shirdi shri sai baba ji - teachings 009

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आत्मचि�ंतन: अपने आपकी पहचान करो, किक मेरा जन्म क्यों हुआ? मैं कौन हूँ? आत्म-चिचंतन व्यक्ति को ज्ञान की ओर ले जाता है|

विनम्रता: जब तक तुममें कि(नम्रता का (ास नहीं होगा तब तक तुम गुरु के कि.य क्ति/ष्य नहीं बन सकत ेऔर जो क्ति/ष्य गुरु को कि.य नहीं, उसे ज्ञान हो ही नहीं सकता|

क्षमा: दूसरों को क्षमा करना ही महानता है| मैं उसी की भूलें क्षमा करता हूँ जो दूसरों की भूल ेक्षमा करता है|

श्रद्धा और सबुरी (धीरज और विश्वास): पूर्ण9श्रद्धा और कि(श्वास के साथ गुरु का पूजन करो समय आने पर मनोकामना भी पूरी होंगी|

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कम��क्र: कम9 देह .ारम्भ ((त9मान भाग्य) किपछले कमB का फल अ(श्य भोगना पडे़गा, गुरु इन कष्टों को सहकर सहना क्तिसखाता है, गुरु सृष्टिष्ट नहीं दृष्टिष्ट बदलता है|

दया: मेरे भ ों में दया कूट-कूटकर भरी रहती है, दूसरों पर दया करने का अथ9 है मुझे .ेम करना चाकिहए, मेरी भक्ति करना|

संतोष: ईश्वर से जो कुछ भी (अच्छा या बुरा) .ाप्त है, हमें उसी में संतोष रखना चाकिहए|

सादगी, सच्चाई और सरलता: सदै( सादगी से रहना चाकिहए और सच्चाई तथा सरलता को जी(न में पूरी तरह से उतार लेना चाकिहए|

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अनासक्ति(: सभी (स्तुए ंहमरे उपयोग के क्तिलए हैं, पर उन्हें एककिVत करके रखने का हमें कोई अष्टिWकार नहीं है| .त्येक जी( में मैं हूँ: .त्येक जी( में मैं हूँ, सभी जगह मेरे द/9न करो|

गुरु अर्प�ण: तुम्हारा .तेक काय9 मुझे अप9र्ण होता है, तुम किकसी दूसरे .ार्णी के साथ जैसा भी अच्छा या बुरा व्य(हार करते हो, सब मुझे पता होता है, व्य(हार जो दूसरों से होता है सीWा मेरे साथ होता है| यदिद तुम किकसी को गाली देते हो, तो (ह मुझे ष्टिमलती है, .ेम करते हो तो (ह भी मुझे ही .ाप्त होता है|

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भ(: जो भी व्यक्ति पत्नी, संतान और माता-किपता से पूर्ण9तया कि(मुख होकर के(ल मुझसे .ेम करता है, (ही मेरा सच्चा भ है, (ह भ मुझमे इस .कार से लीन हो जाता है, जैसे नदिदया ंसमुद्र में ष्टिमलकर उसमें लीन हो जाती हैं|

एकस्रुर्प: भोजन करने से पहले तुमने जिजस कुते्त को देखा, जिजसे तुमने रोटी का टुकड़ा दिदया, (ह मेरा ही रूप है| इसी तरह समस्त जी(-जन्तु इत्यादिद सभी मेरे ही रूप हैं| मैं उन्ही का रूप Wरकर घूम रहा हूं| इसक्तिलए दै्वत-भा( त्याग के कुते्त को भोजन कराने की तरह ही मेरी से(ा किकया करो|

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कर्त्त�व्य: कि(ष्टिW अनुसार .तेक जी(न अपना एक किनश्चिbत लक्ष्य लेकर आता है| जब तक (ह अपने जी(न में उस लक्ष्य का संतोषजनक रूप और असंबद्ध भा( से पालन नहीं करता, तब तक उसका मन किनर्वि(कंार नहीं हो सकता याकिन (ह मोक्ष और ब्रह्म ज्ञान पने का अष्टिWकारी नहीं हो सकता|

लोभ (लाल�): लोभ और लालच एक-दूसरे के परस्पर दे्वषी हैं| (े सनातक काल से एक-दूसरे के कि(रोWी हैं| जहां लाभ है (हां ब्रह्म का ध्यान करने की कोई गंूजाइ/ नहीं है| किफर लोभी व्यक्ति को अनासक्ति और मोक्ष को .ाप्तिप्त कैसे हो सकती है|

