दयानंद - wordpress.com€¦ · 5 २• दयानंद के बचपन का...

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    दयानंद आ च रत (एक अधूरा सच)

    ामी दयानंद एक साधारण मनु थे, और उनके अंदर भी

    साधारण मनु ो ंकी ही भाँित सभी गुण व दोष मौजूद थे, इसीिलए जब उ ोनें अपना आ च रत दुिनया के सामने रखा तो िनि त ही एक साधारण मनु की भाँित िसफ उनकी अ ी बाते ही दुिनया तक प ंचे ऐसी कोिशश की होगी, और यही िकया भी, ोिक जब हम इितहास पर ि डालते है और उनका जीवन च र पढ़ते है तो हमे केवल वही िदखता है जो वो हम िदखाना चाहते होगें, कौन जाने सच ा होगा?

    ोिक उनके जीवन च र म काफी बात ऐसी ह जो आधे अधूरे सच की तरफ इशारा करती है, िजनकी मािणकता इितहास के अंधेरो ंम सदा सदा के िलए खो गयी है, जैसे-

    १• ामी दयानंद का ज -

    (अ) आय समाजी गपोड़ा- ामी दयानंद का ज गुजरात ा के कािठयावाड़ के मौरवी रा म टंकारा नामक ाम म १२ फरवरी १८२४ को आ था।

    (ब) ामी दयानंद के अनुसार- दयानंद ने अपनी जीवनी सन् १८७६ म िलखी ंऔर १८८०, म िथयोसोिफ प म उसे छपवाया।

    दयानंद अपने आ च रत के पृ सं ा १ म िलखते ह िक- मने िजस प रवार म ज हण िकया वह एक िव ृत स ि स

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    प रवार था, हमारा कुटु इस समय १५ पृथक-पृथक प रवारो ंम िवभ है और इस समय मेरी अव था ४६ वा ५० वष की है।

    समी ा-- ऊपर िलखी ंदोनो ंही वता िजसम एक तो दयानंदीयो ंारा तैयार क त दयानंद च रत और दूसरी यं दयानंद ारा िलखी ंआ च रत है, इन दोनो ंम से कौन सी बात स मान और कौन सी अस , यह तो अब हमारे दयानंदी भाई ही बता सकते ह, अब जबिक दयानंद ने अपने आ च रत म यह िलखा है िक इस आ च रत को िलखते समय अथात १८७६ म उनकी उ ४६ वा ५० वष की है अथात यं ामी जी को ही अपनी ठीक-ठीक उ का पता नही ंथा, उनके इस लेखानुसार उनका ज १८२२ से १८२६ के आसपास आ था, पर ु हमारे दयानंदी भाई तो यह कहते ह िक "दयानंद जी का ज गुजरात ा के कािठयावाड़ के मौरवी रा म टंकारा नामक ाम म १२ फरवरी १८२४ को आ था" दयानंदी यह बात इतने िव ास के साथ िलखते ह जैसे मानो ंदयानंद के ज के समय वही पर उप थत थे, सो यहाँ आय समाजीयो ंसे हमारा यह है िक जब दयानंद को ही अपनी ठीक-ठीक उ का पता नही ंथा, तो िफर दयानंदी िकस आधार पर इतने िव ास के साथ यह कहते ह िक दयानंद का ज १२ फरवरी १८२४ को आ था, दयानंदी इस बात को साफ कर िक वह इनम से कौन सी बात स मानते ह जो यं दयानंद ने अपने आ च रत म िलखी ंह या िफर दयानंद के अ भ िनयोगी चमचो ं ारा तैयार यह क त दयानंद च रत?

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    २• दयानंद के बचपन का नाम, उनके माता और िपता का नाम आिद-

    (अ) आय समाजी गपोड़ा- दयानंदीयो ंके अनुसार ामी दयानंद के बचपन का नाम मूलजी दयाराम था तो कुछ कहते ह िक उनके बचपन का नाम मूलशंकर था, इसी कार दयानंद के माता, िपता के बारे म कुछ लोग कहते ह िक उनके िपता का नाम अ ाशंकर और माता का नाम यशोदाबाई था, तो वही कुछ का कहना है िक उनके िपता का नाम करशनजी लालजी ि वेदी और माता का नाम यशोदाबाई था।

    अब आइए दयानंद ा कहते ह वो भी देख लेते ह।

    (ब) दयानंद के अनुसार- दयानंद अपने आ च रत के पृ सं ा १ म िलखते ह िक- अनेक लोग यह िज ासा करते ह म ा ण ँ वा नही, और वे लोग अनुरोध करते ह िक इसके माण के िलए अपने कुटु यो ंका नाम बतलाओ ंअथवा उनम से िकसी का िलखा आ कोई प िदखलाओ,ं ये कहना अनाव क है िक गुजरातवासी लोगो ंके साथ म अिधकतर अनुरागसु म िनब ँ, अपने कुटु यो ंके साथ यिद मेरा िकसी कार से सा ात् हो जाए, तो िजस सांसा रक अशांित से मने अपने आप को तं िकया ह िफर मुझे उसी अशांितजाल म िन य ही फसना होगा, इसी कारण से म अपने कुटु यो ंके नाम बतलाना व उनम से िकसी का िलखा प दशन करना उिचत नही ंसमझता।

    समी ा-- अब यह बात तो हम हमारे दयानंदी भाई समझा सकते ह िक जब ामी दयानंद ने अपने आ च रत म अपने माता िपता कुल गो आिद के बारे मे कुछ भी िलखने वा बताने से साफ-साफ

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    मना कर िदया, तो िफर दयानंदी िकस आधार पर इतने िव ास के साथ यह बात कहते ह िक "दयानंद की माता का नाम यशोदाबाई और उनके दो िनयोगी िपता िजनके नाम मशः अ ाशंकर और करशनजी लालजी ि वेदी थे, वैसे यह कोई आ य की बात भी नही ंहै ोिंक ामी जी के मतानुसार एक ी एकादश ( ारह) पित तक कर सकती है, जब यह हाल है िक एक ी के ारह पित हो सकते ह तो िफर ामी दयानंद जी के दो िपता ो ंनही ंहो सकते? शाबाश! दयानंदीयो ंऐसे ही लग रहो और म तो कहता ँ एक बार िफर से जाँच कर, ा पता यशोदाबाई के दो से अिधक िनयोगी पित िस हो जाये।

    ामी जी के इस लेख से यह तो हो जाता है िक ामी जी के ज और उनके वण का पता लग पाना लगभग असंभव है, और ऐसे के िलए ामी जी स ाथ काश थम सं रण के पृ ६७ म िलखते ह िक मले नाम िनंिदत नही ंहै िजन पु षो ंके आचरण म वण का उ ारण नही ंहोता उनका नाम मले है,

    दयानंद के लेखानुसार वे मले ठहर अब दयानंदीयो ंको अिधकार है िक वह अपने गु की आ ा को ीकार कर या िफर ितर ार,

    और सुिनये इसी लेख म आगे दयानंद जी िलखते ह िक “अपने कुटु यो ंके साथ यिद मेरा िकसी कार सा ात् हो जाये तो िजस सांसा रक अशांित से मने अपने आपको तं िकया ह िफर मुझे उसी अशांितजाल म िन य ही फसना होगा”

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    अब यहाँ ामी जी से हमारा यह है िक उ ोनें यह बात ा सोचकर िलखी ंह? यह म ामी जी के मन म कैसे उ हो गया िक उ ोनें सांसा रक अशांित से यं को तं कर िलया, शायद यहाँ ामी दयानंद अपने आप को अ ानवश स ासी समझ बैठे ह, इस कारण यह बात िलख दी हो, पर ु स ासीयो ंवाले ल ण ामी जी म िदखते नही,ं सुिनये कठोपिनषद म इस कार कथन है

