सयाथ&’काश -...

437
स"याथ&’काश ओ३म् सि0दान3दे5राय नमो नमः भूिमका िजस समय म<ने यह >3थ ‘स"याथ&’काश’ बनाया था, उस समय और उस से पूव& संHकृतभाषण करने, पठन-पाठन मO संHकृत ही बोलने और ज3मभूिम कR भाषा गुजराती होने के कारण से मुझ को इस भाषा का िवशेष पWरXान न था, इससे भाषा अशुZ बन गई थी। अब भाषा बोलने और िलखने का अ^यास हो गया है। इसिलए इस >3थ को भाषा aाकरणानुसार शुZ करके दूसरी वार छपवाया है। कहc-कहc शdद, वाeय रचना का भेद gआ है सो करना उिचत था, eयijक इसके भेद jकए िवना भाषा कR पWरपाटी सुधरनी कWठन थी, पर3तु अथ& का भेद नहc jकया गया है, ’"युत िवशेष तो िलखा गया है। हाँ, जो ’थम छपने मO कहc-कहc भूल रही थी, वह िनकाल शोधकर ठीक-ठीक कर दी गह& है। यह >3थ १४ चौदह समुqलास अथा&त् चौदह िवभागi मO रचा गया है। इसमO १० दश समुqलास पूवा&Z& और ४ चार उsराZ& मO बने ह<, पर3तु अ3"य के दो समुqलास और पtात् HविसZा3त jकसी कारण से ’थम नहc छप सके थे, अब वे भी छपवा jदये ह<। १- ’थम समुqलास मO ई5र के uकाराऽऽjद नामi कR aाwया। २- िyतीय समुqलास मO स3तानi कR िशzा। ३- तृतीय समुqलास मO {|चय&, पठनपाठनaवHथा, स"यास"य >3थi के नाम और पढ़ने पढ़ाने कR रीित। ४- चतुथ& समुqलास मO िववाह और गृहा~म का aवहार। ५- पम समुqलास मO वान’Hथ और सं3यासा~म का िविध। ६- छठे समुqलास मO राजधम&। ७- सम समुqलास मO वेदे5र-िवषय। ८- अम समुqलास मO जगत् कR उ"पिs, िHथित और ’लय। ९- नवम समुqलास मO िवा, अिवा, ब3ध और मोz कR aाwया। १०- दशवO समुqलास मO आचार, अनाचार और भयाभय िवषय। ११- एकादश समुqलास मO आया&वsय मत मता3तर का खडन मडन िवषय। १२- yादश समुqलास मO चारवाक मत का िवषय। १३- योदश समुqलास मO ईसाई मत का िवषय।

Upload: others

Post on 06-Mar-2020

15 views

Category:

Documents


0 download

TRANSCRIPT

  • स"याथ&'काश

    ओ३म् सि0दान3द5ेराय नमो नमः भूिमका

    िजस समय म3थ ‘स"याथ&'काश’ बनाया था, उस समय और उस से पूव& संHकृतभाषण करने, पठन-पाठन मO संHकृत ही बोलने और ज3मभूिम कR भाषा गुजराती होने के कारण से मुझ को इस भाषा का िवशेष पWरXान न था, इससे भाषा अशुZ बन गई थी। अब भाषा बोलने और िलखने का अ^यास हो गया ह।ै इसिलए इस >3थ को भाषा aाकरणानुसार शुZ करके दसूरी वार छपवाया ह।ै कहc-कहc शdद, वाeय रचना का भेद gआ ह ैसो करना उिचत था, eयijक इसके भेद jकए िवना भाषा कR पWरपाटी सुधरनी कWठन थी, पर3तु अथ& का भेद नहc jकया गया ह,ै '"युत िवशेष तो िलखा गया ह।ै हाँ, जो 'थम छपने मO कहc-कहc भूल रही थी, वह िनकाल शोधकर ठीक-ठीक कर दी गह& ह।ै यह >3थ १४ चौदह समुqलास अथा&त् चौदह िवभागi मO रचा गया ह।ै इसमO १० दश समुqलास पूवा&Z& और ४ चार उsराZ& मO बने ह

  • १४- चौदहवO समुqलास मO मुसलमानi के मत का िवषय। और चौदह समुqलासi के अ3त मO आय के सनातन वेदिविहत मत कR िवशेषतः aाwया िलखी ह,ै िजसको म< भी यथावत् मानता ।ँ मेरा इस >3थ के बनाने का मुwय 'योजन स"य-स"य अथ& का 'काश करना ह,ै अथा&त् जो स"य ह ैउस को स"य और जो िमया ह ैउस को िमया ही 'ितपादन करना स"य अथ& का 'काश समझा ह।ै वह स"य नहc कहाता जो स"य के Hथान मO अस"य और अस"य के Hथान मO स"य का 'काश jकया जाय। jक3तु जो पदाथ& जैसा ह,ै उसको वैसा ही कहना, िलखना और मानना स"य कहाता ह।ै जो मनुय पzपाती होता ह,ै वह अपने अस"य को भी स"य और दसूरे िवरोधी मतवाले के स"य को भी अस"य िसZ करने मO 'वृs होता ह,ै इसिलए वह स"य मत को 'ा नहc हो सकता। इसीिलए िवyान् आi का यही मुwय काम ह ैjक उपदशे वा लेख yारा सब मनुयi के सामने स"याऽस"य का Hवप समपत कर दO, पtात् वे Hवयम् अपना िहतािहत समझ कर स"याथ& का >हण और िमयाथ& का पWर"याग करके सदा आन3द मO रहO। मनुय का आ"मा स"याऽस"य का जानने वाला ह ैतथािप अपने 'योजन कR िसिZ, हठ, दरुा>ह और अिवाjद दोषi से स"य को छोड़ अस"य मO झुक जाता ह।ै पर3तु इस >3थ मO ऐसी बात नहc रeखी ह ैऔर न jकसी का मन दखुाना वा jकसी कR हािन पर ता"पय& ह,ै jक3तु िजससे मनुय जाित कR उित और उपकार हो, स"याऽस"य को मनुय लोग जान कर स"य का >हण और अस"य का पWर"याग करO, eयijक स"योपदशे के िवना अ3य कोई भी मनुय जाित कR उित का कारण नहc ह।ै इस >3थ मO जो कहc-कहc भूल-चूक से अथवा शोधने तथा छापने मO भूल-चूक रह जाय, उसको जानने जनाने पर जैसा वह स"य होगा वैसा ही कर jदया जायेगा। और जो कोई पzपात से अ3यथा शंका वा खडन मडन करेगा, उस पर यान न jदया जायेगा। हाँ, जो वह मनुयमा का िहतैषी होकर कुछ जनावेगा उस को स"य-स"य समझने पर उसका मत संगृहीत होगा। यिप आजकल बgत से िवyान् '"येक मतi मO ह

  • साव&जिनक िहत लय मO धर 'वृs होता ह,ै उससे Hवाथ लोग िवरोध करने मO त"पर होकर अनेक 'कार िव करते ह

  • मुझ को सव&था म3तa ह ैऔर जो नवीन पुराण त3jद >3थो बातi का खडन jकया ह,ै वे "यa हही मनुय होते ह< jक जो वा के अिभ'ाय से िवZ कqपना jकया करते हह से उनकR बुिZ अ3धकार मO फँस के न हो जाती ह।ै इसिलए जैसा म< मनुय जाित कR उित के िलए 'य¢ करता ,ं वैसा सबको करना योय ह।ै इन मतi के थोड़-ेथोड़ ेही दोष 'कािशत jकए ह

  • बुिZ कराके, एक दसूरे को शु बना, लड़ा मारना िवyानi के Hवभाव से बिहः ह।ै यिप इस >3थ को दखेकर अिवyान् लोग अ3यथा ही िवचारOग,े तथािप बुिZमान् लोग यथायोय इस का अिभ'ाय समझOगे, इसिलये म< अपने पWर~म को सफल समझता और अपना अिभ'ाय सब सनi के सामने धरता ।ँ इस को दखे-jदखला के मेरे ~म को सफल करO। और इसी 'कार पzपात न करके स"याथ& का 'काश करके मुझ वा सब महाशयi का मुwय कs&a काम ह।ै सवा&"मा सवा&3तया&मी सि0दान3द परमा"मा अपनी कृपा से इस आशय को िवHतृत और िचरHथायी करे। ।। अलमितिवHतरेण बुिZमyरिशरोमिणषु ।। ।। इित भूिमका ।। Hथान महाराणा जी का उदयपुर (Hवामी) दयान3द सरHवती भा¥पद, शुeलपz संवत् १९३९ ।। ओ३म्।।

