१ मानव का देव और िवव का देव buddhinishtha.pdf · १....

50
www.savarkarsmarak.com . मानव का देव और िवæव का देव सिरता के वाह पर लाठी पटकने पर उस सिरता की अखंड धारा भर दो भागɉ मɅ बँटी तीत होती हɇ। संÚया के समय अखंड आकाश के बीच कोई तािरका चमकने लगते ही उस अखंड आकाश को एक गणन िबंद ाÜत हो जाता हɇ और उसके चारɉ ओर चार िदशाएँ रंत अलग-अलग भािसत होने लगता हɇ। इस पदाथ -जगत ् मɅ भी मानव के ान का िसतारा चमकने लगता हɇ उसके दो भाग हो जाते हɇ। संप िवæव, अनंत के एक छोर से सरे छोर तक एकदम िवभािजत हो जाता हɇ। दर और Ǿप, गंध और गध, मंज और ककश , और कठोर, ितथा अिय, अÍछे और रे , दैवी और आस री इन सभी ɮवंɮवɉ का उव बस मन çय को समèत िवæव का कɅ या मÚय िबंद माननेसे हो जाता हɇ। मानव को एक िहèसा खद तथा अÛय खद लगता हɇ। पहला अÍछा और सरा रा। िवæव के मानव के िलए खद और अÍछा िहèसा िजसने िनिमत िकया वह देव और मानव को देनेवाला रा भाग िजसने बनाया वह रास। मानव की ही लंबाई-चौडाई की नाप से िवæव की उपय तता, अÍछाई-राई यिद नापी जाए तो उपय िनçकष को गलत नहीं मान सकते। िवæव की उपय तता को इसी कार अपने िहसाब ने नापना मन çय के िलए अिनवाय हो गया था। मानव उपलÞध पंच ानɅियɉ से ही िवæव का ǽप, रस, गंध, èपशिद समèत ान ाÜत कर सकता हɇ। िवæव के समèत पदाथɟ की िगनती करना, उनका Øथकरण करना, : ये घटक िगनना, अमयाद ियाओं की नः- नः ची बनाना और इस िया ɮवारा िवæव के असीम महाकोष के पदाथɟ की िगनती करना असंभव हɇ ; यह जानकर हमने ाचीन त××वɉ ने अपने पंच ानɅियɉ से ही इस िवæव के संबंध मɅ जो ात उसका पांच िवभागɉ मɅ वगकरण करना ही उ×क çट माग समझा। यह बात èवाभािवक ही थी। यह उनकी अितम ि की उस समय की आæचयजनक िवजय थी। ानɅिय के वल पाँच ही होने के कारण िवæव के समèत पदाथ उन पाँचɉ मɅ से िकसी एक या अनेक णɉ के हɉगे। अथात ् उन पाँच णɉ के त××वɉ ने , पंचमहाभ तɉ ने ही उनका िनमाण िकया होगा। इस िवæवदेव का हमसे जो संवाद होना संभव हɇ , वह उसी पाँच खɉ से ही होगा। अतः वह िवæवदेव महादेव पंचम खी हɇ। अपनी ानɅियɉ से िवæव के णधमɟ का आकलन करने का मानव का यह य×न िजतना अपिरहाय और सहज था उतना ही èवयं के अंतःकरण से उस िवæव िनमाता देव के अंतःकरण की कãपना करने का मन çय का य×न भी सहज और èवाभािवक था। मानव को दान करने के िलए िकसी दयाल देवता ने इस िçट

Upload: others

Post on 28-Oct-2019

38 views

Category:

Documents


0 download

TRANSCRIPT

  •  

    www.savarkarsmarak.com

    १. मानव का देव और िव व का देव

    सिरता के प्रवाह पर लाठी पटकने पर उस सिरता की अखंड धारा क्षण भर दो भाग म बँटी हुई प्रतीत होती ह।

    सं या के समय अखंड आकाश के बीच कोई तािरका चमकने लगते ही उस अखंड आकाश को एक गणन िबदं ु

    प्रा त हो जाता ह और उसके चार ओर चार िदशाएँ तुरंत अलग-अलग भािसत होने लगता ह।

    इस पदाथर्-जगत ्म भी मानव के ज्ञान का िसतारा चमकने लगता ह उसके दो भाग हो जाते ह। सपंूणर् िव व,

    अनंत के एक छोर से दसूरे छोर तक एकदम िवभािजत हो जाता ह। सुदंर और कु प, सगुधं और दगुर्ंध, मजंलु

    और ककशर्, मदृलु और कठोर, िप्रय तथा अिप्रय, अ छे और बुरे, दैवी और आसरुी इन सभी वं व का उद्भव

    बस मनु य को सम त िव व का कद्र या म य िबदं ुमाननेसे हो जाता ह। मानव को एक िह सा सखुद तथा

    अ य दःुखद लगता ह। पहला अ छा और दसुरा बुरा।

    िव व के मानव के िलए सखुद और अ छा िह सा िजसने िनिमर्त िकया वह देव और मानव को दःुख देनेवाला

    बुरा भाग िजसने बनाया वह राक्षस।

    मानव की ही लबंाई-चौडाई की नाप से िव व की उपयुक्तता, अ छाई-बुराई यिद नापी जाए तो उपयुर्क्त िन कषर्

    को गलत नहीं मान सकते।

    िव व की उपयुक्तता को इसी प्रकार अपने िहसाब ने नापना मनु य के िलए अिनवायर् हो गया था। मानव

    उपल ध पंच ज्ञानिद्रय से ही िव व का प, रस, गधं, पशर्िद सम त ज्ञान प्रा त कर सकता ह। िव व के

    सम त पदाथ की िगनती करना, उनका पृ थकरण करना, पुन: ये घटक िगनना, अमयार्द िक्रयाओं की पुनः-

    पुनः सचूी बनाना और इस प्रिक्रया वारा िव व के असीम महाकोष के पदाथ की िगनती करना असभंव ह; यह

    जानकर हमने प्राचीन त वज्ञ ने अपने पंच ज्ञानिद्रय से ही इस िव व के सबंंध म जो ज्ञात हुआ उसका पांच

    िवभाग म वगीर्करण करना ही उ कृ ट मागर् समझा। यह बात वाभािवक ही थी। यह उनकी अप्रितम बुिद्ध की

    उस समय की आ चयर्जनक िवजय थी। ज्ञानिद्रय केवल पाँच ही होने के कारण िव व के सम त पदाथर् उन

    पाँच म से िकसी एक या अनेक गणु के ह गे। अथार्त ्उन पाँच गणु के त व ने, पचंमहाभतू ने ही उनका

    िनमार्ण िकया होगा। इस िव वदेव का हमसे जो कुछ सवंाद होना सभंव ह, वह उसी पाँच मखु से ही होगा।

    अतः वह िव वदेव महादेव पंचमखुी ह।

    अपनी ज्ञानिद्रय से िव व के गणुधम का आकलन करने का मानव का यह प्रय न िजतना अपिरहायर् और

    सहज था उतना ही वयं के अतंःकरण से उस िव व िनमार्ता देव के अतंःकरण की क पना करने का मनु य

    का प्रय न भी सहज और वाभािवक था। मानव को सखु प्रदान करने के िलए िकसी दयाल ुदेवता ने इस सिृ ट

  •  

    www.savarkarsmarak.com

    का िनमार्ण िकया होगा इस मानवी िन ठा का प्रबल समथर्न कदम-कदम पर, प्रितक्षण, जब चाहे तब यह सिृ ट

    देवी करती रही और आज भी कर रही ह।

    सचमचु, मनु य की सखु-सिुवधाओं के िलए उस दयाल ुदेव ने इस सिृ ट की रचना िकतनी ममता से की ह।

    यह सयूर्, ये समदु्र, िकतने प्रचंड ह ये महाभतू। परंतु मनु य की सेवा के िलए भगवान ने उ ह भी प्र तुत

    िकया। देर तक खेलने के बाद ब चे दोपहर म यास से परेशान होकर आएँगे, यह जानकर और उस समय

    उ ह शीतल और मीठा जल प्रा त हो इस हेतु से सबुह ही उनकी माताएँ कुएँ से पानी िनकालकर िमट्टी के

    बरतन म रखती ह, ठीक उसी प्रकार ग्री म काल म निदय का पानी सखू जाता ह इसिलए पहले ही सयूर्