    िक—

    नािवरतो दु रता ाशा ो नासमािहतः।

    नाशा मानसो वाऽिप ानेनैनमा ुयात्॥

    ~कठोपिनषद {व ी २, मं २४}

    जो दुराचार से पृथक नही,ं िजसका मन शांत नही,ं िजसकी आ ा योगी नही ंवह स ास लेकर भी परमा ा को ा नही ंकर सकता, अथात उसका स ास लेना थ है, जो पु ष काम, ोध, मद, लोभ, मोह, इन पांच िवकारो ंसे मु है वही स ासी है।

    पर ु ामी जी म तो यह इ ाएं और अवगुण कूट-कूट के भरी ई ह, भला स ासी होकर चोगंा बूट जुता पहनना, घड़ी बांधना,

    ा िपना, कुस मेज योग करना, पयाँ बटोरना, मांसभि यो ंके हाथ से भोजन लेकर भोजन करना, ोध करना, गािलयाँ देना िकस थ म िलखा है और सांसा रक अशांित िकसे कहते ह? इसे ही तो कहते ह, और दयानंद जी ने संसार का ाग िकया ही कब? स ासी तो उसे कहते ह जो संसार के वहार से कुछ स नही ंरखता, लोक म जन िनंदा कर वा ुित, और अ ित ा कर तो भी िजसके िच म कुछ हष शोक न हो वही स ासी कहलाने यो है लेिकन दयानंद जी की तो कोई िनंदा करता है तो उ

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    िकतना दुख होता है तुर उसको उ र देने म किटब हो उस पर गािलयो ंकी वषा करने लगते ह, िवतैषणा का ाग भी ामी जी के अ र नही ंपाया जाता, धन की इ ा तो ामी जी के अ र इस हद तक है िक उसकी पूित नही ंहोती, धन की ा के िलए कैसे-कैसे य िकये, भीख माँग-माँग कर अपना िनजी यं ालय खोला, उसके प ात भी पु को ंके मु दोगुने तीनगुने रख, तु ारी पु क कोई और न छाप सक इसिलए उसकी रिज ी करवाईं, उपदेश म ली के नाम से एकल पयाँ एकि त करने म यथाश य िकया गया, लोभ ने तु ारे मन म यहाँ तक िनवास िकया था िक धनवानो ंपंूजीपितयो ंसे ि ितसमेत घंटो ंवता होती थी िनधनो ंकी तो बूझ ही न थी, ित ा इतनी चाहते थे िक हमेशा कोठी, बंगल और महलो ंम ही ठहरते थे, पु तो था ही नही ंपर ु जो मु सेवकािद है उनम तुम ि ित करते हो, कामवासना तो मन म ऐसे भरी थी िक अपने अ ील लेख एवं भा ो ंसे वेदभा और यं िनिमत ंथो ंको भर िदया,

    तो लो तुम इन सब िवकारो ंसे मु नही ंइसिलए स ासी भी नही ंहो, इससे तु ारे मन म उ यह म की तुमने सांसा रक अशांित का ाग कर िदया, िम ा िस आ।

    ३• िपता से घृणा और माता से ेम का रह -

    दयानंद अपने आ च रत के पृ सं ा २-५ म िलखते ह- मेरा प रवार शैवमतवाल ी था, इसिलए अ वय से ही मुझे िशविलंग

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    की पूजा करनी पड़ी म अपे या सबेरे आहार िकया करता था और िशवपुजा म ब त से उपसवास और कठोरता सहन करनी पड़ती ह इसिलए ा की हािन के भय से माता मुझे ितिदन िशव की उपासना करने से रोका करती थी, पर ु िपता उसका ितवाद िकया करते थे, इस कारण इस िवषय को लेकर माता के साथ िपता का ायः िववाद रहा करता था, माता के बारंबार ितिदन िशवपुजा के करने से िनषेध करने पर भी िपता मुझको उसके करने के िलए कठोर आदेश िकया करते थे, िशवराि के आने पर िपता ने कहा िक आज तु ारी दी ा होगी, और मंिदर म जाकर सारी रात जागना होगा, िपता की आ ानुसार म उस िदन राि को अ ा लोगो ंके साथ स िलत होकर िशवमंिदर गया, िशवराि का जागरण चार पहरो ंम िवभ होता है २ पहर बीत जाने के प ात तीसरे पहर म मने िपता से घर लौटने की अनुमित मांगी, िपता ने आ ा देकर मेरे साथ एक िसपाही कर िदया और इस िवषय म िक म भोजन करके वृतभंग ने क बारंबार मुझसे कह िदया, पर ु घर म आकर जब मने माता से ुधा की कथा को कािशत िकया, तब उ ोनें जो कुछ भी मुझे आहार के िलए िदया उसको म िबना खाएँ न रह सका, भोजन के प ात मुझे गहरी नीदं आ गई दुसरे िदन ात:काल िपता ने घर म आकर सुना िक मने त भंग िकया ह, यह सुनकर वह मेरे ऊपर बड़े ोिधत ए और मुझे भला बुरा कहने लगे इस िवषय को लेकर िफर से माता और िपता के बीच िववाद आ।

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    समी ा-- इस लेख को पढ़ने के प ात िव ान लोग आसानी से यह बात समझ सकते ह िक मूलशंकर बचपन से इतना मूढ़, हठी, िढ़ठ और ना क वृि का ो ंरहा था?

    दयानंद को यिद कलयुगी रावण कह तो यह कहना गलत न होगा, यिद ामी जी के िपता ऋिष िव वा, तो उनकी माता रा सी कैकसी के समान थी और उसका रज (प रणाम) धम का नाश करने वाला ना क िशरोमिण मूलशंकर आ, मूलशंकर के िपता जहाँ उसे धम के माग पर ले जा रहे थे, तो दूसरी ओर उसकी माता उसे अपने भाव अनुसार रा सी िश ा से पोिषत कर रही थी,ं इसका प रणाम यह आ िक जो-जो धम कम वेदानुसार है उसकी माता ने उससे उ िश ा कर मूलशंकर को अधम और ना क वृि का बना िदया, और आगे चलकर वही उसके जीवन का उ े बन गया, जैसे उसकी माता उसे धम कम के माग से िवमुख कर भौितकवाद की तरफ ले गई, िठक उसी कार मूलशंकर भारतवष म घुम-घुम कर धम कम करने वाले जो उनसे िमलते उनसे सनातन कमकांडो ंका िनषेध कर उनको िमत करते, और जैसा िक इस लेख से है ामी दयानंद बचपन से ही पेटू थे, और इस बात को दयानंद ने अपने इस लेख म ीकार भी िकया है, िपता उ त आिद करने को कहते पर ु मूलशंकर से भूख बदा नही ंहोती थी, ोिक उसकी माता अ र चोरी से उ भोजन करवा उनका त भंग करवा देती, पर जब यह बात उनके िपता को पता चलती िक उ ोनें उनके आदेश की अवहेलना करते ए त भंग कर िदया, तो वे उनपे ोिधत हो जाते और उ इसके िलए दंिडत करते,इसी कारण मूलशंकर िक माता और िपता

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    का ायः िववाद रहा करता था, ऐसे म ामी जी को अपने िपता िकसी श ु से कम नही ंलगते जो अपने िनयम धम कम से उनकी भोगिवलास वाले जीवन म अशांित उ कर रहे थे, यही कारण था िक मूलशंकर अपने िपता से घृणा करने लगा, िपता उसे जो करने को कहते मूलशंकर उससे उ ा ही करता, और इसी घृणा ने मूलशंकर को ना क बना िदया।

    ४• मूित ( ितक) पुजा म अिव ास-

    (अ) आय समाजी गपोड़ा- उनके जीवन म ऐसी ब त सी घटनाएं ईं, िज ोनें उ सनातन धम की पार रक मा ताओ ंऔर ई र के बारे म गंभीर पूछने के िलए िववश कर िदया, एक बार िशवराि की घटना है, तब वे बालक ही थे, िशवराि के उस िदन उनका पूरा प रवार राि जागरण के िलए एक म र म ही का आ था, सारे प रवार के सो जाने के प ात् भी वे जागते रहे िक भगवान िशव आयगे उसे दशन दगे और साद हण करगे, उ ोनें देखा िक िशवजी के िलए रखे भोग को चूहे खा रहे ह, यह देख कर वे ब त आ यचिकत ए और सोचने लगे िक जो ई र यं को चढ़ाये गये साद की र ा नही ंकर सकता वह मानवता