  • अथ स"याथ&'काशः

    ओ३म् शो िमः शं वणः शो भव"वय& मा । शऽइ3¥ो बृहHपितः शो िवणु¦मः ।। नमो {|ण ेनमHते वायो "वमेव '"यzं {|ािस । "वामेव '"यzं ब§¨ वjदयािम ऋतं वjदयािम स"यं वjदयािम त3मामवतु तyारमवतु। अवतु माम् अवतु वारम् । ओ३म् शाि3तशाि3तशाि3तः ।।१।। अथ&-(ओ३म)् यह uकार शdद परमे5र का सवªsम नाम ह,ै eयijक इसमO जो अ, उ और म् तीन अzर िमलकर एक (ओ३म)् समुदाय gआ ह,ै इस एक नाम से परमे5र के बgत नाम आते ह< जैस-ेअकार से िवराट्, अि« और िव5ाjद। उकार से िहरयगभ&, वायु और तैजसाjद। मकार से ई5र, आjद"य और 'ाXाjद नामi का वाचक और >ाहक ह।ै उसका ऐसा ही वेदाjद स"यशा¬O मO Hप aाwयान jकया ह ैjक 'करणानुकूल ये सब नाम परमे5र ही के हहण इन नामi से करते हो वा नहc? (उsर) आपके >हण करने मO eया 'माण ह?ै (') दवे सब 'िसZ और वे उsम भी हहण करता ।ँ (उsर) eया परमे5र अ'िसZ और उससे कोई उsम भी ह?ै पुनः ये नाम परमे5र के भी eयi नहc मानते? जब परम5ेर अ'िसZ और उसके तुqय भी कोई नहc तो उससे उsम कोई eयiकर हो सकेगा। इससे आपका यह कहना स"य नहc। eयijक आपके इस कहने मO बgत से दोष भी आते ह

  • अनुपिHथत अथा&त् अ'ा पदाथ& कR 'ाि के िलए ~म करता ह।ै इसिलए जैसा वह पुष बुिZमान् नहc वैसा ही आपका कथन gआ। eयijक आप उन िवराट् आjद नामi के जो 'िसZ 'माणिसZ परमे5र और {|ाडाjद उपिHथत अथ का पWर"याग करके असभव और अनुपिHथत दवेाjद के >हण मO ~म करते हहण करना योय ह ैजैसे jकसी ने jकसी से कहा jक ‘ह ेभृ"य ! "वं सै3धवमानय’ अथा&त् तू सै3धव को ले आ। तब उस को समय अथा&त् 'करण का िवचार करना अवय ह,ै eयijक सै3धव नाम दो पदाथ का ह;ै एक घोड़ ेऔर दसूरा लवण का। जो HवHवामी का गमन समय हो तो घोड़ ेऔर भोजन का काल हो तो लवण को ले आना उिचत ह ैऔर जो गमन समय मO लवण और भोजन-समय मO घोड़ ेको ले आवे तो उसका Hवामी उस पर ¦ुZ होकर कहगेा jक तू िनबु&िZ पुष ह।ै गमनसमय मO लवण और भोजनकाल मO घोड़ ेके लाने का eया 'योजन था? तू 'करणिवत् नहc ह,ै नहc तो िजस समय मO िजसको लाना चािहए था उसी को लाता। जो तुझ को 'करण का िवचार करना आवयक था वह तूने नहc jकया, इस से तू मूख& ह,ै मेरे पास से चला जा। इससे eया िसZ gआ jक जहाँ िजसका >हण करना उिचत हो वहाँ उसी अथ& का >हण करना चािहए तो ऐसा ही हम और आप सब लोगi को मानना और करना भी चािहए। अथ म3थ&ः u ख{| ।।१।। यजुः अ० ४० । मं० १७ दिेखए वेदi मO ऐसे-ऐसे 'करणi मO ‘ओम’् आjद परमे5र के नाम ह

  • स {|ा स िवणुः स ¥Hस िशवHसोऽzरHस परमः Hवराट्। स इ3¥Hस कालाि«Hस च3¥माः।।७।। -कैवqय उपिनषत्। इ3¥ ंिमं वणमि«माgरथो jदaHस सुपणª ग"मान् । एकं सिy'ा बgधा वद3"यि« यमं मातWर5ानमाgः ।।८।। - ऋवेद म०ं १। सू १६४। म3 ४६।। भूरिस भूिमरHयjदितरिस िव5धाया िव5Hय भुवनHय ध । पृिथवc य¸छ पृिथवc दृ◌ँ्ह पृिथवc मा »ह◌्सीः ।।९।। यजुः अ० १३ । मं० १८ इ3¥ो म§ना रोदसी प'थ¸छव इ3¥ः सूय&मरोचयत् । इ3¥ ेह िव5ा भुवनािन येिमर इ3¥ ेHवानास इ3दवः ।।१०।। -सामवेद 'पाठक ७। िक ८। म3 २।।

    'ाणाय नमो यHय सव&िमद ंवश े। यो भूतः सव&Hय5ेरो यिHम3"सव¶ 'िति¼तम् ।।११।। -अथव&वेद काड ११। 'पाठक २४। अ० २। म3 ८।। अथ&-यहाँ इन 'माणi के िलखने मO ता"पय& यही ह ैjक जो ऐसे-ऐसे 'माणi मO uकाराjद नामi से परमा"मा का >हण होता ह ैिलख आये तथा परमे5र का कोई भी नाम अनथ&क नहc, जैसे लोक मO दWर¥ी आjद के धनपित आjद नाम होते ह

  • ('शािसता०) जो सब को िशzा दनेेहारा, सूम से सूम, Hव'काशHवप, समािधHथ बुिZ से जानने योय ह,ै उसको परम पुष जानना चािहए।।५।। और Hव'काश होने से ‘अि«’ िवXानHवप होने से ‘मन’ु और सब का पालन करने से ‘'जापित’ और परमै5य&वान् होने से ‘इ3¥’ सब का जीवनमूल होने से ‘'ाण’ और िनर3तर aापक होने से परमे5र का नाम ‘{|’ ह।ै।६।। (स {|ा स िवणुः०) सब जगत् के बनाने से ‘{|ा’, सव& aापक होने से ‘िवणु’, दुi को दड दकेे लाने से ‘¥’, मंगलमय और सब का कqयाणकsा& होने से ‘िशव’, ‘यः सव&मुते न zरित न िवनयित तदzरम’् ‘यः Hवयं राजते स Hवराट्’ ‘योऽि«Wरव कालः कलियता 'लयकsा& स कालाि«री5रः’ (अzर) जो सव& aा अिवनाशी, (Hवराट्) Hवयं 'काशHवप और (कालाि«०) 'लय मO सब का काल और काल का भी काल ह,ै इसिलए परमे ½वर का नाम ‘कालाि«’ ह।ै।७।। (इ3¥ ंिमं) जो एक अिyतीय स"य{| वHतु ह,ै उसी के इ3¥ाjद सब नाम हहण होता ह।ै जैसा jक aाकरण, िन, {ा|ण, सूjद ऋिष मुिनयi के aाwयानi से परमे5र का >हण दखेने मO आता ह,ै वैसा >हण करना सब को योय ह,ै पर3तु ‘ओ३म’् यह तो केवल परमा"मा ही का नाम ह ै

  • और अि« आjद नामi से परमे5र के >हण मO 'करण और िवशेषण िनयमकारक हहण न हो के संसारी पदाथ का >हण होता ह।ै jक3तु जहा-ँजहाँ सव&Xाjद िवशेषण हi, वहc-वहc परमा"मा और जहा-ँजहाँ इ¸छा, yषे, 'य¢, सुख, दःुख और अqपXाjद िवशेषण हi, वहाँ-वहाँ जीव का >हण होता ह,ै ऐसा सव& समझना चािहए। eयijक परमे5र का ज3म-मरण कभी नहc होता, इससे िवराट् आjद नाम और ज3माjद िवशेषणi से जगत् के जड़ और जीवाjद पदाथ का >हण करना उिचत ह,ै परमे5र का नहc। अब िजस 'कार िवराट् आjद नामi से परमे5र का >हण होता ह,ै वह 'कार नीचे िलखे 'माणे जानो। अथ uकाराथ&ः १- ‘िव’ उपसग&पूवक& (राजृ दीौ) इस धातु से jÂप् '"यय करने से ‘िवराट्’ शdद िसZ होता ह।ै ‘यो िविवधं नाम चराऽचरं जग¥ाजयित 'काशयित स िवराट्’ िविवध अथा&त् जो बg 'कार के जगत् को 'कािशत करे, इससे ‘िवराट्’ नाम से परमे5र का >हण होता ह।ै २- (अÃचु गितपूजनयोः) (अग, अिग, इण् ग"यथ&क) धातु ह

