ramcharit bal.6

Post on 07-Nov-2014

154 Views

Category:

Documents

0 Downloads

Preview:

Click to see full reader

DESCRIPTION

MANAS GANGA

TRANSCRIPT

चौ०-भूप सहस दस एकहह बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥

डगइ न संभु सरासन कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें॥१॥

सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें हबनु हबराग संन्यासी॥

कीरहत हबजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥२॥

श्रीहत भए हारर हहयँ राजा। बैठे हनज हनज जाइ समाजा॥

नृपन्ह हबलोकक जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥३॥

दीप दीप के भूपहत नाना। आए सुहन हम जो पनु ठाना॥

दवे दनुज धरर मनुज सरीरा। हबपुल बीर आए रनधीरा॥४॥

दो०-कुअँरर मनोहर हबजय बह़ि कीरहत अहत कमनीय।

पावहनहार हबरंहच जनु रचेउ न धनु दमनीय॥२५१॥

चौ०-कहहु काहह यहु लाभु न भावा। काहु ँन संकर चाप चढावा॥

रहउ चढाउब तोरब भाई। हतलु भरर भूहम न सके छ़िाई॥१॥

अब जहन कोउ माखै भट मानी। बीर हबहीन मही मैं जानी॥

तजहु आस हनज हनज गृह जाहू। हलखा न हबहध बैदहेह हबबाहू॥२॥

सुकृत जाइ जौं पनु पररहरऊँ। कुअँरर कुआरर रहउ का करऊँ॥

जौं जनतेउँ हबनु भट भुहब भाई। तौ पनु करर होतेउँ न हसँाई॥३॥

जनक बचन सुहन सब नर नारी। दहेख जानककहह भए दखुारी॥

माखे लखनु कुरटल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन ररसौंहें॥४॥

दो०-कहह न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान।

नाइ राम पद कमल हसरु बोले हगरा प्रमान॥२५२॥

चौ०-रघुबंहसन्ह महु ँजह ँकोउ होई। तेहह समाज अस कहइ न कोई॥

कही जनक जहस अनुहचत बानी। हबद्यमान रघुकुल महन जानी॥१॥

सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अहभमानू॥

जौं तुम्हारर अनुसासन पावौं। कंदकु इव ब्रह्ांड उठावौं॥२॥

काचे घट हजहम डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक हजहम तोरी॥

तव प्रताप महहमा भगवाना। को बापुरो हपनाक पुराना॥३॥

नाथ जाहन अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं हबलोककअ सोऊ॥

कमल नाल हजहम चाप चढावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं॥४॥

दो०-तोरौं छत्रक दडं हजहम तव प्रताप बल नाथ।

जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ॥२५३॥

चौ०-लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगाहन महह कदग्गज डोले॥

सकल लोक सब भूप डेराने। हसय हहयँ हरषु जनकु सकुचाने॥१॥

गुर रघुपहत सब मुहन मन माहीं। मुकदत भए पुहन पुहन पुलकाहीं॥

सयनहह रघुपहत लखनु नेवारे। प्रेम समेत हनकट बैठारे॥२॥

हबस्वाहमत्र समय सुभ जानी। बोले अहत सनेहमय बानी॥

उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक पररतापा॥३॥

सुहन गुरु बचन चरन हसरु नावा। हरषु हबषाद ुन कछु उर आवा॥

ठाढे भए उरठ सहज सुभाएँ। ठवहन जुबा मृगराजु लजाएँ॥४॥

दो०-उकदत उदयहगरर मंच पर रघुबर बालपतंग।

हबकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग॥२५४॥

चौ०-नृपन्ह केरर आसा हनहस नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी॥

