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कबीर की सामाजिक देन 1 जीवन पंत शिण संथान, दिली ववाल हदी डी सी -1 सेमेटर-I न प- III, आहदकालीन और भजतिकालीन काय इकाई-II अयाय: कबीर की सामाजिक देन अयाय लेखक: डॉ. रािेर साद कॉलेि / विभाग : भीमराि अबेडकर कॉले ि, हदली वििवियालय

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  • कबीर की सामाजिक देन

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    जीवन पर्यतं शिक्षण ससं्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य

    ह िंदी डी सी -1 सेमेस्टर-I

    प्रश्न पत्र- III, आहदकालीन और भजतिकालीन काव्य इकाई-II

    अध्याय: कबीर की सामाजिक देन अध्याय लेखक: डॉ. रािेन्द्र प्रसाद

    कॉलेि / विभाग : भीमराि अिंबेडकर कॉलेि, हदल्ली विश्िविद्यालय

  • कबीर की सामाजिक देन

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    जीवन पर्यतं शिक्षण ससं्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य

    विषय प्रिेश सामाजिक भेद-भाि का विरोध धार्मिक भेद-भाि और आडम्बर विरोध नारी के प्रति दृजटटकोण दगुुिणों का त्याग स्ि-मूल्यािंकन प्रश्नािली

  • कबीर की सामाजिक देन

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    जीवन पर्यतं शिक्षण ससं्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य

    कबीर की सामाजिक देन

    विषय प्रिेश

    कबीर श्जस रु्यग में पैिा हुए थे, वह मुश्स्लम काल था. वे श्जस जुलाहा जातत में पले-बढ़े थे, वह एक िो पीढ़ी पहले मुसलमान हो चुकी थी लेककन न केवल कबीर की जुलाहा जातत बश्ल्क दहन्ि ूसमाज की जो भी िशलत जाततर्यााँ इस्लाम स्वीकार कर चुकी थी, उनके पुराने संस्कारों, रीतत ररवाजों और धाशमिक- ववववासों में अधधक बिलाव नहीं आर्या था. व ेजाततर्यााँ न पूरी तरह दहन्ि ूथी और न पूरी तरह मुसलमान. स्वरं्य कबीर की जुलाहा जातत में, जो इस्लाम कबूल करने के पहले नाथपंथी जोगी(र्योगी) जातत थी, नाथ पंथ और हठर्योग की बहुत सारी बाहें पहले की तरह सुरक्षक्षत थी. दहन्ि-ूसमाज में इस प्रकार की िशलत जाततर्यों का स्थान बहुत नीचा था और रे्य ऊची जाततर्यों के भेि-भाव और अन्र्यार्य- अत्र्याचार का शिकार थी. इसशलए इनमें सामाश्जक असमानता के प्रतत ववद्रोह का भाव होना स्वाभाववक था.

    कबीर बचपन में ही सामाश्जक भेि-भाव और छुआछूत से अच्छी तरह पररधचत हो गरे्य थे क्र्योंकक बालक कबीर का “खतना” करने से मौलववर्यों ने इनकार कर दिर्या था. मुसलमानों का एक वगि कहता था कक पहले कबीर को “कलमा” पढ़ाकर उसका ‘हरामीपन’ खत्म ककर्या जाए, किर ‘खतना’ ककर्या जाए लेककन िसूरा प्रभाविाली मुश्स्लम वगि र्यह मानता था कक ‘निइता’ (अवैध) बच्चा कभी सच्चा मुसलमान नहीं बन सकता. कबीर को न ही मुसलमान माना गर्या और न बनार्या गर्या. दहन्ि ूउनसे मसुलमानों जैसा बरताव करत ेथे. इस िोहरे भेिभाव ने कबीर को एक ऐसा आिमी बनार्या, जो सभी धमो से परे था.

    धचत्र : कबीरिास, साभार; http://hi.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:

    Kabirdas-2.jpg बड़ा होने पर कबीर में मन में समाज के प्रतत कड़वाहट पैिा होने लगी. उन्होंने िेखा कक ज़मीन-जार्यिाि और जातत ने आिमी को ऊाँ चे-नीच ेलोगों में बााँट दिर्या है. जो लोग ऊाँ ची जातत के माने जात े थे वे लोग तनम्न जाततर्यों से ‘बेगार’ कराना (मफु्त काम कराना) अपना अधधकार समझत ेथे और उनको मजिरूी िेने में अपनी ऊचाई तथा उनकी नीचता का एहसास करात े थे. तनम्न जाततर्यों के बारे में मुल्ला- मौलवी और ब्राह्मणों का तकि था कक ईववर ने नीची जाततर्यों को ऊाँ च ेलोगों की सेवा करने के शलए ही बनार्या है. उस समर्य का दहन्ि ूसमाज अनेक जाततर्यों और सम्प्रिार्यों में बंटा था. ब्राह्मण, क्षत्रत्रर्य, वैवर्य, िुद्र के अततररक्त वेिपाठी, उिासी,

    http://hi.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Kabirdas-2.jpghttp://hi.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Kabirdas-2.jpg

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    जीवन पर्यतं शिक्षण ससं्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य

    नागा(नंगा), शभक्षाटन करने वाले, मोरपंखधारण करने वाले, िराब पीकर अपने को शसद्ध मानने वाले,तन्त्र-मंत्र और भांग की साधना में लगे हुए, जोगी, संन्र्यासी, मौनी, जटाधारी, िैव-िाक्त वैष्णव आदि अपने को एक िसूरे से शे्रष्ठ मानत ेथे. दहन्िओंु में इस जातत व्र्यवस्था का सबसे तनिंनीर्य प प था छुआछूत. ऊाँ ची जातत के लोग तनम्न जाततर्यों से छुआछूत का व्र्यवहार करत ेथे. ब्राह्मण-वगि िेवी-िेवता के नाम पर जीव हत्र्या में लगा हुआ था. िसूरी ओर, िेि का िासक मुश्स्लम समाज था, जो दहन्िओंु को अपने से छोटा समझता था. इस समाज के प्रतततनधध बाििाह, सरकारी कमिचारी, काजी, मलु्ला और मौलवी अपने धमि को एक मात्र सच्चा धमि मानत ेथे और दहन्िओंु के धमांतरण में ववववास रखत ेथे. वे र्यह मानने को तैर्यार नहीं थे कक अल्लाह और ईववर में कोई भेि नहीं है; नमाज़ और पूजा िोनों एक ही समान हैं. र्यह समझने को वह कतई तैर्यार नहीं थे कक दहन्ि ूऔर मुसलमान एक ही ईववर र्या अल्लाह की संतान हैं, इसशलए िोनों भाई है. धमि के मामले में, वे भी दहन्िओंु की तरह बाहरी आडम्बरों में ववववास करत े थे. वे रोज़ा,नमाज़, हज आदि की औपचाररकता को सच्ची ईववर भश्क्त मानत ेथे, मश्स्जि को खुिा का घर मानत ेथे लेककन उसके िसूरे घर- ‘मंदिर’ को अपववत्र मानत ेथे. मुसलमानों में अपने धमि और आििो के प्रतत कट्टरवािी दृश्ष्टकोण पहले से मौजूि था. वे क़ुरान में वर्णित तरीके से ही अपना जीवन-र्यापन करना उधचत समझत े थे. वे लकीर के िकीर बने हुए थे इसशलए शसद्धांतों में ततनक भी पररवतिन लाने के पक्ष में नहीं थे. इस प्रकार मध्र्यकाल के दहन्ि-ूमुश्स्लम िोनों समुिार्यों में धमि की ववकृतत सम्मान प प से व्र्याप्त थी. सामान्र्य जनता पर िोहरी मार पड़ रही थी. एक ओर, अपने ही दहन्ि ूधमि के ठेकेिारों की संकीणि और अमानवीर्य प्रवशृ्त्त की तो िसूरी ओर, आततार्यी िासक वगि के िम्भ और अत्र्याचार की. ऐसे भारतीर्य समाज को व्र्यावहाररक ज्ञान िेकर समर्य के प्रतत जागप क करना अत्रं्यत आववर्यक था. इसी आववर्यकता की पूतति हेतु कबीर जैसे संतों ने आजीवन प्रर्यास ककर्या.