  • ३- (िवश 'वेशने) इस धातु से ‘िव5’ शdद िसZ होता ह।ै ‘िवशि3त 'िवािन सवा&याकाशादीिन भूतािन यिHमन् । यो वाऽऽकाशाjदषु सव·षु भूतेषु 'िवः स िव5 ई5रः’ िजस मO आकाशाjद सब भूत 'वेश कर रह ेह< अथवा जो इन मO aा होके 'िव हो रहा ह,ै इसिलए उस परमे5र का नाम ‘िव5’ ह,ै इ"याjद नामi का >हण अकारमा से होता ह।ै ४- ‘°योितवÄ िहरयं, तेजो वै िहरयिम"यैतरेयशतपथ{ा|णे’ ‘यो िहरयानां सूया&दीनां तेजसां गभ& उ"पिsिनिमsमिधकरणं स िहरयगभ&ः’ िजसमO सूया&jद तेज वाले लोक उ"प होके िजसके आधार रहते ह< अथवा जो सूया&jद तेजःHवप पदाथ का गभ& नाम, (उ"पिs) और िनवासHथान ह,ै इससे उस परमे5र का नाम ‘िहरयगभ&’ ह।ै इसमO यजुव·द के म3 का 'माण- िहरयगभ&ः समवs&ता>े भूतHय जातः पितरेक आसीत् । स दाधार पृिथवc ामुतेमां कHमै दवेाय हिवषा िवधमे ।। इ"याjद Hथलi मO ‘िहरयगभ&’ से परमे5र ही का >हण होता ह।ै ५- (वा गितग3धनयोः) इस धातु से ‘वायु’ शdद िसZ होता ह।ै (ग3धनं िहसनम्) ‘यो वाित चराऽचरÅगZरित बिलनां बिल¼ः स वायुः’ जो चराऽचर जगत् का धारण, जीवन और 'लय करता और सब बलवानi से बलवान् ह,ै इससे उस ई5र का नाम ‘वायु’ ह।ै ६- (ितज िनशान)े इस धातु से ‘तेजः’ और इससे तिZत करने से ‘तैजस’ शdद िसZ होता ह।ै जो आप Hवयं'काश और सूया&jद तेजHवी लोकi का 'काश करने वाला ह,ै इससे ई5र का नाम ‘तैजस’ ह।ै इ"याjद नामाथ& उकारमा से >हण होते ह

  • aवहार को यथावत् जानता ह,ै इससे ई5र का नाम ‘'ाX’ ह।ै इ"याjद नामाथ& मकार से गृहीत होते हहण यहाँ होता ह।ै हाँ, गौण अथ& मO िमjद शdद से सुÆदाjद मनुयi का >हण होता ह।ै १२- (िञ्ािमदा Èेहने) इस धातु से औणाjदक ‘e’ '"यय के होने से ‘िम’ शdद िसZ होता ह।ै ‘मेित, िÈÉित िÈÉते वा स िमः’ जो सब से Èेह करके और सब को 'ीित करने योय ह,ै इस से उस परमे5र का नाम ‘िम’ ह।ै

  • १३- (वृञ्◌ा◌् वरणे, वर ईÊसायाम)् इन धातुu से उणाjद ‘उनन्’ '"यय होने से ‘वण’ शdद िसZ होता ह।ै ‘यः सवा&न् िशान् मुमुzू3धमा&"मनो वृणो"यथवा यः िशमैु&मुzुिभध&मा&"मिभËयते वय&ते वा स वणः परमे5रः’ जो आ"मयोगी, िवyान,् मुि कR इ¸छा करने वाले मु और धमा&"माu का Hवीकारकsा&, अथवा जो िश मुमुzु मु और धमा&"माu से >हण jकया जाता ह ैवह ई5र ‘वण’ संXक ह।ै अथवा ‘वणो नाम वरः ~े¼ः’ िजसिलए परमे5र सब से ~े¼ ह,ै इसीिलए उस का नाम ‘वण’ ह।ै १४- (ऋ गित'ापणयोः) इस धातु से ‘यत्’ '"यय करने से ‘अय&’ शdद िसZ होता ह ैऔर ‘अय&’ पूव&क (माङ् माने) इस धातु से ‘किनन्’ '"यय होने से ‘अय&मा’ शdद िसZ होता ह।ै ‘योऽया&न् Hवािमनो 3यायाधीशान् िममीते मा3यान् करोित सोऽय&मा’ जो स"य 3याय के करनेहारे मनुयi का मा3य और पाप तथा पुय करने वालi को पाप और पुय के फलi का यथावत् स"य-स"य िनयमकता& ह,ै इसी से उस परमे5र का नाम ‘अय&मा’ ह।ै १५- (इjद परमै5य·) इस धातु से ‘रन’् '"यय करने से ‘इ3¥’ शdद िसZ होता ह।ै ‘य इ3दित परमै5य&वान् भवित स इ3¥ः परमे5रः’ जो अिखल ऐ5य&यु ह,ै इस से उस परमा"मा का नाम ‘इ3¥’ ह।ै १६- ‘बृहत्’ शdदपूव&क (पा रzणे) इस धातु से ‘डित’ '"यय, बृहत् के तकार का लोप और सुडागम होने से ‘बृहHपित’ शdद िसZ होता ह।ै ‘यो बृहतामाकाशादीनां पितः Hवामी पालियता स बृहHपितः’ जो बड़i से भी बड़ा और बड़ ेआकाशाjद {|ाडi का Hवामी ह,ै इस से उस परमे5र का नाम ‘बृहHपित’ ह।ै १७- (िवलृ aाौ) इस धातु से ‘नु’ '"यय होकर ‘िवणु’ शdद िसZ gआ ह।ै ‘वेवेि aा¹ोित चराऽचरं जगत् स िवणुः’ चर और अचरप जगत् मO aापक होने से परमा"मा का नाम ‘िवणु’ ह।ै १८- ‘उम&हान् ¦मः परा¦मो यHय स उ¦मः’ अन3त परा¦मयु होने से परमा"मा का नाम ‘उ¦म’ ह।ै जो परमा"मा (उ¦मः) महापरा¦मयु (िमः) सब का सुÆत् अिवरोधी ह,ै वह (शम्) सुखकारक, वह (वणः) सवªsम (शम्) सुखHवप, वह (अय&मा) (शम्) सुख'चारक, वह (इ3¥ः) (शम्) सकल ऐ5य&दायक, वह (बृहHपितः) सब का अिध¼ाता (शम्) िवा'द और (िवणुः) जो सब मO aापक परमे5र ह,ै वह (नः) हमारा कqयाणकारक (भवत)ु हो।

  • १९- (वायो ते {|णे नमोऽHतु) (बृह बृिह वृZौ) इन धातुu से ‘{|’ शdद िसZ gआ ह।ै जो सब के ऊपर िवराजमान, सब से बड़ा, अन3तबलयु परमा"मा ह,ै उस {| को हम नमHकार करते ह

  • रखनेवाला। ‘यः Hवापयित स दवेः’ जो 'लय समय अa मO सब जीवi को सुलाता। ‘यः कामयते कायते वा स दवेः’ िजस के सब स"य काम और िजस कR 'ाि कR कामना सब िश करते हहणात्।। यह aासमुिनकृत शारीरक सू ह।ै जो सब को भीतर रखन,े सब को >हण करने योय, चराऽचर जगत् का >हण करने वाला ह,ै इस से ई5र के ‘अ’, ‘अाद’ और ‘अsा’ नाम ह

  • ३४- (jदर् अ~ुिवमोचन)े इस धातु से ‘िणच’् '"यय होने से ‘¥’ शdद िसZ होता ह।ै ‘यो रोदय"य3यायकाWरणो जनान् स ¥ः’ जो दु कम& करनेहारi को लाता ह,ै इससे परमे5र का नाम ‘¥’ ह।ै य3मनसा यायित तyाचा वदित, यyाचा वदित तत् कम&णा करोित यत् कम&णा करोित तदिभसपते।। यह यजवु·द के {ा|ण का वचन ह।ै जीव िजस का मन से यान करता उस को वाणी से बोलता, िजस को वाणी से बोलता उस को कम& से करता, िजस को कम& से करता उसी को 'ा होता ह।ै इस से eया िसZ gआ jक जो जीव जैसा कम& करता ह ैवैसा ही फल पाता ह।ै जब दु कम& करनेवाले जीव ई5र कR 3यायपी aवHथा से दःुखप फल पाते, तब रोते ह< और इसी 'कार ई5र उन को लाता ह,ै इसिलए परमे5र का नाम ‘¥’ ह।ै ३५- आपो नारा इित 'ोा आपो वै नरसूनवः। ता यदHयायनं पूव¶ तेन नारायणः Hमृतः।। -मनुन अ० १। ºोक १०।। जल और जीवi का नाम नारा ह,ै वे अयन अथा&त् िनवासHथान ह

