~: सेवा (परहित) :~ दूसरका अहित करनेसे अपना अहित और दूसरका हित करनेसे अपना हित िोता िै ‒यि हनयम िै । ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ संसारका सबध ‘ऋणानुबध’ िै । इस ऋणानुबधसे मु िोनेका उपाय िै ‒सबकी सेवा करना और ककसीसे कु छ न चािना । ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ साधक परमामाके सगुण या हनगुण ककसी भी ऱपकी ाहि चािता िो, उसे सपूणु ाहणयके हितम रत िोना अयत आवयक िै । ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ साधकको संसारकी सेवाके हिये िी संसारम रिना िै , अपने सुखके हिये नि । ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ से दयसे भगवानकी सेवाम िगे ए साधकके ारा ाहणमाकी सेवा िोती िै ; यकक सबके मूि भगवान िी ि । ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ साधकको अपने ऊपर आये ए बड़े -से -बड़े दुखको भी सि िेना चाहिये और दूसरेपर आये छोटे -से -छोटे दुखको भी सिन नि करना चाहिये । ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ दूसरको सुख पचानेकी इछासे अपनी सुखेछा हमटती िै । ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ ककसीको ककहचमा भी दुख न िो‒यि भाव मिान भजन िै ।