मानी महहप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥१॥

भए हबसोक कोक मुहन दवेा। बररसहह सुमन जनावहह सेवा॥

गुर पद बंकद सहहत अनुरागा। राम मुहनन्ह सन आयसु मागा॥२॥

सहजहह चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कंुजर गामी॥

चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरर तन भए सुखारी॥३॥

बंकद हपतर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे॥

तौ हसवधनु मृनाल की नाईं। तोरहु ँराम गनेस गोसाईं॥४॥

दो०-रामहह प्रेम समेत लहख सहखन्ह समीप बोलाइ।

सीता मातु सनेह बस बचन कहइ हबलखाइ॥२५५॥

चौ०-सहख सब कौतुक दखेहनहारे। जेउ कहावत हहतू हमारे॥

कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक अहस हठ भहल नाहीं॥१॥

रावन बान छुआ नहह चापा। हारे सकल भूप करर दापा॥

सो धनु राजकुअँर कर दहेीं। बाल मराल कक मंदर लेहीं॥२॥

भूप सयानप सकल हसरानी। सहख हबहध गहत कछु जाहत न जानी॥

बोली चतुर सखी मृद ुबानी। तेजवंत लघु गहनअ न रानी॥३॥

कह ँकंुभज कह ँहसधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥

रहब मंडल दखेत लघु लागा। उदयँ तासु हतभुवन तम भागा॥४॥

दो०-मंत्र परम लघु जासु बस हबहध हरर हर सुर सबब।

महामत्त गजराज कहु ँबस कर अंकुस खबब॥२५६॥

चौ०-काम कुसुम धनु सायक लीन्ह।े सकल भुवन अपने बस कीन्ह॥े

दहेब तहजअ संसउ अस जानी। भंजब धनुष राम सुनु रानी॥१॥

सखी बचन सुहन भै परतीती। हमटा हबषाद ुबढी अहत प्रीती॥

तब रामहह हबलोकक बैदहेी। सभय हृदयँ हबनवहत जेहह तेही॥२॥

मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महसे भवानी॥

करहु सफल आपहन सेवकाई। करर हहतु हरहु चाप गरुआई॥३॥

गननायक बरदायक दवेा। आजु लगें कीहन्हउँ तुअ सेवा॥

बार बार हबनती सुहन मोरी। करहु चाप गुरुता अहत थोरी॥४॥

दो०-दहेख दहेख रघुबीर तन सुर मनाव धरर धीर॥

भरे हबलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर॥२५७॥

चौ०-नीकें हनरहख नयन भरर सोभा। हपतु पनु सुहमरर बहुरर मनु छोभा॥

अहह तात दारुहन हठ ठानी। समुझत नहह कछु लाभु न हानी॥१॥

सहचव सभय हसख दइे न कोई। बुध समाज ब़ि अनुहचत होई॥

कह ँधनु कुहलसहु चाहह कठोरा। कह ँस्यामल मृदगुात ककसोरा॥२॥

हबहध केहह भाँहत धरौं उर धीरा। हसरस सुमन कन बेहधअ हीरा॥

सकल सभा कै महत भै भोरी। अब मोहह संभुचाप गहत तोरी॥३॥

हनज ज़िता लोगन्ह पर डारी। होहह हरुअ रघुपहतहह हनहारी॥

अहत पररताप सीय मन माहीं। लव हनमेष जुग सय सम जाहीं॥४॥

दो०-प्रभुहह हचतइ पुहन हचतव महह राजत लोचन लोल।

खेलत मनहसज मीन जुग जनु हबधु मंडल डोल॥२५८॥

चौ०-हगरा अहलहन मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज हनसा अवलोकी॥

लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना॥१॥

सकुची ब्याकुलता बह़ि जानी। धरर धीरजु प्रतीहत उर आनी॥

तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपहत पद सरोज हचतु राचा॥२॥

तौ भगवानु सकल उर बासी। कररहह मोहह रघुबर कै दासी॥

जेहह कें जेहह पर सत्य सनेहू। सो तेहह हमलइ न कछु संदहेू॥३॥

प्रभु तन हचतइ प्रेम तन ठाना। कृपाहनधान राम सबु जाना॥

हसयहह हबलोकक तकेउ धनु कैसें। हचतव गरुरु लघु ब्यालहह जैसें॥४॥

दो०-लखन लखेउ रघुबंसमहन ताकेउ हर कोदडुं।

पुलकक गात बोले बचन चरन चाहप ब्रह्ांडु॥२५९॥

चौ०-कदहसकंुजरहु कमठ अहह कोला। धरहु धरहन धरर धीर न डोला॥

रामु चहहह संकर धनु तोरा। होहु सजग सुहन आयसु मोरा॥१॥

चाप सपीप रामु जब आए। नर नाररन्ह सुर सुकृत मनाए॥

सब कर संसउ अरु अग्यानू। मंद महीपन्ह कर अहभमानू॥२॥

भृगुपहत केरर गरब गरुआई। सुर मुहनबरन्ह केरर कदराई॥

हसय कर सोचु जनक पहछतावा। राहनन्ह कर दारुन दखु दावा॥३॥

संभुचाप ब़ि बोहहतु पाई। चढे जाइ सब संगु बनाई॥

राम बाहुबल हसधु अपारू। चहत पारु नहह कोउ क़िहारू॥४॥

दो०-राम हबलोके लोग सब हचत्र हलखे से दहेख।

हचतई सीय कृपायतन जानी हबकल हबसेहष॥२६०॥

चौ०-दखेी हबपुल हबकल बैदहेी। हनहमष हबहात कलप सम तेही॥

तृहषत बारर हबनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा त़िागा॥१॥

का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुहन का पहछतानें॥

अस हजयँ जाहन जानकी दखेी। प्रभु पुलके लहख प्रीहत हबसेषी॥२॥

गुरहह प्रनामु मनहह मन कीन्हा। अहत लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा॥

