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कामायनी जयशंकर प्रसाद
अनुक्रम
चि�ंता सर्ग�
आशा सर्ग�
श्रृद्धा सर्ग�
काम सर्ग�
वासना सर्ग�
लज्जा सर्ग�
कम� सर्ग�
ईर्ष्याया� सर्ग�
इडा सर्ग�
स्वप्न सर्ग�
संघर्ष� सर्ग�
निनव'द सर्ग�
दश�न सर्ग�
रहस्य सर्ग�
आनंद सर्ग�
अनुक्रम चि�ंता सर्ग� आरे्ग
भार्ग -1
निहमनिर्गरिर के उत्तुंर्ग शिशखर पर,
बैठ शिशला की शीतल छाँह
एक पुरुर्ष, भीरे्ग नयनों से
देख रहा था प्रलय प्रवाह |
नी�े जल था ऊपर निहम था,
एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता
कहो उसे जड़ या �ेतन |
दूर दूर तक निवस्तृत था निहम
स्तब्ध उसी के हृदय समान,
नीरवता-सी शिशला-�रण से
टकराता निEरता पवमान |
तरूण तपस्वी-सा वह बैठा
साधन करता सुर-श्मशान,
नी�े प्रलय चिसंधु लहरों का
होता था सकरूण अवसान।
उसी तपस्वी-से लंबे थे
देवदारू दो �ार खडे़,
हुए निहम-धवल, जैसे पत्थर
बनकर ठिठठुरे रहे अडे़।
अवयव की दृढ मांस-पेशिशयाँ,
ऊज�स्विस्वत था वीर्य्यय� अपार,
स्फीत शिशरायें, स्वस्थ रक्त का
होता था जिजनमें सं�ार।
चि�ंता-कातर वदन हो रहा
पौरूर्ष जिजसमें ओत-प्रोत,
उधर उपेक्षामय यौवन का
बहता भीतर मधुमय स्रोत।
बँधी महावट से नौका थी
सूखे में अब पड़ी रही,
उतर �ला था वह जल-प्लावन,
और निनकलने लर्गी मही।
निनकल रही थी मम� वेदना
करूणा निवकल कहानी सी,
वहाँ अकेली प्रकृनित सुन रही,
हँसती-सी पह�ानी-सी।
"ओ चि�ंता की पहली रेखा,
अरी निवश्व-वन की व्याली,
ज्वालामुखी स्फोट के भीर्षण
प्रथम कंप-सी मतवाली।
हे अभाव की �पल बाशिलके,
री ललाट की खलखेला
हरी-भरी-सी दौड़-धूप,
ओ जल-माया की �ल-रेखा।
इस ग्रहकक्षा की हल�ल-
री तरल र्गरल की लघु-लहरी,
जरा अमर-जीवन की,
और न कुछ सुनने वाली, बहरी।
अरी व्याधिध की सूत्र-धारिरणी-
अरी आधिध, मधुमय अभिभशाप
हृदय-र्गर्गन में धूमकेतु-सी,
पुण्य-सृधिd में संुदर पाप।
मनन करावेर्गी तू निकतना?
उस निनभिeत जानित का जीव
अमर मरेर्गा क्या?
तू निकतनी र्गहरी डाल रही है नींव।
आह धिघरेर्गी हृदय-लहलहे
खेतों पर करका-घन-सी,
शिछपी रहेर्गी अंतरतम में
सब के तू निनरू्गढ धन-सी।
बुजिद्ध, मनीर्षा, मनित, आशा,
चि�ंता तेरे हैं निकतने नाम
अरी पाप है तू, जा, �ल जा
यहाँ नहीं कुछ तेरा काम।
निवस्मृनित आ, अवसाद घेर ले,
नीरवते बस �ुप कर दे,
�ेतनता �ल जा, जड़ता से
आज शून्य मेरा भर दे।"
"चि�ंता करता हँू मैं जिजतनी
उस अतीत की, उस सुख की,
उतनी ही अनंत में बनती जाती
रेखायें दुख की।
आह सर्ग� के अग्रदूत
तुम असEल हुए, निवलीन हुए,
भक्षक या रक्षक जो समझो,
केवल अपने मीन हुए।
अरी आँधिधयों ओ निबजली की
ठिदवा-रानित्र तेरा नतन�,
उसी वासना की उपासना,
वह तेरा प्रत्यावत्तन�।
मभिण-दीपों के अंधकारमय
अरे निनराशा पूण� भनिवर्ष्याय
देव-दंभ के महामेध में
सब कुछ ही बन र्गया हनिवर्ष्याय।
अरे अमरता के �मकीले पुतलो
तेरे ये जयनाद
काँप रहे हैं आज प्रनितध्वनिन
बन कर मानो दीन निवर्षाद।
प्रकृनित रही दुज'य, पराजिजत
हम सब थे भूले मद में,
भोले थे, हाँ नितरते केवल सब
निवलाशिसता के नद में।
व ेसब डूबे, डूबा उनका निवभव,
बन र्गया पारावार
उमड़ रहा था देव-सुखों पर
दुख-जलधिध का नाद अपार।"
"वह उन्मुक्त निवलास हुआ क्या
स्वप्न रहा या छलना थी
देवसृधिd की सुख-निवभावरी
ताराओं की कलना थी।
�लते थे सुरभिभत अं�ल से
जीवन के मधुमय निनश्वास,
कोलाहल में मुखरिरत होता
देव जानित का सुख-निवश्वास।
सुख, केवल सुख का वह संग्रह,
कें द्रीभूत हुआ इतना,
छायापथ में नव तुर्षार का
सघन धिमलन होता जिजतना।
सब कुछ थे स्वायत्त,निवश्व के-बल,
वैभव, आनंद अपार,
उदे्वशिलत लहरों-सा होता
उस समृजिद्ध का सुख सं�ार।
कीर्तितं, दीप्ती, शोभा थी न�ती
अरूण-निकरण-सी �ारों ओर,
सप्तचिसंध ुके तरल कणों में,
द्रुम-दल में, आनन्द-निवभोर।
शशिक्त रही हाँ शशिक्त-प्रकृनित थी
पद-तल में निवनम्र निवश्रांत,
कँपती धरणी उन �रणों से होकर
प्रनितठिदन ही आक्रांत।
स्वयं देव थे हम सब,
तो निEर क्यों न निवशंृ्रखल होती सृधिd?
अरे अ�ानक हुई इसी से
कड़ी आपदाओं की वधृिd।
र्गया, सभी कुछ र्गया,मधुर तम
सुर-बालाओं का शंृ्रर्गार,
ऊर्षा ज्योत्स्ना-सा यौवन-स्विस्मत
मधुप-सदृश निनभिeत निवहार।
भरी वासना-सरिरता का वह
कैसा था मदमत्त प्रवाह,
प्रलय-जलधिध में संर्गम जिजसका
देख हृदय था उठा कराह।"
"शि�र-निकशोर-वय, निनत्य निवलासी
सुरभिभत जिजससे रहा ठिदरं्गत,
आज नितरोनिहत हुआ कहाँ वह
मधु से पूण� अनंत वसंत?
कुसुधिमत कंुजों में व ेपुलनिकत
पे्रमाचिलंर्गन हुए निवलीन,
मौन हुई हैं मूर्छिछतं तानें
और न सुन पडती अब बीन।
अब न कपोलों पर छाया-सी
पडती मुख की सुरभिभत भाप
भुज-मूलों में शिशशिथल वसन की
व्यस्त न होती है अब माप।
कंकण क्वभिणत, रभिणत नूपुर थे,
निहलते थे छाती पर हार,
मुखरिरत था कलरव,र्गीतों में
स्वर लय का होता अभिभसार।
सौरभ से ठिदरं्गत पूरिरत था,
अंतरिरक्ष आलोक-अधीर,
सब में एक अ�ेतन र्गनित थी,
जिजसमें निपछड़ा रहे समीर।
वह अनंर्ग-पीड़ा-अनुभव-सा
अंर्ग-भंनिर्गयों का नत्तन�,
मधुकर के मरंद-उत्सव-सा
मठिदर भाव से आवत्तन�।
भार्ग -2
सुरा सुरभिभमय बदन अरूण वे
नयन भरे आलस अनुराग़,
कल कपोल था जहाँ निबछलता
कल्पवृक्ष का पीत परार्ग।
निवकल वासना के प्रनितनिनधिध
व ेसब मुरझाये �ले र्गये,
आह जले अपनी ज्वाला से
निEर व ेजल में र्गले, र्गये।"
"अरी उपेक्षा-भरी अमरते री
अतृप्तिप्त निनबाध� निवलास
निद्वधा-रनिहत अपलक नयनों की
भूख-भरी दश�न की प्यास।
निबछुडे ़तेरे सब आचिलंर्गन,
पुलक-स्पश� का पता नहीं,
मधुमय �ंुबन कातरतायें,
आज न मुख को सता रहीं।
रत्न-सौंध के वातायन,
जिजनमें आता मधु-मठिदर समीर,
टकराती होर्गी अब उनमें
नितमिमंनिर्गलों की भीड़ अधीर।
देवकाधिमनी के नयनों से जहाँ
नील नशिलनों की सृधिd-
होती थी, अब वहाँ हो रही
प्रलयकारिरणी भीर्षण वधृिd।
व ेअम्लान-कुसुम-सुरभिभत-मभिण
रशि�त मनोहर मालायें,
बनीं शंृ्रखला, जकड़ी जिजनमें
निवलाशिसनी सुर-बालायें।
देव-यजन के पशुयज्ञों की
वह पूणा�हुनित की ज्वाला,
जलनिनधिध में बन जलती
कैसी आज लहरिरयों की माला।"
"उनको देख कौन रोया
यों अंतरिरक्ष में बैठ अधीर
व्यस्त बरसने लर्गा अशु्रमय
यह प्रालेय हलाहल नीर।
हाहाकार हुआ कं्रदनमय
कठिठन कुशिलश होते थे �ूर,
हुए ठिदरं्गत बधिधर, भीर्षण रव
बार-बार होता था कू्रर।
ठिदग्दाहों से धूम उठे,
या जलधर उठे भिक्षनितज-तट के
सघन र्गर्गन में भीम प्रकंपन,
झंझा के �लते झटके।
अंधकार में मशिलन धिमत्र की
धुँधली आभा लीन हुई।
वरूण व्यस्त थे, घनी काशिलमा
स्तर-स्तर जमती पीन हुई,
पं�भूत का भैरव धिमश्रण
शंपाओं के शकल-निनपात
उल्का लेकर अमर शशिक्तयाँ
खोज़ रहीं ज्यों खोया प्रात।
बार-बार उस भीर्षण रव से
कँपती धरती देख निवशेर्ष,
मानो नील व्योम उतरा हो
आचिलंर्गन के हेतु अशेर्ष।
उधर र्गरजती चिसंधु लहरिरयाँ
कुठिटल काल के जालों सी,
�ली आ रहीं Eेन उर्गलती
Eन Eैलाये व्यालों-सी।
धसँती धरा, धधकती ज्वाला,
ज्वाला-मुखिखयों के निनस्वास
और संकुशि�त क्रमश: उसके
अवयव का होता था ह्रास।
सबल तरंर्गाघातों से
उस कु्रद्ध चिसंद्ध ुके, निव�शिलत-सी-
व्यस्त महाकच्छप-सी धरणी
ऊभ-�ूम थी निवकशिलत-सी।
बढ़ने लर्गा निवलास-वरे्ग सा
वह अनितभैरव जल-संघात,
तरल-नितधिमर से प्रलय-पवन का
होता आचिलंर्गन प्रनितघात।
वेला क्षण-क्षण निनकट आ रही
भिक्षनितज क्षीण, निEर लीन हुआ
उदधिध डुबाकर अखिखल धरा को
बस मया�दा-हीन हुआ।
करका कं्रदन करती
और कु�लना था सब का,
पं�भूत का यह तांडवमय
नृत्य हो रहा था कब का।"
"एक नाव थी, और न उसमें
डाँडे लर्गते, या पतवार,
तरल तरंर्गों में उठ-निर्गरकर
बहती पर्गली बारंबार।
लर्गते प्रबल थपेडे,़ धुँधले तट का
था कुछ पता नहीं,
कातरता से भरी निनराशा
देख निनयनित पथ बनी वहीं।
लहरें व्योम �ूमती उठतीं,
�पलायें असंख्य न�तीं,
र्गरल जलद की खड़ी झड़ी में
बँूदे निनज संसृनित र�तीं।
�पलायें उस जलधिध-निवश्व में
स्वयं �मत्कृत होती थीं।
ज्यों निवराट बाड़व-ज्वालायें
खंड-खंड हो रोती थीं।
जलनिनधिध के तलवासी
जल�र निवकल निनकलते उतराते,
हुआ निवलोनिड़त रृ्गह,
तब प्राणी कौन! कहाँ! कब सुख पाते?
घनीभूत हो उठे पवन,
निEर श्वासों की र्गनित होती रूद्ध,
और �ेतना थी निबलखाती,
दृधिd निवEल होती थी कु्रद्ध।
उस निवराट आलोड़न में ग्रह,
तारा बुद-बुद से लर्गते,
प्रखर-प्रलय पावस में जर्गमग़,
ज्योनितर्ग�णों-से जर्गते।
प्रहर ठिदवस निकतने बीते,
अब इसको कौन बता सकता,
इनके सू�क उपकरणों का
शि�ह्न न कोई पा सकता।
काला शासन-�क्र मृत्यु का
कब तक �ला, न स्मरण रहा,
महामत्स्य का एक �पेटा
दीन पोत का मरण रहा।
किकंतु उसी ने ला टकराया
इस उत्तरनिर्गरिर के शिशर से,
देव-सृधिd का ध्वंस अ�ानक
श्वास लर्गा लेने निEर से।
आज अमरता का जीनिवत हँू मैं
वह भीर्षण जज�र दंभ,
आह सर्ग� के प्रथम अंक का
अधम-पात्र मय सा निवर्ष्याकंभ!"
"ओ जीवन की मरू-मरिरशि�का,
कायरता के अलस निवर्षाद!
अरे पुरातन अमृत अर्गनितमय
मोहमुग्ध जज�र अवसाद!
मौन नाश निवध्वंस अँधेरा
शून्य बना जो प्रकट अभाव,
वही सत्य है, अरी अमरते
तुझको यहाँ कहाँ अब ठाँव।
मृत्यु, अरी शि�र-निनदे्र
तेरा अंक निहमानी-सा शीतल,
तू अनंत में लहर बनाती
काल-जलधिध की-सी हल�ल।
महानृत्य का निवर्षम सम अरी
अखिखल सं्पदनों की तू माप,
तेरी ही निवभूनित बनती है सृधिd
सदा होकर अभिभशाप।
अंधकार के अट्टहास-सी
मुखरिरत सतत शि�रंतन सत्य,
शिछपी सृधिd के कण-कण में तू
यह संुदर रहस्य है निनत्य।
जीवन तेरा कु्षद्र अंश है
व्यक्त नील घन-माला में,
सौदाधिमनी-संधिध-सा सुन्दर
क्षण भर रहा उजाला में।"
पवन पी रहा था शब्दों को
निनज�नता की उखड़ी साँस,
टकराती थी, दीन प्रनितध्वनिन
बनी निहम-शिशलाओं के पास।
ध-ूध ूकरता ना� रहा था
अनस्विस्तत्व का तांडव नृत्य,
आकर्ष�ण-निवहीन निवदु्यत्कण
बने भारवाही थे भृत्य।
मृत्यु सदृश शीतल निनराश ही
आचिलंर्गन पाती थी दृधिd,
परमव्योम से भौनितक कण-सी
घने कुहासों की थी वधृिd।
वार्ष्याप बना उड़ता जाता था
या वह भीर्षण जल-संघात,
सौर�क्र में आवतन� था
प्रलय निनशा का होता प्रात।
आशा सर्ग� पीछे आरे्ग
भार्ग-1
ऊर्षा सुनहले तीर बरसती
जयलक्ष्मी-सी उठिदत हुई,
उधर पराजिजत काल रानित्र भी
जल में अतंर्तिनंनिहत हुई।
वह निववण� मुख त्रस्त प्रकृनित का
आज लर्गा हँसने निEर से,
वर्षा� बीती, हुआ सृधिd में
शरद-निवकास नये शिसर से।
नव कोमल आलोक निबखरता
निहम-संसृनित पर भर अनुरार्ग,
शिसत सरोज पर क्रीड़ा करता
जैसे मधुमय किपंर्ग परार्ग।
धीरे-धीरे निहम-आच्छादन
हटने लर्गा धरातल से,
जर्गीं वनस्पनितयाँ अलसाई
मुख धोती शीतल जल से।
नेत्र निनमीलन करती मानो
प्रकृनित प्रबुद्ध लर्गी होने,
जलधिध लहरिरयों की अँर्गड़ाई
बार-बार जाती सोने।
चिसंधुसेज पर धरा वधू अब
तनिनक संकुशि�त बैठी-सी,
प्रलय निनशा की हल�ल स्मृनित में
मान निकये सी ऐठीं-सी।
देखा मनु ने वह अनितरंजिजत
निवजन का नव एकांत,
जैसे कोलाहल सोया हो
निहम-शीतल-जड ़ त़ा-सा श्रांत।
इंद्रनीलमभिण महा �र्षक था
सोम-रनिहत उलटा लटका,
आज पवन मृदु साँस ले रहा
जैसे बीत र्गया खटका।
वह निवराट था हेम घोलता
नया रंर्ग भरने को आज,
'कौन'? हुआ यह प्रश्न अ�ानक
और कुतूहल का था राज़!
"निवश्वदेव, सनिवता या पूर्षा,
सोम, मरूत, �ं�ल पवमान,
वरूण आठिद सब घूम रहे हैं
निकसके शासन में अम्लान?
निकसका था भू-भंर्ग प्रलय-सा
जिजसमें ये सब निवकल रहे,
अरे प्रकृनित के शशिक्त-शि�ह्न
ये निEर भी निकतने निनबल रहे!
निवकल हुआ सा काँप रहा था,
सकल भूत �ेतन समुदाय,
उनकी कैसी बुरी दशा थी
वे थ ेनिववश और निनरुपाय।
देव न थ ेहम और न ये हैं,
सब परिरवत�न के पुतले,
हाँ निक र्गव�-रथ में तुरंर्ग-सा,
जिजतना जो �ाहे जुत ले।"
"महानील इस परम व्योम में,
अतंरिरक्ष में ज्योनितमा�न,
ग्रह, नक्षत्र और निवदु्यत्कण
निकसका करते से-संधान!
शिछप जाते हैं और निनकलते
आकर्ष�ण में खिखं�े हुए?
तृण, वीरुध लहलहे हो रहे
निकसके रस से चिसं�े हुए?
शिसर नी�ा कर निकसकी सत्ता
सब करते स्वीकार यहाँ,
सदा मौन हो प्रव�न करते
जिजसका, वह अस्विस्तत्व कहाँ?
हे अनंत रमणीय कौन तुम?
यह मैं कैसे कह सकता,
कैसे हो? क्या हो? इसका तो-
भार निव�ार न सह सकता।
हे निवराट! हे निवश्वदेव !
तुम कुछ हो,ऐसा होता भान-
मंद-्रं्गभीर-धीर-स्वर-संयुत
यही कर रहा सार्गर र्गान।"
"यह क्या मधुर स्वप्न-सी जिझलधिमल
सदय हृदय में अधिधक अधीर,
व्याकुलता सी व्यक्त हो रही
आशा बनकर प्राण समीर।
यह निकतनी सृ्पहणीय बन र्गई
मधुर जार्गरण सी-छनिबमान,
स्विस्मनित की लहरों-सी उठती है
ना� रही ज्यों मधुमय तान।
जीवन-जीवन की पुकार है
खेल रहा है शीतल-दाह-
निकसके �रणों में नत होता
नव-प्रभात का शुभ उत्साह।
मैं हूँ, यह वरदान सदृश क्यों
लर्गा रँू्गजने कानों में!
मैं भी कहने लर्गा, 'मैं रहूँ'
शाश्वत नभ के र्गानों में।
यह संकेत कर रही सत्ता
निकसकी सरल निवकास-मयी,
जीवन की लालसा आज
क्यों इतनी प्रखर निवलास-मयी?
तो निEर क्या मैं जिजऊँ
और भी-जीकर क्या करना होर्गा?
देव बता दो, अमर-वेदना
लेकर कब मरना होर्गा?"
एक यवनिनका हटी,
पवन से पे्ररिरत मायापट जैसी।
और आवरण-मुक्त प्रकृनित थी
हरी-भरी निEर भी वैसी।
स्वण� शाशिलयों की कलमें थीं
दूर-दूर तक Eैल रहीं,
शरद-इंठिदरा की मंठिदर की
मानो कोई रै्गल रही।
निवश्व-कल्पना-सा ऊँ�ा वह
सुख-शीतल-संतोर्ष-निनदान,
और डूबती-सी अ�ला का
अवलंबन, मभिण-रत्न-निनधान।
अ�ल निहमालय का शोभनतम
लता-कशिलत शुशि� सानु-शरीर,
निनद्रा में सुख-स्वप्न देखता
जैसे पुलनिकत हुआ अधीर।
उमड़ रही जिजसके �रणों में
नीरवता की निवमल निवभूनित,
शीतल झरनों की धारायें
निबखरातीं जीवन-अनुभूनित!
उस असीम नीले अं�ल में
देख निकसी की मृदु मुसक्यान,
मानों हँसी निहमालय की है
Eूट �ली करती कल र्गान।
शिशला-संधिधयों में टकरा कर
पवन भर रहा था रंु्गजार,
उस दुभ'द्य अ�ल दृढ़ता का
करता �ारण-सदृश प्र�ार।
संध्या-घनमाला की संुदर
ओढे़ रंर्ग-निबरंर्गी छींट,
र्गर्गन-�ंुनिबनी शैल-श्रेभिणयाँ
पहने हुए तुर्षार-निकरीट।
निवश्व-मौन, र्गौरव, महत्त्व की
प्रनितनिनधिधयों से भरी निवभा,
इस अनंत प्रांर्गण में मानो
जोड़ रही है मौन सभा।
वह अनंत नीशिलमा व्योम की
जड़ता-सी जो शांत रही,
दूर-दूर ऊँ�े से ऊँ�े
निनज अभाव में भ्रांत रही।
उसे ठिदखाती जर्गती का सुख,
हँसी और उल्लास अजान,
मानो तंुर्ग-तुरंर्ग निवश्व की।
निहमनिर्गरिर की वह सुढर उठान
थी अंनत की र्गोद सदृश जो
निवस्तृत रु्गहा वहाँ रमणीय,
उसमें मनु ने स्थान बनाया
संुदर, स्वच्छ और वरणीय।
पहला संशि�त अखिग्न जल रहा
पास मशिलन-दु्यनित रनिव-कर से,
शशिक्त और जार्गरण-शि�न्ह-सा
लर्गा धधकने अब निEर से।
जलने लर्गा किनंरतर उनका
अखिग्नहोत्र सार्गर के तीर,
मनु ने तप में जीवन अपना
निकया समप�ण होकर धीर।
सज़र्ग हुई निEर से सुर-संकृनित
देव-यजन की वर माया,
उन पर लर्गी डालने अपनी
कम�मयी शीतल छाया।
भार्ग-2
उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है
भिक्षनितज बी� अरुणोदय कांत,
लर्गे देखने लुब्ध नयन से
प्रकृनित-निवभूनित मनोहर, शांत।
पाकयज्ञ करना निनभिeत कर
लर्गे शाशिलयों को �ुनने,
उधर वधिह्न-ज्वाला भी अपना
लर्गी धूम-पट थी बुनने।
शुर्ष्याक डाशिलयों से वृक्षों की
अखिग्न-अर्छि�ंया हुई सधिमद्ध।
आहुनित के नव धूमर्गंध से
नभ-कानन हो र्गया समृद्ध।
और सो�कर अपने मन में
"जैसे हम हैं ब�े हुए-
क्या आeय� और कोई हो
जीवन-लीला र�े हुए,"
अखिग्नहोत्र-अवशिशd अन्न कुछ
कहीं दूर रख आते थ,े
होर्गा इससे तृप्त अपरिरशि�त
समझ सहज सुख पाते थे।
दुख का र्गहन पाठ पढ़कर
अब सहानुभूनित समझते थ,े
नीरवता की र्गहराई में
मग्न अकेले रहते थे।
मनन निकया करते वे बैठे
ज्वशिलत अखिग्न के पास वहाँ,
एक सजीव, तपस्या जैसे
पतझड़ में कर वास रहा।
निEर भी धड़कन कभी हृदय में
होती चि�ंता कभी नवीन,
यों ही लर्गा बीतने उनका
जीवन अस्थिस्थर ठिदन-ठिदन दीन।
प्रश्न उपस्थिस्थत निनत्य नये थे
अंधकार की माया में,
रंर्ग बदलते जो पल-पल में
उस निवराट की छाया में।
अध� प्रसु्फठिटत उत्तर धिमलते
प्रकृनित सकम�क रही समस्त,
निनज अस्विस्तत्व बना रखने में
जीवन हुआ था व्यस्त।
तप में निनरत हुए मनु,
निनयधिमत-कम� लर्गे अपना करने,
निवश्वरंर्ग में कम�जाल के
सूत्र लर्गे घन हो धिघरने।
उस एकांत निनयनित-शासन में
�ले निववश धीरे-धीरे,
एक शांत सं्पदन लहरों का
होता ज्यों सार्गर-तीरे।
निवजन जर्गत की तंद्रा में
तब �लता था सूना सपना,
ग्रह-पथ के आलोक-वृत से
काल जाल तनता अपना।
प्रहर, ठिदवस, रजनी आती थी
�ल-जाती संदेश-निवहीन,
एक निवरार्गपूण� संसृनित में
ज्यों निनर्ष्याEल आंरभ नवीन।
धवल,मनोहर �ंद्रकिबंब से अंनिकत
संुदर स्वच्छ निनशीथ,
जिजसमें शीतल पावन र्गा रहा
पुलनिकत हो पावन उद्गर्गीथ।
नी�े दूर-दूर निवस्तृत था
उर्मिमलं सार्गर व्यशिथत, अधीर
अंतरिरक्ष में व्यस्त उसी सा
�ंठिद्रका-निनधिध रं्गभीर।
खुलीं उस रमणीय दृश्य में
अलस �ेतना की आँखे,
हृदय-कुसुम की खिखलीं अ�ानक
मधु से वे भीर्गी पाँखे।
व्यक्त नील में �ल प्रकाश का
कंपन सुख बन बजता था,
एक अतींठिद्रय स्वप्न-लोक का
मधुर रहस्य उलझता था।
नव हो जर्गी अनाठिद वासना
मधुर प्राकृनितक भूख-समान,
शि�र-परिरशि�त-सा �ाह रहा था
दं्वद्व सुखद करके अनुमान।
ठिदवा-रानित्र या-धिमत्र वरूण की
बाला का अक्षय श्रृंर्गार,
धिमलन लर्गा हँसने जीवन के
उर्मिमलं सार्गर के उस पार।
तप से संयम का संशि�त बल,
तृनिर्षत और व्याकुल था आज-
अट्टाहास कर उठा रिरक्त का
वह अधीर-तम-सूना राज।
धीर-समीर-परस से पुलनिकत
निवकल हो �ला श्रांत-शरीर,
आशा की उलझी अलकों से
उठी लहर मधुर्गंध अधीर।
मनु का मन था निवकल हो उठा
संवेदन से खाकर �ोट,
संवेदन जीवन जर्गती को
जो कटुता से देता घोंट।
"आह कल्पना का संुदर
यह जर्गत मधुर निकतना होता
सुख-स्वप्नों का दल छाया में
पुलनिकत हो जर्गता-सोता।
संवेदन का और हृदय का
यह संघर्ष� न हो सकता,
निEर अभाव असEलताओं की
र्गाथा कौन कहाँ बकता?
कब तक और अकेले?
कह दो हे मेरे जीवन बोलो?
निकसे सुनाऊँ कथा-कहो मत,
अपनी निनधिध न व्यथ� खोलो।
"तम के संुदरतम रहस्य,
हे कांनित-निकरण-रंजिजत तारा
व्यशिथत निवश्व के साप्तित्वक शीतल निबदु,
भरे नव रस सारा।
आतप-तनिपत जीवन-सुख की
शांनितमयी छाया के देश,
हे अनंत की र्गणना
देते तुम निकतना मधुमय संदेश।
आह शून्यते �ुप होने में
तू क्यों इतनी �तुर हुई?
इंद्रजाल-जननी रजनी तू क्यों
अब इतनी मधुर हुई?"
"जब कामना चिसंधु तट आई
ले संध्या का तारा दीप,
Eाड़ सुनहली साड़ी उसकी
तू हँसती क्यों अरी प्रतीप?
इस अनंत काले शासन का
वह जब उचं्छखल इनितहास,
आँसू और' तम घोल शिलख रही तू
सहसा करती मृदु हास।
निवश्व कमल की मृदुल मधुकरी
रजनी तू निकस कोने से-
आती �ूम-�ूम �ल जाती
पढ़ी हुई निकस टोने से।
निकस दिदंर्गत रेखा में इतनी
संशि�त कर शिससकी-सी साँस,
यों समीर धिमस हाँE रही-सी
�ली जा रही निकसके पास।
निवकल खिखलखिखलाती है क्यों तू?
इतनी हँसी न व्यथ� निबखेर,
तुनिहन कणों, Eेनिनल लहरों में,
म� जावेर्गी निEर अधेर।
घूँघट उठा देख मुस्कयाती
निकसे ठिठठकती-सी आती,
निवजन र्गर्गन में निकस भूल सी
निकसको स्मृनित-पथ में लाती।
रजत-कुसुम के नव परार्ग-सी
उडा न दे तू इतनी धूल-
इस ज्योत्सना की, अरी बावली
तू इसमें जावेर्गी भूल।
पर्गली हाँ सम्हाल ले,
कैसे छूट पडा़ तेरा अँ�ल?
देख, निबखरती है मभिणराजी-
अरी उठा बेसुध �ं�ल।
Eटा हुआ था नील वसन क्या
ओ यौवन की मतवाली।
देख अकिकं�न जर्गत लूटता
तेरी छनिव भोली भाली
ऐसे अतुल अंनत निवभव में
जार्ग पड़ा क्यों तीव्र निवरार्ग?
या भूली-सी खोज़ रही कुछ
जीवन की छाती के दार्ग"
"मैं भी भूल र्गया हूँ कुछ,
हाँ स्मरण नहीं होता, क्या था?
पे्रम, वेदना, भ्रांनित या निक क्या?
