श्री किर ंतन टीा श्री राजन स्वामी · 29...

1898
ी रंतन टीा ी राजन वामी ी रंतन टीा ी राजन वामी ाशः ी ाणनाथ ानपीठ ाशः ी ाणनाथ ानपीठ , , सरसावा सरसावा 1 / 1898 / 1898

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  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 11 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    श्री तारतम वाणी

    कि�रतंनटी�ा व भावाथ�

    श्री राजन स्वामी

    प्र�ाश�

    श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठन�ुड़ रोड, सरसावा, सहारनपुर, उ.प्र.

    www.spjin.org

    सवा�धि(�ार सरुधि)त (चौपाई छोड़�र) © २००७, श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा

    पी.डी.एफ. संस्�रण – २०१९

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 22 / 1898/ 1898

    https://www.spjin.org/

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    अनुक्रमणिण�ा प्रस्तावना 14

    1 पेहेले आप पेहेचानो र ेसा(ो 18

    2 बिंAद में सिंस( समाया र ेसा(ो 25

    3 सा(ो भाई चीन्हो सब्द �ोई चीन्हो 34

    4 सा(ो हम देख्या Aड़ा तमासा 415 सुनो र ेसत �े Aनजारे 506 भाई र ेAेहद �े Aनजारे 597 हो मेरी वासना तुम चलो अगम �े पार 738 हो भाई मेर ेवैष्णव �किहये वा�ो 819 �हा भयो जो मुखथें �ह्यो 8710 सुनो भाई संतो �हू ंर ेमहतंो 9511 र ेहू ंनाहीं र ेहू ंनाहीं 102

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 33 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    12 वचन किवचारो र ेमीठड़ी वल्लभाचारज वाणी

    110

    13 आज सांच �ेहेना सो तो �ाहू ना रुचे 12514 (नी न जाए कि�न�ो (ूतयो 14215 पधितत सिसरोमन यों �हें 15016 दखु र ेप्यारो मेर ेप्रान �ो 16317 सखी री आतम रोग Aुरो लगयो 17318 मैं तो किAगड़या किवश्व थें किAछुरया 19719 तुम समझ �े संगत �ीजो र ेAाAा 20320 सा(ो या जुग �ी ए Aु( 21221 चल्यो जुग जाए री सु( किAना 21822 र ेहो दकुिनयां Aावरी 22623 र ेहो दकुिनयां �ो तू ं�हां पु�ारे 23324 र ेमन भूल ना महामत 239

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 44 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    25 रस मगन भई सो क्या गावे 24726 खोज Aड़ी संसार 25227 �हो �हो जी ठौर नेहेचल (कि�रतंन

    वेदांत �े)259

    28 मैं पूछों पांडे़ तुम �ो 28429 संत जी सुकिनयो र ेजो �ोई हसं परम 30130 चीन्हे क्यों �र ब्रह्म �ो 31531 �लिल में देख्या ग्यान अचम्भा 32932 भाई र ेब्रह्मज्ञानी ब्रह्म किदखलाओ 34033 र ेजीव जी सिजन �रो नेहड़ा 35034 र ेजीव जी तुमें लागी दाझ मुझ

    किAछुड़ते (अA देह �ी तरफ �ा जवाA)369

    35 वालो किवरह रस भीनों 39436 हांर ेवाला रल झलाकिवयो 399

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 55 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    37 हांर ेवाला A(ं पड़या 40438 �ेम र ेझपंाय अंग ए र ेझालाओ 40939 हांर ेवाला �ांर ेआप्या दखु अमने

    अनघटतां415

    40 हांर ेवाला अकिगन उठे 42041 �रनी तुमारी मेरी मैं तौली 42442 मीठडा मीठा रे 43743 किवनता किवनवे रे 44144 म्हारा वस �ी(ल वाला रे 44545 आवोजी वाला म्हार ेघेर 45046 प्रीत प्रगट �ेम �ीसिजए 45347 खोज थ�े सA खेल 45948 लिखन ए� लेहु लट� भंजाए 46649 Aाई र ेवात अमारी हवे �ोण सुणें 471

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 66 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    50 Aाई र ेगेहेलो वालो गेहेली वात �र ेरे 47851 आज व(ाई वृज घर घर 48352 सतगुर मेरा स्याम जी 49253 (नी जी ध्यान तुमार ेरे 52454 हो साथ जी वेगे न वेगे 53655 आए आगम Aानी इत किमली 56356 भई नई र ेनवों खंडों आरती (आरती) 59057 �ृपा किन( सुन्दरवर स्यामा (भोग) 60758 राजाने मलो र ेराणें राए तणो 61459 ऐसा समे जान आए Aु( जी 63260 �ुली Aल देखो रे 64161 साहेA तेरी साहेAी भारी 66762 मांगत हों मेर ेदलुहा 69763 सिजन सु( सेवा �ी नहीं 714

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 77 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    64 तमें वाणी किवचारी न चाल्या र ेवैष्णवो 73765 ए माया आद अनाद �ी 75666 सैयां मेरी सु( लीसिजयो 77467 वाटडी किवसमी र ेसाथीडा Aेहदतणी 79868 अट�लें ए �ेम पांकिमए 80669 सुन्य मंडल सु( जो जो मारा संमं(ी 82770 हवे वासना हसे जे वेहदनी

    (मूलगी चाल)837

    71 लाडलिलयां लाहूत �ी (कि�रतंन आलिखर �े)

    848

    72 जंजीरां मुसाफ �ी 86773 जो �ोई सास्त्र संसार में

    (सास्त्रों �ी प्रनालिल�ा)871

    74 भवजल चौदे भवन 913

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 88 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    75 मेर े(नी (ाम �े दलुहा 94476 किनजनाम सोई जाहेर हुआ 95977 वतन किAसारिरया रे 98078 सखी री जान Aूझ क्यों खोइए 99279 साथ जी पेहेचाकिनयो 100480 मेर ेमीठे Aोले साथ जी 103281 सुन्दरसाथ जी ए गुन देखो रे 104682 सखी री मेहेर Aड़ी मेहेAूA �ी 105683 (नं (नं ए किदन साथ आनन्द आयो 107584 (नं (नं सखी मेर ेसोई र ेकिदन 108785 ए जो �ही जागन