दमकेउ दाहमहन हजहम जब लयऊ। पुहन नभ धनु मंडल सम भयऊ॥३॥

लेत चढावत खैंचत गाढें। काहु ँन लखा दखे सबु ठाढें॥

तेहह छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुहन घोर कठोरा॥४॥

छं०-भरे भुवन घोर कठोर रव रहब बाहज तहज मारगु चले।

हचक्करहह कदग्गज डोल महह अहह कोल कूरुम कलमले॥

सुर असुर मुहन कर कान दीन्हें सकल हबकल हबचारहीं।

कोदडं खंडेउ राम तुलसी जयहत बचन उचारहीं॥

सो०-संकर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु।

बू़ि सो सकल समाजु चढा जो प्रथमहह मोह बस॥२६१॥

चौ०-प्रभु दोउ चापखंड महह डारे। दहेख लोग सब भए सुखारे॥

कौहसकरुप पयोहनहध पावन। प्रेम बारर अवगाहु सुहावन॥१॥

रामरूप राकेसु हनहारी। बढत बीहच पुलकावहल भारी॥

बाजे नभ गहगह ेहनसाना। दवेबधू नाचहह करर गाना॥२॥

ब्रह्ाकदक सुर हसद्ध मुनीसा। प्रभुहह प्रसंसहह दहेह असीसा॥

बररसहह सुमन रंग बहु माला। गावहह ककनर गीत रसाला॥३॥

रही भुवन भरर जय जय बानी। धनुषभंग धुहन जात न जानी॥

मुकदत कहहह जह ँतह ँनर नारी। भंजेउ राम संभुधनु भारी॥४॥

दो०-बंदी मागध सूतगन हबरुद बदहह महतधीर।

करहह हनछावरर लोग सब हय गय धन महन चीर॥२६२॥

चौ०-झाँहझ मृदगं संख सहनाई। भेरर ढोल दुदंभुी सुहाई॥

बाजहह बहु बाजने सुहाए। जह ँतह ँजुबहतन्ह मंगल गाए॥१॥

सहखन्ह सहहत हरषी अहत रानी। सूखत धान परा जनु पानी॥

जनक लहउे सुखु सोचु हबहाई। पैरत थकें थाह जनु पाई॥२॥

श्रीहत भए भूप धनु टूटे। जैसें कदवस दीप छहब छूटे॥

सीय सुखहह बरहनअ केहह भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती॥३॥

रामहह लखनु हबलोकत कैसें। सहसहह चकोर ककसोरकु जैसें॥

सतानंद तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहह कीन्हा॥४॥

दो०-संग सखीं सुदरं चतुर गावहह मंगलचार।

गवनी बाल मराल गहत सुषमा अंग अपार॥२६३॥

सहखन्ह मध्य हसय सोहहत कैसे। छहबगन मध्य महाछहब जैसें॥

कर सरोज जयमाल सुहाई। हबस्व हबजय सोभा जेहह छाई॥१॥

तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ प्रेमु लहख परइ न काहू॥

जाइ समीप राम छहब दखेी। रहह जनु कँुअरर हचत्र अवरेखी॥२॥

चतुर सखीं लहख कहा बुझाई। पहहरावहु जयमाल सुहाई॥

सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम हबबस पहहराइ न जाई॥३॥

सोहत जनु जुग जलज सनाला। सहसहह सभीत दते जयमाला॥

गावहह छहब अवलोकक सहलेी। हसयँ जयमाल राम उर मेली॥४॥

सो०-रघुबर उर जयमाल दहेख दवे बररसहह सुमन।

सकुचे सकल भुआल जनु हबलोकक रहब कुमुदगन॥२६४॥

पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए महलन साधु सब राजे॥

सुर ककनर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहह दहेह असीसा॥१॥

नाचहह गावहह हबबुध बधूटीं। बार बार कुसुमांजहल छूटीं॥

जह ँतह ँहबप्र बेदधुहन करहीं। बंदी हबरदावहल उच्चरहीं॥२॥

महह पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी हसय भंजेउ चापा॥

करहह आरती पुर नर नारी। दहेह हनछावरर हबत्त हबसारी॥३॥

सोहहत सीय राम कै जौरी। छहब हसगारु मनहु ँएक ठोरी॥

सखीं कहहह प्रभुपद गहु सीता। करहत न चरन परस अहत भीता॥४॥

दो०-गौतम हतय गहत सुरहत करर नहह परसहत पग पाहन।

मन हबहसे रघुबंसमहन प्रीहत अलौककक जाहन॥२६५॥

तब हसय दहेख भूप अहभलाषे। कूर कपूत मूढ मन माखे॥

उरठ उरठ पहहरर सनाह अभागे। जह ँतह ँगाल बजावन लागे॥१॥

लेहु छ़िाइ सीय कह कोऊ। धरर बाँधहु नृप बालक दोऊ॥

तोरें धनुषु चा़ि नहह सरई। जीवत हमहह कुअँरर को बरई॥२॥

जौं हबदहेु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहहत दोउ भाई॥

साधु भूप बोले सुहन बानी। राजसमाजहह लाज लजानी॥३॥

बलु प्रतापु बीरता ब़िाई। नाक हपनाकहह संग हसधाई॥

सोइ सूरता कक अब कहु ँपाई। अहस बुहध तौ हबहध मुह ँमहस लाई॥४॥

दो०-दखेहु रामहह नयन भरर तहज इररषा मद ुकोहु।

लखन रोषु पावकु प्रबल जाहन सलभ जहन होहु॥२६६॥

–*–*–

बैनतेय बहल हजहम चह कागू। हजहम ससु चह ैनाग अरर भागू॥

हजहम चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चह ैहसवद्रोही॥१॥

लोभी लोलुप कल कीरहत चहई। अकलंकता कक कामी लहई॥

हरर पद हबमुख परम गहत चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा॥२॥

कोलाहलु सुहन सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जह ँरानी॥

रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। हसय सनेहु बरनत मन माहीं॥३॥

राहनन्ह सहहत सोचबस सीया। अब धौं हबहधहह काह करनीया॥

भूप बचन सुहन इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोहल न सकहीं॥४॥