मन जिजसमें सुख सोता था
धिमले कहीं वह पडा अ�ानक
उसको भी न लुटा देना
देख तुझे भी दँूर्गा तेरा भार्ग,
न उसे भुला देना"
श्रृद्धा सर्ग� पीछे आरे्ग
भार्ग-1
कौन हो तुम? संसृनित-जलनिनधिध
तीर-तरंर्गों से Eें की मभिण एक,
कर रहे निनज�न का �ुप�ाप
प्रभा की धारा से अभिभरे्षक?
मधुर निवश्रांत और एकांत-जर्गत का
सुलझा हुआ रहस्य,
एक करुणामय संुदर मौन
और �ं�ल मन का आलस्य"
सुना यह मनु ने मधु रंु्गजार
मधुकरी का-सा जब सानंद,
निकये मुख नी�ा कमल समान
प्रथम कनिव का ज्यों संुदर छंद,
एक झटका-सा लर्गा सहर्ष�,
निनरखने लर्गे लुटे-से
कौन र्गा रहा यह संुदर संर्गीत?
कुतुहल रह न सका निEर मौन।
और देखा वह संुदर दृश्य
नयन का इदं्रजाल अभिभराम,
कुसुम-वैभव में लता समान
�ंठिद्रका से शिलपटा घनश्याम।
हृदय की अनुकृनित बाह्य उदार
एक लम्बी काया, उन्मुक्त
मधु-पवन क्रीनिडत ज्यों शिशशु साल,
सुशोभिभत हो सौरभ-संयुक्त।
मसृण, र्गांधार देश के नील
रोम वाले मेर्षों के �म�,
ढक रहे थ ेउसका वपु कांत
बन रहा था वह कोमल वम�।
नील परिरधान बी� सुकुमार
खुल रहा मृदुल अधखुला अंर्ग,
खिखला हो ज्यों निबजली का Eूल
मेघवन बी� रु्गलाबी रंर्ग।
आह वह मुख पभिश्वम के व्योम बी�
जब धिघरते हों घन श्याम,
अरूण रनिव-मंडल उनको भेद
ठिदखाई देता हो छनिवधाम।
या निक, नव इंद्रनील लघु श्रृंर्ग
Eोड़ कर धधक रही हो कांत
एक ज्वालामुखी अ�ेत
माधवी रजनी में अश्रांत।
धिघर रहे थ ेघुँघराले बाल अंस
अवलंनिबत मुख के पास,
नील घनशावक-से सुकुमार
सुधा भरने को निवधु के पास।
और, उस पर वह मुसक्यान
रक्त निकसलय पर ले निवश्राम
अरुण की एक निकरण अम्लान
अधिधक अलसाई हो अभिभराम।
निनत्य-यौवन छनिव से ही दीप्त
निवश्व की करूण कामना मूर्तितं,
स्पश� के आकर्ष�ण से पूण�
प्रकट करती ज्यों जड़ में सू्फर्तितं।
ऊर्षा की पनिहली लेखा कांत,
माधुरी से भीर्गी भर मोद,
मद भरी जैसे उठे सलज्ज
भोर की तारक-दु्यनित की र्गोद
कुसुम कानन अं�ल में
मंद-पवन पे्ररिरत सौरभ साकार,
रशि�त, परमाणु-परार्ग-शरीर
खड़ा हो, ले मधु का आधार।
और, पडती हो उस पर शुभ्र नवल
मधु-राका मन की साध,
हँसी का मदनिवह्वल प्रनितकिबंब
मधुरिरमा खेला सदृश अबाध।
कहा मनु ने-"नभ धरणी बी�
बना जी�न रहस्य निनरूपाय,
एक उल्का सा जलता भ्रांत,
शून्य में निEरता हूँ असहाय।
शैल निनझ�र न बना हतभाग्य,
र्गल नहीं सका जो निक निहम-खंड,
दौड़ कर धिमला न जलनिनधिध-अंक
आह वैसा ही हूँ पारं्षड।
पहेली-सा जीवन है व्यस्त,
उसे सुलझाने का अभिभमान
बताता है निवस्मृनित का मार्ग�
�ल रहा हूँ बनकर अनज़ान।
भूलता ही जाता ठिदन-रात
सजल अभिभलार्षा कशिलत अतीत,
बढ़ रहा नितधिमर-र्गभ� में
निनत्य जीवन का यह संर्गीत।
क्या कहूँ, क्या हूँ मैं उदभ््रांत?
निववर में नील र्गर्गन के आज
वायु की भटकी एक तरंर्ग,
शून्यता का उज़ड़ा-सा राज़।
एक स्मृनित का स्तूप अ�ेत,
ज्योनित का धुँधला-सा प्रनितकिबंब
और जड़ता की जीवन-राशिश,
सEलता का संकशिलत निवलंब।"
"कौन हो तुम बंसत के दूत
निवरस पतझड़ में अनित सुकुमार।
घन-नितधिमर में �पला की रेख
तपन में शीतल मंद बयार।
नखत की आशा-निकरण समान
हृदय के कोमल कनिव की कांत-
कल्पना की लघु लहरी ठिदव्य
कर रही मानस-हल�ल शांत"।
लर्गा कहने आरं्गतुक व्यशिक्त
धिमटाता उत्कंठा सनिवशेर्ष,
दे रहा हो कोनिकल सानंद
सुमन को ज्यों मधुमय संदेश।
"भरा था मन में नव उत्साह
सीख लँू लशिलत कला का ज्ञान,
इधर रही र्गन्धव के देश,
निपता की हूँ प्यारी संतान।
घूमने का मेरा अभ्यास बढ़ा था
मुक्त-व्योम-तल निनत्य,
कुतूहल खोज़ रहा था,
व्यस्त हृदय-सत्ता का संुदर सत्य।
दृधिd जब जाती निहमनिर्गरी ओर
प्रश्न करता मन अधिधक अधीर,
धरा की यह शिसकुडन भयभीत आह,
कैसी है? क्या है? पीर?
मधुरिरमा में अपनी ही मौन
एक सोया संदेश महान,
सज़र्ग हो करता था संकेत,
�ेतना म�ल उठी अनजान।
बढ़ा मन और �ले ये पैर,
शैल-मालाओं का श्रृंर्गार,
आँख की भूख धिमटी यह देख
आह निकतना संुदर संभार।
एक ठिदन सहसा चिसंधु अपार
लर्गा टकराने नद तल कु्षब्ध,
अकेला यह जीवन निनरूपाय
आज़ तक घूम रहा निवश्रब्ध।
यहाँ देखा कुछ बशिल का अन्न,
भूत-निहत-रत निकसका यह दान
इधर कोई है अभी सजीव,
हुआ ऐसा मन में अनुमान।
भार्ग-2
तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत?
वेदना का यह कैसा वेर्ग?
आह!तुम निकतने अधिधक हताश-
बताओ यह कैसा उदे्वर्ग?
हृदय में क्या है नहीं अधीर-
लालसा की निनश्शेर्ष?
कर रहा वंशि�त कहीं न त्यार्ग तुम्हें,
मन में घर संुदर वेश
दुख के डर से तुम अज्ञात
जठिटलताओं का कर अनुमान,
काम से जिझझक रहे हो आज़
भनिवर्ष्याय से बनकर अनजान,
कर रही लीलामय आनंद-
महाशि�नित सजर्ग हुई-सी व्यक्त,
निवश्व का उन्मीलन अभिभराम-
इसी में सब होते अनुरक्त।
काम-मंर्गल से मंनिडत श्रेय,
सर्ग� इच्छा का है परिरणाम,
नितरस्कृत कर उसको तुम भूल
बनाते हो असEल भवधाम"
"दुःख की निपछली रजनी बी�
निवकसता सुख का नवल प्रभात,
एक परदा यह झीना नील
शिछपाये है जिजसमें सुख र्गात।
जिजसे तुम समझे हो अभिभशाप,
जर्गत की ज्वालाओं का मूल-
ईश का वह रहस्य वरदान,
कभी मत इसको जाओ भूल।
निवर्षमता की पीडा से व्यक्त हो रहा
सं्पठिदत निवश्व महान,
यही दुख-सुख निवकास का सत्य
यही भूमा का मधुमय दान।
निनत्य समरसता का अधिधकार
उमडता कारण-जलधिध समान,
व्यथा से नीली लहरों बी�
निबखरते सुख-मभिणर्गण-दु्यनितमान।"
लर्गे कहने मनु सनिहत निवर्षाद-
"मधुर मारूत-से ये उच्छ्वास
अधिधक उत्साह तरंर्ग अबाध
उठाते मानस में सनिवलास।
किकंतु जीवन निकतना निनरूपाय!
शिलया है देख, नहीं संदेह,
निनराशा है जिजसका कारण,
सEलता का वह कस्थिल्पत रे्गह।"
कहा आरं्गतुक ने सस्नेह- "अरे,
तुम इतने हुए अधीर
हार बैठे जीवन का दाँव,
जीतते मर कर जिजसको वीर।
तप नहीं केवल जीवन-सत्य
करूण यह क्षभिणक दीन अवसाद,
तरल आकांक्षा से है भरा-
सो रहा आशा का आल्हाद।
प्रकृनित के यौवन का श्रृंर्गार
करेंर्गे कभी न बासी Eूल,
धिमलेंर्गे वे जाकर अनित शीघ्र
आह उत्सुक है उनकी धूल।
पुरातनता का यह निनम¦क
सहन करती न प्रकृनित पल एक,
निनत्य नूतनता का आंनद
निकये है परिरवत�न में टेक।
युर्गों की �ट्टानों पर सृधिd
डाल पद-शि�ह्न �ली रं्गभीर,
देव,रं्गधव�,असुर की पंशिक्त
अनुसरण करती उसे अधीर।"
"एक तुम, यह निवस्तृत भू-खंड
प्रकृनित वैभव से भरा अमंद,
कम� का भोर्ग, भोर्ग का कम�,
यही जड़ का �ेतन-आनन्द।
अकेले तुम कैसे असहाय
यजन कर सकते? तुच्छ निव�ार।
तपस्वी! आकर्ष�ण से हीन
कर सके नहीं आत्म-निवस्तार।
दब रहे हो अपने ही बोझ
खोजते भी नहीं कहीं अवलंब,
तुम्हारा सह�र बन कर क्या न
उऋण होऊँ मैं निबना निवलंब?
समप�ण लो-सेवा का सार,
सजल संसृनित का यह पतवार,
आज से यह जीवन उत्सर्ग�
इसी पद-तल में निवर्गत-निवकार
दया, माया, ममता लो आज,
मधुरिरमा लो, अर्गाध निवश्वास,
हमारा हृदय-रत्न-निनधिध
स्वच्छ तुम्हारे शिलए खुला है पास।
बनो संसृनित के मूल रहस्य,
तुम्हीं से Eैलेर्गी वह बेल,
निवश्व-भर सौरभ से भर जाय
सुमन के खेलो संुदर खेल।"
"और यह क्या तुम सुनते नहीं
निवधाता का मंर्गल वरदान-
'शशिक्तशाली हो, निवजयी बनो'
निवश्व में रँू्गज रहा जय-र्गान।
डरो मत, अरे अमृत संतान
अग्रसर है मंर्गलमय वृजिद्ध,
पूण� आकर्ष�ण जीवन कें द्र
खिखं�ी आवेर्गी सकल समृजिद्ध।
देव-असEलताओं का ध्वंस
प्र�ुर उपकरण जुटाकर आज,
पड़ा है बन मानव-सम्पभित्त
पूण� हो मन का �ेतन-राज।
�ेतना का संुदर इनितहास-
अखिखल मानव भावों का सत्य,
निवश्व के हृदय-पटल पर
ठिदव्य अक्षरों से अंनिकत हो निनत्य।
निवधाता की कल्याणी सृधिd,
सEल हो इस भूतल पर पूण�,
पटें सार्गर, निबखरे ग्रह-पंुज
और ज्वालामुखिखयाँ हों �ूण�।
उन्हें चि�ंर्गारी सदृश सदप�
कु�लती रहे खडी सानंद,
आज से मानवता की कीर्तितं
अनिनल, भू, जल में रहे न बंद।
जलधिध के Eूटें निकतने उत्स-
द्वीE-कच्छप डूबें-उतरायें।
निकन्तु वह खड़ी रहे दृढ-मूर्तितं
अभ्युदय का कर रही उपाय।
निवश्व की दुब�लता बल बने,
पराजय का बढ़ता व्यापार-
हँसाता रहे उसे सनिवलास
शशिक्त का क्रीडामय सं�ार।
शशिक्त के निवदु्यत्कण जो व्यस्त
निवकल निबखरे हैं, हो निनरूपाय,
समन्वय उसका करे समस्त
निवजधियनी मानवता हो जाय"।
काम सर्ग� पीछे आरे्ग
भार्ग-1
"मधुमय वसंत जीवन-वन के,
बह अंतरिरक्ष की लहरों में,
कब आये थ ेतुम �ुपके से
रजनी के निपछले पहरों में?
क्या तुम्हें देखकर आते यों
मतवाली कोयल बोली थी?
उस नीरवता में अलसाई
कशिलयों ने आँखे खोली थी?
जब लीला से तुम सीख रहे
कोरक-कोने में लुक करना,
तब शिशशिथल सुरभिभ से धरणी में
निबछलन न हुई थी? स� कहना
जब शिलखते थ ेतुम सरस हँसी
अपनी, Eूलों के अं�ल में
अपना कल कंठ धिमलाते थे
झरनों के कोमल कल-कल में।
निनभिeत आह वह था निकतना,
उल्लास, काकली के स्वर में
आनन्द प्रनितध्वनिन रँू्गज रही
जीवन ठिदर्गंत के अंबर में।
शिशशु शि�त्रकार! �ं�लता में,
निकतनी आशा शि�नित्रत करते!
अस्पd एक शिलनिप ज्योनितमयी-
जीवन की आँखों में भरते।
लनितका घूँघट से शि�तवन की वह
कुसुम-दुग्ध-सी मधु-धारा,
प्लानिवत करती मन-अजिजर रही-
था तुच्छ निवश्व वैभव सारा।
वे Eूल और वह हँसी रही वह
सौरभ, वह निनश्वास छना,
वह कलरव, वह संर्गीत अरे
वह कोलाहल एकांत बना"
कहते-कहते कुछ सो� रहे
लेकर निनश्वास निनराशा की-
मनु अपने मन की बात,
रूकी निEर भी न प्रर्गनित अभिभलार्षा की।
"ओ नील आवरण जर्गती के!
दुब¦ध न तू ही है इतना,
अवर्गुंठन होता आँखों का
आलोक रूप बनता जिजतना।
�ल-�क्र वरूण का ज्योनित भरा
व्याकुल तू क्यों देता Eेरी?
तारों के Eूल निबखरते हैं
लुटती है असEलता तेरी।
नव नील कंुज हैं झूम रहे
कुसुमों की कथा न बंद हुई,
है अतंरिरक्ष आमोद भरा निहम-
कभिणका ही मकरंद हुई।
इस इंदीवर से रं्गध भरी
बुनती जाली मधु की धारा,
मन-मधुकर की अनुरार्गमयी
बन रही मोनिहनी-सी कारा।
अणुओं को है निवश्राम कहाँ
यह कृनितमय वेर्ग भरा निकतना
अनिवराम ना�ता कंपन है,
उल्लास सजीव हुआ निकतना?
उन नृत्य-शिशशिथल-निनश्वासों की
निकतनी है मोहमयी माया?
जिजनसे समीर छनता-छनता
बनता है प्राणों की छाया।
आकाश-रंध्र हैं पूरिरत-से
यह सृधिd र्गहन-सी होती है
आलोक सभी मूर्छिछंत सोते
यह आँख थकी-सी रोती है।
सौंदय�मयी �ं�ल कृनितयाँ
बनकर रहस्य हैं ना� रही,
मेरी आँखों को रोक वहीं
आरे्ग बढने में जाँ� रही।
मैं देख रहा हूँ जो कुछ भी
वह सब क्या छाया उलझन है?
संुदरता के इस परदे में
क्या अन्य धरा कोई धन है?
मेरी अक्षय निनधिध तुम क्या हो
पह�ान सकँूर्गा क्या न तुम्हें?
उलझन प्राणों के धार्गों की
सुलझन का समझंू मान तुम्हें।
माधवी निनशा की अलसाई
अलकों में लुकते तारा-सी,
क्या हो सूने-मरु अं�ल में
अंतःसशिलला की धारा-सी,
श्रुनितयों में �ुपके-�ुपके से कोई
मधु-धारा घोल रहा,
इस नीरवता के परदे में
जैसे कोई कुछ बोल रहा।
है स्पश� मलय के जिझलधिमल सा
संज्ञा को और सुलाता है,
पुलनिकत हो आँखे बंद निकये
तंद्रा को पास बुलाता है।
व्रीडा है यह �ं�ल निकतनी
निवभ्रम से घूँघट खीं� रही,
शिछपने पर स्वयं मृदुल कर से
क्यों मेरी आँखे मीं� रही?
उद्बदु्ध भिक्षनितज की श्याम छटा
इस उठिदत शुक्र की छाया में,
ऊर्षा-सा कौन रहस्य शिलये
सोती निकरनों की काया में।
उठती है निकरनों के ऊपर
कोमल निकसलय की छाजन-सी,
स्वर का मधु-निनस्वन रंध्रों में-
जैसे कुछ दूर बजे बंसी।
सब कहते हैं- 'खोलो खोलो,
छनिव देखँूर्गा जीवन धन की'
आवरन स्वयं बनते जाते हैं
भीड़ लर्ग रही दश�न की।
�ाँदनी सदृश खुल जाय कहीं
अवर्गुंठत आज सँवरता सा,
जिजसमें अनंत कल्लोल भरा
लहरों में मस्त निव�रता सा-
अपना Eेनिनल Eन पटक रहा
मभिणयों का जाल लुटाता-सा,
उनिनन्द्र ठिदखाई देता हो
उन्मत्त हुआ कुछ र्गाता-सा।"
"जो कुछ हो, मैं न सम्हालँूर्गा
इस मधुर भार को जीवन के,
आने दो निकतनी आती हैं
बाधायें दम-संयम बन के।
नक्षत्रों, तुम क्या देखोर्गे-
इस ऊर्षा की लाली क्या है?
संकल्प भरा है उनमें
संदेहों की जाली क्या है?
कौशल यह कोमल निकतना है
सुर्षमा दुभ'द्य बनेर्गी क्या?
�ेतना इदं्रयों निक मेरी,
मेरी ही हार बनेर्गी क्या?
"पीता हूँ, हाँ मैं पीता हूँ-यह
स्पश�,रूप, रस रं्गध भरा मधु,
लहरों के टकराने से
ध्वनिन में है क्या रंु्गजार भरा।
तारा बनकर यह निबखर रहा
क्यों स्वप्नों का उन्माद अरे
मादकता-माती नींद शिलये
सोऊँ मन में अवसाद भरे।
�ेतना शिशशिथल-सी होती है
उन अधंकार की लहरों में-"
मनु डूब �ले धीरे-धीरे
रजनी के निपछले पहरों में।
उस दूर भिक्षनितज में सृधिd बनी
स्मृनितयों की संशि�त छाया से,
इस मन को है निवश्राम कहाँ
�ं�ल यह अपनी माया से।
भार्ग-2
जार्गरण-लोक था भूल �ला
स्वप्नों का सुख-सं�ार हुआ,
कौतुक सा बन मनु के मन का
वह संुदर क्रीड़ार्गार हुआ।
था व्यशिक्त सो�ता आलस में
�ेतना सजर्ग रहती दुहरी,
कानों के कान खोल करके
सुनती थी कोई ध्वनिन र्गहरी-
"प्यासा हूँ, मैं अब भी प्यासा
संतुd ओध से मैं न हुआ,
आया निEर भी वह �ला र्गया
तृर्ष्याणा को तनिनक न �ैन हुआ।
देवों की सृधिd निवशिलन हुई
अनुशीलन में अनुठिदन मेरे,
मेरा अनित�ार न बंद हुआ
उन्मत्त रहा सबको घेरे।
मेरी उपासना करते वे
मेरा संकेत निवधान बना,
निवस्तृत जो मोह रहा मेरा वह
देव-निवलास-निवतान तना।
मैं काम, रहा सह�र उनका
उनके निवनोद का साधन था,
हँसता था और हँसाता था
उनका मैं कृनितमय जीवन था।
जो आकर्ष�ण बन हँसती थी
रनित थी अनाठिद-वासना वही,
अव्यक्त-प्रकृनित-उन्मीलन के
अंतर में उसकी �ाह रही।
हम दोनों का अस्विस्तत्व रहा
उस आरंभिभक आवत्त�न-सा।
जिजससे संसृनित का बनता है
आकार रूप के नत्त�न-सा।
उस प्रकृनित-लता के यौवन में
उस पुर्ष्यापवती के माधव का-
मधु-हास हुआ था वह पहला
दो रूप मधुर जो ढाल सका।"
"वह मूल शशिक्त उठ खड़ी हुई
अपने आलस का त्यार्ग निकये,
परमाणु बल सब दौड़ पडे़
जिजसका संुदर अनुरार्ग शिलये।
कंुकुम का �ूण� उड़ाते से
धिमलने को र्गले ललकते से,
अंतरिरक्ष में मधु-उत्सव के
निवदु्यत्कण धिमले झलकते से।
वह आकर्ष�ण, वह धिमलन हुआ
प्रारंभ माधुरी छाया में,
जिजसको कहते सब सृधिd,
बनी मतवाली माया में।
प्रत्येक नाश-निवशे्लर्षण भी
संस्थिश्लd हुए, बन सृधिd रही,
ऋतुपनित के घर कुसुमोत्सव था-
मादक मरंद की वृधिd रही।
भुज-लता पड़ी सरिरताओं की
शैलों के र्गले सनाथ हुए,
जलनिनधिध का अं�ल व्यजन बना
धरणी के दो-दो साथ हुए।
कोरक अंकुर-सा जन्म रहा
हम दोनों साथी झूल �ले,
उस नवल सर्ग� के कानन में
मृदु मलयानिनल के Eूल �ले,
हम भूख-प्यास से जार्ग उठे
आकांक्षा-तृप्तिप्त समन्वय में,
रनित-काम बने उस र�ना में जो
रही निनत्य-यौवन वय में?'
"सुरबालाओं की सखी रही
उनकी हृत्त्री की लय थी
रनित, उनके मन को सुलझाती
वह रार्ग-भरी थी, मधुमय थी।
मैं तृर्ष्याणा था निवकशिसत करता,
वह तृप्तिप्त ठिदखती थी उनकी,
आनन्द-समन्वय होता था
हम ले �लते पथ पर उनको।
वे अमर रहे न निवनोद रहा,
�ेतना रही, अनंर्ग हुआ,
हूँ भटक रहा अस्विस्तत्व शिलये
संशि�त का सरल पं्रसर्ग हुआ।"
"यह नीड़ मनोहर कृनितयों का
यह निवश्व कम� रंर्गस्थल है,
है परंपरा लर्ग रही यहाँ
ठहरा जिजसमें जिजतना बल है।
वे निकतने ऐसे होते हैं
जो केवल साधन बनते हैं,
आरंभ और परिरणामों को
संबध सूत्र से बुनते हैं।
ऊर्षा की सज़ल रु्गलाली
जो घुलती है नीले अंबर में
वह क्या? क्या तुम देख रहे
वण के मेघाडंबर में?
अंतर है ठिदन औ 'रजनी का यह
साधक-कम� निबखरता है,
माया के नीले अं�ल में
आलोक निबदु-सा झरता है।"
"आरंभिभक वात्या-उद्गम मैं
अब प्रर्गनित बन रहा संसृनित का,
मानव की शीतल छाया में
ऋणशोध करँूर्गा निनज कृनित का।
दोनों का समुशि�त परिरवत्त�न
जीवन में शुद्ध निवकास हुआ,
पे्ररणा अधिधक अब स्पd हुई
जब निवप्लव में पड़ ह्रास हुआ।
यह लीला जिजसकी निवकस �ली
वह मूल शशिक्त थी पे्रम-कला,
उसका संदेश सुनाने को
संसृनित में आयी वह अमला।
हम दोनों की संतान वही-
निकतनी संुदर भोली-भाली,
रंर्गों ने जिजनसे खेला हो
ऐसे Eूलों की वह डाली।
जड़-�ेतनता की र्गाँठ वही
सुलझन है भूल-सुधारों की।
वह शीतलता है शांनितमयी
जीवन के उर्ष्याण निव�ारों की।
उसको पाने की इच्छा हो तो
योग्य बनो"-कहती-कहती
वह ध्वनिन �ुप�ाप हुई सहसा
जैसे मुरली �ुप हो रहती।
मनु आँख खोलकर पूछ रहे-
"पंथ कौन वहाँ पहुँ�ाता है?
उस ज्योनितमयी को देव
कहो कैसे कोई नर पाता?"
पर कौन वहाँ उत्तर देता
वह स्वप्न अनोखा भंर्ग हुआ,
देखा तो संुदर प्रा�ी में
अरूणोदय का रस-रंर्ग हुआ।
उस लता कंुज की जिझल-धिमल से
हेमाभरस्थिश्म थी खेल रही,
देवों के सोम-सुधा-रस की
मनु के हाथों में बेल रही।
वासना सर्ग� पीछे आरे्ग
भार्ग-1
�ल पडे़ कब से हृदय दो,
पशिथक-से अश्रांत,
यहाँ धिमलने के शिलये,
जो भटकते थ ेभ्रांत।
एक रृ्गहपनित, दूसरा था
अनितशिथ निवर्गत-निवकार,
प्रश्न था यठिद एक,
तो उत्तर निद्वतीय उदार।
एक जीवन-चिसंधु था,
तो वह लहर लघु लोल,
एक नवल प्रभात,
तो वह स्वण�-निकरण अमोल।
एक था आकाश वर्षा�
का सजल उद्धाम,
दूसरा रंजिजत निकरण से
श्री-कशिलत घनश्याम।
नदी-तट के भिक्षनितज में
नव जलद सांयकाल-
खेलता दो निबजशिलयों से
ज्यों मधुरिरमा-जाल।
लड़ रहे थ ेअनिवरत युर्गल
थ े�ेतना के पाश,
एक सकता था न
कोई दूसरे को Eाँस।
था समप�ण में ग्रहण का
एक सुनिननिहत भाव,
थी प्रर्गनित, पर अड़ा रहता
था सतत अटकाव।
�ल रहा था निवजन-पथ पर
मधुर जीवन-खेल,
दो अपरिरशि�त से निनयनित
अब �ाहती थी मेल।
निनत्य परिरशि�त हो रहे
तब भी रहा कुछ शेर्ष,
रू्गढ अंतर का शिछपा
रहता रहस्य निवशेर्ष।
दूर, जैसे सघन वन-पथ-
अंत का आलोक-
सतत होता जा रहा हो,
नयन की र्गनित रोक।
निर्गर रहा निनस्तेज र्गोलक
जलधिध में असहाय,
घन-पटल में डूबता था
निकरण का समुदाय।
कम� का अवसाद ठिदन से
कर रहा छल-छंद,
मधुकरी का सुरस-सं�य
हो �ला अब बंद।
उठ रही थी काशिलमा
धूसर भिक्षनितज से दीन,
भेंटता अंनितम अरूण
आलोक-वैभव-हीन।
यह दरिरद्र-धिमलन रहा
र� एक करूणा लोक,
शोक भर निनज�न निनलय से
निबछुड़ते थ ेकोक।
मनु अभी तक मनन करते
थ ेलर्गाये ध्यान,
काम के संदेश से ही
भर रहे थ ेकान।
इधर रृ्गह में आ जुटे थे
उपकरण अधिधकार,
शस्य, पशु या धान्य
का होने लर्गा सं�ार।
नई इच्छा खीं� लाती,
अनितशिथ का संकेत-
�ल रहा था सरल-शासन
युक्त-सुरूशि�-समेत।
देखते थ ेअखिग्नशाला
से कुतुहल-युक्त,
मनु �मत्कृत निनज निनयनित
का खेल बंधन-मुक्त।
एक माया आ रहा था
पशु अनितशिथ के साथ,
हो रहा था मोह
करुणा से सजीव सनाथ।
�पल कोमल-कर रहा
निEर सतत पशु के अंर्ग,
स्नेह से करता �मर-
उदग्रीव हो वह संर्ग।
कभी पुलनिकत रोम राजी
से शरीर उछाल,
भाँवरों से निनज बनाता
अनितशिथ सधिन्नधिध जाल।
कभी निनज़ भोले नयन से
अनितशिथ बदन निनहार,
सकल संशि�त-स्नेह
देता दृधिd-पथ से ढार।
और वह पु�कारने का
स्नेह शबशिलत �ाव,
मंजु ममता से धिमला
बन हृदय का सदभाव।
देखते-ही-देखते
दोनों पहुँ� कर पास,
लर्गे करने सरल शोभन
मधुर मुग्ध निवलास।
वह निवरार्ग-निवभूनित
ईर्षा�-पवन से हो व्यस्त
निबखरती थी और खुलते थे
ज्वलन-कण जो अस्त।
निकन्तु यह क्या?
एक तीखी घूँट, निह�की आह!
कौन देता है हृदय में
वेदनामय डाह?
"आह यह पशु और
इतना सरल सुन्दर स्नेह!
पल रहे मेरे ठिदये जो
अन्न से इस रे्गह।
मैं? कहाँ मैं? ले शिलया करते
सभी निनज भार्ग,
और देते Eें क मेरा
प्राप्य तुच्छ निवरार्ग।
अरी नी� कृतघ्नते!
निपच्छल-शिशला-संलग्न,
मशिलन काई-सी करेर्गी
निकतने हृदय भग्न?
हृदय का राजस्व अपहृत
कर अधम अपराध,
दस्यु मुझसे �ाहते हैं
सुख सदा निनबा�ध।
निवश्व में जो सरल संुदर
हो निवभूनित महान,
सभी मेरी हैं, सभी
करती रहें प्रनितदान।
यही तो, मैं ज्वशिलत
वाडव-वधिह्न निनत्य-अशांत,
चिसंधु लहरों सा करें
शीतल मुझे सब शांत।"
आ र्गया निEर पास
क्रीड़ाशील अनितशिथ उदार,
�पल शैशव सा मनोहर
भूल का ले भार।
कहा "क्यों तुम अभी
बैठे ही रहे धर ध्यान,
देखती हैं आँख कुछ,
सुनते रहे कुछ कान-
मन कहीं, यह क्या हुआ है ?
आज कैसा रंर्ग? "
नत हुआ Eण दृप्त
ईर्षा� का, निवलीन उमंर्ग।
और सहलाने लार्गा कर-
कमल कोमल कांत,
देख कर वह रूप -सुर्षमा
मनु हुए कुछ शांत।
कहा " अनितशिथ! कहाँ रहे
तुम निकधर थ ेअज्ञात?
