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रचनाकार http://rachanakar.blogspot.com/ कȧ ĤèतǓत : जन-गण-मन ǑƮजेÛġ 'ǑƮज' कȧ ग़ज़लɅ भमका समĒ 'जन-गण-मन' कȧ ग़ज़लɅ 'जन-गण-मन' सपǐरचत ǑहÛदȣ ग़ज़लकार ǑƮजेÛġ 'ǑƮज' कȧ छÜपन (56) ग़ज़लɉ का पहला संकलन है . ग़ज़ल जैसे फ़ारसी-उद[ के काåय -Ǿप के ĤǓत ǑहÛदȣ म जो नया वातावरण Ʌ तैयार हआ है ,ǓनLJय हȣ इसका Ĥमख Įेय èवगȸय दçयंत कमार को जाता है . हालाँक दçयंत कमार के पहले , ǑहÛदȣ म ग़ज़ल रचना का शभारंभ Ʌ हो चका था . केवल आधǓनक यग कȧ हȣ बात कर तो भारतेÛद Ʌ , बġȣनारायण चौधरȣ, Ĥताप नारायण मĮ,नाथ राम शमा[ 'शंकर', जय शंकर 'Ĥसाद' Ǔनराला, डा. शमशेर बहादर संह ,ǒğलोचन,जानकȧ वãलभ शाƸी,बलबीर संह ' रंग' आǑद ने ǑहÛदȣ ग़ज़ल के ĤǓत अपनी ǽच और रचना का पǐरचय Ǒदया था . लेकन, उƠ कवयɉ कȧ ग़ज़लɅ जन-मानस म आटे म नमक कȧ तरह का हȣ Ĥभाव Ʌ Ʌ उ×पÛन कर सकȧं . ǑहÛदȣ ग़ज़ल को एक यगाÛतरकारȣ काåय वधा के Ǿप म Ʌ ĤǓतƵत करने का Įेय दçयंत कमार को हȣ जाता है . लेकन 1975 मɅ दçयंत के अनायास देहावसान के दस वष[ बाद तक भी कछ लोग कहते रहे क ǑहÛदȣ ग़ज़ल दçयंत -काल म हȣ क़दमताल कर रहȣ है Ʌ .ऐसे कथन ǓनिƱत हȣ आĒह से यƠ एवं अǓतæयोƠपण[ थे . दçयंत कमार के देहावसान -काल से अब तक दǓनया भी आगे बढ़ȣ है और ǑहÛदȣ ग़ज़ल भी . जीवन, समाज, संèकǓत ,और यथाथ[ के अनेक पǐरपेêयɉ का उƦाटन हआ है . चेतना के नये èतरɉ कȧ Ǔनम[Ǔत हई है . कला-साǑह×य के ¢ेğ मɅ अभåयƠ कȧ नई चनौǓतयाँ उभरȣ हɇ. यथाथ[ पहले से अधक सघन एवं संिƲƴ हआ है . िजन संजीदा ǑहÛदȣ ग़ज़लकारɉ ने , मंच याǓन बाज़ार का Ǒहèसा न बनते हए , अनशासन ,एकाĒता और आ×यंǓतकता के साथ देश के भÛन-भÛन Ǒहèसɉ मɅ बैठकर अÍछȤ ग़ज़लɅ कहȣ हɇ - उस फ़े हǐरèत म ग़ज़लकार ǑƮजेÛġ Ʌ 'ǑƮज' का नाम ससàमान शामल कया जा सकता है .,Èयɉक वे वगत तेइस वषɟ से मारंडा (पालमपरु ) ,रोहड़ , हमीरपर , कांगड़ा और धम[शाला जैसे पव[तीय ¢ेğɉ म Ǔनवास करते हए अÍछȤ ग़ज़लɅ कह Ʌ

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  • रचनाकार http://rachanakar.blogspot.com/ क त त ु :

    जन-गण-मन जे ' ज' क ग़ज़ल

    भ मकाू सम 'जन-गण-मन' क ग़ज़ल 'जन-गण-मन' सप र चत ह द ग़ज़लकार जे ु ' ज' क छ पन (56) ग़ज़ल का पहला संकलन है. ग़ज़ल जैसे फ़ारसी-उद के का यू - प के त ह द म जो नया वातावरण तैयार हआ ुहै, न य ह इसका मख ेय वग य द यंत कमार कोु ु ु जाता है. हालाँ क द यंत कमार ु ुके पहले, ह द म ग़ज़ल रचना का शभारंभु हो चका थाु . केवल आध नक यग क ु ु ह बात कर तो भारते द,ु ब नारायण चौधर , ताप नारायण म ,नाथ राम शमा ू 'शंकर', जय शंकर ' साद' नराला, डा. शमशेर बहादर संहु , लोचन,जानक व लभ शा ी,बलबीर स ंह 'रंग' आ द ने ह द ग़ज़ल के त अपनी च और रचना का प रचय दया था . ले कन, उ क वय क ग़ज़ल जन-मानस म आटे म नमक क तरह का ह भाव उ प न कर सक ं. ह द ग़ज़ल को एक यगा तरकार का य वधा के प मु त त करने का ेय द यंत ुकमार को ह जाता हैु . ले कन 1975 म द यंत के अनायास देहावसान के दस वष बाद तक ुभी कछ लोग ु कहते रहे क ह द ग़ज़ल द यंतु -काल म ह क़दमताल कर रह है.ऐसे कथन नि त ह आ ह से य एवं अ त यो पण थेु ू . द यंत कमार के देहावसानु ु -काल से अब तक द नया भी आगे बढ़ है और ह द ग़ज़ल भी ु . जीवन, समाज, सं क तृ ,और यथाथ के अनेक प रपे य का उ ाटन हआ हैु . चेतना के नये तर क न म त हई हैु . कला-सा ह य के े म अ भ य क नई चनौ तयाँु उभर ह. यथाथ पहले से अ धक सघन एवं संि हआ हैु . िजन संजीदा ह द ग़ज़लकार ने , मंच या न बाज़ार का ह सा न बनते हए् ु , अनशासनु ,एका ता और आ यं तकता के साथ देश के भ न- भ न ह स म बैठकर अ छ ग़ज़ल कह ह- उस फ़ेह र त म ग़ज़लकार जे ' ज' का नाम सस मान शा मल कया जा सकता है., य क वे वगत तेइस वष से मारंडा (पालमपरु) ,रोहड़ू, हमीरपरु , कांगड़ा और धमशाला जैसे पवतीय े म नवास करते हए अ छ ग़ज़ल कह ु

  • रहे ह- जहाँ व ततु : ग़ज़लगोई का कोई उ साह-वधक माहौल नह .ं न संदेह, 'ये फल स त चटान के बीच खलते हू ये वो नह ं िज ह माल क देखभाल लगे.' जे ' ज' अँ ेज़ी के ा यापक ह-व ज़वथ,क स, शैल से ले कर आध नक आँ लु -

    सा ह य के अ येता. ग़ज़ल केवल उनक वैचा रक- भावभ म क हू अ भ य नह ं, उसे कला मक- तर पर भी उ ह ने आ मसात कया है. जे क ग़ज़ल म एक वशेष क़ म क आंत रकता, समझ, सला हयत, स मता और सघनता को महसस कया जा ू ूसकता है.ये बात सच है क जे ' ज' ग़ज़ल के मामले म कसी 'उ ताद' के फेर म नह ं पड़े. फर भी, गज़ल को ले कर उनक िज ासाएँ, उनके अ वेषण, उनके योग को, वे देश के गणी ग़ज़लकार से मलु - बाँटकर,समझते-बझतेू … प करते रहे ह. इसके कहने के े म अपने-आपको 'ता लब-ए-इ म' ( व ाथ ) समझते रहने क सहजता उनके रचनाकार

