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पु�षाथ�िस�ुपाय
- आ-अमृतच�[email protected]
Date : 24-Jul-2019
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गाथा / सू� िवषय गाथा / सू� िवषय
मंगलाचरण
001) केवल�ान को �णाम 002) आगम का वंदन003) �� करने की �ित�ा
भूिमका
004) व�ा का ल�ण005) दो नयो ंका उपदेश 006) �वहार नय का उपदेश007) �वहारनय का �योजन 008) प�पात-रिहत को देशना का फल
�� �ार�
009) जीव का ल�ण 010) जीव क�ा� और भो�ा011) आ�ा को अथ� िस�� कब और कैसे? 012) जीव-भाव कम�-प�रणमन का िनिम�013) कम�-भाव जीव-प�रणमन का िनिम� 014) संसार का बीज015) पु�षाथ�-िस�� का उपाय 016) इस उपाय म� कौन लगता है?017) उपदेश देन� का �म 018) �म-भंग उपदेशक की िनंदा019) उसको द� का कारण
�ावकधम� �ा�ान
020) यथा-श�� भेद र��य का �हण021) तीनो ंम� �थम िकसको अंगीकारे? 022) स�� का ल�ण023) िनःशंिकत अंग 024) िनःकांि�त अंग025) िनिव�िचिक�ा अंग 026) अमूढ�ि� अंग027) उपगूहन अंग 028) ��थितकरण अंग029) वा�� अंग 030) �भावना अंग
स���ान अिधकार
Index
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033) स�� के प�ात �ान �ो ंकहा? 034) युगपत कारण-काय� का ��ांत
स�क-चा�र� अिधकार
039) चा�र� का ल�ण 040) चा�र� के भेद041) ि�िवध चा�र� के �ामी 042) पाँचो ंपाप िहंसा�क
अिहंसा �त
043) िहंसा का ��प 044) िहंसा अिहंसा का ल�ण045) ��-िहंसा को िहंसा मानने म� अित�ा�� दोष 046) ��-िहंसा को िहंसा मानने म� अ�ा��-दोष047) उसका कारण 048) �माद के स�ाव म� परघात भी िहंसा049) प�रणामो ंकी िनम�लता हेतु िहंसा से िनवृि� 050) एका� का िनषेध051) उसके आठ सू� 059) उपसंहार060) िहंसा-�ाग का उपदेश 061) िहंसा-�ाग म� �थम �ा करना?062) म� के दोष 063) मिदरा से िहंसा कैसे?064) भाव-मिदरा पान 065) मांस के दोष066) �यं मरे �ए जीव के भ�ण म� दोष 067) मांस म� िनगोद जीव की उ�ि�068) उपसंहार 069) मधु के दोष070) मधु जीवो ंका उ�ि� �थान 071) समु�-�प से �ाग072) पांच उदंबर फल के दोष 073) सुखाकर खाने म� भी दोष074) उपसंहार 075) �ाग के �कार076) सव�था और एकदेश �ाग 077) �थावर िहंसा म� भी िववेक078) दूसरो ंको देखकर �िथत न हो 079) धम� के िनिम� िहंसा म� दोष080) देवो ंके िलए िहंसा का िनषेध 081) गु�ओ ंके िलए िहंसा का िनषेध082) एक� �ि�य और ब�-इ��य जीव घात म� िववेक 083) िहंसक जीवो ंकी भी िहंसा न करे084) िहंसक जीवो ंको दया वश भी न मारे 085) दुखी जीवो ंको भी न मारे086) सुखी जीवो ंको भी न मारे 087) गु� को समािध के िनिम� भी न मारे088) िम�ा मत �े�रत मु�� के िनिम� भी न मारे 089) दयावश �यं का भी घात न करे090) उपसंहार
स�-�त
091) स�-�त का ��प092) अस� - �थम भेद 093) अस� - ि�तीय भेद094) अस� - तृतीय भेद 095) अस� - चतुथ� भेद096) िन�� वचन 097) पाप-यु� वचन098) अि�य अस� 099) अस� वचन िहंसा�क100) �म� योग �ारा अस� िहंसा�क 101) इसके �ाग का �कार
अचौय�-�त
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102) चोरी का वण�न 103) चोरी �गट�प से िहंसा है104) िहंसा और चोरी म� अ�ा�� नही ं 105) िहंसा और चोरी म� अित�ा��पना भी नही ं106) चोरी के �ाग का �कार
��चय� अणु�त
107) शील (अ��) का ��प108) मैथुन म� �गट�प िहंसा है 109) अनंग�ीड़ा म� िहंसा110) कुशील के �ाग का �म
प�र�ह-प�रमाण
111) प�र�ह पाप का ��प112) मम�-प�रणाम ही वा�िवक प�र�ह है 113) शंका-समाधान114) अित�ा��-दोष प�रहार 115) प�र�ह के भेद116) आ��र प�र�ह के भेद 117) बा� प�र�ह के दोनो ंभेद िहंसामय118) िहंसा-अिहंसा का ल�ण 119) दोनो ंप�र�हो ंम� िहंसा120) समान बा� अव�था म� मम� म� असमानता 121) मम�-मू�ा� म� िवशेषता122) इस �योजन की िस�� 123) उदाहरण124) प�र�ह �ाग करने का उपाय 125) अवशेष भेद127) बा� प�र�ह �ाग का �म 128) सव�देश �ाग म� अश� एकदेश �ाग कर�
रा�ी-भोजन �ाग
129) राि� भोजन �ाग का वण�न 130) राि�भोजन म� भाविहंसा131) शंकाकार की शंका 132) उ�र133) राि�भोजन म� ��िहंसा
गुण-�त
137) िद��त138) िद��त पालन करने का फल 139) देश�त141) अप�ान 142) पापोपदेश143) �मादचया� 144) िहंसा�दान145) दु:�ुित 146) जुआ का �ाग147) िवशेष
िश�ा-�त
148) सामाियक िश�ा�त149) सामाियक कब और िकस �कार 151) �ोषधोपवास152) �ोषधोपवास की िविध 153) उपवास के िदन का क���
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154) प�ात् �ा करना चािहये? 155) इसके बाद �ा करना?157) उपवास का फल 158) उपवास म� िवशेषत: अिहंसा159) उपवास म� अ� चार महा�त भी 160) �ावक और मुिनयो ंके महा�त म� अ�र161) भोगोपभोगप�रमाण 163) िवशेष164) िवशेष 165) िवशेष166) िवशेष 167) अितिथ संिवभाग168) नवधा भ�� 169) दातार के सात गुण170) दान यो� व�ु 171) पा�ो ंका भेद172) दान देने से िहंसा का �ाग 175) स�ेखना177) स�ेखना आ�घात नही ं 178) आ�घातक कौन?179) स�ेखना भी अिहंसा 180) शीलो ंके कथन का संकोच181) पाँच अितचार 182) स��श�न के पाँच अितचार183) अिहंसा अणु�त के पाँच अितचार 184) स� अणु�त के पाँच अितचार185) अचौय� अणु�त के पाँच अितचार 186) ��चय� अणु�त के पाँच अितचार187) प�र�हप�रमाण �त के पाँच अितचार 188) िद��त के पाँच अितचार189) देश�त के पाँच अितचार 190) अनथ�द��ाग�त के पाँच अितचार191) सामाियक के पाँच अितचार 192) �ोषधोपवास के पाँच अितचार193) भोग-उपभोगप�रमाण के पाँच अितचार 194) वैयावृ� के पाँच अितचार195) स�ेखना के पाँच अितचार 196) अितचार के �ाग का फल198) बा� तप 199) अतर� तप200) मुिन�त की �ेरणा 201) छह आव�क202) तीन गु�� 203) पाँच सिमित204) दश धम� 205) बारह भावना206-208) बाईस परीषह 209) िनर�र र��य का सेवन210) गृह�थो ंको शी� मुिन�त की �ेरणा 211) अपूण� र��य से कम�-बंध212-214) र��य और राग का फल 215) बंध का कारण216) र��य से ब� नही ं 217) र��य से शुभ �कृितयो ंका भी ब� नही ं218) उसे �� कहते ह� 219) स�� को देवायु के ब� का कारण �ो?ं220) उसका उ�र 224) परमा�ा का ��प225) नय-िवव�ा 226) आचाय� �ारा �� की पूण�ता
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!! �ीसव��वीतरागाय नम: !!
�ीमद् -अमृतचं�ाचाय�-देव-�णीत
�ी
पु�षाथ�िसद्युपायमूल सं�ृत गाथा
आभार : िहंदी प�ानुवाद -- पं अभय-कुमारजी, देवलाली
!! नम: �ीसव��वीतरागाय !!