    भगवान समदु्र का पानी अपनी िकरण पी रि सय से खींचकर मेघ म सगंिृहत करता ह और समदु्र का खारा

    पानी मीठा बनाकर पृ वी पर भेजता ह, िजससे देवता भी ई यार् करने लगते ह। सयूर्देव समदु्र का खारा जल

    मीठा बनाते समय इतनी सावधानी अव य रखता ह की समदु्र का सपूंणर् जल ही मीठा न हो जाए। केवल एक

    वषर् के िलए आव यक जल ही मीठा बनाकर रखने की शिक्त सयूर्-रि मय म होती तथा सगंिृहत करने की

    शिक्त मेघ म होती ह, नहीं तो सम त समदु्र का जल मीठा बन जाता और मनु य को नमक ही नहीं िमलता

    िजससे उसका गहृ था म ही फीका हो जाता।

    देिखए इन पशुओं को, जो मनु य की सेवा और सखु के िलए आव यक समझकर िनमार्ण िकए गए ह। पशु

    िविवध तथा आव यकतानुसार बुिद्धमान होते ह। म थल म मनु य के िलए जहाज समान, पेड के काँटे खाकर

    और िबना पानी के कई माह तक चलते रहने की कला िजसे िसखाई गई, ऐसा ऊँट देिखए। वह घोडा िकतना

    चपल। उसपर सवारी करनेवाले मनु य को रण-मदैान म भी सँभालकर ले जाने और मनु य के साथ अ यंत

    प्रामािणकता से रहने की बुिद्ध उसे भगवान ने दी ह। परंतु मनु य के उपर की सवारी करने की बुिद्ध उसे नहीं

    दी। अब गाय देिखए, उसके सामने एक तरफ सूखी घास खाने के िलए डाली जाए और दसूरी और उसी घास से

    बना हुआ ताजा और जीवनप्रद दधू बरतन भर-भरकर िलया जाए। ऐसा यह आ चयर्कारक रासायिनक यतं्र िजस

    भगवान ने बनाया ह, वह भगवान सचमचु िकतना दयाल ुहोगा। और वह पुराना यतं्र टूटने पर नया यतं्र बनाने

    का म भी मनु य को न करना पड,े इसिलये उसी यंत्र म नये यतं्र तैयार करने की अजब यव था भी की ह।

    गहँू का केवल एक दाना बोने पर उसके सौ दाने तैयार होते ह। आम रस, वाद, स व से भरपूर देवफल। आम

    इतना उपजाऊ की एक बीज बोते ही उसका वकृ्ष बनकर प्रितवषर् हजार आम्रफल देता ह। यह क्रम वषार्नुवषर् से

    चल रहा ह। एक आम से उ प न लाख फल खाने के उपरांत भी मनु य को आम्रफल का अभाव न हो, अतः

    आम्रवकृ्ष की डािलय की कलम लगाकर उनकी अमराइयाँ बनाई जाने का प्रंबंध इस दिुनया म भगवान ने ही

    कर छोडा ह। एक कण से मन भर चावल, बाजरा, वार आिद नाना प्रकार की स वपूणर् फसल, एक बीज

    डालकर एक-एक पीढी को सह त्रािधक फल उपल ध करनेवाले ये वकृ्ष जसेै कटहल, अननस, अंगरू, अनार आिद

  •  

    www.savarkarsmarak.com

    और घास के समान तुरंत उगनेवाली िचकर, बहुगणुी, िविवध रस से पूणर् शाक-स जी, फल-स जी जगत ्म

    उपल ध ह। ग ना जो संपूणर् मीठा ह, शक्कर के पाक से भरा हुआ और इतना उपल ध होता ह की मनु य की

    अपनी आव यकता समा त होने पर वह उसे बैल को िखला देता ह। जगत ्म इस प्रकार हर चीज की िनिमर्ित

    करके भगवान ने मानव पर इतनी असीम कृपा की ह की यह ऋण उतरना असभंव ह।

    वैसे ही मनु य देह की यह रचना। पाँव के तलवु से लेकर मि त क के म जातंतु के सू माितसू म िपडं तक

    इस शरीर की रचना मनु य को सखुद होगी, इस प्रकार सिृ ट करते समय भगवान ने जो एक-एक बाल की

    िचतंा रखी ह, उसकी बात कहाँ तक सनुाऊँ? मनु य की आखँ की बात ल, उसे िकतने युग से, िकतने प्रयोग

    के बाद, िकतने िनरंतर प्रयास करके आज जो आँख ह वैसी तू बना पाया ह। प्रथम प्रकाश के िकंिचत सवंादी

    ऐसा एक वग िबदं,ु प्रकाश को नहीं, अिपतु केवल उसकी छाया को जाननेवाला, अधेँरा और प्रकाश इतना ही

    जाननेवाला वह वग ्िबदं,ु उसम प्रयोग करके, बार-बार पिरवतर्न करके आज की यह सदर आँख, मह वाकांक्षी

    आँख भगवान तूने बनाई। मनु य की इसी मह वाकांक्षी आँख से उसकी दरू ि ट टपक रही ह, इसिलए हे

    भगवन तेरी कला वारा तुझ ेपरािजत करने के िलए दरूबीन के प्रितनेत्र िनमार्ण करके वह तु हारे आकाश की

    प्रयोगशाला का ही अतंरंग देखना चाहता ह। इतना ही नहीं अिपतु तु ह भी उस दरूबीन म पकड कहीं प्र यक्ष

    देखने का प्रयोग कर रहा ह। और उस मानव की आँख को प्रस न करने हेतु सदंरुता का और िविवध रंग का

    महो सव भगवान तूने ित्रभवुन से शु िकया ह, उसकी झाँकी का क्या वणर्न कर? यह पािरजात का सकुोमल

    फूल, वह सोनचंपा का सगुधंम त समुन। यह मयूर एक-एक मोरपंख की बनावट, उसके रंग, उसम चमक और

    उसका नटना। आिद-कलावंत। अनेक मोरपंख का पु छ फैलाकर जब आनंद से उ म त होकर मोर नाचता ह,

    तब हे भगवान, तेरी लिलतकला कुशलता देख म कृतकृ य हो जाता हँू। वाह। ध य देव, ध य तेरी वाह। ऐसे

    उ गार करते हुए मेरा दय भी नाचने लगता ह। और ऐसी पु छ मनु य को क्य नहीं दी, यह सोचकर मन

    नाराज भी होने लगता ह। इस प्रकार नयनर य रंग और वणीय मधुर सरु िनकालनेवाले शतािधक पक्षी इस

    दिुनया म आनंदिवभोर होकर मजंलु विन कर रहे ह। गलुाब, चमेली, बकुल, जाईजईु, चंपा, चंदन, केतकी,

    केवडा के वन म फूल की वषार् हो रही ह। और सगुधं से सारा आसमान सवुािसत हुआ ह। मानव म ये

    प्रीितरित और मानस सरोवर म कमिलनी, कमिुदनी प्रफुि लत हो रही ह। िजस दिुनया म राित्र म तारकाएँ ह,

    उषाकाल गुलाबी ह। ता य प्रफुि लत ह, िनद्रा गहरी आती ह, भोगोम िच ह, योग म समािध ह, इस प्रकार

    हे भगवान,् यह जग तूने हमारे िलए सखुमय बनने िदया, बनने दे रहा ह, इसिलए तूने हमारे सखु हेतू ही ऐसा

    होने िदया-ऐसा हम क्य न सोच? हम जसैी हमारे सतंान के प्रित ममता ह इसिलए हम उसके सखु की िचतंा

    करते ह, उसी तरह तू भी हमारे सखु के िलए इतना िचिंतत रहता ह, तब िन चय ही तुमको हम मनु य से

    ममता होनी ही चािहए। भगवान, हम मानव तेरी सतंान ह। तुम हमारी स ची माता ह । माँ को भी दधू आता

    ह, तेरी कृपा से। हम मनु य तरेे भक्त ह और भगवान, तुम हम मनु य के देव हो।

  •  

    www.savarkarsmarak.com

    इतना ही नहीं, तू केवल हम मनु य के देव हो और हमारा तेरे िसवाय दसूरा देव नहीं। यह सारा जगत तूने

