अमित - doc2poet.files.wordpress.com€¦ · िन िन्थन 9 ववषय -...

82

Upload: others

Post on 28-Oct-2020

9 views

Category:

Documents


0 download

TRANSCRIPT

  • अमित प्रकाश

    2

  • िन िन्थन

    3

    िन िन्थन

    काव्य सगं्रह

    अमित प्रकाश (doc2poet)

  • अमित प्रकाश

    4

  • िन िन्थन

    5

    यह पुस्तक सिर्पित है िेरी स्वर्गीय िााँ की यादों

    को, िेरी पे्ररणा िेरी जीवन-संगर्गनी के ननिःस्वाथि पे्रि को, िेरे

    जीवन िें रंर्ग बिखेरती िेरे र्प्रय पुत्र की िीठी िसु्कान को और

    हर उस पल को जजसने िुझ ेकभी यादें तो कभी सिक ददए |

  • अमित प्रकाश

    6

  • िन िन्थन

    7

    प्रस्तावना

    कर्वताओं से िेरी िुलाक़ात कुछ सिय पहले ही हुई

    लेककन ददल्ली की भार्ग दौड़ के िीच, पेशे से डॉक्टर होत ेहुए भी

    काव्य रचना ने िेरा दिन थािे रखा है | र्पछले कुछ वर्षों िें

    ि ाँद-ि ाँद कर संजोही िेरी रचनाओं को इस पुस्तक िें र्परोने की

    कोमशश की र्गयी है | इस सगं्रह िें संगचत सभी पंजक्तयााँ और

    काव्य िेरे ह्रदय िें एक खास स्थान रखत े हैं | यह कहना

    अनतशयोजक्त नहीं होर्गी की यह केवल एक काव्य संग्रह नहीं

    िजल्क िेरे जीवन के सफ़र का प्रनतबिम्ि है | आशा करता ह ाँ कक

    इसे भी िेरी तरह आपका प्यार मिलता रहे |

    अमित प्रकाश

  • अमित प्रकाश

    8

  • िन िन्थन

    9

    ववषय - सूची भाग १ (आग़ाज़)

    आभार

    भाग २ (अनुराग) िहकत ेजज़्िात (१-१२) सम्मतत ममम रािता

    भाग ३ (वेदना)

    हाँसत ेज़ख्ि (१-४) यादें मसजस्कयााँ

    भाग ४ (अंतददर्दन) ॐ शांनतिः (१-६) इल्तजा दआु व्योम ख़्वादहश क्य ाँ ?

    भाग ५ (तलार्) तन्हा ह ाँ पर अकेला नहीं ढाल उड़ान

  • अमित प्रकाश

    10

    कैसे न मलख ं ? होता अर्गर िैं कौन ह ाँ िैं ? ननश्चय िैं और काव्य िेरी पे्ररणा आईना

    भाग ६ (हाइकू) काव्य भय अजस्तत्व शत शत निन

    भाग ७ (गूूँज) झनकार वो िचपन की होली शुभ दीपावली कुछ खट्टा कुछ िीठा- नव वर्षि दआु दोस्ती

    भाग ८ (ध्येय) शहीद नारी शजक्त भ्र ण हत्या भ्रष्टाचार

  • िन िन्थन

    11

    भार्ग १

    (आग़ाज़)

    कर्वतायेँ िुझ ेहिेशा से ही लुभाती रही हैं परन्तु िेरे

    जीवन का अगिकााँश सिय इन कर्वताओं ने जैसे ककसी एकांत

    कोने िें िैठकर िेरे िन को पढ़ने िें बिता ददया | काव्य रचना

    से अनमभज्ञ, िैंने स्नातक उत्तीणि करने पर जि अपनी भावनाओं

    को शब्दों िें र्परोना चाहा, तो किर लौट न सका |

    ♦ ♦ ♦

  • अमित प्रकाश

    12

    माता पिता के चरणों में समपिदत मेरी िहली िंक्ततयाूँ…

    आभार

    के अि ये सफ़र िीत जाने को है,

    के अि ये कारवााँ िंजज़ल पाने को है;

    य ाँ तो ये राह आसान न थी,

    पर छ ल ाँ आसिान, िस इसी होड़ िें था;

    लर्गन ेन पाया, पााँव िें कााँटा भी कोई,

    क्य ाँकी… िैं तो आपकी र्गोद िें था;

    सींचा न होता र्गर प्यार से इस जीवन को,

    सच्च ेिोती की तरह, अर्गर साँवारा न होता;

    होता न िहरिान, भर्गवान भी य ाँ िुझपर,

    इन हाथों को र्गर उनका सहारा न होता;

  • िन िन्थन

    13

    शाखों पर अपनी, ि ल सा खखलाया इस जीवन को,

    कैसे सम्भव; ये िात्र एक िीज से होता;

    र्गर शुरू करता, िैं भी उसी श न्य से,

    तो आज िैं ये नाचीज़ न होता;

    कहत ेहैं िसा वो कण-कण िें है,

    पर िैने उसे िस आप ही िें पाया है;

    पाऊाँ हर जन्ि िें िस आप ही की छाया,

    करे र्गर क़रि, वो जजसने हिें िनाया है;

    के अि साथ मिलकर चलना है,

    और आरे्ग िढ़त ेजाना है;

    इस िशाल को िुलन्द कर,

    अनन्त दीपों को जलाना है;

    रहना है उनकी छाया िें,

    और इस परम्परा को ननभाना है…

    ♦ ♦ ♦

  • अमित प्रकाश

    14

    भार्ग २ (अनुरार्ग)

    यह वो सिय था जि िैं लड़कपन के जोश िें,

    िेिाक, िेकिक्र, िदिस्त हाथी की तरह चला जा रहा था |

    संतुष्ट जीवन की छााँव तले िेरे ह्रदय िें िस एक ही आस थी |

    ♥ ♥ ♥

    इस ददल से उठती खुश्बू के कुछ कतरे आिकी नज़र करता हूूँ…

  • िन िन्थन

    15

    िहकत ेजज़्िात

    (१)

    तकत े थे राह उनकी,

    के यादों की कशिकश िें य ाँही ग़ज़ल िन र्गयी,

    इस ददल िें उठा एक ख़याल,

    और िुजश्कल खु़द हल िन र्गयी ||

    ♥ ♥ ♥

    (२)

    वो कहत े हैं त ख़याल है िस ,

    इस पार्गल ददल का कफ़त र है त ;

