राष्ट्रदेव...

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~ 343 ~ ISSN Print: 2394-7500 ISSN Online: 2394-5869 Impact Factor: 5.2 IJAR 2019; 5(6): 343-346 www.allresearchjournal.com Received: 04-04-2019 Accepted: 08-05-2019 राकेश कुमार यादव संृत विभाग, विी विविाल, विी, भारत Correspondence राकेश कुमार यादव संृत विभाग, विी विविाल, विी, भारत रȡƶदȯव-बȪधन Ǿप कȡययȪजन एवम ् उरसȢतȡचǐरत महȡकय मɅ उसकȧ सपǗǓति राकेश कुमार यादव तावना सȲकǙ त-ǒवƭȡ कȯ ȯ मɅ थȡरभ कȯ समय अनǕबध-चतǕƴय कȯ ǒवचȡर कȧ सǕदȣि परपरȡ पǐरलǔत हȪतȢ हȰ। इस अनǕबध-चतǕƴय(अǓधकȡरȣ,ǒवषय,सबध तथȡ यȪजन) मɅ यȪजन कȡ मǕय थȡन हȰ , यɉǑक यȪजन हȣ वǙ कȡ कȡरण हȪतȡ हȰ - यȪजनमनǕǑिय मदȪऽǒप वतितȯ। ȡचȢन कȡल सȯ हȣ कयशȡƸ मɅ यȪजनɉ पर ǒवचȡर Ǒकयȡ गयȡ हȰ चǗȱǑक कȡयशȡƸ कȡय कȡ अग हȰ इसǓलयȯ आचȡयɟ नȯ कȡय एवȲ कȡयशȡƸ दȪनɉ कȯ यȪजन मɅ समȡनतȡ वȢकȡर कȧ हȰ। आधǕǓनक कȡय-रचनȡ पर ǒवचȡर करनȯ पर यह ȡत हȪतȡ हȰ Ǒक कǕ छ आचȡयि अभȢ तक ȡचȢन आचȡयि परपरȡ कȡ अनǕसरण मȡ हȣ कर रहȯ हɇ। ǑकतǕ सनȡतन-कǒव आचȡयि रȯवȡसȡद ǑƮवȯदȣ नȯ इस सबध मȯ मȫǓलक एवȲ नवȢन ǒवचȡर तǕत Ǒकयȡ हȰ। आचȡयि ǑƮवȯदȣ कǒव कȧ Ǻǒƴ सȯ कȡय कȪ सयȪजन एवȲ ǓनयȪजन दȪनɉ मȡनतȯ हɇ। उनकȡ कहनȡ हȰ Ǒक कǒव सदȰव ǑकसȢ यȪजनवश कȡय-रचनȡ नहȣȲ करतȡ। कभȢ-कभȢ यश, अथि इयȡǑद कȯ ǒबनȡ ǑकसȢ यȪजन कȯ भȢ कǒव कȧ कȡय-रचनȡ मɅ वǙǒ Ǒदखȡई दȯतȢ हȰ 1 आचȡयि ǑƮवȯदȣ कहतȯ हɇ Ǒक ǔजस कȡर चटकȡ पȢ ȡत:कȡल चणक-कण लȡभ Ǿप यȪजन कȯ Ǔलयȯ हȣ कलरव नहȣȲ करतȡ अǒपतǕ कलरव करनȡ उसकȡ वभȡव हȰ अथȡित ् कȡय कȯ यȪजन मɅ कǒव कȡ कȪई यȪजन नहȣȲ भȢ रहतȡ हȰ , ठȤक वȰसȯ हȣ जȰसȯ भȡतवȯलȡ मɅ चटकȡ कȧ चǕकȡर मɅ 2 महȡकǒव वमȢǑक नȯ रȡमȡयण कȧ रचनȡ यशȡǓƯ, अथिȡǓƯ अथवȡ ǓशवȯतरǓत कȯ Ǔलयȯ नहȣȲ कȧ थȢ। वȯ तȪ लȪकȰ षणȡ, ǒवȰषणȡ और पǕȰषणȡ इन तȢनɉ सȯ वȢतरȡग थȯ महǒषि कȡ कमि तȪ Ǔनसगित: फलȡशǒि वǔजित हȪतȡ हȰ। अत: यह Ǔस हȰ Ǒक रȡमȡयण कȧ रचनȡ मɅ आǑदकǒव कȡ कȪई यȪजन नहȣȲ थȡ। 3 कǒव कȧ Ǻǒƴ मɅ यȪजन हȪनȯ कȡ ư हȰ तȪ आचȡयि ǑƮवȯदȣ कȡ मत हȰ Ǒक कȡय मɅ ममटȡǑद ǓतपȡǑदत यȪजन कȯ अǓतǐरि अय अनȯक यȪजन समत हȰ यथȡ- . यǕगȡवयकतȡ-पǗǓति . वधमिरण 1 आधǕǓनक सȲकǙ त कȡयशȡƸ पȯज- 133 2 यȪजनȲ कवȯ:कȡयȯ नȡǒप ǑकȲ चन Ǻयतȯ। चǕकǙ तȫ कलǒवकय यथȡ भȡǓतकȯ णȯ॥ कȡयȡलȲकȡरकȡǐरकȡ-११ 3 एषणȡ-ǒतयȪǒणȶ रȡमȡयण-महȡकवȫ। आमȡ्ǒवकȡर-नȰकयि-नȰसगȸ ǑकȲ यȪजनम ्॥ कȡयȡलȲकȡरकȡǐरकȡ-१२ International Journal of Applied Research 2019; 5(6): 343-346