    हमारी सखु-सिुवधा के िलए ही बनाया ह।

    मनु य की इ छा से िमलती-जलुती यह िवचारधारा स य से िमलती हुई रह सकती थी। यिद इस दिुनया की

    प्र येक व तु और प्र येक ि थित मनु य के िलए उपकारक और सखुदायी होती। परंतु दभुार्ग्य से सारी दिुनया

    की बात तो रहने दो, मनु य प्रारंभ म िजस पृ वी को वाभािवक प से सपूंणर् जगत ही मानता था, िजस

    पृ वी को िव वंभरा, भतूधात्री ऐसे नाम से अभी भी गौरवाि वत करता ह, उस पृ वी पर भी व तुजात या

    व तुि थित मनु य को सपंूणर्तः अनुकूल नहीं, इतना ही नहीं, अिपतु इसके िवपरीत अनेक प्रसगं म मारक ही

    ह।

    िजस सयूर् और समदु्र के उपकार का मरण करते हुए उनके तोत्र गाए गए वह सयूर् और वह समदु्र ही देखो।

    धूप से त त होकर चक्कर खानेवाले पिथक पर लाठी के दो-चार वार लगते ही, अधर्मतृ होने पर, हम जसेै

    अिंतम चोट करके साँप को न ट कर देते ह वैसे ही यह सयूर् अपनी प्रखर िकरण से अिंतम चोट लगाकर

    मनु य को उसी जगह पर मार देना नहीं भलूता। िजस भारत म लाख ब्रा मण उस सयूर् को सबुह-शाम अ यर्

    देने के िलए खड ेहोते थे, उसी भारत म उसी धािमर्क काल म भी बारा बारा साल चलने वाले के दिुभर्क्ष को

    बार-बार उ प न कर सयूर् अपनी प्रखर आँख से लाख जीव को जीते-जी जला देता ह। कुरान के तौिलद म

    भक्त पैगबंर ने प्रशंसा की ह की मनु य के िलए हे भगवन, तूने िकतनी असखं्य म छिलयाँ, िकतना िचकर

    अ नसगं्रह इस समदु्र के पेट म रखा ह। परंतु वही समदु्र मनु य को िनगलनेवाले अज त्र मगर को और प्रचंड

    िहं त्र मछिलय को भी िबना पक्षपात के पाल रहा ह। मानव की नौकाएँ अपनी पीठ पर ले जाते-जाते समदु्र

    अचानक उ ह अपनी पीठ पर से ढकेलकर अपने जबड म पकडता ह और तुरंत िनगल लेता ह। हजार मानव

    से ठसाठस भरीं हुई नौकाएँ या प्रचंड टाइटेिनक जहाज भी न ट कर देता ह, ठीक वैसे ही जसेै मानव समहू के

    साथ यात्रा करनेवाले लटेुरे, पथ-दशर्क का वाँग रचकर चलते ह और गहन वन म पहँुचते ही, उ हीं त्री-पु ष

    पर हलमा कर उ ह लटूते ह और उनकी गरदन काटते ह। कोई राक्षस त्री क्रोिधत होने पर एकाध ब चे की

    गरदन नदी के पानी म दबाकर उसका प्राण िनकलने तक अदंर ही पकडकर रखती ह। कोई िहं त्र मगर, दो-

    तीन सुदंर कुमािरय को, जब वे नदी म उतरकर सकुचाते हुए नान कर रही ह , उनके ककडी के समान

    कोमल पैर को अपनी दाँत से पकडकर झटके-दे-देकर तुरंत िनगल जाएगा। परंतु यह गगंामाई, जमनाजी, देव

    नदी जाडर्न, यह फादर टे स हजार कुमािरय की, उनकी बाल-ब च की गरदन जसेै एक ही गरदन हो, अपने

    जल के अदंर उनके प्राण-पखे उडने तक दबाकर रखेगी ओर नगर के नगर िनगल जाएँगी।

    इंिजल, कुरानािद ग्रथं म बड ेभोले भिक्तभाव से िलखा ह की बकरा, मरुगी, खरगोश, बकरी, िहरण-ये नानािवध

    प्राणी इसिलए बनाए गए ह तािक मनु य को िवपुल मात्रा म मांस उपल ध हो। हे दयाल ुभगवान,् तु हारे उन

  •  

    www.savarkarsmarak.com

    भक्त को इस बात का क्य िव मरण हो जाता ह की उपयुर्क्त प्रािणय का िचपूणर् मांस खानेवाले इन मानव

    का भी भक्षण करनेवाले िसहं, बाघ, चीता जसेै प्राणी उसी भगवान ने बनाए ह। ‘हे भगवान ्तूने छोटे-छोटे

    कोमल बालक, मनु य को फाडकर खाने के बाद हमारी मखुशुिद्ध हेतु प्रा त ह , इसिलए बनाए ह’ यह मनु य

    को चीर-फाडकर खाने के बाद उनकी ह िडय पर बैठकर िसहं और भेिडय के रक्तरंिजत मखु से िनकलती

    प्रशंसा भरी कृतज्ञता भी उसी भगवान को प्रा त होती। एिशया और अिफ्रका खंड को जोडनेवाले भखूंड िजस

    िदन महासागर म, उस खंड पर खडी वरमालाएँ हाथ म ली हुई लाख कुमािरयाँ, दधू पीते ब च के साथ

    माताएँ, अधर्भकु्त प्रणयीजन, भगवान को पु पांजिल अिपर्त करनेाले भक्त के साथ, उन देवाताओं की जहाँ

    तुती हो रही ह ऐसे देवालय के साथ, इस प्रकार डुबो िदए जसेै गणेश मिूतर्याँ पानी म िवसिजर्त की जाती ह।

    उसके दसूरे िदन वेद ने िजनका गान िकया ह ऐसी उषा मधुर हा य करती हुई उस स नाटा छाए हुए य को

    भी देख रही थी। कुरान के अनुसार चंद्र की िनिमर्ित भगवान ने इसिलए की ह की मानव को नमाज पढने के

    समय का ज्ञान हो, परंतु जो-जो नमाज पढ रहे थे उन मसुलमान का, मु ला मौलिवय का क ल करके और

    खलीफा के घराने को िमट्टी म िमलाकर, उन लाखो लोग के कटे हुए नरमुडं पर चढकर नमाज का कट्टर शत्र ु

    चंगेज खाँ िजस िदन शांित से बैठा, उस रात को भी बगदाद नगरी म यही चंद्रमा चगेंज खाँ को समय का

    क्षण-क्षण िगनाकर शांित से चांदनी फैला रहा था।

    ये सगुिंधत पु प, ये सु वर पक्षी, मनोहर पु छ फैलाकर नृ य करनेवाले सुदंर मयूर के झुडं, जगंल के जंगल

    अक मात आग म जलाकर, चू हे म बगन भनूते ह, वैसे फडफड करते-न-करते उनते म ही जलाकर राख बना

    देता ह-वह कौन ह? गाय िजसने हम दी, वह दयाल ुह तो वही गोशाला म भगवान के भोग के िलए दधु दहूने

    आई त थ सा वी त्री को काट उसके प्राण लेनेवाला साँप का िनमार्ण करनेवाला कौन ह? हर एक भोग के

    पीछे रोग लगे रहते ह। हर बाल के पीछे ददर् देनेवाले फोड,े नाखून की िबमािरयाँ, दाँत के रोग, वह कराह, वे

    वेदनाए,ँ वह ददर्, वह छूत और महामािरयाँ, वह लेग, वह अितविृ ट, वह अनाविृ ट, वे उ कापात। िजसकी गोद

    म िव वास से अपनी गरदन रख दी वह धरती, अचानक उलटकर मनु य से भरे प्रांत-के-प्रांत पाताल लोक म

    ढकलनेवाले और गायब करनेवाले वे भकंूप? और कपास के ढेर पर जलती हुई मशाल िगर जाए वैसे ही इस

    पृ वी के बदन पर िगरकर एकाध घास के ढेर के समान फटाफट जलानेवाले घातक धूमकेतू का िनमार्ण िकसने

    िकया?

