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हुलसी के तुलसी(संकलित)

जन्म और प्रारंभिक जीवन -- गोस्वामी तुलसी दास जी के जन्म संवत् और जन्म स्थान के सम्बन्ध में मत भेद है। अधिकतर लोगों का मानना है कि उनका जन्म सम्वत् १५५४ की श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में बाँदा जिले के राजा पुर नामक स्थान गाँव में हुआ था। कुछ विद्वानों ने एटा जिले के सोरों नामक स्थान को उनकी जन्म भूमि माना है। तुलसी दास जी के बचपन का नाम राम-बोला बताया जाता है। उनके पिता का नाम आत्मा राम और माता का नाम हुलसी था। अभुक्त मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण उन्हें माता-पिता ने त्याग दिया।

शिक्षा -- भगवान शंकरजी की प्रेरणा से रामशैल पर रहनेवाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी (नरहरि बाबा) ने इस बालक को ढूँढ़ निकाला और उसका नाम रामबोला रखा। उसे वे अयोध्या ( उत्तर प्रदेश प्रान्त का एक जिला है।) ले गये और वहाँ संवत् १५६१ माघ शुकला पञ्चमी शुक्रवार को उसका यज्ञोपवीत-संस्कार कराया। बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री-मन्त्र का उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गये। इसके बाद नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके रामबोला को राममन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या ही में रहकर उन्हें विद्याध्ययन कराने लगे। बालक रामबोला की बुद्धि बड़ी प्रखर थी। एक बार गुरुमुख से जो सुन लेते थे, उन्हें वह कंठस्थ हो जाता था। वहाँ से कुछ दिन बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुँचे। वहाँ श्री नरहरि जी ने तुलसीदास को रामचरित सुनाया। कुछ दिन बाद वह काशी चले आये। काशी में शेषसनातन जी के पास रहकर तुलसीदास ने पन्द्रह वर्ष तक वेद-वेदांग का अध्ययन किया। इधर उनकी लोकवासना कुछ जाग्रत हो उठी और अपने विद्यागुरु से आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमि को लौट आये। वहाँ आकर उन्होंने देखा कि उनका परिवार सब नष्ट हो चुका है। उन्होंने विधिपूर्वक अपने पिता आदि का श्राद्ध किया और वहीं रहकर लोगों को भगवान राम की कथा सुनाने लगे।

विवाह और सन्यास-उनका विवाह दीन बन्धु पाठक की कन्या रत्नावली से हुआ। वे पत्नी से बहुत प्रेम करते थे। एक बार वह उनकी अनुपस्थिति में अपने पीहर चली गई। वे इस विरह को न सह सके और रात में ही उसके घर जा पहुँचे। पत्नी ने उन्हें इस-आसक्ति के लिये बहुत फटकारा और कहा - अस्थि चरम यह देह मम, तामें ऐसी प्रीति।होती जों कहुँ राम महि, होंति न तौं भवभीति। पत्नी की बात उन्हें चुभ गई। वे गृहस्थ जीवन के प्रति पूर्ण विरक्त हो गये और प्रयाग, काशी, चित्रकूट अयोध्या आदि तीर्थों का भ्रमण करते रहे। अन्त में वे काशी के असी घाट पर रहने लगें और वहीं सं. १६८० में उनका निधन हो गया। उनकी मृत्यु के सम्बन्ध में निम्नलिखित दोहा प्रसिद्ध है -सम्वत् सीलह सौ असी, असीगंग के तीर।श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।

उपलब्ध कृतियाँ - तुलसीदास जी द्वारा लिखे गये एक दर्जन ग्रन्थ इस समय उपलब्ध हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं- रामचरितमानस, रामललानहछू, वैराग्य-संदीपनी, बरवै रामायण, पार्वती-मंगल, जानकी-मंगल, रामाज्ञाप्रश्न, दोहावली, कवितावली, गीतावली, श्रीकृष्ण-गीतावली, विनयपत्रिका, सतसई, छंदावली रामायण, कुंडलिया रामायण, राम शलाका, संकट मोचन, करखा रामायण रोला रामायण, झूलना, छप्पय रामायण, कवित्त रामायण, कलिधर्माधर्म निरुपण और हनुमान चालीसा। राम चरित मानस हिन्दी का श्रेष्ठ महाकाव्य है। इसमें मर्यादा पुरूषोत्तम राम के जीवन-चरित्र का वर्णन हैं।

काव्यगत विशेषताएँ-

वर्ण्य विषय - तुलसी दास जी की कविता का विषय भगवान राम के जीवन का वर्णन करना है। राम-कथा के माध्यम से उन्होंने मानव जीवन के प्रत्येक पहलू पर प्रकाश डाला है। माता-पिता, पुत्र, भाई, स्वामी, सेवक, पति-पत्नी आदि सभी के आदर्श व्यवहार का उल्लेख हुआ है। विषय के विस्तार के कारण तुलसी का काव्य जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक शिक्षक का कार्य करता है।

भक्ति-भावना -- तुलसी दास जी राम के अनन्य भक्त हैं। उनकी भक्ति दास्य भाव की है। वे सदैव अपने इष्ट देव के सम्मुख अपनी दीनता का प्रदर्शन करते हैं - राम सो बड़ो है कौन, मोंसों कौन छोटों, राम सो खरो है कौन, मोंसों कौन खोटो।उनकी भक्ति-भावना में चातक के प्रेम की सी एक निष्ठता है -एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास।एक राम-घनश्याम हित, चातक तुलसीदास।

मनोवैज्ञानिक चित्रण - तुलसी दास जी को मानव हृदय का पूर्ण ज्ञान था। वे मनोभावों के कुशल चितेरे थे। धनुष यज्ञ के समय सीता की मन:स्थिति का चित्रण कितना सजीव और स्वाभाविक है -तन मन बचन मोर पनु साधा, रघुपति पद-सरोज चितु राचा।तौ भगवान सकल उर वासी, करहिं मोहि रघुवर के दासी।मानसिक व्यापारों के समान ही बाह्य-दृश्यों को अंकित करने में भी तुलसी अद्वितीय है लंका दहन का एक दृश्य देखिये -लाइ-लाइ आगि भागे बाल-जाल जहां-तहां, लघु ह्वै निबुकि गिरि मेरू तें बिसाल भो।कौतुकी कपीस कूदि कनक कंगूरा चढ़ि, रावन भवन जाइ ठाढ़ो तेहि काल भो।

भाषा - तुलसी दास जी ने अपने काव्य की रचना ब्रज और अवधी भाषा में की है। कृष्ण गीतावली, कवितावली तथा विनय पत्रिका की भाषा ब्रजभाषा है। अन्य कृतियाँ अवधी भाषा में हैं। अवधी और ब्रज दोनों ही भाषाओं पर तुलसी को पूर्ण अधिकार है। उन्होंने जायसी की भाँति ग्रामीण अवधी को न अपनाकर साहित्यिक अवधी को ही अपनाया। तुलसी दास जी की भाषा अत्यधिक परिमार्जित एवं परिष्कृत हैं। उसमें संस्कृत के शब्दों की अधिकता है। कहीं--कहीं भोजपुरी तथा बुन्देलखण्डी भाषाओं का प्रभाव भी उस पर दिखाई देता है। अरबी-फारसी के शब्दों को भी जहां तहां स्थान मिला है।तुलसी की भाषा विषय के अनुकूल रही है। उसमें प्रसाद, माधुर्य, ओज आदि सभी गुण विद्यमान हैं।