    की र ा ा करेगा? इस बात पर उ ोनें अपने िपता से बहस की और तक िदया िक हम ऐसे असहाय ई र की उपासना नही ंकरनी चािहए।

    (ब) ामी दयानंद के अनुसार- दयानंद अपने आ च रत के पृ सं ा ३-४ म िलखते ह- दो पहरो ंके प ात जब िनिशथ काल आया, तब पुरोिहत और अ ा लोग मंिदर के बाहर चले गए, उसके कुछ समय प ात मने देखा कई एक चुहे िबल म से बाहर

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    िनकल कर महादेव की िप ी के ऊपर इ ापूवक िवचरण और उनके म क थत चावलआिद का भ ण करने लगे, मै जागते ए इस को देखता रहा, इस कारण इस को देखते समय मेरे सरल अ :करण म यह उठा िक जो कई कई सौ दुदमनीय दानवो ंके संहार म समथ है, वे अपनी देह पर से थोड़े से चूहो ंको दूर करने म समथ ो ंनही,ं इस को ब त देर तक सोचते सोचते मेरे म घूमने लगा, िजस कारण म िपता की िन ा भंग िकए िबना रह सका जब िपता जागे, तो मने इस को पूछा, िज ािसत के उ र म िपता ने मुझे समझाते ए कहा- "तु अ बु बालक है यह तो केवल महादेव का तीक मा है" िपता के इस कार के उ र से म संतु न हो सका, इसिलए मने उसी थान और उसी ण यह ित ा की िक यिद म ि शूलधारी महादेव के दशन नही ंक ँ गा, तो म िकसी कार से भी उसकी आराधना नही ंक ँ गा।

    "इस कार की ित ा करके म घर लौट आया और माता से यह कहकर िक म ब त भूखा ँ खाने को पदाथ मांगा"

    समी ा-- ामी जी आपके िपता ने सही ंकहा था यिद आप अ बु नही ंहोते तो इस कार की उटपटांग बात न करते, वेदािद ंथो ंम सही कहा गया है िक—

    अिव ायाम रे वतमानाः यं धीराः प तं म मानाः।

    ज मानाः प रय मूढा अ ेनैव नीयमाना यथा ाः॥

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    ऐसे मुढ़ िव ा शू रहकर भी बु मान बनते ह और इस माया पी जगत् म उसी कार भटकते है िजस कार अ े के नेतृ म

    अ े चलते ए भटकते है

    यह उपिनषद वचन है जो ने हीन िवरजानंद के चैल दयानंद पर िब ु ल ठीक बैठती है, यिद दयानंद के अंदर उस चूहे िजतनी भी बु होती तो वो ऐसी मूखतापूण बात कभी न करते, ामी जी ने यिद कभी वेदआिद ंथो ंका अ यन िकया होता तो शायद व इन ुितयो ंके यथाथ अथ समझ पाते दे खये वेदो ंम इस कार कथन है िक—

    नासदासी ो सदासी दानी ंनासी जो नो ोमा परो यत्।

    िकमावरीवः कुह क शम ः िकमासी हनं गभीरम्॥

    ~ऋ ेद {१०/१२९/१}

    (तदानी)ं- महा लय काल म, (असत्)- अपरा माया, (न)- नही ंथी, (सत्)- जीव भी, (नो)- नही,ं (आसीत्)- था, (रज:)- रजोगुण भी, (न)- नही,ं (आसीत्) था, (यत्)- जो, ( ोम)- आकाश तमोगुण, (अपर:)- सतोगुण, (नो)- नही ंथा, (कुहक )- इ जाल प, (शमन्)-

    ांड के चारो ंओर जो, (आवरीव:)- त समूह का आवरण होता है, (तत्) (िकं) (निकम ासीत्)- वह भी नही ंथा, (गहनंगभीरं)- गहन गंभीर, (अंभ:)- जल, (िकं आसीत्)- ा था? अथात नही ंथा

    न मृ ुरासीदमृतं न तिह न रा ा अ आसी केतः।

    आनीदवातं धया तदेकं त ा ा परः िकं चनास॥

    ~ऋ ेद {१०/१२९/२}

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    (तिह)- उस समय, (मृ ु)- मृ ु, (न) नही, (आसीत्)- थी, और (अमृतं)- अमृत अथात जीवन भी, (न)- नही, (आसीत्)- था, (रा ा: अ :)- रात और िदन का, ( केत:)- ान, (न आसीत्)- नही था, िसफ ( धया)- अपनी परा श से, (एकं)- अिभ एक, (तत्)- ही, (आसीत्)- था, (त ात् ह)- उस सवश मान से, (अ त्)- अ , (िकंच)- और कुछ भी, (न)- नही, (आसीत्)- था।

    अब िवचारने की बात है जबिक सृि रचना के पूव एक के अलावा कुछ भी नही ंथा, और िफर सब कुछ उससे ही उ आ, तो ा वह कण-कण मे िव मान न आ, और सुिनये,

    िहर गभः सम् अवतता े भूत जातः पितर् एक ऽ आसीत्।

    स दाधार पृिथवी ं ाम् उतेमां क ै देवाय हिवषा िवधेम॥

    ~यजुवद {१३/४}

    सृि के ार म िहर गभ पु ष ( जापित ा) स ूण ांड के एक मा उ ादक और पालक रहे, वही ग अंत र और पृ ी को धारण करने वाले ह, उस जापित के िलए हम आ ित समिपत करते है।

    य ऽ इमा िव ा भुवनािन जु द् ऋिषर् होता ् असीदत् िपता नः।

    स ऽ आिशषा िवणम् इ मानः थम दवराँ ऽ आ िववेश॥ ~यजुवद {१७/१७}

    (य:)- जो, (ऋिष)- अती ेय ा सव , (इमा:)- इस, (होता)- संसार प होम का कता, (न:)-हमारा, (िपता)- जनक उ करने वाला

    परमा ा, (िव ा)- सब, (भुवनािन)- लोक लोका रो ंको, (जु त)-

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    लयकाल म संहार करता आ, ( सीद)- अकेला ही थत आ, (स:)- वह परमे र, ( थम त)- थम एक अि तीय प म िव होता, (आिशषा)- िफर अपने साम से सृि रचना की इ ा से, ( िवणम्)- इस प जगत को, (इ मान:)-इ ा करता आ, (अवरान्)- मायािवकार ि समि देहो ंम, (आिववेश)- अ यामी प से िव आ।

    जापित रित गभऽअ रजायमानो ब धा िवजायते।

    त योिनं प र प धीरा त थुभुवनािन िव ा॥ ~यजुवद {३१/१९}

    जापालक परमा ा की स ा स ूण िव मान है, वह अज ा होकर भी अनेक पो ंम कट होता है, उसकी कारण श म स ूण भुवन समािहत ह, ानी जन उसके मु प को देख पाते ह, और सुिनये--

    एतावान् अ मिहमातो ायाँ पू षः।

    पादो ऽ िव ा भूतािन ि पाद् अ ामृतं िदिव॥

    ~[यजुवद : अ० ३१, मं ३]

    यह ि काला क िव उस ई र की मिहमा ही है, िक ु उसकी मह ा इससे भी अिधक है, यह स ूण िव जीवो ंसिहत जो कुछ भी है उसकी मिहमा का एक भाग है, और शेष तीन भाग म काशमान मो प आप है। और ीम गव ीता म भी इस कार िलखा है िक (बु े : परत ु स:) िक वह परमे र बु से परे है जब वह बु से परे है तो भला दयानंद जैसा ना क उसके

    प को कैसे जान सकता है?