    (तीन किव( �ा चलना)1100

    86 साथ जी जाकिगए 111687 आग परो धितन �ायरों 1131

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 99 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    88 सैयां हम (ाम चले 114289 चलो चलो र ेसाथ 115790 साथ जी सोभा देलिखए 117091 आगूं आसिस� ऐसे �हे 119092 अA हम (ाम चलत हैं 120793 अA हम चले (ाम �ो 122094 सुनो साथ जी सिसरदारो 123795 साई सोहाकिगन (ाम में 127696 तो भी घाव न लग्या र े�लेजे 129697 इन (नी �े Aान मो�ो ना लगे 132798 तो भी चोट न लगी र ेआतम �ो 134399 धि(� धि(� पड़ो मेरी Aु( �ो 1352100 (नी एते गुन तेर ेदेख �े 1362101 साथ जी सुनो सिसरदारो 1372

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1010 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    102 Aुजर�ी मार ेर ेसाथ जी 1386103 जो तू ंचाहे प्रधितष्ठा 1397104 �यामत आई र ेसाथ जी 1402105 मैं पूछत हों ब्रह्मसृष्ट �ो 1413106 ए सुच �ैसे होवहीं 1425107 झूठ सब्द ब्रह्मांड में 1438108 फुरमान मेर ेमेहेAूA �ा 1447109 मासू� मेर ेरूह चाहे सिसफत �रंू 1484110 �ारी �ामरी र े 1505111 फरAेी लिलए जाए 1517112 सरूप सुन्दर सन�ूल स�ोमल 1529113 चतुर चौ�स चेतन अधित चोपसों 1536114 नूर �ो रूप सरूप अनूप है 1540115 हुA मेहेAूA �ी आसिस� प्यास ले 1551

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1111 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    116 नूर नगन चेतन भूखन रचे 1558117 किमली मासू� �े मोहोल में माननी 1563118 मोकिमन लिलखे मोकिमन �ो 1569119 वारी र ेवारी मेर ेप्यारे 1586120 साथजी ऐसी मैं तुमारी गुन्हेगार 1592121 सिसफत तो सारी सब्द में 1601122 ब्रह्मसृकिष्ट Aीच (ाम �े 1617123 स्यामाजी स्याम �े संग 1623124 हम चडी सखी संग रे 1627125 वृथा �ां किनगमो रे 1635126 तमें जो जो र ेमारा सा( संघाती

    (कि�रतंन पुराने)1670

    127 पर न आवे तोले ए�ने 1774

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1212 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    128 माया �ोहेडो अ(ेंर �ेहेवाय (हांर ेमारा सा( �ुलीना सांभलो)

    1781

    129 हांर ेमारा सा( �ुली ना जो जो 1821130 (ोरीडा मा मू�े तारी (ूसरी 1846131 आवो अवसर �ेम भूलिलए 1855132 अदंर नाहीं किनरमल 1872133 किवसराई किगन्यो वंजे

    (कि�रतंन हु�ा�ो सिंस(ी भाखा में)1877

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1313 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    प्रस्तावना

    प्राणा(ार श्री सुन्दरसाथ जी! अ)रातीत श्री राज जी �ेकिदल में इल्म �े अनन्त सागर हैं। उन�ी ए� Aूँदमहामधित �े (ाम-हृदय में आयी, जो सागर �ा स्वरूपAन गई, इसलिलये �हा गया "नूर सागर सूर मारफत, सAकिदलों �रसी रोसन" अथा�त् ज्ञान �े सागर �े रूप में यहतारतम वाणी है जो मारिरफत �े ज्ञान �ा सूय� ह।ै यहब्रह्मवाणी सA�े हृदय में ब्रह्मज्ञान �ा उजाला �रती ह।ै

    "ह� इलम से होत है, अस� A�ा दीदार" �ा �थनअ)रशः सत्य ह।ै इस ब्रह्मवाणी �ी अलौकि�� ज्योधितसुन्दरसाथ �े हृदय में माया �ा अन्(�ार �दाकिप नहींरहने देगी। इस ब्रह्मवाणी �ी थोड़ी सी अमृतमयी Aूँदों �ाभी रसास्वादन �र�े जीव अपने लिलये ब्रह्म-सा)ात्�ारएवं अखण्ड मुकिz �ा दरवाजा खोल स�ता ह।ै

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1414 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    इस लक्ष्य �ी पूर्तित �े लिलये यह आवश्य� है कि� अने�भारतीय भाषाओं में अवतरिरत इस ब्रह्मवाणी �ा टी�ासरल भाषा में प्रस्तुत हो। यद्यकिप वत�मान में अने�ोंसम्माननीय मनीकिषयों �ी टी�ायें प्रचलिलत हैं, कि�न्तु ऐसाअनुभव कि�या जा रहा था कि� ए� ऐसी भी टी�ा हो, जोकिवश्लेषणात्म� हो, सन्दभ�, भावाथ�, स्पष्टी�रण एवंकिटप्पणिणयों से यzु हो।

    मुझ जसेै अल्पज्ञ एवं अल्प Aुधि वाले व्यकिz �े लिलयेयह �दाकिप सम्भव नहीं था, कि�न्तु मेरे मन में अचान�ही यह किवचार आया कि� यकिद �Aीर जी और ज्ञानेश्वर जीजसेै सन्त अपने योगAल से भैंसे से वेद मन्त्रों �ाउच्चारण �रवा स�ते हैं, तो मेरे प्राणवल्लभ अ)रातीतमेरे से टी�ा �ी सेवा क्यों नहीं �रवा स�ते ? इसीआशा �े साथ मैंने अ)रातीत श्री जी �े चरणों में