    -क़द को बढाती ह है. भाषाई तर पर जे ' ज' द यंत ु -कल के ग़ज़लकार हु . ह द और उद के बीच ूसंतलन क़ायम करने वालेु . जे क ग़ज़ल का भाषाई- लहज़ा सादा और साफ़ है. दसूरे श द म कह तो ये ग़ज़ल ह द तानी ठाठु क ग़ज़ल ह . जहाँ तक शे'र म परसी गई वषय-व त का सवाल है तो ज ु ' ज' का 'कै वस' क़ाफ़ व तत हैृ . जैसा क ग़ज़ल-सं ह के शीषक से प है-उनक ग़ज़ल सम 'जन-गण-मन' क ग़ज़ल ह.सामािजक, राज न तक,सां क तक एवं आ थक मोच पर तमाम बेचैन सवाल ृउठाती हु . ऐसा नह ं है क पहाड़ म रहकर ज पहाड़ क बात नह ं करते. ले कन उनका 'पहाड़' हमाचल तक सी मत नह .ं जा त, मज़हब,रंग,न ल औए फ़रक़ापर ती क सयासत के ख़लाफ़ भी उनका ग़ज़लकार तन कर खड़ा है. पहाड़ क क ठन िज़ दगी म ख़नू(पसीने) से सींचे गए खेत क उपज का बँटवारा ठ क-ठ क होने क चेतावनी भी उनके शे'र म है. कल मला करु , उनक ग़ज़ल ग तशील और जनवाद चेतना से लैस जाग क ग़ज़ल ह .,जो क पल क शैल म प ल वत होती ह. उनके अ दर ग़ज़ल क का या मकता क हफ़ाज़त करने क अ व ांत च ता भी दखाई देती है-जो न संदेह वागत-यो य है.

    ज़ह र क़रेशीु 14 जनवर , 2003 (मकर सं ां त) समीर काटेज, बी-21 सयनगर ू , श द ताप आ म के पास

  • वा लयर-474012(म य देश)

    1. ख़द तो ग़म के ह रहेु ह आ माँ पहाड़ ले कन ज़मीन पर ह बहतु मेहरबाँ पहाड़ ह तो बल द हौसल के तजु ुमाँ पहाड़ पर बेबसी के भी बने ह कारवाँ पहाड़ थी मौसम क मार तो बेशक बडी शद द अब तक बने रहे ह मगर स त-जाँ पहाड़ सीने सलग के हो रहे ह गे धआँु ु -धआँु वालामखी तभी तो हए बेज़बाँ पहाड़ु ु

    प थर-सलेट म लटा कर अि थयाँ तमामु मानो दधी च-से खड़े ह िज मो-जा ँपहाड़ न दय ,सरोवर का भी होता कहाँ वजदू देते न बादल को जो तज़-बयाँ पहाड़ वो तो रहेगा खोद कर उनक जड़ तमाम बेशक रहे ह आदमी के सायबाँ पहाड़ सीन से इनके बज लया,ँसड़क गज़र गु वन,जीव,ज तु,बफ़,हवा,अब कहाँ पहाड़ कचरा,कबाड़, लाि टक उपहार म मले सैला नय के ' ज', हए ह मेज़बाँ पहाड़ु

    2. अँधेरे चंद लोग का अगर मक़सद नह ं होते यहाँ के लोग अपने आप म सरहद नह ं होते

  • न भलोू , तमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छ नी हु हमारा क़द नह ं लेते तो आदमक़द नह ं होते फ़रेब क कहानी है त हारे मापद ड मु वगरना हर जगह बौने कभी अंगद नह ं होते त हार यह इमारत रोक पाएगी हम कब तकु वहाँ भी तो बसेरे ह जहाँ ग बद नह ं होतेु चले ह घर से तो फर धप से भी जझना होगाू ू सफ़र म हर जगह स दरु - घने बरगद नह होते

    3. बंद कमर के लए ताज़ा हवा लखते ह हम खड़ कयाँ ह़ हर तरफ़ ऐसी दआ लखते ह हमु

    आदमी को आदमी से दर िजसने कर दयाू ऐसी सािज़श के लये हर ब ुआ लखते ह हम जो बछाई जा रह ह िज़ दगी क राह म उन सरंग से नकलता रा ता लखते ह हमु आपने बाँटे ह जो भी रौशनी के नाम पर उन अँधेर को कचलता रा ता लु खते ह हम ला सके सब को बराबर मंिज़ल क राह पर हर क़दम पर एक ऐसा क़ा फ़ला लखते ह हम मंिज़ल के नाम पर है िजनको रहबर ने छला उनके हक़ म इक मस सलु फ़ सफ़ा लखते ह हम

    4. बराबर चल रहे हो और फर भी घर नह ं आता

  • त ह यह सोचकर लोगोु , कभी या डर नह ं आता अगर भटकाव लेकर राह म रहबर नह ं आता, कसी भी क़ा फ़ले क पीठ पर ख़ंजर नह ं आता

    त हारे ज़े म गर फ़ मंिज़ल क रह होतीु कभी भटकाव का कोई कह ं मंज़र नह ं आता त हार आँख गर पहचान म धोखा नह ं खातीु कोई रहज़न कभी बन कर यहाँ रहबर नह ं आता लह क क़ मतू गर इस क़दर म द नह ं होतीं लह से तरू -ब-तर कोई कह ं ख़ंजर नह ं आता अगर ग लय म बहते ख़न का मतलब समझ लेतेू त हारे घर के भीतर आज यह लशकर नह ं आताु त हारे दल सलगने का यक़ ं कैसे हो लोग कोु ु , अगर सीने म शोला है तो य बाहर नह ं आता

    5. हर क़दम पर खौफ़ क सरदा रयाँ रहने लग क़ा फ़ल म जब कभी ग़ ा रयाँ रहने लग नीयत बद और कछ बदका रयाँ रहने लगु सरहद पर य न गोलाबा रयाँ रहने लग हर तरफ़ लाचा रया,ँदशवा रयाँ रहने लगु सरपर ती म जहाँ म का रयाँ रहने लग हर तरफ़ ऐसे हक़ म क अजब-सी भीड़ है चाहते ह जो यहाँ बीमा रयाँ रहने लग

  • फर खराफ़तु के ह जंगल य न उग आएँ वहा ँजे म अकसर जहाँ बेका रयाँ रहने लग य न सच आकर हलक म अटक जाए कहो

    गरदन पर जब हमेशा आ रयाँ रहने लग उनक बात म है िजतना झठ सब जल जाएगाू आपक आँख म गर चंगा रयाँ रहने लग है महक मम कन तभीु सारे ज़माने के लए सोच म ' ज', कछ अगर फलवा रयाँ रहने लगु ु .

    6. यह उजाला तो नह ं 'तम' को मटाने वाला यह उजाला तो उजाले को है खाने वाला आग ब ती म था जो श स लगाने वाला रहनमाु भी है वह आज कहाने वाला रा ता अपने ह घर का नह ं मालम िजसेू सबको मंिज़ल है वह आज दखाने वाला एक बंजर-सा ह र बा जो लगे है सबको वो हथेल पे भी सरस है जमाने वाला िजसक मज़ ने तबाह के ये मंज़र बाँटे था मसीहा वो यहाँ ख़द को बताने वालाु जबसे काँट क तजारत ह फल -फल हैू कोई मलता ह नह ं फलू उगाने वाला रतजग के सवा या वाब क सरत देगाू हा दसा रोज़ कोई नींद उड़ाने वाला उँग लयाँ फर वो उठाएँगे हमारे ऊपर

  • फर से इ ज़ाम कोई उन पे है आने वाला जा-ब-जा उसने छपाए ह कई फर कछएु ु फर से ख़रगोश को कछआ है हराने वाु ला

    िजन कताब ने अँधेर के सवा कछ न दयाु है कोई उनको यहा ँ आग लगाने वाला य भला शब क सयाह का बनेगा वा रस

    धप हर श स के क़दम मू बछाने वाला ख़द ह जलु -जल के उजाले ह जटाए िजसनेु वो अँधेर का नह ं साथ नभाने वाला आईना ख़द को समझते हैु बहत लोग यहाँु आईना कौन है ' ज', उनको दखाने वाला.

