bhagavad gita sanskrit ppt

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NAME: ARUN KUMAR NAYAKCLASS : X-AROLL NO:- 35 TOPIC: BHAGAVAD GITA SLOKASSUBJECT TEACHER: SURENDRA DASH

SANSKRIT PROJECTWORK

भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः ।यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामिम हिहतकाम्यया ॥

भावार्थ� : श्री भगवान् बोले- हे महाबाहो! हि&र भी मेरे परम रहस्य और प्रभावयुक्त वचन को सुन, जि,से मैं तुझे

अहितशय प्रेम रखने वाले के लिलए हिहत की इच्छा से कहूँगा|

न मे हिवदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्ष:यः ।अहमादि<र्हिह> <ेवानां महर्ष?णां च सव:शः ॥

भावार्थ� : ,ो मुझको अ,न्मा अर्थाा:त् वास्तव में ,न्मरहिहत, अनादि< (अनादि< उसको कहते हैं ,ो आदि< रहिहत हो

एवं सबका कारण हो) और लोकों का महान् ईश्वर तत्त्व से ,ानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान् पुरुर्ष संपूण: पापों से मुक्त हो ,ाता है |

बुजिMज्ञा:नमसम्मोहः क्षमा सत्यं <मः शमः ।सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥अहिह>सा समता तुमिQस्तपो <ानं यशोऽयशः ।भवन्तिन्त भावा भूतानां मत्त एव पृर्थाग्विTवधाः ॥

भावार्थ� : हिनश्चय करने की शलिक्त, यर्थाार्था: ज्ञान, असम्मूढ़ता, क्षमा, सत्य, इंदिXयों का वश में करना, मन का हिनग्रह तर्थाा सुख-दुःख, उत्पत्तित्त-प्रलय और भय-अभय तर्थाा अहिह>सा, समता, संतोर्ष तप (स्वधम: के आचरण से इंदिXयादि< को तपाकर शुM करने का नाम तप है), <ान, कीर्हित> और अपकीर्हित>- ऐसे ये प्रात्तिणयों के नाना प्रकार के भाव मुझसे ही होते हैं |

महर्ष:यः सप्त पूव] चत्वारो मनवस्तर्थाा ।मद्भावा मानसा ,ाता येर्षां लोक इमाः प्र,ाः ॥

भावार्थ� : सात महर्हिर्ष>,न, चार उनसे भी पूव: में होने वाले सनकादि< तर्थाा स्वायम्भुव आदि< चौ<ह मनु- ये मुझमें भाव वाले सब-के-सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं, जि,नकी संसार में यह संपूण: प्र,ा है |

एतां हिवभूहित> योगं च मम यो वेत्तित्त तत्त्वतः ।सोऽहिवकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥

भावार्थ� : ,ो पुरुर्ष मेरी इस परमैश्वय:रूप हिवभूहित को और योगशलिक्त को तत्त्व से ,ानता है (,ो कुछ दृश्यमात्र संसार है वह सब भगवान की माया है और एक वासु<ेव भगवान ही सव:त्र परिरपूण: है, यह ,ानना ही तत्व से ,ानना है), वह हिनश्चल भलिक्तयोग से युक्त हो ,ाता है- इसमें कुछ भी संशय नहीं है |

अहं सव:स्य प्रभवो मत्तः सवm प्रवत:ते ।इहित मत्वा भ,न्ते मां बुधा भावसमन्तिन्वताः ॥

भावार्थ� : मैं वासु<ेव ही संपूण: ,गत् की उत्पत्तित्त का कारण हूँ और मुझसे ही सब ,गत् चेQा करता है, इस प्रकार समझकर श्रMा और भलिक्त से युक्त बुजिMमान् भक्त,न मुझ परमेश्वर को ही हिनरंतर भ,ते हैं |

मच्चिoत्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।कर्थायन्तश्च मां हिनत्यं तुष्यन्तिन्त च रमन्तिन्त च ॥

भावार्थ� : नि�रंतर मुझमें म� लगा�े वाले और मुझमें ही प्राणों को अर्प�ण कर�े वाले (मुझ वासुदेव के लिलए ही जि"न्हों�े अर्प�ा "ीव� अर्प�ण कर दिदया है उ�का �ाम मद्गतप्राणाः है।) भक्त"� मेरी भलिक्त की चचा� के द्वारा आर्पस में मेरे प्रभाव को "ा�ते हुए तर्था गुण और प्रभाव सनिहत मेरा कर्थ� करते हुए ही नि�रंतर संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही नि�रंतर रमण करते हैं |

