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भभभभभभभभभभभभभभभभभभभ–भभभभभभभभभभभभभभभभभभ, भभभभभ–124 भभभभभभभभभभभभभभभभभभभभभभभभभभभभभभभ भभभभभभ भभभभभभभभभ भभ * भभभभभभभभभभभभभ भभभभभभभ भभभभ भभभभभभभभभभ भभभभभभ भभभभभ (भभभभभभभभ) * भभभभ भभभभभभभभभभभभभ भभ. भभभभ भभभभभभभभभभभभभभभ भभभ, भभभभभभभभभभ भभभभभभ–भभभभभभभ (भभभभभभभभ) 1

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भगवानश्रीकुन्दकुन्द–कहानजैनशास्त्रमाला, पुष्प–124ॐ

श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य�देव विवरचिचत

अष्टप्राभृत*

भाषावचविनकाकारपंवि)तवर श्री जर्यचन्द्रजी छाबड़ा

जर्यपुर (राजस्थान)*

भाषा परिरवत�नकता�पं. श्री महेन्द्रकुमारजी जैन, काव्यतीर्थ�

मदनगंज–विकशनगढ़ (राजस्थान)*

प्रकाशकश्री दिदगम्बर जैन स्वाध्र्यार्यमदंिदर ट्रस्ट,

सोनगढ़ (सौराष्ट्र) PIN : 364 250प्राप्ति=तस्थान :

श्री दिद0 जैन स्वाध्र्यार्यमंदिदर ट्रस्ट,

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सोनगढ़ (सौराष्ट्र) PIN : 364 250छठवीं आवृचिA2000 प्रवितभादों वदिद 2, विव.सं. 205282 वीं बहनश्री—चम्पाबेन—जन्मजर्यन्ती

अष्टप्राभृत (विहन्दी)केस्थार्यी प्रकाशन पुरस्कता�

श्री चंपाबेन उमरावप्रसाद पंचरत्न परिरवार तर्था सुपुत्र : अमरचंद पंचरत्न ह : ब्र. आशाबेन; प्रवितभाबेन अमरचंद; सुपुत्र : अपूव�, विनजेश; पुत्रवधू : र्योजना, विनचिध; सुपुत्री : दश�ना; पौत्र : मधुर, तैजस; पौत्री : जर्यवित;

दोविहत्र : आदश�, चिसद्धार्थ�

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ॐनमः श्रीपरमागमजि नश्रुतेभ्यः ।

प्रकाशकीय निनवेदनअध्यात्मश्रुतधर ऋषीश्वर श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचाय%देव द्वारा प्रणीत अध्यात्म

रचनाओंमें श्री समयसार, श्री प्रवचनसार, श्री पंचास्ति-तकायसंग्रह, श्री निनयमसार और श्री अष्टप्राभृत—यह पाँच परमागम प्रधान ह ैं । दश%नप्राभृत, सूत्रप्राभृत, चारिरत्रप्राभृत, बोधप्राभृत, भावप्राभृत, मोक्षप्राभृत, लि>ंगप्राभृत और शी>प्राभृत—यह आठ प्राभृतोंका समुच्चय नाम अष्टप्राभृत है । श्री समयसारादिद पाँचों परमागम हमार े ट्र-ट द्वारा (आद्य चार परमागम गु राती एव ं निहन्दी भाषाम ें तथा पाँचवा ँ अष्टप्राभृत निहन्दी भाषामें) अनेक बार प्रकाशिशत हो चुके हैं । श्री समयसारादिद चारों परमागमोंके सफ> गु राती गद्यपद्यानुवादक, गहरे आदश% आत्माथN, पंनिOतरत्न श्री निहम्मत>ा> ेठा>ा> शाह कृत अष्टप्राभृतके—उक्त चारों परमागमोंके हरिरगीत—पद्यानुवादोंके समान—मू>ानुगामी, भाववाही एव ं सुमधुर गु राती पद्यानुवाद सह यह छठवा ं सं-करण अध्यात्मनिवद्यापे्रमी जि ज्ञासुओंके करकम>में प्र-तुत करते हुए हमें अतीव आनन्द अनुभूत होता है ।

श्री कुन्दकुन्द–अध्यात्म–भारतीके परम भक्त, अध्यात्मयुगस्रष्टा, परमोपकारी पूज्य सद्गरुुदेव श्री कान ी-वामीन े इस अष्टप्राभृत परमागम पर अनेक बार प्रवचनों द्वारा उसके -वानुभवमू>क गहन रह-योंका उद्घाटन निकया है । वा-तवमें इस शताब्दीमें अध्यात्मरूशिचके नवयुगका प्रवत%न कर मुमुक्षु समा पर उन्होंने असाधारण असीम उपकार निकया है । इस भौनितक निवषयनिव>ासप्रचुर युगमें, भारतवष% एव ं निवदिदशोंम ें भी ज्ञान—वैराग्यभीने अध्यात्मतत्त्वके प्रचारका ो प्रब> आन्दो>न प्रवत%मान है वह पूज्य गुरुदेवश्रीके चमत्कारी प्रभावनायोगका ही सुफ> है ।

अध्यात्मतीथ% श्री सुवण%पुरी (सोनगढ़)के श्री महावीर–कुन्दकुन्द दिदगम्बर ैन परमागममजिन्दरम ें संगमरमरके धव> शिश>ापटों पर उत्कीण% अष्टप्राभृतकी मू> गाथाओंके आधार पर इस सं-करणको तैयार निकया गया ह ै । इसम ें मदनगं निनवासी पं. श्री महेन्द्रकुमार ी काव्यतीथ% द्वारा, सहारनपुरके सेठ श्री म्बुकुमार ीके शा-त्रभँOारसे प्राप्त पण्डिhOत श्री यचन्द्र ी छाबड़ाकृत भाषावचनिनकाकी ह-तशि>खिkत प्रनितके आधारसे, ो भाषापरिरवत%न निकया गया था वह दिदया गया है । एवं पददिटप्पणमें आदरणीय निवद्वद्रत्न श्री निहम्मत>ा> ेठा>ा> शाह द्वारा रशिचत गु राती पद्यानुवाद— ो निक सोनगढ़के श्री

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कहानगुरु–धम%प्रभावनादश%न (कुन्दकुन्द–प्रवचनमhOप)म ें धव> संगमरमर–शिश>ापटों पर उत्कीण% उक्त पाँचो परमागमोंमें अन्तभू%त है वह—नागरी शि>निपमें दिदया गया है ।

इस सं-करणका ‘पू्रफ’ संशोधन श्री मगन>ा> ी ैनने तथा कोम्प्यूटर टाइप–सेटिटंग ‘अरिरहंत कोम्प्यूटर ग्रानिफक्स’ तथा मुद्रणकाय% ‘-मृनित ओफसेट’, सोनगढ़ने कर दिदया है, तदथ% उन दोनोंके प्रनित कृतज्ञता व्यक्त करते हैं ।

आत्माथN ीव अनित बहुमानपूव%क सद्गरुुगमसे इस परमागमका अभ्यास करके उसके गहन भावोंको आत्मसात ् कर ें और शा-त्रके तात्पय%भूत वीतरागभावको प्राप्त करें—यही प्रश-त कामना ।भाद्रपद कृष्णा 2, निव.सं. 205282 वीं बनिहनश्री-चम्पाबेन– न्म यन्तीसानिहत्यप्रकाशनसमिमनितश्री दिदगम्बर ैन -वाध्यायमजिन्दर ट्र-ट,सोनगढ़—364250 (सौराष्ट्र)

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नमः सद्गरुवे ।

उपोद्घात‘अष्टप्राभृत’—सनातन दिदगम्बर ैन आम्नायके निनग्र%न्थ श्रमणोत्तम भगवान ् श्री

कुन्दकुन्दाचाय%देव द्वारा प्रणीत दश%नप्राभृत, सूत्रप्राभृत, चारिरत्रप्राभृत, बोधप्राभृत, भावप्राभृत, मोक्षप्राभृत, लि>ंगप्राभृत और शी>प्राभृत—यह आठ प्राभृतोंका समूह–सं-करण है ।

श्रमणभगवन्त ऋषीश्वर श्री कुन्दकुन्दाचाय%देव निवक्रम संवत्के प्रारम्भमें हो गये ह ैं । दिदगम्बर ैन परंपरामें भगवान कुन्दकुन्दाचाय%देवका स्थान सव}त्कृष्ट है ।

मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी ।मंगलं कुन्दकुन्दार्यN जैनधमN)स्तु मंगलम् ।।

यह श्लोक प्रत्येक दिदगम्बर ैन, शा-त्राध्ययन प्रारम्भ करते समय, मंग>ाचरणके रूपमें बो>ता है । यह सुप्रशिसद्ध मंग>का श्लोक भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचाय%देवकी असाधारण महत्ता प्रशिसद्ध करता है, क्योंनिक उसमें सव%ज्ञ भगवान् श्री महावीर-वामी एवं गणधर भगवान श्री गौतम-वामीके पश्चात् अनन्तर ही, उनका मंग>रूपमें -मरण निकया गया है । दिदगम्बर ैन साध ु -वयंको कुन्दकुन्दाचाय%की परम्पराके कह>ानेम ें अपना गौरव मानत े ह ैं । भगवान् कुन्दकुन्दाचाय%देवके शा-त्र साक्षात ् गणधरदेवके वचन तुल्य ही प्रमाणभूत मान े ात े ह ैं । उनके उत्तरवतN ग्रन्थकार आचाय%, मुनिन एवं निवद्वान अपने निकसी कथनको शिसद्ध करनेके शि>ये कुन्दकुन्दाचाय%देवके शा-त्रोंका प्रमाण देते ह ैं और इसशि>ये वह कथन निनर्विवंवाद ठहरता है । उनके पश्चात् शि>kे गये ग्रन्थोंमें उनके शा-त्रोंमेंसे बहुत अवतरण शि>ये गये हैं । निव.सं. 990 में होनेवा>े श्री देवसेनाचाय%वर अपने ‘दश%नसार’ ग्रन्थमें कहते हैं निक—

जइ पउमणंदिदणाहो सीमंधरसामिमदिदव्वणाणेण ।ण विबबोहइ तो समणा कह सुमग्गं पर्याणंवित ।।

—(महानिवदेहक्षेत्रके वत%मान तीथ�करदेव) श्री सीमन्धर-वामीके पाससे (समवसरणमें ाकर) प्राप्त हुए दिदव्य ज्ञानसे श्री पद्मनजिन्दनाथन े (श्री कुन्दकुन्दाचाय%देवने) यदिद बोध न दिदया होता तो मुनिन न सच्च े माग%को कैस े ानत े ? दूसरा एक उल्>ेk निक जि समें कुन्दकुन्दाचाय%देवको ‘कशि>का>सव%ज्ञ’ कहा गया है, सो इस प्रकार ह ै ।—‘पद्मनजिन्द, कुन्दकुन्दाचाय%, वक्रग्रीवाचाय%, ए>ाचाय% एव ं गृध्रनिपच्छाचाय% य े पाँच नामसे निवभूनिषत, चार अंगु> ऊँचाई पर आकाशम ें गमनकी जि नके ऋजिद्ध थी, पूव%निवदेहक्षेत्रम ें ाकर जि न्होंने सीमन्धरभगवानकी वन्दना की थी और उनके पासस े प्राप्त हुए श्रुतज्ञानस े जि न्होंने भारतवष%के भव्य ीवोंको प्रनितबोध निकया ह ै ऐस े ो श्री जि नचन्द्रसूरिर भट्टारकके पट्टके

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आभरणरूप कशि>का>सव%ज्ञ (भगवान ् कुन्दकुन्दाचाय%देव) उनके द्वारा रशिचत इस षट्प्राभृतग्रन्थमें....मोक्षप्राभृतकी टीका समाप्त हुई ।’ भगवान कुन्दकुन्दाचाय%देवकी महत्ता सूशिचत करनेवा>े ऐसे अनेकानेक उल्>ेk + ैनसानिहत्यमें उप>ब्ध हैं । इससे सुप्रशिसद्ध होता है निक सनातन दिदगम्बर ैन आम्नायमें कशि>का>सव%ज्ञ भगवान कुन्दकुन्दाचाय%देवका स्थान अनिद्वतीय है ।

+ ासके मुkारनिवन्दतें प्रकाश भासवृन्द, -यादवाद ैन वैन इन्दु कुन्दकुन्दसे ।तासके अभ्यासतें निवकाश भेदज्ञान होत, मूढ़ सो >kे नहीं कुबुजिद्ध कुन्दकुन्दसे ।।देत हैं अशीस शीश नाय इन्दु चन्द ानिह, मोह–मार–khO मारतंO कुन्दकुन्दसे ।निवशुजिद्धबुजिद्धवृजिद्धका प्रशिसद्ध ऋजिद्ध शिसजिद्धदा हुए न, हैं न, होंहिहंगे, मुहिनंद कुन्दकुन्दसे ।।

—कनिववर वृन्दावनदास ीभगवान कुन्दकुन्दाचाय%देव द्वारा रशिचत अनेक शा-त्र हैं, उनमेंस े कनितपय अधुना

उप>ब्ध हैं । नित्र>ोकनाथ सव%ज्ञदेवके श्रीमुkसे प्रवानिहत श्रुतामृतकी सरिरतामेंसे भर े गये वे अमृतभा न अभी भी अनेक आत्मार्थिथंयोंको आत्म ीवन समर्विपंत करते हैं । उनके समयसार, प्रवचनसार और पंचास्ति-तकायसंग्रह नामक तीन उत्तमोत्तम शा-त्र ‘प्राभृतत्रय’ कहे ाते हैं । यह प्राभृतत्रय एवं निनयमसार तथा अष्टप्राभृत—यह पांच परमागमोंमें ह ारों शा-त्रोंका सार आ ाता ह ै । भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचाय%देवके पश्चात् शि>kे गय े अनेक ग्रन्थोंके बी इन परमागमोंमें ननिहत हैं ऐसा सूक्ष्म दृमिष्टसे अभ्यास करने पर ज्ञात होता है ।

यह प्रकृत परमागम आठ प्राभृतोंका समुच्चय होनेस े वह ‘अष्टप्राभृत’ अभिभधानसे सुप्रशिसद्ध ह ै । उसम ें प्रत्येक प्राभृतकी गाथासंख्या एव ं उसका निवषयनिनद�श निनम्न प्रकार है ।—

* ‘दश%नप्राभृत’म ें गाथासंख्या 36 ह ै । ‘धम%का मू> दश%न’ (–सम्यग्दश%न) है—‘दंसणमू>ो धम्मो’—इस रह-यगम्भीर महासूत्रस े प्रारम्भ करके सम्यग्दश%नकी परम मनिहमाका इस प्राभृतशा-त्रमें वण%न निकया गया है ।

* ‘सूत्रप्राभृत’म ें 27 गाथा ह ैं । इस प्राभृतमें, जि नसूत्रानुसार आचरण ीवको निहतरूप ह ै और जि नसूत्रनिवरुद्ध आचरण अनिहतरूप है—यह संक्षेपमें बताया गया है, तथा जि नसूत्रकशिथत मुनिनलि>ंगादिद तीन लि>ंगोका संभिक्षप्त निनरूपण है ।

* ‘चारिरत्रप्राभृत’म ें 45 गाथा ह ैं । उसमें, सम्यक्त्वचरणचारिरत्र और संयमचरणचारिरत्रके रूपम ें चारिरत्रका वण%न ह ै । संयमचरणका देशसंयमचरण और सक>संयमचरण—इस प्रकार दो भेदसे वण%न करते हुए, श्रावकके बारह व्रत और मुनिनरा के पंचेजिन्द्रयसंवर, पांच महाव्रत, प्रत्येक महाव्रतकी पाँच–पाँच भावना, पाँच समिमनित इत्यादिदका निनद�श निकया गया है ।

* ‘बोधप्राभृत’में 62 गाथा हैं । आयतन, चैत्यगृह, जि नप्रनितमा, दश%न, जि ननिबम्ब, जि नमुद्रा, ज्ञान, देव, तीथ%, अह%न्त और प्रव्रज्या—इन ग्यारह निवषयोंका इस प्राभृतमें संभिक्षप्त

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कथन है । ‘भावश्रमण हैं सो आयतन हैं, चैत्यगृह हैं, जि नप्रनितमा हैं’—ऐसे वण%ननिवशेषात्मक एक निवशिशष्ट प्रकारसे आयतनादिद कनितपय निवषयोंका इसम ें (जि नोक्त) निवशिशष्ट निनरूपण है । जि नोपदिदष्ट प्रव्रज्याका सम्यक् वण%न 17 गाथाओंके द्वारा अनित सुन्दर निकया गया है ।

* ‘भावप्राभृत’म ें 165 गाथा ह ैं । अनादिदका>से चतुग%नितम ें परिरभ्रमण करते हुए, ीव ो अनन्त दुःk सहन कर रहे हैं उसका हृदयस्पशN वण%न इस प्राभृतमें निकया गया है; और उन दुःkोंसे छूटनेके शि>ये शुद्ध भावरूप परिरणमन कर भावलि>ंङ्गी मुनिनदशा प्रगट निकये निबना अन्य कोई उपाय नहीं है ऐसा निवशदतासे वण%न निकया है । उसके शि>ये (दुःkोंसे छूटनेके शि>ये) शुद्धभावशन्य द्रव्यमुनिनशि>ङ्ग अकाय%कारी है यह स्पष्टतया बताया गया है । यह प्राभृत अनित वैराग्यपे्ररक और भाववाही ह ै एव ं शुद्ध भाव प्रगट करनेवा>े सम्यक् पुरुषाथ%के प्रनित ीवको सचेत करनेवा>ा है ।

* ‘मोक्षप्राभृत’म ें 106 गाथा ह ैं । इस प्राभृतम ें मोक्षका—परमात्मपदका—अनित संक्षेपम ें निनद�श करके, पश्चात ् वह (–मोक्ष) प्राप्त करनेका उपाय क्या ह ै उसका वण%न मुख्यतया निकया गया है । -वद्रव्यरत ीव मुक्त होता है और परद्रव्यरत ीव बन्धको प्राप्त होता है—यह, इस प्राभृतका केन्द्रवतN शिसद्धान्त है ।

* ‘लि>ंगप्राभृत’म ें 22 गाथा ह ैं । ो ीव मुनिनका बाह्यलि>ंग धारण करके अनितभ्रष्टाचारीरूपसे आचरण करता है, उसका अनित निनकृष्टपना एवं निनन्द्यपना इस प्राभृतमें बताया है ।

* ‘शी>प्राभृत’में 40 गाथा हैं । ज्ञान निबना (–सम्यग्ज्ञान निबना) ो कभी नहीं होता ऐसे शी>के (–सत्शी>के) तत्त्वज्ञानगम्भीर सुमधुर गुणगान इस प्राभृतमें जि नकथन अनुसार गाये गये हैं ।

—इस प्रकार भगवान ् श्री कुन्दकुन्दाचाय%देव प्रणीत ‘अष्टप्राभृत’ परमागमका संभिक्षप्त निवषयपरिरचय है ।

अहो ! यवन्त वत} वे सानितशयप्रनितभासम्पन्न भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचाय%देव निक जि न्होंने महातत्त्वोंसे भरे हुए इन परमागमोंकी असाधारण रचना करके भव्य ीवों पर महान उपकार निकया है । व-तुतः इस का>में यह परमागमशा-त्र मुमुक्षु भव्य ीवोंको परम आधार हैं । ऐसे दुःषम का>में भी ऐसे अद्भतु अनन्य–शरणभूत शा-त्र—तीथ�करदेवके मुkारनिवन्दसे निवनिनग%त अमृत—निवद्यमान हैं वह हमारा महान भाग्य है । पूज्य सद्गरुुदेव श्री कान ी-वामीके शब्दोंमें कहें तो—

‘भगवान कुन्दकुन्दाचाय%देवके यह पाँचों ही परमागम आगमोंके भी आगम हैं; >ाkों शा-त्रोंका निनचोड़ इनमें भरा हुआ है, ैन शासनका यह -तम्भ हैं; साधककी यह कामधेनू हैं, कल्पवृक्ष ह ैं । चौदह पूव�का रह-य इनमें समानिवष्ट ह ै । इनकी प्रत्येक गाथा छठवें–सातवें गुणस्थानमें झू>ते हुए महामुनिनके आत्म–अनुभवमेंसे निनक>ी हुई है । इन परमागमोंके प्रणेता

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भगवान ् श्री कुन्दकुन्दाचाय%देव महानिवदेहक्षेत्रम ें सव%ज्ञ वीतराग श्री सीमन्धर–भगवानके समवसरणमें गये थ े और व े वहा ँ आठ दिदन रहे थ े सो बात यथातथ है, अक्षरशः सत्य है, प्रमाणशिसद्ध है, उसम ें >ेशमात्र भी शङ्काको स्थान नहीं ह ै । उन परमोपकारी आचाय%भगवानके रचे हुए इन परमागमोंम ें श्री तीथ�करदेवके निनरक्षर ओमकार दिदव्यध्वनिनसे निनक>ा हुआ ही उपदेश है ।

अन्तमें,—यह अष्टप्राभृत परमागम भव्य ीवोंको जि नदेव द्वारा प्ररूनिपत आत्मशान्तिन्तका यथाथ% माग% बताता है । ब तक इस परमागमके परम गम्भीर और सूक्ष्म भाव यथाथ%तया हृदयगत न हो तब तक दिदनरात वही मन्थन, वही पुरुषाथ% कत%व्य ह ै । इस परमागमका ो कोई भव्य ीव आदर सह अभ्यास करेगा, श्रवण करेगा, पठन करेगा, प्रशिसद्ध करेगा, वह अनिवनाश -वरूपमय, अनेक प्रकारकी निवशिचत्रतावा>े, केव> एक ज्ञानात्मक भावको उप>ब्ध कर उग्र पदमें मुशिक्तश्रीका वरण करेगा ।

(पंच परमागमके उपोद्घातसे संकशि>त ।)वैशाk शुक्>ा 2, निव.सं. 2052106 वीं कहानगुरु— न्म यन्ती

सानिहत्यप्रकाशसमिमनित,श्री दिद0 ैन -वाध्यायमजिन्दर ट्र-ट,सोनगढ़—364 250 (सौराष्ट्र)

निवषय—सूचीनिवषय पृष्ठ

1. दश%नपाहुOभाषाकारकृत मंग>ाचरण, देशभाषा शि>kनेकी प्रनितज्ञा 1भाषा वचनिनका बनानेका प्रयो न तथा >धुताके साथ प्रनितज्ञा, व मंग> 2कुन्दकुन्द-वामिमकृत भगवानको नम-कार, तथा दश%नमाग% शि>kनेकी सूचना 3धम%की ड़ सम्यग्दश%न है, उसके निबना वन्दनकी पात्रता भी नहीं 3भाषावचनिनका कृत दश%न तथा धम%का -वरूप 4दश%नके भेद तथा भेदोंका निववेचन 5—6दश%नके उद्बोधक शिचह्न 7सम्यक्त्वके आठ गुण, और आठ गुणोंका प्रशमादिद शिचह्नोंमें अन्तभा%व 9सुदेव–गुरु तथा सम्यक्त्वके आठ अंग 10—13

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सम्यग्दश%नके निबना बाह्य चारिरत्र मोक्षका कारण नहीं 14सम्यक्त्वके निबना ज्ञान तथा तप भी काय%कारी नहीं 16सम्यक्त्वके निबना सव% ही निनष्फ> है तथा उसके सद्भावमें सव% ही सफ> है 16कम%र नाशक सम्यग्दश%नकी शशिक्त >–प्रवाहके समान है 17 ो दश%नादिदत्रयमें भ्रष्ट हैं वे कैसे हैं 17भ्रष्ट पुरुष ही आप भ्रष्ट होकर धम%धारकोंके हिनंदक होते हैं 18 ो जि नदश%नसे भ्रष्ट हैं वे मू>से ही भ्रष्ट हैं और वे शिसजिद्धको भी प्राप्त नहीं कर सकते 19जि नदश%न ही मोक्षमाग%का प्रधान साधक रूप मू> है 19दश%न भ्रष्ट होकर भी दश%न धारकोंसे अपनी निवनय चाहते हैं वे दुग%नितके पात्र हैं 20>ज्जादिदके भयसे दश%न भ्रष्टका निवनय करे वह भी उसीके समान (भ्रष्ट) है 21दश%नकी (मतकी) मूर्वितं कहाँ पर कैसे है 22कल्याण तथा अकल्याणका निनश्चयायक सम्यग्दश%न ही है 23कल्याण अकल्याणके ाननेका फ> 23जि न वचन ही सम्यक्त्वके कारण होनेसे दुःkके नाशक हैं 24जि नागमोक्त दश%न (मत)के भेषोंका वण%न 25सम्यग्दृमिष्टका >क्षण 25निनश्चय व्यवहार भेदात्मक सम्यक्त्वका -वरूप 26रत्नत्रयमें भी मोक्षसोपानकी प्रथम श्रेणी (पेनिड़) सम्यग्दश%न ही है अतएव श्रेष्ठ रत्न है तथा धारण करने योग्य है 27निवशेष न हो सके तो जि नोक्त पदाथ% श्रद्धान ही करना चानिहये क्योंनिक वह जि नोक्त सम्यक्तव है 27 ो दश%न, ज्ञान, चारिरत्र, तप, निवनय इन पंचात्मकतारूप हैं वे वंदना योग्य हैं तथा गुणधारकोंके गुणानुवाद रूप हैं 28यथा ात दिदगम्बर -वरूपको देkकर मत्सर भावसे ो निवनयादिद नहीं करता है वह मिमथ्यादृमिष्ट है 29वंदन नहीं करने योग्य कौन ? 30वंदना करने योग्य कौन ? 31

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मोक्षमें कारण क्या है ? 33गुणोंमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठपना 33ज्ञानादिद गुणचतुष्ककी प्रान्तिप्तमें ही निन-संदेह ीव शिसद्ध है 34सुरासुरवंद्य अमूल्य रत्न सम्यग्दश%न ही है 34सम्यग्दश%नका माहात्म्य 35स्थावर प्रनितमा अथवा केव> ज्ञानस्थ अवस्था 36 ंगम प्रनितमा अथवा कम% देहादिद नाशके अनन्तर निनवा%ण प्रान्तिप्त 37

2. सूत्र पाहु)सूत्रस्थ प्रमाणीकता तथा उपादेयता 39भव्य (त्व) फ>प्रान्तिप्तमें ही सूत्र माग%की उपादेयता 40देशभाषाकारनिनर्दिदंष्ट अन्य ग्रंथानुसार आचाय% परंपरा 40द्वादशांग तथा अंगबाह्य श्रुतका वण%न 41—45दृष्टांत द्वारा भवनाशकसूत्रज्ञानप्रान्तिप्तका वण%न 46सूत्रस्थ पदाथ�का वण%न और उसका ाननेवा>ा सम्यग्दृमिष्ट 47व्यवहार परमाथ% भेदद्वयरूप सूत्रका ज्ञाता म>का नाशकर सुkको पाता है 48टीका द्वारा निनश्चय व्यवहार नयवर्णिणंत व्यवहार परमाथ%सूत्रका कथन 49—52सूत्रके अथ% व पदसे भ्रष्ट है वह मिमथ्यादृमिष्ट है 52हरिरहरतुल्य भी ो जि नसूत्रसे निवमुk हैं उसकी शिसजिद्ध नहीं 53उत्कृष्ट शशिक्तधारक संघनायक मुनिन भी यदिद जि नसूत्रसे निवमुk है तो वह मिमथ्यादृमिष्ट ही है 54जि नसूत्रमें प्रनितपादिदत ऐसा मोक्षमाग% और अन्य अमाग% 54सवा%रंभ परिरग्रहसे निवरक्त हुआ जि नसूत्रकशिथत संयमधारक सुरासुरादिदकर वंदनीक है 55अनेक शशिक्तसनिहत परीषहोंके ीतनेवा>े ही कम%का क्षय तथा निन %रा करते हैं वे वंदन योग्य हैं 56इच्छाकार करने योग्य कौन ? 56इच्छाकार योग्य श्रावकका -वरूप 57अन्य अनेक धमा%चरण होने पर भी इच्छाकारके अथ%से अज्ञ है उसको भी शिसजिद्ध नहीं 57

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इच्छाकार निवषय दृढ़ उपदेश 58जि नसूत्रके ाननेवा>े मुनिनयोंके -वरूपका वण%न 58यथा ातरूपतासे अल्पपरिरग्रह ग्रहणसे भी क्या दोष होता है उसका कथन 59जि नसूत्रोक्त मुनिन अवस्था परिरग्रह रनिहत ही है परिरग्रहसत्तामें हिनंद्य है । 61प्रथम वेश मुनिनका है तथा जि न प्रवचनमें ऐसे मुनिन वंदना योग्य हैं 62दूसरा उत्कृष्ट वेष श्रावकका है 62तीसरा वेष -त्रीका है 63व-त्रधारकोंके मोक्ष नहीं, चाहे वह तीथ�कर भी क्यों न हो, मोक्ष नग्न (दिदगम्बर) अवस्थामें ही है 64स्त्रि-त्रयोंके नग्न दिदगम्बर दीक्षाके अवरोधक कारण 64सम्यक्त्वसनिहत चारिरत्र धारक -त्री शुद्ध है पापरनिहत है 65स्त्रि-त्रयोंके ध्यानकी शिसजिद्ध भी नहीं 65जि न सूत्रोक्त मागा%नुसारी ग्राह्यपदाथ�में से भी अल्प प्रमाण ग्रहण करते हैं तथा ो सव% इच्छाओंसे रनिहत हैं वे सव% दुःk रनिहत है 66

3. चारिरत्रपाहु)नम-कृनित तथा चारिरत्र पाहुO शि>kनेकी प्रनितज्ञा 68सम्यग्दश%नादिदत्रयका अथ% 70ज्ञानादिदभावत्रयकी शुजिद्धके अथ% दो प्रकारका चारिरत्र 70चारिरत्रके सम्यक्त्व–चरण संयम–चरण भेद 71सम्यक्त्व–चरणके शंकादिदम>ोंके त्याग निनमिमत्त उपदेश 71अष्ट अंगोंके नाम 74निनःशंनिकत आदिद अष्टगुणनिवशुद्ध जि नसम्यक्त्वका आचरण सम्यक्त्व चरण चारिरत्र है और वह मोक्षके स्थानके शि>ये है । 75सम्यक्त्वचरण चारिरत्र पूव%क संयमचरण चारिरत्र शीघ्र ही मोक्षका कारण है 75सम्यक्त्वचरण चारिरत्रसे भ्रष्ट संयम चरणधारी भी मोक्षको नहीं प्राप्त करता 76सम्यक्त्वचरणके शिचह्न 76सम्यक्त्व त्यागके शिचह्न तथा कुदश%नोंके नाम 78

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उत्साह भावनादिद होने पर सम्यक्त्वका त्याग नहीं हो सकता है 79मिमथ्यात्वादिदत्रय त्यागनेका उपदेश 79मिमथ्यामाग%में प्रवत्ता%नेवा>े दोष 80चारिरत्रदोषको मा %न करनेवा>े गुण 81मोहरनिहत दश%नादिदत्रय मोक्षके कारण हैं 82संक्षेपतासे सम्यक्त्वका माहात्म्य, गुणश्रेणी निन %रा सम्यक्त्वचरण चारिरत्र 83संयमचरणके भेद और भेदोंका संके्षपतासे वण%न 84सागारसंयमचरणके 11 स्थान अथा%त् ग्यारह प्रनितमा 84सागारसंयमचरणका कथन 84पंच अणुव्रतका -वरूप 86तीन गुणव्रतका -वरूप 87शिशक्षाव्रत के चार भेद 88यनितधम%प्रनितपादनकी प्रनितज्ञा 88यनितधम%की सामग्री 89पंचेजिन्द्रयसंवरणका -वरूप 89पांच व्रतोंका -वरूप 89पंचव्रतोंको महाव्रत संज्ञा निकस कारणसे है 90अहिहंसाव्रतकी पांच भावना 91सत्यव्रतकी 5 भावना 92अचौय%व्रतकी भावना 92ब्रह्मचय%की भावना 93अपरिरग्रह–महाव्रतकी 5 भावना 94संयमशुजिद्धकी कारण पंच समिमनित 94ज्ञानका >क्षण तथा आत्मा ही ज्ञान -वरूप है 95मोक्षमाग%-वरूप ज्ञानीका >क्षण 96परमश्रद्धापूव%क–रत्नत्रयका ज्ञाता ही मोक्षका भागी है 96निनश्चयचारिरत्ररूप ज्ञानके धारक शिसद्ध होते हैं 97

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इष्ट–अनिनष्टके साधक गुणदोषका ज्ञान–ज्ञानसे ही होता है सम्यग्ज्ञान सनिहत चारिरत्रका धारक शीघ्र ही अनुपम सुkको प्राप्त होता है 98संक्षेपतासे चारिरत्रका कथन 99चारिरत्र पाहुOकी भावनाका फ> तथा भावनाका उपदेश 99

4. बोधपाहुOआचाय%की -तुनित और ग्रन्थ करनेकी प्रनितज्ञा 101आयतन आदिद 11 स्थ>ोंके नाम 102आयतनत्रयका >क्षण 103टीकाकारकृत आयतनका अथ% तथा इनसे निवपरीत अन्यमत–-वीकृतका निनषेध 104चैत्यगृहका कथन 105 ंगमस्थावर रूप जि नप्रनितमाका निनरूपण 107दश%नका -वरूप 109जि नहिबंबका निनरूपण 111जि नमुद्राका -वरूप 112ज्ञानका निनरूपण 113दृष्टान्तद्वारा ज्ञानका दृढ़ीकरण 114निवनयसंयुक्तज्ञानीके मोक्षकी प्रान्तिप्त होती है 114मनितज्ञानादिद द्वारा मोक्ष>क्ष्यशिसजिद्धमें बाण आदिद दृष्टान्तका कथन 115देवका -वरूप 116धम%, दीक्षा और देवका -वरूप 116तीथ%का -वरूप 117अरहंतका -वरूप 119नामकी प्रधानतासे गुणों द्वारा अरहंतका कथन 120दोषोंके अभाव द्वारा ज्ञानमूर्वितं अरहंतका कथन 121गुणस्थानादिद पंच प्रकारसे अरहंतकी स्थापना पंच प्रकार है 122गुणस्थानस्थापनासे अरहंतका निनरूपण 122माग%णाद्वारा अरहंतका निनरूपण 123

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पया%न्तिप्तद्वारा अरहंतका कथन 123प्राणों द्वारा अरहंतका कथन 125 ीवस्थान द्वारा अरहंतका निनरूपण 125द्रव्यकी प्रधानतासे अरहंतका निनरूपण 126भावकी प्रधानतासे अरहंतका निनरूपण 127अरहंतके भावका निवशेष निववेचन 128प्रव्रज्या (दीक्षा) कैसे स्थान पर निनवा%निहत होती है तथा उसका धारक पात्र कैसा होता है ? 131दीक्षाका अंतरंग -वरूप तथा दीक्षानिवषय निवशेषकथन 132–136दीक्षाका बाह्य-वरूप तथा निवशेष कथन 136प्रव्रज्याका संभिक्षप्त कथन 137–142बोधपाहुO (षट् ीवनिहतकर)का संभिक्षप्त कथन 142सव%ज्ञप्रणीत तथा पूवा%चाय%परंपरागत–अथ%का प्रनितपादन 142–146भद्रबाहुश्रुतकेव>ीके शिशष्यने निकया है ऐसा कथन 146श्रुतकेव>ी भद्रबाहुकी -तुनित 147

5. भावपाहुOजि नशिसद्धसाधुवंदन तथा भावपाहुO कहने की सूचना 149द्रव्यभावरूपलि>ंगमें गुण दोषोंका उत्पादक भावलि>ंग ही परमाथ% है 150बाह्यपरिरग्रहका त्याग भी अंतरंगपरिरग्रहके त्यागमें ही सफ> है 152करोंड़ों भव तप करने पर भी भावके निबना शिसजिद्ध नहीं 152भावके निबना (अशुद्ध परिरणनितमें) बाह्य त्याग काय%कारी नहीं 153मोक्षमाग%में प्रधान भाव ही है, अन्य अनेक लि>ंग धारनेसे शिसजिद्ध नहीं 154अनादिद का>से अनंतानंत संसारमें भावरनिहत बाह्यलि>ंग अनंतबार छोडे़ तथा ग्रहण निकये हैं 154भावके निबना सांसारिरक अनेक दुःkोंको प्राप्त हुआ है, इसशि>ये जि नोक्त भावनाकी भावना करो 155नरकगनितके दुःkोंका वण%न 155

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नितय%श्च गनितके दुःkोंका वण%न 156मनुष्यगनितके दुःkोंका वण%न 157देवगनितके दुःkोंका वण%न 157द्रव्यलि>ंगी कंदपN आदिद पाँच अशुभ भावनाके निनमिमत्तसे नीच देव होता है 158कुभावनारूप भाव कारणोंसे अनेकबार अनंतका> पाश्व%स्थ भावना भाकर दुःkी हुआ 156हीन देव होकर महर्द्धिद्धंक देवोंकी निवभूनित देkकर मानशिसक दुःk हुआ 159मदमत्त अशुभभावनायुक्त अनेक बार कुदेव हुआ 160गभ% न्य दुःkोंका वण%न 161 न्म धारणकर अनंतानंत बार इतनी माताओंका दूध पीया निक जि सकी तु>ना समुद्र >से भी अमिधक है 161अनंत बार मरणसे माताओंके अश्रुओंकी तु>ना समुद्र >से अमिधक है 162अनंत न्मके नk तथा केशोंकी राशिश भी मेरुसे अमिधक है 162 > थ> आदिद अनेक तीन भुवनके स्थानोंमें बहुत बार निनवास निकया 163 गतके सम-त पुद्ग>ोंको अनन्तबार भोगा तो भी तृन्तिप्त नहीं हुई 163तीन भुवन संबंधी सम-त > पीया तो भी प्यास शांत न हुई 164अनंत भवसागरमें अनेक शरीर धारण निकये जि नका निक प्रमाण भी नहीं 164निवषादिद द्वारा मरणकर अनेक बार अपमृत्यु न्य तीव्र दुःk पाये 165निनगोदके दुःkोंका वण%न 166कु्षद्र भवोंका कथन 167रत्नत्रय धारण करनेका उपदेश 168रत्नत्रयका सामान्य >क्षण 168 न्म मरण नाशक सुमरणका उपदेश 169टीकाकार वर्णिणंत 17 सुमरणोंके भेद तथा सव% >क्षण 169–172द्रव्य श्रमणका नित्र>ोकीमें ऐसा कोई भी परमाणु मात्र क्षेत्र नहीं हाँ निक न्म मरणको प्राप्त नहीं हुआ । भावलि>ंगके निबना बाह्य जि नलि>ंग प्रान्तिप्तमें भी अनंतका> दुःk सहे 172पुद्ग>की प्रधानतासे भ्रमण 174

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के्षत्रकी प्रधानतासे भ्रमण और शरीरके राग प्रमाणकी अपेक्षासे दुःkका वण%न 174अपनिवत्र गभ%–निनवासकी अपेक्षा दुःkका वण%न 176बाल्य अवस्था संबंधी वण%न 177निवषय पृष्ठशरीरसम्बन्धी अशुशिचत्वका निवचार 177कुटुम्बसे छूटना वा-तनिवक छूटना नहीं, निकन्तु भावसे छूटना ही वा-तनिवक छूटना है 178मुनिन बाहुब>ी ीके समान भावशुजिद्धके निबना बहुत का>पय%न्त शिसजिद्ध नहीं हुई 179मुनिन हिपंग>का उदाहरण तथा टीकाकार वर्णिणंत कथा 179वशिशष्ट मुनिनका उदाहरण और कथा 181भावके निबना चौरासी योनिनयोंमें भ्रमण 182भावसे ही लि>ंग होता है द्रव्यसे नहीं 183बाहु मुनिनका दृष्टान्त और कथा 184द्वीपायन मुनिनका उदाहरण और कथा 185भावशुजिद्धकी शिसजिद्धमें शिशवकुमार मुनिनका दृष्टान्त तथा कथा 186भावशुजिद्ध निबना निवद्वत्ता भी काय%कारी नहीं उसमें उदाहरण अभव्यसेन मुनिन 187निवद्वत्ता निबना भी भावशुजिद्ध काय%कारिरणी है उसका दृष्टान्त शिशवभूनित तथा शिशवभूनितकीकथा 187नग्नत्वकी साथ%कता भावसे ही है । 188भावके निबना कोरा नग्नत्व काय%कारी नहीं 189भावलि>ंगका >क्षण 189भावलि>ंगीके परिरणामोंका वण%न 190मोक्षकी इच्छामें भावशुद्ध आत्माका लिचंतवन 192आत्म–लिचंतवन भी निन भाव सनिहत काय%कारी है 192सव%ज्ञ प्रनितपादन ीवका -वरूप 193जि सने ीवका अस्ति-तत्व अंगीकार निकया है उसीके शिसजिद्ध है 194 ीवका -वरूप वचनगम्य न होने पर भी अनुभवगम्य है 194पंचप्रकार ज्ञान भी भावनाका फ> है 195

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भाव निबना पठन श्रवण काय%कारी नहीं 196बाह्य नग्नपनेसे ही शिसजिद्ध हो, तो नितय�च आदिद सभी नग्न हैं 196भाव निबना केव> नग्नपना निनष्फ> ही है 197पापमशि>न कोरा नग्न मुनिन अपयशका ही पात्र है 198भावलि>ंगी होनेका उपदेश 198भावरनिहत कोरा नग्नमुनिन निनगु%ण निनष्फ> 199जि नोक्त समामिध बोमिध द्रव्यलि>ंगीके नहीं 199भावलि>ंग धारणकर द्रव्यलि>ंग धारण करना ही माग% है 200शुद्ध भाव मोक्षका कारण अशुद्ध भाव संसारका कारण 201भावके फ>का माहात्म्य 201भावोंके भेद और उनके >क्षण 202जि नशासनका माहात्म्य 203दश%ननिवशुजिद्ध आदिद भावशुजिद्ध तीथ�कर प्रकृनितका भी कारण है 203निवशुजिद्ध निनमिमत्त आचरणका उपदेश 204जि नलि>ंगका -वरूप 205जि नधम%की मनिहमा 206प्रवृभित्त निनवृभित्तरूप धम%का कथन पुhयधम% नहीं है, धम% क्या है ? 207पुhय प्रधानताकर भोगका निनमिमत्त है, कम%क्षयका नहीं 208मोक्षका कारण आत्मीक -वभावरूप धम% ही है 208आत्मीक शुद्ध परिरणनितके निबना अन्य सम-त पुhय परिरणनित शिसजिद्धसे रनिहत हैं 209आत्म-वरूपका श्रद्धान तथा ज्ञान मोक्षका साधक है ऐसा उपदेश 209बाह्य हिहंसादिद निक्रया निबना शिसफ% अशुद्ध भाव भी सप्तम नरकका कारण है उसमें उदाहरण–तंदु> मत्-यकी कथा 210भावनिबना बाह्य परिरग्रहका त्याग निनष्फ> है 211भावशुजिद्धनिनमिमत्तक उपदेश 212भावशुजिद्धका फ> 213भावशुजिद्धके निनमिमत्त परीषहोंके ीतनेका उपदेश 214

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परीषह–निव ेता उपसग�से निवचशि>त नहीं होता उसमें दृष्टान्त 214भावशुजिद्ध निनमिमत्त भावनाओंका उपदेश 215भावशुजिद्धमें ज्ञानाभ्यासका उपदेश 216भावशुजिद्धके निनमिमत्त ब्रह्मचय%के अभ्यासका कथन 216भावसनिहत चार आराधनाको प्राप्त करता है, भावसनिहत संसारमें भ्रमण करता है 217भाव तथा द्रव्यके फ>का निवशेष 218अशुद्ध भावसे ही दोषदूनिषत आहार निकया, निफर उसीसे दुग%नितके दुःk सहे 218सशिचत्त त्यागका उपदेश 219पंचप्रकार निवनय पा>नका उपदेश 220वैयावृत्यका उपदेश 221>गे हुए दोषोंको गुरुके सन्मुk प्रकाशिशत करनेका उपदेश 222क्षमाका उपदेश 222क्षमाका फ> 223क्षमाके द्वारा पूव%संशिचत क्रोधके नाशका उपदेश 224दीक्षाका> आदिदकी भावनाका उपदेश 224भावशुजिद्धपूव%क ही चार प्रकारका बाह्य लि>ंग काय%कारी है 225भाव निबना आहारादिद चार संज्ञाके परवश होकर अनादिदका> संसार भ्रमण होता है 226भावशुजिद्धपूव%क बाह्य उत्तर गुणोंकी प्रवृभित्तका उपदेश 226तत्त्वकी भावनाका उपदेश 227तत्त्वभावना निबना मोक्ष नहीं 229पापपुhयरूपबंध तथा मोक्षका कारण भाव ही है 230पापबंधके कारणोंका कथन 230पुhयबंधके कारणोंका कथन 231भावना सामान्यका कथन 232उत्तरभेदसनिहत शी>व्रत भानेका उपदेश 233

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टीकाकार द्वारा वर्णिणंत शी>के अठारह ह ार भेद तथा चौरासी >ाk उत्तर गुणोंका वण%न, गुणस्थानोंकी परिरपाटी 233–236धम%ध्यान शुक्>ध्यानके धारण तथा आत्त%रौद्रके त्यागका उपदेश 236भवनाशक ध्यान भावश्रमणके ही है 237ध्यानण्डिस्थनितमें दृष्टांत 238पंचगुरुके ध्यावनेका उपदेश 238ज्ञानपूव%क भावना मोक्षका कारण है 239भावलि>ंगीके संसार परिरभ्रमणका अभाव होता है 240भाव धारण करनेका उपदेश तथा भावलि>ंगी उत्तमोत्तम पद तथा उत्तमोत्तम सुkको प्राप्त करता है 241भावश्रमणको नम-कार 242देवादिद ऋजिद्ध भी भावश्रमणको मोनिहत नहीं करतीं तो निफर अन्य संसारके सुk क्या मोनिहत कर सकते हैं 242 बतक रारोगादिदका आक्रमण न हो तबतक आत्मकल्याण करो 244अहिहंसा धम%का उपदेश 244चार प्रकारके मिमथ्यात्वादिदयोंके भेदोंका वण%न 246अभव्य निवषयक कथन 248मिमथ्यात्व दुग%नितका निनमिमत्त है 250तीन सौ त्रेसठ प्रकारके पाkंनिOयोंके मतको छुड़ानेका और जि नमतमें प्रवृत्त करनेका उपदेश है 251सम्यग्दश%न निबना ीव च>ते हुए मुरदे के समान है, अपूज्य है 253सम्यक्त्वकी उत्कृष्टता 252सम्यग्दश%नसनिहत लि>ंगकी प्रशंसा 253दश%नरत्नके धारण करनेका आदेश 254असाधारण धम� द्वारा ीवका निवशेष वण%न 254–256जि नभावना–परिरणत ीव घानितकम%का नाश करता है 256घानितकम%का नाश अनंत–चतुष्टयका कारण है 257

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कम%रनिहत आत्मा ही परमात्मा है, उसके कुछ एक नाम 258देवसे उत्तम बोमिधकी प्राथ%ना 259 ो भशिक्तभावसे अरहंतको नम-कार करते हैं वे शीघ्र ही संसार बेशि>का नाश करते हैं 260 >ण्डिस्थत कम>पत्रके समान सम्यग्दृमिष्ट निवषयकषायोंसे अशि>प्त है 260भावलि>ंगी निवशिशष्ट द्रव्यलि>ंगी मुनिन कोरा द्रव्यलि>ंगी है और श्रावकसे भी नीचा है 261धीर वीर कौन ? 262धन्य कौन ? 262मुनिनमनिहमाका वण%न 263मुनिनसामथ्य%का वण%न 263मू>ोत्तर–गुण–सनिहत मुनिन जि नमत आकाशमें तारागण सनिहत पूण% चंद्रसमान है 264निवशुद्धभावके धारक ही तीथ�कर चक्री आदिदके पद तथा सुk प्राप्त करते हैं 265निवशुद्ध भाव धारक ही मोक्ष सुkको प्राप्त होते हैं 265शुद्धभावनिनमिमत्त आचाय%कृत शिसद्ध परमेष्ठीकी प्राथ%ना 266चार पुरुषाथ% तथा अन्य व्यापार सव% भावमें ही परिरण्डिस्थनित हैं, ऐसा संभिक्षप्त वण%न 267भाव प्राभृतके पढ़ने सुनने मनन करनेसे मोक्षकी प्रान्तिप्त होती है ऐसा उपदेश तथा पं0 यचन्द्र ी कृत ग्रन्थका देशभाषामें सार 267–270

6. मोक्षपाहु)मंग>निनमिमत्त देवको नम-कार 271देव नम-कृनित पूव%क मोक्षपाहुO शि>kने की प्रनितज्ञा 272परमात्माके ज्ञाता योगीको मोक्ष प्रान्तिप्त 272आत्माके तीन भेद 273आत्मत्रयका -वरूप 274परमात्माका निवशेष -वरूप 274बनिहरात्माको छोड़कर परमात्माको ध्यानेका उपदेश 275बनिहरात्माका निवशेष कथन 276मोक्षकी प्रान्तिप्त निकसके है 278

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बंधमोक्षके कारणका कथन 279कैसा हुआ मुनिन कम%का नाश करता है 279कैसा हुआ कम%का बंध करता है 280सुगनित और दुग%नितके कारण 281परद्रव्यका कथन 281निनवा%णकी प्रान्तिप्त निकस द्रव्यके ध्यानसे होती है 282 ो मोक्ष प्राप्त कर सकता है उसे -वग% प्रान्तिप्त सु>भ है 283इसमें दृष्टान्त 284-वग%मोक्षके कारण 285परमात्म-वरूप प्रान्तिप्तके कारण और उस निवषयका दृष्टांत 285दृष्टांत द्वारा श्रेष्ठ–अश्रेष्ठका वण%न 286आत्मध्यानकी निवमिध 287ध्यानावस्थामें मौनका हेतपूव%क कथन 288योगीका काय% 289कौन कहाँ सोता तथा गता है 290ज्ञानी योगीका कत%व्य 290ध्यान अध्ययनका उपदेश 291आराधक तथा आराधनाकी निवमिधके फ>का कथन 292आत्मा कैसा है 292योगीको रत्नत्रयकी आराधनासे क्या होता है ? 293आत्मामें रत्नत्रयका सद्भाव कैसा 293प्रकारान्तरसे रत्नत्रयका कथन 294सम्यग्दश%नका प्राधान्य 294सम्यग्ज्ञानका -वरूप 294सम्यक्चारिरत्रका >क्षण 297परम पदको प्राप्त करनेवा>ा कैसा हुआ होता है 298कैसा हुआ आत्माका ध्यान करता है 299

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कैसा हुआ उत्तम सुkको प्राप्त करता है 300कैसा हुआ मोक्षसुkको प्राप्त नहीं करता 300जि नमुद्रा क्या है 301परमात्माके ध्यानसे योगीके क्या निवशेषता होती है 302चारिरत्रनिवषयक निवशेष कथन 302 ीवके निवशुद्ध अशुद्ध कथनमें दृष्टांत 304सम्यक्त्वसनिहत सरागी योगी कैसा 304कम%क्षयकी अपेक्षा अज्ञानी तप-वीसे ज्ञानी तप-वीमें निवशेषता 305अज्ञानी ज्ञानीका >क्षण 306ऐसे लि>ंगग्रहणसे क्या सुk 308सांख्यादिद अज्ञानी क्यों तथा ैनमें ज्ञानिनत्व निकस कारणसे 309ज्ञानतपकी संयुक्तता मोक्षकी साधक है पृथक् पृथक् नहीं 309-वरूपाचरणचारिरत्रसे भ्रष्ट कौन 311ज्ञानभावना कैसी काय%कारी है 311निकनको ीतकर निन आत्माका ध्यान करना 312ध्येय आत्मा कैसा 312उत्तरोत्तर दु>%भतासे निकनकी प्रान्तिप्त होती है 313 ब तक निवषयोंमें प्रवृभित्त है तबतक आत्मज्ञान नहीं 314कैसा हुआ संसारमें भ्रमण करता है 314चतुग%नितका नाश कौन करते हैं ? 315अज्ञानी निवषयक निवशेष कथन 315वा-तनिवक मोक्षप्रान्तिप्त कौन करते हैं ? 316कैसा राग संसारका कारण है 317समभावसे चारिरत्र 317ध्यान योगके समयके निनषेधक कैसे हैं 318पंचमका>में धम% ध्यान नहीं मानते हैं वे अज्ञानी हैं 319इस समय भी रत्नत्रय शुजिद्धपूव%क आत्मध्यान इंद्रादिद फ>का दाता है 320

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मोक्षमाग%में च्युत कौन ? 321मोक्षमागN मुनिन कैसे होते हैं ? 322मोक्षप्रापक भावना 323निफर मोक्षमागN कैसे 323निनश्चयात्मक ध्यानका >क्षण तथा फ> 324पापरनिहत कैसा योगी होता है 325श्रावकोंका प्रधान कत%व्य निनश्च>सम्यक्त्व प्रान्तिप्त तथा उसका ध्यान और ध्यानका फ> 326 ो सम्यक्त्वको मशि>न नहीं करते वे कैसे कहे ाते हैं 327सम्यक्त्वका >क्षण 328सम्यक्त्व निकसके है 329मिमथ्यादृमिष्टका >क्षण 330मिमथ्याकी मान्यता सम्यग्दृमिष्टके नहीं तथा दोनोंका परस्पर निवपरीत धम% 331कैसा हुआ मिमथ्यादृमिष्ट संसारमें भ्रमता है 332मिमथ्यात्वी लि>ंगीकी निनरथ%कता 333जि नलि>ंगका निवरोधक कौन ? 334आत्म-वभावसे निवपरीतका सभी व्यथ% है 335ऐसा साधु मोक्षकी प्रान्तिप्त करता है 336देहस्थ आत्मा कैसा ानने योग्य है 337पंचपरमेष्ठी आत्मामें ही हैं अतः वही शरण है 338चारों आराधना आत्मा ही में हैं अतः वही शरण है 339मोक्ष पाहुO पढ़ने सुननेका फ> 340टीकाकारकृत मोक्षपाहुOका साररूप– 340–342कथन ग्रंथके अ>ावा टीकाकारसूत्र पंच नम-कार मंत्र निवषयक निवशेषवण%न 343–346

7. लिलंगपाहु)अरहंतोको नम-कार पूव%क लि>ंगपाहुO बनानेकी प्रनितज्ञा 347भावधम% ही वा-तनिवक लि>ंग प्रधान है 348

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पापमोनिहत दुबु%जिद्ध नारदके समान लि>ंगकी हँसी कराते हैं 349लि>ंग धारणकर कुनिक्रया करते हैं वे नितय�च हैं 349ऐसा नितय�च योनिन है मुनिन नहीं 350लि>ंगरूपमें kोटी निक्रया करनेवा>ा नरकगामी है 350लि>ंगरूपमें अब्रह्मका सेवनेवा>ा संसारमें भ्रमण करता है 351कौनसा लि>ंगी अनंत संसारी है 352निकस कम%का नाश करनेवा>ा लि>ंगी नरकगामी है 352निफर कैसा हुआ नितय�च योनिन है 354कैसा जि नमागN श्रमण नहीं हो सकता 355चोरके समान कौनसा मुनिन कहा ाता है 356लि>ंगरूपमें कैसी निक्रयायें नितय�चताकी द्योतक हैं 356भावरनिहत श्रमण नहीं है 357स्त्रि-त्रयोंका संसग% निवशेष रkने वा>ा श्रमण नहीं पाश्व%स्थसे भी निगरा है 257पंुश्च>ीके घर भो न तथा उसकी प्रशंसा करनेवा>ा ज्ञान भाव रनिहत है श्रमण नहीं 360लि>ंगपाहुO धारण करनेका तथा करनेका फ> 360

8. शीलपाहु)महावीर -वामीको नम-कार और शी>पाहुO शि>kनेकी प्रनितज्ञा 363शी> और ज्ञान परस्पर निवरोध रनिहत हैं, शी>के निबना ज्ञान भी नहीं 364ज्ञान होने पर भी भावना निवषय निवरक्त उत्तरोत्तर कदिठन है 366 ब तक निवषयोंमें प्रवृभित्त है तब तक ज्ञान नहीं ानता तथा कम�का नाश भी नहीं 366कैसा आचरण निनरथ%क है 367महाफ> देनेवा>ा कैसा आचरण होता है 368कैसे हुए संसारमें भ्रमण करते हैं 368ज्ञानप्रान्तिप्त पूव%क कैसे आचरण संसारका नाश करते हैं 369ज्ञान द्वारा शुजिद्धमें सुवण%का दृष्टांत 369निवषयोंमें आसशिक्त निकस दोषसे है 370निनवा%ण कैसे होता है 370

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निनयमसे मोक्षप्रान्तिप्त निकसके है 371निकनका ज्ञान निनरथ%क है 371कैसे पुरुष आराधना रनिहत होते हैं 372निकनका मनुष्य न्म निनरथ%क है 373शा-त्रोंका ज्ञान होने पर भी शी> ही उत्तम है 374शी> मंनिOत देवोंके भी निप्रय होते हैं 374मनुष्यत्व निकनका सु ीनिवत है 375शी>का परिरवार 376तपादिदक सब शी> ही है 376निवषयरूपी निवष ही प्रब> निवष है 377निवषयासक्त हुआ निक फ>को प्राप्त होता है 377शी>वान तुषके समान निवषयोंका त्याग करता है 378अंगके सुन्दर अवयवोंसे भी शी> ही सुंदर है 379मूढ तथा निवषयी संसारमें ही भ्रमण करते हैं 380कम%बंध कम%नाशक गुण सब गुणोंकी शोभा शी>से है 381मोक्षका शोध करनेवा>े ही शोध्य हैं 382शी>के निबना ज्ञान काय%कारी नहीं उसका सोदाहरण वण%न 383नारकी ीवोंको भी शी> अह%द–्निवभूनितसे भूनिषत करता है उसमें वद्ध%मान जि नका दृष्टांत 384मोक्षमें मुख्य कारण शी> 384अखिग्नके समान पंचाचार कम%का नाश करते हैं 385कैसे हुए शिसद्ध गनितको प्राप्त करते हैं 386शी>वान महात्माका न्मवृक्ष गुणोंसे निव-तारिरत होता है 386निकसके द्वारा कौन बोमिधकी प्रान्तिप्त करता है 387कैसे हुए मोक्ष सुkको पाते हैं 388आराधना कैसे गुण प्रगट करती है 388ज्ञान वही है ो सम्यक्त्व और शी>सनिहत है 389

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टीकाकारकृत शी>पाहुOका सार 390टीकाकारकी प्रशस्ति-त 392

ॐनमः चिसदे्धभ्र्यः

स्वामिम कुन्दकुन्दाचार्य� विवरचिचत

अष्टपाहु)भाषा–वचनिनका

(श्री पं0 यचन्द्र ी छाबड़ा)

अर्थ दश�नपाहु)1

दोहाश्रीमत वीरजिजनेश रविव मिमथ्र्यातम हरतार विवघनहरन मंगलकरन बंदंू वृषकरतार ।।1।।वानी बंदंू विहतकरी जिजनमुख-नभतैं गाजिज गणधरगणशु्रतभू–झरी–बूंद–वण�पद साजिज ।।2।।गुरु गौतम बंदंू सुविवचिध संर्यमतपधर और ।जिजविनतैं पंचमकालमैं बरत्र्यो जिजनमत दौर ।।3।।कुन्दकुन्दमुविनकंू नमूं कुमतध्वांतहर भान ।पाहु) ग्रन्थ रचे जिजनहिहं प्राकृत वचन महान ।।4।।वितविनमैं कई प्रचिसद्ध लखिख करंू सुगम सुविवचार ।देशवचविनकामर्य चिलखूं भव्य–जीवविहतधार ।।5।।

–इस प्रकार मंग>पूव%क प्रनितज्ञा करके श्री कुन्दकुन्द आचाय%कृत प्राकृतगाथाबद्ध पाहुO ग्रन्थोंमेंसे कुछकी देशभाषामय वचनिनका शि>kते हैं :—

वहाँ प्रयो न ऐसा है निक—इस हुhOावसर्विपंणी का>में मोक्षमाग%की अन्यथा प्ररूपणा करनेवा>े अनेक मत प्रवत%मान हैं । उसमें भी इस पंचमका>में केव>ी–श्रुतकेव>ीका वु्यचे्छद

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होनेस े जि नमतमें भी ड़ वक्र ीवोंके निनमिमत्तसे परम्परा माग%का उल्>ंघन करके शे्वताम्बर आदिद बुजिद्धकण्डिल्पत मत हुए ह ैं । उनका निनराकरण करके यथाथ% -वरूपकी स्थापनाके हेतु दिदगम्बर आम्नाय मू>संघम ें आचाय% हुए और उन्होंन े सव%ज्ञकी परम्पराके अवु्यचे्छदरूप प्ररूपणाके अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है; उनम ें दिदगम्बर सम्प्रदाय मू>संघ नजिन्दआम्नाय सर-वतीगच्छमें श्री कुन्दकुन्द मुनिन हुए और उन्होंने पाहुOग्रन्थोंकी रचना की । उन्हें सं-कृत भाषामें करर प्राभृत कहते हैं और वे प्राकृत गाथाबद्ध हैं । का> दोषसे ीवोंकी वुजिद्ध मन्द होती है जि ससे वे अथ% नहीं समझ सकते; इसशि>ये देशभाषामय वचनिनका होगी तो सब पढेंगे और अथ% समझेंगे तथा श्रद्धान दृढ़ होगा—ऐसा प्रयो न निवचार कर वचनिनका शि>k रहे हैं अन्य कोई ख्यानित, बड़ाई या >ाभका प्रयो न नहीं है । इसशि>ये हे भव्य ीवो ! उसे पढ़कर, अथ% समझकर, शिचत्तमें धारण करके यथाथ% मतके बाह्यलि>ंग एवं तत्त्वाथ%का श्रद्धान दृढ़ करना । इसमें कुछ बुजिद्धकी मंदतासे तथा प्रमादके वश अन्यथा अथ% शि>k दँू तो अमिधक बुजिद्धमान मू>ग्रन्थको देkकर, शुद्ध करके पढ़ें और मुझे अल्पबुजिद्ध ानकर क्षमा करें ।

अब यहाँ प्रथम दश%नपाहुड़की वचनिनका शि>kते हैं :—(दोहा)

बंदंू श्री अरिरहंतकंू मन वच तन इकतान ।मिमथ्र्याभाव विनवारिरकैं करैं सु दश�न ज्ञान ।।

अब ग्रन्थकता% श्री कुन्दकुन्दाचाय% ग्रन्थके आदिद में ग्रन्थकी उत्पभित्त और उसके ज्ञानका कारण ो परम्परा गुरुका प्रवाह उसे मंग>के हेतु नम-कार करते हैं :—

काऊण णमुक्कारं जिजणवरवसहस्स वड्ढमाणस्स ।दंसणमग्गं वोच्छामिम जहाकम्मं समासेण ।।1।।कृत्वा नमस्कारं जिजनवरवृषभस्र्य वद्ध�मानस्र्य ।दश�नमागm वक्ष्र्यामिम र्यर्थाक्रमं समासेन ।।1।।

प्रारंभमां करीने नमन जिजनवरवृषभ महावीरने,संक्षेपर्थी हंु र्यर्थाक्रमे भाखीश दश�नमाग�ने. 1.

इसका देशभाषामय अथ% :—आचाय% कहते हैं निक मैं जि नवर वृषभ ऐसे ो आदिद तीथ�कर श्री ऋषभदेव तथा अन्तिन्तम तीथ�कर वद्ध%मान, उन्ह ें नम-कार करके दश%न अथा%त् मतका ो माग% है उसे यथानुक्रम संके्षपमें कहँूगा ।

भावाथ% :—यहा ँ ‘जि नवर वृषभ’ निवशेषण है; उसमें ो जि न शब्द है उसका अथ% ऐसा ह ै निक— ो कम%शत्रुको ीत े सो जि न । वहा ँ सम्यग्दृमिष्ट अव्रतीस े >ेकर कम%की

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गुणश्रेणीरूप निन %रा करनेवा>े सभी जि न हैं उनमें वर अथा%त् श्रेष्ठ । इस प्रकार गणधर आदिद मुनिनयोंको जि नवर कहा ाता है; उनमें वृषभ अथा%त् प्रधान ऐसे भगवान तीथ�कर परम देव हैं । उनमें प्रथम तो श्री ऋषभदेव हुए और इस पंचमका>के प्रारंभ तथा चतुथ%का>के अन्तमें अन्तिन्तम तीथ�कर श्री वद्ध%मान-वामी हुए ह ैं । व े सम-त तीथ�कर जि नवर वृषभ हुए ह ैं उन्हें नम-कार हुआ । वहा ँ ‘वद्ध%मान’ ऐसा निवशेषण सभीके शि>ये ानना; क्योंनिक सभी अन्तरंग एव ं बाह्य >क्ष्मीस े वद्ध%मान ह ैं । अथवा जि नवर वृषभ शब्दस े तो आदिद तीथ�कर श्री ऋषभदेवको और वद्ध%मान शब्दसे अन्तिन्तम तीथ�करको ानना । इस प्रकार आदिद और अन्तके तीथ�करोंको नम-कार करनेसे मध्यके तीथ�करोंको भी सामथ्य%से नम-कार ानना । तीथ�कर सव%ज्ञ वीतरागको तो परमगुरु कहते हैं और उनकी परिरपाटीमें च>े आ रहे गौतमादिद मुनिनयोंको जि नवर निवशेषण दिदया, उन्हें अपर गुरु कहते हैं;—इसप्रकार परापर गुरुओंका प्रवाह ानना । वे शा-त्रकी उत्पभित्त तथा ज्ञानके कारण हैं । उन्हें ग्रन्थके आदिदमें नम-कार निकया ।।1।।

अब, धम%का मू> दश%न है, इसशि>ये ो दश%नसे रनिहत हो उसकी वंदना नहीं करना चानिहये—ऐसा कहते हैं :—

दंसणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिजणवरेहिहं चिसस्साणं ।तं सोऊण सकण्णे दंसणहीणो ण वंदिदब्बो ।।2।।दश�नमूलो धम�ः उपदिदष्टः जिजनवरैः शिशष्र्याणाम् ।त ंश्रुत्वा स्वकणt दश�नहीनो न वजिन्दतव्यः ।।2।।

रे ! धम� दश�नमूल उपदेश्र्यो जिजनोए शिशष्र्यने,ते धम� विनज कणt सुणी दश�नरविहत नविह वंद्य छे. 2.

अथ% :—जि नवर ो सव%ज्ञदेव हैं उन्होंने शिशष्य ो गणधर आदिदकको धम%का उपदेश दिदया है; कैसा उपदेश दिदया ह ै ?—निक दश%न जि सका मू> है । मू> कहाँ होता है निक– ैसे मजिन्दर के नींब और वृक्षके ड़ होती है उसी प्रकार धम%का मू> दश%न है । इसशि>ये आचाय% उपदेश देते हैं निक–हे सकण% अथा%त् सत्पुरुषो ! सव%ज्ञके कहे हुए उस दश%नमू>रूप धम%को अपने कानोंसे सुनकर ो दश%नसे रनिहत हैं वे वंदन योग्य नहीं हैं; इसशि>ये दश%नहीनकी वंदना मत करो । जि सके दश%न नहीं ह ै उसके धम% भी नहीं है; क्योंनिक मू> रनिहत वृक्षके -कंध, शाkा, पुष्प, फ>ादिदक कहाँसे होंगे ? इसशि>ये यह उपदेश है निक—जि सके धम% नहीं है उससे धम%की प्रान्तिप्त नहीं हो सकती, निफर धम%के निनमिमत्त उसकी वंदना निकसशि>ये कर ें ?—ऐसा ानना ।

अब, यहा ँ धम%का तथा दश%नका -वरूप ानना चानिहये । वह -वरूप तो संक्षेपमें ग्रन्थकार ही आगे कहेंगे, तथानिप कुछ अन्य ग्रन्थोंके अनुसार यहाँ भी दे रहे हैं:–धम% शब्दका

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अथ% यह है निक– ो आत्माको संसारसे उबारकर सुkस्थानमें स्थानिपत करे सो धम% है । और दश%न अथा%त् देkना । इसप्रकार धम%की मूर्वितं दिदkायी दे वह दश%न है तथा प्रशिसजिद्धमें जि समें धम%का ग्रहण हो ऐस े मतको दश%न कहा ह ै । >ोकम ें धम%की तथा दश%नकी मान्यता सामान्यरूपसे तो सबके है, परन्तु सव%ज्ञके निबना यथाथ% -वरूपका ानना नहीं हो सकता; परन्तु छद्मस्थ प्राणी अपनी बुजिद्धसे अनेक -वरूपोंकी कल्पना करके अन्यथा -वरूप स्थानिपत करके उनकी प्रवृभित्त करते हैं । और जि नमत सव%ज्ञकी परम्परा से प्रवत%मान है इसशि>ये इसमें यथाथ% -वरूपका प्ररूपण है ।

वहाँ धम%को निनश्चय और व्यवहार—ऐसे दो प्रकारसे साधा है । उसकी प्ररूपणा चार प्रकारस े है—प्रथम व-तु-वभाव. दूसर े उत्तम क्षमादिद दस प्रकार, तीसर े सम्यग्दश%न-ज्ञान-चारिरत्ररूप और चौथे ीवोंकी रक्षारूप ऐसे चार प्रकार हैं । वहाँ निनश्चयसे शिसद्ध निकया ाय तब तो सबम ें एक ही प्रकार है, इसशि>य े व-तु-वभावका तात्पय% तो ीव नामक व-तुकी परमाथ%रूप दश%न-ज्ञान-परिरणाममयी चेतना है, और वह चेतना सव% निवकारोंसे रनिहत शुद्ध--वभावरूप परिरणमिमत हो वही ीवका धम% ह ै । तथा उत्तमक्षमादिदक दस प्रकार कहनेका तात्पय% यह है निक आत्मा क्रोधादिद कषायरूप न होकर अपने -वभावमें ण्डिस्थर हो वही धम% है, यह भी शुद्ध चेतनारूप ही हुआ ।

दश%न-ज्ञान-चारिरत्र कहने का तात्पय% यह है निक तीनों एक ज्ञानचेतनाके ही परिरणाम हैं, वही ज्ञान-वभावरूप धम% ह ै । और ीवोंकी रक्षाका तात्पय% यह ह ै निक– ीव क्रोधादिद कषायोंके वश होकर अपनी या परकी पया%यके निवनाशरूप मरण तथा दुःk, संक्>ेश परिरणाम न करे–ऐसा अपना -वभाव ही धम% है । इस प्रकार शुद्ध द्रव्यार्थिथंकरूप निनश्चयनयसे साधा हुआ धम% एक ही प्रकार है ।

व्यवहारनय पया%याभिश्रत है इसशि>ये भेदरूप है, व्यवहारनयसे निवचार करें तो ीवके पया%यरूप परिरणाम अनेक प्रकार हैं, इसशि>ये धम%का भी अनेक प्रकारसे वण%न निकया है । वहाँ (1) –प्रयो नवश एकदेशका सव%देशसे कथन निकया ाये सो व्यवहार है, (2) –अन्य व-तुमें अन्यका आरोपण अन्यके निनमिमत्तसे और प्रयो नवश निकया ाये वह भी व्यवहार है, वहाँ व-तु-वभाव कहनेका तात्पय% तो निनर्विवंकार चेतनाके शुद्धपरिरणामके साधकरूप (3) –मंदकषायरूप शुभ–परिरणाम हैं तथा ो बाह्यनिक्रयाए ँहैं उन सभीको व्यवहारधम% कहा ाता है । उसीप्रकार रत्नत्रयका तात्पय% -वरूपके भेद दश%न-ज्ञान-चारिरत्र तथा उनके कारण बाह्य निक्रयादिदक हैं, उन सभीको व्यवहार धम% कहा ाता ह ै । उसीप्रकार– (4) ीवोंकी दया कहनेका तात्पय% यह ह ै निक–क्रोधादिद मंदकषाय होनेसे अपने या परके मरण, दुःk, क्>ेश आदिद न करना; *उसके साधक सम-त बाह्यनिक्रयादिदको धम% कहा ाता ह ै । इस प्रकार जि नमतमें निनश्चय—व्यवहारनयसे साधा हुआ धम% कहा है ।

* साधकरूप—सहचर हेतुरूप निनमिमत्तमात्र; अंतरंग काय% हो तो बाह्यमें इस प्रकारको निनमिमत्तकारण कहा ाता है ।

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वहा ँ एक-वरूप अनेक-वरूप कहनेम ें -याद्वादस े निवरोध नहीं आता, कथण्डि³चत् निववक्षासे सव% प्रमाणशिसद्ध है । ऐसे धम%का मू> दश%न कहा है, इसशि>ये ऐसे धम%की श्रद्धा, प्रतीनित, रुशिचसनिहत आचरण करना ही दश%न है, यह धम%की मूर्वितं है, इसीको मत (दश%न) कहते ह ैं और यही धम%का मू> है । तथा ऐसे धम%की प्रथम श्रद्धा, प्रतीनित, रुशिच न हो तो धम%का आचरण भी नहीं होता,– ैस े वृक्षके मू> निबना -कंधादिदक नहीं होत े । इस प्रकार दश%नको धम%का मू> कहना युक्त है । ऐसे दश%नका शिसद्धान्तोंमें ैसा वण%न है तदनुसार कुछ शि>kते हैं ।

वहा ँ अंतरंग सम्यग्दश%न तो ीवका भाव ह ै वह निनश्चय द्वारा उपामिधरनिहत शुद्ध ीवका साक्षात ् अनुभव होना ऐसा एक प्रकार ह ै । वह ऐसा अनुभव अनादिदका>से मिमथ्यादश%न नामक कम%के उदयसे अन्यथा हो रहा है । सादिद मिमथ्यादृमिष्टके उस मिमथ्यात्वकी तीन प्रकृनितया ँ सत्तामें होती हैं–मिमथ्यात्व, सम्यग् मिमथ्यात्व और सम्यक्प्रकृनित । तथा उनकी सहकारिरणी अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, >ोभ के भेदसे चार कषाय नामक प्रकृनितया ँ हैं । इसप्रकार यह सात प्रकृनितयाँ ही सम्यग्दश%नका घात करनेवा>ी हैं; इसशि>ये इन सातोंका उपशम होनेस े पह> े तो इस ीवके उपशम सम्यक्त्व होता ह ै । इन प्रकृनितयोंका उपशम होनेका बाह्य कारण सामान्यतः द्रव्य, के्षत्र, का>, भाव हैं, उनमें द्रव्यमें तो साक्षात् तीथ�करके देkनादिद प्रधान हैं, के्षत्रमें समवसरणादिदक प्रधान हैं, का>में अद्ध%पुद्ग>परावत%न संसार–भ्रमण शेष रहे वह तथा भावमें अधःप्रवृत्तकरण आदिदक हैं ।

(सम्यक्त्वके बाह्य कारण) निवशेषरूपसे तो अनेक हैं । उनमेंसे कुछके तो अरिरहंत निबम्बका देkना, कुछके जि नेन्द्रके कल्याणक आदिदकी मनिहमा देkना, कुछके ानित-मरण, कुछके वेदना का अनुभव, कुछके धम%–श्रवण तथा कुछके देवोंकी ऋजिद्धका देkना—इत्यादिद बाह्य कारणों द्वारा मिमथ्यात्वकम%का उपशम होनेसे उपशमसम्यक्त्व होता है । तथा इन सात प्रकृनितयोंमेंस े छहका तो उपशम या क्षय हो और एक सम्यक्त्व प्रकृनितका उदय हो तब क्षयोपशम सम्यक्त्व होता है । इस प्रकृनितके उदयसे हिकंशिचत् अनितचार–म> >गता है । तथा इन सात प्रकृनितयोंका सत्तामें नाश हो तब क्षामियक सम्यक्त्व होता है ।

इस प्रकार उपशमादिद होन े पर ीवके परिरणाम–भेदके तीन प्रकार होत े हैं; वे परिरणाम अनित सूक्ष्म हैं, केव>ज्ञानगम्य हैं, इसशि>ये इन प्रकृनितयोंके द्रव्य पुद्ग>परमाणुओंके -कंध हैं, वे अनितसूक्ष्म हैं और उनमें फ> देनेकी शशिक्तरूप अनुभाग है वह अनितसूक्ष्म है वह छद्मस्थके ज्ञानगम्य नहीं ह ै । तथा उनका उपशमादिदक होनेस े ीवके परिरणाम भी सम्यक्त्वरूप होत े हैं, वे भी अनितसूक्ष्म हैं, वे भी केव>ज्ञानगम्य हैं । तथानिप ीवके कुछ परिरणाम छद्मस्थके ज्ञानम ें आने योग्य होत े हैं, व े उस े पनिहचाननेके बाह्य–शिचह्न हैं, उनकी परीक्षा करके निनश्चय करनेका व्यवहार है; ऐसा न हो तो छद्मस्थ व्यवहारी ीवके सम्यक्त्वका निनश्चय नहीं होगा और तब आस्ति-तक्यका अभाव शिसद्ध होगा, व्यवहारका >ोप होगा–यह महान

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दोष आयेगा । इसशि>ये बाह्य शिचह्नोंको आगम, अनुमान तथा -वानुभवसे परीक्षा करके निनश्चय करना चानिहये ।

वे शिचह्न कौनसे हैं सो शि>kते हैं:–मुख्य शिचह्न तो उपामिधरनिहत शुद्ध ज्ञानचेतना-वरूप आत्माकी अनुभूनित है । यद्यनिप यह अनुभूनित ज्ञानका निवशेष है, तथानिप वह सम्यक्त्व होनेपर होती है, इसशि>य े उस े बाह्य शिचह्न कहत े ह ैं । ज्ञान तो अपना अपनेको -वसंवेदनरूप है; उसका–रागादिद निवकार रनिहत शुद्धज्ञानमात्रका अपनेको आ-वाद होता है निक–‘‘ ो यह शुद्ध ज्ञान है सो मैं हूँ और ज्ञानमें ो रागादिद निवकार हैं वे कम%के निनमिमत्तसे उत्पन्न होते हैं, वह मेरा -वरूप नहीं है’’—इसप्रकार भेदज्ञानसे ज्ञानमात्रके आ-वादनको ज्ञानकी अनुभूनित कहते हैं, वही आत्माकी अनुभूनित है, तथा वही शुद्धनयका निवषय है । ऐसी अनुभूनितसे शुद्धनयके द्वारा ऐसा भी श्रद्धान होता है निक सव% कम% निनत रागादिदक भावसे रनिहत अनंत चतुष्टय मेरा -वरूप है, अन्य सब भाव संयोग निनत हैं; ऐसी आत्माकी अनुभूनित सो सम्यक्त्वका मुख्य शिचह्न है । यह मिमथ्यात्व अनन्तानुबन्धीके अभावसे सम्यक्त्व होता है उसका शिचह्न है; उस शिचह्नको ही सम्यक्त्व कहना सो व्यवहार है ।

उसकी परीक्षा सव%ज्ञके आगम, अनुमान तथा -वानुभव प्रत्यक्षप्रमाण इन प्रमाणोंसे की ाती ह ै । इसीको निनश्चय तत्त्वाथ%श्रद्धान भी कहते ह ैं । वहा ँ अपनी परीक्षा तो अपने -वसंवेदनकी प्रधानतासे होती है और परकी परीक्षा तो परके अंतरंगमें होनेकी परीक्षा परके वचन, कायकी निक्रयाकी परीक्षासे होती है यह व्यवहार है, परमाथ% सव%ज्ञ ानते हैं । व्यवहारी ीवको सव%ज्ञने भी व्यवहारके ही शरणका उपदेश दिदया है ।

(नोंध—अनुभूनित ज्ञानगुणकी पया%य है वह श्रद्धागुणसे भिभन्न है, इसशि>ये ज्ञानके द्वारा श्रद्धानका निनण%य करना व्यवहार है, उसका नाम व्यवहारी ीवको व्यवहारका ही शरण अथा%त् आ>म्बन समझना ।)

अनेक >ोग कहते हैं निक—सम्यक्त्व तो केव>ीगम्य है, इसशि>ये अपनेको सम्यक्त्व होनेका निनश्चय नहीं होता, इसशि>ये अपनेको सम्यग्दृमिष्ट नहीं मान सकते ? परन्तु इस प्रकार सव%था एकान्तसे कहना तो मिमथ्यादृमिष्ट है; सव%था ऐसा कहने से व्यवहारका >ोप होगा, सव% मुनिन–श्रावकोंकी प्रवृभित्त मिमथ्यात्वरूप शिसद्ध होगी, और सब अपनेको मिमथ्यादृमिष्ट मानेंग े तो व्यवहार कहा ँ रहेगा ? इसशि>ये परीक्षा होने पश्चात् ऐसा श्रद्धान नहीं रkना चानिहये निक मैं मिमथ्यादृमिष्ट ही हूँ । मिमथ्यादृमिष्ट तो अन्यमतीको कहते ह ैं और उसीके समान -वयं भी होगा, इसशि>ये सव%था एकान्तपक्ष ग्रहण नहीं करना चानिहये । तथा तत्त्वाथ%श्रद्धान तो बाह्य शिचह्न है । ीव, अ ीव, आस्रव, बंध, संवर, निन %रा, मोक्ष ऐसे सात तत्त्वाथ% हैं; उनम ें पुhय और पापको ोड़ देनेसे नव पदाथ% होते ह ैं । उनकी श्रद्धा अथा%त् सन्मुkता, रुशिच अथा%त ् तद्रूप भाव करना तथा प्रतीनित अथा%त् ैसे सव%ज्ञने कहे हैं तदनुसार ही अङ्गीकार करना और उनके आचरणरूप निक्रया, इसप्रकार श्रद्धानादिदक होना सो सम्यक्त्वका बाह्य शिचह्न है ।

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तथा प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्ति-तक्य भी सम्यक्त्व के बाह्य शिचह्न हैं । वहा ँ (1) प्रशम :—अनंतानुबन्धी क्रोधादिदक कषायके उदयका अभाव सो प्रशम है । उसके बाह्य शिचह्न ैस े निक—सव%था एकान्त तत्त्वाथ%का कथन करनेवा> े अन्य मतोंका श्रद्धान, बाह्यवेशमें सत्याथ%पनेका अभिभमान करना, पया%योंमें एकान्तके कारण आत्मबुजिद्धसे अभिभमान तथा प्रीनित करना वह अनंतानुबन्धीका काय% है—वह जि सके न हो, तथा निकसीने अपना बुरा निकया तो उसका घात करना आदिद मिमथ्यादृमिष्टकी भाँनित निवकारबुजिद्ध अपनेको उत्पन्न न हो, तथा वह ऐसा निवचार करे निक मैंने अपने परिरणामोंसे ो कम% बाँधे थे वे ही बुरा करनेवा>े हैं, अन्य तो निनमिमत्तमात्र हैं,—ऐसी बुजिद्ध अपनेको उत्पन्न हो—ऐसे मंदकषाय है । तथा अनंतानुबन्धीके निबना अन्य चारिरत्रमोहकी प्रकृनितयोंके उदयसे आरम्भादिदक निक्रयामें हिहंसादिदक होते ह ैं उनको भी भ>ा नहीं ानता इसशि>ये उससे प्रशमका अभाव नहीं कहते ।

(2) संवेग :—धम%म ें और धम%के फ>म ें परम उत्साह हो वह संवेग ह ै । तथा साधर्मिमंयोंसे अनुराग और परमेमिष्ठयोंमें प्रीनित वह भी संवेग ही है । इस धम%में तथा धम%के फ>में अनुरागको अभिभ>ाष नहीं कहना चानिहये, क्योंनिक अभिभ>ाष तो उस े कहत े ह ैं जि से इजिन्द्रयनिवषयोंकी चाह हो । अपने -वरूपकी प्रान्तिप्तमें अनुरागको अभिभ>ाष नहीं कहते । तथा (3) निनव�द :—इस संवेग ही में निनव�द भी हुआ समझना, क्योंनिक अपने -वरूपरूप धम%की प्रान्तिप्तमें अनुराग हुआ तब अन्यत्र सभी अभिभ>ाषका त्याग हुआ, सव% परद्रव्योंसे वैराग्य हुआ, वही निनव�द है । तथा (4) अनुकम्पा :—सव% प्राभिणयोंमें उपकारकी बुजिद्ध और मैत्रीभाव सो अनुकम्पा है । तथा मध्यस्थभाव होनेसे सम्यग्दृमिष्टके शल्य नहीं है, निकसीसे बैरभाव नहीं होता, सुk–दुःk, ीवन–मरण अपना परके द्वारा और परका अपने द्वारा नहीं मानता है । तथा परमें ो अनुकम्पा है सो अपनेमें ही है, इसशि>ये परका बुरा करनेका निवचार करेगा तो अपने कषायभावसे -वयं अपना ही बुरा हुआ; परका बुरा नहीं सोचेगा तब अपने कषायभाव नहीं होंगे इसशि>ये अपनी अनुकम्पा ही हुई । (5) आस्ति-तक्य :— ीवादिद पदाथ�में अस्ति-तत्वभाव सो आस्ति-तक्यभाव है । ीवादिद पदाथ�का -वरूप सव%ज्ञके आगमसे ानकर उनमें ऐसी बुजिद्ध हो निक— ैसे सव%ज्ञने कहे वैसे ही यह हैं—अन्यथा नहीं हैं वह आस्ति-तक्य भाव है । इस प्रकार यह सम्यक्त्वके बाह्य शिचह्न हैं ।

सम्यक्त्वके आठ गुण ह ैं :—संवेग, निनव�द, निनन्दा, गहा%, उपशम, भशिक्त, वात्सल्य और अनुकम्पा । यह सब प्रशमादिद चारमें ही आ ाते हैं संवेगमें निनव�द, वात्सल्य और भशिक्त—ये आ गये तथा प्रशममें निनन्दा, गहा% आ गई ।

सम्यग्दश%नके आठ अङ्ग कहे हैं । उन्हें >क्षण भी कहते हैं और गुण भी । उनके नाम हैं—निनःशंनिकत, निनःकांभिक्षत, निनर्विवंशिचनिकत्सा, अमूढ़दृमिष्ट, उपगूहन, ण्डिस्थनितकरण, वात्सल्य और प्रभावना ।

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वहा ँ शंङ्का नाम संशयका भी ह ै और भयका भी । वहा ँ धम%द्रव्य, अधम%द्रव्य, का>ाणुद्रव्य, परमाणु इत्यादिद तो सूक्ष्मव-त ु हैं, तथा द्वीप, समुद्र, मेरुपव%त आदिद दूरवतN पदाथ% हैं, तथा तीथ�कर, चक्रवतN आदिद अंतरिरत पदाथ% हैं; वे सव%ज्ञके आगममें ैसे कहे हैं वैसे हैं या नहीं हैं ? अथवा सव%ज्ञदेवने व-तुका -वरूप अनेकान्तात्मक कहा है सो सत्य है या असत्य ?—ऐसे सन्देहको शङ्का कहते हैं । जि सके यह न हो उसे निनःशंङ्निकत अङ्ग कहते हैं । तथा यह ो शंका होती है सो मिमथ्यात्वकम%के उदयसे (उदयमें युक्त होनेसे) होती है; परमें आत्मबुजिद्ध होना उसका काय% है । ो परमें आत्मबुजिद्ध है सो पया%यबुजिद्ध है, पया%यबुजिद्ध भय भी उत्पन्न करती है, शंका भयको भी कहते हैं, उसके सात भेद हैं:—इस >ोकका भय, पर>ोकका भय, मृत्युका भय, अरक्षाका भय, अगुन्तिप्तका भय, वेदनाका भय, अक-मातका भय । जि सके यह भय हों उसे मिमथ्यात्वकम%का उदय समझना चानिहये; सम्यग्दृमिष्ट होने पर यह नहीं होते ।

प्रश्न :—भय प्रकृनितका उदय तो आठव ें गुणस्थान तक है; उसके निनमिमत्तसे सम्यग्दृमिष्टको भय होता ही है, निफर भयका अभाव कैसा ?—समाधान :—निक यद्यनिप सम्यग्दृमिष्टके चारिरत्रमोहके भेदरूप भयप्रकृनितके उदयसे भय होता ह ै तथानिप उसे निनभ%य ही कहत े हैं, क्योंनिक उसके कम%के उदयका -वामिमत्व नहीं ह ै और परद्रव्यके कारण अपने द्रव्य-वभावका नाश नहीं मानता । पया%यका -वभाव निवनाशीक मानता है इसशि>ये भय होने पर भी उसे निनभ%य ही कहते हैं । भय होने पर उसका उपचार भागना इत्यादिद करता है; वहाँ वत%मानकी पीड़ा सहन न होनेसे वह इ>ा (—उपचार) करता है वह निनब%>ताका दोष है । इस प्रकार सम्यग्दृमिष्ट सन्देह तथा भयरनिहत होनेसे उसके निनःशङ्निकत अङ्ग होता है ।।1।।

कांक्षा अथा%त् भोगोंकी इच्छा–अभिभ>ाषा । वहाँ पूव%का>में निकये भोगोंकी वांछा तथा उन भोंगोकी मुख्य निक्रयामें वांछा तथा कम% और कम%के फ>की वांछा तथा मिमथ्यादृमिष्टयोंके भोगोंकी प्रान्तिप्त देkकर उन्ह ें अपने मनम ें भ>ा ानना अथवा ो इजिन्द्रयोंको न रुच ें ऐसे निवषयोंमें उदे्वग होना–यह भोगाभिभ>ाषके शिचह्न हैं । यह भोगाभिभ>ाष मिमथ्यात्वकम%के उदयसे होता है, और जि सके यह न हो वह निनःकांभिक्षत अङ्गयुक्त सम्यग्दृमिष्ट होता है । वह सम्यग्दृमिष्ट यद्यनिप शुभनिक्रया–व्रतादिदक आचरण करता है और उसका फ> शुभकम%बन्ध है, निकन्तु उसकी वह वांछा नहीं करता । व्रतादिदकको -वरूपका साधक ानकर उनका आचरण करता है, कम%के फ>की वांछा नहीं करता ।–ऐसा निनःकांभिक्षत अङ्ग है ।।2।।

अपनेमें अपने गुणकी महत्ताकी बुजिद्धसे अपनेको श्रेष्ठ मानकर परमें हीनताकी बुजिद्ध हो उसे निवशिचनिकत्सा कहते हैं; वह जि सके न हो सो निनर्विवंशिचनिकत्सा अंगयुक्त सम्यग्दृमिष्ट होता है । उसके शिचह्न ऐस े ह ैं निक–यदिद कोई पुरुष पापके उदयस े दुःkी हो, असाताके उदयसे ग्>ानिनयुक्त शरीर हो तो उसम ें ग्>ानिनबुजिद्ध नहीं करता । ऐसी बुजिद्ध नहीं करता निक–मैं सम्पदावान हँू, सुन्दर शरीरवान हूँ, यह दीन, रङ्क मेरी बराबरी नहीं कर सकता । उ>टा ऐसा

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निवचार करता है निक—प्राभिणयोंके कम}दयसे अनेक निवशिचत्र अवस्थाए ँहोती हैं । ब मेरे ऐसे कम%का उदय आवे तब मैं भी ऐसा ही हो ाऊँ ।—ऐसे निवचारसे निनर्विवंशिचनिकत्सा अङ्ग होता है ।।3।।

अतत्त्वम ें तत्त्वपनेका श्रद्धान सो मूढ़दृमिष्ट ह ै । ऐसी मूढ़दृमिष्ट जि सके न हो सो अमूढ़दृमिष्ट ह ै । मिमथ्यादृमिष्टयों द्वारा मिमथ्या हेत ु एवम् मिमथ्या दृष्टान्तस े सामिधत पदाथ% ह ैं वह सम्यग्दृमिष्टको प्रीनित उत्पन्न नहीं कराते हैं तथा >ौनिकक रूदिढ अनेक प्रकारकी है, वह निनःसार है, निनःसार पुरुषों द्वारा ही उसका आचरण होता है, ो अनिनष्ट फ> देनेवा>ी है तथा ो निनष्फ> है; जि सका बुरा फ> है तथा उसका कुछ हेतु नहीं है, कुछ अथ% नहीं है; ो कुछ >ोकरूदिढ च> पड़ती है उसे >ोग अपना >ेते हैं और निफर उसे छोड़ना कदिठन हो ाता है—इत्यादिद >ोकरूदिढ है ।

अदेवमें देवबुजिद्ध, अधम%में धम%बुजिद्ध, अगुरुमें गुरुबुजिद्ध इत्यादिद देवादिदक मूढ़ता है । वह कल्याणकारी नहीं ह ै । सदोष देवको देव मानना, तथा उनके निनमिमत्त हिहंसादिद द्वारा अधम%को धम% मानना, तथा मिमथ्या आचारवान, शल्यवान, परिरग्रहवान, सम्यक्त्वव्रतरनिहतको गुरु मानना इत्यादिद मूढ़दृमिष्टके शिचह्न हैं । अब, देव-धम%-गुरु कैसे होते हैं, उनका -वरूप ानना चानिहये, सो कहते हैं :—

रागादिदक दोष और ज्ञानावरणादिदक कम% ही आवरण हैं; यह दोनों जि सके नहीं हैं वह देव है । उसके केव>ज्ञान, केव>दश%न, अनन्तसुk, अनन्तवीय%–ऐसे अनंतचतुष्टय होते हैं । सामान्यरूपसे तो देव एक ही है और निवशेषरूपसे अरहंत, शिसद्ध ऐसे दो भेद हैं; तथा इनके नामभेदके भेदसे भेद करें तो ह ारों नाम हैं । तथा गुणभेद निकए ायें तो अनन्त गुण हैं । परमौदारिरक देहमें निवद्यमान घानितयाकम% रनिहत अनन्त चतुष्टयसनिहत धम%का उपदेश करनेवा>े ऐसे तो अरिरहंतदेव हैं तथा पुद्ग>मयी देहसे रनिहत >ोकके शिशkर पर निबरा मान सम्यक्त्वादिद अष्टगुणमंनिOत अष्ट कम%रनिहत ऐसे शिसद्ध देव हैं । इनके अनेकों नाम हैं :–अरहंत, जि न, शिसद्ध, परमात्मा, महादेव, शंकर, निवष्णु, ब्रह्मा, हरिर, बुद्ध, सव%ज्ञ, वीतराग परमात्मा इत्यादिद अथ% सनिहत अनेक नाम हैं :—ऐसा देवका -वरूप ानना ।

गुरुका भी अथ%स े निवचार कर ें तो अरिरहंतदेव ही हैं, क्योंनिक मोक्षमाग%का उपदेश करनेवा>े अरिरहंत ही हैं, वे ही साक्षात् मोक्षमाग%का प्रवत%न कराते हैं, तथा अरिरहंतके पश्चात् छद्मस्थ ज्ञानके धारक उन्हींका निनग्र%न्थ दिदगम्बर रूप धारण करनेवा> े मुनिन ह ैं सो गुरु हैं, क्योंनिक अरिरहंतकी सम्यग्दश%न-ज्ञान-चारिरत्रकी एकदेश शुद्धता उनके पायी ाती है और वे ही संवर-निन %रा-मोक्षका कारण हैं, इसशि>ये अरिरहंतकी भाँनित एकदेशरूपसे निनद}ष हैं वे मुनिन भी गुरु हैं, मोक्षमाग%का उपदेश करनेवा>े हैं ।

ऐसा मुनिनपना सामान्यरूपसे एक प्रकारका है और निवशेषरूपसे वही तीन प्रकारका है–आचाय%, उपाध्याय, साधु । इस प्रकार यह पदवीकी निवशेषता होने पर भी उनके मुनिनपनेकी

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निक्रया समान ही है; बाह्य लि>ंग भी समान है, पंच महाव्रत, प³च समिमनित, तीन गुन्तिप्त–ऐसे तेरह प्रकारका चारिरत्र भी समान ही है, तप भी शशिक्त अनुसार ही समान हैं, साम्यभाव भी समान ही है, मू>गुण उत्तरगुण भी समान हैं, परिरषह उपसग�का सहना भी समान है, आहारादिदककी निवमिध भी समान है, चया%, स्थान, आसनादिद भी समान हैं, मोक्षमाग%की साधना, सम्यक्त्व, ज्ञान, चारिरत्र भी समान ह ैं । ध्याता, ध्यान, ध्येयपना भी समान है, ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेयपना समान हैं, चार आराधनाकी आराधना, क्रोधादिदक कषायोंका ीतना इत्यादिद मुनिनयोंकी प्रवृभित्त है वह सब समान है ।

निवशेष यह है निक— ो आचाय% हैं वे प³चाचार अन्यको ग्रहण कराते हैं, तथा अन्यको दोष >गे तो उसके प्रायभिश्चत्तकी निवमिध बत>ात े हैं, धम}पदेश, दीक्षा, शिशक्षा देत े हैं;—ऐसे आचाय% गुरु वन्दना करने योग्य हैं ।

ो उपाध्याय हैं वे वादिदत्व, वान्तिग्मत्व, कनिवत्व, गमकत्व—इन चार निवद्याओंमें प्रवीण होत े हैं; उसमें शा-त्रका अभ्यास प्रधान कारण ह ै । ो -वयं शा-त्र पढ़ते ह ैं और अन्यको पढ़ाते हैं ऐसे उपाध्याय गुरु वन्दन योग्य हैं; उनके अन्य मुनिनव्रत, मू>गुण, उत्तरगुणकी निक्रया आचाय%समान ही होती है । तथा साधु रत्नत्रयात्मक मोक्षमाग%की साधना करते हैं सो साधु हैं; उनके दीक्षा, शिशक्षा, उपदेशादिद देनेकी प्रधानता नहीं है, वे तो अपने -वरूपकी साधनामें ही तत्पर होत े हैं; जि नागममें ैसी निनग्र%न्थ दिदगम्बर मुनिनकी प्रवृभित्त कही ह ै वैसी प्रवृभित्त उनके होती है–ऐस े साध ु वंदनाके योग्य ह ैं । अन्यलि>ंगी—वेषी व्रतादिदकस े रनिहत परिरग्रहवान, निवषयोंमें आसक्त गुरु नाम धारण करते हैं वे वन्दन योग्य नहीं हैं ।

इस प³चमका>म ें जि नमतम ें भी भेषी हुए ह ैं । व े शे्वताम्बर, यापनीयसंघ, गोपुच्छनिपच्छसंघ, निनःनिपच्छसंघ, द्रानिवड़संघ आदिद अनेक हुये हैं; यह सब वन्दन योग्य नहीं हैं । मू>संघ नग्नदिदगम्बर, अट्ठाईस मू>गुणोंके धारक, दयाके और शौचके उपकरण—मयूरनिपच्छक, कमhO> धारण करनेवा>े, यथोक्तनिवमिध आहार करनेवा>े गुरु वन्दन योग्य हैं, क्योंनिक ब तीथ�कर देव दीक्षा >ेते हैं तब ऐसा ही रूप धारण करते हैं अन्य भेष धारण नहीं करते; इसीको जि नदश%न कहते हैं ।

धम% उसे कहते हैं ो ीवको संसारके दुःkरूप नीच पदसे मोक्षके सुkरूप उच्च पदम ें धारण करे;—ऐसा धम% मुनिन-श्रावकके भेदसे, दश%न-ज्ञान-चारिरत्रात्मक एकदेश—सव%देशरूप निनश्चय-व्यवहार द्वारा दो प्रकार कहा है; उसका मू> सम्यग्दश%न है; उसके निबना धम%की उत्पभित्त नहीं होती । इसप्रकार देव-गुरु-धम% तथा >ोकमें यथाथ% दृमिष्ट हो और मूढ़ता न हो सो अमूढ़दृमिष्ट अङ्ग है ।।4।।

अपने आत्माकी शशिक्तको बढ़ाना सो उपबंृहण अङ्ग है । सम्यग्दश%न-ज्ञान-चारिरत्रको अपने पुरुषाथ% द्वारा बढ़ाना ही उपबृंहण है । इसे उपगूहन भी कहते हैं । उसका ऐसा अथ%

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ानना चानिहये निक जि नमाग% -वयंशिसद्ध है; उसमें बा>कके तथा असमथ% नके आश्रयसे ो न्यूनता हो उसे अपनी बुजिद्धसे गुप्त कर दूर ही करे वह उपगूहन अंग है ।।5।।

ो धम%से च्युत होता हो उसे दृढ़ करना सो ण्डिस्थनितकरण अङ्ग है । -वयं कम%उदयके वश होकर कदाशिचत् श्रद्धानसे तथा निक्रया–आचारसे च्युत होता हो तो अपनेको पुरुषाथ%पूव%क पुनः श्रद्धानम ें दृढ़ करे, उसीप्रकार अन्य कोई धमा%त्मा धम%स े च्युत होता हो तो उसे उपदेशादिदक द्वारा धम%में स्थानिपत करे—वह ण्डिस्थनितकरण अंग है ।।6।।

अरंनिहत, शिसद्ध, उनके निबम्ब, चैत्या>य, चतुर्विवंध संघ और शा-त्रमें दासत्व हो— ैसे -वामीका भृत्यु दास होता है तदनुसार–वह वात्सल्य अंग है । धम%के स्थानकों पर उपसगा%दिद आयें उन्हें अपनी शशिक्त अनुसार दूर करे, अपनी शशिक्तको न शिछपाये;—यह सब धम%में अनित प्रीनित हो तब होता है ।।7।।

धम%का उद्योत करना सो प्रभावना अंग ह ै । रत्नत्रय द्वारा अपने आत्माका उद्योत करना तथा दान, तप, पू ा-निवधान द्वारा एवं निवद्या, अनितशय-चमत्कारादिद द्वारा जि नधम%का उद्योत करना वह प्रभावना अंग है ।।8।।

—इस प्रकार यह सम्यक्त्वके आठ अंग हैं; जि सके यह प्रगट हों उसके सम्यक्त्व है ऐसा ानना चानिहये । प्रश्न–यदिद यह सम्यक्त्वके शिचह्न मिमथ्यादृमिष्टके भी दिदkाई दें तो सम्यक्-मिमथ्याका निवभाग कैसे होगा ? समाधान– ैसे सम्यक्त्वीके होते हैं वैसे मिमथ्यात्वीके तो कदानिप नहीं होते, तथानिप अपरीक्षकको समान दिदkाई दें तो परीक्षा करके भेद ाना ा सकता है । परीक्षामें अपना -वानुभव प्रधान है । सव%ज्ञके आगममें ैसा आत्माका अनुभव होना कहा है वैसा -वयंको हो तो उसके होनेसे अपनी वचन-कायकी प्रवृभित्त भी तदनुसार होती है । उस प्रवृभित्तके अनुसार अन्यकी वचन-कायकी प्रवृभित्त पहचानी ाती है;—इसप्रकार परीक्षा करनेसे निवभाग होते हैं । तथा यह व्यवहार माग% है, इसशि>ये व्यवहारी छद्मस्थ ीवोंके अपने ज्ञानके अनुसार प्रवृभित्त है; यथाथ% सव%ज्ञदेव ानते ह ैं । व्यवहारीको सव%ज्ञदेवने व्यवहारका आश्रय बत>ाया है* । यह अन्तरंग सम्यक्त्वभावरूप सम्यक्त्व ह ै वही सम्यग्दश%न है, बाह्यदश%न, व्रत, समिमनित, गुन्तिप्तरूप चारिरत्र और तपसनिहत अट्ठाईस मू>गुण सनिहत नग्न दिदगम्बर मुद्रा उसकी मूर्वितं है, उस े जि नदश%न कहत े हैं, इसप्रकार धम%का मू> सम्यग्दश%न ानकर ो सम्यग्दश%नरनिहत ह ै उनके वंदन-पू न निनषेध निकया ह ै ।—ऐसा यह उपदेश भव्य ीवोंको अंगीकार करने योग्य है ।।2।।

* -वात्मानुभूनित ज्ञानगुणकी पया%य है, ज्ञानके द्वारा सम्यक्त्वका निनण%य करना उसका नाम व्यवहारका आश्रय समझना, निकन्तु भेदरूप व्यवहारके आश्रयसे वीतराग अंशरूपधम% होगा ऐसा अथ% कहीं पर नहीं समझना ।

अब कहते हैं निक—अन्तरंगसम्यग्दश%न निबना बाह्यचारिरत्रसे निनवा%ण नहीं होता :—दंसणभट्ठा भट्ठा दंसणभट्ठस्स णत्थिy शिणव्वाणं ।

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चिसज्झंवित चरिरर्यभट्ठा दंसणभट्ठा ण चिसज्झंवित ।।3।।दश�नभ्रष्टाः भ्रष्टाः दश�नभ्रष्टस्र्य नात्थिस्त विनवा�णम् ।चिसध्र्यप्तिन्त चारिरत्रभ्रष्टाः दश�नभ्रष्टाः न चिसध्र्यप्तिन्त ।।3।।

दृगभ्रष्ट जीवो भ्रष्ट छे, दृग्भ्रष्टनो नविह मोक्ष छे;चारिरत्रभ्रष्ट मुकार्य छे, दृग्भ्रष्ट नविह मुचि} लहे. 3

अथ% :— ो पुरुष दश%नसे भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं; ो दश%नसे भ्रष्ट हैं उनको निनवा%ण नहीं होता; क्योंनिक यह प्रशिसद्ध है निक ो चारिरत्रसे भ्रष्ट हैं वे तो शिसजिद्धको प्राप्त होते हैं परन्तु ो दश%नभ्रष्ट हैं वे शिसजिद्धको प्राप्त नहीं होते ।

भावाथ% :— ो जि नमतकी श्रद्धासे भ्रष्ट हैं उन्हें भ्रष्ट कहते हैं; और ो श्रद्धासे भ्रष्ट नहीं हैं, निकन्तु कदाशिचत् कम%के उदयसे चारिरत्रभ्रष्ट हुये हैं उन्हें भ्रष्ट नहीं कहते; क्योंनिक ो दश%नसे भ्रष्ट हैं उन्हें निनवा%णकी प्रान्तिप्त नहीं होती; ो चारिरत्रसे भ्रष्ट होते हैं और श्रद्धानदृढ़ रहते हैं उनके तो शीघ्र ही पुनः चारिरत्रका ग्रहण होता है, और मोक्ष होता है । तथा दश%न-श्रद्धासे भ्रष्ट होय उसीके निफर चारिरत्रका ग्रहण कदिठन होता है इसशि>ये निनवा%णकी प्रान्तिप्त दु>%भ होती है । ैसे—वृक्षकी शाkा आदिद कट ायें और ड़ बनी रहे तो शाkा आदिद शीघ्र ही पुनः उग आयेंगे और फ> >गेंगे, निकन्तु ड़ उkड़ ाने पर शाkा आदिद कैसे होंगे? उसीप्रकार धम%का मू> दश%न ानना ।।3।।

अब, ो सम्यग्दश%नस े भ्रष्ट ह ैं और शा-त्रोंको अनेक प्रकारस े ानत े ह ैं तथानिप संसारमें भटकते हैं;—ऐसे ज्ञानसे भी दश%नको अमिधक कहते हैं :—

सम्मAरर्यणभट्ठा जाणंता बहुविवहाइं सyाइं ।आराहणाविवरविहर्या भमंवित तyेव तyेव ।।4।।सम्र्यक्त्वरत्नभ्रष्टाः जानंतो बहुविवधाविन शास्त्राशिण ।आराधना विवरविहताः भ्रमंवित ततै्रव ततै्रव ।।4।।

सम्र्यक्त्वरत्नविवहीन जाणे शास्त्र बहुविवधने भले,पण शून्र्य छे आराधनार्थी तेर्थी त्र्यां ने त्र्यां भमे. 4.

अथ% :— ो पुरुष सम्यक्त्वरूपरत्नसे भ्रष्ट हैं तथा अनेक प्रकारके शा-त्रोंको ानते हैं तथानिप वह आराधनासे रनिहत होते हुए संसारमें ही भ्रमण करते हैं । दो बार कहकर बहुत परिरभ्रमण बत>ाया है ।

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भावाथ% :— ो जि नमतकी श्रद्धासे भ्रष्ट हैं और शब्द, न्याय, छन्द, अ>ंकार आदिद अनेक प्रकारके शा-त्रोंको ानत े ह ैं तथानिप सम्यग्दश%न, ज्ञान, चारिरत्र, तपरूप आराधना उनके नहीं होती; इसशि>ये कुमरणसे चतुग%नितरूप संसारमें ही भ्रमण करते हैं—मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते; इसशि>ये सम्यक्त्वरनिहत ज्ञानको आराधना नाम नहीं देते ।

अब कहते हैं निक— ो तप भी करते हैं और सम्यक्त्वरनिहत होते हैं उन्हें -वरूपका >ाभ नहीं होता :—

सम्मAविवरविहर्या णं सुट्ठठु विव उग्गं तवं चरंता णं ।ण लहंवित बोविहलाहं अविव वाससहस्सको)ीहिहं ।।5।।सम्र्यक्त्वविवरविहता णं सुषु्ठ अविप उग्रं तपः चरंतो णं ।न लभन्ते बोचिधलाभं अविप वष�सहस्रकोदिटशिभः ।।5।।

सम्र्यक्त्व विवण जीवो भले तप उग्र सुषु्ठ आचरे,पण लक्ष कोदिट वष�मांरे्य बोचिधलाभ नहीं लहे. 5.

अथ% :— ो पुरुष सम्यक्त्वसे रनिहत हैं वे सुषु्ठ अथा%त् भ>ीभाँनित उग्र तपका आचरण करते हैं तथानिप वे बोमिध अथा%त् सम्यग्दश%न-ज्ञान-चारिरत्रमय ो अपना -वरूप है उसका >ाभ प्राप्त नहीं करते; यदिद ह ार कोदिट वष% तक तप करते रहें तब भी -वरूपकी प्रान्तिप्त नहीं होती । यहाँ गाथामें दो स्थानों पर णं शब्द है वह प्राकृतमें अव्यय है, उसका अथ% वाक्यका अ>ंकार है ।

भावाथ% :—सम्यक्त्वके निबना ह ार कोदिट वष% तप करने पर भी मोक्षमाग%की प्रान्तिप्त नहीं होती । यहाँ ह ार कोदिट कहनेका तात्पय% उतने ही वष% नहीं समझना, निकन्तु का>का बहुतपना बत>ाया ह ै । तप मनुष्य पया%यमें ही होता है, इसशि>ये मनुष्यका> भी थोड़ा है, इसशि>ये तपका तात्पय% यह वष% भी बहुत कहे हैं ।।5।।

—ऐस े पूव}क्त प्रकार सम्यक्त्वके निबना चारिरत्र, तपको निनष्फ> कहा ह ै । अब सम्यक्त्व सनिहत सभी प्रवृभित्त सफ> है—ऐसा कहते हैं :—

सम्मAणाणदंसणबलवीरिरर्यवड्ढमाण जे सव्वे ।कचिलकलुसपावरविहर्या वरणाणी होंवित अइरेण ।।6।।सम्र्यक्त्वज्ञानदश�नबलवीर्य�वद्ध�मानाः र्ये सवt ।कचिलकलुषपापरविहताः वरज्ञाविननः भवंवित अचिचरेण ।।6।।

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सम्र्यक्त्व-दश�न-ज्ञान-बल—वीर्यt अहो ! वधता रहेकचिलमसरविहत जे जीव, वरज्ञानने अचिचरे लहे. 6.

अथ% :— ो पुरुष सम्यक्त्व ज्ञान, दश%न, ब>, वीय%स े वद्ध%मान ह ैं तथा कशि>क>ुषपाप अथा%त् इस प³चमका>के मशि>न पापसे रनिहत हैं वे सभी अल्पका>में वरज्ञानी अथा%त् केव>ज्ञानी होते हैं ।

भावाथ% :—इस पंचमका>में ड़-वक्र ीवोंके निनमिमत्तसे यथाथ% माग% अपभ्रंश हुआ है । उसकी वासनासे ो ीव रनिहत हुए वे यथाथ% जि नमाग%के श्रद्धानरूप सम्यक्त्वसनिहत ज्ञान—दश%नके अपने पराक्रम—ब>को न शिछपाकर तथा अपने वीय% अथा%त् शशिक्तसे वद्ध%मान होते हुए प्रवत%तें हैं, वे अल्पका>में ही केव>ज्ञानी होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं ।।6।।

अब कहत े ह ैं निक—सम्यक्त्वरूपी >का प्रवाह आत्माको कम%र नहीं >गन े देता :—

सम्मAसचिललवहो शिणच्चं विहर्यए पवट्टए जस्स ।कम्मं वालुर्यवरणं बनु्धत्थिच्चर्य णासए तस्स ।।7।।सम्र्यक्त्वसचिललप्रवाहः विनत्र्यं हृदर्ये प्रवA�त ेर्यस्र्य ।कम� वालुकावरणं बद्धमविप नश्र्यवित तस्र्य ।।7।।

सम्र्यक्त्वनीरप्रवाह जेना हृदर्यमां विनत्र्य वहे,तस बद्धकमN बालुका–आवरण सम क्षर्यने लहे. 7.

अथ% :—जि स पुरुषके हृदयम ें सम्यक्त्वरूपी >का प्रवाह निनरन्तर प्रवत%मान है उसके कम%रूपी र –धू>का आवरण नहीं >गता, तथा पूव%का>में ो कम%बंध हुआ हो वह भी नाशको प्राप्त होता है ।

भावाथ% :—सम्यक्त्वसनिहत पुरुषको (निनरन्तर ज्ञानचेतनाके -वामिमत्वरूप परिरणमन है इसशि>ये) कम%के उदयसे हुए रागादिदक भावोंका -वामिमत्व नहीं होता, इसशि>ये कषायों की तीव्र क>ुषतास े रनिहत परिरणाम उज्जव> होत े हैं; उसे >की उपमा ह ै । ैसे— हा ँ निनरन्तर >का प्रवाह बहता है वहाँ बा>ू-रेत-र नहीं >गती; वैसे ही सम्यक्त्वी ीव कम%के उदयको भोगता हुआ भी कम%से शि>प्त नहीं होता । तथा बाह्य व्यवहारकी अपेक्षासे ऐसा भी तात्पय% ानना चानिहय े निक—जि सके हृदयम ें निनरन्तर सम्यक्त्वरूपी >का प्रवाह बहता ह ै वह सम्यक्त्वी पुरुष इस कशि>का> सम्बन्धी वासना अथा%त ् कुदेव-कुशा-त्र-कुगुरुको नम-कारादिदरूप अनितचाररूप र भी नहीं >गाता, तथा उसके मिमथ्यात्व सम्बन्धी प्रकृनितयोंका आगामी बंध भी नहीं होता ।।8।।

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अब कहते हैं निक— ो दश%नभ्रष्ट हैं तथा ज्ञान-चारिरत्रसे भ्रष्ट हैं वे -वयं तो भ्रष्ट हैं ही परन्तु दूसरोंको भी भ्रष्ट करते हैं,—यह अनथ% है :—

जे दंसणेसु भट्ठा णाणे भट्ठा चरिरAभट्ठा र्य ।एदे भट्ठा विव भट्ठा सेसं विप जणं विवणासंवित ।।8।।र्ये दश�नेषु भ्रष्टाः ज्ञान ेभ्रष्टाः चारिरत्र भ्रष्टाः च ।एत ेभ्रष्टात् अविप भ्रष्टाः शेषं अविप जनं विवनाशर्यंवित ।।8।।

दृग्भ्रष्ट, ज्ञाने भ्रष्ट ने चारिरत्रमां छे भ्रष्ट जे,ते भ्रष्टर्थी पण भ्रष्ट छे ने नाश अन्र्य तणो करे. 8.

अथ% :— ो पुरुष दश%नमें भ्रष्ट ह ैं तथा ज्ञान-चारिरत्रमें भ्रष्ट ह ैं व े पुरुष भ्रष्टों म ें भी निवशेष भ्रष्ट ह ैं कई तो दश%न सनिहत ह ैं निकन्तु ज्ञान-चारिरत्र उनके नहीं है, तथा कई अंतरंग दश%नसे भ्रष्ट हैं तथानिप ज्ञान-चारिरत्रका भ>ीभाँनित पा>न करते हैं; और ो दश%न-ज्ञान-चारिरत्र इन तीनोंसे भ्रष्ट ह ैं व े तो अत्यन्त भ्रष्ट हैं; वे -वय तो भ्रष्ट ह ैं ही परन्त ु शेष अथा%त ् अपने अनितरिरक्त अन्य नोंको भी नष्ट करते हैं ।

भावाथ% :—यहा ँ सामान्य वचन ह ै इसशि>य े ऐसा भी आशय सूशिचत करता ह ै निक सत्याथ% श्रद्धान, ज्ञान, चारिरत्र तो दूर ही रहा, ो अपने मतकी श्रद्धा, ज्ञान, आचरणसे भी भ्रष्ट हैं वे तो निनरग%> -वेच्छाचारी हैं । वे -वयं भ्रष्ट हैं उसी प्रकार अन्य >ोगोंको उपदेशादिदक द्वारा भ्रष्ट करत े हों तथा उनकी प्रवृभित्त देkकर >ोग -वयमेव भ्रष्ट होत े हैं, इसशि>य े ऐसे तीव्रकषायी निननिषद्ध हैं; उनकी संगनित करना भी उशिचत नहीं है ।।8।।

अब कहते हैं निक—ऐसे भ्रष्ट पुरुष -वयं भ्रष्ट हैं वे धमा%त्मा पुरुषोंको दोष >गाकर भ्रष्ट बत>ाते हैं :—

जो कोविव धम्मसीलो संजमतवशिणर्यमजोगगुणधारी ।तस्स र्य दोस कहंता भग्गा भग्गAणं दिदंवित ।।9।।र्यः को)विप धम�शीलः संर्यमतपोविनर्यमर्योगगुणधारी ।तस्र्य च दोषान् कर्थर्यंतः भग्ना भग्नत्वं ददवित ।।9।।

जे धम�शील, संर्यम-विनर्यम-तप-र्योग-गुण धरनार छे,तेनार्य भाखी दोष, भ्रष्ट मनुष्र्य दे भ्रष्टत्वने. 9.

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अथ% :— ो पुरुष धम%शी> अथा%त ् अपन े -वरूपरूप धम%को साधनेका जि सका -वभाव है, तथा संयम अथा%त् इजिन्द्रय-मनका निनग्रह और षट्कायके ीवोंकी रक्षा, तप अथा%त् बाह्याभ्यंतर भेदकी अपेक्षासे बारह प्रकारके तप, निनयम अथा%त् आवश्यकादिद निनत्यकम%, योग अथा%त ् समामिध, ध्यान तथा वषा%का> आदिद का>योग, गुण अथा%त ् मू> गुण, उत्तरगुण—इनका धारण करनेवा>ा है उसे कई मतभ्रष्ट ीव दोषोंका आरोपण करके कहते हैं निक—यह भ्रष्ट है, दोष युक्त है, वे पापात्मा ीव -वयं भ्रष्ट हैं इसशि>ये अपने अभिभमानकी पुमिष्टके शि>ये अन्य धमा%त्मा पुरुषोंको भ्रष्टपना देते हैं ।

भावाथ% :—पानिपयोंका ऐसा ही -वभाव होता ह ै निक -वय ं पापी ह ैं उसीप्रकार धमा%त्मामें दोष बत>ाकर अपने समान बनाना चाहते हैं । ऐसे पानिपयोंकी संगनित नहीं करना चानिहये ।।9।।

अब, कहते हैं निक— ो दश%नभ्रष्ट है वह मू>भ्रष्ट है, उसको फ>की प्रान्तिप्त नहीं होती :—

जह मूलप्तिम्म विवणटे्ठ दुमस्स परिरवार णत्थिy परड्ढी ।तह जिजणदंसणभट्ठा मूलविवणट्ठा ण चिसज्झंवित ।।10।।र्यर्था मूल विवनषे्ट द्रुमस्र्य परिरवारस्र्य नात्थिस्त परिरवृशिद्धः ।तर्था जिजनदश�नभ्रष्टाः मूलविवनष्टाः न चिसद्धर्यप्तिन्त ।।10।।

ज्र्यम मूळनाशे वृक्षना परिरवारनी वृशिद्ध नहीं,जिजनदश�नात्मक मूळ होर्य विवनष्ट तो चिसशिद्ध नहीं. 10.

अथ% :—जि सप्रकार वृक्षका मू> निवनष्ट होने पर उसके परिरवार अथा%त् -कंध, शाkा, पत्र, पुष्प, फ>की वृजिद्ध नहीं होती, उसी प्रकार ो जि नदश%नसे भ्रष्ट हैं—बाह्यमें तो नग्न-दिदगम्बर यथा ातरूप निनग्र%न्थ लि>ंग, मू>गुणका धारण, मयूर निपण्डिच्छका की पींछी तथा कमंO> धारण करना, यथानिवमिध दोष टा>कर kOे ़kड़े शुद्ध आहार >ेना–इत्यादिद बाह्य शुद्ध वेष धारण करते हैं, तथा अन्तरंगम ें ीवादिद छह द्रव्य, नव पदाथ%, सात तत्त्वोंका यथाथ% श्रद्धान एवं भेदनिवज्ञानसे आत्म-वरूपका अनुभवन—ऐसे दश%न–मतसे बाह्य हैं वे मू>निवनष्ट हैं, उनके शिसजिद्ध नहीं होती, वे मोक्षफ>को प्राप्त नहीं करते ।

अब कहते हैं निक—जि नदश%न ही मू> मोक्षमाग% है :—जह मूलाओ खंधो साहापरिरवार बहुगुणो होइ ।तह जिजणदंसण मूलो शिणदि�ट्ठो मोक्खमग्गस्स ।।11।।

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र्यर्था मूलात् स्कंधः शाखापरिरवारः बहुगुणः भववित ।तर्था जिजनदश�नं मूलं विनर्दिदंषं्ट मोक्षमाग�स्र्य ।।11।।

ज्र्यम मूळ द्वारा स्कंध ने शाखादिद बहुगुण र्थार्य छे,त्र्यम मोक्षपर्थनंु मूळ जिजनदश�न कहंु्य जिजनशासने. 11.

अथ% :—जि सप्रकार वृक्षके मू>से -कंध होत े हैं; कैस े -कंध होत े ह ैं निक—जि नके शाkा आदिद परिरवार बहुत गुण ह ैं । यहा ँ गुण शब्द बहुतका वाचक है; उसीप्रकार गणधर देवादिदकने जि नदश%नको मोक्षमाग%का मू> कहा है ।

भावाथ% :—यहाँ जि नदश%न अथा%त् तीथ�कर परमदेवने ो दश%न ग्रहण निकया उसीका उपदेश दिदया ह ै वह मू>संघ है; वह अट्ठाईस मू>गुण सनिहत कहा है । पांच महाव्रत, पाँच समिमनित, छह आवश्यक, पाँच इजिन्द्रयोंको वशम ें करना, -नान नहीं करना, भूमिमशयन, व-त्रादिदकका त्याग अथा%त् दिदगम्बर मुद्रा, केश>ोंच करना, एकबार भो न करना, kOे kOे आहार >ेना, दंतधावन न करना—यह अट्ठाईस मू>गुण हैं । तथा शिछया>ीस दोष टा>कर आहार करना वह एषणा समिमनितमें आ गया । ईया%पथ–देkकर च>ना वह ईया% समिमनितमें आ गया । तथा दयाका उपकरण मोरपुच्छ की पींछी और शौचका उपकरण कमंO> धारण करना—ऐसा बाह्य वेष ह ै । तथा अन्तरंगम ें ीवादिदक षट्द्रव्य, पंचास्ति-तकाय, सात तत्त्व, नव पदाथ�को यथोक्त ानकर श्रद्धान करना और भेदनिवज्ञान द्वारा अपने आत्म-वरूपका लिचंतवन करना, अनुभव करना ऐसा दश%न अथा%त ् मत वह मू>संघका ह ै ऐसा जि नदश%न ह ै वह मोक्षमाग%का मू> है; इस मू>से मोक्षमाग%की सव% प्रवृभित्त सफ> होती है । तथा ो इससे भ्रष्ट हुए ह ैं व े इस पंचमका>के दोषस े ैनाभास हुए ह ैं व े शे्वताम्बर, द्रानिवO, यापनीय, गोपुच्छनिपच्छ, निननिपच्छ–पाँच संघ हुए हैं; उन्होंने सूत्र शिसद्धान्त अपभं्रश निकये ह ैं । जि न्होंने बाह्य वेषको बद>कर आचरणको निबगाड़ा ह ै व े जि नमतके मू>संघस े भ्रष्ट हैं, उनको मोक्षमाग%की प्रान्तिप्त नहीं है । मोक्षमाग%की प्रान्तिप्त मू>संघके श्रद्धान-ज्ञान-आचरण ही से है ऐसा निनयम ानना ।।11।।

आगे कहते ह ै निक ो यथाथ% दश%नसे भ्रष्ट हैं और दश%नके धारकोंसे अपनी निवनय कराना चाहते हैं वे दुग%नित प्राप्त करते हैं :—

जे* दंसणेसु भट्ठा पाए पा)ंवित दंसणधराणं ।ते होंवित लल्लमूआ बोही पुण दुल्लहा तेलिसं ।।12।।

मुदिद्रत सं-कृत सटीक प्रनितमें इस गाथाका पूवा%द्ध% इस प्रकार है जि सका यह अथ% है निक—‘‘ ो दश%नभ्रष्ट पुरुष दश%नधारिरयोंके चरणोंमें नहीं निगरते हैं—’’

े दंसणेषु भट्ठा पाए न पंOंनित दंसणधराणं—

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उत्तराध% समान है ।र्ये दश�नेषु भ्रष्टाः पादर्योः पातर्यंवित दश�नधरान् ।त ेभवंवित लल्लमूकाः बोचिधः पुनः दुल�भा तेषाम् ।।12।।

दृग्भ्रष्ट जे विनज पार्य पा)े दृविष्टना धरनारने,ते र्थार्य मूंगा, खं)ाभाषी, बोचिध दुल�भ तेमने. 12.

अथ% :— ो पुरुष दश%नसे भ्रष्ट हैं तथा अन्य ो दश%नके धारक हैं उन्हें अपने पैरों पड़ात े हैं, नम-कारादिद करात े ह ै व े परभवम ें >ू>े, मूक होत े हैं, और उनके बोमिध अथा%त् सम्यग्दश%न-ज्ञान-चारिरत्रकी प्रान्तिप्त दु>%भ होती है ।

भावाथ% :— ो दश%नभ्रष्ट हैं वे मिमथ्यादृमिष्ट हैं और दश%नके धारक हैं वे सम्यग्दृमिष्ट हैं; ो मिमथ्यादृमिष्ट होकर सम्यग्दृमिष्टयोंसे नम-कार चाहते हैं वे तीव्र मिमथ्यात्वके उदय सनिहत हैं, वे परभवमें >ू>े, मू> होते हैं अथा%त् एकेजिन्द्रय होते हैं, उनके पैर नहीं होते, वे परमाथ%तः >ू>े मूक हैं; इस प्रकार एकेजिन्द्रय—स्थावर होकर निनगोदमें वास करते हैं वहाँ अनन्तका> रहते हैं; उनके दश%न—ज्ञान—चारिरत्रकी प्रान्तिप्त दु>%भ होती है; मिमथ्यात्वका फ> निनगोद ही कहा है । इस पंचम का>में मिमथ्यामतके आचाय% बनकर >ोगोंसे निवनयादिदक पू ा चाहते हैं उनके शि>ये मा>ूम होता है निक त्रसराशिशका का> पूरा हुआ, अब एकेजिन्द्रय होकर निनगोदमें वास करेगे—इस प्रकार ाना ाता है ।

आगे कहते हैं निक ो दश%नभ्रष्ट हैं उनके >ज्जादिदकसे भी पैरों पड़ते हैं वे भी उन्हीं ैसे ही हैं :—

जे विव प)ंवित र्य तेलिसं जाणंता लज्जागारवभर्येण ।तेलिसं विप णत्थिy बोविह पावं अणुमोर्यमाणाणं ।।13।।र्ये)विप पतप्तिन्त च तेषा ंजानंतः लज्जागारवभर्येन ।तेषामविप नात्थिस्त बोचिधः पापं अनुमन्र्यमानानाम् ।।13।।

वळी जाणीने पण तेमने गारव-शरम-भर्यर्थी नमे,तेनेर्य बोचिध-अभाव छे पापानुमोदन होईने. 13.

अथ% :— ो पुरुष दश%न सनिहत हैं वे भी, ो दश%न भ्रष्ट हैं उन्हें मिमथ्यादृमिष्ट ानते हुए भी उनके पैरों पड़ते हैं, उनकी >ज्जा, भय, गारवसे निवनयादिद करते हैं उनके भी बोमिध अथा%त् दश%न-अज्ञान-चारिरत्रकी प्रान्तिप्त नहीं है, क्योंनिक व े भी मिमथ्यात्व ो निक पाप ह ै उसका अनुमोदन करते हैं । करना, कराना, अनुमोदन करना समान कहे हैं । यहाँ >ज्जा तो इस

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प्रकार है निक—हम निकसीकी निवनय नहीं करेंगे तो >ोग कहेंगे यह उद्धत है, मानी हैं, इसशि>ये हमें तो सव%का साधन करना है । इसप्रकार >ज्जासे दश%नभ्रष्टके भी निवनयादिदक करते हैं । तथा भय इसप्रकार ह ै निक–यह राज्यमान्य ह ै और मंत्रनिवद्यादिदककी सामथ्य%युक्त है, इसकी निवनय नहीं करेंगे तो कुछ हमारे ऊपर उपद्रव करेगा; इसप्रकार भयसे निवनय करते हैं । तथा गारव तीन प्रकार कहा है;—रसगारव, ऋजिद्धगारव, सातगारव । वहाँ रसगारव तो ऐसा है निक—मिमष्ट, इष्ट, पुष्ट, भो नादिद मिम>ता रहे तब उससे प्रमादी रहता है; तथा ऋजिद्धगारव ऐसा है निक कुछ तपके प्रभाव आदिद से ऋजिद्धकी प्रान्तिप्त हो उसका गौरव आ ाता है, उससे उद्धत, प्रमादी रहता है । तथा सातागारव ऐसा निक शरीर निनरोग हो, कुछ क्>ेशका कारण न आये तब सुkीपना आ ाता है, उससे मग्न रहते हैं—इत्यादिदक गारवभावकी म-तीसे भ>े—बुरेका कुछ निवचार नहीं करता तब दश%नभ्रष्टकी भी निवनय करने >ग ाता है । इत्यादिद निनमिमत्तसे दश%नभ्रष्टकी निवनय करे तो उसमें मिमथ्यात्वका अनुमोदन आता है; उसे भ>ा ाने तो आप भी उसी समान हुआ, तब उसके बोमिध कैसे कही ाये ? ऐसा ानना ।।13।।

दुविवहं विप गंर्थचार्यं तीसु विव जोएसु संजमो ठादिद ।णाणप्तिम्म करणसुदे्ध उब्भसणे दंसणं होदिद ।।14।।विद्वविवधः अविप ग्रन्थत्र्यागः वित्रषु अविप र्योगेषु संर्यमः वितष्ठवित ।ज्ञान ेकरणशुदे्ध उद्भभोजने दश�न ंभववित ।।14।।

ज्र्यां ज्ञान ने संर्यम वित्रर्योगे, उभर्यपरिरग्रहत्र्याग छे,जे शुद्ध स्थिस्थवितभोजन करे, दश�न तदाशिश्रत होर्य छे. 14.

अथ% :— हाँ बाह्याभ्यंतर भेदसे दोनों प्रकारके परिरग्रहका त्याग हो और मन-वचन-काय ऐसे तीनों योगोंमें संयम हो तथा कृत-कारिरत-अनुमोदना ऐसे तीन करण जि समें शुद्ध हों वह ज्ञान हो, तथा निनद}ष जि समें कृत, कारिरत, अनुमोदना अपनेको न >गे ऐसा, kड़े रहकर पाभिणपात्रमें आहार करे, इसप्रकार मूर्वितंमन्त दश%न होता है ।

भावाथ% :—यहाँ दश%न अथा%त् मत है; वहाँ बाह्य वेश शुद्ध दिदkाई दे वह दश%न; वही उसके अंतरङ्गभावको बत>ाता है । वहाँ बाह्य परिरग्रह अथा%त् धन-धान्यादिदक और अन्तरङ्ग परिरग्रह मिमथ्यात्व-कषायादिद, वे हाँ नहीं हों, यथा ात दिदगम्बर मूर्वितं हो, तथा इजिन्द्रय-मनको वशम ें करना, त्रस-स्थावर ीवोंकी दया करना, ऐस े संयमका मन-वचन-काय द्वारा शुद्ध पा>न हो और ज्ञानमें निवकार करना, कराना, अनुमोदन करना—ऐसे तीन कारणोंसे निवकार न हो और निनद}ष पाभिणपात्रम ें kड़ े रहकर आहार >ेना इस प्रकार दश%नकी मूर्वितं ह ै वह जि नदेवका मत है, वही वंदन-पू न । योग्य है, अन्य पाkंO वेष वंदना-पू ा योग्य नहीं है ।।14।।

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आगे कहते हैं निक—इस सम्यग्दश%नसे ही कल्याण-अकल्याणका निनश्चय होता है :—सम्मAादो णाणं णाणादो सव्वभावउवलद्धी ।उवलद्धपर्यyे पुण सेर्यासेर्यं विवर्याणेदिद ।।15।।सम्र्यक्त्वात् ज्ञान ंज्ञानात ्सव�भावोपलब्धि�ः ।उपल�पदार्थt पुनः श्रेर्यो)श्रेर्यो विवजानावित ।।15।।

सम्र्यक्त्वर्थी सुज्ञान, जेर्थी सव� भाव जणार्य छे,ने सौ पदार्थN जाणतां अशे्रर्य-शे्रर्य जणार्य छे. 15.

अथ% :—सम्यक्त्वस े तो ज्ञान सम्यक् होता है; तथा सम्यक्ज्ञानस े सव% पदाथ�की उप>स्तिब्ध अथा%त् प्रान्तिप्त अथा%त् ानना होता है; तथा पदाथ�की उप>स्तिब्ध होनेसे श्रेय अथा%त् कल्याण, अश्रेय अथा%त् अकल्याण—इन दोनोंको ाना ाता है ।

भावाथ% :—सम्यग्दश%नके निबना ज्ञानको मिमथ्याज्ञान कहा है, इसशि>ये सम्यग्दश%न होने पर ही सम्यग्ज्ञान होता है, और सम्यग्ज्ञानसे ीवादिद पदाथ�का -वरूप यथाथ% ाना ाता है । तथा ब पदाथ�का यथाथ% -वरूप ाना ाये तब भ>ा-बुरा माग% ाना ाता है । इसप्रकार माग%के ाननेमें भी सम्यग्दश%न ही प्रधान है ।।15।।

आगे, कल्याण-अकल्याणको ाननेसे क्या होता है सो कहते हैं—सेर्यासेर्यविवदण्हू उद्धदुदुस्सील सीलवंतो विव ।सीलफलेणब्भुदर्यं तAो पुण लहइ शिणव्वाणं ।।16।।श्रेर्यो)श्रेर्यवेAा उद्धतृदुःशीलः शीलवानविप ।शीलफलेनाभ्र्युदर्यं ततः पुनः लभते विनवा�णम् ।।16।।

अशे्रर्य–शे्रर्यसुजाण छो)ी कुशील धारे शीलने,ने शीलफळर्थी होर्य अभ्र्युदर्य, पछी मुचि} लहे. 16.

अथ% :—कल्याण और अकल्याणमाग%को ाननेवा>ा पुरुष ‘‘उद्धतृदुःkशी>’’ अथा%त् जि सने मिमथ्यात्व-वभावको उOा दिदया है—ऐसा होता है; तथा ‘‘शी>वाननिप’’ अथा%त् सम्यक्-वभावयुक्त भी होता है, तथा उस सम्यक्-वभावके फ>से अभ्युदयको प्राप्त होता है, तीथ�करादिद पद प्राप्त करता है, तथा अभ्युदय होनेके पश्चात् निनवा%णको प्राप्त होता है ।

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भावाथ% :—भ>े–बुर े माग%को ानता ह ै तब अनादिद संसारस े >गाकर ो मिमथ्याभावरूप प्रकृनित ह ै वह प>टकर सम्यक्-वभाव-वरूप प्रकृनित होती है; उस प्रकृभित्तसे निवशिशष्ट पुhयबंध करे तब अभ्युदयरूप तीथ�करादिदकी पदवी प्राप्त करके निनवा%णको प्राप्त होता है ।।16।।

आग े कहत े ह ैं निक ऐसा सम्यक्त्व जि नवचनस े प्राप्त होता ह ै इसशि>य े व े ही सव% दुःkोंको हरनेवा>े हैं :—

जिजणवर्यणमोसहमिमणं विवसर्यसुहविवरेर्यणं अशिभदभूदं ।जरमरणवाविहहरणं खर्यकरणं सव्वदुक्खाणं ।।17।।जिजनवचनमौषधमिमदं विवषर्यसुखविवरेचनममृतभूतम् ।जरामरणव्याचिधहरणंक्षर्यकरणं सव�दुःखानाम् ।।17।।

जिजनवचनरूप दवा विवषर्यसुखरेचिचका, अमृतमर्यी,छे व्याचिध-मरण-जरादिदहरणी, सव� दुःखनाशिशनी. 17.

अथ% :—यह जि नवचन हैं सो औषमिध हैं । कैसी औषमिध ह ै ?—निक इजिन्द्रयनिवषयोंमें ो सुk माना है उसका निवरेचन अथा%त् दूर करनेवा>े हैं । तथा कैसे ह ैं ? अमृतभूत अथा%त् अमृत समान ह ैं और इसशि>य े रामरणरूप रोगको हरनेवा> े हैं, तथा सव% दुःkोंका क्षय करनेवा>े हैं ।

भावाथ% :—इस संसारमें प्राणी निवषयसुkोंका सेवन करते ह ैं जि नसे कम% बँधते हैं और उससे न्म- रा-मरणरूप रोगोंसे पीनिड़त होते हैं; वहाँ जि नवचनरूप औषमिध ऐसी है ो निवषयसुkोंसे अरुशिच उत्पन्न करके उनका निवरेचन करती है । ैसे गरिरष्ठ आहारसे ब म> बढ़ता ह ै तब ज्वरादिद रोग उत्पन्न होत े ह ैं और तब उसके निवरेचनको हरड़ आदिद औषमिध उपकारी होती है उसीप्रकार उपकारी हैं । उन निवषयोंसे वैराग्य होने पर कम%बन्ध नहीं होता और तब न्म- रा-मरण रोग नहीं होते तथा संसारके दुःkका अभाव होता है । इस प्रकार जि नवचनोंको अमृत समान मानकर अंगीकार करना ।।17।।

आगे, जि नवचनमें दश%नका लि>ंग अथा%त ् भेष निकतने प्रकारका कहा ह ै सो कहत े हैं :—

एगं जिजणस्स रूव ंविबदिदर्यं उस्थिक्कट्ठसावर्यणं तु ।अवरदिट्ठर्याण तइर्यं चउy पुण लिलंगदंसणं णत्थिy ।।18।।एकं जिजनस्र्य रूपं विद्वतीर्यं उत्कृष्ट श्रावकाणां त ु।

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अवरस्थिस्थताना ंतृतीर्यं चतरु्थm पुनः लिलंगदश�न ंनात्थिस्त ।।18।।छे एक जिजननंु रूप, बीजंु श्रावकोAम—लिलंग छे;त्रीजंु कहंु्य अर्या�दिदनुं, चोर्थुं न कोई कहेल छे. 18.

अथ% :—दश%नमें एक तो जि नका -वरूप है; वहाँ ैसा लि>ंग जि नदेवने धारण निकया वही लि>ंग है; तथा दूसरा उत्कृष्ट श्रावकोंका लि>ंग ह ै और तीसरा ‘अवरण्डिस्थत’ अथा%त् घन्यपदमें ण्डिस्थत ऐसी आर्मियंकाओंका लि>ंग है; तथा चौथा लि>ंग दश%नमें है नहीं ।

भावाथ% :—जि नमतम ें तीनों लि>ंग अथा%त ् भेष कहत े ह ैं । एक तो वह ह ै ो यथा ातरूप जि नदेवने धारण निकया; तथा दूसरा ग्यारहवीं प्रनितमाके धारी उत्कृष्ट श्रावकका है, और तीसरा -त्री आर्मियंका हो उसका है । इसके शिसवा चौथा अन्य प्रकारका भेष जि नमतमें नहीं है । ो मानते हैं वे मू>संघसे बाहर हैं ।।18।।

आगे कहते हैं निक—ऐसा बाह्यलि>ंग हो उससके अन्तरङ्ग श्रद्धान भी ऐसा होता है और वह सम्यग्दृमिष्ट है :—

छह दव्व णव पर्यyा पंचyी सA तच्च शिणदि�ट्ठा ।स�हइ ताण रूव ंसो सदि�ट्ठी मुणेर्यव्वो ।।19।।षट् द्रव्याशिण नव पदार्था�ः पंचात्थिस्तकार्याः स=ततत्त्वाविन विनर्दिदंष्टाविन ।श्र�धावित तेषां रूपं सः सदृविष्टः ज्ञातव्यः ।।19।।

पंचात्थिस्तकार्य, छ द्रव्य ने नव अर्थ�, तत्त्वो सात छे;श्रदे्ध स्वरूपो तेमनां, जाणो सुदृविष्ट तेहने. 19.

अथ% :—छह द्रव्य, नव पदाथ%, पाँच अस्ति-तकाय, सात तत्त्व—यह जि नवचनमें कहे हैं, उनके -वरूपका ो श्रद्धान करे उसे सम्यग्दृमिष्ट ानना ।

भावाथ% :—( ानित अपेक्षा छह द्रव्योंके नाम—) ीव, पुद्ग>, धम%, अधम%, आकाश और का>—यह तो छह द्रव्य हैं; तथा ीव, अ ीव, आस्रव, बंध, संवर, निन %रा, मोक्ष और पुhय, पाप—यह नव तत्त्व अथा%त् नव पदाथ% हैं; छह द्रव्य का> निबना पंचास्ति-तकाय हैं । पुhय-पाप निबना नव पदाथ% सप्त तत्त्व हैं । इनका संक्षेप -वरूप इसप्रकार है— ीव तो चेतना-वरूप है और चेतना दश%न-ज्ञानमयी है; पुद्ग> स्पश%, रस, गंध, वण%, गुणसनिहत मूर्वितंक है, उसके परमाणु और -कंधके दो भेद हैं; -कंधके भेद शब्द, बन्ध, सूक्ष्म, सू्थ>, संस्थान, भेद, तम, छाया, आतप, उद्योत इत्यादिद अनेक प्रकार हैं; धम%द्रव्य, अधम%द्रव्य, आकाशद्रव्य ये एक एक हैं—अमूर्वितंक हैं, निनस्त्रिष्क्रय हैं, का>ाण ु असंख्यात द्रव्य ह ै । का>को छोड़कर पाँच द्रव्य बहुप्रदेशी हैं इसशि>ये अस्ति-तकाय पाँच हैं । का>द्रव्य बहुप्रदेशी नहीं है इसशि>ये वह अस्ति-तकाय

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नहीं है; इत्यादिद उनका -वरूप तत्त्वाथ%सूत्रकी टीकास े ानना । ीव पदाथ% एक ह ै और अ ीव पदाथ% पाँच हैं, ीवके कम%बन्ध योग्य पुद्ग>ोंका आना आस्रव है, कम�का बंधना बन्ध है, आस्रवका रुकना संवर है, कम%बन्धका झड़ना निन %रा है, सम्पूण% कम�का नाश होना मोक्ष है, ीवोंको सुkका निनमिमत्त पुhय है और दुःkका निनमिमत्त पाप है; ऐसे सप्त तत्त्व और नव पदाथ% हैं । इनका आगमके अनुसार -वरूप ानकर श्रद्धान करनेवा>े सम्यग्दृमिष्ट हैं ।।16।।

अब व्यवहार—निनश्चयके भेदसे सम्यक्त्वको दो प्रकारका कहते हैं :—जीवादीस�हणं सम्मAं जिजणवरेहिहं पण्णAं ।ववहारा शिणच्छर्यदो अ=पाणं हवइ सम्मAं ।।20।।जीवादीनां श्रद्धान ंसम्र्यक्त्वं जिजनवरैः प्रज्ञ=तम् ।व्यवहारात् विनश्चर्यतः आत्मैव भववित सम्र्यक्त्वम् ।।20।।

जीवादिदना श्रद्धानने सम्र्यक्त्व भाख्र्युं छे जिजने;व्यवहारर्थी, पण विनश्चर्ये आत्मा ज विनज सम्र्यक्त्व छे. 20.

अथ% :—जि न भगवानने ीव आदिद पदाथ�के श्रद्धानको व्यवहार-सम्यक्त्व कहा है और अपने आत्माके ही श्रद्धानको निनश्चय-सम्यक्त्व कहा है ।

भावाथ% :—तत्त्वाथ%का श्रद्धान व्यवहारस े सम्यक्त्व ह ै और अपन े आत्म-वरूपके अनुभव द्वारा उसकी श्रद्धा, प्रतीनित, रूशिच, आचरण सो निनश्चयसे सम्यक्त्व है, यह सम्यक्त्व आत्मासे भिभन्न व-तु नहीं ह ै आत्माहीका परिरणाम है सो आत्मा ही ह ै । ऐसे सम्यक्त्व और आत्मा एक ही व-तु है यह निनश्चयका आशय ानना ।।20।।

अब कहते हैं निक यह सम्यग्दश%न ही सब गुणोंमें सार है उसे धारण करो :—एवं जिजणपण्णAं दंसणरर्यणं धरेह भावेण ।सारं गुणरर्यणAर्य सोवाणं पढम मोक्खस्स ।।21।।एवं जिजनप्रणीतं दश�नरत्नं धरत भावेन ।सारं गुणरत्नत्रर्ये सोपानं प्रर्थमं मोक्षस्र्य ।।21।

ए जिजनकचिर्थत दश�नरतनने भावर्थी धारो तमे,गुणरत्नत्रर्यमां सार ने जे प्रर्थम शिशवसोपान छे. 21.

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अथ% :—ऐसे पूव}क्त प्रकार जि नेश्वर देवका कहा हुआ दश%न है सो गुणोंमें और दश%न-ज्ञान-चारिरत्र इन तीन रत्नोंमें सार है—उत्तम है और मोक्ष मजिन्दरमें चढ़नेके शि>ये पह>ी सीढ़ी है, इसशि>ये आचाय% कहते हैं निक—हे भव्य ीवो ! तुम इसको अन्तरंग भावसे धारण करो, बाह्य निक्रयादिदकसे धारण करना तो परमाथ% नहीं है, अन्तरंगकी रुशिचसे धारण करना मोक्षका कारण है ।।21।।

अब कहते हैं निक— ो श्रद्धान करता है उसीके सम्यक्त्व होता है :—*जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च स�हणं ।केवचिलजिजणेहिहं भशिणरं्य स�हमाणस्स सम्मAं ।।22।।

*निनयमसार गाथा0 154

र्यत ्शक्नोवित तत ्विक्रर्यते र्यत ्च न शक्नरु्यात ्तस्र्य च श्रद्धानम् ।केवचिलजिजनैः भशिणत ंश्र�धानस्र्य सम्र्यक्त्वम् ।।22।।

र्थई जे शके करवंु अने नव र्थई शके ते श्रद्धवंु;सम्र्यक्त्व श्रद्धावंतने सव�ज्ञ जिजनदेवे कहंु्य. 22.

अथ% :– ो करनेको समथ% हो वह तो करे और ो करनेको समथ% नहीं हो वह श्रद्धान करे क्योंनिक केव>ी भगवाने श्रद्धान करनेवा>ेको सम्यक्त्व कहा है ।।22।।

भावाथ% :—यहाँ आशय ऐसा है निक यदिद कोई कहे निक—सम्यक्त्व होनेके बादमें तो सब परद्रव्य–संसारको हेय ानते हैं । जि सको हेय ाने उसको छोड़ मुनिन बनकर चारिरत्रका पा>न कर े तब सम्यक्त्वी माना ावे, इसके समाधानरूप यह गाथा ह ै । जि सन े सब परद्रव्यको हेय ानकर निन -वरूपको उपादेय ाना, श्रद्धान निकया तब मिमथ्याभाव तो दूर हुआ, परन्तु ब तक (चारिरत्रमें प्रब> दोष है तब तक) चारिरत्र मोहकम%का उदय प्रब> होता है (और) तब तक चारिरत्र अङ्गीकार करनेकी सामथ्य% नहीं होती । जि तनी सामथ्य% है उतना तो करे और शेषका श्रद्धान करे, इसप्रकार श्रद्धान करनेवा>ेको ही भगवानने सम्यक्त्व कहा है ।।22।।

अब आगे कहते ह ैं निक ो ऐसे दश%न-ज्ञान-चारिरत्रमें ण्डिस्थत हैं वे वंदन करने योग्य हैं :—

दंसणणाणचरिरAे तवविवणरे्य *शिणच्चकालसुपसyा ।एदे दु वंदणीर्या जे गुणवादी गुणधराणं ।।23।।

* पाठान्तर—भिणच्चका>सुपसत्ता ।

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दश�नज्ञानचारिरते्र तपोविवनर्ये विनत्र्यकालसुप्रस्वस्थाः ।ऐत ेत ुवन्दनीर्या र्ये गुणवादिदनः गुणधराणाम् ।।23।।

दृग, ज्ञान ने चारिरत्र, तप, विवनर्ये सदार्य सुविनष्ठ जे,ते जीव वंदनर्योग्र्य छे गुणधर तणा गुणवादी जे. 23.

अथ% :—दश%न-ज्ञान-चारिरत्र, तप तथा निवनय इनमें ो भ>े प्रकार ण्डिस्थत हैं वे प्रश-त हैं, सराहन े योग्य ह ैं अथवा भ> े प्रकार -वस्थ ह ैं >ीन ह ैं और गणधर आचाय% भी उनके गुणानुवाद करते हैं अतः वे वन्दने योग्य हैं । दूसरे ो दश%नादिदकसे भ्रष्ट हैं और गुणवानोंसे मत्सरभाव रkकर निवनयरूप नहीं प्रवत%ते वे वंदने योग्य नहीं हैं ।।23।।

अब कहते हैं निक— ो यथा ातरूपको देkकर मत्सरभावसे वन्दना नहीं करते हैं वे मिमथ्यादृष्टी ही है :—

सहजु=पण्णं रूवं दटं्ठ जो मण्णए ण मच्छरिरओ ।सो संजमपवि)वण्णो मिमच्छाइट्ठी हवइ एसो ।।24।।सहजोत्पन्नं रूपं दृष््टवा र्यः मन्र्यत ेन मत्सरी ।सः संर्यमप्रवितपन्नः मिमथ्र्यादृष्टीः भववित एषः ।।24।।

ज्र्यां रूप देखी साहजिजक, आदर नहीं मत्सर व)े;संर्यम तणो धारक भले ते होर्य पण कुदृविष्ट छे. 24.

अथ% :— ो सह ोत्पन्न यथा ातरूपको देkकर नहीं मानत े हैं, उसका निवनय सत्कार प्रीनित नहीं करते हैं और मत्सर भाव करते हैं वे संयमप्रनितपन्न हैं, दीक्षा ग्रहण की है निफर भी प्रत्यक्ष मिमथ्यादृमिष्ट हैं ।।24।।

भावाथ% :— ो यथा ातरूपको देkकर मत्सरभावसे उसका निवनय नहीं करते हैं तो ज्ञात होता है निक—इनके इस रूपकी श्रद्धा-रुशिच नहीं है ऐसी श्रद्धा-रुशिच निबना तो मिमथ्यादृमिष्ट ही होत े ह ैं । यहा ँ आशय ऐसा ह ै निक— ो शे्वताम्बरादिदक हुए व े दिदगम्बर रूपके प्रनित मत्सरभाव रkते हैं और उसका निवनय नहीं करते हैं उनका निनषेध है ।।24।।

आगे इसीको दृढ़ करते हैं :—अमराण वदंिदर्याणं रूव ंदट्ठूण सीलसविहर्याणं ।जे गारवं करंवित र्य सम्मAविववस्थिज्जर्या होंवित ।।25।।

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अमरैः वंदिदतानां रूपं दृष््टवा शीलसविहतानाम् ।र्ये गौरवं कुव�प्तिन्त च सम्र्यक्त्वविववर्जिजंताः भवंवित ।।25।।

जे अमरवंदिदत शीलरु्यत मुविनओतणुं रूप जोईने;मिमथ्र्यशिभमान करे अरे ! ते जीव दृविष्टविवहीन छे. 25.