  • ४१- (रह "यागे) इस धातु से ‘राg’ शdद िसZ होता ह।ै ‘यो रहित पWर"यजित दुान् राहयित "याजयित स राgरी5रः’। जो एका3तHवप िजसके Hवप मO दसूरा पदाथ& संयु नहc, जो दुi को छोड़ने और अ3य को छुड़ाने हारा ह,ै इससे परमे5र का नाम ‘राg’ ह।ै ४२- (jकत िनवासे रोगापनयने च) इस धातु से ‘केतु’ शdद िसZ होता ह।ै ‘यः केतयित िचjक"सित वा स केतुरी5रः’ जो सब जगत् का िनवासHथान, सब रोगi से रिहत और मुमुzुu को मुि समय मO सब रोगi से छुड़ाता ह,ै इसिलए उस परमा"मा का नाम ‘केतु’ ह।ै ४३- (यज दवेपूजासंगितकरणदानेषु) इस धातु से ‘यX’ शdद िसZ होता ह।ै ‘यXो वै िवणुः’ यह {ा|ण >3थ का वचन ह।ै ‘यो यजित िवyिÐWर°यते वा स यXः’ जो सब जगत् के पदाथ को संयु करता और सब िवyानi का पू°य ह,ै और {|ा से लेके सब ऋिष मुिनयi का पू°य था, ह ैऔर होगा, इससे उस परमा"मा का नाम ‘यX’ ह,ै eयijक वह सव& aापक ह।ै ४४- (gदानाऽदनयोः, आदाने चे"येके) इस धातु से ‘होता’ शdद िसZ gआ ह।ै ‘यो जुहोित स होता’ जो जीवi को दनेे योय पदाथ का दाता और >हण करने योयi का >ाहक ह,ै इससे उस ई5र का नाम ‘होता’ ह।ै ४५- (ब3ध ब3धन)े इससे ‘ब3ध’ु शdद िसZ होता ह।ै ‘यः HविHमन् चराचरं जगद ्बÑाित ब3धुवZमा&"मनां सुखाय सहायो वा वs&ते स ब3धुः’ िजस ने अपने मO सब लोकलोका3तरi को िनयमi से बZ कर रeखे और सहोदर के समान सहायक ह,ै इसी से अपनी-अपनी पWरिध वा िनयम का उqलंघन नहc कर सकते। जैसे ±ाता भाइयi का सहायकारी होता ह,ै वैसे परमे5र भी पृिथaाjद लोकi के धारण, रzण और सुख दनेे से ‘ब3ध’ु संXक ह।ै ४६- (पा रzणे) इस धातु से ‘िपता’ शdद िसZ gआ ह।ै ‘यः पाित सवा&न् स िपता’ जो सब का रzक जैसा िपता अपने स3तानi पर सदा कृपालु होकर उन कR उित चाहता ह,ै वैसे ही परमे5र सब जीवi कR उित चाहता ह,ै इस से उस का नाम ‘िपता’ ह।ै ४७- ‘यः िपत◌ृणां िपता स िपतामहः’ जो िपताu का भी िपता ह,ै इससे उस परमे5र का नाम ‘िपतामहः’ ह।ै ४८- ‘यः िपतामहानां िपता स 'िपतामहः’ जो िपताu के िपतरi का िपता ह ैइससे परमे5र का नाम ‘'िपतामह’ ह।ै

  • ४९- ‘यो िममीते मानयित सवा&Åीवान् स माता’ जैसे पूण&कृपायु जननी अपने स3तानi का सुख और उित चाहती ह,ै वैसे परमे5र भी सब जीवi कR बढ़ती चाहता ह,ै इस से परमे5र का नाम ‘माता’ ह।ै ५०- (चर गितभzणयोः) आ पूव&क इस धातु से ‘आचाय&’ शdद िसZ होता ह।ै ‘य आचारं >ाहयित, सवा& िवा बोधयित स आचाय& ई5रः’ जो स"य आचार का >हण करानेहारा और सब िवाu कR 'ाि का हतेु होके सब िवा 'ा कराता ह,ै इससे परमे5र का नाम ‘आचाय&’ ह।ै ५१- (ग◌ृ शdद)े इस धातु से ‘गु’ शdद बना ह।ै ‘यो धया&न् शdदान् गृणा"युपjदशित स गुः’ ‘स पूव·षामिप गुः कालेनानव¸छेदात्’। योग०। जो स"यधम&'ितपादक, सकल िवायु वेदi का उपदशे करता, सृि कR आjद मO अि«, वायु, आjद"य, Òअगरा और {|ाjद गुu का भी गु और िजसका नाश कभी नहc होता, इसिलए उस परमे5र का नाम ‘गु’ ह।ै ५२- (अज गितzेपणयोः, जनी 'ादभुा&वे) इन धातुu से ‘अज’ शdद बनता ह।ै ‘योऽजित सृि 'ित सवा&न् 'कृ"यादीन् पदाथा&न् 'िzपित, जानाित, जनयित च कदािच जायते सोऽजः’ जो सब 'कृित के अवयव आकाशाjद भूत परमाणुu को यथायोय िमलाता, जानता, शरीर के साथ जीवi का सब3ध करके ज3म दतेा और Hवयं कभी ज3म नहc लेता, इससे उस ई5र का नाम ‘अज’ ह।ै ५३- (बृह बृिह वृZौ) इन धातुu से ‘{|ा’ शdद िसZ होता ह।ै ‘योऽिखलं जगिमा&णेन बह&ित वZ&यित स {|ा’ जो सपूण& जगत् को रच के बढ़ाता ह,ै इसिलए परमे5र का नाम ‘{|ा’ ह।ै ५४, ५५, ५६- ‘स"यं Xानमन3तं {|’ यह तैिsरीयोपिनषद ्का वचन ह।ै ‘स3तीित स3तHतेषु स"सु साधु त"स"यम्। यानाित चराऽचरं जगs°Xानम्। न िवतेऽ3तो- ऽविधम&या&दा यHय तदन3तम्। सव·^यो बृहÓवाद ्{|’ जो पदाथ& हi उनको सत् कहते ह

  • कुछ न हो और परे हो, उसको आjद कहते ह

  • ६८- (अÃजू aिलzणकाि3तगितषु) इस धातु से ‘अÅन’ शdद और ‘िनर्’ उपसग& के योग से ‘िनरÅन’ शdद िसZ होता ह।ै ‘अÅनं aिल&zणं कुकाम इि3¥यैः 'ािtे"यHमाो िनग&तः पृथभूतः स िनरÅनः’ जो aि अथा&त् आकृित, ले¸छाचार, दुकामना और चzुराjद इि3¥यi के िवषयi के पथ से पृथÀफ़ ह,ै इससे ई5र का नाम ‘िनरÅन’ ह।ै ६९, ७०- (गण संwयाने) इस धातु से ‘गण’ शdद िसZ होता ह,ै इसके आगे ‘ईश’ वा ‘पित’ शdद रखने से ‘गणेश’ और ‘गणपित शdद’ िसZ होते ह

  • धामक िवyान् योिगयi का लय अथा&त् दखेने योय ह,ै इससे उस परमे5र का नाम ‘लमी’ ह।ै ७८- (सृ गतौ) इस धातु से ‘सरस्’ उस से मतुप् और ङीप् '"यय होने से ‘सरHवती’ शdद िसZ होता ह।ै ‘सरो िविवधं Xानं िवते यHयां िचतौ सा सरHवती’ िजस को िविवध िवXान अथा&त् शdद, अथ&, सब3ध 'योग का Xान यथावत् होवे, इससे उस परमे5र का नाम ‘सरHवती’ ह।ै ७९- ‘सवा&ः शयो िव3ते यिHमन् स सव&शिमानी5रः’ जो अपने काय& करने मO jकसी अ3य कR सहायता कR इ¸छा नहc करता, अपने ही सामय& से अपने सब काम पूरा करता ह,ै इसिलए उस परमा"मा का नाम ‘सव&शिमान्’ ह।ै ८०- (णीञ्◌ा◌् 'ापणे) इस धातु से ‘3याय’ शdद िसZ होता ह।ै ‘'माणैरथ&परीzणं 3यायः।’ यह वचन 3यायसूO के ऊपर वा"Hयायनमुिनकृत भाय का ह।ै ‘पzपातरािह"याचरणं 3यायः’ जो '"यzाjद 'माणi कR परीzा से स"य-स"य िसZ हो तथा पzपातरिहत धम&प आचरण ह ैवह 3याय कहाता ह।ै ‘3यायं कतु¶ शीलमHय स 3यायकारी5रः’ िजस का 3याय अथा&त् पzपातरिहत धम& करने ही का Hवभाव ह,ै इससे उस ई5र का नाम ‘3यायकारी’ ह।ै ८१- (दय दानगितरzणिहसादानेषु) इस धातु से ‘दया’ शdद िसZ होता ह।ै ‘दयते ददाित जानाित ग¸छित रzित िहनिHत यया सा दया, ब§वी दया िवते यHय स दयालुः परमे5रः’ जो अभय का दाता, स"याऽस"य सव& िवाu का जानने, सब सनi कR रzा करने और दुi को यथायोय दड दनेेवाला ह,ै इस से परमा"मा का नाम ‘दयाल’ु ह।ै ८२- ‘yयोभा&वो yा^यािमतं सा िyता yीतं वा सैव तदवे वा yतैम्, न िवते yतैं िyतीये5रभावो यÒस्मHतदyतैम्। अथा&त् ‘सजातीयिवजातीयHवगतभेदशू3यं {|’ दो का होना वा दोनi से यु होना वह िyता वा yीत अथवा yतै से रिहत ह।ै सजातीय जैसे मनुय का सजातीय दसूरा मनुय होता ह,ै िवजातीय जैसे मनुय से िभ जाितवाला वृz, पाषाणाjद। Hवगत अथा&त् जैसे शरीर मO आँख, नाक, कान आjद अवयवi का भेद ह,ै वैसे दसूरे Hवजातीय ई5र, िवजातीय ई5र वा अपने आ"मा मO तÓवा3तर वHतुu से रिहत एक परमे5र ह,ै इस से परमा"मा का नाम ‘अyतै’ ह।ै

