shri guru arjan dev ji sakhi - 051a

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Page 1: Shri Guru Arjan Dev Ji Sakhi - 051a
Page 2: Shri Guru Arjan Dev Ji Sakhi - 051a

एक दि�न गुरु अर्ज�न �ेव र्जी के पास चडे्ड र्जाति� के �टू, भानू, तिनहालू और �ीर्थाा� आए| उन्होंने आकर गुरु र्जी से प्रार्था�ना की महारार्ज! हमें �ो आपके वचनों की समझ ही नहीं आ�ी| एक र्जगह आप र्जी लिलख�े हैं -

"कर ेकराए आतिप प्रभू, सभ ुतिकछु ति�सही हार्था|"पर दूसरे स्थान पर आप र्जी यह लिलख� ेहैं - र्जै�सरी महला ५ वार सलोका नालिल "रै्जसा बीर्जै सो लुण ैकरम इहु ख�े||"

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गुरु र्जी कहने लगे हे भाई! जिर्जस प्रकार बुजि9मान वै� तिकसी रोगी का रोग �ेखकर �वाई �े�ा है उसी प्रकार लिसख के र्जीवन-व्यवहार, रहणी-बहणी को �ेख कर उप�ेश दि�या र्जा�ा है| रै्जसे तिक र्जो दुतिनया�ारी के कामों में लगा हुआ करम कर�ा है, उसको अचे्छ कम> की पे्ररणा के लिलए 'रै्जसा बीरै्ज सो लुणै' का अधि@कारी समझ कर उप�ेश दि�या र्जा�ा है|

परन्�ु र्जो कोई तिवचारशील होकर परमात्मा की भलिB कर�ा है उसको 'कर ेकराए आतिप प्रभू' का उप�ेश दि�या र्जा�ा है|

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ऐसा ना हो तिक कहीं उसको अपनी करनी का गव� हो र्जाए| इस प्रकार गुरु का उप�ेश लिसख की अध्यात्मित्मक अवस्था को ध्यान में रखकर दि�या र्जा�ा है| इसलिलए लिसख को तिकसी प्रकार का भ्रम नहीं करना चातिहए| उसको अपनी मानलिसक अवस्था के अनुसार उप�ेश ग्रहण करना चातिहए|