    7. पर को काट के या आसमान द िजएगा ज़मीन द िजएगा या उड़ान द िजएगा हमार बात को भी अपने कान द िजएगा हमारे हक़ म भी कोई बयान द िजएगा ज़बान, ज़ात या मज़हब यहाँ न टकराएँ हम हज़रु ू , वो ह दो तान द िजएगा रह ह धप से अब तक यहाँ जो नावा क़फ़ू अब ऐसी बि तय पे भी तो यान द िजएगा है ज़लज़ल के फ़सान का बस यह वा रस सख़न को आप नई ु -सी ज़बान द िजएगा कभी के भर चके ह स के ये पैमानेु

  • ज़रा-सा सोच-समझकर ज़बान द िजएगा जो छत हमारे लए भी यहाँ दला पाए हम भी ऐसा कोई सं वधान द िजएगा नई कताब बड़ी दलफ़रेब है ल कन परानी बात को भी क़ दान द िजएगाु जनँ के नाम पे कट कर अगर है मर जानाु ू ये पजा कसके लएू , य अज़ान द िजएगा अजीब श है शहर-ए-वजद भी यारोू क़दम-क़दम पे जहाँ इ तहान द िजएगा क़लम क न क पे ह तत लयाँ याल क क़लम के फल को वो बाग़बान द िजएगाू जो ह नोु -इ क़ क वाद से जा सके आगे ख़याल-ए-शायर को वो उठान द िजएगा ये शायर तो नमाइश नह ं है ज़ म कु फर ऐसी चीज़ को कैसे दकान द िजएगाु

    जो बचना चाहते हो टटू कर बखरने से ' ज', अपने पावँ को कछ तो थकान द िजएगाु

    8. हमार आँख के वाब से दर ह र खेू सवाल ऐसे जवाब से दर ह र खेू सलगती रेत पे चलने से कैसे कतरातेु जो पाँव बटू-जराब से दर ह र खेु ू हनर तो था ह नह ं उनम जीु -हज़र काु ू इसी लए तो ख़ताब से दर ह र खेू

  • तमाम उ वो ख़शब से नाु ू -शनास रहे जो ब चे ताज़ा गलाब से दर ह र खेु ू वो िज़ दगी के अँधेर से लड़ते पढ़- लख कर इसी लए तो कताब से दरू ह र खे हमारा सानी कोई मयकशी म हो न सका अगरचे सार शराब से दर ह र खेू ये ब चे याद या रखगे ' ज', बड़े हो कर अगर न खनू-ख़राब से दर ह र खेू .

    9. इ ह ं हाथ ने बेशक व का इ तहास ल खा है इ ह ं पर चंद हाथ ने मगर सं ास ल खा है हमारे सामने पतझड़ क चादर तमने फैलाईु त हारे उपवन म तो सदा मधमास ल खा हैु ु जहाँ तम आजकल स प नताु के गीत गाते हो अभाव का वहाँ तो आज भी आवास ल खा है फ़रेब क कहानी पर यक़ ं कैसे हो आँत को त हारे आ ासन हु , इधर उपवास ल खा है अँधेरे बाँटना तो आपक फ़तरत म शा मल है उजाल का हमारे गीत म उ लास ल खा है बताओ कस तरह बदल हम उलझी भा य-रेखाएँ बनाएँ घर कहाँ ' ज', वो िज ह बनवास ल खा है.

    10.

  • तहज़ीब यह नई है , इसको सलाम क हए 'रावण' जो सामने हो, उसको भी 'राम' क हए जो वो दखा रहे ह , देख नज़र से उनक रात को दन सम झए, सबह को शाम क हएु जादगर म उनको ू , अब है कमाल हा सल उनको ह 'राम' क हए, उनको ह ' याम' क हए मौजद जब नह ं वोू ख़दु को खदा सम झएु मौजदगी म उनक ू , ख़द को ग़लाम क हएु ु उनका नसीब वो था, सब फल उ ह ने खाए अपना नसीब यह है, गठल को आम क हएु िजन-िजन जगह पे कोई, ल ला उ ह ने क है उन सब जगह को चेलो, गंगा का धाम क हए बेकार उलझन से गर चाहते हो बचना वो जो बताए ँ उसको अपना मक़ाम क हएु इस दौरे-बेबसी म गर कामयाब ह वो क़दरत का ह क र मा या इंतज़ाम क हएु द तर का नभानाू बं दश है मयक़दे क जो ह गलास ख़ाल उनको भी जाम क हए बदब हो तेज़ फर भीू , क हए उसे न बदब ू'अब हो गया शायद, हमको ज़कामु ' क हए यह म क का मक़ रु ु , ये आज क सयासत म लाओं मु हई हैु , मग़ु हराम क हए ' ज' स ब म के ह, वो जो कह सो बेहतर बासी ग़ज़ल को उनक ताज़ा क़लाम क हए

  • 11. जो पल कर आ तीन म हमार हमको डसते ह उ ह ं क जी-हज़र हैु ू ,उ ह ं को ह नम ते ह ये फ़ ल पक भी जाएँगी तो दगी या भला जग को बना मौसम ह िजन पे रात- दन ओले बरसते ह

    कई स दय से िजन काँट ने उनके पंख भेदे ह प र दे ह बहत मासम उ ह ं काँट म फँसते हु ू कह ं ह ख़न के जोहड़ ू , कह ं अ बार लाश के समझ अब ये नह ं आता ये कस मंिज़ल के र ते ह अभागे लोग है कतने इसी स प न ब ती म अभाव के िज ह हर पल भयानक साँप डसते ह त हारे वाब क ज नत म मं दर और मि जद हु हमारे वाब म ' ज" सफ़ रोट - दाल बसते ह.

    12. हुज़रू , आप तो जा पहँचे आसमान मु ससक रह है अभी िज़ दगी ढलान म

    ढल है ऐसे यहाँ िज़ दगी थकान म यक़ न ह न रहा अब हम उड़ान म जले ह धप मू , आँगन म, कारख़ान म अब और कैसे गज़र हो भला मकान मु हई ह म त आँगन मु ु , वो नह ं उतर जो धप रोज़ ठहरती है सायबान मू ्

  • जगह कोई जहाँ सर हम छपा सक अपनाु हम अब भी ढँढ फरते ह सं वधान मू हज़ार हादस से जझ कर ह हम िज़ दाू दबे ह रेत म मलबे म या खदान म उसे त लाख चपाने क को शश कर लेू ु वो दर तो साफ़ है ज़ा हर तेरे बयान म हए यँ रात से वा क़फ़ क शौक़ु ू ह न रहा सहर क शोख़ बयार क दा तान म चल जो बात चराग़ का तेल होने क हमारा िज़ भी आएगा उन फ़सान म.

    13. जाने कतने ह उजाल का दहन होता है लोग कहते ह यहाँ रोज़ हवन होता है मंिज़ल उनको ह मलती है कहाँ दु नया म रात- दन सर पे बँधा िजनके क़फ़न होता है जब धआँ साँस क चौखट पे ठहर जाता हैु तब हवाओं को बलाने का जतन होता हैु खोटे स के क कोई मोल नह ं था िजनका आज के दौर म उनका भी चलन होता है बस यह वाब फ़क़त जम रहा है अपनाु ऐसी धरती क जहाँ अपना गगन होता है.

