sangh karyapadhhatika vikas

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राष्ट्रीय स्वयसंेवक सघं

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प्रस्तावना : नागपुर के एक वररष्ठ संघ काययकर्ाय माननीय श्री बापूराव वन्हाडपांडे द्वारा लिखिर्, 'संघ काययपध्दलर् का ववकास' नामक यह पुस्र्क जैसे उद्बोधक है, वैसे ही वह रोचक भी है। नये स्वयंसेवकों को संघ के ववस्र्ाररर् स्वरूप, असंख्य उच्च ववद्या ववभूविर् काययकर्ाय गण, सम्पन्न अलधकारी वगय, संघ कायायर्य अपना सारा जीवन समवपयर् करने वािे हजारों संघ-प्रचारक, सब प्रकार की सुववधाओं से युक्त कायायिय,

और चारों ओर 'संघ' के नाम का दबदबा ही अनुभव में आर्ा और ददिाई देर्ा है। यह सही है दक,

ववगर् 70 विों की िगार्ार साधना के फि स्वरूप ही संघ आज एक ववशाि वट वकृ्ष की भांलर् िडा हुआ ददिाई देर्ा है। उसकी जडें भी इर्नी रसमय हैं दक उसकी अनेक शािाएं भी वट वकृ्ष की र्रह फिर्ी-फिर्ी ददिाई देने िगी हैं। दकंर्ु मूि रूप में संघ कैसा र्ा, उसका बीजारोपण कैसे हुए,

जिलसंचन कैसे हुआ, उसकी देिभाि, संवधयन दकस र्रह से दकया गया- आदद बार्ों की सम्यक जानकारी नये स्वयंसेवकों को नहीं होर्ी। वही जानकारी इस पुस्र्क में मा. बापूराव ने देने का प्रयास दकया है और वह भी अत्यंर् सुबोध-सरि भािा में होने से, सभी स्वयंसेवकों के लिए पठनीय बन गयी है।

संघ संस्र्ापक डॉ. केशव बिीराम हेडगेवार ने हर बार् दकय र्रह सुलनयोखजर् ढंग से की, इसकी जानकारी र्ो आप को इस पुस्र्क में लमिेगी ही दकंर्ु वह कररे् समय अपने सहयोलगयों पर उसे

िादा जा रहा है, इसका अभ्यास भी उन्होंने कभी दकसी को नहीं होने ददया। डॉक्टरजी की काययशैिी की इस ववशेिर्ा की ओर सभी काययकर्ायओं को ववशेि रूप से ध्यान देना चादहए। डॉक्टरजी ने 12-14

विय आयु के दकशोरों को सार् िेकर संघिय शुरु दकया दकन्र्ु उस समय उसका नाम भी उन्होंने लनखिर् नहीं दकया र्ा। संगठन का नाम क्या रिा जाए, इस संबंध में उन्होंने अपने सहयोलगयों के सार् ववचार-ववलनमय दकया। दकसी ने 'लशवाजी संघ' नाम सुझाया र्ो दकसी ने 'जरीपटका मंडि' और दकसी ने 'दहन्द ूस्वंयसेवक संघ' नाम सुझाया दकन्र्ु अन्र् में नाम लनखिर् हुआ- ''राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ''। यह नाम डाक्टरजी के मन में अवश्य रहा होगा दकन्तु इसके लनधायरण में सभी को चचाय-ववचार ववलनमय का अवसर उपिब्ध कराया गया, और इस र्रह वह नाम सुलनखिर् दकया गया। प्रार्यना के सम्बंध में भी यही बार् हुई। आज अखिि दहन्दसु्र्ान में कही जाने वािी प्रार्यना भी, संघ की स्र्ापना के 15 विों बाद र्ैयार की गई। प्रर्म 15 विों र्क एक श्लोक मराठी में और एक श्लोक दहंदी में- ऐसे दो श्लोक लमिाकर प्रार्यना की जार्ी र्ी। पंजाब, बंगाि, मद्रास, महाकोशि, उत्तार प्रदेश जैसे गैर-मराठी प्रदेशों में संघ का कायय 1937 से ही प्रारंभ हो चकुा र्ा और वहां के स्वयंसेवक भी यही मराठी-दहंदी प्रार्यना ही कहरे् रे्। उस प्रार्यना को दहंदी श्लोक में एक पंवक्त मूिर्या इस प्रकार की र्ी, 'शीघ्र सारे दगुुयणों से मुक्त हमको कीखजए'- इसमें जो नकारात्मक, लनराशा का भाव है, वह डॉक्टरजी को पसंद नहीं आया। अर्: उन्होंने उस पंवक्त को बदिकर उसे स्र्ान पर- शीघ्र सारे सद्गणुों को पूणय दहंद ूकीखजए' यह पंवक्त स्वीकार की। दगुुणों के अभाव का अर्य सद्गणुों का सदभाव र्ो नहीं होर्ा। इससे यही स्पष्ट होर्ा

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है दक डॉक्टरजी का मौलिक लसचन्र्न दकर्ना सूक्ष्म और मूिग्राही होर्ा र्ा। संघ द्वारा स्वीकृर् उत्सवों के सम्बन्ध में भी इसी मौलिक लचरं्न का साक्षात्कार होर्ा है। संघ ने दकसी भी व्यवक्त को अपना गुरु नहीं माना है। वस्र्ुर्: दहंद ूसमाज में यह 'गुरु परंपरा' हजारों विों से चिी आ रही है। डॉक्टरजी भी उसी परंपरा का अनुकरण कर स्वयं गुरु स्र्ान पर आरुढ़ होरे् र्ो इसके लिए न र्ो उन ददनों और न आज भी कोई उन्हें दोि देर्ा। अपने नाम की जयजयकार सुनकर भिा दकसका मन प्रफखलिर् नहीं होर्ा? दकंर्ु डॉक्टरजी 'अिोक सामान्य' पुरुि रे्। उन्होंने कहा, संघ में कोई भी व्यवक्त गुरु नहीं रहेगा- परम पववत्र भगवा ध्वज ही हमारा गुरु है। दकन्र्ु उन्हें इस बार् का भी ञानान र्ा दक सामान्य जनों के समक्ष कोई न कोई आदशय पुरुि का रहना आवश्यक है और वह भी सामान्य व्यवक्तयों में, असामान्य कर्ृयत्व क्षमर्ावािा गुण सम्पन्न व्यवक्त हो, ऐलर्हालसक हो। अर्: इस संबंध में काफी ववचारपूवयक, सबके सार् चचाय करके डॉक्टरजी ने छत्रपलर् लशवाजी महाराज को ही संघ का आदशय महापुरुि घोविर् दकया। दफर इस महापुरुि की स्मलृर् में कौनसा उत्सव मनाया जाए- जन्मददवस या पुण्यलर्लर् का? इस पर चचाय की गई और इस चचाय में पुन: डॉक्टरजी की 'िोक-वविक्षणर्ा' प्रकट हुई। उन्होंने लशवाजी के जीवन का गौरव-प्रसंग- 'लशवराज्यालभिेक' को ही इस उत्सव के लनलमत्ता चनुा और इसे 'दहन्द ूसाम्राज्य ददनोत्सव' का नाम ददया। छत्रपलर् लशवाजी महाराज ने अपने असामान्य कर्ृयत्व से यह ददन िाया, इसीलिए र्ो उनके जन्मददन और पुण्यलर्र् का महत्व है। अन्यर्ा, ऐसा कौन है, जो मरने के बाद जन्म नही िेर्ा अर्वा जन्म िेने के बाद मरर्ा नहीं? हमारे सामने आदशय ववजय का होना चादहए। इसलिए संघ में ववजयदशमी की भांलर् लशवराज्यालभिेक का भी वही महत्व है।

संघ की काययपध्दलर् की अनेक अन्यन्यसाधारण ववशेिर्ाएं हैं। दैनंददन शािा र्ो संघ का मानों प्राणभूर् र्त्व है। इन शािाओं के काययक्रमों, में पररवर्यन होरे् गए, आदेशों की भािा भी बदिी दकंर्ु मूि र्त्व बना रहा। अनेक िोगों ने संघशािा की नकि करने का प्रयास दकया दकन्र्ु वे असफि रहे,

वह संभव भी नहीं है। जब र्क डॉक्टर हेडगेवार जैसा संघ की शािाओं के लिए अपने वैयवक्तक जीवन की आहुलर् चढ़ानेवािा, जब र्क सारे प्रिोभनों, मोह आदद का यहां र्क दक स्वयं की कीलर्य का िोभ भी- जैसा दक आंग्ि कवव लमलटन ने महान व्यवक्तयों की दबुयिर्ा के रूप में कीलर्य का बिान दकया है

(That last infirmity of noble mind)- छोडकर स्वयं को शािा के सार् एकरूप करनेवािा कोई व्यवक्त नहीं लमिेगा। र्ब र्क सघं जैसी शािा लनकािना दकसी के लिए संभव नहीं। संघ की शािा याने कोई स्पोटयस क्िब या कवायर् का वगय नहीं है।

''सवायरम्भा: र्ण्डुि प्रस्र्मूिा:''- अर्ायर् कोई भी कायय करना हो र्ो र्ोडा बहुर् धन आवश्यक है, ऐसी हमारे यहां की प्रर्ा है। इस मामिे में भी संघ की खस्र्लर् अिग रही है। कागज, पेखस्ि, प्रस्र्ाव रखजस्टर आदद के वबना ही संघ का कायय प्रारंभ हुआ। दकन्र्ु दकसी भी कायय के लिए धन र्ो आवश्यक है। प्रारंभ में चदंा एकवत्रर् कर यह िचय वहन दकया जार्ा। दकंर्ु आगे चिकर काययकर्ायओं

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ने ही स्वयं ववचार दकया दक ''यदद इसे अपना ही कायय मानरे् हैं र्ो दफर सघं कायय पर होनेवािे िचय का भार हम स्वयं ही क्यों न वहन करें? अपने घर में यदद कोई कायय हो, र्ो जैसा भी संभव हो, उसका िचय स्वयं वहन कररे् हैं। कोई अपनी कन्या के वववाह हेर्ु चदंा एकत्र नहीं करर्ा।'' (पषृ्ठ 45-

46) अर्: सबने लमिर्र र्य दकया दक हम सभी संघ के लिए पैसा देंगे। दफर, प्रश्न उठा दक हम जो पैसा देंगे उसके पीछे हमारी दृवष्ट और मानलसकर्ा क्या रहेगी? डाक्टरजी ने कहा, हमें कृर्ञानर्ा और लनरपेक्षबुखध्द से यह देना चादहए। इस प्रकार संघ में गुरुदखक्षणा की पध्दलर् प्रारंभ हुई। पहिे विय नागपुर शािा की गुरुदखक्षणा केवि 84 रु. हुई।

जो बार् धन के सम्बन्ध में है, वही काययकर्ायओं के सम्बन्ध में भी है। कायय-ववस्र्ार हेर्ु काययकर्ाय र्ो चादहए दकन्र्ु वे कहां से लमिेंगे? हमीं में से र्ैयार करने होंगे। सारे भारर् में कायय िडा करना है, यह कौन करेगा? आखिर, स्वयंसेवकों को ही यह करना पडेगा। र्ब कुछ स्वयंसेवक लशक्षा ग्रहण करने के लनलमत्ता अन्य प्रांर्ों में गये। इसका िचय वहन करने की क्षमर्ा उनमें र्ी। इन स्वयंसेवकों ने वहां लशक्षा ग्रहण करने के सार् ही संघ की शािाएं भी िोिीं- बडे बडे काययकर्ाय भी र्ैयार दकए। आगे

चिकर यही ववद्यार्ी वहां पूणयकालिक संघ काययकर्ाय के रूप में भी कायय करने िगे। नागपुर से अन्य स्वयंसेवक भी संघ कायय हेर्ु ववलभन्न प्रांर्ों में गए। उनके पास ग्रीष्मकािीन छुखटटयों में पडोस के दकसी गांव में शािा चिाने मा? का अनुभव र्ा। केवि इसके बि पर ही वे अपररलचर् भािा वािे प्रांर् में गये और वहां उन्होंने संघ की शािाएं स्र्ावपर् कीं। इस र्रह प्रचारक वगय र्ैयार हुआ। कायय की सफिर्ा के लिए काययकर्ायओं के प्रलशक्षण की आवश्यकर्ा महसूस हुई और इस दृवष्ट से संघ लशक्षा वगय की शृंििा चि पडी।

संघ की काययपध्दलर् की अनेक ववशेिर्ाएं हैं- शीर् कािीन लशववर हैं, लनयलमर् रूप से आयोखजर् होने वािी बैठकें हैं, लनयलमर् होने वािे बौखध्दक वगय हैं, संघ गीर् हैं, वियभर में मनाए जाने वािे छह उत्सव हैं और इन उत्सवों के लिए अध्यक्षों का चयन है र्र्ा उनकेलनवास की व्यवस्र्ा है, काययक्रमों की योजना है, स्वदेशी का अलभमान है, समाचार पत्रों में प्रलसध्दी सम्बन्धी एक ववशेि दृवष्टकोण है- यह सब कैसे ववकलसर् होर्ा गया, क्या छूटर्ा गया और क्या नया जुडर्ा रहा, इन सब बार्ों के बारे में पहिे क्या खस्र्लर् र्ी, उनके प्रलर् डॉक्टरजी का मूिग्रामी दृवष्टकोण क्या र्ा- आदद जानकारी मा. बापूराव ने इस पुस्र्क में दी है।

इस पुस्र्क के प्रर्म छह अध्याय, डॉ. हेडगेवारजी के, संघ की स्र्ापना के पूवय के सावयजनक जीवन के अनुभवों से सम्बखन्धर् हैं। उन सावयजलनक कायों की चचाय भीर संके्षप में प्रस्र्ुर् की गई है। उसमें कुछ बार्ें वववादास्पद हो सकने के बावजूद, जन्मजार् देशभक्त डॉ. हेडगेवारजी ने क्रांलर्काररयों के सार् काम कररे् समय और बाद में राष्ट्रीय कांगे्रस में अपने आपको झोंक देने के बाद जो अनुभव प्रात

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दकए, उनका िाभ, संघ की अलभनव काययपध्दलर् लनधायररर् करने में अवश्य ही लमिा होगा। अर्: इस पषृ्ठभूलम को समझने के लिए ये अध्याय भी महत्वपूणय हैं।

इस प्रकार, सभी स्वयंसवकों को, पुरानी जानकारी के सार् ही योग्य मागयदशयन करनेवािा यह स्र्ुत्य उपक्रम है। इसके लिए मा. बापूराव वन्हाडपांडे जैसा अनुभवी और उद्यमी काययकर्ाय लमिना भी कदठन है। मा. बापूरावजी डॉक्टर हेडगेवारजी के काि से ही संघ के स्वयंसेवक हैं। पूजनीय श्री गुरुजी और पू. श्री बािासाहब देवरस के लनकट सहवास का िाभ भी उन्हें प्रात है। सबसे महत्वपूणय ववशेिर्ा र्ो यह है दक एक सामान्य स्वयंसेवक से िेकर गटनायक, गखण्शक्षक, मुख्य लशक्षक, शािा काययवाह, भाग काययवाह, नगर काययवाह, संघ चािक र्क संघ की काययपध्दलर् में ववववध श्रणेी के पदों पर कायय करने का समधृ्द अनुभव उनके पास है। उनके जैसे अनुभव सम्पन्न, लनष्ठावान काययकर्ाय की िेिनी से प्रस्र्ुर् यह ग्रंर् है- यह ध्यान में आरे् ही उसकी गुणवत्ता के वविय में कुछ लििने की आवश्यकर्ा ही नहीं रह जार्ी।

मा. गो. वैद्य

(अ.भा. प्रचार प्रमुख, रा.स्व. संघ)

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1. प्राक्कथन

िगभग सत्तार विों पूवय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कायय प्रारंभ हुआ। पहिे पजूनीय डाक्टरजी ही एकमेव स्वयंसेवक रे्। आज िक्षावलध स्वंयसेवक भारर् र्र्ा ववदेशों में काययरर् हैं। प्रारंभ में दकशोर स्वयंसेवकों की एक छोटी सी संघ शािा मोदहरे् संघस्र्ान पर प्रारंभ हुई। आज भारर् में र्ीस हजार से अलधक प्रभावी संस्कार केन्द्र काययरर् हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी र्क और द्वारका से परशुराम कंुड

र्क फैिी अपनी पववत्र र्र्ा ववशाि मार्भृूलम के प्राय: सभी प्रमुि स्र्ानों पर संघ शािा अर्वा संस्कार केन्द्र काययरर् हैं। प्रारंलभक काि में संघ के ववचारों से सहानुभूलर् रिने वािे िोगों की संख्या अत्यलप र्ी, आज उनकी संख्या करोडों में लगनी जा सकर्ी है। भारर् की सवाांगीण उन्नलर् के लिए दहन्दओुं का संगठन एक राष्ट्रीय आवश्यकर्ा है। अपने ववचारों और संस्कारों के सार् दहन्द ूयदद इस देश में बहुसंख्यक रहा, र्भी भारर् में िोकर्ंत्र, ववचारों की उदार दृवष्ट, समाजवाद और सवय धमय समभाव भी बना रहेगा। सम्पूणय ववश्व को िुभाने वािा एकात्म राष्ट्रजीवन यहां ववकलसर् हो सकेगा। जनमानस में इन ववचारों की स्वीकृलर् के अनुभव हो रहे हैं। 1925 में पूजनीय डॉक्टरजी और उनके

लनकटवर्ी स्वयंसेवकों को ही संघ कायय की जानकारी र्ी। आज भारर् में सवयत्र और ववश्व के अनेक देशों में संघ कायय को जानने वािे िोग लमिेंगे। भारर् के बाहर िगभग 50 देशों में, दकसी न दकसी रूप में दहन्द ूसंगठन का कायय चि रहा है। इर्ने ववशाि पैमाने पर संघ कायय का ववस्र्ार कैसे हुआ? क्यों हुआ? क्या प्रारंभ में ववदेशी अगें्रजों और बाद में अपने ही शासनकर्ायओं की ओर से संघ कायय में आधाएं डािने के प्रयास नहीं हुए? क्या संघ को समूि नष्ट करने के प्रयास दकसी ने नहीं दकए? यह प्रश्न सामान्य व्यवक्त के मन में भी जरूर उठरे् होंगे।

1932-34 में र्त्कािीन अगें्रज शासकों में संघ पर प्रलर्बंध िगाने का प्रयास दकया र्ा। 1940 के अगस्र् में, संघ स्र्ान पर होने वािे काययक्रमों र्र्ा गणवेश में समर्ा, संचिन आदद काययक्रमों पर

शासकीय आदेशों से पाबंदी िगाई गई। 1948 की फरवरी के प्रर्म सताह में श्रध्देय महात्मा गांधी की हत्या की साखजश में शालमि होने के झूठे आरोपों के अन्र्गयर् र्त्कािीन स्वदेशी सत्ता और अदहंसा के लसध्दान्र्ों की बलि चढ़ाकर महात्माजी के ही ज्येष्ठ अनयालययों ने असत्य का प्रचार दकया और िोगों को दहंसक घटनाओं के लिए प्रोत्सादहर् दकया। संघ पर िगाए गए झूठे आरोपों को न्यायािय में लसध्द करो, अन्यर्ा प्रलर्बंध हटाओ- इस न्यायपूणय मांग को िेकर भारर् के सभी प्रांर्ों के प्रमुि स्र्ानों पर 80 हजार से अलधक संघ स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह दकया और कारावास भोगा। संघ पर

िगाए गए ये आरोप मूिर्या लमथ्या होने से कांगे्रस को बदनामी से बचाने के लिए सरकार को अन्र्र्: झुकना पडा और सत्य को स्वीकार कर संघ पर से प्रलर्बंध हटाया गया। 1975 में पुन: सत्ताधीिों ने आपार्काि (इमजेंसी) की घोिणा कर सत्ता के सारे अलधकार प्रधानमंत्री श्रीमर्ी इंददरागांधी ने अपने हार्ें में िे लिए। संघ को अवैध घोविर् दकया और 50 हजार काययकर्ायओं को

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'मीसा' के र्हर् बन्दी बनाया गया। दकन्र्ु बाद में प्रधानमंत्री को अपनी भूि स्वीकारनी पडी और संघ पर से प्रलर्बंध हटाना पडा। 6 ददसंबर 1992 को अयोध्या खस्र्र् वववादास्पद ढांचा लगराए जाने पर संघ पर पुन: पाबंदी िगायी गयी। दकन्र्ु प्रलर्बंध के लिए सरकार की ओर से खजन आधारों को प्रस्र्ुर् दकया गया, उन आधारों को पंचाट (न्यायालधकरण) द्वारा अस्वीकृर् कर ददए जाने से प्रलर्बंध पूणयर्या अप्रभावी सावबर् हुआ और छह माह की पाबंदी के बाद कायय पुन: रे्जी से बढ़ने िगा।

इस प्रकार सन ्1933-34 में ववदेशी अगें्रस शासकों ने र्र्ा सन ्1948, 1975 व 1992 में कांगे्रस सत्तारूढ़ों ने संघ कायय को नष्ट करने का अपने पूणय शवक्त के सार् प्रयास दकया। हर बाद प्रलर्बंध िगाने की भूि को, शासन द्वारा अपनी प्रलर्ष्ठा बचाए रिने हेर्ु ििेु आम भिे ही स्वीकार नहीं दकया गया हो, र्र्ावप न्यायाियों द्वारा प्रलर्बंध को अवैध घोविर् कर लनरस्र् दकए जाने से न केवि कांगे्रस की प्रलर्ष्ठा को बटटा िगर्ा है और इर्ना ही नहीं र्ो जनमर् भी संघ के अनुकूि बनर्ा है, यह बोध होरे् ही संघ कायय की बैधर्ा सरकार को भी स्वीकार करनी पडी। यह अनुभव में आया दक हर बार पावंदी के बाद संघ कायय बढ़र्ा ही गया। समय-समय पर आने वािे संकटों से जूझरे् हुए संघ का कायय बढ़र्ा ही गया। शासन और सत्तारूढ़ एकछत्री कांगे्रस की अवकृपा से संघिय करर्ा हुआ संघ का लनरंर्र वखृध्दंगर् होर्ा गया। इसका एकमात्र कारण है, संघ की वविक्षण प्रभावी कायय पध्दलर्। पूजनीय डॉक्टरजी ने अपनी अद्भरु् प्रलर्भा से इस काययपध्दलर् को ववकलसर् दकया। भारर् के कोने-कोने र्क पहंुचकर वह प्रभावी लसध्द हो, इस र्रह से कायायखन्वर् दकया। सभी स्वयंसेवकों के हृदय में जड जमाकर स्वाभाववकर्या उनके आचरण में पररखणर् हो सके, ऐसी व्यवस्र्ा की गयी।

संघ की इसी िोक वविक्षण काययपध्दलर् की ववशेिर्ाओं संबंधी जन सामान्य में व्यात कौर्ूहि खजञानासा को र्तृ करने के उदे्दश्य से ही यह िेिन प्रयास है। अत्यलप साधन सामग्री के बि पर,

दकसी भी प्रकार का सादहत्य र्ैयार कर उसे प्रकालशर् करने के प्रयास में न पडरे् हुए, एक भी नये पैसे का दान अर्वा अनुदान मांगे वबना, ववकलसर् इस अभूर्पूवय काययपध्दलर् का ववचार कररे् समय संस्कृर् का यह श्लोक याद आर्ा है-

ववजेतव्या लंका चरणतरणीयो जलनननि:। ववपक्ष: पौलस््य रण भुवव सहायश्च कपय:॥

तथावप श्रीरामं सकलमविीत ्राक्षस कुलम।् क्रिया नसध्दि: स्वे भवनत महतां नोपकरणे॥

-और पूज्य डॉक्टरजी की स्मनृत में हम नतमस्तक होते हैं।

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2. पजूनीय डॉक्टरजी के पवूाानभुव

संघ की काययपध्दलर् के बारे में ववचार करने से पूवय पू. डॉक्टरजी ने, भारर्ीय राष्ट्रजीवन को उन्नर् बनाने के लिए प्रयत्नशीि अनेक संगठनों में कायय कर उनकी कायय पध्दलर्यों का गहराई से अध्ययन दकया र्ा। डॉक्टरजी बालयाकाि से ही प्रिर देशभक्त रे्। अपने सम्पकय और सहवास में आये व्यवक्तयों से आत्मीय करने की उनकी अनोिी शैिी र्ी। जब वे माध्यलमक शािा के छात्र रे्, र्ब उन्होंने अपने सहपादठयों से दृढ़ मैत्री प्रस्र्ावपर् की सबकी सहमलर् से, आंग्ि सत्ता के लशक्षणालधकारी की उपखस्र्लर् में, वंदेमार्रम ्का सामूदहक जय घोि करने की योजना सफिर्ापूवयक दक्रयाखन्वर् की र्ी। इस घोिणा की योजना दकसने बनाई? दकसने इनका नेर्तृ्व दकया? कौन इसका सूत्रधार र्ा? शािालधकारी द्वारा यह धमकी दी गई दक वन्देमार्रम ्का जयघोि करने वािे छात्र अपनी भूि कबूि कर िें अन्यर्ा उन्हें शािा से लनष्कालसर् कर ददया जायेगा। दकन्र्ु इस धमकी का डॉक्टरजी पर कोई इसर नहीं हुआ। उन्होंने यह कहकर दक मार्भृूलम का वंदन कररे् हुए मुझे गवय की अनुभूलर् होर्ी है' शािा से अपना लनष्कासन स्वीकृर् दकया।

शािांर् परीक्षा उत्तीणय करने के बाद अगिी पढ़ाई के लिए डॉक्टरजी ने किकत्ता के मेदडकि कॉिेज में प्रवेश लिया। उच्च लशक्षा के लिए किकत्ता जाना र्ो डॉक्टरजी के लिए एक लनलमत्ता मात्र र्ा। उनका प्रमुि उदे्दश्य वहां के क्रांलर्कारी आंदोिन में सहभागी बनना र्ा। मेदडकि कॉिेज में अध्ययन कररे् हुए उन्होंने वहां के क्रांलर्काररयों से सम्पकय साधा। उनसे लमत्रर्ा प्रस्र्ावपर् कर क्रांलर्कारी आंदोिन में सहभागी बनने के लिए उनकी पूणय ववश्वसनीयर्ा अखजयर् की। उन ददनों अनुशीिन सलमलर् के सदक्रय

काययकर्ाय बने रहे। डॉक्टरजी व्यवहार कुशिर्ा और चर्ुराई के कारण ही महाराष्ट्र, पंजाब और बंगाि के क्रांलर्कारी नेर्ाओं में परस्पर सम्पकय का सूत्र सुरखक्षर् रहा। क्रांलर्कारी योजना के लिए आवश्यक शस्त्र-सामग्री महाराष्ट्र और पंजाब में लनयोखजर् स्र्ानों पर पहंुचाने का जोखिम भरा कायय उन्होंने श्री अप्पाजी जोशी, श्री भाऊजी कावरे आदद ववश्वासपात्र लमत्रों के सहयोग से दकया। सुववख्यार् क्रांलर्कारी सरदार भगर्लसंह के सहयोगी श्री राजगुरु की, कुछ ददनों के लिए नागपुर और पुणे में, वास्र्व्य

व्यवस्र्ा भी डॉक्टरजी ने की। वधाय के ववख्यार् कानून ववद श्री मनोहरपंर् देशपांडे के सहयोग से र्त्कािीन क्रांलर्कारी कुछ काि र्क वधाय में भी रहे।

संघ काययकर्ायओं से वार्ायिाप कररे् समय डॉक्टरजी ने कभी अपने क्रांलर्कारी सहयोलगयों अर्वा कायायखन्वर् योजनाओं का कोई उलिेि नहीं दकया। इस कारण उनके द्वारा दकए गए अनुशीिन सलमलर् के कायों की उपिब्ध जानकारी अत्यलप है। उनके घलनष्ठ लमत्र श्री आप्पाजी जोशी व श्री नानासाहब रे्िंग से इस सम्बन्ध में इर्नी ही जानकारी उपिबध हो पायी दक क्रांलर्कारी योजनाओं के लिए वपस्र्ौि आदद शस्त्रों का संग्रह उन्हें पंजाब र्र्ा महाराष्ट्र के काययकर्ायओं को ववर्ररर् करने का महत्वपूणय, जोखिम भरा दालयत्व डॉक्टरजी ने सफिर्ा पूवयक लनभाया।

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अनुशीिन सलमलर् के प्रमुि काययकर्ायओं की ववस्र्रृ् जानकारी देने वािी एक पुस्र्क प्रकालशर् हुई है,

खजसमें पूजनीय डॉक्टरजी के नाम का गौरवपूणय शब्दों में उलिेि दकया गया हैं श्री त्र्यैिोक्यनार् चक्रवर्ी भी इस अनुशीिन सलमलर् के एक प्रमुि काययकर्ाय रे्। अनेक विय कारावास भोगने के बाद उनकी ररहाई हुई। 1972-73 में ददलिी में भारर् सरकार की ओर से उनका स्वागर् दकया गया। उन्होंने अपने भािण में पूजनीय डॉक्टरजी का उलिेि इन शब्दों में दकया- 'वे मेरे अलभन्न हृदय लमत्र रे्।' स्वाधीनर्ा प्रालत के बाद श्री त्र्यौिोक्यनार् चक्रवर्ी पूवय बंगाि में बस गए। स्वागर् हेर्ु भारर् सरकार के अलधकाररयों द्वारा आमंवत्रर् दकए जाने के कारण ही वे ददलिी आए रे्। पूजनीय श्री गुरुजी उनसे लमिना चाहरे् रे्। दकन्र्ु इसी बीच उनके लनधन का द:ुिद समाचार लमिा। अर्: श्री गुरुजी ने उनके प्रलर् अपनी शोक संवेदना उनके घर र्क पहुचाने की व्यवस्र्ा की। श्री गुरुजी इस बार् से बहुर् व्यलर्र् हुए दक पूज्य डॉक्टरजी के ज्येष्ठ सहयोगी श्री त्र्यैिोक्यनार् चक्रवर्ी से भेंटकर उनके चरण छूने का अवसर उन्हें नहीं लमि पाया। अपने भािण र्र्ा काययकर्ायओं से वार्ायिाप में श्री गुरुजी ने अपनी यह व्यर्ा प्रकट भी की।

भारर् को स्वर्ंत्रर्ा ददिाने के लिए, ववदेशों में प्रयत्न करने के उदे्दश्य से, ववदेश जाने के पूवय श्री सुभािचन्द्र बोस का इरादा पूजनीय डॉक्टरजी से ववचार-ववलनमय करने का र्ा। जमयनी, जापान आदद देशों से मदद िेकर आजाद दहंद सेना का गठन कर पूवय की ओर से भारर् पर आक्रमण कर उसे स्वर्ंत्र करने की व्यापक योजना र्ैयार की गई र्ी। इस आक्रमण के समय ही भारर् की क्रांलर्कारी संगदठर्होकर देश में अगें्रज सत्ता के ववरुध्द बगावर् िडी कर सकें गे- आवश्यक हुआ र्ा गहृयधु्द का सहारा भी िेंगे र्ादक भारर् को स्वाधीनर्ा ददिाने का स्वप्न शीघ्र ही पूरा दकया जा सके- इस दृवष्ट से श्री सुभािचन्द्र बोस ने अनेक क्रांलर्काररयों से सम्पकय साधा र्ा- इसी सन्दभय में वे डॉक्टरजी से भी लमिना चाहरे् रे्। 1938 के मई मास में उन्होंने भेंट करने का प्रयास भी दकया दकन्र्ु उन ददनों डॉक्टरजी अस्वस्र्र्ा के कारण देवळािी में रे्, इसलिए वह भेंट नहीं कर हो पायी। बाद में 1940 के जून में जब श्री सुभािचन्द्र बोस नागपुर आये, र्ब र्ो पू. डॉक्टरजी मरणासन्न खस्र्लर् में रे्, इसलिए श्री सुभािचन्द्र दरू से ही डॉक्टरजी को प्रणाम कर िौट गए। नागपुर से कानपुर (या ििनऊ) गए,

जहां उन्होंने एक गुत बैठक में भाग लिया। इस गुत बैठक में, उलचर् समय आने पर आंर्ररक उठाव करने सम्बन्धी ववचार-ववलनमय होने की बार् कानोंकान सुनी गई। दकन्र्ु ऐसी गुत बैठक के पूवय श्री सुभािचन्द्र बोस को डॉक्टरजी से ववचार-ववलनमय करने की आवश्यकर्ा महसूस हुई। इससे यह प्रर्ीर् होर्ा है दक श्री सुभािचन्द्र बोस को इस बार् का पूणय ववश्सवास र्ा दक क्रांलर्काररयों ही गोपनीय

योजनाओं का सफि दक्रयान्वयन डॉक्टरजी के सहयोग से ही संभव है।

संघ की स्र्ापना के पूवय क्रांलर्कारी के्षत्र से डॉक्टरजी का सम्बन्ध र्ा। अनुशीिन समलर् के वे अखिि

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भारर्ीय स्र्र के महत्व के काययकर्ाय रे्। दकन्र्ु संघ का कायय प्रारंभ करने के बाद उन्होंने क्रांलर्कारी आंदोिन से अपने आपको पूणयर्या अलित रिा।

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3. िांनतकारी आंिोलन का ववचार व कायापदिनत

क्रांलर्कारी आंदोिन के एक ज्येष्ठ दक्रयाशीि काययकर्ाय के नारे् काम कररे् समय पू. डॉक्टरजी जी उसका वस्र्ुलनष्ठ ववचार दकया र्ा। आत्मोसगय ही लसध्दान्र्र्: इस आंदोिन की प्रमुि पे्ररणा र्ी। हम पराधीन हैं। ववदेशी अगें्रजों ने कपट नीलर् अपनाकर हमारी स्वाधीनर्ा छीन िी है। वह स्वर्ंत्रर्ा हमें पुन: प्रात करनी है। इसके लिए अगें्रजों को भारर् छोडकर जाने के लिए सवयश्रषे्ठ उपाय के रूप में मार्भृूलम के लिए बलिदान या आत्मोसगय करना ही ये क्रांलर्कारी सवयर्ा उपयुक्त मानरे् रे्। आत्मोसगय से भारर्मार्ा का पूजन, मार्भृूलम के पावन चरणों में आत्मसमपयण- यही सैध्दाखन्र्क ववचार उन्हें पे्रररर् करर्ा र्ा। इस कर्यव्य पूलर्य के लिए- 'र्स्मार् ्उवत्तष्ठ कौन्रे्य युध्दाय कृर् लनिय:' युध्द के लिए प्रवरृ् करने वािा भगवर् ्गीर्ा का उक्त वच नही उन्होंने लशरोधायय दकया। इसीलिए फांसी के फंदे पर िटकने से पूवय इंलर्म इच्छा को पूणय कररे् समय ये क्रांलर्कारी भगवर् ्गीर्ा को हार्ों में िेकर

भारर्मार्ा का जय घोि कररे् हुए हंसरे्-हंसरे् फांसी का फंदा चमूरे् रे्। अंगे्रज सत्ताधारी हमारा आलर्यक शोिण कर भारर् को कंगाि बना रहे हैं। चाय बागानों में र्र्ा शक्कर उत्पादन व्यवसाय में अगें्रजों ने झूठे आश्वासन देकर र्र्ा जोर जबदयस्र्ी कर भारर्ीय श्रलमकों को अत्यलप वेर्न देकर गुिामों जैसी बेगार करने के लिए मजबूर दकया जार्ा है। इसलिए अगें्रजों को भारर् से िदेड बाहर करना होगा। आवश्यक हुआ र्ो उनकी हत्या कर, आर्ंक का सहारा िेकर उन्हें भारर् छोडने के लिए बाध्य करना होगा। इस प्रकार के ववचार सरदार भगर्लसंह ओर उनके कुछ सहयोगी क्रांलर्काररयों को पे्रररर् कररे् रे्।

भारर्मार्ा के चरणों में अपना लसर चढ़ाकर उसका पूजन करने अर्वा शोिणकर्ाय ववदेशी अगें्रजों को िदेड बाहर करने के पे्ररक ववचारों में, अगें्रज अपना शत्र ुहै, इसलिए वह वध्य (हत्या का पात्र) है- यही ववचार सवोपरर रहा करर्ा। इसीलिए 'अगें्रजों का शत्र ुवह हमारा लमत्र' इस न्याय से अनेक क्रांलर्कारी ववदेशी शवक्तयों का सहयोग प्रात करने जमयनी, रूस र्र्ा जापान आदद देशों में गए। इन देशों से

शस्त्रास्र् प्रात ्करने के उदे्दश्य से वे गुत रूप में भारर् के बाहर गए। अगें्रजों के प्रलर् शत्ररु्ा की भावना ही इन युवकों को उत्तोखजर् करर्ी र्ी और मार्भृूलम की पूजा में सवयस्य समपयण की पे्ररणा देर्ी र्ी।

पू. डॉक्टरजी ने क्रांलर्काररयों के इन पे्ररणादायी ववचारों के लचरं्न के सार् ही उनकी काययपध्दलर् का भी अध्ययन दकया र्ा। क्रांलर्काररयों का यह आंदोिन कुछ इने-लगने, सर्कय र्ा से चनेु हुए युवकों का ही आंदोिन र्ा। ववचार ववलनमय में भिे की कुछ प्रौढ़ व्यवक्त सहभागी होरे् दकन्र्ु प्रत्यक्ष कायय करने वािे र्ो नवयुवक ही रे्। इसे सवयसामान्य जनर्ा का आंदोिन नहीं माना जा सकर्ा र्ा। क्रांलर्कारी आंदोिन के प्रणेर्ा भी यह दावा नहीं कररे् रे् दक यह आंदोिन जन-आंदोिन बने- सम्पूणय समाज इसे आचररर् करे। उनकी काययपध्दलर् में, प्रत्यक्ष व्यवक्तगर् लनकट सम्पकय से संवेदनशीि साहसी युवकों को आत्म बलिदान के लिए र्ैयार दकया जार्ा र्ा। 1857 का स्वार्ंत्र्य समर, जोसेफ मॅखझनी का

