पंचम ्अध्याय ओमप्रकाश वाल्मीकक ......2....

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201 पंचम् अयाय ओमकाश वामीक का जीवन एवं साहिययक परिचय तावना 1. ओमकाश वामीक का जीवन परिचय I. जम II. परिवाि III. बचपन IV. शा V. ववाि VI. वामीककजी के यततयव के ननमाायक तययव 1. गुऱजन के भेदभावयुतत एवं अमानवीय यविाि 2. ामीण प ठभूशम : रिसते घाव की दातान 3. जानतगत वैमनय भिा वाताविण 4. पारिवारिक अााभाव 5. जनवादी साहियय एवं वानुभूनत 6. समाज-यवा : आोश की जननVII. अशभनय 2. ओमकाश वामीक का साहिययक परिचय I. कवव के ऱप म II. किानीकाि के ऱप म III. आयमकाकाि के ऱप म IV. आलोचक के ऱप म V. अनुसंधियसु के ऱप म VI. संपादक के ऱप म VII. अनुवादक के ऱप म VIII. अय IX. समान नका संदभा सूची

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Page 1: पंचम ्अध्याय ओमप्रकाश वाल्मीकक ......2. ओमप रक श व ल म कक क स ह त ययक पर चय ओमप्रकाश

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पंचम ्अध्याय

ओमप्रकाश वाल्मीकक का जीवन एवं साहित्ययक परिचय

प्रस्तावना 1. ओमप्रकाश वाल्मीकक का जीवन परिचय

I. जन्म

II. परिवाि

III. बचपन

IV. शशक्षा V. वववाि

VI. वाल्मीककजी के व्यत्ततयव के ननमाायक तययव

1. गुरूजनों के भेदभावयुतत एवं अमानवीय व्यविाि

2. ग्रामीण पषृ्ठभूशम : रिसते घावों की दास्तान

3. जानतगत वैमनस्य भिा वाताविण

4. पारिवारिक अर्ााभाव

5. जनवादी साहियय एवं स्वानभुूनत

6. समाज-व्यवस्र्ा : आक्रोश की जननी VII. अशभनय

2. ओमप्रकाश वाल्मीकक का साहित्ययक परिचय

I. कवव के रूप में II. किानीकाि के रूप में III. आयमकर्ाकाि के रूप में IV. आलोचक के रूप में V. अनुसंधियसु के रूप में VI. संपादक के रूप में VII. अनुवादक के रूप में VIII. अन्य

IX. सम्मान

ननष्कर्ा संदभा सूची

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पंचम ्अध्याय

ओमप्रकाश वाल्मीकक का जीवन एवं साहित्ययक परिचय

प्रस्तावना : ओमप्रकाश वाल्मीकक वर्तमान हिन्दी साहित्य में बिुचर्चतर् एवं प्रससद्ध नाम िै ।

साहित्यकार का साहित्य उसकी अपनी पिचान बन जार्ा िै । साहित्य के माध्यम से साहित्यकार का जीवन-दशतन प्रस्रु्र् िोर्ा िै । साहित्यकार का साहित्य उसके जीवनानुभवों का ननचोड़ रिर्ा िै । ककसी भी साहित्यकार की जीवन-दृष्टि उसके अपने भोगे िुए जीवन की फलशु्रनर् िोर्ी िै, उपज िोर्ी िै । ओमप्रकाश वाल्मीकक का साहित्य भारर्ीय समाज का दशतन िै । वाल्मीकक जी अपने ओजपूर्त सशक्र् साहित्य के कारर् िी आज हिन्दी साहित्य में चर्चतर् एवं प्रससद्ध िै । जब कोई व्यष्क्र् ससला-चालु रास्रे् से ििकर नवीन प्रगनर्मय रास्रे् पर चल पड़र्ा िै, र्ब वि परंपरावाहदयों की दृष्टि में आ जाए यि स्वाभाववक िै । वाल्मीकक जी ने अपने साहित्य में साहित्य के परंपरागर् मापदण्डों का त्याग ककया िै । उन्िोंने नई चेर्ना से युक्र् ष्जस साहित्य का सजतन ककया िै, वि साहित्य ‘दसलर् साहित्य’ के मापदण्डों पर रचा गया िै ।

ओमप्रकाश वाल्मीकक और दसलर् साहित्य एक दसूरे का पयातय िै । वाल्मीकक जी ने अपने संपूर्त साहित्य में दसलर् जीवन की पूरी व्यथा-कथा को व्यक्र् कर हदया िै । अन्याय पे्रररर् समाज व्यवस्था के प्रनर् जो आग उनके सीने में जल रिी िै, विीं आग ने उनके साहित्य में आकार प्राप्र् ककया िै । वाल्मीकक जी के संदभत में रमेश कुमार ने सलखा िै – ‘‘उनमें मनुटय की प्रनर्टठा िै, जानर् की पीड़ा िै, वर्त-व्यवस्था के खखलाफ ववद्रोि िै, समर्ावादी समाज की पररकल्पना िै, मषु्क्र् संग्राम िै, स्वर्न्रर्ा की आकांक्षा िै, भार्तृ्व िै, लोकर्ांत्ररक आस्थाएँ िैं, चुनौनर्यों से मुकाबला करने का सािस िै, संघर्त िै, स्वासभमान का बोध िै और सामाष्जक पररवर्तन का लक्ष्य िै ।’’1 जब िम ओमप्रकाश वाल्मीकक के साहित्य का अध्ययन करने जा रिे िैं र्ब उनके जीवन एवं साहित्य का पररचय प्राप्र् कर लेना आवश्यक बन जार्ा िै, क्योंकक साहित्यकार के जीवन-अनुभव उनके साहित्य में मुखररर् रिरे् िैं ।

1. ओमप्रकाश वाल्मीकक का जीवन-परिचय : ओमप्रकाश वाल्मीकक की जीवनयारा का पररचय ननम्नसलखखर् पिलुओ ंसे प्राप्र्

कर सकरे् िैं –

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I. जन्म : दसलर्ों की वार्ी को साहित्य में व्यक्र् करने वाले ओमप्रकाश वाल्मीकक का जन्म

30 जून, 1950 बरला, ष्जला-मुजफ्फरनगर (उत्र्रप्रदेश) में िुआ िै ।2

II. परिवाि : ओमप्रकाश वाल्मीकक का जन्म एक बडे़ दसलर् पररवार में िुआ था । उनके वपर्ा

का नाम छोिनलाल था और मार्ा का नाम मुकंदी था, ष्जसे लोगों ने ‘खजूरीवाली’ में बदल हदया था । अपने पररवार संबंधी जानकारी को प्रस्रु्र् कररे् िुए वाल्मीकक जी ने सलखा िै – ‘‘मेरे परदादा का नाम जािररया था । उनके दो पुर थे । बडे़ का नाम था बुद्ध ष्जसे सब बुद्धू किरे् थे, छोिे का नाम था – कंुदन । बुद्ध के भी दो बेिे थे, बडे़ सुगनचंद और छोिे का नाम था छोिनलाल यानी मेरे वपर्ा । सुगन की ससफत एक बेिी थी, जो रुड़की के पास पननयाले ब्यािी थी । उनका पनर् घरजँवाई बनकर रिर्ा था ।

छोिनलाल के पाँच लड़के, दो लड़ककयाँ थीं । सबसे छोिी लड़की सोमर्ी दो-र्ीन साल की थी र्भी गुजर गई थी । सुखबीर सबसे बडे़ पुर थे, उसके बाद जगदीश (जो अठारि वर्त की आयु में िी गुजर गए थे), उससे छोिे जसबीर कफर जनेसर और उनसे छोिा ओमप्रकाश यानी मैं, भाइयों में सबसे छोिा । मुझसे छोिी माया ।

...कंुदन के र्ीन पुर िुए थे – मोल्िड़, सोल्िड़ और श्यामलाल । दो बेहियाँ थीं। सबसे बड़ी का नाम था छोिी और छोिी श्यामों ।’’3

वाल्मीकक जी का पररवार परंपरागर् रूप से मजदरूी करर्ा था । संपूर्त पररवार आर्थतक ववपन्नर्ा में जीवन-गुजारा करर्ा था । बीमाररयों का इलाज न कर सकने के कारर् उनके दो बडे़ भाई (सुखबीर और जगदीश), छोिी बिन (सोमर्ी) और चाचा (मोल्िड़) की मौर् िो जार्ी िैं । काफी संघर्त के बाद वाल्मीकक जी को नौकरी समलर्ी िै। नौकरी के ससलससले में वे चंद्रपुर ठिरे िुए िोरे् िैं, उसी समय उनके मार्ा-वपर्ा का ननधन िो जार्ा िै । माँ और वपर्ाजी की अथी को कंधा देने का अवसर भी वाल्मीकक जी को निीं समला था ।4

संक्षेप में वाल्मीकक जी का बिृद पररवार कई प्रकार की सामाष्जक एवं आर्थतक मुष्श्कलयों का सामना करर्ा रिा था ।

III. बचपन : वाल्मीकक जी का बचपन ष्जन पररष्स्थनर्यों में गजुरा िै, वे ननिायर् पीड़ामय रिी

िैं । बरला गाँव का सामाष्जक वार्ावरर् रासद रिा िै । यिीं पर वाल्मीकक जी ने बचपन

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की साँसें ली िैं । बाल्यकाल से िी उनको अपमान के घूँि पीने पडे़ िैं । यथा – ‘‘साफ-सुथरे कपडे़ पिनकर कक्षा में जाओ ंर्ो साथ के लड़के किरे्, ‘‘अबे चुिडे़ का, नए कपडे़ पिनकर आया िै ।’’ मेले-पुराने कपडे़ पिनकर स्कूल जाओ ंर्ो किरे्, ‘‘अबे चूिडे़ के दरू िि, बदबू आ रिी िै ।’’5 बचपन में जब बौवद्धकर्ा और समझदारी का ववकास िो रिा था र्ब वाल्मीकक जी ने इस प्रकार की अष्स्र्त्व पर प्रिार करने वाली चोिे सिी िैं ।

