श्री प्राणनाथ जी का प्रकटन · आनन्द...

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श्री प्राणनाथ जी का प्रकटनश्री प्राणनाथ जी का प्रकटन

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श्री प्राणनाथ जी का प्रकटनश्री प्राणनाथ जी का प्रकटन

श्री प्राणनाथ जीका प्रकटन

प्रकाशक

श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठनकुड़ रोड, सरसावा, सहारनपुर, उ.प्र.

www.spjin.org

सवा�धि!कार सुरधि"त © २०१८, श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ ट्रस्ट

पी.डी.एफ. संस्करण – २०१८

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 22 / 81/ 81

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विवषय सूची प्राक्कथन 4

1 मूल कारण 82 !म�ग्रन्थों की भविवष्यवाणिणयाँ 203 संधि"प्त लीला वृत्तान्त 374 ऐधितहासिसक प्रमाण 535 मविहमा 72

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प्राक्कथनयगुों-यगुों से मानव में यह सिजज्ञासा कौं!ती रही है

विक सधिOदानन्द परब्रह्म कौन है, कहाँ ह,ै तथा कैसा ह?ैइस सम्बन्! में कठोपविनषद् के ऋविष का मन्तव्य है-

यमेव एषः वणृतेु तेन लभ्यः।

अथा�त् परमात्मा सिजसका वरण करता है, वही उसकोप्राप्त करता ह।ै

ऐसी स्थिस्थधित में प्रश्न यह होता है विक सधिOदानन्दपरब्रह्म विकतने मानवों को अपने स्वरूप की पहचान देेंगे?सभी !म�ग्रन्थों का यही कथन है विक परब्रह्म मन -वाणीसे पर ेह।ै इस अवस्था में उस शब्दातीत परब्रह्म के !ाम,स्वरूप, तथा लीला का वण�न करना सम्भव नहीं ह।ैपरब्रह्म की कृपा सागर की कुछ बूँदे प्राप्त करने वाले

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मनीविषयों ने भी परब्रह्म के पहचान के बारे में कुछ प्रकाशडालना तो चाहा, विकन्तु वह भी "ऊँट के मुँह में जीरे" केसमान ह ैक्योंविक परब्रह्म शब्दातीत ह।ै

संसार के समस्त प्राणिणयों को एक सधिOदानन्दपरब्रह्म की वास्तविवक पहचान देने के लिलए यह आवश्यकथा विक स्वयं परब्रह्म की आवेश शविl ही उसका वण�नकरे क्योंविक मानवीय बुधिm से यह हो पाना सम्भव नहींथा। इसलिलये अनहोनी घटना के रूप में स्वलीला अद्वतैपरम!ाम की आत्माओं का इस संसार में पदाप�ण हुआ,सिजसके कारण सवqश्वर, सव�शविlमान, सकल गुणविन!ान, उस सधिOदानन्द परब्रह्म का आवेश स्वरूप इससंसार में प्रकट हुआ, सिजसके द्वारा अवतरिरत तारतमवाणी के प्रकाश में इन सधिOदानन्द परब्रह्म की पहचान होसकती है और समस्त सृविu इस भवसागर से पार हो

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सकती ह।ै यद्यविप अवतार महापुरुषों का होता है ,सधिOदानन्द परब्रह्म का नहीं-

यदा यदा विह !म�स्य ग्लाविनः भवधित भारत।

अभ्यतु्थानं !म�स्य तदात्मान ंसृजाम्यहम्।।

परिरत्राणाय सा!ुनां विवनाशाय च दषु्कृताम्।

!म� संस्थापनाथा�य संभवाविम यगेु यगेु।।

श्री प्राणनाथ जी का प्रकटन एक अनहोनी घटनाह,ै सिजसमें सधिOदानन्द परब्रह्म का आवेश स्वरूप इससंसार में श्री प्राणनाथ जी के स्वरूप (श्री विवजयाणिभनन्दबुm विनष्कलंक स्वरूप , इमाम मुहम्मद महदीसाविहब्बुजमां, या Second Christ Christ) में प्रकट होकरतारतम वाणी के माध्यम से परम!ाम एवं परब्रह्म कीसम्पूण� पहचान दे रहा है, जो संसार के सभी मत-पन्थों

