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दिनांक 17.06.2014 को हिन्दी कार्यशाला का आयोजन

भारत सरकार के गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग द्वारा निर्धारित वार्षिक कार्यक्रम के तहत जारी दिशा-निर्देशों के अनुरूप संस्थान में दिनांक 17.06.2014 को हिन्दी कार्यशाला का आयोजन किया गया । इस कार्यशाला में लगभग 30 कर्मचारियों ने भाग लिया । श्रीमती एन.पद्मा, हिन्दी अधिकारी, इंडियन बैंक ने टिप्पण एवं प्रारूप लेखन विषय पर कर्मचारियों को प्रशिक्षण दिया । कार्यशाला के अंत में कर्मचारियों के लिए प्रश्न-मंच का आयोजन किया गया । प्रश्न-मंच के विजेताओं को कुलसचिव एवं अध्यक्षा, रा.भा.का.स. ने प्रमाण-पत्र एवं नकद पुरस्कार प्रदान किया ।

कार्यशाला का उदघाटन करते हुए कुलसचिव एवं अध्यक्षा, रा.भा.का.स. सभा को संबोधित करते हुए श्रीमती पद्मा, हिन्दी अधिकारी, इंडियन बैंक

बिल्ली

(उनके पास तक दुश्मन बनकर जाना उतना ही मुश्किल हैजितना आसान दोस्त बनकर उनके नजदीक आ जाना हैबिल्ली पर भरोसा करना आपकी सबसे बड़ी भूल हो सकती हैलेकिन बिल्ली आपको कभी नहीं भूलती हैवह फिर से कभी-कभी पुरानी जगहों पर लौट आती हैऔर अगर कहीं राह में मिल जाये तो म्याऊ कहकर आपको अपनी याद दिलाती है । कृते अंकेश विद्यार्थी विद्युत इंजीनियरिंग विभाग)मेरे हॉस्टल की बिल्ली कितनी भाग्यशाली है