और यह सह�र तुम्हारा
कर रहा ज्यों बात-
निकसी सुलभ भनिवर्ष्याय की,
क्यों आज अधिधक अधीर?
धिमल रहा तुमसे शि�रंतन
स्नेह सा रं्गभीर?
कौन हो तुम खीं�ते यों
मुझे अपनी ओर
ओर लल�ाते स्वयं
हटते उधर की ओर
ज्योत्स्ना-निनझ�र ठहरती
ही नहीं यह आँख,
तुम्हें कुछ पह�ानने की
खो र्गयी-सी साख।
कौन करूण रहस्य है
तुममें शिछपा छनिवमान?
लता वीरूध ठिदया करते
जिजसमें छायादान।
पशु निक हो पार्षाण
सब में नृत्य का नव छंद,
एक आशिलर्गंन बुलाता
सभा का सानंद।
राशिश-राशिश निबखर पड़ा
है शांत संशि�त प्यार,
रख रहा है उसे ढोकर
दीन निवश्व उधार।
देखता हूँ �निकत जैसे
लशिलत लनितका-लास,
अरूण घन की सजल
छाया में ठिदनांत निनवास-
और उसमें हो �ला
जैसे सहज सनिवलास,
मठिदर माधव-याधिमनी का
धीर-पद-निवन्यास।
आह यह जो रहा
सूना पड़ा कोना दीन-
ध्वस्त मंठिदर का,
बसाता जिजसे कोई भी न-
उसी में निवश्राम माया का
अ�ल आवास,
अरे यह सुख नींद कैसी,
हो रहा निहम-हास!
वासना की मधुर छाया!
स्वास्थ्य, बल, निवश्राम!
हदय की सौंदय�-प्रनितमा!
कौन तुम छनिवधाम?
कामना की निकरण का
जिजसमें धिमला हो ओज़,
कौन हो तुम, इसी
भूले हृदय की शि�र-खोज़?
कंुद-मंठिदर-सी हँसी
ज्यों खुली सुर्षमा बाँट,
क्यों न वैसे ही खुला
यह हृदय रुद्ध-कपाट?
कहा हँसकर "अनितशिथ हूँ मैं,
और परिर�य व्यथ�,
तुम कभी उनिद्वग्न
इतने थ ेन इसके अथ�।
�लो, देखो वह �ला
आता बुलाने आज-
सरल हँसमुख निवधु जलद-
लघु-खंड-वाहन साज़।
भार्ग-2
काशिलमा धुलने लर्गी
घुलने लर्गा आलोक,
इसी निनभृत अनंत में
बसने लर्गा अब लोक।
इस निनशामुख की मनोहर
सुधामय मुसक्यान,
देख कर सब भूल जायें
दुख के अनुमान।
देख लो, ऊँ�े शिशखर का
व्योम-�ुबंन-व्यस्त-
लौटना अंनितम निकरण का
और होना अस्त।
�लो तो इस कौमुदी में
देख आवें आज,
प्रकृनित का यह स्वप्न-शासन,
साधना का राज़।"
सृधिd हँसने लर्गी
आँखों में खिखला अनुरार्ग,
रार्ग-रंजिजत �ंठिद्रका थी,
उड़ा सुमन-परार्ग।
और हँसता था अनितशिथ
मनु का पकड़कर हाथ,
�ले दोनों स्वप्न-पथ में,
स्नेह-संबल साथ।
देवदारु निनकंुज र्गह्वर
सब सुधा में स्नात,
सब मनाते एक उत्सव
जार्गरण की रात।
आ रही थी मठिदर भीनी
माधवी की रं्गध,
पवन के घन धिघरे पड़ते थे
बने मधु-अंध।
शिशशिथल अलसाई पड़ी
छाया निनशा की कांत-
सो रही थी शिशशिशर कण की
सेज़ पर निवश्रांत।
उसी झुरमुट में हृदय की
भावना थी भ्रांत,
जहाँ छाया सृजन करती
थी कुतूहल कांत।
कहा मनु ने "तुम्हें देखा
अनितशिथ! निकतनी बार,
किकंतु इतने तो न थे
तुम दबे छनिव के भार!
पूव�-जन्म कहूँ निक था
सृ्पहणीय मधुर अतीत,
रँू्गजते जब मठिदर घन में
वासना के र्गीत।
भूल कर जिजस दृश्य को
मैं बना आज़ अ�ेत,
वही कुछ सव्रीड,
सस्विस्मत कर रहा संकेत।
"मैं तुम्हारा हो रहा हूँ"
यही सुदृढ निव�ार'
�ेतना का परिरधिध
बनता घूम �क्राकार।
मधु बरसती निवधु निकरण
है काँपती सुकुमार?
पवन में है पुलक,
मथंर �ल रहा मधु-भार।
तुम समीप, अधीर
इतने आज क्यों हैं प्राण?
छक रहा है निकस सुरभी से
तृप्त होकर घ्राण?
आज क्यों संदेह होता
रूठने का व्यथ�,
क्यों मनाना �ाहता-सा
बन रहा था असमथ�।
धमनिनयों में वेदना-
सा रक्त का सं�ार,
हृदय में है काँपती
धड़कन, शिलये लघु भार
�ेतना रंर्गीन ज्वाला
परिरधिध में सांनद,
मानती-सी ठिदव्य-सुख
कुछ र्गा रही है छंद।
अखिग्नकीट समान जलती
है भरी उत्साह,
और जीनिवत हैं,
न छाले हैं न उसमें दाह।
कौन हो तुम-माया-
कुहुक-सी साकार,
प्राण-सत्ता के मनोहर
भेद-सी सुकुमार!
हृदय जिजसकी कांत छाया
में शिलये निनश्वास,
थके पशिथक समान करता
व्यजन ग्लानिन निवनाश।"
श्याम-नभ में मधु-निकरण-सा
निEर वही मृदु हास,
चिसंधु की निहलकोर
दभिक्षण का समीर-निवलास!
कंुज में रंु्गजरिरत
कोई मुकुल सा अव्यक्त-
लर्गा कहने अनितशिथ,
मनु थ ेसुन रहे अनुरक्त-
"यह अतृप्तिप्त अधीर मन की,
क्षोभयुक्त उन्माद,
सखे! तुमुल-तरंर्ग-सा
उच्छवासमय संवाद।
मत कहो, पूछो न कुछ,
देखो न कैसी मौन,
निवमल राका मूर्तितं बन कर
स्तब्ध बैठा कौन?
निवभव मतवाली प्रकृनित का
आवरण वह नील,
शिशशिथल है, जिजस पर निबखरता
प्र�ुर मंर्गल खील,
राशिश-राशिश नखत-कुसुम की
अ��ना अश्रांत
निबखरती है, तामरस
संुदर �रण के प्रांत।"
मनु निनखरने लर्गे
ज्यों-ज्यों याधिमनी का रूप,
वह अनंत प्रर्गाढ
छाया Eैलती अपरूप,
बरसता था मठिदर कण-सा
स्वच्छ सतत अनंत,
धिमलन का संर्गीत
होने लर्गा था श्रीमंत।
छूटती शि�नर्गारिरयाँ
उते्तजना उदभ््रांत।
धधकती ज्वाला मधुर,
था वक्ष निवकल अशांत।
वात�क्र समान कुछ
था बाँधता आवेश,
धैय� का कुछ भी न
मनु के हृदय में था लेश।
कर पकड़ उन्मुक्त से
हो लर्गे कहने "आज,
देखता हूँ दूसरा कुछ
मधुरिरमामय साज!
वही छनिव! हाँ वही जैसे!
किकंतु क्या यह भूल?
रही निवस्मृनित-चिसंधु में
स्मृनित-नाव निवकल अकूल।
जन्म संनिर्गनी एक थी
जो कामबाला नाम-
मधुर श्रद्धा था,
हमारे प्राण को निवश्राम-
सतत धिमलता था उसी से,
अरे जिजसको Eूल
ठिदया करते अध� में
मकरंद सुर्षमा-मूल।
प्रलय मे भी ब� रहे हम
निEर धिमलन का मोद
रहा धिमलने को ब�ा,
सूने जर्गत की र्गोद।
ज्योत्स्ना सी निनकल आई!
पार कर नीहार,
प्रणय-निवधु है खड़ा
नभ में शिलये तारक हार।
कुठिटल कुतंक से बनाती
कालमाया जाल-
नीशिलमा से नयन की
र�ती तधिमसा माल।
नींद-सी दुभ'द्य तम की,
Eें कती यह दृधिd,
स्वप्न-सी है निबखर जाती
हँसी की �ल-सृधिd।
हुई कें द्रीभूत-सी है
साधना की सू्फर्त्तित्तं,
दृढ-सकल सुकुमारता में
रम्य नारी-मूर्त्तित्त।ं
ठिदवाकर ठिदन या परिरश्रम
का निवकल निवश्रांत
मैं पुरूर्ष, शिशशु सा भटकता
आज तक था भ्रांत।
�ंद्र की निवश्राम राका
बाशिलका-सी कांत,
निवजयनी सी दीखती
तुम माधुरी-सी शांत।
पददशिलत सी थकी
व्रज्या ज्यों सदा आक्रांत,
शस्य-श्यामल भूधिम में
होती समाप्त अशांत।
आह! वैसा ही हृदय का
बन रहा परिरणाम,
पा रहा आज देकर
तुम्हीं से निनज़ काम।
आज ले लो �ेतना का
यह समप�ण दान।
निवश्व-रानी! संुदरी नारी!
जर्गत की मान!"
धूम-लनितका सी र्गर्गन-तरू
पर न �ढती दीन,
दबी शिशशिशर-निनशीथ में
ज्यों ओस-भार नवीन।
झुक �ली सव्रीड
वह सुकुमारता के भार,
लद र्गई पाकर पुरूर्ष का
नम�मय उप�ार।
और वह नारीत्व का जो
मूल मधु अनुभाव,
आज जैसे हँस रहा
भीतर बढ़ाता �ाव।
मधुर व्रीडा-धिमश्र
चि�ंता साथ ले उल्लास,
हृदय का आनंद-कूज़न
लर्गा करने रास।
निर्गर रहीं पलकें ,
झुकी थी नाशिसका की नोक,
भू्रलता थी कान तक
�ढ़ती रही बेरोक।
स्पश� करने लर्गी लज्जा
लशिलत कण� कपोल,
खिखला पुलक कदंब सा
था भरा र्गदर्गद बोल।
निकन्तु बोली "क्या
समप�ण आज का हे देव!
बनेर्गा-शि�र-बंध-
नारी-हृदय-हेतु-सदैव।
आह मैं दुब�ल, कहो
क्या ले सकँूर्गी दान!
वह, जिजसे उपभोर्ग करने में
निवकल हों प्रान?"
लज्जा सर्ग� पीछे आरे्ग
भार्ग-1
"कोमल निकसलय के अं�ल में
नन्हीं कशिलका ज्यों शिछपती-सी,
र्गोधूली के धूधिमल पट में
दीपक के स्वर में ठिदपती-सी।
मंजुल स्वप्नों की निवस्मृनित में
मन का उन्माद निनखरता ज्यों-
सुरभिभत लहरों की छाया में
बुल्ले का निवभव निबखरता ज्यों-
वैसी ही माया में शिलपटी
अधरों पर उँर्गली धरे हुए,
माधव के सरस कुतूहल का
आँखों में पानी भरे हुए।
नीरव निनशीथ में लनितका-सी
तुम कौन आ रही हो बढ़ती?
कोमल बाँहे Eैलाये-सी
आशिलर्गंन का जादू पढ़ती?
निकन इंद्रजाल के Eूलों से
लेकर सुहार्ग-कण-रार्ग-भरे,
शिसर नी�ा कर हो रँू्गथ माला
जिजससे मधु धार ढरे?
पुलनिकत कदंब की माला-सी
पहना देती हो अंतर में,
झुक जाती है मन की डाली
अपनी Eल भरता के डर में।
वरदान सदृश हो डाल रही
नीली निकरणों से बुना हुआ,
यह अं�ल निकतना हलका-सा
निकतना सौरभ से सना हुआ।
सब अंर्ग मोम से बनते हैं
कोमलता में बल खाती हूँ,
मैं शिसधिमट रही-सी अपने में
परिरहास-र्गीत सुन पाती हूँ।
स्विस्मत बन जाती है तरल हँसी
नयनों में भरकर बाँकपना,
प्रत्यक्ष देखती हूँ सब जो
वह बनता जाता है सपना।
मेरे सपनों में कलरव का संसार
आँख जब खोल रहा,
अनुरार्ग समीरों पर नितरता था
इतराता-सा डोल रहा।
अभिभलार्षा अपने यौवन में
उठती उस सुख के स्वार्गत को,
जीवन भर के बल-वैभव से
सत्कृत करती दूरार्गत को।
निकरणों का रज्जु समेट शिलया
जिजसका अवलंबन ले �ढ़ती,
रस के निनझ�र में धँस कर मैं
आनन्द-शिशखर के प्रनित बढ़ती।
छूने में निह�क, देखने में
पलकें आँखों पर झुकती हैं,
कलरव परिरहास भरी रू्गजें
अधरों तक सहसा रूकती हैं।
संकेत कर रही रोमाली
�ुप�ाप बरजती खड़ी रही,
भार्षा बन भौंहों की काली-रेखा-सी
भ्रम में पड़ी रही।
तुम कौन! हृदय की परवशता?
सारी स्वतंत्रता छीन रही,
स्वचं्छद सुमन जो खिखले रहे
जीवन-वन से हो बीन रही"
संध्या की लाली में हँसती,
उसका ही आश्रय लेती-सी,
छाया प्रनितमा रु्गनर्गुना उठी
श्रद्धा का उत्तर देती-सी।
"इतना न �मत्कृत हो बाले
अपने मन का उपकार करो,
मैं एक पकड़ हूँ जो कहती
ठहरो कुछ सो�-निव�ार करो।
अंबर-�ंुबी निहम-श्रंर्गों से
कलरव कोलाहल साथ शिलये,
निवदु्यत की प्राणमयी धारा
बहती जिजसमें उन्माद शिलये।
मंर्गल कंुकुम की श्री जिजसमें
निनखरी हो ऊर्षा की लाली,
भोला सुहार्ग इठलाता हो
ऐसी हो जिजसमें हरिरयाली।
हो नयनों का कल्याण बना
आनन्द सुमन सा निवकसा हो,
वासंती के वन-वैभव में
जिजसका पं�म स्वर निपक-सा हो,
जो रँू्गज उठे निEर नस-नस में
मूछ�ना समान म�लता-सा,
आँखों के साँ�े में आकर
रमणीय रूप बन ढलता-सा,
नयनों की नीलम की घाटी
जिजस रस घन से छा जाती हो,
वह कौंध निक जिजससे अंतर की
शीतलता ठंडक पाती हो,
निहल्लोल भरा हो ऋतुपनित का
र्गोधूली की सी ममता हो,
जार्गरण प्रात-सा हँसता हो
जिजसमें मध्याह्न निनखरता हो,
हो �निकत निनकल आई
सहसा जो अपने प्रा�ी के घर से,
उस नवल �ंठिद्रका-से निबछले जो
मानस की लहरों पर-से,
भार्ग-2
Eूलों की कोमल पंखुनिडयाँ
निबखरें जिजसके अभिभनंदन में,
मकरंद धिमलाती हों अपना
स्वार्गत के कंुकुम �ंदन में,
कोमल निकसलय मम�र-रव-से
जिजसका जयघोर्ष सुनाते हों,
जिजसमें दुख-सुख धिमलकर
मन के उत्सव आनंद मनाते हों,
उज्ज्वल वरदान �ेतना का
सौंदय� जिजसे सब कहते हैं।
जिजसमें अनंत अभिभलार्षा के
सपने सब जर्गते रहते हैं।
मैं उसी �पल की धात्री हूँ,
र्गौरव मनिहमा हूँ शिसखलाती,
ठोकर जो लर्गने वाली है
उसको धीरे से समझाती,
मैं देव-सृधिd की रनित-रानी
निनज पं�बाण से वंशि�त हो,
बन आवज�ना-मूर्त्तित्तं दीना
अपनी अतृप्तिप्त-सी संशि�त हो,
अवशिशd रह र्गई अनुभव में
अपनी अतीत असEलता-सी,
लीला निवलास की खेद-भरी
अवसादमयी श्रम-दशिलता-सी,
मैं रनित की प्रनितकृनित लज्जा हूँ
मैं शालीनता शिसखाती हूँ,
मतवाली संुदरता पर्ग में
नूपुर सी शिलपट मनाती हूँ,
लाली बन सरल कपोलों में
आँखों में अंजन सी लर्गती,
कंुशि�त अलकों सी घुंघराली
मन की मरोर बनकर जर्गती,
�ं�ल निकशोर संुदरता की मैं
करती रहती रखवाली,
मैं वह हलकी सी मसलन हूँ
जो बनती कानों की लाली।"
"हाँ, ठीक, परंतु बताओर्गी
मेरे जीवन का पथ क्या है?
इस निननिवड़ निनशा में संसृनित की
आलोकमयी रेखा क्या है?
यह आज समझ तो पाई हूँ
मैं दुब�लता में नारी हूँ,
अवयव की संुदर कोमलता
लेकर मैं सबसे हारी हूँ।
पर मन भी क्यों इतना ढीला
अपना ही होता जाता है,
घनश्याम-खंड-सी आँखों में क्यों
सहसा जल भर आता है?
सव�स्व-समप�ण करने की
निवश्वास-महा-तरू-छाया में,
�ुप�ाप पड़ी रहने की क्यों
ममता जर्गती है माया में?
छायापथ में तारक-दु्यनित सी
जिझलधिमल करने की मधु-लीला,
अभिभनय करती क्यों इस मन में
कोमल निनरीहता श्रम-शीला?
निनस्संबल होकर नितरती हूँ
इस मानस की र्गहराई में,
�ाहती नहीं जार्गरण कभी
सपने की इस सुधराई में।
नारी जीवन का शि�त्र यही क्या?
निवकल रंर्ग भर देती हो,
असु्फट रेखा की सीमा में
आकार कला को देती हो।
रूकती हूँ और ठहरती हूँ
पर सो�-निव�ार न कर सकती,
पर्गली सी कोई अंतर में
बैठी जैसे अनुठिदन बकती।
मैं जब भी तोलने का करती
उप�ार स्वयं तुल जाती हूँ
भुजलता Eँसा कर नर-तरू से
झूले सी झोंके खाती हूँ।
इस अप�ण में कुछ और नहीं
केवल उत्सर्ग� छलकता है,
मैं दे दँू और न निEर कुछ लँू,
इतना ही सरल झलकता है।"
" क्या कहती हो ठहरो नारी!
संकल्प अश्रु-जल-से-अपने-
तुम दान कर �ुकी पहले ही
जीवन के सोने-से सपने।
नारी! तुम केवल श्रद्धा हो
निवश्वास-रजत-नर्ग पर्गतल में,
पीयूर्ष-स्रोत-सी बहा करो
जीवन के संुदर समतल में।
देवों की निवजय, दानवों की
हारों का होता-युद्ध रहा,
संघर्ष� सदा उर-अंतर में जीनिवत
रह निनत्य-निवरूद्ध रहा।
आँसू से भींर्गे अं�ल पर मन का
सब कुछ रखना होर्गा-
तुमको अपनी स्विस्मत रेखा से
यह संधिधपत्र शिलखना होर्गा।
कम� सर्ग� पीछे आरे्ग
भार्ग-1
कम�सूत्र-संकेत सदृश थी
सोम लता तब मनु को
�ढ़ी शिशज़नी सी, खीं�ा निEर
उसने जीवन धनु को।
हुए अग्रसर से मार्ग� में
छुटे-तीर-से-निEर वे,
यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से
रह न सके अब शिथर वे।
भरा कान में कथन काम का
मन में नव अभिभलार्षा,
लर्गे सो�ने मनु-अनितरंजिज़त
उमड़ रही थी आशा।
ललक रही थी लशिलत लालसा
सोमपान की प्यासी,
जीवन के उस दीन निवभव में
जैसे बनी उदासी।
जीवन की अभिभराम साधना
भर उत्साह खड़ी थी,
ज्यों प्रनितकूल पवन में
तरणी र्गहरे लौट पड़ी थी।
श्रद्धा के उत्साह व�न,
निEर काम पे्ररणा-धिमल के
भ्रांत अथ� बन आरे्ग आये
बने ताड़ थ ेनितल के।
बन जाता शिसद्धांत प्रथम
निEर पुधिd हुआ करती है,
बुजिद्ध उसी ऋण को सबसे
ले सदा भरा करती है।
मन जब निनभिeत सा कर लेता
कोई मत है अपना,
बुजिद्ध दैव-बल से प्रमाण का
सतत निनरखता सपना।
पवन वही निहलकोर उठाता
वही तरलता जल में।
वही प्रनितध्वनिन अंतर तम की
छा जाती नभ थल में।
सदा समथ�न करती उसकी
तक� शास्त्र की पीढ़ी
"ठीक यही है सत्य!
यही है उन्ननित सुख की सीढ़ी।
और सत्य ! यह एक शब्द
तू निकतना र्गहन हुआ है?
मेघा के क्रीड़ा-पंज़र का
पाला हुआ सुआ है।
सब बातों में ख़ोज़ तुम्हारी
रट-सी लर्गी हुई है,
निकन्तु स्पश� से तक� -करो
निक बनता 'छुईमुई' है।
असुर पुरोनिहत उस निवपल्व से
ब�कर भटक रहे थ,े
वे निकलात-आकुशिल थे
जिजसने कd अनेक सहे थे।
देख-देख कर मनु का पशु,
जो व्याकुल �ं�ल रहती-
उनकी आधिमर्ष-लोलुप-रसना
आँखों से कुछ कहती।
'क्यों निकलात ! खाते-खाते तृण
और कहाँ तक जीऊँ,
कब तक मैं देखँू जीनिवत
पशु घूँट लहू का पीऊँ ?
क्या कोई इसका उपाय
ही नहीं निक इसको खाऊँ?
बहुत ठिदनों पर एक बार तो
सुख की बीन बज़ाऊँ।'
आकुशिल ने तब कहा-
'देखते नहीं साथ में उसके
एक मृदुलता की, ममता की
छाया रहती हँस के।
अंधकार को दूर भर्गाती वह
आलोक निकरण-सी,
मेरी माया किबंध जाती है
जिजससे हलके घन-सी।
तो भी �लो आज़ कुछ
करके तब मैं स्वस्थ रहूँर्गा,
या जो भी आवेंर्गे सुख-दुख
उनको सहज़ सहूँर्गा।'
यों हीं दोनों कर निव�ार
उस कंुज़ द्वार पर आये,
जहाँ सो�ते थ ेमनु बैठे
मन से ध्यान लर्गाये।
"कम�-यज्ञ से जीवन के
सपनों का स्वर्ग� धिमलेर्गा,
इसी निवनिपन में मानस की
आशा का कुसुम खिखलेर्गा।
किकंतु बनेर्गा कौन पुरोनिहत
अब यह प्रश्न नया है,
निकस निवधान से करँू यज्ञ
यह पथ निकस ओर र्गया है?
श्रद्धा पुण्य-प्राप्य है मेरी
वह अनंत अभिभलार्षा,
निEर इस निनज़�न में खोज़े
अब निकसको मेरी आशा।
कहा असुर धिमत्रों ने अपना
मुख रं्गभीर बनाये-
जिजनके शिलये यज्ञ होर्गा
हम उनके भेज ेआये।
यज़न करोर्गे क्या तुम?
निEर यह निकसको खोज़ रहे हो?
अरे पुरोनिहत की आशा में
निकतने कd सहे हो।
इस जर्गती के प्रनितनिनधिध
जिजनसे प्रकट निनशीथ सवेरा-
"धिमत्र-वरुण जिजनकी छाया है
यह आलोक-अँधेरा।
वे पथ-दश�क हों सब
निवधिध पूरी होर्गी मेरी,
�लो आज़ निEर से वेदी पर
हो ज्वाला की Eेरी।"
"परंपरार्गत कम की वे
निकतनी संुदर लनिड़याँ,
जिजनमें-साधन की उलझी हैं
जिजसमें सुख की घनिड़याँ,
जिजनमें है पे्ररणामयी-सी
संशि�त निकतनी कृनितयाँ,
पुलकभरी सुख देने वाली
बन कर मादक स्मृनितयाँ।
साधारण से कुछ अनितरंजिजत
र्गनित में मधुर त्वरा-सी
उत्सव-लीला, निनज़�नता की
जिजससे कटे उदासी।
एक निवशेर्ष प्रकार का कुतूहल
होर्गा श्रद्धा को भी।"
प्रसन्नता से ना� उठा
मन नूतनता का लोभी।
यज्ञ समाप्त हो �ुका तो भी
धधक रही थी ज्वाला,
दारुण-दृश्य रुधिधर के छींटे
अस्थिस्थ खंड की माला।
वेदी की निनम�म-प्रसन्नता,
पशु की कातर वाणी,
सोम-पात्र भी भरा,
धरा था पुरोडाश भी आरे्ग।
"जिजसका था उल्लास निनरखना
वही अलर्ग जा बैठी,
यह सब क्यों निEर दृप्त वासना
लर्गी र्गरज़ने ऐंठी।
जिजसमें जीवन का संशि�त
सुख संुदर मूत� बना है,
हृदय खोलकर कैसे उसको
कहूँ निक वह अपना है।
वही प्रसन्न नहीं रहस्य कुछ
इसमें सुनिननिहत होर्गा,
आज़ वही पशु मर कर भी
क्या सुख में बाधक होर्गा।
श्रद्धा रूठ र्गयी तो निEर
क्या उसे मनाना होर्गा,
या वह स्वंय मान जायेर्गी,
निकस पथ जाना होर्गा।"
पुरोडाश के साथ सोम का
पान लर्गे मनु करने,
लर्गे प्राण के रिरक्त अंश को
मादकता से भरने।
संध्या की धूसर छाया में
शैल श्रृंर्ग की रेखा,
अंनिकत थी ठिदर्गंत अंबर में
शिलये मशिलन शशिश-लेखा।
श्रद्धा अपनी शयन-रु्गहा में
दुखी लौट कर आयी,
एक निवरशिक्त-बोझ सी ढोती
मन ही मन निबलखायी।
सूखी काष्ठ संधिध में पतली
अनल शिशखा जलती थी,
उस धुँधले रु्गह में आभा से,
तामस को छलती सी।
किकंतु कभी बुझ जाती पाकर
शीत पवन के झोंके,
कभी उसी से जल उठती
तब कौन उसे निEर रोके?
कामायनी पड़ी थी अपना
कोमल �म� निबछा के,
श्रम मानो निवश्राम कर रहा
मृदु आलस को पा के।
धीरे-धीरे जर्गत �ल रहा
अपने उस ऋज²पथ में,
धीरे-धीर खिखलते तारे
मृर्ग जुतते निवधुरथ में।
अं�ल लटकाती निनशीशिथनी
अपना ज्योत्स्ना-शाली,
जिजसकी छाया में सुख पावे
सृधिd वेदना वाली।
उच्च शैल-शिशखरों पर हँसती
प्रकृनित �ं�ल बाला,
धवल हँसी निबखराती
अपना Eैला मधुर उजाला।
जीवन की उद्धाम लालसा
उलझी जिजसमें व्रीड़ा,
एक तीव्र उन्माद और
मन मथने वाली पीड़ा।
मधुर निवरशिक्त-भरी आकुलता,
धिघरती हृदय- र्गर्गन में,
अंतदा�ह स्नेह का तब भी
होता था उस मन में।
वे असहाय नयन थे
खुलते-मुँदते भीर्षणता में,
आज़ स्नेह का पात्र खड़ा था
स्पd कुठिटल कटुता में।
"निकतना दुख जिजसे मैं �ाहूँ
वह कुछ और बना हो,
मेरा मानस-शि�त्र खीं�ना
संुदर सा सपना हो।
जार्ग उठी है दारुण-ज्वाला
इस अनंत मधुबन में,
कैसे बुझे कौन कह देर्गा
इस नीरव निनज़�न में?
यह अंनत अवकाश नीड़-सा
जिजसका व्यशिथत बसेरा,
वही वेदना सज़र्ग पलक में
भर कर अलस सवेरा।
काँप रहें हैं �रण पवन के,
निवस्तृत नीरवता सी-
धुली जा रही है ठिदशिश-ठिदशिश की
नभ में मशिलन उदासी।
अंतरतम की प्यास
निवकलता से शिलपटी बढ़ती है,
युर्ग-युर्ग की असEलता का
अवलंबन ले �ढ़ती है।
निवश्व निवपुल-आंतक-त्रस्त है
अपने ताप निवर्षम से,
Eैल रही है घनी नीशिलमा
अंतदा�ह परम-से।
उदे्वशिलत है उदधिध,
लहरिरयाँ लौट रहीं व्याकुल सी
�क्रवाल की धुँधली रेखा
मानों जाती झुलसी।
सघन घूम कँुड़ल में
कैसी ना� रही ये ज्वाला,
नितधिमर Eणी पहने है
मानों अपने मभिण की माला।
जर्गती तल का सारा क्रदंन
यह निवर्षमयी निवर्षमता,
�ुभने वाला अंतरर्ग छल
अनित दारुण निनम�मता।
भार्ग-2
जीवन के वे निनषु्ठर दंशन
जिजनकी आतुर पीड़ा,
कलुर्ष-�क्र सी ना� रही है
बन आँखों की क्रीड़ा।
स्खलन �ेतना के कौशल का
भूल जिजसे कहते हैं,
एक किबंदु जिजसमें निवर्षाद के
नद उमडे़ रहते हैं।
आह वही अपराध,
जर्गत की दुब�लता की माया,
धरणी की वर्ज़िज़ंत मादकता,
संशि�त तम की छाया।
नील-र्गरल से भरा हुआ
यह �ंद्र-कपाल शिलये हो,
इन्हीं निनमीशिलत ताराओं में
निकतनी शांनित निपये हो।
अखिखल निवe का निवर्ष पीते हो
सृधिd जिजयेर्गी निEर से,
कहो अमरता शीतलता इतनी
आती तुम्हें निकधर से?
