मेरी जीवनकथाम र ज वन कथ | स प दक य ग ध ज क...

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  • मेरी जीवनकथा िव�ािथ�यो ंके िलए िवशेष आवृि�

    मोहनदास करमचंद गांधी

    सरल संि�� और �ा�ाय

    भारतन कुमार�ा

    मु�क और �काशक

    िववेक िजते� देसाई

    नवजीवन मु�णालय

    अहमदाबाद ‐ ३८० ०१४

    फोन :०७९ ‐ २७५४०६३५ , २७५४२६३४

    E‐mail : [email protected]

    Website: www.navajivantrust.org

  • मेरी जीवन कथा | www.mkgandhi.org

    मेरी ��ावना

    मुझे आIकथा कहाँ िलखनी है ! मुझे तो आIकथा के बहाने सO के मPने जो अनेक

    Qयोग िकये हP उसकी कथा िलखनी है। उसमU मेरा जीवन ओतQोत होने के कारण जीवन

    कथा जैसा हो जाए; मगर यह सही है िक राजनीितक �ेY के मेरे Qयोग अब तो सारा

    िहZु[ान जानता है। िक\ु मेरे आ�ा]Iक Qयोग, जो मP ही जान सकँू, और िजसमU से

    मेरी राजनीितक �ेY पर की श]` भी पैदा bई है उन Qयोगो ंका वण�न कर लेना मुझे

    पसंद आयेगा। मेरे Qयोग गु� bए हP, ब]c bए भी नही ंहै। ये सब देख सकU उसमU मुझे

    उसकी आ�ा]Iकता कम bई हP, ऐसा नही ंलगता। मेरे Qयोगो ंमU तो आ�ा]Iक यानी

    नैितक, धम� यानी नीित, आIा की fिg मU पालन ही bई नीित वही धम� है।

    अथा�त् िजन चीजो ंका िनण�य बjे, युवान और बूढ़े करते हP और कर सकते हP उस चीजो ं

    का ही यह कथा मU समावेश होगा। ऐसी कथा मP जो तटmथ भाव से, िनरािभमान nप से

    िलख सकँू तो उसमU से दूसरे Qयोग करनेवालो ंको कुछ सामpी अवq िमलेगी।

    आrम, साबरमती मोहनदास करमचंद गांधी

    शुs प� ११, १९८२

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    संपादकीय

    गांधीजी की आIकथा और उनके दि�ण अिtका के सOाpह का इितहास अंpेजी मU

    Qकािशत bआ है। उसके कुल पृv एक हजार के करीब होते हP। १९५२ मU नवजीवन टw x

    की ओर से ये दोनो ंपु[को ंको एक ही pंथ मU संि�� आवृि� के nप मU Qकट िकया गया

    bआ है। अभी‐अभी एक नई माँग आयी है। पाठशालाओ ंमU उपयोग मU ले सकU ऐसी एक

    बbत छोटी आवृि� Qकािशत की जाएँ। इस माँग को पूरा करने के िलए यह पु][का तैयार

    की गई है।

    पाठशाला के बjो ंको िजन बातो ंमU िवशेष रस उz{ न कर सके ऐसा लगता हो, ऐसी

    बातो ंका इसमU समावेश नही ंहै और संभव हो उतना वहाँ भाषा को सरल बनाया गया है।

    अिधकांश Qकरणो ंके अंत मU िनबंध और चचा� के िलए िवषय सूिचत िकये गये हP। उपर

    के और नीचे की क�ाएँ दोनो ंको �ान मU रखकर यह �ा�ाय तैयार िकया गया है।

    िश�क को ऐसा लगे िक उसमU से अपने िव�ाथ| सरलता से जवाब दे सकU वैसा लगे उसे

    पसंद करना है। िव�ािथ�ओ ंको बbत किठन लगे ऐसे एक या दूसरे मु}ो ंकी चचा� क�ा मU

    समूह मU करने से रिसक बन जाएँगी। ऐसी चचा� के बाद दूसरे तास मU िव�ािथ�ओ ंको िनबंध

    िलखने के िलए कहा जा सके।

    जुलाई १९५५ भारतन कुमार�ा

  • मेरी जीवन कथा | www.mkgandhi.org

    �काशक का िनवेदन

    rी भारतन कुमार~ा ने गांधीजी की आIकथा और दि�ण अिtका के सOाpह का

    इितहास ये दोनो ंपु[को ंको साथ मU रखकर संि�� आIकथा तैयार की थी। उोनें मूल

    मU अंpेजी मU िकये यह सं�ेप अब गुजराती और िहZी मU भी Qा� हो सकते हP। इस सं�ेप

    की तरह ही, पाठशाला मU अास करनेवाले िव�ािथ�ओ ं के िलए कुमार~ाजी ने मेरी

    जीवनकथा भी अंpेजी मU तैयार की थी। यह पु[क उसीका िहंदी अनुवाद है।

    कुमार~ाजी ने संि�� आIकथा तथा 'मेरी जीवन कथा' दोनो ंमU गांधीजी की मूल भाषा

    मU जहाँ आवqकता िदखाई; यहाँ बbत कम छूट ली है। अथा�त् एक fिg से देखU तो

    कुमार~ाजी के ारा संपािदत यह दोनो ंपु[क गांधीजी के शो ंमU, गांधीजी की ही भाषा

    मU हो,ं ऐसा कहा जा सकता है।

    'मेरी जीवन कथाʼ पाठशाला के िव�ािथ�यो ंके िलए तैयार की गई िकताब है। उोनें QOेक

    Qकरण मU से �ा�ाय के Q भी िनकालकर िदये हP। पु[क के अंत मU िदये गये यह

    �ा�ाय के बारे मU कुमार~ाजी ने उनकी संपादकीय नोधं मU की गई gता िजासु

    अिभभावक तथा िश�को ंको भी देख लेनी चािहए।

    िफल हाल मU गांधीजी के जीवन और काय� को समझने के िलए नये िसरेसे िजासा पैदा

    bई हो ऐसा िदखाई देता है। उसे �ान मU रखकर आIकथा की तरह ही पाठशाला के

    िव�ािथ�ओ ंके िलए तैयार कर ली गई ‘मेरी जीवन कथाʼ भी देश की सभी Qादेिशक भाषाओ ं

    मU देने का िनण�य नवजीवन ने िकया है। उस िनण�य के nप मU गुजराती मा�म मU अास

    करनेवाले पाठशाला के िव�ािथ�यो ंके िलए यह िहंदी आवृि� Qकािशत की जा रही है।

    गुजराती िहंदी पाठशालाओ ंारा उसे उिचत सार िमलता रहेगा ऐसी आशा और rा

    है।

    ३० जनवरी २००८

  • मेरी जीवन कथा | www.mkgandhi.org

    अनु#मिणका

    मेरी Q[ावना संपादकीय Qकाशक का िनवेदन

    भाग-१ : बचपन १. ज और मातािपता २. बचपन ३. बाल‐िववाह ४. दुःखद Qसंग ५. चोरी ६. िपताजी की बीमारी और मृOु ७. धम� की झाँकी ८. िवलायत की तैयारी ९. आ]खर िवलायत पbँचा

    भाग-२: लंडन म* छा, के -प म* १०. मेरी पसZ ११. स पोशाक मU १२. फेरफार १३. लाशीलता ‐ मेरी ढाल १४. धम का परचय

    भाग-३: भारत म* बा/र0र १५. भारत मU वापसी १६. पहला आघात

    भाग-४: दि2ण अि3का म* १७. दि�ण अिtका पbँचा १८. िQटोरया जाते bए १९. िQटोरया मU पहला िदन २०. िहZु[ािनयो ंसे परचय २१. मुकदमे की तैयारी २२. इान ने दरखा[ की, भगवान ने इनकार िकया २३. तीन पौ का कर

    भाग-५: िह5ु�ान की मुलाकात २४. िहZु[ान मU

    भाग-६: वापस दि2ण अि3का म* २५. दि�ण अिtका मU तुफान की आगाही २६. सादगी २७. एक पुरण और Qायित

    २८. बोअर‐यु २९. कीमती उपहार

    भाग-७: देश म* ३०. मेरा पहला काँpेस ३१. बई मU ]mथर bआ?