अथ% :—देवोंसे वंदने योग्य शी> सनिहत जि नेश्वरदेवके यथा ात-वरूपको देkकर ो गौरव करते हैं, निवनयादिदक नहीं करते हैं वे सम्यक्त्वसे रनिहत हैं ।

भावाथ% :—जि स यथा ातरूपको देkकर अभिणमादिदक ऋजिद्धयोंके धारक देव भी चरणोंमें निगरते हैं उसको देkकर मत्सरभावसे नम-कार नहीं करते हैं उनके सम्यक्त्व कैसा? वे सम्यक्त्वसे रनिहत ही हैं ।।25।।

अब आगे कहते हैं निक असंयमी वंदने योग्य नहीं है :—अस्संजदं ण वन्दे वyविवहीणोविव तो ण वदंिदज्ज ।दोस्थिण्ण विव होंवित समाणा एगो विव ण संजदो होदिद ।।26।।असंर्यत ंन वन्देत वस्त्रविवहीनो)विप स न वन्द्यते ।द्वौ अविप भवतः समानौ एकः अविप न संर्यतः भववित ।।26।।

वंदो न अणसंर्यत, भले हो नग्न पण नहिहं वंद्य ते;बंने समानपणंु धरे, ऐक्के न संर्यमवंत छे. 26.

अथ% :—असंयमीको नम-कार नहीं करना चानिहये । भावसंयम नहीं हो और बाह्यमें व-त्र रनिहत हो वह भी वंदने योग्य नहीं है क्योंनिक यह दोनों ही संयम रनिहत समान हैं, इनमें एक भी संयमी नहीं है ।

भावाथ% :—जि सन े गृहस्थका भेष धारण निकया ह ै वह तो असंयमी ह ै ही, परन्तु जि सने बाह्यमें नग्नरूप धारण निकया है और अन्तरङ्गमें भावसंयम नहीं है तो वह भी असंयमी ही है, इसशि>ये यह दोनों ही असंयमी हैं, अतः दोनों ही वंदने योग्य नहीं हैं । यहाँ आशय ऐसा है अथा%त् ऐसा नहीं ानना चानिहये निक— ो आचाय% यथा ातरूपको दश%न कहते आये हैं वह केव> नग्नरूप ही यथा ातरूप होगा, क्योंनिक आचाय% तो बाह्य–अभ्यंतर सब परिरग्रहसे रनिहत हो उसको यथा ातरूप कहते हैं । अभ्यंतर भावसंयम निबना बाह्य नग्न होनेसे तो कुछ संयमी होता नहीं ह ै ऐसा ानना । यहा ँ कोई पूछे—बाह्य भेष शुद्ध हो, आचार निनद}ष पा>न करनेवा>ेको अभ्यंतर भावमें कपट हो उसका निनश्चय कैसे हो, तथा सूक्ष्मभाव केव>ीगम्य हैं, मिमथ्यात्व हो उसका निनश्चय कैसे हो, निनश्चय निबना वंदनेकी क्या रीनित ? उसका समाधान—ऐसे

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कपटका ब तक निनश्चय नहीं हो तब तक आचार शुद्ध देkकर वंदना करे उसमें दोष नहीं है, और कपटका निकसी कारणसे निनश्चय हो ाय तब वंदना नहीं करे, केव>ीगम्य मिमथ्यात्वकी व्यवहारमें चचा% नहीं है, छद्मस्थके ज्ञानगम्यकी चचा% ह ै । ो अपने ज्ञानका निवषय ही नहीं उसका बाध–निनबा%ध करनेका व्यवहार नहीं है, सव%ज्ञ भगवानकी भी यही आज्ञा है । व्यवहारी ीवको व्यवहारका ही शरण है ।।26।।

(नोट—एक गुणका दूसरे आनुषंनिगक गुण द्वारा निनश्चय करना व्यवहार है, उसीका नाम व्यवहारी ीवको व्यवहारका शरण है ।)

आगे इस ही अथ%को दृढ़ करते हुए कहते हैं :—ण विव देहो वंदिदज्जइ ण विव र्य कुलो ण विव र्य जाइसंजुAो ।को वंदमिम गुणहीणो ण हु सवणो णेर्य सावओ होइ ।।27।।नाविप देहो वंद्यते नाविप च कुलं नाविप च जावितसंर्यु}ः ।कः* वंद्यत ेगुणहीनः न खलु श्रमणः नैव श्रावकः भववित ।।27।।

1. ‘कं वन्देगुणहीनं’ षट्पाहुOमें पाठ है ।नविह देह वंद्य, न वंद्य कुल, नविह वंद्य जन जावित र्थकी;गुणहीन क्र्यम वंदार्य ? ते साधु नर्थी, श्रावक नर्थी. 27.

अथ% :—देहको भी नहीं वंदते हैं और कु>को भी नहीं वंदते हैं तथा ानितयुक्तको भी नहीं वंदते हैं क्योंनिक गुण रनिहत हो उसको कौन वंदे ? गुण निबना प्रकट मुनिन नहीं, श्रावक भी नहीं है ।

भावाथ% :—>ोकमें भी ऐसा न्याय है ो गुणहीन हो उसको कोई श्रेष्ठ नहीं मानता है, देह रूपवान हो तो क्या, कु> बड़ा हो तो क्या, ानित बड़ी हो तो क्या, क्योंनिक मोक्षमाग%में तो दश%न-ज्ञान-चारिरत्र गुण हैं, इनके निबना ानित-कु>-रूप आदिद वंदनीय नहीं हैं, इनसे मुनिन-श्रावकपणा नहीं आता है, मुनिन-श्रावकपणा तो सम्यग्दश%न-ज्ञान-चारिरत्रसे होता है, इसशि>ये इनको धारण हैं वही वंदने योग्य हैं, ानित कु> आदिद वंदने योग्य नहीं है ।।27।।

अब कहते हैं निक ो तप आदिदसे संयुक्त हैं उनको नम-कार करता हँू :—वंदमिम **तवसावण्णा सीलं च गुणं च बंभचेरं च ।चिसशिद्धगमणं च तेलिसं सम्मAेण+ सुद्धभावेण ।।28।।

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** ‘तव सम्मणा’ छाया—(तपः समापन्नात्) ‘तवसउhणा’ तबसमाणं ये तीन पाठ मुदिद्रत षट्प्राभृत की पु-तक तथा उसकी दिटप्पणीमें हैं ।

+ ‘सम्मत्तेणेव’ ऐसा पाठ होनेसे पाद भङ्ग नहीं होता ।वन्दे तपः श्रमणान् शीलं च गुणं च ब्रह्मचर्यm च ।चिसशिद्धगमनं च तेषा ंसम्र्यक्त्वेन शुद्धभावेन ।।28।।

सम्र्यक्त्वसंरु्य} शुद्धभावे वंदंु छंु मुविनराजने;तस ब्रह्मचर्य�, सुशीलने, गुणने तर्था शिशवगमनने. 28.

अथ% :—आचाय% कहते हैं निक ो तप सनिहत श्रमणपना धारण करते हैं उनको तथा उनके शी>को, उनके गुणको व ब्रह्मचय%को मैं सम्यक्त्व सनिहत शुद्धभावसे नम-कार करता हँू क्योंनिक उनके उन गुणोंसे–सम्यक्त्व सनिहत शुद्धभावसे शिसजिद्ध अथा%त् मोक्ष उसके प्रनित गमन होता है ।

भावाथ% :—पह>े कहा निक—देहादिदक वंदने योग्य नहीं हैं, गुण वंदने योग्य हैं । अब यहाँ गुण सनिहतकी वंदना की है । वहाँ तो तप धारण करके गृहस्थपना छोड़कर मुनिन हो गये हैं उनको तथा उनके शी>-गुण-ब्रह्मचय% सम्यक्त्व सनिहत शुद्धभावसे संयुक्त हों उनकी वंदना की है । यहाँ शी> शब्दसे उत्तरगुण और गुण शब्दसे मू>गुण तथा ब्रह्मचय% शब्दसे आत्म-वरूपमें मग्नता समझना चानिहये ।।28।।

आगे कोई आशङ्का करता ह ै निक—संयमीको वंदने योग्य कहा तो समवसरणादिद निवभूनित सनिहत तीथ�कर हैं व े वंदने योग्य ह ैं या नहीं ? उसका समाधान करनेके शि>ये गाथा कहते हैं निक— ो तीथ�कर परमदेव हैं वे सम्यक्त्वसनिहत तपके माहात्म्यसे तीथ�कर पदवी पाते हैं वे वंदने योग्य हैं :—

चउसदिट्ठ चरमसविहओ चउतीसविह अइसएहिहं संजुAो ।अणवरबहुसAविहओ कम्मक्खर्यकारणशिणमिमAो ।।29।।चतुःषविष्टचमरसविहतः चतसु्त्रिस्तं्रशशिद्भरवितशर्यैः संर्यु}ः ।*अनवरतबहुसत्त्वविहतः कम�क्षर्यकारणविनमिमAः** ।।29।।

* अणुचरबहुसत्तनिहओ (अनुचरबहुसत्वनिहतः) मुदिद्रत षट्प्राभृतमें यह पाठ है ।** निनमिमत्ते मुदिद्रत षट्प्राभृतमें ऐसा पाठ है ।

चोसठ चमर संर्यु} ने चोत्रीस अवितशर्य रु्य} जे;बहुजीवविहतकर सतत, कम�विवनाशकारण–हेतु छे. 29.

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अथ% :— ो चौंसठ चँबरोंस े सनिहत हैं, चौंतीस अनितशय सनिहत हैं, निनरन्तर बहुत प्राभिणयोंका निहत जि नसे होता है ऐसे उपदेशके दाता हैं, और कम%के क्षयका कारण हैं ऐसे तीथ�कर परमदेव हैं वे वंदने योग्य हैं ।

भावाथ% :—यहा ँ चौंसठ चँबर चौंतीस अनितशय सनिहत निवशेषणोंस े तो तीथ�करका प्रभुत्व बताया है और प्राभिणयोंका निहत करना तथा कम%क्षयका कारण निवशेषणसे दूसरे उपकार करनेवा>ापना बताया है, इन दोनों ही कारणोंस े गतम ें वंदन े पू न े योग्य ह ैं । इसशि>ये इसप्रकार भ्रम नहीं करना निक—तीथ�कर कैसे पूज्य हैं, यह तीथ�कर सव%ज्ञ वीतराग हैं । उनके समवसरणादिदक निवभूनित रचकर इन्द्रादिदक भक्त न मनिहमा करते हैं । इनके कुछ प्रयो न नहीं हैं, -वय ं दिदगम्बरत्वको धारण करत े हुए अंतरिरक्ष नितष्ठत े ह ैं ऐसा ानना ।।29।।

आगे मोक्ष निकससे होता है सो कहते हैं :—णाणेण दंसणेण र्य तवेण चरिररे्यण संजमगुणेण ।चउहिहं विप समाजोगे मोक्खो जिजणसासणे दिदट्ठो ।।30।।ज्ञानेन दश�नेन च तपसा चारिरते्रण संर्यमगुणेन ।चतणुा�मविप समार्योगे मोक्षः जिजनशासने दृष्टः ।।30।।

संर्यम र्थकी, वा ज्ञान-दश�न-चरण-तप छे चार जे;ए चार केरा र्योगर्थी, मुचि} कही जिजनशासने. 30.

अथ% :—ज्ञान, दश%न, तप और चारिरत्रसे इन चारोंका समायोग होने पर ो संयमगुण हो उससे जि न शासनमें मोक्ष होना कहा है ।।30।।

आगे इन ज्ञान आदिदके उत्तरोत्तर सारपणा कहते हैं :—णाणं णरस्स सारो सारो विव णरस्स होइ सम्मAं ।सम्मAाओ चरणं चरणाओ होइ शिणव्वाणं ।।31।।ज्ञान ंनरस्र्य सारः सारः अविप नरस्र्य भववित सम्र्यक्त्वम् ।सम्र्यक्त्वात् चरणं चरणात् भववित विनवा�णम् ।।31।।

रे ! ज्ञान नरने सार छे, सम्र्यक्त्व नरने सार छे;सम्र्यक्त्वर्थी चारिरत्र ने चारिरत्रर्थी मुचि} लहे. 31.

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अथ% :—पनिह>े तो इस पुरुषके शि>ये ज्ञान सार है क्योंनिक ज्ञानसे सब हेय-उपादेय ाने ाते हैं निफर उस पुरुषके शि>ये सम्यक्त्व निनश्चयसे सार है क्योंनिक सम्यक्त्व निबना ज्ञान मिमथ्या नाम पाता है, सम्यक्त्वसे चारिरत्र होता है क्योंनिक सम्यक्त्व निबना चारिरत्र भी मिमथ्या ही है, चारिरत्रसे निनवा%ण होता है ।

भावाथ% :—चारिरत्रसे निनवा%ण होता ह ै और चारिरत्र ज्ञानपूव%क सत्याथ% होता ह ै तथा ज्ञान सम्यक्त्वपूव%क सत्याथ% होता है इसप्रकार निवचार करनेसे सम्यक्त्वके सारपना आया । इसशि>ये पनिह>े तो सम्यक्त्व सार है पीछे ज्ञान चारिरत्र सार हैं । पनिह>े ज्ञानसे पदाथ�को ानते हैं अतः पनिह>े ज्ञान सार है तो भी सम्यक्त्व निबना उसका भी सारपना नहीं है, ऐसा ानना ।।31।।

आगे इसी अथ%को दृढ़ करते हैं :—णाणप्तिम्म दंसणप्तिम्म र्य तवेण चरिरएण सम्मसविहएण ।*चउण्हं विप समाजोगे चिसद्धा जीवा ण सन्देहो ।।32।।

* पाठान्तरः—चोhहं

ज्ञान ेदश�ने च तपसा चारिरते्रण, सम्र्यक्त्वसविहतेन ।चतणुा�मविप समार्योगे चिसद्धा जीवा न सन्देहः ।।32।।

दृग-ज्ञानर्थी, सम्र्यक्त्वरु्यत चारिरत्रर्थी ने तप र्थकी,—ऐ चारना र्योगे जीवो चिसशिद्ध वरे, शंका नर्थी. 32.

अथ% :—ज्ञान और दश%नके होन े पर सम्यक्त्व सनिहत तप करके चारिरत्रपूव%क इन चारोंका समायोग होनेसे ीव शिसद्ध हुए हैं, इसमें सन्देह नहीं है ।

भावाथ% :—पनिह>े ो शिसद्ध हुए हैं वे सम्यग्दश%न, ज्ञान, चारिरत्र और तप इन चारोंके संयोगसे ही हुए हैं यह जि नवचन है, इसमें सन्देह नहीं है ।।32।।

आगे कहते हैं निक—>ोकमें सम्यग्दश%नरूप रत्न अमो>क है वह देव-दानवोंसे पूज्य है :—

कल्लाणपरंपरर्या लहंवित जीवा विवसुद्धसम्मAं ।सम्म�संणरर्यणं अग्धेदिद सुरासुरे लोए ।।33।।कल्र्याणपरंपरर्या लभंते जीवाः विवशुद्धसम्र्यक्त्वम् ।सम्र्यग्दश�नरत्नं अध्र्य�ते सुरासुरे लोके ।।33।।

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कल्र्याणशे्रणी सार्थ पामे जीव समविकत शुद्धने;सुर-असुर केरा लोकमां सम्र्यक्त्वरत्न पुजार्य छे. 33.

अथ% :— ीव निवशुद्ध सम्यक्त्वको कल्याणकी परम्परा सनिहत पात े ह ैं इसशि>ये सम्यग्दश%न रत्न है वह इस सुर-असुरोंसे भरे हुए >ोकमें पूज्य है ।

भावाथ% :—निवशुद्ध अथा%त ् पच्चीस म>दोषोंस े रनिहत निनरनितचार सम्यक्त्वसे कल्याणकी परम्परा अथा%त् तीथ%ङ्कर पद पाते हैं, इसीशि>ये यह सम्यक्त्व–रत्न >ोकमें सब देव, दानव और मनुष्योंस े पूज्य होता ह ै । तीथ�कर प्रकृनितके बंधके कारण सो>हकारण भावना कही ह ैं उनम ें पनिह>ी दश%ननिवशुजिद्ध ह ै वही प्रधान है, यही निवनयादिदक पंद्रह भावनाओंका कारण है, इसशि>ये सम्यग्दश%नके ही प्रधानपना है ।।33।।

अब कहते हैं निक ो उत्तम गोत्र सनिहत मनुष्यत्वको पाकर सम्यक्त्वकी प्रान्तिप्तसे मोक्ष पाते हैं यह सम्यक्त्वका माहात्म्य है :—

लदधूण+ र्य मणुर्यAं सविहर्यं तह उAमेण गोAेण ।लद्धणू र्य सम्मAं अक्खर्यसोक्खं++ च मोक्खं च ।।34।।

+ दठ्ठठूण पाठान्तर ।++ ‘अक्kयसोक्kं >हदिद मोक्kं च’ पाठान्तर ।

लब्ध्वा च मनुजत्त्वं सविहत ंतर्था उAमेन गोत्रेण ।लब्ध्वा च सम्र्यक्त्वं अक्षर्यसुखं च मोकं्ष च ।।34।।

रे ! गोत्र उAमर्थी सविहत मनुजत्वने जीव पामीने,संप्रा=त करी सम्र्यक्त्व, अक्षर्य सौख्र्य ने मुचि} लहे. 34.

अथ% :—उत्तमगोत्र सनिहत मनुष्यपना प्रत्यक्ष प्राप्त करके और वहाँ सम्यक्त्व प्राप्त करके अनिवनाशी सुkरूप केव>ज्ञान प्राप्त करते हैं, तथा उस सुkसनिहत मोक्ष प्राप्त करते हैं ।

भावाथ% :—यह सब सम्यक्त्वका माहात्म्य है ।।34।।अब प्रश्न उत्पन्न होता है निक— ो सम्यक्त्वके प्रभावसे मोक्ष प्राप्त करते हैं वे तत्का>

ही प्राप्त करत े ह ैं या कुछ अवस्थान भी रहत े ह ैं ? उसके समाधानरूप गाथा कहत े हैं :—

विवहरदिद जाव जिजणिणंदो सहसट्ठसुलक्खणेंविह संजुAो ।

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चउAीस अइसर्यजुदो सा पवि)मा र्थावरा भशिणर्या ।।35।।विवहरवित र्यावत् जिजनेन्द्रः सहस्राष्टलक्षणैः संर्यु}ः ।चतसु्त्रिस्तं्रशदवितशर्यर्युतः सा प्रवितमा स्थावरा भशिणता ।।35।।

चोत्रीस अवितशर्यर्यु}, अष्ट सहस्र लक्षणधरपणे;जिजनचंद्र विवहरे ज्र्यां लगी, ते हिबंब स्थावर उ} छे. 35.

अथ% :—केव>ज्ञान होनेके बाद जि नेन्द्र भगवान ब क इस >ोकमें–आय%kंOमें निवहार करत े ह ैं तब तक उनकी वह प्रनितमा अथा%त ् शरीर सनिहत प्रनितनिबम्ब उसको ‘थावर प्रनितमा’ इस नामसे कहते हैं । वे जि नेन्द्र कैसे हैं ? एक ह ार आठ >क्षणोंसे संयुक्त हैं । वहाँ श्रीवृक्षको आदिद >ेकर एक सौ आठ तो >क्षण होते ह ैं । नित> मुसको आदिद >ेकर नौ सौ वं्य न होत े ह ैं । चौंतीस अनितशयोंम ें दस तो न्मस े ही शि>य े हुए उत्पन्न होत े ह ैं :—1 निनः-वेदता, 2 निनम%>ता, 3 शे्वतरुमिधरता, 4 समचतुरस्रसंस्थान, 5 वज्रवृषभनाराच संहनन, 6 सुरूपता, 7 सुगंधता, 8 सु>क्षणता, 9 अतु>वीय%, 10 निहतमिमतवचन—ऐसे दस होते हैं । घानितया कम�के क्षय होने पर दस होते हैं :—1 शतयो न सुभिभक्षता, 2 आकाशगमन, 3 प्राभिणवधका अभाव, 4 कव>ाहारका अभाव, 5 उपसग%का अभाव, 6 चतुमु%kपना, 7 सव%निवद्याप्रभुत्व, 8 छायारनिहतत्व, 9 >ोचननिनस्पंदनरनिहततत्त्व, 10 केश-नkवृजिद्धरनिहतत्व ऐस े दस होत े ह ैं । देवों द्वारा निकय े हुए चौदह होत े ह ैं :–1—सक>ाद्ध%मागधी भाषा, 2 सव% ीव मैत्रीभाव, 3 सव%ऋतुफ>पुष्प प्रादुभा%व, 4 दप%णके समान पृथ्वी होना, 5 मंद सुगंध पवनका च>ना, 6 सारे संसारमें आनन्दका होना, 7 भूमिम कंटकादिदरनिहत होना, 8 देवों द्वारा गंधोदककी वषा% होना, 9 निवहारके समय चरणकम>के नीचे देवों द्वारा सुवण%मयी कम>ोंकी रचना होना, 10 भूमिम धान्यनिनष्पभित्त सनिहत होना, 11 दिदशा-आकाश निनम%> होना, 12 देवोंका आह्वानन शब्द होना, 13 धम%चक्रका आगे च>ना, 14 अष्ट मंग> द्रव्य होना—ऐसे चौदह होत े ह ैं । सब मिम>कर चौंतीस हो गये । आठ प्रानितहाय% होत े हैं, उनके नाम :—1 अशोकवृक्ष, 2 पुष्पवृमिष्ट, 3 दिदव्यध्वनिन, 4 चामर, 5 लिसंहासन, 6 छत्र, 7 भामंO>, 8 दुन्दुभिभवादिदत्र ऐसे आठ होते हैं ।—ऐसे अनितशयसनिहत अनन्तज्ञान, अनन्तदश%न, अनंतसुk, अनंतवीय% सनिहत—तीथ�करपरमदेव ब तक ीवोंके सम्बोधन निनमिमत्त निवहार करते निवरा ते हैं तब तक स्थावर प्रनितमा कह>ाते हैं । ऐसे स्थावर प्रनितमा कहनेसे तीथ�कर केव>ज्ञान होनेके बादमें अवस्थान बताया है और धातु पाषाणकी प्रनितमा बनाकर स्थानिपत करते हैं वह इसीका व्यवहार है ।।35।।

आगे कम�का नाश करके मोक्ष प्राप्त करते हैं ऐसा कहते हैं :—

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बारसविवहतवजुAा, कम्मं खविवऊण विवविहबलेण स्सं ।वोसट्टचAदेहा, शिणव्वाणमणुAरं पAा ।।36।।द्वादशविवधतपोर्यु}ः कम�क्षपमिर्यत्वा विवचिधवलेन स्वीर्यम् ।व्युत्सग�त्र्य}देहा विनवा�णमनुAरं प्रा=ताः ।।36।।

द्वादश तपे संर्यु}, विनज कमN खपावी विवचिधबळे,व्युत्सग�र्थी तनने तजी, पार्या अनुAर मोक्षने. 36.

अथ% :— ो बारह प्रकारके तपसे संयुक्त होते हुए निवमिधके ब>से अपने कम%को नष्ट कर ‘वोसट्टचत्तदेहा’ अथा%त् जि न्होंने भिभन्न कर छोड़ दिदया है देह ऐसे होकर वे अनुत्तर अथा%त् जि ससे आगे अन्य अवस्था नहीं है ऐसी निनवा%ण अवस्थाको प्राप्त होते हैं ।

भावाथ% :— ो तप द्वारा केव>ज्ञान प्राप्त कर ब तक निवहार कर ें तब तक अवस्थान रहें, पीछे द्रव्य, के्षत्र, का>, भावकी सामग्रीरूप निवमिधके ब>स े कम% नष्ट कर वु्यत्सग%द्वारा शरीरको छोड़कर निनवा%णको प्राप्त होत े ह ैं । यहा ँ आशय ऐसा ह ै निक ब निनवा%णको प्राप्त होते हैं तब >ोकशिशkर पर ाकर निवरा ते हैं, वहाँ गमनमें एकसमय >गता है, उस समय ंगम प्रनितमा कहते हैं । ऐसे सम्यग्दश%न-ज्ञान-चारिरक्षसे मोक्षकी प्रान्तिप्त होती है, उसमें सम्यग्दश%न प्रधान है । इस पाहुड़में सम्यग्दश%नके प्रधानपनेका व्याख्यान निकया है ।।36।।

सवैया छन्दमोक्ष उपार्य कह्यो जिजनराज जु सम्र्यग्दश�न ज्ञान चरिरत्रा ।तामचिध सम्र्यग्दश�न मुख्र्य भर्ये विनज बोध फलै सु चरिरत्रा ।।जे नर आगम जाविन करै पहचाविन र्यर्थावत मिमत्रा ।घावित चिसवार्य रु केवल पार्य अघावित हने लविह मोक्ष पविवत्रा ।।1।।

दोहानमूं देव गुरु धम�कंू, जिजन आगमकंू माविन ।जा प्रसाद पार्यो अमल, सम्र्यग्दश�न जाविन ।।2।।

इनित श्री कुन्दकुन्द-वामिम निवरशिचत अष्टप्राभृतम ें प्रथम दश%नप्राभृत और उसकी यचन्द्र ी छाबड़ा कृत देशभाषामयवचनिनका का निहन्दी भाषानुवाद समाप्त हुआ ।

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सूत्रपाहुड़– 2 –

वीर जिजनेश्वरको नमूं गौतम गणधर लार ।काल पंचमा आदिदमें भए सूत्रकरतार ।।1।।

इस प्रकार मंग> करके श्री कुन्दकुन्द आचाय%कृत गाथा बद्ध सूत्रपाहुड़की देशभाषामय वचनिनका शि>kते हैं :—

प्रथम ही श्री कुन्दकुन्द आचाय%, सूत्रकी मनिहमागर्णिभंत सूत्रका -वरूप बताते हैं :—अरहंतभाचिसर्यyं, गणहरदेवेहिहं गचंिर्थर्यं सम्मं ।सुAyमग्गणyं, सवणा साहंवित परमyं ।।1।।अह�द्भाविषतार्थm गणधरदेवैः ग्रचिर्थत ंसम्र्यक् ।सूत्रार्थ�माग�णार्थm श्रमणाः साधर्यंवित परमार्थ�म् ।।1।।

अहmतभाविषत अर्थ�मर्य, गणधरसुविवरचिचत सूत्र छे;सूत्रार्थ�ना शोधन व)े, सार्थे श्रमण परमार्थ�ने. 1

अथ% :— ो गणधरदेवोंन े सम्यक् प्रकार पूवा%परनिवरोधरनिहत गूंथा (रचना की) वह सूत्र ह ै । वह सूत्र कैसा ह ै ?—सूत्रका ो कुछ अथ% है, उसको माग%ण अथा%त ् ढँूढने— ाननेका जि समें प्रयो न है और ऐसे ही सूत्रके द्वारा श्रमण (मुनिन) परमाथ% अथा%त् उत्कृष्ट अथ% प्रयो न ो अनिवनाशी मोक्षको साधते हैं । यहाँ गाथामें ‘सूत्र’ इसप्रकार निवशेष्य पद नहीं कहा तो भी निवशेषणोंकी सामथ्य%से शि>या है ।

भावाथ% :— ो अरहंत सव%ज्ञ द्वारा भानिषत है तथा गणधरदेवोंने अक्षर पद वाक्यमयी गूंथा है और सूत्रके अथ%को ाननेका ही जि समें अथ%—प्रयो न है, ऐसे सूत्रमें मुनिन परमाथ% ो मोक्ष उसको साधते हैं । अन्य ो अक्षपाद, ैमिमनिन, कनिप>, सुगत आदिद छद्मस्थोंके द्वारा रचे हुए कण्डिल्पत सूत्र हैं, उनसे परमाथ%की शिसजिद्ध नहीं है, इस प्रकार आशय ानना ।।1।।

आगे कहत े ह ैं निक ो इस प्रकार सूत्रका अथ% आचाय�की परम्परास े प्रवत%ता है, उसको ानकर मोक्षमाग%को साधते हैं, वे भव्य हैं :—

सुAप्तिम्म जं सुदिदटं्ठ, आइरिरर्यपरंपरेण मग्गेण ।णाऊण दुविवह सुAं, वट्टदिद चिसवमग्ग जो भव्वो ।।2।।

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सूते्र र्यत ्सुदृषं्ट आचार्य�परंपरेण मागtण ।ज्ञात्वा विद्वविवधं सूतं्र वA�ते शिशवमागt र्यः भव्यः ।।2।।

सूत्रे सुदर्शिशतं जेह, ते सूरिरगणपरंपर माग�र्थीजाणी विद्वधा, शिशवपंर्थ वतt जीव जे ते भव्य छे. 2.

अर्थ� :—सव%ज्ञभानिषत सूत्रम ें ो कुछ भ> े प्रकार कहा है, उसको आचाय�की परम्परारूप माग%से दो प्रकारके सूत्रको शब्दमय और अथ%मय ानकर मोक्षमाग% प्रवत%ता है वह भव्य ीव है, मोक्ष पानेके योग्य है ।

भावार्थ� :—यहाँ कोई कहे—अरहंत द्वारा भानिषत और गणधर देवोंसे गूंथा हुआ सूत्र तो द्वादशांगरूप है, वह तो इस का>में दिदkता नहीं है, तब परमाथ%रूप मोक्षमाग% कैसे सधे ? इसका समाधान करनेके शि>ये यह गाथा है—अरहंत भानिषत, गणधर रशिचत सूत्रमें ो उपदेश ह ै उसको आचाय�की परम्परास े ानत े हैं, उसको शब्द और अथ%के द्वारा ानकर ो मोक्षमाग%को साधता है वह मोक्ष होने योग्य भव्य है । यहाँ निफर कोई पूछे निक—आचाय�की परम्परा क्या है ? अन्य ग्रन्थोंमें आचाय�की परम्परा निनम्न प्रकारसे कही गई है :—

श्री वद्ध%मान तीथ�कर सव%ज्ञ देवके पीछे तीन केवळज्ञानी हुए—1 गौतम, 2 सुधम%, 3 म्बू । इनके पीछे पाँच श्रुतकेव>ी हुए; इनको द्वादशांग सूत्रका ज्ञान था, 1 निवष्णु, 2 नंदिदमिमत्र, 3. अपराजि त, 4 गौवद्ध%न, 5 भद्रबाहु । इनके पीछे दस पूव%के ज्ञाता ग्यारह हुए; 1 निवसाk, 2 प्रौमिष्ठ>, 3 श्रनित्रय, 4 यसेन, 5 नागसेन, 6 शिसद्धाथ%, 7 धृनितषेण, 8 निव य, 9 बुजिद्ध>, 10 गंगदेव, 11 धम%सेन । इनके पीछे पाँच ग्यारह अङ्गोंके धारक हुए; 1 नक्षत्र, 2 यपा>, 3 पांOु, 3 धवु%वसेन, 5 कंस । इनके पीछे एक अङ्गके धारक चार हुए; 1 सुभद्र 2 यशोभद्र, 2 भद्रबाहु, 4 >ोहाचाय% । इनके पीछे एक अङ्गके पूण%ज्ञानीकी तो वु्यण्डिच्छभित्त (अभाव) हुई और अंगके एकदेश अथ%के ज्ञाता आचाय% हुए । इनमेंसे कुछके नाम ये हैं—अह%द्बशि>, माघनंदिद, धरसेन, पुष्पदंत, भूतबशि>, जि नचन्द्र, कुन्दकुन्द, उमा-वामी, समंतभद्र, शिशवकोदिट, शिशवायन, पूज्यपाद, वीरसेन, जि नसेन, नेमिमचन्द्र इत्यादिद ।

इनके पीछे इनकी परिरपाटीमें आचाय% हुए, इनसे अथ%का वु्यचे्छद नहीं हुआ, ऐसी दिदगम्बरोंके संप्रदायम ें प्ररूपणा यथाथ% ह ै । अन्य शे्वताम्बरादिदक वद्ध%मान -वामीस े परम्परा मिम>ाते ह ैं वह कण्डिल्पत है; क्योंनिक भद्रबाहु -वामीके पीछे कई मुनिन अवस्थामें भ्रष्ट हुए, ये अद्ध%फा>क कह>ाये । इनकी सम्प्रदायमें श्वेताम्बर हुए, इनमें ‘‘देवर्द्धिद्धंगणी’’ नामक साधु इनकी संप्रदायमें हुआ है, इसने सूत्र बनाय े ह ैं सो इनमें शिशशिथ>ाचारको पुष्ट करनेके शि>ये कण्डिल्पत कथा तथा कण्डिल्पत आचरणका कथन निकया है, वह प्रमाणभूत नहीं है । पंचमका>में ैनाभासोंके शिशशिथ>ाचारकी अमिधकता है सो युक्त है, इस का>में सच्चे मोक्षमाग%की निवर>ता है, इसशि>ये शिशशिथ>ाचारिरयोंके सच्चा मोक्षमाग% कहाँसे हो—इस प्रकार ानना ।

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अब यहा ँ कुछ द्वादशांगसूत्र तथा अङ्गबाह्यश्रुतका वण%न शि>kत े हैं—तीथ�करके मुkस े उत्पन्न हुई सव% भाषामय दिदव्यध्वनिनको सुन करके चार ज्ञान, सप्तऋजिद्धके धारक गणधर देवोंने अक्षर पदमय सूत्ररचना की । सूत्र दो प्रकारके हैं—1 अंग, 2 अङ्गबाह्य । इनके अपुनरुक्त अक्षरोंकी संख्या बीस अङ्ग प्रमाण है । ये अङ्ग एक घादिट इकट्ठी प्रमाण हैं । ये अङ्ग—18446744073709551615 इतने अक्षर हैं । इनके पद करें तब एक मध्यपदके अक्षर सो>हसौ चौंतीस करोड़ नितयासी >ाk सात ह ार आठसौ अठ्यासी कहे हैं । इनका भाग देने पर एकसौ बारह करोड़ नितयासी >ाk अठ्ठावन ह ार पाँच इतने पावें, ये पद बारह अङ्गरूप सूत्रके पद हैं और अवशेष बीस अङ्गोंमें अक्षर रहे, ये अङ्गबाह्य सूत्र कह>ाते हैं । ये आठ करोड़ एक >ाk आठ ह ार एकसौ निपचहत्तर अक्षर हैं, इन अक्षरोंम ें चौदह प्रकीण%करूप सूत्र रचना है ।

अब इन द्वादशांगरूप सूत्ररचनाके नाम और पद संख्या शि>kत े हैं—प्रथम अंग आचारांग है, इसमें मुनीश्वरोंके आचारका निनरूपण है, इसके पद अठारह ह ार हैं । दूसरा सूत्रकृत अंग है, इसमें ज्ञानका निवनय आदिदक अथवा धम%निक्रयामें -वमत परमतकी निक्रयाके निवशेषका निनरूपण है, इसके पद छत्तीस ह ार हैं । तीसरा स्थान अंग है, इसमें पदाथ�के एक आदिद स्थानोंका निनरूपण ह ै ैसे— ीव सामान्यरूपसे एक प्रकार निवशेषरूपसे दो प्रकार, तीन प्रकार इत्यादिद ऐसे स्थान कहे हैं, इसके पद निबया>ीस ह ार हैं । चौथा समवाय अंग है, इसमें ीवादिदक छह द्रव्योंका द्रव्य, के्षत्र का>ादिद द्वारा वण%न है, इसके पद एक >ाk चौसठ ह ार हैं ।

पाँचवा ँ व्याख्याप्रज्ञन्तिप्त अङ्ग है, इसमें ीवके अस्ति-त—नास्ति-त आदिदक साठ ह ार प्रश्न गणधरदेवोंने तीथ�करके निनकट निकये उनका वण%न है, इसके पद दो >ाk अट्ठाईस ह ार हैं । छठा ज्ञातृधम%कथा नामका अङ्ग है, इसमें तीथ�करोंके धम%की कथा, ीवादिदक पदाथ�के -वभावका वण%न तथा गणधरके प्रश्नोंके उत्तरका वण%न है, इसके पद पाँच >ाk छप्पन ह ार हैं । सातवाँ उपासकाध्ययन नामक अङ्ग है, इसमें ग्यारह प्रनितमा आदिद श्रावकके आचारका वण%न है, इसके पद ग्यारह >ाk सत्तर ह ार हैं । आठवाँ अन्तकृतदशांग नामका अंग है, इसमें एक—एक तीथ�ङ्करके का>में दस—दस अन्तकृत केव>ी हुए उनका वण%न है, इसके पद तेईस >ाk अट्ठाईस ह ार हैं ।

नौवाँ अनुत्तरोपपादक नामक अंग है, इसमें एक—एक तीथ�करके का>में दस-दस महामुनिन घोर उपसग% सहकर अनुत्तर निवमानोंमें उत्पन्न हुए उनका वण%न है, इसके पद बाणवै >ाk चवा>ीस ह ार हैं । दसवाँ प्रश्न व्याकरण नामक अंग है, इसमें अतीत अनागत का> सम्बन्धी शुभाशुभका प्रश्न कोई कर े उसका उत्तर यथाथ% कहनेके उपायका वण%न ह ै तथा आक्षेपणी, निवक्षेपणी, संवेदनी, निनव�दनी इन चार कथाओंका भी इस अंगमें वण%न है, इसके पद नितराणव े >ाk सो>ह ह ार ह ैं । ग्यारहवा ँ निवपाकसूत्र नामक अंग है, इसम ें कम%के

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उदयका तीव्र, मंद अनुभागका द्रव्य, के्षत्र, का>, भावकी अपेक्षा शि>ये हुए वण%न है, इसके पद एक करोड़ चौरासी >ाk हैं । इसप्रकार ग्यारह अंग हैं, इनके पदोंकी संख्याको ोड़ देने पर चार करोड़ पंद्रह >ाk दो ह ार पद होते हैं ।

बारहवाँ दृमिष्टवाद नामक अंग है, इसमें मिमथ्यादश%न सम्बन्धी तीनसो ते्रसठ कुवादोंका वण%न है, इसके पद एकसौ आठ करोड़ अड़सठ >ाk छप्पन ह ार पाँच पद हैं । इस बारहवें अंगके पाँच अमिधकार हैं—1 परिरकम%, 2 सूत्र, 3 प्रथमानुयोग, 4 पूव%गत, 5 चूशि>का । परिरकम%में गभिणतके करण सूत्र हैं: इसके पाँच भेद हैं—प्रथम चन्द्रप्रज्ञन्तिप्त है, इसमें चन्द्रमाके गमनादिदक, परिरवार वृजिद्ध, हानिन, ग्रह आदिदका वण%न है, इसके पद छत्तीस >ाk पांच ह ार हैं । दूसरा सूय%प्रज्ञन्तिप्त है, इसमें सूय%की ऋजिद्ध, परिरवार, गमन आदिदका वण%न है, इसके पद पांच >ाk तीन ह ार हैं । तीसरा म्बूद्वीप प्रज्ञन्तिप्त है, इसमें म्बूद्वीप संबंधी मेरु निगरिर के्षत्र कु>ाच> आदिदका वण%न है, इसके पद तीन >ाk पच्चीस ह ार हैं । चौथा द्वीपसागर प्रज्ञन्तिप्त है, इसमें द्वीपसागरका -वरूप तथा वहाँ ण्डिस्थत ज्योनितषी, व्यन्तर, भवनवासी देवोंके आवास तथा वहाँ ण्डिस्थत जि नमजिन्दरोंका वण%न है, इसके पद बावन >ाk छत्तीस ह ार हैं । पाँचवाँ व्याख्याप्रज्ञन्तिप्त है, इसमें ीव, अ ीव पदाथ�के प्रमाणका वण%न है, इसके पद चौरासी >ाk छत्तीस ह ार हैं । इस प्रकार परिरकम%के पांच भेदोंके पद ोड़ने पर एक करोड़ इक्यासी >ाk पांच ह ार होते हैं ।

बारहवें अंगका दूसरा ‘भेद’ सूत्र नामका है, इसमें मिमथ्यादश%न सम्बन्धी तीनसौ ते्रसठ कुवादोंका पूव%पक्ष >ेकर उनको ीव पदाथ% पर >गाने आदिदका वण%न है, इसके पद अठ्यासी >ाk ह ैं । बारहवें अंगका तीसरा भेद ‘प्रथमानुयोग’ है, इसमें प्रथम ीवके उपदेश योग्य तीथ�कर आदिद ते्रसठ श>ाका पुरुषोंका वण%न है, इसके पद पाँच ह ार हैं । बारहवें अंगका चौथा भेद ‘पूव%गत’ है, इसके चौदह भेद हैं, प्रथम उत्पाद नामका ह ै इसम ें ीव आदिद व-तुओंके उत्पाद—व्यय—ध्रौव्य आदिद अनेक धम�की अपेक्षा भेद वण%न है, इसके पद एक करोड़ ह ैं । दूसरा अग्रायणी नामक पूव% है, इसम ें सातसौ सुनय दुन%यका और षट्द्रव्य, सप्ततत्त्व, नव पदाथ�का वण%न है, इसके शिछयानवे >ाk पद हैं ।

तीसरा वीया%नुवाद नामक पूव% है, इसम ें छहदव्योंकी शशिक्तरूप वीय%का वण%न है, इसके पद सत्तर >ाk हैं । चौथा अस्ति-तनास्ति-तप्रवाद नामका पूव% है, इसमें ीवादिदक व-तुका -वरूप द्रव्य, के्षत्र, का>, भावकी अपेक्षा अस्ति-त, पररूप द्रव्य, के्षत्र, का> भावकी अपेक्षा नास्ति-त आदिद अनेक धम�म ें निवमिध निनषेध करके सप्तभंगके द्वारा कथंशिचत ् निवरोध मेटनेरूप मुख्य गौण करके वण%न है, इसके पद साठ >ाk हैं । पाँचवाँ ज्ञानप्रवाह नामका पूव% है, इसमें ज्ञानके भेदोंका -वरूप, संख्या, निवष्य, फ> आदिदका वण%न है, इसके पद एक कम करोड़ हैं । छठा सत्यप्रवाद नामक पूव% है, इसमें सत्य, असत्य आदिद वचनोंकी अनेक प्रकारकी प्रवृभित्तका वण%न है, इसके पद एक करोड़ छह हैं । सातवा ँ आत्मप्रवाद नामक पूव% है, इसमें आत्मा

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( ीव) पदाथ%के कता%, भोक्ता, आदिद अनेक धम�का निनश्चय-व्यवहारनयकी अपेक्षा वण%न है, इसके पद छब्बीस करोड़ हैं ।

आठवां कम%प्रवाद नामका पूव% है, इसमें ज्ञानावरण आदिद आठ कम�के बंध, सत्व, उदय, उदीरणा आदिदका तथा निक्रयारूप कम�का वण%न है, इसके पद एक करोड़ अ-सी >ाk हैं । नौवाँ प्रत्याख्यान नामका पूव% है, इसमें पापके त्यागका अनेक प्रकारसे वण%न है, इसके पद चौरासी >ाk हैं । दसवाँ निवद्यानुवाद नामका पूव% है, इसमें सातसौ क्षुद्रनिवद्या और पांचसौ महानिवद्याओंके -वरूप, साधन, मंत्रादिदक और शिसद्ध हुए इनके फ>का वण%न है तथा अष्टांग निनमिमत्तज्ञानका वण%न है, इसके पद एक करोड़ दस >ाk हैं । ग्यारहवाँ कल्याणवाद नामका पूव% है, इसमें तीथ�कर चक्रवतN आदिदके गभ% आदिद कल्याणकका उत्सव तथा उसके कारण षोOश भावनादिदके तपश्चरणादिदक तथा चन्द्रमा सूया%दिदकके गमन निवशेष आदिदका वण%न है, इसके पद छब्बीस करोड़ हैं ।

बारहवाँ प्राणवाद नामक पूव% है, इसमें आठ प्रकार वैद्यक तथा भूतादिदककी व्यामिधके दूर करनेके मंत्रादिदक तथा निवष दूर करनेके उपाय और -वरोदय आदिदका वण%न है, इसके तेरह करोड़ पद हैं । तेरहवाँ निक्रयानिवशा> नामक पूव% है, इसमें संगीतशा-त्र, छन्द, अ>ंकारादिदक तथा चौसठ क>ा, गभा%धानादिद चौरासी निक्रया, सम्यग्दश%न आदिद एक सौ आठ निक्रया, देववंदनादिद पच्चीस निक्रया, निनत्य नैमिमभित्तक निक्रया इत्यादिदका वण%न है, इसके पद नव करोड़ हैं । चौदहवा ँ नित्र>ोकहिबंदुसार नामक पूव% है, इसम ें तीन>ोकका -वरूप और बी गभिणतका -वरूप तथा मोक्षका -वरूप तथा मोक्षकी कारणभूत निक्रयाका -वरूप इत्यादिदका वण%न है, इसके पद बारह करोड़ पचास >ाk हैं । ऐसे चौदह पव% हैं, इनके सब पदोंका ोड़ निपच्याणबे करोड़ पचास >ाk है ।

बारहवें अंगका पाँचवाँ भेद चूशि>का है, इसके पाँच भेद हैं, इनके पद दो करोड़ नव >ाk नवासी ह ार दो सो हैं । इसके प्रथम भेद >गता चूशि>कामें >का -तंभन करना, >म ें गमन करना । अखिग्नगता चूशि>काम ें अखिग्न -तंभन करना, अखिग्नम ें प्रवेश करना, अखिग्नका भक्षण करना इत्यादिदके कारणभूत मंत्र-तंत्रादिदकका प्ररूपण है, इसके पद दो करोड़ नव >ाk नवासी ह ार दो सो हैं । इतने इतने ही पद अन्य चार चूशि>काके ानने । दूसरा भेद स्थ>गता चूशि>का है, इसमें मेरु पव%त भूमिम इत्यादिदमें प्रवेश करना, शीघ्र गमन करना इत्यादिद निक्रयाके कारण मंत्र, तंत्र, तपश्चरणादिदकका प्ररूपण है ।

तीसरा भेद मायागता चूशि>का है, इसमें मायामयी इन्द्र ा> निवनिक्रयाके कारणभूत मंत्र, तंत्र, तपश्चरणादिदकका प्ररूपण है । चौथा भेद रूपगता चशि>का है, इसमें लिसंह, हाथी, घोड़ा, बै>, हरिरण इत्यादिद अनेक प्रकारके रूप बना >ेनेके कारणभूत, मंत्र, तंत्र तपश्चरण आदिदका प्ररूपण ह ै । पाँचवा ँ भेद आकाशगता चूशि>का है, इसमें आकाशमें गमनादिदकके

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कारणभूत मंत्र, यंत्र, तंत्रादिदकका प्ररूपण ह ै । ऐसे बारहवा ँ अंग ह ै । इस प्रकारसे बारह अंगसूत्र हैं ।

अंगबाह्य श्रुतके चौदह प्रकीण%क हैं । प्रथम प्रकीण%क सामामियक नामक है, इसमें नाम, स्थापना, द्रव्य, के्षत्र, का>, भावके भेदसे छह प्रकार इत्यादिद सामामियकका निवशेषरूपसे वण%न है । दूसरा चतुर्विंवंशनित-तव नामका प्रकीण%क है, इसमें चौबीस तीथ�करोंकी मनिहमाका वण%न है । तीसरा वंदना नामका प्रकीण%क है, इसमें एक तीथ�करके आश्रय वन्दना -तुनितका वण%न है । चौथा प्रनितक्रमण नामका प्रकीण% है, इसमें सात प्रकारके प्रनितक्रमणका वण%न है । पाँचवा ँ वैनमियक नामका प्रकीण%क है, इसम ें पाँच प्रकारके निवनयका वण%न ह ै । छठा कृनितकम%के नामका प्रकीण%क है, इसमें अरिरहंत आदिदकी वंदनाकी निक्रयाका वण%न है । सातवाँ दशवैकाशि>क नामक प्रकीण%क है, इसमें मुनिनका आचार, आहारकी शुद्धता आदिदका वण%न है । आठवाँ उत्तराध्ययन नामका प्रकीण%क है, इसमें परीषह उपसग%को सहनेके निवधानका वण%न है ।

नवमाँ कल्पव्यवहार नामका प्रकीण%क है, इसमें मुनिनके योग्य आचरण और अयोग्य सेवनके प्रायभिश्चत्तोंका वण%न है । दसवा ँ कल्पाकल्प नामक प्रकीण%क है, इसमें मुनिनको यह योग्य है यह अयोग्य है ऐसा द्रव्य, के्षत्र, का>, भावकी अपेक्षा वण%न है । ग्यारहवाँ महाकल्प नामका प्रकीण%क है, इसमें जि नकल्पी मुनिनके प्रनितमायोग, नित्रका>योगका प्ररूपण है तथा स्थनिवरकल्पी मुनिनयोंकी प्रवृभित्तका वण%न है । बारहवाँ पुhOरीक नामक प्रकीण%क है, इसमें चार प्रकारके देवोंमें उत्पन्न होनेके कारणोंका वण%न है । तेरहवाँ महापुhOरीक नामका प्रकीण%क है, इसमें इन्द्रादिदक बड़ी ऋजिद्धके धारक देवोंमें उत्पन्न कारणोंका प्ररूपण है । चौदहवाँ निननिषजिद्धका नामक प्रकीण%क है, इसमें अनेक प्रकारके दोषोंकी शुद्धताके निनमिमत्त प्रायभिश्चत्तोंका प्ररूपण है, यह प्रायभिश्चत शा-त्र है, इसका नाम निनशिसत्तका भी ह ै । इसप्रकार अंगबाह्य श्रुत चौदह प्रकारका है ।

पूव�की उत्पभित्त पया%यसमय ज्ञानसे >गाकर पूव%ज्ञानपय�त बीस भेद हैं इनका निवशेष वण%न, श्रुतज्ञानका वण%न गोम्मटसार नामके ग्रन्थमें निव-तार पूव%क है, वहाँसे ानना ।।2।।

आगे कहते हैं निक ो सूत्रमें प्रवीण है, वह संसारका नाश करता है—*सुAं विह जाणमाणो, भवस्स भवणासणं च सो कुणदिद ।सूई जहा असुAा, णासदिद सुAे सहा णो विव ।।3।।सूते्र ज्ञार्यमानः भवस्र्य भवनाशनं च सः करोवित ।सूची र्यर्था असूत्रा नश्र्यवित सूते्रण सह नाविप ।।3।।

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सूत्रज्ञ जीव करे विवनष्ट भवो तणा उत्पादने;खोवार्य सोर्य असूत्र, सोर्य ससूत्र नविह खोवार्य छे; 3.

* सुत्तस्त्रिम्म । ==. सूत्रनिह पाठान्तर षट्पाहुO ।अथ% :— ो पुरुष सूत्रको ाननेवा>ा है, प्रवीण है वह संसारमें न्म होनेका नाश

करता है । ैसे >ोहकी सूई सूत्र (Oोरा) के निबना हो तो नष्ट हो ाय और Oोरा सनिहत हो तो नष्ट नहीं हो यह दृष्टांत है ।।3।।

भावाथ% :—सूत्रका ज्ञाता हो वह संसारका नाश करता है, ैसे सूई Oोरा सनिहत हो तो दृमिष्टगोचर होकर मिम> ावे, कभी भी नष्ट न हो और Oोरेके निबना हो तो दीkे नहीं, नष्ट हो ाय इस प्रकार ानना ।।3।।

आगे सूईके दृष्टांतका दाष्टा�त कहते हैं—पुरिरसो विव जो ससुAो, ण विवणासइ सो गओ विव संसारे ।सचे्चदणपच्चक्खं णासदिद तं सो उदिदस्समाणो विव ।।4।।पुरुषोऽविप र्यः ससूत्रः न विवनश्र्यवित स गतोऽविप संसारे ।सच्चेतनप्रत्र्यक्षेण नाशर्यवित त ंसः अदृश्र्यमानोऽविप ।।4।।

आत्मार्य तेम ससूत्र नविह खोवार्य, हो भवमां भले;अदृष्ट पण ते स्वानुभवप्रत्र्यक्षर्थी भवने हणे. 4.

अथ% :— ैसे सूत्रसनिहत सूई नष्ट नहीं होती है वैसे ही ो पुरुष भी संसार में गत हो रहा है, अपना रूप अपने दृमिष्टगोचर नहीं है तो भी सूत्रसनिहत हो (सूत्रका ज्ञाता हो) तो उसके आत्मा सत्तारूप चैतन्य चमत्कारमयी -वसंवेदनसे प्रत्यक्ष अनुभव में आती है, इसशि>ये गत नहीं है नष्ट नहीं हुआ है, वह जि स संसारमें गत है उस संसारका नाश करता है ।

भावाथ%:—यद्यनिप आत्मा इजिन्द्रयगोचर नहीं ह ै तो भी सूत्रक े ज्ञाताके -वसंवेदनप्रत्यक्षसे अनुभवगोचर है, वह सूत्रका ज्ञाता संसारका नाश करता है, आप प्रगट होता है, इसशि>ये सूईका दृष्टांत युक्त है ।।4।।

आगे सूत्रमें अथ% क्या है वह कहते हैं—सुAyं जिजणभशिणर्यं, जीवाजीवादिदबहुविवहं अyं ।हेर्याहेर्यं च तहा, जो जाणइ सो हु सदि�दिट्ठ ।।5।।सूत्रार्थm जिजनभशिणत ंजीवाजीवादिदबहुविवधमर्थ�म् ।हेर्याहेरं्य च तर्था र्यो जानवित स विह स�वृिष्टः ।।5।।

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जिजनसूत्रमां भाखेल जीव-अजीव आदिद पदार्थ�ने;हेर्यत्व-अणहेर्यत्व सह जाणे, सुदृविष्ट तेह छे. 5.

अथ% :—सूत्रका अथ% जि न सव%ज्ञ देवने कहा है और सूत्रका अथ% ीव-अ ीव आदिद बहुत प्रकारका है तथा हेय अथा%त् त्यागने योग्य पुद्ग>ादिदक और अहेय अथा%त् त्यागने योग्य नहीं इसप्रकार आत्माको ो ानता है वह प्रगट सम्यग्दृमिष्ट है ।

भावाथ% :—सव%ज्ञभानिषत सूत्रमें ीवादिदक नवपदाथ% और इनमें हेय उपादेय इसप्रकार बहुत प्रकारसे व्याख्यान है, उसको ानता है वह श्रद्धावान सम्यग्दृमिष्ट होता है ।।5।।

आग े कहत े ह ैं निक जि नभानिषत सूत्र व्यवहार—परमाथ%रूप दो प्रकार है, उसको ानकर योगीश्वर शुद्धभाव करके सुkको पाते हैं—

जं सुAं जिजणउAं, ववहारो तह र्य जाण परमyो ।तं जाशिणऊण जोई, लहइ सुहं खवइ मलपंुजं ।।6।।र्यत्सूतं्र जिजनो}ं व्यवहारं तर्था च ज्ञानीविह परमार्थ�म् ।त ंज्ञात्वा र्योगी लभते सुखं शिक्षपत ेमलपंुजं ।।6।।

जिजन-उ} छे जे सूत्र ते व्यवहार ने परमार्थ� छे;ते जाणी र्योगी सौख्र्यने पामे, दहे मळपुंजने. 6.

अथ% :— ो जि नभानिषत सूत्र है, वह व्यवहाररूप तथा परमाथ%रूप है, उसको योगीश्वर ानकर सुk पात े ह ैं और म>पुं अथा%त ् द्रव्यकम%, भावकम%, नोकम%का क्षेपण करते हैं ।

भावाथ% :—जि नसूत्रको व्यवहार—परमाथ%रूप ानकर योगीश्वर (मुनिन) कम�का नाश करके अनिवनाशी सुkरूप मोक्षको पाते हैं । परमाथ% (निनश्चय) और व्यवहार इनका संके्षप -वरूप इसप्रकार है—जि न-आगमकी व्याख्या चार अनुयोगरूप शा-त्रोंमें दो प्रकारसे शिसद्ध है, एक आगमरूप, दूसरी अध्यात्मरूप । वहा ँ सामान्य—निवशेषरूपसे सब पदाथ�का प्ररूपण करते हैं सो आगमरूप है, परन्तु हाँ एक आत्माहीके आश्रय निनरूपण करते हैं सो अध्यात्म है । अहेतुमत् और हेतुमत् ऐसे भी दो प्रकार हैं, वहा ँ सव%ज्ञकी आज्ञाहीके केव> प्रमाणता मानता अहेतुमत् है और प्रमाण—नयके द्वारा व-तुकी निनबा%ध शिसजिद्ध करके मानना सो हेतुमत् है । इसप्रकार दो प्रकार आगममें निनश्चयव्यवहारसे व्याख्यान है, वह कुछ शि>kनेमें आ रहा है ।

ब आगमरूप सब पदाथ�के व्याख्यान पर >गाते हैं तब तो व-तुका -वरूप सामान्य—निवशेषरूप अनन्त धम%-वरूप है वह ज्ञानगम्य है, इनमें सामान्यरूप तो निनश्चयनयका निवषय

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है और निवशेषरूप जि तने हैं उनको भेदरूप करके भिभन्न भिभन्न कहे वह व्यवहारनयका निवषय है, उसको द्रव्य—पया%य-वरूप भी कहत े ह ैं । जि स व-तुको निववभिक्षत करके शिसद्ध करना हो उसके द्रव्य, के्षत्र, का>, भावसे ो कुछ सामान्य—निवशेषरूप व-तुका सव%-व हो वह तो, निनश्चय—व्यवहारसे कहा है वैसे, शिसद्ध होता है और उस व-तुके कुछ अन्य व-तुके संयोगरूप ो अवस्था हो उसको उस व-तुरूप कहना भी व्यवहार है, इसको उपचार भी कहते ह ैं । उसका उदाहरण ऐसे है— ैसे एक निववभिक्षत घट नामक व-तु पर >गाव ें तब जि स घटका द्रव्य-के्षत्र-का>-भावरूप सामान्य-निवशेषरूप जि तना सव%-व ह ै उतना कहा, वैस े निनश्चय—व्यवहारसे कहना वह तो निनश्चय-व्यवहार ह ै और घटके कुछ अन्य व-तुका >ेप करके उस घटको उस नामसे कहना तथा अन्य पटादिदमें घटका आरोपण करके घट कहना भी व्यवहार है ।

व्यवहारके दो आश्रय हैं—एक प्रयो न, दूसरा निनमिमत्त । प्रयो न साधनेको निकसी व-तुको घट कहना वह तो प्रयो नाभिश्रत है और निकसी अन्य व-तुके निनमिमत्तसे घटमें अवस्था हुई उसको घट-वरूप कहना वह निनमिमत्ताभिश्रत ह ै । इसप्रकार निववभिक्षत सव% ीव-अ ीव व-तुओं पर >गाना । एक आत्माही को प्रधान करके >गाना अध्यात्म है । ीव सामान्यको भी आत्मा कहते ह ैं । ो ीव अपनेको सब ीवोंसे भिभन्न अनुभव करे उसको भी आत्मा कहते हैं । ब अपनेको सबसे भिभन्न अनुभव करके, अपने पर निनश्चय >गावे तब इसप्रकार ो आप अनादिद–अनंत अनिवनाशी सब अन्य द्रव्योंस े भिभन्न, एक सामान्य-निवशेषरूप, अनन्तधमा%त्मक, द्रव्य-पया%यत्मक ीव नामक शुद्ध व-तु है, वह कैसा है—

शुद्ध दश%नज्ञानमयी चेतना-वरूप असाधारण धम%को शि>य े हुए, अनन्त शशिक्तका धारक है, उसमें सामान्य भेद चेतना अनन्त शशिक्तका समूह द्रव्य है । अनन्तज्ञान—दश%न—सुk—वीय% ये चेतनाके निवशेष हैं वह तो गुण हैं और अगुरु->घु गुणके द्वारा षट्स्थानपनितत हानिन-वृजिद्धरूप परिरणमन करते हुए ीवके नित्रका>ात्मक अनन्त पया%यें हैं । इस प्रकार शुद्ध ीव नामक व-तुको सव%ज्ञने देkा, ैसा आगममें प्रशिसद्ध है, वह तो एक अभेदरूप शुद्ध निनश्चयनयका निवषयभूत ीव है, इस दृमिष्टसे अनुभव करे तब तो ऐसा है और अनन्य धम�में भेदरूप निकसी एक धम% को >ेकर कहना व्यवहार है ।

आत्मव-तुके अनादिदहीस े पुद्ग> कम%का संयोग है, इसके निनमिमत्तस े रागदे्वषरूप निवकारकी उत्पभित्त होती है, उसको निवभाव परिरणनित कहते हैं, इससे निफर आगामी कम%का बंध होता है । इसप्रकार अनादिद निनमिमत्त-नैमिमभित्तक भावके द्वारा चतुग%नितरूप संसारभ्रमणकी प्रवृभित्त होती है । जि स गनितको प्राप्त हो वैसा ही नामका ीव कह>ाता है तथा ैसा रागादिदक भाव हो वैसा नाम कह>ाता ह ै । ब द्रव्य-के्षत्र-का>-भावकी बाह्यअंतरंग सामग्रीके निनमिमत्तसे अपन े शुद्ध-वरूप शुद्धनिनश्चयनयके निवषय-वरूप अपनेको ानकर श्रद्धान कर े और कम% संयोगको तथा उसके निनमिमत्तसे अपने भाव होते हैं, उनका यथाथ% -वरूप ाने तब भेदज्ञान

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होता है, तब ही परभावोंसे निवरशिक्त होती है । निफर उनको दूर करनेका उपाय सव%ज्ञके आगमसे यथाथ% समझकर उसको अंगीकार करे तब अपने -वभावमें ण्डिस्थर होकर अनन्त चतुष्टय प्रगट होते हैं, सब कम�का क्षय करके >ोकशिशkर पर ाकर निवरा मान हो ाता है, तब मुक्त या शिसद्ध कह>ाता है ।

इसप्रकार जि तनी संसार की अवस्था और यह मुक्त अवस्था, इसप्रकार भेदरूप आत्माका निनरूपण है वह भी व्यवहार नयका निवषय है, इसको अध्यात्मशा-त्रमें अभूताथ%-असत्याथ% नामसे कहकर वण%न निकया है, क्योंनिक शुद्ध आत्मामें संयोग निनत अवस्था हो सो तो असत्याथ% ही है, कुछ शुद्ध व-तुका तो यह -वभाव नहीं है, इसशि>ये असत्य ही है । ो निनमिमत्तस े अवस्था हुई वह भी आत्माहीका परिरणाम है, ो आत्माका परिरणाम ह ै वह आत्माहीमें है, इसशि>ये कथंशिचत् इसको सत्य भी कहते हैं, परन्तु ब तक भेदज्ञान नहीं होता है तब तक ही यह दृमिष्ट है, भेदज्ञान होने पर ैसे है वैसे ही ानता है ।

ो द्रव्यरूप पुद्ग>कम% हैं वे आत्मा से भिभन्न ही हैं, उनसे शरीरादिदका संयोग है वह आत्मासे प्रगट ही भिभन्न है, इनको आत्माके कहते हैं सो यह व्यवहार प्रशिसद्ध है ही, इसको असत्याथ% या उपचार कहत े ह ैं । यहा ँ कम%के संयोग निनत भाव ह ैं व े सब निनमिमत्ताभिश्रत व्यवहारके निवषय हैं और उपदेश उपेक्षा इसको प्रयो नाभिश्रत भी कहते हैं, इसप्रकार निनश्चय-व्यवहारका संक्षेप है । सम्यग्दश%न-ज्ञान-चारिरत्रको मोक्षमाग% कहा, यहाँ ऐसे समझना निक ये तीनों एक आत्माहीके भाव हैं, इसप्रकार इनरूप आत्माहीका अनुभव हो सो निनश्चय मोक्षमाग% है, इसमें भी ब तक अनुभवकी साक्षात ् पूण%ता नहीं हो तब तक एकदेशरूप होता है, उसको कथंशिचत् सव%देशरूप कहकर कहना व्यवहार है और एकदेश नामसे कहना निनश्चय है ।

दश%न, ज्ञान, चारिरत्रको भेदरूप कहकर मोक्षमाग% कहे तथा इनके बाह्य परद्रव्यरूप द्रव्य, के्षत्र, का>, भाव निनमिमत्त हैं उनको दश%न, ज्ञान, चारिरत्रके नामसे कहे वह व्यवहार है । देव, गुरु, शा-त्रकी श्रद्धाको सम्यग्दश%न कहते हैं, ीवादिदक तत्त्वोंकी श्रद्धाको सम्यग्दश%न कहते ह ैं । शा-त्रके ज्ञान अथा%त ् ीवादिदक पदाथ�के ज्ञानको ज्ञान कहते ह ैं इत्यादिद । पाँच महाव्रत, पाँच समिमनित, तीन गुन्तिप्तरूप प्रवृभित्तको चारिरत्र कहते हैं । बारह प्रकारके तपको तप कहते हैं । ऐसे भेदरूप तथा परद्रव्यके आ>म्बनरूप प्रवृभित्तयाँ सब अध्यात्मशा-त्रकी अपेक्षा व्यवहारके नामसे कही ाती हैं; क्योंनिक व-तुके एकदेशको व-तु कहना भी व्यवहार है और परद्रव्यकी आ>म्बनरूप प्रवृभित्तको उस व-तुके नामसे कहना वह भी व्यवहार है ।

अध्यात्म शा-त्रम ें इस प्रकार भी वण%न ह ै निक व-त ु अनन्त धम%रूप है, इसशि>ये सामान्य-निवशेषरूपसे तथा द्रव्य-पया%यसे वण%न करत े ह ैं । द्रव्यमात्र कहना तथा पया%यमात्र कहना व्यवहारका निवषय ह ै । द्रव्यका भी तथा पया%यका भी निनषेध करके वचन-अगोचर कहना निनश्चयनयका निवषय है । ो द्रव्यरूप है वही पया%यरूप है, इसप्रकार दोनोंको ही प्रधान करके कहना प्रमाणका निवषय है, इसका उदाहरण इसप्रकार है— ैसे ीवको चैतन्यरूप,

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निनत्य, एक अस्ति-तरूप इत्यादिद अभेदमात्र कहना वह तो द्रव्यार्थिथंक नयका निवषय है और ज्ञान-दश%नरूप, अनिनत्य, अनेक नास्ति-तत्वरूप इत्यादिद भेदरूप कहना पया%यार्थिथंक नयका निवषय है । दोनों ही प्रकारकी प्रधानताका निनषेधमात्र वचनअगोचर कहना निनश्चय नयका निवषय है । दोनों ही प्रकारको प्रधान करके कहना प्रमाणका निवषय है, इत्यादिद ।

इसप्रकार निनश्चय-व्यवहारका सामान्य अथा%त् संक्षेप -वरूप है, उसको ानकर ैसे आगम-अध्यात्म शा-त्रोंम ें निवशेषरूपस े वण%न हो उसको सूक्ष्मदृमिष्टस े ानना । जि नमत अनेकांत-वरूप -याद्वाद है और नयोंके आभिश्रत कथन है । नयोंके परस्पर निवरोधको -याद्वाद दूर करता है, इसके निवरोधका तथा अनिवरोधका -वरूप अच्छी तरह ानना । यथाथ% तो गुरु-आम्नाय ही से होता है, परन्तु गुरुका निनमिमत्त इस का>में निवर> हो गया, इसचिलर्ये अपने ज्ञानका बल चले तब तक विवशेषरूपसे समझते ही रहना, कुछ ज्ञानका लेश पाकर उद्धत नहीं होना, वत�मान कालमें अल्पज्ञानी बहुत हैं, इसचिलर्ये उनसे कुछ अभ्र्यास करके उनमें महन्त बनकर उद्धत होने पर मद आ जाता है तब ज्ञान र्थविकत हो जाता है और निवशेष समझने की अभिभ>ाषा नहीं रहती है तब निवपरीत होकर यद्वातद्वा—मनमाना कहन े >ग ाता है, उससे अन्य ीवोंका श्रद्धान निवपरीत हो ाता है, तब अपने अपराधका प्रसंग आता है, इसचिलर्ये शास्त्रका समुद्र जानकर, अल्पज्ञरूप ही अपना भाव रखना जिजससे विवशेष समझनेकी अशिभलाषा बनी रहे, इससे ज्ञानकी वृजिद्ध होती है ।

अल्प ज्ञानिनयों में बैठकर महन्तबुजिद्ध रkे तब अपना प्राप्त ज्ञान भी नष्ट हो ाता है, इसप्रकार ानकर निनश्चय-व्यवहाररूप आगम की कथन पद्धनितको समझकर उसका श्रद्धान करके यथाशशिक्त आचरण करना । इस का>में गुरु संप्रदायके निबना महन्त नहीं बनना, जि न-आज्ञाका >ोप नहीं करना । कोई कहते हैं—हम तो परीक्षा करके जि नमतको मानेंगे वे वृथा वकते हैं—-वल्पबुजिद्धका ज्ञान परीक्षा करने के योग्य नहीं है । आज्ञाको प्रधान रkकरके बने जि तनी परीक्षा करनेमें दोष नहीं है, केव> परीक्षा ही को प्रधान रkनेमें जि नमतसे च्युत हो ाय तो बड़ा दोष आवे, इसशि>ये जि नकी अपने निहत-अनिहत पर दृमिष्ट ह ैं व े तो इसप्रकार ानौ, और जि नको अल्पज्ञानिनयोंमें महंत बनकर अपने मान, >ोभ, बOा़ई, निवषय-कषाय पुष्ट करने हों उनकी बात नहीं है, वे तो ैसे अपने निवषयकषाय पुष्ट होंगे वैसे ही करेंगे, उनको मोक्षमाग% का उपदेश नहीं >गता है, निवपरीतको निकसका उपदेश ? इसप्रकार ानना चानिहये ।।6।।

आगे कहते हैं निक ो सूत्रके अथ%—पदसे भ्रष्ट है, उसको मिमथ्यादृमिष्ट ानना—सुAyपर्यविवणट्ठो, मिमच्छादिदट्ठी हु सो मुणेर्यव्वो ।

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खे)े विव ण कार्यव्वं, पाशिण=पAं सचेलस्स ।।7।।सूत्रार्थ�पदविवनष्टः मिमथ्र्यादृविष्टः विह सः ज्ञातव्यः ।खेलेऽविप न कत�व्यं पाशिणपातं्र सचेलस्र्य ।।7।।

सूत्रार्थ�पदर्थी भ्रष्ट छे ते जीव मिमथ्र्यादृविष्ट छे;करपात्रभोजन रमतमांर्य न र्योग्र्य होर्य सचेलने. 7.

अथ% :—जि सके सूत्रका अथ% और पद निवनष्ट है वह प्रगट मिमथ्यादृमिष्ट है, इसीशि>ये ो सचे> है, व-त्ररनिहत ह ै उसको ‘kेO े निव’ अथा%त ् हा-य—कुतूह>में भी *पाभिणपात्र अथा%त् ह-तरूप पात्रसे आहार नहीं करना ।

*. पाभिणपात्रे पाठान्तरभावाथ% :—सूत्रमें मुनिनका रूप नग्न—दिदगम्बर कहा है । जि सके ऐसा सूत्रका अथ%

तथा अक्षररूप पद निवनष्ट ह ै और आप व-त्र धारण करके मुनिन कह>ाता है, वह जि न—आज्ञासे भ्रष्ट हुआ प्रगट मिमथ्यादृमिष्ट है, इसशि>ये व-त्र सनिहतको हा-यकुतूह>से भी पाभिणपात्र अथा%त ् ह-तरूप पात्रस े आहारदान नहीं करना तथा इसप्रकार भी अथ% होता ह ै निक ऐसे मिमथ्यादृमिष्टको पाभिणपात्र आहारदान >ेना योग्य नहीं है, ऐसा भेष हा-य—कुतूह>से भी धारण करना योग्य नहीं है, व-त्रसनिहत रहना और पाभिणपात्र भो न करना, इसप्रकारसे तो क्रीड़ामात्र भी नहीं करना ।।7।।

आगे कहते हैं निक जि नसूत्रसे भ्रष्ट हरिरहरादिदकके तुल्य हो तो भी मोक्ष नहीं पाता है—हरिरहरतुल्र्यो विव णरो सग्गं गचे्छइ एइ भवको)ी ।तह विव ण पावइ चिसणिद्धं संसारyो पुणो भशिणदो ।।8।।हरिरहरतुल्र्योऽविप नरः स्वगm गच्छवित एवित भवकोदिटः ।तर्थाविप न प्राप्नोवित चिसणिद्धं संसारस्थ पुनः भशिणतः ।।8।।

हरिरतुल्र्य हो पण स्वण� पामे, कोदिट कोदिट भवे भमे,पण चिसशिद्ध नव पामे, रहे संसारस्थिस्थत आगम कहे. 8.

अथ% :— ो मनुष्य सूत्रके अथ% पदसे भ्रष्ट है वह हरिर अथा%त् नारायण, हर अथा%त् रुद्र, इनके समान भी हो, अनेक ऋजिद्ध संयुक्त हो, तो भी शिसजिद्ध अथा%त् मोक्षको प्राप्त नहीं होता है । यदिद कदाशिचत् दान पू ादिदक करके पुhय उपा %न कर -वग% च>ा ावे तो भी वहाँसे चय कर, करोड़ों भव >ेकर संसार ही में रहता है,—इसप्रकार जि नागममें कहा है ।

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भावाथ% :—शे्वताम्बरादिदक इसप्रकार कहते हैं निक—गृहस्थ आदिद व-त्र सनिहतको भी मोक्ष होता है—इसप्रकार सूत्रमें कहा है । उसका इस गाथामें निनषेधका आशय है निक— ो हरिरहरादिदक बड़ी सामथ्य%के धारक भी हैं तो भी व-त्र सनिहत तो मोक्ष नहीं पाते हैं । श्वेताम्बरोंने सूत्र कण्डिल्पत बनाये हैं, उनमें यह शि>kा है सो प्रमाणभूत नहीं है; वे शे्वताम्बर जि नसूत्रके अथ%—पदसे च्युत हो गये हैं, ऐसा ानना चानिहये ।।8।।

आगे कहते हैं निक— ो जि नसूत्रसे च्युत हो गये हैं वे -वचं्छद होकर प्रवत%ते हैं, वे मिमथ्यादृमिष्ट हैं :—

उस्थिक्कट्ठसींहचरिरर्यं बहुपरिरर्यम्मो र्य गुरुर्यभारो र्य ।जो विवहरइ सचं्छदं, पावं गचं्छदिद होदिद मिमच्छAं ।।9।।उत्कृष्ट लिसंहचरिरतः बहुपरिरकमा� च गुरुभारश्च ।र्यः विवहरवित स्वचं्छदं पापं गच्छवित भववित मिमथ्र्यात्वम् ।।9।।

स्वचं्छद वतt तेह पामे पापने मिमथ्र्यात्वने,गुरुभारधर, उत्कृष्ट लिसंहचरिरत्र, बहुतपकर भले. 9.

अथ% :— ो मुनिन होकर उत्कृष्ट, लिसंहके समान निनभ%य हुआ आचरण करता है और बहुत परिरकम% अथा%त ् तपश्चरणादिद निक्रयानिवशेषोंस े युक्त ह ै तथा गुरुके भार अथा%त ् बड़ा पदस्थरूप है, संघ-नायक कह>ाता है, परन्तु जि नसूत्रमें च्युत होकर -वचं्छद प्रवत%ता है तो वह पाप ही को प्राप्त होता है और मिमथ्यात्वको प्राप्त होता है ।

भावाथ% :— ो धम%का नायकपना >ेकर-गुरु बनकर निनभ%य हो तपश्चरणादिदक से बड़ा कह>ाकर अपना संप्रदाय च>ाता है, जि नसूत्रमें च्युत होकर -वेच्छाचारी प्रवत%ता है तो वह पापी मिमथ्यादृमिष्ट ही है, उसका प्रसंग भी श्रेष्ठ नहीं है ।।9।।

आगे कहते हैं निक—जि नसूत्रमें ऐसा मोक्षमाग% कहा है—शिणच्चेलपाशिणपAं उवइटं्ठ परमजिजणवरिरं देहिहं ।एक्को विव मोक्खमग्गो, सेसा र्य अमग्गर्या सव्वे ।।10।।विनश्चेलपाशिणपातं्र उपदिदषं्ट परमजिजनवरेन्दै्रः ।एकोऽविप मोक्षमाग�ः शेषाश्च अमागा� सवtः ।।10।।

विनशे्चल-करपात्रत्व परमजिजनेन्द्रर्थी उपदिदष्ट छे;ते एक मुचि}माग� छे ने शेष सव� अमाग� छे. 10.

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अथ% :— ो निनशे्च> अथा%त ् व-त्ररनिहत दिदगम्बर मुद्रा-वरूप और पाभिणपात्र अथा%त् हाथरूपी पात्रमें kड़े kड़े आहार करना, इसप्रकार एक अनिद्वतीय मोक्षमाग% तीथ�कर परमदेव जि नेन्द्रने उपदेश दिदया है, इसके शिसवाय अन्य रीनित सब अमाग% हैं ।

भावाथ% :— ो मृगचम%, वृक्षके वल्कर, कपास पट्ट, दुकू>, रोमव-त्र, टाटके और तृणके व-त्र इत्यादिद रkकर अपनेको मोक्षमागN मानते हैं तथा इस का>में जि नसूत्रमें च्युत हो गये हैं, उन्होंने अपनी इच्छासे अनेक भेष च>ाये हैं, कई श्वेत व-त्र रkते हैं, कई रक्त व-त्र, कई पी>े व-त्र, कई टाटके व-त्र, कई घासके व-त्र और कई रोमके व-त्र आदिद रkते हैं, उनके मोक्षमाग% नहीं हैं; क्योंनिक जि नसूत्रम ें तो एक नग्न दिदगम्बर-वरूप पाभिणपात्र भो न करना इसप्रकार मोक्षमाग%म ें कहा है, अन्य सब भेष मोक्षमाग% नहीं है और ो मानते ह ैं वे मिमथ्यादृमिष्ट हैं ।।10।।

आगे दिदगम्बर मोक्षमाग%की प्रवृभित्त करते हैं :—जो संजमेसु सविहओ, आरंभपरिरग्गहेसु विवरओ विव ।सो होइ वंदणीओ, ससुरासुरमाणुसे लोए ।।11।।र्यः संर्यमेषु सविहतः आरंभपरिरग्रहेषु विवरतः अविप ।सः भववित वंदनीर्यः ससुरासुरमानुषे लोके ।।11।।

जे जीव संर्यमरु्य} ने आरंभपरिरग्रहविवरत छे,ते देव-दानव-मानवोना लोकत्रर्यमां वंद्य छे. 11.

अथ% :— ो दिदगम्बर मुद्राका धारक मुनिन इजिन्द्रय-मनको वशमें करना, छहकायके ीवोंकी दया करना, इसप्रकार संयम सनिहत हो और आरम्भ अथा%त् गृहस्थके सब आरम्भोंसे तथा बाह्य-अभ्यन्तर परिरग्रहसे निवरक्त हो, इनमें नहीं प्रवत� तथा ‘अनिप’ शब्दसे ब्रह्मचय% आदिद गुणोंस े युक्त हो वह देव-दानव सनिहत मनुष्य>ोकम ें वंदन े योग्य है, अन्य भेषी परिरग्रह-आरंभादिदसे युक्त पाkhOी (ढोंगी) वंदने योग्य नहीं है ।।11।।

आगे निफर उनकी प्रवृभित्तका निवशेष कहते हैं :—जे बावीसपरीषह, सहंवित सAीसएहिहं संजुAा ।ते होंवित* वंदणीर्या, कम्मक्खर्यशिणज्जरासाहू ।।12।।

* पाठान्तर–होंदिदर्ये द्वाहिवंशवितपरीषहान् सहंते शचि}शतैः संर्यु}ाः ।त ेभवंवित वंदनीर्याः कम�क्षर्यविनज�रासाधवः ।।12।।

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बावीश परिरषहने सहे छे, शचि}शतसंरु्य} जे,ते कम�क्षर्य ने विनज�रामां विनपुण मुविनओ वंद्य छे. 12.

अथ% :— ो साधु मुनिन अपनी शशिक्तके सैंकड़ोंसे युक्त होते हुए क्षुधा, तृषादिदक बाईस परीषहोंके सहते हैं और कम�की क्षयरूप निन %रा करनेमें प्रवीण हैं, वे साधु वंदने योग्य हैं ।

भावाथ% :— ो बड़ी शशिक्तके धारक साधु हैं वे परीषहोंको सहते हैं, परीषह आने पर अपने पदसे च्युत नहीं होते हैं उनके कम�की निन %रा होती हैं, वे वंदने योग्य हैं ।।12।।

आगे कहते हैं निक ो दिदगम्बरमुद्रा शिसवाय कोई व-त्र धारण करें, सम्यग्दश%नज्ञानसे युक्त हों, वे इच्छाकार करने योग्य हैं :—

अवसेसा जे लिलंगी, दंसणणाणेण सम्म संजुAा ।चेलेण र्य परिरगविहर्या, ते भशिणर्या इच्छशिणज्जा र्य ।।13।।अवशेषा र्ये लिलंविगनः दश�नज्ञानेन सम्र्यक् संर्यु}ा ।चेलेन च परिरगृहीताः त ेभशिणता इच्छाकारर्योग्र्याः ।।13।।

अवशेष लिलंगी जेह सम्र्यक् ज्ञान-दश�नरु्य} छे;ने वस्त्र धारे जेह, ते छे र्योग्र्य इच्छाकारने. 13.

अथ% :—दिदगम्बरमुद्रा शिसवाय ो अवशेष लि>ंगी भेष संयुक्त और सम्यक्त्व सनिहत दश%न—ज्ञान संयुक्त हैं तथा व-त्रसे परिरगृहीत हैं, व-त्र धारण करते हैं वे इच्छाकार करने योग्य हैं ।

भावाथ% :— ो सम्यग्दश%न—ज्ञान संयुक्त हैं और उत्कृष्ट श्रावकका भेष धारण करते हैं, एक व-त्र मात्र परिरग्रह रkते हैं वे इच्छाकार करने योग्य हैं, इसशि>ये ‘इच्छामिम’ इसप्रकार कहते हैं । इसका अथ% है निक—मैं आपको इचू्छ हँू, चाहता हँू, ऐसा ‘इच्छामिम’ शब्दका अथ% है । इसप्रकारसे इच्छाकार करना जि नसूत्रमें कहा है ।।13।।

आगे इच्छाकार योग्य श्रावकका -वरूप कहते हैं—इच्छार्यारमहyं सुAदिठओं जो हु छं)ए कम्मं ।ठाणे दिट्ठर्यसम्मAं परलोर्यसुहंकरो होदिद ।।14।।इच्छाकारमहार्थm सूत्रस्थिस्थतः र्यः सु्फटं त्र्यजवित कम� ।स्थान ेस्थिस्थतसम्र्यक्त्वः परलोकसुखंकरः भववित ।।14।।

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सूत्रस्थ सम्र्यग्दृविष्टरु्यत जे जीव छो)े कम�ने,‘इच्छामिम’ र्योग्र्य पदस्थ ते परलोकगत सुखने लहे. 14.

अथ% :— ो पुरुष जि नसूत्रमें नितष्ठता हुआ इच्छाकार शब्दके महान प्रधान अथ%को ानता है और स्थान ो श्रावकके भेदरूप प्रनितमाओंमें नितष्ठता हुआ सम्यक्त्व सनिहत वत%ता है, आरंभ आदिद कम�को छोड़ता है वह पर>ोकमें सुk करनेवा>ा होता है ।

भावाथ% :—उत्कृष्ट श्रावकको इच्छाकार करते हैं सो ो इच्छाकारके प्रधान अथ%को ानता है और सूत्र अनुसार सम्यक्त्वसनिहत आरंभादिदक छोड़कर उत्कृष्ट श्रावक होता है, वह पर>ोकमें -वग%का सुk पाता है ।।14।।

आगे कहते हैं निक— ो इच्छाकारके प्रधान अथ%को नहीं ानता और अन्य धम%का आचरण करता है, वह शिसजिद्धको नहीं पाता है :—

अह पुण अ=पा शिणच्छदिद, धम्माइं करेइ शिणरवसेसाइं ।तह विव ण पावदिद चिसणिद्धं, संसारyो पुणो भशिणदो ।।15।।अर्थ पुनः आत्मानं नेच्छवित धमा�न ्करोवित विनरवशेषान् ।तर्थाविप न प्राप्नोवित चिसणिद्धं संसारस्थः पुनः भशिणतः ।।15।।

पण आत्मने इच्छ्या विवना धमN अशेष करे भले,तोपण लहे नविह चिसशिद्धने, भवमां भमे—आगम कहे. 15.

अथ% :—‘अथ पुनः’ शब्दका ऐसा अथ% ह ै निक—पह>ी गाथाम ें कहा था निक ो इच्छाकारके प्रधान अथ%को ानता है वह आचरण करके -वग%सुk पाता है । वही अब निफर कहते हैं निक इच्छाकारका प्रधान अथ% आत्माको चाहना है, अपने -वरूपमें रुशिच करना है वह इसको ो इष्ट नहीं करता है और अन्य धम%के सम-त आचरण करता है तो भी शिसजिद्ध अथा%त् मोक्षको नहीं पाता है और उसको संसारमें ही रहनेवा>ा कहा है ।

भावाथ% :—इच्छाकारका प्रधान अथ% आपको चाहना है, सो जि सके अपने -वरूपकी रुशिचरूप सम्यक्त्व नहीं है, उसको सब मुनिन श्रावककी आचरणरूप प्रवृभित्त मोक्षका कारण नहीं है ।।15।।

आगे इस ही अथ%को दृढ़ करके उपदेश करते हैं :—एएण कारणेण र्य, तं अ=पा स�हेह वितविवहेण ।जेण र्य लहेह मोक्खं तं जाशिणज्जह पर्यAेण ।।16।।

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एतेन कारणेन च त ंआत्मानं श्रद्धA वित्रविवधेन ।र्येन च लभध्वं मोकं्ष त ंजानीत प्रर्यत्नेन ।।16।।

आ कारणे ते आत्मनी वित्रविवधे तमे श्रद्धा करो,ते आत्मने जाणो प्रर्यत्ने, मुचि}ने जेर्थी वरो. 16.

अथ% :—पनिह>े कहा निक ो आत्माको इष्ट नहीं करता है उसके शिसजिद्ध नहीं है, इस ही कारणसे हे भव्य ीवो ! तुम उस आत्माकी श्रद्धा करो, उसका श्रद्धान करो, मन-वचन-कायसे -वरूपमें रुशिच करो, इस कारणसे मोक्षको पाओ और जि ससे मोक्ष पात े ह ैं उसका प्रयत्न द्वारा सब प्रकारके उद्यम करके ानो । (भावपाहुO गा0 87 में भी यह बात है ।)

भावाथ% :—जि ससे मोक्ष पाते हैं उसहीको ानना, श्रद्धान करना यह प्रधान उपदेश है, अन्य आOम्बरसे क्या प्रयो न ? इसप्रकार ानना ।।16।।

आग े कहत े ह ैं निक ो जि नसूत्रको ाननेवा> े मुनिन हैं, उनका -वरूप निफर दृढ़ करनेको कहते हैं :—

बालग्गकोवि)मेAं, परिरगहगहणं ण होइ साहूणं ।भंुजेइ पाशिणपAे, दिदण्णण्णं इक्काठाणप्तिम्म ।।17।।बालाग्रकोदिटमातं्र परिरग्रहकारणं न भववित साधूनाम् ।भंुजीत पाशिणपाते्र दAमन्र्येन एकस्थाने ।।17।।

रे ! होर्य नविह बालाग्रनी अणीमात्र परिरग्रह साधुने;करपात्रमां परदA भोजन एक स्थान विवषे करे. 17.

अथ% :—बा>के अग्रभावकी कोदिट अथा%त ् अणी मात्र भी परिरग्रहका ग्रहण साधुके नहीं होता है । यहाँ आशंका है निक यदिद परिरग्रह कुछ नहीं है तो आहार कैसे करते हैं ? इसका समाधान करते हैं—आहार करते हैं सो पाभिणपात्र (करपात्र) अपने हाथ में भो न करते हैं, वह भी अन्यका दिदया हुआ प्रासुक अन्न मात्र >ेते हैं, वह भी एक स्थान पर ही >ेते हैं, बारंबार नहीं >ेते और अन्य स्थानमें नहीं >ेते हैं ।

भावाथ% :— ो मुनिन आहार ही परका दिदया हुआ प्रासुक योग्य अन्नमात्र निनद}ष एकबार दिदनमें अपने हाथमें >ेते हैं, तो अन्य परिरग्रह निकसशि>ये ग्रहण करें ? अथा%त् नहीं ग्रहण करें, जि नसूत्रमें इसप्रकार मुनिन कहे हैं ।।17।।

आगे कहते हैं निक अल्प परिरग्रह ग्रहण करे उसमें दोष क्या है ? उसको दोष दिदkाते हैं :—

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जहजार्यरूवसरिरसो, वितलतुसमेAं ण विगण्हदिद हyेसु ।जइ लेइ अ=पबहुर्यं, तAो पुण जाइ शिणग्गोदम् ।।18।।र्यर्थाजातरूपसदृशः वितलतुषमातं्र न गृह्णावित हस्तर्योः ।र्यदिद लावित अल्पबहुकं ततः पुनः र्यावित विनगोदम् ।।18।।

जन्म्र्या प्रमाणे रूप, तलतुषमात्र करमां नव ग्रहे,र्थो)ंु घणुं पण जो ग्रहे तो प्रा=त र्थार्य विनगोदने. 18.

अथ% :—मुनिन यथा ातरूप है, ैसे न्मता बा>क नग्नरूप होता है वैसे ही नग्नरूप दिदगम्बर मुद्राका धारक है, वह अपने हाथसे नित>के तुषमात्र भी कुछ ग्रहण नहीं करता; और यदिद कुछ थोड़ा-बहुत >ेवे, ग्रहण करे तो वह मुनिन ग्रहण करनेसे निनगोदमें ाता है ।

भावाथ% :—मुनिन यथा ातरूप दिदगम्बर निनग्र�थको कहते हैं । वह इसप्रकार होकरके भी कुछ परिरग्रह रk े तो ानो निक जि नसूत्रकी श्रद्धा नहीं है, मिमथ्यादृमिष्ट है; इसशि>ये मिमथ्यात्वका फ> निनगोद ही है । कदाशिचत् कुछ तपश्चरणादिदक करे तो उसमें शुभकम% बाँधकर -वगा%दिदक पावे, तो भी निफर एकेजिन्द्रय होकर संसारहीमें भ्रमण करता है ।

यहाँ प्रश्न है निक—मुनिनके शरीर है, आहार करता है, कमंO>ु पीछी पु-तक रkता है, यहाँ नित>-तुषमात्र भी रkना नहीं कहा, सो कैसे ?

इसका समाधान यह ह ै निक—मिमथ्यात्व सनिहत रागभावसे अपनाकर अपने निवषय-कषाय पुष्ट करनेके शि>ए रkे उसको परिरग्रह कहते हैं, इस निनमिमत्त कुछ थोड़ा—बहुत रkनेका निनषेध निकया है और केव> संयमके निनमिमत्तका तो सव%था निनषेध नहीं है । शरीर तो आयु पय%न्त छोड़ने पर भी छूटता नहीं है, इसका तो ममत्व ही छूटता है, सो उसीका निनषेध निकया ही है । ब तक शरीर ह ै तब तक आहार नहीं करे तो सामथ्य% ही नहीं हो, तब संयम नहीं सधे, इसशि>य े कुछ योग्य आहार निवमिधपूव%क शरीरस े रागरनिहत होत े हुए >ेकरके शरीरको kOा़ रkकर संयम साधते हैं ।

कमंO>ु बाह्य शौचका उपकरण है, यदिद नहीं रkे तो म>-मूत्रकी अशुशिचतासे पंच परमेष्ठीकी भशिक्त वंदना कैसे करे ? और >ोकहिनंद्य हो । पीछी दयाका उपकरण है, यदिद नहीं रkे तो ीवसनिहत भूमिम आदिदकी प्रनित>ेkना निकससे करे ? पु-तक ज्ञानका उपकरण है, यदिद नहीं रkे तो पठन-पाठन कैसे हो ? इन उपकरणोंका रkना भी ममत्वपूव%क नहीं है, इनसे रागभाव नहीं है । आहार-निवहार पठन-पाठनकी निक्रयायुक्त ब तक रहे तब तक केव>ज्ञान भी उत्पन्न नहीं होता है, इन सब निक्रयाओंको छोड़कर शरीरका भी सव%था ममत्व छोड़ ध्यान अवस्था >ेकर नितषे्ठ, अपने -वरूपमें >ीन हो तब तक परम निनग्र%न्थ अवस्था होती है, तब

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श्रेणीको प्राप्त हुए मुनिनरा के केव>ज्ञान उत्पन्न होता है, अन्य निक्रया सनिहत हो तब तक केव>ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है, इसप्रकार निनग्र�न्थपना मोक्षमाग% जि नसूत्रमें कहा है ।

शे्वताम्बर कहते ह ैं निक भवण्डिस्थनित पूरी होने पर सब अवस्थाओंमें केव>ज्ञान उत्पन्न होता है तो यह कहना मिमथ्या है, जि नसूत्रका यह वचन नहीं है, इन श्वेताम्बरोंने कण्डिल्पत सूत्र बनाये हैं उनमें शि>kा होगा । निफर यहाँ श्वेताम्बर कहते हैं निक ो तुमने कहा वह तो उत्सग%-माग% है, अपवाद-माग%म ें व-त्रादिदक उपकरण रkना कहा है, ैस े तुमन े धम}पकरण कहे वैसेही व-त्रादिदक भी धम}पकण हैं, ैसे कु्षधाकी बाधा आहारसे मिमटाकर संयम साधते हैं, वैस े ही शीत आदिदकी बाधा व-त्र आदिदसे मिमटाकर संयम साधत े हैं, इसमें निवशेष क्या ? इसको कहते हैं निक इसमें तो बOे दोष आते हैं । तथा कोई कहते हैं निक काम-निवकार उत्पन्न हो तब -त्री-सेवन करे तो इसमें क्या निवशेष ? इसशि>ये इसप्रकार कहना युक्त नहीं है ।

कु्षधाकी बाधा तो आहारसे मिमटाना युक्त है, आहारके निबना देह अशक्त हो ाता है तथा छूट ावे तो अपघातका दोष आता है; परन्तु शीत आदिदकी बाधा तो अल्प है यह तो ज्ञानाभ्यास आदिदके साधनसे ही मिमट ाती है । अपवादमाग% कहा वह तो जि समें मुनिनपद रहे ऐसी निक्रया करना तो अपवाद-माग% है, परन्तु जि स परिरग्रहसे तथा जि स निक्रयासे मुनिनपद भ्रष्ट होकर गृहस्थके समान हो ाव े वह तो अपवाद-माग% नहीं ह ै । दिदगम्बर मुद्रा धारण करके कमंO>ु-पीछी सनिहत आहार–निवहार–उपदेशादिदकम ें प्रवत� वह अपवाद–माग% ह ै और सब प्रवृभित्तको छोड़कर ध्यानस्थ हो शुद्धोपयोगमें >ीन हो ानेको उत्सग%–माग% कहा है । इसप्रकार मुनिनपद अपनेस े सधता न ानकर निकसशि>य े शिशशिथ>ाचारका पोषण करना ? मुनिनपदकी सामथ्य% न हो तो श्रावकधम%हीका पा>न करना, परम्परास े इसीस े शिसजिद्ध हो ावेगी । जि नसूत्रकी यथाथ% श्रद्धा रkनेसे शिसजिद्ध है, इसके निबना अन्य निक्रया सब ही संसारमाग% है, मोक्षमाग% नहीं है—इसप्रकार ानना ।।18।।

आगे इसहीका समथ%न करते हैं :—

जस्स परिरग्गहगहणं, अ=पं बहुरं्य च हवइ लिलंगस्स ।सो गरविहउ जिजणवर्यणे, परिरगहरविहओ शिणरार्यारो ।।19।।र्यस्र्य परिरग्रहग्रहणं अल्पं बहुकं च भववित लिलंगस्र्य ।स गह्य�ः जिजनवचने परिरग्रहरविहतः विनरागारः ।।19।।

रे ! होर्य बहु वा अल्प परिरग्रह साधुने जेना मते,ते हिनंद्य छे; जिजनवचनमां मुविन विनष्परिरग्रह होर्य छे. 19.

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अथ% :—जि सके मतमें लि>ंग ो भेष उसके परिरग्रहका अल्प तथा बहुत ग्रहण करना कहा है, वह मत तथा उसका श्रद्धावान पुरुष गर्विहंत है, हिनंदायोग्य है, क्योंनिक जि नवचनमें परिरग्रहरनिहत ही निनरागार है, निनद}ष मुनिन है, इसप्रकार कहा है ।

भावाथ% :—शे्वताम्बरादिदकके कण्डिल्पत सूत्रोंम ें भेषम ें अल्प—बहुत परिरग्रहका ग्रहण कहा है, वह शिसद्धान्त तथा उसके श्रद्धानी हिनंद्य हैं । जि नवचनमें परिरग्रहरनिहतको ही निनद}ष मुनिन कहा है ।।19।।

आगे कहते हैं निक जि नवचनमें ऐसा मुनिन वन्दने योग्य कहा है :—पंचमहव्वर्यजुAो, वितहिहं गुचिAहिहं जो स संजदो होई ।शिणग्गंर्थमोक्खमग्गो, सो होदिद हु वंदशिणज्जो र्य ।।20।।पंचमहाव्रतर्यु}ः वितसृशिभः गुप्ति=तशिभः र्यः स संर्यतो भववित ।विनग्रmर्थमोक्षमाग�ः स भववित विह वन्दनीर्यः च ।।20।।

त्रण गुप्ति=त, पंच महाव्रते जे रु्य}, संर्यत तेह छे;विनग्रmर्थ मुचि}माग� छे ते; ते खरेखर वंद्य छे. 20.

अथ% :— ो मुनिन पंच महाव्रत युक्त हो और तीन गुन्तिप्त संयुक्त हो वह संयत है, संयमवान है और निनग्र�थ मोक्षमाग% है तथा वह ही प्रगट निनश्चयसे वंदने योग्य है ।

भावाथ% :—अहिहंसा, सत्य, अ-तेय, ब्रह्मचय% और अनिपग्रह—इन पाँच महाव्रत सनिहत हो और मन, वचन, कायरूप तीन गुन्तिप्त सनिहत हो वह संयमी है, वह निनग्र�थ -वरूप है, वह ही वंदने योग्य है । ो कुछ अल्प–बहुत परिरग्रह रkे सो महाव्रती संयमी नहीं है, यह मोक्षमाग% नहीं है और गृहस्थके समान भी नहीं है ।।20।।

आगे कहते हैं निक पूव}क्त एक भेष तो मुनिनका कहा अब दूसरा भेष उत्कृष्ट श्रावकका इसप्रकार कहा है :—

दुइर्यं च उAं लिलंग, उस्थिक्कटं्ठ अवरसावर्याणं च ।शिभक्खं भमेइ पAे, समिमदीभासेण मोणेण ।।21।।विद्वतीर्यं चो}ं लिलंगं उत्कृषं्ट अवरश्रावकाणां च ।शिभक्षां भ्रमवित पाते्र समिमवितभाषर्या मौनेन ।।21।।

बीजंु कहंु्य छे लिलंग उAम श्रावकोनुं शासने;ते वाक्समिमवित वा मौनरु्य} सपात्र शिभक्षाटन करे. 21.

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अथ% :—निद्वतीय लि>ंग अथा%त् दूसरा भेष उत्कृष्ट श्रावक ो गृहस्थ नहीं है, इसप्रकार उत्कृष्ट श्रावकका कहा है वह उत्कृष्ट श्रावक ग्यारहवीं प्रनितमाका धारक है, वह भ्रमण करके भिभक्षा द्वारा भो न करे और पत्ते अथा%त् पात्रमें भो न करे तथा हाथमें करे और समिमनितरूप प्रवत%ता हुआ भाषासमिमनितरूप बो>े अथवा मौनसे रहे ।

भावाथ% :—एक तो मुनिनका यथा ातरूप कहा और दूसरा यह उत्कृष्ट श्रावकका कहा, वह ग्यारहवीं प्रनितमाका धारक उत्कृष्ट श्रावक है, वह एक व-त्र तथा कोपीन मात्र धारण करता है और भिभक्षा-भो न करता है, पात्र में भी भो न करता है, और करपात्रमें भी करता है, समिमनितरूप वचन भी कहता है अथवा मौन भी रहता है, इसप्रकार यह दूसरा भेष है ।।21।।

आगे तीसरा लि>ंग -त्रीका कहते हैं :—लिलंगं इyीणं हवदिद, भंुजइ हिपं)ं सुएर्यकालप्तिम्म ।अस्थिज्जर्य विव एक्कवyा, वyावरणेण भंुजेदिद ।।22।।लिलंगं स्त्रीणां भववित भंु}े हिपं)ं स्वेक काले ।आर्या� अविप एकवस्त्रा वस्त्रावरणेन भंु}े ।।22।।

छे लिलंग एक स्त्रीओ तणंु, एकाशनी ते होर्य छे;अर्या�र्य एक धरे वसन, वस्त्राकृता भोजन करे. 22.

अथ% :—स्त्रि-त्रयोंका लि>ंग इसप्रकार है—एक का>में भो न करे, बारबार भो न नहीं करे, आर्मियंका भी हो तो एक व-त्र धारण करे और भो न करते समय भी व-त्रके आवरण सनिहत करे, नग्न नहीं हो ।

भावाथ% :—-त्री आर्मियंका भी हो और क्षुण्डिल्>का भी हो; वे दोनों ही भो न तो दिदनमें एकबार ही करें, आर्मियंका हो वह एक व-त्र धारण निकये हुए ही भो न करे नग्न नहीं हो । इसप्रकार तीसरा -त्रीका लि>ंग है ।।22।।

आगे कहते हैं निक—व-त्र धारकके मोक्ष नहीं है, मोक्षमाग% नग्नपणा ही है :—ण विव चिसज्झदिद वyधरो, जिजणसासणे जइ विव होइ वितyर्यरो ।णग्गो विवमोक्खमग्गो, सेसा उम्मग्गर्या सव्वे ।।23।।

नाविप चिसध्र्यवित वस्त्रधरः जिजनशासने र्यद्यविप भववित तीर्थmकरः ।नग्नः विवमोक्षमाग�ः शेषा उन्माग�काः सवt ।।23।।

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नविह वस्त्रधर चिसशिद्ध लहे, ते होर्य तीर्थmकर भले;बस नग्न मुचि}माग� छे, बाकी बधा उन्माग� छे. 23.

अथ% :—जि नशासनम ें इसप्रकार कहा ह ै निक—व-त्रको धारण करनेवा>ा सीझता नहीं है, मोक्ष नहीं पाता है, यदिद तीथ�कर भी हो तो ब तक गृहस्थ रहे तब तक मोक्ष नहीं पाता है, दीक्षा >ेकर दिदगम्बररूप धारण करे तब मोक्ष पावे, क्योंनिक नग्नपना ही मोक्षमाग% है, शेष सब लि>ंग उन्माग% हैं ।

भावाथ% :—शे्वताम्बर आदिद व-त्रधारकके भी मोक्ष होना कहते हैं वह मिमथ्या है, यह जि नमत नहीं है ।।23।।

आगे, स्त्रि-त्रयोंको दीक्षा नहीं है, इसका कारण कहते हैं :—लिलंगप्तिम्म र्य इyीणं, र्थणंतरे णाविहकक्खदेसेसु ।भशिणओ सुहुमो काओ, तालिसं कह होइ पव्वज्जा ।।24।।लिलंगे च स्त्रीणां स्तनांतरे नाशिभकक्षदेशेषु ।भशिणतः सूक्ष्मः कार्यः तासां करं्थ भववित प्रव्रज्र्या ।।24।।

स्त्रीने स्तनोनी पास, कक्षे र्योविनमां, नाशिभ विवषे,बहु सूक्ष्म जीव कहेल छे; क्र्यम होर्य दीक्षा तेमने ? 24.

अथ% :—स्त्रि-त्रयोंके लि>ंग अथा%त ् योनिनमें, -तनांतर अथा%त ् दोनों कुचोंके मध्यप्रदेशमें तथा कक्ष अथा%त् दोनों कांkोमें, नाभिभमें सूक्ष्मकाय अथा%त् दृमिष्टके अगोचर ीव कहे हैं, अतः इसप्रकार स्त्रि-त्रयोंके *प्रव्रज्या अथा%त् दीक्षा कैसे हो ?

*पाठान्तर—प्रव्रज्या ।भावाथ% :—स्त्रि-त्रयोंके योनिन, -तन, कांk, नाभिभमें पंचेजिन्द्रय ीवोंकी उत्पभित्त निनरंतर

कही है, इनके महाव्रतरूप दीक्षा कैसे हो ? महाव्रत कहे हैं वह उपचारसे कहे हैं, परमाथ% से नहीं है, -त्री अपने सामथ्य%की हद्द को पहँुचकर व्रत धारण करती है, इस अपेक्षासे उपचारसे महाव्रत कहे हैं ।।24।।

1 पाठान्तर—पावया ।आगे कहते हैं निक यदिद -त्री भी दश%नसे शुद्ध हो तो पापरनिहत है, भ>ी है :—

जइ दंसणेण सुद्धा, उAा मग्गेण साविव संजुAा ।घोरं चरिरर्य चरिरAं, इyीसु ण पव्वर्या भशिणर्या ।।25।।

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र्यदिद दश�नेन शुद्धा उ}ा मागtण साविप संर्यु}ा ।घोरं चरिरत्वा चारिरतं्र स्त्रीषु न पापका भशिणता ।।25।।

जो होर्य दश�नशुद्ध तो तेनेर्य माग�र्युता कही;छो चरण घोर चरे छतां स्त्रीने नर्थी दीक्षा कही. 25.

अथ% :—स्त्रि-त्रयोंमें ो -त्री दश%न अथा%त् यथाथ% जि नमतकी श्रद्धासे शुद्ध है, वह भी माग%से संयुक्त कही गई है । ो घोर चारिरत्र, तीव्र तपश्चरणादिदक आचरणसे पापरनिहत होती है, इसशि>ये उसे पापयुक्त नहीं कहते हैं ।

भावाथ% :—स्त्रि-त्रयोंम ें ो -त्री सम्यक्त्व सनिहत हो और तपश्चरण कर े तो पापरनिहत होकर -वग%को प्राप्त हो, इसशि>ये प्रशंसा योग्य है, परन्तु -त्रीपया%यसे मोक्ष नहीं है ।।25।।

आगे कहते हैं निक स्त्रि-त्रयोंके ध्यानकी शिसजिद्ध भी नहीं है :—चिचAासोविह ण तेलिसं, दिढल्लं भावं तहा सहावेण ।विवज्जदिद मासा तेलिसं, इyीसु ण संकर्या झाणा ।।26।।चिचAाशोचिध न तेषा ंशिशचिर्थलः भावः तर्था स्वभावेन ।विवद्यत ेमासा तेषा ंस्त्रीषु न शंकर्या ध्र्यानम् ।।26।।

मनशुशिद्ध पूरी न नारीने, परिरणाम शिशचिर्थल स्वभावर्थी,वळी होर्य माचिसक धम�, स्त्रीने ध्र्यान नविह विनःशंकर्थी. 26.

अथ% :—उन स्त्रि-त्रयोंके शिचत्तकी शुद्धता नहीं है, वैसे ही -वभावहीसे उनके ढी>ा भाव है, शिशशिथ> परिरणाम ह ै और उनके मासा अथा%त ् मास–मासम ें रुमिधरका स्राव निवद्यमान है उसकी शंका रहती है, उसमें स्त्रि-त्रयोंके ध्यान नहीं है ।

भावाथ% :—ध्यान होता है वह शिचत्त शुद्ध हो, दृढ़ परिरणाम हो निकसी तरहकी शंका न हो तब होता है, सो स्त्रि-त्रयोंके तीनों ही कारण नहीं ह ै तब ध्यान कैसे हो ? ध्यानके निबना केव>ज्ञान कैसे उत्पन्न हो और केव>ज्ञानके निबना मोक्ष नहीं है, शे्वताम्बरादिदक मोक्ष कहते हैं, वह मिमथ्या है ।।26।।

आगे सूत्रपाहुड़को समाप्त करते हैं, सामान्यरूपसे सुkका कारण कहते हैं :—गाहेण अ=पगाहा, समु�सचिलले सचेलअyेण ।इच्छा जाहु शिणर्यAा, ताह शिणर्यAाइं सव्वदुक्खाइं ।।27।।

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ग्राह्येण अल्पग्राह्याः समुद्रसचिलले स्वचेलार्थtन ।इच्छा र्येभ्र्यः विनवृAाः तेषां विनवृAाविन सव�दुःखाविन ।।27।।

पटशुशिद्धमात्र समुद्रजलवत् ग्राह्य पण अल्प ज ग्रहे,इच्छा विनवत² जेमने, दुख सौ विनवत्र्याm तेमने. 27.

अथ% :— ो मुनिन ग्राह्य अथा%त ् ग्रहण करन े योग्य व-त ु आहार आदिदकस े तो अल्पग्राह्य हैं, थोOा ग्रहण करते हैं, ैसे कोई पुरुष बहुत >से भरे हुए समुद्रमेंसे अपने व-त्रको धोनेके शि>ये व-त्र धोनेमात्र > ग्रहण करता है, और जि न मुनिनयोंकी इच्छा निनवृत्त हो गई उनके सब दुःk निनवृत्त हो गये ।

भावाथ% :— गतमें यह प्रशिसद्ध है निक जि नके संतोष है वे सुkी हैं, इस न्यायसे यह शिसद्ध हुआ निक जि न मुनिनयोंके इच्छाकी निनवृभित्त हो गई है, उनके संसारके निवषयसंबंधी इच्छा हिकंशिचत् मात्र भी नहीं है, देहसे भी निवरक्त हैं, इसशि>ये परम संतोषी है, और आहारादिद कुछ ग्रहण योग्य हैं उनमेंसे भी अल्पको ग्रहण करते हैं, इसशि>ये वे परम संतोषी हैं, वे परम सुkी हैं, यह जि नसूत्रके श्रद्धानका फ> है, अन्य सूत्रमें यथाथ% निनवृभित्तका प्ररूपण नहीं है, इसशि>ये कल्याणके सुkको चाहनेवा>ोंको जि नसूत्रका निनरंतर सेवन करना योग्य है ।।27।।

ऐसे सूत्रपाहुOको पूण% निकया ।जिजनवरकी ध्वविन मेघध्वविनसम मुखतैं गरजे,गणधरके शु्रवित भूमिम वरविष अक्षर पद सरजै;सकल तत्त्व परकाल करै जगताप विनवारै,हेर्य अहेर्य विवधान लोक नीकै मन धारै ।

विवचिध पुण्र्यपाप अरु लोककी मुविन श्रावक आचरन फुविन ।करिर स्व-पर भेद विनण�र्य सकल, कम� नाश शिशव लहत मुविन ।।1।।

(दोहा)वद्ध�मान जिजनके वचन वरतैं पंचमकाल ।भव्य पाप शिशवमग लहै नमूं तास गुणमाल ।।2।।

इनित पं0 यचन्द्र छावड़ा कृत देशभाषावचनिनकाके निहन्दी अनुवाद सनिहत श्रीकुन्दकुन्द-वामिम निवरशिचत सूत्रपाहुO समाप्त ।।2।।

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चारिरत्रपाहुड़3

(दोहा)वीतराग सव�ज्ञ जिजन वंदंू मन वच कार्य ।चारिरत धम� बखाविनर्यो सांचो मोक्ष उपार्य ।।1।।कुन्दकुन्दमुविनराजकृत चारिरतपाहुड़ ग्रन्थ ।प्राकृत गार्थाबंधकी करंू वचविनका पंर्थ ।।2।।

इसप्रकार मंग>पूव%क प्रनितज्ञा करके अब चारिरत्रपाहुड़ प्राकृत गाथाबद्धकी देशभाषामय वचनिनका का निहन्दी अनुवाद शि>kा ाता है । श्री कुन्दकुन्द आचाय% प्रथम ही मंग>के शि>ए इष्टदेवको नम-कार करके चारिरत्रपाहुड़को कहनेकी प्रनितज्ञा करते हैं :—

सव्वण्हु सव्वदंसी शिणम्मोहा वीर्यरार्य परमेट्ठी ।वंदिदAु वितजगवंदा अरहंता भव्यजीवेहिहं ।।1।।णाणं दंसण सम्मं चारिरAं सोविहकारणं तेलिसं ।मोक्खाराहणहेउं चारिरAं पाहु)ं वोचे्छ ।।2।। र्युग्मम् ।सव�ज्ञान सव�दर्शिशनंः विनमNहान् वीतरागान् परमेविष्ठनः ।वंदिदत्वा वित्रजगदं्वदिदतान् अह�तः भव्यजीवैः ।।1।।ज्ञान ंदश�नं सम्र्यक् चारिरतं्र शुशिद्धकारणं तेषाम् ।मोक्षाराधनहेतुं चारिरतं्र प्राभृतं वक्ष्र्ये ।।2।। र्युग्मम् ।

सव�ज्ञ छे, परमेष्ठी छे, विनमNह ने वीतराग छे,ते वित्रजगवंदिदत भव्यपूजिजत अह�तोने वंदीने; 1.भाखीश हंु चारिरत्रप्राभृत मोक्षने आराधवा,जे हेतु छे सुज्ञान-दृग-चारिरत्र केरी शुशिद्धमां. 2.

अथ% :—आचाय% कहते हैं निक मैं अरहंत परमेष्ठीको नम-कार करके चारिरत्रपाहुड़को कहूँगा । अरहंत परमेष्ठी कैसे ह ैं ? अरहंत ऐसे प्राकृत अक्षरकी अपेक्षा तो ऐसा अथ% है—अकार आदिद अक्षरसे तो अरिर अथा%त ् मोहकम%, रकार आदिद अक्षरकी अपेक्षा र अथा%त् ज्ञानावरण दश%नावरण कम%, उस ही रकारसे रह-य अथा%त ् अंतराय कम%—इसप्रकारसे चार

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घानितया कम�को हनना—घातना जि नके हुआ वे अरहन्त हैं । सं-कृतकी अपेक्षा ‘अह%’ ऐसा पू ा अथ%में धातु है, उससे ‘अह%न्’ ऐसा निनष्पन्न हो तब पू ा योग्य हो उसको अह%त् कहते हैं, वह भव्य ीवोंसे पूज्य है । परमेष्ठी कहनेसे परम इष्ट अथा%त् उत्कृष्ट पूज्य हो उसे परमेष्ठी कहत े ह ैं अथवा परम ो उत्कृष्ट पदम ें नितष्ठ े वह परमेष्ठी ह ै । इसप्रकार इन्द्रादिदकसे पूज्य अरहन्त परमेष्ठी हैं ।

सव%ज्ञ हैं, सब >ोका>ोक-वरूप चराचर पदाथ�को प्रत्यक्ष ान े वह सव%ज्ञ ह ै । सव%दशN अथा%त ् सब पदाथ�को देkनेवा> े ह ैं । निनम}ह हैं, मोहनीय नामके कम%की प्रधान प्रकृनित मिमथ्यात्व है उससे रनिहत हैं । वीतराग हैं, जि नके निवशेषरूपसे राग दूर हो गया हो सो वीतराग हैं, उनके चारिरत्र मोहनीय कम%के उदयसे (–उदयवश) हो, ऐसा रागदे्वष भी नहीं है । नित्र गदं्वद्य हैं, तीन गतके प्राणी तथा उनके -वामी इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्वितंयोंसे वंदने योग्य हैं । इसप्रकारसे अरहन्त पदको निवशेष्य करके और अन्य पदोंको निवशेषण करके अथ% निकया है । सव%ज्ञ पदको निवशेष्य करके अन्य पदोंको निवशेषण करने पर इसप्रकार भी अथ% होता है, परन्तु वहाँ अरहन्त भव्य ीवोंसे पूज्य हैं, इसप्रकार निवशेषण होता है ।

चारिरत्र कैसा है ? सम्यग्दश%न, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारिरत्र ये तीन आत्माके परिरणाम हैं, उनके शुद्धताका कारण है, चारिरत्र अंगीकार करने पर सम्यग्दश%नादिद परिरणाम निनद}ष होता है । चारिरत्र मोक्षके आराधनका कारण है,—इसप्रकार चारिरत्रके पाहुड़ (प्राभृत) ग्रंथको कहँूगा, इसप्रकार आचाय%ने मंग>पूव%क प्रनितज्ञा की है ।।1—2।।

आगे सम्यग्दश%नादिद तीन भावोंका -वरूप कहते हैं :—जं जाणइ तं णाणं, जं पेच्छइ तं च दंसणं भशिणरं्य ।णाणस्स विपस्थिच्छर्यस्स र्य, समवण्णा होइ चारिरAं ।।3।।र्यज्जानावित तत ्ज्ञान ंर्यत ्पश्र्यवित तच्च दश�न ंभशिणतम् ।ज्ञानस्र्य दश�नस्र्य च समापन्नात् भववित चारिरत्रम् ।।3।।

जे जाणतुं ते ज्ञान, देखे तेह दश�न उ} छे;ने ज्ञान-दश�नना समार्योगे सुचारिरत होर्य छे. 3.

अर्थ� :— ो ानता है वह ज्ञान है, ो देkता है वह दश%न है ऐसे कहा है । ज्ञान और दश%नके समायोगसे चारिरत्र होता है ।

भावार्थ� :— ाने वह तो ज्ञान और देkे, श्रद्धान हो वह दश%न तथा दोनों एकरूप होकर ण्डिस्थर होना चारिरत्र है ।।3।।

आगे कहते हैं निक ो तीन भाव ीवके हैं, उनकी शुद्धताके शि>ये चारिरत्र दो प्रकारका कहा है :—

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एए वितस्थिण्ण विव भावा, हवंवित जीवस्स अक्खर्यामेर्या ।वितण्हं विप सोहणyे, जिजणभशिणरं्य दुविवह चारिरAं ।।4।।एत ेत्रर्यो)विप भावाः भवंवित जीवस्र्य अक्षर्याः अमेर्याः ।त्रर्याणामविप शोधनार्थm जिजनभशिणत ंविद्वविवधं चारिरतं्र ।।4।।

आ भाव त्रण आत्मा तणा अविवनाश तेम अमेर्य छे;ए भावत्रर्यनी शुशिद्ध अर्थt विद्वविवध चरण जिजनो} छे. 4.

अथ% :—ये ज्ञान आदिदक तीन भाव कहे, ये अक्षय और अनन्त ीवके भाव हैं, इनको शोधनेके शि>ये जि नदेवने दो प्रकारका चारिरत्र कहा है ।

भावाथ% :— ानना, देkना और आचरण करना ये तीन भाव ीवके अक्षयानंत हैं, अक्षय अथा%त ् जि सका नाश नहीं है, अमेय अथा%त ् अनन्त जि सका पार नहीं है, सब >ोका>ोकको ाननेवा>ा ज्ञान है, इसप्रकार ही दश%न है, इसप्रकार ही चारिरत्र ह ै तथानिप घानितकम%के निनमिमत्तसे अशुद्ध हैं, ो ज्ञान-दश%न-चारिरत्ररूप हैं; इसशि>ये श्री जि नदेवने इनको शुद्ध करनेके शि>ये इनका चारिरत्र (आचरण करना) दो प्रकारका कहा है ।।4।।

आगे दो प्रकारका कहा सो कहते हैं :—जिजणणाणदिददिट्ठसुदं्ध, पढमं सम्मAचरणचारिरAं ।विवदिदर्यं संजमचरणं जिजणणाणसदेचिसर्यं तं विप ।।5।।जिजनज्ञानदृविष्टशुदं्ध प्रर्थमं सम्र्यक्त्वचरणचारिरत्रम् ।विद्वतीर्यं संर्यमचरणं जिजनज्ञानसंदेशिशत ंतदविप ।।5।।

सम्र्यक्त्वचरण छे प्रर्थम, जिजनज्ञानदश�नशुद्ध जे,बीजंु चरिरत संर्यमचरण, जिजनज्ञानभाविषत तेर्य छे. 5.

अथ% :—प्रथम तो सम्यक्त्वका आचरण-वरूप चारिरत्र है, वह जि नदेवके ज्ञान-दश%न-श्रद्धानसे निकया हुआ शुद्ध है । दूसरा संयमका आचरण-वरूप चारिरत्र है, वह भी जि नदेवके ज्ञानसे दिदkाया हुआ शुद्ध है ।

भावाथ% :—चारिरत्रको दो प्रकारका कहा है । प्रथम तो सम्यक्त्वका आचरण कहा वह ो आगमम ें तत्त्वाथ%का -वरूप कहा, उसको यथाथ% ानकर श्रद्धान करना और उसके शंकादिद अनितचार म> दोष कहे, उनका परिरहार करके शुद्ध करना तथा उसके निनःशंनिकतादिद गुणोंका प्रगट होना वह सम्यक्त्वचरण चारिरत्र ह ै और ो महाव्रत आदिद अंगीकार करके

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सव%ज्ञके आगममें कहा वैसे संयमका आचरण करना, और उसके अनितचार आदिद दोषोंको दूर करना, संयमचरण चारिरत्र है, इसप्रकार संक्षेपसे -वरूप कहा ।।5।।

आगे सम्यक्त्वचरण चारिरत्रके म> दोषोंका परिरहार करके आचरण करना कहते ह ैं :—

एवं चिचर्य णाऊण र्य, सव्वे मिमच्छAदोस संकाइ ।परिरहर सम्मAमला, जिजणभशिणर्या वितविवहजोएण ।।6।।एवं चैव ज्ञात्वा च सवा�न ्मिमथ्र्यात्वदोषान् शंकादीन् ।परिरहर सम्र्यक्त्वमलान् जिजनभशिणतान ्वित्रविवधर्योगेन ।।6।।

इम जाणीने छो)ो वित्रविवध र्योगे सकळ शंकादिदने,मिमथ्र्यात्वमर्य दोषो तर्था सम्र्यक्त्वमळ जिजन-उ}ने. 6.

अथ% :—ऐस े पूव}क्त प्रकार सम्यक्त्वाचरण चारिरत्रको ानकर मिमथ्यात्व कम%के उदयसे हुए शंकादिदक दोष सम्यक्त्वको अशुद्ध करनेवा> े म> ह ैं ऐसा जि नदेवन े कहा है, इनको मन, वचन, कायके तीनों योगोंसे छोड़ना ।

भावाथ% :—सम्यक्त्वाचरण चारिरत्र, शंकादिद दोष सम्यक्त्वके म> हैं, उनको त्यागने पर शुद्ध होता है, इसशि>ये इनको त्याग करनेका उपदेश जि नदेवने निकया है । वे दोष क्या हैं वह कहते हैं—जि नवचनमें व-तुका -वरूप कहा उसमें संशय करना शंका दोष है; इसके होने पर सप्तभयके निनमिमत्तसे -वरूपसे शिचग ाय वह भी शंका है । भोगोंकी अभिभ>ाषा कांक्षा दोष है, इसके होने पर भोगोंके शि>ए -वरूपसे भ्रष्ट हो ाता है । व-तुके -वरूप अथा%त् धम%में ग्>ानिन करना ुगुप्सा दोष है, इसके होन े पर धमा%त्मा पुरुषोंके पूव%कम%के उदयस े बाह्य मशि>नता देkकर मतसे शिचग ाना होता है ।

देव—गुरु—धम% तथा >ौनिकक काय�में मूढ़ता अथा%त् यथाथ% -वरूपको न ानना सो मूढ़दृमिष्टदोष है, इसके होन े पर अन्य >ौनिकक नोंसे मान े हुए सरागी देव, हिहंसाधम% और सग्रन्थगुरु तथा >ोगोंके निबना निवचार निकये ही मानी हुई अनेक निक्रयानिवशेषोंसे निवभवादिदककी प्रान्तिप्तके शि>ये प्रवृभित्त करनेसे यथाथ% मतसे भ्रष्ट हो ाता है । धमा%त्मा पुरुषोंमें कम%के उदयसे कुछ दोष उत्पन्न हुआ देkकर उनकी अवज्ञा करना सो अनुपगूहन दोष है, इसके होने पर धम%स े छूट ाना होता ह ै । धमा%त्मा पुरुषोंको कम%के उदयके वशसे धम%स े शिचगत े देkकर उनकी ण्डिस्थरता न करनी सो अण्डिस्थनितकरण दोष है, इसके होने पर ज्ञात होता है निक इसको धम%से अनुराग नहीं है और अनुरागका न होना सम्यक्त्वमें दोष है ।

धमा%त्मा पुरुषोंस े निवशेष प्रीनित न करना अवात्सल्य दोष है, इसके होन े पर सम्यक्त्वका अभाव प्रगट सूशिचत होता है । धम%का माहात्म्य शशिक्तके अनुसार प्रगट न करना

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अप्रभावना दोष है, इसके होने पर ज्ञात होता है निक इसके धम%के माहात्म्यकी श्रद्धा प्रगट नहीं हुई है ।—इसप्रकार ये आठ दोष सम्यक्त्वके मिमथ्यात्वके उदयसे (उदयके वश होनेसे) होते हैं, हाँ ये तीव्र हों वहाँ तो मिमथ्यात्वप्रकृनितका उदय बताते हैं, सम्यक्त्वका अभाव बताते हैं और हाँ कुछ मन्द अनितचाररूप हों तो सम्यक्त्व-प्रकृनित नामक मिमथ्यात्वकी प्रकृनितके उदयसे हों वे अनितचार कह>ाते हैं, वहाँ क्षायोपशमिमक सम्यक्त्वका सद्भाव होता है; परमाथ%से निवचार करें तो अनितचार त्यागने ही योग्य हैं ।

इन दोषोंके होने पर अन्य भी म> प्रगट होते हैं, वे तीन मूढ़ताए ँहैं—1 देवमूढ़ता, 2 पाkhOमूढ़ता, 3 >ोकमूढ़ता । निकसी वरकी इच्छासे सरागी देवोंकी उपासना करना उनकी पाषाणादिदमें स्थापना करके पू ना देवमूढ़ता ह ै । ढ़ोंगी गुरुओंमें मूढ़ता—परिरग्रह, आरंभ, हिहंसादिद सनिहत पाkhOी (ढ़ोंगी) भेषधारिरयोंका सत्कार, पुर-कार करना पाखण्)ी—मूढ़ता है । लोकमूढ़ता—अन्य मतवा>ोंके उपदेशसे तथा -वयं ही निबना निवचारे कुछ प्रवृभित्त करने >ग ाय वह >ोकमूढ़ता है, ैसे सूय% को अघ% देना, ग्रहणमें -नान करना, संक्रांनितमें दान करना, अखिग्नका सत्कार करना, देह>ी, घर, कुआ पू ना, गायकी पंूछको नम-कार करना, गायके मूत्रको पीना, रत्न, घोOा आदिद वाहन, पृथ्वी, वृक्ष, श-त्र, पव%त आदिदककी सेवा—पू ा करना, नदी—समुद्रको तीथ% मानकर उनमें -नान करना, पव%तसे निगरना, अखिग्नमें प्रवेश करना इत्यादिद ानना ।

छह अनायतन हैं—कुदेव, कुगुरु, कुशा-त्र और इनके भक्त—ऐसे छह हैं, इनको धम%के स्थान ानकर इनकी मनस े प्रशंसा करना, वचनस े सराहना करना, कायस े वंदना करना । ये धम%के स्थान नहीं हैं, इसशि>ये इनको अनायतन कहते ह ैं । ानित, >ाभ, कु>, रूप, तप, ब>, निवद्या, ऐश्वय% इनका गव% करना आठ मद ह ैं । ानित मातापक्ष है, >ाभ धनादिदक कम%के उदयके आश्रय है, कु> निपतापक्ष है, रूप कम}दयाभिश्रत है, तप अपने -वरूपको साधनेका साधन है, ब> कम}दयाभिश्रत है, निवद्या कम%के क्षयोपशमाभिश्रत है, ऐश्वय% कम}दयाभिश्रत है, इनका गव% क्या ? परद्रव्यके निनमिमत्तसे होनेवा>ेका गव% करना सम्यक्त्वका अभाव बताता है अथवा मशि>नता करता है । इसप्रकार ये पच्चीस, सम्यक्त्वके म> दोष हैं, इनका त्याग करने पर सम्यक्त्व शुद्ध होता है, वही सम्यक्त्वाचरण चारिरत्रका अंग है ।।6।।

आगे शंकादिद दोष दूर होने पर सम्यक्त्वके आठ अंग प्रगट होते हैं, उनको कहते हैं :—

शिणस्संविकर्य शिणक्कंखिखर्य शिणप्तिव्वदिदहिगंछा अमूढ़दिदट्ठी र्य ।उवगूहण दिठदिदकरणं वच्छल्ल पहावणा र्य ते अट्ठ ।।7।।विनःशंविकत,ं विनःकाशिक्षतं, विनर्विवंचिचविकत्सा, अमूढदृष्टी च ।उपगूहनं स्थिस्थवितकरणं वात्सल्र्यं प्रभावना च त ेअष्टौ ।।7।।

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विनःशंकता, विनःकांक्ष, विनर्विवचंिचविकत्स, अविवमूढत्व नेउपगूहन, चिर्थवित, वात्सल्र्यभाव, प्रभावना-गुण अष्ट छे. 7.

अथ% :—निनःशंनिकत, निनःकांभिक्षत, निनर्विवंशिचनिकत्सा, अमूढदृमिष्ट, उपगूहन, ण्डिस्थनितकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ अंग हैं ।

भावाथ% :—ये आठ अंग पनिह> े कह े हुए शंकादिद दोषोके अभावसे प्रगट होत े हैं, इनके उदाहरण पुराणोंमें हैं उनकी कथासे ानना । निनःशंनिकतका अं न चोरका उदाहरण है, जि सन े जि नवचनम ें शंका न की, निनभ%य हो छीकेकी >ड़ काट करके मंत्र शिसद्ध निकया । निनःकांभिक्षतका सीता, अनंतमती, सुतारा आदिदका उदाहरण है, जि न्होंने भोगोंके शि>ये धम%को नहीं छोड़ा । निनर्विवंशिचनिकत्साका उद्दायन रा ा का उदाहरण है, जि सने मुनिनका शरीर अपनिवत्र देkकर भी ग्>ानिन नहीं की । अमूढ़दृमिष्टका रेवतीरानीका उदाहरण है, जि सको निवद्याधरने अनेक मनिहमा दिदkाई तो भी श्रद्धानसे शिशशिथ> नहीं हुई ।

उपगूहन का जि नेन्द्रभक्त सेठका उदाहरण है, जि स चोरने, ब्रह्मचारीका भेष बना करके छत्रकी चोरी की, उसको ब्रह्मचय%पदकी हिनंदा होती ानकर उसके दोषको शिछपाया । ण्डिस्थतकरणका वारिरषेणका उदाहरण है, जि सने पुष्पदंत ब्राह्मणको मुनिनपदसे शिशशिथ> हुआ ानकर दृढ़ निकया । वात्सल्यका निवष्णुकुमारका उदाहरण है, जि नने अकंपन आदिद मुनिनयोंका उपसग% निनवारण निकया । प्रभावनाम ें वज्रकुमार मुनिनका उदाहरण है, जि सन े निवद्याधरसे सहायता पाकर धम%की प्रभावना की । ऐसे आठ अंग प्रगट होने पर सम्यक्त्वाचरण चारिरत्र होता है, ैसे शरीरमें हाथ पैर होते हैं वैसे ही ये सम्यक्त्वके अङ्ग हैं । ये न हों तो निवक>ांग होता है ।।7।।

आगे कहते हैं निक इसप्रकार पनिह>ा सम्यक्त्वाचरण चारिरत्र होता है :—तं चेव गुणविवसुदं्ध जिजणसम्मAं सुमुक्खठाणाए ।जं चरइ णाणजुAं पढ़मं सम्मAचरणचारिरAं ।।8।।तच्चैव गुणविवशुदं्ध जिजनसम्र्यक्त्वं सुमोक्षस्थानार्य ।तत ्चरवित ज्ञानर्यु}ं प्रर्थमं सम्र्यक्त्वचरणचारिरत्रम् ।।8।।

ते अष्टगुणसुविवशुद्ध जिजनसम्र्यक्त्वने शिशवहेतुनेआचरवुं ज्ञान समेत, ते सम्र्यक्त्वचरण चरिरत्र छे. 8.

अथ% :—वह जि नसम्यक्त्व अथा%त् अरहंत जि नदेवकी श्रद्धा निनःशंनिकत आदिद गुणोंसे निवशुद्ध हो, उसका यथाथ% ज्ञानके साथ आचरण करे वह प्रथम सम्यक्त्वचरण चारिरत्र है, वह मोक्षस्थानके शि>ये होता है ।

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भावाथ% :—सव%ज्ञ भानिषत तत्त्वाथ%की श्रद्धा निनःशंनिकत आदिद गुण सनिहत, पच्चीस म> दोष रनिहत, ज्ञानवान आचरण करे, उसको सम्यक्त्वचरण चारिरत्र कहत े ह ैं । यह मोक्षकी प्रान्तिप्तके शि>ये होता है, क्योंनिक मोक्षमाग%म ें पनिह>े सम्यग्दश%न कहा है; इसशि>ये मोक्षमाग%में प्रधान यह ही है ।।8।।

आगे कहते हैं निक ो इसप्रकार सम्यक्त्वचरण चारिरत्रको अङ्गीकार करके संयमचरण चारिरत्रको अङ्गीकार करे तो शीघ्र ही निनवा%णको प्राप्त करता है :—

सम्मAचरणसुद्धा संजमचरणस्स जइ व सुपचिसद्धा ।णाणी अमूढदिदट्ठी अचिचरे पावंवित शिणव्वाणं ।।9।।सम्र्यक्त्वचरणशुद्धाः संर्यमचरणस्र्य र्यदिद वा सुप्रचिसद्धाः ।ज्ञाविननः अमूढदृष्टर्यः अचिचरं प्रापु्नवंवित विनवा�णम् ।।9।।

सम्र्यक्त्वचरणविवशुद्ध ने विनष्पन्नसंर्यमचरण जो,विनवा�णने अचिचरे वरे अविवमूढदृविष्ट ज्ञानीओ. 9.

अथ% :— ो ज्ञानी होते हुए अमूढदृमिष्ट होकर सम्यक्त्वचरण चारिरत्रसे शुद्ध होता है और ो संयमचरण चारिरत्रसे सम्यक् प्रकार शुद्ध हो, तो शीघ्र ही निनवा%णको प्राप्त होता है ।

भावाथ% :— ो पदाथ�के यथाथ%ज्ञानस े मूढदृमिष्टरनिहत निवशुद्ध सम्यग्दृमिष्ट होकर सम्यक्चारिरत्र-वरूप संयमका आचरण करे तो शीघ्र ही मोक्षको पावे, संयम अंगीकार करने पर -वरूपके साधनरूप एकाग्र धम%ध्यानके ब>से सानितशय अप्रमत्त गुणस्थानरूप हो, श्रेणी चढ़ अन्तमु%हूत%में केव>ज्ञान उत्पन्न कर अघानितकम%का नाश करके मोक्ष प्राप्त करता है, यह सम्यक्त्वचरण चारिरत्रका ही माहात्म्य है ।।9।।

आगे कहते हैं निक ो सम्यक्त्व के आचरण से भ्रष्ट हैं और वे संयमका आचरण करते हैं, तो भी मोक्ष नहीं पाते हैं :—

सम्मAचरणभट्ठा, संजमचरणं चरंवित जे विव णरा ।अण्णाणणाणमूढा़, तह विव ण पावंवित शिणव्वाणं ।।10।।सम्र्यक्त्वचरणभ्रष्टाः संर्यमचरणं चरप्तिन्त र्येऽविप नराः ।अज्ञानज्ञानमूढाः तर्थाऽविप न प्रापु्नवंवित विनवा�णम् ।।10।।

सम्र्यक्त्वचरणविवहीन छो संर्यमचरण जन आचरे,तोपण लहे नविह मुचि}ने अज्ञानज्ञानविवमूढ ए. 10.

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अथ% :— ो पुरुष सम्यक्त्वचरण चारिरत्रसे भ्रष्ट हैं और संयमका आचरण करते हैं तो भी वे अज्ञानसे मूढ़दृमिष्ट होते हुए निनवा%णको नहीं पाते हैं ।

भावाथ% :—सम्यक्त्वचरण चारिरत्रके निबना संयमचरण चारिरत्र निनवा%णका कारण नहीं है, क्योंनिक सम्यग्ज्ञानके निबना तो ज्ञान मिमथ्या कह>ाता है, सो इसप्रकार सम्यक्त्वके निबना चारिरत्रके भी मिमथ्यापना आता है ।।10।।

आगे प्रश्न उत्पन्न होता है निक इसप्रकार सम्यक्त्वचरण चारिरत्रके शिचह्न क्या हैं? जि नसे उसको ानें, इसके उत्तररूप गाथामें सम्यक्त्वके शिचह्न कहते हैं :–

वच्छल्लं विवणएण, र्य अणुकंपाए सुदाणदच्छाए ।मग्गगुणसंसणाए, अवगूहण रक्खणाए र्य ।।11।।एएहिहं लक्खणेहिहं र्य लस्थिक्खज्जइ अज्जवेहिहं भावेहिहं ।जीवो आराहंतो जिजणसम्मAं अमोहेण ।।12।।वात्सल्र्यं विवनर्येन च अनुकंपर्या सुदान दक्षर्या ।माग�गुणशंसनर्या उपगूहनं रक्षणेन च ।।11।।एतैः लक्षणैः च लक्ष्र्यत ेआज�वैः भावैः ।जीवः आराधर्यन ्जिजनसम्र्यक्त्वं अमोहेन ।।12।।

वात्सल्र्य-विवनर्य र्थकी, सुदाने दक्ष अनुकंपा र्थकी,वळी माग�गुणस्तवना र्थकी, उपगूहन ने स्थिस्थवितकरणर्थी. 11.–आ लक्षणोर्थी तेम आज�वभावर्थी लक्षार्य छे,वणमोह जिजनसम्र्यक्त्वने आराधनारो जीव जे. 12.

अथ% :—जि नदेवकी श्रद्धा—सम्यक्त्वकी मोह अथा%त ् मिमथ्यात्व रनिहत आराधना करता हुआ ीव इन >क्षणोंसे अथा%त् शिचह्नोंसे पनिहचाना ाता है—प्रथम तो धमा%त्मा पुरुषोंसे जि सके वात्सल्यभाव हो, ैस े तत्का>की प्रसूनितवान गायको बच्चेस े प्रीनित होती ह ै वैसी धमा%त्मासे प्रीनित हो, एक तो यह शिचह्न है । सम्यक्त्वादिद गुणोंसे अमिघक हो उसका निवनय—सत्कारादिदक जि सके अमिधक हो, ऐसा निवनय एक यह शिचह्न ह ै । दुःkी प्राणी देkकर करुणाभाव-वरूप अनुकंपा जि सके हो, एक यह शिचह्न है, अनुकंपा कैसी हो ? भ>े प्रकार दानसे योग्य हो । निनग्र%न्थ-वरूप मोक्षमाग%की प्रशंसा सनिहत हो, एक यह शिचह्न है, ो माग%की प्रशंसा न करता हो तो ानो निक इसके माग%की दृढ़ श्रद्धा नहीं है । धमा%त्मा पुरुषोंके कम%के उदयसे (उदयवश) दोष उत्पन्न हो उसको निवख्यात न करे, इसप्रकार उपगूहन भाव हो, एक

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यह शिचह्न है । धमा%त्माको माग%से शिचगता ानकर उसकी ण्डिस्थरता करे ऐसा रक्षण नामका शिचह्न है, इसको ण्डिस्थनितकरण भी कहते है । इन सब शिचह्नोंको सत्याथ% करनेवा>ा एकक आ %वभाव है, क्योंनिक निनष्कपट परिरणामसे ये सब शिचह्न प्रगट होते हैं, सत्याथ% होते हैं, इतने >क्षणोंसे सम्यग्दृमिष्टको ान सकते हैं ।

भावाथ% :—सम्यक्त्वभाव—मिमथ्यात्व कम%के अभावसे ीवोंका निन भाव प्रगट होता है सो वह भाव तो सूक्ष्म है, छद्मस्थके ज्ञानगोचर नहीं है और उसके बाह्य शिचह्न सम्यग्दृमिष्ट के प्रगट होते हैं, उनसे सम्यक्त्व हुआ ाना ाता है । ो वात्सल्य आदिद भाव कहे वे आपके तो अपने अनुभवगोचर होते हैं और अन्यके उसकी वचन कायकी निक्रयासे ाने ाते हैं, उनकी परीक्षा ैसे अपने निक्रयानिवशेषसे होती है, वैसे अन्यकी भी निक्रयानिवशेषसे परीक्षा होती है, इसप्रकार व्यवहार है, यदिद ऐसा न हो तो सम्यक्त्व व्यवहार माग%का >ोप हो, इसशि>ये व्यवहारी प्राणीको व्यवहारका ही आश्रय कहा है, परमाथ%को सव%ज्ञ ानता है ।।11—12।।

आगे कहते हैं निक ो ऐसे कारण सनिहत हो तो सम्यक्त्व छोड़ता है :—उच्छाहभावणासंपसंससेवा कुदंसणे सद्धा ।अण्णाणमोहमग्गे कुव्वंतो जहदिद जिजणसम्मं ।।13।।उत्साहभावना शंप्रशंसासेवाः कुदश�ने श्रद्धा ।अज्ञानमोहमागt कुव�न ्जहावित जिजनसम्र्यक्त्वम् ।।13।।

अज्ञान मोहपरे्थ कुमतमां भावना, उत्साह नेश्रद्धा, स्तवन, सेवा करे जे, ते तजे सम्र्यक्त्वने. 13.

अथ% :—कुदश%न अथा%त ् नैयामियक, वैशेनिषक, सांख्यमत, मीमांसकमत, वेदान्त, बौद्धमत, चावा%कमत, शून्यवादके मत इनके भेष तथा इनके भानिषत पदाथ% और शे्वताम्बरादिदक ैनाभास इनमें श्रद्धा, उत्साह, भावना, प्रशंसा और इनकी उपासना व सेवा ो पुरुष करता है वह जि नमतकी श्रद्धारूप सम्यक्त्वको छोड़ता है, वह कुदश%न, अज्ञान और मिमथ्यात्वका माग% है ।

भावाथ% :—अनादिदका>से मिमथ्याकम%के उदयसे (उदयवश) यह ीव संसारमें भ्रमण करता ह ै सो कोई भाग्यके उदयस े जि नमाग%की श्रद्धा हुई हो और मिमथ्यामतके प्रसंगमें मिमथ्यामतमें कुछ कारणसे उत्साह, भावना, प्रशंसा, सेवा, श्रद्धा उत्पन्न हो तो सम्यक्त्वका अभाव हो ाय, क्योंनिक जि नमतके शिसवाय अन्य मतोंम ें छद्मस्थ अज्ञानिनयों द्वारा प्ररूनिपत मिमथ्या पदाथ% तथा मिमथ्या प्रवृभित्तरूप माग% है, उसकी श्रद्धा आवे तब जि नमतकी श्रद्धा ाती रहे, इसशि>ये मिमथ्र्यादृविष्टर्योंका संसग� ही नहीं करना, इसप्रकार भावाथ% ानना ।।13।।

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आगे कहते हैं निक ो ये ही उत्साह भावनादिदक कहे वे सुदश%नमें हों तो जि नमतकी श्रद्धारूप सम्यक्त्वको नहीं छोड़ता है—

उच्छाहभावणासंपसंससेवा सुदंसणे सद्धा ।ण जहादिद जिजणसम्मAं कुव्वंतो णाणमग्गेण ।।14।।उत्साहभावनाः शंप्रशंससेवाः सुदश�न ेश्रद्धा ।न जहावित जिजनसम्र्यक्त्वं कुव�न ्ज्ञानमागtण ।।14।।

स�श�ने उत्साह, श्रद्धा, भावना, सेवा अनेस्तुवित ज्ञानमाग�र्थी जे करे, छोडे़ न जिजनसम्र्यक्त्वने. 14.

अथ% :—सुदश%न अथा%त ् सम्यग्दश%न ज्ञान चारिरत्र -वरूप सम्यक्माग% उसमें उत्साहभावना अथा%त ् ग्रहण करनेका उत्साह करके बारंबार शिचन्तवनरूप भाव और प्रशंसा अथा%त् मन-वचन-कायासे भ>ा ानकर -तुनित करना, सेवा अथा%त् उपासना, पू नादिद करना और श्रद्धा करना, इसप्रकार ज्ञानमाग%स े यथाथ% ानकर करता पुरुष है, वह जि नमतकी श्रद्धारूप सम्यक्त्वको नहीं छोड़ता है ।

भावाथ% :—जि नमतम ें उत्साह, भावना, प्रशंसा, सेवा, श्रद्धा जि सके हो वह सम्यक्त्वसे च्युत नहीं होता है ।।14।।

आगे अज्ञान मिमथ्यात्व कुचारिरत्र त्यागका उपदेश करते हैं :—अण्णाणं मिमच्छAं वज्जह णाणे विवसुद्धसम्मAे ।अह मोहं सारंभं परिरहर धम्मे अहिहंसाए ।।15।।अज्ञानं मिमथ्र्यात्वं वज्ज�र्य ज्ञान ेविवशुद्धसम्र्यक्त्वे ।अर्थ मोहं सारंभं परिरहर धमt अहिहंसार्याम् ।।15।।

अज्ञान ने मिमथ्र्यात्व तज, लही ज्ञान समविकत शुद्धने;वळी मोह तज सारंभ तुं, लहीने अहिहंसाधम�ने. 15.

अथ% :—आचाय% कहते हैं निक हे भव्य ! तू ज्ञानके होने पर तो अज्ञानका त्याग कर, निवशुद्ध सम्यक्त्वके होन े पर मिमथ्यात्वका त्याग कर और अहिहंसा >क्षण धम%के होन े पर आरंभसनिहत मोहको छोड़ ।

भावाथ% :—सम्यग्दश%न ज्ञान चारिरत्रकी प्रान्तिप्त होने पर निफर मिमथ्यादश%न ज्ञान चारिरत्रमें मत प्रवत्त}, इसप्रकार उपदेश है ।।15।।

आगे निफर उपादेश करते हैं :–

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पव्वज्ज संगचाए, पर्यट्ट सुतवे सुसंजमे भावे ।होइ सुविवसुद्धझाणं, शिणम्मोहे वीर्यरार्यAे ।।16।।प्रव्रज्र्यार्यां संगत्र्यागे प्रवA�स्र्य सुतपचिस सुसंर्यमेभावे ।भववित सुविवशुद्धध्र्यान ंविनमNहे वीतरागत्वे ।।16।।

विनःसंग लही दीक्षा, प्रवत� सुसंर्यमे, सAप विवषे;विनमNह वीतरागत्व होतां ध्र्यान विनम�ळ होर्य छे. 16.

अथ% :—हे भव्य ! तू संग अथा%त् परिरग्रहका त्याग जि समें हो, ऐसी दीक्षा ग्रहण कर और भ> े प्रकार संयम-वरूपभाव होन े पर सम्यक् प्रकार तपम ें प्रवत%न कर जि सस े तेरे मोहरनिहत वीतरागपना होने पर निनम%> धम%—शुक्>ध्यान हो ।

भावाथ% :—निनग्र%न्थ हो दीक्षा >ेकर, संयमभावसे भ>े प्रकार तपमें प्रवत%न करे, तब संसारका मोह दूर होकर वीतरागपना हो, निफर निनम%> धम%ध्यान शुक्>ध्यान होते हैं, इसप्रकार ध्यानसे केव>ज्ञान उत्पन्न करके मोक्ष प्राप्त होता है, इसशि>ये इसप्रकार उपदेश है ।।16।।

आगे कहते हैं निक यह ीव अज्ञान और मिमथ्यात्वके दोषसे मिमथ्यामाग%में प्रवत%न करता है—

मिमच्छादंसणमग्गे मचिलणे अण्णाणमोहदोसेहिहं ।वज्झंवित मूढजीवा *मिमच्छAाबुशिद्धउदएण ।।17।।

* पाठान्तर—मिमच्छत्ता बुजिद्धदोसेण ।मिमथ्र्यादश�नमागt मचिलने अज्ञानमोहदोषैः ।बध्र्यन्त ेमूढ़जीवाः मिमथ्र्यात्वाबुदु्ध्यदर्येन ।।17।।

जे वत�ता अज्ञानमोहमले मचिलन मिमथ्र्यामते,ते मूढ़जीव मिमथ्र्यात्व ने मवितदोषर्थी बंधार्य छे. 17.

अथ% :—मूढ़ ीव अज्ञान और मोह अथा%त् मिमथ्यात्वके दोषोंसे मशि>न ो मिमथ्यादश%न अथा%त् कुमतके माग%में मिमथ्यात्व और अबुजिद्ध अथा%त् अज्ञानके उदयसे प्रवृभित्त करते हैं ।

भावाथ% :—य े मूढ़ ीव मिमथ्यात्व और अज्ञानके उदयस े मिमथ्यामाग%म ें प्रवत%त े हैं, इसशि>ये मिमथ्यात्व—अज्ञानका नाश करना यह उपदेश है ।।17।।

आगे कहते हैं निक सम्यग्दश%न, ज्ञान, श्रद्धानसे चारिरत्रके दोष दूर होते हैं :—

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सम्म�ंसण पस्सदिद, जाणदिद णाणेण दव्वपज्जार्या ।सम्मेण र्य स�हदिद, र्य परिरहरदिद चरिरAजे दोसे ।।18।।सम्र्यग्दश�नेन पश्र्यवित जानावित ज्ञानेन द्रव्यपर्या�र्यान् ।सम्र्यक्त्वेन च श्र�धावित च परिरहरवित चारिरत्रजान् दोषान् ।।18।।

देखे दरशर्थी, ज्ञानर्थी जाणे दरव-पर्या�र्यने,सम्र्यक्त्वर्थी श्रद्धा करे, चारिरत्रदोषो परिरहरे. 18.