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    य जग ां जगत्॥१॥ ~ईश० उपिनषद

    अथात् उस परमा ा की स ा स ूण िव मे यह जड़चेतन प जो िव है, वह सव ई र से प रपूण है, अथात वह कण-कण मे िव मान है, इसी कारण उपिनषद आिद ो ंमे यह कथन है िक--

    “यदा ेवैष एत ुदरम रं कु ते।

    अथ त भयं भवित। त ेव भयं िवदुषोऽम ान ।

    तद ेष ोको भवित॥“

    जब तक जीव परमा ा से िकंिचत् भी भेद रखता है, तब तक वह अ ान पी भय से नही ंछूट पाता, वही भय अहंकारी िव ान को भी हो जाता है।

    यिद ामी जी म इन वेद वचनो ंको समझने भर की थोड़ी भी समझ होती तो शायद वह मूख की भांित ऐसी बात कभी न करते, और सुिनये, ये दयानंद वही दयानंद है जो एक समय शु चैत के नाम से जाने जाते थे और अपने आपको ही मानते थे, और ऐसा मुख ये कहता है िक जब तक महादेव मुझे दशन नही ंदेते म उनकी िकसी कार से भी आराधना नही ंक ँ गा यह दे खये इस ना क को ा बोल गया, इसी को अनी रवादी कहते ह, सह ो ंऋिष मुिन संसार का ाग कर, मन म िसफ परमा ा का प जानने की इ ा िलए आर म वष किठन तप ा िकया करते थे और आज भी करते ह, और एक यह की न ी जान जैसी वै ा के हाथो ंमृ ु को ा होने वाला मन म ई र के दशन करने की इ ा िलए हडताल पर बैठा है, िक जब तक दशन नही ंकर लूगाँ तब तक ई र के अ को न ीका गाँ, ध हे! तेरी बु ,

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    अब तो दयानंदी ही हम बताए िक ा दयानंद ने अपने मतानुसार िनराकार के दशन कर िलए थे? या पुरे जीवन हडताल पर बैठे रहे, ोकी िबना दशन िकए तो दयानंद ई र की ुित करने से साफ मना करते ह।

    इसका मतलब दयानंद ने अपने जीवन म कभी भी ई र की ुित की ही नही ंपुरी िजंदगी ना क ही बने रहे, अब जब यह हाल है िक समाज का सं थापक यं ना कतावाद की राह पर चल पड़ा तो उसके चैलो ंका ा कहना, वह ा िकसी को धम का माग िदखायेगा, जो यं माग से भटक चुका है।

    ५• दयानंद के गृह ाग का रह -

    (अ) आर्य समाजी गपोड़ा- अपनी छोटी बहन और चाचा की हैजे के कारण ई मृ ु से वे जीवन-मरण के अथ पर गहराई से सोचने लगे और ऐसे करने लगे िजससे उनके माता िपता िच त रहने लगे, तब उनके माता-िपता ने उनका िववाह िकशोराव था के ार म ही करने का िनणय िकया (१९ वी ंसदी के भारत म यह आम था थी) लेिकन बालक मूलशंकर ने िन य िकया िक िववाह उनके िलए नही ंबना है और वे १८४६ मे स की खोज मे िनकल पड़े।

    (ब) ामी दयानंद के अनुसार- दयानंद अपने आ च रत के पृ सं ा ६ म िलखते ह िक- "हम पाँच भाई बहन थे, उनम दो मेरे भाई और दो बहन थी, जब मेरी आयु १६ वष की थी ंतब मेरे छोटे भाई का ज आ,

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    एक बार म राि के समय एक बा व के घर म नृ उ व देख रहा था िक घर से एक भृ ने आकार समाचार िदया िक मेरी १४ वष की बहन ब त पीिडत हो गई है आ य है िक यथोिचत िचिक ा के होते ए भी मेरे घर लौटने के दो घंटे प ात उसकी मृ ु हो गई, उस भगनी के िवयोग का शोक मेरे जीवन का पहला शोक था।

    िजस समय सब मेरी भगनी के चारो ंओर िवलाप और रैदन कर रहे थे, उस समय म खड़ा खड़ा यह सोच रहा था िक इस संसार म सभी को एक ना एक िदन मृ ु के मुख म जाना होगा, इसिलए मुझे भी एक िदन मृ ु का ास बनना होगा, मेरे मन म मृ ु का भय बैठ गया, म मन ही मन ये सोचने लगा िक िकस जगह जाने से म मृ ु के य ण से बच सकंूगा।

    कुछ िदन िपछे मेरे चाचा की भी मृ ु हो गई, मेरे चाचा सद्गुणस न्न सुिशि त थे और वह मुझको ब त ार करते थे इस कारण म उनके िवयोग से ब त ही िथत आ, इसके अित र इस घटना के प ात म यह िच ा भी करने लगा िक मुझको भी इसी कार से कालकवल बनना पडेगा, जब मश: मृ ुिच ा ब त वल हो गई, तो मै अपने बा वो ंसे पुछने लगा िक िकस उपाय का अवल न कर मुझे अमर ा हो सकता है, देश के पंिडतो ंने मुझेको योगा ास करने का परामश िदया, इसिलए अमर की ा हेतु मने गृह ाग का संक िकया और एक िदन सं ा के समय िबना िकसी को बताए मने गृह ाग कर िदया, उस समय मेरी आयु २० वष थी...

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    समी ा-- अब ोिक ामी दयानंद एक साधारण मनु थे तो ाभािवक है िक उनके अ र भी साधारण मनु ो ंकी ही भांित

    सब गुण वा दोष मौजूद होगें, दयानंद ने यं अपने आ च रत म यह ीकार िकया है िक गृह ाग का कारण उनके मन म बैठा मृ ु का भय था, दयानंद मृ ु से इस कार भयभीत हो चुके थे िक उससे बचने के िलए वो हर एक स व यास करने को तैयार थे, दयानंद ने अपने आ च रत म यह यं िलखा है िक "म मन ही मन यह सोचने लगा िक िकस जगह जाने से म मृ ु के य ण से बच सकंूगा" उस समय ामी दयानंद की उ लगभग २० वष थी, यिद दयानंद म थोड़ी भी बु होती तो शायद वह इस स को समझ पाते िक चाहे वो संसार के िकसी भी कोने म ो ंन चल जाय, मृ ु से बचना अस व है, िजसने ज िलया उसकी मृ ु िनि त है, और आ भी यही ामी दयानंद िजस मृ ु के भय से, अमर की खोज म पूरी िजंदगी इधर उधर भागते रहे पर अफसोस की उससे बच न सक, और तो और मृ ु भी इतनी भयानक और ददनाक ई िजसकी ामी जी ने कभी क ना भी नही ंकी होगी,

    और गपोिडये दयानंदी यह कहते ह िक दयानंद ने सत्य की खोज म गृह ाग िकया, अरे मूख स की खोज म नही, जब दयानंद की मृ ु से फटी तो उ ोनें गृह ाग िकया, जो दयानंद मृ ु जैसे स को न समझ सका, सारी उ उससे बचने को इधर उधर भागता रहा, वो िकतना बु मान होगा यह समझना कोई बड़ी बात नही,ं...

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    यह तो था ामी दयानंद के ज से लेकर उनके गृह ाग तक का वृ ांत, अब आगे दयानंद के गृह ाग के बाद का वृ ांत ामी जी के ही श ो ंम यहाँ ो ंका ो ंिलखते ह.....