    कबीरदास का व्यजतित्ि िानने के र्लए य ााँ जतलक करें ; (भारि डडतशनरी) http://hi.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B5

    कबीर ने लोगों को कमिकांड, आडम्बरों और कुरीततर्यों के र्खलाि लड़ने की शिक्षा िी और सत्संग-मंडशलर्यााँ स्थावपत कीं, जो मंदिरों-मठों और मश्स्जिों की काली करतूतों का पिाििाि कर सकें तथा आम जनता को बता सकें कक पुरोदहत-मुल्ला ककस प्रकार लोगों को लोक परलोक का भर्य दिखाकर ठगत ेरहत ेहैं. रे्य लोग खुि तो काम-चोर प्रवशृ्त्त और परजीवी मानशसकता के होत ेहैं, किर भी अपने आप को महान और गरीब तनम्न वगि को नीचा बतात ेहैं. इसका पररणाम र्यह हुआ कक सतारे्य हुए और मेहनतकि लोग कबीर के साथ हो शलए. धीरे धीरे लोगों ने मंदिर-मश्स्जि का रुख करना छोड़ दिर्या. लोगों के आचरण में पररवतिन आने लगा. मंदिर मश्स्जि में चढावों की कमी से पंडों और मौलववर्यों की धचतंा बढ़ने लगी. जो पुरोदहत और मुल्ला एक िसूरे के ववरोधी माने जात ेथे, वे धीरे धीरे एक होने लगे क्र्योंकक िोनों की सत्ता तछन्न रही थी. इसशलए धमि-भेि भूलकर उन लोगों ने कबीर के र्खलाि खुलकर मोचाि खोल दिर्या. वे कबीर को ढोंगी बताकर, गरीबों को बहकाकर समाज में िूट डालने का आरोप लगाने लगे और उन्हें िेि द्रोही सात्रबत करने लगे. इंतना ही नहीं, वे उन्हें अनपढ़ और अज्ञानी बताकर उनका उपहास करने लगे. ककन्तु कबीर समाज के कटु-अनुभवों और सत्संगतत से ऐसी ववलक्ष्ण शिक्षा प्राप्त कर चुके थे जो वेि पुराण और क़ुरान- हिीस से शे्रष्ठ थी. कबीर के शलए वह पोथी अथाित धाशमिक

    http://hi.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B5http://hi.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B5http://hi.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B5

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    जीवन पर्यतं शिक्षण ससं्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य

    पुस्तक, श्जसमे मानव-पे्रम का सन्िेि न हो, व्र्यथि एवं हेर्य थी. इस मानवीर्य पे्रम को पढ़ने के शलए त्र्याग की र्योग्र्यता होनी चादहए और पढ़ाने के शलए खांटी व्र्यवहार का सबक. कबीर के पास पे्रम का बल और ज्ञान की तलवार थी, श्जससे व ेधीरे धीरे पूरे समाज के होत ेचले गए. समाज को ठगने वाले पुरोदहतों और मौलववर्यों की कलई खुल रही थी. इसशलए वे ततलशमलाकर पूरी िश्क्त से कबीर के र्खलाि प्रचार में जुट गए और अनेक प्रकार के षड्रं्यत्र रचने लगे परन्तु अपने समर्य के सच्च ेप्रहरी कबीर के झंझावातों के सामने दटक न सके.

    कबीर ने तत्कालीन सामाश्जक बुराइर्यों के सुधार का प्रर्यत्न ककर्या ककन्तु इसके शलए कोई ववकल्प अथवा नई व्र्याख्र्या प्रस्तुत नहीं की बश्ल्क ईववर में ववववास रखत ेहुए, मन और आचरण के पररष्कार द्वारा समाज का सुधार करना चाहत ेथे. उन्होंने व्र्यश्क्त को समाज- व्र्यवस्था की प्राथशमक इकाई माना और व्र्यश्क्त-सुधार के माध्र्यम से समाज सुधार का आििि अपनार्या. वे िसूरों का सुधार करने से पहले अपना सुधार करना चाहत ेथे. उनका मानना था कक जहााँ समाज के व्र्यश्क्त आििि बन जाएाँगे वहां सम्पूणि समाज आििि बन जाना स्वाभववक ही है. उनके आििि समाज में जो व्र्यश्क्त अपने ज्ञान से समाज की सेवा करता वह ब्राह्मण है; जो अपने पराक्रम से िेि व धमि की रक्षा करता है, वह क्षत्रत्रर्य है, जो िेि के उत्पािन को सवित्र हर समर्य उपलब्ध करा कर समाज की सेवा करता है वह वैवर्य है और जो अपनी क्षमता, कौिल र्या र्योग्र्यता से समाजोपर्योगी वस्तुओं का तनमािण करता है अथवा अन्र्य प प से समाज की सेवा करता है, वह िूद्र है. अपनी अपनी र्योग्र्यता, क्षमता, कौिल, रुधच, स्वभाव आदि के अनुप प सभी वगों वणों जाततर्यों और व्र्यश्क्तर्यों का प्रमुख धमि र्या कतिव्र्य समाज सेवा है. केवल जन्म के आधार पर ब्राह्मण िूद्र अथवा दहन्ि ूमुसलमान आदि का भेि करना न केवल प्राकृततक तनर्यमों के ववरुद्ध है बश्ल्क मानव समाज के दहतों के शलए हातनकरक भी है. इसशलर्य सामन्र्य दहतों की रक्षा करने वाले तनर्यमों का पालन ककसी िबाव, िंड र्या भर्य से नहीं बश्ल्क अपने मन में त्र्याग की भावना, परदहत की कामना और ईववरीर्य न्र्यार्य को ध्र्यान में रखकर करना चादहए. ऐसे कतिव्र्य पालन से जहााँ स्वरं्य को संतुश्ष्ट प्राप्त होगी वहीीँ र्यह सविग्राह्र्य भी होगा क्र्योंकक इसमें सामाश्जक भलाई की भावना तनदहत होगी. उन्होंने ऐसे आििि समाज की कल्पना की है, श्जसमे ककसी का ककसी से, ककसी प्रकार का भेि भाव न हो. और सबकी उन्नतत के शलए समान अवसर उपलब्ध हो सके.

