा गांधी ने भारत के नये इितहास का िनमाण कया ।

    ि के ि व के आधार पर उसका इितहास बनता ह।ै इितहास को ि बदल

    नह सकता । इितहास क हर घटना नयी होती ह ै । नई व था के िनमाण के िलए

    क ठन प र म क आव कता ह ै । सािह यकार हो या कसान अपनी शि का उिचत

    उपयोग जब तक नह करता ह,ै तब तक वह लक र का फक र बना रहता ह ै । नय े

    भारत के िनमाण के िलए जनता क गरीबी, िपछड़ापन, अिश ा और भेद-भाव को

    यागना होगा । मनु य जीवन क िवकृि य , अभाव को दरू करना पड़ेगा । इस बात

    को िशवदान सह चौहान ने िलखा ह ै– “धरती के िजस बंजर च पे पर हल चलता ह,ै

    वह उसके िलए िव लव, ांित, प रवतन सब कुछ होता ह ै। ले कन वह अंतत: िनमाण

    क या का ही अंग ह ै। उसक उधेड़ी ई िम ी क ताजी गंध म भी अ के भावी

    अंकुर क संभावना िछपी होती ह ै । यह सब हल जोतने वाले को दीखता ह ै । उसका

    ल य प होता ह ैऔर यह ल य उसे अपनी ि गत क ठनाईय और अभाव से

    ऊपर उठकर भूिम को उवर बनाने म अपनी सम त शि लगा दनेे क ेरणा दतेा है ।”5

    अत: आलोचक सािह य के उवरक भूिम तैयार करता ह ै।

    आधुिनक काल ांितकारी प रवतन का युग है । राजनीितक दिृ से अँ जे के

    ित भीषण यु , सामािजक दिृ से वण भेद का समापन(परंतु शोिषत और शोषण वग

    का उदय), धा मक दिृ से मानव धम क थापना, सां कृितक दिृ से अनेक सं कृितय

    क धानता तथा सािहि यक दिृ से जनसाधारण का सािह य । वतं ता के बाद हर

    प रि थित म प रवतन आया और उसका सीधा भाव सािह य पर पड़ा । िशवदान सह

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    चौहान ने प िलखा ह ै– “आज के ितकूल प रि थितय म रा ीय-सां कृितक जीवन

    एक ं यपूण हक कत बन गया ह,ै िजसम उ को ट का सािह य और कला का फलता-

    फूलता संभव नह दखता । इसिलए तृतीय उ थान के लेखक और कलाकार को पा ा य

    दशे क ासो मुखी सामियक वृि य का आकषण छोड़ यथाथ जनजीवन के स य को

    उ ा टत करने वाली े कलाकृितय का िनमाण भी करना ह ैऔर अनुकूल सां कृितक

    जीवन के िलए संघष भी ।”6 य द यह कहा जाता रहा ह ै क ‘सािह य समाज का दपण

    ह।ै’ तो यह भी कहना अनुिचत न होगा क ‘सािह य जनसाधारण का दपण ह।ै’ समाज

    और जनसाधारण म अंतर प करना ब त क ठन काय ह ै। पारंप रक अवधारणानुसार

    समाज मुखत: बुि जीवी, सा र तथा रीित-नीित का पालन करने वाला समुदाय ह,ै

    तो जनसाधारण आम ि , िनर र, तथा यह भी कह सकते ह क इसम बुि जीवी भी

    हो सकते ह और बुि हीन भी । आचाय रामचं शु ल ने अपने हदी सािह य के

    इितहास म सािह य को प रभािषत करते ए जनता क िच वृि य क बात क है ।

    आजादी िमलने के पहले सािह य और जनता को लेकर ब त िववाद हो रहा था । किव

    अगामी कल के िलए जीता ह।ै कहने का ता पय यह है क किव त कालीन जनता को

    उतने प म जाग क नह बना पाता िजतने क आव यकता ह ै । यहाँ यह प हो

    जाना चािहए क इस समय भारतवष अं जेो का गुलाम था, गुलामी मानिसकता को

    जगाने क ओर संकेत करते ए इन सब बात को हम कह सकते ह । त कालीन जनता

    ुधातुर, वास-िवहीन तथा व हीन हो चुक थी, िजसके कारण सािह य उनके िलए

    कसी काम का नह था । उनको समझाने के िलए एक मा रा ता भोजन, कपड़ा तथा

    अवास ही हो सकता ह ै। यह कोई सािह यकार उ ह नह द ेसकता । वे खुद उसके िलए

    अपनी ही मेहनत-मजूरी क आशा रखते ह । आचाय केसरी कुमार ने प िलखा ह ै–

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    “करोड़ भूखे लोग िसफ एक किवता माँनते ह – शि दायक भोजन । उ ह यह कोई दगेा

    नह । उ ह उसे कमाना ह।ै और इसे वे िसफ चोटी के पसीने से ही कमा सकते ह ।”7 यह

    बात स य ह ै क भूखे ि के िलए सािह य या, संसार क कोई व तु कसी मायने क

    नह ह ै। यह भी यान म रखना होगा क जनता क आड़ म िलखा जाने वाला सािह य

    कसके िलए िलखा जाता ह ै? सािह यकार िजसके िलए सािह य क रचना करता ह,ै वह

    उसका पाठक नह बनते । िशवदान सह चौहान का मानना ह ै– “ वाधीनता के बाद

    जीवन ने जो मोड़ िलया ह ैऔर हमारे आगे भावी िवकास क संभावना के जो ार

    खुले ह, उ ह ने जीवन-वा तव को यथाथ और मूत ढंग से ित बिबत करने के िलए

    सािह यकार के आगे कलािनमाण क नई सम याए ँपैदा पर दी ह, इस बात के ित

    कसी- कसी लेखक ने ही जाग कता दखाई ह,ै अ यथा अिधकांश लेखक वाधीनता से

    पहले के अपने पुराने ढर पर चल रहे ह । इसीिलए सािह य और जीवन क गित म

    वैष य दीखता है ।”8 इस समय का सािह य पूँजीपित वग, सेठ, राजनीित आ द के

    आ ोश से िलखा गया सािह य हा या पद बन जाता ह ै। यहाँ हम यह दखे सकते ह क

    सािह यकार समाज का एक िविश ि होता ह ैएवं पाठक मूलत: पूँजीपित, शासक,

    सेठ आ द होते ह और सािह य जनसाधारण का । जनसाधारण अपने िलए कसी कार

    क सहायता पाठक वग से नह ले सकता । सािह यकार जनसाधारण के ित सहानुभूित

    कट करता होगा, इसका अनुभव भी त कालीन जनसाधारण नह कर पाते । आचाय

    केसरी कुमार के अनुसार – “ ेरक पाठक ेमचंद के वा तिवक पाठक नह ए । ेमचंद

    के वा तिवक पाठक ब लांशत: वे थे िजनके िखलाफ ेमचंद ने िलखा । यह लेखक क

    िनयती ह ै।”9 िजस कार दिलत सािह य के बारे म िलखा गया ह ै क दिलत सािह य क

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    रचना वही कर सकते ह या उसका वही अिधकारी ह ैजो दिलत वग का होता ह,ै उसी