शैली - तुलसी दास जी ने अपने समय में प्रचलित सभी काव्य-शैलियों को अपनाया तथा उसमें नवीन चमत्कार और सौन्दर्य की सृष्टि की। उनके काव्य में मुख्य रूप से निम्नलिखित शैलियाँ मिलती हैं :-१ - दोहा चौपाई की प्रबन्धात्मक शैली - राम चरित मानस में।२ - दोहा पद्धति की मुक्तक शैली - दोहावली में।३ - कवित्त-सवैया और छप्पय पद्धति की शैली - कवितावली में।४ - भावुकता पूर्ण गीत पद्धति की शैली - विनय पत्रिका में।इनके अतिरिक्त विवाह, सोहर आदि के गीतों में ग्रामीण शैली भी मिलती है।तुलसी की सभी शैलियों पर उनके व्यक्तित्व की स्पष्ट छाप दिखाई देती है।

रस - गोस्वामी जी के काव्य में शान्त, वात्सल्य, हास्य, अद्भुत वीर आदि सभी रस पाये जाते हैं। श्रृंगार रस को भी स्थान मिला है, किन्तु तुलसी मर्यादावादी कवि थे इसलिए उन्होंने श्रृंगार का वर्णन बड़े मर्यादित ढंग से किया है। उसमें तनिक भी उच्छृंखलता नहीं आने दी है। सीता के संयत और मर्यादित प्रेम का सुन्दर उदाहरण निम्न पंक्तियों में देखिए -राम को रूप निहारत जानकी, कंगन के नग की परछाहीं।पाते सबै सुधि भूलि गई, कर टेक रहीं पल टारत नाहीं।

छन्द - तुलसी दास जी के काव्य प्रमुख छन्द, दोहा, चौपाई, कवित्त सवैया आदि हैं।

अलंकार - तुलसी की कविता में अलंकार स्वयं आ गये हैं। उन्हें प्रयत्न पूर्वक नहीं लाया गया है। गोस्वामी जी ने शब्दालंकारों और अर्थालंकारों, दोनों का ही प्रयोग किया है। अर्थालंकार भावों को स्पष्ट करने में सहायक हुए हैं और शब्दालंकारों ने भाषा को निखारने का कार्य किया।अवसर के अनुकूल प्राय: सभी अलंकारों का समावेश हुआ है किन्तु उपमा रूपक, उत्प्रेक्षा अलंकारों की तुलसी के काव्य में अधिकता है। रूपक का एक उदाहरण लीजिए -उदित उदय गिरि मंच पर रघुवर बाल पतंग।विकसे सन्त सरोज सम हरषे लोचन भृंग।।

साहित्य में स्थान -

महा कवि तुलसी दास का हिन्दी साहित्य में वहीं स्थान है जो संस्कृत-साहित्य में वाल्मीकि और वेदव्यास का। अद्भुत प्रतिभा निराली कवित्व शक्ति और उत्कृष्ट भक्ति-भावना के कारण वे विशेष महत्व के अधिकारी हैं। गौतम बुद्ध के बाद भारत के सबसे बड़े लोक नायक तुलसी ही थे। उन्होंने अपनी काव्य कला के द्वारा निराश और निस्पन्द भारत की शिथिल धमनियों में आशा का संचार कर उसे जीवन का नया सम्बल दिया। निस्सन्देह तुलसी दास जी हिन्दी के अनुपम कलाकार हैं। राम के साथ ही उनका नाम भी अजर-अमर रहेगा। हरिऔघ जी के शब्दों में हम कह सकते हैं - कविता करके तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला।  

हिंदी काव्य में गंगा नदीडॉ. राजकुमार सिंह

भारत की राष्ट्र-नदी गंगा जीवन ही नहीं, अपितु मानवीय चेतना को भी प्रवाहित करती है। हिन्दी काव्य साहित्य के आदि महाकाव्य ‘पृथ्वीराज रासो’ में ‘गंगा’ नदी की चर्चा अनेक प्रसंगों में की गई है-इंदो किं अंदोलिया अमी ए चक्कीवं गंगा सिरे।......एतने चरित्र ते गंग तीरे।आदिकाल के दूसरे प्रसिद्ध ग्रंथ ‘वीसलदेव रास’ (नरपति नाल्ह) में गंगा का सम्पूर्ण ग्रंथ में केवल दो बार उल्लेख हुआ है-कइ रे हिमालइ माहिं गिलउंकइ तउ झंफघडं गंग-दुवारि।