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1515 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    अन्तरात्मा से प्राथ�ना �ी।

    (ाम (नी श्री राजश्यामा जी एवं सद्गरुु महाराज श्रीरामरतन दास जी �ी मेहर �ी छाँव तले मैंने यह �ाय�प्रारम्भ कि�या। सर�ार श्री जगदीश चन्द्र जी �ी पे्ररणा नेमुझे इस �ाय� में दृढ़तापूव�� जुटे रहने �े लिलये प्रेरिरतकि�या। इन सA�ा प्रधितफल यह टी�ा ह।ै

    सभी सम्माननीय पूव� टी�ा�ारों �े प्रधित श्रा -सुमनसमर्पिपत �रते हुए मैं आशा �रता हूँ कि� यह टी�ाआप�ो रुधिच�र लगेगी। सभी सुन्दरसाथ से किनवेदन हैकि� इसमें होने वाली तु्रकिटयों �ो सु(ार �र मुझे भीसूधिचत �रने �ी �ृपा �रें, सिजससे मैं भी आप�ेअनमोल वचनों से लाभ उठा स�ँू एवं अपने �ो (न्य-(न्य �र स�ँू।

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1616 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    आप सA�ी चरण-रज

    राजन स्वामी

    श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा

    सिजला- सहारनपुर, उ० प्र०

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1717 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    श्री �ुलजम सरूप

    किनजनाम श्री �ृष्ण जी, अनाकिद अ)रातीत।

    सो तो अA जाकिहर भए, सA किव( वतन सहीत।।

    ।। श्री कि�रतंन ।।

    कि�रतंन �ा तात्पय� "�ीत�न" से ह।ै किवक्रम सम्वत्१७१२ में सद्गरुु (नी श्री देवचन्द्र जी �े अन्त(ा�न होने�े पश्चात् यगुल स्वरूप श्री किमकिहरराज जी �े तन मेंकिवराजमान हो गये और वाणी �ा अवतरण गोपनीय रूपसे प्रारम्भ हो गया। उस समय �े उतरे हुए कि�रतंनों में"किमकिहरराज" �ी छाप ह।ै

    किवक्रम सम्वत् १७१५ से हब्से में प्रत्य) रूप सेब्रह्मवाणी �ा अवतरण प्रारम्भ हुआ, सिजसमें "इन्द्रावती"�ी छाप है और किवक्रम सम्वत् १७३२ से "महामधित" �े

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1818 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    नाम से ब्रह्मवाणी उतरनी प्रारम्भ हो गयी। कि�रन्तन ग्रन्थ�ा प्र�टन �ाल किवक्रम सम्वत् १७१२-१७५१ त�ह।ै किवक्रम सम्वत् १७४८ में मारफत सागर ग्रन्थ �ेअवतरण �े पश्चात् भी कि�रन्तन ग्रन्थ �े छुटपुट प्र�रणउतरते रहे, जो (ाम चलने (धिचतवकिन) से सम्Aन्धिन्(त हैं।वस्तुतः यह कि�रन्तन ग्रन्थ सम्पूण� श्रीमुखवाणी �ा ए�लघु रूप �हा जा स�ता ह।ै

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1919 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    राग श्री मारु

    पेहेले आप पेहेचानो र ेसा(ो, पेहेले आप पेहेचानो।

    किAना आप चीन्हें पारब्रह्म �ो, �ौन �हे मैं जानो।।१।।

    श्री महामधित जी �े (ाम हृदय में किवराजमान हो�रअ)रातीत परब्रह्म उन�े श्री मुख से �हलवा रहे हैं कि� हेसन्त जनों! परब्रह्म �ी �ृपा �ी छत्रछाया में अपने किनजस्वरूप �ी पहचान �रो कि� मैं �ौन हूँ ? इन्धिन्द्रय,अन्तः�रण, जीव, ईश्वरी सृकिष्ट, और ब्रह्मसृकिष्ट में मेराकिनज स्वरूप क्या है? इसे जाने किAना यकिद �ोई यह�हता है कि� मैंने सधिच्चदानन्द परब्रह्म �ो जान लिलया है ,तो वह भ्रम �ा णिश�ार ह।ै

    भावाथ�- किनज स्वरूप तथा परब्रह्म �ो जानने �ेसम्Aन्( में दो प्र�ार �ी किवचार(ाराएँ हैं। ए� वग� �हता

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2020 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    है कि� पहले आत्मतत्व �ा ज्ञान होगा , तत्पश्चात् हीपरब्रह्म �ो जाना जा स�ेगा। दसूरा वग� �हता है कि�पहले परब्रह्म �ा सा)ात्�ार होगा, उस�े पश्चात् उन�ी�ृपा दृकिष्ट से ही किनज स्वरूप �ा Aो( होगा। �ठोर से�ठोर सा(ना �रने �े पश्चात् भी श्री देवचन्द्र जी अपनेकिनज स्वरूप �ो तA त� नहीं जान पाये, जA त� स्वयंअ)रातीत ने उन्हें पहचान नहीं दी।

    वस्तुतः परब्रह्म �ी �ृपा �े किAना न तो किनज स्वरूप �ोजाना जा स�ता है और न परमात्म स्वरूप �ो।�ठोपकिनषद �ा �थन है- "यमः एव एषः वृणतेु तेनलभ्यः" अथा�त् परमात्मा सिजस�ा वण�न �रता है वहीउस�ो यथाथ� रूप से जान पाता ह।ै यह कि�रन्तन भीवेदान्त �े किवद्वानों �ो प्रAोधि(त �रने �े लिलये उतरा ह।ैइसमें यह Aताया गया है कि� परब्रह्म �ी �ृपा �े प्र�ाश

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2121 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    में ही अपने किनज स्वरूप तथा परब्रह्म �े स्वरूप �ासा)ात्�ार होता ह।ै