    कार भूखे का सािह य वही िलख सकता ह,ै जो भूखा हो । नागाजुन के संबंध म ‘एक

    काल पु ष का आदहे होना’ नामक लेख म काश भनु ने िलखा ह ै– “सही माने म वह

    जनता के किव ह, िज ह ने जीवन भर जनता के क ठन तप और अटूट जीवन से उ ह ने

    सािवत कया क आम जनता के छोटे-बड़े दखु और बचपन संघष से जुड़ा कोई जन

    किव ही इस युग का स ा महाकिव हो सकता ह ै ।”10 हर समय जनसाधारण के िलए

    सािह य िलखा गया, ले कन इसे दसूरे प म दखेा गया । कालांतर म सािह य का भी

    भेद कर दया गया – सािह य और प रिनि त सािह य । सािह य का रसा वादन हर

    ि करता ह ैचाह ेवह गरीब हो, धनी हो या गाँव का हो या शहर का । ले कन बात

    यह ह ै क गाँव के अिधकांश लोग अिशि त ह, वे उसे पढ़ कर रसा वादन नह कर पाते

    तथा आज का समय यह ह ै क उ ह पढ़कर कोई नह सुनाएगा । िशवदान सह चौहान

    और ि लोचन शा ी का समय नह ह,ै ये सोग अिशि त जनता के बीच भी सािह य का

    पाठ कया करते थे । नाटक सािह य क सव कृ िवधा ह ै । उसे भी आज तकनीक

    (टे ोलॉजी) या फ मी दिुनया म कोई मंचन नह कर के दखा रहा ह ै। िजससे जनता

    उसका आनंद ले सके । लोक गीत जनसाधारण म गा-गा कर पढ़ा जाता ह,ै जो भूखे

    ि भी उसे न चाहते ए एक ण के िलए सही उधर मुड़ जाता ह ै । य द कोई

    वातानुकूल (ए.सी.) म बैठ कर उपदशे दतेा हो तथा कोई घर-घर जाकर अपने तथा

    अपने समाज क भलाई क बात कहता हो, उसम जो फक ह ै वही फक सािह य या

    जनसािह य म ह ै । चाह ेपूँजीपित, शासक एवं बुि जीवी के िलए यह सािह य उतना

    मायने नह रखता हो पर वह उसक आधारशीला ह,ै उसे यान से देखना चिहए ।

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    िन कष - आज के लेखक भी अजीब दिुवधा म फँसा आ ह ै । वह इस

    जनसाधारण क तरह अपने तेज एलं मू य िच के कारण नह रह सकता और वै ािनक

    युग के अनेक महारिथय के साथ भी । इनक एक अपनी अलग दिुनया बनती जा रही है

    । परंपरा से कही गयी बात – सािह य, समाज और सािह यकार म अ यो याि त संबंध

    ह,ै का उ लंघन करते ए आज का सािह य, समाज तथा सािह यकार तीन तीन

    दशा म मण कर रह े ह । इनके बीच क खाई दरू करने के िलए आज एक बड़े

    ि व क कमी महसूस क जा रही ह।ै जो भी हो एकमा अपने ही िलए भाव का

    काशन भी एक ऐसी ही िनरथक बात ह ै। रचना वयं रचनाकार के िलए नह ह,ै यह

    मानना पड़ेगा और यह मानकर ही चलना पड़ेगा।

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    (ख) हदी सािह य के इितहास क सम या

    हदी सािह य के आिवभाव-काल को लेकर िव ान म मतभेद ह ै । िविभ

    इितहासकार ने िविभ मत तुत कया ह,ै कतु वै ािनक दिृ कोण से िवचार करने

    पर उनम से अिधकांश मत असंगत एवं ामक िस होते ह । बौि क िवकास,

    सािहि यक चेतना और नवीन शोध के प रणाम व प हदी सािह य के इितहास क

    सम या पर िवचार करना अ यंत आव यक ह ै । सािह य का इितहास कसी भी भाषा

    का हो सकता है । अत: भाषा ही सािह य के इितहास का रीढ़ है । इसिलए ‘ हदी’ श द

    का िव तृत िववेचन करना अनुिचत न होगा । गासा द तॉसी से लेकर ाय: सभी हदी

    सािह यकार ने समय-समय पर हदी भाषा के व प एवं िव तार पर गंभीर िववेचन

    कया ह,ै परंतु वे एकमत नह हो पाए । भाषा वै ािनक ने हदी भाषा का दो अथ

    लगाया ह ै । िव तृत अथ म शौरसेनी, मागधी, अ मागधी अप ंश से िनकली ई

    आधुिनक भाषाए ँएवं उपभाषा के समूह को तथा संकुिचत अथ म खड़ी बोली हदी,

    िजसे भारत सरकार ने आज रा भाषा या राजभाषा का प दान कया ह ै। इसे हम

    प रिनि त भाषा, मानक हदी आ द नाम से भी अिभिहत करते ह । िशवदान सह

    चौहान ने इस िवषय पर िव तृत िववेचन िव ेषण तुत कया ह,ै जो इस कार ह ै–

    “ हदी कसी एक भाषा का नाम नह ह,ै बि क शौरसेनी और अध-मागधी अप ंश से

    आठव -दसव शताि दय के बीच िवकिसत ई जनपदीय भाषा के समूह का नाम ह ै।

    इनम से कभी कसी भाषा या बोली का अिधक चार रहा तो कभी कसी का, फलत:

    सािह य के सहासन पर कभी राज थानी तो कभी मैिथली कभी अवधी तो कभी ज

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    आ ढ़ रही । इस कार िवशाल े क िविभ आधुिनक भाषा के सािह य के