    यिद इस िव व की सपंूणर् व तु जाित के मलू म उ ह धारण करनेवाली, चालना देनेवाली या िजसके क्रम

    िवकास के पिरणाम हो रहे ह, ऐसी जो शिक्त ह उसे देव कहना हो तो उस देव ने यह सारा िव व मनु य को

    उसका म य िबदं ुमानकर केवल मनु य की सखु-सिुवधाओं के िलए बनाया ह, यह भावना एकदम भोली,

    अज्ञानी और झठूी ह-ऐसा समझने के िसवाय उपयुर्क्त िवसगंित का अथर् नहीं लगता।

  •  

    www.savarkarsmarak.com

    िकस हेतु से या िनहतुकता से यह प्रचंड िव व पे्रिरत हुआ? इसका तकर् मनु य को करना सभंव नहीं। जो जाना

    जा सकता ह वह इतना ही की मनु य तो इस िव व के देव की िगनती म भी नहीं ह। जसेै कीड,े चींिटयाँ,

    मिक्खयाँ वसेै ही इस अनािद-अनंत काल की असखं्य गतिविधय से यह मानव भी एक अ यंत अ थायी और

    तु छ पिरणाम ह। उसे खाने को िमले इस हेतु से अनाज नहीं उगता, फल नहीं पकते। अनाज होता ह इसिलए

    वह उसे खा सकता ह। बस इतना ही। उसे जल िमलना चािहए इसिलए निदयाँ नहीं बहतीं। निदयाँ बहती ह,

    अतः उसे पानी िमलता ह, इतना ही। धरती पर जब केवल मगर ही थे तब भी सिरताएँ बहती थीं, पेड पर फूल

    िखलते थे। लताएँ िखलती थी। जब पृ वी भी नहीं थी तब भी यह सयूर् आकाश म, आज के तरह ही, िबना

    रोकटोक घुमता था। एक जगुनू के मर जाने पर धरती को िजतना अभाव पडगेा उतना भी अभाव सयूर् को

    अपने सभी ग्रहोपग्रह के साथ खो जाने पर इस सिुवशाल िव व को नहीं होगा। ऐसे सौ सयूर् भी िकसी छूत की

    िबमारी म हर िदन मरने लगे तो भी एक पल का भी शोक इस िव व के भगवान को नहीं होगा।

    िफर भी िजस िकसी हेतु से या हेतु रिहत िव व की जगत-् या त गतिविध चल रही ह, उसम एक अ यंत

    ता कािलक और अ यंत तु छ पिरमाण की ि ट से मनु य को, उसकी लबंाई-चौडाई के गज से नाप सके तथा

    उसकी सखं्या म िगनती कर सके, इतना सखु और इतनी सिुवधाएँ िमलती ह, यह और इतना ही केवल इस

    िव व के देव का मानव पर िकया हुआ उपकार ह। मनु य को इस जगत ्म जो सुख िमल सकता ह इतना भी

    उसे न िमले, ऐसी िव व रचना इस िव व के भगवान ने की होती तो उसका हाथ कौन पकडता? यह सगुधं, ये

    सु वर, ये मखु पशर्, यह स दयर्, ये सखु, ये िचयाँ, ये सिुवधाएँ ह और वे भी पयार् त मात्रा म ह। िजस

    योगायोग के कारण मनु य को ये सब िमल रहे ह, उस योगायोग को शतशः ध यवाद ह। िजन िव व-शिक्तय

    ने जाने-अनजाने ऐसा योगायोग उ प न िकया उ ह उस िह से के िलए मनु य का देव कहने का समाधान हम

    मान सकगे। इस प्रकार उक्त भिक्त का फूल चढाकर उसकी पूजा कर सकगे।

    परंतु इससे अिधक इस िव व के भगवान से, मागर् के िभखारी का सम्रा से सबंंध जोडने जसैा लाचार सबंंध

    जोडने का लोभ मनु य को पूणर् प से छोड देना ही उिचत होगा। क्य िक वह स य ह। अपना भला भगवान

    करेगा, और भगवान भला करेगा तो म स यनारायण की पूजा क ँ गा, यह आशा या अवलबं एकदम नासमझी

    ह। क्य िक वह िबलकुल अस य ह। सकंट से भगवान ने छुडाया, इसिलए हम स यनारायण की पूजा करते ह,

    परंतु उन सकंट म पहले आपको ढकेलता कौन ह? वही स यनारायण, वही देव। जो पहले गरदन काटता ह

    और बाद म उसे मलहम लगाता ह। मलहम लगाने के िलए उसकी पूजा करनी हो तो पहले गरदन क्य काटी

    ऐसा उससे पूछना नहीं चािहए क्या? िव व के अगं म ये दोन भावनाएँ िबना कारण और असमजंस की ह।

    वह िव व की आिदशिक्त िजन िनधार्िरत िनयम के अनुसार यवहार करती ह उसके वे िनयम, जो समझ म

    आएँ उ हे समझकर मनु यजाित के िहत म उनका िजतना हो सक उपयोग करना ही मनु य के हाथ म ह।

  •  

    www.savarkarsmarak.com

    मनु यजाित के सखु को अनुकूल वह अ छा और प्रितकूल वह बुरा ऐसी नीित-अनीित की प ट मानवी याख्या

    की जानी चािहए। भगवान को िप्रय वह अ छा और मनु य के िलए सखुदायी वह भगवान को िप्रय लगता ह-ये

    दोन समझ उिचत नहीं, क्य िक वे अस य ह। िव व म हम ह, परंतु िव व अपना नहीं। बहुत कम अशं म वह

    हम अनुकूल ह या बहुत अिधक अशं म वह हम प्रितकूल ह। ऐसा जो ह उसे ठीक तरह से, िनभर्यता से,

    समझकर उसका बेधडक मकुाबला करना, यही स ची भद्रता ह, और िव व के देव की सही-सही पूजा ह।

  •  

    www.savarkarsmarak.com

    २. दो श द म दो सं कृितयाँ

    यूरोप या अमेिरका म कदम रखते ही कोई अथर्पूणर् श द हम आज सनुाई देता हो तो वह ह अप-टू-डटे

    अ याधुिनक। अगर हम िकसी मामलूी बूट पॉिलश की िड बी खरीदने जाएँ तो दकुानदार तुरंत कहेगा की यही

    िड बी खरीदो। यही क्य ? ऐसा पूछते ही वह कहेगा की यह अप-टू-डटे ह इसिलए। दरजी के यहाँ जाएँगे तो शटर्

    का, कोट का, जािकट का, चोली का, लहँगे का उ तम-से-उ तम नमनुा बताएगा और कहेगा यह एकदम अप-टु-

    डटे (अ याधिुनक) ह, इसिलए खरीद लीिजए। उ तम यंत्र यानी अप-टु-डटे, अप-टु-डटे पु तक ही उ तम पु तक,

    अप-टु-डटे पोशाक, अप-टु-डटे जानकारी, अ यावत ्सिुवधाएँ यानी उन पदाथ का सव कृ ट प्रकार। जो मानव

    अप-टु-डटे नहीं वह बेढंगा ह, इस प्रकार की अ याधुिनकता वहाँ पर बूट के बंद से लेकर िबजली के बटन तक

    िदखाई देगी। उनकी कल की बंदकू से आज ही बेहतर होगी, कल के िवमान से आज का िवमान अिधक अ छा

    होगा। परस लदंन के एक छोर के कमरे म बैठकर लदंन के दसूरी ओर के कमरे म बैठे हुए यिक्त आपस म

    दरू विन से बात करते थे और कल लदंन के कमरे म बैठा हुआ यिक्त कॉटलड के घर म बैठे हुए यिक्त से

    बात करने लगा। और आज लदंन के उसी कमरे म बैठकर अमेिरका म बैठे हुए अपने िमत्र से बात करके सबुह

    का बाजार-भाव पूछता ह और तुरंत मुबंई से बात करके अपने दलाल को उसकी जानकारी देता ह। इस प्रकार

    उनका आज उनके कल के आगे लगातार दौडता ह, कल पीछे रहकर बेकार हो जाता ह। उनका प्र येक आज

    उनके कल से अिधक समझदार, पुि टकर, सरस हो रहा ह। इसिलए उनका कल पर का िव वास हटकर आज

    पर अटल हो रहा ह। इतना ढ िव वास की आज के यूरोप-अमेिरका के जीवन का, सं कृित का, प्रविृ त का

    मखु्य लक्षण यिद िकसी एक श द म प ट िकया जाता हो तो वह श द ह-अ याधुिनक या अप-टु-डटे। आज