दो०-अरुन नयन भृकुटी कुरटल हचतवत नृपन्ह सकोप।

मनहु ँमत्त गजगन हनरहख हसघककसोरहह चोप॥२६७॥

खरभरु दहेख हबकल पुर नारीं। सब हमहल दहेह महीपन्ह गारीं॥

तेहह अवसर सुहन हसव धनु भंगा। आयसु भृगुकुल कमल पतंगा॥१॥

दहेख महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने॥

गौरर सरीर भूहत भल भ्राजा। भाल हबसाल हत्रपुंड हबराजा॥२॥

सीस जटा सहसबदनु सुहावा। ररसबस कछुक अरुन होइ आवा॥

भृकुटी कुरटल नयन ररस राते। सहजहु ँहचतवत मनहु ँररसाते॥३॥

बृषभ कंध उर बाहु हबसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला॥

करट मुहन बसन तून दइु बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें॥४॥

दो०-सांत बेषु करनी करठन बरहन न जाइ सरुप।

धरर मुहनतनु जनु बीर रसु आयउ जह ँसब भूप॥२६८॥

–*–*–

दखेत भृगुपहत बेषु कराला। उठे सकल भय हबकल भुआला॥

हपतु समेत कहह कहह हनज नामा। लगे करन सब दडं प्रनामा॥१॥

जेहह सुभायँ हचतवहह हहतु जानी। सो जानइ जनु आइ खुटानी॥

जनक बहोरर आइ हसरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा॥२॥

आहसष दीहन्ह सखीं हरषानीं। हनज समाज लै गई सयानीं॥

हबस्वाहमत्रु हमले पुहन आई। पद सरोज मेले दोउ भाई॥३॥

रामु लखनु दसरथ के ढोटा। दीहन्ह असीस दहेख भल जोटा॥

रामहह हचतइ रह ेथकक लोचन। रूप अपार मार मद मोचन॥४॥

दो०-बहुरर हबलोकक हबदहे सन कहहु काह अहत भीर॥

पूछत जाहन अजान हजहम ब्यापेउ कोपु सरीर॥२६९॥

समाचार कहह जनक सुनाए। जेहह कारन महीप सब आए॥

सुनत बचन कफरर अनत हनहारे। दखेे चापखंड महह डारे॥१॥

अहत ररस बोले बचन कठोरा। कहु ज़ि जनक धनुष कै तोरा॥

बेहग दखेाउ मूढ न त आजू। उलटउँ महह जह ँलहह तव राजू॥२॥

अहत डरु उतरु दते नृपु नाहीं। कुरटल भूप हरषे मन माहीं॥

सुर मुहन नाग नगर नर नारी॥सोचहह सकल त्रास उर भारी॥३॥

मन पहछताहत सीय महतारी। हबहध अब सँवरी बात हबगारी॥

भृगुपहत कर सुभाउ सुहन सीता। अरध हनमेष कलप सम बीता॥४॥

दो०-सभय हबलोके लोग सब जाहन जानकी भीरु।

हृदयँ न हरषु हबषाद ुकछु बोले श्रीरघुबीरु॥२७०॥

मासपारायण, नवाँ हवश्राम

नाथ संभुधनु भंजहनहारा। होइहह केउ एक दास तुम्हारा॥

आयसु काह कहहअ ककन मोही। सुहन ररसाइ बोले मुहन कोही॥१॥

सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरर करनी करर कररअ लराई॥

सुनहु राम जेहह हसवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो ररपु मोरा॥२॥

सो हबलगाउ हबहाइ समाजा। न त मारे जैहहह सब राजा॥

सुहन मुहन बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहह अपमाने॥३॥

बहु धनुहीं तोरीं लररकाईं। कबहु ँन अहस ररस कीहन्ह गोसाईं॥

एहह धनु पर ममता केहह हतेू। सुहन ररसाइ कह भृगुकुलकेतू॥४॥

दो०-रे नृप बालक कालबस बोलत तोहह न सँमार॥

धनुही सम हतपुरारर धनु हबकदत सकल संसार॥२७१॥

लखन कहा हहँस हमरें जाना। सुनहु दवे सब धनुष समाना॥

का छहत लाभु जून धनु तौरें। दखेा राम नयन के भोरें॥१॥

छुअत टूट रघुपहतहु न दोसू। मुहन हबनु काज कररअ कत रोसू ।

बोले हचतइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहह सुभाउ न मोरा॥२॥

बालकु बोहल बधउँ नहह तोही। केवल मुहन ज़ि जानहह मोही॥

बाल ब्रह्चारी अहत कोही। हबस्व हबकदत छहत्रयकुल द्रोही॥३॥

भुजबल भूहम भूप हबनु कीन्ही। हबपुल बार महहदवेन्ह दीन्ही॥

सहसबाहु भुज छेदहनहारा। परसु हबलोकु महीपकुमारा॥४॥

दो०-मातु हपतहह जहन सोचबस करहस महीसककसोर।

गभबन्ह के अभबक दलन परसु मोर अहत घोर॥२७२॥

हबहहस लखनु बोले मृद ुबानी। अहो मुनीसु महा भटमानी॥

पुहन पुहन मोहह दखेाव कुठारू। चहत उ़िावन फँूकक पहारू॥१॥

इहाँ कुम्ह़िबहतया कोउ नाहीं। जे तरजनी दहेख मरर जाहीं॥

दहेख कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहहत अहभमाना॥२॥

भृगुसुत समुहझ जनेउ हबलोकी। जो कछु कहहु सहउँ ररस रोकी॥

सुर महहसुर हररजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई॥३॥

बधें पापु अपकीरहत हारें। मारतहू ँपा पररअ तुम्हारें॥

कोरट कुहलस सम बचनु तुम्हारा। ब्यथब धरहु धनु बान कुठारा॥४॥

दो०-जो हबलोकक अनुहचत कहउँे छमहु महामुहन धीर।

सुहन सरोष भृगुबंसमहन बोले हगरा गभीर॥२७३॥

कौहसक सुनहु मंद यहु बालकु। कुरटल कालबस हनज कुल घालकु॥

भानु बंस राकेस कलंकू। हनपट हनरंकुस अबुध असंकू॥१॥

काल कवलु होइहह छन माहीं। कहउँ पुकारर खोरर मोहह नाहीं॥

तुम्ह हटकउ जौं चहहु उबारा। कहह प्रतापु बलु रोषु हमारा॥२॥

लखन कहउे मुहन सुजस तुम्हारा। तुम्हहह अछत को बरनै पारा॥

अपने मुँह तुम्ह आपहन करनी। बार अनेक भाँहत बहु बरनी॥३॥

नहह संतोषु त पुहन कछु कहहू। जहन ररस रोकक दसुह दखु सहहू॥

बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी दते न पावहु सोभा॥४॥

दो०-सूर समर करनी करहह कहह न जनावहह आपु।

हबद्यमान रन पाइ ररपु कायर कथहह प्रतापु॥२७४॥

तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहह लाहग बोलावा॥

सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारर धरेउ कर घोरा॥१॥

अब जहन दइे दोसु मोहह लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू॥

बाल हबलोकक बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरहनहार भा साँचा॥२॥