    इितहास को एक ही पु तक म भावुकतापूवक संकिलत कर दनेे से सम प म आठव -

    दसव शता दी से हदी म सािह य िनमाण क धारा का अिवि छ वाह दखाना सुगम

    हो जाता ह ै। कतु जब वे आधुिनक या वतमान सािह य पर कलम उठाते ह तब उनक

    भावुकता का के भी बदल जाता ह ै। आधुिनक युग के आते ही ज, अवधी, मैिथली,

    राज थानी आ द भाषा म परंपरा से होते आए सािह य िनमाण क त कालीन चे ा

    के ित वे सहसा असिह णु हो उठते ह ।”11 िवकास और िव तार के प रणाम व प

    भाषा म प रवतन आ और सािहि यक भाषा के प म उथल-पुथल होता रहा तथा

    कभी कसी भाषा को तो कभी कसी को सािह य क मुखता िमलती रही । डॉ. ब न

    सह का मानना ह ै– “एक समय तो जभाषा पूरे हदी े क सािहि यक अिभ ि

    का मा यम बन चुक थी- िहमाचल से िवदभ और राज थान से असम तक । य द उसम

    ग िलखा जाता रहा होता तो खड़ी बोली का थान वही लेती ।”12 यह ठीक ह ै क

    जभाषा एक समय सािह यािभ ि म मुख थान ले चुक थी, पर यह कहना क

    उस भाषा म ग क संभावना नह थी या खड़ी बोली क अपे ा कम थी तो यह बात

    हा या पद जैसी लगेगी । िवचार , भाव एवं अनुभूितय क अिभ ि भाषा का मुख

    गुण ह ै , अत: सभी जनपद क भाषाएँ अपने आप म िवशेष थान रखती ह । यही

    कारण ह ै क सभी े ीय भाषाए ँएक- दसूरे से िभ ह, ले कन ल य सभी का एक ह ै।

    यह ठीक ह ै क एक जनपद क भाषा दसूरे जनपद के िलए दु ह एवं क ठन है ।

    राम व प चतुवदी के अनुसार – “ हदी े क 18 बोिलयाँ (पि मी हदी के अंतगत-

    खड़ी बोली, बाँग , जभाषा, कनौजी, बंुदलेी; पूव हदी म - अवधी, बघेली,

    छ ीगढ़ी; िबहारी म – मैिथली, मगही, भोजपुरी; राज थानी म मेवाती-अहीरवाड़ी,

  • 86

    मालवी, जयपुरी-हड़ौती, मारवाड़ी-मेवाड़ी; तथा पहाड़ी म पि मी पहाड़ी, म य

    पहाड़ी, पूव पहाड़ी = 18) ु पित क दिृ से अलग – अलग अप ंश से िवकिसत ई

    ह ै।”13 सािह यकार के िववेचन, िव ेषण एवं अ ययन को म य नजर रखते ए हदी

    के दोन प को वीकार कर लेना होगा । परंतु सम या तब उ प होती ह,ै जब

    सािह येितहासकार हदी सािह य के इितहास म आ द और म य काल तक हदी के

    िव तृत अथ का ( हदी के 18 े ीय बोिलय म से मुखत : ज, मैिथली, अवधी,

    राज थानी एवं खड़ी बोली का) योग करते ह, जब क आधुिनक काल के सािह य म

    मा खड़ी बोली का ही योग कया जाता ह ै।

    सािहि यक वृि य एवं सामािजक प रि थितय के प रवतन के साथ-साथ

    सभी जनपद क भाषा म प रवतन आया तथा समय के साथ वे सभी भाषाए ँअपना

    अि त व लेती रही, कोइ भाषा एकाएक ख म एवं चरम ि थित तक नह प चँी , न

    प चँ सकती ह ै। धीरे-धीरे ाय : सभी जनपदीय भषा म सािह य या लोक सािह य

    या जनसािह य क रचना होने लगी । लगभग सभी (जो िव तृत अथ के हदी क

    बोिलयाँ ह)ै े ीय भाषा का सािह य आज भी िलखा जा रहा ह,ै फर भी इसका

    हदी सािह य के इितहास म उ लेख नह कया गया ह ै। िशवदान सह चौहान ने प

    िलखा ह ै– “आधुिनक काल से पहले तक तो हम हदी भाषा-समूह का इितहास िलखते

    ह, ले कन आधुिनक काल आते ही हम संघ-भाषा हदी (खड़ी बोली का सं कृतिन

    सािहि यक प ) का इितहास िलखने लगते ह । पहले हमारी भावुकता हदी क परंपरा

    को दीघतम और िवशालतर दखाने म त होती ह ैऔर हदी भाषा समूह क कसी

    भाषा या बोली क एक भी रचना को इस इितहास परंपरा से िवलग करना बदा त नह

    करती कतु फर भी खड़ी बोली के सं कृतिन प म ही (खड़ी बोली का फ़रसीिन उद ू

  • 87

    प भी इसम सि मिलत नह कया जाता) सीिमत हो जाती ह ै।”14 कोई भाषा समाज

    क सम या एवं समाधान ढूढने म सफल हो जाती ह,ै तब वह अपने े िवशेष से जुड़ी

    न रह कर, पूरे रा क उपलि ध होती है । रा क अनेक े ीय (जनपदीय) भाषा के

    आधारिशला पर खड़ी हदी धीरे-धीरे अपनी वतं स ा थािपत करने लगी तथा आज

    के संदभ म इसने रा भाषा का प हण कया ह ै।

    हदी भाषा के संदभ म कन- कन भाषा एवं उपभाषा को थान दनेा

    चािहए, इस संबंध म चौहान जी का उपयु मत अ यंत मह वपूण ह ै। यह आ य क

    बात ह ै क हदी का नामकरण उसके आिवभाव से भी ब त पहले हो गया था । पाँचव –

    छठी शता दी म भारत को हद कहा जाता था । इकबाल के कथन को उ धृत करते ए

    डॉ. व न सह ने प िलखा ह ै– “ हदी का इितहास भी कम लंबा और रोचक नह ह ै।

    हदी के दो अथ ह – हद दशे का िनवासी और हदी भाषा । हद के नवािसय को

    इकबाल ने हदी कहा ह ै– हदी ह हम, वतन ह हदो ता हमारा । प है क हद से

    हदी बनी । पर हदी का इितहास भी अंधकार के गत म िछपा आ ह ै। यह क यह

    श द कब और कहाँ से आया, कैसे बना और कनके ारा यु आ आज भी समाधान

    क अपे ा रखता ह ै।”15 यह बात मान ली जाय तो हदी भाषा का व प प नह

    होगा । हद म एक ही जाित िनवास नह कर रही थी । अनेक जाित और सं दाय के

    लोग अपने धम, सं कृित एवं भाषा अ द के िवकास के िलए सतत य शील थे । हर

    जनपद के लोग अपनी जनपदीय भाषा म सािह य क रचना करते थे । अत: कहा जा