    के यूरोप-अमेिरका की सं कृित का िवशेष नाम ह अप-टु-डटे, अ याधुिनक।

    परंतु हमारे िहदं ूरा ट्र म आज भी हमारी मनोभिूम म गहरी जड ेजमाकर जो सं कृित बैठी ह और जो हमारे

    सम त जीवन म या त ह उस सं कृित का मुख्य लक्षण िकसी एक श द म यक्त करना हो तो वह श द ह,

    िृत मिृतपुराणोक्त। अप-टु-डटे के एकदम िवपरीत। कोई भी व तु, पद्धित, चाल, ग्रंथ, ज्ञान सव कृ ट क्य ह

    ऐसा िकसी यूरोिपयन से पूछगे तो तुरंत एक श द म कहेगा की वह अप-टु-डटे ह इसिलए। परंतु कोई भी ज्ञान,

    ग्रथं, चाल, पद्धित, सधुार ग्रा य या अग्रा य, उिचत या अनुिचत यह तय करने के िलए हम यह नहीं देखगे की

    वह उपयुक्त ह, या नहीं। इन बात का िवचार न करते हुए हम एकदम जो सोचगे, पूछगे वह यह ह की वह

    िृत मिृतपुराणोक्त ह या नहीं। हमारी सं कृित का अितशय ल जा पद भषूण जो हम पालते ह वह यह ह की

    वेद म जो बताया ह उसके आगे हम गत दस-पाँच हजार वष म भी सामािजक, राजनीितक या धािमर्क

    िविधिनषेध म या कुशलता म िकंिचत ्मात्र भी आगे नहीं बढे ह। पुरा यरुोप ये सोच ंरहा ह की म कल के आगे

    आज गया या नहीं, कुछ अिधक सीखकर कुशल हुआ हँू या नहीं, बाप से सवाई हुआ या नहीं; हम सारे कल के

  •  

    www.savarkarsmarak.com

    तो छोडो ऐिहक काल के भी आगे नहीं गए। ब की गत पाँच हजार वष म हमारे ग्यान म िबलकुल वदृ्धी नाही

    हुई इस बात पर गवर् करते ह। बाप को जो ज्ञात नहीं था, वह मझु ेज्ञात हो ऐसा कुछ नया सीखगे तो बाप का

    बड पन कैसे कायम रहेगा? यही हमारा डर ह। हमारे पूवर्ज ित्रकालज्ञानी थे और उनके ग्यान के िवपरीत कुछ

    सीखना उनके ित्रकालबािधत ज्ञान का अपमान होगा यह हमारी प्रितज्ञा है। अतः ऐसा पाप अपन से तो नहीं हो

    रहा? उनको जो अज्ञात था वह हम ज्ञात तो नहीं हो रहा, यह हमारी िचतंा का िवषय बना ह। वेदकाल म िजस

    बैलगाडी म बैठकर हमारी सं कृित चल रही थी उसी बैलगाडी म बैठकर इस रेलगाडी के युग म वह र र र

    आवाज करती हुई चल रही ह। यह हमारी िृत मिृतपुरोणोक्त प्रवृ ती प्राचीन काळ से आज तक लगातार

    चलती आ रही ह। ज म से मरण तक जो-जो आचार या िनबर्ंध मनु मिृत जसैी आ य मिृत म कही गई ह,

    वे आचार या िनबर्ंध, युक्तता आधार पर नहीं अिपतु मखु्यतः ‘एष धमर्ः सनातनः’ नामक एक प्रकार की

    राजमदु्रा को ठोककर ही हम वीकारते ह। वह बात िृत मिृतपुरोणोक्त ह इतनाही एक मखु्य कारण आगे

    िकया जाता ह। लहसनु क्य नहीं खाना चािहए, उसका कारण िकसी पिरि थित म वै यकीय ि ट से िहतकर ह

    या नहीं, इसका परीक्षण न करते हुए केवल ‘एष धमर्ः सनातनः’ ऐसा कहकर उसका पालन िकया जाता ह। िदन

    म मलमतू्रो सगर् उ तरािभमखु करना चािहए और रात को दिक्षणािभमखु ऐसा क्य ? बस ‘एष धमर्ः सनातनः’।

    हमारे प्रथम ीमान मनु राजिषर् की स ता से अिंतम रावबाजी की राजस ता तक रा य- यवहार म भी अनेक

    मह वपूणर् जातीय या रा ट्रीय सम याओं के जो िनणर्य लादे गए, वे िनणर्य बदलती ि थित म उपयुक्त ह या

    नहीं-इसकी िबलकुल जाँच न करते हुए केवल उपयुर्क्त एकमेव राजमदु्रा लगाकर कहते थे की नया करना नहीं।

    पुराना न ट करना नहीं। िशवछत्रपित या शाहू छत्रपित, पहले बाजीराव और अिंतम बाजीराव, इनके अिभलेख के

    सकैड िनणर्य-पत्र म यह वाक्य, सभी िववाद एकदम बंद करनेवाले ब्र मवाक्य के समान कहाँ-कहाँ, िकस प्रकार

    िदखाई देता ह, यह इितहासकार को ज्ञात ह। पुराना बाधक बनने लगा, सडने लगा, इसिलए जो वाद, सघंषर्,

    सकंट उ प न हो गए उ ह समा त करने के िलए आधार िफर वही वाक्य ‘पुराना न ट करना नहीं और नया

    शु करना नहीं’। इसी सतू्र वारा युगानुयुग िनपटारे करने के कारण पुराना अिधकािधक बाधक बनता गया,

    सडता गया। यह आज भी चल रहा ह। िफर भी आज पशर्बंदी, रोटीबंदी, समदु्रबंदी आिद िजन सामािजक

    िढय ने िहदं ूसमाज को प्राय न ट कर िदया, उन िढय को समा त करने की बात िनकालते ही िफर अपने

    को सनातनी ही नहीं अिपतु सधुारक कहनेवाले भी इस िढ को या उसके उ मलून को शा त्राधार ह क्या-इस

    एक सम या से याकुल होकर ग्रथं पर ग्रथं िलख रहे ह। शा त्राथर् की वही अथर्हीन चचार्ये िव वत पिरषद म

    पुन: पनु: चल रही ह। मनु राजिषर् का तो ‘एष धमर्ः सनातनः’, शाहू राजिषर् का ‘पुराना तोडना नहीं, नया करना

    नहीं’ और आज के ब्र मिषर् का ‘इसे शा त्राधार ह क्या?’ ये तीन यिक्त िजस एक ही पु ष के मानो औरस

    पुत्र ह वह पु ष यानी िृत मिृतपुराणोक्त ही ह। सही माने म हमारी िहदं ूसं कृित की पूवार्पार िवशेष प्रविृ त

    कौन सी, लक्षण कौन सा, महासतू्र कौन से यह बात एक श द म, अपवाद छोडकर, यक्त करनी हो तो वह

  •  

    www.savarkarsmarak.com

    श द ह िृत मिृतपुराणोक्त। आज की यूरोपीय सं कृित का जो प्रमखु लक्षण, अ याधुिनक ह उसके एकदम

    िवपरीत। वे पूजक ह ‘आज’ के, और हम पूजक ह ‘कल’ के। वे नए के पूजक, तो हम पुराने के। वे ताजा के

    भोक्ता, हम बासी के भोक्ता। कुल िमलाकर देख तो उनकी सं कृित अ याधुिनक और हमारी पुरातन।

    इस अ याधुिनक और पुरातन सं कृित के आज के प ट उदाहरण व प य यिप हमने यूरोपीय तथा भारतीय

    जनपद का ही उ लेख िकया ह तो भी वा तिवक प से यह अ यावतता या पुरातनता िकसी एक जनपद का

    या जाित का अपिरहायर् गणुधमर् न होकर वह प्रमखु प से एक त व का गणु ह। अपिरवतर्नीय श दिन ठ धमर्

    और प्र यक्षिन ठ, प्रयोगक्षम और प्रयोगिसद्ध िवज्ञान की िभ न प्रविृ त के ये िभ न नाम ह। जो-जो धमर्ग्रथं

    अपौ षेय समझा गया उसम समािव ट सं कृित भी सहज ही अपिरवतर्नीय समझी जाती ह। जो लोग इन

    धमर्ग्रथं की स ता अपने पर चलने देते ह वे िृत मिृतपुराणोक्त के या पुरातन मत के पक्के दास हो बैठते ह।