पश ुको भी ष्जस जगि पर निीं रखा जार्ा ऐसी जगि पर मनुटय को मजबूरन रिना पड़र्ा िै । वाल्मीकक जी का बचपन ऐसे िी वार्ावरर् में बीर्ा िै । वाल्मीकक जी ने स्वयं अपनी आत्मकथा में सलखा िै – ‘‘चारों र्रफ गंदकी भरी िोर्ी थी । ऐसी दगुतध कक समनि भर में साँस घुि जाए । रं्ग गसलयों में घमूरे् सूअर, नंग-धड़गं बच्चे, कुत्रे्, रोजमरात के झगडे़, बस यि था वि वार्ावरर् ष्जसमें बचपन बीर्ा ।’’6 यि िै वि वार्ावरर् जो समाज-व्यवस्था ने दसलर्ों को हदया िै । ऐसे वार्ावरर् में पला-बड़ा िोने वाला व्यष्क्र् इसके ववरुद्ध में अपना आक्रोश प्रकि करे यि कफर स्वाभाववक िो जार्ा िै ।

मूलर्ः वाल्मीकक जी का बचपन अपमान, यार्नाएँ, शोर्र्, अत्याचार आहद से िोकर गुजरा िै । वाल्मीकक जी के शब्दों में – ‘‘बचपन की कई ऐसी घिनाएँ मन के भीर्र पसरी िुई िैं, जो अर्ीर् के काले स्याि हदनों की साक्षी िैं ।’’7

IV. शशक्षा : सशक्षा प्राप्र् करने िेरु् वाल्मीकक जी को काफी संघर्त करना पड़ा िै । गाँव में

अस्पशृ्यर्ा अपने पाँव पूरी र्रि से पसारे िुए थी । वाल्मीकक जी के अनसुार गाँव में – ‘‘अस्पशृ्यर्ा का ऐसा मािौल कक कुत्रे्-त्रबल्ली, गाय-भैंस को छूना बुरा निीं था लेककन यहद चूिडे़ का स्पशत िो जाए र्ो पाप लग जार्ा था ।’’8 अब ऐसे वार्ावरर् में एक दसलर् का सशक्षा प्राष्प्र् के सलए प्रयत्न करना ककर्ना कटि साध्य िोगा यि समझा जा सकर्ा िै ।

ववरोधी वार्ावरर् के बीच वाल्मीकक जी के वपर्ा ने वाल्मीकक जी की सशक्षा के सलए काफी पररश्रम एवं संघर्त ककया । स्कूल के सशक्षक को उनके द्वारा र्गड़र्गड़ाकर यि किना – ‘‘मास्िरजी, थारी मेिरबानी िो जागी जो म्िारे इस जाकर् (बच्चा) कू बी दो

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अक्षर ससखा दोगे ।’’9 उनकी वववशर्ा भले रिी िो ककन्रु् वे यि निीं चािरे् थे कक उनका बेिा भी उनकी र्रि पशवुर् ्जीवन का अनुसरर् करे ।

वाल्मीकक जी ने प्राथसमक सशक्षा अपने गाँव बरला की प्रायमरी स्कूल से प्राप्र् की। स्कूल के सशक्षकों का रूख अमानवीय एवं शोर्र् पे्रररर् रिर्ा िै । वाल्मीकक जी का पथ-प्रदशतन करना र्ो दरू, ककन्रु् उन पर अत्याचार गुजारे जारे् िैं । पाँचवीं कक्षा र्क की सशक्षा प्रायमरी स्कूल में संपन्न िुई । ‘बरला इंिर कॉलेज, बरला’ से वाल्मीकक जी ने दसवीं कक्षा पास की । बारवीं कक्षा में उनको दसलर् िोने के कारर् सशक्षकों की भेदभावपूर्त दृष्टि का सशकार िोना पड़ा और फेल िुए ।10 अर्ः डी.ए.वी. इंिर कॉलेज में दाखखला सलया गया, जो इन्दे्रशनगर (देिरादनू) में था । अथातभाव के कारर् उन्िें यि सशक्षा छोड़कर र्कनीकी सशक्षा क्षेर में प्रवेश लेना पड़ा ।

र्कनीकी सशक्षा उन्िोंने जबलपुर एव ंमुम्बई से प्राप्र् की । लंबे अंर्राल के बाद उच्च सशक्षा (एम.ए. – हिन्दी) गढ़वाल ववश्वववद्यालय (श्रीनगर) से ग्रिर् की ।11

V. वववाि : वाल्मीकक जी ममु्बई में प्रसशक्षर् ले रिे थे उसी दौरान उनके वववाि के सलए

िलचल शरुूआर् िो जार्ी िै । एक ओर वे उर्चर् नौकरी की र्लाश कर रिे थे र्ो दसूरी ओर उन पर वववाि के सलए दबाव डाला जा रिा था । यथा – ‘‘जिाँ एक ओर में अपने सलए रास्र्ों की र्लाश में भिक रिा था, विीं बार-बार वपर्ाजी के पर आ रिे थे । वे मेरी शादी कराने के सलए र्चनंर्र् थे ।’’12 र्कनीकक सशक्षा संपन्न िो जाने के बाद चंद्रपुर में वाल्मीकक जी की ननयुष्क्र् िो जार्ी िै । उनका भाई जसबीर अपने मामा के साथ समलकर एक जगि ररश्र्ा र्य कर देर्ा िै । वाल्मीकक जी को यि ररश्र्ा मंजुर निीं था। वे लड़की को देखना चािरे् थे, समझना चािरे् थे, ककन्रु् बिानेबाजी िोर्ी िै और लड़की से उनकी भेंि निीं िोर्ी । अंर् में वाल्मीकक जी यि ररश्र्ा ठुकरा देरे् िैं । अपने वववाि के संदभत में वे सलखरे् िैं – ‘‘आखखर रं्ग आकर मैंने जसबीर की र्य की िुई लड़की के सलए इनकार कर हदया था और स्वर्तलत्र्ा भाभी की छोिी बिन चंदर से शादी कर ली थी – 27 हदसम्बर, 1973 को ।’’13 इस प्रकार पररवार के सदस्यों एवं ररश्रे्दारों के ववरोध एवं इन्कार के बीच वाल्मीकक जी अपनी मनपसदं लड़की चंद्रकला के साथ वववाि कर लेरे् िैं । ष्जसने उनको जीवन के प्रत्येक मोड़ पर साथ हदया ।

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VI. वाल्मीकक जी के व्यत्ततयव के ननमाायक तययव : 1. गुरुजनों के भेदभावयुतत एव ंअमानवीय व्यविाि :

वाल्मीकक जी के व्यष्क्र्त्व का ननमातर् करने वाले पिलुओ ंमें गुरुजनों के व्यविार भी ष्जम्मेदार िैं । गाँव की प्राथसमक शाला के सशक्षक जानर्गर् मानससकर्ा से ग्रस्र् िैं । कई प्रकार की कहठनाइयों का सामना करके वाल्मीकक जी स्कूल जाना शरुू कररे् िैं । स्कूल का पूरा वार्ावरर् उनके ववरुद्ध रिर्ा िै । वाल्मीकक जी के शब्दों में – ‘‘र्रि-र्रि के िथकंडे़ अपनाए जारे् थे, र्ाकक मैं स्कूल छोड़कर भाग जाऊँ, और मैं भी उन्िीं कामों में लग जाऊँ, ष्जनके सलए मेरा जन्म िुआ था । उनके अनुसार, स्कूल आना मेरी अनर्धकार चेटिा थी ।’’14

वाल्मीकक जी का स्कूल आना, उनके गरुुजनों की दृष्टि में परंपरा से चली आ रिी व्यवस्था में िस्र्क्षेप था । अर्ः उन पर अत्याचार गुजारे जारे् िैं । स्कूल का िेडमास्िर कलीराम उनके पास झाडू लगवार्ा िै । वाल्मीकक जी दो हदन र्क स्कूल के कमरे बरामदे एवं मैदान साफ कररे् रिरे् िैं । स्कूल के अन्य छार पढ़ाई कर रिे थे और वाल्मीकक जी झाडू लगा रिे थे । उन्िोंने ऐसा काम कभी घर में भी निीं ककया था । अर्ः उनकी कमर ददत करने लगर्ी िै और मुँि में धूल भर जार्ी िै । र्ीसरे हदन वे चुपचाप कक्षा में पढ़ाई करने बैठ जारे् िैं । कुछ िी पल में उन्िें िेडमास्िर की दिाड सुनाई पडर्ी िै – ‘‘अबे, ओ चूिडे़ के मादरचोद किाँ घूस गया... अपनी माँ...’’15 उस समय िेडमास्िर ने वाल्मीकक जी के साथ जो अमानवीय व्यविार ककया उसे शब्दबद्ध कररे् िुए उन्िोंने सलखा िै – ‘‘िेडमास्िर ने लपककर मेरी गदतन दबोच ली थी । उनकी उँगसलयों का दबाव मेरी गदतन पर बढ़ रिा था । जैसे कोई भेडड़या बकरी के बच्चे को दबोचकर उठा लेर्ा िै । कक्षा से बािर खींचकर उसने मुझे बरामदे में ला पिका । चीखकर बोले, ‘‘जा लगा पूरे मैदान में झाडू..... निीं र्ो गांड में समची डालके स्कूल से बािर काढ़ (ननकाल) दूँगा ।’’16

सशक्षक ज्ञान का ज्ञार्ा िोर्ा िै, यिाँ पर र्ो विीं भेदभावपूर्त दृष्टिकोर् का सशकार रिर्ा िै । वाल्मीकक जी के मष्स्र्टक पर गुरुजनों के किु व्यविारों का गिरा प्रभाव पड़ा िै। उन्िें अपने अभ्यासकाल के दौरान ऐसे कई दःुखद अनुभव िुए िैं । प्रायमरी स्कूल के सशक्षकों का जैसा व्यविार रिा िै वैसा िी ‘बरला इंिर कॉलेज’ के प्राध्यापकों का रिा िै ।