अथ% :—यह आत्मा सम्यग्दश%नसे तो सत्तामात्र व-तुको देkता है, सम्यग्ज्ञानसे द्रव्य और पया%योंको ानता है, सम्यक्त्वसे द्रव्य—पया%य-वरूप सत्तामयी व-तुका श्रद्धान करता है और इसप्रकार देkना, ानना व श्रद्धान होता ह ै तब चारिरत्र अथा%त् आचरणमें उत्पन्न हुए दोषोंको छोड़ता है ।

भावाथ% :–व-तुका -वरूप द्रव्य—पया%यात्मक सत्ता-वरूप है, सो ैसा है वैसा देkे, ाने, श्रद्धान करे तब आचरण शुद्ध करे, सो सव%ज्ञके आगमसे व-तुका निनश्चय करके आचरण करना । व-तु है वह द्रव्य—पया%य-वरूप है । द्रव्यका सत्ता >क्षण है तथा गुणपया%यवान् को द्रव्य कहते हैं । पया%य दो प्रकारकी है, सहवतN और क्रमवतN । सहवतNको गुण कहते हैं और क्रमवतN को पया%य कहते हैं—द्रव्य सामान्यरूपसे एक है तो भी निवशेषरूपसे छह हैं— ीव, पुद्ग>, धम%, अधम%, आकाश और का> ।

ीवके दश%न-ज्ञानमयी चेतना तो गुण है और अचक्षु आदिद दश%न, मनित आदिदक ज्ञान तथा क्रोध, मान, माया, >ोभ आदिद व नर, नारकादिद निवभावपया%य है, -वभावपया%य अगुरु>घु गुणके द्वारा हानिन-वृजिद्धका परिरणमन है । पुद्ग> द्रव्यके स्पश%, रस, गंध, वण%रूप मूर्वितंकपना तो गुण है और स्पश%, रस, गन्ध, वण%का भेदरूप परिरणमन तथा अणुसे -कन्धरूप होना तथा शब्द, बन्ध आदिदरूप होना इत्यादिद पया%य ह ै । धम%—अधम% द्रव्यके गनितहेतुत्व, ण्डिस्थनितहेतुत्वपना तो गुण है और इस गुणके ीव-पुद्ग>के गनित-ण्डिस्थनितके भेदोंसे भेद होते हैं वे पया%य हैं तथा अगुरु>घु गुणके द्वारा हानिन-वृजिद्धका परिरणमन होता है ो -वभावपया%य है ।

आकाशका अवगाहना गुण है और ीव—पुद्ग> आदिदके निनमिमत्तसे प्रदेशभेद कल्पना निकये ाते ह ैं वे पया%य हैं तथा हानिन-वृजिद्धका परिरणमन वह -वभावपया%य है । का>द्रव्यका वत%ना तो गुण है और ीव और पुद्ग>के निनमिमत्तसे समय आदिद कल्पना, सो पया%य है, इसको व्यवहार का> भी कहते ह ैं तथा हानिन—वृजिद्धका परिरणमन वह -वभावपया%य ह ै इत्यादिद । इनका -वरूप जि न—आगमसे ानकर देkना, ानना, श्रद्धान करना, इससे चारिरत्र शुद्ध होता है । निबना ज्ञान, श्रद्धानके आचरण शुद्ध नहीं होता है, इसप्रकार ानना ।।18।।

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आगे कहते हैं निक ये सम्यग्दश%न, ज्ञान, चारिरत्र तीन भाव मोहरनिहत ीवके होते हैं, इनका आचरण करता हुआ शीघ्र मोक्ष पाता है :—

एए वितस्थिण्ण विव भावा, हवंवित जीवस्स मोहरविहर्यस्स ।शिणर्यगुणमाराहंतो, अचिचरेण र्य कम्म परिरहरइ ।।19।।एत ेत्रर्योऽविप भावाः भवंवित जीवस्र्य मोहरविहतस्र्य ।विनजगुणमाराधर्यन ्अचिचरेण च कम� परिरहरवित ।।19।।

रे होर्य छे भावो त्रणे आ, मोहविवरविहत जीवने;विनज आत्मगुण आराधतो ते कम�ने अचिचरे तजे. 19.

अथ% :—ये पूव}क्त सम्यग्दश%न—ज्ञान—चारिरत्र तीन भाव हैं, ये निनश्चयसे मोह अथा%त् मिमथ्यात्वरनिहत ीवके ही होते हैं, तब यह ीव अपना निन गुण ो शुद्ध दश%न—ज्ञानमयी चेतनाकी आराधना करता हुआ थोडे़ ही का>में कम%का नाश करता है ।

भावाथ% :—निन गुणके ध्यानसे शीघ्र ही केव>ज्ञान उत्पन्न करके मोक्ष पाता ह ै ।।19।।

आगे इस सम्यक्त्वचरण चारिरत्रके कथनका संकोच करते हैं :—संखिखज्जमसंखिखज्जगुणं, च संसारिरमेरुमAा* णं ।सम्मAणुचरंता, करेंवित दुक्खक्खरं्य धीरा ।।20।।

*—‘संसारिरमेरुमत्ता’ ‘सासारिर मेरुमिमत्ता’ इसका सटीक सं-कृत प्रनितमें सष%पमेरुमात्रां इसप्रकार है ।संख्र्येर्यामसंख्र्येर्यगुणां संसारिरमेरुमात्रा णं ।सम्र्यक्त्वमनुचरंतः कुव�प्तिन्त दुःखक्षरं्य धीराः ।।20।।

संसारसीमिमत विनज�रा अणसंख्र्य-संख्र्यगुणी करे,सम्र्यक्त्व आचरनार धीरा दुःखना क्षर्यने करे. 20.

अथ% :—सम्यक्त्वका आचरण करते हुए धीर पुरुष संख्यातगुणी तथा असंख्यातगुणी कम�की निन %रा करते हैं और कम�के उदयसे हुए संसारके दुःkका नाश करते हैं । कम% कैसे हैं ? संसारी ीवोंके मेरु अथा%त् मया%दा मात्र हैं और शिसद्ध होनेके बाद कम% नहीं हैं ।

भावाथ% :—इस सम्यक्त्वका आचरण होन े पर प्रथम का>म ें तो गुणश्रेणी निन %रा होती है, वह असंख्यातके गुणाकाररूप है । पीछे ब तक संयमका आचरण नहीं होता है, तब तक गुणश्रेणी निन %रा नहीं होती ह ै । वहा ँ संख्यातके गुणाकाररूप होती है, इसशि>ये संख्यातगुण और असंख्यातगुण इसप्रकार दोनों वचन कहे । कम% तो संसार अवस्था है, ब

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तक है उसमें दुःkका कारण मोहकम% है, उसमें मिमथ्यात्वकम% प्रधान है । सम्यक्त्वके होने पर मिमथ्यात्वका तो अभाव ही हुआ और चारिरत्रमोह दुःkका कारण है, सो यह भी बतक है तबतक उसकी निन %रा करता है, इसप्रकार अनुक्रमसे दुःkका क्षय होता है । संयमाचरणके होनेपर सब दुःkोंका क्षय होवेगा ही । सम्यक्त्वका माहात्म्य इसप्रकार है निक सम्यक्त्वाचरण होने पर संयमाचरण भी शीघ्र ही होता है, इसशि>ये सम्यक्त्वको मोक्षमाग%में प्रधान ानकर इसहीका वण%न पनिह>े निकया है ।।20।।

आगे संयमाचरण चारिरत्रको कहते हैं :—दुविवहं संजमचरणं, सार्यारं तह हवे शिणरार्यारं ।सार्यारं *सग्गंर्थे, परिरग्गहा रविहर्य खलु शिणरार्यारं ।।21।।

1 पाठान्तरः—सग्गंथं ।विद्वविवधं संर्यमचरणं सागारं तर्था भवेत् विनरागारं ।सागारं सग्रने्थ परिरग्रहाद्रविहत ेखलु विनरागारम् ।।21।।

सागार अण-आगार एम विद्वभेद संर्यमचरण छे;सागार छे सग्रंर्थ, अण-आगार परिरग्रहरविहत छे. 21.

अथ% :—संयमाचरण चारिरत्र दो प्रकारका है—सागार और निनरागार । सागार तो परिरग्रह सनिहत श्रावकके होता है और निनरागार परिरग्रहसे रनिहत मुनिनके होता है, यह निनश्चय है ।।21।।

आगे सागार संयमाचरणको कहते हैं :—दंसण वर्य सामाइर्य, पोसह सचिचA रार्यभAे र्य ।बंभारंभपरिरग्गह, अणुमण उदिदट्ठ देसविवरदो र्य ।।22।।दश�न ंव्रत ंसामामिर्यकं प्रोषधं सचिचAं रावित्रभुचि}श्च ।ब्रह्म आरंभः परिरग्रहः अनुमवितः उदि�ष्ट देशविवरतश्च ।।22।।

दश�न, व्रतं, सामामिर्यकं, प्रोषध, सचिचA, विनशिशभुचि} नेवळी ब्रह्म ने आरंभ आदिदक देशविवरवितस्थान छे. 22.

अथ% :—दश%न, व्रत, सामामियक और प्रौषध आदिदका नाम एकदेश है, और नाम ऐसे कह े हैं—प्रोषधोपवास, सशिचत्तत्याग, रानित्रभुशिक्तत्याग, ब्रह्मचय%, आरंभत्याग, परिरग्रहत्याग, अनुमनितत्याग और उदिद्दष्टत्याग, इसप्रकार ग्यारह प्रकार देशनिवरत है ।

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भावाथ% :—ये सागार संयमाचरणके ग्यारह स्थान हैं, इनको प्रनितमा भी कहते हैं ।।22।।

आगे इन स्थानोंमे संयमका आचरण निकस प्रकारसे है, वह कहते हैं :—पंचेव णुव्वर्याइं, गुणव्वर्याइं हवंवित तह वितस्थिण्ण ।चिसक्खार्यवर्य चAारिर र्य, संजमचरणं च सार्यारं ।।23।।पंचैव अणुव्रताविन गुणव्रताविन भवंवित तर्था त्रीशिण ।शिशक्षाव्रताविन चत्वारिर संर्यमचरणं च सागारम् ।।23।।

अणुव्रत कह्यां छे पांच ने त्रण गुणव्रतो विनर्दिदंष्ट छे,शिशक्षाव्रतो छे चार; –ए संर्यमचरण सागारा छे. 23.

अथ% :—पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिशक्षाव्रत—इसप्रकार बारह प्रकारका संयमचरण चारिरत्र है ो सागार है, ग्रन्थसनिहत श्रावकके होता है, इसशि>ये सागार कहा है ।

प्रश्न :—ये बारह प्रकार तो व्रतके कहे और पनिह>े गाथामें ग्यारह नाम कहे, उनमें प्रथम दश%न नाम कहा, उसमें ये व्रत कैसे होते ह ैं ? इसका समाधान :—अणुव्रत ऐसा नाम हिकंशिचत् व्रतका है । वह पाँच अणुव्रतोंमेंसे हिकंशिचत् यहाँ भी होते हैं इसशि>ये दश%न प्रनितमाका धारक भी अणुव्रती ही है, इसका नाम दश%न ही कहा । यहा ँ इसप्रकार ानना निक इसके केव> सम्यक्त्व ही होता है और अव्रती है, अणुव्रत नहीं हैं । इसके अणुव्रत अनितचार सनिहत होत े ह ैं इसशि>य े व्रती नाम कहा है, दूसरी प्रनितमाम ें अणुव्रत अनितचार रनिहत पा>ता ह ै । इसशि>य े व्रत नाम कहा ह ै । यहा ँ सम्यक्त्वके अनितचार टा>ता है, सम्यक्त्व ही प्रधान है, इसशि>ये दश%न प्रनितमा नाम है । अन्य ग्रन्थोंमें इसका -वरूप इसप्रकार कहा है निक— ो आठ मू>गुणका पा>न करे, सात व्यसनको त्यागे, जि सके सम्यक्त्व अनितचार रनिहत शुद्ध हो वह दश%न प्रनितमा धारक है । पाँच उदम्बरफ> और मद्य, मांस, मधु इन आठोंका त्याग करना वह आठ मू>गुण हैं ।

अथवा निकसी ग्रन्थमें इसप्रकार कहा ह ै निक—पाँच अणुव्रत पा>े और मद्य, मांस, मधुका त्याग करे वह आठ मू>गुण हैं, परन्तु इसमें निवरोध नहीं है, निववक्षाका भेद है । पाँच उदम्बरफ> और तीन मकारका त्याग कहनेसे जि न व-तुओंमें साक्षात् त्रस ीव दिदkते हों, उन सब ही व-तुओंको भक्षण नहीं करे । देवादिदकके निनमिमत्त तथा औषधादिद निनमिमत्त इत्यादिद कारणोंसे दिदkते हुए त्रस ीवोंका घात न करे, ऐसा आशय है ो इसमें तो अहिहंसाणुव्रत आया । सात व्यसनोंके त्यागमें ूठ, चोरी और पर-त्रीका त्याग आया, अन्य व्यसनोंके त्यागमें अन्याय, परधन, पर-त्रीका ग्रहण नहीं है; इसमें अनित>ोभके त्यागसे परिरग्रहका घटाना आया, इसप्रकार पाँच अणुव्रत आते हैं । इनके (व्रतादिद प्रनितमाके) अनितचार नहीं ट>ते हैं, इसशि>ये

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अणुव्रती नाम प्राप्त नहीं करता (निफर भी) इसप्रकारसे दश%न प्रनितमाका धारक भी अणुव्रती है, इसशि>ये देशनिवरत सागारसंयमचरण चारिरत्रमें इसको भी निगना है ।।23।।

आगे पाँच अणुव्रतोंका -वरूप कहते हैं :—रू्थले तसकार्यवहे रू्थले मोषे अदAरू्थले* र्य ।परिरहारो परमविहला परिरग्गहारंभपरिरमाणं ।।24।।

*—‘अदत्तथू>े’ के स्थानमें सं. छायामें ‘नितनितक्k थू>े’, ‘परमनिह>ा’ के स्थानमें ‘परमनिपम्मे’ ऐसा पाठ है ।सू्थले त्रसकार्यवधे सू्थलार्यां मृषार्यां अदAसू्थले च ।परिरहारः परमविहलार्यां परिरग्रहारंभपरिरमाणम् ।।24।।

त्र्यां स्थूल त्रसहिहंसा-असत्र्य-अदAना, परनारीनापरिरहारने, आरंभपरिरग्रहमानने अणुव्रत कह्यां. 24.

अथ% :—थू> त्रसकायका घात, थू> मृषा अथा%त् असत्य, थू> अदत्ता अथा%त् परका निबना दिदया धन, परमनिह>ा अथा%त् पर-त्री इनका तो परिरहार अथा%त् त्याग और परिरग्रह तथा आरंभका परिरमाण इसप्रकार पाँच अणुव्रत हैं ।

भावाथ% :—यहा ँ थू> कहनेका ऐसा ानना निक—जि समें अपना मरण हो, परका मरण हो, अपना घर निबगडे़, परका घर निबगडे़, रा ाके दhO योग्य हो, पंचोंके दhO योग्य हो इसप्रकार मोटे अन्यायरूप पापकाय% ानने । इसप्रकार सू्थ> पाप रा ादिदकके भयसे न करे वह व्रत नहीं है, इनको तीव्र कषायके निनमिमत्तसे तीव्र कम%बंधके निनमिमत्त ानकर -वयमेव न करनेके भावरूप त्याग हो वह व्रत है । इसके ग्यारह स्थानक कहे, इनमें ऊपर—ऊपर त्याग बढ़ता ाता है सो इसकी उत्कृष्टता तक ऐसा है निक जि न काय�में त्रस ीवोंको बाधा हो–इसप्रकारके सब ही काय% छूट ाते हैं, इसशि>ये सामान्य ऐसा नाम कहा है निक त्रसहिहंसाका त्यागी देशव्रती होता है । इसका निवशेष कथन अन्य ग्रन्थोंसे ानना ।।24।।

आगे तीन गुणव्रतोंको कहते हैं :—दिदचिसविवदिदचिसमाण पढमं, अणyदं)स्स वज्जणं विबदिदरं्य ।भोगोपभोगपरिरमा, इर्यमेव गुणव्वर्या वितस्थिण्ण ।।25।।दिदखिग्वदिदग्मानं प्रर्थमं अनर्थ�दण्)स्र्य वज�न ंविद्वतीर्यम् ।भोगोपभोगपरिरमाणं इमान्रे्यव गुणव्रताविन त्रीशिण ।।25।।

दिदशविवदिदशगवित-परिरमाण होर्य, अनर्थ�दं) परिरत्र्यजे,भोगोपभोग तणुं करे परिरमाण, –गुणव्रत त्रण्र्य छे. 25.

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अथ% :—दिदशा—निवदिदशाम ें गमनका परिरणाम वह प्रथम गुणव्रत है, अनथ%दhOका ब %ना निद्वतीय गुणव्रत है, और भोगोपभोगका परिरणाम तीसरा गुणव्रत है,—इसप्रकार ये तीन गुणव्रत हैं ।

भावाथ% :—यहाँ गुण शब्द तो उपकारका वाचक है, ये अणुव्रतोंका उपकार करते हैं । दिदशा—निवदिदशा अथा%त् पूव% दिदशादिदकमें गमन करनेकी मया%दा करे । अनथ%दhO अथा%त् जि न काय�में अपना प्रयो न न सधे, इसप्रकार पापकाय�को न करे । यहाँ कोई पूछे—प्रयो नके निबना तो कोई भी ीव काय% नहीं करता है, कुछ प्रयो न निवचार करके ही करता है निफर अनथ%दhO क्या ? इसका समाधान—सम्यग्दृमिष्ट श्रावक होता ह ै वह प्रयो न अपने पदके योग्य निवचारता है, पदके शिसवाय सब अनथ% है । पापी पुरुषोंके तो सब ही पापप्रयो न हैं, उनकी क्या कथा । भोग कहनेसे भो नादिदक और उपभोग करनेसे -त्री, व-त्र, आभूषण, वाहनादिदकोंका परिरमाण करे—इसप्रकार ानना ।।25।।

आगे चार शिशक्षाव्रतोंको कहते हैं :—सामाइर्यं च पढमं, विबदिदर्यं च तहेव पोसहं भशिणर्यं ।तइर्यं च अवितविहपुज्जं, चउy सल्लेहणा अंते ।।26।।सामाइकं च प्रर्थमं विद्वतीर्यं च तरै्थव प्रोषधः भशिणतः ।तृतीर्यं च अवितचिर्थपूजा चतरु्थ� संल्लेखना अन्ते ।।26।।

सामामिर्यकं, व्रत प्रोषधं, अवितचिर्थ तणी पूजा अनेअंते करे संल्लेखना—शिशक्षाव्रतो ए चार छे. 26.

अथ% :—सामामियक तो पनिह>ा शिशक्षाव्रत है, वैस े ही दूसरा प्रोषध व्रत है, तीसरा अनितशिथका पू न है, चौथा अन्तसमय संल्>ेkना व्रत है ।

भावाथ% :—यहाँ शिशक्षा शब्दसे तो ऐसा अथ% सूशिचत होता है निक आगामी मुनिनव्रतकी शिशक्षा इनमें है, ब मुनिन होगा तब इसप्रकार रहना होगा । सामामियक कहनेसे तो राग-दे्वषका त्याग कर, सब गृहारंभसंबंधी निक्रयासे निनवृभित्त कर, एकांत स्थानमें बैठकर प्रभात, मध्याह्न, अपराह्न कुछ का>की मया%दा करके अपने -वरूपका लिचंतवन तथा पंचपरमेष्ठीकी भशिक्तका पाठ पढ़ना, उनकी वंदना करना इत्यादिद निवधान करना सामामियक है । इसप्रकार ही प्रोषध अथा%त् अष्टमी चौदसके पव}में प्रनितज्ञा >ेकर धम%काय�में प्रवत%ना प्रोषध है । अनितशिथ अथा%त् मुनिनयोंकी पू ा करना, उनको आहारदान देना अनितशिथपू न ह ै । अंत समयमें काय और कषायको कृश करना, समामिधमरण करना अन्त संल्>ेkना है,—इसप्रकार चार शिशक्षाव्रत हैं ।

यहा ँ प्रश्न—तत्त्वाथ%सूत्रम ें तीन गुणव्रतोंम ें देशव्रत कहा और भोगोपभोगपरिरमाणको शिशक्षाव्रतोंम ें कहा तथा संल्>ेkनाको भिभन्न कहा वह कैस े ? इसका समाधान :—यह

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निववक्षाका भेद है, यहा ँ देशव्रत दिदग्व्रतमें गर्णिभंत ह ै और संल्>ेkनाको शिशक्षाव्रतोंमें कहा है, कुछ निवरोध नहीं है ।।26।।

आगे कहते हैं निक संयमचरण चारिरत्रमें श्रावकधम%को कहा, अब यनितधम%को कहते हैं—

एवं सावर्यधम्मं संजमचरणं उदेचिसर्यं सर्यलं ।सुदं्ध संजमचरणं जइधम्मं शिणक्कलं वोचे्छ ।।27।।एवं श्रावकधमm संर्यमचरणं उपदेशिशत ंसकलम् ।शुदं्ध संर्यमचरणं र्यवितधमm विनष्कलं वक्ष्र्ये ।।27।।

श्रावकधरमरूप देशसंर्यमचरण भाख्रंु्य ए रीते;र्यवितधम�-आत्मक पूण�संर्यमचरण शुद्ध कहंु हवे. 27.

अथ% :—एवं अथा%त् इसप्रकारसे श्रावकधम%-वरूप संयमचरण तो कहा, यह कैसा है ? सक> अथा%त ् क>ा सनिहत है, (यहाँ) एकदेशको क>ा कहत े ह ैं । अब यनितधम%के धम%-वरूप संयमचरणको कहँूगा—ऐसे आचाय%ने प्रनितज्ञा की है । यनितधम% कैसा है ? शुद्ध है, निनद}ष है, जि समें पापाचरणका >ेश नहीं है, निनक> अथा%त् क>ासे निनःक्रांत है, सम्पूण% है, श्रावकधम%की तरह एकदेश नहीं है ।।27।।

आगे यनितधम%की सामग्री कहते हैं :—पंचेंदिदर्यसंवरणं, पंच वर्या पंचहिवंसविकरिरर्यासु ।पंच समिमदिद तर्य गुAी, संजमचरणं शिणरार्यारं ।।28।।पंचेजिन्द्रर्यसंवरणं पंच व्रताः पंचहिवंशवितविक्रर्यासु ।पंच समिमतर्यः वितस्रः गु=तर्यः संर्यमचरणं विनरागारम् ।।28।।

पंचेजिन्द्रसंवर, पांच व्रत पच्चीसविक्रर्यासंबद्ध जे,वळी पांच समिमवित, वित्रगुप्ति=त—अणआगार संर्यमचरण छे. 28.

अथ% :—पाँच इजिन्द्रयोंका संवर, पाँच व्रत ये पच्चीस निक्रयाके सद्भाव होने पर होते हैं, पाँच समिमनित और तीन गुन्तिप्त ऐसे निनरागार संयमचरण चारिरत्र होता है ।।28।।

आगे पाँच इजिन्द्रयोंके संवरणका -वरूप कहते है :—अमणुण्णे र्य मणुण्णे, सजीवदव्वे अजीवदव्वे र्य ।ण करेदिद रार्यदोसे, पंचेंदिदर्यसंवरो भशिणओ ।।29।।

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अमनोज्ञे च मनोज्ञे सजीवद्रवे्य अजीवद्रव्ये च ।न करोवित रागदे्वषौ पंचेजिन्द्रर्यसंवरः भशिणतः ।।29।।

सुमनोज्ञ ने अमनोज्ञ जीव-अजीवद्रव्योने विवषेकरवा न रागविवरोध ते पंचेजिन्द्रर्यसंवर उ} छे. 29.

अथ% :—अमनोज्ञ तथा मनोज्ञ ऐसे पदाथ% जि नको >ोग अपने मानें, ऐसे स ीवद्रव्य -त्री पुत्रादिदक और अ ीवद्रव्य धन धान्य आदिद सब पुद्ग> द्रव्य आदिदमें राग-दे्वष न करे, वह पाँच इजिन्द्रयोंका संवर कहा है ।

भावाथ% :—इजिन्द्रयगोचर स ीव अ ीव द्रव्य हैं, ये इजिन्द्रयोंके ग्रहणमें आते हैं, इनमें यह प्राणी निकसीको इष्ट मानकर राग करता है, निकसीको अनिनष्ट मानकर दे्वष करता है, इसप्रकार राग-दे्वष मुनिन नहीं करते हैं, उनके संयमचरण चारिरत्र होता है ।।29।।

आगे पाँच व्रतोंका -वरूप कहते हैं :—हिहंसाविवरई अहिहंसा, असच्चविवरई अदAविवरई र्य ।तुरिरर्यं अबंभविवरई, पंचम संगप्तिम्म विवरई र्य ।।30।।हिहंसाविवरवितरहिहंसा असत्र्यविवरवितः अदAविवरवितश्च ।तरु्यm अब्रह्मविवरवितः पंचमं संगे विवरवितः च ।।30।।

हिहंसाविवराम, असत्र्य तेम अदAर्थी विवरमण अनेअब्रह्मविवरमण, संगविवरमण—छे महाव्रत पांच ए. 30.

अथ% :—प्रथम तो हिहंसास े निवरनित अहिहंसा है, दूसरा असत्यनिवरनित है, तीसरा अदत्तनिवरनित है, चौथा अब्रह्मनिवरनित है और पाँचवाँ परिरग्रहनिवरनित है ।

भावाथ% :—इन पाँच पापोंका सव%था त्याग जि नमें होता है, वे पाँच महाव्रत कह>ाते हैं ।

आगे इनको महाव्रत क्यों कहते हैं ? वह बताते हैं :—साहंवित जं महल्ला, आर्यरिरर्यं जं महल्लपुव्वेहिहं ।जं च महल्लाशिण, तदो *महव्वर्या इAहे र्याइं ।।31।।

*. पाठान्तर:—‘महव्वया इत्तहे याइ’ के स्थान पर ‘महव्वयाइं तहेयाइं’ ।साधर्यंवित र्यन्महांतः आचरिरतं र्यत ्महत्पूव¶ः ।र्यच्च महप्तिन्त ततः महाव्रताविन एतस्मादे्वतोः ताविन ।।31।।

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मोटा पुरुष साधे, पूरव मोटा जनोए आचर्याm,स्वर्यमेव वळी मोटां ज छे, तेर्थी महाव्रत ते ठर्याm 31.

अथ% :—महल्>ा अथा%त ् महन्त पुरुष जि नको साधत े हैं—आचरण करत े ह ैं और पनिह>े भी जि नका महन्त पुरुषोंने आचरण निकया है तथा ये व्रत आप ही महान हैं, क्योंनिक इनमें पापका >ेश भी नहीं है—इसप्रकार ये पाँच महाव्रत हैं ।

भावाथ% :—जि नका बड़े पुरुष आचरण करें और आप निनद}ष हों वे ही बड़े कहाते हैं, इसप्रकार इन पाँच व्रतोंको महाव्रत संज्ञा है ।।31।।

आग े इन पाँच व्रतोंकी पच्चीस भावना कहत े हैं, उनमेंस े ही अहिहंसाव्रतकी पाँच भावना कहते हैं :—

वर्यगुAी मणगुAी, इरिरर्यासमिमदी सुदाणशिणक्खेवो ।अवलोर्यभोर्यणाए, अहिहंसए भावणा होंवित ।।32।।वचोगुप्ति=तः मनोगुप्ति=तः ईर्या�समिमवितः सुदानविनक्षेपः ।अवलोक्र्यभोजनेन अहिहंसार्या भावना भवंवित ।।32।।

मन-वचनगुप्ति=त, गमनसमिमवित, सुदानविनके्षपण अने,अवलोकीने भोजन—अहिहंसाभावना ए पांच छे. 32.

अथ% :—वचनगुन्तिप्त और मनोगुन्तिप्त ऐस े दो तो गुन्तिप्तया ँ ईया%समिमनित, भ> े प्रकार कमंO> ु आदिदका ग्रहण—निनके्षप यह आदाननिनक्षेपणा समिमनित और अच्छी तरह देkकर निवमिधपूव%क शुद्ध भो न करना यह एषणा समिमनित—इसप्रकार य े पाँच अहिहंसा महाव्रतकी भावना हैं ।

भावाथ% :—भावना नाम बारबार उसहीके अभ्यास करनेका है, सो यहा ँ प्रवृभित्त-निनवृभित्तमें हिहंसा >गती है, उसका निनरन्तर यत्न रkे तब अहिहंसाव्रतका पा>न हो, इसशि>ये यहाँ योगोंकी निनवृभित्त करनी तो भ>ेप्रकार गुन्तिप्तरूप करनी और प्रवृभित्त करनी तो समिमनितरूप करनी, ऐसे निनरन्तर अभ्याससे अहिहंसा महाव्रत दृढ़ रहता है, इसी आशयसे इनको भावना कहते हैं ।।32।।

आगे सत्य महाव्रतकी भावना कहते हैं :—कोहभर्यहासलोहा, मोहा विववरीर्यभावणा चेव ।विवदिदर्यस्स भावणाए, ए पंचेव र्य तहा होंवित ।।33।।

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क्रोधभर्यहास्र्यलोभमोहा विवपरीतभावनाः च एव ।विद्वतीर्यस्र्य भावना इमा पंचैव च तर्था भवंवित ।।33।।

जे क्रोध, भर्य ने हास्र्य तेम ज लोभ-मोह-कुभाव छे,तेना विवपर्य�र्यभाव ते छे भावना बीजा व्रते. 33.

अथ% :—क्रोध, भय, हा-य, >ोभ और मोह इनस े निवपरीत अथा%त ् उल्टा इनका अभाव ये निद्वतीय व्रत सत्य महाव्रतकी भावना है ।

भावाथ% :—असत्य वचनकी प्रवृभित्त क्रोधसे, भयसे, हा-यसे, >ोभसे, और परद्रव्यके मोहरूप मिमथ्यात्वसे होती है, इनका त्याग हो ाने पर सत्य महाव्रत दृढ़ रहता है ।

तत्त्वाथ%सूत्रमें पाँचवीं भावना अनुवीचीभाषण कही है, सो इसका अथ% यह है निक—जि नसूत्रके अनुसार वचन बो> े और यहा ँ मोहका अभाव कहा । वह मिमथ्यात्के निनमिमत्तसे सूत्रनिवरुद्ध बो>ता है, मिमथ्यात्वका अभाव होन े पर सूत्रनिवरुद्ध नहीं बो>ता है, अनुवीचीभाषणका भी यही अथ% हुआ, इसमें अथ%भेद नहीं है ।।33।।

आगे अचौय% महाव्रतकी भावना कहते हैं :—सुण्णार्यारशिणवासो, *विवमोचिचर्यावास जं परोधं च ।एसणसुशिद्धसउAं, साहम्मीसंविवसंवादो ।।34।।

*. पाठान्तरायः—निवमोशिचतावास ।शून्र्यागारविनवासः विवमोचिचतावासः र्यत ्परोधं च ।एषणाशुशिद्धसविहतं साधर्मिमंसमविवसंवादः ।।34।।

सूना अगर तो त्र्यकत स्थाने वास, पर-उपरोध ना,आहार एषणशुशिद्धरु्यत, साधम² सह विवखवाद ना. 34.

अथ% :—शून्यागार अथा%त ् निगरिर, गुफा, तरु, कोटरादिदम ें निनवास करना, निवमोशिचत्तावास अथा%त ् जि सको >ोगोंन े निकसी कारणस े छोड़ दिदया हो, इसप्रकारके गृह ग्रामादिदकमें निनवास करना, परोपरोध अथा%त् हा ँ दूसरेकी रुकावट न हो, वस्ति-तकादिदकको अपनाकर दूसरेको रोकना, इसप्रकार नहीं करा, एषणाशुजिद्ध अथा%त् आहार शुद्ध >ेना और साधर्मिमंयोंसे निवसंवाद नहीं करना । ये पाँच भावना तृतीय महाव्रतकी हैं ।

भावाथ% :—मुनिनयोंकी वस्ति-तकामें रहना और आहार >ेना ये दो प्रवृभित्तयाँ अवश्य होती हैं । >ोकमें इनहीके निनमिमत्त अदत्तका आदान होता है । मुनिनयोंको ऐसे स्थान पर रहना चानिहये हाँ अदत्तका दोष न >गे और आहार भी इस प्रकार >ें जि समें अदत्तका दोष न >गे तथा

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दोनोंकी प्रवृभित्तमें साधमN आदिदकसे निवसंवाद न उत्पन्न हो । इसप्रकार ये पाँच भावना कही हैं, इनके होनेसे अचौय% महाव्रत दृढ़ रहता है ।।34।।

आगे ब्रह्मचय% व्रतकी भावना कहते हैं :—मविहलालोर्यणपुव्वरइसरणसंसAवसविहविवकहाहिहं ।पुदिट्ठर्यरसेहिहं विवरओ, भावण पंचाविव तुरिरर्यप्तिम्म ।।35।।मविहलालोकनपूव�रवितस्मरणसंस}वसवितविवकर्थाशिभः ।पौविष्टकरसैः विवरतः भावनाः पंचाविप तरु्यt ।।35।।

मविहलाविनरीक्षण-पूव�रवितस्मृवित-विनकटवास, वित्रर्याकर्था,पौविष्टक रसोर्थी विवरवित-ते व्रत तुर्य�नी छे भावना. 35.

अथ% :–स्त्रि-त्रयोंका अव>ोकन अथा%त ् रागभावसनिहत देkना, पूव%का>म ें भोग े हुए भोगोंका -मरण करना, स्त्रि-त्रयोंस े संसक्त वस्ति-तकाम ें रहना, स्त्रि-त्रयोंकी कथा करना, पौमिष्टक रसोंका सेवन करना, इन पाँचोंसे निवकार उत्पन्न होता है, इसशि>ये इनसे निवरक्त रहना, ये पाँच ब्रह्मचय% महाव्रतकी भावना हैं ।

भावाथ% :—कामनिवकारके निनमिमत्तोंस े ब्रह्मचय%व्रत भंग होता है, इसशि>य े स्त्रि-त्रयोंको रागभावसे देkना इत्यादिद निनमिमत्त कहे, इनसे निवरक्त रहना, प्रसंग नहीं करना, इससे ब्रह्मचय% महाव्रत दृढ़ रहता है ।।35।।

आगे पाँच अपरिरग्रह महाव्रतकी भावना कहते हैं :—अपरिरग्गह समणुण्णेसु, स�परिरसरसरूवगंधेसु ।रार्य�ोसाईणं परिरहारो भावणा होंवित ।।36।।अपरिरग्रहे समनोज्ञेषु शब्दस्पश�रसरूपगंधेषु ।रागदे्वषादीनां परिरहारो भावनाः भवप्तिन्त ।।36।।

मनहर-अमनहर स्पश�-रस-रूप-गंध तेम ज शब्दमांकरवा न रागविवरोध, व्रत पंचम तणी ए भावना. 36.

अथ% :—शब्द, स्पश%, रस, रूप, गन्ध य े पाँच इजिन्द्रयोंके निवषय समनोज्ञ अथा%त् मनको अचे्छ >गनेवा>े और अमनोज्ञ अथा%त् मनको बुरे >गनेवा>े हों, तो इन दोनोंमें ही राग-दे्वष आदिद न करना परिरग्रहत्यागव्रतकी ये पाँच भावना हैं ।

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भावाथ% :—पाँच इजिन्द्रयोंके निवषय स्पश%, रस, गन्ध, वण%, शब्द य े हैं, इनमें इष्ट-अनिनष्ट बुजिद्धरूप राग-दे्वष नहीं करे, तब अपरिरग्रहव्रत दृढ़ रहता है, इसशि>ये ये पाँच भावना अपरिरग्रह महाव्रतकी कही गई हैं ।।36।।

आगे पाँच समिमनितयोंको कहते हैं :—इरिरर्या भासा एसण, जा सा आदाण चेव शिणक्खेवो ।*संजमसोविहशिणमिमAं खंवित जिजणा पंच समिमदीओ ।।37।।

* पाठान्तरः—सं मसोनिहभिणमिमत्ते ।ईर्या� भाषा एषणा र्या सा आदानं चैव विनक्षेपः ।संर्यमशोचिधविनमिमAं ख्र्याप्तिन्त जिजनाः पंच समिमतीः ।।37।।

ईर्या�, सुभाषा, एषणा, आदान ने विनक्षेप—ए,संर्यम तणी शुशिद्ध विनमिमAे समिमवित पांच जिजनो कहे. 37.

अथ% :—इया%, भाषा, एषणा, आदाननिनके्षपण और प्रनितष्ठापना य े पाँच समिमनितयाँ संयमकी शुद्धताके शि>ए कारण हैं, इसप्रकार जि नदेव कहते हैं ।

भावाथ% :—मुनिन पंचमहाव्रतरूप संयमका साधन करते हैं, उस संयमकी शुद्धताके शि>ए पाँच समिमनितरूप प्रवत%त े हैं, इसीसे इसका नाम साथ%क है—‘सं’ अथा%त ् सम्यक्प्रकार ‘इनित’ अथा%त् प्रवृभित्त जि समें हो सो समिमनित है । च>ते समय ूOा प्रमाण (चार हाथ) पृथ्वी देkता हुआ च>ता है, बो> े तब निहतमिमतरूप वचन बो>ता है, >ेव े तो शिछयाशि>स दोष, बत्तीस अंतराय टा>कर, चौदह म>दोष रनिहत शुद्ध आहार >ेता है, धम}पकरणोंको उठाकर ग्रहण कर े सो यत्नपूव%क >ेत े हैं; ऐसे ही कुछ क्षेपण कर ें तब यत्नपूव%क क्षेपण करते हैं, इसप्रकार निनष्प्रमाद वत� तब संयमका शुद्ध पा>न होता है, इसीशि>ये पंचसमिमनितरूप प्रवृभित्त कही है । इसप्रकार संयमचरण चारिरत्रकी प्रवृभित्तका वण%न निकया ।।37।।

अब आचाय% निनश्चयचारिरत्रको मनमें धारणकर ज्ञानका -वरूप कहते हैं :—भव्वजणबोहणyं, जिजणमग्गे जिजणवरेविह जह भशिणर्यं ।णाणं णाणसरूवं, अ=पाणं तं विवर्याणेविह ।।38।।भव्यजनबोधनार्थm जिजनमागt जिजनवरैः र्यर्था भशिणत ं।ज्ञान ंज्ञानस्वरूपं आत्मानं त ंविवजानीविह ।।38।।

रे ! भव्यजनबोधार्थ� जिजनमागt कहंु्य जिजन ते रीते,ते रीत जाणो ज्ञान ने ज्ञानात्म आत्माने तमे. 38.

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अथ% :—जि नमाग%म ें जि नेश्वरदेवन े भव्य ीवोंके संबोधनके शि>ए ैसा ज्ञान और ज्ञानका -वरूप कहा है उस ज्ञान-वरूप आत्मा है, उसको हे भव्य ीव ! तू ान ।

भावाथ% :—ज्ञानको और ज्ञानके -वरूपको अन्य मतवा>े अनेक प्रकारसे कहते हैं, वैसा ज्ञान और वैसा -वरूप ज्ञानका नहीं है । ो सव%ज्ञ वीतरागदेव भानिषत ज्ञान और ज्ञानका -वरूप है, वही निनबा%ध सत्याथ% ह ै और ज्ञान है, वही आत्मा ह ै तथा आत्माका -वरूप है, उसको ानकर उसमें ण्डिस्थरता भाव करे, परद्रव्योंसे राग-दे्वष नहीं करे वही निनश्चयचारिरत्र है, इसशि>ये पूव}क्त महाव्रतादिदकी प्रवृभित्त करके इस ज्ञान-वरूप आत्मामें >ीन होना इसप्रकार उपदेश है ।।38।।

आगे कहते हैं निक ो इसप्रकार ज्ञानसे ऐसे ानता है वह सम्यग्ज्ञानी है :–जीवाजीवविवभAी, जो जाणइ सो हवेइ सण्णाणी ।रार्यादिददोसरविहओ, जिजणसासणे *मोक्खमग्गोचिA ।।39।।

* पाठान्तर :– मोक्kमग्गुभित्त ।जीवाजीवविवभचि} र्यः जानावित स भवेत् सज्ज्ञानः ।रागादिददोषरविहतः जिजनशासने मोक्षमाग� इवित ।।39।।

जे जाणतो जीव-अजीवना सुविवभागने, सदज््ञानी तेरागादिदविवरविहत र्थार्य छे—जिजनशासने शिशवमाग� जे. 39.

अथ% :— ो पुरुष ीव और अ ीवका भेद ानता है वह सम्यग्ज्ञानी होता है और रागादिद दोषोंसे रनिहत होता है, इसप्रकार जि नशासनमें मोक्षमाग% है ।

भावाथ% :— ो ीव-अ ीव पदाथ%का -वरूप भेदरूप ानकर -व-परका भेद ानता है, वह सम्यग्ज्ञानी होता है और परद्रव्योंसे राग-दे्वष छोड़नेसे ज्ञानमें ण्डिस्थरता होने पर निनश्चय सम्यक्चारिरत्र होता है, वही जि नमतमें मोक्षमाग%का -वरूप कहा है । अन्य मतवा>ोंने अनेक प्रकारसे कल्पना करके कहा है, वह मोक्षमाग% नहीं है ।।39।।

आगे इसप्रकार मोक्षमाग%को ानकर श्रद्धा सनिहत इसमें प्रवृभित्त करता है, वह शीघ्र ही मोक्षको प्राप्त करता है, इसप्रकार कहते हैं :—

दंसणणाणचरिरAं, वितस्थिण्ण विव जाणेह परमसद्धाए ।जं जाशिणऊण जोई, अइरेण लहंवित शिणव्वाणं ।।40।।

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दश�नज्ञानचारिरतं्र त्रीण्र्यविप जानीविह परमश्रद्धर्या ।र्यत ्ज्ञात्वा र्योविगनः अचिचरेण लभंते विनवा�णम् ।।40।।

दृग, ज्ञान ने चारिरत्र—त्रण जाणो परम श्रद्धा व)े,जे जाणीने र्योगीजनो विनवा�णने अचिचरे वरे. 40.

अथ% :—हे भव्य ! तू दश%न—ज्ञान—चारिरत्र इन तीनोंको परमश्रद्धासे ान, जि नको ानकर योगी मुनिन थोडे़ ही का>में निनवा%णको प्राप्त करता है ।

भावाथ% :—सम्यग्दश%न—ज्ञान—चारिरत्र त्रयात्मक मोक्षमाग% है, इसको श्रद्धापूव%क ाननेका उपदेश है, क्योंनिक इसको ाननेसे मुनिनयोंको मोक्षकी प्रान्तिप्त होती है ।।40।।

आगे कहते हैं निक इसप्रकार निनश्चयचारिरत्ररूप ज्ञानका -वरूप कहा, ो इसको पाते हैं वे शिशवरूप मजिन्दरमें रहनेवा>े होते हैं :—

*पाऊण णाणसचिललं शिणम्मलसुविवसुद्धभावसंजुAा ।होंवित चिसवालर्यवासी वितहुवणचू)ामणी चिसद्धा ।।41।।

* पाठान्तरः—पीऊण ।

**प्रा=र्य ज्ञानसचिललं विनम�लसुविवशुद्धभावसंर्यु}ाः ।भवंवित शिशवालर्यवाचिसनः वित्रभुवनचू)ामणर्यः चिसद्धाः ।।41।।

** पाठान्तरः—पीत्वा ।जे ज्ञानजल पीने लहे सुविवशुद्ध विनम�ल परिरणवित,शिशवधामवासी चिसद्ध र्थार्य—वित्रलोकना चू)ामशिण. 41.

अथ% :— ो पुरुष इस जि नभानिषत ज्ञानरूप >को पीकर अपने निनम%> भ>े प्रकार निवशुद्धभाव संयुक्त होते हैं, वे पुरुष तीन भुवनके चूOा़मभिण और शिशवा>य अथा%त् मोक्षरूपी मजिन्दरमें रहनेवा>े शिसद्ध परमेष्ठी होते हैं ।

भावाथ% :— ैसे >से -नान करके शुद्ध होकर उत्तम पुरुष मह>में निनवास करते हैं वैसे ही यह ज्ञान, >के समान है और आत्माके रागादिदक मै> >गनेसे मशि>नता होती है, इसशि>ये इस ज्ञानरूप >से रागादिदक म>को धोकर ो अपनी आत्माको शुद्ध करते हैं वे मुशिक्तरूप मह>में रहकर आनन्द भोगते हैं, उनको तीन भुवनके शिशरोमभिण शिसद्ध कहते हैं ।।41।।

आगे कहते हैं निक ो ज्ञानगुणसे रनिहत हैं वे इष्ट व-तुको नहीं पाते हैं, इसशि>ये गुण-दोषको जाननेके चिलर्ये ज्ञानको भले प्रकारसे जाननाः—

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णाणगुणेहिहं विवहीणा, ण लहंते ते सुइस्थिच्छरं्य लाहं ।इर्य णाउं गुणदोसं, तं सण्णाणं विवर्याणेविह ।।42।।ज्ञानगुणैः विवहीना न लभते त ेत्थिस्वषं्ट लाभं ।इवित ज्ञात्वा गुणदोषौ तत ्सदज््ञानं विवजानीविह ।।42।।

जे ज्ञानगुणर्थी रविहत, ते पामे न लाभ सुइष्टने,गुणदोष जाणी ए रीते, सदज््ञानने जाणो तमे. 42.

अथ% :—ज्ञानगुणस े हीन पुरुष अपनी इण्डिच्छत व-तुके >ाभको नहीं प्राप्त करते, इसप्रकार ानकर हे भव्य ! तू पूव}क्त सम्यग्ज्ञानको गुण—दोषके ानने के शि>ये ान ।

भावाथ% :—ज्ञानके निबना गुण—दोषका ज्ञान नहीं होता है, तब अपनी इष्ट तथा अनिनष्ट व-तको नहीं ानता है, तब इष्ट व-तुका >ाभ नहीं होता है, इसचिलर्ये सम्र्यग्ज्ञान ही से गुण—दोष जाने जाते हैं । क्योंनिक सम्यग्ज्ञानके निबना हेय—उपादेय व-तुओंका ानना नहीं होता और हेय—उपादेयको ाने निबना सम्यक्चारिरत्र नहीं होता है, इसशि>ये ज्ञान ही को चारिरत्रसे प्रधान कहा है ।।42।।

आगे कहते हैं निक ो सम्यग्ज्ञान सनिहत चारिरत्र धारण करता है, वह थोड़े ही का>में अनुपम सुkको पाता है :—

चारिरAसमारूढो, अ=पासु परं ण ईहए णाणी ।पावइ अइरेण सुहं, अणोवमं जाण शिणच्छर्यदो ।।43।।चारिरत्रसमारूढ आत्मविन* परं न ईहत ेज्ञानी ।प्राप्नोवित अचिचरेण सुखं अनुपमं जानीविह विनश्चर्यतः ।।43।।

*—सं. प्रनितमें ‘आत्मनिन’ के स्थानमें ‘आत्मनः’ श्रुतसागरी सं0 टीका मुदिद्रत प्रनितमें टीकामें अथ% भी ‘आत्मनः’ का ही निकया है, दे- पृ. 54.

ज्ञानी चारिरत्रारूढ र्थई विनज आत्ममां पर नव चहे,अचिचरे लहे शिशवसौख्र्य अनुपम एम जाणो विनश्चर्ये. 43.

अथ% :— ो पुरुष ज्ञानी ह ै और चारिरत्र सनिहत है, वह अपनी आत्मामें परद्रव्यकी इच्छा नहीं करता है, परद्रव्यमें राग—दे्वष—मोह नहीं करता है । वह ज्ञानी जि सकी उपमा नहीं है इसप्रकार, अनिवनाशी मुशिक्तके सुkको पाता है । हे भव्य ! तू निनश्चयसे इसप्रकार ान । यहाँ ज्ञानी होकर हेय—उपादेयको ानकर, संयमी बनकर परद्रव्यको अपनेमें नहीं मिम>ाता है वह परम सुk पाता है,—इसप्रकार बताया है ।।43।।

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आगे इष्ट चारिरत्रके कथनका संकोच करते हैं :—एवं संखेवेण र्य, भशिणरं्य णाणेण वीर्यराएण ।सम्मAंसंजमासर्य, दुण्हं विप उदेचिसर्यं चरणं ।।44।।एवं संक्षेपेण च भशिणत ंज्ञानेन वीतरागेण ।सम्र्यक्त्वसंर्यमाश्रर्य द्वर्योरविप उ�ेशिशत ंचरणम् ।।44।।

वीतरागदेवे ज्ञानर्थी सम्र्यक्त्व-संर्यम-आश्ररे्यजे चरण भाख्र्युं, ते कहंु्य संके्षपर्थी अहीं आ रीते. 44.

अथ% :—एवं अथा%त् ऐसे पूव}क्त प्रकार संक्षेपसे श्री वीतरागदेवने ज्ञानके द्वारा कहे, इसप्रकार सम्यक्त्व और संयम इन दोनोंके आश्रय चारिरत्र सम्यक्त्वचरण-वरूप और संयमचरण-वरूप दो प्रकारस े उपदेश निकया है, आचाय%न े चारिरत्रके कथनको संक्षेपरूपसे कहकर संकोच निकया है ।।44।।

आगे इस चारिरत्रपाहुड़को भानेका उपदेश और इसका फ> कहते हैं :—भावेह भावसुदं्ध, फु)ु रइर्यं चरणपाहु)ं चेव ।लहु चउगइ चइऊणं, अइरेणऽपुणब्भवा होई ।।45।।भावर्यत भावशुदं्ध सु्फटं रचिचत ंचरणप्राभृतं चैव ।लघु चतगु�तीः त्र्यक्त्वा अचिचरेण अपुनभ�वाः भवत ।।45।।

भावो विवमळ भावे चरणप्राभृत सुविवरचिचत स्पष्ट जे,छो)ी चतुग�वित शीघ्र पामो मोक्ष शाश्वतने तमे. 45.

अथ% :—यहा ँ आचाय% कहते ह ैं निक हे भव्य ीवो ! यह चरण अथा%त ् चारिरत्रपाहुड़ हमन े सु्फट प्रगट करके बनाया है, उसको तुम अपन े शुद्धभावस े भाओ । अपन े भावोंमें बारंबार अभ्यास करो, इससे शीघ्र ही चार गनितयोंको छोड़कर अपुनभ%व मोक्ष तुम्हें होगा, निफर संसारमें न्म नहीं पाओगे ।

भावाथ% :—इस चारिरत्रपाहुOको वांचना, पढ़ना, धारण करना, बारम्बार भाना, अभ्यास करना यह उपदेश है, इससे चारिरत्रका -वरूप ानकर धारण करनेकी रुशिच हो, अंगीकार कर े तब चार गनितरूप संसारके दुःkस े रनिहत होकर निनवा%णको प्राप्त हो, निफर संसारमें न्म धारण नहीं करे; इसशि>ये ो कल्याणको चाहते हों वे इस प्रकार करो ।।45।।

(छप्पय)

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चारिरत दोर्य प्रकार देव जिजनवरने भाख्र्या ।समविकत संर्यम चरण ज्ञानपूरव वितस राख्र्या ।।जे नर सरधावान र्याविह धारैं विवचिध सेती ।विनश्चर्य अर व्यवहार रीवित आगममें जेती ।।जब जगधंधा सव मेदिटकैं विनजस्वरूपमें चिर्थर रहै ।तब अष्टकम�कंू नाशिशकै अविवनाशी शिशवकंू लहै ।।1।।

ऐसे सम्यक्त्वचरण चारिरत्र और संयमचरण चारिरत्र—दो प्रकारके चारिरत्रका -वरूप इस प्राभृतमें कहा ।

(दोहा)जिजनभाविषत चारिरत्रकंू जे पालैं मुविनराज ।वितविनके चरण नमूं सदा पाऊँ वितविन गुणसाज ।।2।।

इनित श्रीकुन्दकुन्दाचाय%-वामिम निवरशिचत चारिरत्रप्राभृतकी पं0 यचन्द्र ी छावड़ाकृत देशभाषामय वचनिनकाका निहन्दी भाषानुवाद समाप्त ।।3।।

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बोधपाहु)4दोहा

देव जिजनेश्वर सव�गुरु, बंदंू मन-वच-कार्य ।जा प्रसाद भविव बोध ले, पालैं जीव विनकार्य ।।1।।

इसप्रकार मंग>ाचरणके द्वारा श्री कुन्दकुन्द आचाय%कृत प्राकृत गाथाबद्ध ‘बोधपाहुO’की देशभाषामय वचनिनकाका निहन्दी भाषानुवाद शि>kते हैं, पनिह>े आचाय% ग्रन्थ करनेकी मंग>पूव%क प्रनितज्ञा करते हैं :—

बहुसyअyजाणे, संजमसम्मAसुद्धतवर्यरणे ।वंदिदAा आर्यरिरए, कसार्यमलवस्थिज्जदे सुदे्ध ।।1।।सर्यलजणबोहणyं, जिजणमग्गे जिजणवरेहिहं जह भशिणर्यं ।वोच्छामिम समासेण, *छक्कार्यसुहंकरं सुणह ।।2।।

* मुदिद्रत सटीक सं-कृत प्रनितमें ‘छक्कायनिहयंकर’ ऐसा पाठ है ।बहुशास्त्रार्थ�ज्ञापकान् संर्यमसम्र्यक्त्वशुद्धतपश्चरणान् वजिन्दत्वा आचार्या�न ्कषार्यमलवर्जिजंतान ्शुद्धान् ।।1।।सकलजनबोधनार्थm जिजनमागt जिजनवरैः र्यर्था भशिणतम् ।वक्ष्र्यामिम समासेन षट्कार्यसुखंकरं श्रृणु ।।2।। र्युग्मम् ।।

शास्त्रार्थ� बहु जाणे, सुदृगसंर्यमविवमल तप आचरे,वर्जिजंतकषार्य, विवशुद्ध छे, ते सूरिरगणने वंदीने. 1.षट्कार्यसुखकर कर्थन करंु संक्षेपर्थी, सुणजो तमे,जे सव�जनबोधार्थ� जिजनमागt कहंु्य छे जिजनवरे. 2.

अथ% :—आचाय% कहते ह ैं निक—मैं आचाय�को नम-कार कर, छहकायके ीवोंको सुkके करनेवा>े, जि नमाग%में जि नदेवने ैसे कहा है वैसे, जि समें सम-त >ोकके निहतका ही प्रयो न है ऐसा ग्रन्थ संक्षेपमें कहूँगा, उसको हे भव्य ीवो ! तुम सुनो । जि न आचाय�की वंदना की व े आचाय% कैस े ह ैं ? बहुत शा-त्रोंके अथ%को ाननेवा> े हैं, जि नका तपश्चरण सम्यक्त्व और संयमसे शुद्ध है, कषायरूप म>से रनिहत हैं, इसीशि>ये शुद्ध हैं ।

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भावाथ% :—यहा ँ आचाय�की वंदना की, उनके निवशेषणोंस े ाना ाता ह ै निक—गणधरादिदकसे >ेकर अपने गुरुपय�त सबकी बन्दना है और ग्रन्थ करनेकी प्रनितज्ञा की उसके निवशेषणोंसे ाना ाता है निक— ो बोधपाहुO ग्रन्थ करेंगे वह >ोगोंको धम%माग%में सावधान कर कुमाग% छुOा़कर अहिहंसाधम%का उपदेश करेगा ।।3।।

आगे इस ‘बोधपाहुO’में ग्यारह स्थ> बांधे हैं, उनके नाम कहते हैं :—आर्यदणं चेदिदहरं, जिजणपवि)मा दंसणं च जिजणहिबंबं ।भशिणर्यं सुवीर्यरार्यं, जिजणुमु�ा णाणमादyं ।।3।।अरहंतेण सुदिदटं्ठ, जं देवं वितyमिमह र्य अरहंतं ।पावज्जगुणविवसुद्धा, इर्य णार्यव्वा जहाकमसो ।।4।।आर्यतन ंचैत्र्यगृहं जिजनप्रवितमा दश�न ंच जिजनहिबंबम् ।भशिणत ंसुवीतरागं जिजनमुद्रा ज्ञानमात्मार्थ�म्* ।।3।।

1. ‘आत्मस्थं’ सं-कृतमें पाठान्तर है ।अह�ता सुदृषं्ट र्यः देवः तीर्थ�मिमह च अह�न् ।प्रव्रज्र्या गुणविवशुद्धा इवित ज्ञातव्याः र्यर्थाक्रमशः ।।4।।

जे आर्यतन ने चैत्र्यगृह, प्रवितमा तर्था दश�न अने,वीतराग जिजननंु हिबंब, जिजनमुद्रा, स्वहेतुक ज्ञान जे. 3.अहmतदेशिशत देव, तेम ज तीर्थ�, वळी अहmत ने,गुणशुद्ध प्रव्रज्र्या र्यर्थाक्रमशः अहीं ज्ञातव्य छे. 4.

अथ% :—1—आर्यतन, 2—चैत्र्यगृह, 3—जिजनप्रवितमा, 4—दश�न, 5—जिजनहिबंब । कैसा है जि नहिबंब ? भ>े प्रकार वीतराग है, 6—जिजनमुद्रा रागसनिहत नहीं होती है, 7—ज्ञान पद कैसा ? आत्मा ही है अथ% अथा%त् प्रयो न जि समें, इसप्रकार सात तो ये निनश्चय, वीतरागदेवने कहे वैस े यथा अनुक्रमसे ानना और 8—देव, 9—तीर्थ�, 10—अरहंत तथा गुणसे निवशुद्ध 11—प्रव्रज्र्या, ये चार ो अरहंत भगवानने कहे वैसे इस ग्रन्थमें ानना, इसप्रकार ये ग्यारह स्थ> हुए ।।3—4।।

भावाथ% :—यहाँ आशय इसप्रकार ानना चानिहये निक—धम%माग%में का>दोषसे अनेक मत हो गये हैं तथा ैनमतमें भी भेद हो गये हैं, उनमें आयतन आदिदमें निवपय%य (निवपरीतपना) हुआ है, उनका परमाथ%भूत सच्चा -वरूप तो >ोग ानते नहीं है और धम%के >ोभी होकर ैसी बाह्य प्रवृभित्त देkत े ह ैं उसम ें ही प्रवत%न े >ग ात े हैं, उनको संबोधनेके शि>ए यह

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‘बोधपाहुO’ बनाया है । उसमें आयतन आदिद ग्यारह स्थानोंका परमाथ%भूत सच्चा -वरूप ैसा सव%ज्ञदेवन े कहा ह ै वैसा कहेंगे, अनुक्रमस े ैस े नाम कह े ह ैं वैस े ही अनुक्रमस े इनका व्याख्यान करेंगे सो ानने योग्य है ।।3—4।।

आगे प्रथम ही ो आर्यतन कहा उसका निनरूपण करते हैं :—मणवर्यणकार्यदव्वा, आर्यAा* जस्स इजिन्दर्या विवसर्या ।आर्यदणं जिजणमग्गे, शिणदि�टं्ठ संजर्यं रूवं ।।5।।

* सं0 प्रनितमें ‘आसत्ता’ पाठ है जि सकी सं-कृत ‘आसक्ता’ है ।मनोवचनकार्यद्रव्याशिण आर्यAाः र्यस्र्य ऐजिन्द्रर्याः विवषर्याः ।आर्यतन ंजिजनमागt विनर्दिदंषं्ट संर्यत ंरूपम् ।।5।।

आर्यA छे मन-वचन-कार्या इजिन्द्रविवषर्यो जेहने,ते संर्यमीनुं रूप भाख्रंु्य आर्यतन जिजनशासने. 5.

अथ% :—जि नमाग%में संयमरनिहत मनुष्य है उसे ‘आयतन’ कहा है । कैसा है मुनिनरूप ?—जि सके मन-वचन-काय द्रव्यरूप हैं वे, तथा पाँच इजिन्द्रयोंके स्पश%, रस, गंध, वण%, शब्द ये निवषय ह ैं वे, ‘आयत्ता’ अथा%त ् अधीन हैं—वशीभूत ह ैं । उनके (मन-वचन-काय और पाँच इजिन्द्रयोंके निवषय) संयमी मुनिन आधीन नहीं है, वे मुनिनके वशीभूत ह ैं । ऐसा संयमी ह ै वह ‘आयतन’ है ।।5।।

आगे निफर कहते हैं :—मर्यरार्यदोस मोहो, कोहो लोहो र्य जस्स आर्यAा ।पंचमहव्वर्यधारी, आर्यदणं महरिरसी भशिणर्यं ।।6।।मदः रागः दे्वषः मोहः क्रोध लोभः च र्यस्र्य आर्यAाः ।पंचमहाव्रतधारी आर्यतन ंमहष�र्यो भशिणताः ।।6।।

आर्यA जस मद-क्रोध-लोभ विवमोह-राग-विवरोध छे,ऋविषवर्य� पंचमहाव्रती ते आर्यतन विनर्दिदषं्ट छे. 6.

अथ% :—जि स मुनिनके मद, राग, दे्वष, मोह, क्रोध, >ोभ और चकारसे माया आदिद ये सब ‘आयत्ता’ अथा%त् निनग्रहको प्राप्त हो गये और पाँच महाव्रत ो अहिहंसा, सत्य, अचौय%, ब्रह्मचय% तथा परिरग्रहका त्याग उनका धारी हो, ऐसा महामुनिन ऋषीश्वर ‘आयतन’ कहा है ।

भावाथ% :—पनिह>ी गाथामें तो बाह्यका -वरूप कहा था । यहाँ बाह्य-आभ्यंतर दोनों प्रकारसे संयमी हो वह ‘आयतन’ है, इसप्रकार ानना चानिहये ।।6।।

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आगे निफर कहते हैं :—चिसदं्ध जस्स सदyं, विवसुद्धझाणस्स णाणजुAस्स ।चिसद्धार्यदणं सुदं्ध, मुशिणवरवसहस्स मुशिणदyं ।।7।।चिसदं्ध र्यस्र्य सदर्थ� विवशुद्धध्र्यानस्थ ज्ञानर्यु}स्र्य ।चिसद्धार्यतन ंचिसदं्ध मुविनवरवृषभस्र्य मुविनतार्थ�म् ।।7।।

सुविवशुद्धध्र्यानी, ज्ञानर्युत, जेने सुचिसद्ध सदर्थ� छे,मुविनवरवृषभ ते मलरविहत चिसद्धार्यतन विवदिदतार्थ� छे. 7.

अथ% :—जि स मुनिनके सदथ% अथा%त ् समीचीन अथ% ो ‘शुद्ध आत्मा’ सो शिसद्ध हो गया, हो वह शिसद्धायतन है । कैसा है मुनिन ? जि सके निवशुद्ध ध्यान है, धम%ध्यानको साधकर शुक्>ध्यानको प्राप्त हो गया है; ज्ञानसनिहत है, केव>ज्ञानको प्राप्त हो गया है । घानितकम%रूप म> से रनिहत है, इसीशि>ये मुनिनयोंमें ‘वृषभ’ अथा%त् प्रधान है, जि सने सम-त पदाथ% ान शि>ये हैं । इसप्रकार मुनिनप्रधानको ‘शिसद्धायतन’ कहते हैं ।

भावाथ% :—इसप्रकार तीन गाथामें ‘आयतन’ का -वरूप कहा । पनिह>ी गाथामें तो संयमी सामान्यका बाह्यरूप प्रधानतासे कहा । दूसरीमें अंतरंग—बाह्य दोनोंकी शुद्धतारूप ऋजिद्धधारी मुनिन ऋषीश्वर कहा और इस तीसरी गाथामें केव>ज्ञानीको, ो मुनिनयोंमें प्रधान है, ‘शिसद्धायतन’ कहा है । यहाँ इसप्रकार ानना ो ‘आयतन’ अथा%त् जि समें बसे, निनवास करे उसको आयतन कहा है, इसशि>ये धम%पद्धनितमें ो धमा%त्मा पुरुषके आश्रय करने योग्य हो वह ‘धमा%यतन’ है । इसप्रकार मुनिन ही धम%के आयतन हैं, अन्य कोई भेषधारी, पाkंOी (–ढ़ोंगी) निवषय-कषायोंम ें आसक्त, परिरग्रहधारी धम%के आयतन नहीं हैं, तथा ैनमतम ें भी ो सूत्रनिवरुद्ध प्रवत%ते हैं वे भी आयतन नहीं है, वे सब ‘अनायतन’ हैं । बौद्धमतमें पाँच इजिन्द्रय, उनके पाँच निवषय, एक मन, एक धमा%यतन शरीर ऐसे बारह आयतन कहे हैं वे भी कण्डिल्पत हैं, इसशि>य े ैसा यहा ँ आयतन कहा वैसा ही ानना; धमा%त्माको उसीका आश्रय करना, अन्यकी -तुनित, प्रशंसा, निवनयादिदक न करना, यह बोधपाहुO ग्रन्थ करनेका आशय ह ै । जि समें इसप्रकारके निनग्र%न्थ मुनिन रहते हैं, ऐसे क्षेत्रको भी ‘आयतन’ कहते हैं, ो व्यवहार है ।।7।।

(2) आगे चैत्यगृहका निनरूपण करते हैं :—बुदं्ध जं बोहंतो, अ=पाणं चेदर्याइं अण्णं च ।पंचमहव्वर्यसुदं्ध, णाणमर्यं जाण चेदिदहरं ।।8।।

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बुदं्ध र्यत ्बोधर्यन ्आत्मानं चैत्र्याविन अन्र्यत ्च ।पंचमहाव्रतशुदं्ध ज्ञानमर्यं जानीविह चैत्र्यगृहम् ।।8।।

स्वात्मा-परात्मा-अन्र्यने जे जाणतां ज्ञान ज रहे,छे चैत्र्यगृह, ते ज्ञानमूर्वितं, शुद्ध पंचमहाव्रते. 8.

अथ% :— ो मुनिन ‘बुद्ध’ अथा%त् ज्ञानमयी आत्माको ानता हो, अन्य ीवोंको ‘चैत्य’ अथा%त् चेतना-वरूप ानता हो, आप ज्ञानमयी हो और पाँच महाव्रतोंसे शुद्ध हो, निनम%> हो, उस मुनिनको हे भव्य ! तू चैत्यगृह ान ।

भावाथ% :—जि सम ें अपनेको और दूसरेको ाननेवा>ा ज्ञानी, निनष्पाप—निनम%> इसप्रकार चैत्य अथा%त् चेतना-वरूप आत्मा रहता है, वह ‘चैत्यगृह’ है । इसप्रकारका चैत्यगृह संयमी मुनिन है, अन्य पाषाण आदिदके मंदिदरको ‘चैत्यगृह’ कहना व्यवहार है ।।8।।

आगे निफर कहते हैं :—चेइर्य बंधं मोक्खं, दुक्खं सुक्खं च अ=परं्य तस्स ।चेइहरं जिजणमग्गे, छक्कार्यविहर्यंकरं भशिणर्यं ।।9।।चैत्र्यं बंधं मोकं्ष दुःखं च आत्मकं तस्र्य ।चैत्र्यगृह जिजनमागt ष)्कार्यविहतंकरं भशिणतम् ।।9।।

चेतन स्वरं्य, सुख-दुःख-बंधन-मोक्ष जेने अल्प छे,षट्कार्यविहतकर तेह भाख्रंु्य चैत्र्यगृह जिजनशासने. 9.

अथ% :—जि सके बंध और मोक्ष, सुk और दुःk हो उस आत्माको चैत्य कहते हैं—अथा%त् ये शिचह्न जि सके -वरूपमें हो उसे ‘चैत्य’ कहते हैं, क्योंनिक ो चैतना-वरूप हो उसीके बंध, मोक्ष, सुk, दुःk संभव हैं । इसप्रकार चैत्यका ो गृह हो वह ‘चैत्यगृह’ है । जि नमाग%में इसप्रकार चैत्यगृह छहकायका निहत करनेवा>ा होता है । वह इसप्रकारका ‘मुनिन’ है । पाँच स्थावर और त्रसम ें निवक>त्रय और असैनी पंचेजिन्द्रय तक केव> रक्षा ही करन े योग्य हैं, इसशि>ये उनकी रक्षा करनेका उपदेश करता है, तथा आप उनका घात नहीं करता ह ै यही उनका निहत है: और सैनी पंचेजिन्द्रय ीव हैं उनकी रक्षा भी करता है, रक्षाका उपदेश भी करता ह ै तथा उनको संसारस े निनवृभित्तरूप मोक्ष प्राप्त करनेका उपदेश करत े ह ैं । इसप्रकार मुनिनरा को ‘चैत्यगृह’ कहते हैं ।

भावाथ% :—>ौनिकक न चैत्यगृहका -वरूप अन्यथा अनेक प्रकार मानते हैं, उनको सावधान निकया है निक—जि नसूत्रमें छहकायका निहत करनेवा>ा ज्ञानमयी संयमी मुनिन है, वह

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‘चैत्यगृह’ है; अन्यको चैत्यगृह कहना, मानना व्यवहार है । इसप्रकार चैत्यगृहका -वरूप कहा ।।9।।

(3) आगे जि नप्रनितमाका निनरूपण करते हैं :—सपरा जंगमदेहा दंसणणाणेण सुद्धचरणाणं ।शिणग्गंर्थवीर्यरार्या जिजणमग्गे एरिरसा पवि)मा ।।10।।स्वपरा जंगमदेहा दश�नज्ञानेन शुद्धचरणानाम् ।विनग्र�न्थवीतरागा जिजनमागt ईदृशी प्रवितमा ।।10।।

दृग ज्ञान-विनम�लचरणधरनी शिभन्न जंगम कार्य जे,विनग्र�न्थ ने वीतराग, ते प्रवितमा कही जिजनशासने. 10.

अथ% :—जि नका चारिरत्र, दश%न-ज्ञानमें शुद्ध-निनम%> है, उनकी -व-परा अथा%त् अपनी और ‘पर’की च>ती हुई देह है, वह जि नमाग%म ें ‘ ंगम प्रनितमा’ है; अथवा -वपरा अथा%त् आत्मासे पर यानी भिभन्न है ऐसी देह है । वह कैसी ह ै ? जि सका निनग्र%न्थ -वरूप है, कुछ भी परिरग्रहका >ेश भी नहीं है ऐसी दिदगम्बर मुद्रा है । जि सका वीतराग -वरूप है, निकसी व-तुसे राग-दे्वष-मोह नहीं है, जि नमाग%में ऐसी ‘प्रनितमा’ कही है । जि नके दश%न ज्ञानसे निनम%> चारिरत्र पाया ाता है, इसप्रकार मुनिनयोंकी गुरु—शिशष्य अपेक्षा अपनी तथा परकी च>ती हुई देह निनग्र%न्थ वीतरागमुद्रा -वरूप है, वह जि नमाग%म ें ‘प्रनितमा’ है, अन्य कण्डिल्पत ह ै और धातु—पाषाण आदिदसे बनाये हुए दिदगम्बर मुद्रा -वरूपको प्रनितमा कहते हैं, ो व्यवहार है । वह भी बाह्य आकृनित तो वैसी ही हो वह व्यवहारमें मान्य है ।।10।।

आगे निफर कहते हैं :—जं चरदिद सुद्धचरणं, जाणइ विपचे्छइ सुद्धसम्मAं ।सा होई वंदणीर्या शिणग्गंर्था संजदा पवि)मा ।।11।।र्यः चरिरत शुद्धचरणं जानावित पश्र्यवित शुद्धसम्र्यक्त्वम् ।सा भववित वंदनीर्या विनग्र�न्था संर्यता प्रवितमा ।।1।।

जाणे-जुए विनम�ल सुदृग सह, चरण विनम�ल आचरे,ते वंदनीर्य विनग्रmर्थ-संर्यतरूप प्रवितमा जाणजे. 11.

अथ% :— ो शुद्ध आचरणका आचरण करत े ह ैं तथा सम्यग्ज्ञानस े यथाथ% व-तुको ानते हैं और सम्यग्दश%नसे अपने -वरूपको देkते हैं, इसप्रकार शुद्धसम्यक्त्व जि नके पाया ाता है, ऐसी निनग्र%न्थ संयम-वरूप प्रनितमा है वह वंदन करने योग्य है ।

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भावाथ% :— ाननेवा>ा, देkनेवा>ा, शुद्धसम्यक्त्व, शुद्धचारिरत्र-वरूप, निनग्र%न्थ संयमसनिहत, इसप्रकार मुनिनका -वरूप ह ै वही प्रनितमा है, वही वंदन करने योग्य है; अन्य कण्डिल्पत वंदन करन े योग्य नहीं ह ै और वैस े ही रूपसदृश धातुपाषाणकी प्रनितमा हो वह व्यवहारसे वंदने योग्य है ।।11।।

आगे निफर कहते हैं :—दंसणअणंतणाणं अणंतवीरिरर्य अणंतसुक्खा र्य ।सासर्यसुक्ख अदेहा मुक्का कम्मट्ठबंधेहिहं ।।12।।विनरुवममचलमखोहा शिणप्तिम्मविवर्या *जंगमेण रूवेण ।चिसद्धठ्ठाणप्तिम्म दिठर्या वोसरपवि)मा धुवा चिसद्धा ।।13।।

* सं0 प्रनितमें ‘निनमा%निपताः’ ‘अ गमेन रूपेण’ ऐसी छाया है ।दश�नानन्तज्ञान ंअनन्तवीर्या�ः अनंतसुखाः च ।शाश्वतसुखा अदेहा मु}ाः कमा�ष्टकबंधः ।।12।।विनरुपमा अचला अक्षोभ्र्याः विनमा�विपता जंगमेन रूपेण ।चिसद्धस्थाने स्थिस्थताः व्युत्सग�प्रवितमा ध्रुवाः चिसद्धाः ।।13।।

विनःसीम दश�न-ज्ञान ने सुख-वीर्य� वतt जेमने,शाश्वतसुखी, अशरीर ने कमा�ष्टबंधविवमु} जे. 12.अक्षोभ-विनरुपम-अचल-ध्रुव, उत्पन्न जंगम रूपर्थी,ते चिसद्ध चिसद्धस्थानस्थिस्थत, व्युत्सग�प्रवितमा जाणवी. 13.

अथ% :— ो अनंतदश%न, अनंतज्ञान, अनंतवीय% और अनंतसुk सनिहत हैं; शाश्वत अनिवनाशी सुk-वरूप हैं, अदेह हैं—कम% नोकम%रूप पुद्ग>मयी देह जि नके नहीं है; अष्टकम%के बंधनसे रनिहत हैं, उपमा रनिहत हैं—जि सकी उपमा दी ाय ऐसी >ोकमें व-तु नहीं है; अच> हैं—प्रदेशोंका च>ना जि नके नहीं है; अक्षोभ हैं—जि नके उपयोगमें कुछ क्षोभ नहीं है, निनश्च> हैं— ंगमरूपसे निनर्मिमंत हैं; कम%से निनमु%क्त होनेके बाद एक समयमात्र गमनरूप हैं, इसशि>ये ंगमरूपसे निनमा%निपत हैं; शिसद्धस्थान ो >ोकका अग्रभाग उसमें ण्डिस्थत हैं; वु्यत्सग% अथा%त् कायरनिहत हैं— ैसा पूव% शरीरमें आकार था वैसा ही प्रदेशोंका आकार—चरम शरीरसे कुछ कम हैं; धु्रव है—संसारसे मुक्त हो (उसी समय) एकसमयमात्र गमन कर >ोकके अग्रभाग ाकर ण्डिस्थत हो ाते हैं, निफर च>ाच> नहीं होते हैं ऐसी प्रनितमा ‘शिसद्ध भगवान्’ है ।

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भावाथ% :—पनिह>े दो गाथाओंमें तो ंगम प्रनितमा संयमी मुनिनयोंकी देहसनिहत कही । इन दो गाथाओंमें ‘शिथरप्रनितमा’ शिसद्धोंकी कही, इसप्रकार ंगम थावर प्रनितमाका -वरूप कहा । अन्य कई अन्यथा बहुत प्रकारसे कल्पना करते हैं, वह प्रनितमा वंदन करने योग्य नहीं है ।

यहा ँ प्रश्न :—यह तो परमाथ%रूप कहा और बाह्य व्यवहारम ें पाषाणादिदककी प्रनितमाकी वंदना करते हैं वह कैसे ? उसका समाधान :— ो बाह्य व्यवहारमें मतांतरके भेदसे अनेक रीनित प्रनितमाकी प्रवृभित्त है, यहाँ परमाथ%को प्रधानकर कहा है और व्यवहार है वहाँ ैसा प्रनितमाका परमाथ%रूप हो, उसीको सूशिचत करता हो वह निनबा%ध है । ैसा परमाथ%रूप आकार कहा वैसा ही आकाररूप व्यवहार हो वह व्यवहार भी प्रश-त है; व्यवहारी ीवोंके यह भी वंदन करने योग्य है । -याद्वाद न्यायसे शिसद्ध निकये गये परमाथ% और व्यवहारमें निवरोध नहीं है ।।12—13।।

इसप्रकार जि नप्रनितमाका -वरूप कहा ।(4) आगे दश%नका -वरूप कहते हैं :—

दंसेइ मोक्खमग्गं सम्मAं संजम सुधम्मं च ।शिणग्गंरं्थ णाणमर्यं जिजणमग्गे दंसणं भशिणर्यं ।।14।।दश�र्यवित मोक्षमाग� सम्र्यक्त्वं संर्यमं सुधमm च ।विनग्र�नं्थ ज्ञानमर्यं जिजनमागt दश�न ंभशिणतम् ।।14।।

दशा�वतंु संर्यम-सुदृग-सद्धम�रूप, विनग्रmर्थ ने,ज्ञानात्म मुचि}माग�, ते दश�न कहंु्य जिजनशासने. 14.

अथ% :— ो मोक्षमाग%को दिदkाता है वह दश�न है, मोक्षमाग% कैसा ह ै ?—सम्यक्त्व अथा%त ् तत्त्वाथ%श्रद्धान>क्षण सम्यक्त्व-वरूप है, संर्यम अथा%त ् चारिरत्र—पंचमहाव्रत, पंचसमिमनित, तीन गुन्तिप्त ऐस े तेरह प्रकार चारिरत्ररूप है, सुधम� अथा%त ् उत्तम-क्षमादिदक दश>क्षण धम%रूप है, विनग्र�न्थरूप है—बाह्य-अभ्यंतर परिरग्रह रनिहत है, ज्ञानमर्यी है— ीव अ ीवादिद पदाथ�को ाननेवा>ा है । यहाँ ‘निनग्र%न्थ’ और ‘ज्ञानमयी’ ये दो निवशेषण दश%नके भी होते हैं, क्योंनिक दश%न है सो बाह्य तो इसकी मूर्वितं निनग्र%न्थ है और अंतरंग ज्ञानमयी है । इसप्रकार मुनिनके रूपको जि नमाग%म ें ‘दश%न’ कहा ह ै तथा ऐस े रूपके श्रद्धानरूप सम्यक्त्व-वरूपको ‘दश%न’ कहते हैं ।

भावाथ% :—परमाथ%रूप ‘अन्तरंग दश%न’ तो सम्यक्त्व है और ‘बाह्य’ उसकी मूर्वितं, ज्ञानसनिहत ग्रहण निकया निनग्र�थ रूप, इसप्रकार मुनिनका रूप है सो ‘दश%न’ है, क्योंनिक मतकी मूर्वितंको दश%न कहना >ोकमें प्रशिसद्ध है ।

आगे निफर कहते हैं :—

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जह फुल्लं गंधमर्यं, भवदिद हु खीरं स मिघर्यमरं्य चाविव ।तह दंसणं विह सम्मं, णाणमर्यं होइ रूवyं ।।15।।र्यर्था पुष्पं गंधमर्यं भववित सु्फटं क्षीरं तत ्घृतमर्यं चाविप ।तर्था दश�नं विह सम्र्यक् ज्ञानमर्यं भववित रूपस्थम् ।।15।।

ज्र्यम फूल होर्य सुगंधमर्य ने दूध घृतमर्य होर्य छे,रूपस्थ दश�न होर्य सम्र्यग्ज्ञानमर्य एवी रीते. 15.

अथ% :— ैसे फू> गंधमयी है, दूध घृतमयी है वैसे ही दश%न अथा%त् मतमें सम्यक्त्व है । कैसा है दश%न ? अंतरंग तो ज्ञानमयी है और बाह्य रूपस्थ है—मुनिनका रूप है तथा उत्कृष्ट श्रावक, अर्द्धि ंकाका रूप है ।

भावाथ% :—‘दश%न’ नाम मतका प्रशिसद्ध ह ै । यहा ँ जि नदश%नम ें मुनिन, श्रावक और आर्मियंकाका ैसा बाह्य भेष कहा सो ‘दश%न’ ानना और इसकी श्रद्धा सो ‘अंतरंग’ दश%न ानना । ये दोनों ही ज्ञानमयी हैं, यथाथ% तत्त्वाथ%का ाननेरूप सम्यक्त्व जि समें पाया ाता है, इसीशि>ये फू>में गंधका और दूधमें घृतका दृष्टांत युक्त है; इसप्रकार दश%नका रूप कहा । अन्यमतमें तथा का>दोषसे जि नमतम ें ैनाभास भेषी अनेक प्रकार अन्यथा कहत े ह ैं ो कल्याणरूप नहीं है, संसारका कारण है ।।15।।

(5) –आगे जि नहिबंबका निनरूपण करते हैं :—जिजणहिबंबं णाणमर्यं, संजमसुदं्ध सुवीर्यरारं्य च ।जं देइ दिदक्खचिसक्खा, कम्मक्खर्यकारणे सुद्धा ।।16।।जिजनहिबंब ज्ञानमर्यं संर्यमशुदं्ध सुवीतरागं च ।र्यत ्ददावित दीक्षाशिशक्षे कम�क्षर्यकारणे शुदे्ध ।।16।।

जिजनहिबंब छे, जे ज्ञानमर्य, वीतराग, संर्यमशुद्ध छे,दीक्षा तर्था शिशक्षा करमक्षर्यहेतु आपे शुद्ध जे. 16.

अथ% :—जि नहिबंब कैसा है ? ज्ञानमयी है, संयमसे शुद्ध है, अनितशयकर वीतराग है, कम%के क्षयका कारण और शुद्ध है—इस प्रकारकी दीक्षा और शिशक्षा देता है ।

भावाथ% :— ो ‘जि न’ अथा%त् अरहन्त सव%ज्ञका प्रनितहिबंब कह>ाता है; उसकी गह उसके ैसा ही माननेयोग्य हो, इसप्रकार आचाय% हैं वे दीक्षा अथा%त् व्रतका ग्रहण और शिशक्षा अथा%त ् निवधान बताना, ये दोनों भव्य ीवोंको देत े ह ैं । इसशि>य े 1—प्रथम तो वह आचाय% ज्ञानमयी हो, जि नसूत्रका उनको ज्ञान हो, ज्ञान निबना यथाथ% दीक्षा—शिशक्षा कैसे हो ? और 2

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—आप संयमसे शुद्ध हो, यदिद इसप्रकार न हो तो अन्यको भी संयमसे शुद्ध नहीं करा सकते । 3—अनितशय=निवशेषतया वीतराग न हो तो कषायसनिहत हो, तब दीक्षा, शिशक्षा यथाथ% नहीं दे सकते हैं; अतः इसप्रकार आचाय%को जिजनका प्रवितहिबंब ानना ।।16।।

आगे निफर कहते हैं :—तस्स र्य करह पणामं, सव्वं पुज्जं च विवणर्य वच्छल्लं ।जस्स र्य दंसण णाणं, अत्थिy धुवं चेर्यणाभावो ।।17।।तस्र्य च कुरुत प्रणामं सवाm पूजां च विवनर्यं वात्सल्र्यम् ।र्यस्र्य च दश�न ंज्ञान ंअत्थिस्त ध्रुवं चेतनाभावः ।।17।।

तेनी करो पूजा विवनर्य-वात्सल्र्य-प्रणमन तेहने,जेने सुविनशिश्चत ज्ञान, दश�न, चेतनापरिरणाम छे. 17.

अथ% :—इसप्रकार पूव}क्त जि नहिबंबको प्रणाम करो और सव%प्रकार पू ा करो, निवनय करो, वात्सल्य करो, क्योंनिक—उसके धु्रव अथा%त ् निनश्चयसे दश%न-ज्ञान पाया ाता ह ै और चेतनाभाव है ।

भावाथ% :—दश%न-ज्ञानमयी चेतनाभावसनिहत जि नहिबंब आचाय% हैं, उनको प्रमाणादिदक करना । यहाँ परमाथ% प्रधान कहा है, ड़ प्रनितहिबंबकी गौणता है ।।17।।

आगे निफर कहते हैं :—तववर्यगुणेहिहं सुद्धो जाणविह विपचे्छइ सुद्धसम्मAं ।अरहन्तमु� एसा दार्यारी दिदक्खचिसक्खा र्य ।।18।।तपोव्रतगुणैः शुद्धः जानावित पश्र्यवित शुद्धसम्र्यक्त्वम् ।अह�न्मुद्रा एषा दात्री दीक्षाशिशक्षाणां च ।।18।।

तपव्रतगुणोर्थी शुद्ध, विनम�ळ सुदृग सह जाणे–जुए,दीक्षा-सुशिशक्षादामिर्यनी अहmतमुद्रा तेह छे. 18.

अथ% :— ो तप, व्रत और गुण अथा%त् उत्तरगुणोंसे शुद्ध हो, सम्यग्ज्ञानसे पदाथ�को यथाथ% ानत े हों, सम्यग्दश%नस े पदाथ�को देkते हों, इसीशि>य े जि नके शुद्ध सम्यक्त्व है– इसप्रकार जि नहिबंब आचाय% है । यह दीक्षा—शिशक्षाकी देनेवा>ी अरहंतकी मुद्रा है ।

भावाथ% :—इसप्रकार जि नहिबंब ह ै वह जि नमुद्रा ही है,—ऐसा जि नहिबंबका -वरूप कहा है ।।18।।

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(6) आगे जिजनमुद्राका -वरूप कहते हैं :—दढसंजममु�ाए इजिन्दर्यमु�ा कसार्यदिदढमु�ा ।मु�ा इह णाणाए जिजणमु�ा एरिरसा भशिणर्या ।।19।।दृढसंर्यममुद्रर्या इजिन्द्रर्यमुद्रा कषार्यदृढमुद्रा ।मुद्रा इह ज्ञानेन जिजनमुद्रा ईदृशी भशिणता ।।19।।

इजिन्द्रर्य-कषार्यविनरोधमर्य मुद्रा सुदृढसंर्यममर्यी,–आ उ} मुद्रा ज्ञानर्थी विनष्पन्न, जिजनमुद्रा कही. 19.

अथ% :—दृढ़ अथा%त् वज्रवत् च>ाने पर भी न च>े ऐसा संयम—इजिन्द्रय मनका वश करना, षट् ीव निनकायकी रक्षा करना, इसप्रकार संयमरूप मुद्रास े तो पाँच इजिन्द्रयोंको निवषयोंमें न प्रवता%ना, उनका संकोच करना यह तो इजिन्द्रयमुद्रा है, और इसप्रकार संयम द्वारा ही जि समें कषायोंकी प्रवृभित्त नहीं है ऐसी कषायदृढ़मुद्रा है, तथा ज्ञानका -वरूपमें >गाना, इसप्रकार ज्ञान द्वारा सब बाह्यमुद्रा शुद्ध होती है । इसप्रकार जि नशासनमें ऐसी जि नमुद्रा होती है ।

भावाथ% :—1— ो संयमसनिहत हो, 2—जि सके इजिन्द्रयाँ वशमें हों, 3—कषायोंकी प्रवृभित्त न होती हो और 4—ज्ञानको -वरूपमें >गाता हो, ऐसा मुनिन हो सो ही ‘जि नमुद्रा’ है ।।19।।

(7) आगे ज्ञानका निनरूपण करते हैं :—संजमसंजुAस्स र्य, सुझाणजोर्यस्स मोक्खमग्गस्स ।णाणेण लहदिद लक्खं, तम्हा णाणं च णार्यव्वं ।।20।।संर्यमसंरु्य}स्र्य च *सुध्र्यानर्योग्र्यस्र्य मोक्षमाग�स्र्य ।ज्ञानेन लभते लक्षं तस्मात् ज्ञान ंच ज्ञातव्यम् ।।20।।

* ‘सुध्यानयोग-य’का श्रेष्ठ ध्यान सनिहत, सं0 टीका प्रनितमें ऐसा भी अथ% है ।संर्यमसविहत, सद्ध्यानर्योग्र्य विवमुचि}पर्थना लक्ष्र्यने,पामी शके छे ज्ञानर्थी जीव, तेर्थी ते ज्ञातव्य छे. 20.

अथ% :—संयमस े संयुक्त और ध्यानके योग्य इसप्रकार ो मोक्षमाग% उसका >क्ष्य अथा%त् >क्षणे योग्य— ानने योग्य निनशाना ो अपना निन -वरूप वह ज्ञान द्वारा पाया ाता है, इसशि>ये इसप्रकारके >क्ष्यको ाननेके ज्ञानको ानना ।

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भावाथ% :—संयम अंगीकार कर ध्यान कर े और आत्माका -वरूप न ान े तो मोक्षमाग%की शिसजिद्ध नहीं है, इसीशि>ये ज्ञानका -वरूप ानना चानिहये, उसके ाननेस े सव% शिसजिद्ध है ।।20।।

आगे इसीको दृष्टांत द्वारा दृढ़ करते हैं :—जह णविव लहदिद हु लक्खं, रविहओ कं)स्स वेज्झर्यविवहीणो ।तह णविव लक्खदिद लक्खं अण्णाणी मोक्खमग्गस्स ।।21।।तर्था नाविप लभते सु्फटं लक्षं रविहतः कां)स्र्य *वेधकविवहीनः ।तर्था नाविप लक्षर्यवित लक्षं अज्ञानी मोक्षमाग�स्र्य ।।21।।

* ‘वेधक’—‘वेध्यक’ पाठान्तर है ।शर-अज्ञ वेध्र्य-अजाण जेम करे न प्रा=त विनशानने,अज्ञानी तेम करे न लशिक्षत मोक्षपर्थना लक्ष्र्यने. 21.

अथ% :— ैसे वेधनेवा>ा (वेधक) ो बाण, उससे रनिहत ऐसा ो पुरुष है वह कांO अथा%त् धनुषके अभ्याससे रनिहत हो तो >क्ष्य अथा%त् निनशानेको नहीं पाता है, वैसे ही ज्ञानसे रनिहत अज्ञानी ह ै वह दश%न-ज्ञान-चारिरत्ररूप ो मोक्षमाग% उसका >क्ष्य अथा%त ् -व>क्षणसे ानने योग्य परमात्माका -वरूप, उसको नहीं प्राप्त कर सकता ।

भावाथ% :—धनुषधारी धनुषके अभ्याससे रनिहत और ‘वेधक’ ो बाण उससे रनिहत हो तो निनशानेको नहीं प्राप्त कर सकता, वैसे ही ज्ञानरनिहत अज्ञानी मोक्षमाग%का निनशाना ो परमात्माका -वरूप ह ै उसको न पनिहचान े तब मोक्षमाग%की शिसजिद्ध नहीं होती है, इसशि>ये ज्ञानको ानना चानिहये । परमात्मारूप निनशाना ज्ञानरूपबाण द्वारा बेधना योग्य है ।।21।।

आगे कहते हैं निक इसप्रकार ज्ञान—निवनयसंयुक्त पुरुष होवे वही मोक्षको प्राप्त करता है :—

णाणं पुरिरसस्स हवदिद, लहदिद सुपुरिरसो विव विवणर्यसंजुAो ।णाणेण लहदिद लक्खं, लक्खंतो मोक्खमग्गस्स ।।22।।

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ज्ञान ंपुरुषस्र्य भववित लभते सुपुरुषोऽविप विवनर्यसंर्यु}ः ।ज्ञानेन लभते लक्ष्र्यं लक्षर्यन् मोक्षमाग�स्र्य ।।22।।

रे ! ज्ञान नरने र्थार्य छे; के सुजन तेम विवनीतने;ते ज्ञानर्थी करी लक्ष, पामे मोक्षपर्थना लक्ष्र्यने. 22.

अथ% :—ज्ञान पुरुषको होता है और पुरुष ही निवनयसंयुक्त हो सो ज्ञानको प्राप्त करता है, ब ज्ञानको प्राप्त करता ह ै तब उस ज्ञान द्वारा ही मोक्षमाग%का >क्ष्य ो परमात्माका -वरूप उसको >क्षता—देkता—ध्यान करता हुआ उस >क्ष्यको प्राप्त करता है ।

भावाथ% :—ज्ञान पुरुषके होता ह ै और पुरुष ही निवनयवान होव े सो ज्ञानको प्राप्त करता है, उस ज्ञान द्वारा ही शुद्ध आत्माका -वरूप ाना ाता है, इसशि>ये निवशेष ज्ञानिनयोंके निवनय द्वारा ज्ञानकी प्रान्तिप्त करनी—क्योंनिक निन शुद्ध -वरूपको ानकर मोक्ष प्राप्त निकया ाता है । यहाँ ो निवनयरनिहत हो, यथाथ% सूत्रपदसे शिचगा हो, भ्रष्ट हो गया हो, उसका निनषेध ानना ।।22।।

आगे इसीको दृढ़ करते हैं :—मइधणुहं जस्स चिर्थरं, सुदगुण बाणा सुअत्थिy रर्यणAं ।परमyबद्धलक्खो, णविव चुक्कदिद मोक्खमग्गस्स ।।23।।मवितधनुर्य�स्र्य स्थिस्थरं श्रुत ंगुणः वाणाः सुसंवित रत्नत्रर्यं ।परमार्थ�बद्धलक्ष्र्यः नाविप स्खलवित मोक्षमाग�स्र्य ।।23।।

मवित चाप चिर्थर, शु्रत दोरी, जेने रत्नत्रर्य शुभ बाण छे,परमार्थ� जेनुं लक्ष्र्य छे, ते मोक्षमागt नव चूके. 23.

अथ% :—जि स मुनिनके मनितज्ञानरूप धनुष ण्डिस्थर हो, श्रुतज्ञानरूप गुण अथा%त् प्रत्यंचा हो, रत्नत्रयरूप उत्तम बाण हो और परमाथ%-वरूप निन शुद्धात्म-वरूपका संबंधरूप >क्ष्य हो, वह मुनिन मोक्षमाग%को नहीं चूकता है ।

भावाथ% :—धनुषकी सब सामग्री यथावत् मिम>े तब निनशाना नहीं चूकता है, वैसेही मुनिनके मोक्षमाग%की यथावत् सामग्री मिम>े तब मोक्षमाग%से भ्रष्ट नहीं होता है । उसके साधनसे मोक्षको प्राप्त होता ह ै । यह ज्ञानका माहात्म्य है, इसशि>य े जि नागमके अनुसार सत्याथ% ज्ञानिनयोंका निवनय करके ज्ञानका साधन करना ।।23।।

इसप्रकार ज्ञानका निनरूपण निकया ।

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(8) आगे देवका -वरूप कहते हैं :—सो देवो जो अyं, धम्मं कामं सुदेइ णाणं च ।सो देइ जस्स अत्थिy हु, अyो धम्मो र्य पव्वज्जा ।।24।।सः देवः र्यः अर्थ� धम� कामं सुददावित ज्ञान ंच ।सः ददावित र्यस्र्य अत्थिस्त त ुअर्थ�ः धम�ः च प्रव्रज्र्या ।।24।।

ते देव, जे सुरीते धरम ने अर्थ�, काम, सुज्ञान दे,ते वस्तु दे छे ते ज, जेने धम�-दीक्षा-अर्थ� छे. 24.

अथ% :—‘देव’ उसको कहते ह ैं ो अर्थ� अथा%त ् धन, धम%, काम अथा%त ् इच्छाका निवषय—ऐसा भोग, और मोक्षका कारण ज्ञान—इन चारोंको देवे । यहाँ न्याय ऐसा है निक ो व-तु जि सके पास हो सो देवे और जि सके पास ो व-तु न हो सो कैसे देव े ? इस न्यायसे अथ%, धम%, -वगा%दिदके भोग और मोक्षसुkका कारण प्रव्रज्या अथा%त् दीक्षा जि सके हो उसको ‘देव’ ानना ।।24।।

आगे धमा%दिदका -वरूप कहते हैं, जि नके ाननेसे देवादिदका -वरूप ाना ाता है :—

धम्मो दर्याविवसुद्धो पव्वज्जा सव्वसंगपरिरचAा ।देवो ववगर्यमोहो उदर्यकरो भव्वजीवाणं ।।25।।धम�ः दर्याविवशुद्धः प्रव्रज्र्या सव�संगपरिरत्र्य}ा ।देवः व्यपगतमोहः उदर्यकरः भव्यजीवानाम् ।।25।।

ते धम� जेह दर्याविवमळ, दीक्षा परिरग्रहमु} जे,ते देव जे विनमNह छे ने उदर्य भव्य तणो करे. 25.

अथ% :— ो दयासे निवशुद्ध है वह धम% है, ो सव% परिरग्रहसे रनिहत है वह प्रव्रज्या है, जि सका मोह नष्ट हो गया है वह देव है—वह भव्य ीवोंके उदयको करनेवा>ा है ।

भावाथ% :—>ोकमें यह प्रशिसद्ध है निक धम%, अथ%, काम और मोक्ष ये चार पुरुषके प्रयो न हैं । उनके शि>ये पुरुष निकसीकी वंदना करता है, पू ा करता है और यह न्याय है निक जि सके पास ो व-तु है वह दूसरेको देवे, न हो तो कहाँसे >ाव े ? इसशि>ये ये चार पुरुषाथ% जि नदेवके पाये ाते हैं । धम% तो उनके दयारूप पाया ाता है, उसका साधकर तीथ�कर हो गये, तब धनकी और संसारके भोगकी प्रान्तिप्त हो गई, >ोकपूज्य हो गए, और तीथ�करके परमपदमें दीक्षा >ेकर, सब मोहसे रनिहत होकर, परमाथ%-वरूप आस्त्रित्मकधम%को साधकर,

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मोक्षसुkको प्राप्त कर शि>या ऐसे तीथ�कर जि न हैं, वे ही ‘देव’ हैं । अज्ञानी >ोग जि नको देव मानते हैं उनके धम%, अथ%, काम, मोक्ष नहीं है, क्योंनिक कई हिहंसक हैं, कई निवषयासक्त हैं, मोही हैं उनको धम% कैसा ? अथ% और कामकी जि नके वांछा पाई ाती है : उनको अथ%, काम कैसा ? न्म, मरण सनिहत ह ैं उनको मोक्ष कैसा ? ऐस े देव सच्चे जि नदेव ही हैं, वही भव्य ीवोंके मनोरथ पूण% करते हैं, अन्य सब कण्डिल्पत देव हैं ।।25।।

इसप्रकार देवका -वरूप कहा ।(9) आगे तीथ%का -वरूप कहते हैं :—

वर्यसम्मAविवसुदे्ध, पंचेदिदर्यसंजदे शिणरावेक्खे ।ण्हाएउ मुणी वितyे, दिदक्खाचिसक्खासुण्हाणेण ।।26।।व्रतसम्र्यक्त्वविवशुदे्ध पंचेजिन्द्रर्यसंर्यतेः विनरपेके्ष ।स्नातु मुविनः तीर्थt दीक्षाशिशक्षासुस्नानेन ।।26।।

व्रत-सुदृगविनम�ळ, इजिन्द्रर्यसंर्यमरु्य} ने विनरपेक्ष जे,ते तीर्थ�मां दीक्षा-सुशिशक्षारूप स्नान करो, मुने ! 26.

अथ% :—व्रत—सम्यक्त्वसे निवशुद्ध और पाँच इजिन्द्रयोंसे संयत अथा%त् संवरसनिहत तथा निनरपेक्ष अथा%त ् ख्यानित, >ाभ, पू ादिदक इस >ोकके फ>की तथा पर>ोकमें -वगा%दिदकके भोगोंकी अपेक्षासे रनिहत,—ऐसे आत्म-वरूप तीथ%में दीक्षा—शिशक्षारूप -नानसे पनिवत्र होओ !

भावाथ% :—तत्वाथ%श्रद्धान>क्षणसनिहत, पाँच महाव्रतस े शुद्ध और पाँच इजिन्द्रयोंके निवषयोंस े निवरक्त, इस >ोक-पर>ोकम ें निवषयभोगोंकी वांछास े रनिहत ऐस े निनम%> आत्माके -वभावरूप तीथ%में -नान करनेसे पनिवत्र होते हैं—ऐसी प्रेरणा करते हैं ।।26।।

आगे निफर कहते हैं :—जं शिणम्मलं सुधम्मं, सम्मAं संजमं तवं णाणं ।तं वितyं जिजणमग्गे, हवेइ जदिद संवितभावेण ।।27।।र्यत ्विनम�लं सुधमm, सम्र्यक्त्वं संर्यमं तपः ज्ञानम् ।तत ्तीर्थm जिजनमागt भववित र्यदिद शान्तभावेन ।।27।।

विनम�ळ सुदश�न-तपचरण-सद्धम�-संर्यम-ज्ञानने,जो शान्तभावे रु्य} तो, तीरर्थ कहंु्य जिजनशासने. 27.

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अथ% :—जि नमाग%म ें वह तीथ% है, ो निनम%> उत्तमक्षमादिदक धम% तथा तत्त्वाथ%श्रद्धान>क्षण, शंकादिदम>रनिहत, निनम%> सम्यक्त्व तथा इजिन्द्रय—मनको वशमें करना, षट्कायके ीवोंकी रक्षा करना, इसप्रकार ो निनम%> संयम, तथा अनशन, अवमौदय%, वृभित्तपरिरसंख्यान, रसपरिरत्याग, निवनिवक्तशय्यासन, कायक्>ेश ऐसे बाह्य छह प्रकारके तप और प्रायभिश्चत्त, निवनय, वैयावृत्य, -वाध्याय, वु्यत्सग%, ध्यान ऐस े छह प्रकारके अन्तरङ्ग तप—इसप्रकार बारह प्रकारके निनम%> तप और ीव-अ ीव आदिद पदाथ�का यथाथ% ज्ञान ये ‘तीथ%’ हैं, ये भी यदिद शांतभावसनिहत हों, कषायभाव न हो तब निनम%> ‘तीथ%’ हैं, क्योंनिक यदिद ये क्रोधादिदकभावसनिहत हों तो मशि>नता हो और निनम%>ता न रहे ।

भावाथ% :—जि नमाग%म ें तो इसप्रकार ‘तीथ%’ कहा ह ै । >ोग सागर-नदिदयोंको तीथ% मानकर -नान करके पनिवत्र होना चाहत े हैं; वहा ँ शरीरका बाह्यम> इनसे कुछ उतरता है, परन्तु शरीरके भीतरका धातु—उपधातुरूप अन्तम%> इनसे उतरता नहीं है, तथा ज्ञानावरण आदिद कम%रूप म> और अज्ञान राग-दे्वष-मोह आदिद भावकम%रूप म> आत्माके अन्तम%> हैं, वह तो इनसे कुछ भी उतरते नहीं हैं, उल्टा हिहंसादिदकसे पापकम%रूप म> >गता है; इसशि>ये सागर, नदी आदिदको तीथ% मानना भ्रम है । जि ससे नितरे सो ‘तीथ%’ है,—इसप्रकार जि नमाग%में कहा है, उसे ही संसारसमुद्रसे तारनेवा>ा ानना ।।27।।

इसप्रकार तीथ%का -वरूप कहा ।(10) आगे अरहंतका -वरूप कहते हैं :—

णामे ठव ेविह र्य संदव्वे भावे विह सगुणपज्जार्या ।चउणागदिद संपदिदमें* भावा भावंवित अरहंतं ।।28।।नाप्तिम्न संस्थापनार्यां विह च संद्रव्ये भावे च सगुणपर्या�र्याः** ।च्र्यवनमागवितः संपत् इमे भावा भावर्यंवित अह�न्तम् ।।28।।

* सं0 प्रनितमें ‘संपदिदम’ पाठ है ।** ‘सगुणपज्जाया’ इस पदकी छायामें ‘-वगुण पया%यः’ स 0 प्रनितमें है ।

अशिभधान-स्थापन-द्रव्य-भावै, स्वीर्य गुणपर्या�र्यर्थी,अहmत जाणी शकार्य छे आगवित-च्र्यवन-संपचिAर्थी. 28.

अथ% :—नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव य े चार भाव अथा%त ् पदाथ% ह ैं य े अरहंतको बत>ाते हैं और सगुणपया%याः अथा%त् अरहंतके गुण-पया%यों सनिहत तथा चउणा अथा%त् च्यवन और आगनित व सम्पदा ऐसे ये भाव अरहंत को बत>ाते हैं ।

भावाथ% :—अरहंत शब्दसे यद्यनिप सामान्य अपेक्षा केव>ज्ञानी हों वे सब ही अरहंत हैं तो भी यहाँ तीथ�कर पदकी प्रधानतासे कथन करते हैं, इसशि>ये नामादिदकसे बत>ाना कहा ।

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>ोकव्यवहारमें नाम आदिदकी प्रवृभित्त इसप्रकार है— ो जि स व-तुका नाम हो वैसा गुण न हो उसको नामविनक्षेप कहत े ह ैं । जि स व-तुका ैसा आकार हो उस आकारकी काष्ठ—पाषाणादिदककी मूर्वितं बनाकर उसका संकल्प करे उसको स्थापना कहते हैं । जि स व-तुकी पनिह>ी अवस्था हो उसहीको आगेकी अवस्था प्रधान करके कह े उसको द्रव्य कहत े ह ैं । वत%मानमें ो अवस्था हो उसको भाव कहते हैं । ऐसे चार निनके्षपकी प्रवृभित्त है । उसका कथन शा-त्रमें भी >ोगोंको समझानेके शि>ये निकया है । ो निनके्षपनिवधान द्वारा नाम, स्थापना द्रव्यको भाव न समझे; नामको नाम समझे, स्थापनाको स्थापना समझे, द्रव्यको, द्रव्य समझे, भावको भाव समझे, अन्यको अन्य समझे, अन्यथा तो ‘व्यभिभचार’ नामक दोष आता है । उसे दूर करनेके शि>ये >ोगोंको यथाथ% समझाने को शा-त्रमें कथन है । निकन्तु यहाँ वैसा निनके्षपका कथन नहीं समझना । यहाँ तो निनश्चयकी प्रधानतासे कथन है, सो ैसा अरहंतका नाम है वैसा ही गुण सनिहत नाम ानना, ैसी उनकी देह सनिहत मूर्वितं ह ै वही स्थापना ानना, ैसा उनका द्रव्य है वैसा द्रव्य ानना और ैसा उनका भाव है वैसा ही भाव ानना ।।28।।

इसप्रकार ही कथन आगे करते हैं । प्रथम ही नामको प्रधान करके कहते हैं :—दंसण अणंत णाणे, मोक्खो णट्ठट्ठकम्मबंधेण ।शिणरुवमगुणमारूढो, अरहंतो एरिरसो होइ ।।29।।दश�न*ं अनंतं ज्ञान ंमोक्षः नष्टाष्टकम�बंधेन ।विनरुपमगुणमारूढः अह�न ्ईदृशो भववित ।।29।।

*. सटीक सं0 प्रनितमें ‘दश%ने अनंत ज्ञाने’ ऐसा सप्तमी अंत पाठ है ।विनःसीम दश�न-ज्ञान छे, वसुबंधलर्यर्थी मोक्ष छे,विनरुपम गुणे आरूढ छे, –अहmत आवा होर्य छे. 29.

अथ% :—जि नके दश%न और ज्ञान य े तो अनन्त हैं, घानितकम%के नाशस े सब जे्ञय पदाथ�को देkना व ानना है, अष्ट कम�का बंध नष्ट होनेस े मोक्ष है । यहा ँ सत्वकी और उदयकी निववक्षा न >ेना, केव>ीके आठों ही कम%का बंध नहीं है । यद्यनिप साता वेदनीयका आस्रव मात्र बंध शिसद्धांतम ें कहा ह ै तथानिप ण्डिस्थनित—अनुभागरूप बंध नहीं है, इसशि>ये अबंधतुल्य ही हैं । इसप्रकार आठों ही कम%बंधके अभावकी अपेक्षा भावमोक्ष कह>ाता है और उपमारनिहत गुणोंसे आरूढ़ हैं—सनिहत हैं । इसप्रकार गुण छद्मस्थमें कहीं भी नहीं हैं, इसशि>ये जि नमें उपमारनिहत गुण हैं, ऐसे अरहंत होते हैं ।।29।।

भावाथ% :—केव> नाममात्र ही अरहंत हो उसको अरहंत नहीं कहते हैं । इसप्रकारके गुणोंसे सनिहत हों, उनका नाम अरहंत कहते हैं ।।29।।

आगे निफर कहते हैं :—

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जरवाविहजम्ममरणं, चउगइगमणं च पुण्णपावं च ।हंतूण दोसकम्मे, हुउ णाणमर्यं च अरहंतो ।।30।।जराव्याचिधजन्ममरणं चतगु�वितगमनं पुण्र्यपावं च ।हत्वा दोषकमा�शिण भूतः ज्ञानमर्यश्चाह�न ्।।30।।

जे पुण्र्य-पाप जरा-जन्म-व्याचिध-मरण, गवितभ्रमण ने,वळी दोषकम� हणी र्थर्या ज्ञानात्म, ते अहmत छे. 30.

अथ% :— रा—बुढा़पा, व्यामिध—रोग, न्म—मरण, चारों गनितयोंमें गमन, पुhय—पाप और दोषोंको उत्पन्न करनेवा>े कम�का नाश करके, केव>ज्ञानमयी अरहंत हुआ हो वह ‘अरहंत’ है ।

भावाथ% :—पनिह>ी गाथामें तो गुणोके सद्भावसे अरहंत नाम कहा और इस गाथामें दोषोंके अभावस े अरहंत नाम कहा । राग, दे्वष, मद, मोह, अरनित, लिचंता, भय, निनद्रा, निवषाद, kेद और निव-मय य े ग्यारह दोष तो घानितकम%के उदयसे होत े ह ैं और कु्षधा, तृषा, न्म, रा, मरण, रोग और kेद ये सात दोष अघानितकम%के उदयसे होते हैं । इस गाथामें रा, रोग, न्म, मरण और चार गनितयोंमें गमनका अभाव कहनेसे तो अघानितकम%से हुए दोषोंका अभाव ानना, क्योंनिक अघानितकम%में इन दोषोंको उत्पन्न करनेवा>ी पापप्रकृनितयोंके उदयका अरहंतको अभाव है और रागदे्वषादिदक दोषोंका घानितकम%के अभावसे अभाव है । यहाँ कोई पूछे—अह%न्तको मरणका और पुhयका अभाव कहा, मोक्षगमन होना यह ‘मरण’ अरहंतके ह ै और पुhयप्रकृनितयोंका उदय पाया ाता है, उनका अभाव कैस े ? उसका समाधान—यहा ँ मरण होकर निफर संसारम ें न्म हो, इसप्रकारके ‘मरण’ की अपेक्षा यह कथन है, इसप्रकार मरण अरहंतके नहीं है; उसीप्रकार ो पुhयप्रकृनितका उदय पापप्रकृनित सापेक्ष करे, इसप्रकार पुhयके उदयका अभाव ानना अथवा बंध—अपेक्षा पुhयका भी बंध नहीं है । सातावेदनीय बँधे वह ण्डिस्थनित—अनुभाग निबना अबंधतुल्य ही है । प्रश्न:—केव>ीके असाता वेदनीयका उदय भी शिसद्धांतमें कहा है, उसकी प्रवृभित्त कैसे ह ै ? उत्तर :—इसप्रकार ो असाताका अत्यन्तमंद—निब>कु> मंद अनुभाग उदय है और साताका अनित तीव्र अनुभाग उदय है, उसके वशमें असाता कुछ बाह्य काय% करनेमें समथ% नहीं है, सूक्ष्म उदय देकर खिkर ाता है तथा संक्रमणरूप होकर सातारूप हो ाता है, इसप्रकार ानना । इसप्रकार अनंत चतुष्टयसनिहत सव%दोषरनिहत सव%ज्ञ वीतराग हो उसको नामसे ‘अरहंत’ कहते हैं ।।30।।

आगे स्थापना द्वारा अरहंतका वण%न करते हैं :—

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गुणठाणमग्गणेहिहं र्य, पज्जAीपाणजीवठाणेहिहं ।ठावण पंचविवहेहिहं, पणर्यव्वा अरहपुरिरसस्स ।।31।।गुणस्थानमाग�णाशिभः च पर्या�प्ति=तप्राणजीवस्थानैः ।स्थापना पंचविवधैः प्रणेतव्या अह�त्पुरुषस्र्य ।।31।।

छे स्थापना अहmतनी कत�व्य पांच प्रकारर्थी,—गुण, माग�णा, पर्या�प्ति=त तेम ज प्राण ने जीवस्थानर्थी. 31.

अथ% :—गुणस्थान, माग%णास्थान, पया%न्तिप्त, प्राण और ीवस्थान इन पाँच प्रकारसे अरहंत पुरुषकी स्थापना प्राप्त करना अथवा उसको प्रणाम करना चानिहए ।

भावाथ% :—स्थापनानिनक्षेपम ें काष्ठ—पाषाणादिदकमें -कल्प करना कहा ह ै सो यहाँ प्रधान नहीं है । यहाँ निनश्चयकी प्रधानतासे कथन है । यहाँ गुणस्थानादिदकसे अरहंतका स्थापन कहा है ।।31।।

आगे निवशेष कहते हैं :—तेरहमे गुणठाणे, सजोइकेवचिलर्य होइ अरहंतो ।चउतीस अइसर्यगुणा, होंवित हु तस्सट्ठ पवि)हारा ।।32।।त्रर्योदशे गुणस्थाने सर्योगकेवचिलकः भववित अह�न ्।चतसु्त्रिस्तं्रशत् अवितशर्यगुणा भवंवित सु्फटं तस्र्याष्टप्रावितहार्या� ।।32।।

अह�त् सर्योगीकेवळीजिजन तेरमे गुणस्थान छे;चोत्रीश अवितशर्यर्यु} ने वसुप्रावितहार्य�समेत छे. 32.

अथ% :—गुणस्थान चौदह कहे हैं, उनमें सयोगकेव>ी नाम तेरहवा ँ गुणस्थान ह ै । उसमें योगोंकी प्रवृभित्तसनिहत केव>ज्ञानसनिहत सयोगकेव>ी अरहंत होता ह ै । उनके चौंतीस अनितशय और आठ प्रानितहाय% होते हैं, ऐसे तो गुणस्थान द्वारा ‘स्थापना अरहंत’ कह>ाते हैं ।

भावाथ% :—यहा ँ चौंतीस अनितशय और आठ प्रानितहाय% कहनेस े तो समवसरणमें निवरा मान तथा निवहार करत े हुअ अरहंत ह ैं और ‘सयोग’ कहनेस े निवहारकी प्रवृभित्त और वचनकी प्रवृभित्त शिसद्ध होती है । ‘केव>ी’ कहनेसे केव>ज्ञान द्वारा सब तत्त्वोंका ानना शिसद्ध होता ह ै । चौंतीस अनितशय इसप्रकार हैं— न्मस े प्रकट होन े वा> े दसः—1—म>मूत्रका अभाव, 2—पसेवका अभाव, 3—धव> रुमिधर होना, 4—समचतुरस्रसंस्थान, 5—वज्रवृषभनाराच संहनन, 6—सुन्दर रूप, 7—सुगंध शरीर, 8—शुभ >क्षण होना, 9—अनन्त ब>, 10—मधुर वचन, इसप्रकार दस होते हैं ।

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केव>ज्ञान उत्पन्न होन े पर दस होत े हैं:—1—उपसग%का अभाव, 2—अदयाका अभाव, 3—शरीर की छाया न पड़ना, 4—चतुमु%k दिदkना, 5—सब निवद्याओंका -वामिमत्व, 6—नेत्रोंके प>क न निगरना, 7—शतयो न सुभिभक्षता, 8—आकाशगमन, 9—कव>ाहार नहीं होना, 10—नk—केशोंका नहीं बढ़ना, ऐसे दस होते हैं ।

चौदह देवकृत होते हैं :—1—सक>ाद्ध%मागधी भाषा, 2—सब ीवोंमें मैत्रीभाव, 3—सब ऋतुके फ> फू> फ>ना, 4—दप%ण समान भूमिम, 5—कंटकरनिहत भूमिम, 6—मंद सुगंध पवन, 7—सबके आनंद होना, 8—गंधोदकवृमिष्ट, 9—पैरोंके नीचे कम>रचना, 10—सव%धान्य निनष्पभित्त, 11—दसों दिदशाओंका निनम%> होना, 12—देवोंके द्वारा आह्वानन शब्द, 13—धम%चक्रका आगे च>ना, 14—अष्ट मंग>द्रव्योंका आगे च>ना ।

अष्ट मंग> द्रव्योंके नाम 1—छत्र, 2—ध्व ा, 3—दप%ण, 4—क>श, 5—चामर, 6—भङ्गार (झारी), 7—ता> (ठवणा) और -वस्ति-तक (साँशिथया) अथा%त ् सुप्रतीच्छक ऐसे आठ होते हैं । चौंतीस अनितशयके नाम कहे ।

आठ प्रानितहाय% होत े ह ैं उनके नाम य े हैं—1—अशोकवृक्ष, 2—पुष्पवृमिष्ट, 3—दिदव्यध्वनिन, 4—चामर, 5—लिसंहासन, 6—भामhO>, 7—दुन्दुभिभ वादिदत्र और 8—छत्र ऐसे आठ होते हैं । इसप्रकार गुणस्थान द्वारा अरहंतका स्थापन कहा ।।32।।

अब आगे माग%णा द्वारा कहते हैं :—गइ इंदिदर्यं च काए, जोए वेए कसार्य णाणे र्य ।संजम दंसण लेसा, भविवर्या सम्मA सस्थिण्ण आहारे ।।33।।गतौ इजिन्द्रर्ये च कार्ये र्योगे वेदे कषार्ये ज्ञान ेच ।संर्यमे दश�न ेलेश्र्यार्यां भव्यत्वे सम्र्यक्त्वे संचिज्ञविन आहारे ।।33।।

गवित-इजिन्द्र-कार्ये, र्योग-वेद-कषार्य-संर्यम-ज्ञानमां,दृग-भव्य-लेश्र्या-संज्ञी-समविकत-आ’रमां ए स्थापवा. 33.

अथ% :—गनित, इजिन्द्रय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दश%न, >ेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार इसप्रकार चौदह माग%णा होती ह ैं । अरहंत सयोगकेवळीको तेरहवाँ गुणस्थान है, इसम ें ‘माग%णा’ >गाते हैं । गनित चारमें मनुष्यगनित है, इजिन्द्रय ानित पाँचमें पंचेजिन्द्रय ानित है, काय छहमें त्रसकाय है, योग पंद्रहमें योग—मनोयोग तो सत्य और अनुभय इसप्रकार दो और य े ही वचनयोग दो तथा काययोग औदारिरक इसप्रकार पाँच योग हैं, ब समुद्घात करे तब औदारिरकमिमश्र और कामा%ण ये दो मिम>कर सात

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योग हैं; वेद—तीनोंका ही अभाव है; कषाय—पच्चीस सबहीका अभाव है; ज्ञान—आठमें केव>ज्ञान है; संयम—सातमें एक यथाख्यात है; दश%न—चारमें एक केव>दश%न है; >ेश्या—छहमें एक शुक्> ो योगनिनमिमत्त है; भव्य—दोमें एक भव्य है; सम्यक्त्व—छहमें क्षामियक सम्यक्त्व है; संज्ञी—दोमें संज्ञी है, वह द्रव्यसे है भावसे क्षयोपशमरूप भावमनका अभाव है; आहारक अनाहारक–दोम ें ‘आहारक’ ह ै वह भी नोकम%वग%णा अपेक्षा है, निकन्तु कव>ाहार नहीं है और समुद्घात करे तो अनाहारक भी है, इसप्रकार दोनों हैं । इसप्रकार माग%णा अपेक्षा अरहंतका स्थापन ानना ।।33।।

आगे पया%न्तिप्त द्वारा कहते हैं :—आहारो र्य सरीरो, इंदिदर्यमणआणपाणभासा र्य ।पज्जचिAगुणसमिमद्धो, उAमदेवो हवइ अरहो ।।34।।आहारः च शरीरं इजिन्द्रर्यमनआनप्राणभाषाः च ।पर्या�प्ति=तगुणसमृद्धः उAमदेवः भववित अह�न् ।।34।।

आहार, कार्या, इजिन्द्र, श्वासोच्छ्वास, भाषा, मन तणी,अहmत उAम देव छे समृद्ध षट् पर्या�प्ति=तर्थी. 34.

अथ% :—आहार, शरीर, इजिन्द्रय, मन, आनप्राण अथा%त् श्वासोच्छ्वास और भाषा—इसप्रकार छह पया%न्तिप्त हैं, इस पया%न्तिप्त गुण द्वारा समृद्ध अथा%त् युक्त उत्तम देव अरहंत हैं ।

भावाथ% :—पया%न्तिप्तका -वरूप इसप्रकार है— ो ीव एक अन्य पया%यको छोड़कर अन्य पया%यम ें ाव े तब निवग्रह गनितम ें तीन समय उत्कृष्ट बीचमें रहे, पीछे सैनी पंचेजिन्द्रयमें उत्पन्न हो । वहाँ तीन ानितकी वग%णाका ग्रहण करे—आहारवग%णा, भाषावग%णा, मनोवग%णा, इसप्रकार ग्रहण करके ‘आहार’ ानितकी वग%णासे तो आहार, शरीर, इजिन्द्रय, श्वासोच्छ्वास इसप्रकार चार पया%न्तिप्त अन्तमु%हूत% का>म ें पूण% करे, तत्पश्चात ् भाषा ानित मनो ानितकी वग%णासे अन्तमु%हूत%में ही भाषा, मनःपया%न्तिप्त पूण% करे, इसप्रकार छहों पया%न्तिप्त अन्तमु%हूत%में पूण% करता है, तत्पश्चात् आयुपय%न्त पया%प्त ही कह>ाता है और नौकम%वग%णाका ग्रहण करता ही रहता है । यहाँ आहार नाम कव>ाहारका नहीं ानना । इसप्रकार तेरहवें गुणस्थानमें भी अरहंतके पया%प्त पूण% ही है, इसप्रकार पया%न्तिप्त द्वारा अरहंतकी स्थापना है ।।34।।

आगे प्राण द्वारा कहते हैं :—

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पंच विव इंदिदर्यपाणा, मणवर्यकाएण वितस्थिण्ण बलपाणा ।आण=पाण=पाणा, आउगपाणेण होंवित दह पाणा ।।35।।पंचाविप इंदिद्रर्यप्राणाः मनोवचनकार्यैः त्रर्यो बलप्राणाः ।आनप्राणप्राणाः आर्युष्कप्राणेन भवंवित दशप्राणाः ।।35।।

इजिन्द्रर्यप्राणो पांच, त्रण बळप्राण मन-वच-कार्यना,बे आरु्य-श्वासोच्छ्वासप्राणो,–प्राण ए दस होर्य त्र्यां. 35.

अथ% :—पाँच इजिन्द्रयप्राण, मन-वचन-काय तीन ब>प्राण, एक श्वासोच्छ्वास प्राण और एक आयुप्राण ये दस प्राण हैं ।

भावाथ% :—इसप्रकार दस प्राण कहे, उनम ें तेरहव ें गुणस्थानम ें भावइजिन्द्रय और भावमनका क्षयोपशमभावरूप प्रवृभित्त नहीं है; इस अपेक्षा तो कायब>, वचनब>, श्वासोच्छ्वास, आयु स े चार प्राण ह ैं और द्रव्य अपेक्षा दसों ही ह ैं । इसप्रकार प्राण द्वारा अरहंतका स्थापन है ।।35।।

आगे ीवस्थान द्वारा कहते हैं :—मणुर्यभवे पंलिचंदिदर्य जीवट्ठाणेसु होइ चउदसमे ।एदे गुणगणजुAो गुणमारूढो हवइ अरहो ।।36।।मनुजभवे पंचेजिन्द्रर्यः जीवस्थानेषु भववित चतदु�शे ।एतद्गणुगणर्यु}ः गुणमारूढो भववित अह�न ्।।36।।

मानवभवे पंचेजिन्द्र तेर्थी चौदमे जीवस्थान छे,पूवN} गुणगणरु्य}, ‘गुण’-आरूढ श्री अहmत छे. 36.

अथ% :—मनुष्यभवमें पंचेजिन्द्रय नामके चौदहवें ीवस्थान अथा%त् ीवसमास, उसमें इतने गुणोंके समूहसे युक्त तेरहवें गुणस्थानको प्राप्त अरहंत होते हैं ।

भावाथ% :— ीवसमास चौदह कह े हैं—एकेजिन्द्रय सूक्ष्म बादर–2, दोइजिन्द्रय, तेइजिन्द्रय, चौइजिन्द्रय ऐसे निवक>त्रय—3, पंचेजिन्द्रय असैनी सैनी 2, ऐसे सात हुए; ये पया%प्त- अपया%प्तके भेदसे चौदह हुए । इनमें चौदहवाँ ‘सैनी पंचेजिन्द्रय ीवस्थान’ अरहंतके है । गाथामें सैनीका नाम न शि>या और मनुष्यका नाम शि>या सो मनुष्य सैनी ही होते हैं, असैनी नहीं होते हैं, इसशि>ये मनुष्य कहनेमें ‘सैनी’ ही ानना चानिहये ।।36।।

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इसप्रकार ीवस्थान द्वारा ‘स्थापना अरहंत’ का वण%न निकया ।आगे द्रव्यकी प्रधानतासे अरहंतका निनरूपण करते हैं :—

जरवाविहदुक्खरविहर्यं, आहारशिणहारवस्थिज्जर्यं विवमलं ।लिसंहाण खेल सेओ, णत्थिy दुगुंछा र्य दोसो र्य ।।37।।दस पाणा पज्जती, अट्ठसहस्सा र्य लक्खणा भशिणर्या ।गोखीरसंखधवलं, मंसं रुविहरं च सव्वंगे ।।38।।एरिरसगुणेहिहं सव्वं, अइसर्यवंतं सुपरिरमलामोरं्य ।ओराचिलर्यं च कार्यं णार्यव्वं अरहपुरिरसस्स ।।39।।वणव्याचिध-दुःख-जरा, अहार-विनहारवर्जिजंत, विवमळ छे,अजुगुत्थि=सता, वणनाचिसकामळ-श्लेष्म-स्वेद, अदोष छे; 37.दश प्राणाः पर्या�=तः अष्टसहस्राशिण च लक्षणाविन भशिणताविन ।गोक्षीरशंखधवलं मांसं रुचिधरं च सवाmगे ।।38।।ईदृशगुणैः सव�ः अवितशर्यवान् सुपरिरमलामोदः ।औदारिरकश्च कार्यः अह�त्पुरुषस्र्य ज्ञातव्यः ।।39।।

जराव्याचिधदुःखरविहतः आहारनीहारवर्जिजंतः विवमलः ।लिसंहाणः खेलः खेदः नात्थिस्त दुग�न्धः च दोषः च ।।37।।दस प्राण, षट् पर्या�प्ति=त, अष्ट-सहस्र लक्षण रु्य} छे,सवाmग गोक्षीर-शंखतुल्र्य सुधवल मांस-रुचिधर छे; 38.–आवा गुणे सवाmग अवितशर्यवं, परिरमलम्हेकती,औदारिरकी कार्या अहो ! अह�त्पुरुषनी जाणवी. 39.

अथ% :—अरहंत पुरुषके औदारिरक काय इसप्रकार होता है— ो रा, व्यामिध और रोग इन संबंधी दुःk उसमें नहीं है, आहार-नीहार से रनिहत है, निवम> अथा%त् म>मूत्र रनिहत है; लिसंहाण अथा%त ् श्लेष्म, kे> अथा%त ् थूक, पसेव और दुग�ध अथा%त ् ुगुप्सा, ग्>ानिन और दुग�धादिद दोष उसमें नहीं है ।।37।।

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दस तो उसमें प्राण हैं वे द्रव्यप्राण हैं, पूण% पया%न्तिप्त है, एक ह ार आठ >क्षण हैं और गोक्षीर अथा%त् कपूर अथवा चंदन तथा शंk ैसा उसमें सवा�ग धव> रुमिधर और मांस है ।।38।।

इसप्रकार गुणोंसे संयुक्त सव% ही देह अनितशयसनिहत निनम%> है, आमोद अथा%त् सुगंध जि समें इसप्रकार औदारिरक देह अरहंत पुरुषके है ।।39।।

भावाथ% :—यहा ँ द्रव्यनिनक्षेप नहीं समझना । आत्मासे भिभन्न ही देहकी प्रधानता से ‘द्रव्य अरहंत’का वण%न है ।।37—38—39।।

इसप्रकार अरहंतका वण%न निकया ।आगे भावकी प्रधानतासे वण%न करते हैं—

मर्यरार्यदोसरविहओ कसार्यमलवस्थिज्जओ र्य सुविवसुद्धो ।चिचAपरिरणामरविहदो केवलभावे मुणेर्यव्वो ।।40।।मदरागदोषरविहतः कषार्यमलवर्जिजंतः च सुविवशुद्धः ।चिचAपरिरणामरविहतः केवलभावे ज्ञातव्यः ।।40।।

मदरागदे्वषविवहीन, त्र्य}कषार्यमल सुविवशुद्ध छे,मनपरिरणमनपरिरमु}, केवलभावस्थिस्थत अहmत छे. 40.

अथ% :—केव>भाव अथा%त् केव>ज्ञानरूप ही एक भाव होते हुए अरहंत होते हैं, ऐसा ानना । मद अथा%त ् मानकषायस े हुआ गव%, राग—दे्वष अथा%त ् कषायोंके तीव्र उदयसे होनेवा> े प्रीनित और अप्रीनितरूप परिरणाम इनस े रनिहत हैं, पच्चीस कषायरूप म> उसका द्रव्यकम% तथा उनके उदयसे हुआ भावम> उससे रनिहत हैं, इसीशि>ये अत्यन्त निवशुद्ध हैं—निनम%> हैं, शिचत्तपरिरणाम अथा%त ् मनके परिरणमनरूप निवकल्पस े रनिहत हैं, ज्ञानावरणकम%के क्षयोपशमरूप मनका निवकल्प नहीं है, इसप्रकार केव> एक ज्ञानरूप वीतराग-वरूप ‘भाव अरहंत’ ानना ।।40।।

आगे भाव ही का निवशेष कहते हैं :—सम्म�ंसशिण पस्सदिद जाणदिद णाणेण दव्वपज्जार्या ।सम्मAगुणविवसुद्धो भावो अरहस्स णार्यव्वो ।।41।।सम्र्यग्दश�नेन पश्र्यवित जानावित ज्ञानेन द्रव्यपर्या�र्यान् ।सम्र्यक्त्वगुणविवशुद्धः भावः अह�तः ज्ञातव्यः ।।41।।

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देखे दरशर्थी ज्ञानर्थी जाणे दरव-पर्या�र्यने,सम्र्यक्त्वगुणसुविवशुद्ध छे,–अह�तंनो आ भाव छे. 41.

अथ% :—‘भावअरहंत’ सम्यग्दश%नसे तो अपनेको तथा सबको सत्तामात्र देkते हैं, इसप्रकार जि नको केव>दश%न है, ज्ञानसे सब द्रव्य-पया%योंको ानत े हैं, इसप्रकार जि नके केव>ज्ञान है, जि नको सम्यक्त्व गुणसे निवशुद्ध क्षामियक सम्यक्त्व पाया ाता है,—इसप्रकार अरहंतका भाव ानना ।

भावाथ% :—अरहंतपना घानितयाकम%के नाशसे होता है । मोहकम%के नाशसे सम्यक्त्व और कषायके अभावसे परम वीतरागता सव%प्रकार निनम%>ता होती है । ज्ञानावरण, दश%नावरण कम%के नाशसे अनंतदश%न-अनंतज्ञान प्रकट होता है, इनसे सब द्रव्य-पया%योंको एक समयमें प्रत्यक्ष देkते हैं और ानते हैं । द्रव्य छह हैं—उनमें ीवद्रव्यकी संख्या अनंतानंत है, पुद्ग> द्रव्य उससे अनंतानंत गुणे हैं, आकाश द्रव्य एक है वह अनंतानंत प्रदेशी है, इसके मध्यमें सब ीव-पुद्ग> असंख्यात प्रदेशम ें ण्डिस्थत ह ैं । एक धम%द्रव्य, एक अधम%द्रव्य य े दोनों असंख्यातप्रदेशी हैं, इनसे आकाशके >ोक-अ>ोकका निवभाग है, उसी >ोकमें ही का>द्रव्यके असंख्यात का>ाणु ण्डिस्थत ह ैं । इन सब द्रव्योंके परिरणामरूप पया%य ह ैं व े एक-एक द्रव्यके अनंतानंत हैं, उनको का>द्रव्यका परिरणाम निनमिमत्त है, उसके निनमिमत्तस े क्रमरूप होता समयादिदक व्यवहारका> कह>ाता है । इसकी गणनासे अतीत, अनागत, वत%मान द्रव्योंकी पया%यें अनंतानंत हैं, इन सब द्रव्य-पया%योंको अरहंतका दश%न-ज्ञान एकसमयमें देkता और ानता है, इसशि>ये अरहंतको सव%दशN—सव%ज्ञ कहते हैं ।

भावाथ% :—इसप्रकार अरहंतका निनरूपण चौदह गाथाओंमें निकया । प्रथम गाथामें नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, गुण, पया%य सनिहत च्यवन, आगनित, संपभित्त ये भाव अरहंतको बत>ाते हैं । इसका व्याख्यान नामादिद कथनमें सव% ही आ गया, उसका संक्षेप भावाथ% शि>kते हैं :—

गभ% कल्याणक :—प्रथम गभ%कल्याणक होता है; गभ%में आनेके छह महीने पनिह>े इन्द्रका भे ा हुआ कुबेर जि स रा ाकी राणीके गभ%में तीथ�कर आयेंगे उसके नगरकी शोभा करता है, रत्नमयी सुवण%मयी मजिन्दर बनाता है, नगरके कोट, kाई, दरवा े, सुन्दर वन, उपवनकी रचना करता है, सुन्दर भेषवा>े नरनारी नगरमें बसाता है, निनत्य रा मजिन्दर पर रत्नोंकी वषा% होती रहती है, तीथ�करका ीव ब माताके गभ%में आता है तब माताको सो>ह -वप्न आते हैं, रुचकवरद्वीपमें रहनेवा>ी देवांगनाय ें माताकी निनत्य सेवा करती हैं, ऐसे नौ महीने पूरे होने पर प्रभुका तीन ज्ञान और दस अनितशय सनिहत न्म होता है, तब तीन>ोकमें आनंदमय क्षोभ होता है, देवोंके निबना ब ाए बा े ब ते हैं, इन्द्रका आसन कंपायमान होता है, तब इन्द्र प्रभुका न्म हुआ ानकर -वग%से ऐरावत हाथी पर चढ़कर आता है, सव% चार

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प्रकारके देव—देवी एकत्र होकर आते हैं, शची (इन्द्राणी) माताके पास ाकर गुप्तरूपसे प्रभुको >े आती है, इन्द्र हर्विषंत होकर ह ार नेत्रोंसे देkता है ।

निफर सौधम% इन्द्र, बा>क शरीरी भगवानको अपनी गोदमें >ेकर ऐरावत हाथी पर चढ़कर मेरुपव%तपर ाता है, ईशान इन्द्र छत्र धारण करता है, सनत्कुमार, महेन्द्र इन्द्र चँवर ढोरते हैं, मेरुके पांOुकवनकी पांOुकशिश>ा पर लिसंहासनके ऊपर प्रभुको निबरा मान करते हैं, सब देव क्षीरसमुद्रसे एक ह ार आठ क>शोंमें > >ाकर देव—देवांगना गीत, नृत्य, वादिदत्र बड़े उत्साह सनिहत प्रभुके म-तक पर क>श ढारकर न्मकल्याणकका अभिभषेक करते हैं, पीछे, श्रृंगार, व-त्र, आभूषण पनिहनाकर माताको मंदिदरम ें >ाकर माताके सौंप देत े हैं, इन्द्रादिदक देव अपने—अपने स्थान पर च>े ाते हैं, कुबेर सेवाके शि>ये रहता है ।

तदनन्तर कुमार—अवस्था तथा राज्य—अवस्था भोगते हैं । उसमें मनोवांशिछत भोग भोगकर निफर वैराग्यका कारण पाकर संसार—देह—भोगोंस े निवरक्त हो ात े ह ैं । तब >ौकान्तिन्तक देव आकर, वैराग्यको बढ़ाने वा>ी प्रभुकी -तुनित करते हैं, निफर इन्द्र आकर ‘तप कल्याणक’ करता ह ै । पा>कीमें बैठाकर बड़े उत्सवसे वनमें >े ाता है, वहा ँ प्रभु पनिवत्र शिश>ा पर बैठकर पंचमुमिष्टस े >ोचकर पंच महाव्रत अंगीकार करत े हैं, सम-त परिरग्रहका तयागकर दिदगम्बररूप धारणकर ध्यान करते हैं, उसीसमय मनःपय%यज्ञान उत्पन्न हो ाता है । निफर कुछ समय व्यतीत होन े पर तपके ब>स े घानितकम%की प्रकृनित 47 तथा अघानित कम%प्रकृनित 16—इसप्रकार ते्रसठ प्रकृभित्तका सत्तामेंस े नाशकर केव>ज्ञान उत्पन्न कर अनन्तचतुष्टयरूप होकर क्षुधादिदक दोषोंसे रनिहत अरहंत होते हैं ।

निफर इन्द्र आकर समवसरणकी रचना करता ह ै सो आगमोक्त अनेक शोभासनिहत मभिण—सुवण%मयी कोट, kाई, वेदी, चारों दिदशाओंमें चार दरवा े, मान-तंभ, नाट्यशा>ा, वन आदिद अनेक रचना करता ह ै । उसके बीच सभामhOपम ें बारह सभाए ँउनम ें मुनिन, आर्मियंका, श्रावक, श्रानिवका, देव, देवी, नितय�च बैठते हैं । प्रभुके अनेक अनितशय प्रकट होते हैं । सभामhOपके बीच तीन पीठ पर गंधकुटीके बीच लिसंहासन पर कम>के ऊपर अंतरीक्ष प्रभु निबरा त े ह ैं और आठ प्रानितहाय% युक्त होत े ह ैं । वाणी खिkरती है, उसको सुनकर गणधर द्वादशांग शा-त्र रचते हैं । ऐसे केव>कल्याणका उत्सव इन्द्र करता है । निफर प्रभु निवहार करते हैं । उसका बड़ा उत्सव देव करते हैं । कुछ समय बाद आयुके दिदन थोड़े रहने पर योगनिनरोध कर अघानितकम%का नाशकर मुशिक्त पधारत े हैं, तत्पश्चात ् शरीरका अखिग्न-सं-कार कर इन्द्र उत्सवसनिहत ‘निनवा%ण कल्याणक’ महोत्सव करता है । इसप्रकार तीथ�कर पंच कल्याणककी पू ा प्राप्त कर, अरहंत होकर निनवा%णको प्राप्त होते हैं, ऐसा ानना ।।41।।

आग े (11)—प्रव्रज्याका निनरूपण करत े हैं, उसको दीक्षा कहत े ह ैं । प्रथम ही दीक्षाके योग्य स्थाननिवशेषको तथा दीक्षासनिहत मुनिन हाँ नितष्ठते हैं, उसका -वरूप कहते हैं :—

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सुण्णहरे तरुविहटे्ठ, उज्जाणे तह मसाणवासे वा ।विगरिरगुह विगरिरचिसहरे वा, भीमवणे अहव वचिसते वा ।।42।।*सवसासAं वितyं, **वचचइदालAर्यं च वुAेहिहं ।जिजणभवणं अह वेज्झं, जिजणमग्गे जिजणवरा हिवंवित ।।43।।

1. सं0 प्रनितमें ‘सवसा’ ‘सतं’ ऐसे दो पद निकये हैं, जि नकी सं0 -ववशा सत्त्वं शि>kा है ।2. ‘वचचइदा>त्तयं’ इसके भी दो ही पद निकये हैं ‘वचः’ चैत्या>यं ।

पंचमहव्वर्यजुAा, पंलिचंदिदर्यसंजर्या शिणरावेक्खा ।सज्झार्यझाणजुAा, मुशिणवरवसहा शिणइच्छप्तिन्त ।।44।।शून्र्यगृहे तरुमूले उद्याने तर्था श्मसानवासे वा ।विगरिरगुहार्यां विगरिरशिशखरे वा, भीमवने अर्थवा वसतौ वा ।।42।।स्वक्शास}ं तीर्थm वचश्चैत्र्यालर्यवित्रकं च उ}ैः ।जिजनभवन ंअर्थ वेध्र्यं जिजनमागt जिजनवरा विवदप्तिन्त ।।43।।पंचमहाव्रतर्यु}ाः पंचेजिन्द्रर्यसंर्यताः विनरपेक्षाः ।स्वाध्र्यार्यध्र्यानर्यु}ाः मुविनवरवृषभाः नीच्छप्तिन्त ।।44।।

मुविन शून्र्यगृह तरुतल वसे, उद्यान वा समशानमां,विगरिरकंदरे, विगरिरशिशखर पर, विवकराळ वन वा वत्थिस्तमां. 42.विनजवश श्रमणना वास, तीरर्थ, शास्त्रचैत्र्यालर्य अनेजिजनभवन मुविननां लक्ष्र्य छे—जिजनवर कहे जिजनशासने. 43.पंचेजिन्द्रसंर्यमवंत, पंचमहाव्रती, विनरपेक्ष नेस्वाध्र्यार्य-ध्र्याने र्यु} मुविनवरवृषभ इचे्छ तेमने. 44.

अथ% :—सूना घर, वृक्षका मू>, कोटर, उद्यान, वन, श्मशानभूमिम, पव%तकी गुफा, पव%तका शिशkर, भयानक वन और वस्ति-तका इनमें दीक्षासनिहत मुनिन ठहरें । ये दीक्षायोग्य स्थान हैं ।

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-ववशासक्त अथा%त् -वाधीन मुनिनयोंसे आसक्त ो क्षेत्र उन के्षत्रोंमें मुनिन ठहरे । तथा हाँसे मोक्ष पधारे इसप्रकारके तीथ%स्थान और वच, चैत्य, आ>य, इसप्रकार नित्रक ो पनिह>े कहा गया है अथा%त् आयतन आदिदक; परमाथ%रूप, संयमी मुनिन, अरहंत, शिसद्ध -वरूप उनके नामके अक्षररूप मंत्र तथा उनकी आज्ञारूप वाणीको ‘वच’ कहते हैं तथा उनेके आकार धातु—पाषाणकी प्रनितमा स्थापनको ‘चैत्य’ कहते हैं और वह प्रनितमा तथा अक्षर मंत्र वाणी जि समें स्थानिपत निकये ाते ह ैं इसप्रकार आलर्य—मंदिदर, यंत्र या पु-तकरूप ऐसा वच, चैत्य तथा आ>यका नित्रक है अथवा जि नभवन अथा%त् अकृनित्रम चैत्या>य मंदिदर इसप्रकार आयतनादिदक उनके समन ही उनका व्यवहार, उस े जि नमाग%म ें जि नवर देव ‘बेध्र्य’ अथा%त ् दीक्षासनिहत मुनिनयोंके ध्यान करने योग्य, शिचन्तवन करने योग्य कहते हैं ।

ो मुनिनवृषभ अथा%त ् मुनिनयोंम ें प्रधान ह ैं उनके कहे हुए शून्यगृहादिदक तथा तीथ%, नाम, मंत्र, स्थापनरूप मूर्वितं और उनका आ>य—मजिन्दर, पु-तक और अकृनित्रम जि नमजिन्दर उनको ‘भिणइचं्छनित’ अथा%त् निनश्चयसे इष्ट करते हैं । सूने घर आदिदमें रहते हैं और तीथ% आदिदका ध्यान लिचंतवन करत े ह ैं तथा दूसरोंको वहा ँ दीक्षा देत े ह ैं । यहा ँ ‘भिणइच्छनित’ पाठान्तर ‘णइचं्छनित’ इसप्रकार भी है, उसका का>ोशिक्त द्वारा तो इसप्रकार अथ% होता है निक ‘‘ ो क्या इष्ट नहीं करत े ह ैं ? अथा%त ् करत े ही ह ैं ।’’ एक दिटप्पणीम ें ऐसा अथ% निकया ह ै निक—ऐसे शून्यगृहादिदक तथा तीथा%दिदकको -ववशासक्त अथा%त् -वेच्छाचारी भ्रष्टाचारीयों द्वारा आसक्त हो (युक्त हो) तो वे मुनिनप्रधान इष्ट न करें, वहाँ न रहें । कैसे ह ैं वे मुनिनप्रधान ? पाँच महाव्रत संयुक्त हैं, पाँच इजिन्द्रयोंको भ>ेप्रकार ीतनेवा>े हैं, निनरपेक्ष हैं—निकसी प्रकारकी वांच्छासे मुनिन नहीं हुए हैं, -वाध्याय और ध्यानयुक्त हैं, कई तो शा-त्र पढ़ते—पढा़त े हैं, कई धम%-शुक्>ध्यान करते हैं ।

भावाथ% :—यहा ँ दीक्षा योग्य स्थान तथा दीक्षासनिहत दीक्षा देनेवा> े मुनिनका तथा उनके लिचंतनयोग्य व्यवहारका -वरूप कहा है ।।42—43—44।।

(11) आगे प्रव्रज्याका -वरूप कहते हैं :—विगहगंर्थमोहमुक्का, बावीसपरिरसहा जिजर्यकषार्या ।पावारंभविवमुक्का, पव्वज्जा एरिरसा भशिणर्या ।।45।।गृहग्रंर्थमोहमु}ा द्वाहिवंशवितपरीषहा जिजतकषार्या ।पापारंभविवमु}ा प्रव्रज्र्या ईदृशी भशिणता ।।45।।

गृह-गं्रर्थ-मोहविवमु} छे, परिरषहजर्यी, अकषार्य छे,छे मु} पापारंभर्थी,–दीक्षा कही आवी जिजने. 45.

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अथ% :—गृह (घर) और ग्रंथ (परिरग्रह) इन दोनोंसे मुनिन तो मोह ममत्व, इष्ट—अनिनष्ट बुजिद्धसे रनिहत ही है, जि समें बाईस परीषहोंका सहना होता है, कषायोंको ीतत े ह ैं और पापरूप आरंभसे रनिहत हैं—इसप्रकार प्रव्रज्या जि नेश्वरदेवने कही है ।

भावाथ% :— ैनदीक्षामें कुछ भी परिरग्रह नहीं, सव% संसारका मोह नहीं, जि समें बाईस परिरषहोंका सहना तथा कषायोंका ीतना पाया ाता है और पापारंभका अभाव होता है । इसप्रकार दीक्षा अन्यमतमें नहीं है ।।45।।

आगे निफर कहते हैं :—धणधण्णवyदाणं, विहरण्णसर्यणासणाइं छAाइं ।कु�ाणविवरहरविहर्या पव्वज्जा एरिरसा भशिणर्या ।।46।।धनधान्र्यवस्त्रदानं विहरण्र्यशर्यनासनादिद छत्रादिद ।कुदानविवरहरविहता प्रव्रज्र्या ईदृशी भशिणता ।।46।।

धन-धान्र्य-पट, कंचन-रजत, आसन-शर्यन, छत्रादिदनां,सवt कुदान विवहीन छे, –दीक्षा कही आवी जिजने. 46.

अथ% :—धन, धान्य, व-त्र इनका दान, निहरhय अथा%त् रूपा, सोना आदिदक, शय्या, आसन आदिद शब्दसे छत्र, चामरादिदक और क्षेत्र आदिद कुदानोंसे रनिहत प्रव्रज्या कही है ।

भावाथ% :—अन्यमती, बहुतसे इसप्रकार प्रव्रज्या कहते हैं:—गौ, धन, धान्य, व-त्र, सोना, रूपा (चांदी), शयन, आसन, छत्र, चँवर, और भूमिम आदिदका दान करना प्रव्रज्या है । इसका इस गाथामें निनषेध निकया है—प्रव्रज्या तो निनग्र�थ-वरूप है, ो धन, धान्य आदिद रkकर दान करे उसके काहेकी प्रव्रज्या ? यह तो गृहस्थका कम% है, गृहस्थके भी इन व-तुओंके दानसे निवशेष पुhय तो होता नहीं है, क्योंनिक पाप बहुत है और पुhय अल्प है, वह बहुत पापकाय% तो गृहस्थको करनेमें >ाभ नहीं है । जि समें बहुत >ाभ हो वही काम करना योग्य है । दीक्षा तो इन व-तुओंसे रनिहत है ।।46।।

आगे निफर कहते हैं :—सAूमिमAे र्य समा, पसंसणिणंदा अलशिद्धलशिद्धसमा ।तणकणए समभावा, पव्वज्जा एरिरसा भशिणर्या ।।47।।शत्रौ मिमते्र च समा प्रशंसाविनन्दाऽलब्धि�लब्धि�समा ।तृणे कनके समभावा प्रव्रज्र्या ईदृशी भशिणता ।।47।।

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हिनंदा-प्रशंसा, शतु्र-मिमत्र, अलब्धि� ने लब्धि� विवषे,तृण-कंचने समभाव छे,–दीक्षा कही आवी जिजने. 47.

अथ% :—जि सम ें शतु्र-मिमत्रम ें समभाव है, प्रशंसा—निनन्दामें, >ाभ-अ>ाभमें, और तृण—कंचनमें समभाव है । इसप्रकार प्रव्रज्या कही है ।

भावाथ% :— ैनदीक्षामें राग—दे्वषका अभाव है । शतु्र—मिमत्र, हिनंदा—प्रशंसा, >ाभ—अ>ाभ और तृण—कंचनमें समभाव है । ैन मुनिनयोंकी दीक्षा इसप्रकार ही होती है ।।47।।

आगे निफर कहते हैं :—उAममस्थिज्झमगेहे, दारिर�े ईसरे शिणरावेक्खा ।सव्वy विगविहदहिपं)ा, पव्वज्जा एरिरसा भशिणर्या ।।48।।उAममध्र्यमगेहे दरिरदे्र ईश्वरे विनरपेक्षा ।सव�त्र गृविहतहिपं)ा प्रव्रज्र्या ईदृशी भशिणता ।।48।।

विनध�न-सधन ने उच्च-मध्र्यम सदन अनपेशिक्षतपणे,सव�त्र हिपं) ग्रहार्य छे,–दीक्षा कही आवी जिजने. 48.

अथ% :—उत्तम गेह अथा%त् शोभा सनिहत रा भवनादिद और मध्यमगेह अथा%त् जि समें अपेक्षा नहीं ह ै । शोभारनिहत सामान्य >ोगोंका घर इनमें तथा दरिरद्र-धनवान ् इनम ें निनरपेक्ष अथा%त् इच्छारनिहत हैं, सब ही योग्य गह पर आहार ग्रहण निकया ाता है । इसप्रकार प्रव्रज्या कही है ।

भावाथ% :—मुनिन दीक्षासनिहत होते हैं और आहार >ेनेको ाते हैं तब इसप्रकार निवचार नहीं करते हैं निक बड़े घर ाना अथवा छोटे घर वा दरिरद्रीके घर या धनवान के घर ाना, इसप्रकार वांछारनिहत निनद}ष आहारकी योग्यता हो वहाँ सब ही गहसे योग्य आहार >े >ेते हैं, इसप्रकार दीक्षा है ।।48।।

आगे निफर कहते हैं :—शिणग्गंर्था शिणस्संगा, शिणम्माणासा अरार्य शिण�ोसा ।शिणम्मम शिणरहंकारा, पव्वज्जा एरिरसा भशिणर्या ।।49।।विनग्रmर्था विनःसंगा विनमा�नाशा अरागा विनद्वtषा ।विनम�मा विनरहंकारा प्रव्रज्र्या ईदृशी भशिणता ।।49।।

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विनग्रmर्थ ने विनःसंग विनमा�नाश, विनरहंकार छे,विनम�म, अराग, अदे्वष छे,–दीक्षा कही आवी जिजने. 49.

अथ% :—कैसी ह ै प्रव्रज्या ? निनग्र%न्थ-वरूप है, परिरग्रहसे रनिहत है, निनःसंग अथा%त् जि समें -त्री परद्रव्यका संग-मिम>ाप नहीं है, जि समें निनमा%ना अथा%त् मान कषाय भी नहीं है, मदरनिहत है, जि समें आशा नहीं है, संसारभोगकी आशारनिहत है, जि समें अराग अथा%त् रागका अभाव है, संसार—देह—भोगोंसे प्रीनित नहीं है, निनद्व�षा अथा%त् निकसीसे दे्वष नहीं है, निनम%मा अथा%त् निकसीसे ममत्वभाव नहीं है, निनरहंकारा अथा%त् अहंकाररनिहत है, ो कुछ कम%का उदय होता ह ै वही होता है—इसप्रकार ाननेस े परद्रव्यमें कतृ%त्वका अहंकार नहीं रहता ह ै और अपने -वरूपका ही उसमें साधन है, इसप्रकार प्रव्रज्या कही है ।

भावाथ% :—अन्यमती भेष पनिहनकर उसी मात्राको दीक्षा मानते हैं वह दीक्षा नहीं है, ैनदीक्षा इसप्रकार कही है ।।49।।

आगे निफर कहते हैं :—शिणण्णेहा शिणल्लोहा, शिणम्मोहा शिणप्तिव्वर्यार शिणक्कलुसा ।शिणब्भर्य शिणरासभावा, पव्वज्जा एरिरसा भशिणर्या ।।50।।विनःस्नेहा विनलNभा विनमNहा विनर्विवंकारा विनःकलुषा ।विनभ�र्या विनराशभावा प्रव्रज्र्या ईदृशी भशिणता ।।50।।

विनःस्नेह, विनभ�र्य, विनर्विवकंार, अकलुष ने विनमNह छे,आशारविहत, विनलNभ छे,–दीक्षा कही आवी जिजने. 50.