तेर्षां सततयुक्तानां भ,तां प्रीहितपूव:कम् ।<<ामिम बजिMयोगं तं येन मामुपयान्तिन्त ते ॥

भावार्थ� : उ� नि�रंतर मेरे ध्या� आदिद में लगे हुए और पे्रमरू्पव�क भ"�े वाले भक्तों को मैं वह तत्त्वज्ञा�रूर्प योग देता हँू, जि"ससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं |

तेर्षामेवानुकम्पार्था:महमज्ञान,ं तमः।नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञान<ीपेन भास्वता ॥

भावार्थ� : हे अ,ु:न! उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिलए उनके अंतःकरण में च्चिस्थत हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञान,हिनत अंधकार को प्रकाशमय तत्त्वज्ञानरूप <ीपक के द्वारा नQ कर <ेता हँू |

अनात्तिश्रतः कम:&लं कायm कम: करोहित यः ।स सन्न्यासी च योगी च न हिनरग्विTनन: चाहिvयः ॥

भावार्थ� : श्री भगवान बोले- ,ो पुरुर्ष कम:&ल का आश्रय न लेकर करने योTय कम: करता है, वह संन्यासी तर्थाा योगी है और केवल अग्विTन का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तर्थाा केवल हिvयाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है |

यं सन्न्यासमिमहित प्राहुयxगं तं हिवजिM पाण्डव ।न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो योगी भवहित कश्चन ॥

भावार्थ� : हे अ,ु:न! जि,सको संन्यास (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की दि�प्पणी में इसका खुलासा अर्था: लिलखा है।) ऐसा कहते हैं, उसी को तू योग (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की दि�प्पणी में इसका खुलासा अर्था: लिलखा है।) ,ान क्योंहिक संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी पुरुर्ष योगी नहीं होता |

आरुरुक्षोमु:नेयxगं कम: कारणमुच्यते ।योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥

भावार्थ� : योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुर्ष के लिलए योग की प्रान्तिप्त में हिनष्काम भाव से कम: करना ही हेतु कहा ,ाता है और योगारूढ़ हो ,ाने पर उस योगारूढ़ पुरुर्ष का ,ो सव:संकल्पों का अभाव है, वही कल्याण में हेतु कहा ,ाता है |

य<ा हिह नेजिन्Xयार्था]र्षु न कम:स्वनुर्षज्जते ।सव:सङ्‍कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्त<ोच्यते ॥

भावार्थ� : जि,स काल में न तो इजिन्Xयों के भोगों में और न कम� में ही आसक्त होता है, उस काल में सव:संकल्पों का त्यागी पुरुर्ष योगारूढ़ कहा ,ाता है |

उMर<ेात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसा<येत् ।आत्मैव ह्यात्मनो बनु्धरात्मैव रिरपुरात्मनः ॥

भावार्थ� : अपने द्वारा अपना संसार-समुX से उMार करे और अपने को अधोगहित में न डाले क्योंहिक यह मनुष्य आप ही तो अपना मिमत्र है और आप ही अपना शतु्र है |

बनु्धरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जि,तः ।अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वत]तात्मैव शतु्रवत् ॥

भावार्थ� : जि,स ,ीवात्मा द्वारा मन और इजिन्Xयों सहिहत शरीर ,ीता हुआ है, उस ,ीवात्मा का तो वह आप ही मिमत्र है और जि,सके द्वारा मन तर्थाा इजिन्Xयों सहिहत शरीर नहीं ,ीता गया है, उसके लिलए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बत:ता है |

जि,तात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहिहतः ।शीतोष्णसुखदुःखेर्षु तर्थाा मानापमानयोः ॥

भावार्थ� : सर<ी-गरमी और सुख-दुःखादि< में तर्थाा मान और अपमान में जि,सके अन्तःकरण की वृत्तित्तयाँ भलीभाँहित शांत हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मावाले पुरुर्ष के ज्ञान में सच्चिo<ानन्<घन परमात्मा सम्यक् प्रकार से च्चिस्थत है अर्थाा:त उसके ज्ञान में परमात्मा के लिसवा अन्य कुछ है ही नहीं |