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जीवन चररत्र, आयिैंड के स्वार्ंत्र्य आंदोिन का इलर्हास आदद पे्ररक ग्रंर्ों के अध्ययन पर ही ववशेि बि ददया जार्ा और उस अध्ययन से भावनाओं को प्रक्षोलभर् करने का प्रयास दकया जार्ा। स्वर्ंत्रर्ा संग्राम में यहां सच्चा पुरुिार्य है- यह ववचार पनपाया जार्ा। ववस्फोटक समग्री जुटाना, बम र्ैयार करने की लशक्षा देना और अञानार् एकांर् स्र्ि पर वपस्र्ौि से लनशाना साधने का अभ्यास दकया जार्ा। कायय और काययक्रमों की गोपनीयर्ा बनाए रिने के लिए काययकर्ायओं के बीच सांकेलर्क शब्दों का उपयोग दकया जार्ं। संघ कायय प्रारंभ होने के कुछ विों बाद एक पुराने क्रांलर्कारी लमत्र डॉक्टरजी से लमिने आए। पुराने सांकेलर्क शब्दावलि का प्रयोग कररे् हुए उन्होंने डॉक्टरजी से पूछा- 'अफीम का सेवन करने वािे आपके दकर्ने लमत्र हैं?' इस पर डॉक्टरजी का जवाब र्ा- ''लमत्र र्ो अनेक हैं, दकन्र्ु अब उन् हें अफीम का सेवन करने पर भी नशा नहीं चढ़र्ा।'' गोपनीयर्ा और उसे बनाए रिने की सर्कय र्ा बरर्ना क्रांलर्कारी आंदोिन का सवायलधक महत्वपूणय अगं र्ा। सम्पूणय कायय पध्दलर् में गुतर्ा बरर्ने पर अत्यलधक बि ददया जार्ा। सरकारी जासूसों के जाि से बचना र्र्ा उसके गुतचरों को गुमराह करना भी जरूरी र्ा। सारी काययवाही गुत रूप में चिर्ी र्ी। गुतर्ा बनाये रिने के कुछ अपररहायय पररणाम भी होरे् रे्। क्रांलर्काररयों के कायों से सामान्य जनर्ा को पूणयर्या अलित रिा जार्ा। उन्हें सामान्य जनर्ा से सुरखक्षर् दरूी बनाए रिना जरूरी होर्ा। शस्त्रास्त्र प्रालत के लिए धन की आवश्यकर्ा होर्ी। समाज में, ििेु मन से समरस होकर ववचरण करना, ववचार-ववलनमय कर कायय की महत्ता समझाकर धन एकवत्रर् करना असंभव र्ा। र्ब िाचारी में धनी सम्पन्न िोगों के घर, उन्हें 'समाजदहर् ववरोधी' मानकर डाका डािा जार्ा र्र्ा सरकारी िजाना िूटा जार्ा। िजाना भिे ही सरकारी हो, पर पैसा र्ो जनर्ा का ही है, यह मानकर उसे हलर्याने का प्रयास होर्ा। भिे ही डाका डािकर क्यों न हो, जनर्ा से धन प्रात करने का प्रयास होने के कारण क्रांलर्काररयों के ववचारों के प्रलर् आदर भावना रिरे् हुए भी िोगों में उनके सम्बन्ध में भय और आर्ंक की भवना की अलधक प्रबि होर्ी। सरकारी दमनचक्र का भय और आर्ंक भी स्वाभाववकर्या जनर्ा में बना रहर्ा।

गुत रूप में, प्ररेणादायी सादहत्य का पठन भी कोई आसान नहीं र्ा। प्रकट भािण में भी ऐसे ववियों का प्रलर्पादन करना असंभव र्ा। अर्: ऐसे सादहत्य का पठन-पाठन और अध्ययन छोटे-छोटे दिों (Study circles) में हुआ करर्ा। इन अनेक अध्ययन दिों का पारम्पररक सम्बन्ध भी काफी सीलमर् होर्ा। सारी काययवाही गुत रूप से चिने के कारण सारे क्रांलर्काररयों की शवक्त का आंकिन सभी को हो पाना असंभव र्ा- कुछ सीलमर् नेर्ाओं को ही उसकी जानकारी होर्ी। गुत रूप में, केवि सम्बखन्धर् िोगों के सहभाग से, कुछ धालमयक उत्सव आदद काययक्रमों का आयोजन होर्ा। दकसी अञानार् स्र्ि पर प्रलर्ञाना-ग्रहण करने का काययक्रम अत्यंर् सावधानी से आयोखजर् दकया जार्ा। इस प्रकार क्रांलर्काररयों का उपक्रम सीलमर् दायरे में गोपनीय कायय के रूप में ही होर्ा।

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चर्ुर अगें्रजी सत्ता के जासूसों को इन क्रांलर्काररयों की योजनाओं की जानकारी जनर्ा के ही कुछ सूचकों (Informers) द्वारा ही प्रात होर्ी र्ी। इन सचूकों (informers) को ये क्रांलर्कारी अपना शत्र ुमानर्े रे् और खजन िोगों के द्वारा अपनी गुत वार्ायओं और योजनाओं को भंडाफोड होर्ा उनकी हत्या की योजना भी इन क्रांलर्काररयों द्वारा बनाई जार्ी। पणेु में, चाफेकर, बंध,ु द्रववड आदद के सार् ऐसी ही घटनाएं हुईं। भारर् में अगें्रजों की सरकार चिाने में योगदान देने वािे अलधकांश भारर्ीय सुलशखक्षर् र्ो रे् ही, अगें्रज लनष्ठ भी र्े। ऐसे सरकारी नौकरशाहों के प्रलर् भी इन क्रांलर्काररयों में लर्रस्कार की भावना उनके बोिचाि और आचरण से प्रकट होर्ी। क्रांलर्ख करयों के इस आचार-ववचारों के कारण भारर्ीय शासनालधकाररयों के सम्बन्ध में उनकी शत्ररु्ा और र्ुच्छर्ा की भावना स्वाभाववकर्या बि पकडर्ी।

कुछ इने-लगने अगें्रज अलधकाररयों की हत्या करने से अर्वा ववशेि प्रसंगों पर बम ववस्फोट करने मात्र से अगें्रज घबरा जाएंगे, ऐसी बचकाना कलपना र्ो क्रांलर्काकी नेर्ाओं ने भी नहीं की र्ी। अगें्रज चर्ुर हैं, देशभक्त हैं। एकाध गौरवणीय अलधकारी मारा भी जाए र्ो उसकी खजम्मेदारी संभािने के लिए अनेक देशभक्त अगें्रज आगे आ सकरे् हैं, इसका पूरा भरोसा क्रांलर्काररयों को रे्। दकन्र्ु िनू की एक बूंद चसूने वािा िटमि 15-20 लमनट की नींद र्ो िराब करर्ा है। इसी प्रकार चार छह खजम्मेदार अगें्रज अफसरों की हत्या करने से अखस्र्रर्ा का माहौि र्ो बन सकेगा। सामान्यर्या क्रांलर्कारी यह भावना व्यक्त कररे् रे् दक अगें्रजों के प्रलर् भारर्ीयों के मन में र्ुच्छर्ा की भावना ववद्यमान है। सार् ही स्वर्ंत्रर्ा प्रालत के लिए भारर् के नवयुवक बलिदान हेर्ु र्त्पर हैं, यह भावना ही अगें्रज शासनकर्ायओं के मन में अखस्र्रर्ा और बेचनैी पैदा करेगी और भारर् पर राज करना उनके लिए अलधक कष्टदायक और िर्रनाक प्रर्ीर् होगा। क्रांलर्कारी आंदोिन से भारर् में अगें्रजों र्र्ा गोरे सत्ताधाररयों के ववरुध्द भारर् की जनर्ा उठ िडी होगी और आंर्ररक युध्द की खस्र्लर् पैदा होकर अगें्रजों को भारर् से िदेड बाहर दकया जायेगा, ऐसी कलपना और योजना र्ो असंभव र्ी। केवि क्रांलर्कारी आंदोिन के सहारे पूणय ववजय होगी- इस आकांक्षा से यह आंदोिन कायायखन्वर् करना संभव नहीं र्ा। कुछ युवकों के आत्म बलिदान जनर्ा के हृदय में स्वार्ंत्र्य संग्राम की ज्वािा भडक उठेगा- इस प्रकार की भावना को व्यक्त करने वािे गीर् और कववर्ाएं भी उन ददनों सुनी जार्ी र्ी। मराठी भािा में- ''आज आमुची सरणावरर्ी पेटर्ाचे पे्ररे्। उठर्ीि त्या ज्वािेर्नू भावी क्रांलर्चे नेरे्'' र्र्ा ''गजाय जय जयकार क्रांलर्चा''- आदद काव्य पंवक्तयां इसी भावना को व्यक्त करर्ी हैं। आत्मोसगय से आत्म बलिदान जैसी सवयश्रषे्ठ भावना और ववचारों की जागलृर् होर्ी र्ी- इसके सार् ही हम 'लनखिर् रूप से ववजयी' होंगे इस ववचार की बजाय लनराशा के भाव भी अकुंररर् होरे् रे्। ववजय की आकांक्षा से हमने मात्भूलम की मुवक्त के लिए अपना कर्यव्य लनभाया- आगे भगवान ही मालिक है- यह भावना भी जड पकडर्ी र्ी। राजपूर् मदहिाओं का जौहर, राजस्र्ानी वीरों का साका आदद श्रषे्ठ आत्मोसगय के कीलर्यमान होने का गौरवपूणय

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उलिेि करने पर भी यह एक र्थ्य है दक लनराशा की भावना ही उस आत्मबलिदान की पे्ररणा रही हैं अब आगे सम्मानपूवयक जीना असंभव है- यही अनुभूलर् उन्हें बलिदान के लिए पे्रररर् करर्ी र्ी। भारर् पराधीन र्ा, इसलिए क्रांलर्कारी आंदोिन के नेर्ा आसानी से युवकों की भावना उत्तोखजर् कर पारे् रे्। दकन्र्ु प्रक्षोलभर् नवयुवकों की अधीरर्ा को लनयंत्रण में िाना उनके लिए बडा कदठन र्ा। भावनाशीि युवकों का प्रक्षोप कभी कभी अचानक, अनुलचर् समय पर, अवांलछर् र्रीके से भडक उठर्ा। ऐसी युवा भावना को लनयंवत्रर् कर पाना कोई आसान काम नहीं र्ा। 1857 के स्वार्ंत्र्य समर में, लनधायररर् समय से पूवय ही आंदोिन का भडक उठना, युवकों की इसी अलनयंवत्रर् भावनाशीिर्ा का प्रर्ीक है। उत्तोखजर् युवा मन की भावनाओं को लनयंवत्रर् कर पाना कदठन ही होर्ा है। इस आत्मोसगय या बलिदान के मूि में वबजिी की भांलर्, क्षणमात्र के लिए आंिों को चौंलधया देने वािे प्रकाश की अलभव्यवक्त की भावना होर्ी। उसमें दीप की र्रह स्वर्: को लर्ि-लर्ि जिारे् हुए समूचे जगदाकाश को प्रकालशर् करने की भावना और ववचार अपेखक्षर् नहीं र्ा। चर्ुर अगें्रजों की प्रभावी शासन पध्दलर् के कारण क्रांलर्कारी आंदोिन देशभर में फैि पाना संभवन नहीं हो पाया। बंगाि में ही वह अपनी जड जमा पाया। आंध्र, पंजाब, महाराष्ट्र आदद प्रदेशों में भी कुछ मात्रा में प्रयास हुए। दकंर्ु क्रमश: यह आंदोिन शांर् होरे् गया। उग्र प्रववृत्त के क्रांलर्कारी स्वार्ंत्र्य प्रालत के लिए अन्य मागों को िोजने िगे। कुछ िोग रूस गए। योगी अरववंद जैसे क्रांलर्कारी आध्याखत्मक साधना के मागय पर चिे पडे। कुछ क्रांलर्कारी नव युवकों ने राम कृष्ण आश्रम में प्रवेश िेकर ब्रह्मचयय और संन्यास की दीक्षा ग्रहण की। भारर् के कुछ ववचारशीि नवयुवकों में रूसी क्रांलर् का आकियण बढ़ा- उन्होंने अपने जीवन में समाजवाद अर्वा साम्यवाद की ददशा अपना िी।

पू. डॉक्टरजी का इन सभी के्षत्रों में काययरर् नवयुवकों के सार् कम-अलधक मात्रा में सम्पकय र्ा। क्रांलर्कारी आंदोिन में मन-पूवयक र्र्ा समपयण ववृत्त से कायय कररे् समय डाक्टरजी ने उनकी काययपध्दलर् का गहराई से अध्ययन दकया र्ा। जनर्ा में ििेु रूप में समरस होकर मुक्त ववचार-ववमशय दकया जाना चादहए। आवश्यक हुआ र्ो सावयजलनक उद्बोधन करना भी संभव होना चादहए। सम्पूणय राष्ट्र जीवन की उन्नलर् करने में, गुत काययपध्दलर् और गोपनीय व्यवहार वािा आंदोिन ववशेि उपयोगी लसध्द नहीं हो पायेगा। केवि कुछ इने-लगने, आत्मोसगय के लिए लसध्द देशभक्त नवयुवकों (A set of

determined dedicated youths) द्वारा देशव्यापी प्रभाव आंदोिन िड नहीं दकया जा सकेगा। पू. डॉक्टरजी ने यह र्ीव्रर्ा से महसूस दकया दक भारर् की सवाांगीण उन्नलर् के लिए भारर् को अपनी मात्भूलम मानने वािी सम्पूणय भारर्ीय जनर्ा को जागरृ् कर, प्रत्येक व्यवक्त के हृदय में लनरपेक्ष राष्ट्रभवक्त की भावना उसके जीवन का स्र्ायी भाव बने, इस दृवष्ट से सवांकि प्रयत्नों की आवश्यकर्ा है। सभी भारर्वासी देशभक्तों को उत्स्फूर्य कर सकने वािा उदात्ता ध्येय अगर सामने होगा, र्भी कोई भावात्मक कायय संभव है। केवि अगें्रजों के प्रलर् बैर-भावना भारर् की स्वर्ंत्रर्ा- प्रालत के लिए दकए जाने वािे ववधायक कायों का आधार नहीं बन सकर्ी- यह ववचार भी पू. डॉक्टरजी के मन में दृढ़ होर्ा गया।

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4. राष्ट्रीय सभा (1920 के पवूा) प्रारंभ में राष्ट्रीय सभा और बाद में इंदडयन नेशनि कांगे्रस के नाम से हुआ आंदोिन भारर् में सवयपररलचर् है। अपने जन्मकाि से ही यह आंदोिन देशव्यापी र्ा। सावयजलनक सभाओं के माध्यम से स्वाधीनर्ा प्रालत की घोिणाएं और जन जागलृर् की जार्ी र्ी। किकत्ता से नागपुर िौटने के बाद पू. डाक्टरजी का, कांगे्रस आंदोिन में सहभाग क्रमश: बढ़ने िगा। जन्मजार् देशभवक्त की स्वाभाववक प्रवलृर् के कारण डॉक्टरजी की सहजर्ा से कांगे्रस में प्रवेश लमिा। खजन ददनों डॉक्टरजी का कांगे्रस आंदोिन से सम्बन्ध जुडा उन ददनों र्त्कािीन राष्ट्रीय सभा के काययक्रमों और ववचारों में 'गरम' और 'नरम' प्रववृत्त के दो गुट स्पष्टर्या उभरने िगे रे्। 'नरम दि' के प्रलर् नवयुवकों में स्वाभाववकर्या ववशेि आकियण नहीं र्ा। सारे भारर्वासी एक मुि से अगें्रजों से प्रार्यना, ववनर्ी, अपीि कर उसने स्वाधीनर्ा की याचना करेंगे र्ो न्याय वप्रय अगें्रज अपनी मांग पूणय करें- इस बार् पर िोगों का ववशवास समात होने िगा र्ा। केवि अिबारों में िेि प्रकालशर् कर, सभा सम्मेिनों में भािण देने मात्र से कुछ प्रात नहीं होगा। हा,ं प्रभावी भािणों से कुछ जा जागलृर् अवश्य हो सकर्ी है, दफर भी सवयसामान्य जनर्ा के अरं्:करण में देशभवक्त की भावना सुत अवस्र्ा में होने के कारण भािणों और िेिों के माध्यम से होने वािी जनजागलृर् आवश्य हो सकर्ी है, दफर भी सवयसामान्य जनर्ा के अरं्:करण में देशभवक्त की भावना सुत अवस्र्ा में होने के कारण भािणों और िेिों के माध्यम से होने वािी जनजागलृर् अलपकाि र्क ही दटक पार्ी है। कुछ समय बीर्ने पर िोगों को उसका ववस्मरण होने िगर्ा है। यही सवयसामान्य अनुभव है। िोकमान्य लर्िकजी के भािणों में यही ववचार व्यक्त होरे् रे्। 'केसरी' में लिि अग्रिेिों (संपादकीय) के कारण लर्िकजी को सश्रम कारावास भोगना पडा। मंडािे जेि में जाने के लिए रवाना होने से पूवय उन्होंने कहा र्ा- ''शायद मेरे कारावास से, भारर्

में अलधक जन-जागलृर् हो सकेगी। यही ईश्वरीय सकेंर् है।'' कारावास में जाने के पूवय उन्हें यह अनुभव में आया र्ा। दक उनके भािणों और अिबारों में प्रकालशर् िेिों से कुछ मात्रा में जन जागलृर् हुई है। शायद इसीलिए उन्होंने यह अनुमान िगाया होगा दक उनके जेि जाने पर यह जन जागलृर् अलधक व्यापक और दृढ़ होगी। दकन्र्ु प्रत्यक्ष में कुछ और ही हुआ। मंडािे जेिे से मुवक्त पर जब वे वापस िौटे र्ो उन्हें यह अनुभव हुआ दक भारर् का लचत्र उनकी अपेक्षा के वबिकुि ववपरीर् है, पहिे जनजागलृर् का जो दृश्य उन्होंने देिा और अनुभव दकया र्ा, वह समात प्राय हो गया र्ा। इसलिए उन्हें ''पुनि हरर: ओम'' कहकर जन जागलृर् का काययक्रम हार्ों में िेना पडा।

नरम दि के नेर्ाओं द्वारा चिाए गए राष्ट्रीय आंदोिन का आधार-भूर् ववचार यही र्ा दक सत्ताधारी ववदेशी अगें्रजों के सामने स्वराज्य की याचना की जाए। उसके लिए अपीि आवेदन कर राज्यकर्ायओ ंको मनाया जाए। भारर् में सभा, सम्मेिनों का अयोजन कर भािण ददए जाएं- प्रस्र्ाव पाररर् दकए जाएं- सुववद्य भारर्ीयों के इन र्कय शुध्द ववचारों से अगें्रज सत्ताधाररयों को अवगर् कराया जाए। इस राष्ट्रीय देशव्यापी आंदोिन को िोकमान्य लर्िक ने अत्यंर् मौलिक वैचाररक अलधष्ठान प्रदान दकया।

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उन्होंने यह मौलिक ववचार प्रलर्पाददर् दकया दक भगवर् गीर्ा के अनुसार स्वधमय का पािन करने के लिए हमें स्वाधीनर्ा चादहए- इसके लिए उन्होंने घोविर् दकया दक 'स्वराज्य मेरा जन्मलसध्द अलधकर है, वह मैं प्रात कर के रहंूगा।' िोकमान्य लर्िकजी ने देशवालसयों के समक्ष स्वधमय-स्वदेशी-स्वराज्य,

इस त्रयी पर आधाररर् काययक्रम प्रलर्पाददर् दकया। दहन्द ूसमाज में धालमयक एकर्ा का सूत्र अलधक

काययक्षम बनाकर िोकमान्य लर्िक के जाजागलृर् के जो काययक्रम प्रस्र्ुर् दकए, उनके कारण युवापीढ़ी राष्ट्रीय आंदोिन के प्रलर् अलधक आकवियर् होने िगी। पूजनीय डॉक्टरजी ने इस आंदोिन में अपने सारे अनुभवों और कर्ृयव्यों का पररचय देकर सदक्रय भाग लिया। िो. लर्िक के प्रलर् डॉक्टरजी के मन में अपार श्रध्दा और आदरभाव र्ा। इस आंदोिन को अलधक उग्र बनाने के लिए, सार् ही दहन्द ूसमाज की धालमयक एकर्ा के सूत्र को मजबूर् बनाने के लिए जन जागलृर् के काययक्रमों में श्री गणेश और छत्रपलर् लशवाजी के उत् सवों का समावेश करने का आवाहन लर्िकजी ने दकया। जनर्ा की ओर से भी इस आवाहन को भारी समर्यन लमिा। इन काययक्रमों में राष्ट्रीय ववृत्त का जागरण र्र्ा देशभवक्त यह

सामान्य व्यवक्त का स्वभाव बने' इस वैचाररक जागलृर् पर बि ददया जार्ा। इसका जनमानस पर होने वािा स्र्ायी पररणाम भी धीरे-धीरे ददिाई देने िगा। पंजाब के िािा िाजपर्राय, महाराष्ट्र के बाि गंगाधर लिर्क और बंगाि के वबवपनचदं्र पाि ये नेर्ा त्रय 'िाि बाि और पाि' के नाम से उन ददनों समस्र् भारर्ीय जनर्ा के, ववशेिकर नवयुवकों के श्रध्दा-केन्द्र के रूप में उभर रहे रे्। राष्ट्रीय आंदोिन में युवकों का सहभाग भी बढ़ने िगा र्ा। दकन्र्ु इस समय 1920 के अगस्र् में दभुायगय से िो. लर्िक का स्वगयवास हो गया।

िोकमान्य लर्िक के लनधन से भारर् की जनर्ा और राष्ट्रीय आंदोिन पर गहरा आधार् पहंुचा। भारर्ीय जनर्ा की हाददयक श्रध्दा के वविय स्वधमय-स्वदेशी और स्वराज्य इस ववचार त्रयी का आवाहन करने वािे एक पे्ररणादायी नेर्ा को देश की जनर्ा िो बैठी र्ी। उन ददनों भारर्ीय राजनीलर्क पटि पर अन्य कोई नेर्ा ऐसा नहीं र्ा जो इस सैध्दाखन्र्क अलधष्ठान पर राष्ट्रीय आंदोिन की दृढ़र्ा से नेर्तृ्व करर्ा। लर्िकजी की भांलर् ही उग्र दि का मागय-दशयन करने वािा कोई सुयोग्य नेर्ा अ.भा. कांगे्रस का अध्यक्ष बनेगा र्ो वह राष्ट्रीय आंदोिन को प्रभावी ढंग से आगे बडा सकेगा। इस प्रकार की सोच रिने वािे युवा काययकर्ायओं में पू. डॉक्टरजी का प्रमि स्र्ान र्ा। उनकी काययकुशिर्ा और जनमानस को प्रभाववर् करने की क्षमर्ा से र्त्कािीन कांगे्रस के ज्येष्ठ नेर्ागण पररलचर् रे्। इसीलिए कुछ प्रमुि नेर्ाओं के सार् ववचार-ववलनमय के पिार् कांगे्रस के अध्यक्ष के रूप में योगी अरववन्द के नाम पर सवय सहमलर् पायी गयी। दकन्र्ु योगी अरववन्द र्ो सदक्रय राजनीलर् से अलित होकर पांदडचेरी में आध्याखत्मक साधना में िीन हो गए र्े। अर्: यह र्य हुआ दक कुछ प्रमुि काययकर्ाय वहां जाकर उनसे इस दालयत्व को संभािने की प्रार्यना करें। उन्हें यह महसूस कराया जाए दक उनके लसवा अन्य कोई भी राष्ट्रीय आंदोिन का प्रभावी नेर्तृ्व नही कर सकेगा- अर्: उनसे अध्यक्ष पद स्वीकार करने का आग्रह दकया जाए। योगी अरववन्द से अञानार्वास छोडकर भारर्ीय राजनीलर् का

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नेर्तृ्व करने की प्रार्यना करने का दालयत्व डॉ. मुंजे और पू0 डॉ. हेडगेवारजी को सौंपा गया। र्दनुसार ये दोनों महानुभाव इस दालयत्व को लनभाने पांदडचेरी गए। वहां योगी अरववन्द के सार् प्रदीघय ववचार ववलनमय हुआ। दकन्र्ु सदक्रय राजनीलर् में पुन: िौटने से योगी अरववन्द ने इंकार दकया। आवश्यकर्ा पडने पर कभी-कभार सिाह मशववरे के लिए उन्होंने अपनी स्वीकृलर् दी पर कांगे्रस का अध्यक्ष पद स्वीकार करने वे र्ैयार नहीं हुए। अध्यक्ष के रूप में कांगे्रस का नेर्तृ्व करने के लिए यदद योगी अरववन्द र्ैयार हो जारे् र्ो कांगे्रस के अखिि भारर्ीय अलधवेशन में उनका ही नाम सवायनुमलर् से पाररर् कराने की योजना भी अन्य कांगे्रसी काययकर्ायओं के सहयोग से पू. डॉक्टरजी ने र्ैयार कर िी र्ी। दकन्र्ु योगी अरववन्द द्वारा नकार ददए जाने के कारण कांगे्रस का नेर्तृ्व महात्मा गांधी को स्वीकार करना पडा।

पू. डॉक्टरजी ने कांगे्रस आंदोिन के मूिभूर् पे्ररक ववचार र्र्ा उसे सम्पूणय भारर् में जन आंदोिन के रूप में ववकलसर् करने की कांगे्रस की काययपध्दलर् का भी गहराई से अध्ययन और लचन्र्न दकया र्ा। कांगे्रस की काययवाही का उन्होंने केवि लचन्र्न मनन ही नहीं दकया, र्ो उस आंदोिन में अपना सवयस्य समपयण कर लनरपेक्ष भाव से आंदोिन के हर काययक्रम में भाग भी लिया। इसीलिए अपने अनुभवों से उन्हें कांगे्रस सम्बन्धी सवयस्पशी जानकारी प्रात र्ी। सैध्दांलर्क रूप में स्वधमायचरण र्र्ा आचार-ववचार में स्वदेशी व्रर् को स्वीकार करने के लिए भारर्ीय जनर्ा को स्वराज्य चादहए- स्वर्ंत्रर्ा आंदोिन के र्ाखत्वक अलधष्ठान के नारे् इस मूिभूर् ववचार को स्वीकार करना अपररहायय ही र्ा। दकन्र्ु र्त्कािीन कांगे्रसी नेर्ाओं के मन में यह ववचार पैदा हुआ दक िोकमान्य लर्िकजी द्वारा प्रलर्पाददर् दहन्द ू

धमयमूिक एकर्ा के सूत्र में सभी भारर्ीयों को गूंर्ने में कदठनाईयां आ सकर्ी हैं। सभी धमों के प्रलर् समान आदर भावना, ''एकं सर् ववप्रा बहुधा वदखन्र्''- सबे लिए अनुकूि लसध्द होने वािे दहन्द ूधमय के इस मूिभूर् लसध्दान्र् का आधार िेने की बजाए उनके मन में दहन्द ूसमाज की कािबाह्य रूदढ़यों का और कुप्रर्ाओं का प्रभाव अलधक पररणामदायी लसध्द हुआ। धमय के मूिर्त्वों और र्दनुसार व्यवहार की बजाए नया कांगे्रसी नेर्तृ्व इस आशेका से अलधक ग्रस्र् प्रर्ीर् हुआ दक अस्पशृ्यर्ा जैसी पूणयर्या कािववसंगर् और त्याज्य कुप्रर्ाएं भारर्ीय समाज की एकर्ा में ववरीर् पररणामदायी लसध्द होंगी। कांगे्रस नेर्तृ्व इस बार् पर ववश्वास करने के लिए भी र्ैयार नहीं र्ा दक भारर् के अलधकांश मुखस्िम मूिर्या दहन्द ूही होने के कारण वे भी भारर् मार्ा के सपूर् के नारे् दहन्द ूजीवन पध्दलर् से समरस हो सकें गे। यहां हजारों विों से चिी आ रही, राम और कृष्ण को अपना आदशय मानने वािी सांस्कृलर्क परम्परा में वे भी भारर् के सपूर् के नारे् यहां के जन जीवन में समरस हो सकें गे। इंडोनेलशया की भांलर् धमय से मुसिमान होने पर भी श्री राम को अपना राष्ट्रपुरुि स्वीकार करना भारर्ीय मुखस्िमों के लिए संभव हो सकेगा। दकन्र्ु कांगे्रसी नेर्तृ्व को इसका भरोसा नहीं र्ा। मुसिमानों को दहन्दओुं से अिग कर उनमें फूट पैदा करने की साखजश अगें्रजों ने ही रची र्ी। वे इस फूट को पनपाने के प्रयास में िगे रे्। पूजनीय डॉक्टरजी का ववचार र्ा दक वस्र्ुर्: दहन्दधूमय ही सभी भारर्ीयों को एकर्ा के सूत्र

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में गूंर्ने वािी सच्ची संकलपना है। यदद समाज लनरपेक्ष राष्ट्रीय भावना से सुसंगदठर् हुआ र्ो इस सांस्कृलर्क आधार पर समस्र् भारर्ीयों में एकर्ा की भावना जागरृ् करना अलधक व्यावहाररक और आसान हो सकेगा। इस दृवष्टकोण से ही स्र्ायी जनजागलृर् िायी जा सकेगी। डॉक्टरजी इसी ददशा में ववचार कर रहे रे्।

डॉक्टरजी इस बार् से व्यलर्र् रे् दक िो. लर्िक के मंडािे कारावास में रवानगी के बाद उनके द्वारा पे्रररर् स्वदेशी-स्वधमय पर आधाररर् राष्ट्रीय आंदोिन का प्रभाव धीरे-धीरे कम होने िगा है- उसे पुन: बि प्रदान कर प्रभावी बना सकने वािा नेर्तृ्व कांगे्रस में उभर नहीं पाया है। दकन्र्ु िोगों की लर्िकजी के प्रलर् लनष्ठा बनी हुई है। इस कारण वे आश्वस्र् रे्। उनका ववश्वास र्ा दक कारावास भागकर जैसी ही श्री लर्िकजी पून: िौटेंगे- इस आंदोिन को अलधक प्रभावी बनाकर ववदेशी अगें्रजों के ववरुध्द र्ीव्र असंर्ोि पैदा करना संभव हो सकेगा। दकन्र्ु भिे ही दकर्ना सदगुणी हो र्र्ा नेर्तृ्व क्षमर्ा दकर्नी ही श्रषे्ठ क्यों न हो, वह लचरंजीवी नहीं है। उसकी आयु सीलमर् ही होर्ी है। अर्: दकसी भी आंदोिन अर्वा समाज कायय का आधार और संचािन श्रषे्ठर्म होरे् हुए भी, दकसी महान पुरुि के लिए वह स्र्ायी रूप में कररे् रहना संभव नहीं है। अनेक शर्कों से आत्म ववस्मरृ् र्र्ा असंगदठर् दहन्द ूसमाज में शाश्वर् देशभवक्त जागरृ् करने का कायय र्ो अनेक विों र्क, सर्र् ्प्रयत्नों द्वारा साध्य करने का श्रषे्ठ कायय है। सम्पूणय राष्ट्र की वैचाररक उन्नलर् का यह व्यापक देश कायय दकसी एक गुणसम्पन्न व्यवक्त के आधार पर हो पाना संभव नहीं- इस कायय में अनेकों व्यवक्तयों को अपना जीवन िपाना होगा क्योंदक यह र्ो लनरंर्र चिने वािी प्रदक्रया है। ऐसे देशव्यापी महत्वकायय कभी व्यवक्त लनष्ठ नहीं होरे्- उसके लिए सबके हृदयों को उत्स्फूर्य करने वािी, समाजकायय हेर्ु सवयस्य समवपयर् करने की पे्ररणा देने वािी, आजीवन यही कायय करने की आकांक्षा उत्पन्न करने वािी कायय लनष्ठा का आधार चादहए। यह ववचार डॉक्टरजी के मन में घर करने िगा।

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5. राष्ट्रीय सभा- 1920 के बाि

िो. लर्िक के लनधन के बाद कांगे्रस आंदोिन का नेर्तृ्व श्रध्देय महात्मा गांधी ने दकया। महात्माजी ने इस आंदोिन को एक नया ववचार ददया। सारे भारर्ीय एक होकर अगें्रजों के ववरुध्द िडे हों र्ो एक विय में स्वराज्य प्रात हो सकेगा। यह ववचार उन्होंने प्रलर्पाददर् दकया और आम सभाओं में उनके भािणों को भी जनर्ा की ओर से अच्छा प्रलर्साद (समर्यन) लमिा। भारर् के सारे नागररकों में एकर्ा हो- एकर्ा की यह भावना सबके हृदयों में दृढ़ हो सके- एर्दर्य यह राष्ट्र उन सबका है, जो इस भूलम पर लनवास कररे् हों- यह प्रादेलशक राष्ट्रवाद उन्होंने जनर्ा के बीच प्रलर्पाददर् दकया। इस देश में रहने वािे दहन्द-ूमुखस्िम-लसि-ईसाई सभी की एकर्ा के लिए गांधीजी ने प्रादेलशक राष्ट्रवाद की संकलपना को अपररहायय माना और सावयजलनक सभा- सम्मेिनों में वे उस ववचार को प्रस्र्ुर् करने िगे। स्वराज्य प्रालत के लिए दहन्द-ूमुखस्िम-लसि-ईसाई इन सभी की एकर्ा अपररहायय है- यह ववचार जोर पकडने िगा। सभा सम्मेिनों में 'Hindu-Muslim unity a pre-requisite for swaraj' इस प्रकार की घोिणाएं होने िगीं। कुदटि राजनीलर् के लनपुण खििाडी अगें्रज यदद महात्माजी के इन ववचारों का अनुलचर् िाभ नहीं उठारे् र्ो आियय की बार् होर्ी। उन्होंने मुखस्िमों और लसिों में अपने अिग राजनीलर्क स्वार्य की प्रववृत्त को पनपाने का प्रयास दकया। दकसी जमाने में आपने भारर् पर राज दकया है- अगें्रजों की सत्ता होने के पूवय यहां की राज्य व्यवस्र्ा मुखस्िमों और लसिों के हार्ों में ही र्ी- इस प्रकार अिग राजनीलर्क स्वार्य पूलर्य की आकांक्षा जगाकर अगे्रजों ने मुखस्िमों और लसिों को उत्तोखजर् करने का प्रयास दकया। दसूरी ओर कांगे्रस की ओर से, चाहे जो कीमर् चकुानी पडे दहन्द-ूमूखस्िम एकर्ा साध्य करनी ही होगी, इस प्रकार के प्रयास आरंभ हुए। अगें्रजी सत्ता के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रोत्साहन से मुखस्िम बहुि के्षत्रों में मुसिमानों ने दंगे-उपद्रव मचाने शुरु दकए। कांगे्रस को अपनी उपद्रव क्षमर्ा का ञानान कराने में इन दंगों का उपयोग पररण्मदायी लसध्द होने िगा। इन दंगों और उपद्रव-क्षमर्ा के सहारे अलधकालधक सुववधाएं और राजनीलर्क अलधकर प्रात करने के मुखस्िम नेर्ाओं के इरादे पूरे होने िगे।

महात्माजी के नेर्तृ्व में राष्ट्रीय आंदोिन में बदहष्कार, असहयोग, कानून-भंग, शांलर्पूणय सत्याग्रह आदद काययक्रम दकए जाने िगे। नमक-सत्याग्रह, दांडी-यात्रा, जंगि सत्याग्रह आदद राष्ट्रीय काययक्रमों में महात्माजी द्वारा अदहंसा का पािन दकए जाने पर ववशेि बि ददया जार्ा। इस कारण सत्याग्रह काययक्रम कष्ट प्रद होरे् हुए भी जन-जागलृर् के एक प्रभावी माध्यम के रूप में िोग उसे अपनाने िगे। महात्माजी ने सत्य व अदहंसा को राष्ट्रीय आंदोिन के सैध्दाखन्र्क अलधष्ठान के रूप में स्वीकार दकया और यह अपीि की दक जनर्ा भी इसे जीवन-पध्दलर् के रूप में स्वीकार करे।

महात्मा गांधी अपनी व्यवक्तगर् बोि चाि में यह अवश्य स्वीकार कररे् दक ''मैं एक सनार्नी दहन्द ूहंू'' उनकी जीवन दृवष्ट और जीवन पध्दलर् भी सनार्नी दहन्द ूके अनुरूप र्ी। दकन्र्ु राष्ट्रीय आंदोिन में

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मुसिमानों को दहंदओुं के सार् एकत्र रिने र्र्ा एकर्ा की भावना से काययशीि बनाए रिने के लिए उनकी स्वार्यपूलर्य में, देशदहर् में आवश्यक ववचार व्यवहार और समपयण की दकर्नी महंगी कीमर् चकुानी पडैगी, शायद इसका अनुमान गांधीजी नहीं िगा पाए। पू. डॉक्टरजी के ववचार में दहन्द-ूमुखस्िम एकर्ा प्रस्र्ावपर् करने के महात्माजी के इस प्रयास से मुखस्िमों की उदण्डर्ा अलधक बढे़गी, अगें्रजों से प्रात प्रोत्साहन उन्हें दंगे कराने के लिए प्रररर् करेगा- इससे उनकी स्वार्य पूणय राजनीलर् भूि बढ़ी ही जाएगी र्र्ा दसूरी ओर असंगदठर् दहन्द ूसमाज का मनोबि घटेगा। अर्: डॉक्टरजी के मन में यह ववचार बि पकडने िगा दक 90 प्रलर्शर् दहन्द ूसमाज का मनोबन, उन्हें सुदृढ़ सुसंगदठर् कर बढ़ाने की बजाए वह टूटने से, दहन्द ूसमाज का आत्मववश्वास घटने के कारण मुखस्िम अनुनय की गांधीजी प्रणीर् प्रदक्रया आत्मघार्क ही लसध्द होगी।

