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प्रसिद सांस्कृतिक व्यक्ति

प्रसिद सांस्कृतिक व्यक्ति का अयोजन वी डी. [वरुण ढाका] इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी मे 22 सितम्बर 2017 को विनायक दामोदर सावरकर और तीजनबाई और रबिन्द्रनाथ टैगोर और मनोविश्लेषण कार्यशाला का आयोजन किया ! इस कार्यशाला के अंतर्गत बी.एड विद्यार्थियों ने भाग लिया तथा साथ – साथ प्रधानचार्य ज़ी व मुख्य शिक्षक की निगरानी मे जैसे उमा मैम , रूचि मैम , हेमा मैम , तथा केतकी मैम , गीता मैम ,आदि भी शामिल थी

पूरा नाम    – विनायक दामोदर सावरकरजन्म         – 28 मई  1883जन्मस्थान – भगुर ग्रामपिता          – दामोदर सावरकरमाता          – राधाबाई सावरकरविवाह        – यमुनाबाई से हुआ

विनायक दामोदर सावरकर  : विनायक दामोदर सावरकर का जन्म मराठी चित्पावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम दामोदर और माता का नाम राधाबाई सावरकर था. उनका परिवार महाराष्ट्र के नाशिक शहर के पास भगुर ग्राम में रहता था. उनके और तीन भाई – बहन भी है, जिनमे से दो भाई गणेश और नारायण एवं एक बहन मैना है.

1901 में विनायक का विवाह यमुनाबाई से हुआ, जो रामचंद्र त्रिंबक चिपलूनकर की बेटी थी, और उन्होंने ही विनायक की यूनिवर्सिटी पढाई में सहायता की थी बाद में 1902 में उन्होंने पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज में एडमिशन लिया. एक युवा व्यक्ति के रूप में उन्हें नयी पीढ़ी के राजनेता जैसे बाल गंगाधर तिलक , बिपिन चंद्र पाल  और लाला लाजपत राय  से काफी प्रेरणा मिली जो उस समय बंगाल विभाजन के विरोध में स्वदेशी अभियान चला रहे थे. सावरकर बहोत से स्वतंत्रता अभियान में शामिल हुए थे. 1905 में दशहरा उत्सव के समय विनायक ने विदेशी वस्तुओ और कपड़ो का बहिष्कार करने की ठानी और उन्हें जलाया इसी के साथ उन्होंने अपने कुछ सहयोगियों और मित्रो के साथ मिलकर राजनैतिक दल अभिनव भारत की स्थापना की. बाद में विनायक के कामो को देखते हुए उन्हें कॉलेज से निकाला गया लेकिन अभी भी उन्हें बैचलर ऑफ़ आर्ट की डिग्री लेने की इज़ाज़त थी. और अपनी डिग्री की पढाई पूरी करने के बाद, राष्ट्रिय कार्यकर्त्ता श्यामजी कृष्णा वर्मा ने कानून की पढाई पूरी करने हेतु विनायक को इंग्लैंड भेजने में सहायता की, उन्होंने विनायक को शिष्यवृत्ति भी दिलवाई. उसी समय तिलक के नेतृत्व में गरम दल की भी स्थापना की गयी थी. तिलक भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस के उग्रवादी नेता थे और साथ ही गरम दल के सदस्य भी थे. उनके द्वारा स्थापित किये गये दल का उद्देश्य भारत से ब्रिटिश राज को खत्म करना ही था.