ओकंारं िब�दुसंयु�ं िन�ं �ाय�� योिगनः कामदं मो�दं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥१॥
अिवरलश�घनौघ��ािलतसकलभूतलकलंका मुिनिभ�पािसततीथा� सर�ती हरतु नो दु�रतान् ॥२॥
अ�ानितिमरा�ानां �ाना�नशलाकया च�ु��ीिलतं येन त�ै �ीगुरवे नम: ॥३॥
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॥ �ीपरमगु�वे नम:, पर�राचाय�गु�वे नम: ॥
अथ� : िब�दुसिहत ॐकार को योगीजन सव�दा �ाते ह�, मनोवाँिछत व�ु को देने वाले और मो� को देने वाले ॐकार को
बार बार नम�ार हो । िनरंतर िद�-�िन-�पी मेघ-समूह संसार के सम� पाप�पी मैल को धोनेवाली है मुिनयो ं
�ारा उपािसत भवसागर से ितरानेवाली ऐसी िजनवाणी हमारे पापो ंको न� करो । िजसने अ�ान-�पी अंधेरे से अंधे �ये
जीवो ंके ने� �ान�पी अंजन की सला◌� इ से खोल िदये ह�, उस �ी गु� को नम�ार हो । परम गु� को नम�ार हो,
पर�रागत आचाय� गु� को नम�ार हो ।
सकलकलुषिव�ंसकं, �ेयसां प�रवध�कं, धम�स��कं, भ�जीवमन: �ितबोधकारकं,पु��काशकं, पाप�णाशकिमदं शा�ं �ीपु�षाथ�िसद्युपाय नामधेयं, अ� मूला��कता�र:�ीसव��देवा�दु�र��कता�र: �ीगणधरदेवा: �ितगणधरदेवा�ेषां वचनानुसारमासा� �ािम-अमृतचं�ाचाय�देव िवरिचतं, �ोतार: सावधानतया �णव�ु ॥
(सम� पापो ंका नाश करनेवाला, क�ाणो ंका बढ़ानेवाला, धम� से स�� रखनेवाला, भ�जीवो ंके मन को �ितबु�-
सचेत करनेवाला यह शा� �ीपु�षाथ�िसद्युपाय नाम का है, मूल-�� के रचियता सव��-देव ह�, उनके बाद �� को
गंूथनेवाले गणधर-देव ह�, �ित-गणधर देव ह� उनके वचनो ंके अनुसार लेकर आचाय� �ािम-अमृतचं�ाचाय�देव �ारा रिचत
यह �� है । सभी �ोता पूण� सावधानी पूव�क सुन� । )
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणीमंगलं कु�कु�ाय� जैनधम�ऽ�ु मंगलम् ॥सव�मंगलमांग�ं सव�क�ाणकारकं �धानं सव�धमा�णां जैनं जयतु शासनम् ॥
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+ केवल�ान को �णाम -
त�यित परं �ोित: समं सम�ैरन�पया�यै: ।दप�णतल इव सकला �ितफलित पदाथ�मािलका य� ॥१॥
�ैकािलक पया�य सिहत जो सकल पदाथ� समूह अहो ।दप�णतल-वत् झलक� िजसम� परम �ोित जयव� रहो ॥१॥
अ�याथ� : [तत्] वह [परं] उ�ृ� [�ोितः] �ोित (केवल�ान�पी �काश) [जयित] जयव� हो[य�] िजसम� [सम�ैः] स�ूण� [अन�पया�यैः] अन� पया�य� से [समं] सिहत [सकला]सम� [पदाथ�मािलका] पदाथ� की माला (समूह) [दप�णतल इव] दप�ण के तल भाग के समान[�ितपफलित] झलकते ह� ।
+ आगम का वंदन -
परमागम� जीवं िनिष�जा�� िस�ुरिवधानम् ।सकलनय िवलिसतानां िवरोधमथनं नमा�नेका�म् ॥२॥
परमागम का बीज िनषेधक ज�ा�ो ंका ह��कथन ।नय-िवरोध स�ूण� िवनाशक अनेकांत को क�ँ नमन ॥२॥
अ�याथ� : [परमाग�] उ�ृ� आगम अथा�त् जैन िस�ा� का [बीजं] �ाण-��प,[िनिष�जा�� िस�ुरािवधानम्] ज� से अ�े पु�षो ं�ारा होने वाले हाथी के ��प-िवधन का िनषेध् करने वाले, [सकलनयिवलिसतानां] सम� नयो ंकी िवव�ा से िवभूिषतपदाथ� के [िवरोधमथनं] िवरोध को दूर करने वाले [अनेका�म्] अनेका�-धम� को[नमािम] म� (�ीमदमृतच�सू�र) नम�ार करता �ँ ।
मंगलाचरण
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+ �� करने की �ित�ा -
लोक�यैकने�ं िन�� परमागमं �य�ेन ।अ�ािभ�पोद् ि�यते िवदुषां पु�षाथ�िस�ुपायोऽयम् ॥३॥
जो ि�लोक का एक ने�, जाना �य� से आगम को ।यह पु�षाथ� िस�ुपाय है �गट क�ँ िव�ानो ंको ॥३॥
अ�याथ� : [लोक�यैकने�म्] तीन लोक को देखने वाले ने� समान [परमागमं] उ�ृ�आगम (जैन-िस�ांत) को [�य�ेन] अनेक �कार के उपायो ं से (भले �कार) [िन��] जानकर[अ�ािभः] हमारे �ारा [अयं] यह [पु�षाथ�िस�ुपाय:] पु�षाथ�िस�ुपाय (नामक ��)[िवदुषां] िव�ान् पु�षो ंके िलये [उपोद्ि�यते] उ�ार करने म� आता है ।
+ व�ा का ल�ण -
मु�ोपचार िववरण िनर�दु�रिवनेय दुब�धा: ।�वहार िन�य�ा: �वत�य�े जगित तीथ�म् ॥४॥
मु� और उपचार कथन से िश�ो ंका अ�ान हर� ।जान� िन�य अ� �वहार सुधम�-तीथ� उ�ोत कर� ॥४॥
अ�याथ� : [मु�ोपचार िववरण] मु� और उपचार कथन के िववेचन [दु�रिवनेय]�कट�पेण दुिन�वार [दुब�धा:] अ�ान [िनर�] नाशक [�वहार िन�य�ाः] �वहार औरिन�य के �ाता [�व��य�े जगित तीथ�म्] जगत म� धम�-तीथ� का �वत�न कराते ह� ॥४॥
भूिमका
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+ दो नयो ंका उपदेश -
िन�यिमह भूताथ� �वहारं वण�य�भूताथ�म् ।भूताथ�बोधिवमुख: �ाय: सव�ऽिप संसार: ॥५॥
िन�य है भूताथ� और �वहार यहाँ अभूताथ� कहा ।भूताथ�-बोध से िवमुख अहो �ाय: सारा संसार रहा ॥५॥
अ�याथ� : [इह] यहाँ [िन�यं] िन�यनय को [भूताथ�] भूताथ� और [�वहारं] �वहारनय को[अभूताथ�] अभूताथ� [वण�य��] वण�न करते ह� । �ाय: [भूताथ�बोध िवमुख:] भूताथ� (िन�यनय)के �ान से िव�� जो अिभ�ाय है, वह [सव�ऽिप] सम� ही [संसार:] संसार-��प है ॥५॥
+ �वहार नय का उपदेश -
अबुध� बोधनाथ� मुनी�रा: देशय�भूताथ�म् ।�वहारमेव केवलमवैित य�� देशना ना�� ॥६॥
अ�ानी को समझाने के िलए कर� �वहार कथन ।जो केवल �वहार जानते उ�� नही ंिजनराज वचन ॥६॥
अ�याथ� : [मुनी�रा: अबुध� बोधनाथ�] आचाय� अ�ानी जीवो ंको �ान उ�� करने केिलये [अभूताथ� देशय��] �वहारनय का उपदेश करते ह� और [य: केवलं] जो केवल[�वहारम् एव] �वहारनय को ही [अवैित] जाने [त� देशना ना��] उनको उपदेश नही ंहै ॥६॥
+ �वहारनय का �योजन -
माणवक एव िसंहो यथा भव�नवगीत िसंह� ।�वहार एव िह तथा िन�यतां या�िन�य�� ॥७॥
िजसे शेर का �ान नही ंवह िब�ी को ही िसंह जाने ।िन�य से अनजान जीव �वहार-कथन िन�य मान ॥७॥