    वास्तव में, पथभ्रष्ट समाज को उधचत मागि पर लाना ही कबीर का मुख्र्य उद्देवर्य था, श्जसके शलए वे अपने समर्य के समाज के सच्च े प्रहरी बनकर समाज को जगाने का आजीवन प्रर्यास करते रहे. वे मुख्र्यतः एक आध्र्याश्त्मक व्र्यश्क्त थे, इसशलए उनका ककसी से न कोई ववरोध था और न लगाव ही, ककन्तु मानवता की भलाई के शलए, समस्त सामाश्जक ववरोध समाप्त करने के शलए तनरंतर प्रर्यत्निील रहे. श्जसके शलए, व्र्यततगत सुधार एवं आत्मपररष्कार पर बल दिर्या क्र्योंकक इसी से समाज का पररष्कार संभव हो सकता है. समाज में रहने वाले व्र्यश्क्तर्यों के शलए ककन्ही आििों का पालन आववर्यक होता है. आििों के पालन से मानव का दृश्ष्टकोण उिार बन जाता है और वह वववव कल्र्याण में अपना कल्र्याण मानने लगता है. कबीर अपने हाथों अपना उद्धार करने के प्रबल समथिक थे. उन्होंने इसके शलए चररत्र तनमािण और सिाचरण के आििों को प्रस्तुत ककर्या. उनका मानना था कक जैसे िरीर के ककसी एक अंग के रोग-पीड़ड़त होने पर सम्पूणि िरीर व्र्यधथत हो उठता है, वैसे ही र्यदि कोई व्र्यश्क्त पथ भ्रष्ट हो जारे्य तो समूचा समाज कलंककत हो जाता है. संक्रामक रोग के कीटाणु की भांतत वह कलंक व्र्याप्त हो जाता है और धीरे-धीरे समाज का स्वप प घरृ्णत बन जाता है. कबीर के समर्य, समाज ऐसे ही रोगों से पीड़ड़त था, उसके अंग-प्रत्रं्यग में बुराइर्यााँ घुस चुकी थीं. श्जसके शलए उन्होंने अमोघ औषधध पररष्कार की तनकाली, श्जसको व्र्यश्क्तगत सुधार के माध्र्यम से लागू करने का प्रर्यत्न ककर्या.

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    जीवन पर्यतं शिक्षण ससं्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य

    ववशभन्न साक्ष्र्यों और ववद्वानों के मतानुसार र्यह ज्ञात होता है कक कबीर अनपढ़ थे, अतः उन्होंने स्वर्यं कोई भी रचना शलवपबद्ध नहीं की. इनके नाम से प्रशसद्ध रचना पररमाण में बहुत अधधक शमलती हैं. इनके प्रतत अनन्र्य श्रद्धा एवं सम्मान प्रकट करन ेमें अन्र्य संत-कववर्यों की रचनाएाँ भी कबीर की रचनाओं में िाशमल कर िी गई है. चूाँकक कववता का प प मुक्तक था, इसशलए घटाना-बढ़ाना आसान था. अतः कबीर के नाम से इनकी वास्तववक रचना पाना कदठन है. कबीर कृत रचनाओं की संख्र्या तनधािरण के शलए ववद्वानों ने प्रार्य: अपना ध्र्यान तीन ग्रंथों-‘बीजक’, ‘आदिग्रंथ’ और ‘कबीर ग्रंथावली’ पर ही आधाररत रखा है. इनकी रचनाओं को ‘साखी’, ‘सबि’, और ‘रमैनी’ – नामक तीन भागों में बााँटा गर्या है. ववशभन्न ग्रंथों में साखी, सबि, रमैनी से सम्बंधधत पिों की संख्र्याएाँ भी अलग –अलग बताई गई है. बाबू वर्यामसुन्िर िास द्वारा सम्पादित ‘कबीर ग्रंथावली’ में 1134 सार्खर्यााँ, 403 पि और 21 रमैतनर्यााँ संगदृहत हैं. कबीर ने ब्रह्म, मार्या, जीव, जीवन-जगत की क्षण-भंगुरता, सत्संग, धाशमिक-सामाश्जक कुरीततर्यों की आलोचना, नीतत-उपिेि सम्बन्धी अनेक ववषर्यों का समावेि अपने पिों में ककर्या है. सामाश्जक ववषमताओं, धाशमिक- ववडम्बनों, बाह्र्याडम्बरों पर प्रहार के साथ साथ मानवीर्य गुणों की प्रततष्ठा पर बल दिर्या है. इस प्रकार, कबीर की सामाश्जक दृश्ष्ट को तनम्नशलर्खत त्रबन्िओंु द्वारा स्पष्ट ककर्या जा सकता है.

    मग र (उ.प्र.) जस्िि कबीरदास की मिार का एक दृश्य चित्र साभार : (भारि डडतशनरी) http://hi.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Kabir-Maghar-Mazaar.jpg

    सामाजिक भेद भाि का विरोध :-

    मुसलमानों के भारत में आगमन से पूवि ही दहन्ि ू समाज में जातत-पााँतत और छुआछूत की भावना एक सामाश्जक कोढ़ की भााँतत व्र्याप्त थी ककन्तु अधधकांि सामाश्जक बुराइर्यााँ इस्लामी संस्कृतत की ही िेन हैं. मुसलमान नारी को ववलास का साधन मानत ेथे. उनके भारत में बसने के बाि रतनवासों का आकार बढ़ने लगा और नाररर्यों का सामाश्जक सम्मान कम होने लगा. उनकी कामुकता ने ही सती-प्रथा को जन्म दिर्या क्र्योंकक भारतीर्य नाररर्यों के सामने ववजेता िररिंो से अपने सत्तीत्व की रक्षा करने के शलए सती प्रथा अथवा जौहर के अलावा िसूरा रास्ता ही नहीं था. परिे की प्रथा, बाल वववाह और र्यहााँ तक कक वैवर्यावशृ्त्त भी मुश्स्लम सैतनकों की कामुकता का ही पररणाम था, जो कभी-कभी िासकों की कदठनाई व धचतंा का ववषर्य भी बन जाती थी. र्यह सही है कक मुसलमानों में भी शिर्या, सुन्नी, पठान, िेख़, सयै्र्यि, पीर, मीर, मुल्ला, कुरैिी, मोशमन-अंसार आदि अनेक वगि थे, श्जनमें अंतरजातीर्य वववाह नहीं होत,े किर भी दहन्िओंु जैसी जातीर्य कट्टरता इनमें नहीं थी

    http://hi.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Kabir-Maghar-Mazaar.jpghttp://hi.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Kabir-Maghar-Mazaar.jpg

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    जीवन पर्यतं शिक्षण ससं्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य

    क्र्योंकक इनमें छुआछूत खाने-पीने, हुक्का-पानी पववत्र अपववत्र आदि का भेि भाव नहीं था. इतना अववर्य था कक सैय्र्यिों को ब्राह्मणों की भााँती मुश्स्लम समाज में उच्च समझा जाता था लेककन दहन्ि-ूसमाज की भांतत जातत-पााँतत का भेि नहीं था.