घूमती है इधर से उधर, जाती है जहाँ करता है उसका मन

आ जाती है कभी कभी मेरे पास भी जब ऊब जाती है बाकी सभी चीज़ो से

नहीं देखा मैंने उसे कभी ठहरते हुए एक जगह

चल पड़ती है हर अगले पल एक नए मिशन की खोज में

मुझे याद है बचपन में एक बिल्ली मेरे घर में आकर दूध पीती थी

और माँ कभी कभी मुझे बोल कर जाती थी

दूध गर्म है फ्रिज में रखने से पहले ठंडा होने रखा है

देखते रहना बिल्ली नहीं आ जाये

उस दौरान मुझे काफ़ी कुछ पता लगा बिल्लियों के बारे में

कितनी सतर्क रहती है शिकार करते हुए

और कितना डरती है वह पानी के स्पर्श से

(सार्थक रखने के लिए इसके पीछे राज्य की दण्डशक्ति खड़ी रहती है । राज्य के आधारभूत हर कानून के पीछे, उसको भंग करनेवालों को दबाने की एक शक्ति खड़ी होती है । राज्य कानून के द्वारा और कानून में अवस्थित रहता है । हम यह भी कह सकते हैं कि राज्य यानि कानून ही होता है । तात्पर्य यह है कि राज्य की आधारभूत शक्ति कानून का डर है । किंतु राष्ट्र की आधारभूत शक्ति लोगों की भावना है । राष्ट्र की निर्मिति लोगों की मानसिकता से होती है । किन लोगों का राष्ट्र बनता है ? तीन बड़ी शर्तें हैं । पहली शर्त है जिस देश में लोग रहते हैं, इस भूमि के प्रति उन लोगों की भावना । दूसरी शर्त है, इतिहास में घटित घटनाओं के संबंध में समान भावनाएँ । फिर वे भावनाएँ आनंद की हो या दुख की, हर्ष की हो या विषाद् की । और सबसे अधिक महत्व की शर्त है, समान संस्कृति की । यह भारतभूमि इस राष्ट्र का शरीर है । इसके हम अवयव हैं, अवयवों के समान हम परस्पर प्रेमभाव धारण कर राष्ट्र-शरीर एकसाथ रखेंगे । कृते ऋषभ गांधी विद्यार्थी रसायन इंजीनियरिंग विभाग) (राष्ट्र और राज्य के संदर्भ में एक बड़ी भारी भ्रांति सर्वत्र विद्यमान है, जिसके कारण राज्य को ही राष्ट्र माना जाता है । ‘नेशन-स्टेट’ की अवधारणा प्रचलित होने के कारण यह भ्रांति निर्मित हुई और आज भी प्रचलित है । स्टेट(राज्य) और नेशन(राष्ट्र) इनका संबंध बहुत गहरा और अंतरसम है, इतना कि एक के अस्तित्व के बिना दूसरे के अस्तित्व की कल्पना करना कठिन है । जैसे पानी के बिना मछली । फिर भी पानी अलग होता है और मछली अलग, वैसे ही राज्य अलग है, राष्ट्र अलग है । इस भेद को आँखों से ओझल करने के कारण ही, प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् विभिन्न देशों में सामंजस्य निर्माण हेतु जिस संस्था का निर्माण किया गया और जिसके उपयुक्तता का बहुत प्रचार किया गया, इसका नाम ‘लीग ऑफ नेशन’ था । वस्तुत: यह लीग ऑफ स्टेट्स या लीग ऑफ गवर्नमेंट थी । मूलभूत धारणा ही गलत होने के कारण केवल दो दशकों के भीतर यह अस्तित्वविहीन बन गया । द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् ‘युनाइटेड नेशन्स’ बनाया गया । इस ‘युनाइटेड नेशन्स’ यानि राष्ट्र संघ का एक प्रभावशाली सदस्य यूनियन ऑफ सोशियलिस्ट सोवियत रिपब्लिक्स (यू.एस.एस.आर.)है । वह उस समय भी एक राष्ट्र नहीं था, एक राज्य था । सेना की शक्ति के कारण वह एक था । आज वह शक्ति क्षीण हो गयी तो, उसके घटक अलग हो गये है ।राज्य, यह एक राजनीतिक अवधारणा है, जो कानून के बल पर खड़ी रहती है उसके बल पर चलती है और कानून को )राष्ट्र और राज्य

(यह समानता की संकल्पना वेद-उपनिषदों में दिखाई देती है । उपनिषदों में कहा है ‘ईश्वर ने मनुष्य का देह दो समान भागों में विभाजित किया है, एक स्त्री और दूसरा पुरुष । ’ स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि “जीवन के सारे क्षेत्र में, ज्ञान के सर्वोच्च क्षेत्र में, वेदकालीन स्त्री जीवन ज़्यादा उन्नत, सुरक्षित, समृद्ध था । प्राचीन काल में सामाजिक जीवन में स्त्री का हिस्सा पुरुषों के बराबर का रहा था । ”राजनीतिक निपुणता, राज्यों का कारोबार देखना, देश का प्रशासन चलाना इतना ही नहीं तो प्रत्यक्ष युद्ध में भाग लेना आदि सारे क्षेत्र में स्त्री ने खुद को पुरुषो से ज़्यादा तो नहीं, लेकिन उनसे बराबरी सिद्ध की है । महाभारत समय में भी जब तक लड़ाई कोई भी नीति-नियम पर आधारित होती, तब तक बच्चे, स्त्री, शस्त्रहीन शत्रु को भी मारना अवध्य (वध न करना) ऐसा सर्वमान्य संकेत था । लेकिन एतिहासिक काल में जब भारत पर जंगली टोलियों के आक्रमण होने लगे तब स्त्री असुरक्षित हो गई । स्त्रीयो को मालमत्ता समझनेवाली जमाती-टोलियों ने आक्रमण करके लूट में स्त्रियों को भी लूट कर ले जाना शुरू कर दिया, तभी स्त्रीयो के रक्षण के लिए खास उपाय/ व्यवस्था तैयार करने की आवश्यकता लगी । ) (सारे विश्व में 7 मार्च का दिन ‘जागतिक महिला दिन’ मनाया जाता है । इस दिन शासन स्तर, समाज स्तर पर महिलाओं के लिए अलग अलग कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है । खुद महिलाएँ भी मिलकर अपने तरीके से ‘महिला दिवस’ मनाती है । पर सचमुच में ऐसा एक दिन महिलाओं के लिए रखकर क्या हासिल हो जाएगा ? क्या ऐसे एक दिन के सम्मान से नारी शक्ति का उपयोग समाज को होगा ? नारी शक्ति इतनी संकुचित है कि एक दिन उसको याद करके, उनको समाज में जो करना है, वह करने की इज़ाज़त देकर क्या समस्त महिलाओं का प्रबोधन हो जाएँगा? कदापि नहीं । क्योंकि नारी सामर्थ्य के बारे में महात्मा गाँधीजी ने कहा है “ नारी को अबला कहना उसकी बदनामी है, वह पुरुषों का नारी के ऊपर किया हुआ अन्याय है । यदि शक्ति का मतलब पाशवी शक्ति मानेंगे तो पुरुषों से नारी कम पाशवी है, यह निश्चित है । लेकिन जब शक्ति का मतलब नैतिक शक्ति मानेंगे तब निश्चित रूप से नारी पुरुषों से भी अधिक श्रेष्ठ है, उसकी बुद्धि अधिक तीव्र है, वह ज़्यादा त्यागी है, उनकी सहनशीलता ज़्यादा होती है । नारी अधिक धैर्यशील होती है, उनके बिना पुरुष का अस्तित्व संभव नहीं । यदि अहिंसा अपने जीवन का मूल तंत्र है तो सारे विश्व का भविष्य नारी जाति के हाथ में है । ” भारतीय समाज में पुरुषों के साथ समानता का दर्जा स्त्री को दिया जाता है । )नारी शक्ती