    सकता ह ै क सातव -आठव शता दी से लेकर उ ीसव शता दी तक का हदी सािह य

    िविभ जनपदीय भाषा का सािह य ह।ै आ य क बात तो यह है क सन् 1900 ई. के

  • 88

    बाद हदी सािह य के इितहास म केवल खड़ी बोली( हदी) के सािह य को रखा जाता ह,ै

    हालां क आज भी अ य जनपदीय भाषा ( ज, अवधी मैिथली भोजपुरी आ द) म

    सािह य क रचना हो रही ह ै। इसे हम सािह य के इितहास क सम या कह या हदी क

    उ कृ ता । आज िजस कार हदी भाषा पर अं ेजी श द एवं वा य का भाव पड़

    रहा ह,ै हो न हो हदी अपना अलग अि त व बना ले । हदी के सािह येितहासकार को

    इस स य क ओर यान दनेा होगा । िशवदान सह चौहान ने इितहासकार क ओर

    संकेत करते ए िलखा ह ै – “वह इितहासकार ही या जो चिलत धारणा और

    मतवाद के बा -आवरण को चीरकर स य का उ ाटन न कर सके या वयं उन

    मतवाद का च मा अपनी आँख पर चढ़ाकर इितहास को झुठला द ेया केवल इितवृ

    का सं ह करके छु ी पा ले ।”16 सािह येितहासकार को स य का उ ोधन करना होगा,

    अ यथा उन सारे सािह य को जो ज, अवधी, मैिथली, एवं भोजपुरी आ द जनपदीय

    भाषा म िलखे जा रह ेह, उनका हदी सािह य के अंतगत उ लेख कया जाय । अनेक

    िव ान का आ ेप ह ै क अमुक भाषा म अिभ जंना शि अिधक ह ैऔर अमुक म कम।

    यह एक म मा ह ै । ‘भाषा’ भाषा होती ह ै । वह अपने समाज के अनु प िवकिसत

    होती ह ैऔर िव तृत भी । भाषा अपने समाज एवं सं कृित का एक अंग होती ह ै। भाषा

    से समाज के मह व एवं िवकास का पता चलता ह ै। कोइ भाषा दबी एवं संकुिचत रह

    जाए तो उसम अिभ ंजना शि कम होगी और उस भाषा के सािह य का िवकास

    संभव नह हो पाएगा । परंतु िजन भाषा म सािह य क असीिमत अिभ ि हो रही

    ह,ै उस भाषा क अिभ ंजना शि पर बात करना उिचत न होगा । ऐसे िव ान को

    जो भाषा क अिभ ंजना शि पर बात करते ह, उसे िशवदान सह चौहान ने मूख

    कहकर फटकारा ह ै। “भाषा के इितहास के अधार पर उनको बोलने वाली जाितय के

    सां कृितक िवकास का सही अनुमान लगाया जा सकता है । इसिलए यह कहना

  • 89

    मूखतापूण ह ै क अमुक भाषा म अिभ ंजना शि क कमी ह ै और अमुक म

    अिभ ंजना शि अिधक ह ै। अिधक से अिधक कोई भाषा त काल िपछड़ी हो सकती

    ह।ै”17 अत: भाषा को भाषा क दिृ से दखेना चिहए। सभी भाषाएँ अपने आप म वतं

    स ा रखती ह ै।

    िन कष – कसी भी भाषा के सिह य का इितहास मा उस भाषा का या समाज

    का ही नह , बि क रा क उपलि धय का द तावेज होता ह ै। भाषा, समाज और रा

    म ए प रवतन का लेखा-जोखा उसम िव मान होता ह ै। हदी सािह य का इितहास

    भी इसके िलए अपवाद नह ह ै। यह हमारी ाचीन स यता और गौरवशाली परंपरा का

    ितपादन करता ह ै । सािह येितहास लेखन म कुछ ऐसे मह वपूण वदु पर िवचार

    कया गया ह,ै िजसम इितहास लेखक सम वयवादी दिृ कोण के तहत इितहास को दखे ।

    पारंप रक प रपाटी तोड़ने का साहस दखाए,ँ कगमेकर बन बैठे मठािधपितय के खेम

    का िह सा न बनकर सािह य,सािहि यक, पाठक तथा इितहास के ित अपने दािय व को

    पहचान ल तो इितहास लेखन का दु कर तीत होनेवाला काय सुगम बनते दरे नह

    लगेगी ।

  • 90

    (ग) गितवादी और योगवादी सािह य

    गितवाद दो श द के योग से बना है – ‘ गित’ और ‘वाद’ । गित का अथ

    ह–ै आगे क ओर बढ़ना और ‘वाद’ श द का संबंध मा सवाद िवचारधारा से ह ै ।

    गितवाद उस का ांदोलन क ओर संकेत करता ह,ै जो मा सवादी िवचारधारा से

    ेरणा हण करता आ शोिषत-उ पीिड़त वग के ित सहानुभूित और संवेदना द शत

    करता ह ै। िशवदान सह चौहान ने िलखा ह ै– “ गितवाद सािह य क वह धारा ह,ै जो

    पूँजीवाद के अंितम काल म उ प होती ह,ै जो पूँजीवादी सािह य और कला क सारी

    कामयािबय और सजीव परंपरा को हण कर नये जन-सािह य का िनमाण करती

    ह।ै”18 नये जन सािह य का िनमाण से चौहानजी का त पय ह ैमा सवादी िवचारधारा से

    े रत सािह य, जो जन-साधारण से जुड़ा ह।ै डॉ. गणपितचं गु का मानना ह ै क –

    “कोई भी िवचार जो समाज क गित म सहायक होता ह ै गितशील कहा जा सकता ह,ै

    जब क गितवाद का अथ िवशु मा सवादी िवचार से िलया जाता है । इसीिलए

    गितवाग क प रभाषा करते ए कहा गया ह ै क राजनीित के े म जो मा सवाद है

    वही सािह य के े म गितवाद ह ै। अत: गितवाद को समझने के िलए म सवाद के

    आधारभूत िस ांत का ान अपेि त ह।ै”19 गितवादी सािह य का सीधा संबंध

    मा सवादी िवचारधारा से ह ै । िशवदान सह चौहान ने प िलखा ह ै – “ गितवाद

    सािह य क धारा नह , सािह य का मा सवादी दिृ कोण ह,ै जैसे रस-िस ांत सािह य

    क धारा नह , सािह य का ाचीन आ याि मक दिृ कोण ह ै । अत: गितवाद को

  • 91

    स दयशा (ई थे ट स) संबंधी मा स य दिृ कोण का हदी नामकरण समझना

    चािहए।”20 अत: हम कह सकते ह क जो धारणा सामािजक े म समाजवाद ह,ै

    राजनैितक े म मा सवाद ह,ै वही सािह य के े म गितवादी के नाम से जाना

    जाता ह ै। मा स का िवचारधारा सा यवाद से ह ै। सा यवादी िवचार का चार करने