    पर जज़ंदा ह ाँ िैं…खुद सुि त है ये ,

    के शायद कहीं ज़रूर है त ||

    ♥ ♥ ♥

  • अमित प्रकाश

    16

    (३)

    ढ ाँढता ह ाँ तुझ े इन लकीरों िें ,

    के तरेी ख़्वादहश िेइंतहााँ है ;

    है िसा तरेा अक्स इस ददल िें ,

    पर जाने त कहााँ है…जाने त कहााँ है ||

    ♥ ♥ ♥

    (४)

    लाख़ की कोमशश हिनें ,

    के ये जज़्िात इन लफ़्ज़ों िें सिा जायें ;

    पर इन तन्हाइयों िें वो न र कहााँ,

    के रूठे इन अल्फ़ाज़ को िना पायें ||

    ♥ ♥ ♥

  • िन िन्थन

    17

    (५)

    िहकफ़लों िें जाना छोड़ ददया हिनें,

    के िेरंर्ग हो चला ये जहााँ ;

    के तरेे इंतज़ार िें जो िज़ा है,

    वो उनके मिलने िें कहााँ ||

    ♥ ♥ ♥

    (६)

    तरेे ख़यालों िें ऐसा ड िा,

    जैसे वर्षाि घनघोर हुई ;

    जाने कि िीती रात ,

    और जाने कि भोर हुई ||

    ♥ ♥ ♥

  • अमित प्रकाश

    18

    (७)

    तरेा नाि लिों से र्गुज़रे अरसा हुआ,

    पर िुस्कुराहट अभी िाकी है ;

    कैसे भुला द ाँ तुझ े ए हिनशीं ,

    के चाहत अभी िाकी है ||

    ♥ ♥ ♥

    (८)

    ख्वािों के इस वीराने िें ,

    क्या ख ि हररयाली छाई है ;

    के ढ ंड रहे थे हि अल्िाज़ों को ,

    और…खुद ग़ज़ल ही चली आई है ||

    ♥ ♥ ♥

  • िन िन्थन

    19

    (९)

    ख़्वाि िें मिलीं कल नज़रें उनसे,

    जाने दो पल िें क्या कह र्गयीं ;

    हि अंदाज़-ए-ियााँ पर ही िर मिटे,

    और िात अि री रह र्गयी ||

    ♥ ♥ ♥

    (१०)

    वो कहत ेहैं सपनों िें जीना अच्छी िात नहीं,

    कफ़र क्य ाँ तुि इन ख्वािों से ननकल आती नहीं ;

    चाहत नहीं क्या ए हिनशीं हिसे,

    या िस िेरी तरह जताती नहीं |

    ♥ ♥ ♥

  • अमित प्रकाश

    20

    (११)

    िड़ी उम्िीद मलए िैठे थे,

    के उनकी आाँखों से कोई इशारा तो होता,

    तोड़ देत ेहर रस्ि इस ज़िाने की,

    िस एक िार िुहब्ित से हिें पुकारा तो होता ||

    ♥ ♥ ♥

    (१२)

    ये त नहीं…तरेी याद है िस,

    अि कौन इस ददल को सिझाए ;

    तरेी ज सतज ने शायर ककया’

    एक झलक जाने क्या कर जाए ||

    ♥ ♥ ♥

  • िन िन्थन

    21

    सम्मतत

    िोहब्ित के िाज़ार िें,

    इक उम्र ख़चि कर आए हि,

    पर खता भी क्या इन लम्हों की,

    जि ख्वाि ही थे सजाए कि,

    ि लों की ददलकश चाहत िे,

    कााँटों ने ढाए...ककतने मसति,

    िे-इंतेहााँ िेरे प्यार के,

    िदले िे पाए केवल र्गि,

    खुमशयााँ तरेी तुझिें ही हैं,

    कहााँ िुस्कान तेरी? क्य ाँ आाँखें नि?

    ददल को थोड़ा...ज़रा यार सिझा,

    हर ददल को यहााँ, मिलता नहीं सनि,

  • अमित प्रकाश

    22

    करनी है िोहब्ित, तो खुद से कर,

    कोई और मिले...तो करना कि... ||

    ♥ ♥ ♥

    ममम

    ये इश्क़ ही है और उसकी कोिलता,

    जो ट टे ददल को…कफ़र सजा देती है |

    िहकाती है इस जीवन को,

    और जीने की वजह देती है |

    िोहब्ित िें हर पल सुन्दर है,

    इससे ही हर पल ख़ास है |

    किर ग़ि हो, या हो कोई ख़फ़ा,

    प्रीत ही हाँसत े का राज़ है ||

    ♥ ♥ ♥

    मेरे ख़्वाबों की चौखट िर उनकी िहली दस्तक …

    रािता

  • िन िन्थन

    23

    ख़यालों ने उनके सताया है इस क़दर,

    के रािता हो उनसे….तो प छें रे्ग ज़रूर ,

    के तराशा है तुम्हें खुद उस खु़दा ने,

    या हो तुि परी….या कोई ह र ;

    है तुिसे ही िड़कन इस ददल की,

    और तुम्ही से इन आाँखों का न र ,

    के िर ही मिटा तुिपर,

    तो इस ददल का क्या क़स र ;

    इस ददल ने ही ददखाई अंिेरों िें ,

    नज़रों को राहें तिाि हैं,

    िाना हुई है इससे ख़ता,

    पर क़ुि ल हिें भी ये ख़ िस रत इल्ज़ाि है ;

    न जाने हुआ ये कैसे ,

  • अमित प्रकाश

    24

    के एक ही झलक िें ददल-ओ-जान र्गवााँ िैठे,

    अजनिी हुए खु़द से, और उन्हे भर्गवान िना िैठे ;

    जाद चला उनका कुछ इस तरह ,

    के हि…रहे नहीं हि,

    मिल जाए पर उनका साथ अर्गर ,

    तो खु़द को खोन े का भी न हो ग़ि ;

    के उनकी नज़रों िें छलकती अपनी तस्वीर सा नशा,

    ककसी पैिाने िें कहााँ ,

    के िुहब्ित की इस िेखुदी सा िज़ा,

    होश िें आने िें कहााँ ;

    ियााँ कर पाना िुजम्कन नहीं ,

    के िीत े कैसे िरसों… इन नज़रों की तलाश िें,

    जज़ंदा होने के इल्ज़ाि तले ,

  • िन िन्थन

    25

    चल थी रही सााँसें…जज़ंदर्गी की आस िें ;

    के लौ सी तपती ि प िें ,

    राहत…शाि िें हिने पाई है ,

    र्गुज़र र्गये झुलस्त े िंज़र,

    के जीवन िें शि लौट आई है ;