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दरिरद्रता: दरिरद्रता (गरीबी) स(Bच्च संपश्चित्त है और ईश्वर से भी उच्च है| ईश्वर गरीब का भाई होता है| फकीर ही सच्चा बाद/ाह है| फकीर का ना/ नहीं होता, लकिकन अमीर का साम्राज्य /ीघ्र ही ष्टिमट जाता है|

भेदभा: अपने मध्य से भेदभा( रुपी दी(ार को सदै( के क्तिलए ष्टिमटा दो तभी तुम्हारे मोक्ष का माग9 ./स्त हो सकेगा| ध्यान रखो साईं सूक्ष्म रूप से तुम्हारे भीतर समाए हुए है और तुम उनके अंदर समाए हुए हो| इसक्तिलए मैं कौन हूं? इस ./न के साथ सदै( आत्मा पर ध्यान केजिन्द्रत करने का .यास करो| (ैसे जो किबना किकसी भेदभा( के परस्पर एक-दूसरे से .ेम करते हैं, (े सच में बडे़ महान होते हैं|

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मृत्य:ु .ार्णी सदा से मृत्य ुके अWीन रहा ह|ै मृत्यु की कल्पना करके ही (ह भयभीत हो उठता है| कोई मरता नहीं है| यदिद तुम अपने अंदर की आंखे खोलकर देखोगे| तब तुम्हें अनुभ( होगा किक तुम ईश्वर हो और उससे श्चिभन्न नहीं हो| (ास्त( में किकसी भी .ार्णी की मृत ुनहीं होती| (ह अपने कमq के अनुसार, /रीर का चोला बदल लेता है| जिजस तरह मनुष्य पुराने (स्V त्यक कर दूसरे नए (स्Vों को ग्रहर्ण करता है, ठीक उसी के समान जी(ात्मा भी अपने पुराने /रीर को त्यागकर दूसरे नए /रीर को Wारर्ण कर लेती है|

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ईश्वर: उस महान् स(9/क्ति मान् का स(9भूतों में (ास है| (ह सत्य स्(रुप परमतत्( है| जो समस्त चराचर जगत का पालन-पोषर्ण ए(ं कि(ना/ करने (ाला ए(ं कमq के फल देने (ाला है| (ह अपनी योग माया से सत्य साईं का अं/ Wारर्ण करके इस Wरती के .त्येक जी( में (ास करता है| चाहे (ह कि(षैले किबचू्छ हों या जहरीले नाग-समस्त जी( के(ल उसी की आज्ञा का ही पालन करते हैं|

ईश्वर का अनुग्रह: तुमको सदै( सत्य का पालन पूर्ण9 दृढ़ता के साथ करना चाकिहए और दिदए गए (चनों का सदा किन(ा9ह करना चाकिहए| श्रद्धा और Wैय9 सदै( ह्रदय में Wारर्ण करो| किफर तुम जहाँ भी रहोगे, मैं सदा तुम्हारे साथ रहूंगा|

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ईश्वर प्रदर्त्त उर्पहार: मनुष्य द्वरा दिदया गया उपहार क्तिचरस्थायी नहीं होता और (ह सदै( अपूर्ण9 होता है| चाहकर भी तुम उसे सारा जी(न अपने पास सहेजकर सुरश्चिक्षत नहीं रख सकते| परन्तु ईश्वर जो उपहार .ते्तक.ार्णी को देता है (ह जी(न भर उसके पास रहता है| ईश्वर के पांच मूल्य(ान उपहार - सादगी, सच्चाई, सुष्टिमरन, से(ा, सत्संग की तुलना मनुष्य .दत्त किकसी उपहार से नहीं हो सकती है|

ईश्वर की इच्छा: जब तक ईश्वर की इच्छा नहीं होगी-तब तक तुम्हारे साथ अच्छा या बुरा कभी नहीं हो सकता| जब तक तुम ईश्वर की /रर्ण में हो, तो कोई चहाकर भी तुम्हें हाकिन नहीं पहुँचा सकता|

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आत्मसमर्प�ण: पूरी तरह से मेरे .कित समर्विपंत हो चुका है, जो श्रद्धा-कि(श्वासपू(9क मेरी पूजा करता है, जो मुझे सदै( याद करता है और जो किनरन्तर मेरे इस स्(रूप का ध्यान करता है, उसे मोक्ष .दान करना मेरा कि(क्ति/ष्ट गुर्ण है|

