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Page 1: Namak Ka Daroga by Munshi Premchand

नमक का दारोगा

लेखक - मुंशी ेमच द जब नमक का नया वभाग बना और ई वर द त व तु के यवहार करने का नषेध हो गया तो लोग चोर -

छपे इसका यापार करने लगे। अनेक कार के छल- पंच का स पातू हआु , कोई घसू से काम नकालता था, कोई चालाक से। अ धका रय के पौ-बारह थे। पटवार गर का सवस मा नत पद छोड-छोडकर लोग

इस वभाग क बरकंदाजी करते थे। इसके दारोगा पद के लए तो वक ल का भी जी ललचाता था। यह वह समय था जब अंगरेजी श ा और ईसाई मत को लोग एक ह व तु समझते थे। फारसी का ाब य

था। ेम क कथाएँ और शंगाृ र रस के का य पढकर फारसीदाँ लोग सव च पद पर नय तु हो जाया करते

थे। मंशीु वंशीधर भी जलेखाु क वरह-कथा समा त करके सीर और फरहाद के ेम-व तांतृ को नल और नील

क लडाई और अमे रका के आ व कार से अ धक मह व क बात समझते हएु रोजगार क खोज म नकले। उनके पता एक अनभवीु प षु थे। समझाने लगे, 'बेटा! घर क ददशाु देख रहे हो। ॠण के बोझ से दबे हएु

ह। लड कया ँह, वे घास-फसू क तरह बढती चल जाती ह। म कगारे पर का वृ हो रहा हँू, न मालमू कब

गर पडँू! अब त ह ंु घर के मा लक-म तारु हो। 'नौकर म ओहदे क ओर यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। नगाह चढावे और चादर पर रखनी चा हए। ऐसा काम ढढनाू ँ जहा ँकछु ऊपर आय हो। मा सक वेतन तो पणमासीू का चाँद है, जो एक दन

दखाई देता है और घटते-घटते ल तु हो जाता है। ऊपर आय बहता हआु ोत है िजससे सदैव यास बझतीु

है। वेतन मन यु देता है, इसी से उसम वि दृ नह ंहोती। ऊपर आमदनी ई वर देता है, इसी से उसक बरकत

होती ह, तमु वयं व वान हो, त हु या समझाऊँ। 'इस वषय म ववेक क बडी आव यकता है। मन यु को देखो, उसक आव यकता को देखो और अवसर को देखो, उसके उपरातं जो उ चत समझो, करो। गरजवाले आदमी के साथ कठोरता करने म लाभ ह लाभ है। ले कन बेगरज को दाँव पर पाना जरा क ठन है। इन बात को नगाह म बाँध लो यह मेर ज म भर क

कमाई है। इस उपदेश के बाद पताजी ने आशीवाद दया। वंशीधर आ ाकार पु थे। ये बात यान से सनींु और तब

घर से चल खडे हए।ु इस व ततृ संसार म उनके लए धैय अपना म , बि दु अपनी पथ दशक और

आ मावल बन ह अपना सहायक था। ले कन अ छे शकनु से चले थे, जाते ह जाते नमक वभाग के

दारोगा पद पर ति ठत हो गए। वेतन अ छा और ऊपर आय का तो ठकाना ह न था। व दृ मंशीजीु को सखु -संवाद मला तो फलेू न समाए। महाजन कछु नरम पडे, कलवार क आशालता लहलहाई। पडो सय के

दय म शलू उठने लगे।

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जाडे के दन थे और रात का समय। नमक के सपाह , चौक दार नशे म म त थे। मंशीु वंशीधर को यहा ँआए

अभी छह मह न से अ धक न हएु थे, ले कन इस थोडे समय म ह उ ह ने अपनी कायकशलताु और उ तम