कौहसक कहा छहमअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहह न साधू॥

खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही॥३॥

उतर दते छो़िउँ हबनु मारें। केवल कौहसक सील तुम्हारें॥

न त एहह कारट कुठार कठोरें। गुरहह उररन होतेउँ श्रम थोरें॥४॥

दो०-गाहधसूनु कह हृदयँ हहँस मुहनहह हररअरइ सूझ।

अयमय खाँड न ऊखमय अजहु ँन बूझ अबूझ॥२७५॥

कहउे लखन मुहन सीलु तुम्हारा। को नहह जान हबकदत संसारा॥

माता हपतहह उररन भए नीकें । गुर ररनु रहा सोचु ब़ि जीकें ॥१॥

सो जनु हमरेहह माथे काढा। कदन चहल गए ब्याज ब़ि बाढा॥

अब आहनअ ब्यवहररआ बोली। तुरत दउँे मैं थैली खोली॥२॥

सुहन कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥

भृगुबर परसु दखेावहु मोही। हबप्र हबचारर बचउँ नृपद्रोही॥३॥

हमले न कबहु ँसुभट रन गाढे। हिज दवेता घरहह के बाढे॥

अनुहचत कहह सब लोग पुकारे। रघुपहत सयनहह लखनु नेवारे॥४॥

दो०-लखन उतर आहुहत सररस भृगुबर कोपु कृसानु।

बढत दहेख जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥२७६॥

नाथ करहु बालक पर छोहू। सूध दधूमुख कररअ न कोहू॥

जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौ कक बराबरर करत अयाना॥१॥

जौं लररका कछु अचगरर करहीं। गुर हपतु मातु मोद मन भरहीं॥

कररअ कृपा हससु सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुहन ग्यानी॥२॥

राम बचन सुहन कछुक जु़िाने। कहह कछु लखनु बहुरर मुसकाने॥

हसँत दहेख नख हसख ररस ब्यापी। राम तोर भ्राता ब़ि पापी॥३॥

गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूटमुख पयमुख नाहीं॥

सहज टेढ अनुहरइ न तोही। नीचु मीचु सम दखे न मौहीं॥४॥

दो०-लखन कहउे हहँस सुनहु मुहन क्रोधु पाप कर मूल।

जेहह बस जन अनुहचत करहह चरहह हबस्व प्रहतकूल॥२७७॥

मैं तुम्हार अनुचर मुहनराया। पररहरर कोपु कररअ अब दाया॥

टूट चाप नहह जुरहह ररसाने। बैरठअ होइहह पाय हपराने॥१॥

जौ अहत हप्रय तौ कररअ उपाई। जोररअ कोउ ब़ि गुनी बोलाई॥

बोलत लखनहह जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुहचत भल नाहीं॥२॥

थर थर कापहह पुर नर नारी। छोट कुमार खोट ब़ि भारी॥

भृगुपहत सुहन सुहन हनरभय बानी। ररस तन जरइ होइ बल हानी॥३॥

बोले रामहह दइे हनहोरा। बचउँ हबचारर बंधु लघु तोरा॥

मनु मलीन तनु सुंदर कैसें। हबष रस भरा कनक घटु जैसैं॥४॥

दो०- सुहन लहछमन हबहसे बहुरर नयन तरेरे राम।

गुर समीप गवने सकुहच पररहरर बानी बाम॥२७८॥

अहत हबनीत मृद ुसीतल बानी। बोले रामु जोरर जुग पानी॥

सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु कररअ नहह काना॥१॥

बररै बालक एकु सुभाऊ। इन्हहह न संत हबदषूहह काऊ॥

तेहह नाहीं कछु काज हबगारा। अपराधी में नाथ तुम्हारा॥२॥

कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर कररअ दास की नाई॥

कहहअ बेहग जेहह हबहध ररस जाई। मुहननायक सोइ करौं उपाई॥३॥

कह मुहन राम जाइ ररस कैसें। अजहु ँअनुज तव हचतव अनैसें॥

एहह के कंठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं काह कोपु करर कीन्हा॥४॥

दो०-गभब स्त्रवहह अवहनप रवहन सुहन कुठार गहत घोर।

परसु अछत दखेउँ हजअत बैरी भूपककसोर॥२७९॥

बहइ न हाथु दहइ ररस छाती। भा कुठारु कंुरठत नृपघाती॥

भयउ बाम हबहध कफरेउ सुभाऊ। मोरे हृदयँ कृपा कहस काऊ॥१॥

आजु दया दखुु दसुह सहावा। सुहन सौहमत्र हबहहस हसरु नावा॥

बाउ कृपा मूरहत अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला॥२॥

जौं पै कृपाँ जररहह मुहन गाता। क्रोध भएँ तनु राख हबधाता॥

दखेु जनक हरठ बालक एहू। कीन्ह चहत ज़ि जमपुर गेहू॥३॥

बेहग करहु ककन आँहखन्ह ओटा। दखेत छोट खोट नृप ढोटा॥

हबहसे लखनु कहा मन माहीं। मूदें आँहख कतहु ँकोउ नाहीं॥४॥

दो०-परसुरामु तब राम प्रहत बोले उर अहत क्रोधु।

संभु सरासनु तोरर सठ करहस हमार प्रबोधु॥२८०॥

बंधु कहइ कटु संमत तोरें। तू छल हबनय करहस कर जोरें॥

करु पररतोषु मोर संग्रामा। नाहह त छा़ि कहाउब रामा॥१॥

छलु तहज करहह समरु हसवद्रोही। बंधु सहहत न त मारउँ तोही॥

भृगुपहत बकहह कुठार उठाएँ। मन मुसकाहह रामु हसर नाएँ॥२॥

गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहु ँसुधाइहु ते ब़ि दोषू॥

टेढ जाहन सब बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहह ग्रसइ न राहू॥३॥

राम कहउे ररस तहजअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा॥

जेंहह ररस जाइ कररअ सोइ स्वामी। मोहह जाहन आपन अनुगामी॥४॥

दो०-प्रभुहह सेवकहह समरु कस तजहु हबप्रबर रोसु।

बेषु हबलोकें कहहेस कछु बालकहू नहह दोसु॥२८१॥

दहेख कुठार बान धनु धारी। भै लररकहह ररस बीरु हबचारी॥

नामु जान पै तुम्हहह न चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेंहह दीन्हा॥१॥