    सजदा करूाँ िैं पल-पल उनका,

    जो शजख्सयत ही खु़दाया है,

    के याकता वो हीर,

    जजसने इस ददल को सजाया है,

    हर पल को िहकाया है ||

    ♥ ♥ ♥

    ये इस कर्वता का अंत नहीं, िजल्क इस पे्रि कहानी का आर्गाज़ है…

  • अमित प्रकाश

    26

    भार्ग ३

    (वदेना)

    िुजश्कल सिय िें वो सभी िातें जो िैं ककसी से न कह सका,

    ददल से ररसत ेहुए वो इन पन्नों पर जा गर्गरी |

    ♦ ♦ ♦

    गमगीन िलों के सन्नाटे से उठता धुआूँ…

  • िन िन्थन

    27

    हाँसत ेज़ख्ि

    (१) कभी ड ित े का सहारा हुआ करत े थे,

    पर अपनी ही कश्ती िें शायद छेद था ;

    सोचत े थे…िुट्ठी िें सारा जहााँ मलए िैठे हैं,

    जाने कि किसल र्गया हाथों से…वो केवल रेत था ||

    ♦ ♦ ♦

    (२) आाँसुओं को य ाँ िदनाि न कर,

    के िाय स ददल को इन्हीं से क़रार आता है ;

    पलकों के िााँि तले छुपाता है हर ग़ि,

    और छलक भर जायें…तो ददल हल्का हो जाता है ||

    ♦ ♦ ♦

  • अमित प्रकाश

    28

    (३) िुद्दतें िीती खु़मशयों की चाह िें ,

    के हिने ग़ि िें भी िुस्कुराना सीख मलया ;

    मिला ना कांिा भी जि इन आाँसुओं को ,

    हिने खु़द को ही िनाना सीख मलया ||

    ♦ ♦ ♦

    (४) इन लम्हों की िेशिी पे हैरां ह ाँ,

    के चलती रही सााँसें…खुद जज़ंदर्गी को खोकर ;

    चुकाई हर हाँसी की कीित,

    घंटों अंिेरे िें रोकर ;

    जाने ये वक़्त कैसे हर िार िात दे जाता है,

    के खुद भी जलकर देख मलया…पर अंिेरा लौट ही आता है ;

    पर अंिेरा लौट ही आता है ||

    ♦ ♦ ♦

  • िन िन्थन

    29

    यादें

    उन्हें भ ल पाना अि िुिककन नहीं ,

    के ये कोिल एहसास ही, सााँसों का सहारा िन र्गया ;

    उनकी छाया तले ही सीखा जीना हिने,

    और उनका अक्स ही, ककस्ित का मसतारा िन र्गया ;

    सादहलों से नाता ट टे ज़िाना हो चला,

    के उिनत े इस सार्गर िें, ये नतनका ही ककनारा िन र्गया ;

    पर द र होकर भी वो इस ददल से द र नहीं,

    के िुझी कहीं एक लौ, तो कहीं शरारा िन र्गया ;

    रौशन है ये रूह िस उन्हीं के न र से,

    के बिखरा एक सपनों का िहल, और यादों से दोिारा िन र्गया ;

    सााँसों का सहारा िन र्गया… ||

    ♦ ♦ ♦

  • अमित प्रकाश

    30

    मसजस्कयााँ

    छलक जाए न इस ददल से कोई ग़ि ,

    के अक्सर य ाँही हाँस मलया करता ह ाँ ;

    ट ट जाता था जजनपर आाँसुओं का िााँि ,

    उन जज़्िात को कस मलया करता ह ाँ ;

    के नि-से कुछ लम्हे क़ैद हैं इन आाँखों िें ,

    कााँपती इन पलकों से उन्हें थाि मलया करता ह ाँ ;

    के पढ़ ले ना कोई िेरी ये खािोमशयााँ ,

    हर पल िस यही अजज़ियााँ करता ह ाँ ;

    के इन खािोमशयों िें नछपे कई राज़ हैं ,

    उठता है र्गुिार तो खु़द से ही कह ददया करता ह ाँ ;

    के मिलत े नहीं अल्फ़ाज़ हर जज़्िात को यहााँ ,

    कुछ िन जात े हैं ककस्से कुछ ग़ि ददया करत े हैं ;

    िस ग़ि ददया करत े हैं ||

    ♦ ♦ ♦

  • िन िन्थन

    31

    भार्ग ४ (अंतददर्दन)

    जीवन की िझिार िें र्गोत ेखाकर इन हाथों से िहुत कुछ छ ट

    र्गया लेककन िैंने पाया एक नया नज़ररया |

    ∞ ∞ ∞

    आध्यात्म की गहराइयों में भटकता बावरा मन…

  • अमित प्रकाश

    32

    ॐ शांनतिः

    (१)

    तैरने चले थे दररया िें,

    िीच रस्त ेिरसात हो र्गयी,

    के ढ ाँढने ननकले थे खु़दा को,

    और खु़द से िुलाक़ात हो र्गयी ||

    ∞ ∞ ∞

    (२)

    ख़्वादहश भर से अंजाि मिला नहीं करत,े

    के हर ख़्वाि को परवान चढ़ाना पड़ता है ;

    अंिेरे को कोसकर ककसने क्या पाया है,

    के अपना दीपक खु़द ही जलाना पड़ता है ||

    ∞ ∞ ∞

  • िन िन्थन

    33

    (३)

    सुनहरे सपनों की आड़ िें,

    जज़ंदर्गी के रंर्गीन पल, र्गुप-छुपकर ननकल जात े हैं ;

    गर्गर कर उठना तो याद रहता है,

    भ ल जात े हैं…जि लड़खडाकर सम्भल जात े हैं ;

    ये पल िंुिली यादें िनकर ,

    होठों पर कभी खझलमिलात े हैं ;

    और कभी आाँस िनकर ,

    आाँखों िें र्पघल आत े हैं ;

    के वक़्त से इस कशिकश िें ,

    ददल-ए-नादान िुस्कुरा ही लेता है ;

    िस खुशी के पैिाने िदल जाते हैं…

    खुशी के पैिाने िदल जात े हैं ||

    ∞ ∞ ∞

  • अमित प्रकाश

    34

    (४)

    काल करे सो काल ही कर,

    के आज भी तो कल का कल,

    करत े जाने की होड़ िें,

    कहीं िीत न जाए ये पल ||

    ∞ ∞ ∞

    (५)