आचार से अफसर को मो हत कर लया था। अफसर लोग उन पर बहतु व वास करने लगे। नमक के द तर से एक मील पवू क ओर जमनाु बहती थी, उस पर नाव का एक पलु बना हआु था। दारोगाजी कवाड बंद कए मीठ नीदं सो रहे थे। अचानक ऑ ंख खलु तो नद के वाह क जगह गा डय क

गडगडाहट तथा म लाह का कोलाहल सनाईु दया। उठ बैठे। इतनी रात गए गा डया ँ य नद के पार जाती ह? अव य कछु न कछु गोलमाल है। तक ने म को प टु

कया। वरद पहनी, तमंचा जेब म रखा और बात क बात म घोडा बढाए हएु पलु पर आ पहचे।ु ँ गा डय क

एक ल बी कतार पलु के पार जाती देखी। डाँटकर पछाू , ' कसक गा डया ँह। थोडी देर तक स नाटा रहा। आद मय म कछु कानाफसीू हईु तब आगे वाले ने कहा-'पं डत अलोपीद न क । 'कौन पं डत अलोपीद न? 'दातागंज के। मुंशी वंशीधर च के। पं डत अलोपीद न इस इलाके के सबसे ति ठत जमींदार थे। लाख पए का लेन-देन

करते थे, इधर छोटे से बडे कौन ऐसे थे जो उनके ॠणी न ह । यापार भी बडा ल बा-चौडा था। बडे चलते-

परजेु आदमी थे। ऍ ं गरेज अफसर उनके इलाके म शकार खेलने आते और उनके मेहमान होते। बारह मास

सदा त चलता था। मंशीु ने पछाू , 'गा डया ँकहा ँजाएँगी? उ तर मला, 'कानपरु । ले कन इस न पर क इनम या है, स नाटा छा गया। दारोगा साहब का संदेह और भी बढा। कछु देर तक उ तर क बाट देखकर वह जोर से बोले, ' या तमु सब गगेूँ हो गए हो? हम पछतेू ह इनम या लदा है? जब इस बार भी कोई उ तर न मला तो उ ह ने घोडे को एक गाडी से मलाकर बोरे को टटोला। म दरू हो गया। यह नमक के डेले थे। पं डत अलोपीद न अपने सजीले रथ पर सवार, कछु सोते, कछु जागते चले आते थे। अचानक कई गाडीवान

ने घबराए हुए आकर जगाया और बोले-'महाराज! दारोगा ने गा डया ँरोक द ह और घाट पर खडे आपको बलातेु ह। पं डत अलोपीद न का ल मीजी पर अखंड व वास था। वह कहा करते थे क संसार का तो कहना ह या, वग म भी ल मी का ह रा य है। उनका यह कहना यथाथ ह था। याय और नी त सब ल मी के ह

खलौने ह, इ ह वह जैसे चाहती ह नचाती ह। लेटे ह लेटे गव से बोले, चलो हम आते ह। यह कहकर

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पं डतजी ने बडी नश◌ं चतता् से पान के बीडे लगाकर खाए। फर लहाफ ओढे हएु दारोगा के पास आकर

बोले, 'बाबजीू आशीवाद! क हए, हमसे ऐसा कौन सा अपराध हआु क गा डयाँ रोक द ग । हम ा मण पर

तो आपक कपाृ - ि ट रहनी चा हए। वंशीधर खाई से बोले, 'सरकार ह म।ु पं. अलोपीद न ने हसकरँ कहा, 'हम सरकार ह मु को नह ंजानते और न सरकार को। हमारे सरकार तो आप ह ह। हमारा और आपका तो घर का मामला है, हम कभी आपसे बाहर हो सकते ह? आपने यथ का क ट उठाया। यह हो नह ंसकता क इधर से जाएँ और इस घाट के देवता को भट न चढाव। म तो आपक

सेवा म वयं ह आ रहा था। वंशीधर पर ऐ वय क मो हनी वंशी का कछु भाव न पडा। ईमानदार क नई