अथ% :—प्रव्रज्या ऐसी कही है—निनः-नेहा अथा%त् जि समें निकसीसे -नेह नहीं, जि समें परद्रव्यसे रागादिदरूप सण्डिच्चक्कणभाव नहीं है, जि समें निन>}भा अथा%त् कुछ परद्रव्यके >ेनेकी वांछा नहीं है, जि समें निनम}हा अथा%त ् निकसी परद्रव्यसे मोह नहीं है, भू>कर भी परद्रव्यमें आत्मबुजिद्ध नहीं होती है, निनर्विवंकारा अथा%त् बाह्य—आभ्यन्तर निवकारसे रनिहत है, जि समें बाह्य शरीरकी चेष्टा तथा व-त्राभूषणादिदकका तथा अंग—उपांगका निवकार नहीं है, जि समें अंतरंग काम—क्रोधादिदकका निवकार नहीं ह ै । निनःक>ुषा अथा%त ् मशि>नभाव रनिहत ह ै । आत्माको कषाय मशि>न करते हैं अतः कषाय जि समें नहीं है । निनभ%या अथा%त् जि समें कीसी प्रकारका भय नहीं है, अपने -वरूपको अनिवनाशी ाने उसको निकसका भय हो, जि समें निनराशभावा अथा%त् निकसीप्रकारके परद्रव्यकी आशाका भाव नहीं है, आशा तो निकसी व-तुकी प्रान्तिप्त न हो उसकी >गी रहती है, परन्त ु हा ँ परद्रव्यको अपना ाना ही नहीं और अपन े -वरूपकी प्रान्तिप्त हो गई तब कुछ प्राप्त करना शेष न रहा, निफर निकसकी आशा हो ? प्रव्रज्या इसप्रकार कही है ।

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भावाथ% :— ैनदीक्षा ऐसी है । अन्यमतमें -व-पर द्रव्यका भेदनिवज्ञान नहीं है, उनके इसप्रकार दीक्षा कहाँसे हो ।।50।।

आगे दीक्षाका बाह्य-वरूप कहते हैं :—जहजार्यरूवसरिरसा, अवलंविबर्यभुर्य शिणराउहा संता ।परविकर्यशिणलमिर्यवासा पव्वज्जा एरिरसा भशिणर्या ।।51।।र्यर्थाजातरूपसदृशी अवलंविबतभुजा विनरार्युधा शांता ।परकृतविनलर्यविनवासा प्रव्रज्र्या ईदशी भशिणता ।।51।।

जन्म्र्या प्रमाणे रूप, लंविबतभुज, विनरार्युध, शांत छे,परकृत विनलर्यमां वास छे,–दीक्षा कही आवी जिजने. 51.

अथ% :—कैसी है प्रव्रज्या ? यथा ातरूपसदृशी अथा%त् ैसा न्म होते ही बा>कका नग्नरूप होता है, वैसा ही नग्नरूप उसमें है । अव>ंनिबतभु ा अथा%त् जि समें भु ा >ंबायमान की है, जि समें बाहुल्य अपेक्षा कायोत्सग% kड़ा रहना होता है, निनरायुध अथा%त् आयुधोंसे रनिहत है, शांता अथा%त् जि समें अंग—उपांगके निवकार रनिहत शांतमुद्रा होती है । परकृतनिन>यनिनवासा अथा%त ् जि सम ें दूसरेका बनाया निन>य ो वस्ति-तका आदिद उसम ें निनवास होता है, जि समें अपनेको कृत, कारिरत, अनुमोदना, मन, वचन, काय द्वारा दोष न >गा हो ऐसी दूसरेकी बनाई हुई वस्ति-तका आदिदमें रहना होता है—ऐसी प्रव्रज्या कही है ।

भावाथ% :—अन्यमती कई >ोग बाह्यमें व-त्रादिदक रkते हैं, कई आयुध रkते हैं, कई सुkके शि>ये आसन च>ाच> रkते हैं, कई उपाश्रय आदिद रहनेका निनवास बनाकर उसमें रहते हैं और अपनेको दीक्षासनिहत मानते हैं, उनके भेषमात्र है, ैनदीक्षा तो ैसी कही वैसी ही है ।।51।।

आगे निफर कहते हैं :—उवसमखमदमजुAा, सरीरसंकारवस्थिज्जर्या रुक्खा ।मर्यरार्यदोसरविहर्या, पव्वज्जा एरिरसा भशिणर्या ।।52।।उपशमक्षमदमर्यु}ा शरीरसंस्कार वर्जिजतंा रूक्षा ।मदरागदोषरविहता प्रव्रज्र्या ईदृशी भशिणता ।।52।।

उपशम-क्षमा-दमर्यु}, तनसंस्कारवर्जिजंत रूक्ष छे,मद-राग-दे्वषविवहीन छे,–दीक्षा कही आवी जिजने. 52.

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अथ% :—कैसी ह ै प्रव्रज्या ? उपशमक्षमदमयुक्ता अथा%त ् उपशम तो मोहकम%के उदयका अभावरूप शांतपरिरणाम और क्षमा अथा%त् क्रोधका अभावरूप उत्तमक्षमा तथा दम अथा%त् इजिन्द्रयोंको निवषयोंमें नहीं प्रवता%ना—इन भावोंसे युक्त है, शरीरसं-कारवर्द्धि ंता अथा%त् -नानादिद द्वारा शरीरको स ाना इसस े रनिहत है, जि सम ें रूक्ष अथा%त ् ते> आदिदका मद%न शरीरके नहीं है । मद, राग, दे्वष, रनिहत है, इसप्रकार प्रव्रज्या कही है ।

भावाथ% :—अन्यमतके भेषी क्रोधादिदरूप परिरणमत े हैं, शरीरको स ाकर सुन्दर रkत े हैं, इजिन्द्रयोंके निवषयोंका सेवन करत े ह ैं और अपनेको दीक्षासनिहत मानत े हैं, व े तो गृहस्थके समान हैं, अतीत (यनित) कह>ाकर उ>टे मिमथ्यात्वको दृढ़ करत े हैं; ैनदीक्षा इसप्रकार है वही सत्याथ% है, इसको अङ्गीकार करते हैं वे ही सच्चे अतीत (यनित) हैं ।।52।।

आगे निफर कहते हैं :—विववरीर्यमूढभावा, पणट्ठकम्मट्ठ णट्ठमिमच्छAा ।सम्मAगुणविवसुद्धा, पव्वज्जा एरिरसा भशिणर्या ।।53।।विवपरीतमूढभावा प्रणष्टकमा�ष्टा नष्टमिमथ्र्यात्वा ।सम्र्यक्त्वगुणविवशुद्धा प्रव्रज्र्या ईदशी भशिणता ।।53।।

ज्र्यां मूढता-मिमथ्र्यात्व नविह, ज्र्यां कम� अष्ट विवनष्ट छे,सम्र्यक्त्वगुणर्थी शुद्ध छे,–दीक्षा कही आवी जिजने. 53.

अथ% :—कैसी ह ै प्रव्रज्या ?—निक जि सके मूढभाव, अज्ञानभाव निवपरीत हुआ है अथा%त् दूर हो गया है । अन्यमती आत्माका -वरूप सव%था एकांतसे अनेकप्रकार भिभन्न—भिभन्न कहकर बाद करते हैं, उनके आत्माके -वरूपमें मूढ़भाव है । ैन मुनिनयोंके अनेकांतसे शिसद्ध निकया हुआ यथाथ% ज्ञान है, इसशि>ये मूढ़भाव नहीं ह ै । जि समें आठकम% और मिमथ्यात्वादिद प्रणष्ट हो गय े हैं, ैनदीक्षाम ें अतत्त्वाथ%श्रद्धानरूप मिमथ्यात्वका अभाव है, इसीशि>ये सम्यक्त्वनामक गुण द्वारा निवशुद्ध है, निनम%> है, सम्यक्त्वसनिहत दीक्षामें दोष नहीं रहता है; इसप्रकार प्रव्रज्या कही है ।।53।।

आगे निफर कहते हैं :—जिजणमग्गे पव्वज्जा, छहसंहणणेसु भशिणर्य शिणग्गंर्था ।भावंवित भव्वपुरिरसा, कम्मक्खर्यकारणे भशिणर्या ।।54।।जिजनमागt प्रव्रज्र्या, षट्संहननेषु भशिणता विनग्रmर्था ।भावर्यंवित भव्यपुरुषाः कम�क्षर्यकारणे भशिणता ।।54।।

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विनग्रmर्थ दीक्षा छे कही षट् संहननमां जिजनवरे;भविव पुरुष भावे तेहने; ते कम� क्षर्यनो हेतु छे. 54.

अथ% :—प्रव्रज्या जि नमाग%में छह संहननवा>े ीवके होना कहा है, निनग्र�थ-वरूप है, सब परिरग्रहसे रनिहत यथा ात-वरूप है । इसकी भव्यपुरुष ही भावना करते हैं । इसप्रकारकी प्रव्रज्या कम%के क्षयका कारण कही है ।

भावाथ% :—वज्रऋषभनाराच आदिद, छह शरीरके संहनन कह े हैं, उनम ें सबम ें ही दीक्षा होना कहा है, ो भव्यपुरुष हैं वे कम%क्षयका कारण ानकर इसको अंगीकार करो । इसप्रकार नहीं है निक दृढ़ संहनन वज्रऋषभ आदिद हैं, उनमें ही दीक्षा हो और असंसृपादिटक संहननमें न हो, इसप्रकार निनग्र�न्थरूप दीक्षा तो असंप्राप्तासृपादिटका संहननमें भी होती है ।।54।।

आगे निफर कहते हैं :—वितलतुसमAशिणमिमAसम, बाविहरग्गंर्थसंगहो णत्थिy ।पव्वज्ज हवइ एसा, जह भशिणर्या सव्वदरसींविह ।।55।।वितलतुषमात्रविनमिमAसमः बाह्यगं्रर्थसंग्रहः नात्थिस्त ।प्रव्रज्र्या भववित एषा र्यर्था भशिणता सव�दर्शिशशंिभः ।।55।।

तलतुषप्रमाण न बाह्य परिरग्रह, राग तत्सम छे नहीं;–आवी प्रव्रज्र्या होर्य छे सव�ज्ञ जिजनदेवे कही. 55.

अथ% :—जि स प्रव्रज्याम ें नित>के तुषमात्रके संग्रहका कारण—ऐसे भावरूप इच्छा अथा%त् अंतरंग परिरग्रह और उस नित>के तुषमात्र बाह्य परिरग्रहका संग्रह नहीं है, इस प्रकारकी प्रव्रज्या जि सप्रकार सव%ज्ञ देवने कही है उसीप्रकार है, अन्यप्रकार प्रव्रज्या नहीं है ऐसा निनयम ानना चानिहये । श्वेताम्बर आदिद कहते हैं निक अपवादमाग%में व-त्रादिदकका संग्रह साधुको कहा है, वह सव%ज्ञके सूत्रमें तो नहीं कहा है । उन्होंने कण्डिल्पत सूत्र बनाये हैं, उनमें कहा ह ै वह का>दोष है ।।55।।

आगे निफर कहते हैं :—उव्वसग्गपरिरसहसहा, शिणज्जणदेसे विह शिणच्च *अyइ ।चिसल कटे्ठ भूमिमतले, सव्वे आरुहइ सव्वy ।।56।।

*. पाठान्तर—अचे्छइ ।

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उपसग�परीषहसहा विनज�नदेशे विह विनत्र्यं वितष्ठवित ।शिशलार्यां काषे्ठ भूमिमतले सवा�शिण आरोहवित सव�त्र ।।56।।

उपसग�-परिरषह मुविन सहे, विनज�न स्थळे विनत्र्य रहे,सव�त्र काष्ठ, शिशला अने भूतल उपर स्थिस्थवित ते करे. 56.

अथ% :—उपसग% अथवा देव, मनुष्य, नितय�च और अचेतनकृत उपद्रव और परीषह अथा%त् दैव-कम%योगसे आये हुए बाईस परीषहोंको समभावोंसे सहना–इसप्रकार प्रव्रज्यासनिहत मुनिन हैं, व े हा ँ अन्य न नहीं रहत े ऐस े निन %न बनादिद प्रदेशोंम ें सदा रहत े हैं, वहा ँ भी शिश>ात>, काष्ठ, भूमिमत>में रहते हैं, इन सब ही प्रदेशोंमें बैठते हैं, सोते हैं, ‘सव%त्र’ कहनेसे वनमें रहें और हिकंशिचत्का> नगरमें रहें तो ऐसे ही स्थान पर रहें ।

भावाथ% :— ैनदीक्षावा>े मुनिन उपसग%—परीषहमें समभाव रkते हैं और हाँ सोते हैं, बैठते हैं, वहाँ निन %न प्रदेशमें शिश>ा, काष्ठ, भूमिममें ही बैठते हैं, सोते हैं, इसप्रकार नहीं है निक अन्यमतके भेषीवत् -वच्छन्दी प्रमादी रहें, इसप्रकार ानना चानिहये ।।56।।

आगे अन्य निवशेष कहते हैं :—पसुमविहलसंढसंगं कुसीलसंगं ण कुणइ विवकहाओ ।सज्झार्यझाणजुAा पव्वज्जा एरिरसा भशिणर्या ।।57।।पशुमविहलाषंढसंगं कुशीलसंगं न करोवित विवकर्थाः ।स्वाध्र्यार्यध्र्यानर्यु}ा प्रव्रज्र्या ईदृशी भशिणता ।।57।।

स्त्री-षंढ-पशु-दुःशीलनो नविह संह, नविह विवकर्था करे,स्वाध्र्यार्य-ध्र्याने र्यु} छे,–दीक्षा कही आवी जिजने. 57.

अथ% :—जि स प्रव्रज्याम ें पशु—नितय�च, मनिह>ा (-त्री), षंढ (नपुंसक) इनका संग तथा कुशी> (व्यभिभचारी) पुरुषका संग नहीं करते हैं; -त्री कथा, रा ा कथा, भो न कथा और चोर इत्यादिदकी कथा ो निवकथा है उनको नहीं करते हैं, तो क्या करते ह ैं ? -वाध्याय अथा%त् शा-त्र—जि नवचनोंका पठन-पाठन और ध्यान अथा%त् धम%—शुक्> ध्यान इनसे युक्त रहते हैं । इसप्रकार प्रव्रज्या जि नदेवने कही है ।

भावाथ% :—जि नदीक्षा >ेकर कुसंगनित करे, निवकथादिदक कर े और प्रमादी रह े तो दीक्षाका अभाव हो ाय, इसशि>ये कुसंगनित निननिषद्ध है । अन्य भेषकी तरह यह भेष नहीं है । यह मोक्षमाग% है, अन्य संसारमाग% है ।।57।।

आगे निफर निवशेष कहते हैं :—

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तववर्यगुणेहिहं सुद्धा, संजमसम्मAगुणविवसुद्धा र्य ।सुद्धा गुणेहिहं सुद्धा, पव्वज्जा एरिरसा भशिणर्या ।।58।।तपोव्रतगुणैः शुद्धा संर्यमसम्र्यक्त्वगुणविवशुद्धा च ।शुद्धा गुणैः शुद्धा प्रव्रज्र्या ईदृशी भशिणताः ।।58।।

तपव्रतगुणोर्थी शुद्ध, संर्यम-सुदृगगुणसुविवशुद्ध छे,छे गुणविवशुद्ध,–सुविनम�ळा दीक्षा कही आवी जिजने. 58.

अथ% :—जि नदेवन े प्रव्रज्या इसप्रकार कही ह ै निक—तप अथा%त ् बाह्य—आभ्यंतर बारह प्रकारके तप तथा व्रत अथा%त् पाँच महाव्रत और गुण अथा%त् इनके भेदरूप उत्तरगुणोंसे शुद्ध ह ैं । ‘संयम’ अथा%त ् इजिन्द्रय—मनका निनरोध, छहकायके ीवोंकी रक्षा, ‘सम्यक्त्व’ अथा%त ् तत्त्वाथ%श्रद्धान>क्षण निनश्चय—व्यवहाररूप सम्यग्दश%न तथा इनक े ‘गुण’ अथा%त् मू>गुणोंसे शुद्ध अनितचार रनिहत निनम%> है और ो प्रव्रज्याके गुण कहे उनसे शुद्ध है, भेषमात्र ही नहीं है: इसप्रकार शुद्ध प्रव्रज्या कही ाती है । इन गुणोंके निबना प्रव्रज्या शुद्ध नहीं है ।

भावाथ% :—तप व्रत सम्यक्त्व इन सनिहत और जि नमें इनके मू>गुण तथा अतीचारोंका शोधना होता है, इसप्रकार दीक्षा शुद्ध है । अन्य वादी तथा श्वेताम्बरादिद चाहे— ैसे कहते हैं, वह दीक्षा शुद्ध नहीं है ।।58।।

आगे प्रव्रज्याके कथनका संकोच करते हैं :–एवं, *आर्यAणगुणपज्जंAा, बहुविवसुद्धसम्मAे ।शिणग्गंरे्थ जिजणमग्गे, संखेवेणं जहाखादं ।।59।।

* पाठान्तर:—आयत्तनगुणपव्वज्जंता ।

एवं **आर्यतनगुणपर्या�=ता बहुविवशुद्धसम्र्यक्त्वे ।विनग्र�ने्थ जिजनमागt संक्षेपेण र्यर्थाख्र्यातम् ।।59।।

** सं-कृत सटीक प्रनितमें ‘आयतन’ इसकी सं0 ‘आत्मत्व’ इस प्रकार है ।संक्षेपमां आर्यतनर्थी दीक्षांत भाव अहीं कह्या,ज्र्यम शुद्धसम्र्यग्दरशरु्यत विनग्रmर्थ जिजनपर्थ वण�व्या. 59.

अथ% :—इसप्रकार पूव}क्त प्रकारसे आयतन अथा%त् दीक्षाका स्थान ो निनग्र�थ मुनिन उसके गुण जि तने हैं, उनसे पज्जता अथा%त् परिरपूण% अन्य भी ो बहुतसे गुण दीक्षामें होने चानिहये वे गुण जि समें हों—इसप्रकारकी प्रव्रज्या जि नमाग%में प्रशिसद्ध है । उसीप्रकार संक्षेपसे

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कही है । कैसा है जि नमाग% ? जि समें सम्यक्त्व निवशुद्ध है, जि समें अतीचार रनिहत सम्यक्त्व पाया ाता है और निनग्र%न्थरूप है अथा%त् जि समें बाह्य अंतरंग—परिरग्रह नहीं है ।

भावाथ% :—इसप्रकार पूव}क्त प्रव्रज्या निनम%> सम्यक्त्वसनिहत निनग्र%न्थरूप जि नमाग%में कही है । अन्य नैयामियक, वैशेनिषक, सांख्य, वेदान्त, मीमांसक, पातं शि> और बौद्ध आदिदक मतमें नहीं है । का>दोषसे भ्रष्ट हो गये और ैन कह>ाते हैं इसप्रकारके शे्वताम्बरादिदकोंमें भी नहीं है ।।59।।

इसप्रकार प्रव्रज्याके -वरूपका वण%न निकया ।आगे बोधपाहुड़को संकोचते हुए आचाय% कहते हैं :—

रूवyं सुद्ध्यyं जिजणमग्गे जिजणवरेहिहं जह भशिणरं्य ।भव्वजणबोहणyं छक्कार्यविहरं्यकरं उAं ।।60।।रूपस्थं शुद्ध्यर्थ� जिजनमागt जिजनवरैः र्यर्था भशिणतम् ।भव्यजनबोधनार्थm षट्कार्यविहतंकरं उ}म् ।।60।।

रूपस्थ सुविवशुद्धार्थ� वण�न जिजनपरे्थ ज्र्यम जिजन करु्यm,त्र्यम भव्यजनबोधन—अरर्थ षट्कार्यविहतकर अहीं कहंु्य. 60.

अथ% :—जि सम ें अंतरंग भावरूप अथ% शुद्ध ह ै और ऐसा ही रूपस्थ अथा%त् बाह्य-वरूप मोक्षमाग% ैसा जि नमाग%म ें जि नदेवन े कहा ह ै वैसा छहकायके ीवोंका निहत करनेवा>ा माग% भव्य ीवोंके संबोधनके शि>ये कहा है । इसप्रकार आचाय%ने अपना अभिभप्राय प्रकट निकया है ।

भावाथ% :—इस बोधपाहुड़में आयतन आदिदसे >ेकर प्रव्रज्यापय%न्त ग्यारह स्थ> कहे । इनका बाह्य-अन्तरंग -वरूप ैसे जि नदेवने जि नमाग%में कहा वैसे ही कहा है । कैसा है यह रूप—छहकायके ीवोंका निहत करनेवा>ा है, जि समें एकेजिन्द्रय आदिद असैनी पय%न्त ीवोंकी रक्षाका अमिधकार है, सैनी पंचेजिन्द्रय ीवोंकी रक्षा भी कराता ह ै और मोक्षमाग%का उपदेश करके संसारका दुःk मेटकर मोक्षको प्राप्त कराता है, इसप्रकारका माग% (–उपाय) भव्य ीवोंके संबोधनके शि>य े कहा ह ै । गतके प्राणी अनादिदस े >गाकर मिमथ्यामाग%में प्रवत%नकर संसारमें भ्रमण करते हैं, इसीशि>ये दुःk दूर करनेके शि>ये आयतन आदिद ग्यारह स्थान धम%के दिठकानेका आश्रय >ेते हैं; अज्ञानी ीव इस स्थान पर अन्यथा -वरूप स्थानिपत करके उनसे सुk >ेना चाहते हैं, निकन्तु यथाथ%के निबना सुk कहा ँ ? इसशि>ये आचाय% दया>ु होकर ैसे सव%ज्ञने कहे वैसे ही आयतन आदिदका -वरूप संक्षेपसे यथाथ% कहा ह ै ? इसको बाँचो, पढ़ो, धारण करो और इसकी श्रद्धा करो । इसके अनुसार तद्रूप प्रवृभित्त करो ।

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इसप्रकार करनेसे वत%मानमें सुkी रहो और आगामी संसारदुःkसे छूटकर परमानन्द-वरूप मोक्षको प्राप्त करो । इसप्रकार आचाय%का कहनेका अभिभप्राय है ।

यहाँ कोई पूछे-इस बोधपाहुड़में व्यवहारधम%की प्रवृभित्तके ग्यारह स्थान कहे । इनका निवशेषण निकया निक—य े छहकायके ीवोंके निहत करनेवा> े ह ैं । निकन्त ु अन्यमती इनको अन्यथा स्थानिपत कर प्रवृभित्त करते हैं वे हिहंसारूप हैं और ीवोंके निहत करनेवा>े नहीं हैं । ये ग्यारह ही स्थान संयमी मुनिन और अरहन्त, शिसद्धको ही कहे हैं । ये तो छहकायके ीवोंके निहत करनेवा>े ही हैं इसशि>ये पूज्य हैं । यह तो सत्य है और हा ँ रहते हैं इसप्रकार आकाशके प्रदेशरूप क्षेत्र तथा पव%तकी गुफा वनादिदक तथा अकृनित्रम चैत्या>य ये -वयमेव बने हुए हैं, उनको भी प्रयो न और निनमिमत्त निवचारकर उपचारमात्रसे छहकायके ीवोंके निहत करनेवा>े कहें तो निवरोध नहीं है, क्योंनिक ये प्रदेश ड़ हैं, ये बुजिद्धपूव%क निकसीका बुरा-भ>ा नहीं करते हैं तथा ड़को सुk-दुk आदिद फ>का अनुभव नहीं है, इसशि>ये य े भी व्यवहारसे पूज्य हैं, क्योंनिक अरहंतादिदक हाँ रहते हैं वे क्षेत्र-निनवास आदिदक प्रश-त हैं, इसशि>ये उन अरहंतादिदके आश्रयसे य े क्षेत्रादिदक भी पूज्य हैं; परन्त ु प्रश्न-गृहस्थ जि नमंदिदर बनावे, वस्ति-तका, प्रनितमा बनावे और प्रनितष्ठा पू ा करे उसमें तो छहकायके ीवोंकी निवराधना होती है, यह उपदेश और प्रवृभित्त की बाहुल्यता कैसे है ?

इसका समाधान इसप्रकार है निक—गृहस्थ अरहन्त, शिसद्ध, मुनिनयोंका उपासक है; ये हाँ साक्षात् हों वहाँ तो उनकी वंदना, पू न करता ही है । हाँ ये साक्षात् न हों वहाँ परोक्ष संकल्प कर वंदना—पू न करता ह ै तथा उनके रहनेका क्षेत्र तथा ये मुक्त हुए क्षेत्रमें तथा अकृनित्रम चैत्या>यम ें उनका संकल्प कर वन्दना व पू न करता ह ै । इसम ें अनुरागनिवशेष सूशिचत होता है; निफर उनकी मुद्रा, प्रनितमा तदाकार बनावे और उसको मंदिदर बनाकर प्रनितष्ठा कर स्थानिपत करे तथा निनत्य पू न करे इसमें अत्यन्त अनुराग सूशिचत होता है, उस अनुरागसे निवशिशष्ट पुhयबन्ध होता है और उस मजिन्दरमें छहकायके ीवोंके निहतकी रक्षाका उपदेश होता है तथा निनरन्तर सुननेवा>े और धारण करनेवा>ेके अहिहंसा धम%की श्रद्धा दृढ़ होती है, तथा उनकी तदाकार प्रनितमा देkनेवा>ेके शांत भाव होते हैं, ध्यानकी मुद्राका -वरूप ाना ाता है और वीतरागधम%के अनुराग निवशेष होनेसे पुhयबन्ध होता है, इसशि>ये इनको भी छहकायके ीवोंका निहत करनेवा>े उपचारसे कहते हैं ।

जि नमजिन्दर वस्ति-तका प्रनितमा बनानेम ें तथा पू ा—प्रनितष्ठा करनेम ें आरम्भ होता है, उसमें कुछ हिहंसा भी होती है । ऐसा आरम्भ तो गृहस्थका काय% है, इसमें गृहस्थको अल्प पाप कहा, पुhय बहुत कहा है; क्योंनिक गृहस्थके पदमें न्यायकाय% करके न्यायपूव%क धन उपा %न करना, रहनेके शि>य े मकान बनवाना, निववाहादिदक करना और यत्नपूव%क आरंभ कर आहारादिदक -वयं बनाना तथा kाना इत्यादिदक काय�में यद्यनिप हिहंसा होती है, तो भी गृहस्थको इनका महापाप नहीं कहा ाता है । गृहस्थके तो महापाप मिमथ्यात्वका सेवन करना, अन्याय,

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चोरी आदिदस े धन उपा %न करना, त्रस ीवोंको मारकर मांस आदिद अभक्ष्य kाना और पर-त्री-सेवन करना ये महापाप हैं ।

गृहस्थाचार छोड़कर मुनिन हो ावे तब गृहस्थके न्यायकाय% भी अन्याय ही हैं । मुनिनके भी आहार आदिदकी प्रवृभित्तमें कुछ हिहंसा होती है, उसमें मुनिनको हिहंसक नहीं कहा ाता है, वैसे ही गृहस्थके न्यायपूव%क अपने पदके योग्य आरंभके काय}में अल्प पाप ही कहा ाता है, इसशि>ये जि नमंदिदर, वस्ति-तका और पू ाप्रनितष्ठाके काय�में आरंभका अल्प पाप है; मोक्षमाग%में प्रवत%नेवा>ोंसे अनित अनुराग होता है और उनकी प्रभावना करते हैं, उनको आहारदानादिदक देते हैं और उनका वैयावृत्यादिद करते हैं । ये सम्यक्त्वके अंग हैं और महान पुhयके कारण हैं, इसशि>ये गृहस्थको सदा ही करना योग्य हैं । और गृहस्थ होकर ये काय% न करे तो ज्ञात होता है निक इसके धमा%नुराग निवशेष नहीं है ।

प्रश्न :—गृहस्थको जि सके निबना च>े नहीं, इसप्रकारके काय% तो करना ही पड़ें और धम%पद्धनितमें आरम्भका काय% करके पाप क्यों मिम>ावे, सामामियक, प्रनितक्रमण, प्रौषध आदिद करके पुhय उप ावे । उसको कहते हैं—यदिद तुम इसप्रकार कहो तो तुम्हारे परिरणाम तो इस ानितके ह ैं नहीं, केव> बाह्यविक्रर्या मात्रम ें ही पुण्र्य समझत े हो । बाह्यम ें बहु आरंभी परिरग्रहीका मन, सामामियक प्रनितक्रमण आदिद निनरारंभ काय}में निवशेषरूपसे >गता नहीं है यह अनुभवगम्य है, तुम्हारे अपने भावोंका अनुभव नहीं है; केव> बाह्यच सामामियकादिद निनरारंभ काय%का भेष धारणकर बैठो तो कुछ निवशिशष्ट पुhय नहीं है, शरीरादिदक बाह्य व-तु तो ड़ हैं, केवल जड़की विक्रर्या का फल तो आत्माको मिमलता नहीं है । अपने भाव जि तने अंशमें बाह्यनिक्रयामें >गें उतने अंशमें शुभाशुभ फ> अपनेको >गता है; इसप्रकार निवशिशष्ट पुhय तो भावोंके अनुसार है ।

आरंभी—परिरग्रहीके भाव तो पू ा, प्रनितष्ठादिदक बड़ े आरंभम ें ही निवशेष अनुराग सनिहत >गते ह ैं । ो गृहस्थाचारके बड़े आरंभसे निवरक्त होगा सो उसे त्यागकर अपना पद बढ़ावेगा, ब गृहस्थाचारके बड़े आरंभ छोडे़गा, तब उसी तरह धम%प्रवृभित्तके बड़े आरंभ भी पदके अनुसार घटावेगा । मुनिन होगा तब आरम्भ क्यों करेगा ? अतः तब तो सव%था आरम्भ नहीं करेगा, इसशि>य े मिमथ्यादृमिष्ट बाह्यबुजिद्ध ो बाह्य काय%मात्रहीको पुhय-पाप-मोक्षमाग% समझते हैं, उनका उपदेश सुनकर अपनेको अज्ञानी नहीं होना चानिहये । पुhय—पापके बंधमें शुभाशुभ भाव ही प्रधान ह ै और पुhय—पापरनिहत मोक्षमाग% है, उसमें सम्यग्दश%नादिदकरूप आत्मपरिरणाम प्रधान है । (हेयबजुिद्ध सनिहत) धमा%नुराग मोक्षमाग%का सहकारी है और (आंशिशक वीतराग भाव सनिहत) धमा%नुरागके तीव्र-मंदके भेद बहुत हैं, इसशि>ये अपने भावोंको यथाथ% पनिहचानकर अपनी पदवी, सामथ्य%, पनिहचान-समझकर श्रद्धान-ज्ञान और उसम ें प्रवृभित्त करना; अपना भला—बुरा अपने भावोंके आधीन है, बाह्य परद्रव्य तो विनमिमAमात्र है,

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उपादान कारण हो तो निनमिमत्त भी सहकारी हो और उपादान न हो तो निनमिमत्त कुछ भी नहीं करता है, इसप्रकार इस बोधपाहुOका आशय ानना चानिहए ।

इसको अच्छी तरह समझकर आयतनादिदक ैसे कहे वैसे और इनका व्यवहार भी बाह्य वैसा ही तथा चैत्यगृह, प्रनितमा, जि नहिबंब, जि नमुद्रा आदिद धातु—पाषाणादिदकका भी व्यवहार वैसा ही ानकर श्रद्धान और प्रवृभित्त करनी । अन्यमती अनेक प्रकार -वरूप निबगाड़ कर प्रवृभित्त करते हैं, उनकी बुजिद्ध कण्डिल्पत ानकर उपासना नहीं करनी । इस द्रव्यव्यवहारका प्ररूपण प्रव्रज्याके स्थ>में आदिद दूसरी गाथामें हिबंब* चैत्या>यनित्रक और जि नभवन ये भी मुनिनयोंके ध्यान करने योग्य हैं, इसप्रकार कहा है सो गृहस्थ ब इनकी प्रवृभित्त करते हैं तब ये मुनिनयोंके ध्यान करने योग्य होते हैं; इसशि>ये ो जि नमजिन्दर, प्रनितमा, पू ा, प्रनितष्ठा आदिदकके सव%था निनषेध करनेवा>े वह सव%था एकान्तीकी तरह मिमथ्यादृमिष्ट हैं, इनकी संगनित नहीं करना । (मू>ाचार पृ0 492, अ 0 10 गाथा 96 में कहा है निक ‘‘श्रद्धाभ्रष्टोंके संपक% की अपेक्षा (गृहमें) प्रवेश करना अच्छा है, क्योंनिक निववाहमें मिमथ्यात्व नहीं होगा, परन्तु ऐसे गण तो सव% दोषोंके आकर हैं उसमें मिमथ्यात्वादिद दोष उत्पन्न होते हैं अतः इनसे अ>ग रहना ही अच्छा है’’ ऐसा उपदेश है)

* गाथा 2 में निववेकी गह ‘वच’ ऐसा पाठ है ।आगे आचाय% इस बोधपाहुOका वण%न अपनी बुजिद्धकण्डिल्पत नहीं है, निकन्तु पूवा%चाय�के

अनुसार कहा है, इसप्रकार कहते हैं :—स�विवर्यारो हूओ भासासुAेसु जं जिजणे कविहरं्य ।सो तह कविहर्यं णार्यं सीसेण र्य भ�बाहुस्स ।।61।।शब्दविवकारो भूतः भाषासूते्रषु र्यस्थिज्जनेन कचिर्थतम् ।तत ्तर्था कचिर्थत ंज्ञात ंशिशष्र्येण च भद्रबाहोः ।।61।।

जिजनकर्थन भाषासूत्रमर्य शाजिब्दक-विवकाररूपे र्थर्युं;ते जाण्रंु्य शिशष्रे्य भद्रबाहु तणा अने एम ज कहंु्य. 61.

अथ% :—शब्दके निवकारस े उत्पन्न हुए इसप्रकार अक्षररूप परिरणम े भाषासूत्रोंमें जि नदेवने कहा, वही श्रवणमें अक्षररूप आया और ैसा जि नदेवने कहा वैसा ही परम्परासे भद्रबाहुनामक पंचम शु्रतकेवलीने ाना और अपने शिशष्र्य विवशाखाचार्य� आदिदको कहा । वह उन्होंने ाना वही अथ%रूप *निवशाkाचाय%की परम्परासे च>ा आया । वही अथ% आचाय% कहत े हैं, हमन े कहा है, वह हमारी बुजिद्धसे कण्डिल्पत करके नहीं कहा गया है, इसप्रकार अभिभप्राय है ।।61।।

**. निवशाkाचाय%—मौय% सम्राट चन्द्रगुप्त के दीक्षाका>में दिदया हुआ नाम है ।

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आगे भद्रबाहु -वामीकी -तुनितरूप वचन कहते हैं :—बारसअंगविवर्याणं चउदसपुव्वंगविवउलविवyरणं ।सुर्यणाशिण भ�बाहु गमर्यगुरु भर्यवओ जर्यउ ।।62।।द्वादशांगविवज्ञानः चतदु�शपूवाmग विवपुलविवस्तरणः ।श्रुतज्ञाविनभद्रबाहुः गमकगुरुः भगवान् जर्यतु ।।62।।

जस बोध द्वादश अंगनो, चउदशपूरव-विवस्तारनो,जर्य हो शु्रतंधर भद्रबाहु गमकगुरु भगवाननो. 62.

अथ% :—भद्रबाहु नाम आचाय% यवंत होवें, कैसे हैं ? जि नको बारह अंगोंका निवशेष ज्ञान है, जि नको चौदह पूव�का निवपु> निव-तार है, इसीशि>ये श्रुतज्ञानी हैं, पूण% भावज्ञानसनिहत अक्षरात्मक श्रुतज्ञान उनके था, ‘गमक गुरु’ हैं, ो सूत्रके अथ%को प्राप्त कर उसीप्रकार वाक्याथ% करे उसको ‘गमक’ कहते हैं, उनके भी गुरुओंमें प्रधान हैं, भगवान हैं—सुरासुरोंसे पूज्य हैं, वे यवंत होवें । इसप्रकार कहनेमें उनको -तुनितरूप नम-कार सूशिचत है । ‘ यनित’ धातु सव}त्कृष्ट अथ%में है, वह सव}त्कृष्ट कहनेसे नम-कार ही आता है ।

भावाथ% :—भद्रबाहु-वामी पंचम श्रुतकेव>ी हुए । उनकी परम्परासे शा-त्रका अथ% ानकर यह बोधपाहुO ग्रन्थ रचा गया है, इसशि>ये उनको अंनितम मंग>के शि>ये आचाय%ने -तुनितरूप नम-कार निकया है । इसप्रकार बोधपाहुO समाप्त निकया है ।।62।।

छप्पय

प्रर्थम आर्यतन1 दुवितर्य चैत्र्यगृह 2 तीजी प्रवितमा3 ।दश�न4 अर जिजनहिबंब 5 छठो जिजनमुद्रा6 र्यवितमा ।।ज्ञान 7 सातमूं देव8 आठमू नवमूं तीरर्थ9 ।दसमूं है अरहन्त 10 ग्र्यारमूं दीक्षा11 श्रीपर्थ ।।इस परमारर्थ मुविनरूप सवित अन्र्यभेष सब हिनंद्य है ।व्यवहार धातुपाषाणमर्य आकृवित इविनकी वंद्य है ।।1।।

दोहा

भर्यो वीर जिजनबोध र्यहु गौतमगणधर धारिर ।बरतार्यो *पंचमगुरु नमूं वितनहिहं मद छारिर ।।2।।

* पंचमगुरु–पांचवें श्रुतकेव>ी भद्रबाहु -वामी ।इनित श्रीकुन्दकुन्द-वामिम निवरशिचत बोधपाहुOकी

यपुरनिनवासी प 0 यचन्द्रछावड़ाकृत

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देशभाषामयवचनिनका समाप्त ।।4।।

*

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भावपाहु)5

आगे भावपाहुड़की वचनिनका शि>kते हैं :—(दोहा)

परमात्मकंू वंदिदकरिर शुद्धभावकरतार ।करँू भावपाहु)तणीं देशवचविनका सार ।।1।।

इसप्रकार मंग>पूव%क प्रनितज्ञा करके श्रीकुन्दकुन्दाचाय%कृत भावपाहुOकी गाथाबद्ध देशभाषामय वचनिनका शि>kत े ह ैं । प्रथम आचाय% इष्टके नम-काररूप मंग> करके ग्रन्थ करनेकी प्रनितज्ञाका सूत्र कहते हैं :–

णमिमऊण जिजणवरिरं दे णरसुरभवणिणंदवंदिदए चिसदे्ध ।वोच्छामिम भावपाहु)मवसेसे संजदे चिसरसा ।।1।।नमस्कृत्र्य जिजनवरेन्द्रान् नरसुरभवनेन्द्रवंदिदतान ्चिसद्धान् ।वक्ष्र्यामिम भावप्राभृतमवशेषान् संर्यतान् चिसरसा ।।1।।

सुर-असुर-नरपवितवंद्ये जिजनवर-इन्द्रने, श्री चिसद्धने,मुविन शेषने शिशरसा नमी कहुं भावप्राभृत-शास्त्रने. 1.

अथ% :—आचाय% कहत े ह ैं निक म ैं भावपाहुO नामक ग्रन्थको कहूँगा । पनिह> े क्या करके ? जि नवरेन्द्र अथा%त ् तीथ�कर परमदेव तथा शिसद्ध अथा%त ् अष्टकम%का नाश करके शिसद्धपदको प्राप्त हुए और अवशेष संयत अथा%त् आचाय%, उपाध्याय, और सव%साधु इसप्रकार पंचपरमेष्ठीको म-तकसे वंदना करके कहँूगा । कैसे हैं पंचपरमेष्ठी ? नर अथा%त् मनुष्य, सुर अथा%त् -वग%वासी देव, भवनेन्द्र अथा%त् पाता>वासी देव,–इनके इन्द्रोंके द्वारा वंदने योग्य हैं ।

भावाथ% :—आचाय% भावपाहुO ग्रन्थ बनाते हैं; वह भावप्रधान पंचपरमेष्ठी हैं, उनको आदिदम ें नम-कारयुक्त है, क्योंनिक जि नवरेन्द्र तो इसप्रकार हैं—जि न अथा%त ् गुणश्रेणी निन %रायुक्त इसप्रकारके अनिवरतसम्यग्दृमिष्ट आदिदकोंमें वर अथा%त् श्रेष्ठ ऐसे गणधरादिदकोंमें इन्द्र तीथ�कर परमदेव हैं, वह गुणश्रेणीनिन %रा शुद्धभावसे ही होती है । वे तीथ�करभावके फळको प्राप्त हुए, घानितकम%का नाश कर केव>ज्ञानको प्राप्त निकया, उसीप्रकार सव% कम�का नाश कर, परम शुद्धभावको प्राप्त कर शिसद्ध हुए, आचाय%, उपाध्याय शुद्धभावके एकदेशको प्राप्त कर पूण%ताको -वयं साधते हैं तथा अन्यको शुद्धभावकी दीक्षा-शिशक्षा देते हैं, इसीप्रकार साधु हैं व े भी शुद्धभावको -वयं साधते ह ैं और शुद्धभावकी ही मनिहमासे तीन>ोकके प्राभिणयों द्वारा

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पू ने योग्य वंदने योग्य हैं, इसशि>ये भावप्राभृतकी आदिदमें इनको नम-कार युक्त है । म-तक द्वारा नम-कार करनेमें सब अंग आगये, क्योंनिक म-तक सब अंगोंमें उत्तम है । -वयं नम-कार निकया तब अपने भावपूव%क ही हुआ, तब मन-वचन-काय तीनों ही आगये, इसप्रकार ानना चानिहये ।।1।।

आगे कहते हैं निक लि>ंग द्रव्य-भावके भेदसे दो प्रकारका है, इनमें भावलि>ंग परमाथ% है :—

भावो विह पढमलिलंगं, ण दव्वलिलंगं च जाण परमyं ।भावो कारणभूदो, गुणदोसाणं जिजणा *वेप्तिन्त ।।2।।

पाठान्तरः—निवन्तिन्त ।भावः विह प्रर्थमिमलिलंगं न द्रव्यलिलंगं च जानीविह परमार्थ�म् ।भावो कारणभूतः गुणदोषाणां जिजना **ब्रुवप्तिन्त ।।2।।

** पाठान्तरः—निवदन्तिन्त ।छे भाव परर्थम लिलंग, द्रव्यमर्य लिलंग नविह परमार्थ� छेगुणदोषनुं कारण कह्यो छे भावने श्री जिजनवरे. 2.

अथ% :—भाव प्रथम लि>ंग है, इसीशि>ए हे भव्य ! तू द्रव्यलि>ंग है उसको परमाथ%रूप मत ान, क्योंनिक गुण और दोषोंका कारणभूत भाव ही है, इसप्रकार जि न भगवान कहते हैं ।

भावाथ% :—गुण ो -वग%—मोक्षका होना और दोष अथा%त ् नरकादिदक संसारका होना इनका कारण भगवानने भावोंका ही कहा है, क्योंनिक कारण काय%के पनिह>े होता है । यहा ँ मुनिन—श्रावकके द्रव्यलि>ंगके पनिह>े भावलि>ंग अथा%त ् सम्यग्दश%नादिद निनम%>भाव हो तो सच्चा मुनिन—श्रावक होता है, इसशि>ये भावलि>ंग ही प्रधान ह ै । प्रधान ह ै वही परमाथ% है, इसशि>ए द्रव्यलि>ंगको परमाथ% न ानना, इसप्रकार उपदेश निकया है ।

यहाँ कोई पूछे—भाव-वरूप क्या है ? इसका समाधान—भावका -वरूप तो आचाय% आगे कहेंगे तो भी यहाँ भी कुछ कहते हैं—इस >ोकमें छह द्रव्य हैं, इनमें ीव पुद्ग>का वत%न प्रकट देkनेमें आता है— ीव चेतना-वरूप है और पुद्ग> स्पश%, रस, गंध और वण%-वरूप ड़ है । इनकी अवस्थासे अवस्थान्तररूप होना ऐसे परिरणामको भाव कहते ह ैं । ीवका -वभाव—परिरणामरूप भाव तो दश%न-ज्ञान है और पुद्ग> कम%के निनमिमत्तसे ज्ञानमें मोह—राग—दे्वष होना निवभावभाव है । पुद्ग>के स्पश%से स्पशा%न्तर, रससे रसांतर इत्यादिद गुणोंसे गुणांतर होना -वभावभाव है और परमाणुसे -कंध होना तथा -कंधसे अन्य -कंध होना और ीवके भावके निनमिमत्तस े कम%रूप होना य े निवभावभाव ह ैं । इसप्रकार इनके परस्पर निनमिमत्त—नैमिमभित्तक भाव होते हैं ।

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पुद्ग> तो ड़ है, इसके नैमिमभित्तकभावसे कुछ सुk–दुःk आदिद नहीं ह ै और ीव चेतन है, इसके निनमिमत्तस े भाव होत े हैं—उनम ें सुk—दुःk आदिद होत े ह ैं अतः ीवको -वभावभावरूप रहनेका और नैमिमभित्तकभावरूप न प्रवत्त%नेका उपदेश है । ीवके पुद्ग> कम%के संयोगसे देहादिदक द्रव्यका संबंध है,—इसप्रकार द्रव्यकी प्रवृभित्त होती है । इसप्रकार द्रव्य—भावका -वरूप ानकर -वभावमें प्रवत्त� निवभावमें न प्रवत्त� उसके परमानन्द सुk होता है; और निवभाव राग—दे्वष—मोहरूप प्रवत्त�, उसके संसार सम्बन्धी दुःk होता है ।

द्रव्यरूप पुद्ग>का निवभाव है, इस सम्बन्धी ीवको दुःk—सुk नहीं होता अतः भावही प्रधान है, ऐसा न हो तो केव>ी भगवानको भी सांसारिरक सुk—दुःkकी प्रान्तिप्त हो परन्तु ऐसा नहीं है । इसप्रकार ीवके ज्ञान—दश%न तो -वभाव है और राग—दे्वष—मोह ये -वभाव निवभाव हैं और पुद्ग>के स्पशा%दिदक तथा -कन्धादिदक -वभाव निवभाव हैं । उनमें ीवका निहत—अनिहतभाव प्रधान है, पुद्ग>द्रव्यसंबंधी प्रधान नहीं ह ै । बाह्य द्रव्य निनमिमत्तमात्र है, उपादानके निबना निनमिमत्त कुछ करता नहीं है । यह तो सामान्यरूपसे -वभावका -वरूप है और इसीका निवशेष सम्यग्दश%न–ज्ञान–चारिरत्र तो ीवका -वभाव-भाव है, इसमें सम्यग्दश%न भाव प्रधान है । इसके निबना सब बाह्यनिक्रया मिमथ्यादश%न-ज्ञान-चारिरत्र हैं ये निवभाव हैं और संसारके कारण हैं, इसप्रकार ानना चानिहये ।।2।।

आग े कहत े ह ैं निक बाह्यद्रव्य निनमिमत्तमात्र ह ै इसका अभाव ीवके भावकी निवशुद्धताका निनमिमत्त ान बाह्यद्रव्यका त्याग करते हैं :—

भावविवसुशिद्धशिणमिमAं, बविहरंगस्स कीरए चाओ ।बाविहरचाओ विवहलो, अब्भंतरगंर्थजुAस्स ।।3।।भावविवशुशिद्धविनमिमAं बाह्यगं्रर्थस्र्य विक्रर्यते त्र्यागः ।बाह्यत्र्यागः विवफलः अभ्र्यन्तरग्रन्थर्यु}स्र्य ।।3।।

रे ! भावशुशिद्धविनमिमA बाविहर-गं्रर्थ त्र्याग करार्य छे,छे विवफळ बाविहर-त्र्याग, आंतर-गं्रर्थर्थी संर्यु}ने. 3.

अथ% :—बाह्य परिरग्रहका त्याग भावोंकी निवशुजिद्धके शि>ए निकया ाता है, परन्तु अभ्यन्तर परिरग्रह ो रागादिदक हैं, उनसे युक्तके बाह्य परिरग्रहका त्याग निनष्फ> है ।

भावाथ% :—अन्तरंग भाव निबना बाह्य त्यागादिदककी प्रवृभित्त निनष्फळ है, यह प्रशिसद्ध है ।।3।।

आगे कहते हैं निक करोOों भावोंमें तप करे तो भी भाव निबना शिसजिद्ध नहीं है :—

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भावरविहओ ण चिसज्झइ जइ विव तवं चरइ कोवि)को)ीओ ।जम्मंतराइ बहुसो लंविवर्यहyो गचिलर्यवyो ।।4।।भावरविहतः न चिसद्ध्यवित र्यद्यविप तपश्चरवित कोदिटकोटी ।जन्मान्तराशिण बहुशः लंविबतहस्तः गचिलतवस्त्रः ।।4।।

छो कोदिटकोदिट भवो विवषे विनव�स्त्र लंविबतकर रही,पुष्कळ करे तप, तोर्य भावविवहीनने चिसशिद्ध नहीं. 4.

अथ% :—यदिद कई न्मान्तरों तक कोOाकोनिO संख्या का> तक हाथ >म्बे >टकाकर, व-त्रादिदकका त्याग करके तपश्चरण करे, तो भी भावरनिहतको शिसजिद्ध नहीं होती है ।

भावाथ% :—भावम ें मिमथ्यादश%न, मिमथ्याज्ञान, मिमथ्याचारिरत्ररूप निवभाव रनिहत सम्यग्दश%न—ज्ञान—चारिरत्र-वरूप -वभावम ें प्रवृत्त न हो, तो क्रोOा़क्रोनिड़ भव तक कायोत्सग%पूव%क नग्नमुद्रा धारणकर तपश्चरण कर े तो भी मुशिक्तकी प्रान्तिप्त नहीं होती है, इसप्रकार भावोंमें सम्यग्दश%न—ज्ञान—चारिरत्ररूप भाव प्रधान हैं, और इनमें भी सम्यग्दश%न प्रधान है, क्योंनिक इसके निबना ज्ञान—चारिरत्र मिमथ्या कहे हैं, इसप्रकार ानना चानिहये ।

आगे इस ही अथ%को दृढ़ करते हैं :---परिरणामप्तिम्म असुदे्ध गंरे्थ मुञ्चेइ बाविहरे र्य जई ।बाविहरगंर्थच्चाओ भावविवहूणस्स हिकं कुणइ ।।5।।परिरणामे अशुदे्ध ग्रन्थान् मुञ्चवित बाह्यान च र्यदिद ।बाह्यग्रन्थत्र्यागः भावविवहीनस्र्य हिकं करोवित ।।5।।

परिरणाम होर्य अशुद्ध ने जो बाह्य गं्रर्थ परिरत्र्यजे,तो शुं करे ए बाह्यनो परिरत्र्याग भावविवहीनने ? 5.

अथ% :—यदिद मुनिन बनकर परिरणाम अशुद्ध होते हुए बाह्य परिरग्रहको छोड़े तो बाह्य परिरग्रहका त्याग उस भावरनिहत मुनिनको क्या करे ? अथा%त् कुछ भी >ाभ नहीं करता है ।

भावाथ% :— ो बाह्य परिरग्रहको छोड़कर मुनिन बन ावे और परिरणाम परिरग्रहरूप अशुद्ध हों, अभ्यन्तर परिरग्रह न छोड़े तो बाह्यत्याग कुछ कल्याणरूप फ> नहीं कर सकता । सम्यग्दश%नादिदभाव निबना कम%निन %रारूप काय% नहीं होता है ।।5।।

पनिह>ी गाथाम ें इसम ें यह निवशेषता ह ै निक यदिद मुनिनपद भी >ेव े और परिरणाम उज्जव> न रहे, आत्मज्ञानकी भावना न रहे, तो कम% नहीं कटते हैं ।

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आगे उपदेश करते हैं निक—भावको परमाथ% ानकर इसीको अंगीकार करो :—जाणविह भावं पढमं हिकं ते लिलंगेण भावरविहएण ।पंचिर्थर्य चिसवपुरिरपंर्थं जिजणउवइटं्ठ पर्यAेण ।।6।।जानीविह भावं प्रर्थमं हिकं त ेलिलंगेन भावरविहतेन ।पचिर्थक शिशवपुरीपंर्थाः जिजनोपदिदष्टः प्रर्यत्नेन ।।6।।

छे भाव परर्थम, भावविवरविहत लिलंगर्थी शुं कार्य� छे ?हे पचिर्थक ! शिशवनगरी तणो पर्थ र्यत्नप्रा=र्य कह्यो जिजने. 6.

अथ% :—हे शिशवपुरीके पशिथक ! प्रथम भावको ान, भावरनिहत लि>ंगसे तुझ े क्या प्रयो न है ? शिशवपुरीका पंथ जि नभगवंतोने प्रयत्नसाध्य कहा है ।

भावाथ% :—मोक्षमाग% जि नेश्वरदेवन े सम्यग्दश%न—ज्ञान—चारिरत्र आत्मभाव-वरूप परमाथ%स े कहा है, इसशि>य े इसीको परमाथ% ानकर सव% उद्यमस े अंगीकार करो, केव> द्रव्यमात्र लि>ंगसे क्या साध्य है ? इसप्रकार उपदेश है ।।6।।

आगे कहते हैं निक द्रव्यलि>ंग आदिद तूने बहुत धारण निकये, परन्तु उससे कुछ भी शिसजिद्ध नहीं हुई :—

भावरविहएण सपुरिरस अणाइकालं अणंतसंसारें ।गविहउस्थिज्झर्याइं बहुसो बाविहरशिणग्गंर्थरूवाइं ।।7।।भावरविहतेन सत्पुरुष ! अनादिदकालं अनंतसंसारे ।गृहीतोस्थिज्झताविन बहुशः बाह्यविनग्रmर्थरूपाशिण ।।7।।

सत्पुरुष ! काल अनादिदर्थी विनःसीम आ संसारमां,बहु वार भाव विवना बविहर्विनगं्रmर्थ रूप ग्रह्यां-तज्र्यां. 7.

अथ% :—ह े सत्पुरुष ! अनादिदका>से >गाकर इस अनन्त संसारम ें तून े भावरनिहत निनग्र%न्थ रूप बहुतवार ग्रहण निकये और छोडे़ ।

भावाथ% :—भाव ो निनश्चय सम्यग्दश%न—ज्ञान—चारिरत्र उनके निबना बाह्य निनग्र�थरूप द्रव्यलि>ंग संसारमें अनन्तका>से >गाकर बहुत वार धारणा निकये और छोड़े तो भी कुछ शिसजिद्ध न हुई । चारों गनितयोंमें भ्रमण ही करता रहा ।।7।।

वही कहते हैं :—

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भीसणणरर्यगईए वितरिरर्यगईए कुदेवमणुगइए ।पAो चिस वितव्वदुक्खं भावविह जिजणभावणा जीव ! ।।8।।भीषणनरकगतौ वितर्य�ग्गतौ कुदेवमनुष्र्यगत्र्योः ।प्रा=तो)चिस तीव्रदुःखं भावर्य जिजनभावना जीव ! ।।8।।

भीषण नरक, वितर्यmच तेम कुदेव-मानवजन्ममां,तें जीव ! तीव्र दुखो सह्यां; तंु भाव रे ! जिजनभावना. 8.

अथ% :—हे ीव ! तून े भीषण (भयंकर) नरकगनित तथा नितय�चगनितमें और कुदेव, कुमनुष्यगनितमें तीव्र दुःk पाये हैं, अतः अब तू जि नभावना अथा%त् शुद्ध आत्मतत्त्वकी भावना भा इससे तेरे संसारका भ्रमण मिमटेगा ।

भावाथ% :—आत्माकी भावना निबना चार गनितके दुःk अनादिद का>से संसारमें प्राप्त निकये, इसशि>य े अब ह े ीव ! त ू जि नेश्वरदेवका शरण > े और शुद्ध-वरूपका बारबार भावनारूप अभ्यास कर, इससे संसारके भ्रमणसे रनिहत मोक्षको प्राप्त करेगा, यह उपदेश है ।।8।।

आगे चार गनितके दुःkोंको निवशेषरूपसे कहते हैं, पनिह>े नरकगनितके दुःkोंको कहते हैं :—

सAसु णरर्यावासे दारुणभीमाइं असहणीर्याइं ।भुताइं सुइरकालं दुःक्खाइं शिणरंतरं सविहर्यं ।।9।।

*स=तसु नरकावासेषु दारुणभीषणाविन असहनीर्याविन ।भु}ाविन सुचिचरकालं दुःखाविन विनरंतरं सोढाविन** ।।9।।

भीषण सुतीव्र असह्य दुःखो स=त नरकवासमां,बहु दीध� कालप्रमाण तें वेद्यां, अचिछन्नपणे सह्यां. 9.

*. मुदिद्रत सं-कृत प्रनितमें सप्तसु नरकावासे ऐसा पाठ है ।**. मुदिद्रत सं-कृत प्रनितमें -वनिहत ऐसा पाठ है । सानिहत्य इसकी छाया में ।अथ% :—हे ीव ! तूने सात नरकभूमिमयोंके नरक-आवास निव>ोंमें दारुण अथा%त् तीव्र

तथा भयानक और असहनीय अथा%त ् सहे न ाव ें इसप्रकार दुःkोंको बहुत दीघ% का>तक निनरन्तर ही भोगे और सहे ।

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भावाथ% :—नरककी पृथ्वी सात हैं, उनमें निब> बहुत हैं, उनमें दस ह ार वष}से >गाकर तथा एक सागरसे >गाकर तेतीस सागर तक आयु है हाँ आयुपय%न्त अनित तीव्र दुःk यह ीव अनन्तका>से सहता आया है ।।9।।

आगे नितय�चगनितके दुःkोंको कहते हैं :—खणणुAावणवालण, वरे्यणविवचे्छर्यणाशिणरोहं च ।पAोचिस भावरविहओ, वितरिरर्यगईए चिचरं कालं ।।10।।खननोAापनज्वालन +वेदनविवचे्छदनाविनरोधं च ।प्रा=तो)चिस भावरविहतः वितर्य�ग्गतौ चिचरं कालं ।।10।।

+. मुदिद्रत सं-कृत प्रनितमें वेयण इसकी सं-कृत व्यञ्जन है ।रे ! खनन-उAापन-प्रजालन-वीजन-छेद-विनरोधनां,चिचरकाळ पाम्र्यो दुःख भावविवहीन तुं वितर्यmचमां. 10.

अथ% :—ह े ीव ! तून े नितय�चगनितम ें kनन, उत्तापन, ज्व>न, वेदन, वु्यचे्छदन, निनरोधन इत्यादिद दुःk सम्यग्दश%न आदिद भावरनिहत होकर बहुत का>पय%न्त प्राप्त निकये ।

भावाथ% :—इस ीवने सम्यग्दश%नादिद भाव निबना नितय�च गनितमें शिचरका> तक दुःk पाये-पृथ्वीकायमें कुदा> आदिद kोदने द्वारा दुःk पाये, >कायमें अखिग्नसे तपना, ढो>ना इत्यादिद द्वारा दुःk पाये, अखिग्नकायमें >ाना, बुझाना आदिद द्वारा दुःk पाये, पवनकायमें भारेसे ह>का च>ना, फटना आदिद द्वारा दुःk पाये, वनस्पनितकायमें फाड़ना, छेदना, राँधना आदिद द्वारा दुःk पाये, निवक>त्रयमें दूसरेसे रुकना, अल्प आयुसे मरना इत्यादिद द्वारा दुःk पाये, पंचेजिन्द्रय पशु—पक्षी— >चर आदिदमें परस्पर घात तथा मनुष्यादिद द्वारा वेदना, भूk, तृषा, रोकना, वध—बंधन इत्यादिद द्वारा दुःk पाय े । इसप्रकार नितय�चगनितम ें असंख्यात अनन्तका>पय%न्त दुःk पाये* ।।10।।

(* देहादिदमें या बाह्य संयोगोंसे दुःk नहीं है निकन्तु अपनी भू>रूप मिमथ्यात्व रागादिद दोषसे ही दुःk होता है, यहाँ निनमिमत्त द्वारा उपादानका-योग्यताका ज्ञान करानेके शि>ये यह उपचरिरत व्यवहारनयसे कथन है ।)

आगे मनुष्यगनितके दुःkोंको कहते हैं :—आगंतुक माणचिसर्यं सहजं सारीरिरर्यं च चAारिर ।दुक्खाइं मणुर्यजम्मे पAो चिस अणंतर्यं कालं ।।11।।आगंतुकं मानचिसकं सहजं शारीरिरकं च चत्वारिर ।

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दुःखाविन मनुजजन्माविन प्रा=तो)चिस अनन्तकं कालं ।।11।।तें सहज, कामिर्यक, मानचिसक, आगंतु—चार प्रकारनां,दुःखो लह्यां विनःसीम काळ मनुष्र्य केरा जन्ममां. 11.

अथ% :—हे ीव ! तून े मनुष्यगनितमें अनन्तका> तक आगन्तुक अथा%त ् अक-मात् वज्रपातादिदकका आ-निगरना, मानशिसक अथा%त ् मनम ें ही होनेवा> े निवषयोंकी वांछाका होना और तदनुसार न मिम>ना, सह अथा%त् माता, निपतादिद द्वारा सह से ही उत्पन्न हुआ तथा राग—दे्वषादिदकसे व-तुके इष्ट-अनिनष्ट माननेके दुःkका होना, शारीरिरक अथा%त् व्यामिध, रोगादिदक तथा परकृत छेदन, भेदन आदिदसे हुए दुःk ये चार प्रकारके और चकारसे इनको आदिद >ेकर अनेक प्रकारके दुःk पाये ।।11।।

आगे देवगनितके दुःkोंको कहते हैं :—सुरशिणलर्येसु सुरच्छरविवओर्यकाले र्य माणसं वितव्वं ।संपAो चिस महाजस दुःखं सुहभावणारविहओ ।।12।।सुरविनलर्येषु सुरा=सराविवर्योगकाले च मानसं तीव्रम् ।संप्रा=तो)चिस महाशर्य ! दुःखं शुभभावनारविहतः ।।12।।

सुर—अ=सराना विवरहकाळे हे महार्यश ! स्वग�मां,शुभभावनाविवरविहतपणे तें तीव्र मानस दुःख सह्यां. 12.

अथ% :—हे महायश ! तूने सुरनिन>येषु अथा%त् देव>ोकमें सुराप्सरा अथा%त् प्यारे देव तथा प्यारी अप्सराके निवयोगका>म ें उसके निवयोग सम्बन्धी दुःk तथा इन्द्रादिदक बडे़ ऋजिद्धधारिरयोंको देkकर अपनेको हीन माननेके मानशिसक तीव्र दुःkोंको शुभभावनासे रनिहत होकर पाये हैं ।

भावाथ% :—यहाँ महायश इसप्रकार सम्बोधन निकया । उसका आशय यह है निक ो मुनिन निनग्र�थलि>ंग धारण करे और द्रव्यलि>ंगी मुनिनकी सम-त निक्रया करे, परन्तु आत्माके -वरूप शुद्धोपयोगके सन्मुk न हो उसका प्रधानतया उपदेश ह ै निक मुनिन हुआ वह तो बड़ा काय% निकया, तेरा यश >ोकमें प्रशिसद्ध हुआ, परन्तु भ>ी भावना अथा%त ् शुद्धात्मतत्त्वका अभ्यास करके निबना तपश्चरणादिद करके -वग%म ें देव भी हुआ तो वहा ँ भी निवषयोंका >ोभी होकर मानशिसक दुःkसे ही तप्तायमान हुआ ।।12।।

आगे सुभभावनासे रनिहत अशुभ भावनाका निनरूपण करते हैं :—कंद=पमाइर्याओ पंच विव असुहादिदभावणाई र्य ।

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भाऊण दव्वलिलंगी पहीणदेवो दिदवे जाओ ।।13।।कादपNत्र्यादीः पंचाविप अशुभादिदभावनाः च ।भावमिर्यत्वा द्रव्यलिलंगी ग्रहीणदेवः दिदविव जातः ।।13।।

तंु स्वग�लोके हीन देव र्थर्यो, दरवलिलंगीपणे,कांदप²-आदिदक पांच बूरी भावनाने भावीने. 13.

अथ% :—हे ीव ! तू द्रव्यलि>ंगी मुनिन होकर कान्दपN आदिद पाँच अशुभ भावना भाकर प्रहीणदेव अथा%त् नीच देव होकर -वग%में उत्पन्न हुआ ।

भावाथ% :—कान्दपN, निकण्डिल्वनिषकी, संमोही, दानवी और अभिभयोनिगकी—य े पाँच अशुभ भावना हैं । निनग्र�थ मुनिन होकर सम्यक्त्व-भावना निबना इन अशुभ भावनाओंको भावे तब निकण्डिल्वष आदिद नीच देव होकर मानशिसक दुःkको प्राप्त होता है ।।13।।

आगे द्रव्यलि>ंगी पाश्व%स्थ आदिद होते हैं उनको कहते हैं :—पासyभावणाओ अणाइकालं अणेर्यवाराओ ।भाऊण दुहं पAो कुभावणाभावबीएहिहं ।।14।।पाश्व�स्थभावनाः अनादिदकालं अनेकवारान् ।भावमिर्यत्वा दुःखं प्रा=त कुभावनाभावबीजैः ।।14।।

बहुवार काळ अनादिदर्थी पाश्व�स्थ-आदिदक रूभावना,तें भावीने दुभा�वनात्मक बीजर्थी दुःखो लह्यां. 14.

अथ% :—ह े ीव ! त ू पाश्व%स्थ भावनास े अनादिदका>स े >ेकर अनन्तबार भाकर दुःkको प्राप्त हुआ । निकससे दुःk पाया ? कुभावना अथा%त् kोटी भावना, उसका भाव वे ही हुए दुःkके बी , उनसे दुःk पाया ।

भावाथ% :— ो मुनिन कह>ावे और बस्ति-तका बाँधकर आ ीनिवका करे उसे पाश्व%स्थ वेषधारी कहते हैं । ो कषायी होकर व्रतादिदकसे भ्रष्ट रहे, संघका अनिवनय करे, इस प्रकारके वेषधारीको कुशी> कहते हैं । ो वैद्यक ज्योनितषनिवद्या मंत्रकी आ ीनिवका करे, रा ादिदकका सेवक होवे इसप्रकारके वेषधारीको संसक्त कहते हैं । ो जि नसूत्रसे प्रनितकू>, चारिरत्रसे भ्रष्ट आ>सी, इसप्रकार वेषधारीको अवसन्न कहते हैं । गुरुका आश्रय छोड़कर एकाकी -वच्छन्द प्रवत�, जि न आज्ञाका >ोप करे, ऐसे वेषधारीको मृगचारी कहते हैं । इनकी भावना भावे वह दुःk ही को प्राप्त होता है ।।14।।

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ऐसे देव होकर मानशिसक दुःk पाये इस प्रकार कहते हैं :—देवाण गुण विवहूई इड्ढी माह=प बहुविवहं दट्ठठंु ।होऊण हीणदेवो पAो बहु माणसं दुक्खं ।।15।।देवानां गुणान् विवभूतीः ऋद्धीः माहात्म्र्यं बहुविवधं दृष््टवा ।भूत्वा हीनदेवः प्रा=तः बहु मानसं दुःखम् ।।15।।

रे ! हीन देव र्थई तंु पाम्र्यो तीव्र मानस दुःखने,देवो तणा गुणविवभव, ऋशिद्ध, महात्म्र्य बहुविवध देखीने. 15.

भावाथ% :—-वग%में हीन देव होकर बड़े ऋजिद्धधारी देवके अभिणमादिद गुणकी निवभूनित देkे तथा देवांगना आदिदका बहुत परिरवार देkे और आज्ञा, ऐश्वय% आदिदका माहात्म्य देkे तब मनमें इसप्रकार निवचारे निक मैं पुhयरनिहत हूँ, ये बड़े पुhयवान् हैं, इनके ऐसी निवभूनित माहात्म्य ऋजिद्ध है, इसप्रकार निवचार करनेसे मानशिसक दुःk होता है ।।15।।

आगे कहते हैं निक अशुभ भावनासे नीच देव होकर ऐसे दुःk पाते हैं, ऐसा कहकर इस कथनका संकोच करते हैं :—

चउविवहविवकहासAो मर्यमAो असुहभावपर्य)yो ।होऊण कुदेवAं पAो चिस अणेर्यवाराओ ।।16।।चतरु्विवंधविवकर्थास}ः मदमAः अशुभभावप्रकटार्थ�ः ।भूत्वा कुदेवत्वं प्रा=तः अचिस अनेकवारान् ।।16।।

मदमA ने आस} चार प्रकारनी विवकर्था महीं,बहुशः कुदेवपणंु लहंु्य तें, अशुभ भावे परिरणमी. 16.

अथ% :—हे ीव ! तू चार प्रकारकी निवकथामें आसक्त होकर, मदसे मत्त और जि सके अशुभ भावनाका ही प्रकट प्रयो न है इसप्रकार अनेकबार कुदेवपनेको प्राप्त हुआ ।

भावाथ% :—-त्रीकथा, भो नकथा, देशकथा और रा कथा इन चार निवकथाओंमें आसक्त होकर वहा ँ परिरणामको >गाया तथा ानित आदिद साठ मदोंस े उन्मत्त हुआ, ऐसी अशुभ भावना ही का प्रयो न धारण कर अनेकबार नीच देवपनेको प्राप्त हुआ, वहाँ मानशिसक दुःk पाया ।

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यहा ँ यह निवशेष ानने योग्य ह ैं निक निवकथादिदकसे तो नीच देव भी नहीं होता है, परन्तु यहाँ मुनिनको उपदेश है, वह मुनिनपद धारणकर कुछ तपश्चरणादिदक भी करे और वेषमें निवकथादिदकमें रक्त हो तब नीच देव होता है, इसप्रकार ानना चानिहये ।।16।।

आगे कहते ह ैं निक ऐसी कुदेवयोनिन पाकर वहाँसे चय ो मनुष्य नितय�च होवे, वहाँ गभ%में आवे उसकी इसप्रकार व्यवस्था है :—

असुईबीहyेविह र्य कचिलमलबहुलाविह गब्भवसहीविह ।वचिसओ चिस चिचरं कालं अणेर्यजणणीण मुशिणपवर ।।17।।अशुचिचबीभत्सासु र्य कचिलमलबहुलासु गभ�बसवितषु ।उविषतो)चिस चिचरं कालं अनेकजननीनां मुविनप्रवर ! ।।17।।

हे मुविनप्रवर ! तंु चिचर वस्र्यो बहु जननीना गभNपणे,विनकृष्टमळभरपूर, अशुचिच, बीभत्स, गभा�शर्य विवषे. 17.

अथ% :—ह े मुनिनप्रवर ! तू कुदेवयोनिनसे चयकर अनेक माताओंकी गभ%की ब-तीमें बहुत का> रहा । कैसी हैं वह ब-ती ? अशुशिच अथा%त् अपनिवत्र है, बीभत्स (मिघनावनी) है और उसमें कशि>म> बहुत है अथा%त् पापरूप मशि>न म>की अमिधकता है ।

भावाथ% :—यहाँ मुनिनप्रवर ऐसा सम्बोधन है सो प्रधानरूपसे मुनिनयोंको उपदेश है । ो मुनिनपद >ेकर मुनिनयोंसे प्रधान कह>ावे और शुद्धात्मरूप निनश्चयचारिरत्रके सन्मुk न हो, उसको कहते हैं निक बाह्य द्रव्यलि>ंग तो बहुतवार धारणकर चार गनितयोंमें ही भ्रमण निकया, देव भी हुआ तो वहाँसे चयकर इसप्रकारके मशि>न गभ%बासमें आया, वहा ँ भी बहुतवार रहा ।।17।।

आगे निफर कहते हैं निक इसप्रकारके गभ%बासमें निनक>कर न्म >ेकर माताओंका दूध निपया :—

पीओ चिस र्थणच्छीरं अणंतजम्मंतराइं जणणीणं ।अण्णाण्णाण महाजस सार्यरसचिललादु अविहर्यर्यरं ।।18।।पीतो)चिस स्तनक्षीरं अनंतजन्मांतराशिण जननीनाम् ।

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अन्र्यासामन्र्यासां महार्यश ! सागरचिललात् अचिधकतरम् ।।18।।जन्मो अनंत विवषे अरे ! जननी अनेरी अनेरीनुं,स्तनदूध तें पीधुं महार्यश ! उदचिधजलर्थी अवित घणुं. 18.

अथ% :—ह े महायश ! उस पूव}क्त गभ%बासम ें अन्य—अन्य न्मम ें अन्य—अन्य माताके -तनका दूध तूने समुद्रके >से भी अनितशयकर अमिधक निपया है ।

भावाथ% :— न्म- न्ममें अन्य-अन्य माताके -तनका दूध इतना निपया निक उसको एकत्र कर ें तो समुद्रके >स े भी अनितशयकर अमिधक हो ाव े । यहा ँ अनितशयका अथ% अनन्तगुणा ानना, क्योंनिक अनन्तका>का एकत्र निकया हुआ दूध अनन्तगुणा हो ाता है ।।18।।

आगे निफर कहते हैं निक न्म >ेकर मरण निकया तब माताके रोनेके अश्रुपातका > भी इतना हुआ :—

तुह मरणे दुक्खेण अण्णण्णाणं अणेर्यजणणीणं ।रुण्णाण णर्यणणीरं सार्यरसचिललादु अविहर्यर्यरं ।।19।।तव मरणे दुःखेन अन्र्यासामन्र्यासां अनेकजननीनाम् ।रुदिदतानां नर्यननीरं सागरलचिललात् अचिधकतरम् ।।19।।

तुज मरणर्थी दुःखात� बहु जननी अनेरी अनेरीनां,नर्यनो र्थकी जल जे वह्यां ते उदचिधजलर्थी अवित घणां. 19.

अथ% :—हे मुने ! तूने माताके गभ%में रहकर न्म >ेकर मरण निकया, वह तेरे मरणसे अन्य-अन्य न्ममें अन्य-अन्य माताके रुदनके नयनोंका नीर एकत्र करें तब समुद्रके >से भी अनितशयकर अमिधकगुणा हो ावे अथा%त् अनन्तगुणा हो ावे ।

आगे निफर कहते ह ैं निक जि तने संसारम ें न्म शि>ए उनमें, केश, नk, ना> कटे, उनका पंु करें तो मेरुसे भी अमिधक राशिश हो ाय :—

भवसार्यरे अणंते चिछण्णुस्थिज्झर्य केसणहरणालट्ठी ।पुञ्जइ जइ को विव जए हवदिद र्य विगरिरसमचिधर्या रासी ।।20।।भवसागरे अनन्ते चिछन्नोस्थिज्झताविन केशनखरनालास्थीविन ।

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पुञ्जर्यवित र्यदिद को)विप देवः भववित च विगरिरसमाचिधकः राशिशः ।।20।।विनःसीम भवमां त्र्य} तुज नख-नाळ-अस्थिस्थ-केशनेसुर कोई एकवित्रत करे तो विगरिरअचिधक राशिश बने. 20.

अथ% :—हे मुन े ! इस अनन्त संसारसागरमें तूने न्म शि>ये उनमें केश, नk, ना> और अण्डिस्थ कटे, टूटे उनका यदिद देव पंु करे तो मेरु पव%तसे भी अमिधक राशिश हो ावे, अनन्तगुणा हो ावे ।।20।।

आगे कहते हैं निक हे आत्मन् ! तू > थ> आदिद स्थानोंमें सब गह रहा है :—जलर्थलचिसविहपवणंबरविगरिरसरिरदरिरतरुवणाइ* सव्वy ।वचिसओ चिस चिचरं कालं वितहुवणमज्झे अण=पवसो ।।21।।

*पाठान्तर वणाइं, वणाई ।जलस्थलशिशखिखपवनांबरविगरिरसरिर�रीतरुवनादिदषु सव�त्र ।उविषतो)चिस चिचरं कालं वित्रभुवनमध्र्ये अनात्मवशः ।।21।।

जल-र्थल-अनल-पवने, नदी-विगरिर-आभ-वन-वृक्षादिदमां,वण आत्मवशता चिचर वस्र्यो सव�त्र तुं त्रण भुवनमां. 21.

अथ% :—हे ीव ! तू >में, थ> अथा%त् भूमिममें, शिशखिk अथा%त् अखिग्नमें, पवनमें, अम्बर अथा%त ् आकाशमें, निगरिर अथा%त ् पवनमें, सरिरत ् अथा%त ् नदीमें, दरी अथा%त ् पवनकी गुफामें, तरु अथा%त ् वृक्षोंमें, बनोंम ें और अमिधक क्या कह ें सब ही स्थानोंमें, तीन >ोकमें अनात्मवश अथा%त् पराधीन होकर बहुत का> तक रहा अथा%त् निनवास निकया ।

भावाथ% :—निन शुद्धात्माकी भावना निबना कम%के आधीन होकर तीन >ोकमें सव% दुःkसनिहत सव%त्र निनवास निकया ।।21।।

आगे निफर कहते हैं निक हे ीव ! तूने इस >ोकमें सव% पुद्ग> भक्षण निकये तो भी तृप्त नहीं हुआ :—

गचिसर्याइं पुग्गलाइं भुवणोदरविवचिAर्याइं सव्वाइं ।पAो चिस तो ण वितलिAं *पुणरुAं ताइं भुञ्जंतो ।।22।।

* मुदिद्रत सं-कृत प्रनितमें पुणरूवं पाठ है जि सकी सं-कृतमें पुनरूप छाया है ।ग्रचिसताः पुद्गलाः भुवनोदरवर्वितनंः सवt ।

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प्रा=तो)चिस तन्न तपृ्ति=त पुनरु}ान ्तान ्भंुजानः ।।22।।भक्षण कर्याm तें लोकवत² पुद्गलोने सव�ने,फरी फरी कर्याm भक्षण छतां पाम्र्यो नहीं तंु तृप्ति=तने. 22.

अथ% :—हे ीव ! तूने इस >ोकके उदरमें वत%ते ो पुद्ग> -कन्ध, उन सबको ग्रसे अथा%त् भक्षण निकये और उनहीको पुनरुक्त अथा%त् बारबार भोगता हुआ भी तृन्तिप्तको प्राप्त न हुआ ।

निफर कहते हैं :—वितहुर्यणसचिललं सर्यलं पीरं्य वितण्हाए पी़वि)एण तुमे ।तो विव ण तण्हाछेओ जाओ लिचंतेह भवमहणं ।।23।।वित्रभुवनसचिललं सकलं पीत ंतृष्णार्या पीवि)तेन त्वर्या ।तदविप न तृष्णाछेदः जातः चिचन्तर्य भवमर्थनम् ।।23।।

पीवि)त तृषार्थी तें पीधां छे सव� वित्रभुवननीरने,तोपण तृषा छेदाई ना; लिचंतव अरे ! भवछेदने. 23.

अथ% :—हे ीव ! तूने इस >ोकमें तृष्णासे पीनिड़त होकर तीन >ोकका सम-त > निपया, तो भी तृषाका वु्यचे्छद न हुआ अथा%त् प्यास न बुझी, इसशि>ये तू इस संसारका मथन अथा%त् तेरे संसारका नाश हो, इसप्रकार निनश्चय रत्नत्रयका लिचंन्तन कर ।

भावाथ% :—संसारमें निकसी भी तरह तृन्तिप्त नहीं है, ैसे अपने संसारका अभाव हो वैसे शिचन्तन करना, अथा%त् निनश्चय सम्यग्दश%न, ज्ञान, चारिरत्रको धारण करना, सेवना करना, यह उपदेश है ।।23।।

आगे निफर कहते हैं :—गविहउस्थिज्झर्याइं मुशिणवर कलेवराइं तुमे अणेर्याइं ।ताणं णत्थिy पमाणं अणंतभवसार्यरे धीर ।।24।।गृहीतोस्थिज्झताविन मुविनवर कलेवराशिण त्वर्या अनेकाविन ।तेषा ंनात्थिस्त प्रमाणं अनन्तभवसागरे धीर ! ।।24।।

हे धीर ! हे मुविनवर ! ग्रह्यां-छोड्यां शरीर अनेक तें,

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तेनुं नर्थी परिरमाण कंई विनःसीम भवसागर विवषे. 24.अथ% :—हे मुनिनवर ! हे धीर ! तून े इस अनन्त भवसागरम ें क>ेवर अथा%त ् शरीर

अनेक ग्रहण निकये और छोडे़, उनका परिरमाण नहीं है ।भावाथ% :—हे मुनिनप्रधान ! तू इस शरीरसे कुछ -नेह करना चाहता है तो इस संसारमें

इतने शरीर छोडे़ और ग्रहण निकये निक उनका कुछ परिरमाण भी नहीं निकया ा सकता है ।आगे कहते हैं निक ो पया%य ण्डिस्थर नहीं है, आयुकम%के आधीन है वह अनेक प्रकारसे

क्षीण हो ाती है :—विवसवरे्यणरAक्खर्यभर्यसyग्गहणसंविकलेसेणं ।आहारुस्सासाणं शिणरोहणा खिखज्जए आऊ ।।25।।विहमजलणसचिललगुरुर्यरपव्वर्यतरुरुहणप)णभंगेहिहं ।रसविवज्जजोर्यधारण अणर्यपसंगेहिहं विवविवहेहिहं ।।26।।इर्य वितरिरर्यमणुर्यजम्मे सुइरं उववस्थिज्जऊण बहुवारं ।अवमिमचु्चमहादुक्खं वितव्वं पAो चिस तं मिमA ।।27।।विवषवेदनार}क्षर्यभर्यशस्त्रग्रहणसंक्लेशैः ।आहारोच्छ्वासानां विनरोधनात क्षीर्यत ेआर्यु ।।25।।विहमज्वलनसचिललगुरुतरपव�ततरुरोहणपतनभङै्गः ।रसविवद्यार्योगधारणानर्यप्रसंगैः विवविवधैः ।।26।।इवित वितर्य�ग्गमनुष्र्यजन्मविन सुचिचरं उत्पद्य बहुवारम् ।अपमृत्र्युमहादुःखं तीवं्र प्राप्नो)चिस त्वं मिमत्र ! ।।27।।

विवष-वेदनार्थी, र}क्षर्य-भर्य-शस्त्रर्थी, संक्लेशर्थी,आरु्यष्र्यनो क्षर्य र्थार्य छे आहार-श्वासविनरोधर्थी; 25.विहम-अप्तिग्न-जलर्थी, उच्च-पव�तवृक्षरोहणपतनर्थी,अन्र्यार्य-रसविवज्ञान-र्योगप्रधारणादिद प्रसंगर्थी. 26.हे मिमत्र ! ए रीत जन्मीने चिचर काल नर-वितर्यmचमां,

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बहु वार तंु पाम्र्यो महादुख आकरां अपमृत्रु्यनां. 27.अथ% :—निवषभक्षणसे, वेदनाकी पीOा़के निनमिमत्तसे, रक्त अथा%त ् रुमिधरके क्षयसे,

भयसे, श-त्रके घातसे, संक्>ेश परिरणामसे, आहार तथा श्वासके निनरोधस े इन कारणोंसे आयुका क्षय होता है ।

निहम अथा%त् शीत पा>ेसे, अखिग्नसे, >से, बड़े पव%तपर चढ़कर पड़नेसे, बड़े वृक्षपर चढ़कर निगरनेसे, शरीरका भंग होनेसे, रस अथा%त् पारा आदिदकी निवद्या उसके संयोगसे धारण करके भक्षण करे इससे, और अन्याय काय%, चोरी, व्यभिभचार आदिदके निनमिमत्तसे—इसप्रकार अनेकप्रकारके कारणोंसे आयुका वु्यचे्छद (नाश) होकर कुमरण होता है ।

इसशि>ये कहते हैं निक हे मिमत्र ! इसप्रकार नितय�च, मनुष्य न्ममें बहुतका> बहुतवार उत्पन्न होकर अपमृत्यु अथा%त् कुमरण सम्बन्धी तीव्र महादुःkको प्राप्त हुआ ।

भावाथ% :—इस >ोकमें प्राणीकी आय ु ( हा ँ सोपक्रम आयु बँधी ह ै उसी निनयमसे अनुसार) नितय�च—मनुष्य पया%यमें अनेक कारणोंसे शिछदती है, इससे कुमरण होता है । इससे मरते समय तीव्र दुःk होता ह ै तथा kोटे परिरणामोंसे मरण कर निफर दुग%नितहीमें पड़ता है; इसप्रकार यह ीव संसारमें महादुःk पाता है । इसशि>ये आचाय% दया>ु होकर बारबार दिदkाते हैं और संसारसे मुक्त होनेका उपदेश करते हैं, इसप्रकार ानना चानिहये ।।25—26—27।।

आगे निनगोदके दुःkको कहते हैं :—छAीस वितस्थिण्ण सर्या छावदिट्ठसहस्सवारमरणाशिण ।अतोमुहुAमज्झे पAो चिस विनगोर्यवासप्तिम्म ।।28।।षट्हितं्रशत् त्रीशिण शताविन षट्षविष्टसहस्रवारमरणाविन ।अन्तमु�हूA�मध्र्ये प्रा=तो)चिस विनकोतवासे ।।28।।

छासठ हजार वित्रशत अचिधक छत्रीश तें मरणो कर्याm,अंतमु�हूत� प्रमाण काल विवषे विनगोदविनवासमां. 28.

अथ% :—ह े आत्मन ् त ू निनगोदके वासम ें एक अंतमु%हूत्त%म ें छ्यासठ ह ार तीनसौ छत्तीस बार मरणको प्राप्त हुआ ।

भावाथ% :—निनगोदमें एक श्वासके अठारहवें भाग प्रमाण आयु पाता है । वहा ँ एक मुहूत्त%के सैंतीससौ नितहत्तर श्वासोच्छ्वास निगनते हैं । उनमें छत्तीससौ निपच्यासी श्वासोच्छ्वास और एक श्वासके तीसरे भागके छ्यासठ ह ार तीनसौ छत्तीस बार निनगोदमें न्म—मरण होता ह ै । इसका दुःk यह प्राणी सम्यग्दश%नभाव पाय े निबना मिमथ्यात्वके उदयके वशीभूत

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होकर सहता ह ै । भावाथ%:—अंतमु%हूत्त%म ें छ्यासठ ह ार तीनसौ छत्तीस बार न्म—मरण कहा, वह अठ्यासी श्वास कम मुहूत्त% इसप्रकार अन्तमु%हूत्त%में ानना चानिहये ।।28।।

(निवशेषाथ% :—गाथामें आये हुए निनगोद वासस्त्रिम्म शब्दकी सं-कृत छायामें निनगोत वासे है । निनगोद शब्द एकेजिन्द्रय वनस्पनित कामियक ीवोंके साधारण भेदमें रूढ़ है, बनिक निनगोत शब्द पांचों इजिन्द्रयोंके सम्मूच्छ%न न्मसे उत्पन्न होनेवा>े >ब्ध्यपया%प्तक ीवोंके शि>ये प्रयुक्त होता ह ै । अतः यहा ँ ो 66336 बार मरणकी संख्या ह ै वह पांचों इजिन्द्रयोंको सस्त्रिम्मशि>त समझना चानिहये ।। 28।।)

इस ही अंतमु%हूत्त%के न्म-मरणमें क्षुद्रभवका निवशेष कहते हैं :—विवर्यलिलंदए असीदी सट्ठ चालीसमेव जाणेह ।पंलिचंदिदर्य चउवीसं खु�भावंतोमुहुAस्स ।।29।।विवकलेंदिद्रर्याणामशीवित षहिषं्ट चत्वारिरंशतमेव जानीविह ।पंचेजिन्द्रर्याणां चतरु्विवंशहितं क्षुद्रभवान् अन्तमु�हूA�स्र्य ।।29।।

रे ! जाण एशी साठ चाळीश क्षुद्रभव विवकलेंदिद्रना,अंतमु�हूतt क्षुद्रभव चोवीश पंचेजिन्द्रर्य तणा. 29.

अथ% :—इस अन्तमु%हूत्त%के भवोंम ें दो इजिन्द्रयके क्षुद्रभव अ-सी, तेइजिन्द्रयके साठ, चौइजिन्द्रयके चा>ीस और पंचेजिन्द्रयके चौबीस, इसप्रकार हे आत्मन् ! तू क्षुद्रभव ान ।

भावाथ% :—कु्षद्रभव अन्य शा-त्रोंमें इसप्रकार निगने हैं । पृथ्वी, अप्, ते , वायु और साधारण निनगोदके सूक्ष्म बादरस े दस और सप्रनितमिष्ठत वनस्पनित एक, इसप्रकार ग्यारह स्थानोंके भव तो एक—एकके छह ह ार बार उसके छ्यासठ ह ार एकसौ बत्तीस हुए और इस गाथाम ें कह े व े भव दो इजिन्द्रय आदिदके दो सौ चार, ऐस े 66336 एक अन्तमु%हूत्त%में कु्षद्रभव हैं ।।26।।

आगे कहते ह ैं निक हे आत्मन ् ! तून े इस दीघ%संसारमें पूव}क्त प्रकार सम्यग्दश%नादिद रत्नत्रयकी प्रान्तिप्त निबना भ्रमण निकया, इसशि>ये अब रत्नत्रय धारण कर :—

रर्यणAर्ये अलदे्ध एव ंभमिमओ चिस दीहसंसारे ।इर्य जिजणवरेहिहं भशिणरं्य तं रर्यणAर्य समार्यरह ।।30।।रत्नत्रर्ये अल�े एवं भ्रमिमतो)चिस दीध�संसारे ।इवित जिजनवरैभ�शिणतं तत ्रत्नत्रर्यं समाचर ।।30।।

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वण रत्नत्रर्यप्राप्ति=त तंु ए रीत दीध� संसारे भम्र्यो,–भाख्रंु्य जिजनोए आम; तेर्थी रत्नत्रर्यने आचरो. 30.

अथ% :—हे ीव ! तूने सम्यग्दश%न-ज्ञान-चारिरत्ररूप रत्नत्रयको नहीं पाया, इसशि>ये इस दीध%का>से—अनादिद संसारमें पनिह>े कहे अनुसार भ्रमण निकया, इसप्रकार ानकर अब तू उस रत्नत्रयका आचरण कर, इसप्रकार जि नेश्वरदेवने कहा है ।

भावाथ% :—निनश्चय रत्नत्रय पाये निबना यह ीव मिमथ्यात्वके उदयसे संसारमें भ्रमण करता है, इसशि>ये रत्नत्रयके आचरणका उपदेश है ।।30।।

आगे शिशष्य पूछता है निक वह रत्नत्रय कैसा है ? उसका समाधान करते हैं निक रत्नत्रय इसप्रकार है :—

अ=पा अ=पप्तिम्म रओ सम्माइट्ठी हवेइ फु)ु जीवो ।जाणइ तं सण्णाणं चरदिदहं चारिरA मग्गो चिA ।।31।।आत्मा आत्मविन रतः सम्र्यग्दृविष्टः भववित सु्फटं जीवः ।जानावित तत ्संज्ञान ंचरतीह चारिरतं्र माग� इवित ।।31।।

विनज आत्ममां रत जीव जे ते प्रगट सम्र्यग्दृविष्ट छे,तद्बोध छे सुज्ञान, त्र्यां चरवंु चरण छे;–माग� ए. 31.

अथ% :— ो आत्मा आत्माम ें रत होकर यथाथ%रूपका अनुभव कर तद्रूप होकर श्रद्धान करे वह प्रगट सम्यग्दृमिष्ट होता है, उस आत्माको ानना सम्यग्ज्ञान है, उस आत्मामें आचरण करके रागदे्वषरूप न परिरणमना सम्यक्चारिरत्र ह ै । इसप्रकार यह निनश्चयरत्नत्रय है, मोक्षमाग% है ।

भावाथ% :—आत्माका श्रद्धान—ज्ञान—आचरण निनश्चयरत्नत्रय है और बाह्यमें इसका व्यवहार— ीव अ ीवादिद तत्त्वोंका श्रद्धान, तथा ानना और परद्रव्य परभावका त्याग करना इसप्रकार निनश्चय—व्यवहार-वरूप रत्नत्रय मोक्षका माग% है । वहाँ निनश्चय तो प्रधान है, इसके निबना व्यवहार संसार-वरूप ही है । *व्यवहार है वह निनश्चयका साधन-वरूप है, इसके निबना निनश्चयकी प्रान्तिप्त नहीं ह ै और निनश्चयकी प्रान्तिप्त हो ानेके बाद व्यवहार कुछ नहीं है इसप्रकार ानना चानिहये ।।31।।

(नोंध :—*यहाँ ऐसा नहीं समझना निक प्रथम व्यवहार हो और पश्चात् निनश्चय हो—निकन्तु भूमिमकानुसार प्रारम्भसे ही निनश्चय—व्यवहार साथमें होता है । निनमिमत्तके निबना अथ% शा-त्रमें ो कहा है उससे निवरुद्ध निनमिमत्त नहीं होता ऐसा समझना ।)

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आगे संसारमें इस ीवने न्म—मरण निकये हैं, वे कुमरण निकये, अब सुमरणका उपदेश करते हैं :—

अण्णे कुमरणमरणं अणेर्यजम्मंतराइं मरिरओ चिस ।भावविह सुमरणमरणं जरमरणविवणासणं जीव ! ।।32।।अन्र्यत्थिस्मन ्कुमरणमरणं अनेकजन्मान्तरेषु मृतः अचिस ।भावर्य सुमरणमरणं जन्ममरणविवनाशनं जीव ! ।।32।।

हे जीव ! कुमरणमरणर्थी तुं मर्यN अनेक भवो विवषे;तंु भाव सुमरणमरणने जर-मरणना हरनारने. 32.

अथ% :—हे ीव ! इस संसारमें अनेक न्मान्तरोंमें अन्य कुमरण मरण ैसे होते हैं वैसे तू मरा । अब तू जि स मरणका नाश हो ाय इसप्रकार सुमरण भा अथा%त् समामिधमरणकी भावना कर ।

भावाथ% :—मरण संक्षेपमें अन्य शा-त्रोंमें सत्रह प्रकारके कहे हैं । वे इसप्रकार हैं—1—आवीशिचकामरण, 2—तद्भवमरण, 3—अवमिधमरण, 4—आद्यान्तमरण, 5—बा>मरण, 6—पंनिOतमरण, 7—आसन्नमरण, 8—बा>पंनिOतमरण, 9—सशल्यमरण, 10—प>यामरण, 11—वशात्त%मरण, 12—निवप्राणसमरण, 13—गृध्रपृष्ठमरण, 14—भक्तप्रत्याख्यानमरण, 15—इंनिगनीमरण, 16—प्रायोपगमनमरण, और 17—केवशि>मरण, इसप्रकार सत्रह हैं ।

इनका -वरूप इसप्रकार है—आयुकम%का उदय समय—समयमें घटता है वह समय-समय मरण है, यह आवीशिचकामरण है ।।1।।

वत%मान पया%यका अभाव तद्भवमरण है ।।2।। ैसा मरण वत%मान पया%यका हो वैसा ही अग>ी पया%यका होगा वह अवमिधमरण है ।

इसके दो भेद हैं— ैसा प्रकृनित, ण्डिस्थनित, अनुभाग वत%मानका उदय आया वैसा ही अग>ीका उदय आवे वह (1) सवा%वमिधमरण ह ै और एकदेश बंध—उदय हो तो (2) देशाबमिधमरण कह>ाता है ।।3।।

वत%मान पया%यका ण्डिस्थनित आदिद ैसा उदय था वैसा अग>ीका सव%तो वा देशतो बंध—उदय न हो वह आद्यन्तमरण है ।।4।।

पाँचवा ँ बा>मरण है, यह पाँच प्रकारका है—1 अव्यक्तबा>, 2 व्यवहारबा>, 3 ज्ञानबा>, 4 दश%नबा>, 5 चारिरत्रबा> । ो धम%, अथ%, काम इन कामोंको न ाने, जि सका शरीर इनके आचरणके शि>य े समथ% न हो वह अव्यक्तबा> ह ै । ो >ोकके और शा-त्रके

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व्यवहारको न ाने तथा बा>क अवस्था हो वह व्यवहारबा> है । व-तुके यथाथ% ज्ञानरनिहत ज्ञानबा> है । तत्त्वश्रद्धानरनिहत मिमथ्यादृमिष्ट दश%नबा> है । चारिरत्ररनिहत प्राणी चारिरत्रबा> है । इनका मरना सो बा>मरण ह ै । यहा ँ प्रधानरूपस े दश%नबा>का ही ग्रहण है, क्योंनिक सम्यग्दृमिष्टको अन्य बा>पना होते हुए भी दश%नपंनिOतताके सद्भावसे पंनिOतमरणमें ही निगनते हैं । दश%नबा>का मरण संक्षेपसे दो प्रकारका कहा है—इच्छाप्रवृत्त और अनिनच्छाप्रवृत्त । अखिग्नसे, धूमसे, श-त्रसे, निवषसे, >से, पव%तके निकनारे परसे निगरनेसे, अनित शीत—उष्णकी बाधासे, बंधनसे, कु्षधा—तृषाके रोकनेसे, ीभ उkाड़नेसे और निवरुद्ध आहार करनेसे बा> (अज्ञानी) इच्छापूव%क मरे सो इच्छाप्रवृत्त है तथा ीनेका इचु्छक हो और मर ावे सो अनिनच्छाप्रवृत्त है । ।।5।।

पंनिOतमरण चार प्रकारका है—1 व्यवहारपंनिOत, 2—सम्यक्त्वपंनिOत, 3—ज्ञानपंनिOत, 4—चारिरत्रपंनिOत । >ोकशा-त्रके व्यवहारम ें प्रवीण हो वह व्यवहारपंनिOत ह ै । सम्यक्त्व सनिहत हो सम्यक्त्वपंनिOत है । सम्यग्ज्ञान सनिहत हो ज्ञानपंनिOत है । सम्यक्चारिरत्रसनिहत हो चारिरत्रपंनिOत है । यहाँ दश%न—ज्ञान—चारिरत्र सनिहत पंनिOतका ग्रहण है, क्योंनिक व्यवहार-पंनिOत मिमथ्यादृमिष्ट बा>मरणमें आ गया ।।6।।

मोक्षमाग%में प्रवत%नेवा>ा साधु संघसे छूटा उसको आसन्न कहते हैं । इसमें पाश्व%स्थ, -वच्छन्द, कुशी>, संसक्त भी >ेने; इसप्रकारके पंचप्रकार भ्रष्ट साधुओंका मरण आसन्नमरण है ।।7।।

सम्यग्दृमिष्ट श्रावकका मरण बा>पंनिOतमरण है ।।8।।सशल्यमरण दो प्रकारका है—मिमथ्यादश%न, माया, निनदान ये तीन शल्य तो भावशल्य

हैं और पंच स्थावर तथा त्रसमें असैनी ये द्रव्यशल्य सनिहत हैं, इसप्रकार सशल्यमरण है ।।9।। ो प्रश-तनिक्रयामें आ>सी हो, व्रतादिदकमें शशिक्तको शिछपावे, ध्यानादिदकसे दूर भागे,

इसप्रकारका मरण प>ायमरण है ।।10।।वशात्त%मरण चार प्रकारका है—वह आत्त%—रौद्र ध्यानसनिहत मरण है, पाँच इजिन्द्रयोंके

निवषयोंम ें रागदे्वष सनिहत मरण इजिन्द्रयवशात्त%मरण ह ै । साता—असाताकी वेदनासनिहत मरे वेदनावशात्त%मरण है । क्रोध, मान, माया, >ोभ, कषायके वशसे मरे कषायवशात्त%मरण है । हा-य निवनोद कषायके वशसे मरे नोकषायवशात्त%मरण है ।।11।।

ो अपने व्रत निक्रया चारिरत्रमें उपसग% आवे वह सहा भी न ावे और भ्रष्ट होनेका भय आवे तब अशक्त होकर अन्न—पानीका त्यागकर मरे निवप्राण-मरण है ।।12।।

श-त्र ग्रहण कर मरण हो गृध्रपृष्ठमरण है ।।13।।अनुक्रमसे अन्न-पानीका यथानिवमिध त्याग कर मरे भक्तप्रत्याख्यानमरण है ।।14।।संन्यास करे और अन्यसे वैयावृत्य करावे इंनिगनीमरण है ।।15।।

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प्रायोपगमन संन्यास करे और निकसीसे वैयावृत्य न करावे, तथा अपने आप भी न करे, प्रनितमायोग रहे प्रायोगमनकरण है ।।16।।

केव>ी मुशिक्तप्राप्त हो केव>ीमरण है ।।17।।इसप्रकार सत्रह कह े । इनका संके्षप इसप्रकार है—मरण पाँच प्रकारके हैं—1

पंनिOतपंनिOत, 2 पंनिOत, 3 बा>पंनिOत, 4 बा>, 5 बा>बा> । ो दश%न ज्ञान चारिरत्रके अनितशय सनिहत हो वह पंनिOतपंनिOत ह ै और इनकी प्रकष%ता जि सके न हो वह पंनिOत है, सम्यग्दृमिष्ट श्रावक वह बा>पंनिOत है और पनिह>े चार प्रकारके पंनिOत कहे उनमेंसे एक भी भाव जि सके नहीं हो वह बा> है तथा ो सबसे न्यून हो वह बा>बा> है । इनमें पंनिOतपंनिOतमरण, पंनिOतमरण और बा>पंनिOतमरण ये तीन प्रश-त सुमरण कहे हैं, अन्य रीनित होवे वह कुमरण है । इसप्रकार ो सम्यग्दश%न-ज्ञान-चारिरत्र एकदेश सनिहत मरे वह सुमरण है; इस प्रकार सुमरण करनेका उपदेश है ।।32।।

आगे यह ीव संसारम ें भ्रमण करता है, उस भ्रमणके परावत%नका -वरूप मनमें धारणकर निनरूपण करते हैं । प्रथम ही सामान्यरूपसे >ोकके प्रदेशोंकी अपेक्षासे कहते ह ैं :—

सो णत्थिy दव्वसवणो परमाणुपमाणमेAओ शिणलओ ।जy ण जाओ ण मओ वितर्यलोपमाशिणओ सव्वो ।।33।।सः नात्थिस्त द्रव्यश्रमणः परमाणुप्रमाणमात्रो विनलर्यः ।र्यत्र न जातः न मृतः वित्रलोकप्रमाणकः सव�ः ।।33।।

त्रणलोकमां परमाणु सरखुं स्थान कोई रहंु्य नर्थी,ज्र्यां द्रव्यश्रमण र्थरे्यल जीव मर्यN नर्थी, जन्म्र्यो नर्थी. 33.

अथ% :—यह ीव द्रव्यलि>ंगका धारक मुनिनपना होते हुए भी ो तीन>ोक प्रमाण सव% स्थान हैं उनमें एक परमाणुपरिरणाम एक प्रदेशमात्र भी ऐसा स्थान नहीं है निक हाँ न्म-मरण न निकया हो ।

भावाथ% :—द्रव्यलि>ंग धारण करके भी इस ीवने सव% >ोकमें अनन्तबार न्म और मरण निकये, निकन्तु ऐसा कोई प्रदेश शेष न रहा निक जि समें न्म और मरण न निकये हों । इसप्रकार भावलि>ंगके निबना द्रव्यलि>ंगसे मोक्षकी (—निन परमात्मदशाकी) प्रान्तिप्त नहीं हुई—ऐसा ानना ।।33।।

आगे इसी अथ%को दृढ़ करनेके शि>ये भावलि>ंगको प्रधान कर कहते हैं :—

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कालमणंतं जीवो जम्मजरामरणपीवि)ओ दुक्खं ।जिजणलिलंगेण विव पAो परंपराभावरविहएण ।।34।।कालमनंतं जीवः जन्मजरामरणपीवि)तः दुःखम् ।जिजनलिलंगेन अविप प्रा=तः परम्पराभावरविहतेन ।।34।।

जीव जविन-जरा-मृतत=त काल अनंत पाम्र्यो दुःखने,जिजनलिलंगने पण धारी पारंपर्य�चभावविवहीनने. 34.

अथ% :—यह ीव इस संसारमें जि समें परम्परा भावलि>ंग न होनेसे अनंतका>पय%न्त न्म- रा-मरणसे पीनिड़त दुःkको ही प्राप्त हुआ ।

भावाथ% :—द्रव्यलि>ंग धारण निकया और उसमें परम्परासे भी भावलि>ंगकी प्रान्तिप्त न हुई इसशि>ये द्रव्यलि>ंग निनष्फ> गया, मुशिक्तकी प्रान्तिप्त नहीं हुई, संसारमें ही भ्रमण निकया ।

यहा ँ आशय इसप्रकार ह ै निक—द्रव्यलि>ंग ह ै वह भावलि>ंगका साधन है, परन्तु 1 का>>स्तिब्ध निबना द्रव्यलि>ंग धारण करने पर भी भावलि>ंगकी प्रान्तिप्त नहीं होती है, इसशि>ये द्रव्यलि>ंग निनष्फ> ाता है । इसप्रकार मोक्षमाग%में प्रधान भावलि>ंग ही है । यहाँ कोई कहे निक इसप्रकार है तो द्रव्यलि>ंग पनिह>े क्यों धारण कर ें ? उसको कहते हैं निक—इसप्रकार माने तो व्यवहारका >ोप होता है, इसशि>य े इसप्रकार मानना ो द्रव्यलि>ंग पनिह> े धारण करना, इसप्रकार न ानना निक इसीसे शिसजिद्ध है । भावलि>ंगको प्रधान मानकर उसके सन्मुk उपयोग रkना, द्रव्यलि>ंगको यत्नपूव%क साधना, इसप्रकारका श्रद्धान भ>ा है ।।34।।

(1) का>>स्तिब्ध = -वसमय—निन -वरूप परिरणामकी प्रान्तिप्त. (आत्माव>ोकन गा0 9)(2) का>>स्तिब्ध का अथ% -वका>की प्रान्तिप्त है । (3) यदायं ीवः आगमभाषया का>ादिद

>स्तिब्धरूपमध्यात्मभाषया शुद्धात्माभिभमुkं परिरणामरूपं -वसंवेदनज्ञानं >भते.......अथ% :— ब यह ीव आगमभाषास े का>ादिद >स्तिब्धको प्राप्त करता ह ै तथा

अध्यात्मभाषास े शुद्धात्माके सन्मुk परिरणामरूप -वसंवेदन ज्ञानको प्राप्त करता ह ै । (पंचास्ति-तकाय गा0 150—151 यसेनाचाय% टीका) (4) निवशेष देkो मोक्षमाग% प्रकाशक अ 0 9 ।।

आगे पुद्ग> द्रव्यको प्रधानकर भ्रमण कहते हैं :—पवि)देससमर्यपुग्गलआउगपरिरणामणामकालटं्ठ ।गविहउस्थिज्झर्याइं बहुसो अणंतभवसार्यरे *जीव ।।35।।

*. पाठान्तरः— ीवो ।

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प्रवितदेशसमर्यपुद्गलार्युः परिरणामनामकालस्थम् ।गृहीतोस्थिज्झताविन बहुशः अनन्तभवसागरे जीवः ।।35।।

प्रवितदेश-पुद्गल-काळ-आरु्यष-नाम-परिरणामस्थ तें,बहुशः शरीर ग्राह्यां-तज्र्यां विनःसीम भवसागर विवषे. 35.

अथ% :—इस ीवने इस अनन्त अपार भवसमुद्रमें >ोकाकाशके जि तने प्रदेश हैं उन प्रनित समय समय और पया%यके आयुप्रमाण का> और अपन े ैसा योगकषायके परिरणमन-वरूप परिरणाम और ैसा गनित ानित आदिद नामकम%के उदयसे हुआ नाम और का> ैसा उत्सर्विपंणी—अवसर्विपंणी उनमें पुद्ग>के परमाणुरूप -कन्ध, उनको बहुतवार अनन्तबार ग्रहण निकये और छोडे़ ।

भावाथ% :—भावलि>ंग निबना >ोकमें जि तने पुद्ग> -कन्ध हैं उन सबको ही ग्रहण निकये और छोडे़ तो भी मुक्त न हुआ ।।25।।

आगे क्षेत्रको प्रधान कर कहते हैं :—तेर्याला वितस्थिण्ण सर्या रज्जूणं लोर्यखेAपरिरमाणं ।मुAूणट्ठ पएसा जy जण ढुरुढुस्थिल्लओ जीवो ।।36।।वित्रचत्वारिरंशत् त्रीशिण शताविन रज्जूनां लोकक्षेत्रपरिरणामं ।मुक्त्वा)ष्टौ प्रदेशान् र्यत्र न भ्रमिमतः जीवः ।।36।।

त्रणशत-अचिधक चालीस-त्रण रज्जुप्रमिमत आ लोकमांतजी आठ कोई प्रदेश ना, परिरभ्रमिमत नविह आ जीव ज्र्यां । 36.

अथ% :—यह >ोक तीनसौ तेता>ीस रा ू परिरमाण के्षत्र है, उसको बीच मेरुके नीचे गो-तनाकार आठ प्रदेश हैं, उनको छोड़कर अन्य प्रदेश ऐसा न रहा जि समें यह ीव नहीं न्मा—मरा हो ।

भावाथ% :—ढुरुढुण्डिल्>ओ इसप्रकार प्राकृतम ें भ्रमम अथ%के धातुका आदेश ह ै और के्षत्रपरावत%नमें मेरुके नीचे आठ >ोकके मध्यमें हैं उनको ीव अपने शरीरके अष्टमध्य प्रदेश बनाकर मध्यदेश उप ता है, वहांसे के्षत्रपरावत%नका प्रारम्भ निकया ाता है, इसशि>ये उनको पुनरुक्त भ्रमणमें नहीं निगनते हैं ।।36।। (देkो गो0 ीव 0 काhO गाथा 530 पृ0 266 मू>ाचार अ 0 9 गाथा 14 पृ0 428)

आगे यह ीव शरीरसनिहत उत्पन्न होता है और मरता है, उस शरीरमें रोग होते हैं, उनकी संख्या दिदkाते हैं :—

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एक्केक्कंगुचिल वाही छण्णवदी होंवित जाण मणुर्याणं ।अवसेसे र्य सरीरे रोर्या भण विकचिAर्या भशिणर्या ।।37।।एकेकांगुलौ व्याधर्यः षण्णववितः भववित जानीविह मनुष्र्यानां ।अवशेषे च शरीरे रोगाः भण विकर्यन्तः भशिणताः ।।37।।

प्रत्रे्यक अंगुल छन्नुं जाणो रोग मानवदेहमां;तो केटला रोगो, कहो, आ अखिखल देह विवषे, भला ! 37.

अथ% :—इस मनुष्यके शरीरमें एक-एक अंगु>में छ्यानवे छ्यानवे रोग होते हैं, तब कहो, अवशेष सम-त शरीरमें निकतने रोग कहें ।।37।।

आगे कहते हैं निक ीव ! उन रोगोंको दुःk तूने सहा :—ते रोर्या विव र्य सर्यला सविहर्या ते परवसेण पुव्वभवे ।एवं सहचिस महाजस हिकं वा बहुएहिहं लविवएहिहं ।।38।।त ेरोगा अविप च सकलाः सोढास्त्वर्या परवशेण पूव�भवे ।एवं सहसे महार्यशः ! हिकं वा बहुशिभः लविपतैः ।।38।।

ए रोग पण सघळा सह्या तें पूव�भवमां परवशे;तंु सही रह्यो छे आम, र्यशधर; अचिधक शुं कहीए तने ? 38.

अथ% :—ह े महायश ! ह े मुन े ! तून े पूव}क्त रोगोंको पूव%भवोंम ें तो परवश सहे, इसप्रकार ही निफर सहेगा, बहुत कहनेसे क्या ?

भावाथ% :—यह ीव पराधीन होकर सब दुःk सहता है । यदिद ज्ञानभावना करे और दुःk आने पर उससे च>ायमान न हो, इस तरह -ववश होकर सहे तो कम%का नाश कर मुक्त हो ावे, इसप्रकार ानना चानिहये ।।38।।

आगे कहते हैं निक अपनिवत्र गभ%वासमें भी रहा :—विपAंतमुAफेफसकाचिलज्जर्यरुविहरखरिरसविकमिमजाले ।उर्यरे वचिसओ चिस चिचरं णवदसमासेहिहं पAेहिहं ।।39।।विपAांत्रमूत्रफेफसर्यकृद्रुचिधरखरिरसकृमिमजाले ।उदरे उविषतो)चिस चिचरं नवदशमासैः प्रा=तैः ।।39।।

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मल-मूत्र-शोशिणत-विपA, करम, बरोळ, र्यकृत, आंत्र ज्र्यां,त्र्यां मास नव-दश तुं वस्र्यो बहु वार जननी-उदरमां. 39.

अथ% :—हे मुन े ! तूने इस प्रकारके मशि>न अपनिवत्र उदरमें नव मास तथा दश मास प्राप्त कर रहा । कैसा ह ै उदर ? जि समें निपत्त और आंतोंसे वेमिष्टत, मूत्रका स्रवण, फेफस अथा%त् ो रुमिधर निबना मेद फू> ावे, काशि>ज्ज अथा%त् क>े ा, kून, kरिरस अथा%त् अपक्व म>में मिम>ा हुआ रुमिधर श्लेष्म और कृमिम ा> अथा%त् >ट आदिद ीवोंके समूह ये सब पाये ाते हैं—इसप्रकार -त्रीके उदरमें बहुत बार रहा ।।39।।

निफर इसीको कहते हैं :—दिदर्यसंगदिट्ठर्यमसणं आहारिरर्य मार्यभुAमण्णांते ।छदि�खरिरसाण मज्झे जढरे वचिसओ चिस जणणीए ।।40।।विद्वजसंगस्थिस्थतमशनं आहृत्र्य मातृभु}मन्नान्ते ।छर्दिदंखरिरसर्योम�ध्र्ये जठरे उविषतो)चिस जनन्र्याः ।।40।।

जननी तणु चावेल ने खाधेल एठंु खाईने,तंु जननी केरा जठरमां वमनादिदमध्र्य वस्र्यो अरे ! 40.

अथ% :—ह े ीव ! त ू ननी (माता) के उदर (गभ%) म ें रहा, वहा ँ माताके और निपताके भोगके अन्त, छर्दिद्दं (वमन) का अन्न, kरिरस (रुमिधरसे मिम>ा हुआ अपक्व म>) के बीचमें रहा, कैसा रहा ? माताके दाँतोंसे चबाया हुआ और उन दाँतोंके >गा हुआ (रुका हुआ) झूठा भो न माताके kानेके पीछे ो उदरमें गया उसके रसरूपी आहारसे रहा ।।40।।

आगे कहते हैं निक गभ%से निनक>कर इसप्रकार बा>कपन भोगा :—चिससुकाले र्य अर्याणे असुईमज्झप्तिम्म लोचिलओ चिस तुमं ।असुई अचिसर्या बहुसो मुशिणवर बालAपAेण ।।41।।शिशशुकाले च अज्ञाने अशुचिचमध्र्ये लोचिलतो)चिसत्वम् ।अशुचिचः अशिशता बहुशः मुविनवर ! बालत्वप्रा=तेन ।।41।।

तंु अशुचिचमां लोट्यो घणुं शिशशुकालमां अणसमजमां,मुविनवर ! अशुचिच आरोगी छे बहु वार तें बालत्वमां. 41.

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अथ% :—ह े मुनिनवर ! त ू बचपनके समयम ें अज्ञान अवस्थाम ें अशुशिच (अपनिवत्र) स्थानोमें अशुशिचके बीच >ेटा और बहुत बार अशुशिच व-तु ही kाई, बचपनको पाकर इसप्रकार चेष्टायें की ।

भावाथ% :—यहा ँ मुनिनवर इसप्रकार सम्बोधन है वह पनिह>ेके समान ानना; बाह्य आचरण सनिहत मुनिन हो उसीको यहाँ प्रधानरूपसे उपदेश है निक बाह्य आचरण निकया वह तो बड़ा काय% निकया, परन्तु भावोंके निबना यह निनष्फ> है इसशि>ये भावके सन्मुk रहना, भावोंके निबना ही ये अपनिवत्र स्थान मिम>े हैं ।।41।।

आगे कहते हैं निक यह देह इस प्रकार है उसका निवचार करो :—मंसदिट्ठसुक्कसोमिमर्यविपAतसवAकुशिणमदुग्गंधं ।खरिरसवसापूर्य* खिखस्थिब्भस भरिररं्य लिचंतेविह देहउ)ं ।।42।।

*. पाठान्तरः—खिkण्डिब्भसमांसस्थिस्थशुक्रश्रोशिणतविपAांत्रस्रवत्कुशिणमदुग�न्धम् ।खरिरसवसापूर्यविकत्थिल्वषभरिरतं चिचन्तर्य देहकुटम् ।।42।।

पल-विपA-शोशिणत-आंत्रर्थी दुगmध शब सम ज्र्यां स्रवे,लिचंतव तंु पीप-वसादिद-अशुचिचभरेल कार्याकंुभने. 42.

अथ% :—हे मुने ! तू देहरूप घटको इसप्रकार निवचार, कैसा है देहघट ? मांस, हाड़, शुक्र (वीय%), श्रोभिणत (रुमिधर), निपत्त (उष्ण निवकार) और अंत्र (अँतनिड़याँ) आदिद द्वारा तत्का> मृतककी तरह दुग�ध है तथा kरिरस (रुमिधरसे मिम>ा अपक्वम>), वसा (मेद), पूय (kराब kून) और राध, इन सब मशि>न व-तुओंसे पूरा भरा है, इसप्रकार देहरूप घटका निवचार करो ।

भावाथ% :—यह ीव तो पनिवत्र है, शुद्धज्ञानमयी है और यह देह इसप्रकार है, इसमें रहना अयोग्य है—ऐसा बताया है ।।42।।

आगे कहते हैं निक ो कुटुम्बसे छूटा वह नहीं छूटा, भावसे छूटे हुएको ही छूटा कहते हैं :—

भावविवमुAो मुAो ण र्य मुAो बंधवाइमिमAेण ।इर्य भाविवऊण उज्झसु गंरं्थ अब्भंतरं धीर ।।43।।भावविवमु}ः मु}ः न च मु}ः बांधवादिदमिमत्रेण ।इवित भावमिर्यत्वा उज्झर्य ग्रन्थमाभ्र्यन्तरं धीर ! ।।43।।

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रे ! भावमु} विवमु} छे, स्वजनादिदमु} न मु} छे,इम भावीने हे धीर ! तंु परिरत्र्याग आंतर ग्रंर्थने. 43.

अथ% :— ो मुनिन भावोंसे मुक्त हुआ उसीको मुक्त कहते हैं और बांधव आदिद कुटुम्ब तथा मिमत्र आदिदसे मुक्त हुआ उसको मुक्त नहीं कहते हैं, इसशि>ये हे धीर मुनिन ! तू इसप्रकार ानकर अभ्यन्तरकी वासनाको छोड़ ।

भावाथ% :— ो बाह्य बांधव, कुटुम्ब तथा मिमत्र इनको छोड़कर निनग्र�थ हुआ और अभ्यन्तरकी ममत्वभावरूप वासना तथा इष्ट-अनिनष्टम ें रागदे्वष वासना न छूटी तो उसको निनग्र%न्थ नहीं कहते हैं । अभ्यन्तर वासना छूटने पर निनग्र%न्थ होता है, इसशि>ये यह उपदेश है निक अभ्यन्तर मिमथ्यात्व कषाय छोड़कर भावमुनिन बनना चानिहये ।।43।।

आगे कहते हैं निक ो पनिह>े मुनिन हुए उन्होंने भावशुजिद्ध निबना शिसजिद्ध नहीं पाई है । उनका उदाहरणमात्र नाम कहते हैं । प्रथम ही बाहुब>ीका उदाहरण कहते हैं :—

देहादिदचAसंगो माणकसाएण कलुचिसओ धीर ! ।अAाववेण जादो बाहुबली विकचिAर्यं* कालं ।।44।।

*.—निकभित्तयं पाठान्तर निकनितयं ।

देहादिदत्र्य}संगः मानकषार्येन कलुविषतः धीरः ! ।आतापनेन जातः बाहुबली विकर्यन्त ंकालम् ।।44।।

देहादिदसंग तज्र्यो अहो ! पण मचिलन मानकषार्यर्थीआतापना करता रह्या बाहुबली मुविन क्र्यां लगी ? 44.

अथ% :—देkो, बाहुब>ी श्री ऋषभदेवका पुत्र देहादिदक परिरग्रहको छोड़कर निनग्र%न्थ मुनिन बन गया, तो भी मानकषायसे क>ुष परिरणामरूप होकर कुछ समय तक आतापन योग धारणकर ण्डिस्थत हो गया, निफर भी शिसजिद्ध नहीं पाई ।

भावाथ% :—बाहुब>ीस े भरतचक्रवतNन े निवरोध कर युद्ध आरंभ निकया, भरतका अपमान हुआ । उसके बाद बाहुब>ी निवरक्त होकर निनग्र%न्थ मुनिन वन गये, परन्त ु कुछ मानकषायकी क>ुषता रही निक भरतकी भूमिमपर मैं कैसे रहूं ? तब कायोत्सग% योगसे एक वष% तक kड़े रहे परन्तु केव>ज्ञान नहीं पाया । पीछे क>ुषता मिमटी तब केव>ज्ञान उत्पन्न हुआ । इसशि>ये कहते हैं निक ऐसे महान पुरुष बड़ी शशिक्तके धारकके भी भावशुजिद्धके निबना शिसजिद्ध नहीं पाई तब अन्यकी क्या बात ? इसशि>ये भावोंको शुद्ध करना चानिहये, यह उपदेश है ।।44।।

आगे मधुहिपंग> मुनिनका उदाहरण करते हैं :—

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महुहिपंगो णाम मुणी देहाहारादिदचAवावारो ।सवणAणं ण पAो शिणर्याणमिमAेण भविवर्यणुर्य ।।45।।मधुहिपंगो नाम मुविनः देहाहारादिदत्र्य}व्यापारः ।श्रमणत्वं न प्रा=तः विनदानमाते्रण भव्यनुत ! ।।45।।

तन-भोजनादिदप्रवृचिAना तजनार मुविन मधुहिपंगले,हे भव्यनूत ! विनदानर्थी ज लहंु्य नहीं श्रमणत्वने. 45.

अथ% :—मधुहिपंग>नामका मुनिन कैसा हुआ ? देह आहारादिदमें व्यापार छोड़कर भी निनदानमात्रसे भावश्रमणपनेको प्राप्त नहीं हुआ, उसको भव्य ीवोंसे नमने योग्य मुनिन, तू देk ।

भावाथ% :—मधुहिपंग> नामके मुनिनकी कथा पुराणमें ह ै उसका संके्षप ऐसे है—इस भरतक्षेत्रके सुरम्यदेशम ें पोदनापुरका रा ा तृणहिपंग>का पुत्र मधुहिपंग> था । वह चारणयुग>नगरके रा ा सुयोधनकी पुत्री सु>साके -वयंवरमें आया था । वही साकेतापुरीका रा ा सगर आया था । सगरके मंत्रीने मधुहिपंग>को कपटसे नया सामुदिद्रक शा-त्र बनाकर दोषी बताया निक इसके नेत्र हिपंग> हैं (माँ रा है) ो कन्या इसको वरे सो मरणको प्राप्त हो । तब कन्याने सगरके ग>ेमें वरमा>ा पनिहना दी । मधुहिपंग>का वरण नहीं निकया, तब मधुहिपंग>ने निवरक्त होकर दीक्षा >े >ी ।

निफर कारण पाकर सगरके मंत्रीके कपटको ानकर क्रोधसे निनदान निकया निक मेरे तपका फ> यह हो—अग>े न्मम ें सगरके कु>को निनमू%> करँू, उसके पीछे मधुहिपंग> मरकर महाका>ासुर नामका असुर देव हुआ, तब सगरको मंत्री सनिहत मारनेका उपाय सोचना >गा । इसको क्षीरकदम्ब ब्राह्मणका पुत्र पापी पव%त मिम>ा, तब उसको पशुओंकी हिहंसारूप यज्ञका सहायक बन ऐसा कहा । सगर रा ारो यज्ञका उपदेश करके यज्ञ कराया, तेरे यज्ञका मैं सहायक बनूंगा । तब पव%तने सगरसे यज्ञ कराया—पशु होम े । उस पापसे सगर सातवें नरक गया और का>ासुर सहायक बना सो यज्ञ करनेवा>ोंको -वग% ात े दिदkाय े । ऐसे मधुहिपंग> नामक मुनिनन े निनदानसे महाका>ासुर बनकर महापाप कमाया, इसशि>ये आचाय% कहते हैं निक मुनिन बन ाने पर भी भाव निबगड़ ावे तो शिसजिद्धको नहीं पाता है । इसकी कथा पुराणोंसे निव-तारसे ानो ।

आगे वशिशष्ठ मुनिनका उदाहरण कहते हैं :—अण्णं च वचिसट्ठमुणी पAो दुक्खं शिणर्याणदोसेण ।

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सो णत्थिy वासठाणो जy ण ढुरुढुस्थिल्लओ जीवो ।।46।।अन्र्यश्च वचिसष्ठमुविनः प्रा=तः दुःखं विनदानदोषेण ।तन्नात्थिस्त वासस्थानं र्यत्र न भ्रमिमतः जीव ! ।।46।।

बीजार्य साधु वचिसष्ठ पाम्र्या दुःखने विनदानर्थी;एवुं नर्थी को स्थान के जे स्थान जीव भम्र्यो नर्थी. 46.

अथ% :—अन्य और एक वशिशष्ठ नामक मुनिन निनदानके दोषसे दुःkको प्राप्त हुआ, इसशि>ये >ोकमें ऐसा वासस्थान नहीं है जि समें यह ीव न्म—मरणसनिहत भ्रमणको प्राप्त नहीं हुआ ।

भावाथ% :—वशिशष्ठ मुनिनकी कथा ऐसे है—गंगा और गंधवती दोनों नदिदयोंका हाँ संगम हुआ ह ै वहा ँ ठरकौशिशक नामकी तापसीकी पल्>ी थी । वहा ँ एक वशिशष्ठ नामका तप-वी पंचाखिग्नसे तप करता था । वहा ँ गुणभद्र वीरभद्र नामके दो चारणमुनिन आये । उस वशिशष्ठ तप-वीको कहा— ो त ू अज्ञानतप करता ह ै इसम ें ीवोंकी हिहंसा होती है, तब तप-वीने प्रत्यक्ष हिहंसा देk और निवरक्त होकर ैनदीक्षा >े >ी, मासोपवाससनिहत आतापन योग स्थानिपत निकया, उस तपके माहात्म्यसे सात व्यन्तर देवोंने आकर कहा, हमको आज्ञा दो सो ही करें, तब वशिशष्ठने कहा, अभी तो मेर े कुछ प्रयो न नहीं है, न्मांतरम ें तुम्ह ें याद करँूगा । निफर वशिशष्ठने मथुरापुरीमें आकर मासोपवाससनिहत आतापन योग स्थानिपत निकया ।

उसको मथुरापुरीके रा ा उग्रसेनने देkकर भशिक्तवश यह निवचार निकया निक मैं इनको पारणा कराऊँगा । नगरमें घोषणा करा दी निक इन मुनिनको और कोई आहार न दे । पीछे पारणाके दिदन नगरमें आये, वहाँ अखिग्नका उपद्रव देk अंतराय ानकर वानिपस >े गये । निफर मासोपवास निकया, निफर पारणा के दिदन नगरमें आये तब हाथीका क्षोभ देk अंतराय ानकर वानिपस च>े गये । निफर मासोपवास निकया, पीछे पारणाके दिदन निफर नगरमें आये । तब रा ा रालिसंघका पत्र आया, उसके निनमिमत्तसे रा ाका शिचत्त व्यग्र था इसशि>ये मुनिनको पड़गाहा नहीं, तब अंतराय मान वानिपस वनमें ाते हुए >ोगोंको वचन सुने—रा ा मुनिनको आहार दे नहीं और अन्य देनेवा>ोंको मना कर दिदया; ऐसे >ोगोंके वचन सुन रा ा पर क्रोध कर निनदान निकया निक—इस रा ाका पुत्र होकर रा ाका निनग्रह कर मैं रा करँू, इस तपका मेरे यह फ> हो, इसप्रकार निनदानसे मरा ।

रा ा उग्रसेनकी रानी पद्मावतीके गभ%म ें आया, मास पूर े होनेपर न्म शि>या तब इसको कू्ररदृमिष्ट देkकर काँसीके संदूक में रक्kा और वृतान्तके >ेk सनिहत यमुना नदीमें बहा दिदया । कौशाम्बीमें मंदोदरी नामकी क>ा>ीन े उसको >ेकर पुत्रबुजिद्धसे पा>न निकया, कंस

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नाम रkा । ब वह बड़ा हुआ तो बा>कोंके साथ kे>ते समय सबको दुःk देने >गा, तब मंदोदरीने उ>ाहनोंके दुःkसे इसको निनका> दिदया । निफर यह कंस शौय%पुर गया वहाँ वसुदेव रा ाके पयादा (सेवक) बनकर रहा । पीछे रालिसंध प्रनितनारायणका पत्र आया निक ो पोदनपुरके रा ा लिसंहरथको बाँध >ावे उसको आधे राज्यसनिहत पुत्री निववानिहत कर दूँ । तब वसुदेव वहाँ कंससनिहत ाकर युद्ध करके उस लिसंहरथको बाँध >ाया, रालिसंधको सौंप दिदया । निफर रालिसंधने ीवंयशा पुत्रीसनिहत आधा राज्य दिदया, तब वसुदेवने कहा—लिसंहरथको कस बांधकर >ाया है, इसको दो । निफर रालिसंधने इसका कु> ाननेके शि>ये मंदोदरीको बु>ाकर कु>का निनश्चय करके इसको ीवंयशा पुत्री ब्याह दी; तब कंसने मथुराका रा >ेकर निपता उग्रसेन रा ाको और पद्मावती माताको बंदीkानेमें Oा> दिदया, पीछे कृष्ण नारायणसे मृत्युको प्राप्त हुआ । इसकी कथा निव-तारपूव%क उत्तरपुराणादिदसे ानिनये । इसप्रकार वशिशष्ठ मुनिनने निनदानसे शिसजिद्धको नहीं पाई, इसशि>ये भावलि>ंगहीसे शिसजिद्ध है ।।46।।

आगे कहते हैं निक भावरनिहत चौरासी >ाk योनिनयोंमें भ्रमण करता है :—सो णत्थिy त=पएसो चउरासीलक्खजोशिणवासप्तिम्म ।भावविवरओ विव सवणो जy ण ढुरुढुस्थिल्लओ *जीव ।।47।।

*. पाठान्तरः— ीवो ।सः नात्थिस्त त ंप्रदेशः चतुरशीवितलक्षर्योविनवासे ।भावविवरतः अविप श्रमणः र्यत्र न भ्रमिमतः जीवः ।।47।।

एवो न कोई प्रदेश लख चोराशी र्योविन विनवासमां,रे ! भावविवरविहत श्रवण पण परिरभ्रमणने पाम्र्यो न ज्र्यां. 47.

अथ% :—इस संसारम ें चौरासी>ाk योनिन, उनके निनवासम ें ऐसा कोई देश नहीं है जि समें इस ीवने द्रव्यलि>ंगी मुनिन होकर भी भावरनिहत होता हुआ भ्रमण न निकया हो ।

भावाथ% :—द्रव्यलि>ंग धारणकर निनग्र%न्थ मुनिन बनकर शुद्ध -वरूपके अनुभवरूप भाव निबना यह ीव चौरासी >ाk योनिनयोंमें भ्रमण ही करता रहा, ऐसा स्थान नहीं रहा जि समें मरण नहीं हुआ हो ।

आगे चौरासी >ाk योनिनके भेद कहते हैं—पृथ्वी, अप, ते , वायु, निनत्यनिनगोद और इतरनिनगोद ये तो सात—सात >ाk हैं, सब व्या>ीस >ाk हुए, वनस्पनित दस >ाk हैं, दो इजिन्द्रय, तेइजिन्द्रय, चौइजिन्द्रय दो—दो >ाk हैं, पंचेजिन्द्रय नितय�च चार >ाk, देव चार >ाk,

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नारकी चार >ाk, मनुष्य चौदह >ाk । इसप्रकार चौरासी >ाk हैं । ये ीवोंके उत्पन्न होनेके स्थान हैं ।।47।।

आगे कहते हैं निक द्रव्यमात्रसे लि>ंगी नहीं होता है भावसे होता है :—भावेण होइ लिलंगी ण हु लिलंगी होइ दव्वमिमAेण ।तम्हा कुशिणज्ज भावं हिकं कीरइ दव्वलिलंगेण ।।48।।भावेन भववित लिलंगी न विह भववित लिलंगी द्रव्यमाते्रण ।तस्मात ्कुर्या�ः भावं हिकं विक्रर्यत ेद्रव्यलिलंगेन ।।48।।

छे भावर्थी लिलंगी, न लिलंगी द्रव्यलिलंगर्थी होर्य छे;तेर्थी धरो रे ! भावने, द्रव्यलिलंगर्थी शंु साध्र्य छे ? 48.

अथ% :—लि>ंगी होता है सो भावलि>ंग ही से होता है, द्रव्यलि>ंगसे लि>ंगी नहीं होता है यह प्रकट है; इसशि>ये भावलि>ंग ही धारण करना, द्रव्यलि>ंगसे क्या शिसद्ध होता है ?

भावाथ% :—आचाय% कहते ह ैं निक—इससे अमिधक क्या कहा ावे, भावलि>ंग निबना लि>ंगी नामही नहीं होता है, क्योंनिक यह प्रगट है निक भाव शुद्ध न देkे तब >ोग ही कहें निक काहेका मुनिन ह ै ? कपटी है । द्रव्यलि>ंगसे कुछ शिसजिद्ध नहीं है, इसशि>ये भावलि>ंग ही धारण करने योग्य है ।।48।।

आग े इसीको दृढ़ करनेके शि>य े द्रव्यलि>ंगधारकको उ>टा उपद्रव हुआ, उदाहरण कहते हैं :—

दं)र्यणर्यरं सर्यलं )विहओ अब्भंतरेण दोसेण ।जिजणलिलंगेण विव बाहू पवि)ओ सो रउरवे णरए ।।49।।दण्)कनगरं सकलं दग्ध्वा अभ्र्यन्तरेण दोषेण ।जिजनलिलंगेनाविप बाहुः पविततः सः रौरवे नरके ।।49।।

दं)कनगर करी दग्ध सघळंु दोष अभ्रं्यतर व)े,जिजनलिलंगर्थी पण बाहु ए उपज्र्या नरक रौरव विवषे. 49.

अथ% :—देkो, बाहु नामक मुनिन बाह्य जि नलि>ंग सनिहत था तो भी अभ्यन्तरके दोषसे सम-त दंOक नामक नगरको दग्ध निकया और सप्तम पृथ्वीके रौरव नामक निब>में निगरा ।

भावाथ% :—द्रव्यलि>ंग धारण कर कुछ तप करे, उससे कुछ सामथ्य% बढे़, तब कुछ कारण पाकर क्रोधसे अपना और दूसरेका उपद्रव करनेका कारण बनावे, इसशि>ये द्रव्यलि>ंग

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भावसनिहत धारण करना ही श्रेष्ठ है और केव> द्रव्यलि>ंग तो उपद्रवका कारण होता है । इसका उदाहरण बाहु मुनिनका बताया । उसकी कथा ऐसे है—

दभिक्षण दिदशाम ें कुम्भकारकटक नगरम ें दhOक नामका रा ा था । उसके बा>क नामका मंत्री था । वहाँ अभिभनन्दन आदिद पांचसौ मुनिन आये, उनमें एक kंOक नामके मुनिन थे । उन्होंन े बा>क नामके मंत्रीको वादम ें ीत शि>या, तब मंत्रीन े क्रोध करके एक भाँOको मुनिनका रूप कराकर रा ाकी रानी सुव्रताके साथ क्रीOा़ करते हुए रा ाको दिदkा दिदया और कहा निक देkो ! रा ाके ऐसी भशिक्त है निक ो अपनी -त्री भी दिदगम्बर को क्रीOा़ करनेके शि>ये दे दी है । तब रा ाने दिदगम्बरों पर क्रोध करके पाँचसौ मुनिनयोंको घानीमें निप>वाया । वे मुनिन उपसग% सहकर परमसमामिधमें शिसजिद्धको प्राप्त हुए ।

निफर उस नगरमें बाहु नामके एक मुनिन आये । उनको >ोगोंने मना निकया निक यहाँका रा ा दुष्ट है इसशि>ये आप नगरमें प्रवेश मत करो । पनिह>े पाँचसौ मुनिनयोंको घानीमें पे> दिदया है, वह आपका भी वही हा> करेगा । तब >ोगोंके वचनोंसे बाहु मुनिनको क्रोध उत्पन्न हुआ, अशुभ तै ससमुद्घातसे रा ाको मंत्री सनिहत और सब नगर को भ-म कर दिदया । रा ा और मंत्री सातव ें नरक रौरव नामक निब>में निगरे, वह बाहु मुनिन भी मरकर रौरव निब>म ें निगर े । इसप्रकार द्रव्यलि>ंगमें भावके दोषसे उपद्रव होते हैं, इसशि>ये भावलि>ंगका प्रधान उपदेश है ।।46।।

आगे इस ही अथ%पर दीपायन मुनिनका उदाहरण कहते हैं :—अवरो विव दव्वसवणो दंसणवरणाणचरणपब्भट्ठो ।दीवार्यणो चिA णामो अणंतसंसारिरओ जाओ ।।50।।अपरः अविप द्रव्यश्रमणः दश�नज्ञानचरणप्रभ्रष्टः ।दीपार्यन इवित नाम अनन्तसांसारिरकः जातः ।।50।।

वळी ए रीते बीजा दरवसाधु द्वीपार्यन नामनावरज्ञानदश�नचरणभ्रष्ट, अनंतसंसारी र्थर्या. 50.

अथ% :—आचाय% कहते हैं निक ैसे पनिह>े बाहु मुनिन कहा वैसे ही और भी दीपायन नामका द्रव्यश्रमण सम्यग्दश%न-ज्ञान-चारिरत्रसे भ्रष्ट होकर अनन्तसंसारी हुआ है ।

भावाथ% :—पनिह> े की तरह इसकी कथा संके्षपस े इसप्रकार है—नौंव ें ब>भद्रने श्रीनेमिमनाथ तीथ�करसे पूछा निक हे -वामिमन् ! यह द्वारकापुरी समुद्रमें है इसकी ण्डिस्थनित निकतने समय तक है ? तब भगवान ने कहा निक रोनिहणी का भाई दीपायन तेरा मामा बारह वष% पीछे मद्यके निनमिमत्तस े क्रोध करके इस पुरीको दग्ध करेगा । इसप्रकार भगवानके वचन सुन

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निनश्चयकर दीपायन दीक्षा >ेकर पूव%देशमें च>ा गया । बारह वष% व्यतीत करनेके शि>ये तप करना शुरू निकया और ब>भद्र नारायणने द्वारिरकामें मद्य-निनषेधकी घोषणा करा दी । मद्यके बरतन तथा उसकी सामग्री मद्य बनानेवा>ोंने बाहर पव%तादिदमें फें क दी । तब बरतनोंकी मदिदरा तथा मद्यकी सामग्री >के गत�में फै> गई ।

निफर बारह वष% बीत े ानकर दीपायन द्वारिरका आकर नगरके बाहर आतापनयोग धारणकर ण्डिस्थत हुए । भगवानके वचनकी प्रतीनित न रkी । पीछे शंभवकुमारादिद क्रीOा़ करते हुए प्यासे होकर कंुड़ोंमें > ानकर पी गये । उस मद्यके निनमिमत्तसे कुमार उन्मत्त हो गये । वहाँ दीपायन मुनिनको kड़ा देkकर कहने >गे—यह द्वारिरकाको भ-म करनेवा>ा दीपायन है; इसप्रकार कहकर उसको पाषाणादिदकसे मारने >गे । तब दीपायन भमिमपर निगर पड़ा, उसको क्रोध उत्पन्न हो गया, उसके निनमिमत्तसे द्वारिरका >कर भ-म हो गई । इसप्रकार दीपायन भावशुजिद्धके निबना अनन्तसंसारी हुआ ।।50।।

आगे भावशुजिद्धसनिहत मुनिन हुए उन्होंने शिसजिद्ध पाई, उसका उदाहरण कहते हैं :—भावसमणो र्य धीरो जुवईजणवेदिढओ विवसुद्धमई ।णामेण चिसवकुमारो परीAसंसारिरओ जादो ।।51।।भावश्रमणश्च धीरः र्युववितजनवेविष्टतः विवशुद्धमवितः ।नाम्ना शिशवकुमारः परिरत्र्य}सांसारिरकः जातः ।।51।।

बहुर्युववितजनवेविष्टत छतां पण धीर शुद्धमवित अहा !ए भावसाधु शिशवकुमार परीतसंसारी र्थर्या. 51.

अथ% :—शिशवकुमार नामक भावश्रमण -त्री नोंसे वेमिष्टत होते हुए भी निवशुद्धबुजिद्धका धारक धीर संसारको त्यागनेवा>ा हुआ ।

भावाथ% :—शिशवकुमारने भावकी शुद्धतासे ब्रह्म-वग%में निवद्युन्मा>ी देव होकर वहाँसे चय ंबू-वामी केव>ी होकर मोक्ष प्राप्त निकया । उसकी कथा इसप्रकार है :—

इस म्बूद्वीपके पूव% निवदेहम ें पुष्क>ावती देशके वीतशोकपुरम ें महापद्म रा ा बनमा>ा रानीके शिशवकुमार नामक पुत्र हुआ । वह एक दिदन मिमत्र सनिहत बनक्रीड़ा करके नगरमें आ रहा था । उसने माग%में >ोगोंको पू ाकी सामग्री >े ाते हुए देkा । तब मिमत्रको पूछा—ये कहाँ ा रहे हैं ? मिमत्रने कहा, ये सागरदत्त नामक ऋजिद्धधारी मुनिनको पू नेके शि>ये बनमें ा रहे हैं । तब शिशवकुमारने मुनिनके पास ाकर अपना पूव%भव सुन संसारसे निवरक्त हो दीक्षा >े >ी और दृढ़कर नामक श्रावकके घर प्रासुक आहार शि>या । उसके बाद स्त्रि-त्रयोंके निनकट अशिसधारव्रत परम ब्रह्मचय% पा>ते हुए बारह वष% तक तप कर अन्तमें संन्यासमरण

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करके ब्रह्मकल्पम ें निवद्युन्मा>ी देव हुआ । वहाँस े चयकर म्बूकुमार हुआ सो दीक्षा >े केव>ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गया । इसप्रकार शिशवकुमार भावमुनिनने मोक्ष प्राप्त निकया । इसकी निब-तार सनिहत कथा म्बूचरिरत्रमें हैं, वहाँसे ानिनये । इसप्रकार भावलि>ंग प्रधान है ।।51।।

आगे शा-त्र भी पढे़ और सम्यग्दश%नादिदरूप भाव निवशुद्ध न हो तो शिसजिद्धको प्राप्त नहीं कर सकता, उसका उदाहरण अभव्यसेनका कहते हैं :—

केवचिलजिजणपण्णAं* एर्यादसअंग सर्यलसुर्यणाणं ।पदिढओ अभव्वसेणो ण भावसवणAणं पAो ।।52।।

*—मुदिद्रत सं-कृत सटीक प्रनितमें यह गाथा इस प्रकार है :–अंगाइं दस य दुण्डिhण य चउदसपुव्वाइं सय>सुयणाणं ।पदिढओ अभव्वसेणो ण भावसवणत्तणं पत्तो ।।52।।अंगानिन दश च दे्व च चतुद%शपूवा%भिण सक>श्रुतज्ञानम् ।पदिठतश्च अभव्यसेनः न भावश्रमणत्वं प्राप्तः ।।52।।

केवचिलजिजनप्रज्ञ=त ंएकादशांगं सकलश्रुतज्ञानम् ।पदिठतः अभव्यसेनः न भावश्रमणत्वं प्रा=तः ।।52।।

जिजनवरकचिर्थत एकादशांगमर्यी सकल श्रुतज्ञानने,भणवा छतांर्य अभव्यसेन न प्रा=त भावमुविनत्वने. 52.

अथ% :—अभव्यसेन नामके द्रव्यलि>ंगी मुनिनने केव>ी भगवानसे उपदिदष्ट ग्यारह अंग पढे़ और ग्यारह अंगको पूण% श्रुतज्ञान भी कहते हैं, क्योंनिक इतने पढे़ हुएको अथ%अपेक्षा पूण% श्रुतज्ञान भी हो ाता है । अभव्यसेन इतना पढ़ा, तो भी भावश्रमणपनेको प्राप्त न हुआ ।

भावाथ% :—यहाँ ऐसा आशय है निक कोई ानेगा बाह्यनिक्रया मात्रसे तो शिसजिद्ध नहीं है और शा-त्रके पढ़नेसे तो शिसजिद्ध है तो इसप्रकार ानना भी सत्य नहीं है, क्योंनिक शा-त्र पढ़ने मात्रसे भी शिसजिद्ध नहीं है—अभव्यसेन द्रव्यमुनिन भी हुआ और ग्यारह अंग भी पढ़े तो भी जि नवचनकी प्रतीनित न हुई, इसशि>य े भावलि>ंग नहीं पाया । अभव्यसेनकी कथा पुराणोमें प्रशिसद्ध है, वहाँसे ानिनये ।।52।।

आगे शा-त्र पढ़े निबना शिशवभूनित मुनिनन े तुषमाषको घोkत े ही भावकी निवशुजिद्धको पाकर मोक्ष प्राप्त निकया । उसका उदाहरण कहते हैं :—

तुसमासं घोसंतो भावविवसुद्धो महाणुभावो र्य ।णामेव र्य चिसवभूई केवलीणाणी फु)ं जाओ ।।53।।

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तुषमासं घोषर्यन भावविवशुद्धः महानुभावश्च ।नाम्ना च शिशवभूवितः केवलज्ञानी सु्फटं जातः ।।53।।

शिशवभूवितनामक भावशुद्ध महानुभाव मुविनवरा,तुषमाष पदने गोखता पाम्र्या प्रगट सव�ज्ञता. 53.

अथ% :—आचाय% कहते हैं निक शिशवभूनित मुनिनने शा-त्र नहीं पढे़ थे, परन्तु तुष माष ऐसे शब्दको रटते हुए भावोंकी निवशुद्धतासे महानुभाव होकर केव>ज्ञान पाया, यह प्रकट है ।

भावाथ% :—कोई ानेगा निक शा-त्र पढ़नेसे ही शिसजिद्ध है तो इसप्रकार भी नहीं है । शिशवभूनित मुनिनने तुष माष ऐसे शब्दमात्र रटनेसे ही भावोंकी निवशुद्धतासे केव>ज्ञान पाया । इसकी कथा इसप्रकार है—कोई शिशवभूनित नामक मुनिन था । उसने गुरुके पास शा-त्र पढे़ परन्तु धारणा नहीं हुई । तब गुरुने यह शब्द पढ़ाया निक मा रुष मा तुष सो इस शब्दको घोkने >गा । इसका अथ% यह है निक रोष मत करे, तोष मत करे अथा%त् रागदे्वष मत करे, इससे सव% शिसद्ध है ।

निफर यह भी शुद्ध याद न रहा तब तुषमाष ऐसा पाठ घोkने >गा, दोनों पदोंके रुकार और –*तुकार भू> गये और तुष मास इसप्रकार याद रह गया । उसको घोkते हुए निवचारने >गे । तब कोई एक -त्री उड़दकी दा> धो रही थी, उसको निकसीने पूछा तू क्या कर रही है ? उसने कहा—तुष और माष भिभन्न भिभन्न कर रही हूं । तब यह सुनकर मुनिनने तुष माष शब्दका भावाथ% यह ाना निक यह शरीर तो तुष है और यह आत्मा माष है, दोनों भिभन्न भिभन्न हैं । इसप्रकार भाव ानकर आत्माका अनुभव करन े >गा । शिचन्मात्र शुद्ध आत्माको ानकर उसमें >ीन हुआ, तब घानित कम%का नाश कर केव>ज्ञान प्राप्त निकया । इसप्रकार भावोंकी निवशुद्धतासे शिसजिद्ध हुई ानकर भाव शुद्ध करना, यह उपदेश है ।।53।।

*.—माकार, ऐसा पाठ सुसंगत है ।आगे इसी अथ%को सामान्यरूपसे कहते हैं :—

भावेण होइ णग्गो बाविहरलिलंगेण हिकं च णग्गेण ।कम्मपर्य)ीण शिणर्यरं णासइ भावेण दव्वेण ।।54।।भावेन भववित नग्नः बविहर्लिंलंगेन हिकं च नग्नेन ।कम�प्रकृवितना ंविनकरं नाशर्यवित भावेन द्रवे्यण ।।54।।

नग्नत्व तो छे भावर्थी; शंु नग्न बाविहर-लिलंगर्थी ?रे ! नाश कम�समूह केरो होर्य भावर्थी द्रव्यर्थी. 54.

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अथ% :—भावसे नग्न होता है, बाह्य नग्नलि>ंगसे क्या काय% होता ह ै ? अथा%त ् नहीं होता है, क्योंनिक भावसनिहत द्रव्यलि>ंगसे कम%प्रकृनितके समूहका नाश होता है ।

भावाथ% :—आत्माके कम%प्रकृनितके नाशसे निन %रा तथा मोक्ष होना काय% है । यह काय% द्रव्यलि>ंगसे नहीं होता । भावसनिहत द्रव्यलि>ंग होनेपर कम%की निन %रा नामक काय% होता है । केव> द्रव्यलि>ंगसे तो नहीं होता है, इसशि>ए भावसनिहत द्रव्यलि>ंग धारण करनेका यह उपदेश है ।।54।।

आगे इसी अथ%को दृढ़ करते हैं :—णग्गAणं अकज्जं भावणरविहर्यं जिजणेहिहं पण्णAं ।इर्य जाऊण र्य शिणच्चं भाविवज्जविह अ=परं्य धीर ।।55।।नग्नत्वं अकार्यm भावरविहतं जिजनैः प्रज्ञ=तम् ।इवित ज्ञात्वा विनत्र्यं भावर्येः आत्मानं धीर ! ।।55।।

नग्नत्व भावविवहीन भाख्रंु्य अकार्य� देव जिजनेश्वरे,—इम जाणीने हे धीर ! विनत्रे्य भाव तंु विनज आत्मने. 55.

अथ% :—भावरनिहत नग्नत्व अकाय% है, कुछ काय%कारी नहीं है । ऐसा जि न भगवानने कहा है । इसप्रकार ानकर हे धीर ! धैय%वान मुने ! निनरन्तर निनत्य आत्माकी ही भावना कर ।

भावाथ% :—आत्माकी भावना निबना केव> नग्नत्व कुछ काय% करनेवा>ा नहीं है, इसशि>य े शिचदानन्द-वरूप आत्माकी ही भावना निनरन्तर करना, आत्माकी भावना सनिहत नग्नत्व सफ> होता है ।।55।।

आगे शिशष्य पूछता है निक भावलि>ंगको प्रधान कर निनरूपण निकया वह भावलि>ंग कैसा है ? इसका समाधान करनेके शि>ये भावलि>ंगका निनरूपण करते हैं :—

देहादिदसंगरविहओ माणकसाएहिहं सर्यलपरिरचAो ।अ=पा अ=पप्तिम्म रओ स भावलिलंगी हवे साहू ।।56।।देहादिदसंगरविहतः मानकषार्यैः सकलपरिरत्र्य}ः ।आत्मा आत्मविन रतः स भावलिलंगी भवेत् साधु ।।56।।

देहादिदसंगविवहीन छे, वज्र्या� सकल मानादिद छे,आत्मा विवषे रत आत्म छे, ते भावलिलंगी श्रमण छे. 56.