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~ 343 ~

ISSN Print: 2394-7500

ISSN Online: 2394-5869

Impact Factor: 5.2

IJAR 2019; 5(6): 343-346

www.allresearchjournal.com

Received: 04-04-2019

Accepted: 08-05-2019

राकेश कुमार यादव

संसृ्कत विभाग, विल्ली

विश्वविद्याल, विल्ली, भारत

Correspondence

राकेश कुमार यादव

संसृ्कत विभाग, विल्ली

विश्वविद्याल, विल्ली, भारत

राष्ट्रदेव-प्रबोधन रूप काव्यप्रयोजन एवम ्उत्तरसीताचररत

महाकव्य में उसकी सम्पूर्ति

राकेश कुमार यादव

प्रस्तावना

संस्कृत-ववद्या के के्षत्र में ग्रन्थारम्भ के समय अनबुन्ध-चतुष्टय के ववचार की सुदीर्ि परम्परा पररलक्षक्षत

होती है। इस अनुबन्ध-चतुष्टय(अर्धकारी,ववषय,सम्बन्ध तथा प्रयोजन) में प्रयोजन का मुख्य स्थान है,

क्योंकक प्रयोजन ही प्रवतृ्त का कारण होता है- प्रयोजनमनुकिश्य मन्दोऽवप न प्रवतिते। प्राचीन काल से ही कव्यशास्त्र में प्रयोजनों पर ववचार ककया गया है चूूँकक काव्यशास्त्र काव्य का अङ्ग है इसर्लये आचायों ने

काव्य एवं काव्यशास्त्र दोनों के प्रयोजन में समानता स्वीकार की है।

आधुर्नक काव्य-रचना पर ववचार करने पर यह ज्ञात होता है कक कुछ आचायि अभी तक प्राचीन आचायि परम्परा का अनसुरण मात्र ही कर रहे हैं। ककन्त ुसनातन-कवव आचायि रेवाप्रसाद किवेदी ने इस सम्बन्ध

मे मौर्लक एवं नवीन ववचार प्रस्तुत ककया है।

आचायि किवेदी कवव की दृवष्ट से काव्य को सप्रयोजन एव ंर्नष्प्प्रयोजन दोनों मानते हैं। उनका कहना है

कक कवव सदैव ककसी प्रयोजनवश काव्य-रचना नहीं करता। कभी-कभी यश, अथि इत्याकद के वबना ककसी प्रयोजन के भी कवव की काव्य-रचना में प्रववृत्त कदखाई देती है1। आचायि किवेदी कहते हैं कक क्षजस

प्रकार चटका पक्षी प्रात:काल चणक-कण लाभ रूप प्रयोजन के र्लये ही कलरव नहीं करता अवपतु कलरव करना उसका स्वभाव है अथाित ्काव्य के प्रयोजन में कवव का कोई प्रयोजन नहीं भी रहता है,