    इन धमर्ग्रथं की मयार्दा के बाहर वे एक कदम भी नहीं रख सकते। इन धमर्ग्रथं की जब प्रथम रचना की जाती

    ह तो वे प्रथम िकसी एक सधुार का समथर्न करने हेतु ही िलखे गए होते ह, और अपना यिक्त व ई वरीय

    शिक्त से जोडकर अपनी रचना अपिरवतर्नीय मानने लगते ह तथा ज द ही सधुार के कटु िवरोधी बन जाते ह।

    इन ग्रथं के दो पृ ठ के अदंर य यिप वे सम त िव व और सम त काल को बंद करने का मखूर्तापूणर् हठ

    करते ह। परंतु सदैव चंचल, सदा नई, अद य और अमोघ िनसगर्शिक्त तथा कालगित इन धमर्ग्रथं के दो पृ ठ

    म िनरंतर बदं थोड ेही रह सकती ह? ईश पे्रिषत का या प्र यक्ष ई वर का मनगढंत ह ताक्षर कर य यिप ये

    धमर्ग्रथं प्रकािशत िकए जाते ह तो भी भकंूप, वालामखुी, जलप्रलय, वज्राघात आिद को इन पोिथय के ताडपत्र

    म लपेटकर रखने का उनका प्रयास यथर् जाता ह। एक भकंूप भी उनके भगूोल को सहज ही न ट कर देता ह।

    उनकी पिवत्र नदी को वालमखुी एक घूँट म ही पी जाता ह। उ हे ज्ञात खंड प्रदेश न ट हो जाते ह। ई वर के

    नाम से अवतीणर् ग्रथं के श द की साख रखने म ई वर को थोडी भी िच या आव यकता है, यह बात इन

    ई वरी उ पात म नही िदखाई देती। उनके भगूोल की जो ि थित होती ह वही उनके इितहास की भी। वेद का

    दाशराज्ञ युद्ध यािन पंजाब जसेै रा य के एक िजले िजतने दस रा य की तनातनी। उसे उस समय के आयर्

    रा ट्र के बा यकाल म इतना मह व िमला की अिग्न, सोम, व ण की प्राथर्नाएँ, क णा की प्राथर्ना और

    सहायता के िलए सकू्त की रचना की गई। और देवताओं को भी पक्ष-िवपक्ष म बंटना पडा।

    यही बात िक्रि चयन, यहूदी, पारसी, मसुलमान आिद के अपौ षेय ग्रथंी की और उनके समय के इितहास की।

    उन ग्रथं के रचना काल म उनकी जाितय के िलए यह सब प्रसगं अ यंत मह वपणूर् लगना वाभािवक था,

    िफर भी आज के ित्रखंड म मोरचे बाँधकर लढनेवाले लाख सिैनक के प्रचंड महायदु्ध के मान के समक्ष उन

    मटु्ठठी भर लोग का संघषर् कुछ भी नहीं ह। आज के जग यापी साम्रा य की तुलना म उनके वे क्षुद्र रा य

    और राजधािनयाँ तु छ ठहरती ह। ग्रथं म इनका इतना गौरव िकया ह की इन ग्रथं को ई वरप्रणीत,

  •  

    www.savarkarsmarak.com

    ित्रकालदशीर्, सवर्ज्ञ और ित्रकालाबािधत समझना हा या पद लगता ह। उन धमर्ग्रथं के वणर्नानुसार उन देव-

    देवताओं को वे राजा, उनकी राजधािनयाँ, वे रा ट्र इतने रक्षणीय लगते थे की उनकी सरुक्षा के िलए उ ह ने

    ई वरीय सकू्त और देवदतू की सेनाएँ भेजी थीं, तो िफर उनके िबना भी दिुनया चल सकती ह ऐसा उसी ई वर

    को बाद म क्य लगा। आज वह बैबीलोन के जार की राजधानी कहाँ ह? वह इजराइल का वणर् मिंदर, वे

    असीिरयन, वे खाि डयन, वे पारसी, वे क्रोधी मोलाक देवता के मिंदर, वे सब गए कहाँ? रघुपतेः क्व गतो तर

    कोसला? यदपुतेः क्व गता मथुरा पुरी?

    प्रकृित और काल, वयं को अपिरवतर्नीय और ित्रकालाबािधक समझनेवाले धमर्ग्रथं के ताडपत्र का चूणर् करके

    व छंद दंगा करते ह। िफर भी इन ग्रथं के आगे कदम रखना ही नहीं, ऐसी मखूर्ता करनेवाले लोग की

    सं कृित, उनके धमर्ग्रथं की प्राचीन सं कृित की अपेक्षा, कभी भी अिधक िवकिसत नहीं हो सकती। यह क्या

    अलगसे बताना होगा?

    जब तक बाइिबल को अपिरवतर्नीय और अपौ षेय मानते थे तब तक यूरोप भी ऐसा ही िृत मिृतपुराणोक्त

    पुरातन प्रविृ त के कुएँ का मढ़क बनकर पडा हुआ था। पृ वी गोल ह यह नया स य आिवभूर्त होते ही, वह

    प्रमािणत करने के िलए, इसी यूरोप न प्रयोगिसद्ध त यो के बजाय ‘बाइिबल म वैसा िलखा ह क्या?’ इतनाही

    सवाल पूछा था। पृ वी गोल ह यह बात िृत मिृतपुराणोक्त ह क्या? यिद बाइिबल म पृ वी सपाट मदैान के

    समान ह, ऐसा िलखा ह तो पृ वी को वैसा ही होना चािहए। कोलबंस ने अमेिरका भखूंड ढँूढ िलया। तब भी ऐसे

    िकसी भखूंड का, ई वर प्रद त सवर्ज्ञ, ित्रकालाबािधत बाइिबल म उ लेख नहीं ह, अतः वह हो नहीं सकता-ऐसी

    धमार्ज्ञा इसी यूरोप ने की थी। पोप कैसा भी बतार्व करने पर अ खलनीय ही होगा, यह यूरोप की कभी ढ द्धा

    थी; मतृ यिक्त िकतना ही पापी हो, पैसे देकर लाई गई पोपकी िसफािरश िचट्ठठी पे्रत के हाथ म रखकर गाडने

    पर उसके िलए वगर् के वार अव य खुलते ह। इस प्रकार िृत मिृतपुराणोक्त िन ठा से लाख पे्रत के हाथ

    म ऐसी लाख िचट्ठिठयाँ इसी यूरोप के कबरी थान खोदनेपर िदखाई दगी।

    जो बात यूरोप के िक्रि चयन लोग की वही बात मसुिलम जगत ्की। यूरोप ने पुरातन विृ त को नकारा और

    कड ेसघंषर् के बाद आज वह वैज्ञािनक अ याधुिनक प्रविृ त का समथर्क ह। परंतु कमाल पाशा का तुिक थार्न

    छोड कर शेष मसुिलम जगत,् िहदं ूजगत ्के ही समान, आज भी इस बाबा वाक्यं प्रमाणम ्का बंदा गलुाम हुआ

    ह। इसिलए िहदं ूके समान मसुलमान भी यूरोप के उस वैज्ञािनक, अ यावत ्सं कृित के स मखु लगातार िनराश

    और हतप्रभ हो रहा ह। यही ि थित पारसी तथा यू लोग की ह।

    इस लेख म प्रमखु प से अपने िहदं ूरा ट्र के सबंंध म ही कहना ह। अतः धािमर्क और वैज्ञािनक याने पुरातन

    और अ याधिुनक यह जो दो प्रविृ तय का िववरण िकया है, उनकी सामा य चचार् यहीं यागकर हम इतना ही

    कहना चाहते ह की िृत मिृतपुराणोक्त के िपजंड ेम हमारे समान गलती करनेवाले सभी फँसते आए ह, परंतु

  •  

    www.savarkarsmarak.com

    दसुरे भी फसते है इस आधार पर हमारा भी उसी िपजंड ेम रहना क्ष य ह, सहज ह-ऐसा समझना सरासर गलत

    होगा। हम िजसे अपौ षेय और ित्रकालाबािधत मानते आए ह वह धमर्ग्रथं आज के सम त उपल ध धमर्ग्रथं म

    पुरातन, पाँच हजार वषर् पूवर् के भी मान ल तो भी पाँच हजार वषर् िपछडा ह। दिुनया पाँच हजार वषर् आगे बढ

