कन्ड ास साहित्य2 न अहर म भलर र मक तनभ ई ह...

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1 कनड दास साहिय ो. स मंगला म मगटी भारत अनेक भाषाओं, संक तय एवं ध की स ध धरती है। इस भी कनााटक अनेक भतं का उभव ह आ है और ध के बोधक, धोदेशक एवं हाा इस ावन धरती र अवतरत ह ए ह। उहने साज नट होते रहे आदशा जीवन य- आचार-ववचार, कायता, सौहादाता आदद को लेकर सय सय र सचेत करने का यास कया है। जनानस की तनराशा, जड़ता आदद ट ट कर नई आशा, नई चेतना ता स संक त को जगाने का, चार-सार करने का यन कया है, करते रहे ह। कनााटक की य गीन परिथिति : ९वीं, १२वीं शती से लेकर वजयनगर सााय की ाना तक कनााटक की राजनीततक, सााजक और धााक ततया संकटत ीं। होय्सळ राजाओं की अवनतत के सा छोटे राजा-हाराजा वयं को वतं घोवषत कर झगड़ा करते रहे और उर भारत के सलान राजाओं ने इसका फायदा उठाया। हले अलाउदीन ने और बाद लका र ने कनााटक के होय्सळ राजाओं को द बाल बनाया। इस कार भारत भर सलान शासक के असर आण और ल टाट ने अशांतत, अयवा ैदा की। कनााटक भी इसका शकार बना रहा। सााजक, धााक ततगतय र भी इसका रणा ह आ। जनता तनराशा-वेदना के कारण ददरत हो गई ी। इस बीच सन् १३४६ ववजयनगर सााय की ाना ह ई। यह ३०० वष तक बना रहा। इस अवधध ववजयनगर सााय र साव, त ळुव और अरवीड वंश के राजाओं ने शासन कया। इसी सय कनााटक ही नहीं भारत भर भारतीय संक त एवं दहं धा कनरान ह आ। इस देश के ववध भतं के इतहास के अवलोकन से यह वददत होता है क तीन भतं के उभव और वकास के लए दिण भारत ही ठभ रहा है। भतं के तीन सधांत ह- के रल के शंकाराचायाजी (लगभग ७८८-८२०) का अवैत सधांत, तलनाड के राान जाचायाजी (लगभग १०१७-११३७) का ववशटावैत सधांत एवं कनााटक के वाचायाजी (लगभग १२३८-१३१७) का वैत सधांत। इन तीन के वकसन कनााटक

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    कन्नड दास साहित्य

    प्रो. समंुगला ममु्ममगट्टी

    भारत अनेक भाषाओं, संस्कृततयों एवं धर्मों की सर्मदृ्ध धरती है। इसर्में भी कनााटक अनेक भक् तपंथंं ों का उद् भव हुआ है और धर्मों के बोधक, धर्मोपंथदेशक एवं र्महात्र्मा इस पंथावन धरती पंथर अवतररत हुए हैं। उन्होंने सर्माज र्में नष्ट होते रहे आदशा जीवन र्मल्यों- आचार-ववचार, कर्माण्यता, सौहादाता आदद को लेकर सर्मय सर्मय पंथर सचते करने का प्रयास ककया है। जनर्मानस की तनराशा, जड़ता आदद टलट कर नई आशा, नई चतेना तं ा सुसंकृतत को जगाने का, प्रचार-प्रसार करने का प्रयत्न ककया है, करते रहे हैं।

    कनााटक की युगीन परिम्थिति :

    ९वीं, १२वीं शती से लेकर ववजयनगर सर्माग्राज्य की स्ं ापंथना तक कनााटक की राजनीततक, सार्माक्जक और धार्र्माक क्स्ं ततयााँ संकटग्रस्त ं ीं। होय ्सळ राजाओं की अवनतत के सां छोटे राजा-र्महाराजा स्वयं को स्वतंत्र घोवषत कर झगड़ा करते रहे और उत्तर भारत के र्मुसलर्मान राजाओं ने इसका फायदा उठाया। पंथहले अ्लाउद्दीन ने और बाद र्में र्मलकापुंथर ने कनााटक के होय ्सळ राजाओं को दबुाल बनाया। इस प्रकार भारत भर र्में र्मुसलर्मान शासकों के असर आक्रर्मण और ललटपंथाट ने अशांतत, अव्यवस्ं ा पंथैदा की। कनााटक भी इसका र्शकार बना रहा। सार्माक्जक, धार्र्माक क्स्ं ततगततयों पंथर भी इसका पंथररणार्म हुआ। जनता तनराशा-वेदना के कारण ददग्भ रर्र्मत हो गई ं ी। इस बीच सन ् १३४६ र्में ववजयनगर साम्राज्य की स्ं ापंथना हुई। यह ३०० वषों तक बना रहा। इस अवधध र्में ववजयनगर साम्राज्य पंथर साळ्व, तुळुव और अरवीडु वंश के राजाओं ने प्रशासन ककया। इसी सर्मय कनााटक र्में ही नहीं भारत भर र्में भारतीय संस्कृतत एवं दहदंल धर्मा का पंथुनरुत्ं ान हुआ।

    इस देश के ववववध भक् तपंथंं ों के इततहास के अवलोकन से यह ववददत होता है कक प्रर्म ु तीन भक् तपंथंं ों के उद् भव और ववकास के र्लए दक्षिण भारत ही पंथषृ्ठभलर्र्म रहा है। भक् तपंथंं के तीन प्ररु्म र्सद्धांत हैं- केरल के शंकाराचायाजी (लगभग ७८८-८२०) का अद्वैत र्सद्धांत, तर्र्मलनाडु के रार्मानुजाचायाजी (लगभग १०१७-११३७) का ववर्शष्टाद् वैत र्सद्धांत एवं कनााटक के र्मध्वाचायाजी (लगभग १२३८-१३१७) का द्वैत र्सद्धांत। इन तीनों के ववकसन र्में कनााटक

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    ने अहर्म भलर्र्मका तनभाई है। भक् तपंथंं (रविववड़देश) तर्र्मलनाडु र्में उददत होकर, कनााटक र्में ववकर्सत होकर, र्महाराष्र र्में ं ोडी बहुत अर्भवदृ्धध कर, गुजरात र्में अवनतत को पंथा गई।1 १२ वीं शती तक जैनधर्मा का ववशषे प्रभाव रहा। इस शती र्में जैन धर्मा के शलन्यवाद के स्ं ान पंथर उसके ववरोध स्वरूपंथ भक् त र्मागा के तीन र्मतों का आववभााव हुआ- १) बसवेश्वरजी का वीरशैव र्मत, २) रार्मानुजाचायाजी का ववर्शष्टाद्वैत र्मत और ३) र्मध्वाचायाजी का द्वैत र्मत। होय्सळ राजाओं र्में प्रर्सद्ध और उदार भाव के र्भट्टदेव (रार्मानुचाया के प्रभाव से ’ववष्णुवधान’ कहकर नार्म बदल र्लया ं ा।) ने सभी र्मतवालों को आश्रय, स्ं ान-र्मान ददया ं ा। इसी प्रकार कळचलरर के राजा बबज्जळ ने बसवेश् वर को और उनके र्मत को स्ं ान-र्मान ददया ं ा। ववजयनगर साम्राज्य की स्ं ापंथना के सां सार्माक्जक, राजनीततक, धार्र्माक िेत्र के आंतररक कलह लगभग सर्माप्त हो गये। और उपंथयुा त र्मतों-संप्रदायों के ववकसन के र्लए अनुकल ल वातावरण तनर्र्मात हुआ।