 .......... बहिन दिवाऊँ राइ की।थारा ब्याह कराबुं गंग नइ पारि।आदिकाल का सर्वाधिक लोक विश्रुत ग्रंथ जगनिक रचित ‘आल्हखण्ड’ में गंगा, यमुना और सरस्वती का उल्लेख है। कवि ने प्रयागराज की इस त्रिवेणी को पापनाशक बतलाया है-प्रागराज सो तीरथ ध्यावौं। जहँ पर गंग मातु लहराय।।एक ओर से जमुना आई। दोनों मिलीं भुजा फैलाय।।सरस्वती नीचे से निकली। तिरबेनी सो तीर्थ कहाय।।.................................................................सुमिर त्रिबेनी प्रागराज की। मज्जन करे पाप हो छार।।शृंगारी कवि विद्यापति ने अपने पदो में गंगा, यमुना का उल्लेख किया है। कवि ने शृंगार वर्णन में गंगा की चर्चा अनेक स्थलों पर की है-मनिमय हार धार बहु सुरसरि तओ नहिं सुखाई।।..................................................काम कम्बु भरि कनक सम्भु परि ढारत सुरसरि धारा।।.................................................भसम भरल जनि संकट रे, सिर सुरसरि जलधार।।अनेक विद्वान विद्यापति को गंगा जी का भक्त बतलाते हैं। कवि ने गंगा स्तुति भी की है-कर जोरि बिनमओं बिमल तरंगेपुन दरसन हो पुनमति गंगे।।विद्यापति ने परम पवित्र गंगा का बड़ा ही मनोहारी चित्रण किया है। वे काली, वाणी, कमला और गंगा को एक ही देवी मानते हैं-कज्जल रूप तुअ काली कहिअए,उज्जल रूप तुअ बानी।रविमंडल परचण्डा कहिअए,गंगा कहिअए पानी।विद्यापति सागर नागर की गृहबाला शरणागत वत्सला गंगा का वर्णन करते हुए कहते हैं-ब्रह्म कमण्डलु वास सुवासिनिसागर नागर गृह बाले।पातक महिस बिदारन कारनघृत करवाल बीचि माले।जय गंगे जय गंगेशरणागत भय भंगे।।‘कबीर वाणी’ और जायसी के ‘पद्मावत’ में भी गंगा का उल्लेख मिलता है, किन्तु सूरदास और तुलसीदास ने भक्ति भावना से गंगा-माहात्म्य का वर्णन विस्तार से किया है। ‘सूरसागर’ के नवम स्कन्धा में श्री गंगा आगमन वर्णन है-सुकदेव कह्यो सुनौ नरनाह। गंगा ज्यौं आई जगमाँह।।कहौं सो कथा सुनौ चितलाइ। सुनै सो भवतरि हरि पुर जाइ।।सूरदास के अनुसार राजा अंशुमाल और दिलीप के तप करने पर भी गंगा ने वर नहीं दिया, किन्तु भगीरथ के तप से गंगा जी ने दर्शन दिया-अंसुमान सुनि राज बिहाइ। गंगा हेतु कियो तप जाइ।।याही विधि दिलीप तप कीन्हों। पै गंगा जू वर नहिं दीन्हों।।बहुरि भगीरथ तप बहु कियौ। तब गंगा जू दरसन दियौ।।......................................................................गंगा प्रवाह मांहि जो न्हाइ। सो पवित्र ह्वै हरिपुर जाइ।।महाकवि तुलसीदास ने ‘रामचरित मानस’ कवितावली और विनय पत्रिका आदि में गंगा के माहात्म्य का उल्लेख अनेक प्रसंगों में किया है-राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचारि प्रचारा।।.........................................................................सिय सुरसरहिं कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरउबि मोरी।।........................................................................ कीरति भनिति भूति भल सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई।।...........................................................................चँवर जमुन अरु गंग तरंगा। देखि होंहिं दुख दारिद भंगा।।रामचरित मानस में गंगा को पतित-पावनी, दारिद्रय-नसावनी, मुक्ति-प्रदायिनी और सबका कल्याण करने वाली बतलाया गया है। ‘कवितावली’ में गंगा को विष्णुपदी, त्रिपथगामिनी और पापनाशिनी आदि कहा गया है-जिनको पुनीत वारि धारे सिर पे मुरारि।त्रिपथगामिनी जसु वेद कहैं गाइ कै।।गोस्वामी तुलसीदास ने कवितावली के उत्तरकाण्ड में ‘श्री गंगा माहात्म्य’ का वर्णन तीन छन्दों में किया है- इन छन्दों में कवि ने गंगा दर्शन, गंगा स्नान, गंगा जल सेवन, गंगा तट पर बसने वालों के महत्व को वर्णित किया है- कवि का विचार है कि जिस मनुष्य ने गंगा स्नान के लिए मन में निश्चय मात्र कर लिया, उसकी करोड़ों पीढ़ियों का उद्धार हो गया। उनके लिए देवांगनाएँ झगड़ती हैं, देवराज इन्द्र विमान सजाते हैं, ब्रह्मा पूजन की सामग्री जुटाते हैं और उसका विष्णु लोक में जाना निश्चित हो जाता है-देवनदी कहँ जो जन जान किए मनसा कहुँ कोटि उधारे।देखि चले झगरैं सुरनारि, सुरेस बनाइ विमान सवाँरे।पूजा को साजु विरंचि रचैं तुलसी जे महातम जानि तिहारे।ओक की लोक परी हरि लोक विलोकत गंग! तरंग तिहारे।।(कवितावली-उत्तरकाण्ड 145)वास्तव मे सर्वव्यापी परमब्रह्म परमात्मा जो ब्रह्मा, शिव और मुनिजनों का स्वामी है, जो संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कारण है, वही गंगा रूप में जल रूप हो गया है-ब्रह्म जो व्यापक वेद कहैं, गमनाहिं गिरा गुन-ग्यान-गुनी को।जो करता, भरता, हरता, सुर साहेबु, साहेबु दीन दुखी को।सोइ भयो द्रव रूप सही, जो है नाथ विरंचि महेस मुनी को।मानि प्रतीति सदा तुलसी, जगु काहे न सेवत देव धुनी को।। (कवितावली-उत्तरकाण्ड 146)कवि गंगा तट पर बसने का अभिलाषी अवश्य है; किन्तु वह गंगा दर्शन के प्रभाव से बचना चाहता है-बारि तिहारो निहारि मुरारि भएँ परसें पद पापु लहौंगो।ईस ह्वै सीस धरौं पै डरौं, प्रभु की समताँ बड़े दोष दहौंगो।बरु बारहिं बार सरीर धरौं, रघुबीर को ह्वै तव तीर रहौंगो।भागीरथी! बिनवौं कर जोरि, बहोरि न खोरि लगै सो कहौंगो।।(कवितावली-उत्तरकाण्ड 147)तुलसीदास ने ‘विनयपत्रिका’ के चार पदों में गंगा स्तुति की है। तीन पदों में उन्होंने गंगा के विविध नामों का वर्णन करके नाम-स्मरण का प्रभाव दिखलाया है। चैथे पद में गंगा के गुणकथन करते हुए तुलसी कहते हैं-ईस-सीस बससि, त्रिपथ लससि, नभ-पाताल धरनि।सुर-नर-मुनि-नाग-सिद्ध-सुजन मंगल करनि।।देखत दुख-दोष-दुरित-दाह-दारिद-दरनि।सगर-सुवन-साँसति-समनि, जलनिधि जल भरनि।।महिमा की अवधि करसि बहु बिधि-हरि-हरनि।तुलसी करु बानि बिमल, बिमल बारि बरनि।।भगीरथनंदिनी, विष्णुपदसरोजजा और जाह्न्वी के रूप में गंगा नर-नागों, देवताओं और ऋषिओं मुनियों के लिए वंदनीय है। गंगा के उद्भव (विष्णुपद), वास (ब्रह्म कमण्डल), विकास (भगीरथ नंदिनी), प्रवाह(जाह्न्वी) एवं प्रभाव (कल्पथालिका) का वर्णन दृष्टव्य है-जय जय भगीरथ नन्दिनि, मुनि-चय-चकोर चन्दिनि,नर नाग विविध- वन्दिनि जय जन्हु बालिका।विष्णु पद सरोजजासि, ईस-सीस पर बिभासि, त्रिपथगासि, पुन्यरासि पाप - दालिका।बिमल बिपुल बहसि बारि, सीतल त्रय ताप हारि,भँवर बर त्रिभंगतर तरंग मालिका।पुरजन पूज्योपहार सोभित ससि धवल धार,भंजन भव-भार भक्ति कल्प थालिका।निजतट बासी बिहंग जल-थल चर पसु पतंग,कीट जटिल तापस सब सरिस पालिका।।मुस्लिम कवियों में रहीम दास की अपार श्रद्धा हिन्दी देवी-देवताओं में थी। वे माँ गंगा की वंदना करते हुए कहते हैं-“विष्णु के श्री चरणों से निकलने वाली, शिव के सिर मालती की माला की भाँति सुशोभित होने वाली माँ! मुझे विष्णु रूप न बनाकर शिव रूप ही बनाना, जिससे मैं आपको अपने सिर पर धारण कर सकूँ-अच्युत चरण तरंगिणी, शिव सिर मालति माल।हरि न बनायो सुरसरी, कीजौ इंदव भाल।।रीतिकाल में केशवदास, सेनापति, पद्माकर आदि ने गंगा प्रभाव का वर्णन किया है जिनमें सेनापति और पद्माकर का गंगा वर्णन श्लाघनीय है। सेनापति ‘कवित्त रत्नाकर’ में गंगा माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहते हैं कि पाप की नाव को नष्ट करने के लिए गंगा की पुण्यधारा तलवार सी सुशोभित है-पावन अधिक सब तीरथ तैं जाकी धार,जहाँ मरि पापी होत सुरपुर पति है।देखत ही जाकौ भलो घाट पहचानियत,एक रूप बानी जाके पानी की रहति है।बड़ी रज राखै जाकौं महाधीर तरसत,सेनापति ठौर-ठौर नीकीयै बहति है।पाप पतवारि के कतल करिबे को गंगा,पुण्य की असील तरवारि सी लसति है।।सेनापति कहते हैं कि श्री राम के चरण कमलों को पाने का अंधों की लकड़ी की भाँति एक उपाय है कि श्री राम पद संगिनी तरंगिनी गंगा को पकड़ा जाये, उसका स्पर्श किया जाये, उसकी वंदना की जाये-एकै है उपाय राम पाइन को पाइबै कौं,सेनापति वेद कहैं अंध की लकरियै।राम पद संगिनी तरंगिनी है गंगा तातैं,याही पकिरे तैं पाइं राम के पकरियै।।