प्रादेलशक राष्ट्रवाद को स्वीकार दकए जाने से भारर् के राष्ट्रजीवन पर होने वािे उसके भयावह दषु्पररणामों की कलपना से पू. डाक्टरजी बेचनै हो उठे- उनके मन में अनेक प्रकार के ववचारों का कोिाहि चमने िगा। 'भारर् में एक नया राष्ट्र अददर् हो रहा है'- कांगे्रस की इस ववचारधारा से पे्रररर् भारर् के लनकट भूर्काि संबंधी ऐलर्हालसक िेिनों में व्यक्त दहन्दओुं के सांस्कृलर्क व धालमयक प्रर्ीकों के ववध्वंस को, कहीं दहन्द ूमुखस्िम एकर्ा के लिए गांधीजी द्वारा अपनाए गए अनुनय के मागय को अपनाने से भूिना र्ो नहीं पडेगा? राष्ट्रववरोधी र्त्वों र्र्ा उनके अनुयालययों को सार् हुए संघिय में छत्रपलर् लशवाजी, गुरु गोववंद लसंह, महाराणा प्रर्ाप आदद महान राष्ट्रभक्तों को भूिना क्या अलनवायय नहीं होगा? कांगे्रस के आंदोिन में मुसिमानों को सहभागी बनाने के लिए गांधीजी सबकुछ करने के लिए र्ैयार र्े। पू. डॉक्टरजी के मन में ववचार चक्र घूमने िगा। अपने प्राचीन उज्जवि इलर्हास के

अध्ययन से ही हम राष्ट्रीयर्ा और स्वाधीनर्ा प्रालत की आकांक्षा की पे्ररणा ग्रहण कररे् हैं। उसमें से ही आत्मववस्मरृ् समाज में आत्मववश्वास उत्पन्न होकर देश के लिए अपने सवयस्य का त्याग करने की प्रववृत्त दृढ़ होर्ी है। प्रिर देशभवक्त को जनसामान्य का स्वभाव बनाने केलिए स्वराज्य प्रालत करने में सफि योध्दा छत्रपलर् लशवाजी जैसे श्रषे्ठ आदशय को लनरंर्र सामने रिना पडर्ा है। अपन प्राचीन इलर्हास और पे्ररक राष्ट्रपुरुिों का ववस्मरण र्ो आत्मघार्क ही लसध्द होगा। वंदेमार्रम ्राष्ट्रगीर् की सामूदहक गायन और भारर्मार्ा का जाघोि र्ो स्वार्ंत्र्य स्फूलर्य की गंगोत्री है। उसका ववरोध करने वािी मुखस्िम मानलसकर्ा उन ददनों ददििाई देने िगी र्ी। मुसिमानों को िशु करने केलिए यदद इस राष्ट्रगीर् और राष्ट्रीय घोिणा का, उनकी इच्छानसुार त्याग करने का, यदद कांगे्रस ने लनणयय लिया र्ो भारर् की राष्ट्रीयर्ा का आधार ही छह जाएगा। गांधीजी के सार् वैचाररक मर्भेद के बावजूद पूजनीय डाक्टरजी ने गांधीजी के नेर्तृ्व में उन ददनों हुए सभी आंदोिनों में सदक्रय भाग लिया। अगें्रज शासकों ने डॉक्टरजी पर यह आरोप िगाकर दक 'आप भडकीिे भािण देकर भारर् की आजादी के लिए िोगों को भडकारे् हैं '- उनके ववरुध्द न्यायािय में मुकदमा दायर दकया। अपने ववचारों और ववृत्त के समर्यन में न्यायाधीश के सामने अपना पक्ष र रिा जाए। मैंने कोई अपराध नहीं दकया है'

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लसफय इर्ना ववनम्रर्ा से कहकर न्यायाधीश जो दंडा दें एसे स्वीकार करो- कांगे्रसी नेर्ाओं की यह नीलर् डॉक्टरजी को पसंद नहीं आई। उन्होंने अपने वक्तव्य से समर्यन में मूि भािण से भी अलधक प्रिर और प्रभावी शब्दों में अपना पक्ष प्रस्र्ुर् दकया। इस अलभयोग में डॉक्टरजी को सश्रम कारावास भोगना पडा। दकन्र् ुन्यायािय के समक्ष उन्होंने जो बयान ददया वह सवयत्र प्रकालशर् हुआ। इससे सामान्य जनर्ा को उनके ववचारों से पररलचर् होने का एक और अवसर लमिा। गावंश भरर्ीय कृवि प्रधान अर्यनीलर् का आधार है, सार् ही गाय के प्रलर् सभी भारर्ीयों में अपार श्रध्दा भाव है इसलिए भारर् में गोवध बंदी, गो-संवधयन और गोरक्षण आदद वविय पू. डॉक्टरजी के आग्रह के कारण ही गांधीजी ने सैध्दाखन्र्क रूप में स्वीकार दकये। गांधीजी ने अपने एक उद्बोधन में यह र्ो कहा दक 'गोवध बंदी मुझे स्वराज्य से भी अलधक वप्रय है, 'दकन्र्ु इस आशय का प्रस्र्ाव कांगे्रस के अलधवेशन में पाररर् कराने की बार् उन्होंने नहीं मानी। शायद उन्हें ऐसा महसूस हुआ दक मुसिमान इसके लिए र्ैयार नहीं होंगे और प्रस्र्ाव आने पर मुसिमानों द्वारा ििेु रूप में ववरोध दकए जाने पर कांगे्रस की प्रलर्मा धलूमि होगी।

भारर् में ववदेशी अगें्रजों के ववरुध्द असंर्ोि जागरृ् करने का कायय िोकमान्य लर्िक ने प्रारंभ दकया र्ा। इसीलिए उन्हें 'भारर्ीय असंर्ोि के जनक' (Father of Indian Unrest) भी कहा गया। अगें्रज सरकार के ववरुध्द यह आसंर्ोि गांधीजी क असहयोग आंदोिन और सत्यग्रह आदद काययक्रमों के कारण सारे भारर् में फैि गया। गांधीजी की इच्छा और आदेशों को मानकर अनेक ज्येष्ठ कांगे्रस नेर्ाओं ने अपना काम धंधा-व्यवसाय आदद छोडकर स्वदेशी का व्रर् अपनाया। िादी का उपयोग करने और भारर् में स्वदेशी का प्रचार करने का लनिय दकया। इससे सारे भारर्वालसयों में अगेंजी शासन के प्रलर्, शत्र-ुभावना र्ीव्र होकर जागलृर् आयी। यह जनजागलृर् सभा, सम्मेिनों, जुिूसों, घोिणाओं आदद के माध्यम से की जार्ी। दकन्र्ु इन माध्यमों से आयी जागलृर् और उत्साह अलपकाि ही दटक पार्ा। अगें्रज-सत्ता दमननीलर् अपना रही र्ी, इसलिए आंदोिन या काययक्रम का उत्साह ठंडा पडने पर एक प्रकार की लनराशा और उदासीनर्ा ही नजर आर्ी र्ी। 1920 में हुए सत्याग्रह और 'एक विय में स्वराज्य' की घोिणा से काफी जन जागलृर् हुई। दहन्र्ु ववदेशी अगें्रज सत्ता की दमन नीलर् के कारण अनेक प्रमुि नेर्ाओं को कारावास भोगना पडा। इस काि में जागरृ् जनचेर्ना कमजोर हो गई। 1920-21 के इस सत्याग्रह के बाद इसी प्रकार के प्रभावी सत्याग्रह का दबुारा आयोजन करने में 10 विय की अवलध बीर् गयी। 1930-31 में कानून-र्ोडने का आंदोिन शुरु कर पाना संभव हो पाया। डॉक्टरजी को यह र्ीव्रर्ा से अनुभव हुआ दक इन सत्याग्रह काययक्रमों से जनमानस में देशभवक्त की भावना और स्वार्ंत्र्य प्रालत के लिए हृदय में राष्ट्रभवक्त की उमंग लनरंर्र सार्त्य से बनी रहना संभव नहीं हो पाया- इसीलिए वे काफी लचखन्र्र् हुए।

कांगे्रस के इस आंदोिन में लचरं्ा करने योग्य एक और बार् र्ी। असहयोग-सत्याग्रह- कानून र्ोडो

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आदद सारे काययक्रमों से िोगों और काययकर्ायओं की लनष्ठा गांधीजी में केखन्द्रर् होर्ी र्ी। लनरपेक्ष और राष्ट्रदहर् समवपयर् ववचार करने की डॉक्टरजी की पध्दलर् में, यह बार् अनुलचर् होने से िटकने वािी र्ी, क्योंदक उनकी यह मान्यर्ा र्ी दक कोई व्यवक्त दकर्ना ही सद्गणु सम्पन्न, चाररत्र्यवान और सबके अरं्:करण में आदर भाव जागरृ् करने वािा महान क्यों न हो, मार्भृूलम की मुवक्त केलिए आवश्यक राष्ट्रसेवा और देशसेवा र्र्ा समाज जागरण के कायय का केन्द्रभूर् आधार र्ो वह व्यवक्त नही बन सकर्ा- ऐसा होना उलचर् भी नहीं। यदद दकसी कारण से ऐसा केन्द्र वबन्द ुबना व्यवक्त सामने न आने पाए और ऐसा महान व्यवक्त काययकर्ायओं का नेर्तृ्व कर पाने में अक्षम लसध्द हुआ र्ो राष्ट्रकायय हेर्ु लसध्द होन वािे समाज कायय को अपररलमर् क्षलर् उठानी पडेगी। दकसी भी श्रषे्ठ कायय का आधार अदडग, अववचि और अनन्य श्रध्दा होनी चादहए और यह श्रध्दा दकसी श्रषे्ठ ध्येय की प्रालत के लिए,

सवयसामान्य व्यवक्त के हृदय को पुिदकर् कर सदैव प्ररेणादायी दकसी िक्ष्य की प्रालत हेर्ु दकए जाने वािे कायय के प्रलर् होनी चादहए। ''यह र्ो ईश्वरीय कायय है'', इस प्रकार िोगों को उदात्ता और उत्तुंग प्रर्ीर् होने वािे र्र्ा र्न-मन-धन से उसे जीवन कायय के रूप में स्वीकार करने की भावना पैदा करने वािे कायय के प्रलर् ही ऐसी श्रध्दा होनी चादहए। डॉक्टरजी के मन में र्ीव्रर्ा से यह ववचार उत्पन्न होने िगा दक समाज जीवन कायय-लनष्ठ बने, व्यवक्त लनष्ठ नहीं। इस ववचार से डॉक्टरजी का मन बेचनै हो उठा।

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6. वविायक कायािम

कांगे्रस ने जो काययक्रम अपनाए रे्, उनमें सेवा कायों के सार् ही अच्छे संस्कार देने वािे काययक्रमों का भी समावेश र्ा। संस्कार प्रदान करने के लिए अनेक आश्रम िोिे गये। ये आश्रम प्रमुिर्या ग्रामीण के्षत्रों में काम करने वािे काययकर्ाय र्ैयार करने हेर् ुसादगी पूणय स्वाविम्बी समाजावपयर् जीवन जीने की पे्ररणा उत्पन्न करने के लिए ही िोिे गये। आश्रमी जीवन अपनाकर संस्कार ग्रहण करने का यह काययक्रम सामान्यजनों के लिए नही र्ा। कुछ चनेु हुए, इने-लगने त्यागी प्रवलृर् के िोग ही उसमें सहयोगी बने। श्रध्देय ववनोबाजी, ठक्कर बाप्पा, शंकरराव देव, दकशोरी िाि मश्रवूािा, आचायय काका कािेिकर जैसे महान व्यवक्तयों ने आश्रमवास अपनाया। गांधीजी की योजना के अनुसार इन आश्रमों के जीवन में अनुशासन र्ा। साखत्वक ववृत्तक ववृत्त के संवधयन की वहां व्यवस्र्ा र्ी, सत्य अदहंसा आदद सद्गणुों का ववकास कर उन्हें जीवन का स्र्ायी भाव बनाने की योजना र्ी। शुध्दजीवन जीने की पे्ररण वहां प्रात होर्ी र्ी। ग्राम प्रधान समाज व्यवस्र्ा के लनमायण हेर्ु अध्ययन र्र्ा ग्रामीण के्षत्रों में जाकर वहां के िोगों से चचाय कर हां का जीवन अलधक सुिी-समाधानी बनाने का प्रयत्न होर्ा। सवोदय का िक्ष्य सामने रिकर उसकी प्रालत हेर्ु अनुसंधान कर समाज जीवन को भारर्ीयर्ा की ओर मोडने का वह उपक्रम र्ा। दकन्र्ु, इन सारे संस्कार-प्रलशक्षण केन्द्रों में कुछ इने-लगने-चनेु व्यवक्त ही शालमि हो सकरे् रे्- सवय सामान्य जनर्ा को इन काययक्रमों में सहभागी बनाना असंभव र्ा। प्राचीन काि के

ऋवि-मुलनयों की भांलर् आश्रमी-जीवन से संस्कार ग्रहण करने की योजना प्रशंसनीय र्ी। दकन्र्ु उस काि में ववववध कायों के लनलमत्ता उन ऋवि मुलनयों का सामान्य जनर्ा से प्रत्यक्ष सम्पकय बना रहर्ा र्ा और शासन व्यवस्र्ा पर भी उनकी कडी नजर होर्ी। समाज दहर् में आवश्यक कायय, राजा के द्वारा करवाने की क्षमर्ा र्ी। यदद दकसी राजा के चाि-चिन में समाज दहर् की बजाय स्वार्य बढ़र्ा हुआ ददिाई देर्ा र्ो उस राजा को पदच्युर् करने का सामाथ्यय उनमें र्ा। पराधीनर्ा के काि में आश्रम के प्रमुिों से यह अपेक्षा र्ो कर्यी नहीं की जा सकर्ी र्ी। दकन्र्ु आश्रम के सुसंस्काररर् काययकर्ायओं से यह अपेक्षा र्ो अवश्य की जा सकर्ी र्ी दक सम्पूणय भारर्ीयों के जीवन को स्र्ायी रूप से स्वदेशी में ढािरे्, उनके जीवन में राष्ट्र के प्रलर् लनष्ठा को यदा सवयदा के लिए प्रिर बनाने के लिए भारर् के सहस्त्रावलध आश्रमों से िक्षावलध काययकर्ाय र्ैयार कर जन-जीवन में समरस होने के लिए उन्हें भेजा जाए। दकन्र्ु इर्ने अलधक पैमाने पर आश्रमों की स्र्ापना करना कांगे्रस के नेर्ाओं के लिए संभव नहीं हो पाया।

आश्रम व्यवस्र्ा का एक िाभ हो हुआ। उस व्रर्स्र् जीवन में, कुछ काययकर्ायओं ने भारर्ीय अर्यव्यवस्र्ा, कुटीर उद्योगों के ववकास, लशक्षानीलर् आदद ववियों पर मौलिक लचरं्न दकया और वह लचरं्न संदभयग्रंर्ों के रूप में प्रकालशर् भी हुआ। दकन्र्ु उसके व्यावहाररक आचरणीय पहिू को समाजव्यापी बनाने के लिए आवश्यक काययकर्ायओं के अभाव में, यह मौलिक लचरं्न ग्रंर्ों में बंदी

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बनकर पडा रहा। उनका अध्ययन करने वािे कुछ र्ोडे से खजञानासु व्यवक्तयों को छोड ददया जाये र्ो समाज के सभी स्र्रों और के्षत्रों में उनका प्रचार-प्रसार नहीं हो पाया।

प्राचीन काि की ऋवि-मुलनयों की आश्रम व्यवस्र्ा में जन-सम्पकय के अन्य माध्यम भी अखस्र्त्व में रे्। यञान-त्याग, ञानानसत्र आदद में व्यापक पैमाने पर ववचार-ववलनमय, समाज की रूदढ़यों, कुप्रर्ाओं से मुक्त करने का आयोजन, मठ-मंददरों के उत्सवों र्र्ा कंुभ मेिों जैसे ववशाि सम्मेिनों के माध्यम से जनर्ा का प्रबोधन दकया जार्ा। ऐसे प्रसंगों पर उद्बोधन काययकर्ायओं का समाज के सभी स्र्र के स्त्री पुरुिों के सार् परस्पर सम्पकय होने के कारण सामाखजक समस्याओं की प्रत्चक्ष जानकारी लमिर्ी र्ी और उनके समाधान का मागय भी ढंूढा जार्ा र्ा। म. गांधी द्वारा प्रणीर् आश्रम योजना में प्रलशखक्षर् सभी काययकर्ायओं को व्यापक प्रवास कर समाज प्रबोधन करने का अवसर नहीं लमि पाया। यह सच है दक आचायय धमायलधकारी, शंकरराव देव, आ. कािेिकर आदद कुछ वररष्ठ काययकर्ायओं का ही जनर्ा से सम्पकय बना रहा।

म. गांधी की पे्ररणा से प्रस्र्ावपर् आश्रम के प्रलर् और दक्रयाशीि आश्रमवालसयों के प्रलर् जनर्ा के मन में आदर की भावना र्ी। आश्रम के वास्र्व्य में, केश-वपन कर व्रर्स्र् रहना, सादा-साखत्वक आहार

ग्रहण करना, सत्य अदहंसा लसध्दांर्ों के अनुसार प्रत्यक्ष व्यवहार और ऐसे लनयम-बध्द व्यवहार के कारण उसके प्रलर् आदर भावना के बावजूद सामान्यजनों में उस प्रकार का जीवन जीने की भावना उत्पन्न नहीं हो पायी। हा,ं यह सही है दक गांधीजी, ववनोबाजी, ठक्कर बाप्पा जैसे महान व्यवक्तयों के सहवास में कुछ व्यवक्तयों का हृदय पररवर्यन कुछ मात्रा में अवश्य हुआ। ग्रामसेवा, ग्राम सफाई आदद कांगे्रस के काययक्रमों में आश्रमवालसयों के सार् ही ववद्यार्ी, नवयुवक और कुछ उत्साहीजन सहभागी बनर्े। सताह में एक ददन लनकटवर्ी दकसी देहा र्ें जाकर वहां सफाई का काययक्रम हार्ों में लिया जार्ा। इसे जीवन व्रर् के रूप में स्वीकार करने वािे आश्रमवालसयों के लिए यह ग्रामसेवा, अपने जीवन में सेवाभावना को दृढ़ बनाने में उपयोगी रही। ग्रामीण के्षत्रों से लनकटर्ा प्रस्र्ावपर् करने में भी इस काययक्रम का उपयोग होर्ा। दकंर्ु खजन ग्रामवालसयों के लिए र्र्ा उप पर संस्कार करने के उदे्दश्य से यह ग्राम-सफाई का काययक्रम लिया जार्ा उन पर इन काययक्रमों का क्या पररणाम होर्ा र्ा, यह देिना भी बडा उदबोधक है। ''हम अपना ग्रामीण के्षत्र स्वयं साफ-सफाई कर स्वच्छ रिेंगे। इन श्रषे्ठ आश्रमवालसयों को हमारे गांव की गंदगी हटाने का काम हम नहीं करने देंगे- हम िदु अपने हार्ों से वह गंदगी हटायंगे, क्योंदक वह र्ो हमारा दालयत्व है- हमारा काम हम स्वयं करेंगे।'' यह भावना िोगों में जागरृ् नहीं हो पायी। ग्रामीण जनर्ा द्वारा इधर-उधर फैं का गया कचरा और गंदगी लनशुलक साफ करने वािे ये िादीधारी काययकर्ाय हैं- यही भावना इन काययकर्ायओं के प्रलर् जनर्ा में पैदा हुई। ये ववचार, पुणे के प्रा. माटे ने ग्राम सफाई के कायय का अपना लनवेदन प्रस्र्ुर् कररे् हुए व्यक्त दकए हैं।

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पू. डॉक्टरजी समाज जीवन से लनकट सम्पकय प्रस्र्ावपर् कर उसके सुि द:ुिों से समसर होना चाहरे् रे्। वे स्वयं आश्रमवासी र्ो नहीं बने दकन्र्ु आचायय धमायलधकारी, जमनािाि बजाज आदद ज्येष्ठ ववधायक कांगे्रस काययकर्ायओं के सार् उनकी घलनष्ठ लमत्रर्ा र्ी। इन काययकर्ायओं के सार् लनत्य उनका ववचार-ववमशय होर्ा रहर्ा। आलर्यक ववकास, स्वयंपूणय ग्रामीण के्षत्रव्यवस्र्ा, समाज व्यवस्र्ा, स्वदेशी का पुरस्कार करने वािी लशक्षा, सदाचार, सवोदय आदद सभी बार्ों के लिए प्रयत्न करना आवश्यक होरे् हुए भी समाज के सभी क्षत्रों में उसे पहंुचाने और र्दनुसार प्रत्यक्ष कायय करने के लिए सवयप्रर्म आवश्यकर्ा है, काययकर्ायओं को लनमायण करने की। समाज जीवन की सवाांगीण उन्नलर् के लिए लचरं्नशीि व्यवक्तयों को परस्पर ववचारों का आदान-प्रदान, ववचार-ववमशय, करना चादहए- यह आवयश्यक भी है। दकन्र् ुइस ववचार ववलनमय से लनकिे लनष्किय के अनुसार ववशाि देशवालसयों के जीवन में उलचर् पररवर्यन िाने के लिए भारर् के हर के्षत्र में भारी संख्या में सक्षम काययकर्ायओं को िडा करने की आवश्यकर्ा की सवोपरर प्रधानर्ा दी जानी चादहए। डॉक्टरजी के ववचार में, ऐसे असंख्या काययकर्ायओं के अभाव में स्र्ायी समाज जागलृर् और स्वाधीनर्ा प्रालत के लिए अपना सवयस्व दांव पर िगाने की प्रववृत्त समाज मे लनमायण करना संभव नहीं हो पायेगा।

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7. ननष्कर्ा 1925 में ववजयदशमी के शुभमुहूर्य पर संघ की स्र्ापना करने से पूवय उन ददनों चिने वािे स्वाधीनर्ा आंदोिन में डॉक्टरजी ने सदक्रय भाग लिया र्ा। प्रमुि क्रांलर्काररयों के र्र्ा बाद कांगे्रस ने गरमदि के नेर्ाओं के मागयदशयन में लनरपेक्ष भावना से र्र्ा सवयस्वापयण की ववृत्त से अपनी सारी शवक्त िगाकर कायय करने की उनकी शैिी के कारण इस आंदोिन के प्रमुि नेर्ाओं और काययकर्ायओं के मन में डॉक्टरजी के प्रलर् आदर भाव र्ा। उनका लमत्र-पररवार सारे भारर् में फैिा हुआ र्ा। देश कायय कररे्

समय उन्होंने अपने व्यवक्तगर् जीवन का क्षण भर भी ववचार नहीं दकया। अपना पूणय कर्ृयव्य भारर्मार्ा के चरणों में समवपयर् दकया र्ा। इस पषृ्ठभूलम में, ववववध आंदोिनों के मूिभूर् ववचारों र्र्ा काययपध्दलर्यों का, भारर् की राजनीलर्क पररखस्र्यों का र्र्ा अपने राष्ट्रजीवन के वैचाररक अलधष्ठान का वस्र्ुलनष्ठ ववचार करने के बाद डॉक्टरजी ने जो लनष्किय लनकािा, वही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में सामने आया।

संघ की ववचारधारा इर्नी सरि और स्पष्ट है दक सामान्य व्यवक्त को भी सहजर्ा से उसका आंकिन

करना संभव है। अपने देश में, दहन्द ूजीवन दृवष्ट र्र्ा दहन्द ूजीवन पध्दलर् के आधार पर ववकलसर् राष्ट्रजीवन ववगर् हजारों विों से ववद्यमान है। इस कारण यह प्राचीनर्म राष्ट्र है। भारर् में नये राष्ट्र जीवन के लनमायण की कोई आवश्यकर्ा नहीं है और यह सोचने का कोई कारण नहीं दक यहां 'A new

Nation in the making'. हमारे इस प्राचीन राष्ट्र पर अनेक बार आक्रमण हुए। शत्रओुं के अनेक आघार् भारर् को सहने पडे। दकन्र्ु इन सारे आक्रमणों और आघार्ों से जूझरे् हुए आज भी राम और कृष्ण का आदशय अपने सामने रिकर जीवन वबर्ाने वािा दहन्दसुमाज भारर् में 90 प्रलर्शर् है। वनवासी, लगररजन के्षत्रों में र्र्ा ग्रामीण के्षत्रों का अनपढ़ और लनरक्षर व्यवक्त श्री राम और कृष्ण की कर्ाएं जानर्ा है। भारर् मार्ा, गौ मार्ा और भागीरर्ी गंगा के प्रलर् उनके हृदय में अगाध श्रध्दा और भवक्त भाव होने के कारण भारर् विय में यत्र-र्त्र हजारों की संख्या में इनके मंददर देिे जा सकरे् हैं। भारर् में 18-20 लभन्न दकंर्ु समधृ्द भािएं प्रचलिर् हैं। उनकी लिवप भी अिग है दकंर्ु प्रत्येक भािा के श्रषे्ठ सादहत्य में उपलनिद्, पुराण, रामायण, महाभारर् आदद पुरुिोत्ताम श्री राम की कर्ाएं इन सभी भािाओं के सादहत्य में आपको पढ़ने को लमिेंगे। चार धामों की यात्रा करने से मनुष्य का जीवन सार्यक बनर्ा है- यही भावना सबके हृदय में है। इसीलिए सांस्कृलर्क एकर्ा से अनुप्राखणर् भारर् का समाज जीवन वेद-उपलनिद काि से आज र्क अबाध गलर् से चिर्ा आया है। हमारा यह अनादद दहंदरूाष्ट्र है। यहां दहन्द-ूजीवन प्रवाह को ही प्रधानर्ा दी जानी चादहए क्योंदक वही अपने राष्ट्र की वैचाररक और व्यावहाररक दृवष्ट से रीढ़ की हव ्ी है। भारर् की उन्नलर् अर्वा अवनलर् दहन्द ूसमाज-जीवन के सुदृढ़ अर्वा दबुयि व आत्मववस्मरृ् होने के कारण संभव हो सकी। आज भी अपनी राष्ट्रजीवन की ददुयशा दहन्द ुसमाज के असंगदठर् रहने र्र्ा राष्ट्रीयर्ा का बोध न होने के कारण ही हो रही है। दहन्दसुमाज यदद सुसंगदठर्, बिशािी बना और अपने राष्ट्रजीवन के बोध से अनुप्राखणर् हुआ र्ो भारर् की सारी

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समस्याएं हि करना सहज संभव हो सकेगा। हम ववघदटर् और बंटे हुए रहे हैं, इसीलिए इस देश पर परकीय मुसिमान और अगें्रज अपनी सत्ता प्रस्र्ावपर् कर सके। वास्र्व में अपना शत्र ुऔर कोई न होकर हम ही अपने राष्ट्रजीवन के लमत्र अर्वा शत्र ुहैं। अपनी पराधीनर्ा के लिए र्ुकय , मुगि अर्वा अगें्रजों को दोि देने का कोई कारण नहीं। हमने आज र्क इस बार् की लचन्र्ा नहीं की दक हमारा समाज सुदृढ़, शवक्तशािी, सुसंगदठर्, अनुशालसर् और राष्ट्रभावना से भरा हुआ हो- इसीलिए हम पर ये आपवत्तयां और संकट आये। अर्: यदद इसकी लचरं्ा करके अपने दहन्दसुमाज को यदद हम बि सम्पन्न- सुसंगदठर् करें र्ो ये संकट सहजर्ा से दरू दकए जा सकें गे। हम जानरे् हैं दक दहन्दसूमाज पर हुए धालमयक आक्रमण के कारण अपने ही कुछ बांधव मुसिमान और ईसाई बनने के लिए मजबूर हुए। यदद दहन्दरूाष्ट्रजीवन शवक्तशािी बना र्ो उनकी पुन: स्वधमय में वापसी कोई कदठन बार् नहीं। इसीलिए आज की सवय प्रमुि आवश्यकर्ा दहन्दसुमाज को सुसंगदठर् बिशािी बनाने की है। पू. डॉक्टरजी के लचरं्न का यही लनष्किय र्ा। दहन्द ुसमाज को अपना राष्ट्रजीवन पदहचानकर उसे अपनाना चादहए। स्वगय से भी श्रषे्ठ और श्रध्देय अपनी बार् भारर् मार्ा के हम सब पुत्र हैं। इसीलिए हम सारे सगे बंध ुहैं। इस आत्मीयर्ा और बधंु-पे्रम की अनुभूलर् समाज के प्रत्येक व्यवक्त में जागरृ् कर लनरपेक्ष बंधभुाव के स्नेह से उन्हें परस्पर जोडना ही संघ कायय का भावनात्मक मौलिक ववचार है। हम आपस में झगडरे् रे्, इसीलिए मुसिमान और अगें्रज यहां अपना वचयस्व प्रस्र्ावपर् कर सके। हमने ही अपने बनवासी, लगररजन और हररजन बंधओुं की उपेक्षा की। वे भी समान श्रध्दा के कारण अपने ही राष्ट्रजीवन के अलभन्न अगं हैं। वे लनधयन, लनरक्षर भिे ही हों, पर अपने ही राष्ट्रीय समाज के घटक हैं। हम उन्हें भूि गये। राष्ट्रीय एकात्मकर्ा के सूत्र को उन र्क पहंुचाने और उसे मजबूर् बनाने की लचरं्ा हमने आज र्क नहीं की। यह हमारा अपना दोि है। इस दोि को लनमूयिन कर अपने ही प्रयत्नों ये हम यहां का राष्ट्रजीवन, एक

राष्ट्रपुरुि के नारे् ववश्व में अजेय शवक्त के रूप में िड करेंगे। संघ कायय के मूि में ही यही पे्ररक और ववधायक ववचार रहा है।

पू. डाक्टरजी ने भारर् मार्ा के प्रलर् अनन्य श्रध्दा को ही संघ कायय के अलधष्ठान के रूप में स्वीकार दकया। अपने दहन्दसूमाज के प्रलर् आत्मीयर्ा और स्नेहपूणय व्यवहार से दहन्द ूसमाज को सुसंगदठर्

करने का कायय हार्ों में लिया। वैसे देिा जाये र्ो इन सारे ववचारों से अपना समाज पररलचर् र्ा। इस कारण भारर्मार्ा की पूजा का ववचार, भारर् की सवाांगीण उन्नलर् के सूत्र के रूप में अपने पास है। हम प्रयत्नों की पराकाष्ठा कर अपने राष्ट्र को परम वैभव की खस्र्लर् पर िे जायेंगे। इस ववचार से समाज में स्फूलर्य पैदा हुई। भारर् मार्ा की आराधना का, संघ कायय का आधारभूर् ववचार र्ो स्वामी वववेकानंद, योगी अरववंद र्र्ा िोकमान्य लर्िक जैसे महान नेर्ाओं ने पहिे ही प्रलर्पाददर् दकया र्ा। अरं्र केवि इर्नी है दक संघ की अपनी काययपध्दलर् से डाक्टरजी ने उस ववचार को समाज जीवन में चररर्ार्य कर ददिाया। आसेर्ुदहमाचि ववशाि भारर् में फैिे इस दहन्दसुमाज को सुसंलगठर् करने की

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ववशेि काययपध्दलर् डॉक्टरजी ने अपनी अद्भरु् प्रलर्भा से ववकलसर् की। जून 1940 में उनके देहावसान के पूवय ही उन्होंने स्वयं संघ की ववशेि काययपध्दलर् के सवाांगीण ववकास की रूपरेिा कायायखन्वर् कर ददिाई र्ी।

पू. डॉक्टरजी ने संघ की काययशैिी दकस र्रह ववकलसर् की इसका ववचार हम अगिे अध्यायों में ववस्र्ार पूवयक करेंगे।

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8. क्रकशोर-यवुकों से संघ काया का प्रारंभ

1925 में जब संघ का कायय प्रारंभ हुआ, र्ब डॉक्टरजी की आयु 35 विय की र्ी। र्ब र्क उन्होंने र्त्कािीन स्वार्ंत्र्य प्रालत हेर्ु चि रहे सभी आंदोिनों और कायों में खजम्मेदारी की भावना से कायय दकया। संघ का कायय प्रारंभ करने के लिए उन्होंने 12-14 विों की आयु वािे कुछ दकशोर स्वयंसेवकों को सार् में िेकर नागपुर के साळूबाई मोदहरे् के जजयर बाडे का मैदान साफर करके, कबड्डी जैसे

भारर्ीय िेि िेिना प्रारंभ दकया। ऊपरी र्ौर पर देिा जाये र्ो यह एक प्रकार का ववरोधाभास ही प्रर्ीर् होर्ा है। उनके अनेक लमत्रों ने इस पर आियय व्यक्त कररे् हुए कहा भी र्ा- डॉक्टर हेडगेवार ने आसेर्ु दहमाचि फैिे इस ववशाि दहन्दसुमाज को राष्ट्रीयर्ा के रंग में रंगकर सुसंगदठर् करने का प्रयास सफि लसध्द करके ददिाने के उदात्ता और भव्य कायय का आरंभ माध्यलमक और उच्च माध्यलमक शािेय छात्रों के सार् कबड्डी िेि कर दकया।

डॉक्टरजी का लमत्र- पररवार काफी बडा र्ा। दफर भी उन्होंने इन लमत्रों को उकत्र कर कोई सभा-सम्मेिनों का आयोजन नहीं दकया। सावयजलनक अर्वा दकसी लनजी स्र्ान पर अपने चहेर्ों की सभा िेकर, भािण आदद देकर कोई प्रस्र्ाव आदद पाररर् करने के चक्कर में भी वे नहीं पडे। अगें्रजो के ववरुध्द असंर्ोि भडकाने वािा भािण देकर िोगों का उद्बोधन नहीं दकया। 'भारर् के उत्र्ान हेर्ु मैं एक नये कायय का श्रीगणेश कर रहा हंू'- ऐसी कोई घोिणा भी नहीं की।समाचार पत्रों में िेि आदद लििकर अर्वा जादहर भािण में संघ कायय के ववचार शैिी और कायय-शैिी की कोई संकलपना (Blue

Print) भी प्रकट नहीं की। ये सारी बार्ें र्त्कािीन प्रचलिर् पध्दलर् के अनुसार न कररे् हुए केवि 20-

5 दकशोर स्वयंसेवकों को सार् िेकर कबड्डी जैसे देशी िेि िेिने का काययक्रम शुरु दकया। प्रारंलभक ददनों में इन स्वयंसेवकों के समक्ष भी भािण आदद देकर संघ ववचारों का प्रलर्पादन नहीं दकया। िेि समात होने के बाद संघ स्र्ान पर अर्वा अन्य समय में अनौपचाररक रूप से इन दकशोर स्वयंसेवकों के सार् वार्ायिाप हुआ करर्ा।

कबड्डी जैसे िेिों से शािा का कायय प्रारंभ होने पर डॉक्टरजी के अनेक लमत्रों ने पूछा दक आप सारे कामों से मुक्त होकर इन छोटे बच्चों के सार् कबड्डी िेिने में क्यों िगे हैं? डॉक्टरजी ने उनके सार् कभी वाद वववाद या बहस नहीं की। र्कय और बुखध्द का सहारा िेकर संघ कायय का महत्तव समझाने का प्रयास भी नहीं दकया। र्ब र्क दकए गए सारे सामाखजक कायों से मुक्त होकर वे मोदहरे् बाडे में िगने वािी सांय शािा में दकशोर स्वयंसेवकों के सार् र्न्मय होकर िेिकूद में शालमि होने िगे। शािा के काययक्रमों का ठीक ढंग से आयोजन करने, सारे काययक्रम अच्छे ढंग से वबना दकसी भूि के सम्पन्न हों, इसके लिए एकाग्र लचत्ता से वे संघ कायय में जुट गये। नये शुरु दकये गये इस कायय का नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है, यह बार् भी प्रारंलभक ददनों में उन्होंने स्वयंसेवकों से नहीं कही। केवि

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र्न्मयर्ा से ववववध िेिों के काययक्रमों में वे रंग जारे् और अपने सार् दकशोर स्वयंसेवकों को भी रमाने का प्रयास कररे् और इस प्रकार संघ की शािा शुरु हुई।

शािा के सार् ही काययपध्दलर् का ववकास भी प्रारंभ हुआ। स्वयंसेवकों के सार् पररचय होने के सार् ही अनौपचाररक वार्ायिाप शुरु हो गया र्ा। स्वयंसेवकों का नाम, लशक्षा, घर की खस्र्लर् आदद के बारे में जानकारी प्रात कर िेने के बाद, यदद कोई स्वयंसेवक दकसी ददन शािा में नहीं आया र्ो अन्य दकशोर स्वयंसेवकों को सार् िेकर डॉक्टरजी उसके घर जारे् रे्। इस प्रकार धीरे-धीरे स्वंयसेवकों के

मार्ा-वपर्ा और पररवारजनों के सार् पररचय होने िगा। डॉक्टरजी जैसा ज्येष्ठ चररत्रवान काययकर्ाय अपने बच्चे की पूछर्ाछ करने, स्वास्र् संबंधी जानकारी प्रात करने बडी आस्र्ा से अपने घर आर्ा है,

यह देिकर स्वयंसेवकों के घर के िोग भी प्रभाववर् होरे्। डॉक्टरजी के अपने घर आने से उन्हें बडी िशुी होर्ी। कोई स्वयंसेवक यदद गंभीर रूप से बीमार होर्ा र्ो डॉक्टरजी बडे लचखन्र्र् रहरे्- उस बीमार स्वयंसेवक के लिए अस्पर्ाि से दवाई िाने, इिाज करने वािे डॉक्टरों से आस्र्ा पूवयक पूछर्ाछ और ववचार-ववलनमय करने र्र्ा आवश्यक हुआ र्ो बीमार स्वयंसेवक की सेवा सुश्रिुा के लिए रार् भर जागरण करने के लिए स्वयंसेवकों को उसके पास भेजने की व्यवस्र्ा की जार्ी। इस प्रकार के व्यवहार से स्वयंसेवकों में परस्पर मैत्री पूणय संबन्ध अलधक मजबूर् होने िगे। सार् ही प्रत्येक