ज्ञानहिवज्ञानतृप्तात्मा कू�स्थो हिवजि,तजेिन्Xयः ।युक्त इत्युच्यते योगी समलोQाश्मकांचनः ॥

भावार्थ� : जि,सका अन्तःकरण ज्ञान-हिवज्ञान से तृप्त है, जि,सकी च्चिस्थहित हिवकाररहिहत है, जि,सकी इजिन्Xयाँ भलीभाँहित ,ीती हुई हैं और जि,सके लिलए मिमट्टी, पत्थर और सुवण: समान हैं, वह योगी युक्त अर्थाा:त भगवत्प्राप्त है, ऐसे कहा ,ाता है |

सुहृन्मिन्मत्रायु:<ासीनमध्यस्थदे्वष्यबन्धुर्षु ।साधुष्वहिप च पापेर्षु समबुजिMर्हिव>लिशष्यते ॥

भावार्थ� : सुहृ< ्(स्वार्था: रहिहत सबका हिहत करने वाला), मिमत्र, वैरी, उ<ासीन (पक्षपातरहिहत), मध्यस्थ (<ोनों ओर की भलाई चाहने वाला), दे्वष्य और बन्धुगणों में, धमा:त्माओं में और पाहिपयों में भी समान भाव रखने वाला अत्यन्त श्रेष्ठ है |

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहलिस च्चिस्थतः ।एकाकी यतलिचत्तात्मा हिनराशीरपरिरग्रहः ॥

भावार्थ� : मन और इजिन्Xयों सहिहत शरीर को वश में रखने वाला, आशारहिहत और संग्रहरहिहत योगी अकेला ही एकांत स्थान में च्चिस्थत होकर आत्मा को हिनरंतर परमात्मा में लगाए |

शुचौ <ेशे प्रहितष्ठाप्य च्चिस्थरमासनमात्मनः ।नात्युच्चि�तं नाहितनीचं चैलाजि,नकुशोत्तरम् ॥

भावार्थ� : शुM भूमिम में, जि,सके ऊपर vमशः कुशा, मृगछाला और वस्त्र हिबछे हैं, ,ो न बहुत ऊँचा है और न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसन को च्चिस्थर स्थापन करके |

ततै्रकाग्रं मनः कृत्वा यतलिचत्तेजिन्Xयहिvयः ।उपहिवश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्महिवशMुये ॥

भावार्थ� : उस आसन पर बैठकर लिचत्त और इजिन्Xयों की हिvयाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुजिM के लिलए योग का अभ्यास करे |

समं कायलिशरोग्रीवं धारयन्नचलं च्चिस्थरः ।सम्प्रेक्ष्य नालिसकाग्रं स्वं दि<शश्चानवलोकयन् ॥

भावार्थ� : काया, लिसर और गले को समान एवं अचल धारण करके और च्चिस्थर होकर, अपनी नालिसका के अग्रभाग पर दृमिQ ,माकर, अन्य दि<शाओं को न <ेखता हुआ |

प्रशान्तात्मा हिवगतभीर्ब्र:ह्मचारिरव्रते च्चिस्थतः ।मनः संयम्य मच्चिoत्तो युक्त आसीत मत्परः ॥

भावार्थ� : र्ब्रह्मचारी के व्रत में च्चिस्थत, भयरहिहत तर्थाा भलीभाँहित शांत अन्तःकरण वाला सावधान योगी मन को रोककर मुझमें लिचत्तवाला और मेरे परायण होकर च्चिस्थत होए |

युञ्जन्नेवं स<ात्मानं योगी हिनयतमानसः ।शान्तिन्त> हिनवा:णपरमां मत्संस्थाममिधगच्छहित ॥

भावार्थ� : वश में हिकए हुए मनवाला योगी इस प्रकार आत्मा को हिनरंतर मुझ परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ मुझमें रहने वाली परमानन्< की पराकाष्ठारूप शान्तिन्त को प्राप्त होता है |

• नात्यश्नतस्तु योगोऽस्तिस्त न चैकान्तमनश्नतः ।न चाहित स्वप्नशीलस्य ,ाग्रतो नैव चा,ु:न ॥