अ�याथ� : [यथा] िजस �कार [अनवगीत िसंह�] िसंह को सव�था न जाननेवाले पु�ष केिलये [माणवक:] िबलाव [एव] ही [िसंह:] िसंह�प [भवित] होता है, [िह] िन�य से [तथा]उसी �कार [अिन�य��] िन�यनय के ��प से अप�रिचत पु�ष के िलये [�वहार:]�वहार [एव] ही [िन�यतां] िन�यपने को [याित] �ा� होता है ॥७॥
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+ प�पात-रिहत को देशना का फल -
�वहारिन�यौ य: �बु� त�ेन भवित म��थ: ।�ा�ोित देशनाया: स एव फलमिवकलं िश�: ॥८॥
िन�य अ� �वहार नयो ंका जान-��प रहे म��थ ।िजनवाणी को सुनने का फल पूण� �ा� करता वह िश� ॥८॥
अ�याथ� : [य:] जो जीव [�वहारिन�यौ] �वहारनय और िन�यनय को [त�ेन]व�ु��प से [�बु�] यथाथ��प से जानकर [म��थ:] म��थ [भवित] होता है अथा�त् िन�यनय और �वहारनय के प�पातरिहत होता है, [स:] वह [एव] ही [िश�:] िश�[देशनाया:] उपदेश का [अिवकलं] स�ूण� [फलं] फल [�ा�ोित] �ा� करता है ॥८॥
+ जीव का ल�ण -
अ�� पु�षि�दा�ा िवविज�त: �श�ग�रसवण�: ।गुणपय�यसमवेत: समािहत: समुदय�य�ौ�ै: ॥९॥
वण�-ग�-रस-पश� रिहत चेतन ��प है पु�ष अहो ।गुण-पया�य सिहत है �य-उ�ाद-�ौवय से यु� अहा ॥९॥
अ�याथ� : [पु�ष: िचदा�ा अ��] पु�ष (आ�ा) चेतना-��प है, [�श�रसग�वण�:]�श�, रस, ग� और वण� से [िवविज�त:] रिहत है, [गुणपय�यसमवेत:] गुण और पया�य सिहतहै, तथा [समुदय�य�ौ�ै:] उ�ाद, �य और �ौ� [समािहत:] यु� है ॥८॥
�� �ार�
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+ जीव क�ा� और भो�ा -
प�रणममानो िन�ं �ानिवव��रनािदस��ा ।प�रणामानां �ेषां स भवित क�ा� च भो�ा च ॥१०॥
वह अनािद स�ित से �ान-िववत�नमय प�रणमन करे ।िनज प�रणामो ंम� प�रणमता क�ा�-भो�ा �आ करे ॥१०॥
अ�याथ� : [स:] वह (चैत� आ�ा) [अनािदस��ा] अनािद की प�रपाटी से [िन�ं�ानिवव��:] िनर�र �ानािद गुणो ंके िवकार�प (रागािद प�रणामो)ं से [प�रणममान:] प�रणमनकरता �आ [�ेषां प�रणामानां] अपने (रागािद) प�रणामो ंका [क�ा� च भो�ा च] कता� औरभो�ा भी [भवित] होता है ॥१०॥
+ आ�ा को अथ� िस�� कब और कैसे? -
सव�िवव���ीण� यदा स चैत�मचलमा�ोित ।भवित तदा कृतकृ�: स��ु�षाथ�िस��माप� ॥११॥
जब वह सव� िवकारो ंसे हो पार अचल चेतन को �ा� ।होता है कृतकृ� तभी स�क् पु�षाथ� िस�� को �ा� ॥११॥
अ�याथ� : [यदा] जब [स:] उपयु�� अशु� आ�ा [सव�िवव���ीण�] िवभावो ंसे पार होकर[अचलं] अपने िन�� [चैत�ं] चैत���प को [आ�ोित] �ा� होता है [तदा] तब यहआ�ा उस [स��ु�षाथ�िस��म् ] स�क् �कार से पु�षाथ� के �योजन की िस�� को[आप�:] �ा� होता �आ [कृतकृ�:] कृतकृ� [भवित] होता है ।
+ जीव-भाव कम�-प�रणमन का िनिम� -
जीवकृतं प�रणामं िनिम�मा�ं �प� पुनर�े ।�यमेव प�रणम�ेऽ� पुद् गला: कम�भावेन ॥१२॥
चेतन कृत प�रणामो ंका िनिम�पना पाकर के मा� ।कम��प प�रणमते ह� पुद् गल परमाणु अपने आप ॥१२॥
अ�याथ� : [जीवकृतं] जीव के िकये �ए [प�रणामं] रागािद प�रणामो ंका [िनिम�-मा�ं]िनिम�मा� [�प�] पाकर [पुन:] िफर [अ�े पु�ला:] जीव से िभ� अ� पुद् गल �� [अ�]
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आ�ा म� [�यमेव] अपने आप ही [कम�भावेन] �ानावरणािद कम��प [प�रणम�े]प�रणमन कर जाते ह�।
+ कम�-भाव जीव-प�रणमन का िनिम� -
प�रणममान� िचति�दा�कै: �यमिप �कैभा�वै: ।भवित िह िनिम�मा�ं पौद् गिलकं कम� त�ािप ॥१३॥
�यं िकये िच�य भावो ंम� प�रणमते इस चेतन को ।िनिम� मा� होते ह� पुद् गल परमाणुमय कम� अहो ॥१३॥
अ�याथ� : [िह] िन�य से [�कै:] अपने [िचदा�कै:] चेतना��प [भावै:] रागािदप�रणामो ं से [�यमिप] �यं ही [प�रणममान�] प�रणमन करते �ए [त� िचत अिप]पूव�� आ�ा के भी [पौद् गिलकं] पुद् गल स��ी [कम�] �ानावरणािद ��कम�[िनिम�मा�ं] िनिम�मा�ं [भवित] होता है ।
+ संसार का बीज -
एवमयं कम�कृतैभा�वैरसमािहतोऽिप यु� इव ।�ितभाित बािलशानां �ितभास: स खलु भवबीजम् ॥१४॥
कम�ज� भावो ंसे चेतन इस �कार संयु� न हो ।अ�ानी को एक भासते िन�य यह भवबीज अहो ॥१४॥
अ�याथ� : [एवं] इस �कार [अयं] यह आ�ा [कम�कृतै:] कम�कृत [भावै:] रागािद अथवाशरीरािद भावो ंसे [असमािहतोऽिप] संयु� न होने पर भी [बािलशानां] अ�ानी जीवो ंको[यु�: इव] संयु� जैसा [�ितभाित] �ितभािसत होता है और [स: �ितभास:] वह �ितभासही [खलु] िन�य से [भवबीजं] संसार का बीज�प है ।
+ पु�षाथ�-िस�� का उपाय -
िवपरीतािभिनवेशं िनर� स���व� िनजत�म् ।य��ादिवचलनं स एव पु�षाथ�िस�ुपायोऽयम् ॥१५॥
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िवपरीतािभिनवेश न� कर िनज��प का स�क् �ान ।िनज म� ही अिवचल िथरता पु�षाथ�-िस�� का यही उपाय ॥१५॥
अ�याथ� : [िवपरीतािभिनवेशं] िवपरीत ��ान का [िनर�] नाश करके [िनज-त�म् ]िनज��प को [स�क् ] यथाथ��प से [�व�] जानकर [यत् ] जो [त�ात् ] अपने उस��प म� से [अिवचलनं] �� न होना [स एव] वही [अयं] इस [पु�षाथ�िस�ुपाय:]पु�षाथ�िस�� का उपाय है ।
+ इस उपाय म� कौन लगता है? -
सेयासेयिवद�� उद् धुददु�ील सीलवंतो िवसीलफलेण�ुदयं त�े पुण लहइ िण�ाणं ॥१६॥
र��य पद धारी मुिनवर तजते ह� िनत पापाचार ।अहो अलौिकक वृि� धारते पर-��ो ंसे रह� उदास ॥१६॥
अ�याथ� : [एतत् पदम् अनुसरतां] इस (र��य�प) पदवी का अनुसरण करनेवाले[कर��ताचारिन�िनरिभमुखा] पाप ि�या िमि�त आचारो ं से सवथा� परा�ुख तथा[एका�िवरित�पा] सवथा� उदासीन [भवित मुनीनां अलौिककी वृि�:] मुिनयो ंकी वृि�आलौिकक होती है ।