    पीछे ढंूढो घर आपनों, �ौन ठौर ठेहेरानो।

    जA लग घर पावत नहीं अपनों, सो भट�त किफरत भरमानो।।२।।

    इस�े पश्चात् अपने "किनज घर" �ी पहचान �रो कि� मैं�हाँ से आया हूँ तथा इस संसार �ो छोड़ने �े पश्चात्मेरा किनवास �हाँ होगा? जA त� अपने मूल घर �ीपहचान नहीं होगी, तA त� इस मायावी जगत �ो हीअपना घर समझ �र भट�ते रहना पडे़गा।

    पाचं तत्व किमल मोहोल रच्यो है, सो अंत्रीख क्यों अट�ानो।

    या�े आस पास अट�ाव नहीं, तमु जाग �े संसे भानो।।३।।

    हम सिजस ब्रह्माण्ड में रह रहे हैं, वह पाँच तत्वों �ा Aनाप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2222 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    हुआ ह।ै यह आ�ाश में किAना कि�सी आ(ार �े ही �ैसेलट�ा हुआ ह?ै ज्ञान �े द्वारा जाग्रत होने �े Aाद ही इनसार ेसंशयों से छुट�ारा किमल पायेगा।

    भावाथ�- अनन्त ब्रह्माण्डों �ो ब्रह्म �ी शकिz ने ही(ारण �र रखा ह।ै हम सिजस ब्रह्माण्ड में रह रहे हैं, वहइस जगत �ा अधित अल्प अंश ह।ै

    नींद उड़ाए जA चीन्होगे आप�ो, तA जानोगे मोहोल यों रचानो।

    तA आप ैघर पाओगे अपनों, देखोगे अलख लखानो।।४।।

    जA तुम अपनी अज्ञान रूपी नींद �ा परिरत्याग �र किनजस्वरूप �ी पहचान �र लोगे, तA तुम्हें यह पता चलेगाकि� यह ब्रह्माण्ड क्यों Aना है ? तA तुम्हें अपने किनजघर�ी भी पहचान हो जाएगी तथा उस अलख अगोचरपरब्रह्म �ा भी सा)ात्�ार हो जायेगा।

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2323 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    भावाथ�- इस चौपाई से यह स्पष्ट किवकिदत होता है कि�अज्ञान रूपी नींद �े समाप्त होने पर पहले आत्म -सा)ात्�ार होगा, तत्पश्चात् ब्रह्म-सा)ात्�ार, परन्तुइस�े लिलये परब्रह्म �ी �ृपा होना अकिनवाय� ह।ै

    Aोले चाले पर �ोई न पेहेचाने, परखत नहीं परखानों।

    महामत �हे माहें पार खोजोगे, तA जाए आप ओलखानो।।५।।

    �ेवल आत्म-तत्व �ी वाता� तथा �म��ाण्ड औरप्र�ृधित सम्Aन्(ी उपासना �ी राहों से ही उस परब्रह्म �ीपहचान नहीं हो स�ती। उस�ा सा)ात्�ार भी इन मागसे नहीं हो स�ता। श्री महामधित जी �हते हैं कि� जA इसब्रह्माण्ड से पर ेतुम खोजोगे, तभी तुम्हें किनज स्वरूप तथापरब्रह्म �े स्वरूप �ी पहचान होगी।

    प्र�रण ।।१।। चौपाई ।।५।।

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2424 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    राग श्री मारु

    बिंAद में सिंस( समाया रे सा(ो , बिंAद में सिंस( समाया।

    कित्रगुन सरुप खोजत भए किवस्मय, पर अलख न जाए लखाया।।१।।

    हे सन्त जनों! अधित सूक्ष्म किAन्द ुरूपी ब्रह्माण्ड में अनन्तपरब्रह्म रूपी सागर अपनी सत्ता से किवराजमान ह।ै सत्व,रज तथा तम �े प्रती� ब्रह्मा, किवष्ण,ु और णिशव भी उसेखोजते-खोजते आश्चय� में पड़ गये , लेकि�न वह अलख(अजे्ञय) कि�सी �ो भी प्राप्त नहीं हो स�ा।

    भावाथ�- इस जगत में ब्रह्म अपने स्वरूप से नहीं ,Aन्धिल्� सत्ता से किवराजमान ह।ै इसलिलये कित्रदेव भी इसजगत् में उस�ा सा)ात्�ार न �र स�े। इस चौपाई मेंब्रह्मा, किवष्ण,ु और णिशव �ो कित्रगुन इसलिलये �हा गया हैकि� उनमें ए�-ए� गणु �ी प्र(ानता है, अन्यथा संसार

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2525 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    �े प्रत्ये� प्राणी में सत्व, रज, और तम �म या अधि(�मात्रा में अवश्य रहते हैं। मन, धिचत्त, Aुधि, तथा इन्धिन्द्रयोंसे पर ेहोने �े �ारण ब्रह्म �ो अलख �हा जाता ह।ै

    वेद अगम �ेहे उलटे पीछे, नेत नेत �र गाया।

    खAर न परी बिंAद उपज्या �हां थे, ताथें नाम किनगम (राया।।२।।

    वेदों ने जA ब्रह्म �ो मन-वाणी से परे पाया तो "नेधित-नेधित" �े रूप में वण�न कि�या। जA यह भी पता नहीं चलपाया कि� यह ब्रह्माण्ड रूपी "किAन्द"ु �हाँ से पदैा हुआ है,तो उन्होंने स्वयं �ा नाम "किनगम" रखा।

    भावाथ�- चारों वेदों में �हीं भी "नेधित" शब्द नहीं ह।ैश्रीमुखवाणी में "वेद" शब्द से �ेवल मूल संकिहता भाग�ा ही नहीं, Aन्धिल्� सम्पूण� किहन्द ू(म�ग्रन्थों �ा आशय ह।ैवस्तुतः वेद �े व्याख्यान ग्रन्थों ब्राह्मण , आरण्य�,

