Download - कलाातक(समान) उपािधकायम(हंदी) 4 BLOCK 3.pdf · 7.2.2 पद संया 1 –26मूल पाठ, शदाथ, भावाथ, ायाआद
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इस पु तक की इकाई 6 की पा – सामा नई िद ल थत इंिदरा गाँध रा य मुव व ालय (इ ू) ारा तुत की गई है तथा ओ ड़शा रा य मु व व ालय ने उस
पाठ का संदभानुसार संसोधन िकया है|इस पु तक की इकाई 7 की पा – सामा मूल प से ओ डशा रा य मु व व ालय
(ओसू) ारा तुत की गई है|
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कला ातक (स मान) उपािध काय म ( हंदी)
बी.ए.एच.डी.सी.सी – 4
कृ णभि एवं रीितकालीन हंदी किवता
खंड – 3
िबहारी : ि व और कृित व
इकाई – 6 िबहारी : जीवन – प रचय, िवितयाँ और िवशेषताएँ
इकाई – 7 िबहारी के सािह य का अ ययन
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कला ातक (स मान) उपािध काय म ( हंदी)
कृ णभि एवं रीितकालीन हंदी किवता
कृ णभि एवं रीितकालीन हंदी किवतामूलपाठ के लेखक
इकाई – 6 िबहारी : जीवन – प रचय, िवितयाँ और िवशेषताएँ
इं दरा गाँधी रा ीय मु िव िव ालय, नई द ली
इकाई – 7 िबहारी के सािह य का अ ययन अिभषेक कुमार संह
संदभ करण तथा संसोधनअिभषेक कुमार संह
िश ण सलाहकार, हंदी िवभागओिड़शा रा य मु िव िव ालय, स बलपुर
संकाय सद य डॉ. श भु दयाल अ वाल
ी अिभषेक कुमार संह
कुलसिचव, ओिड़शा रा य मु िव िव ालय, स बलपुर ारा कािशत मु ण –
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इकाई – 07िबहारी के सािह य का अ ययन
परेखा
7.0 उ े य 7.1 तावना 7.1.1 संि किव प रचय7.2 िबहारी सािह य का िवशेष अ ययन 7.2.1 रीितब , रीितिस और रीितमु का 7.2.2 पद सं या 1 – 26 मूल पाठ, श दाथ, भावाथ, ा याआ द
7.3 सारांश 7.4 बोध 7.5 बोध के उ र 7.6 अ यास 7.7 संदभ थ सूिच
7.0 उ े य
रीितकाल के कुशल िश पी किववर िबहारीलाल एक सव े किव के प म मान जाते है। इस इकाई म आप किव िबहारी के का उनक िवशेषता का अ ययन करगे। उनके जीवन उनक रचना क पृ भूिम का अ ययन करगे, और-
∑ रीितकाल के का से प रिचत हो सकगे, ∑ रीितकाल म िबहारी का थान बता सकगे,
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∑ िबहारीके का कृित से प रिचत हो सकगे, ∑ उनके जीवन प रचय एवं का क ासंिगकता क ा या कर सकगे, ∑ िबहारी के का क भाषा और िश प का वणन कर सकगे, ∑ िबहारी के प ठत दोह क ा या कर सकगे, तथा∑ इस पद के क ठन श द के अथ, भावाथ को समझ सकगे।
7.1 तावना
तुलसी और सुर के बाद हंदी सािह य के िजस किव को सबसे अिधक स मान, ेम और यश िमला है उनका नाम है, ‘िबहारीलाल’। लोकि यता क दिृ से
रीितकालीन किवय म िबहारी का थान सव प र है। केवल रीितकाल म िह नह स पूण हंदी सािह य म इनका थान मह वपूण है। सूरदास के प ात
जभाषा के सव े किव यही है। हंदी का कोई भी किव इतना कम िलखकरइनके बराबर याित लाभ नह कर सका। िबहारी सदा राज – दरबार म ही रहे। इसका अथ नह क ये चापलूस और खुशामदी थे। िबहारी ने अपने गुण से अपने आ यदाता के दल को जीता। जहाँ और जब इ होन अपने आ यदाता राजा के दोष देख वहां उ ह टोका भी। िबहारी ने अपनी बात को सरसता के साथ तुत करने म सफलता पाई है।
भि के हा दक भाव ब त ही कम दोह म दखाई पड़ते ह। समयाव था िवशेष म िबहारी के भावुक दय म भि भावना का उदय आ और उसक अिभ ि भी ई। िबहारी म दै य भाव क ाधा य नह , वे भु ाथना करते ह, कंतु अित हीन होकर नह । भु क इ छा को ही मु य मानकर िवनय करते ह।
7.1.1 संि किव प रचय
किव िबहारी धरवारी माथुर चौबे थे। इनका गौ धौ य था। इनके िपता का नाम था, केशवराय। केशवराय जी वािलयर के िनवासी थे और वयं भी अ छे किव, िव ान और भगव थे। इ ह के घर वािलयर म संवत् 1752 के
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का तक सुदी बुधवार को िबहारीलाल जी का ज म आ था। िबहारी अभी ब त छोटे ही थे क केशवराय जी वािलयर छोड़कर ओरछा चले आये। यहाँ इनक िम ता हंदी के िस किव केशवदास से हो गई। यही महाकिव केशवदासिबहारी के गु बने। िबहारी ने सारे शा के साथ – साथ केशव के सभी ंथ का भी गहरा अ ययन कया है।
संवत् 1774 के आस – पास केशवराय सकुटु ब ी वृ दावन चले गये और अपना
सारा समय साधु – संत क संगित म िबताने लगे। िबहारी ने यहाँ अपनी पढाई जारी रखी। िस साधु ी रसदेव, ी नागरीदास तथा ी नरह रदास केसाथ रहकर इ होन का और संगीत का खूब अ यास कया। इसी िबच िबहारीजी ने मथुरा के एक धनवान चौबे क पवती क या से िववाह कया और ससुराल(मथुरा) म ही रहने लगे। अब तक िबहारी का नाम उनके िश ा और का कौशल के िलए काफ फ़ैल गया था। इसी समय संवत् 1775 म स ाट जहाँगीर ने इ ह आगरा आने का िनमं ण दया और िबहारी आगरा आ गए यहाँ वे शाहजहाँ के आ य म रहकर उ ह संगीत और सािह य सुनाने लगे।
संवत् 1792 म िबहारी आमेर प च जहाँजयपुर-नरेश सवाई राजा जय संह अपनी नयी रानी के ेम म इतने डूबे रहते थे क वे महल से बाहर भी नह िनकलते थे और राज-काज क ओर कोई यान नह देते थे। मं ी आ द लोग इससे बड़े चंितत थे, कंतु राजा से कुछ कहने को शि कसी म न थी। िबहारी ने यह काय अपने ऊपर िलया। उ ह ने िन िलिखत दोहा कसी कार राजा के पास प ंचाया-
न हं पराग न हं मधुर मधु, न हं िवकास यिह काल।
अली कली ही स बं यो, आगे कौन हवाल॥
इस दोहे ने राजा पर मं जैसा काय कया। वे रानी के ेम-पाश से मु होकर पुनः अपना राज-काज संभालने लगे। वे िबहारी क का कुशलता से इतने
भािवत ए क उ ह ने िबहारी से और भी दोहे रचने के िलए कहा और ित
दोहे पर एक वण मु ा देने का वचन दया। िबहारी जयपुर नरेश के दरबार म
रहकर का -रचना करने लगे, वहां उ ह पया धन और यश िमला। यही रहते