    आरंभन र्में क्लष्ट-र्शष्ट संस्कृत भाषा र्में रधचत वेदोपंथतनषदों को सर्मझना आर्मजनता के र्लए लोहे के चने चबाने जैसे रहा। योंकक भाषा तं ा अध्ययन की कदठनाई तो दलर की बात रही, इनके सर्मीपंथ भी जाने का उन्हें कोई अधधकार नहीं ं ा। ऐसी ववकट-ववषर्म पंथररक्स्ं तत र्में वेदोपंथतनषदों के तत्वों को आर्मजनता की सर्मझ के अनुकल ल बोलचाल की कन्नड भाषा र्में बोधन करने हेतु कन्नड दास सादहत्य रूपंथाइत हुआ। भक् त की ऐसी ददव्यशक् त का सलत्रपंथात करनेवाले ंे बारहवीं शती के र्शवशरण। ये सार्माक्जक स्वास््य और भाषा एवं छंद की दृक्ष्ट से क्रांतत कर, आर्मजनता के र्लए बोलचाल की कन्नड भाषा र्में धर्मोपंथदेश करने लगे। इनका आराध्य दैव रहे र्शव। इन र्शवशरणों ने हर तरह के सार्माक्जक वैषम्य को अपंथने तत्वोपंथदेशों के द्वारा सुधारने का प्रयास ककया। इस प्रकार कनााटक र्में र्शवशरणों ने र्महाक्रांतत की। इसका ववशषे शे्रय र्महात्र्मा बसवेश्वर को है। इनके पंथश्चात ् के भक् त सादहत्य के प्रवताक रहे हररदास। इनके भक् त सादहत्य को ही ’दाससादहत्य’ कहा जाता है। श्रीहरर इन हररदासों के आराध्य दैव रहे। इन्होंन े र्शवशरणों के जैसे ही श्रीहरर की स्तुतत के सां सां सर्माज को सन्र्मागा पंथर चलने का नीतत-उपंथदेश देते हुए कीताने (कीतान), सुळदद एवं उगाभोगों की रचना की है। कन्नड सादहत्य र्में दास सादहत्य को भी वचन-सादहत्य का सा स्ं ान-र्मान रहा है। ववद्वानों ने शरण सादहत्य तं ा दास सादहत्य दोनों को भी ’तवतनधध’ (अिय भंडार) कहा है। सां ही इस प्रकार स्तुतत की है कक ये दोनों कन्नड वाग्भदेवी की दो आाँ ें हैं। दास सादहत्य को हररदास सादहत्य नार्म से भी अर्भदहत ककया जाता है। र्मध्य युग शरणों का वचन सादहत्य और हररदासों का दास सादहत्य दोनों र्में भी भगवत ् प्रेर्म तं ा ददव्य र्मधरु धर्मासुधा भरा हुआ है। ये अपंथने काव्यात्र्मकता के कारण अत्यधधक लोकवप्रय हो गए है। इनका

    1 ’उत्पंथन्ना रविववड,े साऽहं वदृ्धध ंकनााटके गता। वधचत वधचत ् र्महाराष्रे, गुजारे जीणातां गता’ - पंथद्र्मपंथुराण, उत्तर ंड, अ.१, श्लो. ४८.

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    संगीतत्व ने ही इन्हें अजरार्मर बना ददया है। ववजयगनर के राजाओं का शासनकाल दाससादहत्य का वसंतकाल रहा है। कनााटक के हररदास र्मध्वाचाया के अनुयायी रहे हैं। उनकी पंथरंपंथरा आजतक बनी हुई है।

    दक्षिण भारत के भक् तर्मागा के तीन र्महान ् आचायों र्में र्मध्वाचायाजी का स्ं ान ववर्शष्ट है। इन्होंने श्री शंकराचायाजी के अद्वैत र्मत एवं श्री रार्मानुजाचायाजी के ववर्शष्टाद्वैत र्मत को अस्वीकार कर अपंथने द्वैतर्मत की स्ं ापंथना की। इनका जन्र्म उडुवपंथ र्में हुआ। आनंद तीं ा पंथहला नार्म ं ा। वेदांगों का अध्ययन कर ‘पंथलणाप्रज्ञ’ नार्म से संन्यास दीिा ली। देश के प्रर्मु तीं ास्ं ानों की यात्रा कर ‘प्रस्ं ानत्रयी’ के बारे र्में अपंथना पंथांडडत्यपंथलणा भाष्य र्ल ा। लगभग ३७ ग्रंं ों की रचना की। र्मध्वाचायाजी ने ‘प्रस्ं ानत्रयी’ के आधार पंथर द्वैत र्मत के दाशातनक तत्वों का प्रततपंथादन ककया है। इस संप्रदाय की ववशषेता यह है कक इसके अनुसार ईश्वर, जीव और प्रकृतत के पंथांच भेदों को र्माना गया है। जैसे- १) ब्रह्र्म और जीव, २) ब्रह्र्म और जड़ जगत, ३) जीव और जडजगत, ४) देव और जीव, एवं ५) जड पंथदां ा और चर पंथदां ा।

    इनके अनुसार पंथरर्मात्र्मा अं ाात ् सािात ् ववष्णु। वह अनंत गुण पंथररपंथलणा होता है। वह उत्पंथवत्त, क्स्ं तत, पंथररहार, तनयर्म, ज्ञान, आवरण, बंधन और र्मोि जैसे आठ अशंों का सकृ्ष्टकताा है। र्मध्वाचायाजी का र्मत है कक ज्ञान, आनंद और क्याण गुण ही शरीर है। पंथरर्मात्र्मा एक ही होकर भी अनेक रूपंथ धारण करता है। इसीर्लए श्रीववष्णु सवातंत्र स्वतंत्र है, जीव तं ा जड़ जगत अस्वतंत्र है। लक्ष्र्मी भी तनत्य र्मु त, ददव्य एवं व्यापंथक है। लक्ष्र्मी चतुर्मुा ी ब्रह्र्म के द्वारा जगत की सकृ्ष्ट कराता है। और उसका तनयंत्रण करती है। लक्ष्र्मी की कृपंथा के बबना श्री हरर का प्रसाद प्राप्त नहीं होता। इस संप्रदाय के अनुसार जगत सत्य है तं ा जीव श्री हरर का ककंकर है। र्मध्वाचायाजी ने उपंथासना के दो प्रकारों को र्माना है- १) शास्त्राभ्यास और २) ध्यान। यह द्वैत र्मत भत और भगवान के र्मध्य स्ं ाई अतंर की स्ं ापंथना का प्रयत्न करता है। र्मध्वाचायाजी ने दाशातनक वववेचन और भक्तर्मागा दोनों का सर्मन्वय कर हृदयस्पंथशी उपंथदेश ददया है।

    र्मध्वाचायाजी ने देशभर र्में अपंथने र्मत का प्रचार-प्रसार ककया। कहा जाता है, गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के प्रवताक श्रीचतैन्यदेव भी र्माध्व संप्रदाय के ही रहे। र्मध्वाचायाजी कनााटक की दास पंथरंपंथरा के र्मलल पंथुरुष हैं। दास सादहत्य की बुतनयाद ही र्माध्वर्मत है। कन्नड दास सादहत्य पंथरंपंथरा अं वा हररदास पंथरंपंथरा तनम्नांककत है-

    नििरििीिा (लगभग १२४१ - १३३३) : १३वीं शती के नरहररतीं ाजी ने दास सादहत्य के सुव्यवक्स्ं त ववकास के र्लए नांदीगीत गाया। र्मध्वाचायाजी के पंथश्चात ् नरहररतीं ाजी ने पंथीठारोहण ककया। इन्होंने अनेक कीतानों का सजृन कर र्माध्वर्सद्धांत के सौरभ को प्रसाररत ककया। कुछ ववद्वानों का यह भी र्मानना है कक

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    अचलानंदजी दास सादहत्य के प्रं र्म व्यक्त हैं। लेककन उनके कीतानों के अवलोकन से उनकी भाषा नयी कन्नड जैसी होने के कारण यह र्मान्यता प्रायः असंगत लगता है और डॉ. क्ज. वरदराजजी ने अपंथने ‘श्रीपंथादराज के कृततगळु’ के पंथीदठकाभाग र्में अपंथना अर्भर्मत इस प्रकार व्यत कया है- यह सही है कक संस्कृत र्में १५ ग्रंं ों की रचना करनेवाले संस्कृत के प्रकांड पंथंडडत नरहररतीं ाजी कन्नड र्में भी कृतत रचना करने र्में सिर्म हो सकते हैं। नरहररतीं ाजी की स्तुतत करनेवालों र्में पंथुरंदरदासजी ही प्राचीन रहे हैं। इनके काव्यनार्म रहे हैं- ‘नरहरर’ और ‘रघुपंथतत’। इन्होंने कीतानों की रचना की है। उनके पंथश्चात ् श्रीपंथादराज तक अं ाात ् लगभग १०० वषा तक ककसी भी हररदास का उ्ले नहीं र्र्मलता, आदद आदद। अतः उपंथलब्ध उनकी रचनाओं के आधार पंथर र्मात्र उन्हें दास सादहत्य का प्रवताक र्मानना संददग्भध है। अतः श्रीपंथादराज ही कन्नड दास सादहत्य के आध्य प्रवताक हैं।1