भावार्थ� : हे अ,ु:न! यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न हिबलकुल न खाने वाले का, न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न स<ा ,ागने वाले का ही लिसM होता है |

• युक्ताहारहिवहारस्य युक्तचेQस्य कम:सु ।युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवहित दुःखहा ॥

भावार्थ� : दुःखों का नाश करने वाला योग तो यर्थाायोTय आहार-हिवहार करने वाले का, कम� में यर्थाायोTय चेQा करने वाले का और यर्थाायोTय सोने तर्थाा ,ागने वाले का ही लिसM होता है |

• य<ा हिवहिनयतं लिचत्तमात्मन्येवावहितष्ठते ।हिनःस्पृहः सव:कामेभ्यो युक्त इत्युच्यते त<ा ॥

भावार्थ� : अत्यन्त वश में हिकया हुआ लिचत्त जि,स काल में परमात्मा में ही भलीभाँहित च्चिस्थत हो ,ाता है, उस काल में सम्पूण: भोगों से स्पृहारहिहत पुरुर्ष योगयुक्त है, ऐसा कहा ,ाता है |

• यर्थाा <ीपो हिनवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।योहिगनो यतलिचत्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥

भावार्थ� : जि,स प्रकार वायुरहिहत स्थान में च्चिस्थत <ीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के ,ीते हुए लिचत्त की कही गई है |

• यत्रोपरमते लिचत्तं हिनरुMं योगसेवया ।यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्महिन तुष्यहित ॥

भावार्थ� : योग के अभ्यास से हिनरुM लिचत्त जि,स अवस्था में उपराम हो ,ाता है और जि,स अवस्था में परमात्मा के ध्यान से शुM हुई सूक्ष्म बुजिM द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ सच्चिo<ानन्<घन परमात्मा में ही सन्तुQ रहता है |

• सुखमात्यन्तिन्तकं यत्तद्‍बजुिMग्राह्यमतीजिन्Xयम ् ।वेत्तित्त यत्र न चैवायं च्चिस्थतश्चलहित तत्त्वतः ॥

भावार्थ� : इजिन्Xयों से अतीत, केवल शुM हुई सूक्ष्म बुजिM द्वारा ग्रहण करने योTय ,ो अनन्त आनन्< है, उसको जि,स अवस्था में अनुभव करता है, और जि,स अवस्था में च्चिस्थत यह योगी परमात्मा के स्वरूप से हिवचलिलत होता ही नहीं |

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नामिधकं ततः ।यस्तिस्मच्चिन्स्थतो न दुःखेन गुरुणाहिप हिवचाल्यते ॥

भावार्थ� : परमात्मा की प्रान्तिप्त रूप जि,स लाभ को प्राप्त होकर उसे अमिधक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मा प्रान्तिप्त रूप जि,स अवस्था में च्चिस्थत योगी बडे़ भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता |

तं हिवद्या< ्दुःखसंयोगहिवयोगं योगसच्चिञ्ज्ञतम्।स हिनश्चयेन योक्तव्यो योगोऽहिनर्हिव>ण्णचेतसा ॥

भावार्थ� : ,ो दुःखरूप संसार के संयोग से रहिहत है तर्थाा जि,सका नाम योग है, उसको ,ानना चाहिहए। वह योग न उकताए हुए अर्थाा:त धैय: और उत्साहयुक्त लिचत्त से हिनश्चयपूव:क करना कत:व्य है |

सङ्‍कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सवा:नशरे्षतः ।मनसैवेजिन्Xयग्रामं हिवहिनयम्य समन्ततः ॥

भावार्थ� : संकल्प से उत्पन्न होने वाली समू्पण: कामनाओं को हिनःशेर्ष रूप से त्यागकर और मन द्वारा इजिन्Xयों के समु<ाय को सभी ओर से भलीभाँहित रोककर |

शनैः शनैरुपरमेद्‍बMुया धृहितगृहीतया।आत्मसंसं्थ मनः कृत्वा न हिक>लिच<हिप लिचन्तयेत् ॥

भावार्थ� : vम-vम से अभ्यास करता हुआ उपरहित को प्राप्त हो तर्थाा धैय:युक्त बुजिM द्वारा मन को परमात्मा में च्चिस्थत करके परमात्मा के लिसवा और कुछ भी लिचन्तन न करे |