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ए िबहारी ने अपनी सबसे िस रचना सतसई (स शती) को िलखा। यही
1770 के लगभग म उनक मृ यु हो गई।
7.2 िबहारी सािह य का िवशेष अ ययन
िबहारी क एकमा रचना सतसई (स शती) है। यह मु क का है। इसम 719 दोहे संकिलत ह। कितपय दोहे सं द ध भी माने जाते ह। सभी दोहे सुंदर और सराहनीय ह तथािप तिनक िवचारपूवक बारीक से देखने पर लगभग 200 दोहे
अित उ कृ ठहरते ह। 'सतसई' म जभाषा का योग आ है। जभाषा ही उस
समय उ र भारत क एक सवमा य तथा सव-किव-स मािनत ा का भाषा के प म िति त थी। इसका चार और सार इतना हो चुका था क इसम अनेक पता का आ जाना सहज संभव था। िबहारी ने इसे एक पता के साथ रखने का तु य सफल यास कया और इसे िनि त सािहि यक प म रख दया। इससे जभाषा मँजकर िनखर उठी।
सतसई को तीन मु य भाग म िवभ कर सकते ह- नीित िवषयक, भि और
अ या म भावपरक, तथा। ृंगारपरक। इनम से ृंगारा मक भाग अिधक है। कला-चम कार सव चातुय के साथ ा होता है।
ृंगारा मक भाग म पांग स दय, स दय पकरण, नायक-नाियकाभेद तथा हाव,
भाव, िवलास का कथन कया गया है। नायक-नाियका िन पण भी मु त: तीन प म िमलता है- थम प म नायक कृ ण और नाियका राधा है। इनका
िच ण करते ए धा मक और दाशिनक िवचार को यान म रखा गया है। इसिलए इसम गूढ़ाथ ंजना धान है, और आ याि मक रह य तथा धम-मम
िनिहत है; ि तीय प म राधा और कृ ण का प उ लेख नह कया गया कंतु उनके आभास क दीि दी गई है और क पनादश प रौिचय रचकर आदश िच िविच ंजना के साथ तुत कए गए ह। इससे इसम लौ कक वासना का
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%9C%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A4%BEhttps://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%95-%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A5%87%E0%A4%A6
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िवलास नह िमलता। तृतीय प म लोकसंभव नायक नाियका का प िच है। इसम भी क पना कला कौशल और किव परंपरागत आदश का पुट पूण प म
ा होता है। िनतांत लौ कक प ब त ही यून और ब त ही कम है।
'सतसई' के मु क दोह को मब करने के यास कए गए ह। २५ कार के
म कहे जाते ह िजनम से १४ कार के म देखे गए ह, शेष ११ कार के म
िजन टीका म ह, वे ा नह । कंतु कोई िनि त म नह दया जा सका। व तुत: बात यह जान पड़ती है क ये दोहे समय-समय पर मु क प म ही रचे गए, फर चुन चुनकर एकि त कर संकिलत कर दए गए। केवल
मंगलाचरणा मक दोह के िवषय म भी इसी से िवचार वैिच य है। य द 'मेरी भव
बाधा हरौ' इस दोहे को थम मंगलाचरणा मक अथात् केवल राधोपासक होने
का िवचार प होता है और य द 'मोर मुकुट क ट कािछिन'-इस दोहे को ल, तो केवल एक िवशेष बानकवाली कृ णमू त ही िबहारी क अभी ोपा य मू त मु य ठहरती ह - िबहारी व तुत: कृ णोपासक थे, यह प है।
सतसई के देखने से प होता है क िबहारी के िलए का म रस और अलंकार चातुय चम कार तथा कथन कौशल दोन ही अिनवाय और
आव यक ह। उनके दोह को दो वग म इस कार भी रख सकते ह, एक वग म वे दोहे आएँग िजनम रस रौिचय का ाब य है और रसा मकता का ही िवशेष यान रखा गया है। अलंकार चम कार इनम भी है कंतु िवशेष धान नह , वरन्
रस प रपोषकता और भावो कषकता के िलए ही सहायक प म यह है।
दसूरे वग म वे दोहे ह िजनम रसा मकता को िवशेषता नह दी गई वरन् अलंकार चम कार और वचनचातुरी अथवा कथन-कलाकौशल को ही धानता दी गई है। कसी िवशेष अलंकार को उि वैिच य के साथ सफलता से िनबाहा गया है। इस कार देखते ए भी यह मानना पड़ता है क अलंकार चम कार को कह िनतांत
भुलाया भी नह गया। रस को उ कष देते ए भी अलंकार कौशल का अपकष भी नह होने दया गया। इस कार कहना चािहए क िबहारी रसालंकारिस किव थे; रसिस ही नह , नीित िवषयक दोह म व तुत: सरसता रखना क ठन होता
है, उनम उि औिच य और वचनव ता के साथ चा चातुय चम कार ही
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%B8https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%B2%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0
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भावो पादक और यानाकषण म सहायक होता है। यह बात नीितपरक दोह म प प से िमलती है। फर भी िबहारी ने इनम सरसता का सराहनीय यास कया है।
ऐसी ही बात दाशिनक िस ांत और धा मक भाव मम के भी तुत करने म आती है य क उनम अपनी िवरसता वभावत: रहती है। फर भी िबहारी ने उ ह सरसता के साथ तुत करने म सफलता पाई है।
भि के हा दक भाव ब त ही कम दोह म दखाई पड़ते ह। समयाव था िवशेष म िबहारी के भावुक दय म भि भावना का उदय आ और उसक अिभ ि भी ई। िबहारी म दै य भाव का ाधा य नह , वे भु ाथना करते ह, कंतु अित हीन होकर नह । भु क इ छा को ही मु य मानकर िवनय करते ह।
िबहारी ने अपने पूववत िस किववर क मु क रचना ,
जैसे आयास शती, गाथास शती, अम कशतक आ द से मूलभाव िलए ह- कह
उन भाव को काट छाँटकर सुंदर प दया ह,ै कह कुछ उ त कया है और कह य का य ही सा रखा है। स दय यह है क दीघ भाव को संि प म
र यता के साथ अपनी छाप छोड़ते ए रखने का सफल यास कया गया है।
टीकाएँ
'सतसई' पर अनेक किवय और लेखक ने टीकाएँ िलख । कुल ५४ टीकाएँ मु य
प से ा ई ह। र ाकर जी क िबहारी र ाकर नामक एक अंितम टीका है,
यह सवाग सुंदर है। सतसई के अनुवाद भी सं कृत, उदू (फारसी) आ द म ए ह
और कितपय किवय ने सतसई के दोह को प करते ए कंुडिलया आ द छंद के ारा िविश ीकृत कया है। अ य पूवापरवत किवय के साथ भावसा य भी