    श्रीपादिाज (लगभग १४२२ - १४८०) : श्रीपंथादराज चने्नपंथट्टण के पंथास के अब्बलर के शषेधगरर आचाया और धगररयम्र्म दंपंथतत के सुपंथुत्र रहे। लक्ष्र्मीनारायण योगी इनके पंथलवााश्रर्म का नार्म है। इनके ववद्यागुरु स्वणातीं ाजी ने ही इन्हें श्रीरंग र्में र्मठाधधपंथतत तनयुत ककया ं ा। कहा जाता है कक इनके ववशषे पंथांडडत्य स ेआश्चयाचककत उत्तराददर्मठ के श्री रघुनां तीं ाजी ने इन्हें श्रीपंथादराज कहकर अर्भनंदन ककया। तब से ये इसी नार्म से प्रख्यात हुए।

    र्मध्वाचायाजी के सीधे र्शष्य पंथद्र्मनाभतीं ाजी की पंथीढ़ी के आठवें अधधकारी बने। कुछ सर्मय तक श्रीरंग र्में रहकर अनंतर यात्रा करते कोलार क्जले के र्मुळुबाधगल को आकर र्मठ की स्ं ापंथना कर वहीं बसे रहे। उस सर्मय र्मुळबाधगल ववजयनगर संस्ं ान का भाग ं ा। यह र्मठ श्रीपंथादराज र्मठ के नार्म से ख्याततप्राप्त है। वे छोटी छोटी कन्नड रचनाओं का सजृन कर अपंथने आराध्य दैव के र्लए कीतान सेवा करने लगे। यही दास अं वा हररदास सादहत्य के र्लए नांदी हो गयी। इनका काव्यनार्म है ‘रंगववठल’। इनकी १०१ कन्नड कृततयों की रचनाएाँ उपंथलब्ध हैं। डॉ. क्ज. वरदराजजी ने उनका संपंथादन ककया है तं ा वे र्मसैलर ववश्वववद्यालय द्वारा प्रकार्शत हैं। उनर्में कीतान, दंडक, सुळादद, उगाभोग, वतृ्तनार्म आदद सभी प्रकार की रचनाएाँ हैं। इनकी रचनाएाँ वैववध्यता, दाशातनकता, गुणवत्ता और संख्या की दृक्ष्ट से भी संपंथन्न हैं। इसर्लए ये दास सादहत्य के प्रवताक हैं।

    र्शवशरणों के काल र्में ही रधचत हुआ कहा जानेवाला ‘कीताने’ (कीतान) श्रीपंथादराजजी को एक र्सद्ध तनर्र्मात काव्यववधा के रूपंथ र्में र्र्मला। सां ही कनााटक की कन्नडजनता के पंथुराण संस्कार की र्मानर्सक र्सद्धता, जड जर्माई भक्त भावना, धर्मा जागतृत, जनता की कातुर आतुर र्मनक्स्ं तत आदद श्रीपंथादराजजी के र्मत प्रचार के सहायक अशं और साधन बने। 1 डॉ. क्ज. वरदरराज - श्रीपंथादराजर कृततगळु, पंथीदठका भाग

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    श्रीपंथादराजजी से आरंभ हुई कन्नड दास पंथरंपंथरा उनके र्शष्य व्यासरायजी से पंथ्लववत पंथुक्ष्पंथत हुई। प्रर्शष्य वाददराज, पंथुरंदरदास और कनकदासजी के द्वारा बहृत विृ बनकर ववकर्सत हुई।

    व्यासिाय (लगभग १४४७ - १५३९) : बन्नलर र्में इनका जन्र्म हुआ। श्रीपंथादराजजी के र्महत्व को जानकर ब्रह्र्मणतीं ाजी ने अपंथने र्शष्य व्यासरायजी को उनके पंथास र्शष्य रूपंथ र्में भेज ददया ं ा। ये ववजयनगर के कृष्णदेवराय के सर्मकालीन होने के सां सां उससे राजर्मयाादा भी प्राप्त र्मठाधधपंथतत रहे। इन्होंने संस्कृत र्में ‘तका ताण्डव’, ‘चदंरविका’, ’न्यायार्मतृ’ आदद ग्रंं और कन्नड र्में ‘श्रीकृष्ण’ काव्यनार्म के सां अनेक कीतानों की रचना की है। असंख्य सुळादद, कीताने, उगाभोगों की रचना की है। इन रचनाओं की ववषयवस्तु श्रीपंथादराजजी की सी है। इन्होंने अपंथने र्शष्य पंथुरंदरदास, कनकदासजी को भी दास दीिा दी। सोदे का र्मठाधधपंथतत वाददराजजी इनके और एक प्रर्मु र्शष्य रहे हैं। उस काल र्में र्मठाधधपंथततयों द्वारा संस्कृत र्में र्मत प्रचार होता रहा जबकक इन हररदासों के द्वारा कन्नड र्में प्रारंभ हुआ। इन सारे र्मठाधधपंथततयों को ‘व्यासकल ट’ तं ा हररदासों के गुट को ‘दासकल ट’ कहा गया है। हररदासों ने ववषयवस्तु का वैववध्य और संख्या की दृक्ष्ट से कई रचनाएाँ की हैं।

    श्री वाहदिाज (लगभग १४८० - १६००) : हलववनकेरे ग्रार्म र्में इनका जन्र्म हुआ। रार्माचाया तं ा सरस्वती इनके र्माता-वपंथता ंे । ‘वराह’ इनका जन्र्म नार्म है। वागीशतीं ाजी ने अनुग्रह कर इन्हें ‘वाददराज’ कहकर अर्भदहत ककया। व्यासराय के पंथास ववद् याभ्यास ककया। बहस अं वा वाद र्में कुशलर्मतत इन्हें ‘प्रसंगतीं ााभरण’ नार्मक बबरद ं ा। संस्कृत तं ा कन्नड दोनों र्में प्रख्यात पंथंडडत वाददराजजी ने अध्ययन के पंथश्चात ् भारत भर र्में यात्रा कर ‘तीं ाप्रबंध’ नार्मक ग्रंं की रचना की। श्री वाददराजजी ने आर्मजनता को अपंथनी वाक् शक्त के र्माध्यर्म से शास्त्र और सादहत्य दोनों को सर्मझाया। अपंथनी यात्रा के पंथश्चात ् इन्होंने उडुवपंथ जाकर अष्टर्मठों को एवं पंथयााय पंथद्धतत को भी व्यवक्स्ं त ककया। अतं र्में सोदा िेत्र र्में बसे रहे। इनकी प्रर्मु कृततयााँ हैं- लक्ष्र्मीशोभाने, रुक्र्मणीश ववजय, गुण्डकक्रये, वैकुण्ठवणाने, स्वप्न गद्य आदद सुदीघा तं ा दाशातनक तत्व बद्ध रचनाएाँ की हैं। कन्नड र्में अनेक कीतान, सुळादद, उगाभोगों को र्ल ा। इनका काव्य नार्म है ‘हयवदन’। इनकी ‘भीर्मसेन कार्र्मतनयादवनु’ नांक कं नकाव्य कीचकवध प्रसंग से संबंधधत है तं ा अत्यधधक ववस्ततृ व प्रभावी है। १२० वषा का सुदीघा जीवन जीकर सन ् १६०० र्में वृंदवनवासी हुए।

