वेदvedas - london sri murugan _sanscrit.pdf · येश्लोक उि...

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वेद - Vedas वेदको सिात, नियम और रम भी कहते ह। इिको भ की माणडीय लीला भी कह िकते ह। इिम धमम (िकम) थम और िवोच तव आता है।धमम को नतक नियम या सिात भी कह िकते है। इिका यदद कोई (अपरम िण) पालि करता है तो वह िंत ट व ि खी रहेगा। धमम को ’ (माणम) भी कहा जा िकता है। धमम को १४ भाग ववभाजजत ककया जाता है। थम भाग मे चार वेद आते है। इको छ: अंग म वगीक त ककया गया है। इि अंग को चार उपागं म ववभाजजत कया जाता है। ये उपांग ही िमाय ववाि है। इि १४ धमम- माणको चार वेद म वगीक त ककया गया है - ऋवेद, यज वेद, िमवेद और अथवमवेद । ऋवेद ऋवेद" शद का अथम लोक और शंिा होता है तो वेदका अथम ाि होता है। ये लोक उि िवेवर भ की शंिा म है। हर ऋक एक मं है। क छ ऋक िे समलकर ि त बिता है। ऋवेद म १०,१७० ऋक ह। ऎिे क ल ऋक २०,५०० ह। इिको १० मडल और आठ अटाग म ववभाजजत ककया गया है। इि िंदभम म अजि का मंतय काश (आम-चैतय) िे है। अंनतम ि त म िभी ििबंध रखिे वाले पय दे दए गय ह। उदाहरणाथम - िभी लोग के मि म एकता की भाविा रहिी चादहए। िभी के ददल ेम-ि म बँधे रह। िभी एक ह

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  • वेद - Vedas

    ’वेद’ को सिद्धान्त, नियम और रस्म भी कहते हैं। इिको प्रभु की ब्र्ह्माणडीय लीला भी कह िकते हैं। इिमें धमम (ित्कमम) प्रथम और िवोच्च तत्त्व आता है।”

    धमम को प्रकु्रनतक नियम या सिद्धान्त भी कह िकते है। इिका यदद कोई (अपरम िगणु) पालि करता है तो वह िंतुष्ट व िुखी रहेगा। धमम को ’प्रण’ (प्रमाणम) भी कहा जा िकता है।

    धमम को १४ भागों ववभाजजत ककया जाता है। प्रथम भाग मे चारों वेद आते है। इन्को छ: ’अगंों में वगीकृत ककया गया है। इि अगंों को चार उपाग ंमें ववभाजजत ककया जाता है। ये उपांग ही ’िामान्य ववज्ञाि ’ है।

    इि १४ ’धमम- प्रमाणों’ को चार वेदों में वगीकृत ककया गया है - ऋग्वेद, यजवेुद, िामवेद और अथवमवेद ।

    ऋग्वेद

    ’ऋग्वेद" शब्द का अथम श्लोक और प्रशंिा होता है तो ’वेद’ का अथम ज्ञाि होता है। ये श्लोक उि िवेश्वर प्रभु की प्रशंिा में है। हर ऋक एक मंत्र है। कुछ ऋकों िे समलकर ’िूक्त बिता है। ऋग्वेद में १०,१७० ऋक हैं। ऎिे कुल ऋक २०,५०० हैं। इिको १० मण्डलों और आठ अष्टागों में ववभाजजत ककया गया है।

    इि िंदभम में अजग्ि का मंतय य प्रकाश (आत्म-चैतन्य) िे है। अनंतम िूक्त में िभी िे िंबंध रखिे वाले पद्य दे ददए गय हैं। उदाहरणाथम - िभी लोगों के मि में एकता की भाविा रहिी चादहए। िभी के ददल पे्रम-िूत्र में बँधे रहें। िभी एक ही

  • भगवाि को मािें। िभी का जीवि-ध्येय िमाि हो और इि प्रकार िभी समलकर िुखी रहें।

    ऋग्वेद में िभी देवताओ ंकी वविती में श्लोक ददए गए हैं। िाथ ही इिमें िामाजजक जीवि के नियम ददए गए हैं, जजिका पालि करिे िे लोग मेल-जोल के िाथ िुखी रहें। उिमें शादी के नियम भी ददए गए हैं। िूयम की पुत्री की शादी के आधार पर इि नियमों को बिाया गया है। उिमें उवमशी और पुरुरवा के मध्य िंवाद भी ददया गया है। ऊषाकाल की देवी ऊषा ववषयक श्लोक भी इिमें आये हैं जो अनत िुन्दर हैं। इि वेद में िवेश्वर और उिके द्वारा िजृजत ब्र्माण्ड का जिैा वणमि समलता है, उिका आभाि िीचे ददए वणमि िे ककया जा िकता है :-

    वैददक शास्त्रों में ऋग्वेद िे भारतीय दश्िम व ववचार िबिे अधधक प्रभाववत हैं। अन्य वेदों में यज्ञ-याग, गीत-िंगीत और जाद-ूटोिा िरीखे खाि ववषयों के बारे में ही बताया गया है।

    सषृ्टि:

    एक िमय ववश्व जल-मग्ि था। धरती कहीं ददखाई िहीं पडती थी। उिमें चारों ओर गरम हवा बहती थी। िमी और गमी की अधधकता जीवधाररयों के जन्म के सलए उपयुक्त पररजस्थनत की अधधकता जीवधाररयों के जन्म के सलए उपयुक्त पररजस्थनत प्रस्तुत करती हैं। इि पररजस्थनत िे ववचारों को जन्म ददया, जजििे इच्छाको पैदा ककया। यह इच्छा ही निजीव को जीवधारी िे जोडती है। हमें जो प्राप्त िहीं होता है, उिको पािे की कोसशश करिे लगते हैं। यह िब रहस्यमय प्रनतत होता है। िवाल उठता है कक िजृष्ट के इि उपक्रम में देवताओ ंकी भूसमका क्या थी?

  • गरैमोजदू के तो उि िमय होिे का िवाल ही िही ंथा, लेककि ववद्यमाि भी उि िमय मौजदू िहीं थे। इि िजृष्ट में उि िमय ि तो वायुमंडल था और ि ही िुदरूस्थ स्वगम था। जो था, वह क्या था और कहाँ नछपा था? उिको कौि िुरक्षा प्रदाि कर रहा था? क्या जल जल था? अतल जल?