    भाग-८: वापस दि2ण अि3का म* ३२. िफर दि�ण अिtका ३३. गीता का अास ३४. एक पु[क का चमारी Qभाव ३५. फीिन की mथापना ३६. 'जुलू‐िवोह' ३७. क[ूरबाई की fढ़ता। ३८. घर मU सOाpह ३९. सOाpह का मह ४०. कारावास ४१. हमला ४२. सOाpह का इितहास ४३. सOाpह का िवजयोास

    भाग-९: :देश और आ

  • भाग-१: बचपन

    १. जH और मातािपता

    कबा गांधी मेरे िपताजी थे। उोनें पोरबंदर के दीवान का काम िकया। िपता कुटु‐Qेमी,

    सO‐िQय, शूर, उदार िक\ु ¡ोधी थे।

    िपताजी ने धन बटोरने का लोभ कभी नही ंिकया। इस कारण हम भाईयो ंके िलए वे बbत

    थोड़ी स¢ि� छोड़ गये थे।

    िपताजी की िश�ा केवल अनुभव की थी। आजकल िजसे हम गुजराती की पाँचवी ंिकताब

    का ान कहते हP, उतनी िश�ा उU िमली होगी। इितहास‐भूगोल का ान तो िबलकुल ही

    न था। िफर भी उनका £ावहारक ान इतने ऊँचे दज¥ का था िक बारीक से बारीक

    सवालो ंको सुलझाने मU अथवा हजार आदिमयो ंसे काम लेने मU भी उU कोई किठनाई

    नही ंहोती थी। धािम�क िश�ा नही ंके बराबर थी, पर मंिदरो ंमU जाने से और कथा वगैरा

    सुनने से जो धम�ान असं¦ िहZुओ ंको सहज भाव से िमलता रहता है वह उनमU था।

    मेरे मन पर यह छाप रही है िक, माता सा§ी ¨ी

    थी।ं वे बbत rालु थी।ं िबना पूजा‐पाठ के कभी

    भोजन न करती।ं हमेशा हवेली (वैªव‐म]Zर)

    जाती।ं जबसे मPने होश संभाला तबसे मुझे याद

    नही ं पड़ता िक उोनें कभी चातुमा�स का ¬त

    तोड़ा हो। वे किठन से किठन ¬त शुn करती ंऔर

    उU िनिव� पूरा करती।ं िलये bए ¬तो ंको बीमार

    होने पर भी कभी न छोड़ती।ं ऐसे एक समय की

    मुझे याद है िक जब उोनें चा�ायण का ¬त

    िलया था। ¬त के िदनो ंमU वे बीमार पड़ी, पर ¬त

    पोरबंदर का मकान

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    नही ंछोड़ा। चातुमा�स मU एक बार खाना तो उनके िलए सामा® बात थी इतने से संतोष न

    करके एक चौमासे मU उोनें तीसरे िदन भोजन करने का ¬त िलया था। लगातार दो‐तीन

    उपवास तो उनके िलए मामूली बात थी। एक चातुमा�स मU उोनें यह ¬त िलया था िक

    सूय�नारायण के दश�न करके ही भोजन करUगी। उसे चौमासे मU हम बालक बादलो ं के

    सामने देखा करते िक कब सूरज के दश�न हो ंऔर कब माँ भोजन करU । यह तो सब जानते

    हP िक चौमासे मU अकसर सूय� के दश�न दुल�भ हो जाते हP | मुझे ऐसे िदन याद हP िक जब

    हम सूरज को देखते और कहते, “माँ‐माँ, सूरज दीखा;” और माँ उतावली होकर आती ं

    इतने मU सूरज िछप जाता और माँ यह कहती bई लौटं जाती िक “कोई बात नही,ं आज

    भा² मU ³ोजन नही ंहै”और अपने काम मU डूब जाती।ं

    माता £वहार‐कुशल थी।ं राज‐दरबार की सब बातU वे जानती थी।ं

    इन माता‐िपता के घर मU दो अ`ूबर, १८६९ को पोरबंदर अथवा सुदामापुरी मU भरा ज

    bआ।

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    २. बचपन

    बचपन मेरा पोरबंदर मU ही बीता। याद पड़ता है िक मुझे िकसी पाठशाला मU भरती िकया

    गया था। मु]µल से थोड़े पहाड़े मP सीखा था। मुझे िसफ� इतना याद है िक मP उस समय

    दूसरे लडको ंके साथ अपने िश�क को गाली देना सीखा था। और कुछ याद नही ंपड़ता।

    पोरबंदर से िपताजी राजकोट गये। उस समय मेरी उमर लगभग सात साल की होगी।

    राजकोट की pामशाला मU भरती िकया गया। इस शाला के िदन मुझे अ¶ी तरह याद हP।

    पोरबंदर की तरह यहाँ की पढ़ाई के बारे मU भी जानने लायक कोई खास बात नही ंहै।

    pामशाला से उपनगर की शाला मU और वहाँ से हाई·ूल मU। यहाँ तक पbँचने मU मेरे

    बारहवाँ वष� बीत गया । मुझे याद नही ंपड़ता िक इस बीच मPने िकसी भी समय िश�को ं

    को धोखा िदया हो। न तब तक िकसी को िमY बनाने का रण है। मP बbत ही शरमीला

    लड़का था । पाठशाला मU अपने काम से ही काम रखता था। घंटी बजने के समय पbँचता

    और पाठशाला के बZ होते ही घर भागता। 'भागनाʼ श मP जान‐बूझकर िलख रहा ¸ँ,

    ¹ोिंक िकसीसे बातU करना मुझे अ¶ा न लगता था। साथ ही यह डर भी रहता था िक

    कोई मेरा मजाक उड़ायेगा तो? हाई·ूल के पहले ही वष� की, परी�ा के समय की, एक

    घटना उेखनीय है। िश�ा‐िवभाग के इºे र जाइ» िव�ालय का िनरी�ण करने

    आये थे। उUने पहली क�ा के िव�ािथ�यो ंको अंpेजी के पाँच श िलखाये। उनमU एक

    श ‘केटलʼ था | मPने उसके िहे गलत िलखे थे | िश�कने अपने बूट की नोक मारकर

    मुझे सावधान िकया। लेिकन मP ¹ो ंसावधान होने लगा ? मुझे यह खयाल ही नही ंहो सका

    िक िश�क मुझे पासवाले लड़के की प¼ी देखकर िहे सुधार लेने को कहते हP | मPने यह

    माना थी िक िश�क तो यह देख रहै हP िक हम एक‐दूसरे की प¼ी मU देखकर चोरी न करU ।

    सब लड़को ंके पाँचो ंश सही िनकले और अकेला मP बेवकूफ ठहरा ! िश�क ने मुझे

    मेरी बेवकूफी बाद मU समझायी; लेिकन मेरे मन पर उनके समझाने का कोई असर न

    bआ। मP दूसरे लड़को ंकी प¼ी मU देखकर चोरी करना कभी सीख न सका।

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    इतने पर भी िश�क के Qित मेरा िवनय कभी कम न bआ। बड़ो ंको दोष न देखने का गुण