कट कया गया है। कुछ टीकाएँ फारसी और सं कृत म िलखी ग ह। टीकाकार ने सतसई म दोह के म भी अपने अपने िवचार से रखे ह। साथ ही दोह क सं या भी यूनािधक दी है। यह िनतांत िनि त नह क कुल कतने दोहे रचे गए थे। संभव है, जो सतसई म आए वे चुनकर आए कुल दोहे ७०० से कह अिधक
रचे गए ह गे। सारे जीवन म िबहारी ने इतने ही दोहे रचे ह , यह सवथा मा य नह ठहरता।
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BFhttps://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B6%E0%A4%A4%E0%A5%80https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B6%E0%A4%A4%E0%A5%80https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%82%E0%A4%95%E0%A4%B6%E0%A4%A4%E0%A4%95%E0%A4%AE%E0%A5%8Dhttps://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%B0https://hi.wikipedia.org/w/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80_%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%B0&action=edit&redlink=1https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%A4https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%89%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%82https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A5%80https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BEhttps://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%A4https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80
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'सतसई' पर कितपय आलोचक ने अपनी आलोचनाएँ िलखी ह। रीित का से ही इसक आलोचना चलती आ रही है। थम किवय ने सतसई क मा मक िवशेषता को सांकेितक प से सूिचत करते ए दोहे और छंद िलखे। उदू के
शायर ने भी इसी कार कया। यथा:
सतसइया के दोहरे, य नावक के तीर।
देखत म छोटे लग, घाव कर गंभीर॥
इस कार क कतनी ही उि याँ चिलत ह। िव तृत प म सतसई पर आलोचना मक पु तक भी इधर कई िलखी गई ह। साथ ही आधुिनक काल म इसक कई टीकाएँ भी कािशत ई ह। इनक तुलना िवशेश प से किववर देव से क गई और एक ओर देव को, दसूरी ओर िबहारी को बढ़कर िस
करने का य कया गया। दो पु तक, 'देव और िबहारी' पं. कृ णिबहारी
िम िलिखत तथा 'िबहारी और देव' लाला भगवानदीन िलिखत उ लेखनीय ह।
र ाकर जी के ारा संपा दत 'िबहारी र ाकर' नामक टीका और 'किववर
िबहारी' नामक आलोचना मक िववेचन िवशेष प म अवलोकनीय और ामािणक ह।
7.2.1 रीितब , रीितिस और रीितमु का
सन् 1750ई. के आस-पास हंदी किवता म एक नया मोड़ आया। इसे िवशेषत:
ता कािलक दरबारी सं कृित और सं कृत सािह य से उ ेजना िमली। सं कृत सािह यशा के कितपय अंश ने उसे शा ीय अनुशासन क ओर वृ कया। हंदी म 'रीित' या 'का रीित' श द का योग का शा के िलए आ था।
इसिलए का शा ब सामा य सृजन वृि और रस, अलंकार आ द के
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9B%E0%A4%82%E0%A4%A6https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%89%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%82https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5https://hi.wikipedia.org/w/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A4%82._%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80_%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0&action=edit&redlink=1https://hi.wikipedia.org/w/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A4%82._%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80_%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0&action=edit&redlink=1https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BE_%E0%A4%AD%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%A6%E0%A5%80%E0%A4%A8https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%80https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%A4_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AFhttps://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%B8https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%B2%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0
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िन पक ब सं यक ल ण ंथ को यान म रखते ए इस समय के का को 'रीितका ' कहा गया। इस का क शृंगारी वृि य क पुरानी परंपरा के प
संकेत सं कृत, ाकृत, अप ंश, फारसी और हंदी के आ दका तथा कृ णका क शृंगारी वृि य म िमलते ह। इस काल म कई किव ऐसे ए ह जो आचाय भी थे और िज ह ने िविवध का ांग के ल ण देने वाले ंथ भी िलखे। इस युग म शृंगार क धानता रही। यह युग मु क-रचना का युग रहा। मु यतया किव , सवैये और दोहे इस युग म िलखे गए। राजा-महाराजा और
आ यदाता अब केवल का को पढ़ और सुनकर ही संतु नह होते थे, बि क अब वह वयं का रचना करना चाहते थे। इस समय पर किवय ने आचाय का कत िनभाया। किव राजाि त होते थे इसिलए इस युग क किवता अिधकतर दरबारी रही िजसके फल व प इसम चम कारपूण ंजना क िवशेष मा ा तो िमलती है परंतु किवता साधारण जनता से िवमुख भी हो गई।
रीितब का :
रीितकाल म का रचना का सवािधक ापक भाव रीितब किवय का है। इस का धारा के किवय क मूल और मुख वृि ृंगारपरक रचना को िविवध प म तुत करना है। रीितिन पक ल ण ंथ के मा यम से का के सम त अंग -उपांग को प करने के िलए ल ण और उदाहरण के मा यम से का मय अिभ ि करते ए िह दी किवता का जैसे सार एवं िवकास इन किवय ने कया है, वह आ चयजनक प से चाम का रक एवं कला मक