    दहन्ि ूऔर मुश्स्लम समाज में अत्र्यधधक भेि भाव था. जहााँ ब्राह्मण स्वर्यं को पववत्र एवं शे्रष्ठ मानने में गवि महसूस करत ेथे वही ंमुसलमान भी स्वरं्य को अपने धमि के प्रतत अत्रं्यत कट्टर और िश्क्तिाली समझत ेथे. एक ओर जहााँ दहिं ूमुसलमानों को म्लेच्छ समझत ेथे तो मुसलमान उन्हें काकिर मानत ेथे. िोनों ही अपने धमि की रुदढर्यों और अपनी परम्पराओं का अंधानुसरण करने में एक िसुरे से बढ़ कर थे. िोष ककसी धमि, वगि र्या जातत वविेष का नहीं था, िोष था धाशमिक एवं सामाश्जक ठेकेिारों का जो तनिोष जनता को बहकाकर ववद्वेष और संघषि के रास्त े पर चलने के शलए उद्र्यत करत े थे इसका िषु-्पररणाम र्यह था कक जाततवाि, छुआछूत की मानशसक प्रवशृ्त्त ने पूरे भारतीर्य समाज को एक ऐसे बाप ि के ढेर पर ला खड़ा कर दिर्या था जहााँ ज़रा सी धचगंारी लगत ेही पूरा समाज संघषि की प्रचंड अश्ग्न में जलने लगता था. ऐसे समर्य में कबीर ने धमि और समाज के ठेकेिारों पर तीक्ष्ण प्रहार ककर्या. दहन्िओंु की अपेक्षा मुश्स्लम समाज की आधथिक श्स्थतत अच्छी थी इसशलए तनश्ष्क्रर्यता के साथ साथ मांस-मदिरा सेवन, पर-स्त्री गमन, द्रु्यत-क्रीड़ा, छल-कपट, नतृ्र्य-गार्यन आदि इनके जीवन के प्रधान अंग बन गरे्य, श्जनमें धन पानी की तरह बहार्या जाता था. सामाश्जक कुरीततर्यों से शमलत-ेजुलत े कुछ सामाश्जक संस्कार भी प्रत्रे्यक समाज में व्र्याप्त थे. वास्तव में, हर समाज में संस्कार के नाम से कुछ ऐसी कक्रर्याएं र्या ववधधर्यााँ अपनाने पर ही ककसी व्र्यश्क्त को सम्बंधधत समाज का स्थार्यी सिस्र्य माना जाता था, जैसे- दहन्ि-ूसमाज में गभािधान से लेकर िाह संस्कार तक अनेक संस्कारों का ववधान है. उसी प्रकार मुश्स्लम-समाज में भी अनेक संस्कारों की स्वीकृतत पाई जाती है. इनमें से अधधकांि संस्कार तो सामाश्जक व्र्यवस्था के अंग थे, श्जनसे ककसी भी सम्प्रिार्य को असहमतत नहीं हो सकती थी जैसे- वववाह/तनकाह और िाह संस्कार/िफ़न करना आदि ककन्तु कुछ संस्कार सांप्रिातर्यक वविेषता के द्र्योतक माने जात े थे जैसे ब्राह्मणों का उपनर्यन (जेनूऊ) संस्कार और मुसलमानों का खतना र्या सुन्नत आदि तनवचर्य ही सामाश्जक भेि-भाव के कारण थे. सांप्रिातर्यक भावना के पोषक, संकुधचत दृश्ष्ट वाले इन संस्कारों के कारण दहन्ि-ूमुश्स्लम समाज में अनेक बार संघषि तक हो जात ेथे.

    कबीर ने सामाश्जक भेि-भाव का तीव्र ववरोध ककर्या और दहन्ि-ूमुश्स्लम िोनों धमािवलश्म्बर्यों को खरी- खोटी सुनाई, जहााँ एक ओर दहन्िओंु को िटकारा वहीीँ िसूरी ओर मुसलमानों पर भी करारी चोट की-

    “अरे इन िोउन राह न पाई l

    दहन्ि ूअपनी करे बड़ाई गगरी छूवन न िेई l

    वेवर्या के पार्यन पर लोटत र्यह िेखी दहन्िवुाई l

    मुसलमान के पीर औशलर्या मुगी-मुगाि खाई l

    खाला केरी बेटी ब्र्याहे घर में करे सगाई ll”

    दहन्ि ूमुसलमान िोनों को खरी-खोटी सुनाने के बाि उन्होंने सच्च ेदहन्ि-ूमुसलमान, क़ाज़ी, मुल्ला, िेख़, र्योगी-र्यती, ब्राह्मण-क्षत्रत्रर्य की पहचान भी बताई है-

  • कबीर की सामाजिक देन

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    जीवन पर्यतं शिक्षण ससं्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य

    “सो दहन्ि ूसो मुसलमान, जाका िरुुस रहे ईमान l

    सो मुलना जो मन सू लरौ, एहम तनशस काल चक्र सू शभरें

    काजी सो जो कार्या त्रबचारें ,एहम तनशस ब्रह्म अगातन प्रजारें l”

    सच्चा ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म का ज्ञान प्रिान करे, क्षत्रत्रर्य वह है जो भरं्यकर जीवों से मानव-मात्र की रक्षा के शलए अपना सविस्व बशलिान करे और कामिेव प पी राजा से रु्यद्ध कर उसे परास्त करे. अंत में उन्होंने सभी को समझाने का प्रर्यत्न ककर्या है कक जातत-पातत, ऊाँ च-नीच का भेि-भाव झूठा है. जब जगत तनरं्यता ने सबको समान प प से बनार्या है तो इस प्रकार का सामाश्जक भेि-भाव तनवचर्य ही मानवता के शलए कलंक है.

    धार्मिक भेद-भाि और आडम्बर विरोध:-

    कबीर के समर्य िेि में अनेक धमि प्रचशलत थे, श्जनमें वैदिक (दहन्ि)ू धमि, इस्लाम, बौद्ध और जैन धमि मुख्र्य थे. इनके अततररक्त शसख धमि का भी प्रवतिन हो चुका था ककन्तु िेष धमों की भााँतत उसका ववस्तार नहीं हुआ था. दहन्ि ूधमि में िैव, िाक्त, वैष्णव आदि ववशभन्न सम्प्रिार्य बन गए थे जो कभी-कभी एक िसूरे से शे्रष्ठ बनने की होड़ में संघषिरत रहत े थे. इनमें कबीर को िाक्तों के जीव हत्र्या और िैवों के औघड़-शसद्ध-नाथपंथी आडम्बरों की तुलना में वैष्णव सम्प्रिार्य अपेक्षाकृत अच्छा लगा क्र्योंकक इस संप्रिार्य का मानवतावािी पक्ष उन्हें अधधक प्रभाववत करता था. इसी प्रकार इस्लामी कट्टरता का ववरोध कर मानवतावािी दृश्ष्टकोण अपनाने वाले सूिी-सम्प्रिार्य का कबीर पर अत्रं्यत गहरा प्रभाव पड़ा क्र्योंकक सूिी संप्रिार्य का मानव मात्र से पे्रम करना ककसी को भी अपनी ओर सहज ही आकवषित कर सकता था. उस समर्य दहन्ि ूऔर इस्लाम, िोनों धमों का आपसी ववरोध चरम पर था. धमि के नाम पर िोनों में संघषि चल रहा था. वास्तव में, उस समर्य धमि ही समाज का प्राण था, जो ववशभन्न जाततर्यों के रीतत-ररवाजों में ववववध पाखंडों के साथ व्र्याप्त था. ववशभन्न धमों के मलू शसद्धांतों पर ध्र्यान दिए त्रबना अपने धमि को िसूरे से शे्रष्ठ बताने में संघषि तक हो जार्या करत े थे. धमि के ठेकेिारों ने अपने स्वाथि की पूतति हेतु सहज मानवीर्य धमि पर ध्र्यान न िेकर सापं्रिातर्यकता की धचगंारी को हवा िेने का काम ककर्या. चूाँकक सभी धमों की मान्र्यताएं एक िसूरे से शभन्न थीं, श्जससे जन-जीवन में एक-िसूरे से अलगाव बना हुआ था. सबको अपना धमि और कमिकांड ही वप्रर्य था.

    कबीर ने दहन्ि ूऔर इस्लाम, िोनों धमों की प दढर्यों पर समान प प से कुठाराघात ककर्या, उन्हें जहााँ भी िोष दिखाई पड़ा वहां उसे िटकार लगाईं और जहााँ कुछ अच्छाई दिखाई पड़ी उसकी सराहना की.