    मुझ मU �भाव से ही था। बाद मU इन िश�क के दूसरे दोष भी मुझे मालूम bए थे: िफर भी

    उनके Qित मेरा आदर तो बना ही रहा। मP यह जानता था िक बड़ो ंकी आा का पालन

    करना चािहए। वे जो कहU सो करना; करU उसके काजी, न बनना।

    इसी समय के दो और Qसंग मुझे हमेशा याद रहे हP। साधारणतः पाठशाला की पु[को ं

    को छोड़कर और कुछ पढ़ने का मुझे शौक नही ंथा। सबक याद करना चािहए, उलाहना

    सहा नही ंजाता, िश�क को धोखा देना ठीक नही,ं इसिलए मP पाठ याद करता था। लेिकन

    मन अलसा जाता, इससे अकसर सबक कjा रह जाता। ऐसी हालत मU दूसरी कोई चीज

    पढ़ने की इ¶ा ¹ो ंकर होती ? िक\ु िपताजी की खरीदी bई एक पु[क पर मेरी fिg

    पड़ी। नाम था 'rवण‐िपतृभ]` नाटक'। मेरी इ¶ा उसे पढ़ने की bई और मP उसे बड़े

    चाव के साथ पढ़ गया उी ंिदनो ंशीशे मU िचY देखानेवाले भी घर‐घर आते थे। उनके पास

    मPने rवण का वह fq भी देखा, िजसमU वह अपने माता‐िपता को काँवर मU बैठाकर याYा

    पर ले जाता है। दोनो ंचीजो ंका मुझ पर गहरा Qभाव पड़ा। मनमU इ¶ा होती िक मुझे भी

    rवण के समान बनना चािहए।

    इी ंिदनो ंकोई नाटक‐कंपनी आयी थी ंऔर उसका नाटक देखने की इजाजत मुझे िमली

    थी। हर� का आ¦ान था। उस नाटक को देखते bए मP थकता न था। उसे बार‐बार

    देखने की इ¶ा होती थी। लेिकन यो ंबार‐बार जाने कौन देता ? पर अपने मन मU मPने उस

    नाटक को सPकडो ंबार खेला होगा। मुझे हर� के सपने आते।' ‘हर� की तरह

    सOवादी सब ¹ो ंनही ंहोते ? यह धुन बनी रहती। हर� पर जैसी िवपि�याँ पड़ी ंवैसी

    िवपि�यो ंको भोगना और सO का पालन करना ही वा[िवक सO है। मPने यह मान िलया

    था िक नाटक मU जैसी िलखी है, वैसी ही िवपि�याँ हर� पर पड़ी होगंी। उनका रण

    करके मU खूब रोया ¸ँ।

    हाई·ूल मU मेरी िगनती मZबु] िव�ािथ�यो ंमU नही ंथी। िश�को ंका Qेम मP हमेशा ही पा

    सका था। हर साल माता‐िपता के नाम ·ूल से िव�ाथ| की पढ़ाई और उसके आचरण

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    के संबंध मU QमाणपY भेजे जाते थे। उनमU मेरे आचरण या अास के खराब होने की टीका

    कभी नही ंbई। दूसरी क�ा के बाद मुझे इनाम भी िमले और पाँचवी ंतथा छ½ी क�ा मU

    ¡मशः Qितमास चार और दस nपयो ंकी छाYवृि� भी िमली थी। इसमU मेरी होिशयारी

    की अपे�ा भा² का अँश अिधक था। ये छाYवृि�याँ सब िव�ािथ�यो ंके िलए नही ंथी,ं ब]c

    सोरठवािसयो ंमU से सव�Qथम आनेवालो ंके िलए थी।ं चालीस‐पचास िव�ािथ�यो ंकी क�ा मU

    उस समय सोरठ Qदेश के िव�ाथ| िकतने हो सकते थे ?

    मेरा अपना खयाल है िक मुझे अपनी होिशयारी का कोई गव� नही ंथा। पुर·ार या छाYवृि�

    िमलने पर मुझे आय� होता था। पर अपने आचरण के िवषय मU मP बbत सजग था। आचरण

    मU दोष आने पर मुझे ¾लाई आ ही जाती थी। मेरे हाथो ंकोई भी ऐसा काम बने, िजससे

    िश�को ंको मुझे डाँटना पड़े अथवा िश�को ंका वैसा खयाल बने, तो वह मेरे िलए अस¿

    हो जाता था। मुझे याद है िक एक बार मुझे मार खानी पड़ी थी। मार का दुःख नही ंथा, पर

    मP द का पाY माना गया, इसका मुझे बड़ा दुःख रहा। मP खूब रोया यह Qसंग पहली या

    दूसरी क�ा का है। दूसरा एक Qसंग सातवी ंक�ा का है। उस समय दोराबजी एदलजी

    गीमी हेडमाxर थे। वे िव�ाथ|‐Qेमी थे, ¹ोिंक वे िनयमो ंका पालन करवाते, £व]mथत

    रीित से काम करते और लेते और अ¶ी तरह पढ़ाते थे। उोनें उj क�ा के िव�ािथ�यो ं

    के िलए कसरत‐ि¡केट अिनवाय� कर िदये थे। मुझे इनसे अ¾िच थी। इनके अिनवाय� बनने

    से पहले मP कभी कसरत, ि¡केट या फुटबॉल मU गया ही न था। न जाने मU मेरा शरमीला

    �भाव ही एकमाY कारण था। अब मP देखता ¸ँ िक वह अ¾िच मेरी भूल थी उस समय

    मेरा यह गलत ¦ाल बना bआ था िक िश�ा के साथ कसरत का कोई सÁ नही ंहै।

    िफर भी मुझे कहना चािहए िक कसरत मU न जाने से मुझे नुकसान नही ंbआ। उसका

    कारण यह रहा िक मPने पु[को ंमU खुली हवा मU घूमने जाने की सलाह पढ़ी थी और वह

    मुझे ¾ची थी। इसके कारण हाई·ूल की उj क�ा से ही मुझे हवाखोरी की आदत पड़

    गयी थी। वह अ\ तक बनी रही। टहलना भी £ायाम तो है ही, इससे मेरा शरीर अपे�ाकृत

    सुगिठत बना।

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    अ¾िच दूसरा कारण था, िपताजी की सेवा करने की ती¬ इ¶ा। ·ूल की छु¼ी होते ही मP

    सीधा घर पbँचता और सेवा मU लग जाता। जब कसरत अिनवाय� bई, तो इस सेवा मU बाधा

    पड़ी। मPने िबनती की िक िपताजी की सेवा के िलए मुझे कसरत से छु¼ी दी जाएँ। पर गीमी

    साहब छु¼ी ¹ो ंदेने लगे ? एक शिनवार के िदन सुबह का ·ूल था। शाम को चार बजे

    कसरत के िलए जाना था। मेरे पास घड़ी नही ंथी। आसमान बादलो ंसे िघरा था, इसिलए

    समय का कोई अZाज नही ंरहा। मP बादलो ंसे धोखा खा गया। जब कसरत के िलए पbँचा,

    तो सब जा चुके थे। दूसरे िदन गीमी साहब ने हािजरी देखी, तो मP गैर‐हािजर पाया गया।

    मुझसे कारण पूछा गया। मPने सही‐सही कारण बता िदया। उोनें उसे सच नही ंमाना

    और मुझ पर एक या दो आने (ठीक रकम का रण नही ंहै) का जुमा�ना िकया।

    मP झठूा ठहरा ! मुझे बbत दुःख bआ। कैसे िस कnँ िक मP झठूा नही ं¸ँ ? कोई उपाय

    न रहा। मन मसोसकर रह गया। रोया। समझा िक सच बोलनेवाले और सjा काम

    करनेवालो को गािफल भी नही ंरहना चािहए। अपने पढ़ाई के समय मU इस तरह की मेरी

    यह पहली और आ]खरी गफलत थी। मुझे धँुधली‐सी याद है िक आ]खर मP वह जुमा�ना

    माफ करा सका था। मPने कसरत से तो मु]` Qा� कर ही ली। िपताजी ने हेडमाxर को

    पY िलखा िक ·ूल के समय के बाद वे मेरी उप]mथित का उपयोग अपनी सेवा के िलए

    करना चाहते हP। इस कारण मुझे मु]` िमल गयी।

    £ायाम के बदले मPने टहलने का िसलिसला रखा, इसिलए शरीर को £ायाम न देने की

    गलती के िलए तो शायद मुझे सजा नही ंभोगनी पड़ी, पर दूसरी एक गलती की सजा मU

    आज तक भोग रहा ¸ँ। मP यही जानता िक पढ़ाई मU सुZर लेखन आवqक नही ंहै, यह

    गलत खयाल मुझे कैसे हो गया था। पर ठेठ िवलायत जाने तक यह बना रहा। मPने अनुभव

    िकया िक खराब अ�र अधूरी िश�ा की िनशानी मानी जानी चािहए। बाद मU मPने अ�र

    सुधारने का QयÂ िकया, पर पके घडे पर कही ंगला जुड़ता है ? जवानी मU मPने िजसकी

    उपे�ा की, उसे मP आज तक नही ंकर सका।

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    इस समय के िव�ाास के दूसरे दो संरण उेखनीय हP। Ãाह के कारण जो एक