+ उपदेश देन� का �म -
ब�शः सम�िवरितं �दिश�तां यो न जातु गृ�ाित । त�ैकदेशिवरितः कथनीयानेन बीजेन ॥१७॥
बारबार कहने पर भी जो सकल पाप कर सक� न �ाग ।उनको समझाते ह� करना, एक-देश पापो ंका �ाग ॥१७॥
अ�याथ� : [यः ब�शः �दिश�तां] जो बारबार बताने पर भी [सम� िवरितं जातु] पूण� िवरित(मुिनपने) को कदािचत् [न गृह��त] �हण न करे तो [त� एकदेिशव�रतः] उसको एक-देशिवरत (�ावकपद) का [कथनीया अनेन बीजेन] कथन इस �कार करना ।
+ �म-भंग उपदेशक की िनंदा -
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यो यितधम�मकथय�ुपिदशित गृह�थधम�म�मितः। त� भगव�वचने �दिश�तं िन�ह�थानम् ॥१८॥
मुिन�त का उपदेश न दे अ� �ावक�त का करे कथन ।कोई अ�मित तो िजन �वचन म� उसको द� िवधान ॥१८॥
अ�याथ� : [यः अ�मितः] जो तु�-बु�� [यितधम�म् अकथयन्] मुिनधम� को नही ंकहकरके [गृह�थधम�म् उपिदशित त�] �ावकधम� का उपदेश देता है, उसे [भगव�वचने]भगवंत के िस�ांत म� [िन�ह�थानम्] द� देने का �थान [�दिश�तं] िदखलाया है ।
+ उसको द� का कारण -
अ�मकथनेन यतः �ो�ाहमानोऽितदूरमिप िश�ः। अपदेऽिप स�तृ�ः �ता�रतो भवित तेन दुमित�ना ॥१९॥
उस दुम�ित के अ�म कथन से मुिन�त म� उ�ािहत िश� ।अरे! ठगाया गया तु� पद म� ही वह होकर स�ु� ॥१९॥
अ�याथ� : [यतः तेन] िजस कारण से उस [दुम�ितना] दुबु��� के [अ�मकथनेन] �मभंगकथन�प उपदेश करने से [अितदूरम्] अ�ंत दूर तक [�ो�ाहमानोऽिप] उ�ाहवान् होनेपर भी [िश�ः अपदे अिप] िश� तु�-�थान म� ही [सं�तृ�ः] संतु� होकर [�ता�रतःभवित] ठगाया जाता है ।
+ यथा-श�� भेद र��य का �हण -
�ावकधम� �ा�ान
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एवं स��श�नबोध चा�र��या�को िन�ं ।त�ािप मो�माग� भवित िनषे�ो यथाश��ः ॥२०॥
स��श�न-�ान-चरण इन तीन भेदमय मु��-माग� ।सेवन करने यो� सदा है यथाश�� �ावक को जान ॥२०॥
अ�याथ� : [एवं स��श�नबोध चा�र��या�कः] इस �कार स��श�न, स���ान,स��चा�र� इन तीन भेद ��प [मो�माग�ः िन�ं] मो�माग� सदा [त� अिप यथाश��]उस पा� को भी अपनी श�� के अनुसार [िनषे�ः भवित] सेवन करने यो� होता है ।
+ तीनो ंम� �थम िकसको अंगीकारे? -
त�ादौ स��ं समुपा�यणीयम�खलय�ेन ।त��न् स�ेव यतो भिवत �ानं च�र�ं च ॥२१॥
इनम� सबसे पहले स��श�न पूण�य� से �ा� ।�ों�िक उसके होने पर ही �ान च�रत होते स�क् ॥२१॥
अ�याथ� : [त�ादौ अ�खलय�ेन] इन तीनो ंम� �थम सम� �कार सावधानतापूवक� य� से[स��ं समुपा�यणीयम्] स��शन� को भले �कार अंगीकार करना चािहये [यतःत��न् स�ेव] �ों�िक उसके होने पर ही [�ानं च चा�र�ं भिवत] स���ान औरस��ा�र� होता है ।
+ स�� का ल�ण -
जीवाजीवादीनां त�ाथा�नां सदैव क���म् ।��ानं िवपरीतािभिनवेश िविव�मा��पं तत् ॥२२॥
जीव-अजीव आिद त�ाथ� का ��ान सदा कत�� ।िवपरीतािभिनवेश रिहत यह ��ा ही है आ���प ॥२२॥
अ�याथ� : [जीवाजीवादीनां त�ाथा�नां] जीव-अजीवािद त�ाथ� का [��ानं] ��ान[िवपरीतािभिनवेश िविव�म्] िवपरीत िचंतन (झुकाव) छोड़कर [सदैव क���म्] िनरंतरकरना चािहए [आ��पं तत्] वह (��ान) आ�ा का ��प है ॥२२॥
-
+ िनःशंिकत अंग -
सकलमनेका�ा�किमदयु�ं व�ुजातम�खल�ैः ।िकमु स�मस�ं वा न जातु शंकेित क���ा ॥२३॥
सव��ो ंका कहा �आ यह अनेका�मय व�ु समूह ।शंका कभी न करना िक यह है अस� या स� ��प ॥२३॥
अ�याथ� : [सकलमनेका�ा�किमदयु�ं] सम� अनेका�ा�क यह कहा गया[व�ुजातम�खल�ैः] व�ु-��प सव��ो ं�ारा [िकमु स�मस�ं वा] �ा स� है अथवाअस� है [न जातु शंकेित क���ा] ऐसी शंका कभी नही ंकरनी चािहए ॥२३॥
+ िनःकांि�त अंग -
इह ज�िन िवभवादी�मु� चि��केशव�ादीन् ।एका�वाददूिषत परसमयानिप च नाकां�ेत् ॥२४॥
इस भव परभव म� वैभव या च�ी, नारायण पद की ।दूिषत जो एका�वाद से अ� धम� चाहो न कभी ॥२४॥
अ�याथ� : [इह ज�िन िवभवादी�मु�] इस ज� म� ए�य�, स�दा आिद और परलोक म�[चि��केशव�ादीन्] च�वत�, नारायण आिद पदो ं को और [एका�वाददूिषतपरसमयानिप] एका�वाद से दूिषत पर-धम� को भी [च नाकां�ेत्] न चाहे ॥२४॥
+ िनिव�िचिक�ा अंग -
�ु�ृ�ाशीतो��भृितषु नानािवधेषु भावेषु ।��ेषु पु�रषािदषु िविचिक�ा नैव करणीया ॥२५॥
�ुधा तृषा सद� गम� इ�ािद िविवध संयोगो ंम� ।�ािन कभी भी निहं करना मल-मू�ािद पर��ो ंम�॥25॥
अ�याथ� : [�ु�ृ�ाशीतो��भृितषु] भूख, �ास, सरदी, गरमी इ�ािद [नानािवधेषुभावेषु] नाना �कार के भावो ंम� और [��ेषु पु�रषािदषु] िव�ा आिद पदाथ� म� [िविचिक�ानैव करणीया] �ािन नही ंकरनी चािहए ॥२५॥
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+ अमूढ�ि� अंग -
लोके शा�ाभासे समयाभासे च देवताभासे ।िन�मिप त��िचना क���ममूढ�ि��म् ॥२६॥
लोक, शा�-आभास समय-आभास देव-आभासो ंम� ।त�ो ंम� �िचव� पु�ष ��ान मूढ़ता रिहत कर� ॥26॥
अ�याथ� : [लोके शा�ाभासे] लोक म�, शा�ा�ास म�, [समयाभासे च देवताभासे]धमा�भास म� और देवाभास म� [त��िचना िन�मिप] त�ो ंम� �िचवान (स���ि�) को सदा ही[अमूढ�ि��म् क���म] मूढ़ता-रिहत �ि� (��ान) करनी चािहए ।
+ उपगूहन अंग -
धम�ऽिभव��नीयः सदा�नो माद�वािदभावनया ।परदोषिनगूहनमिप िवघेयमुपबंृहणगुणाथ�म् ॥२७॥
माद�व आिद भावनाओ ंसे आ�धम� म� वृ�� करो ।उपबंृहण के िलए और पर-दोषो ंको भी गु� रखो ॥२७॥
अ�याथ� : [उपबंृहणगुणाथ�] उपगूहन गुण के िलये [माद�वािदभावनया] माद�व, �मा,स�ोषािद भावनाओ ंसे [सदा आ�नो धम�:] िनर�र अपने आ�ा को धम� (शु��भाव) की[अिभव��नीय:] वृ�� करनी चािहए और [परदोष-िनगूहनमिप िवधेयम्] दूसरे के दोषो ंकोगु� भी रखना चािहए ।