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अथ% :—भावलि>ंगी साधु ऐसा होता है—देहादिदक परिरग्रहोंसे रनिहत होता है तथा मान कषायसे रनिहत होता है और आत्मामें >ीन होता है, वही आत्मा भावलि>ंगी है ।

भावाथ% :—आत्माके -वाभानिवक परिरणामको भाव कहते हैं उस-रूप लि>ंग (शिचह्न), >क्षण तथा रूप हो वह भावलि>ंग है । आत्मा अमूर्वितंक चेतनारूप है, उसका परिरणाम दश%न ज्ञान ह ै । उसमें कम%के निनमिमत्तस े (–पराश्रय करनेसे) बाह्य तो शरीरादिदक मूर्वितंक पदाथ%का संबंध है और अंतरंग मिमथ्यात्व और रागदे्वष आदिद कषायोंका भाव है, इसशि>ये कहते हैं निक :—

बाह्य तो देहादिदक परिरग्रहस े रनिहत और अंतरंग रागादिदक परिरणामम ें अहंकाररूप मानकषाय, परभावोंम ें अपनापन मानना इस भावस े रनिहत हो और अपन े दश%नज्ञानरूप चेतनाभावमें >ीन हो वह भावलि>ंग है, जि सको इसप्रकारके भाव हों वह भावलि>ंगी साधु है ।।56।।

आगे इसी अथ%को स्पष्ट कर कहते हैं :—ममलिAं परिरवज्जामिम शिणम्ममचिAमुवदिट्ठदो ।आलंबणं च मे आदा अवसेसाइं बोसरे ।।57।।ममत्वं परिरवजा�मिम विनम�मत्वमुपस्थिस्थतः ।आलंबनं च मे आत्मा अवशेषाविन व्युत्सृजामिम ।।57।।

परिरवजुm छंु हंु ममत्व, विनम�म भावमां स्थिस्थत हंु रहंु;अवलंबुं छंु मुज आत्मने, अवशेष सव� हंु परिरहरंु. 57.

अथ% :—भावलि>ंगी मुनिनके इसप्रकारके भाव होत े हैं—म ैं परद्रव्य और परभावोंसे ममत्व (अपना मानना) को छोड़ता हूँ और मेरा निन भाव ममत्वरनिहत है उसको अंगीकार कर ण्डिस्थत हूँ । अब मुझे आत्माका ही अव>ंबन है, अन्य सभी को छोड़ता हूँ ।

भावाथ% :—सब परद्रव्योंका आ>म्बन छोड़कर अपने आत्म-वरूपमें ण्डिस्थत हो ऐसा भावलि>ंग है ।।57।।

आगे कहत े ह ैं निक ज्ञान, दश%न, संयम, त्याग संवर और योग य े भाव भावलि>ंगी मुनिनके होते हैं, यें अनेक हैं तो भी आत्मा ही है, इसशि>ये इनसे भी अभेदका अनुभव करता है :—

आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरिरAे र्य ।आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे ।।58।।

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आत्मा खलु मम ज्ञान ेआत्मा मे दश�न चरिरते्र च ।आत्मा प्रत्र्याख्र्यान ेआत्मा मे संवरे र्योगे ।।58।।

मुज ज्ञानमां आत्मा खरे, दश�न-चरिरतमां आतमा,पचखाणमां आत्मा ज, संवर-र्योगमां पण आतमा. 58.

अथ% :—भावलि>ंगी मुनिन निवचारते हैं निक—मेरे ज्ञानभाव प्रकट है, उसमें आत्माकी ही भावना है, ज्ञान कोई भिभन्न व-तु नहीं है, ज्ञान है वह आत्मा ही है, इसप्रकार ही दश%नमें भी आत्मा ही है । ज्ञानमें ण्डिस्थर रहना चारिरत्र है, इसमें भी आत्मा ही ह ै । प्रत्याख्यान (अथा%त् शुद्धनिनश्चयनयके निवषयभूत -वद्रव्यके आ>ंबनके ब>से) आगामी परद्रव्यका सम्बन्ध छोड़ना है, इस भावमें भी आत्मा ही है, संवर ज्ञानरूप रहना और परद्रव्यके भावरूप न परिरणमना है, इस भावमें भी मेरा आत्मा ही है, और योग का अथ% एकाग्रलिचंतारूप समामिध-ध्यान है, इस भावमें भी मेरा आत्मा ही है ।

भावाथ% :—ज्ञानादिदक कुछ भिभन्न पदाथ% तो ह ैं नहीं, आत्माके ही भाव हैं, संज्ञा, संख्या, >क्षण और प्रयो नके भेदसे भिभन्न कहते हैं, वहां अभेददृमिष्टसे देkें तो ये सब भाव आत्मा ही ह ैं इसशि>ये भावलि>ंगी मुनिनके अभेद अनुभवमें निवकल्प नहीं है, अतः निनर्विवंकल्प अनुभवसे शिसजिद्ध है यह ानकर इसप्रकार करता है ।।58।।

आगे इसी अथ%को दृढ़ करते हुये कहते हैं :—(अनुषु्टप् श्लोक)

एगो मे सस्सदो अ=पा णाणदंसणलक्खणो ।सेसा मे बाविहरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ।।59।।एकः मे शाश्वतः आत्मा ज्ञानदश�न लक्षणः ।शेषाः मे बाह्याः भावाः सवt संर्योगलक्षणाः ।।59।।

मारो सुशाश्वत एक दश�नज्ञानलक्षण जीव छे;बाकी बधा संर्योगलक्षण भाव मुजर्थी बाह्य छे. 59.

अथ% :—भावलि>ंगी मुनिन निवचारता है निक—ज्ञान, दश%न >क्षणरूप और शाश्वत अथा%त् निनत्य ऐसा आत्मा है वही एक मेरा है । शेष भाव हैं वे मुझसे बाह्य हैं, वे सब ही संयोग-वरूप हैं, परद्रव्य हैं ।

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भावाथ% :—ज्ञानदश%न-वरूप निनत्य एक आत्मा है वह तो मेरा रूप है, एक -वरूप है और अन्य परद्रव्य हैं वे मुझसे बाह्य हैं, सब संयोग-वरूप हैं, भिभन्न हैं । यह भावना भावलि>ंगी मुनिनके है ।।59।।

आगे कहते हैं निक ो मोक्ष चाहे वह इसप्रकार आत्माकी भावना करे :—भावेह भावसुदं्ध अ=पा सुविवसुद्धशिणम्मलं चेव ।लहु चउगइ चइऊणं जइ इच्छह सासर्यं सुक्खं ।।60।।भावर्य भावशुदं्ध आत्मानं सुविवशुद्धविनम�लं चैव ।लघु चतगु�वित च्र्युत्वा र्यदिद इच्छचिस शाश्वतं सौख्र्यम् ।।60।।

तंु शुद्ध भावे भाव रे ! सुविवशुद्ध विनम�ळ आत्मने,जो शीघ्र चउगवितमु} र्थई इचे्छ सुशाश्वत सौख्र्यने. 60.

अथ% :—हे मुनिन नो ! चदिद चार गनितरूप संसारसे छूटकर शीघ्र शाश्वत सुkरूप मोक्ष तुम चाहो तो भावसे शुद्ध ैसे हो वैसे अनितशय निवशुद्ध निनम%> आत्माको भावो ।

भावाथ% :—यदिद संसारस े निनवृत्त होकर मोक्ष चाहो तो द्रव्यकम%, भावकम% और नोकम%से रनिहत शुद्ध आत्माको भावो, इसप्रकार उपदेश है ।।60।।

आगे कहते हैं निक ो आत्माको भावे वह इसके -वभावकी ानकर भावे, वही मोक्ष पाता है :—

जो जीवो भावंतो जीवसहावं सुभावसंजुAो ।सो जरमरणविवणासं कुणइ फु)ं लहइ शिणव्वाणं ।।61।।र्यः जीवः भावर्यन ्जीवस्वभावं सुभावसंर्यु}ः ।सः जरामरणविवनाशं करोवित सु्फटं लभते विनवा�णम् ।।61।।

जे जीव जीवस्भावने भावे, सुभावे परिरणमे,जर-मरणनो करी नाश ते विनश्चर्य लहे विनवा�णने. 61.

अथ% :— ो भव्यपुरुष ीवको भाता हुआ, भ> े भावस े संयुक्त हुआ ीवके -वभावको ानकर भावे, वह रा-मरणका निवनाश कर प्रगट निनवा%णको प्राप्त करता है ।

भावाथ% :— ीव ऐसा नाम तो >ोकमें प्रशिसद्ध है, परन्तु इसका -वभाव कैसा ह ै ? इसप्रकार >ोगोंके यथाथ% ज्ञान नहीं है और मतांतरके दोषसे इसका -वरूप निवपय%य हो रहा है

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। इसशि>ये इसका यथाथ%थ -वरूप ानकर भावना करते ह ैं व े संसारसे निनवृ%त्त होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं ।।61।।

आगे ीवका -वरूप सव%ज्ञदेवने कहा है वह कहते हैं :—जीवो जिजणपण्णAो णाणसहाओ र्य चेर्यणासविहओ ।सो जीवो णार्यव्वो कम्मक्खर्यकरणशिणप्तिम्मAो ।।62।।जीवः जिजनप्रज्ञप्ति=तः ज्ञानस्वभावः च चेतनासविहतः ।सः जीवः ज्ञातव्यः कम�क्षर्यकरणविनमिमAः ।।62।।

छे जीव ज्ञानस्वभाव ने चैतन्र्यरु्यत—भाख्रंु्य जिजने,ए जीव छे ज्ञातव्य, कम�विवनाशकरणविनमिमA जे. 62.

अथ% :—जि न सव%ज्ञदेवन े ीवका -वरूप इसप्रकार कहा है— ीव ह ै वह चेतनासनिहत ह ै और ज्ञान-वभाव है, इसप्रकार ीवकी भावना करना, ो कम%के क्षयके निनमिमत्त ानना चानिहये ।

भावाथ% :— ीवका चेतनासनिहत निवशेषण करनेसे तो चावा%क ीवको चेतनासनिहत नहीं मानता है उसका निनकारण है । ज्ञान-वभाव निवशेषणसे साँख्यमती ज्ञानको प्रधान धम% मानता है, ीवको उदासीन निनत्य चेतनारूप मानता है उसका निनराकरण है और नैयामियकमती गुण-गुणीका भेद मानकर ज्ञानको सदा भिभन्न मानता है उसका निनराकरण है । ऐसे ीवके -वरूपको भाना कम%के क्षयका निनमिमत्त होता है, अन्य प्रकार मिमथ्याभाव है ।।62।।

आगे कहते हैं निक ो पुरुष ीवका अस्ति-तत्व मानते हैं वे *शिसद्ध होते हैं :—* शिसद्ध-मुक्त-परमात्मदशाको प्राप्त ।

जेलिसं जीवसहावो णत्थिy अभावो र्य सव्वहा तy ।ते होंवित शिभण्णदेहा चिसद्धा वचिचगोर्यरमदीदा ।।63।।र्येषा ंजीवस्वभावः नात्थिस्त अभावः च सव�र्था तत्र ।त ेभवप्तिन्त शिभन्नदेहाः चिसद्धाः वचोगोचरातीताः ।।63।।

सत् होर्य जीवस्वभाव ने न असत् सरवर्था जेमने,ते देहविवरविहत वचनविवषर्यातीत चिसद्धपणुं लहे. 63.

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अथ% :—जि न भव्य ीवोंके ीव नामक पदाथ% सद्भावरूप है और सव%था अभावरूप नहीं है, वे भव्य ीव देहसे भिभन्न तथा वचनगोचरातीत शिसद्ध होते हैं ।

भावाथ% :— ीव द्रव्यपया%य-वरूप है, कथंशिचत ् अस्ति-त-वरूप है, कथंशिचत् नास्ति-त-वरूप है । पया%य अनिनत्य है, इस ीवके कम%के निनमिमत्तसे मनुष्य, नितय�च, देव और नारक पया%य होती हैं, इसका कदाशिचत् अभाव देkकर ीवका सव%था अभाव मानते ह ैं । उनको सम्बोधन करनेके शि>ये ऐसा कहा है निक ीवका द्रव्यदृमिष्टसे निनत्य -वभाव है । पया%यका अभाव होनेपर सव%था अभाव नहीं मानता है वह देहसे भिभन्न होकर शिसद्ध परमात्मा होता है, वे शिसद्ध वचनगोचर नहीं ह ै । ो देहको नष्ट होत े देkकर ीवका सव%था नाश मानत े ह ैं वे मिमथ्यादृमिष्ट हैं, वे शिसद्ध-परमात्मा कैसे हो सकते हैं ? अथा%त् नहीं होते हैं ।।63।।

आगे कहते हैं निक ो ीवका -वरूप वचनके अगोचर है और अनुभवगम्य है वह इसप्रकार है :—

अरसमरूवमगंधं अव्वAं चेदणागुणमस�ं ।जाण अलिलंगग्गहणं जीवमशिणदि�दिट्ठसंठाणं ।।64।।अरसमरूपमगंधं अव्य}ं चेतनागुणं अशब्दम् ।जानीविह अलिलंगग्रहणं जीवं अविनर्दिदषं्टसंस्थानम् ।।64।।

जीव चेतनागुण, अरसरूप, अगंधशब्द, अव्य} छे,वळी लिलंगग्रहणविवहीन छे, संस्थान भाख्र्युं न तेहने. 64.

अथ% :—हे भव्य ! तू ीवका -वरूप इसप्रकार ान—कैसा है ? अरस अथा%त् पांच प्रकारके kटे्ट, मीठे, कड्डवे, कषायके और kारे रससे रनिहत है । का>ा, पी>ा, >ा>, सफेद और हरा इसप्रकार अरूप अथा%त् पाँच प्रकारके रूपसे रनिहत है । दो प्रकारकी गंधसे रनिहत है । अव्यक्त अथा%त ् इजिन्द्रयोंके गोचर-व्यक्त नहीं ह ै । चेतना गुणवा>ा ह ै । अशब्द अथा%त् शब्दरनिहत है । अलि>ंगग्रहण अथा%त ् जि सका कोई शिचह्न इजिन्द्रयद्वारा ग्रहणमें नहीं आता है । अनिनर्दिदंष्ट संस्थान अथा%त ् चौकोर, गो> आदिद कुछ आकार उसका कहा नहीं ाता है, इसप्रकार ीव ानो ।

भावाथ% :—रस, रूप, गंध, शब्द ये तो पुद्ग>के गुण हैं, इनका निनषेधरूप ीव कहा; अव्यक्त अलि>ंगग्रहण अनिनर्दिदंष्टसंस्थान कहा, इसप्रकार य े भी पुद्ग>के -वभावकी अपेक्षासे निनषेधरूप ही ीव कहा और चेतना गुण कहा तो यह ीवका निवमिधरूप कहा । निनषेध अपेक्षा तो वचनके अगोचर ानना और निवमिध अपेक्षा -वसंवेदनगोचर ानना । इसप्रकार ीवका -वरूप ानकर अनुभवगोचर करना । यह गाथा समयसारम ें 46, प्रवचनसारम ें 172,

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निनयमसारमें 46, पंचास्ति-तकायमें 127, धव>ा टीका पु0 3 पृ0 2, >घु द्रव्यसंग्रह गाथा 5 आदिदमें भी ह ै । इसका व्याख्यान टीकाकारने निवशेष कहा है वह वहाँसे ानना चानिहये ।।64।।

आगे ीवका -वभाव ज्ञान-वरूप भावना कहा, वह ज्ञान निकतने प्रकारका भाना यह कहते हैं :—

भावविह पंचपर्यारं णाणं अण्णाणणासणं चिसग्घं ।भावणभाविवर्यसविहओ दिदवचिसवसुहभार्यणो* होइ ।।65।।

*. भायेण पाठान्तर भायणोभावर्य पंचप्रकारं ज्ञान ंअज्ञाननाशनं शीघ्रम् ।भावनाभाविवतसविहतः दिदवशिशवसुखभाजन भववित ।।65।।

तंु भाव झट अज्ञाननाशन ज्ञान पंचप्रकार रे !,ए भावनापरिरणत स्वरग—शिशवसौख्र्यनुं भाजन बने. 65.

अथ% :—हे भव्य न ! तू यह ज्ञान पाँच पकारसे भा, कैसा है यह ज्ञान ? अज्ञानका नाश करनेवा>ा है, कैसा होकर भा ? भावनासे भानिवत ो भाव उस सनिहत भा, शीघ्र भा, इससे तू दिदब (-वग%) और शिशव (मोक्ष)का पात्र होगा ।

भावाथ% :—यद्यनिप ज्ञान ाननेके -वभावसे एक प्रकारका है तो भी कम%के क्षयोपशम और क्षयकी अपेक्षा पाँच प्रकारका ह ै । उसम ें मिमथ्यात्वभावकी अपेक्षास े मनित, श्रुत और अवमिध ये तीन मिमथ्याज्ञान भी कह>ाते हैं, इसशि>ये मिमथ्याज्ञानका अभाव करनेके शि>ए मनित, श्रुत, अवमिध, मनःपय%य और केव>ज्ञान-वरूप पाँच प्रकारका सम्यग्ज्ञान ानकर उनको भाना । परमाथ% निवचारसे ज्ञान एकही प्रकारका है । यह ज्ञानकी भावना -वग%—मोक्षकी दाता है ।।65।।

आगे कहते हैं निक पढ़ना, सुनना भी भाव निबना कुछ नहीं है :—पदिढएण विव हिकं कीरइ हिकं वा सुशिणएण भावरविहएण ।भावो कारणभूदो सार्यारणर्यारभूदाणं ।।66।।पदिठतेनाविप हिकं विक्रर्यत ेहिकं वा श्रुतेन भावरविहतेन ।भावः कारणभूतः सागारनगारभूतानाम् ।।66।।

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रे ! पठन तेम ज श्रवण भावविवहीनर्थी शुं सधार्य छे,सागार-अणगारत्वना कारणस्वरूपे भाव छे. 66.

अथ% :—भावरनिहत पढ़ने—सुननेसे क्या होता ह ै ? अथा%त् कुछ भी काय%कारी नहीं है, इसशि>ये श्रावकत्व तथा मुनिनत्व इनका कारणभूत भाव ही है ।

भावाथ% :—मोक्षमाग%में एकदेश, सव%देश व्रतोंकी प्रवृभित्तरूप मुनिन-श्रावकपना है, उन दोनोंका कारणभूत निनश्चय सम्यग्दश%नादिदक भाव ह ैं । भाव निबना व्रतनिक्रयाकी कथनी कुछ काय%कारी नहीं है, इसरशि>ये ऐसा उपदेश है निक भाव निबना पढ़ने-सुनने आदिदसे क्या होता है ? केव> kेदमात्र है, इसशि>ये भावसनिहत ो करो वह सफ> है । यहाँ ऐसा आशय है निक कोइ ान े निक—पढ़ना-सुनना ही ज्ञान ह ै तो इसप्रकार नहीं है, पढ़कर—सुनकर आपको ज्ञान-वरूप ानकर अनुभव करे तब भाव ाना ाता है, इसशि>ये बारबार भावनासे भाव >गाने पर ही शिसजिद्ध है ।।66।।

आगे कहते हैं निक यदिद बाह्य नग्नपने से ही शिसजिद्ध हो तो नग्न तो सब ही होते हैं—दव्वेण सर्यल णग्गा णारर्यवितरिरर्या र्य सर्यलसंघार्या ।पारिरणामेण असुद्धा ण भावसवणAणं पAा ।।67।।द्रवे्यण सकला नग्नाः नारकवितर्यmचश्च सकलसंघाताः ।परिरणामेन अशुद्धाः भावश्रमणत्वं प्रा=तः ।।67।।

छे नग्न तो वितर्यmच—नारक सव� जीवो द्रव्यर्थी;परिरणाम छे नविह शुद्ध ज्र्यां त्र्यां भावश्रमणपणुं नर्थी. 67.

अथ% :—द्रव्यसे बाह्यमें तो सब प्राणी नग्न होते हैं । नारकी ीव और नितय�च ीव तो निनरन्तर व-त्रादिदसे रनिहत नग्न ही रहते हैं । सक>संघात कहनेसे अन्य मनुष्य आदिद भी कारण पाकर नग्न होते हैं तो भी परिरणामोंसे अशुद्ध हैं, इसशि>ये भावश्रमणपनेको प्राप्त नहीं हुए ।

भावाथ% :—यदिद नग्न रहनेसे ही मुनिनलि>ंग हो तो नारकी नितय�च आदिद सब ीवसमूह नग्न रहते हैं वे सब ही मुनिन ठहरे, इसशि>ये मुनिनपना तो भाव शुद्ध होनेपर ही होता है । अशुद्ध भाव होनेपर द्रव्यसे नग्न भी हो तो भावमुनिनपना नहीं पाता है ।।67।।

आगे इसी अथ%को दृढ़ करनेके शि>ए केव> नग्नपनेकी निनष्फ>ता दिदkाते हैं :—णग्गो पावइ दुक्खं णग्गो संसारसार्यरे भमइ ।णग्गो ण लहइ बोहिहं जिजणभावणवस्थिज्जओ सुइरं ।।68।।

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नग्नः प्राप्नोवित दुःखं नग्नः संसारसागरे भ्रमवित ।नग्नः न लभते बोलिधं जिजनभावनावर्जिजंतः सुचिचरं ।।68।।

ते नग्न पामे दुःखने, ते नग्न चिचर भवमां भमे,ते नग्न बोचिध लहे नहीं, जिजनभावना नविह जेहने. 68.

अथ% :—नग्न सदा दुःk पाता है, नग्न सदा संसार-समुद्रमें भ्रमण करता है और नग्न बोमिध अथा%त् सम्यग्दश%न—ज्ञान—चारिरत्ररूप -वानुभवको नहीं पाता है, कैसा है वह नग्न— ो जि नभावनासे रनिहत है ।

भावाथ% :—जि नभावना ो सम्यग्दश%न—भावना उससे रनिहत ो ीव है वह नग्न भी रहे तो बोध ो सम्यग्दश%न—ज्ञान—चारिरत्र-वरूप मोक्षमाग%को नहीं पाता है । इसीशि>ये संसारसमुद्रमें भ्रमण करता हुआ संसारमें ही दुःkको पाता है तथा वत%मानमें भी ो पुरुष नग्न होता है वह दुःkहीको पाता है । सुk तो भावमुनिन नग्न हों वे ही पाते हैं ।।68।।

आगे इसी अथ%को दृढ़ करनेके शि>ये कहते हैं— ो द्रव्यनग्न होकर मुनिन कह>ावे उसका अपयश होता है :—

अर्यसाण भावर्येण र्य हिकं ते णग्गेम पावमचिलणेण ।पेसुण्णाहासमच्छरमार्याबहुलेण सवणेण ।।69।।अर्यशसां भाजनेन च हिकं त ेनग्नेन पापमचिलनेन ।पैशून्र्यमहासमत्सरमार्याबहुलेन श्रमणेन ।।69।

शंु साध्र्य तारे अर्यशभाजन पापरु्यत नग्नत्वर्थी,–बहु हास्र्य-मत्सर-विपशुनता-मार्याभर्या� श्रमणत्वर्थी. 69.

अथ% :—हे मुने ! तेरे ऐसे नग्नपनेसे तथा मुनिनपनेसे क्या साध्य है ? कैसा है—पैशून्य अथा%त ् दूसरेका दोष कहनेका -वभाव, हा-य अथा%त ् दूसरेकी हँसी करना, मत्सर अथा%त् अपने बराबरवा>ेसे ईष्या% रkकर दूसरेको नीचा करनेकी वृजिद्ध, माया अथा%त् कुदिट> परिरणाम, य े भाव उसम ें प्रचुरतास े पाय े ात े हैं, इसीशि>य े पापस े मशि>न ह ै और अयश अथा%त् अपकीर्वितंका भा न है ।

भावाथ% :—पैशून्य आदिद पापोंसे मशि>न इसप्रकार नग्न-वरूप मुनिनपनेसे क्या साध्य ह ैं ? उ>टा अपकीत%नका भा न होकर व्यवहारधम%की हँसी करानेवा>ा होता है, इसशि>ये भावलि>ंगी होना योग्य है ।।69।।

आगे इसप्रकार भावलि>ंगी होनेका उपदेश करते हैं :—

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पर्य)हिहं जिजणवरलिलंगं अस्थिब्भंतरभावदोसपरिरसुद्धो ।भावमलेण र्य जीवो बाविहरसंगप्तिम्म मर्यचिलर्यइ ।।70।।प्रकटर्य जिजनवरलिलंगं अभ्र्यन्तरभावदोषपरिरशुद्धः ।भावमलेन च जीवः बाह्यसंगे मचिलनर्यवित ।।70।।

र्थई शुद्ध आंतर-भावमलविवण, प्रगट कर जिजनलिलंगने;जीव भावमळर्थी मचिलन बाविहर-संगमां मचिलविनत बने. 70.

अथ% :—हे आत्मन् ! तू अभ्यन्तर भावदोषोंसे अत्यन्त शुद्ध ऐसा जि नवरलि>ंग अथा%त् बाह्य निनग्र%न्थ लि>ंग प्रगट कर, भावशुजिद्धके निबना द्रव्यलि>ंग निबगड़ ायेगा, क्योंनिक भावमशि>न ीव बाह्य परिरग्रहमें मशि>न होता है ।

भावाथ% :—यदिद भाव शुद्ध कर द्रव्यलि>ंग धारण करे तो भ्रष्ट न हो और भाव मशि>न हों तो बाह्य परिरग्रहकी संगनितसे द्रव्यलि>ंग भी निबगाडे़, इसशि>ये प्रधानरूपसे भावलि>ंगहीका उपदेश है, निवशुद्ध भावोंके निबना बाह्यभेष धारण करना योग्य नहीं है ।।70।।

आगे कहते हैं निक ो भावरनिहत नग्न मुनिन है वह हा-यका स्थान है :—

धम्मप्तिम्म शिण=पवासो दोसावासो र्य *उचु्छफुल्लसमो ।शिण=फलशिणग्गुणर्यारो ण)सवणो णग्गरूवेण ।।71।।

*. उचु्छ पाठान्तर इचु्छधमt विनप्रवासः दोषावासः च इक्षुपुष्पसमः ।विनष्फलविनगु�णकारः नटश्रमणः नग्नरूपेण ।।71।।

नग्नत्वधर पण धम�मां नविह वास, दोषावास छे,ते इक्षुफूलसमान विनष्फल—विनगु�णी, नटश्रमण छे. 71.

अथ% :—धम% अथा%त् अपना -वभाव तथा दस>क्षण-वरूपमें जि सका बास नहीं है वह ीव दोषोंका आवास है अथवा जि समें दोष रहते हैं वह इकु्षके फू>के समान है, जि सके न तो कुछ फ> ही >गते हैं और न उसमें गंधादिदक गुण ही पाये ाते हैं । इसशि>ये ऐसा मुनिन तो नग्नरूप करके नटश्रमण अथा%त् नाचनेवा>े भाँड़के -वांगके समान है ।

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भावाथ% :—जि सके धम%की वासना नहीं है उसमें क्रोधादिदक दोष ही रहते हैं । यदिद वह दिदगम्बर रूप धारण करे तो वह मुनिन इक्षुके फू>के समान निनगु%ण और निनष्फ> है, ऐसे मुनिनके मोक्षरूप फ> नहीं >गते हैं । सम्यग्ज्ञानादिदक गुण जि समें हीं हैं वह नग्न होने पर भाँड़ ैसा -वांग दीkता है । भाँड़ भी नाचे तब श्रृङ्गारादिदक करके नाचे तो शोभा पावे, नग्न होकर नाचे तब हा-यको पावे, वैसे ही केव> द्रव्यनग्न हा-यका स्थान है ।।71।।

आग े इसी अथ%के समथ%नरूप कहत े ह ैं निक—द्रव्यलि>ंगी बोमिध-समामिध ैसी जि नमाग%में कही है वैसी नहीं पाता है :—

जे रार्यसंगजुAा जिजणभावणरविहर्यदव्वशिणग्गंर्था ।ण लहंवित ते समाहिहं बोहिहं जिजणसासणे विवमले ।।72।।र्ये रागसंर्यु}ाः जिजनभावनारविहतद्रव्यविनग्रmर्थाः ।न लभंते त ेसमालिधं बोलिधं जिजनशासने विवमले ।।72।।

जे रागर्युत जिजनभावनाविवरविहत-दरवविनग्रmर्थ छे,पामे न बोचिध-समाचिधने ते विवमळ जिजनशासन विवषे. 72.

अथ% :— ो मुनिन राग अथा%त् अभ्यंतर परद्रव्यसे प्रीनित, वही हुआ संग अथा%त् परिरग्रह उससे युक्त हैं और जि नभावना अथा%त् शुद्ध-वरूपकी भावनासे रनिहत हैं वे द्रव्यनिनग्र�थ हैं तो भी निनम%> जि नशासनमें ो समामिध अथा%त् धम%-शुक्>ध्यान और बोमिध अथा%त् सम्यग्दश%न-ज्ञान-चारिरत्र-वरूप मोक्षमाग%को नहीं पाते हैं ।

भावाथ% :—द्रव्यलि>ंगी अभ्यन्तरका राग नहीं छोड़ता है, परमात्माका ध्यान नहीं करता है, तब कैसे मोक्षमाग% पावे तथा कैसे समामिधमरण पावे ।।72।।

आग े कहत े ह ैं निक पनिह> े मिमथ्यात्व आदिदक दोष छोड़कर भावस े नग्न हो, पीछे द्रव्यमुनिन बने यह माग% है :—

भावेण होइ णग्गो मिमच्छAाई र्य दोस चइऊणं ।पच्छा दव्वेण मुणी पर्य)दिद लिलंगं जिजणाणाए ।।73।।भावेन भववित नग्नः मिमथ्र्यात्वादीन् च दोषान् त्र्यक्त्वा ।पश्चात् द्रवे्यण मुविनः प्रकटर्यवित लिलंगं जिजनाज्ञर्या ।।73।।

मिमथ्र्यात्व-आदिदक दोष छो)ी नग्न भाव र्थकी बने,पछी द्रव्यर्थी मुविनलिलंग धारे जीव जिजन-आज्ञा व)े. 73.

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अथ% :—पनिह> े मिमथ्यात्व आदिद दोषोंको छोड़कर और भावस े अंतरंग नग्न हो, एकरूप शुद्धआत्माका श्रद्धान—ज्ञान—आचरण करे, पीछे मुनिन द्रव्यस े बाह्यलि>ंग जि न-आज्ञासे प्रकट करे, यह माग% है ।

भावाथ% :—भाव शुद्ध हुए निबना पनिह>े ही दिदगम्बररूप धारण कर >े तो पीछे भाव निबगड़ े तब भ्रष्ट हो ाय और भ्रष्ट होकर भी मुनिन कह>ाता रह े तो माग%की हँसी करावे, इसशि>ये जि न आज्ञा यही है निक भाव शुद्ध करके बाह्य मुनिनपना प्रगट करो ।।73।।

आगे कहत े ह ैं निक शुद्ध भाव ही -वग%—मोक्षका कारण है, मशि>नभाव संसारका कारण है :—

भावो विव दिदव्वचिसवसुक्खभार्यणो भाववस्थिज्जओ सवणो ।कम्ममलमचिलणचिचAो वितरिरर्यालर्यभार्यणो पावो ।।74।।

भावः अविप दिदव्यशिशवसौख्र्यभाजनं भाववर्जिजंतः श्रमणः ।कम�मलमचिलनचिचAः वितर्य�गालर्यभाजनं पापः ।।74।।

छे भाव दिदवशिशवसौख्र्यभाजन; भाववर्जिजंत श्रमण जे,पापी करममळमचिलनमन, वितर्यmचगवितनुं पात्र छे. 74.

अथ% :—भाव ही -वग%-मोक्षका कारण है, और भावरनिहत श्रमण पाप-वरूप है, नितय�चगनितका स्थान है तथा कम%म>से मशि>न शिचत्तवा>ा है ।

भावाथ% :—भावसे शुद्ध है वह तो -वग%—मोक्षका पात्र है और भावसे मशि>न है वह नितय�चगनितमें निनवास करता है ।।74।।

आगे निफर भावके फ>का माहात्म्य कहते हैं :—खर्यरामरमणुर्यकरंजचिलमालाहिहं च संरु्थर्या विवऊला ।चक्कहररार्यलच्छी लब्भइ बोही सुभावेण ।।75।।खचरामरमनुजकरांजचिलमालाशिभश्च संस्तुता विवपुला ।चक्रधरराजलक्ष्मीः लभ्र्यते बोचिधः सुभावेन ।।75।।

नर-अमर-विवद्याधर व)े संस्तुत करांजचिलपंचि}र्थी,चक्री-विवशाळविवभूवित बोचिध प्रा=त र्थार्य सुभावर्थी. 75.

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अथ% :—सुभाव अथा%त ् भ>े भावसे, मंदकषायरूप निवशुद्धभावसे, चक्रवतN आदिद रा ाओंकी निवपु> अथा%त् बड़ी >क्ष्मी पाता है । कैसी है—kचर (निवद्याधर), अमर (देव) और मनु (मनुष्य) इनकी अं ुशि>मा>ा (हाथोंकी अं ुशि>) की पंशिक्तसे सं-तुत (नम-कारपूव%क -तुनित करने योग्य) है और यह केव> >क्ष्मी ही नहीं पाता है, निकन्तु बोमिध (रत्नत्रयात्मक मोक्षमाग%) पाता है ।

भावाथ% :—निवशुद्ध भावोंका यह माहात्म्य है ।।75।।आगे भावोंके भेद कहते हैं :—

भावं वितविवहपर्यारं सुहासुहं सुद्धमेव णार्यव्व ं।असुहं च अट्टरउ�ं सुह धम्मं जिजणवरिरं देहिहं ।।76।।भावः वित्रविवधप्रकारः शुभो)शुभः शुद्ध एव ज्ञातव्यः ।अशुभश्च आA�रौदं्र शुभः धम्र्यm जिजनवरेन्दै्रः ।।76।।

शुभ, अशुभ तेम ज शुद्ध—त्रणविवध भाव जिजनप्रज्ञ=त छे;त्र्यां अशुभ आरत-रौद्र ने शुभ धम� छे—भाख्रंु्य जिजने. 76.

अथ% :—जि नवरदेवने भाव तीन प्रकारका कहा है—1 शुभ, 2 अशुभ और 3 शुद्ध । आत्त% और रौद्र ये अशुभ ध्यान हैं तथा धम%ध्यान शुभ है ।।76।।

सुदं्ध सुद्धसहावं अ=पा अ=पप्तिम्म तं च णार्यव्वं ।इदिद जिजणवरेहिहं भशिणर्यं जं सेरं्य तं समार्यरह ।।77।।शुद्धः शुद्धस्वभावः आत्मा आत्मविन सः च ज्ञातव्यः ।इवित जिजनवरैः भशिणत ंर्यः श्रेर्यान ्त ंसमाचर ।।77।।

आत्मा विवशुद्धस्वभाव आत्म महीं रहे ते शुद्ध छे;–आ जिजनवरे भाखेल छे; जे श्रेर्य, आचर तेहने. 77.

अथ% :—शुद्ध है वह अपना शुद्ध-वभाव अपनेहीमें है इसप्रकार जि नवरदेवने कहा है, वह ानकर इनमें ो कल्याणरूप हो उसको अंगीकार करो ।

भावाथ% :—भगवानने भाव तीन प्रकारके कहे हैं—1 शुभ, 2 अशुभ और 3 शुद्ध । अशुभ तो आत्त% व रौद्र ध्यान ह ैं व े तो अनित मशि>न हैं, त्याज्य ही ह ैं । धम%ध्यान शुभ है, इसप्रकार यह कथंशिचत् उपादेय है इससे मंदकषायरूप निवशुद्ध भावकी प्रान्तिप्त है । शुद्ध भाव है

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वह सव%था उपादेय है क्योंनिक यह आत्माका -वरूप ही है । इसप्रकार हेय, उपादेय ानकर त्याग और ग्रहण करना चानिहये, इसीशि>ये ऐसा कहा है निक ो कल्याणकारी हो वह अंगीकार करना यह जि नदेवका उपदेश है ।।77।।

आगे कहते हैं निक जि नशासनका इसप्रकार माहात्म्य है :—पर्यचिलर्यमाणकसाओ पर्यचिलर्यमिमच्छAमोहसमचिचAो ।पावइ वितहुवणसारं बोविह जिजणसासणे जीवो ।।78।।

प्रगचिलतमानकषार्यः प्रगचिलतमिमथ्र्यात्वमोहसमचिचAः ।अप्नोवित वित्रभुवनसारं बोलिधं जिजनशासने जीवः ।।78।।

छे गचिलतमानकषार्य, मोह विवनष्ट र्थई समचिचA छे,ते जीव वित्रभुवनसार बोचिध लहे जिजनेश्वरशासने. 78.

अथ% :—यह ीव प्रगशि>तमानकषायः अथा%त ् जि सका मानकषाय प्रकष%तास े ग> गया है, निकसी परद्रव्यसे अहंकाररूप गव% नहीं करता है और जि सके मिमथ्यात्वका उदयरूप मोह भी नष्ट हो गया है इसीशि>ये समशिचत्त है, परद्रव्यमें ममकाररूप मिमथ्यात्व और इष्ट—अनिनष्ट बुजिद्धरूप राग—दे्वष जि सके नहीं है, वह जि नशासनमें तीन भुवनमेंसार ऐसी बोमिध अथा%त् रत्नत्रयात्मक मोक्षमाग%को पाता है ।

भावाथ% :—मिमथ्यात्वभाव और कषायभावका -वरूप अन्य मतोंमें यथाथ% नहीं है । यह कथन इस वीतरागरूप जि नमतमें ही है, इसशि>ये यह ीव मिमथ्यात्व कषायके अभावरूप मोक्षमाग% तीन>ोकमें सार जि नमतके सेवनसे पाता है, अन्यत्र नहीं है ।

आगे कहते हैं निक जि नशासनमें ऐसा मुनिन ही तीथ�कर-प्रकृनित बाँधता है :—विवसर्यविवरAो समणो छ�सवरकारणाइं भाऊण ।वितyर्यरणामकम्मं बंधइ अइरेण कालेण ।।79।।विवषर्यविवर}ः श्रमणः षो)शवरकारणाविन भावमिर्यत्वा ।तीर्थmकरनामकम� बध्नावित अचिचरेण कालेन ।।79।।

विवषर्ये विवरत मुविन सोळ उAम कारणोने भावीने,बांधे अचिचर काळे करम तीर्थmकरत्व-सुनामने. 79.

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अथ% :—जि सका शिचत्त इजिन्द्रयोंके निवषयोंसे निवरक्त है ऐसा श्रमण अथा%त् मुनिन है वह सो>हकारण भावनाको भाकर तीथ�कर नाम प्रकृनितको थोडे़ ही समयमें बाँध >ेता है ।

भावाथ% :—यह भावका माहात्म्य है, (सव%ज्ञ वीतराग कशिथत तत्वज्ञान सनिहत—-वसन्मुkता सनिहत) निवषयोंस े निवरक्तभाव होकर सो>हकारण भावना भाव े तो अलिचंत्य है मनिहमा जि सकी ऐसी तीन>ोकसे पूज्य तीथ�कर नाम प्रकृभित्तको बाँधता है और उसको भोगकर मोक्षको प्राप्त होता ह ै । य े सो>हकारण भावनाके नाम हैं, 1—दश%ननिवशुजिद्ध, 2—निवनयसंपन्नता, 3—शी>व्रतेष्वननितचार, 4—अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, 5—सेवंग, 6—शशिक्तत-त्याग, 7—शशिक्तत-तष, 8—साधुसमामिध, 9—वैयावृत्त्यकरण, 10—अह%द्भशिक्त, 11—आचाय%भशिक्त, 12—बहुश्रुतभशिक्त, 13—प्रवचनभशिक्त, 14—आवश्यकापरिरहाभिण, 15—सन्माग%प्रभावना, 16—प्रवचनवात्सल्य, इसप्रकार सो>ह भावना हैं । इनका -वरूप तत्त्वाथ%सूत्रकी टीकासे ानिनये । इनमें सम्यग्दश%न प्रधान है, यह न हो और पन्द्रह भावनाका व्यवहार हो तो काय%कारी नहीं और यह हो तो पन्द्रह भावनाका काय% यही कर >े, इसप्रकार ानना चानिहये ।।79।।

आगे भावकी निवशुद्धता निनमिमत्त आचरण कहते हैं:—बारसविवहतवर्यरणं तेरसविकरिरर्याउ भाव वितविवहेण ।धरविह मणमAदुरिरर्यं णाणंकुसएण मुशिणपवर ।।80।।द्वादशविवधतपश्चरणं त्रर्योदश विक्रर्याः भावर्य वित्रविवधेन ।धर मनोमAदुरिरत ंज्ञानांकुशेन मुविनप्रवर ! ।।80।।

तंु भाव बार-प्रकार तप ने तेर विकरिरर्या त्रणविवध;ेवश राख मन-गज मAने मुविनप्रवर ! ज्ञानांकुश व)े. 80.

अथ% :—हे मुनिनप्रवर ! मुनिनयोंमें श्रेष्ठ ! तू बारह प्रकारके तपका आचरण कर और तेरह प्रकारकी निक्रया मन-वचन-कायासे भा और ज्ञानरूप अंकुशसे मनरूप मतवा>े हाथीको अपने वशमें रk ।

भावाथ% :—यह मनरूप हाथी बहुत मदोन्मत्त है, वह तपश्चरण निक्रयानिकदसनिहत ज्ञानरूप अंकुशहीसे वशमें होता है, इसशि>ये यह उपदेश है, अन्यप्रकारसे वशमें नहीं होता है । य े बारह तपोंके नाम ह ैं 1—अनशन, 2—अवमौदाय%, 3—वृभित्तपरिरसंख्यान, 4—रसपरिरत्याग, 5—निवनिवक्तशय्यासन, 6—कायक्>ेश ये तो छह प्रकारके बाह्य तप हैं, और 1—प्रायभिश्चत्त 2—निवनय 3—वैयावृत्य, 4—-वाध्याय 5—वु्यत्सग% 6—ध्यान ये छह प्रकारके अभ्यंतर तप हैं, इनका -वरूप तत्त्वाथ%सूत्रकी टीकासे ानना चानिहये । तेरह निक्रया इस प्रकार

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हैं—पंच परमेष्ठीको नम-कार ये पाँच निक्रया, छह आवश्यक निक्रया, 1 निननिषमिधकानिक्रया और 2 आशिसकानिक्रया । इसप्रकार भाव शुद्ध होनेके कारण कहे ।।80।।

निननिषमिधका—जि नमंदिदरादिदमें प्रवेश करते ही गृहस्थ या वं्यतरादिद देव कोई उपण्डिस्थत है—ऐसा मानकर आज्ञाथ% निनःसही शब्द तीनबार बो>नेमें आता है, अथवा सम्यग्दश%न-ज्ञान-चारिरत्रमें ण्डिस्थर रहना निनःसही है ।

धम%स्थानसे बाहर निनक>ते समय निवनयसह नित्रदायकी आज्ञा मांगनेके अथ%में आशिसका शब्द बो>े, अथवा पापनिक्रयासे मन-मोड़ना आशिसका है ।

आगे द्रव्य—भावरूप सामान्यरूपसे जि नलि>ंगका -वरूप कहते हैं :—पंचविवहचेलचार्यं खिखदिदसर्यणं दुविवहसंजमं शिभक्खू ।भावं भाविवर्यपुव्वं जिजणलिलंगं शिणम्मलं सुदं्ध ।।81।।पंचविवधचेलत्र्यागं शिक्षवितशर्यनं विद्वविवधसंर्यमं शिभक्षु ।भाव भावमिर्यत्वा पूवm जिजनलिलंगं विनम�लं शुद्धम् ।।81।।

भूशर्यन, शिभक्षा, विद्वविवध संर्यम, पंचविवध-पटत्र्याग छे,छे भाव भाविवतपूव�, ते जिजनलिलंग विनम�ळ सुद्ध छे. 81.

अथ% :—निनम%> शुद्ध जि नलि>ंग इसप्रकार है— हाँ पाँच प्रकारके व-त्रका त्याग है, भूमिम पर शयन है, दो प्रकारका संयम है, भिभक्षा भो न है, भानिवतपूव% अथा%त् पनिह>े शुद्ध आत्माका -वरूप परद्रव्यसे भिभन्न सम्यग्दश%न—ज्ञान—चारिरत्रमयी हुआ, उसे बारंबार भावनासे अनुभव निकया इसप्रकार जि सम ें भाव है, ऐसा निनम%> अथा%त ् बाह्यम>रनिहत शुद्ध अथा%त् अन्तम%>रनिहत जि नलि>ंग है ।

भावाथ% :—यहाँ लि>ंग द्रव्य-भावसे दो प्रकारका है । द्रव्य तो बाह्य त्याग अपेक्षा है जि समें पाँच प्रकारके व-त्रका त्याग है, वे पाँच प्रकार ऐसे हैं—1—अंO अथा%त ् रेशमसे बना, 2—बोंOु अथा%त ् कपासस े बना, 3—रोम अथा%त ् ऊनस े बना, 4—बल्क> अथा%त ् वृक्षकी छा>से बना, 5—चम% अथा%त ् मृग आदिदकके चम%से बना, इसप्रकार पाँच प्रकार कहे । इसप्रकार नहीं ानना निक इनके शिसवाय और व-त्र ग्राह्य हैं—ये तो उप>क्षणमात्र कहे हैं, इसशि>ये सबही व-त्रमात्रका त्याग ानना ।

भूमिम पर सोना, बैठना इसमें काष्ठ—तृण भी निगन >ेना । इजिन्द्रय और मनको वशमें करना, छहकायके ीवोंकी रक्षा करना—इसप्रकार दो प्रकारका संयम ह ै । भिभक्षा-भो न करना जि सम ें कृत, कारिरत, अनुमोदनाका दोष न >गे—शिछया>ीस दोष ट>े, –बत्तीस अंतराय ट>े ऐसी निवमिधके अनुसार आहार करे । इसप्रकार तो बाह्यलि>ंग है और पनिह>े कहा

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वैस े हो वह भावलि>ंग है, इसप्रकार दो प्रकारका शुद्ध जि नलि>ंग कहा है, अन्य प्रकार शे्वताम्बरादिदक कहते हैं वह जि नलि>ंग नहीं है ।।81।।

आगे जि नधम%की मनिहमा कहते हैं :—जह रर्यणाणं पवरं वज्जं जह तरुगणाण गोसीरं ।तह धम्माणं पवरं जिजणधम्मं भाविवभवमहणं ।।82।।र्यर्था रत्नानां प्रवरं वज्रं र्यर्था तरुगणानां गोशीरम् ।तर्था धमा�णां प्रवरं जिजनधमm भाविवभवमर्थनम् ।।82।।

रत्नो विवषे ज्र्यम शे्रष्ठ हीरक, तरुगणे गोशीष� छे,जिजनधम� भाविवभवमर्थन त्र्यम श्रेष्ठ छे धमN विवषे. 82.

अथ% :— ैसे रत्नोमें प्रवर (श्रेष्ठ) उत्तम व्र (हीरा) है और ैसे तरुगण (बड़े वृक्ष) में उत्तम गोसीर (बावन चन्दन) है, वैसे ही धम�में उत्तम भानिवभवमथन (आगामी संसारका मथन करनेवा>ा) जि नधम% है, इससे मोक्ष होता है ।

भावाथ% :—धम% ऐसा सामान्य नाम तो >ोकमें प्रशिसद्ध है और >ोक अनेक प्रकारसे निक्रयाकांOादिदकको धम% ानकर सेवन करता है, परन्त ु परीक्षा करन े पर मोक्षकी प्रान्तिप्त करानेवा>ा जि नधम% ही है, अन्य सब संसारके कारण हैं । वे निक्रयाकांOादिदक संसारहीमें रkते हैं, कदाशिचत ् संसारके भोगोंकी प्रान्तिप्त करात े ह ैं तो भी निफर भोगोंम ें >ीन होता है, तब एकेजिन्द्रयादिद पया%य पाता है तथा नरकको पाता है । ऐसे अन्य धम% नाममात्र हैं, इसशि>ये उत्तम जि नधम% ही ानना ।।82।।

आगे शिशष्य पूछता है निक जि नधम%को उत्तम कहा, तो धम%का क्या -वरूप है ? उसका -वरूप कहते हैं निक धम% इसप्रकार है :—

पूर्यादिदसु वर्यसविहर्यं पुण्णं विह जिजणेहिहं सासणे भशिणरं्य ।मोहक्खोहविवहीणो परिरणामो अ=पणो धम्मो ।।83।।पूजादिदषु व्रतसविहत ंपुण्रं्य विह जिजनैः शासने भशिणतम् ।मोहक्षोभविवहीनः परिरणामः आत्मनः धम�ः ।।83।।

पूजादिदमां व्रतमां जिजनोए पुण्र्य भाख्रंु्य शासने;छे धम� भाख्र्यो मोहक्षोभविवहीन विनज परिरणामने. 83.

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अथ% :—जि नशासनम ें जि नेन्द्रदेवन े इसप्रकार कहा ह ै निक—पू ा आदिदकम ें और व्रतसनिहत होना है वह तो पुhय ही है तथा मोहके क्षोभसे रनिहत ो आत्माका परिरणाम वह धम% है ।

भावाथ% :—>ौनिकक न तथा अन्यमती कई कहत े ह ैं निक पू ा आदिदक शुभ निक्रयाओंम ें और व्रतनिक्रयासनिहत ह ै वह जि नधम% है, परन्त ु ऐसा नहीं ह ै । जि नमतमें जि नभगवानने इसप्रकार कहा ह ै निक—पू ादिदकमें और व्रतसनिहत होना है वह तो पुhय है, इसमें पू ा और आदिद शब्दसे भशिक्त, वंदना, वैयावृत्य आदिदक समझना, यह तो देव—गुरु—शा-त्रके शि>ये होता है और उपवास आदिदक व्रत हैं वह शुभनिक्रया है, इनमें आत्माका रागसनिहत शुभपरिरणाम है उससे पुhयकम% होता है इसशि>ये इनको पुhय कहते हैं । इसका फ> -वगा%दिदक भोगोंकी प्रान्तिप्त है ।

मोहके क्षोभस े रनिहत आत्माके परिरणामको धम% समजिझय े । मिमथ्यात्व तो अतत्त्वाथ%श्रद्धान है, क्रोध—मान—अरनित—शोक—भय— ुगुप्सा ये छह दे्वषप्रकृनित हैं और माया, >ोभ, हा-य, रनित ये चार तथा पुरुष, -त्री, नपुंसक ये तीन निवकार, ऐसी सात प्रकृनित रागरूप हैं । इनके निनमिमत्तसे आत्माका ज्ञान-दश%न-वभाव निवकारसनिहत, क्षोभरूप, च>ाच>, व्याकु> होता ह ै इसशि>य े इन निवकारोंस े रनिहत हो तब शुद्धदश%नज्ञानरूप निनश्चय हो वह आत्माका धम% है । इस धम%से आत्माके आगामी कम%का आस्रव रुककर संवर होता है और पनिह>े बँधे हुए कम�की निन %रा होती है । संपूण% निन %रा हो ाय तब मोक्ष होता है तथा एकदेश मोहके क्षोभकी हानिन होती है इसशि>ये शुभपरिरणामको भी उपचारसे धम% कहते ह ैं और ो केव> शुभपरिरणामहीको धम% मानकर संतुष्ट हैं उनको धम%की प्रान्तिप्त नहीं है, यह जि नमतका उपदेश है ।।83।।

आगे कहते हैं निक ो पुhय हीको धम% मानकर श्रद्धान करता है उसके केव> भोगका निनमिमत्त है, कम%क्षयका निनमिमत्त नहीं है :—

स�हदिद र्य पAेदिद र्य रोचेदिद र्य तह पुणो विव फासेदिद ।पुण्णं भोर्यशिणमिमAं ण हु सो कम्मक्खर्यशिणमिमAं ।।84।।श्र�द्धावित च प्रत्रे्यवित च रोचते च तर्था पुनरविप स्पृशवित ।पुण्रं्य भोगविनमिमAं न विह तत ्कम�क्षर्यविनमिमतम् ।।84।।

परतीत, रुचिच, श्रद्धान ने स्पश�न करे छे पुण्र्यनुं,ते भोग केरंु विनमिमA छे, न विनमिमA कम�क्षर्य तणुं. 84.

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अथ% :— ो पुरुष पुhयको धम% मानकर श्रद्धान करते हैं, प्रतीत करते हैं, रुशिच करते हैं और स्पश% करते हैं उनके पुhय भोगका निनमिमत्त है । इससे -वगा%दिदक भोग पाता है और वह पुhय कम%के क्षयका निनमिमत्त नहीं होता है, यह प्रगट ानना चानिहये ।

भावाथ% :—शुभनिक्रयारूप पुhयको धम% ानकर इसका श्रद्धान, ज्ञान, आचरण करता है उसके पुhयकम%का बंध होता है, उससे -वगा%दिदके भोगोंकी प्रान्तिप्त होती है और उससे कम%का क्षयरूप संवर, निन %रा, मोक्ष नहीं होता है ।।84।।

आगे कहते हैं निक— ो आत्माका -वभावरूप धम% है वह ही मोक्षका कारण है ऐसा निनयम है :—

अ=पा अ=पप्तिम्म रओ रार्यादिदसु सर्यलदोसपरिरचAो ।संसारतरणहेदू धम्मो चिA जिजणेहिहं शिणदि�टं्ठ ।।85।।आत्मा आत्मविन रतः रागादिदषु सकलदोषपरिरत्र्य}ः ।संसारतरणहेतुः धम� इवित जिजनैः विनर्दिदंष्टम् ।।85।।

रागादिद दोष समस्त छो)ी आतमा विनजरत रहे,भवतरणकारण धम� छे ते—एम जिजनदेवो कहे. 85.

अथ% :—यदिद आत्मा रागादिदक सम-त दोषोंसे रनिहत होकर आत्माहीमें रत हो ाय तो ऐसे धम%को जि नेश्वरदेवने संसारसमुद्रमें नितरनेका कारण कहा है ।

भावाथ% :— ो पनिह>े कहा था निक मोहके क्षोभसे रनिहत आत्माका परिरणाम है सो धम% है, सो ऐसा धम% ही संसारसे पार कर मोक्षका कारण भगवानने कहा है, यह निनयम है ।।85।।

आगे इसी अथ%को दृढ़ करनेके शि>ये कहते हैं निक— ो आत्माके शि>ए इष्ट नहीं करता है और सम-त पुhयका आचरण करता है तो भी शिसजिद्धको नहीं पाता है :—

अह पुण अ=पा शिणच्छदिद पुण्णाइं करेदिद शिणरवसेसाइं ।तह विव ण पावदिद चिसणिद्धं संसारyो पुणो भशिणदो ।।86।।अर्थ पुनः आत्मानं नेच्छवित पुण्र्याविन करोवित विनरवशेषाविन ।तर्थाविप न प्राप्नोवित चिसणिद्धं संसारस्थ पुनः भशिणतः ।।86।।

पण आत्माने इच्छ्या विवना पुण्र्यो अशेष करे भले,तोपण लहे नविह चिसशिद्धने, भवमां भमे—आगम कहे. 86.

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अथ% :—अथवा ो पुरुष आत्माका इष्ट नहीं करता है, उसका -वरूप नहीं ानता है, अंगीकार नहीं करता है और सब प्रकारके सम-त पुhयको करता है, तो भी शिसजिद्ध (मोक्ष) को नहीं पाता है निकन्तु वह पुरुष संसारहीमें भ्रमण करता है ।

भावाथ% :—आस्त्रित्मक धम% धारण निकये निबना सब प्रकारके पुhयका आचरण करे तो भी मोक्ष नहीं होता है, संसारहीमें रहता है । कदाशिचत् -वगा%दिदक भोग पावे तो वहाँ भोगोंमें आसक्त होकर रहे, वहाँसे चय एकेजिन्द्रयादिदक होकर संसारहीमें भ्रमण करता है ।

आगे, इस कारणसे आत्माहीका श्रद्धान करो, प्रयत्नपूव%क ानो, मोक्ष प्राप्त करो ऐसा उपदेश करते हैं :—

एएण कारणेण र्य तं अ=पा स�हेह वितविवहेण ।जेण र्य लहेह मोक्खं तं जाशिणज्जह पर्यAेण ।।87।।एतेन कारणेन च त ंआत्मानं श्रद्धA वित्रविवधेन ।र्येन च लभध्वं मोकं्ष त ंजानीत प्रर्यत्नेन ।।87।।

आ कारणे ते आत्मनी वित्रविवधे तमे श्रद्धा करो,ते आत्मने जाणो प्रर्यत्ने, मुचि}ने जेर्थी वरो. 87.

अथ% :—पनिह>े कहा था निक आत्माका धम% तो मोक्ष है, उसी कारणसे कहते हैं निक—हे भव्य ीवो ! तुम उस आत्माको प्रयत्नपूव%क सब प्रकारके उद्यम करके यथाथ% ानो, उस आत्माका श्रद्धान करो, प्रतीत करो, आचरण करो । मन—वचन—कायसे ऐसे करो जि ससे मोक्ष पावो ।

भावाथ% :—जि सको ानन े और श्रद्धान करनेस े मोक्ष हो उसीको ानना और श्रद्धान करना मोश्रप्रान्तिप्त कराता है, इसशि>य े आत्माको ाननेका काय% सब प्रकारके उद्यमपूव%क करना चानिहये, इसीसे मोक्षकी प्रान्तिप्त होती है, इसशि>ये भव्य ीवोंको यही उपदेश है ।।87।।

आगे कहते हैं निक बाह्य—हिहंसादिदक निक्रयाके निबना ही अशुद्ध भावसे तंदु> मत्-यतुल्य ीव भी सातवें नरकको गया, तब अन्य बडे़ ीवोंकी क्या कथा ?

मच्छो विव साचिलचिसyो असुद्धभावो गओ महाणररं्य ।इर्य णाउं अ=पाणं भावह जिजणभावणं शिणच्चं ।।88।।मत्स्र्यः अविप शाचिलचिसक्र्थः अशुद्धभावः गतः महानरकम् ।

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इवित ज्ञात्वा आत्मानं भावर्य जिजनभावनां विनत्र्यम् ।।88।।अविवशुद्ध भावे मत्स्र्य तंदुल पण गर्यो महा नरकमां,तेर्थी विनजात्मा जाणी विनत्र्य तुं भाव रे ! जिजनभावना. 88.

अथ% :—ह े भव्य ीव ! त ू देk, शाशि>शिशक्थ (तन्दु> नामका सत्य) वह भी अशुद्धभाव-वरूप होता हुआ महानरक (सातवें नरक) में गया, इसशि>ये तुझे उपदेश देते हैं निक अपनी आत्माको ाननेके शि>ए निनरंतर जि नभावना कर ।

भावाथ% :—अशुद्धभावके माहात्म्यके तन्दु> मत्-य ैसा अल्प ीव भी सातवें नरकको गया, तो अन्य बडे़ ीव क्यों न नरक ावें ? इसशि>ये भाव शुद्ध करनेका उपदेश है । भाव शुद्ध होन े पर अपन े और दूसरेके -वरूपका ानना होता ह ै । अपन े और दूसरेके -वरूपका ज्ञान जि नदेवकी आज्ञाकी भावना निनरन्तर भानेस े होता है, इसशि>ये जि नदेवकी आज्ञाकी भावना निनरन्तर करना योग्य है ।।

तन्दु> मत्-यकी कथा ऐसे है—काकन्दीपुरीका रा ा सूरसेन था वह मांसभक्षी हो गया । अत्यन्त >ो>ुपी, मांस भक्षणका अभिभप्राय रkता था । उसके निपतृनिप्रय नामका रसोईदार था । वह अनेक ीवोंका मांस निनरन्तर भक्षण कराता था । उसको सप% Oस गया सो मरकर -वयंभूरमण समुद्रम ें महामत्-य हो गया । रा ा सूरसेन भी मरकर वहा ँ ही उसी महामत्-यके कानमें तंदु> मत्-य हो गया ।

वहा ँ महामत्-यके मुkमें अनेक ीव आवें, बाहर निनक> ावें, तब तंदु> मत्-य उनको देkकर निवचार करे निक यह महामत्-य अभागा है ो मुँहमें आये हुए ीवोंको kाता नहीं ह ै । यदिद मेरा शरीर इतना बड़ा होता तो इस समुद्रके सब ीवोंको kा ाता । ऐसे भावोंके पापसे ीवोंको kाये निबना ही सातवें नरकमें गया और महामत्-य तो kानेवा>ा था सो वह तो नरकमें ाय ही ाय ।

इसशि>ये अशुद्धभावसनिहत बाह्य पाप करना तो नरकका कारण है ही, परन्तु बाह्य हिहंसादिदक पापके निकये निबना केव> अशुद्धभाव भी उसीके समान है, इसशि>ये भावोंमें अशुभ ध्यान छोड़कर शुभ ध्यान करना योग्य है । यहाँ ऐसा भी ानना निक पनिह>े रा पाया था सो पनिह>े पुhय निकया था उसका फ> था, पीछे कुभाव हुए तब नरक गया इसशि>ये आत्मज्ञानके निबना केव> पुhय ही मोक्षका साधन नहीं है ।।88।।

आगे कहते हैं निक भावरनिहतके बाह्य परिरग्रहका त्यागादिदक सब निनष्प्रयो न है :—बाविहसंगच्चाओ विगरिरसरिरदरिरकंदराइ आवासो ।सर्यलो णाणज्झर्यणो शिणरyओ भावरविहर्याणं ।।89।।

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बाह्यसंगत्र्यागः विगरिरसरिर�रीकंदरादौ आवासः ।सकलं ज्ञानाध्र्यर्यन ंविनरर्थ�कं भावरविहतानाम् ।।89।

रे ! बाह्यपरिरग्रहत्र्याग, पव�त-कंदरादिदविनवास ने,ज्ञानाध्र्यर्यन सघळंु विनरर्थ�क भावविवरविहत श्रमणने. 89.

अथ% :— ो पुरुष भाव रनिहत हैं, शुद्ध आत्माकी भावनास े रनिहत ह ैं और बाह्य आचरणसे सन्तुष्ट हैं, उनके बाह्य परिरग्रहका त्याग ह ै वह निनरथ%क ह ै । निगरिर (पव%त) दरी (पव%तकी गुफा) सरिरत ् (नदीके पास) कंदर (पव%तके >स े चीरा हुआ स्थान) इत्यादिद स्थानोंमें आवास (रहना) निनरथ%क है । ध्यान करना, आसन द्वारा मनको रोकना, अध्ययन (पढ़ना)—ये सब निनरथ%क हैं ।

भावाथ% :—बाह्य निक्रयाका फ> आत्मज्ञान सनिहत हो तो सफ> हो, अन्यथा सब निनरथ%क है । पुhयका फ> हो तो भी संसारका ही कारण है, मोक्षफ> नहीं है ।।89।।

आगे उपदेश करते हैं निक भावशुजिद्धके शि>ये इजिन्द्रयादिदकको वश करो, भावशुजिद्धके निबना बाह्यभेषका आOम्बर मत करो :—

भंजसु इजिन्दर्यसेणं भंजसु मणमक्क)ं पर्यAेण ।मा जणरंजणकरणं बाविहरवर्यवेस तं कुणसु ।।90।।भंब्धिग्ध इजिन्द्रर्यसेना ंभंब्धिग्ध मनोमक� टं प्रर्यत्नेन ।मा जनरंजनकरणं बविहव्र�तवेष ! त्वंककाष²ः ।।90।।

तंु इजिन्द्रसेना तो), मनमक� ट तंु वश कर र्यत्नर्थी,नविह कर तुं जनरंजनकरण बविहरंग-व्रतवेशी बनी. 90.

अथ% :—हे मुने ! तू इजिन्द्रयोंकी सेना है उसका भं न कर, निवषयोंमें मत रम, मनरूप बंदरको प्रयत्नपूव%क बड़ा उद्यम करके भं न कर, वशीभूत कर और बाह्यव्रतका भेष >ोकको रं न करनेवा>ा मत धारण करे ।

भावाथ% :—बाह्य मुनिनका भेष >ोकका रं न करनेवा>ा है, इसशि>ये यह उपदेश है; >ोकरं नसे कुछ परमाथ% शिसजिद्ध नहीं है, इसशि>ये इजिन्द्रय और मनको वशमें करनेके शि>ये बाह्य यत्न करे तो श्रेष्ठ है । इजिन्द्रय और मनको वशमें निकये निबना केव> >ोकरं नमात्र भेष धारण करनेसे कुछ परमाथ% शिसजिद्ध नहीं है ।।90।।

आगे निफर उपदेश कहते हैं :—

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णवणोकसार्यवग्गं मिमच्छAं चर्यसु भावसुद्धीए ।चेइर्यपवर्यणगुरुणं करेविह भंAे जिजणाणाए ।।91।।नवनोकषार्यवगm मिमथ्र्यात्वं त्र्यज भावशुद्ध्या ।चैत्र्यप्रवचनगुरूणां कुरु भलि}ं जिजनाज्ञर्या ।।91।।

मिमथ्र्यात्व ने नव नोकषार्य तंु छो) भावविवशुद्धर्थी;कर भचि} जिजन-आज्ञानुसार तंु चैत्र्य-प्रवचन-गुरु तणी. 91.

अथ% :—ह े मुन े ! तू नव ो हा-य, रनित, अरनित, शोक, भय, ुगुप्सा, -त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद—य े नो कषायवग% तथा मिमथ्यात्व इनको भावशुजिद्ध द्वारा छोड़ और जि नआज्ञासे चैत्य, प्रवचन, गुरु इनकी भशिक्त कर ।।91।।

आगे निफर कहते हैं :—वितyर्यरभाचिसर्यyं गणहरदेवेहिहं गचंिर्थर्यं सम्मं ।भावविह अणुदिदणु अतुलं विवसुद्धभावेण सुर्यणाणं ।।92।।तीर्थmकरभाविषतार्थm गणधरदेवैः ग्रचिर्थत ंसम्र्यक् ।भावर्य अनुदिदनं अतुलं विवशुद्धभावेन श्रुतज्ञानम् ।।92।।

तीर्थtशभाविषत-अर्थ�मर्य गणधरसुविवरचिचत जेह छे,प्रवितदिदन तंु भाव विवशुद्धभावे ते अतुल शु्रतज्ञानने. 92.

अथ% :—हे मुन े ! तू जि स श्रुतज्ञानको तीथ�कर भगवानने कहा और गणधर देवोंने गूंथा अथा%त् शा-त्ररूप रचना की उसकी सम्यक् प्रकार भाव शुद्ध कर निनरन्तर भावना कर । कैसा है वह श्रुतज्ञान ? अतु> है, इसके बराबर अन्य मतका कहा हुआ श्रुतज्ञान नहीं है ।।92।।

ऐसा करनेसे क्या होता है ? सो कहते हैं :—*पीऊण णाणसचिललं शिणम्महवितस)ाहसोसउम्मुक्का ।होंवित चिसवालर्यवासी वितहुवणचू)ामणी चिसद्धा ।।93।।

*. पाठान्तरः—पाऊण ।**पीत्वा ज्ञानसचिललं विनम�थ्र्यतृषादाहशोषोन्मु}ा ।

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भवंवित शिशवालर्यवाचिसनः वित्रभुवनचू)ामणर्यः चिसद्धाः ।।93।।** पाठान्तरः—प्राप्य ।

जीव ज्ञानजल पी, तीव्रतृष्णादाहशोष र्थकी छूटी,शिशवधामवासी चिसद्ध र्थार्य—वित्रलोकना चू)ामशिण. 93.

अथ% :—पूव}क्त प्रकार भाव शुद्ध करने पर ज्ञानरूप >को पीकर शिसद्ध होते हैं । कैसे हैं शिसद्ध ? निनम%थ्य अथा%त् मथा न ावे ऐसे तृषादाह शोषसे रनिहत हैं, इस प्रकार शिसद्ध होते हैं; ज्ञानरूप > पीनेका यह फ> है । शिसद्धशिशवा>य अथा%त् मुशिक्तरूप मह>में रहनेवा>े हैं, >ोकके शिशkरपर जि नका वास ह ै । इसीशि>य े कैस े ह ैं ? तीन भुवनके चूOा़मभिण है, मुकुटमभिण हैं तथा तीन भुवनमें ऐसा सुk नहीं है, ऐसे परमानंद अनिवनाशी सुkको वे भोगते हैं । इसप्रकार वे तीन भुवनके मुकुटमभिण हैं ।

भावाथ% :—शुद्ध भाव करके ज्ञानरूप > पीन े पर तृषादाह शोष मिमट ाता है, इसशि>ये ऐसे कहा है निक परमानन्दरूप शिसद्ध होते हैं ।।93।।

आगे भावशुजिद्धके शि>ए निफर उपदेश करते हैं :—दस दस दो सुपरीसह सहविह मुणी सर्यलकाल काएण ।सुAेण अ=पमAो संजमघादं पमोAूण ।।94।।दश दश द्वौ सुपरीषहान् सहस्व मुने ! सकलकालं कार्येन ।सूते्रण अप्रमAः संर्यमघातं प्रमुच्र्य ।।94।।

बावीश परिरषह सव�काळ सहो मुने ! कार्या व)े,अप्रमA रही, सूत्रानुसार, विनवारी संर्यमघातने. 94.

अथ% :—हे मुन े ! तू दस दस दो अथा%त ् बाईस ो सुपरीषह अथा%त ् अनितशयकर सहने योग्यको सूते्रण अथा%त् ैसे जि नवचनमें कहे हैं उसी रीनितसे निनःप्रमादी होकर संयमका घात दूरकर और अपनी कायसे सदाका> निनरंतर सहन कर ।

भावाथ% :— ैसे संयम न निबगड़े और प्रमादका निनवारण हो वैसे निनरन्तर मुनिन क्षुधा, तृषा आदिदक बाईस परिरषह सहन करे । इनको सहन करनेका प्रयो न सूत्रमें ऐसा कहा है निक—इनके सहन करनेसे कम%की निन %रा होती है और संयमके माग% छूटना नहीं होता है, परिरणाम दृढ़ होते हैं ।।94।।

आगे कहते ह ैं निक— ो परीषह सहनेमें दृढ़ होता ह ै वह उपसग% आने पर भी दृढ़ रहता है, च्युत नहीं होता, उसका दृष्टांत कहते हैं :—

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जह पyरो ण शिभज्जइ परिरदिट्ठओ दीहकालमुदएण* ।तह साहू विव म शिभज्जइ उवसग्गपरीसहेहिहंतो ।।95।।

* मुदकेण पाठान्तर मुदएण ।र्यर्था प्रस्तरः न शिभद्यते परिरस्थिस्थवितः दीघ�कालमुदकेन ।तर्था साधुरविप न शिभद्यते उपसग�परीषहेभ्र्यः ।।95।।

पथ्र्थर रह्यो चिचर पाणीमां भेदार्य नविह पाणी व)े,त्र्यम साधु पण भेदार्य नविह उपसग� ने परिरषह व)े. 95.

अथ% :— ैसे पाषाण >में बहुत का>तक रहने पर भी भेदको प्राप्त नहीं होता है वैसे ही साधु उपसग%-परीषहोंसे नहीं भिभदता है ।

भावाथ% :—पाषाण ऐसा कठोर होता है निक यदिद वह >में बहुत समय तक रहे तो भी उसमें > प्रवेश नहीं करता है, वैसे ही साधुके परिरणाम भी ऐसे दृढ़ होते हैं निक—उपसग%—परीषह आने पर भी संयमके परिरणामसे च्युत नहीं होता है और पनिह>े कहा ो संयमका घात ैसे न हो वैसे परीषह सहे । यदिद कदाशिचत् संयमका घात होता ाने तो ैसे घात न हो वैसे करे ।।95।।

आगे, परीषह आने पर भाव शुद्ध रहे ऐसा उपाय कहते हैं :—भावविह अणुवेक्खाओ अवरे पणवीसभावणा भाविव ।भावरविहएण हिकं पुण बाविहरलिलंगेण कार्यव्वं ।।96।।भावर्य अनुपे्रक्षाः अपराः पंचहिवंशवितभावनाः भावर्य ।भावरविहतेन हिकं पुनः बाह्यलिलंगेन कA�व्यम् ।।96।।

तंु भाव द्वादश भावना, वळी भावना पच्चीशने;शंु छे प्रर्योजन भावविवरविहत बाह्यलिलंग र्थकी अरे ! 96.

अथ% :—हे मुने ! तू अनुप्रेक्षा अथा%त् अनिनत्य आदिद बारह अनुपे्रक्षा हैं उनकी भावना कर और अपर अथा%त ् अन्य पाँच महाव्रतोंकी पच्चीस भावना कही ह ैं उनकी भावना कर, भावरनिहत ो बाह्यलि>ंग है उससे क्या कत्त%व्य है ? अथा%त् कुछ भी नहीं ।

भावाथ% :—कष्ट आने पर बारह अनुपे्रक्षाओंका शिचन्तन करना योग्य है । इनके नाम ये हैं—1 अनिनत्य, 2 अशरण, 3 संसार, 4 एकत्व, 5 अन्यत्व, 6 अशुशिचत्व, 7 आस्रव, 8 संवर, 9 निन %रा, 10 >ोक, 11 बोमिधदु>%भ, 12 धम%—इनका और पच्चीस भावनाओंका

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भाना बड़ा उपाय है । इनका बारम्बार शिचन्तन करनेसे कष्टमें परिरणाम निबगड़ते नहीं हैं, इसशि>ये यह उपदेश है ।।96।।

आगे निफर भाव शुद्ध रkनेको ज्ञानका अभ्यास करते हैं :—सव्वविवरओ विव भावविह णव र्य पर्यyाइं सA तच्चाइं ।जीवसमासाइं मुणी चउदसगुणठाणणामाइं ।।97।।सव� विवरतः अविप भावर्य नव पदार्था�न ्स=त तत्त्वाविन ।जीवसमासान् मुने ! चतदु�शगुणस्थाननामाविन ।।97।।

पूरणविवरत पण भाव तुं नव अर्थ�, तत्त्वो सातने,मुविन ! भाव जीवसमासने, गुणस्थान भाव तुं चौदने. 97.

अथ% :—हे मुन े ! तू सब परिरग्रहादिदकसे निवरक्त हो गया है, महाव्रत सनिहत है तो भी भाव निवशुजिद्धके शि>ये नव पदाथ%, सप्त तत्त्व, चौदह ीवसमास, चौदह गुणस्थान इनके नाम >क्षण भेद इत्यादिदकोंकी भावना कर ।

भावाथ% :—पदाथ�के -वरूपका शिचन्तन करना भावशुजिद्धका बOा़ उपाय है इसशि>ये यह उपदेश है । इनका नाम -वरप अन्य ग्रंथोंसे ानना ।।97।।

आगे भाव शुजिद्धके शि>ए अन्य उपाय कहते हैं :—णवविवहबंभं पर्य)विह अब्बंभं दसविवहं पमोAूण ।मेहुणसण्णासAो भमिमओ चिस भवण्णवे भीमे ।।98।।नवविवधब्रह्मचर्यm प्रकट्य अब्रह्म दशविवधं प्रमुच्र्य ।मैरु्थनसंज्ञास}ः भ्रमिमतो)विप भवाण�वे भीमे ।।98।।

अब्रह्म दशविवध टाळी तंु प्रगटाव नवविवध ब्रह्मने;रे ! मिमरु्थनसंज्ञास} तें करु्यm भ्रमण भीम भवाण�वे. 98.

अथ% :—हे ीव ! तू पनिह>े दस प्रकारका अब्रह्म है उसको छोड़कर नव प्रकारका ब्रह्मचय% ह ै उसको प्रगट कर, भावोंम ें प्रत्यक्ष कर । यह उपदेश इसशि>ए दिदया ह ै निक तू मैथुनसंज्ञा ो कामसेवनकी अभिभ>ाषा उसम ें आसक्त होकर अशुद्ध भावोंस े इस भीम (भयानक) संसाररूपी समुद्रमें भ्रमण करता रहा ।

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भावाथ% :—यह प्राणी मैथुनसंज्ञाम ें आसक्त होकर गृहस्थपना आदिदक अनेक उपायोंस े -त्रीसेवनादिदक अशुद्धभावोंस े अशुभ काय�म ें प्रवत%ता है, उसस े इस भयानक संसारसमुद्रमें भ्रमण करता है, इसशि>ये यह उपदेश है निक—दस प्रकारके अब्रह्मको छोड़कर नव प्रकारके ब्रह्मचय%को अंगीकार करो । दस प्रकारका अब्रह्म ये है—1 पनिह>े तो -त्रीका शिचन्तन होना, 2 पीछे देkनेकी लिचंता होना, 3 पीछे निनःश्वास Oा>ना, 4—पीछे ज्वर होना, 5 पीछे दाह होना, 6 पीछे काकी रुशिच होना, 7 पीछे मूच्छा% होना, 8 पीछे उन्माद होना, 9 पीछे ीनेका संदेह होना, 10 पीछे मरण होना ऐसे दस प्रकारका अब्रह्म है ।

नव प्रकारका ब्रह्मचय% इसप्रकार है—नव कारणों से ब्रह्मचय% निबगड़ता है, उनके नाम ये हैं—1 -त्रीको सेवन करने की अभिभ>ाषा, 2 -त्रीके अंगका स्पश%न, 3 पुष्ट रसका सेवन, 4 -त्रीसे संयुक्त व-त ु शय्या आदिदकका सेवन, 5 -त्रीके मुk, नेत्र आदिदकको देkना, 6 -त्रीका सत्कार-पुर-कार करना, 7 पनिह> े निकय े हुए -त्रीसेवनको याद करना, 8 आगामी -त्रीसेवनकी अभिभ>ाषा, 9 मनवांशिछत इष्ट निवषयोंका सेवन करना ऐसे नव प्रकार हैं । इनका त्याग करना सो नवभेदरूप ब्रह्मचय% ह ै अथाव मन-वचन-काय, कृत-कारिरत-अनुमोदनासे ब्रह्मचय%का पा>न करना ऐसे भी नव प्रकार हैं । ऐसे करना सो भी भाव शुद्ध होनेका उपाय है ।।98।।

आगे कहते हैं निक— ो भावसनिहत मुनिन है सो आराधनाके चतुष्कको पाता है, भाव निबना वह भी संसारमें भ्रमण करता हैं :—

भावसविहदो र्य मुशिणणो पावइ आराहणाचउक्कं च ।भावरविहदो र्य मुशिणवर भमइ चिचरं दीहसंसारे ।।99।।भावसविहतश्च मुविननः प्राप्नोवित आराधनाचतुष्कं च ।भावरविहतश्च मुविनवर ! भ्रमवित चिचरं दीघ�संसारे ।।99।।

भावे सविहत मुविनवर लहे आराधना चतुरंगने;भावे रविहत तो हे श्रमण ! चिचर दीघ�संसारे भमे. 99.

अथ% :—ह े मुनिनवर ! ो भाव सनिहत ह ै सो दश%न—ज्ञान—चारिरत्र—तप ऐसी आराधनाके चतुष्कको पाता है, वह मुनिनयोंमें प्रधान है और ो भावरनिहत मुनिन है सो बहुत का> तक दीघ%संसारमें भ्रमण करता है ।

भावाथ% :—निनश्चय सम्यक्त्वका शुद्ध आत्माका अनुभूनितरूप श्रद्धान है सो भाव है, ऐसे भावरनिहत हो उसके चार आराधना होती है उसका फ> अरहन्त शिसद्ध पद है, और ऐसे

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भावसे रनिहत हो उसके आराधना नहीं होती हैं, उसका फ> संसारका भ्रमण है । ऐसा ानकर भाव शुद्ध करना यह उपदेश है ।।99।।

आगे भावहीके फ>को निवशेषरूपसे कहते हैं :—पावंवित भावसवणा कल्लाणपरंपराइं सोक्खाइं ।दुक्खाइं दव्वसवणा णरवितरिरर्यकुदेवजोणीए ।।100।।प्रापु्नवंवित भावभ्रमणाः कल्र्याणपरंपराः सौख्र्याविन ।दुःखाविन द्रव्यश्रमणाः नरवितर्य�क्कुदेवर्योनौ ।।100।।

रे ! भावमुविन कल्र्याणकोनी श्रेशिणरु्यत सौख्र्यो लहे,ने द्रव्यमुविन वितर्यmच—मनुज—कुदेवमां दुःखो सहे. 100.

अथ% :— ो भावश्रमण हैं, भावमुनिन हैं, वे जि नमें कल्याणकी परंपरा है ऐसे सुkोंको पाते हैं और ो द्रव्यश्रमण हैं वे नितय�च मनुष्य कुदेव योनिनमें दुःkोंको पाते हैं ।

भावाथ% :—भावमुनिन सम्यग्दश%न सनिहत हैं व े तो सो>हकारण भावना भाकर गभ%, न्म, तप, ज्ञान, निनवा%ण—पंचकल्याणक सनिहत तीथ�कर पद पाकर मोक्ष पाते हैं और ो सम्यग्दश%न रनिहत द्रव्यमुनिन हैं वे नितय�च, कुदेव योनिन पाते हैं । यह भावके निवशेष से फ>का निवशेष है ।।100।।

आगे कहते हैं निक अशुद्ध भावसे अशुद्ध ही आहार निकया, इसशि>ये दुग%नित ही पाई :—

छार्यालदोसदूचिसर्यमसणं गचिसउं असुद्धभावेण ।पAो चिस महावसणं वितरिरर्यगईए अण=पवसो ।।101।।षट्चत्वारिरंश�ोषदूविषतमशनं ग्रचिसतं अशुद्धभावेन ।प्रा=तः अचिस महाव्यसनं वितर्य�ग्गतौ अनात्मवशः ।।101।।

अविवशुद्ध भावे दोष छेंसाळीस र्यह ग्रही अशनने,वितर्यmचगवित मध्रे्य तुं पाम्र्यो दुःख बहु परवशपणे. 101.

अथ% :—हे मुने ! तूने अशुद्ध भावसे शिछया>ीस दोषोंसे दूनिषत अशुद्ध अशन (आहार) ग्र-या (kाया) इस कारणसे नितय�चगनितमें पराधीन होकर महान (बडे़) व्यसन (कष्ट) को प्राप्त निकया ।

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भावाथ% :—मुनिन शिछया>ीस दोषरनिहत शुद्ध आहार करता है, बत्तीस अंतराय टा>ता है, चौदह म>दोषरनिहत करता है, सो ो मुनिन होकर सदोष आहार करे तो ज्ञात होता है निक इसके भाव भी शुद्ध नहीं हैं । उसको यह उपदेश है निक—हे मुन े ! तूने दोष—सनिहत अशुद्ध आहार निकया, इसशि>ये नितय�चगनितमें पनिह>े भ्रमण निकया और कष्ट सहा, इसशि>ये भाव शुद्ध करके आहार कर जि समें निफर भ्रमण न करे । शिछया>ीस दोषोंसे सो>ह तो उद्गम दोष हैं, वे आहारके बननेके हैं, ये श्रावकके आभिश्रत हैं । सो>ह उत्पादन दोष हैं, ये मुनिनके आभिश्रत हैं । दस दोष एषणाके हैं, ये आहारके आभिश्रत हैं । चार प्रमाणादिदक हैं । इनके नाम तथा -वरूप मू>ाचार, आचारसार ग्रंथसे ानिनये ।।101।।

आगे निफर कहते हैं :—सत्थिच्चAभAपाणं विगद्धी द=पेण)धी पभूAूण ।पAो चिस वितव्वदुक्खं अणाइकालेण तं लिचंत ।।102।।सचिचAभ}पान ंगृद्ध्या दपtण अधीः प्रभुज्र्य ।प्रा=तो)चिस तीव्रदुःखं अनादिदकालेन त्वं चिचन्तर्य ।।102।।

तंु विवचार रे !—ते दुःख तीव्र लह्यां अनादिद काळर्थी,करी अशन—पान सचिचAनां अज्ञान-गृशिद्ध-दप�र्थी. 102.

अथ% :—ह े ीव ! त ू दुबु%जिद्ध (अज्ञानी) होकर अनितचार सनिहत तथा अनितगव% (उद्धतपने) से सशिचत्त भो न तथा पान, ीवसनिहत आहार—पानी >ेकर अनादिदका>से तीव्र दुःkको पाया, उसका शिचन्तवन कर—निवचार कर ।

भावाथ% :—मुनिनको उपदेश करत े ह ैं निक—अनादिदका>स े ब तक अज्ञानी रहा ीवका -वरूप नहीं ाना, तब तक सशिचत्त ( ीवसनिहत) आहार—पानी करते हुए संसारमें तीव्र नरकादिदकके दुःkको पाया । तब मुनिन होकर भाव शुद्ध करके सशिचत्त आहार—पानी मत करे, नहीं तो निफर पूव%वत् दुःk भोगेगा ।।102।।

आगे निफर कहते हैं :—कंदं मूलं बीर्यं पु=फं पAादिद हिकंचिच सत्थिच्चAं ।अचिसऊण माणगव्वं भमिमओ चिस अणंतसंसारे ।।103।।कंदं मूलं बीजं पुष्पं पत्रादिद हिकंचिचत् सचिचAम् ।अशिशत्वा मानगवt भ्रमिमतः अचिस अनंतसंसारे ।।103।।

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कंई कंद-मूलो, पत्र-पुष्पो, बीज आदिद सचिचAने,तंु मान-मदर्थी खाईने भटक्र्यो अनंत भवाण�वे. 103.

अथ% :—कंद— मीकंद आदिदक, बी —चना आदिद अन्नादिदक, मू>—अदरक मू>ी गा र आदिदक, पुष्प—फू>, पत्र नागरवे> आदिदक, इनको आदिद >ेकर ो भी कोई सशिचत्त व-तुथी उसे मान (गव%) करके भक्षण की । उससे हे ीव ! तूने अनंत-संसारमें भ्रमण निकया ।

भावाथ% :—कन्दमू>ादिदक सशिचत्त अनन्त ीवोंकी काय ह ै तथा अन्य वनस्पनित बी ादिदक सशिचत्त हैं इनको भक्षण निकया । प्रथम तो मान करके निक—हम तप-वी हैं, हमारे घरबार नहीं है, बनके पुष्प—फ>ादिदक kाकर तप-या करत े हैं,—ऐसे मिमथ्यादृमिष्ट तप-वी होकर मान करके kाये तथा गव%से उद्धत होकर दोष सम ा नहीं, -वचं्छद होकर सव%भक्षी हुआ । ऐसे इन कंदादिदकको kाकर इस ीवने संसारमें भ्रमण निकया । अब मुनिन होकर इनका भक्षण मत करे, ऐसा उपदेश ह ै । अन्यमतके तप-वी कंदमू>ादिदक फ>—फू> kाकर अपनेको महंत मानते हैं, उनका निनषेध है ।।103।।

आगे निवनय आदिदका उपदेश करते हैं, पनिह>े निवनयका वण%न है :—विवणर्यं पचपर्यारं पालविह मणवर्यणकार्यजोएण ।अविवणर्यणरा सुविवविहर्यं तAो मुलिAं न पावंवित ।।104।।विवनर्यः पंचप्रकारं पालर्य मनोवचनकार्यर्योगेन ।अविवनतनराः सुविवविहतां ततो मुलि}ं न प्रापु्नवंवित ।।104।।

रे ! विवनर्य पांच प्रकारनो तंु पाळ मन-वच-तन व)े;नर होर्य ए अविवनीत ते पामे न सुविवविहत मुचि}ने. 104.

अथ% :—हे मुने ! जि स कारणसे अनिवनयी मनुष्य भ>े प्रकार निवनिहत ो मुशिक्त उसको नहीं पाते हैं अथा%त् अभ्युदय तीथ�करादिद सनिहत मुशिक्त नहीं पाते हैं, इसशि>ये हम उपदेश करते ह ैं निक—हाथ ोड़ना, चरणोंम ें निगरना, आने पर उठना, सामने ाना और अनुकू> वचन कहना यह पाँच प्रकारका निवनय है अथवा ज्ञान, दश%न, चारिरत्र, तप और इनके धारक पुरुष इनका निवनय करना, ऐसे पाँच प्रकारके निवनयको तू मन—वचन—काय तीनों योगोंसे पा>न कर ।

भावाथ% :—निवनय निबना मुशिक्त नहीं है, इसशि>ये निवनयका उपदेश है । निवनयमें बडे़ गुण हैं, ज्ञानकी प्राप्ती होती है, मान कषायका नाश होता है, शिशष्टाचारका पा>ना है और क>हका निनवारण है, उत्यादिद निवनयके गुण ानने । इसशि>ये ो सम्यग्दश%नादिदसे महान् हैं

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उनका निवनय करो यह उपदेश है और ो निवनय निबना जि नमाग%से भ्रष्ट भये, व-त्रादिदकसनिहत ो मोक्षमाग% मानने >गे उनका निनषेध है ।।104।।

आगे भशिक्तरूप वैयावृत्यका उपदेश करते हैं :—शिणर्यसAीए महाजस भAीराएण शिणच्चकालप्तिम्म ।तं कुण जिजणभचिAपरं विवज्जावच्चं दसविवर्य=पं ।।105।।विनजशक्त्र्या महार्यशः ! भचि}रागेण विनत्र्यकाले ।त्वं कुरु जिजनभचि}परं वैर्यावृत्र्यं दशविवकल्पम् ।।105।।

तंु हे महार्यश ! भचि}राग व)े स्वशचि}प्रमाणमां,जिजनभचि}रत दशभेद वैर्यावृत्त्र्यने आचर सदा. 105.

अथ% :—हे महायश ! हे मुने ! जि नभशिक्तमें तत्पर होकर, भशिक्तके रागपूव%क उस दस भेदरूप वैयावृत्यको सदाका> तू अपनी शशिक्तके अनुसार कर । वैयावृत्यके दूसरे दुःk (कष्ट) आन े पर उसकी सेवा-चाकरी करनेको कहत े ह ैं । इसके दस भेद हैं—1 आचाय%, 2 उपाध्याय, 3 तप-वी, 4 शैक्ष्य, 5 ग्>ान, 6 गण, 7 कु>, 8 संघ, 9 साधु, 10 मनोज्ञ—ये दस मुनिनके हैं । इनका वैयावृत्य करते हैं इसशि>ये दस भेद कहे हैं ।।105।।

आगे अपने दोषको गुरुके पास कहना, ऐसी गहा%का उपदेश करते हैं :—जं हिकंचिच कर्यं दोसं मणवर्यकाएहिहं असुहभावेणं ।तं गरविह गुरुसर्यासे गारव मार्यं च मोAूण ।।106।।र्यः कशिश्चत् कृतः दोषः मनोवचः कार्यैः अशुभभावेन ।त ंगहm गुरुसकाशे गारवं मार्यां च मुक्त्वा ।।106।।

तें अशुभ भावे मन-वचन-तनर्थी कर्यN कंई दोष जे,कर गह�णा गुरुनी समीपे गव�-मार्या छो)ीने. 106.

अथ% :—हे मुने ! ो कुछ मन-वचन-कायके द्वारा अशुभ भावोंसे प्रनितज्ञामें दोष >गा हो उसको गुरुके पास अपना गौरव (महंतपनेका गव%) छोड़कर और माया (कपट) छोड़कर मन-वचन-कायको सर> करके गहा% कर अथा%त् वचन द्वारा प्रकाशिशत कर ।

भावाथ% :—अपने कोई दोष >गा हो और निनष्कपट होकर गुरुको कहे तो वह दोष निनवृत्त हो ावे । यदिद आप शल्यवान रहे तो मुनिनपदमें यह बड़ा दोष है, इसशि>ये अपना दोष

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शिछपाना नहीं, ैसा हो वैसा सर>बुजिद्धसे गुरुओंके पास कहे तब दोष मिमटे यह उपदेश है । का>के निनमिमत्तसे मुनिनपदसे भ्रष्ट भये, पीछे गुरुओंके पास प्रायभिश्चत्त नहीं शि>या, तब निवपरीत होकर अग सम्प्रदाय बना शि>ए, ऐसे निवपय%य हुआ ।।106।।

आगे क्षमाका उपदेश करते हैं :—दुज्जणवर्यणच)क्कं शिणट्ठरक)ुरं्य सहंवित स=पुरिरसा ।कम्ममलणासणटं्ठ भावेण र्य शिणम्ममा सवणा ।।107।।दुज�नवचनपेटां विनषु्ठरकटुकं सहन्ते सत्पुरुषाः ।कम�मलनाशनार्थm भावेन च विनम�माः श्रमणाः ।।107।।

दुज�न तणी विनषु्ठर-कटुक वचनोरूपी र्थ=प) सहे,सत्पुरुष विनम�मभावर्युत-मुविन कम�मळर्यहेतुए. 107.

अथ% :—सत्पुरुष मुनिन ह ैं व े दु %नके वचनरूप चपेट ो निनषु्ठर (कठोर) दयारनिहत और कट्ठक (सुनते ही कानोंको कड़े शू> समान >गे) ऐसी चपेट ह ै उसको सहते ह ैं । वे निकसशि>ये सहते ह ैं ? कम�का नाश होनेके शि>ये सहते हैं । पनिह>े अशुभ-कम% बाँधे थे उसके निनमिमत्तसे दु %नने कटुक वचन कहे, आपने सुने, उसको उपशम परिरणामसे आप सहे तब अशुभकम% उदय होय खिkर गये । ऐसे कटुकवचन सहनेसे कम%का नाश होता है ।

व े मुनिन सत्पुरुष कैस े ह ैं ? अपन े भावस े वचनादिदकसे निनम%मत्व हैं, वचनस े तथा मानकषायसे और देहादिदकसे ममत्व नहीं है । ममत्व हो तो दुव%चन सहे न ावें, यह न ाने निक इसने मुझे दुव%चन कहे, इसशि>ये ममत्वके अभावसे दुव%चन कहते हैं । अतः मुनिन होकर निकसी पर क्रोध नहीं करना यह उपदेश है । >ौनिककमें भी ो बड़े पुरुष हैं वे दुव%चन सुनकर क्रोध नहीं करते हैं, तब मुनिनको सहना उशिचत ही है । ो क्रोध करते हैं वे कहनेके तप-वी हैं, सच्चे तप-वी नहीं है ।।107।।

आगे क्षमाका फ> कहते हैं :—पावं खवइ असेस खमाए पवि)मंवि)ओ र्य मुणपवरो ।खेर्यरअमरणराणं पसंसणीओ धुवं होइ ।।108।।पापं शिक्षपवित अशेषं क्षमर्या परिरमंवि)तः च मुविनप्रवरः ।खेचरामरनराणां प्रशंसनीर्यः ध्रुवं भववित ।।108।।

मुविनप्रवर परिरमंवि)त क्षमार्थी पाप विनःशेषे दहे,

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नर-अमर-विवद्याधर तणा स्तुवितपात्र छे विनशिश्चतपणे. 108.अथ% :— ो मुनिनप्रवर (मुनिनयोंमें श्रेष्ठ, प्रधान) क्रोधसे अभावरूप क्षमासे मंनिOत है

वह मुनिन सम-त पापोंका क्षय करता है और निवद्याधर—देव—मनुष्यों द्वारा प्रशंसा करने योग्य निनश्चयसे होता है ।

भावाथ% :—क्षमा गुण बड़ा प्रधान है, इससे सबके -तुनित करने योग्य पुरुष होता है । ो मुनिन हैं उनके उत्तम क्षमा होती है, वे तो सब मनुष्य-देव-निवद्याधरोंके -तुनितयोग्य होते ही हैं और उनके सब पापोंका क्षय होता ही है, इसशि>ये क्षमा करना योग्य है—ऐसा उपदेश है । क्रोध सबके हिनंदा करने योग्य होता है, इसशि>ये क्रोधका छोड़ना श्रेष्ठ है ।।108।।

आगे ऐसे क्षमागुणको ानकर क्षमा करना और क्रोध छोड़ना ऐसा कहते हैं :—इर्य णाऊण खमागुण खमेविह वितविवहेण सर्यल जीवाणं ।चिचरसंचिचर्यकोहचिसहिहं वरखमसचिललेण लिसंचेह ।।109।।इवित ज्ञात्वा क्षमागुण ! क्षमस्व वित्रविवधेन सकलजीवान् ।चिचरसंचिचतक्रोधशिशखिखन ंवरक्षमासचिललेन लिसंच ।।109।।

तेर्थी क्षमागुणधर ! क्षमा कर जीव सौने त्रणविवध;ेउAमक्षमाजळ सींच तुं चिचरकाळना क्रोधाप्तिग्नने. 109.

अथ% :—हे क्षमागुण मुने ! (जि सके क्षमागुण हैं ऐसे मुनिनका संबोधन है) इनित अथा%त् पूव}क्त प्रकार क्षमागुणको ान और सब ीवों पर मन-वचन-कायसे क्षमा कर तथा बहुत का>से संशिचत क्रोधरूपी अखिग्नको क्षमारूप >से सींच अथा%त् शमन कर ।

भावाथ% :—क्रोधरूपी अखिग्न पुरुषके भ> े गुणोंको दग्ध करन े वा>ी ह ै और पर ीवोंका घात करनेवा>ी है, इसशि>ये इसको क्षमारूप >से बुझाना, अन्य प्रकार यह बुझती नहीं ह ै और क्षमा गुण सब गुणोंमें प्रधान ह ै । इसशि>ये यह उपदेश ह ै निक क्रोधको छोड़कर क्षमा ग्रहण करना ।।109।।

आगे दीक्षाका>ादिदककी भावनाका उपदेश करते हैं :—दिदक्खाकालाईर्यं भावविह अविवर्यारदंसणविवसुद्धो ।उAमबोविहशिणमिमAं असारसाराशिण मुशिणऊण ।।110।।दीक्षाकालादिदकं भव्य अविवकारदश�नविवशुद्धः ।उAमबोचिधविनमिमA असारसाराशिण ज्ञात्वा ।।110।।

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सुविवशुद्धदश�नधरपणे वरबोचिध केरा हेतुए;लिचंतव तंु दीक्षाकाळ-आदिदक, जाणी सार-असारने. 110.

अथ% :—हे मुन े ! तू संसारको असार ानकर उत्तमबोमिध अथा%त ् सम्यग्दश%न ज्ञान चारिरत्रकी प्रान्तिप्तके निनमिमत्त अनिवकार अथा%त ् अनितचाररनिहत निनम%> सम्यग्दश%न सनिहत होकर दीक्षाका> आदिदककी भावना कर ।

भावाथ% :—दीक्षा >ेते हैं तब संसार, (शरीर) भोगको (निवशेषतया) असार ानकर अत्यंत वैराग्य उत्पन्न होता है, वैसे ही उसके आदिद शब्दसे रोगोत्पभित्त, मरणका>ादिदक ानना । उस समयमें ैस े भाव हों वैस े ही संसारको असार ानकर, निवशुद्ध सम्यग्दश%न सनिहत होकर, उत्तमबोमिध जि ससे केव>ज्ञान उत्पन्न होता है, उसके शि>ये दीक्षाका>ादिदककी निनरन्तर भावना करना योग्य है, ऐसा उपदेश है ।।110।।

(निनरन्तर -मरणमें रkना :—क्या ? सम्यग्दश%न-ज्ञान-चारिरत्रकी वृजिद्ध हेतु हे मुनिन ! दीक्षाके समयकी अपूव% उत्साहमय तीव्र निवरक्त दशाको, निकसी रोगोत्पभित्तके समयकी उग्र ज्ञानवैराग्य संपभित्तको, निकसी दुःkके अवसर पर प्रगट हुई उदासीनताकी भावनाको, निकसी उपदेश तथा तत्त्वनिवचारके धन्य अवसर पर गी पनिवत्र अंतःभावनाको -मरणम ें रkना, निनरन्तर -वसन्मुkज्ञातापनको धीर अथ% -मरणमें रkना, भू>ना नहीं । (इस गाथाका निवशेष भावाथ%)

आगे भावलि>ंग शुद्ध करके द्रव्यलि>ंग सेवनका उपदेश करते हैं :—सेवविह चउविवहलिलंगं अब्भंतरलिलंगसुशिद्धमावण्णो ।बाविहरलिलंगमकज्जं होइ फु)ं भावरविहर्याणं ।।111।।सेवस्व चतरु्विवंधलिलंगं अभ्र्यंतरलिलंगशुशिद्धमापन्नः ।बाह्यलिलंगमकार्यm भववित सु्फटं भावरविहतानाम ।।111।।

करी प्रा=त आंतरलिलंगशुशिद्ध सेव चउविवध लिलंगने;छे बाह्यलिलंग अकार्य� भावविवहीने विनशिश्चतपणे. 111.

अथ% :—हे मुनिनवर ! तू अभ्यंतरलि>ंगकी शुजिद्ध अथा%त ् शुद्धताको प्राप्त होकर चार प्रकारके बाह्यलि>ंगका सेवन कर, क्योंनिक ो भावरनिहत होत े ह ैं उनके प्रगटपन े बाह्यलि>ंग अकाय% है अथा%त् काय%कारी नहीं है ।

भावाथ% :— ो भावकी शुद्धतासे रनिहत हैं, जि नके अपनी आत्माका यथाथ% श्रद्धान, ज्ञान, आचरण नहीं है, उनके बाह्यलि>ंग कुछ काय%कारी नहीं है, कारण पाकर तत्का> निबगड़ ाते हैं, इसशि>ये यह उपदेश है—पनिह>े भावकी शुद्धता करके द्रव्यलि>ंग धारण करो । यह

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द्रव्यलि>ंग चार प्रकारका कहा है, उसकी सूचना इसप्रकार है—1—म-तकके, 2—Oाढ़ीके और 3—मूछोंके केशोंका >ोच करना, तीन शिचह्न तो य े और चौथा नीचेके केश रkना; अथवा 1. व-त्रका त्याग, 2. केशोंका >ोच करना, 3. शरीरका -नानादिदसे सं-कार न करना, 4. प्रनित>ेkन मयूरनिपण्डिच्छका रkना, ऐसे भी चार प्रकारका बाह्यलि>ंग कहा है । ऐसे सब बाह्य व-त्रादिदकसे रनिहत नग्न रहना, ऐसा नग्नरूप भावनिवशुजिद्ध निबना हँसीका स्थान है और कुछ उत्तम फ> भी नहीं है ।।111।।

आगे कहते हैं निक भाव निबगड़नेके कारण चार संज्ञा हैं, उनसे संसार-भ्रमण होता है, यह दिदkाते हैं :—

आहारभर्यपरिरग्गहमेहुणसण्णाविह मोविहओ चिस तुमं ।भमिमओ संसारवणे अणाइकालं अण=पवसो ।।112।।आहारभर्यपरिरग्रहमैरु्थनसंज्ञाशिभः मोविहतः अचिस त्वम् ।भ्रमिमतः संसारवने अनादिदकालं अनात्मवशः ।।112।।

आहार-भर्य-परिरग्रह-मिमरु्थनसंज्ञा र्थकी मोविहतपणे,तंु परवशे भटक्र्यो अनादिद कालर्थी भवकानने. 112.

अथ% :—हे मुने ! तूने आहार, भय, मैथुन, परिरग्रह, इन चार संज्ञाओंसे मोनिहत होकर अनादिदका>से पराधीन होकर संसाररूप वनमें भ्रमण निकया ।

भावाथ% :—संज्ञा नाम वांछाके ागते रहने (अथा%त् बने रहने) का है, सो आहारकी वांछा होना, भय होना, मैथुनकी वांछा होना और परिरग्रहकी वांछा प्राणीके निनरन्तर बनी रहती है, यह न्मान्तरमें च>ी ाती है, न्म >ेते ही तत्का> प्रगट होती है । इसीके निनमिमत्तसे कम�का बंध कर संसारवनमें भ्रमण करता है, इसशि>ये मुनिनयोंको यह उपदेश है निक अब इन संज्ञाओंका अभाव करो ।।112।।

आगे कहते हैं निक बाह्य उत्तरगुणकी प्रवृभित्त भी भाव शुद्ध करके करना :—बाविहरसर्यणAावणतरुमूलाईशिण उAरगुणाशिण ।पालविह भावविवशुद्धो पूर्यालाहं ण ईहंतो ।।113।।बविहः शर्यनातापनतरुमूलादीन उAरगुणान् ।पालर्य भावविवशुद्धः पूजालाभ न ईहमानः ।।113।।

तरुमूल, आतापन, बविहःशर्यनादिद उAरगुणने

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तंु शुद्ध भावे पाळ, पूजालाभर्थी विनःस्पृहपणे. 113.अथ% :—हे मुनिनवर ! तू भावसे निवशुद्ध होकर पू ा—>ाभादिदकको नहीं चाहते हुए

बाह्यशयन, आतापन, वृक्षमू>योग धारण करना, इत्यादिद उत्तरगुणोंका पा>न कर ।भावाथ% :—शीतका>म ें बाहर kु> े मैदानम ें सोना—बैठना, ग्रीष्मका>म ें पव%तके

शिशkर पर सूय%सन्मुk आतापनयोग धरना, वषा%का>में वृक्षके नीचे योग धरना, हाँ बूँदे वृक्ष पर निगरनेके बाद एकत्र होकर शरीर पर निगरें । इसमें कुछ प्रासुकका भी संकल्प है और बाधा बहुत है, इनको आदिद >ेकर यह उत्तरगुण हैं, इनका पा>न भी भाव शुद्ध करके करना । भावशुजिद्ध बना कर े तो तत्का> निबगड़े और फ> कुछ नहीं है, इसशि>य े भाव शुद्ध करके करनेका उपदेश है । ऐसा न ानना निक इनको बाह्यमें करनेका निनषेध करते हैं । इनको भी करना और भाव भी शुद्ध करना यह आशय ह ै । केव> पू ा—>ाभादिदके शि>ए, अपना बड़प्पन दिदkानेके शि>ये करे तो कुछ फ> (>ाभ) की प्रान्तिप्त नहीं है ।।113।।

आगे तत्त्वकी भावना करनेका उपदेश करते हैं :—भावविह पढमं तचं्च विबदिदरं्य तदिदरं्य चउy पंचमर्यं ।वितर्यरणसुद्धो अ=पं अणाइशिणहणं वितवग्गहरं ।।114।।भावर्य प्रर्थमं तत्त्वं विद्वतीर्यं तृतीर्यं चतरु्थ� पंचमकम् ।वित्रकरणशुद्धः आत्मानं अनादिदविनधनं वित्रवग�हरम् ।।114।।

तंु भाव प्रर्थम, विद्वतीर्य, त्रीजा, तुर्य�, पंचम तत्त्वने,आद्यंतरविहत वित्रवग�हर जीवने, वित्रकरणविवशुशिद्धए. 114.

अथ% :—हे मुने ! तू प्रथम ो ीवतत्त्व उसका शिचन्तवन कर, निद्वतीय अ ीवतत्त्वका शिचन्तन कर, तृतीय आस्रवतत्त्वका शिचन्तन कर, चतुथ% बन्धतत्त्वका शिचन्तन कर, पंचम संवरतत्त्वका शिचन्तन कर, और नित्रकरण अथा%त ् मन-वचन-काय, कृत—कारिरत—अनुमोदनासे शुद्ध होकर आत्म-वरूपका शिचन्तन कर; ो आत्मा अनादिदनिनधन है और नित्रवग% अथा%त् धम%, अथ% तथा काम इनको हरनेवा>ा है ।

भावाथ% :—प्रथम ीवतत्त्व की भावना तो सामान्य ीव दश%न-ज्ञानमयी चेतना-वरूप है, उसकी भावना करना । पीछे ऐसा म ैं हू ँ इसप्रकार आत्मतत्त्वकी भावना करना । दूसरा अ ीवतत्त्व ह ै सो सामान्य अचेतन ड़ है, यह पाँच भेदरूप पुद्र>, धम%, अधम%, आकाश, का> हैं इनका निवचार करना । पीछे भावना करना निक ये हैं वह मैं नहीं हूँ । तीसरा आस्रवतत्त्व ह ै वह ीव-पुद्ग>के संयोग निनत भाव है, इनम ें अनादिद कम%सन्ब्धसे ीवके भाव (भाव-आस्रव) तो राग-दे्वष-मोह हैं और अ ीव पुद्ग>के भावकम%के उदयरूप

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मिमथ्यात्व, अनिवरत, कषाय और योग द्रव्यास्रव है । इनकी भावना करना निक य े (–असद्भतू व्यवहारनय अपेक्षा) मुझ े होत े हैं, (अशुद्ध निनश्चयनयसे) रागदे्वषमोह भाव मेर े हैं, इनसे कम�का बन्ध होता है, उससे संसार होता है इसशि>ये इनका कत्ता% न होना—(-वमें अपने ज्ञाता रहना) ।

चौथा बन्धतत्त्व है वह मैं रागदे्वषमोहरूप परिरणमन करता हूँ वह तो मेरी चेतनाका निवभाव है, इससे ो बंधते हैं वे पुद्ग> हैं, कम% पुद्ग> है, कम% पुद्ग> ज्ञानावरण आदिद आठ प्रकार होकर बंधता है, व े -वभाव—प्रकृनित, ण्डिस्थनित, अनुभाग और प्रदेशरूप चार प्रकार होकर बँधते हैं, वे मेरे निवभाव तथा पुद्ग> कम% सब हेय हैं, संसारके कारण हैं, मुझे रागदे्वष मोहरूप नहीं होना है, इसप्रकार भावना करना ।

पाँचवा ँ संवरतत्त्व है वह राग-दे्वष-मोहरूप ीवके निवभाव हैं, उनका न होना और दश%न-ज्ञानरूप चेतनाभाव ण्डिस्थर होना यह संवर है, वह अपना भाव ह ै और इसीसे पुद्ग>कम% निनत भ्रमण मिमटता है ।

इसप्रकार इन पाँच तत्त्वोंकी भावना करनेमें आत्मतत्त्वकी भावना प्रधान है, उससे कम%की निन %रा होकर मोक्ष होता है । आत्माका भाव अनुक्रमसे शुद्ध होना यह तो निन %रातत्त्व हुआ और सब कम�का अभाव होना वह मोक्षतत्त्व हुआ । इसप्रकार सात तत्त्वोंकी भावना करना । इसशि>ये आत्मतत्त्वका निवशेषण निकया निक आत्मतत्त्व कैसा है—धम%, अथ%, काम, इस नित्रवग%का अभाव करता है । इसकी भावनासे नित्रवग%से भिभन्न चौथा पुरुषाथ% मोक्ष है वह होता है । यह आत्मा ज्ञान-दश%नमयी चेतना-वरूप अनादिदनिनधन है, इसका आदिद भी नहीं और निनधन (नाश) भी नहीं है । भावना नाम बारबार अभ्यास करने, शिचन्तन करनेका है वह मन-वचन-कायसे आप करना तथा दूसरेको कराना और करानेवा>ेको भ>ा ानना—ऐसे नित्रकरण शुद्ध करके भावना करना । माया—निनदान शल्य नहीं रkना, ख्यानित, >ाभ, पू ाका आशय न रkना । इसप्रकारसे तत्त्की भावना करने से भाव शुद्ध होते हैं ।

-त्री आदिद पदाथ� परसे भेदज्ञानीका निवचार ।इसका उदाहरण इसप्रकार है निक— ब -त्री आदिद इजिन्द्रयगोचर हों (दिदkाई दें) तब

उनके निवषयमें तत्त्वनिवचार करना निक यह -त्री है वह क्या है ? ीवनामक तत्त्वकी एक पया%य है, इसका शरीर ह ै वह तो पुद्ग>तत्त्वकी पया%य है, यह हावभाव चेष्टा करती है, वह इस ीवके निवकार हुआ है यह आस्रवतत्त्व ह ै और बाह्य चेष्टा पुद्ग>की है, इस निवकारसे इस -त्रीकी आत्माके कम%का बन्ध होता है । यह निवकार इसके न हो तो आस्रव बन्ध इसके न हों । कदाशिचत ् म ैं भी इसको देkकर निवकाररूप परिरणमन करँू तो मेर े भी आस्रव बन्ध हों । इसशि>ये मुझे निवकाररूप न होना यह संवरतत्त्व है । बन सके तो कुछ उपदेश देकर इसका निवकार दूर करँू (ऐसा निवकल्प राग है,) वह राग भी करन े योग्य नहीं है—-वसन्मुk ज्ञातापनेमें धैय% रkना योग्य है । इसप्रकार तत्त्वकी भावनासे अपना भाव अशुद्ध नहीं होता है,

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इसशि>य े ो दृमिष्टगोचर पदाथ% हों उनम ें इसप्रकार तत्त्वकी भावना रkना, यह तत्त्वकी भावनाका उपदेश है ।।114।।

आगे कहते हैं निक ऐसे तत्त्वकी भावना ब तक नहीं है तब तक मोक्ष नहीं है :—जाव ण भावइ तचं्च जाव ण लिचंतेइ लिचंतणीर्याइं ।ताव ण पावइ जीवो जरमरणविववस्थिज्जर्यं ठाणं ।।115।।र्यावन्न भावर्यवित तत्त्वं र्यावन्न लिचंतर्यवित लिचंतनीर्याविन ।तावन्न प्राप्नोवित जीवः जरामरणविववर्जिजतंं स्थानम् ।।115।।

भावे न ज्र्यां लगी तत्त्व, ज्र्यां लगी लिचंतनीर्य न लिचंतवे,जीव त्र्यां लगी पामे नहीं जर-मरणवर्जिजंत स्थानने. 115.

अथ% :—ह े मुन े ! बतक वह ीवादिद तत्त्वोंको नहीं भाता ह ै और शिचन्तन करने योग्यका शिचन्तन नहीं करता ह ै तब तक रा और मरणसे रनिहत मोक्षस्थानको नहीं पाता है ।

भावाथ% :—तत्त्वकी भावना तो पनिह>े कही वह शिचन्तन करनेयोग्य धम%शुक्>-ध्यानका निवषयभूत ो ध्येय व-त ु अपना शुद्ध दश%नज्ञानमयी चेतनाभाव और ऐसा ही अरहंतशिसद्ध परमेष्ठीका -वरूप, उसका शिचन्तन ब तक इस आत्माके न हो तब तक संसारसे निनवृत्त होना नहीं है, इसशि>य े तत्त्वकी भावना और शुद्ध-वरूपके ध्यानका उपाय निनरन्तर रkना यह उपदेश है ।।115।।

आगे कहते हैं निक पाप-पुhयका और बन्ध-मोक्षका कारण परिरणाम ही है :—पावं हवइ असेसं पुण्णमसेसं च हवइ परिरणामा ।परिरणामादो बंधो मुक्खो जिजणसासणे दिदट्ठो ।।116।।पापं भववित अशेषं पुण्र्यमशेषं च भववित परिरणामात् ।परिरणामादं्बधः मोक्षः जिजनशासने दृष्टः ।।116।।

रे ! पाप सघळंु, पुण्र्य सघळंु र्थार्य छे परिरणामर्थी;परिरणामर्थी छे बंध तेम ज मोक्ष जिजनशासन महीं. 116.

अथ% :—पाप-पुhय, बंध-मोक्षका कारण परिरणाम ही को कहा है । ीवके मिमथ्यात्व, निवषय-कषाय, अशुभ>ेश्यारूप तीव्र परिरणाम होते हैं, उनसे तो पापास्रवका बंध होता है । परमेष्ठीकी भशिक्त, ीवों पर दया इत्यादिदक मंदकषाय शुभ>ेश्यारूप परिरणाम होते हैं, इससे

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पुhयास्रवका बंध होता ह ै । शुद्धपरिरणामरनिहत निवभावरूप परिरणामस े बंध होता ह ै । शुद्धभावके सन्मुk रहना, उसके अनुकू> शुभ परिरणाम रkना, अशुभ परिरणाम सव%था दूर करना, यह उपदेश है ।।116।।

आगे पुhय-पापका बंध कैसे भावोंसे होता ह ै उनको कहते ह ैं । पनिह>े पाप-बंधके परिरणाम कहते हैं :—

मिमच्छA तह कसार्यासंजमजोगेहिहं असुहलेसेहिहं ।बंधइ असुहं कम्मं जिजणवर्यणपरम्मुहो जीवो ।।117।।मिमथ्र्यात्वं तर्था कषार्यासंर्यमर्योगैः अशुभलैश्र्यैः ।बध्नावित अशुभं कमm जिजनवचनपराङु्मखः जीवः ।।117।।

मिमथ्र्या-कषार्य-अविवरवित-र्योग अशुभलेश्र्याप्तिन्वत व)े,जिजनवचपराङु्मख आत्मा बांधे अशुभरूप कम�ने. 117.

अथ% :—मिमथ्यात्व, कषाय, असंयम और योग जि नम ें अशुभ>ेश्या पाई ाती है इसप्रकारके भावोंसे यह ीव जि नवचनसे पराङु्मk होता है—अशुभकम%को बाँधता है वह पाप ही बाँधता है ।

भावाथ% :—मिमथ्यात्वभाव तत्त्वाथ%का श्रद्धानरनिहत परिरणाम है । कषाय क्रोधादिदक हैं । असंयम परद्रव्यके ग्रहणरूप है त्यागरूप भाव नहीं, इसप्रकार इजिन्द्रयोंके निवषयोंसे प्रीनित और ीवोंकी निवराधनासनिहत भाव ह ै । योग मन-वचन-कायके निनमिमत्तस े आत्मप्रदेशोंका च>ना है । ये भाव ब तीव्र कषाय सनिहत कृष्ण, नी>, कापोत अशुभ >ेश्यारूप हों तब इस ीवके पापकम%का बंध होता है । पापबंध करनेवा>ा ीव कैसा ह ै ? उसके जि नवचनकी श्रद्धा नहीं ह ै । इस निवशेषणका आशय यह ह ै निक अन्यमतके श्रद्धानीके ो कदाशिचत् शुभ>ेश्याके निनमिमत्तसे पुhयका बंध हो तो उसको पापहीमें निगनते हैं । ो जि नआज्ञामें प्रवत%ता है उसके कदाशिचत् पाप भी बँधे तो वह पुhय ीवोंकी ही पंशिक्तमें निगना ाता है, मिमथ्यादृमिष्टको पापी ीवोंम ें माना ह ै और सम्यग्दृमिष्टको पुhयवान ् ीवोंम ें माना ह ै । इसप्रकार पापबंधके कारण कहे ।।117।।

आगे इससे उ>टा ीव है वह पुhय बाँधता है, ऐसा कहते हैं :—तप्तिव्ववरीओ बंधइ सुहकम्मं भावसुशिद्धमावण्णो ।दुविवहपर्यारं बंधइ संखेवेणेव वज्जरिररं्य ।।118।।

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तविद्वपरीतः बध्नावित शुभकम� भावशुशिद्धमापन्नः ।विद्वविवधप्रकारं बध्नावित संक्षेपेणैव कचिर्थतम् ।।118।।

विवपरीत तेर्थी भावशुशिद्धप्रा=त बांधे शुभने,–ए रीत बांधे अशुभ-शुभ; संक्षेपर्थी ज कहेल छे. 118.

अथ% :—उस पूव}क्त जि नवचनका श्रद्धानी मिमथ्यात्वरनिहत सम्यग्दृमिष्ट ीव शुभकम%को बाँधता ह ै जि सन े निक—भावोंम ें निवशुजिद्ध प्राप्त की ह ै । ऐस े दोनों प्रकारके ीव शुभाशुभ कम%को बाँधते हैं, यह संक्षेपसे जि नभगवाने्न कहा है ।

भावाथ% :—पनिह>े कहा था निक जि नवचनसे पराङु्मk मिमथ्यात्व सनिहत ीव है, उससे निवपरीत जि नआज्ञाका श्रद्धानी सम्यग्दृमिष्ट ीव निवशुद्धभावको प्राप्त होकर शुभकम%को बाँधता है, क्योंनिक इसके सम्यक्त्वके माहात्म्यस े ऐस े उज्जव> भाव ह ैं जि नस े मिमथ्यात्वके साथ बँधनेवा>ी पापप्रकृनितयोंका अभाव है । कदाशिचत् हिकंशिचत् कोई पापप्रकृनित बँधती है तो उसका अनुभाग मंद होता है, कुछ तीव्र पापफ>का दाता नहीं होता । इसशि>य े सम्यग्दृमिष्ट शुभकम%हीको बाँधनेवा>ा है—इसप्रकार शुभ-अशुभ कम%के बंधका संक्षेपस े निवधान सव%ज्ञदेवने कहा है, वह ानना चानिहये ।।118।।

आगे कहते हैं निक हे मुने ! तू ऐसी भावना कर :—णाणावरणादीहिहं र्य अट्ठहिहं कम्मेहिहं वेदिढओ र्य अहं ।)विहऊण इस्त्रिण्हं पर्य)मिम अणंतणाणाइगुणचिचAां ।।119।।ज्ञानावरणादिदशिभः च अष्टशिभः कम�शिभः वेविष्टतश्च अहं ।दग्ध्वा इदानीं प्रकटर्यामिम अनन्तज्ञानादिदगुणचेतनां ।।119।।

वेविष्टत छंु हंु ज्ञानावरणकमा�दिद कमा�ष्टक व)े,वाळी हुं प्रगटावंु अमिमतज्ञानादिदगुणवेदन हवे. 119.

अथ% :—हे मुनिनवर ! तू ऐसी भावना कर निक मैं ज्ञानावरणादिद आठ कम�से वेमिष्ठत हँू, इसशि>ये इनको भ-म करके अनन्तज्ञानादिद गुण जि न-वरूप चेतनाको प्रगट करँू ।

भावाथ% :—अपनेको कम�से वेमिष्ठत माने और उनसे अनन्तज्ञानादिद गुण आच्छादिदत माने तब उन कम�के नाश करनेका निवचार करे, इसशि>ये कम�के बंधकी और उनके अभावकी भावना करनेका उपदेश है । कम�का अभाव शुद्ध-वरूपके ध्यानसे होता है, उसीके करनेका उपदेश है ।

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कम% आठ हैं—1—ज्ञानावरण, 2—दश%नावरण, 3—मोहनीय, 4—अंतराय ये चार घानितया कम% हैं, इनकी प्रकृनित सैंता>ीस हैं, केव>ज्ञानावरणसे अनन्तज्ञान आच्छादिदत है, केव>दश%नावरणसे अनन्तदश%न आच्छादिदत है, मोहनीयसे अनन्तसुk प्रगट नहीं होता है और अंतरायसे अनन्तवीय% प्रगट नहीं होता है, इसशि>ये इनका नाश करो । चार अघानितकम% हैं इनसे अव्याबाध, अगुरु>घु, सूक्ष्मता और अवगाहना ये गुण (—की निनम%> पया%य) प्रगट नहीं होते हैं, इन अघानितकम�की प्रकृनित एकसौ एक हैं । घानितकम�का नाश होने पर अघानितकम�का -वयमेव अभाव हो ाता है, इसप्रकार ानना चानिहये ।।116।।

आगे इन कम�का नाश होनेके शि>ये अनेक प्रकारका उपदेश है, उसको संक्षेप से कहते हैं :—

सीलसहस्सट्ठारस चउरासीगुणगणाण लक्खाइं ।भावविह अणुदिदणु शिणविहलं अस=पलावेण हिकं बहुणा ।।120।।शीलसहस्राष्टादश चतुरशीवितगुणगणानां लक्षाशिण ।भावर्य अनुदिदनं विनखिखलं असत्प्रलापेन हिकं बहुना ।।120।।

चोराशी लाख गुणो, अढार हजार भेदो शीलना,–सघलुंर्य प्रवितदिदन भाव; बहु प्रलपन विनरर्थ�र्थी शुं भला ? 120.

अथ% :—शी> अठारह ह ार भेदरूप है और उत्तरगुण चौरासी >ाk हैं । आचाय% कहत े ह ैं निक ह े मुन े ! बहुत झूठे प्र>ापरूप निनरथ%क बचनोंस े क्या ? इन शी>ोंको और उत्तरगुणोंको सबको त ू निनरन्तर भा, इनकी भावना—शिचन्तन—अभ्यास निनरन्तर रk, ैसे इनकी प्रान्तिप्त हो वैसे ही कर ।

भावाथ% :—आत्मा— ीव नामक व-त ु अनन्तधम%-वरूप ह ै । संक्षेपस े इसकी दो परिरणनित हैं, एक -वाभावानिक एक निवभावरूप । इनम ें -वाभानिवक तो शुद्धदश%नज्ञानमयी चेतनापरिरणाम ह ै और निवभावपरिरणाम कम%के निनमिमत्तसे ह ैं । य े प्रधानरूपसे तो मोहकम%के निनमिमत्तसे हुए हैं । संक्षेपसे मिमथ्यात्व रागदे्वष हैं, इनके निव-तारसे अनेक भेद हैं । अन्य कम�के उदयस े निवभाव होत े ह ैं उनम ें पौरुष प्रधान नहीं है, इसशि>य े उपदेश-अपेक्षा व े गौण हैं; इसप्रकार ये शी> और उत्तरगुण -वभाव-निवभाव परिरणनितके भेदसे भेदरूप करके कहे हैं ।

शी>की प्ररूपणा दो प्रकारकी है—एक -वद्रव्य—परद्रव्यके निवभागकी अपेक्षा है और दूसरे -त्रीके संसग%की अपेक्षा है । परद्रव्यका संसग% मन, वचन, कायसे कृत, कारिरत, अनुमोदनासे न करना । इनको आपसमें गुणा करनेसे नौ भेद होते हैं । आहार, भय, मैथुन

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और परिरग्रह ये चार संज्ञा हैं, इनसे परद्रव्यका संसग% होता है उसका न होना, ऐसे नौ भेदोंको चार संज्ञाओंसे गुणा करनेपर छत्तीस होते हैं । पाँच इजिन्द्रयोंके निनमिमत्तसे निवषयोंका संसग% होता है, उनकी प्रवृभित्तके अभावरूप पाँच इजिन्द्रयोंसे छत्तीसको गुणा करने पर एकसौ अ-सी होते हैं । पृथ्वी, अप्, ते , वायु, प्रत्येक, साधारण य े तो एकेजिन्द्रय और दोइजिन्द्रय, तीनइजिन्द्रय, चौइजिन्द्रय, पंचेजिन्द्रय ऐस े दश भेदरूप ीवोंका संसग%, इनकी हिहंसारूप प्रवत%नेस े परिरणाम निवभावरूप होते हैं सो न करना, ऐसे एकसौ अ-सी भेदोंको दससे गुणा करने पर अठारहसौ होत े ह ैं । क्रोधादिदक कषाय और असंयम परिरणामसे परद्रव्यसंबंधी निवभावपरिरणाम होत े हैं उनके अभावरूप दस>क्षण धम% है, उनसे गुणा करनेसे अठारह ह ार होते हैं । ऐसे परद्रव्यके संसग%रूप कुशी>के अभावरूप शी>के अठारह ह ार भेद हैं । इनके पा>नेसे परम ब्रह्मचय% होता है, ब्रह्म (आत्मा) में प्रवत%ने और रमनेको ब्रह्मचय% कहते हैं ।

-त्रीके संसग%की अपेक्षा इसप्रकार है—-त्री दो प्रकारकी है, अचेतन -त्री काष्ठ पाषाण >ेप (शिचत्राम) ये तीन, इसका मन और काय दो से संसग% होता है, यहाँ वचन नहीं है इसशि>ये दो से गुणा करने पर छह होते हैं । कृत, कारिरत, अनुमोदनासे गुणा करने पर अठारह होते हैं । पाँच इजिन्द्रयोंसे गुणा करने पर नव्वे होते हैं । द्रव्य-भावसे गुणा करने पर एकसौ अ-सी होते हैं । क्रोध, मान, माया, >ोभ इन चार कषायोंसे गुणा करने पर सातसौ बीस होते हैं । चेतन -त्री देवी, मनुस्त्रिष्यणी, ऐसे तीन, इन तीनोंको मन, वचन, कायसे गुणा करने पर नौ होत े ह ैं । इनको कृत, कारिरत, अनुमोदनासे गुणा करने पर सत्ताईस होते ह ैं । इनको पांच इजिन्द्रयोंसे गुणा करने पर एकसौ पैंतीस होते हैं । इनको द्रव्य और भाव इन दो से गुणा करने पर दो सौ सत्तर होत े ह ैं । इनको चार संज्ञास े गुणा करनेपर एक ह ार अ-सी होती ह ैं । इनको अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्व>न क्रोध मान माया >ोभ इन सो>ह कषायोंसे गुणा करने पर सत्रह ह ार दो सौ अ-सी होते हैं । ऐसे अचेतन-त्रीके सातसौ बीस मिम>ाने पर *अठारह ह ार होते ह ैं । ऐसे -त्रीके संसग%से निवकार परिरणाम होते ह ैं सौ कुशी> है, इनके अभावरूप परिरणाम शी> है इसकी भी ब्रह्मचय% संज्ञा है ।* अचेतन : -त्री काष्ठ, पाषाण शिचत्राम मन काय कृत कारिरत अनुमोदना इजिन्द्रयाँ 5 द्रव्यभाव क्रोध, मान, माया, >ोभ 3 x 2 x 3 x 5 x 2 x 4 = 720चेतन : देवी -त्री मनुष्याणी नितय�शिचणी मन वचन काय कृत कारिरत अनुमोदना इजिन्द्रयाँ 5 द्रव्य भावअनंतानुबंधी आहार परिरग्रह भय, मैथुन प्रत्याख्यानावरण संज्व>न मान, माया, >ोभ

3 x 3 x 3 x 5 x 2 x 4 X 4 x 4 = 17280 /18000चौरासी >ाk उत्तरगुण ऐसे हैं ो आत्माके निवभावपरिरणामके बाह्यकारणोंकी अपेक्षा

भेद होते हैं । उनके अभावरूप ये गुणोंके भेद हैं । उन निवभावोंके भेदोंकी गणना संक्षेपसे ऐसे

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है—1—हिहंसा 2—अनृत 3—-तेय 4—मैथुन 5—परिरग्रह 6—क्रोध 7—मान 8—माया 9—>ोभ 10—भय, 11— ुगुप्सा 12—अरनित 13—शोक 14—मनोदुष्टत्व 15—वचनदुष्टत्व 16—कायदुष्टत्व 17—मिमथ्यात्व 18—प्रमाद 19—पैशून्य 20—अज्ञान 21—इजिन्द्रयका अनुग्रह ऐसे इक्कीस दोष हैं । इनको अनितक्रम, व्यनितक्रम, अनितचार, अनाचार इन चारोंसे गुणा करने पर चौरासी होते ह ैं । पृथ्वी—अप्—ते —वायु प्रत्येक साधारण ये स्थावर एकेजिन्द्रय ीव छह और निवक> तीन, पंचेंदिद्रय एक ऐसे ीवोंके दस भेद, इनका परस्पर आरंभसे घात होता है इनको परस्पर गुणा करने पर भी सौ (100) होते हैं । इनसे चौरासीको गुणा करने पर चौरासी सौ होते हैं, इनको दस शी>-निवराधने से गुणा करने पर चौरासी ह ार होते हैं । इन दसके नाम ये हैं 1 -त्रीसंसग%, 2 पुष्टरसभो न, 3 गंधमाल्यका ग्रहण, 4 सुन्दर शयनासनका ग्रहण, 5 भूषणका मंOन, 6 गीतवादिदत्रका प्रसंग, 7 धनका संप्रयो न, 8 कुशी>का संसग%, 9 रा सेवा, 10 रानित्रसंचरण ये शी>—निवराधना हैं । इनके आ>ोचनाके दस दोष हैं—गुरुओंके पास >गे हुए दोषोंकी आ>ोचना करे सो सर> होकर न करे कुछ शल्य रkे, उसके दस भेद निकये हैं, इनसे गुणा करने पर आठ >ाk चा>ीस ह ार होते हैं । आ>ोचनाको आदिद देकर प्रायभिश्चत्तके दस भेद हैं इनसे गुणा करने पर चौरासी >ाk होते हैं । सो सब दोषोंके भेद हैं, इनके अभावसे गुण होते हैं । इनकी भावना रkे, शिचन्तवन और अभ्यास रkे, इनकी संपूण% प्रान्तिप्त होनेका उपाय रkे; इसप्रकार इनकी भावनाका उपदेश है ।

आचाय% कहते हैं निक बारबार बहुत वचनके प्र>ापसे तो कुछ साध्य नहीं हैं, ो कुछ आत्माके भावकी प्रवृभित्तके व्यवहारके भेद हैं इनकी गुण संज्ञा है, उनकी भावना रkना । यहाँ इतना और ानना निक गुणस्थान चौदह कहे हैं, उस परिरपाटीसे गुण—दोषोंका निवचार है । मिमथ्यात्व सासादन मिमश्र इन तीनोंमें तो निवभावपरिरणनित ही है, इनमें तो गुणका निवचार ही नहीं ह ै । अनिवरत, देशनिवरत आदिदम ें शी>गुणका एकदेश आता ह ै । अनिवरतम ें मिमथ्यात्व अनन्तानुबन्धी कषायके अभावरूप गुणका एकदेश सम्यक्त्व और तीव्र रागदे्वषका अभावरूप गुण आता है और देशनिवरतमें कुछ व्रतका एकदेश आता है । प्रमत्तमें महाव्रतरूप सामामियक चारिरत्रका एकदेश आता है क्योंनिक पापसंबंधी राग दे्वष तो वहाँ नहीं है, परन्तु धम%सम्बन्धी राग है और सामामियक राग-दे्वषके अभावका नाम है, इसीशि>ये सामामियकका एकदेश ही कहा है । यहाँ -वरूपके सन्मुk होनेमें निक्रयाकांOके सम्बंधसे प्रमाद है, इसशि>ये प्रमत्त नाम दिदया है । अप्रमत्तमें -वरूप साधनमें तो प्रमाद नहीं है, परन्तु कुछ -वरूपके साधनेका राग व्यक्त है, इसशि>ये यहाँ भी सामामियकका एकदेश ही कहा है । अपूव%करण-अनिनवृभित्तकरणमें राग व्यक्त नहीं है, अव्यक्तकषायका सद्भाव है, इसशि>य े सामामियक चारिरत्रकी पूण%ता कही । सूक्ष्मसंपरायमें अव्यक्त कषाय भी सूक्ष्म रह गई, इसशि>ये इसका 50

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नाम सूक्ष्मसंपराय रkा । उपशान्तामोह क्षीणमोहमें कषायका अभाव ही है, इसशि>ये ैसा आत्माका मोहनिवकाररनिहत शुद्ध -वरूप था उसका अनुभव हुआ, इसशि>ये यथाख्यातचारिरत्र नाम रkा । ऐस े मोहकम%के अभावकी अपेक्षा तो यहा ँ ही उत्तरगुणोंकी पूण%ता कही ाती है, परन्तु आत्माका -वरूप अनन्तज्ञानादिद -वरूप है सो घानितकम%के नाश होनेपर अनन्तज्ञानादिद प्रगट होते हैं तब सयोगकेव>ी कहते हैं । इसमें भी कुछ योगोंकी प्रवृभित्त है, इसशि>य े अयोगकेव>ी चौदहवा ँ गुणस्थान ह ै । इसम ें योगोंकी प्रवृभित्त मिमट कर आत्मा अवण्डिस्थत हो ाती है तब चौरासी>ाk उत्तरगुणोंकी पूण%ता कही ाती है । ऐसे गुणस्थानोंकी अपेक्षा उत्तरगुणोंकी प्रवृभित्त निवचारने योग्य है । ये बाह्य अपेक्षा भेद हैं, अंतरंग अपेक्षा निवचार करें तो संख्यात, असंख्यात, अनन्त भेद होते हैं, इसप्रकार ानना चानिहये ।।120।।

आगे भेदोंके निवकल्पसे रनिहत होकर ध्यान करनेका उपदेश करते हैं :—झार्यविह धम्मं सुक्कं अट्ट रउ�ं च झाण मुAूण ।रु�ट्ट झाइर्याइं झमेण जीवेण चिचरकालं ।।121।।ध्र्यार्य धम्र्यm शुक्लं आAm रौदं्र च ध्र्यान ंमुक्त्वा ।रौद्राAt ध्र्यात ेअनेन जीवेन चिचरकालम् ।।121।।

ध्र्या धम्र्य� तेम ज शुक्लने, तजी आत� तेम ज रौद्रने,चिचरकाल ध्र्यार्यां आत� तेम ज रौद्र ध्र्यानो आ जीवे. 121.

अथ% :—हे मुनिन ! तू आत्त%—रौद्र ध्यानको छोड़ और धम%—शुक्>ध्यान हैं उन्हें ही कर, क्योंनिक रौद्र और आत्त%ध्यान तो इस ीवने अनादिदका>से बहुत समय तक निकये हैं ।

भावाथ% :—आत्त% रौद्र ध्यान अशुभ हैं, संसारके कारण हैं । ये दोनों ध्यान तो ीवके निबना उपदेश ही अनादिदसे पाये ाते हैं, इसशि>ये इनको छोड़नेका उपदेश है । धम%शुक्> ध्यान -वग%—मोक्षके कारण हैं । इनको कभी नहीं ध्याया, इसशि>ये इनका ध्यान करनेका उपदेश है । ध्यानका -वरूप एकाग्रलिचंतानिनरोध कहा है; धम%ध्यानमें तो धमा%नुरागका सद्भाव है सो धम%के—मोक्षमाग%के कारणमें रागसनिहत एकाग्रलिचंतानिनरोध होता है, इसशि>ये शुभरागके निनमिमत्तसे पुhयबन्ध भी होता ह ै और निवशुद्ध भावके निनमिमत्तस े पापकम%की निन %रा भी होती ह ै । शुक्>ध्यानमें आठवें नौंवें दसवें गुणस्थानमें तो अव्यक्तराग है । वहाँ अनुभवअपेक्षा उपयोग उज्जव> है, इसशि>य े शुक्> नाम रkा ह ै और इसस े ऊपरके गुणस्थानोंम ें राग-कषायका अभाव ही है, इसशि>ये सव%था ही उपयोग उज्ज्व> है, वहाँ शुक्>ध्यान युक्त ही है । इतनी और निवशेषता ह ै निक उपयोगके एकाग्रपनारूप ध्यानकी ण्डिस्थनित अन्तमु%हूत्त%की कही ह ै । उस अपेक्षासे तेरहवें-चौदहवें गुणस्थानमें ध्यानका उपचार है और योगनिक्रयाके सं्थभनकी अपेक्षा

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ध्यान कहा ह ै । यह शुक्>ध्यान कम%की निन %रा करके ीवको मोक्ष प्राप्त कराता है, ऐसे ध्यानका उपदेश ानना ।।121।।

आगे कहते हैं निक यह ध्यान भावलि>ंगी मुनिनयोंका मोक्ष करता है :—जे के विव दव्वसवणा इंदिदर्यसुहआउला ण लिछंदंवित ।लिछंदंवित भावसवणा झाणकुढारेहिहं भवरुक्खं ।।122।।र्ये के)विप द्रव्यश्रमणा इजिन्द्रर्यसुखाकुलाः न चिछन्दप्तिन्त ।चिछन्दप्तिन्त भावश्रमणाः ध्र्यानकुठारैः भववृक्षम् ।।122।।

द्रव्ये श्रमण इजिन्द्रर्यसुखाकुल होइने छेदे नहीं;भववृक्ष छेदे भावश्रमणो ध्र्यानरूप कुठारर्थी. 122.

अथ% :—कई द्रव्यलि>ंगी श्रमण हैं, वे तो इजिन्द्रयसुkमें व्याकु> हैं, उनके यह धम%-शुक्>ध्यान नहीं होता है । वे तो संसाररूपी वृक्षको काटनेमें समथ% नहीं हैं, और ो भावलि>ंगी श्रमण हैं, वे ध्यानरूपी कुल्हाडे़से संसाररूपी वृक्षको काटते हैं ।

भावाथ% :— ो मुनिन द्रव्यलि>ंग तो धारण करत े हैं, परन्त ु उसको परमाथ%-सुkका अनुभव नहीं हुआ है, इसशि>य े इह>ोक पर>ोकम ें इजिन्द्रयोंके सुk ही को चाहत े हैं, तपश्चरणादिदक भी इसी अभिभ>ाषासे करते हैं उनके धम%-शुक्> ध्यान कैसे हो ? अथा%त् नहीं होता ह ै । जि नने परमाथ% सुkका आ-वाद शि>या उनको इजिन्द्रयसुk दुःk ही ह ै ऐसा स्पष्ट भाशिसत हुआ है, अतः परमाथ% सुkका उपाय धम%-शुक्> ध्यान है उसको करके वे संसारका अभाव करते हैं, इसशि>ए भावलि>ंगी होकर ध्यानका अभ्यास करना चानिहये ।।122।।

आगे इस ही अथ%को दृष्टांत द्वारा दृढ़ करते हैं :—जह दीवो गब्भहरे मारुर्यबाहाविववस्थिज्जओ जलइ ।तह रार्याशिणलरविहओ झाणपईवो विव पज्जलइ ।।123।।र्यर्था दीपः गभ�गृहे मारुतबाधाविववर्जिजंतः ज्वलवित ।तर्था रागाविनलरविहतः ध्र्यानप्रदीपः अविप प्रज्वलवित ।।123।।

ज्र्यम गभ�गृहमां पवननी बाधा रविहत दीपक बळे,ते रीत रागाविनलविववर्जिजंत ध्र्यानदीपक पण जळे. 123.

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अथ% :— ैसे दीपक गभ%गृह अथा%त् हाँ पवनका संचार नहीं है ऐसे मध्यके घरमें पवनकी बाधारनिहत निनश्च> होकर >ता है (प्रकाश करता है), वैसे ही अंतरंग मनमें रागरूपी पवनस े रनिहत ध्यानरूपी दीपक भी >ता है, एकाग्र होकर ठहरता है, आत्मरूपको प्रकाशिशत करता है ।

भावाथ% :—पनिह>े कहा था निक ो इजिन्द्रयसुkसे व्याकु> ह ैं उनके शुभध्यान नहीं होता है, उसका यह दीपकका दृष्टांत है— हाँ इजिन्द्रयोंके सुkमें ो राग वह ही हुआ पवन वह निवद्यमान है, उनके ध्यानरूपी दीपक कैसे निनबा%ध उद्योत कर े ? अथा%त ् न करे, और जि नके यह रागरूपी पवन बाधा न करे उनके ध्यानरूपी दीपक निनश्च> ठहरता है ।।123।।

आगे कहते हैं निक—ध्यानमें ो परमाथ% ध्येय शुद्ध आत्माका -वरूप है उस -वरूपके आराधनेम ें नायक (प्रधान) पंच परमेष्ठी हैं, उनका ध्यान करनेका उपदेश करत े हैं :—

झार्यविह पंच विव गुरवे मंगलचउसरणलोर्यपरिरर्यरिरए ।णरसुरखेर्यरमविहए आराहणणार्यगे वीरे ।।124।।ध्र्यार्य पंच अविप गुरून् मंगलचतुः शरणलोकपरिरकरिरतान् ।नरसुरखेचरमविहतान ्आराधनानार्यकान् वीरान् ।।124।।

ध्र्या पंच गुरुने, शरण-मंगल-लोकउAम जेह छे,आराधनानार्यक, अमर-नर-खचरपूजिजत, वीर छे. 124.

अथ% :—हे मुन े ! तू पंच गुरु अथा%त ् पंचपरमेष्ठीका ध्यान कर । यहाँ ‘अनिप’ शब्द शुद्धात्म -वरूपके ध्यानको सूशिचत करता ह ै । पंच परमेष्ठी कैसे ह ैं ? मंग> अथा%त ् पापके नाशक अथवा सुkदायक और चउशरण अथा%त ् चार शरण तथा ‘>ोक’ अथा%त ् >ोकके प्राभिणयोंसे अरहंत, शिसद्ध, साधु, केव>ीप्रणीत धम%, ये परिरकरिरत अथा%त् परिरवारिरत हैं—युक्त (–सनिहत) हैं । नर—सुर—निवद्याधर सनिहत हैं, पूज्य हैं, इसशि>ये वे ‘>ोकोत्तम’ कहे ाते हैं, आराधनाके नायक है, वीर हैं, कम�के ीतनेको सुभट हैं और निवशिशष्ट >क्ष्मीको प्राप्त हैं तथा देते हैं । इसप्रकार पंच परम गुरुका ध्यान कर ।

भावाथ% :—यहाँ पंच परमेष्ठीका ध्यान करनेके शि>ए कहा । उस ध्यानमें निवघ्नको दूर करनेवा> े ‘चार मंग>-वरूप’ कह े व े यही हैं, चार शरण और ‘>ोकोत्तम’ कह े ह ैं व े भी इन्हींको कहे हैं । इनके शिसवाय प्राणीको अन्य शरण या रक्षा करनेवा>ा कोई भी नहीं है और >ोकमें उत्तम भी ये ही हैं । आराधना दश%न—ज्ञान—चारिरत्र—तप ये चार हैं, इनके नायक (-वामी) भी ये ही हैं, कम�को ीतनेवा>े भी य े ही ह ैं । इसशि>ये ध्यान करनेवा>ेके शि>ए

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इनका ध्यान श्रेष्ठ है । शुद्ध-वरूपकी प्रान्तिप्त इनहीके ध्यानसे होती है, इसशि>ये यह उपदेश है ।।124।।

आगे ध्यान ह ै वह ‘ज्ञानका एकाग्र होना’ है, इसशि>ये ज्ञानके अनुभवनका उपदेश करते हैं :—

णाणमर्यविवमलसीर्यलसचिललं पाऊण भविवर्य भावेण ।बाविहजरमरणवेर्यण)ाहविवमुक्का चिसवा होंवित ।।125।।ज्ञानमर्यविवमलशीतलसचिललं प्रा=र्य भव्याः भावेन ।व्याचिधजरामरणवेदनादाह विवमु}ाः शिशवाः भवप्तिन्त ।।125।।

ज्ञानात्म विनम�ळ नीर शीतळ प्रा=त करीने, भावर्थी,भविव र्थार्य छे जर-मरण-व्याचिधदाहवर्जिजंत, शिशवमर्यी. 125.

अथ% :—भव्य ीव ज्ञानमयी निनम%> शीत> >को सम्यक्त्वभाव सनिहत पीकर और व्यामिध-वरूप रा-मरणकी वेदना (पीड़ा) को भ-म करके मुक्त अथा%त् संसारसे रनिहत ‘शिशव’ अथा%त् परमानंद सुkरूप होते हैं ।

भावाथ% :— ैसे निनम%> और शीत> >के पीनेसे पीत्तकी दाहरूप व्यामिध मिमटकर साता होती है, वैसे ही यह ज्ञान है वह ब रागादिदक म>से रनिहत निनम%> और आकु>ता रनिहत शांतभाव-वरूप होता है, उसकी भावना कर रुशिच, श्रद्धा, प्रतीनितसे पीवे, इससे तन्मय हो तो रा–मरणरूप दाह—वेदना मिमट ाती ह ै और संसारस े निनवृ%त्त होकर सुkरूप होता है, इसशि>ये भव्य ीवोंको यह उपदेश है निक ज्ञानमें >ीन होओ ।।125।।

आगे कहते हैं निक इस ध्यानरूप अखिग्नसे संसारके बी आठों कम% एक बार दग्ध हो ाने पर पीछे निफर संसार नहीं होता है, यह बी भावमुनिनके दग्ध हो ाता है :—

र्यह बीर्यप्तिम्म र्य दडे्ढ ण विव रोहइ अंकुरो र्य मविहवीढे ।तह कम्मबीर्यदडे्ढ भवंकुरो भावसवणाणं ।।126।।र्यर्था बीजे च दग्धे नाविप रोहवित अंकुरश्च महीपीठे ।तर्था कम�बीजदग्धे भवांकुरः भावश्रमणानाम् ।।126।।

ज्र्यम बीज होतां दग्ध, अंकुर भूतळे ऊगे नहीं,त्र्यम कम�बीज बळ्रे्य भवांकुर भावश्रमणोने नहीं. 126.

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अथ% :— ैसे पृथ्वीत>पर बी के > ाने पर उसका अंकुर निफर नहीं उगता है, वैसे ही भावलि>ंगी श्रमणके संसारका कम%रूपी बी दग्ध होता है इसशि>ये संसाररूप अंकुर निफर नहीं होता है ।

भावाथ% :—संसारके बी ‘ज्ञानावरणादिद’ कम% हैं । ये कम% भावश्रमणके ध्यानरूप अखिग्नसे भ-म हो ाते हैं, इसशि>ये निफर संसाररूप अंकुर निकससे हो ? इसशि>ये भावश्रमण होकर धम%-शुक्>ध्यानसे कम�का नाश करना योग्य है, यह उपदेश है । कोई सव%था एकांती अन्यथा कहे निक—कम% अनादिद है, उसका अंत भी नहीं है, उसका भी यह निनषेध है । बी अनादिद है वह एक बार दग्ध हो ाने पर पीछे निफर नहीं उगता है, उसी तरह इसे ानना ।।126।।

आगे संक्षेपसे उपदेश करते हैं :—भावसवणो विव पावइ सुक्खाइं दुहाइं जव्वसवणो र्य ।इर्य णाउं गुणदोसे भावेण र्य संजुदो होह ।।127।।भावश्रमणः अविप प्राप्नोवित सुखाविन दुःखाविन द्रव्यश्रमणश्च ।इवित ज्ञात्वा गुणदोषान् भावेन च संर्युतः भव ।।127।।

रे ! भावश्रमण सुखो लहे ने द्रव्यमुविन दुःखो लहे;तंु भावर्थी संर्यु} र्था, गुणदोष जाणी ए रीते. 127.

अथ% :—भावश्रमण तो सुkोंको पाता ह ै और द्रव्यश्रमण दुःkोंको पाता है, इस प्रकार गुण-दोषोंको ानकर हे ीव ! तू भावसनिहत संयमी बन ।

भावाथ% :—सम्यग्दश%नसनिहत भावश्रमण होता है, वह संसारका अभाव करके सुkोंको पाता है और मिमथ्यात्वसनिहत द्रव्यश्रवण भेषमात्र होता है, यह संसारका अभाव नहीं कर सकता है, इसशि>य े दुःkोंको पाता ह ै । अतः उपदेश करत े ह ैं निक दोनोंके गुण-दोष ानकर भावसंयमी होना योग्य है, यह सब उपदेशका सार है ।।127।।

आगे निफर भी इसीका उपदेश अथ%रूप संके्षपसे कहते हैं :—वितyर्यरगणहराइं अब्भुदर्यपरंपराइं सोक्खाइं ।पावंवित भावसविहर्या संखेविव जिजणेहिहं बज्जरिररं्य ।।128।।तीर्थmकरगणधरादीविन अभ्र्युदर्यपरंपराशिण सौख्र्याविन ।प्रापु्नवंवित भावश्रमणाः संक्षेपेण जिजनैः भशिणतम् ।।128।।

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तीर्थtश-गणनार्थादिदगत अभ्र्युदर्यरु्यत सौख्र्यो तणी,प्राप्ति=त करे छे भावमुविन;–भाख्रंु्य जिजने संक्षेपर्थी. 128.

अथ% :— ो भावसनिहत मुनिन ह ैं व े अभ्युदयसनिहत तीथ�कर–गणधर आदिद पदवीके सुkोंको पाते हैं, यह संक्षेपमें कहा है ।

भावाथ% :—तीथ�कर गणधर चक्रवतN आदिद पदोंके सुk बड़ े अभ्युदयसनिहत हैं, उनको भावसनिहत सम्यग्दृमिष्ट मुनिन पात े ह ैं । यह सब उपदेशका संक्षेपस े उपदेश कहा है इसशि>ये भावसनिहत मुनिन होना योग्य है ।।128।।

आगे आचाय% कहते हैं निक ो भावश्रमण हैं उनको धन्य है, उनको हमारा नम-कार हो :—

ते धण्णा ताण णमो दंसणवरणाणचरणसुद्धाणं ।भावसविहर्याण शिणच्चं वितविवहेण पणट्ठमार्याणं ।।129।।त ेधन्र्याः तेभ्र्यः नमः दश�नवरज्ञानचरणशुदे्धभ्र्यः ।भावसविहतेभ्र्यः विनत्र्यं वित्रविवधेन प्रणष्टमार्येभ्र्यः ।।129।।

ते छे सुधन्र्य, वित्रधा सदैव नमस्करण हो तेमने,जे भावरु्यत, दृगज्ञानचरणविवशुद्ध, मार्यारु्य} छे. 129.