    साल नg bआ था, उसे बचा लेने की बात दूसरी क�ा के िश�क ने मेरे सामने रखी थी।

    उन िदनो ंपरrमी िव�ाथ| को इसके िलए अनुमित िमलती थी। इस कारण तीसरी क�ा

    मU मP छह महीने रहा और गरमी की छुिÄयो ंसे पहले होनेवाली परी�ा के बाद मुझे चौथी

    क�ा मU बैठाया गया। इस क�ा से थोड़ी पढ़ाई अंpेजी मा�म से होने लगती थी। मेरी

    समझ मU कुछ न आता था। भूिमित भी चौथी क�ा से शुn होती थी। मP उसमU िपछड़ा bआ

    था ही, ितस पर मP उसे िबलकुल समझ नही ं पाता था। भूिमित‐िश�क अ¶ी तरह

    समझाकर पढ़ाते थे, पर मP कुछ समझ ही न सकता था। मP अकसर िनराश हो जाता।

    कभी‐कभी यह भी सोचता िक एक साल मU दो क�ाएँ करने का िवचार छोड़कर मP तीसरी

    क�ा मU लौट जाऊँ। पर ऐसा करने मU मेरी लाज जाती, और िजन िश�क ने मेरी लगन पर

    भरोसा करके मुझे चढ़ाने की िसफारश की थी उनकी भी लाज जाती। इस भय से नीचे

    जाने का िवचार तो छोड़ ही िदया। जब QयÂ करते‐करते मP युिकलड़ के तेरहवU Qमेय तक

    पbँचा, तो अचानक मुझे बोध bआ िक भूिमित तो सरल से सरल िवषय है। िजसमU केवल

    बु] का सीधा और सरल Qयोग ही करना है, उसमU किठनाई ¹ा है ? उसके बाद तो

    भूिमित मेरे िलए सदा ही एक सरल और सरस िवषय बना रहा।

    भूिमित की अपे�ा सं·ृत ने मुझे अिधक परेशान िकया। भूिमित मU रटने की कोई बात

    थी ही नही,ं जब िक मेरी fिg से सं·ृत मU तो सब रटना ही होता था। यह िवषय भी चौथी

    क�ा मU शुn bआ था। छटी क�ा मU मP हारा। सं·ृत‐िश�क बbत कड़े िमजाज के थे।

    िव�ािथ�यो ंको अिधक िसखाने का लोभ रखते थे। सं·ृत वग� और फारसी वग� के बीच

    एक Qकार की होड़ रहती थी। फारसी िसखानेवाले मौलवी नरम िमजाज के थे। िव�ाथ|

    आपस मU बात करते िक फारसी तो बbत आसान है और फारसी‐िश�क बbत भले हP।

    िव�ाथ| िजतना काम करते हP, उतने से वे संतोष कर लेते हP। मP भी आसान होने की बात

    सुनकर ललचाया और एक िदन फारसी के वग� मU जाकर बैठा। सं·ृत‐िश�क को दुःख

    bआ। उोनें मुझे बुलाया और कहा: “यह तो समझ िक तू िकनका लड़का है। ¹ा तू

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    अपने धम� की भाषा नही ंसीखेगा ? तुझे जो किठनाई हो, सो मुझे बता। मP तो सब िव�ािथ�यो ं

    को बिढ़या सं·ृत िसखाना चाहता ¸ँ। आगे चलकर उसमU रसके घँूट पीने को िमलUगे।

    तुझे यो ंहारना नही ंचािहए। तू िफर से मेरे वग� मU बैठ।”

    मP शरमाया। िश�क के Qेम की अवगणना न कर सका ¹ोिंक िजतनी सं·ृत उस समय

    सीखा उतनी भी न सीखा होता, तो आज सं·ृत शा¨ो ंमU मP िजतना रस ले सकता ¸ँ

    उतना न ले पाता। मुझे तो इस बात का पा�ाप होता है िक मP सं·ृत अिधक न सीख

    सका। ¹ोिंक बाद मU मP समझा िक िकसी भी िहZू बालक को सं·ृत का अ¶ा अास

    िकये िबना रहना ही न चािहए।

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    ३. बाल-िववाह

    यह िलखते bए मन अकुलाता है िक तेरह साल की उमर मU मेरा िववाह bआ था। आज

    मेरी आँखो ं के सामने बारह‐तेरह वष� के बालक मौजूद हP। उU देखता ¸ँ और अपने

    िववाह का रण करता ¸ँ, तो मुझे अपने ऊपर दया आती है और इन बालको ंको मेरी

    ]mथित मU से बचने के िलए बधाई देने की इ¶ा होती है। तेरहवU वष� मU bए अपने िववाह के

    समथ�न मU मुझे एक भी नैितक दलील सुझ नही ंसकती।

    िसफ� तैयारयो ंसे ही पता चला िक £ाह होनेवाले हP। उस समय अ¶े‐अ¶े कपड़े पहनने,

    बाजे‐बजने, वर‐याYा के समय घोड़े पर चढ़ने, बिढ़या भोजन िमलने, एक नई बािलका के

    साथ िवनोद करने आिद की अिभलाषा के िसवा दूसरी कोई खास बात रही हो, धीरे‐धीरे

    हम एक‐दूसरे को पहचानने लगे, बोलने लगे। हम दोनो ंबराबरी की उमर के थे पर मPने

    तो पित की स�ा चलाना शुn कर िदया।

    मेरी ¨ी मेरी अनुमित के िबना कही ंजा ही नही ंसकती। पर क[ूरबाई ऐसी कैद सहन

    करनेवाली थी ही नही।ं जहाँ इ¶ा होती वहाँ मुझे िबना पूछे जnर जाती। मP Åो‐ंÅो ं

    दबाव डालता, Oो‐ंOो ंवह अिधक �तंYता से काम लेती, और Oो‐ंOो ंमP अिधक िचढ़ता।

    इससे हम बालको ंके बीच बोलचाल का बZ होना एक मामूली चीज बन गयी। क[ूरबाई

    ने जो �तंYता बरती, उसे मP िनदÆष मानता ¸ँ। िजस बािलका के मन मU पाप नही ंहै, वह

    देव‐दश�न के िलए जाने पर या िकसी से िमलने जाने पर दबाव ¹ो ंसहन करे ? अगर मP

    उस पर दबाव डालता ¸ँ, तो वह मुझ पर ¹ो ंन डाले ? – यह तो अब सम� मU आ रहा

    है। उस समय तो मुझे अपना पितÈ िस करना था।

    लेिकन पाठक यह न माने िक हमारे इस गृह‐जीवन मU कही ंभी िमठास नही ंथी। मेरी

    व¡ता की जड़ Qेम मU थी। मP अपनी पÂी को आदश� बनाना चाहता था। मेरी यह भावना

    थी िक वह �¶ बने, �¶ रहे, मP सीखँू सो सीखे, मP पढँू सो पढ़े, और हम दोनो ंएक‐

    दूसरे मU ओतQोत रहU।

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    क[ूरबाई मU यह भावना थी या नही,ं इसका मुझे पता नही।ं वह िनर�र थी। �भाव से