सार-तत्त्: के(ल ब्रह्म ही सार-तत्त्( है और संसार नश्वर है| इस संसार में (स्तुतः हमार कोई नहीं, चाहे (ह पुV हो, किपता हो या पत्नी ही क्यों न हो|

भलाई: यदिद तुम भलाई के काय9 करते हो तो भलाई सचमुच में तुम्हारा अनुसरर्ण करेगी|

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सौन्दय�: हमको किकसी भी व्यक्ति की संुदरता अथ(ा कुरूपता से परे/ान नहीं होना चाकिहए, बल्किल्क उसके रूप में किनकिहत ईश्वर पर ही मुख्य रूप से अपना ध्यान केजिन्द्रत करना चाकिहए|

दक्षिक्षणा: दश्चिक्षर्णा (श्रद्धापू(9क भेंट) देना (ैराग्ये में बढोत्तरी करता है और (ैराग्ये के द्वारा भक्ति की (ृजिद्ध होती है|

मोक्ष: मोक्ष की आ/ा में आध्यात्मित्मक ज्ञान की खोज में, मोक्ष .ाप्तिप्त के क्तिलए गुरु-चरर्णों की से(ा अकिन(ाय9 है|

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दान: दाता देता है यानी (ह भकि(ष्य में अच्छी फसल काटने के क्तिलए बीज बोता है| Wन को Wमा9थ9 कायq का साWन बनाना चाकिहए| यदिद यह पहले नहीं दिदया गया है तो अब तुम उसे नहीं पाओगे| अतए( पान ेके क्तिलए उत्तम माग9 दान देना है|

सेा: इस Wारर्णा के साथ से(ा करना किक मैं स्(तंV हूं, से(ा करंू या न करंू, से(ा नहीं है| क्ति/ष्य को यह जानना चाकिहए किक उसके /रीर पर उसका नहीं बल्किल्क उसके 'गुरु' का अष्टिWकार है और इस /रीर का अल्किस्तत्( के(ल 'गुरु' की से(ा करने में ही साथ9क है|

शोषण: किकसी को किकसी से भी मुफ्त में कोई काम नहीं लेना चाकिहए| काम करने (ाले को उसके काम के बदले /ीघ्र और उदारतापू(9क पारिरश्रष्टिमक देना चाकिहए|

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अन्नदान: यह किनश्चिbत समझो किक जो भूखे को भोजन कराता है, (ह (ास्त( में उस भोजन द्वारा मेरी से(ा किकया करता है| इसे अटल सत्य समझो|

भोजन: इस मस्जिस्जत में बैठकर मैं कभी असत्य नहीं बोलूंगा| इसी तरह मेरे ऊपर दया करते रहो| पहले भूखे को रोटी दो, किफर तुम स्(ंय खाओ| इस बात को गांठ बांW लो|

बुक्षिद्धमान: जिजसे ईश्वर की कृपालुता (दया) का (रदान ष्टिमल चुका है, (ह फालतू (ज्यादा) बातें नहीं किकया करता| भग(ान की दया के अभा( में व्यक्ति अना(श्यक बातें करता है|

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झगडे़: यदिद कोई व्यक्ति तुम्हारे पास आकर तुम्हें गाक्तिलयां देता है या दण्ड देता है तो उससे झगड़ा मत करो| यदिद तुम इसे सहन नहीं कर सकते तो उससे एक-दो सरलतापू(9क /ब्द बोलो अथ(ा उस स्थान से हट जाओ, लेकिकन उससे हाथापाई (झगड़ा) मत करो|

ासना: जिजसने (ासनाओं पर कि(जय नहीं .ाप्त की है, उसे .भु के द/9न (आत्म-साक्षात्कार) नहीं हो सकता|

र्पार्प: मन-(चन-कम9 द्वारा दूसरों के /रीर को चोट पहुंचाना पाप है और दूसरे को सुख पहुंचना पुण्य है, भलाई है|

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सविहष्णुता: सुख और दुख तो हमारे पू(9जन्म के कमq के फल हैं| इसक्तिलए जो भी सुख-दुःख सामने आये, उसे उसे अकि(चल रहकर सहन करो|

सत्य: तुम्हें सदै( सत्य ही बोलना चाकिहए| किफर चाह ेतुम जहां भी रहो और हर समय मैं सदा तुम्हारे साथ ही रहूंगा|