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अपनी समझदारी एवं बौवद्धकर्ा के आधार पर एक हदन वाल्मीकक जी अपने अध्यापक के समक्ष द्रौर्ाचायत की दररद्रर्ा के साथ दसलर्ों की दररद्रर्ा की रु्लना कर बैठरे् िैं । प्राध्यापक के मुखारववदं से ननकले शब्द और व्यविार की र्था वाल्मीकक जी पर िुआ असर की एक झलक देखखए – ‘‘चूिडे़ के, रू् द्रौर्ाचायत से अपनी बराबरी करे िै... ले रे्रे ऊपर मैं मिाकाव्य सलखूगँा...’’ उसने मेरी पीठ पर सिाक-सिाक छड़ी से मिाकाव्य रच हदया था । वि मिाकाव्य आज भी मेरी पीठ पर अंककर् िै भूख और असिाय जीवन के घखृर्र् क्षर्ों में सामंर्ी सोच का यि मिाकाव्य मेरी पीठ पर िी निीं, मेरे मष्स्र्टक के रेशे-रेशे पर अंककर् िै ।’’17 सशटयों को त्रबना भेदभाव से ज्ञान देने की दृष्टि उन गुरुजनों में निीं थी । गुरुजनों की मारपीि, गासलयाँ और अपमाननर् व्यविार वाल्मीकक जी को आये हदन सिना पड़र्ा था । दसलर् िोने के कारर् उन्िें सशक्षा में उर्चर् मागतदशतन समलने के बजाय असिनीय यार्नाएँ िी समली िैं । वे पढ़ाई में र्ो काबेल थे िी, ककन्रु् थे र्ो दसलर् िी, इससलए गुरुजनों के ज्ञान, हदशा-ननदेश, पे्रम, वात्सल्य आहद में से कुछ भी निीं समला । कोई दोर्, गलर्ी न िोने के बावजूद गुरुजनों की मारपीि को सिना वाल्मीकक जी की ननयनर् िो जार्ी िै । गुरुजनों के अमानवीय व्यविारों के संदभत में वे सलखरे् िैं – ‘‘‘त्यागी इंिर कॉलेज, बरला’ में मास्िर लड़कों को लार्-घूँसों से पीिरे् थे । ये लार्-घूँसे एक अध्यापक निीं बष्ल्क ककसी बदमाश गुंडे के िोरे् थे । भला गुरुजन अपने सशटयों को इस ननदतयर्ा से पीि सकरे् िैं !’’18 ऐसे गुरुजनों के बीच रिकर वाल्मीकक जी ने सशक्षा प्राप्र् की िै ।

नन:संदेि वाल्मीकक जी के व्यष्क्र्त्व पर उनके गुरुजनों के अमानवीय व्यविार एवं भेदभावपूर्त दृष्टिकोर् का प्रभाव लक्षक्षर् िोर्ा िै । जिाँ से ज्ञान समलना चाहिए, पे्रम समलना चाहिए, वात्सल्य समलना चाहिए, हदशा समलनी चाहिए विाँ से अपमान और कू्रर यार्नाएं िी समले र्ो व्यष्क्र् के व्यष्क्र्त्व पर इसका प्रभाव क्यों निीं पडे़गा ? अपने गुरुजनों के व्यविार वाल्मीकक जी के सलए कभी न समिने वाले नचागे िैं । उन्िीं के शब्दों में – ‘‘आध्यापकों का आदशत रूप जो मैंने देखा वि अभी र्क मेरी स्मनृर् से समिा निीं । जब भी कोई आदशत गुरू की बार् करर्ा िै र्ो मुझे वे र्माम सशक्षक याद आ जारे् िैं, जो माँ-बिन की गासलयाँ देरे् थे ।’’19 आगे एक जगि वे अपने व्यष्क्र्त्व ननमातर् में गरुुजनों की भूसमका के संदभत में किरे् िैं – ‘‘ऐसे िी आदशत सशक्षकों से पाला

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पड़ा था उस समय, बचपन से ककशोरावस्था की ओर बढ़रे् िुए, जब व्यष्क्र्त्व का ननमातर् िो रिा िोर्ा िै, र्ब ऐसे दिशर् भरे मािौल में जीना पड़ा । इस पीड़ा का एिसास उन्िें कैसे िोगा ष्जन्िोंने घरृ्ा और द्वेर् की बारीक सुइयों का ददत अपनी त्वचा पर कभी मिसूस निीं ककया ? अपमान ष्जन्िें भोगना निीं पड़ा ? वे अपमान-बोध को कैसे जान पाएँगे?’’20

2. ग्रामीण पषृ्ठभूशम : रिसते घावों की दास्तान : वाल्मीकक जी का जन्म ग्रामीर् क्षेर में िुआ था । बचपन और ककशोरावस्था विीं

पर गुजरी । उनके व्यष्क्र्त्व का ननमातर् करने में ग्रामीर् पटृठभसूम ने नक्कर भसूमका ननभाई िै । ग्रामीर् पररवेश ने उनके सीने पर ऐसे घाव ककए िैं, ष्जनकी दास्र्ान ददत से भरी िुई िै ।

गाँव का पूरा वार्ावरर् भेदभावग्रस्र् रिा िै । हिन्द ूधमत से ननश्ररृ् अस्पशृ्यर्ा गाँव में पूरी र्रि से व्याप्र् िै । दसलर् का स्पशत िो जाने पर धमत संकि में पड़ जाएगा ऐसी मान्यर्ाएँ गाँव में प्रचसलर् िैं । गाँव के र्गा दसलर्ों का स्वाथत िेरु् उपयोग कररे् िैं, उनके पास बेगार करवारे् िैं, ककन्रु् उन्िें मनुटय के रूप में स्वीकारने के सलए रै्यार निीं िैं । वाल्मीकक जी के शब्दों में गाँव का वार्ावरर् कुछ इस प्रकार िै – ‘‘अस्पशृ्यर्ा का ऐसा मािौल कक कुत्रे्-त्रबल्ली, गाय-भैंस को छूना बूरा निीं था लेककन यहद चूिडे़ का स्पशत िो जाए र्ो पाप लग जार्ा था । सामाष्जक स्र्र पर इनसानी दजात निीं था । वे ससफत जरूरर् की वस्रु् थे । काम पूरा िोरे् िी उपयोग खत्म । इस्रे्माल करो, दरू फें को।’’21 ऐसे ग्रामीर् पररवेश में वाल्मीककजी ने साँसे ली िैं ।

गाँव के सवर्ों की मानससकर्ा दसलर्ों की सशक्षा के ववरुद्ध िै । वाल्मीकक जी को पढ़ाने िेरु् उनके वपर्ा को गाँव के र्गाओ ंकी सिायर्ा लेनी पड़र्ी थी । एक ओर से स्कूल के सशक्षक वाल्मीकक जी को पढ़ाना निीं चािरे् और स्कूल से ननकाल देरे् िैं, दसूरी ओर गाँव के लोग किरे् िैं - ‘‘क्या करोगे स्कूल भेजके’’, ‘‘कौवा बी कबी िंस बर् सके’’, ‘‘रु्म अनपढ़ गँवार लोग क्या जार्ो, ववद्या ऐसे िाससल ना िोर्ी’’, ‘‘अरे ! चूिडे़ के जाकर् कू झाडू लगाने कू कि हदया र्ो कोर्-सा जुल्म िो गया’’, ‘‘झाडू िी र्ो लगवाई िै, द्रोर्ाचायत की र्ररयों गुरू-दक्षक्षर्ा में अँगूठा र्ो निीं माँगा ।’’22 गाँव की ऐसी पररष्स्थनर्यों के बीच वाल्मीकक जी सशक्षा प्राप्र् कर रिे थे । उनके वपर्ा को कई लोगों

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की लाचारी करनी पड़ी िै, वववश िोकर दसूरों के सामने र्गड़र्गड़ाना पडा िै, रोना पड़ा िै। यथा – ‘‘वपर्ाजी प्रधान के सामने र्गड़गड़ा रिे थे । उनकी आखँों में आसँ ूथे । मैं पास खड़ा वपर्ाजी को देख रिा था ।’’23 हदल को दिला देने वाले ऐसे कई अनुभव वाल्मीकक जी ने ग्रामीर् क्षेर में रिकर ककए िैं ।

वाल्मीकक जी के पररवार को गाँव के र्गाओ ंपर ननभतर रिना पड़र्ा िै । उनके बडे़ भाई और वपर्ा र्गाओ ंके खेर् में काम कररे् िैं । काम के बदले में उर्चर् पैसें निीं समलरे् थे । उनके मार्ाजी मजदरूी के अलावा र्गाओ ंके यिाँ मवेसशयों (गाय, भैंस और बैल) को बाँधने की जगि की साफ-सफाई का काम कररे् िैं । शादी-ब्याि के मौको पर दसलर्ों को जूठन दी जार्ी िै । वाल्मीकक जी के मार्ाजी भी जूठन लेने जाया कररे् िैं । ऐसे समय पर वाल्मीकक जी िमेशा अपनी पररष्स्थनर्यों के संदभत में सोचरे् रिरे् िैं । हदन-रार् पसीना बिाकर मेिनर् करने वाले दसलर्ों को बदले के रूप में मार जूठन समलर्ी िै । सुखदेवससिं त्यागी के यिाँ वाल्मीकक जी के मार्ाजी साफ-सफाई का काम कररे् थे । सुखदेवससिं की लड़की के ब्याि के समय वे जूठन लेने जारे् िैं, वाल्मीकक जी और माया (वाल्मीकक जी की छोिी बिन) दोनों उनके साथ थे । उस समय वाल्मीकक जी के सीने में जो गिरा घाव िो गया उसे व्याख्यानयर् कररे् िुए वाल्मीकक जी ने सलखा िै – ‘‘जब सब लोग खाना खाकर चले गए र्ो मेरी माँ ने सुखदेवससिं त्यागी को दालान से बािर आरे् देखकर किा, ‘‘चौधरी जी, ईब र्ो सब खार्ा खा के चले गए... म्िारे जाकर्ों (बच्चों) कू भी एक पत्र्ल पर घर के कुछ दे दो । वो बी र्ो इस हदन का इंर्जार कर रे रे् ।’’ सुखदेवससिं ने जूठी पत्र्लों से भरे िोकरे की र्रफ इशारा करके किा, ‘‘िोकरा भर र्ो जूठन ले जा री िै... ऊपर से जाकर्ों के सलए खार्ा माँग री िै ? अपनी औकार् में रि चूिड़ी ! उठा िोकरा दरवाजे से और चलर्ी बन ।’’ सखुदेवससिं त्यागी के वे शब्द मेरे सीने में चाकू की र्रि उर्र गए थे, जो आज भी अपनी जलन से मुझे झुलसा रिे िैं।’’24 अर्ः स्पटि िै कक वाल्मीकक जी को अपने अष्स्र्त्व के प्रनर् जाग्रर् करने में ग्रामीर् पटृठभूसम जवाबदार रिी िै । वाल्मीकक जी के जीवन में गाँव के ररसरे् घावों की एक फेिररस्र् िै ।