    सीधी, �तंY, मेहनती और मेरे साथ तो कम बोलनेवाली थी। उसे अपने अान का असंतोष

    न था। अपने बचपन मU मPने कभी उसकी यह इ¶ा नही ंजानी िक मेरी तरह वह भी पढ़

    सके तो अ¶ा हो।

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    ४. दुःखद �संग

    मP कह चुका ¸ँ िक हाई·ूल मU मेरे थोड़े ही िवÉासपाY िमY थे। कहा जा सकता है िक

    ऐसी िमYता रखनेवाले दो िमY अलग‐अलग समय मU रहे। एक का सÁ ले समय

    तक नही ंिटका, य�िप मPने उस िमY को छोड़ा नही ंथा। मPने दूसरे की सोहबत की, इसिलए

    पहले ने मुझे छोड़ िदया। दूसरी सोहबत मेरे जीवन का एक दुःखद Qकरण है। यह सोहबत

    बbत वषÆ तक रही। इस सोहबत को िनभाने मU मेरी fिg सुधारक की थी।

    पहली िमYता मेरे मझले भाई के साथ थी। वे मेरे भाई की क�ा मU थे। मP देख सका था िक

    उनमU कई दोष हP। पर मPने उU वफादार मान िलया था | मेरे माताजी, मेरे जेठे भाई और

    मेरी धम�पÂी तीनो ंको यह सोहबत कडवी लगती थी। पÂी की चेतावनी को तो मP अिभमानी

    पित ¹ो ंमानने लगा ? माता की आाका उंगन मP करता ही न था बड़े भाई की बात

    मP हमेशा सुनता था। पर उU मPने यह कहकर शा\ िकया: “उसके जो दोष आप बताते

    हP, उU मP जानता ¸ँ। उसके गुण तो आप जानते ही नही ंवह मुझे गलत रा[े नही ं ले

    जाएगा, ¹ोिंक उसके साथ मेरा सÁ उसे सुधारने के िलए ही है। मुझे यह िवÉास है

    िक अगर वह सुधर जाएँ, तो बbत अ¶ा आदमी िनकलेगा। मP चाहता ¸ँ िक आप मेरे

    िवषय मU िनभ�य रहU।”

    मP नही ंमानता िक मेरी इस बात से उU संतोष

    bआ, पर उोनें मुझ पर िवÉास िकया और मुझे

    मेरे रा[े जाने िदया।

    िजन िदनो ंमP इन िमY के संपक� मU आया, उन िदनो ं

    राजकोट मU 'सुधारपंथʼ का जोर था। मुझे इन

    िमYने बताया िक कई िहZू िश�क िछपेिछपे

    माँसाहार और म�पान करते हP। उोनें राजकोट

    िम, के साथ

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    के दूसरे Qिस गृहmथो ंके नाम भी िदये। मेरे सामने हाई·ूल मU कुछ िव�ािथ�यो ंके नाम

    भी आये।

    मुझे तो आय� भी bआ और दुःख भी। कारण पूछने पर यह दलील दी गयी: “हम माँसाहार

    नही ंकरते, इसिलए Qजा के nप मU हम िनव|य� हP। अंpेज हम पर इसीिलए राÅ करते हP

    िक वे माँसाहारी हP। मP िकतना मजबूत ¸ँ और िकतना दौड़ सकता ¸ँ, सो तो तुम जानते

    ही हो। इसका कारण भी माँसाहार ही है। माँसाहारी को फोड़े नही ंहोते, होने पर झट अ¶े

    हो जाते हP। हमारे िश�क माँस खाते हP, इतने Qिस £]` खाते हP, सो कया िबना समझे

    खाते हP ? तुÊU भी खाना चािहए। खाकर देखो ंतो मालूम होगा िक तुममU िकतनी ताकात

    आ जाती है।”

    ये सब दलीलU िकसी एक िदन नही ंदी गयी थी।ं अनेक उदाहरणो ंसे सजाकर इस तरह

    की दलीलU कई बार दी गयी।ं मेरे मझले भाई तो Ëg हो चुके थे। उोनें इन दलीलो ंकी

    पुिg की। अपने भाई की और इन िमY की तुलना मU मP तो बbत दुबला था। उनके शरीर

    अिधक गठीले थे। उनका शरीर‐बल मुझसे कही ंÅादा था। वे िहÌतवर थे। इन िमY के

    परा¡म मुझे मुÍ कर देते थे। वे मनचाहा दौड़ सकते थे। उनकी गित बbत अ¶ी थी। वे

    खूब ला और ऊँचा कूद सकते थे। मार सहन करने की श]` भी उनमU खूब थी। अपनी

    इस श]` का Qदश�न भी वे मेरे सामने समय‐समय पर करते थे। जो श]` अपने मU नही ं

    होती, उसे दूसरे मU देखकर मनुÎ को आय� होता ही है। वैसा मुझे भी bआ। आय� मU से

    मोह पैदा bआ। मुझ मU दौड़ने‐कूदने की श]` नही ंके बराबर थी। मP सोचा करता िक मP

    भी इन िमY की तरह बलवान बन जाऊँ, तो िकतना अ¶ा हो।

    इसके अलावा मP बbत डरपोक था। चोर, भूत, साँप आिद के डर से िधरा रहता था। रात

    कही ंअकेले जाने की िहंमत नही ंथी। अँधेरे मU तो कही ंजाता ही न था। दीये के िबना सोना

    लगभग असंभव था। कही ंइधर से भूत न आ जाए, उधर से चोर न आ जाए और तीसरी

    जगह से साँप न िनकल आये ! इसिलए ब�ी की ज़nरत तो रहती ही थी। मेरे ये िमY मेरी

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    इन कमजोरयो ंको जानते थे। मुझसे कहा करते थे िक वे तो िजZा साँपो ंको भी हाथ से

    पकड़ लेते हP। चोर से कभी नही ंडरते। भूत को तो मानते ही नही।ं

    इन सब बातो ंका मेरे मन पर पूरा‐पूरा असर bआ। मP िपघला। मP यह मानने लगा िक

    माँसाहार अ¶ी चीज है। उससे मU बलवान और साहसी बनँूगा। समूचा देश माँसाहार करे,

    तो अpेजो ंको हराया जा सकता है।

    माँसाहार शुn करने का िदन िनित bआ। गांधी‐परवार वैªव सÐदाय का है। माता‐

    िपता बbत क¼र वैªव माने जाते थे। मP माता‐िपता का परम भ` था। मP मानता था िक

    वे मेरे माँसाहार की बात जानUगे, तो िबना मौत के उनकी ताल मृOु हो जाएँगी। लेिकन

    मुझे तो सुधार करना था। माँसाहार का शौक नही ंथा। यह सोचकर िक उसमU �ाद है, मP

    माँसाहार शुn नही ंकर रहा था। मुझे तो बलवान और साहसी बनना था, दूसरो ंको वैसा

    बनने के िलए ®ोतना था और िफर अंpेजो ंको हराकर िहZु[ान को �तंY करना था।

    '�राÅʼ श उस समय तक मPने सुना नही ंथा। सुधार के इस जोश मU मP होश भूल गया।

    िनित िदन आया। हम नदी की तरफ एका\ की खोज मU चले। दूर जाकर ऐसा कोना

    खोजा, जहाँ कोई देख न सके, और वहाँ मPने कभी न देखी bई व[ु‐माँस... देखी! साथ मU

    भिटयारखाने की डबल‐रोटी थी। माँस चमड़े जैसा लगता था। खाना असंभव हो गया। मुझे

    कै होने लगी। खाना छोड़ देना पड़ा।

    मेरी वह रात बbत बुरी बीती। नीदं नही ंआई। सपने मU ऐसा भास होता था, मानो शरीर के

    अZर बकरा िजZा हो और रो रहा हो। मP चौकं उठता, पछताता और िफर सोचता िक

    मुझे तो माँसाहार करना ही है, िहÌत नही ंहारनी है।

    िमY भी हार खानेवाले नही ंथे। उोनें अब माँस को अलग‐अलग ढंग से पकाने, सजाने

    और ढँकने का QबÁ िकया। नदी िकनारे ले जाने के बदले िकसी बावरची के साथ बातचीत

    करके िछपेिछपे एक सरकारी डाक‐बंगले पर ले जाने की £वmथा की और वहाँ कुस|,

    मेज वगैरा सामान के Qलोभन मU मुझे डाला।

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    इसका असर bआ। डबल‐रोटी की नफरत कुछ कम पड़ी, बकरे की दया छूटी और माँस