    ६• स े योगी की खोज –

    अब तक हमने पढ़ा की िकस कार ामी दयानंद ने मृ ु से बचने व अमर की खोज म गृह ाग िकया ामी दयानंद ऐसे योगी की खोज म िनकल पड़े जो उ अमर की ा करा सक, अब आगे--

    उ जीवन च र के पृ १७ म दयानंद का कथन ह िक शैलानगर म, म लाला भ के पास ठहरा आ था लाला भ एक साधु और सुिशि त करके िस थे, वहाँ एक चारी के साथ मेरी बातचीत ई म उससे दी ा लेकर ब चारी के आ म म िव हो गया, और गे वे व धारण करके "शु चैत " नाम हण कर िलया।

    पृ २० म िलखा है िक काितक के महीने म एक िदन म िस पुर प चाँ कारण यह था िक उस समय िस पुर म एक मेले के लगने की चचा थी, इसके अित र यह आशा करके की मेले के कारण अनेक योग-िव ा िवशारद योिगयो ंका समागम होगा और उनम से िकसी एक के उपदेश से मुझे अमर ा होना संभव है,

    पृ २१ म िलखा है िक चलते चलते म अहमदाबाद और बडौदा प चाँ, बडौदा के चैत मठ नामक म र म ानंद और अ ा

    चारी स ासीयो ंसे िमला,

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    पृ २२ पर िलखा है िक ानंद आिद स ु षो ंसे बात करके मुझे िव ास हो गया िक अथात ई र मुझसे िभ कोई पदाथ नही ंहै, जीव और की एकता का िन य मुझे स क् करा िदया, पिहले भी ायः मेरे मन म ये बात आती थी पर ु आज इन महा ा पु षो ंने इस बात को मेरे मन म पुरे कार से िस करके िदखा िदया, और मुझे पुरा पुरा िव ास हो गया िक म ही ँ

    पृ २७-२८ से कट है िक दयानंद ने परमानंद परमहंस से वेदांतसार और वेदांत प रभाषा आिद की िश ा हण की, उसके बाद पुणानंद सर ती से स ास की दी ा लेकर स ासी के आ म म िव हो गए, पूणानंद ने उ े स ािसयो ंकी चौथी क ा म थान देकर उनका नाम दयानंद सर ती रख िदया,

    पृ ४९ म िलखते ह, िक १८६० मथुरा प ँच म िवरजानंद नामक सुप त साधु के पास गया उस समय उनकी आयु ८१ वष की थी ंिवरजानंद ज से ही अंधे थे और उनको उदर की पीड़ा थी उनके पास रहकर मने ाकरण के साथ वेदािद ंथो ंका अ यन आर िकया, िवरजानंद के पास पाठ समा करके दो वष तक म आगरा म रहा,

    समी ा-- पाठकगण! ान कर िक थम वे एक चारी के चेले बने िजसने उनका नाम बदलकर "शु चैत " रखा, िफर ानंद आिद स ािसयो ंकी संगित से उनको पुरा पुरा िव ास हो गया िक

    मै ही ँ,

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    तदुपरा परमानंद परमहंस अ ैतवादी अथात शंकर मत के स ासी ने उ अपना चेला बनाया,

    उसके प ात पूणानंद सर ती (अ ैतवादी) ने उ े अपना चेला बनाया और उसी ने उनका नाम "दयानंद सर ती" रखा, िचरकाल पय यह उसी मत म रहे और ंय को पूण समझते रहे,

    इसके प ात दयानंद ने हीन िवरजानंद के चेले बने और कुछ समय तक उ ी ंके पास ाकरण, वेदािद ंथो ंका अ यन िकया, जीवन पय अपनी पु को ंम उनको परम िव ान ी िवरजानंद ामी िलखा है और अपने िलए उनका चेला होना ीकार िकया

    है, वह िवरजानंद भी अ ैतवािद थे, िफर वह साधारण स ािसयो ंकी आकृित से ह र ार ऋिषकेश आिद के जंगलो ंम रहते रहे कोई उनका नाम भी न जानता था, संवत् १९२४ के उपरांत वह गंगा जी के िनकट गांव और नगरो ंम ठहर कर जो लोग उनसे िमलते थे उनसे मूित पूजा का िनषेध िकया करते थे उस समय तक उनके मन म उ मो म भोजन व ािद की इ ा ने वेश नही ंिकया था, अब तक वे अ ैतवादी थे िफर िकसी के समझाने से उ ोनें अ ैतवाद को झठूा जानकर छोड िदया और ैतवादी बन गए, िनदान अ ैतवाद अथात शंकराचाय के मत के खंडन म एक छोटी सी पु क भी बनाई और स ाथ काश म भी इसका खंडन कर गु दि णा प अपने गु जनो ंके मुहँ पर जूता दे मारा, और साथ ही अपने ारह िनयोग से उ होने का माण िदया।

    पाठकगण! ान कर िक अब तक उ ोनें िकतने प बदल, िकतने मत ीकार िकए, िकस-िकस के चेले बने और िकस-िकस का ाग िकया, िजसने जीवन पय अपने आपको माना

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    उससे बढ़कर ना क और कौन होगा? ऐसे पु ष के कथन व व ाव का ा भरोसा?

    जीवन पय जीन िवरजानंद को अपना गु और परम िव ान िलखते आए उ ी ंके मत को िम ा और झठूा कहते रहे, एक काल म परम िव ान और गु िलखना और उसी के मत को झठूा ठहराना अित अ ानता और ल ा की बात है,

    और अंत म पाठकगण! जरा िवचार कर िजस उ े से दयानंद ने गृह ाग िकया ा दयानंद उसम सफल रहे? ा उ कभी स ा योगी िमल सका? इसका िनणय आप लोग यं कर।

    ७• ामी दयानंद की बु -

    अब आपको ामी जी की बु का नमूना उ ी ंके ारा िलखे 'दयानंद आ च रत' से िदखाते ह-

    दयानंद आ च रत पृ ४८-४९ पर चांड़ालगढ़ के वणन म िलखा है िक खोटी ार से इस जगह मुझे एक बड़ा दोष लग गया अथात मुझे भंग पीने की ऐसी आदत हो गई िक कभी-कभी तो उसके कारण म सवथा बेहोश हो जाया करता था, एक बार चांडालगढ़ िनकट थ एक गांव के िशवालय म एक िदन राि यापन के िलए उप थत आ, भंग से उ मादकता के वश मे मुझे वहाँ गहरी नीदं आ गई , मेरे िववाह के संबंध म पावती के साथ महादेव की बात-चीत हो रही है, ऐसा एक देखकर म जाग गया, ात: काल एक ी ने मुझे दही िदया मने उसे खा िलया, दही ब त ख ा था इसिलए भंग का नशा उतरने को एक अ ी औषिध हो गई,

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    समी ा-- पाठकगण! िवचार कर, िक पिहले िदन दयानंद ने भंग पी और दूसरे िदन दही खाने से नशा उतरा ऐसी भंग की बु ांत होने म ा संदेह है? आप कहते ह िक भंग के नशे म, म बेहोश हो जाया करता, तो दूसरे िदन ही होश हो पाता था, इससे भी िस है िक उसने अपनी बु की ांित से और ेषाि के कारण यं िनिमत वेदभा ो ंऔर स ाथ काश म जो कुछ मुख म अंड

    संड आया बक िदया, और जो चाहाँ िलख िदया,

    अथात ऐसे भंग के लेख और कथन पर िव ास करना बु मानो ंका काम नही,ं

    इसी कार की घटना का वणन देवे नाथ मुखोपा ाय ारा रिचत "दयानंद च रत" के पृ २५१ पर िलखा है िक-- दयानंद उस समय धू पान िकया करते थे, इसिलए अनेक लोग अित उ ृ और सुग त त ाकू य करके उ उपहार म देते थे, पर ु एक िदन की घटना से ामी जी ने धू पान का अ ास छोड़ िदया, ामी जी एक बार लाहौर म बैठे ए ा पी रहे थे, की इतने म एक

    ने आकर कहा- "आप यं को सव ागी स ासी बताते ह, ा आपके प म इस कार ब मू त ाकू सेवन करना िवधेय

    है? आपको धू पान करते ए ल ा नही ंआती" इस बात के सुनते ही ामी जी ने उसी ण धू पान छोड़ने का िन य िकया,

    पाठकगण! िवचार कर पहले भंग और अब धू पान ा ये चारी, स ासी के ल ण ह?