  • ८३- ‘गय3ते ये ते गुणा यैग&णयि3त ते गुणाः, यो गुणे^यो िनग&तः स िनगु&ण ई5रः’ िजतने सÓव, रज, तम, प, रस, Hपश&, ग3धाjद जड़ के गुण, अिवा, अqपXता, राग, yषे और अिवाjद eलेश जीव के गुण ह< उन से जो पृथÀफ़ ह।ै इन मO ‘अशdदमHपश&मपमaयम्’ इ"याjद उपिनषदi का 'माण ह।ै जो शdद, Hपश&, पाjद गुणरिहत ह,ै इससे परमा"मा का नाम ‘िनगु&ण’ ह।ै ८४- ‘यो गुणैः सह वs&ते स सगुणः’ जो सब का Xान, सव&सुख, पिवता, अन3त बलाjद गुणi से यु ह,ै इसिलए परमे5र का नाम ‘सगुण’ ह।ै जैसे पृिथवी ग3धाjद गुणi से ‘सगुण’ और इ¸छाjद गुणi से रिहत होने से ‘िनगु&ण’ ह,ै वैसे जगत् और जीव के गुणi से पृथÀफ़ होने से परमे5र ‘िनगु&ण’ और सव&Xाjद गुणi से सिहत होने से ‘सगुण’ ह।ै अथा&त् ऐसा कोई भी पदाथ& नहc ह ैजो सगुणता और िनगु&णता से पृथÀफ़ हो। जैसे चेतन के गुणi से पृथÀफ़ होने से जड़ पदाथ& िनगु&ण और अपने गुणi से सिहत होने सगुण, वैसे ही जड़ के गुणi से पृथÀफ़ होने से जीव िनगु&ण और इ¸छाjद अपने गुणi से सिहत होने से सगुण। ऐसे ही परमे5र मO भी समझना चािहए। ८५- ‘अ3तय&3तुं िनय3तुं शीलं यHय सोऽयम3तया&मी’ जो सब 'ाणी और अ'ािणप जगत् के भीतर aापक होके सब का िनयम करता ह,ै इसिलए उस परमे5र का नाम ‘अ3तया&मी’ ह।ै ८६- ‘यो धम· राजते स धम&राजः’ जो धम& ही मO 'काशमान और अधम& से रिहत, धम& ही का 'काश करता ह,ै इसिलए उस परमे5र का नाम ‘धम&राज’ ह।ै ८७- (यमु उपरमे) इस धातु से ‘यम’ शdद िसZ होता ह।ै ‘य सवा&न् 'ािणनो िनय¸छित स यमः’ जो सब 'ािणयi के कम&फल दनेे कR aवHथा करता और सब अ3यायi से पृथÀफ़ रहता ह,ै इसिलए परमा"मा का नाम ‘यम’ ह।ै ८८- (भज सेवायाम)् इस धातु से ‘भग’ इससे मतुप् होने से ‘भगवान’् शdद िसZ होता ह।ै ‘भगः सकलै5य¶ सेवनं वा िवते यHय स भगवान्’ जो सम> ऐ5य& से यु वा भजने के योय ह,ै इसीिलए उस ई5र का नाम ‘भगवान’् ह।ै ८९- (मन Xाने) इस धातु से ‘मन’ु शdद बनता ह।ै ‘यो म3यते स मनुः’ जो मनु अथा&त् िवXानशील और मानने योय ह,ै इसिलये उस ई5र का नाम ‘मन’ु ह।ै ९०- (प◌ृपालनपूरणयोः) इस धातु से ‘पुष’ शdद िसZ gआ ह ै‘यः HवaाÏया चराऽचरं जगत् पृणाित पूरयित वा स पुषः’ जो सब जगत् मO पूण& हो रहा ह,ै इसिलए उस परमे5र का नाम ‘पुष’ ह।ै

  • ९१- (डुभृञ्◌ा◌् धारणपोषणयोः) ‘िव5’ पूव&क इस धातु से ‘िव5भर’ शdद िसZ होता ह।ै ‘यो िव5ं िबभत धरित पुणाित वा स िव5भरो जगदी5रः’ जो जगत् का धारण और पोषण करता ह,ै इसिलये उस परमे5र का नाम ‘िव5भर’ ह।ै ९२- (कल संwयाने) इस धातु से ‘काल’ शdद बना ह।ै ‘कलयित संwयाित सवा&न् पदाथा&न् स कालः’ जो जगत् के सब पदाथ& और जीवi कR संwया करता ह,ै इसिलए उस परमे5र का नाम ‘काल’ ह।ै ९३- (िशलृ िवशेषणे) इस धातु से ‘शेष’ शdद िसZ होता ह।ै ‘यः िशयते स शेषः’ जो उ"पिs और 'लय से शेष अथा&त् बच रहा ह,ै इसिलए उस परमा"मा का नाम ‘शेष’ ह।ै ९४- (आÊलृ aाौ) इस धातु से ‘आ’ शdद िसZ होता ह।ै ‘यः सवा&न् धमा&"मन आ¹ोित वा सवैध&मा&"मिभराÊयते छलाjदरिहतः स आः’ जो स"योप- दशेक, सकल िवायु, सब धमा&"माu को 'ा होता ह ै और धमा&"माu से 'ा होने योय छल-कपटाjद से रिहत ह,ै इसिलये उस परमा"मा का नाम ‘आ’ ह।ै ९५- (डुकृञ्◌ा◌् करणे) ‘शम्’ पूव&क इस धातु से ‘शंकर’ शdद िसZ gआ ह।ै ‘यः शंकqयाणं सुखं करोित स शंकरः’ जो कqयाण अथा&त् सुख का करनेहारा ह,ै इससे उस ई5र का नाम ‘शंकर’ ह।ै ९६- ‘महत’् शdद पूव&क ‘दवे’ शdद से ‘महादवे’ िसZ होता ह।ै ‘यो महतां दवेः स महादवेः’ जो महान् दवेi का दवे अथा&त् िवyानi का भी िवyान्, सूया&jद पदाथ का 'काशक ह,ै इसिलए उस परमा"मा का नाम ‘महादवे’ ह।ै ९७- ('ीञ्◌ा◌् तप&णे का3तौ च) इस धातु से ‘ि'य’ शdद िसZ होता ह।ै ‘यः पृणाित 'ीयते वा स ि'यः’ जो सब धमा&"माu, मुमुzुu और िशi को 'स करता और सब को कामना के योय ह,ै इसिलए उस ई5र का नाम ‘ि'य’ ह।ै ९८- (भू सsायाम्) ‘Hवय’ं पूव&क इस धातु से ‘Hवयभू’ शdद िसZ होता ह।ै ‘यः Hवयं भवित स Hवयभूरी5रः’ जो आप से आप ही ह,ै jकसी से कभी उ"प नहc gआ, इस से उस परमा"मा का नाम ‘Hवयभू’ ह।ै ९९- (कु शdद)े इस धातु से ‘किव’ शdद िसZ होता ह।ै ‘यः कौित शdदयित सवा& िवाः स किवरी5रः’ जो वेद yारा सब िवाu का उपदेा और वेsा ह,ै इसिलए उस परमे5र का नाम ‘किव’ ह।ै

  • १००- (िशवु कqयाणे) इस धातु से ‘िशव’ शdद िसZ होता ह।ै ‘बgलमेतिदश&नम्।’ इससे िशवु धातु माना जाता ह,ै जो कqयाणHवप और कqयाण का करनेहारा ह,ै इसिलए उस परमे5र का नाम ‘िशव’ ह।ै ये सौ नाम परमे5र के िलखे ह

  • अथ िyतीयसमुqलासारभः अथ िशzां 'वयामः मातृमान् िपतृमानाचाय&वान् पुषो वेद। यह शतपथ {ा|ण का वचन ह।ै वHतुतः जब तीन उsम िशzक अथा&त् एक माता, दसूरा िपता और तीसरा आचाय& होवे तभी मनुय Xानवान् होता ह।ै वह कुल ध3य ! वह स3तान बड़ा भायवान् ! िजसके माता और िपता धामक िवyान् हi। िजतना माता से स3तानi को उपदशे और उपकार पgचंता ह ैउतना jकसी से नहc। जैसे माता स3तानi पर 'ेम, उन का िहत करना चाहती ह ैउतना अ3य कोई नहc करता । इसीिलए (मातृमान)् अथा&त् ‘'शHता धामकR िवदषुी माता िवते यHय स मातृमान्’ ध3य वह माता ह ैjक जो गभा&धान से लेकर जब तक पूरी िवा न हो तब तक सुशीलता का उपदशे करे। माता और िपता को अित उिचत ह ैjक गभा&धान के पूव&, मय और पtात् मादक ¥a, म, दगु&3ध, z, बुिZनाशक पदाथ को छोड़ के जो शाि3त, आरोय, बल, बुिZ, परा¦म और सुशीलता से स^यता को 'ा करO वैसे घृत, दुध, िम, अपान आjद ~े¼ पदाथ का सेवन करO jक िजससे रजस् वीय& भी दोषi से रिहत होकर अ"युsम गुणयु हो। जैसा ऋतुगमन का िविध अथा&त् रजोदश&न के पांचवO jदवस से लेके सोलहवO jदवस तक ऋतुदान दनेे का समय ह ैउन jदनi मO से 'थम के चार jदन "या°य ह

