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काव्य लक्षण 

संप्रेषण की समस्या

कभी-कभी ऐसा लगता है कि कविता का युग समाप्त हो गया है। इसका सबसे बड़ा कारण है बौद्धिक सन्निपात से ग्रसित कविताओं की बहुतायात। यह बात तय है कि जहां कविताएँ बौद्धिक होगी, वहां वे शिथिल होगी। कविता की निर्मिति इसी जीव जगत से होती है। यदि कविता कुछ ही परिष्कृत बौद्धिक लोगों को प्रभावित या आकृष्ट करती है तो कही-न-कही कविता कमजोर अवश्य है। कविता की व्याप्ति इतनी बड़ी हो कि वे जन सामान्य को समेट सकें। आज कविता और पाठक के बीच दूरी बढ़ गई है। संवादहीनता के इस माहौल में संप्रेषण की समस्या पर विचार करने के लिए हमने डॉ० रमेश मोहन झा से निवेदन किया था। उन्होंने हमारे निवेदन पर यह आलेख दिया है। उसे हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

 

संप्रेषण की समस्या

डॉ० रमेश मोहन झा जे.एन.यू नई दिल्ली से एम.ए, एम.फिल प्राप्त प्रसिद्द आलोचक प्रो० नामवर सिंह के निर्देशन में पीएच.डी कर संप्रति हिंदी शिक्षण योजना, राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय, कोलकाता से संबद्ध हैं !! वागर्थ, दस्तावेज, प्रतिविम्ब, कथादेश, कथाक्रम, साक्षात्कार प्रभृति हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में आलेख समीक्षा आदि का नियमित प्रकाशन! संपर्क संख्या 09433204657

काव्य की प्रारम्भिक अवस्था से ही कवियों के समक्ष अनुभूत सत्य को मार्मिक और प्रभावशाली ढंग से संप्रेषित करने की समस्या बड़ी प्रमुख रही है। प्रत्येक युग का कवि कुछ विशिष्ट अनुभूतियाँ उपलब्ध कर उन्हें संपूर्णता में व्यक्त कर अपनी कला को सफल मानता है। काव्य की असफलता का कारण इन्हीं दो पक्षों – अनुभूति और अभिव्यक्ति में से किसी किसी एक का त्रुटिपूर्ण होना है।

यदि अनुभूति अपरिपक्व है तो उसके महत्व का प्रश्न ही नहीं उठता। श्रेष्ठ साहित्य के लिए अनुभूति की परिपक्वता का ही महत्व है उसके बिना न तो वस्तु का महत्व होगा और न शिल्प-साधना का प्रश्न सामने आएगा। अनुभूति की परिपक्वता पहली शर्त है। इसके बाद ही शिल्प का प्रश्न आता है, अतः शिल्प की पूर्णता श्रेष्ठ काव्य की दूसरी अनिवार्य शर्त्त है।

अनुभूति का उल्लेख होते ही उसमें बिना सोचे-समझे एक विशेषण “तीव्र” जोड़ दिया जाता है। लेकिन अनुभूति की तीव्रता का आशय क्या है, इसे कम लोग जानते हैं। अनुभूति की तीव्रता एक्साइटमेंट नहीं है। अज्ञेय ने ठीक ही कहा है –

भावनाएं नहीं है सोता

भावनाएँ खाद है केवल

जरा इनको दबा रखो

जरा सा और पकने दो

तले और तपने दो

अँधेरी तहों की पुट में

पिघलने और पकने दो

रिसने और रचने दो

कि उनका सार बनकर

चेतना की धरा को

कुछ उर्वर कर दे

- “हरी घास पर क्षण भर”

काव्य के लिए अनुभूतियों के शोध का बड़ा महत्व है। इसी से शैली में प्रभावोत्पादकता आती है। आवेश में सृजन संभव नहीं है। सृजन की स्थिति आवेश की स्थिति से नितांत भिन्न है।

हड़बड़ाहट में सबकुछ कहने की चेष्टा में काव्य सूचना का जखीरा बन जाता है और काव्यात्मकता गुम हो जाती है। साथ ही धैर्य का अभाव और आवेश की अधिकता के कारण उनका अनुभूत सत्य कलात्मक ढंग से संप्रेषित होने से रह जाता है, भाषा भी फीलपाँवो वाली हो जाती है।

सृजन के लिए धैर्य की नितांत आवश्यकता है। हड़बड़ाहट में सबकुछ कहने की चेष्टा में काव्य सूचना का जखीरा बन जाता है और काव्यात्मकता गुम हो जाती है। साथ ही धैर्य का अभाव और आवेश की अधिकता के कारण उनका अनुभूत सत्य कलात्मक ढंग से संप्रेषित होने से रह जाता है, भाषा भी फीलपाँवो वाली हो जाती है। अतः अनुभूत सत्य को संप्रेषित करने के लिए संयम अनिवार्य है। एक-एक शब्द तौल-मोलकर रखना है। अतः कवियों को चाहिए कि वे शब्दों का संधान, शोध और परिमार्जन करते रहें। इसके बिना वे श्रेष्ठ रचना रच नहीं सकते। उर्दू के शायर एक एक शब्द गढ़ने में पूरी ताकत या यों कहें कि भावों को सकेन्द्रित कर देते हैं तब जाकर एक शे’र कहते हैं, और उसकी गहराई देखकर लोग दाँतों तले उंगली दबा लेते हैं। उनके यहां इसे वज़न कहते हैं। हमारे यहां भी यह वज़न वाली शैली अपनानी चाहिए तभी कविता में जान आ पाएगी। अज्ञेय इस विषय में कहते हैं –

किसी को

शब्द हैं कंकड़

कूट लो पीस लो

छान लो डिबिया में डाल दो

किसी को

शब्द है सीपियाँ

लाखों का उलट फेर

कभी एक मोती मिल जाएगा।

-- “इन्द्रधनुष रौंदे हुए ये”

शब्दों के साथ-साथ बिम्बों का भी ज़िक्र जरूरी है। आज कविता में विम्बों की जो प्रधानता है उसका संबंध भी अनुभूत सत्य के संप्रेषण से है। बिम्बों की योजना अभिव्यक्ति को समर्थ और सार्थक बनाने का साधन या निमित्त है। यदि बिम्बों में सजीवता है तो उसका कारण अनुभूति की सत्यता और ईमानदारी है।

वही काव्य श्रेष्ठ माना जाएगा जिसमें शब्द-शब्द धुला पूछा हो, उसमें शक्ति और सौन्दर्य दोनों का सम्मिश्रण हो।

अभिव्यक्ति की प्रौढ़ता के साथ-साथ अभिव्यक्ति की “एकुरेसी” कविता को पुष्ट और पूर्ण बनाती है। “एकुरेसी” को केंद्र में रखते हुए कविता के शब्दकोश में अत्यधिक व्याप्ति आ गई है। लोक से लेकर अनेक शास्त्रों की परिभाषिक शब्दावली को आयात किया गया है।