रीतिकालीन कवियों में पद्माकर ने गंगा की महिमा और कीर्ति का वर्णन करने के लिए ‘गंगा लहरी’ नामक ग्रंथ की रचना की है। इसमें भौतिक वैभव और सुख समृद्धि के प्रति वितृष्णा, पूर्वकृत पापों के लिए पश्चाताप एवं आन्तरिक वेदना तथा भक्ति-भावना का समन्वय मिलता है। इस ग्रंथ में सत्तावन छन्द हैं। ये छन्द गंगा की ही भाँति अति प्रवाहमय और रमणीय हैं-पापन की भाँति महामन्द मुख मैली भई,दीपति दुचंद फैली धरम समाज की।कहैं पद्माकर त्यों रोगन की राह परी,दाह परी दुखन में गाह अति गाज की।जा दिन ते भूमि माँहि भागीरथी आनी जग,जानी गंगा धारा या अपारा सब काज की।ता दिन ते जानीसी बिकानी बिलानीसी,बिलानीसी दिखानी राजधानी जमराज की।।................................... पायो जिन धौरी धारा में धसत पात,तिनको न होत सुरपुर ते निपात है।कहैं पद्माकर तिहारो नाम जाके मुख,ताके मुख अमृत को पुंज सरसात है।तेरो तोय छबै करि छुवति तन जाको बात,तिनकी चलै न जमलोकन में बात है।जहाँ जहाँ मैया धूरि तेरी उड़ि जात गंगा,तहाँ तहाँ पावन की धूरि उड़ि जात है।।पद्माकर गंगा प्रभाव वर्णन करते हुए कहते हैं कि गंगा विधि के कमण्डल की सिद्धि है, हरिपद प्रताप की नहर है, शिव के सिर की माला है। अंततः वह कलिकाल को कहर जमजाल को जहर है-बिधि के कमण्डल की सिद्धि है प्रसिद्ध यही,हरिपद पंकज प्रताप की नहर है।कहै पद्माकर गिरीस सीस मण्डल के,मुण्डन की माल तत्काल अघ हर है।भूषित भगीरथ के रथ की सुपुन्य पथ,जन्हु जप जोग फल फैल की लहर है।छेम की छहर गंगा रावरी लहर,कलिकाल को कहर जमजाल को जहर है।इस सन्दर्भ में आधुनिक काल के कवियों में जगन्नाथदास रत्नाकर का नाम सर्वाधिक उल्लेखनीय है। 1927 में रचित तथा 1933 में प्रकाशित उनके ग्रंथ ‘गंगावतरण’ में कपिल मुनि के शाप से शापित सगर के साठ हजार पुत्रों के उद्धार के लिए भगीरथ की भगीरथ तपस्या से गंगा के भूमि पर अवतरित होने की कथा है। सम्पूर्ण ग्रंथ तेरह सर्गों में विभक्त और रोला छन्द में निबद्ध है।रत्नाकर जी के ‘गंगावतरण’ का आधार चतुर्थ सर्ग को छोड़कर ‘बाल्मीकि रामायण’ की कथा है। ‘गंगावतरण’ के अनेक छन्द तो बाल्मीकि रामायण के भावानुवाद हैं; यथा-घृत पूर्णेषु कुंभेषु धान्यस्तान्समवर्धयन्।कालेन महता सर्वे यौवनं प्रतिपेदिरे।।(बाल्मीकि रामायण)दीरघ घृत घट घालि पालि ते धाइ बढ़ाए।समय संग सब अंग रूप जो बन अधिकाए।।(गंगावतरण)गंगावतरण में गंगा कलिकाल हरनी और पतित पावनी रूप में वर्णित है-पापी पतित स्वजाति व्यक्त सौ सौ पीढ़िनि के।धर्म बिरोधी कर्म भ्रष्ट च्युत स्रुति सीढ़िनि के।तव जल श्रद्धा सहित न्हाइ हरिनाम उचारत।ह्वै सब तन मन सुद्ध होंहिं भारत के भारत।।.................................................जय बिधि संचित सुकृत सार सुखसागर संगिनि।जय हरि पद मकरन्द मंजु आनन्द तरंगिनि।।जय संग सकल कलि मल हरनि विमल वरद बानी करो।निज महि अवतरन चरित्र के भव्य भाव विमल उर में भरो।।आधुनिक काल के अन्य कवियों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, सुमित्रानन्दन पन्त, नन्दकिशोर मिश्र, कवि सत्यनारायण, श्रीधर पाठक और अनूप शर्मा आदि ने भी यत्र-तत्र गंगा माहात्म्य का वर्णन किया है। यहाँ यह ध्यान दिला देना भी अपेक्षित है कि मुसलिम कवियों में रसखान, रहीम, ताज, मीर, जमुई खाँ आजाद और वाहिद अली वाहिद आदि ने भी गंगा प्रभाव का सुन्दर वर्णन किया है।आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने सन १८७२ में रचित ‘बैशाख माहात्म्य’ और सन १८८३ में रचित ‘कृष्णचरित्र’ के अन्तर्गत जन्हु-तनया, शिव-जटा-जूट जलाधिकृत वासिनी गंगा का वर्णन किया है। जाह्न्वी नाम की सार्थकता सिद्ध करते हुए वे कहते हैं-माधव सुदि सप्तमि कियो क्रुद्ध जन्हु जलपान।छोड़्यो दक्षिण कर्ण ते तातें पर्व महान।ताही सों जाह्न्वी भई ता दिन सों श्री गंग।तिनको उत्सव कीजिए तादिन धारि उमंग।।विष्णुपदी गंगे सभी लोकों को पवित्र करने वाली, अघ ओघ की बेड़ियों को काटने वाली, पतितों का उद्धार करने वाली तथा दुःखों को विदीर्ण करने वाली है-जयतु जह्नु-तनया सकल लोक की पावनीसकल अघ-ओघ हर-नाम उच्चार में,पतित जन उद्धरनि दुक्ख बिद्रावनी।कलि काल कठिन गज गव्र्व सव्र्वित करन,सिंहनी गिरि गुहागत नाद आवनी।............................. जै जै विष्णु-पदी गंगे।पतित उघारनि सब जग तारनि नव उज्ज्वल अंगे।शिव शिर मालति माल सरिस वर तरल तर तरंगे।‘हरीचन्द’ जन उधरनि पाप-भोग-भंगे।.............................. गंगा तुमरी साँच बड़ाई।एक सगर सुत हित जग आई तार्यो नर समुदाई।एक चातक निज तृषा बुझावत जाँचत धन अकुलाई।सो सरवर नद नदी बारि निधि पूरत सब झर लाई।नाम लेत पिअत एक तुम तारत कुल अकुलाई।‘हरीचन्द’ याही तें तो सिव राखौं सीस चढ़ाई।।छायावादी कवियों का प्रकृति वर्णन हिन्दी साहित्य में उल्लेखनीय है। सुमित्रानन्दन पन्त ने ‘नौका विहार’ में ग्रीष्म कालीन तापस बाला गंगा का जो चित्र उकेरा है, वह अति रमणीय है। उन्होंने ‘गंगा’ नामक कविता भी लिखी है-सैकत शैया पर दुग्ध धवल, तन्वंगी गंगा ग्रीष्म विरललेटी है श्रान्त क्लान्त निश्चल।तापस बाला गंगा निर्मल शशि मुख से दीपित मृदु कर तललहरें उस पर कोमल कुन्तल।गोरे अंगों पर सिहर-सिहर लहराता तार तरल सुन्दरचंचल अंचल-सा नीलाम्बर।साड़ी की सिकुड़न-सी जिस पर शशि की रेशमी विभा से भरसिमटी है वर्तुल मृदुल लहर।महाकवि निराला ने अपने काव्य में गंगा-यमुना का उल्लेख अनेक स्थलों पर किया है और पतित पावनी गंगा पर एक स्वतंत्र कविता लिखकर गंगा के प्रति अपनी श्रद्धा भी समर्पित की है।वाहिद अली ‘वाहिद’ ने अपनी कविता के माध्यम से स्पष्ट किया है कि गंगा सन्त-असन्त, मुल्ला-महन्त सभी को गले लगाती है तथा ध्यान-अजान और कुरान-पुरान से भारत को एक बनाती है-माँ के समान जगे दिन-रात जो प्रात हुई तो जगाती है गंगा।कर्म प्रधान सदा जग में, सबको श्रम पंथ दिखाती है गंगा।सन्त-असन्त या मुल्ला-महन्त सभी को गले से लगाती है गंगा।ध्यान-अजान, कुरान-पुरान से भारत एक बनाती है गंगा। गंगा नदी के महत्व को आर्य-अनार्य, वैष्णव-शैव, साहित्यकार-वैज्ञानिक सभी स्वीकार करते हैं; क्योंकि गंगा इनमें कोई भेद नहीं करती है। सभी को एक सूत्र में पिरोती है और एक सूत्र में बाँधे रखने का संकल्प प्रदान करती है गंगा।निरन्तर गतिशीला गंगा श्रम का प्रतीक है। केवल राष्ट्र की एकता और अखण्डता पर्याप्त नहीं है, सम्पन्न होना भी आवश्यक है और यह तभी संभव है जब श्रम के महत्व को समझा जाये। गंगा अनवरत श्रमशीला बनी रहकर सभी को अथक, अविरल श्रम करने का संदेश देती है। श्री रामदास जी कपूर ‘गंगा श्रम’ में श्रमशीला गंगा से प्रार्थना करते हैं-ब्रह्मा के निरूपण में सगुण स्वरूपिणी हो,राष्ट्र को अपौरुषेय दृष्टि विष्णु वाली दे।विधि के कमण्डल से संभव विधा की सीख,सृजन कला की प्रतिभा अंशुमाली दे।शम्भु उत्तमांग का अलभ्य ज्ञान चक्षु खोल,पाशुपत संयुत सुसैन्य शक्तिशाली दे।इन्दिरा-इरा की सृष्टि व्यापिनी समृद्धि हेतु,भागीरथी! श्रम की भगीरथ प्रणाली दे।।........................................... गंगा! दो अमोघ वर श्रम को सराहे नर,भक्ति की प्रबल शक्ति आप में सचर जाय।बँध एक सूत्र में स्वराष्ट्र बढ़े पौरुष से,युद्धकारियों की युद्ध लालसा बिखर जाय।........इत्यादि।