जौं तुम्ह औतेहु मुहन की नाईं। पद रज हसर हससु धरत गोसाईं॥

छमहु चूक अनजानत केरी। चहहअ हबप्र उर कृपा घनेरी॥२॥

हमहह तुम्हहह सररबरर कहस नाथा॥कहहु न कहाँ चरन कह ँमाथा॥

राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहहत ब़ि नाम तोहारा॥३॥

दवे एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें॥

सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु हबप्र अपराध हमारे॥४॥

दो०-बार बार मुहन हबप्रबर कहा राम सन राम।

बोले भृगुपहत सरुष हहस तहू ँबंधु सम बाम॥२८२॥

हनपटहह हिज करर जानहह मोही। मैं जस हबप्र सुनावउँ तोही॥

चाप स्त्रुवा सर आहुहत जानू। कोप मोर अहत घोर कृसानु॥१॥

सहमहध सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई॥

मै एहह परसु कारट बहल दीन्ह।े समर जग्य जप कोरटन्ह कीन्ह॥े२॥

मोर प्रभाउ हबकदत नहह तोरें। बोलहस हनदरर हबप्र के भोरें॥

भंजेउ चापु दापु ब़ि बाढा। अहहमहत मनहु ँजीहत जगु ठाढा॥३॥

राम कहा मुहन कहहु हबचारी। ररस अहत बह़ि लघु चूक हमारी॥

छुअतहह टूट हपनाक पुराना। मैं कहह हतेु करौं अहभमाना॥४॥

दो०-जौं हम हनदरहह हबप्र बकद सत्य सुनहु भृगुनाथ।

तौ अस को जग सुभटु जेहह भय बस नावहह माथ॥२८३॥

दवे दनुज भूपहत भट नाना। समबल अहधक होउ बलवाना॥

जौं रन हमहह पचारै कोऊ। लरहह सुखेन कालु ककन होऊ॥१॥

छहत्रय तनु धरर समर सकाना। कुल कलंकु तेहह पावँर आना॥

कहउँ सुभाउ न कुलहह प्रसंसी। कालहु डरहह न रन रघुबंसी॥२॥

हबप्रबंस कै अहस प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहह डेराई॥

सुनु मृद ुगूढ बचन रघुपहत के। उघरे पटल परसुधर महत के॥३॥

राम रमापहत कर धनु लेहू। खैंचहु हमटै मोर संदहेू॥

दते चापु आपुहह चहल गयऊ। परसुराम मन हबसमय भयऊ॥४॥

दो०-जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुहललत गात।

जोरर पाहन बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात॥२८४॥

जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानु॥

जय सुर हबप्र धेनु हहतकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥१॥

हबनय सील करुना गुन सागर। जयहत बचन रचना अहत नागर॥

सेवक सुखद सुभग सब अंगा। जय सरीर छहब कोरट अनंगा॥२॥

करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महसे मन मानस हसंा॥

अनुहचत बहुत कहउँे अग्याता। छमहु छमामंकदर दोउ भ्राता॥३॥

कहह जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपहत गए बनहह तप हतेू॥

अपभयँ कुरटल महीप डेराने। जह ँतह ँकायर गवँहह पराने॥४॥

दो०-दवेन्ह दीन्हीं दुदंभुीं प्रभु पर बरषहह फूल।

हरषे पुर नर नारर सब हमटी मोहमय सूल॥२८५॥

अहत गहगह ेबाजने बाजे। सबहह मनोहर मंगल साजे॥

जूथ जूथ हमहल सुमुख सुनयनीं। करहह गान कल कोककलबयनी॥१॥

सुखु हबदहे कर बरहन न जाई। जन्मदररद्र मनहु ँहनहध पाई॥

हबगत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु हबधु उदयँ चकोरकुमारी॥२॥

जनक कीन्ह कौहसकहह प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा॥

मोहह कृतकृत्य कीन्ह दहुु ँभाईं। अब जो उहचत सो कहहअ गोसाई॥३॥

कह मुहन सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा हबबाहु चाप आधीना॥