अब इसके प्रयोग की जिम्मेदारी कवियों पर है। इसे सहज ढंग से गूंथने से भाषा में स्पष्टता, बेधकता, अचूकता और सार्थकता को गुंफित किया जा सकता है। और वही काव्य श्रेष्ठ माना जाएगा जिसमें शब्द-शब्द धुला पूछा हो, उसमें शक्ति और सौन्दर्य दोनों का सम्मिश्रण हो।

प्रस्तुतकर्ता मनोज कुमार पर ६:०० पूर्वाह्न 10 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक

लेबल: काव्य लक्षण, काव्य शास्त्र, कोलकाता, डॉ० रमेश मोहन झा

बुधवार, २५ अगस्त २०१०

कविता के नए सोपान (भाग–7) - निष्कर्ष

निष्कर्ष

कविता के नए सोपान (भाग–7)

कविता के नए सोपान (भाग-1)

कविता के नए सोपान (भाग-2) :: “कविता जटिल संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है।”

कविता के नए सोपान (भाग-3) - कविता सिर्फ़ हृदय की मुक्तावस्था नहीं, बल्कि बुद्धि की मुक्तावस्था है।

कविता के नए सोपान (भाग-4)  आज का कवि परिवेश के साथ द्वंद्वमय स्थिति में है।

कविता के नए सोपान (भाग-5) – कविता का निर्वैयक्तिकता सिद्धांत

कविता के नए सोपान (भाग-6) काव्य चिंतन में नई समीक्षा

आज की कविता का आग्रह कठिन काव्यशास्त्र के प्रति नहीं रहा है। आज की कविता की खासियत यही है कि यह अत्यंत मुखर होकर पूरे साहस से अपने पाठकों, अपने श्रोताओं के समक्ष आ रही है। अधिकांश कविता आज एक रस है, तब भी आज भी कविता के संवेदन को, संघर्ष को, विचार को हम स्पष्ट महसूस कर सकते हैं। पिछले छह भागों में प्रस्तुत विचारों पर गौर करें तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि पुराने प्रतिमान आज उतने कारगर नहीं रहे, जितने कि पहले थे। यहां तक कि रस अब कविता के लिए आवश्यक नहीं रह गया है। हालांकि छायावाद के आलोचक डॉ नगेन्द्र ने नए काव्य चिंतन के इस दौर में भी “कविता क्या है?” शीर्षक आलेख में रस सिद्धांत को काव्य का शाश्वत प्रतिमान माना है, किन्तु अज्ञेय ने इस सिद्धांत का खंडन किया। अज्ञेय का कहना था कि रस का आधार था अद्वंद्व और चित्त की समाहिति (शांति), जबकि नई कविता का आधार है तनाव, द्वंद्व।

अज्ञेय का मानना था,

“जीवन.... सपनों और आकारों का एक रंगीन और विस्मय भरा पुंज है। हम चाहें तो उस रूप से ही उलझे रह सकते हैं। पर रूप का आकर्षण भी वास्तव में जीवन के प्रति हमारे आकर्षण का प्रतिबिंब है। जीवन को सीधे न देखकर हम एक काँच में से देखते हैं। जब ऐसा करते हैं तो हम उन रूपों में ही अटक जाते हैं, जिनके द्वारा जीवन अभिव्यक्ति पाता है”।(अत्मनेपद)

इस प्रकार यह तो स्पष्ट है कि नई कविता के संदर्भ में सिर्फ अनुभूति ही पर्याप्त नहीं है। बल्कि यह तो भ्रम पैदा करती है। छायावादी कविता की अनुभूति और नई कविता की अनुभूति में बदलाव है। आज हम निर्वैयक्तिक अनुभूति की बात करते हैं। (यहां देखें) निरंतर प्रयोग में आते रहने से शब्द में बासीपन आ जाता है। इसलिए आज कवि के सामने शब्द में नया अर्थ भरने की चुनौती है। तो नया कवि इस चुनौती को स्वीकार कर शब्दों में नए अर्थ का निरूपण करता है। हम पहले भी इस बात की चर्चा कर आए हैं कि नई कविता “अभिव्यक्ति” नहीं है, निर्मित है। (यहां देखें) अगर विजयदेव नारायण साही के शब्दों में कहें तो नई कविता तरंग के रूप को स्ट्रक्चर में बदल देती है जेसे हीरे का क्रिस्टल हो।

कविता निर्मित इसलिए है कि आज हमको कलाकृति कि संरचना पर ध्यान देना पड़ता है। आज कविता को परखने का प्रमाणिक प्रतिमान काव्य भाषा है। क्योंकि काव्य-भाषा ही वह चीज है जिसमें काव्यार्थ की, नए भाव-बोध की निष्पत्ति होती है।

इस सारी चर्चा के निष्कर्ष के तौर पर हम कह सकते हैं कि जहां एक ओर आज कविता का ऊपरी कलेवर बदला है, साथ ही नए प्रतीकों या बिम्बों या शब्दावली की खोज हुई है, वहीं दूसरी ओर गहरे स्तर पर काव्यानुभूति की बनावट में ही फर्क आ गया है। इसका कारण है हमारे रागात्य संबंधें की प्रणालियाँ बदली है। इन रागात्मक प्रणालियों के बदलाव से हमारा बाह्य और आंतरिक वास्तविकता से गहरा रिश्ता निर्धारित होता है। जीवन आज जटिल हुआ है। इस काव्यानुभूति का कवि-कर्म पर गहरा असर पड़ा है। आज कविता हमें रिझाती नहीं, हमारा चैन तोड़ देती है। शब्द और अर्थ का तनाव स्पष्ट दीखता है। सृजन में नए नए अर्थ सौंदर्य की तलाश जारी है।  वस्तु और रूप के बीच एक द्वंद्वात्मक रिश्ता है।

प्रस्तुतकर्ता मनोज कुमार पर ६:०० पूर्वाह्न 12 टिप्पणियाँ  

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मंगलवार, २४ अगस्त २०१०

कविता के नए सोपान (भाग-6) काव्य चिंतन में नई समीक्षा

काव्य चिंतन में नई समीक्षा

कविता के नए सोपान (भाग-6)

पाश्चात्य काव्य चिंतन में नई समीक्षा (न्यू क्रिटिसिज़्म) स्कूल के विद्वानों ने काव्य लक्षण पर बहस करते हुए यह निष्कर्ष दिया कि

“कविता एक शाब्दिक निर्मित है या वर्बल आईकॉन है(Verbal Icon) ”

अर्थात् कविता शब्द है और अंत में भी यही बात बचती है कि कविता शब्द है। (यहां देखें)