इस प्रकार गंगा जीवन तत्त्व है, जीवन प्रदायिनी है, इसीलिए माँ है। हमारा पौराणिक इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि गंगा केवल भारत-भूमि मात्र में ही नहीं वरन् वह आकाश, पाताल और इस पृथ्वी को मिलाती है और मंदाकिनी, भोगावती तथा भागीरथी की संज्ञा पाती है। इसी कारण ऋग्वेद, महाभारत, रामायण एवं अनेक पुराणों में गंगा को पुण्य सलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित् श्रेष्ठा एवं महानदी कहा गया है।

हिंदी का बाल-साहित्यपरंपरा, प्रगति और प्रयोगदिविक रमेश

प्रारंभ में ही कहना चाहूँगा कि हिंदी का बाल-साहित्य उपेक्षित और अपढ़ा अथवा अचर्चित भले ही हो लेकिन किसी भी दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं है। बल्कि कहा जा सकता है कि आज हिंदी के पास समृद्ध बाल-साहित्य, विशेष रूप से बाल-कविता उपलब्ध है। और इसका अर्थ यह भी नहीं कि बाल-साहित्य की अन्य विधाओं, मसलन कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी आदि के क्षेत्र में उत्कृष्ट सामग्री उपलब्ध न हो। बाल-नाटकों की एक अच्छी पुस्तक 'उमंग' हाल ही में सुप्रसिद्ध कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी के संपादन में राजकमल से प्रकाशित हुई है।

यहाँ यह भी स्पष्ट कर दिया जाए कि बाल-साहित्य का मूल आशय बालक के लिए सृजनात्मक साहित्य से है। बहुत से लोग बालक के लिए 'उपयोगी' अथवा शिक्षाप्रद साहित्य को भी बाल-साहित्य में, ठीक-गलत, गिन लिया करते हैं। उदाहरण के लिए साइकिल पर कविता और साइकिल से संबद्ध, बालक को ध्यान में रख कर प्रस्तुत की गई जानकारीपूर्ण सामग्री दो अलग-अलग रूप हैं। पहला सृजनात्मक साहित्य है तो दूसरा उपयोगी। जानकार लोग यह भी जानते हैं कि भले ही, हिंदी में, केवल बाल-साहित्य के रचनाकारों की संख्या न के बराबर रही हो लेकिन बड़ों के लिए लिखने वाले कितने ही रचनाकारों ने समृद्ध बाल-साहित्य की रचना की है। श्री जयप्रकाश भारती की पुस्तक 'बाल-साहित्य इक्कीसवीं सदी में' और प्रकाश मनु की पुस्तक 'हिंदी बाल कविता का इतिहास' इस दृष्टि से भी पढ़ी जा सकती हैं। कहानी के क्षेत्र में तो संस्कृत में ही विश्व ख्याति का बाल-साहित्य उपलब्ध हो गया था, जैसे पंचतंत्र। हिंदी में जहाँ अनूदित साहित्य के रूप में बाल-साहित्य या बाल-कहानी (साहित्य) उपलब्ध हुआ वहाँ मौलिक कहानियाँ भारतेंदु युग से ही उपलब्ध होनी शुरू हो गई थीं। शिवप्रसाद सितारे हिंद को कुछ विद्वानों ने बाल कहानी के सूत्रपात का श्रेय दिया है। उनकी कुछ कहानियाँ हैं -- राजा भोज का सपना, बच्चों का ईनाम, लड़कों की कहानी। बाद में तो रामनरेश त्रिपाठी, सुभद्रा कुमारी चौहान, प्रेमचंद आदि की रचनाओं के रूप में हिंदी बाल-साहित्य की कहानी परंपरा का समृद्ध रूप मिलता है। स्वतंत्रता मिलने के बाद तो इस क्षेत्र में अत्यंत उल्लेखनीय प्रगति देखी जा सकती है।