    उि िमय मतृ्यु और अमरता का अजस्तत्व िहीं था। ददि और रात में कोई अतंर िहीं होता था। वायु का अजस्तत्व ि होिे पर भी िवेश्वर अपिी दैवी शजक्तयाँ के बल पर श्वाि ले िकते थे। उिके अलावा उि िजृष्ट में कुछ भी िहीं था।

    प्रारम्भ में अधेँरा अधेँरे को ढँके था। उि निस्िीम िागर मे कुछ भी देखा-पदहचािा िहीं जा िकता था। िजृष्ट की तवपश िे ऎिा शून्य य याप्त था, जजिमें कुछ भी िहीं देखा जा िकता था। वह शून्य िबको अदृष्य बिाये था।

    इििे इच्छा को पैदा ककया। यह ववचार का प्रथम फल था। िंतों िे धचतंि-मिि के द्वारा ववचारों और इच्छाओ ंके मध्य इि िंबंध को जाििे का प्रयत्ि ककया। उन्होिे पाया कक यह जो ववद्यमाि भीं है, उिका ववद्यमाि के िाथ िाता ही था।

    अपिे तपोबल के बूते इि ऋवष-मुनियों िे अदृश्य जगत के इि ररश्ते को जाि सलया था। उन्होिे अपिी अतंदृजष्ट का दायरा और ज्यादा बढाया। उन्होिे पाया कक उि शून्य(अतंररक्ष) में भी िये िये ववचारों भावों को पैदा करिे वाली ऎिी अिेक शजक्तयाँ मौजदू है। शजक्तयाँ िीचे थी तो आवेग ऊपर अतंररक्ष में थे। इि िारे तत्त्वों और िजृष्ट के बारे में कौि िही बतला िकता है? कौि बतला िकता है कक इि िब का उदय कहाँ िे हुआ? इि िबके प्रकट हो जािे के बाद ही देवताओ ंका उद्भव हुआ। कौि बता िकता है कक वे आये कहाँ िे?

  • िजृष्ट का उदय कैिे हुआ? क्या इिका िजृि हुआ अथवा िही?ं िवोपरर बैठे वे प्रभु ही इि िबको देखिे वाले हैं। हो िकता है कक उन्हे पता होगा या िहीं भी हो िकता है।

    अष्ग्ि: अजग्ि को धरतीवािी देवता मािकर पूजा करते हैं। उिकी तुलिा पथृ्वी के जीवधाररयों के की जाती है। लकडी उिका भोजि है तो घी उिका पेय है। वे देवताओ ंके मँुह के िमाि हैं। यज्ञ-याग के दौराि आहुनतयों के रुप में जो भी देवताओ ंको चढाया जाता है, उिको वे अपिे अजग्ि रुपी मुख िे ग्रहण करते हैं। इिीसलए आग की लपटों को देवताओ ंकी जीभ मािा जाता है। उिका जन्म लकडी िे होता है। ज्ञातय य है कक िूखी लकडडयों को आपि में रगडकर अजग्ि पैदा की जाती है। लेककि अजग्ि एक बार प्रज्ज्वसलत होिे पर अपिी जन्मदाता लकडी को ही हजम कर देती है। ग्रहु देवता के िाते अजग्ि का घर ंमें "गहृ अजग्ि" रूप में स्वागत ककया जाता।

    अजग्ि को घर में देवताओ ंको आमंत्रत्रत करिे वाला कैिे िमझा जाता है?

    "मैं िामिे स्थावपत अजग्ि िे वविती करता हँू। इि धासममक कायम के पुरोदहत वही हैं। वही वरदायी है और देवताओ ंको इि शुभ कायम के पुरोदहत वही हैं। वही वरदायी है और देवताओ ंको इि शुभ कायम में उपजस्थत होिे का आवाहि भी वही करेगी।"

  • अजग्ि की इि क्षमताओ ंको देखते हुए भूतकाल िे ही ऋवष-मुनि उििे देवताओ ंको ऎिे शुभ कायों में मौजदू रहिे के सलए आवाहि करते रहें हैं और आगे भी एिी ही वविती करते रहेगें।

    अजग्ि के जररए य यजक्त धि-िम्पजत्त तथा कुशल िंताि प्राप्त करे।

    "ऎ अजग्ि, तुम ही यज्ञ और यज्ञ-कायम हो। तुम िभी ददशाओ ंमे ववद्यमाि हो। तुम्हारे माध्यम िे ही यहाँ पर दी जािे वाली आहुनतयाँ देवताओ ंतक पहँुच िकती हैं।"

    अजग्ि अन्य देवताओ ंिदहत स्वयम भी देवता है। उिमें ऋवषयों की क्षमता है तथा वही इि शूभ कायम में उपजस्थत रहिे के सलए देवताओ ंका आवाहि कर िकती है।

    "अजग्ि! अंधगरि रूप में तुम पुरोदहत पररवार की िदस्यता हो। तुममें पूजा करिे वाली की मिोकामिा पूरी करिे को िामथ्यम है।"

    "अजग्ि! तुम अधंकार में प्रकाश हो। हम श्रद्धा और भजक्त के िाथ ददि-प्रनतददि वविती के िाथ तुम्हारे िामिे उपजस्थत होते हैं। "

    "अजग्िदेव, तुम्ही इि यज्ञ के पालक हो तथा ब्र्माण्डीय नियमों का पालि करवािे वाले भी तुम्ही हो। तमु अपिे निवाि के प्रकाश-पुञ्ज हो।

    " हे अजग्िदेव, हमें अपिी िंताि िमझ कर हमारे िाथ वपता की भाँनत तुम स्दैव बिे रहो। तभी जाकर हमारा कल्याण िुनिजश्चत हो िकेगा।"

  • ईन्द्र :

    ईन्र आकाश के देवता हैं। वही रणके्षत्र के देवता भी हैं। उन्ही के बल पर धरती और स्वगम अलग-अलग रहते हैं। कभी-कभार वे पथृ्वी को कँपा भी देते हैं। वे बादलों के गजमि-तजमि के स्वामी हैं। वे अधंकार और अवषमण को िमाप्त करिे वाले हैं। वेदों में उिका अिेक बार उल्लेख आया है। वे मिुष्य और राज्य का दहत िुनिजश्चत करिे वाले देवता हैं। उन्होिे अवषमण रुपी अजगर को मार-काट ददया। उिी िे िददयों को बहिे िे रोक रखा था। उन्होिे ही िददयों को बहव रोकिे वाले पहाडों को िष्ट कर ददया, जजििे िददयाँ गौशाला में बँधी गायों की भाँनत उन्मुक्त होकर पथ पर निकल पडीं।

    इन्द्र दखुी व निर्धि लोगों, ब्राह्मणों और संगीतज्ञों के ललए क्या करतें हैं?