टी.एस.एलियट (यहां देखें) और अई.ए. रिचर्डस (यहां देखें ) इसी न्यू क्रिटिसिज्म स्कूल से हैं। नई समीक्षा के विचारकों ने काव्य-भाषा को आधार बनाकर विचार किया। अर्थात इनकी समीक्षा में “कवि” केंद्र में नहीं है। इनके चिंतन का केंद्र “कविता” है।

इस स्कूल के विचारकों द्वारा कविता का विश्लेषण काव्य-भाषा के आधार पर हुआ। उसकी कलाकृति की प्रक्रिया पर चिंतन किया गया। उन्होंने काव्य-भाषा को आधार बनाकर चिंतन किया। इस स्कूल में विचारकों का कहना था,“कविता भाषा की संभावित क्षमताओं का संधान है।” इस स्कूल का मानना था कि कविता के अर्थ पता लगाने की मूल समस्या भाषा की समस्या है।

हिंदी आलोचना में न्यू क्रिटिसिज्म के पुरोधा अज्ञेय ने भी पाश्चात्य विद्धानों द्वारा दिए गए परिभाषा को बार बार दुहराया कि काव्य शब्द है। उन्होंने कहा कि शब्द का संस्कार ही कृतिकार को कृती बनाता है।

अज्ञेय द्वारा कही गई बात का अन्य विद्वानों ने भी समर्थन दिया। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने “भाषा और संवेदना”, “अज्ञेय : आधुनिक रचना की समस्या” में भी अज्ञेय द्वारा कही गई बात को समर्थन देते हुए कहा कि काव्य शब्द है और कविता को काव्य भाषा के आधार पर ही परखा जाना चाहिए।

प्रस्तुतकर्ता मनोज कुमार पर ५:४२ पूर्वाह्न 10 टिप्पणियाँ  

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लेबल: काव्य लक्षण, काव्य शास्त्र, कोलकाता, मनोज कुमार

सोमवार, २३ अगस्त २०१०

कविता के नए सोपान (भाग-5) – कविता का निर्वैयक्तिकता सिद्धांत

कविता का निर्वैयक्तिकता सिद्धांत

कविता के नए सोपान (भाग-5)

छायावादियों ने कविता की परिभाषा करते हुए “स्वानुभूति” पर बल दिया था। (यहां पढें) । वही दूसरी ओर नयी कविता के कवि-आलोचकों ने कहा कि परिवेश में बदलाव के कारण “अनुभूतिगत भिन्नता” है। इसे थोड़ा और स्पष्ट करने से पहले, कवि, आलोचक और चिंतक विजयदेवनारायण साही की पंक्तिया उद्धृत करें,

“न सिर्फ़ कविता का कलेवर बदला है बल्कि गहरे स्तर पर काव्यानुभूति की बनावट में भी फ़र्क़ आया है।”   (यहां पढें)

अनुभूति की बनावट का फ़र्क़ ही छायावादी “स्वानुभूति” और नयी कविता की “अनुभूतिगत भिन्नता” के अन्तर को स्पष्ट करता है। कविता के नये प्रतिमान में इसी बात को बताते हुए प्रो. नामवर सिंह ने कहा है,

“अनुभूति की बनावट में फ़र्क़ के कारण नयी कविता छायावाद के समान ही अनुभूति पर बल देते हुए भी भावों की शाश्वतता के प्रति उतनी आश्वस्त नहीं है।”

नयी कविताओं में कवि अनुभूति से अधिक अनुभूति के बदले हुए संदर्भ पर अधिक बल देते हैं।

इसीलिए हम पाते हैं कि नयी कविताओं में कवि अनुभूति से अधिक अनुभूति के बदले हुए संदर्भ पर अधिक बल देते हैं। और यह भी स्पष्ट है कि उनका बल रागात्मक संबंधों पर है। कवि और चिंतकसच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन अज्ञेयका भी मानना था कि हमारे रागात्मक संबंधों में भी बदलाव आया है। इसके फलस्वरूप पुराने संस्कारगत रागात्मक संबंधो में बदलाव परिलक्षित है। (यहां पढें)  अज्ञेय ने बात को और स्पष्ट करते हुए “दूसरा सप्तक” की भूमिका में कहा है,

”यह कहा जा सकता है कि हमारे मूल राग-विराग नहीं बदले, प्रेम अब भी प्रेम है और घृणा अब भी घृणा। पर यह भी ध्यान रखना होगा कि राग वही रहने पर भी रागात्मक संबंधों की प्रणालियां बदल गई हैं।”

कवि का क्षेत्र तो रागात्मक संबंधों का क्षेत्र होता ही है। इसलिए ये जो बदलाव है, उसका आज के कवि कर्म पर बहुत ही गहरा असर पड़ा है। हमारे चारो तरफ़ जो बाहरी वातावरण है, जैसे-जैसे उसमें परिवर्तन आता जाता है, वैसे-वैसे हमारे रागात्मक संबंध को जोड़ने की पद्धति भी बदलती जाती है। अगर ऐसा न हुआ होता, अगर बदलाव न हुआ होता, तो उस बाहरी वास्तविकता से तो हमारा नाता ही टूट जाता। अज्ञेय को पश्चिम में चल रहे एंटी रोमांटिक चिंतन का पता था।

उस समय में पाश्चात्य सृजन की चिंतन धारा में एक नयी सोच शुरु हुई थी। उसका आधारभूत स्वर रोमांटिक भावबोध का विरोधी था। यहां पर टी.एस. एलिएट के विचार स्मरण हो रहे हैं।(यहा पढें) ..   उन्होंने “एण्टी-रोमांटिक” रवैया अपनाया था। उन्होंने एक नए विचार को सामने लाया। उनका मानना था,

“कविता व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं है वरन् व्यक्तित्व से पलायन है।”

यह परिभाषा रोमांटिकों के “आत्माभिव्यक्ति” सिद्धांत का विरोध ही नहीं निषेध भी करती है। इन विचारों के साथ जो सिद्धांत सामने आया उसे “निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत” कहा गया। व्यक्तित्व से पलायन का अर्थ है अपने और पराए की भेद-बुद्धि से मुक्त हो जाना। निर्वैयक्तिक हो जाना। इसी अवस्था को भारतीय काव्यशास्त्र में कहा गया है,

“निज मोह संकट निवारण”।

प्रस्तुतकर्ता मनोज कुमार पर ६:०० पूर्वाह्न 5 टिप्पणियाँ  

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रविवार, २२ अगस्त २०१०

कविता के नए सोपान (भाग-4)

कविता के नए सोपान (भाग-4)

आज का कवि परिवेश के साथ द्वंद्वमय स्थिति में है।

कवि, आलोचक और चिंतक विजयदेवनारायण साही नई कविता के दौर के प्रमुख कवियों में से एक हैं। उन्होंने नयी कविता के ऊपर अपने विचार रखते हुए कहा,