उमंग थी। कडककर बोले, 'हम उन नमकहराम म नह ंहै जो कौ डय पर अपना ईमान बेचते फरते ह। आप

इस समय हरासत म ह। आपको कायदे के अनसारु चालान होगा। बस, मझेु अ धक बात क फसतु नह ंहै। जमादार बदल संहू ! तमु इ ह हरासत म ले चलो, म ह मु देता ह।ू ँ पं. अलोपीद न ति भत हो गए। गाडीवान म हलचल मच गई। पं डतजी के जीवन म कदा चत यह पहला ह अवसर था क पं डतजी को ऐसी कठोर बात सननीु पडीं। बदल संहू आगे बढा, क तु रोब के मारे यह

साहस न हआु क उनका हाथ पकड सके। पं डतजी ने धम को धन का ऐसा नरादर करते कभी न देखा था। वचार कया क यह अभी उ ंड लडका है। माया-मोह के जाल म अभी नह ंपडा। अ हड है, झझकता है। बहतु द नभाव से बोले, 'बाबू साहब, ऐसा न क िजए, हम मट जाएँगे। इ जत धलू म मल जाएगी। हमारा अपमान करने से आपके हाथ या आएगा। हम कसी तरह आपसे बाहर थोडे ह ह। वंशीधर ने कठोर वर म कहा, 'हम ऐसी बात नह ंसननाु चाहते। अलोपीद न ने िजस सहारे को च ान समझ रखा था, वह पैर के नीचे खसकता हआु मालमू हआ।ु

वा भमान और धन-ऐ वय क कडी चोट लगी। क तु अभी तक धन क सांि यक शि त का पराू भरोसा था। अपने म तारु से बोले, 'लालाजी, एक हजार के नोट बाबू साहब क भट करो, आप इस समय भखेू संह

हो रहे ह। वंशीधर ने गरम होकर कहा, 'एक हजार नह ,ं एक लाख भी मझेु स चे माग से नह ं हटा सकते। धम क इस बि दह नु ढता और देव-दलभु याग पर मन बहतु झझलाया।ुँ अब दोन शि तय म सं ाम

होने लगा। धन ने उछल-उछलकर आ मण करने शु कए। एक से पाँच, पाँच से दस, दस से पं ह और

पं ह से बीस हजार तक नौबत पहचीु ँ , क तु धम अलौ कक वीरता के साथ बहसं यकु सेना के स मखु

अकेला पवत क भाँ त अटल, अ वच लत खडा था। अलोपीद न नराश होकर बोले, 'अब इससे अ धक मेरा साहस नह ं। आगे आपको अ धकार है। वंशीधर ने अपने जमादार को ललकारा। बदल संहू मन म दारोगाजी को गा लयाँ देता हआु पं डत

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अलोपीद न क ओर बढा। पं डतजी घबडाकर दो-तीन कदम पीछे हट गए। अ यंत द नता से बोले, 'बाबू

साहब, ई वर के लए मझु पर दया क िजए, म प चीस हजार पर नपटारा करने का तैयार ह।ू ँ 'अस भव बात है। 'तीस हजार पर? ' कसी तरह भी स भव नह ं। ' या चाल स हजार पर भी नह ं। 'चाल स हजार नह ं, चाल स लाख पर भी अस भव है। 'बदल संहू , इस आदमी को हरासत म ले लो। अब म एक श द भी नह ंसननाु चाहता। धम ने धन को पैर तले कचलु डाला। अलोपीद न ने एक ट-प टु मन यु को हथक डयाँ लए हएु अपनी तरफ आते देखा। चार ओर नराश और कातर ि ट से देखने लगे। इसके बाद म छतू होकर गर पडे। द नयाु सोती थी पर द नयाु क जीभ जागती थी। सवेरे दे खए तो बालक-व दृ सबके महु ँ से यह बात सनाईु

देती थी। िजसे दे खए वह पं डतजी के इस यवहार पर ट का- ट पणी कर रहा था, नंदा क बौछार हो रह