स्वयंसेवक के ववचारों और भावनाओं का भी डॉक्टरजी को पररचय होने िगा। स्वयंसेवकों के सुि-द:ुि में समरस होने की प्रववृत्त बढ़ने िगी। स्वयंसेवकों में सगे भाई से भी आत्मीयर्ा के परस्पर सम्बन्ध बनने िगे। परस्पर हृदयस्र् ववचारों से पररलचर् होकर लनरपेक्ष स्नेह से लमत्रर्ा कैसे प्रस्र्ावपर् की जाए, नये-नये ववश्वास पात्र लमत्र कैसे बनाये जाएं आदद बार्ों के सम्बन्ध में डॉक्टरजी ने अपने प्रत्यक्ष व्यवहार से स्वयंसेवकों को संस्काररर् दकया। स्वयंसेवकों के घलनष्ठ लमत्रों का यह पररवार धीरे-धीरे बढ़ने िगा। एक दसूरे के सार् आत्मीयर्ा से जुडे स्वयंसेवकों का यह पररवार और उस पररवार के मुखिया के रूप में डॉक्टरजी, इस र्रह संघ का स्वरूप धीरे-धीरे ववकलसर् होने िगा। सावयजलनक के्षत्र में कायय करने का व्यापक अनुभव डॉक्टरजी को प्रात र्ा। इसलिए डॉक्टरजी का स्वयंसेवकों के सार् हंसना-िेिना-बोिना आदद सभी बडे अनौपचाररक ढंग से चिर्ा। ये अनौपचाररक बैठकें उनके घर में ही होर्ी। इन बठैकों में होने वािे वार्ायिापों में डॉक्टरजी अनेक घटनाओं के सन्दभय में, बडी सहजर्ा से अपने अनुभवों को सुनारे्, ये अनुभव बडे बोधप्रद होरे्। सार् में हंसी-मजाक और ददलिगी का दौर भी चिर्ा। इसलिए ये बैठकें कभी-कभी घंटों चिर्ी रहर्ी- सभी स्वयंसेवक उसमें इर्ने रम जारे् दक समय का दकसी को ध्यान नहीं रहर्ा।

संघ के कायय में बैठक शब्द एक नये अर्य में स्वयंसेवकों में प्रचलिर् हुआ। अनौपचाररक वार्ायिाप और हास्य-ववनोद से परस्पर मनों को जोडने वािी एक नयी काययशैिी ववकलसर् हुई। इन बठैकों में डॉक्टरजी अनेक घटाओं केसन्दभय मे अपने अनुभवों के सार् बडे रोचक ढंग से जानकारी प्रस्र्ुर् कररे्-

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इसमें ववनोद के सार् ही अत्यंर् सरि शब्दों में, राष्ट्रीय भावना के लिए पोिक मागयदशयन भी होर्ा। र्रह-र्रह के मानवी स्वभावों, अरं्मयन की भावना को प्रकट करने वािे रोचक उद्गारों, शब्द प्रयोगों को िेकर प्रचलिक समाज की खस्र्लर् को समझाने का प्रयास भी होर्ा। यह सब हंसी-ववनोद के सार् चिर्ा और इसलिए इन बैठकों के प्रलर् स्वयंसेवकों का आकियण बढ़ने िगा। डॉक्टरजी के लनवास स्र्ान पर भी लनत्य अलधकालधक संख्या में ये बठैकें रावत्र के 9 - 9॥ से 12 बजे र्क चिर्ी रहर्ी।

डॉक्टरजी ने इन बैठकों में स्वयंसवकों को ििेु ददि से अपनी बार्ें कहने की आदर् भी डािी। वार्ायिाप का सूत्र टूटने न पाये, स्वंयसेवक अपना ववचार व्यक्त कररे् समय भटकने न िगें- ववचार

प्रकटन मे सुसंगलर् बनी रहे- इसकी लचरं्ा डॉक्टरजी बडी कुशिर्ा से कररे्। इन बठैकों में स्वंयसेवकों के गुण- अवगुणों का लनरीक्षण भ्ञानी होर्ा। बैठक में कौन कौन उपखस्र्र् रे्- दकसने कौनसी शंका व्यक्त की- उस पर कौन क्या बोिे आदद सारे वार्ायिाप की बारीदकयों को ध्यान में रिा जार्ा- इसके हरेक के स्वभाव, बोिने की शैिी, वविय प्रलर्पादन करने की कुशिर्ा, उसके कर्ृयव्य और उसकी गुणसंपदा बढ़ाने के लिए क्या क्या आवश्यक है- आदद बार्ों का लनदान भी होने िगा।

स्वयंसेवकों और समाज के अन्य बांधवों के सार् पे्रम से, सीधे सरि शब्दों में दकस र्रह बार्चीर् की जाए, अपने कायय के प्रलर् उसकी सहानुभूलर् और अनुकूिर्ा अखजयर् करने के लिए लमत्रर्ा कैसे सुदृढ़ की जाए, सामूदहक लचरं्न और ववचार-ववलनमय में अपने ववचार दकस र्रह व्यक्त दकए जाएं- ऐसी अनेक छोटी-छोटी प्रर्ीर् होने वािी दकंर्ु संघ कायय को मजबूर्ी से िडा करने के लिए अत्यावश्यक बार्ों का डॉक्टरजी बडा ध्यान रिरे् रे्। जहां आवश्यक हो, वहीं वे मागयदशयन कररे्। अपने लमत्रों और सहयोलगयों को परस्पर अनुकूि बनाने में उपयोगी लसध्द हो सके ऐसी पध्दलर् से बैठकों में अर्वा परस्पर वार्ायिाप में बोिने की आदर् डॉक्टरजी ने स्वयंसेवकों में डािी। प्रत्येक स्वयंसेवक के मन में आस्र्पूवयक अपने राष्ट्र की उन्नलर् के लिए संघ कायय करने की इच्छा होर्ी है। हरेक बोि-चाि की शैिी में लभन्नर्ा स्वाभाववक है- यह जानरे् हुए प्रत्येक स्वयंसेवक के ववचारों को सुनने के आद सम्पूणय समाज और देश के दहर् में वस्र्ुलनष्ठ ववचारों का प्रलर्पादन और अरं् में लनष्किय के रूप में सवायनुमलर् से सबके सामने उलिेि करना और जो दोि ददिाई दें उनका उलिेि सबके सामने न कररे् हुए सम्बखन्धर् व्यवक्त से अकेिे में बार्चीर् कर उस दोि को दरू करने का प्रयास करना- धीरे-धीरे यह आदर् सभी स्वयंसेवकों को हो गई। हरेक स्वयंसेवक का, स्वभाव वैलचत्र्य के कारण अलभव्यवक्त का ढंग भी अिग होर्ा है- यह होरे् हुए भी उन सभी में वैचाररक और व्यावहाररक सामंजस्य प्रस्र्ावपर् करने की पध्दलर् से डॉक्टरजी ने हरेक स्वयंसेवक के जीवन को एक नई ददशा दी। स्वयंसेवकों में भी सामंजस्य की यह आदर् ववकलसर् होर्ी गयी। पररणाम स्परूप नये-नये लमत्रों से पहचान, उनके सार् घलनष्ठर्ा में वखृध्द, उनके सार् सम्पकय से संघ के ववचारों और कायय के प्रलर्

सहानुभूलर् और लनकटर्ा बढ़ाकर उन्हें संघ की शािा में िाने का प्रयास होने िगा। प्रारंभ में, प्रत्येक

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स्वयंसेवक के सार् डॉक्टरजी का सम्पकय बना रहा। दकन्र्ु जैसे-जैसे कायय बढ़र्ा गया वैसे केवि प्रमुि काययकर्ायओं से लनत्य का संबंध और व्यवक्तगर् बार्चीर् में मागयदशयन करना ही डॉक्टरजी के लिए संभव हो पायां संघ कायय प्रारंभ होने पर, हरेक बैठक में डॉक्टरजी स्वयं सभी काययकर्ायओं के सार् लमिकर संघ कायय से सम्बखन्धर् सभी ववियों का लचरं्न और ववचार ववलनमय दकया कररे्। उनके मन में संघ कायय की पूणय रूपरेिा और कायय ववस्र्ार की पूणय संकलपना स्पष्ट रूप में र्ी। दकंर्ु सारे काययकर्ाय स्वयंसेवक र्ो दकशोर युवक रे्। उनकी उम्र भी उस समय 12-14 विय की रही होगी। दफर भी कायय के सम्बन्ध में ववचार-ववलनमय व सामूदहक लचरं्न से सवयसम्मलर् लनणयय िेने की कायय पध्दलर् इन काययकर्ायओं के बैठक में ही ववकलसर् हुई। संबंलधर् सभी काययकर्ायओं के सार् वार्ायिाप होने के बाद ही सवयसम्मर् लनणयय िेना यह संघ की कायय पध्दलर् का अगं बन गया। आदेश देने वािा एक नेर्ा और बाकी सारे

अनुयायी अर्वा ववचार-लचरं्न लनणयय करने वािा केवि एक नेर्ा और बाकी सारे उसकी आञाना का पािन करने वािे- इस प्रकार की कायय पध्दलर् डॉक्टरजी त्याज्य मानरे् रे्। सबके सार् ििेु वार्ावरण में मुक्त ववचार ववमशय कर, सबके ववचारों का यर्ोलचर् आदर कररे् हुए वस्र्ुलनष्ठ और कायय को प्रमुिर्ा देकर 'पंच परमेश्वर' की भावना से बैठक में लिये गये लनणयय को लशरोधायय मानकर सभी ने मन:पूवयक कायय करने की पध्दलर् संघ में ववकलसर् हुई। इसी में से, हरेक की र्ोडी बहुर् वैचाररक मर्-लभन्नर्ा के बावजूद, सबके हृदयों को एक सार् जोडने- एक ददि से कायय करने की र्र्ा राष्ट्रीय की भावना से ओर्-प्रोर् संघ शवक्त लनमायण करने वािा राजमागय प्रशस्र् होर्ा गया।

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9. कागज, पेध्ससल और पसेै के वबना सम्पसन कायाारंभ

संघ कायय का शुभारंभ कैसे हुआ? इसका आज जब हम ववचार कररे् हैं र्ो कुछ अटपटा, आिययजनक और असंभव सा िगर्ा है। सत्तार विों बाद संघ का कायय आज देश-ववदेश में फैिा, ववशाि रूप में देिने को लमि रहा है। समाज जीवन के सभी के्षत्रों में संघ के ववचारों से अनुप्राखणर् अनेक स्वायत्ता स्वर्ंत्र संस्र्ाएं काययरर् हैं। सभी के्षत्रों के काययकर्ायओं में वैचाररक समन्वय प्रस्र्ावपर् करने की योजना भी साकार की गई है। दकंर्ु इस संघ कायय का प्रारंभ बडे वविक्षण झंग से हुआ। पू. डॉक्टरजी के घर की आलर्यक खस्र्लर् बडी दयनीय र्ी। उनके बडे बंध ुसीर्ाराम पंर् पौरोदहत्य का कायय कररे् रे्। उसमें जो कुछ र्ोडी आय होर्ी र्ी, उससे घर-पररवार का िचाय कैसे पूरा होर्ा होगा, आज इसकी कलपना मात्र हमें बैचेन करर्ी है। दकन्र्ु संघ कायय प्रारंभ कररे् समय एक नयी अखिि भारर्ीय भव्य संघटना का ववचार कायायखन्वर् कररे् समय पू. डॉक्टरजी ने कभी रुपये-पैसे की चरं्ा नही की- उसी भांलर् कागज पेखन्सि, फाइिें आदद िेिन सामग्री का उपयोग कर इस संगठन का नाम लििकर कायय का श्री गणेश नहीं दकया। इस संगठन का नाम क्या रहेगा, कौन इसके पदालधकारी होंगे, हरेक को कौनसी खजम्मेदारी सौंपी है, उसका काम क्या रहेगा, उसे कौन से अलधकार प्रात हैं- आदद बार्ें कागज पर लििने का कभी प्रयास नहीं दकया। अपने दकशोर युवा स्वयंसेवकों के सार् र्न्मयर्ा से िाठी-िेि आदद काययक्रम संघ स्र्ान पर करना और घर की बैठकों में र्र्ा शािा छूटने के बाद संघ स्र्ान पर ही सभी स्वयंसेवकों से पूणयर्या समरस होकर अनौपचाररक वार्ायिाप चचाय आदद के सार् ही इस संगठन का कायय प्रारंभ हुआ।

अपने संघ का नाम क्या हो, इस सम्बन्ध में, बैठकों में स्वयंसेवकों के सार् ििेु मन से चचायएं प्रारंभ हुईं। हंसरे् िेिरे् चिनेवािी इन चचायओं में डॉक्टरजी ने दकशोर युवा स्वयंसेवकों को मौलिक ववचारों के लचरं्न हेर्ु प्रवत्ता दकया। वे स्वयं इन अनौपचाररक चचायओं का सूत्र संचािन कररे् और आवश्यकर्ा पडने पर मागयदशयन भी कररे्। बैठक में उपखस्र्र् सभी स्वयंसेवकों को अपने संगठन का नाम सझुाने और वह नाम क्यों उलचर् रहेगा- यह ििेु ददि से बर्ाने की छूट र्ी। एक स्वयंसेवक ने संगठन का नाम 'लशवाजी संघ' सुझाया और इस नाम के समर्यन में उसने कहा दक छत्रपलर् लशवाजी महाराज ने खजस काि में स्वराज्य की स्र्ापना की, उस समय जो पररखस्र्लर् र्ी, वैसी ही पररखस्र्लर् आज भी भारर् में ववद्यमान है। लशवाजी ने खजस प्रकार स्वराज्य स्र्ापना का उपक्रम हार्ों मे लिया, अपने कायय का स्वरूप भी वैसा ही है। भारर् को स्वत्ररं् करने के लिए हमें भी अर्क पररश्रम करने पडेंगे- इस कायय में लशवाजी महाराज हमारे आदशय हैं। इसलिए यही नाम सवायलधक उलचर् रहेगा। एक अन्य स्वयंसेवक ने 'जरीपटका मंडि' नाम सुझाया। इस नाम के समर्यन में उस स्वयंवेक ने कहा दक यह सही है दक समर्य रामदास स्वामी और छत्रपलर् लशवाजी ने जुलम ढहाने वािी बबयर यावनी सत्ता को नष्ट कर स्वराज्य की स्र्ापना की- यही कायय हमें भी करना है। दकंर्ु भारर् के अन्य प्रांर्ों में भी परकीय सत्ता को नष्ट करने के प्रयास हुए। महाराष्ट्र में समर्य रामदास और छत्रपलर् लशवाजी ने

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जो कायय दकया- वही कायय पंजाब में गुरु गोववंदलसंगजी ने दकया। अपना कायय देशव्यापी होने के कारण केवि एक महान नेर्ा का ही उलिेि संघ के नाम में करना उलचर् नहीं होगा। इसकी अपेक्षा उन्हें पे्ररणा देने वािे खजस जरीपटका-ध्वज के प्रभाव से परकीय सत्ता नष्ट हुई- वह नाम उपयुक्त रहेगा- इस दृवष्ट से 'जरीपटका मंडि' अच्छा है।

एक और स्वयंसेवक ने 'दहन्द ूस्वयंसेवक संघ' -इस नाम को सवोत्ताम बर्ारे् हुए कहा दक हमारा यह दहन्दओुं का संगठन है। इसमें अन्य धमीय नहीं आयेंगे। इस कारण 'दहन्द ूस्वंयसेवक संघ' नाम से ही युवक्त संगर् होगा। इसके बाद श्री पा. कृ. सावळापुरकर बोिे, जो उस समय युवा ववद्यार्ी रे्। उन्होंने संगठन का नाम 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' सुझाया और कहा दक हमारा कायय राष्ट्रीय है। इस कायय में, हमारा यह प्रयास है दक स्वयंपे्ररणा से, लनरपेक्ष भावना से देश कायय करने वािे काययकर्ाय र्ैयार दकए जाएं- इस कारण 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' ही सभी दृवष्ट से युवक्त संगर् और उलचर् होगा।

इस बैठक में 26 स्वयंसेवक उपखस्र्र् रे्। अनेक स्वयंसेवकों ने इस वविय में अपने ववचार व्यक्त दकये। उनमें से कुछ प्रमुि नामों का ही ऊपर उलिेि दकया है। चचाय के अरं् में डॉक्टरजी बोिे और उन्होंने कहा दक भारर् में दहंद ूही राष्ट्रीय है। इस कारण दहन्द ूऔर राष्ट्रीय- दोनों शब्दों से एक ही अर्य बोध होर्ा है- दोनों समानार्ी हैं। दकंर् ुआज यह प्रचार हो रहा है दक भारर् में रहने वािे सभी का यह राष्ट्र है।- एक प्रादेलशक राष्ट्रवाद की आत्मघार्ी कलपना उभर रही है। इस प्रचार के कारण भारर् को अपनी पाव मार्भृूलम मानने वािों को और हमने यहां राज दकया है, इसलिए भारर् हमारा है- ऐसा मानने वािे स्वार्ी र्त्वों को समान स्र्र पर मानने की प्रववृत्त उत्पन्न ्होर्ी है। इससे राष्ट्र के लिए पोिक और ववरोधी दोनों को ही राष्ट्रीय मानने की गलिर् होगी। हमारा कायय दहन्द ूसमाज को संगदठर् करने का है- दहन्दतु्व यही राष्ट्रीयत्व है- यह हमारा आधारभूर् ववचार है। इसलिए संघ का नाम 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' रिना सवयर्ा उलचर् होगा और जहां र्क ववचारों के प्रलर्पादन का प्रश्न है, हम यही कहेंगे दक संघ केवि दहन्द ुसमाज को सुसंगदठर् कर इर्ना बिशािी बनाना चाहर्ा है दक भारर् की ओर शत्र ुकी नजर से देिने की इच्छा जगर् में दकसी की न हो सके। भारर् में रहने वािे अन्य धमीय दो-चार पीदढ़यों के पूवय र्ो दहन्द ूही रे्। उनके मन में राष्ट्रीयर्ा की आधारभूलम मार्भृूलम के प्रलर् भवक्त की भावना ववद्यमान है। इस दृवष्टकोण को ववकलसर् दकये जाने की आवश्यकर्ा है। इसके पूवय, दहन्द ूनाम से पदहचाने जाने वािे अपने दहन्द ूसमाज को सुसंगदठर् और बिशािी बनाना हमारी प्रर्म आवश्यकर्ा है। सभी िोगों के हृदय में ववशुध्द राष्ट्र भाव प्रिरर्ा से जागरृ् कररे् समय पहिे यह कायय दहन्द ूसमाज में करना आवश्यक है। अन्य धमायविखम्बयों के हम ववरोधी नहीं है। संघ कायय का यह राष्ट्रीय स्वरूप र्र्ा र्दनुसार काययपध्दलर् 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' इस नाम से ही समाज मेकं सामने रहना सवयर्ा उलचर् रहेगा। डॉक्टरजी ने बैठक केसमापन में उक्त आशय के ववचार व्यक्त दकये।

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इर्नी सीधी सरि और स्पष्ट भािा में संघ कायय की रूपरेिा प्रस्र्ुर् करने वािा डॉक्टरजी का उक्त भािण सुनने के बाद सभी ने एकमर् से संगठन का नाम 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' लनखिर् दकया। नाम लनखिर् कररे् समय हुए ववचार ववलनमय मे मेरा भी सहभाग र्ा इस भावना से स्वयंसेवकों में कायय सम्बन्धी लचन्र्न करने का आत्मववश्वास भी बढ़ा। उन सभी में खजम्मेदारी की भावना भी बढ़ी। वे डॉक्टरजी की ववचार शैिी को धीरे-धीरे आत्मसार् करने िगे।

इस प्रकार 1926 के अप्रैि माह में रामनवमी के पूवय, एक अलभनव पध्दलर् से संघ का नामकरण हुआ और वह भी संघ शािा शुरु होने के छह माह बाद! कायय पहिे शुरु हुआ और नामकरण बाद में हुआ एक र्रह से यह सवृष्ट के लनयमानुसार ही हुआ। जन्म होने के बाद ही लशशु का नामकरण होर्ा है- संघ के बारे में भी यही हुआ।

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10. दवज और प्राथाना मोदहरे् संघ स्र्ान पर शािा के काययक्रम शुरु होने के बाद अपना ध्वज कौन सा रहे और काययक्रम के अरं् में प्रार्यना कौनसी रहे, इस वविय में भी अनौपचाररक बार्चीर् शुरु हुई। इस सम्बन्ध में हरेक स्वयंसेवक से कहा गया दक वे ििु मन से अपने ववचार व्यक्त करें। पहिे ध्वज के सम्बन्ध में अपने ववचार व्यक्त दकए जाएं- ऐसा डॉक्टरजी ने सूलचर् दकया। एक स्वयंसेवक ने अपने ववचार प्रस्र्ुर् कररे् हुए कहा दक हमारे देश के राष्ट्रीय जीवन में दहंद ूधमय व दहन्द ुसंस्कृलर् का आधार ही केन्द्र वबन्द ुके रूप में प्रमुि वविय है। मठ-मंददरों के कारण ही, भारर् पर आज र्क हुए अनेक आक्रमणों- आघार्ों से हम सुरखक्षर् रह सके हैं। उनमें समय-समय पर दकये जाने वािे उद्बोधनों के कारण ही दहन्द ूसमाज की अखस्मर्ा कायम रह सकी है। इसलिए मठ-मंददरों पर फडकने वािा िाि रंग का वत्रकोणी ध्वज हमारे लिए ठीक रहेगा। दसूरे स्वयंसेवक ने कहा- धमय और संस्कृलर् के प्रलर् अलभमान के सार् ही हमने भारर् को ववश्व में अजेय बनने योग्य, बिशािी बनाने का भी बीडा उठाया है- इस कायय में हम ववजयी होंगे, ऐसी हमारी आकांक्षा भी है। ववजय और यशखस्वर्ा का रंग धवि (शुभ्र) होने के कारण क्या शुभ्र-सफेद रंग का ध्वज हमारे लिए उपयुक्त नहीं रहेगा? इस पर र्ीसरे स्वयंसेवक ने कहा दक महाराणा प्रर्ाप को केसररया रंग का ध्वज वप्रय र्ा। साका और आत्मसमपयण की र्ैयारी केसररया वस्त्र धारण कर ही होर्ी र्ी। अपने कायय में देशधमय के लिए सवयस्व अपयण का ववचार प्रमुिर्ा से रि जार्ा है। इस कारण केसरी रंग का ध्वज ही सभी दृवष्ट से उपयोगी रहेगा। एक अन्य स्वयंसेवक ने भी इसी आशय का ववचार व्यक्त कररे् हुए कहा दक दहंदवी स्वराज्य की स्र्ापना के लिए दकए गए प्रदीघय संघिय में सफिर्ा प्रात करने वािे छत्रपलर् लशवाजी महाराज का स्फूलर्यध्वज जरीपटका र्ा। उस समय ऊंचे िकडी के स्र्म्भ पर बंधा हुआ िाि रंग का पटका र्र्ा वैभव की आकांक्षा सूलचर् करने वािा जरीपटका इस प्रकार जरीपटका यह स्वराज्य और समखृध्द का प्रर्ीक माना जार्ा र्ा- वही जरी पटका हमारे लिए भी ठीक रहेगा। उस समय हुई अनौपचाररक चचाय में व्यक्त कुछ प्रमुि ववचारों का ही उलिेि यहां दकया है।

डॉक्टरजी ने सबके ववचार सुनने के बाद, सारे ववचारों का समन्वय कररे् हुए कहा दक भारर् में आज र्क, लनरपेक्ष देशभवक्त, शुध्दशीि चाररत्र्य, त्याग सफिर्ा व समपयण भावना के प्रर्ीक के रूप में भगवा ध्वज ही रहा है। सूयोदय के समय आकाश को दीलतमान करने वािा स्वणय-गैररक रंग का यह भगवा ध्वज ही अपने राष्ट्र का ववजय केर्ु रहा है। महाभारर् के युध्द में अजुयन के सारर्ी बने कृष्ण के रर् पर भी दो लर्कानों वािा ध्वज ही र्ा। हमें भी वही परम्परागर् भगवा ध्वज ही अपनाना चादहए। शुध्द स्नेह का प्रर्ीक िाि रंग, त्याग ववृत्त और शुध्दर्ा का प्रर्ीक पीिा रंग और यश-सफिर्ा का सूचक शुभ्र धवि रंग- इन र्ीनों को एक सार् लमिाकर बना केसररया अर्वा भगवा ध्वज ही संघ कायय के लिए सवयर्ा योग्य रहेगा। वहां उपखस्र्र् सभी स्वयंसेवकों ने डॉक्टरजी के इस

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ववचार से अपनी सहमलर् व्यक्त की और र्ब से भगवा ध्वज िगाकर शािा शुरु करने की पध्दलर् रूढ़ हुईं |

संघ कर प्रार्यना भी इसी र्रह स्वयंसेवकों से अनौपचाररक वार्ायिाप से सुलनखिर् हुई। प्रार्यना ऐसी होना चादहए दक खजसमें अपने कायय का वैचाररक अलधष्ठान, अपना भावना और आकांक्षा संके्षप में दकन्र्ु स्पष्ट शब्दों में प्रकट होनी चादहए। प्रार्यना की भािा सरि और सब िोग आसानी से समझ सकें , ऐसी होनी चादहए। इसी प्रकार सारे स्वयंसेवक उसे सामूदहक रूप से गा सकें , ऐसी उसकी र्जय और स्वर होने चादहए। उन ददनों अनेक व्यायाम शािाओं में र्र्ा सावयजलनक काययक्रमों में मराठी की एक प्रार्यना प्रचलिर् र्ी, खजसे अपनाने का सुझाव एक स्वयंसेवक ने ददया। उस प्रार्यना की प्रारंलभक और अलंर्म पंवक्तयां इस प्रकार की र्ीं-

''रक्ष रक्ष ईश्वरा भारता प्राचीन जन पिा। भोगीयली बहु जये एकिा वैभव सुख संपिा॥''

और अनंतम िो पंवियां इस प्रकार की थीं- ''आयापुत्र जरी अपात्र असले दयासीस या पिा। रक्ष भारता सहाय हीना ईशा सुख संपिा॥''

डॉक्टरजी ने इस प्रार्यना के सम्बन्ध में यह समझाने का प्रयास दकया दक इसमें कहा गया है 'स्वर्ंत्रर्ा प्रालत के लिए हम अपात्र हैं। भारर् असहाय है। अब र्ू ही रक्षा कर।' इस प्रकार इसमें लनराशा के भाव हैं। डॉक्टरजी ने कहा, यदद आज हम भिे ही अपात्र हों दकन्र्ु स्वर्ंत्रर्ा प्रालत के लिए हम योग्य और सत्पात्र हैं, यह ववश्वास हरेक के मन में उत्पन्न करना होगा। यदद हम अयोग्य हैं र्ो दफर भिा ईश्वर भी हमारी सहायर्ा के लिए क्यों आयेगा? हम अगर सत्पात्र नहीं हैं र्ो वह पर कृपा क्यों करेगा? वैसे भी इस प्रार्यना में लनराशा के भाव हैं। लनराशा उत्पन्न करने वािी प्रार्यना से कायय की पे्ररणा नहीं लमिेगी। सभी स्वयंसेवक डॉक्टरजी के मर् से सहमर् हुए। एक अन्य स्वयंसेवक ने कहा, हमारे कायय में मार्भृूलम की ववशुध्द भवक्त अपेखक्षर् है अर्: हमारी प्रार्यना में, भारर् मार्ा सम्बन्धी सारी श्रध्दा व अपनी लनष्ठा हम मार्भृूलम के चरणों में समवपयर् कररे् हैं, ऐसा भाव होना चादहए। इस दृवष्ट से ''जननी जन्मभूलमि स्वगायदवप गरीयसी।'' को प्रार्यना में शालमि दकया जाये। एक अन्य स्वयंसेवक ने कहा, 'भारर् मार्ा की जय' करने से भी यह भाव सरि दकंर्ु प्रभावी ढंग से व्यक्त होर्ा है। मार्भृूलम की वंदना का एक मराठी श्लोक उन ददनों प्रचलिर् र्ा- उसके

भाव अच्छो होने से डॉक्टरजी सदहर् सभी ने उस पर अपनी स्वीकृलर् दशाययी। वह श्लोक र्ा- नमो मातभृूनम ध्जथे जसमलो मी। नमोआया भूनम ध्जथे वाढलो मी॥

नमो िमा भूनम ध्जयेच्यास कामी। पडो िेह माझा सिा ती नमी मी॥

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एक स्वयंसेवक ने यह भी सुझाया दक हम स्वयंसेवकों में खजन गुणों को ववकलसर् करना चाहरे् हैं, उसका भी दशयन प्रार्यना में होना चादहए। अपने दगुुयण नष्ट होने चादहए- यह बार् भी उसमें शालमि हो। इन गुणों की सूची र्ो बडी िंबी हो सकर्ी इसलिए इन समस्र् गुणों से युक्त हनुमानजी जैसे आदशय व्यवक्त की र्रह हमें बनना है- इस आशय का एक श्लोक, जो दहंदी भािा में र्ा, एक स्वयंसेवक ने सुझाया। वह श्लोक इस प्रकार का र्ा-

''हे गुरों श्री रामितूा, शील हमको िीध्जए। शीघा सारे िगुुाणों से मुि हमकों कीध्जए॥

लीध्जए हमको शरण में राम पंथी हम बनें। ब्रह्मचारी िमा रक्षक वीरव्रत िारी बनें॥

इस श्लोक के भाव सभी स्वयंसेवकों को भाये। वैसे भी यह श्लोक सरि दहंदी में होने के कारण मराठी भािी भी इसे आसानी से समझ सकें गे। अपना कायय आज भिे ही मराठी भािी के्षत्र में हो, दहंर्ु आगे चिकर वह सारे भारर् में फैिेगा। इसलिए यह दहंदी भािा श्लोक सभी स्वयंसेवकों को उलचर् प्रर्ीर् हुआ।

पू. डॉक्टरजी ने कहा यह कववर्ा उत्ताम है दकंर्ु इसमें एक दोि है, जो हमारे ध्यान में आना चादहए। इसमें यह जो पंवक्त है 'हमें दगुुयणों से मुक्त कीखजए'- इसमें दगुुयणों से मुवक्त की अभावात्मकर्ा भावना व्यक्त होर्ी है और इसे दहुरारे् समय दगुुयणों संबंधी ववचार ही मन में बना रहर्ा है। यदद हम इस पंवक्त के स्र्ान पर यह कहें- 'सद्गणुों से पूणय दहंद ूकीखजए' र्ो यह शब्द योजना अपने कायय और स्वयंसेवकों के लिए अलधक उपयोगी लसध्द होगी। हनुमानजी आदशय स्वयंसेवक रे् सार् ही दहंद ूजीवन पध्दलर् के भी आदशय होने के नारे् यह आदशय समाज के सामने रहना आश्यक है। इसलिए यह प्रार्यना ठीक रहेगी। डॉक्टरजी की बार् सबको जंच गयी। संघ के कायय का स्वरूप समर्य रामदास स्वामी द्वारा उनके काििडं में दकए गए संगठन कायय की भांलर् होन के कारण उनका नाम भी स्वयंसेवकों के सामने लनत्य रहना चादहए। लनकट भूर्काि के राष्ट्रगुरु के रूप में सवयत्र ववशेिर्या महाराष्ट्र की जनर्ा में उनके आदर भाव हैं। 'दासबोध' में व्यक्त उनके ववचार संघ कायय में स्वयंसेवकों के लिए मागयदशयक हैं। अर्: प्रार्यना के बाद स्वयंसेवक समर्य रामदास स्वामी को अलभवदन करें। एक स्वयंसेवक का यह सुझाव भी सबने स्वीकार दकया। जब र्क संघ का कायय मराठी भािी प्रांर् में है, र्ब र्क समर्य रामदास स्वामी के ववचार सभी के लिए पे्ररक लसध्द होंगे। जब संघ का कायय महाराष्ट्र से बाहर अन्य प्रांर्ों में फैिेगा र्ब राष्ट्र गुरु के नारे् योग्य ऐसे गुरु गोववंद लसंह जैसे नाम भी सामने आयेंगे- उनका ववचार आगे चिकर दकया जायेगा। दफिहाि राष्ट्र गुरु के नारे् समर्य रामदास का उलिेि करने में कोई कदठनाई नहीं होनी चादहए- यह सोचकर उक्त सुझाव स्वीकार कर लिया गया। इस कारण संघ के प्रारंलभक काि में भारर् मार्ा व समर्य रामदास स्वामी की जय-जयकार के सार् प्रार्यना के श्लोकों का लनम्नलिखिर् क्रम लनखिर् हुआ-

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नमो मातभृूनम ध्जथे जसमलो मी। नमोआया भूनम ध्जथे वाढलो मी॥

नमो िमा भूनम ध्जयेच्यास कामी। पडो िेह माझा सिा ती नमी मी॥1॥

''हे गुरों श्री रामितूा, शील हमको िीध्जए। शीघा सारे सद्गणुों से पूणा क्रहंि ूकीध्जए॥

लीध्जए हमको शरण में रामपंथी हम बनें। ब्रह्मचारी िमा रक्षक वीरव्रत िारी बनें॥2॥

।भारत माता की जय। ॥'राष्ट्रगुरु' श्री समथा रामिास स्वामी महाराज की जय'॥

ध्वज र्र्ा प्रार्यना संबंधी ववचार कररे् समय आज मन में यह प्रश्न उठ सकर्ा है दक इन मूिभूर् ववियों के संबंध में इस प्रकार स्वयंसेवकों के सार् अनौपचाररक वार्ायिाप द्वारा लनणयय लिया जाना क्या आवश्यक र्ा? संघ कायय की मूि धारणा, बुलनयादी ववचार, आकांक्षा व घोिणा की पूणय कलपना डॉक्टरजी को र्ी। इस संकलपना को शालमि कर संस्कृर् के दकसी जानकार व्यवक्त के द्वारा संस्कृर् में प्रार्यना र्ैयार करवाना सहज संभव र्ा। वे यह भी जानरे् रे् आगे चिकर जब संघ कायय देशव्यापी होगा जब संस्कृर् भािा में प्रार्यना आवश्यक हो जायेगी। दकंर्ु सारे स्वयंसेवकों के सार् ववचार ववमशय कर, उनकी सहमलर् से लनणयय िेने की काययशैिी संघ में ववकलसर् करने की डॉक्टरजी की योजना र्ी। सामूदहक लचरं्न से यर्ा संभव हरेक लनणयय िेने से, उस लनणयय में अपनी सहभालगर्ा के कारण उसे दक्रयाखन्वर् करने की खजम्मेदारी भावना भी ववकलसर् होर्ी है- यह भावना स्वयंसेवकों में उत्पन्न हो सके, ऐसी काययशैिी डॉक्टरजी ने प्रारंभ से ही अपनायी और स्वयंसेवकों में भी उसकी आदर् डािी।

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11. श्री गुरुदखक्षणा संघशािा प्रारम्भ होने के बाद प्रारंलभक दो विों र्क र्ो धन की कोई आवश्यकर्ा महसूस नहीं हुई। काययक्रम भी सामान्य और छोटे स्वरूप के होरे् रे्, इसलिए िचाय भी ववशेि नहीं होर्ा र्ा। जो कुछ र्ोडा बहुर् िचय होर्ा उसकी पूलर्य डॉक्टरजी का लमत्र-पररवार करर्ा। उनके लमत्रों को यह पूरा ववश्वास र्ा दक डॉक्टरजी लनरपेक्ष देश सेवा का कायय कर रहे हैं। इसलिए विय भर में एक या दो बार वे बडी िशुी से संघ कायय के लिए आलर्यक मदद देरे् रे्। 1927 र्क संघ के खजम्मेदार स्वयंसेवक डॉक्टरजी के इन ववश्वासपात्र लमत्रों के यहां जाकर धन िे आरे् रे्। द्ररु् गलर् से बढ़ने वािे संघ कायय के लिए,

काययक्रमों र्र्ा प्रवास हेर्ु जब अलधक िचय करना अपररहायय हो गया र्ब डॉक्टरजी ने इस संबंध में स्वयंसेवकों के सार् ववचार-ववमशय प्रारंभ दकया। आज र्क र्ो धनरालश एकवत्रर् होर्ी उसका पाई-पाई का दहसाब डॉक्टरजी स्वयं रिरे् रे् और यही आदर् उन्होंने स्वयंसेवकों में भी डािी। पररणम स्वरूप स्वयंसेवकों को अपने सारे काययक्रम सादगीपूणय ढंग से, कम िचय में करने की आदर् हो गई। शािाएं रे्जी से ििुने िगीं र्ी। नागपुर के पडोसी वधाय और भंडारा खजिों में नयी शािाएं ििुीं। इस कारण आवश्यक िचय भी बढ़ने िगा। कुछ ददनों र्क लमत्रों से उधार िेने का क्रम चिा। लमत्र भी बडी आस्र्ा से रकम उधार देरे् और वापसी की कोई जलदबाजी नहीं की जार्ी, दफर भी उधार िी गई रकम आखिर कभी न कभी वापस करनी है- यह लचरं्ा उन्हें अवश्य होर्ी। दफर इस र्रह उधार िेकर काम करने का क्रम आखिर कब र्क चिेगा, यह लचरं्ा स्वयंसेवकों के मन में भी उत्पन्न होने िगी और इसका कोई लनदान ढंूढा जाने िगा। एक स्वयंसेवक ने कहा, संघ कायय दहन्दसूमाज का कायय है। इसलिए जो आलर्यक मदद दे सकरे् हैं, ऐसे संघ से सहानुभूलर् रिने वािे िोगों से धन एकवत्रर् दकया जाए। अन्य स्वयंसेवक ने भी इस सुझाव का समर्यन कररे् हुए कहा दक समाज जीवन की उन्नलर् हेर् ुचिने वािे सभी प्रकार के कायय आखिर िोगों द्वारा ददए गए दान, अनुदान और चदें की रकम से ही चिरे् हैं- अर्: हमें भी इसी र्रीके से धन जुटाना चादहए। एक और स्वयंसेवक ने इस पर आपवत्त उठारे् हुए कहा दक हमारा कायय सवयश्रषे्ठ राष्ट्रीय कायय है इसका िोगों का बोध कराना होगा दकंर्ु इसके लिए उनसे आलर्यक मदद मांगना उलचर् नहीं होगा। इसी बार् को आगग बढ़ारे् हुए अन्य स्वयंसेवक ने कहा दक यदद हम इसे अपना ही कायय कहरे् हैं र्ो संघ जैसे उदात्ता कायय हेर्ु हम स्वयं ही अपना धन िगाकर िचय की व्यवस्र्ा क्यों न करें? डॉक्टरजी ने उसे अपना ववचार अलधक स्पष्ट रूप से कहने का आग्रह दकया। र्ब उस स्वयंसेवक ने कहा, अपने घर में कोई धालमयक कायय अर्व वववाह आदद कायय होरे् हैं। कोई अपनी िडकी के वववाह के लिए चदंा एकवत्रर् कर धन नहीं जुटार्ा। इसी प्रकार संघ कायय पर होने वािा िचय भी, जैसे भी संभव हो, हम सभी लमिकर वहन करें। स्वयंसेवक ििेु मन से अपने ववचार व्यक्त करने िगे। एक ने शंका आशंका उपखस्र्र् कारे् हुए कहा, यह धन रालश संघ के कायय हेर्ु एकत्र होगी- क्या इसे हम कायय हेर्ु अपना आलर्यक सहयोग माने?