+ ��थितकरण अंग -
काम�ोधमदािदषु चलियतुमुिदतेषुव��नो �ायात् ।�ुतमा�नः पर� च यु�ा ��थितकरणमिप काय�म् ॥२८॥
काम �ोध लोभािदक �गटे, �ाय माग� से चिलत कर� ।शा�ो ंके अनुसार �-पर दोनो ंका ��थितकरण कर�॥28॥
अ�याथ� : [काम�ोधमदािदषु] काम, �ोध, मद, लोभािद [�ायात् व��न:] �ायमाग�(धम�माग�) से [चलियतुम् उिदतेषु] िवचिलत करवाने के िलए �गट �आ होने पर [�ुतं आ�न:पर� च] शा� अनुसार अपनी और पर की [��थितकरणं अिप काय�म्] ��थरता भी करनीचािहए ।
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+ वा�� अंग -
अनवरतमिहंसायां िशवसुखल�ीिनब�ने धम� ।सव��िप च सधिम�षुपरमं वा��माल�म् ॥२९॥
अ�याथ� : [िशवसुखल�ीिनब�ने] मो�-सुख-��प स�दा के कारणभूत [धम�अिहंसायां च] धम� और अिहंसा पूव�क [सव��िप सधिम�षु] सभी साधम� जनो ंम� [अनवरतं]िनरंतर [परमं] उ�ृ� [वा��ं] वा�� (�ीित) का [आल�म्] आल�न करना चािहए ।
+ �भावना अंग -
आ�ा �भावनीयो र��यतेजसा सततमेव ।दान तपोिजनपूजािव�ाितशयै� िजनधम�ः ॥३०॥
आ�ा की करना �भावना सतत तेज र��य से ।िजनशासन की, अितशय िव�ा पूजा दान शील तप से ॥३०॥
अ�याथ� : [सततमेव र��यतेजसा] िनरंतर ही र��य के तेज से [आ�ा �भावनीय: च]�यं को �भावनायु� करना चािहए और [दानतपोिजनपूजािव�ाितशयै:] दान, तप,िजनपूजन और िव�ा के अितशय से अथा�त् इनकी वृ�� करके [िजनधम�:] जैनधम� की�भावना करना चािहए ।
स���ान अिधकार
-
इ�ाि�तस��ैः स���ानं िन�� य�ेन ।आ�ाययु��योगैः समुपा�ं िन�मा�िहतैः ॥३१॥पृथगाराधनिम�ंदश�नसहभािवनोऽिप बोध� ।ल�णभेदेन यतो नाना�ं संभव�नयोः ॥३२॥
आ�-िहतैषी स��ाि�त करे य� से स���ान ।यु�� और आमने योग से कर िवचार सेवेन स��ान ॥३१॥दश�न का सहभावी िफर भी �ान पृथक आराधन यो� ।िभ�-िभ� ल�ण दोनो ंके अत: िभ�ता स�व हो ॥३२॥
अ�याथ� : [इित] इस रीित [आि�तस��ैः] स�� का आ�य लेने वाले [आ�िहतैः]आ��हतकारी को [िन�ं] सदैव [आ�ाययु��योगैः] िजनागम की पर�रा और यु�� केयोग से [िन��] िवचार करके [य�ेन] �य�पूव�क [स���ानं] स���ान का [समुपा�ं]भले �कार से सेवन करना यो� है [दश�नसहभािवनोऽिप] स��श�न के साथ ही उ��होने पर भी [बोध�] स���ान का [पृथगाराधनं] जुदा ही आराधन करना [इ�ं]क�ाणकारी है [यतः] �ों�िक [अनयोः] इन दोनो ं म� [ल�णभेदेन] ल�ण के भेद से[नाना�ं] िभ�ता [संभवित] स�व है ।
+ स�� के प�ात �ान �ो ंकहा? -
स���ानं काय� स��ं कारणं वद�� िजनाः ।�ानाराधनिम�ं स��ान�रं त�ात् ॥३३॥
स���ान काय� है स��श�न कारण कह� िजने� ।इसीिलए समिकत होने पर इ� �ान का आराधन ॥३३॥
अ�याथ� : [िजना: स���ानं काय�] िजने�देव स���ान को काय� और [स��ं कारणंवद��] स�� को कारण कहते ह�, [त�ात् स��ान�रं] इसिलये स�� के बादही [�ानाराधनं इ�म्] �ान की आराधना यो� है ।
+ युगपत कारण-काय� का ��ांत -
कारणकाय�िवधानं समकालं जायमानयोरिप िह ।दीप�काशयो�रव स���ानयोः सुघटम् ॥३४॥
-
स��श�न और �ान की उ�ि� का है समकाल ।कारण-काय� िवधान घिटत हो जैसे दीपक और �काश॥३४॥
अ�याथ� : [कारणकाय�िवधानं] कारण और काय� का िवधान [समकालं जायमानयो:अिप] एक समय म� उ�� होने पर भी [िह] िन�य से [दीप�काशयो: इव] दीपक और�काश की तरह [स���ानयो: सुघटम्] स��श�न और स���ान पर भले �कार घिटतहोता है ।
क���ोऽ�वसायःसदनेका�ा�केषु त�ेषु ।संशयिवप��यान�वसायिविव�मा��पं तत् ॥३५॥
स�क् अनेका�मय त�ो ंका िनण�य है करने यो� ।संशय और िवपय�य-मोह िवहीन �ान है आ���प ॥३५॥
अ�याथ� : [सदनेका�ा�केषु] �श� अनेका�ा�क (अनेक �भाववाले) [त�ेषुअ�वसाय: क���:] त�ो ं (पदाथ�) म� उ�म करने यो� है और [तत्संशयिवप��यान�वसायिविव�ं] वह (स���ान) संशय, िवपय�य और िवमोह रिहत[आ��पं] आ�ा का िनज��प है ।
��ाथ�भयपूण� काले िवनयेन सोपधानं च ।ब�मानेन सम��तमिन�वं �ानमारा�म् ॥३६॥
श� अथ� अ� उभय काल-आचार िवनय उपधानाचार ।करो �ान का आराधन ब�मान-अिन�वमय आचार ॥३६॥
अ�याथ� : [��ाथ�भयपूण� श��प] ���प अथ��प और उभय अथा�त् श�-अथ��पशु�ता से प�रपूण�ता से, [काले िवनयेन] काल िवनय से [च सोपधानं ब�मानेन सम��तं]और धारणा-यु� अ�� स�ान से सिहत तथा [अिन�वं �ानं आरा�म्] (गु�, शा�काता�, �ानआिद को) िबना िछपाये �ान की आराधना करना यो� है ।
-
िवगिलतदश�नमोहैः सम�स�ानिविदतत�ाथ�ः ।िन�मिप िनः�क�ैः स��ा�र�माल�म् ॥३७॥
दश�नमोह िवनाशक अ� त�ाथ� का है स���ान ।िन�क� जो िन� कर� वे स��ा�र� आल�न॥37॥
अ�याथ� : [िवगिलतदश�नमोहै:] दश�नमोह के नाश �ारा [सम�स�ानिविदतत�ाथ�:]स���ान से िज�ों�ने त�ाथ� को जाना है [िन�मिप िन:�क�ै:] सदा ही �ढ़िच�वान(अक�) �ारा [स��ा�र�ं आल�म्] स��ा�र� अवल�न करने यो� है ।
न िह स���पदेशं च�र�म�ानपूव�कं लभते ।�ानान�रमु�ं चा�र�ाराधनं त�ात् ॥३८॥
यिद अ�ान सिहत चा�र� हो स��ाम न �ा� करे ।अत: �ान-स�क् पाकर ही आराधन-चा�र� कह� ॥३८॥
अ�याथ� : [अ�ानपूव�कंच�र�ं] अ�ान (आ��ान रिहत) पूव�क चा�र� [स���पदेशं न िहलभते] स�क् नाम �ा� नही ंकरता [त�ात् �ानान�रं] इसिलए स���ान के प�ात् ही[चा�र�ाराधनं उ�म्] चा�र� का आराधन कहा है ।
+ चा�र� का ल�ण -
चा�र�ं भवित यतः सम�साव�योगप�रहरणात् ।सकलकषायिवमु�ं िवशदमुदासीनमा��पं तत् ॥३९॥
स�ूण� साव� योग के, प�रहार से चा�र� है ।वह उदासीन िवशद कषायो,ं से रिहत िनज�प है ॥३९॥
स�क-चा�र� अिधकार