यतो यतो हिनश्चरहित मनश्चञ्चलमच्चिस्थरम् ।ततस्ततो हिनयम्यैत<ात्मन्येव वशं नयेत् ॥

भावार्थ� : यह च्चिस्थर न रहने वाला और चंचल मन जि,स-जि,स शब्<ादि< हिवर्षय के हिनमिमत्त से संसार में हिवचरता है, उस-उस हिवर्षय से रोककर यानी ह�ाकर इसे बार-बार परमात्मा में ही हिनरुM करे |

प्रशान्तमनसं ह्येनं योहिगनं सुखमुत्तमम् ।उपैहित शांतर,सं र्ब्रह्मभूतमकल्मर्षम् ॥

भावार्थ� : क्योंहिक जि,सका मन भली प्रकार शांत है, ,ो पाप से रहिहत है और जि,सका र,ोगुण शांत हो गया है, ऐसे इस सच्चिo<ानन्<घन र्ब्रह्म के सार्था एकीभाव हुए योगी को उत्तम आनं< प्राप्त होता है |

युञ्जन्नेवं स<ात्मानं योगी हिवगतकल्मर्षः ।सुखेन र्ब्रह्मसंस्पश:मत्यन्तं सुखमश्नुते ॥

भावार्थ� : वह पापरहिहत योगी इस प्रकार हिनरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूव:क परर्ब्रह्म परमात्मा की प्रान्तिप्त रूप अनन्त आनं< का अनुभव करता है |

सव:भूतस्थमात्मानं सव:भूताहिन चात्महिन ।ईक्षते योगयुक्तात्मा सव:त्र सम<श:नः ॥

भावार्थ� : सव:व्यापी अनंत चेतन में एकीभाव से च्चिस्थहित रूप योग से युक्त आत्मा वाला तर्थाा सब में समभाव से <ेखने वाला योगी आत्मा को सम्पूण: भूतों में च्चिस्थत और समू्पण: भूतों को आत्मा में कच्चिल्पत <ेखता है |

यो मां पश्यहित सव:त्र सवm च ममिय पश्यहित ।तस्याहं न प्रणश्यामिम स च मे न प्रणश्यहित ॥

भावार्थ� : ,ो पुरुर्ष समू्पण: भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासु<ेव को ही व्यापक <ेखता है और समू्पण: भूतों को मुझ वासु<ेव के अन्तग:त (गीता अध्याय 9 श्लोक 6 में <ेखना चाहिहए।) <ेखता है, उसके लिलए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिलए अदृश्य नहीं होता |

• सव:भूतच्चिस्थतं यो मां भ,त्येकत्वमाच्चिस्थतः ।सव:र्थाा वत:मानोऽहिप स योगी ममिय वत:ते ॥

भावार्थ� : ,ो पुरुर्ष एकीभाव में च्चिस्थत होकर सम्पूण: भूतों में आत्मरूप से च्चिस्थत मुझ सच्चिo<ानन्<घन वासु<ेव को भ,ता है, वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है |

• आत्मौपम्येन सव:त्र समं पश्यहित योऽ,ु:न ।सुखं वा यदि< वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥

भावार्थ� : हे अ,ु:न! ,ो योगी अपनी भाँहित (,ैसे मनुष्य अपने मस्तक, हार्था, पैर और गु<ादि< के सार्था र्ब्राह्मण, क्षहित्रय, शूX और म्लेच्छादि<कों का-सा बता:व करता हुआ भी उनमें आत्मभाव अर्थाा:त अपनापन समान होने से सुख और दुःख को समान ही <ेखता है, वैसे ही सब भूतों में <ेखना 'अपनी भाँहित' सम <ेखना है।) समू्पण: भूतों में सम <ेखता है और सुख अर्थावा दुःख को भी सबमें सम <ेखता है, वह योगी परम शे्रष्ठ माना गया है |

• काम एर्ष vोध एर्ष र,ोगुणसमुद्भवः ।महाशनो महापाप्मा हिवMयेनमिमह वैरिरणम् ॥

भावार्थ� : श्री भगवान बोले- र,ोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही vोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थाा:त भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसको ही तू इस हिवर्षय में वैरी ,ान |

