कबीर दास जी के दोहे
Post on 14-Jan-2017
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कबीर दास जी के दोहे
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिमलिलया कोय,जो दिदल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
अर्थ� : जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिमला. जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया किक मुझसे बुरा कोई नहीं है.
पोर्थी पदि) पदि) जग मुआ, पंकि+त भया न कोय, ढाई आखर पे्रम का, प)े सो पंकि+त होय।
अर्थ� : बड़ी बड़ी पुस्तकें प) कर संसार में किकतने ही लोग मृत्यु के द्वार पहँुच गए, पर सभी कि6द्वान न हो सके. कबीर मानते हैं किक यदिद कोई पे्रम या प्यार के के6ल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह प) ले, अर्था�त प्यार का 6ास्तकि6क रूप पहचान ले तो 6ही सच्चा ज्ञानी होगा.
साधु ऐसा चाकिहए, जैसा सूप सुभाय, सार-सार को गकिह रहै, र्थोर्था देई उड़ाय।
अर्थ� : इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने 6ाला सूप होता है. जो सार्थ�क को बचा लेंगे और किनरर्थ�क को उड़ा देंगे.
कितनका कबहँु ना किनन्दिHदये, जो पाँ6न तर होय,कबहँु उड़ी आँखिखन पडे़, तो पीर घनेरी होय।
अर्थ� : कबीर कहते हैं किक एक छोटे से कितनके की भी कभी निनंदा न करो जो तुम्हारे पा6ंों के नीचे दब जाता है. यदिद कभी 6ह कितनका उड़कर आँख में आ किगरे तो किकतनी गहरी पीड़ा होती है !
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
अर्थ� : मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है. अगर कोई माली किकसी पेड़ को सौ घडे़ पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा !
माला फेरत जुग भया, किफरा न मन का फेर,कर का मनका +ार दे, मन का मनका फेर।
अर्थ� : कोई व्यलिU लम्बे समय तक हार्थ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भा6 नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती. कबीर की ऐसे व्यलिU को सलाह है किक हार्थ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोकितयों को बदलो या फेरो.
जाकित न पूछो साधु की, पूछ लीन्दिजये ज्ञान,मोल करो तर6ार का, पड़ा रहन दो म्यान।
अर्थ� : सज्जन की जाकित न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाकिहए. तल6ार का मूल्य होता है न किक उसकी मयान का – उसे ढकने 6ाले खोल का.
दोस पराए देखिख करिर, चला हसHत हसHत,अपने याद न आ6ई, न्दिजनका आदिद न अंत।
अर्थ� : यह मनुष्य का स्6भा6 है किक जब 6ह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते न्दिजनका न आदिद है न अंत.
न्दिजन खोजा कितन पाइया, गहरे पानी पैठ,मैं बपुरा बू+न +रा, रहा किकनारे बैठ।
अर्थ� : जो प्रयत्न करते हैं, 6े कुछ न कुछ 6ैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने 6ाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है. लकेिकन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो +ूबने के भय से किकनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते.
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जाकिन,किहये तराजू तौलिल के, तब मुख बाहर आकिन।
अर्थ� : यदिद कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है किक 6ाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिलए 6ह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है.
अकित का भला न बोलना, अकित की भली न चूप,अकित का भला न बरसना, अकित की भली न धूप।
अर्थ� : न तो अमिधक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है. जैसे बहुत अमिधक 6षा� भी अच्छी नहीं और बहुत अमिधक धूप भी अच्छी नहीं है.
निनंदक किनयरे राखिखए, ऑंगन कुटी छ6ाय,किबन पानी, साबुन किबना, किनम�ल करे सुभाय।
अर्थ� : जो हमारी निनंदा करता है, उसे अपने अमिधकामिधक पास ही रखना चाकिहए। 6ह तो किबना साबुन और पानी के हमारी कमिमयां बता कर हमारे स्6भा6 को साफ़ करता है.
कहत सुनत सब दिदन गए, उरन्दिझ न सुरझ्या मन. कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिदन.
अर्थ� : कहते सुनते सब दिदन किनकल गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया. कबीर कहते हैं किक अब भी यह मन होश में नहीं आता. आज भी इसकी अ6स्था पहले दिदन के समान ही है.
कबीर लहरिर समंद की, मोती किबखरे आई. बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई.
अर्थ� :कबीर कहते हैं किक समुद्र की लहर में मोती आकर किबखर गए. बगुला उनका भेद नहीं जानता, परHतु हंस उHहें चुन-चुन कर खा रहा है. इसका अर्थ� यह है किक किकसी भी 6स्तु का महत्6 जानकार ही जानता है।
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