    का तो कह नही ंसकता, पर माँस वाले पदाथ मU �ाद आने लगा। इस तरह एक साल

    बीता होगा और इस बीच पाँच‐छह बार माँस खाने को िमला होगा, मेरे पास तो फूटी कौड़ी

    भी नही ंथी, इसिलए मP कुछ दे नही ंसकता था। इस खच� की £वmथा उन िमY को ही

    करनी होती थी। उोनें कहाँ से, कैसे £वmथा की, इसका मुझे आज तक पता नही ंहै।

    उनका इरादा तो मुझे माँस की आदत लगा देने का Ëg करने का था, इसिलए उनके पास

    भी कोई अखूट खजाना नही ंथा, इसिलए ऐसी दावतU कभी‐कभी ही हो सकती थी।ं

    जब‐जब ऐसा भोजन िमलता, तब‐तब घर पर तो भोजन हो ही नही ं सकता था। जब

    माताजी भोजन के िलए बुलाती,ं तब आज भूख नही ंहै, खाना हजम नही ंbआ हP ऐसे बहाने

    बनाने पड़ते थे। ऐसा कहते समय हर बार मुझे भारी आघात पbँचता था। यह झठू, सो भी

    माँ के सामने और अगर माता‐िपता को पता चले िक लड़कU माँसाहारी हो गये हP, तब तो

    उन पर िबजली ही टूट पडेगी। ये िवचार मेरे िदल को कुरेदते रहते थे।

    इस िलए मPने िनय िकया: 'माँस खाना आवqक है; उसका Qचार करके हम िहZु[ान

    को सुधारU गे; पर माता‐िपता को धोखा देना और झठू बोलना तो माँस खाने से भी बुरा है।

    इसिलए माता‐िपता के जीते‐जी माँस नही ंखाना चािहए। उनकी मृOु के बाद, �तंY होने

    पर खुले तौर से माँस खाना चािहए और जब तक वह समय न आवे, तब तक माँसाहार का

    Oाग करना चािहए।'

    अपना यह िनय मPने िमY को जता िदया और तबसे माँसाहार जो छूटा, सो सदा के िलए

    छूट गया।

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    ५. चोरी

    माँसाहार के समय के और उससे पहले के कुछ दोषो ंका वण�न अभी रह गया है। वे दोष

    िववाह से पहले के अथवा उसके तुर\ बाद के हP।

    अपने एक रÑेदार के साथ मुझे बीड़ी पीने का शौक लगा। हमारे पास पैसे नही ंथे। हम

    दोनो ंमU से िकसी का यह खयाल तो नही ंथा िक बीड़ी पीने मU कोई फायदा है, अथवा

    उसकी गÁ मU आनZ है। पर हमU लगा िक िसफ� धुआँ उड़ाने मU ही कुछ मजा है। मेरे

    काकाजी को बीड़ी पीने की आदत थी। उU और दूसरो ंको धुआ उड़ाते देखकर हमU भी

    बीड़ी फँूकने की इ¶ा bई। गाँठ मU पैसे तो थे नही,ं इसिलए काकाजी पीने के बाद बीड़ी

    के जो ठँूठ फU क देते, हमने उU चुराना शुn िकया।

    पर बीड़ी के ये ठँूठ हर समय िमल नही ंसकते थे, और उनमU से बbत धुआँ भी नही ं

    िनकलता था। इसिलए नौकर की जेब मU पड़े दो‐चार पैसो ंमU से हमने एकाध पैसा चुराने

    की आदत डाली, और हम बीड़ी खरीदने लगे। पर सवाल यह पैदा bआ िक उसे संभाल

    कर रखे कहाँ। हम जानते थे िक बड़ो ंके देखते तो बीड़ी पी ही नही ंसकते। जैसे‐तैसे दो‐

    चार पैसे चुराकर कुछ हÒे काम चलाया। इस बीच सुना िक एक Qकार का पौधा होता

    है, िजसमU डंढ़ल बीड़ी की तरह जलते हP और फँूके जा सकते हP। हमने उU Qा� िकया

    और फँूकने लगे।

    पर हमU संतोष नही ंbआ। अपनी पराधीनता हमU अखरने लगी। हमU दुःख इस बात का था

    िक बड़ो ंकी आा के िबना हम कुछ भी नही ंकर सकते थे। हम ऊब गये और हमने

    आIहOा करने का िनय कर िलया।

    पर आIहOा कैसे करU ? जहर कौन दे? हमने सुना िक धतूरे के बीज खाने से मृOु होती

    है। हम जंगल मU जाकर बीज ले आये। शाम का समय तय िकया। केदारनाथजी के मंिदर

    की दीपमाला मU भी घी चढ़ाया, दश�न िकये और एका\ खोज िलया। पर जहर खाने की

    िहंमत न bई। अगर तुर\ ही मृOु न bई तो ¹ा होगा ? मरने से लाभ ¹ा ? ¹ो ंन

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    पराधीनता ही सह ली जाए ? िफर भी दो‐चार बीज खाये। अिधक खाने की िहंमत ही न

    पड़ी। दोनो ंमौत से डरे और यह िनय िकया िक रामजी के मंिदर मU जाकर दश�न करके

    शा\ हो जाएँ और आIहOा की बात भूल जाएँ।

    मेरी समझ मU आया िक आIहOा का िवचार करना सरल है, आIहOा करना सरल

    नही।ं

    आIहOा के इस िवचार का परणाम यह bआ िक हम दोनो ंजूठी बीड़ी चुराकर पीने की

    और नौकर के पैसे चुराकर बीड़ी खरीदने और फँूकने की आदत भूल गये।

    िफर बड़ेपन मU बीड़ी पीने की कभी इ¶ा नही ंbई। मPने हमेशा यह माना है िक यह आदत

    जंगली, गZी और हािनकारक है। दुिनया मU बीड़ी का इतना जबरद[ शौक ¹ो ंहै, इसे

    मP कभी समझ नही ंसका ¸ँ। रेलगाड़ी के िजस िडÓे मU बbत बीड़ी पी जाती है, वहाँ बैठना

    मेरे िलए मु]µल हो जाता है, और उसके धुएँ से मेरा दम घुटने लगता है।

    बीड़ी के ठँूठ चुराने और इसी िसलिसले मU नोकर के पैसे चुराने के दोष की तुलना से मुझ

    से चोरी का दूसरा जो दोष bआ, उसे मP अिधक गंभीर मानता ¸ँ। बीड़ी के दोष के समय

    मेरी उमर बारह‐तेरह साल की रही होगी; शायद इससे कम भी हो। दूसरी चोरी के समय

    मेरी उमर प�ह साल की रही होगी। यह चोरी मेरे माँसाहारी भाई के सोने के कड़ेके

    टुकड़े की थी। उन पर मामूली‐सा, लगभग पjीस nपये का, कज� हो गया था। उसकी

    अदायगी के बारे मU हम दोनो ंभाई सोच रहे थे। मेरे भाई के हाथ मU सोने का ठोस कड़ा

    था। उसमU से एक तोला सोना काट लेना मु]µल न था।

    कड़ा कटा। कज� अदा bआ। पर मेरे िलए यह बात अस¿ हो गयी। मPने िनय िकया िक

    आगे कभी चोरी कnँगा ही नही।ं मुझे लगा िक िपताजी के सÌुख अपना दोष �ीकार

    भी कर लेना चािहए। पर जीभ न खुली। िपताजी �यं मुझे पीटUगे, इसका डर तो था ही

    नही।ं मुझे याद नही ंपड़ता िक उोनें कभी हममU से िकसी भाई को पीटा हो। पर खुद,

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    दुःखी होगें, शायद िसर फोड़ लU | मPने सोचा की यह जो]खम उठाकर भी दोष कबूल कर