    उस समर्य अधधकांि जनता अनपढ़ और सहज ववववासी थी. िेवी-िेवताओं की पूजा के साथ-साथ कुलिेवता, ग्राम-िेवता और अनेक प्रकार के अंधववववास’ उनके मन में बैठ चुके थे. अंध-श्रद्धा तथा धमािन्धता के गठबंधन के कारण जनता की धाशमिक-भावना कंुदठत हो चुकी थी. पंड़डत, मौलवी, साधु-संत, शसद्ध और ववशभन्न आडम्बर धाररर्यों ने भोली भाली सहज ववववासी जनता की अंध-श्रद्धा का लाभ उठाकर अपने जीवन की सुख सुववधा का ववधान करके उन्हें खूब लूटा. लोग पूजा-पाठ और उपासना के नाम पर मांस भक्षण और सुरापान करत ेथे. ऐसे समाज को कबीर ने आडम्बरधाररर्यों से मुश्क्त दिलाने के शलए उस समर्य िैले वाह्र्याडम्बरों की कटु आलोचना की. उन्होंने कहा कक न तो विे-िास्त्रों अथाित ्धाशमिक पुस्तकों के चक्कर में पड़ना चादहए न धमि-सम्प्रिार्य के बन्धनों में. र्यदि कोई व्र्यश्क्त चारों वेिों का ज्ञाता भी हो जाए ककन्तु उसके मन में ईववर के प्रतत पे्रम नहीं है

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    तो उसका सारा ज्ञान बेकार है. इसी प्रकार धाशमिक सम्प्रिार्य भी व्र्यश्क्त को पथ-भ्रष्ट करत े हैं, जो बाह्र्य आडबंरों में लगे रहते हैं. वे पानी छानकर पीत ेहैं ककन्तु अपने ववकार-ग्रस्त मन को िुद्ध नहीं करत.े इसी प्रकार तीथो के गंिे जल में स्नान करने से ककसी प्रकार की मुश्क्त तब तक संभव नहीं है, जब तक मन में राम का वास नहीं है. संसार में लोग प्रार्य: धमि के नाम पर अधमि और आडम्बर रचत े हैं, जैसे एक ओर तो लोग आराध्र्य की पूजा करत ेहैं और िसूरी ओर मांस मदिरा का सेवन करत ेहैं. िाक्त तनरीह जीवों को बशल-वेिी पर चढ़ात ेहैं और किर प्रसाि के प प में ग्रहण करके अपनी श्जह्वा की तशृ्प्त करत ेहैं.

    “पापी पूजा बैशसकर, भषें मांस मि िोइ l

    ततनका ििर्या मुकती नही,ं कोदट नरक िल होइ ll”

    ऐसे पावपर्यों की मुश्क्त संभव नहीं बश्ल्क इस प्रकार के ढोंग और असत्र्य आचरण मनुष्र्य को पतन की ओर ले जात ेहैं.

    मुसलमान लोग धमि की बहुत िहुाई िेत ेहैं उसी के शलए अनेक प्रकार के कमि करत ेहै. काजी ढोंग करके दिन में पााँच बार नमाज़ पढ़ता है ककन्तु अपनी जीभ के स्वाि के शलए अनेक तनिोष जीवों की हत्र्या भी करता है. एक ओर ख़ुिा की बन्िगी और िसूरी ओर जीव-हत्र्या. र्यह असत्र्य आचरण का ढोंग नहीं तो और क्र्या है? –

    “ र्यह तो खून वह बन्िगी, कैसे ख़ुिी खुिार्य l”

    वास्तव में काजी और मुल्ला िोनों ही भ्रम में हैं. वे प्रसन्न होकर एक तरि जीव-हत्र्या करत े है और िसूरी तरि खुिा के सामने अपने कुकमो का दहसाब िेत ेसमर्य गििन झुकाकर धगड़धगड़ात ेहै. र्यही नहीं, उस गार्य की हत्र्या करने में भी इनकी रुह नहीं कांपती, श्जसके मीठे िधू को िौड़कर पीत ेहैं-

    ‘जाको िधू धाइ करर पीजें,

    ता माता कौ वध क्रू्याँ कीज?े’

    कबीर ने दहन्िओंु की मूतति-पूजा और मुसलमानों की मश्स्जि में नमाज़ अिा करने की प्रवशृ्त्त की भी कटु आलोचना की है. इसी प्रकार ईववर के तनवास सम्बन्धी मान्र्यताओं का खंडन करत ेहुए उन्होंने स्पष्ट ककर्या है कक उसे वैकुण्ठ, कािी, मक्का, काबा आदि स्थानों पर ढूाँढ़ना व्र्यथि है बश्ल्क सरल हृिर्य में तनष्कपट मन से कभी भी िेख सकत ेहैं-

    “जरू्याँ नैनू मैं पूतली, त्रंू्य खाशलक घट मादह ंl

    मूररख लोग न जानदह, बाहरर ढूाँढ़न जााँदह ंll”

    र्यह सत्र्य है कक धमि के समुधचत पररपालन के शलए ककन्हीं आचारों और ववधध-ववधानों की आववर्यकता होती है, परन्तु इसमें केवल साश्त्वक आचारों को ही महत्त्व िेना चादहए, तामशसक और रजोगुणी को नहीं. मध्र्यकाल में जनता शमथ्र्याचारों को ही धमि मानने लगी थी. लोग धमि के वास्तववक स्वप प को भूलकर बह्र्याडम्बरों में ही लगे हुए थे. रे्य बह्र्याडम्बर ही समाज में संकीणिता, असहनिीलता और लड़ाई-झगड़ ेके कारण बन रहे थे. दहन्ि ू

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    धमि के अंतगित व्र्याप्त बाह्र्याचारों में माला, ततलक, छापा, जटा, जेनूऊ, बाघम्बर, शसर-मुंडन करवाना, व्रत-नेम-उपवास, श्राद्ध एव ं वैकुण्ठ के प्रतत आस्था रखना मुख्र्य थे. इसी प्रकार मुसलमानों में “हज” को सामाश्जक प्रततष्ठा का द्र्योतक माना जाता था. दहन्ि-ूमुश्स्लम समाज के बाह्र्याचारों पर करारी चोट करत े हुए कबीर ने कहा है—

    ‘िेव पूश्ज दहन्ि ूमूरे्य, तुरक मूरे्य हज जाई l

    जटा बााँधी बांधी र्योगी मूरे्य, इनमें ककनहंू न पाई ll’

    कबीर समाज में व्र्याप्त धाशमिक बाह्र्य आडम्बरों, प दढर्यों और अंधववववासों को समाप्त कर जनता को सरल एवं सािा जीवन जीने की राह दिखाने की कोशिि करत ेरहे. अपने सटीक तकों से तत्कालीन धाशमिक ठेकेिारों को तनरुत्तर कर दिर्या था. उन्होंने जनता के दिल-दिमाग में र्यह बात बैठने का भरसक प्रर्यास ककर्या कक ईववर को ढूाँढ़ने के शलए लोग अनेक प्रकार के पाखण्ड वप्रर्य कार्यि करत ेहैं अथवा समाज में दिखावा करत ेहैं, वह ईववर उन्हें अपने मन में ही शमलेगा. इसशलए ईववर को पाने के शलए कहीं भटकने अथवा पाखण्ड पूणि कार्यि करने की आववर्यकता नहीं है.