टूटतहीं धनु भयउ हबबाहू। सुर नर नाग हबकदत सब काहु॥४॥

दो०-तदहप जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।

बूहझ हबप्र कुलबृद्ध गुर बेद हबकदत आचारु॥२८६॥

दतू अवधपुर पठवहु जाई। आनहह नृप दसरथहह बोलाई॥

मुकदत राउ कहह भलेहह कृपाला। पठए दतू बोहल तेहह काला॥१॥

बहुरर महाजन सकल बोलाए। आइ सबहन्ह सादर हसर नाए॥

हाट बाट मंकदर सुरबासा। नगरु सँवारहु चाररहु ँपासा॥२॥

हरहष चले हनज हनज गृह आए। पुहन पररचारक बोहल पठाए॥

रचहु हबहचत्र हबतान बनाई। हसर धरर बचन चले सचु पाई॥३॥

पठए बोहल गुनी हतन्ह नाना। जे हबतान हबहध कुसल सुजाना॥

हबहधहह बंकद हतन्ह कीन्ह अरंभा। हबरचे कनक कदहल के खंभा॥४॥

दो०-हररत महनन्ह के पत्र फल पदमुराग के फूल।

रचना दहेख हबहचत्र अहत मनु हबरंहच कर भूल॥२८७॥

बेहन हररत महनमय सब कीन्ह।े सरल सपरब परहह नहह चीन्ह॥े

कनक कहलत अहहबेल बनाई। लहख नहह परइ सपरन सुहाई॥१॥

तेहह के रहच पहच बंध बनाए। हबच हबच मुकता दाम सुहाए॥

माहनक मरकत कुहलस हपरोजा। चीरर कोरर पहच रचे सरोजा॥२॥

ककए भृंग बहुरंग हबहगंा। गुंजहह कूजहह पवन प्रसंगा॥

सुर प्रहतमा खंभन गकढ काढी। मंगल द्रब्य हलएँ सब ठाढी॥३॥

चौंकें भाँहत अनेक पुराईं। हसधुर महनमय सहज सुहाई॥४॥

दो०-सौरभ पललव सुभग सुरठ ककए नीलमहन कोरर॥

हमे बौर मरकत घवरर लसत पाटमय डोरर॥२८८॥

रचे रुहचर बर बंदहनबारे। मनहु ँमनोभवँ फंद सँवारे॥

मंगल कलस अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए॥१॥

दीप मनोहर महनमय नाना। जाइ न बरहन हबहचत्र हबताना॥

जेहह मंडप दलुहहहन बैदहेी। सो बरनै अहस महत कहब केही॥२॥

दलूहु रामु रूप गुन सागर। सो हबतानु हतहु ँलोक उजागर॥

जनक भवन कै सौभा जैसी। गृह गृह प्रहत पुर दहेखअ तैसी॥३॥

जेहह तेरहुहत तेहह समय हनहारी। तेहह लघु लगहह भुवन दस चारी॥

जो संपदा नीच गृह सोहा। सो हबलोकक सुरनायक मोहा॥४॥

दो०-बसइ नगर जेहह लच्छ करर कपट नारर बर बेषु॥

तेहह पुर कै सोभा कहत सकुचहह सारद सेषु॥२८९॥

पहुचँे दतू राम पुर पावन। हरषे नगर हबलोकक सुहावन॥

भूप िार हतन्ह खबरर जनाई। दसरथ नृप सुहन हलए बोलाई॥१॥

करर प्रनामु हतन्ह पाती दीन्ही। मुकदत महीप आपु उरठ लीन्ही॥

बारर हबलोचन बाचत पाँती। पुलक गात आई भरर छाती॥२॥

रामु लखनु उर कर बर चीठी। रहह गए कहत न खाटी मीठी॥

पुहन धरर धीर पहत्रका बाँची। हरषी सभा बात सुहन साँची॥३॥

खेलत रह ेतहाँ सुहध पाई। आए भरतु सहहत हहत भाई॥

पूछत अहत सनेह ँसकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई॥४॥

दो०-कुसल प्रानहप्रय बंधु दोउ अहहह कहहु केहह दसे।

सुहन सनेह साने बचन बाची बहुरर नरेस॥२९०॥

सुहन पाती पुलके दोउ भ्राता। अहधक सनेहु समात न गाता॥

प्रीहत पुनीत भरत कै दखेी। सकल सभाँ सुखु लहउे हबसेषी॥१॥

तब नृप दतू हनकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे॥

भैया कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें हनज नयन हनहारे॥२॥

स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय ककसोर कौहसक मुहन साथा॥

पहहचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ। प्रेम हबबस पुहन पुहन कह राऊ॥॥३॥

जा कदन तें मुहन गए लवाई। तब तें आजु साँहच सुहध पाई॥

कहहु हबदहे कवन हबहध जाने। सुहन हप्रय बचन दतू मुसकाने॥४॥

दो०-सुनहु महीपहत मुकुट महन तुम्ह सम धन्य न कोउ।

रामु लखनु हजन्ह के तनय हबस्व हबभूषन दोउ॥२९१॥

पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषहसघ हतहु पुर उहजआरे॥

हजन्ह के जस प्रताप कें आगे। सहस मलीन रहब सीतल लागे॥१॥

हतन्ह कह ँकहहअ नाथ ककहम चीन्ह।े दहेखअ रहब कक दीप कर लीन्ह॥े

सीय स्वयंबर भूप अनेका। सहमटे सुभट एक तें एका॥२॥

संभु सरासनु काहु ँन टारा। हारे सकल बीर बररआरा॥

तीहन लोक मह ँजे भटमानी। सभ कै सकहत संभु धनु भानी॥॥३॥

सकइ उठाइ सरासुर मेरू। सोउ हहयँ हारर गयउ करर फेरू॥

जेहह कौतुक हसवसैलु उठावा। सोउ तेहह सभाँ पराभउ पावा॥४॥

दो०-तहाँ राम रघुबंस महन सुहनअ महा महहपाल।

भंजेउ चाप प्रयास हबनु हजहम गज पंकज नाल॥२९२॥

सुहन सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँहत हतन्ह आँहख दखेाए॥

दहेख राम बलु हनज धनु दीन्हा। करर बहु हबनय गवनु बन कीन्हा॥१॥

राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज हनधान लखनु पुहन तैसें॥

कंपहह भूप हबलोकत जाकें । हजहम गज हरर ककसोर के ताकें ॥२॥

दवे दहेख तव बालक दोऊ। अब न आँहख तर आवत कोऊ॥

दतू बचन रचना हप्रय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी॥॥३॥

सभा समेत राउ अनुरागे। दतून्ह दने हनछावरर लागे॥

कहह अनीहत ते मूदहह काना। धरमु हबचारर सबहह सुख माना॥४॥

दो०-तब उरठ भूप बहसष्ठ कहु ँदीहन्ह पहत्रका जाइ।

कथा सुनाई गुरहह सब सादर दतू बोलाइ॥२९३॥

सुहन बोले गुर अहत सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहु ँमहह सुख छाई॥