विनायक दामोदर सावरकर की जीवनी : विनायक दामोदर सावरकर एक भारतीय स्वतंत्रता कार्यकर्त्ता, राजनीतिज्ञ और साथ ही एक कवी और लेखक भी थे. वे हिंदु संस्कृति में जातिवाद की परंपरा का विनाश करना चाहते थे, सावरकर के लिये हिंदुत्व का मतलब ही एक हिंदु प्रधान देश का निर्माण करना था. उनके राजनैतिक तत्वों में उपयोगितावाद, यथार्थवाद और सच शामिल है. बाद में कुछ इतिहासकारों ने सावरकर के राजनैतिक तत्वों को दूसरो शब्दों में बताया है. वे भारत में सिर्फ और सिर्फ हिंदु धर्म चाहते थे, उनका ऐसा मानना था की भारत हिन्दुप्रधान देश हो. और देश में सभी लोग भले ही अलग-अलग जाती के रहते हो लेकिन विश्व में भारत को एक हिंदु राष्ट्र के रूप में ही पहचान मिलनी चाहिये. इसके लिये उन्होंने अपने जीवन में काफी प्रयत्न भी किये.

सावरकर के क्रांतिकारी अभियान की शुरुवात तब हुई जब वे भारत और इंग्लैंड में पढ़ रहे थे, वहा वे इंडिया हाउस से जुड़े हुए थे और उन्होंने अभिनव भारत सोसाइटी और फ्री इंडिया सोसाइटी के साथ मिलकर स्टूडेंट सोसाइटी की भी स्थापना की. उस समय देश को ब्रिटिशो ने अपनी बेडियो में जकड़ा हुआ था इसी को देखते हुए देश को आज़ादी दिलाने के उद्देश्य से उन्होंने द इंडियन वॉर का प्रकाशन किया और उनमे 1857 की स्वतंत्रता की पहली क्रांति के बारे में भी प्रकाशित किया लेकिन उसे ब्रिटिश कर्मचारियों ने बैन (बन्न - बर्खास्त) कर दिया. क्रांतिकारी समूह इंडिया हाउस के साथ उनके संबंध होने के कारण 1910 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था. जेल में रहते हुए जेल से बाहर आने की सावरकर ने कई असफल कोशिश की लेकिन वे बाहर आने में असफल होते गये. उनकी कोशिशो को देखते हुए उन्हें अंडमान निकोबार की सेलुलर जेल में कैद किया गया लेकिन फिर 1921 में उन्हें रिहा भी किया गया था

जेल में भी सावरकर शांत नही बैठे थे, वहा बैठे ही उन्होंने हिंदुत्व के बारे में लिखा. 1921 में उन्हें प्रतिबंधित समझौते के तहत छोड़ दिया था की वे दोबारा स्वतंत्रता आन्दोलन में सहभागी नही होंगे बाद में सावरकर ने काफी यात्रा की और वे एक अच्छे लेखक भी बने, अपने लेखो के माध्यम से वे लोगो में हिंदु धर्म और हिंदु एकता के ज्ञान को बढ़ाने का काम करते थे. सावरकर ने हिंदु महासभा के अध्यक्ष के पद पर रहते हुए भी सेवा की है, सावरकर भारत को एक हिंदु राष्ट्र बनाना चाहते थे लेकिन बाद में उन्होंने 1942 में भारत छोडो आन्दोलन में अपने साथियो का साथ दिया और वे भी इस आन्दोलन में शामिल हो गये. उस समय वे भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस के उग्र आलोचक बने थे और उन्होंने कांग्रेस द्वारा भारत विभाजन के विषय में लिये गये निर्णय की काफी आलोचना भी की.उन्हें भारतीय नेता मोहनदास करमचंद गाँधी की हत्या का दोषी भी ठहराया गया था l

अन्तकाल का जीवन और मृत्यु : जब सावरकर को गांधीजी की हत्या का दोषी माना गया तो मुंबई के दादर में स्थित उनके घर पर गुस्से में आयी भीड़ ने पत्थर फेकना शुरू कर दिया. लेकिन बाद में कोर्ट की करवाई में उन्हें निर्दोष पाया गया और उन्हें रिहा कर दिया गया, उन पर ये आरोप भी लगाया गया था की वे “भड़काऊ हिंदु भाषण” देते है लेकिन कुछ समय बाद उन्हें पुनः निर्दोष पाया गया और रिहा कर दिया गया. लेकिन उन्होंने अपने तत्व हिंदुत्व के जरिये कभी भी लोगो को जागृत करना नही छोड़ा, अंतिम समय तक वे हिंदु धर्म का प्रचार करते रहे.