अिभ ि है। का रचना क परंपरागत प ित अथवा रीित का अनुसरण
करने के कारण वे रीितब किव कहे जाते ह। वे वयं को का रचना के िलए परंपरा से ा त रीित अथवा पंथ को वीकार कर रचना करने वाला किव मानते ह, िजससे उनके का रचना क परंपराब रीित से रचनाकम म वृत होने का
प संकेत िमलता है
“का क रीित िस यौ सुकवी ह स ।”(िभखारीदास)
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%A4https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%A4https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%B6https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A5%80https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%AF%E0%A4%BEhttps://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A5%8B%E0%A4%B9%E0%A4%BE
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इस का धारा के किवय न का रचना-रीित का िनवाह करते ए ापक का सजन का पथ श त कया,िजस पर चलते ए रीितकाल के अनेक किवय ने रीितब का धारा के िवकास म अपना योगदान दया। इस का धारा के
मुख किवय म आचाय केशवदास, िच तामिण, मंडन, महाराजा जशवंत
संह, मितराम, भूषण, कुलपित िम , देवद , ीपित िम ,िभखारीदास,
सेनापित, रसलीन, सोमनाथ, ताप संह, प ाकर, वालकिव आ द के नाम िवशेष प से सि मिलत ह।
रीितिस का :
इस काल के किवय म वतंत सुखी और परिहत का अभाव है। राम और कृ ण क ेम लीला क ओट म किवगण ृंगार वणन ,ऋतू वणन ,नख िशख वणन
आ द पर किवता िलखकर आचाय व और पांिड यपूण क होड़ म लगे ए थे।किवय ने कलाप म ही कुछ अिधक चम कार और नवीनता लाने का यास कया। रीित का अथ शैली है चूँ क इन किवय ने का शैली क इस िविष ट
प ित का िवकास कया इसीिलए इस काल को रीितकाल कहा जाता ह। इस काल म अलंकार ,रस ,नाियका भेद ,नख िशख वणन छंद आ द का ांग पर
चुर रचना ई है।रीितिस का म का शा ीयता इतनी अिधक है क लगता है किव रस, अलंकार, विन, नायक – नाियका भेद आ द के उदाहरण
व पका – रचनाकर रहा हो। इस वग करण को लेकर िव ान क अनेक
सहमितयाँ और असहमितयाँ मौजूद ह, िबहारी, बेनी, कृ ण,
नृपश भु,रामसहायदास, पजनेय, ि जदेव। इन किवय के अित र इस परंपरा म सेनापित, वृंद तथा िव मको और सि मिलत करना चािहए, य क ये किव
भी उसी परंपरा के ह।” जािहर है यहाँ िजन किवय का उ लेख कया गया है, वे
परंपरागत प म ढ़ हो चुके रीितब आचाय किवय से अलग को ट के ह,
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रीितमु का :
रीितकाल म कुछ ऐसे किव भी ए िज ह ने ल ण ंथ िलखने क परंपरा का पालन नह कया। उनक रचना म कसी भी रीित प ित का अनुसरण भी दखाई नह देता। चूं क ये किव ल ण ंथ से मु होकर रचना करते रहे,
इसिलए इ ह रीितमु किव माना गया। इन किवय म घनआनंद, बोधा, आलम,
ठाकुर, ि जदेव आ द मुख ह।
रीितका एवं रीितमु का के बा व प म कोई िवशेष अंतर नह है। इन दोन म मूल अंतर उस दिृ का है िजसे लेकर कोई किव का रचना म वृ होता है। रीितमु किव अपनी अनुभूितय क अिभ ि के िलए का रचना करते ह, आ यदाता क शंसा के िलए नह । रीितका लेखक का किवता के
ित दिृ कोण दािय व का नह , आनंद का था जब क रीितमु किवय ने किवता को सा य माना है। ठाकुर रीितकिवय क ढ़गत प रपा टय क आलोचना करते ए कहते ह -
"डेल सो बनाय आय मेलत सभा के बीच,लोगन किवत क बो खेल क र जानो है।"
जब क घनआनंद किवता के ित दािय वबोध रखने वाले सजग रचनाकार ह -
"लोग ह लािग किव बनावत,मो हं तो मोर किब बनावत।"
रीितमु किवय का ेम वासनाज य व संयोगपरक नह है। इनके ेम म शु शारी रक आकषण के थान पर िवरह क ग रमा है। इनका ेम एकिन व सीधा सरल है। सुजान के ेम म रत घनआनंद कहते ह -
"अित सूधो सनेह को मारग ह,ै जहँ नेकु सयानप बाँक नह ।"
रीितमु का पर फारसी का भाव भी प है। घनआनंद और आलम फारसी के िव ान थे। इनके िवरह पर फारसी शैली का भाव भी पड़ा। दल के टुकड़े,
छाती के घाव जैसे िवरि पूण उपमान का योग आ जो संवेदना कम, बेचैनी अिधक उ प करता है।
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व तुतः रीितमु का शा से मुि का का है। इन किवय ने का शा के िनयम पर यान नह दया। ये किव दय क अनुभूित के आधार पर रचना करते ह। इनका का आलंका रता का खंडन करता है तथा मा मकता पर यान देता है। इनके यहाँ अलंकार का योग कम आ है। घनआनंद ने अलंकार यु तो कए कंतु गहन भाव क अिभ ि के िलए न क चम कार दशन के िलए। उनका िवरोधाभास अलंकार का उदाहरण उ लेखनीय है –
"उजरिन बसी है हमारी अँिखयािन देखो।"
7.2.2 पद सं या 1 – 26मूल पाठ, श दाथ, भावाथ, ा याआ द
भि के दोहे :पद सं या – 1
मूल पाठ –
मेरी भववाधा हरौ, राधा नाग र सोय।जा तन क झाँई परे, याम ह रत दिुत होय।।
श दाथ : भव बाधा = सांसा रक क , नाग र = चतुर, झाँई = छाया, याम = याम, ह रत- दिुत = स , हरे रंग से यु
भावाथ:
तुत दोहे म किव िबहारी ने परंपरा के अनुसार मंगलाचरण – पधाि कायोग कया है। िबहारी ने तुत दोह म राधा क तुित क है।िबहारी के
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अनुसार राधा शि का ितक है। राधा ही इस संसार के सृजन का मूल है। राधा कृ ण क ि यतमा है, ेिमका है।
ा या:
हंदी सािह य के महाकिव किव िबहारीलाल जी राधा जी क तुित करते ए कहते ह क मेरी सांसा रक बाधाएं वही चतुर राधा दरू करगी। किव िबहारी कहते है क देवी राधा हीभगवन कृ ण केिजनके शरीर क छाया पड़ते ही सांवले कृ ण हरे रंग के काश वाले हो जाते ह। अथात यहाँ किव कहते है क िजस तरह
ेम क छाया पड़ने से सभी का रंग बदल जाता ह उसी कार पीले वण क राधा क छाया जब याम सलौने पर पड़ती ह तब उनका रंग हरा हो जाता ह।उनकेदखु का हरण वही चतुर राधा करगी। िजनक झलक दखने मा से सांवले कृ ण हरे अथात स जो जाते ह।