अ�ल अनंत नील लहरों पर
बैठे आसन मारे,
देव! कौन तुम,
झरते तन से श्रमकण से ये तारे
इन �रणों में कम�-कुसुम की
अंजशिल वे दे सकते,
�ले आ रहे छायापथ में
लोक-पशिथक जो थकते,
किकंतु कहाँ वह दुल�भ उनको
स्वीकृनित धिमली तुम्हारी
लौटाये जाते वे असEल
जैसे निनत्य भिभखारी।
प्रखर निवनाशशील नत्त�न में
निवपुल निवश्व की माया,
क्षण-क्षण होती प्रकट
नवीना बनकर उसकी काया।
सदा पूण�ता पाने को
सब भूल निकया करते क्या?
जीवन में यौवन लाने को
जी-जी कर मरते क्या?
यह व्यापार महा-र्गनितशाली
कहीं नहीं बसता क्या?
क्षभिणक निवनाशों में स्थिस्थर मंर्गल
�ुपके से हँसता क्या?
यह निवरार्ग संबंध हृदय का
कैसी यह मानवता!
प्राणी को प्राणी के प्रनित
बस ब�ी रही निनम�मता
जीवन का संतोर्ष अन्य का
रोदन बन हँसता क्यों?
एक-एक निवश्राम प्रर्गनित को
परिरकर सा कसता क्यों?
दुव्य�वहार एक का
कैसे अन्य भूल जावेर्गा,
कौ उपाय र्गरल को कैसे
अमृत बना पावेर्गा"
जार्ग उठी थी तरल वासना
धिमली रही मादकता,
मनु क कौन वहाँ आने से
भला रोक अब सकता।
खुले मृर्षण भुज़-मूलों से
वह आमंत्रण थ धिमलता,
उन्नत वक्षों में आचिलंर्गन-सुख
लहरों-सा नितरता।
नी�ा हो उठता जो
धीमे-धीमे निनस्वासों में,
जीवन का ज्यों ज्वार उठ रहा
निहमकर के हासों में।
जारृ्गत था सौंदय� यद्यनिप
वह सोती थी सुकुमारी
रूप-�ंठिद्रका में उज्ज़वल थी
आज़ निनशा-सी नारी।
वे मांसल परमाणु निकरण से
निवदु्यत थ ेनिबखराते,
अलकों की डोरी में जीवन
कण-कण उलझे जाते।
निवर्गत निव�ारों के श्रम-सीकर
बने हुए थ ेमोती,
मुख मंडल पर करुण कल्पना
उनको रही निपरोती।
छूते थ ेमनु और कटंनिकत
होती थी वह बेली,
स्वस्थ-व्यथा की लहरों-सी
जो अंर्ग लता सी Eैली।
वह पार्गल सुख इस जर्गती का
आज़ निवराट बना था,
अंधकार- धिमभिश्रत प्रकाश का
एक निवतान तना था।
कामायनी जर्गी थी कुछ-कुछ
खोकर सब �ेतनता,
मनोभाव आकार स्वयं हो
रहा निबर्गड़ता बनता।
जिजसके हृदय सदा समीप है
वही दूर जाता है,
और क्रोध होता उस पर ही
जिजससे कुछ नाता है।
निप्रय निक ठुकरा कर भी
मन की माया उलझा लेती,
प्रणय-शिशला प्रत्यावत्त�न में
उसको लौटा देती।
जलदार्गम-मारुत से कंनिपत
पल्लव सदृश हथेली,
श्रद्धा की, धीरे से मनु ने
अपने कर में ले ली।
अनुनय वाणी में,
आँखों में उपालंभ की छाया,
कहने लर्गे- "अरे यह कैसी
मानवती की माया।
स्वर्ग� बनाया है जो मैंने
उसे न निवEल बनाओ,
अरी अप्सरे! उस अतीत के
नूतन र्गान सुनाओ।
इस निनज़�न में ज्योत्स्ना-पुलनिकत
निवदु्यत नभ के नी�े,
केवल हम तुम, और कौन?
रहो न आँखे मीं�े।
आकर्ष�ण से भरा निवश्व यह
केवल भोग्य हमारा,
जीवन के दोनों कूलों में
बहे वासना धारा।
श्रम की, इस अभाव की जर्गती
उसकी सब आकुलता,
जिजस क्षण भूल सकें हम
अपनी यह भीर्षण �ेतनता।
वही स्वर्ग� की बन अनंतता
मुसक्याता रहता है,
दो बँूदों में जीवन का
रस लो बरबस बहता है।
देवों को अर्तिपंत मधु-धिमभिश्रत
सोम, अधर से छू लो,
मादकता दोला पर पे्रयसी!
आओ धिमलकर झूलो।"
श्रद्धा जार्ग रही थी
तब भी छाई थी मादकता,
मधुर-भाव उसके तन-मन में
अपना हो रस छकता।
बोली एक सहज़ मुद्रा से
"यह तुम क्या कहते हो,
आज़ अभी तो निकसी भाव की
धारा में बहते हो।
कल ही यठिद परिरवत्त�न होर्गा
तो निEर कौन ब�ेर्गा।
क्या जाने कोइ साथी
बन नूतन यज्ञ र�ेर्गा।
और निकसी की निEर बशिल होर्गी
निकसी देव के नाते,
निकतना धोखा ! उससे तो हम
अपना ही सुख पाते।
ये प्राणी जो ब�े हुए हैं
इस अ�ला जर्गती के,
उनके कुछ अधिधकार नहीं
क्या वे सब ही हैं Eीके?
मनु ! क्या यही तुम्हारी होर्गी
उज्ज्वल मानवता।
जिजसमें सब कुछ ले लेना हो
हंत ब�ी क्या शवता।"
"तुच्छ नहीं है अपना सुख भी
श्रदे्ध ! वह भी कुछ है,
दो ठिदन के इस जीवन का तो
वही �रम सब कुछ है।
इंठिद्रय की अभिभलार्षा
जिजतनी सतत सEलता पावे,
जहाँ हृदय की तृप्तिप्त-निवलाशिसनी
मधुर-मधुर कुछ र्गावे।
रोम-हर्ष� हो उस ज्योत्स्ना में
मृदु मुसक्यान खिखले तो,
आशाओं पर श्वास निनछावर
होकर र्गले धिमले तो।
निवश्व-माधुरी जिजसके सम्मुख
मुकुर बनी रहती हो
वह अपना सुख-स्वर्ग� नहीं है
यह तुम क्या कहती हो?
जिजसे खोज़ता निEरता मैं
इस निहमनिर्गरिर के अं�ल में,
वही अभाव स्वर्ग� बन
हँसता इस जीवन �ं�ल में।
वत�मान जीवन के सुख से
योर्ग जहाँ होता है,
छली-अदृd अभाव बना
क्यों वहीं प्रकट होता है।
किकंतु सकल कृनितयों की
अपनी सीमा है हम ही तो,
पूरी हो कामना हमारी
निवEल प्रयास नहीं तो"
एक अ�ेतनता लाती सी
सनिवनय श्रद्धा बोली,
"ब�ा जान यह भाव सृधिd ने
निEर से आँखे खोली।
भेद-बुजिद्ध निनम�म ममता की
समझ, ब�ी ही होर्गी,
प्रलय-पयोनिनधिध की लहरें भी
लौट र्गयी ही होंर्गी।
अपने में सब कुछ भर
कैसे व्यशिक्त निवकास करेर्गा,
यह एकांत स्वाथ� भीर्षण है
अपना नाश करेर्गा।
औरों को हँसता देखो
मनु-हँसो और सुख पाओ,
अपने सुख को निवस्तृत कर लो
सब को सुखी बनाओ।
र�ना-मूलक सृधिd-यज्ञ
यह यज्ञ पुरूर्ष का जो है,
संसृनित-सेवा भार्ग हमारा
उसे निवकसने को है।
सुख को सीधिमत कर
अपने में केवल दुख छोड़ोर्गे,
इतर प्राभिणयों की पीड़ा
लख अपना मुहँ मोड़ोर्गे
ये मुठिद्रत कशिलयाँ दल में
सब सौरभ बंदी कर लें,
सरस न हों मकरंद किबंदु से
खुल कर, तो ये मर लें।
सूखे, झडे़ और तब कु�ले
सौरभ को पाओरे्ग,
निEर आमोद कहाँ से मधुमय
वसुधा पर लाओर्गे।
सुख अपने संतोर्ष के शिलये
संग्रह मूल नहीं है,
उसमें एक प्रदश�न
जिजसको देखें अन्य वही है।
निनज़�न में क्या एक अकेले
तुम्हें प्रमोद धिमलेर्गा?
नहीं इसी से अन्य हृदय का
कोई सुमन खिखलेर्गा।
सुख समीर पाकर,
�ाहे हो वह एकांत तुम्हारा
बढ़ती है सीमा संसृनित की
बन मानवता-धारा।"
हृदय हो रहा था उते्तजिज़त
बातें कहते-कहते,
श्रद्धा के थ ेअधर सूखते
मन की ज्वाला सहते।
उधर सोम का पात्र शिलये मनु,
समय देखकर बोले-
"श्रदे्ध पी लो इसे बुजिद्ध के
बंधन को जो खोले।
वही करँूर्गा जो कहती हो सत्य,
अकेला सुख क्या?"
यह मनुहार रूकेर्गा
प्याला पीने से निEर मुख क्या?
आँखे निप्रय आँखों में,
डूबे अरुण अधर थ ेरस में।
हृदय काल्पनिनक-निवज़य में
सुखी �ेतनता नस-नस में।
छल-वाणी की वह प्रवं�ना
हृदयों की शिशशुता को,
खेल ठिदखाती, भुलवाती जो
उस निनम�ल निवभुता को,
जीनव का उदे्दश्य लक्ष्य की
प्रर्गनित ठिदशा को पल में
अपने एक मधुर इंनिर्गत से
बदल सके जो छल में।
वही शशिक्त अवलंब मनोहर
निनज़ मनु को थी देती
जो अपने अभिभनय से
मन को सुख में उलझा लेती।
"श्रदे्ध, होर्गी �न्द्रशाशिलनी
यह भव रज़नी भीमा,
तुम बन जाओ इस ज़ीवन के
मेरे सुख की सीमा।
लज्जा का आवरण प्राण को
ढ़क लेता है तम से
उसे अकिकं�न कर देता है
अलर्गाता 'हम तुम' से
कु�ल उठा आनन्द,
यही है, बाधा, दूर हटाओ,
अपने ही अनुकूल सुखों को
धिमलने दो धिमल जाओ।"
और एक निEर व्याकुल �ुम्बन
रक्त खौलता जिजसमें,
शीतल प्राण धधक उठता है
तृर्षा तृप्तिप्त के धिमस से।
दो काठों की संधिध बी�
उस निनभृत रु्गEा में अपने,
अखिग्न शिशखा बुझ र्गयी,
जार्गने पर जैसे सुख सपने।
ईर्ष्या�ा� सर्ग� पीछे आरे्ग
भार्ग-1
पल भर की उस �ं�लता ने
खो ठिदया हृदय का स्वाधिधकार,
श्रद्धा की अब वह मधुर निनशा
Eैलाती निनर्ष्याEल अंधकार
मनु को अब मृर्गया छोड नहीं
रह र्गया और था अधिधक काम
लर्ग र्गया रक्त था उस मुख में-
किहंसा-सुख लाली से ललाम।
किहंसा ही नहीं-और भी कुछ
वह खोज रहा था मन अधीर,
अपने प्रभुत्व की सुख सीमा
जो बढती हो अवसाद �ीर।
जो कुछ मनु के करतलर्गत था
उसमें न रहा कुछ भी नवीन,
श्रद्धा का सरल निवनोद नहीं रु�ता
अब था बन रहा दीन।
उठती अंतस्तल से सदैव
दुल�शिलत लालसा जो निक कांत,
वह इंद्र�ाप-सी जिझलधिमल हो
दब जाती अपने आप शांत।
"निनज उद्गम का मुख बंद निकये
कब तक सोयेंरे्ग अलस प्राण,
जीवन की शि�र �ं�ल पुकार
रोये कब तक, है कहाँ त्राण
श्रद्धा का प्रणय और उसकी
आरंभिभक सीधी अभिभव्यशिक्त,
जिजसमें व्याकुल आचिलंर्गन का
अस्विस्तत्व न तो है कुशल सूशिक्त
भावनामयी वह सू्फर्त्तित्तं नहीं
नव-नव स्विस्मत रेखा में निवलीन,
अनुरोध न तो उल्लास,
नहीं कुसुमोद्गम-साकुछ भी नवीन
आती है वाणी में न कभी
वह �ाव भरी लीला-निहलोर,
जिजसमेम नूतनता नृत्यमयी
इठलाती हो �ं�ल मरोर।
जब देखो बैठी हुई वहीं
शाशिलयाँ बीन कर नहीं श्रांत,
या अन्न इकटे्ठ करती है
होती न तनिनक सी कभी क्लांत
बीजों का संग्रह और इधर
�लती है तकली भरी र्गीत,
सब कुछ लेकर बैठी है वह,
मेरा अस्विस्तत्व हुआ अतीत"
लौटे थ ेमृर्गया से थक कर
ठिदखलाई पडता रु्गEा-द्वार,
पर और न आरे्ग बढने की
इच्छा होती, करते निव�ार
मृर्ग डाल ठिदया, निEर धनु को भी,
मनु बैठ र्गये शिशशिथशिलत शरीर
निबखरे ते सब उपकरण वहीं
आयुध, प्रत्यं�ा, श्रृंर्ग, तीर।
" पभिeम की रार्गमयी संध्या
अब काली है हो �ली, किकंतु,
अब तक आये न अहेरी
वे क्या दूर ले र्गया �पल जंतु
" यों सो� रही मन में अपने
हाथों में तकली रही घूम,
श्रद्धा कुछ-कुछ अनमनी �ली
अलकें लेती थीं रु्गल्E �ूम।
केतकी-र्गभ�-सा पीला मुँह
आँखों में आलस भरा स्नेह,
कुछ कृशता नई लजीली थी
कंनिपत लनितका-सी शिलये देह
मातृत्व-बोझ से झुके हुए
बंध रहे पयोधर पीन आज,
कोमल काले ऊनों की
नवपठिट्टका बनाती रुशि�र साज,
सोने की शिसकता में मानों
काशिलदी बहती भर उसाँस।
स्वर्ग�र्गा में इंदीवर की या
एक पंशिक्त कर रही हास
कठिट में शिलपटा था नवल-वसन
वैसा ही हलका बुना नील।
दुभ�र थी र्गभ�-मधुर पीडा
झेलती जिजसे जननी सलील।
श्रम-किबंदु बना सा झलक रहा
भावी जननी का सरस र्गव�,
बन कुसुम निबखरते थ ेभू पर
आया समीप था महापव�।
मनु ने देखा जब श्रद्धा का
वह सहज-खेद से भरा रूप,
अपनी इच्छा का दृढ निवरोध-
जिजसमें वे भाव नहीं अनूप।
वे कुछ भी बोले नहीं,
रहे �ुप�ाप देखते साधिधकार,
श्रद्धा कुछ कुछ मुस्करा उठी
ज्यों जान र्गई उनका निव�ार।
'ठिदन भर थ ेकहाँ भटकते तम'
बोली श्रद्धा भर मधुर स्नेह-
"यह किहंसा इतनी है प्यारी
जो भुलवाती है देह-देह
मैं यहाँ अकेली देख रही पथ,
सुनती-सी पद-ध्वनिन निनतांत,
कानन में जब तुम दौड रहे
मृर्ग के पीछे बन कर अशांत
ढल र्गया ठिदवस पीला पीला
तुम रक्तारूण वन रहे घूम,
देखों नीडों में निवहर्ग-युर्गल
अपने शिशशुओं को रहे �ूम
उनके घर मेम कोलाहल है
मेरा सूना है रु्गEा-द्वार
तुमको क्या ऐसी कमी रही
जिजसके निहत जाते अन्य-द्वार?'
" श्रदे्ध तुमको कुछ कमी नहीं
पर मैं तो देक रहा अभाव,
भूली-सी कोई मधुर वस्तु
जैसे कर देती निवकल घाव।
शि�र-मुक्त-पुरुर्ष वह कब इतने
अवरूद्ध श्वास लेर्गा निनरीह
र्गनितहीन पंर्गु-सा पडा-पडा
ढह कर जैसे बन रहा डीह।
जब जड-बंधन-सा एक मोह
कसता प्राणों का मृदु शरीर,
अकुलता और जकडने की
तब गं्रशिथ तोडती हो अधीर।
हँस कर बोले, बोलते हुए निनकले
मधु-निनझ�र-लशिलत-र्गान,
र्गानों में उल्लास भरा
झूमें जिजसमें बन मधुर प्रान।
वह आकुलता अब कहाँ रही
जिजसमें सब कुछ ही जाय भूल,
आशा के कोमल तंतु-सदृश
तुम तकली में हो रही झूल।
यह क्यों, क्या धिमलते नहीं
तुम्हें शावक के संुदर मृदुल �म�?
तुम बीज बीनती क्यों?
मेरा मृर्गया का शिशशिथल हुआ न कम�।
नितस पर यह पीलापन केसा-
यह क्यों बुनने का श्रम सखेद?
यह निकसके शिलए, बताओ तो क्या
इसमें है शिछप रहा भेद?"
" अपनी रक्षा करने में जो
�ल जाय तुम्हारा कहीं अस्त्र
वह तो कुछ समझ सकी हूँ मैं-
किहंसक से रक्षा करे शस्त्र।
पर जो निनरीह जीकर भी
कुछ उपकारी होने में समथ�,
वे क्यों न जिजयें, उपयोर्गी बन-
इसका मैं समझ सकी न अथ�।
भार्ग-2
�मडे उनके आवरण रहे
ऊनों से �ले मेरा काम,
वे जीनिवत हों मांसल बनकर
हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम।
वे द्रोह न करने के स्थल हैं
जो पाले जा सकते सहेतु,
पशु से यठिद हम कुछ ऊँ�े हैं
तो भव-जलनिनधिध में बनें सेतु।"
"मैं यह तो मान नहीं सकता
सुख-सहज लब्ध यों छूट जायँ,
जीवन का जो संघर्ष� �ले
वह निवEल रहे हम �ल जायँ।
काली आँखों की तारा में-
मैं देखँू अपना शि�त्र धन्य,
मेरा मानस का मुकुर रहे
प्रनितनिबनिबत तुमसे ही अनन्य।
श्रदे्ध यह नव संकल्प नहीं-
�लने का लघु जीवन अमोल,
मैं उसको निनeय भोर्ग �लँू
जो सुख �लदल सा रहा डोल
देखा क्या तुमने कभी नहीं
स्वर्ग·य सुखों पर प्रलय-नृत्य?
निEर नाश और शि�र-निनद्रा है
तब इतना क्यों निवश्वास सत्य?
यह शि�र-प्रशांत-मंर्गल की
क्यों अभिभलार्षा इतनी जार्ग रही?
यह संशि�त क्यों हो रहा स्नेह
निकस पर इतनी हो सानुरार्ग?
यह जीवन का वरदान-मुझे
दे दो रानी-अपना दुलार,
केवल मेरी ही शि�ता का
तव-शि�त्त वहन कर रहे भार।
मेरा संुदर निवश्राम बना सृजता
हो मधुमय निवश्व एक,
जिजसमें बहती हो मधु-धारा
लहरें उठती हों एक-एक।"
"मैंने तो एक बनाया है
�ल कर देखो मेरा कुटीर,"
यों कहकर श्रद्धा हाथ पकड
मनु को वहाँ ले �ली अधीर।
उस रु्गEा समीप पुआलों की
छाजन छोटी सी शांनित-पंुज,
कोमल लनितकाओं की डालें
धिमल सघन बनाती जहाँ कुमज।
थ ेवातायन भी कटे हुए-
प्रा�ीर पण�मय रशि�त शुभ्र,
आवें क्षण भर तो �ल जायँ-
रूक जायँ कहीं न समीर, अभ्र।
उसमें था झूला वेतसी-
लता का सुरूशि�पूण�,
निबछ रहा धरातल पर शि�कना
सुमनों का कोमल सुरभिभ-�ूण�।
निकतनी मीठी अभिभलार्षायें
उसमें �ुपके से रहीं घूम
निकतने मंर्गल के मधुर र्गान
उसके कानों को रहे �ूम
मनु देख रहे थ े�निकत नया यह
रृ्गहलक्ष्मी का रृ्गह-निवधान
पर कुछ अच्छा-सा नहीं लर्गा
'यह क्यों'? निकसका सुख साभिभमान?'
�ुप थ ेपर श्रद्धा ही बोली-
"देखो यह तो बन र्गया नीड,
पर इसमें कलरव करने को
आकुल न हो रही अभी भीड।
तुम दूर �ले जाते हो जब-
तब लेकर तकली, यहाँ बैठ,
मैं उसे निEराती रहती हूँ
अपनी निनज�नता बी� पैठ।
मैं बैठी र्गाती हूँ तकली के
प्रनितवत्त�न में स्वर निवभोर-
'�ल रिर तकली धीरे-धीरे
निप्रय र्गये खेलने को अहेर'।
जीवन का कोमल तंतु बढे
तेरी ही मंजुलता समान,
शि�र-नग्न प्राण उनमें शिलपटे
संुदरता का कुछ बढे मान।
निकरनों-शिस तू बुन दे उज्ज्वल
मेरे मधु-जीवन का प्रभात,
जिजसमें निनव�सना प्रकृनित सरल ढँक
ले प्रकाश से नवल र्गात।
वासना भरी उन आँखों पर
आवरण डाल दे कांनितमान,
जिजसमें सौंदय� निनखर आवे
लनितका में Eुल्ल-कुसुम-समान।
अब वह आरं्गतुक रु्गEा बी�
पशु सा न रहे निनव�सन-नग्न,
अपने अभाव की जडता में वह
रह न सकेर्गा कभी मग्न।
सूना रहेर्गा मेरा यह लघु-
निवश्व कभी जब रहोरे्ग न,
मैं उसके शिलये निबछाऊँर्गा
Eूलों के रस का मृदुल Eे।
झूले पर उसे झुलाऊँर्गी
दुलरा कर लँूर्गी बदन �ूम,
मेरी छाती से शिलपटा इस
घाटी में लेर्गा सहज घूम।
वह आवेर्गा मृदु मलयज-सा
लहराता अपने मसृण बाल,
उसके अधरों से Eैलेर्गी
नव मधुमय स्विस्मनित-लनितका-प्रवाल।
अपनी मीठी रसना से वह
बोलेर्गा ऐसे मधुर बोल,
मेरी पीडा पर शिछडकेर्गी जो
कुसुम-धूशिल मकरंद घोल।
मेरी आँखों का सब पानी
तब बन जायेर्गा अमृत स्निस्नग्ध
उन निनर्तिवंकार नयनों में जब
देखँूर्गी अपना शि�त्र मुग्ध"
"तुम Eूल उठोर्गी लनितका सी
कंनिपत कर सुख सौरभ तरंर्ग,
मैं सुरभिभ खोजता भटकँूर्गा
वन-वन बन कस्तूरी कुरंर्ग।
यह जलन नहीं सह सकता मैं
�ानिहये मुझे मेरा ममत्व,
इस पं�भूत की र�ना में मैं
रमण करँू बन एक तत्त्व।
यह दै्वत, अरे यह निवधातो है
पे्रम बाँटने का प्रकार
भिभक्षुक मैं ना, यह कभी नहीं-
मैं लोटा लँूर्गा निनज निव�ार।
तुम दानशीलता से अपनी बन
सजल जलद निबतरो न निवदु।
इस सुख-नभ में मैं निव�रँूर्गा
बन सकल कलाधर शरद-इंदु।
भूले कभी निनहारोर्गी कर
आकर्ष�णमय हास एक,
मायानिवनिन मैं न उसे लँूर्गा
वरदान समझ कर-जानु टेक
इस दीन अनुग्रह का मुझ पर
तुम बोझ डालने में समथ�-
अपने को मत समझो श्रदे्ध
होर्गा प्रयास यह सदा व्यथ�।
तुम अपने सुख से सुखी रहो
मुझको दुख पाने दो स्वतंत्र,
' मन की परवशता महा-दुख'
मैं यही जपँूर्गा महामंत्र
लो �ला आज मैं छोड यहीं
संशि�त संवेदन-भार-पंुज,
मुझको काँटे ही धिमलें धन्य
हो सEल तुम्हें ही कुसुम-कंुज।"
कह, ज्वलनशील अंतर लेकर मनु
�ले र्गये, था शून्य प्रांत,
"रूक जा, सुन ले ओ निनम¦ही"
वह कहती रही अधीर श्रांत।
इडा सर्ग� पीछे आरे्ग
भार्ग-1
"निकस र्गहन रु्गहा से अनित अधीर
झंझा-प्रवाह-सा निनकला
यह जीवन निवकु्षब्ध महासमीर
ले साथ निवकल परमाणु-पंुज
नभ, अनिनल, अनल,
भयभीत सभी को भय देता
भय की उपासना में निवलीन
प्राणी कटुता को बाँट रहा
जर्गती को करता अधिधक दीन
निनमा�ण और प्रनितपद-निवनाश में
ठिदखलाता अपनी क्षमता
संघर्ष� कर रहा-सा सब से,
सब से निवरार्ग सब पर ममता
अस्विस्तत्व-शि�रंतन-धनु से कब,
यह छूट पड़ा है निवर्षम तीर
निकस लक्ष्य भेद को शून्य �ीर?
देखे मैंने वे शैल-श्रृंर्ग
जो अ�ल निहमानी से रंजिजत,
उन्मुक्त, उपेक्षा भरे तंुर्ग
अपने जड़-र्गौरव के प्रतीक
वसुधा का कर अभिभमान भंर्ग
अपनी समाधिध में रहे सुखी,
बह जाती हैं नठिदयाँ अबोध
कुछ स्वेद-किबंदु उसके लेकर,
वह स्विस्मत-नयन र्गत शोक-क्रोध
स्थिस्थर-मुशिक्त, प्रनितष्ठा मैं वैसी
�ाहता नहीं इस जीवन की
मैं तो अबाध र्गनित मरुत-सदृश,
हूँ �ाह रहा अपने मन की
जो �ूम �ला जाता अर्ग-जर्ग
प्रनित-पर्ग में कंपन की तरंर्ग
वह ज्वलनशील र्गनितमय पतंर्ग।
अपनी ज्वाला से कर प्रकाश
जब छोड़ �ला आया संुदर
प्रारंभिभक जीवन का निनवास
वन, रु्गहा, कंुज, मरू-अं�ल में हूँ
खोज रहा अपना निवकास
पार्गल मैं, निकस पर सदय रहा-
क्या मैंने ममता ली न तोड़
निकस पर उदारता से रीझा-
निकससे न लर्गा दी कड़ी होड़?
इस निवजन प्रांत में निबलख रही
मेरी पुकार उत्तर न धिमला
लू-सा झुलसाता दौड़ रहा-
कब मुझसे कोई Eूल खिखला?
मैं स्वप्न देखत हूँ उजड़ा-
कल्पना लोक में कर निनवास
देख कब मैंने कुसुम हास
इस दुखमय जीवन का प्रकाश
नभ-नील लता की डालों में
उलझा अपने सुख से हताश
कशिलयाँ जिजनको मैं समझ रहा
वे काँटे निबखरे आस-पास
निकतना बीहड़-पथ �ला और
पड़ रहा कहीं थक कर निनतांत
उन्मुक्त शिशखर हँसते मुझ पर-
रोता मैं निनवा�शिसत अशांत
इस निनयनित-नटी के अनित भीर्षण
अभिभनय की छाया ना� रही
खोखली शून्यता में प्रनितपद-
असEलता अधिधक कुलाँ� रही
पावस-रजनी में जरु्गनू र्गण को
दौड़ पकड़ता मैं निनराश
उन ज्योनित कणों का कर निवनाश
जीवन-निनशीथ के अंधकार
तू, नील तुनिहन-जल-निनधिध बन कर
Eैला है निकतना वार-पार
निकतनी �ेतनता की निकरणें हैं
डूब रहीं ये निनर्तिवंकार
निकतना मादकतम, निनखिखल भुवन
भर रहा भूधिमका में अबंर्ग
तू, मूर्त्तित्तमंान हो शिछप जाता
प्रनितपल के परिरवत्त�न अनंर्ग
ममता की क्षीण अरुण रेख
खिखलती है तुझमें ज्योनित-कला
जैसे सुहानिर्गनी की ऊर्मिमलं
अलकों में कंुकुम�ूण� भला
रे शि�रनिनवास निवश्राम प्राण के
मोह-जलद-छया उदार
मायारानी के केशभार
जीवन-निनशीथ के अंधकार
तू घूम रहा अभिभलार्षा के
नव ज्वलन-धूम-सा दुर्तिनंवार
जिजसमें अपूण�-लालसा, कसक
शि�नर्गारी-सी उठती पुकार
यौवन मधुवन की काचिलंदी
बह रही �ूम कर सब दिदंर्गत
मन-शिशशु की क्रीड़ा नौकायें
बस दौड़ लर्गाती हैं अनंत
कुहुनिकनिन अपलक दृर्ग के अंजन
हँसती तुझमें संुदर छलना
धूधिमल रेखाओं से सजीव
�ं�ल शि�त्रों की नव-कलना
इस शि�र प्रवास श्यामल पथ में
छायी निपक प्राणों की पुकार-
बन नील प्रनितध्वनिन नभ अपार
उजड़ा सूना नर्गर-प्रांत
जिजसमें सुख-दुख की परिरभार्षा
निवध्वस्त शिशल्प-सी हो निनतांत
निनज निवकृत वक्र रेखाओं से,
प्राणी का भाग्य बनी अशांत
निकतनी सुखमय स्मृनितयाँ,
अपूणा� रूशि� बन कर मँडराती निवकीण�
इन ढेरों में दुखभरी कुरूशि�
दब रही अभी बन पात्र जीण�
आती दुलार को निह�की-सी
सूने कोनों में कसक भरी।
इस सूखर तरु पर मनोवृनित
आकाश-बेशिल सी रही हरी
जीवन-समाधिध के खँडहर पर जो
जल उठते दीपक अशांत
निEर बुझ जाते वे स्वयं शांत।
यों सो� रहे मनु पडे़ श्रांत
श्रद्धा का सुख साधन निनवास
जब छोड़ �ले आये प्रशांत
पथ-पथ में भटक अटकते वे
आये इस ऊजड़ नर्गर-प्रांत
बहती सरस्वती वेर्ग भरी
निनस्तब्ध हो रही निनशा श्याम
नक्षत्र निनरखते निनर्मिमंमेर्ष
वसुधा को वह र्गनित निवकल वाम
वृत्रघ्नी का व जनाकीण�
उपकूल आज निकतना सूना
देवेश इंद्र की निवजय-कथा की
स्मृनित देती थी दुख दूना
वह पावन सारस्वत प्रदेश
दुस्वप्न देखता पड़ा क्लांत
Eैला था �ारों ओर ध्वांत।
"जीवन का लेकर नव निव�ार
जब �ला दं्वद्व था असुरों में
प्राणों की पूजा का प्र�ार
उस ओर आत्मनिवश्वास-निनरत
सुर-वर्ग� कह रहा था पुकार-
मैं स्वयं सतत आराध्य आत्म-
मंर्गल उपासना में निवभोर
उल्लासशीलता मैं शशिक्त-केन्द्र,
निकसकी खोजूँ निEर शरण और
आनंद-उच्छशिलत-शशिक्त-स्त्रोत
जीवन-निवकास वैशि�त्र्य भरा
अपना नव-नव निनमा�ण निकये
रखता यह निवश्व सदैव हरा,
प्राणों के सुख-साधन में ही,
संलग्न असुर करते सुधार
निनयमों में बँधते दुर्तिनंवार
था एक पूजता देह दीन
दूसरा अपूण� अहंता में
अपने को समझ रहा प्रवीण
दोनों का हठ था दुर्तिनंवार,
दोनों ही थ ेनिवश्वास-हीन-
निEर क्यों न तक� को शस्त्रों से
वे शिसद्ध करें-क्यों निह न युद्ध
उनका संघर्ष� �ला अशांत
वे भाव रहे अब तक निवरुद्ध
मुझमें ममत्वमय आत्म-मोह
स्वातंत्र्यमयी उचंृ्छखलता
हो प्रलय-भीत तन रक्षा में
पूजन करने की व्याकुलता
वह पूव� दं्वद्व परिरवर्त्तित्तंत हो
मुझको बना रहा अधिधक दीन-
स�मु� मैं हूँ श्रद्धा-निवहीन।"
मनु तुम श्रद्धा को र्गये भूल
उस पूण� आत्म-निवश्वासमयी को
उडा़ ठिदया था समझ तूल
तुमने तो समझा असत् निवश्व
जीवन धारे्ग में रहा झूल
जो क्षण बीतें सुख-साधन में
उनको ही वास्तव शिलया मान
वासना-तृप्तिप्त ही स्वर्ग� बनी,
यह उलटी मनित का व्यथ�-ज्ञान
तुम भूल र्गये पुरुर्षत्त्व-मोह में
कुछ सत्ता है नारी की
समरसता है संबंध बनी
अधिधकार और अधिधकारी की।"
जब रँू्गजी यह वाणी तीखी
कंनिपत करती अंबर अकूल
मनु को जैसे �ुभ र्गया शूल।
"यह कौन? अरे वही काम
जिजसने इस भ्रम में है डाला
छीना जीवन का सुख-निवराम?