ठीक वसेै ही जैसे प्रभातवेला में चटका की चुङ्कार में ।2 महाकवव वल्मीकक ने रामायण की रचना यशप्रार्ि, अथिप्रार्ि अथवा र्शवेतरक्षर्त के र्लये नहीं की थी। वे तो लोकैषणा, ववतै्तषणा और पतैु्रषणा इन तीनों से वीतराग थे महवषि का कमि तो र्नसगित: फलाशवि वक्षजित होता है। अत: यह र्सद्ध है कक

रामायण की रचना में आकदकवव का कोई प्रयोजन नहीं था।3

कवव की दृवष्ट में प्रयोजन होने का प्रश्न है तो आचायि किवेदी का मत है कक काव्य में मम्मटाकद प्रर्तपाकदत

प्रयोजन के अर्तररि अन्य अनेक प्रयोजन सम्मत है । यथा- १. युगावश्यकता-पूर्ति २. स्वधमिरक्षण

1 आधुर्नक संस्कृत काव्यशास्त्र पेज- 133 2 प्रयोजन ंकवे:काव्ये नावप ककंचन दृश्यते। चुङ्कृतौ कलववङ्कस्य यथा प्रभार्तके क्षणे॥ काव्यालंकारकाररका-११ 3 एषणा-वत्रतयोवत्तण ेरामायण-महाकवौ। आत्मा्ववष्प्कार-नैष्प्कम्यि-नैसगी ककं प्रयोजनम॥् काव्यालंकारकाररका-१२

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३. राष्ट्रदेव-प्रबोध इत्याकद। युगावश्यकतापूर्ति- आचायि रेवाप्रसाद किवेदी युगावश्यकतापूर्ति रूप प्रयोजन को बताते हुए कहते हैं कक काव्य र्नमािण में कवव का अन्यतम प्रयोजन उस मन्त्र की अर्भव्यवि भी हो सकती है

क्षजससे युग की आवश्यकता की पूर्ति सम्भव हो सके, जैसे ररु्वंश

में ररु् की अर्भव्यवि4। कवव कभी-कभी तत्कालीन समस्याओ ंके

समाधानथि रहस्य की अर्भव्यवि करने के र्लए काव्य रचना करता है। उदाहरण के रूप मे महाकवव कार्लदास ने ररु्वशं की रचना उस समय की जब भरतवषि पर ववदेर्शयों का आक्रमण हो रहा था। उनके रचना का प्रयोजन यह बताना था कक हम भारत के

लोग ररु्, कदलीप, अज तथा रामाकद के तुल्य वीरता को किर से

ककस प्रकार प्राि कर सकते हैं। कुमारसम्भवम ् तथा अर्भज्ञानशाकुन्तलम ्का प्रयोजन भी यही था। स्वधमिरक्षण- आचायि किवेदी कहते हैं कक जब अधमि का उत्थान

हो रहा हो तब धमि की रक्षा भी बन जाती है काव्य-प्रयोजन। जैसे

यवनों के शासनकाल में यवनों पर शासन करने में समथि तुलसी-काव्य(गोसाई तलुसीदास जी का काव्य रामचररतमानस आकद) । 5 यवन शासन काल में जब कहन्द ूधमि का ह्रास होने लगा तो तुलसीदास जी ने अपने धमि की रक्षा के र्लये रामचररतमानस

काव्य की रचना की। jk"Vªnso&çcks/ku :i dkO;ç;kstu

सनातन कवव आचायि रेवाप्रसाद किवेदी कहते हैं कक कभी – कभी राष्ट्ररूपी देवताओं के प्रबोध के र्लए कवव काव्य रचना करता है। ववश्वदैवत की साक्षी में राष्ट्रदेव का प्रबोधन/जागरण भी मानव

समाज के र्लए काव्यप्रयोजन बनता है, क्षजससे चारों पुरुषाथों (धमि, अथि, काम तथा मोक्ष) की प्रार्ि हो जाया करती है।6

The awakening of the Greatest God-Nation may be another

purpose of poetry, if it (awakening) is observed by the diety

Universe and if it offers all the four utimate goles of

personal life of human beings.