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दान, अनुदान, चदंा आलर्यक सहयोग आदद में पूणयर्या लनरपेक्ष भाव से देने का भाव प्रकट नहीं होर्ा। अपनी घर-गहृस्र्ी ठीक र्रह स चिारे् हुए, हमें जो संभव होर्ा है, वही हम दान, अनुदान चदंा आदद के रूप में देरे् हैं। कंर्ु हमारा संघ कायय र्ो जीवन में सवयश्रषे्ठ वरण करने योग्य कायय है। वह अपना ही कायय है, इसलिए हमें अपने व्यवक्तगर् िचों में कटौर्ी कर संघ कायय हेर्ु खजर्ना अलधक दे सकें , उर्ना हमें देना चादहए- यह भावना स्वयंसेवकों में लनमायण होनी चादहए। अपने व्यवक्तगर् जीवन में भी धन-सम्पवत्त की ओर देिने का योग्य दृवष्टकोण हमें स्वीकार करना चादहए। मुक्त लचरं्न के चिरे् स्वयंसेवक अपने अपने ववचार व्यक्त कर रहे रे्। डॉक्टरजी ने सबके ववचारों को सुनने के बाद कहा, कृर्ञानर्ा और लनरपेक्षर्ा की भावना से गुरुदखक्षणा समपयण की पध्दलर् भारर् में प्राचीनकाि में प्रचलिर् र्ी। संघ कायय कररे् समय धन संबंधी हमें अपेखक्षर् भावना गुरुदखक्षणा की इस संकलपना में प्रकट होर्ी है- हमें भी वही पध्दलर् स्वीकार करनी चादहए। डॉक्टरजी के इस कर्न से सभी स्वयंसेवकों के ववचार को एक नयी ददशा लमिी और ववशुध्द भावना से 'गुरुदखक्षणा' समपयण का ववचार सभी स्वयंसेवकों के हृदय में बस गया। दो ददन बाद ही व्यास पूखणयमा र्ी। गुरुपूजन और गुरुदखक्षणा समपयण हेर्ु परम्परा से चिा आ रहा, यह पावन ददवस सवय दृवष्ट से उलचर् र्ा। इसलिए डॉक्टरजी ने कहा दक इस ददन सुबह ही स्नान आदद ववलध पूणयकर हम सारे स्वयंसेवक एकवत्रर् आयेंगे और श्री गुरुपूखणयमा व श्री गुरुदखक्षणा का उत्सव मनायेंगे। डॉक्टरजी की यह सूचना सुनरे् ही घर िौटरे् समय स्वयंसेवकों के मन में ववचार-चक्र घूमने िगा। परसों हम गुरु के नारे् दकसकी पूजा करेंगे? स्वयंसेवकों का गुरु कौन होगा?

स्वाभाववकर्या सबके मन में यह ववचार आया दक डॉक्टरजी के लसवा हमारा गुरु कौन हो सकर्ा है?

हम परसों मनाये जाने वािे गुरुपूजन उत्सव में उन्हीं का पूजन करेंगे। कुछ स्वयंसेवकों के ववचार में, राष्ट्रगुरु र्ो समर्य रामदास स्वामी हैं। प्रार्यना के बाद लनत्य हम उनकी जय जयकार कररे् हैं। अर्: समर्य रामदासजी के छायालचत्र की पूजा करना उलचर् रहेगा। उन्हीं ददनों अण्णा सोहनी नामक एक काययकर्ाय शािा में उत्ताम शारीररक लशक्षके रूप में प्रलसध्द रे्- उनकी लशक्षा से हमारी शारीररक क्षमर्ा और ववश्वास से वखृध्द होर्ी है, अर्: क्यों न उन्हें ही गुरु के रूप में पूजा जाए? अनेक प्रकार की ववचार र्रंगे स्वयंसेवकों के मन में उटने िगीं। व्याप पूखणयमा के ददन प्रार्:काि सभी स्वयंसेवक लनधायररर् समय पर डॉक्टरजी के घर एकवत्रर् हुए। ध्वजारोहण, ध्वजप्रणाम के बाद स्वयंसेवक अपने अपने स्र्ान पर बैठ गए। व्यवक्तगर् गीर् हुआ और उसके बाद डॉक्टरजी भािण देने के लिए उठ िडे हुए। अपने भािण में उन्होंने कहा दक संघ दकसी भी जीववर् व्यवक्त को गुरु न मानरे् हुए अपने परम पववत्र भगवा ध्वज को ही अपना गुरु मानर्ा है। व्यवक्त चाहे लर्ना ही श्रषे्ठ क्यो न हो, वह सदा अववचि-अदडग उसी खस्र्लर् में रहेगा- इसकी कोई गारंटी नहीं। श्रषे्ठ व्यवक्त में भी कोई न कोई अपूणयर्ा या कमी रह सकर्ी है। लसध्दांर् ही लनत्य अदडग बना रह सकर्ा है। भगवा ध्वज ही संघ के सैध्दाखन्र्क ववचारों का प्रर्ीक है- इस ध्वज की ओर

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देिरे् ही अपने राष्ट्र का उज्जवि इलर्हास, अपनी श्रषे्ठ संस्कृलर् और ददव्य दशयन हमारी आंिों के सामने िड हो जार्ा है। खजस ध्वज की ओर देिरे् ही अरं्:करण में स्फूलर्य का संचार होने िगर्ा है वही भगवा ध्वज अपने संघ कायय के लसध्दांर्ों का प्रर्ीक है- इसलिए वह हमारा गुरु है। आज हम उसी का पूजन करें और उसे ही अपनी गुरुदखक्षणा समवपयर् करें। काययक्रम बडे उत्साह से सम्पन्न हुआ और इसके सार् ही भगवा ध्वज को अपना गुरु और आदशय मानने की पध्दलर् शुरु हुई। इस प्रर्म गुरुपेजा उत्सव में कुि 84 रु. श्रीगुरुदखक्षणा के रूप में एकवत्रर् हुए। उसका र्र्ा आगे संघ कायय पर होने वािे िच ेका पूरा दहसाब रिने की व्यवस्र्ा की गई। श्रीगुरुदखक्षणा का उपयोग केवि संघ कायय हेर्ु ही हो, अपने व्यवक्तगर् कायय के लिए उसमें से एक भी पैसा उपयोग में नहीं िाया जाए- इसकी लचरं्ा स्वयं डॉक्टरजी दकया कररे्। वही आदर् स्वयंसेवकों में भी लनमायण हुई इस प्रकार आत्मलनभयर होकर संघ कायय करने की पध्दलर् संघ में प्रचलिर् हुई।

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12. हमारा आिशा भगवा ध्वज ही हमारा गरुु है और वही संघ के ववचारों का प्रर्ीक होने से हमारा आदशय भी है। यह ववचार बुखध्द और भावना से ग्रहण के बाद भी स्वयंसेवकों को अपने व्यावहाररक जीवन में एक कदठनाई बची रहर्ी। खजनकी ओर देिकर उनके जैसा अपना भी जीवन बने, ऐसे दकसी महान पुरुि केजीवन का अध्ययन कर, अपने जीवन में मागयदशयन प्रात करना आसान होर्ा है। ऐसे दकसी आदशय महान व्यवक्त के जीवन का अनुसरण करना उसके लिए आसान होर्ा है। केवि लसध्दांर्ों का लचरं्न कर अर्वा उसके प्रकट स्वरूप भगवा ध्वज के बारे में ववचार कर अपने जीवन का व्यवहार सुलनखिर् करना र्ो बडा कदठन कायय है। अनेक स्वयंसेवकों के मन में उठरे् इस प्रश्न की जानकारी डॉक्टरजी को लमिी। शािा में लभन्न-लभन्न प्रकार के- दंड, िड्ग, शूि, िेि, योग जैसे साहस और आत्मववश्वास बढ़ाने वािे काययक्रम हुआ कररे्। अनशुासन का संस्कार दृढ़ करने के लिए गणवेश पदहनकर समर्ा, संचिन आदद काययक्रम करने की पध्दलर् र्ी। जैसे-जैसे कायय बढ़ने िगा- संघ शािाओं की संख्या भी बढ़ने िगी। अनेक उपशािाएं भी प्रारंभ हुई। व्यवस्र्ा की दृवष्ट से प्रत्येक उपशािा में काययवाह व मुख्यलशक्षक की योजना की जार्ी। ऐसे कुछ काययकर्ाय कर्ृयत्ववान और अच्छे स्वयंसेवक ऐसे सद्गणुी काययकर्ाय की ओर आसानी से आकवियर् होरे् रे्। यही काययकर्ाय अलधकारी हमारे लिए आदशय हैं, ऐसी सुत भावना उनके मन में भी उत्पन्न होना अस्वाभाववक नहीं र्ा, दकंर्ु क्या यह उलचर् है? यह प्रश्न कुछ स्वयंसेवकों के मन में उठा। स्वयंसेवकों से लनत्य लनकट सम्पकय होने के कारण डॉक्टरजी को भी इसकी भनक लमिी। अनौपचाररक वार्ायिाप में यह ववचार प्रकट होने िगा। यह बार् स्वीकार कररे् हुए भी दक अपना यह स्वणयगैररक भगवा ध्वज ही हमारा गुरु और आदशय है,

यदद कोई जीववर् गुणसम्पन्न, कर्ृयत्ववान व्यवक्त आदशय के रूप में सामने होर्ो क्या दकशोर व छात्र स्वयंसेवकों को उसके अनुसार अपना जीवन बनाना आसान नहीं होग दफर यह भी मान लिया र्ो ऐसा आदशय काययकर्ाय कैसे िोजा जाए? यह प्रश्न बाकी रह जार्ा है। पूणयर्या लनदोि र्ो संभवर्या कोई नहीं होगा। दकसी उत्ताम स्वयंसेवक के केवि सद्गणुों के आधार पर ही उसे आदशय मानना क्या ठीक रहेगा?

यदद इस ढंग से सोचा गया र्ो शायद प्रत्येक स्वयंसेवक को अपना अिग आदशय स्वीकार करना होगा। दकसी स्वयंसेवक द्वारा स्वीकृर् आदशय दसूरे स्वयंसेवक द्वारा नकारे जाने की संभावना से इंकार नहीं दकया जा सकर्ा। बजरंि बिी हनुमान आदशय स्वयंसेवक हैं। शािा में प्रार्यना कररे् समय अपने जीवन में शीि आदद गुणों का ववकास हो, इस हेर् ुहम हनुमानजी से ही ववनर्ी कररे्हैं। इस प्रकार डॉक्टरजी के सार् अनौपचाररक वार्ायिापों में स्वयंसेवक अपने मन में उठने वािे प्रश्न और ववचार प्रकट कररे् रे्। सभी स्वंयसेवकों के लिए एक ही व्यवक्त आदशय रहे, यह मानरे् हुए भी ऐसा व्यवक्त कौन हो सकर्ा है, इसका लनणयय नहीं हो पा रहा र्ा। एक स्वयंसेवक ने कहा पू. डॉक्टर हेडगेवार ही हमारे आदशय हैं। स्वयं के नाम का इस प्रकार भाव पूणय शब्दों में उलिेि होरे् ही डॉक्टरजी ने कहा,

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बस, बहुर् चचाय हो चकुी- हमें इस सम्बन्ध में आगे और भी लचरं्न करना होगा- उसे हम आराम से करेंगे- जलदी दकस बार् ही है?

दसूरे ददन पुन: इस ववचार को गलर् देने के लिए डॉक्टरजी ने कहा कोई भी जीववर् व्यवक्त आज दकर्ना ही सद्गणु सम्पन्न और कर्ृयत्ववान क्यों न हो, उसका जीवन अभी पूणय नहीं हुआ है। मानिो, यदद ऐसे व्यवक्त के जीवन में आगे चिकर कोई ववकृलर् उत्पन्न हो जाए, उस व्यवक्त के बारे में आज र्क अञानार् दकसी अवगुण या दोि का पर्ा चिे र्ो उसक काययकर्ाय को आदशय मानने वािे स्वयंसेवक की भावनाओं को दकर्ना आघार् पहंुचेगा और र्ब संघ पर से भी उसका ववश्वास ढहने िगेगा। व्यवक्त को स्ििनशीि माना गया है। इसलिए दकसी भी व्यवक्त को अपना आदशय मानना उलचर् नहीं होगा। हनुमानजी, श्रीरामचदं्र, श्रीकृष्ण र्ो सदैव हमारे आदशय हैं- वे भी इसलिए दक उन्होंने अपने जीवन में अद्भरु् काय दकये- वे र्ो साक्षार् ्ईश्वर के अवर्ार हैं- उनके लिए कोई भी कायय असंभव नहीं र्ा। मनुष्य के रूप में 'मानव-िीिा' करने के लिए ही परमेश्वर ने उनके रूप में जन्म लिया र्ा। वैसा जीवन बनाने की कलपना भी नहीं की सकर्ी, क्योंदक हम उन्हें परमेश्वर-स्वरूप ही मानरे् हैं। अपने जीवन में उनका आदशय कैसे स्वीकार दकया जाए यह ववचार अपने मन में उठर्ा है। इसलिए अपने लनकट भूर्काि में हुए दकसी श्रषे्ठ व्यवक्त का अदाशय के रूप में हमें ववचार करना चादहए। ऐसे महान व्यवक्त का पूणय ववकलसर् जीवन-पुष्य अपने पररचय का होने के कारण वह जीवन हमारे सामने आदशय के रूप में रह सकर्ा है। ऐसे ऐलर्हालसक श्रषे्ठ पुरुि का ववचार कररे् समय हमें सहज ही छत्रपलर् लशवाजी महाराज का स्मरण हो आर्ा है। उनके जीवन का प्रत्येक व्यवहार हमारे लिए आदशय है। इस कारण हरेक स्वयंसेवक को छत्रपलर् लशवाजी महाराज का आदशय ही अपने सामने रिना चादहए। समर्य रामदास स्वामी ने संभाजी के नाम पे्रविर् पत्र में उन्हें अपने वपर्ा स्वरूप जीवन जीने का परामशय ददया खजन शब्दों में समर्य रामदास स्वामी ने छत्रपलर् लशवाजी के प्रलर् अपनी भावनाएं प्रकट कीं, उनसे हम सभी पररलचर् हैं। वे शब्द इस प्रकार के रे्-

''नशवरायाचे कैसे बोलणे। नशवरायाचे कैसे चालणे।

नशवरायाची सलगी िेणे। कैसे असे॥

नशवरायाचा कैसा प्रताप। नशवरायाचा कैसा साके्षप। ....नशवरायास आठवावे। जीववत तणृवत मानावे॥

डॉक्टरजी के उक्त कर्न से स्वयंसेवकों का पूणय समाधान हुआ। इस सामूदहक लचरं्न से हमारे मन में एक ववचार उठर्ा है। पू. डॉक्टरजी ने अपने जीवन का प्रत्येक क्षण संघ कायय में िगाया। अन्य दकसी बार् का, अपने व्यवक्तगर् जीवन के बारे में कभी कोई ववचार नहीं दकया। 1925 के पूवय केवि समाज

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कायय की ही ववचार दकया और 1925 के बाद केवि संघ कायय की लचरं्ा में ही वे मग्न रहे। स्वयंसेवकों की दृवष्ट में र्ो प्रारंभ से ही मयायदा पुरुिोत्ताम स्वयंसेवक र्र्ा अपने आदशय रहे हैं। दकन्र्ु इसके बावजूद, ऐसा ददिाई देर्ा है दक अपने जीरे्जी इस बारे में लनरंर्र सर्कय रहरे् दक कोई स्वयंसेवक उन्हें आदशय मानने का ववचार कभी भी न करे। आज अनेक सावयजलनक कायय दकसी व्यवक्त के नाम पर चिरे् हुए हम देिरे् हैं। ऐसे कायय कुछ काि

र्क चिरे् हैं। ऐसे व्यवक्त- केखन्द्रर् कायय, उस व्यवक्त के लनधन होरे् ही बंदा हो जारे् हैं, या प्रभावहीन हो जारे् हैं। इसलिए प्रारंभ से ही डॉक्टरजी ने इस बार् की लचरं्ा की दक कोई भी जीववर् व्यवक्त संघ कायय का केन्द्र वबन्द ुन बनने पाये, खजनका जीवन पूणयर्या ववकलसर् हो चकुा है, ऐसा ही व्यवक्त खजसके जीवन के सभी पहिुओं से हम पररलचर् हैं, ऐसा महान व्यवक्त ही हमारा सच्चा आदशय है। जीवन की यह व्यवहायय-दृवष्ट स्वयंसेवकों के हृदय में खस्र्र हो सके, इसका उन्होंने दकर्नी दरूदृवष्ट से ववचार दकया र्ा, यह जानकर आज भी हम सभी आियय चदकर् रह जारे् हैं।

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13. संघ काया का आिार

जब सघं का कायय बढ़ने िगा र्ब एक ददन स्वयसंेवकों को ववचार-प्रवण करने के लिए डाफक्टरजी ने उनके सामने अपने मन के भाव प्रकट कररे् हुए कहा, अपनी शािा-उपशािाओ ंकी सखं्या बढ़ रही है। अपने काययकर्ायओ ंके प्रयत्न से यर्ा सयू सारे भारर् में अपनी शािां हो जायेंगी। ऐसे भारर्व्यापी सघं कायय का मिू आधार भी काफी मजबरू् होना चादहए। यह आधार केन्द्रीभरू् और अदडग होना चादहए। अपने इस संघ कायय का ऐसा केन्द्रीभरू् आधार स्र्म्भ क्या होगा? स्वयसंेवकों के लिए यह प्रश्न कुछ अनपेखक्षर् सा र्ा। दफर भी डॉक्टरजी का आग्रह र्ा दक इस सम्बन्ध में हर स्वयसंेवक अपने अपने ववचार प्रकट करे। इस खस्र्लर् में, हरेक स्वयसंेवक अपने र्यी ंववचार कर योग्य शब्दों में अपना मर् प्रकट करने िगे। इस प्रकार डॉक्टरजी ने स्वयसंेवकों को अपने कायय के सम्बन्ध में स्वय ंववचार हेर् ुप्रेररर् दकया। एक स्वयसंेवक ने कहा, भारर्मार्ा की श्रध्दा ही अपने कायय का आधार है। इसलिए अपन लनत्य की प्रार्यना हम मार्भृलूम की वदंाना कर उसके चरणों में अपना सवयस्व समवपयर् करने का लनिय प्रकट करर्े हैं। स्वयसंेवकों के हृदय में अपनी जन्मभलूम के प्रलर् भवक्त को जागरृ् और प्रिर बनाना ही हमारा कायय है। एक अन्य स्वयसंेवक ने कहा, अपनी उदात्ता दहंद ूससं्कृलर् की रक्षा के लिए कदटबध्द रहना हमारा राष्ट्रीय कायय है और इस कायय के प्रर्ीक के रूप में, खजसे हमने अपने गरुुस्र्ान पर माना है, यह भगवा ध्वज ही हमारे कायय का अदडग-अचि आधार है। र्ीसरे स्वयसंेवक ने कहा, भारर्मार्ा की भवक्त के अिावा अन्य कोई मिूभरू् शाश्वर् ववचार प्रकट करना वािा आधार होना चादहए। भारर् की सांस्कृलर्क राष्ट्रीयर्ा पर आक्रमण करने वािे हमारे शत्रु अन्य धमीय है- उस आक्रमण से भारर् को मकु्त कर सच्चे अर्ों में स्वर्तं्र बनाना ही हमारा वास्र्ववक कायय है। इसलिए स्वर्तं्रर्ा-प्रालत ही हमारे कायय का मिूभरू् ववचार है। भगवा ध्वज र्ो अनेक मठों-मदंदरों पर भी फडकर्ा है। रामकृष्ण मठ और लमशन के कायय में भी सनं्यास ववृत्त को प्रमिुर्ा होने के कारण उनके अरं्: करणों में भी भगवे रंग के प्रलर् श्रध्दा हैं इसलिए अपने सघं कायय की ववशेिर्ा के रूप में हमें अपने सगंठन का कोई अन्य केन्द्रीभरू् आधार ढंूढना होगा। सघं कायय का मिूभरू् ववचार और अपनी आकाकं्षा को प्रकट करना वािी हमारी प्रार्यना है, अर्: सघं की प्रार्यना ही कायय का प्रमिु आधार केन्द्र होना चादहए। दहन्द ुराष्ट्र को परम ्वभैव के लशिर पर िे जाने का हमारा दृढ़ लनिय है- वही हमारा वचैाररक अलधष्ठान है। दकसी ने अपना मर् प्रकट कररे् हुए कहा, ये सारे आधार र्ो प्रर्ीकात्मक हैं अर्वा वचैाररक स्वरूप के हैं। प्रत्येक स्वयसंेवक खजस ेआसानी से और अच्छे ढंग स ेअनभुव कर सके, ऐसा हमारा मिू आधार होना चादहए। इससे स्वयसंेवकों के ववचारों को एक नयी ददशा लमिी। उस समय बठैक में उपखस्र्र् एक ज्येष्ठ अलधकारी ने कहा दक डॉक्टर हेडगेवार ही हमारे अखिि भारर्ीय कायय के केन्द्रीय व अचि आधार स्र्म्भ हैं। जब इस प्रकार डॉक्टरजी का नाम का उलिेि हुआ र्ो डॉक्टरजी ने वहीं बठैक को समात करने के इरादे से शािा सबंधंी अन्य मामिूी मदु्दों के बारे में पछूर्ाछ कर बठैक समालत की घोिणा की। दसूरे ददन, डॉक्टरजी ने अपने ववचार व्यक्त कररे् हुए कहा दक अपना यह कायय श्रषे्ठ ईश्वरीय है। कोई भी व्यवक्त कायय का आधार नहीं हो सकर्ा। व्यवक्त दकर्ना ही गणुी क्यों न हो, अपने दहंद ूसमाज का अदडग-अचि आधार नहीं हो सकर्ा। प्रत्येक स्वयसंेवक को लनत्य अनभुव में आने वािी हमारी शािा है। दैदंददन

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चिने वािी उत्ताम, कायय प्रवण सघं शािा ही हमारे कायय का आधार है। पहि ेसघं की शािा नागपरु में शरुु हुई इसलिए नागपरु की शािा ही व्यापक सघं कायय का आधार है। नागपरु की शािा खजर्नी सदुृढ़, खजर्नी अलधक ससं्कारक्षम व मजबरू् रहेगी। उर्ना ही हमार अखिि भारर्ीय कायय का आधार भी मजबरू् रहेगा। हमें नागपरु की केन्द्रशािा को उत्कृष्ठ बनाने के लिए अपनी सारी शवक्त िगाकर प्रयत्न करना चादहए। समाज को लनत्य ददिाई देने वािा सघं कायय का यह प्रकट स्वरूप है। सघं शािा को देिकर ही समाज सघं कायय का मलूयांकन करेगा। अर्: शािा के रूप में अपने दैनदंदन सघं स्र्ान पर होने वािे काययक्रम और कायय ही अपने सघं का आधार हैं। अच्छे ढंग से चिने वािी शािा कैसी हो, इस बारे में भी स्वयसंेवकों के सार् अनौपचाररक वार्ायिापों में वविय स्पष्ट होर्ा गया। लनत्य समय पर िगने वािी, खजसमें स्वयसंेवकों के बीच परस्पर आत्मीयर्ा के सबंधं हों, एक दसूरे के सिु-द:ुिों में समरस होने की भावना हो, दहन्द ुसमाज के सभी स्र्र के िोगों से लनकट सम्पकय बनाकर उन्हें शािा में िाने का उपक्रम हो, शािा के काययक्रमों में, स्वयसंेवकों के जीवन में अनशुासन पररिखक्षर् हो- इत्यादद ववशिेर्ाएं उत्ताम शािा के सन्दभय में प्रकट की गई। ऐसी उत्ताम शािा िडी करने के ददशा में प्रयास भी आरंभ हुए।

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14. िैनंक्रिन काया सघं कायय का प्रारंभ र्ो वसै े1925 के ववजयादशमी के महूुर्य पर हुआ, दकन्र् ुहम सब की पररलचर् सघं की शािा उसके कुछ माह बाद ही प्रारंभ हुई। दैनदंदन शािा शरुु होने के पवूय स्वयसंवेक सांयकाि व्यायाम शािा में जाया कररे् रे्। इस व्यायाम शािा के सचंािक श्री अण्ण िेर्, श्री दत्तोपरं् मारुळकर, श्री अण्णा सोहनी भी होर्े। सायकंाि प.ू डॉक्टरजी भी व्यायाम शािा में जार्े और स्वयसंेवकों से सम्पकय रिर्े। रावत्र में भोजन के बाद ये स्वयसंेवक डॉक्टरजी के घर एकत्र होर्े और देर रावत्र र्क अनौपचाररक वार्ायिाप, ववनोद, उद्बोधन आदद होर्ा रहर्ा। स्वयसंेवकों की सखं्या बढ़ने िगी। इस कारण श्री दत्तोपरं् मारुळकर व श्री अण्णा िोर् को उन सभी के शारीररक लशक्षण की वयवस्र्ा करना कदठन होने िगा। इन दो लशक्षकों के बीच स्पधाय और बेबनाव बढ़ने िगा। इसका स्वयसंेवकों पर होने वािा ववपरीर् पररणाम डॉक्टरजी की दृवष्ट से छूटना असभंव ही र्ा। इसलिए मोदहर्े के जजयर बाडे की जगह साफ कर वहां स्वयसंेवकों के लिए अिग से शारीररक काययक्रम शरुु करने का ववचार डॉक्टरजी ने दकया और वहा ंलशक्षक के रूप में श्री अण्णा सोहनी के खजम्म ेकाम सौंपा। इसी समय सघं के कायय सबंधंी लचंर्न का एक और पहि ूडॉक्टरजी और स्वयसंेवकों के बीच अनौपचाररक वार्ायिाप स ेववकलसर् हुआ। सायकंाि व्यायाम शािा में शारीररक काययक्रम और रावत्र में डॉक्टरजी के घर एकवत्रर् होकर परस्पर वार्ायिाप, हास्य-ववनोद र्र्ा छुटटी के ददन दोपहर में भी ववचार-ववलनमय के काययक्रम चिर्े रे्। उत्सव प्रसगं पर भािण भी होर्े रे्। दकन्र् ुसघं स्वयसंेवकों का प्रमि काययक्रम याने प.ू डॉक्टरजी के सार् ववचार ववलनमय ही होर्ा। चचायओ ंमें यह बार् उठी दक खजसमें स्वयसंेवक सहभागी हो सकें , ऐसे सघं के और कौन स ेकाययक्रम होने चादहए। यह सभी महससू कररे् रे् दक केवि बौखध्दक काययक्रम और बठैकों में होने वािी चचाय मात्र ही हमारा कायय नहीं। सत्ताधारी अगं्रेज बडे चर्रु हैं। स्वयसंेवकों की इन बठैकों को 'गतु कायय' घोविर् कर वे उन पर रोक िगा सकर्े हैं। अर्: अपने कायय का स्वरूप ििुी जगह में सबके सामने चिने वािा होना चादहए। उन ददनों सावयजलनक िुि ेकाययक्रम के रूप में सबके पररलचर् वावियक सम्मेिन आदद ही हुआ कररे्। ऐसे सम्मेिन दो-चार ददन र्क चिरे्। इनमें भािण आदद हुआ कररे्। इसी प्रकार का कोई काययक्रम सघं को भी हार्ों में िेना चादहए। यह ववचार व्यक्त दकया गया। दकंर् ुऐसे सम्मेिन र्ो अलधक स ेअलधक 3-4 ददनों र्क चिेंगे। दफर आगे विय भर क्या करना? इस पर एक स्वयसंेवक ने सझुाया दक विय में एक बार सभा-सम्मेिन का आयोजन करने की बजाय हर रवववार को िुिे मदैान में स्वयसंेवकों का एकत्रीकरण आयोखजर् दकया जाए। यह कलपना कुछ सवुवधा की प्रर्ीर् हुई। दकंर् ुअपने सघं के कायय के केवि शारीररक-बौखध्दक काययक्रम ही पयायत होंगे। हमें र्ो स्वयसंेवकों को ससं्काररर् करना है- उनके हृदय में ववशधु्द देशभवक्त की भावना जागरृ् करनी है- समाज में सम्पकय साधकर, दहंद ूसमाज सघं कायय के लिए अनकूुि बने, ऐसा प्रयत्न करना है- स्वयसंेवक के जीवन में इसकी आदर् डािने के लिए क्या सताह में एक बार, छुटटी के ददन सवुवधाजनक प्रर्ीर् होने वािा एकत्रीकरण का काययक्रम पयायत रहेगा क्या? ववचार-ववलनमय के प्रवाह को डॉक्टरजी ने उलचर् ददशा में मोडा। स्वयसंेवकों में आयी जागलृर् उनका स्र्ायी भाव बने और उनके द्वारा समाज जीवन को भी वही ददशा लमिे, इसके लिए स्वयसंेवकों की ववश्वासाहयर्ा बढ़नी चादहए- अर्: स्वयसंेवकों को प्रलर्ददन एक लनखिर् समय पर एकवत्रर् आकर सघं के काययक्रम करना आवश्यक है। दकसी भी ससं्कार को अरं्:करण में सदुृढ़ बनाने के लिए

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लनत्य, लनखिर् समय पर उसका अभ्यास करना ही सवोत्ताम मागय है। खजस प्रकार शरीर को हृष्ट-पषु्ट बनाने के लिए लनत्य रूप से व्यायाम करना जरूरी होर्ा है, ठीक उसी प्रकार मन पर शधु्द और ओजस्वी ववचारों के ससं्कार हेर् ुप्रलर्ददन अध्ययन करना आवश्यक है। इसी प्रकार सघं के ससं्कार हेर् ुलनत्य, लनखिर् समय पर एकवत्रर् आकर कुछ शारीररक, कुछ बौखध्दक काययक्रम आग्रह पवूयक करने होंगे। लनत्य, लनखिर् समय पर काययक्रम करने की आदर् िगी र्ो अपने आप ही लनत्य याद रिकर शािा जाने की आदर् भी बन जार्ी है। इस प्रकार दैनदंदन शािा की आवश्यकर्ा स्पष्ट होर्े ही मोदहर्े सघं पर लनत्य सांय शािा िगनी प्रारंभ हुई। उन ददनों प्रलर् ददन एकत्र आकर राष्ट्र भवक्त का ससं्कार प्रात करने की प्रदक्रया दकसी भी सामाखजक काययक्रम में प्रचलिर् नहीं र्ी। इस कारण दैनदंदन सघं शािा और स्वयसंेवकों द्वारा िुिे मन में दकय जाने वािे काययक्रमों को देिकर प्रारंभ में िोगों को बडा अनोिा िगर्ा र्ा। धीरे-धीरे स्वयसंवेकों को, आसपास के िोगों और अगं्रेज शासन कर्ायओ ंको यह िगने िगा दक यह र्ो रोज की ही बार् है। इसके बारे में सरकार की खजञानासा भी धीरे-धीरे कम होने िगी। शािा में, पौरुि व साहस लनमायण करने वािे र्त्कािीन प्रलचर् दंड, िड्ग आदद के काययक्रम होने िगे। अनशुासन िाने की दृवष्ट से श्री मार्ांड राव जोग के सहयोग से गणवेश में प्रार्लमक समर्ा का काययक्रम ही होर्ा। इस बार् पर भी बि ददया गया दक हर स्वयसंेवक अपना गणवेश स्वय ंअपने िचय से र्यैार करे- स्वयसंेवकों का प्रारंभ से ही स्वाविम्बन की सीि दी गई। इस प्रकार सायकंाि का एक घटंा राष्ट्रकायय के लिए समवपयर् है, इस भावना से स्वयसंेवक प्रलर्ददन सायकंाि शािा में आने िगे। डॉक्टरजी शरुु से ही इस बार् का ध्यान रिर्े दक सघं का प्रत्येक काययक्रम समय पर हो। इस कारण एकत्रीकरण शािा, बठैक और लनखिर् दकया जाने वािा हर काययक्रम समय पर शरुु होर्ा। इससे जहां स्वयसंेवकों में अनशुासन की भावना जागी वहीं काययक्रम देिने वािे िोगों में भी स्वयसंेवकों के प्रलर् ववश्वास वखृध्दगर् होने िगा। बाररश में भी लनत्य समय पर शािा िगर्ी और लनत्य के काययक्रमों और प्रार्यना के पिार् ही शािा छूटर्ी। मौसम की प्रलर्कूिर्ा के बावजूद िुि ेमदैान में शािा के काययक्रम लनखिर् रूप से, समय पर ही होने के कारण स्वयसंेवको में धीरे-धीरे हर सकंट का मकुाबिा कररे् हुए सघं कायय अबाध गलर् से जारी रिने का आत्म ववश्वास भी बढ़ऋर्े गया। समय के सन्दभय में, उन ददनों िोगों में बार्चीर् करर्े समय 'दहन्दसु्र्ानी (Indian Time) समय' ओर 'अगं्रेजी समय' (English Time)- ये दो शब्द प्रयोग प्रचलिर् रे्। 'अगं्रेजी समय' का अर्य होर्ा ठीक लनधायररर् समय पर काययक्रम को होना और 'दहन्दसु्र्ानी समय' लनधायररर् समय से आगे या पीछे होने वािे काययक्रमों के सन्दभय में कहा जार्ा। अक्सर देरी से होने वािे काययक्रमों के सन्दभय में ही व्यगं से Indian Time कहकर उसका उलििे दकया जार्ा। डॉक्टरजी कहा कररे् दक अनशुालसर् जीवन का, कोई भी कायय लनधायररर् समय पर ही करने का अगं्रेजो का गणु महत्वपणूय है- वह भी हमें ग्रहण करना चादहए। सघं का कोई भी काययक्रम, चाहे वह लनत्य का शािा का हो या उत्सव आदद प्रसगं का सवायजलनक काययक्रम हो- लनमतं्रण पत्र में उलिेखिर् लनखिर् समय पर ही शरुु होगा- यह ववश्वास िोगों में लनमायण होने िगा। इस कारण समाज के लनमवंत्रर् िोगों को भी सघं के काययक्रमों में समय पर आने की आदर् िगी। इसी प्रकार सघं

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के जादहर काययक्रम में, स्वयसंेवकों की भालंर् शांलर् स ेबठैकर अनशुासन का पािन करने की आदर् भी िोगों में लनमायण होने िगी।

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15. प्र्येक काया की पवूा योजना संघ कायय में हरेक बार् का ववचार कररे् समय, पू. डॉक्टरजी ने सम्बखन्धर् स्वयंसेवकों के सार् ववचार-ववलनमय कर सबके सहयोग से कायय का स्वरूप और काययवाही सुलनखिर् करने की पध्दलर् प्रारंभ से ही प्रचलिर् की। दकसी भी काययक्रम का आयोजन करने से पूवय अनौपचाररक वार्ायिाप से सवयस्पशी, सवाांगीण ववचार हुआ करर्ा। कायय का ब्यौरा र्य कररे् समय लभन्न-लभन्न काम का दालयत्व भी अिग-अिग स्वयंसेवक के खजम्मे सौंपा जार्ा- सम्बखन्धर् स्वयंसेवक के गुणों के संवधयन और ववकास का पूरा अवसर ददया जाने पर ध्यान ददया जार्ा। उदाहरणार्य, यदद लशववर का आयोजन करना हो र्ो उलचर् स्र्ान की िोज करना, वहां रहने-िाने-पीने आदद की व्यवस्र्ा करना, प्रकाश,

साफ-सफाई, सामान िाने व स्वयंसेवकों के आने-जाने के लिए यर्ोलचर् व्यवस्र्ा, लशववर के काययक्रमों की लनदोि रचना, लशववर काि में वहां लचदकत्सा सुववधा, शारीररक-बौखध्दक- मनोरंजन आदद काययक्रमों का लनयोजन- ऐसे हर काम के लिए सुयोग्य स्वयंसेवक पर खजम्मेदारी सौंपना- आदद सारी बार्ें स्वयंवेसेवक अपना दालयत्व समझकर मन:पूवयक अच्छे ढंग से लनभाने का प्रयत्न करर्ा। इससे कोई भी काययक्रम, चाहे वह दकर्ना भी भव्य क्यों न हो, सब लमिकर, परस्पर सहयोग और प्रयत्नों से अपने-अपने खजम्मे जो काम होर्ा, उसे अच्छे ढंग से लनभाने और काययक्रम को सफि बनाने का अनोिा समाधान हर स्वयंसेवक को होर्ा। इस प्रकार संघ में हर काययक्रम के पूय लनयोजन हेर्ु सामूदहक लचंर्न और सामूदहक प्रयास की पध्दलर् प्रारंभ हुई। इस प्रकार का कोई काययक्रम समात होने पर, सब लमिकर इस बार् का ववचार कररे् दक काययक्रम लनयोखजर् योजनानुसार सम्पन्न हुआ या कहीं कोई दोि, त्रदुट या कमी र्ो नहीं रह गई। खजस ववभाग