“कविता कवि की भावनाओं तथा परिवेश के बीच संघर्ष की उपज है।”

उनका यह मानना था कि यह संघर्ष कोई नई चीज नहीं है। यह पहले भी था। लेकिन उनका यह कहना था कि पहले का कवि अधिक “विदग्ध” (दक्ष) था। तात्पर्य यह कि वह कवि इस संघर्ष से न सिर्फ बचने के उपाय जानता था, बल्कि वह इस संघर्ष से उपजे तनाव से बच भी जाता था।

लेकिन आज परिस्थिति अलग है। आज का कवि अपने परिवेश के साथ एक द्वंद्वमय स्थिति जी रहा होता है। जिस परिवेश में हम रहे हैं उसमें भी बदलाव आया है। इस बदलाव के कारण अनुभूति की जटिलता बढ़ी है। संवेदनात्मक उलझाव का समावेश भी परिवेश में हुआ है। ये सारे तत्व आज की कविता को प्रभावित कर रहे हैं।

इस जटिलता और उलझाव के कारण कविता के कलेवर में भी बदलाव आया है। इसके अलावा एक और चीज उल्लेखनीय है कि अगर गहरे स्तर पर देखें तो काव्यानुभूति की बनावट में भी फर्क आया है।

चेतना के तत्व जो पहले की कविता में काव्यानुभूति के आवश्यक अंग थे, आज के दौर-दौरा में अनुपयोगी दिखने लगे हैं। लगता है इस बदलते परिवेश में वे सार्थक नहीं रहे। इसी तरह कुछ ऐसे तत्व जिन्हें पहले अनावश्यक माना जाता था, आज वे ही काव्यानुभूति के केंद्र में आ गए हैं।

साही जी अपनी बात को एक निष्कर्ष तक लाते हुए “शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट” शीर्षक लेख में कहते हैं,

“कुल मिलाकर काव्यानुभूति और जीवन की काव्येतर अनुभूतियों में जो रिश्ता दिखता था, वह रिश्ता भी बदल गया है।”

इस प्रकार नई कविता में अनुभूति की बनावट की भिन्नता परिलक्षित है। अतः हम पाते हैं कि नए कवि अनुभूति से अधिक अनुभूति के परिवर्तित संदर्भ पर अधिक बल देते हैं।

प्रस्तुतकर्ता मनोज कुमार पर ३:५६ पूर्वाह्न 7 टिप्पणियाँ  

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शनिवार, २१ अगस्त २०१०

कविता के नए सोपान (भाग-3) - कविता सिर्फ़ हृदय की मुक्तावस्था नहीं, बल्कि बुद्धि की मुक्तावस्था है।

कविता के नए सोपान (भाग-3)

कविता सिर्फ़ हृदय की मुक्तावस्था नहीं, बल्कि बुद्धि की मुक्तावस्था है।

नयी कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर कुँवर नारायण अज्ञेय द्वारा संपादित तीसरा सप्तक (१९५९) के प्रमुख कवियों में रहे हैं। 2009 में वर्ष 2005 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गए कुँवर नारायण ने तीसरा सप्तक के कवि-वक्तव्य में कहा,

“कविता मेरे लिए कोरी भावुकता की हाय-हाय न होकर यथार्थ के प्रति एक प्रौढ प्रतिक्रिया की मार्मिक अभिव्यक्ति है।”

यह परिभाषा कविता में रोमांटिक दृश्टि का विरोध करती है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि कुँवर नारायण एंटी रोमांटिक दॄष्टि का समर्थन करते हैं।

यहां पर उन्होंने “मार्मिक अभिव्यक्ति” का प्रयोग किया है। कहीं न कहीं वो अज्ञेय के इस मत से कि “वास्तविकता के बदलते संदर्भ में नए रागात्मक संबंध की प्रमाणिकता के विकास की तथ्यगत स्थिति” के बहुत क़रीब है।

इस परिभाषा के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कविता सिर्फ़ भावना की अभिव्यक्ति नहीं है। वह बुद्धि से प्रेरित सर्जना है। यानी सिर्फ़ हृदय की मुक्तावस्था नहीं, बल्कि बुद्धि की मुक्तावस्था है।

प्रस्तुतकर्ता मनोज कुमार पर ४:०० पूर्वाह्न 11 टिप्पणियाँ  

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बृहस्पतिवार, १९ अगस्त २०१०

कविता के नए सोपान (भाग-2) :: “कविता जटिल संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है।”

कविता के नए सोपान (भाग-2)

“कविता जटिल संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है।”

प्रयोगवाद के बाद हिंदी कविता की जो नवीन धारा विकसित हुई, वह नई कविता है। जिनमें परंपरागत कविता से आगे नये भावबोधों की अभिव्यक्ति के साथ ही नये मूल्यों और नये शिल्प-विधान का अन्वेषण किया गया।  श्री लक्ष्मीकांत वर्मा नयी कविता के प्रसिद्ध सिद्धांतकार और कवि हैं। इनकी रचना “नये प्रतिमान पुराने निकष”, “लक्ष्मीकांत वर्मा की प्रतिनिधि रचनाएँ” में संकलित हैं। उनका मानना था,”कविता आत्मपरक अनुभूति की रागात्मक अभिव्यंजना है।”

अज्ञेय द्वारा सम्पादित एवं प्रकाशित 'तारसप्तक' के सात कवियों में से एक कवि गिरिजाकुमार माथुर भी हैं। गिरिजाकुमार माथुर का कहना था,

“नयी कविता का तो लक्षण यही है कि वह अत्यंत जटिल अनुभवों को अत्यंत सहज और सर्वग्राह्य रूप में व्यक्त करती है और जटिलताओं को पचाकर उसमें सार्वजनीन सत्य का असल तत्व निकालती है।”

इस परिभाषा में दो महत्वपूर्ण और ध्यान देने वाली बात है। पहली यह कि नयी कविता जटिल संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है। और दूसरी बात यह कि माथुर जी द्वारा यह भी कहा गया कि इन जटिल संवेदनाओं को सर्वग्राह्य और सम्प्रेषणीय बनाता है। अर्थात् कवि के विचारों का साधारनीकरण भी उनके लिए एक महत्वपूर्ण प्रश्न था।

प्रस्तुतकर्ता मनोज कुमार पर ४:०६ पूर्वाह्न 11 टिप्पणियाँ  

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बुधवार, १८ अगस्त २०१०

कविता के नए सोपान (भाग-1)

कविता के नए सोपान (भाग-1)

नयी कविता के कवियों-अलोचकों ने काव्य को नए ढ़ंग से परिभाषित किया है। प्रयोगवाद के साथ-साथ नई कविता पर बहस चली।  इस बहस में यह प्रश्न भी सामने आया कि “नया” क्या है? साथ ही यह भी विचारणीय रहा कि कविता क्या है?