उनके भाषणों पर बैन लगने के बावजूद उन्होंने राजनैतिक गतिविधिया करना नही छोड़ा.1966 में अपनी मृत्यु तक वे सामाजिक कार्य करते रहे. उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने उन्हें काफी सम्मानित किया और जब वे जीवीत थे तब उन्हें बहोत से पुरस्कार भी दिए गये थे. उनकी अंतिम यात्रा पर 2000 आरएसएस के सदस्यों ने उन्हें अंतिम विदाई दी थी और उनके सम्मान में “गार्ड ऑफ़ हॉनर” भी किया था.

सावरकर के जीवन से जुडी इन बातो को जानना हमारे लिये बहुत जरुरी है : 1. सावरकर दुनिया के अकेले स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्हें दो-दो आजीवन कारावास की सजा मिली.2. सावरकर पहले ऐसे भारतीय राजनेता थे जिन्होंने सर्वप्रथम विदेशी वस्त्रो की होली जलाई थी.3. वीर सावरकर ने राष्ट्र ध्वज तिरंगे के बीच में धर्म चक्र लगाने का सुझाव सबसे पहले दिया था जिसे राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने माना.स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे महान क्रांतिकारी को कोटि-कोटि नमन…………

अन्याय पर उद्धरण:

1. अन्याय का जड़ से उन्मूलन क्र सत्य –धर्म की स्थापना – हेतु क्रांति, रक्तचाप प्रतिशोध आदि प्रकृतिप्रदत्त साधन ही हैं. अन्याय के परिणामस्वरूप होनेवाली वेदना और उद्दण्डता ही तो इन साधनों की नियन्त्रणकत्री है.

अहिंसा पर उद्धरण:

2. अपने देश की, राष्ट्र की, समाज की स्वतन्त्रता – हेतु प्रभु से की गई मूक प्राथर्ना भी सबसे बड़ी अहिंसा का द्दोतक ह

तीजनबाई

तीजनबाई (जन्म- २४ अप्रैल १९५६) भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के पंडवानी लोक गीत-नाट्य की पहली महिला कलाकार हैं। देश-विदेश में अपनी कला का प्रदर्शन करने वाली तीजनबाई को बिलासपुर विश्वविद्यालय द्वारा डी लिट की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया है। वे सन १९८८ में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री और २००३ में कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से अलंकृत की गयीं। उन्हें १९९५ में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार तथा २००७ में नृत्य शिरोमणि से भी सम्मानित किया जा चुका है।

भिलाई के गाँव गनियारी में जन्मी इस कलाकार के पिता का नाम हुनुकलाल परधा और माता का नाम सुखवती था। नन्हीं तीजन अपने नाना ब्रजलाल को महाभारत की कहानियाँ गाते सुनाते देखतीं और धीरे धीरे उन्हें ये कहानियाँ याद होने लगीं। उनकी अद्भुत लगन और प्रतिभा को देखकर उमेद सिंह देशमुख ने उन्हें अनौपचारिक प्रशिक्षण भी दिया। १३ वर्ष की उम्र में उन्होंने अपना पहला मंच प्रदर्शन किया। उस समय में महिला पंडवानी गायिकाएँ केवल बैठकर गा सकती थीं जिसे वेदमती शैली कहा जाता है। पुरुष खड़े होकर कापालिक शैली में गाते थे। तीजनबाई वे पहली महिला थीं जो जिन्होंने कापालिक शैली में पंडवानी का प्रदर्शन किया।

परिचय : तीजनबाई का जन्म 24 अप्रैल , 1956 मे छतीसगढ़ राज्य के भिलाई जिले के गिनियार गाव मे हुआ था l ब्रजलाल पराधी तीजनबाई के नाना थे , जो खुद भी एक अच्छे पंडवानी गायक थे और तीजनबाई का पालन पोषण भी ब्रजलाल पारधी ने ही किया था l तीजनबाई के पिता का नाम हुनुकलाल परधा और माता का नाम सुखवती था l तीजनबाई का बचपन बहुत संघर्षों से भरा हुआ था l