में काम कररे् समय कोई कदठनाई आयी होगी, उसका पर्ा िगाकर अगिी बार, पहिे से ही उसका ध्यान रिा जार्ा। काययक्रम पर जो िचय हुआ होगा- प्रत्येक पैसे का पाई-पाई दहसाब लििकर रिने की आदर् भी डॉक्टरजी ने स्वयंसेवकों में डािी। कहां अनपेखक्षर् ढंग से िचय करना पडा, कहां कौनसी अकखलपर् कदठनाई का सामना करना पडा- उसे दकस र्रह से दरू दकया जा सकर्ा र्ा- आदद सब बार्ों का ववचार दकया जार्ा। इस पध्दलर् से हर काययक्रम उत्तारोत्तार लनदोि और प्रभावी ढंग से होने िगे। पू. डॉक्टरजी द्वारा उन ददनों प्रचलिर् की गई पध्दलर्यों का आज जब हम ववचार कररे् हैं, र्ो कभी-कभी ऐसा िगर्ा है दक हर काम में, चाहे वह दकर्ना ही छोटा या बडा हो, चाहे व अत्यन्र् मामूिी क्यों न हो, डॉक्टरजी द्वारा स्वयं ध्यान देने र्र्ा सभी सम्बखन्धर् स्वयंसेवकों के सार् ्सामूदहक चचाय करने की क्या वास्र्व में आवश्यकर्ा र्ी? दकन्र्ु प्रारंलभक काि में ही हर काययक्रम सबके सहयोग से सफि बनाने की यह पध्दलर् दकर्नी महत्वपूणय हैं, इसका अनुभव आज भी हमें होर्ा है। हाि के विों में, अपने ज्येष्ठ स्वयंसेवकों ने एकात्मर्ा रर् यात्रा का आयोजन दकया र्ा। मानसरोवर और गंगोत्री जैसे उद्गम स् र्िों से लसन्ध ुऔर गंगा का जि एकत्र कर- दखक्षणी छोर पर रामेश्वर और कन्याकुमारी

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में खस्र्र् मंददरों में उस जि से अलभिेक और इधर पूवय में परशुराम कंुड के जि से पखिमी र्ट पर खस्र्र् सोमनार् मंददर में अलभिेक करने का संकलप िेकर दो ववशाि रर्-यात्राओं का अभूर्पूवय आयोजन दकया गया। ये दोनों रर् यात्राएं सम्पूणय भारर् में सवयत्र चचाय और कौर्ुहि का वविय बनीं र्ी। उत्तार-दखक्षण और पूवय-पखिम जाने वािी इन दोनों राख यात्राओं का, लनधायररर् ददन, लनखिर् समय पर नागपुर में संगम हुआ। हजारों दकिोमीटर की दरूी र्य करने वािी इन रर् यात्राओं में, स्र्ान-स्र्ान पर स्वागर्, भािणों आदद के सारे काययक्रम पूवय लनधायररर् समय और स्र्ान पर सफिर्ापूवयक सम्पन्न हुए- इसमें संघ मे स्वयंसेवकों को स्र्ानीय जनर्ा का भी अभूर्पूवय सहयोग प्रात हुआ। यह काययक्रम ववश्व दहंद ूपररिद ने आयोखजर् दकया र्ा। इस पर सरकार क प्रलर्दक्रया बहुर् अर्य रिर्ी है- उस समय के अखिि भारर्ीय ख्यालर् के एक अगें्रजी दैलनक में इन रर् यात्राओं के बारे में प्रकालशर् हुआ- ''the progrmme was excuted with Military precision.'' संघ के लशववर अर्वा शािा के अन्य काययक्रमों को, पूवय लनयोजन और सबके सहयोग से सफि बनाने की डॉक्टरजी द्वारा प्रचलिर् कायय पध्दलर् केद्वारा ही यह संभव हो सका। इस पध्दलर् के सुपररणाम भी आज हमें ददिाई देरे् हैं। प्रत्येक काययक्रम के सभी अगंों का बारीकी से ध्यान रिकर, अपनी-अपनी क्षमर्ा और ववशेि गणुों का पूणय उपयोग कररे् हुए परस्पर-पूरक 'टीम-वकय ' की भावना से, उसक सफि बनाने की आदर् स्वयंसेवकों में लनमायण हुई। इससे बडे से बडे काययक्रम भी आसानी से और अच्छे ढंग से सम्पन्न होरे्। सबने लमिकर कायय के दहर् हो ध्यान में रिरे् हुए वस्र्ुलनष्ठ ववचार कर योजना र्ैयार की- इसलिए काययक्रम की सफिर्ा का श्रये भी सभी स्वयंसेवकों को लमिर्ा- अगर कहीं कोई त्रदुट रह गई हो र्ो अगिी बार न रहने पाये, इसका भी सब लमिकर ववचार कररे्। दकसी की भूि को सब लमिकर िशुी से स्वीकार कररे् और दबुारा वह भूि न होने पाये, इसका लनिय कररे्। गुण-दोिों से युक्त स्वयंसेवकों के सामूदहक लचरं्न और लमिकर कायय करने की इस पध्दलर् से दोि-रदहर् कायय िडा करने की परम्परा चि पडी। इससे स्वयंसेवकों के गुणों में लनरंर्र वखृध्द और दोि क्रमश: दरू होने िगे। स्वयंसवकों का दृवष्टकोण व्यापक बनने िगा। एक-हृदय से काम करने वािे स्वयंसेवकों की टीम देिकर िोगों का उनके प्रलर् और संघ के प्रलर् ववश्वास दृढ़ होने िगा। व्यवक्तश: स्वयंसेवकों को प्रलर् भी समाज में ववश्वासाहयर्ा बढ़ने िगी।

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16. प्रचारक

प्रारंलभक कुछ विों र्क संघ में यह 'प्रचारक' शब्द पररलचर् नहीं र्ा। केवि संघ कायय का ही अहोरत्रलचरं्न ररने वािे डॉक्टरजी ही एकमात्र स्वयंसेवक रे्। अलधकांश शािेय छात्र दकशोर स्वयंसेवक अपने घरों में रहरे् और काययक्रम अर्वा बैठक के समय एकत्र आरे् रे्। आयु में कुछ बडे स्वयंसेवकों में, बाबासाहब आपटे नागपुर की एक बीमा कम्पनी के कायायिय में टंकिेिक रे्। श्री दादाराव परमार्य ने शािांर् परीक्षा उत्ता ीणय करने के अनेक प्रयास दकये दकन्र्ु गखणर् जैसे 'भयानक' वविय के कारण

असफि होकर, उसके पीछे िगे रहने की बजाय वे अलधकालधक समय देकर संघ कायय करनेिगे। उनकी ओजपूणय भािण शैिी र्र्ा अगें्रजी भािा पर प्रभुत्व के कारण, संघ कायय कररे् समय उन्हें कभी भी ववद्याियीन अर्वा महाववद्याियीन उपालधयों की कमी महसूस नहीं हुई। इस समय संघ का कायय नागपुर के बाहर भी पहंुच चकुा र्ा- ववदभय के वधाय-भंडारा आदद खजिों में संघ की शािाएं ििु गई र्ी। वहां की शािाओं का संचािन स्र्ानीय काययकर्ाय ही दकया कररे् र्ें लभन्न लभन्न गांवों में संघ की शािाएं ििुने के दौर में उन सभी शािाओं के कायय में एकसूत्रर्ा िाने की दृवष्ट से प्रवास करने वािे काययकर्ायओं की आवश्यकर्ा प्रर्ीर् होने िगी। हर स्र्ान पर, चार-छह ददन रहकर, वहां के स्वयंसेवकों के सार् ववचार-ववलनमय कर उन्हें संघ कायय से, दृढ़र्ा से जोडने र्र्ा अपने दैनंददन जीवन में संघ कायय के लिए अलधकालधक समय देने हेर्ु कायय-प्रवण करने की आवश्यकर्ा भी महसूस होने िगी। शुरु-शुरु में डॉक्टरजी अकेिे ही प्रवास दकया कररे्। उत्सव प्रसंगों पर अन्य काययकर्ाय भी जारे् रे्। ज्येष्ठ काययकर्ायओं को अपने उद्योग व्यवसाय से अवकाश िेकर कुछ ददनों का प्रवास करना ही संभव होर्ा। खजन गांवों में पू. डॉक्टरजी के पररलचर् अर्वा लमत्र आदद रहरे् रे्, वहां कायय प्रारंभ करना आसान होर्ा। दकंर्ु जहा ंएकाध व्यवक्त ही पररलचर् होर्ा वहां शािा प्रारंभ कर संघकायय स्र्ायी रूप से संचालिर् होने र्क, बाहर के ही दकसी काययकर्ाय को प्रत्यक्ष वहां रहकर काम करना आवश्यक होर्ा। शािेय छात्र स्वयंसेवक काययकर्ायओं को, वावियक परीक्षा के पिार् ग्रीष्मकािीन छुखटटयों में, 4-6 सताह र्क ववदभय और महाकोशि के्षत्र में जाकर संघ की नयी शािाएं िोिने की आवश्यकर्ा डॉक्टरजी द्वारा व्यक्त दकये जाने पर उस ददशा में ववचार प्रारंभ हुआ। कुछ काययकर्ायओं ने इस दृवष्ट से आपनी र्ैयारी भी दशाययी। बाहर जाकर कायय करने वािे ऐसे स्वयंसेवकों को 'ववस्र्ारक' कहा जार्ा। प्रलर्विय ऐसे

'ववस्र्ारक' काययकर्ाय ग्रीष्मकािीन छुखटटयों में अन्यर्त्र जाकर संघ कायय का ववस्र्ार करने िगे- नयी शािाओं की संख्या बढ़ने िगी। डॉक्टरजी के सार् वार्ायिाप में ववस्र्ारकों र्र्ा पूणयकालिक काययकर्ायओं की आवश्यकर्ा स्वयंसेवकों को भी अनुभव होने िगी। बाहर गांव से डॉक्टरजी के नाम आये, उनके लमत्रों के पत्रों को स्वयंसेवकों की बैठकों में पढ़ा जार्ा। इन पत्रों में लििा होर्ा- ''हमारे गांव में संघ की शािा शुरु की जा सकर्ी है। कृपया दकसी योग्य काययकर्ाय को भेखजए। उसके लनवास और भोजन आदद की व्यवस्र्ा यहां की जायेगी।'' श्री दादाराव परमार्य, श्री बाबासाहेब आपटे, श्री

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रामभाऊ जामगडे व श्री गोपाळराव येरकंुटवार आदद ज्येष्ठ काययकर्ायओं ने, अपने व्यवक्तगर् जीवन की आशा- आकांक्षाओं को एक ओर रिकर, संघ कायय के लिए प्रवास पर जाने की लसध्दर्ा दशाययी। 1932

के उत्ताराधय में, डॉक्टरजी ने इन काययकर्ायओं को पूणयकालिक काययकर्ाय के रूप में अन्यत्र भेजने की योजना बनाई। संघ कायय के इस प्रकार होने वािे ववस्र्ार में, डॉक्टरजी को, कभी दकसी स्वयंसेवक को इस प्रकार का आदेश देरे् दकसी ने नहीं सुना दक 'र्ुम अपने व्यवक्तगर् जीवन की लचरं्ा छोडकर पूणय कालिक काययकर्ाय बनकर संघ कायायर्य लनकिो।' डॉक्टरजी का स्वयं का जीवन संघ से एकरूप हो गया र्ा। उनके सहवास और वार्ायिाप से संघ कायय के असाधारण महत्व र्र्ा उसके लिए अपना जीवन समवपयर् करने की पे्ररणा ग्रहण कर स्वयंसेवक जब स्वयं अपनी लसध्दर्ा डॉक्टरजी के सामने व्यक्त कररे् र्भी डॉक्टरजी उस काययकर्ाय की उस प्रकार की योजना कररे्। इस प्रकार श्री दादाराव परमार्य को पुणे, श्री गोपाळराव येरकंुटवार को सांगिी (महाराष्ट्र) ओर श्री रामभाऊ जामगडे को यवर्माि (ववदभय) में पूणयकालिक संघ काययकर्ाय के रूप में भेजने की योजना बनी। इन सभी पूणयकालिक काययकर्ायओं को सभी स्वयंसेवकों की उपखस्र्लर् में पू. डॉक्टाजी ने भावपूणय शब्दों में ववदाई दी। इस

प्रकार के काययकर्ायओ को 'प्रचारक' के नाम से अन्यत्र भेजने की पध्दलर् संघ में शुरु हुई। संघ कायय में वखृध्द की गलर् बढ़ने िगी। 1937 के आरंभ में ववदभय व महाराष्ट्र के प्रमुि स्र्ानों पर,

महाकोशि के 4-6 स्र्ानों पर र्र्ा उत्तार प्रदेश के बनारस में संघ की शािाएं शुरु हो चकुी र्ी। दकंर्ु पंजाब, ददलिी उत्तार प्रदेश के अन्य प्रमुि शहरों में संघ का कायय शुरु करने की आवश्यकर्ा अनुभव होने िगी। इस कारण, नागपुर के स्वयंसेवकों में से खजन्हें इन प्रांर्ों के प्रमुि स्र्ानों पर जाना संभव हो, उन्हें उच्च लशक्षा के लिए वहां के महाववद्याियों में प्रवेश िेना चादहए और वहां लशक्षा ग्रहण कर सार्-सार् संघ की शािाएं िोिने का प्रयास करना चादहए। वार्ायिाप में डॉक्टरजी द्वारा यह ववचार व्यक्त दकये जाने पर, योजनापूवयक 1937 के जुिाई माह में श्री भाऊराव देवरस को B.Com o Law करने के लिए ििनऊ, श्री कृष्णा जोशी को महाववद्याियीन लशक्षा ग्रहण करने लसयािकोट (पंजाब), श्री ददगम्बर पार्ुरकर को िाहौर (पं. पंजाब), श्री मारेश्वर मुंज को उच्च लशक्षा प्रात करने राविवपंडी में लशक्षा ग्रहण के सार् सार् संघ कायय हेर्ु भेजा गया। इसी प्रकार अपनी महाववद्याियीन लशक्षा नागपुर में समात करने के बाद श्री वसंर्राव ओक को ददलिी, श्री बापूराव ददवाकर, श्री नरहरर पारिी और मुकंुदराव मुंजे को वबहार के पटना, दानापुर और मुंगेर में प्रचारक के रूप में डॉक्टरजी ने भेजा। श्री नारायण र्टें को प्रचारक के रूप में ग्वालियर भेजा गया। 1938 में श्री एकनार् रानडे M.A. होने के बाद प्रचारक के रूप में महाकोशि के जबिपुर में गयो- उनके सार् प्रलहादराव आम्बेकर भी गये। 1939 में श्री ववठ्ठिराव पत्की को प्रचारक के रूप में, किकत्ता भेजा गया। श्री जनादयन लचंचाळकर की लनयुवक्त मद्रास में की गयी। इन सभी पूणयकालिक काययकर्ायओं को प्रचारक नाम से संबंलधर् दकया जाने िगा। इस प्रकार संघ के कायय में 'प्रचारक' शब्द रूढ़ हुआ। दकसी प्रकार का आदेश नहीं, बखलक स्वयं अपनी इच्छा से, अपने व्यवक्तगर् जीवन की लचरं्ा न कररे्

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हुए संघ कायय हेर्ु प्रचारक लनकिने की पध्दलर् स्वयंसेवकों में अपने आप ववकलसर् होने िगी- यह बार् आज आश्यचययजनक प्रर्ीर् होर्ी है, क्योंदक प्रचारक बनकर जाने का आदेश कभी डॉक्टरजी ने दकसी को नहीं ददया। इसके ववपरीर् जब कोई स्वयंसेवक प्रचारक के रूप में कायय करने की लसध्दर्ा प्रकट करर्ा र्ो डॉक्टरजी पहिे उसके घर की पररखस्र्लर् और कायय सम्बन्धी उसके दृढ़ लनिय के बारे में ववस्र्ारपूवयक चचाय करने के बाद ही उसके बारे में लनणयय िेरे्। डॉक्टरजी के सहवास और वार्ायिाप में ववलभन्न स्र्ानों से 'कायय शुरु करने हेर्ु प्रचारक भेखजये'- इस आशय के आने वािे पत्रों के वाचन के बाद होने वािी चचाय से स्वयंसवकों में संघ कायायर्य सवयस्य अपयण करने की र्ीव्र भावना अपने आप उत्पन्न होर्ी और स्वयंसेवकों के मन में संघ कायय के लिए अलधकालधक समय देने की पे्ररणा जागर्ी। अपने जीवन में करने योग्य सवयश्रषे्ठ कायय केवि संघ कायय ही है, यह अनुभूलर् स्वयंसेवकों को होने िगी। अपना जीवन पुष्प केवि संघ कायय कररे् हुए अपनी मार्भृूलम के चरणों में समवपयर् करने में ही जीवन की सार्यकर्ा है- यह भावना स्वयंसेवक के हृदय में प्रबि होरे् ही, वह स्वयंसेवक प्रचारक के रूप में लनकिने की लसध्दर्ा स्वयं डॉक्टरजी के समक्ष व्यक्त करर्ा। संघ की कायय पध्दलर् की यह अनोिी ववशेिर्ा है, खजसे डॉक्टरजी ने बडी कुशिर्ा से ववकलसर् दकया।

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17. उ्सव प्रसंगों पर अदयक्षों की योजना संघ की काययपध्दलर् को ववकलसर् करने में 'अध्यक्षों' का क्या संबंध है, यह ववचार कौर्ूहि का वविय भिे ही बने दकन्र्ु वास्र्व में यह संघ की काययशैिी की एक ववशेिर्ा है। भारर् के सुदरु प्रांर्ों में भी संघ कायय का प्रवेश हो, उन के्षत्रों में आवश्यकर्ानुसार 'प्रचारक' की व्यस्र्ा की जाये, उसी र्रह प्रांर्-प्रांर् में कायय शुरु कररे् समय स्र्ानीय दकसी ज्येष्ठ नागररक का आधार लमिे- इस दृवष्ट से संघ के उत्सव प्रसंगों पर 'अध्यक्ष' की योजना की जाने िगी। ववजयादशमी, रक्षाबंधन जैसे उत्सवों के लिए अध्यक्ष के रूप में दकसे आमंवत्रर् दकया जाये, इसका ववचार स्वयंसेवकों के अनौपचाररक वार्ायिापों मेंहोर्ा। डॉक्टरजी स्वयं यह प्रश्न पूछरे् दक इस विय के उत्सव में दकसे अध्यक्ष बनाया जाये। ववद्वान, ववचारशीि नेर्ाओं के नाम, जो समाचार पत्रों अर्वा सभा सम्मेिनों के द्वारा पररलचर् रे्, अध्यक्ष के रूप में स्वयंसेवकों द्वारा सुझाये जारे्। सभी संस्र्ाओं में ऐसे ववशेि प्रसंगों पर अध्यक्षों का चयन ख्यालर् प्रात नेर्ाओं में से दकये जाने की सवय सामान्य पध्दलर् उन ददनों प्रचलिर् र्ी। स्वाभाववकर्या, स्वयंसेवक भी यही ववचार कररे्। डॉक्टरजी का ववचार होर्ा दक हम ऐसे व्यवक्त को अध्यक्ष के रूप में आदरपूवयक लनमंवत्रर् करें जो संघ कायय के महात्व को समझकर अपने के्षत्र में संघ कायय शुरु करने में, हमें अपना सहयोग दे सके। देश में अच्छा भािण देने वािे ववद्वान वक्ता र्ो काफी हैं। सावयजलनक कायों में उपदेश देने वािे भी अनेक लमिेंगे। उनका भािण सुनने का आनंद र्ो अलपकाि ही दटकेगा- इस क्षखणक आनंद का िाभ िेने की अपेक्षा, जो संघ के उत्सव में अध्यक्ष का स्र्ान ग्रहण करने पर संघ के प्रलर् आत्मीयर्ा के भाव से उत्पे्रररर् होकर संघ के लनकट आ सके और संघ कायय की वखृध्द में सहायक हो सके, ऐसे दकसी व्यवक्त को अध्यक्ष बनाना क्या उलचर् नहीं रहेगा?

डॉक्टरजी के उक्त ववचारों से स्वयंसेवकों को नयी ददशा लमिी। संघ के कारणअध्यक्ष महोदय प्रभाववर् हो सकें इस दृवष्ट से क्या करना होगा? स्वयंसेवकों की संख्या यदद अलधक रही, उनके प्रात्यखक्षक उत्कृष्ट करे, गणवेश में समर्ा-संचिन आदद काययक्रम लनदोि और प्रभावी हों- क्या इर्ने मात्र से अध्यक्ष के मन में संघ के प्रलर् आस्र्ा उत्पन्न हो सकेगी? शरीररक व सैलनकी काययक्रमों का उन पर

दकर्ना और कैसा पररणाम होगा- इस सम्बन्ध में स्वयंसेवकों का अनुभव उत्यलप ही र्ा। इसे समझाकर बर्ाने की जलदबाजी डॉक्टरजी ने कभी नहीं की। उन ददनों व्यायाम शािा और स्काऊट के काययक्रमों में इस प्रकार के प्रात्यखक्षक होरे् रे्। डॉक्टरजी कहा कररे्, व्यायामशािा और सरकारी पे्ररणा से होने वािे स्काऊट के काययक्रमों और प्रिर देशभवक्त की भावना से पे्रररर् लनष्ठावान संघ काययकर्ायओं के काययक्रमों में बडा अन्र्र है। ध्येयवादी और एक ददि से कायय करने वािे स्वयंसेवकों द्वारा प्रस्र्ुर्

दंड, िड्ग समर्ा आदद सामान्य ददिाई देने वािे काययक्रमों में वविक्षण जीवन्र्र्ा होर्ी है। पे्रक्षकों को प्रभाववर् करने की असीम क्षमर्ा होर्ी है। उन्हें देिने वािा प्रभाववर् हुए वबना नहीं रह सकर्ा। अर्: उत्सव प्रसंगों पर आने वािे अध्यक्षों द्वारा बाद में अपने अपने के्षत्र में संघ कायय बढ़ाने में ददये गये

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सहयोग के कारण स्वयंसेवक को भी सामान्य दकंर्ु अच्छे ढंग से प्रस्र्ुर् दकये काययक्रमों की प्रभाव-क्षमर्ा का अनुभव लमिा। अध्यक्ष पद के लिए खजनका नाम र्य होर्ा, उन्हें राजी करने के लिए उनके सार् पत्र-व्यवहार अर्वा वार्ायिाप आदद आवश्यक काम स्वयं डॉक्टरजी कररे् रे्। अध्यक्ष को संघ कायय के ववचारों और काययशैिी के सम्बन्ध में ववस्र्रृ् जानकारी देने की जलदबाजी डॉक्टरजी कभी नहीं कररे् रे्। वे चाहरे् रे् दक स्वयं, लनयोखजर् अध्यक्ष के मन में संघ ववियक कौर्ूहि-खजञानासा उत्पन्न हो और वे अध्यक्षर्ा स्वीकार करने के लिए र्ैयार हों- इसी दृवष्ट से अध्यक्ष के सार् उनका प्रार्लमक स्वरूप का वार्ायिाप होर्ा र्ा। पंजाब में संघ का कायय बढे़ इस उदे्दश्य से िाहौर के सुप्रलसध्द दहन्दतु्वलनष्ठ सामाखजक काययकर्ाय सर गोकुिचदं नारंग को, 1938 में, नागपुर संघ शािा के ववजयादशमी महोत्सव की अध्यक्षर्ा करने हेर्ु डॉक्टरजी ने आमंवत्रर् दकया। उनका स्वीकृलर् पत्र भी आ गया। जैसे ही नागपुर के दहन्दसूभाई काययकर्ायओं को यह जानकारी लमिी दक सर गोकुिचंद नारंग नागपुर आ रहे हैं र्ो उन्होंने डॉक्टरजी से भेंटकर, नारंगजी का एक काययक्रम उनकी संस्र्ा द्वारा आयोखजर् करने की अनुमलर् देने का आग्रह दकया। पू. डॉक्टरजी ने बडी कुशिर्ा से एर्दर्य अनुमलर् देने से इंकार कररे् हुए कहा दक 'आप अपनी संस्र्ा की ओर से दकसी अिग समय में स्वर्ंत्र काययक्रम सुलनखिर् कर उन्हें आमंवत्रर् करें। आपके काययक्रम के लिए भी वे अवश्य आएं, ऐसा आपकी ओर से मैं भी उनसे अनुरोध करंूगा। वे इस समय ववशेि रूप से संघ के काययक्रम में भाग िेने हेर्ु ही यहां आ रहे हैं। ऐसे समय में केवि अवसर का िाभ उठाने की दृवष्ट से आपने भी उन्हें आमंवत्रर् दकया र्ो आपकी संस्र्ा के प्रलर् उनके मन में, आपकी अपेक्षानुसार आदर भावना उत्पन्न नहीं हो सकेगीं। दहन्दसूभा जैसे अखिि भारर्ीय राजनीलर्क दि के बारे में उनकी धारणा ववकृर् हो, यह आपके दहर् में भी उलचर् नहीं होगा।' डॉक्टरजी के उक्त कर्न पर दहन्दसूभाई नेर्ाओं को अपनी भूि का अहसास हुआ और उन्होंने अपना अिग काययक्रम आगे कभी आयोखजर् करने का लनणयय लिया। संघ के काययक्रम में जो भी अध्यक्ष अर्वा प्रमुि अलर्लर् के रूप में आमंवत्रर् दकया जार्ा उन्हें नागपुर के दो-र्ीन ददनों के वास्र्व्य में, संघ के ही वार्ावरण में रिा जाए उनका अलधकालधक समय संघ के समवपयर् काययकर्ायओं से वार्ायिाप में ही व्यर्ीर् हो, इसकी लचरं्ा स्वयं डॉक्टरजी दकया कररे्। अध्यक्ष को नागपुर प्रांर् के संघचािक के यहां ठहराया जार्ा क्योंदक वहां डॉक्टरजी व अन्य काययकर्ायओं को अध्यक्ष के लनत्य संपकय मे रहना अलधक सुववधाजनक होर्ा और आसपास का वार्ावरण संघ के ववचारों के अनुकूि रिने में सुववधा होर्ी। काययकर्ायओं के आत्मीयर्ा पूणय व्यवहार और राष्ट्र समवपयर् जीवन का लनकट पररचय के सार् ही अनुशासनयुक्त र्र्ा ध्येयवादी स्वयंसेवकों द्वारा पूणय र्न्मय होकर प्रस्र्ुर् काययक्रम से अध्यक्ष लनखिर् रूप से प्रभाववर् होंगे- इसका पूणय ववश्वास डॉक्टरजी को र्ा। सर गोकुिचदं नारंग भी नागपुर के ववजयादशमी काययक्रम से प्रभाववर् हुए। उत्सव

में, अपने अध्यक्षीय भािण में उन्होंने कहा- आपके काययक्रम का लनमंत्रण स्वीकार कररे् समय मुझे

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िगा दक यह भी कोई स्काऊट जैसा दकंर्ु भव्य स्वरूप का काययक्रम होगा। आज र्क ऐसे अनेक उत्सवों में मैं सहभागी हुआ हंू, वैसे ही यहां भी आया। दकंर्ु यहा ंआपके काययक्रम में शालमि होर् समय मुझे हर बार यही अनुभूलर् होर्ी, जैसे मैं लशवाजी के राज्य में स्वर्ंत्र भारर् में हंू- ऐसी वविक्षण जीवन्नर्ा, आत्मीयर्ा व ववशुध्द राष्ट्रभवक्त की भावना से ओर्प्रोर् वार्ावरण र्र्ा दृश्य, मुझे नागपुर में आपके बीच आकर देिने और अनुभव करने को लमिा- यह मैं अपना महर् ्भाग्य ही मानर्ा हंू। सर गोकुिचदं नारंग के सहयोग से पंजाब प्रांर् में संघ का कायय रे्जी से बढ़ा। सभी प्रमुि शहरों में संघ की प्रभावी शािाएं ििुीं। बंगाि, आंध्र, र्लमिनाडु, महाराष्ट्र आदद प्रांर्ों के बार में भी यही अनुभव हुआ। किकत्ता के श्री पे्रमनार् बनजी व बॅररस्टर ववजयचन्द्र चटजी, हैदराबाद के श्री ववनायकराव कोरटकर, मद्रास के डा. वादराजिु नायडू व संजीवन कामर्, पनवेि (महाराष्ट्र) के श्री नानासाहब पािळकर आदद प्रलर्वष्ठर् व्यवक्तयों को नागपुर उत्सव के अध्यक्ष के रूप में डॉक्टरजी ने आमंवत्रर्

दकया र्ा। नागपुर के काययक्रम से प्रभाववर् होकर जब ये अध्यक्ष अपने-अपने प्रांर् में िौटरे् र्ो वहां भी संघ कायय की वखृध्दमें अपना सहयोग देरे्। ववचार ववलनमय और चचाय आद के द्वारा अपने देश में संघ कायय की अपररहायय आवश्यकर्ा महसूस कराने की बजाय लनष्ठावान काययकर्ायओं के स्नेहपूणय र्र्ा लनरपेक्ष देशभवक्त की भावना से ओर्प्रोर् व्यवहार का अनुभव िेकर, उस वार्ावरण में अनुशासन बध्द काययक्रम का प्रत्यक्ष अविोकर करने से संघ कायय की महत्ता अलधक आसानी से और जलदी समझ में आर्ी है। डॉक्टरजी अक्सर यही कहा कररे् रे्। भारर् के ववलभन्न प्रांर्ो में संघ कायय का ववस्र्ार होरे् समय यही अनुभव आया।

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18. संघ के उ्सव

हर पररवार में सम्पन्न दकय जाने वािे उत्सव, उस पररवार की अपनी ववशेिर्ा होर्ी है। उन उत्सवों के माध्यमों से वह ववशेिर्ा प्रकट होर्ी है। कही ंनवरावत्र का पवय र्ो कहीं िडंोवा अर्वा गणपलर् के उत्सव होरे् हैं। पररवार के कुिदेवर्ा के अनुसार उत्सव आदद काययक्रम होरे् हैं। संघ की यह ववशेिर्ा भी प्रलर्विय मनाये जाने वािे उत्सवों से प्रकट होर्ी है। मनुष्य स्वभावर्: उत्सव वप्रय होर्ा है। रोज-रोज के वही काययक्रमों में उत्सव के रूप में होने वािा यह पररवर्यन स्वयंसेवकों का उत्साह बढ़ार्ा है। संघ की दैलनक शािाओं के काययक्रमों के बारे में भी यह अस्वाभाववक नहीं। शािा के घंटाभर चिने वािे लनत्य के काययक्रम र्र्ा बचे हुए 23 घंटों में कुछ समय लनकािकर समाज के सभी स्र्रों से सम्पकय साधकर नये-नये लमत्र बनाकर उन्हें संघ की शािा में िाना- यही स्वयंसेवकों का लनत्य का क्रम होर्ा है। दकंर्ु, डॉक्टरजी के ववचार में, उत्सवों के लनलमत्ता समाज के प्रमुि व्यवक्तयों को आमंवत्रर् कर, अलधक संख्या में स्वयंसेवकों द्वारा प्रस्र्ुर् अनुशायन बध्द काययक्रमों का प्रात्यखक्षक देिकर वे सहजर्ा से संघ कायय को समझ सकें गे और समाज पर भी इसका अनूकूि प्रभाव पडेगा। अर्: सघं में भी उत्सवों जैसे कुछ नैलमवत्तक काययक्रम दकये जाने की चचाय शुरु हुई। कौन-कौन से उत्सव मनाना संघ कायय के लिए उपयोगी लसध्द हो सकें गे- इस पर ववचार दकया जाने िगा। आिाढ़ शु. 15 को व्यास पौखणयमा के ददन श्री गुरु पौखणयमा का उत्सव र्ो संघ में शुरु हो चकुा र्ा। इस ददन प. पू. भगवाध्वज को अपना गुरु मानकर, उसके पूजन और श्री गुरुदखक्षणा समपयण का काययक्रम सम्पन्न हुआ र्ा। सामान्यर्या, शािा-महाववद्याियों की ग्रीष्मकािीन छुखटटयां समात होने पर दकया जाने वािा गुरुपौखणयमा का उत्सव ववद्यालर्ययों के लिए सुववधानजक होर्ा। ववजयादशमी के पववत्र ददन संघ का शुभारंभ हुआ। इसलिए सभी ने यह सुझाव ददया दक वह उत्सव भी दशहरे के ददन आयोखजर् दकया जाये। दकंर्ु क्या इस उत्सव को संघ स्र्ापना-ददन के रूप में मनाना उलचर् होगा? कहीं इससे संघ का संस्र्ालभमान र्ो नहीं बढे़गा? हमें र्ो सम्पूणय दहन्द ूसमाज को संगदठर् करना है, अर्: उस कायय में यह संस्र्ालभमान रिना कहां र्क उलचर् रहेगा? डॉक्टरजी के इन प्रश्नों ने स्वंयसेवकों के ववचारों को नयी ददशा दी। दशहरके के ददन दगुायमार्ा ने असुरों का वध दकया। अञानार्वास के बाद इसी ददन पांडवों ने शस्त्रधारण कर युध्द शुरु दकया। ऐलर्हालसक काि में, शत्रु पर ववजय प्रात करने, दहन्द ूराजा इसी ददन शस्त्र धारण कर सीमोलिंघन कररे् रे्। दशहरे के संबंध में, स्वयंसेवकों ने उक्त ववचार प्रकट दकये। सबके ववचार सुनने के बाद डॉक्टरजी ने कहा, ववजय प्रात करने के लिए दशहरा, सवोत्तार् मुहूर्य के रूप में माना जार्ा है। ववजयादशमी यह ववजय का पवय है। ववजय की आकांक्षा हृदय में िेकर दकये जाने वािे हर कायय में, ववजयदशमी का यह ववजय पवय है। ववजय की आकांक्षा हृदय में िेकर दकये जाने वािे हर कायय में, ववजयादशमी का उर्सव मनाना उलचर् है। आसुरी शवक्त पर प्रभु रामचदं्र की जवय, पाशवीशवक्तयों को मार् कर दगुायदेवी द्वारा प्रात ववजय की स्मलृर् में सीमोलिंघन भी स्वयंसेवकों और समाज को पे्ररणा दे सकेगा। अर्: इस ददन गणवेश में

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स्वयंसेवकों द्वारा अनुशासबध्द होकर संचिन कररे् हुए सीमोलिंघन काययक्रम करना उलचर् रहेगा। और, कौन सा उर्सव मनाना उलचर् रहेगा? बेठकों में यह वविय लनकिने पर स्वयंसेवक अपने-अपनेसुघव प्रस्र्ुर् करने िगे। दकसी ने कहा, लशवाजी महाराज हम सबके आदशय ऐलर्हालसक महान पुरुि हैं- उनका उर्सव मनाया जाना चादहए। दकंर्ु यह उत्सव दकस लर्लर् को िेना चादहए? जन्मददन पर या मतृ्युददन पर? आगरा में, औरंगजेब की कारा से मुवक्त का दद नही पे्ररणादायी रहेगा। रोदहडेश्वर के मंददर में, खजस ददन लशवाजी महाराज ने अपने सालर्यों के सार् स्वराज्य स्र्ापना का संकलप

(प्रलर्ञाना) लिया- वह ददन र्ो महत्वपूणय है ही दकन्र्ु खजस ददन यह संकलप पूरा हुआ वह ददन अलधक स्फूलर्यपद रहेगा। एक स्वयंसेवक के इस सुझाव पर दक जेष्ठ शु. 13 को हमें 'लशव साम्राज्य ददनोत्सव'

मनाना चादहए, डॉक्टरजी ने कहा- हां, दहन्दवी स्वराज्य की स्र्ापना का ददवस, हमें 'दहन्द ूसाम्राज्य ददनोत्सव' के रूप में मनाना अलधक उलचर् होगा। अपना कायय आरंभ कररे् समय, स्वराजय स्र्ापना का जो िक्ष्य सामने रिा, उसकी प्रालत का आदंन व्यक्त करने वािा यह ददन संघ के उर्सव हेर्ु सवोत्ताम है- सभी इस ववचार से सहमर् हुए। अन्य उत्सवों के बारे में भी, इसी र्रह सभी स्वयंसेवकों के सार् लमिकर ववचार दकया गया। संघ कायय की ववशेिर्ा अलभव्यक्त हो सके, ऐसे और कौनसे उत्सव हो सकरे् हैं? काययवखृध्द की दृवष्ट से अपने दहन्द ूसमाज को स्वालभमानी व शवक्तशािी बनाने के लिए पािक लसध्द होने वािे ववशेि प्रसंग क्या हो सकरे् हैं? ये प्रश्न उठने पर एक स्वयंसेवक ने कहा दक दहन्द ूसमाज में उत्सवों की कमी नहीं है। दकसी भी उत्सव के लनलमत्ता समाज को संघ ववचारों से उद्बोलधर् दकया जा सकर्ा है। उस स्वयंसेवक की आवेशपूणय भािा से चचाय के इस अनौपचाररक वार्ावरण में र्ोडी गंभीरर्ा आ गई। इसी बीच एक स्वयंसेवक के इस कर्न पर दक अगर ऐसा है र्ो पंचम जाजय बादशाह का जन्म ददवस मनारे् हुए अगें्रजों के अनुशालसर् व देशभवक्तपूणय जीवन का बिान कर, इस अगें्रजी राज्य में भी अपने स्वयंसेवकों और समाज को आसानी से उत्स्फूर्य दकया जा सकर्ा है- अर्: वह उत्सव भी हम मना सकरे् हैं। बैठक में हंसी का फव्वारा फूट पडा- गंभीर वार्ावरण में पुन: ििुापन आ गया। आवेश और र्नाव का वार्ावरण समात हो गया। अपनी दहन्द ूसंस्कृलर् की ववशेिर्ा दशायने वािे उत्सव कौन से हो सकरे् हैं? खजन उत्सवों को मनाने से दहन्द ूजीवन पध्दलर् के लिए आवश्यक गुणों का ववकास हो सके- ऐसे उत्सव कौन से हैं? ववचार-प्रकटन का क्रम पुन: प्रारंभ हुआ। कोई स्त्री यदद दकसी को अपना भाई मानकर रािी बांधे र्ो भाई-बदहन के उस ररश्रे् को प्राण-पण से लनभाना, यह दहन्द ूजीवन की ववशेिर्ा है। मानस भलगनी की, दकसी भी संकट से रक्षा करने का दालयत्व लनभाने का संकलप, हमारे दहन्दजूीवन की ववशेिर्ा हैं इसलिए हमें रक्षा बंधन का पवय मनाना चादहए। सार् ही, इस प्रसंग पर सावयजलनक उर्सव में भािण कररे् समय ऐसे ववचार करने चादहए जो समाज में यही भगवा जगा सके। हम स्वयं मनसा-वाचा-कमयणा दहन्दजूीवन जायें और समाज को भी उद्बोलधर् करें। स्वयंसेवकों के मन में यह वविय पैठ कर