प्रत्यक्ष लर्गा होने अतीत
जिजन घनिड़यों का अब शेर्ष नाम
वरदान आज उस र्गतयुर्ग का
कंनिपत करता है अंतरंर्ग
अभिभशाप ताप की ज्वाला से
जल रहा आज मन और अंर्ग-"
बोले मनु-" क्या भ्रांत साधना
में ही अब तक लर्गा रहा
क्या तुमने श्रद्धा को पाने
के शिलए नहीं सस्नेह कहा?
पाया तो, उसने भी मुझको
दे ठिदया हृदय निनज अमृत-धाम
निEर क्यों न हुआ मैं पूण�-काम?"
"मनु उसने त कर ठिदया दान
वह हृदय प्रणय से पूण� सरल
जिजसमें जीवन का भरा मान
जिजसमें �ेतना ही केवल
निनज शांत प्रभा से ज्योनितमान
पर तुमने तो पाया सदैव
उसकी संुदर जड़ देह मात्र
सौंदय� जलधिध से भर लाये
केवल तुम अपना र्गरल पात्र
तुम अनित अबोध, अपनी अपूण�ता को
न स्वयं तुम समझ सके
परिरणय जिजसको पूरा करता
उससे तुम अपने आप रुके
कुछ मेरा हो' यह रार्ग-भाव
संकुशि�त पूण�ता है अजान
मानस-जलनिनधिध का कु्षद्र-यान।
हाँ अब तुम बनने को स्वतंत्र
सब कलुर्ष ढाल कर औरों पर
रखते हो अपना अलर्ग तंत्र
दं्वद्वों का उद्गम तो सदैव
शाश्वत रहता वह एक मंत्र
डाली में कंटक संर्ग कुसुम
खिखलते धिमलते भी हैं नवीन
अपनी रुशि� से तुम निबधे हुए
जिजसको �ाहे ले रहे बीन
तुमने तो प्राणमयी ज्वाला का
प्रणय-प्रकाश न ग्रहण निकया
हाँ, जलन वासना को जीवन
भ्रम तम में पहला स्थान ठिदया-
अब निवकल प्रवत्त�न हो ऐसा जो
निनयनित-�क्र का बने यंत्र
हो शाप भरा तव प्रजातंत्र।
यह अभिभनव मानव प्रजा सृधिd
द्वयता मेम लर्गी निनरंतर ही
वण की करनित रहे वृधिd
अनजान समस्यायें र्गढती
र�ती हों अपनी निवनिनधिd
कोलाहल कलह अनंत �ले,
एकता नd हो बढे भेद
अभिभलनिर्षत वस्तु तो दूर रहे,
हाँ धिमले अनिनस्थिच्छत दुखद खेद
हृदयों का हो आवरण सदा
अपने वक्षस्थल की जड़ता
पह�ान सकें र्गे नहीं परस्पर
�ले निवश्व निर्गरता पड़ता
सब कुछ भी हो यठिद पास भरा
पर दूर रहेर्गी सदा तुधिd
दुख देर्गी यह संकुशि�त दृधिd।
अनवरत उठे निकतनी उमंर्ग
�ंुनिबत हों आँसू जलधर से
अभिभलार्षाओं के शैल-श्रृंर्ग
जीवन-नद हाहाकार भरा-
हो उठती पीड़ा की तरंर्ग
लालसा भरे यौवन के ठिदन
पतझड़ से सूखे जायँ बीत
संदेह नये उत्पन्न रहें
उनसे संतप्त सदा सभीत
Eैलेर्गा स्वजनों का निवरोध
बन कर तम वाली श्याम-अमा
दारिरद्रय दशिलत निबलखाती हो यह
शस्यश्यामला प्रकृनित-रमा
दुख-नीरद में बन इंद्रधनुर्ष
बदले नर निकतने नये रंर्ग-
बन तृर्ष्याणा-ज्वाला का पतंर्ग।
भार्ग-2
वह पे्रम न रह जाये पुनीत
अपने स्वाथ से आवृत
हो मंर्गल-रहस्य सकु�े सभीत
सारी संसृनित हो निवरह भरी,
र्गाते ही बीतें करुण र्गीत
आकांक्षा-जलनिनधिध की सीमा हो
भिक्षनितज निनराशा सदा रक्त
तुम रार्ग-निवरार्ग करो सबसे
अपने को कर शतशः निवभक्त
मस्विस्तर्ष्याक हृदय के हो निवरुद्ध,
दोनों में हो सद्भाव नहीं
वह �लने को जब कहे कहीं
तब हृदय निवकल �ल जाय कहीं
रोकर बीते सब वत्त�मान
क्षण संुदर अपना हो अतीत
पेंर्गों में झूलें हार-जीत।
संकुशि�त असीम अमोघ शशिक्त
जीवन को बाधा-मय पथ पर
ले �ले मेद से भरी भशिक्त
या कभी अपूण� अहंता में हो
रार्गमयी-सी महासशिक्त
व्यापकता निनयनित-पे्ररणा बन
अपनी सीमा में रहे बंद
सव�ज्ञ-ज्ञान का कु्षद्र-अशं
निवद्या बनकर कुछ र�े छंद
करत्तृत्व-सकल बनकर आवे
नश्वर-छाया-सी लशिलत-कला
निनत्यता निवभाजिजत हो पल-पल में
काल निनरंतर �ले ढला
तुम समझ न सको, बुराई से
शुभ-इच्छा की है बड़ी शशिक्त
हो निवEल तक� से भरी युशिक्त।
जीवन सारा बन जाये युद्ध
उस रक्त, अखिग्न की वर्षा� में
बह जायँ सभी जो भाव शुद्ध
अपनी शंकाओं से व्याकुल तुम
अपने ही होकर निवरूद्ध
अपने को आवृत निकये रहो
ठिदखलाओ निनज कृनित्रम स्वरूप
वसुधा के समतल पर उन्नत
�लता निEरता हो दंभ-स्तूप
श्रद्धा इस संसृनित की रहस्य-
व्यापक, निवशुद्ध, निवश्वासमयी
सब कुछ देकर नव-निनधिध अपनी
तुमसे ही तो वह छली र्गयी
हो वत्त�मान से वंशि�त तुम
अपने भनिवर्ष्याय में रहो रुद्ध
सारा प्रपं� ही हो अशुद्ध।
तुम जरा मरण में शि�र अशांत
जिजसको अब तक समझे थे
सब जीवन परिरवत्त�न अनंत
अमरत्व, वही भूलेर्गा तुम
व्याकुल उसको कहो अंत
दुखमय शि�र चि�ंतन के प्रतीक
श्रद्धा-वम�क बनकर अधीर
मानव-संतनित ग्रह-रस्थिश्म-रज्जु से
भाग्य बाँध पीटे लकीर
'कल्याण भूधिम यह लोक'
यही श्रद्धा-रहस्य जाने न प्रजा।
अनित�ारी धिमथ्या मान इसे
परलोक-वं�ना से भरा जा
आशाओं में अपने निनराश
निनज बुजिद्ध निवभव से रहे भ्रांत
वह �लता रहे सदैव श्रांत।"
अभिभशाप-प्रनितध्वनिन हुई लीन
नभ-सार्गर के अंतस्तल में
जैसे शिछप जाता महा मीन
मृदु-मरूत्-लहर में Eेनोपम
तारार्गण जिझलधिमल हुए दीन
निनस्तब्ध मौन था अखिखल लोक
तंद्रालस था वह निवजन प्रांत
रजनी-तम-पंूजीभूत-सदृश
मनु श्वास ले रहे थ ेअशांत
वे सो� रहे थ"े आज वही
मेरा अदृd बन निEर आया
जिजसने डाली थी जीवन पर
पहले अपनी काली छाया
शिलख ठिदया आज उसने भनिवर्ष्याय
यातना �लेर्गी अंतहीन
अब तो अवशिशd उपाय भी न।"
करती सरस्वती मधुर नाद
बहती थी श्यामल घाटी में
निनर्छिलंप्त भाव सी अप्रमाद
सब उपल उपेभिक्षत पडे़ रहे
जैसे वे निनषु्ठर जड़ निवर्षाद
वह थी प्रसन्नता की धारा
जिजसमें था केवल मधुर र्गान
थी कम�-निनरंतरता-प्रतीक
�लता था स्ववश अनंत-ज्ञान
निहम-शीतल लहरों का रह-रह
कूलों से टकराते जाना
आलोक अरुण निकरणों का उन पर
अपनी छाया निबखराना-
अदभुत था निनज-निनर्मिमंत-पथ का
वह पशिथक �ल रहा निनर्तिवंवाद
कहता जाता कुछ सुसंवाद।
प्रा�ी में Eैला मधुर रार्ग
जिजसके मंडल में एक कमल
खिखल उठा सुनहला भर परार्ग
जिजसके परिरमल से व्याकुल हो
श्यामल कलरव सब उठे जार्ग
आलोक-रस्थिश्म से बुने उर्षा-
अं�ल में आंदोलन अमंद
करता प्रभात का मधुर पवन
सब ओर निवतरने को मरंद
उस रम्य Eलक पर नवल शि�त्र सी
प्रकट हुई संुदर बाला
वह नयन-महोत्सव की प्रतीक
अम्लान-नशिलन की नव-माला
सुर्षमा का मंडल सुस्विस्मत-सा
निबखरता संसृनित पर सुरार्ग
सोया जीवन का तम निवरार्ग।
वह निवश्व मुकुट सा उज्जवलतम
शशिशखंड सदृश था स्पd भाल
दो पद्म-पलाश �र्षक-से दृर्ग
देते अनुरार्ग निवरार्ग ढाल
रंु्गजरिरत मधुप से मुकुल सदृश
वह आनन जिजसमें भरा र्गान
वक्षस्थल पर एकत्र धरे
संसृनित के सब निवज्ञान ज्ञान
था एक हाथ में कम�-कलश
वसुधा-जीवन-रस-सार शिलये
दूसरा निव�ारों के नभ को था
मधुर अभय अवलंब ठिदये
नित्रवली थी नित्रर्गुण-तरंर्गमयी,
आलोक-वसन शिलपटा अराल
�रणों में थी र्गनित भरी ताल।
नीरव थी प्राणों की पुकार
मूर्छिछंत जीवन-सर निनस्तरंर्ग
नीहार धिघर रहा था अपार
निनस्तब्ध अलस बन कर सोयी
�लती न रही �ं�ल बयार
पीता मन मुकुशिलत कंज आप
अपनी मधु बँूदे मधुर मौन
निनस्वन ठिदर्गंत में रहे रुद्ध
सहसा बोले मनु " अरे कौन-
आलोकमयी स्विस्मनित-�ेतना
आयी यह हेमवती छाया'
तंद्रा के स्वप्न नितरोनिहत थे
निबखरी केवल उजली माया
वह स्पश�-दुलार-पुलक से भर
बीते युर्ग को उठता पुकार
वीशि�याँ ना�तीं बार-बार।
प्रनितभा प्रसन्न-मुख सहज खोल
वह बोली-" मैं हूँ इड़ा, कहो
तुम कौन यहाँ पर रहे डोल"
नाशिसका नुकीली के पतले पुट
Eरक रहे कर स्विस्मत अमोल
" मनु मेरा नाम सुनो बाले
मैं निवश्व पशिथक स रहा क्लेश।"
" स्वार्गत पर देख रहे हो तुम
यह उजड़ा सारस्वत प्रदेश
भौनित हल�ल से यह
�ं�ल हो उठा देश ही था मेरा
इसमें अब तक हूँ पड़ी
इस आशा से आये ठिदन मेरा।"
" मैं तो आया हूँ- देनिव बता दो
जीवन का क्या सहज मोल
भव के भनिवर्ष्याय का द्वार खोल
इस निवश्वकुहर में इंद्रजाल
जिजसने र� कर Eैलाया है
ग्रह, तारा, निवदु्यत, नखत-माल
सार्गर की भीर्षणतम तरंर्ग-सा
खेल रहा वह महाकाल
तब क्या इस वसुधा के
लघु-लघु प्राणी को करने को सभीत
उस निनषु्ठर की र�ना कठोर
केवल निवनाश की रही जीत
तब मूख� आज तक क्यों समझे हैं
सृधिd उसे जो नाशमयी
उसका अधिधपनित होर्गा कोई,
जिजस तक दुख की न पुकार र्गयी
सुख नीड़ों को घेरे रहता
अनिवरत निवर्षाद का �क्रवाल
निकसने यह पट है ठिदया डाल
शनिन का सुदूर वह नील लोक
जिजसकी छाया-Eैला है
ऊपर नी�े यह र्गर्गन-शोक
उसके भी परे सुना जाता
कोई प्रकाश का महा ओक
वह एक निकरण अपनी देकर
मेरी स्वतंत्रता में सहाय
क्या बन सकता है? निनयनित-जाल से
मुशिक्त-दान का कर उपाय।"
कोई भी हो वह क्या बोले,
पार्गल बन नर निनभ�र न करे
अपनी दुब�लता बल सम्हाल
रं्गतव्य मार्ग� पर पैर धरे-
मत कर पसार-निनज पैरों �ल,
�लने की जिजसको रहे झोंक
उसको कब कोई सके रोक?
हाँ तुम ही हो अपने सहाय?
जो बुजिद्ध कहे उसको न मान कर
निEर निकसकी नर शरण जाय
जिजतने निव�ार संस्कार रहे
उनका न दूसरा है उपाय
यह प्रकृनित, परम रमणीय
अखिखल-ऐश्वय�-भरी शोधक निवहीन
तुम उसका पटल खोलने में परिरकर
कस कर बन कम�लीन
सबका निनयमन शासन करते
बस बढ़ा �लो अपनी क्षमता
तुम ही इसके निनणा�यक हो,
हो कहीं निवर्षमता या समता
तुम जड़ा को �ैतन्या करो
निवज्ञान सहज साधन उपाय
यश अखिखल लोक में रहे छाय।"
हँस पड़ा र्गर्गन वह शून्य लोक
जिजसके भीतर बस कर उजडे़
निकतने ही जीवन मरण शोक
निकतने हृदयों के मधुर धिमलन
कं्रदन करते बन निवरह-कोक
ले शिलया भार अपने शिसर पर
मनु ने यह अपना निवर्षम आज
हँस पड़ी उर्षा प्रा�ी-नभ में
देखे नर अपना राज-काज
�ल पड़ी देखने वह कौतुक
�ं�ल मलया�ल की बाला
लख लाली प्रकृनित कपोलों में
निर्गरता तारा दल मतवाला
उधिन्नद्र कमल-कानन में
होती थी मधुपों की नोक-झोंक
वसुधा निवस्मृत थी सकल-शोक।
"जीवन निनशीथ का अधंकार
भर्ग रहा भिक्षनितज के अं�ल में
मुख आवृत कर तुमको निनहार
तुम इडे़ उर्षा-सी आज यहाँ
आयी हो बन निकतनी उदार
कलरव कर जार्ग पडे़
मेरे ये मनोभाव सोये निवहंर्ग
हँसती प्रसन्नता �ाव भरी
बन कर निकरनों की सी तरंर्ग
अवलंब छोड़ कर औरों का
जब बुजिद्धवाद को अपनाया
मैं बढा सहज, तो स्वयं
बुजिद्ध को मानो आज यहाँ पाया
मेरे निवकल्प संकल्प बनें,
जीवन ही कम की पुकार
सुख साधन का हो खुला द्वार।"
स्वप्न सर्ग� पीछे आरे्ग
भार्ग-1
संध्या अरुण जलज केसर ले
अब तक मन थी बहलाती,
मुरझा कर कब निर्गरा तामरस,
उसको खोज कहाँ पाती
भिक्षनितज भाल का कंुकुम धिमटता
मशिलन काशिलमा के कर से,
कोनिकल की काकली वृथा ही
अब कशिलयों पर मँडराती।
कामायनी-कुसुम वसुधा पर पड़ी,
न वह मकरंद रहा,
एक शि�त्र बस रेखाओं का,
अब उसमें है रंर्ग कहाँ
वह प्रभात का हीनकला शशिश-
निकरन कहाँ �ाँदनी रही,
वह संध्या थी-रनिव, शशिश,तारा
ये सब कोई नहीं जहाँ।
जहाँ तामरस इंदीवर या
शिसत शतदल हैं मुरझाये-
अपने नालों पर, वह सरसी
श्रद्धा थी, न मधुप आये,
वह जलधर जिजसमें �पला
या श्यामलता का नाम नहीं,
शिशशिशर-कला की क्षीण-स्रोत
वह जो निहम�ल में जम जाये।
एक मौन वेदना निवजन की,
जिझल्ली की झनकार नहीं,
जर्गती अस्पd-उपेक्षा,
एक कसक साकार रही।
हरिरत-कंुज की छाया भर-थी
वसुधा-आशिलर्गंन करती,
वह छोटी सी निवरह-नदी थी
जिजसका है अब पार नहीं।
नील र्गर्गन में उडती-उडती
निवहर्ग-बाशिलका सी निकरनें,
स्वप्न-लोक को �लीं थकी सी
नींद-सेज पर जा निर्गरने।
किकंतु, निवरनिहणी के जीवन में
एक घड़ी निवश्राम नहीं-
निबजली-सी स्मृनित �मक उठी तब,
लर्गे जभी तम-घन धिघरने।
संध्या नील सरोरूह से जो
श्याम परार्ग निबखरते थ,े
शैल-घाठिटयों के अं�ल को
वो धीरे से भरते थ-े
तृण-रु्गल्मों से रोमांशि�त नर्ग
सुनते उस दुख की र्गाथा,
श्रद्धा की सूनी साँसों से
धिमल कर जो स्वर भरते थ-े
"जीवन में सुख अधिधक या निक दुख,
मंदानिकनिन कुछ बोलोर्गी?
नभ में नखत अधिधक,
सार्गर में या बुदबुद हैं निर्गन दोर्गी?
प्रनितकिबंब हैं तारा तुम में
चिसंधु धिमलन को जाती हो,
या दोनों प्रनितकिबंनिबत एक के
इस रहस्य को खोलोर्गी
इस अवकाश-पटी पर
जिजतने शि�त्र निबर्गडते बनते हैं,
उनमें निकतने रंर्ग भरे जो
सुरधनु पट से छनते हैं,
किकंतु सकल अणु पल में घुल कर
व्यापक नील-शून्यता सा,
जर्गती का आवरण वेदना का
धूधिमल-पट बुनते हैं।
दग्ध-श्वास से आह न निनकले
सजल कुहु में आज यहाँ
निकतना स्नेह जला कर जलता
ऐसा है लघु-दीप कहाँ?
बुझ न जाय वह साँझ-निकरन सी
दीप-शिशखा इस कुठिटया की,
शलभ समीप नहीं तो अच्छा,
सुखी अकेले जले यहाँ
आज सुनँू केवल �ुप होकर,
कोनिकल जो �ाहे कह ले,
पर न परार्गों की वैसी है
�हल-पहल जो थी पहले।
इस पतझड़ की सूनी डाली
और प्रतीक्षा की संध्या,
काकायनिन तू हृदय कडा कर
धीरे-धीरे सब सह ले
निबरल डाशिलयों के निनकंुज
सब ले दुख के निनश्वास रहे,
उस स्मृनित का समीर �लता है
धिमलन कथा निEर कौन कहे?
आज निवश्व अभिभमानी जैसे
रूठ रहा अपराध निबना,
निकन �रणों को धोयेंर्गे जो
अश्रु पलक के पार बहे
अरे मधुर है कd पूण� भी
जीवन की बीती घनिडयाँ-
जब निनस्सबंल होकर कोई
जोड़ रहा निबखरी कनिड़याँ।
वही एक जो सत्य बना था
शि�र-संुदरता में अपनी,
शिछपा कहीं, तब कैसे सुलझें
उलझी सुख-दुख की लनिड़याँ
निवस्मृत हों बीती बातें,
अब जिजनमें कुछ सार नहीं,
वह जलती छाती न रही
अब वैसा शीतल प्यार नहीं
सब अतीत में लीन हो �लीं
आशा, मधु-अभिभलार्षायें,
निप्रय की निनषु्ठर निवजय हुई,
पर यह तो मेरी हार नहीं
वे आचिलंर्गन एक पाश थ,े
स्विस्मनित �पला थी, आज कहाँ?
और मधुर निवश्वास अरे वह
पार्गल मन का मोह रहा
वंशि�त जीवन बना समप�ण
यह अभिभमान अकिकं�न का,
कभी दे ठिदया था कुछ मैंने,
ऐसा अब अनुमान रहा।
निवनिनयम प्राणों का यह निकतना
भयसंकुल व्यापार अरे
देना हो जिजतना दे दे तू,
लेना कोई यह न करे
परिरवत्त�न की तुच्छ प्रतीक्षा
पूरी कभी न हो सकती,
संध्या रनिव देकर पाती है
इधर-उधर उडुर्गन निबखरे
वे कुछ ठिदन जो हँसते आये
अंतरिरक्ष अरुणा�ल से,
Eूलों की भरमार स्वरों का
कूजन शिलये कुहक बल से।
Eैल र्गयी जब स्विस्मनित की माया,
निकरन-कली की क्रीड़ा से,
शि�र-प्रवास में �ले र्गये
वे आने को कहकर छल से
जब शिशरीर्ष की मधुर रं्गध से
मान-भरी मधुऋतु रातें,
रूठ �ली जातीं रशिक्तम-मुख,
न सह जार्गरण की घातें,
ठिदवस मधुर आलाप कथा-सा
कहता छा जाता नभ में,
वे जर्गते-सपने अपने तब
तारा बन कर मुसक्याते।"
वन बालाओं के निनकंुज सब
भरे वेणु के मधु स्वर से
लौट �ुके थ ेआने वाले
सुन पुकार हपने घर से,
निकन्तु न आया वह परदेसी-
युर्ग शिछप र्गया प्रतीक्षा में,
रजनी की भींर्गी पलकों से
तुनिहन किबंदु कण-कण बरसे
मानस का स्मृनित-शतदल खिखलता,
झरते किबंदु मरंद घने,
मोती कठिठन पारदश· ये,
इनमें निकतने शि�त्र बने
आँसू सरल तरल निवदु्यत्कण,
नयनालोक निवरह तम में,
प्रान पशिथक यह संबल लेकर
लर्गा कल्पना-जर्ग र�ने।
अरूण जलज के शोण कोण थे
नव तुर्षार के किबंदु भरे,
मुकुर �ूण� बन रहे, प्रनितच्छनिव
निकतनी साथ शिलये निबखरे
वह अनुरार्ग हँसी दुलार की
पंशिक्त �ली सोने तम में,
वर्षा�-निवरह-कुहू में जलते
स्मृनित के जरु्गनू डरे-डरे।
सूने निर्गरिर-पथ में रंु्गजारिरत
श्रृंर्गनाद की ध्वनिन �लती,
आकांक्षा लहरी दुख-तठिटनी
पुशिलन अंक में थी ढलती।
जले दीप नभ के, अभिभलार्षा-
शलभ उडे़, उस ओर �ले,
भरा रह र्गया आँखों में जल,
बुझी न वह ज्वाला जलती।
"माँ"-निEर एक निकलक दूरार्गत,
रँू्गज उठी कुठिटया सूनी,
माँ उठ दौड़ी भरे हृदय में
लेकर उत्कंठा दूनी।
लुटरी खुली अलक, रज-धूसर
बाँहें आकर शिलपट र्गयीं,
निनशा-तापसी की जलने को
धधक उठो बुझती धूनी
कहाँ रहा नटखट तू निEरता
अब तक मेरा भाग्य बना
अरे निपता के प्रनितनिनधिध
तूने भी सुख-दुख तो ठिदया घना,
�ं�ल तू, बन�र-मृर्ग बन कर
भरता है �ौकड़ी कहीं,
मैं डरती तू रूठ न जाये
करती कैसे तुझे मना"
"मैं रूठँू माँ और मना तू,
निकतनी अच्छी बात कही
ले मैं अब सोता हूँ जाकर,
बोलूँर्गा मैं आज नहीं,
पके Eलों से पेट भरा है
नींद नहीं खुलने वाली।"
श्रद्धा �ुबंन ले प्रसन्न
कुछ-कुछ निवर्षाद से भरी रही
जल उठते हैं लघु जीवन के
मधुर-मधुर वे पल हलके,
मुक्त उदास र्गर्गन के उर में
छाले बन कर जा झलके।
ठिदवा-श्रांत-आलोक-रस्थिश्मयाँ
नील-निनलय में शिछपी कहीं,
करुण वही स्वर निEर उस
संसृनित में बह जाता है र्गल के।
प्रणय निकरण का कोमल बंधन
मुशिक्त बना बढ़ता जाता,
दूर, किकंतु निकतना प्रनितपल
वह हृदय समीप हुआ जाता
मधुर �ाँदनी सी तंद्रा
जब Eैली मूर्छिछंत मानस पर,
तब अभिभन्न पे्रमास्पद उसमें
अपना शि�त्र बना जाता।
भार्ग-2
कामायनी सकल अपना सुख
स्वप्न बना-सा देख रही,
युर्ग-युर्ग की वह निवकल प्रतारिरत
धिमटी हुई बन लेख रही-
जो कुसुमों के कोमल दल से
कभी पवन पर अकिकंत था,
आज पपीहा की पुकार बन-
नभ में खिखं�ती रेख रही।
इड़ा अखिग्न-ज्वाला-सी
आरे्ग जलती है उल्लास भरी,
मनु का पथ आलोनिकत करती
निवपद-नदी में बनी तरी,
उन्ननित का आरोहण, मनिहमा
शैल-श्रृंर्ग सी श्रांनित नहीं,
तीव्र पे्ररणा की धारा सी
बही वहाँ उत्साह भरी।
वह संुदर आलोक निकरन सी
हृदय भेठिदनी दृधिd शिलये,
जिजधर देखती-खुल जाते हैं
तम ने जो पथ बंद निकये।
मनु की सतत सEलता की
वह उदय निवजधियनी तारा थी,
आश्रय की भूखी जनता ने
निनज श्रम के उपहार ठिदये
मनु का नर्गर बसा है संुदर
सहयोर्गी हैं सभी बने,
दृढ़ प्रा�ीरों में मंठिदर के
द्वार ठिदखाई पडे़ घने,
वर्षा� धूप शिशशिशर में छाया
के साधन संपन्न हुये,
खेतों में हैं कृर्षक �लाते हल
प्रमुठिदत श्रम-स्वेद सने।
उधर धातु र्गलते, बनते हैं
आभूर्षण औ' अस्त्र नये,
कहीं साहसी ले आते हैं
मृर्गया के उपहार नये,
पुर्ष्यापलानिवयाँ �ुनती हैं बन-
कुसुमों की अध-निवक� कली,
रं्गध �ूण� था लोध्र कुसुम रज,
जुटे नवीन प्रसाधन ये।
घन के आघातों से होती जो
प्र�ंड ध्वनिन रोर्ष भरी,
तो रमणी के मधुर कंठ से
हृदय मूछ�ना उधर ढरी,
अपने वर्ग� बना कर श्रम का
करते सभी उपाय वहाँ,
उनकी धिमशिलत-प्रयत्न-प्रथा से
पुर की श्री ठिदखती निनखरी।
देश का लाघव करते
वे प्राणी �ं�ल से हैं,
सुख-साधन एकत्र कर रहे
जो उनके संबल में हैं,
बढे ़ज्ञान-व्यवसाय, परिरश्रम,
बल की निवस्मृत छाया में,
नर-प्रयत्न से ऊपर आवे
जो कुछ वसुधा तल में है।
सृधिd-बीज अंकुरिरत, प्रEुस्थिल्लत
सEल हो रहा हरा भरा,
प्रलय बीव भी रभिक्षत मनु से
वह Eैला उत्साह भरा,
आज स्व�ेतन-प्राणी अपनी
कुशल कल्पनायें करके,
स्वावलंब की दृढ़ धरणी
पर खड़ा, नहीं अब रहा डरा।
श्रद्धा उस आeय�-लोक में
मलय-बाशिलका-सी �लती,
चिसंहद्वार के भीतर पहुँ�ी,
खडे़ प्रहरिरयों को छलती,
ऊँ�े स्तंभों पर वलभी-युत
बने रम्य प्रासाद वहाँ,
धूप-धूप-सुरभिभत-रृ्गह,
जिजनमें थी आलोक-शिशखा जलती।
स्वण�-कलश-शोभिभत भवनों से
लर्गे हुए उद्यान बने,
ऋजु-प्रशस्त, पथ बीव-बी� में,
कहीं लता के कंुज घने,
जिजनमें दंपनित समुद निवहरते,
प्यार भरे दे र्गलबाहीं,
रँू्गज रहे थ ेमधुप रसीले,
मठिदरा-मोद परार्ग सने।
देवदारू के वे प्रलंब भुज,
जिजनमें उलझी वायु-तरंर्ग,
धिमखरिरत आभूर्षण से कलरव
करते संुदर बाल-निवहंर्ग,
आश्रय देता वेणु-वनों से
निनकली स्वर-लहरी-ध्वनिन को,
नार्ग-केसरों की क्यारी में
अन्य सुमन भी थ ेबहुरंर्ग
नव मंडप में चिसंहासन
सम्मुख निकतने ही मं� तहाँ,
एक ओर रखे हैं सुन्दर मढ़ें
�म� से सुखद जहाँ,
आती है शैलेय-अर्गुरु की
धूम-रं्गध आमोद-भरी,
श्रद्धा सो� रही सपने में
'यह लो मैं आ र्गयी कहाँ'
और सामने देखा निनज
दृढ़ कर में �र्षक शिलये,
मनु, वह क्रतुमय पुरुर्ष वही
मुख संध्या की लाशिलमा निपये।
मादक भाव सामने, संुदर
एक शि�त्र सा कौन यहाँ,
जिजसे देखने को यह जीवन
मर-मर कर सौ बार जिजये-
इड़ा ढालती थी वह आसव,
जिजसकी बुझती प्यास नहीं,
तृनिर्षत कंठ को, पी-पीकर भी
जिजसमें है निवश्वास नहीं,
वह-वैश्वानर की ज्वाला-सी-
मं� वेठिदका पर बैठी,
सौमनस्य निबखराती शीतल,
जड़ता का कुछ भास नहीं।
मनु ने पूछा "और अभी कुछ
करने को है शेर्ष यहाँ?"