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अ�याथ� : [यत: तत् चा�र�ं] �ों�िक वह चा�र� [सम�साव�-योगप�रहरणात्] सम�पाप-यु� (मन, वचन, काय के) योग के �ाग से [सकलकषाय-िवमु�ं] स�ूण� कषाय रिहत[िवशदं उदासीनं] िनम�ल और परपदाथ� से िवर�ता�प [आ��पं भवित] आ���पहोता है ।
+ चा�र� के भेद -
िहंसातोऽनृतवचना�तेयाद��तः प�र�हतः ।का���कदेशिवरते�ा�र�ं जायते ि�िवधम् ॥४०॥
है घात िनज प�रणाम का, इससे सभी िहंसामयी ।ह� मा� बोधन-हेतु िश�ो,ं को कहे अनृतािद भी ॥४२॥
अ�याथ� : [िहंसातोऽनृतवचना�तेयाद��तः] िहंसा से, अस� भाषण से, चोरी से, कुशीलसे और प�र�ह से [का���कदेशिवरते:] सव�देश और एकदेश िवर�� से वह [चा�र�ंजायते ि�िवधम्] चा�र� दो �कार का हो जाता है ।
+ ि�िवध चा�र� के �ामी -
िनरतः का���िनवृ�ौ भवित यितः समयसारभूतोऽयम् ।या �ेकदेशिवरितिन�रत��ामुपासको भवित ॥४१॥
जो पूण� िवरित म� िनरत, मुिन समयसार ��प ह� ।जो एकदेश िवरित िनरत, उनके उपासक वही ह� ॥४१॥
अ�याथ� : [का���िनवृ�ौ िनरत:] सव�था-सव�देश �ाग म� लीन [अयं यित: समयसारभूत:भवित] ये मुिन शु�ोपयोग�प ��प म� आचरण करनेवाला होता है [या तु एकदेशिवरित:]और जो एकदेशिवरित है [त�ां िनरत: उपासक: भवित] उसम� लगा �आ उपासक (�ावक,भ�) होता है ।
+ पाँचो ंपाप िहंसा�क -
आ�प�रणामिहंसनहेतु�ा�व�मेव िहंसैतत् ।अनृतवचनािदकेवलमुदा�तं िश�बोधाय ॥४२॥
-
है घात िनज प�रणाम का, इससे सभी िहंसामयी ।ह� मा� बोधन-हेतु िश�ो,ं को कहे अनृतािद भी ॥४२॥
अ�याथ� : [आ�प�रणामिहंसनहेतु�ात्] आ�ा के शु�ोपयोग�प प�रणामो ंके घात होनेके कारण [एत�व� िहंसैव] यह सब िहंसा ही है [अनृतवचनािद केवलं] अस� वचनािदकके भेद केवल [िश�बोधाय उदा�तम्] िश�ो ंको समझाने के िलए कहे गए ह� ।
+ िहंसा का ��प -
य�लुकषाययोगा�ाणानां �भाव�पाणाम् ।�परोपण� करणं सुिनि�ता भवित सा िहंसा ॥४३॥
िनत ��भावमयी सु�ाणो,ं के कषायी योग से ।है घात का उ�ृ� कारण, सुिनि�त िहंसा ही है ॥४३॥
अ�याथ� : [कषाययोगात् यत्] कषाय सिहत योग से जो [��भाव�पाणाम् �ाणानां]�� और भाव�प (दो �कार के) �ाणो ंका [�परोपण� करणं] �परोपण करना-घात करना[सा खलु सुिनि�ता] वह िन�य से भलीभाँित िनि�त की गई [िहंसा भवित] िहंसा है ।
+ िहंसा अिहंसा का ल�ण -
अ�ादुभा�वः खलु रागादीनां भव�िहंसेित ।तेषामेवो�ि�िह�सेित िजनागम� सं�ेपः ॥४४॥
अिहंसा �त
-
रागािद उ�ि� नही ंहै, वा�िवक यह अिहंसा ।उनकी िह उ�ि� कही, िहंसा िजनागम सारता ॥४४॥
अ�याथ� : [खलु रागादीनां अ�ादुभा�व:] वा�व म� रागािद भावो ंका �गट न होना [इितअिहंसा भवित] यही अिहंसा है और [तेषामेव उ�ि�:] उन रागािद भावो ंका उ�� होना ही[िहंसा भवित] िहंसा है, [इित िजनागम� सं�ेप:] ऐसा जैन िस�ा� का सार है ।
+ ��-िहंसा को िहंसा मानने म� अित�ा�� दोष -
यु�ाचरण� सतो रागा�ावेशम�रेणािप ।न िह भवित जातु िहंसा �ाण�परोपणादेव ॥४५॥
रागािद भावो ंके िबना, यु�ाचरणमय मुिन के ।अ�� भी िहंसा नही ंहै, �ाणपीड़न मा� से ॥४५॥
अ�याथ� : [अिप यु�ाचरण� सत:] और यो� आचरण वाले स� पु�ष के[रागा�ावेशम�रेण �ाण�परोपणात्] रागािदभावो ंके िबना केवल �ाण पीड़न से [िहंसाजातु एव] िहंसा कभी भी [न िह भवित] नही ंहोती ।
+ ��-िहंसा को िहंसा मानने म� अ�ा��-दोष -
�ु�ानाव�थायां रागादीनां वश�वृ�ायाम् ।ि�यतां जीवो मा वा धाव��े �ुवं िहंसा ॥४६॥
िनत अय�ाचारी दशा, रागािद भावाधीनता ।से वत�ते के मरे या, निहं मरे �ुव िहंसा सदा ॥४६॥
अ�याथ� : [रागादीनां वश�वृ�ायाम्] रागािदभावो ं के वश म� �वत�ती �ई[�ु�ानाव�थायां] अय�ाचार�प �माद अव�था म� [जीव: ि�यतां वा मा] जीव मरो अथवामत मरो [िहंसा �ुवं अ�े धावित] िहंसा सतत आगे ही दौड़ती है ।
+ उसका कारण -
य�ा�कषायः सन् ह�ा�ा �थममा�ना�ानम् ।प�ा�ायेत न वा िहंसा �ा��राणां तु ॥४७॥
-
�ों�िक कषायी जीव पहले, आ�घात करे �यं ।प�ात् �ाणीघात हो निहं, हो सदा ही अिनि�त ॥४७॥
अ�याथ� : [य�ात् आ�ा सकषाय: सन्] �ों�िक जीव कषाय-सिहत हो तो [�थमंआ�ना] �थम अपने से ही [आ�ानं ह��] अपने को घातता है [तु प�ात्] और बाद म�[�ा��राणां िहंसा] दूसरे जीवो ंकी िहंसा [जायेत वा न] हो अथवा न हो ।
+ �माद के स�ाव म� परघात भी िहंसा -
िहंसायाअिवरमणं िहंसा प�रणमनिप भवित िहंसा ।त�ा�म�योगे �ाण�परोपणं िन�म् ॥४८॥
िहंसा से अिवरत के िह प�रणत, िन� िहंसा भी �ई ।इससे �मादी योग म� है �ाण�परोपण सभी ॥४८॥
अ�याथ� : [िहंसाया: अिवरमणं िहंसा] िहंसा से िवर� न होने से िहंसा होती है और[िहंसाप�रणमनं अिप िहंसा भवित] िहंसा�प प�रणमन करने से भी िहंसा होती है [त�ात्�म�योगे] इसिलए �माद के योग म� [िन�ं �ाण�परोपणं] िनर�र �ाणघात का स�ाव है।
+ प�रणामो ंकी िनम�लता हेतु िहंसा से िनवृि� -
सू�ािप न खलु िहंंसा परव�ुिनब�ना भवित पंुसः ।िहंसायतनिनवृि�ः प�रणामिवशु�ये तदिप काया� ॥४९॥
अ�� भी िहंसा निहं, परव�ु के कारण कभी ।पर भाव शु�� हेतु िहंसा, आयतन छोड़ो सभी ॥४९॥
अ�याथ� : [खलु पंुसः परव�ुिनब�ना] िन�य से आ�ा के पर-व�ु के कारण से जोउ�� हो ऐसी [सू�िहंसा अिप न भवित] िकंिचत-मा� भी िहंसा भी नही ं होती [तदिपप�रणामिवशु�ये] तो भी प�रणाम की िनम�लता के िलये [िहंसायतनिनवृि�: काया�] िहंसाके �थान का �ाग करना िउचत है ।
+ एका� का िनषेध -
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िन�यमबु�मानो यो िन�यत�मेव सं�यते ।नाशयित करणचरणं स बिहःकरणालसो बालः ॥५०॥
निहं जान िन�य उसे ही, है मूढ िन�य से करे ।�ीकार वह करणालसी, बिह:करण चरण सभी नशे ॥५०॥