    जजन्हे बुवद्धमत्ता जन्म िे ही प्राप्त है, जो देवताओ ंमें प्रथम हैं, जो अपिी शजक्त िे दिूरे देवताओ ंको िुरक्षा प्रदाि करते हैं, जजिके पुरुषाथम िे दोिों िंिार भयभीत थे - ऎ लोगों, ऎिे देवता इन्र ही हैं।

    जजन्होिे अजस्थर धरती को जस्थर बिाया, डगमगाते पवमत को जजन्होिे अचल बिाया, जजन्होिे अतंरीक्ष को िाप डाला, जजन्होिे स्तम्भ के तौर पर स्वगम को जस्थर रखा- ऎ लोगो, ऎिे देवता इन्र ही हैं।

    जजन्होिे अजगर को मारकर िातों िददयों को उन्मुक्त ककया, जजन्होिे घेरे को तोडकर उिमें फँिी गायों को मुक्त ककया, जो दो चट्टािों के रगड्िे िे अजग्ि पैदा करते हैं, जो िभी युद्धों के ववजेता है- ऎ लोगों ऎिे देवता इन्र ही हैं।

  • जजिके बल पर िभी चीज ंको िक्रीय व िचल बिाया गया है, जजन्होिे खेल में ववजेता जुआरी की भाँनत दशु्मि पर अधधकार कर सलया है - ऎ लोगों ऎिे देवता इन्र ही हैं।

    जजिको भयंकर बताया जाता है, जजिके बारे मे लोग पूछते-कफरते हैं, "वह कहाँ है?" और कहते हैं," वह िहीं हैं।" जजन्होिे दशु्मि को पराजजत कर उिकी िम्पदा पर अधधकार जमा सलया है, उिमें पक्का भरोिा रखो -ऎ लोगों ऎिे देवता इन्र ही हैं।

    दीि-दखुखयों की जो मदद करते हैं, िहायता की भीख माँगिे वाले ब्रा्मणों व गायकों क जो मदद करते हैं, कदठिाइयों िे भी हार ि माििे वालों क जो िहायता करते हैं- उि मँूछधारी हस्ती को ऎ लोगो जाि लो कक वे इन्र ही हैं।

    घोडों, गायों, गाँवों और रथों पर जजिका अधधकार है, जजिके निदेश पर ही िूयोदय होता है तथा ऊषा काल होता है, जो िागरों में िवमशे्रष्ठ हैं- ऎ लोगों जाि लो कक वे इन्र ही हैं।

    रणके्षत्र में दोिों दशु्मि पक्ष जजिके आदेश पर लडते हैं और अलग-अलग हो जाते हैं, एक ही रथ के दोिों परस्पर ववरोधी रथी भी जजिकी अलग-अलग वविती करते हैं-ऎिे देवता इन्र ही हैं।

    जजिके त्रबिा कोई ववजय प्राप्त िहीं कर िकता, रणके्षत्र में जजिकी िहायता की िभी याचिा करते हैं, जजिमें हर ककिी को पराजजत करिे की क्षमता है, जजििे बहादरु िे बहादरु य यजक्त भी थरम-थरम काँपते हैं - ऎिे देवता इन्र ही हैं।

    पुरुष ब्रह्माण्डीय हस्ती:

  • यह ऋग्वेद की िवीितम रचिा है। पुरुष एक ऎिा ववशाल आकार है, जजििे ब्र्माण्ड और देवताओ ंका उदय हुआ है। ऎिा होिे पर भी उिकी भी देवताओ ंके सलए ककए जािे वाले यज्ञों में आहुनत दी जा िकती है। ब्र्माण्ड के स्वगम भाग के निवािी देवताओ ंका उद््व उिी िे हुआ। िाथ ही िजृष्ट के शषे भाग में ववद्यमाि जािदार तथा बेजाि प्राखणयों ब वस्तुओ ंका उद््व भी उिी िे हुआ है।

    मिुष्य िमाज की चार शीषमस्थ जानतयों - ब्रा्मण, क्षत्रत्रय, वैश्य और शूर - की उपज भी उिी िे हुई है। मिुष्य देह का कौि िा अगं ककि जानत िे जडुा है तथा उिका महत्व क्या है? उिमें िे प्रत्येक में क्या खाि बात है, जजिमें वह जानत ववशषे िे जडुा है?

    इि पुरुष के हजारों सिर, आखँें और पाँव हैं। वह अपिे दैत्याकार िे धरती को िभी ददशाओ ंिे घेरे हुए है। वह धरती के दि अगंलु ऊपर जस्थत है।

    अभी तक जो हो चुका है तथा आगे जो होगा, िब कुछ यह पुरूष ही है। वह अमरता प्राप्त िब कुछ का स्वामी है। आहुनत में ददए जािे वाले अन्ि पर वह बढ्ता है।

    कुछ ऎिी है- पुरूष की महािता। लेककि वह इििे भी बढकर है। िभी प्राणी उिके एक चौथाई हैं तथा स्वगम में ववद्यमाि अमर प्राणी उिके शषे तीि चौथाई है।

    उिका तीि चौथाई भाग स्वगम में चला गया तो शषे एक चौथाई इिी धरा पर रह गया। शषे एक- चौथाई में वह िभी जीवधारी -निजीव वस्तुओ ंमें फैला है।

  • उि निराकार िे िवेश्वर का रूप सलया, जजििे पुरूष का जन्म हुआ। जन्म हो जािे पर पुरूषका फैलाव धरती के आगे-पीछे िवमत्र हो गया।

    देवताओ ंिे यज्ञ में परुूष की बसल चढाई तो उिकी स्वच्छ मक्खि के रूप में बिंत, झाड-फँूि के तौर पर ग्रीष्म और आहुनत स्वरूप में पतझड आया।

    देवताओ ंिे प्रारम्भ में पुरूष के जन्म पर उिको आहुनत स्वरूप में पववत्र घाि पर नछडक ददया। उिके िाथ ही देवताओ ंिे उप-देवताओ ंतथा ऋवष-मुनियों को यज्ञ- अजग्ि में होम कर ददया।

    आहुनत के पूणमतया चढा ददये जािे के उपरान्त मक्खि के थक्क ंको इक्खट्ठा ककया। इििे वायु, वि और गाँव के जािवर पैदा हुए।

    इि आहुनत के पूणम हो जािे पर उििे ऋगवेद के मंत्रों और िामवेद के गीतों का उद््व हुआ। इििे ताल-छंद भी पैदा हुए। िाथ ही यजवेुद में वखणमत यज्ञ-भाग व पूजि की ववधधयों का िजृि हो गया।

    यज्ञ-अजग्ि िे घोडों का जन्म हुआ। उिके दोिों जबडों के दातँ दोिों ओर काटिे वाले थे। इिी अजग्ि िे गायें और भेड-बकररयाँ भी पैदा हुई।

    उन्होिे पुरूष को ववभक्त ककया तो ककतिे प्रकार िे आपि में बाँटा? उिका मँुह क्या? उिकी बाँहे क्या थीं? उिकी जाँघों और पाँवों को क्या घोवषत ककया गया?