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को समान रूप से ग्राह्य ह।ै

राजन स्वामी

श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ

सरसावा

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मूल कारणसधिOदानन्द परब्रह्म के इस संसार में प्रकटन का जो

मूल कारण था, वह यहाँ !म�ग्रन्थों के प्रमाण के साथवण�न विकया जा रहा ह।ै

पुराण संविहता में कहा गया है-

अ"र ब्रह्म पणू�-अखण्ड, प्रकृधित के गुणों से रविहत,आसविl रविहत , विनम�ल, अनन्त, इच्छा रविहत, औरप्रकृधित से पर ेह।ै।४४।।

इसी प्रकार वह अनाविद परब्रह्म सत् , धिचत्, औरआनन्द ल"णों वाला ह।ै रस तथा रूप के भेद से वहविनत्य ही अलग स्थिस्थत ह।ै।५१।।

उपमा से रविहत, स्वलीला अद्वैत, तथा इस्थिन्�यों सेप्रत्य" न होने वाला वह परब्रह्म अधित प्रेममयी स्वरूप को

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!ारण करने वाला है तथा आत्मा रूप सलिखयों का अधितप्यारा परम तत्व ह।ै।५३।।

उस पे्रममयी परम तत्व को !ारण करने, प्यारकरने, तथा रस लेने में सलिखयाँ प्रत्य" रूप से समथ�नहीं ह।ै अत: उनसे प्रेम क्रीड़ा करने के लिलये उनके हीअलग रूप में स्वाविमनी (श्यामा जी) प्रथम अंग हैं।।५४।।

अ"र ब्रह्म के हृदय को पे्रम एवं आनन्द की विहलोरेंलेने वाले सागर के स्वभाव से रविहत जानना चाविहए, जोमात्र ज्ञान के स्वरूप हैं और बालक की तरह सृविu कोबनाने और संहार करने की लीला करते हैं।।५९।।

इसलिलये उस अ"र ब्रह्म में परम!ाम में प्रवेश कीइच्छा उत्पन्न करने के लिलये अखण्ड रूप में प्रेम का अंश

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अल्प मात्रा में स्थिस्थत रहता ह।ै।६१।।

एक बार अ"र ब्रह्म अ"रातीत परब्रह्म का दश�नकरने के लिलये परम!ाम में गये।।६५।।

परम!ाम की लीला देखने की इच्छा वाले अ"रब्रह्म ऊपर दृविu विकये हुए अनन्य हृदय से केवल उसरगंमहल की भूविमका की ओर ही देखते हुए बहुत अधि!कसमय तक खडे़ रहे। उस समय तीसरी भूविमका मेंविवराजमान अ"रातीत नृत्य और गान में तल्लीन सलिखयोंसे धिघर ेहुए थे।।६६,६७।।

उसे देखकर अ"र ब्रह्म भौंचक्का होते हुए मोविहत मनवाले हो गये। तब उन्होंने अपने मन में यह विवचार विकयाविक अहो! यह विकतनी अदभुत छविव ह।ै।७४।।

यह लीला अतुलनीय रहस्य वाली ह।ै देखने के

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लिलये व्याकुल मैं उसे कैसे देख सकता हूँ। यविदअ"रातीत मेरे ऊपर कृपा करें, तो मैं उसे देख भीसकता हँू।।७९।।

अ"र: पुरूष पणू�ऽनवधिचछन्नश्च विनगु�ण:।

विन:सङ्गो विनम�लोऽनन्तो विनरीह: प्रकृते: पर:।।४४।।

अनाविदमत्पर ंब्रह्म सधिOदानन्द ल"णम्।

रस रूपतया तत्तु विनत्यमेव पृथक् स्थिस्थतम्।।५१।।

अनोपम्यात्स्व भोग्यत्वात्पुरूषागोचरत्वत:।

पे्रष्ठत्वात्परमं तत्वं स्त्रीणां काम स्वरूप!ृक्।।५३।।

पातु ंलालधियतु ंभोlंु लिस्त्रय: शlा न त ंपर।े

रमणाथ� प्रथग्भावात्स्वाविमनी स्वाविमनी प्रथमं दल।ं।५४।।

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विन: स्पंदवैृ� धितणिभह�न ंतथान्त: करणेन च।