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2626 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    उपकिनषद, तथा दश�न ग्रन्थों में ब्रह्म �े लिलये "नेधित" शब्द�ा प्रयोग कि�या गया ह।ै इन्हीं ग्रन्थों �ो "किनगम" भी�हा गया ह।ै मनुस्मृधित �े छठे अध्याय में �हा गया है-"किनगमांश्चैव वैकिद�ान्"। इससे यह स्पष्ट होता है कि�"किनगम" शब्द वेदों �े व्याख्यान ग्रन्थों �े लिलये ही प्रयzुहोता ह,ै मूल संकिहताओं �े लिलये नहीं। श्रीमुखवाणी मेंप्रयzु- "जो नेत नेत �हया किनगमें, सA लगे धितन सब्द"(खलुासा २/३३), "किनगमें गम �ही ब्रह्म �ी, सो क्योंसमझे ख्वाAी दम “, "किफरे जहां थे नारायन, नाम(राया किनगम" (सनन्() से भी स्पष्ट है कि� किनगम शब्दवेदों �े व्याख्यान ग्रन्थों �े लिलये ही ह।ै "ह�ें आसिस�नाम (राइया, वा�ो भी अथ� ए" (सिसनगार) से यह स्पष्टह ैकि� "नाम (रने" �ा तात्पय� स्वयं �े सम्Aो(न से ह।ै

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2727 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    असत मंडल में सA �ोई भूल्या, पर अखंड कि�ने न Aताया।

    नींद �ा खेल खेलत सA नींद में, जाग �े कि�ने न देखाया।।३।।

    इस झूठे जगत् में सभी भूले रहे। कि�सी भी व्यकिz(अ)र �ी पञ्चवासनाओं �ो छोड़�र) �ो अखण्ड (ाम�ी पहचान नहीं हो पाई। यह सारा जगत मोह-अज्ञान-नींद �ा है और सभी लोग इसी में भट� रहे हैं। �ोई भीव्यकिz इस मायावी नींद �ो छोड़�र जाग्रत नहीं हो पारहा ह।ै

    सुपन �ी सृष्ट वैराट सुपन �ा, झूठे सांच ढंपाया।

    असत आपे सो क्यों सत �ो पेखे, इन पर पेड़ न पाया।।४।।

    यह सम्पूण� जगत स्वप्न �े समान अन्धिस्थर(परिरवत�नशील) और नश्वर ह।ै इसमें किनवास �रने वालीजीव सृकिष्ट भी स्वप्नमयी है , कि�न्तु ब्रह्मसृकिष्ट भी इस

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2828 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    जगत में अपने �ो भूल गयी ह।ै मायावी जीव महाप्रलयमें लय �ो प्राप्त हो जाने वाले हैं। भला वे अखण्ड ब्रह्म�ा सा)ात्�ार �ैसे �रें? इन्हें जगत �े मूल �ारण �ापता नहीं ह।ै

    खोजी खोजे Aाहेर भीतर, ओ अतंर Aठैा आप।

    सत सुपने �ो पारथीं पेखे, पर सपुना न देखे साख्यात।।५।।

    ब्रह्म �ी खोज �रने वालों ने किपण्ड (शरीर) औरब्रह्माण्ड में Aहुत खोजा, लेकि�न वह किमल नहीं स�ा।परब्रह्म �ा अखण्ड स्वरूप तो इस किपण्ड-ब्रह्माण्ड से परेपरम(ाम में ह,ै जहाँ ब्रह्मसृकिष्टयों �े भी मूल तन हैं और वेवहाँ से ही सुरता (आत्म-दृकिष्ट) द्वारा इस खेल �ो देखरही हैं, कि�न्तु स्वप्न �े जीव उस परब्रह्म �ो सा)ात्नहीं देख पाते।

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2929 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    भरम �ी Aाजी रची किवस्तारी, भरमसों भरम भरमाना।

    सा( सोई तमु खोजो र ेसा(ो, सिजन�ा पार पयाना।।६।।

    यह सम्पूण� जगत भ्रम �ा ही किवस्तार ह।ै भ्रम �े स्वरूपसे भ्रम �ा स्वरूप भ्रकिमत हो रहा है, अथा�त्आकिदनारायण अव्या�ृत �ा स्वप्नमयी स्वरूप है औरसभी जीव आकिदनारायण �े अंश रूप हैं। इस मायावीजगत में जीव प्र�ृधित से परे �ी शु अवस्था �ो प्राप्तनहीं �र पाते, इसलिलये वे सव�था भट�ते ही रहते हैं। हेसन्त जनों! आप उस परब्रह्म �ी खोज �ीसिजए , जोमाया से सव�था पर ेअनाकिद परम(ाम में किवराजमान हैं।

    भावाथ�- अव्या�ृत अ)र ब्रह्म �ा मन स्वरूप ह।ैअव्या�ृत �े महा�ारण में न्धिस्थत सुमंगला-पुरूष स्वयं�ो स्वप्न में आकिदनारायण �े रूप में पाता ह।ै जA त�धिचदानन्द-लहरी-पुरूष �े व्यz स्वरूप सुमंगला-पुरूष

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3030 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    �ा स्वप्न समाप्त नहीं होगा, तA त� आकिदनारायण औरउन�े अंशीभूत जीवों �ा भी भ्रम समाप्त नहीं होगा।

    मृगजलसों जो कित्रखा भाजे, तो गुर किAना जीव पार पावे।

    अने� उपाय �र ेजो �ोई, तो बिंAद �ा बिंAद मे समावे।।७।।

    सिजस प्र�ार मृग-तृष्णा �े जल से प्यास नहीं Aझुस�ती, उसी प्र�ार किAना सद्गरुू �ी �ृपा-दृकिष्ट �े जीवभी भवसागर से पार नहीं हो स�ता। सद्गरुू �े द्वाराअखण्ड �ा ज्ञान पाए किAना भले ही �ोई Aहुत से ग्रन्थों�ो पढ़ लेवे तथा तरह-तरह �ी सा(नाएँ भी �र लेवें,तो भी वह स्वग�-वै�ुण्ठ या किनरा�ार से आगे नहीं जास�ता।