थीं, मानो संसार से अब पापी का पाप कट गया। पानी को दधू के नाम से बेचने वाला वाला, कि पत रोजनामचे भरने वाले अ धकार वग, रेल म बना टकट सफर करने वाले बाबू लोग, जाल द तावेज बनाने वाले सेठ और साकार यह सब के सब देवताओं क

भाँ त गदन चला रहे थे। जब दसरेू दन पं डत अलोपीद न अ भय तु होकर कां टेबल के साथ, हाथ म हथक डया,ँ दय म ला न

और ोभ भरे, ल जा से गदन झकाएु अदालत क तरफ चले तो सारे शहर म हलचल मच गई। मेल म

कदा चत ऑ ंख इतनी य न होती ह गी। भीड के मारे छत और द वार म कोई भेद न रहा। कतं ु अदालत म पहचनेु ँ क देर थी। पं. अलोपीद न इस अगाध वन के संह थे। अ धकार वग उनके भ त,

अमले उनके सेवक, वक ल-म तारु उनके आ ा पालक और अरदल , चपरासी तथा चौक दार तो उनके

बना मोल के गलामु थे। उ ह देखते ह लोग चार तरफ से दौडे। सभी लोग वि मत हो रहे थे। इस लए नह ं क अलोपीद न ने यह

कम कया, बि क इस लए क वह काननू के पंजे म कैसे आए? ऐसा मन यु िजसके पास असा य साधन

करने वाला धन और अन य वाचालता हो, वह य काननू के पंजे म आए? येक मन यु उनसे सहानभ तु ू

कट करता था।

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बडी त परता से इस आ मण को रोकने के न म त वक ल क एक सेना तैयार क गई। याय के मैदान म

धम और धन म य द ठन गया। वंशीधर चपचापु खडे थे। उनके पास स य के सवा न कोई बल था, न

प ट भाषण के अ त र त कोई श । गवाह थे, कतं ु लोभ से डाँवाडोल। यहा ँतक क मंशीजीु को याय भी अपनी ओर कछु खंचा हआु द ख पडता था। वह याय का दरबार था, परंतु उसके कमचा रय पर प पात का नशा छाया हआु था। कतं ु प पात और याय का या मेल? जहा ँप पात हो, वहाँ याय क क पना नह ंक जा सकती। मकदमाु शी ह समा त हो गया। ड ट मिज ेट ने अपनी तजवीज म लखा, पं. अलोपीद न के व द दए गए माण नमलू और

मा मक ह। वह एक बडे भार आदमी ह। यह बात क पना के बाहर है क उ ह ने थोडे लाभ के लए ऐसा द साहसु कया हो। य य प नमक के दरोगा मंशीु वंशीधर का अ धक दोष नह ंहै, ले कन यह बडे खेद क

बात है क उसक उ ंडता और वचारह नता के कारण एक भलेमानसु को क ट झेलना पडा। हम स न ह

क वह अपने काम म सजग और सचेत रहता है, कतं ु नमक के मकदमेु क बढ हईु नमक से हलाल ने

उसके ववेक और बि दु को ट कर दया। भ व य म उसे हो शयार रहना चा हए। वक ल ने यह फैसला सनाु और उछल पडे। पं. अलोपीद न म करातेु ु हएु बाहर नकले। वजन बाँधव ने

पए क लटू क । उदारता का सागर उमड पडा। उसक लहर ने अदालत क नींव तक हला द । जब वंशीधर बाहर नकले तो चार ओर उनके ऊपर यं यबाण क वषा होने लगी। चपरा सय ने झकु -

झककरु सलाम कए। कतं ु इस समय एक कटु वा य, एक-एक संकेत उनक गवाि न को व लत कर

रहा था। कदा चत इस मुकदमे म सफल होकर वह इस तरह अकडते हएु न चलते। आज उ ह संसार का एक