(बस स्त्री का कर्तृत्व इसी जगह पर खत्म नहीं होता । अग्नि के खोज के बाद ‘भाषा’ की उत्पत्ति ये मानवी जीवन की बड़ी क्रांति हो गई । ये ‘भाषा’ की जननी भी स्त्री है । अपने आपत्य से संवाद करते समय स्त्री ने भाषा की रचना की, उसकी जोपासना की, इसलिए आज भी ‘मातृभाषा’ ऐसा ही शब्द प्रयोग करते है । अर्थात, भाषा से ही मानव के प्रगति के ज्ञान हस्तांतर के अनेक मार्ग खुले हो गए । निसर्ग में आदिम स्त्री बुद्धिमान, संवेदनक्षम, मानसिक एवं भाविक स्तर पर पुरुषों से भी ज़्यादा समृद्ध थी । ‘’रक्षणकर्ती’ के नाते से ज़्यादा शांत और स्थिर, ज़्यादा विचारी थी । मातृ संस्कृति के पूर्वार्द्ध में परस्पर सहकार्य, सौजन्य, कृतज्ञता, समता, ममता ऐसी नैतिक आचार संहिता को, भाषा की जोड़ मिली । नई पीढ़ी के साथ ‘अधिक अच्छा संवाद’ साधने के साथ स्त्रियों ने सूर, संगीत की जोड़ देकर भाषा समृद्ध बनाई । ‘जीना और जगाना’ निसर्ग तत्व के ये मूल संकल्पना को स्त्री की सृजनशीलता ने विशेष ऊँची प्राप्त कर दी । ‘मातृत्व’ ये स्त्री को मिली खास दैवी देंन है । स्त्री के बिना विश्व का उद्धार अशक्य है, मनुष्य की उत्पत्ति असंभव है । स्त्री के बिना मनुष्य जन्म नहीं, स्त्री के बिना पुरुष को पूर्णत्व नहीं । संपूर्ण सृष्टि ही स्त्रीत्व से भरी हुई है । सृष्टि का, सृजनत्व का हुंकार यही है स्त्रीत्व । ) (बाद में ब्रिटिश राजवट में और जंगली आक्रमणों का धोखा खत्म होने के बाद भी स्त्री सुरक्षा की व्यवस्था पहले जैसी ही रह गई, उसमें कोई बदलाव नहीं आया । स्त्री अबला है वह स्वयं का रक्षण खुद नहीं कर सकती, ऐसी भावना कायम रख कर पुरुषों का वर्चस्व कायम रखने की कोशिश की गई, और इस स्थिति की जोपासना की गई , इसका प्रभाव इतना बढ़ गया कि स्त्री को इंसान रहकर जीना भी मुश्किल हो गया, स्त्री का जन्म बुरा, स्त्री यानि पुरुष की दासी, स्त्री साक्षर हो गई तो संसार का विनाश हो जाएगा, ऐसी अनेक भावनाएँ समाज में निर्मित हुई । इसमें से ही 19 वी शताब्दी में स्त्रियों पर होनेवाले अत्याचार,अन्याय समाज के सामने लाने का काम अनेक पुरुष समाजसेवकों ने ही किया । उन्होंने नारी सामर्थ्य को जाना । इसलिए बंगाल में राजाराम मोहनराय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, गुजरात में दुर्गाराम मेहनाजी, बेहरामजी मलबारी, महाराष्ट्र में गोपाल गणेश, आगरकर, महर्षी कर्वे, न्यायमूर्ति रानडे तथा ज्योतिबा फुले इन्होंने स्त्रियों की सती की चाल, पर्दा-पद्धति, बालविवाह,विधवा विवाह, विवाह का सामंतीवय का कायदा आदि बदलाव और अन्य कानून लाकर स्त्री शक्ति के विकास में व्यवधानों को दूर कर दिया और स्त्री विकास की उन्नति की दिशाएँ खुली कर दी । स्त्री की कल्पना शक्ति और हस्तकौशल्य से हर तरह की हस्तकलाएँ, हस्तव्यवसाय का विकास हुआ । ‘आजीबाई का बटवा’ ये मूलत: स्त्री के औषधी वनस्पतियों की खोज में से ही निर्माण हुआ है । )