विष्णु प्रभाकर, जयप्रकाश भारती, राष्ट्रबंधु, हरिकृष्ण देवसरे, क्षमा शर्मा, यादवेंद्र चंद्र शर्मा, चक्रधर नलिन, दिविक रमेश, उषा यादव, देवेंद्र कुमार आदि कितने ही नाम गिनाए जा सकते हैं। कविता के क्षेत्र में भी जो अद्वितीय साहित्य रचा गया है, उसे ध्यान में रखते हुए स्व. जयप्रकाश भारती ने इस समय को बाल-साहित्य का स्वर्णिम युग कहा था। परंपरा को खोजते हुए वे श्री निरंकार देव सेवक की महाकवि सूरदास को सफल बाल गीतकार न मानने की धारणा से भिन्न, स्नेह अग्रवाल के मत का समर्थन करते हुए सूरदास को ही बाल-साहित्य का आदि गुरु मानते हुए प्रतीत होते हैं। हाँ, यह भी सत्य है कि सूरदास से पूर्व भी हिंदी के ऐसे कवि उपलब्ध हैं जिनकी रचनाएँ अपने आंशिक रूपों में बच्चों को भी सृजनात्मक साहित्य का आनंद देती रही है। जगनिक द्वारा रचित आल्हा खंड के कुछ अंश ग्रामीण बच्चों में प्रचलित रहे हैं। अमीर खुसरो की रचनाएँ बच्चों को भी प्रिय हैं। जहाँ तक बालक की पहली पुस्तक का प्रश्न है, तो वह 1623 ई. में जटमल द्वारा लिखित 'गोरा बादल की कथा' मानी जाती है। मिश्र बंधुओं ने पुस्तक की भाषा में खड़ी बोली का प्राधान्य माना है। इस कृति में मेवाड़ की महारानी पद्मावती की रक्षा करने वाले गोरा-बादल की कथा है। बाल-कविता के क्षेत्र में श्रीधर पाठक, विधाभूषण 'विभु', स्वर्ण सहोदर, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, सोहनलाल द्विवेदी आदि कितने ही रचनाकारों की रचनाएँ अमर हैं।

स्वाधीन भारत में बाल-साहित्य और साहित्यकार की भले ही घनघोर उपेक्षा होती आई हो लेकिन रचनाओं की दृष्टि से निसंदेह यह युग स्वर्णिम युग है और विश्व की अन्य श्रेष्ठ बाल-रचनाओं के लिए चुनौतीपूर्ण है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीप्रसाद, दामोदर अग्रवाल, शेरजंग गर्ग, दिविक रमेश, बालकृष्ण गर्ग, रमेश तैलंग, प्रकाश मनु, लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, रमेश कौशिक, कृष्ण शलम, अहद प्रकाश, श्यामसिंह शशि, जयप्रकाश भारती, राधेश्याम प्रगल्भ, श्याम सुशील आदि एक बहुत ही लंबी सूची के कुछ उल्लेखनीय एवं महत्वपूर्ण बिंदु हैं। इनके अतिरिक्त बच्चन, भवानीप्रसाद मिश्र, प्रभाकर माचवे जैसे कवियों ने भी बाल-कविता-जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज की है। नमूने के तौर पर एक कवितांश 'विभु' जी से और दूसरा स्वतंत्रता के बाद की कविता से उद्धृत है :1. घूम हाथी, झूम हाथी घूम हाथी, झूम हाथीराजा झूमें, रानी झूमें, झूमें राजकुमारघोड़े झूमें, फौजें झूमें, झूमें सब दरबार

2. अगर पेड़ भी चलते होतेकितने मज़े हमारे होते।बाँध तने में उसके रस्सीचाहे कहीं संग ले जातेजहाँ कहीं भी धूप सतातीउसके नीचे झट सुस्तातेजहाँ कहीं वर्षा हो जातीउसके नीचे हम छिप जाते।अगर पेड़ भी चलते होतेकितने मज़े हमारे होते।(दिविक रमेश)

1947 से 1970 तक के समय को हिंदी बाल-कविता की ऊँचाइयों का समय या 'गौरव युग' माना गया है क्योंकि प्रकाश मनु के शब्दों में, 'इस दौर को 'गौरव युग' कहने का अर्थ यह है कि इस दौर में बाल कविता में जितनी उर्जित, काव्य-क्षमतापूर्ण, संभावनापूर्ण और नए युग की चेतना से लैस प्रतिभाएँ मौजूद थीं, वे न इससे पहले थी और न बाद में ही नज़र आती हैं। इस मत से पूरी तरह सहमत होना तो किसी भी सचेत पाठक के लिए कठिन होगा - विशेष रूप से उनके इस मत से कि वे न इससे पहले थीं और न बाद में ही नज़र आती हैं` फिर भी उनके अतिरिक्त उत्साह को हटा कर उनके शेष भाव को ठीक माना जा सकता है। वस्तुत: स्वतंत्रता के बाद अब तक की पूरी बाल कविता को दृष्टि में रख कर बात की जाए तो ठीक रहेगा। बाल कविता के अनेक ऊँचे शिखर उपलब्ध हो जाएँगे। निसंदेह इस समय में दामोदर अग्रवाल, शेरजंग गर्ग, श्रीप्रसाद और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ऊँचे शिखरों में भी ऊँचे हैं। पहले के ऊँचे शिखर जैसे स्वर्ण सहोदर, निरंकार देव सेवक, शकुंतला सिरोठिया, सोहनलाल द्विवेदी इस दौर में भी सक्रिय थे।

कुछ बानगियाँ :

बड़ी शरम की बात है बिजली, बड़ी शरम की बातजब देखो गुल हो जाती होओढ़ के कंबल सो जाती होनहीं देखती हो यह दिन हैया यह काली रात है बिजलीबड़ी शरम की बात।(दामोदर अग्रवाल)कितनी अच्छी कितनी प्यारीसब पशुओं में न्यारी गाय,सारा दूध हमें दे देतीआओ इसे पिला दें चाय।(शेरजंग गर्ग)

ऐसा नहीं कि इन कवि की सभी रचनाएँ एक-सी ऊँची हों, लेकिन जो रचना ऊँची है वह सचमुच ऊँची है। सन १९७० के बाद के दौर की कविता को भले ही प्रकाश मनु ने 'विकास युग' माना हो लेकिन ऊँचाइयाँ इस युग में भी भरपूर हैं। उनके अनुसार 'विकास युग' इस मानी में कि इस दौर में हिंदी में बालगीत सबसे अधिक लिखे गए। बाल कविता में बहुत से नए-नए नाम दिखाई पड़े। ख़ासकर युवा लेखकों की हिस्सेदारी काफ़ी बड़ी नज़र आती है। बाल कविता के रूप में विविधता भी इस दौर में काफ़ी है और वह रूप बदलती है, विकास के नए-नए रास्ते तलाश करती है। पता नहीं क्यों मनु जी ने इस दौर के शिखरों को टीले कहना मुनासिब समझा है और तथाकथित 'गौरव युग' की तुलना में 'विकास युग' की कविता में अनूठेपन, शक्ति आदि को कमतर समझा है। यह भी ऐसा समय है जिसमें तीन या चार पीढ़ियों के बाल कवि एक साथ रचनारत नज़र आते हैं। कुछ बानगियाँ इस दौर की कविताओं से :