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गया। हर व्यवक्त समाज का ऋणी हैं लनरपेक्ष भावना से समाज दहर् का कायय कर वह ऋण चकुाने का दालयत्व समाज के हर व्यवक्त को अपना प्रर्म कर्यव्य मानकर लनभाना चादहए। यही दहन्द ूजीवन दृवष्ट हैं आत्म ववस्मलृर् के कारण अधंकार में रहने वािे अपने समाज को स्व-सामथ्यय, आत्मशवक्त और राष्ट्रीयर्ा का बोध कराना अर्ायर् ्अधंकार से प्रकाश की ओरिे जाना ही संघ का कायय हैं अर्: हमें 'र्मसो मा ज्योलर्गयमय' का संदेश देने वािा मकर संक्रमण का उत्सव भी मनाना चादहए। यह सुझाव

सभी स्वयंसेवकों ने उलचर् समझा। इस प्रकार अपनी दहन्द ूसंस्कृलर् की ववशेिर्ाओं की रक्षा करने की स्फूलर्य देने वािा 'मकर संक्रमणोत्सव' सावयजलनक रूप से मनाने का लनणयय लिया गया। मनुष्य की जैसी श्रध्दा होगी और र्दनुसार वह जीवन में अर्क प्रयत्न करेगा र्ो वेसा ही वह बनेगा। ''यो य: श्रध्द: सएवस:'' एक स्वयंसेवक को यह संस्कृर् का वचन याद हो आया, खजसे उसे उधरृ् दकया। इस पर अन्य स्वयंसेवक ने कहा, 'नर करनी करे र्ो नर का नारायण हो जाए'। हम अमरृ्त्व के पुत्र हैं- हमने अपने दहन्द ूराष्ट्र को स्वर्ंत्र करने का संकलप लिया है- यह संकलप करने का सवोत्ताम मुहूर्य विय प्रलर्पदा का है- 'गुढ़ी-पाडवा' को इस दृवष्ट से उत्कृष्ट मुहूर्य माना जार्ा है। शालिवाहन शक कका आरंभ भी इसी शुभ ददन से होर्ा है- इसलिए विय प्रलर्पदा- नव विय के आरंभ का शुभ स्मरण कराने वािे ददन के रूप में मनाने का लनणयय लिया गया। विय प्रलर्पदा- यह डॉक्टरजी का जन्म ददवस भी है, इसकी जानकारी डॉक्टरजी के लनधन के बाद ही स्वयंसेवकों को लमि पायी। इस प्रकार विय भर में नैलमवत्तक काययक्रम के रूप में गुरु पौखणयमा, ववजयादशमी, मकर-संक्रमण, विय प्रलर्पदा और दहंद ूसाम्राज्य ददनोत्सव- ये छह उत्सव मनाने का ववचार संघ में स्र्ायी बना।

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19. संघ नशक्षा वगा संघ शािाओं की लनत्य बढ़र्ी संख्या को देिरे् हुए, शािाओं के संचािन के लिए अलधकालधक काययकर्ायओं के लनमायण का महत्वपूणय वविय भी चचाय में आने िगा। पू. डॉकटरजी के सार् दकये गये सामूदहक लचरं्न से यह लनष्किय लनकिा दक विय भर चिने वािे दैनंददन शािा काययक्रमों के अलर्ररक्त,

छुखटटयों की सुववधा देिकर माह-सवा माह र्क कुछ चनेु हुए स्वयंसेवकों के लिए शारीररक बौखध्दक आदद काययक्रमों की कोई सूत्र-बध्द योजना बनाई गई र्ो अलधक संख्या में काययकर्ाय उपिब्ध हो सकें गे। यह भी ववचार दकया गया के ऐसे वगय में शालमि होने वािे स्वयंसेवकों के मन, बुखध्द और हृदय संस्काररर् होने से संघकायय करने की उनकी क्षमर्ा बढे़गी। छात्रों को दो माह का ग्रीष्मकािीन अवकाश लमिर्ा है। इस काििडं का उपयोग, काययकर्ायओं के लनमायण हेर्ु वगय के आयोजन के लिए करना ठीक रहेगा। सभी स्वयंसेवक इस ववचार से सहमर् हुए। इस काि में छुखटटयां होने से शािाएं बंद रहर्ीहैं। अर्: पररलचर् लशक्षा संचािकों से शािा की इमारर् प्रलशक्षार्ी स्वयंसेवकों के आवास की व्यसव्र्ा हेर्ु मांगने का ववचार दकया गया। र्दनुसार नागपरु की कायदे शािा, धनवटे नगर ववद्यािय (लसटी स्कूि-र्त्कािीन नाम) र्र्ा न्यू इंखग्िश स्कूि के भवन संघ लशक्षा वगय के लिए लनशुलक उपिब्ध होने िगे। वगय के लिए 1 मई से 10 जून र्क 40 ददनों का समय सुववधाजनक होने से लनखिर् दकया गया। चािीस ददनों र्क एकत्र रहरे् समय भोजन, वैधकीय व्यवस् र्ा, प्रकाश, जिपूलर्य आदद का ववचार भी दकया गया र्र्ा इस परहोने वािे िचय की पूलर्य के लिए वगय में सहभागी होने वािे प्रलशक्षार्ी स्वयंसेवकों के लिए शुलक लनधायररर् दकया गया। 1929 में संघ का प्रर्म लशक्षा वगय नागपुर में प्रारंभ हुआ। इन वगों का संघ लशक्षा वगय यह नाम र्ो 1950 के बाद प्रचलिर् हुआ। प्रारंभ में उन्हें 'ग्रीष्मकािीन वगय' ही कहा जार्ां 'ग्रीष्मकािीन वगय' कहने से काययकर्ायओं के लनमायण की ववशेिर्ा स्पष्ट नहीं हो पार्ी, अर्: इसके लिए कोई अन्य संबोधन िोजना होगा। यह ववचार भी स्वयंसेवकों की चचाय में आने िगा। उन ददनों इस वगय में शारीररक लशक्षा के लिए आवश्यक दंड, िडग, योगचाप, शूि आदद काययक्रमों की अपेक्षा अनुशासन लनमायण हेर्ु गणवेश में समर्ा-संचािन जैसे सैलनकी काययक्रम पर ववशेि बि ददया जार्ा। गणवेश में दकये जाने वािे इन सैलनकी काययक्रमों में, अगें्रजी भािा में आञानायें, ही उन ददनों प्रचलिर्

र्ीं। प्रारंभ में उनका ही उपयोग दकया गया। उत्सव प्रसंगों पर दकये जाने वािे प्रात्यखक्षकों में इस प्रकार के सैलनकी काययक्रमों का समाज पर गहरा असर होर्ा। उन ददनों कॉिेज के छात्रों को (University Training Corps½ U.T.C. द्वारा सैलनक लशक्षा दी जार्ी र्ी। U.T.C. में भाग िेने वािे स्वयंसेवकों के माध्यम यह कायय आसानी से दकया गया। स्वयंसेवक शािा में दण्ड िेकर आरे् रे्। इस दण्ड को डी.पी. (for Drill Purpose) बंदकू समझकर शािा में समर्ा का यह प्रार्लमक प्रलशक्षण कायय चिर्ा। इनमें, उन ददनों अगें्रजी आञानाओं का ही उपयोग होर्ा। अपने ग्रीष्मकािीन वगय को दकस नाम ये सम्बोलधर् दकया जाए? एक बैठक में यह ववचार चचाय हेर्ु

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प्रस्र्ुर् हुआ। एक ने सुझाया- Training Class, इस पर अन्य स्वयंसेवक ने कहा दक इस नाम में, यह संघ की शािाओं के लिए है, यह जोडना आवश्यक है अर्: इसे Sangh Training Class कहा जाये। डॉक्टरजी ने कहा दक वगय में ददया जाने वािा प्रलशक्षण एक ववशेि प्रकार का है। संघ का कायय करने के लिए अलधक योग्यर्ा प्रात काययकर्ाय र्ैयार करने के लिए ही हम काफी मेहनर् से यह वगय चिारे् हैं। इसमें ये ध्येयलनष्ठ, ििुी दृवष्ट रिकर समाज में समरस होकर संघ कायय करने वािा, संघ की जीवन-दृवष्ट को आत्मसार् कर, संघ कायय के लिए अलधकालधक समय देने वािे काययकर्ायओं के लनमायण होने का िक्ष्य ही, इस वगय का प्रयोजन है। संघ के अलधकारी (Officers) प्रलशखक्षर् करने के लिए यह वगय है। अर्: Officers Training Camp (OTC) यह नाम उन ददनों प्रचलिर् हुआ। र्त्कािीन स्वयंसेवकों के वार्ायिाप में आज भी अनवधान से इस ववशेि वगों के लिए ओ.टी.सी. यह नामोलिेि सुनने को लमिर्ा है। 1939-40 के बाद अगें्रजी-आञानाओं के स्र्ान पर संस्कृर् दहन्दी के शब्द प्रयोग होने िगे। उन ददनों दकसी जानकार ने ओ.टी.सी. का दहंदी अनुवाद 'अलधकारी लशक्षा वगय' दकया। दकंर्ु इस नाम के आद्याक्षरों को लमिकार जो संखक्षत नाम होर्ा है वह 'अलशव' शब्द है। अपने मंगि कायय में दकसी भी काययक्रम का 'अलशव' शब्द से उलिेि दकया जाना उलचर् नहीं होगा। इसलिए पूजनीय श्री गुरुजी क मागयदशयन में इस वगय का नाम 'संघ लशक्षा वगय' के रूप में प्रचलिर् हुआ। जो स्वयंसेवक शािा में लनयलमर् रूप से आरे् रे्, उनमें से ही, बडी सावधानीपूवयक, चनेु गये स्वयंसेवक ही इस संघ लशक्षावगय में सहभागी होरे् रे्। प्रांरभ में कुछ विों र्क यही क्रम चिा। बाद में, शािाओं की संख्या बढ़ाने के लिए, ग्रीष्म कािीन छुखटटयों में 4-65 सताह र्क ववलभन्न गांवों में ववस्र्ारक भेजने की योजना बनी। उन ददनों माचय में परीक्षाएं समात होरे् ही महाववद्यािय ग्रीष्मकािीन छुखटटयों के बंद हो जारे्। इस कारण अप्रैि माह में ववस्र्ारक भेजे जाने िगे। अलधकांश ववस्र्ारक ववदभय और

महाकोशि प्रांर् में भेजे जारे्। खजन गांवों में ये ववस्र्ारक जारे्, वहां माह भर के अपने वास्र्त्वय में संघ की शािा िोिरे् और शािा के संचािन हेर्ु, खजन स्वयंसेवकों में दालयत्व स्वीकार कर शािा के काययक्रम िेने की क्षमर्ा ददिाई दे, ऐसे स्वयंसेवकों को चनुकर उन्हें संघ लशक्षा वगय में िाने का प्रयास दकया जाए- यह ववस्र्ारकों से अपेक्षा की जार्ी। इस प्रकार ऐसे नवपररलचर् स्वयंसेवकों में से सक्षम काययकर्ाय र्ैयार करने की योजना संघलशक्षा वगय में कायायखन्वर् की जाने िगी। संभव हुआ र्ो िगार्ार, अन्यर्ा अपनी सुववधानुसार प्रर्म, दद्वर्ीय और र्रृ्ीय विय लशखक्षर् काययकर्ाय वगय में लशक्षक के रूप में काम करने िगे। इसके सार् ही एक ववश्वसनीय संघ काययकर्ाय के रूप में उसकी क्षमर्ा को स्वीकार दकया जाने िगा। संघ लशक्षा वगय में अपने वास्र्त्वय किा में लशक्षार्ी स्वयंसेवक पूणयर्या संघ-ववचार और व्यवहार के लचरं्न में मग्न रहे- इस दृवष्ट से वगय का वेिा-पत्रक सुलनखिर् दकया गया। प्रार्: काि 3.45 बजे उठने के बाद से रावत्र 10 बजे र्क होने वािे ववववध काययक्रमों में उसका सहभाग आवश्यक माना गया।

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सुबह 5 से 8 बजे र्क संघ स्र्ान पर शरीररक काययक्रम, 8 से 9 घोि प्रलशक्षण के वगय, बाद में स्नान,

11 से 12 के बीच भोजन और दफर 1 बजे र्क ववश्रांलर्। दोपहर 1 बजे से 2 के बीच स्वयंसेवक शरीररक लशक्षण क्रम व समर्ा सम्बन्धी िेिन कायय कररे्। दोपहर 2 से 3 चचाय, ववचार ववलनमय, 3॥ से 5 र्क बौखध्दक वगय में प्रमुि लचरं्क का भािण, सायं 6 से 7॥ गणवेश में संघ स्र्ान पर काययक्रम होरे्। दफर रावत्र में 8॥ से 9॥ के बीच भोजन, 9॥ से 10 अनौपचाररक वार्ायिाप र्र्ा रावत्र 10 बजे नींद हेर्ु स्वयंसेवक लनवरृ् होरे्। वगय में, डॉक्टरजी एवं अन्य अलधकारी पूणय समय र्क रहरे्। इस कारण काययक्रमों के ईच समय में, चचाय बैठक और रावत्र के अनौपचाररक वार्ायिाप में वे भी सहभागी होरे्। 1937 के संघलशक्षा वगय र्क, इन वगों में प्रलर् शलनवार रावत्र में मनोरंजन के काययक्रम भी होरे् और रवववार को संघ स्स्र्ान पर होने वािे काययक्रम नहीं होरे्- इस एक ददवसीय अवकाश में, वगय में सहभागी स्वयंसेवक नागपुर के स्र्ानीय स्वयंसेवकों से भेंट वार्ायिाप कररे्। 1938 के बाद, रवववार के इस अवकाश से शारीररक- बौखध्दक काययक्रम में रुकावट पैदा हार्ी है, इसलिए यह अवकाश देने की प्रर्ा बंद कर दी गई और उसके स्र्ान पर लनर्य की भांलर् काययक्रम होने िगे। आगे चिकर, इन वगों का काि मयायदा 40 ददनों की बजाए 30 ददन लनखिर् हुई। 1934 र्क संघ लशक्षा वगय केवि नागपुर में ही हुआ करर्। 1935 से पुणे में प्रर्म व दद्वर्ीय विय के वगय प्रारंभ हुए। ग्रीष्मकािीन छुखटटयों की सुववधा के अनुसार पुणे का वगय 22 अप्रैि से 2 जून र्क और नागपुर का वगय 1 मई से 10 जून र्क हुआ करर्ा। पू. डॉक्टरजी वगय प्रारंभ होने पर 15 मई र्क पणेु में और उसके बाद नागपुर के वगय में वास्र्व्य कररे्। 1938 में िाहौर (पंजाब) में भी इसी प्रकार प्रर्म व दद्वर्ीय विय के वगों का आयोजन हुआ। िाहौर का वगय वहां की ग्रीष्म कािीन छुखटटयों की सुववधा के अनुसार जुिाई में होर्ा। इसके बाद, जैसे-जैसे कायय बढ़र्ा गया, अन्य प्रांर्ों में भी प्रर्म और दद्वर्ीय विय के संघ लशक्षा वगय आयोखजर् होने िगे। केवि र्रृ्ीय विय की लशक्षा के लिए सभी लशक्षालर्ययों को नागपुर में ही आना अलनवायय माना गया। अन्य प्रांर्ों क हर वगय में, मुख्यलशक्षक और अन्य लशक्षक नागपुर से ही भेजे जारे्। इसके पिार् हुए पररवर्यन की जानकारी स्वयंसेवकों को है, इसलिए उनका ववशेि उलिेि करने की आवश्यकर्ा नहीं है। संघ की काययपध्दलर् में संघ लशक्षा वगय का ववशेि महत्व होने से यहां उनके ववकास की यह संखक्षत चचाय ही पयायत होगी।

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20. बौध्दिक कायािम

यह कहना अलर्श्योवक्त नहीं होगी दक बौखध्दक वगय और बौखध्दक काययक्रम, ये शब्द-प्रयोग संघ की काययपध्दलर् के कारण ही समाज में अन्यत्र उपयोग में आने िगे। संघ प्रारंभ होने के पूवय व्याख्यान,

भािण आदद शब्द समाज में प्रचलिर् रे्। कोई ववद्वान, महापुरुि अनुभवी सामाखजक काययकर्ाय अर्वा नेर्ा दकसी सभी को घंटा-सवा घंटा संबोलधर् करे, र्ो उसे व्याख्यान कहा जार्ा र्ा। शरीर को सुदृढ़ व

काययक्षम बनाये रिने के लिए र्र्ा मनुष्य में साहस और आत्मववश्वास जगाने के लिए संघ में शारीररक काययक्रमों की योजना हुई। ये काययक्रम उन ददनों और आज भी अन्य व्यायामशािाओं में होरे् हैं, दकंर्ु शारीररक क्षमर्ा के सार् ही व्यवक्त का मन और बुखध्द को भी संस्काररर् करना आवश्यक है। पववत्र, शांर् व एकाग्र मन र्र्ा कुशाग्र बुखध्द के अभाव में, उसी प्रकार सामज जीवन का दालयत्व भी हम पर है, इसका बोधलनत्य लनरंर्र जागरृ् रहे वबना, स्वयंसेवक का जीवन सद्गणु सम्पन्न,

शीि-चाररत्र्य से युक्त और ध्येय-लनष्ठ नहीं बन सकेगा। लनत्य की बैठकों में डॉक्टरजी के सार् सामूदहक लचरं्न में यह ववचार प्रकट हुआ। प्रारंलभक काि में आवश्यकर्ानुसार पू. डॉक्टरजी की काययक्रमों में बोिा कररे् रे्। दकंर्ु आगे चिकर खजस प्रकार शरीर संस्काररर् करने के लिए लनत्य शरीररक काययक्रम करना आवश्यक है, उसी प्रकार मन और बुखध्द को संस्काररर् करने के लिए सताह में एक ददन बौखध्दक काययक्रम की योजना भी सभी के सार् ववचार-ववलनमय के बाद लनखिर् हुई और बौखध्दक काययक्रम भी संघ में शुरु हो गये। संघ यह बौखध्दक- काययक्रम केवि ववद्वान व अनुभवी सामाखजक काययकर्ायओं के भािण आयोखजर् कराने र्क ही सीलमर् नहीं र्ा। संघ का काययकर्ाय भी अध्ययन कर संघ संबंलधर् दकसी वविय पर बोिे- यह पध्दलर् भी बौखध्दक वगय में प्रारंभ की गई। प्रारंभ में, स्वयंसेव कइस प्रकार बौखध्दक वगय में बोिने में सकुचारे् रे्। लनयोखजर् वविय का अध्ययन करने के बाद भी जब स्वयंसेवकों के सामने िडे होकर बोिने का अवसर आर्ा, र्ो कुछ काययकर्ाय गडबडा जारे् और बोि नहीं पारे्। ऐसे काययकर्ायओ ंसे अनौपचाररक वार्ायिाप में डॉक्टरजी कहरे्- 'संघकायय हमें ही करना है। अर्: संघ का ववचार व

लसध्दांर् िोगों को समझाकर बर्ाने का काम भी हमें ही करना होगा। नये-नये स्वयंसेवकों को उनके कर्यव्यों का बोध कराना र्र्ा र्दनुसार अपने जीवन को आवश्यकर्ानुसार मोड देना आवश्यक है- इसके लिए लनरंर्र प्रयास करने की आवश्यकर्ा उलचर् शब्दों में उनके ध्यान में िाने का काम भी हमें ही करना होगा। इसलिए हमें अपने ववचारों को अध्ययन के द्वारा पररष्कृर् कर उन्हें स्वयंसेवकों र्र्ा समाजबांधवों के समक्ष व्यक्त करने की किा अवगर् करनी होगी। सघं कायय के प्रसारार्य अपन ववचार-आचार संबंधी प्रलर्पादन प्रभावी शब्दों में करने की किा-अवगर् कराने के लिए ही संघ में इन बौखध्दक वगों को योजना की गई है। इस ववचार से, स्वयंसेवकों को ववचार करने की नयी ददशा लमिी। इन बौखध्दक वगों में, स्वयंसेवकों को अनुशासन बध्द ढंग से बैठने के बाद, भािण शुरु होने के पूवय दो ववशेि काययक्रमों की योजना की गई। एक काययक्रम होर्ा व्यवक्तगर् गीर् का- यह गीर् भी भािण क

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ववियानुकूि ववचारों व भावनाओं से भरा होर्ा, खजसे कोई स्वयंसेवक अपनी सुरीिी आवाज में गाकर सुनार्ा। इस भावपूणय गीर् को सुनरे् समय स्वयंसेवक र्लिीन होकर लनयोखजर् भािण सुनने की मन:खस्र्लर् में आ जारे्। इसीलिए गीर् और गीर्-गायक का उलचर् चयन बौखध्दक काययक्रम की योजना का एक आवश्यक अगं बन गया। गीर् की स्वर-संगलर्, र्जय और िय का चयन अगर ठीक ढंग से दकया गया र्ोउस गीर् की भावनाएं स्वयंसेवकों और सुनने वािे अन्य समाज बांधवों के हृदय को छू जार्ी। अक्सर यह भी अनुभव में आर्ा दक काययक्रम समालत के बाद उस गीर् के स्वर और शब्द श्रोर्ाओं के मन में बने रहरे्। घर िौटरे् समय अनेक श्रोर्ाओं के मुंह से उस गीर् को गुनगुनारे् हुए भी अक्सी सुना जार्ा। इसीलिए भािण क पूवय ऐसे प्रभावी गीर् का चयन बौखध्दक-वगय का एक आवश्यक अगं बन गया।

व्यवक्तगर् गीर् चयन के बाद, यर्ोलचर् शब्दों में भािण देने वािे वक्ता का पररचय कराया जार्ा। डॉक्टरजी इस बार् का बडा ध्यान रिरे् दक पररचय अच्छे ढंग से कराया जाये। सामाखजक मानलसकर्ा के ववशेिञानों की राय में पुस्र्क पढ़ने के पूवय िेिक का पररचय और भािण देने के पूवय वक्ता का पररचय पठकों अर्वा श्रोर्ाओं को होना आवश्यक है। भािणकर्ाय ने संबंलधर् वविय का गहराई से अध्ययन दकया है, और इसलिए वे इस वविय के प्रलर्पादन के 'अलधकारी हैं आदद यर्ोलचर् शब्दों में वक्ता का पररचय दकया जार्ा। प्रारंलभक काि में भािण देरे् समय अनेक प्रकार के मजेदार अनुभव आरे् रे्। ऐसे ही एक प्रसंग का यहा संस्मरण हो आर्ा है। डॉक्टरजी ने, वक्ता का यर्ोलचर् शब्दों में पररचय कराया और कहा दक आज के बौखध्दक वगय में श्री ........................ अगें्रजी मे अपना भािण देंगे। यह कहर्े ही वक्ता श्री ................................... भािण देने के लिए िडे हुए। िगभग 1 घंटे र्क भािण देने की र्ैयारी करआये वक्ता महोदय केवि इर्ना ही ही बोि पाये ''Revert Dectorji

and dear swayamsevak brothern,''- और बाकी का सारा भािण भूि गये। जो ववचार व्यक्त करने का, मन में संजोकर वे आये रे्, उसकी शृंििा टूट गयी और उन्हें कुछ याद न रहा। आधे लमनट र्क वे वैसे ही िडे रहे और बोिना असंभव प्रर्ीर् होने से नीचे अपनी जगह पर जाकर बैठ गये। डॉक्टरजी ने िडे होकर, उस ददन का बौखध्दक वगय स्वयं लिया। वे बोिे, भािण करना संभव नहीं हो पाने के अनुभवन प्रारंभ में अच्छे-अच्छे वक्ताओं को भी आरे् हैं। आगे चिकर, अच्छे ख्यालर् प्रात वक्ताओं को भी भािण देने िोगों के सामने िडे होरे् ही ददमाग में संयोजे ववचार मानों िुत हो गये- ऐसे अनुभव आये हैं। अर्: हमें इस पर भी मार् करनी चादहए। ऐसे कुछ मजेदार प्रसंगों को सुनाकर उन्होंने उस वक्ता और स्वयंसेवकों का उत्साह बढ़ाया।

डॉक्टरजी इस ओर भी ववशेि ध्यान देरे् के बौखध्दक वगय में भािण दकसी का भी हो, अपने दकसी सहयोगी स्वयंसेवक से उस भािण का सारांश बर्ाने को कहरे्। उसके कर्न में कोई भूि रह गयी, कोई मुद्दा अस्पष्ट रहा अर्वा वह बर्ाना भूि गया र्ो बैठक में उपखस्र्र् अन्य स्वयंसेवक अर्वा

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स्वयं डॉक्टरजी उसे स्पष्ट कर समझाने का प्रयास कररे्। इस र्रह स्वयंसेवकों में ध्यान पूवयक भािण सुनने और उसका लचरं्न मनन करने की आदर् डािी गई। बौखध्दक वगय में, भािण समालत के बाद श्रोर्ाओं को र्ालियों नहीं पीटनी चादहए। अपने पररवार में वपर्ाजी अर्वा आत दहर्ैिी व्यवक्त यदद

अपने दहर् में कोई कहर्े हैं र्ब र्ो हम र्ालियां नहीं पीटरे्। इसी प्रकार समाज के वररष्ट जनों की बार्ें सुनकर, आत्मीयर्ा से उसका ववचार करना चादहए और र्दनुसार आचरण करने का प्रयास करना चादहए। इस बार् पर डॉक्टरजी ववशेि बि ददया कररे्।

दकसी जादहर काययक्रम में प्रमि अलर्लर् अर्वा अध्यक्ष का भािण होने के बाद श्रोर्ाओं ने अगर

र्ालियां नहीं पीटी र्ो शरुु-शुरु में नवपररलचर् िोगों को संघ के इस अनुशासन बध्द काययक्रम में उनका ठंडा स्वागर् हुआ, प्रर्ीर् होर्ा र्ा। कुछ िोग ऐसी भावनाएं भी व्यक्त कररे्। दकन्र्ु संघ के काययक्रम में यही सीि दी जार्ी है दक आदरणीय व्यवक्त का भािण का ध्यानपूवयक सुना जाए और उसके उपदेशों को आचरण में िाने का प्रयास दकया जाए। इसीलिए संघ के काययक्रम में र्ालियां पीटने की पध्दलर् नहीं है। धीरे-धीरे यह बार् समाज के अन्य िोगों की समझ में आने िगी।

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21. नशनशर नशववर

संघ के ववववध काययक्रमों में शीर्कािीन लशववर का भी अपना ववशेि महत्व है। संघ का कायय प्रारंभ होने पर, दो-र्ीन विों में ही यह लशववर का काययक्रम शुरु हुआ जो आज र्क प्रलर्विय होर्ा आया है। डॉक्टरजी ने प्रारंभ से ही इस बार् का ध्यान रिा के केवि संघस्र्ान पर ही नहीं, बखलक अपने जीवन में अनुशासन का पािन दकया जाना चादहए और इसलिए अनुशासन यह स्वयंसेवक स्वभाव बने। शािाओं में र्र्ा उर्सव प्रसंगों पर गणवेश में समर्ा व पर्संचिन आदद के काययक्रम होरे् रे्। जीवन में अनुशासन की आदर् डािने के लिए स्काऊट में अर्वा कॉिेज छात्रों को उपिब्ध U.T.C.

(University Training Corps) में Winter Camps हुआ कररे् रे्। उन लशववरों के माध्यम से अनुशासन के संस्कारों को जीवन में गहराई से उर्ारना संभव है, यह बार् ध्यान में आयी। संघ में भी अनुशासन के सार् ही देशभवक्त के संस्कार सुदृढ़ करने की दृवष्ट से इस प्रकार के शीर्कािीन लशववरों का आयोजन उपयोगी रहेगा। इस ववचार पर सभी काययकर्ाय सहमर् हुए। घरेिु वार्ावरण से दरू, केवि स्वयंसेवकों का, र्ीन-चार ददनों का अनुशासन युक्त सहजीवन, जहां संघ कायय के लिए उपयोगी लसध्द होगा, वहीं स्वयंसेवकों के लनमायण के लिए भी आवश्यक है। यह ववचार पक्का होने पर लशववर का आयोजन सुलनखिर् हुआ।

लशववर को सफि बनाने के सम्बन्ध में सभी प्रमुि स्वयंसेवकों के सार् ववचार-ववलनमय दकया गया। 1928, में नागपुर में सोनेगांव हवाई अड्डे का लनकटवर्ी स्र्ान लशववर के लिए सुववधाजनक माना गया। पडोस में खस्र्र् र्ािाब, मंददर पेयजि के लिए बडा कंुआ र्र्ा ििुा मैदान- लशववर के लिए सभी दृवष्ट से सुववधाजनक र्ा। वहीं नागपुर संघ शािा का प्रर्म लशववर सम्पन्न हुआ। पूणयर्या संघमय वार्ावरण में, अनुशालसर् सहजीवन और सहलचरं्न का अनुभव स्वयंसेवकों के लिए वविक्षण पे्ररणादायी रहा। दसूरे विय, लशववर में लनवास हेर्ु र्ंबुओं की व्यवस्र्ा करने की बार् सोची गई। उन ददनों संघ के पास

र्ंबू नहीं रे्। नागपुर के संघ-पे्रमी पररलचर्ों के यहां से छोटे-बडे र्म्बू लशववर हेर्ु एकवत्रर् करने के लनलमत्ता नये-नये प्रलर्वष्ठर् िोगों से सम्पकय साधा गया। उन ददनों 25 ददसम्बर से 1 जनवरी र्क सभी स्कूिों-कॉिेजों को दक्रसमस की छुखटटयां होर्ी र्ी। यही ददन सुववधाजनक होने से दद. 24 ददसम्बर से 28 ददसम्बर र्क र्रुण स्वयंसेवकों का गणवेश में लशववर िेने का क्रम शुरु हुआ।

र्रुणों के लशववर में चार ददवसीय चिने वािे काययक्रम, बाि स्वयंसेवकों केलिए अलधक कष्टप्रद और िचीिे होने क कारण, 1932 केददसंबर में, र्रुणों के लशववर के एक सताह पूवय, शलनवार सायंकाि से सोमवार सुबह र्क उसी स्र्ान पर बाि स्वयंसेवकों का लशववर लिया गया। उमरेड रोड पर खस्र्र् ददघोरी नामक गांव में श्री राजाबाि साहेअ लचटणवीस के बंगिे के अहारे् में बाि स्वयंसेवकों का गणवेश में प्रर्म लशववर सम्पन्न हुआ। पूवय पररचय होने के कारण बंगेिे के कुछ कमरे लनवास

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व्यवस्र्ा हेर्ु भी उपिब्ध हुए- खजनमें डॉक्टरजी र्र्ा उनके बंध ुआदरणीय आबाजी हेडगेवार आदद वररष्ठ व्यवक्तयों का लशववर के पूवय काि र्क वास्र्व्य रहा। कुछ बाि स्वयंसेवकों क आवास की व्यवस्र्ा बंगिे के एक बडे दािान में की गई।

संघ कायय की दृवष्ट से लशववर की उपयोलगर्ा ध्यान में आने क कारण एक गांव अर्वा शहर के

स्वयंसेवकों के लशववर की भांलर् ही अलधक व्यापक के्षत्र के र्हसीि, खजिा और प्रांर् स्र्र पर भी इस प्रकार के, सब स्वयंसेवकों की सुववधा से, लशववर आयोखजर् करने की पध्दलर् शुरु हुई। इसी का पररवलधयर् स्वरूप 1981 में कनायटक प्रांर् का लशववर खजसमें 22,000 स्वयंसेवक शालमि हुए और पुणे के लनकट र्ळासरी में 1988 के संक्रांलर् पवय पर महाराष्ट्र प्रांर् के लशववर, खजसमें 35 हजार स्वयंसेवकों ने भाग लिया- सामने आया।

हजारों स्वयंसेवकों में अनुशालसर् जीवन की आदर् डािने वािा यह लशववर अनेक दृवष्ट से संघकायय के लिए पोिक और उपयोगी लसध्द हुआ। सुसंगदठर् समाज जीवन का प्रर्ीक और सुदृढ़ राष्ट्रजीवन का सहजर्ा से अनुभव कराने वािा यह िघुरूप देिकर िोगों में यह ववश्वास बढ़ने िगा दक अपने दहन्द ूसमाज को बिशािी और राष्ट्रभक्त बनाने का, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कायय ही एकमेव सच्च और सही मागय है। इसके सार् ही संघ कायय का आकियण भी बढ़ा। इस प्रकार के काययक्रमों के कारण जहां राष्ट्रलनष्ठ िोगों के मन में संघ और स्वयंसेवकों के प्रलर् अपनत्व की भावना लनमायण हुई, वहां स्वार्ी और राष्ट्रद्रोही प्रववृत्त के जनमानस में जिन और धाक (दबदबा) पैदा होने िगा। लशववर को सफि बनाने हेर्ु व्यापक सम्पकय र्र्ा संघ क प्रलर् सहानुभूलर् का के्षत्र भी ववशाि होने िगा।

संघ कायय की व्यालत बढ़ने (ववस्र्ार होने) के बाद डॉक्टरजी के लिए सभी स्वयंसेवकों के सार् ववचार-ववलनमय करना असंभव सा हो गया। कुछ इने-लगने काययकर्ायओं क सार् लनत्य ही चचाय संभव हो पार्ी। शािाओं की संख्या बढ़ने के कारण हर शािा में जाना भी डॉक्टरजी के लिए असंभव र्ा- दकंर्ु लशववर में र्ीन-चार ददन एकत्र रहकर स्वयंसेवकों को डॉक्टरजी का मागयदशयन प्रात होर्ा।

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22. संस्कृत प्राथाना ववदभय-महाराष्ट्र र्र्ा महाकोशि में रायपुर जैसी शािाओं को छोडकर अन्य प्रांर्ों में 1937 र्क केवि बनारस में ही शािा स्र्ावपर् हो चकुी र्ी। भाई परमानंदजी की पे्ररणा से िाहौर से एक-दो स्वयंसेवक सन ्1934-35-36 के नागपुर संघ लशक्षा वगय में भाग िेने आये रे्, दकंर्ु वहा ंशािाएं शुरु नहीं हो पायीं र्ी। 1937 के बाद ही अन्य प्रांर्ों में स्वयंसेवक लशक्षार्ी और प्रचारक बनकर गये, र्भी उनके प्रयासें से पंजाब, ददलिी, उत्तार प्रदेश, वबहार, मद्रास व बंगाि में संघ की शािाएं िुिने िगीं। उन ददनों इन सभी प्रांर्ों की एक शािाओं में, एक मराठी श्लोक व एक दहन्दी श्लोक से लमिकर बनी प्रारंलभक पार्यना ही होर्ी र्ी। प्रार्यना का अर्य बौखध्दक वगों में स्वयंसेवकों को समझाकर बर्ाया जार्ा। दकंर्ु, जब अखिि भारर्ीय स्र्र पर संघ के कायय का ववस्र्ार होने िगा र्ो संस्कृर् भािा में, सरि दकंर्ु अर्यपूणय शब्नों से नयी प्रार्यना की आवश्यकर्ा अनुभव में आने िगी। इसी प्रकार समर्ा के काययक्रमों व अन्य शरीररक काययक्रमों की मराठी व अगें्रजी भािा में दी जाने वािी आञानाओं का संस्कृर् अनुवाद करना भी आवश्यक प्रर्ीर् हुआ। इस पर ववचार करने के लिए 1939 के फरवरी माह में, नागपुर से 50 दक.मी. दरूी पर खस्र्र् लसंदी (खज. वधाय) में एक बैठक आयोखजर् की गई। इस बैठक की सारी व्यवस्र्ा वहां के संघचािक श्री नाना साहब टािाटुिे के बाडे में की गई। इस ववचार-ववलनमय में, डॉक्टरजी, पू. श्री गुरुजी, श्री बाळासाहब देवरस, मा. अप्पाजी जोशी, श्री ववटठिराव पत्की, श्री नानासाहब टािाटुिे, श्री र्ात्याराव रे्िंग, श्री बाबाजी सािोडकर र्र्ा श्री कृष्णराव मोहरीि ने भाग लिया। बैठक की उलचर् व्यवस्र्ा का दालयत्व श्री बबनराव पंदडर् पर सौंपा गया। इस बैठक में, 1925 से 1939 र्क क्रमश: ववकलसर् काययपध्दलर् सुलनखिर् की गई। सभी आञानाएं संस्कृर् में देने का लनिय हुआ। संस्कृर् में प्रार्यना र्ैयार करने के सम्बन्ध में भी ववचार-ववलनमय हुआ।

संघ की प्रार्यना में खजन ववचारों को सुस्पष्ट शब्दों में प्रकट करना है, उनका क्रम भी इसी बैठकमें लनखिर् दकया गया। आज जो संस्कृर् भािा की प्रार्यना है, उसी का मराठी-गद्य स्वरूप पहिे र्य हुआ खजसे बाद में संस्कृर् में लिवपबध्द करने की दृवष्ट से मराठी-गद्य की पंवक्तयां लनकािकर डॉक्टरजी ने

महाराष्ट्र प्रांर् संघचािक श्री का. भा लिमये (सांगिी) र्र्ा ववनायकराव आपटे (पूणे) के पास इसकी सूचना लभजवाई दक वे दकसी जानकार संस्कृर् पंदडर् के द्वारा उनका संस्कृर् अनुवाद कर यर्ा शीघ्र नागपुर लभजवाएं। मराठी-गद्य की एक प्रलर् नागपुर के संस्कृर् ववद्वान व मोदहरे् शािा के काययवाह श्री नरहर नारायण लभडे के पास भी लभजवाई र्र्ा उनके गुरु महामहोपाध्याय डॉ. केशव गोपाळ र्ाम्हन से ववचार-ववलनमय कर, संस्कृर् अनुवाद र्ैयार करने का आग्रह दकया। श्री लभडे द्वारा दकया गया संस्कृर्-अनुवाद सवोत्कृष्ट प्रर्ीर् होने से सभी ने उसे स्वीकार दकया। श्री लभडे को संस्कृर् का गहरा अध्ययन र्ा, इसलिए केवि एक शब्द में र्ोडा पररवर्यन उन्होंने सूलचर् दकया। वह पररवर्यन इस प्रकार र्ा- 'अभ्युदय व लन:श्रयेस'- इन दोनों की प्रालत के श्रषे्ठ साधन के रूप मे वीरव्रर्''- इसमें अभ्युदय शब्द का उपयोग कररे् समय श्लोक की पंवक्त में एक मात्रा कम होने से जो कमी रह जार्ी है, उसकी