    नारी के प्रति दृजटटकोण:- समाज में नारी की श्स्थतत के बारे में प्रार्य: र्यह आििि कथन सुनने को शमलता है-

    “नारी की भारी है जग में कहानी, अगर नारी चाहे तो िैला िे जवाला l

    वही नारी है लक्ष्मी िगुाि भवानी,वही नारी है श्जसने जगत को पाला ll”

    अथाित इस सशृ्ष्ट की रचना में नारी का बहुमूल्र्य र्योगिान स्वीकार ककर्या जाता है. वास्तव में, नारी समाज का एक अववभाजर्य अंग है. इसशलए प्रत्रे्यक सामाश्जक व्र्यवस्था में उसका एक तनश्वचत स्थान होता है. मध्काल में दहन्ि ूऔर मुश्स्लम िोनों समाजों में नाररर्यां अपने पततर्यों अथवा सम्बंधधत अन्र्य पुरुषों-वपता, भाई- पुत्र आदि पर आधश्रत थी. पुरुष चाहे ककतने की कामी और लम्पट क्र्यों न हों ककन्तु स्त्री से चाररत्रत्रक पववत्रता की अपेक्षा िोनों समाजों में की जाती थी. धनी-वगि और राज-घरानों को छोड़ कर नारी शिक्षा की कोई वविेष व्र्यवस्था उस रु्यग में नहीं थी. सती-प्रथा, बहु-पत्नी प्रथा, पिाि-प्रथा, िहेज़-प्रथा, बाल-वववाह, कुछ पररवारों एवं जाततर्यों में लड़ककर्यों की बाल-हत्र्या का प्रचलन, िासक-वगि द्वारा नारी-अपहरण, कौमार्यािवस्था में ही ककसी की वासना का शिकार हो जाना, वेवर्यावशृ्त्त का प्रचलन, मीना बाज़ारों में उनका क्रर्य-ववक्रर्य आदि तत्कालीन नारी-जीवन की प्रमुख ववकृततर्यां थी. राजा- प्रजा के नैततक पतन के उस रु्यग में श्स्त्रर्यों की श्स्थतत अत्रं्यत िोचनीर्य थी. नारी का भोग्र्या प प ही पुरुषों की कामुक दृश्ष्ट में अधधक था. अतः कबीर के समर्य में नारी अपेक्षाकृत हीनतर अवस्था में थी.

    उस समर्य सामाश्जक श्स्थततर्यााँ ऐसी नहीं थीं कक नारी के स्वतंत्र अश्स्तत्व की कल्पना की जाती, किर भी पाररवाररक ढााँच ेमें उसके ऊाँ च ेमानवीर्य स्थान की पररकल्पना सभी ने की. कबीर के सामने माता,पत्नी और पुत्री तीनों प पों में नारी उपश्स्थत थी, किर भी उन्होंने जो नारी ववषर्यक तनन्िा की है, उसका कारण नारी का व्र्यशभचाररणी प प ही प्रतीत होता है-

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    ‘नारी की झाई परत अंधा होत भुजंग l कबीर ततनकी क्र्या गतत, जो तनत नारी संग ll”

    इतना ही नहीं-

    ‘पर नारी पर सुंिरी, त्रबरला बचैं कोइ l खाता मीठी खांड सी, अंत काल ववष होइll’

    कबीर ने स्वीकार ककर्या है कक सांसाररक मार्या-जाल में िाँ सकर उन्होंने भी नारी का साथ ककर्या अथाित वववाह ककर्या-

    ‘नारी तो हमहू करी, पार्या नहीं ववचार l

    जब जानी तब पररहरी, नारी बड़ा ववकार ll’

    तत्कालीन समाज की सोच के अनुप प ही कबीर को भी नारी का पततव्रता प प ही मान्र्य था और उसके इस प प पर वे अपना सविस्व न्र्यौछावर करने के शलए तैर्यार थे-

    ‘पततव्रता के प प पर वाप ाँ कोदट सप प l’

    दगुुिणों का त्याग :-

    मानव को उच्च बनाने से पूवि उसके िगुुिणों को नष्ट करना आववर्यक होता है क्र्योंकक अवगुणों के त्र्याग के पवचात ्मानव-हृिर्य तनमिल हो जाता है और सद्गुणों को ग्रहण करने में समथि हो सकता है. कबीर ने समाज के प्रत्रे्यक व्र्यश्क्त को व्र्यश्क्तगत ववकारों का त्र्याग करने का उपिेि दिर्या है, उनमे से मुख्र्य तनम्नशलर्खत हैं-

    काम- सामाश्जक दृश्ष्ट से काम अत्रं्यत हेर्य माना जाता है क्र्योंकक जब व्र्यश्क्त काम-वासना में अंधा हो जाता है तो उसे अपने परारे्य की सुधध भी नहीं रहती. कामी व्र्यश्क्त पर भरोसा नहीं ककर्या जा सकता है क्र्योंकक ऐसा व्र्यश्क्त कहीं भी, ककसी समर्य अपने रास्त ेसे किसल जाता है. आजकल बलात्कार की घरृ्णत घटनाएं इसका जवलंत उिाहरण हैं. एक ही कामी व्र्यश्क्त का पतन अन्र्य अनेक व्र्यश्क्तर्यों की मानशसक अिांतत का कारण बनता है. कबीर ने अपने रु्यग में चाररत्रत्रक पतन को िेखा और उनकी आत्मा रोष से भर उठी. उन्होंने ववचार व्र्यक्त ककर्या कक ‘स्व नारी’ र्या ‘पर नारी’ ककसी में भी अतत आसश्क्त धगरावट की सूचक है, इसशलए काम, कामी-नर और कामी-स्त्री सभी घरृ्णत एवं हेर्य हैं.

    श्जस प्रकार कीड़ा लकड़ी को खोखला कर िेता है और जंग लोहे को नष्ट कर िेता है, उसी प्रकार काम मुनष्र्य को अन्िर ही अन्िर खोखला करके समाप्त कर िेता है क्र्योकक रे्य तन और मन िोनों को व्र्यधथत कर िेता है, धचत्त को डावांडोल कर िेता है और धमि-िमि िोनों की ततनक परवाह नहीं करता.काम की कुश्त्सत भावना मनुष्र्य को समाज के शलए अतनष्टकारक अववर्य है ककन्तु र्यदि उसकी प्रवशृ्त्त पररवततित कर िी जाए तो वह समाज के शलए लाभप्रि भी हो सकता है क्र्योंकक जब तक कामवशृ्त्त बहुमुिखी रहती है तन तक वह व्र्यश्क्त भश्क्त एवं सामाश्जक िांतत में बाधक रहता है, जब उसे अंतमुिखी कर िें तो वही साधक तत्त्व बन जाता है. काम में अिमनीर्य िश्क्त होती है, जो इसे अपने तनरं्यत्रण में क्र लेता है, वह ककसी भी प्रकार की साधना में सिल हो सकता है, र्यहााँ तक कक प्रभु की प्राश्प्त भी हो सकती है.