तद"र ंच विवजे्ञयं ज्ञानमातं्र च बालवत्।।५९।।

द्वारत्व सिसmये तस्थिस्मधिन्नच्छा विवभा�वहेतवे।

कामांशो लवमात्रस्तु विनत्यमेव व्यवस्थिस्थत:।।६१।।

तदकैदाऽ"रो दृuुं जगाम पुरूषोत्तमम्।

महासौ!ाङ्गणबविह: पद्मो!ानभुविवणिश्रत:।।६५।।

विददृ"ाकुलाधिचत्तत्वादधू्व�दृविu: कृतांजलिल:।

अनन्यचेतास्तत्सौ! भूविमकालग्न लोचना:।।६६।।

धिचरतंस्थौ तदाकृष्णौ भूविमका तृतीयांणिश्रत:।

सखी वृन्द:ै परिरवृतौ नृत्यगान परायणै:।।६७।।

दृuवा विवमोविहत मना वभुवाविवकृतोऽविप सन्।

विवचारयामास तदा अहो विकविमदमद्भतुम्।।७४।।

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लीलारहस्यमतुल ंकथ ं�क्ष्येहमातुर:।

�क्ष्येहमविप चेत्कृष्णोऽनुग्रहं कुरूते मधिय।।७९।।

(पुराण संविहता प्रकरण २२)

आगे पुराण संविहता में कहा गया है-

इसी प्रकार अ"रातीत की विप्रयाओं (आत्माओं) नेकहा- हे नाथ! इस पूण� आनन्दमयी !ाम में भला क्यादलु�भ हो सकता है? विफर भी हे नाथ! आपकी विप्रयाओंमें एक बहुत बड़ी इच्छा ह।ै।५१।।

हे विप्रयतम! इस इच्छा की व्याकुलता हमें बहुतअधि!क पीड़ा दे रही ह।ै उसे पूरा करके हमें कu से मlुकीसिजए। अ"र ब्रह्म की प्रकृधित की जो विवधिचत्र लीला है ,उसे देखने की इच्छा हमार ेधिचत्त को व्याकुल कर रही ह।ै

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अब विबना कुछ भी विवचार विकये आज ही हमें उस लीलाका दश�न कराइये।।५२,५३।।

अ"रातीत पणू�ब्रह्म अपनी आत्माओं से कहते हैं-प्रकृधित की लीला मोविहत करने वाली तथा अपनेअमृतमयी आस्थित्मक आनन्दरूपी दीवार को स्याही कीतरह काली करने वाली ह।ै जहाँ केवल प्रवेश करने मात्रसे ही अपनी बुधिm नहीं रहती ह।ै।५६।।

पाँच तत्वों के बने हुए शरीर को ही अपने आस्थित्मकरूप में माना जाता है , सिजससे आस्थित्मक गणु तो णिछपजाते हैं।।५७।।

और उनकी जगह मोहजविनत दोष पदैा हो जाते हैं।हे सलिखयों! तुम वहाँ जाकर माया के ही काय� कोकरोगी। सिजस माया में आत्मा के आनन्द को हरने वाली

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तषृ्णा रूपी विपशाचनी ह।ै।५८।।

जहाँ काम, क्रो! आविद छ: शतु्र स्थिस्थत हैं, जो जीवको पाप में डुबोकर तथा कू्रर कम� कराकर उसे बलहीनकरके लूट लेते हैं।।५९।।

वहाँ जाकर तुम यहाँ के अपने स्वाभाविवक गुणों,सौंदय�, और चतुरता के विवपरीत हो जाओगी। मुझे तुमकहीं भी नहीं देखोगी और हमेशा ही मुझको भूलीरहोगी।।७८।।

पूणा�नन्द पदे नाथ दलु�भं किंक न विवद्यते।

तथाविप महती नाथ तृष्णकैा त्वस्थित्प्रयासु च।।५१।।

कुरूते महतीमार्तित तां वारय महाभुज।

अ"र प्रकृतेल�ला विवधिचत्रा या प्रवत�ते।।५२।।प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1515 / 81/ 81

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तवि£दृ"ा तु नधिश्चत्तमाकुलीकुरूते प्रभो।