    उिका मँुह ब्र्माण, बाँहें क्षत्रत्रय, जाँघ वैश्य थे तो पावों िे शरूों का जन्म हुआ था।

  • उिके मि िे चन््मा, आखँ िे िूयम, मँुह िे इन्र तथा अजग्ि और िाँि िे वायु का जन्म हुआ।

    उिकी िासभ िे हवा निकली, सिर िे स्वगम ववकसित हुआ और पावों िे धरती बिी। उिके कािों िे चारों ददशाएं बिीं। इि तरह िजृष्ट के ववसभन्ि िंिारों का उदय हुआ।

    उिके पाि िात आहुनत दजण्डकायें और िूखी लकडी के २१ गट्ठर थे। यज्ञ करते िमय देवताओ ंिे पुरुष पशु को बाँध ददया।

    इि तरह देवताओ ंिे होम ककया। यह शुरूआनत कक्रया थी। ये आहुनतयाँ अतंरीक्ष में पहँुच गई। वहाँ प्राचीि देवताओ ंव उप-देवताओ ंका निवाि है।

    यजवेुद

    ’यजवेुद’ शब्द ’यजिु’ (पूजि ववधध) और ’वेद’ (ज्ञाि) के मेल िे बिा है। इि प्रकार इिका अथम पूजा-पाठ करिे की ववधध का ज्ञाि करािे वाला ग्रथं हुआ। यह दहन्दओु ंके चार वेदों में िे एक है। ये दहन्दओु ंके िवोच्च धासममक ग्रथं हैं। यजवेुद िंदहता में वैददक काल के दौराि पूजा-पाठ में प्रयुक्त मंत्र तथा ववधधयाँ दी गई हैं। इि वेद में िोमयज्ञ, वाजपेय यज्ञ, राज्िूय यज्ञ और अश्वमेघ यज्ञ िरीखे िभी यज्ञ्पं ववषयक मंत्र तथा पजूि- ववधध दी गई है।

    यजवेुद की कृष्ण और शुक्ल दद प्रमुख िंदहतायें हैं। तैत्तरीय िंदहता कृष्ण यजवेुद मे हैं और बहृदारण्यक िंदहता शुक्ल यजुवेद में है। अद्वैत दशमि में ववश्वाि रखिे वालों के सलए अजवेुद प्रधाि धममग्रंथ है।

  • यजवेुद की दोिो ककस्मों में पूजा-पाठ की ववधध ववषयक मंत्र ददये गये हैं। कृष्ण यजवेुद में इि मंत्रों के िाथ ही पूजि ववधध क िुस्पष्ट करिे वाला गद्य भाग भी ददया गया है, जजिको ’ब्रा्मण’ कहा गया है। उिी तरह शुक्ल यजवेुद के िाथ भी ’ित्पथ ब्रा्मण’ ददया गया है।

    शुक्ल यजुवेद की दो लगभग िमाि शाखायें हैं। उन्हे ’वाजष्णेयी िंदहता’ भी कहते हैं। वे इि प्रकार हैं :-

    १. वाजष्णेयी मध्याजन्दिीय

    २, वाजष्णेयी कण्व

    ककिी भी ’सिद्धान्त’ में इिका होिा जरूरी है- ’िूत्र’, ’भाष्य’ तथा ’वानत मक’(अथम को िुस्पष्ट करिे हेतु दटप्पणी) अद्वैत सिद्धान्त में वानत मककार िे तात्पयम िुरेश्वराचायम िे होता है। वे आदद शंकर के चार प्रमुख सशष्यों में िे एक थे। उिको कण्व शाखा को माििे वाला बताया जाता है, जब कक गरुु स्वयं आपस्तम्ब कल्पिूत्र की तैत्तरीय शाखा के अिुयायी थे।

    शुक्ल यजुवेद के दो उपनिषद हैं ईशा भाष्य’ तथा बहृदारण्यक उपनिषद। िभी उपनिषदों में बहृदारण्यक उपनिषद िबिे अधधक ववस्ततृ है।

    ’वाजष्णेयी िंदहता में ४० अध्याय हैं। उिमें िीचे ददये अिुिार ववसभन्ि कममकाण्डों ववषयक िूत्र ददये गये हैं:- अध्याय कममकाण्ड

  • १ िे २ पडवा का चांद और पूखणममा।

    ३ अजग्िहोत्र ।

    ४ िे ८ िोमयज्ञ।

    ९ िे १० िोमयज्ञ के दो रुप-वाजपेय तथा राजिूय।

    ११ िे १८ ववसभन्ि यज्ञों के सलए वेदी व चूल्हे का निमामण।

    १९ िे २१ िूत्रमखण-िोम पेय के ज्यादा पीिे िे होिे वाली बुराईयों के निराकरण के सलए पूजा।

    २२ िे २५ अश्वमेघ ।

    २६ िे २९ ववसभन्ि कम्कामण्डों के सलय अिुपूरक िूत्र।

    ३० िे ३१ पुरूषमेघ ।

    ३२ िे ३४ िवममेघ।

    ३५ वपतयृज्ञ

  • ३६ िे ३९ प्रवज्ञम।

    ४० आखखरी अध्याय प्रसिद्ध ’ईशा उपनिषद’

    ये ४० अध्याय ४० िस्कारों के िमाि हैं, जजिका ववस्तारपूवमक वणमि बाद में ककया जायेगा।

    कृष्ण यजुवेद की चार शाखायें हैं, जो इि प्रकार हैं:-

    १. तैजत्तरीय िंदहता, मूलत: पांचाल की।

    २. मैत्रयेाणी िंदहता, मूलत: कुरुके्षत्र के दक्षक्षण के्षत्र की।

    ३. चरक- कथा िंदहता, मूलत: मथुरा और कुरुके्षत्र की।

    ४. कवपस्थला-कथा िंदहता, मूलत: दक्षक्षणी पंजाब की।

    इिमें िे प्रत्येक शाखा िे एक ब्रा्मण जडुा था या अभी भी जडुा है। िाथ ही इिमें िे अधधकांश िे श्रोतिूत्र, गृ् मिूत्र, आरण्यक, उपनिषद और प्रनतशाख्या िंबंधधत हैं।

    तैष्ततरीय शाखा

    इि शाखाओ ंमें िबिे अधधक प्रचसलत तैजत्तरीय शाखा है। यही शाखा अभी तक िबिे ज्यादा िुरक्षक्षत भी है। इिका िाम यस्क के सशष्य तैजत्तरी के िाम पर

  • पडा। इिमें िात पुस्तकें या काण्ड शासमल हैं। हर काण्ड कुछ अध्यायों में बँटा है। इन्हें प्रपातक भी कहते हैं। इि अध्यायों को ववषय के अिुिार अिुभागों में ववभाजजत ककया गया है।