    पुिंदिदास (लगभग १४८४ - १५६४) : इनका जन्र्म पंथुरंदरगढ़ र्में हुआ। र्माता-वपंथता का नार्म वरदप्पंथनायक और लक्ष्र्मीदेवी रहा। अत्यंत धनी पंथररवार रहा। पंथुरंदरदास के पंथलवााश्रर्म का नार्म श्रीतनवास रहा। वपंथता वरदप्पंथनायक

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    सोना, चााँदी, हीरे-र्मोती के व्यापंथारी ंे । वपंथता न े बेटे को वज्रववद्या र्में योग्भय र्शिा देकर सुवणा व्यापंथार के सारे रहस्यों को र्स ाया ताकक बेटा अपंथने घराने की इसी व्यापंथार ववृत्त को आगे बढ़ाये। वपंथता की भााँतत ही शीनप्पंथनायक अं ाात ् श्रीतनवास भी अत्यधधक धनदाही और कंजलस। लेककन र्महासाध्वी सरस्वती देवी इनकी गहृलक्ष्र्मी बनी। वह हर्मेशा पंथलजा-पंथाठ, अततधं सत्कार र्में अर्र्मतानंद अनुभव करनेवाली र्महापंथततव्रता स्त्री ं ी। जबकक श्रीतनवास धनर्मद से र्मत्त ंे । ऐसे भौततक सु र्में र्मदर्मत्त शीनप्पंथनायक श्रीहरर के दास रूपंथ र्में पंथररवततात होने के र्लए पंथत्नी सरस्वतीदेवी की नं कारण बनी। सकृ्ष्ट तनयार्मक श्रीहरर शीनप्पंथनायक के धनर्मद को दलर करने एक गरीब ब्राह्र्मण का वेष धारण कर उसकी दलकान पंथर आता है। और उससे दयनीयता से याचना करता है- ‘स्वार्मी, बच्चों का उपंथनयन संस्कार करवाना है, इसर्लए या आपंथ ततनक धन की सहायता करेंगे?’ लेककन तब श्रीतनवास आज कल, कहते अतंतः पंथलरा तघसा हुआ तांबे का एक र्सका फें कता है। वह ब्राह्र्मण उसे छुए बबना वापंथस चला जाता है। लेककन सरस्वती देवी की उदारता, दयार्मयता की ख्यातत सुना हुआ वह उसके पंथास जाकर वही ववनती करता है। गरीब ब्राह्र्मण की याचना से दयालल सरस्वती देवी का र्मन वपंथघल जाता है। घर की सड़ती हुई असीर्म संपंथवत्त र्में से उस ब्राह्र्मण को छोटी सी वस्तु भी देती तो बडा हंगार्मा हो जाता ं ा। तब उसे अचानक अपंथने र्मैके से लाई हुई नं की याद आती है और वह उस अनर्मोल कीर्मती नं को ही उसे दान दे देती है। साध्वी से नं लेकर वह ववप्र सीधे श्रीतनवास की दलकान पंथर आता है और उस नं को धगरवी र कर रकर्म लेना चाहता है। नं को दे ते ही श्रीतनवास को लगता है कक वह अपंथनी पंथत्नी की है, अतः वह उस ब्राह्र्मण स े कहता है कक अब रकर्म नहीं है शार्म को आकर ले जाना। ब्राह्र्मण चला जाता है। श्रीतनवास दलकाण बंद कर सीधे पंथत्नी के पंथास आकर पंथलछता है कक नं कहााँ है? तब पंथत्नी कहती है सर नहाना ं ा इसर्लए तनकाल कर र ी है। श्रीतनवास कफर उसे लाकर दद ाने के र्लए कहने पंथर धर्मासंकट र्में पंथड़ी वह ववषप्राशन कर जीवन का अतं कर देना चाहती है। ववष की कटोरी उठाकर पंथीना चाहती ं ी कक उस र्में कट् आवाज के सां वही नं धगर जाती है। उसे दे ववपंथवत्त र्में उसकी रिा करनेवाले श्रीहरर की असीर्म र्मदहर्मा को वंदना करती हुई उसे पंथतत को लाकर देती है। ब्राह्र्मण से लेकर दलकान र्में पंथेटी र्में र ी हुई नं जैसी ही उसे दे कर श्रीतनवास को अचरज होकर तुरंत वापंथस दलकान आकर दे ता है तो उसर्में नं नहीं रही। इस घटना से र्महालोभी श्रीतनवास श्रीहरर की र्मदहर्मा से प्रभाववत होकर पंथरर्म ववरागी हो जाता है। अपंथनी असीर्म संपंथवत्त को दीन दर्लतों को दान कर श्रीहरर का पंथरर्मभत पंथुरंदरदास बन जाता है।

    पंथरर्म ववरागी बने पंथुरंदरदास पंथत्नी सदहत यात्रा करते हुए कृष्णदेवराय के सर्मय के ववजयनगर र्में आकर रहने लगते हैं। वहााँ व्यासरायजी का र्शष्य होकर उनसे ही ‘पंथुरंदरववठल’ का अर्भदान पंथाकर काव्यनार्म भी पंथुरंदरदास बन जाते हैं। तत्पंथश्चात ् उन्होंने उत्तर कनााटक, सोलापंथुर और पंथंढरपंथुर र्में संचार ककया। भक्तगान करते हुए लगभग ४ ला ७५ हजार

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    कीतानों की रचना की। लेककन सभी उपंथलब्ध नहीं है। जीवन के अतंतर्म ददनों को हंवपंथ र्में व्यतीत ककया। तब तक वरदप्पंथ, गुरप्पंथ, अर्भनवप्पंथ, र्मध्वपंथतत नार्मक चार पंथुत्र और एक पंथुत्री के वपंथता हो गए ंे । ककंवदंती है कक चारों पंथुत्र हररदास बने। वे दासकल ट र्में हररचरण र्में लीन हुए। कीताने, सुळादद, उगाभोग इनकी काव्य ववधाएाँ हैं। इनकी प्रर्मु कृततयााँ हैं- भगवद् गीतासार, गजेंरविर्मोि, रविौपंथदद वस्त्रापंथहरण, वतृ्तनार्म, उदयराग, लावणण, बुडबुडडके पंथद आदद। वैववध्यर्मय अनुभव, ववचार पंथररणतत, ववर्मशाा दृक्ष्ट इनकी ववशषेताएाँ हैं। दैवभक्त के सां सां सार्माक्जक एवं अं ारदहत व्यवहारों का ती ी ववडबंनात्र्मक ववर्मशा इनकी उ्ले नीय ववशषेताएाँ हैं। संगीत िेत्र केर्लए इनकी ववशषे देन के कारण इन्हें कनााटक संगीत के वपंथतार्मह कहते हैं।