खेदजनक व च अनभवु हआ।ु याय और व व ता, लंबी-चौडी उपा धयाँ, बडी-बडी दा ढयाँ, ढ ले चोगे

एक भी स चे आदर का पा नह ंहै। वंशीधर ने धन से बैर मोल लया था, उसका म यू चकानाु अ नवाय था। क ठनता से एक स ताह बीता होगा क मअ तलु का परवाना आ पहचा।ु ँ काय-परायणता का दंड मला। बेचारे भ न दय, शोक और खेद से

य थत घर को चले। बढेू मंशीजीु तो पहले ह से कडबडाु ु रहे थे क चलते-चलते इस लडके को समझाया था, ले कन इसने एक न सनी।ु सब मनमानी करता है। हम तो कलवार और कसाई के तगादे सह, बढापेु म भगत

बनकर बैठ और वहाँ बस वह सखीू तन वाह! हमने भी तो नौकर क है और कोई ओहदेदार नह ंथे। ले कन

काम कया, दल खोलकर कया और आप ईमानदार बनने चले ह। घर म चाहे ऍ ं धेरा हो, मि जद म अव य

दया जलाएँगे। खेद ऐसी समझ पर! पढना- लखना सब अकारथ गया। इसके थोडे ह दन बाद, जब मंशीु वंशीधर इस दराव थाु म घर पहचेु ँ और बढेू पताजी ने समाचार सनाु तो सर पीट लया। बोले- 'जी चाहता है क त हाराु और अपना सर फोड ल।ूँ बहतु देर तक पछता-पछताकर

हाथ मलते रहे। ोध म कुछ कठोर बात भी कह ंऔर य द वंशीधर वहा ँसे टल न जाता तो अव य ह यह

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ोध वकट प धारण करता। व दृ माता को भी द:ुख हआ।ु जग नाथ और रामे वर या ा क कामनाएँ

म ी म मल ग । प नी ने कई दन तक सीधे महुँ बात तक नह ंक । इसी कार एक स ताह बीत गया। सां य का समय था। बढेू मंशीजीु बैठे-बैठे राम नाम क माला जप रहे थे। इसी समय उनके वार पर सजा हआु रथ आकर का। हरे और गलाबीु परदे, पछ हए बैल क जोडी, उनक

गदन म नीले धागे, सींग पीतल से जडे हए।ु कई नौकर ला ठयाँ कंध पर रखे साथ थे। मंशीजीु अगवानी को दौडे देखा तो पं डत अलोपीद न ह। झककरु दंडवत ्क और ल लो-च पो क बात करने

लगे- 'हमारा भा य उदय हआु , जो आपके चरण इस वार पर आए। आप हमारे प यू देवता ह, आपको कौन

सा महुँ दखाव, महुँ म तो का लख लगी हईु है। कतं ु या कर, लडका अभागा कपतू है, नह ंतो आपसे या महुँ छपाना पडता? ई वर न संतान चाहे र खे पर ऐसी संतान न दे। अलोपीद न ने कहा- 'नह ंभाई साहब, ऐसा न क हए। मंशीजीु ने च कत होकर कहा- 'ऐसी संतान को और या कँ? अलोपीद न ने वा स यपणू वर म कहा- 'कल तलकु और प खु क क त उ वल करने वाले संसार म

ऐसे कतने धमपरायण मन यु ह जो धम पर अपना सब कछु अपण कर सक! पं. अलोपीद न ने वंशीधर से कहा- 'दरोगाजी, इसे खशामदु न सम झए, खशामदु करने के लए मझेु इतना क ट उठाने क ज रत न थी। उस रात को आपने अपने अ धकार-बल से अपनी हरासत म लया था, कतं ु आज म वे छा से आपक हरासत म आया ह।ू ँ मने हजार रईस और अमीर देखे, हजार उ च