    14.

  • कटे थे कल जो यहाँ जंगल क भाषा म उगे ह आज वह च बल क भाषा म सवाल िज़ दगी के टालना नह ं अ छा दो टक बात करो फ़ैसल क भाषा मू जो य होते रहे सफ़ आँ धय क तरह वो काँपते भी रहॆ ज़लज़ल क भाषा म नद को पी के सम दर हआ खमोु श मगर नद क बहती रह कलकल क भाषा म हज़ार दद सहो लाख सि तयाँ झेलो भरो न आह मगर घायल क भाषा म रहे न यथ ह चप ठँठ सखे पेड़ केु ू ू सलग उठे वह दावानल क भाषा मु भले ह िज़ दगी मौसम रह हो पतझड़ का कह है हमने ग़ज़ल क पल क भाषा म.

    15. प तो इ तहास के जनृ -जन को दखलाए गए खास जो संदभ थे ,ज़बरन वो झठलाए गएु आँख पर बाँधी ग ऐसी अँधेर प या ँघा टय के सब सनहरे य धँधलाए गएु ु घाट था सब के लए ले कन न जाने य वहा ँकछ त त लोग ह चनु ु - चन के नहलाए गएु साथ उनके जो गए ह लोग उनको फर गनो ख़दु-ब-खद कतने गए और कतने फसलाए गएु ु

  • जब कह ं ख़तरा नह था आसमाँ भी साफ़ था फर प र दे य यहाँ सहमे हए पाए गएु

    आदमी को आदमी से दर करने के लएू आदमी को काटने के दाँव सखलाए गए िज़ दगी से भागना था ' ज', दबकना नीड़ मु मंिज़ल तक वो गए जो पाँव फैलाए गए

    16. बेशक बचा हआ कोई भी उसका ु 'पर' न था ह मत थी हौसला था प र दे को डर न था

    धड़ से कटा के घमते ह आज हम िजसेू झकता कभी ये झठ के पैर पे सर न थाु ू कदम क धल चाट के छना था आसमानू ू थे हम भी बाहनर मगर ऐसा हनर न थाु ु भला सहर ू का शाम को लौटा तो था मगर जाता कहाँ वो घर म कभी म तज़र न थाु सरज का एहतराम कया उसने उ भरू िजसका कह ं भी धप क ब ती म घर न थाू उसने हम मटाने को माँगी ज़ र थी यह और बात है क दआ म असर न थाु मंिज़ल हमार ख़ म हई उस मक़ाम परु ु सहरा क रेत थी जहा ँकोई शजर न था.

    17. देख, ऐसे सवाल रहने दे बेघर का ख़याल रहने दे

  • तेर उनक बराबर कैसी त उ ह तंग हाल रहने देू उनके होने का कछ भरमु तो रहे उनपे इतनी तो खाल रहने दे मछ लयाँ कब चढ़ ह पेड़ पर अपना न दया म जाल रहने दे या ज़ रत यहाँ उजाले क

    छोड़, अपनी मशाल रहने दे भल जाएँ न तेरे बन जीनाू बि तय म वबाल रहने दे कात मत दे रहा है आम ये पेड़ और दो -चार साल रहने दे िजसको चाहे ख़र द सकता है अपने खीसे म माल रहने दे वो तझे आईना दखाएगा ु ? उसक इतनी मज़ाल, रहने दे काम आएँगे सौदेबाज़ी म साथ अपने दलाल रहने दे छोड़ ख़रगोश क छलाँग को अपनी कछए ु =सी चाल रहने दे.

    18. उनका व तार ह नह ं होता त जो आधार ह नह ं होताू

  • बीच मँझधार ह नह ं होता त जो पतवार ह नह ं होताू बंद म ी म मोम रहता तोु व न साकार ह नह ं होता

    मार खाता अगर न साँचे क मोम आकार ह नह ं होता हर क़दम पर ठगा गया फर भी त ख़बरदार ह नह ं होताू जो शरण म गनाह करता हैु वो गनहगार ह नह ं होताु बेच डालगे वो तेर द नयाु तझ से इनकार ह नह ं होताु जो खबर ले सके सतमगर क अब वो अखबार ह नह ं होता म तिज़र है उधर तेरा सा हलु फर भी त पार ह नह ं होताू

    जब प र दे कतर सके पंजराु यह चम कार ह नह ं होता जो मखौटा कोई हटा देताु तो वो अवतार ह नह ं होता ' ज', त इस िज़ दगी क बाह मू य गर तार ह नह ं होता

  • 19. कसी के पास वो तज़ -बयाँ नह ं देखा सह -सह जो कहे दा ताँ नह ं देखा दखा रहे ह अभी इसको 'सोन- च ड़या' ह हमार आँख से ह दो ताँ नह ं देखा शराफ़त के मक़ा बल हज़ार शा तर हु अब इस से स त कोई इ तेहाँ नह ं देखा त ल मी रौशनी से जझते भी या पंछू कभी िज ह ने खला आ माँ नह ं देखाु रहे वो काम पर आए-गए कई मौसम कह ं फर उन-सा कोई स त-जाँ नह ं देखा थे उसके ह म के पाब द कटघरे सारेु डरेगा कटघर से ह मराँु नह ं देखा उसे तो काटना था पेड़ बस महल के लए टके थे पेड़ पर भी आ शयाँ नह ं देखा

    वो आ गया है हम अब तसि लयाँ देगा हमारा आग म जलता मकाँ नह ं देखा खड़े थे धप म तनकरू , बने रहे बरगद सर पे िजन के कोई सायबाँ नह ं देखा उ ह ने बाँट दया, मज़हब म द रया को तट को जोड़ता पल दर याँ नह ं देखाु लपट के ख़द से ह रोए बहत अकेले मु ु कह ं जो दल का कोई राज़दाँ नह ं देखा

  • पलाए जो हम पानी हमारे घर आकर अभी कसी ने भी ऐसा कआँ नह ं देखाु ये म क बढ़ रहा है प छए न कस जा नबु ू बग़ैर मंिज़ल के कारवाँ नह ं देखा नह ं देखा खदायाु , ख़ैर हो, ब ती म आज फर हमने कसी के घेर से भी उठता धआँ नह ं देखाु

    बहस के म ओं म मौलवी थेु , पं डत थे वहाँ ' ज', आदमी का ह नशाँ नह ं देखा.

    20. नींव जो भरते रहे ह आपके आवास क िज़ दगी उनक कथा है आज भी बनवास क िजन प र द क उड़ाने क द कर डाल गु जी रहे ह ट स लेकर आज भी नवास क तोड़कर मासम सपने आने वाल पौध केू नींव र खगे भला वो कौन से इ तहास क वह उगी ,काट गई, र द गई, फर भी उगी देवदार क नह ं औकात है यह घास क वह तो उनके शोर म ह डब कर घ ता रहाू ु क़हक़ह ने कब सनी दा ण कथा सं ास कु तब यक़ नन एक बेहतर आज मल पाता हम पोल खल जाती कभी जो झठ के इ तहास कु ू आपके ये आ ासन परे ह गे जब कभीू तब तलक तो सखू जाएगी नद व ास क

  • अन गनत माय सयू , ख़ामो शय के दौर म देखना ' ज', छेड़ कर कोई ग़ज़ल उ लास क .