अ�याथ� : [यः िन�यं अबु�मानः] जो परमाथ� को नही ं जानते �ए [तमेव िनयमत:सं�यते] उसे ही िनयम से अंगीकार करता है [स बालः बिह: करणालसः] वह मूख� बा�-ि�या म� आलसी होता �आ [करणचरणं नाशियत] चा�र� के कारण का नाश करता है ।
+ उसके आठ सू� -
अिवधायािप िह िहंसां िहंसाफलभाजनं भव�ेकः ।कृ�ा�परो िहंसा िहंसाफलभाजनं न �ात् ॥५१॥
िनत एक िहंसा कर भी िहंसा, फल नही ंहै भोगता ।पर अ� िहंसा नही ंकर भी, िहंस फल को भोगता ॥५१॥
अ�याथ� : [िहंसा अिवधायािप िह] िहंसा न करते �ए भी िन�य से [िहंसाफलभाजनंभव�ेकः] एक जीव िहंसा के फल को भोगता है और [कृ�ा�परो िहंसा] दूसरा िहंसाकरके भी [िहंसाफलभाजनं न �ात्] िहंसा के फल को नही ंभोगता ।
एक�ा�ा िहंसा ददाित कालेफलमन�म् ।अ�� महािहंसा ��फला भवित प�रपाके ॥५२॥
है अ� िहंसा भी िकसी को, फल ब�त दे उदय म� ।पर महा िहंसा भी िकसी को, अ�फल दे उदय म� ॥५२॥
अ�याथ� : [एक�ा�ा िहंसा] एक जीव को तो थोडी िहंसा [ददाित कालेफलमन�म्]उदयकाल म� ब�त फल देती है और [अ�� महािहंसा] दूसरे जीव को महान िहंसा भी[��फला भवित प�रपाके] उदयकाल म� अ�� थोड़ा फल देनेवाली होती है ।
एक� सैव ती�ंिदशित फलं सैव म�म�� ।�जित सहका�रणोरिप िहंसा वैिच�्यम� फलकाले ॥५३॥
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युगपत् िमले िहंसा उदय म�, िविवधतामय ही रही ।वह िकसी को दे ती� फल, दे िकसी को अ�� ही ॥५३॥
अ�याथ� : [सहका�रणोरिप िहंसा] एक साथ िमलकर की �ई िहंसा भी [अ� फलकाले]इस उदयकाल म� [वैिच�्यम् �जित] िविच�ता को �ा� होती है और [एक� सैवती�ंिदशित फलं] िकसी एक को वही (िहंसा) ती� फल िदखलाती है और [अ�� सा एवम�म्] िकसी दूसरे को वही (िहंसा) तु� (फल िदखलाती है) ।
�ागेव फलित िहंसा ि�यमाणा फलित फलित च कृता अिप । आर� कतु�मकृतािप फलित िहंसानुभावेन ॥५४॥
करने से पहले ही फले, करते फले प�ात् भी ।आर� कृत िबन फले िहंसा, अनुभवानुसार ही ॥५४॥
अ�याथ� : [�ागेव फलित िहंसा] िहंसा पहले भी फलती है [ि�यमाणा फलित] करते करतेफलती है [फलित च कृता अिप] कर लेने के बाद फल देती है और [आर� कतु�मकृतािपफलित] िहंसा करने का आर� करके न िकये जाने [फलित िहंसानुभावेन] कषायभाव केअनुसार फलती है ।
एकः करोित िहंसां भव�� फलभािगनो बहवः ।बहवोिवदधित िहंसां िहंसाफलभुग् भव�ेकः ॥५५॥
नत एक िहंसा करे फल, भोग� अनेको ंब�त ही ।िमल कर� िहंसा को तथािप, भोगता फल एक ही ॥५५॥
अ�याथ� : [एकः करोित िहंसां] एक के िहंसा करने पर [भव�� फलभािगनो बहवः] फलभोगनेवाले ब�त होते ह�; [बहवोिवदधित िहंसां] अनेको ं से िहंसा होने पर [िहंसाफलभुग्भव�ेकः] िहंसा का फल भोगनेवाला एक होता है ।
क�ािप िदशित िहंसा िहंसाफलमेकमेव फलकाले ।अ�� सैव िहंसा िदश�िहंसाफलं िवपुलम् ॥५६॥
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िहंसाफलमपर� तु ददा�िहंसा तु प�रणामे ।इतर� पुनिह�सा िदश�िहंसाफलं ना�त् ॥५७॥
यह िकसी को िहंसा उदय म�, एक िहंसामय फले ।पर िकसी को िहंसा अिहंसा, का िवपुल फल दे फले ॥५६॥
हो अिहंसा भी पर उदय म�, िकसी को िहंसा फले ।पर अ� को िहंसा िनर�र, अिहंसा फल म� फले ॥५७॥
अ�याथ� : [क�ािप िहंसा फलकाले] िकसी को तो िहंसा उदयकाल म� [िदशितिहंसाफलमेकमेव] एक ही िहंसा का फल िदखाती है और [अ�� सैव िहंसा] दूसरे िकसीको वही िहंसा [िदश�िहंसाफलं िवपुलम्] ब�त िहंसा का फल िदखाती है ।[तु अपर�] और िकसी को [अिहंसा प�रणामे] अिहंसा उदयकाल म� [िहंसाफलं ददाित]िहंसा का फल देती है [तु पुनः इतर�] तथा दूसरे को [िहंसा अिहंसाफलं िदिशत] िहंसाअिहंसा का फल िदखाती है, [अ�त् न] अ� नही ं।
इितिविवधभ�गहने सुदु�रे माग�मूढ��ीनाम् ।गुरवो भव�� शरणं �बु�नयच�स�ाराः ॥५८॥
यो ंदुग�मी ब� भंगमय, घन म� सुपथ भूले �ए ।को नय चलाने म� चतुर, बस गु� ही िनत शरण ह� ॥५८॥
अ�याथ� : [इितिविवधभ�गहने सुदु�रे] इस �कार अ�� िकठनता से पार होसकनेवाले अनेक �कार के भंगो ंसे यु� गहन वन म� [माग�मूढ��ीनाम्] माग� भूले �ए को[�बु�नयच�स�ाराः] अनेक �कार के नय-समूह के �ाता [गुरवो भव�� शरणं] �ीगु�ही शरण होते ह� ।
+ उपसंहार -
अ�ंतिनिशतधारं दुरासदं िजनवर� नयच�म् ।ख�यित धाय�माणं मूधा�नं झिटित दुिव�द�ानाम् ॥५९॥
िजनवर किथत नय च� अित ही, ती�णधारी दुरासद ।धारण िकए दुिव�द�ो ंके, करे शीश झिटित पृथक् ॥५९॥
अ�याथ� : [अ�ंतिनिशतधारं दुरासदं] अ�� ती�ण धारवाला, दुःसा� [िजनवर�नयच�म्] िजने�-भगवान का नयच� [धाय�माणं] धारण करने पर [दुिव�द�ानाम्]
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िम�ा�ानी पु�ष के [मूधा�नं झिटित] म�क को तुर� ही [ख�यित] ख�-ख� कर देताहै ।
+ िहंसा-�ाग का उपदेश -
अवबु� िहं�िहंसकिहंसािहंसाफलािन त�ेन ।िन�मवगूहमानैिन�जश�ा ��तां िहंसा ॥६०॥
परमाथ� से िहंसा � िहंसक, िहं� िहंसाफल सभी ।को जान संवर उ�मी, िनज यथाश�� तज सभी ॥६०॥
अ�याथ� : [िहं�िहंसकिहंसािहंसाफलािन] िहं�, िहंसक, िहंसा और िहंसा का फल[अवबु� त�ेन] स�क-�कार जानकर [िन�ं अवगूहमानै:] िनर�र गु� रहकर[िनजश�ा] यथा-श�� [िहंसा ��तां] िहंसा छोड़नी चािहए ।
+ िहंसा-�ाग म� �थम �ा करना? -
म�ं मांसं �ौ�ं प�ोदु�रफलािन य�ेन ।िहंसा�ुपरितकामैम���ािन �थममेव ॥६१॥
िनत उदु�र फल पाँच, मिदरा माँस मधु को य� से ।छोड़� सभी सबसे �थम ही, िहंसा�ागे�ु इ�� ॥६१॥