बोली इड़ा "सEल इतने में
अभी कम� सनिवशेर्ष कहाँ
क्या सब साधन स्ववश हो �ुके?"
नहीं अभी मैं रिरक्त रहा-
देश बसाया पर उज़ड़ा है
सूना मानस-देश यहाँ।
संुदर मुख, आँखों की आशा,
किकंतु हुए ये निकसके हैं,
एक बाँकपन प्रनितपद-शशिश का,
भरे भाव कुछ रिरस के हैं,
कुछ अनुरोध मान-मो�न का
करता आँखों में संकेत,
बोल अरी मेरी �ेतनते
तू निकसकी, ये निकसके हैं?"
"प्रजा तुम्हारी, तुम्हें प्रजापनित
सबका ही रु्गनती हूँ मैं,
वह संदेश-भरा निEर कैसा
नया प्रश्न सुनती हूँ मैं"
"प्रजा नहीं, तुम मेरी रानी
मुझे न अब भ्रम में डालो,
मधुर मराली कहो 'प्रणय के
मोती अब �ुनती हूँ मैं'
मेरा भाग्य-र्गर्गन धुँधला-सा,
प्रा�ी-पट-सी तुम उसमें,
खुल कर स्वयं अ�ानक निकतनी
प्रभापूण� हो छनिव-यश में
मैं अतृप्त आलोक-भिभखारी
ओ प्रकाश-बाशिलके बता,
कब डूबेर्गी प्यास हमारी
इन मधु-अधरों के रस में?
'ये सुख साधन और रुपहली-
रातों की शीतल-छाया,
स्वर-सं�रिरत ठिदशायें, मन है
उन्मद और शिशशिथल काया,
तब तुम प्रजा बनो मत रानी"
नर-पशु कर हुंकार उठा,
उधर Eैलती मठिदर घटा सी
अंधकार की घन-माया।
आचिलंर्गन निEर भय का क्रदंन
वसुधा जैसे काँप उठी
वही अनित�ारी, दुब�ल नारी-
परिरत्राण-पथ नाप उठी
अंतरिरक्ष में हुआ रुद्र-हुंकार
भयानक हल�ल थी,
अरे आत्मजा प्रजा पाप की
परिरभार्षा बन शाप उठी।
उधर र्गर्गन में कु्षब्ध हुई
सब देव शशिक्तयाँ क्रोध भरी,
रुद्र-नयन खुल र्गया अ�ानक-
व्याकुल काँप रही नर्गरी,
अनित�ारी था स्वयं प्रजापनित,
देव अभी शिशव बने रहें
नहीं, इसी से �ढ़ी शिशजिजनी
अजर्गव पर प्रनितशोध भरी।
प्रकृनित त्रस्त थी, भूतनाथ ने
नृत्य निवकंनिपत-पद अपना-
उधर उठाया, भूत-सृधिd सब
होने जाती थी सपना
आश्रय पाने को सब व्याकुल,
स्वयं-कलुर्ष में मनु संठिदग्ध,
निEर कुछ होर्गा, यही समझ कर
वसुधा का थर-थर कँपना।
काँप रहे थ ेप्रलयमयी
क्रीड़ा से सब आशंनिकत जंतु,
अपनी-अपनी पड़ी सभी को,
शिछन्न स्नेह को कोमल तंतु,
आज कहाँ वह शासन था
जो रक्षा का था भार शिलये,
इड़ा क्रोध लज्जा से भर कर
बाहर निनकल �ली शिथ किकंतु।
देखा उसने, जनता व्याकुल
राजद्वार कर रुद्ध रही,
प्रहरी के दल भी झुक आये
उनके भाव निवशुद्ध नहीं,
निनयमन एक झुकाव दबा-सा
टूटे या ऊपर उठ जाय
प्रजा आज कुछ और सो�ती
अब तक तो अनिवरुद्ध रही
कोलाहल में धिघर, शिछप बैठे
मनु कुछ सो� निव�ार भरे,
द्वार बंद लख प्रजा त्रस्त-सी,
कैसे मन निEर धैर्य्यय� धरे
शस्थिक्त्त-तरंर्गों में आन्दोलन,
रुद्र-क्रोध भीर्षणतम था,
महानील-लोनिहत-ज्वाला का
नृत्य सभी से उधर परे।
वह निवज्ञानमयी अभिभलार्षा,
पंख लर्गाकर उड़ने की,
जीवन की असीम आशायें
कभी न नी�े मुड़ने की,
अधिधकारों की सृधिd और
उनकी वह मोहमयी माया,
वर्ग की खाँई बन Eैली
कभी नहीं जो जुड़ने की।
असEल मनु कुछ कु्षब्ध हो उठे,
आकस्विस्मक बाधा कैसी-
समझ न पाये निक यह हुआ क्या,
प्रजा जुटी क्यों आ ऐसी
परिरत्राण प्राथ�ना निवकल थी
देव-क्रोध से बन निवद्रोह,
इड़ा रही जब वहाँ स्पd ही
वह घटना कु�क्र जैसी।
"द्वार बंद कर दो इनको तो
अब न यहाँ आने देना,
प्रकृनित आज उत्पाद कर रही,
मुझको बस सोने देना"
कह कर यों मनु प्रकट क्रोध में,
किकंतु डरे-से थ ेमन में,
शयन-कक्ष में �ले सो�ते
जीवन का लेना-देना।
श्रद्धा काँप उठी सपने में
सहसा उसकी आँख खुली,
यह क्या देखा मैंने? कैसे
वह इतना हो र्गया छली?
स्वजन-स्नेह में भय की
निकतनी आशंकायें उठ आतीं,
अब क्या होर्गा, इसी सो� में
व्याकुल रजनी बीत �ली।
संघर्ष� सर्ग� पीछे
आरे्ग
भार्ग-1
श्रद्धा का था स्वप्न
किकंतु वह सत्य बना था,
इड़ा संकुशि�त उधर
प्रजा में क्षोभ घना था।
भौनितक-निवप्लव देख
निवकल वे थ ेघबराये,
राज-शरण में त्राण प्राप्त
करने को आये।
किकंतु धिमला अपमान
और व्यवहार बुरा था,
मनस्ताप से सब के
भीतर रोर्ष भरा था।
कु्षब्ध निनरखते वदन
इड़ा का पीला-पीला,
उधर प्रकृनित की रुकी
नहीं थी तांड़व-लीला।
प्रार्गंण में थी भीड़ बढ़ रही
सब जुड़ आये,
प्रहरी-र्गण कर द्वार बंद
थ ेध्यान लर्गाये।
रा्नित्र घनी-लाशिलमा-पटी
में दबी-लुकी-सी,
रह-रह होती प्रर्गट मेघ की
ज्योनित झुकी सी।
मनु चि�ंनितत से पडे़
शयन पर सो� रहे थ,े
क्रोध और शंका के
श्वापद नो� रहे थे।
" मैं प्रजा बना कर
निकतना तुd हुआ था,
किकंतु कौन कह सकता
इन पर रुd हुआ था।
निकतने जव से भर कर
इनका �क्र �लाया,
अलर्ग-अलर्ग ये एक
हुई पर इनकी छाया।
मैं निनयमन के शिलए
बुजिद्ध-बल से प्रयत्न कर,
इनको कर एकत्र,
�लाता निनयम बना कर।
किकंतु स्वयं भी क्या वह
सब कुछ मान �लँू मैं,
तनिनक न मैं स्वचं्छद,
स्वण� सा सदा र्गलूँ मैं
जो मेरी है सृधिd
उसी से भीत रहूँ मैं,
क्या अधिधकार नहीं निक
कभी अनिवनीत रहूँ मैं?
श्रद्धा का अधिधकार
समप�ण दे न सका मैं,
प्रनितपल बढ़ता हुआ भला
कब वहाँ रुका मैं
इड़ा निनयम-परतंत्र
�ाहती मुझे बनाना,
निनवा�धिधत अधिधकार
उसी ने एक न माना।
निवश्व एक बन्धन
निवहीन परिरवत्त�न तो है,
इसकी र्गनित में रनिव-
शशिश-तारे ये सब जो हैं।
रूप बदलते रहते
वसुधा जलनिनधिध बनती,
उदधिध बना मरूभूधिम
जलधिध में ज्वाला जलती
तरल अखिग्न की दौड़
लर्गी है सब के भीतर,
र्गल कर बहते निहम-नर्ग
सरिरता-लीला र� कर।
यह सु्फशिलर्ग का नृत्य
एक पल आया बीता
ठिटकने कब धिमला
निकसी को यहाँ सुभीता?
कोठिट-कोठिट नक्षत्र
शून्य के महा-निववर में,
लास रास कर रहे
लटकते हुए अधर में।
उठती है पवनों के
स्तर में लहरें निकतनी,
यह असंख्य �ीत्कार
और परवशता इतनी।
यह नत्त�न उन्मुक्त
निवश्व का सं्पदन द्रुततर,
र्गनितमय होता �ला
जा रहा अपने लय पर।
कभी-कभी हम वही
देखते पुनरावत्त�न,
उसे मानते निनयम
�ल रहा जिजससे जीवन।
रुदन हास बन किकंतु
पलक में छलक रहे है,
शत-शत प्राण निवमुशिक्त
खोजते ललक रहे हैं।
जीवन में अभिभशाप
शाप में ताप भरा है,
इस निवनाश में सृधिd-
कंुज हो रहा हरा है।
'निवश्व बँधा है एक निनयम से'
यह पुकार-सी,
Eैली र्गयी है इसके मन में
दृढ़ प्र�ार-सी।
निनयम इन्होंने परखा
निEर सुख-साधन जाना,
वशी निनयामक रहे,
न ऐसा मैंने माना।
मैं-शि�र-बंधन-हीन
मृत्यु-सीमा-उल्लघंन-
करता सतत �लँूर्गा
यह मेरा है दृढ़ प्रण।
महानाश की सृधिd बी�
जो क्षण हो अपना,
�ेतनता की तुधिd वही है
निEर सब सपना।"
प्रर्गनित मन रूका
इक क्षण करवट लेकर,
देखा अनिव�ल इड़ा खड़ी
निEर सब कुछ देकर
और कह रही "किकंतु
निनयामक निनयम न माने,
तो निEर सब कुछ नd
हुआ निनeय जाने।"
"ऐं तुम निEर भी यहाँ
आज कैसे �ल आयी,
क्या कुछ और उपद्रव
की है बात समायी-
मन में, यह सब आज हुआ है
जो कुछ इतना
क्या न हुई तुधिd?
ब� रहा है अब निकतना?"
"मनु, सब शासन स्वत्त्व
तुम्हारा सतत निनबाहें,
तुधिd, �ेतना का क्षण
अपना अन्य न �ाहें
आह प्रजापनित यह
न हुआ है, कभी न होर्गा,
निनवा�धिधत अधिधकार
आज तक निकसने भोर्गा?"
यह मनुर्ष्याय आकार
�ेतना का है निवकशिसत,
एक निवश्व अपने
आवरणों में हैं निनर्मिमंत
शि�नित-केन्द्रों में जो
संघर्ष� �ला करता है,
द्वयता का जो भाव सदा
मन में भरता है-
वे निवस्मृत पह�ान
रहे से एक-एक को,
होते सतत समीप
धिमलाते हैं अनेक को।
स्पधा� में जो उत्तम
ठहरें वे रह जावें,
संसृनित का कल्याण करें
शुभ मार्ग� बतावें।
व्यशिक्त �ेतना इसीशिलए
परतंत्र बनी-सी,
रार्गपूण�, पर दे्वर्ष-पंक में
सतत सनी सी।
निनयत मार्ग� में पद-पद
पर है ठोकर खाती,
अपने लक्ष्य समीप
श्रांत हो �लती जाती।
यह जीवन उपयोर्ग,
यही है बुजिद्ध-साधना,
पना जिजसमें श्रेय
यही सुख की अ'राधना।
लोक सुखी हों आश्रय लें
यठिद उस छाया में,
प्राण सदृश तो रमो
राष्ट्र की इस काया में।
देश कल्पना काल
परिरधिध में होती लय है,
काल खोजता महा�ेतना
में निनज क्षय है।
वह अनंत �ेतन
न�ता है उन्मद र्गनित से,
तुम भी ना�ो अपनी
द्वयता में-निवस्मृनित में।
भिक्षनितज पटी को उठा
बढो ब्रह्मांड निववर में,
रंु्गजारिरत घन नाद सुनो
इस निवश्व कुहर में।
ताल-ताल पर �लो
नहीं लय छूटे जिजसमें,
तुम न निववादी स्वर
छेडो अनजाने इसमें।
"अच्छा यह तो निEर न
तुम्हें समझाना है अब,
तुम निकतनी पे्ररणामयी
हो जान �ुका सब।
किकंतु आज ही अभी
लौट कर निEर हो आयी,
कैसे यह साहस की
मन में बात समायी
आह प्रजापनित होने का
अधिधकार यही क्या
अभिभलार्षा मेरी अपूणा�
ही सदा रहे क्या?
मैं सबको निवतरिरत करता
ही सतत रहूँ क्या?
कुछ पाने का यह प्रयास
है पाप, सहूँ क्या?
तुमने भी प्रनितठिदन ठिदया
कुछ कह सकती हो?
मुझे ज्ञान देकर ही
जीनिवत रह सकती हो?
जो मैं हूँ �ाहता वही
जब धिमला नहीं है,
तब लौटा लो व्यथ�
बात जो अभी कही है।"
"इडे़ मुझे वह वस्तु
�ानिहये जो मैं �ाहूँ,
तुम पर हो अधिधकार,
प्रजापनित न तो वृथा हूँ।
तुम्हें देखकर बंधन ही
अब टूट रहा सब,
शासन या अधिधकार
�ाहता हूँ न तनिनक अब।
देखो यह दुध�र्ष�
प्रकृनित का इतना कंपन
मेरे हृदय समक्ष कु्षद्र
है इसका सं्पदन
इस कठोर ने प्रलय
खेल है हँस कर खेला
किकंतु आज निकतना
कोमल हो रहा अकेला?
तुम कहती हो निवश्व
एक लय है, मैं उसमें
लीन हो �लँू? किकंतु
धरा है क्या सुख इसमें।
कं्रदन का निनज अलर्ग
एक आकाश बना लँू,
उस रोदन में अट्टाहास
हो तुमको पा लँू।
निEर से जलनिनधिध उछल
बहे मर्य्यया�दा बाहर,
निEर झंझा हो वज्र-
प्रर्गनित से भीतर बाहर,
निEर डर्गमड हो नाव
लहर ऊपर से भार्गे,
रनिव-शशिश-तारा
सावधान हों �ौंके जार्गें,
किकंतु पास ही रहो
बाशिलके मेरी हो, तुम,
मैं हूँ कुछ खिखलवाड
नहीं जो अब खेलो तुम?"
भार्ग-2
आह न समझोर्गे क्या
मेरी अच्छी बातें,
तुम उते्तजिजत होकर
अपना प्राप्य न पाते।
प्रजा कु्षब्ध हो शरण
माँर्गती उधर खडी है,
प्रकृनित सतत आतंक
निवकंनिपत घडी-घडी है।
सा�धान, में शुभाकांभिक्षणी
और कहूँ क्या
कहना था कह �ुकी
और अब यहाँ रहूँ क्या"
"मायानिवनिन, बस पाली
तमने ऐसे छुट्टी,
लडके जैसे खेलों में
कर लेते खुट्टी।
मूर्तितंमयी अभिभशाप बनी
सी सम्मुख आयी,
तुमने ही संघर्ष�
भूधिमका मुझे ठिदखायी।
रूधिधर भरी वेठिदयाँ
भयकरी उनमें ज्वाला,
निवनयन का उप�ार
तुम्हीं से सीख निनकाला।
�ार वण� बन र्गये
बँटा श्रम उनका अपना
शस्त्र यंत्र बन �ले,
न देखा जिजनका सपना।
आज शशिक्त का खेल
खेलने में आतुर नर,
प्रकृनित संर्ग संघर्ष�
निनरंतर अब कैसा डर?
बाधा निनयमों की न
पास में अब आने दो
इस हताश जीवन में
क्षण-सुख धिमल जाने दो।
राष्ट्र-स्वाधिमनी, यह लो
सब कुछ वैभव अपना,
केवल तुमको सब उपाय से
कह लँू अपना।
यह सारस्वत देश या निक
निEर ध्वंस हुआ सा
समझो, तुम हो अखिग्न
और यह सभी धुआँ सा?"
"मैंने जो मनु, निकया
उसे मत यों कह भूलो,
तुमको जिजतना धिमला
उसी में यों मत Eूलो।
प्रकृनित संर्ग संघर्ष�
शिसखाया तुमको मैंने,
तुमको कें द्र बनाकर
अननिहत निकया न मैंने
मैंने इस निबखरी-निबभूनित
पर तुमको स्वामी,
सहज बनाया, तुम
अब जिजसके अंतया�मी।
किकंतु आज अपराध
हमारा अलर्ग खड़ा है,
हाँ में हाँ न धिमलाऊँ
तो अपराध बडा है।
मनु देखो यह भ्रांत
निनशा अब बीत रही है,
प्रा�ी में नव-उर्षा
तमस् को जीत रही है।
अभी समय है मुझ पर
कुछ निवश्वास करो तो।'
बनती है सब बात
तनिनक तुम धैय� धरो तो।"
और एक क्षण वह,
प्रमाद का निEर से आया,
इधर इडा ने द्वार ओर
निनज पैर बढाया।
किकंतु रोक ली र्गयी
भुजाओं की मनु की वह,
निनस्सहाय ही दीन-दृधिd
देखती रही वह।
"यह सारस्वत देश
तुम्हारा तुम हो रानी।
मुझको अपना अस्त्र
बना करती मनमानी।
यह छल �लने में अब
पंर्गु हुआ सा समझो,
मुझको भी अब मुक्त
जाल से अपने समझो।
शासन की यह प्रर्गनित
सहज ही अभी रुकेर्गी,
क्योंनिक दासता मुझसे
अब तो हो न सकेर्गी।
मैं शासक, मैं शि�र स्वतंत्र,
तुम पर भी मेरा-
हो अधिधकार असीम,
सEल हो जीवन मेरा।
शिछन्न भिभन्न अन्यथा
हुई जाती है पल में,
सकल व्यवस्था अभी
जाय डूबती अतल में।
देख रहा हूँ वसुधा का
अनित-भय से कंपन,
और सुन रहा हूँ नभ का
यह निनम�म-कं्रदन
किकंतु आज तुम
बंदी हो मेरी बाँहों में,
मेरी छाती में,"-निEर
सब डूबा आहों में
चिसंहद्वार अरराया
जनता भीतर आयी,
"मेरी रानी" उसने
जो �ीत्कार म�ायी।
अपनी दुब�लता में
मनु तब हाँE रहे थ,े
स्खलन निवकंनिपत पद वे
अब भी काँप रहे थे।
सजर्ग हुए मनु वज्र-
खशि�त ले राजदंड तब,
और पुकारा "तो सुन लो-
जो कहता हूँ अब।
"तुम्हें तृप्तिप्तकर सुख के
साधन सकल बताया,
मैंने ही श्रम-भार्ग निकया
निEर वर्ग� बनाया।
अत्या�ार प्रकृनित-कृत
हम सब जो सहते हैं,
करते कुछ प्रनितकार
न अब हम �ुप रहते हैं
आज न पशु हैं हम,
या रँू्गर्गे कानन�ारी,
यह उपकृनित क्या
भूल र्गये तुम आज हमारी"
वे बोले सक्रोध मानशिसक
भीर्षण दुख से,
"देखो पाप पुकार उठा
अपने ही सुख से
तुमने योर्गके्षम से
अधिधक सं�य वाला,
लोभ शिसखा कर इस
निव�ार-संकट में डाला।
हम संवेदनशील हो �ले
यही धिमला सुख,
कd समझने लर्गे बनाकर
निनज कृनित्रम दुख
प्रकृत-शशिक्त तुमने यंत्रों
से सब की छीनी
शोर्षण कर जीवनी
बना दी जज�र झीनी
और इड़ा पर यह क्या
अत्या�ार निकया है?
इसीशिलये तू हम सब के
बल यहाँ जिजया है?
आज बंठिदनी मेरी
रानी इड़ा यहाँ है?
ओ यायावर अब
मेरा निनस्तार कहाँ है?"
"तो निEर मैं हूँ आज
अकेला जीवन रभ में,
प्रकृनित और उसके
पुतलों के दल भीर्षण में।
आज साहशिसक का पौरुर्ष
निनज तन पर खेलें,
राजदंड को वज्र बना
सा स�मु� देखें।"
यों कह मनु ने अपना
भीर्षण अस्त्र सम्हाला,
देव 'आर्ग' ने उर्गली
त्यों ही अपनी ज्वाला।
छूट �ले नारा� धनुर्ष
से तीक्ष्ण नुकीले,
टूट रहे नभ-धूमकेतु
अनित नीले-पीले।
अंधड थ बढ रहा,
प्रजा दल सा झुंझलाता,
रण वर्षा� में शस्त्रों सा
निबजली �मकाता।
किकंतु कू्रर मनु वारण
करते उन बाणों को,
बढे कु�लते हुए खड्र्ग से
जन-प्राणों को।
तांडव में थी तीव्र प्रर्गनित,
परमाणु निवकल थ,े
निनयनित निवकर्ष�णमयी,
त्रास से सब व्याकुल थे।
मनु निEर रहे अलात-
�क्र से उस घन-तम में,
वह रशिक्तम-उन्माद
ना�ता कर निनम�म में।
उठ तुमुल रण-नाद,
भयानक हुई अवस्था,
बढा निवपक्ष समूह
मौन पददशिलत व्यवस्था।
आहत पीछे हटे, स्तंभ से
ठिटक कर मनु ने,
श्वास शिलया, टंकार निकया
दुल�क्ष्यी धनु ने।
बहते निवकट अधीर
निवर्षम उं�ास-वात थ,े
मरण-पव� था, नेता
आकुशिल औ' निकलात थे।
ललकारा, "बस अब
इसको मत जाने देना"
किकंतु सजर्ग मनु पहुँ�
र्गये कह "लेना लेना"।
"कायर, तुम दोनों ने ही
उत्पात म�ाया,
अरे, समझकर जिजनको
अपना था अपनाया।
तो निEर आओ देखो
कैसे होती है बशिल,
रण यह यज्ञ, पुरोनिहत
ओ निकलात औ' आकुशिल।
और धराशायी थे
असुर-पुरोनिहत उस क्षण,
इड़ा अभी कहती जाती थी
"बस रोको रण।
भीर्षन जन संहार
आप ही तो होता है,
ओ पार्गल प्राणी तू
क्यों जीवन खोता है
क्यों इतना आतंक
ठहर जा ओ र्गव·ले,
जीने दे सबको निEर
तू भी सुख से जी ले।"
किकंतु सुन रहा कौण
धधकती वेदी ज्वाला,
सामूनिहक-बशिल का
निनकला था पंथ निनराला।
रक्तोन्मद मनु का न
हाथ अब भी रुकता था,
प्रजा-पक्ष का भी न
किकंतु साहस झुकता था।
वहीं धर्तिरं्षता खड़ी
इड़ा सारस्वत-रानी,
वे प्रनितशोध अधीर,
रक्त बहता बन पानी।
धूंकेतु-सा �ला
रुद्र-नारा� भयंकर,
शिलये पँूछ में ज्वाला
अपनी अनित प्रलयंकर।
अंतरिरक्ष में महाशशिक्त
हुंकार कर उठी
सब शस्त्रों की धारें
भीर्षण वेर्ग भर उठीं।
और निर्गरीं मनु पर,
मुमूव� वे निर्गरे वहीं पर,
रक्त नदी की बाढ-
Eैलती थी उस भू पर।
निनव द सर्ग� पीछे आरे्ग
भार्ग-1
वह सारस्वत नर्गर पडा था कु्षब्द्ध,
मशिलन, कुछ मौन बना,
जिजसके ऊपर निवर्गत कम� का
निवर्ष-निवर्षाद-आवरण तना।
उल्का धारी प्रहरी से ग्रह-
तारा नभ में टहल रहे,
वसुधा पर यह होता क्या है
अणु-अणु क्यों है म�ल रहे?
जीवन में जार्गरण सत्य है
या सुरु्षप्तिप्त ही सीमा है,
आती है रह रह पुकार-सी
'यह भव-रजनी भीमा है।'
निनशिश�ारी भीर्षण निव�ार के
पंख भर रहे सरा�टे,
सरस्वती थी �ली जा रही
खीं� रही-सी सन्नाटे।
अभी घायलों की शिससकी में
जार्ग रही थी मम�-व्यथा,
पुर-लक्ष्मी खर्गरव के धिमस
कुछ कह उठती थी करुण-कथा।
कुछ प्रकाश धूधिमल-सा उसके
दीपों से था निनकल रहा,
पवन �ल रहा था रुक-रुक कर
खिखन्न, भरा अवसाद रहा।
भयमय मौन निनरीक्षक-सा था
सजर्ग सतत �ुप�ाप खडा,
अंधकार का नील आवरण
दृश्य-जर्गत से रहा बडा।
मंडप के सोपान पडे थ ेसूने,
कोई अन्य नहीं,
स्वयं इडा उस पर बैठी थी
अखिग्न-शिशखा सी धधक रही।
शून्य राज-शि�ह्नों से मंठिदर
बस समाधिध-सा रहा खडा,
क्योंनिक वही घायल शरीर
वह मनु का था रहा पडा।
इडा ग्लानिन से भरी हुई
बस सो� रही बीती बातें,
घृणा और ममता में ऐसी
बीत �ुकीं निकतनी रातें।
नारी का वह हृदय हृदय में-
सुधा-चिसंधु लहरें लेता,
बाडव-ज्वलन उसी में जलकर
कँ�न सा जल रँर्ग देता।
मधु-निपर्गल उस तरल-अखिग्न में
शीतलता संसृनित र�ती,
क्षमा और प्रनितशोध आह रे
दोनों की माया न�ती।
"उसने स्नेह निकया था मुझसे
हाँ अनन्य वह रहा नहीं,
सहज लब्ध थी वह अनन्यता
पडी रह सके जहाँ कहीं।
बाधाओं का अनितक्रमण कर
जो अबाध हो दौड �ले,
वही स्नेह अपराध हो उठा
जो सब सीमा तोड �ले।
"हाँ अपराध, किकंतु वह निकतना
एक अकेले भीम बना,
जीवन के कोने से उठकर
इतना आज असीम बना
और प्र�ुर उपकार सभी वह
सहृदयता की सब माया,
शून्य-शून्य था केवल उसमें
खेल रही थी छल छाया
"निकतना दुखी एक परदेशी बन,
उस ठिदन जो आया था,
जिजसके नी�े धारा नहीं थी
शून्य �तुर्दिदंक छाया था।
वह शासन का सूत्रधार था
निनयमन का आधार बना,
अपने निनर्मिमंत नव निवधान से
स्वयं दंड साकार बना।
"सार्गर की लहरों से उठकर
शैल-श्रृंर्ग पर सहज �ढा,
अप्रनितहत र्गनित, संस्थानों से
रहता था जो सदा बढा।
आज पडा है वह मुमूर्ष� सा
वह अतीत सब सपना था,
उसके ही सब हुए पराये
सबका ही जो अपना था।
"किकंतु वही मेरा अपराधी
जिजसका वह उपकारी था,
प्रकट उसी से दोर्ष हुआ है
जो सबको रु्गणकारी था।
अरे सर्ग�-अकंुर के दोनों
पल्लव हैं ये भले बुरे,
एक दूसरे की सीमा है
क्यों न युर्गल को प्यार करें?
"अपना हो या औरों का सुख
बढा निक बस दुख बना वहीं,
कौन किबंदु है रुक जाने का
यह जैसे कुछ ज्ञात नहीं।
प्राणी निनज-भनिवर्ष्याय-चि�ंता में
वत्त�मान का सुख छोडे,
दौड �ला है निबखराता सा
अपने ही पथ में रोडे।"
"इसे दंड दने मैं बैठी
या करती रखवाली मैं,
यह कैसी है निवकट पहेली
निकतनी उलझन वाली मैं?
एक कल्पना है मीठी यह
इससे कुछ संुदर होर्गा,
हाँ निक, वास्तनिवकता से अच्छी
सत्य इसी को वर देर्गा।"
�ौंक उठी अपने निव�ार से
कुछ दूरार्गत-ध्वनिन सुनती,
इस निनस्तब्ध-निनशा में कोई
�ली आ रही है कहती-
"अरे बता दो मुझे दया कर
कहाँ प्रवासी है मेरा?