    ही लेना चािहए, उसके िबना शु] नही ंहोगी |

    आ]खर मPने तय िकया िक िचÄी िलखकर दोष �ीकार िकया जाए और �मा माँग ली जाए

    | मPने िचÄी िलखकर हाथोहंाथ दी | िचÄी मU सारा दोष �ीकार िकया और सजा चाही |

    आpहपूव�क िबनती िक की वे अपने को दुःख मU न डालU, और भिवÎ मने िफर ऐसा

    अपराध न करने की Qिता की |

    मPने काँपते हाथो ंिचÄी िपताजी के हाथ मU दी। मP उनके तÔ के, सामने बैठ गया। उन

    िदनो ंवे भगZर की, बीमारी से पीिड़त थे, इस कारण िब[र पर ही पड़े रहते थे। खिटया

    के बदले लकड़ी का तÔ काम मU लाते थे।

    उोनें िचÄी पढ़ी। आँखो ंसे मोती की बँूदU टपकी।ं िचÄी भीग गयी। उोनें �ण भर के

    िलए आँखU मँूदी,ं िचÄी फाड़ डाली और �यं पढ़ने के िलए उठ बैठे थे, सो वापस लेट गये।

    मP भी रोया। िपताजी का दुःख समझ सका। अगर मP िचYकार होता, तो वह िचY आज

    संपूण�ता से खीचं सकता | आज भी वह मेरी आँखो ंके सामने इतना g है। इस Qकार

    की शा\ �मा िपताजी के �भाव के िव¾ थी | मPने सोचा था िक वे ¡ोध करU गे, कटु

    वचन कहUगे, शायद अपना िसर पीट लUगे। पर उोनें इतनी अपार शांित जो धारण की,

    मेरे िवचार मU उसका कारण अपराध की सरल �ीकृित थी। जो मनुÎ अिधकारी के

    सÌुख �े¶ासे और िनÕपट भाव से अपना अपराध �ीकार कर लेता है और िफर

    कभी वैसा अपराध न करने की Qिता करता है, वह शुतम Qायित करता है।

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    ६. िपताजी की बीमारी और मृCु

    उस समय मP सोलह वष� का था। हम ऊपर देख चुके हP

    िक िपताजी भगZर की बीमारी के कारण िबलकुल

    शावश थे। उनकी सेवा मU अिधकतर माताजी, घर

    का एक पुराना नौकर और मP रहते थे। मेरे िजÌे ‘नस�ʼ

    का काम था। उनका घाव धोना, उसमU दवा डालना,

    मरहम लगाने के समय मरहम लगाना, उU दवा

    िपलाना और जब घर पर दवा तैयार करनी हो तो तैयार

    करना, यह मेरा खास काम था। रात हमेशा उनके पैर

    दबाना और इजाजत देने पर अथवा उनके सो जाने पर

    सोना यह मेरा िनयम था। मुझे यह सेवा बbत िQय थी।

    मुझे रण नही ंहै िक इसमU िकसी भी िदन चूका होऊँ। ये िदन हाई·ूल के तो थे ही।

    इसिलए खाने‐पीने के बाद का मेरा समय ·ूल मU अथवा िपताजी की सेवा मU ही बीतता

    था। िजस िदन उनकी आा िमलती और उनकी तबीयत ठीक रहती, उस िदन शाम को

    टहलने जाता था।

    अवसान की घोर रािY समीप आई। रात के साढ़े दस या ²ारह बजे होगें। मP पैर दबा रहा

    था। चाचाजी ने मुझसे कहा: “जा, अब मP बैठँूगा।”मP खुश bआ और सीधा शयन‐गृह मU

    पbँचा। पÂी तो बेचारी गहरी नीदं मU थी पाँच‐सात िमिनट िबते होगें, इतने मU िजस नौकर

    की मP ऊपर चचा� कर चुका ¸ँ, उसने आकर िकवाड़ खटखटाया। मुझे धÖा‐सा लगा।

    मP चौकंा। नौकर ने कहा, “उठो, बापू बbत बीमार हP।”मP जानता था िक वे बbत बीमार

    तो थे ही, इसिलए यहाँ ‘बbत बीमारʼ का िवशेष अथ� समझ गया। एकदम बी[र से कूद

    पड़ा।

    “कह तो सही, बात ¹ा है ?”

    जवाब िमला, “बापू गुजर गये।

    मP बbत दुःखी bआ। बात मेरी समझ मU आयी िक अगर मP िवषयाÁ न होता, तो इस अंितम

    घडी मU यह िवयोग मुझे नसीब न होता और मP अ\ समय तक िपताजी के पैर दबाता

    रहता।

    िपता करमचंद

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    ७. धमL की झाँकी

    मP ऊपर कह चुका ¸ँ िक मुझे भूत‐Qेत आिद का डर लगता था। र×ा ने मुझे समझाया

    िक इसकी दवा रामनाम है। मुझे तो रामनाम से भी अिधक rा र×ा पर थी, इसिलए

    बbत समय तक नही ंचला। पर बचपन मU जो बीज बोया गया, वह नg नही ंbआ। आज

    रामनाम मेरे िलए अमोध श]` है। मP मानता ¸ँ िक उसके मूल मU र×ाबाई का बोया bआ

    बीज है।

    िपताजी की बीमारी का थोड़ा समय पोरबंदर मU बीता था। वहाँ वे रामजी के मंिदर मU रोज

    रात के समय रामायण सुनते थे। वे रामच�जी के परम भ` थे। लाधा महाराज का कØ

    मीठा था। वे दोहा‐चौपाई गाते और अथ� समझाते थे। उस समय मेरी उमर तेरह साल की

    रही होगी,पर याद पड़ता है िक उनके पाठ मU मुझे खूब रस आता था। यह रामायण‐rवण

    रामायण के Qित मेरे अOिधक Qेम की बुिनयाद है। आज मP तुलसीदास की रामायण को

    भ]`माग� का सवÆ�म pंथ मानता ¸ँ।

    राजकोट मU मुझे अनायास ही सब सÐदायो ंके Qित समान भाव रखने की िश�ा िमली।

    मPने िहZू धम� के QOेक सÐदाय का आदर करना सीखा, ¹ोिंक माता‐िपता वैªव मंिदर

    मU, िशवालय मU और राम‐मंिदर मU भी जाते और भाईयो ंको भी साथ ले जाते या भेजते थे।

    िफर िपताजी के पास जैन धमा�चाय मU से भी कोई न कोई हमेशा आते रहते थे। िपताजी

    उU िभ�ा भी देते थे। वे िपताजी के साथ धम� और £वहार की बातU िकया करते थे।

    इसके िसवा, िपताजी के मुसलमान और पारसी िमY भी थे। वे अपने‐अपने धम� की चचा�

    करते और िपताजी उनकी बातU सÌानपूव�क और अकसर रसपूव�क सुना करते थे। 'नस�'

    होने के कारण ऐसी चचा� के समय मP अकसर हािजर रहता था। इस सारे वातावरण का

    Qभाव मुझ पर यह पड़ा िक मुझ मU सब धमÆ के िलए समान भाव पैदा हो गया।

    एक ईसाई धम� अपवाद nप था। उसके Qित कुछ अ¾िच थी। उन िदनो ं कुछ ईसाई

    हाई·ूल के कोने पर खड़े होकर £ा¦ान िदया करते थे। वे िहZू देवताओ ंकी और

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    िहZू धम� को माननेवालो ंकी बुराई करते थे। मुझे यह अस¿ मालूम bआ। उी ंिदनो ंएक

    Qिस िहZू के ईसाई बनने की बात सुनी। गाँव मU चचा� थी िक उU ईसाई धम� की दी�ा

    देते समय गोमाँस ]खलाया गया और शराब िपलायी गयी। उनकी पोशाक भी बदल दी

    गयी और ईसाई बनने के बाद वे भाई कोट‐पतलून और अंpेजी टोपी पहनने लगे। इन

    बातो ंसे मुझे पीड़ा पbँची। िफर यह भी सुनने मU आया िक जो भाई ईसाई बने थे, उोनें

    अपने पूव�जो ंके धम� की, रीित‐रवाजो ंकी और देश की िनंदा करना शुnकर िदया था।

    इन सब बातो ंसे मेरे मन मU ईसाई धम� के Qित अ¾िच उz{ हो गयी।

    इस तरह य�िप दूसरे धम के Qित समभाव जागा, िफर भी यह नही ंकहा जा सकता िक

    मुझ मU ईÉर के Qित आmथा थी।

    पर एक चीज ने मन मU जड़ जमा ली—यह संसार नीित पर िटका bआ है। नीितमाY का

    समावेश सO मU है।

    िफर, नीित का एक छ~य िदल मU बस गया। अपकार का बदला अपकार नही,ं उपकार

    ही हो सकता है, यह एक जीवन‐सूY ही बन गया। उसने मुझ पर साÚाÅ चलाना शुn

    िकया। अपकारी का भला चाहना और करना, इसका मP अनुरागी बन गया। इसके

    अनिगनत Qयोग िकये। वह चमारी छ~य यह है।

    पाणी आपने पाय, भलंु भोजन तो दीजे;