गाँव में वाल्मीकक जी का पररवार नारकीय जीवन जीर्ा िै । सवर्त समाज से बहिटकृर् िोने के कारर् दसलर् समाज गाँव के बािर ष्स्थर् िै । बस्र्ी में गंदगी का साम्राज्य िै । बरसार् के हदनों में बस्र्ी के लोगों के पास रिने के सलए झोंपड़ी भी निीं

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बचर्ी । पूरी बस्र्ी पानी में बिकर रि जार्ी िै । एक ओर दसलर्ों के पास खाने का अन्न निीं िै र्ो दसूरी ओर रिने के सलए सिी ठीकाना भी निीं िै । ग्रामीर् पररवेश में दसलर्ों की ष्स्थनर् की ओर इंर्गर् कररे् िुए वाल्मीकक जी आक्रोश के साथ किरे् िैं – ‘‘साहित्य में नकत की ससफत कल्पना िै । िमारे सलए बरसार् के हदन ककसी नारकीय जीवन से कम न थे । िमने इसे साकार रूप में जीरे्-जी भोगा िै । ग्राम्य जीवन की यि दारुर् व्यथा हिन्दी के मिाकववयों को छू भी निीं सकी । ककर्नी बीभत्स सच्चाई िै यि।’’25 वाल्मीकक जी के इन शब्दों में वि पीड़ा िै, जो उन्िें ग्रामीर् जीवन से प्राप्र् िुई िैं ।

वस्रु्र्ः पीड़ाजन्य ग्रामीर् पटृठभूसम के घावों ने वाल्मीकक जी को अष्स्र्त्ववादी एवं जागरृ् व्यष्क्र् बना हदया ।

3. जानतगत वैमनस्य भिा वाताविण : वाल्मीकक जी का जन्म किी जाने वाली ननम्न जानर् में िुआ था । र्थाकर्थर्

ऊंची जानर् के लोग ननम्न जानर् के लोगों का नर्रस्कार कररे् िैं । गाँव में जानर्गर् भेदभाव प्रवर्तमान िै । अर्ः जानर्गर् शरुर्ा भरे वार्ावरर् का प्रभाव वाल्मीकक जी के व्यष्क्र्त्व पर पड़ा िै ।

जानर्गर् वैमनस्य ने वाल्मीकक जी के पथ पर कई प्रकार के काँिे डाले िैं । बचपन में ननम्न जानर् के िोने के कारर् पढ़ाई में कहठनाइयों का सामना करना पड़ा, गुरुजनों का जानर्गर् अमानवीय व्यविार, सिपाहठयों द्वारा जानर्गर् नर्रस्कार, त्यार्गयों (सवर्ों) के अत्याचार आहद वाल्मीकक जी की प्रगनर् में बाधा रूप िी बने िैं । सशक्षकों की जानर्गर् वैमनस्य से भरी मानससकर्ा की ओर संकेर् कररे् िुए एक सशक्षक के संदभत में वे बर्ारे् िैं – ‘‘जब मैं उनसे ककसी समस्या पर बार् करर्ा या अपनी कोई समस्या उनके सामने रखर्ा था, सबसे पिले मेरे ‘भंगी’ िोने का वे मुझे एिसास करा देरे् थे । उस समय मझेु लगर्ा था जैसे मेरे सामने कोई सशक्षक निीं, जार्ीय अिम में डूबा िुआ कोई अनपढ़ सामंर् खड़ा िै ।’’26

वाल्मीकक जी को अपने जीवन में प्रत्येक जगि पर जानर्गर् वैमनस्य का सामना करना पडा िै । जानर्गर् शरुर्ा भरे वार्ावरर् से रं्ग आकर वे शिर चले जारे् िैं । शिर में भी गाँव जैसी पररष्स्थनर्यों का उन्िें अनुभव िोर्ा िै । मुम्बई (अंबरनाथ) में

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र्कनीकी सशक्षा के दौरान उनकी पिचान एक पढे़-सलखे ब्राह्मर् पररवार से िो जार्ी िै । ब्राह्मर् पररवार वाल्मीकक जी को ब्राह्मर् मानने की भूल कर बैठर्ा िै । उसी पररवार की एक लड़की सववर्ा वाल्मीकक जी के प्रनर् आकवर्तर् िो जार्ी िै । वाल्मीकक जी के सामने वि ब्राह्मर् पररवार घर आने वाले दसलर्ों के साथ भेदभावपूर्त व्यविार करर्ा िै । अर्ः वाल्मीकक जी सववर्ा को सत्य से पररर्चर् करने का प्रयास कररे् िैं । सववर्ा जैसी पढ़ी-सलखी लड़की यि मानर्ी िै कक – ‘‘एस.सी. अनकल्चडत (असभ्य) िोरे् िैं । गंदे रिरे् िैं।’’27 सववर्ा का अपना ननजी अनुभव निीं था कक वि कोई असभ्य, गंदे एस.सी. को जानर्ी िो । उसे यि दृष्टि पररवार से संस्कारों के रूप में समली थी ।

ननम्न जानर् के िोने के कारर् वाल्मीकक जी को बिुर्-सी समस्याओ ंसे जूझना पड़ा िै । नौकरी समलने के पश्चार् ‘जानर्’ के कारर् उन्िें ककराये पर मकान भी निीं समल रिा था । जानर् बोधक ‘वाल्मीकक’ सरनेम के कारर् भी उन्िें ववर्म पररष्स्थनर्यों का सामना करना पड़ा । जानर्गर् वैमनस्य से भरे वार्ावरर् के संदभत में पीड़ाजनक प्रनर्कक्रया व्यक्र् कररे् िुए वे सलखरे् िैं – ‘‘जानर् के नाम पर जो खरोच समली उन्िें भरने के सलए युग भी कम पडेंगे ।’’28

अर्ः स्पटि िै कक जानर्गर् वैमनस्य से भरे वार्ावरर् के कारर् वाल्मीकक जी ववद्रोिवादी, समर्ावादी, स्वासभमानी एवं भार्तृ्व भावना से आबद्ध व्यष्क्र् बन गए ।

4. पारिवारिक अर्ााभाव : पाररवाररक अथातभाव के बीच वाल्मीकक जी का जन्म िुआ था । वाल्मीकक जी के

शब्दों में - ‘‘घर में सभी कोई न कोई काम कररे् थे । कफर भी दो जून की रोिी ठीक ढंग से निीं चल पार्ी थी ।’’29 दररद्रर्ा की इस वास्र्ववकर्ा ने उनके व्यष्क्र्त्व को ननखारने का काम ककया िै ।

वाल्मीकक जी के वपर्ा एवं र्ीन भाई र्था मार्ा गाँव में साफ-सफाई का काम र्था मजदरूी कररे् थे । ककन्रु् काम के बदले में योग्य पैसें निीं समलरे् थे । पररर्ाम-स्वरूप संपूर्त पररवार को घोर संघर्ातत्मक ष्स्थनर् में जीना पड़र्ा था । दसलर् िोने के कारर् पररवार के लोगों को बेगार भी करनी पड़र्ी थी । अथातभाव के कारर् वाल्मीकक जी की पढ़ाई भी रुक जार्ी िै । वे पाँचवी कक्षा र्क की पढ़ाई र्ो जैसे-रै्से करके प्राइमरी स्कूल से पास कर लेरे् िैं, ककन्रु् आगे की पढ़ाई के सलए उन्िें ‘त्यागी इंिर कॉलेज,

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बरला’ में प्रवेश लेना था । घर की आर्थतक पररष्स्थनर् त्रबलकुल नाजुक थी । अर्ः उनकी आगे की पढ़ाई पर भी प्रश्न र्चह्न लग जार्ा िै । यथा – ‘‘घर के जो िालार् थे उनमें दाखखला लेने का र्ो सवाल िी निीं उठर्ा था । जिाँ रोिी िी नसीब न िो, विाँ पढ़ाई की बार् कोई कैसे सोच सकर्ा िै ?’’30 स्कूल न जा पाने की वववशर्ा के कारर् वाल्मीकक जी अत्यंर् दःुखी िो जारे् िैं । पढ़ाई की अपनी भूख को र्पृ्र् करने के सलए वे अपनी माँ के पास रोने भी लगरे् िैं । अंर् में भाभी की पाजेब र्गरवी रख दी जार्ी िै और इस प्रकार छठवीं कक्षा में प्रवेश सलया जार्ा िै । ऐसी पररष्स्थनर्यों के बीच वाल्मीकक जी की पढ़ाई कफर से शरुू िुई । पढ़ाई की आवश्यक सामग्री के सलए भी उन्िें दसूरों पर आधाररर् रिना पड़र्ा था । अपनी वववशर्ा को वाल्मीकक जी कुछ इस प्रकार व्यक्र् कररे् िैं – ‘‘घर की आर्थतक िालर् कमजोर िो चुकी थी । एक-एक पैसे के सलए पररवार के प्रत्येक सदस्य को खिना पड़र्ा था । मेरे पास पाठ्य-पुस्र्कें िमेशा कम रिर्ी थीं । दोस्र्ों से माँगकर काम चलाना पड़र्ा था ।’’31