    कनकदास (१५०९ - १६०७) : गडररया जातत के रहे। धारवाड क्जले के बाड नार्मक गांव र्में इनका जन्र्म हुआ। र्माता बच्चम्र्म और वपंथता बीरेगौड़ ंे । अधधक सर्मय तक संतान प्राक्प्त नहीं हुई। अतंतः ततरुपंथतत के श्रीतनवास की कृपंथा से एक पंथुत्र का जन्र्म हुआ। इसर्लए इन्हें ततम्र्मप्पंथ कहकर नार्मकरण ककया गया ं ा। बीरेगौड़ अं वा बीरप्पंथ ववजयनगर के राजा के पंथास दंडनायक/सेनापंथतत ंे । बचपंथन र्में ही अ ाडा साधना, कुश्ती, तलवार चलाना आदद र्में आसत रहे और अच्छी शारीररक शक्त पंथाई ं ी। बचपंथन र्में ही वपंथता का देहावसान हो गया। इसर्लए उनके सेनापंथतत के कायाभार को स्वयं तनभाना पंथडा। कहा जाता है कक उसे अत्यंत सिर्म होकर तनभाया। कहा जाता है, भलशोधन करते सर्मय गाडा गया, धन स ेभरा हुआ हंडा र्र्मला, इसर्लए इनका नार्म कनक हो गया। उस धन का दवुवातनयोग ककए बबना ‘काधगनेले’ गांव र्में भव्य र्मंददर बनवाया तं ा जन्र्मस्ं ान बाड़ र्में क्स्ं त आददकेशव र्मलतत ा को लाकर प्रततष्ठावपंथत ककया। और ‘आददकेशव’ काव्य नार्म से कववता करने लगे। इस प्रकार इनकी कीतता वदृ्धध होने लगी। वे ववजयनगर साम्राज्य के अधीनस्ं बंकापंथुर प्रांत र्में सैन्याधधकारी होकर कनकनायक बने। सां ही सती सतुों के र्मोहपंथाश र्में भी बंधधत हुए। एक बार शत्र ुराजा बंकापंथुर पंथर आक्रर्मण करने पंथर अब तक कई युद्धों र्में शौया प्रदशान कर ववजयी बने कनकनायक अनेक प्रकार से युद्ध करने पंथर भी हार जात ेहैं। तब अपंथने शौया के कारण र्मदर्मत्त उनका अहंकार सारा र्मदटयार्मेट हो जाता है। सेनापंथतत कनक अधधकार र्में होत ेहुए भी उनका सदा भगवान के प्रतत झुकाव ं ा। कुछ सर्मय पंथश्चात ् र्मााँ और पंथत्नी की भी र्मतृ्यु हो जाती है। अनतंर ववजयनगर जाकर वहााँ के राजगुरु व्यासराय का र्शष्य बनकर दासकल ट र्में शार्र्मल हो जाता है। व्यासराय की आज्ञा र्मानकर उडुवपंथ जाकर वहााँ के सोदे र्मठ के श्रीवाददराजजी के अनुग्रह से कनकदास बन जाते हैं। कहते हैं अन्य दास शे्रष्ठों के जैसे अनेक पंथुण्यिेत्रों का संदशान कर अनेक कीतानों की रचना की। सकल िेत्रों की यात्रा कर उडुवपंथ आने पंथर पंथररचारकों के कारण कृष्णदशान नहीं हो पंथाता। तब र्मंददर के बाहर पंथक्श्चर्म

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    दीवार के पंथास ड़ े होकर स्तोत्र करने से पंथलवाार्भर्मु रहे श्रीकृष्ण ने पंथक्श्चर्मार्भर्मु होकर दशान ददये। अब भी उस स्ं ल र्में ‘कनकन ककंडी’ (कनक की ण ड़की) नार्मक ड़की है। अतंतः काधगनेले आकर भत, अन्यान्य र्शष्यों के र्मागादशाक, कृततकार होकर सर्मय बबताया। उनके देहावसान के स्ं ान के बारे र्में वववाद है। कुछ का कहना है कक ततरुपंथतत र्में और कुछ का र्मत है कक काधगनेले के आददकेशव र्में और कुछ का र्मानना है कक अपंथनी ९८ वीं वषा की आयु र्में काधगनेले के श्रीनरर्सहं के उदर र्में सर्मा गये। पंथादपंथीठ पंथर उनका अतंतर्म दशान हुआ। कनकदास सर्मकालीन दासशे्रष्ठ पंथुरंदरदासजी से भी अधधक गौरव के सां पंथुरस्कृत रहे। कनकदासजी ने सर्मकालीन सार्माक्जक अधंी रूदढ़यों का तीव्र डंन ककया है। अनेक र्मत-धर्मों का उपंथदेश पंथाकर भी, उन्हें तनष्ठ रही जनता के सां ही रहकर उनसे भी बदढ़या हृदयस्पंथशी भावनाओं को उपंथदेशों को अर्भव्यत करने का गुण ही इनके कीतानों का वैर्शष्ट्य है। इनकी प्रर्मु कृततयााँ हैं- हररभक्तसार, र्मोहन तरंधगणी, नळचररत्र,े उदयगीतेगळु, डोक्ळ्ळन हाडु, कणणपंथद, र्मुडडगेगळु आदद।

    पंथुरंदरदास के जैसे ही इन्होंने भी अपंथने सादहत्य र्में संगीत एवं नतृ्य का संयोजन ककया है। कनकदासजी ने दाससादहत्य की काव्यात्र्मकता, कलात्र्मकता की कर्मी की पंथलतत ा की है। डॉ.क्ज.एस. र्शवरुरविप्पंथजी का ववचार है- “कनकदास के कीतानों र्में पंथुरंदरदास के कीतानों से काव्यगुण अधधक है।”1

    महिपतिदास/महिपतििाय (१६११ - १६८१) : ववजयदासजी से ततनक पंथहले दाससादहत्य ववकर्सत हो रहा ं ा। र्मदहपंथततदास इसके र्लए कारणकताा रहे। लेककन कततपंथय संददग्भध कारणों से वे उपंथेक्षित रहे। इन्होंने १४ काव्यनार्मों से काव्य रचना की ं ी। इनका पंथुत्र कृष्णदास २१ काव्यनार्मों तं ा इनके वंशजों ने ं ोड ेबहुत बदलाव के सां इन दोनों के काव्यनार्मों से काव्य सजृन ककया है। अतः र्मदहपंथततदास की रचनाओं को पंथहचानना कदठन होता है। उनर्में हररदास के लिणों की उपंथक्स्ं तत को लेकर भी संददग्भधता है। उनके गहृस्ं होने तं ा संन्यासी होने को लेकर भी स्पंथष्टता नहीं है। यहााँ तक कक उनकी रचनाओं र्में सतही तौर पंथर अद्वैत दृक्ष्ट दद ाई देती है। इन सारी संददग्भधताओं के कारण र्मदहपंथततरायजी को इस पंथरंपंथरा र्में सर्माववष्ट करने र्में भी कदठनाई हुई होगी। इन सब वाद-वववादों के बावजलद भी उनकी कृततयों र्में ही उपंथलब्ध स्पंथष्ट आधारों के सहारे कहा जा सकता है कक व े र्माध्वसंप्रदार के ही रहे। सां ही के.दट.पंथांडुरंगीजी ने इनके कीतानों र्में सर्माववष्ट द्वैत तत्व को स्पंथष्ट ककया है।2

    1 डॉ. क्ज.एस. र्शवरुरविप्पंथ : कनकदासर ववर्शष्टत,े ‘पंथररशीलन’- पंथ.ृ १०२

    2 के.दट. पंथांडुरंगी : धश्रर्मदहपंथततरायर कृततगळक््लय आध्याक्त्र्मक दृक्ष्ट

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    इनका काव्यनार्म है ‘तरळबाल’ और ‘धचण्ण र्मदहपंथतत’। इनकी कृततयााँ हैं- कीताने, कोलाटपंथद, सुक्व्वपंथद, शोभानेपंथद, जोगुळपंथद, कोरवंक्ज पंथद इत्यादद। र्मदहपंथततदासजी अधधकतर योग्भयाभ्यास र्में लीन होने के कारण इनर्में योग ववचार द्वैतर्सद्धांत के प्रततपंथादन से भी अधीक अभीव्यत है। संगीत-नतृ्य तत्व की कर्मी दद ाई देती है। कुछ भी हो ये श्रीपंथादराज युग और ववजयदास युग के दाससादहत्य के बीच की कड़ी बने रहे।

    ववजयदास (लगभग १६३७ - १७३५) : ववजयदासजी दासादहत्य के द्ववतीय सोपंथान के पंथुनरुज्जीवन के कारणकताा रहे यद्यवपंथ राघवेंरवितीं ाजी से उसकी शुरुआत हुई। तनजार्म ससं्ं ान के अधीनस्ं रायचरु क्जले के र्मानवव गांव से तीन र्मील की दलरी पंथर चीकलबरवव नार्मक गांव है। वहााँ र्माध्वसंप्रदाय के देशस्ं ब्राह र्मण दम्पंथतत श्रीतनवासप्पंथ और कल सम्र्म बसे हुए ंे । उन्हें एक पंथुत्र रत्न ने जन्र्म र्लया। र्माता-वपंथता ने उनका ‘दासप्पंथ’ कहकर नार्मकरण ककया। छोटी आयु र्में ही वववाह भी ककया। १६ वषा तक वे र्माता-वपंथता की सेवा करते उनके सां ही रहे।