    गई ह। परंतु आज के वैज्ञािनक ग्यान से उसी परुाने ग्रथं का पुरातन ग्यान े ठ मानने का हमारा ढ सकं प,

    पाँच हजार वषर् के िपछडापन आज भी ज मितिथ से लेकर मृ युितिथ को िकस प्रकार से िचपककर बैठा ह यह

    प ट करने के िलए इस धािमर्क-पुरातन प्रविृ त की अधंपरंपरा के दो-चार उदाहरण मागर्दशर्न हेतु िवचार म

    लेते ह।

    प्रथम अपनी यज्ञ सं था को ही देख। अ यंत शीत प्रदेश म अिग्न का सहचयर् सखुकारक होता ह। ऐसे िकसी

    शीत प्रदेश म और शीत काल म, यज्ञ सं था ने ज म िलया। उस काल म घर-घर म अखंड अिग्नहोत्र और

    समय-समय पर प्र विलत होनेवाले बड-ेबड ेयज्ञ आरोग्यप्रद और सखुप्रद होते ह गे। परंतु आजकल के भारत की

    अस य उ णता म इस अिग्नपूजा से िकसी भी प्रकार का भौितक िहत पूरा नहीं होता। इस प्रकार की आग घर-

    घर और गाँव-गाँव म जलाकर रखना दःुखदायी ही होता ह। प्राचीन काल म अिग्न जलाने के साधन भी सलुभ

    नहीं थे। वन म पेड पर पेड िघसकर अिग्न प्र विलत होती हुई देखकर प्राचीन मानव को कृित्रम अिग्न उ प न

    करने की िव या ज्ञात हुई। उसका उपयोग यज्ञ सं था म होना सहज ही था। परंतु बाद म उसपर धािमर्क छाप

    पडने के कारण, जब अिग्न मािचस की लकडी के गलु म भी सँभालकर रखी जा सकती ह िफर भी यज्ञ की

    पिवत्र अिग्न कहते ही अ यंत प्राचीन और अ यंत अज्ञानी पद्धित से ही, मतं्रपूवर्क लकडी पर लकडी िघसकर

    अिग्न प्रदी त हो, ऐसी दयद्रावक प्राथर्नाओं से साथ जलाना पडता ह। लकडी और चकमक इन अज्ञानी साधन

    के अलावा अिग्न प्र विलत करने का एक भी साधन गत पाँच हजार वष म हम ढँूढ नहीं पाए। यूरोप ने

    मािचस की खोज की, िबजली िनकाली, दीप योितः नमो तुत ेआिद क णापूणर् प्राथर्ना न करते हुए लाथ मारकर

    भी बटन दबानेपर तुरंत तेज वी प्रकाश देनेवाली िबजली को दासी बनाया। परंतु हम- िृत मिृतपुराणोक्त पिवत्र

    अग्नी लकडी पर लकडी िघसकर जलाना अिनवायर् समझते ह। िपछड ेग्रथं को ित्रकालाबािधत मानने वाले को

    िपछडा ही रहना पडता ह। अिग्न देवता ह। ‘यज्ञाद्भवित पजर् यः’ ऐसी प्राचीन की भावना थी। इसिलए वे अिग्न

    म मन घी डालते थे यह बात तो समझ म आती ह। िफर भी अब हजारो वष के बाद अनुभव से यह िनि चत

    हुआ ह की अिग्न का नसैिगक गणु क्रोध करने पर न बढता ह, उसे प्रस न करने पर न शांत होता ह। घतृ की

    सतत धार पकडकर ‘अग्ने नय सपुथा राये अ मान ्देव वसनुािन िव वान’् ऐसी प्राथर्ना करनेवाले यजमान के

    घर वही यज्ञ की अिग्न समय आनेपर उसी घर को भ म करने से नहीं चूकती। इस प्रकार यज्ञ की अिग्न

    हमेशा प्र विलत रनहेवाले भारत देश म, दस वषर् म िजतने अकाल हुए उतने पैसे की मािचस म अिग्न को बंद

    करनेवाले यरूोप म सौ वष म भी नहीं हुए। यज्ञमतं्र और पजर् यसकू्त गा-गाकर भारतवािसय का गला सूख

    गया तो भी इस धािमर्क िवचार को पजर् य भीख नहीं डालता। िकंतु स ने पजर् य का वैज्ञािनक सकू्त ढँूढतेही

  •  

    www.savarkarsmarak.com

    अब कोई भी, वषार् ऋतु न होते हुए भी, पजर् य को बुलाए तो पजर् य ज र उनके चरण म िगर पडता ह।

    िवमान िकसी दरू की नदी से जल खींच लेता ह, और िफर चाहे िजस खेत पर िकसी जल से भरे हुए बादल के

    समान वषार् करता ह। ऐसे अनुभव के उपरांत अब उस यज्ञ सं था का हम िवसजर्न नहीं करना चािहए क्या?

    यिद थोडा दधू उफनता ह या घी की कटोरी ितरछी हो गई तो बहू को सास दोष देती ह, ऐसी ि थित म मन

    घी हम लोग समारोहपूवर्क अिग्न को अिपर्त करते रहते ह। कारण? कारण इतना ही ह की वैसा करना

    िृत मिृतपुराणोक्त ह। उस यज्ञ सं था का आयार्वतर् पर जो प्राचीन काल म अनंत उपकार हुए, उसके सबंंध म

    कृतज्ञता यक्त करके अब इसके आगे उस अिग्न म घी का एक भी बँूद न डालते हुए बुद्ध के समान वह सारी

    यज्ञ सामग्री और वह यज्ञकंुड गगंा म िवसजर्न करना उिचत ह। यज्ञा भवित पजर् यः, यह सतू्र छोडकर अब

    िवज्ञानदेव पजर् यः यह सतू्र नई मतृी म िलखना चािहए।

    वैसे ही शंकराचायर् की पालकी! पालकी और बैलगाडी इन वैिदक काल के वाहन के बाद गत पाँच हजार वष म

    हम नया वाहन िनिमर्त नहीं कर पाए। िवज्ञानिन ठ यूरोप ने तीन शतक म अब तक तीन सौ प्रकार के वाहन

    ढँूढ िनकाले। दचुाकी, मोटर, रेलगाडी, िवमान और अब सायकल जसेै पाव से चलने वाले िवमान-हर यिक्त

    वयं आकाश म उडने की ि थित म ह। परंतु हमारे शंकराचायर् चार यिक्तय के कंधे पर बैठकर ही शोभा

    यात्रा िनकालते ह। ग्राम तक यात्रा मोटर से होगी। परंतु गाँव म पा यपूजा हेतु िनकलते ही मोटर पाखंड मानी

    जाती ह। उस िृत मिृतपुराणोक्त पालकी म बैठकर िदन म ही िृत मिृतपुराणोक्त मशाल जलाते हुए जाएँगे।

    प्राकृत जन को रात को िदखता नहीं, मशाल लगती ह। परंतु सकलशा त्र पारंगत लोग को िदन म भी मशाल

    के िबना नहीं िदखता। और मशाल भी वही धुएँवाली होनी चािहए. उसम अिधक तेज वी िबना धुएँ की िबजली

    पर चलनेवाली नहीं चलेगी। क्य िक वह िृत मिृतपुराणोक्त मशाल से अिधक अ छी ह, अतः या य ह।

    जो मशाल की बात वही उस नंदादीप समई की। पहले मिंदर के गभर्गहृ म अधेँरा होता था और समई के

    अितिरक्त िकसी अ य दीप की जानकारी नहीं थी। तब समई का नंदादीप ठीक ही था। परंतु अब गोलाब ती

    (ब ब) के वारा गभर्गहृ िदन के समान प्रकािशत होने पर भी उ ह नंदादीप की उपािध या प्राचीनता प्रा त नहीं

    होगी। जो गोलाब ती की ओर देखकर वयं ही शरमाती हो ऐसी समई जलाएँ तो ही भगवान के स मखु दीप

    जलाने का पु य प्रा त होगा। अिधक प्रकाशना मानो दीप का दीपपन नहीं ह, िकंतु िृत मिृत काल की मदं

    जलनेवाली योित िजतना ही प्रकाशक सही धािमर्क दीयापन ह। इसिलए िबजली के दीप को कोई भी