िवशेष:
यह दोहा ेष अलंकार का सु दर उदाहरण है। कृ ण का रंग नीला था और राधा का सोने के समान पीला, तो राधा क पीले रंग क परछाई कृ ण के नीले रंग पर पड़ने से वे हरे रंग के दखाई देते ह। दसूरा अथ यह भी है क वे हरे अथात् स दखाई पड़ते ह।
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पद सं या - 2
मूल पाठ –
सीस मुकुट कट कां नी, कर मुरली उर माल।यिह बानक मो मन बसौ, सदा िबहारी लाल।।
श दाथ: कां नी = पीता बर, बानक = प, बसौ = बसा क िजये, लाल = कृ ण
भावाथ: तुत दोहे म किव िबहारी अपने आरा य से दय म बसने क ाथना कर रहा
है।
ा या:अपने आरा य ीकृ ण को संबोिधत करते ए कृ ण – भ कह रहा है क “तुमनेअपने िसर पर मोर मुकुट धारण कर रखा है, कमर म तगड़ी बाँध रखी है, हाथम मुरली पकड़ी ई है और दय म वैजयंती माला पहन रखी है। हे कृ ण , मुझेतो तु हारा यही प सवािधक मनमोहक लगता है और म चाहता ँ क इसी वेश म तुम सदा के िलए मेरे दय म वास कर ।
िवशेष:तुत दोहे म किव ने कृ ण के गोप प क वंदना क है और वाभावोि
अलंकर एवं दोहा छंद का योग कया है।
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पद सं या – 3
मूल पाठ –
या अनुरागी िच क गित समझे न कोय ,य य बूढै याम रंग। य य उ ल होय।
श दाथ: अनुरागी = ेमी, गित = हालत, बूढै = डूबता आ, याम = कृ ण/काला, उ ल = पिव सफ़ेद
भावाथ: तुत दोहे म किव कसी कृ ण भ क अन य भि क शंसा कर रहा है।
ीकृष अथात् आरा य क अनुमित तभी संभव है जब भ उसके ेम म, उसकभि म पूरी तरह डूब जाये। तुत दोहे म किव ने भि के इसी उ वल प का वणन कया है।
ा या:ीकृ ण भ कह रहा है क “ ेम म डूबे ए इस दय क दशा को आज तक
कोई नह समझ सका। ेम म िनगमन इस दय क िवल णता यह है क यह िजतना अिधक काले रंग म डूबता है अथात् कृ ण के ित भि अथवा ेम िजतना अिधक गहरा और स ा होता है, भ का दय उतना अिधक िनमल होता है।
िवशेष:यहाँ कृ ण के ेम म रगे मन क अव था का वणन आ है। साथ क िवषलअलंकर एवं पहली पंि म िवरोधाभास अलंकर का योग आ है और मरालछंदका योग आ है।
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15 | P a g e
पद सं या – 4
मूल पाठ –
िचरजीवौ जोरी जुरे य न सनेह गँभीर।को घ ट ए बृषभानुजा वे हलधर के बीर॥
श दाथ: गँभीर = य न पर पर का ेम बढे, को घ ट = कौन घट कर है, बृषभानुजा = बृषभानु क बेटी राधा, हलधर के बीर = बलराम के भाई कृ ण
ा या:किव िबहारी कहते है कयह जोड़ी िचरजीवी हो। इनम य न गहरा ेम हो,
एक वृषभानु क पु ी ह, दसूरे बलराम के भाई ह। दसूरा अथ है: एक वृषभ क अनुजा/ बेटीह और दसूरे हलधर बलराम के बहाई के भाई ह।
िवशेष:यहाँ ेष अलंकार है।
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ऋतू वणन के दोहे: पद सं या – 5
मूल पाठ –
कहलाने एकत बसत अिह मयूर मृग बाघ।जगत तपोवन सो कयो दीरघ दाघ िनदाघ।।
श दाथ : एकत = एक साथ, अिह = सप,मयूर = मोर,िनदाघ = ी म क घोर गम
ा या : इस दोहे म किव ने भरी दोपहरी से बेहाल जंगली जानवर क हालत का िच ण कया है। भीषण गम से बेहाल जानवर एक ही थान पर बैठे ह। मोर और सांप
एक साथ बैठे ह। िहरण और बाघ एक साथ बैठे ह। किव को लगता है क गम के कारण जंगल कसी तपोवन क तरह हो गया है। जैसे तपोवन म िविभ इंसान आपसी ेष को भुलाकर एक साथ बैठते ह, उसी तरह गम से बेहाल ये पशु भी
आपसी षे को भुलाकर एक साथ बैठे ह।
िवशेष : इस दोहे के थम चरण म एक खूबी है। उसम और उ र दोन ह। है सप और -मयूर तथा मृगबाघ कसिलए एक बसते ह? उ र गम से ाकुल होकर तपोवन म
सभी जीवजंतु आपसी बैर भुलाकर साथ रहते है।
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17 | P a g e
पद सं या – 6
आवत – जात न जािनए, तेजिह तिज िसयरान। घर हंजवाईलौ घ ौ, खरौ पूस दन मान।।
श दाथ : आवत – जात = आना – जाना, तेजिह = सूय क गम / स मान,िसयरान = शीतलता/ स मान का घटना, मान = दन का मान
ा या : जमाई को उसक उ ता के कारण ‘दसवाँ ह’ कहा जाता है, पर तु जमाई जब घर जमाई बन जाता है तो उसक यह उ ता समा होने लगती है। इसी बात पर ंग करते ए किव िबहारी कहते है क पूस म दन का मान इतना घट जाता है क न तो उसम उ णता का तेज रहता है और ना ही उसके आने – जाने
का ात हो पता है। ठीक यही ि थित घर पर जमाई क भी होती है। वहां ना तो उसक उ ता बचती है ना ही ित ा।
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18 | P a g e
पद सं या – 7
छ क रसाल सौरभ सने, मधुर माधवी गंध।ठौर – ठौर झूमत झौपत भौर – भौर मधु – अ ध।।
श दाथ : छ क = तृ या म होकर ,रसाल = आम क मंजरी। सौरभ = सुगंध। सने = िल होकर, ठौर-ठौर = जगह- जगह
ा याआम क सुग ध से म त होकर (मंजरी क ) , माधवी लता क मधुर ग ध से सने-
ए मदांध भ र के स (िल )मूह जगह-जगह झूमते और झपक लेते फरते ह-कसी पु प पर गुंजार करते ह, तो कसी पर बैठकर मधुर रस हण करते है।
पद सं या – 8
रिनत – भृंग – घंटावली झरत दान मधु नीर।
मंद मंद आवत च यौ, कंुज – कंुज – समीर।।
श दाथ :रिनत = रिणत / बजते ए, भृंग = भ रे, घंटावली = घंट क कतार, ब तसे -
घंटे।दान = यौवन / मदा ध हाथी क कनपटी फोड़कर चूने वाला रस या मद, मधुनी = मकरंद, कंुज = हाथी, कंुज= समी - कंुज क हवा, कंुज से होकर
बहने वाली वायु जो छाया और पु के संसग से ठंढी और सुगि धत भी होती है।
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ा या:यहाँ बसंत ऋतु म मदमाते मंद पवन के वािहत होने का अ ितम िच अं कत है। किव कह रहे है क पूरी कृित बसंत का आनंद ले रही है कही भ रे झु ड म घूम रहे है और कही गज (हाथी) झूम रहा है। कंुजसमीर पी हाथी म दम द चला आ रहा है।