आचायि किवेदी कहते हैं कक राष्ट्रदेव प्रबोधन को भी काव्यप्रयोजन

माना जा सकता है। भारतीय परम्परा में जैसे हरर का प्रबोध या ववष्प्णु का जागरण सुववख्यात है वैसे काव्य मे राष्ट्रदेव का प्रबोध

भी ववख्यात है।और राष्ट्रदेव-प्रबोध क्या होता है ये आचायि किवेदी ने बताया है। देवोत्थान एकादशी में पजूा-पाठ / जागरण करने से

जो हमारे रुके हुए सब कायि हैं वे सम्पन्न होते हैं ऐसी मान्यता

4 युगावश्यकतापरू्ति-मन्त्र-व्यविरवप क्वर्चत।् प्रयोजन ंरर्ुव्यिे रर्ुवंशे यथा कवे: ॥ वही- १३ 5 अधमोत्थानवेलायां धमिरक्षावप दृश्यते। काव्याथिस्तुलसीकाव्ये यथा यवन-शासने॥ वही-१४ 6 राष्ट्रदेव प्रबोधोऽवप ववश्वदैवत-साक्षक्षकः। काव्यप्रयोजनं पंुभ्यः पुमथाांश्चतुरो दहुन ्॥ काव्यालकंारकाररका-१५

भारतीय परम्परा में ववख्यात है। क्योंकक देवोत्थान के बाद ही सब

मंगल कायि प्रारम्भ होते हैं। हररप्रबोध का मतलब व्यवि मे

सकक्रयता एवं चेतना का आना कक क्या करना है और क्या नहीं करना है। राष्ट्र सोया पडा है (नेता और पक्षललक सब सो गये हैं) ककसी को भी राष्ट्रीय समस्या से कुछ लेना देना नहीं है। इसर्लए

राष्ट्र प्रबोध/जागरण की महती आवश्यकता है और राष्ट्र का जागरण काव्य के माध्यम से ही सम्भव है । क्योंकक काव्य

राष्ट्रप्रबोध करता है यार्न राष्ट्र में रहने वाले लोगों को जगाता है

क्षजससे वे लोग राष्ट्रकहत के ववषय में जाग्रत हो उठें। अतः राष्ट्र देव

है और हम लोग भी राष्ट्रदेव हैं क्योंकक लक्षणा से आधाराधेय भाव

से अभेद हो जाता है तो राष्ट्र मे रहने वाले लोग भी देव है। ऐसे राष्ट्र

मे रहने वाले लोगों का जो जागरण है वहा काव्य का परम

प्रयोजन है7। क्योंकक यकद कोई काव्य राष्ट्र के प्रर्त पे्रम भाव न

जगा सके तो ऐसे कव्य से कोई लाभ नहीं। राष्ट्रदेव प्रबोधन रूप

काव्यप्रयोजन ववश्व व्यवियों से र्नरपेक्ष नहीं है। स्वय ंभरतमुर्न ने नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय में कहा है कक

ववदेशी आक्रमणकाररयों के कारण भारत स्वत्व वबल्कुल समाि

हो गया था और उसे पर आधाररत नाटकों नतृ्यों तथा महाकाव्यों के माध्यम से पनुः प्रर्तवित ककया गया।8

इस सन्दभि मे सनातन कवव उत्तरसीताचररतम ् महाकव्य में राष्ट्रीय एवं सामाक्षजक ववषयों को प्रर्तपद समाधान-पूविक उकेरा है। पारम्पररक सीताचररत जो वाल्मीकक, कार्लदास, भवभूर्त

आकद महाकववयों के कथानकों में र्चवत्रत है, वह भगवती सीता के

दयनीय स्वरूप को र्नरन्तर परीक्षा का ववषय बनाते हुए एक

अबला नारी के रूप में र्चत्रण ककया गयाहै । लेककन सनातनकवव

इस परम्परा से हटकर भगवती सीता को अपनी अक्षस्मता के

रक्षण में समथि तथा राष्ट्र एवं समाज के सविववध कल्याण के र्लये

सचेष्ट क्राक्षन्तकारी स्त्री के रूप में र्चवत्रत ककया है, न कक र्नरन्तर समाज की दया पात्र एक अबला नारी के रूप में । इस महाकाव्य