तल्लीला दश�न ंनोद्य कारयाश्वविवचारत:।।५३।।

प्रकृता मोविहनी लीला स्वात्मणिभलित्त सु!ामसी।

यत्र प्रवेश माते्रण स्वात्मानमुत्सृजेद्ब!ु:।।५६।।

पंच भूतमयस्थिम्पण्डमात्मत्वे नाणिभमन्यते।

धितरो भवेय:ु स्वात्म!मा� उद्भवस्थिन्त ततोऽन्यथा।।५७।।

आचरिरष्यथ भो सवा� मायाकाया�णिण सव�था।

तषृ्णा विपशाची यत्रास्ते स्वात्मानन्दापहारिरणी।।५८।।

काम क्रो!ाविदनामानो यत्र षट् दस्यव: स्थिस्थता:।

पाविवuा: कू्रर कमा�णो विवलुम्पस्थिन्त बलाद्गतम्।।५९।।

गणु सौन्दय� चातुय�वैपरीत्यमवाप्स्यथ।

मां न �क्ष्यथ कुत्राविप विवस्मरिरष्यथ सव�दा।।७८।।

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(पुराण संविहता प्रकरण २३)

इसी प्रकार का वण�न नारद पंचरात्र के अन्तग�तमाहेश्वर तन्त्रम् में भी विकया गया ह।ै

कुरआन के अन्दर "अलस्तो विबरब्ब कंुम" काकथन भी इसी इश्क रब्द (पे्रम-संवाद) की ओर संकेतकरता ह।ै

कुछ-कुछ समय के अंतराल पर आत्माओं नेपरब्रह्म से तीन बार प्राथ�ना की। अ"र ब्रह्म भी प्रधितविदनअपने हृदय में परम!ाम की उस लीला को देखने कीइच्छा करते रहे। परम!ाम की उस लीला के धिचन्तन मेंखोये हुए हृदय वाले अ"र ब्रह्म अपने !ाम जाकर अपनेविनवास स्थान में अखण्ड समाधि! की भांधित स्थिस्थत हो

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गये। (पुराण संविहता २४/२५,२६)

समय व्यव!ानेन वित्रवार ंप्रार्थिथतो विवभु:।

अ"रणेान्वहमविप तद!ाmदृये विनजे।।२५।।

अ"रस्तु स्वकं !ाम गत्वे विनजपदे स्थिस्थत:।

लीलाधिचन्ताप्रविवuात्मा समाधि!स्थ इवाचल:।।२६।।

इस प्रकार परम!ाम के इस प्रेम-संवाद के कारणआत्माओं के साथ परब्रह्म को अनहोनी घटना के रूप मेंदो बार इस नश्वर ब्रह्माण्ड में आना पड़ा।

पहली बार, व्रज में ११ वष� ५२ विदन तक श्री कृष्णजी के तन में विवराजमान अ"रातीत ने अपनी आत्मा

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स्वरूपा गोविपयों के साथ प्रेम लीला की। तत्पश्चात्महारास की पे्रममयी लीला के लिलये उन्होंने योगमाया केब्रह्माण्ड में प्रवेश विकया। योगमाया का वह ब्रह्माण्ड इसनश्वर जगत से पूण�तया अलग है, सिजसमें चेतनता ,अखण्डता, तथा प्रकाशमयी शोभा ह।ै

पुन: आत्माओं की इच्छा पर परब्रह्म उन्हें परम!ामले गये, जहाँ वे अपने मूल तनों में जाग्रत हो गयीं।ब्रह्मसृविuयों की माया देखने की इच्छा अभी पूरी न होसकने के कारण, उन्हें पुन: दसूरी बार २८वें कलिलयगु मेंइस नश्वर जगत् में आना पड़ा।

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!म�ग्रन्थों की भविवष्यवाणिणयाँ विहन्द ूग्रन्थों की साधि"याँ

पुराण संविहता में कहा गया है विक परम!ाम कीआत्माओं के अन्दर नश्वर जगत् की दःुखमयी लीला कोदेखने के लिलए, जो कभी भी इसके पहले उत्पन्न न होनेवाली इच्छा थी, वह विप्रयतम के साथ में रहने के कारणस्वभावतः पूरी नहीं हो सकी।

वह इच्छा उनके अन्दर बीज रूप से स्थिस्थत थी।सुख की वासना के ल"णों से सम्बस्थिन्!त जीव ही संसारको प्राप्त हो सकते हैं। विनश्चय ही जन्मजात संस्कार पणू�रूप से छूट नहीं पाते हैं। इसी प्रकार अ"रातीत कीविप्रयायें भी खेल देखने की पहले वाली इच्छा से यlुबनी रहीं। उसकी पूर्तित न होने से विनज!ाम में वे आत्मायें