    ा इन दोषो ंऔर अवगुणो ंको देखते ए दयानंद को महिष कहा जाना चािहए? कदािप नही!ं

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    पृ ४७ पर िलखा है िक मने एक ंथ म नाड़ी च का िववरण पढ़ा, वह मुझे स तीत नही ं आ, ुत उस िवषय म संशय उ हो गया, संशयजाल को तोडने के अिभ ाय से म एक िदन नदी के भीतर से एक शव खीचं लाया, और एक तेज छूरी ारा शव को चीरना ारंभ िकया, मने िदल को उसम से िनकाला और िफर नािभ से पसली तक चीर िदया, इसी कार िसर और गदन से एक-एक भाग को काटकर अपने स ुख रख िलया, उसके प ात चीर ए शव के अनेक अंगो ंको िमलाकर देखने लगा, पर ु उसके िकसी अंग म भी ंथविणत नाड़ीच का िनदशन मा भी न पाकर उस शव के साथ ही उस ंथ को भी टुकड़े टुकड़े करके नदी म फक िदया

    समी ा-- शाबाश ा ण स ासी होकर मुदा लाश को चीरने फाडने वाला नीच कम आप जैसे मंदबु को ही शोभा देता है,

    पाठकगण! िवचार करके बताए, भला ये ि जाितयो ंऔर स ािसयो ंका धम है, व नीच कम, इस कार महामुख वाले काम के िलए तो ामी जी को चुितयापंित का सव े पुर ार िमलना चािहए ामी दयानंद के इस लेख को पढ़कर इस बात म कोई संदेह नही ंरह जाता की ामी जी उन महामुख म से है जो मुदा लाश म नाड़ी (Pulse) ढुढ़ रहे है ध है आप और आपकी बु अ ा आ आपने उसम मन, आ ा आिद नही ंढूढ़ा अ था न पाकर उ भी िम ा ही बोल देते,

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    िनस ेह भंग और धू पान से ई बु की ांित ने आपसे यह अनुिचत कम करवा िदया।

    दयानंद आ च र पृ ३७-३८ से कट है िक उ ोने िजन पु षो ंको अपनी आँखो ंसे पशुवध करत मांस भ ण करते देखा, िज े हाथो ंम पशुमंुड िलए बैठे देखा, उ ी से सीधा आिद लेकर भोजन िकया,

    िफर पृ ६५ मे िलखा है िक- "म एक भयानक जंगल मे गुम गया मशः चारो ंिदशाएं सं ा के अंधकार म आवृत होने लगी, उस

    समय मैने थोड़ी दूर पर ही अि का काश देख वही एक िवशाल वृ के नीचे बैठ गया, वहाँ के लोग मेरे िनकट मुझे अपनी झोपडी म बुलाने आए पर ु मने उनका भोजनािद स ार ीकार नही ंिकया ोिंक वे सब मूितपूजक थे,

    समी ा-- ध हे! ामी जी आप और आपकी बु , िजसे अपनी आँखो ंसे पशुवध करत और मांस खाते देखा िजनके हाथो ंम कटे ए पशुमंड देख उससे सीधा आिद लेकर भोजन करना तो ीकार िकया और मूितपूजको ंके स ार का ितर ार, ये बु की ांित का अंधकार है वा ैषाि की ेरणा का अंधकार यह भी ान रहे िक ामी जी मूितपूजक के रजिवय से ही कट ए मूितपूजक के अ से ही उनका शरीर बढ़ा, जब तक सब जगह समाज थािपत नही ं ए मूितपूजक के अित र िकसी के भोजनािद स ार से पालन पोषण आ, ऐसा लेख िलखते ए आपको ल ा नही ंआई।

    आप आपने यजुवद भा १३/४८-४९ आिद मं ो ंम भी पशु िहंसा अथात नीलगायािद पशुओ ंको श ो ंम मारना िलखाते है

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    आपको वेदो ंम पशुिहंसा िलखते मांसभि यो ंके हाथो ंसीधा लेकर भोजन करते ल ा नही ंआई और मूितपूजको ंके स ार का ितर ार िसफ इस कारण कर देते ह ोिंक वे मूितपूजक है यही है आपकी बु

    पाठकगण! उ लेख म िगनवाये दयानंद के दोषो ंको पढ़कर यं िवचार कर िक जीवन पय धू पान करने वाले, लाश की िचर फाड करनेवाले, मांसभ को ंके हाथ से भोजन करनेवाले, वेदो ंम पशुिहंसा िलखने व उसका समथन करने वाले दयांनंद की बु को देखते ए बताए-

    ा ऐसा चारी, स ासी या िफर महिष कहलाने यो है? कदािप नही!ं

    ८• समाज सुधारकर या िफर समाज को अ ान पी अंधकूप म धकेलने वाला-

    आय समाजी गपोड़ा- ामी दयान ने त ालीन समाज म ा सामािजक कुरीितयो ंतथा अ िव ासो ंऔर िढयो-ंबुराइयो ं

    को दूर करने के िलए, िनभय होकर उन पर आ मण िकया, वे 'सं ासी यो ा' कहलाए, उ ोनें ज ना जाित का िवरोध िकया तथा कम के आधार वेदानुकूल वण-िनधारण की बात कही, वे दिलतो ार के प धर थे, उ ोनें बाल िववाह का िनषेध िकया तथा िवधवा िववाह का समथन िकया...

    समी ा-- शायद दयानंदी लोग ामी जी को ठीक तरह से समझ ही न पाये, ोिक सामािजक कुरीितयो ंऔर अंधिव ास को बढ़ने

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    वाले यं दयानंद ही थे, भंग वे पीते थे, धू पान वे करते थे, थम स ाथ काश और वेदभा ो ंम पशुिहंसा, पशुय , मांस िपंड देना, आिद को धम का अंग बताया, मांसभि यो ंके हाथो ंका भोजन वे करते थे, िनयोग के नाम पर सामूिहक िभचार का आरंभ उ ोनें िकया, ४८ वष के बुढ़ो का २४ वष की नवयुवती से िववाह उ ोनें आरंभ करवाया, िवधवा िववाह का िवरोध करते ए चतुथ समु ास म िवधवा िववाह की हािनयां उ ोनें िगनवाई, सूय पर मनु उ ोनें बसाये, एक ी के एकादश (११) पित बताकर उनका पित त धम खंिडत करवाने वाले वे थे आिद आिद अगर िगनवाने लग तो श कम पड़ जाएंगे,

    अब आगे सुिनये आय समाजीयो ंके अनुसार उ ोनें ज ना जाित का िवरोध िकया तथा कम के आधार वेदानुकूल वण-िनधारण की बात कही, वे दिलतो ार के प धर थे,

    समी ा-- कम अ भुल ड़ दयानंदीयो ंको म याद िदला दँू िक ामी दयानंद ंय ज ना जाित को मानने वाले थे ये रहा माण-

    ामी जी अपनी पु क ‘सं ार िविध’ म िलखते ह िक गोद के ब ो ंके नाम रखते समय भी उनके ा ण, ि य, वै और शू होने का पूरा ान रखना चािहए, वह िलखते ह--

    ‘‘नामकरण का काल िजस िदन ज हो, उस िदन से लेके १० िदन छोड़ ११व व १०१ (एक सौ एक) म अथवा दूसरे वष के आरंभ म, िजस िदन ज आ हो, नाम धरे’’ ~(सं ार िविध, पृ ६३)

    ‘‘देव अथवा जयदेव ा ण हो तो देव शमा, ि य हो तो देव वमा, वै हो तो देव गु और शू हो तो देव दास इ ािद...बालक

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    का नाम धर के पुनः ‘ओ ंकोिस.’ ऊपर िल खत मं बोलना.’’ ~(सं ार िविध, पृ ६६)