    इस अवधध र्में उस प्रांत पंथर प्रशासन करनेलायक एक कुशल सर्मं ा राजा नहीं ं ा। पंथररणार्मस्वरूपंथ चारों ओर के छोटे छोटे दहदंल-र्मुस्लीर्म अधधपंथततयों र्में कलह आरंभ हुआ। तब चीकलबरवव आदद गांवों र्में ललट-पंथाट र्मचकर इनके पंथररवार र्में भी पंथालक-बच्चों का अलगाव होकर ददशाहीन हो गए। दासप्पंथजी के पंथास कुछ भी न होकर देशांतर चले गए। इन अनुभवों ने उन्हें ववरागी बना ददया। पंथुरंदरदासजी से प्रेररत होकर हरर सेवा र्में जीवन व्यतीत ककया। तीन बार काशी यात्रा की, २७ बार भलवैकंुठ ततरुपंथतत की यात्रा की, अनकेानेक तीं ािेत्रों को पंथैदल ही जाकर असीर्म लोकानुभव पंथाया। दासपंथरंपंथरा को आगे बढाया। अनेक लोगों को हररदीिा दी। इनके ‘कीताने’, उगाभोग और सुळादद रचनाएाँ ववशषेरूपंथ र्में प्रर्सद्ध है। इनकी ववशषे कृततयााँ हैं- शोभाने हाडु, उरुटणे हाडु आदद। इनका काव्यनार्म है- ‘ववजयववठल’। इनका देहावसान गुंतकल के पंथास के धचप्पंथधगरर गांव र्में हुआ।

    प्रसन्न वेंकटदास (१६८० - १७५२) : इनका जन्र्म ववजयपंथुर क्जले के बागलकोटे र्में जन्र्म हुआ। ये ववजयदासजी के सर्मकालीन रहे। दाससादहत्य के र्लए इनकी देन इसर्लए उ्ले नीय है कक ववजयदास से अधधक न होती हुई भी उसके पंथोषण की पंथलरक रही है। र्महाराष्र का भक्तपंथंं पंथंढरपंथुर र्में व्याप्त होकर सोलापंथुर, ववजयपंथुर र्में प्रवेश करता रहा तब दाससादहत्य के पंथररशुद्ध वैष्णवभक्त का प्रचार-प्रसार कर र्महाराष्र के भक्तपंथंं के प्रवेश पंथर रोक डाली। इन्होंने बालभाषा के सहारे सादहत्य सजृन ककया। इनके इस र्मुग्भध बाला भाषा प्रयोग से दास सादहत्य अधधक लोकवप्रय हुआ। सांसाररक ववषय को पंथारर्माधं ाक ववषय की ओर प्रवतृ्त करने की रचनात्र्मक वैववध्यता इनका वैर्शष्ट्य है।

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    इनका काव्यनार्म है ‘श्रीतनवास’ अं वा ‘प्रसन्नवेंकट’। इन्होंने कीताने, सुळादद और उगाभोग र्ल े हैं। इनकी प्रर्मु कृततयााँ हैं- नारद कोरवंक्ज, नारायणपंथंजर, श्रीकृष्ण पंथाररजात आदद। सां ही भगवत के दशर्मस्कंध के पंथलवााद्ाध को कन्नड र्में अनलददत ककया है। संयोजन चातुया, तनरूपंथण कौश्य आदद के कारण यह एक स्वतंत्र कृतत सी लगती है। इसके कारण दास सादहत्य की कीतता व सर्मदृ्धध र्में वदृ्धध हुई।

    गोपालदास (१७२२ - १७६२) : रायचलर क्जले के गोपंथालदास ववजयदासजी के र्शष्य रहे। ‘गोपंथालववठल’ इनका काव्यनार्म है। इन्होंने भी कीताने, सुळादद और उगाभोगों की रचना की है। ‘तत्वसार’ इनकी र्महत्वपंथलणा कृतत है। संख्या, सत्व एवं गणुवत्ता की दृक्ष्ट से इनकी सुळादद उ्ले नीय है। ववजयदासजी र्में द् वैत र्सद्धांत के सलक्ष्र्मतत्वों के वववरण देने की ववशषे प्रववृत्त दद ाई देती है, उसी को गोपंथालदासजी ने आगे बढ़ाया। दास पंथरंपंथरा की दो ववर्शष्टताएाँ हैं- एक, दाससादहत्य की श्रीवदृ्धध र्में स्वयं योगदान देना और दलसरी, अन्यों को प्रेररत कर दास सादहत्य को आगे बढ़ाना। ववजयदास जैसे अनेक हररदासों ने यह र्महत्वपंथलणा काया ककया है। गोपंथालदासजी ने भी इस उभय सेवा र्में अहं भलर्र्मका तनभाई है। ववजयदास के आदेशानुसार गोपंथालदासजी ने अपंथनी आयु के ४० वषा जगन्नां दासजी को आयुदाान करने से ही हररकं ार्मतृसार एवं तत्वसुव्वार्ल जैसी र्मौर्लक और ववर्शष्ट कृततयों से दास सादहत्य सर्मदृ्ध और वैभवपंथलणा हुआ। यह सारा शे्रय गोपंथालदासजी को ही जाता है। यह एक अववस्र्मरणीय ऐततहार्सक घटना है। इसके सां ही गोपंथालदासजी ने क्स्त्रयों को भी दास पंथरंपंथरा र्में सर्माववष्ट कर अनुग्रह करने की पंथहल की है। यही कारण दास सादहत्य के पंथ्लववत पंथुक्ष्पंथत होने र्में हेळवनकट्टे धगररयम्र्म जैसी क्स्त्रयों के योगदान को भी भलला नहीं जा सकता।

    जगन्नािदास (लगभग १७२८ - १८०९) : ये ववजयदास एवं गोपंथालदास के र्शष्य रहे। ‘भत ववजय’ र्में तनरूवपंथत कं ा के अनुसार ये पंथहले अपंथने पंथांडडत्य गवा के कारण दासकल ट की तनदंा करते ंे । इनका पंथहला नार्म श्रीतनवासाचाया रहा। कुछ सर्मय के पंथश्चात ् हररदासों के प्रभाव से ‘जगन्नां दास’ बनकर पंथररवततात हुए। ववशषेतः ववजयदास तं ा गोपंथालदास के कारण पंथररवततात हुए। इन्होंन ेअत्यधधक कीतानों की रचना की। इनका काव्यनार्म है ‘जगन्नां ववठल’। इनकी ववर्शष्ट कृततयााँ हैं- हररकं ार्मतृसार(काव्य), तत्वसुव्वार्ल, वतृ्तनार्म सुळादद(३) और उगाभोग(१)। ‘वतृ्तनार्म’ कृतत रचना के र्माध्यर्म से इन्होंने श्रीपंथादराज और व्यासराय के द्वारा प्रारंभ हुई वतृ्तनार्म रचना पंथरंपंथरा आगे बढ़ाई है। इनका ‘हररकं ार्मतृसार’ दास सादहत्य की गररर्मा-र्मदहर्मा को बढ़ानेवाला अियतनधध है। इन्होंने दास पंथरंपंथरा तं ा दास सादहत्य दोनों को आगे बढ़ान ेका काया ककया है, जो इनकी र्महत्वपंथलणा देन है।

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    उपंथरोत प्रर्मु दासवरेण्यों के र्शष्य प्रर्शष्य पंथरंपंथरा आज तक बनी हुई है। दास सादहत्य के र्लए र्मदहलाओं का योगदान उंगर्लयों पंथर धगनन ेलायक है। कहा जाता है पंथुरंदरदासजी की पंथत्नी सरस्वतीदेवी ने ‘र्सररपंथुरंदर ववठल’ तं ा बेटी रुक्र्मणीबाई ने ‘तंदेपंथुरंुदर ववठल’ काव्यनार्म से कृतत रचना की।1 ककंतु उनकी शे्रष्ठ कृततयााँ अनुपंथलब्ध हैं। दास सादहत्य के द्ववतीय सोपंथान र्में ‘गलगर्ल अव्वजी’ ने ‘श्रीरार्मेश’ काव्यनार्म से कन्नड र्में रचनाएाँ कीं। उदा: र्मुय्यद पंथदगळु, र्मोरेगे नीरुतंद हाडु, बीगर हाडुगळु, श्रृगंारतारतम्य (हररकं ार्मतृ सार र्में वणणात द्वैतर्सद्धांत के देवता भेदभाव की पंथषृ्ठभलर्र्म पंथर रधचत) आदद। इनकी र्शष्या ‘प्रयागव्व’ नार्म से ख्याततप्राप्त ‘भागम्र्म’ की कन्नड र्में रधचत ‘भागवत’ (ततृीय स्कंध) प्रर्सद्ध है।2