    21. आपक क ती म बैठे , ढँढतेू सा हल रहे सोचते ह अब क हम तो आज तक जा हल रहे बि तय को जो मला है आपसे ख़ैरात म उसम अ सर नफ़रत के ज़हर ह शा मल रहे जब गनहगारु के सर पर आपका ह हाथ है वो तो मं सफ़ु ह रहगे, वो कहाँ क़ा तल रहे ? िज़ दगी कछ आँकड़ु का खेल बन कर रह गई और हम इन आँकड़ का देखते हा सल रहे म तु से हम तो यारो ! एक भारतवष ह आप ह पंजाब या क मीर या ता मल रहे आपसे जड़ कर चले तोु मंिज़ल से दर थेू आपसे हट कर चले तो जा नब-ए-मंिज़ल रहे.

    22. उसके इरादे साफ़ थे, उसक उठान साफ़ बेशक उसे न मल सका ये आसमान साफ़ बेशक लगे ये आपको भी आसमान साफ़ देखी नह ं वो पाँव के नीचे ढलान साफ़ उनको है चा हए यहा ँ सारा जहान साफ़ घर साफ़, ब ती साफ़, मक न-ओ-मकान साफ़

  • नीयत ह साफ़ और न जब थी ज़बान साफ़ होता कहाँ फ़र उनका कोई भी बयान साफ़ सारे गनाहु क़ा तल के फर करे मआफ़ु फर कर सबतु ू वो गमु सब नशान साफ़

    घेरे हएु हज़रु ू को ह जी-हज़रु ू जब कैसे सनगेु ाथना या फर अज़ान साफ़ उसका क़सरु ू इतना ह था वो था च मद द आँख से रौशनी गई मँहु से ज़बान साफ़ .

    23. सामने काल अँधेर रात गराती रहु रौशनी फर भी हमारे संग ब तयाती रह वाथ क ध कनी वो आग सलगातीु रह

    गाँव क संदर ज़मींु पर क़हर बरपाती रह स य और ईमान के सब तक थे हारे-थके भखू मनमानी से अपनी बात मनवाती रह बेसहारा झि गयु के सारे द पक छ न कर चंद फ़मान क ब ती झमती ू - गाती रह खरदरे हाथ सेु लेकर पाँव के छाल तलक रो टय क कामना या- या न दखलाती रह रा ता पहला क़दम उठते ह तय होने लगा रा त क भीड़ बेशक उसको उलझाती रह .

  • 24. अगर वो कारवाँ को छोड़ कर बाहर नह ं आता कसी भी स त से उस पर कोई प थर नह ं आता

    अँधेर से उलझ कर रौशनी लेकर नह ं आता तो म तु से कोई भटका मसा फ़रु घर नह ं आता यहा ँ कछु सर फर ने हा दस क धंधु बाँट है नज़र अब इस लए दलकश कोई मंज़र नह ं आता जो सरजू हर जगह संदरु - सनहरु धप लाता हैू वो सरज यू हमारे शहर म अ सर नह ं आता अगर इस देश म ह देश के दशमनु नह ं होते लटेरा ले केु बाहर से कभी ल कर नह ं आता जो ख़द को बेचनेु क फ़तरत हावी नह ं होतीं हम नीलाम करने कोई भी त कर नह ं आता अगर ज़ मु से लड़ने क कोई को शश रह होती हमारे दर पे ज़ मु का कोई मंज़र नह ं आता ग़ज़ल को िजस जगह ' ज', चटकलु ु -सी दाद मलती हो वहा ँ फर कोई भी आए मगर शायर नह ं आता .

    25. फ़ ल सार आप बेशक अपने घर ढलवाइएु चंद दाने मेरे ह से के मझुे दे जाइए तैर कर ख़द पार कर लगे यहाँ हम हर नदु आप अपनी कि तय को दर ह ले जाइएू

  • रतजगे मि कल हए ह अब इन आँख के लएु ु ख़ म कब होगी कहानी ये हम बतलाइए कब तलक चल पाएगी ये आपक जादगरू प याँ आँख पे जो ह अब उ ह खलवाइएु ये अधेँरा बंद कमरा, आप ह क देन है आप इसम क़ैद हो कर ची खए च लाइए सच बयाँ करने क ह मत है अगर बाक़ बची आँख से देखा वहाँ जो सब यहा ँ लखवाइए फर न जाने बादशाहत का बने या आपक नफ़रत को दर ले जाकर अगरू दफ़नाइए.

    26. सबहु -सबहु यहा ँ मरझाईु हर कल बाबा ! ये दन म रात-सी कैसी है अब ढल बाबा ! उतार फकेगा अपनी वो कचल बाबा ! वो श स िजसको समझता है त वल बाबा ू ! हए थे पढ़ के िजसे तमु ु कभी वल बाबा ! कताब आज वो हमने भी बाँच ल बाबा !

    याल तेरे पराने ु , नया ज़माना है

    उतार फक परानीु तू कंबल बाबा ! सयाह रात को हम दन नह ं जो कह पाए मची है तब से ह मह फ़ल म खलबल बाबा ! गज़ार द है यँु ू काँट पे िज़ दगी हमने न रास आएगी अब राह मखमल बाबा ! उ ह ने फक दया ऐसे अपने ईमाँ को

  • क जैसे साँप उतारे है कचल बाबा ! गया ज़माना जहाँ ' झठ ू ' 'सच' से डरता था बना है झठ का अब सच तो अदल बाबा ू ! हवा चल है ये कैसी क सब के सीन पर हर इक ने तानी है ब दक क नल बाबा ू ! बयान अ न के, खेत म आग के गोले समझ म आई नह ं बात दोग़ल बाबा ! सबत गम हए साू ु ु रे गवाह बी गमु-समु गनाह पालने क अब हवा चल बाबा ु ! ये हर क़दम पे नया इक फ़रेब देती है नगोड़ी िज़ दगी है कोई मनचल बाबा !

    27. जो लड़ जीवन क सब संभावनाओं के ख़लाफ़ हम हमेशा ह रहे उन भ मकाओं के ख़लाफ़ू जो ख़ताएँ क ं नह ं , उन पर सज़ाओं के ख़लाफ़ कस अदालत म चले जाते ख़दाओं के ख़लाफ़ु

    िजनक हमने ब दगी क , देवता माना िज ह वो रहे अ सर हमार आ थाओं के ख़लाफ़ ज़ म त अपने दखाएगा भला कसको यहाँू यह सद प थर-सी है संवेदनाओं के ख़लाफ़ सामने हालात क लाएँ जो काल सरतू

  • ह कई अख़बार भी उन सचनाओं के ख़ू लाफ़ ठ क भी होता नह ं मर भी नह ं पाता मर ज़ क िजए कछ तो दवा ऐसी दवाओं के ख़लाफ़ु आदमी से आदमी, द पक से द पक दर हू आज क ग़ज़ल ह ऐसी वजनाओं के ख़लाफ़ जो अमावस को उकेर चाँद क त वीर म थामते ह हम क़लम उन त लकाओं के ख़लाफ़ू र रंिजत स ख़याँु या मातमी ख़ामो शया ँ सब गवाह दे रह ह कछ ख़दाओं के ख़लाफ़ु ु आ ख़र प े ने बेशक चम ल आ ख़र ज़मीनू पर लड़ा वो शान से पागल हवाओं के ख़लाफ़ 'एक दन तो म उड़ा ले जाऊँगी आ ख़र त हु ' ख़द हवा पैग़ाम थी काल घटाओं के ख़लाफ़ु .