    दयानंद ऋ ेदािदभा भूिमका के पृ ९२ पर “प ाँ शू ो” का अथ करते ए िलखते ह--

    जैसे पग सबसे नीच अंग ह, वैसे मूखता आिद नीच गुणो ंसे शू वण िस होता है’

    स ाथ काश, म ‘शू ो ंको िनबु और मूख बताते ह

    यजुवद अ ाय १४/९ म वै और शु ो ंकी पशु से तुलना करते ए िलखते है िक--

    (ष वाट्)- पीठ से बोझ उठानेवाले ऊँट आिद के स श वै , (उ ा)- सीचंनेहारे बैल के तु शू ,

    यजुवद ३०/२१ मे िलखते है िक--

    (चा ालम्)- भंगी को, (खलितम्)- गंजे को, (कृ म्)- काले रंग वाले, (िपड़्गा म्)- िपले ने ो ंसे यु पु ष को दूर कीिजये,

    दयानंदीयो ंका कहना है िक दयानंद ने कम के आधार वेदानुकूल वण-िनधारण की बात कही

    दयानंदीयो ंने शायद दयानंद के वेदभा नही ंपढ़ नही ंतो जान पाते िक दयानंद वेदानुकूल नही ंब पशुओ ंके कमानुकूल पशुओ ंसे तुलना करके वण-िनधा रत करते ह जैसे अपने यजुवदभा १४/९ म वै ो ंके ऊँट और शु ो ंको गधे बैलािद के तु बताया है

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    शायद यही कारण है िक दयानंद ने स ाथ काश चतुथ समु ास म शू ो ंकी ीयो ंके साथ िनयोग का समथन तो िकया है पर शू पु षो ंको िनयोग के अिधकार से यह कहकर वंिचत रखा िक

    याँ िसफ अपने से उ वण के पु ष के साथ िनयोग कर इस कार दयानंद ने अपनी शू िवरोधी मांिसकता जगजािहर कर दी,

    दयानंदीयो ंके अनुसार उ ोनें बाल िववाह का िनषेध िकया तथा िवधवा िववाह का समथन िकया- -

    इस बात को तो म भी मानता ँ िक ामी जी ने बाल िववाह का िनषेध कर, अधेड उ के िववाह का समथन िकया, मी दयानंद अधेड़ उ के समाजी रंडवो ंको ान मे रखते ए स ाथ काश मे िलखते है िक सबसे उ म िववाह २४ वष की क ा और ४८ वष के बुढ़ो ंका है, और जहाँ तक िवधवा िववाह का है तो मुझे लगता ह दयानंदी अपने ंथो ंका ही अ यन नही ंकरते अगर करते तो जान पाते िक ामी दयानंद िवधवा िववाह के घोर िवरोधीयो ंमे से थे, स ाथ काश चतुथ समु ास म दयानंद ने बकायदे पुनिववाह के दोषो ंपर ल ा चौड़ा और बचकाना सा लेख िलखा है

    ामी दयानंद िवधवा ी को िसफ और िसफ ब ा पैदा करने की मशीन समझते थे उनके मतानुसार िवधवा ी चाहे तो िकसी परपु ष से िनयोग कर पु उ कर ल, पर ु पुनिववाह नही कर, ामी दयानंद के अनुसार पुनिववाह से ी का पित त धम खंिडत हो जाता है पर ु ारह अलग-अलग पु षो ंके साथ सोकर भी उसका पित त धम खंिडत नही ंहोता, यही तो ामी जी के भंग की तंरग है नशे म ा ा बक गए कुछ ाल है

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    पाठकगण! यं िवचार कर दयानंद समाज सुधारक थे या िफर समाज को घोर अंधकार म धकेलने वाले सनकी ...

    ९• ामी दयानंद सनातन धम, सनातन सं ृ ित को न करने वाले एक नीच ष ं कारी-

    ामी दयानंद के िलए अं ेजी शासन िकसी ण युग से कम न था, उनके अनुसार उ ोनें सनातन धम के िव िजतना िवष उगला यिद अं ेजो ंने उनकी र ा न की होती तो ज र कोई न कोई उ मरवा डालता

    १८८० के िथयोसोिफ प म ामी जी बताते ह िक "यिद अं ेजी रा न होता तो म जो इतनी बार फ खाबाद आया, ा ण मुझे कभी जीिवत न छोड़ते, िकसी से मरवा डालते,

    पाठकगण! के मन म उठ रहा होगा िक आखर अं ेजी सरकार दयानंद पर इतनी मेहरबान ो ंथी, तो इसका जबाव है-- ‘िडवाइड एंड ल’ अं ेज़ो ंकी नीित "महान तं ता सेनानी सुभाषच बोस ने अं ेजो ंकी नीित का तीन श ो ंम खुलासा करते ए िलखा है- िडवाइड एंड ल अथात फूट डालो और राज करो"

    ामी दयानंद यही कर रहे थे, उनके नवीन मत चार से सनातन धम मे िबखराव की थित उ होने लगी थी और अं ेजो ंकी तो शु से यही नीित रही थी, िजसे ामी दयानंद ने और आसान बना िदया, ामी दयानंद आखर ऐसा ा कर रहे थे देख--

    दयान सर ती के बारे म ी कॉलेज के ाचाय डॉ होनले (Rudolf Hoernley) ने यह बात िलखी—

  • 32

    दयान िहंदुओ ंके मन म यह बात भर देना चाहते ह िक आज का िहंदूधम, वैिदक िह दू धम के पूणतया िवपरीत है, और जब यह बात िह दुओ ंके मन म बैठ जायेगी तो वे तुरंत िहंदूधम का ाग कर दगे; पर तब दयान के िलए उ वैिदक थित म वापस ले जाना स व न होगा, ऐसी थित म िहंदुओ ंको एक िवक की खोज होगी जो उ िहंदू से ईसाई धम की ओर ले जायेगी।

    ोत: The Christian Intelligence, Calcutta, March 1870, p 79 and A F R H quoted in The Arya Samaj by Lajpat Rai, 1932, p 42 quoted in Western Indologists A Study in Motives.htm, Purohit Bhagavan Dutt

    अब आपको दयानंद का असली चेहरा िदखाते है- जबसे ूयॉक म िथयोसोिफकल सोसायटी की थापना ई तभी से ामी दयानंद ने उनसे स क साधना आरंभ कर िदया, और १३ अ ैल १८७८ म ामी दयानंद ने िथयोसोिफकल सोसायटी को प िलखकर

    िथयोसोिफकल सोसायटी से यह िनवेदन िकया िक वह अपना धान कायालय ूयॉक से मु ई ले आए, उसके जबाव म िथयोसोिफकल सोसायटी की तरफ से जबाव म जो प आया वो ये है उसम िलखा था—

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    The Theosophical Society, New York, May 22nd 1878.

    To the Chief of the Arya Samaj.

    HONOURED SIR,

    You are respectfully informed that at a meeting of the Council of the Theosophical Society, held at New York on the 22nd of May 1878, the President in the chair upon motion of Vice-President A. Wilder seconded by the corressponding Secre tary H. P. Blavatsky, it was unanimously resolved that the society accept the proposal of the Arya Samaj, to unite with itself, and

    that the title of this Society be changed to

    " The Theosophical Society of the Arya Samaj of India. *

    Resolved, that the Theosophical Society for itself and branches in America, Europe and else-where, hereby recognize Swami Dayanand Saraswati, Pandit, Founder of the Arya Samaj, as its lawful Director or Chief.

    Awaiting the signification of your approval and any instructions that you may be pleased to give.