उसी बावले से धिमलने को
डाल रही हूँ मैं Eेरा।
रूठ र्गया था अपनेपन से
अपना सकी न उसको मैं,
वह तो मेरा अपना ही था
भला मनाती निकसको मैं
यही भूल अब शूल-सदृश
हो साल रही उर में मेरे
कैसे पाऊँर्गी उसको मैं
कोई आकर कह दे रे"
इडा उठी, ठिदख पडा राजपथ
धुँधली सी छाया �लती,
वाणी में थी करूणा-वेदना
वह पुकार जैसे जलती।
शिशशिथल शरीर, वसन निवशंृ्रखल
कबरी अधिधक अधीर खुली,
शिछन्नपत्र मकरंद लुटी सी
ज्यों मुरझायी हुयी कली।
नव कोमल अवलंब साथ में
वय निकशोर उँर्गली पकडे,
�ला आ रहा मौन धैय� सा
अपनी माता को पकडे।
थके हुए थ ेदुखी बटोही
वे दोनों ही माँ-बेटे,
खोज रहे थ ेभूले मनु को
जो घायल हो कर लेटे।
इडा आज कुछ द्रनिवत हो रही
दुखिखयों को देखा उसने,
पहुँ�ी पास और निEर पूछा
"तुमको निबसराया निकसने?
इस रजनी में कहाँ भटकती
जाओर्गी तुम बोलो तो,
बैठो आज अधिधक �ं�ल हूँ
व्यथा-र्गाँठ निनज खोलो तो।
जीवन की लम्बी यात्रा में
खोये भी हैं धिमल जाते,
जीवन है तो कभी धिमलन है
कट जाती दुख की रातें।"
श्रद्धा रुकी कुमार श्रांत था
धिमलता है निवश्राम यहीं,
�ली इडा के साथ जहाँ पर
वधिह्न शिशखा प्रज्वशिलत रही।
सहसा धधकी वेदी ज्वाला
मंडप आलोनिकत करती,
कामायनी देख पायी कुछ
पहुँ�ी उस तक डर्ग भरती।
और वही मनु घायल स�मु�
तो क्या सच्चा स्वप्न रहा?
आह प्राणनिप्रय यह क्या?
तुम यों घुला ह्रदय,बन नीर बहा।
इडा �निकत, श्रद्धा आ बैठी
वह थी मनु को सहलाती,
अनुलेपन-सा मधुर स्पश� था
व्यथा भला क्यों रह जाती?
उस मूर्छिछंत नीरवता में
कुछ हलके से सं्पदन आये।
आँखे खुलीं �ार कोनों में
�ार निबदु आकर छाये।
उधर कुमार देखता ऊँ�े
मंठिदर, मंडप, वेदी को,
यह सब क्या है नया मनोहर
कैसे ये लर्गते जी को?
माँ ने कहा 'अरे आ तू भी
देख निपता हैं पडे हुए,'
'निपता आ र्गया लो' यह
कहते उसके रोयें खडे हुए।
"माँ जल दे, कुछ प्यासे होंरे्ग
क्या बैठी कर रही यहाँ?"
मुखर हो र्गया सूना मंडप
यह सजीवता रही यहाँ?"
आत्मीयता घुली उस घर में
छोटा सा परिरवार बना,
छाया एक मधुर स्वर उस पर
श्रद्धा का संर्गीत बना।
"तुमुल कोलाहल कलह में
मैं ह्रदय की बात रे मन
निवकल होकर निनत्य ��ंल,
खोजती जब नींद के पल,
�ेतना थक-सी रही तब,
मैं मलय की बात रे मन
शि�र-निवर्षाद-निवलीन मन की,
इस व्यथा के नितधिमर-वन की लृ
मैं उर्षा-सी ज्योनित-रेखा,
कुसुम-निवकशिसत प्रात रे मन
जहाँ मरु-ज्वाला धधकती,
�ातकी कन को तरसती,
उन्हीं जीवन-घाठिटयों की,
मैं सरस बरसात रे मन
पवन की प्रा�ीर में रुक
जला जीवन जी रहा झुक,
इस झुलसते निवश्व-ठिदन की
मैं कुसुम-श्रृतु-रात रे मन
शि�र निनराशा नीरधार से,
प्रनितच्छाधियत अश्रु-सर में,
मधुप-मुखर मरंद-मुकुशिलत,
मैं सजल जलजात रे मन"
उस स्वर-लहरी के अक्षर
सब संजीवन रस बने घुले।
भार्ग-2
उधर प्रभात हुआ प्रा�ी में
मनु के मुठिद्रत-नयन खुले।
श्रद्धा का अवलंब धिमला
निEर कृतज्ञता से हृदय भरे,
मनु उठ बैठे र्गदर्गद होकर
बोले कुछ अनुरार्ग भरे।
"श्रद्धा तू आ र्गयी भला तो-
पर क्या था मैं यहीं पडा'
वही भवन, वे स्तंभ, वेठिदका
निबखरी �ारों ओर घृणा।
आँखें बंद कर शिलया क्षोभ से
"दूर-दूर ले �ल मुझको,
इस भयावने अधंकार में
खो दँू कहीं न निEर तुझको।
हाथ पकड ले, �ल सकता हूँ-
हाँ निक यही अवलंब धिमले,
वह तू कौन? परे हट, श्रदे्ध आ निक
हृदय का कुसुम खिखले।"
श्रद्धा नीरव शिसर सहलाती
आँखों में निवश्वास भरे,
मानो कहती "तुम मेरे हो
अब क्यों कोई वृथा डरे?"
जल पीकर कुछ स्वस्थ हुए से
लर्गे बहुत धीरे कहने,
"ले �ल इस छाया के बाहर
मुझको दे न यहाँ रहने।
मुक्त नील नभ के नी�े
या कहीं रु्गहा में रह लेंर्गे,
अरे झेलता ही आया हूँ-
जो आवेर्गा सह लेंर्गे"
"ठहरो कुछ तो बल आने दो
शिलवा �लँूर्गी तुरंत तुम्हें,
इतने क्षण तक" श्रद्धा बोली-
"रहने देंर्गी क्या न हमें?"
इडा संकुशि�त उधर खडी थी
यह अधिधकार न छीन सकी,
श्रद्धा अनिव�ल, मनु अब बोले
उनकी वाणी नहीं रुकी।
"जब जीवन में साध भरी थी
उचंृ्छखल अनुरोध भरा,
अभिभलार्षायें भरी हृदय में
अपनेपन का बोध भरा।
मैं था, संुदर कुसुमों की वह
सघन सुनहली छाया थी,
मलयानिनल की लहर उठ रही
उल्लासों की माया थी।
उर्षा अरुण प्याला भर लाती
सुरभिभत छाया के नी�े
मेरा यौवन पीता सुख से
अलसाई आँखे मीं�े।
ले मकरंद नया �ू पडती
शरद-प्रात की शेEाली,
निबखराती सुख ही, संध्या की
संुदर अलकें घुँघराली।
सहसा अधंकार की आँधी
उठी भिक्षनितज से वेर्ग भरी,
हल�ल से निवकु्षब्द्ध निवश्व-थी
उदे्वशिलत मानस लहरी।
व्यशिथत हृदय उस नीले नभ में
छाया पथ-सा खुला तभी,
अपनी मंर्गलमयी मधुर-स्विस्मनित
कर दी तुमने देनिव जभी।
ठिदव्य तुम्हारी अमर अधिमट
छनिव लर्गी खेलने रंर्ग-रली,
नवल हेम-लेखा सी मेरे हृदय-
निनकर्ष पर खिखं�ी भली।
अरुणा�ल मन मंठिदर की वह
मुग्ध-माधुरी नव प्रनितमा,
र्गी शिसखाने स्नेह-मयी सी
संुदरता की मृदु मनिहमा।
उस ठिदन तो हम जान सके थे
संुदर निकसको हैं कहते
तब पह�ान सके, निकसके निहत
प्राणी यह दुख-सुख सहते।
जीवन कहता यौवन से
"कुछ देखा तूने मतवाले"
यौवन कहता साँस शिलये
�ल कुछ अपना संबल पाले"
हृदय बन रहा था सीपी सा
तुम स्वाती की बँूद बनी,
मानस-शतदल झूम उठा
जब तुम उसमें मकरंद बनीं।
तुमने इस सूखे पतझड में
भर दी हरिरयाली निकतनी,
मैंने समझा मादकता है
तृप्तिप्त बन र्गयी वह इतनी
निवश्व, निक जिजसमें दुख की
आँधी पीडा की लहरी उठती,
जिजसमें जीवन मरण बना था
बुदबुद की माया न�ती।
वही शांत उज्जवल मंर्गल सा
ठिदखता था निवश्वास भरा,
वर्षा� के कदंब कानन सा
सृधिd-निवभव हो उठा हरा।
भर्गवती वह पावन मधु-धारा
देख अमृत भी लल�ाये,
वही, रम्य सौंदर्य्यय�-शैल से
जिजसमें जीवन धुल जाये
संध्या अब ले जाती मुझसे
ताराओं की अकथ कथा,
नींद सहज ही ले लेती थी
सारे श्रमकी निवकल व्यथा।
सकल कुतूहल और कल्पना
उन �रणों से उलझ पडी,
कुसुम प्रसन्न हुए हँसते से
जीवन की वह धन्य घडी।
स्विस्मनित मधुराका थी, शवासों से
पारिरजात कानन खिखलता,
र्गनित मरंद-मथंर मलयज-सी
स्वर में वेणु कहाँ धिमलता
श्वास-पवन पर �ढ कर मेरे
दूरार्गत वंशी-रत्न-सी,
रँू्गज उठीं तुम, निवश्व कुहर में
ठिदव्य-रानिर्गनी-अभिभनव-सी
जीवन-जलनिनधिध के तल से
जो मुक्ता थ ेवे निनकल पडे,
जर्ग-मंर्गल-संर्गीत तुम्हारा
र्गाते मेरे रोम खडे।
आशा की आलोक-निकरन से
कुछ मानस से ले मेरे,
लघु जलधर का सृजन हुआ था
जिजसको शशिशलेखा घेरे-
उस पर निबजली की माला-सी
झूम पडी तुम प्रभा भरी,
और जलद वह रिरमजिझम
बरसा मन-वनस्थली हुई हरी
तुमने हँस-हँस मुझे शिसखाया
निवश्व खेल है खेल �लो,
तुमने धिमलकर मुझे बताया
सबसे करते मेल �लो।
यह भी अपनी निबजली के से
निवभ्रम से संकेत निकया,
अपना मन है जिजसको �ाहा
तब इसको दे दान ठिदया।
तुम अज्रस वर्षा� सुहार्ग की
और स्नेह की मधु-रजनी,
निवर अतृप्तिप्त जीवन यठिद था
तो तुम उसमें संतोर्ष बनी।
निकतना है उपकार तुम्हारा
आशिशररात मेरा प्रणय हुआ
आनिकतना आभारी हूँ, इतना
संवेदनमय हृदय हुआ।
किकंतु अधम मैं समझ न पाया
उस मंर्गल की माया को,
और आज भी पकड रहा हूँ
हर्ष� शोक की छाया को,
मेरा सब कुछ क्रोध मोह के
उपादान से र्गठिठत हुआ,
ऐसा ही अनुभव होता है
निकरनों ने अब तक न छुआ।
शानिपत-सा मैं जीवन का यह
ले कंकाल भटकता हूँ,
उसी खोखलेपन में जैसे
कुछ खोजता अटकता हूँ।
अंध-तमस है, किकंतु प्रकृनित का
आकर्ष�ण है खीं� रहा,
सब पर, हाँ अपने पर भी
मैं झुँझलाता हूँ खीझ रहा।
नहीं पा सका हूँ मैं जैसे
जो तुम देना �ाह रही,
कु्षद्र पात्र तुम उसमें निकतनी
मधु-धारा हो ढाल रही।
सब बाहर होता जाता है
स्वर्गत उसे मैं कर न सका,
बुजिद्ध-तक� के शिछद्र हुए थे
हृदय हमारा भर न सका।
यह कुमार-मेरे जीवन का
उच्च अंश, कल्याण-कला
निकतना बडा प्रलोभन मेरा
हृदय स्नेह बन जहाँ ढला।
सुखी रहें, सब सुखी रहें बस
छोडो मुझ अपराधी को"
श्रद्धा देख रही �ुप मनु के
भीतर उठती आँधी को।
ठिदन बीता रजनी भी आयी
तंद्रा निनद्रा संर्ग शिलये,
इडा कुमार समीप पडी थी
मन की दबी उमंर्ग शिलये।
श्रद्धा भी कुछ खिखन्न थकी सी
हाथों को उपधान निकये,
पडी सो�ती मन ही मन कुछ,
मनु �ुप सब अभिभशाप निपये-
सो� रहे थ,े "जीवन सुख है?
ना, यह निवकट पहेली है,
भार्ग अरे मनु इंद्रजाल से
निकतनी व्यथा न झेली है?
यह प्रभात की स्वण� निकरन सी
जिझलधिमल �ं�ल सी छाया,
श्रद्धा को ठिदखलाऊँ कैसे
यह मुख या कलुनिर्षत काया।
और शत्रु सब, ये कृतघ्न निEर
इनका क्या निवश्वास करँू,
प्रनितकिहंसा प्रनितशोध दबा कर
मन ही मन �ुप�ाप मरँू।
श्रद्धा के रहते यह संभव
नहीं निक कुछ कर पाऊँर्गा
तो निEर शांनित धिमलेर्गी मुझको
जहाँ खोजता जाऊँर्गा।"
जरे्ग सभी जब नव प्रभात में
देखें तो मनु वहाँ नहीं,
'निपता कहाँ' कह खोज रहा था
यह कुमार अब शांत नहीं।
इडा आज अपने को सबसे
अपराधी है समझ रही,
कामायनी मौन बैठी सी
अपने में ही उलझ रही।
दश�न सर्ग� पीछे आरे्ग
भार्ग-1
वह �ंद्रहीन थी एक रात,
जिजसमें सोया था स्वच्छ प्रात
उजले-उजले तारक झलमल,
प्रनितकिबंनिबत सरिरता वक्षस्थल,
धारा बह जाती किबंब अटल,
खुलता था धीरे पवन-पटल
�ुप�ाप खडी थी वृक्ष पाँत
सुनती जैसे कुछ निनजी बात।
धूधिमल छायायें रहीं घूम,
लहरी पैरों को रही �ूम,
"माँ तू �ल आयी दूर इधर,
सन्ध्या कब की �ल र्गयी उधर,
इस निनज�न में अब कया संुदर-
तू देख रही, माँ बस �ल घर
उसमें से उठता रं्गध-धूम"
श्रद्धाने वह मुख शिलया �ूम।
"माँ क्यों तू है इतनी उदास,
क्या मैं हूँ नहीं तेरे पास,
तू कई ठिदनों से यों �ुप रह,
क्या सो� रही? कुछ तो कह,
यह कैसा तेरा दुख-दुसह,
जो बाहर-भीतर देता दह,
लेती ढीली सी भरी साँस,
जैसी होती जाती हताश।"
वह बोली "नील र्गर्गन अपार,
जिजसमें अवनत घन सजल भार,
आते जाते, सुख, दुख, ठिदशिश, पल
शिशशु सा आता कर खेल अनिनल,
निEर झलमल संुदर तारक दल,
नभ रजनी के जरुु्गनू अनिवरल,
यह निवश्व अरे निकतना उदार,
मेरा रृ्गह रे उन्मुक्त-द्वार।
यह लो�न-र्गो�र-सकल-लोक,
संसृनित के कस्थिल्पत हर्ष� शोक,
भावादधिध से निकरनों के मर्ग,
स्वाती कन से बन भरते जर्ग,
उत्थान-पतनमय सतत सजर्ग,
झरने झरते आशिलनिर्गत नर्ग,
उलझन मीठी रोक टोक,
यह सब उसकी है नोंक झोंक।
जर्ग, जर्गता आँखे निकये लाल,
सोता ओढे तम-नींद-जाल,
सुरधनु सा अपना रंर्ग बदल,
मृनित, संसृनित, ननित, उन्ननित में ढल,
अपनी सुर्षमा में यह झलमल,
इस पर खिखलता झरता उडुदल,
अवकाश-सरोवर का मराल,
निकतना संुदर निकतना निवशाल
इसके स्तर-स्तर में मौन शांनित,
शीतल अर्गाध है, ताप-भ्रांनित,
परिरवत्त�नमय यह शि�र-मंर्गल,
मुस्क्याते इसमें भाव सकल,
हँसता है इसमें कोलाहल,
उल्लास भरा सा अंतस्तल,
मेरा निनवास अनित-मधुर-काँनित,
यह एक नीड है सुखद शांनित
"अबे निEर क्यों इतना निवरार्ग,
मुझ पर न हुई क्यों सानुरार्ग?"
पीछे मुड श्रद्धा ने देखा,
वह इडा मशिलन छनिव की रेखा,
ज्यों राहुग्रस्त-सी शशिश-लेखा,
जिजस पर निवर्षाद की निवर्ष-रेखा,
कुछ ग्रहण कर रहा दीन त्यार्ग,
सोया जिजसका है भाग्य, जार्ग।
बोली "तुमसे कैसी निवरशिक्त,
तुम जीवन की अंधानुरशिक्त,
मुझसे निबछुडे को अवलंबन,
देकर, तुमने रक्खा जीवन,
तुम आशामधिय शि�र आकर्ष�ण,
तुम मादकता की अवनत धन,
मनु के मस्तककी शि�र-अतृप्तिप्त,
तुम उते्तजिजत �ं�ला-शशिक्त
मैं क्या तुम्हें दे सकती मोल,
यह हृदय अरे दो मधुर बोल,
मैं हँसती हूँ रो लेती हूँ,
मैं पाती हूँ खो देती हूँ,
इससे ले उसको देती हूँ,
मैं दुख को सुख कर लेती हूँ,
अनुरार्ग भरी हूँ मधुर घोल,
शि�र-निवस्मृनित-सी हूँ रही डोल।
यह प्रभापूण� तव मुख निनहार,
मनु हत-�ेतन थ ेएक बार,
नारी माया-ममता का बल,
वह शशिक्तमयी छाया शीतल,
निEर कौन क्षमा कर दे निनश्छल,
जिजससे यह धन्य बने भूतल,
'तुम क्षमा करोर्गी' यह निव�ार
मैं छोडँू कैसे साधिधकार।"
"अब मैं रह सकती नहीं मौन,
अपराधी किकंतु यहाँ न कौन?
सुख-दुख जीवन में सब सहते,
पर केव सुख अपना कहते,
अधिधकार न सीमा में रहते।
पावस-निनझ�र-से वे बहते,
रोके निEर उनको भला कौन?
सब को वे कहते-शत्रु हो न"
अग्रसर हो रही यहाँ Eूट,
सीमायें कृनित्रम रहीं टूट,
श्रम-भार्ग वर्ग� बन र्गया जिजन्हें,
अपने बल का है र्गव� उन्हें,
निनयमों की करनी सृधिd जिजन्हें,
निवप्लव की करनी वृधिd उन्हें,
सब निपये मत्त लालसा घूँट,
मेरा साहस अब र्गया छूट।
मैं जनपद-कल्याणी प्रशिसद्ध,
अब अवननित कारण हूँ निननिर्षद्ध,
मेरे सुनिवभाजन हुए निवर्षम,
टूटते, निनत्य बन रहे निनयम
नाना कें द्रों में जलधर-सम,
धिघर हट, बरसे ये उपलोपम
यह ज्वाला इतनी है सधिमद्ध,
आहुनित बस �ाह रही समृद्ध।
तो क्या मैं भ्रम में थी निनतांत,
संहार-बध्य असहाय दांत,
प्राणी निवनाश-मुख में अनिवरल,
�ुप�ाप �ले होकर निनब�ल
संघर्ष� कम� का धिमथ्या बल,
ये शशिक्त-शि�न्ह, ये यज्ञ निवEल,
भय की उपासना प्रणानित भ्रांत
अनिनशासन की छाया अशांत
नितस पर मैंने छीना सुहार्ग,
हे देनिव तुम्हारा ठिदव्य-रार्ग,
मैम आज अकिकं�न पाती हूँ,
अपने को नहीं सुहाती हूँ,
मैं जो कुछ भी स्वर र्गाती हूँ,
वह स्वयं नहीं सुन पाती हूँ,
दो क्षमा, न दो अपना निवरार्ग,
सोयी �ेतनता उठे जार्ग।"
"है रुद्र-रोर्ष अब तक अशांत"
श्रद्धा बोली, " बन निवर्षम ध्वांत
शिसर �ढी रही पाया न हृदय
तू निवकल कर रही है अभिभनय,
अपनापन �ेतन का सुखमय
खो र्गया, नहीं आलोक उदय,
सब अपने पथ पर �लें श्रांत,
प्रत्येक निवभाजन बना भ्रांत।
जीवन धारा संुदर प्रवाह,
सत्, सतत, प्रकाश सुखद अथाह,
ओ तक� मयी तू निर्गने लहर,
प्रनितकिबंनिबत तारा पकड, ठहर,
तू रुक-रुक देखे आठ पहर,
वह जडता की स्थिस्थनित, भूल न कर,
सुख-दुख का मधुमय धूप-छाँह,
तू ने छोडी यह सरल राह।
�ेतनता का भौनितक निवभार्ग-
कर, जर्ग को बाँट ठिदया निवरार्ग,
शि�नित का स्वरूप यह निनत्य-जर्गत,
वह रूप बदलता है शत-शत,
कण निवरह-धिमलन-मय-नृत्य-निनरत
उल्लासपूण� आनंद सतत
तल्लीन-पूण� है एक रार्ग,
झंकृत है केवल 'जार्ग जार्ग'
मैं लोक-अखिग्न में तप निनतांत,
आहुनित प्रसन्न देती प्रशांत,
तू क्षमा न कर कुछ �ाह रही,
जलती छाती की दाह रही,
तू ले ले जो निनधिध पास रही,
मुझको बस अपनी राह रही,
रह सौम्य यहीं, हो सुखद प्रांत,
निवनिनमय कर दे कर कम� कांत।
तुम दोनों देखो राष्ट्र-नीनित,
शासक बन Eैलाओ न भीती,
मैं अपने मनु को खोज �ली,
सरिरता, मरु, नर्ग या कंुज-र्गली,
वह भोला इतना नहीं छली
धिमल जायेर्गा, हूँ पे्रम-पली,
तब देखँू कैसी �ली रीनित,
मानव तेरी हो सुयश र्गीनित।"
बोला बालक " ममता न तोड,
जननी मुझसे मुँह यों न मोड,
तेरी आज्ञा का कर पालन,
वह स्नेह सदा करता लालन।
भार्ग-2
मैं मरँू जिजऊँ पर छूटे न प्रन,
वरदान बने मेरा जीवन
जो मुझको तू यों �ली छोड,
तो मुझे धिमले निEर यही क्रोड"
"हे सौम्य इडा का शुशि� दुलार,
हर लेर्गा तेरा व्यथा-भार,
यह तक� मयी तू श्रद्धामय,
तू मननशील कर कम� अभय,
इसका तू सब संताप निन�य,
हर ले, हो मानव भाग्य उदय,
सब की समरसता कर प्र�ार,
मेरे सुत सुन माँ की पुकार।"
"अनित मधुर व�न निवश्वास मूल,
मुझको न कभी ये जायँ भूल
हे देनिव तुम्हारा स्नेह प्रबल,
बन ठिदव्य श्रेय-उदर्गम अनिवरल,
आकर्ष�ण घन-सा निवतरे जल,
निनवा�शिसत हों संताप सकल"
कहा इडा प्रणत ले �रण धूल,
पकडा कुमार-कर मृदुल Eूल।
वे तीनों ही क्षण एक मौन-
निवस्मृत से थ,े हम कहाँ कौन
निवचे्छद बाह्य, था आशिलर्गंन-
वह हृदयों का, अनित मधुर-धिमलन,
धिमलते आहत होकर जलकन,
लहरों का यह परिरणत जीवन,
दो लौट �ले पुर ओर मौन,
जब दूर हुए तब रहे दो न।
निनस्तब्ध र्गर्गन था, ठिदशा शांत,
वह था असीम का शि�त्र कांत।
कुछ शून्य किबंदु उर के ऊपर,
व्यशिथता रजनी के श्रमसींकर,
झलके कब से पर पडे न झर,
रं्गभीर मशिलन छाया भू पर,
सरिरता तट तरु का भिक्षनितज प्रांत,
केवल निबखेरता दीन ध्वांत।
शत-शत तारा मंनिडत अनंत,
कुसुमों का स्तबक खिखला बसंत,
हँसता ऊपर का निवश्व मधुर,
हलके प्रकाश से पूरिरत उर,
बहती माया सरिरता ऊपर,
उठती निकरणों की लोल लहर,
निन�ले स्तर पर छाया दुरंत,
आती �ुपके, जाती तुरंत।
सरिरता का वह एकांत कूल,
था पवन किहंडोले रहा झूल,
धीरे-धीरे लहरों का दल,
तट से टकरा होता ओझल,
छप-छप का होता शब्द निवरल,
थर-थर कँप रहती दीप्तिप्त तरल
संसृनित अपने में रही भूल,
वह रं्गध-निवधुर अम्लान Eूल।
तब सरस्वती-सा Eें क साँस,
श्रद्धा ने देखा आस-पास,
थ े�मक रहे दो Eूल नयन,
ज्यों शिशलालग्न अनर्गढे रतन,
वह क्या तम में करता सनसन?
धारा का ही क्या यह निनस्वन
ना, रु्गहा लतावृत एक पास,
कोई जीनिवत ले रहा साँस।
वह निनज�न तट था एक शि�त्र,
निकतना संुदर, निकतना पनिवत्र?
कुछ उन्नत थ ेवे शैलशिशखर,
निEर भी ऊँ�ा श्रद्धा का शिसर,
वह लोक-अखिग्न में तप र्गल कर,
थी ढली स्वण�-प्रनितमा बन कर,
मनु ने देखा निकतना निवशि�त्र
वह मातृ-मूर्त्तित्तं थी निवश्व-धिमत्र।
बोले "रमणी तुम नहीं आह
जिजसके मन में हो भरी �ाह,
तुमने अपना सब कुछ खोकर,
वंशि�ते जिजसे पाया रोकर,
मैं भर्गा प्राण जिजनसे लेकर,
उसको भी, उन सब को देकर,
निनद�य मन क्या न उठा कराह?
अद्भतु है तब मन का प्रवाह
ये श्वापद से किहंसक अधीर,
कोमल शावक वह बाल वीर,
सुनता था वह प्राणी शीतल,
निकतना दुलार निकतना निनम�ल
कैसा कठोर है तव हृत्तल
वह इडा कर र्गयी निEर भी छल,
तुम बनी रही हो अभी धीर,
छुट र्गया हाथ से आह तीर।"
"निप्रय अब तक हो इतने सशंक,
देकर कुछ कोई नहीं रंक,
यह निवनिनयम है या परिरवत्त�न,
बन रहा तुम्हारा ऋण अब धन,
अपराध तुम्हारा वह बंधन-
लो बना मुशिक्त, अब छोड स्वजन-
निनवा�शिसत तुम, क्यों लर्गे डंक?
दो लो प्रसन्न, यह स्पd अंक।"
"तुम देनिव आह निकतनी उदार,
यह मातृमूर्तितं है निनर्तिवंकार,
हे सव�मंर्गले तुम महती,
सबका दुख अपने पर सहती,
कल्याणमयी वाणी कहती,
तुम क्षमा निनलय में हो रहती,
मैं भूला हूँ तुमको निनहार-
नारी सा ही, वह लघु निव�ार।
मैं इस निनज�न तट में अधीर,
सह भूख व्यथा तीखा समीर,
हाँ भाव�क्र में निपस-निपस कर,
�लता ही आया हूँ बढ कर,
इनके निवकार सा ही बन कर,
मैं शून्य बना सत्ता खोकर,
लघुता मत देखो वक्ष �ीर,
जिजसमें अनुशय बन घुसा तीर।"
"निप्रयतम यह नत निनस्तब्ध रात,
है स्मरण कराती निवर्गत बात,
वह प्रलय शांनित वह कोलाहल,
जब अर्तिपंत कर जीवन संबल,
मैं हुई तुम्हारी थी निनश्छल,
क्या भूलँू मैं, इतनी दुब�ल?
तब �लो जहाँ पर शांनित प्रात,
मैं निनत्य तुम्हारी, सत्य बात।
इस देव-दं्वद्व का वह प्रतीक-
मानव कर ले सब भूल ठीक,
यह निवर्ष जो Eैला महा-निवर्षम,
निनज कम¦न्ननित से करते सम,
सब मुक्त बनें, काटेंरे्ग भ्रम,
उनका रहस्य हो शुभ-संयम,
निर्गर जायेर्गा जो है अलीक,
�ल कर धिमटती है पडी लीक।"
वह शून्य असत या अंधकार,
अवकाश पटल का वार पार,
बाहर भीतर उन्मुक्त सघन,
था अ�ल महा नीला अंजन,
भूधिमका बनी वह स्निस्नग्ध मशिलन,
थ ेनिनर्तिनंमेर्ष मनु के लो�न,
इतना अनंत था शून्य-सार,
दीखता न जिजसके परे पार।
सत्ता का सं्पदन �ला डोल,
आवरण पटल की गं्रशिथ खोल,
तम जलनिनधिध बन मधुमंथन,
ज्योत्स्ना सरिरता का आचिलंर्गन,
वह रजत र्गौर, उज्जवल जीवन,
आलोक पुरुर्ष मंर्गल �ेतन
केवल प्रकाश का था कलोल,
मधु निकरणों की थी लहर लोल।
बन र्गया तमस था अलक जाल,
सवाÄर्ग ज्योनितमय था निवशाल,
अंतर्तिनंनाद ध्वनिन से पूरिरत,
थी शून्य-भेठिदनी-सत्ता शि�त्त,
नटराज स्वयं थ ेनृत्य-निनरत,
था अंतरिरक्ष प्रहशिसत मुखरिरत,
स्वर लय होकर दे रहे ताल,
थ ेलुप्त हो रहे ठिदशाकाल।
लीला का सं्पठिदत आह्लाद,
वह प्रभा-पंुज शि�नितमय प्रसाद,
आनन्द पूण� तांडव संुदर,
झरते थ ेउज्ज्वल श्रम सीकर,
बनते तारा, निहमकर, ठिदनकर
उड रहे धूशिलकण-से भूधर,
संहार सृजन से युर्गल पाद-
र्गनितशील, अनाहत हुआ नाद।
निबखरे असंख्य ब्रह्मांड र्गोल,
युर्ग ग्रहण कर रहे तोल,
निवद्यत कटाक्ष �ल र्गया जिजधर,
कंनिपत संसृनित बन रही उधर,
�ेतन परमाणु अनंथ निबखर,
बनते निवलीन होते क्षण भर
यह निवश्व झुलता महा दोल,
परिरवत्त�न का पट रहा खोल।
उस शशिक्त-शरीरी का प्रकाश,
सब शाप पाप का कर निवनाश-
नत्त�न में निनरत, प्रकृनित र्गल कर,
उस कांनित चिसंधु में घुल-धिमलकर
अपना स्वरूप धरती संुदर,
कमनीय बना था भीर्षणतर,
हीरक-निर्गरी पर निवदु्यत-निवलास,
उल्लशिसत महा निहम धवल हास।
देखा मनु ने नर्त्तित्तंत नटेश,
हत �ेत पुकार उठे निवशेर्ष-
"यह क्या श्रदे्ध बस तू ले �ल,
उन �रणों तक, दे निनज संबल,
सब पाप पुण्य जिजसमें जल-जल,
पावन बन जाते हैं निनम�ल,
धिमटतते असत्य-से ज्ञान-लेश,
समरस, अखंड, आनंद-वेश" ।
रहस्� सर्ग� पीछे आरे्ग
भार्ग-1
उध्व� देश उस नील तमस में,
स्तब्ध निह रही अ�ल निहमानी,
पथ थककर हैं लीन �तुर्दिदंक,
देख रहा वह निर्गरिर अभिभमानी,
दोनों पशिथक �ले हैं कब से,
ऊँ�े-ऊँ�े �ढते जाते,
श्रद्धा आरे्ग मनु पीछे थ,े
साहस उत्साही से बढते।
पवन वेर्ग प्रनितकूल उधर था,
कहता-'निEर जा अरे बटोही
निकधर �ला तू मुझे भेद कर
प्राणों के प्रनित क्यों निनम¦ही?