    करके फ़ररयाद जाने क्य ाँ उसे शमििंदा ककया करत े हैं,

    ख़िर जजसे हर राज़-ए-ददल की है,

    के हर काियािी च िेर्गी खु़द ही कदि,

    र्गर हि उनके क़ाबिल भी हैं ||

    ∞ ∞ ∞

  • िन िन्थन

    35

    (६)

    आपहु िस्ती कादटए,

    हाँमसए और हंसाए ;

    गचतंा का ऐनक उतार िें क,

    तो जार्ग सुंदर हो जाए ||

    ऐसा जीवन हो लाजवाि,

    र्गर सच िें कोई कर पाए ;

    सच्चा साथी है ि ल िंत्र ,

    जो सच्ची राह ददखाए ||

    ∞ ∞ ∞

  • अमित प्रकाश

    36

    इल्तजा

    आदहस्ता चल ए जज़न्दर्गी ,

    के क़ज़ि कई चुकाना िाकी है,

    कुछ ददि मिटाना िाकी है,

    कुछ फ़ज़ि ननभाना िाकी है,

    रफ़्तार िें तरेे चलने से,

    कुछ रूठ र्गये – कुछ छ ट र्गये,

    उन रूठों को िनाना िाकी है,

    रोतों को हाँसाना िाकी है,

    इन सााँसों पर हक़ है जजनका,

    उनको सिझाना िाकी है,

    कुछ हसरतें अभी अि री हैं,

    कुछ काि और अभी ज़रूरी हैं,

  • िन िन्थन

    37

    ख़्वादहशें कुछ घुट र्गयी इस ददल िें,

    उनको दफ़नाना िाकी है,

    नई ख्वादहशें जर्गाना िाकी है,

    कुछ ख़्वाि सजाना िाकी है,

    कुछ आाँस हैं तो कुछ ग़ि भी हैं,

    उनको हाँसी तले दिाना िाकी है,

    कहीं िरहि लर्गाना िाकी है,

    कुछ ज़ख़्ि नछपाना िाकी है,

    त आरे्ग चल िैं आता ह ाँ,

    के अभी कदि िढ़ाना िाकी है ,

    कुछ और सिक हैं तरेे दािन िें,

    उनसे मिल जाना िाकी है,

    के आदहस्ता चल ए जज़ंदर्गी,

    के क़ज़ि चुकाना िाकी है… ||

    ∞ ∞ ∞

  • अमित प्रकाश

    38

    दआु

    कभी मिलती नहीं िंजज़ल,

    तो कभी राहें रूठ जाती हैं,

    के इन मसक्कों के िोझ तले,

    ख्वादहशें ट ट जाती हैं;

    रह जात े हैं ख़्वाि अि रे ,

    के खचाि िहुत है िंजज़लें पाने िें;

    खरीदे जात े र्गर सपने हौसलों से,

    रंर्ग कुछ और होता खुमशयों के िैखान ेिें;

    ए खु़दा ! अदा करना हर उस ददल की दआु,

    कसर न हो जजसकी तुझ ेिनाने िें ||

    ∞ ∞ ∞

  • िन िन्थन

    39

    व्योम

    िुकम्िल जहााँ की तलाश िें,

    किरत े रहे िारे-िारे ;

    कैसे मिले…जो खोया ही नहीं,

    हर पल पास है हिारे ;

    िस आाँखें िंद करने की देरी है,

    जी उठें रे्ग ददलकश नज़ारे ;

    के लड़खड़ात े कदि अपनी राह ढ ंड ही लेंरे्ग,

    कभी यादों की भीड़ िें…कभी तनहाई के सहारे ||

    ∞ ∞ ∞

  • अमित प्रकाश

    40

    ख़्वादहश

    दफ़्न रह जाने दो कुछ राज़ इस ददल िें,

    के हर दास्तान को यहााँ ज़ुिान नहीं मिलती,

    य ाँ तो नवाज़ा है कई हुनर से उस खु़दा ने,

    पर…हर ख़ िी को यहााँ पहचान नहीं मिलती,

    दटिदटिात े हैं इरादों के मसतारे…उाँच े आसिानों िें,

    पर कुछ ख़्वािों को यहााँ उड़ान नहीं मिलती,

    कुछ होठों की हाँसी का हाकफ़ज़ खु़दा होता है,

    तो कुछ लिों को यहााँ िुस्कान नहीं मिलती,

    िनत े हैं कुछ कदि िस दरु्गिि पहाड़ों के मलए,

    के सिको यहााँ राहें आसान नहीं मिलती,

  • िन िन्थन

    41

    के िता तो द ाँ छुपा क्या है इस ददल िें,

    पर…हर कतरे को यहााँ ख़्वादहश तिाि नहीं मिलती ||

    ∞ ∞ ∞

    क्य ाँ

    अक्सर प छता ह ाँ इन तन्हाई से ,

    अपने हैं या सिय, जो अपनों को य ाँ सतात ेहैं;

    आती है कदठनाई जि उनके िच्चों पर,

    अल्लाह/ भर्गवान/ यीशु…जाने कहााँ छुप जात ेहैं;

    आज़िाता है वो भी केवल िास िों को,

    और सक्षि िस शोक जतात े हैं;

    अजि-र्गज़ि हैं लोर्ग यहााँ के,

    अहि ्को तज नहीं पात ेहैं;

    अफ़सोस जताकर facebook पर,

  • अमित प्रकाश

    42

    अपनों को भ ल ही जात ेहैं;

    आया है कलयुर्ग…स्िरण रहे,

    अब्र भी यहााँ कहर ही ढात ेहैं;

    आिे-पौने से शहर हैं क्या,

    आिची-िुंिई को भी ये ड िा जात ेहैं;

    अस्त-व्यस्त है जन-जीवन,

    अि चने्नई, ति उत्तराखंड-कश्िीर याद आत ेहैं;

    आिे ड िे से लोर्ग यहााँ, जीने की इस जंर्ग िें,

    आूँस भी अपने पी जात ेहैं;

    अस्थायी है सि र्गर याद रहे, तो;

    अथि ननरिथक हो जात ेहैं;

    अल्प र्वराि की तरह रुकत ेहैं,

    और हाँसकर आरे्ग िढ़ जात ेहैं…

    हाँसकर आरे्ग िढ़ जात ेहैं ||

    ∞ ∞ ∞

  • िन िन्थन

    43

    भार्ग ५

    (तलाश)