में भगवती सीता स्वय ंही राज्य पररत्याग का र्नणिय लेती है और वन के र्लए प्रस्थान कर जाती है । उनको ककसी बहाने से वन में छोडने की जनापवाद से आक्रान्त र्चत्त अयोध्यापर्त की आवश्यकता नहीं पडती । इस महाकाव्य की कथावस्तु का प्रारम्भ

होता है वनवास की अवर्ध को पूणि करके पत्नी सीता तथा अनजु

लक्ष्मण के साथ लौटकर आयोध्या आए हुए राम के भव्य स्वागत

से । समस्त राजपररवार तथा प्रजाजनों की उत्कट अर्भलाषा से

7 प्रतीतमो कह हररप्रबोधो भारतीयेषु तत्र राष्ट्रमेव देवः राष्ट्रदेवाश्च वयम।्

तस्यास्य महतो देवस्य प्रबोधोऽवप काव्यस्य परमं प्रयोजनम।् काव्यालंकारकाररका ववृत्त पेज-१४

8 इदंप्रयोजने नाट्याचायिस्य भरतस्य नः। वेदशासे्त्र प्रयोगाश्च तदार्ित्य प्रवर्तिताः॥ काव्यालकंारकाररका - १६

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भगवान िीराम को राजगिी पर बैठाया जाता है । रामराज्य की सुव्यवस्था की प्रशंसा करके कवव प्रजा में चर्चित सीता ववषयक

अपवाद को गुिचर िारा िीराम को कराता है – क्षजसे सुनकर िीराम बुरी तरह ववषण्ण हो जाते हैं िीराम की इस दीनदशा को देखकर देवी सीता भी मूर्छित हो जाती है तथा मछूािवस्था से बाहर आने पर िीराम मन ही मन प्रजाजन की अर्चन्त्यवाकदता पर खेद प्रकट करते हैं, और ववधाता की इस र्नदियता पर भी दःुख

व्यि करते हैं कफर सीता पररत्याग का मन ही मन र्नणिय लेते हैं । तत्पश्चात वह मूर्छित पडी हुई भगवती सीता को होश में लाते हैं उन्हें लेकर वे सभागहृ में आते हैं और तुरन्त ही अपनी सभी माताओं तथा भाईयों को सभागहृ में बुलाकर सीता ववषयक

जनापवाद से पररर्चत कराते हैं ।9

फलस्वरूप सीता के सतीत्व तथा मादिव की अर्भव्यवि कराने

वाले माताओ ं के ववलाप को सुनकर तथा भाईयों के अववरल

अिपुात को देखकर िीराम अपने सीता पररत्याग रूपी र्नणिय को मुूँह से कहने में असमथि हो जाते हैं, उस पररक्षस्थर्त में गभिवती सीता की उनकी मनःक्षस्थर्त को समझकर स्वय ंही र्नणिय लेती है

और उसे प्रकट करने का उपक्रम करती है वह राज्य की शाक्षन्त

हेतु तथा उनकी कुलकीर्ति की रक्षा हेतु राजमहल को त्यागकर वनवास करने का अपना र्नणिय सुनाती है ।और कहती हैं कक जो कोई ववश्वरूपी देवता का वशीकरण- मन्त्र जपता और चराचर का कहत करना चाहता है वकृ्ष के समान वह पूजा ककया करता केवल

र्नरुपार्ध पराथिता की।10 इसर्लए हे माताओं मैं यहाूँ से जाती हूूँ, स्वय ंही जाती हूूँ, और मुझे इसकी कोई व्यथा नहीं है । अपनी कीर्ति की रक्षा के र्लए अच्छे दम्पर्त और सत्पुरूष मतृ्यु से भी नही डरते।11 उर्मिला माण्डवी तथा शतु्रघ्न की पत्नी िी ितुकीर्ति ये सभी मकहलाएूँ सीता को वन जाने से रोकती हैं ककन्तु भगवती सीता अपनी उन सभी बहनों को वन जाने का राष्ट्रकहताथि की और्चर्त बताती है । भारतीयों में अपनी भारतीय संस्कृर्त के प्रर्त आस्था जगाने में भी सनातन कवव पयािि रूप से जागरूक हैं । माता कौश्लया के