    इि िंदहता में शासमल कुछ श्लोक ववशषे महत्व के कारण ज्यादा प्रचसलत हैं। इिमें श्लोक ४.५. और ४.७ में ’रुरम चमकम’ आता है; जबकक १.८.६ में शैव िम्प्रदय के लोगों का ’त्र्यम्बकम’ मंत्र’ ददया गया है। ऋग्वेद के मंत्रों के आगे जुडिे वाल िूत्र ’भूर भुव: िुव:’ भी यजवेुद िे ही है। कुष्ण यजवेुद का तैजत्तरीय िंशोधधत िंस्करण दक्षक्षण भारत में िवामधधक प्रजच्लत है। इि शाखा के अिुयानययों में आवस्तम्ब िूत्र ज्यादा प्रचसलत है।

    तैजत्तरीय शाखा में तैजत्तरीय िंदहता (िात काण्ड), तैजत्तरीय ब्रा्मण (तीि काण्ड), तैजत्तरीय आरण्यक (िात प्रश्ि - िंदभम आरण्यक िादहत्य), तैजत्तरीय उपनिषद (तीि प्रश्ि या वल्ली - सशक्षा वल्ली, आिंद वल्ली और भगृ ुवल्ली) तथा महािारायण उपनिषद। तैजत्तरीय उपनिषद तथा महािारायण उपनिषद को आरण्यक का िातवाँ, आठवाँ, िौवाँ और दिवाँ प्रश्ि मािा जाता है, वैददक िादहत्य में ’प्रापतक और काण्ड’ को परस्पर एक-दिूरे के सलए उपयोग ककया जाता रहा है। ’प्रश्ि’ और ’वल्ली’ का िंबंध आरण्यक के ववभागों िे है।

    सामवेद

    ’िाम’ का शाजब्दक अथम ’शांनत’ होता है। शांनत की दशा में ही िुख आिंद का एहिाि ककया जा िकता है।शांनत पािे के सलए िाम, दाम, दंड और भेद चार तरीके बताए गए हैं। इिमें िाम प्रथम है। इिमें दिूरे को पे्रम और स्िेहपूणम य यवहार व बोल-चाल िे जीता जाता है। इि हेतु ऋकों को छंद व ताल में डाला जाता है,

  • जजििे श्लोकों के वाचि में िंगीत की मधुरता आये। इििे गायक के िाथ ही श्रोता को भी आिंद समलता है। िामवेद में ७५ मंत्रों को छोडकर वही मंत्र हैं जो ऋग्वेद में मौजदू हैं। िाम गाि को िंगीत के िप्त स्वरों का आधार कहा जा िकता है। ये िात िुर ही भारतीय िंगीत शास्त्र के आधार हैं।

    ’िामवेद’ शब्द ’िाम’(स्वरमाधुयम)+ ’वेद’(ज्ञाि) के मेल िे बिा है। यह चार वेदों में तीिरा है। यह वेद ईश- भजिों का िंग्रह (िंदहता) है। इिमें ऋगवेद के िम्पूणम या आसंशक रूप में ७५ छंद और लय के िाथ गाया जाता है, जजि दौराि अराध्य को दगु्ध समधश्रत िोमरि की आहुनतयाँ दी जाती है।

    प्रमुखतया ऋग्वेद िे सलए गए इि ईश-भजिों का क्रम अविर व आराध्य के अिुिार बदला भी गया है। इिमें कभी कभार क्रम के अलावा उच्चारण में भी फ़कम आ गया है। उदाहरण के सलए कभी कभी ’ए’ के सलय ’ऎ’ का उप योग ककया गया है। लय और ताल के जररया िे ही ऎिा ककया गया है। यदा-कदा शब्दों के िमूह को स्वर- माधुयम के सलहाज िे बार-बार दहुराया भी जाता है।

    अथवधवेद

    ’अथवम’ का अथम ’पुरोदहत’ है। कहा जाता है कक उि िाम के एक ऋवष थे। मािा जाता है कक अथवमवेद की रचिा प्रमुखतया दो ऋवष-िमूहों िे की - अथवमि तथा अगंीरि। इिी वजह िे इिका िबिे पूरा िाम ’अथवाांगीरिा’ था। उत्तर वैददक गोपद ब्रा्मण में इिके रचनयता भगृ ुऋवष तथा अगंीरि ऋवष बताये जाते हैं। िाथ ही कहा जाता है कक इिके कुछ अंगों के रचनयता कैसशक, वसशष्ठ और कश्यप ऋवष भी थे। अभी भी इिकी दो शाखायें मौजदू हैं - शौिकीय एवम वपप्पलाद।

  • इिमें देवताओ ंववषयक कुछ ऎिे मंत्र मौजदू हैं जो अन्य वेदों में िही हैं। इिमें काली शजक्तयों िे बचाव, कदठिाइयओ ंको पार करिे तथा दशु्मिों के वविाश ववषयक अिेक मंत्र हैं। इिमें ’पथृ्वी िूक्तम" भी है, जजिमें पथृ्वी की चमत्काररक िजृष्ट का वणमि है।

    ब्र्मा को यज्ञों को िम्पन्ि करिे के कायम की देख-रेख करिे वाला मािा जाता है। प्रश्ि, मंुडक और माण्डूक्य उपनिषद भी इि वेद के अगं हैं। ’मुमुकु्ष’ (ित्य का िाधक) माण्डूक्य उपनिषद के निदेशों पर चलते हुए मोक्ष प्राप्त कर िकता है। मात्र इिी ववशषेता िे अथवमवेद के महत्व का अिुमाि लगाया जा िकता है।

    गायत्री मंत्र को िबिे बडा मंत्र मािा जाता है। वह ऋग, यजरु, और िाम तीिों वेदों का िार है। इि तीिों वेदों के प्रतीक रूप में इि मंत्र के तीि पद हैं। अथवम का एक मंत्र ववशषे भी है, जजिमें दीक्षक्षत होिा अथवमवेद के अध्ययि के सलए आवश्यक है। उिके उपरान्त ही इि वेद का पठि- पाठि ककया जा िकता है। इि िमय अथवमवेदी पंडडत बहुत छोटी िंख्या में हैं।

    अथवमवेद पररसशष्ट में िलाह दी गई है कक अथवमवेद के मौड और जलद ववचारधाराओ ंवाले पुरोदहतों िे अय वल तो काम ि सलया जाये और यदद उिकी िेवाऎ ंलेिी आवश्यकीय ही हों तो नियमािुिार पूजा-पाठ िुनिजश्चत ककया जाये। गभामवस्था में मदहलाओ ंको िल्लह दी गई है कक वे अथवमवेद के अिुिार लडाई ववषयक मंत्रों के गायि के िमय दरू ही रहें; क्योंकक मंत्र-गायि की आवाज उिके कािों में पड जािे के फलस्वरूप गभमपात की िंभाविा हो िकती है।