    क्रोध :-

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    क्रोध एक ऐसा अवगुण है, जो संसार में कभी भी सखु-िांतत नहीं रहने िेता. क्रोधी व्र्यश्क्त भले-बुरे का ज्ञान खो बैठता है, उसकी सोचने-समझने की िश्क्त नष्ट हो जाती है. जहााँ क्रोध सबंधधत व्र्यश्क्त के शलए िखुिार्यी होता है, वहीीँ आस-पास के लोगों के शलए भी अतनष्टकार होता है. वे लोग भी क्रोधी व्र्यश्क्त के प्रतत दहन ्धारणा बना लेत ेहै. क्रोधी व्र्यश्क्त िःुख, द्वेष, भर्य, ततरस्कार, घमंड, अवववेक, उतावलापन आदि अनेक बुराइर्यों के भण्डार बन जाता है. क्रोधी स्वभाव के साथ-साथ र्यदि ईववर ने प्रभुता भी प्रिान की हो तो क्रोध और अहंकार का शमधश्रत प प अत्रं्यत उग्र और भर्यावह बन जाता है. क्रोधी व्र्यश्क्त दहसंक और तनििर्यी होता है. जहााँ वह अन्र्य लोगों को हातन पहुाँचाता है, वहां अपना भी अदहत भी करता है. क्रोध के विीभूत होकर मनुष्र्य िसूरों को अपिब्ि कहता है और कभी कभी प्रहार कर िेता है, उसके पररणामस्वप प स्वर्यं भी अनेक प्रकार के िंड भोगता है, श्जससे धन-जन और मान-सम्मान की हातन होती है. कबीर ने समाज में क्रोध और बैर भाव के कारण लोगों को िखुी िेखकर उन्हें इनसे िरू रहने का उपिेि दिर्या है और समझाने का भरपूर प्रर्यास ककर्या है कक ककस प्रकार एक क्रोधी व्र्यश्क्त धन संपश्त्त रहत ेहुए भी ईष्र्याि की अश्ग्न में जलता रहता तथा जीवन में माभी सुख िांतत प्राप्त नहीं कर पाता. इसशलए लोगों को चादहए कक काम-क्रोध को छोड़कर भगवान ्की भश्क्त में लीन हों श्जससे उनमें सहनिीलता और संवेिनिीलता होगी, समाज में भाईचारा बढेगा तथा सभी लोग सुख-िांतत से रह सकें गे.

    लोभ :-

    सारे पापों की जड़ लोभ है क्र्योंकक र्यह मानव-जीवन में ऐसा ववष घोल िेता है उसकी आिाएं, एवं आकाक्षाएं अनंत हो जाती है. र्यह व्र्यश्क्त की संतोष भावना का ववनाि कर िेता है और र्यहााँ तक कक अपार धन संपश्त्त रहने पर भी उसे अभाव ही दिखार्यी िेता है. व्र्यश्क्त को जीवन पर्यतं िांत नहीं रहने िेता और उसका मन अनेक ववषर्यों में आसक्त रहता है. आधुतनक रु्यग में हर क्षते्र में व्र्याप्त भ्रष्टाचार का प्रमुख कारण लोभ ही है. कबीर ने इसकी तुलना एक व्र्यशभचाररणी स्त्री से करत ेहुए कहा है कक तषृ्णा मन के ववववध ववषर्यों में भटकती रहती है. र्यह मनुष्र्य के पीछे पड़कर उसे अपनी ओर आकवषित कर लेती है जो इसके संसगि में आ जाता है, उसे अनेक पापों का भागी बनना पड़ता है. इसे आसानी से नष्ट नहीं ककर्या जा सकता है क्र्योंकक संसार का समस्त वैभव समाप्त हो जाने के बाि भी तषृ्णा जीववत ही रहती है-

    “मार्या मुई न मन मुवा, मरर मरर गर्या िरीर l

    आिा तृष्णा ना मुई, र्यों कदह गर्या कबीर ll”

    लोभी व्र्यश्क्त सामाश्जक दृश्ष्ट से ववषमता का सूत्रपात भी करत े हैं. उनकी धन-संग्रह की भावना समाज में आधथिक असंतुलन का कारण बनती है. आधुतनक रु्यग में सुरसा के मुख-सा तनरंतर बढ़ता भ्रष्टाचार लोभ का ही पररणाम है. ऐसे व्र्यश्क्त लालच से एकत्रत्रत धन पर सपि की तरह कंुडली मारकर बैठे रहत ेहै. वे न स्वर्यं उस धन का उपर्योग करत ेन जप रत मंि िसूरे लोगों को करने िेत.े कबीर के अनुसार लोभ से छुटकारा प्राप्त करने का मात्र एक ही उपार्य है- प्रभु-भश्क्त में लीन होना क्र्योंकक जब व्र्यश्क्त प्रभु-भश्क्त में लीन होगा तो उसे धन संपश्त्त की असारता का ज्ञान होगा और वह अनाववर्यक प प से धन-संपश्त्त के लोभ में नहीं पड़गेा. वह उिारतापूविक अपने धन का सिपुर्योग करेगा, परोपकार के कार्यों में खचि करेगा, श्जससे उसे आंतररक सुख िाश्न्त प्राप्त होगी.

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    चूाँकक लोभ की वशृ्त्त अनेक सामाश्जक बुराइर्यों को जन्म िेती है क्र्योंकक क्रोद्ध,दहसंा, झूठ, चोरी आदि इसके सहचर होत ेहैं, जो किम किम पर मानशसक ववक्षोभ और सामाश्जक अिांतत का कारण बनत ेहैं. जबकक मनुष्र्य का मन लोभ से रदहत हो जाने पर उसका तनजी जीवन उन्नत होता है, समाज में पववत्रता, संगठन, िांतत आदि का सूत्रपात होता है. इसशलए लोभ पर तनरं्यत्रण रखना स्वर्यं मानव के अपने और समाज के शलए दहतकारी होता है. अतः जीवन में सुख-िांतत और आनंिमर्य जीवनर्यापन के शलए अनाववर्यक लोभ से बचना ही उधचत है.

    मो :- सामान्र्य प प से ‘मोह’ का अथि- ‘अज्ञान, अववद्र्या, भ्रांतत अथवा िःुख’ शलर्या जाता है. मोह एक मानशसक व्र्याधध है, श्जसके कारण व्र्यश्क्त आसश्क्त के चक्र में िाँ स जाता है. उसकी आाँखे िसूरी ओर से बंि हो जाती हैं, र्यह मनुष्र्य की बुवद्ध भ्रष्ट कर िेता है. र्यह समस्त सद्वशृ्त्तर्यों का ववनािक और तनम्न वशृ्त्तर्यों का उत्पािक होता है. मोह की अधधकता के कारण व्र्यश्क्त बहुत सी वस्तुओं को त्र्यागने में संकोच करता है, इससे समाज में अनेक प्रकार की उलझने उत्पन्न हो जाती हैं. अपने सगे-संबंधधर्यों के मोह जाल में िाँ सकर व्र्यश्क्त अपने आप को एक संकीणि घेरे में बंि कर लेता है और उसका ह्रिर्य व मश्स्तष्क उिारता की भावना का त्र्याग करने लगता हैं. कबीर ने मोह को एक ओर तो भश्क्त में बहुत बड़ी बाधा समझा और िसूरी ओर समाज के ववकास को अवरुद्ध करने का प्रमुख कारण माना. तभी तो उन्होंने लोगों को मोह-त्र्याग का उपिेि िेत ेहुए कहा है कक जब तक मानव अपनी मोह प पी संकीणिता का पररत्र्याग नहीं करता, स्व-तनशमित क्षुद्र संकीणिताओं का अततक्रमण नहीं करता, तब तक मानव-हृिर्य परस्पर तनकट नहीं आ सकते. जब मानव के मन-मश्स्तष्क पर मोह अधधकतम जम जाता है तब वह बुवद्ध वववेक-िून्र्य होकर अज्ञान के अन्धकार-पथ पर चल पड़ता है. एक मोह के कारण वह न जाने ककतने व्र्यश्क्तर्यों से तनमोही का-सा व्र्यवहार करने लगता है.