    ‘दीप योितनर्मो तुते’ कहकर नम कार नहीं करता। वह स मान तो उस मदं-मदं जलनेवाली सनातन समई को

    ही िमलना चािहए।

    गत पाँच हजार वष म नरकुल की लेखनी से अिधक अ छे लेखन के साधन की क पना भी हम िलखने के

    िलए नहीं कर सके। िवज्ञान-सं कृित के अ याधुिनक प्रविृ त के यूरोप ने मदु्रण कला को उठाया, टंक लेखक

  •  

    www.savarkarsmarak.com

    (टाइप राइटर), एकटंक (मोनो टाइप), पंिक्त टंकक (िलनोटाइप) एक के बाद एक खोज िनकाले। और अब

    बोलनेवाले की विन के साथ अपने-आप लेख टंिकत करनेवाला वयं टंक ही िनकल रहा ह। िशवाजी महाराज

    के पूवर् से ही पुतर्गीज ने िहदंु थान म छापखाना लगाया था, परंतु हम नरकुल की कलम से लंबे-लबें कागज

    पर कल परस तक अपनी पोिथयाँ िलखते रहे। क्य िक उस प्रकार के नरकुल से न िलखी हुई को पोथी कैसे

    कहगे? िज द लगाई हुई, छपी हुई पु तक को धािमर्क होने पर भी रेशम का पीतांबर पहनकर नहीं पढा जाता

    ह। पुरानी पोिथयाँ ही भािवक, पंत, पंिडत और भट िभकु्षक वारा पीतांबर पहनकर पढी जाती ह।

    हम ज म भी होता है केवल िृत मिृतपुराणोक्त परंपरा म। उ कृ ट प्रकाश, वायुश यौषिधय से युक्त िकसी

    आधुिनक प्रसिूत-गहृ म जाना यूरोप म ि त्रय का कतर् य समझा जाता ह। वही िश टाचार। परंतु हमारे यहाँ इसे

    िश टाचार का भगं माना जाता ह। सभी सिुवधाएँ उपल ध होने पर भी ऐसे प्रसिूत-गहृ म प्रसिूत हेतू जाना कोई

    बुरा कृ य ह ऐसा ि त्रयाँ ही समझती ह। परंतु यही सकंोच उ ह िृत मिृतपुराणोक्त अधंकार से भरपूर और

    गोबर से िलपे हुए कमरे म प्रसतू होने म नहीं लगता। प्रकाश, वायु, श यौषिध इनकी आधुिनक सिुवधाएँ ह या

    नहीं यह देखने की अपेक्षा पंचमी और ष ठी को देवी-डायन पूजा यथाशा त्र हो गई या नहीं इसकी िचतंा अिधक

    होती ह। नाल काटने की कची भी देवी के समान पीढे पर रखकर पूजी जाती ह। डायन कमर म न आए

    इसिलए िवशेष नरबेला की डािलयाँ या पि तयाँ देहरी पर आडी-ितरछी डालते ह, भाई-बहन को भी नूतन बालक

    को पशर् करना मना होता ह। डॉक्टर को भी नान करना पडता ह। ब चे को पहले िदन से ही सपू म सलुाकर

    अपने पास रखकर सपू की चावल और सपुाडी रखकर पूजा करनी होती ह। दस िदन तक इसी प्रकार बालक को

    सपू म ही सलुाते है। देवी-डायन का चक्कार रात बारह के बाद होता ह। अतः रात भर जागरण करना, सवर्प्रथम

    बटे्ट को ब चे के कपड ेपहनाकर झलेू म सलुाना और बाद म उसके पास ब चो को सलुाना, शाम को शांितपाठ

    करना, झलेू को प्रथम धक्का उसकी माँ की पीठ वारा देना, इन सभी सं कार म अ प भी अतंर नहीं पडना

    चािहए। नहीं तो ब चा और माँ पर डायन हमला करेगी। परंतु देवी-डायन की इतनी सेवा करनेवाले इस

    िहदंु थान देश म ही बालमृ यु दर भयंकर ह। इस देवी को कभी धूप जलाकर सगुंध न देनेवाले, शांितपाठ कभी

    न करनेवाले और प्रकाश, वायु की िचतंा न करनेवाले उस यूरोप के ज चे-ब चे को परेशान करने की देवी के

    बाप की भी िह मत नहीं होती ह। उन देश म बालमृ यु की सखं्या लगातार घट रही ह। लडके उ तर-दिक्षण

    धु पर चढाई करनेवाले और लडिकयाँ इंिग्लश चैनल तैरकर पार करनेवाली और अटलांिटक महासागर िवमान

    से पार करनेवाली ह। िवज्ञान की, आधुिनक सं कृित की पूजा करनेवाले देश म प्रसिूत-गहृ म पैदा हुई ये

    सतंान देख और हँिसयाँ-कची, डायन सबकी पूजा करनेवाल की हमारे िृत मिृतपुराणोक्त प्रसिूत-गहृ को हमारी

    सतंान देख।

  •  

    www.savarkarsmarak.com

    जो बात ज मितिथ को वही मृ युितिथ की। पक्की, बंद पेटी म पे्रत को ढककर ले जाना अिधक सिुवधाजनक

    होता ह। परंतु बाँस की कमिचय को गठाने मारकर बनाई गई अरथी उठाना वेदकाल से चलता आ रहा ह। वह

    अरथी भार के कारण कभी बीच म भी टूट सकती ह। पाँच हजार वषर् पुरानी अरथी पर, िवद्रपू मखु खुला

    रखकर, यह सहन नहीं हो रहा ऐसा मानो उसकी गरदन िहल-िहलकर कह रही ह। घर म उपले का टुकडा

    जलाकर एक िमट्टी के मटके म रखकर साथ म ले जाते ह। खुले म तक से िर तेदार तथा िमत्रमडंली मशान

    भिूम तक उसे ले जा रही ह। यह पे्रत-यात्रा िकतनी भी क टदायक हो तो भी पु यकायर् ह। कारण प ट ह,

    क्य िक वह िृत मिृतपुराणोक्त ह। भाग्य से हमारे पे्रत को दाह-सं कार देने की हमारी पद्धित अ छी ह। वह

    अ छी ह इसिलए नहीं, अिपतु वह सनातन ह इसिलए अभी तक चल रही ह, जो िहदं ूजाितयाँ पे्रत गाडना

    सनातन समझते ह वो आज भी गाड रहे ह। पे्रत जलानेवाले उसे नए िव युतगहृ म जलाने की मा यता नहीं

    दगे। जब िबजली का पता नहीं था, मािचस की खोज नहीं हुई थी तब से चल रही इस अज्ञानी पद्धित से आग

    जलाकर मटके म ले जाकर, बार बार बुझ रही उस िचता हो बीच बीच म बांस से कुरेदते हुये,

    िृत मिृतपुराणोक्त पद्धित से ही जलाई जाती ह। यिद हम िकसी भावुक प्रकृित के यिक्त को कहगे की तेरा

    पे्रत पेटी म बंद करके ले जाएँगे और िव युतगहृ म जलाएँगे तो बेचारा उस वातार् से धक्का लगकर जीते-जी ही

    मर जाएगा। वह यिक्त अपने मृ यपुत्र म िलखकर रखेगा की मेरे पे्रत की इस प्रकार ददुर्शा नहीं होनी चािहए।

    उसे कसकर अरथी को बाँधकर, लटकता हुवा खुला मुँह पुरे मागर् म ऐसे िहलता रहता है मानो मतृक मना कर

    रहा है, मशान म लकडी की िचता को बार बार बांस से कुरेदते हुये ही जलाना चािहए। कारण यह ह की वही

    िृत मिृतपुराणोक्त पद्धित ह और उससे ही स गित िमलती ह। स य ह। क्य की हजार वषर् की इस अज्ञानता

    को अपिरवतर्नीय श दिन ठ धमर्ग्रथं ने अमर करके रखा ह।

    इस सामा य वैयिक्तक प्रकरण के समान रोटीबंदी, समदु्रबंदी, पशर्बंदी, शुिद्धबंदी जसैी अपने िहदं ूरा ट्र को

    अवनित की ओर ले जानेवाली दु ट रा ट्रीय िढय को भी ये िृत मिृतपुराणोक्त ग्रथं आज भी अमर कर रहे

    ह। इस कारण रा ट्र मृ यु