    वाला या सा यवादी ल य क पू त म यो य दनेे वाला सािह य ही गितवादी सािह य

    कहलाता ह ै । एक बात यान दनेे योग है क गितवाद से एक िमलता-जुलता श द

    गितशील भी हदी म चिलत ह,ै कतु दोन के अथ म सू म अंतर ह ै । गितवाद

    मा सवादी सािह य िस ांत और इसके अनु प रचा गया सािह य ह,ै तो गितशील

    छायावाद के बाद क सामािजक चेतना वाला सािह य िजसम राजनैितक मतवाद क

    िभ ता के बावजूद ापक मानवतावादी चेतना मौजूद ह ै । गितवाद एक िवशेष

    कालखंड़ से जुड़ा सािह य ह,ै िजसम मा सवादी स दयशा मौजूद ह,ै वही गितशील

    आ दकाल से अब तक क सम त सािहि यक परंपरा तक इसके दायरे का िव तार घेरा

    ह।ै अत: गितवाद मा सवादी िवचारधारा से सवथा जुड़ा आ ह ै और गितशील

    मा स क सा यवादी िवचारधारा से सवथा वतं ह ै।

    जहाँ तक गितवादी का ांदोलन का शु आत क ह,ै तो सन् 1936 म

    ‘ गितशील लेखक संघ’ क थापना के साथ गितवाद क शु आत मानी जाती ह ै ।

    ेमचंद ने अपनी अ य ीय भाषण म ही कहा था क गितशील नाम ही गलत ह,ै

    य क सभी सािह यकार वभाव से गितशील होते ह । उ ह ने प िलखा है –

    “ गितशील लेखक संघ यह नाम ही मेरे िवचार से गलत ह ै। सािह यकार या कलाकार

    वभावत: गितशील होता ह ै । अगर यह उसका वभाव न होता, तो शायद वह

    सािह यकार ही न होता ह ै ।”21 आगे बात को और प करते ए ेमचंदजी ने

  • 92

    गितशील सािह य के संबंध म कहा था – “हमारी कसौटी पर वही सािह य खरा

    उतरेगा, िजसम उ चतन हो, वाधीनता का भाव हो, स दय का सार हो, सृजन क

    आभा हो, जीवन क स ाइय का काश हो जो हमम गित, संघष और बेचैनी पैदा करे,

    सुलाए नह , य क अब और यादा सोना मृ यु का ल ण ह।ै”22 ेमचंद ने सािह य का

    ल य जनवादी िनधा रत कया ह ै। िशवदान सह चौहान ने ब त ही संतुिलत श द म

    गितशील सािह य क प रभाषा दी ह – “जो सािह य जीवन के यथाथ को गहरीई और

    कला मक स ाई से ित बिबत करता ह,ै वही गितशील ह,ै चाह ेउसक रचना करने

    वाले लेखक का ि गत दिृ कोण आदशवादी हो या मा सवादी ।”23 इसम मू य का

    माप केवल जनहीत ह ै। यह नवीनधारा जनजीवन से े रत एवं भािवत सािह य धारा

    ह,ै जो ढ़ के च ान को तोड़ सामािजक यथाथ को सामने लाती ह ै। डॉ. रामिवलास

    शमा गितशील सािह य का मतलब बताते ए िलखते ह क – “ गितशील सािह य से

    मतलब उस सािह य से ह ैजो समाज को आगे बढ़ाता ह,ै मनु य के िवकास म सहायक

    होता ह ै ।”24 केवल गितशील सािह य ही समाज को आगे नह बढ़ता या मनु य के

    िवकास म सहायक नह होता, बि क कोई भी े सािह य सामािजक और सां कृितक

    िवकास के िलए ितब होता ह ै। े सािह य से ता पय है वह सािह य जो सामािजक

    ित यावाद से ऊपर उठ कर मनु य म मावनवीय संवेदना, स दय बोध, कम-चेतना

    और तक-बु ी को जगाता है । िशवदान सह चौहान का मानना ह ै – “जाित- षे,

    भा यवाद, िनराशावाद, अनैितकता और शोषण का चार करने वाले ित यावादी

    हीन सािह य से उस े ाचीन और अवाचीन सािह य का अलगाव जािहर कर जो

    मनु य म मानवीय संवेदना, स दय-बोध, कम-चेतना और तक-बुि जगाता ह,ै आशा का

    संचार करता ह ैऔर अपने ि गत जीवन क ु ता से ऊपर उठाकर हम उदा

  • 93

    और नैितक मानव बनाता ह ै । हम अिभ था क े सािह य क इस गितशील

    परंपरा को अपने नई कृितय से और समृ कर और सामूिहक य ारा जनता क

    िच का इतना प र कार कर क ित यावादी सािह य का चलन बंद हो जाए ।”25

    आगे और प करते ए िलखा ह ै – “जो सािह य पाठक को व थ ेरणाएं दतेा ह,ै

    मनोिवकृितय को और उभार कर ि को असामािजक और मानव ोही नह बनाता,

    जीवन सं ाम म आगे बढ़ाने का बल और साहस देता ह ैऔर मनु य क चेतना को गहरा,

    ापक और मानवीय बनाता ह,ै हसा और षे को नह बढ़ाता और जो वा तव म

    जीवन क मा मक और सारग भत ि थितय का िच ण करता ह ैअथात् िजसम कला-

    सौ व और गहराई ह,ै वह सब गितशील ही तो ह ै।”26 इस तरह रचना के सामािजक

    दािय व से संब करके देखते ह । गितशील सािह यकार क दिृ म सिह य का

    उ े य रस क सृि या मनोरंजन नह ह ै । सामािजक तनाव के कारण सािह य म

    प रवतन आ ।

    गितवादी सािह यकार ने समाज क उ ित व नवनीमाण के िलए सबसे

    पहले ढ़य पर हार कया ह ै । ाचीन काल से चली आ रह ेधा मक अंधिव ाश

    और सामािजक ढ़य को छोड़कर शोिषत , िपिड़त क क ण था को सािह य म

    तुत कर उ ह मुि का संदशे दया ह ै । िशवदान सह चौहान ने सािह यकार क

    आ था म धम क आलोचना करते ए िलखा है – “पुिलस, धम और रा य मनु य को

    अपमािनत करने वाली सं थाए ँह, वे उसे अपने उस गौरव से वंिचत रखती ह, िजसका

    वह मनु य होने के नाते अिधकारी है । मनु य और मनु यता के मु िवकास के िलए इन

    तीन से मुि ज़ री ह ै ।”27 अत: धम भी शोषण का एक साधन ह ै । धमभी

    भा यवादी बन जाता ह ै । वह समाज पर आई िवपि य को ई र का कोप मानकर

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    उ ह सहन करता है तथा भा य पर सब कुछ छोड़ दतेा ह ै । राजा अथवा जम दार को