    अपने आप िें िैंने कर्वता को ढ ंढ मलया और कर्वताओं िें खुद को पा मलया |

    § § §

  • अमित प्रकाश

    44

    तन्हा ह ाँ पर अकेला नही ं

    कुछ िुाँिली हैं कुछ िीठी सी,

    कुछ खुमशयााँ तो कुछ आाँस ही सही,

    के यादों के असीि सार्गर िे,

    िैं तन्हा तो ह ाँ पर अकेला नहीं,

    कुछ छ ट र्गया पीछे शायद,

    कदि रुके तो पर राहें चलती रही,

    के वक़्त से कि सााँसें जीत पाई हैं,

    िन र्वचमलत हो या िीिदह,

    होता र्गर वक़्त िेरे इशारों पर,

    छीन लाता पल जो हामसल नहीं,

    पर खखलती है इन अंिेरों िें ही रोशनी,

    है कहा ककसी ने सही,

  • िन िन्थन

    45

    के वक़्त की इन दरारों िें,

    िेरा भी हाकफ़ज़ है कहीं,

    य ाँही भटकते र्गुिनाि अंिेरों िें,

    शायद मिल जाऊाँ उनसे कहीं,

    वो उनकी र्गोद िें रखना सर,

    वो हर िात जो उन्होंने कही,

    वो िालाएाँ, वो डााँट,

    वो शर्गुन की िीठी दही,

    कुछ याद ऩहीीँ कुछ भ ल र्गया,

    के सुनाता ह ाँ दास्तान ये अनकही,

    हर िुजश्कल का हल है इन यादों िें,

    के प्यारी िेरी िााँ िसती है यहीं,

    के उनकी यादों की छााँव तले,

    अकेला होकर भी िैं तनहा नहीं,

  • अमित प्रकाश

    46

    के वक़्त िेशक जीत जाए,

    पर हार िैने भी िानी नहीं,

    अकेला होकर भी िैं तनहा नहीं…

    § § §

    ढाल

    उलझनों की कशिकश िें, उम्िीद की ढाल मलए िैठा ह ाँ ;

    ए जज़ंदर्गी तरेी हर चल के मलए, िैं दो चल मलए िैठा ह ाँ ;

    लुत्फ़ उठा रहा ह ाँ, िैं भी इस आाँख-मिचोली का ;

    मिलेर्गी काियािी, के हौसला किाल मलए िैठा ह ाँ ;

    चल िान मलया दो चार ददन नहीं िेरे िुताबिक ;

    पर गर्गरेिान िें अपने, िैं उम्र तिाि मलए िैठा ह ाँ ;

    ये लहरें ये त िान, तुम्हें िुिारक ;

    िैं िेकफ़क्र ! कश्ती और दोस्त किाल मलए िैठा ह ाँ ||

    § § §

  • िन िन्थन

    47

    ये कहानी है मेरे सिनों की उडान की…

    उड़ान

    उड़ने दो िेरे सपनों को,

    के घर इनका आकाश है;

    ित जकड़ो इन्हें लकीरों िें,

    के ध्येय इनका िस तलाश है;

    इनके जाननि संतोर्ष नहीं,

    के हाँसती इनकी कुछ ख़ास है;

    िंजज़ल से इनका क्या नाता,

    इनको चलने की िस प्यास है;

    के िंजज़ल िें क्या रखा है,

    र्गर सफ़र पे अपने नाज़ है;

    के र्गीत कई र्गुनर्गुनाने हैं अभी,

    और सिय ही अपना साज़ है ||

    § § §

  • अमित प्रकाश

    48

    देखा मैने आईना, तो वीराने में भी र्जर िाया ,

    मैने वही ललखा, जो मुझ े इन आूँखों में नज़र आया…||

    कैसे न मलख ं ?

    चााँद सा िवल ये काग़ज़,

    िेचैन लहरों सी िचलती स्याही,

    कैसे ना उठे लफ़्ज़ों का त िान,

    हो जायें र्गर ये एक,

    जैसे रूह को मिल र्गया हो इलाही ||

    § § §

  • िन िन्थन

    49

    होता अर्गर िैं

    होता अर्गर िैं िेिाक पररन्दा ,

    छ ता उचईयााँ जसेै कोई िाज़;

    काव्य सी होती उड़ानें िेरी,

    और िादल होत े िेरे अल्फ़ाज़;

    नददयों िें ही खखलता िचपन,

    उन्िुक्त हवा िे लेता श्वास;

    हर ददन रचता र्गीत नये,

    और सिय ही होता िेरा साज़;

    होता अर्गर िैं िेिाक पररदंा,

    नवजीवन लेता अर्गाज़;

    उड़ता किरता िस्त र्गर्गन िें,

    अजि ही होता िेरा अंदाज़ ||

    § § §

  • अमित प्रकाश

    50

    कौन ह ाँ िैं ?

    पााँव ज़िीं पर नहीं िेरे,

    के इन िादलों पे सवार ह ाँ िैं,

    के िैं ह ाँ, और िेरी तन्हाई,

    और इस ज़िाने के पार ह ाँ िैं,

    िेकफ़क्र ह ाँ, िेखौफ़ ह ाँ,

    के िद्िि जलती अंर्गार ह ाँ िैं,

    िैं ककल्कारी, िैं आाँस भी,

    के दािन से छलकता प्यार ह ाँ िैं,

    िैं िुजश्कल ह ाँ, िैं आसां भी,

    कभी जीत ह ाँ तो, कभी हार ह ाँ िैं,

    उलझनों की इस कशिकश िें,

    उिीदों की ललकार ह ाँ िैं,

  • िन िन्थन

    51

    लुत्फ़ उठा रहा ह ाँ, हर िुजश्कल का,

    भट्टी िें तपती तलवार ह ाँ िैं,

    ये लहरें ये त िान, तुम्हें िुिारक,

    के कश्ती नहीं िझिार ह ाँ िैं,

    िैं िद्िि ह ाँ, िैं कोिल ह ाँ,

    और चीत े सी रफ़्तार ह ाँ िैं,

    के ददिभरी िैं चीखें ह ाँ,

    और घुाँर्गरू की झनकार ह ाँ िैं,

    िैं ननदियी ह ाँ, िैं ज़ामलि ह ाँ ,

    के िुहब्ित का तलिर्गार ह ाँ िैं,

    िैं शायर ह ाँ, िैं आमशक़ भी,

    इस पे्रि-प्रसंर्ग का सार ह ाँ िैं,

    तुि िुझसे हो, िैं तुिसे ह ाँ,

    झुकत े नैनों का इक़रार ह ाँ िैं,

    िैं र्गीत भी ह ाँ, िैं कर्वता भी,

  • अमित प्रकाश

    52

    के छन्दो िें छुपा, अलंकार ह ाँ िैं,

    िैं ये भी ह ाँ, िैं वो भी ह ाँ,

    के सीमित नहीं अपार ह ाँ िैं,

    के सीमित नहीं अपार ह ाँ िैं ||

    § § §

    ननश्चय

    कुछ करना है कुछ पाना है,

    पर संकल्प यही िस िाना है,

    के असिलता की ठोकर को,

    िैं हार नहीं िनने द ाँर्गा,

    संकल्प के िढ़त े कदिों की,

    रफ़्तार नहीं थिने द ाँर्गा;