अले, छुबह हो गई,आँगन बुहार लूँ।मम्मी के कमले की तीदें थमाल लूँ।कपड़े ये धूल भलेमैले हैं यहाँ पलेताय भी बनाना हैपानी भी लाना है।पप्पू की छर्ट फटी, दो ताँके दाल लूँ,मम्मी के कमले की तीदें थमाल लूँ।(रमेश तैलंग)

थकता तो होगा सूरजरोज़ सवेरेइतना गट्ठरबाँध रोशनीलाता हैचोटी तक ढोकरथकता तो होगा सूरज।पर पापा, इक बात बताओनहीं न होता सबका घरक्या करते होंगे वे बच्चेजिनके पास नहीं है घर।(दिविक रमेश)

एक था राजा, एक थी रानीदोनों करते थे मनमानीराजा का तो पेट बड़ा थारानी का भी पेट घड़ा था।खूब वे खाते छक-छक-छक करफिर सो जाते थक-थक-थककर।काम यही था बक-बक, बक-बक नौकर से बस झक-झक, झक-झक(जयप्रकाश भारती)

निसंदेह किसी भी दौर की तरह इस समय में भी बहुत सी रचनाएँ चलताऊ या ख़राब भी मिलती हैं। और उन्हें उद्धृत करके सहज ही सिद्ध किया जा सकता है कि बाल-कविता के आँगन में कितना कूड़ा कर्कट है। लेकिन नज़र तो अच्छी और ऊँची कविताओं की ओर जानी चाहिए। इसके लिए जिज्ञासा, पढ़ने और खोजने की ललक चाहिए। अच्छी बात है कि आजकल बाल-साहित्य संबंधी शोध एवं आलोचना का कार्य भी बढ़ चला है, भले ही वह अभी बहुत कम और ऊँचे स्तर का न हो। बाल-साहित्य पर केंद्रित सेमिनार आदि भी होने लगे हैं भले ही उनकी संख्या बहुत उत्साहवर्द्धक न हो।

श्री जयप्रकाश भारती, हम सब जानते हैं, बालक के प्रति पूरा जीवन पूरी तरह समर्पित रहे। बालक और बाल-साहित्य की घोर उपेक्षा से वे हमेशा विचलित रहे और अशांति, अपराध और असमाजिक तत्वों के फलने-फूलने का कारण भी उन्होंने उपर्युक्त उपेक्षा को ही माना। उनका मानना था कि 'जिस देश के पास समृद्ध बाल साहित्य नहीं है, वह उज्जवल भविष्य की आशा कैसे कर सकता है।' और 'क्या बालक को कल या परसों के भरोसे छोड़ा जा सकता है? इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों के लिए हमारे बालक तैयार हैं कि नहीं?

बाल-साहित्य के क्षेत्र में भी दुर्भाग्य से गुटबाजी की अनुगूँजें सुनाई पड़ जाती हैं। दुराग्रहों और पूर्वाग्रहों का भी चलन हो चला है। इससे तुरंत बचना होगा। केवल अपने अपने अहंकार की तुष्टि के लिए बचकानी बहसों को छोड़ना होगा। आज का बाल-साहित्य कैसा हो इसे संतुलित ढंग से समझना होगा। परियों का नाम आते ही बिदकना और आधुनिकता के नाम पर जबरदस्ती कुछ वैज्ञानिक उपकरणों के नाम जाप से बचना होगा। यह समझना होगा कि बाल-साहित्य की रचना प्रक्रिया भी वैसी होती है जैसी बड़ों के साहित्य की। आधुनिकता ट्रीटमेंट में भी हो सकती है। स्वयं मैंने परियों को लेकर लिखा है। मेरा यहाँ ज्ञान परी को भी स्थान मिला और एक अति यथार्थपरक मानवीय परी को भी। प्रौढ़ होकर एक बात समझ में आई कि बाल-कविता और बालक के द्वारा लिखी गई कविता (या कहानी आदि) में अंतर होता है। बाल-कविता बाल-मन के निकट की, बालक के लिए रचना होती है जबकि बालक के द्वारा रचित रचना बड़ों के लिए भी हो सकती है, और प्राय: होती है। बात यह भी समझ में आई कि बालक समझ कर जिस बच्चे की बातों, उसकी समझदारी को हम कच्चेपन की बात कहते हैं, वह ठीक नहीं। बच्चा आहे बगाहे बड़ों से ज्य़ादा बड़ी बात कहने की क्षमता रखता है। मुझे याद है कि एक बार मित्रों के साथ सपरिवार पिकनिक में मेरे अल्प आयु बेटे ने ऐसी बात की थी कि वह मुझे आज तक याद है। मैंने ऐसे ही सिगरेट जला ली थी। देखा-देखी। मेरे बेटे ने कहा, 'पापा बीड़ी गंदी चीज़ है।' और मैंने सिगरेट फेंक दी। मेरे पिता जी यानी बेटे के दादा बीड़ी के शौकीन थे। अत: बेटे ने सिगरेट को भी बीड़ी कहा क्योंकि उसकी शब्द-संपदा में बीड़ी ही पंजीकृत थी। कभी दादा ने सहज ही कहा होगा की बीड़ी बुरी चीज़ है। काफ़ी बाद में जाकर थोड़ी कल्पना के सहारे आत्मपरक शैली में एक कविता लिखी गई, 'बहुत बुरा है यह हुक्का'। कविता कुछ यों बनी:

रोज़ देखते थे मुन्ना जीदादा को पीते हुक्काखूब मज़ा आता था उनकोजब करता गुड़गुड़ हुक्कासोचा करते क्यों न मैं भीपी कर के देखूँ हुक्काकहना था पर दादा जी का'ना पीते बच्चे हुक्का।'लेकिन मौका देख बजायागुड़गुड़ मुन्ने ने हुक्काघुसना ही था धुआँ हलक मेंचिलम भरा था वह हुक्का।हाल हुआ था बुरा खाँसकरफेंका मुन्ने ने हुक्कासोचा कभी न पीऊँगा मैंबहुत बुरा है यह हुक्का।

क्योंकि मेरी पृष्ठभूमि गाँव की है अत: शब्द परिवेश आदि गाँव का रचित हुआ है। बाल-कविता (रचना) प्राय: अपने समय के बच्चे से ही अधिक प्रेरणा ग्रहण किए होती है, लेकिन स्वयं रचनाकार के अपने बचपन-अनुभव भी सृजनशील होकर योगदान किए रहते हैं। दूसरी यह कि बाल रचना और उसमें भी बाल कविता को किसी विषय केंद्रित लय-तुक का अभ्यास मात्र नहीं होना चाहिए। वस्तुत: बाल-कविता भी एक रचना है। और जैसा पहले भी कहा जा चुका है उसकी रचना-प्रक्रिया भी लगभग वैसी ही होती है जैसी कि एक प्रौढ़ कविता की। इसी आधार पर कहा जा सकता है कि बाल रचना में भी कोई विषय नहीं होता बल्कि कलात्मक अनुभव ही होता है और रचनाकार के इसी कलात्मक अनुभव के कारण रचना भी मौलिक हो पाती है। रचना में पेड़ दिखना रचना का पेड़ विषय पर रचना होना नहीं होता बल्कि रचना में तो पेड़ का रचनाकार द्वारा कलात्मक अनुभव होता है और रचना बन जाती है -अगर पेड़ भी चलते होतेकितने मज़े हमारे होते।