• धूमेनाहिव्रयते वमि¡य:र्थाा<शx मलेन च।यर्थाोल्बेनावृतो गभ:स्तर्थाा तेने<मावृतम् ॥

भावार्थ� : जि,स प्रकार धुए ँसे अग्विTन और मैल से <प:ण ढँका ,ाता है तर्थाा जि,स प्रकार ,ेर से गभ: ढँका रहता है, वैसे ही उस काम द्वारा यह ज्ञान ढँका रहता है |

• आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञाहिननो हिनत्यवैरिरणा ।कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥

भावार्थ� : और हे अ,ु:न! इस अग्विTन के समान कभी न पूण: होने वाले काम रूप ज्ञाहिनयों के हिनत्य वैरी द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है |

ततः र्पदं तत्र्परिरमार्गिग>तव्यं यस्मिAमन्गता � नि�वत�न्तिन्त भूयः ।तमेव चादं्य रु्परुषं प्रर्पद्ये यतः प्रवृलिGः प्रसृता रु्पराणी ॥

भावार्थ� : उसके पश्चात उस परम-प<रूप परमेश्वर को भलीभाँहित खो,ना चाहिहए, जि,समें गए हुए पुरुर्ष हि&र लौ�कर संसार में नहीं आते और जि,स परमेश्वर से इस पुरातन संसार वृक्ष की प्रवृत्तित्त हिवस्तार को प्राप्त हुई है, उसी आदि<पुरुर्ष नारायण के मैं शरण हूँ- इस प्रकार दृढ़ हिनश्चय करके उस परमेश्वर का मनन और हिनदि<ध्यासन करना चाहिहए |

नि�मा��मोहा जि"तसङ्गदोषाअध्यात्मनि�त्या निवनि�वGृकामाः ।द्वन्दै्वर्गिव>मुक्ताः सुखदुःखसञ्जै्ञग�च्छन्त्यमूढाः र्पदमव्ययं तत् ॥

भावार्थ� : जि,नका मान और मोह नQ हो गया ह,ै जि,न्होंने आसलिक्त रूप <ोर्ष को ,ीत लिलया है, जि,नकी परमात्मा के स्वरूप में हिनत्य च्चिस्थहित है और जि,नकी कामनाए ँपूण: रूप से नQ हो गई हैं- वे सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से हिवमुक्त ज्ञानी,न उस अहिवनाशी परम प< को प्राप्त होते हैं |

� तद्भासयते सूयQ � शशाङ्को � र्पावकः ।यद्गत्वा � नि�वत�न्ते तद्धाम र्परमं मम ॥

भावार्थ� : जि,स परम प< को प्राप्त होकर मनुष्य लौ�कर संसार में नहीं आते उस स्वयं प्रकाश परम प< को न सूय: प्रकालिशत कर सकता है, न चन्Xमा और न अग्विTन ही, वही मेरा परम धाम ('परम धाम' का अर्था: गीता अध्याय 8 श्लोक 21 में <ेखना चाहिहए।) है |

शरीरं य<वाप्नोहित यoाप्युत्vामतीश्वरः ।गृहीत्वैताहिन संयाहित वायगु:न्धाहिनवाशयात ् ॥

भावार्थ� : वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को ,ैसे ग्रहण करके ले ,ाता है, वैसे ही <ेहादि<का स्वामी ,ीवात्मा भी जि,स शरीर का त्याग करता है, उससे इन मन सहिहत इजिन्Xयों को ग्रहण करके हि&र जि,स शरीर को प्राप्त होता है- उसमें ,ाता है |

श्रोत्रं चकु्षः स्पश:नं च रसनं घ्राणमेव च ।अमिधष्ठाय मनश्चायं हिवर्षयानुपसेवते ॥

भावार्थ� : यह ,ीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचा को तर्थाा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके -अर्थाा:त इन सबके सहारे से ही हिवर्षयों का सेवन करता है |

उत्vामन्तं च्चिस्थतं वाहिप भुञ्जानं वा गुणान्तिन्वतम् ।हिवमूढा नानुपश्यन्तिन्त पश्यन्तिन्त ज्ञानचकु्षर्षः ॥