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3131 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    देत देखाई Aाहेर भीतर, ना भीतर Aाहेर भी नाहीं।

    गुर प्रसादें अतंर पेख्या, सो सोभा Aरनी न जाई।।८।।

    किपण्ड ब्रह्माण्ड में जो �ुछ भी किदखायी पड़ रहा है, वहसA स्वप्नवत् किमथ्या ह।ै इन�े अन्दर सधिच्चदानन्द परब्रह्मनहीं ह।ै सद्गरुु �ी �ृपा से जA आन्धित्म� दृकिष्ट सेकित्रगुणातीत परम(ाम में देखा जाता है , तो परब्रह्म �ासा)ात्�ार होता ह।ै सा�ार-किनरा�ार से णिभन्न उन�ीअनन्त शोभा �ो शब्दों में व्यz नहीं कि�या जा स�ता।

    सतगुर सोई किमले जA सांचा, तA सिंस( बिंAद परचावे।

    प्रगट प्र�ास �र ेपार ब्रह्म सों, तA बिंAद अने� उड़ावे।।९।।

    जA अखण्ड �ा ज्ञान देने वाले सच्चे सद्गरुू किमल जायेंगे,तA इस मायावी जगत् तथा परब्रह्म �ी पहचान होजायेगी। जA हृदय में परब्रह्म �े ज्ञान �ा प्र�ाश फैलेगा,

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3232 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    तो आन्धित्म� दृकिष्ट अनन्त ब्रह्माण्डों से परे किनज(ाम मेंपहँुचेगी।

    महामत �हे बिंAद Aठेै ही उड़या, पाया सागर सखु सिंस(।

    अछरातीत अखण्ड घर पाया, ए किन( पूरA सनम(ं।।१०।।

    श्री महामधित जी �हते हैं कि� इस संसार में रहते हुए भीजA आन्धित्म� दृकिष्ट नश्वर ब्रह्माण्डों तथा किनरा�ार -Aेहदसे परे परम(ाम में पहुँचती है, तो वह आनन्द �े अनन्तसागर में किवहार �रने लगती ह।ै अपने प्राणवल्लभअ)रातीत तथा किनजघर �ी प्राकिप्त मूल सम्Aन्( से हीहोती ह।ै

    प्र�रण ।।२।। चौपाई ।।१५।।

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3333 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    राग �ेदारो

    सा(ो भाई चीन्हो सब्द �ोई चीन्हो।

    ऐसो उत्तम आ�ार तो�ों दीन्हों, सिजन प्रगट प्र�ास जो �ीन्हों।।१।।

    हे सन्त जनों! अलौकि�� ब्रह्मज्ञान �े शब्दों �ी पहचान�रो। तुम्हें ऐसे उत्तम मानव तन �ी प्राकिप्त हुई है, सिजसमेंपरब्रह्म �े ज्ञान �ा प्र�ाश प्र�ट होता ह।ै

    मानखें देह अखण्ड फल पाइए, सो क्यों पाए �े वृथा गमाइए।

    ए तो अ(लिखन �ो अवसर, सो गमावत मांझ नींदर।।२।।

    इसी मानव तन से अखण्ड परम(ाम तथा परब्रह्म �ासा)ात्�ार होता ह।ै इसे पा�र संसार �े झूठे सुखों मेंगँवाना नहीं चाकिहए। यह जीवन तो आ(े )ण �ी तरह ह।ैतुम इस अनमोल समय �ो अज्ञान में भट�ते हुए गँवा

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3434 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    रहे हो।

    भावाथ�- मनुष्य �ा जीवन वष में होता है, लेकि�न उसेआ(े )ण वाला �हने �ा भाव यह है कि� सिजस प्र�ारपानी �ा AुलAुला आ(े )ण में समाप्त हो जाता है, उसीप्र�ार जीवन भी )णभँगुर ह।ै पञ्चभौधित� तन �ीनश्वरता �ो देखते हुए ब्रह्मज्ञान प्राप्त �रना ही जीवन �ासव परिर लक्ष्य होना चाकिहए।

    सब्दा �हे प्रगट प्रवान, सब्दा सतगुर सों �रावे पेहेचान।

    सतगरु सोई जो अलख लखावे, अलख लखे किAन आग न जावे।।३।।

    शब्दों से ही यथाथ� सत्य �ी पहचान होती ह।ै शब्दों सेही किवकिदत होता है कि� वास्तकिव� सद्गरुु �ौन है? सद्गरुुवही ह,ै जो उस इन्धिन्द्रयातीत परब्रह्म �ा सा)ात्�ार�राये। जA त� उस परब्रह्म �ा सा)ात्�ार नहीं होता,

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3535 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    तA त� हृदय �ी दाझ नहीं किमटती अथा�त् शान्धिन्त नहींकिमलती।

    सास्त्र ले चले सतगुर सोई, Aानी स�ल �ो ए� अथ� होई।

    सA स्यानों �ी ए� मत पाई, पर अजान देखे र ेजुदाई।।४।।

    सद्गरुु वही है, जो (म�ग्रन्थों �े द्वारा वास्तकिव� सत्य�ो प्र�ट �र।े सभी (म�ग्रन्थों �ा मूल आशय ए� हीहोता ह।ै सभी मनीकिषयों �े �थनों में ए�रूपता होती है,लेकि�न अज्ञानी लोग अलग-अलग समझते हैं।

    भावाथ�- वेद, उपकिनषद, दश�न, सन्त वाणी, �ुरआन,तथा AाइAल इत्याकिद में ए� ही परब्रह्म �ो अने� प्र�ारसे Aताया गया ह।ै छः शास्त्रों �े रचना�ारों ने सृकिष्ट Aनने�े छः �ारणों �ी अलग-अलग व्याख्या �ी ह।ै उसमेंतत्वतः �ोई भेद नहीं है , कि�न्तु अल्पज्ञ लोग भेद