िवशेष :यह ि िवध समीर का अतीव सु दर वणन है।
नीित के दोहे :पद सं या – 9
तं ी नाद किव रस, सरस राग , रित रंग।अनबूढ़े बूडे, ितरे, जे बूडे सब अंग।।
श दाथ : तं ी = नाद-वीणा क झंकार, रित = रंग- ेम का रंग, अनबूड़े = जो नह डूबे, तरे = तर गये / पार हो गये।
ा या:किव कहता ह, क िवणा आ द वा य यं ो के वर, का आ द लिलत कला
क रसानुभूित तथा ेम के रस म जो वगनो से अथात पूण प से त लीन भाव से डूब जाते ह, वे ही इनके संसार सागर को पार कर सकते ह। जो इसमे ल ननही हो सकते, डूबते नही, इसके सागर म फंसजाते ह। आन द ा नही कर
सकते।
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20 | P a g e
पद सं या – 10
को ट जतन कोऊ करौ, परै न कृित हं बीच।नल – बल जल ऊँचे चढ़,ै तऊ नीच कौ नीच।।
श दाथ : कृित भाव =,बीचु फक =,नलनल का जोर = बल-
ा या:किव यहाँ मनु य के कृित पर ंग करते ए कहते है क, चाहे करोड़ो बार भी कोई ि यास य न कर ले, ले कन वह कसी भी चीज या ि का मूल
वभाव नह बदल सकता है। ठीक वैसे ह जैसे नल म पानी बलपूवक ऊपर तो चढ़ जाता है ले कन फर भी अपने वभाव के अनुसार बहता नीचे क ओर ह
है।
पद सं या – 11
संगित सुमित न पावह परे कुमित के धंध।राखो मेिल कपूर म ह ग न होइ सुगंध।।
श दाथ : सुमित = सु दर मित/सुबुि ,कुमित = दु बुि , धंध =जंजाल/फेर,मेिल = िमलाकर
ा या:
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उदहारण देते ए किव कहते है क िजस तरह कपूर मह ग िमलाकर कतना भी समय हम रखे क तु वह हंग अपने गंध को छोड़ कर सुगंिधत नह हो सकती।उसी तरह जो मनु य गलतधंधे म पड़ा रहता है, िजसे खराब काम करने क आदत सी लग जाती है, वह स संगित से भी सुमित नह पाता ,नह सुधरता।
पद सं या – 12
कनक कनक तै सोगुनी मादकता अिधकाइ।उिह खाए बौराए जग, वा पाए बौराए।।
श दाथ : कनक= सोना, कनक = धतुरा, मादकता = नशा, बौराए = पागलहोना।
ा या :किव िबहारी कहते ह, यहाँ एक कनक से ता पय भांग से है तथा दसूरे कनक का
अथ वण है ता पय है क वण अथवा धन के लोभ का मद भांग के मद (नशा)से भी सौ गुना अिधक बावरा बना देता है।भांग को खाने से नशा चढ़ता है जब क वण अथात सोने को ा करने से लालच का नशा मानव को पागल कर देता
है।
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पद सं या – 13
वारथु सुकृतु न, मु वृथा,देिख िवहंग िवचा र।बाज पराये पािन प र तू पिछनु न मा र।।
श दाथ : वारथु = वाथ, सुकृतु = बड़ाई, िवहंग = प ी, बाज
ा या:िह द ूराजा जय संह, शाहजहाँ क ओर से िह द ूराजा से यु कया करते थे,
यह बात किव िबहारी को अ छी नही लगी तो उ ह ने कहा,-हे बाज़ दसूरे !
ि के अहम क तुि के िलए तुम अपने पि य अथात हंद ूराजा को मत मारो। िवचार करो य क इससे न तो तु हारा कोई वाथ िस होता है, न यह
शुभ काय है, तुम तो अपना म ही थ कर देते हो।अरे प ी तुम िवचार करके
देखो क इस काय के करने से न तु हारा कोई वाथ पूरा होता ह और उ ह न कोई पु य ा होता ह, इस काय से तु हारा प र म थ ही जा रहा ह। तुम
पराएँ ि के हाथ पर बैठकर इन वजन को मत मारो। बाग़ के मा यम से किव ने राजा जय संह को कहा क तुम िवचार करके देखो भावुकता म आकर -यह काय मत करते जाओ, तुम मुंगल बादशाह शाहजहाँ के कहने पर अपने ही
जातीय िह द ूराजाओ का वध मत करो। ऐसा करने से न तो आपका कोई वाथ पूण होगा, न िह पु य क ाि होगी।
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23 | P a g e
पद सं या – 14
नर क अ नल-नीर क गित एकै क र जोइ।जेतौ नीचौ वै चलै तेतौ ऊँचौ होइ॥
श दाथ : नल - नीर = नल का पानी, एकै क र = एक ही समान, गित = चाल। जोइ = देखी जाती है।
ा या:यहाँ किव िबहारी मनु य और जल क तुलना करते ए जीवन म सफल होने क बात कह रहे है, आदमी क और नल के पानी क एक ही गित होती है। वे िजतने ही नीचे होकर चलते ह उतने ही ऊँचे होते ह। आदमी िजतना ही न होकर चलेगा, वह उतना ही अिधक उ ित करेगा, और नल का पानी िजतने नीचे से आयगा, उतना ही ऊपर चढ़ेगा।
पद सं या – 15
शुनी शुनी सब कोउ कहे िनगुनी गुनी न होत।
सु य क ँ त अकने, अक समान उदोत ।।
श दाथ : शुनी= सुनना, सब = सभी लोग, िनगुनी = िनगुणी,अक= मंदारपेड़ / सूय
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24 | P a g e
ा या: संसार म दो कार के मनु य है, कुछ गुनी है तो कुछ िनगुणी। येदोन गुण मनु यके वभाव से पता चल जाता है। इसिलए किव कहते है क कसी भी िनगुणी
ि को लोग के ारा बार बार उसे गुनी कहने पर भी वह कभी भी गुणवान या गुणी नह बन सकता है। किव यहाँ एक अक(मंदार का पेड़) के साथ दसूरे अक(सूय) नह बन सकता। अथात् सूय के समान मंदार का वृ कभी काश वाननह बन सकता। कहने का अथ यह है क अक के काश से सी तो अक का वृ
कािशत होता है। इसिलए दोन के गुण क समानता दखाना अ यंत िनबुिका काम होगा।
पद सं या – 16
बसैबुराई जासु तन ताही कौ सनमानु।भलौ भलौ किह छोिड़यै खोट ह जपु दानु॥
श दाथ : तन = शारीर, खोट ह जपु दानु = जप तथा दान अशुभ दन म करते है, सनमनु = आदर। खोट = बुरे।
ा या:किव यहाँ समाज के स ाई को सामने रखते ए कहते है क िजसके शरीर म बुराई बसती हैजो बुराई करता है-, उसी का स मान होता है। भले ह च ),
बुध आ दको तो भला कहकर छोड़ देते ह ( और बुरे ह शिन), मंगल आ दके (िलए जप और दान कया जाता है।
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25 | P a g e
पद सं या – 17
अित अगाध अित ओथरो, नदी, कूप, सर बाइ।
सो ताकौ सागर जहाँ, जा क यास बुझाइ।