माध्यम से उसने भगवती सीता की इस दृवष्ट से भी प्रशंसा की है

कक उन्होंने अर्तववषम पररक्षस्थर्त के पररवेश में फूँ सकर भी भारतीय सम्स्कृर्त को नहीं त्यागा । सीता के इस र्नणिय से कवव

ने रावष्ट्रय गररमा के दशिन ककये हैं (उत्तरसीताचररतम ्1/17-20)

9 संस्कृतसाकहत्य में राष्ट्रीय भावना 10 ववश्वदैवतमुपास्य कामिणं यस्तु वा्छर्त चराचरवप्रयम।् तेन पादपार्नभेन केवला पजू्यतेऽनुपकहता पराथिता॥ उत्तरसीताचररतम ्– ३/३०

11 यार्म मातरः इतः स्वतस्ततो यार्म,यार्म वववपनं न मे व्यथा ।

कीर्तिकायमववतुं सुमानुषा मतृ्युतोवप न कह जात ुवबभ्यर्त ॥ वही – ३/३१

सनातन कवव ने अयोध्यापर्त िीराम तथा महवषि वाल्मीकक की ववचारधारा के माध्यम से स्पष्ट ककया है कक अपने राष्ट्र की जनता के मानर्सक स्तर को ववकर्सत करने के र्लए र्शक्षा का व्यापक

प्रचार-प्रसार होना अर्त आवश्यक है । क्योंकक इसके अभाव में ही सीता जैसी पववत्र नारी की भी अवधारणा हो जाती है । अतः र्शक्षा के प्रचार हेतु राष्ट्रनायक को राष्ट्रीयस्तर पर र्नरन्तर प्रयन्तशील

रहना चाकहए तथा इसी प्रकार के राष्ट्र के अन्य मनीवषयों, वविानों, सन्त-महात्माओं आदो को भी राष्ट्रकहत के र्लए र्शक्षा के प्रचार-प्रसार हेतु जाहरूक एवं कक्रयाशील होना चाकहए । सनातनकवव कहते हैं कक र्शक्षानीर्त ऐसी होनी चाकहए जो ववनीत

व स्वार्भमानी नागररक तैयार करे, क्षजनका साहस भगीरथ हो, क्षजनकी गर्त अप्रर्तहत हो, तथा जो अपने वंश व जनता को अपनी ववद्या के अमतृरस से र्सक्ष्चत करने में समथि हों ।12

सन्तान को र्शक्षक्षत करने के र्लए समवपित प्रत्येक माता-वपता प्रजा के कहत में र्नरत धमि की दृढ के समान हैं13 । सनातन कवव

के मत में ववद्याथी वही सफल है जो ववषयरूपी तालाब के जल में कमलपत्र के समान र्नलपे होकर अपने हृदयाकाश को मर्लनता से र्र्रने न दे-

अथ च कमलपत्रतां दधाना ववषयसरोऽम्भर्स नीरजस्कभावात।् हृदयगगन आववलाभ्रभावैरर्नवबडतां समुपाजियन्तु सव॥े14

पारम्पररक बोध के महत्व को स्वीकार करने के प्रर्त सनातनकवव

ववद्यार्थियों को भी सतकि करते हैं। जीवन के आदशिरूप की रक्षा इक्षन्ियों के सामर्थयि के संरक्षण में ही सक्षन्नकहत है । ब्रह्मचयि का अनुपालन आत्मानुशासन से सम्भव है जो यवुा चेतना में अपूवि आध्याक्षत्मक सामर्थयि को उत्पन्न करता है क्षजससे वह ववश्व के

समस्त संर्षों को सहन करने में समथि होता है । आचायि वगि को उसके सामाक्षजक दार्यत्व के प्रर्त सतकि करते

हुएहुए कवव कहते है कक प्रत्येक र्शक्षक्षत व्यवि का सवोच्च

दार्यत्व बनता है कक वह समाज के प्रत्येक व्यवि के हृदय को प्रकाशरार्श की उज्जवला से देदीप्यमान करे । शास्त्रों का पररशीलन कर सामाक्षजक दार्यत्वों से ववरत हो जाने वाला तथा ववपक्षगामी जनों को रोकने का स्वल्प प्रयत्न भी न करने वाला व्यवि परम स्वाथी होता है।15