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जाग्रत न हो सकी। इसके पश्चात् पहले की तरह ही वहकालमाया उत्पन्न हुई तथा माया का वह ब्रह्माण्ड पुनःबन गया, जो पहले वाले ब्रह्माण्ड के स्वभाव, आकार,गणुों वाला, एवं उसी प्रकार विवशाल ह।ै

दःुख लीलावलोकाय योऽभूत्पूव� मनोरथः।

विप्रयस्य साहचयqण न सिसmोऽभूत्स्वभावतः।।

स एव बीजरूपेण तस्यौ णिशuो मुनीश्वर।

वासनालिंलग सम्बmा जीवाः संसारमाप्नुयःु।।

सव�था न विवमुच्यन्ते जन्मभाजो भवस्थिन्त विह।

तथा कृष्णविप्रयाः सवा�ः पूव�वासनयास्थिन्वताः।।

तदपूत्र्या विनजे !ास्थिम्न न प्रबुmा मुनीश्वर।

ततः प्रादरुभूत्कालमाया पूव�वदेव सा।।

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धितरोविहता योगशविlः प्रपन्च पुनरूस्थित्थतः।

तत्स्वभावस्तदाकारतद् गुणस्तविद्व!ो महान।।

(पुराण संविहता ३१/२५-२९)

अपनी इच्छा के पूरी न होने के कारण अ"रातीतकी वे विप्रयायें इस ब्रह्माण्ड में प्रगट होंगी। अपने परम!ाममें कुछ समय तक सुषुप्त की तरह रहने के पश्चात्कालमाया के स्वप्न के ब्रह्माण्ड में पुनः अवतरिरत होंगी।२८वें कलिलयगु के प्रथम चरण में पुनः माया का खेलदेखने की इच्छा शेष रह जाने के कारण, वे असहनीयदःुख के भोग को प्राप्त होंगी। वे अलग-अलग देशों मेंतथा ब्राह्मण आविद कुलों में पदैा होंगी। कुछ लिस्त्रयों कारूप !ारण करेंगी, तो कुछ पुरुषों का।

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तत्रावतीणा�ः कृष्णस्य विप्रयास्ता वासनाबलात्।

विकस्थिन्चत्कालं विनजपदे सुषुप्ताविवव संस्थिस्थताः।।

अuाकिंवशधितमे तस्य कलौ तOरणाविद मे।

मनोरथावशेषस्य भोगमाप्स्यस्थिन्त दःुसहम्।।

देशे देशे भविवष्यस्थिन्त ब्राह्मणाविद कुलेष्वविप।

काधिश्चत्स्त्री रूप!ारिरव्यः पुरूषाअविप काश्चन।।

(पुराण संविहता ३१/३०,३३,३४)

अज्ञानता के अगा! सागर में विप्रयाओं के विगर जानेपर विप्रयतम परब्रह्म स्वयं अपने कृपा रूपी महासागर मेंस्नान करायेंगे, अथा�त् स्वयं प्रकट होकर अपनेअलौविकक ज्ञान से उन्हें जाग्रत करेंगे।

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आगा!ाज्ञान जल!ौ पधिततासु विप्रयासु च।

स्वयं कृपामहाम्भो!ौ ममन्ज पुरूषोत्तमः।।

(पुराण संविहता ३१/५०)

पुराण संविहता के अध्याय ३१ श्लोक ५२-७० मेंविदये हुए संकेतों के आ!ार पर एक श्लोक की रचना होतीह,ै सिजसका भावाथ� यह है विक परम!ाम की आत्मायेंसुन्दरी और इस्थिन्दरा (श्यामा जी और इन्�ावती) सिजन दोतनों में प्रकट होंगी, उनके नाम चन्� और सूय� (देवचन्�और विमविहरराज) होंगे, तथा इनके अन्दर सा"ात् परब्रह्मविवराजमान होकर लीला करेंगे, सिजससे माया के अज्ञानरूपी अन्!कार का नाश हो जायेगा।