(स्त्रियों के सृजनत्व, स्थिरता, सहनशीलता, धैर्य इत्यादि गुणों का महत्व महात्मा गाँधी, स्वामी विवेकानंद, ओशो (आचर्य रजनीश) आदि विचारवंतों ने मान्य किया, उनको जाना । जो प्रगति करने के लिए पुरुषों को हजारों साल लगे, वह प्रगति शिक्षा का अधिकार प्राप्त करते ही सौ डेढ़ सौ साल में ही स्त्रियों ने करके दिखाई । वह भी पुरुषों के उनके मार्ग में खड़े किए हुए अनेक व्यवधानों को पार करके । शहर हो या गाँव, स्त्री की सफलता चारों तरफ़ शुरू हो चुकी है । अर्थ कारण, राज कारण, समाज कारण, क्रीड़ा क्षेत्र इन सारे क्ष्रेत्रो में स्त्री ने अपनी हिम्मत से, सहजता से स्थान काबिज किए और उसपर अपनी खास मोहर लगाई । स्त्रियों की स्थिति बदली लेकिन परिस्थिति नहीं बदली । स्त्री पढ़ाई करने लगी, घर के बाहर पढ़कर नौकरी/व्यवसाय करने लगी, फिर भी आजूबाजू के वातावरण की असुरक्षितता कायम रह गई । सिर्फ़ उसके जनक बदले । स्त्रियों के सुरक्षा के लिए कानून बनाए गए । कृते अजय मोर विद्यार्थी सिविल इंजीनियरिंग विभाग)

(पुल के नीचे पानी बहा जा रहा है ,बादलों के बीच, चांद मुस्कुरा रहा है ,सारे आकाश में तारे टिम-टीमा रहे है,हवा में पट्टे अनोखेपन से नाच रहे हैआधी रात बीत जा चुकी है,हल्की रोशनी में दो आंख खुली है,इतनी शांति में कौंन भागे जा रहा हैएक पल भी ना रुके, इतना सटा रहा है ,दो साल , दो महीने, दो दिन,चुटकी में बहे जा रहे है,कभी सवेरा कभी धूप,जाने कौनसा समा बांध रहे है,इतनी कोशिश कर किसे ढूंढे जा रहा है,जो जा चुका उसे फिर क्यूं बुला रहा है,आखें एक तक बस दूर देख रही है,जागते हुए, अनजाने ही ख्वाब बुन रही है,बंद करने से उनसे एक आँसू टपकता है,ऐसे ही लेकिन फिर नया सवेरा निखरता है कृते अजय मोर विद्यार्थी सिविल इंजीनियरिंग विभाग )