    I am, honoured sir, by order of the Council,

    Respectfully yours,

    (Sd.) AUGUSTUS GOSTAM,

    Recording Secretary

    ( ोत- LIFE & TEACHINGS OF SWAMI DAYANAND: Swami Dayanand and Theosphists- P. 162,163, एवं देवे बाबु रिचत 'दयानंद च रत', पृ २७५,२७६)

    ***********************************

    िजसका िह ी अनुवाद इस कार है-

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    िथयोसोिफकल सोसाइटी, ूयॉक मई २२, सन् १८७८ ई•

    सेवा म धान आय समाज-

    माननीय महोदय ! आपको िवनयपूवक सूचना दी जाती है िक िथयोसोिफकल सोसाइटी की कौ ल के एक अिधवेशन म, जो ूयॉक म २२ मई १८७८ को सामियक धान के सभापित म संघिटत ई आ ए• वाइ र साहब उपसभापित के ाव और प वहार कता म ी एच• पी• ैवाट ी के अनुमोदन पर सवस ित से िनधा रत आ है िक यह सभा आय समाज के इस ाव को िक सभा उ समाज के साथ िमल जावे और इस समाज का नाम प रवितत करके "भारतवष य आय समाज की िथयोसोिफकल सोसाइटी" रखा जावे ीकार करती है,

    यह भी िन य आ िक िथयोसोिफकल सोसाइटी अपनी और अपनी शाखाओ ंकी ओर से जो अमे रका, यूरोप और अ देशो ंम ह, ामी दयानंद सर ती पंिडत, सं थापक आय समाज को अपना िनयमानुकूल अिधनायक मानती है,

    आपकी ीकारी की सूचना और िक ी ंसुझावो ंकी जो आप देव ती ा करता आ"

    म ँ, माननीय महोदय, कौ ल की आ ानुसार

    आपका

    (ह ा र) आग म ग म,

    रकॉिडग से े टरी - (अनुवादक)

    ( ोत- LIFE & TEACHINGS OF SWAMI DAYANAND: Swami Dayanand and Theosphists- P. 162,163, एवं देवे बाबु रिचत 'दयानंद च रत', पृ २७५,२७६)

    ***********************************

    प म श ो ंम िलखा है िक यह सभा आय समाज के इस ाव को िक सभा (अथात िथयोसोिफकल सोसाइटी) उ

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    समाज (अथात आय समाज) के साथ िमल जाव और इस सभा का नाम प रवितत करके "Theosophical Society of the Arya Samaj" रखा जाव ीकार करती है,

    उ प से यह साफ हो जाता है िक िकस कार ामी जी ईसाई िमशनरीयो ंसे िनवेदन कर रहे ह िक आओ ंआय समाज के जमाता हमारे साथ िमल कर भारतीय सनातन सं ृ ित को न करने म मेरी सहायता कर और अपने मत का चार कर ना कवाद को बढ़ाने म आय समाज का सहयोग कर,

    पाठकगण! िवचार कर यिद दयानंद का काम वैिदक धम का चार ही था तो ा दयानंद को पुरे भारतवष म कही ंवैिदक लौग नही ंिमल, जो वे ईसाइयो ंके सामने िगडिगडा रहे थे, आखर दयानंद ने उस गौभ क ईसाई िमशनरी सभा म ऐसे कौन से वैिदक गुण देख िलए जो उ सनातनधम यो ंमे न िदख, दरअसल ामी जी ाथ, अंहकार और ैषाि म इतने अंधे हो चुके थे िक अपने ाथपूित के िलए वो िकसी भी र तक िगर सकते थ वना दयानंदी जबाव द िक यिद दयानंद का मन साफ था तो उ ोनें सनातनधम यो ंके साथ िमलकर वैिदक धम का चार सार ो ंनही ंिकया और उस गौभ क ईसाई िमशनरी सभा म ऐसा ा देख िलया जो ना तो वैिदक धिम थे और ना ही इस भारतभूिम के, िफर ऐसा ा कारण था जो िथयोसोिफकल सोसाइटी को भारत म बुलाने व उसका िह ा बनने के िलए उनकी लार टपक रही थी, ऐसा करते ए दयानंद को ल ा नही ंआई,

    पाठकगण ! यं िनणय कर दयानंद वैिदक धम के चार थे या िफर सनातन सं ृ ित को न करने वाले एक ष ं कारी...

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    १०• ामी दयानंद की मृ ु, उनके अंितम श व उनके अंितम सं ार का संि िववरण-

    वष १८८३ म ामी जी महाराज जसवंत िसंह से भट करने जोधपुर प ंचे, जोधपुर नरेश महाराजा जसवंत िसंह अ ंत िवलासी थे, अनेक रािनयो ंके होने पर भी महाराजा न ीबाई (न ी जान) नामक एक वे ा, के ेमजाल म फँसे थे।

    एक िदन ामी जी अचानक राजदरबार म प ँचे, वहाँ महाराजा के साथ न ीबाई भी उप थत थी, महाराजा की इस च र हीनता को देखकर ामी जी ने कहा, "िसंह होकर कुितया का िशकार करते हो?" ~(मधुर अथैया िल खत- ामी दयानंद सर ती जीवन च र पृ ६३)

    समी ा-- शाबाश एक चारी स ासी होकर ी को गािलयाँ बकना आपको ही शोभा देता है इस सबका उ रदायी िभचारी राजा को तो आपने िसंह की उपमा दे दी और न ी जान को कुितया ये आपिक दौगलीिनित नही ंतो ा है?

    ये तो स ासी वाले ल ण नही ंहै एक स ासी के िलए तो ा ी और ा पु ष सब एक समान है िफर एक के िलए कुितया और दूसरे को िसंह की उपमा कैसे? हो सकता है आपने िभचारी राजा को िसंह इसिलए बोला ोिक आपकी राजा से फटती थी,ं आपके ल ण से तो यही ितत होता है,

    िफर आगे िलखा है िक-- इस बात से न ी जान ामी जी से अ ंत ोिधत हो उठी, न ी जान ामी जी की ह ा का ष ं

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    रचने लगी, उसने रसोइये जग ाथ के मा म से २९ िसतंबर १८८३ की राि को दूध म िवष िमलाकर िपलवा िदया, िजससे उनका ा खराब होने लगा, उ ी और द कने का नाम नही ंलेते,

    उदर शूल और यकृत म सूजन के साथ-साथ ामी जी को अ िधक शारी रक दुबलता अनुभव होने लगी।

    और इस कार महीनो ंकी ददनाक पीड़ा सहने के बाद ३० अ ूबर १८८३ ई. दीपावली की शाम को ामी दयानंद की मृ ु हो गई, मृ ु से पहले ामी दयानंद के अंितम श थे-

    ‘हे दयामय, हे सवश मान् ई र, तेरी यही इ ा है, तेरी यही इ ा है, तेरी इ ा पूण हो, अहा! तूने अ ी लीला की!

    समी ा-- ामी जी स ाथ काश म िलखते ह िक—

    “चाहे कोई िकतनी भी चतुराई कर पर ु अ म सच-सच और झठू-झठू हो जाता है” ~(स ाथ काश, पृ.३५३)

    अब ामी जी के इस िस ा के आधार पर ामी जी का अ देखते ह, ३० अ ूबर १८८३ ई. को शाम के समय ामी जी पलंग पर सीधे लेटे ए थे, उ ोनें कहा--

    “हे दयामय, हे सवश मान् ई र, तेरी यही इ ा है, तेरी यही इ ा है, तेरी इ ा पूण हो, अहा! तूने अ ी लीला की!” ~(दयान जीवन च र )

    ामी जी ने अपने सािह म कही ंभी ई र और स ु षो ंके कम को लीला नही ंकहा है लेिकन अ काल आया तो जाते जाते वह ई र के कम को भी ‘लीला’ कह गए, इससे समझा जा सकता

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    है िक संसार से िवदा होते समय उनके दय म ई र के ित िकस कार के भाव थे,

    ामी जी स ाथ काश म धूत, ठग और धोखेबाज़ो ंको ‘पोप’ की सं ा देते ए उनके बुरे कामो ंको ‘लीला’ कहते है, वे लीला का अथ बताते ए िलखते है--

    “अथात् रा