  • ऐसा पदाथ& उस कR माता वा धायी खावे jक िजस से दधू मO भी उsम गुण 'ा हi। ज3म के पtात् बालक और उसकR माता को दसूरे Hथान जहाँ का वायु शुZ हो वहां रeखO सुग3ध तथा दश&नीय पदाथ& भी रeखO और उस दशे मO ±मण कराना उिचत ह ैjक जहां का वायु शुZ हो और जैसा उिचत समझO वैसा करO। इस 'कार जो ¬ी वा पुष करOगे उनके उsम स3तान, दीघा&यु, बल परा¦म कR वृिZ होती ही रहगेी jक िजससे सब स3तान उsम बल, परा¦मयु, दीघा&यु, धामक हi। बालकi को माता सदा उsम िशzा करे, िजससे स3तान स^य हi और jकसी अंग से कुचेा न करने पावO। जब बोलने लगO तब उसकR माता बालक कR ि◌◌ंज§वा िजस 'कार कोमल होकर Hप उ0ारण कर सके वैसा उपाय करे jक जो िजस वण& का Hथान, 'य¢ अथा&त् जैसे ‘प’ इसका ओ¼ Hथान और Hपृ 'य¢ दोनi ओ¼i को िमलाकर बोलना; ×Hव, दीघ&, Êलुत अzरi को ठीक-ठीक बोल सकना। मधुर, गभीर, सु3दर Hवर, अzर, मा, पद, वाeय, संिहता अवसान िभ-िभ ~वण होवे। जब वह कुछ-कुछ बोलने और समझने लगे तब सु3दर वाणी और बड़,े छोटे, मा3य, िपता, माता, राजा, िवyान् आjद से भाषण, उनसे वs&मान और उनके पास बैठने आjद कR भी िशzा करO िजस से कहc उन का अयोय aवहार न हो के सव& 'ित¼ा gआ करे। जैसे स3तान िजतेि3¥य, िवाि'य और स"संग मO िच करO वैसा 'य¢ करते रहO। aथ& ¦Rडा, रोदन, हाHय, लड़ाई, हष&, शोक, jकसी पदाथ& मO लोलुपता, ईया&, yषेाjद न करO। उपHथेि3¥य से Hपश& और मद&न से वीय& कR zीणता, नपुंसकता होती और हHत मO दगु&3ध भी होता ह ैइससे उसका Hपश& न करO। सदा स"यभाषण शौय&, धैय&, 'सवदन आjद गुणi कR 'ाि िजस 'कार हो, करावO। जब पांच-पांच वष& के लड़का लड़कR हi तब दवेनागरी अzरi का अ^यास करावO। अ3य दशेीय भाषाu के अzरi का भी। उसके पtात् िजन से अ¸छी िशzा, िवा, धम&, परमे5र, माता, िपता, आचाय&, िवyान,् अितिथ, राजा, 'जा, कुटुब, ब3ध,ु भिगनी, भृ"य आjद से कैसे-कैसे वs&ना इन बातi के म3, ºोक, सू, ग, प भी अथ& सिहत कठHथ करावO। िजन से स3तान jकसी धूत& के बहकाने मO न आवO और जो-जो िवा, धम&िवZ ±ाि3तजाल मO िगराने वाले aवहार ह< उन का भी उपदशे कर दO िजस से भूत 'ेत आjद िमया बातi का िव5ास न हो ।

  • गुरोः 'ेतHय िशयHतु िपतृमेधं समाचरन्। 'ेतहारैः समं त दशराेण शु¾यित।। मनु०।। अथ&-जब गु का 'ाणा3त हो तब मृतकशरीर िजस का नाम 'ेत ह ैउस का दाह करनेहारा िशय 'ेतहार अथा&त् मृतक को उठाने वालi के साथ दशवO jदन शुZ होता ह।ै और जब उस शरीर का दाह हो चुका तब उस का नाम भूत होता ह ैअथा&त् वह अमुकनामा पुष था। िजतने उ"प हi, वs&मान मO आ के न रहO वे भूतHथ होने से उन का नाम भूत ह।ै ऐसा {|ा से लेके आज पय&3त के िवyानi का िसZा3त ह ैपर3तु िजस को शंका, कुसंग, कुसंHकार होता ह ैउस को भय और शंकाप भूत, 'ेत, शाjकनी, डाjकनी आjद अनेक ±मजाल दःुखदायक होते ह

  • आjद नीच के पगi मO पड़ के कहते हह>Hत >हप °योितवदाभास के पास जाके वे कहते हह चढ़े ह

  • का पफ़ल धनाÚ और 'ित¼ावान,् िजस सभा मO जा बैठेगा तो सब के ऊपर इस का तेज पड़गेा। शरीर से आरोय और रा°यमानी होगा।’ इ"याjद बातO सुनके िपता आjद बोलते हह तो बgत अ¸छे ह< पर3तु ये >ह ¦ूर ह< अथा&त् पफ़लाने-पफ़लाने >ह के योग से ८ वष& मO इस का मृ"युयोग ह।ै’ इस को सुन के माता िपताjद पु के ज3म के आन3द को छोड़ के शोकसागर मO डूब कर °योितषी से कहते ह< jक ‘महाराज जी! अब हम eया करO? ’ तब °योितषी जी कहते ह

  • इस काम को कभी न छोड़ना चािहये। और िजतनी लीला रसायन, मारण, मोहन, उ0ाटन, वशीकरण आjद करना कहते ह< उन को भी महापामर समझना चािहय।े इ"याjद िमया बातi का उपदशे बाqयावHथा ही मO स3तानi के Æदय मO डाल दO jक िजस से Hवस3तान jकसी के ±मजाल मO पड़ के दःुख न पावO और वीय& कR रzा मO आन3द और नाश करने मO दःुख'ाि भी जना दनेी चािहये। जैसे- ‘दखेो िजस के शरीर मO सुरिzत वीय& रहता ह ैतब उस को आरोय, बुिZ, बल, परा¦म बढ़ के बgत सुख कR 'ाि होती ह।ै इसके रzण मO यही रीित ह ैjक िवषयi कR कथा, िवषयी लोगi का संग, िवषयi का यान, ¬ी का दश&न, एका3त सेवन, सभाषण और Hपश& आjद कम& से {|चारी लोग पृथÀफ़ रह कर उsम िशzा और पूण& िवा को 'ा होवO। िजसके शरीर मO वीय& नहc होता वह नपुंसक महाकुलzणी और िजस को 'मेह रोग होता ह ैवह दबु&ल, िनHतेज, िनबु&िZ, उ"साह, साहस, धैय&, बल, परा¦माjद गुणi से रिहत होकर न हो जाता ह।ै जो तुम लोग सुिशzा और िवा के >हण, वीय& कR रzा करने मO इस समय चूकोगे तो पुनः इस ज3म मO तुम को यह अमूqय समय 'ा नहc हो सकेगा। जब तक हम लोग गृहकम के करने वाले जीते ह< तभी तक तुम को िवा->हण और शरीर का बल बढ़ाना चािहये।’ इसी 'कार कR अ3य-अ3य िशzा भी माता और िपता करO। इसीिलए ‘मातृमान् िपतृमान’् शdद का >हण उ वचन मO jकया ह ैअथा&त् ज3म से ५वO वष& तक बालकi को माता, ६ वष& से ८वO वष& तक िपता िशzा करO और ९वO वष& के आरभ मO िyज अपने स3तानi का उपनयन करके आचाय& कुल मO अथा&त् जहां पूण& िवyान् और पूण& िवदषुी ¬ी िशzा और िवादान करने वाली हi वहां लड़के और लड़jकयi को भेज दO और शू¥ाjद वण& उपनयन jकये िवना िवा^यास के िलये गुकुल मO भेज दO। उ3हc के स3तान िवyान्, स^य और सुिशिzत होते ह

  • स3तानi वा िशयi का लाड़न करते ह< वे अपने स3तानi और िशयi को िवष िपला के न ± कर दतेे हहण और दोषi का "याग रeखO। सनi का संग और दुi का "याग, अपने माता, िपता और आचाय& कR तन, मन और धनाjद उsम-उsम पदाथ से 'ीितपूव&क सेवा करO।

  • या3यHमाकँ◌् सुचWरतािन तािन "वयोपाHयािन नो इतरािण।। यह तैिs०। इसका यह अिभ'ाय ह ैjक माता िपता आचाय& अपने स3तान और िशयi को सदा स"य उपदशे करO और यह भी कहO jक जो-जो हमारे धम&यु कम& ह< उन-उन का >हण करो और जो-जो दु कम& हi उनका "याग कर jदया करो। जो-जो स"य जाने उन-उन का 'काश और 'चार करे। jकसी पाखडी दुाचारी मनुय पर िव5ास न करO और िजस-िजस उsम कम& के िलये माता, िपता और आचाय& आXा दवेO उस-उस का यथे पालन करो। जैसे माता, िपता ने धम&, िवा, अ¸छे आचरण के ºोक ‘िनघटु’ ‘िन’ ‘अायायी’ अथवा अ3य सू वा वेदम3 कठHथ कराये हi उन-उन का पुनः अथ& िवािथयi को िवjदत करावO। जैसे 'थम समुqलास मO परमे5र का aाwयान jकया ह ैउसी 'कार मान के उस कR उपासना करO। िजस 'कार आरोय, िवा और बल 'ा हो उसी 'कार भोजन छादन और aवहार करO करावO अथा&त् िजतनी zुधा हो उस से कुछ 3यून भोजन करे। म मांसाjद के सेवन से अलग रहO। अXात गभीर जल मO 'वेश न करO eयijक जलज3तु वा jकसी अ3य पदाथ& से दःुख और जो तरना न जाने तो डूब ही जा सकता ह।ै ‘नािवXाते जलाशये’ यह मनु का वचन। अिवXात जलाशय मO 'िव होके Èानाjद न करO। दिृपूतं 3यसे"पाद ंव¬पूतं जलं िपबेत्। स"यपूतां वदyेाचं मनःपूतं समाचरेत्।। मनु०।। अथ&-नीचे दिृ कर ऊँचे नीचे Hथान को दखे के चल,े व¬ से छान कर जल िपये, स"य से पिव करके वचन बोले, मन से िवचार के आचरण करे। माता शुः िपता वैरी येन बालो न पाWठतः। न शोभते सभामये हसंमये वको यथा ।। यह jकसी किव का वचन ह।ै वे माता और िपता अपने स3तानi के पूण& वैरी ह< िज3हiने उन को िवा कR 'ाि न कराई, वे िवyानi कR सभा मO वैसे ितरHकृत और कुशोिभत होते ह< जैसे हसंi के बीच मO बगुला। यही माता, िपता का कs&a कम& परमधम& और कRत का काम ह ैजो अपने स3तानi को तन, मन, धन से िवा, धम&, स^यता और उsम िशzायु करना। यह बालिशzा मO थोड़ा सा िलखा, इतने ही◌े से बुिZमान् लोग बgत समझ लOगे।