    िेळवनकट्टे गगरियमम (लगभग १७५० - ) : दहरदास सादहत्यकारों से हेळवनकट्टे धगररयम्र्म पंथहली कवतयत्री के रूपंथ र्में ख्याततप्राप्त हैं। राणेबेन्नलर इनका जन्र्मस्ं ान है। दंपंथतत-तुंगम्र्म और बबष्टप्पंथळोय्सजी के दीघाकाल पंथश्चात ् ततरुपंथतत ततम्र्मप्पंथ के दशानभाग्भय से कन्यार्शशु का जन्र्म हुआ। दौवानुग्रह से जन्र्मी बच्ची को ‘धगररयम्र्म’ नार्मकरण ककया गया। छुटपंथन से ही स्तोत्र पंथठन, पंथलजा कायों र्में र्माता-वपंथता की सहायता करती ं ीं। लेककन छोटी आयु र्में ही उन्हें ो र्लया। और चाचा-चाची के आश्रय र्में पंथली बढ़ीं। धगररयम्र्म भगवान के गानों को गाते हुए नाचते हुए पंथरवश होने लगी। तभी एक बार उडुवपंथ यात्रा के र्लए उस र्मागा से जाते हुए दासशे्रष्ठ गोपंथालदासजी की इन पंथर कृपंथा हुई। तत्कालीन पंथरंपंथरा के अनुसार र्मलेबेन्नलर के पंथटवारी कृष्णप्पंथ के पंथुत्र ततम्र्मरस के सां धगररयम्र्म का बा्यवववाह हुआ। र्मीरा के जैसे ही धगररयम्र्म का र्मन भी रंगनां स्वार्मी पंथर ही आसत रहा। इसर्लए पंथाररवाररक जीवन से ववर्मु हो गयीं। ग्रंं ों र्में उक््लण त है कक स्वयं कन्या ढ़लाँढ़कर पंथतत का दलसरा वववाह कराया। स्वयं हररहर का स्र्मरण करते हुए देश पंथयाटन ककया। धगररयम्र्म ने वववादहता होकर भी ववराधगनी बनकर अपंथनी सीर्माओं र्में ही रहकर ववववध भक्तगानों के सां सां अनेक कीतानों का सजृन ककया है। गलगर्ल अव्व तं ा भागम्र्म की तुलना र्में दास सादहत्य के अतत सर्मीपंथ रही। इनका काव्यनार्म है ‘हेळवनकट्टेय रंग’। इन्होंने कई रचनाएाँ की हैं- चरंविहासन कंे , सीता क्याण, उद्दालकन कंे आदद।

    ििपनिम्ळळ भीमव्व : लगभग १८२० के बाद से आज तक भी हररभक्तनों की पंथरंपंथरा बनी हुई है। ववजयदासजी के सर्मय र्मदहला दास सादहत्य की शुरुआत हुई। १९वीं सदी की अवधध की हरपंथनहक्ळ्ळ भीर्मव्व का नार्म उ्ले नीय है। कीताने, सुळादद और उगाभोगों की रचना की है। इनका काव्यनार्म ‘भीर्मेशकृष्ण’ है। 1 डॉ. के.एर्म. कृष्णराव - श्रीजगन्नां दासरु : अनुबंध ३, पंथ.ृ ३८८

    2 डॉ. सरोक्जनी र्मदहवष - कनााटकद कवतयबत्रयरु, पंथ.ृ २४५

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    हेळवनकट्टे धगररयम्र्म की तुलना र्में इनकी कृततयों र्में सरल शैली र्में तनरूवपंथत द्वैत र्सद्धांतों के ववचारों का आधधय है। प्रर्मु रचनाएाँ हैं- र्मुय्यद हाडु, नळचररत्र,े कृष्णदानव्रत, सुभरविा क्याण आदद। यही नहीं, सावन के र्महीने र्में गाए जानेवाले संपंथत ्शुक्रवारद हाडु, शतनवार गौरी हाडु, ऐद ुशुक्रवारद हाडु आदद के रचनाकार रही हैं। भीर्मव्व के कारण दाससादहत्य की ववववधता एवं ववर्शष्टता र्में वदृ्धध हुई। सां ही इस प्रकार दास सादहत्य को लोकवप्रय बनाने का शे्रय भीर्मव्व को है।

    चे् लम्र्म, गणपंथक, सुंदराबाई, पंथक्न्न लक्ष्र्मीबाई, शांततबाई, लक्ष्र्मीदेवम्र्म आदद की देन को नकारा नहीं जा सकता। इनर्में अधधकतर र्मदहलाएाँ बाल ववधवाएाँ रहीं। इसीर्लए ववरत होकर हररभक्तन बनीं। कारण कुछ भी हो, इन हरर भक्तनों के कारण दास सादहत्य का क्षिततज ववस्ततृ हुआ।

    लगभग १३ वी ंशती स ेआजतक अबाधधत होकर दास सादहत्य गंगा प्रवादहत होती रही है। इसका ववस्तार, गहराई और अबाधधत प्रवाह के र्लए कई हररभतों अं वा हररदास दार्सयों ने अहं भलर्र्मका तनभाई है। ववशषेतः र्मदहलाओं ने इसकी र्मौण क पंथरंपंथरा को बनाये र ा है। इसीर्लए दास सादहत्य का अक्स्तत्व बना हुआ है। तनष्कषा यह है कक दास सादहत्य ने कन्नड भक्तसादहत्य को ववर्शष्ट आयार्म देकर अजर अर्मर बनाया है एवं अत्यधधक लोकवप्रय बनाया है।

    दास साहित्य की ववशषेिाएँ :

    अनुभूतिगि ववशषेिाएँ : धार्र्माक िेत्र के अन्यान्य संत-र्महात्र्माओं के जीवन का एकर्मात्र ध्येय आध्यात्र्म साधना ही है। हररदासों ने अपंथने सादहत्य र्में वैददक धर्मा के सारतत्व को लोकभाषा र्में अर्भव्यत ककया है। लोकभाषा र्में स्तरीय सादहत्य के योग्भय बनाने की िर्मता और सगंीत के र्माधयुा को सर्माववष्ट कर ददया है। कनााटक की भक्त पंथरंपंथरा र्में र्शवशरणों ने वचनों के द्वारा र्शव भक्त को वाणी दी है तो हररदासों ने अपंथने पंथद्यों के द्वारा हरर र्मदहर्मा को व्यंक्जत ककया है। दोनों ने अपंथने आराध्य का गुणगान ककया है।

    हररदास सादहत्य अं वा दाससादहत्य की ववशषेताएाँ तनम्नांककत हैं-

    स्वधर्मा तनष्ठा हररदासों का वैर्शष्ट्य है। श्री व्यासरायजी द्वारा प्रस्तुत र्माध्वर्मत के प्रर्मु र्सद्धांत को अन्यान्य हररदासों ने अपंथनी कृततयों के द्वारा आर्मजनता को सर्मझाने का प्रयास ककया है। श्री व्यासरायजी के अनुसार र्माध्वर्मत के तत्व तनम्नांककत हैं-