    चारों वेदों में िे ककिी का यह कथि िही है कक ’सिफम यही मागम है। िाथ ही कोई धमम भी अलग-अलग तौर-तरीके अपिािे की िल्लह िहीं देता है। यही वेदों की

  • महािता है। वैिे अथवमवेद भी मूलत: अन्य वेदों ऋग्वेद और अजवेुद के िमाि है, तथावप वह कुछ बातों में एक अलग ही दृजष्टकोण अपिाता है। उदाहरणत: उपचार और जाद-ूटोिे के बारे में उिमें िमाज में प्रजच्लत रीनत-िीनत को भी अपिाया गया है।

    अथवमवेद को अन्य वेदों की तुलिा में कम महत्व ददया जाता है; क्योंकक इिका उपयोग कम ही ककया जाता है। इिका इस्तेमाल बहुधा श्रोत (गंभीर) कममकाण्डों में ही ककया जाता है। ब्रा्मण परुोदहत कममकाण्ड की प्रगनत के िमय चुप रह कर देखता रहता है। प्रकक्रया में कोई गलती होिे पर वह दो मंत्रों के उच्चारण के िाथ यज्ञ-अजग्ि में घी की आहुनत के िाथ उि दोष का िंशोधि करता है। यद्यवप यह वेद काफी पुरािा है, तथावप इिके रहस्यमय एवं गढू होिे के कारण इिका अथम िुस्पष्ट िहीं है।

    इि वेदों के आरण्यक अगं उिके गढू एवम आतंररक दाशमनिक महत्व को स्पष्ट करते हैं। इि दशमि को उिकी िंदहता में मंत्रों के स्वरूप में तथा ब्रा्मण में कमम रूप में ददया गया है। आरण्यकों में यज्ञों के महत्व को िुस्पष्ट ककया गया है।

    कई लोगों के मतािुिार अथवमवेद मुख्यतया जाद-ुटोिे और रहस्यमय व गोपिीय ज्ञाि िे िंबंधधत वेद है। इिके रहस्यपूणम ज्ञाि ववषयक महाभारत में एक आख्याि आता है, जब पांड्वों को १३ िालों का विवाि ददया जाता है। इि पर भीम िे कुवपत होकर अपिे बड ेभाई यधुधजष्टर को िुझाव ददया कक अथवमवेद की मदद िे क्यों ि "िमय को िंकुधचर कर १३ ददिों में बदल ददया जाये।"

    इि चारों वेदों के निम्िािुसार छ: अगं हैं:-

  • १. सशक्षा २. य याकरण ३. छन्द ४. निरुक्त (शब्द ववन्याि) ५. ज्योनतष ६. कल्प (कायम-पद्धनत)

    इि अगंों के चार उपांग होते हैं, जो निम्िवत हैं:-

    १. मीमांिा (वववेचिा) २. न्याय (तकम ) ३. पुराण ४. धमम-शास्त्र(आचार -य यवहार का तरीका)

    इि उपांगो को भी निम्िािुिार वगीकृत ककया गया है।

    १. आयुवेद २. अथमशास्त्र ३. धिुववमद्या ४. गांधवम-ववद्या (िंगीत, ितृ्य, असभिय, आदद ववषयक ज्ञाि)

    इि तरह वेदों का अगंों और उपंगों में वगीकरण ककया गया, जजिकी कुल िंख्या १४ है। इि चौदहों को ववद्या-स्थाि कहते हैं। यह िभी ज्ञाि और बुवद्ध िे भरपूर हैं। चारों वेद दहन्द ुधमम के जीवि-प्राण हैं।

  • वेदों को िमय के सलहाज िे ’अिादद’ कहते हैं, अथामत इिके प्रारम्भ का कोई पता ही िहीं है। वे िभी िमय ववद्यमाि रहे हैं।

    वेदों को ऋवषयों िे ढँूढा। वास्तव में वे रचनयता ि होकर सिफम दृष्टा थे। अपिी ददय य दृजष्ट िे उन्होिे वेदों को देखा। वेदों में िमझदारी एवम बुवद्ध के खजािे िूक्त रूप में भरे पड ेहैं। बताया जाता है कक उिके रचनयता पूवम में अिेक िंत हो चुके हैं। ईश्वर तथा वेद पूवम िे ही ववद्यमाि रहे हैं। उिके रचिाकार भगवाि भी िहीं थे। बहृदाराण्यक उपनिषद का कथि है कक चारों वेद भगवाि के श्वाि-प्रश्वाि ही हैं।

    वेदों को शु्रनत (िुिा हुआ) कहा जाता है तो कािों को ’श्रोता’ (िुििे वाला) कहते हैं। वेदों को पढिे की एक खाि ववधध है, जजििे उिका उच्चारण, आरोह-अवरोह आदद एकदम िही रहे। यह वेदों की पाविता को िुरक्षक्षत रखिे के सलए ही ककया जाता था। ’पद पाद्यम’ अनत जरूरी िमझा गया। ये वे तरीके हैं, जजििे पढिे में कोई दोष ि रह जाये और इि प्रकार प्राप्त ज्ञाि की शे्रष्ठता में कोई किर ि रहे।

    वेद ’अिंत’ (अतं के त्रबिा) हैं। उिमें ददये गये मंत्रों को ऋवष-मुनियों में लम्बी तपस्या के उपरान्त प्रकट ककया है। वेदों को पढिे में उिके िही उच्चारण को बहुत जरूरी मािा जाता है। उिी िे पढिे वाले के मि-मजस्तष्क में िही भाव उत्पन्ि होंगे। वैिे ही भाव िुििे वालों में भी पैदा होंगे, जजििे िारा िमाज प्रभाववत होगा। ब्रा्मण का कतमय य वेद-मंत्रों को गाले हुए उिका त्रदुटरदहत उच्चारण करिा है। उिको पढिे की िेनिजश्चत ववधध है। उिके िाथ ही मि-बुवद्ध की पाविता भी जरूरी है। इि प्रकक्रया में वविरताता िबिे पहली शतम है।

    वेदों की ववशषेतायें

  • १. उिका कोई आदद िहीं है। २. उिका कोई अतं िहीं है। ३. उिकी रचिा ककिी मिुष्य िे िहीं की है। ४. वे िारी िजृष्ट के मूल हैं। ५. उिको पढिे िे जो आवाज निकलती है, उििे य यजक्त और वातावरण दोिों प्रभाववत हो जाते हैं। ६. वेदों में वखणमत िामूदहक कल्याण कामिा सिफम मिुष्य िमाज तक िीसमत ि रह कर पशु-पक्षक्षयों और पेड-पौधों के सलए भी की गई है। ७. वेदों में पशु-पक्षक्षयों एवम विस्पनत के भले की जजतिी कामिा की गई है, उतिी ककिी अन्य धमम के अतंगमत िहीं की जाती है। ८. वेद फल-फूल एवं विस्पनत के कल्याण की कामिा के िाथ ही पहाडों, िदी_िालों िदहत िकल िजृष्ट की मंगल कामिा भी करते हैं।