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3636 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    मान�र लड़ते रहते हैं। सत्य दृष्टा मनीकिषयों �ा �थनसभी �ालों में समान होता ह।ै

    सास्त्रों में सAे सु( पाइए, पर सतगुर किAना क्यों लखाइए।

    सA सास्त्र सब्द सी(ा �हे, पर ज्यों मेर धितन�े आडे़ रहे।।५।।

    शास्त्रों में परब्रह्म �ी पहचान तो अवश्य लिलखी है ,लेकि�न वह इतने गोपनीय तरी�े से लिलखी है कि� किAनासद्गरुु �ी �ृपा �े उसे जाना नहीं जा स�ता। यद्यकिपशास्त्रों में ब्रह्मज्ञान �ी Aातें गोपनीय कि�न्तु सी(े ढंग से�ही गयी हैं, किफर भी सत्य �ा Aो( उसी प्र�ार नहीं होपाता, सिजस प्र�ार आँख �े आगे यकिद छोटा सा धितन�ाभी आ जाये, तो सुमेरु जसैा ऊँचा पव�त भी नहींकिदखायी पड़ता।

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3737 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    सो धितन�ा किमटे सतगुर �े संग, तA पारब्रह्म प्र�ासे अखंड।

    सतगुर जी �े चरन पसाए, सब्दों Aड़ी मत समझाए।।६।।

    सद्गरुु �ी संगधित से ही (म�ग्रन्थों �े णिछपे हुए रहस्यखलुते हैं और अखण्ड परब्रह्म �ा Aो( होता ह।ै सद्गरुू�े चरणों �ी �ृपा से ही (म�ग्रन्थों में णिछपे हुए तत्व ज्ञान�ो समझा जा स�ता ह।ै

    तA खोज सब्द �ो लीजे तत्व, तौल दलेिखए Aड़ी �ेही मत।

    जासों पाइए प्रान �ो आ(ार, सो क्यों सोए गमावे र ेगमार।।७।।

    तA (म�ग्रन्थों में किनकिहत परम तत्व �ा ज्ञान ग्रहण �रनाचाकिहए और यह समी)ा (ज्ञान दृकिष्ट से देखना) �रनीचाकिहए कि� कि�स�ा ज्ञान कि�स मन्धिन्जल त� पहुँचा रहाह।ै सिजस मानव तन �े द्वारा अपने प्राणवल्लभ अ)रातीत�ो पाया जाता है, उसे अज्ञानतावश किवषय सुखों में

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3838 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    फँसा�र उम्र �ो खोना गँवारपन (मूख�ता) ह।ै

    यामें Aड़ी मत �ो लीजे सार, सतगुरु याहीं देखावें पार।

    इतहीं A�ंुैठ इतहीं सनु्य, इतहीं प्रगट परून पारब्रह्म।।८।।

    इस नश्वर जगत में जाग्रत Aुधि �ा ज्ञान देने वाले सद्गरुु�ी शरण लेनी चाकिहए, जो यहीं पर Aठेै-Aठेै Aेहद औरपरम(ाम �ी अनुभूधित �रा स�ें । वे यहीं पर ही वै�ुण्ठ-किनरा�ार �े साथ-साथ उस पूण�ब्रह्म सधिच्चदानन्द �ा भीसा)ात्�ार �रा देंगे।

    ए Aानी गरजत मांझ संसार, खोजी खोज किमटावे अं(ार।

    मूढ़मती न जाने किवचार, महामत �हें पु�ार पु�ार।।९।।

    श्री महामधित जी यह Aात पु�ार-पु�ार �र �ह रहे हैंकि� जाग्रत Aुधि �ी यह श्रीमुखवाणी संसार में गज�ना

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3939 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    �रते हुए सA�ो परम(ाम �ी राह किदखा रही ह।ै किप्रयतमपरब्रह्म �ी खोज में रहने वाले , ब्रह्मवाणी �ो आत्मसात�र, अपने हृदय �ी अज्ञानता �े अन्(�ार �ो किमटादेते हैं, कि�न्तु अत्यधि(� मूख�ता �ा णिश�ार होने वालेलोग इस�ो ग्रहण ही नहीं �रते।

    प्र�रण ।।३।। चौपाई ।।२४।।

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4040 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    सा(ो हम देख्या Aड़ा तमासा।

    किवश्व देख भया मैं किवस्मय, देख दखे आवत मोहे हासा।।१।।

    हे सन्त जनों! मैंने इस जगत में Aहुत किवधिचत्र तमाशादेखा ह।ै इस संसार �ी हालत �ो देख�र मुझे Aहुतआश्चय� होता ह ैतथा हँसी भी आती ह।ै

    मेरी मेरी �रते दनुी जात ह,ै Aोझ ब्रह्मांड सिसर लेवे।

    पाउ पल� �ा नहीं भरोसा, तो भी सिसर सरजन �ो न दवेे।।२।।

    यह मेरा ह,ै यह मेरा ह,ै �हते हुए सभी लोग अपना तनछोड़ते जाते हैं। उन�े साथ �ुछ भी नहीं जाता। लेकि�नजA त� वे जीकिवत रहते हैं, तA त� इतने धिचन्धिन्तत रहतेहैं, जसेै सारे संसार �ो चलाने �ी सिजम्मेदारी उन�ी हीहो। ए� पल �े चौथाई किहस्से में भी शरीर छूटने �ीसम्भावना Aनी रहती है, किफर भी वे सधिच्चदानन्द परब्रह्म

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4141 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    �े प्रधित समर्पिपत नहीं होते।

    सिसर ले �ाम �र ेमाया �ो, किनसं� पछाडे़ आप अंग।

    न �र ेभजन दोष देवें साईं �ो, �हे दया किAना न होवे सा( संग।।३।।

    सारे परिरवार �ा Aोझ अपने शरीर पर ले�र वे माया �े�ामों में लगे रहते हैं और इसी में अपने शरीर �ो जज�र�र दतेे हैं। स्वयं तो परमात्मा �ा भजन �रते नहीं,कि�न्तु �म�-फल �े �ारण जA �ष्ट किमलता है तोपरमात्मा �ो ही दोषी ठहरा देते हैं। भजन न �रने �ेAहाने Aनाते हुए �हते हैं कि� हम क्या �रें , किAनापरमात्मा �ी दया �े तो सत्संग भी नहीं किमलता, उस�ेकिAना हम भजन �ैसे �रें?