श दाथ : अगाधु = अथाह, औथरौ = उछले / िछछले, कूप = कँुआ, स =तालाब, बाइ = बावड़ी / वापी, साग = समु ।
ा या:किव यहाँ कह रहे है क आकार और शि से मनु य बड़ा नह होता वो कम से बड़ा होता है इसी बात को समझाते ए किव िलखते है क अ य त अथाह और अ य त उथली कतनी ही न दयाँ, कँुए, तालाब और बाविड़याँ ह। क तु जहाँ
िजसक यास बुझती ह,ै उसके िलए वही समु है।
पद सं या – 18
बुरो बुराई जौ तजै तौ िचतु खरौ सकातु।य िनकलंकु मयंकु लिख गन लोग उतपातु॥
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26 | P a g e
श दाथ : सकातु = डरता है, मयंकु = च मा, उतपातु = उप व
ा या:किव िबहारी कहते है क य द दु ि सहसा अपनी दु ता छोड़कर अ छा
हार करने लगे तो उससे िच अिधक भयभीत होने लगता है। जैसे च मा को कलंकरिहत देखकर लोग अमंगलसूचक मानने लगते ह। कहने का अथ यह है क िजस कार च मा का कलंकरिहत होना असंभव है, उसी कार दु ि
का एकाएक दु ता यागना भी असंभव है।
पद सं या – 19
इह आस अट यौ रह, अिल गुलाब क मूल।वैह फे र बसंत ॠतु, इन डारनु वे फूल॥
श दाथ : अट यौ रहतु = टका या अड़ा आ है, मूल =जड़, वैह = ह गे।
ा या:यहाँ किव कहते है क बसंत के महीने म भ रा गुलाब क जड़ म अटका आ रहता है उसक कँटीली झािड़य मपड़ा रहा करता है इसी आशा से है क पुनः वस त ऋतु म इन डािलय म वे ही सु दर सुगि धत फूल िखलगे और वह वािपस से उन फूल का रस
हण कर सके।
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पद सं या – 20
मरतु यास पंजरा-परयौ सुआ समय क फेर।आद दै दै बोिलयतु बाइसु बिल क बेर॥
श दाथ :सुआ = सु गा, तोता,बाइसु = कोवा,बिल = ा के अ म से िनकाला आ कौवे का भाग, बेर = समय।
ा या: किव यहाँ समय को बलवान बताते ए कहते है क कृित का सबसे ानी प ी तोता समय के फेर से, भा य-च के भाव से पंजड़े म पड़ा यासा मरताहै, और
वही ा -प होने के कारण पंड दान देने के समय काग को लोग आदर के साथ बुलाते है।
पद सं या – 21
दन दस आद पाइकै क र लै आपु बखानु।जौ ल काग सराधप-खु तौ ल तौ सनमानु॥
श दाथ : बखानु = बड़ाई,ल = तक,सराघपखु = ा प या ा का पखवारा, सनमानु = स मान / आदर
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ा या: किव यहाँ काग से कहते है क- दो चार,यादस दन आदर पाकर अपनी बड़ाई कर ले। अरे काग जब तक ा का !पखवारा है, तभी तक तेरा आदर भी है।उसके बाद तुझे कोई नह पूछेगा।
िवशेष: ा म काग को बिल का भाग दया जाता है।
पद सं या– 22
दगृ उरझत टूटत कुटुम जुरत चतुर िचत ीित।पर ि गाँ ठ, दरुजन िहय ,दई नई, यह रीित॥
श दाथ : दगृ = आँख,उरझत = उलझती है / लड़ती है, टूटत कुटुम = सगे स ब धी छूट जाते ह,जुरत = जुड़ता है /जुटता है,िहय = दय,दई = ई र। नई = अनोखी
ा या: िबहारी ने यहाँ ेम क रत को संबोिधत करते ए कहा है क - ेम क रीित अनूठी है। इसम उलझते तो नयन ह,पर प रवार टूट जाते ह, ेम क यह रीित नई है इससे चतुर ेिमय के िच तो जुड़ जाते ह पर दु के दय म गांठ पड़ जाती है।
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पद सं या – 23
नीक दई अनाकनी, फ क परी गुहारी।ता य मन तारन – िवरद,ु बारक बारनु ता र।।
श दाथ : दई अनाकनी = आनाकानी कर दी / सुिन अनसुनी कर दी, कान ब द कर िलये। गुहा र = पुकार / ाथना,तारन-िबरद ु= भवसागर से उबारने का यश/ तारने क बड़ाई बारक = एक बार, बारनु = हाथी।
ा या: यहाँ किव भगवन से गुहार लगा रहे है क कैसे उ ह ने अपने भ के ित अपने
ेम के नज़र को फेर िलया है। अथात् : हे भगवान लगता है आब आपको
आनाकानी अ छी लगने लगी है और हमारी पुकार फ क हो गई है। लगता है क एक बार हाथी को तार कर तारने का यश छोड़ ही दया है।
पद सं या – 24
बढ़त-बढ़त स पित-सिललु मन-सरोज ब ढ़ जाइ।घटत-घटत सु न फ र घटै ब समूल कुि हलाइ॥
श दाथ : सिललु = पानी, सरोज = कमल, ब = भले ही।
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ा या :
धन- पी जल के बढ़ते जाने से मन- पी कमल भी बढ़ता जाता है। क तु (जल के) घटते जाने पर वह (कमल) पुनः नह घटता, भले ही जड़ से कुि हला जाय।
(धनी का मन गरीब होने पर भी वैसा ही उदार रह जाता है।)
पद सं या – 25
तो पर बार उखसी, सुिन रािधके सुजान ।
तू मोहन के उर बसी, है उखसी समान ।।
श दाथ: सुिन= सुनकर,रािधके = कृ ण क ेिमका, सुजान = सब जानने वाला, उर बसी= शारीर म बसना / एक कार का गहना
ा या:
जब ीकृ ण को अ य कसी नाियका के साथ ेम करते ए राधा सुनती है तो ीकृ ण से वे ठ जाती है। मतलब यह है क राधा और कृ ण म गाढ़ ेम पहले
से ही था। इसिलए राधा का ठना याय संगतहै। ठी राधा को मनाने के िलए कृ ण कहते है क – हे राधा ! तुम इतनी सुंदर हो क तु हारे स दय पर मै उवशी
( वग क अ सरा) जैसी सु दरी रमणी को भी याग सकता ँ। िसफ इतना ही नह नायक कृ ण नाियका राधा को अपने ओर आक षत करने के िलए राधा को ‘सुजान’ कहकर संबोिधत करते है।
पद सं या – 26
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31 | P a g e
नये िवलिसये लिख नये दजुन दसुह सुभाय ।
आँटे प र ानत हरै, कांटेतो लिगपाय ।।
श दाथ : दजुन = दु कृित के लोग, सुभाय = वभाव, आँटे प र = पैर म िगरकर, ानत = ाण।
ा या :
यहाँ किव िबहारी कहते है क दजुन ि पर कभी िव ाश नह करना चािहए। य क उसका वभाव असहनीय होता है। वे अपने कु वभाव से दसूर का केवल बुरा ही करते है। इसिलए कभी भी दु लोग का साथ नह देना चािहए नह तो िबना आमं ण के सवनाश होना सुिनि त है।
7.3 सारांश
िबहारी क किवता का मु य िवषय ृंगार है। उ ह ने ृंगार के संयोग और िवयोग दोन ही प का वणन कया है। संयोग प म िबहारी ने हावभाव और अनुभव का बड़ा ही सू म िच ण कया ह। उसम बड़ी मा मकता है। िबहारी का िवयोग वणन बड़ा अितशयोि पूण है। यही कारण है क उसम वाभािवकता नह है, िवरह म ाकुल नाियका क दबुलता का िच ण करते ए उसे घड़ी के पडुलम जैसा बना दया गया है -