    आवी नमावे शीश, दंडवत कोड़े कीजे

    आपत घासे दाम, काम महोरोनंु करीए;

    आप उगारे Qाण, ते ताग दुःखमां मरीए

    गुण केडे को गुण दश गणो, मन, वाचा, कम¥ करी;

    अवगुण केड़े जो गुण करे, ते जगमां जीOो सही.ं

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    ८. िवलायत की तैयारी

    बड़ो ंकी इ¶ा थी की पास हो जाने पर मुझे आगे कॉलेज की पढ़ाई करनी चािहए। कॉलेज

    बई मU भी था और भावनगर मU भी। भावनगर का खच� कम था, इसिलए भावनगर के

    शामलदास कॉलेज मU भरती होने का िनय bआ। पहला सY पूरा करके मP घर आया।

    कूटंुब के पुराने िमY और सलाहकार एक िवान, £वहार‐कुशल ÛाÜण मावजी दवे थे।

    िपताजी के �ग�वास के बाद भी उोनें कुटु के साथ सÁ बनाये रखा था। वे छु¼ी के

    इन िदनो ंमU घर आये। माताजी और बड़े भाई के साथ बातचीत करते bए उोनें मेरी

    पढ़ाई के बारे मU पूछताछ की। जब सुना िक मP शामलदास कॉलेज मU ¸ँ, तो बोले:“जमाना

    बदल गया है। तुम भाईयो ंमU से कोई कबा गांधी की ग}ी संभालना चाहे तो िबना पढ़ाई के

    वह नही ंहोगा। वह लड़का अभी पढ़ रहा है, इसिलए ग}ी संभालने का बोझ इससे उठवाना

    चािहए। इसे चार‐पाँच साल तो अभी बी.ए. होने मU लग जाएँगे, और इतना समय देने पर

    भी इसे ५०‐६० nपये की नौकरी िमलेगी, दीवानगीरी नही।ं और अगर उसके बाद इसे

    मेरे लड़के की तरह वकील बनायU, तो थोड़े वष� और लग जाएँगे। और तब तक तो

    दीवानगीरी के िलए वकील भी बbत से तैयार हो चुकU गे। आपको इसे िवलायत भेजना

    चािहए। नये आये bए बारxरो ं को देखो, वे कैसे ठाठ से रहते हP। वे चाहU तो उU

    दीवानगीरी आज िमल सकती है। मेरी तो सलाह है िक आप मोहनदास को इसी साल

    िवलायत भेज दीिजये। िवलायल मU मेरे केवलराम के कई दो[ हP; वह उनके नाम

    िसफारशी पY दे देगा, तो इसे वहाँ कोई किठनाई नही ंहोगी।”

    जोशीजी ने (मावजी दवे को हम इसी नाम से पुकारते थे) मेरी तरफ देखकर मुझसे ऐसे

    लहजे मU पूछा, मानो उनकी सलाह के �ीकृत होने मU उU कोई शंका ही न हो: “¹ो,ं तुझे

    िवलायत जाना अ¶ा लगेगा या यही ंपढ़ते रहना ?” मुझे जो भाता था वही वै�ने बता िदया।

    मP कॉलेज की किठनाइयो ंसे डर तो गया ही था ! मPने कहा, “मुझे िवलायत भेजU, तो बbत

    ही अ¶ा है। बड़े भाई सोच मU पड़ गये। पैसा कहाँ से आयेगा ? और मेरे जैसे नौजवान को

    इतनी दूर कैसे भेजा जाए ! माताजी को कुछ सूझ न पड़ा िवयोग की बात उU जँची ही

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    नही।ं उोनें सब तरह की पूछताछ शुn कर दी थी। कोई कहता, नौजवान लोग िवलायत

    जाकर िबगड जाते हP; कोई कहता, वे माँसाहार करने लगते हP; कोई कहता, वहाँ शराब

    के िबना तो चलता ही नही।ं माताजी ने मुझे ये सारी बातU सुनायी ंमPने कहा, “पर तू मेरा

    िवÉास नही ंकरेगी ? मP तुझे धोखा नही ंदँूगा। शपथपूव�क कहता ¸ँ िक मP इन तीनो ंचीजो ं

    से बचँूगा। अगर ऐसा खतरा होता, तो जोशीजी ¹ो ंजाने देते ?” माताजी बोली, “मुझे तेरा

    िवÉास है। पर दूर देश मU ¹ा होगा ? मेरी तो अकल काम नही ंकरती। मP बेचरजी �ामी

    से पूछँूगी।”

    बेचरजी �ामी मोढ़ बिनयो ंमU से बने bए एक जैन साधु थे। जोशीजी की तरह वे भी हमारे

    सलाहकार थे उोनें मदद की। वे बोले : “मP इस लड़के से इन तीनो ं चीजो ं के ¬त

    िलवाऊँगा? िफर इसे जाने देने मU कोई हािन नही ंहोगी।”उोनें Qिता िलवायी और मPने

    माँस, मिदरा तथा ¨ी‐संग से दूर रहने की Qिता की। माताजी ने आा दी।

    हाई·ूल मU सभा bई। राजकोट का एक युवक िवलायत जा रहा है, यह आय� का िवषय

    बना। मP जवाब के िलए कुछ िलखकर ले गया था। जवाब देते समय उसे मु]µल से पढ़

    पाया। मुझे इतना याद है िक मेरा िसर घूम रहा था और शरीर काँप रहा था।

    माताजी की आा और आशीवा�द लेकर और पÂी की गोद मU कुछ महीनो ंका बालक

    छोड़कर मP उमंगो ंके साथ बÝई पbँचा। पbँच तो गया, पर वहाँ िमYो ंने भाई को बताया

    िक जून‐जुलाई मU िहZ महासागर मU तूफान आते हP और मेरी यह पहली ही समुी याYा

    है, इसिलए मुझे दीवाली के बाद यानी नवर मU रवाना करना चािहए।

    इस बीच जाित मU खलबली मची। जाित की सभा बुलायी गयी। अभी तक कोई मोढ़ बिनया

    िवलायत नही ंगया था। मुझे पंचायत मU हािजर रहने का bकम िमला। मP गया। मP नही ं

    जानता िक मुझ मU अचानक िहंमत कहाँ से आ गयी। हािजर रहने मU मुझे न तो संकोच

    bआ, न डर लगा। जाित के सरपंच के साथ दूसरा कुछ रÑा भी था। िपताजी के साथ

    उनका संबंध अ¶ा था। उोनें मुझसे कहा:

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    “जाित का खयाल है िक तूने िवलायत जाने का जो िवचार िकया है वह ठीक नही ंहै। हमारे

    धम� मU समु पार करने की मनाही है, ितस पर यह भी सुना जाता है िक वहाँ धम� की र�ा

    नही ंहो पाती। वहाँ साहब लोगो ंके साथ खाना‐पीना पड़ता है।”

    मPने जवाब िदया, “मुझे तो लगता है िक िवलायत जाने मU लेशमाY भी अधम� नही ंहै।

    मुझे तो वहाँ जाकर िव�ा�यन ही करना है। िफर िजन बातो ंका आपको डर है, उनसे

    दूर रहने की Qिता मPने अपनी माताजी के सÌुख ली है, इसिलए मP उनसे दूर रह सकँूगा।“

    सरपंच बोले: “पर हम तुझसे कहते हP िक वहाँ धम� की र�ा हो ही नही ंसकती। तू जानता

    है िक तेरे िपताजी के साथ मेरा कैसा सÁ था। तुझे मेरी बात माननी चा