    मोह का त्र्याग सरल कार्यि नहीं है. कबीर तथा अन्र्य संतो ने मोह के अन्धकार से बाहर तनकलने का सरल उपार्य बतार्या है- गुरु-ज्ञान, साधु-संगतत और प्रभु का नाम-स्मरण. मोह-ग्रस्त व्र्यश्क्त भगवान के नाम स्मरण में मन नहीं लगा सकता क्र्योंकक उसे घर और पररवार वालों का मोह हर समर्य व्र्याकुल ककरे्य रहता है. जब भगवान का नाम मन में आ जाए तो मार्या-मोह के बंधन अनार्यास ही छूटने लगत ेहैं, मानव-मन एक तनराली जर्योतत से जगमगा उठेगा और व्र्यश्क्त संकीणिता के स्थान पर उिारता का दृश्ष्टकोण अपनाने लगेगा. समाज बे बाहरी बंधन स्वर्यंमेव ढीले हो जार्येंगे और तब तक एक स्वस्थ और आििि समाज का तनमािण हो सकेगा.

    अ िंकार :- कहा जाता है- “घमंडी का शसर नीचा”- अथाित अहंकार पतन का कारण होता है. अशभमानी व्र्यश्क्त समाज के िसूरे व्र्यश्क्तर्यों के पास नहीं जाता. वह अपना एक अलग संसार बनाए रहता है. वह स्वरं्य को िसूरों से अधधक ऊंचा, अधधक सुरक्षक्षत, अधधक धनवान और अधधक प्रततश्ष्ठत समझता है. श्जससे उसे िसूरों के प्रतत सहानुभूतत नहीं रहती, पररणामस्वरप प वह िसूरों की सहानुभूतत एवं पे्रम खो बैठता है क्र्योंकक ऐसे व्र्यश्क्त से कोई मेल नहीं रखना चाहता है. इससे समाज में ववषमता और ववघटन का बीजारोपण हो जाता है. अहंकार का स्वरुप अत्रं्यत व्र्यापक है. श्जस प्रकार मनुष्र्य की वासनाएं अनंत हैं, उसी प्रकार अहंकार के प प भी असंख्र्य है- प प-र्यौवन, धन-संपश्त्त, पररवार, जातत, पि-प्रततष्ठा, धमि, ज्ञान, ववद्र्या, िश्क्त आदि. चाहे जैसा भी अहंकार हो, उसका प्रत्रे्यक प प समाज के शलए अदहतकर एवं तनिंनीर्य ही कहा जाएगा. प प-र्यौवन, धन अस्थाई वस्तुएं है. इन पर इतराना अज्ञान ही कहा जाएगा. पाररवाररक सम्बन्ध स्वाथिमर्य होत ेहैं, काल के एक ही झोंके से सभी सम्बन्ध टूटकर त्रबखर जात ेहैं. जातत अन्र्य अहंकार मूखिता का लक्षण है क्र्योंकक संसार का प्रत्रे्यक मानव उस एक ही परमवपता की संतान है. उन्होंने सभी को एक समान प प से जन्म दिर्या है. ऊाँ च-नीच बाँटवारा तो मनुष्र्य

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    जीवन पर्यतं शिक्षण ससं्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य

    ने अपने स्वाथि और अहंकार के कारण ककर्या है, जो अनैततक एवं हेर्य है. धमि का अशभमान व्र्यश्क्त को िसूरे धमािवलश्म्बर्यों से अलग कर िेता है, श्जससे परस्पर वमैनस्र्य एवं द्वेष बढ़ता है और समाज में ववषमता बढ़ने लगती है. आध्र्याश्त्मक ज्ञान एवं ववद्र्या-जन्र्य गवि से व्र्यश्क्त अपने आप में सीशमत हो जाता है. र्यदि वास्तव में, ककसी का ज्ञान सवोपरर है, तो उसका लाभ समाज के अन्र्य व्र्यश्क्तर्यों तक भी पहुाँचाना चादहए परन्तु अशभमानी व्र्यश्क्त तो सीधे मुंह बात ही नहीं करना चाहता, इससे उसका ज्ञान भी धीरे धीरे ववलुप्त हो जाता है और िसूरे व्र्यश्क्त भी उस ज्ञान के सिपुर्योग से वंधचत रह जात ेहै. कमिकांड और वेि आदि का अहंकार व्र्यश्क्त को पाखण्ड और आडम्बरों के जाल में िंसा िेत ेहैं. श्जससे सत्र्यता और वास्तववकता उससे िरू चली जाती है और वह उलझनों में िाँ सकर अपनी मानशसक िांतत भी खो िेता है. चूाँकक अशभमानी व्र्यश्क्त का हृिर्य एक वविेष प्रकार की आग से जलता रहता है. इसकी भोहों पर पड़ ेबल उसके मश्स्तष्क को ववकृत, स्वास्थ्र्य को नष्ट, मन को अपववत्र और स्वभाव को उग्र बना िेत ेहैं. वाणी में कठोरता आ जाती है, व्र्यवहार में कटुता आने लगती है और क्रोध आदि के कारण सामाश्जक िांतत अिांतत में पररवततित होने लगती है.

    कबीर ने अहंकार को सभी बुराइर्यों की जड़ माना है और अहंकार िमन पर अत्र्यधधक बल िेत ेहुए कहा है- ‘इस क्षर्णक जीवन पर गवि करना व्र्यथि है क्र्योंकक काल ने हर-एक को पकड़ रखा है, र्यह भी ज्ञात नहीं है कक मतृ्रु्य कब, कैसे, और कहााँ हो जाए. अपने धन, र्यौवन, सौन्िर्यि, ज्ञान आदि पर गवि करने वाले संसार में दटक नही ंसके. र्यहााँ तक कक पंड़डत अपने ववद्र्या के शमथ्र्याहंकार में डूबे थे और उनके अततररक्त र्योगी-र्यती, संन्र्यासी, तपस्वी भी कुछ कम न थे. इस प्रकार अहंकार बहुत ‘बड़ी बला’ है –

    “कबीर मैं मैं बड़ी बलाइ है, सकौ तौ तनकसो भाश्ज l

    कब लग राखौं हे सखी, रुई लपेटी आधग ll”

    अथाित अहंकारी का सविनाि तनश्वचत है, ठीक उसी प्रकार जैसे रुई में शलपटी हुई अश्ग्न प्रजजवशलत होकर प ई को नष्ट कर िेती है. इसशलए अहंकार से िरू रहना ही लाभिार्यक है.उन्होंने उिाहरण दिर्या है कक संसार में श्जसने गवि ककर्या, वह रह न सका- लंकाधधपतत रावण, इन्द्र के समान करोड़ो लोग, पांडवों जैसी िश्क्तिाली जोड़ी- सभी इस संसार से चले गए, श्जन्हें अपने अपने बल पर अशभमान था. र्यही नहीं बश्ल्क समर्य-समर्य पर होने वाले िश्क्तिाली राजा-महाराजा भी ककसी का कहना नहीं माने और अपने घमंड से चूर होकर सविनाि को प्राप्त हुए. सारांि र्यह है कक अहंकार सब प्रकार से अदहतकर है, इसशलए त्र्याजर्य है. वास्तववक बड़प्पन इसी में है कक मानव ववनर्यिील हो ककन्तु अशभमान त्र्यागकर ववनम्र बनना सरल कार्यि नहीं है. राम के नाम-स्मरण से ही अहंकार से मुश्क्त प्राप्त हो सकती है, इसशलए मानव-जीवन में समस्त ववकारों से छुटकारा प्राप्त करने के शलए प्रभु भश्क्त में लीन रहना ही अमोघ औषधध है.

    स्िािि :- संकीणि स्वाथि एवं अहम ्ही सारे उत्पात और उन्माि की जड़ है. स्वाथि-वशृ्त्त सबको सांसाररक मार्या-मोह के जंजाल में डालती है. त्रबना स्वाथ