    ई र मानने क धारणा के पीछे यही शोषण क भावना िनिहत ह ै। पूँजीपित, जम दार

    और नेता धा मक भावना उभार कर शोषण करता ह ैऔर वह सुखमय जीवन तीत

    करता ह ै। यही कारण ह ै क चौहानजी ने धम क कटु आलोचना क ह ै।

    हदी सािह य म गितवाद का िवकास सामािजक मानवता के प र े य म आ

    ह ै । सािह य क इस का धारा क त कालीन युग म अ यंत आव यकता थी ।

    गितवादी सािह यकार का मुख उ े य समाज व था के ित असंतोष, समाज का

    यथाथवादी िच ण, मा सवादी िवचार का चार, मानव क अपराजय शि म आ था,

    मानव के आ याि मक िवकास का िनषेध, रा ीय एवं अंतरा ीय ेम क उ भावना,

    सामियक सम या के ित जाग कता, सामंतवाद, सा ाजवाद और पूँजीवाद के ित

    िव ोह, शोिषत के ित सहानुभूित, नारी संबंधी नवीन दिृ और बौि कता और ं य

    का ाधा य ह ै।

    योग का वभािवक अथ ह ै– उपयोिगता एवं परंपरा क दिृ से परी ण । यह

    श द मूलत िव ान क अ वेषण-कायिवधी से िलया गया ह ै । योग ितभा संप

    कलाकार क एक सहज वृि ह;ै जो नयी अनुभूित और आ मबोध के नये तर को

    ज म दतेी ह ै। िशवदान सह चौहान का मानना ह ै– “ योग सािह यकार और कलाकार

    क सृजना मक चे ा का सहज धम ह,ै िजसका पालन उ ह अिनवायत: करना पड़ता

    ह।ै”28 योग का संबंध बु चेतना से ह ै । िजसके आधार पर नए मू य , नये आयाम

    और नयी वृि याँ िवकिसत होती ह । य तो हर युग क किवता म योग होते आये ह,

    पर हदी क योगवादी किवता ने नयी प रि थितय म नये िवषय उपि थत कये ह ।

    योग का ल य ह ै ापक सामािजक स य के खंड अनुभव को साधारणीकरण करने म

  • 95

    किवता को नवानुकूल मा यम दनेा, िजसम ि ारा इस ापक स य का

    सवबोधग य ेषण संभव हो सके । इस त य को आचाय केशरी कुमार ने इस कर प

    कया ह ै– “ योग ि स य को ापक स य बनाने तथा भाषा म अिधक सारग भत

    अथ भरकर अपनी संवेदना को पाठक तक प चँाने के िलए है । उ ह ने िस ांत म

    किवता को योग का िवषय भी माना और साधारणीकरण क सम या को का क

    मौिलक सम या तथा किवता क भाषा क गूढ़ता को अपनी बेबसी भी कहा ।”29

    िशवदान सह चौहान का मानना ह ै क योगवादी सािह यकार व तु स य अिधक प

    म योग क ि थित मानते ह । उ ह ने इस कार िलखा ह ै– “ योगवादी इसके िवपरीत

    ‘ योग’ का संबंध केवल किवता के पाकार (फाम) तक ही सीिमत रखने पर जोर दतेे

    आए ह । यह सच ह ै क पगत योग को ही वे ‘सा य’ घोिषत नह करते, कतु ये

    योग कस िवशेष व तु-स य क अिभ ि के ‘साधन’ ह, इसे वे कभी खुलकर बताते

    भी नह और न ‘व तु’ और ‘ प’ के अंगांिग संबंध पर जोर ही दतेे ह।”30 योगवादी

    किवता ासो मुख म यवग य समाज के जीवन का िच ह ै। योगवादी किव ने िजस

    नये स य के शोध और ेषण के नये मा यम क खोज क वह स य इसी म यवग य

    समाज के ि का स य ह ै। डॉ. िव नाथ साद ने प वाद : िस ांत और साधना म

    तुत िवषय पर अपना मत इस कार दया ह ै– “ योग का उ े य ह,ै मा य स य का

    परी ण एवं िविभ त व के अ वेषण क िविध ह ै। ... इस कार योग क मूल वृि

    परंपरागत थापना से आगे बढ़कर नयी दशा क थापना ह ै । साथ ही योग

    यथाथ को जीवन के प र े य म दखेने का साधन ह ै। योग क वा तिवक दिृ िववेक

    के आधार पर िवकिसत होती ह ै । योग म िन प दशाए ँहोती ह ै – (क) योग

  • 96

    कसी भी स य को अंितम स य नह मानता, (ख) कसी व तु का वहार (Behaviour)

    उसक कृित (Nature) िनधारण करती ह,ै क तु कृित प रि थितय ारा शािसत

    होती ह,ै (ग) योग चम कार को कोई थान नह दतेा, य क चम कार िववेक को न

    करके अंधिव ास को ा य दतेा ह,ै (घ) ण- ित ण क अनुभूित योग को

    गितशीलता दान करती ह ै।”31

    आधुिनक हदी सािह य म योगवादी किवता क परंपरा तारस क 1943 ई. के

    काशन के साथ शु ई । डॉ. नामवर सह ने िलखा ह ै– “ हदी किवता के पाठक म

    योगवाद क चचा ‘तारस क’ किवता सं ह (1943 ई.) से शु ई; ‘ तीक’

    पि का(जुलाई 47-52 ई.)से उसे बल िमला और ‘दसूरा स क’ किवता सं ह (1951 ई.)

    से उसक थापना ई ।”32 तारस क म सात किवय क किवता संकिलत ह, परंतु सात

    किव योगवादी नह ह । डॉ. ब न सह ने िलखा ह ै– “ योगवाद का आरंभ अ ेय के

    संपादक व म कािशत ‘तारस क’ (1943 ई.) से होता ह ै। ‘तारस क’ क भूिमका पर

    तेज रोशनी डालने से भूिमका लेखक का म त प हो जाता ह ै । वह कहता है क

    सात किव कसी एक कूल के नह ह । वे राही नह , राह के अ वेषी ह ।”33 ारंभ म

    किवय का दिृ कोण प नह था, नूतनता क खोज के िलए केवल योग क घोषणा

    क गई थी, तो इसे योगवादी कहा गया। इसी आंदोलन क एक शाखा प वाद ह ै।

    प वाद को नकेनवाद भी कहा जाता ह ै । निलन िवलोचन शमा, केसरी कुमार और

    नरेस के संयु यास से आरंभ आ इस का ांदोलन का भाव वैसे परवत हदी

    किवता पर नह के बराबर दखाई पड़ा । इसका कारण यह है क उ किवय का

    उ े य अ ेय के तारस क क ित या म एक अलग का ांदोलन खड़ा करना था, जो

  • 97

    नकेन के प म सामने आया । नकेन क प वादी किवय के पीछे कोई िनि त

    िवचार- णाली थी या नह इसका पता लगाना ब त क ठन काय ह ै। इनके किवता क

    वृि से यह सूचना ज र िमल जाती ह ै क उ का ांदोलन से जुड़े तीन किव

    योगमूलक इस नई का - वृि के ज रए यह बतलाना चाहते थे क य द अ ेय हदी

    किवता म योग के िलए िवदशेी किवता के बब और तीक के समाना तर कुछ बब

    एवं तीक इ तेमाल म ला रहे थे तो वे अपनी इन किवता के मा यम से उनका उ र

    दशेज बब और तीक का योग कर के दनेा चाहते थे । इसके िलए इ ह ने शाि दक

    योग पर बल दया ।

    जो ि का अनुभव ह,ै उसे समि तक कैसे उसक संपूणता म प चँाया जाय,

    यही पहली सम या थी, जो योगशीलता को ललकारती ह,ै य क किव यह अनुभव

    करता ह ै क अब भाषा का पुराना ापक व नह ह ै। भाषा, लय, छंद और शैली म आये

    प रवतन ही योग नह ह, बि क एक िवशेष कार के दिृ कोण ह । िशवदान सहव

    चौहान का मानना ह ै– “हमारे दशे म िवशेषकर हदी म नई किवता के व ा का

    एक ऐसा दल उठ खड़ा आ है जो एक खास क म क आ मिन और ि वादी वृि

    क किवता को ही योगवादी, ‘आधुिनक’ या ‘नई किवता’ घोिषत करता ह ैऔर किवता

    क भाषा, लय, छंद, शैली आ द म कए गए एक िवशेष कार के योग को ही ‘ योग’

    मानता ह ै। सािह य म ‘ योग’ को लंुज और लंगड़ा बना दनेा ह,ै जब क आधुिनक युग के

    संपूण अंतबा स य को सबल अिभ ि देने क सम या इतनी बड़ी है क आधुिनक

    किव और कलाकार को अपने योग से जीवन से संपूण िव तार को नापने क छूट ही

    नह , उसम साम य भी होनी चािहए । ‘ योग’ के अथ को पहले तो संकुिचत करके, फर

    उसको एक खास राजनीितक मतवाद क बैसाखी लगाकर चलाने से न तो वह िव तार

  • 98

    नापा जा सकता ह ैऔर न वह ाणवन किवता ही पैदा हो सकती ह,ै जो आधुिनक युग

    क मांग ह।ै”34 अ ेयजी के ारा बार-बार वय ंको योगशील किव घोिषत करने और

    प वा दय ारा योग को सा य प म वीकार करने के बाद भी, कस अ ात

    ेरणा से समी क ने योगशील को ही वा तिवक योगवादी मान िलया । डॉ. ब न

    सह ने योगवाद को साधन तथा प वाद को सा य माना ह ै। उ ह ने प िलखा ह ै–

    “ योगशील के िलए योग साधन है, जब क नकेनवा दय के िलए सा य ।”35 डॉ.