अथ% :—आचाय% कहते हैं निक ो मुनिन सम्यग्दश%न श्रेष्ठ (निवशिशष्ट) ज्ञान और निनद}ष चारिरत्र इनसे शुद्ध हैं इसीशि>ये भाव सनिहत हैं और प्रणष्ट हो गई है माया अथा%त् कपट परिरणाम जि नके ऐस े ह ैं व े धन्य ह ैं । उनके शि>य े हमारा मन-वचन-कायस े सदा नम-कार हो ।

भावाथ% :—भावलि>ंनिगयोंम ें ो दश%न-ज्ञान-चारिरत्रस े शुद्ध ह ैं उनके प्रनित आचाय%को भशिक्त उत्पन्न हुई है, इसशि>ये उनको धन्य कहकर नम-कार निकया ह ै वह युक्त है, जि नके मोक्षमाग%में अनुराग है, उनमें मोक्षमाग%की प्रवृभित्तमें प्रधानता दिदkती है, उनको नम-कार करे ।।129।।

आगे कहते हैं निक ो भावश्रमण हैं वे देवादिदककी ऋजिद्ध देkकर मोहको प्राप्त नहीं होते हैं :—

इविड्ढमतुलं विवउप्तिव्वर्य विकण्णरहिकंपुरिरसअमरखर्यरेहिहं ।

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तेहिहं विव ण जाइ मोहं जिजणभावणभाविवओ धीरो ।।130।।ऋशिद्धमतुलां विवकुब�शिद्भः* हिकंनरहिकंपुरुषामरखचरैः ।तैरविप न र्यावित मोहं जिजनभावनाभाविवतः धीरः ।।130।।

1.—सं-कृत मुदिद्रत प्रनितमें ‘निवकृतां’ पाठ है ।खेचर-सुरादिदक विवविक्रर्यार्थी ऋशिद्ध अतुल करे भले,जिजनभावनापरिरणत सुधीर लहे न त्र्यां पण मोहने. 130.

अथ% :—जि नभावना (सम्यक्त्व भावना) स े वाशिसत ीव हिकंनर, हिकंपुरुष देव, कल्पवासी देव और निवद्याधर, इनसे निवनिक्रयारूप निव-तार की गई अतु>-ऋजिद्धयोंमें मोहको प्राप्त नहीं होता है, क्योंनिक सम्यग्दृमिष्ट ीव कैसा ह ै ? धीर है, दृढ़बुजिद्ध है अथा%त् निनःशंनिकत अंगका धारक है ।

भावाथ% :—जि सके जि नसम्यक्त्व दृढ़ ह ै उसके संसारकी ऋजिद्ध तृणवत ् है, परमाथ%सुkहीकी भावना है, निबनाशीक ऋजिद्धकी वांछा क्यों हो ? ।।130।।

आगे इसहीका समथ%न ह ै निक ऐसी ऋजिद्ध भी नहीं चाहता ह ै तो अन्य सांसारिरक सुkकी क्या कथा ?—

हिकं पुण गच्छइ मोहं णरसुरसुक्खाण अ=पसाराणं ।जाणंतो पस्संतो लिचंतंतो मोक्ख मुशिणधवलो ।।131।।हिकं पुनः गच्छवित मोहं नरसुरसुखानां अल्पसाराणाम् ।जानन् पश्र्यन् लिचंतर्यन् मोकं्ष मुविनधवलः ।।131।।

तो देव-नरनां तुच्छ सुख प्रत्रे्य लहे शंु मोहने,मुविनप्रवर जे जाणे, जुए ने लिचंतवे छे मोक्षने ? 131.

अथ% :—सम्यग्दृमिष्ट ीव पूव}क्त प्रकारकी भी ऋजिद्धको नहीं चाहता है तो मुनिनधव> अथा%त् मुनिनप्रधान है वह अन्य ो मनुष्य देवोंके सुk–भोगादिदक जि नमें अल्प सार है उनमें क्या मोहको प्राप्त हो ? कैसा है मुनिनधव> ? मोक्षको ानता है, उसहीकी तरफ दृमिष्ट है, उसहीका शिचन्तन करता है ।

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भावाथ% :— ो मुनिनप्रधान ह ैं उनकी भावना मोक्षके सुkोंम ें ह ै । व े बड़ी-बड़ी देवनिवद्याधरोंकी फै>ाई हुई निवनिक्रयाऋजिद्धमें भी >ा>सा नहीं करते हैं तो हिकंशिचत्मात्र निवनाशीक ो मनुष्य, देवोंके भोगादिदकका सुk उनमें वांछा कैसे करे ? अथा%त् नहीं करे ।।131।।

आगे उपदेश करते हैं निक ब तक रा आदिदक न आवें तब तक अपना निहत कर >ो :—

उyरइ जा ण जरओ रोर्यग्गी जा ण )हइ देहउहि)ं ।इजिन्दर्यबलं ण विवर्यलइ ताव तुमं कुणविह अ=पविहर्यं ।।132।।आक्रमते र्यावन्न जरा रोगाप्तिग्नर्या�वन्न दहवित देहकुटीम् ।इजिन्द्रर्यबलं न विवगलवित तावत् त्वं कुरु आत्मविहतम् ।।132।।

रे ! आक्रमे न जरा, गदाप्तिग्न दहे न तनकुदिट ज्र्यां लगी,बळ इजिन्द्रर्योनंु नव घटे, करी ले तंु विनजविहत त्र्यां लगी. 132.

अथ% :—हे मुने ! ब तक तेरे रा (बुढा़पा) न आवे तथा ब तक रोगरूपी अखिग्न तेरी देहरूपी कुटीको भ-म न करे और ब तक इजिन्द्रयोंका ब> न घटे तब तक अपना निहत कर >ो ।

भावाथ% :–वृद्ध अवस्थामें देह रोगोंसे %रिरत हो ाता है, इजिन्द्रयाँ क्षीण हो ाती हैं तब असमथ% होकर इस >ोकके काय% उठना—बैठना भी नहीं कर सकता ह ै तब पर>ोकसम्बन्धी तपश्चरणादिदक तथा ज्ञानाभ्यास और -वरूपका अनुभवादिद काय% कैसे करे? इसशि>ये यह उपदेश हैं निक ब तक सामथ्य% ह ै तब तक अपना निहतरूप काय% कर >ो ।।132।।

आगे अहिहंसाधम%के उपदेशका वण%न करते हैं :–छज्जीव छ)ार्यदणं शिणच्चं मणवर्यणकार्यजोएहिहं ।कुरु दर्य परिरहर मुशिणवर भाविव अपुव्वं महासAं* ।।133।।

* मुदिद्रत सं-कृत प्रनितमें ‘महासत्त’ ऐसा संबोधन पद निकया है जि सकी सं0 छाया ‘महासत्त्व’ है ।

+षट्जीवान् ष)ार्यतनानां विनत्र्यं मनोवचनकार्यर्योगैः ।

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कुरु दर्यां परिरहर मुविनवर भावर्य अपूवm महासत्त्वम् ।।133।।+–मुदिद्रत सं-कृत प्रनितमें ‘षट् ीवषOायतनानां’ एक पद निकया है ।

छ अनार्यतन तज, कर दर्या षट्जीवनी वित्रविवधे सदा,महासत्त्वने तुं भाव रे ! अपूरवपणे हे मुविनवरा ! 133.

अथ% :—हे मुनिनवर ! तू छहकायके ीवोंपर दया कर और छह अनायतनोंको मन, वचन, कायके योगोंसे छोड़ तथा अपूव% ो पनिह>े न हुआ ऐसा महासत्त्व अथा%त् सब ीवोंमें व्यापक (ज्ञायक) महासत्त्व चेतना भावको भा ।

भावाथ% :—अनादिदका>से ीवका -वरूप चेतना-वरूप न ाना इसशि>ये ीवोंकी हिहंसा की, अतः यह उपदेश है निक—अब ीवात्माका -वरूप ानकर, छहकायके ीवोंपर दया कर । अनादिदहीसे आप्त, आगम, पदाथ%का और इनकी सेवा करनेवा>ोंका -वरूप ाना नहीं, इसशि>य े अनाप्त आदिद छह अनायतन ो मोक्षमाग%के स्थान नहीं ह ैं उनको अचे्छ समझकर सेवन निकया, अतः यह उपदेश है निक अनायतन का परिरहार कर । ीवके -वरूपके उपदेशक य े दोनों ही तून े पनिह> े ान े नही, न भावना की, इसशि>य े अब भावना कर, इसप्रकार उपदेश है ।।133।।

आग े कहत े ह ैं निक— ीवका तथा उपदेश करनेवा>ेका -वरूप ान े निबना सब ीवोंके प्राणोंका आहार निकया, इसप्रकार दिदkाते हैं :—

दसविवहपाणाहारो अणंतभवसार्यरे भमंतेण ।भोर्यसुहकारणटं्ठ कदो र्य वितविवहेण सर्यलजीवाणं ।।134।।दशविवधप्राणाहारः अनन्तभवसार्यरे भ्रमता ।भोगसुखकारणार्थm कृतश्च वित्रविवधेन सकलजीवानां ।।134।।

भमतां अमिमत भवसागरे, तें भोगसुखना हेतुए,सहुजीव-दशविवधप्राणनो आहार कीधो त्रणविवध.े 134.

अथ% :–हे मुने ! तूने अनंतभवसागरमें भ्रमण करते हुए, सक> त्रस, स्थावर, ीवोंके दश प्रकारके प्राणोंका आहार, भोग-सुkके कारणके शि>ये मन, वचन, कायसे निकया ।

भावाथ% :—अनादिदका>से जि नमतके उपदेशके निबना अज्ञानी होकर तूने त्रस, स्थावर ीवोंके प्राणोंका आहार निकया इसशि>ये अब ीवोंका -वरूप ानकर ीवोंकी दया पा>, भोगनिव>ाष छोड़, यह उपदेश है ।।134।।

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निफर कहते हैं निक ऐसे प्राभिणयोंकी हिहंसासे संसारमें भ्रमण कर दुःk पाया :—पाशिणवहेविह महाजस चउरासीलक्खजोशिणमज्झप्तिम्म ।उ=पजंत मरंतो पAो चिस शिणरंतरं दुक्खं ।।135।।प्राशिणवधैः महार्यशः चतुरशीवितलक्षर्योविनमध्र्ये ।उत्पद्यमानः मिÌर्यमाणः प्रा=तो)चिस विनरंतरं दुःखम् ।।135।।

प्राशिणवधोर्थी हे महार्यश ! र्योविन लख चोराशीमां,उत्पचिAनां ने मरणनां दुःखो विनरंतर तें लह्यां. 135.

अथ% :—हे मुने ! हे महायश ! तूने प्राभिणयोंके घातसे चौरासी >ाk योनिनयोंके मध्यमें उत्पन्न होते हुए और मरते हुए निनरंतर दुःk पाया ।

भावाथ% :—जि नमतके उपदेशके निबना, ीवोंकी हिहंसास े यह ीव चौरासी >ाk योनिनयोंमें उत्पन्न होता है और मरता है । हिहंसासे कम%बंध होता है, कम%बन्धके उदयसे उत्पभित्त–मरणरूप संसार होता है । इसप्रकार न्म–मरणके दुःk सहता है, इसशि>ये ीवोंकी दयाका उपदेश है ।।135।।

आगे उस दयाहीका उपदेश करते हैं :—जीवाणमभर्यदाणं देविह मुणी पाशिणभूर्यसAाणं ।कल्लाणसुहशिणमिमAं परंपरा वितविवहसुद्धीए ।।136।।जीवानामभर्यदानं देविह मुने प्राशिणभूतसत्त्वानाम् ।कल्र्याणसुखविनमिमAं परंपरर्या वित्रविवधशुद्ध्या ।।136।।

तंु भूत-प्राणी-सत्त्व-जीवने वित्रविवध शुशिद्ध व)े मुविन !दे अभर्य, जे कल्र्याणसौख्र्यविनमिमA पारंपर्य�र्थी. 136.

अथ% :—हे मुन े ! ीवोंको और प्राणीभूत सत्त्वोंको अपना परंपरासे कल्याण और सुk होनेके शि>ये मन, वचन, कायकी शुद्धतासे अभयदान दे ।

भावाथ% :– ीव पंचेजिन्द्रयोंको कहत े हैं, ‘प्राणी’ निवक>त्रयको कहत े हैं, ‘भूत’ वनस्पनितको कहते हैं और ‘सत्त्व’ पृथ्वी अप् ते वायुको कहते हैं । इन सब ीवोंको अपने समान ानकर अभयदान देनेका उपदेश है । इससे शुभ प्रकृनितयोंका बंध होनेसे अभ्युदयका सुk होता है, परम्परासे तीथ�करपद पाकर मोक्ष पाता है, यह उपदेश है ।।136।।

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आगे यह ीव षट् अनायतनके प्रसंगसे मिमथ्यात्वसे संसारमें भ्रमण करता है उसका -वरूप कहते हैं । पनिह>े मिमथ्यात्वके भेदोंको कहते हैं :—

अचिसर्यसर्य विकरिरर्यवाई अस्थिक्करिरर्याणं च होइ चुलसीदी ।सAट्ठी अण्णाणी वेणईर्या होंवित बAीसा ।।137।।अशीवितशतं विक्रर्यावादिदनामविक्रर्यमाणं च भववित चतुरशीवितः ।स=तषविष्टरज्ञाविनना ंवैनमिर्यकानां भववित द्वाहितं्रशत् ।।137।।

शत-एशंी विकरिरर्यावादीना, चोराशी तेर्थी विवपक्षना,बत्रीश स)सठ भेद छे वैनमिर्यक ने अज्ञानीना. 137.

अथ% :—एकसौ अ-सी निक्रयावादी हैं, चौरासी अनिक्रयावादिदयोंके भेद हैं, अज्ञानी सड़सठ भेदरूप हैं और निवनयवादी बत्तीस हैं ।

भावाथ% :—व-तुका -वरूप अनन्तधम%-वरूप सव%ज्ञने कहा है, वह प्रमाण और नयसे सत्याथ% शिसद्ध होता है । जि नके मतमें सव%ज्ञ नहीं है तथा सव%ज्ञके -वरूपका यथाथ% रूपसे निनश्चय करके उसका श्रद्धान नहीं निकया है—ऐसे अन्यवादिदयोंने व-तुका एकधम% ग्रहण करके उसका पक्षपात निकया निक हमने इसप्रकार माना है, वह ‘ऐसे ही है, अन्य प्रकार नहीं है ।’ इसप्रकार निवमिध-निनषेध करके एक-एक धम%के पक्षपाती हो गये, उनके य े संके्षपसे तीनसौ ते्रसठ भेद हो गये ।

निक्रयावादी :—कई तो गमन करना, बैठना, kड़े रहना, kाना, पीना, सोना, उत्पन्न होना, नष्ट होना, देkना, ानना, करना, भोगना, भू>ना, याद करना, प्रीनित करना, हष% करना, निवषाद करना, दे्वष करना, ीना, मरना इत्यादिदक निक्रयाय ें हैं; इनको ीवादिदक पदाथ�के देkकर निकसीने निकसी निक्रयाका पक्ष निकया ह ै और निकसीन े निकसी निक्रयाका पक्ष निकया है । ऐसे परस्पर निक्रयानिववादसे भेद हुए हैं, इनके संक्षेपसे एकसौ अ-सी भेद निनरूपण निकये हैं, निव-तार करने पर बहुत हो ाते हैं ।

कई अनिक्रयावादी हैं, य े ीवादिदक पदाथ�म ें निक्रयाका अभाव मानकर आपसमें निववाद करते हैं । कई कहते हैं ीव ानता नहीं है, कई कहते हैं कुछ करता नहीं है, कई कहते हैं भोगता नहीं है, कई कहते हैं उत्पन्न नहीं होता है, कई कहते हैं नष्ट नहीं होता है, कई कहते हैं गमन नहीं करता है और कई कहते हैं ठहरता नहीं है—इत्यादिद निक्रयाके अभावके पक्षपातसे सव%था एकान्ती होते हैं । इनके संक्षेपसे चौरासी भेद हैं ।

कई अज्ञानवादी हैं, इनमें कई तो सव%ज्ञका अभाव मानत े हैं, कई कहते ह ैं ीव अस्ति-त है यह कौन ाने ? कई कहते हैं ीव नास्ति-त है यह कौन ाने ? कई कहते हैं, ीव

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निनत्य है यह कौन ान े ? कई कहते ह ैं ीव अनिनत्य है यह कौन ान े ? इत्यादिद संशय–निवपय%य–अनध्यवसायरूप होकर निववाद करत े ह ैं । इनके संके्षपस े सड़सठ भेद ह ैं । कई निवनयवादी हैं, उनम ें स े कई कहत े ह ैं देवादिदकके निवनयस े शिसजिद्ध है, कई कहत े ह ैं गुरुके निवनयसे शिसजिद्ध है, कई कहते हैं निक माता के निवनयसे शिसजिद्ध है, कई कहते है निक निपता के निवनयसे शिसजिद्ध है, कई कहत े ह ैं निक रा ाके निवनयस े शिसजिद्ध है, कई कहत े ह ैं निक सबके निवनयसे शिसजिद्ध है, इत्यादिद निववाद करते हैं । इनके संक्षेपसे बत्तीस भेद हैं । इसप्रकार सव%था एकान्तिन्तयोंके तीनसौ ते्रसठ भेद संके्षपसे हैं, निव-तार करने पर बहुत हो ाते हैं, इनमें कई ईश्वरवादी हैं, कई का>वादी हैं, कई -वभाववादी है, कई निवनयवादी हैं, कई आत्मवादी हैं । इनका -वरूप गोम्मटसारादिद ग्रन्थोंसे ानना, ऐसे मिमथ्यात्वके भेद हैं ।।137।।

आगे कहते ह ैं निक अभव्य ीव अपनी प्रकृनितको नहीं छोड़ता है, उसका मिमथ्यात्व नहीं मिमटता है :—

ण मुर्यइ पर्यवि) अभव्वो सुट्ठठु विव आर्यस्थिण्णऊण जिजणधम्मं ।गु)दुदं्ध विप विपबंता ण पण्णर्या शिणप्तिव्वसा होंवित ।।138।।न मुंचवित प्रकृवितमभव्यः सुषु्ठ अविप आकण्र्य� जिजनधम�म् ।गु)दुग्धमविप विपबंतः न पन्नगाः विनर्विवंषाः भवंवित ।।138।।

सुरीते सुणी जिजनधम� पण प्रकृवित अभव्य नहीं तजे,साकरसविहत क्षीरपानर्थी पण सप� नविह विनर्विवंष बने. 138.

अथ% :—अभव्य ीव भ>ेप्रकार जि नधम%को सुनकर भी अपनी प्रकृनितको नहीं छोड़ता है । यहाँ दृष्टांत है निक सप% गुड़सनिहत दूधको पीते रहने पर भी निवषरनिहत नहीं होता है ।

भावाथ% :— ो कारण पाकर भी नहीं छूटता है उसे ‘प्रकृनित’ या ‘-वभाव’ कहते हैं । अभव्यका यह -वभाव ह ै निक जि समें अनेकान्त तत्त्व-वरूप ह ै ऐसा वीतराग-निवज्ञान-वरूप जि नधम% मिमथ्यात्वको मिमटानेवा>ा है, उसका भ>ेप्रकार -वरूप सुनकर भी जि सका मिमथ्यात्व-वरूप भाव नहीं बद>ता है यह व-तुका -वरूप है, निकसीका नहीं निकया हुआ है । यहाँ, उपदेश-अपेक्षा इसप्रकार ानना निक ो अभव्यरूप प्रकृनित तो सव%ज्ञगम्य है, तो भी अभव्यकी प्रकृनितके समान अपनी प्रकृनित न रkना, मिमथ्यात्वको छोड़ना यह उपदेश है ।।138।।

आगे इसी अथ%को दृढ़ करते हैं :—

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मिमच्छAछण्णदिदट्ठी दुद्धीए दुम्मएहिहं दोसेहिहं ।धम्मं जिजणपण्णAं अभव्यजीवो ण रोचेदिद ।।139।।मिमथ्र्यात्वछन्नदृविष्टः दुर्धिधरं्या दुम�तैः दोषैः ।धमm जिजनप्रज्ञ=त ंअभव्यजीवः न रोचर्यवित ।।139।।

दुबु�शिद्ध-दुम�तदोषर्थी मिमथ्र्यात्वआवृतदृग रहे,आत्मा अभव्य जिजनेन्द्रज्ञाविपत धम�नी रुचिच नव करे. 139.

अथ% :—दुम%त ो सव%था एकान्त मत, उनसे प्ररूनिपत अन्यमत, वे ही हुए दोष उनके द्वारा अपनी दुबु%जिद्धस े (मिमथ्यात्वसे) आच्छादिदत ह ै बुजिद्ध जि सकी, ऐसा अभव्य ीव ह ै उसे जि नप्रणीत धम% नहीं रुचता है, वह उसकी श्रद्धा नहीं करता है, उसमें रुशिच नहीं करता है ।।

भावाथ% :—मिमथ्यात्वके उपदेशस े अपनी दुबु%जिद्धद्वारा जि सके मिमथ्यादृमिष्ट ह ै उसको जि नधम% नहीं रुचता है, तब ज्ञात होता है निक ये अभव्य ीवके भाव हैं । यथाथ% अभव्य ीवको तो सव%ज्ञ ानते हैं, परन्तु ये अभव्य ीवके शिचह्न हैं, इनसे परीक्षाद्वारा ाना ाता है ।।139।।

आगे कहते हैं निक ऐसे मिमथ्यात्वके निनमिमत्तसे दुग%नितका पात्र होता है :—कुस्थिच्छर्यधम्मप्तिम्म रओ कुस्थिच्छर्यपासंवि)भचिAसंजुAो ।कुस्थिच्छर्यतवं कुणंतो कुस्थिच्छर्यगइभार्यणो होइ ।।140।।कुत्थित्सतधमt रतः कुत्थित्सतपाषंवि)भचि}संर्यु}ः ।कुत्थित्सततपः कुव�न ्कुत्थित्सतगवितभाजनं भववित ।।140।।

कुत्थित्सतधरम–रत, भचि} जे पाखं)ी कुत्थित्सतनी करे,कुत्थित्सत करे तप, तेह कुत्थित्सत गवित तणुं भाजन बने. 140.

अथ% :—आचाय% कहते ह ैं निक ो कुण्डित्सत (हिनंद्य) मिमथ्याधम%म ें रत (>ीन) ह ै ो पाkंOी हिनंद्यभेनिषयोंकी भशिक्तसंयुक्त है, ो हिनंद्य मिमथ्यात्वधम% पा>ता है, मिमथ्यादृमिष्टयोंकी भशिक्त करता है और मिमथ्या अज्ञानतप करता है, वह दुग%नित ही पाता है, इसशि>ये मिमथ्यात्व छोड़ना, यह उपदेश है ।।140।।

आगे इस ही अथ%को दृढ़ करते हुए कहते हैं निक ऐसे मिमथ्यात्वसे मोनिहत ीव संसारमें भ्रमण करता है :—

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इर्य मिमच्छAावासे कुणर्यकुसyेहिहं मोविहओ जीवो ।भमिमओ अणाइकालं संसारे धीर लिचंतेविह ।।141।।इवित मिमथ्र्यात्वावासे कुनर्यकुशास्तै्रः मोविहतः जीवः ।भ्रमिमतः अनादिदकालं संसारे धीर ! चिचन्तर्य ।।141।।

हे धीर ! लिचंतव–जीव आ मोविहत कुनर्य–दुःशास्त्रर्थी,मिमथ्र्यात्वघर संसारमां रखड्यो अनादिद काळर्थी. 141.

अथ% :—इनित अथा%त् पूव}क्त प्रकार मिमथ्यात्वका आवास (स्थान) यह मिमथ्यादृमिष्टयोंका संसारम ें कुनय–सव%था एकान्त उन सनिहत कुशा-त्र, उनसे मोनिहत (बेहोश) हुआ यह ीव अनादिदका>से >गाकर संसारमें भ्रमण कर रहा है, ऐसे हे धीर मुने ! तू निवचार कर ।

भावाथ% :—आचाय% कहत े ह ैं निक पूव}क्त तीन सौ ते्रसठ कुवादिदयोंस े सव%था एकांतपक्षरूप कुनयद्वारा रच े हुए शा-त्रोंसे मोनिहत होकर यह ीव संसारम ें अनादिदका>से भ्रमण करता है, सो हे धीर मुनिन ! अब ऐसे कुवादिदयोंकी संगनित भी मत कर, यह उपदेश है ।।141।।

आगे कहते हैं निक—पूव}क्त तीन सौ ते्रसठ पाkण्डिhOयोंका माग% छोड़कर जि नमाग%में मन >गाओ :—

पासं)ी वितस्थिण्ण सर्या वितसदिट्ठ भेर्या उमग्ग मुAूण ।रंुभविह मणु जिजणमग्गे अस=पलावेण हिकं बहुणा ।।142।।पाखत्थिण्)नः त्रीशिण शताविन वित्रषविष्टभेदाः उन्माग� मुक्त्वा ।रुस्थिन्द्ध मनः जिजनमागt असत्प्रलापेन हिकं बहुना ।।142।।

उन्माग�ने छो)ी वित्रशत–ते्रसठप्रमिमत पाखं)ीना,जिजनमाग�मां मन रोक; बहु प्रलपन विनरर्थ�र्थी शुं भला ? 142.

अथ% :—हे ीव ! तीन सौ त्रेसठ पाkण्डिhOयोंके माग%को छोड़कर जि नमाग%में अपने मनको रोक (>गा) यह संक्षेप है और निनरथ%कर प्र>ापरूप कहनेसे क्या ?

भावाथ% :—इसप्रकार मिमथ्यात्वका वण%न निकया । आचाय% कहते हैं निक बहुत निनरथ%क वचना>ापसे क्या ? इतना ही संक्षेपसे कहते हैं निक तीनसौ ते्रसठ कुवादिद पाkhOी कहे उनका

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माग% छोड़कर जि नमाग%में मनको रोको, अन्यत्र न ाने दो । यहाँ इतना और निवशेष ानना निक—का>दोषसे इस पंचमका>में अनेक पक्षपातसे मत–मतांतर हो गये हैं, उनको भी मिमथ्या ानकर उनका प्रसंग न करो । सव%था एकान्तका पक्षपात छोड़कर अनेकान्तरूप जि नवचनका शरण >ो ।।142।।

आगे सम्यग्दश%नका निनरूपण करते हैं, पनिह>े कहते हैं निक ‘‘सम्यग्दश%नरनिहत प्राणी च>ता हुआ मृतक’’ है :—

जीवविवमुक्को सवओ दंसणमुक्को र्य होइ चलसवओ ।सवओ लोर्यअपुज्जो लोउAरर्यप्तिम्म चलसवओ ।।143।।जीवविवमु}ः शवः दश�नमु}श्च भववित चलशवः ।शवः लोके अपूज्र्यः लोकोAरे चलशवः ।।143।।

जीवमु} शब कहेवार्य, ‘चल शब’ जाण दश�नमु}ने;शब लोक मांही अपूज्र्य, चल शब होर्य लोकोAर विवषे. 143.

अथ% :—>ोकमें ीवरनिहत शरीरको ‘शब’ कहते हैं, ‘मृतक’ या मुरदा कहते हैं, वैसे ही सम्यग्दश%नरनिहत पुरुष ‘च>ता हुआ’ मृतक ह ै । मृतक तो >ोकमें अपूज्य है, अखिग्नसे >ाया ाता है या पृथ्वीमें गाड़ दिदया ाता है और ‘दश%नरनिहत च>ता हुआ मुरदा’ >ोकोत्तर ो मुनिन–सम्यग्दृमिष्ट उनमें अपूज्य है, वे उसको बंदनादिद नहीं करते हैं । मुनिनभेष धारण करता है तो भी उसे संघके बाहर रkते हैं अथवा पर>ोकमें हिनंद्यगनित पाकर अपूज्य होता है ।

भावाथ% :—सम्यग्दश%न निबना पुरुष मृतकतुल्य है ।।143।।आगे सम्यक्त्वका महानपना कहते हैं :—

जह तारर्याण चंदो मर्यराओ मर्यउलाण सव्वाणं ।अविहओ तह सम्मAो रिरचिससावर्यदुविवहधम्माणं ।।144।।र्यर्था तारकाणां चन्द्रः मृगराजः मृगकुलानां सवtषाम् ।अचिधकः तर्था सम्र्यक्त्वं ऋविषश्रावकविद्वविवधधमा�णाम् ।।144।।

ज्र्यम चंद्र तारागण विवषे, मृगराज सौ मृगकुल विवषे,त्र्यम अचिधक छे सम्र्यक्त्व ऋविषश्रावक–विद्वविवध धमN विवषे. 144.

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अथ% :— ैसे तारकाओंके समूहमें चंद्रमा अमिधक है और मृगकु> अथा%त् पशुओंके समूहमें मृगरा (लिसंह) अमिधक है, वैसे ही ऋनिष (मुनिन) और श्रावक इन दो प्रकारके धम�में सम्यक्त्व है वह अमिधक है ।

भावाथ% :—व्यवहार धम%की जि तनी प्रवृभित्तया ँ ह ैं उनमें सम्यक्त्व अमिधक है, इसके निबना सब संसारमाग% बंधका कारण है ।।144।।

निफर कहते हैं :—जह फशिणराओ *सोहइ फणमशिणमाशिणक्कविकविकरणविव=फुरिरओ ।तह विवमलदंसणधरो +जिजणभAी पवर्यणे जीवो ।।145।।

*—मुदिद्रत सं-कृत प्रनितमें ‘रेहइ’ पाठ है जि सके सं-कृत छायामें ‘रा ते’ पाठान्तर है ।+—मुदिद्रत सं-कृत प्रनितमें ‘जि णभत्तीपवयणो’ ऐसा एक पद रूप पद है, जि सकी सं-कृत

‘‘जि नभशिक्तप्रवचनः’’ है । यह पाठ यनितभंग सा मा>ूम होता है ।र्यर्था फशिणराजः शोभते फणमशिणमाशिणक्र्यविकरणविवसु्फरिरतः ।तर्था विवमलदश�नधरः जिजनभचि}ः प्रवचने जीवः ।।145।।

नागेन्द्र शोभे फेणमशिणमाशिणक्र्यविकरणे चमकतो,ते रीत शोभे शासने जिजनभ} दश�नविनम�ळो. 145.

अथ% :— ैस े फभिणरा (धरणेन्द्र) ह ै सो फण ो सहस्र फण उनम ें >ग े हुए मभिणयोंके बीच ो >ा>–माभिणक्य उनकी निकरणोंसे निवसु्फरिरत (दैदीप्यमान) शोभा पाता है, वैस े ही जि नभशिक्तसनिहत निनम%> सम्यग्दश%नका धारक ीव प्रवचन अथा%त ् मोक्षमाग%के प्ररूपणमें शोभा पाता है ।

भावाथ% :—सम्यक्त्वसनिहत ीवकी जि न–प्रवचनमें बड़ी अमिधकता ह ै । हाँ–तहाँ (सब गह) शा-त्रोंमें सम्यक्त्वकी ही प्रधानता कही है ।।145।।

आगे सम्यग्दश%नसनिहत लि>ंग के उसकी मनिहमा कहते हैं :—जह तारार्यणसविहर्यं ससहरहिबंबं खमं)ले विवमले ।भाविवर्य *तववर्यविवमलं **जिजणलिलंग ंदंसणविवसुदं्ध ।।146।।

*—मुदिद्रत सं0 प्रनितमें तह वयनिवम>ं ऐसा पाठ है, जि सकी सं-कृत ‘तथा व्रतनिवम>ं’ है ।

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**—इस गाथाका चतुथ% पाद यनितभंग है । इसकी गह ‘जि णलि>ंगं दंसणेण सुनिवसुदं्ध‘ होना ठीक ँचता है ।

र्यर्था तारागणसविहतं शशधरहिबंबं खमं)ले विवमले ।भावतं तपोव्रतविवमलं जिजनलिलंगं दश�नविवशुद्धम् ।।146।।

शशिशहिबंब तारकवृदं सह विनम�ळ नभे शोभे घणुं,त्र्यम शोभतंु तपव्रतविवमळ जिजनलिलंग दश�नविनम�ळंु. 146.

अथ% :— ैसे निनम%> आकाशमंO>में ताराओंके समूहसनिहत चन्द्रमाका हिबंब शोभा पाता है, वैसे ही जि नशासनमें दश%नसे निवशुद्ध और भानिवत निकये हुए तप तथा व्रतोंमें निनम%> जि नलि>ंग है सो शोभा पाता है ।

भावाथ% :—जि नलि>ंग अथा%त् ‘निनग्र�थ मुनिनभेष’ यद्यनिप तप–व्रतसनिहत निनम%> है, तो भी सम्यग्दश%नके निबना शोभा नहीं पाता है । इसके होने पर ही अत्यन्त शोभायमान होता है ।।146।।

आगे कहते हैं निक ऐसा ानकर दश%नरत्नको धारण करो, ऐसा उपदेश करते हैं :—इर्य णाउं गुणदोसं दंसणरर्यणं धरेह भावेण ।सारं गुणरर्यणाणं सोवाणं पढम मोक्खस्स ।।147।।इवित ज्ञात्वा गुणदोषं दश�नरत्नं धरतभावेन ।सारं गुणरत्नानां सोपानं प्रर्थमं मोक्षस्र्य ।।147।।

इम जाणीने गुणदोष धारो भावर्थी दृगरत्नने,जे सार गुणरत्नो विवषे ने प्रर्थम शिशवसोपान छे. 147.

अथ% :—हे मुने ! तू ‘इनित’ अथा%त् पूव}क्त प्रकार सम्यक्त्वके गुण मिमथ्यात्वके दोषोंको ानकर सम्यक्त्वरूपी रत्नको भावपूव%क धारण कर । वह गुणरूपी रत्नोंम ें सार ह ै और मोक्षरूपी मंदिदरका प्रथम सोपान है अथा%त् चढ़नेके शि>ए पनिह>ी सीढ़ी है ।

भावाथ% :—जि तने भी व्यवहार मोक्षमाग%के अंग हैं; (गृहस्थके दान–पू ादिदक और मुनिनके महाव्रत–शी>संयमादिदक) उन सबमें सार सम्यग्दश%न है, इससे सब सफ> हैं, इसशि>ये मिमथ्यात्वको छोड़कर सम्यग्दश%न अंगीकार करो, यह प्रधान उपदेश है ।।147।।

आगे कहते हैं निक सम्यग्दश%न निकसको होता ह ै ? ो ीव ीवपदाथ%के -वरूपको ानकर इसकी भावना करे, इसका श्रद्धान करके अपनेको ीवपदाथ% ानकर अनुभव द्वारा प्रतीनित करे उसके होता है । इसशि>ये अब यह ीवपदाथ% कैसा है उसका -वरूप कहते हैं :—

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कAा भोइ अमुAो सरीरमिमAो अणाइशिणहणो र्य ।दंसणणाणुवओगो *शिणदि�ट्ठो जिजणवरिरन्देहिहं ।।148।।

* पाठान्तरः— ीवो भिणदिद्दट्ठो ।कAा� भो}ा अमूत�ः शरीरमात्रः अनादिदविनधनः च ।दश�नज्ञानोपर्योगः **विनर्दिदंष्टः जिजनवरेन्दै्रः ।।148।।

** पाठान्तरः— ीवः निनर्दिदंष्टः ।कता� तर्था भो}ा, अनादिद–अनंत, देहप्रमाण नेवणमूर्वितं, दृगज्ञानोपर्योगी जीव भाख्र्यो जिजनवरे. 148.

अथ% :— ीव नामक पदाथ% है, सो कैसा है—कत्ता% है, भोक्ता है, अमूर्वितंक है, शरीरप्रमाण है, अनादिदनिनधन है, दश%न–ज्ञान–उपयोगवा>ा है, इसप्रकार जि नवरेन्द्र सव%ज्ञदेव वीतरागने कहा है ।

भावाथ% :—यहाँ ीव नामक पदाथ%के छह निवशेषण कहे । इनका आशय ऐसा है निक—

1—‘कता�’ कहा, वह निनश्चयनयमें तो अपने अशुद्ध भावोंका अज्ञान अवस्थामें आप ही कत्ता% ह ै तथा व्यवहारनयसे ज्ञानावरणादिद पुद्ग> कम�का कत्ता% ह ै और शुद्धनयसे अपने शुद्धभावोंका कत्ता% है ।

2—‘भो}ा’ कहा, वह निनश्चयनयसे तो अपने ज्ञान–दश%नमयी चेतनाभावका भोक्ता है और व्यवहार नयसे पुद्ग>दम%के फ> ो सुk–दुःk आदिदका भोक्ता है ।

3—‘अमूर्वितंक’ कहा, वह निनश्चयसे तो स्पश%, रस, गन्ध, वण%, शब्द य े पुद्ग>के गुण–पया%य हैं, इनसे रनिहत अमूर्वितंक है और व्यवहारसे बतक पुद्ग>कम%से बँधा है तब तक ‘मूर्वितंक’ भी कहते हैं ।

4—‘शरीरपरिरमाण’ कहा, यह निनश्चयस े तो असंख्यातप्रदेशी >ोकपरिरणाम हैं, परन्तु संकोच–निव-तारशशिक्तसे शरीरसे कुछ–कम प्रदेशप्रमाण आकारमें रहता है ।

5—‘अनादिदविनधन’ कहा, वह पया%यदृमिष्टसे देkनेपर तो उत्पन्न होता है, नष्ट होता है, तो भी द्रव्यदृमिष्टसे देkा ाय तो अनादिदनिनधन सदा निनत्य अनिवनाशी है ।

6—‘दश�न–ज्ञान–उपर्योगसविहत’ कहा, वह देkने– ाननरूप उपयोग-वरूप चेतनारूप है ।

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इन निवशेषणोंसे अन्यमती अन्यप्रकार सव%था एकान्तरूप मानते हैं उनका निनषेध भी ानना चानिहये । ‘कAा�’ निवशेषणसे तो सांख्यमती सव%था अकत्ता% मानता है उसका निनषेध है । ‘भो}ा’ निवशेषणसे बौद्धमती क्षभिणक मानकर कहत है निक कम%को करनेवा>ा तो और है तथा भोगनेवा>ा और है इसका निनषेध है । ो ीव कम% करता है उसका फ> वही ीव भोगता है, इस कथनसे बौद्धमतीके कहनेका निनषेध है । ‘अमूर्वितंक’ कहनेसे मीमांसक आदिद इस शरीरसनिहत मूर्वितंक ही मानत े हैं, उनका निनषेध ह ै । ‘शरीरप्रमाण’ कहनेस े नैयामियक, वैशेनिषक, वेदान्ती आदिद सव%था, सव%व्यापक, मानते ह ैं उनका निनषेध है । ‘अनादिदविनधन’ कहनेसे बौद्धमती सव%था क्षणस्थायी मानता है, उसका निनषेध है । ‘दश�नज्ञानउपर्योगमर्यी’ कहनेस े सांख्यमती तो ज्ञानरनिहत चेतनामात्र मानता है, नैयामियक, वैशेनिषक, गुणगुणीके सव%था भेद मानकर ज्ञान और ीवके सव%था भेद मानते हैं, बौद्धमतका निवशेष निवज्ञानदै्वतवादी ज्ञानमात्र ही मानता है और वेदांती ज्ञानका कुछ निनरूपण ही नहीं करता है, इन सबका निनषेध है ।

इसप्रकार सव%ज्ञका कहा हुआ ीवका -वरूप ानकर अपनेको ऐसा मानकर श्रद्धा, रुशिच, प्रतीनित करना चानिहये । ीव कहनेसे अ ीव पदाथ% भी ाना ाता है, अ ीव न हो तो ीव नाम कैसे होता ? इसशि>ये अ ीवका -वरूप कहा है, वैसाही उसका श्रद्धान आगम–अनुसार करना । इसप्रकार अ ीव पदाथ%का -वरूप ानकर और इन दोनोंके संयोगसे अन्य आस्रव, बंध, संवर, निन %रा, मोक्ष इन भावोंकी प्रवृभित्त होती है । इनका आगमके अनुसार -वरूप ानकर श्रद्धान करनेसे सम्यग्दश%नकी प्रान्तिप्त होती है, इसप्रकार ानना चानिहये ।।148।।

आगे कहते ह ैं निक यह ीव ‘ज्ञान–दश%न उपयोगमयी है’, निकन्तु अनादिद पौद्गशि>क कम%के संयोगस े इसके ज्ञान–दश%नकी पूण%ता नहीं होती है, इसशि>य े अल्प ज्ञान–दश%न अनुभवमें आता है और उसमें अज्ञानके निनमिमत्तसे इष्ट–अनिनष्ट बुजिद्धरूप राग–दे्वष–मोह भावके द्वारा ज्ञान–दश%नम ें क>ुषतारूप सुk–दुःkादिदक भाव अनुभवम ें आत े ह ैं । यह ीव निन भावनारूप सम्यग्दश%नको प्राप्त होता ह ै तब ज्ञान–दश%न–सुk–वीय%के घातक कम�का नाश करता है, ऐसा दिदkाते हैं :—

दंसणणाणावरणं मोहशिणरं्य अंतराइरं्य कम्मं ।शिणट्ठवइ भविवर्यजीवो सम्मं जिजणभावणाजुAो ।।149।।दश�नज्ञानावरणं मोहनीर्यं अन्तरार्यकं कम� ।विनष्ठापर्यवित भव्यजीवाः सम्र्यक् जिजनभावनार्यु}ः ।।149।।

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दृगज्ञानआवृवित, मोह तेम ज अंतरार्यक कम�ने,सम्र्यक्पणे जिजनभावनार्थी भव्य आत्मा क्षर्य करे. 149.

अथ% :—सम्यक् प्रकार जि नभावनासे युक्त भव्य ीव है वह ज्ञानावरण, दश%नावरण, मोहनीय, अन्तराय, इन चार घानितया कम�का निनष्ठापन करता है अथा%त् समू्पण% अभाव करता है ।

भावाथ% :—दश%नका घातक दश%नावरण कम% है, ज्ञानका घातक ज्ञानावरण कम% है, सुkका घातक मोहनीय कम% है, वीय%का घातक अन्तराय कम% है । इनका नाश कौन करता है ? सम्यक्प्रकार जि नभावना भाकर अथा%त् जि न आज्ञा मानकर ीव–अ ीव आदिद तत्त्वका यथाथ% निनश्चय कर श्रद्धावान हुआ हो वह ीव करता है । इसशि>ये जि न आज्ञा मान कर यथाथ% श्रद्धान करो यह उपदेश है ।।149।।

आगे कहते हैं निक इन घानितया कम�का नाश होने पर अनन्तचतुष्टय प्रकट होते हैं :—बलसोक्खणाणदंसण चAारिर विव पार्य)ा गुणा होंवित ।णटे्ठ घाइचउक्के लोर्यालोर्यं पर्यासेदिद ।।150।।बलसौख्र्यज्ञानदश�नाविन चत्वारो)विप प्रकटागुणाभवंवित ।नषे्ट घावितचतुष्के लोकालोकं प्रकाशर्यवित ।।150।।

चउघावितनाशे ज्ञान–दश�न–सौख्र्य–बल चारे गुणो,प्राकट्य पामे जीवने, परकाश लोकालोकनो. 150.

अथ% :—पूव}क्त चार घानितया कम�का नाश होने पर अनन्त ज्ञान–दश%न–सुk और ब> (–वीय%) ये चार गुण प्रगट होते हैं । ब ीवके ये गुणकी पूण% निनम%> दशा प्रकट होती है तब >ोका>ोकको प्रकाशिशत करता है ।

भावाथ% :—घानितया कम�का नाश होन े पर अनन्तदश%न, अनन्तज्ञान, अनन्तसुk और अनन्तवीय% ये ‘अनन्तचतुष्टय’ प्रकट होते हैं । अनन्त दश%न–ज्ञानसे छह द्रव्योंसे भरे हुए इस >ोकम ें अनन्तानन्त ीवोंको, इनम ें भी अनन्तानन्तगुण े पुद्ग>ोंको तथा धम%–अधम%–आकाश य े तीन द्रव्य और असंख्यात का>ाण ु इन सब द्रव्योंकी अतीत अनागत और वत%मानका> संबंधी अनन्तपया%योंको भिभन्न–भिभन्न एकसमयमें स्पष्ट देkता है और ानता है । अनन्तसुkसे अत्यंततृन्तिप्तरूप ह ै और अनन्तशशिक्त द्वारा अब निकसी भी निनमिमत्तस े अवस्था प>टती (बद>ती) नहीं ह ै । ऐस े अनंतचतुष्टयरूप ीवका निन -वभाव प्रकट होता है, इसशि>ये ीवके -वरूपका ऐसा परमाथ%से श्रद्धान करना वह ही सम्यग्दश%न है ।।150।।

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आगे जि सके अनन्तचतुष्टय प्रगट होते हैं उसको परमात्मा कहते हैं । उसके अनेक नाम हैं, उनमेंसे कुछ प्रकट कर कहते हैं :—

णाणी चिसव परमेट्ठी सव्वण्हू विवण्हु चउमुहो बुद्धो ।अ=पो विव र्य परम=पो कम्मविवमुक्को र्य होइ फु)ं ।।151।।ज्ञानी शिशवः परमेष्ठी सव�ज्ञः विवष्णुः चतमुु�खः बुद्धः ।आत्मा अविप च परमात्मा कम�विवमु}ः च भववित सु्फटम् ।।151।।

ते ज्ञानी, शिशव, परमेष्ठी छे, विवष्णु, चतुमु�ख बुद्ध छे,आत्मा तर्था परमातमा, सव�ज्ञ, कम�विवमु} छे. 151.

अथ% :—परमात्मा ज्ञानी है, शिशव है, परमेष्ठी है, सव%ज्ञ है, निवष्णु है, चतुमु%k ब्रह्मा है, बुद्ध है, आत्मा है, परमात्मा है और कम%रनिहत है, यह स्पष्ट ानो ।

भावाथ% :—‘ज्ञानी’ कहनेस े सांख्यमती ज्ञानरनिहत उदासीन चैतन्यमात्र मानता है उसका निनषेध है । ‘शिशव’ है अथा%त् सब कल्याणोंसे परिरपूण% है, ैसा सांख्यमती नैयामियक वैशेनिषक मानते हैं वैसा नहीं है । परमेष्ठी है सो परम (उत्कृष्ट) पदमें ण्डिस्थत है अथवा उत्कृष्ट इष्टत्व -वभाव है । ैसे अन्यमती कई अपना इष्ट कुछ मान करके उसको परमेष्ठी कहते हैं वैसे नहीं है । ‘सव�ज्ञ’ है अथा%त् सब >ोका>ोकको ानता है, अन्य निकतने ही निकसी एक प्रकरण संबंधी सब बात ानता है उसको भी सव%ज्ञ कहते हैं वैसे नहीं है । ‘विवष्णु’ है अथा%त् जि सका ज्ञान सब ज्ञेयोंमें व्यापक है—अन्यमती वेदांती आदिद कहते हैं निक पदाथ�में आप है तो ऐसा नहीं है ।

‘चतुमु�ख’ कहनेसे केव>ी अरहंतके समवसरणमें चार मुk चारों दिदशाओंमें दिदkते ह ैं ऐसा अनितशय है, इसशि>ये चतुमु%k कहते हैं—अन्यमती ब्रह्माको चतुमु%k कहते ह ैं ऐसा ब्रह्मा कोई नहीं है । ‘बुद्ध’ है अथा%त् सबका ज्ञाता है—बौद्धमती क्षभिणकको बुद्ध कहते हैं वैसा ही नहीं ह ै । ‘आत्मा’ ह ै अपन े -वभावहीम ें निनरन्तर प्रवत%ता है—अन्यमती वेदान्ती सबमें प्रवत%त े हुए आत्माको मानत े ह ैं वैसा नहीं ह ै । ‘परमात्मा’ ह ै अथा%त ् आत्माको पूण%रूप ‘अनन्तचतुष्टर्य’ उसके प्रगट हो गये हैं, इसशि>ये परमात्मा है । कम% ो आत्माके -वभावके घातक घानितयाकम�से रनिहत हो गये ह ैं इसशि>य े ‘कम� विवमु}’ हैं, अथवा कुछ करने योग्य काम न रहा इसशि>ये भी कम%निवमुक्त है । सांख्यमती, नैयामियक सदा ही कम%रनिहत मानते हैं वैसे नहीं है । ऐसे परमात्माके साथ%क नाम हैं । अन्यमती अपने इष्टका नाम एकही कहते हैं, उनका

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सव%था एकान्तके अभिभप्रायके द्वारा अथ% निबगड़ता है इसशि>ये यथाथ% नहीं है । अरहन्तके ये नाम नयनिववक्षासे सत्याथ% हैं, ऐसा ानो ।।151।।

आगे आचाय% कहते हैं निक ऐसा देव मुझे उत्तम बोमिध देवे :—इर्य घाइकम्ममुक्को अट्ठारहदोसवस्थिज्जओ सर्यलो ।वितहुवणभवणपदीवो देउ ममं उAमं बोहिहं ।।152।।इवित घावितकम�मु}ः अष्टादशदोषवर्जिजंतः सकलः ।वित्रभुवनभवनप्रदीपः ददातु महं्य उAमां बोचिधम् ।।152।।

चउघावितकम�विवमु}, दोष, अढार रविहत, संदेह एवित्रभुवनभवनना दीप जिजनवर बोचिध दो उAम मने. 152.

अथ% :—इसप्रकार घानितया कम�से रनिहत, कु्षधा, तृषा आदिद पूव}क्त अठारह दोषोंसे रनिहत, सक> (शरीरसनिहत) और तीन भुवनरूपी भवन को प्रकाशिशत करनेके शि>ए प्रकृष्ट दीपकतुल्य देव हैं, वह मुझ े उत्तम बोमिध (–सम्यग्दश%न–ज्ञान–चारिरत्र) की प्रान्तिप्त देवे, इस प्रकार आचाय%ने प्राथ%ना की है ।

भावाथ% :—यहा ँ और तो पूव}क्त प्रकार ानना, परन्त ु ‘सक>’ निवशेषणका यह आशय है निक—मोक्षमाग%की प्रवृभित्त करनेके ो उपदेश हैं वह वचनके प्रवत� निबना नहीं होते हैं और वचनकी प्रवृभित्त शरीर निबना नहीं होती है, इसशि>ये अरहंतका आयुकम%के उदयसे शरीर सनिहत अवस्थान रहता है और सु-वर आदिद नामकम%के उदयसे वचनकी प्रवृभित्त होती है । इस तरह अनेक ीवोंका कल्याण करनेवा>ा उपदेश होता रहता ह ै । अन्यमनितयोंके ऐसा अवस्थान (ऐसी ण्डिस्थनित) परमात्माके संभव नहीं है, इसशि>ये उपदेशकी प्रवृभित्त नहीं बनती है, तब मोक्षमाग%का उपदेश भी नहीं बनता है, इसप्रकार ानना चानिहये ।।152।।

आगे कहते हैं निक ो ऐसे अरहंत जि नेश्वरके चरणोंको नम-कार करते हैं वे संसारकी न्मरूप वे>को काटते हैं :—

जिजणवरचरणंबुरुहं णमंवित जे परमभचिAराएण ।ते जम्मवेस्थिल्लमूलं खणंवित वरभावसyेण ।।153।।जिजनवरचरणांबुरुहं नमंवितर्ये परमभचि}रागेण ।त ेजन्मवल्लीमूलं खनवंित वरभावशस्त्रेण ।।153।।

जे परमभचि}रागर्थी जिजनवरपदांबुजने नमे,

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ते जन्मवेलीमूळने वर भावशस्त्र व)े खणे. 153.अथ% :— ो पुरुष परम भशिक्त अनुरागसे जि नवरके चरणकम>ोंको नम-कार करते हैं

वे श्रेष्ठभावरूप ‘श-त्र’ से न्म अथा%त् संसाररूपी वे>के मू> ो मिमथ्यात्व आदिद कम%, उनको नष्ट कर Oा>ते हैं (kोद Oा>ते हैं) ।

भावाथ% :—अपनी श्रद्धा–रुशिच–प्रतीनितस े ो जि नेश्वरदेवको नम-कार करता है, उनके सत्याथ%-वरूप सव%ज्ञ—वीतरागपनेको ानकर भशिक्तके अनुरागसे नम-कार करता है तब ज्ञात होता है निक सम्यग्दश%नकी प्रान्तिप्तका यह शिचह्न है, इसशि>ये मा>ूम होता है निक इसके मिमथ्यात्वका नाश हो गया, अब आगामी संसारकी बुजिद्ध इसके नहीं होगी, इसप्रकार बताया है ।।153।।

आगे कहते हैं निक ो जि नसम्यक्त्वको प्राप्त पुरुष है सो वह आगामी कम%से शि>प्त नहीं होता है :—

जह सचिललेण ण चिल=पइ कमचिलशिणपAं सहावपर्य)ीए ।तह भावेण ण चिल=पइ कसार्यविवसएहिहं स=पुरिरसो ।।154।।र्यर्था सचिललेन न चिल=र्यते कमचिलनीपत्रं स्वभावप्रकृत्र्या ।तर्था भावेन न चिल=र्यते कषार्यविवषर्यैः सत्पुरुषः ।।154।।

ज्र्यम कमचिलनीना पत्रने नविह सचिलललेप स्वभावर्थी,त्र्यम सत्पुरुषने लेप विवषर्यकषार्यनो नविह भावर्थी. 154.

अथ% :— ैसे कमशि>नीका पत्र अपने -वभावसे ही >से शि>प्त नहीं होता है, वैसे ही सम्यग्दृमिष्ट सत्पुरुष है, वह अपने भावसे ही क्रोधादिदक कषाय और इजिन्द्रयोंके निवषयोंसे शि>प्त नहीं होता है ।

भावाथ% :—सम्यग्दृमिष्ट पुरुषके मिमथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषायका तो सव%था अभाव ही है, अन्य कषायोंका यथासंभव अभाव है । मिमथ्यात्व अनन्तानुबन्धीके अभाव से ऐसा भाव होता है । यद्यनिप परद्रव्यमात्रके कतृ%त्वकी बुजिद्ध तो नहीं है, परन्तु शेष कषायोंके उदयसे कुछ राग–दे्वष होता है, उसको कम%के उदयके निनमिमत्तसे हुए ानता है, इसशि>ये उसमें भी कतृ%त्वबुजिद्ध नहीं है, तो भी उन भावोंको रोगके समान हुए ानकर अच्छा नहीं समझता है । इसप्रकार अपने भावोंसे ही कषाय–निवषयोंसे प्रीनित–बुजिद्ध नहीं है, इसशि>ये उनसे शि>प्त नहीं होता है, >कम>वत् निन>�प रहता है । इसमें आगामी कम%का बन्ध नहीं होता है, संसारकी वृजिद्ध नहीं होती है, ऐसा आशय है ।।154।।

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आगे कहते हैं निक ो पूव}क्त भाव सनिहत सम्यग्दृमिष्ट सत्पुरुष हैं वे ही सक> शी> संयमादिद गुणोंसे संयुक्त हैं, अन्य नहीं हैं :—

ते *त्थिच्चर्य भणामिम हं जे सर्यलकलासीलसंजमगुणेहिहं ।बहुदोसाणावासो सुमचिलणचिचAो ण सावर्यसमो सो ।।155।।

*. पाठान्तरः—शिच य ।

+तानेव च भणामिम र्ये सकलकलाशीलसंर्यमगुणैः ।बहुदोषाणामावासः सुमचिलनचिचAः न श्रावकसमः सः ।।155।।

+. पाठान्तरः—तान अनिप ।कहुं ते ज मुविन जे शीलसंर्यमगुण–समस्त कळा–धरे;जे मचिलनमन बहुदोषघर, ते तो न श्रावकतुल्र्य छे. 155.

अथ% :—पूव}क्त भावसनिहत सम्यग्दृमिष्ट पुरुष हैं और शी> संयम गुणोंसे सक> क>ा अथा%त ् संपूण% क>ावान होत े हैं, उनहीको हम मुनिन कहत े ह ैं । ो सम्यग्दृमिष्ट नहीं है, मशि>नशिचत्तसनिहत मिमथ्यादृमिष्ट ह ै और बहुत दोषोंका आवास (स्थान) ह ै वह तो भेष धारण करता है तो भी श्रावकके समान भी नहीं है ।

भावाथ% :— ो सम्यग्दृमिष्ट है और शी> (–उत्तरगुण) तथा संयम (–मू>गुण) सनिहत है वह मुनिन है । ो मिमथ्यादृमिष्ट है अथा%त् जि सका शिचत्त मिमथ्यात्वसे मशि>न है और जि समें क्रोधादिद निवकाररूप बहुत दोष पाये ाते हैं, वह तो मुनिनका भेष धारण करता ह ै तो भी श्रावकके समान भी नहीं है, श्रावक सम्यग्दृमिष्ट हो और गृहस्थाचारके पाप सनिहत हो तो भी उसके बराबर वह–केव> भेषमात्रको धारण करनेवा>ा मुनिन—नहीं है, ऐसा आचाय%न े कहा ह ै ।।155।।

आगे कहते ह ैं निक सम्यग्दृमिष्ट होकर जि नने कषायरूप सुभट ीत े व े ही धीरवीर हैं :—

ते धीरवीरपुरिरसा खमदखग्गेण विव=फुरंतेण ।दुज्जर्यपबलबलुद्धरकसार्यभ) शिणस्थिज्जर्या जेहिहं ।।156।।त ेधीरवीरपुरुषाः क्षमादमख)्गेण विवसु्फरता ।

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दुज�र्यप्रबलबलोद्धतकषार्यभटाः विनर्जिजंता र्यैः ।।156।।ते धीरवीर नरो, क्षमादम–तीक्ष्णख)्गे जेमणे,जीत्र्या सुदुज�र्य–उग्रबल–मदमA–सुभट–कषार्यने. 156.

अथ% :—जि न पुरुषोंन े क्षमा और इजिन्द्रयोंका दमन वह ही हुआ निवसु्फरता अथा%त् स ाया हुआ मशि>नतारनिहत उज्जव> तीक्ष्ण kO्ग, उससे जि नको ीतना कदिठन ह ै ऐसे दु %य, प्रब> तथा ब>से उद्धत कषायरूप सुभटोंको ीते, वे ही धीरवीर सुभट हैं, अन्य संग्रामादिदकमें ीतनेवा>े तो ‘कहनेके सुभट’ हैं ।

भावाथ% :—युद्धम ें ीतनेवा> े शूरवीर तो >ोकम ें बहुत है, परन्त ु कषायोंको ीतनेवा>े निवर>े हैं, वे मुनिनप्रधान हैं और वे ही शूरवीरोंमें प्रधान हैं । ो सम्यग्दृमिष्ट होकर कषायोंको ीतकर चारिरत्रवान् होते हैं वे मोक्ष पाते हैं, ऐसा आशय है ।।156।।

आगे कहते हैं निक ो आप दश%न–ज्ञान–चारिरत्ररूप होते हैं वे अन्यको भी उन सनिहत करते हैं, उनको धन्य है :—

धण्णा ते भर्यवंता दंसणणाणग्गपवरहyेहिहं ।विवसर्यमर्यरहरपवि)र्या भविवर्या उAारिरर्या जेहिहं ।।157।।त ेधन्र्याः भगवंतः दश�नज्ञानाग्रप्रवरहस्तैः ।विवषर्यमकरधरपवितताः भव्याः उAारिरताः र्यैः ।157।।

छे धन्र्य ते भगवंत, दश�नज्ञान–उAमकर व)े,जे पार करता विवषर्यमकराकरपवितत भविव जीवने. 157.

अथ% :—जि न सत्पुरुषोंने निवषयरूप मकरधर (समुद्र) में पडे़ हुए भव्य ीवोंको–दश%न और ज्ञानरूपी मुख्य दोनों हाथोंसे–पार उतार दिदये, वे मुनिनप्रधान भगवान् इन्द्रादिदकसे पूज्य ज्ञानी धन्य हैं ।

भावाथ% :—इस संसार–समुद्रसे आप नितरें और दूसरोंको नितरा देवें उन मुनिनयोंको धन्य है । धनादिदक सामग्रीसनिहतको ‘धन्य’ कहते हैं, वह तो ‘कहनेके धन्य’ हैं ।।157।।

आगे निफर ऐसे मुनिनयोंकी मनिहमा करते हैं :—मार्यावेस्थिल्ल असेसा मोहमहातरुवरप्तिम्म आरूढा ।विवसर्यविवसपु=फफुस्थिल्लर्य लुणंवित मुशिण णाणसyेहिहं ।।158।।

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मार्यावल्लीं अशेषां मोहमहातरुवरे आरूढाम् ।विवषर्यविवषपुष्पपुप्तिष्पता ंलुनवंित मुनर्यः ज्ञानशस्तै्रः ।।158।।

मुविन ज्ञानशस्ते्र छेदता संपूण� मार्यावेलने,–बहु विवषर्य–विवषपुष्पे खीली, आरूढ मोहमहाद्रुमे. 158.

अथ% :—माया (कपट) रूपी वे> ो मोहरूपी वृक्ष पर चढ़ी हुई है तथा निवषयरूपी निवषके फू>ोंसे फू> रही है उसको मुनिन ज्ञानरूपी श-त्रसे सम-ततया काट Oा>ते हैं अथा%त् निनःशेष कर देते हैं ।

भावाथ% :—यह मायाकषाय मूढ़ है, इसका निव-तार भी बहुत है, मुनिनयों तक फै>ती है, इसशि>ये ो मुनिन ज्ञानसे इसको काट Oा>ते हैं वे ही सच्चे मुनिन हैं, वे ही मोक्ष पाते हैं ।।158।।

आगे निफर उन मुनिनयोंके सामथ्य%को कहते हैं :—मोहमर्यगारवेहिहं र्य मुक्का र्ये करुणभावसंजुAा ।ते सव्वदुरिरर्यखंभं हणंवित चारिरAखग्गेण ।।159।।मोहमदगारवैः च मु}ाः र्ये करुणभावसंर्यु}ाः ।त ेसव�दुरिरतस्तंभं घ्नवंित चारिरत्रख)्गेन ।।159।।

मद–मोह–गारवमु} ने जे रु्य} करुणाभावर्थी,सघळा दुरिरतरूप र्थंभने घाते चरण–तरवारर्थी. 159.

अथ% :— ो मुनिन मोह—मद—गौरवसे रनिहत ह ैं और करुणाभाव सनिहत हैं, वे ही चारिरत्ररूपी kO्गसे पापरूपी -तंभको हनते हैं अथा%त् मू>से काट Oा>ते हैं ।

भावाथ% :—परद्रव्यसे ममत्वभावको ‘मोह’ कहते हैं । ‘मद’— ानित आदिद परद्रव्यके संबंधसे गव% होनेको ‘मद’ कहते हैं । गौरव तीन प्रकारका है—ऋजिद्धगौरव, सातगौरव और रसगौरव । ो कुछ तपोब>से अपनी महंतता >ोकमें हो उसका अपनेको मद आवे, उसमें हष% माने वह ‘ऋजिद्धगौरव’ है । यदिद अपने शरीरमें रोगादिदक उत्पन्न न हों तो सुk माने तथा प्रमादयुक्त होकर अपना महंतपना मान े सातगौरव ह ै । यदिद मिमष्ट–पुष्ट रसी>ा आहारादिदक मिम>े तो उसके निनमिमत्तसे प्रमत्त होकर शयनादिदक करे ‘रसगौरव’ है । मुनिन इसप्रकार गौरवसे तो रनिहत हैं और पर ीवोंकी करुणासे सनिहत हैं; ऐसा नहीं है निक पर ीवोंसे मोहममत्व नहीं है इसशि>ये निनद%य होकर उनको मारते हैं, परन्तु ब तक राग अंश रहता है तब तक पर ीवोंकी

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करुणा ही करते हैं, उपकारबुजिद्ध रहती है । इसप्रकार ज्ञानी मुनिन पाप ो अशुभकम% उसका चारिरत्रके ब>से नाश करते हैं ।।159।।

आगे कहते हैं निक ो इसप्रकार मू>गुण और उत्तरगुणोंसे मंनिOत मुनिन हैं वे जि नमतमें शोभा पाते हैं :—

गुणगणमशिणमालाए जिजणमर्यगर्यणे शिणसार्यरमुणिणंदो ।तारावचिलपरिरर्यरिरओ पुस्थिण्णमइंदुव्व पवणपहे ।।160।।गुणगणमशिणमालर्या जिजनमतगगने विनशाकरमुनींद्रः ।तारावलीपरिरकरिरतः पूर्शिणंमेन्दुरिरव पवनपरे्थ ।।160।।

ताराबली सह जे रीते पूणtन्दु शोभे आभमां,गुणवृंदमशिणमाला सविहत मुविनचंद्र जिजनमतगगनमां. 160.

अथ% :— ैस े पवनपथ (–आकाश) म ें ताराओंकी पंशिक्तके परिरवारस े वेमिष्टत पूर्णिणंमाका चन्द्रमा शोभा पाता है, वैस े ही जि नमतरूप आकाशम ें गुणोंके समूहरूपी मभिणयोंकी मा>ासे मुनीन्द्ररूप चंद्रमा शोभा पाता है ।

भावाथ% :—अट्ठाईस मू>गुण, दश>क्षण धम%, तीन गुन्तिप्त और चौरासी >ाk उत्तरगुणोंकी मा>ासनिहत मुनिन जि नमतमें चन्द्रमाके समान शोभा पाता है, ऐसे मुनिन अन्यमतमें नहीं हैं ।।160।।

आगे कहते हैं निक जि नके इसप्रकार निवशुद्ध भाव हैं वे सत्पुरुष तीथ�कर आदिद पदके सुkोंको पाते हैं :—

चक्कहररामकेसवसुखरजिजणगणहराइसोक्खाइं ।चारणमुशिणरिरद्धीओ विवसुद्धभावा णरा पAा ।।161।।चक्रधररामकेशवसुरवरजिजनगणधरादिदसौख्र्याविन ।चारणमुन्र्यद्धÐः विवशुद्धभावा नराः प्रा=ताः ।।161।।

चके्रश-केशव-राम-जिजन-गणी-सुरवरादिदक-सौख्र्यने,चारणमुनींद्रसुऋशिद्धने, सुविवशुद्धभाव नरो लहे. 161.

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अथ% :—निवशुद्ध भाववा> े ऐस े नर मुनिन ह ैं वह चक्रधर (–चक्रवतN, छह kंOका रा ेन्द्र) राम (–ब>भद्र) केशव (–नारायण, अद्ध%चक्री) सुरवर (–देवोंका इन्द्र) जि न (तीथ�कर पंचकल्याणक सनिहत, तीन>ोकसे पूज्य पद) गणधर (–चार ज्ञान और सप्तऋजिद्धके धारक मुनिन) इनके सुkोंको तथा चारणमुनिन (जि नके आकाशगामिमनी आदिद ऋजिद्धया ँ पाई ाती हैं) की ऋजिद्धयोंको प्राप्त हुए ।

भावाथ% :—पनिह>े इसप्रकार निनम%> भावोंके धारक पुरुष हुए वे इस प्रकारके पदोंके सुkोंको प्राप्त हुए, अब ो ऐसे होंगे वे पावेंगे, ऐसा ानो ।।161।।

आगे कहते हैं निक मोक्षका सुk भी ऐसे ही पाते हैं :—चिसवमजरामरलिलंगमणोवममुAमं परमविवमलमतुलं ।पAा वरचिसशिद्धसुहं जिजणभावणभाविवर्या–जीवा ।।162।।शिशवमजरामरलिलंगं अनुपममुAमं परमविवमलमतुलम् ।प्रा=तो वरचिसशिद्धसुखं जिजनभावनाभाविवता जीवाः ।।162।।

जिजनभावनापरिरणत जीवो वरचिसशिद्धसुख अनुपम लहे,शिशव, अतुल, उAम, परम विनम�ल, अजर—अमरस्वरूप जे. 162.

अथ% :— ो जि भावनासे भानिवत ीव हैं वे ही शिसजिद्ध अथा%त् मोक्षके सुkको पात े ह ैं । कैसा ह ै शिसजिद्धसुk ? ‘शिशव’ है, कल्याणरूप है, निकसीप्रकार उपद्रव सनिहत नहीं है, ‘अ रामरलि>ंग’ है अथा%त् जि सका शिचह्न वृद्ध होना और मरना इन दोनोंसे रनिहत है, ‘अनुपम’ है, जि सको संसार के सुkकी उपमा नहीं >गती है, ‘उत्तम’ (सव}त्तम) है, ‘परम’ (सव}त्कृष्ट) है, महाघ्य% है अथा%त् महान् अघ्य%–पूज्य प्रशंसा के योग्य है, ‘निवम>’ है कम%के म> तथा रागादिदकम>से रनिहत है । ‘अतु>’ है, इसके बराबर संसारका सुk नहीं है, ऐसे सुkको जि न–भक्त पाता है, अन्यका भक्त नहीं पाता है ।।162।।

आगे आचाय% प्राथ%ना करते हैं निक ो ऐसे शिसद्धसुkको प्राप्त हुए शिसद्ध भगवान वे मुझे भावोंकी शुद्धता देवें :—

ते मे वितहुवणमविहमा चिसद्धा सुद्धा शिणरंजणा शिणच्चा ।दिदंतु वरभावसुणिदं्ध दंसण णाणे चरिरAे र्य ।।163।।त ेमे वित्रभुवनमविहताः चिसद्धाः सुद्धाः विनरंजनाः विनत्र्याः ।

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वदतु वरभावशुणिदं्ध दश�ने ज्ञान ेचारिरते्र र्य ।।163।।भगवंत चिसद्धो–वित्रजगपूजिजत, विनत्र्य, शुद्ध, विनरंजना–वर भावशुशिद्ध दो मने दृग, ज्ञान ने चारिरत्रमां. 163.

अथ% :—शिसद्ध भगवान मुझे दश%न, ज्ञानमें और चारिरत्रमें श्रेष्ठ उत्तमभावकी शुद्धता देवें । कैसे हैं शिसद्ध भगवान् ? तीन भुवनसे पूज्य हैं, शुद्ध हैं, अथा%त् द्रव्यकम% और नोकम%रूप म>से रनिहत हैं, निनरं न हैं अथा%त् रागादिद कम%से रनिहत हैं, जि नके कम%की उत्पभित्त नहीं है, निनत्य हैं—प्राप्त -वभावका निफर नाश नहीं है ।

भावाथ% :—आचाय%ने शुद्धभावका फ> शिसद्ध अवस्था और ो निनश्चयसे इस फ>को प्राप्त हुए शिसद्ध, इनसे यही प्राथ%ना की है निक शुद्धभावकी पूण%ता हमारे होवे ।।163।।

आगे भावके कथनका संकोच करते हैं :—हिकं जंविपएण बहुणा अyो धम्मो र्यकाममोक्खो र्य ।अण्णे विव र्य वावारा भावप्तिम्म परिरदिट्ठर्या सव्वे ।।164।।हिकं जत्थिल्पतेन बहुना अर्थ�ः धम�ः च काममोक्षः च ।अन्र्ये अविप च व्यापाराः भावे परिरस्थिस्थताः सवt ।।164।।

बहु कर्थन शुं करवंु ? अरे ! धमा�र्थ�कामविवमोक्ष नेबीजार्य बहु व्यापार, ते सौ भाव मांही रहेल छे. 164.

अथ% :—आचाय% कहते हैं निक बहुत कहनेसे क्या ? धम%, अथ%, काम, मोक्ष और अन्य ो कुछ व्यापार है वह सब ही शुद्धभावमें सम-तरूपसे ण्डिस्थत है ।

भावाथ% :—पुरुषके चार प्रयो न प्रधान हैं—धम%, अथ%, काम, मोक्ष । अन्य भी ो कुछ मंत्रसाधनादिदक व्यापार ह ैं व े आत्माके शुद्ध चैतन्यपरिरणाम-वरूप भावम ें ण्डिस्थत ह ैं । शुद्धभावसे सब शिसजिद्ध है, इसप्रकार संक्षेपसे कहना ानो, अमिधक क्या कहें ? ।।164।।

आग े इस भावपाहुड़को पूण% करत े हुए इसके पढ़ने–सुनन े व भावना करनेका (शिचन्तनका) उपदेश करते हैं :—

इर्य भावपाहु)मिमणं सव्वंबुदे्धविह देचिसर्यं सम्मं ।जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ अविवचलं ठाणं ।।165।।

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इवित भावप्राभृतमिमदं सव�बुदै्धः देशिशत ंसम्र्यक् ।र्यः पठवित श्रृणोवित भावर्यवित सः प्राप्नोवित अविवचलं स्थानम् ।।165।।

ए रीत सव�जे्ञ कचिर्थत आ भावप्राभृत–शास्त्रनां,सुपठन–सुश्रवण–सुभावनार्थी वास अविवचल धाममां. 165.

अथ% :—इसप्रकार इस भावपाहुOका सव%बुद्ध–सव%ज्ञदेवने उपदेश दिदया है, इसको ो भव्य ीव सम्यक्प्रकार पढ़ते हैं, सुनते हैं और इसका शिचन्तन करते हैं वे शाश्वत सुkके स्थान मोक्षको पाते हैं ।

भावाथ% :—यह भावपाहुO ग्रंथ सव%ज्ञकी परंपरास े अथ% >ेकर आचाय%न े कहा है, इसशि>ये सव%ज्ञका ही उपदेश है, केव> छद्मस्थका ही कहा हुआ नहीं है, इसशि>ये आचाय%ने अपना कत्त%व्य प्रधानकर नहीं कहा है । इसके पढ़ने–सुननेका फ> मोक्ष कहा, वह युक्त ही है । शुद्धभावस े मोक्ष होता ह ै और इसके पढ़नेस े शुद्धभाव होत े ह ैं । (नोंध—यहा ँ -वाश्रयी निनश्चयम ें शुद्धता कर े तो निनमिमत्तम ें शा-त्रपठनादिदम ें व्यवहारस े निनमिमत्तकारण–परंपरा कारण कहा ाय । अनुपचार = निनश्चय निबना उपचार–व्यवहार कैसा ? इसप्रकार इसका पढ़ना, सुनना, धारण और भावना करना परंपरा मोक्षका कारण है । इसशि>ये ह े भव्य ीवों ! इस भावपाहुड़को पढ़ो, सुनो, सुनाओ, भावो और निनरन्तर अभ्यास करो जि ससे भाव शुद्ध हों और सम्यग्दश%न–ज्ञान–चारिरत्रकी पूण%ताको पाकर मोक्षको प्राप्त करो तथा वहाँ परमानंदरूप शाश्वत सुkको भोगो ।

इसप्रकार श्री कुन्दकुन्दनामक आचाय%ने भावपाहुड़ ग्रंथ पूण% निकया ।इसका संक्षेप ऐसे हैं— ीवनामक व-तुका एक असाधारण शुद्ध अनिवनाशी चेतना

-वभाव है । इसकी शुद्ध, अशुद्ध दो परिरणनित हैं । शुद्ध दश%न–ज्ञानोपयोगरूप परिरणमना ‘शुद्ध परिरणनित’ है, इसको शुद्धभाव कहत े ह ैं । कम%के निनमिमत्तस े रागदे्वष–मोहादिदक निवभावरूप परिरणमना ‘अशुद्ध परिरणनित’ है, इसको अशुद्धभाव कहते ह ैं । कम%का निनमिमत्त अनादिदसे है इसशि>ये अशुद्धभावरूप अनादिदहीमें परिरणमन कर रहा है । इस भावसे शुभ–अशुभ कम%का बंध होता है, इस बंधके उदयसे निफर शुभ या अशुभ भावरूप (–अशुद्ध भावरूप) परिरणमन करता है, इसप्रकार अनादिद संतान च>ा आता ह ै । ब इष्टदेवतादिदककी भशिक्त, ीवोंकी दया, उपकार, मंदकषायरूप परिरणमन करता ह ै तब तो शुभकम%का बंध करता है; इसके निनमिमत्तसे देवादिदक पया%य पाकर कुछ सुkी होता है । ब निवषय–कषाय तीव्र परिरणामरूप परिरणमन करता है तब पापका बंध करता है, इसके उदयमें नरकादिदक पया%य पाकर दुःkी होता है ।

इसप्रकार संसारमें अशुद्धभावसे अनादिदका>से यह ीव भ्रमण करता है । ब कोई का> ऐसा आव े जि सम ें जि नेश्वरदेव—सव%ज्ञ वीतरागके उपदेशको प्रान्तिप्त हो और उसका

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श्रद्धान रुशिच प्रतीनित आचरण करे तब -व और परका भेदज्ञान करके शुद्ध–अशुद्ध भावका -वरूप ानकर अपने निहत–अनिहतका श्रद्धान रुशिच प्रतीनित आचरण हो तब शुद्धदश%नज्ञानमयी शुद्ध चेतना परिरणमनको तो ‘विहत’ ाने, इसका फ> संसारकी निनवृभित्त है इसको ाने, और अशुद्धभावका फ> संसार ह ै इसको ाने, तब शुद्धभावके ग्रहणका और अशुद्धभावके त्यागका उपाय करे । उपायका -वरूप ैसे सव%ज्ञ–वीतरागके आगममें कहा है वैसे करे ।

इसका -वरूप निनश्चय-व्यवहारात्मक सम्यग्दश%न-ज्ञान-चारिरत्र-वरूप मोक्षमाग% कहा है । शुद्ध-वरूपके श्रद्धान-ज्ञान-चारिरत्रको ‘विनश्चर्य’ कहा है और जि नदेव सव%ज्ञ–वीतराग तथा उनके वचन और उन वचनोंके अनुसार प्रवत%नेवा>े मुनिन श्रावक उनकी भशिक्त वन्दना निवनय वैयावृत्य करना ‘व्यवहार’ है, क्योंनिक यह मोक्षमाग%म ें प्रवता%नेको उपकारी ह ै । उपकारीका उपकार मानना न्याय है, उपकार >ोपना अन्याय है । -वरूपके साधक अहिहंसा आदिद महाव्रत तथा रत्नत्रयरूप प्रवृभित्त, समिमनित, गुन्तिप्तरूप प्रवत%ना और इनमें दोष >गने पर अपनी हिनंदा गहा%दिदक करना, गुरुओंका दिदया हुआ प्रायभिश्चत्त >ेना, शशिक्तके अनुसार तप करना, परिरग्रह सहना, दस>क्षणधम%में प्रवत%ना इत्यादिद शुद्धात्माके अनुकू> निक्रयारूप प्रवत%ना, इनमें कुछ रागका अंश रहता है तबतक शुभकम%का बंध होता है, तो भी वह प्रधान नहीं है, क्योंनिक इनमें प्रवत%नेवा>ेके शुभकम%के फ>की इच्छा नहीं हैं, इसशि>य े अबंधतुल्य है,—इत्यादिद प्रवृभित्त आगमोक्त ‘व्यवहार–मोक्षमाग%’ ह ै । इसम ें प्रवृभित्तरूप परिरणाम ह ैं तो भी निनवृभित्तप्रधान है, इसशि>ये निनश्चय–मोक्षमाग%में निवरोध नहीं है ।

इसप्रकार निनश्चय—व्यवहार-वरूप मोक्षमाग%का संक्षेप है । इसीको *‘शुद्धभाव’ कहा है । इसमें भी सम्यग्दश%नको प्रधान कहा है, क्योंनिक सम्यग्दश%नके निबना सब व्यवहार मोक्षका कारण नहीं ह ै और सम्यग्दश%नके व्यवहारमें जि नदेवकी भशिक्त प्रधान है, यह सम्यग्दश%नको बतानेके शि>ए मुख्य शिचह्न है, इसशि>य े जि नभशिक्त निनरंतर करना और जि न–आज्ञा मानकर आगमोक्त माग%में प्रवत%ना यह श्रीगुरुका उपदेश है । अन्य जि न–आज्ञा शिसवाय सब कुमाग% हैं, उनका प्रसंग छोड़ना; इसप्रकार करनेस े आत्मकल्याण होता है ।

*—‘शुद्धभाव’ का निनरूपण दो प्रकारसे निकया गया है; ैसे ‘मोक्षमाग% दो नहीं हैं’ निकन्तु उसका निनरूपण दो प्रकारका है, इसी प्रकार शुद्धभावको हाँ दो प्रकारके कहे हैं वहाँ निनश्चयनयसे और व्यवहारनयसे कहा है ऐसा समझना चानिहये । निनश्चय सम्यग्दश%नादिद है उसे ही व्य. मान्य है और उसे ही निनरनितचार व्यवहार रत्नत्रयादिदमें व्यवहारसे शुद्धत्व अथवा ‘शुद्ध संप्रयोगत्व’का आरोप आता है जि सको व्यवहारमें ‘शुद्धभाव’ कहा है, उसीको निनश्चय अपेक्षा अशुद्ध कहा है–निवरुद्ध कहा है, निकन्तु व्यवहारनयसे व्यवहार निवरुद्ध नहीं है ।

* छप्पय *जीव सदा चिचदभाव एक अविवनाशी धारै ।कम� विनमिमतकंू पाप अशुद्धभावविन विवस्तारै ।।

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कम� शुभाशुभ बांचिध उदै भरमै संसारै ।पावै दुःख अनंत च्र्यारिर गवितमैं )ुचिल सारै ।।सव�ज्ञदेशना पापके तजै भाव मिमथ्र्यात्व जब ।विनजशुद्धभाव धरिर कम�हरिर लहै मोक्ष भरमै न तब ।।

* दोहा *मंगलमर्य परमातमा, शुद्धभाव अविवकार ।नमूँ पार्य पाऊँ स्वपद, जाचूँ र्यहै करार ।।

इनित श्री कुन्दकुन्द-वामिमनिवरशिचत भावप्राभृतकी यपुरनिनवासी पं0 यचन्द्र ी छावड़ा कृत देशभाषामय वचनिनका समाप्त ।।5।।

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मोक्षपाहु)6

ॐ नमः शिसदे्धभ्यः ।अथ मोक्षपाहुOकी वचनिनका शि>ख्यते ।प्रथम ही मंग>के शि>ये शिसद्धोंको नम-कार करते हैं :—

(दोहा)अष्ट कम�को नाश करिर, शुद्ध अष्ट गुण पार्य ।भरे्य चिसद्ध विनज ध्र्यानतैं, नमूं मोक्षसुखदार्य ।।1।।

इसप्रकार मंग>के शि>ये शिसद्धोंको नम-कार कर श्रीकुन्दकुन्द आचाय%कृत मोक्षपाहुO ग्रंथ प्राकृत गाथाबद्ध है, उसकी देशभाषामय वचनिनका शि>kते हैं । प्रथम ही आचाय% मंग>के शि>ये परमात्माको नम-कार करते हैं :—

णाणमर्यं अ=पाणं उवलदं्ध जेण झवि)र्यकम्मेण ।चइऊण र्य परदव्वं णमो णमो तस्स देवस्स ।।1।।ज्ञानमर्य आत्मा उपल�ः र्येन क्षरिरतकम�णा ।त्र्यक्त्वा च परद्रव्यं नमो नमस्तस्मै देवार्य ।।1।।

करीने क्षपण कमN तणुं, परद्रव्य परिरहरी जेमणेज्ञानात्म आत्मा प्रा=त कीधो, नमुं नमुं ते देवने. 1.

अथ% :—आचाय% कहते हैं निक जि नने परद्रव्यको छोड़कर, द्रव्यकम%, भावकम% और नोकम% खिkर गये ह ैं ऐसे होकर, निनम%> ज्ञानमयी आत्माको प्राप्त कर शि>या है इस प्रकारके देवको हमारा नम-कार हो—नम-कार हो ! दो बार कहनेम ें अनित प्रीनितयुक्त भाव बताय े हैं ।

भावाथ% :—यह ‘मोक्षपाहुO’का प्रारंभ है । यहाँ जि नने सम-त परद्रव्यको छोड़कर कम%का अभाव करके केव>ज्ञानानंद-वरूप मोक्षपदको प्राप्त कर शि>या है, उन देवको मंग>के शि>ये नम-कार निकया यह युक्त ह ै । हा ँ ैसा प्रकरण वहा ँ वैसी योग्यता । यहाँ भावमोक्ष तो अरहंतके ह ै और द्रव्य-भाव दोनों प्रकारके मोक्ष शिसद्ध परमेष्ठीके हैं, इसशि>ये दोनोंको नम-कार ानो ।।1।।

आगे इसप्रकार नम-कार कर गं्रथ करनेकी प्रनितज्ञा करते हैं :—

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णमिमऊण र्य तं देवं अणंतवरणाणदंसणं सुदं्ध ।वोचं्छ परम=पाणं परमपर्यं परमजोईणं ।।2।।नत्वा च त ंदेवं अनंतवरज्ञानदश�नं शुद्धम् ।वक्ष्र्ये परमात्मानं परमपदं परमर्योविगनाम् ।।2।।

ते देवने नमी–अमिमत–वर–दृगज्ञानधरने शुद्धने,कहुं परमपद—परमातमा—प्रकरण परमर्योगीन्द्रने. 2.

अथ% :—आचाय% कहते हैं निक उस पूव}क्त देवको नम-कार कर, परमात्मा ो उत्कृष्ट शुद्ध आत्मा उसको, परम योगीश्वर ो उत्कृष्ट—योग्य ध्यानके करनेवा>े मुनिनरा ोंके शि>ये कहूँगा । कैसा है पूव}क्त देव ? जि सके अनन्त और श्रेष्ठ ज्ञान—दश%न पाया ाता है, निवशुद्ध है—कम%म>से रनिहत है, जि सका पद परम—उत्कृष्ट है ।

भावाथ% :—इस ग्रंथमें मोक्षको जि स कारणसे पावे और ैसा मोक्षपद है वैसा वण%न करेंगे, इसशि>ये उस रीनित उसीकी प्रनितज्ञा की है । योगीश्वरोंके शि>ए कहेंगे, इसका आशय यह है निक ऐसे मोक्षपदको शुद्ध परमात्माके ध्यानके द्वारा प्राप्त करते हैं, उस ध्यानकी योग्यता योगीश्वरोंके ही प्रधानरूपस े पाई ाती है, गृहस्थोंके यह ध्यान प्रधान नहीं है ।।2।।

आगे कहते हैं निक जि स परमात्माको कहनेकी प्रनितज्ञा की है उसको योगी ध्यानी मुनिन ानकर उसका ध्यान करके परम पदको प्राप्त करते हैं :—

जं जाशिणऊण जोई जोअyो जोइऊण अणवरर्यं ।अव्वाबाहमणंतं अणोवमं लहइ शिणव्वाणं ।।3।।र्यत ्ज्ञात्वा र्योगी र्योगस्थः दृष््टवा अनतवरतम् ।अव्याबाधमनंतं अनुपमं लभते विनवा�णम् ।।3।।

जे जाणीने, र्योगस्थ र्योगी, सतत देखी जेहने,उपमाविवहीन अनंत अव्याबाध शिशवपदने लहे. 3.

अथ% :—आगे कहेंगे निक परमात्माको ानकर योगी (–मुनिन) योग (–ध्यान)में ण्डिस्थत होकर निनरन्तर उस परमात्माको अनुभवगोचर करके निनवा%णको प्राप्त होता ह ै । कैसा है निनवा%ण ? ‘अव्याबाध’ है, – हाँ निकसी प्रकारकी बाधा नहीं है । ‘अनंत है’—जि सका नाश नहीं है । अनुपम है,—जि सको निकसीकी उपमा नहीं >गती है ।

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भावाथ% :—आचाय% कहते हैं निक ऐसे परमात्माको आगे कहेंगे जि सके ध्यानमें मुनिन निनरन्तर अनुभव करके केव>ज्ञान प्राप्त कर निनवा%णको प्राप्त करते हैं । यहाँ यह तात्पय% है निक परमात्माके ध्यानसे मोक्ष होता है ।।3।।

आगे परमात्मा कैसा है ऐसा बतानेके शि>ए आत्माको तीन प्रकारका दिदkाते हैं :—वितपर्यारो सो अ=पा परमंतरबाविहरो *हु देहीणं ।तy परो झाइज्जइ अंतोवाएण चर्यविह बविहर=पा ।।4।।

*-मुदिद्रत सं-कृत प्रनितमें ‘हु हेऊणं’ ऐसा पाठ है जि सकी सं-कृत ‘तु निहत्वा’ की है ।वित्रप्रकारः स आत्मा परमन्तः बविहः सु्फटं देविहनाम् ।तत्र परं ध्र्यार्यते अन्तरुपार्येन त्र्यज बविहरात्मानं ।।4।।

ते आतमा छे परम–अंतर–बविहर त्रणधा देहीमां;अंतर–उपार्ये परमने ध्र्याओ, तजो बविहरातमा. 4.

अथ% :–वह आत्मा प्राभिणयोंके तीन प्रकारका है; अंतरात्मा, बनिहरात्मा और परमात्मा । अंतरात्माके उपाय द्वारा बनिहरात्मपनको छोड़कर परमात्माका ध्यान करना चानिहये ।

भावाथ% :—बनिहरात्मपनको छोड़कर अंतरात्मारूप होकर परमात्माका ध्यान करना चानिहये, इससे मोक्ष होता है ।।4।।

आगे तीन प्रकारके आत्माका -वरूप दिदkाते हैं :—अक्खाशिण बाविहर=पा अंतरअ=पा हु अ=पसंक=पो ।कम्मकलंकविवमुक्को परम=पा भण्णए देवो ।।5।।अक्षाशिण बविहरात्मा अन्तरात्मा सु्फटं आत्मसंकल्पः ।कम�कलंकविवमु}ः परमात्मा भण्र्यत ेदेवः ।।5।।

छे अक्षधी बविहरात्म, आतमबुशिद्ध अंतर—आतमा,जे मु} कम�कलंकर्थी ते देव छे परमातमा. 5.

अथ% :—अक्ष अथा%त् स्पश%न आदिद इजिन्द्रयाँ वह तो बाह्य आत्मा है, क्योंनिक इजिन्द्रयोंसे स्पश% आदिद निवषयोंका ज्ञान होता है तब >ोग कहते हैं—ऐसे ही ो इजिन्द्रयाँ हैं वही आत्मा है, इसप्रकार इजिन्द्रयोंको बाह्य आत्मा कहत े ह ैं । अंतरात्मा ह ै वह अंतरंगम ें आत्माका प्रकट अनुभवगोचर संकल्प है, शरीर और इजिन्द्रयोंसे भिभन्न मनके द्वारा देkने, ाननेवा>ा है वह मैं

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हँू, इसप्रकार -वसंवेदनगोचर संकल्प वही अन्तरात्मा है । तथा परमात्मा कम% ो द्रव्यकम% ज्ञानावरणादिदक तथा भावकम% ो राग—दे्वष—मोहादिदक और नोकम% ो शरीरादिदक क>ंकम> उससे निवमुक्त—रनिहत, अनंतज्ञानादिदक गुण सनिहत वही परमात्मा है, वही देव है, अन्यको देव कहना उपचार है ।

भावाथ% :–बाह्य आत्मा तो इजिन्द्रयोंको कहा तथा अंतरात्मा देहम ें ण्डिस्थत देkना– ानना जि सके पाया ाता है ऐसा मनके द्वारा संकल्प है और परमात्मा कम%क>ंकसे रनिहत कहा । यहाँ ऐसा बताया है निक यह ीव ही बतक बाह्य शरीरादिदकको ही आत्मा ानता है तबतक तो बनिहरात्मा है, संसारी है, ब यही ीव अंतरंगमें आत्माको ानता है तब यह सम्यग्दृमिष्ट होता है, तब अन्तरात्मा ह ै और यह ीव ब परमात्माके ध्यानसे कम%क>ंकसे रनिहत होता है तब पनिह>े तो केव>ज्ञान प्राप्त कर अरहंत होता है, पीछे शिसद्धपदको प्राप्त करता है, इन दोनोंहीको परमात्मा कहते ह ैं । अरहंत तो भाव–क>ंक रनिहत हैं और शिसद्ध द्रव्य–भावरूप दोनों ही प्रकार के क>ंकसे रनिहत हैं, इसप्रकार ानो ।।5।।

आगे उस परमात्माका निवशेषण द्वारा -वरूप कहते हैं :—मलरविहओ कलचAो अणिणंदिदओ केवलो विवसुद्ध=पा ।परमेट्ठी परमजिजणो चिसवंकरो सासओ चिसद्धो ।।6।।मलरविहतः कलत्र्य}ः अहिनंदिद्रर्यः केवलः विवशुद्धात्मा ।परमेष्ठी परमजिजनः शिशवंकरः शाश्वतः चिसद्धः ।।6।।

ते छे विवशुद्धात्मा, अहिनंदिद्रर्य, मलरविहत, तनमु} छे,परमेष्ठी, केवल, परमजिजन, शाश्वत, शिशवंकर चिसद्ध छे. 6.

अथ% :—परमात्मा ऐसा है—म>रनिहत है—द्रव्यकम% भावकम%रूप म>से रनिहत है, क>त्यक्त (–शरीर रनिहत) है अहिनंदिद्रय (–इजिन्द्रय रनिहत) है, अथवा अहिनंदिदत अथा%त ् निकसी प्रकार हिनंदायुक्त नहीं ह ै सब प्रकारस े प्रशंसा योग्य है, केव> (–केव>ज्ञानमयी) है, निवशुद्धात्मा–जि सकी आत्माका -वरूप निवशेषरूपसे शुद्ध है, ज्ञानमें ज्ञेयोंके आकार झ>कते हैं तो भी उनरूप नहीं होता है, और न उनसे रागदे्वष है, परमेष्ठी है–परमपदमें ण्डिस्थत है, परम जि न है—सब कम�को ीत शि>य े हैं, शिशवंकर है–भव्य ीवोंको परम मंग> तथा मोक्षको करता है, शाश्वता (–अनिवनाशी) है, शिसद्ध है–अपने -वरूपकी शिसजिद्ध करके निनवा%णपदको प्राप्त हुआ है ।

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भावाथ% :—ऐसा परमात्मा है, ो इस प्रकारके परमात्माका ध्यान करता है वह ऐसा ही हो ाता है ।।6।।

आगे भी यही उपदेश करते हैं :—आरुहविव अन्तर=पा बविहर=पा छंवि)ऊण वितविवहेण ।झाइज्जइ परम=पा उवइटं्ठ जिजणवरिरंदेहिहं ।।7।।आरुह्य अंतरात्मानं बविहरात्मानं त्र्यक्त्वा वित्रविवधेन ।ध्र्यार्यते परमात्मा उपदिदषं्ट जिजनवरेन्दै्रः ।।7।।

र्थई अंतरात्मारूढ, बविहरात्मा तजीने त्रणविवध,ेध्र्यातव्य छे परमातमा–जिजनवरवृषभ–उपदेश छे. 7.

अथ% :—बनिहरात्मपनको मन वचन कायस े छोड़कर अन्तरात्माका आश्रय >ेकर परमात्माका ध्यान करो, यह जि नवरेन्द्र तीथ�कर परमदेवने उपदेश दिदया है ।

भावाथ% :—परमात्माके ध्यान करनेका उपदेश प्रधान करके कहा है, इसीसे मोक्ष पाते हैं ।।7।।

आगे बनिहरात्माकी प्रवृभित्त कहते हैं :—

बविहरyे फुरिरर्यमणो इंदिदर्यदारेण शिणर्यसरूववचुओ* ।शिणर्यदेहं अ=पाणं अज्झवसदिद मूढदिदट्ठीओ ।।8।।

*—पाठान्तर—‘चुओ’ के स्थान पर चओबविहरर्थt सु्फरिरतमनाः इजिन्द्रर्यद्वारेण विनजस्वरूपच्र्युतः ।विनजदेहं आत्मानं अध्र्यवस्र्यवित मूढदृविष्टस्त ु।।8।।

बाह्यार्थ� प्रत्रे्य सु्फरिरतमन, स्वभ्रष्ट इजिन्द्रर्यद्वारर्थी,विनजदेह अध्र्यवचिसत करे आत्मापणे जीव मूढधी. 8.

अथ% :—मूढ़दृमिष्ट अज्ञानी मोही मिमथ्यादृमिष्ट ह ै वह बाह्य पदाथ%–धन, धान्य, कुटुम्ब आदिद इष्ट पदाथ�में सु्फरिरत (–तत्पर) मनवा>ा है तथा इजिन्द्रयोंके द्वारसे अपने -वरूपसे च्युत है और इजिन्द्रयोंको ही आत्मा ानता है, ऐसा होता हुआ अपने देहको ही आत्मा ानता है—निनश्चय करता है, इसप्रकार मिमथ्यादृमिष्ट बनिहरात्मा है ।

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भावाथ% :—ऐसा बनिहरात्माका भाव है उसको छोड़ना ।।8।।आगे कहते ह ैं निक मिमथ्यादृमिष्ट अपनी देहके समान दूसरेकी देहको देkकर उसको

दूसरेकी आत्मा मानता है :—शिणर्यदेहसरिरचं्छ+ विपस्थिच्छऊण परविवग्गहं पर्यAेण ।अचे्चर्यणं विप गविहर्य झाइज्जइ परमभावेण ।।9।।

+—‘सरिरचं्छ’ पाठान्तर ‘सरिरसं’विनजदेहसदृशं दृष््टवा परविवग्रहं प्रर्यत्नेन ।अचेतनं अविप गृहीतं ध्र्यार्यते परमभावेन ।।9।।

विनजदेह सम परदेह देखी मूढ त्र्यां उद्यम करे,ते छे अचेतन तोर्य माने तेहने आत्मापणे. 9.

अथ% :—मिमथ्यादृमिष्ट पुरुष अपनी देहके समान दूसरेकी देहको देk करके यह देह अचेतन है तो भी मिमथ्याभावसे आत्मभाव द्वारा बड़ा यत्न करके परकी आत्मा ध्याता है अथा%त् समझता है ।

भावाथ% :—बनिहरात्मा मिमथ्यादृमिष्टके मिमथ्यात्वकम%के उदयस े (–उदयके वश होनेसे) मिमथ्याभाव है इसशि>ये वह अपनी देहको आत्मा ानता है, वैसे ही परकी देह अचेतन है तो भी उसको परकी आत्मा मानता ह ै (अथा%त ् परको भी देहात्मबुजिद्धसे मान रहा है और ऐसे मिमथ्याभाव सनिहत ध्यान करता है) और उसमें बड़ा यत्न करता है, इसशि>य े ऐस े भावको छोड़ना यह तात्पय% है ।।9।।

आगे कहते हैं निक ऐसी ही मान्यतासे पर मनुष्यादिदमें मोहकी प्रवृभित्त होती है :—सपरज्झवसाएणं देहेसु र्य अविवदिददyम=पाणं ।सुर्यदाराईविवसए मणुर्याणं वड्ढए मोहो ।।10।।स्वपराध्र्यवसार्येन देहेषु च अविवदिदतार्थ�मात्मानम् .सुतदारादिदविवषर्ये मनुजानां वद्ध�त ेमोहः ।।10।।

वस्तुस्वरूप जाण्र्या विवना देहे स्व—अध्र्यवसार्यर्थी,अज्ञानी जनने मोह फाले पुत्रदारादिदक महीं. 10.

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अथ% :—इस प्रकार देहम ें -व-परके अध्यवसाय (निनश्चय) के द्वारा मनुष्योंके सुत, दारादिदक ीवोंमें मोह प्रवत%ता है कैसे हैं मनुष्य–जि नने पदाथ%का -वरूप (अथा%त् आत्मा) नहीं ाना है ऐसे हैं ।

दूसरा अथ% (अथ% :—इसप्रकार देहमें -व–परके अध्यवसाय (निनश्चय) के द्वारा जि न मनुष्योंने पदाथ%के -वरूपको नहीं ाना है उनके सुत, दारादिदक ीवोंमें मोहकी प्रवृभित्त होती है ।) (भाषा परिरवत%नकारने यह अथ% शि>kा है)

भावाथ% :—जि न मनुष्योंने ीव–अ ीव पदाथ%का -वरूप यथाथ% नहीं ाना उनके देहमें -वपराध्यवसाय है । अपनी देहको अपनी आत्मा ानते ह ैं और परकी देहको परकी आत्मा ानते हैं, उनके पुत्र -त्री आदिद कुटुस्त्रिम्बयोंमें मोह (ममत्व) होता ह ै । ब वे ीव-अ ीवके -वरूपको ानें तब देहको अ ीव मानें, आत्माको अमूर्वितंक चैतन्य ानें, अपनी आत्माको अपनी मानें, और परकी आत्माको पर ानें, तब परम ें ममत्व नहीं होता ह ै । इसशि>ये ीवादिदक पदाथ�का -वरूप अच्छी तरह ानकर मोह नहीं करना यह बत>ाया है ।।10।।

आग े कहत े ह ैं निक मोहकम%के उदयस े (–उदयम ें युक्त होनेसे) मिमथ्याज्ञान और मिमथ्याभाव होते हैं, उसके आगामी भवमें भी यह मनुष्य देहको चाहता है :—

मिमच्छाणाणेसु रओ मिमच्छाभावेण भाविवओ संतो ।मोहोदएण पुणरविव अंग ं*सं मण्णए मणुओ ।।11।।

1—मु0 सं0 प्रनितमें ‘सं मhणए’ ऐसा प्राकृत पाठ है जि सका -वं मन्यते ऐसा सं-कृत पाठ है ।मिमथ्र्याज्ञानेषु रतः मिमथ्र्याभावेन भाविवतः सन् ।मोहोदर्येन पुनरविप अंगं मन्र्यते मनुजः ।।11।।

रही लीन मिमथ्र्याज्ञानमां, मिमथ्र्यात्वभावे परिरणमी,ते देह माने ‘हुं’पणे फरीनेर्य मोहोदर्य र्थकी. 11.

अथ% :—यह मनुष्य मोहकम%के उदयस े (उदयके वश होकर) मिमथ्याज्ञानके द्वारा मिमथ्याभावसे भाया हुआ निफर आगामी न्ममें इस अंग (देह)को अच्छा समझकर चाहता है ।

भावाथ% :—मोहकम%की प्रकृनित मिमथ्यात्वके उदयस े (–उदयके वश होनेसे) ज्ञान भी मिमथ्या होता है; परद्रव्यको अपना ानता है और उस मिमथ्यात्वहीके द्वारा मिमथ्या श्रद्धान होता है, उससे निनरन्तर परद्रव्यमें यह भावना रहती है निक यह मुझे सदा प्राप्त होवे, इससे यह प्राणी आगामी देहको भ>ा ानकर चाहता है ।।11।।

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आगे कहते हैं निक ो मुनिन देहमें निनरपेक्ष है, देहको नहीं चाहता है, उसमें ममत्व नहीं करता है वह निनवा%णको पाता है :—

जो देहे शिणरवेक्खो शिण�ंदो शिणम्ममो शिणरारंभो ।आदासहावे सुरतः जोई सो लहइ शिणव्वाणं ।।12।।र्यः देहः विनरपेक्षः विनद्व�न्दः विनम�मः विनरारंभः ।आत्मस्वभावे सुरओ र्योगी स लभते विनवा�णम् ।।12।।

विनद्धmद्व, विनम�म, देहमां विनरपेक्ष, मु}ारंभ जे,जे लीन आत्मस्वभावमां, ते र्योगी पामे मोक्षने. 12.

अथ% :—यो योगी ध्यानी मुनिन देहमें निनरपेक्ष है अथा%त् देहको नहीं चाहता है, उदासीन है, निनद्व%न्द है—रागदे्वषरूप इष्ट–अनिनष्ट मान्यता से रनिहत है, निनम%मत्त्व है—देहादिदकमें ‘यह मेरा’ ऐसी बुजिद्धसे रनिहत है, निनरारंभ है—इस शरीरके शि>ये तथा अन्य >ौनिकक प्रयो नके शि>ए आरंभसे रनिहत है और आत्म-वभावमें रत है, >ीन है, निनरन्तर -वभावकी भावना सनिहत है, वह मुनिन निनवा%णको प्राप्त करता है ।

भावाथ% :— ो बनिहरात्माके भावको छोड़कर अन्तरात्मा बनकर परमात्माम ें >ीन होता है वह मोक्ष प्राप्त करता है । यह उपदेश बताया है ।।12।।

आगे वंध और मोक्षके कारणका संके्षपरूप आगमका वचन कहते हैं :—परदव्वरओ बज्झदिद विवरओ मुचे्चइ विवविवहकम्मेहिहं ।एसो जिजणउवदेसो समासदो* बंधमुक्खस्स ।।13।।

* सदो के स्थान पर सओ पाठान्तर परद्रव्यरतः बध्र्यत ेविवरतः मुच्र्यते विवविवधकम�शिभः ।एषः जिजनोपदेशः समासतः बंधमोक्षस्र्य ।।13।।

परद्रव्यरत बंधार्य, विवरत मुकार्य विवधविवध कम�र्थी,—आ, बंधमोक्ष विवषे जिजनेश्वरदेशना संक्षेपर्थी. 13.

अथ% :— ो ीव परद्रव्यमें रत है, रागी है वह तो अनेक प्रकारके कम�से बँधता है, कम�का बन्ध करता है और ो परद्रव्यसे निवरत है—रागी नहीं है वह अनेक प्रकारके कम�से छूटता है, यह बन्धका और मोक्षका संक्षेपमें जि नदेवका उपदेश है ।

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भावाथ% :—बंध-मोक्षके कारणकी कथनी अनेक प्रकारसे है उसका यह संके्षप है :– ो परद्रव्यस े रागभाव तो बंधका कारण और निवरागभाव मोक्षका कारण है, इस प्रकार संक्षेपसे जि नेन्द्रका उपदेश है ।।13।।

आगे कहते हैं निक ो -वद्रव्यमें रत है वह सम्यग्दृमिष्ट होता है और कम�का नाश करता है :—

स�व्वरओ सवणो सम्माइट्ठी हवेइ शिणर्यमेण** ।सम्मAपरिरणदो उण खवेइ +दुट्ठट्ठकम्माइं ।।14।।

** पाठान्तर :—सो साहू । + मु. सं. प्रनितमें ‘दुट्ठट्ठकम्माभिण’ पाठ है ।

स्वद्रव्यरतः श्रमणः सम्र्यग्दृविष्ट भववित विनर्यमेन+ ।सम्र्यक्त्वपरिरणतः पुनः ++क्षपर्यवित दुष्टाष्टकमा�शिण ।।14।।

+ पाठान्तर :—स साधुः । ++ मु0 सं0 प्रनितमें ‘भिक्षपते’ ऐसा पाठ है ।रे ! विनर्यमर्थी विनजद्रव्यरत साधु सुदृविष्ट होर्य छे,सम्र्यक्त्वपरिरणत वत�तो दुष्टाष्ट कमN क्षर्य करे. 14.

अथ% :— ो मुनिन -वद्रव्य अथा%त् अपनी आत्मामें रत है, रुशिच सनिहत है वह निनयमसे सम्यग्दृमिष्ट है और वह ही सम्यक्त्वभावरूप परिरणमन करता हुआ दुष्ट आठ कम�का क्षय–नाश करता है ।

भावाथ% :—यह भी कम%के नाश करनेके कारणका संक्षेप कथन ह ै । ो अपने -वरूपरकी श्रद्धा, रुशिच, प्रतीनित, आचरणस े युक्त ह ै वह निनयमस े सम्यग्दृमिष्ट है, इस सम्यक्त्वभावसे परिरणमन करता हुआ मुनिन आठ कम�का नाश करके निनवा%णको प्राप्त करता है ।।14।।

आगे कहते हैं निक ो परद्रव्यमें रत है वह मिमथ्यादृमिष्ट होकर कम�को बाँधता है :—जो पुण परदव्वरओ मिमच्छादिदट्ठी हवेइ सो साहू ।मिमच्छAपरिरणदो पुण बज्झदिद दुट्ठट्ठकम्मेहिहं ।।15।।र्यः पुनः परद्रव्यरतः मिमथ्र्यादृविष्टः भववित सः साधु ।मिमथ्र्यात्वपरिरणतः पुनः बध्र्यत ेदुष्टाष्टकम�शिभः ।।15।।

परद्रव्यमां रत साधु तो मिमथ्र्यादरशरु्यत होर्य छे,मिमथ्र्यात्वपरिरणत वत�तो बांधे करम दुष्टाष्टने. 15.

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अथ% :—पुनः अथा%त् निफर ो साधु परद्रव्यमें रत है, रागी है वह मिमथ्यादृमिष्ट होता है और वह मिमथ्यात्वभावरूप परिरणमन करता हुआ दुष्ट अष्ट कम�से बँधता है ।

भावाथ% :—यह बंधके कारणका संक्षेप है । यहाँ साधु कहनेसे ऐसा बताया है निक ो बाह्य परिरग्रह छोड़कर निनग्र�थ हो ावे तो भी मिमथ्यादृमिष्ट होता हुआ संसारके दुःk देनेवा>े अष्ट कम�से बँधता है ।।15।।

आगे कहते हैं निक परद्रव्यहीसे दुग%नित होती है और -वद्रव्यसेही सुगनित होती है :—परदव्वादो दुग्गई स�व्वादो हु सुग्गई होइ ।इर्य णाऊण सदव्वे कुणह रई विवरह इर्यरप्तिम्म ।।16।।परद्रव्यात् दुग�वितः स्वद्रव्यात् सु्फटं सुगवितः भववित ।इवित ज्ञात्वा स्वद्रव्ये कुरुत रहितं विवरहितं इतरत्थिस्मन ्।।16।।

परद्रव्यर्थी दुग�वित, खरे सुगवित स्वद्रव्यर्थी र्थार्य छे;—ए जाणी, विनजद्रव्ये रमो, परद्रव्यर्थी विवरमो तमे. 16.

अथ% :—परद्रव्यसे दुग%नित होती है और -वद्रव्यसे सुगनित होती है यह स्पष्ट (–प्रगट) ानो, इसशि>ये ह े भव्य ीवो ! तुम इस प्रकार ानकर -वद्रव्यमें रनित करो और अन्य ो परद्रव्य उनसे निवरनित करो ।

भावाथ% :—>ोकमें भी यह रीनित है निक अपने द्रव्यसे रनित करके अपना ही भोगता है वह तो सुk पाता है, उस पर कुछ आपभित्त नहीं आती है और परद्रव्यसे प्रीनित करके चाहे ैसे >ेकर भोगता है उसको दुःk होता है, आपभित्त उठानी पड़ती है । इसशि>ये आचाय%ने संक्षेपमें उपदेश दिदया है निक अपने आत्म-वभावमें रनित करो इससे सुगनित है, -वगा%दिदक भी इसीसे होते है और मोक्ष भी इसीसे होता है और परद्रव्यसे प्रीनित मत करो इससे दुग%नित होती है, संसारमें भ्रमण होता है ।

यहा ँ कोई कहता है निक -वद्रव्यमें >ीन होनेसे मोक्ष होता है और सुगनित–दुग%नित तो परद्रव्यकी प्रीनितसे होती है ? उसको कहते हैं निक—यह सत्य है परन्तु यहाँ इस आशयसे कहा ह ै निक परद्रव्यस े निवरक्त होकर -वद्रव्यम ें >ीन होव े तब निवशुद्धता बहुत होती है, उस निवशुद्धताके निनमिमत्तसे शुभकम% भी बँधते हैं और ब अत्यंत निवशुद्धता होती है तब कम�की निन %रा होकर मोक्ष होता है, इसशि>य े सुगनित–दुग%नितका होना कहा वह युक्तहै, इसप्रकार ानना चानिहये ।।16।।

आगे शिशष्य पूछता है निक परद्रव्य कैसा है ? उसका उत्तर आचाय% कहते हैं :—

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आदसहावादण्णं सत्थिच्चAाचिचAमिमस्थिस्सर्यं हवदिद ।तं परदव्वं भशिणर्यं अविवतyं सव्वदरिरसीहिहं ।।17।।आत्मस्वभावादन्र्यत ्सत्थिच्चAाचिचAमिमशिश्रतं भववित ।तत ्परद्रव्यं भशिणत ंअविवतyं सव�दर्शिशशंिभः ।।17।।

आत्मस्वभावेतर सचिचA, अचिचत्, तेम ज मिमश्र जे,ते जाणवंु परद्रव्य–सव�ज्ञे कहंु्य अविवतर्थपणे. 17.

अथ% :—आत्म-वभावस े अन्य सशिचत्त तो -त्री, पुत्रादिदक ीवसनिहत व-त ु तथा अशिचत्त धन, धान्य, निहरhय सुवणा%दिदक अचेतन व-तु और मिमश्र आभूषणादिद सनिहत मनुष्य तथा कुटुम्ब सनिहत गृहादिदक ये सब परद्रव्य हैं, इसप्रकार जि सने ीवादिदक पदाथ�का -वरूप नहीं ाना उसको समझानेके शि>य े सव%दशN सव%ज्ञ भगवानन े कहा ह ै अथवा ‘अनिवततं्थ’ अथा%त् सत्याथ% कहा है ।

भावाथ% :—अपने ज्ञान-वरूप आत्मा शिसवाय अन्य चेतन, अचेतन, मिमश्र व-तु हैं वे सबही परद्रव्य हैं, इसप्रकार अज्ञानीको समझानेके शि>ये सव%ज्ञदेवने कहा है ।।17।।

आगे कहते हैं निक आत्म-वभाव -वद्रव्य कहा वह इस प्रकार है :—दुट्ठट्ठकम्मरविहर्यं अणोवमं णाणविवग्गह ंशिणच्चं ।सुदं्ध जिजणेहिहं कविहर्यं अ=पाणां हवदिद स�व्वं ।।18।।दुष्टाष्टकम�रविहत ंअनुपमं ज्ञानविवग्रहं विनत्र्यम् ।शुदं्ध जिजनैः भशिणत ंआत्मा भववित स्वद्रव्यम् ।।18।।

दुष्टाष्टकम�विवहीन, अनुपम, ज्ञानविवग्रह, विनत्र्य ने,जे शुद्ध भाख्र्यो जिजनवरे, ते आतमा स्वद्रव्य छे. 18.

अथ% :—संसारके दुःk देनेवा>े ज्ञानावरणादिदक दुष्ट अष्टकम�से रनिहत और जि सको निकसीकी अपेक्षा नहीं ऐसा अनुपम, जि सको ज्ञान ही शरीर है और जि सका नाश नहीं है ऐसा अनिवनाशी निनत्य है और शुद्ध अथा%त् निवकाररनिहत केव>ज्ञानमयी आत्मा जि न भगवान् सव%ज्ञने कहा है वह ही -वद्रव्य है ।

भावाथ% :—ज्ञानानन्दमय, अमूर्वितंक, ज्ञानमूर्वितं अपनीी आत्मा है वही एक -वद्रव्य है, अन्य सब चेतन, अचेतन, मिमश्र परद्रव्य हैं ।।18।।

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आगे कहते हैं निक ो ऐसे निन द्रव्यका ध्यान करते हैं वे निनवा%ण पाते हैं :—जे झार्यंवित सदव्वं परदव्वपरम्मुहा दु सुचरिरता ।जे जिजणवराण मग्गे अणुलग्गा लहहिहं शिणव्वाणं ।।19।।र्ये ध्र्यारं्यवित स्वद्रव्यं परद्रव्यं पराङु्मखास्तु सुचरिरत्राः ।त ेजिजनवराणां मागt अनुलग्नाः लभते विनवा�णम् ।।19।।

परविवमुख र्थई विनजद्रव्य जे ध्र्यावे सुचारिरत्रीपणे,जिजनदेवना मारग महीं संलग्न ते शिशवपद लहे. 19.

अथ% :— ो मुनिन परद्रव्यमें पराङु्मk होकर -वद्रव्य ो निन आत्मद्रव्यका ध्यान करत े ह ैं व े प्रगट सुचरिरत्रा अथा%त ् निनद}ष चारिरत्रयुक्त होत े हुए जि नवर तीथ�करोके माग%का अनु>ग्न—(अनुसंधान, अनुसरण) करते हुए निनवा%णको प्राप्त करते हैं ।

भावाथ% :—परद्रव्यका त्याग कर ो अपने -वरूपका ध्यान करते ह ैं व े निनश्चय—चारिरत्ररूप होकर जि नमाग%में >गते हैं, वे मोक्षको प्राप्त करते हैं ।।19।।

आगे कहते हैं निक जि नमाग%में >गा हुआ योगी शुद्धात्माका ध्यान कर मोक्षको प्राप्त करता है, तो क्या उससे -वग% नहीं प्राप्त कर सकता है ? अवश्य ही प्राप्त कर सकता है :—

जिजणवरमएण जोई झाणे झाएइ सुद्धम=पाणं ।जेण लहइ शिणव्वाणं ण लहइ हिकं तेण सुरलोर्यं ।।20।।जिजनवरमतेन र्योगी ध्र्यान ेध्र्यार्यवित शुद्धमात्मानम् ।र्येन लभते विनवा�णं न लभते हिकं तेन सुरलोकम् ।।20।।

जिजनदेवमत—अनुसार ध्र्यावे र्योगी विनजशुद्धात्मने,जेर्थी लहे विनवा�ण, तो शुं नव लहे सुरलोकने ? 20.

अथ% :–योगी ध्यानी मुनिन ह ै वह जि नवर भगवानके मतसे शुद्ध आत्माको ध्यानमें ध्याता है उससे निनवा%णको प्राप्त करता है, तो उसमें क्या -वग%>ोक नहीं प्राप्त कर सकते है ? अवश्य ही प्राप्त कर सकते हैं ।।20।।

भावाथ% :–कोई ानता होगा निक ो जि नमाग%में >गकर आत्माका ध्यान करता है वह मोक्षको प्राप्त करता ह ै और -वग% तो इससे होता नहीं है, उसको कहा ह ै निक जि नमाग%में

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प्रवत%नेवा>ा शुद्ध आत्माका ध्यान कर मोक्ष प्राप्त करता ही है, तो उसम ें -वग%>ोक क्या कदिठन है ? यह तो उसके माग%में ही है ।।20।।

आगे इस अथ%को दृष्टांत द्वारा दृढ़ करते हैं :—जो जाइ जोर्यणसर्यं दिदर्यहेणेक्केण लेविव गुरुभारं ।सो हिकं कोसदं्ध विप हु ण सक्कए जाउ भुवणर्यले ।।21।।र्यः र्यावित र्योजनशतं दिदवसेनैकेन लात्वा गुरुभारम् ।स हिकं क्रोशाद्ध�मविप सु्फटं न शक्नोवित र्यातु ंभुवनतले ।।21।।

बहु भार लई दिदन एकमां जे गमन सो र्योजन करे,ते व्यचि}र्थी क्रोशाके पण नव जई शकार्य शुं भूतले ? 21.

अथ% :— ो पुरुष बड़ा भार >ेकर एक दिदनम ें सौ यो न च>ा ाव े वह इस पृथ्वीत>पर आधा कोश क्या न च>ा ावे ? यह प्रगट—स्पष्ट ानो ।

भावाथ% :— ो पुरुष बOा़ भार >ेकर एक दिदनमें सौ यो न च>े उसके आधा कोश च>ना तो अत्यंत सुगम हुआ, ऐसे ही जि नमाग%में मोक्ष पावे तो -वग% पाना तो अत्यंत सुगम है ।।21।।

आगे इसी अथ%का अन्य दृष्टान्त कहते हैं :—जो कोवि)ए ण जिज=पइ सुह)ो संगामएहिहं सव्वेहिहं ।सो हिकं जिज=पइ इस्थिक्कं णरेण संगामए सुह)ो ।।22।।र्यः कोट्या न जीर्यते सुभटः संग्रामकैः सव¶ः ।स हिकं जीर्यते एकेन नरेण संग्रामे सुभटः ।।22।।

जे सुभट होर्य अजेर्य कोदिट नरोर्थी—सैविनक सव�र्थी,ते वीर सुभट जिजतार्य शंु संग्राममां नर एकर्थी ? 22.

अथ% :— ो कोई सुभट संग्रामम ें सब ही संग्रामके करनेवा>ोंके साथ करोड़ मनुष्योंको भी सुगमतासे ीते वह सुभट एक मनुष्यको क्या न ीते ? अवश्य ही ीते ।

भावाथ% :— ो जि नमाग%म ें प्रवत� वह कम%का नाश करे ही, तो क्या -वग%के रोकने वा>े एक पापकम%का नाश न करे ? अवश्य ही करे ।।22।।

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आगे कहते हैं निक -वग% तो तपस े (शुभरागरूपी तप द्वारा) सब ही प्राप्त करते हैं, परन्तु ध्यानके योगसे -वग% प्राप्त करते हैं वे उस ध्यानके योगसे मोक्ष भी प्राप्त करते हैं :—

सग्गं तवेण सव्वो विव पावए तहिहं विव ज्ञाणजोएण ।जो पावइ सो पावइ परलोए सासरं्य सोक्खं ।।23।।स्वग� तपसा सव�ः अविप प्राप्नोवित विकन्त ुध्र्यानर्योगेन ।र्यः प्राप्नोवित सः प्राप्नोवित परलोके शाश्वतं सौख्र्यम् ।।23।।

तपर्थी लहे सुरलोक सौ, पण ध्र्यानर्योगे जे लहे,ते आतमा परलोकमां पामे सुशाश्वत सौख्र्यने. 23.

अथ% :—शुभरागरूपी तप द्वारा -वग% तो सब ही पाते हैं तथानिप ो ध्यानके योगसे -वग% पाते हैं वे ही ध्यानके योगसे पर>ोकमें शाश्वत सुkको प्राप्त करते हैं ।

भावाथ% :—कायक्>ेशादिदक तप तो सब ही मतके धारक करत े हैं, व े तप-वी मंदकषायके निनमिमत्तसे सब ही -वग%को प्राप्त करते हैं, परन्तु ो ध्यानके द्वारा -वग% प्राप्त करते हैं वे जि नमाग%में कहे हुए ध्यानके योगसे पर>ोकमें जि समें शाश्वत सुk है ऐसे निनवा%णको प्राप्त करते हैं ।।23।।

आगे ध्यानके योगसे मोक्षको प्राप्त करते हैं उसको दृष्टांत दाष्टा%न्त द्वारा दृढ़ करत े हैं :—

अइसोहणजोएणं सुदं्ध हेमं हवेइ जह तह र्य ।कालाईलद्धीए अ=पा परम=पओ हवदिद ।।24।।अवितशोभनर्योगेनं शुदं्ध हेमं भववित र्यर्था तर्था च ।कालादिदलब्ध्र्या आत्मा परमात्मा भववित ।।24।।

ज्र्यम शुद्धता पामे सुवण� अतीव शोभन र्योगर्थी,आत्मा बने परमात्मा त्र्यम काल–आदिदक लब्धि�र्थी. 24.

अथ% :— ैसे सुवण%—पाषाण सोधनेकी सामग्रीके संबंधसे शुद्ध सुवण% हो ाता है वैसे ही का> आदिद >स्तिब्ध ो द्रव्य, के्षत्र, का> और भावरूप सामग्रीकी प्रान्तिप्तसे यह आत्मा कम%के संयोगसे अशुद्ध है वही परमात्मा हो ाता है । भावाथ% :—सुगम है ।।24।।

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आगे कहत े ह ैं निक संसारम ें व्रत, तपसे -वग% होता ह ै वह व्रत तप भ>ा ह ै परन्तु अव्रतादिदकसे नरकादिदक गनित होती है वह अव्रतादिदक श्रेष्ठ नहीं है :—

वर वर्यतवेविह सग्गो मा दुक्खं होउ शिणरइ इर्यरेहिहं ।छार्यातवदिट्ठर्याणं पवि)वालंताण गुरुभेर्यं ।।25।।वर व्रततपोशिभः स्वग�ः मा दुःखं भवतु नरके इतरैः ।छार्यातपस्थिस्थताना ंप्रवितपालर्यता ंगुरुभेदः ।।25।।

अथ% :—व्रत और तपसे -वग% होता है वह श्रेष्ठ है, परन्तु अव्रत और अतपसे प्राणीको नरकगनितम ें दुःk होता ह ै वह मत होवे, श्रेष्ठ नहीं ह ै । छाया और आतपम ें बैठनेवा>ेके प्रनितपा>क कारणोंमें बड़ा भेद है ।

भावाथ% :— ैसे छायाका कारण तो वृक्षादिदक हैं उनकी छायामें ो बैठे वह सुk पावे और आतापका कारण सूय%, अखिग्न आदिदक हैं इनके निनमिमत्तसे आताप होता है, ो उसमें बैठता है व दुkको प्राप्त करता है, इसप्रकार इनमें बड़ा भेद है; इसप्रकार ही ो व्रत, तपका आचरण करता है वह -वग%के सुkको प्राप्त करता है और ो इनका आचरण नहीं करता है, निवषय—कषायादिदकका सेवन करता है वह नरकके दुःk को प्राप्त करता है, इसप्रकार इनमें बड़ा भेद है । इसशि>ये यहाँ कहनेका यह आशय है निक बतक निनवा%ण न हो तबतक व्रत—तप आदिदकमें प्रवत%ना श्रेष्ठ है, इससे सांसारिरक सुkकी प्रान्तिप्त है और निनवा%णके साधनमें भी ये सहकारी हैं । निवषय—कषायादिदककी प्रवृभित्तका फ> तो केव> नरकादिदकके दुःk हैं, उन दुःkोंके कारणोंका सेवन करना यह तो बड़ी भू> है, इसप्रकार ानना चानिहये ।।25।।

आगे कहते हैं निक संसारमें रहे तबतक व्रत, तप पा>ना श्रेष्ठ कहा, परन्तु ो संसारसे निनक>ना चाहे वह आत्माका ध्यान करे :—

जो इच्छइ शिणस्सरिरदंु संसारमहण्णवाउ रु�ाओ* ।कम्मिम्मंधणाण )हणं सो झार्यइ अ=पर्यं सुदं्ध ।।26।।

* —मुदिद्रत सं-कृत प्रनितमें ‘संसारमहhणव-स रुद्द-स’ ऐसा पाठ है जि सकी सं-कृत ‘संसारमहाण%व-य रुद्र-य’ ऐसी है ।

र्यः इच्छवित विनःसAुm संसारमहाण�वात् रुद्रात् ।कमtन्धनाना ंदहनं सः ध्र्यार्यवित आत्मानं शुद्धम् ।।26।।

संसार–अण�व रुद्रर्थी विनःसरण इचे्छ जीव जे,ध्र्यावे करम–ईंधन तणा हरनार विनज शुद्धात्मने. 26.

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अथ% :— ो ीव रुद्र अथा%त् बडे़ निव-ताररूप संसाररूपी समुद्रसे निनक>ना चाहता है वह ीव कम%रूपी ईंधनको दहन करनेवा>े शुद्ध आत्माका ध्यान करता है ।

भावाथ% :—निनवा%णकी प्रान्तिप्त कम%का नाश हो तब होती ह ै और कम%का नाश शुद्धात्माके ध्यानसे होता है अतः ो संसारसे निनक>कर मोक्षको चाहे वह शुद्ध आत्मा ो निक—कम%म>से रनिहत अनन्तचतुष्टय सनिहत (निन निनश्चय) परमात्मा है उसका ध्यान करता है । मोक्षका उपाय इसके निबना अन्य नहीं है ।।26।।

आगे आत्माका ध्यान करनेकी निवमिध बताते हैं :—सव्वे कसार्य मोAंु गारवमर्यरार्यदोसवामोहं ।लोर्यववहारविवरदो अ=पा झाएह झाणyो ।।27।।सवा�न ्कषार्यान ्मुक्त्वा गारवमदरागदोषव्यामोहम् ।लोकव्यवहारविवरतः आत्मानं ध्र्यार्यवित ध्र्यानस्थः ।।27।।

सघळा कषार्यो, मोहरागविवरोध—मद—गारव तजी,ध्र्यानस्थ ध्र्यावे आत्मने, व्यवहार लौविककर्थी छूटी. 27.

अथ% :—मुनिन सब कषायोंको छोड़कर तथा गारब, मद, राग, दे्वष तथा मोह इनको छोड़कर और >ोकव्यवहारसे निवरक्त होकर ध्यानमें ण्डिस्थत हुआ आत्माका ध्यान करता है ।

भावाथ% :—मुनिन आत्माका ऐसा होकर करे—प्रथम तो क्रोध, मान, माया, >ोभ इन सब कषायोंको छोडे़, गारबको छोडे़, मद ानित आदिदके भेदसे आठ प्रकारका है उसको छोडे़, रागदे्वष छोड़े और >ोकव्यवहार ो संघमें रहनेमें परस्पर निवनयाचार, वैयावृत्य, धम}पदेश, पढ़ना, पढ़ाना है उसको भी छोडे़, ध्यानमें ण्डिस्थत हो ावे, इसप्रकार आत्माका ध्यान करे ।

यहा ँ कोई पूछे निक—सब कषायोंका छोड़ना कहा है उसमें तो सब गारव मदादिदक आगये निफर इनको भिभन्न भिभन्न क्यों कहे ? उसका समाधान इसप्रकार है निक—ये सब कषायोंमें तो गर्णिभंत ह ैं निकन्त ु निवशेषरूपस े बत>ानेके शि>ए भिभन्न भिभन्न कह े ह ैं । कषायकी प्रवृभित्त इसप्रकार है— ो अपने शि>ये अनिनष्ट हो उससे क्रोध करे, अन्यको नीचा मानकर मान करे, निकसी काय% निनमिमत्त कपट करे, आहारादिदकमें >ोभ करे । यह गारव है वह रस, ऋजिद्ध और सात—ऐसे तीन प्रकारका है ये यद्यनिप मानकषायमें गर्णिभंत हैं तो भी प्रमादकी बहु>ता इनमें है इसशि>ये भिभन्नरूपसे कहे हैं ।

मद— ानित, >ाभ, कु>, रूप, तप, ब>, निवद्या, ऐश्वय% इनका होता है वह न करे । राग—दे्वष प्रीनित—अप्रीनितको कहत े हैं, निकसीस े प्रीनित करना, निकसीस े अप्रीनित करना, इसप्रकार >क्षणके भेदसे भेद करके कहा । मोह नाम परसे ममत्वभावका है, संसारका ममत्व तो मुनिनके है ही नहीं परन्तु धमा%नुरागसे शिशष्य आदिदमें ममत्वका व्यवहार है वह भी छोड़े ।

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इसप्रकार भेद—निववक्षासे भिभन्न भिभन्न कहे हैं, ये ध्यानके घातक भाव हैं, इनको छोड़े निबना ध्यान होता नहीं है इसशि>ये ैसे ध्यान हो वैसे करे ।।27।।

आगे इसीको निवशेषरूपसे कहते हैं :—मिमच्छAं अण्णाणं पावं पुण्णं चएविव वितविवहेण ।मोणव्वएण जोई जोर्यyो जोर्यए अ=पा ।।28।।मिमथ्र्यात्वं अज्ञानं पापं पुण्रं्य त्र्यक्त्वा वित्रविवधेन ।मौनव्रतेन र्योगी र्योगस्थः द्योतर्यवित आत्मानम् ।।28।।

वित्रविवधे तजी मिमथ्र्यात्वने, अज्ञानने, अघ—पुण्र्यने,र्योगस्थ र्योग मौनव्रतसंपन्न ध्र्यावे आत्मने. 28.

अथ% :—योगी ध्यानी मुनिन है वह मिमथ्यात्व, अज्ञान, पाप—पुhय इनको मन—वचन—कायसे छोड़कर मौनव्रतके द्वारा ध्यानमें ण्डिस्थत होकर आत्माका ध्यान करता है ।

भावाथ% :—कई अन्यमती योगी ध्यानी कह>ात े हैं, इसशि>य े ैनलि>ंगी भी निकसी द्रव्यलि>ंगीके धारण करनेसे ध्यानी माना ाय तो उसके निनषेधके निनमिमत्त इसप्रकार कहा है निक—मिमथ्यात्व और अज्ञानको छोड़कर आत्माके -वरूपको यथाथ% ानकर सम्यक् श्रद्धान तो जि सने नहीं निकया उसके मिमथ्यात्व—अज्ञान तो >गा रहा तब ध्यान निकसका हो तथा पुhय—पाप दोनों बंध-वरूप हैं इनमें प्रीनित—अप्रीनित रहती है, ब तक मोक्षका -वरूप भी ाना नहीं ह ै तब ध्यान निकसका हो और (–सम्यक् प्रकार -वरूपगुप्त -वअस्ति-तमें ठहरकर) मन वचनकी प्रवृभित्त छोड़कर मौन न करे तो एकाग्रता कैसे हो ? इसशि>ये मिमथ्यात्व, अज्ञान, पुhय, पाप, मन, वचन, कायकी प्रवृभित्त छोड़ना ही ध्यानमें युक्त कहा है; इसप्रकार आत्माका ध्यान करनेसे मोक्ष होता है ।।28।।

आगे ध्यान करनेवा>ा मौन धारण करके रहता है वह क्या निवचारकर रहता है, यह कहते हैं :—

जं मर्या दिदस्सदे रूवं तं ण जाणादिद सव्वहा ।जाणगं दिदस्सदे *णेव तम्हा जंपेमिम केण हं ।।29।।

*. पाठान्तर :—णं तं, णंत ।र्यत ्मर्या दृश्र्यत ेरूपं तत ्न जानावित सव�र्था ।ज्ञार्यकं दृश्र्यत ेन तत ्तस्मात् जल्पामिम केन अहम् ।।29।।

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देखार्य मुजने रूप जे ते जाणतुं नविह सव�र्था,ने जाणनार ने दृश्र्यमान; हंु बोलुं कोनी सार्थमां ? 29.

अथ% :—जि स रूपको मैं देkता हूँ वह रूप मूर्वितंक व-तु है, ड़ है, अचेतन है, सब प्रकारसे कुछ भी ानता नहीं है और मैं ज्ञायक हूँ, अमूर्वितंक हूँ । यह तो ड़—अचेतन है सब प्रकारसे कुछ भी ानता नहीं है, इसशि>ये मैं निकससे बो>ूँ ?

भावाथ% :—यदिद दूसरा कोई परस्पर बात करनेवा>ा हो तब परस्पर बो>ना संभव है, निकन्तु आत्मा तो अमूर्वितंक है उसको वचन बो>ना नहीं है और ो रूपी पुद्ग> है वह अचेतन है, निकसीको ानता नहीं देkता नहीं । इसशि>ये ध्यान करनेवा>ा कहता है निक—मैं निकससे बो>ूँ ? इसशि>ये मेरे मौन है ।।29।।

आग े कहत े ह ैं निक इसप्रकार ध्यान करनेस े सब कम�के आस्रवका निनरोध करके संशिचत कम�का नाश करता है :—

सव्वासवशिणरोहेण कम्मं खवदिद संचिचदं ।जोर्यyो जाणए जोई जिजणदेवेण भाचिसरं्य ।।30।।सवा�स्रवविनरोधेन कम� क्षपर्यवित संचिचतम् ।र्योगस्थः जानावित र्योगी जिजनदेवेन भाविषतम् ।।30।।

आस्रव समस्त विनरोधीने क्षर्य पूव�कम� तणो करे,ज्ञाता ज बस रही जार्य छे र्योगस्थ र्योगी;–जिजन कहे. 30.

अथ% :—योग ध्यानमें ण्डिस्थत हुआ योगी मुनिन सब कम�के आस्रवका निनरोध करके संवरयुक्त होकर पनिह> े बाँध े हुए कम% ो संचयरूप ह ैं उनका क्षय करता है, इस प्रकार जि नदेवने कहा है वह ानो ।

भावाथ% :—ध्यानसे कम%का आस्रव रुकता है इससे आगामी बंध नहीं होता है और पूव% संशिचत कम}की निन %रा होती ह ै तब केव>ज्ञान उत्पन्न करके मोक्ष प्राप्त होता है, यह आत्माके ध्यानका माहात्म्य है ।।30।।

आगे कहते हैं निक ो व्यवहारमें तत्पर है उसके यह ध्यान नहीं होता है :—जो सुAो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जप्तिम्म ।जो जग्गदिद ववहारे सो सुAो अ=पणो कज्जे ।।31।।र्यः सु=तः व्यवहारे सः र्योगी जागर्वित ंस्वकार्यt ।

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र्यः जागर्वित ंव्यवहारे सः सु=तः आत्मनः कार्यt ।।31।।र्योगी सूता व्यवहारमां ते जागता विनजकार्य�मां;जे जागता व्यवहारमां ते सु=त आतमकार्य�मां. 31.

अथ% :— ो योगी ध्यानी मुनिन व्यवहारमें सोता है वह अपने -वरूपके काममें ागता है और ो व्यवहारमें ागता है वह अपने आत्मकाय%में सोता है ।

भावाथ% :—मुनिनके संसारी व्यवहार तो कुछ है नहीं और यदिद है तो मुनिन कैसा ? वह तो पाkंOी है । धम%का व्यवहार संघमें रहना, महाव्रतादिदक पा>ना—ऐसे व्यवहारमें भी तत्पर नहीं है; सब प्रवृभित्तयोंकी निनवृभित्त करके ध्यान करता है वह व्यवहारमें सोता हुआ कह>ाता है और अपने आत्म-वरूपमें >ीन होकर देkता है, ानता है वह अपना आत्मकाय%में ागता है । परन्त ु ो इस व्यवहारम ें तत्पर है—सावधान है, -वरूपकी दृमिष्ट नहीं ह ै वह व्यवहारमें ागता हुआ कह>ाता है ।।31।।

आगे यह कहते हैं निक योगी पूव}क्त कथनको ानके व्यवहारको छोड़कर आत्मकाय% करता है :—

इस जाशिणऊण जोई ववहारं चर्यइ सव्वहा सव्वं ।झार्यइ परम=पाणं जह भशिणर्यं *जिजणवरिरंदेहिहं ।।32।।

* पाठान्तर :—जि णवरिरदेणं ।इवित ज्ञात्वा र्योगी व्यवहारं त्र्यजवित सव�र्था सव�म् ।ध्र्यार्यवित परमात्मानं र्यर्था भशिणत ंजिजनवरेन्दै्रः ।।32।।

इम जाणी र्योगी सव�र्था छो)े सकळ व्यवहारने,परमात्मने ध्र्यावे र्यर्था उपदिदष्ट जिजनदेवो व)े. 32.

अथ% :—इस प्रकार पूव}क्त कथनको ानकर योगी ध्यानी मुनिन ह ै वह सव% व्यवहारको सब प्रकारसे ही छोड़ देता है और परमात्माका ध्यान करता है— ैसे जि नवरेन्द्र तीथ�कर सव%ज्ञदेवने कहा है वैसे ही परमात्माका ध्यान करता है ।

भावाथ% :—सव%था सव% व्यवहारको छोड़ना कहा, उसका आशय इस प्रकार है निक—>ोकव्यवहार तथा धम%व्यवहार सब ही छोड़ने पर ध्यान होता है इसशि>ये ैसे जि नदेवने कहा है वैसे ही परमात्माका ध्यान करना । अन्यमती परमात्माका -वरूप अनेक प्रकारसे अन्यथा कहते हैं उसके ध्यानका भी वे अन्यथा उपदेश करते हैं उसका निनषेध निकया है । जि नदेवने

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परमात्माका तथा ध्यानका -वरूप कहा वह सत्याथ% है, प्रमाणभूत ह ै वैस े ही ो योगीश्वर करते हैं वे ही निनवा%णको प्राप्त करते हैं ।।32।।

आगे जि नदेवने ैसे ध्यान अध्ययनकी प्रवृभित्त कही है वैसे ही उपदेश करते हैं :—पंचमहव्वर्यजुAो पंचसु समिमदीसु तीसु गAुीसु ।रर्यणAर्यसंजुAो झाणज्झर्यणं सर्या कुणह ।।33।।पंचमहाव्रतर्यु}ः पंचसु समिमवितषु वितसृषु गुप्ति=तषु ।रत्नत्रर्यसंर्यु}ः ध्र्यानाध्र्यर्यन ंसदा कुरु ।।33।।

तंु पंचसमिमत, वित्रगु=त ने संरु्य} पंचमहाव्रते,रत्नत्रर्यीसंरु्यतपणे कर विनत्र्य ध्र्यानाध्र्यर्यनने. 33.

अथ% :—आचाय% कहते हैं निक ो पाँच महाव्रत युक्त हो गया तथा पाँच समिमनित व तीन गुन्तिप्तयोंस े युक्त हो गया और सम्यग्दश%न–ज्ञान–चारिरत्ररूपी रत्नत्रयसे संयुक्त हो गया, ऐसे बनकर हे मुनिन नो ! तुम ध्यान और अध्ययन–शा-त्रके अभ्यासको सदा करो ।

भावाथ% :—अहिहंसा, सत्य, अ-तेय, ब्रह्मचय%, परिरग्रहत्याग य े पाँच महाव्रत, ईया%, भाषा, एषणा, आदाननिनके्षपण प्रनितष्ठापना ये पाँच समिमनित और मन, वचन कायके निनग्रहरूप तीन गुन्तिप्त—यह तेरह प्रकारका चारिरत्र जि नदेवन े कहा ह ै उसम ें युक्त हो और निनश्चय–व्यवहाररूप, सम्यग्दश%न–ज्ञान–चारिरत्र कहा है इनसे युक्त होकर ध्यान और अध्ययन करनेका उपदेश है । इनमें भी प्रधान तो ध्यान ही है और यदिद इसमें मन न रुके तो शा-त्रके अभ्यासमे मनको >गावे यह भी ध्यानतुल्य ही है, क्योंनिक शा-त्रमें परमात्माके -वरूपका निनण%य है सो यह ध्यानका ही अंग है ।।33।।

आगे कहते हैं निक ो रत्नत्रयकी आराधना करता है वह ीव आराधक ही है :—रर्यणAर्यमाराहं जीवो आराहओ मुणेर्यव्वो ।आराहणाविवहाणं तस्स फलं केवलं णाणं ।।34।।रत्नत्रर्यमाराधर्यन ्जीवः आराधकः ज्ञातव्यः आराधनाविवधानं तस्र्य फलं केवलं ज्ञानम् ।।34।।

रत्नत्रर्यी आराधनारो जीव आराधक कह्यो;आराधनानुं विवधान केवलज्ञानफळदार्यक अहो ! 34.

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अथ% :–रत्नत्रय सम्यग्दश%न–ज्ञान–चारिरत्रकी आराधना करत े हुए ीवको आराधक ानना और आराधनाके निवधानका फ> केव>ज्ञान है ।

भावाथ% :— ो सम्यग्दश%न–ज्ञान–चारिरत्रकी आराधना करता ह ै वह केव>ज्ञानको प्राप्त करता है वह जि नमाग%में प्रशिसद्ध है ।।34।।

आगे कहते ह ैं निक शुद्धात्मा ह ै वह केव>ज्ञान ह ै और केव>ज्ञान ह ै वह शुद्धात्मा है :—

चिसद्धो सुद्धो आदा सव्वण्हू सव्वलोर्यदरिरसी र्य ।सो जिजणवरेहिहं भशिणओ जाण तुमं केवलं णाणं ।।35।।चिसद्धः शुद्धः आत्मा सव�ज्ञः सव�लोकदश² च ।सः जिजनवरैः भशिणतः जानीविह त्वं केवलं ज्ञान ं।।35।।

छे चिसद्ध, आत्मा शुद्ध छे ने सव�ज्ञानदश² छे,तंु जाण रे !—जिजनवरकचिर्थत आ जीव केवळ ज्ञान छे. 35.

अथ% :—आत्मा जि नवर सव%ज्ञदेवन े ऐसा कहा है, कैसा ह ै ? शिसद्ध है—निकसीसे उत्पन्न नहीं हुआ है -वयंशिसद्ध है, शुद्ध है—कम%म>से रनिहत है, सव%ज्ञ है—सब >ोका>ोक को ानता है और सव%दशN है—सब >ोक–अ>ोकको देkता है, इसप्रकार आत्मा है वह हे मुने ! उसहीको तू केव>ज्ञान ान अथवा उस केव>ज्ञानहीको आत्मा ान ! आत्मामें और ज्ञानमें कुछ प्रदेशभेद नहीं है, गुण–गुणी भेद है वह गौण है । यह आराधनाका फ> पनिह>े केव>ज्ञान कहा, वही है ।।35।।

आगे कहत े ह ैं निक ो योगी जि नदेवके मतसे रत्नत्रयकी आराधना करता ह ै वह आत्माका ध्यान करता है :—

रर्यणAर्यं विप जोई आराहइ जो हु जिजणवरमएण ।सो झार्यदिद अ=पाणं परिरहरइ परं ण संदेहो ।।36।।रत्नत्रर्यमविप र्योगी आराधर्यवित र्यः सु्फटं जिजनवरमतेन ।सः ध्र्यार्यवित आत्मानं परिरहरवित परं न सन्देहः ।।36।।

जे र्योगी आराधे रत्नत्रर्य प्रगट जिजनवरमाग�र्थी,ते आत्मने ध्र्यावे अने पर परिरहरे;–शंका नर्थी. 36.

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अथ% :— ो योगी ध्यानी मुनिन जि नेश्वरदेवके मतकी आज्ञास े रत्नत्रय–सम्यग्दश%न, ज्ञान, चारिरत्रकी निनश्चयसे आराधना करता ह ै वह प्रगटरूपसे आत्माका ही ध्यान करता है, क्योंनिक रत्नत्रय आत्माका गुण है और गुण–गुणीमें भेद नहीं है । रत्नत्रयकी आराधना है वह आत्माकी ही आराधना है वह ही परद्रव्यको छोड़ता है इसमें सन्देह नहीं है ।

भावाथ% :—सुगम है ।।36।।पनिह>े पूछा था निक आत्मामें रत्नत्रय कैसे है उसका उत्तर अब आचाय% कहते हैं :—

जं जाणइ तं णाणं जं विपच्छइ तं च दसणं णेरं्य ।तं चारिरAं भशिणर्यं परिरहारो पुण्णपावाणं ।।37।।र्यत ्जानावित तत ्ज्ञान ंर्यत्पश्र्यवित तच्च दश�न ंज्ञरे्यम् ।तत ्चारिरतं्र भशिणत ंपरिरहारः पुण्र्यपापानाम् ।।37।।

जे जाणतुं ते ज्ञान, देखे तेह दश�न जाणवुं,जे पाप तेम ज पुण्र्यनो परिरहार ते चारिरत कहंु्य. 37.

अथ% :— ो ान े वह ज्ञान है, ो देkे वह दश%न ह ै और ो पुhय तथा पापका परिरहार है वह चारिरत्र है, इस प्रकार ानना चानिहये ।

भावाथ% :—यहा ँ ाननेवा>ा तथा देkनेवा>ा और त्यागनेवा>ा दश%न, ज्ञान, चारिरत्रको कहा ये तो गुणीके गुण हैं, ये कत्ता% नहीं होते हैं इसशि>ये ानन, देkन, त्यागन निक्रयाका कत्ता% आत्मा है, इसशि>ये ये तीनों आत्मा ही है, गुण–गुणीमें कोई प्रदेशभेद नहीं होता है । इसप्रकार रत्नत्रय है वह आत्मा ही है, इस प्रकार ानना ।।37।।

आगे इसी अथ%को अन्य प्रकारसे कहते हैं :–तच्चरुई सम्मAं तच्चग्गहणं च हवइ सण्णाणं ।चारिरAं परिरहारो परूविवरं्य जिजणवरिरंदेहिहं ।।38।।तत्वरुचिचः सम्र्यक्त्वं तत्त्वग्रहणं च भववित संज्ञानम् ।चारिरतं्र परिरहारः प्रजत्थिल्पत ंजिजनवरेन्दै्रः ।।38।।

छे तत्त्वरुचिच सम्र्यक्त्व, तत्त्व तणंु ग्रहण सदज््ञान छे,परिरहार ते चारिरत्र छे; –जिजनवरवृषभविनर्दिदषं्ट छे. 38.

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अथ% :—तत्त्वरुशिच सम्यक्त्व है, तत्त्वका ग्रहण सम्यग्ज्ञान है, परिरहार चारिरत्र है, इस चारिरत्र जि नवरेन्द्र तीथ�कर सव%ज्ञदेवने कहा है ।

भावाथ% :— ीव, अ ीव, आस्रव, बंध, संवर, निन %रा, मोक्ष इन तत्त्वोंका श्रद्धान रुशिच प्रतीनित सम्यग्दश%न है, इनहीको ानना सम्यग्ज्ञान ह ै और परद्रव्यके परिरहार संबंधी निक्रयाकी निनवृभित्त चारिरत्र है; इसप्रकार जि नेश्वरदेवन े कहा है, इनको निनश्चय–व्यवहारनयसे आगमके अनुसार साधना ।।38।।

आगे सम्यग्दश%नको प्रधान कर कहते हैं :–दंसणसुद्धो सुद्धो दंसणसुद्धो, लहेइ शिणव्वाणं ।दंसणविवहीणपुरिरसो ण लहइ तं इस्थिच्छरं्य लाहं ।।39।।दश�नशुद्धः शुद्धः दश�नशुद्धः लभते विनवा�णम् ।दश�नविवहीनपुरुषः न लभते त ंइषं्ट लाभम् ।।39।।

दृगशुद्ध आत्मा शुद्ध छे, दृगशुद्ध ते मुचि} लहे,दश�नरविहत जे पुरुष ते पामे न इस्थिच्छत लाभने. 39.

अथ% :— ो पुरुष दश%नसे शुद्ध है वह ही शुद्ध है, क्योंनिक जि सका दश%न शुद्ध है वही निनवा%णको पाता है और ो पुरुष सम्यग्दश%नसे रनिहत है वह पुरुष ईस्तिप्सत >ाभ अथा%त् मोक्षको प्राप्त नहीं कर सकता है ।

भावाथ% :—>ोकमें प्रशिसद्ध है निक कोई पुरुष कोई व-तु चाहे और उसकी रुशिच प्रतीनित श्रद्धा न हो तो उसकी प्रान्तिप्त नहीं होती है, इसशि>ये सम्यग्दश%न ही निनवा%णकी प्रतीनितमें प्रधान है ।।39।।

आगे कहते ह ैं निक ऐसा सम्यग्दश%नको ग्रहण करनेका उपदेश सार है, उसको ो मानता है वह सम्यक्त्व है :—

इर्य उवएसं सारं जरमरणहरं खु मण्णए जं तु ।तं सम्मAं भशिणर्यं सवणाणं सावर्याणं विप ।।40।।इवित उपदेशं सारं जरामरणहरं सु्फटं मन्र्यते र्यAु ।तत ्सम्र्यक्त्वं भशिणत ंश्रमणानां श्रावकाणामविप ।।40।।

जरमरणहर आ सारभूत उपदेश श्रदे्ध स्पष्ट जे,

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सम्र्यक्त्व भाख्र्युं तेहने, हो श्रमण के श्रावक भले. 40.अथ% :—इस प्रकार सम्यग्दश%न–ज्ञान–चारिरत्रका उपदेश सार है, ो रा व मरणको

हरनेवा>ा है, इसको ो मानता है श्रद्धान करता है वह ही सम्यक्त्व कहा है । वह मुनिनयोंको तथा श्रावकोंको सभीको कहा है इसशि>ये सम्यक्त्वपूव%क ज्ञान चारिरत्रको अंगीकार करो ।

भावाथ% :— ीवके जि तने भाव हैं उनमें सम्यग्दश%न–ज्ञान–चारिरत्र सार हैं उत्तम हैं, ीवके निहत हैं, और इनमें भी सम्यग्दश%न प्रधान ह ै क्योंनिक इसके निबना ज्ञान, चारिरत्र भी मिमथ्या कह>ाते हैं, इसशि>ये सम्यग्दश%नको प्रधान ानकर पनिह>े अंगीकार करना, यह उपदेश मुनिन तथा श्रावक सभीको है ।।40।।

आगे सम्यग्ज्ञानका -वरूप कहते हैं :—

जीवाजीवविवहAी जोई जाणेइ जिजणवरमएण ।तं सण्णाणं भशिणर्यं अविवर्यyं सव्वदरसीहिहं ।।41।।जीवाजीवविवभलि}ं र्योगी जानावित जिजनवरमतेन ।तत ्संज्ञानं भशिणत ंअविवतरं्थ सव�दर्शिशशंिभः ।।41।।

जीव–अजीव केरो भेद जाणे र्योगी जिजनवरमाग�र्थी,सव�ज्ञदेवे तेहने सदज््ञान भाख्र्युं तथ्र्यर्थी. 41.