भावार्थ� : शरीर को छोड़कर ,ाते हुए को अर्थावा शरीर में च्चिस्थत हुए को अर्थावा हिवर्षयों को भोगते हुए को इस प्रकार तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानी,न नहीं ,ानते, केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले हिववेकशील ज्ञानी ही तत्त्व से ,ानते हैं |

यतन्तो योहिगनशै्चनं पश्यन्त्यात्मन्यवच्चिस्थतम् ।यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥

भावार्थ� : यत्न करने वाले योगी,न भी अपने हृ<य में च्चिस्थत इस आत्मा को तत्त्व से ,ानते हैं, हिकन्तु जि,न्होंने अपने अन्तःकरण को शुM नहीं हिकया है, ऐसे अज्ञानी,न तो यत्न करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं ,ानते |

य<ादि<त्यगतं ते,ो ,गद्भासयतेऽग्विखलम् ।यoन्Xमलिस यoाTनौ तते्त,ो हिवजिM मामकम् ॥

भावार्थ� : सूय: में च्चिस्थत ,ो ते, सम्पूण: ,गत को प्रकालिशत करता है तर्थाा ,ो ते, चन्Xमा में है और ,ो अग्विTन में है- उसको तू मेरा ही ते, ,ान |

गामाहिवश्य च भूताहिन धारयाम्यहमो,सा ।पुष्णामिम चौर्षधीः सवा:ः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥

भावार्थ� : और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शलिक्त से सब भूतों को धारण करता हूँ और रसस्वरूप अर्थाा:त अमृतमय चन्Xमा होकर सम्पूण: ओर्षमिधयों को अर्थाा:त वनस्पहितयों को पुQ करता हूँ |

उत्तमः पुरुर्षस्त्वन्यः परमात्मेत्य<ुाहृतः ।यो लोकत्रयमाहिवश्य हिबभत्य:व्यय ईश्वरः ॥

भावार्थ� : इन <ोनों से उत्तम पुरुर्ष तो अन्य ही है, ,ो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोर्षण करता है एवं अहिवनाशी परमेश्वर और परमात्मा- इस प्रकार कहा गया है |

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरा<हिप चोत्तमः ।अतोऽस्तिस्म लोके वे<े च प्रलिर्थातः पुरुर्षोत्तमः ॥

भावार्थ� : क्योंहिक मैं नाशवान ,ड़वग:- के्षत्र से तो सव:र्थाा अतीत हँू और अहिवनाशी ,ीवात्मा से भी उत्तम हँू, इसलिलए लोक में और वे< में भी पुरुर्षोत्तम नाम से प्रलिसM हूँ |

यो मामेवमसम्मूढो ,ानाहित पुरुर्षोत्तमम् ।स सव:हिवद्भ,हित मां सव:भावेन भारत ॥

भावार्थ� : भारत! ,ो ज्ञानी पुरुर्ष मुझको इस प्रकार तत्त्व से पुरुर्षोत्तम ,ानता है, वह सव:ज्ञ पुरुर्ष सब प्रकार से हिनरन्तर मुझ वास<ेुव परमेश्वर को ही भ,ता है |

इहित गुह्यतमं शास्त्रमिम<मुकं्त मयानघ ।एतद्‍ब<ुध््वा बुजिMमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ॥

भावार्थ� : हे हिनष्पाप अ,ु:न! इस प्रकार यह अहित रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्त्व से ,ानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्था: हो ,ाता है |

मय्यासक्तमनाः पार्था: योगं युञ्जन्म<ाश्रयः ।असंशयं समग्रं मां यर्थाा ज्ञास्यलिस तचृ्छणु ॥

भावार्थ� : श्री भगवान बोले- हे पार्था:! अनन्य प्रेम से मुझमें आसक्त लिचत तर्थाा अनन्य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जि,स प्रकार से सम्पूण: हिवभूहित, बल, ऐश्वया:दि< गुणों से युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशयरहिहत ,ानेगा, उसको सुन |

ज्ञानं तेऽहं सहिवज्ञानमिम<ं वक्ष्याम्यशेर्षतः ।यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवलिशष्यते ॥

भावार्थ� : मैं तेरे लिलए इस हिवज्ञान सहिहत तत्व ज्ञान को सम्पूण:तया कहूँगा, जि,सको ,ानकर संसार में हि&र और कुछ भी ,ानने योTय शेर्ष नहीं रह ,ाता |

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