आर्थतक ववपन्नर्ा के कारर् वाल्मीकक जी के पररवार के कई सदस्य बीमाररयों का सिी इलाज़ न िो पाने पर चल बसरे् िैं । घर में खाने के अन्न के भी लाले पड़रे् िैं । पेि की भूख को र्पृ्र् करने के सलए त्यार्गयों के यिाँ से जूठन माँगनी पड़र्ी िै । दररद्रर्ा का जो भयावि र्चर वाल्मीकक जी के जीवन में हदखाई देर्ा िै, वि अत्यंर् दःुखजनक रिा िै । त्यार्गयों के यिाँ ववववध प्रसंगों पर दाल-चावल बनरे् िैं । चावल उबल जाने पर पानी अलग कर हदया जार्ा िै । इस पानी को माँड़ किरे् िैं, ष्जसे फें क हदया जार्ा िै । फें क हदया जाने वाला यि माँड़ वाल्मीकक जी के पररवार के सलए भूख र्पृ्र् करने का साधन बन जार्ा िै । इस संदभत में वाल्मीकक जी ने किा िै – ‘‘माँड़ पीने की यि आदर् ककसी शौक या फैशन की देन निीं थी । अभावों और फाकों से बचने की मजबूरी थी । फें क देनेवाली चीज िमारी भखू समिानेवाली थी ।’’32 अर्ः ऐसी पररष्स्थनर्यों के बीच वाल्मीकक जी का प्रारंसभक जीवन गुजरा िै ।

वाल्मीकक जी के वपर्ा के पास रिने के सलए अच्छा मकान भी निीं था । समट्टी से बने जजतररर् घर में वाल्मीकक जी का पररवार ननवास करर्ा था । वर्ात के हदनों में घर की छर् से पानी िपकने लगर्ा था । वाल्मीकक जी के शब्दों में – ‘‘ऐसी रारे् जाग-जागकर कािनी पड़र्ी थीं । िर वक्र् एक डर बना रिर्ा था – कब कोई दीवार धसक

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जाए ।’’33 इन पररष्स्थनर्यों से इर्ना अवश्य स्पटि िोर्ा िै कक वाल्मीकक जी ने अथातभाव की सूक्ष्म ष्स्थनर्यों को गिराई से अपने जीवन में भोगा िै ।

अथातभाव के कारर् वाल्मीकक जी की सशक्षा बीच में िी छूि जार्ी िै । बिुर्-सी कहठनाइयों को सिकर वे बारिवीं कक्षा र्क िी पिँुच पारे् िैं । आगे जीवन ननवाति के सलए नौकरी खोज लेना अत्यंर् आवश्यक बन जार्ा िै । अर्ः वे एप्रेंहिस बनकर आडड तनेंस फैक्िरी देिरादनू में प्रवेश ले लेरे् िैं ।

पाररवाररक अथातभाव की भयाविर्ा ने वाल्मीकक जी के व्यष्क्र्त्व पर गिरा असर छोड़ा िै । पाररवाररक आर्थतक ववपन्नर्ा के फलस्वरूप वाल्मीककजी में आत्मननभतरर्ा, पररश्रमशीलर्ा, इमानदारी जैसे गुर् ववकससर् िुए ।

5. जनवादी साहियय एवं स्वानभुूनत : साहिष्त्यक संपकत ने वाल्मीकक जी के व्यष्क्र्त्व पर कुछ अर्धक प्रभाव डाला िै ।

आठवीं कक्षा से िी साहित्य के प्रनर् उनका लगाव बढ़ना शरुू िो जार्ा िै । छोिी उम्र में िी वे प्रससद्ध साहित्यकारों के साहित्य का अध्ययन कर लेरे् िैं । इसका पररर्ाम यि आर्ा िै कक वे अपने को ििोलने का प्रयास करने लगरे् िैं । साहिष्त्यक समझदारी वाल्मीकक जी को अंर्मुतखी बना देर्ी िै । उन्िोंने स्वयं इस बार् को स्पटि कररे् िुए सलखा िै – ‘‘आठवीं कक्षा में पिँुचरे्-पिँुचरे् शरर्चंद्र, पे्रमचंद, रवींद्रनाथ िैगोर को पढ़ डाला था। शरर्चंद्र के पारों ने मेरे बालमन को बिुर् गिरे र्क छुआ था । पढ़ने का एक ससलससला आरंभ िो गया था । उन हदनों में कुछ-कुछ अंर्मुतखी िो रिा था ।’’34 इस प्रकार ककशोरावस्था में िी साहिष्त्यक प्रभाव ने वाल्मीकक जी के व्यष्क्र्त्व में जबरदस्र् बदलाव लाया । पूरी बस्र्ी से मानो उनका संबंध िूि जार्ा िै । वि अपने में खोये रिने लगरे् िैं र्था साहित्य में अपने भावों को व्यक्र् करने की इच्छा भी उनमें यिीं से जागरृ् िोने लगर्ी िै ।

वाल्मीकक जी ने साहिष्त्यक जगर् के संपकत में आने पर साहित्य के स्वरूप को देखा एवं उसके उद्देश्य को परखा । ष्जसमें जनवादी साहित्य के प्रनर् वे आकवर्तर् िुए । इस संदभत में वे सलखरे् िैं – ‘‘जबलपुर की साहिष्त्यक गनर्ववर्धयों से जुड़ गया था । साहित्य के प्रनर् मेरा एक नजररया भी बनने लगा था । कलावादी रचनाओ ंकी जगि जनवादी सोच आकवर्तर् करर्ी थी ।’’35 वाल्मीकक जी ने स्वयं अपने जीवन में यार्नाएँ

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भुगर्ी थीं । अर्ः जनवादी साहित्य ने उन्िें दसलर्-पीडड़र् लोगों के प्रनर् अर्धक संवेदनशील बनाया । जनवादी साहित्य ने उनमें ववद्रोि की भावना को अर्धक मुखर ककया । उन्िें अन्याय के खखलाफ लड़ने की पे्ररर्ा एवं सािस भी जनवादी साहित्य ने िी हदया ।

वाल्मीकक जी जैसे-जैसे साहित्य से घननटठ रूप में जुड़रे् जारे् िैं वैसे-वैसे दसलर्ों की ष्स्थनर्यों को साहित्य के र्राजू में र्ौलरे् जारे् िैं । अर्ः उनकी कलम दसलर् जीवन की वास्र्ववकर्ा का र्चरर् करने के सलए चल पड़र्ी िै । ष्जसमें ग्रामीर्-जीवन की अनुभूनर्याँ आधारभूर् भूसमका ननभार्ी िैं । उनके िी शब्दों में – ‘‘स्कूल में पढ़ाई गई सुसमरानंदन पंर् की कववर्ा ‘आि ! ग्राम्य जीवन भी क्या...’ के एक-एक शब्द घोर बनाविी और झूठे सात्रबर् िुए थे । उस हदन जो कुछ घहिर् िुआ उसने मेरे मन में उद्वेलन कर हदया था । शायद दसलर् कववर्ा के संस्कार भी जागने लगे थे, जो एक लंबी प्रकक्रया के बाद समय आने पर अंकुररर् िुए । ऐसे िी अनुभवों ने ‘ठाकुर का कुआ’ँ कववर्ा मुझसे सलखवाई थी ।’’36 साहिष्त्यक प्रभाव ने वाल्मीकक जी को र्चरं्नशील, संवेदनशील एवं ववचारवान बना हदए ।

डॉ. अंबेडकर के साहित्य ने वाल्मीकक जी के व्यष्क्र्त्व को सवातर्धक प्रभाववर् ककया िै । अभावों, यार्नाओ,ं उत्पीड़न के बीच झुलस रिी ष्जंदगी को व्यक्र् करने की शलैी उन्िें इसी साहित्य से प्राप्र् िोर्ी िै । वर्ों से हृदय में संर्चर् आग को बािर ननकलने का रास्र्ा समल जार्ा िै । डॉ. अंबडकर का साहित्य उनमें जागरृ्र्ा भर देर्ा िै। यथा – ‘‘इन पुस्र्कों (डॉ. अंबेडकर की पुस्र्कें ) के अध्ययन से मेरे भीर्र एक प्रवािमयी चेर्ना जागरृ् िो उठी थी । इन पुस्र्कों ने मेरे गूँगेपन को शब्द दे हदए थे । व्यवस्था के प्रनर् ववरोध की भावना मेरे मन में इन्िीं हदनों पुख्र्ा िुई थी ।’’37 भोगे िुए किु यथाथत के कारर् उनमें ववद्रोि भावना बलवर्ी िो जार्ी िै, ष्जसे जनवादी साहित्य के रूप में वाचा समलर्ी िै ।

वाल्मीकक जी ने अपने जीवन में अर्धकर्र दःुख-ददत का अनभुव ककया िै । ये दःुख-ददत उन्िें दसलर् िोने के कारर् िी सिने पडे़ िैं । अर्ः उनके व्यष्क्र्त्व में दसलर्ों-पीडड़र्ों के प्रनर् अर्धक संवेदनशीलर्ा स्पटि देखी जा सकर्ी िै । इसीसलए र्ो वे किरे् िैं – ‘‘अर्ीर् गौरवगान के बजाय जनसामान्य के दःुख-ददत को अपने लेखन में उर्ारना (मुझे) ज्यादा साथतक लगा ।’’38

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इस प्रकार वाल्मीकक जी के व्यष्क्र्त्व के ननमातर् करने वाले र्त्त्वों में जनवादी साहित्य और स्वानुभूनर् की भूसमका भी देखी जा सकर्ी िै ।

6. समाज-व्यवस्र्ा : आक्रोश की जननी : ओमप्रकाश वाल्मीकक के व्यष्क्र्त्व में आक्रोश अर्धक हदखाई पड़र्ा िै । इस