    कुछ द र हैं तो कुछ पास ही हैं,

    पर दृढ़ िेरा र्वश्वास भी है,

  • िन िन्थन

    53

    के ख्वािों की इस नैया की,

    पतवार नहीं नछनने द ाँर्गा,

    नव वर्षि िें जलती ज्वाला को,

    अंर्गार नहीं िनने द ाँर्गा;

    कुछ आशा है कुछ वादे हैं,

    कुछ िेरे अडडर्ग इरादे हैं,

    के ददल से जुड़ े इन िार्गों को,

    ट टे तार नहीं िनने द ाँर्गा,

    होता होर्गा हर साल यही,

    पर इस िार नहीं होने द ाँर्गा,

    इस िार नहीं होने द ाँर्गा…||

    § § §

  • अमित प्रकाश

    54

    िैं और काव्य

    िैं शायर तो नहीं ,

    पर इन जज़्िात का इस काग़ज़ से ज़रूर कोई नाता है;

    के लोर्ग सिझ पात ेनहीं जो एहसास,

    वो अनायास ही इसपर उतर आता है,

    के पानी सा इनिें घुल जाता है,

    हर ख़याल जो ददल को सताता है,

    अल्फ़ाज़ नहीं, के ये आईना हैं,

    इसिें हर ख़्वाि नज़र आता है,

    कभी परवाज़ है ये, कभी ि मिल है,

    कभी र्गुम्सुि सा कभी र्गीत िेिाक सुनाता है,

    ये िुझसे हैं, और इनसे िैं,

    हर ज़रे को िहकाता है …||

    § § §

  • िन िन्थन

    55

    िेरी प्रेरणा

    न जाने ककस राह की तलाश है,

    न जाने कौनसी िंजज़ल की आस है,

    य ाँ तो खुला आसिान है पाँख िैलाने को,

    किर जाने क्य ाँ ऊचाईयों िें अजनिी अहसास है,

    हर मशखर को जीत लेने का िन िें र्वश्वास है,

    जीने लरे्ग हर सपना, रि से यही िस अरदास है,

    ऐसे िें दोर्गुनी हो जाए हर खु़शी,

    र्गर उनकी िड़कन इस ददल के पास है,

    के उनसे ही िहकती है ये कलि,

    और उनसे ही शब्दों िें मिठास है,

    है वो ही इिादत, वो ही िेरी पे्ररणा,

    और उनसे ही मलखने की प्यास है,

  • अमित प्रकाश

    56

    वो हैं तो हैं काव्य िेरे,

    उनसे ही िेरे अल्फ़ाज़ हैं,

    उन बिन जैसे िैं कुछ भी नहीं,

    के हाँसती उनकी कुछ ख़ास है,

    हाँसती उनकी कुछ ख़ास है…||

    § § §

    घडी के काूँटों से इस दौड में अतसर हम खुद से ही आगे ननकल जात ेहैं |

  • िन िन्थन

    57

    आईना

    खु़द से बिछड़े, जाने कि अरसा हो चला,

    के आज अपना ही अक्स, य ाँ अन्जान सा क्य ाँ है,

    वो िैं ही था, और ये भी िैं ह ाँ,

    किर आईना य ाँ ,परेशान सा क्य ाँ है,

    ननकल पड़ ेथे, सिय-की-लहरों पर सवार होकर,

    किर देखकर िंजज़ल, िड़कानों िें उफ़ान सा क्य ाँ है,

    के ढल ही जाता है हर शक्स, वक़्त के इन सांचों िें,

    किर खु़द से अजनिी हो जाने का, य ाँ इल्ज़ाि सा क्य ाँ है,

    शक्ल-ओ-स रत से हि िुख्तमलि न सही,

    किर ज़ह्न-ओ-ददल इस जजस्ि िें, िहिान सा क्य ाँ है,

    के आज भी ये ददल न र-ए-पाक़ सा रोशन है,

    किर मिलकर अपनी ही परछाई से, य ाँ हैरान सा क्य ाँ है,

    य ाँ हैरान सा क्य ाँ है…

    § § §

  • अमित प्रकाश

    58

    भार्ग ६

    (हाइक )

    शब्दों संर्ग इस आाँख मिचोली िें कर्वताओं ने अपने मभन्न रूप ददखाए |

    ***

  • िन िन्थन

    59

    काव्य खुला नीला आकाश,

    अंतििन की उड़ान,

    शब्दों ने रूप मलया काव्य का…||

    ***

    भय िेिाक उिनती लहरें ,

    क्षक्षनतज तक िैला सार्गर,

    किर सादहलों पे क्य ाँ क़ैद हैं हि…||

    ***

  • अमित प्रकाश

    60

    अजस्तत्व असीि ज्ञान का सार्गर,

    िहती िाराएाँ,

    क पंन्डुक िैं ननरािार… ||

    ***

    शत शत निन िद्िि चलती हवा,

    िेकफ़क्र लहराता नतरंर्गा,

    शत शत निन हर उस शहीद की आहुनत को… ||

    ***

  • िन िन्थन

    61

    भार्ग ७

    (र्ग ाँज)

    काव्य से र्गर एक िार भेंट हो जाये तो हर ओर, हर क्षण केवल कर्वताओं की ही र्ग ाँज सुनाई देती है और तीज त्यौहार भी कर्वताओं की भांनत र्गए उठत ेहैं |