छूने को अंबर म�ली सी
बढी जा रही सतत उँ�ाई
निवक्षत उसके अंर्ग, प्रर्गट थे
भीर्षण खड्ड भयकारी खाँई।
रनिवकर निहमखंडों पर पड कर
निहमकर निकतने नये बनाता,
दुततर �क्कर काट पवन थी
निEर से वहीं लौट आ जाता।
नी�े जलधर दौड रहे थे
संुदर सुर-धनु माला पहने,
कंुजर-कलभ सदृश इठलाते,
�पला के र्गहने।
प्रवहमान थ ेनिनम्न देश में
शीतल शत-शत निनझ�र ऐसे
महाश्वेत र्गजराज रं्गड से
निबखरीं मधु धारायें जैसे।
हरिरयाली जिजनकी उभरी,
वे समतल शि�त्रपटी से लर्गते,
प्रनितकृनितयों के बाह्य रेख-से स्थिस्थर,
नद जो प्रनित पल थ ेभर्गते।
लघुतम वे सब जो वसुधा पर
ऊपर महाशून्य का घेरा,
ऊँ�े �ढने की रजनी का,
यहाँ हुआ जा रहा सबेरा,
"कहाँ ले �ली हो अब मुझको,
श्रदे्ध मैं थक �ला अधिधक हूँ,
साहस छूट र्गया है मेरा,
निनस्संबल भग्नाश पशिथक हूँ,
लौट �लो, इस वात-�क्र से मैं,
दुब�ल अब लड न सकँूर्गा,
श्वास रुद्ध करने वाले,
इस शीत पवन से अड न सकँूर्गा।
मेरे, हाँ वे सब मेरे थ,े
जिजन से रूठ �ला आया हूँ।"
वे नी�े छूटे सुदूर,
पर भूल नहीं उनको पाया हूँ।"
वह निवश्वास भरी स्विस्मनित निनश्छल,
श्रद्धा-मुख पर झलक उठी थी।
सेवा कर-पल्लव में उसके,
कुछ करने को ललक उठी थी।
दे अवलंब, निवकल साथी को,
कामायनी मधुर स्वर बोली,
"हम बढ दूर निनकल आये,
अब करने का अवसर न ठिठठोली।
ठिदशा-निवकंनिपत, पल असीम है,
यह अनंत सा कुछ ऊपर है,
अनुभव-करते हो, बोलो क्या,
पदतल में, स�मु� भूधर है?
निनराधार हैं किकंतु ठहरना,
हम दोनों को आज यहीं है
निनयनित खेल देखँू न, सुनो
अब इसका अन्य उपाय नहीं है।
झाँई लर्गती, वह तुमको,
ऊपर उठने को है कहती,
इस प्रनितकूल पवन धक्के को,
झोंक दूसरी ही आ सहती।
श्रांत पक्ष, कर नेत्र बंद बस,
निवहर्ग-युर्गल से आज हम रहें,
शून्य पवन बन पंख हमारे,
हमको दें आधारा, जम रहें।
घबराओ मत यह समतल है,
देखो तो, हम कहाँ आ र्गये"
मनु ने देखा आँख खोलकर,
जैसे कुछ त्राण पा र्गये।
ऊर्ष्यामा का अभिभनव अनुभव था,
ग्रह, तारा, नक्षत्र अस्त थ,े
ठिदवा-रानित्र के संधिधकाल में,
ये सब कोई नहीं व्यस्त थे।
ऋतुओं के स्तर हुये नितरोनिहत,
भू-मंडल रेखा निवलीन-सी
निनराधार उस महादेश में,
उठिदत स�ेतनता नवीन-सी।
नित्रठिदक निवश्व, आलोक किबंदु भी,
तीन ठिदखाई पडे अलर्ग व,
नित्रभुवन के प्रनितनिनधिध थ ेमानो वे,
अनधिमल थ ेकिकंतु सजर्ग थे।
मनु ने पूछा, "कौन नये,
ग्रह ये हैं श्रदे्ध मुझे बताओ?
मैं निकस लोक बी� पहुँ�ा,
इस इंद्रजाल से मुझे ब�ाओ"
"इस नित्रकोण के मध्य किबंदु,
तुम शशिक्त निवपुल क्षमता वाले ये,
एक-एक को स्थिस्थर हो देखो,
इच्छा ज्ञान, निक्रया वाले ये।
वह देखो रार्गारुण है जो,
उर्षा के कंदुक सा संुदर,
छायामय कमनीय कलेवर,
भाव-मयी प्रनितमा का मंठिदर।
शब्द, स्पश�, रस, रूप, रं्गध की,
पारदर्छिशनंी सुघड पुतशिलयाँ,
�ारों ओर नृत्य करतीं ज्यों,
रूपवती रंर्गीन निततशिलयाँ
इस कुसुमाकर के कानन के,
अरुण परार्ग पटल छाया में,
इठलातीं सोतीं जर्गतीं ये,
अपनी भाव भरी माया में।
वह संर्गीतात्मक ध्वनिन इनकी,
कोमल अँर्गडाई है लेती,
मादकता की लहर उठाकर,
अपना अंबर तर कर देती।
आशिलर्गंन सी मधुर पे्ररणा,
छू लेती, निEर शिसहरन बनती,
नव-अलंबुर्षा की व्रीडा-सी,
खुल जाती है, निEर जा मुँदती।
यह जीवन की मध्य-भूधिम,
है रस धारा से चिसंशि�त होती,
मधुर लालसा की लहरों से,
यह प्रवानिहका सं्पठिदत होती।
जिजसके तट पर निवदु्यत-कण से।
मनोहारिरणी आकृनित वाले,
छायामय सुर्षमा में निवह्वल,
निव�र रहे संुदर मतवाले।
सुमन-संकुशिलत भूधिम-रंध्र-से,
मधुर रं्गध उठती रस-भीनी,
वार्ष्याप अदृश Eुहारे इसमें,
छूट रहे, रस-बँूदे झीनी।
घूम रही है यहाँ �तुर्दिदंक,
�लशि�त्रों सी संसृनित छाया,
जिजस आलोक-निवदु को घेरे,
वह बैठी मुसक्याती माया।
भाव �क्र यह �ला रही है,
इच्छा की रथ-नाभिभ घूमती,
नवरस-भरी अराए ँअनिवरल,
�क्रवाल को �निकत �ूमतीं।
यहाँ मनोमय निवश्व कर रहा,
रार्गारुण �ेतन उपासना,
माया-राज्य यही परिरपाटी,
पाश निबछा कर जीव Eाँसना।
ये अशरीरी रूप, सुमन से,
केवल वण� रं्गध में Eूले,
इन अप्सरिरयों की तानों के,
म�ल रहे हैं संुदर झूले।
भाव-भूधिमका इसी लोक की,
जननी है सब पुण्य-पाप की।
ढलते सब, स्वभाव प्रनितकृनित,
बन र्गल ज्वाला से मधुर ताप की।
निनयममयी उलझन लनितका का,
भाव निवटनिप से आकर धिमलना,
जीवन-वन की बनी समस्या,
आशा नभकुसुमों का खिखलना।
भार्ग-2
शि�र-वसंत का यह उदर्गम है,
पतझर होता एक ओर है,
अमृत हलाहल यहाँ धिमले है,
सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।"
"सुदंर यह तुमने ठिदखलाया,
किकंतु कौन वह श्याम देश है?
कामायनी बताओ उसमें,
क्या रहस्य रहता निवशेर्ष है"
"मनु यह श्यामल कम� लोक है,
धुँधला कुछ-कुछ अधंकार-सा
सघन हो रहा अनिवज्ञात
यह देश, मशिलन है धूम-धार सा।
कम�-�क्र-सा घूम रहा है,
यह र्गोलक, बन निनयनित-पे्ररणा,
सब के पीछे लर्गी हुई है,
कोई व्याकुल नयी एर्षणा।
श्रममय कोलाहल, पीडनमय,
निवकल प्रवत�न महायंत्र का,
क्षण भर भी निवश्राम नहीं है,
प्राण दास हैं निक्रया-तंत्र का।
भाव-राज्य के सकल मानशिसक,
सुख यों दुख में बदल रहे हैं,
किहंसा र्गव¦न्नत हारों में ये,
अकडे अणु टहल रहे हैं।
ये भौनितक संदेह कुछ करके,
जीनिवत रहना यहाँ �ाहते,
भाव-राष्ट्र के निनयम यहाँ पर,
दंड बने हैं, सब कराहते।
करते हैं, संतोर्ष नहीं है,
जैसे कशाघात-पे्ररिरत से-
प्रनित क्षण करते ही जाते हैं,
भीनित-निववश ये सब कंनिपत से।
निनयाते �लाती कम�-�क्र यह,
तृर्ष्याणा-जनिनत ममत्व-वासना,
पाभिण-पादमय पं�भूत की,
यहाँ हो रही है उपासना।
यहाँ सतत संघर्ष� निवEलता,
कोलाहल का यहाँ राज है,
अंधकार में दौड लर्ग रही
मतवाला यह सब समाज है।
सू्थल हो रहे रूप बनाकर,
कम की भीर्षण परिरणनित है,
आकांक्षा की तीव्र निपपाशा
ममता की यह निनम�म र्गनित है।
यहाँ शासनादेश घोर्षणा,
निवजयों की हुंकार सुनाती,
यहाँ भूख से निवकल दशिलत को,
पदतल में निEर निEर निर्गरवाती।
यहाँ शिलये दाधियत्व कम� का,
उन्ननित करने के मतवाले,
जल-जला कर Eूट पड रहे
ढुल कर बहने वाले छाले।
यहाँ राशिशकृत निवपुल निवभव सब,
मरीशि�का-से दीख पड रहे,
भाग्यवान बन क्षभिणक भोर्ग के वे,
निवलीन, ये पुनः र्गड रहे।
बडी लालसा यहाँ सुयश की,
अपराधों की स्वीकृनित बनती,
अंध पे्ररणा से परिर�ाशिलत,
कता� में करते निनज निर्गनती।
प्राण तत्त्व की सघन साधना जल,
निहम उपल यहाँ है बनता,
पयासे घायल हो जल जाते,
मर-मर कर जीते ही बनता
यहाँ नील-लोनिहत ज्वाला कुछ,
जला-जला कर निनत्य ढालती,
�ोट सहन कर रुकने वाली धातु,
न जिजसको मृत्यु सालती।
वर्षा� के घन नाद कर रहे,
तट-कूलों को सहज निर्गराती,
प्लानिवत करती वन कंुजों को,
लक्ष्य प्राप्तिप्त सरिरता बह जाती।"
"बस अब ओर न इसे ठिदखा तू,
यह अनित भीर्षण कम� जर्गत है,
श्रदे्ध वह उज्ज्वल कैसा है,
जैसे पंुजीभूत रजत है।"
"निप्रयतम यह तो ज्ञान के्षत्र है,
सुख-दुख से है उदासीनत,
यहाँ न्याय निनम�म, �लता है,
बुजिद्ध-�क्र, जिजसमें न दीनता।
अस्विस्त-नास्विस्त का भेद, निनरंकुश करते,
ये अणु तक� -युशिक्त से,
ये निनस्संर्ग, किकंतु कर लेते,
कुछ संबंध-निवधान मुशिक्त से।
यहाँ प्राप्य धिमलता है केवल,
तृप्तिप्त नहीं, कर भेद बाँटती,
बुजिद्ध, निवभूनित सकल शिसकता-सी,
प्यास लर्गी है ओस �ाटती।
न्याय, तपस्, ऐश्वय� में पर्गे ये,
प्राणी �मकीले लर्गते,
इस निनदाघ मरु में, सूखे से,
स्रोतों के तट जैसे जर्गते।
मनोभाव से काय-कम� के
समतोलन में दत्तशि�त्त से,
ये निनस्पृह न्यायासन वाले,
�ूक न सकते तनिनक निवत्त से
अपना परिरधिमत पात्र शिलये,
ये बँूद-बँूद वाले निनझ�र से,
माँर्ग रहे हैं जीवन का रस,
बैठ यहाँ पर अजर-अमर-से।
यहाँ निवभाजन धम�-तुला का,
अधिधकारों की व्याख्या करता,
यह निनरीह, पर कुछ पाकर ही,
अपनी ढीली साँसे भरता।
उत्तमता इनका निनजस्व है,
अंबुज वाले सर सा देखो,
जीवन-मधु एकत्र कर रही,
उन सखिखयों सा बस लेखो।
यहाँ शरद की धवल ज्योत्स्ना,
अंधकार को भेद निनखरती,
यह अनवस्था, युर्गल धिमले से,
निवकल व्यवस्था सदा निबखरती।
देखो वे सब सौम्य बने हैं,
किकंतु सशंनिकत हैं दोर्षों से,
वे संकेत दंभ के �लते,
भू-वालन धिमस परिरतोर्षों से।
यहाँ अछूत रहा जीवन रस,
छूओ मत, संशि�त होने दो।
बस इतना ही भार्ग तुम्हारा,
तृर्ष्याणा मृर्षा, वंशि�त होने दो।
सामंजस्य �ले करने ये,
किकंतु निवर्षमता Eैलाते हैं,
मूल-स्वत्व कुछ और बताते,
इच्छाओं को झुठलाते हैं।
स्वयं व्यस्त पर शांत बने-से,
शास्त्र शस्त्र-रक्षा में पलते,
ये निवज्ञान भरे अनुशासन,
क्षण क्षण परिरवत्त�न में ढलते।
यही नित्रपुर है देखा तुमने,
तीन किबंदु ज्योतोम�य इतने,
अपने केन्द्र बने दुख-सुख में,
भिभन्न हुए हैं ये सब निकतने
ज्ञान दूर कुछ, निक्रया भिभन्न है,
इच्छा क्यों पूरी हो मन की,
एक दूसरे से न धिमल सके,
यह निवडंबना है जीवन की।"
महाज्योनित-रेख सी बनकर,
श्रद्धा की स्विस्मनित दौडी उनमें,
वे संबद्ध हुए Eर सहसा,
जार्ग उठी थी ज्वाला जिजनमें।
नी�े ऊपर ल�कीली वह,
निवर्षम वायु में धधक रही सी,
महाशून्य में ज्वाल सुनहली,
सबको कहती 'नहीं नहीं सी।
शशिक्त-तंरर्ग प्रलय-पावक का,
उस नित्रकोण में निनखर-उठा-सा।
शि�नितमय शि�ता धधकती अनिवरल,
महाकाल का निवर्षय नृत्य था,
निवश्व रंध्र ज्वाला से भरकर,
करता अपना निवर्षम कृत्य था,
स्वप्न, स्वाप, जार्गरण भस्म हो,
इच्छा निक्रया ज्ञान धिमल लय थ,े
ठिदव्य अनाहत पर-निननाद में,
श्रद्धायुत मनु बस तन्मय थे।
आनंद सर्ग� पीछे
भार्ग-1
�लता था-धीरे-धीरे
वह एक यानित्रयों का दल,
सरिरता के रम्य पुशिलन में
निर्गरिरपथ से, ले निनज संबल।
या सोम लता से आवृत वृर्ष
धवल, धम� का प्रनितनिनधिध,
घंटा बजता तालों में
उसकी थी मंथर र्गनित-निवधिध।
वृर्ष-रज्जु वाम कर में था
दभिक्षण नित्रशूल से शोभिभत,
मानव था साथ उसी के
मुख पर था तेज़ अपरिरधिमत।
केहरिर-निकशोर से अभिभनव
अवयव प्रसु्फठिटत हुए थ,े
यौवन र्गम्भीर हुआ था
जिजसमें कुछ भाव नये थे।
�ल रही इड़ा भी वृर्ष के
दूसरे पाश्व� में नीरव,
रै्गरिरक-वसना संध्या सी
जिजसके �ुप थ ेसब कलरव।
उल्लास रहा युवकों का
शिशशु र्गण का था मृदु कलकल।
मनिहला-मंर्गल र्गानों से
मुखरिरत था वह यात्री दल।
�मरों पर बोझ लदे थे
वे �लते थ ेधिमल आनिवरल,
कुछ शिशशु भी बैठ उन्हीं पर
अपने ही बने कुतूहल।
माताए ँपकडे उनको
बातें थीं करती जातीं,
'हम कहाँ �ल रहे' यह सब
उनको निवधिधवत समझातीं।
कह रहा एक था" तू तो
कब से ही सुना रही है
अब आ पहुँ�ी लो देखो
आरे्ग वह भूधिम यही है।
पर बढती ही �लती है
रूकने का नाम नहीं है,
वह तीथ� कहाँ है कह तो
जिजसके निहत दौड़ रही है।"
"वह अर्गला समतल जिजस पर
है देवदारू का कानन,
घन अपनी प्याली भरते ले
जिजसके दल से निहमकन।
हाँ इसी ढालवें को जब बस
सहज उतर जावें हम,
निEर सन्मुख तीथ� धिमलेर्गा
वह अनित उज्ज्वल पावनतम"
वह इड़ा समीप पहुँ� कर
बोला उसको रूकने को,
बालक था, म�ल र्गया था
कुछ और कथा सुनने को।
वह अपलक लो�न अपने
पादाग्र निवलोकन करती,
पथ-प्रदर्छिशंका-सी �लती
धीरे-धीरे डर्ग भरती।
बोली, "हम जहाँ �ले हैं
वह है जर्गती का पावन
साधना प्रदेश निकसी का
शीतल अनित शांत तपोवन।"
"कैसा? क्यों शांत तपोवन?
निवस्तृत क्यों न बताती"
बालक ने कहा इडा से
वह बोली कुछ सकु�ाती
"सुनती हूँ एक मनस्वी था
वहाँ एक ठिदन आया,
वह जर्गती की ज्वाला से
अनित-निवकल रहा झुलसाया।
उसकी वह जलन भयानक
Eैली निर्गरिर अं�ल में निEर,
दावाखिग्न प्रखर लपटों ने
कर शिलया सघन बन अस्थिस्थर।
थी अधाÄनिर्गनी उसी की
जो उसे खोजती आयी,
यह दशा देख, करूणा की
वर्षा� दृर्ग में भर लायी।
वरदान बने निEर उसके आँसू,
करते जर्ग-मंर्गल,
सब ताप शांत होकर,
बन हो र्गया हरिरत, सुख शीतल।
निर्गरिर-निनझ�र �ले उछलते
छायी निEर हरिरयाली,
सूखे तरू कुछ मुसकराये
Eूटी पल्लव में लाली।
वे युर्गल वहीं अब बैठे
संसृनित की सेवा करते,
संतोर्ष और सुख देकर
सबकी दुख ज्वाला हरते।
हैं वहाँ महाह्नद निनम�ल
जो मन की प्यास बुझाता,
मानस उसको कहते हैं
सुख पाता जो है जाता।
"तो यह वृर्ष क्यों तू यों ही
वैसे ही �ला रही है,
क्यों बैठ न जाती इस पर
अपने को थका रही है?"
"सारस्वत-नर्गर-निनवासी
हम आये यात्रा करने,
यह व्यथ�, रिरक्त-जीवन-घट
पीयूर्ष-सशिलल से भरने।
इस वृर्षभ धम�-प्रनितनिनधिध को
उत्सर्ग� करेंर्गे जाकर,
शि�र मुक्त रहे यह निनभ�य
स्वचं्छद सदा सुख पाकर।"
सब सम्हल र्गये थे
आरे्ग थी कुछ नी�ी उतराई,
जिजस समतल घाटी में,
वह थी हरिरयाली से छाई।
श्रम, ताप और पथ पीडा
क्षण भर में थ ेअंतर्तिहंत,
सामने निवराट धवल-नर्ग
अपनी मनिहमा से निवलशिसत।
उसकी तलहटी मनोहर
श्यामल तृण-वीरूध वाली,
नव-कंुज, रु्गहा-रृ्गह संुदर
ह्रद से भर रही निनराली।
वह मंजरिरयों का कानन
कुछ अरूण पीत हरिरयाली,
प्रनित-पव� सुमन-संुकुल थे
शिछप र्गई उन्हीं में डाली।
यात्री दल ने रूक देखा
मानस का दृश्य निनराला,
खर्ग-मृर्ग को अनित सुखदायक
छोटा-सा जर्गत उजाला।
मरकत की वेदी पर ज्यों
रक्खा हीरे का पानी,
छोटा सा मुकुर प्रकृनित
या सोयी राका रानी।
ठिदनकर निर्गरिर के पीछे अब
निहमकर था �ढा र्गर्गन में,
कैलास प्रदोर्ष-प्रभा में स्थिस्थर
बैठा निकसी लर्गन में।
संध्या समीप आयी थी
उस सर के, वल्कल वसना,
तारों से अलक रँु्गथी थी
पहने कदंब की रशना।
खर्ग कुल निकलकार रहे थ,े
कलहंस कर रहे कलरव,
निकन्नरिरयाँ बनी प्रनितध्वनिन
लेती थीं तानें अभिभनव।
मनु बैठे ध्यान-निनरत थे
उस निनम�ल मानस-तट में,
सुमनों की अंजशिल भर कर
श्रद्धा थी खडी निनकट में।
श्रद्धा ने सुमन निबखेरा
शत-शत मधुपों का रंु्गजन,
भर उठा मनोहर नभ में
मनु तन्मय बैठे उन्मन।
पह�ान शिलया था सबने
निEर कैसे अब वे रूकते,
वह देव-दं्वद्व दु्यनितमय था
निEर क्यों न प्रणनित में झुकते।
भार्ग-2
तब वृर्षभ सोमवाही भी
अपनी घंटा-ध्वनिन करता,
बढ �ला इडा के पीछे
मानव भी था डर्ग भरता।
हाँ इडा आज भूली थी
पर क्षमा न �ाह रही थी,
वह दृश्य देखने को निनज
दृर्ग-युर्गल सराह रही थी
शि�र-धिमशिलत प्रकृनित से पुलनिकत
वह �ेतन-पुरूर्ष-पुरातन,
निनज-शशिक्त-तरंर्गाधियत था
आनंद-अंबु-निनधिध शोभन।
भर रहा अंक श्रद्धा का
मानव उसको अपना कर,
था इडा-शीश �रणों पर
वह पुलक भरी र्गदर्गद स्वर
बोली-"मैं धन्य हुई जो
यहाँ भूलकर आयी,
हे देवी तुम्हारी ममता
बस मुझे खीं�ती लायी।
भर्गवनित, समझी मैं स�मु�
कुछ भी न समझ थी मुझको।
सब को ही भुला रही थी
अभ्यास यही था मुझको।
हम एक कुटुम्ब बनाकर
यात्रा करने हैं आये,
सुन कर यह ठिदव्य-तपोवन
जिजसमें सब अघ छुट जाये।"
मनु ने कुछ-कुछ मुस्करा कर
कैलास ओर ठिदखालाया,
बोले- "देखो निक यहाँ
कोई भी नहीं पराया।
हम अन्य न और कुटंुबी
हम केवल एक हमीं हैं,
तुम सब मेरे अवयव हो
जिजसमें कुछ नहीं कमीं है।
शानिपत न यहाँ है कोई
तानिपत पापी न यहाँ है,
जीवन-वसुधा समतल है
समरस है जो निक जहाँ है।
�ेतन समुद्र में जीवन
लहरों सा निबखर पडा है,
कुछ छाप व्यशिक्तर्गत,
अपना निनर्मिमंत आकार खडा है।
इस ज्योत्स्ना के जलनिनधिध में
बुदबुद सा रूप बनाये,
नक्षत्र ठिदखाई देते
अपनी आभा �मकाये।
वैसे अभेद-सार्गर में
प्राणों का सृधिd क्रम है,
सब में घुल धिमल कर रसमय
रहता यह भाव �रम है।
अपने दुख सुख से पुलनिकत
यह मूत�-निवश्व स�रा�र
शि�नित का निवराट-वपु मंर्गल
यह सत्य सतत शि�त संुदर।
सबकी सेवा न परायी
वह अपनी सुख-संसृनित है,
अपना ही अणु अणु कण-कण
द्वयता ही तो निवस्मृनित है।
मैं की मेरी �ेतनता
सबको ही स्पश� निकये सी,
सब भिभन्न परिरस्थिस्थनितयों की है
मादक घूँट निपये सी।
जर्ग ले ऊर्षा के दृर्ग में
सो ले निनशी की पलकों में,
हाँ स्वप्न देख ले सुदंर
उलझन वाली अलकों में
�ेतन का साक्षी मानव
हो निनर्तिवंकार हंसता सा,
मानस के मधुर धिमलन में
र्गहरे र्गहरे धँसता सा।
सब भेदभाव भुलवा कर
दुख-सुख को दृश्य बनाता,
मानव कह रे यह मैं हूँ,
यह निवश्व नीड बन जाता"
श्रद्धा के मधु-अधरों की
छोटी-छोटी रेखायें,
रार्गारूण निकरण कला सी
निवकसीं बन स्विस्मनित लेखायें।
वह कामायनी जर्गत की
मंर्गल-कामना-अकेली,
थी-ज्योनितर्ष्यामती प्रEुस्थिल्लत
मानस तट की वन बेली।
वह निवश्व-�ेतना पुलनिकत थी
पूण�-काम की प्रनितमा,
जैसे रं्गभीर महाह्नद हो
भरा निवमल जल मनिहमा।
जिजस मुरली के निनस्वन से
यह शून्य रार्गमय होता,
वह कामायनी निवहँसती अर्ग
जर्ग था मुखरिरत होता।
क्षण-भर में सब परिरवर्तितंत
अणु-अणु थ ेनिवश्व-कमल के,
निपर्गल-परार्ग से म�ले
आनंद-सुधा रस छलके।
अनित मधुर रं्गधवह बहता
परिरमल बँूदों से चिसंशि�त,
सुख-स्पश� कमल-केसर का
कर आया रज से रंजिजत।
जैसे असंख्य मुकुलों का
मादन-निवकास कर आया,
उनके अछूत अधरों का
निकतना �ंुबन भर लाया।
रूक-रूक कर कुछ इठलाता
जैसे कुछ हो वह भूला,
नव कनक-कुसुम-रज धूसर
मकरंद-जलद-सा Eूला।
जैसे वनलक्ष्मी ने ही
निबखराया हो केसर-रज,
या हेमकूट निहम जल में
झलकाता परछाई निनज।
संसृनित के मधुर धिमलन के
उच्छवास बना कर निनज दल,
�ल पडे र्गर्गन-आँर्गन में
कुछ र्गाते अभिभनव मंर्गल।
वल्लरिरयाँ नृत्य निनरत थीं,
निबखरी सुरं्गध की लहरें,
निEर वेणु रंध्र से उठ कर
मूच्छ�ना कहाँ अब ठहरे।
रँू्गजते मधुर नूपुर से
मदमाते होकर मधुकर,
वाणी की वीणा-धवनिन-सी
भर उठी शून्य में जिझल कर।
उन्मद माधव मलयानिनल
दौडे सब निर्गरते-पडते,
परिरमल से �ली नहा कर
काकली, सुमन थ ेझडते।
शिसकुडन कौशेय वसन की थी
निवश्व-सुन्दरी तन पर,
या मादन मृदुतम कंपन
छायी संपूण� सृजन पर।
सुख-सह�र दुख-निवदुर्षक
परिरहास पूण� कर अभिभनय,
सब की निवस्मृनित के पट में
शिछप बैठा था अब निनभ�य।
थ ेडाल डाल में मधुमय
मृदु मुकुल बने झालर से,
रस भार प्रEुल्ल सुमन
सब धीरे-धीरे से बरसे।
निहम खंड रस्थिश्म मंनिडत हो
मभिण-दीप प्रकाश ठिदखता,
जिजनसे समीर टकरा कर
अनित मधुर मृदंर्ग बजाता।
संर्गीत मनोहर उठता
मुरली बजती जीवन की,
सकें त कामना बन कर
बतलाती ठिदशा धिमलन की।
रस्विस्मयाँ बनीं अप्सरिरयाँ
अतंरिरक्ष में न�ती थीं,
परिरमल का कन-कन लेकर
निनज रंर्गमं� र�ती थी।
मांसल-सी आज हुई थी
निहमवती प्रकृनित पार्षाणी,
उस लास-रास में निवह्वल
थी हँसती सी कल्याणी।
वह �ंद्र निकरीट रजत-नर्ग
सं्पठिदत-सा पुरर्ष पुरातन,
देखता मानशिस र्गौरी
लहरों का कोमल नत्तन�
प्रनितEशिलत हुई सब आँखें
उस पे्रम-ज्योनित-निवमला से,
सब पह�ाने से लर्गते
अपनी ही एक कला से।
समरस थ ेजड ़ ़या �ेतन
सुन्दर साकार बना था,
�ेतनता एक निवलसती
आनंद अखंड घना था।