  • इित ~ीमÖयान3दसरHवतीHवािमकृते स"याथ&'काशे सुभाषािवभूिषते बालिशzािवषये िyतीयः समुqलासः सपूण&ः।।२।।

  • अथ तृतीयसमुqलासारभः अथाऽययनाऽयापनिविध aाwयाHयामः अब तीसरे समुqलास मO पढ़ने का 'कार िलखते ह

  • को इन बातi से बचावO। िजस से उsम िवा, िशzा, शील, Hवभाव, शरीर और आ"मा के बलयु होके आन3द को िन"य बढ़ा सकO । पाठशालाu से एक योजन अथा&त् चार कोश दरू >ाम वा नगर रह।े सब को तुqय व¬, खान-पान, आसन jदये जायO, चाह ेवह राजकुमार व राजकुमारी हो, चाह ेदWर¥ के स3तान हi, सब को तपHवी होना चािहये। उन के माता िपता अपने स3तानi से वा स3तान अपने माता िपताu से न िमल सकO और न jकसी 'कार का प-aवहार एक दसूरे से कर सकO , िजस से संसारी िच3ता से रिहत होकर केवल िवा बढ़ाने कR िच3ता रखO। जब ±मण करने को जायO तब उनके साथ अयापक रह

  • दवेः’ । जो सव&सुखi का दनेेहारा और िजस कR 'ाि कR कामना सब करते ह

  • जल से शरीर के बाहर के अवयव, स"याचरण से मन, िवा और तप अथा&त् सब 'कार के क भी सह के धम& ही के अनु¼ान करने से जीवा"मा, Xान अथा&त् पृिथवी से लेके परमे5र पय&3त पदाथ के िववेक से बुिZ दढ़ृ-िनtय पिव होता ह।ै इस से Èान भोजन के पूव& अवय करना। दसूरा 'ाणायाम, इसमO 'माण- 'ाणायामादशुिZzये Xानदीिरािववेकwयातेः।। -यह योगशा¬ का सू ह।ै जब मनुय 'ाणायाम करता ह ैतब 'ितzण उsरोsर काल मO अशुिZ का नाश और Xान का 'काश होता जाता ह।ै जब तक मुि न हो तब तक उसके आ"मा का Xान बराबर बढ़ता जाता ह।ै दÉ3ते मायमानानां धातूनां च यथा मलाः। तथेि3¥याणां दÉ3ते दोषाः 'ाणHय िन>हात्।। यह मनुHमृित का ºोक ह।ै जैसे अि« मO तपाने से सुवणा&jद धातुu का मल न होकर शुZ होते ह< वैसे 'ाणायाम करके मन आjद इि3¥यi के दोष zीण होकर िनम&ल हो जाते ह

  • इि3¥याँ भी Hवाधीन होते हहण करती ह।ै इस से मनुय शरीर मO वीय& वृिZ को 'ा होकर िHथर, बल, परा¦म, िजतेि3¥यता, सब शा¬O को थोड़ ेही◌े काल मO समझ कर उपिHथत कर लेगा। ¬ी भी इसी 'कार योगा^यास करे। भोजन, छादन, बैठने, उठन,े बोलन,े चालन,े बड़ ेछोटे से यथायोय aवहार करने का उपदशे करO। स3योपासन िजसको {|यX भी कहते हभाग से नेjद अंगi पर जल िछड़के, उस से आलHय दरू होता ह ैजो आलHय और जल 'ा न हो तो न करे। पुनः सम3क 'ाणायाम, मनसापWर¦मण, उपHथान, पीछे परमे5र कR Hतुित, 'ाथ&ना और उपासना कR रीित िशखलावे। पtात् ‘अघमष&ण’ अथा&त् पाप करने कR इ¸छा भी कभी न करे। यह स3योपासन एका3त दशे मO एका>िचs से करे। अपां समीपे िनयतो नै"यकं िविधमािHथतः। सािवीमÊयधीयीत ग"वारयं समािहतः।। यह मनुHमृित का वचन ह।ै जंगल मO अथा&त् एका3त दशे मO जा सावधान हो के जल के समीप िHथत हो के िन"य कम& को करता gआ सािवी अथा&त् गायी म3 का उ0ारण अथ&Xान और उसके अनुसार अपने चाल चलन को करे पर3तु यह ज3म से करना उsम ह।ै दसूरा दवेयX-जो अि«हो और िवyानi का संग सेवाjदक से होता ह।ै स3या और अि«हो सायं 'ातः दो ही काल मO करे। दो ही रात jदन कR सि3धवेला ह

  • का और एक इस 'कार कR आ°यHथाली अथा&त् घृत रखने का पा और चमसा ऐसा सोने, चांदी वा का¼ का बनवा के 'णीता और 'ोzणी मO जल तथा घृतपा मO घृत रख के घृत को तपा लेवे। 'णीता जल रखने और 'ोzणी इसिलये ह ैjक उस से हाथ धोने को जल लेना सुगम ह।ै पtात् उस घी को अ¸छे 'कार दखे लेवे jफर म3 से होम करO। u भूर«ये 'ाणाय Hवाहा। भुववा&यवेऽपानाय Hवाहा। Hवराjद"याय aानाय Hवाहा। भूभु&वः Hवरि«वावाjद"ये^यः 'ाणापानaाने^यः Hवाहा।। इ"याjद अि«हो के '"येक म3 को पढ़ कर एक-एक आgित दवेे और जो अिधक आgित दनेा हो तो- िव5ािन दवे सिवतदु&Wरतािन परासवु । यÐ¥ ंत आ सवु ।। इस म3 और पूवª गायी म3 से आgित दवेे। ‘u’ ‘भूः’ और ‘'ाणः’ आjद ये सब नाम परमे5र के ह

  • ही का सामय& ह ै jक उस वायु और दगु&3धयु पदाथ को िछ-िभ और हqका करके बाहर िनकाल कर पिव वायु को 'वेश करा दतेा ह।ै (') तो म3 पढ़ के होम करने का eया 'योजन ह?ै (उsर) म3O मO वह aाwयान ह ैjक िजससे होम करने मO लाभ िवjदत हो जायO और म3O कR आवृिs होने से कठHथ रहO। वेदपुHतकi का पठन-पाठन और रzा भी होवे। (') eया इस होम करने के िवना पाप होता ह?ै (उsर) हां ! eयijक िजस मनुय के शरीर से िजतना दगु&3ध उ"प हो के वायु और जल को िबगाड़ कर रोगो"पिs का िनिमs होने से 'ािणयi को दःुख 'ा कराता ह ै उतना ही पाप उस मनुय को होता ह।ै इसिलये उस पाप के िनवारणाथ& उतना सुग3ध वा उससे अिधक वायु और जल मO पफ़ैलाना चािहये। और िखलाने िपलाने से उसी एक aि को सुख िवशेष होता ह।ै िजतना घृत और सुग3धाjद पदाथ& एक मनुय खाता ह ै उतने ¥a के होम से लाखi मनुयां◌े◌ं का उपकार होता ह ैपर3तु जो मनुय लोग घृताjद उsम पदाथ& न खावO तो उन के शरीर और आ"मा के बल कR उित न हो सके, इस से अ¸छे पदाथ& िखलाना िपलाना भी चािहये पर3तु उससे होम अिधक करना उिचत ह ैइसिलए होम का करना अ"यावयक ह।ै (') '"येक मनुय jकतनी आgित करे और एक-एक आgित का jकतना पWरमाण ह?ै (उsर) '"येक मनुय को सोलह-सोलह आgित और छः-छः माशे घृताjद एक-एक आgित का पWरमाण 3यून से 3यून चािहये और जो इससे अिधक करे तो बgत अ¸छा ह।ै इसीिलये आय&वरिशरोमिण महाशय ऋिष, महष, राजे, महाराजे लोग बgत सा होम करते और कराते थे। जब तक इस होम करने का 'चार रहा तब तक आया&वs& दशे रोगi से रिहत और सुखi से पूWरत था, अब भी 'चार हो तो वैसा ही हो जाय। ये दो यX अथा&त् {|यX जो पढ़ना-पढ़ाना स3योपासन ई5र कR Hतुित, 'ाथ&ना, उपासना करना, दसूरा दवेयX जो अि«हो से ले के अ5मेध पय&3त यX और िवyानi कR सेवा संग करना पर3तु {|चय& मO केवल {|यX और अि«हो का ही◌े करना होता ह।ै ऋतं च Hवायाय'वचने च। स"यं च Hवायाय'वचने च। तपt Hवायाय'वचने च। दमt Hवायाय'वचने च। शमt Hवायाय'वचने च। अ«यt Hवायाय'वचने च। अि«हों च Hवायाय'वचने च। अितथयt