एकत्: राम और रहीम दोनों एक ही थे और समान थे| उन दोनों में किकंक्तिचत माV भी भेद नहीं था| तुम नासमझ लोगों, बच्चों, एक-दूसरे से हाथ ष्टिमला और दोनों समुदायों को एक साथ ष्टिमलकर रहना चाकिहए| बुजिद्धमानी के साथ एक-दूसरे से व्य(हार करो-तभी तुम अपने राष्ट्रीय एकता के उदे्दश्य को पूरा कर पाओगे|

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अहंकार: कौन किकसका /Vु है? किकसी के क्तिलए ऐसा मत कहो, किक (ह तुम्हारा /Vु है? सभी एक हैं और (ही हैं|

आधार स्तम्भ: चाहे जो हो जाये, अपने आWार स्तम्भ 'गुरु' पर दृढ़ रहो और सदै( उसके साथ एककार रूप में रहकर स्जिस्थत रहो|

आश्वासन: यदिद कोई व्यक्ति सदै( मेरे नाम का उच्चारर्ण करता है तो मैं उसकी समस्त इच्छायें पूरी करंूगा| यदिद (ह किनष्ठापू(9क मेरी जी(न गाथाओं और लीलाओं का गायन करता है तो मैं सदै( उसके आगे-पीछे, दायें-बायें सदै( उपस्जिस्थत रहूंगा|

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मन-शक्ति(: चाहे संसार उलट-पलट क्यों न हो जाये, तुम अपने स्थान पर स्जिस्थत बने रहो| अपनी जगह पर खड़े रहकर या स्जिस्थत रहकर /ांकितपू(9क अपने सामने से गुजरते हुए सभी (स्तुओं के दृश्यों के अकि(चक्तिलत देखते रहो|

भक्ति(: (ेदों के ज्ञान अथ(ा महान् ज्ञानी (कि(द्वान) के रूप में .क्तिसजिद्ध अथ(ा औपचारिरकता भजन (उपासना) का कोई महत्त्( नहीं है, जब तक उसम ेभक्ति का योग न हो|

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भ( और भक्ति(: जो भी कोई .ार्णी अपने परिर(ार के .कित अपने कत9व्य और उत्तरदाष्टियत्(ों का किन(ा9ह करने के बाद, किनष्काम भा( से मेरी /रर्ण में आ जाता है| जिजसे मेरी भक्ति किबना यह संसार सुना-सुना जान पड़ता है जो दिदन रात मेरे नाम का जप करता है मैं उसकी इस अमूल्य भक्ति का ऋर्ण, उसकी मुक्ति करके चुका देता हूँ|

भाग्य: जिजसे दण्ड किनWा9रिरत है, उस ेदण्ड अ(श्य ष्टिमलेगा| जिजसे मरना है, (ह मरेगा| जिजसे .ेम ष्टिमलना है उस े.ेम ष्टिमलेगा| यह किनश्चिbत जानो|

नाम स्मरण: यदिद तुम किनत्य 'राजाराम-राजाराम' रटते रहोगे तो तुम्हें /ांकित .ाप्त होगी और तुमको लाभ होगा|

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अवितक्तिG सत्कार: पू(9 ऋर्णानुबन्ध के किबना कोई भी हमारे संपक9 में नहीं आता| पुरान ेजन्म के बकाया लेन-देन 'ऋर्णानुबन्ध' कहलाता है| इसक्तिलए कोई कुत्ता, किबल्ली, सूअर, मस्जिक्खयां अथ(ा कोई व्यक्ति तुम्हारे पास आता है तो उस ेदुत्कार कर भगाओ मत|

गुरु: अपने गुरु के .कित अकिडग श्रद्धा रखो| अन्य गुरूओं में चाहे जो भी गुर्ण हों और तुम्हारे गुरु में चाहे जिजतने कम गुर्ण हों|

आत्मानुभ: हमको स्(ंय (स्तुओं का अनुभ( करना चाकिहए| किकसी कि(षय में दूसरे के पास जाकर उसके कि(चार या अनुभ(ों के बारे में जानने की क्या आ(श्यकता है?