आधुनिक हिन्दी कविता में डाक्टर जगदीश गुप्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनका मानना था कि,

“ये दोनों प्रश्न परस्पर सम्बद्ध और एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। क्योंकि कविता में नवीनता की उत्पत्ति वस्तुतः सच्ची कविता लिखने की आकांक्षा से उत्पन्न होती है।”

बात सही भी है। कवि जो भी कहता है उसमें यदि सृजनात्मकता और संवेदनीयता नहीं हो, तो उसे कविता नहीं कहा जा सकता। “नई कविता स्वरूप और समस्याएं” पुस्तक में जगदीश गुप्त ने कहा कि

“ कविता सहज आंतरिक अनुशासन से युक्त अनुभूति जन्य सघन-लयात्मक शब्दार्थ है जिसमें सह-अनुभूति उत्पन्न करने की यथेष्ट क्षमता निहित रहती है।”

उन्होंने “यथेष्ट” शब्द का प्रयोग किया है। यथेष्ट शब्द कवि और पाठक दोनों को समाहित किए है। इसका अर्थ यह हुआ कि कविता के विषय में कवि का निर्णय अंतिम निर्णय नहीं है। पाठक या श्रोता की मान्यता अनिवार्य है।

पर इस नई कविता को परिभाषित करते समय जगदीशगुप्त ने सृजनात्मकता शब्द का प्रयोग नहीं किया है। इस कारण से कुछ विद्वानों ने इस परिभाषा पर आपत्ति भी उठाई है। जाने माने आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने, “कविता के नए प्रतिमान” में “कविता क्या है” निबंध लिखा है। इस निबंध में उन्होंने कहा,

“डॉ. जगदीशगुप्त अपनी काव्य-परिभाषा में वह तत्व भूल गए जिसे नई कविता ने हिंदी काव्य-परम्परा से जोड़ा है। इसलिए अनुभूति तो उन्हें याद रह गई लेकिन सृजनात्मकता भूल गए।

“जगदीशगुप्त की परिभाषा की यह सबसे बड़ी सीमा है। यह परिभाषा छायावादी अनुभूति और नई कविता की नई अनुभूति में फर्क करके नहीं चलती।”

“सह-अनुभूति” में विचार-भंगिमा का नयापन है। “सह अनुभूति” , “रसानुभूति” का पर्याय नहीं है। यह नवीन काव्यानुभूति का पर्याय है। अतः हम कह सकते हैं कि सह-अनुभूति का प्रश्न रसानुभूति के विरोध में उठाया गया था।

प्रस्तुतकर्ता मनोज कुमार पर ४:०० पूर्वाह्न 8 टिप्पणियाँ  

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मंगलवार, १७ अगस्त २०१०

काव्य के मूल में मानवीय संवेदना की सक्रियता है।

"काव्य के मूल में मानवीय संवेदना की सक्रियता है।”

नई कविता के कवियों ने काव्य को नए ढंग से परिभाषित किया। उन्होंने रचनाओं में संवेदनशीलता पर उन्होंने विचार किया। इन आलोचकों कवियों का कहना था कि काव्य के मूल में मानवीय संवेदना ही सक्रिय रहती है। जिस तरह से हमारा जीवन गतिशील और परिवर्तनशील है, उसी तरह मानवीय संवेदना भी है। हमारे आसपास जो कुछ है, जो घटित हो रहा है उसका प्रभाव काव्य पर पड़ना स्वाभाविक है। परिवेश की नवीनता, उसका बदलाव, काव्य चिंतन के परिप्रेक्ष्य को बदल देती है।

कवि और चिंतक सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन अज्ञेय जिन्होंने दूसरा सप्तक और सर्जना और संदर्भ की रचना की, का मानना था कि हमारे रामात्मक संबंधों में भी बदलाव आया है। इसके फलस्वरूप पुराने संस्कारगत रागात्मक संबंधो में बदलाव परिलक्षित है।

रघुवीर सहाय के काव्य संकलन सीढि़यों पर धूप में की भूमिका में अज्ञेय ने कहा है -“काव्य सबसे पहले शब्द है। और सबसे अंत में भी यही बात बच जाती है कि काव्य शब्द है।"

यह एक महत्वूपर्ण परिभाषा है। सारे कविधर्म इसी परिभाषा से निःसृत होते हैं। शब्द का ज्ञान और इसकी अर्थवत्ता की सही पकड़ से ही एक व्यक्ति रचनाकार से रचयिता बनता है। अज्ञेय का मानना था कि ध्वनि, लय छंद आदि के सभी प्रश्न इसी में से निकलते हैं और इसी में विलय होते हैं।

अज्ञेय तो यहां तक कहते हैं कि “सारे सामाजिक संदर्भ भी यहीं से निकलते है। इसी में युग-सम्पृक्ति का और कृतिकार के सामाजिक उत्तरदायित्व का हल मिलता है या मिल सकता है।" इस प्रकार जब हम काव्य लक्षण परम्परा की चर्चाओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं तो पाते हैं कि या तो काव्यार्थ शब्द में है या अर्थ में है या फिर दोनों में है। इस बहस में एक बात तो स्पष्ट है कि अधिकांश आचार्यों ने शब्द पंरपरा का ही समर्थन किया है। दूसरी प्रमुख बात जो सामने आती है वह यह है कि अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, रस जैसे पुराने प्रतिमान, जिस तरह से पहले कारगर थे आज नहीं रहे हैं।

प्रस्तुतकर्ता मनोज कुमार पर ६:०० पूर्वाह्न 15 टिप्पणियाँ  

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सोमवार, १६ अगस्त २०१०

कविता सामूहिक भाव बोध की अभिव्यक्ति है।

"कविता सामूहिक भाव बोध की अभिव्यक्ति है।”

हिंदी की चिंतन परंपरा में काव्य लक्षण

भाग – 5 प्रगतिवाद काल

काव्य चिंतन को प्रगतिवादियों ने नए ढंग से उठाया। इस धारा के विद्वानों का मानना था कि कविता विकासमान सामाजिक वस्तु है। इसका सृजन तो व्यक्तिगत प्रयास का परिणाम है। पर ध्यान देने वाली बात यह है कि यह सृजन मूलतः सामाजिक और सांस्कृतिक भूमि पर केंद्रित होता है।

दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि कविता में संस्कृतिक परंपराओं की संवेदना समाहित होती है।

गजानन माधव मुक्तिबोध ने नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध में इस विषय पर प्रकाश डालते हुए कहा कि काव्य एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है।