    28. हर घड़ी र दा दखु क भीड़ ने सं ास ने साथ अपना पर नह ं छोड़ा सनहरु आस ने आ ासन, भखू, बेकार , घटन ु , धोखाधड़ी हा,ँ यह सब तो दया है आपके व ास ने उ भर काँध पे इतना काम का बोझा रहा चाहकर भी शाहज़ाद को न देखा दास ने उस प रंदे का इरादा है उड़ान का मगर पंख उसके न च डाले ह सभी नवास ने

  • अपने ह से म तो है इन तंग ग लय क घटनु आपको तोहफ़े दए ह गे कसी मधमास नेु कस तरफ़ अब ख़ कर हम कस तरफ़ र ख क़दम रा ते सब ढँक लए ह संशय क घास ने जल रहा था ' रोम ' , ' नीरो ' था रहा बंसी बजा हाँ मगर, उसको कभी ब शा नह ं इ तहास ने.

    29. अब के भी आकर वो कोई हादसा दे जाएगा और उसके पास या है जो नया दे जाएगा फर से ख़जर थाम लगी हँसती-गाती बि तया ँजब नए दंग का फर वो म आ दे जाएगाु 'एकल य ' को रखेगा वो हमेशा ताक पर 'पाँडव ' या 'कौरव ' को दा ख़ला दे जाएगा क़ ल कर के ख़द तो वो छप जाएगा जाकर कह ंु ु और सारे बेगनाहु का पता दे जाएगा िज़ दगी या िज़ दगी के साये न ह गे नसीब ऐसी मंिज़ल का हम वो रा ता दे जाएगा.

    30. दल-ओ- दमाग़ को वो ताज़गी नह ं देते

  • ह ऐसे फल जोू ख़ बु ू कभी नह ं देते जो अपने आपको कहते ह मील के प थर मसा फ़र को वोु र ता सह नह ं देते उ ह चराग़ कहाने का हक़ दया कसने अँधेर म जो कभी रौशनी नह ं देते ये चाँद ख़द भी तो सरज केु ू दम से क़ायम ह ये अपने बल पे कभी चाँदनी नह ं देते ये ' ोण ' उनसे अँगठा तो माँग लेते हू ये ' एकल य ' को श ा कभी नह ं देते.

    31. सा थयो ! व य को नभ क होना चा हए आपका हर श द इक तहर क होना चा हए चाहते ह वो नरंतर सािज़श पलती रह इस लए माहौल को तार क होना चा हए खेत जो अब तक हमारे ख़न से सींचे गएू दो त , बँटवारा उपज का ठ क होना चा हए लखने वाला िजसको पढ़ने म वयं लाचार है या क़लम को इस क़दर बार क होना चा हए

    श द मज़ से चन ु , ये आपका अ धकार है श द अथ के मगर नज़द क होना चा हए.

    32. दल क टहनी पे प य जैसी शायर बहती न य जैसी

  • याद आती है बात बाबा क उसक तासीर , आँवल जैसी बाज़ आ जा, नह ं तो टटेगाू तेर फ़तरत है आईन जैसी िज़ दगी के सवाल थे मि कलु उनम उलझन थी फ़लसफ़ जैसी जब कभी -ब- हए ख़द केु ु अपनी सरत थी क़ा तलू जैसी त भीू ख़दु से कभी मख़ा तब होु कर कभी बात शायर जैसी ख़ाल हाथ जो लौट जाना है छो ड़ए िज़द सकंदर जैसी िज़ दगानी कड़कती धप भी थीू और छाया भी बरगद जैसी आपक घर म ' ज ' करे कैसे मेज़बानी वो होटल जैसी.

    33. इन बि तय म धलू-धआँ फाँकते हएु ु बीती तमाम उ यँ ह खाँसते हएू ु कछ प थर के बोझ को ढोना है लािज़मीु जी तो रहे ह लोग मगर हाँफते हएु

  • ढाँपे ह हमने पैर तो नंगे हए ह सरु या पैर नंगे हो गए सर ढाँपते हएु है िज़ दगी कमीज़ का टटा हआ बटनू ु बँधती ह उँग लयाँ भी िजसे टाँकते हएु

    हमको क़दम-क़दम पे वो गहराइयाँ मल ंचकरा रह है अ ल िज ह मापते हएु देता नह ं ज़मीर भी कछ ख़ौफ़ के सवाु डर-सा लगे है इस कएँ म झाँकते हएु ु इंसान बेज़बान -सी भेड़ नह ं िज ह ले जा सके कह ं भी कोई हाँकते हएु कहने को कह रहा था बचाएगा वो हम अ सर दखा है वो भी यहाँ काँपते हएु .

    34. उनक आदत बलं दय वालु अपनी सीरत है सी ढ़य वाल हमको न दय के बीच रहना है अपनी क़ मत है कि तय वाल िज़ दगी के भँवर सनाएँगेु अब कहानी वो सा हल वाल हमपे कछ भी लखा नह ं जाताु अपनी क़ मत है हा शय वाल भखे ब चे कोू माँ ने द रोट

  • चंदा मामा क लो रय वाल आज फर खो गई है द तर म तेर अज़ शकायत वाल त भी फँसता है रोज़ जाल मू हाय क़ मत ये मछ लय वाल त इसे सन सके अगरू ु , तो सनु यह कहानी है क़ा फ़ल वाल वो ज़बाँ उनको कैसे रास आती वो ज़बाँ थी बग़ावत वाल भल जाते ू , मगर नह ं भलूे अपनी बोल मह बत वाल .

    35. मत बात दरबार कर सीधी चोट करार कर अब अपने आँस मत पीू आह को चंगार कर काट द:ुख के सर त भीू अपनी ह मत आर कर अपने दल के ज़ म -सी काग़ज़ पर फलकार करु सार द नयाु महकेगी अपना मन फलवार करु आना है फर जाना है

  • अपनी ठ क तैयार कर मीठ है फर ेम-नद मत इसको यँ खार करू .

    36. िज़ दगी से उजाले गए ेष जब-जब भी पाले

    बाँटने जो गए रौशनी उनपे प थर उछाले गए फ़ ल है यह वह दे खए बीज िजसके थे डाले गए बत बने या खलोने हएु ु लोग साँच म ढाले गए लोग फ़ रयाद लेकर गए डाल कर मँह पे ताले गएु पाँव नंगे , सफ़र था क ठन दर तक साथ छाले गएू लेकर आए जो संवेदना वो क़फ़न भी उठा ले गए मँह लगीं इस क़दर मछ लयाँु ताल सारे खंगाले गए अब सफ़र है कड़ी धप काू पेड़ सब काट डाले गए क़ा तल के वो सरदार थे

  • क़ा तल को छड़ा ले गएु लोग थे सीधे-सादे मगर कैसे हाथ म भाले गए एक भी हल नह ं हो सका

    लाख उछाले गए वो समंदर हए उनम जबु न या ँ और नाले गए.

    37. कैसी रह बहार क आमद न प छएू इन मौसम के सा थयो मक़सद न प छएू ये तो ख़दा के राम के बंदे ह इनसे आपु पजाू -घर के टटतेू गंबदु न प छएू इस यग म हो गया है चलनु ' बोनसाई ' का यारो, कसी भी पेड़ का अब क़द न प छएू है आज भी वह ं का वह ं आम आदमी कस बात पर मखर है ये संसद न प छएु ू

    ये िज़ंदगी है अब तो सफ़र तेज़ धप काू वो रा त के पेड़ वो बरगद न प छएू .

    38. अँधेर क सयाह को त हु धोने नह ं दगे भले लोगो ! ये सरजू रौशनी होने नह ं दगे त हारे आँसओं को सोखु ु लेगी आग दहशत क

  • त हु प थर बना दगे , तमु रोने नह ं दगे सरंग बछ ग र त मु , खेत म, यहाँ अब तो त ह वोु बीज भी आराम से बोने नह ं दगे घड़ी भर के लए जो नींद मानो मोल भी ले ल भयानक वाब तमको चैन सेु सोने नह ं दगे जमीं ह हर गल म ख़नू क देखो ,कई परत मगर दंगे कभी इनको त हु धोने नह ं दगे अभी ' ज' ! व त है ख़ आ थाओं के बदलने का यहा ँ मासमू सपने वो त हु बोने नह ं दगे.