सुन्दरी चेस्थिन्दरा सख्यौ नामाभ्यं चं�सूय�योः।

मायां!कारनाशाय प्रधित बुmे भविवष्यतः।।

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बृहत्सदाणिशव संविहता के अन्दर भी यही बात कहीगयी ह ैविक सधिOदानन्द स्वरूप परब्रह्म की वे सलिखयाँ, जोव्रज और विनत्य वृन्दावन की लीला में थीं, वे कलिलयगु मेंपुनः प्रकट होंगी और जाग्रत होकर पुनः अपने उस !ाममें जायेंगी। धिचद्घन स्वरूप परब्रह्म के आवेश से यlु अ"रब्रह्म की बुधिm अ"रातीत की विप्रयाओं को जाग्रत करने केलिलये तथा सम्पूण� लोकों (१४ लोकों के इस ब्रह्माण्ड)को मुविl देने के लिलये भारतवष� में प्रकट होगी। वहविप्रयतम के द्वारा स्वाविमनी (श्यामा जी) के हृदय मेंस्थाविपत विकये जाने पर चारों ओर फैलेगी। इस प्रकारपरब्रह्म की विप्रयायें उस परम ज्ञान को प्राप्त करके तथाजाग्रत होकर अपनी सम्पूण� कामनाओं को पूण� कर लेंगीतथा परम आनन्द को प्राप्त होंगी।

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आनन्दरूपाः या सख्या ब्रजे वृन्दावने स्थिस्थताः।

कलौ प्रादभु�विवष्यस्थिन्त पुनया�स्यस्थिन्त तत्पदम्।।

धिचदावेशवती बुधिmर"स्य महात्मनः।

प्रबो!ाय विप्रयाणां च कृष्णस्य परमात्मनः।।

मुविlदा सव� लोकानां भविवता भारतासिजर।

प्रसरिरष्यधित हृ£ेशे स्वाविमन्याः प्रभुणेरिरता।।

एवं सम्प्राप्त विवज्ञाना विवविन�ा ब्रह्मणः विप्रयाः।

प्राप्स्यस्थिन्त परमानन्द ंपरिरपणू� मनोरथाः।।

(बृहत्सदाणिशव संविहता १७,१८,१९,२०)

श्रीमद्भागवत् का यह कथन बृहत्सदाणिशव संविहता केउपरोl कथन के बहुत अनुकूल है, सिजसमें कहा गया है

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विक शान्तनु के भाई देवाविप तथा इक्ष्वाकु वंशीय राजा मरुइस समय कलाप ग्राम में स्थिस्थत हैं। वे दोनों महानयोगबल से यlु हैं। परमात्मा की प्रेरणा से वे दोनोंकलिलयगु में पहले की भांधित ही !म� की स्थापना करेंगे।

देवाविपः शांतनोभ्राता मरूश्चेक्ष्वाकुवंशज।

कलाप ग्राम आसाते महायोग बलास्थिन्वतौ।।

ताविवहतै्य कलेरन्ते वासुदेवानुणिशधि"तौ।

वणा�श्रमयतु ं!म� पूव�वत प्रथधियष्यतः।।

(श्रीमद्भागवत् १२/२/३७,३८)

इस कथन के साथ पुराण संविहता का वह पूव�lकथन भी साथ�क हो जाता है, सिजसमें परब्रह्म को सिजनदो तनों में लीला करनी है , उनके नाम चन्� और सूय�बताये गये हैं। दोनों में आत्मा श्यामा जी और इस्थिन्दरा की

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होगी, तथा जीव देवाविप और मरु का होगा। इस प्रकार वेदोनों तन इस कलिलयगु में श्री देवचन्� और श्री विमविहरराज(संस्कृत में विमविहर का अथ� सूय� होता है ) हैं, सिजनकेअन्दर परब्रह्म ने लीला की। इसी कारण वे श्री विनजानन्दस्वामी तथा श्री प्राणनाथ जी के रूप में प्रसिसm हुये।

भविवष्योत्तर पुराण तथा भविवष्य दीविपका ग्रन्थ में तोइनके प्रकटन का समय भी लिलखा हुआ ह-ै

"जब विहन्द ूतथा मुसलमानों में परस्पर विवरो! होगातथा औरगंजे़ब का राज्य होगा, तब विव.सं. १७३८ कासमय होगा। उस समय अ"र ब्रह्म से भी परे सधिOदानन्दपरब्रह्म की शविl भारतवष� में इन्�ावती आत्मा के अन्दरविवजयाणिभनन्द बुm विनष्कलकं स्वरूप में प्रकट होगी। वे