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    १) श्रीहरर सवोत्तर्म, २) जगत सत्य, ३) पंथंचभेद1 पंथारर्माधं ाक, ४) जीव हरर के अनुचर, ५) जीवों र्में भेद है, ६) स्वरूपंथ सु ानुभव ही र्मोि, ७) र्मोि का साधन पंथररशुद्ध भक्त, ८) तीन प्रकार के अनुर्मान और प्रर्माण और ९) हरर को सर्मझने के र्लए एक र्मात्र साधन वेद। हररदास बनने के र्लए आत्र्मशोधन अतनवाया शता है। इन हररदासों र्में कुछ गहृस्ं ंे और कुछ ब्रह्र्मचारी। ब्रह्र्मचारी श्री व्यासरायजी ने अपंथने र्मानर्सक संघषा को अपंथने स्वार्मी से कहते हुए र्मन को उसकी ओर प्रवतृ्त करने के र्लए तनवेदन करते हैं। गहृस्ं कनकदासजी के जीवन र्में घदटत घटना से श्रीहरर की ओर उन्र्मु होने के र्लए पंथत्नी कारण बनी। इसे लेकर उनका कहना है कक अच्छा ही हुआ-

    ‘आदद्दे्ल वर्ळते आइतु नम्र्म श्रीधरन सेवेर्माडलु, साधन संपंथत्ताइतु।’

    उपासना के ववववध थवरूप : दाससादहत्य र्में नवववध भक्त का अकंन ककया गया है- १) श्रवण, २) कीतान, ३) स्र्मरण, ४) पंथादसेवन, ५) अचान, ६) वंदन, ७) दास्य, ८) सख्य और ९) आत्र्म तनवेदन। श्रीहरर के र्शशुरूपंथ से लेकर यौवन तक के ववववध सोपंथानों का चलधचत्र सा वणान कर व्यासरायजी ने सगुण भक्त को प्रततपंथाददत ककया है। पंथुरंदरदासजी का वात्स्य धचत्रण बहुत ही र्मर्मास्पंथशी है, उदा- ‘जगदोद्धारन आडडर्सदळे यशोदे’ (जगदोद्धार को ण लाया यशोदा ने) टेकवाला गीत अत्यधधक प्रचर्लत और र्मनोहारी है। ‘जगदोद्धारन र्मगनेंद,ु ततर्ळयुवंत ेसुगुणांतरंगन आडडसदळेशोदे’ (बेटा कहकर र्माने जैसे सुगुणांतरंग को ण लाया योशोदा ने) र्में र्मातवृात्स्य की गररर्मा बबबंबत है। लुकातछपंथी ेलनेवाले श्रीकृष्ण की ोज र्में तनकली यशोदा की व्याकुलता, धचतंा इस पंथद्य र्में जीवंत हो उठा है- ‘अम्र्म तनम्र्म र्मनेगळक््ल नम्र्म रंगन काणणरेने?’ (र्माई, आपंथके घरों र्में हर्मारे रंग को दे ा है या?)। सां ही इसर्में उसका र्मुग्भध रूपंथ वणान करती हुई यशोदा र्में एक बेटे की र्मााँ सी व्याकुलता धचबत्रत है। हररदासों द्वारा अकंकत र्मााँ यशोदा के इस प्रकार का वणान एवं श्रीकृष्ण की बाललीलाओं का वणान दहदंी के भत सलरदास के बाल श्रीकृष्ण के धचत्रांकन र्में अत्यधधक सर्मानता पंथाई जाती है। कनकदासजी ने भगवान हरर के बारे र्में क्जज्ञासा भाव को इन पंथंक्तयों र्में साकार ककया है- ‘नी र्मायेयोळगो, तनन्नोळु र्मायेयो, नी देहदोळगो, तनन्नोळगे देहवो’ (या तल र्माया र्में, या र्माया तुझ र्में, या तल देह र्में, या तुझ र्में देह)।

    श्री व्यासरायजी ने शरणागतत भाव को व्यंक्जत करते हुए उसर्में दास्य भाव को र्मु ररत ककया है- ‘.....शरण्य नीनु, तनन्न शरणागत नानु, .......कावरर्लेंद ुश्रीकृष्ण एन्ननु कायबेकय्य तंदे। 1 पंथंचभेद हैं - जीव-जीव के भेद, जीव-जड र्में भेद, जीवेश भेद, जड-जड भेद और जडशे भेद।

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    आर्ळद नीनु तनन्ना सेवक’ (शरण्य तल, तेरा शरणागत र्मैं,....रिक नहीं हैं सो श्रीकृष्ण र्मेरी रिा करना वपंथता, शासक तल, तेरा सेवक र्मैं)।

    सभी भक्तपंथंं ों र्में स्र्मरण अं वा नार्मस्र्मरण को अत्यंत र्महत्वपंथलणा र्सद्ध ककया है। दहदंी के कबीरदास ने अजपंथाजापंथ को इसीर्लए सवाशे्रष्ठ र्माना है। हररदास भी इससे पंथरे नहीं है। ववजयदासजी ने नार्मस्र्मरण को ही रिक सवा पंथववत्र कहते हुए सुळादद की रचना की है-

    ‘नार्मवे कायुवद ुनार्मवे उर्ळयुवद ुनार्मवे सवा पंथववत्र र्माडुवद.ु.... नार्मवोंद ुनेनेये ववजय ववठलन धार्मवे आगुवद ुतडयेदे नर्मगे्ल।’

    पंथुरंदरदासजी ने अपंथने कीतान र्में नार्म की शक्त नारायण से भी बढ़कर र्माना है- ‘नीन्याको तनन्न हंग्भयाको, तनन्न नार्मद बलवोंददद्दरे साको।’ सां ही यह अर्भप्राय व्यत ककया है कक हरर के तीनों नार्मों के एक होने से पंथरर्मसु प्राक्प्त होती है-

    ‘रार्मनार्म पंथायसके कृष्णनार्म सकरे ववठ्ठलनार्म तुप्पंथव बेरेर्स बाइ चप्पंथररर्सरो।’

    र्माधयुा भाव भक्त भी हररदासों के काव्य की ववशषेता है। व्यासरायजी स्वयं को सुहाधगन र्मानकर, अपंथने इस सौभाग्भय के र्लए कारणकताा श्रीहरर से इस प्रकार प्रां ाना करते है-

    ‘बहुकाल तनन्न श्रवणवेंब होन्नोलेय बहुर्मानदददेंन्न ककववयोर्ळद्द ुर्मदहत र्मंगळसलत्रवेंबो दास्यवन्नु र्महानंददद जन्न कोरळोळे कट्दटदेयाधग एंदेन्न र्मनदददं अगलददरो’

    ‘हररश्रवण’ नार्मक सोने का कणााभलषण, ‘दास्य’ नार्मक र्मंगलसलत्र, ‘सदहष्णुता’ नार्मक आभलषण धारण कर बड ेअर्भर्मान के सां हरर की प्यारी स ी बन गए हैं। पंथुरंदरदासजी ने हरर अनंत के सािात्कार होने पंथर जो र्मधरु भावार्भव्यक्त करते हैं वह अवणानीय है-

    ‘अच्युत सुर्ळद एन्न कण्णर्मुंदे अव्व कस्तलरीर्मगृदंते घर्म घर्र्मसुव अनंत सुर्ळद एन्न कण्णर्मुंदे..... नगुत नर्लद ुर्मेलुवररवेन्ननप्पंथुत...

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    एन्न सलरेगोंड सेरेगोंड’

    कहते हैं, कस्तलरी र्मगृ के सर्मान सुगंध के हरर अनंत ने र्मेरा आर्लगंन ककया। पंथरर्मात्र्मा अपंथना होने पंथर भत-भगवान के र्मध्य स ाभाव का ववकसन दे ते ही बनता है इसर्लए भत भगवान की स्ततुत के सां -सां तनदंा भी करता है, उलाहना भी करता है। कनकदासजी लक्ष्र्मी को हरर से भी शे्रष्ठ र्मानते हैं-

    ‘तननधगतं कंुदेनो नम्र्मम्र्म जयलक्ष्र्मी तननधगतं कंुदेनो सनकाददगळ स्वार्मी, र्मनर्सजनोडयेन्ने कनक गभान जनक।’

    श्री हररदशान से दासों ने जो ददव्यानुभव ककया उसे अपंथना पंथुण्य फल र्माना है। श्री वाददराजजी की पंथंक्तयााँ दृष्टव्य हैं-

    कंड ेकंडनेो कृष्ण तनन्नदेय ददव्यर्मंगळ ववग्रह, कंडु बदकुकदे इंद ुनानु करुणणसो एन्नोडयने.... एन