    यज्ञ (पूजा अचधिा)

    वेदों में दी गई पूजा अचमिा के ववसभन्ि तौर तरीकों में यज्ञ को िबिे ज्यादा महत्व ददया गया है। दिूरे धमों में यज्ञ िरीखी ववधध का कोई स्थाि िहीं है। दहन्द ुधमम वेदों पर आधाररत होिे के कारण इिको ’वैददक मठ’ भी कहते हैं। यज्ञ प्रधाितया होम हैं, जजिके अतंगमत अजग्ि में अन्ि आदद की आहुनतयाँ दी जाती हैं। यज्ञ िभी देवी देवताऒ ंको प्रिन्ि करिे के सलए ककए जाते हैं, जजििे वे अपिी आशीष प्रदाि करें। यज्ञ नि:स्वाथम भाविा िे ककया जािे वाला बसलदाि है।

  • यज्ञ के लाभ

    १. य यजक्त के स्वयं के तथा िमाज में दिूरों के कल्याण को िुनिजश्चत करिा। २. मतृ्यु उप्रान्त देव-लोक में आिंदपूवमक रहिा। ३. स्वयं का आत्म-िाक्षात्कार एवम तदिन्तर मोक्ष िुनिजश्चत करिा।

    आदद शंकर स्वरधचत ’मनिष पंचकम’ में रहते हैं, "जीवि मुक्त को जजतिा आिंद समलता है, इन्र को उिका अशं भर भी प्राप्त िहीं हो िकता है।" इिसलए उिकी िलाह थी कक वेदों का निरंतर अध्ययि ककया जाये तथा उिमें ददये गये कममकाण्ड पूणम निष्ठा के िाथ ककए जायें (वेदों नित्यम अध्यीयताम, तददुीतम कमम स्वािुष्टीयताम।"

    मंत्रों की टीकायें, जजन्हें ब्रा्मण या ’पूवम मीमांिा’ भी कहते है, ज्ञाि के बारे में बताती हैं।यह ज्ञाि आध्याजत्मक एवम दाजश्िमक दोिों हैं। यही ज्ञाि आरण्यकों और उपनिषदों में भी समलता है। इिको ’उत्तर मीमांिा’ भी कहते हैं।

    उपनिषद

    िंदहता को वकृ्ष के िमाि मािा जाये तो ब्रा्मण उि वकृ्ष के फूल, आरण्यक फल और उपनिषद पके फल हैं। केवल उपनिषदओ ंिे मोक्ष प्राजप्त में िहायता समलती है।

    उपनिषदों में ददए गए चंद महावाक्य:-

    ऎतरेय उपनिषद - प्रज्ञािम ब्र्म (िवोच्च ज्ञाि ही ब्र्म है)। बहृदराण्यक उपनिषद - अहम ब्र्माजस्म’ (मैं ब्र्म हँू)

  • तैजत्तरीय उपनिषद - ’तत त्वम असि’ (तुम वह ब्र्म हो)

    माण्दकू्य उपनिषद - ’अयम आत्मा ब्र्मा’ (अतंवामिी आत्मा ही भगवाि है)। शंकराचायम िे ’िोपाि पंच्कम’ में अध्यात्म के िाध्कों के सलए पाँच जरूरी बातें बताई हैं:-

    १. वेद का अध्ययि तथा गायि। २. नियसमत रूप में ववसभन्ि कममकाण्ड िम्पन्ि करिा। ३. महावाक्यों को अपिे आच्रण में लािा। ४. उि पर निरंतर धचतंि-मिि करिा। ५. ब्र्म का बोध करिा।

    उपनिषदों में वेदों का िार है। इिीसलए उिको ’वेदांत’ भी कहा गया है। आधुनिक ववज्ञाि ववसभन्ि प्रयोगों के आधार पर जजि निष्कषों पर पहँुचा है, उपनिषदों के निष्कषम भी लगभग वैिे ही होते हैं। लेककि उिके निष्कषम दैवी धचतंि-मिि एवं तप के आधार पर ही होते हैं। उदाहरणत: उपनिषद भी कायम-कारण िंबध को मािते हैं। यह िंबन्ध िमय एवम दरूी के आधार पर होता है। ववज्ञाि जहाँ इि निष्कषम पर प्रयोगों के आधार पर पहँुचा है, उपनिषद आत्मिुभव के फलस्वरूप ही इि पररणाम पर पहँुचे। यह उपनिषदों का जीवि के सलए िवोच्च िंदेश है। यही वेदों का िार भी है।

    वेदों के इि स्पष्टीकरण िे कमम-फल की ित्यता उज्जागर हो जाती है। इिी के आधार पर अपरम िगणु के सलए मोक्ष प्राजप्त िंभव हो िकती है। इिीसलए वेद अध्ययि, अ्याि, प्रयोग और अिु्व के आधार पर जीवि के उत्थाि की िलाह

  • देते हैं। वेदों की सशक्षाओ ंको अपिे आचरण में उतारिा ही धमम का पालि और धासममक जीवि त्रबतािा है।

    कमम क्या है? ’कमम’ शब्द ’कर’ और मागम के योग िे निकला है। ’कर’ का अथम हाथ या िूरज की ककरण होिा है। इििे जो काम होता है, वही मागम बिता है। ’जिेै करोगे, वैिा भुगतोगे’। ’मागम’ के दो अथम होते है - प्रथम, य यजक्त के कमम ही उिका मागम बिाते हैं। द्ववतीयत:, य यजक्त द्वारा चुिा गय्ला रास्ता ही उिका मागम बिता है।

    पहली अवस्था में य यजक्त अिजािे ही कमम कर लेता है। कमम को करिे िे ही उििे स्वयं के सलए कमम-फल तैयार कर ददया। अपिे द्वारा होिे वाले कमम के फल को उिको इिी जीवि में या आिे वाले जीविों में भुगतिा ही होगा। दिूरी जस्थनत में य यजक्त िे जािे-अिजािे ही कोई कमम बि पड्रा है। कभी कभार िांिाररकरा और उिके आकषमणों के आधार पर ही ऎिे काम बि पडते हैं। कमों के फलस्वरूप बििे वाले मागमकी तीि ककस्में होती हैं - प्रारब्ध कमम, िंधचत कमम और आगामी कमम।