पदा धका रय से काम पडा कतं ु परा त कया तो आपने। मने सबको अपना और अपने धन का गलामु

बनाकर छोड दया। मझेु आ ा द िजए क आपसे कछु वनय क ।ँ वंशीधर ने अलोपीद न को आते देखा तो उठकर स कार कया, कतं ु वा भमान स हत। समझ गए क यह

महाशय मझेु लि जत करने और जलाने आए ह। मा- ाथना क चे टा नह ंक , वरन ्उ ह अपने पता क

यह ठकरसहातीु ु क बात अस य सी तीत हई।ु पर पं डतजी क बात सनीु तो मन क मैल मट गई। पं डतजी क ओर उडती हईु ि ट से देखा। स ाव झलक रहा था। गव ने अब ल जा के सामने सर झकाु

दया। शमाते हएु बोले- 'यह आपक उदारता है जो ऐसा कहते ह। मझसेु जो कछु अ वनय हईु है, उसे मा क िजए। म धम क बेडी म जकडा हआु था, नह ंतो वैसे म आपका दास ह।ू ँ जो आ ा होगी वह मेरे सर-

माथे पर। अलोपीद न ने वनीत भाव से कहा- 'नद तट पर आपने मेर ाथना नह ं वीकार क थी, कतं ु आज

वीकार करनी पडेगी। वंशीधर बोले- 'म कस यो य हँू, कतं ु जो कछु सेवा मझसेु हो सकती है, उसम टु न होगी।

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अलोपीद न ने एक टा प लगा हआु प नकाला और उसे वंशीधर के सामने रखकर बोले- 'इस पद को वीकार क िजए और अपने ह ता र कर द िजए। म ा मण हँू, जब तक यह सवाल पराू न क िजएगा, वार से न हटगा।ू ँ

मंशीु वंशीधर ने उस कागज को पढा तो कत ताृ से ऑ ंख म ऑ ं सू भर आए। पं. अलोपीद न ने उनको अपनी सार जायदाद का थायी मैनेजर नयत कया था। छह हजार वाषक वेतन के अ त र त रोजाना खच

अलग, सवार के लए घोडा, रहने को बगलाँ , नौकर-चाकर म त।ु कि पत वर म बोले- 'पं डतजी मझमु

इतनी साम य नह ंहै क आपक उदारता क शंसा कर सकँू! कतं ु ऐसे उ च पद के यो य नह ंह।ू ँ अलोपीद न हसकरँ बोले- 'मझेु इस समय एक अयो य मन यु क ह ज रत है। वंशीधर ने गंभीर भाव से कहा- 'य म आपका दास ह।ू ँ आप जैसे क तवान, स जन प षु क सेवा करना मेरे

लए सौभा य क बात है। कतं ु मझमु न व या है, न बि दु , न वह वभाव जो इन टयु क प तू कर देता है। ऐसे महान काय के लए एक बडे मम अनभवीु मन यु क ज रत है। अलोपीद न ने कलमदान से कलम नकाल और उसे वंशीधर के हाथ म देकर बोले- 'न मझेु व व ता क

चाह है, न अनभवु क , न मम ता क , न कायकशलताु क । इन गणु के मह व को खबू पा चकाु ह।ू ँ अब

सौभा य और सअवसरु ने मझेु वह मोती दे दया िजसके सामने यो यता और व व ता क चमक फ क पड

जाती है। यह कलम ल िजए, अ धक सोच- वचार न क िजए, द तखत कर द िजए। परमा मा से यह

ाथना है क वह आपको सदैव वह नद के कनारे वाला, बेमरौवतु , उ ंड, कठोर परंतु धम न ठ दारोगा बनाए रखे। वंशीधर क ऑ ंख डबडबा आ । दय के संक चतु पा म इतना एहसान न समा सका। एक बार फर

पं डतजी क ओर भि त और दा क ि ट से देखा और काँपते हएु हाथ से मैनेजर के कागज पर

ह ता र कर दए। अलोपीद न ने फि लतु होकर उ ह गले लगा लया।


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