कालजयी या दीर्घकाल जीवी कविता अथवा रचना की एक विशेषता उसका सदा प्रासंगिक बने रहना भी होता है। तो कहा जा सकता है कि रचनाकार समय समय पर लिखी जाने वाली रचना को अपने समय के अर्थात रचना के समय के बच्चे के लिए तो लिखता ही है, साथ ही एक हद तक भविष्य के बच्चे के लिए भी लिखता है। स्पष्ट है कि बच्चे के लिए लिखते समय उस बच्चे की समस्याएँ और आकांक्षाएँ आदि सब कुछ रचनाओं में झलकेगा ही। मेरी श्रेष्ठ रचनाओं का प्रेरक बच्चा सामान्यतया एक समझदार, जीवंत, संजीदा, आत्मविश्वासी, अभिव्यक्ति का जाने-अनजाने खतरा उठा सकने वाला, अपने में मस्त, सहज, जिज्ञासु, विरोधाभासों एवं पाखंडों के प्रति समझदार, कल्पनाशील और सकारात्मक है। बड़ों का पाखंड उसे दुखी करता है, आक्रोश से भरता है --अगर बड़े हैं, कर्णधार हैंहमें न ऐसी राह दिखाएँबच्चों की अच्छी दुनिया मेंमत कूड़ा-करकट फैलाएँ।(अगर चाहते, मधुर गीत-3)

अब भी बच्चों के प्रति पूरा दायित्व समझते हुए, बच्चों के लिए सच्चा एवं श्रेष्ठ लिखा जाना बहुत शेष है। बच्चों के लिए लिखा बच्चों के ही समान मासूम, स्वाभाविक, निर्मल एवं 'बड़ा' होना चाहिए। फिर लिख दूँ कि बहुत से बड़े लोग बाल-साहित्य के क्षेत्र में भी बड़ी याने गंदी राजनीति लाकर उसे दूषित करना चाह रहे हैं, इसका विरोध होना चाहिए। लेकिन यकीन मानिए आज हिंदी में उत्तम कोटि का बाल-साहित्य उपलब्ध है और पुस्तकों की साज-सज्जा आदि की दृष्टि से भी आज हम गर्व कर सकते हैं। और यह भी कि आज हिंदी में अन्य भारतीय भाषाओं से ही नहीं बल्कि विदेशी भाषाओं से भी अनुवाद के रूप में बाल-साहित्य उपलब्ध है। नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित 'कोरियाई बाल कविता' पुस्तक में तो मेरे ही अनुवाद हैं। आज सबसे ज़्यादा ज़रूरत अच्छे बाल-साहित्य की पहचान और उसे रेखांकित/विज्ञापित करने के साथ-साथ उसे बालक का खेल समझ उसकी उपेक्षा करने वालों को चुनौती देने की है।

साहित्य में वैज्ञानिक एवं सामाजिक चेतना - शैलेन्द्र चौहान 

भारतीय मानस तपस्या, हवन, पूजा आदि से ऐसी दैवी शक्तियों तथा असाधारण सामर्थ्य की अवधारणा करता रहा है जो आज वैज्ञानिक अनुसंधानों के रूप में हमारे समक्ष भौतिक रूप में विद्यमान हैं। महाभारत, रामायण आदि प्राचीन ग्रंथों में युद्ध में प्रयुक्त विशेष अस्त्र शस्त्र जो पारंपारिक अस्त्रों से भिन्न दैवी वरदान के रूप में प्राप्त होते थे उनकी तुलना आज के अत्याधुनिक अस्त्रों से की जा सकती है।

इसी तरह रामायण में प्रयुक्त पुष्पक विमान किसी छोटे हेलीकॉप्टर या हावर क्राफ्ट की तरह लगता है। आकाशवाणी का भी कई जगह जिक्र आता है कुछ इस तरह जैसे पास ही कहीं से कोई पब्लिक एड्रेस सिस्टम की तरह उद्घोषणा कर रहा हो। औषधि विज्ञान की तो ऐसी चमत्कारिक स्थितियाँ हैं कि जीता हुआ व्यक्ति लोप हो जाए, मरा हुआ पुन: जिन्दा हो जाए, एक शरीर के दो टुकड़े और पुन: दो के एक हो जाएं। कुल मिलाकर मन्तव्य यह कि विज्ञान, जो कि यथार्थ और सुविचारित स्वाध्याय तथा मेधा द्वारा नये नये आविष्कार करता है वह भारतीय प्राचीन ग्रंथों में शक्ति और वरदान की तरह प्रयुक्त होते हैं।

मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि मनुष्य ने वैज्ञानिक शक्तियों से काफी पहले ही साक्षात्कार कर लिया था। परंतु उस समय की सामाजिक व्यवस्था ऐसी थी कि वैज्ञानिक अनुसंधान निहायत व्यक्तिगत संपत्ति की तरह उपयोग में लिये जाते थे और सारे चमत्कार राजाओं और राजकुमारों के पास ही रहते थे। भारतीय प्राचीन साहित्य में इन चमत्कारों और शक्तियों का भरपूर प्रयोग हुआ है परंतु चँूकि साधारण जन के पास उन शक्तियों के बारे में जानने का कोई जरिया नहीं था अत: उसने इन्हें चमत्कार के रूप में ही स्वीकारा।

आज विज्ञान हमारी जीवन शैली का एक अभिन्न अंग है। आज बहुत कुछ समाज के सामने हैं। यद्यपि आज भी सत्ताधारी वर्ग के स्वार्थ हैं। सम्पन्नता की जीत है और सामर्थ्य का बोलबाला है परंतु फिर भी विज्ञान हमारे दैनिक जीवन में एक महात्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करने लगा है। यातायात के आधुनिक साधन, प्रौद्योगिकी का विकास, उद्योग धंधे, उत्पादन, बिजली और प्रचार माध्यम, रसायन एवं औषधि विज्ञान हमारे दैनंदिन जीवन का अंग बन चुके हैं। जहिर है समाज पर विज्ञान की इतनी बड़ी पकड़ को साहित्यकार भी नजर अंदाज नहीं कर सकता। प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से हमारी चेतना को वैज्ञानिक अनुसंधान प्रभावित कर रहे हैं। अत: साहित्य सृजन को भी वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित कर रहे हैं। हाँ उनका सीधा-सीधा उपयोग साहित्य में उस तरह स्थूल रूप में संभव नहीं है कि हमें लगे कि यह साहित्य वैज्ञानिक युग का प्रतिबिम्ब है अलबत्ता वैज्ञानिक साहित्य अब प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।

विज्ञान और साहित्य के अंर्तसंबंधों की बात जब की जाती है तब यह ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिए कि विज्ञान, विज्ञान है कला, कला। यहाँ बात मैं अंर्तसंबंधों की कर हूँ स्थूल संबंधों की नहीं। साहित्य पर विज्ञान का प्रभाव रूपांतरित होकर पड़ता है सीधा नहीं। हाँ कहीं कभी यदि भावभूमि की जगह दृश्य चित्रण होता है तब अवश्य वैज्ञानिक उपकरण या ये दृश्य साहित्य में अंकित होते हैं जिन्हें साहित्यकार देखता सुनता है।

हिन्दी कविता में साठ के दशक में प्रयोगवाद के तहत वैज्ञानिक चिंतन तथा चित्रण की अ�

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