kabir-dohe 4
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अवगुन कह ॉ शयाफ का, आऩा अहभक होम ।
भानुष से ऩशुआ बमा, दाभ गाॉठ से खोम ॥१४८॥
अहॊ अग्नन ननशश ददन जयै, गुरू सो चाहे भान । ताको जभ न्मोता ददमा, होउ हभाय भेहभान ॥४४९॥
अहरयन की चोयी कयै, कयै सुई का दान ।
ऊॉ चा चदढ कय देखता, केनतक दरुय वशभान ॥८४१॥
आॉख देखा घी बरा, न भुख भेरा तरे ।
साघु सो झगडा बरा, ना साकट सों भेर ॥५४०॥
आॉखख न देखे फावया, शब्द सुनै नहीॊ कान ।
शसय के केस उज्जवर बमे, अफहु नपऩट अजान ॥८५१॥
आग जो रागी सभॊद भें, धुॊवा न ऩयगट होम
सो जाने जो जयभुआ, जाकी रागी होम
आगे अॊधा क ऩ भें, द जे शरमा फुराम ।
दोन फ डछे फाऩुये, ननकसे कौन उऩाम ॥४८६॥
आछे ददन ऩाछे गमे, गुरू सों ककमा न हैत । अफ ऩनछतावा क्मा कये, चचडडमा चुग गई खेत ॥७८४॥
आज कहै भें कर बज ॉ, कार कपय कार ।
आज कार के कयत ही, औसय जासी चार ॥७८५॥