विवाह : तीजनबाई का विवाह12 साल की उम्र में हो गया था। उसके बाद तीजनबाई ने तीन विवाह और किए, अब वह अपने चौथे पति तुक्का राम के साथ जीवन व्यतीत कर रही हैं। तीजनबाई का अपना पहला विवाह पारधी जनजाति में हुआ था जहाँ पर महिलाओं को पण्डवानी गाने की अनुमति दी जाती थी और तीजनबाई जिस जनजाति की थी उसमें में सिर्फ पुरुष पण्डवानी गाते थे और महिलाएँ सुनती थी।

प्रथम प्रस्तुति : तीजनबाई ने अपना जीवन का पहला कार्यक्रम सिर्फ 13 साल की उम्र में दुर्ग ज़िले के चंदखुरी गाँव में किया था। बचपन में तीजनबाई अपने नाना ब्रजलाल को महाभारत की कहानियाँ गाते हुए सुनती और देखतीं थी और धीरे धीरे उन्हें ये कहानियाँ याद होने लगीं। उनकी अद्भुत लगन और प्रतिभा को देखकर उमेद सिंह देशमुख ने तीजनबाई को अनौपचारिक प्रशिक्षण भी दिया, बाद में उनका परिचय हबीब तनवीर से हुआ। प्रसिद्ध रंगकर्मी हबीब तनवीर ने उन्हें सुना और उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के सामने प्रदर्शन करने के लिए निमंत्रित किया। उस दिन के बाद से उन्होंने अनेक अतिविशिष्ट लोगों के सामने देश-विदेश में अपनी कला का प्रदर्शन किया और उसके बाद उनकी प्रसिद्धि आसमान छूने लगी।

अनेक पुरस्कारों द्वारा पुरस्कृत तीजनबाई मंच पर सम्मोहित करने वाले अद्भुत नृत्य नाट्य का प्रदर्शन करती हैं। नाट्य का प्रारम्भ होते ही पात्र के अनुसार उनका सज्जित तानपूरा भिन्न भिन्न रूपों का अवतार ले लेता है। उनका तानपूरा कभी महाभारत के पात्र दुःशासन की बाँह, कभी अर्जुन का रथ, कभी भीम की गदा और कभी द्रौपदी के बालों का रूप धरकर दर्शकों को इतिहास के उस काल में पहुँचा देता है और दर्शक तीजनबाई के साथ पात्र के मनोभावों और ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं की संवेदना को जीवंतता के साथ अनुभव करते हैं। तीजनबाई की विशेष प्रभावशाली लोकनाट्य के अनुरूप आवाज़, अभिनय, नृत्य और संवाद उनकी कला के विशेष अंग है

विदेश यात्राएँ : सन् 1980 में उन्होंने सांस्कृतिक राजदूत के रूप में इंग्लैंड, फ्रांस, स्विट्ज़रलैंड, जर्मनी, टर्की, माल्टा, साइप्रस, रोमानिया और मारिशस की यात्रा की और वहाँ पर प्रस्तुतियाँ दीं।

पुरस्कार :

· 1998 पद्मश्री

· 1995 संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार

· 2003 बिलासपुर विश्वविद्यालय के द्वारा डी. लिट. की मानद उपाधि

· 2003 पद्म भूषण

रबीन्द्रनाथ टैगोर की जीवनी : रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म देवेन्द्रनाथ टैगोर और शारदा देवी के सन्तान के रूप में ७ मई १८६१ को कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में हुआ। उनकी स्कूल की पढ़ाई प्रतिष्ठित सेंट जेवियर स्कूल में हुई। उन्होंने बैरिस्टर बनने की चाहत में १८७८ में इंग्लैंड के ब्रिजटोन में पब्लिक स्कूल में नाम दर्ज कराया। उन्होंने लन्दन विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन किया लेकिन १८८० में बिना डिग्री हासिल किए ही स्वदेश वापस आ गए। सन् १८८३ में मृणालिनी देवी के साथ उनकाअ विवाह है रचनाधर्मी :-