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4242 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    Aां(त A(ं आप�ो आपे, न समझे माया �ो मरम।

    अपनों कि�यो न देखे अं(े, पीछे रोवें दोष दे दे �रम।।४।।

    वे लोग इस (ूत�नी माया �े मम� �ो नहीं समझते ,Aन्धिल्� स्वयं �ो सांसारिर� मोह �े Aन्(नों में इतनाअधि(� Aाँ( लेते हैं कि� उससे अलग नहीं हो पाते। मोहऔर अज्ञान में अन्(े वे लोग उस समय तो अपने दषु्�म�ी ओर ध्यान देते नहीं, कि�न्तु Aाद में दण्ड �े रूप मेंजA दःुख भोगना पड़ता ह,ै तो उसे याद �र-�र रोतेहैं।

    समझे सा( �हावें दनुी में, Aाहेर देखावें आनन्द।

    भीतर आग जले भरम �ी, �ोई छूट न स�े या फंद।।५।।

    �ुछ लोग अपने �ो Aहुत Aडा़ सा(ु-सन्त समझ लेतेहैं और इस रूप में संसार में उन�ी प्रसिसधि भी हो जाती

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4343 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    ह।ै ऐसे लोग स्वयं �ो परमानन्द में डूAा हुआ सिस �रतेहैं, कि�न्तु उन�े हृदय में भ्रम रूपी अज्ञानता �ी अकि¤जल रही होती ह।ै सच ही �हा गया है कि� इस माया �ेफन्दे से �ोई भी क्यों न हो, गृहस्थ या किवरz, छूट नहींपाता।

    परत नहीं पेहेचान बिंपड �ी, सु( न अपनों घर।

    मखुथें �हे मोहे संसे किमटया, मैं दखेे सा( �ेते या पर।।६।।

    तथा�णिथत ऐसे कि�तने ही सा(ओुं �ो मैंने देखा है,सिजन्हें न तो अपने शरीर में न्धिस्थत जीव तत्व �ी पहचानहै और न अपने अखण्ड घर �ी। वे मुख से किदखावे �ेलिलये �हा �रते हैं कि� मुझे ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो गया है औरअA कि�सी प्र�ार �ा संशय नहीं ह।ै

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4444 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    सा( सुने मैं देखे �ेते, अगम �र �र गावें।

    नेहेचे जाए �रें किनरा�ार, या ठौर धिचत ठेहेरावें।।७।।

    मैंने Aहुत से ऐसे सा(ु-सन्तों �े Aारे में सुना है औरउन्हें देखा भी है , जो परब्रह्म �ो मन -वाणी से परेकिनरा�ार �े रूप में वण�न कि�या �रते हैं और उसी मेंअपने धिचत्त �ी वृलित्तयों �ो ए�ाग्र �रते हैं।

    जो न �छू गाम नाम न ठाम, सो सत सांई किनरा�ार।

    भरम �े बिंपड असत जो आपे, सो आप होत आ�ार।।८।।

    सिजस अकिवनाशी ब्रह्म �े स्वरूप, नाम, या (ाम �ा Aो(नहीं है, उसे ही किनरा�ार परमात्मा �हते हैं और माया�े नश्वर तनों �ो (ारण �रने वाले ये ज्ञानीजन अपने�ो आ�ार वाला मानते हैं, जAकि� मृत्यु होने �े पश्चात्उन�े शरीर �ा �ोई भी आ�ार रहता ही नहीं ह।ै

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4545 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    सिजन मंडल ए मांडे मंडप, थोभ न थभं न A(ं।

    वा�ो नाहीं �ेहेत क्यों सा(ो, ए रच्यो कि�न �ौन सन(ं।।९।।

    हे सन्त जनों! सिजस परमात्मा ने आ�ाश मण्डल में इसब्रह्माण्ड रूपी मण्डप �ा किनमा�ण कि�या है, सिजसमें �ोईभी दीवार, स्तम्भ (खम्भा), या Aन्(न नहीं है , उसेआप किनरा�ार क्यों �हते हैं? आप किवचार �ीसिजए कि�इस प्र�ार �ी अकिद्वतीय रचना दसूरा �ौन �र स�ता हैया कि�स प्र�ार से �र स�ता है?

    सिजन सायर खनाए पहाड़ चुनाए, रकिव ससिस नखत्र किफराए।

    किफरत अहकिनस रगं रुत किफरती, ऐसे अने� वरैाट Aनाए।।१०।।

    सिजस ब्रह्म �े द्वारा गहरे सागरों और ऊँचे पव�तों �ाकिनमा�ण हुआ, सिजस�ी सत्ता में सूय� , चन्द्रमा, औरअसंख्य न)त्र भ्रमण �र रहे हैं, किदन-राकित्र तथा ऋतओुं

    प्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्र�ाश�ः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4646 / 1898/ 1898

  • श्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामीश्री कि�रतंन टी�ा श्री राजन स्वामी

    �ा चक्र परिरवर्तितत होता रहता है, वनस्पधितयों में रगंों �ापरिरवत�न होता है, वह स्वयं �ैसा ह?ै ऐसा �ेवल इसीब्रह्माण्ड में ही नहीं, Aन्धिल्� अनन्त ब्रह्माण्डों में हो रहा ह।ै

    सिजन लिखनमें तत्व पांच समारे, नास �र ेलिखन मांहीं।

    ए �हां से उपाय �हां ले समाए, ए