प्रगतिवादी काव्य प्रक्रिया को छायावादी काव्य प्रक्रिया से अलग मानते है। मुक्तिबोध का मानना था कि –

“इसका अर्थ यह नहीं है कि आज का कवि व्याकुलता या आवेश का अनुभव नहीं करता। होता यह है कि वह अपने आवेश या व्याकुलता को बांधकर, नियंत्रित कर, ऊपर उठाकर, उसे ज्ञानात्मक संवेदन के रूप में या संवेदनात्मक ज्ञान के रूप में प्रस्तुत कर देता है।”

 

“रोमैंटिक कवियों की भांति आवेशयुक्त होकर, आज का कवि भावों को अनायास स्वच्छंद अप्रतिहत प्रवाह में नहीं बहता। इसके विपरीत, वह किन्ही अनुभूत मानसिक प्रतिक्रियाओं को ही व्यक्त करता है। कभी वह इन प्रतिक्रियाओं की मानसिक रूपरेखा प्रस्तुत करता है, कभी वह उस रूप रेखा में रंग भर देता है।”

मुक्तिबोध ने आगे यह कहा कि “इसका अर्थ यह नहीं है कि आज का कवि व्याकुलता या आवेश का अनुभव नहीं करता। होता यह है कि वह अपने आवेश या व्याकुलता को बांधकर, नियंत्रित कर, ऊपर उठाकर, उसे ज्ञानात्मक संवेदन के रूप में या संवेदनात्मक ज्ञान के रूप में प्रस्तुत कर देता है।”

मुक्तिबोध का काव्य को "सांस्कृतिक प्रक्रिया" कहने के पीछे यह तर्क है कि काव्य-सृजन में सामाजिक आर्थिक, राजनीतिक सांस्कृतिक शक्तियों का हाथ होता है इस लिए यह सांस्कृतिक प्रक्रिया है।

यह तो स्पष्ट है कि प्रगतिवाद का काव्य चिंतन मार्क्सवाद से प्रभावित है। वे यह अवष्य मानते हैं कि काव्यानुभूति की बनावट में सामाजिक सौंदर्यानुभूति की भूमिका अहम है।

डॉ रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक प्रगति और परम्परामें यह कहा है कि

“काव्य एक महान सामाजिक क्रिया है – जो सामाजिक विकास के समानांतर विकसित होती रहती है।” इस परिभाषा से यह सिद्ध होता है कि कविता सामाजिक यथार्थ का चित्रण करती है । पाश्चात्य चिंतक काडवेल का "Illusion and Reality" में कहना था

"Art is the product of society as the pearl is the product of the oyster."

अर्थात "साहित्य वह मोती है जो समाज रूपी मोती तें पलता है।”उसके इस कथन को अधिकांश प्रगतिवादी मानते रहे। यह एक भौतिकवादी चिंतन है।

कविता में जिस अनुभूति का चित्रण होता है वह वैयक्तिक न होकर भी सामाजिक होती है। इस सामाजिक अनुभूति में जटिलता, संश्लिष्टता और तनाव रहता है।

इससे हटकर जार्ज लुकाच ने द्वंद्वात्मक भातिकवादी विचारधार को आगे बढ़ाया। उनका कहना था “हमारी चेतना मात्र भौतिक स्थितियों से नियंत्रित नहीं होती वह अपेक्षाकृत स्वतंत्र है और कभी कभी वह बाहरी भौतिक स्थितियों के विपरीत भी जा सकती है।” यह दृष्टि सौंदर्यशास्त्रियों के चिंतन से बहुत मेल खाती है।

ऊपर कही गई बातों पर गौर करें तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कविता में जिस अनुभूति का चित्रण होता है वह वैयक्तिक न होकर भी सामाजिक होती है। इस सामाजिक अनुभूति में जटिलता, संश्लिष्टता और तनाव रहता है। इसलिए हम निष्कर्ष के रूप में यह मान सकते हैं कि कविता सामूहिक भाव बोध की अभिव्यक्ति है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कहना था कि ज्ञान-प्रसार के भीतर ही भाव-प्रसार होता है। उनकी यह मान्यता प्रगतिवादियों को भी मान्य रही है।

प्रस्तुतकर्ता मनोज कुमार पर ६:०० पूर्वाह्न 8 टिप्पणियाँ  

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शुक्रवार, १३ अगस्त २०१०

"काव्य आत्मा की संकल्पनात्मक अनुभूति है”

"काव्य आत्मा की संकल्पनात्मक अनुभूति है”

हिंदी की चिंतन परंपरा में काव्य लक्षण

भाग – 4 ::  छायावाद काल

हिंदी साहित्य में यह वह काल था जब निराला, प्रसाद, पंत और महादेवी सक्रिय थे। छायावादी कवियों ने काव्य लक्षण पर नए ढंग से विचार किया।

जिस प्रकार पाश्चात्य साहित्य के स्वच्छंदतावादी कवि ने काव्य की परिभाषा देते हुए कहा कि"कविता बलवती भावनाओं का सहज उच्छलन है"उसी तरह से सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" ने कहा कविता विमल हृदय का उच्छ्वास है –

"तुम विमल हृदय उच्छ्वास और मैं कान्तकामिनी कविता"

प्रसाद, पंत और महादेवी भी यह अवधारणा व्यक्त करते रहे कि"काव्य अभिव्यक्ति है "। जयशंकर प्रसाद छायावाद के एक प्रमुख स्तंभों में से एक थे। वे सामाजिक-सांस्कृतिक परंपरा की जड़ से जोड़कर कविता को देखते थे। उन्होंने “काव्य और कला तथा अन्य निबंध” में काव्य को आत्मा की "संकल्पनात्मक अनुभूति" कहा। उनका कहना था -

"काव्य आत्मा की संकल्पनात्मक अनुभूति है जिसका संबंध विश्लेषण, विकल्प या विज्ञान से नहीं है। वह एक श्रेयमयी प्रेय रचनात्मक ज्ञान धारा है.... आत्मा की मनन शक्ति की आसाधारण अवस्था, जो श्रेय सत्य को उसके मूल चारूत्व में सहसा ग्रहण कर लेती है, काव्य में संकल्पनात्मक मूल अनुभूति कही जा सकती है।”

इस परिभाषा में सौंदर्य और सत्य के सामंजस्य के लिए प्रतिभा से उपजी (प्रातिभ) अनुभूति पर विशेष बल दिया गया है। इस परिभाषा में हमें आचार्य शुक्ल की परिभाषा की झलक दीखती है।

आचार्य शुक्ल का कविता को भाव-योग कहना (यहां देखें) और प्रसाद का अनुभूति-योग मानना सहमति ही तो दर्शाता है। इन दोनों की परिभाषा में पश्चिम के स्वच्छंदतावादियों का प्रभाव कम या न के बराबर था। ये दोनों कवि अपनी काव्य-चिंतन भूमि पर खड़े रहकर पश्चिम के काव्य-चिंतन का अर्थ ग्रहण कर रहे थे।