अथ% :— ो योगी मुनिन ीव–अ ीव पदाथ%के भेद जि नवरके मतसे ानता है वह सम्यग्ज्ञान है ऐसा सव%दशN—सबको देkने वा>े सव%ज्ञदेवने कहा है अतः वह ही सत्याथ% है, अन्य छद्मस्थका कहा हुआ सत्याथ% नहीं है असत्याथ% है, सव%ज्ञका कहा हुआ ही सत्याथ% है ।

भावाथ% :—सव%ज्ञदेवने ीव, पुद्ग>, धम%, अधम%, आकाश, का> ये ानित अपेक्षा छह द्रव्य कहे ह ैं । (संख्या अपेक्षा एक, एक, असंख्य और अनंतानंत हैं ।) इनमें ीवको दश%न–ज्ञानमयी चेतना-वरूप कहा है, यह सदा अमूर्वितंक है अथा%त् स्पश%, रस, गंध, वण%से रनिहत है । पुद्ग> आदिद पाँच द्रव्योंको अ ीव कहे हैं ये अचेतन हैं– ड़ हैं । इनमें पुद्ग> स्पश%, रस, गंध, वण% शब्दसनिहत मूर्वितंक (–रूपी) है, इजिन्द्रयगोचर है, अन्य अमूर्वितंक हैं । आकाश आदिद चार तो ैस े ह ैं वैस े ही रहत े ह ैं । ीव और पुद्ग> के अनादिदसंबंध ह ै । छद्मस्थके इजिन्द्रयगोचर पुद्गग>-कंध हैं उनको ग्रहण करके ीव राग–दे्वष–मोहरूप परिरणमन करता है शरीरादिदको अपना मानता ह ै तथा इष्ट–अनिनष्ट मानकर राग–दे्वषरूप होता ह ै इससे नवीन पुद्ग> कम%रूप होकर बंधको प्राप्त होता है, यह निनमिमत्त–नैमिमभित्तक भाव है, इसप्रकार यह ीव अज्ञानी होता हुआ ीव—पुद्ग>के भेदको न ानकर मिमथ्याज्ञानी होता ह ै । इसशि>ये

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आचाय% कहते ह ैं निक जि नदेवके मतसे ीव–अ ीवका भेद ानकर सम्यग्दश%नका -वरूप ानना । इस प्रकार जि नदेवने कहा वह ही सत्याथ% है, प्रमाण–नयके द्वारा ऐसे ही शिसद्ध होता है इसशि>ये जि नदेव सव%ज्ञने सब व-तुको प्रत्यक्ष देkकर कहा है ।

अन्यमती छद्मस्थ हैं, इन्होंने अपनी बुजिद्धमें आया वैसे ही कल्पना करके कहा है वह प्रमाणशिसद्ध नहीं है । इनमें कई वेदान्ती तो एक ब्रह्ममात्र कहते हैं, अन्य कुछ व-तुभूत नहीं है मायारूप अव-तु ह ै ऐसा मानते ह ैं । कई नैयामियक, वैशेनिषक ीवको सव%था निनत्य सव%गत कहते हैं, ीवके और ज्ञानगुणके सव%था भेद मानते ह ैं और अन्य काय%मात्र हैं उनको ईश्वर करता है इसप्रकार मानते हैं । कई सांख्यमती पुरुषको उदासीन चैतन्य-वरूप मानकर सव%था अकता% मानते हैं ज्ञानको प्रधानका धम% मानते हैं ।

कई बौद्धमती सव% व-तुको क्षभिणक मानत े हैं, सव%था अनिनत्य मानत े हैं, इनमें भी अनेक मतभेद हैं, कई निवज्ञानमात्र तत्त्व मानते हैं, कई सव%था शून्य मानते हैं, कोई अन्यप्रकार मानते हैं । मीमांसक कम%कांOमात्रही तत्त्व मानते हैं, ीवको अणुमात्र मानते हैं तो भी कुछ परमाथ% निनत्य व-तु नहीं है—इत्यादिद मानत े ह ैं । चावा%कमती ीवको तत्त्व नहीं मानत े हैं, पंचभूतोंसे ीवकी उत्पभित्त मानते हैं ।

इत्यादिद बुजिद्धकण्डिल्पत तत्त्व मानकर परस्परम ें निववाद करत े हैं, वह युक्त ही है—व-तुका पूण%-वरूप दिदkता नहीं है तब ैसे अंधे ह-तीका निववाद करते हैं वैसे निववाद ही होता है, इसशि>ये जि नदेव सव%ज्ञन े ही व-तुका पूण%रूप देkा ह ै वही कहा ह ै । यह प्रमाण और नयोंके द्वारा अनेकान्तरूप शिसद्ध होता है । इनकी चचा% हेतुबादके ैनके न्याय–शा-त्रोंसे ानी ाती है, इसशि>ये यह उपदेश है—जि नमतमें ीवा ीवका -वरूप सत्याथ% कहा ह ै उसको ानना सम्यग्ज्ञान है, इस प्रकार ानकर जि नदेवकी आज्ञा मानकर सम्यग्ज्ञानको अंगीकार करना, इसीसे सम्यक्चारिरत्रकी प्रान्तिप्त होती है, ऐसे ानना ।

आगे सम्यक्चारिरत्रका -वरूप कहते हैं :—जं जाशिणऊण जोई परिरहारं कुणइ पुण्णपावाणं ।तं चारिरAं भशिणर्यं अविवर्य=पं कम्मरविहएहिहं ।।42।।र्यत ्ज्ञात्वा र्योगी परिरहारं करोवित पुण्र्यपापानाम् ।तत ्चारिरतं्र भशिणत ंअविवकल्पं कम�रविहतैः ।।42।।

ते जाणी र्योगी परिरहरे छे पाप तेम ज पुण्र्यने,चारिरत्र ते अविवकल्प भाख्रंु्य कम�रविहत जिजनेश्वरे. 42.

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अथ% :—योगी ध्यानी मुनिन उस पूव}क्त ीवा ीवके भेदरूप सत्याथ% सम्यग्ज्ञानको ानकर पुhय तथा पाप इन दोनोंका परिरहार करता है, त्याग करता ह ै वह चारिरत्र है, ो निनर्विवंकल्प है अथा%त् प्रवृभित्तरूपनिक्रयाके निवकल्पोंसे रनिहत है वह चारिरत्र घानितकम%से रनिहत ऐसे सव%ज्ञदेवने कहा है ।

भावाथ% :—चारिरत्र निनश्चय—व्यवहारके भेदस े दो भेदरूप है, महाव्रत–समिमनित–गुन्तिप्तके भेदसे कहा है वह व्यवहार है । इसमें प्रवृभित्तरूप निक्रया शुभकम%रूप बंध करती है और इन निक्रयाओंमें जि तन े अंश निनवृभित्त ह ै । (अथा%त ् उसीसमय -वाश्रयरूप आंशिशक निनश्चय–वीतराग भाव है) उसका फ> बंध नहीं है, उसका फ> कम%की एकदेश निन %रा ह ै । सब कम�से रनिहत अपने आत्म-वरूपमें >ीन होना वह निनश्चयचारिरत्र है, इसका फ> कम%का नाश ही है, वह पुhय–पापके परिरहाररूप निनर्विवंकल्प है । पापका तो त्याग मुनिनके है ही और पुhयका त्याग इस प्रकार है—

शुभनिक्रयाका फ> पुhयकम%का बंध है उसकी वांछा नहीं है, बंधके नाशका उपाय निनर्विवंकल्प निनश्चयचारिरत्रका प्रधान उद्यम है । इस प्रकार यहाँ निनर्विवंकल्प अथा%त् पुhय–पापसे रनिहत ऐसा निनश्चयचारिरत्र कहा है । चौदहवें गुणस्थानके अंतसमयमें पूण% चारिरत्र होता है, उससे >गता ही मोक्ष होता है ऐसा शिसद्धांत है ।।42।।

आग े कहत े ह ैं निक इस रत्नत्रयसनिहत होकर तप संयम समिमनितको पा>त े हुए शुद्धात्माका ध्यान करनेवा>ा मुनिन निनवा%णको प्राप्त करता है :—

जो रर्यणAर्यजुAो कुणइ तवं संजदो ससAीए ।सो पावइ परमपर्यं झार्यंतो अ=पर्यं सुदं्ध ।।43।।र्यः रत्नत्रर्यर्यु}ः करोवित तपः संर्यतः स्वशक्त्र्या ।सः प्राप्नोवित परमपदं ध्र्यार्यन् आत्मानं शुद्धम् ।।43।।

रत्नत्रर्यीरु्यत संर्यमी विनजशचि}तः तपने करे,शुद्धात्मने ध्र्यातो र्थको उत्कृष्ट पदने ते वरे. 43.

अथ% :— ो मुनिन रत्नत्रयसंयुक्त होता हुआ संयमी बनकर अपनी शशिक्तके अनुसार तप करता है वह शुद्ध आत्माका ध्यान करता हुआ परमपद निनवा%णको प्राप्त करता है ।

भावाथ% :— ो मुनिन संयमी पाँच महाव्रत, पाँच समिमनित, तीन गुन्तिप्त यह तेरह प्रकारका चारिरत्र वही प्रवृभित्तरूप व्यवहारचारिरत्र संयम है, उसको अंगीकार करके और पूव}क्त प्रकार निनश्चयचारिरत्रसे युक्त होकर अपनी शशिक्तके अनुसार उपवास, कायक्>ेशादिद बाह्य तप

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करता है वह मुनिन अंतरंग तप ध्यानके द्वारा शुद्ध आत्माका एकाग्र शिचत्त करके ध्यान करता हुआ निनवा%णको प्राप्त करता है ।।43।।

(नोंध– ो छठव ें गुणस्थानके योग्य -वाश्रयरूप निनश्चयरत्नत्रय सनिहत ह ै उसीके व्यवहार संयम—व्रतादिदको व्यवहारचारिरत्र माना है ।)

आगे कहते हैं निक ध्यानी मुनिन ऐसा बनकर परमात्माका ध्यान करता है :—

वितविह वितस्थिण्ण धरविव शिणच्चं वितर्यरविहओ तह वितएण परिरर्यरिरओ ।दोदोसविव=पमुक्को परम=पा झार्यए जोई ।।44।।

वित्रशिभः त्रीन ्धृत्वा विनत्र्यं वित्रकरविहतः तर्था वित्रकेण परिरकरिरतः ।विद्वदोषविवप्रमु}ः परमात्मानं ध्र्यार्यते र्योगी ।।44।।

त्रणर्थी धरी त्रण, विनत्र्य वित्रकविवरविहतपणे, वित्रकर्युतपणे,रही दोषरु्यगलविवमु} ध्र्यावे र्योगी विनज परमात्मने. 44.

अथ% :—‘नित्रभिभः’ मन वचन कायसे, ‘त्रीन्’ वषा%, शीत, उष्ण तीन का>योगोंको धारणकर, ‘नित्रकरनिहतः’ माया, मिमथ्या, निनदान तीन शल्योंस े रनिहत होकर, ‘नित्रकेण परिरकरिरतः’ दश%न, ज्ञान, चारिरत्रसे मंनिOत होकर और ‘निद्वदोषनिवप्रमुक्तः’ दो दोष अथा%त् राग—दे्वष इनसे रनिहत होता हुआ योगी ध्यानी मुनिन है, वह परमात्मा अथा%त ् सव%कम% रनिहत शुद्ध परमात्मा उनका ध्यान करता है ।

भावाथ% :—मन वचन कायस े तीन का>योग धारणकर परमात्माका ध्यान करे, इसप्रकार कष्टम ें दृढ़ रह े तब ज्ञात होता ह ै निक इसके ध्यानकी शिसजिद्ध है, कष्ट आनेपर च>ायमान हो ाये तब ध्यानकी शिसजिद्ध कैसी ? कोई प्रकारकी शिचत्तमें शल्य रहनेसे शिचत्त एकाग्र नहीं होता है तब ध्यान कैसे हो ? इसशि>ये शल्य रनिहत कहा; श्रद्धान, ज्ञान, आचरण यथाथ% न हो तब ध्यान कैसा ? इसशि>ये दश%न, ज्ञान, चारिरत्र, मंनिOत कहा और राग—दे्वष, इष्ट—अनिनष्ट बुजिद्ध रहे तब ध्यान कैसे हो ? इसशि>ए परमात्माका ध्यान करे वह ऐसा होकर करे, यह तात्पय% है ।।44।।

आगे कहते हैं निक ो इस प्रकार होता है वह उत्तम सुkको पाता है :—मर्यमार्यकोहरविहओ लोहेण विववस्थिज्जओ र्य जो जीवो ।शिणम्मलसहावजुAो सो पावइ उAमं सोक्खं ।।45।।

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मदमार्याक्रोधरविहतः लोभेन विववर्जिजंतश्च र्यः जीवः ।विनम�लस्वभावर्यु}ः र्यः प्राप्नोवित उAमं सौख्र्यम् ।।45।।

जे जीव मार्या–क्रोध–मद परिरवज²ने, तजी लोभने,विनम�ळ स्वभावे परिरणमे, ते सौख्र्य उAमने लहे. 45.

अथ% :— ो ीव मद, माया, क्रोध इनसे रनिहत हो और >ोभसे निवशेषरूपसे रनिहत हो वह ीव निनम%> निवशुद्ध -वभावयुक्त होकर उत्तम सुkको प्राप्त करता है ।

भावाथ% :—>ोकमें भी ऐसा है निक ो मद अथा%त् अनित मानी तथा माया कपट और क्रोध इनसे रनिहत हो और >ोभस े निवशेष रनिहत हो वह सुk पाता है; तीव्र कषायी अनित आकु>तायुक्त होकर निनरन्तर दुःkी रहता ह ै । अतः यही रीनित मोक्षमाग%म ें भी ानो— ो क्रोध, मान, माया, >ोभ चार कषायोंसे रनिहत होता है तब निनम%> भाव होते हैं और तब ही यथाख्यातचारिरत्र पाकर उत्तम सुkको प्राप्त करता है ।।45।।

आगे कहते हैं निक ो निवषय—कषायोंमें आसक्त है, परमात्माकी भावनासे रनिहत है, रौद्रपरिरणामी है वह जि नमतमें पराङु्मk है, अतः वह मोक्षके सुkोंको प्राप्त नहीं कर सकता :—

विवसर्यकसाएविह जुदो रु�ो परम=पभावरविहर्यमणो ।सो ण लहइ चिसशिद्धसुहं जिजणमु�परम्मुहो जीवो ।।46।।विवषर्यकषार्यैः र्यु}ः रुद्रः परमात्मभावरविहतमनाः ।सः न लभते चिसशिद्धसुखं जिजनमुद्रापराङु्मखः जीवः ।।46।।

परमात्मभावनहीन, रुद्र, कषार्यविवषरे्य रु्य} जे,ते जीव जिजनमुद्राविवमुख पामे नहीं शिशवशौख्र्यने. 46.

अथ% :— ो ीव निवषय–कषायोंस े युक्त है, रौद्रपरिरणामी है, हिहंसादिदक निवषय–कषायादिदक पापोमें हष%सनिहत प्रवृभित्त करता है और जि सका शिचत्त परमात्माकी भावनासे रनिहत है, ऐसा ीव जि नमुद्रासे पराङु्मk है वह ऐसे शिसजिद्धसुkको मोक्षके–सुkको प्राप्त नहीं कर सकता ।

भावाथ% :—जि नमतमें ऐसा उपदेश है निक ो हिहंसादिदक पापोंसे निवरक्त हो, निवषय–कषायोंसे आसक्त न हो और परमात्माका -वरूप ानकर उसकी भावनासनिहत ीव होता है वह मोक्षको प्राप्त कर सकता है, इसशि>ये जि नमतकी मुद्रासे ो पराङु्मk है उसको मोक्ष कैसे हो ? वह तो संसारमें ही भ्रमण करता ह ै । यहा ँ रुद्रका निवशेषण दिदया ह ै उसका ऐसा भी

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आशय है निक रुद्र ग्यारह होते हैं, ये निवषय–कषायोंमें आसक्त होकर जि नमुद्रामें भ्रष्ट होते हैं, इनको मोक्ष नहीं होता है, इनकी कथा पुराणोंसे ानना ।।46।।

आगे कहते हैं निक जि नमुद्रासे मोक्ष होता है निकन्तु यह मुद्रा जि न ीवोंको नहीं रुचती है वे संसारमें ही रहते हैं :—

जिजणमु�ं चिसशिद्धसुहं हवेइ शिणर्यमेण *जिजणवरुदि�टं्ठ ।चिसविवणे विव ण रुच्चइ पुण जीवा अचं्छवित भवगहणे ।।47।।

पाठान्तरः—जि णवरुदिद्दट्ठा ।जिजनमुद्रा चिसशिद्धसुखं भववित विनर्यमेन जिजनवरोदि�ष्टा ।स्वपे्न)विप न रोचते पुनः जीवाः वितषं्ठवित भवगहने ।।47।।

जिजनवरवृषभ–उपदिदष्ट जिजनमुद्रा ज शिशवसुख विनर्यमर्थी;ते नव रुचे स्वप्नेर्य जेने, ते रहे भववन महीं. 47.

अथ% :—जि न भगवानके द्वारा कही गई जि नमुद्रा है वही शिसजिद्धसुk है मुशिक्तसुk ही है, यह कारणमें काय%का उपचार ानना; जि नमुद्रा मोक्षका कारण है मोक्षसुk उसका काय% है । ऐसी जि नमुद्रा जि नभगवाने ैसी कही है वैसी ही है । तो ऐसी जि नमुद्रा जि स ीवको साक्षात् तो दूर ही रहो, -वप्नमें भी कदाशिचत् भी नहीं रुचती है, उसका -वप्न आता है तो भी अवज्ञा आती है तो वह ीव संसाररूप गहन वनमें रहता है, मोक्षके सुkको प्राप्त नहीं कर सकता ।

भावाथ% :—जि नदेवभानिषत जि नमुद्रा मोक्षका कारण है वह मोक्षरूप ही है, क्योंनिक जि नमुद्राके धारक वत%मानमें भी -वाधीन सुkको भोगते हैं और पीछे मोक्षके सुkको प्राप्त करते ह ैं । जि स ीवको यह नहीं रुचती है वह मोक्षको प्राप्त नहीं कर सकता, संसारहीमें रहता है ।।47।।

आगे कहते हैं निक ो परमात्माका ध्यान करता है वह योगी >ोभरनिहत होकर नवीन कम%का आस्रव नहीं करता है :—

परम=पर्य झार्यंतो जोई मुचे्चइ मलदलोहेण ।णादिदर्यदिद णवं कम्मं शिणदि�टं्ठ जिजणवरिरंदेहिहं ।।48।।परमात्मानं ध्र्यार्यन् र्योगी मुच्र्यते मलदलोभेन ।

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नादिद्रर्यत ेनवं कम� विनर्दिदंषं्ट जिजनवरेन्दै्रः ।।48।।

परमात्मने ध्र्यातां श्रमण मलजनक लोभ र्थकी छूटे,नूतन करम नविह आस्रवे–जिजनदेवर्थी विनर्दिदषं्ट छे. 48.

अथ% :— ो योगी ध्यानी परमात्माका ध्यान करता हुआ रहता है वह म> देनेवा>े >ोभकषायसे छूटता है, उसके >ोभ म> नहीं >गता है इसीसे नवीन कम%का आस्रव उसके नहीं होता है, यह जि नवरेन्द्र तीथ�कर सव%ज्ञदेवने कहा है ।

भावाथ% :—मुनिन भी हो और पर न्मसंबंधी प्रान्तिप्तका >ोभ होकर निनदान करे उसके परमात्माका ध्यान नहीं होता है, इसशि>ये ो परमात्माका ध्यान करे उसके इस >ोक पर>ोक संबंधी परद्रव्यका कुछ भी >ोभ नहीं होता है, इसशि>ये उसके नवीन कम%का आस्रव नहीं होता ऐसा जि नदेवने कहा है । यह >ोभ कषाय ऐसा है निक दसवें गुणस्थान तक पहँुच ाने पर भी अव्यक्त होकर आत्माको म> >गाता है, इसशि>ये इसको काटना ही युक्त है, अथवा ब तक मोक्षकी चाहरूप >ोभ रहता है तब तक मोक्ष नहीं होता, इसशि>ये >ोभका अत्यंत निनषेध है ।।48।।

आगे कहते ह ैं निक ो ऐसा निन>}भी बनकर दृढ़ सम्यक्त्व–ज्ञान–चारिरत्रवान होकर परमात्माका ध्यान करता है वह परम पदको पाता है :—

होऊण दिदढचरिरAो दिदढसम्मAेण भाविवर्यमईओ ।झार्यंतो अ=पाणं परमपर्यं पावए जोई ।।49।।भूत्वा दृढ़ चरिरत्रः दृढसम्र्यक्त्वेन भाविवतमवितः ।ध्र्यार्यन्नात्मानं परमपदं प्राप्नोवित र्योगी ।।49।।

परिरणत सुदृढ़–सम्र्यक्त्वरूप, लही सुदृढ़–चारिरत्रने,विनज आत्मने ध्र्यातां र्थकां र्योगी परम पदने लहे. 49.

अथ% :—पूव}क्त प्रकार जि सकी मनित दृढ़ सम्यक्त्वसे भानिवत है ऐसा योगी ध्यानी मुनिन दृढ़चारिरत्रवान होकर आत्माका ध्यान करता हुआ परमपद अथा%त् परमात्मपदको प्राप्त करता है ।

भावाथ% :—सम्यग्दश%न, ज्ञान, चारिरत्ररूप दृढ़ होकर परिरषह आने पर भी च>ायमान न हो, इस प्रकारसे आत्माका ध्यान करता है वह परम पदको प्राप्त करता है ऐसा तात्पय% है ।।49।।

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आगे दश%न, ज्ञान, चारिरत्रसे निनवा%ण होता है–ऐसा कहते आये वह दश%न, ज्ञान तो ीवका -वरूप है, ऐसा ाना, परन्तु चारिरत्र क्या है ? ऐसी आशंकाका उत्तर कहते हैं :—

चरणं हवइ सधम्मो धम्मो सो हवइ अ=पसमभावो ।सो रागरोसरविहओ जीवस्स अणण्णपरिरणामो ।।50।।चरणं भववित स्वधम�ः धम�ः सः भववित आत्मसमभावः ।सः रागरोषरविहतः जीवस्र्य अनन्र्यपरिरणामः ।।50।।

चारिरत्र ते विनज धम� छे ने धम� विनज समभाव छे,ते जीवना वणरागरोष अनन्र्यमर्य परिरणाम छे. 50.

अथ% :—-वधम% अथा%त ् आत्माका धम% ह ै वह चरण अथा%त ् चारिरत्र है । धम% ह ै वह आत्म-वभाव है सब ीवोंमें समानभाव है । ो अपना धम% है वही सब ीवोंमें है अथवा सब ीवोंको अपने समान मानना है और ो आत्म-वभावसे ही (–-वाश्रयके द्वारा) रागदे्वष रनिहत है, निकसीसे इष्ट—अनिनष्ट बुजिद्ध नहीं है ऐसा चरिरत्र है, वह ैसे ीवके दश%न—ज्ञान है वैसा ही अनन्य परिरणाम है, ीवका ही भाव है ।

भावाथ% :—चारिरत्र है वह ज्ञानमें रागदे्वष रनिहत निनराकु>तारूप ण्डिस्थरताभाव है, वह ीवका ही अभेदरूप परिरणाम है, कुछ अन्य व-तु नहीं है ।।50।।

आगे ीवके परिरणामकी -वच्छताको दृष्टांत पूव%क दिदkाते हैं :—जह फचिलहमशिण विवसुद्धो परदव्वजुदो हवेइ अण्णं सो ।तह रागादिदविवजुAो जीवो हवदिद हु अणण्णविवहो ।।51।।र्यर्था स्फदिटकमशिणः विवशुद्धः परद्रव्यर्युतः भवत्र्यन्र्यः सः ।तर्था रागादिदविवर्यु}ः जीवः भववित सु्फटमन्र्यान्र्यविवधः ।।51।।

विनम�ळ स्फदिटक परद्रव्यसंगे अन्र्यरूपे र्थार्य छे,त्र्यम जीव छे नीराग पण अन्र्यान्र्यरूपे परिरणमे. 51.

अथ% :— ैसे स्फदिटकमभिण निवशुद्ध है, निनम%> है, उज्जव> है वह परद्रव्य ो पीत, रक्त, हरिरत पुष्पादिदकसे युक्त होने पर अन्य सा दिदkता है, पीतादिदवण%मयी दिदkता है, वैसे ही ीव निवशुद्ध है, -वच्छ-वभाव है परन्तु यह (अनिनत्य पया%यमें अपनी भू> द्वारा -वसे च्युत होता है तो) रागदे्वषादिदक भावोंसे युक्त होने पर अन्य–अन्य प्रकार हुआ दिदkता है यह प्रगट है ।

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भावाथ% :—यहाँ ऐसा ानना निक रागादिद निवकार हैं वह पुद्ग>के हैं और ये ीवके ज्ञानमें आकर झ>कते हैं तब उनसे उपयुक्त होकर इसप्रकार ानता है निक ये भाव मेरे ही है, ब तक इनका भेदज्ञान नहीं होता है तब तक ीव अन्य–अन्य प्रकाररूप अनुभवमें आता है । यहाँ स्फदिटकमभिणका दृष्टांत है, उसके अन्यद्रव्य–पुष्पादिदकका Oांक >गता है तब अन्यसा दिदkता है, इस प्रकार ीवके -वच्छभावकी निवशिचत्रता ानना ।।51।।

इसीशि>ये आगे कहते हैं निक ब तक मुनिनके (मात्र चारिरत्र–दोषमें) रागदे्वषका अंश होता है तब तक सम्यग्दश%नको धारण करता हुआ भी ऐसा होता है :—

देवगुरुप्तिम्म र्य भAो साहप्तिम्मर्यसंजदेसु अणुरAो ।सम्मAमुव्वहंतो झाणरओ होदिद जोई सो ।।52।।देवे गुरौ च भ}ः साधर्मिमंके च संर्यतेषु अनुर}ः ।सम्र्यक्त्वमुद्वहन् ध्र्यानरतः भववित र्योगी सः ।।52।।

जे देव–गुरुना भ} ने सहधम²मुविन–अनुर} छे,सम्र्यक्त्वना वहनार र्योगी ध्र्यानमां रत होर्य छे. 52.

अथ% :— ो योगी ध्यानी मुनिन सम्यक्त्वको धारण करता है निकन्तु ब तक यथाख्यात चारिरत्रको प्राप्त नहीं होता है तबतक अरहंत–शिसद्ध देवमें, और शिशक्षा–दीक्षा देनेवा>े गुरुमें तो भशिक्तयुक्त होता ही है, इनकी भशिक्त निवनय सनिहत होती है और अन्य संयमी मुनिन अपने समान धम%सनिहत हैं, उनमें भी अनुरक्त हैं, अनुरागसनिहत होता है वही मुनिन ध्यानमें प्रीनितवान् होता है और मुनिन होकर भी देव–गुरु–साधर्मिमंयोंम ें भशिक्त व अनुरागसनिहत न हो उसको ध्यानमें रुशिचवान नहीं कहते हैं क्योंनिक ध्यान होनेवा>ेके, ध्यानवा>ेसे रुशिच, प्रीनित होती है, ध्यानवा>े न रुचें तब ज्ञात होता है निक इसको ध्यान भी नहीं रुचता है, इस प्रकार ानना चानिहये ।।52।।

आगे कहते हैं निक ो ध्यान सम्यग्ज्ञानीके होता है वही तप करके कम%का क्षय करता है :—

उग्गतवेणण्णाणी जं कम्मं खवदिद भवविह बहुएहिहं ।तं णाणी वितविह गुAो खवेइ अंतोमुहुAेण ।।53।।उग्रतपसा)ज्ञानी र्यत ्कम� क्षपर्यवित भवैब�हुकैः ।

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तज्ज्ञानी वित्रशिभः गु=तः क्षपर्यवित अन्तमु�हूAtन ।।53।।तप उग्रर्थी अज्ञानी जे कमN खपावे बहु भवे,ज्ञानी वित्रगुप्ति=तक ते करम अंतमु�हूतt क्षर्य करे. 53.

अथ% :—अज्ञानी तीव्र तपके द्वारा बहुत भवोंमें जि तने कम�का क्षय करता है उतने कम�का ज्ञानी मुनिन तीन गुन्तिप्तसनिहत होकर अंतमु%हूत%में ही क्षय कर देता है ।

भावाथ% :— ो ज्ञानका सामथ्य% है वह तीव्र तपका भी सामथ्य% नहीं है, क्योंनिक ऐसा है निक—अज्ञानी अनेक कष्टोंको सहकर तीव्र तपको करता हुआ करोड़ों भवोंमें जि तने कम�का क्षय करता है वह आत्मभावना सनिहत ज्ञानी मुनिन उतने कम�का अंतमु%हूत%में क्षय कर देता है, यह ज्ञानका सामथ्य% है ।।53।।

आगे कहते हैं निक ो इष्ट व-तुके संबंधसे परद्रव्यमें रागदे्वष करता है वह उस भावसे अज्ञानी होता है, ज्ञानी इससे उल्टा है :—

सुहजोएण सुभावं परदव्वे कुणइ रागदो साहू ।सो तेण दु अण्णाणी णाणी एAो दु विववरीओ ।।54।।शुभर्योगेन सुभावं परद्रव्ये करोवित रागतः साधुः ।सः तेन त ुअज्ञानी ज्ञानी एतस्माAु विवपरीतः ।।54।।

शुभ अन्र्य द्रव्ये रागर्थी मुविन जो करे रुचिचभावने,तो तेह छे अज्ञानी, ने विवपरीत तेर्थी ज्ञानी छे. 54.

अथ% :—शुभ योग अथा%त ् अपन े इष्ट व-तुके सम्बन्धस े परद्रव्यम ें सुभाव अथा%त् प्रीनितभावको करता है वह प्रगट राग–दे्वष है, इष्टमें राग हुआ तब अनिनष्ट व-तुमें दे्वषभाव होता ही है, इसप्रकार ो राग–दे्वष करता है वह उस कारणसे रागी–दे्वषी–अज्ञानी है और ो इससे निवपरीत अथा%त् उ>टा है परद्रव्यमें राग–दे्वष नहीं करता है वह ज्ञानी है ।

भावाथ% :–ज्ञानी सम्यग्दृमिष्ट मुनिनके परद्रव्यमें रागदे्वष नहीं है क्योंनिक राग उसको कहते हैं निक— ो परद्रव्यको सव%था इष्ट मानकर राग करता है वैसे ही अनिनष्ट मानकर दे्वष करता है, परन्तु सम्यग्ज्ञानी परद्रव्यमें इष्ट–अनिनष्टकी कल्पना ही नहीं करता है तब राग–दे्वष कैसे हों ? चारिरत्रमोहके उदयवश होनेस े कुछ धम%राग होता ह ै उसको भी राग ानता ह ै भ>ा नहीं समझता है तब अन्यसे कैसे राग हो ? परद्रव्यसे राग–दे्वष करता है वह तो अज्ञानी है, ऐसे ानना ।।54।।

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आगे कहते हैं निक ैसे परद्रव्यमें रागभाव होता है वैसे मोक्षके निनमिमत्त भी राग हो तो वह राग भी आस्रवका कारण है, उसे भी ज्ञानी नहीं करता है :—

आसवहेदू र्य तहा भावं मोक्खस्स कारणं हवदिद ।सो तेण दु अण्णाणी आदसहावा दु विववरीदु ।।55।।आस्रवहेतुश्च तर्था भावः मोक्षस्र्य कारणं भववित ।सः तेन त ुअज्ञानी आत्मस्वभावाAु विवपरीतः ।।55।।

आसरवहेतु भाव ते शिशवहेतु छे तेना मते,तेर्थी ज ते छे अज्ञ, आत्मस्वभावर्थी विवपरीत छे. 55.

अथ% :— ैसे परद्रव्यमें रागको कम%बंधका कारण पनिह>े कहा वैसे ही रागभाव यदिद मोक्षके निनमिमत्त भी हो तो आस्रवका ही कारण है, कम%का बंध ही करता है, इस कारणसे ो मोक्षको परद्रव्यकी तरह इष्ट मानकर वैसे ही रागभाव करता है तो वह ीव मुनिन भी अज्ञानी है क्योंनिक वह आत्म-वभावसे निवपरीत है, उसने आत्म-वभावको नहीं ाना है ।

भावाथ% :—मोक्ष तो सब कम�से रनिहत अपना ही -वभाव है; अपनेको सब कम�से रनिहत होना है इसशि>ये यह भी रागभाव ज्ञानीके नहीं होता है, यदिद चारिरत्र—मोहका उदयरूप राग हो तो उस रागको भी बंधका कारण ानकर रोगके समान छोड़ना चाहे तो वह ज्ञानी है ही, और इस रागभावको भ>ा समझकर प्राप्त करता है तो अज्ञानी है । आत्माका -वभाव सब रागादिदकोंसे रनिहत है उसको इसने नहीं ाना, इसप्रकार रागभावको मोक्षका कारण और अच्छा समझकर करते हैं उसका निनषेध है ।।55।।

आगे कहते ह ैं निक ो कम%मात्रसे ही शिसजिद्ध मानता ह ै उसने आत्म-वभावको नहीं ाना है वह अज्ञानी है, जि नमतसे प्रनितकू> है :–

जो कम्मजादमइओ सहावणाणस्स खं)दूसर्यरो ।सो तेण दु अण्णाणी जिजणसासणदूसगो भशिणदो ।।56।।र्यः कम�जातमवितकः स्वभावज्ञानस्र्य खं)दूषणकरः ।सः तेन त ुअज्ञानी जिजनशासनदूषकः भशिणतः ।।56।।

कम�जमवितक जे खं)दूषणकर स्वभाविवकज्ञानमां,ते जीवने अज्ञानी, जिजनशासन तणा दूषक कह्या. 56.

अथ% :—जि सकी बुजिद्ध कम%हीमें उत्पन्न होती है ऐसा पुरुष -वभावज्ञान ो केव>ज्ञान उसको kंOरूप दूषण करनेवा>ा है, इजिन्द्रयज्ञान kंOkंOरूप है, अपने—अपने निवषयको

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ानता है, ो ीव इतना मात्रही ज्ञानको मानता है इस कारणसे ऐसा माननेवा>ा ??? है जि नमतको दूषण करता । (अपनेमें महादोष उत्पन्न करता है ।)

भावाथ% :—मीमांसक मतवा>ा कम%वादी है, सव%ज्ञको नहीं मानता है, इजिन्द्रय—ज्ञानमात्रही ज्ञानको मानता है, केव>ज्ञानको नहीं मानता है, इसका यहा ँ निनषेध निकया है, क्योंनिक जि नमतमें आत्माका -वभाव सबको ाननेवा>ा केव>ज्ञान-वरूप कहा है । परन्तु वह कम%के निनमिमत्तसे आच्छादिदत होकर इजिन्द्रयोंके द्वारा क्षयोपशमके निनमिमत्तसे kंOरूप हुआ, kंO—kंO निवषयोंको ानता है; (निन ब>द्वारा) कम�का नाश होने पर केव>ज्ञान प्रगट होता है तब आत्मा सव%ज्ञ होता है, इसप्रकार मीमांसक मतवा>ा नहीं मानता है अतः वह अज्ञानी है, जि नमतसे प्रनितकू> है, कम%मात्रमेंही उसकी बुजिद्ध गत हो रही है ऐसे कोई और भी मानते हैं वह ऐसा ही ानना ।।56।।

आगे कहते हैं निक ो ज्ञान—चारिरत्र रनिहत हो और तप–सम्यक्त्व रनिहत हो तथा अन्य भी निक्रया भावपूव%क न हो तो इसप्रकार केव> लि>ंग–भेषमात्रहीसे क्या सुk है ? अथा%त् कुछ भी नहीं है :—

णाणं चरिरAहीणं दंसणहीणं तवेहिहं संजुAं ।अण्णेसु भावरविहर्यं लिलंगग्गहणेण हिकं सोक्खं ।।57।।ज्ञान ंचारिरत्रहीनं दश�नहीन ंतपोशिभः संर्यु}म् ।अन्र्येषु भावरविहतं लिलंगग्रहणेन हिकं सौख्र्यम् ।।57।।

ज्र्यां ज्ञान चरिरतविवहीन छे, तपर्यु} पण दृगहीन छे,वळी अन्र्य कार्यN भावहीन, ते लिलंगर्थी सुख शुं अरे ? 57.

अथ% :— हा ँ ज्ञान तो चारिरत्र रनिहत है, तपयुक्त भी है, परन्त ु वह दश%न अथा%त् सम्यक्त्वसे रनिहत है, अन्य भी आवश्यक आदिद निक्रयायें हैं परन्तु उनमें भी शुद्धभाव नहीं है, इसप्रकार लि>ंग—भेष ग्रहण करनेमें क्या सुk है ?

भावाथ% :—कोई मुनिन भेषमात्रसे तो मुनिन हुआ और शा-त्र भी पढ़ता है; उसको कहते हैं निक—शा-त्र पढ़कर ज्ञान तो निकया परन्तु निनश्चयचारिरत्र ो शुद्ध आत्माका अनुभवरूप तथा बाह्य चारिरत्र निनद}ष नहीं निकया, तपका क्>ेश बहुत निकया, सम्यक्त्व भावना नहीं हुई और आवश्यक आदिद बाह्य निक्रया की, परन्तु भाव शुद्ध नहीं >गावे तो ऐसे बाह्य भेषमात्रसे तो क्>ेश ही हुआ, कुछ शांतभावरूप सुk तो हुआ नहीं और यह भेष पर>ोकके सुkमें भी कारण नहीं हुआ; इसशि>ये सम्यक्त्वपूव%क भेष (–जि न–लि>ंग) धारण करना श्रेष्ठ है ।।57।।

आगे सांख्यमती आदिदके आशयका निनषेध करते हैं :—

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अचे्चर्यणं विप चेदा जो मण्णइ सो हवेइ अण्णाणी ।सो पुण णाणी भशिणओ जो मण्णइ चेर्यणे चेदा ।।58।।अचेतनेविप चेतन ंर्यः मन्र्यत ेसः भववित अज्ञानी ।सः पुनः ज्ञानी भशिणतः र्यः मन्र्यते चेतने चेतनम् ।।58।।

छे अज्ञ, जेह अचेतने चेतक तणी श्रद्धा धरे;जे चेतने चेतक तणी श्रद्धा धरे, ते ज्ञानी छे. 58.

अथ% :— ो अचेतन में चेतनको मानता है वह अज्ञानी है और ो चेतनमें ही चेतनको मानता है उसे ज्ञानी कहा है ।

भावाथ% :—सांख्यमती ऐसे कहता ह ै निक पुरुष तो उदासीन चेतना-वरूप निनत्य है और यह ज्ञान है वह प्रधानका धम% है, इनके मतमें पुरुषको उदासीन चेतना-वरूप माना है अतः ज्ञान निबना तो वह ड़ ही हुआ, ज्ञान निबना चेतन कैसे ? ज्ञानको प्रधानका धम% माना है और प्रधानको ड़ माना तब अचेतनमें चेतना मानी तब अज्ञानी ही हुआ ।

नैयामियक, वैशेनिषक मतवा>े गुण—गुणीके सव%था भेद मानते हैं, तब उन्होंने चेतना गुणको ीवसे भिभन्न माना तब ीव तो अचेतन ही रहा । इसप्रकार अचेतनमें चेतनापना माना । भूतवादी चावा%क—भूत पृथ्वी आदिदकसे चेतनाकी उत्पभित्त मानता है, भूत तो ड़ है उसमें चेतना कैसे उप े ? इत्यादिदक अन्य भी कई मानते हैं वे सब अज्ञानी हैं इसशि>ये चेतनमें ही चेतन माने वह ज्ञानी है, यह जि नमत है ।।58।।

आगे कहते हैं निक तप रनिहत ज्ञान और ज्ञान रनिहत तप ये दोनों ही अकाय% हैं दोनोंके संयुक्त होने पर ही निनवा%ण है :—

तवरविहर्यं जं णाणं णाणविवजुAो तवो विव अकर्यyो ।तम्हा णाणतवेणं संजुAो लहइ शिणव्वाणं ।।59।।तपोरविहत ंर्यत ्ज्ञान ंज्ञानविवर्यु}ं तपः अविप अकृतार्थ�म् ।तस्मात ्ज्ञानतपसा संर्यु}ः लभते विनवा�णम् ।।59।।

तपर्थी रविहत जे ज्ञान, ज्ञानविवहीन तप अकृतार्थ� छे,ते कारणे जीव ज्ञानतपसंरु्य} शिशवपदने लहे. 59.

अथ% :— ो ज्ञान तपरनिहत है और ो तप है वह भी ज्ञानरनिहत है तो दोनों ही अकाय% हैं, इसशि>ये ज्ञान—तप संयक्त होने पर ही निनवा%णको प्राप्त करता है ।

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भावाथ% :—अन्यमती सांख्यादिदक ज्ञानचचा% तो बहुत करते ह ैं और कहते ह ैं निक—ज्ञानसे ही मुशिक्त है और तप नहीं करते हैं, निवषय—कषायोंको प्रधानका धम% मानकर -वच्छन्द प्रवत%ते हैं । कई ज्ञानको निनष्फ> मानकर उसको यथाथ% ानते नहीं हैं और तप–क्>ेशादिदकसे ही शिसजिद्ध मानकर उसके करनेमें तत्पर रहते हैं । आचाय% कहते हैं निक ये दोनों ही अज्ञानी हैं, ो ज्ञानसनिहत तप करते ह ैं व े ज्ञानी ह ैं व े ही मोक्षको प्राप्त करते हैं, यह अनेकान्त-वरूप जि नमतका उपदेश है ।।59।।

आगे इसी अथ%को उदाहरणसे दृढ़ करते हैं :—धुवचिसद्धी वितyर्यरो चउणाणजुदो करेइ तवर्यरणं ।णाऊण धुव ंकुज्जा तवर्यरणं णाणजुAो विव ।।60।।ध्रुवचिसशिद्धस्तीर्थmकरः चतजु्ञा�नर्युतः करोवित तपश्चरणम् ।ज्ञात्वा ध्रुवं कुर्या�त ्तपश्चरणं ज्ञानर्यु}ः अविप ।।60।।

ध्रुवचिसशिद्ध श्री तीर्थtश ज्ञानचतुष्कर्युत तपने करे,ए जाणी विनशिश्चत ज्ञानरु्यत जीवेर्य तप कत�व्य छे. 60.

अथ% :—आचाय% कहते हैं—निक देkो......जि सको निनयमसे मोक्ष होना है.....और ो चार ज्ञान—मनित, श्रुत, अवमिध और मनःपय%य इनसे युक्त है ऐसा तीथ�कर भी तपश्चरण करता है, इसप्रकार निनश्चयसे ानकर ज्ञानयुक्त होन े पर भी तप करना योग्य ह ै । (तप–मुनिनत्व, सम्यग्दश%न–ज्ञान–चारिरत्रकी एकताको तप कहा है ।)

भावाथ% :—तीथ�कर मनित–श्रुत–अवमिध इन तीन ज्ञान सनिहत तो न्म >ेत े ह ैं और दीक्षा >ेते ही मनःपय%य ज्ञान उत्पन्न हो ाता है, मोक्ष उनको निनयमसे होना है तो भी तप करते हैं, इसशि>ये ऐसा ानकर ज्ञान होते हुए भी तप करनेमें तत्पर होना, ज्ञानमात्रहीसे मुशिक्त नहीं मानना ।।60।।

आगे ो बाह्यलि>ंग सनिहत है और अभ्यंतरलि>ंग रनिहत है वह -वरूपाचरण चारिरत्रसे भ्रष्ट हुआ मोक्षमाग%का निवनाश करनेवा>ा है, इसप्रकार सामान्यरूपसे कहते हैं :—

बाविहरलिलंगेण जुदो अब्भंतरलिलंगरविहर्यपरिरर्यम्मो ।सो सगचरिरAभट्टो मोक्खपहविवणासगो साहू ।।61।।बाह्यलिलंगेन र्युतः अभ्र्यंतरलिलंगरविहतपरिरकम्मा� ।सः स्वकचारिरत्रभ्रष्टः मोक्षपर्थविवनाशकः साधुः ।।61।।

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जे बाह्यलिलंग रु्य}, आंतरलिलंगरविहत विक्रर्या करे,ते स्वकचरिरतर्थी भ्रष्ट, शिशवमारगविवनाशक श्रमण छे. 61.

अथ% :— ो ीव बाह्य लि>ंग–भेष सनिहत ह ै और अभ्यंतर लि>ंग ो परद्रव्योंसे सव%रागादिदक ममत्वभाव रनिहत ऐसे आत्मानुभवसे रनिहत है तो वह -वक–चारिरत्र अथा%त् अपने आत्म-वरूपके आचरण—चारिरत्रस े भ्रष्ट है, परिरकम% अथा%त ् बाह्यम ें नग्नता, ब्रह्मचया%दिद शरीरसं-कारसे परिरवत%नवान द्रव्यलि>ंगी होने पर भी वह -व–चारिरत्रसे भ्रष्ट होनेसे मोक्षमाग%का निवनाश करनेवा>ा ह ै ।।61।। (अतः मुनिन–साधुको शुद्धभावको ानकर निन शुद्ध बुद्ध एक-वभावी आत्मतत्त्वमें निनत्य भावना (–एकाग्रता) करनी चानिहये ।) (श्रुतसागरी टीकासे)

भावाथ% :—यह संक्षेपसे कहा ानो निक ो बाह्यलि>ंग संयुक्त है और अभ्यंतर अथा%त् भावलि>ंग रनिहत ह ै वह -वरूपाचरण चारिरत्रसे भ्रष्ट हुआ मोक्षमाग%का नाश करनेवा>ा ह ै ।।61।।

आगे कहत े ह ैं निक— ो सुkसे भानिवत ज्ञान ह ै वह दुःk आने पर नष्ट होता है, इसशि>ये तपश्चरणसनिहत ज्ञानको भाना :—

सुहेण भाविवदं णाणं दुहे जादे विवणस्सदिद ।तम्हा जहाबलं जोई अ=पा दुक्खेविह भावए ।।62।।सुखेन भाविवतं ज्ञान ंदुःखे जाते विवनश्र्यवित ।तस्मात ्र्यर्थाबल र्योगी आत्मानं दुःखैः भावर्येत ्।।62।।

सुखसंग भाविवत ज्ञान तो दुखकालमां लर्य र्थार्य छे,तेर्थी र्यर्थाबळ दुःख सह भावो श्रमण विनज आत्मने. 62.

अथ% :—सुkसे भाया हुआ ज्ञान है वह उपसग%—परिरषहादिदके द्वारा दुःk उत्पन्न होते ही नष्ट हो ाता है, इसशि>ये यह उपदेश है, निक ो योगी ध्यानी मुनिन है वह तपश्चरणादिदके कष्ट (दुःk) सनिहत आत्माको भावे । (अथा%त् बाह्यमें रा भी अनुकू>–प्रनितकू> न मानकर निन आत्मामें ही एकाग्रतारूपी भावना करे जि ससे आत्मशशिक्त और आस्त्रित्मक आनंदका प्रचुर संवेदन बढ़ता ही है ।)

भावाथ% :—तपश्चरणका कष्ट अंगीकार करके ज्ञानको भाव े तो परीषह आन े पर ज्ञानभावनासे शिचगे नहीं इसशि>ये शशिक्तके अनुसार दुःkसनिहत ज्ञानको भाना, सुkहीमें भावे तो दुःk आने पर व्याकु> हो ावे तब ज्ञानभावना न रहे, इसशि>ये यह उपदेश है ।।62।।

आगे कहते हैं निक आहार, आसन, निनद्रा इनको ीतकर आत्माका ध्यान करना :—

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आहारासणशिण�ाजर्यं च काऊण जिजणवरमएण ।झार्यव्वो शिणर्यअ=पा णाऊणं गुरुपसाएण ।।63।।आहारासनविनद्राजर्यं च कृत्वा जिजनवरमतेन ।ध्र्यातव्यः विनजात्मा ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन ।।63।।

आसन–अशन–विनद्रा तणो करी विवजर्य, जिजनवरमाग�र्थी,ध्र्यातव्य छे विनज आतमा, जाणी श्रीगुरुपरसादर्थी. 63.

अथ% :—आहार, आसन, निनद्रा इनको ीतकर और जि नवरके मतसे तथा गुरुके प्रसादसे ानकर निन आत्माका ध्यान करना ।

भावाथ% :—आहार, आसन, निनद्राको ीतकर आत्माका ध्यान करना तो अन्य मतवा>े भी कहते हैं परन्तु उनके यथाथ% निवधान नहीं है, इसशि>ये आचाय% कहते हैं निक ैसे जि नमतम ें कहा ह ै उस निवधानको गुरुके प्रसादस े ानकर ध्यान करना सफ> ह ै । ैसे ैनशिसद्धांतम ें आत्माका -वरूप तथा ध्यानका -वरूप और आहार, आसन, निनद्रा इनके ीतनेका निवधान कहा है वैसे ानकर इनमें प्रवत%ना ।।63।।

आगे आत्माका ध्यान करना वह आत्मा कैसा है, यह कहते हैं :—अ=पा चरिरAवंतो दंसणणाणेण संजुदो अ=पा ।सो झार्यव्वो शिणच्चं णाऊणं गुरुपसाएण ।।64।।आत्मा चारिरत्रवान् दश�नज्ञानेन संर्युतः आत्मा ।सः ध्र्यातव्यः विनत्र्यं ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन ।।64।।

छे आतमा संरु्य} दश�न—ज्ञानर्थी, चारिरत्रर्थी,विनत्रे्य अहो ! ध्र्यातव्य ते, जाणी श्रीगुरुपरसादर्थी 64.

अथ% :—आत्मा चारिरत्रवान् है और दश%न—ज्ञानसनिहत है, ऐसा आत्मा गुरुके प्रसादसे ानकर निनत्य ध्यान करना ।

भावाथ% :—आत्माका रूप दश%न—ज्ञान—चारिरत्रमयी है, इसका रूप ैनगुरुओंके प्रसादसे ाना ाता है । अन्यमतवा>े अपना बुजिद्धकण्डिल्पत ैसा—तैसा मानकर ध्यान करते हैं उनके यथाथ% शिसजिद्ध नहीं है, इसशि>ये ैनमतके अनुसार ध्यान करना ऐसा उपदेश है ।।64।।

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आगे कहते हैं निक आत्माका ानना, भाना और निवषयोंसे निवरक्त होना ये उत्तरोत्तर दु>%भ होनेसे दुःkसे (–दृढ़तर पुरुषाथ%से) प्राप्त होते हैं :—

दुक्खे णज्जइ अ=पा अ=पा णाऊण भावणा दुक्खं ।भाविवर्यसहावपुरिरसो विवसर्येसु विवरज्जए दुक्खं ।।65।।दुःखेन ज्ञार्यत ेआत्मा आत्मानं ज्ञात्वा भावना दुःखम् ।भाविवतस्वभावपुरुषः विवषर्येषु विवरज्र्यवित दुःखम् ।।65।।

जीव जाणवो दुष्कर प्रर्थम, पछी भावना दुष्कर अरे,भाविवतविनजात्मस्वभावने दुष्कर विवषर्यवैराग्र्य छे. 65.

अथ% :—प्रथम तो आत्माको ानते ह ैं वह दुःkसे ाना ाता है, निफर आत्माको ानकर भी भावना करना, निफर–निफर इसीका अनुभव करना दुःkसे (–उग्र पुरुषाथ%से) होता है, कदाशिचत् भावना भी निकसी प्रकार हो ाव े तो भायी ह ै जि नभावना जि सने ऐसा पुरुष निवषयोंसे निवरक्त बडे़ दुःkसे (—अपूव% पुरुषाथ%से) होता है ।

भावाथ% :—आत्माका ानना, भाना, निवषयोंस े निवरक्त होना उत्तरोत्तर यह योग मिम>ना बहुत दु>%भ है, इसशि>ये यह उपदेश है निक ऐसा सुयोग मिम>ने पर प्रमादी न होना ।।65।।

आगे कहते हैं निक ब तक निवषयोंमें यह मनुष्य प्रवत%ता है तब तक आत्मज्ञान नहीं होता है :—

ताम ण णज्जइ अ=पा विवसएसु णरो पवट्टए जाम ।विवसए विवरAचिचAो जोई जाणेइ अ=पाणं ।।66।।तावन्न ज्ञार्यत ेआत्मा विवषर्येषु नरः प्रवA�ते र्यावत् ।विवषर्ये विवर}चिचAः र्योगी जानावित आत्मानम्: ।।66।।

आत्मा जणार्य न, ज्र्यां लगी विवषर्ये प्रवत�न नर करे,विवषर्ये विवर}मनस्क र्योगी जाणता विनज आत्मने. 66.

अथ% :— ब तक यह मनुष्य इजिन्द्रयोंके निवषयोंमें प्रवत्त%ता है तब तक आत्माको नहीं ानता है, इसशि>य े योगी ध्यानी मुनिन ह ै वह निवषयोंस े निवरक्त शिचत्त होता हुआ आत्माको ानता है ।

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भावाथ% :— ीवके -वभावके उपयोगकी ऐसी -वच्छता है निक ो जि स ज्ञेय पदाथ%से उपयुक्त होता है वैसा ही हो ाता है, इसशि>ये आचाय% कहते हैं निक— ब तक निवषयोंमें शिचत्त रहता है, तब तक उनरूप रहता है, आत्माका अनुभव नहीं होता है, इसशि>ये योगी मुनिन इस प्रकार निवचारकर निवषयोंसे निवरक्त हो आत्मामें उपयोग >गावे तब आत्माको ाने, अनुभव करे, इसशि>ये निवषयोंसे निवरक्त होना यह उपदेश है ।।66।।

आगे इस ही अथ%को दृढ़ करते हैं निक आत्माको ानकर भी भावना निबना संसारमें ही रहना है :—

अ=पा जाऊण णरा केई सब्भावभावपब्भट्ठा ।हिहं)ंवित चाउरंगं विवसएसु विवमोविहर्या मूढा ।।67।।आत्मानं ज्ञात्वा नराः केचिचत ्सद्भावभावप्रभ्रष्टाः ।विहण्)न्त ेचातुरंगं विवषर्येषु विवमोविहताः मूढा ।।67।।

नर कोई, आतम जाणी, आतमभावनाप्रच्र्युतपणे,चतुरंग संसारे भमे विवषर्ये विवमोविहत मूढ ए. 67.

अथ% :—कई मनुष्य आत्माको ानकर भी अपने -वभावकी भावनासे अत्यंत भ्रष्ट हुए निवषयोंसे मोनिहत होकर अज्ञानी मूk% चार गनितरूप संसारमें भ्रमण करते हैं ।

भावाथ% :—पनिह>े कहा था निक आत्माको ानना, भाना, निवषयोंसे निवरक्त होना ये उत्तरोत्तर दु>%भ पाये ात े हैं, निवषयोंमें >गा हुआ प्रथम तो आत्माको ानता नहीं है ऐसे कहा, अब यहा ँ इसप्रकार कहा निक आत्माको ानकर भी निवषयोंके वशीभूत हुआ भावना नहीं करे तो संसारहीमें भ्रमण करता है, इसशि>ये आत्माको ानकर निवषयोंसे निवरक्त होना यह उपदेश है ।।67।।

आगे कहते हैं निक ो निवषयोंसे निवरक्त होकर आत्माको ानकर भाते हैं वे संसारको छोड़ते हैं :—

जे पुण विवसर्यविवरAा अ=पा णाऊण भावणासविहर्या ।छं)ंवित चाउरंगं तवगुणजुAा ण संदेहो ।।68।।र्ये पुनः विवषर्यविवर}ाः आत्मानं ज्ञात्वा भावनासविहताः ।त्र्यजप्तिन्त चातुरंगं तपोगुणर्यु}ाः न संदेहः ।।68।।

पण विवषर्यमांही विवर}, आतम जाणी भावनरु्य} जे,

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विनःशंक ते तपगुणसविहत छो)े चतुग�वित भ्रमणने. 68.अथ% :—निफर ो पुरुष मुनिन निवषयोंसे निवरक्त हो आत्माको ानकर भाते हैं, बारंबार

भावना द्वारा अनुभव करते हैं वे तप अथा%त् बारह प्रकार तप और मू>गुण उत्तरगुणोंसे युक्त होकर संसारको छोड़ते हैं, मोक्ष पाते हैं ।

भावाथ% :–निवषयोंस े निवरक्त हो आत्माको ानकर भावना करना, इसस े संसारसे छूटकर मोक्ष प्राप्त करो, यह उपदेश है ।।68।।

आगे कहते हैं निक यदिद परद्रव्यमें >ेशमात्र भी राग हो तो वह पुरुष अज्ञानी है, अपना -वरूप उसने नहीं ानाः—

परमाणुपमाणं वा परदव्वे रदिद हवेदिद मोहादो ।सो मूढो अण्णाणी आदसहावस्स विववरीओ ।।69।।परमाणुप्रमाणं वा परद्रव्ये रवितभ�ववित मोहात् ।सः मूढः अज्ञानी आत्मस्वभावात् विवपरीतः ।।69।।

परद्रव्यमां अणुमात्र पण रवित होर्य जेने मोहर्थी,ते मूढ छे, अज्ञानी छे, विवपरीत आत्मस्वभावर्थी. 69.

अथ% :—जि स पुरुषके परद्रव्यमें परमाणु प्रमाण भी >ेशमात्र मोहसे रनित अथा%त् राग–पीनित हो तो वह पुरुष मूढ है, अज्ञानी है, आत्म-वभावसे निवपरीत है ।

भावाथ% :—भेदनिवज्ञान होनेके बाद ीव–अ ीवको भिभन्न ाने तब परद्रव्यको अपना न ाने तब उससे (कत%व्यबुजिद्ध—-वामिमत्वकी भावनासे) राग भी नहीं होता है, यदिद (ऐसा) हो तो ानो निक इसने -व—परका भेद नहीं ाना है, अज्ञानी है, आत्म-वभावसे प्रनितकु> है; और ज्ञानी होनेके बाद चारिरत्रमोहका उदय रहता ह ै तब तक कुछ राग रहता ह ै उसको कम% न्य अपराध मानता है, उस रागसे राग नहीं है इसशि>य े निवरक्त ही है, अतः ज्ञानी परद्रव्यमें रागी नहीं कह>ाता है, इसप्रकार ानना ।।69।।

आगे इस अथ%को संक्षेपसे कहते हैं :—अ=पा झार्यंताणं दंसणसुद्धीण दिदढचरिरAाणं ।होदिद धु्रव ंशिणव्वाणं विवसएसु विवरAचिचAाणं ।।70।।आत्मानं ध्र्यार्यतां दश�नशुद्धीनां दृढचारिरत्राणाम् ।भववित ध्रुवं विनवा�णं विवषर्येषु विवर}चिचAानाम् ।।70।।

जे आत्मने ध्र्यावे, सुदश�नशुद्ध, दृढ़चारिरत्र छे,

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विवषर्ये विवर}मनस्क ते शिशवपद लहे विनशिश्चतपणे. 70.अथ% :—पूव}क्त प्रकार जि नका शिचत्त निवषयोंसे निवरक्त है, ो आत्माका ध्यान करते

रहते हैं, जि नके बाह्य–अभ्यंतर दश%नकी शुद्धता है और जि नके दृढ़ चारिरत्र है, उनको निनश्चयसे निनवा%ण होता है ।

भावाथ% :—पनिह>े कहा था निक ो निवषयोंसे निवरक्त हो आत्माका -वरूप ानकर आत्माकी भावना करते हैं वे संसारसे छूटते हैं । इस ही अथ%को संक्षेपसे कहा है निक— ो इजिन्द्रयोंके निवषयोंसे निवरक्त होकर बाह्य–अभ्यंतर दश%नकी शुद्धतासे दृढ़ चारिरत्र पा>ते हैं उनको निनयमस े निनवा%णकी प्रान्तिप्त होती है, इजिन्द्रयोंके निवषयोंम ें आसशिक्त सब अनथ�का मू> है, इसशि>ये इनसे निवरक्त होने पर उपयोग आत्मामें >गे तब काय%शिसजिद्ध होती है ।।70।।

आगे कहते ह ैं निक ो परद्रव्यमें राग ह ै वह संसारका कारण है, इसशि>ये योगीश्वर आत्मामें भावना करते हैं :—

जेण रागो परे दव्व ेसंसारस्स विह कारणं ।तेणाविव जोइणो शिणच्चं कुज्जा अ=पे सभावणं ।।71।।र्येन रागः परे द्रवे्य संसारस्र्य विह कारणम् ।तेनाविप र्योगी विनत्र्यं कुर्या�त ्आत्मविन स्वभावनाम् ।।71।।

परद्रव्य प्रत्र्ये राग तो संसारकारण छे खरे,तेर्थी श्रमण विनत्रे्य करो विनजभावना स्वात्मा विवषे. 71.

अथ% :—जि स कारणसे परद्रव्यमें राग है वह संसारहीका कारण है, उस कारणहीसे योगीश्वर मुनिन निनत्य आत्माहीमें भावना करते हैं ।

भावाथ% :—कोई ऐसी आशंका करते हैं निक—परद्रव्यमें राग करनेसे क्या होता ह ै ? परद्रव्य है वह पर है ही, अपने राग जि स का> हुआ उस का> है, पीछे मिमट ाता है, उसको उपदेश दिदया है निक—परद्रव्यसे राग करने पर परद्रव्य अपने साथ >गता है, यह प्रशिसद्ध है, और अपनेरागका सं-कार दृढ़ होता है तब पर>ोक तक भी च>ा ाता है यह तो युशिक्तशिसद्ध है और जि नागममें रागसे कम%का बंध कहा है, इसका उदय अन्य न्मका कारण है, इस प्रकार परद्रव्यमें रागसे संसार होता है, इसशि>ये योगीश्वर मुनिन परद्रव्यसे राग छोड़कर आत्मामें निनरंतर भावना रkते हैं ।।71।।

आगे कहते हैं निक ऐसे रागभावसे चारिरत्र होता है :—णिणंदाए र्य पसंसाए दुक्खे र्य सुहएसु र्य ।

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सAूणं चेव बंधूणं चारिरAं समभावदो ।।72।।हिनंदार्यां च प्रशंसार्यां दुःखे च सुखेषु च ।शतू्रणां चैव बंधूनां चारिरतं्र समभावतः ।।72।।

हिनंदा प्रशंसाने विवषे, दुःखो तर्था सौख्र्यो विवषे,शतु्र तर्था मिमत्रो विवषे समतार्थी चारिरत होर्य छे. 72.

अथ% :—निनन्दा–प्रशंसामें, दुःk–सुkम ें और शतु्र–बनु्ध–मिमत्रम ें समभाव ो समतापरिरणाम, रागदे्वषसे रनिहतपना, ऐसे भावसे चारिरत्र होता है ।

भावाथ% :—चारिरत्रका -वरूप यह कहा है निक ो आत्माका -वभाव है वह कम%के निनमिमत्तस े ज्ञानम ें परद्रव्यस े इष्ट अनिनष्ट–बुजिद्ध होती है, इस इष्ट–अनिनष्ट बुजिद्धके अभावसे ज्ञानहीमें उपयोग >गा रहे उसको शुद्धोपयोग कहते हैं, वही चारिरत्र है, यह होता है वहाँ हिनंद्रा–प्रशंसा, दुःk–सुk, शतु्र–मिमत्रम ें समान बुजिद्ध होती है, हिनंदा—प्रशंसाका निद्वधाभाव मोहकम%का उदय न्य है, इसका अभाव ही शुद्धोपयोगरूप चारिरत्र है ।।72।।

आगे कहते हैं निक कई मूk% ऐसे कहते हैं ो अभी पंचमका> है सो आत्मध्यानका का> नहीं है, उसका निनषेध करते हैं :—

चरिरर्यावरिरर्या वदसमिमदिदवस्थिज्जर्या सुद्धभावपब्भट्ठा ।केई जंपंवित णरा ण हु कालो झाणजोर्यस्स ।।73।।चर्या�वृताः व्रतसमिमवितवर्जिजतंाः शुद्धभावप्रभ्रष्टाः ।केचिचत ्जल्पंवित नराः न सु्फटं कालः ध्र्यानर्योगस्र्य ।।73।।

आवृतचरण, व्रतसमिमवितवर्जिजंत, शुद्धभावविवहीन जे,ते कोई नर जल्पे अरे !—‘नविह ध्र्याननो आ काल छे.’ 73.

अथ% :—कई मनुष्य ऐसे हैं जि नके चया% अथा%त् आचारनिक्रया आवृत है, चारिरत्रमोहका उदय प्रब> ह ै इसस े चया% प्रकट नहीं होती है, इसीस े व्रतसमिमनितस े रनिहत ह ैं और मिमथ्या अभिभप्रायके कारण शुद्धभावसे अत्यंत भ्रष्ट हैं, वे ऐसे कहते हैं निक—अभी पंचमका> है, यह का> प्रकट ध्यान–योगका नहीं है ।।73।।

वे प्राणी कैसे हैं वह आगे कहते हैं :—सम्मAणाणरविहओ अभव्वजीवो हु मोक्खपरिरमुक्को ।

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संसारसुहे सुरदो ण हु कालो भणइ झाणस्स ।।74।।सम्र्यक्त्वज्ञानरविहतः अभव्यजीवः सु्फटं मोक्षपरिरमु}ः ।संसारसुखे सुरतः न सु्फटं कालः भणवित ध्र्यानस्र्य ।।74।।

सम्र्यक्त्वज्ञानविवहीन, शिशवपरिरमु} जीव अभव्य जे,ते सुरत भवसुखमां कहे—‘नविह ध्र्याननो आ काल छे.’ 74.

अथ% :—पूव}क्त ध्यानका अभाव कहनेवा>ा ीव सम्यक्त्व और ज्ञानसे रनिहत है, अभव्य है, इसीसे मोक्ष रनिहत है और संसारके इजिन्द्रय–सुkोंको भ>े ानकर उनमें रत है, आसक्त है, इसशि>ये कहते हैं निक अभी ध्यानका का> नहीं है ।

भावाथ% :—जि सको इजिन्द्रयोंके सुk ही निप्रय >गत े ह ैं और ीवा ीव पदाथ%के श्रद्धानज्ञानसे रनिहत है, वह इस प्रकार कहता है निक अभी ध्यानका का> नहीं है । इससे ज्ञात होता है निक इस प्रकार कहनेवा>ा अभव्य है इसको मोक्ष नहीं होगा ।।74।।

ो ऐसा मानता है—कहता है निक अभी ध्यानका का> नहीं, तो उसने पाँच महाव्रत, पाँच समिमनित, तीन गुन्तिप्तका -वरूप भी नहीं ानाः—

पंचसु महव्वदेसु र्य पंचसु समिमदीसु तीसु गAुीसु ।जो मूढो अण्णाणी ण हु कालो भणइ झाणस्स ।।75।।पंचसु महाव्रतेषु च पंचसु समिमवितषु वितसृषु गुप्ति=तसु ।र्यः मूढः अज्ञानी न सु्फटं कालः भशिणवित ध्र्यानस्र्य ।।75।।

त्रण गुप्ति=त, पंच समिमवित, पंच महाव्रते जे मूढ छे,ते मूढ अज्ञ कहे अरे !—‘नहिहं ध्र्याननो आ काळ छे.’ 75.

अथ% :— ो पांच महाव्रत, पांच समिमनित, तीन गुन्तिप्त इनमें मूढ है, अज्ञानी है अथा%त् इनका -वरूप नहीं ानता है और चारिरत्रमोहके तीव्र उदर्यसे इनको पा> नहीं सकता है, वह इसप्रकार कहता है निक अभी ध्यानका का> नहीं है ।।75।।

आगे कहते हैं निक अभी इस पंचमका>में धम%ध्यान होता है, यह नहीं मानता है वह अज्ञानी है :—

भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स ।

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तं अ=पसहावदिठदे ण हु मण्णइ सो विव अण्णाणी ।।76।।भरते दुःषमकाले धम�ध्र्यान ंभववित साधोः ।तदात्मस्वभावस्थिस्थत ेन विह मन्र्यते सो)विप अज्ञानी ।।76।।

भरते दुषमकाळेर्य धम�ध्र्यान मुविनने होर्य छे,ते होर्य छे आत्मस्थने; माने न ते अज्ञानी छे. 76.

अथ% :—इस भरतक्षेत्रमें दुःषमका>–पंचमका>में साधु मुनिनके धम%ध्यान होता है यह धम%ध्यान आत्म-वभावमें ण्डिस्थत है उस मुनिनके होता है, ो यह नहीं मानता है वह अज्ञानी है उसको धम%ध्यानके -वरूपका ज्ञान नहीं है ।

भावाथ% :—जि नसूत्रम ें इस भरतक्षेत्र पंचमका>म ें आत्मभावनाम ें ण्डिस्थत मुनिनके धम%ध्यान कहा है, ो यह नहीं मानता है वह अज्ञानी है, उसको धम%ध्यानके -वरूपका ज्ञान नहीं है ।।76।।

आगे कहते हैं निक ो इस का>में भी रत्नत्रयका धारक मुनिन होता है वह -वग%>ोकमें >ोकान्तिन्तकपद, इन्द्रपद प्राप्त करके वहाँसे चयकर मोक्ष ाता है, इसप्रकार जि नसूत्रमें कहा है :–

अज्ज विव वितरर्यणसुद्धा अ=पा झाएविव लहहिहं इंदAं ।लोर्यंवितर्यदेवAं तy चुआ शिणव्वुदिदं जंवित ।।77।।अद्य अविप वित्ररत्नशुद्धा आत्मानं ध्र्यात्वा लभंते इन्द्रत्वम् ।लौकाप्तिन्तकदेवत्वं ततः च्र्युत्वा विनवृ�हितं र्यांवित ।।77।।

आजेर्य विवमलवित्ररत्न, विनजने ध्र्याई, इन्द्रपणुं लहे,वा देव लौकांवितक बने, त्र्यांर्थी च्र्यवी चिसशिद्ध वरे. 77.

अथ% :—अभी इस पंचमका>में भी ो मुनिन सम्यग्दश%न–ज्ञान–चारिरत्रकी शुद्धता युक्त होते हैं वे आत्माका ध्यान कर इन्द्रपद अथवा >ोकान्तिन्तक देवपदको प्राप्त करते हैं और वहाँसे चयकर निनवा%णको प्राप्त होते हैं ।

भावाथ% :—कोई कहते हैं निक अभी इस पंचमका>में जि नसूत्रमें मोक्ष होना कहा नहीं इसशि>ये ध्यान करना तो निनष्फ> kेद है, उसको कहते हैं निक हे भाई ! मोक्ष ानेका निनषेध निकया ह ै और शुक्>ध्यानका निनषेध निकया ह ै परन्त ु धम%ध्यानका निनषेध तो निकया नहीं । अभी भी ो मुनिन रत्नत्रयसे शुद्ध होकर धम%ध्यानमें >ीन होते हुए आत्माका ध्यान करते हैं, वे मुनिन -वग%में इन्द्रपदको प्राप्त होते हैं अथवा >ोकान्तिन्तक देव एक भवावतारी हैं, उनमें

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ाकर उत्पन्न होत े ह ैं । वहाँस े चयकर मनुष्य हो मोक्षपदको प्राप्त करत े ह ैं । इसप्रकार धम%ध्यानसे परंपरा मोक्ष होता ह ै तब सव%था निनषेध क्यों करते हो ? ो निनषेध करते ह ैं वे अज्ञानी मिमथ्यादृमिष्ट हैं, उनको निवषय–कषायोंमें -वचं्छद रहना है इसशि>ये इसप्रकार कहते हैं ।।77।।

आगे कहते ह ैं निक ो इस का>में ध्यानका अभाव मानते ह ैं और मुनिनलि>ंग पनिह>े ग्रहण कर शि>या, अब उसको गौण करके पापमें प्रवृभित्त करते हैं वे मोक्षमाग%से च्युत हैं :—

जे पावमोविहर्यमई लिलंग घेAूण जिजणवरिरंदाणं ।पावं कुणंवित पावा ते चAा मोक्खमग्गप्तिम्म ।।78।।र्ये पापमोविहतमतर्यः लिलंगं गृहीत्वा जिजनवरेन्द्राणाम् ।पापं कुव�प्तिन्त पापाः त ेत्र्यक्त्वा मोक्षमागt ।।78।।

जे पापमोविहतबुशिद्धओ ग्रही जिजनवरोना लिलंगने,पापो करे छे, पापीओ ते मोक्षमागt त्र्य} छे. 78.

अथ% :—जि नकी बुजिद्ध पापकम%स े मोनिहत ह ै व े जि नवरेन्द्र तीथ�करका लि>ंग ग्रहण करके भी पाप करते हैं, वे पापी मोक्षमाग%से च्युत हैं ।

भावाथ% :—जि न्होंने पनिह>े निनग्र�थ लि>ंग धारण कर शि>या और पीछे ऐसी पापबुजिद्ध उत्पन्न हो गई निक—अभी ध्यानका का> तो नहीं इसशि>ये क्यों प्रयास करें ? ऐसा निवचारकर पापमें प्रवृभित्त करने >ग ाते हैं वे पापी हैं, उनको मोक्षमाग% नहीं है ।।72।।

(*इस का>में धम%ध्यान निकसीको नहीं होता निकन्तु भद्रध्यान (–व्रत, भशिक्त, दान, पू ादिदकके शुभभाव) होते हैं । इससे ही निन %रा और परम्परा मोक्ष माना है और इसप्रकार 7 वें गुणस्थान तक भद्रध्यान और पश्चात् ही धम%ध्यान माननेवा>ोंने ही श्री देवसेनाचाय% कृत ‘आराधनासार’ नाम देकर एक ा>ीग्रन्थ बनाया है, उसीका उत्तर केकड़ी निनवासी पं0 श्री मिम>ापचन्द ी कटारिरयाने ैन निनबंध रत्नमा>ा पृष्ठ 47 से 60 में दिदया है निक इस का>में धम%ध्यान गुणस्थान 4 स े 7 तक आगमम ें कहा ह ै । आधारः—सूत्र ीकी टीकाए—ँश्री रा वार्वितंक, श्लोकवार्वितंक, सवा%थ%शिसजिद्ध आदिद ।)

आगे कहते हैं निक ो मोक्षमाग%से च्युत हैं वे कैसे हैं :—जे पंचचेलसAा गंर्थग्गाही र्य जार्यणासीला ।आधाकम्मप्तिम्म रर्या ते चAा मोक्खमग्गप्तिम्म ।।79।।

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र्ये पंचचेलस}ाः गं्रर्थग्राविहणः र्याचनाशीलाः ।अधः कम�शिण रताः त ेत्र्य}ाः मोक्षमागt ।।79।।

जे पंचवस्त्रास}, परिरग्रहधारी, र्याचनशील छे,छे लीन आधाकम�मां, ते मोक्षमागt त्र्य} छे. 79.

अथ% :—पंच आदिद प्रकारके चे> अथा%त ् व-त्रोंम ें आसक्त हैं, अंO , कपा%स , वल्क>, चम% और रोम —इसप्रकार व-त्रोंमेंसे निकसी एक व-को ग्रहण करते हैं, ग्रन्थग्राही अथा%त् परिरग्रहके ग्रहण करनेवा>े हैं, याचनाशी> अथा%त् मांगनेका ही जि नका -वभाव है और अधःकम% अथा%त् पापकम%में रत हैं, सदोष आहार करते हैं वे मोक्षमाग%से च्युत हैं ।

भावाथ% :—यहाँ आशय ऐसा है निक पनिह>े तो निनग्र�थ दिदगम्बर मुनिन ही गये थे, पीछे का>दोषका निवचारकर चारिरत्रपा>नेम ें असमथ% हो निनग्र�थ लि>ंगस े भ्रष्ट होकर व-त्रादिदक अंगीकार कर शि>ये, परिरग्रह रkने >गे, याचना करने >गे, अधःकम% औदे्दशिशक आहार करने >गे उनका निनषेध है वे मोक्षमाग%से च्युत हैं । पनिह>े तो भद्रबाहु -वामी तक निनग्र�थ थे । पीछे दुर्णिभंक्षका>में भ्रष्ट होकर ो अद्ध%फा>क कह>ान े >ग े उनमेंस े शे्वताम्बर हुए, इन्होंन े इस भेषको पुष्ट करनेके शि>ये सूत्र बनाये, इनमें कई कण्डिल्पत आचरण तथा इनकी साधक कथायें शि>kीं । इनके शिसवाय अन्य भी कई भेष बद>े, इसप्रकार का>दोषसे भ्रष्ट >ोगोंका संप्रदाय च> रहा है यह मोक्षमाग% नहीं है, इसप्रकार बताया है । इसशि>ये इन भ्रष्ट >ोगोंको देkकर ऐसा भी मोक्षमाग% है,—ऐसा श्रद्धान न करना ।।79।।

आगे कहते हैं निक मोक्षमागN तो ऐसे मुनिन होते हैं :—शिणग्गंर्थमोहमुक्का बावीसपरीसहा जिजर्यकसार्या ।पावारंभविवमुक्का ते गविहर्या मोक्खमग्गप्तिम्म ।।80।।विनग्रmर्थाः मोहमु}ाः द्वाहिवंशवितपरीषहाः जिजतकषार्याः ।पापारंभविवमु}ाः त ेगृहीताः मोक्षमागt ।।80।।

विनमNह, विवजिजतकषार्य, बावीश—परिरषही, विनग्रmर्थ छे,छे मु} पापारंभर्थी, ते मोक्षमागt गृहीत छे. 80.

अथ% :— ो मुनिन निनग्र�थ हैं, परिरग्रह रनिहत हैं, मोह रनिहत हैं, जि नके निकसी भी परद्रव्यसे ममत्वभाव नहीं है, ो बाईस परीषहोंको सहते हैं, जि न्होंन े क्रोधादिद कषायोंको ीत शि>या है और पापारंभसे रनिहत हैं, गृहस्थके करने योग्य आरंभादिदक पापोंमें नहीं प्रवत%ते हैं—ऐस े मुनिनयोंको मोक्षमाग%म ें ग्रहण निकया ह ै अथा%त ् मान े ह ैं । रत्नकरhO श्रावकाचारमें

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समंतभद्राचाय%न े भी कहा ह ै निक—‘‘निवषयाशावशातीतो निनरारम्भोOपरिरग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्त-तप-वी स प्रश-तते ।’’

भावाथ% :—मुनिन ह ैं व े >ौनिकक कष्टों और काय�स े रनिहत ह ैं । ैसा जि नेश्वरदेवने मोक्षमाग% बाह्य–अभ्यंतर परिरग्रहसे रनिहत नग्न दिदगम्बररूप कहा ह ै वैस े ही प्रवत%त े ह ैं व े ही मोक्षमागN हैं, अन्य मोक्षमागN नहीं है ।।80।।

आगे निफर मोक्षमागNकी प्रवृभित्त करते हैं :—उद्धद्धमज्झलोर्ये केई मज्झं ण अहर्यमेगागी ।इर्य भावणाए जोई पावंवित हु सासरं्य सोक्खं ।।81।।उध्वा�धोमध्र्यलोके केचिचत ्मम न अहकमेकाकी ।इवित भावनर्या र्योविगनः प्रापु्नवंवित सु्फटं शाश्वतं सौख्र्यम् ।।81।।

छंु एकलो हुं, कोई पण मारां नर्थी लोकत्ररे्य,—ए भावनार्थी र्योगीओ पामे सुशाश्वत सौख्र्यने. 81.

अथ% :—मुनिन ऐसी भावना करे—ऊध्व%>ोक, मध्य>ोक, अधो>ोक इन तीनों >ोकोंमें मेरा कोई भी नहीं है, मैं एकाकी आत्मा हूँ, ऐसी भावनासे योगी मुनिन प्रकटरूपसे शाश्वत सुkको प्राप्त करता है ।

भावाथ% :–मुनिन ऐसी भावना करे निक नित्र>ोकमें ीव एकाकी है, इसका संबंधी दूसरा कोई नहीं है, यह परमाथ%रूप एकत्व भावना है । जि स मुनिनके ऐसी भावना निनरन्तर रहती है वही मोक्षमागN है, ो भेष >ेकर भी >ौनिकक नोंसे >ा>–पा> रkता है वह मोक्षमागN नहीं है ।।81।।

आगे निफर कहते हैं :—देवगुरूणं भAा शिणव्वेर्यपरंपरा विवलिचंहितंता ।झाणरर्या सुचरिरAा ते गविहर्या मोक्खमग्गप्तिम्म ।।82।।देवगुरूणां भ}ाः विनवtदपरंपरा विवचिचन्तर्यन्तः ।ध्र्यानरताः सुचरिरत्राः त ेगृविहताः मोक्षमागt ।।82।।

जे देव–गुरुना भ} छे, विनवtदशे्रणी लिचंतवे,

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जे ध्र्यानरत, सुचरिरत्र छे, ते मोक्षमागt गृहीत छे. 82.अथ% :— ो मुनिन देव–गुरुके भक्त हैं, निनव�द अथा%त् संसार–देह–भोगोंसे निवरागताकी

परंपराका शिचन्तन करते हैं, ध्यानमें रत हैं, रक्त हैं, तत्पर हैं और जि नके भ>ा—उत्तम चारिरत्र है उनको मोक्षमाग%में ग्रहण निकये हैं ।

भावाथ% :—जि नने मोक्षमाग% प्राप्त निकया ऐसे अरहंत सव%ज्ञ वीतराग देव और उनका अनुसरण करनेवा> े बड़े मुनिन दीक्षा देनेवा> े गुरु इनकी भशिक्तयुक्त हो, संसार–देह–भोगोंसे निवरक्त होकर मुनिन हुए, वैसी ही जि नके वैराग्यभावना है, आत्मानुभवरूप शुद्ध उपयोगरूप एकाग्रतारूपी ध्यानम ें तत्पर ह ैं और जि नके व्रत, समिमनित, गुन्तिप्तरूप निनश्चय–व्यवहारात्मक सम्यक्त्वचारिरत्र होता है वे ही मुनिन मोक्षमागN हैं, अन्य भेषी मोक्षमागN नहीं हैं ।।82।।

आगे ऐसा कहते हैं निक—निनश्चयनयसे ध्यान इस प्रकार करना :—शिणच्छर्यणर्यस्स एवं अ=पा अ=पप्तिम्म अ=पणे सुरदो ।सो होदिद हु सुचरिरAो जोई सो लहइ शिणव्वाणं ।।83।।विनश्चर्यनर्यस्र्य एवं आत्मा आत्मविन आत्मने सुरतः ।सः भववित सु्फटं सुचरिरत्रः र्योगी सः लभते विनवा�णम् ।।83।।

विनश्चर्यनरे्य—ज्र्यां आतमा आत्मार्थ� आत्मामां रमे,ते र्योगी छे सुचरिरत्रसंरु्यत; ते लहे विनवा�णने. 83.

अथ% :–आचाय% कहते हैं निक निनश्चयनयका ऐसा अभिभप्राय है— ो आत्मा आत्माहीमें अपने ही शि>ये भ>े प्रकार रत हो ावे वह योगी, ध्यानी, मुनिन सम्यक्चारिरत्रवान् होता हुआ निनवा%णको पाता है ।

भावाथ% :—निनश्चयनयका -वरूप ऐसा है निक—एक द्रव्यकी अवस्था ैसी हो उसीको कहे । आत्माकी दो अवस्थायें हैं—एक तो अज्ञान–अवस्था और एक ज्ञान अवस्था । बतक अज्ञान–अवस्था रहती है तबतक तो बंधपया%यको आत्मा ानता है निक—मैं मनुष्य हँू, मैं पशु हँू, मैं क्रोधी हँू, मैं मानी हूँ, मैं मायावी हँू, मैं पुhयवान्—धनवान् हँू, मैं निनध%न—दरिरद्री हूँ, मैं रा ा हूँ, मैं रंक हूँ, मैं मुनिन हँू, मैं श्रावक हूँ इत्यादिद पया%योंमें आपा मानता है, इन पया%योंमें >ीन होता है तब मिमथ्यादृमिष्ट है, अज्ञानी है, इसका फ> संसार है उसको भोगता है ।

ब जि नमतके प्रसादसे ीव–अ ीव पदाथ�का ज्ञान होता है तब -व–परका भेद ानकर ज्ञानी होता है, तब इस प्रकार ानता है निक—मैं शुद्धज्ञानदश%नमयी चेतना-वरूप हँू अन्य मेरा कुछ भी नहीं ह ै । ब भावलि>ंगी निनग्र�थ मुनिनपदकी प्रान्तिप्त करता ह ै तब यह आत्माहीमें अपने ही द्वारा अपने ही शि>ये निवशेष >ीन होता है तब निनश्चयसम्यक्चारिरत्र-वरूप

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होकर अपना ही ध्यान करता है, तब ही (साक्षात् मोक्षमाग%में आरूढ़) सम्यग्ज्ञानी होता है, इसका फ> निनवा%ण है, इसप्रकार ानना चानिहये ।।83।। (नोंध—प्रवचनसार गा0 241—242 में ो 7 व ें गुणस्थानम ें आगमज्ञान तत्त्वाथ%श्रद्धान संयतत्व और निनश्चय आत्मज्ञानमें युगपत ् आरूढ़को आत्मज्ञान कहा ह ै वह कथनकी अपेक्षा यहा ँ ह ै ।) (गौण–मुख्य समझ >ेना))

आगे इस ही अथ%को दृढ़ करते हुए कहते हैं :—पुरिरसार्यारो अ=पा जोई वरणाणदंसणसमग्गो ।जो झार्यदिद सो जोई पावहरो हवदिद शिण�ंदो ।।84।।पुरुषाकार आत्मा र्योगी वरज्ञानदश�नसमग्रः ।र्यः ध्र्यार्यवित सः र्योगी पापहरः भववित विनद्व�न्द्वः ।।84।।

छे र्योगी, पुरुषाकार, जीव वरज्ञानदश�नपूण� छे,ध्र्यानार र्योगी पापनाशक दं्वद्वविवरविहत होर्य छे. 84.

अथ% :—यह आत्मा ध्यानके योग्य कैसा ह ै ? पुरुषाकार है, योगी है—जि सके मन, वचन, कायके योगोंका निनरोध है, सवा�ग सुनिनश्च> है और वर अथा%त् श्रेष्ठ सम्यकरूप ज्ञान तथा दश%नसे समग्र है—परिरपूण% है, जि सके केव>ज्ञान–दश%न प्राप्त है, इस प्रकार आत्माका ो योगी ध्यानी मुनिन ध्यान करता है वह मुनिन पापको हरनेवा>ा है और निनद्व%न्द्व है—रागदे्वष आदिद निवकल्पोंसे रनिहत है ।

भावाथ% :— ो अरहंतरूप शुद्ध आत्माका ध्यान करता है उसके पूव% कम%का नाश होता है और वत%मानमें रागदे्वषरनिहत होता है तब आगामी कम%को नहीं बाँधता है ।।84।।

आग े कहत े ह ैं निक इस प्रकार मुनिनयोंको प्रवत%नेके शि>ए कहा । अब श्रावकोंको प्रवत%नेके शि>ए कहते हैं :—

एवं जिजणेविह कविहर्यं सवणाणं सावर्याण पुण सुणसु ।संसारविवणासर्यरं चिसशिद्धर्यरं कारणं परमं ।।85।।एवं जिजनैः कचिर्थत ंश्रमणानां श्रावकाणां पुनः श्रृणुत ।संसारविवनाशकरं चिसशिद्धकरं कारणं परमं ।।85।।

श्रमणार्थ� जिजन–उपदेश भाख्र्यो, श्रावकार्थ� सुणो हवे,संसारनंु हरनार शिशव–करनार कारण परम ए. 85.

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अथ% :—एवं अथा%त् पूव}क्त प्रकार उपदेश तो श्रमण मुनिनयोंको जि नदेवने कहा है । अब श्रावकोंको संसारका निवनाश करनेवा>ा और शिसजिद्ध ो मोक्ष उसको करनेका उत्कृष्ट कारण ऐसा उपदेश कहते हैं सो सुनो ।

भावाथ% :—पनिह> े कहा वह तो मुनिनयोंको कहा और अब आग े कहत े ह ैं वह श्रावकोंको कहते हैं, ऐसा कहते हैं जि ससे संसारका निवनाश हो और मोक्षकी प्रान्तिप्त हो ।।85।।

आगे श्रावकोंको पनिह>े क्या करना, वह कहते हैं :—गविहऊण र्य सम्मAं सुशिणम्मलं सुरविगरीव शिणक्कंपं ।तं झाणे झाइज्जइ सावर्य दुक्खक्खर्यट्ठाए ।।86।।गृहीत्वा च सम्र्यक्त्वं सुविनम�लं सुरविगरेरिरव विनष्कंपम् ।तत ्ध्र्यान ेध्र्यार्यते श्रावक ! दुःखक्षर्यार्थt ।।86।।

ग्रही मेरु–पव�त–सम अकंप सुविनम�ला सम्र्यक्त्वने,हे श्रावको ! दुखनाश अर्थt ध्र्यानमां ध्र्यातव्य ते. 86.

अथ% :—प्रथम तो श्रावकोंको सुनिनम%> अथा%त् भ>े प्रकार निनम%> और मेरुवत् निनःकंप—अच> तथा च> मशि>न अगाढ़ दूषणरनिहत अत्यंत निनश्च> ऐसे सम्यक्त्वको ग्रहण करके दुःkका क्षय करनेके शि>ए उसका अथा%त ् सम्यग्दश%नका (–सम्यग्दश%नके निवषयका) ध्यान करना ।

भावाथ% :—श्रावक पनिह> े तो निनरनितचार निनश्च> सम्यक्त्वको ग्रहण करके उसका ध्यान करे, इस सम्यक्त्वकी भावनासे गृहस्थके गृहकाय% संबंधी आकु>ता, क्षोभ, दुःk हेय है वह मिमट ाता है, काय%के निबगड़ने–सुधरनेमें व-तुके -वरूपका निवचार आवे तब दुःk मिमटता है । सम्यग्दृमिष्टके इसप्रकार निवचार होता है निक—व-तुका -वरूप सव%ज्ञने ैसा ाना है वैसा निनरन्तर परिरणमता है वही होता है, इष्ट–अनिनष्ट मानकर दुःkी–सुkी होना निनष्फ> है । ऐसा निवचार करनेसे दुःk मिमटता है यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है, इसशि>ये सम्यक्त्वका ध्यान करना कहा है ।।86।।

आगे सम्यक्त्वके ध्यानकीही मनिहमा कहते हैं :—सम्मAं जो झार्यइ सम्माइट्ठी हवेइ सो जीवो ।सम्मAपरिरणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्माशिण ।।87।।सम्र्यक्त्वं र्यः ध्र्यार्यवित सम्र्यग्दृविष्टः भववित सः जीवः ।सम्र्यक्त्वपरिरणतः पुनः क्षपर्यवित दुष्टाष्टकमा�शिण ।।87।।

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सम्र्यक्त्वने जे जीव ध्र्यावे ते सुदृविष्ट होर्य छे,सम्र्यक्त्वपरिरणत वत�तो दुष्टाष्टकमN क्षर्य करे. 87.

अथ% :— ो श्रावक सम्यक्त्वका ध्यान करता ह ै वह ीव सम्यग्दृमिष्ट ह ै और सम्यक्त्वरूप परिरणमता हुआ दुष्ट ो आठ कम% उनका क्षय करता है ।

भावाथ% :—सम्यक्त्वका ध्यान इस प्रकार है—यदिद पनिह>े सम्यक्त्व न हुआ हो तो भी इसका -वरूप ानकर इसका ध्यान करे तो सम्यग्दृमिष्ट हो ाता है । सम्यक्त्व होने पर इसका परिरणाम ऐसा है निक संसारके कारण ो दुष्ट अष्ट कम% उनका क्षय होता है, सम्यक्त्वके होते ही कम�की गुणश्रेणी निन %रा होन े >ग ाती है, अनुक्रमस े मुनिन होन े पर चारिरत्र और शुक्>ध्यान इसके सहकारी हो ाते हैं, तब सब कम�का नाश हो ाता है ।।87।।

आगे इसको संके्षपसे कहते हैं :—हिकं बहुणा भशिणएणं जे चिसद्धा णरवरा गए काले ।चिसस्थिज्झहविह जे विव भविवर्या तं जाणह सम्ममाह=पं ।।88।।हिकं बहुना भशिणतेन र्ये चिसद्धाः नरवराः गते काले ।सेत्स्रं्यवित र्ये)विप भव्याः तञ्जानीत सम्र्यक्त्वमाहात्म्र्यम् ।।88।।

बहु कर्थनर्थी शंु ? नरवरो गत काळ जे चिसद्ध्या अहो,जे चिसद्धशे भव्यो हवे, सम्र्यक्त्वमविहमा जाणवो. 88.

अथ% :—आचाय% कहत े ह ैं निक—बहुत कहनेस े क्या साध्य है, ो नरप्रधान अतीतका>में शिसद्ध हुए हैं और आगामी का>में शिसद्ध होंगे वह सम्यक्त्वका माहात्म्य ानो ।

भावाथ% :—इस सम्यक्त्वका ऐसा माहात्म्य है निक ो अष्टकम�का नाशकर मुशिक्तप्राप्त अतीतका>म ें हुए ह ैं तथा आगामी होंग े व े इस सम्यक्त्वस े ही हुए ह ैं और होंगे, इसशि>ए आचाय% कहते ह ैं निक बहुत कहनेस े क्या ? यह संक्षेपसे कहा ानो निक—मुशिक्तका प्रधान कारण यह सम्यक्त्व ही है । ऐसा मत ानो निक गृहस्थके क्या धम% है, यह सम्यक्त्व धम% ऐसा है निक सब धम�के अंगोंको सफ> करता है ।।88।।

आगे कहते हैं निक ो निनरन्तर सम्यक्त्वका पा>न करते हैं उनको धन्य है :—ते धण्णा सुकर्यyा ते सूरा ते विव पवि)र्या मणुर्या ।सम्मAं चिसशिद्धर्यरं चिसविवणे विव ण मइचिलर्यं जेहिहं ।।89।।

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त ेधन्र्याः सुकृतार्थ�ः त ेशूराः त)ेविप पंवि)ता मनुजाः ।सम्र्यक्त्वं चिसशिद्धकरं स्वपे्न)विप न मचिलविनतं र्यैः ।।89।।

नर धन्र्य ते, सुकृतार्थ� ते, पंवि)त अने शूरवीर ते,स्वप्नेर्य मचिलन करु्यm न जेणे चिसशिद्धकर सम्र्यक्त्वने. 89.

अथ% :—जि न पुरुषोंने मुशिक्तको करनेवा>े सम्यक्त्वको -वप्नावस्थामें भी मशि>न नहीं निकया, अतीचार नहीं >गाया उन पुरुषोंको धन्य है, वे ही मनुष्य हैं, वे ही भ>े कृताथ% हैं, वे ही शूरवीर हैं, वे ही पंनिOत हैं ।

भावाथ% :–>ोकम ें कुछ दानादिदक कर ें उनको धन्य कहत े ह ैं तथा निववाहादिदक यज्ञादिदक करते हैं उनको कृताथ% कहते हैं, युद्धमें पीछे न >ौटे उसको शूरवीर कहते हैं, बहुत शा-त्र पढे़ उसको पंनिOत कहते हैं । ये सब कहनेके हैं, ो मोक्षके कारण सम्यक्त्वको मशि>न नहीं करते हैं, निनरनितचार पा>ते हैं उनको धन्य है, वे ही कृताथ% हैं, वे ही शूरवीर हैं, वे ही पंनिOत हैं, वे ही मनुष्य हैं, इसके निबना मनुष्य पशु समान है, इन प्रकार सम्यक्त्वका माहात्म्य कहा ।।89।।

आगे शिशष्य पूछता ह ै निक सम्यक्त्व कैसा ह ै ? उसका समाधान करनेके शि>ए इस सम्यक्त्वके बाह्य शिचह्न बताते हैं :—

हिहंसारविहए धम्मे अट्ठारहदोसवस्थिज्जए देवे ।शिणग्गंरे्थ पव्वर्यणे स�हणं होइ सम्मAं ।।90।।हिहंसारविहत ेधमt अष्टादशदोषवर्जिजंत ेदेवे ।विनग्रmरे्थ प्रवचने श्रद्धानं भववित सम्र्यक्त्वम् ।।90।।

हिहंसासुविवरविहत धम�, दोष अढार वर्जिजंत देवनुं,विनग्रmर्थ प्रवचन केरंु जे श्रद्धान ते समविकत कहंु्य. 90.

अथ% :—हिहंसारनिहत धम%, अठारह दोषरनिहत देव, निनग्र�थ प्रवचन अथा%त् मोक्षका माग% तथा गुरु इनमें श्रद्धान होने पर सम्यक्त्व होता है ।

भावाथ% :—>ौनिकक न तथा अन्यमत वा> े ीवोंकी हिहंसास े धम% मानत े ह ैं और जि नमतमें अहिहंसा धम% कहा है, उसीका श्रद्धान करे अन्यका श्रद्धान न करे वह सम्यग्दृमिष्ट है । >ौनिकक अन्यमत वा>े मानते हैं वे सब देव क्षुधादिद तथा रागदे्वषादिद दोषोंसे संयुक्त हैं, इसशि>ये वीतराग सव%ज्ञ अरहंतदेव सब दोषोंसे रनिहत ह ैं उनको देव माने, श्रद्धान कर े वही सम्यग्दृमिष्ट है ।

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यहाँ अठारह दोष कहे वे प्रधानताकी अपेक्षा कहे हैं इनको उप>क्षणरूप ानना, इनके समान अन्य भी ान >ेना । निनग्र�थ प्रवचन अथा%त ् मोक्षमाग% वही मोक्षमाग% है, अन्यलि>ंगसे अन्यमत वा>े शे्वताम्बरादिदक ैनाभास मोक्ष मानते हैं वह मोक्षमाग% नहीं है । ऐसा श्रद्धान करे वह सम्यग्दृमिष्ट है, ऐसा ानना ।।90।।

आगे इसी अथ%को दृढ़ करते हुए कहते हैं :—जहजार्यरूवरूव ंसुसंजर्यं सव्वसंगपरिरचAं ।लिलंगं ण परावेक्खं जो मण्णइ तस्स सम्मAं ।।91।।र्यर्थाजातरूपरूपं सुसंर्यत ंसव�संगपरिरत्र्य}म् ।लिलंगं न परापेक्षं र्यः मन्र्यते तस्र्य सम्र्यक्त्वम् ।।91।।

सम्र्यक्त्व तेने, जेह माने लिलंग परविनरपेक्षने,रूपे र्यर्थाजातक, सुसंर्यत, सव�संगविवमु}ने. 91.

अथ% :—मोक्षमाग%का लि>ंग–भेष ऐसा है निक यथा ातरूप तो जि सका रूप है, जि समें बाह्य परिरग्रह व-त्रादिदक हिकंशिचत्मात्र भी नहीं है, सुसंयत अथा%त् सम्यक्प्रकार इजिन्द्रयोंका निनग्रह और ीवोंकी दया जि समें पाई ाती है ऐसा संयम है, सव%संग अथा%त् सबही परिरग्रह तथा सब >ौनिकक नोंकी संगनितसे रनिहत है और जि समें परकी अपेक्षा कुछ नहीं है, मोक्षके प्रयो न शिसवाय अन्य प्रयो नकी अपेक्षा नहीं ह ै । ऐसा मोक्षमाग%का लि>ंग माने–श्रद्धान कर े उस ीवके सम्यक्त्व होता है ।

भावाथ% :—मोक्षमाग%में ऐसा ही लि>ंग है, अन्य अनेक भेष हैं वे मोक्षमाग%में नहीं हैं, ऐसा श्रद्धान करे उनके सम्यक्त्व होता है । यहाँ परापेक्ष नहीं है—ऐसा कहनेसे बताया है निक—ऐसा निनग्र�थ रूप भी ो निकसी अन्य आशयसे धारण करे तो वह भेष मोक्षमाग% नहीं है, केव> मोक्षहीकी अपेक्षा जि सम ें हो ऐसा हो उसको मान े वह सम्यग्दृमिष्ट ह ै ऐसा ानना ।।91।।

आगे मिमथ्यादृमिष्टके शिचह्न कहते हैं :—

कुस्थिच्छर्यदेवं धम्मं कुस्थिच्छर्यलिलंग ंच बंदए जो दु ।लज्जाभर्यगारवदो मिमच्छादिदट्ठी हवे सो हु ।।92।।कुत्थित्सतदेवं धमm कुत्थित्सतलिलंगं च वन्दते र्यः त ु।

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लज्जाभर्यगारवतः मिमथ्र्यादृविष्टः भवेत् सः सु्फटम् ।।92।।जे देव कुत्थित्सत, धम� कुत्थित्सत, लिलंग कुत्थित्सत वंदता,भर्य, शरम वा गारव र्थकी, ते जीव छे मिमथ्र्यात्वमां. 92.

अथ% :— ो क्षुधादिदक और रागदे्वषादिद दोषोंस े दूनिष हो वह कुण्डित्सत देव है, ो हिहंसादिद दोषोंसे सनिहत हो वह कुण्डित्सत धम% है, ो परिरग्रहादिद सनिहत हो वह कुण्डित्सत लि>ंग है । ो इनकी वंदना करता है, पू ा करता है वह तो प्रगट मिमथ्यादृमिष्ट है । यहाँ अब निवशेष कहते हैं निक ो इनको भ>े—निहत करनेवा>े मानकर वंदना करता है, पू ा करता है, वह तो प्रगट मिमथ्यादृमिष्ट है, परन्तु ो >ज्जा भय गारव इन कारणोंसे भी वंदना करता है, पू ा करता है वह भी प्रगट मिमथ्यादृमिष्ट है । >ज्जा तो ऐसे निक—>ोग इनकी वन्दना करते हैं, पू ा करते हैं, हम नहीं पंू ेगे तो >ोग हमको क्या कहेंगे ? हमारी इस >ोकमें प्रनितष्ठा च>ी ायगी, इस प्रकार >ज्जासे वंदना व पू ा करे । भय ऐसे निक—इनको रा ादिदक मानते हैं, हम नहीं मानेंगे तो हमारे ऊपर कुछ उपद्रव आ ायगा, इस प्रकार भयसे वंदना व पू ा करे । गारव ऐसे निक हम बडे़ हैं, महंत पुरुष हैं, सबहीका सन्मान करते हैं, इन काय�से हमारी बड़ाई है, इस प्रकार गारवसे वंदना व पू ना होता है । इस प्रकार मिमथ्यादृमिष्टके शिचह्न कहे ।।92।।

आगे इसी अथ%को दृढ़ करते हुए कहते हैं निक :—सपरावेक्खं लिलंगं राई देवं असंजर्यं वंदे ।मण्णइ मिमच्छादिदट्ठी ण हु मण्णइ सुद्धसम्मAो ।।93।।स्वपरापेकं्ष लिलंगं राविगणं देवं असंर्यत ंवन्दे ।मानर्यवित मिमथ्र्यादृविष्टः न सु्फटं मानर्यवित शुद्धसम्र्यक्त्वी ।।93।।

वंदन असंर्यत, र} देवो, लिलंग सपरापेक्षने,—ए मान्र्य होर्य कुदृविष्टने, नविह शुद्ध सम्र्यग्दृविष्टने. 93.

अथ% :—-वपरापेक्ष तो लि>ंग–आप कुछ >ौनिकक प्रयो न मनमें धारणकर भेष >े वह -वापेक्ष है और निकसी परकी अपेक्षासे धारण करे, निकसीके आग्रह तथा रा ादिदकके भयसे धारण कर े वह परापेक्ष ह ै । रागी देव (जि सके -त्री आदिदका राग पाया ाता है) और संयमरनिहतको इस प्रकार कह े निक म ैं वंदना करता हू ँ तथा इनको माने, श्रद्धान कर े वह मिमथ्यादृमिष्ट है । शुद्ध सम्यक्त्व होने पर न इनको मानता है, न श्रद्धान करता है और न वंदना व पू न ही करता है ।

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भावाथ% :—य े ऊपर कह े इनस े मिमथ्यादृमिष्टके प्रीनित भशिक्त उत्पन्न होती है, ो निनरनितचार सम्यक्त्ववान् है वह इनको नहीं मानता है ।।93।।

सम्माइट्ठी सावर्य धम्मं जिजणदेवदेचिसर्यं कुणदिद ।विववरीर्यं कुव्वंतो मिमच्छादिदट्ठी मुणेर्यव्वो ।।94।।सम्र्यग्दृविष्टः श्रावकः धमm जिजनदेवदेशिशत ंकरोवित ।विवपरीत ंकुव�न ्मिमथ्र्यादृविष्टः ज्ञातव्यः ।।94।।

सम्र्यक्त्वरु्यत श्रावक करे जिजनदेवदेशिशत धम�ने,विवपरीत तेर्थी जे करे, कुदृविष्ट ते ज्ञातव्य छे. 94.

अथ% :— ो जि नदेवसे उपदेशिशत धम%का पा>न करता ह ै वह सम्यग्दृमिष्ट श्रावक है और ो अन्यमतके उपदेशिशत धम%का पा>न करता है उसे मिमथ्यादृमिष्ट ानना ।

भावाथ% :—इस प्रकार कहनेस े यहा ँ कोई तक% कर े निक—यह तो अपना मत पुष्ट करनेकी पक्षपातमात्र वात्ता% कही, अब इसका उत्तर देते हैं निक—ऐसा नहीं है, जि ससे सब ीवोंका निहत हो वह धम% है ऐसे अहिहंसारूप धम%का जि नदेवहीने प्ररूपण निकया है, अन्यमतमें ऐसे धम%का निनरूपण नहीं है, इस प्रकार ानना चानिहये ।।94।।

आगे कहत े ह ैं निक ो मिमथ्यादृमिष्ट ीव ह ै वह संसारम ें दुःkसनिहत भ्रमण करता है :—

मिमच्छादिदट्ठी जो सो संसारे संसरेइ सुहरविहओ ।जम्मजरमरणपउरे दुक्खसहस्साउले जीवो ।।95।।मिमथ्र्यादृविष्टः र्यः सः संसारे संसरवित सुखरविहतः ।जन्मजरामरणप्रचुरे दुःखसहस्राकुलः जीवः ।।95।।

कुदृविष्ट जे, ते सुखविवहीन परिरभ्रमे संसारमां,जर–जन्म–मरणप्रचुरता, दुखगणसहस्र भर्या� जिजहां. 95.

अथ% :— ो मिमथ्यादृमिष्ट ीव है वह न्म– रा–मरणसे प्रचुर और ह ारों दुःkोंसे व्याप्त इस संसारमें सुkरनिहत दुःkी होकर भ्रमण करता है ।

भावाथ% :—मिमथ्यात्वभावका फ> संसारम ें भ्रमण करना ही है, यह संसार न्म– रा–मरण आदिद ह ारों दुःkोंसे भरा है, इन दुःkोंको मिमथ्यादृमिष्ट इस संसारमें भ्रमण करता

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हुआ भोगता है । यहाँ दुःk तो अनन्त हैं ह ारों कहनेसे प्रशिसद्ध अपेक्षा बहु>ता बताई है ।।95।।

आगे सम्यक्त्व–मिमथ्यात्व भावके कथनका संकोच करते हैं—सम्म गुण मिमच्छ दोसो मणेण परिरभाविवऊण तं कुणसु ।जं ते मणस्स रुच्चइ हिकं बहुणा पलविवएणं तु ।।96।।सम्र्यक्त्वे गुण मिमथ्र्यात्वे दोषः मनसा परिरभाव्य तत ्कुरु ।र्यत ्त ेमनसे रोचते हिकं बहुना प्रलविपतेन त ु।।96।।

‘सम्र्यक्त्व गुण, मिमथ्र्यात्व दोष’ तुं एम मन सुविवचारीने,कर ते तने जे मन रुचे; बहु कर्थन शुं करवंु करे ? 96.

अथ% :—ह े भव्य ! ऐस े पूव}क्त प्रकार सम्यक्त्वके गुण और मिमथ्यात्वके दोषोंकी अपन े मनसे भावना कर और ो अपन े मनको रुचे–निप्रय >ग े वह कर, बहुत प्र>ापरूप कहनेसे क्या साध्य है ? इस प्रकार आचाय%ने उपदेश दिदया है ।

भावाथ% :—इस प्रकार आचाय%न े कहा ह ै निक—बहुत कहनेस े क्या ? सम्यक्त्वमिमथ्यात्वके गुण–दोष पूव}क्त ानकर ो मनम ें रुचे, वह करो । यहा ँ उपदेशका आशय ऐसा है निक—मिमथ्यात्वको छोड़ो सम्यक्त्वको ग्रहण करो, इससे संसारका दुःk मेटकर मोक्ष पाओ ।।96।।

आगे कहते हैं निक यदिद मिमथ्यात्वभाव नहीं छोड़ा तब बाह्य भेषसे कुछ >ाभ नहीं है :—

बाविहरसंगविवमुक्को ण विव मुक्को मिमच्छभाव शिणग्गंर्थो ।हिकं तस्स ठाणमउणं ण विव जाणदिद *अ=पसमभावं ।।97।।बविहः संगविवमु}ः नाविप मु}ः मिमथ्र्याभावेन विनग्रmर्थः ।हिकं तस्र्य स्थानमौनं न अविप जानावित **आत्मसमभावं ।।97।।

* पाठान्तरः—अप्पसव्भावं । ** पाठान्तरः—आत्म-वभावं ।विनग्रmर्थ, बाह्य असंग, पण नविह त्र्य} मिमथ्र्याभाव ज्र्यां,जाणे न ते समभाव विनज; शंु स्थान–मौन करे वितहां ? 97.

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अथ% :— ो बाह्य परिरग्रहरनिहत और मिमथ्याभावरनिहत निनग्र%न्थ भेष धारण निकया है वह परिरग्रहरनिहत नहीं है, उसके ठाण अथा%त् kड़े होकर कायोत्सग% करनेसे क्या साध्य है ? और मौन धारण करनेसे क्या साध्य ह ै ? क्योंनिक आत्माका समभाव ो वीतरागपरिरणाम उसको नहीं ानता है ।

भावाथ% :—आत्माके शुद्ध -वभावको ानकर सम्यग्दृमिष्ट होता ह ै । और ो मिमथ्याभावसनिहत परिरग्रह छोड़कर निनग्र�थ भी हो गया है, कायोत्सग% करना, मौन धारण करना इत्यादिद बाह्य निक्रयाय ें करता ह ै तो उसकी निक्रया मोक्षमाग%म ें सराहने योग्य नहीं है, क्योंनिक सम्यक्त्वके निबना बाह्यनिक्रयाका फ> संसार ही है ।।97।।

आग े आशंका उत्पन्न होती ह ै निक सम्यक्त्व निबना बाह्यलि>ंग निनष्फ> कहा, ो बाह्यलि>ंग मू>गुण निबगाडे़ उसके सम्यक्त्व रहता या नहीं ? इसका समाधान कहते हैं :—

मूलगुणं चिछAूण र्य बाविहरकम्मं करेइ जो साहू ।सो ण लहइ चिसशिद्धसुहं जिजणलिलंगविवराहगो शिणर्यद ।।98।।मूलगुणं चिछत्वा च बाह्यकम� करोवित र्यः साधुः ।सः न लभते चिसशिद्धसुखं जिजणलिलंगविवराधकः विनर्यत ं।।98।।

जे मूलगुणने छेदीने मुविन बाह्यकमN आचरे,पामे न शिशवसुख विनश्चरे्य जिजनकचिर्थत–लिलंग–विवराधने. 98.

अथ% :— ो मुनिन निनग्र�थ होकर मू>गुण धारण करता है, उनका छेदनकर, निबगाड़कर केव> बाह्यनिक्रया—कम% करता है वह शिसजिद्ध अथा%त् मोक्षके सुkको प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंनिक ऐसा मुनिन निनश्चयसे जि नलि>ंगका निवराधक है ।

भावाथ% :—जि न–आज्ञा ऐसी ह ै निक—सम्यक्त्वसनिहत मू>गुण धारणकर अन्य ो साधु निक्रया हैं उनको करते हैं । मू>गुण अट्ठाईस कहे हैं—पाँच महाव्रत 5, पाँच समिमनित 5, इजिन्द्रयोंका निनरोध 5, छह आवश्यक 6, भूमिमशयन 1, -नानका त्याग 1, व-त्रका त्याग 1, केश>ोच 1, एकबार भो न 1, kड़ा भो न 1, दंतधावनका त्याग 1, इस प्रकार अट्ठाईस मू>गुण हैं, इनकी निवराधना करके कायोत्सग% मौन तप ध्यान अध्ययन करता ह ै तो इन निक्रयाओंसे मुशिक्त नहीं होती है । ो इस प्रकार श्रद्धान करे निक—हमारे सम्यक्त्व तो है ही, बाह्य मू>गुण निबगड़े तो निबगड़ो, हम मोक्षमागN ही हैं—तो ऐसी श्रद्धासे तो जि न–आज्ञा भंग करनेसे सम्यक्त्वका भी भंग होता है तब मोक्ष कैसे हो; और (तीव्र कषायवान हो ाय तो) कम%के प्रब> उदयस े चारिरत्र भ्रष्ट हो । और यदिद जि न–आज्ञाके अनुसार श्रद्धान रह े तो

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सम्यक्त्व रहता है निकन्तु मू>गुण निबना केव> सम्यक्त्वहीसे मुशिक्त नहीं है और सम्यक्त्व निबना केव> निक्रयाहीसे मुशिक्त नहीं है, ऐसे ानना ।

प्रश्न :—मुनिनके -नानका त्याग कहा और हम ऐस े भी सुनत े ह ैं निक यदिद चांOा> आदिदका स्पश% हो ावे तो दंO-नान करते हैं ।

समाधान :— ैसे गृहस्थ -नान करता है वैसे -नान करनेका त्याग है, क्योंनिक इसमें हिहंसाकी अमिधकता है, मुनिनके -नान ऐसा है निक—कमंO>ुमें प्रासुक > रहता है उससे मंत्र पढ़कर म-तकपर धारामात्र देते हैं और उस दिदन उपवास करते हैं तो ऐसा -नान तो नाममात्र -नान है, यहाँ मंत्र और तप-नान प्रधान है, >-नान प्रधान नहीं है, इस प्रकार ानना ।।98।।

आगे कहते ह ैं निक ो आत्म-वभावसे निवपरीत बाह्य निक्रयाकम% ह ै वह क्या कर े ? मोक्षमाग%में तो कुछ भी काय% नहीं करते हैं :—

हिकं काविहदिद बविहकम्मं हिकं काविहदिद बहुविवहं च खवणं तु ।हिकं काविहदिद आदावं आदसहावस्स विववरीदो ।।99।।हिकं करिरष्र्यवित बविहः कम� हिकं करिरष्र्यवित बहुविवधं च क्षमणं त ु।हिकं करिरष्र्यवित आतापः आत्मस्वभावात् विवपरीतः ।।99।।

बविहरंग कमN शंु करे ? उपवास बहुविवध शुं करे ?रे ! शंु करे आतापना ? –आत्मस्वभावविवरुद्ध जे. 99.

अथ% :—आत्म-वभावस े निवपरीत, प्रनितकू> बाह्यकम% ो निक्रयाकांO वह क्या करेगा ? कुछ मोक्षका काय% तो हिकंशिचत्मात्र भी नहीं करेगा, बहुत अनेक प्रकार श्रमण अथा%त् उपवासादिद बाह्य तप भी क्या करेगा ? कुछ भी नहीं करेगा, आतापनयोग आदिद कायक्>ेश क्या करेगा ? कुछ भी नहीं करेगा ।

भावाथ% :—बाह्य विक्रर्याकम� शरीराशिश्रत है और शरीर जड़ है, आत्मा चेतन है, जड़की विक्रर्या तो चेतनको कुछ फल करती नहीं है, ैसा चेतनाका भाव जि तना निक्रयामें मिम>ता है उसका फ> चेतनको >गता है । चेतनका अशुभ उपयोग मिम>े तब अशुभकम% बँधे और शुभ उपर्योग मिमले तब कम� नहीं बँधता है और ब शुभ–अशुभ दोनोंसे रनिहत उपयोग होता है तब कम% नहीं बँधता है, पनिह>े बँधे हुए कम}की निन %रा करके मोक्ष करता है । इस प्रकार चेतना उपयोगके अनुसार फ>ती है, इसशि>ये ऐसे कहा है निक बाह्य निक्रयाकम%से तो कुछ मोक्ष होता नहीं है, शुद्ध उपयोग होने पर मोक्ष होता है । इसशि>ये दश%न–ज्ञान उपयोगोंका निवकार मेटकर शुद्ध ज्ञानचेतनाका अभ्यास करना मोक्षका उपाय है ।।99।।

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आगे इसी अथ%को निफर निवशेषरूपसे कहते हैं :—जदिद पढदिद बहु सुदाशिण र्य जदिद काविहदिद बहुविवहं च चारिरAं ।तं बालसुदं चरणं हवेइ अ=पस्स विववरीदं ।।100।।

र्यदिद पठवित बहुश्रुताविन च र्यदिद करिरष्र्यवित बहुविवध च चारिरतं्र ।तत ्बालश्रुतं चरणं भववित आत्मनः विवपरीतम् ।।100।।

पुष्कळ भणे शु्रतने भले, चारिरत्र बहुविवध आचरे,छे बालशु्रत ने बालचारिरत, आत्मर्थी विवपरीत जे. 100.

अथ% :— ो आत्म-वभावसे निवपरीत बाह्य बहुत शा-त्रोंको पढे़गा और बहुत प्रकारके चारिरत्रका आचरण करेगा तो वह सब ही बा>श्रुत और बा>चारिरत्र होगा । आत्म-वभावसे निवपरीत शा-त्रका पढ़ना और चारिरत्रका आचरण करना ये सब ही बा>श्रुत व बा>चारिरत्र हैं, अज्ञानीकी निक्रया है, क्योंनिक ग्यारह अंग और नव पूव% तक तो अभव्य ीव भी पढ़ता है, और बाह्य मू>गुणरूप चारिरत्र भी पा>ता है तो भी मोक्षके योग्य नहीं है, इस प्रकार ानना चानिहये ।।100।।

आगे कहते हैं निक ऐसा साधु मोक्ष पाता है :—वेरग्गपरो साहू परदव्वपरम्मुहो र्य जो होदिद ।संसारसुहविवरAो सगसुद्धसुहेसु अणुरAो ।।101।।गुणगणविवहूचिसर्यंगो हेर्योपादेर्यशिणस्थिच्छदो साहू ।झाणज्झर्यणे सुरदो सो पावइ उAमं ठाणं ।।102।।वैराग्र्यपरः साधुः परद्रव्यपराङु्मखश्च र्यः भववित ।संसारसुखविवर}ः स्वकशुद्धसुखेषु अनुर}ः ।।101।।गुणगणविवभूविषतांगः हेर्योपादेर्यविनशिश्चतः साधुः ।ध्र्यानाध्र्यर्यन ेसुरतः सः प्राप्नोवित उAमं स्थानम् ।।102।।

छे साधु जे वैराग्र्यपर ने विवमुख परद्रव्यो विवषे,भवसुखविवर}, स्वकीर्य शुद्ध सुखी विवषे अनुर} जे. 101.आदेर्यहेर्य–सुविनश्चर्यी, गुणगणविवभूविषत–अंग जे,

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ध्र्यानाध्र्यर्यनरत जेह, ते मुविन स्थान उAमने लहे. 102.अथ% :—ऐसा साधु उत्तम स्थान ो मोक्ष उसकी प्रान्तिप्त करता है अथा%त् ो साधु

वैराग्यमें तत्पर हो संसार–देह–भोगोंसे पनिह>े निवरक्त होकर मुनिन हुआ उसी भावना युक्त हो, परद्रव्यसे पराङु्मk हो, ैस े वैराग्य हुआ वैस े ही परद्रव्यका त्यागकर उससे पराङु्मk रहे, संसार संबंधी इजिन्द्रयोंके द्वारा निवषयोंसे सुkसा होता है उससे निवरक्त हो, अपने आत्मीक शुद्ध अथा%त ् कषायोंके क्षोभसे रनिहत निनराकु>, शांतभावरूप ज्ञानानन्दम ें अनुरक्त हो, >ीन हो, बारंबार उसीकी भावना रहे ।

जि सका आत्मप्रदेशरूप अंग गुणसे निवभूनिषत हो, ो मू>गुण, उत्तरगुणोंसे आत्माको अ>ंकृत–शोभायमान निकये हो, जि सके हेय–उपादेय तत्त्वका निनश्चय हो, निन आत्मद्रव्य तो उपादेय ह ै और ऐसा जि सके निनश्चय हो निक–अन्य परद्रव्यके निनमिमत्तस े कह े हुए अपने निवकारभाव ये सब हेय ह ैं । साधु होकर आत्माके -वभावके साधनेम ें भ>ीभाँनित तत्पर हो, धम%–शुक्>ध्यान और अध्यात्मशा-त्रोंको पढ़कर ज्ञानकी भावनामें तत्पर हो, सुरत हो, भ>े प्रकार >ीन हो । ऐसा साधु उत्तमस्थान ो >ोकशिशkर पर शिसद्धक्षेत्र तथा मिमथ्यात्व आदिद चौदह गुणस्थानोंसे परे शुद्ध-वभावरूप मोक्षस्थानको पाता है ।

भावाथ% :—मोक्षके साधनके ये उपाय हैं अन्य कुछ नहीं है ।।101-102।।आगे आचाय% कहते हैं निक—सव%से उत्तम पदाथ% शुद्ध आत्मा है, वह इस देहमें ही रह

रहा है उसको ानो :—णविवएहिहं जं णविवज्जइ झाइज्जइ झाइएहिहं अणवरर्यं ।रु्थव्वंतेहिहं रु्थशिणज्जइ देहyं हिकं विप तं मुणह ।।103।।नतैः र्यत ्नम्र्यत ेध्र्यार्यते ध्र्यातैः अनवरतम् ।स्तरू्यमानैः स्तरू्यत ेदेहसं्थ विकमविप तत ्जानीत ।।103।।

प्रणमे प्रणत जन, ध्र्यात जन ध्र्यावे विनरंतर जेहने,तंु जाण तत्त्व तनस्थ ते, जे स्तवनप्रा=त जनो स्तवे. 103.

अथ% :—हे भव्य ीवो ! तुम इस देहमें ण्डिस्थत ऐसा कुछ क्यों है, क्या है उसे ानो, वह >ोकमें नम-कार करने योग्य इन्द्रादिदक ह ैं उनसे तो नम-कार करने योग्य, ध्यान करने योग्य है और -तुनित करने योग्य ो तीथ�करादिद हैं उनसे भी -तुनित करने योग्य है, ऐसा कुछ है वह इस देह ही में ण्डिस्थत है उसको यथाथ% ानो ।

भावाथ% :–शुद्ध परमात्मा है वह यद्यनिप कम%से आच्छादिदत है, तो भी भेदज्ञानी इस देहहीमें ण्डिस्थतका ही ध्यान करके तीथ�करादिद भी मोक्ष प्राप्त करते है, इसशि>ये ऐसा कहा है निक—>ोकमें नमने योग्य तो इंद्रादिदक हैं और ध्यान करने योग्य तीथ�करादिदक हैं तथा -तुनित करने

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योग्य तीथ�करादिदक हैं वे भी जि सको नम-कार करते हैं, जि सका ध्यान करते हैं -तुनित करते हैं ऐसा कुछ वचनके अगोचर भेदज्ञानिनयोंके अनुभवगोचर परमात्मा व-त ु है, उसका -वरूप ानो, उसको नम-कार करो, उसका ध्यान करो, बाहर निकसशि>य े ढँूढ़त े हो, इस प्रकार उपदेश हैं ।।103।।

आगे आचाय% कहत े ह ैं निक ो अरहंतादिदक पंच परमेष्ठी ह ैं व े भी आत्माम ें ही है इसशि>ये आत्मा ही शरण है :—

अरुहा चिसद्धार्यरिरर्या उज्झार्या साहु पंच परमेट्ठी ।ते विव हु चिचट्ठविह आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ।।104।।अह�न्तः चिसद्धा आचार्या� उपाध्र्यार्याः साधवः पंच परमेविष्ठनः ।त ेअविप सु्फटं वितष्ठप्तिन्त आत्मविन तस्मादात्मा सु्फटं मे शरणं ।।104।।

अहmत–चिसद्धाचार्य�–अध्र्यापक–श्रमण–परमेष्ठी जे,पांचेर्य छे आत्मा महीं; आत्मा शरण मारंु खरे. 104.

अथ% :—अह%न्त शिसद्ध आचाय% उपाध्याय और साधु ये पंचपरमेष्ठी हैं ये भी आत्मामें ही चेष्टारूप हैं, आत्माकी अवस्था हैं, इसशि>ये मेरे आत्माहीका शरण है, इस प्रकार आचाय% ने अभेदनय प्रधान करके कहा है ।

भावाथ% :—ये पाँच पद आत्माहीके हैं, ब यह आत्मा घानितकम%का नाश करता है तब अरहंतपद होता है, वही आत्मा अघानितकम�का नाशकर निनवा%णको प्राप्त होता ह ै तब शिसद्धपद कह>ाता है, ब शिशक्षा–दीक्षा देनेवा>ा मुनिन होता ह ै तब आचाय% कह>ाता है, पठन–पाठनम ें तत्पर मुनिन होता ह ै तब उपाध्याय कह>ाता ह ै और ब रत्नत्रय-वरूप मोक्षमाग%को केव> साधता है तब साधु कह>ाता है, इस प्रकार पांचों पद आत्माहीमें है । सो आचाय% निवचार करते हैं निक ो इस देहमें आत्मा ण्डिस्थत है सो यद्यनिप (-वय) कम% आच्छादिदत हैं तो भी पांचों पदोंके योग्य है, इसीके शुद्ध -वरूपका ध्यान करना, पाँचों पदोंका ध्यान है, इसशि>ए मेर े इस आत्माहीका कारण ह ै ऐसी भावना की ह ै और पंचपरमेष्ठीका ध्यानरूप अंतमंग> बताया है ।।104।।

आगे कहते है निक ो अंतसमामिधमरणमें चार आराधनाका आराधन कहा है यह भी आत्माहीकी चेष्टा है, इसशि>ये आत्माहीका मेरे शरण है :—

सम्मAं सण्णाणं सच्चारिरAं विह सAव चेव ।चउरो चिचट्ठविह आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ।।105।।

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सम्र्यक्त्वं सज्ज्ञानं सच्चारिरतं्र विह सAपः चेव ।चत्वारः वितष्ठप्तिन्त आत्मविन तस्मादात्मा सु्फटं मे शरणं ।।105।।

सम्र्यक्त्व, सम्र्यग्ज्ञान, सत्चारिरत्र, सAपचरण जे,चारेर्य छे आत्मा महीं; आत्मा शरण मारंु खरे. 105.

अथ% :—सम्यग्दश%न, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारिरत्र और सम्यक् तप ये चार आराधना हैं, ये भी आत्मामें ही चेष्टारूप हैं, ये चारों आत्मा ही की अवस्था है, इसशि>ये आचाय% कहते हैं निक मेरे आत्माहीका शरण है ।।105।। (भगवती आराधना गाथा नं0 2)

भावाथ% :—आत्माका निनश्चय–व्यवहारात्मक तत्त्वाथ%श्रद्धानरूप परिरणाम सम्यग्दश%न है, संशय निवमोह निवभ्रमस े रनिहत और निनश्चयव्यवहारस े निन -वरूपका यथाथ% ानना सम्यग्ज्ञान है, सम्यग्ज्ञानस े तत्त्वाथ�को ानकर रागदे्वषादिदके रनिहत परिरणाम होना सम्यक्चारिरत्र है, अपनी शशिक्त अनुसार सम्यग्ज्ञानपूव%क कष्टका आदर कर -वरूपका साधना सम्यक्तप है, इस प्रकार ये चारों ही परिरणाम आत्माके हैं, इसशि>ये आचाय% कहते हैं निक मेरे आत्माहीका शरण है, इसीकी भावनामें चारों आ गये ।

अंतसल्>ेkनामें चार आराधनाका आराधन कहा है, सम्यग्दश%न ज्ञान चारिरत्र तप इन चारोंका उद्योत, उद्यवन, निनव%हण, साधन और निन-तरण ऐसे पंचप्रकार आराधना कही है, वह आत्माको भानेमें (–आत्माकी भावना–एकाग्रता करनेमें) चारों आगये, ऐसे अंतसल्>ेkनाकी भावना इसीमें आ गई ऐसे ानना तथा आत्मा ही परमंगलरूप ह ै ऐसा भी बताया है ।।105।।

आगे यह मोक्षपाहुड़ ग्रंथ पूण% निकया, इसके पढ़ने सुनने भानेका फ> कहते हैं :—एवं जिजणपण्णAं मोक्खस्स र्य *पाहु)ं सुभAीए ।जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ सासर्यं सोक्खं ।।106।।

*. पाहुड़का पाठान्तर ‘कारणं’ है, सं0 छायामें भी समझ >ेना ।एवं जिजनप्रज्ञ=तं मोक्षस्र्य च प्राभृतं सुभक्त्र्या ।र्यः पठवित श्रृणोवित भावर्यवित सः प्राप्नोवित शाश्वतं सौख्र्यं ।।106।।

आ जिजनविनरूविपत मोक्षप्राभृत–शास्त्रने सद्भचि}ए,जे पठन–श्रवण करे अने भावे, लहे सुख विनत्र्यने. 106.

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अथ% :—पूव}क्त प्रकार जि नदेवके कहे हुए मोक्षपाहुड़ ग्रंथको ो ीव भशिक्तभावसे पढ़ते हैं, इसकी बारंबार लिचंतवनरूप भावना करते ह ैं तथा सुनते हैं, वे ीव शाश्वत सुk, निनत्य अतीजिन्द्रय ज्ञानानंदमय सुkको पाते हैं ।

भावाथ% :—मोक्षपाहुड़में मोक्ष और मोक्षके कारणका -वरूप कहा है और ो मोक्षके कारणका -वरूप अन्य प्रकार मानते ह ैं उनका निनषेध निकया है, इसशि>ये इस ग्रंथके पढ़ने, सुननेसे उसके यथाथ% -वरूपका–ज्ञान–श्रद्धान आचरण होता है, उस ध्यानसे कम%का नाश होता है और इसकी बारंबार भावना करनेसे उसमें दृढ़ होकर एकाग्रध्यानकी सामथ्य% होती है, उस ध्यानसे कम%का नाश होकर शाश्वत सुkरूप मोक्षकी प्रान्तिप्त होती है । इसशि>ये इस गं्रथको पढ़ना–सुनना निनरन्तर भावना रkनी ऐसा आशय है ।।106।।

इस प्रकार श्रीकुन्दकुन्द आचाय%ने यह मोक्षपाहुO ग्रंथ संपूण% निकया । इसका संक्षेप इस प्रकार ह ै निक—यह ीव शुद्ध दश%नज्ञानमयी चेतना-वरूप ह ै तो भी अनादिदहीसे पुद्ग> कम%के संयोगस े अज्ञान मिमथ्यात्व रागदे्वषादिदक निवभावरूप परिरणमता ह ै इसशि>य े नवीन कम%बंधके संतानसे संसारमें भ्रमण करता है । ीवकी प्रवृभित्तके शिसद्धांतमे समान्यरूपसे चौदह गुणस्थान निनरूपण निकय े हैं—इनम ें मिमथ्यात्वके उदयस े मिमथ्यात्व गुणस्थान होता है, मिमथ्यात्वकी सहकारिरणी अनंतानुबंधी कषाय है, केव> उसके उदयस े सासादन गुणस्थान होता है और सम्यक्त्व–मिमथ्यात्व दोनोंके मिम>ापरूप मिमश्रप्रकृनितके उदयसे मिमश्रगुणस्थान होता है, इन तीन गुणस्थानोंमें तो आत्मभावनाका अभाव ही है ।

ब *का>>स्तिब्धके निनमिमत्तसे ीवा ीव पदाथ�का ज्ञान–श्रद्धान होने पर सम्यक्त्व होता ह ै तब इस ीवको अपना और परका, निहत–अनिहतका तथा हेय–उपादेयका ानना होता है तब आत्माकी भावना होती है तब अनिवरतनाम चौथा गुणस्थान होता है । ब एकदेश परद्रव्यसे निनवृभित्तका परिरणाम होता ह ै तब ो एकदेशचारिरत्ररूप पाँचवा ँ गुणस्थान होता है उसको श्रावकपद कहते हैं । सव%देश परद्रव्यसे निनवृभित्तरूप परिरणाम हो तब सक>चारिरत्ररूप छट्ठा गुणस्थान होता है, इसमें कुछ संज्व>न चारिरत्रमोहके तीव्र उदयसे -वरूपके साधनेमें प्रमाद होता है, इसशि>ये इसका नाम प्रमत्त है, यहाँ य े >गाकर ऊपरके गुणस्थानवा>ों को साधु कहते हैं ।

(*-वसन्मुkतारूप निन परिरणामकी प्रान्तिप्तका नाम ही उपादानरूप निनश्चयका>>स्तिब्ध है, वह हो तो उस समय बाह्य द्रव्य–क्षेत्र–का>ादिद उशिचत सामग्री निनमिमत्त है—उपचार कारण है, अन्यथा उपचार भी नहीं ।)

ब संज्व>न चारिरत्रमोहका मंद उदय होता है तब प्रमादका अभाव होकर -वरूपके साधनेम ें बड़ा उद्यम होता ह ै तब इसका नाम अप्रमत्त ऐसा सातवा ँ गुणस्थान है, इसमें धम%ध्यानकी पूण%ता है । ब इस गुणस्थानमें -वरूपमें >ीन हो तब सानितशय अप्रमत्त होता है, श्रेणीका प्रारंभ करता ह ै तब इसस े ऊपर चारिरत्रमोहका अव्यक्त उदयरूप अपूव%करण,

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अनिनवृभित्तकरण, सूक्ष्मसंपराय नाम धारक ये तीन गुणस्थान होते ह ैं । चौथेसे >गाकर दसवें सूक्ष्मसंपराय तक कम%की निन %रा निवशेषरूपसे गुणश्रेणीरूप होती है ।

इससे ऊपर मोहकम%के अभावरूप ग्यारहवाँ, बारहवाँ, उपशांतकषाय, क्षीणकषाय गुणस्थान होते हैं । इसके पीछे शेष तीन घानितया कम�का नाशकर अनंत चतुष्टय प्रगट होकर अरहंत होता है यह सयोगी जि न नाम गुणस्थान है, यहाँ योगकी प्रवृभित्त है । योगोंका निनरोधकर अयोगी जि न नामका चौदहवा ँ गुणस्थान होता है, यहा ँ अघानितया कम�का भी नाश करके >गता ही अनंतर समयमें निनवा%णपदको प्राप्त होता है, यहाँ संसारके अभावसे मोक्ष नाम पाता है ।

इस प्रकार सब कम�का अभावरूप मोक्ष होता है, इसके कारण सम्यग्दश%न–ज्ञान–चारिरत्र कहे, इनकी प्रवृचिA चौर्थे गुणस्थानसे सम्र्यक्त्व प्रगट होनेपर एकदेश होती है, यहाँसे >गाकर आगे ैसे– ैसे कम%का अभाव होता है वैसे–वैसे सम्यग्दश%न आदिदकी प्रवृभित्त बढ़ती ाती है और ैसे– ैसे इनकी प्रवृभित्त बढ़ती है वैसे–वैसे कम%का अभाव होता ाता है, ब घानित कम%का अभाव होता है तब तेरहवें गुणस्थानमें अरहंत होकर ीवनमुक्त कह>ाते हैं और चौदहवें गुणस्थानके अंतमें रत्नत्रयकी पूण%ता होती है, इसशि>ये अघानित कम%का भी नाश होकर अभाव होता है तब साक्षात् मोक्ष होकर शिसद्ध कह>ाते हैं ।

इसप्रकार मोक्षका और मोक्षके कारणका -वरूप जि न–आगमस े ानकर और सम्यग्दश%न–ज्ञान–चारिरत्र मोक्षके कारण कह े ह ैं इनको निनश्चय–व्यवहाररूप यथाथ% ानकर सेवन करना । तप भी मोक्षका कारण है उसे भी चारिरत्रमें अंतभू%त कर त्रयात्मक ही कहा है । इस प्रकार इन कारणोंसे प्रथम तो तद्भव ही मोक्ष होता है । बतक कारणकी पूण%ता नहीं होती है उससे पनिह>े कदाशिचत् आयुकम%की पूण%ता हो ाय तो -वग%में देव होता है, वहाँ भी र्यह वांछा रहती ह ै र्यह *शुभोपर्योगका अपराध है, यहांस े चयकर मनुष्य होऊँगा तब सम्यग्दश%नादिद मोक्षमाग%का सेवनकर मोक्ष प्राप्त करँूगा, ऐसी भावना रहती ह ै तब वहाँसे चयकर मोक्ष पाता है । (*पुरुषाथ%शिसजिद्ध–उपाय श्लोक नं0 220 ‘‘रत्नत्रयरूप धम% है वह निनवा%णका ही कारण है और उस समय पुhयका आस्रव होता है वह अपराध शुभोपयोगका है ।’’)

अभी इस पंचमका>में द्रव्य, के्षत्र, का>, भावकी सामग्रीका निनमिमत्त नहीं है इसशि>ये तद्भव मोक्ष नहीं है, तो भी ो रत्नत्रयका शुद्धतापूव%क पा>न करे तो यहाँसे देव पया%य पाकर पीछे मनुष्य होकर मोक्ष पाता है । इसशि>ये यह उपदेश है– ैसे बने वैसे रत्नत्रयकी प्रान्तिप्तका उपाय करना, इसमें भी सम्र्यग्दश�न प्रधान है इसका उपार्य तो अवश्र्य चाविहर्ये इसशि>ये जि नागमको समझकर सम्यक्त्वका उपाय अवश्य करना योग्य है, इसप्रकार इस ग्रंथका संक्षेप ानो ।

छप्पय

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सम्र्यग्दश�न ज्ञान चरण शिशवकारण जानूं,ते विनश्चर्य व्यवहाररूप नीकैं लखिख मानूं ।सेवो विनशदिदन भचि}भाव धरिर विनजबल सारू,जिजन आज्ञा चिसर धारिर अन्र्यमत तजिज अघकारू ।।इस मानुषभवकंू पार्यके अन्र्य चारिरत मवित धरो ।भविवजीवविनकंू उपदेश र्यह गविहकरिर शिशवपद संचरो ।।1।।

दोहाबंदंू मंगलरूपं जे अर मंगलकरतार ।पंच परम गुरु पद कमल गं्रर्थ अंत विहतकार ।।2।।

यहा ँ कोई पूछे निक—ग्रन्थोंमें हाँ–तहाँ, पंच णमोकारकी मनिहमा बहुत शि>kी है, मंग>काय%म ें निवघ्नको दूर करनेके शि>य े इस े ही प्रधान कहा ह ै और इसम ें पंच–परमेष्ठीको नम-कार है वह पंचपरमेष्ठीकी प्रधानता हुई, पंचपरमेष्ठीको परम गुरु कहे इसमें इसी मंत्रकी मनिहमा तथा मंग>रूपपना और इसस े निवघ्नका निनवारण, पंच–परमेष्ठीके प्रधानपना और गुरुपना तथा नम-कार करने योग्यपना कैसे है ? वह कहो ।

इसके समाधानरूप कुछ शि>kते ह ैं :–प्रथम तो पंचणमोकार मंत्र है, इसके पैंतीस अक्षर हैं, ये मंत्रके बी ाक्षर ह ैं तथा इनका योग सब मंत्रोंस े प्रधान है, इन अक्षरोंका गुरु आम्नायसे शुद्ध उच्चारण हो तथा साधन यथाथ% हो तब ये अक्षर काय%में निवघ्नके दूर करनेमें कारण है इसशि>ये मंग>रूप हैं । म अथा%त् पापको गा>े उसे मंग> कहते हैं तथा मंग अथा%त् सुkको >ावे, दे, उसको मंग> कहते हैं, इससे दोनों काय% होते हैं । उच्चारणसे निवघ्न ट>ते हैं, अथ%का निवचार करने पर सुk होता है, इसीसे इसको मंत्रोमें प्रधान कहा है, इस प्रकार तो मंत्रके आश्रय मनिहमा है ।

पंचपरमष्ठीको नम-कार इसमें है—वे पंचपरमेष्ठी अरहंत, शिसद्ध, आचाय%, उपाध्याय और साध ु य े हैं, इनका -वरूप तो ग्रन्थोंम ें प्रशिसद्ध है, तो भी कुछ शि>kत े ह ैं :—यह अनादिदनिनधन अकृनित्रम सव%ज्ञकी परंपरासे शिसद्ध आगममें कहा है ऐसा परद्रव्य-वरूप >ोक है, इसम ें ीवद्रव्य अनंतानंत ह ैं और पुद्ग>द्रव्य इनस े अनंतानंत गुण े हैं, एक–एक धम%द्रव्य, अधम%द्रव्य, आकाशद्रव्य ह ैं और का>द्रव्य असंख्यात द्रव्य ह ै । ीव तो दश%नज्ञानमयी चेतना-वरूप है । अ ीव पाँच हैं ये चेतनारनिहत ड़ हैं—धम%, अधम%, आकाश और का> ये चार द्रव्य तो ैसे हैं वैसे ही रहते हैं इनके निवकारपरिरणनित नहीं है, ीव–पुद्ग>द्रव्यके परस्पर निनमिमत्त–नैमिमभित्तकभावस े निवभावपरिरणनित ह ै इनम ें भी पुद्ग> तो ड़ है, इसके

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निवभावपरिरणनितका दुःk-सुkका संवेदन नहीं ह ै और ीव चेतन ह ै इसके सुk–दुःkका संवेदन है ।

ीव अनन्तानंत हैं इनमें कई तो संसारी हैं, कई संसारसे निनवृत्त होकर शिसद्ध हो चुके हैं । संसारी ीवोंमें कई तो अभव्य हैं तथा अभव्यके समान हैं, ये दोनों ानितके संसारसे निनवृत्त कभी नहीं होते हैं, इनके संसार अनादिदनिनधन है । कई भव्य हैं, ये संसारसे निनवृत्त होकर शिसद्ध होते हैं, इसप्रकार ीवोंकी व्यवस्था है । अब इनके संसारकी उत्पभित्त कैसे है वह कहते हैं :—

ीवोंके ज्ञानावरणादिद आठ कम}का अनादिदबंधरूप पया%य है, इस बंधके उदयके निनमिमत्तस े ीव रागदे्वषमोहादिद निवभावपरिरणनितरूप परिरणमता है, इस निवभावपरिरणनितके निनमिमत्तस े नवीन कम%बंध होता है, इसप्रकार इनके संतानपरंपरास े ीवके चतुग%नितरूप संसारकी प्रवृभित्त होती है, इस संसारमें चारों गनितयोंमें अनेक प्रकार सुk–दुःkरूप हुआ भ्रमण करता है; तब कोई का> ऐसा आवे ब मुक्त होना निनकट हो तब सव%ज्ञके उपदेशका निनमिमत्त पाकर अपन े -वरूपको और कम%बंधके -वरूपको अपने भीतरी निवभावके -वरूपको ाने इनका भेदज्ञान हो, तब परद्रव्यको संसारका निनमिमत्त ानकर इसस े निवरक्त हो, अपने -वरूपके अनुभवका साधन करे—दश%न—ज्ञानरूप -वभावमें ण्डिस्थर होनेका साधन करे तब इसके बाह्यसाधन हिहंसादिदक पंच पापोंका त्यागरूप निनग्र�थ पद,–सब परिरग्रहकी त्यागरूप निनग्र�थ दिदगम्बर मुद्रा धारण करे, पाँच महाव्रत, पाँच समिमनितरूप, तीन गुन्तिप्तरूप प्रवत� तब सब ीवों पर दया करनेवा>ा साधु कह>ाता है ।

इसमें तीन पद होते हैं— ो आप साधु होकर अन्यको साधुपदकी शिशक्षा–दीक्षा दे वह आचाय% कह>ाता है, साधु होकर जि नसूत्रको पढे ़पढ़ाये वह उपाध्याय कह>ाता है, ो अपने -वरूपके साधनमें रहे वह साधु कह>ाता है, ो साधु होकर अपने -वरूपके साधनके ध्यानके ब>से चार घानितया कम�का नाशकर केव>ज्ञान, केव>दश%न, अनन्तसुk और अनन्तवीय%को प्राप्त हो वह अरहंत कह>ाता है, तब तीथ�कर तथा सामान्यकेव>ी—जि न इन्द्रादिदकसे पूज्य होता है, इनकी वाणी खिkरती है जि ससे सब ीवोंका उपकार होता है, अहिहंसा धम%का उपदेश होता है, सब ीवोंकी रक्षा कराते हैं यथाथ% पदाथ�का -वरूप बताकर मोक्षमाग% दिदkाते हैं, इसप्रकार अरहंत पद होता है और ो चार अघानितया कम�का भी नाशकर सब कम�से रनिहत हो ाते हैं वह शिसद्ध कह>ाते हैं ।

इस प्रकार ये पाँच पद हैं, ये अन्य सब ीवोंसे महान हैं इसशि>ये पंचपरमेष्ठी कह>ाते हैं, इनके नाम तथा -वरूपके दश%न, -मरण, ध्यान, पू न, नम-कारस े अन्य ीवोंके शुभपरिरणाम होते हैं इसशि>ये पापका नाश होता है, वत%मान निवघ्नका निव>य होता है आगामी पुhयका बंध होता है, इसशि>ए -वगा%दिदक शुभगनित पाता ह ै । इनकी आज्ञानुसार प्रवत%नेसे परंपरासे संसारसे निनवृभित्त भी होती है, इसशि>ये ये पाँच परमेष्ठी सब ीवोंके उपकारी परमगुरु

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हैं, सब संसारी ीवोंसे पूज्य हैं । इनके शिसवाय अन्य संसारी ीव राग–दे्वष–मोहादिद निवकारों से मशि>न हैं, ये पूज्य नहीं है, इनके महानपना, गुरुपना, पूज्यपना नहीं है, आपही कम�के वश मशि>न हैं तब अन्यका पाप इनसे कैसे कटे ?

इस प्रकार जि नमतमें इन पंच परमेष्ठीका महानपना प्रशिसद्ध है और न्यायके ब>से भी ऐसा ही शिसद्ध होता है, क्योंनिक ो संसारके भ्रमणसे रनिहत हों वे ही अन्यके संसारका भ्रमण मिमटानेका कारण होते हैं । ैसे जि सके पास धनादिद व-तु हो वही अन्यको धनादिदक दे और आप दरिरद्री हो तब अन्यकी दरिरद्रता कैसे मेटे, इस प्रकार ानना । जि नको संसारके दुःk मेटन े हों और संसारभ्रमणके दुःkरूप न्म–मरणस े रनिहत होना हो व े अरहंतादिदक पंच परमेष्ठीका नाम मंत्र पो, इनके -वरूपका दश%न, -मरण, ध्यान करो, इससे सुभ परिरणाम होकर पापका नाश होता है, सब निवघ्न ट>ते हैं, परंपरासे संसारका भ्रमण मिमटता है, कम�का नाश होकर मुशिक्तकी प्रान्तिप्त होती है, ऐसा जि नमतका उपदेश है अतः भव्य ीवोंके अंगीकार करने योग्य है ।

यहा ँ कोई कहे—अन्यमतमें ब्रह्मा, निवष्णु, शिशव आदिदक इष्टदेव मानते ह ैं उनके भी निवघ्न ट>ते देkे ाते हैं तथा उनके मतमें रा ादिद बडे़–बड़े पुरुष देkे ाते हैं, उनके भी वे इष्ट निवघ्नादिदकको मेटनेवा> े ह ैं ऐसे ही तुम्हार े भी कहत े हो, ऐसा क्यों कहत े हो निक यह पंचपरमेष्ठी ही प्रधान ह ैं अन्य नहीं ह ैं ? उसको कहत े हैं, ह े भाई ! ीवोंके दुःk तो संसारभ्रमणका है और संसारभ्रमणके कारण राग दे्वष मोहादिदक परिरणाम हैं तथा रागादिदक वत%मानमें आकु>तामयी दुःk-वरूप हैं, इसशि>ये य े ब्रह्मादिदक इष्टदेव कहे य े तो रागादिदक तथा काम–क्रोधादिद युक्त है, अज्ञानतपके फ>स े कई ीव सब >ोकम ें चमत्कारसनिहत रा ादिदक बड़ा पद पाते हैं, उनको >ोग बOा़ मानकर ब्रह्मादिदक भगवान कहने >ग ाते हैं और कहते हैं निक यह परमेश्वर ब्रह्माका अवतार है, तो ऐसे माननेसे तो कुछ मोक्षमागN तथा मोक्षरूप होता नहीं है, संसारी ही रहता है ।

ऐसे ही अन्यदेव सब पदवा>े ानने, वे आपही रागादिदकसे दुःkरूप हैं, न्म–मरण सनिहत हैं वे परका–संसारका दुःk कैसे मेटेंग े ? उनके मतमें निवघ्नका ट>ना और रा ादिदक बड़े पुरुष होते कहे ाते हैं, वहाँ तो उन ीवोंके पनिह>े कुछ शुभकम% बँधे थे उनका फ> है । पूव% न्ममें हिकंशिचत् शुभ परिरणाम निकया था इसशि>ये पुhयकम% बँधा था, उसके उदयसे कुछ निवघ्न ट>ते हैं और रा ादिदक पद पाते हैं, वह तो पनिह>े कुछ अज्ञानतप निकया है उसका फ> है, यह तो पुhयपापरूप संसारकी चेष्टा है, इसमें कुछ बड़ाई नहीं है, बड़ाई तो वह है जि ससे संसारका भ्रमण मिमटे सो र्यह तो वीतरागविवज्ञान भावोंसे ही मिमटेगा, इस वीतरागनिवज्ञान भावयुक्त पंच परमेष्ठी हैं ये ही संसारभ्रमणका दुःk मिमटानेमें कारण हैं ।

वत%मानमें कुछ पूव% शुभकम%के उदयसे पुhयका चमत्कार देkकर तथा पापका दुःk देkकर भ्रममें नहीं पड़ना, पुण्र्य-पाप दोनों संसार ह ैं इनसे रनिहत मोक्ष है, अतः संसारसे

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छूटकर मोक्ष हो ऐसा उपाय करना । वत%मानका भी निवघ्न ैसा पंचपरमेष्ठीके नाम, मंत्र, ध्यान, दश%न, -मरणसे मिमटेगा वैसा अन्यके नामादिदकसे तो नहीं मिमटेगा, क्योंनिक ये पंचपरमेष्ठी ही शांनितरूप हैं, केव> शुभ परिरणामोंहीके कारण हैं । अन्य इष्टके रूप तो रौद्ररूप हैं, इनके दश%न -मरण तो रागादिदक तथा भयादिदकके कारण हैं, इनसे तो शुभ परिरणाम होते दिदkते नहीं ह ैं । निकसीके कदाशिचत ् कुछ धमा%नुरागके वशसे शुभ परिरणाम हों तो वह उनसे हुआ नहीं कह>ाता, उस प्राणीके -वाभानिवक धमा%नुरागके वशसे होता हैं । इसशि>ये अनितशयवान शुभ परिरणामका कारण तो शांनितरूप पंच परमेष्ठीहीका रूप है, अतः इसीका आराधन करना, वृथा kोटी युशिक्त सुनकर भ्रममें नहीं पड़ना, ऐसे ानना ।

इनित श्री कुन्दकुन्द-वामी निवरशिचत मोक्षप्राभृतकी यपुरनिनवासी पं0 यचन्द्र ी छावड़ा कृत देशभाषामय वचनिनकाका निहन्दी भाषानुवाद समाप्त ।।6।।

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लिलंगपाहु)7

अथ लि>ंगपाहुOकी वचनिनकाका अनुवाद शि>kते हैं :—(दोहा)

जिजनमुद्राधारक मुनी विनजस्वरूपकंू ध्र्यार्य ।कम� नाश शिशवसुख चिलर्यो बंदंू वितनके पांर्य ।।1।।

इस प्रकार मंग>के शि>ये जि न मुनिनयोंने शिशवसुk प्राप्त निकया उनको नम-कार करके श्रीकुन्दकुन्दआचाय%कृत प्राकृत गाथाबद्ध लि>ंगपाहुOनामक ग्रंथकी देशभाषामय वचनिनकाका अनुवाद शि>kा ाता है—प्रथम ही आचाय% मंग>के शि>ये इष्टको नम-कार कर ग्रन्थ करनेकी प्रनितज्ञा करते हैं :–

काऊण णमोकारं अरहंताणं तहेव चिसद्धाणं ।वोच्छामिम समणलिलंग ंपाहु)सyं समासेण ।।1।।कृत्वा नमस्कारं अह�ता ंतरै्थव चिसद्धानाम् ।वक्ष्र्यामिम श्रमणलिलंगं प्राभृतशास्तं्र समासेन ।।1।।

करीने नमन भगवंत श्री अहmतने, श्री चिसद्धने,भाखीश हंु संक्षेपर्थी मुविनलिलंगप्राभृतशास्त्रने. 1.