हजहम सररता सागर महु ँजाहीं। जद्यहप ताहह कामना नाहीं॥१॥

हतहम सुख संपहत हबनहह बोलाएँ। धरमसील पहह जाहह सुभाएँ॥

तुम्ह गुर हबप्र धेनु सुर सेबी। तहस पुनीत कौसलया दबेी॥२॥

सुकृती तुम्ह समान जग माहीं। भयउ न ह ैकोउ होनेउ नाहीं॥

तुम्ह ते अहधक पुन्य ब़ि काकें । राजन राम सररस सुत जाकें ॥॥३॥

बीर हबनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी॥

तुम्ह कहु ँसबब काल कलयाना। सजहु बरात बजाइ हनसाना॥४॥

दो०-चलहु बेहग सुहन गुर बचन भलेहह नाथ हसरु नाइ।

भूपहत गवने भवन तब दतून्ह बासु दवेाइ॥२९४॥

राजा सबु रहनवास बोलाई। जनक पहत्रका बाहच सुनाई॥

सुहन संदसेु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं॥१॥

प्रेम प्रफुहललत राजहह रानी। मनहु ँहसहखहन सुहन बाररद बानी॥

मुकदत असीस दहेह गुरु नारीं। अहत आनंद मगन महतारीं॥२॥

लेहह परस्पर अहत हप्रय पाती। हृदयँ लगाइ जु़िावहह छाती॥

राम लखन कै कीरहत करनी। बारहह बार भूपबर बरनी॥॥३॥

मुहन प्रसाद ुकहह िार हसधाए। राहनन्ह तब महहदवे बोलाए॥

कदए दान आनंद समेता। चले हबप्रबर आहसष दतेा॥४॥

सो०-जाचक हलए हकँारर दीहन्ह हनछावरर कोरट हबहध।

हचरु जीवहु ँसुत चारर चक्रबर्तत दसरत्थ के॥२९५॥

कहत चले पहहरें पट नाना। हरहष हने गहगह ेहनसाना॥

समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर घर होन बधाए॥१॥

भुवन चारर दस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर हबआहू॥

सुहन सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे॥२॥

जद्यहप अवध सदवै सुहावहन। राम पुरी मंगलमय पावहन॥

तदहप प्रीहत कै प्रीहत सुहाई। मंगल रचना रची बनाई॥॥३॥

ध्वज पताक पट चामर चारु। छावा परम हबहचत्र बजारू॥

कनक कलस तोरन महन जाला। हरद दबू दहध अच्छत माला॥४॥

दो०-मंगलमय हनज हनज भवन लोगन्ह रचे बनाइ।

बीथीं सीचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ॥२९६॥

जह ँतह ँजूथ जूथ हमहल भाहमहन। सहज नव सप्त सकल दहुत दाहमहन॥

हबधुबदनीं मृग सावक लोचहन। हनज सरुप रहत मानु हबमोचहन॥१॥

गावहह मंगल मंजुल बानीं। सुहन कल रव कलकंरठ लजानीं॥

भूप भवन ककहम जाइ बखाना। हबस्व हबमोहन रचेउ हबताना॥२॥

मंगल द्रब्य मनोहर नाना। राजत बाजत हबपुल हनसाना॥

कतहु ँहबररद बंदी उच्चरहीं। कतहु ँबेद धुहन भूसुर करहीं॥॥३॥

गावहह सुंदरर मंगल गीता। लै लै नामु रामु अरु सीता॥

बहुत उछाहु भवनु अहत थोरा। मानहु ँउमहग चला चहु ओरा॥४॥

दो०-सोभा दसरथ भवन कइ को कहब बरनै पार।

जहाँ सकल सुर सीस महन राम लीन्ह अवतार॥२९७॥

भूप भरत पुहन हलए बोलाई। हय गय स्यंदन साजहु जाई॥

चलहु बेहग रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता॥१॥

भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुकदत उरठ धाए॥

रहच रुहच जीन तुरग हतन्ह साजे। बरन बरन बर बाहज हबराजे॥२॥

सुभग सकल सुरठ चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी॥

नाना जाहत न जाहह बखाने। हनदरर पवनु जनु चहत उ़िाने॥॥३॥

हतन्ह सब छयल भए असवारा। भरत सररस बय राजकुमारा॥

सब सुंदर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून करट भारी॥४॥

दो०- छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन।

जुग पदचर असवार प्रहत जे अहसकला प्रबीन॥२९८॥

बाँधे हबरद बीर रन गाढे। हनकहस भए पुर बाहरे ठाढे॥

फेरहह चतुर तुरग गहत नाना। हरषहह सुहन सुहन पवन हनसाना॥१॥

रथ सारहथन्ह हबहचत्र बनाए। ध्वज पताक महन भूषन लाए॥

चवँर चारु ककककन धुहन करही। भानु जान सोभा अपहरहीं॥२॥

सावँकरन अगहनत हय होते। ते हतन्ह रथन्ह सारहथन्ह जोते॥

सुंदर सकल अलंकृत सोह।े हजन्हहह हबलोकत मुहन मन मोह॥े॥३॥

जे जल चलहह थलहह की नाई। टाप न बू़ि बेग अहधकाई॥

अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई। रथी सारहथन्ह हलए बोलाई॥४॥

दो०-चकढ चकढ रथ बाहरे नगर लागी जुरन बरात।

होत सगुन सुन्दर सबहह जो जेहह कारज जात॥२९९॥

कहलत कररबरहन्ह परीं अँबारीं। कहह न जाहह जेहह भाँहत सँवारीं॥

चले मत्तगज घंट हबराजी। मनहु ँसुभग सावन घन राजी॥१॥

बाहन अपर अनेक हबधाना। हसहबका सुभग सुखासन जाना॥

हतन्ह चकढ चले हबप्रबर बृन्दा। जनु तनु धरें सकल शु्रहत छंदा॥२॥

मागध सूत बंकद गुनगायक। चले जान चकढ जो जेहह लायक॥

बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरर अगहनत भाँती॥॥३॥

कोरटन्ह काँवरर चले कहारा। हबहबध बस्तु को बरनै पारा॥

चले सकल सेवक समुदाई। हनज हनज साजु समाजु बनाई॥४॥

दो०-सब कें उर हनभबर हरषु पूररत पुलक सरीर।

कबहह दहेखबे नयन भरर रामु लखनू दोउ बीर॥३००॥

top related