कई बार छायावाद को स्वचंछंदतावाद का पर्याय मान लिया जाता है। शायद भ्रमवश। दोनों वाद अलग-अलग देशों में उपजे। इनका काल भी अलग-अलग था और ये अलग-अलग संस्कृति के काव्य-आंदोलन रहे। हां ऐसा प्रतीत होता है कि छायावाद के कवि-आलोचकों ने पश्चिम के विचारों को पढ़ा और समझा तो पर उसकी नकल नहीं की। इसे हम संयोग मान सकते हैं कि छायावादियों द्वारा कहा गया "मुक्ति की आकांक्षा " और "स्वानुभूति का विस्तार", स्वच्छंदतावादियों का भी केंद्रीय तत्व रहा।

हमने वर्डसवर्थ की काव्य परिभाषा (यहां देखें) और कॉलरिंग की परिभाषा (यहां देखे) की चर्चा करते हुए देखा था कि इसका मूल आधार "भावना", “कल्पना” के योग से निकला काव्य है।

वहीं दूसरी ओर छायावाद आत्माभिव्यक्ति का सिद्धांत प्रतिपादित करता है। इसमें वैयक्तिक अनुभूति पर अधिक बल दिया गया है। इस लिए हम कह सकते हैं कि छायावादियों की दृष्टि कवि-केंद्रित है, काव्य-केंद्रित नहीं।

इस मत का आगे चलकर विरोध भी हुआ, जब प्रगतिवाद और नई कविता का काल आया।

प्रस्तुतकर्ता मनोज कुमार पर ५:५६ पूर्वाह्न 17 टिप्पणियाँ  

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बृहस्पतिवार, १२ अगस्त २०१०

“कविता हृदय की मुक्तावस्था है” :: हिंदी की चिंतन परंपरा में काव्य लक्षण-भाग – 3 नवजागरण काल – आचार्य रामचंद्र शुक्ल

“कविता हृदय की मुक्तावस्था है”

हिंदी की चिंतन परंपरा में काव्य लक्षण

भाग – 3 :: नवजागरण काल – आचार्य रामचंद्र शुक्ल

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने पुस्तक चिंतामणि में “कविता क्या है” निबंध लिखा इस निबंध को आचार्य शुक्ल जीवन भर लिखते परिस्कृत करते रहे। नवजागरण कालीन (भारतेन्दु युग और द्विवेदी युग) मानसिकता का सबसे प्रबल विस्फोट इस निबंध में देखने को मिलता है। इस निबंध के माध्यम से उन्होंने कविता के संबंध में अपना मत देते हुए कहा –

“जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान दशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्तावस्था के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है उसे कविता कहते हैं ।”

आचार्य शुक्ल यह भी कहते हैं कि इस साधना को हम भावायोग कहते हैं और कर्मयोग और ज्ञानयोग का समकक्ष मानते हैं।

इस परिभाषा में जो विशेष बात है वह है रसदशा। रसदशा, उनके अनुसार हृदय की मुक्त अवस्था है। मुक्त हृदय को अधिक स्पष्ट करते हुए आचार्य शुक्ल कहते हैं,

“जब तक कोई अपनी पृथक सत्ता की भावना को ऊपर किए इस क्षेत्र के नाना रूपों और व्यापारों को अपने योग-क्षेम, हानि-लाभ, सुख-दुख आदि से सम्बद्ध करके देखता रहता है तब तक उसका हृदय एक प्रकार से बद्ध रहता है। इन रूपों और व्यापारों के सामने जब कभी वह अपनी पृथक सत्ता की धारणा से छूट कर अपने आपको बिल्कुल भूलकर विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता हो तब वह मुक्त हृदय हो जाता है।”

ऐसा मुक्त हृदय प्राणी जब अपने हृदय को लोक-हृदय से मिला देता है तो यह दशा ही रसदशा है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि व्यापक अर्थ में रस दशा “हृदय की मुक्तावस्था” ही है।

आचार्य शुक्ल ने कविता को “शब्द-विधान” की शक्ति माना। हमने पहले पाशचात्य काव्य शास्त्र की चर्चा करते हुए (लिंक यहां है) कहा था कि “नई समीक्षा” (न्यू क्रिटिसिज्म) स्कूल के विद्वानों ने काव्य लक्षण पर निष्कर्षतः कहा कि “कविता एक शाब्दिक निर्मित है” अर्थात कविता शब्द है और अंत में भी यही बात बचती है कि कविता शब्द है। कहीं न कहीं इस उक्ति में भी भारतीय चिंतन-परंपरा की ध्वनि मौजूद है।

प्रस्तुतकर्ता मनोज कुमार पर ६:०० पूर्वाह्न 13 टिप्पणियाँ  

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बुधवार, ११ अगस्त २०१०

हिंदी की चिंतन परंपरा में काव्य-लक्षण :: भाग- 2 आधुनिक युग, नवजागरण काल

हिंदी की चिंतन परंपरा में काव्य-लक्षण

 

भाग- 2 :: आधुनिक युग, नवजागरण काल

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने रीतिवाद का विरोध किया। उन्होंने शब्द और अर्थ का संदर्भ सामाजिकता से जोड़ा। उनका मत था कि कविता में बोलचाल की भाषा का प्रतिमान अपनाया जाए। काव्य में  वर्डसवर्थ ने भी इसी तरह की वकालत की थी।

शायद आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी पश्चिमी काव्य-चेतना से काफी प्रभावित थे। मिल्टन की सोच से काफी मिलते जुलते विचार देते हुएउन्होंने कहा था–

“कविता को सादा, प्रत्यक्षमूलक और रागयुक्त होना चाहिए।”

ऐसा प्रतीत होता है कि “सादा” से उनका तात्पर्य “झूठे चमत्कारवाद से मुक्ति” रहा होगा। “रसज्ञ-रंजन” पुस्तक में एक आलेख है “कवि और कविताएं” इसमें द्विवेदी जी ने लिखा है, “सादगी असलियत और जोश यदि ये तीनों गुण, कविता में हो तो कहना ही क्या है............” अतएव कवि को असलियत का सबसे अधिक ध्यान रखना चाहिए। मिल्टन ने भी इन तीनों गुणों की चर्चा की है।

इसके साथ ही आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी असलियत के साथ साथ कल्पना से नई-नई बातों को भी अपनाने का आग्रह करते हैं।

प्रस्तुतकर्ता मनोज कुमार पर ६:०० पूर्वाह्न 6 टिप्पणियाँ  

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मंगलवार, १० अगस्त २०१०

हिंदी की चिंतन परंपरा में काव्य लक्षण :: भाग– 1 आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल

हिंदी की चिंतन परंपरा में काव्य लक्षण

भाग – 1

आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल

हिंदी साहित्य की सृजन परम्परा को देखें तो हम पाते हैं कि आदिकाल और भाक्तिकाल में यह काफी समृद्ध और संपन्न था। पर जहां तक काव्यशास्त्र का प्रश्न है, इस पर कोई खास विचार नहीं किया गया।

गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में कहा है –

“सहज कवित करित विमल सोई आदरहि सुजान”

इस पंक्ति में काव्यलक्षण का कुछ संकेत तो दिखता है, पर इसे हम विधिवत दिया हुआ काव्य लक्षण नहीं मान सकते।

रीतिकाल में हम पाते हैं कि उस काल के कवि और आचार्य प्रायः संस्कृत काव्यशास्त्र के काव्य लक्षणों की नकल ही करते रहे।

आचार्य चिंतामणि ने “कविकुल कल्पतरू” तथा “श्रृंगार मंजूरी” की रचना की। इसमें हम पाते हैं कि उनके काव्य लक्षण में आचार्य मम्मट और आचार्य विश्वनाथ के मत का काफी प्रभाव है। आचार्य चिंतामणि ने कहा – “बतकहाउ रस में जु है कवित कहावै सोई”।

इस परिभाषा में आचार्य विश्वनाथ की परिभाषा, “वाक्यं रसात्मक काव्यम्” की छाप है।

वहीं उनके द्वारा प्रतिपादित अन्य काव्य-लक्षण को देखें –

सगुन अलंकारन सहित, दोषरहित जो होई।

शब्द अर्थ बारों कवित, विवुध कहत सब कोई।

यह आचार्य मम्मट द्वारा प्रतिपादित

“तद्दोषौ शब्दार्थों सुगणावनलंकृती पुनः क्वापि” से बहुत मिलता-जुलता है।

ऐसा लगता है कि रीतिकाल के कवि या आचार्यों में मौलिक काव्य लक्षण प्रतिपादन करने के सामर्थ्य का अभाव था इसका। परिणाम यह हुआ कि वे संस्कृत के आचार्यों द्वारा प्रतिपादित काव्य लक्षणों की ही नकल करते रहे। यह परंपरा बाद के दिनों में भी जगन्नाथ प्रसाद भानु, कन्हैया, लाल पोद्दार, आदि तक चलती चली आई ।

प्रस्तुतकर्ता मनोज कुमार पर ६:१४ पूर्वाह्न 18 टिप्पणियाँ  

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सोमवार, ९ अगस्त २०१०

काव्य अर्थ का रमणीय शाब्दिक प्रतिपादन है। काव्य लक्षण-20 (पाश्चात्य काव्यशास्त्र-8)

काव्य अर्थ का रमणीय शाब्दिक प्रतिपादन है।

काव्य लक्षण-20 (पाश्चात्य काव्यशास्त्र-8)

पाश्चात्य काव्यशास्त्र की चर्चा के क्रम में हमने देखा कि “कविता क्या है?” इस पर वहां निरंतर वाद-विवाद होता रहा। शुरु में दो गुट थे, मनोविश्लेषणवादी और मार्क्सवादी। मनोविश्लेषणवादी मानते थे कि“कला कला के लिए” है जबकि मार्क्सवादी का कहना था कि “कला जीवन के लिए” है। ये दोनों दो ग्रुपों-गुटों में बंटे रहे।

कालांतर में एक और गुट आया। वह था न्यू क्रिटिसिज़्म अर्थात् नयी समीक्षा ग्रुप। इस ग्रुप के विद्वानों का मानना था कि “कविता एक शाब्दिक निर्मित है”। अर्थात् कविता शब्द है और अंत में भी यही बात बचती है कि कविता शब्द है।

जब हम भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य लक्षण पर विचार कर रहे थे तो हमने पाया था कि आचार्यों ने काव्य को “शब्दार्थ रूप” माना था।

इस चर्चा के आधार पर हम पाते हैं कि काव्य लक्षण का पूरा रूप है “काव्य अर्थ का रमणीय शाब्दिक प्रतिपादन है।”

पश्चिम के विद्वानों ने काव्य लक्षण में, हालाकि शब्द और अर्थ की महिमा के महत्व को पहचाना तो ज़रूर, पर उन्होंने “शब्दार्थ” का बहुत गहराई से विवेचन नहीं किया है।

प्रस्तुतकर्ता मनोज कुमार पर ८:४० पूर्वाह्न 8 टिप्पणियाँ  

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रविवार, ८ अगस्त २०१०

काव्य भाव का स्वच्छंद प्रवाह नहीं, भाव से मुक्ति या पलायन है। काव्य लक्षण-19 (पाश्चात्य काव्यशास्त्र-7)

काव्य भाव का स्वच्छंद प्रवाह नहीं, भाव से मुक्ति या पलायन है।

काव्य लक्षण-19 (पाश्चात्य काव्यशास्त्र-7)

टी.एस. एलियट ने काव्य-चिंतन पर भी लिखा है। उन्होंने “एण्टी-रोमांटिक” रवैया अपनाया। उन्होंने एक नए विचार को सामने लाया। उनका मानना था कि रचनाकार जितना ही उत्कृष्ट होगा, उसमें भोक्ता और स्रष्टा का अंतर उतना ही स्पष्ट होगा।

 

काव्य भाव का स्वच्छंद प्रवाह नहीं, भाव से मुक्ति या पलायन है।कविता की परिभाषा करते हुए उन्होंने कहा,

“The poet has, not a personality to express but a particular medium, which is only a medium and not a personality.”

अर्थात् कविता या कला, कवि के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं है क्योंकि उसे व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति करनी ही नहीं है – वह तो अभिव्यक्ति का एक माध्यम मात्र है जो केवल माध्यम है, व्यक्तित्व नहीं।

 

उन्हों ने यह भी कहा कि,

“Poetry is not a turning loose emotion but an escape from emotion; it is not the expression of personality, but an escape from personality.”

अर्थात् काव्य भाव का स्वच्छंद प्रवाह नहीं, भाव से मुक्ति या पलायन है। वह व्यक्तित्व की अभिव्य्क्ति नहीं, व्यक्तित्व से मुक्ति है।

 

एलियट के इस कथन से यह स्पष्ट है कि जिनके पास व्यक्तित्व और भाव है, वे ही जान सकते हैं कि उनसे मुक्ति की आकांक्षा का क्या अर्थ होता है। अपनी पुस्तक सलेक्टेड वर्क में उन्होंने कहा कि परंपरा जीवित संस्कृति का वह अंश है जो अतीत के दाय के रूप में प्राप्त होकर वर्तमान का निर्माण और भविष्य का दिशा-निर्देश करती है।

प्रस्तुत