अथ% :—आचाय% कहते हैं निक मैं अरहन्तोंको नम-कार करके और वैसे ही शिसद्धोंको नम-कार करके तथा जि समें श्रमणलि>ंगका निनरूपण है इस प्रकार पाहुOशा-त्रको कहँूगा ।

भावाथ% :—इस का>में मुनिनका लि>ंग ैसा जि नदेवने कहा है उसमें निवपय%य हो गया, उसका निनषेध करनेके शि>ए यह लि>ंगनिनरूपण शा-त्र आचाय%न े रचा है, इसकी आदिदमें घानितकम%का नाशकर अनंतचतुष्टय प्राप्त करके अरहंत हुए, इन्होंन े यथाथ%रूपसे श्रमणका माग% प्रवता%या और उस लि>ंगको साधकर शिसद्ध हुए, इसप्रकार अरहंत शिसद्धोंको नम-कार करके ग्रन्थ करनेकी प्रनितज्ञा की है ।।1।।

आगे कहते हैं निक ो लि>ंग बाह्यभेष है वह अंतरंगधम%सनिहत काय%कारी है :—धम्मेण होइ लिलंगं ण लिलंगमAेण धम्मसंपAी ।जाणेविह भावधम्मं हिकं ते लिलंगेण कार्यव्वो ।।2।।

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धमtण भववित लिलंगं न लिलंगमाते्रण धम�संप्राप्ति=तः ।जानीविह भावधम� हिकं त ेलिलंगेन कत�व्यम् ।।2।।

होर्ये धरमर्थी लिलंग, धम� न लिलंगमात्रर्थी होर्य छे,रे ! भावधम� तंु जाण, तारे लिलंगर्थी शुं कार्य� छे ? 2.

अथ% :—धम% सनिहत ो लि>ंग होता ह ै परन्त ु लि>ंगमात्रहीस े धम%की प्राप्ती नहीं है, इसशि>ये हे भव्य ीव ! तू भावरूप धम%को ान और केव> लि>ंगहीसे तेरा क्या काय% होता है अथा%त् कुछ भी नहीं होता है ।

भावाथ% :—यहाँ ऐसा ानो निक—लि>ंग ऐसा शिचह्नका नाम है, वह बाह्य भेष धारण करना मुनिनका शिचह्न है, ऐसा यदिद अंतरंग वीतराग-वरूप धम% हो तो उस सनिहत तो यह शिचह्न सत्याथ% होता ह ै और इस वीतराग-वरूप आत्माके धम%के निबना लि>ंग ो बाह्य भेषमात्रसे धम%की संपभित्त–सम्यक् प्रान्तिप्त नहीं है, इसशि>य े उपदेश दिदया ह ै निक अंतरंग भावधम% रागदे्वषरनिहत आत्माका शुद्ध ज्ञान-दश%नरूप -वभावधम% है उसे हे भव्य ! तू ान, इस बाह्य लि>ंग भेषमात्रसे क्या काम है ? कुछ भी नहीं । यहाँ ऐसा भी ानना निक जि नमतमें लि>ंग तीन कह े हैं—एक तो मुनिनका यथा ात दिदगम्बर लि>ंग 1, दू ा उत्कृष्ट श्रावकका 2, ती ा आर्मियंकाका 3, इन तीनोंही लि>ंगोको धारण कर भ्रष्ट हो ो कुनिक्रया करते हैं इसका निनषेध है । अन्यमतके कई भेष हैं इनको भी धारण करके ो कुनिक्रया करते हैं वह भी हिनंदा पाते हैं, इसशि>य े भेष धारण करक े कुनिक्रया नहीं करना ऐसा बताया है ।।2।।

आगे कहते ह ैं निक ो जि नलि>ंग निनग्र�थ दिदगम्बर-वरूपको ग्रहणकर कुनिक्रया करके हँसी कराते हैं वे ीव पापबुजिद्ध हैं :—

जो पावमोविहदमदी लिलंग ंघेAूण जिजणवरिरंदाणं ।उवहसदिद लिलंविगभावं *लिलंविगप्तिम्मर्य णारदो लिलंगी ।।3।। पाठान्तरः—‘लि>ंनिगस्त्रिम्मय णारदो लि>ंगी’ के स्थान पर ‘लि>ंगं णासेदिद लि>ंगीणं ।’

र्यः पापमोविहतमवितः लिलंगं गृहीत्वा जिजनवरेन्द्राणाम् ।उपहसवित लिलंविगभावं लिलंविगषु नारदः लिलंगी ।।3।।

जे पापमोविहतबुशिद्ध, जिजनवरलिलंग धरी, लिलंविगत्वने,उपहचिसत करतो, ते विवघाते लिलंगीओना लिलंगने. 3.

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अथ% :— ो जि नवरेन्द्र अथा%त् तीथ�कर देवके लि>ंग नग्न दिदगम्बररूपको ग्रहण करके लि>ंगीपनेके भावको उपहसता है—हा-यमात्र समझता है वह लि>ंगी अथा%त् भेषी जि सकी बुजिद्ध पापसे मोनिहत है वह नारद ैसा है अथवा इस गाथाके चौथे पादका पाठान्तर ऐसा है—‘‘लि>ंगं णासेदिद लि>ंगीणं’’ इसका अथ%—यह लि>ंगी अन्य ो कोई लि>ंगोंके धारक हैं उनके लि>ंगको भी नष्ट करता है, ऐसा बताता है निक लि>ंगी सब ऐसे ही हैं ।

भावाथ% :—लि>ंगधारी होकर भी पापबुजिद्धसे कुछ कुनिक्रया करे तब उसने लि>ंगपनेको हा-यमात्र समझा, कुछ काय%कारी नहीं समझा । लि>ंगीपना तो भावशुजिद्धसे शोभा पाता है, ब भाव निबगड़े तब बाह्य कुनिक्रया करने >ग गया तब इसने उस लि>ंगको > ाया और अन्य लि>ंनिगयोंके लि>ंगको भी क>ंक >गाया, >ोग कहने निक लि>ंगी ऐसे ही होत े ह ैं अथवा ैसे नारदका भेष है उसमें वह अपनी इच्छानुसार -वचं्छद प्रवत%ता है, वैसे ही यह भी भेषी ठहरा, इसशि>ये आचाय%ने ऐसा आशय धारण करके कहा है निक जि नेन्द्रके भेषको > ाना योग्य नहीं है ।।3।।

आगे लि>ंग धारण करके कुनिक्रया करे उसको प्रगट कहते हैं :—णच्चदिद गार्यदिद तावं वारं्य वाएदिद लिलंगरूवेण ।सो पावमोविहदमदी वितरिरक्खजोणी ण सो समणो ।।4।।नृत्र्यवित गार्यवित तावत् वादं्य वादर्यवित लिलंगरूपेण ।सः पापमोविहतमवितः वितर्य�ग्र्योविनः न सः श्रमणः ।।4।।

जे लिलंग धारी नृत्र्य, गार्यन, वाद्यवादनने करे,ते पापमोविहतबशुिद्ध छे वितर्यmचर्योविन, न श्रमण छे. 4.

अथ% :— ो लि>ंगरूप करके नृत्य करता ह ै गाता ह ै वादिदत्र ब ाता ह ै सो पापसे मोनिहत बुजिद्धवा>ा है, नितय�चयोनिन है, पशु है, श्रमण नहीं है ।

भावाथ% :—लि>ंग धारण करके भाव निबगाड़कर नाचना, गाना, ब ाना इत्यादिद निक्रयायें करता है वह पापबुजिद्ध है पशु है अज्ञानी है, मनुष्य नहीं है, मनुष्य हो तो श्रमणपना रक्kे । ैसे नारद भेषधारी नाचता है गाता है ब ाता है, वैसे यह भी भेषी हुआ तब उत्तम भेषको > ाया, इसशि>ये लि>ंग धारण करके ऐसा होना युक्त नहीं है ।।4।।

आगे निफर कहते हैं :—सम्मूहदिद रक्खेदिद र्य अटं्ट झाएदिद बहुपर्यAेण ।सो पावमोविहदमदी वितरिरक्खजोणी ण सो समणो ।।5।।

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समूहर्यवित रक्षवित च आAm ध्र्यार्यवित बहुप्रर्यत्नेन ।सः पापमोविहतमवितः वितर्य�ग्र्योविनः न सः श्रमणः ।।5।।

जे संग्रहे, रक्षे बहुश्रमपूव�, ध्र्यावे आत�ने,ते पापमोविहतबशुिद्ध छे वितर्यmचर्योविन, न श्रमण छे. 5.

अथ% :— ो निनग्र�थ लि>ंग धारण करके परिरग्रहको संग्रहरूप करता है अथवा उसकी वांछा लिचंतवन ममत्व करता है और उस परिरग्रहकी रक्षा करता है उसका बहुत यत्न करता है, उसके शि>ये आत्त%ध्यान निनरंतर ध्याता है, वह पापसे मोनिहत बुजिद्धवा>ा है, नितय�चयोनिन है, पशु है, अज्ञानी है, श्रमण तो नहीं है श्रमणपनेको निबगाड़ता है, ऐसे ानना ।।5।।

आगे निफर कहते हैं :—कलहं वादं जूवा शिणच्चं बहुमाणगप्तिव्वओ लिलंगी ।*वच्चदिद णरर्यं पाओ करमाणो लिलंविगरूवेण ।।6।।

*. पाठान्तरः—‘वच्च’ ‘बज्ज ।’कलहं वादं दू्यत ंविनत्र्यं बहुमानगर्विवंतः लिलंगी ।व्रजवित नरकं पापः कुवा�णः लिलंविगरूपेण ।।6।।

द्यूत जे रमे बहुमान—गर्विवंत वाद–लह सदा करे,लिलंगीरूपे करतो र्थको पापी नरकगामी बने. 6.

अथ% :— ो लि>ंगी बहुत मान कषायसे गव%मान हुआ निनरंतर क>ह करता है, वाद करता है, द्यूतक्रीड़ा करता है वह पापी नरकको प्राप्त होता है और पापसे ऐसे ही करता रहता है ।

भावाथ% :— ो गृहस्थरूप करके ऐसी निक्रया करता है उसको तो यह उ>ाहना नहीं है, क्योंनिक कदाशिचत् गृहस्थ तो उपदेशादिदकका निनमिमत्त पाकर कुनिक्रया करता रह ाय तो नरक न ावे, परन्तु लि>ंग धारण करके उसरूपसे कुनिक्रया करता है तो उसको उपदेश भी नहीं >गता है, इससे नरकका ही पात्र होता है ।।6।।

आगे निफर कहते हैं :—पाओपहदंभावो सेवदिद र्य अबंभु लिलंविगरूवेण ।सो पावमोविहदमदी हिहं)दिद संसारकंतारे ।।7।।पापोपहतभावः सेवते च अब्रह्म लिलंविगरूपेण ।

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सः पापमोविहतमवितः हिहं)त ेसंसारकांतारे ।।7।।जे पाप–उपहतभाव सेवे लिलंगमां अब्रह्मने,ते पापमोविहतबशुिद्धने परिरभ्रमण संसृवितकानने. 7.

अथ% :—पापसे उपहत अथा%त् घात निकया गया है आत्मभाव जि सका ऐसा होता हुआ ो लि>ंगीका रूप करके अब्रह्मका सेवन करता ह ै वह पापस े मोनिहत बुजिद्धवा>ा लि>ंगी संसाररूपी कांतार—वनमें भ्रमण करता है ।

भावाथ% :—पनिह>े तो लि>ंग धारण निकया और पीछे ऐसा पाप—परिरणाम हुआ निक व्यभिभचार सेवन करने >गा, उसकी पाप–बुजिद्धका क्या कहना ? उसका संसारमें भ्रमण क्यों न हो ? जि सके अमृत भी हररूप परिरणमे उनके रोग ानेकी क्या आशा ? वैसे ही यह हुआ, ऐसे का संसार कटना कदिठन है ।।7।।

आगे निफर कहते हैं :—दंसणणाणचरिरAे उवहाणे जइ ण लिलंगरूवेण ।अटं्ट झार्यदिद झाणं अणंतसंसारिरओ होदिद ।।8।।दश�नज्ञानचारिरत्राशिण उपधानाविन र्यदिद न लिलंगरूपेण ।आAm ध्र्यार्यवित ध्र्यान ंअनंतसंसारिरकः भववित ।।8।।

ज्र्यां लिलंगरूपे ज्ञानदश�नचरणनुं धारण नहीं,ने ध्र्यान ध्र्यावे आत�, तेह अनंतसंसारी मुविन. 8.

अथ% :—यदिद लि>ंगरूप करके दश%न ज्ञान चारिरत्रको तो उपधानरूप नहीं निकय े (–धारण नहीं निकये) और आत्त%ध्यानको ध्याता है तो ऐसा लि>ंगी अनन्तसंसारी होता है ।

भावाथ% :—लि>ंग धारण करके दश%न ज्ञान चारिरत्रका सेवन करना था वह तो नहीं निकया और परिरग्रह कुटुम्ब आदिद निवषयोंका परिरग्रह छोOा़ उसकी निफर लिचंता करके आत्त%ध्यान ध्याने >गा तब अनंतसंसारी क्यों न हो ? इसका यह तात्पय% है निक—सम्यग्दश%नादिदरूप भाव तो पनिह>े हुए नहीं और कुछ कारण पाकर लि>ंग धारण कर शि>या, उसकी अवमिध क्या ? पनिह>े भाव शुद्ध करके लि>ंग धारण करना युक्त है ।।8।।

आगे कहते हैं निक यदिद भावशुजिद्धके निबना गृहस्थपद छोडे़ तो यह प्रवृभित्त होती है :–जो जो)ेदिद विववाहं विकचिसकम्मवशिणज्जजीवघादं च ।वच्चदिद णरर्यं पाओ करमाणो लिलंविगरूवेण ।।9।।

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र्यः र्योजर्यवित विववाहं कृविषकम�वाशिणज्र्यजीवघातं च ।व्रजवित नरकं पापः कुवा�णः लिलंविगरूपेण ।।9।।

जो)े विववाह, करे कृविष–व्यापार–जीवविवघात जे,लिलंगीरूपे करतो र्थको पापी नरकगामी बने. 9.

अथ% :— ो गृहस्थोंके परस्पर निववाह ोड़ता है—सम्बन्ध कराता है, कृनिषकम% kेती बाहना निकसानका काय%, वाभिणज्य व्यापार अथा%त ् वैश्यका काय% और ीवघात अथा%त् वैद्यकम%के शि>ये ीवघात करना अथवा धीवरादिदका काय%, इन काय�को करता है वह लि>ंगरूप घारण करके ऐसे पापकाय% करता हुआ पापी नरकको प्राप्त होता है ।

भावाथ% :—गृहस्थपद छोड़कर शुभभाव निबना लि>ंगी हुआ था, इसके भावकी भावना मिमटी नहीं तब लि>ंगीका रूप धारण करके भी गृहस्थोंके काय% करने >गा, आप निववाह नहीं करता है तो भी गृहस्थोंके संबंध कराकर निववाह कराता है तथा kेती, व्यापार ीवहिहंसा आप करता है और गृहस्थोंको कराता है, तब पापी होकर नरक ाता है । ऐसे भेष धारनेसे तो गृहस्थ ही भ>ा था, पदका पाप तो नहीं >गता, इसशि>ये ऐसे भेष धारण करना उशिचत नहीं है यह उपदेश है ।।9।।

आगे निफर कहते हैं :—चोराण *लाउराण र्य जुद्ध विववादं च वितव्वकम्मेहिहं ।जंतेण दिदव्वमाणो गच्छदिद लिलंगी णरर्यवासं ।।10।।

1—मुदिद्रत सटीक सं-कृत प्रनित में ‘समाएण’ ऐसा पाठ है जि सकी छायामें ‘मिमथ्यात्वादीनां’ इस प्रकार है ।चौराणां लापराणां च र्युद्ध विववादं च तीव्रकम�शिभः ।र्यंते्रण दीव्यमानः गच्छवित लिलंगी नरकवासं ।।10।।

चोरो—लबा)ोने ल)ावे, तीव्र परिरणामो करे,चोपाट—आदिदक जे रमे, लिलंगी नरकगामी बने. 10.

अथ% :— ो लि>ंगी ऐसे प्रवत%ता है वह नरकवासको प्राप्त होता है; ो चोरोंके और >ापर अथा%त् झूठ बो>ने वा>ोंके युद्ध और निववाद कराता है और तीव्रकम% जि नमें बहुत पाप उत्पन्न हो ऐस े तीव्र कषायोंके काय�स े तथा यंत्र अथा%त ् चौपड़, शतरं , पासा, हिहंदो>ा आदिदसे क्रीOा ़ करता रहता है, वह नरक ाता है । यहा ँ >ाउराणं का पाठांतर ऐसा भी है राउ>ाण ं इसका अथ%—राव> अथा%त ् रा काय% करनेवा>ोंके युद्ध निववाद कराता है, ऐसे ानना ।

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भावाथ% :—लि>ंग धारण करके ऐसे काय% करे तो नरक ही पाता है इसमें संशय नहीं है ।।10।।

आगे कहते हैं निक ो लि>ंग धारण करके लि>ंगयोग्य काय% करता हुआ दुःkी रहता है, उन काय�का आदर नहीं करता है, वह भी नरकमें ाता है :—

दंसणणाणचरिरAे तवसंजमशिणर्यमशिणच्चकम्मप्तिम्म ।पी)र्यदिद वट्टमाणो पावदिद लिलंगी णरर्यवासं ।।11।।दश�नज्ञान चारिरते्रषु तपः संर्यमविनर्यमविनत्र्यकम�सु ।पीड्यते वत�मानः प्राप्नोवित लिलंगी नरकवासम् ।।11।।

दृगज्ञानचरणे, विनत्र्यकमt, तपविनर्यमसंर्यम विवषे,जे वत�तो पी)ा करे, लिलंगी नरकगामी बने. 11.

अथ% :— ो लि>ंग धारण करके इन निक्रयाओंको करता हुआ बाध्यमान होकर पीOा़ पाता है, दुःkी होता है वह लि>ंगी नरकवासको पाता है । वे निक्रयायें क्या हैं ? प्रथम तो दश%न ज्ञान चारिरत्रम ें इनका निनश्चय–व्यवहाररूप धारण करना, तप–अनशनादिदक बारह प्रकारके शशिक्तके अनुसार करना, संयम–इजिन्द्रयोंको और मनको वशम ें करना तथा ीवोंकी रक्षा करना, निनयम अथा%त ् निनत्य कुछ त्याग करना और निनत्यकम% अथा%त ् आवश्यक आदिद निक्रयाओंको निनयत समय पर निनत्य करना, ये लि>ंगके योग्य निक्रयायें हैं, इन निक्रयाओंको करता हुआ दुःkी होता है वह नरक पाता है । (‘‘आतम निहत हेतु निवराग–ज्ञान, सो >kै आपको कष्टदान’’ मुनिनपद = मोक्षमाग% उसको तो वह कष्टदाता मानता है अतः वह मिमथ्यारुशिचवान है)

भावाथ% :—लि>ंग धारण करके ये काय% करने थे, इनका तो निनरादर करे और प्रमाद सेवे, लि>ंगके योग्य काय% करता हुआ दुःkी हो, तब ानो निक इसके भावशुजिद्धपूव%क लि>ंगग्रहण नहीं हुआ और भाव निबगड़ने पर तो उसका फ> नरक ही होता है, इस प्रकार ानना ।।11।।

आगे कहते हैं निक ो भो नमें भी रसोंका >ो>ुपी होता है वह भी लि>ंगको > ाता है :—

कंद=पाइर्य वट्टइ करमाणो भोर्यणेसु रसविगणिदं्ध ।मार्यी लिलंगविववाई वितरिरक्खजोणी ण सो समणो ।।12।।कंदपा�दिदषु वत�त ेकुवा�णः भोजनेषु रसगृशिद्धम् ।मार्यावी लिलंगव्यवार्यी वितर्य�ग्र्योविनः न सः श्रमणः ।।12।।

जे भोजने रसगृशिद्ध करतो वत�तो कामादिदके,

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मार्यावी लिलंगविवनाशी ते वितर्यmचर्योविन, न श्रमण छे. 12.अथ% :— ो लि>ंग धारण करके भो नमें भी रसकी गृजिद्ध अथा%त् अनित आसक्तताको

करता रहता ह ै वह कंदप% आदिदकम ें वत%ता है, उसके काम–सेवनकी वांछा तथा प्रमाद निनद्रादिदक प्रचुर मात्रामें बढ़ ाते हैं तब लि>ंगव्यबायी अथा%त् व्यभिभचारी होता है, मायवी अथा%त् कामसेवनके शि>य े अनेक छ> करना निवचारता है, ो ऐसा होता ह ै वह नितय�चयोनिन है, पशुतुल्य है, मनुष्य नहीं है, इसशि>ये श्रमण भी नहीं है ।

भावाथ% :–गृहस्थपद छोड़कर आहारमें >ो>ुपता करने >गा तो गृहस्थपदमें अनेक रसी>े भो न मिम>ते थे, उनको क्यों छोड़े ? इसशि>ये ज्ञात होता है निक आत्मभावनाके रसको पनिहचाना ही नहीं है इसशि>ये निवषयसुkकी ही चाह रही तब भो नके रसकी, साथके अन्य भी निवषयोंकी चाह होती है तब व्यभिभचार आदिदमें प्रवत%कर लि>ंगको > ाता ह, ऐसे लि>ंगसे तो गृहस्थपद ही श्रेष्ठ है ऐसे ानना ।।12।।

आगे निफर इसीको निवशेषरूपसे कहते हैं :—धावदिद हिपं)शिणमिमAं कलहं काऊण भुञ्जदे हिपं)ं ।अवरपरूई संतो जिजणमखिग्ग ण होइ सो समणो ।।13।।धाववित हिपं)विनमिमAं कलहं कृत्वा भंु}े हिपं)म् ।अपरप्ररूपी सन् जिजनमाग² न भववित सः श्रमणः ।।13।।

हिपं)ार्थ� जे दो)े अने करी कलह भोजन जे करे,ईषा� करे जे अन्र्यनी, जिजनमाग�नो नविह श्रमण ते. 13.

अथ% :– ो लि>ंगधारी हिपंO अथा%त् आहारके निनमिमत्त दौड़ता है, आहारके निनमिमत्त क>ह करके आहारको भोगता है, kाता है, और उसके निनमिमत्त अन्यसे परस्पर ईषा% करता है वह श्रमण जि नमागN नहीं है ।

भावाथ% :—इस का>म ें जि नलि>ंगस े भ्रष्ट होकर अद्ध%फा>क हुए, पीछ े उनमें शे्वताम्बरादिदक संघ हुए, उन्होंन े शिशशिथ>ाचार पुष्ट कर लि>ंगकी प्रवृभित्त निबगाड़ी, उनका यह निनषेध है । इनमें अब भी कई ऐसे देkे ाते हैं ो—आहारके शि>ये शीघ्र दौड़ते हैं, ईया%पथकी सुध नहीं ह ै और आहार गृहस्थके घरस े >ाकर दो–चार शामिम> बैठकर kात े हैं, इसमें बटवारेमें, सरस, नीरस आवे तब परस्पर क>ह करते हैं और उसके निनमिमत्त परस्पर ईषा% करते हैं, इसप्रकारकी प्रवृभित्त करे तब कैसे श्रमण हुए ? वे जि नमागN तो हैं नहीं, कशि>का>के भेषी हैं । इनको साधु मानते हैं वे भी अज्ञानी हैं ।।13।।

आगे निफर कहते हैं :—

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विगण्हदिद अदAदाणं परणिणंदा विव र्य परोक्खदूसेहिहं ।जिजणलिलंगं धारंतो चोरेण व होइ सो समणो ।।14।।गृह्णावित अदAदानं परहिनंदामविप च परोक्षदूषणैः ।जिजनलिलंगं धारर्यन् चौरेणेव भववित सः श्रमणः ।।14।।

अणदAनंु ज्र्यां ग्रहण, जे असमक्ष परहिनंदा करे,जिजनलिलंगधारक हो छतां ते श्रमण चोर समान छे. 14.

अथ% :— ो निबना दिदया तो दान >ेता है और परोक्ष परके दूषणोंसे परकी हिनंदा करता है वह जि नलि>ंगको घारण करता हुआ भी चोरके समान श्रमण है ।

भावाथ% :— ो जि नलि>ंग धारण करके निबना दिदये आहार आदिदको ग्रहण करता है, परके देनेकी इच्छा नहीं ह ै परन्त ु कुछ भयादिदक उत्पन्न करके >ेना तथा निनरादरस े >ेना, शिछपकर काय% करना ये तो चोरके काय% हैं । यह भेष धारण करके ऐसे करने >गा तब चोर ही ठहरा, इसशि>ये ऐसा भेषी होना योग्य नहीं है ।।14।।

आगे कहते हैं निक ो लि>ंग धारण करके ऐसे प्रवत%ते हैं वे श्रमण नहीं हैं :—उ=प)दिद प)दिद धावदिद पुढवीओ खणदिद लिलंगरूवेण ।इरिरर्यावह धारंतो वितरिरक्खजोणी ण सो समणो ।।15।।उत्पतवित पतवित धाववित पृचिर्थवीं खनवित लिलंगरूपेण ।ईर्या�पंर्थ धारर्यन ्वितर्य�ग्र्योविनः न सः श्रमणः ।।15।।

लिलंगात्म ईर्या�समिमवितनो धारक छतां कूदे, प)े,दौ)े, उखा)े भोंर्य, ते वितर्यmचर्योविन, न श्रमण छे. 15.

अथ% :— ो लि>ंग धारण करके ईया%पथ शोधकर च>ना था उसमें शोधकर नहीं च>े, दौड़ता च>ता हुआ उछ>े, निगर पडे़, निफर उठकर दौडे़ और पृथ्वीको kोदे, च>ते हुए ऐसे पैर पटके ो उसमें पृथ्वी kुद ाय, इस प्रकारसे च>े सो नितय�चयोनिन है, पशु है, अज्ञानी है, मनुष्य नहीं है ।।15।।

आग े कहत े ह ैं निक ो वनस्पनित आदिद स्थावर ीवोंकी हिहंसास े कम%बंध होता है उसको न निगनता -वचं्छद होकर प्रवत%ता है, वह श्रमण नहीं है :—

बंधो शिणरओ संतो सस्सं खं)ेदिद तह र्य वसुहं विप ।

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लिछंददिद तरुगण बहुसो वितरिरक्खजोणी ण सो समणो ।।16।।बंधं नीरजाः सन सस्र्यं खं)र्यवित तर्था च वसुधामविप ।चिछनचिA तरुगणं बहुशः वितर्य�ग्र्योविनः न सः श्रमणः ।।16।।

जे अवगणीने बंध, खां)े धान्र्य, खोदे पृथ्वीने,बहु वृक्ष छेदे जेह, ते वितर्यmचर्योविन, न श्रमण छे. 16.

अथ% :— ो लि>ंग धारण करके वनस्पनित आदिदकी हिहंसासे बंध होता है उसको दोष न मानकर बंधको नहीं निगनता हुआ स-य अथा%त् अना को कूटता है और वैसे ही वसुधा अथा%त् पृथ्वीको kोदता ह ै तथा बारबार तरुगण अथा%त ् वृक्षोंके समूहको छेदता है, ऐसा लि>ंगी नितय�चयोनिन है, पशु है, अज्ञानी है, श्रमण नहीं है ।

भावाथ% :—वनस्पनित आदिद स्थावर ीव जि नसूत्रम ें कह े ह ैं और इनकी हिहंसासे कम%बंध होना भी कहा है उसको निनद}ष समझता हुआ कहता है निक—इसमें क्या दोष ह ै ? क्या बंध है? इसप्रकार मानता हुआ तथा वैद्य—कमा%दिदकके निनमिमत्त औषधादिदकको, धान्यको, पृथ्वीको तथा वृक्षोंको kंOता है, kोदता है, छेदता है वह अज्ञानी पशु है, लि>ंग धारण करके श्रमण कह>ाता है वह श्रमण नहीं है ।।16।।

आगे कहते हैं निक ो लि>ंग धारण करके स्त्रि-त्रयोंसे राग करता है और परको दूषण देता है वह श्रमण नहीं है :—

रागं करेदिद शिणच्चं मविहलावग्गं परं च दूसेदिद ।दंसणणाणविवहीणो वितरिरक्खजोणी ण सो समणो ।।17।।रागं करोवित विनत्र्यं मविहलावगm परं च दूषर्यवित ।दश�नज्ञानविवहीनः वितर्य�ग्र्योविनः न सः श्रमणः ।।17।।

स्त्रीवग� पर विनत राग करतो, दोष दे छे अन्र्यने,दृगज्ञानर्थी जे शून्र्य, ते वितर्यmचर्योविन, न श्रमण छे. 17.

अथ% :— ो लि>ंग धारण करके स्त्रि-त्रयोंके समूहके प्रनित तो निनरंतर राग–प्रीनित करता है और पर ो कोई अन्य निनद}ष हैं उनको दोष >गाता है वह दश%न–ज्ञानरनिहत है, ऐसा लि>ंगी नितय�चयोनिन है, पशु समान है, अज्ञानी है, श्रमण नहीं है ।

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भावाथ% :—लि>ंग धारण करनेवा>ेके सम्यग्दश%न–ज्ञान होता है और परद्रव्योंसे रागदे्वष नहीं करनेवा>ा चारिरत्र होता है । वहाँ ो -त्रीसमूहसे तो राग–प्रीनित करता है और अन्यके दोष >गाकर दे्वष करता है, व्यभिभचारीका सा -वभाव है, तो उसके कैसा दश%न–ज्ञान ? और कैसा चारिरत्र ? लि>ंग धारण करके लि>ंगके योग्य आचरण करना था वह नहीं निकया तब अज्ञानी पशु समान ही है, श्रमण कह>ाता ह ै वह आप भी मिमथ्यादृमिष्ट ह ै और अन्यको भी मिमथ्यादृमिष्ट करनेवा>ा है, ऐसेका प्रसंग भी युक्त नहीं है ।।17।।

आगे निफर कहते हैं :—पव्वज्जहीणगविहणं णेहं सीसप्तिम्म वट्टदे बहुसो ।आर्यारविवणर्यहीणो वितरिरक्खजोणी ण सो समणो ।।18।।प्रव्रज्र्याहीनगृविहशिण स्नेहं शिशष्र्ये वA�ते बहुशः ।आचारविवनर्यहीनः वितर्य�ग्र्योविनः न सः श्रमणः ।।18।।

दीक्षाविवहीन गृहस्थ ने शिशष्रे्य धरे बहु स्नेह जे,आचार–विवनर्यविवहीन, ते वितर्यmचर्योविन, न श्रमण छे. 18.

अथ% :— ो लि>ंगी ‘प्रव्रज्या–हीन’ अथा%त् दीक्षा–रनिहत गृहस्थों पर और शिशष्योंमें बहुत -नेह रkता है और आचार अथा%त् मुनिनयोंकी निक्रया और गुरुओंके निवनयसे रनिहत होता है वह नितय�चयोनिन है, पशु है, अज्ञानी है, श्रमण नहीं है ।

भावाथ% :—गृहस्थोंसे तो बारंबार >ा>पा> रक्kे और शिशष्योंसे बहुत -नेह रkे, तथा मुनिनकी प्रवृभित्त आवश्यक आदिद कुछ करे नहीं, गुरुओंके प्रनितकू> रहे, निवनयादिदक करे नहीं ऐसा लि>ंगी पशु समान है, उसको साधु नहीं कहते हैं ।।18।।

आगे कहते हैं निक ो लि>ंग धारण करके पूव}क्त प्रकार प्रवत%ता है वह श्रमण नहीं है ऐसा संक्षेपसे कहते हैं :—

एवं सविहओ मुशिणवर संजदमज्झप्तिम्म वट्टदे शिणच्चं ।बहुलं विप जाणमाणो भावविवणट्ठो ण सो समणो ।।19।।एवं सविहतः मुविनवर ! संर्यतमध्र्ये वA�त ेविनत्र्यम् ।बहुलमविप जानन् भावविवनष्टः न सः श्रमणः ।।19।।

इम वत�नारो संर्यतोनी मध्र्य विनत्र्य रहे भले,

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ने होर्य बहुशु्रत, तोर्य भावविवनष्ट छे, नविह श्रमण छे. 19.अथ% :—एवं अथा%त् पूव}क्त प्रकार प्रवृभित्त सनिहत ो वत%ता है वह हे मुनिनवर ! यदिद

ऐसा लि>ंगधारी संयमी मुनिनयोंके मध्य भी निनरन्तर रहता है और बहुत शा-त्रोंको भी ानता है तो भी भावोंसे नष्ट है, श्रमण नहीं है ।

भावाथ% :—ऐसा पूव}क्त प्रकार लि>ंगी ो सदा मुनिनयोंमें रहता है और बहुत शा-त्रोंको ानता है तो भी भाव अथा%त् शुद्ध दश%न–ज्ञान–चारिरत्ररूप परिरणामसे रनिहत है, इसशि>ये मुनिन नहीं है, भ्रष्ट है, अन्य मुनिनयोंके भाव निबगाड़नेवा>ा है ।।19।।

आगे निफर कहते ह ैं निक ो स्त्रि-त्रयोंका संसग% बहुत रkता ह ै वह भी श्रमण नहीं है :—

दंसणणाणचरिरAे मविहलावगप्तिम्म देदिद वीसट्ठो ।पासy विव हु शिणर्यट्ठो भावविवणट्ठो ण सो समणो ।।20।।दश�नज्ञानचारिरत्राशिण मविहलावगt ददावित विवश्वस्तः ।पाश्व�स्थादविप सु्फटं विवनष्टः भावविवनष्टः न सः श्रमणः ।।20।।

स्त्रीवग�मां विवश्वस्त दे छे ज्ञान—दश�न—चरण जे,पाश्व�स्थर्थी पण हीन भावविवनष्ट छे, नविह श्रमण छे. 20.

अथ% :— ो लि>ंग धारण करके स्त्रि-त्रयोंके समूहमें उनका निवश्वास करके और उनको निवश्वास उत्पन्न कराके दश%न–ज्ञान–चारिरत्रको देता ह ै उनको सम्यक्त्व बताता है, पढ़ना—पढा़ना, ज्ञान देता है, दीक्षा देता है, प्रवृभित्त शिसkाता है, इसप्रकार निवश्वास उत्पन्न करके उनमें प्रवत%ता है वह ऐसा लि>ंगी तो पाश्व%स्थसे भी निनकृष्ट है, प्रगट भावसे निवनष्ट है, श्रमण नहीं है ।

भावाथ% :— ो लि>ंग धारण करके स्त्रि-त्रयोंको निवश्वास उत्पन्न कराकर उनसे निनरंतर पढ़ना, पढा़ना, >ा>पा> रkना, उसको ानो निक इसका भाव kोटा है । पाश्व%स्थ तो भ्रष्ट मुनिनको कहते हैं उसमें भी यह निनकृष्ट है, ऐसेको साधु नहीं कहते हैं ।।20।।

आगे निफर कहते हैं :—पंुच्छचिलघरिर जो भुञ्जइ शिणच्चं संरु्थणदिद पोसए हिपं)ं ।पावदिद बालसहावं भावविवणट्ठो ण सो सवणो ।।21।।पंुश्चलीगृहे र्यः भंु}े विनत्र्यं संस्तौवित पुष्णावित हिपं)ं ।प्राप्नोवित बालस्वभावं भावविवनष्टः न सः श्रमणः ।।21।।

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असतीगृहे भोजन, करे स्तुवित विनत्र्य, पोषे हिपं) जे,अज्ञानभावे रु्य} भावविवनष्ट छे, नविह श्रमण छे. 21.

अथ% :— ो लि>ंगधारी पंुश्च>ी अथा%त् व्यभिभचारिरणी -त्रीके घर भो न >ेता है, आहार करता है और निनत्य उसकी -तुनित करता है निक—यह बड़ी धमा%त्मा है, इसके साधुओं की बड़ी भशिक्त है, इस प्रकारसे निनत्य उसकी प्रशंसा करता है इसप्रकार हिपंOको (शरीरको) पा>ता है वह ऐसा लि>ंगी बा>-वभावको प्राप्त होता है, अज्ञानी है, भावसे निवनष्ट है, वह श्रमण नहीं है ।

भावाथ% :— ो लि>ंग धारण करके व्यभिभचारिरणी का आहार kाकर हिपंO पा>ता है, उसकी निनत्य प्रशंसा करता है, तब ानो निक—यह भी व्यभिभचारी है, अज्ञानी है, उसको >ज्जा भी नहीं आती है, इस प्रकार वह भावसे निवनष्ट है, मुनिनत्वके भाव नहीं है, तब मुनिन कैसे ?

आगे इस लि>ंगपाहुOको समू्पण% करते हैं और कहते हैं निक ो धम%का यथाथ%रूपसे पा>न करता है वह उत्तम सुk पाता है :—

इर्य लिलंगपाहु)मिमणं सव्वंबुदे्धहिहं देचिसर्यं धम्मं ।पालेइ कट्ठसविहर्यं सो गाहदिद उAमं ठाणं ।।22।।इवित लिलंगप्राभृतमिमदं सवm बुदै्धः देशिशतं धम�म् ।पालर्यवित कष्टसविहतं सः गाहते उAमं स्थानम् ।।22।।

ए रीत सव�जे्ञ कचिर्थत आ लिलंगप्राभृत जाणीने,जे धम� पाले कष्ट सह, ते स्थान उAमने लहे. 22.

अथ% :—इस प्रकार इस लि>ंगपाहुO शा-त्रका–सव%बुद्ध ो ज्ञानी गणधरादिद उन्होंने–उपदेश दिदया है, उसको ानकर ो मुनिन धम%को कष्टसनिहत बड़े यत्नसे पा>ता है, रक्षा करता है वह उत्तमस्थान–मोक्षको पाता है ।

भावाथ% :—वह मुनिनका लि>ंग ह ै वह बड़े पुhयके उदयसे प्राप्त होता है, उसे प्राप्त करके भी निफर kोटे कारण मिम>ाकर उसको निबगाड़ता है तो ानो निक यह बड़ा ही अभागा है—लिचंतामभिण रत्न पाकर कौड़ीके बद>ेमें नष्ट करता है, इसीशि>ये आचाय%ने उपदेश दिदया है निक ऐसा पद पाकर इसकी बड़ े यत्नस े रक्षा करना,–कुसंगनित करके निबगाडे़गा तो ैस े पनिह>े संसार–भ्रमण था वैस े ही निफर संसारमें अनन्तका> भ्रमण होगा और यत्नपूव%क मुनिनत्वका पा>न करेगा तो शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करेगा, इसशि>ये जि सको मोक्ष चानिहये वह मुनिनधम%को प्राप्त करके यत्नसनिहत पा>न करो, परीषहका, उपसग%का उपद्रव आवे तो भी च>ायमान मत होओ, यह श्री सव%ज्ञदेवका उपदेश है ।।22।।

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इस प्रकार यह लि>ंगपाहुड़ ग्रंथ पूण% निकया । इसका संक्षेप इस प्रकार ह ै निक—इस पंचमका>में जि नलि>ंग धारण करके निफर दुर्णिभंक्षके निनमिमत्तसे भ्रष्ट हुए, भेष निबगाड़ दिदया बे अद्ध%फा>क कह>ाये, इनमेंसे निफर शे्वताम्बर हुए, इनमेंसे भी यापनीय हुए, इत्यादिद होकरके शिशशिथ>ाचारको पुष्ट करनेके शा-त्र रचकर -वचं्छद हो गये, इनमेंसे निकतने ही निनपट–निबल्कु> हिनंद्य प्रवृभित्त करने >गे, इनका निनषेध करनेके शि>ये तथा सबको सत्य उपदेश देनेके शि>ये यह ग्रंथ है, इसको समझकर श्रद्धान करना । इस प्रकार हिनंद्य आचरणवा>ोंको साधु–मोक्षमागN न मानना, इनकी वंदना व पू ा न करना यह उपदेश है ।

* छप्पय *लिलंग मुनीको धारिर पाप जो भाव विबगा)े़वह हिनंदाकंू पार्य आपको अविहत विवर्थारै ।ताकंू पूजै र्थुवै वंदना करै जु कोईवे भी तैसे होइ साचिर्थ दुरगवितकंू लेई ।।इससे जे सांचे मुविन भरे्य भावशुशिद्धमैं चिर्थर रहे ।वितविन उपदेश्र्या मारग लगे तो सांचे ज्ञानी कहे ।।1।।

दोहाअंतर बाह्य जु शुद्ध जे जिजनमुद्राकंू धारिर ।भरे्य चिसद्ध आनंदमर्य बंदंू जोग सँवारिर ।।2।।

इनित श्री कुन्दकुन्दाचाय%-वामिम निवरशिचत श्री लि>ंगप्राभृत शा-त्रकी यपुरनिनवासी पं0 यचन्द्र ी छावड़ाकृत देशभाषामयवचनिनकाका निहन्दी भाषानुवाद समाप्त ।।7।।

*

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शीलपाहु)8

अब शी>पाहुO ग्रंथकी देशभाषामयवचनिनकाका निहन्दी भाषानुवाद शि>kते हैं :—दोहा

भवकी स्तुवित विनवारिरकै, प्रगट विकरे्य विनजभाव ।है्व अरहंत जु चिसद्ध फुविन, बंदंू वितविन धरिर चाव ।।1।।

इस प्रकार इष्टक े नम-काररूप मंग> करके, शी>पाहुOनाम ग्रंथ श्री कुन्दकुन्दाचाय%कृत प्राकृत गाथाबद्धकी देशभाषामय वचनिनकाका निहन्दी भाषानुवाद शि>kते हैं । प्रथम श्री कुन्दकुन्दाचाय% ग्रंथकी आदिदमें इष्टको नम-काररूप मंग> करके ग्रन्थ करनेकी प्रनितज्ञा करते हैं :—

वीरं विवसालणर्यणं रAु=पलकोमलस्सम=पार्यं ।वितविवहेण पणमिमऊणं सीलगुणाणं शिणसामेह ।।1।।वीरं विवशालनर्यन ंर}ोत्पलकोमलसमपादम् ।वित्रविवधेन प्रणम्र्य शीलगुणान् विनशाम्र्यामिम ।।1।।

विवस्तीण�लोचन, र}कजकोमल–सुपद श्री वीरने,वित्रविवधे करीने वंदना, हंु वण�वंु शीलगुणने. 1.

अथ% :—आचाय% कहते हैं निक मैं वीर अथा%त् अंनितम तीथ�कर श्रीवद्ध%मान-वामी परम भट्टारकको मन वचन कायस े नम-कार करके शी> अथा%त ् निन भावरूप प्रकृनित उसके गुणोंको अथवा शी> और सम्यग्दश%नादिदक गुणोंको कहँूगा, कैस े ह ैं श्री वद्ध%मान-वामी–निवशा>नयन हैं, उनके बाह्यमें तो पदाथ�को देkनेका नेत्र निवशा> हैं, निव-तीण% हैं, सुन्दर हैं और अंतरंगमें केव>दश%न केव>ज्ञानरूप नेत्र सम-त पदाथ�को देkनेवा>े हैं और वे कैसे हैं—‘रक्तोत्प>कोम>समपादं’ अथा%त् उनके चरण रक्त कम>के समान कोम> हैं, ऐसे अन्यके नहीं हैं, इसशि>ये सबसे प्रशंसा करनेके योग्य हैं, पू ने योग्य हैं । इसका दूसरा अथ% ऐसा भी होता है निक रक्त अथा%त् रागरूप आत्माका भाव, उत्प> अथा%त् दूर करनेमें, कोम> अथा%त् कठोरतादिद दोष रनिहत और सम अथा%त् राग-दे्वष रनिहत, पाद अथा%त् जि नके वाणीके पद हैं, जि नके वचन कोम> निहतमिमत मधुर राग-दे्वषरनिहत प्रवत%ते हैं उनसे सबका कल्याण होता है ।

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भावाथ% :—इसप्रकार वद्ध%मान -वामीको नम-काररूप मंग> करके आचाय%ने शी>पाहुO ग्रन्थ करनेकी प्रनितज्ञा की है ।।1।।

आगे शी>का रूप तथा इससे (ज्ञान) गुण होता है वह कहते हैं :—सीलस्स र्य णाणस्स र्य णत्थिy विवरोहो बुधेहिहं शिणदि�ट्ठो ।णवरिर र्य सीलेण विवणा विवसर्या णाणं विवणासंवित ।।2।।शीलस्र्य च ज्ञानस्र्य च नात्थिस्त विवरोधो बुधैः विनर्दिदंष्टः ।केवलं च शीलेन विबना विवषर्याः ज्ञान ंविवनाशर्यंवित ।।2।।

न विवरोध भाख्र्यो ज्ञानीओए शीलने ने ज्ञानने,विवषर्यो करे छे नष्ट केवल शीलविवरविहत ज्ञानने. 2.

अथ% :—शी>के और ज्ञानके ज्ञानिनयोंने निवरोध नहीं कहा है । ऐसा नहीं है निक हाँ शी> हो वहाँ ज्ञान न हो और ज्ञान हो वहाँ शी> न हो । यहाँ णवरिर अथा%त् निवशेष है वह कहते हैं—शी>के निबना निवषय अथा%त ् इजिन्द्रयोंके निवषय ह ैं वह ज्ञानको नष्ट करत े हैं—ज्ञानको मिमथ्यात्व रागदे्वषमय अज्ञानरूप करते हैं ।

यहा ँ ऐसा ानना निक—शी> नाम -वभावका—प्रकृनितका प्रशिसद्ध है, आत्माका सामान्यरूपसे ज्ञान-वभाव ह ै । इस ज्ञान-वभावमें अनादिद कम%संयोगस े (=परसंग करनेकी प्रवृभित्तसे) मिमथ्यात्व रागदे्वषरूप परिरणाम होता है इसशि>ये यह ज्ञानकी प्रकृनित कुशी> नामको प्राप्त करती है इससे संसार बनता है, इसशि>ये इसको संसार प्रकृभित्त कहते हैं, इस प्रकृनितको अज्ञानरूप कहते हैं इस कुशी>–प्रकृनितसे संसार–पया%यमें अपनत्व मानता है तथा परद्रव्योंमें इष्ट–अनिनष्ट बुजिद्ध करता है ।

यह प्रकृनित प>टे तब मिमथ्यात्वका अभाव कहा ाय, तब निफर न संसारपया%यमें अपनत्व मानता है, न परद्रव्योंमें इष्ट–अनिनष्टबुजिद्ध होती है और (पद–अनुसार अथा%त्) इस भावकी पूण%ता न हो तब तक चारिरत्रमोहके उदयस े (–उदयमें युक्त होनेसे) कुछ राग–दे्वष कषाय परिरणाम उत्पन्न होते हैं उनको कम%का उदय ाने, उन भावोंको त्यागने योग्य ाने, त्यागना चाहे ऐसी प्रकृनित हो तब सम्यग्दश%नरूप भाव कहते हैं, इस सम्यग्दश%न भावसे ज्ञान भी सम्यक् नाम पाता है और पदके अनुसार चारिरत्रकी प्रवृभित्त होती है, जि तने अंश रागदे्वष घटता ह ै उतने अंश चारिरत्र कहते हैं, ऐसी प्रकृनितको सुशी> कहते हैं, इस प्रकार कुशी> सुशी> शब्दका सामान्य अथ% है ।

सामान्यरूपसे निवचार े तो ज्ञान ही कुशी> है और ज्ञान ही सुशी> है, इसशि>ये इस प्रकार कहा ह ै निक ज्ञानके और शी>के निवरोध नहीं है, ब संसार–प्रकृनित प>ट कर

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मोक्षसन्मुk प्रकृनित हो तब सुशी> कहते हैं, इसशि>ये ज्ञानमें और शी>में निवशेष नहीं कहा है, यदिद ज्ञानमें सुशी> न आवे तो ज्ञानको इजिन्द्रयोंके निवषय नष्ट करते हैं, ज्ञानको अज्ञान करते हैं तब कुशी> नाम पाता है ।

यहाँ कोई पूछे—गाथामें ज्ञान–अज्ञानका तथा सुशी>–कुशी>का नाम तो नहीं कहा, ज्ञान और शी> ऐसा ही कहा है, इसका समाधान—पनिह>े गाथामें ऐसे प्रनितज्ञा की है निक मैं शी>के गुणोंको कहँूगा अतः इस प्रकार ाना ाता है निक आचाय%के आशयमें सुशी>हीमें कहनेका प्रयो न है, सुशी>हीको शी>नामसे कहते हैं, शी> निबना कुशी> कहते हैं ।

यहाँ गुण शब्द उपकारवाचक >ेना तथा निवशेषवाचक >ेना, शी>से उपकार होता है तथा शी>के निवशेष गुण हैं वह कहेंगे । इस प्रकार ज्ञानमें ो शी> न आवे तो कुशी> होता है, इजिन्द्रयोंके निवषयोंसे आसशिक्त होती है तब वह ज्ञान नाम नहीं प्राप्त करना, इस प्रकार ानना चानिहये । व्यवहारमें शी>का अथ% -त्री—संसग% व %न करनेका भी है, अतः निवषय—सेवनका ही निनषेध है । पर–द्रव्यमात्रका संसग% छोड़ना, आत्मामें >ीन होना वह परमब्रह्मचय% है । इस प्रकार ये शी>हीके नामान्तर ानना ।।2।।

आगे कहते हैं निक ज्ञान होने पर भी ज्ञानकी भावना करना और निवषयोंसे निवरक्त होना कदिठन है (दु>%भ है) :—

*दुक्खे णज्जदिद णाणं णाणं णाऊण भावणा दुक्खं ।भाविवर्यमई व जीवो विवसर्येसु विवरज्जए दुक्खं ।।3।।

* पाठान्तरः—दुःkे णज्जदिद ।+दुःखेनेर्यत ेज्ञान ंज्ञान ंज्ञात्वा भावना दुःखम् ।भाविवतमवितश्च जीवः विवषर्येषु विवरज्र्यवित दुक्खम् ।।3।।

+ पाठान्तरः—दुःkेन ज्ञायते ।दुष्कर जणावुं ज्ञाननुं, पछी भावना दुष्कर अरे,वळी भावनारु्यत जीवने दुष्कर विवषर्यवैराग्र्य छे. 3.

अथ% :—प्रथम तो ज्ञान ही दुःkसे प्राप्त होता है, कदाशिचत् ज्ञान भी प्राप्त करे तो उसको ानकर उसकी भावना करना, बारंबार अनुभव करना दुःkस े (—दृढ़तर सम्यक् पुरुषाथ%से) होता ह ै और कदाशिचत ् ज्ञानकी भावनासनिहत भी ीव हो ाव े तो निवषयोंको दुःkसे त्यागता है ।

भावाथ% :—ज्ञानकी प्रान्तिप्त करना, निफर उसकी भावना करना, निफर निवषयोंका त्याग करना ये उत्तरोत्तर दु>%भ हैं और निवषयों का त्याग निकये निबना प्रकृनित प>टी नहीं ाती है, इसशि>ये पनिह>े ऐसा कहा है निक निवषय ज्ञानको निबगाड़ते हैं अतः निवषयोंका त्यागना ही सुशी> है ।।3।।

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आगे कहते ह ैं निक यह ीव ब तक निवषयोंम ें प्रवत%ता ह ै तब तक ज्ञानको नहीं ानता है और ज्ञानको ाने निबना निवषयोंसे निवरक्त हो तो भी कम�का क्षय नहीं करता है :—

ताव ण जाणदिद णाणं विवसर्यबलो जाव वट्टए जीवो ।विवसए विवरAमेAो ण खवेइ पुराइर्यं कम्मं ।।4।।तावत् न जानावित ज्ञान ंविवषर्यबलः र्यावत् वA�ते जीवः ।विवषर्ये विवर}मात्रः न शिक्षपत ेपुरातनं कम� ।।4।।

जाणे न आत्मा ज्ञानने, वतt विवषर्यवश ज्र्यां लगी;नविह क्षपण पूरवकम�नुं केवल विवषर्यवैराग्र्यर्थी. 4.

अथ% :— ब तक यह ीव निवषयब> अथा%त् निवषयोंके वशीभूत रहता है तब तक ज्ञानको नहीं ानता है और ज्ञानको ाने निबना केव> निवषयोंमें निवरशिक्तमात्रहीसे पनिह>े बँधे हुए कम�का क्षय नहीं करता है ।

भावाथ% :— ीवका उपयोग क्रमवतN ह ै और -वस्थ (–-वच्छत्व) -वभाव ह ै अतः ैस े ज्ञेयको ानता ह ै उस समय उससे तन्मय होकर वत%ता है, अतः ब तक निवषयोंमें आसक्त होकर वत्त%ता है तबतक ज्ञानका अनुभव नहीं होता है, इष्ट–अनिनष्ट भाव ही रहते हैं और ज्ञानका अनुभव हुए निबना कदाशिचत् निवषयोंको त्यागे तो वत%मान निवषयोंको तो छोडे़ परन्तु पूव%कम% बाँधे थे उनका तो–ज्ञानका अनुभव हुए निबना क्षय नहीं होता है, पूव% कम% बंधको क्षय करनेम ें (-वसन्मुk) ज्ञानहीकी सामथ्य% है इसशि>ए ज्ञानसनिहत होकर निवषय त्यागना श्रेष्ठ है, निवषयोंको त्यागकर ज्ञानकी भावना करना यही सुशी> है ।

आगे ज्ञानका, लि>ंगग्रहणका तथा तपका अनुक्रम कहते हैं :—णाणं चरिरAहीणं लिलंगग्गहणं च दंसणविवहूणं ।संजमहीणो र्य तवो जइ चरइ शिणरyरं्य सव्वं ।।5।।ज्ञान ंचारिरत्रहीनं लिलंगग्रहणं च दश�नविवहीनं ।संर्यमहीनं च तपः र्यदिद चरवित विनरर्थ�कं सव�म् ।।5।।

जे ज्ञान चरणविवहीन, धारण लिलंगनंु दृगहीन जे,तपचरण जे संर्यमसुविवरविहत, ते बधुरं्य विनरर्थ� छे. 5.

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अथ% :—ज्ञान यदिद चारिरत्ररनिहत हो तो वह निनरथ%क ह ै और लि>ंगका ग्रहण यदिद दश%नरनिहत हो तो वह भी निनरथ%क ह ै तथा संयमरनिहत तप भी निनरथ%क है, इस प्रकार ये आचरण करे तो सब निनरथ%क हैं ।

भावाथ% :—हेय–उपादेयका ज्ञान तो हो और त्याग–ग्रहण न करे तो ज्ञान निनष्फ> है, यथाथ% श्रद्धानके निबना भेष >े तो वह भी निनष्फ> है, (-वात्मानुभूनितके ब> द्वारा) इजिन्द्रयोंको वशमें करना, ीवोंकी दया करना वह संयम है इसके निबना कुछ तप करे तो अहिहंसादिदकका निवपय%य हो तब तप भी निनष्फ> हो, इस प्रकारसे इनका आचरण निनष्फ> होता है ।।5।।

आगे इसीशि>ये कहते हैं निक ऐसा करके थोड़ा भी करे तो बड़ा फ> होता है :—णाणं चरिरAसुदं्ध लिलंगग्गहणं च दंसणविवसुदं्ध ।संजमसविहदो र्य तवो र्थोओ विव महाफलो होइ ।।6।।ज्ञान ंचारिरत्रसुदं्ध लिलंगग्रहणं च दश�नविवशुद्धम् ।संर्यमसविहतं च तपः स्तोकमविप महाफलं भववित ।।6।।

जे ज्ञान चरणविवशुद्ध, धारण लिलंगनंु दृगशुद्ध जे,तप जे ससंर्यम, ते भले र्थो)ंु, महाफलरु्य} छे. 6.

अथ% :—ज्ञान तो चारिरत्रसे शुद्ध और लि>ंगका ग्रहण दश%नसे शुद्ध तथा संयमसनिहत तप, ऐसे थोड़ा भी आचरण करे तो महाफ>रूप होता है ।

भावाथ% :—ज्ञान थोड़ा भी हो और आचरण शुद्ध करे तो बड़ा फ> हो और यथाथ% श्रद्धानपूव%क भेष >े तो बड़ा फ> करे; ैसे सम्यग्दश%नसनिहत श्रावक ही हो तो श्रेष्ठ और उसके निबना मुनिनका भेष भी श्रेष्ठ नहीं है, इजिन्द्रयसंयम प्राणसंयम सनिहत उपवासादिदक तप थोड़ा भी करे तो बड़ा फ> होता है और निवषयाभिभ>ाष तथा दयारनिहत बडे़ कष्ट सनिहत तप करे तो भी फ> नहीं होता है, ऐसे ानना ।।6।।

आगे कहते हैं निक यदिद कोई ज्ञानको ानकर भी निवषयासक्त रहते हैं वे संसार ही में भ्रमण करते हैं :—

णाणं णाऊण णरा केई विवसर्याइभावसंसAा ।हिहं)ंवित चादुरगदिदं विवसएसु विवमोविहर्या मूढ़ा ।।7।।ज्ञान ंज्ञात्वा नराः केचिचत् विवषर्यादिदभावसंस}ाः ।हिहं)ंते चतगु�हितं विवषर्येषु विवमोविहता मूढ़ाः ।।7।।

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नर कोई, जाणी ज्ञानने, आस} रही विवषर्यादिदके,भटके चतुग�वितमां अरे ! विवषर्ये विवमोविहत मूढ़ ए. 7.

अथ% :—कई मूढ़ मोही पुरुष ज्ञानको ानकर भी निवषयरूप भावोंमें आसक्त होते हुए चतुग%नितरूप संसारमें भ्रमण करते हैं, क्योंनिक निवषयोंसे निवमोनिहत होने पर ये निफर भी गतमें प्राप्त होंगे इसमें भी निवषय–कषायोंका ही सं-कार है ।

भावाथ% :—ज्ञान प्राप्त करके निवषय–कषाय छोड़ना अच्छा है, नहीं तो ज्ञान भी अज्ञानतुल्य ही है ।।7।।

आगे कहते हैं निक ब ज्ञान प्राप्त करके इस प्रकार करे तब संसार कटे :—जे पुण विवसर्यविवरAा णाणं णाऊण भावणासविहदा ।लिछंदंवित चादुरगदिदं तवगुणजुAा ण संदेहो ।।8।।र्ये पुनः विवषर्यविवर}ाः ज्ञान ंज्ञात्वा भावनासविहताः ।चिछन्दप्तिन्त चतगु�हितं तपोगुणर्यु}ाः न संदेहः ।।8।।

पण विवषर्यमांविह विवर}, जाणी ज्ञान, भावनरु्य} जे,विनःशंक ते तपगुणसविहत छेदे चतुग�वितभ्रमणने. 8.

अथ% :— ो ज्ञानको ानकर और निवषयोंस े निवरक्त होकर ज्ञानकी बारबार अनुभवरूप भावना सनिहत होत े ह ैं व े तप और गुण अथा%त ् मू>गुण उत्तरगुणयुक्त होकर चतुग%नितरूप संसारको छेदते हैं, इसमें संदेह नहीं है ।

भावाथ% :—ज्ञान प्राप्त करके निवषय–कषाय छोड़कर ज्ञानकी भावना करे, मू>गुण उत्तरगुण ग्रहण करके तप करे वह संसारका अभाव करके मुशिक्तरूप निनम%>दशाको प्राप्त होता है—यह शी>सनिहत ज्ञानरूप माग% है ।।8।।

आगे इसप्रकार शी>सनिहत ज्ञानसे ीव शुद्ध होता है उसका दृष्टान्त कहते हैं :—जह कंचणं विवसुदं्ध धम्मइरं्य खवि)र्यलवणलेवेण ।तह जीवो विव विवसुदं्ध णाणविवसचिललेण विवमलेण ।।9।।र्यर्था कांचनं विवशुदं्ध धमत् खदिटकालधणलेपेन ।तर्था जीवो)विप विवशुद्धः ज्ञानविवसचिललेन विवमलेन ।।9।।

धमतां लवण–ख)ीलेपपूव�क कनक विनम�ल र्थार्य छे,त्र्यम जीव पण सुविवशुद्ध ज्ञानसचिललर्थी विनम�ल बने. 9.

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अथ% :— ैस े कांचन अथा%त ् सुवण% kनिOय अथा%त ् सुहागा (–kनिड़या क्षार) और नमकके >ेपसे निवशुद्ध निनम%> कांनितयुक्त होता है वैसे ही ीव भी निवषय–कषायोंके म>रनिहत निनम%> ज्ञानरूप >से प्रक्षाशि>त होकर कम%रनिहत निवशुद्ध होता है ।

भावाथ% :—ज्ञान आत्माका प्रधान गुण है परन्तु मिमथ्यात्व निवषयोंसे मशि>न है, इसशि>ये मिमथ्यात्व–निवषयरूप म>को दूर करके इसकी भावना करे, इसका एकाग्रतासे ध्यान करे तो कम�का नाश करे, अनन्तचतुष्टय प्राप्त करके मुक्त हो शुद्धात्मा होता है, यहाँ सुवण%का तो दृष्टांत है वह ानना ।।9।।

आगे कहत े ह ैं निक ो ज्ञान पाकर निवषयासक्त होता ह ै वह ज्ञानका दोष नहीं है, कुपुरुषका दोष है :—

णाणस्स णत्थिy दोसो कु=पुरिरसाणं विव मंदबुद्धीणं ।जे णाणगप्तिव्वदा होऊणं विवसएसु रज्जंवित ।।10।।ज्ञानस्र्य नात्थिस्त दोषः कापुरुषस्र्याविप मंदबुदे्धः ।र्ये ज्ञानगर्विवतंाः भूत्वा विवषर्येषु रज्जप्तिन्त ।।10।।

जे ज्ञानर्थी गर्विवंत बनी विवषर्यो महीं राचे जनो,ते ज्ञाननो नविह दोष, दोष कुपुरुष मंदमवित तणो. 10.

अथ% :— ो पुरुष ज्ञानगर्विवंत होकर ज्ञानमदसे निवषयोंमें रंजि त होते हैं सो यह ज्ञानका दोष नहीं है, वे मंदबुजिद्ध कुपुरुष हैं उनका दोष है ।

भावाथ% :—कोई ाने निक ज्ञानसे बहुत पदाथ�को ाने तब निवषयोंमें रं ायमान होता ह ै सो यह ज्ञानका दोष है, यहा ँ आचाय% कहते ह ैं निक—ऐसे मत ानो, ज्ञान प्राप्त करके निवषयोंमें रं ायमान होता है सो यह ज्ञानका दोष नहीं है–यह पुरुष मंदबुजिद्ध है और कुपुरुष है उसका दोष है, पुरुषका होनहार kोटा होता है तब बुजिद्ध निबगड़ ाती है, निफर ज्ञानको प्राप्त कर उसके मदमें म-त हो निवषय–कषायोंमें आसक्त हो ाता है तो यह दोष–अपराध पुरुषका है, ज्ञानका नहीं है । ज्ञानका काय% तो व-तुको ैसी हो वैसी बता देना ही है, पीछे प्रवत%ना तो पुरुषका काय% है, इस प्रकार ानना चानिहये ।।10।।

आगे कहते हैं निक पुरुषको इस प्रकार निनवा%ण होता है :—णाणेण दंसणेण र्य तवेण चरिरएण सम्मसविहएण ।होहदिद परशिणव्वाणं जीवाण चरिरAसुद्धाणं ।।11।।ज्ञानेन दश�नेन च तपसा चारिरते्रण सम्र्यक्त्वसविहतेन ।

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भविवष्र्यवित परिरविनवा�णं जीवानां चारिरत्रशुद्धानाम् ।।11।।सम्र्यक्त्वसंरु्यत ज्ञान, दश�न, तप अने चारिरत्रर्थी,चारिरत्रशुद्ध जीवो करे उपलब्धि� परिरविनवा�णनी. 11.

अथ% :—ज्ञान दश%न तप इनका सम्यक्त्वभावसनिहत आचरण हो तब चारिरत्रसे शुद्ध ीवोंको निनवा%णकी प्रान्तिप्त होती है ।

भावाथ% :—सम्यक्त्वसनिहत ज्ञान दश%न तपका आचरण करे तब चारिरत्र शुद्ध होकर राग–दे्वषभाव मिमट ाव े तब निनवा%ण पाता है, यह माग% ह ै ।।11।। तप=शुद्धोपयोगरूप मुनिनपना, यह हो तो 22 प्रकार व्यवहारके भेद हैं ।)

आगे, इसीको शी>की मुख्यता द्वारा निनयमसे निनवा%ण कहते हैं :—सीलं रक्खंताणं दंसणसुद्धाणं दिदढचरिरAाणं ।अत्थिy धुवं शिणव्वाणं विवसएसु विवरAचिचAाणं ।।12।।शीलं रक्षतां दश�नशुद्धानां दृढ़चारिरत्राणाम् ।अत्थिस्त ध्रुवं विनवा�णं विवषर्येषु विवर}चिचAानाम् ।।12।।

जे शीलने रक्षे, सुदश�नशुद्ध, दृढ़चारिरत्र जे,जे विवषर्यमांही विवर}मन, विनशिश्चत लहे विनवा�णने. 12.

अथ% :—जि न पुरुषोंका शिचत्त निवषयोंसे निवरक्त है, शी>की रक्षा करते हैं, दश%नसे शुद्ध हैं और जि नका चारिरत्र दृढ़ है ऐसे पुरुषोंको धु्रव अथा%त् निनश्चयसे–निनयमसे निनवा%ण होता है ।

भावाथ% :—निवषयोंसे निवरक्त होना ही शी>की रक्षा है, इसप्रकारसे ो शी>की रक्षा करते हैं उनहीके सम्यग्दश%न शुद्ध होता है और चारिरत्र अनितचाररनिहत शुद्ध–दृढ़ होता है,—ऐसे पुरुषोंको निनयमसे निनवा%ण होता है । ो निवषयोंमें आसक्त हैं, उनके शी> निबगड़ता है तब दश%न शुद्ध न होकर चारिरत्र शिशशिथ> हो ाता है, तब निनवा%ण भी नहीं होता है, इसप्रकार विनवा�णमाग�में शील ही प्रधान है ।।12।।

आगे कहते हैं निक कदाशिचत् कोई निवषयोंसे निवरक्त न हुआ और ‘माग%’ निवषयोंसे निवरक्त होनेरूप ही कहता है, उसको माग%की प्रान्तिप्त होती भी है परन्तु ो निवषय–सेवनको ही ‘माग%’ कहता है तो उसका ज्ञान भी निनरथ%क है :—

विवसएसु मोविहदाणं कविहरं्य मग्गं विप इट्ठदरिरसीणं ।उम्मग्गं दरिरसीणं णाणं विप शिणरyर्यं तेलिसं ।।13।।

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विवषर्येषु मोविहताना ंकचिर्थतो मागN)विप इष्टदर्शिशनंां ।उन्मागm दर्शिशनंां ज्ञानमविप विनरर्थ�कं तेषाम् ।।13।।

छे इष्टदश² माग�मां, हो विवषर्यमां मोविहत भले,उन्माग�दश² जीवनुं जे ज्ञान तेर्य विनरर्थ� छे. 13.

अथ% :— ो पुरुष इष्ट माग%को दिदkानेवा>े ज्ञानी है और निवषयोंसे निवमोनिहत हैं तो भी उनको माग%की प्रान्तिप्त कही है, परन्तु ो उन्माग%को दिदkानेवा>े हैं उनको तो ज्ञानकी प्रान्तिप्त भी निनरथ%क है ।

भावाथ% :—पनिह>े कहा था निक ज्ञानके और शी>के निवरोध नहीं है । और यह निवशेष है निक ज्ञान हो और निवषयासक्त होकर ज्ञान निबगड़े तब शी> नहीं है । अब यहाँ पर इस प्रकार कहा है निक—ज्ञान प्राप्त करके कदाशिचत् चारिरत्रमोहके उदयसे (–उदयवश) निवषय न छूटे वहाँ तक तो उनम ें निवमोनिहत रह े और माग%की प्ररूपणा निवषयोंके त्यागरूप ही कर े उसको तो माग%की प्रान्तिप्त होती भी है, परन्त ु ो माग%हीको कुमाग%रूप प्ररूपण कर े निवषय–सेवनको सुमाग% बतावे तो उसकी तो ज्ञान—प्रान्तिप्त भी निनरथ%क ही है, ज्ञान प्राप्त करके भी मिमथ्यामाग% प्ररूपे उसके ज्ञान कैसा ? वह ज्ञान मिमथ्याज्ञान है ।

यहाँ यह आशय सूशिचत होता है निक—सम्यक्त्वसनिहत अनिवरत सम्यग्दृमिष्ट तो अच्छा है क्योंनिक सम्यग्दृमिष्ट कुमाग%की प्ररूपणा नहीं करता है, अपनेको (चारिरत्रदोषसे) चारिरत्रमोहका उदय प्रब> हो तब तक निवषय नहीं छूटते हैं इसशि>ये अनिवरत है, परन्तु ो सम्यग्दृमिष्ट नहीं है और ज्ञान भी बड़ा हो, कुछ आचरण भी करे, निवषय भी छोड़े और कुमाग%का प्ररूपण करे तो वह अच्छा नहीं है, उसका ज्ञान और निवषय छोड़ना निनरथ%क है, इस प्रकार ानना चानिहये ।।13।।

आगे कहते हैं निक ो उन्माग%के प्ररूपण करनेवा>े कुमत कुशा-त्रकी प्रशंसा करते हैं, वे बहुत शा-त्र ानते हैं तो भी शी>व्रतज्ञानसे रनिहत हैं, उनके आराधना नहीं है :–

कुमर्यकुसुदपसंसा जाणंता बहुविवहाइं सyाइं ।शीलवदणाणरविहदा ण हु ते आराधर्या होंवित ।।14।।कुमतकुशु्रतप्रशंसकाः जानंतो बहुविवधाविन शास्त्राशिण ।शीलव्रतज्ञानरविहता न सु्फटं त ेआराधका भवंवित ।।14।।

दुम�त–कुशास्त्रप्रशंसको जाणे विवविवध शास्त्रो भले,व्रत–शील–ज्ञानविवहीन छे तेर्थी न आराधक खरे. 14.

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अथ% :— ो बहुत प्रकारके शा-त्रोंको ानत े ह ैं और कुमत कुशा-त्रकी प्रशंसा करनेवा>े हैं वे शी>व्रत और ज्ञान रनिहत हैं वे इनके आराधक नहीं हैं ।

भावाथ% :— ो बहुत शा-त्रोंको ानकर ज्ञान तो बहुत ानत े ह ैं और कुमत कुशा-त्रोंकी प्रशंसा करते हैं तो ानो निक इनके कुमतसे और कुशा-त्रसे राग है–प्रीनित है तब उनकी प्रशंसा करते हैं—ये तो मिमथ्यात्वके शिचह्न हैं, हाँ मिमथ्यात्व है वहाँ ज्ञान भी मिमथ्या है और निवषय–कषायोंसे रनिहत होनेको शी> कहते हैं वह भी उनके नहीं है, व्रत भी उनके नहीं है, कदाशिचत ् कोई व्रताचरण करत े ह ैं तो भी मिमथ्याचारिरत्ररूप है, इसशि>य े दश%न–ज्ञान—चारिरत्रके आराधनेवा>े नहीं हैं, मिमथ्यादृमिष्ट हैं ।।14।।

आगे कहते हैं निक यदिद रूप सुन्दरादिदक सामग्री प्राप्त करे और शी> रनिहत हो तो उसका मनुष्य– न्म निनरथ%क है :—

रूवचिसरिरगप्तिव्वदाणं जुव्वलावण्णकंवितकचिलदाणं ।सीलगुणवस्थिज्जदाणं शिणरyर्यं माणुसं जम्म ।।15।।रूपश्रीगर्विवंताना ंर्यौवनलावण्र्यकांवितकचिलतानाम् ।शीलगुणवर्जिजंताना ंविनरर्थ�कं मानुषं जन्म ।।15।।

हो रूपश्रीगर्विवंत, भले लावण्र्यर्यौवनकाप्तिन्त हो,मानवजनम छे विनष्प्रर्योजन शीलगुणवर्जिजंत तणो. 15.

अथ% :— ो पुरुष यौवन अवस्था सनिहत हैं और बहुतोंको निप्रय >गते हैं ऐसे >ावhय सनिहत हैं, शरीरकी कांनित–प्रभासे मंनिOत हैं और सुन्दर रूप>क्ष्मी संपदासे गर्विवंत हैं, मदोन्मत्त हैं, परन्तु वे यदिद शी> और गुणोंसे रनिहत हैं तो उनका मनुष्य न्म निनरथ%क है ।

भावाथ% :—मनुष्य– न्म प्राप्त करके शी>रनिहत हैं, निवषयोंम ें आसक्त रहत े हैं, सम्यग्दश%न–ज्ञान–चारिरत्र गुणोंसे रनिहत हैं और यौवन–अवस्थामें शरीरकी >ावhयता कांनितरूप सुन्दर धन, संपदा प्राप्त करके इनके गव%से मदोन्मत्त रहते हैं तो उन्होंने मनुष्य– न्म निनष्फ> kोया, मनुष्य न्ममें सम्यग्दश%नादिदकका अंगीकार करना और शी> संयम पा>ना योग्य था, वह तो अंगीकार निकया नहीं तब निनष्फ> ही गया ।

ऐसा भी बताया है निक पनिह>ी गाथामें कुमत कुशा-त्रकी प्रशंसा करनेवा>ेका ज्ञान निनरथ%क कहा था वैसे ही यहाँ रूपादिदकका मद करो तो यह भी मिमथ्यात्वका शिचह्न है, ो मद कर े उस े मिमथ्यादृमिष्ट ही ानना तथा >क्ष्मी रूप यौवन कांनितसे मंनिOत हो और शी>रनिहत व्यभिभचारी हो तो उसकी >ोकमें हिनंदा ही होती है ।।15।।

आगे कहते हैं निक बहुत शा-त्रोंका ज्ञान होते हुए भी शी> ही उत्तम है :—वार्यरणछंदवइसेचिसर्यववहारणार्यसyेसु ।

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वेदेऊण सुदेसु र्य तेसु *सुर्यं उAमं शीलं ।।16।।* पाठान्तरः—मदं ।

व्याकरणछन्दोवैशेविषकव्यवहारन्र्यार्यशास्ते्रषु ।विवदिदत्वा श्रुतेषु च तेषु श्रुत ंउAमं शीलम् ।।16।।

व्याकरण, छंदो, न्र्यार्य, वैशेविषक, व्यवहारादिदनां,शास्त्रोतणुं हो ज्ञान तोपण शील उAम सव�मां. 16.

अथ% :—व्याकरण, छंद, वैशेनिषक, व्यवहार, न्यायशा-त्र—ये शा-त्र और श्रुत अथा%त् जि नागम इनमें उन व्याकरणादिदकको और श्रुत अथा%त् जि नागमको ानकर भी, इनमें शी> हो वही उत्तम है ।

भावाथ% :—व्याकरणादिद शा-त्र ाने और जि नागमको भी ाने तो भी उनमें शी> ही उत्तम है । शा-त्रोंको ानकर भी निवषयोंमें ही आसक्त है तो उन शा-त्रोंका ानना वृथा है, उत्तम नहीं है ।।16।।

आगे कहते हैं निक ो शी>गुणसे मंनिOत हैं वे देवोंके भी वल्>भ हैं :—सीलगुणमंवि)दाणं देवा भविवर्याण वल्लहा होंवित ।सुदपारर्यपउरा णं दुस्सीला अप्ति=पला लोए ।।17।।शीलगुणमंवि)ताना ंदेवा भव्यानां वल्लभा भवंवित ।श्रुतपारगप्रचुराः णं दुःशीला अल्पकाः लोके ।।17।।

रे ! शीलगुण मंवि)त भविवकना देव वल्लभ होर्य छे,लोके कुशील जनो, भले श्रुतपारगत हो, तुच्छ छे. 17.

अथ% :— ो भव्यप्राणी शी> और सम्यग्दश%नादिद गुण अथवा शी> वही गुण उससे मंनिOत ह ैं उनका देव भी वल्>भ होता है, उनकी सेवा करनेवा> े सहायक होत े ह ैं । ो श्रुतपारग अथा%त् शा-त्रके पार पहुँचे हैं, ग्यारह अंग तक पढे़ हैं ऐसे बहुत हैं और उनमें कई शी>गुणसे रनिहत हैं, दुःशी> हैं, निवषय–कषायोंमें आसक्त हैं तो वे >ोकमें ‘अल्पका’ अथा%त् न्यून हैं, वे मनुष्योंके भी निप्रय नहीं होते हैं तब देव कहाँसे सहायक हो ?

भावाथ% :—शा-त्र बहुत ाने और निवषयासक्त हो तो उसका कोई सहायक न हो, चोर और अन्यायीकी >ोकमें कोई सहायता नहीं करता है, परन्तु शी>गुणसे मंनिOत हो और ज्ञान थोड़ा भी हो तो उसके उपकारी सहायक देव भी होते हैं, तब मनुष्य तो सहायक होते ही हैं । शी> गुणवा>ा सबका प्यारा होता है ।।17।।

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आगे कहते ह ैं निक जि नके शी> है—सुशी> हैं उनका मनुष्यभवमें ीना सफ> है अच्छा है :—

सव्वे विव र्य परिरहीणा रूवविवरूवा विव पवि)सुवर्या विव ।सीलं जेसु सुसीलं सुजीविवदं माणुसं तेलिसं ।।18।।सवt)विप च परिरहीनाः रूपविवरूपा अविप पविततसुवर्यसो)विप ।शीलं र्येषु सुशीलं सुजीविवदं मानुष्रं्य तेषाम् ।।18।।

सौर्थी भले हो हीन, रूपविवरूप, र्यौवनभ्रष्ट हो,मानुष्र्य तेनुं छे सुजीविवत, शील जेनुं सुशील हो. 18.

अथ% :— ो सब प्राभिणयोंमें हीन हैं, कु>ादिदकसे न्यून हैं और रूपसे निवरूप हैं सुन्दर नहीं है, ‘पनिततसुवयसः’ अथा%त् अवस्थासे सुन्दर नहीं हैं, वृद्ध हो गये हैं, परन्तु जि नमें शी> सुशी> है, -वभाव उत्तम है, कषायादिदककी तीव्र आसक्तता नहीं ह ै उनका मनुष्यपना सु ीनिवत है, ीना अच्छा है ।

भावाथ% :—>ोकमें सब सामग्रीसे ो न्यून हैं परन्तु -वभाव उत्तम है, निवषयकषायोंमें आसक्त नहीं हैं तो वे उत्तम ही हैं, उनका मनुष्यभव सफ> है, उनका ीवन प्रशंसाके योग्य है ।।18।।

आगे कहते हैं निक जि तने भी भ>े काय% हैं वे सब शी>के परिरवार हैं :—जीवदर्या दम सचं्च अचोरिररं्य बंभचेरसंतोसे ।सम्म�ंसण णाणं तओ र्य सीलस्स परिरवारो ।।19।।जीवदर्या दमः सत्र्यं अचौर्यm ब्रह्मचर्य�संतोषौ ।सम्र्यग्दश�न ंज्ञान ंतपश्च शीलस्र्य परिरवारः ।।19।।

प्राणीदर्या, दम, सत्र्य, ब्रह्म, अचौर्य� ने संतुष्टता,सम्र्यक्त्व, ज्ञान, तपश्चरण छे शीलना परिरवारमां. 19.

अथ% :— ीवदया, इजिन्द्रयोंका दमन, सत्य, अचौय%, ब्रह्मचय%, संतोष, सम्यग्दश%न, ज्ञान, तप—ये सब शी>के परिरवार हैं ।

भावाथ% :—शी>-वभावका तथा प्रकृनितका नाम प्रशिसद्ध ह ै । मिमथ्यात्वसनिहत कषायरूप ज्ञानकी परिरणनित तो दुःशी> है, इसको संसारप्रकृनित कहते हैं, यह प्रकृनित प>टे और सम्यक् प्रकृनित हो वह सुशी> है, इसको मोक्षसन्मुk प्रकृनित कहते हैं । ऐसे सुशी>के

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‘ ीवदयादिदक’ गाथामें कहे वे सबही परिरवार हैं, क्योंनिक संसारप्रकृनित प>टे तब संसारदेहसे वैराग्य हो और मोक्षसे अनुराग हो तब ही सम्यग्दश%नादिदक परिरणाम हों, निफर जि तनी प्रकृनित हो वह सब मोक्षके सन्मुk हो, यही सुशी> है । जि सके संसारका अंत आता है उसके यह प्रकृनित होती है और यह प्रकृनित न हो तब तक संसारभ्रमण ही है, ऐसे ानना ।।19।।

आगे शी> ही तप आदिदक है ऐसे शी>की मनिहमा कहते हैं :—सीलं तवो विवसुदं्ध दंसणसुद्धी र्य णाणसुद्धी र्य ।सीलं विवसर्याण अरी सीलं मोक्खस्स सोवाणं ।।20।।शीलं तपः विवशुदं्ध दश�नशुशिद्धश्च ज्ञानशुशिद्धश्च ।शीलं विवषर्याणामरिरः शीलं मोक्षस्र्य सोपानम् ।।20।।

छे शील ते तप शुद्ध, ते दृगशुशिद्ध ज्ञानविवशुशिद्ध छे,छे शील अरिर विवषर्यो तणो ने शील शिशवसोपान छे. 20.

अथ% :—शी> ही निवशुद्ध निनम%> तप है, शी> ही दश%नकी शुद्धता है, शी> ही ज्ञानकी शुद्धता है, शी> ही निवषयोंका शत्रु है और शी> ही मोक्षकी सीढ़ी है ।

भावाथ% :— ीव अ ीव पदाथ�का ज्ञान करके उसमेंस े मिमथ्यात्व और कषायोंका अभाव करना वह सुशी> है, यह आत्माका ज्ञान-वभाव ह ै वह संसारप्रकृनित मिमटकर मोक्षसन्मुk प्रकृनित हो तो तब इस शी>हीके तप आदिदक सब नाम हैं—निनम%> तप, शुद्ध दश%न ज्ञान, निवषय–कषायोंका मेटना, मोक्षकी सीढ़ी य े सब शी>के नामके अथ% हैं, ऐसे शी>के माहात्म्यका वण%न निकया ह ै और यह केव> मनिहमा ही नहीं ह ै इन सब भावोंके अनिवनाभावीपना बताया है ।।20।।

आगे कहते हैं निक निवषयरूप निवष महा प्रब> है :—जह विवसर्यलुद्ध विवसदो तह र्थावरजंगमाण घोराणं ।सव्वेलिसं विप विवणासदिद विवसर्यविवसं दारुणं होई ।।21।।र्यर्था विवषर्यलु�ः विवषदः तर्था स्थावरजंगमान् घोरान् ।सवा�न ्अविप विवनाशर्यवित विवषर्यविवषं दारुणं भववित ।।21।।

विवष घोर जंगम—स्थावरोनुं नष्ट करतुं सव�ने,पण विवषर्यलु� तणंु विवघातक विवषर्यविवष अवितरौद्र छे. 21.

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अथ% :— ैसे निवषय सेवनरूपी निवष निवषय–>ुब्ध ीवोंको निवष देनेवा>ा है, वैसे ही घोर तीव्र स्थावर– ंगम सबही निवष प्राभिणयोंका निवनाश करत े ह ैं तथानिप इन सब निवषोंमें निवषयोंका निवष उत्कृष्ट है तीव्र है ।

भावाथ% :— ैसे ह-ती मीन भ्रमर पतंग आदिद ीव निवषयोंमें >ुब्ध होकर निवषयोंके वश हो नष्ट होते हैं वैसे ही स्थावर निवष मोहरा, सोम> आदिदक और ंगमका निवष सप%, घोहरा आदिदकका—इन निवषोंसे भी प्राणी मारे ाते हैं, परंतु सब निवषोंमें निवषयोंका निवष अनित ही तीव्र है ।।21।।

आगे इसीका समथ%न करनेके शि>ए निवषयोंके निवषका तीव्रपना कहते हैं निक—निवषकी वेदनासे तो एकबार मरता है और निवषयोंसे संसारमें भ्रमण करता है :—

वारिर एक्कप्तिम्म र्य जम्मे मरिरज्ज विवसवेर्यणाहदो जीवो ।विवसर्यविवसपरिरहर्या णं भमवित संसारकंतारे ।।22।।वारे एकत्थिस्मन ्च जन्मविन गचे्छत् विवषवेदनाहतः जीवः ।विवषर्यविवषपरिरहता भ्रमंवित संसारकांतारे ।।22।।

विवषवेदनाहत जीव एक ज वार पामे मरणने,पण विवषर्यविवषहत जीव तो संसारकांतारे भमे. 22.

अथ% :—निवषकी वेदनासे नष्ट ीव तो एक न्ममें ही मरता है परंतु निवषयरूप निवषसे नष्ट ीव अनितशयता–बारबार संसाररूपी वनमें भ्रमण करते हैं । (पुhयकी और रागकी रुशिच वही निवषयबुजिद्ध है ।)

भावाथ% :–अन्य सपा%दिदकके निवषसे निवषयोंका निवष प्रब> है, इनकी आसशिक्तसे ऐसा कम%बंध होता है निक उससे बहुत न्म—मरण होते हैं ।।22।।

आगे कहते हैं निक निवषयोंकी आसशिक्तसे चतुग%नितमें दुःk ही पाते हैं :—णरएसु वेर्यणाओ वितरिरक्खए माणवेसु दुक्खाइं ।देवेसु विव दोहग्गं लहंवित विवसर्याचिसर्या जीवा ।।23।।नरकेषु वेदनाः वितर्य�क्षु मानुषेषु दुःखाविन ।देवेषु अविप दौभा�ग्र्यं लभंते विवषर्यास}ा जीवः ।।23।।

बहु वेदना नरको विवषे, दुःखो मनुज–वितर्यmचमां,देवेर्य दुभ�गता लहे विवषर्यावलंबी आतमा. 23.

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अथ% :—निवषयोंम ें आसक्त ीव नरकम ें अत्यंत वेदना पात े हैं, नितच�चोंम े तथा मनुष्योंमें दुःkोंको पाते हैं और देवोमें उत्पन्न हों वहाँ भी दुभा%ग्यपना पाते हैं, नीच देव होते हैं, इस प्रकार चारों गनितयोंमें दुःk ही पाते हैं ।

भावाथ% :—निवषयासक्त ीवोंको कही भी सुk नहीं है, पर>ोकमें तो नरक आदिदके दुःk पाते ही हैं परन्तु इस >ोकमें भी इनके सेवन करनेमें आपभित्त व कष्ट आते ही हैं तथा सेवनसे आकु>ता दुःk ही है, यह ीव भ्रमसे सुk मानता है, सत्याथ% ज्ञानी तो निवरक्त ही होता है ।।23।।

आगे कहते हैं निक निवषयोंको छोड़नेसे कुछ भी हानिन नहीं है :—तुसधम्मंतबलेण र्य जह दव्व ंण विह णराण गचे्छदिद ।तवसीलमंत कुसली खववंित विवसर्यं विवस व खलं ।।24।।तुषधमद्बलेन च र्यर्था द्रवं्य न विह नराणां गच्छवित ।तपः शीलमंतः कुशलाः शिक्षपंत ेविवषर्यं विवषमिमव खलं ।।24।।

तुष दूर करतां जे रीते कईं द्रव्य नरनुं न जार्य छे,तपशीलवंत सुकुशल, खल माफक, विवषर्यविवषने तजे. 24.

अथ% :— ैसे तुषोंके च>ानेसे, उड़ानेसे मनुष्यका कुछ द्रव्य नहीं ाता है, वैसे ही तप-वी और शी>वान् पुरुष निवषयोंकी k>को तरह के्षपते हैं, दूर फें क देते हैं ।

भावाथ% :— ो ज्ञानी तप शी> सनिहत हैं उनके इजिन्द्रयोंके निवषय k>की तरह हैं; ैसे ईkका रस निनका> >ेनेके बाद k>–चूंसे नीरस हो ाते हैं तब वे फें क देनेके योग्य ही हैं, वैसे ही निवषयोंको ानना । रस था वह तो ज्ञानिनयोंने ान शि>या तब निवषय तो k>के समान रहे, उनके त्यागनेमें क्या हानिन ? अथा%त् कुछ भी नहीं है । उन ज्ञानिनयोंको धन्य है ो निवषयोंको जे्ञयमात्र ानकर आसक्त नहीं होते हैं ।

ो आसक्त होते ह ैं वे तो अज्ञानी ही हैं, क्योंनिक निवषय तो ड़ पदाथ% ह ैं सुk तो उनको ाननेसे ज्ञान में ही था, अज्ञानीने आसक्त होकर निवषयोंमें सुk माना । ैसे श्वान सूkी हड्डी चबाता है तब हड्डीकी नोंक मुkके ता>वेमें चुभती है, इससे ता>वा फट ाता है और उसमेंसे kून बहने >गता है, तब अज्ञानी श्वान ानता है निक यह रस हड्डीमेंसे निनक>ा है और उस हड्डीको बारबार चबाकर सुk मानता है; वैसे ही अज्ञानी निवषयोंमें सुk मानकर बारबार भोगता है, परन्तु ज्ञानिनयोंने अपने ज्ञानहीमें सुk ाना है, उनको निवषयोंके त्यागमें दुःk नहीं है, ऐसे ानना ।।24।।

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आगे कहत े ह ैं निक कोई प्राणी शरीरके अवयव सुन्दर प्राप्त करता ह ै तो भी सब अंगोंमें शी> ही उत्तम है :—

*वटे्टसु र्य खं)ेसु र्य भ�ेसु र्य विवसालेसु अंगेसु ।अंगेसु र्य प=पेसु र्य सव्वेसु र्य उAमं सीलं ।।25।।

* ‘वठे्ठ’ पाठान्तर ।

वृAेषु च खं)ेषु च भदे्रषु च विवशालेषु अंगेषु ।अंगेषु च प्रा=तेषु च सवtषु च उAमं शीलं ।।25।।

छे भद्र, गोल, विवशाल ने खं)ात्म अंग शरीरमां,ते सव� होर्य सुप्रा=त तोपण शील उAम सव�मां. 25.

अथ% :—प्राणीके देहमें कई अंग तो वृत्त अथा%त् गो> सुघट प्रशंसा योग्य होते हैं, कई अंग kंO अथा%त ् अद्ध% गो> सदृश प्रशंसा योग्य होत े हैं, कई अंग भद्र अथा%त ् सर> सीधे प्रशंसा योग्य होत े ह ैं और कई अंग निवशा> अथा%त ् निव-तीण% चौड़ े प्रशंसा योग्य होत े हैं, इसप्रकार सबही अंग यथास्थान शोभा पाते हुए भी अंगोंमें यह शी> नामका अंग ही उत्तम है, यह न तो हो सबही अंग शोभा नहीं पाते हैं, यह प्रशिसद्ध है ।

भावाथ% :—>ोकमें प्राणी सवा�ग सुन्दर हो परन्तु दुःशी> हो तो सब >ोक द्वारा हिनंदा करने योग्य होता है, इसप्रकार >ोकमें भी शी> ही की शोभा है तो मोक्षमें भी शी> ही को प्रधान कहा है, जि तने सम्यग्दश%नादिदके मोक्षके अंग हैं वे शी> ही के परिरवार हैं ऐसा पनिह>े कह आये हैं ।।25।।

आगे कहते ह ैं निक ो कुबुजिद्ध से मूढ हो गये ह ैं व े निवषयोंमें आसक्त हैं कुशी> हैं संसारमें भ्रमण करते हैं :—

पुरिरसेण विव सविहर्याए कुसमर्यमूढेविह विवसर्यलोलेहिहं ।संसारे भमिमदव्वं अरर्यघरटं्ट व भूदेहिहं ।।26।।पुरिरषेणाविप सविहतेन कुसमर्यमूढैः विवषर्यलोलैः ।संसारे भ्रमिमतव्यं अरहटघरटं्ट इव भूतैः ।।26।।

दुम�तविवमोविहत विवषर्यलु� जनो इतरजन सार्थमां,अरघदिट्टकाना चक्र जेम परिरभ्रमे संसारमां. 26.

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अथ% :— ो कुसमय अथा%त ् कुमतसे मूढ़ ह ैं व े ही अज्ञानी ह ैं और व े ही निवषयोंमें >ो>ुपी हैं—आसक्त हैं, वे ैसे अरहटमें घड़ी भ्रमण करती है वैसे ही संसारमें भ्रमण करते हैं, उनके साथ अन्य पुरुषोंके भी संसारमें दुःkसनिहत भ्रमण होता है ।

भावाथ% :—कुमती निवषयासक्त मिमथ्यादृमिष्ट आप तो निवषयोंको अचे्छ मानकर सेवन करते हैं । कई कुमती ऐसे भी हैं ो इस प्रकार कहते हैं निक सुन्दर निवषय सेवन करनेसे ब्रह्म प्रसन्न होता है, (—यह तो ब्रह्मानंद है) यह परमेश्वरकी बड़ी भशिक्त है, ऐसा कहकर अत्यंत आसक्त होकर सेवन करते हैं । ऐसा ही उपदेश दूसरोंको देकर निवषयोंमें >गाते हैं, वे आप तो अरहटकी घड़ीकी तरह संसारमें भ्रमण करते ही हैं, अनेक प्रकारके दुःk भोगते हैं परन्तु अन्य पुरुषोंको भी उनमें >गाकर भ्रमण कराते हैं, इसशि>ये यह निवषयसेवन दुःk ही के शि>ए है, दुःk ही का कारण है, ऐसा ानकर कुमनितयोंका प्रसंग न करना, निवषयासक्तपना छोड़ना, इससे सुशी>पना होता है ।।26।।

आग े कहत े ह ैं निक ो कम%की गांठ निवषय–सेवन करके आपही बांधी ह ै उसको सत्पुरुष तपश्चरणादिद करके आप ही काटते हैं :—

आदेविह कम्मगंठी जा बद्धा *विवसर्यरागरंगेहिहं ।तं चिछन्दप्तिन्त कर्यyा तपसंजमसीलर्यगुणेण ।।27।।

1 सं-कृत प्रनितमें—‘निवषयरायमोहेनिह’ ऐसा पाठ है, छायामें निवषयरागमोहैः है ।आत्मविन कम�गं्रचिर्थः र्या बद्धा विवषर्यरागरागैः ।ता ंचिछन्दप्तिन्त कृतार्था�ः तपः संर्यमशीलगुणेन ।।27।।

जे कम�ग्रब्धिन्थ विवषर्यरागे बद्ध छे आत्मा विवषे,तपचरण–संर्यम–शीलर्थी सुकृतार्थ� छेदे तेहने. 27.

अथ% :— ो निवषयोंके रागरंग करके आप ही कम%की गाँठ बांधी ह ै उसको कृताथ% पुरुष (—उत्तम पुरुष) तप संयम शी>के द्वारा प्राप्त हुआ ो गुण उसके द्वारा छेदते हैं—kो>ते हैं ।

भावाथ% :— ो कोई आप गाँठ घु>ाकर बांधे उसको kो>नेका निवधान भी आप ही ाने, ैसे सुनार आदिद कारीगर आभूषणादिदककी संमिधके टाँका ऐसा झा>े निक वह संमिध अदृष्ट हो ाय, तब उस संमिधको टँकेका झा>नेवा>ा ही पनिहचानकर kो>े, वैसे ही आत्माने अपनेही रागादिदक भावोंसे कम�की गाँठ बांधी है उसको आपही भेदनिवज्ञान करके रागादिदकके और आपके ो भेद हैं उस संमिधको पनिहचानकर तप संयम शी>रूप–भावरूप श-त्रोंके द्वारा उस कम%बंधको काटता है, ऐसा ानकर ो कृताथ% पुरुष हैं वे अपने प्रयो नके करनेवा>े हैं,

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वे इस शी>गुणको अंगीकार करके आत्माको कम%स े भिभन्न करते हैं, यह पुरुषाथ% पुरुषोंका काय% है ।।27।।

आगे ो शी>के द्वारा आत्मा शोभा पाता है उसको दृष्टांत द्वारा दिदkाते हैं :—उदधी व रदणभरिरदो तवविवणरं्यसीलदाणरर्यणाणं ।सोहेंतो र्य ससीलो शिणव्वाणमणुAरं पAो ।।28।।उदचिधरिरव रत्नभृतः तपोविवनर्यशीलदानरत्नानाम् ।शोभते च सशीलः विनवा�णमनुAरं प्रा=तः ।।28।।

तप–दान–शील–सुविवनर्य–रत्नसमूह सह, जलचिध समो,सोहंत जीव सशील पामे शे्रष्ठ शिशवपदने अहो. 28.

अथ% :— ैसे समुद्र रत्नोंसे भरा है तो भी >सनिहत शोभा पाता है, वैसे ही यह आत्मा तप निवनय शी> दान इन रत्नोमें शी>सनिहत शोभा पाता है, क्योंनिक ो शी>सनिहत हुआ उसने अनुत्तर अथा%त् जि ससे आगे और नहीं है ऐसे निनवा%णपदको प्राप्त निकया ।

भावाथ% :— ैसे समुद्रमें रत्न बहुत हैं तो भी >हीसे समुद्र नामको प्राप्त करता है, वैसे ही आत्मा अन्य गुणसनिहत हो तो भी शी>से ही निनवा%णपदको प्राप्त करता है, ऐसे ानना ।।28।।

आगे ो शी>वान पुरुष हैं वे ही मोक्षको प्राप्त करते हैं यह प्रशिसद्ध करके दिदkात े हैं :—

सुणहाण ग�हाण र्य गोवसुमविहलाण दीसदे मोक्खो ।जे सोधंवित चउyं विपस्थिच्छज्जंता जणेविह सव्वेहिहं ।।29।।शुना ंगद�भानां च गोपशुमविहलानां दृश्र्यत ेमोक्षः ।र्ये शोधर्यंविक चतरु्थm दृश्र्यता ंजनैः सव¶ः ।।29।।

देखार्य छे शुं मोक्ष स्त्री–पशु–गार्य–गद�भ–श्वाननो,जे तुर्य�ने साधे, लहे छे मोक्ष;–देखो सौ जनो. 29.

अथ% :—आचाय% कहत े ह ैं निक—यह सब >ोग देkो—श्वान, गद%भ इनम ें और गौ आदिद पशु तथा -त्री इनमें निकसीको मोक्ष होना दिदkता है क्या ? वह तो दिदkता नहीं है । मोक्ष

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तो चौथा पुरुषाथ% है, इसशि>ये ो चतुथ% पुरुषाथ%को शोधते ह ैं उन्हींके मोक्षका होना देkा ाता है ।

भावाथ% :—धम% अथ% काम मोक्ष ये चार पुरुषके ही प्रयो न कहे हैं यह प्रशिसद्ध है, इसीसे इनका नाम पुरुषाथ% है ऐसा प्रशिसद्ध है । इनमें चौथा पुरुषाथ% मोक्ष है, उसको पुरुष ही शोधते हैं और पुरुष ही उसको हेरते हैं—उसकी शिसजिद्ध करते हैं, अन्य श्वान गद%भ बै> पशु -त्री इनके मोक्षका शोधना प्रशिसद्ध नहीं है, ो हो तो मोक्षका पुरुषाथ% ऐसा नाम क्यों हो ? यहाँ आशय ऐसा है निक मोक्ष शी>से होता है, ो श्वान गद%भ आदिदक हैं वे तो अज्ञानी हैं, कुशी>ी हैं, उनका -वभाव–प्रकृनित ही ऐसी है निक प>टकर मोक्ष होने योग्य तथा उसके शोधने योग्य नहीं है, इसशि>ये पुरुषको मोक्षका साधन शी>को ानकर अंगीकार करना, सम्यग्दश%नादिदक ह ै वह तो शी> ही क े परिरवार पनिह> े कह े ही हैं, इस प्रकार ानना चानिहये ।।29।।

आगे कहते हैं निक शी>के निबना ज्ञान ही से मोक्ष नहीं है, इसका उदाहरण कहत े हैं :—

जइ विवसर्यलोलएहिहं णाणीविह हविवज्ज साविहदो मोक्खो ।तो सो सच्चइपुAो दसपुव्वीओ विव हिकं गदो णररं्य ।।30।।र्यदिद विवषर्यलोलैः ज्ञाविनशिभः भवेत् साचिधतः मोक्षः ।तर्विहं सः सात्र्यविकपुत्रः दशपूर्विवंकः विक गतः नरकं ।।30।।

जो मोक्ष साचिधत होत विवषर्यविवलु� ज्ञानधरो व)े,दशपूव�धर पण सात्र्यविकसुत केम पामत नरकने ? 30.

अथ% :— ो निवषयोंमें >ो> अथा%त ् >ो>ुप–आसक्त और ज्ञानसनिहत ऐसे ज्ञानिनयोंने मोक्ष साधा हो तो दश पूव%को ाननेवा>ा रुद्र नरकको क्यों गया ?

भावाथ% :—शुष्क कोरे ज्ञान ही से मोक्ष निकसीने साधा कहें तो दश पूव%का पाठी रुद्र नरक क्यों गया ? इसशि>ये शी>के निबना केव> ज्ञान ही से मोक्ष नहीं है रुद्र कुशी> सेवन करनेवा>ा हुआ, मुनिनपदसे भ्रष्ट होकर कुशी> सेवन निकया इसशि>ये नरकमें गया, यह कथा पुराणोंमें प्रशिसद्ध है ।।30।।

आगे कहते हैं निक शी>के निबना ज्ञानहीसे भावकी शुद्धता नहीं होती है :—जइ णाणेण विवसोहो सीलेण विवणा बुहेहिहं शिणदि�ट्ठो ।

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दसपुप्तिव्वर्यस्स भावो र्य ण हिकं पुणु शिणम्मलो जादो ।।31।।र्यदिद ज्ञानेन विवशुद्धः शीलेन विबना बुधैर्विनरं्दिदंष्टः ।दशपूर्विवंकस्र्य भावः च न हिकं पुनः विनम�लः जातः ।।31।।

जो शील विवण बस ज्ञानर्थी कही होर्य शुशिद्ध ज्ञानीए,दशपूव�धरनो भाव केम र्थर्यो नहीं विनम�ल अरे ? 31.

अथ% :— ो शी>के निबना ज्ञानहीसे निवसोह अथा%त् निवशुद्ध भाव पंनिOतोंने कहा हो तो दश पूव%को ाननेवा>ा ो रुद्र उसका भाव निनम%> क्यों नहीं हुआ, इसशि>ये ज्ञात होता है निक भाव निनम%> शी> ही से होते हैं ।

भावाथ% :—कोरा ज्ञान तो जे्ञयको ही बताता है इसशि>ये वह मिमथ्यात्व कषाय होने पर निवपय%य हो ाता है, अतः मिमथ्यात्व कषायका मिमटना ही शी> है, इस प्रकार शी>के निबना ज्ञान ही से मोक्षकी शिसजिद्ध होती नहीं, शी>के निबना मुनिन भी हो ाय तो भ्रष्ट हो ाता है । इसशि>ये शी>को प्रधान ानना ।।31।।

आगे कहते हैं निक यदिद नरकमें भी शी> हो ाय और निवषयोंसे निवरक्त हो ाय तो वहाँ से निनक>कर तीथ�कर पदको प्राप्त होता है :—

जाए विवसर्यविवरAो सो गमर्यदिद णरर्यवेर्यणा पउरा ।ता लेहदिद अरुहपर्य भशिणर्यं जिजणवड्ढमाणेण ।।32।।र्यः विवषर्यविवर}ः सः गमर्यवित नरकवेदनाः प्रचुराः ।तत ्लभते अह�त्पदं भशिणत ंजिजनवद्ध�मानेन ।।32।।

विवषर्ये विवर} करे सुसह अवित–उग्र नारकवेदना,ने पामता अहmतपद;–वीरे कहंु्य जिजनमाग�मां. 32.

अथ% :—निवषयोंसे निवरक्त है सो ीव नरककी बहुत वेदनाको भी गँवाता है—वहाँ भी अनित दुःkी नहीं होता और वहाँसे निनक>कर तीथ�कर होता है ऐसा जि न वद्ध%मान भगवानने कहा है ।

भावाथ% :—जि नशिसद्धान्तम ें ऐस े कहा ह ै निक—तीसरी पृथ्वीस े निनक>कर तीथ�कर होता है वह यह भी शी> ही का माहात्म्य है । वहाँ सम्यक्त्वसनिहत होकर निवषयोंसे निवरक्त हुआ भ>ी भावना भावे तब नरक–वेदना भी अल्प हो ाती है और वहाँसे निनक>कर अरहंतपद प्राप्त करके मोक्ष पाता है, ऐसा निवषयोंस े निवरक्तभाव वह शी>का ही माहात्म्य ानो ।

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शिसद्धांतमें इस प्रकारका कहा है निक सम्यग्दृमिष्टके ज्ञान और वैराग्यकी शशिक्त निनयमसे होती है, वह वैराग्यशशिक्त है वही शी>का एकदेश है इसप्रकार ानना ।।32।।

आगे इस कथनका संकोच करते हैं :—एवं बहु=पर्यारं जिजणेविह पच्चक्खणाणदरसीहिहं ।सीलेण र्य मोक्खपर्यं अक्खातीदं र्य लोर्यणाणेहिहं ।।33।।एवं बहुप्रकारं जिजनैः प्रत्र्यक्षज्ञानदर्शिशंशिभः ।शीलेन च मोक्षपदं अक्षातीतं च लोकज्ञानैः ।।33।।

अत्र्यक्ष—शिशवपदप्राप्ति=त आम घणा प्रकारेक शीलर्थी,प्रत्र्यक्षदश�नज्ञानधर लोकज्ञ जिजनदेवे कही. 33.

अथ% :—एवं अथा%त् पूव}क्त प्रकार तथा अन्य प्रकार (—बहुत प्रकार) जि नके प्रत्यक्ष ज्ञान–दश%न पाये ाते ह ैं और जि नके >ोक—अ>ोकका ज्ञान है ऐसे जि नदेवने कहा है निक शी>स े अक्षातीत—जि सम ें इजिन्द्रयरनिहत अतीजिन्द्रय ज्ञान सुk ह ै ऐसा मोक्षपद होता है ।

भावाथ% :—सव%ज्ञदेवन े इस प्रकार कहा ह ै निक शी>स े अतीजिन्द्रय ज्ञान सुkरूप मोक्षपद प्राप्त होता ह ै वह भव्य ीव इस शी>को अंगीकार करो, ऐसा उपदेशका आशय सूशिचत होता है; बहुत कहाँ तक कहें इतना ही बहुत प्रकारसे कहा ानो ।।33।।

आगे कहते हैं निक इस शी>से निनवा%ण होता है, उसका बहुत प्रकारसे वण%न है वह कैसे ?—

सम्मAणाणदंसणतववीरिरर्यपंचर्यारम=पाणं ।जलणो विव पवणसविहदो )हंवित पोरार्यणं कम्मं ।।34।।सम्र्यक्त्वज्ञानदश�नतपोवीर्य�पंचाचाराः आत्मनाम् ।ज्वलनो)विप पवनसविहतः दहंवित पुरातनं कम� ।।34।।

सम्र्यक्त्व–दश�न–ज्ञान–तप–वीर्या�चरण आत्मा विवषे,पवने सविहत पावक समान, दहे पुरातन कम�ने. 34.

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अथ% :—सम्यक्त्व–ज्ञान–दश%न–तप–वीय% ये पंच आचार हैं वे आत्माका आश्रय पाकर पुरातन कम�को वैसे ही दग्ध करते हैं ैसे निक पवन सनिहत अखिग्न पुराने सूkे इÔधनको दग्ध कर देती है ।

भावाथ% :—यहा ँ सम्यक्त्व आदिद पंच आचार तो अखिग्नस्थानीय ह ैं और आत्माके तै्रकाशि>क शुद्ध -वभावको शी> कहते हैं, यह आत्माका -वभाव पवनस्थानीय है, वह पंच आचाररूप अखिग्न और शी>रूपी पवनकी सहायता पाकर पुरातन कम%बंधको दग्ध करते आत्माको शुद्ध करता है, इस प्रकार शी> ही प्रधान है । पाँच आचारोंमें चारिरत्र कहा है और यहाँ सम्यक्त्व कहनेमें चारिरत्र ही ानना, निवरोध न ानना ।।34।।

आगे कहते हैं निक ऐसे अष्ट कम�को जि नने दग्ध निकये वे शिसद्ध हुए हैं :—शिण�ड्ढअट्ठकम्मा विवसर्यविवरAा जिजदिदंदिदर्या धीरा ।तवविवणर्यसीलसविहदा चिसद्धा चिसणिद्धं गदिदं पAा ।।35।।विनद�ग्धाष्टकमा�णः विवषर्यविवर}ा जिजतेंदिद्रर्या धीराः ।तपोविवनर्यशीलसविहताः चिसद्धाः चिसणिद्धं गहितं प्रा=ताः ।।35।।

विवजिजतेजिन्द्र विवषर्यविवर} र्थई, धरीने विवनर्य–तप–शीलने,धीरा दही वसु कम�, शिशवगवितप्रा=त चिसद्धप्रभु बने. 35.

अथ% :—जि न पुरुषोंने इजिन्द्रयोंको ीत शि>या है इसीसे निवषयोंसे निवरक्त हो गये हैं, और धीर हैं, परिरषहादिद उपसग% आने पर च>ायमान नहीं होते हैं, तप निवनय शी>सनिहत हैं वे अष्ट कम�को दूर करके शिसद्धगनित ो मोक्ष उसको प्राप्त हो गये हैं, वे शिसद्ध कह>ाते हैं ।

भावाथ% :—यहाँ भी जि तेजिन्द्रय और निवषयनिवरक्तता ये निवशेषण शी> ही की प्रधानता दिदkाते हैं ।।35।।

आगे कहते हैं निक ो >ावhय और शी>युक्त हैं वे मुनिन प्रशंसाके योग्य होते हैं :—लावण्णसीलकुसलो जम्ममहीरुहो जस्स सवणस्स ।सो सीलो स मह=पा भमिमज्ज गुणविवyरं भविवए ।।36।।लावण्र्यशीलकुशलः जन्ममहीरुहः र्यस्र्य श्रमणस्र्य ।सः शीलः स महात्मा भ्रमेत् गुणविवस्तारः भव्ये ।।36।।

जे श्रमण केरंु जन्मतरु लावण्र्य–शीलसमृद्ध छे,

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ते शीलधर छे छे महात्मा, लोकमां गुण विवस्तरे. 36.अथ% :—जि स मुनिनका न्मरूप वृक्ष >ावhय अथा%त् अन्यको निप्रय >गता है ऐसा सव%

अंग सुन्दर तथा मन वचन कायकी चेष्टा सुन्दर और शी> अथा%त ् अंतरंग मिमथ्यात्व निवषय सनिहत परोपकारी -वभाव, इन दोनोंमें प्रवीण निनपुण हो वह मुनिन शी>वान् है महात्मा है उसके गुणोंका निव-तार >ोकमें भ्रमता है, फै>ता है ।

भावाथ% :—ऐसे मुनिनके गुण >ोकमें निव-तारको प्राप्त होत े हैं, सव% >ोकमें प्रशंसा योग्य होते हैं, यहा ँ भी शी> ही की मनिहमा ानना और वृक्षका -वरूप कहा, ैसे वृक्षके शाkा, पत्र, पुष्प, फ>, सुन्दर हों और छायादिद करके राग-दे्वषरनिहत सब >ोकका समान उपकार करे उस वृक्षकी मनिहमा सब >ोग करते हैं; ऐसे ही मुनिन भी ऐसा हो तो सबके द्वारा मनिहमा करने योग्य होता है ।।36।।

आगे कहते हैं निक ो ऐसा हो वह जि नमाग%में रत्नत्रयकी प्रान्तिप्तरूप बोमिधको प्राप्त होता है :—

णाणं झाणं जोगो दंसणसुद्धीर्य *वीरिरर्यार्यAं ।सम्मAदंसणेण र्य लहंवित जिजणसासणे बोविह ।।37।।

1. –मुदिद्रत सं0 प्रनितमें ‘वीरिरयावत्तं’ ऐसा पाठ है जि सकी छाया वीय%त्व है ।ज्ञान ंध्र्यान ंर्योगः दश�नशुशिद्धश्च वीर्या�र्यAाः ।सम्र्यक्त्वदश�नेन च लभन्ते जिजनशासने बोचिध ।।37।।

दृगशुशिद्ध, ज्ञान, समाचिध, ध्र्यान स्वशचि}–आशिश्रत होर्य छे,सम्र्यक्त्वर्थी जीवो लहे छे बोचिधने जिजनशासने. 37.

अथ% :—ज्ञान, ध्यान, योग, दश%नकी शुद्धता य े तो वीय%के आधीन ह ैं और सम्यग्दश%नसे जि नशासनमें बोमिधको प्राप्त करते हैं, रत्नत्रयकी प्रान्तिप्त होती है ।

भावाथ% :—ज्ञान अथा%त ् पदाथ�को निवशेषरूपस े ानना, ध्यान अथा%त ् -वरूपमें एकाग्रशिचत्त होना, योग अथा%त् समामिध >गाना, सम्यग्दश%नको निनरनितचार शुद्ध करना ये तो अपने वीय% (शशिक्त) के आधीन है, जि तना बने उतना हो परन्तु सम्यग्दश%नसे बोमिध अथा%त् रत्नत्रयकी प्रान्तिप्त होती है, इसके होने पर निवशेष ध्यानादिदक भी यथाशशिक्त होते ही हैं और इससे शशिक्त भी बढ़ती है । ऐसे कहनेमें भी शी> ही का माहात्म्य ानना, रत्नत्रय है वही आत्माका -वभाव है, उसको शी> भी कहते हैं ।।37।।

आगे कहते हैं निक यह प्रान्तिप्त जि नवचनसे होती है :—

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जिजणवर्यणगविहदसारा विवसर्यविवरAा तावोधणा धीरा ।सीलसचिललेण ण्हादा ते चिसद्धालर्यसुहं जंवित ।।38।।जिजनवचनगृहीतसारा विवषर्यविवर}ाः तपोधना धीराः ।शीलसचिललेन स्नाताः त ेचिसद्धालर्यसुखं र्यांवित ।।38।।

जिजनवचननो ग्रही सार, विवषर्यविवर} धीर तपोधनो,करी स्नान शीलसचिललर्थी, सुख चिसशिद्धनुं पामे अहो. 38.

अथ% :—जि नने जि नवचनोंसे सारको ग्रहण कर शि>या है और निवषयोंसे निवरक्त हो गये हैं, जि नके तप ही धन है तथा धीर हैं ऐसे होकर मुनिन शी>रूप >से -नानकर शुद्ध हुए वे शिसद्धा>य ो शिसद्धोंके रहनेका स्थान उसके सुkोंको प्राप्त होते हैं ।

भावाथ% :— ो जि नवचनके द्वारा व-तुके यथाथ% -वरूपको ानकर उसका सार ो अपने शुद्ध -वरूपकी प्रान्तिप्त उसका ग्रहण करते हैं वे इजिन्द्रयोंके निवषयोंसे निवरक्त होकर तप अंगीकार करते हैं—मुनिन होते हैं, धीर वीर बनकर परिरषह उपसग% आने पर भी च>ायमान नहीं होते हैं तब शी> ो -वरूपकी प्रान्तिप्तकी पूण%तारूप चौरासी >ाk उत्तरगुणकी पूण%ता वही हुआ निनम%> > उससे -नान करके सब कम%म>को धोकर शिसद्ध हुए, वह मोक्षमंदिदरमें रहकर वहाँ परमानंद अनिवनाशी अतीजिन्द्रय अव्याबाध सुkको भोगते हैं, यह शी>का माहात्म्य है । ऐसा शी> जि नवचनसे प्राप्त होता है, जि नागमका निनरन्तर अभ्यास करना उत्तम है ।।38।।

आग े अंतसमयम ें संल्>ेkना कही है, उसम ें दश%न ज्ञान, चारिरत्र तप इन चार आराधनाका उपदेश है ये भी शी> ही से प्रगट होते हैं, उसको प्रगट करके कहते हैं :—

सव्वगुणखीणकम्मा सुहदुक्खविववस्थिज्जदा मणविवसुद्धा ।प=फोवि)र्यकम्मरर्या हवंवित आराहणापर्य)ा ।।39।।सव�गुणक्षीणकमा�णः सुखदुःखविववर्जिजंताः मनोविवशुद्धाः ।प्रस्फोदिटतकम�रजसः भवंवित आराधनाप्रकटाः ।।39।।

आराधनापरिरणत सरव गुणर्थी करे कृश कम�ने,सुखदुखरविहत मनशुद्ध ते क्षेपे करमरूप धूलने. 39.

अथ% :—सव%गुण ो मू>गुण उत्तरगुणोंसे जि समें कम% क्षीण हो गये हैं, सुk—दुःkसे रनिहत हैं, जि समें मन निवशुद्ध हैं और जि समें कम%रूप र को उड़ा दी है ऐसी आराधना प्रगट होती है ।

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भावाथ% :–पनिह>े तो सम्यग्दश%न सनिहत मू>गुण उत्तरगुणोंके द्वारा कम�की निन %रा होने से कम%की ण्डिस्थनित अनुभाग क्षीण होता है, पीछे निवषयोंके द्वारा कुछ सुk–दुःk होता था उससे रनिहत होता है, पीछे ध्यानमें ण्डिस्थत होकर श्रेणी चढे़, तब उपयोग निवशुद्ध हो, कषायोंका उदय अव्यक्त हो तब दुःk–सुkकी वेदना मिमटे, पीछे मन निवशुद्ध होकर क्षयोपशम ज्ञानके द्वारा कुछ ज्ञेयसे ज्ञेयान्तर होनेका निवकल्प होता है वह मिमटकर एकत्वनिवतक% अनिवचार नामका शुक्>ध्यान बारहवें गुणस्थानके अन्तमें होता है यह मनका निवकल्प मिमटकर निवशुद्ध होना है ।

पीछे घानितकम%का नाश होकर अत्यन्त चतुष्टय प्रकट होते हैं यह कम%र का उड़ना है, इस प्रकार आराधनाकी संपूण%ता प्रकट होना ह ै । ो चरमशरीरी ह ैं उनके तो इस प्रकार आराधना प्रगट होकर मुशिक्तकी प्रान्तिप्त होती है । अन्यके आराधनाका एकदेश होता है अंतमें उसका आराधन करके -वग% प्राप्त होता है, वहाँ सागरो पय%न्त सुk भोग वहाँसे चयकर मनुष्य हो आराधनाको संपूण% करके मोक्ष प्राप्त होता है, इस प्रकार ानना, यह जि नवचनका और शी>का माहात्म्य है ।।39।।

आगे, ग्रंथको पूण% करते हैं वहाँ ऐसे कहते हैं निक ज्ञानमें सव% शिसजिद्ध है यह सव% न प्रशिसद्ध है, वह ज्ञान तो ऐसा हो उसको कहते हैं :—

अरहंते सुहभAी सम्मAं दंसणेण सुविवसुदं्ध ।सीलं विवसर्यविवरागो णाणं पुण केरिरसं भशिणरं्य ।।40।।अह�वित शुभभचि}ः सम्र्यक्त्वं दश�नेन सुविवशुदं्ध ।शीलं विवषर्यविवरागः ज्ञान ंपुनः कीदृशं भशिणत ं।।40।।

अहmतमां शुभ भचि} श्रद्धाशुशिद्धर्युत सम्र्यक्त्व छे,ने शील विवषर्यविवरागता छे; ज्ञान बीजुं कर्युं हवे ? 40.

अथ% :—अरहंतम ें शुभ भशिक्तका होना सम्यक्त्व है, वह कैसा ह ै ? सम्यग्दश%नसे निवशुद्ध है तत्त्वाथ�का निनश्चय–व्यवहार-वरूप श्रद्धान और बाह्य जि नमुद्रा नग्न दिदगम्बररूपका धारण तथा उसका श्रद्धान ऐसा दश%नसे निवशुद्ध अतीचार रनिहत निनम%> ह ै ऐसा तो अरहंत भशिक्तरूप सम्यक्त्व है, निवषयोंसे निवरक्त होना शी> है और ज्ञान भी यही है तथा इससे भिभन्न ज्ञान कैसा कहा है ? सम्यक्त्व शी> निबना तो ज्ञान मिमथ्याज्ञानरूप अज्ञान है ।

भावाथ% :—यह सब मतोंमें प्रशिसद्ध ह ै निक ज्ञानसे सव%शिसजिद्ध ह ै और ज्ञान शा-त्रोंसे होता है । आचाय% कहते हैं निक—हम तो ज्ञान उसको कहते हैं ो सम्यक्त्व और शी>सनिहत हो, ऐसा जि नमाग%में कहा है, इससे भिभन्न ज्ञान कैसा है ? इससे भिभन्न ज्ञानको तो हम ज्ञान नहीं कहते हैं, इनके निबना तो वह अज्ञान ही है और सम्यक्त्व व शी> हो वह जि नागमसे होते हैं ।

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वहाँ जि सके द्वारा सम्यक्त्व शी> हुए और उसकी भशिक्त न हो तो सम्यक्त्व कैसे कहा ावे, जि सके वचन द्वारा यह प्राप्त निकया ाता है उसकी भशिक्त हो तब ाने निक इसके श्रद्धा हुई और ब सम्यक्त्व हो तब निवषयोंसे निवरक्त होय ही हो, यदिद निवरक्त न हो तो संसार और मोक्षका -वरूप क्या ाना ? इस प्रकार सम्यक्त्व शी> होने पर ज्ञान सम्यग्ज्ञान नाम पाता है । इसप्रकार इस सम्यक्त्व शी>के संबंधसे ज्ञानकी तथा शा-त्रकी मनिहमा है । ऐसे यह जि नागम है सो संसारमें निनवृभित्त करके मोक्ष प्राप्त करानेवा>ा है, वह यवंत हो । यह सम्यक्त्वसनिहत ज्ञानकी मनिहमा है वही अंतमंग> ानना ।।40।।

इस प्रकार श्री कुन्दकुन्द आचाय%कृत शी>पाहुO ग्रंथ समाप्त हुआ ।इसका संके्षप तो कहते आये निक—शी> नाम -वभावका है । आत्माका -वभाव शुद्ध

ज्ञान दश%नमयी चेतना-वरूप है वह अनादिद कम%के संयोगसे निवभावरूप परिरणमता है । इसके निवशेष मिमथ्यात्व, कषाय आदिद अनेक ह ैं इनको राग–दे्वष–मोह भी कहत े हैं, इनके भेद संक्षेपसे चौरासी >ाk निकये हैं, निव-तारसे असंख्यात अनन्त होते हैं इनको कुशी> कहते हैं । इनको अभावरूप संके्षपसे चौरासी >ाभ उत्तरगुण हैं, इन्हें शी> कहते हैं, यह तो सामान्य परद्रव्यके संबंधकी अपेक्षा शी>–कुशी>का अथ% ह ै और प्रशिसद्ध व्यवहारकी अपेक्षा -त्रीके संगकी अपेक्षा कुशी>के अठारह ह ार भेद कहे हैं, इनका अभाव शी>के अठारह ह ार भेद हैं, इनको जि नागमसे ानकर पा>ना । >ोकमें भी शी>की मनिहमा प्रशिसद्ध है, ो पा>ते हैं -वग%–मोक्षके सुk पाते हैं, उनको हमारा नम-कार हैं वे हमारे भी शी>की प्रान्तिप्त करो, यह प्राथ%ना है ।

* छप्पय *आन वस्तके संग राचिच जिजनभाव भंग करिर;वरतै ताविह कुशीलभाव भाखे कुसंग धरिर ।ताविह तजैं मुविनरार्य पार्य विनज शुद्धरूप जल;धोर्य कम�रज होर्य चिसशिद्ध पावै सुख अविवचल ।।र्यह विनश्चल शील सुब्रह्ममर्य व्यवहारै वितर्यतज नमै ।जो पालै सबविवचिध वितविन नमूं पाऊं जिजन भव न जनम मैं ।।

* दोहा *नमूं पंचपद ब्रह्ममर्य मंगलरूप अनूप ।उAम शरण सदा लहंू विफरिर न परंू भवकूप ।।2।।

इनित श्री कुन्दकुन्दाचाय%-वामिमप्रणीत शी>प्राभृतकी यपुर निनवासी पं0 यचन्द्र ी छाबड़ाकृत देशभाषामय वचनिनकाका निहन्दी भाषानुवाद समाप्त ।।8।।

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*वचनिनकाकारकी प्रशस्ति-त

इस प्रकार श्री कुन्दकुन्द आचाय%कृत गाथाबद्ध पाहुOग्रन्थ है, इनम ें य े पाहुO हैं, इनकी यह देशभाषामय वचनिनका शि>kी है । छह पाहुOकी तो टीका दिटप्पण है । इनमें टीका तो श्रुतसागर कृत है और दिटप्पण पनिह>े निकसी और ने निकया है । इनमें कई गाथा तथा अथ% अन्य प्रकार हैं, मेरे निवचारमें आया उनका आश्रय भी शि>या है और ैसा अथ% मुझे प्रनितभानिषत हुआ वैसा शि>kा है । लि>ंगपाहुO और शी>पाहुO इन दोनों पाहुOकी टीका दिटप्पण मिम>ा नहीं इसशि>ये गाथाका अथ% ैसा प्रनितभासमें आया वैसा शि>kा है ।

श्री श्रुतसागरकृत टीका षट्पाहुOकी है, उसमें ग्रन्थान्तरकी साक्षी आदिद कथन बहुत ह ै वह उस टीकाकी यह वचनिनका नहीं है, गाथाका अथ%मात्र वचनिनका कर भावाथ%म ें मेरी प्रनितभासमें आया उसके अनुसार अथ% शि>kा है । प्राकृत व्याकरण आदिदका ज्ञान मेरे में निवशेष नहीं है इसशि>ये कहीं व्याकरणसे तथा आगमसे शब्द और अथ% अपभ्रंश हुआ हो तो बुजिद्धमान पंनिOत मू>ग्रन्थ निवचार कर शुद्ध करके पढ़ना, मुझे अल्पबुजिद्ध ानकर हँसी मत करना, क्षमा करना, सत्पुरुषोंका -वभाव उत्तम होता है, दोष देkकर क्षमा ही करते हैं ।

यहाँ कोई कहे—तुम्हारी बुजिद्ध अल्प है तो ऐसे महान ग्रन्थकी वचनिनका क्यों की ? उसको ऐसे कहना निक इस का>में मेरेसे भी मंदबुजिद्ध बहुत हैं, उनके समझनेके शि>ये की है । इसम ें सम्यग्दश%नको दृढ़ करनेका प्रधानरूपसे वण%न है, इसशि>य े अल्पबुजिद्ध भी वाँच ें पढ़ें अथ%का धारण करें तो उनके जि नमतका श्रद्धान दृढ़ हो । वह प्रयो न ानकर ैसा अथ% प्रनितभासमें आया वैसा शि>kा है और ो बडे़ बुजिद्धमान हैं वे मू>ग्रन्थको पढ़कर ही श्रद्धान दृढ़ करेंगे, मेरे कोई ख्यानित >ाभ पू ाका तो प्रयो न है नहीं, धमा%नुरागसे यह वचनिनका शि>kी है, इसशि>ये बुजिद्धमानोंके क्षमा ही करने योग्य है ।

इस ग्रन्थके गाथाकी संख्या ऐसे है—प्रथम दश%नपाहुOकी गाथा 36 । सूत्रपाहुOकी गाथा 27 । चारिरत्रपाहुOकी गाथा 45 । बोधपाहुOकी गाथा 61 । भावपाहुOकी गाथा 165 । मोक्षपाहुOकी गाथा 106 । लि>ंगपाहुOकी गाथा 22 । शी>पाहुOकी गाथा 40 । ऐसे पाहुO आठोंकी गाथाकी संख्या 502 है ।

* छप्पय *जिजनदश�न विनग्रmर्थरूप तत्त्वारर्थ धारन,सूनर जिजनके वचन सार चारिरत व्रत पारन ।बोध जैनका जांविन आनका सरन विनवारन,भाव आत्मा बुद्ध मांविन भावन शिशव कारन ।

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फुविन मोक्ष कम�का नाश है लिलंग सुधारन तजिज कुनर्य ।धरिर शील स्वभाव संवारनां आठ पाहु)का फल सुजर्य ।।

* दोहा *भई वचविनका र्यह जहाँ सुनो तास संक्षेप ।भव्यजीव संगवित भली मेटै कुकरमलेप ।।2।।जर्यपुर पुर सूवस वसै तहाँ राज जगतेश ।ताके न्र्यार्य प्रतापतैं सुखी ढुढ़ाहर देश ।।3।।जैनधम� जर्यवंत जग विकछु जर्यपुरमैं लेश ।तामचिध जिजनमंदिदर घणे वितनके भलो विनवेश ।।4।।वितविनमैं तेरापंर्थको मंदिदर सुन्दर एव ।धम�ध्र्यान तामैं सदा जैनी करै सुसेव ।।5।।पंवि)त वितविनमैं बहुत हैं मैं भी इक जर्यचंद ।प्रेर्याm सबकै मन विकर्यो करन वचविनका मंद ।।6।।कुन्दकुन्द मुविनराजकृत प्राकृत गार्था सार ।पाहु) अष्ट उदार लखिख करी वचविनका तार ।।7।।इहाँ जिजते पंवि)त हुते वितविननैं सोधी र्येह ।अक्षर अर्थ� सु वांचिच पदिढ़ नहीं राख्र्यो संदेह ।।8।।तौऊ कछू प्रमादतैं बुशिद्ध मंद परभाव ।हीनाचिधक कछु अर्थ� है्व सोधो बुध सतभाव ।।9।।मंगलरूप जिजनेन्द्रकंू नमस्कार मम होहु ।विवघ्न टलै शुभबंध है्व र्यह कारन है मोहु ।।10।।संवत्सर दस आठ सत सतसदिठ विवक्रमरार्य ।मास भाद्रपद शुक्ल वितचिर्थ तेरचिस पूरन र्थार्य ।।11।।

इनित वचनिनकाकार प्रशस्ति-त । यतु जि नशासनम् ।

शुभमिमनित ।

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समाप्त

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आकारादिद—अनुक्रमसे गार्था सूचिचगाथा पृ0 सं0अअइसोहण ोएणं 285अक्kाभिण बानिहरप्पा 274*अङ्गाइं दस य दुण्डिhण य 187अच्चेयणं निप चेदा 309अज्ज निव नितरिरयणसुद्ध 320अhणाणं मिमच्छत्तं 79अhणं च वशिसट्ठ मुभिण 181अhणे कुमरणमरणं 169अपरिरग्गह समणुhणेसु 94अप्पा अप्पस्त्रिम्म रओ 168अप्पा अप्पस्त्रिम्म रओ 208अप्पा चरिरत्तवंतो 312

अप्पा झायंताणं 316अप्पा णाऊण णरा 314अमणुhणे य मणुhणे 86अमराण वंदिदयाण 29अयसाण भावणेण य 198अरसमरूवमगंधं 194अरहंतभाशिसयत्थ 39अरहंतेण सुदिदटं्ठ 102अरहंते सुहभत्ती 390अरुहा शिसद्धायरिरया 338अवरो निव दव्वसवणो 185अवसेसा े लि>ंगी 56अशिसयसय निकरिरयवाई 247असुईवीहते्थनिह य 161गाथा पृ0

सं0

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अ-स दं ण वंदे 30अह पुण अप्पा भिणच्छदिद 57अह पुण अप्पा भिणच्छदिद 209आआंगतुक माणशिसयं 157आदसहावादhणं 281आदा kु मज्झ णाणे 191आदेनिह कम्मगंठी 381आयढणं चेदिदहरं 102आरुहनिव अंतरप्पा 275आहारभयपरिरग्गह 226आहारासणभिणद्दा यं 312आहारो य सरीरो 124आसवहेदू य तहा 306इइच्छायार महतं्थ 57इनिÕमतु>ं निवउस्त्रिव्वय 242इय धाइकम्ममुक्को 259इय उवएसं सारं 295इय ाभिणऊण ोई 290इय णाउं गुणदोसं 254इय णाऊण kमागुण 224इय नितरिरय मणुय म्मे 165इय भावपाहुOमिमणं 267इय मिमच्छत्तावासे 250इय लि>ंगपाहुOमिमणं 361इरिरयाभासाएसण 94उउण्डिक्कट्ठसीहचरिरय 54उग्गंतवेणhणाणी 305उच्छाहभावणा 78उच्छाहभावणा 79उत्तममण्डिज्झमगेहे 134

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उत्थरइ ा ण र ओ 244उद्धद्धमज्झ>ोये 323उदधी व रदणभरिरदो 382उप्पOदिद पOदिद धावदिद 356उवसग्गपरिरसहसहा 139उवसमkमदम ुत्ता 137एएएण कारणेण य 58एएण कारणेण य 209एए नितण्डिhण निव भावा 70एए नितण्डिhण निव भावा 82एएहिहं >क्kणेहिहं य 77एक्केक्कंगुशि>वाही 175एगो मे स-सदो अप्पा 191एगं जि ण-सरूवं 25एण्डि-सगुणेहिहं सव्वं 126एवं आयत्तणगुण 141एवं निवय णाऊण य 71एवं जि णपhणतं्त 27एवं जि णपhणतं्त 340एवं जि णेहिहं कनिहयं 326एवं बहुप्पयारं 385एवं मनिहओ मुभिणवर 359एव सावयधम्मं 88गाथा पृ0

सं0एवं संkेवेण य 99ककत्ता भोइ अमुत्तो 254क>हं वादं ूआ 350कल्>ाणपरस्परया 34काऊण णमुक्कार 2काऊण णमोकार 347

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का>मणंतं ीवो 173हिकं कानिहदिद बनिहकम्म 335हिकं निपएण बहुणा 267हिकं पुण गच्छइ मोहं 243हिकं बहुणा भभिणएणं 327कुण्डिच्छयदेव धम्मं 330कुण्डिच्छयधम्मस्त्रिम्म रओ 250कुमयकुसुदपसंसा 373केवशि>जि णपhणतं्त 180कोहभयहास>ोहा 92कंदप्पमाइयाओ 158कंदप्पाइय वट्टइ 354कंदं मू>ं बीयं 220kkणणुत्तावणवा>ण 156kयरामरमणुयकरं 201गगइ इंदिदयं च काये 123गशिसयाइं पुग्ग>ाइं 163गनिहउण्डिज्झयाइं मुभिणवर 164गनिहऊण य सम्मतं्त 326गनिहण अप्पगहा 66निगhहदिद अदत्तदाणं 356गाथा पृ0

सं0निगहगंथमोहमुक्का 132गुणगणमभिणमा>ाए 264गुणगणनिवहूशिसयंगो 336गुणठाणमग्गणेहिहं य 121चचउनिवहनिवकहासत्तो 160चउसदिठ्ठचमरसनिहओ 32चक्कहररामकेसव 265

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चरणं हवइ सधम्मो 303चरिरयावरिरया वदसमिमदिद 318चारिरत्तसमारूढ़ो 98शिचत्तासोनिह ण तेलिसं 65चेइय वधं मोक्k 106चोराणा >ाउराण य 353छछज्जीव छOायदणं 244छत्तीसं नितण्डिhण सया 166छह दव्व णव पयत्था 25छाया>दोसदूशिसय 218 इ णाणेण निवसोहो 384 इ ंसणेण सुद्धा 65 इ निवसय>ो>एनिह 383 रबानिह म्ममरणं 120 रबानिह दुक्kरनिहय 126 >थ>शिसनिहपवणंवर 163 -सपरिरग्गहगहणं 61 दिद पढदिद वहु 336 दिद कंचणं निवशुदं्ध 369 ह ायरूवरूवं 329गाथा पृ0

सं0 ह ायरूवसरिरसा 136 ह ायरूवसरिरसो 59 ह ण निव >हदिद हु >क्kं 114 ह तारयाण चंदो 252 ह तारायणसनिहयं 253 ह दीवो गब्भहरे 238 हपत्थरो ण भिभज्जह 214 ह फभिणराओ सोहइ 252 ह फशि>हमभिण निवसुद्धो 304

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ह फुल्>ं गंधमयं 110 ह मू>स्त्रिम्म निवणटे्ठ 19 ह मू>ाओ kंधो 19 ह रयणाणं पवरं 206 ह निवसय>ुद्ध निवसदो 377 ह वीयस्त्रिम्म य दटे्ठ 240 ह सशि>>ेण ण शि>प्पइ 260 ाए निवसय निवरत्तो 384 ाणनिह भावं पढमं 154 ाव ण भावइ तच्चं 229जि णणाणदिददिट्ठसुदं्ध 71जि णहिबंबं णाणमयं 111जि णमग्गे पव्वज्जा 138जि णमुदं्द शिसजिद्धसुहं 301जि णवयणमोसहमिमणं 24जि भिणवयणगनिहदसारा 388जि णवरचरणंबुरुहं 260जि णवरमएण ोई 283 ीवनिवमुक्को सवओ 251 ीवा ीवनिवभत्ती 96 ीवा ीवनिवहत्ती 296गाथा पृ0

सं0 ीवाणमभयदाणं 246 ीवादीमद्दहणं 26 ीवो जि णपhणत्तो 193 ीवदया दम सच्चं 376 े के निव दव्वसवणा 237 े झायंनित सदव्वं 282 ेण रागो परे दव्वे 317 े दंसणेसु भट्टा णाणे 17 े पावमोनिहयमई 321 े निव पOंनित य तेशिस 21

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े पुण निवसयनिवरत्ता 315 े पुण निवसयनिवरत्ता 369 े पंचचे>सत्ता 321 े रायसंग ुत्ता 199 े बावीसपरीषह 55 ेशिस ीवसहावो 194 ो इच्छइ भिण-सरिरहुं 286 ो कम्म ादमइओ 307दो कोनिOए ण जि प्पइ 284 ो को निव धम्मसो>ो 18 ो ाइ ोयणसयं 284 ो ीवो भवतो 192 ो ोOेदिद निववाहं 352 ो देहे भिणरवेक्kो 278 ो पावमोनिहदमदी 349 ो पुण परदव्वरओ 280 ो रयणत्तय ुत्तो 298 ो सुत्तो ववहारे 290 ो सं मेषु सनिहओ 55गाथा पृ0 सं0 ं हिकंशिच कयं दोसं 222 ं चरदिद शुद्ध चरणं 107 ं ाणइ तं णाणं 70 ं ाणइ तं णाणं 294 ं ाभिणऊण ोई 272 ं ाभिणऊण ोई 297 ं भिणम्म>ं सुधम्मं 110 ं मया दिद-सदे रूवं 289 ं सक्कइ तं कीरइ 27 सूतं्त जि णउतं्त 48झझायनिह धम्मं सुक्कं 121झायनिह पंच निव गुरवे 238

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णणग्गत्तणं अकज्जं 189णग्गो पावइ दुक्kं 197णच्चदिद गायदिद तावं 349णमिमऊण जि णवरिरदे 149णमिमऊण य तं देव 272ण मुयइ पयनिO अभव्वो 248णरएसु वेयणाओ 378णवणोकसायवग्गं 212णवनिवहब्भं पयOनिह 216णनिवएहिहं ं णनिवज्जइ 337णनिव देहो वंदिदज्जइ 31ण निव शिसज्झदिद वत्थधरो 64णाणगुणेहिहं निवहीणा 98णाणमयनिवम>सीय> 239णाणमयं अप्पाणं 201णाणस्त्रिम्म दंसणस्त्रिम्म य 34गाथा पृ0 सं0णाण-स णण्डिस्थ दोसो 370णाणवरणादीहिहं 232णाणी शिसवपरमेट्ठी 258णाणेण दंसणेण य 33णाणेण दंसणेण य 370णाणं चरिरत्तसुदं्ध 368णाणं चरिरत्तहीणं 367णाणं चरिरत्तहीणं 308णाणं झाणां ोगो 387णाणं णर-स सारो 33णाणं णाऊण णरा 368णाणं दंसण सम्मं 68णाणं पुरिरस-स हवदिद 114णामे ठवणे निह य संदव्वे 119भिणग्गंथमोहमुक्का 322

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भिणग्गंथा भिण-संगा 135भिणच्चे> पाभिणपतं्त 54भिणच्छयणय-स एवं 324भिणhणेहा भिणल्>ोहा 135णिणंदाए य पसंसाए 317भिणयदेहसरिरचं्छ 276भिणयसत्तीए महा स 221भिणरुवममच>मkोहा 108भिण-संनिकय भिणक्कंखिkय 74भिणद्दÕ अट्ठकम्मा 386ततच्चरुई सम्मतं्त 294तवरनिहयं ं णाणं 309तववयगुणेहिहं सुद्धो 112तववयगुणेहिहं सुद्धा 141गाथा पृ0

सं0तस्त्रिव्ववरीओ बंधइ 231त-स य करह पणामं 111ताम ण णज्जइ अप्पा 314ताव ण ाणदिद णाणं 366नितत्थयरगणहराइं 241नितत्थयरभाशिसयतं्थ 213नितपयारो सो अप्पा 273नित>तुसमत्तभिणमिमतं्त 139नितनिहनितण्डिhण धरनिव भिणच्चं 299नितहुयणसशि>>ं सय>ं 164तुममासं घोसंतो 187तुस धम्मंत ब>ेण य 378तुह मरणे दुक्kेणं 162ते धhणा ताण णमो 242ते धhणा सुकयत्था 328ते घीरवीर पुरिरसा 262

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ते मे नितहुवणमनिहया 266तेया>ा नितण्डिhण सया 174तेरहमे गुणठाणे 122ते रोया निव य सय>ा 175ते ण्डिच्चय भणामिम हं े 261तं चेव गुण निवशुदं्ध 75थथू>े तसकायवहे 86ददढसं ममुद्दाए 112दव्वेण सय> णग्गा 196दस दस दोसुपरीसह 214दस पाणा पज्जती 126दसनिवहपाणाहारो 245गाथा पृ0 सं0दिदक्kाका>ाईयं 224दिदयसंगदिट्ठयमसणं 176दिदशिसनिवदिदशिसमाणपढमं 87दुइयं च उतं्त लि>ंगं 62दुक्kे णज्जइ अप्पा 313दुक्kेणज्जदिद णाणं 366दुज्जणवयण चOक्कं 222दुट्ठट्ठकम्मरनिहयं 282दुनिवहं निप गंथचायं 22दुनिवहं सं मचरणं 84देव गुरुस्त्रिम्म य भत्तो 304देवगुरुणं भत्ता 323देवाणगुणानिवहूई 159देहादिदचत्तसंगो 179देहादिदसंगरनिहओ 189दंOयणयरं सय>ं 184दंसणअणंतणाणं 108दंसण अणंतणाणे 120

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दंसणणाणचरिरते्त 28दंसणणाणचरिरते्त 352दंसणणाणचरिरते्त 354दंसणणाणचरिरते्त 359दंसणणाणचरिरतं्त 96दंसणणाणावरणं 256दंसणभट्टाभट्टा 14दंसणमू>ो धम्मो 3दंसणवयसामाइय 84दंसणसुद्धो सुद्धो 295दंसेइ मोक्kमाग्गं 109गाथा पृ0

सं0धणधhणवत्थदाणं 133धhणा ते भयवंता 262धम्मस्त्रिम्म भिणप्पवासो 199धम्मेण होइ शि>गं 348धम्मो दयानिवसुद्धो 116धावा%द हिपंO भिणमिमतं्त 355धुवशिसद्धी नितत्थयरो 310पपनिOदेससमयपुग्ग> 174पदिढएणनिव हिकं कीरइ 196पयOहिहं जि णवरलि>ंगं 198पयशि>यमाणकसाओ 203परदव्वर ओ वज्झदिद 279परदव्वादो दुग्गइं 281परमप्पय झायंतो 302परमाणुपमाणं वा 315परिरणामस्त्रिम्म असुदे्ध 153पव्वज्ज संगचाए 80पव्वज्जहीणगनिहणं 358पसुमनिह>संढसंगं 140

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पाऊणणाण सशि>>ं 97पाऊणणाण सशि>>ं 213पाओपहदंभावो 351पाभिणवहेनिह महा स 246पावं kवइ असेसं 223पावंनित भावसवणा 218पावं हवइ असेसं 230पासत्थभावणाओ 159पासंOी नितण्डिhण सया 251गाथा पृ0

सं0निपत्त तमुत्तफेफस 176पीओशिस थणच्छीरं 161पंुछशि>धरिर ो भुं इ 360पुरिरसायारो अप्पा 325पुरिरसेण निव सनिहयाए 380पुरिरसोनिव ो ससुत्त्तो 46पूयादिदसु वयसनिहय 207पंचमहव्वय ुत्ता 131पंचमहव्वय ुत्तो 291पंचमहव्वय ुत्तो 62पंचनिवहचे>चायं 205पंच निव इंदिदयपाणा 125पंचसु महव्वदेसु य 319पंचेजिन्द्रयसवरणं 89पंचेव णुव्वयाइं 85बब>सोक्kणाणदंसण 257बनिहरते्थ फुरिरयमणो 276बहुसत्थ अत्थ ाणे 101बारसनिवहतवयरणं 204बारस अङ्गनिवयाणं 147बारसनिवहतव ुत्ता 37

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बानिहरसंगच्चाओ 211बानिहरलि>ंगेण ुदो 311बानिहरसयणत्तावण 226बानिहरसंगनिवमुक्को 333बुदं्ध ं बोहंतो 105बधो भिणरओ संतो 357भभरहे दु-समका>े 319गाथा पृ0

सं0भव्व णबोहणत्थं 95भवसायरे अणते 162भावरनिहएण सपुरिरस 154भावरनिहओ ण शिसज्झइ 152भावनिवमुत्तो मुत्तो 178भावनिवसुजिद्धभिणमिमतं्त 152भावसमणो य धीरो 186भावसवणो निव पावइ 241भावसनिहदो य मुभिणणो 217भावनिह अणुवेक्kाओ 215भावनिह पढ़मं तचं्च 227भावनिह पंचपयारं 195भावेण होइ णग्गो 188भावेण होइ णग्गो 200भावेण होइ लि>ंगी 183भावेह भावसुदं्ध 99भावेह भावसुदं्ध 192भावो निव दिदव्वशिसवसु 201भावो निह पढमलि>ंगं 150भावं नितनिवहपयारं 202भीसणणरयगईए 155भं सु इंदिदयसेणं 212म

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मइधणुहं -स शिथरं 115मच्छो निव साशि>शिसथ्थो 210मणवयणकायदव्वा 103मणुयभवेपंशिचजिन्दय 125ममणित्तं परिरवज्जामिम 190मयमायकोहरनिहयो 300मय राय दोस मोहो 104गाथा पृ0 स 0मयराय दोषरनिहयो 127म>रनिहओ क>चतत्तो 274मनिह>ा>ोयणपुव्वर 93महुहिपंगो णाण मुणी 179मायावेण्डिल्> असेसा 263मिमच्छत्तछhणदिदट्ठी 49मिमच्छत्त तह कसाया 230मिमच्छतं्त अhणाणं 288मिमच्छादिदट्ठी ो सो 332मिमच्छाणाणेसुरओ 278मिमच्छादंसणमग्गे 80मू>गुणं शिछत्तूण य 334मोहमयगारबेहिहं 263मंसदिट्ठसुक्कसोभिणय 177ररयणत्तयेअ>दे्ध 168रयणत्तयमाराहं 293रयणत्तयं निव ोई 292रागं करेदिद भिणच्चं 358रूवशिसरिरगस्त्रिव्वदाणं 373रूवतं्थ सुद्धत्थ 142>>द्धण य मणुयतं्त 35>ावhणसी>कुस>ो 387लि>ंगं इत्थीण हवदिद 63

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लि>ंगस्त्रिम्म य इत्थीणं 64ववच्छल्>ं निवणएण 76वटे्टसु य kOेसु य 380वदमिमतवसावhणा 31गाथा पृ0

सं0वयगुत्ती मणगुत्ती 91वयसम्मत्तनिवसुदे्ध 117वर वयतवेनिह सग्गो 286वायरणछंदवइसे 374वारिर एकस्त्रिम्म य म्मे 378बा>ग्गकोनिOमेतं्त 58निवणयं पंचपयारं 220निवसएसु मोनिहदाणं 372निवहरदिद ाव जि णिणंदो 36निववरीयमूढभावा 138निवसवेयणरत्तक्kय 165निवयलि>ंदए असीदी 167निवसयनिवरत्तो समणो 203निवसयकसाएनिह ुदो 300वीरंनिवसा>णयणं 363वेरग्गपरो साहू 336ससण्डिच्चत्तभत्तपाणं 219सत्तसु णरयावासे 155सत्तूमिमते्त य समा 134सद्दवरओ सवणो 279सद्दनिवयारो हूओ 146सद्दहदिद य पते्तदिद य 208सपरज्झवसाएणं 277सपरा ंगम देहा 107सपरावेक्kं लि>ंगं 331

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सम्म गुण मिमच्छ दोसो 332सम्मत्त चरणभट्ठा 76सम्मतचरण सुद्धा 75सम्मत्तणाण दंसण 386गाथा पृ0 सं0सम्मत्तणाण दंसणं 16सम्मत्तणाणरनिहओ 318सम्मत्तरयण भठ्ठा 15सम्मत्तनिवरनिहया णं 15सम्मत्त सशि>>पवहो 16सम्मत्तादो णाणं 23सम्मतं्त तो झायई 327सम्मतं्त सhणाणं 339सम्मदं्दसण प-सदिद 81सम्मदं्दसभिण प-सदिद 128सम्माइट्ठी सावय 331सम्मूहदिद रक्kेदिद य 350सय> णबोहणत्थं 101सव्वगुणkीणकम्मा 389सव्वhहुसव्वदसी 68सव्वनिवरओ निव भावनिह 216सवसा सत्तं नितत्थं 131सव्वासवभिणरोहेण 289सव्वे कसाय मोतं्त 287सव्वे निव य परिरहीणा 375सह ुप्पhणं रूवं 29सामाइयं च पढमं 87साहंनित ं महल्>ा 90शिसद्धो सुद्धो आदा 292शिसदं्ध -स सदतं्थ 104शिसवम रामरलि>ंग 265शिससुका>े य अयाणे 177सी>गुणमंनिOदाणं 374

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सी>-स य णाण-य य 364गाथा पृ0

सं0सी>सह-सट्ठारस 233सी>ं तवो निवसुदं्ध 377सी>ं रक्kंताणं 371सुhणहरे तरुनिहटे्ठ 131सुदं्ध सुद्ध सहावं 202सुणहाण गद्दहाण य 382सुhणायार भिणवासो 92सुत्तं ाणमाणो निह 46सुत्तस्त्रिम्म ं सुदिदटं्ठ 40सुरभिण>येसुसुरच्छर 157सुह ोएण सुभावं 306सुहेण भानिवदं णाणं 311सूत्तत्थपयनिवणट्ठा 52सेयासेयनिवदhहू 23सेवनिह चउनिवहलि>ंगं 225सो णस्तित्थ तत्पएसो 182सो णस्तित्थ दव्व सवणो 172सो देवो ो अत्थं 116संखिkज्जमसंखिkज्जगुणं 83सग्गं तवेण सव्वो 285सं म सं ुत्त-स य 113हहरिरहरतुल्>ो निव णरो 53निहम >णसशि>>गुरुयर 165हिहंसारनिहए धम्मे 329हिहंसानिवरइ अहिहंसा 90होऊण दिदढचरिरत्तो 302

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