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पूलर्य हेर्ु उसकी बजाय 'समुत्किय' शब्द रिा गया- खजसे सभी ने सहिय स्वीकार दकया। 1940 के प्रारंभ में, यह संस्कृर् प्रार्यना र्ैयार हुई जो पुणे के संघ लशक्षा वगय में डॉक्टरजी की उपखस्र्लर् में और नागपुर के संघ लशक्षा वगय में पू. गुरुजी की उपखस्र्लर् में कही गयी। पू. श्रीगुरुजी उस समय नागपुर

संघ लशक्षा वगय के सवायलधकारी रे्। संघ लशक्षा वगों के बाद सम्पूणय भारर् की शािाओं में संस्कृर् प्रार्यना का प्रारंभ हुआ।

हमें, यह जानकर आियय होना स्वाभाववक है दक संघ कायय में प्रार्यना जैसा महत्वपूणय वविय संघ प्रारंभ होने के 15 विों बाद सुलनखिर् हुआ। इसका प्रमुि कारण यही र्ा दक संघ कायय के लिए

पूणयर्या अनुकूि काययपध्दलर्, स्वाभाववकर्या, सभी स्वयंसेवकों के ववचार-ववलनमय के बाद ही, हर बार सुलनखिर् की गई। प्रत्यक्ष कायय कररे् समय, जो-जो आवश्यक प्रर्ीर् हुआ, उस सम्बन्ध में सामूदहक लचरं्न के लनष्किय से ही संघ की काययपध्दलर् ववकलसर् होर्ी गई। पू. डॉक्टरजी के काययकर्ायओं के सार् अनौपचाररक वार्ायिापों से ही हुआ संघ की काययपध्दलर् का यह ववकास संघ कायय की एक ववशेिर्ा के रूप मे आज हम सबके सामने है।

शरीररक लशक्षाक्रम में पहिे पराठी की आञानाएं होर्ी र्ीं। आज हम- 'क्रलमका एक कुरु' यह जो आञाना देरे् हैं, पहिे मराठी भािा में वह इस प्रकार दी जार्ी र्ी- 'रामरामी एक सुरु'। 'िद्पदी ऊध्वयभ्रमण चर्ुष्क' की बजाय उन ददनों 'चौरंगी उडव मार चौक' यह आञाना दी जार्ी। इस प्रकार शरीररक लशक्षाक्रम का सारी आञानाएं श्री बाबाजी सािोडकर और श्री नरहर नारायण लभडे के सहयोग से संस्कृर् में की गईं और इन आञानाओं की शुध्द संस्कृर् शब्द रचना संघ लशक्षा वगों के माध्यम से सवयत्र प्रचलिर् हुई। समर्ा के लिए उपयोग में िायी जाने वािी अगें्रजी-आञानाओं का भी श्री न.ना. लभडे ने संस्कृर् में सुंदर भािान्र्र दकया। यर्ा Formation- के लिए व्यूह, March Past- प्रदखक्षण संचिन, Advance in

Review order के लिए प्रत्युर्, Line formation- र्लर्व्यूह, Halt स्र्भ, form fours- चर्व्यूयह आदद संस्कृर् के शब्द प्रयोगों की हम सभी को आदर् हो गई। Band के लिए घोि, Bugle के लिए शंि, Flute के लिए वंशी, Side drum के लिए आनक आदद संस्कृर् नाम आज सवयपररलचर् हो चकेु हैं।

इस प्रकार आञानाओ ंमें यर्ा समय संस्कृर् पररवर्यन, नये-नये काययक्रमों की स्वीकृलर्, 15 विों बाद

संस्कृर् में प्रार्यना का सुलनिय आदद क्रमश: होने वािे पररवर्यनों को देिकर मन में यह प्रश्न उपखस्र्र् हो सकर्ा है दक इसमें संघ की काययपध्दलर् की कौन सी ववशेिर्ा है? हर बार अपने सहयोगी काययकर्ायओं और स्वयंसेवकों के सार् वार्ायिाप के पिार् सवयसम्मलर् से ही यह पररवर्यन होर्ा गया है- इसलिए सभी ने उसे मन:पूवयक स्वीकार भी दकया। स्वाभाववकर्या पू. डॉक्टरजी ने अपनी प्रलर्भा और काययकुशिर्ा से भी को स्वीकायय ऐसा पररवर्यन, आवश्यकर्ानुसार संघ कायय में िाया है- यही संघ की काययपध्दलर् की ववशेिर्ा है। कोई भी पररवर्यन सर संघचािक ने आदेश देकर नहीं दकया- सबके

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सार्, ििेु ददि से ववचार-ववलनमय कर, सबकी सहमलर् से ही कोई पररवर्यन करने की संघकायय में आदर् डािना- यही काययपध्दलर् की ववशेिर्ा है।

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23. स्विेशी का व्रत

उन ददनों िादी का उपयोग करने का आग्रह करनेवािा वार्ावरण र्ा। सावयजलनक स्र्िों पर ववदेिी कपडों की होिी जिाने के प्रलर् नवयुवकों का उत्साह सवयत्र ददििाई पडर्ा। र्किी पर सूर् के काययक्रमभी सावयजलनक रूप में होरे्। जो काययकर्ाय यह बर्ार्ा दक उसने जो कपडे धारण दकये हैं , वे सभी स्वयं अपने हार्ों से कारे् गये सूर् से बने हैं, र्ो उसे श्रषे्ठ दज ेका काययकर्ाय माना जार्ा। उत्सव

प्रसंगों पर स्वागर् कररे् समय अध्यक्ष अर्वा अलर्लर् के गिे में अपने घर में कारे् गये सूर् से बना हार ही डािने का ररवाज चि पडा र्ा। स्वदेशी वस्र्ुओं का उपयोग करो, स्वदेशी कपडे धारण करोए ववदेशी माि का बदहष्कार करो- इस प्रकार की घोिणाओं से गुंखजर् वार्ावरण का स्वाभाववकर्या स्वयंसेवकों के मन पर भी असर होर्ा। उन ददनों सफेद शक्कर मारीशस से आयार् होर्ी र्ी। भावुक युवकों ने उसका उपयोग त्यागने का लनणयय लिया। उन ददनों कानपुर और लमजायपुर में बनने वािी शक्की कुछ पीिा रंग लिये होर्ी - दफर भी इसी शक्कर के उपयोग का आग्रह दकया जार्ा। महाि (नागपुर) खस्र्र् केळीरोड पर चिने वािी दकुान - 'स्वदेशी शक्कर का आंबेकर दकराना भंडार' में उन ददनों ग्राहकों की भीड िगी होर्ी। उस दकुान का नाम चमकने िगा र्ा।

ऐसे स्वदेशी से भरे माहौि में, स्वयंसेवकों के मन में भी स्वाभाववकर्या यह ववचार उठर्ा दक संघ में आने वािे स्वयंसेवकों पर भी, देश पे्रम और देशभवक्त की भावना हृदयस्र् करने के लिए ववदेशी वस्र्ुओं का बदहष्कार करने और िादी के कपडों का उपयोग करने का बंधन (अलनवाययर्ा) डािना क्या उलचर् नहीं होगा? चाय यदद ववदेशी है र्ो उसे नहीं पीने का लनयम वह उपने लिये क्यों न बनाये? गणवेश भी िादी का ही हो, ऐसा आग्रह क्यों न दकया जाए? ऐसे अनेक प्रश्न स्वयंसेवकों के मन में उभररे्। स्वयंसेवकों ने इस सम्बन्ध में अपनी राय व्यक्त की। डॉक्टरजी ने स्वयंसेवकों के ववचार सुने और कहा, स्वदेशी का वविय, महत्व का वविय है अर्: हम कि इस पर ववस्र्ार से चचाय करेंगे। दसूरे ददन ववचार-ववलनमय प्रारंभ होने पर स्वदेशी वस्त्रों के उपयोग के बारे में सभी की सहमलर् पायी गयी। दकंर्,ु डॉक्टरजी ने स्वयंसेवकों पर स्वयं अपने हार्ों से कारे् गये सूर् से बने कपडों का उपयोग करने की शर्य िादी जाना, क्या उलचर् रहेगा? इस पर स्वयंसेवकों से उन्होंने राय मांगी। दकसी ने कहा दक इसके लिये र्ो सूर् कर्ाई पर ही रोज चार-पांच घटे िचय करने पडेंगे। अपना काम धदंा, उपजीववका चिाने हेर्ु दकया जाने वािा उद्योग-व्यवसाय, शािा-कॉिेज के समय के अिावा अलर्ररक्त अध्ययन करने के बाद सूर् कर्ाई के लिये इर्ना समय लनकािना प्राय: असम्भव ही है। डाक्टरजी ने कहा, अगर ऐसी बार् है र्ो,हर व्यवक्त, भारर् के प्रत्येक देशपे्रमी नागररक को यह आग्रह नहीं करना चादहए दक अपने हार्ों से कारे् सूर् से बने कपडे ही पहने जाएं। यदद उपने लिए सूर् कार्ना संभव नहीं हो र्ो दफर दसूरे भारर्ीयों द्वारा कारे् गये सूर् से बने कपडे भी इर्नी मात्रा में उपिब्ध होना र्ो

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संभव नहीं दक सभी भारर्वालसयों की आवश्यकर्ाओं को पूणय दकया जा सके। अर्: ववदेशी वस्त्रों के

बदहष्कार का आग्रह रिरे् हुये भी, यह र्ो दकया जा सकर्ा है दक हम भारर्ीय लमिों में अर्वा भारर्ीय बुनकरों द्वारा हार्करघे पर बुने गये वस्त्रों का अवश्य उपयोग करें। इसके लिये स्वयंसेवकों ने कहा, अपने जीवन को सही मोड देने के लिये हम लनत्य अपनी प्रार्यना में, अपनी मार्भृूलम की वंदना कररे् हैं। यह शरीर मार्भृूलम के ही काम आए - यह इच्छा जादहर कररे् हैं। यह ववचार यदद हमारे मन में दृढ़र्ा स्र्ावपर् करर्ा है र्ो जो जो स्वदेशी है, भारर् में ही र्ैयार हुई वस्र्ुएं हैं, उनका ही उपयोग करना हमारा स्वभाव बनना चादहये। ववदेशी वस्र्ुओं का पररत्याग, यह स्वाभाववक रूप में हरेक के जीवन की सार्यकर्ा का वविय बनना चादहये। इसके लिये आदेश देने या आदेश प्रसाररर् करने की कोई आवश्यकर्ा नहीं है। डॉक्टरजी ने कहा, यह ववचार र्ो ठीक है दकन्र्ु 'स्वदेशी' के अन्य पहिुओं पर भी हम सभी को लमिकर ववचार करने की आवश्यकर्ा है। 'स्वदेशी' के ये अन्य पहिू क्या हो सकरे् हैं, इसका ववचार कररे् हुए स्वयंसेवक अपने घर िौट गये।

अगिे ददन डॉक्टरजी की उपखस्र्लर् में, पुन: स्वदेशी की चचाय चि पडी। जो वस्र्ुयें भारर् में र्ैयार नहीं होर्ी उनके वविय में स्वयंसेवकों के मन में लर्रस्कार की भावना पैदा होनी चादहए। ववदेशी वस्र्ुओं का स्पशय भी त्याज्य माना जाना चादहऐ - एक स्वयं सेवक ने अपना मर् व्यक्त कररे् हुऐ कहा दक भारर् में चष्में के कांच र्ैयार नहीं होरे् अर्: हमें चष्मा पदहनना ही छोडना होगा। उन ददनों चष्में के कांच र्ैयार करने के कारिाने भारर् में नहीं रे् अर्: उन्हे ववदेशों से आयार् करना पडर्ा र्ा। एक अन्य स्वयंसेवक ने कहाए अपने यहां घदडयों और साइदकिें भी ववदेशों से आर्ी हैं। उन ददनों स्कूटर और मोटर साइदकिों का प्रचिन प्राय: नहीं के बराबर र्ा। मोटर साइदकि का उपयोग करने वािा स्वयंसेवक अपवाद स्वरूप ही लमिर्ा। इसलिये दकसी ने स्कूटर और मोटर साइदकि की बार् नहीं लनकािी। जहां र्क घदडयों, साइदकिों और चष्में की बार् है, यह ठीक है दक भारर् में इसके कारिाने ििुने चादहए - क्योंदक ये सब सामान्य िोगों की आवश्यकर्ाएं है। इसलिए र्ब र्क ऐसी वस्र्ुओं को स्पशय ही नहीं दकया जाए, यह कहना उलचर् और व्यावहाररक नहीं होगा। खजन्हे उसकी आवश्यकर्ा है, उन्हे अवश्य उनका उपयोग करना चादहए दकन्र्ु यह ध्यान रहे दक केवि शौक या 'प्रलर्वष्ठर् जीवन' के प्रर्ीक के रूप ्में उन्हे िरीदना चादहऐ। सभी स्वयंसेवक इस राय से सहमर् हुए। सार् ही, सारे समाज को स्वदेशी वस्र्ुओं के उपयोग की आदर् डािनी हो, र्ो इसकी शुरूआर् स्वयं से करनी होगी। यदद हम स्वयं स्वदेशी को न अपनाएं और अन्यों से उसका आग्रह करें र्ो हमारे कहने या आग्रह करने का कोई पहरणाम नहीं होगा। 'बोिे रे्सा चािे' अर्ायर् खजसकी कर्नी और करनी में समानर्ा हो, ऐसे स्वयं सेवक ही समाज को प्रभाववर् कर सकें गे - यह ववचार भी स्वयंसेवकों ने प्रकट दकया। पू0 डॉक्टर जी ने कहा दक इस सम्बन्ध में एक मनोरंजन अनुभव दफर कभी बर्ाऊंगा और बैठक वहीं समात हो गयी।

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कुछ ददनों बाद स्वयंसेवकों से वार्ायिाप करने का अवसर लमिरे् हए कुछ स्वयंसेवकों ने डॉक्टरजी से अपना वह मनोंरंजक अनुभव सुनाने का आग्रह दकया। डॉक्टरजी ने उस अनुभव को सुनारे् हुए कहाए

'ववदेशी चाय पीना छोडो' - इस प्रकार का प्रचार चि रहा र्ा। इसी लनलमत्त नागपुर के लचटणीस पाकय में एक सावयजलनक सभा का आयोजन भी दकया गया र्ा। उसमें भािण देने वािे नेर्ा बडे आवेश में बोिे जा रहे रे् - चाय बागान में मजदरूों के सार् गुिामों जैसा व्यवहार दकया जार्ा है। हंटर (कोडे) मारकर उनसे जबरन काम लिया जार्ा है। उनके िनू का िाि रंग चाय में भी उर्रर्ा है - इसलिए देशवालसयों चाय पीना छोड दो। नेर्ाजी के भािण पर िोग र्ालियां पीटरे् ददिाई देरे्। ऐसा आवेशपूणय भािण देने के बाद वह नेर्ा पडौस के होटि में वपछिे दरवाजे से घुसा और अपने पूवय पररलचर् उस होटि के मालिक से कहने िगा - पांडोबा, (पांडोबा बापट उस होटि मालिक का नाम र्ा) जरा, दो कप स्पेशि गरम चाय जलदी र्ैयार करना। पांडोबा का लमत्र पररवार काफी बडा र्ा - वह स्वयं िादी पहनर्ा र्ा - नाडी वािी चड्डी जो घुटनों के नीचे र्क उर्रर्ी र्ी, और हार्ों की कुहनी से नीचे उर्रर्ी बांहों वािी बलनयान धारण करने वािी इस मूलर्य को उसके के्षत्र के अनेक िोग जानर्े रे् - भािणकर्ाय नेर्ाजी से भी उसका पररचय र्ा। पांडोबा ने कहा, मैंने आपका भािण सुना - बहुर् ही प्रभावी रहा दफर भी आप स्वयं........! पांडोबा इस वाक्य को पूरा करर्ा, इसके पूवय ही नेर्ाजी ने उसे टोकरे् हुए कहा - अरे, पांडोबा मुझे अभी और सभा में ऐसा ही भािण देने जाना है - गिा सूि गया है, जरा चाय जलदी िाओं! डॉक्टरजी द्वारा बर्ाये गये इस अनुभव को सुनकर वहां उपखस्र्र् सभी स्वयंसेवक ठहाके िगाकर हंसने िगे।

शािा समालत के बाद, एक ददन पुन: डॉक्टरजी स्वयंसेवकों के सार् वार्ायिाप में रम गये। उन्होने कहा, स्वदेशी कपडे - स्वदेशी वस्र्ुएं - स्वदेशी टोपी - आदद र्ो आवश्यक है ही दकन्र्ु ये सब शरीर को ढांकने वािे आवरण मात्र हैं। टोपी के नीचे खस्र्र् लसर में भी स्वदेशी का ववचार दृढ़र्ा से रहना चादहए। यह कहकर डॉक्टरजी ने पुन: स्वदेशी संबंधी ववचारों को चािना दी। स्वदेशी आवरण के भीर्र भी स्वदेशी का ज्विन्र् अलभमान होना चादहए और यह संघ कायायर्य समाज में सम्पयक कररे् समय सौम्य दकंर्ु आग्रह पूवयक शब्दों में व्यक्त होना चादहए। इस पर स्वयंसेवक भी अपने ववचार ििुकर प्रकट करने िगे। दकसी ने कहा, शरीर ढांकने वािे कपडे िादी के, दकन्र्ु अगें्रजी में सभाभािण करने वािे िोगों को सभ्य-सुस ्ंकृर् माना जार्ा है और संस्कृर् का अध्ययन अर्वा अपनी मार्भृािा में बोिने वािा वपछडा-असभ्य माना जार्ा है - ऐसा मानने वािे पढे़- लििे िोगों को अगं्रजों ने अपनी लशक्षा पध्दलर् से अगें्रखजयर् में ढािने का प्रयास दकया है। एक अन्य स्वयं सेवक ने कहा - अपने ववचारों के समर्यन में शेक्सपीअर अर्वा लमलटन के उदाहरण सन्दभय के रूप में बर्ाने की बजाए कालिदास अर्वा भवभूलर् के सन्दभय बर्ाना लनखिर् ही स्वदेशी भावना का पररचय देना, माना जाएगा। डॉक्टरजी ने कहा, हरेक को अपनी भािा, दशयन शास्त्र, अर्यनीलर् आदद के प्रलर् अलभमान रहना

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चादहए। बार्चीर् कररे् समय, उसका आग्रह भी स्वाभववकर्या प्रकट होना चादहए। दकंर्ु, इसके सार् ही यह भी ध्यान रिना होगा दक अगें्रजों के अच्छे गुण भी हमें आत्मसार् करने चादहए। ववश्व के दकसी भी ददशा और देश से आने वािे उत्ताम ववचारों को हम ग्रहण करेंगे - ऐसी ववृत्त हमारी होनी चादहए। एक स्वयं सेवक ने यह शंका प्रस्र्ुर् की दक अगें्रजों ने र्ो हमें गुिाम बनाया, भारर् की सारी सम्पवत्त िूट कर िे गये और हमें लनधयन बनाया, र्ब उन अगें्रजों से सीिने या ग्रहण करने योग्य कौन सी बार् हो सकर्ी है? दसूरे स्वयंसेवक ने उत्तार ददया - अगं्रजों से उत्तम देशभवक्त सीि सकरे् हैं। मुगि सम्राट की एक कन्या बीमार र्ी - एक अगें्रज डॉक्टर के इिाज से वह ठीक हो गयी। इस सेवा के बदिे में उस अगें्रज डॉक्टर ने अपनी अगें्रजी कम्पनी को भारर् में व्यापार करने की सहूलियर् मांगी - अपने िदु के लिए उसने कुछ नहीं मांगा। उसकी यह स्वदेश भवक्त वास्र्व में अनुकरणीय हैं। डञानॅक्टरजी ने कहा, इंग्िैण्ड ववश्व में सवोत्तम सुंसगदठर् राष्ट्र है - एक सुंसगदठर् समाज के रूप ्में आंग्ि समाज हमारे सामने नमूने के रूप ्में रह सकर्ा है। अपने पीछे इंग्िैण्ड की सारी शखक्त्त िडी है, इस आत्मववश्वास के सार् ही एक गोरा (अगें्रजी) साजेंट, भारर् में दकसी बडी सभा के चिरे्, उसे र्ुरंर् बिायस्र् करने का आदेश िेकर लनभययर्ा के सार् उस भरी सभा के बीच से अध्यक्ष र्क जा धमकर्ा है और, सरकारी मनाई हुकूमर् का कागज अध्यक्ष के हार्ों में र्मार्ा है!! ईसाई धमय का प्रचार करने के लिए एक अगें्रज नवयुवक सैकडों मीि दरू अफ्रीका और आस्रेलिया में, लनभययर्ा पूवयक अकेिा ही लनकि पडर्ा है। अगें्रजों से यह गुण हमें ग्रहण करना चादहए। दकसी जमाने में भारर् के भी साधू-सन्यासी अमेररका, मेखक्सको, चीन, जापान जेसे दरूस्र् देशों में गये रे्। वहां उन्होने अपनी श्रषे्ठ संस्कृलर् व दहंद ुजीवन पध्दलर् का और राम-कृष्ण आदद आदशों का प्रचार कर, वहां के जन-जीवन को प्रभाववर् दकया र्ा - इसका हमें स्मरण रिना चादहए।

एक बार बैठक में चाय के बारे में पुन: चचाय चि पडी दक चाय र्ो ववदेशी पेय है। अर्: उसकी बजाय हमें दधू, ववशेिर्या गो-दगु्ध का सेवन करने का आग्रह करना चादहए। डाक्टर जी ने कहा, गाय के प्रलर् हमारे मन में श्रध्दा और पूज्य भाव र्ो होने ही चादहये, दकंर्ु संघ का कायय कररे् समय, सभी स्र्र के िोगों से सम्पकय करने के हमारे कायय में, कहीं हमारी व्यवक्तगर् आदर् बाधा र्ो नहीं बनर्ी, इसका ध्यान रिना भी जरूरी है। यदद हम दकसी के यहां जारे् हैं और वह चाय जैसी आयानी से र्ैयार होने वािी वस्र्ु के सार् हमारा स्वागर् करना चाहर्ा है र्ो उसे यदद इस बार् का पर्ा चि

जाए दक हम र्ो लसफय दधू और वह भी गाय का दधू ही िेरे् हैं, चाय को र्ो स्पशय र्क नही ंकररे्, र् बवह धमयसंकट में पड जायेगा। हमारे घर आत्मीयर्ा के सार् वार्ायिाप करने आये व्यवक्त को मैं चाय भी नहीं दे सकर्ा और घर में गाय का दधू नहीं है; इस भावना से वह द:ुिी होगा। अर्: इस दृवष्ट से हमें सर्कय रहना चादहऐ। हमारे दकसी व्यवहार या आदर् से सामने वािे व्यवक्त की भावनाओं को ठेस नहीं पहंुचे, इसका हमें सदैव ध्यान रिना चादहये।

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स्वयंयसेवकों का हृदय स्वदेशी बनना चादहये। कायय की लचरं्ा कररे् समय स्वदेशी ववचारों और अपनी संस्कृलर् को सवोपरर महत्तव ददया जाना चादहये। जो केवि अगें्रजी भािा ही जानर्ा है, मराठी अर्वा दहंदी नहीं समझ पार्ा, उसके सार् पत्र-व्यवहार में अगें्रजी भािा का ही उपयोग करना पडेगा दकन्र्ु अपने आत्मीयजनों से स्वदेशी या मार्भृािा कस आग्रह ही रिना होगा। कपडों-वस्त्रों का उपयोग भारर्ीय पध्दलर् से दकया जाना चादहए। यह समझने का कोई कारण नहीं दक जो फेिपैंण्ट, टाय और हैट पदहनर्ा है वही सभ्य और श्रषे्ठ है और जो कुरर्ा-पायजामा-धोर्ी पदहनर्ा है वह गंवार, अनपढ़ और असभ्य है। ऐसा सोचना मानलसक गुिामी का िक्षण है। व्यवक्त का मूलयांकन उसके कपडों से

नहीं गुणों से करना चादहए। इस आशय के ववचार डॉक्टरजी ने स्वयंसेवकों के सार् अनौपचाररक वार्ायिाप में व्यक्त दकये। मन स्वदेशी हुआ र्ो वयवाहर भी अपने आप स्वदेशी के लिए पोिक होगा। यह ववचार स्वयंसेवकों के मन में पैठ गया। और संघ की काययपध्दलर् में 'स्वदेशी का व्रर्' आवश्यक अगं के रूप में स्वयंसेवकों ने स्वीकार दकया।

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24. समाचार पत्रो में प्रनस ध्दि

डॉक्टरजी के यहां स्वयंसेवकों से अनौपचाररक वार्ायिाप के समय पुणे के एक समाचार-पत्र में प्रकालशर् समाचार का उलिेि हुआ। पुणे में सम्पन्न स्वयंसेवकों के लनजी काययक्रम से समबखन्धर् वह समाचार र्ा। एक स्वयंसेवक ने कहा दक संघ के काययक्रमों को यदद समाचार पत्रों में प्रकालशर् दकया जाये र्ो संघ के ववचार िोगों र्क पहंुचाना आसान होगा। इस पर अन्य स्वयंसेवक ने कहा, यदद यही पध्दलर् अपनायी गयी र्ो आगे चिकर स्वयंसेवक यह भी सोचने िगेंगे दक संघ के उत्सवों की लनमंत्रण पवत्रकाएं घर-घर जाकर देने की अपेक्षा वर्यमान-पत्रों में ही उसका प्रकाशन करना उलचर् होगा। दफर दकसी स्वयंसेवक ने यह आशंका प्रकट की दक समाचार-पत्र संघ के काययक्रमों का वतृ्ता सही ढंग से प्रकालशर् करेंगे, इसका क्या भरोसा? कुछ स्वयंसेवकों की राय में संघ के ववचारों का प्रसार-प्रचार करने के लिए समाचार पत्रों का उपयोग दकया जाना चादहए। डॉक्टरजी ने कहा, समाचार पत्रों में प्रलसखध्द के चक्कर में संघ कायय को क्षलर् पहंुचे र्ो उसे उलचर् नहीं माना जा सकर्ा। यह वविय महत्व का है। इस पर सभी को सावधानी पूवयक ववचार करने की आवश्यकर्ा है- सभी सका ववचार करें। अवसर लमिने पर, पुन: इसका ववचार हम अवश्य करेंगे।

दो-चार ददन बाद ववचार-ववलनमय अवसर उपिब्ध हुआ। इस बीच ददलिी का, संघ से सम्बखन्धर् समाचार प्रकालशर् हुआ र्ा। उस समाचार में कहा गया र्ा दक श्री बाबासाहेब आपटे और श्री वसंर्राव ओक- ये दोनों संघ प्रचारक इन ददनों संघ कायय करने हेर्ु ददलिी में आये हुए हैं और वे यहां संघ की शािाएं िोिेंगे। भारर् की राजधानी में संघ का कायय प्रारंभ होने जा रहा है, यह जानकर स्वाभाववकर्या स्वयंसेवकों के मन में प्रसन्नर्ा और समाधान की भावना पैदा हुई। डॉक्टरजी ने कहा, ददलिी में अभी हाि ही में जैसे-र्ैसे संघ का कायय प्रारंभ होने जा रहा है। अर्: ऐसे समय इस प्रकार समाचार-पत्र में ऐसा समाचार प्रकालशर् होना ठीक नहीं हुआ। संघ का कायय वहां जड जमाये, इसके पूवय ही ऐसे समाचार के प्रकाशन से चर्ुर और र्ीक्ष्ण बुखध्दवािे अगें्रज शासकों का ध्यान भी उस ओर आकवियर् होगा- जो यह नहीं चाहरे् दक संघ कायय बढे़, ऐसे िोग भी हमारे काम में नाहक कदठनाईयां पैदा करने का प्रयास कर सकरे् हैं। कायय बढ़ने के बाद सावयजलनक काययक्रम का वतृ्ता भिे ही वह संके्षप में क्यों न हो, अगर प्रकालशर् होर्ा है र्ो वह हमें चि सकर्ा है और उसमें अनुलचर् ऐसा कुछ भी नहीं। बाद में, समाचार पत्र भी हमारे कायय की उपेक्षा नहीं कर पायेंगे। हमारे कायय की प्रलसखध्द और प्रचार संघ शािाओं के प्रभाव से होनी चादहए। डॉक्टरजी के ववचार स्वयंसेवकों के मन में बैठ कर रहे रे्। डॉक्टरजी ने कहा, उक्त आशय का पत्र मैंने श्री वसंर्राव के नाम भेजा है और भववष्य में, इस बारे में सावधानी बरर्ने की सूचना भी दी है।

कुछ ददनों बाद, प्रलसखध्द का यह वविय पुन: चचाय में आया। नागपुर के ववजयादशमी महोत्सव के अध्यक्षीय भािण का वतृ्ता र्ैयार कर समाचार पत्रों में प्रकाशनार्य भेजा गया र्ा- वह प्रकालशर् हो, ऐसा

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अनुरोध भी डॉक्टरजी ने संपादकों से दकया र्ा। भूर्पूवय राज्यपाि श्री र्ांबे और सर मोरोपंर् जोशी संघ के उर्सव में अध्यक्ष और प्रमुि अलर्लर् के नारे् उपखस्र्र् हुए रे्। सरकारी दरबार में उनके शब्दों का वनज र्ा। इस कारण, समाचार पत्रों में प्रकालशर् उनके भािणों का अच्छा पररणा हुआ। संघ पर र्र्ा सरकारी सेवाओं में काययरर् स्वयंसेवकों पर दकसी प्रकार की पाबन्दी िगाने का ववचार करने वािे वररष्ठ अलधकाररयों को, इन भािणो के बाद, संघ पर कोई आरोप िगाने या आपवत्त उठाने का ववचार कुछ काि के लिए त्योगने को वववश होना पडा। क्योंदक, उक्त दोनों वक्ता महोदयां ने अपने भािणों में संघ कायय की प्रशंसा ही की र्ी।

एक बार बैठक में 'आइना' (दपयण) और उसकी उपयोलगर्ा की चचाय लनकि पडी। एक स्वयंसेवक ने

कहा, हम कैसे ददिाई देरे् हैं, आईना हमें वबना दकसी खझझक के बर्ार्ा है है। लसर पर के बाि ठीक से संवारे नहीं हो, शटय की कॉिर एक ओर से भीर्र की ओर दबी हुई हो, आंिों की दकनोर साफ नहीं हो, चाय की कुछ बूंदे मूछों पर जमीं हों र्ो ये सारी बार्ें अपने उस स्वरूप का हूबहू दृश्य हमें आईना ही ददिार्ा है। एक स्वयंसेवक ने वहां बैठक एक बडी मूछों वािे स्वयंसेवक की ओर देिकर उक्त बार्ें बडे ववनोद में कही र्ो सारे स्वयंसेवक खििखििाकर हंस पडे। इस प्रकार हास्य-ववनोद के सार् बैठकें चिा करर्ी। डॉक्टरजी भी उसमें सहभागी होरे्। डॉक्टरजी ने कहा, हम कैसे ददिाई देरे् हैं यह र्ो आईना हमें बर्ार्ा है दकन्र्ु हम ददिरे् कैसे हैं, इसकी बजाए हम कैसे हैं, यह बार् क्या अलधक महत्वपूणय नही?ं लसर पर बाि कैसे हैं, इसकी अपेक्षा लसर में लनरपेक्ष देशभवक्त के ववचारों पर ही हमें अलधक बि देना चादहए। शरीर पर धारण दकए गए कपडों की इस्त्री ठीक है या नही,ं इसकी अपेक्षा उस शरीर का हष्ठपुष्ट बिशािी होना अलधक महत्वपूणय है। डॉक्टरजी की बार्ें, स्वयंसेवक बडी गंभीरर्ा से सुन रहे रे्। समाचार पत्रों में संघ का वतृ्ता प्रमुिर्ा से प्रकालशर् हो, इसकी बजाय हमें अपनी संघ शािाओं को अलधक सुदृढ़ करने, स्वयंसेवकों की संख्या बढ़ाने, उनमें आत्मीय सम्बन्ध बढ़ाने,

अनुशासन को जीवन का स्र्ायी भाव बनाने आदद बार्ों पर अलधक बि देना चादहए। समाचार पत्रों में प्रलसखध्द की चाह या भूि र्ो र्ीव्रर्ा से बढ़र्ी जार्ी है और र्ब हमारा ध्यान शािा के ववधायक कायय की बजाय, ववचलिर् होकर हम भारी प्रलसखध्द के लशकार बनरे् हैं।

एक बैठक में, ववजयादशमी की लनमंत्रण पवत्रकाओं की ववर्रण व्यवस्र्ा पर चचाय हो रही र्ी। उत्सव के 8-10 ददन पवत्रकाओं का ववर्रण हो जाना चादहए। लनमंत्रण पत्र बांटने में काफी समय िेर्ा है। दकसी कम पररलचर् या अपररलचर् व्यवक्त के यहां लनमंत्रण पत्र देरे् समय उसके सार् इसी लनलमत्ता परस्पर वार्ायिाप करना ही पडर्ा है। संघ कायय ववियक जानकारी उसे देनी पडर्ी है और वह उत्सव में अवश्य पधारे, इसका प्रयास दकया जार्ा है। यह प्रयास कुछ मात्राओं में सफि भी होर्ा है। दकन्र्ु इस प्रकार लनमंत्रण पत्र के ववर्रण में प्रलर्ददन केवि 4-6 सज्जनों के यहां जाना ही संभव हो पार्ा। एक स्वयंसेवक ने अपना उक्त अनुभव सुनाया। डॉक्टरजी ने कहा, हां इसी पध्दलर् से लनमंत्रण पत्रों का

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ववर्रण होना चादहए। इससे अपने समाज के सज्जनों से लनकटर्ा प्रस्र्ावपर् होर्ी है और आगे चिकर उन्हें भी कायय से जोडा जा सकर्ा है। इसकी बजाय यदद हम लनमंत्रण पत्र को समाचार-पत्रों में प्रकालशर् कर सावयजलनक लनमंत्रण देने की व्यवस्र्ा करें र्ो, िोग हमारे काययक्रम में कम-अलधक मात्रा में आयेंगे ही, दकन्र्ु प्रत्यक्ष सम्पकय के द्वारा अपना ववचार घर-घर र्क पहंचाने और उसके द्वारा सम्पूणय समाज को संगदठर् करने का काम नहीं हो पायेगा। हा,ं लनमंत्रण-पत्रों का ठीक ढंग से ववर्रण करने के बाद यदद हम उसे समाचार-पत्रों में प्रकालशर् करवाएं र्ो वह उपयोगी हो सकर्ा है।

संघ की काययपध्दलर् में उत्कृष्ट संघ शािाओं के लनमायण पर ही अलधक बि ददया जार्ा है। कुछ ठोस कायय होने पर अपनी योजना से ही आवश्यकर्ानसुार प्रलसध्द का सहारा लिया गया। उसका िाभ भी लमिा। िोग संघ पर यह आरोप िगारे् रे् दक Sangh is shy of publicity- संघ प्रलसखध्द से दरू भागना चाहर्ा है। हम इस आरोप को चपुचाप सहन कररे् रहें। आज अनेक सत्ताधारी नेर्ा भी यह कहर्े पाये जारे् हैं दक संघ प्रलसखध्द क पीछे कभी नहीं रहा, इसलिए संघ की शवक्त दकर्नी है, उसकी जडें समाज जीवन में दकस गहराई र्क पहंुच चकुी हैं, इससे हम बेिबर रहे। संघ के प्रारंलभक काि में, प्रलसखध्द के सम्बन्ध में इस प्रकार समन्वय साधने की नीलर् संघ कायय पध्दलर् का स्वाभाववक अगं बन गई।

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उपसंहार

आज र्क सघं पर अनेक बार शासनकर्ायओं की ओर से आघार् दकये गये। पूणयर्या, असत्य आरोप िगाकर संघ को अवध घोविर् दकया गया। संघ स्र्ान पर काययक्रम करना भी असंभव हो गया। प्रारंभ में संघ का सादहत्य भी अत्यलप र्ा। संघ की प्रार्यना और स्वयंसेवकों का जीवन ही सादहत्य के रूप में संघ के पास है- यह बार् 1938 के अप्रैि में, महाराष्ट्र की एक बैठक में डॉक्टरजी ने जब कही र्ी, उस समय र्क संघ कायय भारर् के सभी प्रांर्ों में फैि चकुा र्ा। डॉक्टरजी उक्त उत्तार सुनकर अनेक सुववद्य प्रलर्वष्ठर् िोग आिययचदकर् रह गये। संघ कायय और पध्दलर् के ववकास में, पहिे कायय शुरु हुआ- और पध्दलर् क्रमश: ववकलसर् होर्ी गई। समाज के सार् सम्पकय , नये-नये स्वयंसेवकों को शािा में िाना समर्ा शारीररक काययक्रमों को सामान्य होने पर भी मन:पूवयक र्र्ा ठीक ढंग से करना, इन बार्ों पर डॉक्टरजी का सदा आग्रह रहर्ा। इन बार्ों से ही जनमानस को प्रभाववर् दकया जा सकर्ा है। कायय शुरु होने के बाद, आवश्यकर्ानुसार सवय सम्मलर् से काययपध्दलर् का स्वाभाववकर्या ववकास होरे् गया। जहां आवश्यक होर्ा, वहीं डॉक्टरजी उद्बोधन कररे्। यहां अनायास ही भगवर् गीर्ा का वह प्रसंग स्मरण हो आर्ा है। कुरुके्षत्र में युध्द के लिए र्ैयार िडे अजुयन को श्रीकृष्ण भगवान ने गीर्ा सुनायी। भगवान श्रीकृष्ण अजुयन की मानलसक दबुयिर्ा को जारे् रे्, दकन्र्ु उस सम्बन्ध में प्रत्यक्ष उपदेश और मागयदशयन, युध्द प्रारंभ होने के पूवय यर्ोलचर् समय पर ही उन्होंने दकया। डॉक्टरजी ने भी ठीक उसी र्रह स्वयंसेवकों के राष्ट्रलनष्ठ जीवन के लनमायण में ही पहिे अपनी सारी शवक्त िगाई और कायय कररे् हुए, सामूदहक लचरं्न से, आवश्यकर्ानुसार संघ की काययशैिी का ववकास दकया।