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गुरु-कृर्पा: मां कछु(ी नदी के दूसरे किकनार ेपर रहती है और उसके छोटे-छोटे बच्चे दूसरे किकनार ेपर| कछु(ी न तो उन बच्चों को दूW किपलाती है और न ही उष्र्णता .दान करती है| पर उसकी दृष्टिष्टमाV ही उन्हें उष्र्णता .दान करती है| ( ेछोटे-छोटे बच्चे अपने मां को याद करन ेके अला(ा कुछ नहीं करते| कछु(ी की दृष्टिष्ट उसके बच्चों के क्तिलए अमृत (षा9 है, उनके जी(न का एक माV आWार है, (ही उनके सुख का भी आWार है| गुरु और क्ति/ष्य के परस्पर सम्बन्ध भी इसी .कार के हैं|

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सहायता: जो भी अहंकार त्याग करके, अपने को कृतज्ञ मानकर साईं पर पूर्ण9 कि(श्वास करेगा और जब भी (ह अपनी मदद के क्तिलए साईं को पुकारेगा तो उसके कष्ट स्(य ंही अपने आप दूर हो जायेगें| ठीक उसी .कार यदिद कोई तुमस ेकुछ मांगता है और (ह (ास्तु देना तुम्हारे हाथ में है या उसे देने की सामर्थ्यय9 तुमम ेहै और तुम उसकी .ाथ9ना स्(ीकार कर सकत ेहो तो (ह (स्तु उसे दो| मना मत करो| यदिद उसे देने के क्तिलए तुम्हारे पास कुछ नहीं है तो उसे नम्रतापू(9क इंकार कर दो, पर उसका उपहास मत उड़ाओ और न ही उस पर क्रोW करो| ऐसा करना साईं के आदे/ पर चलने के समान है|

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विेक: संसार में दो .कार की (स्तुए ंहैं - अच्छी और आकष9क| य ेदोनों ही मनुष्य द्वारा अपनाये जाने के क्तिलए उसे आकर्विषतं करती हैं| उसे सोच-कि(चार कर इन दोनों में से कोई एक (स्त ुका चुना( करना चाकिहए| बुजिद्धमान व्यक्ति आकष9क (स्तु की उपेक्षा अच्छी (स्तु का चुना( करता ह,ै लेकिकन मूख9 व्यक्ति लोभ और आसक्ति के (/ीभूत होकर आकष9क या सुखद (स्तु का चयन कर लेता है और परिरर्णामतः ब्रह्मज्ञान (आत्मानुभूकित) से (ंक्तिचत हो जाता है|

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जीन के उतार-�ढ़ा: लाभ और हाकिन, जी(न और मृत्यु-भग(ान के हाथों में है, लेकिकन लोग कैसे उस भग(ान को भूल जाते हैं, जो इस जी(न की अंत तक देखभाल करता है|

सांसारिरक सम्मान: सांसारिरक पद-.कितष्ठा .ाप्त कर भ्रष्टिमत मत हो| इष्टदे( के स्(रुप तुम्हार ेरूप तुम्हारे मानस पटल पर सदै( अंकिकत रहना चाकिहए| अपनी समस्त एजिन्द्रक (ासनाओं और अपने मन को सदै( भग(ान की पूजा में किनरंतर लगाये रखो|

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जिजज्ञासा प्रश्न: के(ल .श्न पूछना ही पया9प्त नहीं है| .श्न किकसी अनुक्तिचत Wारर्णा से या गुरु को फंसान ेऔर उसकी गलकितयां पकड़ने के कि(चार से या के(ल किनत्मिष्कय अत्सुकता(/ नहीं पूछे जाने चाकिहए| .श्न पूछने के मुख्य उदे्दश्य मोक्ष .ाप्तिप्त अथ(ा आध्यात्मित्मक के माग9 में .गकित करना होना चाकिहए|

आत्मानुभूवित: मैं एक /रीर हूं, इस .कार की Wारर्णा के(ल कोरा भ्रम है और इस Wारर्णा के .कित .कितबद्धता ही सांसारिरक बंWनों का मुख्य कारर्ण है| यदिद सच में तुम आत्मानुभूकित के लक्ष्य को पाना चाहते हो तो इस Wारर्णा और आसक्ति का त्याग कर दो|

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आत्मीय सुख: यदिद कोई तुमसे घृर्णा और नफरत करता है तो तुम स्(यं को किनदBष मत समझो| क्योंकिक तुम्हारा कोई दोष ही उसकी घृर्णा और नफरत का कारर्ण बाना होगा| अपन ेअहं की झूठी संतुष्टिष्ट के क्तिलए उससे व्यथ9 झगड़ा मोल मत लो, उस व्यक्ति की उपेक्षा करके, अपने उस दोष को दूर करने का .यास करो जिजससे कारर्ण यह सब घदिटत हुआ है| यदिद तुम ऐसा कर सकोगे तो तुम आत्मीय सुख का अनुभ( कर सकोगे| यही सुख और .सन्नता का सच्चा माग9 है|

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