मुख्य लेख : रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कृतियाँ

बचपन से ही उनकी कविता, छन्द और भाषा में अद्भुत प्रतिभा का आभास लोगों को मिलने लगा था। उन्होंने पहली कविता आठ साल की उम्र में लिखी थी और 1877 में केवल सोलह साल की उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी। भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूँकने वाले युगदृष्टा टैगोर के सृजन संसार में गीतांजलि, पूरबी प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका, नैवेद्य मायेर खेला और क्षणिका आदि शामिल हैं। देश और विदेश के सारे साहित्य, दर्शन, संस्कृति आदि उन्होंने आहरण करके अपने अन्दर समेट लिए थे। पिता के ब्रह्म-समाजी के होने के कारण वे भी ब्रह्म-समाजी थे। पर अपनी रचनाओं व कर्म के द्वारा उन्होंने सनातन धर्म को भी आगे बढ़ाया।

मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है, उनकी रचनाओं के अन्दर वह अलग-अलग रूपों में उभर आता है। साहित्य की शायद ही ऐसी कोई शाखा हो, जिनमें उनकी रचना न हो - कविता, गान, कथा, उपन्यास, नाटक, प्रबन्ध, शिल्पकला - सभी विधाओं में उन्होंने रचना की। उनकी प्रकाशित कृतियों में - गीतांजली, गीताली, गीतिमाल्य, कथा ओ कहानी, शिशु, शिशु भोलानाथ, कणिका, क्षणिका, खेया आदि प्रमुख हैं। उन्होंने कुछ पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। अंग्रेज़ी अनुवाद के बाद उनकी प्रतिभा पूरे विश्व में फैली।

शान्तिनिकेतन :-

टैगोर को बचपन से ही प्रकृति का सान्निध्य बहुत भाता था। वह हमेशा सोचा करते थे कि प्रकृति के सानिध्य में ही विद्यार्थियों को अध्ययन करना चाहिए। इसी सोच को मूर्तरूप देने के लिए वह 1901 में सियालदह छोड़कर आश्रम की स्थापना करने के लिए शान्तिनिकेतन आ गए। प्रकृति के सान्निध्य में पेड़ों, बगीचों और एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर ने शान्तिनिकेतन की स्थापना की।

रवीन्द्र संगीत

टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की रचना की। रवींद्र संगीत बाँग्ला संस्कृति का अभिन्न अंग है। टैगोर के संगीत को उनके साहित्य से अलग नहीं किया जा सकता। उनकी अधिकतर रचनाएँ तो अब उनके गीतों में शामिल हो चुकी हैं। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ठुमरी शैली से प्रभावित ये गीत मानवीय भावनाओं के अलग-अलग रंग प्रस्तुत करते हैं।

अलग-अलग रागों में गुरुदेव के गीत यह आभास कराते हैं मानो उनकी रचना उस राग विशेष के लिए ही की गई थी। प्रकृति के प्रति गहरा लगाव रखने वाला यह प्रकृति प्रेमी ऐसा एकमात्र व्यक्ति है जिसने दो देशों के लिए राष्ट्रगान लिखा।

दर्शन :-

गुरुदेव ने जीवन के अंतिम दिनों में चित्र बनाना शुरू किया। इसमें युग का संशय, मोह, क्लान्ति और निराशा के स्वर प्रकट हुए हैं। मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है उनकी रचनाओं में वह अलग-अलग रूपों में उभरकर सामने आया। टैगोर और महात्मा गान्धी के बीच राष्ट्रीयता और मानवता को लेकर हमेशा वैचारिक मतभेद रहा। जहां गान्धी पहले पायदान पर राष्ट्रवाद को रखते थे, वहीं टैगोर मानवता को राष्ट्रवाद से अधिक महत्व देते थे। लेकिन दोनों एक दूसरे का बहुत अधिक सम्मान करते थे। टैगोर ने गान्धीजी को महात्मा का विशेषण दिया था। एक समय था जब शान्तिनिकेतन आर्थिक कमी से जूझ रहा था और गुरुदेव देश भर में नाटकों का मंचन करके धन संग्रह कर रहे थे। उस वक्त गान्धी जी ने टैगोर को 60 हजार रुपये के अनुदान का चेक दिया था।