    ψ ψ ψ

  • अमित प्रकाश

    62

    संगीत की कहानी, संगीत की ज़ुबानी

    झनकार

    िाररश की पहली िुहार,

    गचडड़यों का र्गीत िल्हार,

    के दरख़्तों की इस हररयाली िें,

    िहकता कहीं िैं भी ह ाँ,

    वन िें होती हल-चल,

    और िहता पानी कल-कल,

    के असीि सार्गर की इन लहरों िें,

    छलकता कहीं िैं भी ह ाँ,

    भीड़ िें होता शोर,

    और पतंर्ग की कटती डोर,

    के घड़ी के कााँटों की इस रफ़्तार िें,

    गथरकता कहीं िैं भी ह ाँ,

  • िन िन्थन

    63

    िीत ेपल अनिोल,

    दो प्यार के िीठे िोल,

    के इन लिों पे खखलती हाँसी िें,

    शामिल कहीं िैं भी ह ाँ,

    र्गर सुन कोई सके,

    तो र्गाती ख़ािोशी भी है यहााँ,

    के इस कायनात के हर ज़रे को,

    इस िुन िें सजाता िैं ही ह ाँ,

    संर्गीतिय िनाता िैं ही ह ाँ ||

    ψ ψ ψ

  • अमित प्रकाश

    64

    वो िचपन की होली

    याद आत े हैं वो ददन, वो लम्हे वो पलनछन,

    वो कच्ची उिर, वो िस्ती िेकफ़कर,

    वो िााँ का प्यार, वो हर ददन त्योहार,

    के याद आता है िचपन, वो यादें िन-िंथन;

    याद आती है होली, वो िस्तानों की टोली,

    वो हर्षि वो उल्लास, वो हफ़्तो चलता रास,

    वो शरारत वो सताना, कभी हाँसना कभी हाँसाना,

    के याद आता है होमलका-दहन, वो करना दलुेंडी की तैयारी र्गहन;

    याद आती है वो र्पचकारी, वो टि िे गर्गरन े की िारी,

    वो पानी वो र्गुब्िारे, वो छीटें वो िुहारें,

    वो खेल वो ननशाना, वो िेितलि ही मभर्गाना,

    के याद आते हैं वो रंर्ग, करना वो िस्ती यारों के संर्ग;

  • िन िन्थन

    65

    याद आती है रंर्गों की िाररश, वो छोड़ देने की र्गुज़ाररश,

    वो कीचड़ वो र्गुलाल, वो मशकायत और िम्िी की ढाल,

    वो कई-कई िार नहाना, और किर से रंर्ग लर्गाना,

    के याद आता है वो दठठुरना, वो रंर्गीन पानी िें उड़ना;

    याद आती है वो र्गुजजया, वो पकौड़ े वो भजजया,

    वो िीठे से रसर्गुल्ले, वो दही िें ड िे भल्ले,

    वो खाना वो खखलाना, वो िनचाही चीज़ ददलाना,

    के याद आते हैं वो त्योहार, वो दोस्त वो ररश्तदेार;

    याद आत े हैं वो पक्के रंर्ग, वो िच ननकलने की जंर्ग,

    वो र्गली-र्गली िें पहरे, वो यारों के िेर्गाने से चहेरे,

    वो रंर्गी हुई दीवारें, वो िच े हुए र्गुब्िारे,

    के याद आती है िचपन की होली, वो िस्ती वो हिजोली;

    अि कहााँ रंर्गों िे वो मिठास है, त्योहार वही पर अलर्ग मलिास है,

  • अमित प्रकाश

    66

    लर्गात े हैं रंर्गों का टीका भर,

    पर ददलों को रंर्ग नही पात े हैं,

    के रौनक िाज़ारों िें कुछ खास है,

    पर सिय ही ककसके पास है,

    होली को अि पवि नहीं छुट्टी ितात े हैं,

    जाने क्य ाँ इस ददन को िंद दीवारों िें िनात े हैं;

    के याद आती है िचपन की वो होली,

    जजसे करत े हैं याद पर किर भ ल जात े हैं,

    के िरसत े हैं जि यादों के ये िादल,

    तभी तो जीवन िें ि ल आत े हैं,

    और हर सााँस को िहकात े हैं…

    हर सााँस को िहकाते हैं…

    ψ ψ ψ

  • िन िन्थन

    67

    शभु दीपावली

    होकर र्वजयी प्रभु राि हैं लौटे,

    के दीवाली का त्यौहार है यहााँ,

    आनतशिाज़ी की चकाचौंि तो है,

    पर िुएाँ के र्गुिार हैं यहााँ,

    फ़ेसिुक दआुओं से सुसजज्जत है,

    पर पररजनों का नतरस्कार है यहााँ,

    हर द्वारे दीपक जर्गिर्ग हैं,

    पर सड़कों पर िरता कुम्हार है यहााँ,

    लक्ष्िी जी का प जन है,

    पर दहेज प्रथा की िार है यहााँ,

  • अमित प्रकाश

    68

    के देसी घी के लड्ड हैं,

    पर खाकर इन्हें िीिार हैं यहााँ,

    पकवानों से कफ़ज़ा िहकती है,

    पर भ खों की कतार हैं यहााँ,

    ख़ ि सजे हैं चौक- चौिारे,

    हर जेि िें लेककन उिार है यहााँ,

    दो नावों पर सवार हैं सि,

    और जाने र्गुि पतवार है कहााँ,

    के हि हैं, तुि हो और दीपावली,

    देखें ककस करवट िझिार है यहााँ…

    ψ ψ ψ

  • िन िन्थन

    69

    कुछ खट्टा कुछ िीठा- नव वर्षि

    के ख़ ि रहा ये साल,

    कुछ कक़स्से हैं, कुछ कहानी हैं ;

    कुछ िीत र्गया, कुछ िाकी है ,

    कुछ िातें हैं जो ितानी हैं ;

    पा मलया कुछ, तो कुछ ख़्वाि ही हैं,

    के इसी का नाि तो जज़ंदर्गानी है;

    कभी खु़शी मिली, कभी आाँस ,

    के तक़दीर िड़ी सयानी है;

    कभी जीत मिली, कभी सीख ,

    कुछ िंजज़लें हैं, जो अभी पानी हैं;

  • अमित प्रकाश

    70

    कोई छ ट र्गया, कोई साथ रहा,

    के तस्वीरें कुछ िुाँिली, तो कुछ जानी-पहचानी हैं;

    कुछ याद रहा, कुछ भ ल र्गया,

    के िातें कुछ कहनी हैं, कुछ छुपानी हैं;

    जो िीत र्गया, वो िसाना था,

    के तस्वीर तो अभी िनानी है;

    क्या ख़ ि रहा ये साल ,

    और क्या ख़ ि ये कहानी है,

    क्या ख़ ि ये कहानी है…

    ψ ψ ψ

  • िन िन्थन

    71

    स्वस्थ होकर जात ेमरीज़ के ददल से ननकली दआु

    दआु

    िड़कानों की िुन पर र्गुनर्गुनाती किर से कोई जज़ंदर्गी,

    जैसे खु़मशयों िें ड िे कोई ददल, जो था कभी ग़िज़दा ;

    रूखे से लि गथरकते हों किर खु़शी से मिलकर जैसे,

    रोि-रोि हो जाए स्वस्थ और हर िज़ि ले र्वदा ;

    भावुक िन और नि आाँखें , करती हों जैसे इलतज़ा,

    िीठी सी िुस्कान कााँपती आवाज़ िें करें जैसे शुकक्रया अदा ;

    हो भाव र्वभोर ये तन और िन, के कानों िें है संर्गीत,

    और क़ुि ल हो जजसकी दआु, ये रूह जैसे वो आबिदा…

    ये रूह जैसे वो आबिदा…

    ψ ψ ψ

  • अमित प्रकाश

    72

    अरे यारों…दोस्ती…बडी ही हसीन है..