    गणपितचं गु ने भी इस पर अपनी सहमती दखाई ह,ैजो इस कार ह ै –

    “नकेनवा दय का यह प वाद अ ेय के योगवाद क प ा म खड़ा कया गया

    आंदोलन था, जो परंपरा का िवरोध करने, नूतनता क दहुाई दनेे, तथा योग पर बल

    दनेे क दिृ से भी आगे था । इसने िस कर दया क असली योगवादी तो प वाद

    ही ह,ै य क यह योग को ही सा य मानता ह,ै केवल साधन नह ।”36 इस कार

    नकेनवा दय एवं अ य िव ान ने योगशील और योगवाद म अंतर प करते ए

    यह माना ह ै क योगशील किव योग को साधन तथा योगवादी किव योग को

    सा य मानते ह । इस कार प वादी किव असल योगवादी किव ह ।

    कला से यह अपे ा क जाती ह ै क उसे सं ेषणीय होना चािहए । सं ेषणीयता

    का क वह शि ह,ै िजस पर उसक अिभ ि , योजन तथा सा य क सफलता

    िनभर करती ह ै। यह साधन और सा य दोन ह ै। इसक सफलता इसके घटक पर िनभर

    करती ह।ै घटक मु यत: दो ह – कलाकार और पाठक । इन दोन के म य का िमलन बद ु

    वह उ पादन ह,ै िजसे कला या रचना क सं ा दी जाती ह ै। उ पादन के िवषय या उसके

    वैिश य उसे ा अथवा अ ा बनाते ह । इस संरचना च म मूल व तु ह ै–दाता या

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    कलाकार उसक ईमनदार अिभ ि सं ेषण क यो यता ा कर पाती ह ै । ऐसी

    ि थित म उसके िलए आव यक मह व क व तु ह ै क वह अपने आवेग और आवेश,

    िवचार और तक, क पना और भावानुभूित को िन संग प म तुत करे – न तो उसे

    िछपाये न ही तोड़-मरोड़कर अपने िनजी सै ांितक आ ह के वशीभूत हो कर तुत करे।

    ो. िव नाथ साद के श द म – “ प वाद योग को सा य मानता ह ैऔर भाव तथा

    भाषा, िवचार तथा अिभ ि , आवेश तथा आ म ेषण, भाव तथा प इनम से कसी

    म अथवा सभी म योग को आव यक समझता ह ै। इसके अनुसार किवता न तो भाव ,

    िवचार अथवा दशन से िलखी जाती है और न ही छंद अलंकार आ द से, अिपतु वह

    श द से िलखी जाती ह ै । प वाद मानता ह ै क किवता क वा तवीक ेरणा

    व तुि थित से िमलती ह।ै व तु ा के भीतर भाव-छिवयाँ उ प करती ह ै ।”37 अत:

    प वा दय क ईमानदारी क शंसा होनी चािहए क उ ह ने स य मन से यह

    वीकार कया क वे सामािजक अनुभव को नह करते, और यह क सही-सही

    सं ेषण क क ठनाई को समझकर वे पाठक को मनोनुकूल अथ हण करने के िलए वतं

    छोड़ दतेे ह तथा मु आसंग के सहारे वे उपचेतन के मम का उ ाटन करना चाहत ेह ।

    योगवादी सािह य के उ व से पूव सािह य म जो योग ए उनम आंत रक

    वा य के िवकास का पूरा-पूरा यान रखा गया और जीवन को ही योग प म हण

    कया गया, कतु आज का योगवादी सािह य आंत रक मह व को धानता न दकेर

    बा प रवतन म ही य शील ह ै । तारस क म अ ेय ने योग क ा या तुत

    करते ए अपनी किवता के व म कहा ह ै– “ योग सभी काल के किवय ने कये

    ह, य िप कसी एक काल म कसी िवशेष दशा म योग करने क वृि वाभािवक

    ही ह,ै कतु किव मश: अनुभव करता है क िजन े म योग ए ह, िजनसे आगे

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    बढ़कर अब उन े का अ वेषण करना चािहए, िज ह अभी नह छुआ गया ह ै या

    िजनको अभे मान िलया गया ह ै।”38

    योगवादी किवय क अंतरा मा म अहभंाव इस प म ब मूल ह ै क वह

    सामािजक जीवन के साथ कसी कार के सामंज य का गठबंधन नह कर सकता । यह

    एक कार से ि वाद क परम िवकृित का प रणाम ह ै। वैयि कता क अिभ ंजना

    आधुिनक हदी सािह य क एक मुख िवशेषता है । िशवदान सह चौहान का मनना है–

    “ योगवादी जब इस कार क बौि क दलील देता ह ैतो वयं अपने ि वाद क क

    खोदकर उसम कुद पड़ता ह।ै यह मान लेने पर क िव ान क ईजाद और यु क

    िवभीषका ने अिनि ता और भय का वातावरण पैदा कर दया ह,ै िजससे समाज म

    कंुठा, िनराशा, मरण-भावना, हसा, पर-पीड़ा, अना था, यौन-उ छंृखलता, वाथपरता

    और मानव ोह क भावनाए ँऊपर से नीचे तक ा हो गयी ह, या योगवादी किव

    का केवल अपनी आ मा के स य को करने या अपने ि व को ामािणत करने

    का यह सारा आडंबर एक भयंकर आ म- वंचना का माण नह देता – य क

    योगवादी किवता म अिधकतर इन भावना क ही अनुगंुज रहती ह ै ।”39 भारतद,ु

    ि वेदी एवं छायावादी युग म वैयि कता क धानता रही ह,ै कतु वह वैयि कता

    समि से सवथा िवि छ नह थी, उसम ापक उदा लोक भावना थी । पूववत

    सािह य म वैयि कता क अिभ ंजना म स दय संवेदना एवं ेषणीयता क पया

    मता थी, कतु योगवाद क वैयि कता के समीप म जज रत थोथा ही रह गया ।

    ‘आधुिनक सािह य क वृि याँ’ म डॉ. नामवर सह ने योगवादी किवय म वैयि क

    भावना को वीकार कया ह ै। जो इस कार ह ै– “ योगवाद के पं ह वष का इितहास

    ि वाद के दो सीमांत के बीच फैला आ ह ै – इनम से एक सीमांत ह ैम यवग य

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    प रवेश के ित म यवग य किव का वैयि क असंतोष और दसूरा सीमांत ह ै जन-