    39. हाँफ़ता दल म फ़साना और है काँपता लब पर तराना और है जगनओंु ु -सा टम टमाना और है पर दए-सा जगमगाना और है बैठ कर हँसना -हँसाना और है नफ़रत के गल खलानाु और है कछ नए स क़े चलानाु और है और फर उनको भनानाु और है मार कर ठोकर गराना और है जो गर , उनको उठाना और है ठ क है चलना परानीु राह पर हाँ , नई राह बनाना और है जो गया बीता न उसक बात कर

  • आजकल यँू भी ज़माना और है ज़ात म अपनी समटना है जदाु ख़शबओंु ु —सा फैल जाना और है ' ज' ! अकेले सोचना- लखना अलग बैठकर सननाु -सनानाु और है.

    40. राज महल के न म जो भी गाते ह उन के दामन महर से भर जातेु ह ख़ाल दामन लोग शहर को जाते ह झोले म उ मीद भर कर लाते ह भीग रहे ह हम तो सर से पाँव तक कैसे छ पर , कैसे उनके छाते ह करते ह बरसात क बात सखे मू और पानी क बँदू से डर जाते ह ढल जाता है सरज क उ मीद म दनू ऐसे भी तो फलू कई मरझातेु ह पाए ह जो सच कहने क को शश म अब तक उन ज़ म को हम सहलाते ह ब ती के कछु लोग ख़फ़ा ह गीत से फर भी ह कछ लोगु यहाँ जो गाते ह

    ' ज' जी ! कैसे कह लेते हो तम ग़ज़ल ु ? ये अनभवु तो आते-आते आते ह.

    41.

  • आसमान म गरजना और है पर ज़मीं पे भी बरसना और है सफ़ तट पर ह टहलना और है और लहर म उतरना और है दल म शोल का सलगना और हैु और शोल से गज़रना और हैु बज लयाँ बन टट गरना और हैू बज लयाँ दल म लरज़ना और है

    रतजगे मज़ से करना और है रोज़ नींद का उचटना और है है जदा घर मु उगाना कै टस रोज़ काँट म गज़रना और हैु ख़शबओं से ढाँपना ख़द को जदाु ु ु ु पर पसीने से महकना और है इस घटन म साँस लेना है अलगु आग सीने म सलगनाु और है जाम भर कर ' ज', पलाना है जदाु क़तरे-क़तरे को तरसना और है.

    42. सबक बोल है ज़लज़ले वाल या कर बात सल सले वाल

    उनके नज़द क जा के समझोगे उनक हर बात फ़ा सले वाल

  • अब न बात म टाल त इसकोू बात कर एक फ़ैसले वाल बात हँसते हएु कह कैसे यातनाओं के सल सले वाल सीख बंदर को दे के घबराई एक च ड़या वो घ सले वाल कल वो अख़बार क बनी सख़ु एक औरत थी हौसले वाल वो अकेला ह बात करता था जाने य , रोज़ क़ा फ़ले वाल फ़ क़ायम रहा हज़ार बरस

    ' ज' क ह ती थी बलबले वालु ु .

    43. पवत जैसी यथाएँ ह 'प थर ' से ाथनाएँ ह मकू जब संवेदनाए ँ ह सामने संभावनाए ँ ह रा त पर ठ क श द के दनदनाती वजनाए ँ ह सािज़श ह 'सयू' हरने क ये जो 'तम' से ाथनाए ँ ह

  • हो रहा है सयू का वागत आँ धय क सचनाएँू ह घमते हू घा टय म हम और काँध पर ' गफ़ाएँ ु ' ह आदमी के र पर पलती ंआज भी आ दम थाएँ ह फल हू हाथ म लोग के पर दल म ब ुआएँ ह वाथ के रा ते चल कर

    डगमगाती आ थाएँ ह ये मनोरंजन नह ं करतीं य क ये ग़ज़ल यथाएँ ह

    छो ड़ए भी… फर कभी सननाु ये बहत ल बी कथाएँ हु .

    44. चार दन इस गाँव म आकर पघल जाते ह आप पर पहँचु कर शहर म कतने बदल जाते ह आप आपके अंदाज़ , हमसे प छएू तो मोम ह अपनी स वधाु के सभी साँच म ढल जाते ह आप आपके औक़ात क इतनी ख़बर तो है हम मार कर लँगड़ी हम आगे नकल जाते ह आप कि तयु खेल के चसके आपको भी खबू ह शेर बकर पर झपटता है बहल जाते ह आप

  • स या ँ मलने पे जैसे मं -साधक म त ह शहर म होते ह दंगे , फलू -फल जाते ह आप दरू तक फैल अँधेर बि तया ँ अब या कर रौशनी क बात आती है तो टल जाते ह आप कारवाँ पागल नह ं जो आपके पीछे चल मंिज़ल आने से पहले ' ज' ! फसल जाते ह आप.

    45. क ध रहे ह कतने ह आघात हमार याद म और नह ं अब कोई भी सौगात हमार याद म वो शतरंज जमा बैठे ह हर घर के दरवाज़े पर शह उनक थी , अपनी तो है मात हमार याद म ताजमहल को लेकर वो ममताज़ क बात करते हु लहराते ह कार गर के हाथ हमार याद म घर के संदरु - व न सँजो कर, हम भी कछ पल सो जातेु ऐसी भी तो कोई नह ं है रात हमार याद म धप ख़याल क खलते ह वो भी आ ख़र पघलगेू बैठ गए ह जमकर जो ' हम-पात' हमार याद म जलता रे ग तान सफ़र है, पग-पग पर है त हाई स नाट क मह फ़ल-सी, हर बात हमार याद म सह जाने का, चप रहने काु , मतलब यह ब कल भी नह ंु पलता नह है कोई भी तघात हमार याद म

  • सच को सच कहना था िजनको आ ख़र तक सच कहना था क धे ह ' ज ,' वो बनकर ' सकरात ु ' हमार याद म .

    46. ये कताब हदायत वाल सफ़ उनके ह फ़ायद वाल

    आदत भी कभी बदलती ह ? छोड़ बात ये पागल वाल तू पकड़ सफ़ रा ता अपना सार सड़क ह दो ख वाल फर भी तोले थे 'पर' प रंदे ने गो हवाएँ थीं सािज़श वाल रा ते 'झठू' के रहे आसा ँ'सच' क राह थीं मि कल वालु उनक मास मयत पे मत जानाू उनक चाल ह शा तर वाल अब वो प रयाँ कहाँ से लाएँ हम नानी-माँ क कहा नय वाल घर के बरसात म कह हमने ग़ज़ल ख़शरंग मौसम वालु .

  • 47. जो थे बलंदु सह फ़ैसले दलाने म वो ल ज़ ब द ह दहशत के कारख़ाने म जो याद आ गए ब चे , ज़ रत घर क तमाम दद गए भलू कारखाने म चलो फर आज भी फ़ाक़े उबाल लेते ह अभी तो देर है फ़ ल-ए-बहार आने म है सेज काँट क अब और आसमाँ छत है मलेगा और भला या ग़र बख़ाने म

    जड़गीु सीधे कह ं िज़ दगी से ये जाकर भले ह ख़ क़ हु ग़ज़ल ये गनगनानेु ु म ग़ज़ल म शे'र ह कहना है ' ज' ! हनरम दु नया तो कछु भी नह ं क़ा फ़ए उठाने म.