जीवन के अन्तिम समय 7 अगस्त 1941 के कुछ समय पहले इलाज के लिए जब उन्हें शान्तिनिकेतन से कोलकाता ले जाया जा रहा था तो उनकी नातिन ने कहा कि आपको मालूम है हमारे यहाँ नया पावर हाउस बन रहा है। इसके जवाब में उन्होंने कहा कि हाँ पुराना आलोक चला जाएगा नए का आगमन होगा।

· टैगोर बचपन से हीं बहुत प्रतिभाशाली थे.

· वे एक महान कवि, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार, नाटककार, निबंधकार तथा चित्रकार थे.

· उन्हें कला की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी.

· भारत का राष्ट्र-गान आप ही की देन है।  रवीन्द्रनाथ टैगोर की बाल्यकाल से कविताएं और कहानियाँ लिखने में रुचि थी। रवीन्द्रनाथ टैगोर को प्रकृति से अगाध प्रेम था।

· एक बांग्ला कवि, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार, नाटककार, निबंधकार और चित्रकार थे। भारतीय संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ रूप से पश्चिमी देशों का परिचय और पश्चिमी देशों की संस्कृति से भारत का परिचय कराने में टैगोर की बड़ी भूमिका रही तथा आमतौर पर उन्हें आधुनिक भारत का असाधारण

· सृजनशील कलाकार माना जाता है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर की शिक्षा : रवीन्द्रनाथ टैगोर की प्राथमिक शिक्षा सेंट ज़ेवियर स्कूल में हुई। उनके पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर एक जाने-माने समाज सुधारक थे। वे चाहते थे कि रवीन्द्रनाथ बडे होकर बैरिस्टर बनें। इसलिए उन्होंने रवीन्द्रनाथ को क़ानून की पढ़ाई के लिए 1878 में लंदन भेजा लेकिन रवीन्द्रनाथ का मन तो साहित्य में था फिर मन वहाँ कैसे लगता! आपने कुछ समय तक लंदन के कॉलेज विश्वविद्यालय में क़ानून का अध्ययन किया लेकिन 1880 में बिना डिग्री लिए वापस आ गए।

रवीन्द्रनाथ टैगोर का साहित्य सृजन : साहित्य के विभिन्न विधाओं में सृजन किया।

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ की सबसे लोकप्रिय रचना 'गीतांजलि' रही जिसके लिए 1913 में उन्हें नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।

आप विश्व के एकमात्र ऐसे साहित्यकार हैं जिनकी दो रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान बनीं।  भारत का राष्ट्र-गान 'जन गण मन' और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान 'आमार सोनार बांग्ला' गुरुदेव की ही रचनाएं हैं।

गीतांजलि लोगों को इतनी पसंद आई कि अंग्रेज़ी, जर्मन, फ्रैंच, जापानी, रूसी आदि विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में इसका अनुवाद किया गया।  टैगोर का नाम दुनिया के कोने-कोने में फैल गया और वे विश्व-मंच पर स्थापित हो गए।

रवीन्द्रनाथ की कहानियों में क़ाबुलीवाला, मास्टर साहब और पोस्टमास्टर आज भी लोकप्रिय कहानियां हैं। 

रवीन्द्रनाथ की रचनाओं में स्वतंत्रता आंदोलन और उस समय के समाज की झलक स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।