आक्रोश की जननी भारर्ीय समाज-व्यवस्था रिी िै । समाज-व्यवस्था की अमानवीय व्यवस्था के प्रनर् अपना आक्रोश व्यक्र् कररे् िुए उन्िोंने अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ की भूसमका में सलखा िै – ‘‘एक ऐसी समाज-व्यवस्था में िमने साँसे ली िैं, जो बेिद कू्रर और अमानवीय िै । दसलर्ों के प्रनर् असंवेदनशील भी ।’’39 भारर्ीय समाज में दसलर्ों का स्थान अत्यंर् ननम्न रिा िै । अन्याय पे्रररर् समाज-व्यवस्था के कारर् वाल्मीकक जी को उत्पीड़न एवं अन्याय का सामना करना पड़र्ा िै । भारर्ीय समाज-व्यवस्था व्यष्क्र् की योग्यर्ा को निीं ककन्रु् ‘जानर्’ को मित्त्व देर्ी िै । जानर् के आधार पर व्यष्क्र् की मित्र्ा स्थावपर् िोर्ी िै । भारर्ीय समाज-व्यवस्था की इस प्रर्ाली ने वाल्मीकक जी के व्यष्क्र्त्व पर गिरा प्रभाव छोड़ा िै । इस बार् को शब्दबद्ध कररे् िुए वे सलखरे् िैं – ‘‘दसलर् पढ़-सलखकर समाज की मुख्यधारा से जुड़ना चािरे् िैं, लेककन सवर्त (?) उन्िें इस धारा से रोकर्ा िै । उनसे भेदभाव बरर्र्ा िै । अपने से िीन मानर्ा िै । उसकी बुवद्धमत्र्ा, योग्यर्ा, कायतकुशलर्ा पर संदेि व्यक्र् ककया जार्ा िै । प्रर्ाडड़र् करने के र्माम िथकंडे अपनाए जार्ें िैं । इस पीड़ा को विी जानर्ा िै ष्जसने इसकी ववभीवर्का के नश्र्र अपनी त्वचा पर सिे िैं । ष्जसने ष्जस्म को ससफत बािर से िी घायल निीं ककया िै अंदर से भी नछन्न-सभन्न कर हदया िै ।’’40 समाज-व्यवस्था से ननश्ररृ् ‘जानर्’ का भयानक रूप वाल्मीकक जी ने अपने जीवन में सूक्ष्मर्ा से देखा िै । ननम्न जानर् के िोने के कारर् स्कूल में, कॉलेज में, र्कनीकी सशक्षा केन्द्रों में, नौकरी में, गाँव में, शिर में, साहित्य-जगर् में आहद सभी क्षेरों में उन्िें अपमान के घूँि पीने पडे़ िैं। अर्ः साहित्य के क्षेर में आने पर उन्िोंने समाज-व्यवस्था से समली पीड़ा को आक्रोश के साथ व्यक्र् ककया ।

वाल्मीकक जी ने अनुभव ककया कक प्राचीनकाल से चली आ रिी वर्त-व्यवस्था ने समाज-व्यवस्था के रूप में अपना स्थान बना सलया िै । ष्जसने दसलर्ों के ववकास का मागत अवरुद्ध कर हदया िै । अर्ः ऐसी समाज-व्यवस्था के अमानवीय स्वरूप ने वाल्मीकक जी के व्यष्क्र्त्व में आक्रोशात्मकर्ा एवं ववद्रोिात्मकर्ा ठँूस-ठँूसकर भर दी । इससलए वे संपूर्त रूप से अपने आक्रोश को व्यक्र् कररे् िुए किरे् िैं – ‘‘सवर्ों के मन में दसलर्ों,

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शदू्रों के सलए इर्नी घरृ्ा क्यों िै ? पेड़-पौधों, पश-ुपक्षक्षयों को पूजने वाला हिन्द ूदसलर्ों के प्रनर् इर्ना असहिटरु् क्यों िै ? आज ‘जानर्’ एक ववसशटि और मित्त्वपूर्त घिक िै । जब र्क यि पर्ा निीं िोर्ा कक आप दसलर् िै र्ो सब कुछ ठीक रिर्ा िै, ‘जानर्’ मालूम िोरे् िी सब कुछ बदल जार्ा िै । फुसफुसाििें, दसलर् िोने की पीड़ा चाकू की र्रि नस-नस में उर्र जार्ी िै । गरीबी, असशक्षा, नछन्न-सभन्न दारूर् ष्जंदगी, दरवाजे के बािर खडे़ रिने की पीड़ा भला असभजात्य गरु्ों से संपन्न सवर्त हिन्द ू कैसे जान पाएँगे ।’’41 मूलर्ः भारर्ीय समाज-व्यवस्था ने वाल्मीकक जी को जो कुछ भी हदया िै, उसे उन्िोंने सदू समेर् साहित्य के स्वरूप में वापस लौिाया िै । वाल्मीककजी का संपूर्त साहित्य समाज-व्यवस्था से प्राप्र् आक्रोशपूर्त व्यष्क्र्त्व का प्रनर्त्रबबं िै ।

VII. अशभनय : असभनय के क्षरे में वाल्मीकक जी एक प्रनर्भावान रंगकमी रि चुके िैं । असभनय

के प्रनर् उनका झुकाव र्कनीकी प्रसशक्षर् के दौरान शरुू िो जार्ा िै । जबलपुर प्रसशक्षर् के दौरान वे अपने दोस्र्ों के साथ चोरी-छुपके से नािक देखने ननकल जारे् थे । वे सलखरे् िैं – ‘‘उन्िीं हदनों छोिे-छोिे एकांकी सलखकर उनका मंचन करना भी मैंने शरुू कर हदया था ।’’42 यिी से शरुू िोने वाला असभनय का यि ससलससला जारी िी रिर्ा िै। अंबरनाथ (मुंबई) प्रसशक्षर् संस्थान में वे एक नाट्य-दल का गठन करके नािकों का कई जगिों पर मंचन भी करने लगरे् िैं । चंद्रपुर (मिाराटर) में ननयुष्क्र् के पश्चार् सन ्1974 में वे अपने सार्थयों के साथ समलकर ‘मेघदरू् नाट्य संस्था’ की स्थापना कररे् िैं ।43 नािकों में असभनय का उनका उद्देश्य समसामनयक समस्याओ ं से जनमानस को पररर्चर् कराने का िी रिा िै । ‘आधे-अधूरे’, ‘हिमालय की छाया’, ‘ससिंासन खाली िै’, ‘पैसा बोलर्ा िै’ जैसे नािकों के मंचन में उन्िोंने मुख्य असभनेर्ा के रूप में असभनय कररे् िुए कई बार सवोत्र्म असभनेर्ा के पुरस्कार भी प्राप्र् ककए िैं ।44

2. ओमप्रकाश वाल्मीकक का साहित्ययक परिचय : ओमप्रकाश वाल्मीकक का हिन्दी साहित्य में प्रनर्ष्टठर् स्थान िै । जीवन की

अनुभूनर्याँ एवं हृदय की पीड़ा उन्िें साहित्य के क्षेर में शब्द-ववधान करने के सलए पे्रररर् करर्ी िै । उनका साहित्य उनके द्वारा भोगे िुए यथाथत का प्रनर्ननर्ध िै । वाल्मीकक जी बिुमुखी प्रनर्भा के घनी साहित्यकार िैं । उन्िोंने कववर्ा, किानी, आत्मकथा आहद

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ववधाओ ंपर अपनी लेखनी चलाई िै । साथ-साथ उन्िोंने आलोचना, अनुसंधान, अनुवाद, संपादन आहद क्षेरों में भी अपना बिु मूल्यवान योगदान हदया िै ।

I. कवव के रूप में : वाल्मीकक जी ने साहित्य सजतन का प्रारंभ कवव के रूप में ककया िै । ‘सहदयों का

संर्ाप’ उनका पिला कववर्ा-संग्रि िै । इसका प्रकाशन सन ्1989 में िुआ । इस कववर्ा-संग्रि में – ‘‘आक्रोश, ववद्रोि, आग्रि, आक्रमकर्ा, भावर्क ववकास, दसलर् जीवन संघर्त की पटृठभूसम, उत्पीड़न के संदभत और उनसे उत्पन्न वेदनाओ ं के दंश, दसलर् संस्कृनर् की ववसशटि जीवन-दृष्टि साफ-साफ देखी जा सकर्ी िै ।’’45 इस कववर्ा-संग्रि के प्रकाशन के बाद वाल्मीकक जी को परंपरावादी आलोचकों की आलोचना का सशकार िोना पड़ा िै । परंपरावाहदयों ने कई आक्षेप भी उन पर लगाए । इस काव्य-संग्रि की ‘ठाकुर का कँुआ’ जैसी कववर्ाएँ ग्रामीर् पररवेश को स्पटि रूप से व्यक्र् करर्ी िैं । िजारों सालों से उत्पीडड़र् दसलर्ों की पीड़ा को इसमें वार्ी समली िै । इसी कारर् डॉ. श्यामससिं शसश कि पड़रे् िैं कक – ‘‘सचमुच संग्रि की कववर्ाएँ ज्वालामुखी बनकर सहदयों का संर्ाप उगल रिी िैं और एक नयी सोच को जन्म दे रिी िैं ।’’46 भले िी यि कववर्ा-संग्रि आकार में छोिा रिा िो ककन्रु् इसकी कववर्ाएँ भावबोध की दृष्टि से सवातर्धक सशक्र् रिी िैं ।

‘बस्स ! बिुर् िो चुका’ वाल्मीकक जी का दसूरा कववर्ा-संग्रि िै । इसका प्रकाशन सन ्1997 में िुआ । इस कववर्ा-संग्रि में वाल्मीकक जी का आक्रोश और अर्धक मुखर िुआ िै । दसलर् जीवन की ष्स्थनर्यों का इसमें स्पटि र्चरर् िुआ िै र्था साथ-साथ चेर्ना का स्वर भी व्यंष्जर् िुआ िै । वाल्मीकक जी का दृष्टिकोर् इसमें पररवर्तनवादी एवं आशावादी हदखाई पड़र्ा िै । पे्रमचंद गांधी के अनुसार इस ‘‘संग्रि की प्रत्येक कववर्ा पररवर्तन की ष्जजीववर्ा को सशक्र् असभव्यष्क्र् देर्ी िैं ।’’47 ष्जर्ना िी यि कववर्ा-संग्रि भावपक्ष की दृष्टि से सफल रिा िै उर्ना िी कलापक्ष की दृष्टि से कलापूर्त रिा िै ।