    प्रारब्ध और िंधचत कमम िमाि अथी प्रतीत होते हैं। उिमें बहुत थोडा भेद होता है। प्रारब्ध का मतलब पूवम-जन्म के दौराि ककये कामों के पररणाम, जजन्हे भववष्य में भुगतिा होगा। ये पररणाम उिके कमों के आधार पर िकरात्मक और िकारात्मक दोिों होते हैं। दिूरी ओर िंधचत कमम केवल भले कामों या उच्च ववचारों के आधार पर ही होत ेहैं, जजिका फल आगे जीवि में भुगतिा पडगेा। आगामी कमम आगे आिे वाले जीवि में ककये जािे वाले कामों को कहते हैं। उिका फल भी आिे वाले िमय में ही भुगतिा होगा।

  • िंधचत कमों को ’काम्य कमम’ और ’निष्काम्य कमम’ दो वगों में बाँटा जाता है। काम्य कमम रोजमराम के जीवि में ककये जािे वाले िामान्य कमम हैं। उन्हें फल की आशा िे ककया जाता है। निष्काम कमम प्रमुखता अतंपे्ररणा के आधार पर होते हैं, जजिके फल की कोई आशा न्हीं की जाती है। ऎिे कामिा रदहत भाव िे ककये जािे वाले काम ’निष्काम’ शे्रणी में आते हैं। उन्हे आत्मा, देह और उिके अगंों में िामंजस्य स्थावपत करिे और इि प्रकार नियंत्रत्रत करिे के सलए ककया जाता है। ऎिे कमों को करते हुए य यजक्त को दैवत्व का बोध होता है।

    कमम की उत्पजत्त कैिे हुई? वेदों को परमेश्वर की िाँि मािा जाता है। इिको प्राण-वायु या ववचार भी कहा जाता है। ववचार अपिे आप मेम कमम ही है। परमेश्वर के ववचार दो प्रकार के होते हैं :-

    १. भगवाि के ’निष्काम्य कमम’ का कथि है, " मैं ववद्यमाि हँू।" लेककि ब्र्म तो निराकार हैं। कफर " मै ववद्यमाि हँू" कहिे वाला कौि है या इिका तात्पयम क्या हुआ? इिके पूवम कहा गया है कक "मैं" देह के सलए आया है। परन्तु वे िवेश्वर तो निराकार हैं। इिसलए यहाँ पर "मैं" चैतन्य आया है। वे िवेश्वर अिुभव कर िकते हैं तथा जािते हैं कक आत्मा उिका चैतन्य ही है। दिूरी ओर िाधारण जीवों के सलए "मैं" उिकी देह है तो िवेश्वर का यह चैतन्य ही उिका "निष्काम्य कमम" है।

    २. िवेश्वर के ववचारों की दिूरी जस्थनत ’काम्य कमम’ है। इिका पररणाम कममफल होता है। निस्िन्देह उिकी इच्छा व िंकल्प के फलस्वरूप ही उिकी िजृष्ट हुई। िजृष्ट पंच-भूतों िे निसममत है। उन्ही िे इि िंिार, उिके िदी िाले, पहाड-घादटयाँ, पेड-पौधे और जीवों का उद्भव हुआ। इि िभी के नियत ढंग िे कायम करिे के सलए

  • उन्ही िवेश्वर िे नियम व मािदढ तय ककये, जजििे उिके काम्य कमम रूपी ववचार के अिुिार पररणाम प्राप्त हो िकें ।

    कमम फल सिद्धान्त में प्रयोग और उििे प्राप्त अिुभवों को महत्व ददया जाता है। िवेश्वर िे निकले ववचारों में भी इिे माि जाता है। उिके एक ववचार में िजृष्ट मेम ववद्यमाि चैतन्य का उल्लेख है तो दिूरे ववचार में उि चैतन्य के स्वरूप (देह) का ववश्लेषण है। उदाहरण के सलए, वे अपिे िे प्रकट ववचार के माध्यम िे, जो उिके स्वरूप ले चुका है, स्वयं के बारे में जाििा चाहते हैं। वे प्रभु "मैं ववद्यमाि हँू" जस्थनत में अपिे ववषय में तो िहीं जाि िकते हैं, लेककि जब वे अिेक स्वरुपों और गणुों में प्रकट होते हैं तो ववचार के प्रयोग और अिुभव प्राजप्त पहलुओ ंके बारे में जाि िकते हैं। पहली जस्थनत में वे प्रभु निराकार और निगुमण हैं तो दिूरी हालत में अपरम िगणु हैं।

    िवाल उठता है कक भगवाि में यह द्वैधता क्यों है? यह सिफम अपिे बारे में जाििे के सलए है। निराकार-निगुमण जस्थनत में वे िवमिम्पन्ि एवम पररपूणम हैं, जजिमें जाििे को कुछ िही रह जाता है। अपिे चैतन्य स्वरूप तथा " मैं ववद्यमाि हँू" जस्थनत को जाििे के सलए वे अपरम िगणु जस्थनत में अिेक रूपों व गणुों वाले रूप धारण कर लेते हैं। इि अिेकता में प्रभु इि स्वरूपों के बारे में जािते हैं तथा उििे प्राप्त ववचारों का अिुभव लेते हैं। तदिुिार प्रभु इि जजंाल िे मुक्त होकर पुि: अपिे निगुमण-निराकार स्वरूप में आ जाते हैं।

    कफर भी िवेश्वर " मैं ववद्यमाि हँू" जस्थनत और अिेक रूपधारी चैतन्य की द्वैधता बिाये रखते हैं। इि दोिों जस्थनतयों में वे निरंतर िंतुलि बिाये रखते हैं। िंतुलि के गडबडा जािे िे अिेक िंकट पैदा हो िकते हैं।

  • प्रश्ि पैदा होता है कक यह द्ववधता क्यों जरूरी है? इिके िीचे ददये गये कारण हो िकते हैं:-

    १. वह निराकार- निगुमण कमम-फल सिद्धान्त िे जकड ेजीवों का स्वरूप धारण कर िगणु-िाकार बि गया है, जजििे उिको अपिी क्षमताओं का बोध हो िके।

    २. वैिे तो उि निराकार को अपिी क्षमताओं को देखिे भर के सलए स्वरूप धारण जर प्रकट होिे की आवश्यकता िहीं है, तथावप िगणु-िाकार रुप में अपिी िजृष्ट के ववसभन्ि जीवों के सलए बिाये गये नियमों का कक्रयान्वयि को देखिे और उिका अिुपालि िुनिजश्चत करिे के सलए उिका यह कदम आवश्यकीय हो जाता है, जजििे इि जीवों की धरा पर मौजदूधग बिी रहे।

    प्रभु के अवतार लेकर धरा पर उतरिे हेतु दिूरी वजह ज्यादा प्रभावकारी प्रतीत होती है। प्रभु का अवरार लेिा भी उिकी निराकार-निगुमण जस्थनत का िाकार-िगणु स्वरूप में बदलिा है।