अ�याथ� : [िहंसा�ुपरितकामै �थममेव] िहंसा-�ाग के इ�ुक पु�षो ंको �थम ही [य�ेनम�ं मांसं �ौ�ं] य�पूव�क शराब, मांस, मधु/शहद और [प�ोदु�रफलािन] पाँच उदु�रफल [मो��ािन] छोड़ देना चािहए ।
+ म� के दोष -
म�ं मोहयित मनो मोिहतिच��ु िव�रित धम�म् ।िव�ृतधमा� जीवो िह�सामिवश�माचरित ॥६२॥
िनत म� से मन मु�ता, मोिहतमनी भूले धरम ।हो धम� िव�ृत जीव िहंसा, म� िनशंिकत �वित�त ॥६२॥
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अ�याथ� : [म�ं मनोमोहयित] मिदरा मन को मोिहत करती है और [मोिहतिच�: तु धम�म्िव�रित] मोिहत िच� पु�ष तो धम� को भूल जाता है तथा [िव�ृतधमा� जीव: अिवशंकम्]धम� को भूला �आ जीव िन:शंक-िनडर होकर [िहंसां आचरित] िहंसा का आचरण करता है ।
+ मिदरा से िहंसा कैसे? -
रसजानां ब�नां जीवानां योिन�र�ते म�म् ।म�ं भजतां तेषां िहंसा संजायतेऽव�म् ॥६३॥
ब� रसज जीवो ंकी सुयोिन, म� मानी गई है ।यो ंम� सेवी के सतत िहंसा सुिनि�त िनयत है ॥६३॥
अ�याथ� : [च म�ं ब�नां] और मिदरा ब�त [रसजानां जीवानां] रस से उ�� �ए जीवो ंका[योिन: इ�ते] उ�ि� �थान माना जाता है; [म�ं भजतां तेषां] मिदरा का सेवन करता है,उसके [िहंसा अव�म् संजायते] िहंसा अव� ही होती है ।
+ भाव-मिदरा पान -
अिभमानभयजुगु�ाहा�ारितशोककामकोपा�ाः ।िहंसायाः पया�याः सव�ऽिप चसरकसि�िहताः ॥६४॥
िनत मान हा� अरित जुगु�ा, शोक भय कामािद सब ।िहंसा के ही पया�यवाची, म� के अित ही िनकट ॥६४॥
अ�याथ� : [च अिभमानभयजुगु�ाहा�ारितशोककामकोपा�ा:] और अिभमान, भय,�ािन, हा�, अरित, शोक, काम, �ोधािद [िहंसाया: पया�या:] िहंसा के पया�यवाची ह� और[सव�ऽिप सरकसि�िहता:] यह सभी मिदरा के िनकटवत� ह� ।
+ मांस के दोष -
न िवना �ािणिवघाता�ांस�ो�ि��र�ते य�ात् ।मांसं भजत��ात् �सर�िनवा�रता िहंसा ॥६५॥
िनत जीवघात िबना नही,ं है माँस उ�ि� कभी ।यो ंमाँसभ�ी को सतत, अिनवाय� िहंसा ही कही ॥६५॥
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अ�याथ� : [य�ात् �ािणिवघाताम् िवना] �ों�िक �ािणयो ंका घात िकए िबना [मांस�उ�ि�: न इ�ते] मांस की उ�ि� नही ंमानी जा सकती [त�ात् मांसं भजत:] इसिलएमांसभ�ी को [अिनवा�रता िहंसा �सरित] अिनवाय��प से िहंसा फैलती है ।
+ �यं मरे �ए जीव के भ�ण म� दोष -
यदिप िकल भवित मांसं �यमेव मृत� मिहषवृषभादेः ।त�ािप भवित िहंसा तदाि�तिनगोतिनम�थनात् ॥६६॥
�यमेव मृत भ�सा बलद, आिद का माँस िभ सदा ही ।�-आ�यी स�ूछ�नो ंके, मथन से िहंसामयी ॥६६॥
अ�याथ� : [यदिप िकल] य�िप यह स� है िक [�यमेव मृत�] अपने आप ही मरे �ए[मिहषवृषभादे: मांसं भवित] भ�स, बैल इ�ािद का मांस होता है पर�ु [त�ािप] वहाँ भी[तदाि�तिनगोत-िनम�थनात्] उसके आ�य रहनेवाले उसी जाित के िनगोद जीवो ंके म�नसे [िहंसा भवित] िहंसा होती है ।
+ मांस म� िनगोद जीव की उ�ि� -
आमा�िप प�ा�िप िवप�मानासु मांसपेशीषु ।सात�ेनो�ाद��ातीनां िनगोतानाम् ॥६७॥
क�े पके पकते �ए भी, माँस ख�ो ंम� सदा ।उस जाित के स�ूछ�न, उ�� होते ह� सदा ॥६७॥
अ�याथ� : [आमासु प�ासु अिप] क�ी, प�ी तथा [िवप�मानासु अिप] अध्-पकी भी[मांसपेशीषु त�ातीनां] मांसपेिशयो ंम� उसी जाित के [िनगोतानाम् सात�ेन उ�ाद:]िनगोद जीवो ंका िनर�र उ�ाद होता है ।
+ उपसंहार -
आमां वा प�ां वा खादित यः �ृशित वा िपिशतपेशीम् ।स िनह�� सततिनिचतं िप�ं ब�जीवकोटीनाम् ॥६८॥
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क�े व प�े माँसख�ो,ं को छुए भ�ण करे ।वह सतत संिचत िविवध जीवो,ं िप� की ह�ा करे ॥६८॥
अ�याथ� : [य: आमां वा प�ां] जो क�ी अथवा अि� म� पकी �ई [िपिशतपेशीम् खादित]मांस की पेशी को खाता है [वा �ृशित] अथवा छूता है [स: सततिनिचतं] वह पु�ष िनर�रइक�े �ए [ब�जीवकोटीनाम्] अनेक जाित के जीव समूह के [िप�ं िनह��] िप� काघात करता है ।
+ मधु के दोष -
मधुशकलमिप �ायो मधुकरिहंसा�कं भवित लोके ।भजित मधु मूढधीको यः स भवित िहंसकोऽ��म् ॥६९॥
है मधु की इक बँूद भी, �ाय: मधूकर घातमय ।जो मूढ़ सेवन करे मधु का, महा िहंसक सदा वह ॥६९॥
अ�याथ� : [लोके मधुशकलमिप] इस लोक म� मधु की एक बँूद भी [�ाय:मधुकरिहंसा�कं] ब�त करके मधुकर-भौरो ं की अथवा मधुम��यो ं की िहंसा��प[भवित य: मूढधीक:] होती है, इसिलए जो मूख�बु�� [मधु भजित] मधु का भ�ण करता है,[स: अ��ं िहंसक:] वह अ�� िहंसाक है ।
+ मधु जीवो ंका उ�ि� �थान -
�यमेव िवगिलतं यो गृ�ीया�ा छलेन मधुगोलात् ।त�ािप भवित िहंसा तदा�य�ािणनां घातात् ॥७०॥
जो कपट से मधु छ� से, �यमेव िगरते मधु को ।लेता वहाँ भी तदाि�त जीव घात से िहंसा िह हो ॥७०॥
अ�याथ� : [य: छलेन वा] जो कोई कपट से अथवा [गोलात् �यमेव िवगिलतम्] मधुछ�ाम� से अपने आप टपका �आ [मधु गृ�ीयात्] मधु �हण करता है, [त�ािप तदा�य�ािणनाम्] वहाँ भी उसके आ�यभूत ज�ुओ ंके [घातात् िहंसा भवित] घात से िहंसा होती है।
+ समु�-�प से �ाग -
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मधु म�ं नवनीतं िपिशतं च महािवकृतय�ाः ।व���े न �ितना त�णा� ज�व�� ॥७१॥
िनत महा िवकृितमय मधु, नवनीत मिदरा माँस का ।सेवन कर� निहं �ती, �ों�िक रह� त�त् िजव सदा ॥७१॥
अ�याथ� : [मधु म�ं नवनीतं च िपिशतं] शहद, मिदरा, म�न और मांस [महािवकृतय:ता:] महान िवकार-�प इन चारो ंपदाथ� को [�ितना न व���े] �ती पु�ष भ�ण न करे;[त� त�णा� ज�व:] उन व�ुओ ंम� उस जाित के उसी वण� के धारी जीव रहते ह� ।
+ पांच उदंबर फल के दोष -
योिन�दु�रयु�ं ����ोधिप�लफलािन ।�सजीवानां त�ा�ेषां त��णे िहंसा ॥७२॥
अंजीर ऊमर कठ