सन ्2009 में वाल्मीकक जी का र्ीसरा कववर्ा-संग्रि प्रकासशर् िुआ – ‘अब और निी.ं..’ । ‘‘इस संग्रि की कववर्ाओं का यथाथत गिरे भावबोध के साथ सामाष्जक शोर्र् के ववसभन्न आयामों से िकरार्ा िै और मानवीय मूल्यों की पक्षधरर्ा में खड़ा हदखाई देर्ा िै । ओमप्रकाश वाल्मीकक की प्रवािमयी भावासभव्यष्क्र् इन कववर्ाओ ं को ववसशटि और बिुआयामी बनार्ी िै ।’’48 इस कववर्ा-संग्रि में वाल्मीकक जी ने ऐनर्िाससक र्थ्यों को

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वर्तमान के पररपे्रक्ष्य में जोड़ने का प्रयास ककया िै । भष्क्र्कालीन कवव कबीर बाजार में खडे़ रिकर जैसे लोगों को पुकार कर किरे् िैं – ‘‘कबीरा खड़ा बाजार में सलए लुकाठी

िाथ; जो घर बार अपना चले िमारे साथ’’ वैसे िी वाल्मीकक जी दसलर्ों को गला फाड़कर किरे् िैं –

‘‘अब और निीं र्य करना िोगा किाँ खडे़ िो रु्म

साये या धूप में ।’’49 मुख्यत्व इस कववर्ा-संग्रि की कववर्ाओं के माध्यम से वाल्मीकक जी ने दसलर्ों

को जागरृ् करने का र्था सवर्ों को मानवर्ा की ओर खींचने का प्रयास ककया िै ।

II. किानीकाि के रूप में : ष्जस प्रकार वाल्मीकक जी अपनी उत्कृटि कववर्ाओं के माध्यम से हिन्दी साहित्य

में चर्चतर् एवं सफल िुए उसी प्रकार किानी सजतन के माध्यम से भी प्रससद्ध िुए िैं । उनका पिला किानी-संग्रि ‘सलाम’ सन ्2000 में प्रकासशर् िुआ । इस किानी-संग्रि की किाननयाँ दसलर् जीवन की दारूर् ष्स्थनर्यों को शब्दबद्ध करर्ी िैं । दसलर्ों की यार्नापूर्त ष्जंदगी का ये किाननयाँ जीवन्र् दस्र्ावेज िै । दसलर्ों के पशवुर् ्जीवन के पीछे ष्जम्मेदार शष्क्र्यों का भी इन किाननयों में स्पटि र्चरर् िुआ िै । सशवकुमार समश्र ने इन किाननयों के संदभत में सलखा िै – ‘‘वे शष्क्र्याँ और वे चेिरे भी इस क्रम में बेनकाब िुए िैं, दसलर् जीवन की इस समुची यार्ना के जो स्रोर् और ननसमत्र् रिे िैं । ये बड़ी साफ-सुथरी ककन्रु् बेिद बेधक और मासमतक किाननयाँ िैं ।’’50 वाल्मीकक जी ने अपनी इन किाननयों में मुख्यर्ः यथाथतवादी वर्तन ककया िै ।

‘घुसपहैठये’ वाल्मीकक जी का दसूरा किानी-संग्रि िै, जो सन ्2003 में प्रकासशर् िुआ । इस किानी-संग्रि की किाननयाँ दसलर्ों की अंर्व्यतथा, प्रर्ाड़ना और बेबसी को वास्र्ववकर्ा की भूसम पर प्रकि करर्ी िैं । ये किाननयाँ सामाष्जक, सांस्कृनर्क और आर्थतक पररवेश को प्रस्रु्र् कररे् िुए दसलर् चेर्ना को उजागर करर्ी िैं । इस किानी-संग्रि के संदभत में नगमा ज़ावेद ने किा िै – ‘‘दसलर् साहित्य के सुपररर्चर् िस्र्ाक्षर ओमप्रकाश वाल्मीकक का दसूरा किानी-संग्रि ‘घुसपैहठये’ दसलर् जीवन के कसैले यथाथत,

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बीिड़ सत्य, अनंर् छिपिािि, असमाधानजन्य वववशर्ा से रू-ब-रू करार्ा िुआ, एक बिुर् बड़ा प्रश्नर्चन्ि उस सामाष्जक व्यवस्था के सामने लगा देर्ा िै ष्जसने ब्राह्मर्वाद, जानर्वाद और सामंर्वाद के झण्डे र्ले बड़ी ननटठुरर्ा और ननमतमर्ा से दसलर्ों का मदतन ककया िै ।’’51 वाल्मीकक जी के इस किानी-संग्रि में आक्रोशभाव एवं ववद्रोिभाव स्पटि व्यक्र् िुए िैं ।

III. आयमकर्ाकाि के रूप में : वाल्मीकक जी ने अपनी जीवनयारा को आत्मकथा के रूप में प्रस्रु्र् ककया िै ।

‘जूठन’ शीर्तक से इसका प्रकाशन सन ्1997 में िुआ िै । यि आत्मकथा हिन्दी साहित्य-जगर् में िी निीं ककन्रु् संपूर्त भारर्ीय साहित्य-जगर् में आज चर्चतर् िै । भारर् की अर्धकांश भार्ाओ ंमें र्था अंगे्रजी, स्वीडडश और जमतनी में इसका अनुवाद िुआ िै । इस आत्मकथा में वाल्मीकक जी ने अपने जीवन के र्माम अनभुवों को र्िस्थ दृष्टि से वास्र्ववक स्वरूप में अंककर् ककए िैं । यि आत्मकथा मानव के द्वारा मानव पर ककए गये अत्याचार, उत्पीड़न, शोर्र्, अन्याय आहद का जीवंर् दस्र्ावेज िै । ‘जूठन’ के संदभत में सशवकुमार समश्र का मर् िै – ‘‘इस आत्मकथा में कुलीन और सुववधा सम्पन्न जीवन के रंग, रस और रोमान निीं, उनसे जुड़ा उल्लास और अवसाद भी निीं, एक पूरी की पूरी नरक-यारा र्था उससे जुड़ी अनुभूनर्याँ और उसके वे पड़ाव िैं ष्जन्िें पार कररे् िुए वे उम्र के इस दौर र्क इस यारा में पिँुचे िैं ।... ववडम्बना यि िै कक यि नरक-यारा उनकी या उन जैसे करोड़ों-करोड़ के अपने ककए-धरे का प्रनर्फल न िोकर एक ननिायर् संकीर्त मानससकर्ा के र्िर्, एक ननयनर् के रूप में उन सबके सलए सलख दी गई वि नरक-यारा रिी िै और िै, असभजार्, सवर्त मानससकर्ा; उसके धमत और धमतशास्र ष्जसे सिी मानरे् िैं और ष्जसे सनार्न बनाए रखना चािरे् िैं । आदमी और आदमी में भेद करने वाली यि मानससकर्ा सचमुच ककर्नी कू्रर, अमानवीय, बबतर, हिसं्र और गलीज िै, ओमप्रकाश वाल्मीकक की आत्मकथा उसका खुलासा करर्ी िै ।’’52 यि आत्मकथा मलूर्ः भारर्ीय समाज का आईना िै । भारर्ीय संस्कृनर् के वे र्माम मूल्य इसमें अपनी सारी दबुतलर्ा के साथ व्यक्र् िुए िैं, ष्जन पर बिृद भारर्ीय समाज गवत करर्ा िै ।

IV. आलोचक के रूप में : साहित्य के क्षेर में आने पर वाल्मीकक जी को साहित्य पर केष्न्द्रर् कई प्रश्नों का

सामना करना पड़ा िै । साहित्य के स्वरूप एवं उद्देश्य से वे अच्छी र्रि से पररर्चर् िो चुके थे । फलस्वरूप उनमें आलोचनात्मक दृष्टि का भी ववकास िो गया ।

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वाल्मीकक जी की आलोचनात्मक कृनर् िै – ‘दसलर् साहित्य का सौंदयतशास्र’। इसका प्रकाशन सन ्2001 में िुआ िै । दसलर् साहित्य का सौंदयतशास्र (ष्जसमें भार्ा, कल्पना त्रबम्ब, प्रर्ीक, भावबोध आहद का समावेश िोर्ा िै ।) क्या िै ? इसकी अवधारर्ा क्या िै ? इसकी प्रासंर्गकर्ा क्या िै ? दसलर् चेर्ना क्या िै ? दसलर् साहित्यकार ककसे किे ? जैसे सवाल दसलर् साहित्य पर उठाये जा रिे थे । ष्जनकी प्रनर्कक्रया स्वरूप इस कृनर् का सजतन िुआ िै । यथा – ‘‘यि पुस्र्क दसलर् साहित्यान्दोलन की एक बड़ी कमी को पूरा करर्ी िुई दसलर्-रचनात्मकर्ा की कुछ मूलभूर् आस्थाओ ंऔर प्रस्थान त्रबन्दओुं की खोज भी करर्ी िै, और साहित्य के स्थावपर् र्था वचतस्वशाली गढ़ों को उन आस्थाओ ंके बल पर चुनौर्ी भी देर्ी िै ।’’53 परंपरावादी सोच के ववरुद्घ यि आलोचनात्मक कृनर् प्रासंर्गक एवं समाजोपयोगी सोच प्रस्रु्र् करर्ी िै ।