सामाजिक जीवन : 16 अक्टूबर 1905 को रवीन्द्र नाथ के नेतृत्व में कोलकाता में मनाया गया रक्षाबंधन उत्सव से 'बंग-भंग आंदोलन' का आरम्भ हुआ। इसी आंदोलन ने भारत में स्वदेशी आंदोलन का सूत्रपात किया।

टैगोर ने विश्व के सबसे बड़े नरसंहारों में से एक जलियांवाला कांड (1919) की घोर निंदा की और इसके विरोध में उन्होंने ब्रिटिश प्रशासन द्वारा प्रदान की गई, 'नाइट हुड' की उपाधि लौटा दी। 'नाइट हुड' मिलने पर नाम के साथ  'सर' लगाया जाता है। 

निधन : 7 अगस्त, 1941 को कलकत्ता में इस बहुमुखी साहित्यकार का निधन हो गया।

सम्मान

उनकी काव्यरचना गीतांजलि के लिये उन्हे सन् 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला।

काबुलीवाला रबीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी : मेरी पाँच बरस की लड़की मिनी से घड़ीभर भी बोले बिना नहीं रहा जाता। एक दिन वह सवेरे-सवेरे ही बोली, "बाबूजी, रामदयाल दरबान है न, वह 'काक' को 'कौआ' कहता है। वह कुछ जानता नहीं न, बाबूजी।" मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने दूसरी बात छेड़ दी। "देखो, बाबूजी, भोला कहता है - आकाश में हाथी सूँड से पानी फेंकता है, इसी से वर्षा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ बोलता है, है न?" और फिर वह खेल में लग गई।

अनमोल वचन रवीन्द्रनाथ ठाकुर : प्रसन्न रहना बहुत सरल है, लेकिन सरल होना बहुत कठिन है प्रत्येक शिशु यह संदेश लेकर आता है कि ईश्वर अभी मनुष्यों से निराश नहीं हुआ है।

· विश्वास वह पक्षी है जो प्रभात के पूर्व अंधकार में ही प्रकाश का अनुभव करता है और गाने लगता है। 

प्रभाव:- इस कार्यशाला में प्रमुख सांस्कृतिक आकडे जेसे विनायक दामोदर सावरकर, तीजनबाई और रबिन्दनाथ टैगोर के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हुई विनायक दामोदर सावरकर एक भारतीय स्वतंत्रता कार्यकर्त्ता, राजनीतिज्ञ और साथ ही एक कवी और लेखक भी थे. वे हिंदु संस्कृति में जातिवाद की परंपरा का विनाश करना चाहते थे, सावरकर के लिये हिंदुत्व का मतलब ही एक हिंदु प्रधान देश का निर्माण करना था. उनके राजनैतिक तत्वों में उपयोगितावाद, यथार्थवाद और सच शामिल है. बाद में कुछ इतिहासकारों ने सावरकर के राजनैतिक तत्वों को दूसरो शब्दों में बताया है. वे भारत में सिर्फ और सिर्फ हिंदु धर्म चाहते थे, उनका ऐसा मानना था की भारत हिन्दुप्रधान देश हो. और देश में सभी लोग भले ही अलग-अलग जाती के रहते हो लेकिन विश्व में भारत को एक हिंदु राष्ट्र के रूप में ही पहचान मिलनी चाहिये. इसके लिये उन्होंने अपने जीवन में काफी प्रयत्न भी किये. टैगोर बचपन से हीं बहुत प्रतिभाशाली थे वे एक महान कवि, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार, नाटककार, निबंधकार तथा चित्रकार थे तीजनबाई का जन्म 24 अप्रैल , 1956 मे छतीसगढ़ राज्य के भिलाई जिले के गिनियार गाव मे हुआ था l ब्रजलाल पराधी तीजनबाई के नाना थे , जो खुद भी एक अच्छे पंडवानी गायक थे और तीजनबाई का पालन पोषण भी ब्रजलाल पारधी ने ही किया था l तीजनबाई के पिता का नाम हुनुकलाल परधा और माता का नाम सुखवती था l तीजनबाई का बचपन बहुत संघर्षों से भरा हुआ था l