    48. चि पयु से ग़ज़ल बनाता है और फर शोर को सनाताु है गाँव म जब कभी वो आता है रो के सब को यहा ँ लाता है वो जो सरदार है कबीले का पानी माँगो तो आग लाता है

  • आदमी है नए ज़माने का दो ती सबसे वो नभाता है बन के बैठा है जो ज़माने पर बोझ वो खदु कहाँ उठाता है का लज म पढ़ा- लखा सब कछु दे खए व त या सखाता है बात करता है सर फ़र जैसी आँ धय म दया जलाता है खोदता है वो खाइया ँ अ सर लोग कहते ह ' पलु बनाता है ' दद से भागकर कहा ँ जाए ँदद सबको गले लगाता है आँकड़ म बदल दया सबको अब उ ह जोड़ता घटाता है भीड़ क बात ' ज' नह ं सनताु भीड़ म रा ता बनाता है.

    49. उघड़ी चतवन खोल गई मन उजले ह तन पर मैले मन उलझगे मन

  • बखरगे जन अंदर सीलन बाहर फसलन हो प रवतन बदल आसन बेशक बन-ठन जाने जन-जन भरता मेला जेब ठन-ठन जजर चोल उधड़ी सावन टटाू छ पर सर पर सावन मन ख़ाल ह लब `जन-गण-मन ' तन है दल-दल मन है दपन म यृ ु पोखर झरना जीवन नवा सत है यँ ू 'जन-गण-मन'

    खलनायक का यँू अ भनंदन

  • ' ज' क ग़ज़ल जय ' जन-गन-मन '.

    50. चि पयाँु िजस दन ख़बर हो जाएँगी हि तयाँ ये दर-ब-दर हो जाएँगी आज ह अमत मगर कल देखनाृ ये दवाएँ ह ज़हर हो जाएँगी सीख लगी जब नये अंदाज़ ये बि तयाँ सार नगर हो जाएँगी स य-जन ह, आ थाएँ , या ख़बर अब इधर ह , कब उधर हो जाएँगी सा हल से अब हटा लो कि तया ँवना तफ़ाँ क नज़र हो जाएँगीू है नज़ाम-ए-अ न पर तम देखनाु अ न क बात ग़दर हो जाएँगी गर इराद म नह प ता यक़ ंु सब दआएँ बेअसर हो जाएँगीु मंिज़ल क फ़ है गर आपको मंिज़ल ख़द हमसफ़र हो जाएँगीु िज़ंदगी मि कल सफ़र है धप काु ू ह मत आ ख़र शजर हो जाएँगी.

  • 51. एक च पी आजकल सारे शहर पर छाई हैु अब हवा जाने कहाँ से या बहा कर लाई है िजस सड़क पर आँख मँदे आपकेू पीछे चले आँख खोल तो ये जाना ये सड़क तो खाई है अब चराग़ के शहर म रा ते दखते नह ंइन उजाल से तो हर इक आँख अब चुँ धयाई है वाब म भी देख पाना घर ग़नीमत जा नए

    प छए हमसेू , हम तो नींद भी कब आई है कछ तो तीखी चीख़ डालेगी ह नींद म ख़ललु प थर के शहर से आवाज़ तो टकराई है कंकर ले रा त म हमसफ़र के नाम पर साथ ' ज ' के त गी है, भख हैू , त हाई है.

    52. िज़ंदगी का गीत यँ तो अब नए सरू ु -ताल पर है फर भी जाने य हमार हर ख़शी हड़ताल पर हैु

    हादसे क वजह तो अब दो तो ! मलती नह ं आजकल मज रम कोई बैठा हआ पड़ताल पर हैु ु आँ धय म या कर अब अपने घर क बात भी हम ये सम झये एक तनका मक ड़य के जाल पर है

  • कैसे अपनी बात लेकर आप तक पहँचगे हमु ,जब, मसखर का एक जमघट आपक चौपाल पर है रा त या मंिज़ल क फ़ तो है बाद म ' ज ' खेद पहले हमसफ़र क अनमनी-सी चाल पर है.

    53. स नाटे से बढ़कर बोल , स नाट क रानी रात सं ास क मकू चभन को देु जाएगी बानी रात दन तो चनेगा कंकरु -प थर , फर ब च के जैसे ह और कहेगी कोई क़ सा , बन जाएगी नानी रात सार गम कछ लोग ने भर ल अपने झोले मु अपने ह से म आई है ले-देकर बफ़ानी रात हमने भी दन ह चाहा था , हम भी लाए थे 'सरजू ' जाने य कछ साथी जाु कर ले आए वो परानी रातु जाने वो य वो शहर म तब से, मारा-मारा फरता है यारो, उसने, िजस दन से है , जाना दन ,पहचानी रात आँख म हो दन का सपना तो आँख म कट जाती है ' ज ', कछ पल क ह लगती है फर तो आनीु -जानी रात .

    54. सरजू डबाू है आँख म, आज है फर सँवलाई शाम

  • स नाटे के शोर म सहमी बैठ है पथराई शाम सहमे र ते थके मसा फ़रु और अजब -सा सनापनू आज हमार ब ती म है देखो या- या लाई शाम ' लौट कहा ँ पाए ह प रंदे आज भी अपने नीड़ को ' बरगद क टहनी क बात सुन-सनकरु मरझाईु शाम साया-साया बाँट रहा है दहशत घर-घर , ब ती म सहमी आँख, टटेू सपने और है इक पगलाई शाम अभी-अभी तो दन है नकला , सरजू भी है परबू म ' ज ' ! फर य अपनी आँख म आज अभी भर आई शाम .

    55. रात - दन हम से तो है उलझती ग़ज़ल उनक मह फ़ल म होगी चहकती ग़ज़ल शो ख़य के नशे म बहकती ग़ज़ल सफ़ बचकाना है वो मचलती ग़ज़ल

    झमतीू लड़खड़ाती ग़ज़ल मत कहो अब कहो ठोकर से सँभलती ग़ज़ल ख़ामशीु सािज़श के शहर क सनोु फर कहो सािज़श को कचलतीु ग़ज़ल

    अब मखौु ट , नक़ाब के इस दौर म िजतने चेहरे ह सबको पलटती ग़ज़ल दे खए इसम सागर-सी गहराइयाँ अब नह ं है नद -सी उफ़नती ग़ज़ल

  • गम बनावट कु ख़ बु ू म होती नह ं ये पसीने -पसीने महकती ग़ज़ल फर यगु के अँधेरे के है -ब- इक नई रौशनी-सी उभरती ग़ज़ल दन के हर दद से , रंज से जझकरू रात को ' ज' के घर है ठहरती ग़ज़ल.

    56. जीवन के हर मोड़ पर अब तो संदेह का साया है नफ़रत क तहज़ीब ने अपना रंग अजब दखलाया है गाँव म जो सब लोग को इक -दजे तक लाती थींू कसने आकर उन र म को आपस म उलझाया है

    तमने अगर था अ न ह बाँटा ु ,राह, गल , चौ्राह म सनते ह य नाम त हारा हर चेहरा क हलायाु ु ु है सोख तट को न दया तो फर सागर म मल जाएगी बेशक परे दम सेू बादल घाट पर घर आया है जन-गण-मन के संवाद के संकट से जो लड़ती ह उन ग़ज़ल को कछ लोग ने पागल शोर बताया हैु अब के भी आई आँधी तो ब च ! ज़ोर लगा देना इस घर को परख ने भी तो कतनी बार बनाया हैु बात का जादगरू है वो , सपन का सौदागर भी स दय से भखूे- यास को िजसने भी बहलाया है -----.