    दोस्ती

    कहत े हैं…अच्छे दोस्त य ाँ ही नहीं मिला करत े,

    पर उसने ये दािन…कुछ इस तरह सजाया है ;

    के हर िोड़ पर मिले नायाि दोस्त ,

    और हर एक िें जैसे…वो खु़द ही सिाया है ;

    थािा है इन्होंने कााँपत े इन हाथों को,

    और ग़ि िें भी हाँसना मसखाया है;

    हों ददन के उजाले …या अंिेरी रात,

    िुस्कान ने इनकी, हर पल साथ ननभाया है ;

  • िन िन्थन

    73

    के सादहलों पर एकांत का िज़ा ल टा कभी,

    तो यारों संर्ग कभी िझिार िें घर िनाया है ;

    न कस्िें हैं न वादे हैं, क्या ख़ िस रत ये ररश्ता िनाया है ,

    के लह से न सही, पर उसने ददल से हिें मिलाया है ;

    सदके जाऊं इन यारों की यारी पे ,

    काली घटाओं को जैसे, इंद्रिनुर्ष सा सजाया है ;

    इंद्रिनुर्ष सा सजाया है…

    ψ ψ ψ

  • अमित प्रकाश

    74

    भार्ग ८ (ध्येय)

    कर्वतायेँ केवल िनोरंजन ही नहीं करती िजल्क आवाि को

    सोचने पर िजि र भी करती है. इनतहास प्रत्यक्षदशी रहा है के कर्वतायेँ

    और लेख सिाज को ककस हद तक प्रभार्वत कर सकत ेहैं |

    ‡ ‡ ‡

  • िन िन्थन

    75

    शहीद

    के जजनके िमलदान के बिस्तर पर ,

    हि चादर ताने सोत ेहैं ;

    भ ल िैठे हैं आहुनत उनकी ,

    के ख़्वाि िड़े…पर ददल छोटे हैं ;

    जीत ेथे जो हि-तुि के मलए ,

    शहादत पे उनकी हि क्य ाँ रोते हैं ;

    आओ निन करें उन वीरों को ,

    और खुमशयों के िीज िोत ेहैं ;

    के िोक्ष मिले हर साये को,

    जो सरहद पर जीवन खोत ेहैं ;

    िेनाि नहीं…शहीद हैं वो,

    वो देश के िेटे होत ेहैं…

    वो देश के िेटे होत ेहैं ||

    ‡ ‡ ‡

  • अमित प्रकाश

    76

    नारी शजक्त

    िैं नारी ह ाँ िैं सिला ह ाँ,

    सिरूप ह ाँ िैं पर हीन नहीं,

    आकाश िें उड़ना है िुझको,

    पर नसीि िुझ ेक्य ाँ ज़िीन नहीं ;

    इन आाँसुओं पे ना जाना तुि,

    के प्रर्गाढ़ ह ाँ िैं, र्गिर्गीन नहीं ;

    दरकार नहीं सहारे की िुझ,े

    के शोर्षण से टकराए जो,

    िलवान वही-और वीर वही ;

    िात इतनी सी है, र्गर सिझ पाए कोई,

    के तुि िुझसे हो िैं तुिसे ह ाँ ,

    और एकाकी हि फ़रदीन नहीं ;

    एकाकी हि फ़रदीन नहीं…

    ‡ ‡ ‡

  • िन िन्थन

    77

    भ्र ण हत्या

    उत्सव हर ओर और जर्गिर्ग िन िजन्दर,

    के इन र्गमलयों की आज मभन्न सी कुछ आभा है,

    र्ग ंजेर्गा पलना आज स्वयाँ वासुदेव की ककलकरी से,

    पर इस िोर पॅंख िें तेज आज कुछ कि सा है कुछ आिा है,

    के िुझा ददया जजस कोख का ददया सिाज के इन रखवालों ने,

    शायद उसी कोख िें रािा है… उसी कोख िें रािा है…||

    ‡ ‡ ‡

  • अमित प्रकाश

    78

    भ्रष्टाचार

    स्वणि-रथ पर सवार,

    कल रात िुझ े मिल र्गया भ्रष्टाचार,

    िैने कहा निस्कार,

    आप तो ि ले नहीं सिा रहे सरकार,

    पर चारों ओर िस दखु है छाया,

    और रोर्ग-दररद्र की है भरिार,

    के जि तुि केवल शोक हो लात,े

    तो आखख़र ककसकी दआुओं से है ये ननखार,

    िुस्कुराकर वो िुझसे िोला,

    िैं िुरा सही, र्वकार सही,

    है िुझसे ही सारा अंिकार,

  • िन िन्थन

    79

    पर जि तक बिकाऊ ईिान रहेर्गा,

    पैसा ददल से िलवान रहेर्गा,

    कि ना होर्गा भ्रष्टाचार,

    मिल ना सकेर्गा लोर्गों को हक़,

    शहीदों का होता रहेर्गा नतरस्कार,

    के जार्ग ना उठे जि तक ये ज़िीर,

    होती ही रहेर्गी अवाि की हार,

    मिटा ना सकोरे्ग िुझको तुि कभी,

    कर लो चाहे कोमशशें हज़ार,

    िैं कल भी था, िैं कल भी रह ाँर्गा,

    होता ही रहेर्गा िेरा अवतार,

    िैं ननयती ह ाँ, िैं स्थाई ह ाँ,

    िैं भ्रष्टाचार, िैं भ्रष्टाचार...

    ‡ ‡ ‡

  • अमित प्रकाश

    80

  • िन िन्थन

    81

  • अमित प्रकाश

    82