इित आवत चली जात उत, चली, छसातक हाथ।
चढी हंडोरे सी रह,े लगी उसासनु साथ॥
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िबहारी मूलतः ृंगारी किव ह। उनक भि -भावना राधा-कृ ण के ित है और वह जहां तहां ही कट ई है। सतसई के आरंभ म मंगला-चरण का यह दोहा राधा के ित उनके भि -भाव का ही प रचायक है -
मेरी भव बाधा हरो, राधा नाग र सोय।
जा तन क झाई परे, याम ह रत दिुत होय॥
िबहारी ने नीित और ान के भी दोहे िलखे ह, कंतु उनक सं या ब त थोड़ी रीित काल के किवय म िबहारी ायः सव प र माने जाते ह। िबहारी सतसईउनक मुख रचना ह। इसम 719 दोहे ह। कसी ने इन दोह के बारे म कहा हैः
सतसइया के दोहरा य नावक के तीर।
देखन म छोटे लग घाव कर ग भीर।।
िबहारी क भाषा सािहि यक ज भाषा है। इसम सूर क चलती ज भाषा का िवकिसत प िमलता है। पूव हंदी, बुंदेलखंडी, उद,ू फ़ारसी आ द के श द भी
उसम आए ह, कंतु वे लटकते नह ह। िबहारी का श द चयन बड़ा सुंदर और साथक है। श द का योग भाव के अनुकूल ही आ है और उनम एक भी श द भारती का तीत नह होता। िबहारी ने अपनी भाषा म कह -कह मुहावर का भी सुंदर योग कया है। जैसे -
मूड चढाऐऊ रहै फरयौ पी ठ कच -भा ।
रहै िगर प र, रािखबौ तऊ िहय पर हा ॥
िवषय के अनुसार िबहारी क शैली तीन कार क है1 – माधुय पूण ंजना धान शैली – ृंगार के दोह म।
2 – साद गुण से यु सरस शैली – भि तथा नीित के दोह म।
3 – चम कार पूण शैली - दशन, योितष, गिणत आ द िवषय के दोह म।
अपने का गुण के कारण ही िबहारी महाका क रचना न करने पर भी महाकिवय क ेणी म िगने जाते ह। उनके संबंध म वग य राधाकृ णदास जी क यह संपि बड़ी साथक है – “य द सूर सूर ह, तुलसी शशी और उदय केशवदास ह तो िबहारी उस पीयूष वष मेघ के समान ह िजसके उदय होते ही सबका काश आछ हो जाता है।”
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%89%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%82_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%80%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE
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7.4 बोध
1. िबहारी कस कालके किव है ?
2. िबहारी कस के िश य है ?
3. िबहारी का पूरा नाम या है ?
4. िबहारी के भु कौन है ?
5. िबहारी के मुख का ंथ कानाम बताइए।
6. “मेरी भववाधा हरौ” वाली पंि म िबहारी ने कसक वंदना क है ?
7. िबहारी के गु कौन थे ?
8. उपयु पथ म कस छंद क धानता है?
9. िबहारी क सतसई कस भाषा म रिचत है ?
10.िबहारी क सतसई म कुल कतने दोहे है ?
7.5 बोध के उ र
1. िबहारी कस कालके किव है ?
उ र – रीितिस
2. िबहारी कसके िश य है ?
उ र – महाकिव केशवदास
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3. िबहारीका पूरा नाम या है ?
उ र – िबहारीलाल
4. िबहारीके भु कौन है ?
उ र – राधा – कृ ण
5. िबहारीके मुख का ंथ कानाम बताइए।
उ र – िबहारी सतसई
6. “मेरी भववाधा हरौ” वाली पंि म िबहारी ने कसक वंदना क है ?
उ र – राधा क
7. ी म कालीन सूय क त प करण वातावरण को कैसा बना देती है ?
उ र – अ यंत त प कर देती है
8. उपयु पंि य म कस छंद क धानता है?
उ र – दोहा छंद
9. िबहारी क सतसई कस भाषा म रिचत है ?
उ र – ज भाषा म
10.िबहारी क सतसई म कुल कतने दोहे है ?
उ र – 719
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7.6 अ यास
1. रीती श द का अथ िलखते ए रीितकालीन मुख का धारा का
प रचय दीिजए।
2. रीितब का से आप या समझते है ?
3. रीितिस का कसे कहते है ?
4. रीितमु का को प क िजए।
5. रीितकाल म िबहारी का या थान है समिझए।
6. कपूर और हंग का उदहारण देकर किववर िबहारी या कहना चाहते है
?
7. “या अनुरागी िच क गित समझे न कोय ,य य बूढै याम रंग। य य उ ल होय।” क ा या क िजए
8. “कहलाने एकत बसत अिह मयूर मृग बाघ।
जगत तपोवन सो कयो दीरघ दाघ िनदाघ।। ” क ा या क िजए।9. िबहारी कृ ण के कस प को अपने दय म िवराजने को कहते है?
10. किव मुख और गुनी म या अंतर बताते है ?
7.7 संदभ थ सूिच
∑ संह, ब चन (2008), िबहारी का नया मू यांकन, इलाहाबाद : लोकभारती काशन
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∑ संह, ब चन, रीितकालीन किवय क ेम यंजना, काशी : नागरी चा रणी सभा
∑ शमा, बाल कशन (2007), प ाकर – का य का का यशा ीय
अ ययन, गािजयाबाद : आकाश प. एंड िड.
∑ शु ल, रामचं (2010), हंदी सािह य का इितहास, नयी द ली : काशन सं थान
∑ चतुवदी, राम व प (2007), हंदी सािह य और संवेदना का िवकास, इलाहाबाद : लोकभारती काशन
∑ िम , िव वनाथ साद (2000), िबहारी, वाराणसी : संजय बुक सटर
∑ कुमार, सुध (2002), रीितका य क इितहास दिृ , नयी द ली : वाणी काशन
∑ साद, शिश भा (2007), रीितकालीन भारतीय समाज, इलाहाबाद : लोकभारती काशन
∑ शमा, सुधीर (1998), किववर वृ द : यि व एवं कृित व द ली : वराज काशन
∑ नवल,े रमा (2010), भूषण का शि त का य, कानपुर : िवकास काशन
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∑ गु त, गणपितचं (2007), हंदी सािह य का वै ािनक इितहास, इलाहाबाद : लोकभारती काशन
∑ वमा, डॉ. रामकुमार (2007), हंदी सािह य का आलोचना मक
इितहास, इलाहाबाद : लोकभारती काशन
∑ डॉ. सिवता (2013), बोधाकृ ‘इ कनामा’ म रीित-त व, गािजयाबाद : कमला काशन
∑ संह, भाकर (सं) (2016), रीितका य मू यांकन के नये आयाम, इलाहाबाद : लोकभारती काशन
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