12 प्रर्तहतगर्तरस्तु सा मनुष्प्यः पठत ुभगीरथसाहसस्य ववद्याम।्

अर्भजन-जनते सरस्वतीनाममतृसरांर्स समप्यि तोषयेच्च॥ उत्तरसीताचररतम ्-७/२३

13 भवर्त कह भवर्त प्रजाथितन्तुक्षस्थर्तववषये दृढमूलधमिर्भवत्त:॥ उत्तरसीताचररतम-् ७/२४

14 उत्तरसीताचररतम ्– ७/४० 15 साकहत्य सामाख्या

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र्शक्षानीर्त से जुडे शासकीय सुववधा तथा अथिलाभ के र्नरन्तर पात्र प्रत्येक सामाक्षजक व्यवि का अर्नवायि दार्यत्व है कक वह

अनीर्त का उन्मूलन करने में अपनी साक्षत्वक आहुर्त अवश्य

प्रदान करे । इसी में उसकी र्शक्षा की साथिक पररणर्त र्नकहत है

सनातन कवव के विव्य में र्शक्षा जगत से जुडे प्रत्येक व्यवि का समाज के प्रर्त दार्यत्व मधुर हुआ है कक वे सत्य से परे अनीर्त

का र्नष्प्पक्ष व र्नभीक होकर ववरोध करें । ऐसा करने से भी समाज को सही कदशा र्मल सकती है तथा राष्ट्र भी सुरक्षक्षत रह

सकता है । सदाचार तथा सकिचार से ववनीत छात्रों से युि

कुलपर्त के कुल में ही राष्ट्र उच््वर्सत होता है और संस्कृर्त

प्राणवती- राष्ट्रमुच््वर्सर्त स्मात्र प्राणीर्त स्म च संस्कृर्तः । सदाचारो-ववचारो कह तयोः प्रभव आकदमः ॥16

र्शक्षानीर्त की दृढतापूविक प्रर्तिा से आदशि नागररक बनते हैं जो समाज तथा राष्ट्र केआदशि र्नयामक होते हैं ।सामाक्षजक सोमनस्य

तथा व्यवि के साक्षत्वक उत्साह की रक्षा के र्लए यह अर्नवायि है । इस प्रकार र्नष्प्कषितः कहा जा सकता है कक सनातन कवव ने

अपने राष्ट्र के प्रर्त स्वार्भमान की भावना के साथ ही राष्ट्र की सेवा करने के र्लए भी भारतीयों को कदशा-र्नदेशपवूिक प्रयाि प्ररेणा प्रदान की है । भगवती सीता के आदशिचररत के माध्यम से उनसे

यह सन्देश कदया कक राष्ट्र के उध्दार के र्लए ककसी भी प्रकार के

दःुख को सहषि सहने के र्लये प्रर्तपल उद्यत रहना चाकहए । अपने

राष्ट्र तथा संस्कृर्त की मन, वाणी, और कमि से रक्षा करनी चाकहए

। यहाूँ की मकहलाओं को चाकहए कक देशरक्षा हेतु वे अपने पर्त के

भुजदण्डों में शूरता की उष्प्मा का सदैव सचंार करती रहें यह पे्ररणा भी र्मलती है । सनातन कवव की नूतन प्रर्तभा ने इस महाकाव्य

के िारा सीता पुरातन चररतकांचन में अपनी भारतीयता ककंवा राष्ट्रीय जागरण की सुगन्ध का जो संयोग ककया है, वह अत्यन्त

स्पहृणीय एवं श्लार्नीय है । इसमें कोई सन्देह नहीं है कक यह

महाकाव्य राष्ट्रदेव प्रबोधन रूप प्रयोजन की भी सम्पूर्ति करता है ।

सन्दर्भग्रन्थसूची १ काव्यालकंारकाररका २ उत्तरसीताचररतम ्

३ आधुर्नक ससं्कृत काव्यशास्त्र

४ संस्कृतसाकहत्य में राष्ट्रीय भावना ५ साकहत्य - समाख्या

16 उत्तरसीताचररतम ्– ८/१३