V. अनुसंधियसु के रूप में : ‘सफाई देवर्ा’ वाल्मीकक जी का समाजशास्रीय अनुसंधानपरक ग्रंथ िै । ष्जसका

प्रकाशन सन ्2008 में िुआ िै । इस शोध-ग्रंथ में वाल्मीकक जी ने वाल्मीकक समाज का ऐनर्िाससक पररपे्रक्ष्य में सप्रमार् वर्तन ककया िै । इसमें भारर्ीय वर्त-व्यवस्था एवं समाज-व्यवस्था का र्थ्यपरक सूक्ष्मर्ा से र्चरर् िुआ िै । इस ग्रंथ में मनुवादी सोच एवं हिन्द ूमानससकर्ा ने ककस प्रकार दसलर्ों के साथ अन्याय ककया िै, यि संशोधनात्मक दृष्टि से बर्ाया गया िै । वाल्मीकक समाज की उत्पष्त्र्, ऐनर्िाससक ववकासक्रम, उपजानर्याँ, इसकी धासमतक मान्यर्ाएँ, इसका आर्थतक एवं सामाष्जक शोर्र् आहद को वाल्मीकक जी ने इस पुस्र्क में आधारों के साथ प्रस्रु्र् ककया िै । वाल्मीकक जी के अनुसार – ‘‘इस पुस्र्क का उद्देश्य ऐनर्िाससक उत्पीड़न, शोर्र्, दमन का ववश्लेर्र् करना िै । उसकी ऐनर्िाससक, सांस्कृनर्क पटृठभूसम का आकलन करना िै, र्था उसके समक्ष खड़ी समस्याओ ंका वववेचन करना िै ।’’54

VI. संपादक के रूप में : वाल्मीकक जी ने साहित्य के क्षरे में स्वरं्र लेखन के साथ-साथ संपादनकायत भी

ककया िै । उन्िोंने सन ् 1995 (माचत-जून) में ‘प्रज्ञा-साहित्य’ नामक पत्ररका के ‘दसलर् साहित्य ववशेर्ांक’ नामक अंक में अनर्र्थ सम्पादक के रूप में काम ककया िै । ‘युद्धरर्

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आम आदमी’ नामक पत्ररका में रमखर्का गुप्र्ा ने दसलर् साहित्य आन्दोलन संबंधी अपने सम्पादकीय लेख प्रस्रु्र् ककए, ष्जनका सम्पादन करके वाल्मीकक जी ने सन ्2004 में ‘दसलर् िस्र्क्षेप’ नामक पसु्र्क का प्रकाशन ककया । जबलपुर से प्रकासशर् िोने वाली ‘र्ीसरा पक्ष’ नामक रैमाससक पत्ररका में उन्िोंने सम्पादकीय सलािकार के रूप में भी अपना योगदान हदया िै ।

VII अनुवादक के रूप में : वाल्मीकक जी सजतक, आलोचक, शोधाथी, संपादक के साथ-साथ अनुवादक भी रि

चुके िैं । उन्िोंने ‘Why I am not a Hindu’ (Kancha Ellayya) का ‘क्यों मैं हिन्द ूनिीं िँू’ शीर्तक से, अंगे्रजी से हिन्दी में अनुवाद ककया िै ।55

VIII अन्य : साहित्य की ववववध ववधाओ ं में र्था ववववध क्षेरों में वाल्मीकक जी ने अपना

योगदान र्ो हदया िी िै, इनके अलावा उनके अन्य पिलु भी उल्लेखनीय िै । जैसे – 1. उन्िोंने लगभग 60 नािकों में असभनय एवं ननदेशन ककया, 2. प्रथम हिन्दी दसलर् लेखक साहित्य सम्मेलन, नागपुर (1993) के र्था 3. 28वें अष्स्मर्ादशत साहित्य सम्मेलन, चन्द्रपुर (मिाराटर, 2008) के अध्यक्ष बने, 4. उनकी रचनाएँ अनेक पाठ्यक्रमों में शासमल िैं ।56 उन्िोंने अनेक राटरीय सेसमनारों में हिस्सेदारी ली िै र्था ववववध ववश्वववद्यालयों में अपने व्याख्यान हदए िैं ।

IX सम्मान : साहित्य के क्षेर में अमूल्यवान प्रदान के फलस्वरूप वाल्मीकक जी कई पुरस्कारों

से सम्माननर् िुए िैं । ष्जनमें (1) सन ्1993 में, ‘डॉ. अंबेडकर राटरीय पुरस्कार’, (2) सन ्1995 में, ‘पररवेश सम्मान’, (3) सन ्2001 में, ‘कथाक्रम सम्मान’, (4) सन ्2004 में, ‘न्यू इंडडया बुक पुरस्कार’, (5) सन ्2007 में 8वां ववश्व हिन्दी सम्मेलन के दौरान, ‘न्यूयोकत , अमेररका सम्मान’ र्था (6) सन ् 2004 में, ‘साहित्य भूर्र् सम्मान’ का समावेश िोर्ा िै ।57 वाल्मीकक जी को समलने वाले ये सम्मान उनकी गररमामयी साहिष्त्यक प्रनर्भा का प्रनर्त्रबम्ब िै ।

ननष्कर्ा :

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मूलर्: वाल्मीकक जी के व्यष्क्र्त्व एवं कृनर्त्व में एक्यर्ा हदखाई पड़र्ी िै । उत्र्र-आधुननक काल के हिन्दी साहित्यकारों में मित्त्वपूर्त स्थान रखने वाले वाल्मीकक जी का जन्म भारर् के एक सामान्य गाँव में िुआ । गुरुजनों के भेदभावयुक्र् एवं अमानवीय व्यविार, ग्रामीर् पटृठभूसम से समली ररसरे् घावों की दास्र्ान, जानर्गर् वैमनस्य से भरे वार्ावरर् का साक्षात्कार जनवादी साहित्य से संपकत एव ंस्वानभुूनर् की वेधकर्ा, पाररवाररक अथातभाव, ववर्मर्ावादी समाज-व्यवस्था जैसे पिलुओ ं ने उनके व्यष्क्र्त्व को अष्स्र्त्ववादी, स्पटिर्ावादी, आक्रोशवादी, ववद्रोिवादी, आशावादी, समर्ावादी, संघर्तशील, संवेदनशील, र्चरं्नशील एवं स्वासभमानी बना हदया । उनका साहित्य वर्तमान भारर्ीय समाज का साफ आईना िै । ष्जसमें दसलर् जीवन उसकी संपूर्तर्ा के साथ व्यक्र् िुआ िै। ‘सहदयों का संर्ाप’, ‘बस्स ! बिुर् िो चुका’ र्था ‘अब और निीं’ काव्य-संग्रिों में वेदना, ववद्रोि और आक्रोश व्यंष्जर् िुआ िै । ‘सलाम’ र्था ‘घुसपहैठये’ जसेै किानी-संग्रिों में दसलर्ों की समस्याओ ंर्था पीड़ाओ ंको वार्ी समली िै । ‘जूठन’ आत्मकथा वाल्मीकक जी का भोगा िुआ यथाथत िै । उनके आलोचनात्मक सम्पाहदर्, अनुवाहदर् आहद ग्रंथों से दसलर् साहित्य को ननष्श्चर् हदशा समली िै । वस्रु्र्ः वाल्मीकक जी का संपूर्त साहित्य दसलर् चेर्ना से अनुप्राखर्र् िै ।

संदभा सूची 1. ओमप्रकाश वाल्मीकक कृर् ‘बस्स ! बिुर् िो चुका’ संवेदना एव ंसशल्प, रमेशकुमार, प.ृ13

2. अब और निीं..., ओमप्रकाश वाल्मीकक, फ्लैप

3. जूठन, ओमप्रकाश वाल्मीकक, प.ृ35-36

4. विी, प.ृ134

5. विी, प.ृ13

6. विी, प.ृ11

7. विी, प.ृ45

8. विी, प.ृ12

9. विी, प.ृ12

10. विी, प.ृ81

11. ओमप्रकाश वाल्मीकक कृर्, ‘बस्स ! बिुर् िो चुका’ संवेदना एव ंसशल्प, रमेशकुमार, प.ृ17

12. जूठन, ओमप्रकाश वाल्मीकक, प.ृ110

13. जूठन, ओमप्रकाश वाल्मीकक, प.ृ121

14. विी, प.ृ13

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15. विी, प.ृ15

16. विी, प.ृ15

17. विी, प.ृ34-35

18. विी, प.ृ70

19. विी, प.ृ14

20. विी, प.ृ62

21. विी, प.ृ12

22. विी, प.ृ17

23. विी, प.ृ17

24. विी, प.ृ21

25. विी, प.ृ35

26. विी, प.ृ78-79

27. विी, प.ृ118

28. विी, प.ृ66

29. विी, प.ृ12

30. विी, प.ृ23

31. विी, प.ृ45

32. विी, प.ृ34

33. विी, प.ृ31

34. विी, प.ृ27

35. विी, प.ृ104

36. विी, प.ृ51-52

37. विी, प.ृ89

38. विी, प.ृ135

39. विी, प.ृ07

40. विी, प.ृ152

41. विी, प.ृ160

42. विी, प.ृ103-104

43. विी, प.ृ121

44. विी, प.ृ144

45. सहदयों का संर्ाप, ओमप्रकाश वाल्मीकक, प.ृ10

46. बस्स ! बिुर् िो चुका, ओमप्रकाश वाल्मीकक, फ्लैप

47. ओमप्रकाश वाल्मीकक कृर् ‘बस्स ! बिुर् िो चुका’ संवेदना एव ंसशल्प, रमेशकुमार, प.ृ57

48. अब और निीं..., ओमप्रकाश वाल्मीकक, फ्लैप

49. विी, प.ृ105

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50. ओमप्रकाश वाल्मीकक की किाननयों में सामाष्जक लोकर्ांत्ररक चेर्ना, सं.िरपालससिं ‘अरूर्’, प.ृ33

51. विी, प.ृ134

52. विी, प.ृ33

53. दसलर् साहित्य का सौंदयतशास्र, ओमप्रकाश वाल्मीकक, फ्लैप

54. सफाई देवर्ा, ओमप्रकाश वाल्मीकक, प.ृ12

55. दसलर् साहित्य का सौंदयतशास्र, ओमप्रकाश वाल्मीकक, फ्लैप

56. अब और निीं ओमप्रकाश वाल्मीकक, फ्लैप

57. विी, फ्लैप