    जागरण से डरे ए किव क आ मर ा क भावना । कुल िमलाकर यह चरम ि वाद

    ही योगवाद का क बद ुह ैऔर िविभ राजनैितक, सामािजक मा यता के प म

    यह संक ण ि वाद अपने को करता रहता ह ै।”40 इस कार योगवादी किवय

    क रचना म ि िन ता कूट-कूट कर भरी ह ै। वह अपनी बात कहता है। समाज क

    उपे ा करता ह ै । वह अपने तक रह कर घोर अहवंादी बन गया ह ै । डॉ. राम व प

    चतुवदी ने इस बात को आपने श द म इस कार प कया ह ै– “आधुिनक सािह य म

    मानवीय ि व और उसक सजना मकता क सबसे गहरी और साथक चतन

    सि दानंद हीरानंद वा ययन अ ेय के कृित व म िमलती ह ै।समकालीन जीवन के िजस

    खतर क ओर अभी संकेत कया गया, उनसे उबरने के िलए मनु य के सजना मक

    ि व को सुरि त रखते ए िवकिसत करनी ह,ै पुरानी श दावली म, आधुिनक

    जीवन का सबसे बड़ा पु षाथ ह ै । सजना मक ि व मूलत: वाधीन होकर ही

    दािय व का अनुभव कया जा सकता ह ै।”41

    योगवाद पर एक आ ेप लगाया गया क योगवादी किव अित बौि कता से

    िसत ह । उन लोग का तक यह था क आज क नई किवता म अनुभूित एवं

    रागा मकता क कमी ह,ै इसके िवपरीत इसम बौि क ायाम क उछल-कूद

    आव यकता से भी अिधक ह ै। यह किवता पाठक के दय को तरंिगत तथा उ िेलत न

    कर उसक बुि को अपने च ुह म आब करके परेशान करना चाहती ह ै। आचाय

    केसरी कुमार इस बात से सहमत नह ह । उनका मानना ह ै – “यह इ जाम क

    योगवादी बौि कता से त होने के कारण का क चौह ी म नह आता( य क वह

    राग क जागीर ह)ै एक पूवा ह िलए ह ै। इस पूवा ह का उदाहरण डॉ. नगे का यह

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    कथन ह ै क किवता मानव मन का शेष सृि के साथ रागा मक संबंध थािपत करती

    ह।ै”42 कार कहा जा सकता ह ै क आज क किवता म रागा मकता के थान पर अ प

    िवचरा मकता ह ैऔर इसीिलए उसम साधारणीकरण क मा ा का सवथा अभाव ह ै।

    िन कषत: कहा जा सकता ह ै क योगवादी किवता आधुिनक युग के का -

    जीनव का स य ह ै। नयी तरह का बोध एकदम वीकृत ही हो जाय, यह आव यक नह

    ह ै । यही कारण है क इस नयी किवता क आलोचना भी खूब ई है; जैसे ये लोग

    रा ीयता क अपे ा अंतरा ीयता के राग अलापते ह, इनम अितशय वै ािनकता का

    आ ह ह ै। ये लघु मानव के दद को रोते ह । इनम उ ेजना व त अिधक ह ै। योगवादी

    किवता के साथ दसूर के भाव का मेल नह होता यानी उसम साधारणीकरण क

    गंुजाइश नह ह,ै अतएवं ेषणीयता भी नह ह ै । उदा ता और आ वाद क जगह

    भ ापन और िणक चम कार ह ै। इसम िवलायतीपन और नकल ह ैये सभी और इसी

    तरह के अनेक आ ेप इस किवता के बारे म दये जाते रह े ह । इन सबके बावजूद

    योगवादी किवता, नयी किवता का अि त व उ रो र बढ़ा ह ै। इसक आलोचना क

    अिधकता ही इसके अि त व क वीकृित का माण ह ै।

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    (घ) सािह य म पणू मानव क ित ा और रा ीय बोध

    सािह य समाज के नैितक मू य के िलए िलखा जाता ह ै। सािह य का िनमाता

    ि होता ह ै तथा वह समाज का एक अंग ह ै । ि क अपनी भावना, िवचार,

    अनुभूित तथा अपने चतन का प रणाम सािह य ह ै । सािह य िवशेष क अिभ ि

    होता ह ै । इसी िवशेष का सामा य होना ही सामािजक करण ह ै । सािह यकार िजस

    समाज म ज म लेता ह,ै उसी समाज म रहकर वहाँ क बात को दखे सुनकर, अनुभव

    करके उसे ही अिभ करता ह ै। सािह यकार समाज क संपूण ि थित को हण करके

    उस भाव जगत् को क पना के रंग म रंग कर तुत करता ह ै । वह जन-समा य से

    अिधक जाग क होता ह,ै अिधक संवेदनशील होता ह ै। इसिलए वह समाज को सही प

    म तुत करने म स म होता ह ै। िशवदान सह चौहान ने िलखा ह ै– “महान लेखक

    क रचना म अपन-ेअपने काल क सामािजक िवचारधाराए ँ ई ह और उनक

    कृितयाँ अपने समय के ऐितहािसक वा तव म पूणत: संबं ह । ले कन इन महान लेखक

    को कसी शोषक वग के खंूटे से बांधकर जांचना थ होगा, य क उनक रचना म

    अपने समय का सम जीवन, तमाम वग के अंत:संबंध ित बिबत ए ह और इस

    कार उस युग क मूल सम या का उ ाटन आ ह ै।”43 समाज क सोच और समाज

    के वर को सािह यकार मुख रत करता ह।ै इस कार कहा जा सकता ह ै क सािह यकार

    समाज का मुख होता ह ै। ो. िव नाथ साद ने ‘सािह य म समाज क अंतल नता का

    ’ नामक लेख म सािह य म समाज क अंतल नता का अथ प करते ए िलखा है –

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    “सािह य का िवषय सामािजक हो । िनतांत क पना या ि गत संवेदना भी य द ह ैतो

    उसे भी समाज के संद भत होना चािहए । सामािजक आधार होने का अथ ह,ै उसका

    समाज म िविनयोग संभव हो । रचनाकार क िनजी अनुभूित, क पना और संवेदना क

    सािहि यक अिभ ि समाज के िलए सवथा अप रिचत न हो । समाज यह मान सके

    और अनुभव कर सके क सािह यकार क अिभ ि उसक अनुभूित ह ै। महान् सािह य

    क िनजी अनुभूित समाज क अनुभूित क ितिनिध होती ह ै।”44 सािह यकार समाज के

    िवचार, भाव तथा अनुभूित को ता कक करण करते ए तुत करता ह ै । आन ड

    हाउजर कहते ह – “ ि अपने दिृ कोण, अपने चतन, अपनी अनुभूित, अपने काय

    का ता कक करण करता ह,ै अथात् उसे इनक एक वीकाय ा या क चता रहती है,

    िजस पर सामािजक ढ़य क दिृ आपि न क जा सके । इस तरह सामािजक

    समुदाय अपने ि ितिनिधय के ज रए ाकृितक और ऐितहािसक घटना ,सबसे

    आगे अपनी-अपनी स मितय और मू यांकन क ऐसी ा या करते ह, जो उनके

    भौितक िहत , स ा क आकां ा, मान- ित ा और अ य सामािजक ल य के अनुकूल

    ह ।”45 समाज युग-सापे होता ह,ै युग बदलता ह ैतो समाज बद