  • Hवायाय'वचने च। मानुषं च Hवायाय'वचने च। 'जा च Hवायाय'वचने च। 'जनt Hवायाय'वचने च। 'जाितt Hवायाय'वचने च। -यह तैिsरीयोपिनषत् का वचन ह।ै ये पढ़ने पढ़ाने वालi के िनयम ह

  • कामा"मता न 'शHता न चैवेहH"यकामता। कायो िह वेदािधगमः कम&योगt वैjदकः।। मनु०।। अथ&-अ"य3त कामातुरता और िनकामता jकसी के िलये भी ~े¼ नहc, eयijक जो कामना न करे तो वेदi का Xान और वेदिविहत कमा&jद उsम कम& jकसी से न हो सकO । इसिलय-े Hवायायेन Ëतैहªमै¬ैिवेने°यया सुतैः। महायXैt यXैt {ा|ीयं िफ़यते तनुः।। मनु०।। अथ&-(Hवायाय) सकल िवा पढ़त-ेपढ़ाते (Ëत) {|चय& स"यभाषणाjद िनयम पालने (होम) अि«होjद होम, स"य का >हण अस"य का "याग और स"य िवाu का दान दनेे (ैिवेन) वेदHथ कमªपासना Xान िवा के >हण (इ°यया) पzेÞाjद करने (सुतैः) सुस3तानो"पिs (महायXैः) {|, दवे, िपत,ृ वै5दवे और अितिथयi के सेवनप पमहायX और (यXैः) अि«ोमाjद तथा िशqपिवािवXानाjद यXi के सेवन से इस शरीर को {ा|ी अथा&त् वेद और परमे5र कR भि का आधारप {ा|ण का शरीर बनता ह।ै इतने साधनi के िवना {ा|णशरीर नहc बन सकता। इि3¥याणां िवचरतां िवषयेवपहाWरषु । संयमे य¢माित¼िेyyान् य3तेव वािजनाम्।। मनु॰।। अथ&-जैसे िवyान् सारिथ घोड़i को िनयम मO रखता ह ैवैसे मन और आ"मा को खोटे कामi मO खह मO 'य¢ सब 'कार से करO। eयijक- इि3¥याणां 'संगेन दोषम् ऋ¸छ"यसंशयम् । सियय तु ता3येव ततः िसिZ िनय¸छित।। मनु०।। अथ&-जीवा"मा इि3¥यi के वश होके िनिtत बड़-ेबड़ ेदोषi को 'ा होता ह ैऔर जब इि3¥यi को अपने वश मO करता ह ैतभी िसिZ को 'ा होता ह।ै वेदाH"यागt यXाt िनयमाt तपांिस च। न िव'दुभावHय िसिZ ग¸छि3त कहिचत्।। मनु०।। जो दुाचारी-अिजतेि3¥य पुष ह< उसके वेद, "याग, यX, िनयम और तप तथा अ3य अ¸छे काम कभी िसिZ को नहc 'ा होते। वेदोपकरणे चैव Hवायाये चैव नै"यके। नानुरोधोऽH"यनयाये होमम3ेषु चैव िह।।१।। मनु०।। नै"यके नाH"यनयायो {|सं िह त"Hमृतम्।

  • {|ाgितgतं पुयम् अनयायवषßकृतम्।।२।। मनु०।। वेद के पढ़ने-पढ़ाने, स3योपासनाjद पमहायXi के करने और होमम3O मO अनयायिवषयक अनुरोध (आ>ह) नहc ह ैeयijक।।१।। िन"यकम& मO अनयाय नहc होता। जैसे 5ास'5ास सदा िलये जाते ह< ब3ध नहc jकये जाते वैसे िन"यकम& 'ितjदन करना चािहय;े न jकसी jदन छोड़ना eयijक अनयाय मO भी अि«होjद उsम कम& jकया gआ पुयप होता ह।ै जैसे झूठ बोलने मO सदा पाप और स"य बोलने मO सदा पुय होता ह।ै वैसे ही◌े बुरे कम& करने मO सदा अनयाय और अ¸छे कम& करने मO सदा Hवायाय ही होता ह।ै।२।। अिभवादनशीलHय िन"यं वृZोपसेिवनः। च"वाWर तHय वZ&3त आयुवा यशो बलम्।। मनु०।। जो सदा न¨ सुशील िवyान् और वृZi कR सेवा करता ह,ै उसका आय,ु िवा, कRत और बल ये चार सदा बढ़ते ह< और जो ऐसा नहc करते उनके आयु आjद चार नहc बढ़ते। अिहसयैव भूतानां काय¶ ~ेयोऽनुशासनम्। वाÀफ़ चैव मधुरा ºणा 'यो°या धम&िम¸छता।।१।। यHय वाàनसे शुZ ेसयगुे च सव&दा। स वै सव&मवा¹ोित वेदा3तोपगतं पफ़लम्।।२।। मनु०।। िवyान् और िवाि◌थ&यi को योय ह ै jक वैरबुिZ छोड़ के सब मनुयi के कqयाण के माग& का उपदशे करO और उपदेा सदा मधुर सुशीलतायु वाणी बोले। जो धम& कR उित चाह ैवह सदा स"य मO चले और स"य ही◌े का उपदशे करे।।१।। िजस मनुय के वाणी और मन शुZ तथा सुरिzत सदा रहते ह

  • स जीवेव शू¥"वमाशु ग¸छित सा3वयः।। मन०ु।। जो वेद को न पढ़ के अ3य ~म jकया करता ह ैवह अपने पु पौ सिहत शू¥भाव को शीÎ ही 'ा हो जाता ह।ै वज&ये3मधुमांस ग3धं माqयं रसान् ि¬यः। शुािन यािन सवा&िण 'ािणनां चैव िहसनम्।।१।। अ^यंगमÅनं चाणोपान¸छधारणम्। कामं फ़ोधं च लोभं च नs&नं गीतवादनम्।।२।। ूतं च जनवाद ंच पWरवाद ंतथानृतम्। ¬ीणां च 'ेzणालभमुपघातं परHय च।।३।। एकः शयीत सव& न रेतः Hक3दये"Âिचत्। कामािZ Hक3दयन् रेतो िहनिHत Ëतमा"मनः।।४।। {|चारी और {|चाWरणी म, मांस, ग3ध, माला, रस, ¬ी और पुष का संग, सब खटाई, 'ािणयi कR िहसा।।१।। अंगi का मद&न, िवना िनिमs उपHथेि3¥य का Hपश&, आंखi मO अÅन, जूते और छ का धारण, काम, ¦ोध, लोभ, मोह, भय, शोक, ईया&, yषे और नाच गान, बाजा बजाना।।२।। ूत, िजस jकसी कR कथा, िन3दा, िमयाभाषण, ि¬यi का दश&न, आ~य, दसूरे कR हािन आjद कुकम को सदा छोड़ दवेO।।३।। सव& एकाकR सोवे, वीय& Hखिलत कभी न करO, जो कामना स ेवीय&Hखिलत कर द ेतो जानो jक अपने {|चय&Ëत का नाश कर jदया।।४।। वेदमनू¸याचायªऽ3तेवािसनमनुशािHत। स"यं वद। धम¶ चर। Hवायाया3मा 'मदः। आचाया&य ि'यं धनमाÆ"य 'जात3तुं मा aव¸छे"सीः। स"या 'मjदतaम्। धमा& 'मjदतaम्। कुशला 'मjदतaम्। Hवायाय'वचना^यां न 'मjदतaम्। दवेिपतृकाया&^यां न 'मjदतaम्।।१।। मातृदवेो भव। िपतृदवेो भव। आचाय&दवेो भव। अितिथदवेो भव। या3यनवािन कमा&िण तािन सेिवतaािन नो इतरािण। या3यHमाकँ◌् सुचWरतािन तािन "वयोपाHयािन नो इतरािण।।२।। ये के चाHम¸छेªयांसो {ा|णाHतेषां "वयासनेन '5िसतaम्। ~Zया दयेम्। अ~Zया दयेम्। ि~या दयेम्। ि×या दयेम्। िभया दयेम्। संिवदा दयेम्।।३।।

  • अथ यjद ते कम&िविचjक"सा वा वृsिविचjक"सा वा Hयात् ये त {ा|णाः समjदश&नो युा अयुा अलूzा धम&कामाः Hयुय&था ते त वs·रन्। तथा त वs·थाः।।४।। एष आदशे एष उपदशे एषा वेदोपिनषत्। एतदनुशासनम्। एवमुपािसतaम्। एवमु चैतदपुाHयम्।।५।। तैिsरीय०।। आचाय& अ3तेवासी अथा&त् अपने िशय और िशयाu को इस 'कार उपदशे �