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धिचत्रकूट के रमणीय वन के "ेत्र (पद्मावती पुरी, पन्ना) मेंप्रकट होंगे।"

परस्पर ंविवरो!े च अवरश्ख्योः भवद्यदा।

विवक्रमस्य गतेऽब्दे सप्तदशाu वित्रकं यदा।

तदायं सधिOदानन्दोऽ"रात्परतः परः।।

भारते चेस्थिन्दरायां स बुmः आविवभ�विवष्यधित।

स बुmः कस्थिल्क रूपेण "ात्र !मqण तत्परः।।

धिचत्रकूटे वने रम्ये स वै तत्र भविवष्यधित।।

(भविवष्योत्तर पुराण उ. ख. अ. ७२ ब्रह्म प्र.)

शालिलवाहन शाकात् तु गत षोडशकं शतम्।

जीवोmाराय ब्रह्माण्डे कस्थिल्कः प्रादभु�विवष्यधित।।

(भविवष्य दीविपका अध्याय ३)

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इस सम्बन्! में सिसख पन्थ के "पुरातन सौ साखी"(भविवष्य की सालिखयाँ) ग्रन्थ के पृष्ठ ६५-६६ पर स्पuलिलखा ह-ै

नेह कलकं होय उतरसी, महाबली अवतार।

संत र"ा जुग जुग कर,े दuुां कर ेसंहार।।

नवां !रम चलावसी, जग में होवन हार।

नानक कलजुग तारसी, कीत�न नाम आ!ार।।

विव.सं. १७३८ का समय वही है, जो शाकासालिलवाहन के १६०० वष� पूण� होने का ह।ै भविवष्यदीविपका ग्रन्थ का कथन है विक सालिलवाहन शाका के१६०० वष� व्यतीत हो जाने पर सम्पूण� जीवों के उmारके लिलये इस ब्रह्माण्ड में "कस्थिल्क" का आगमन होगा।

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विहन्दू !म�ग्रन्थों में जो समय विव .सं. १७३८ औरशक सम्वत् १६०० का है, वही समय विहजरी सन्१०९० का ह।ै कुरान-हदीसों के अनुसार परब्रह्म अल्लाहतआला के इमाम महदी के रूप में प्रकटन का भी वहीसमय ह।ै

कु़रआन मजीद की गवाविहयाँ

"अल्लाह मुद� को कयामत के विदन उठायेगा औरविफर सभी उसी की तरफ जायेंगे।"

ब्लमौता यब् असुहुमुल्लाह सुम्मविअलवैिह यजु� अुन।

(मंसिजल २ पारा ७ सूरा ६ आयत ३६)

इस आयत में शरीर को कब्र कहा गया ह।ै जबइमाम महदी इल्म-ए-लदनु्नी लायेंगे, तो जीव भी जाग्रत

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होकर अपनी और खदुा की पहचान कर लेंगे। इसी कोकब्रों से मुद� का उठना कहते हैं। कयामत के समयअल्लाह के आने पर ही यह सम्भव हो सकेेगा। इस प्रकारकयामत का समय मालूम होने पर इमाम महदी केस्वरूप में आने वाले खदुा का समय भी स्पu हो जायेगा।

अल्लाह की तरफ से सिजबरील द्वारा कहा गया-

"ये काविफर तुमसे पूछते हैं विक बताओ ! अगर तुमसOे हो, तो यह कयामत का वादा कब पूरा होगा? कहदो तुम्हार ेसाथ एक विदन का वादा ह।ै"

व यकूलून मत्ता हाजल्वऽदवुिअन् कुन्तुम साविदकीन।

कुल लकुम मीआदयुौविमल्ला तसत् अलिखरून अन हु

साआतौंव ला तस्त स्थिक्दमन।

(मंसिजल ५ पारा २२ सूरा ३४ आयत २९,३०)

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यहाँ यह स्पu है विक कयामत कल (फरदा रोज़)को होगी, "और ऐ पगैम्बर! तुमसे सजा की जल्दी मचारहे हैं (विक कहाँ है तुम्हारा खदुाई अजाब?) और अल्लाहतो कभी भी वादा लिखलाफी नहीं करगेा और कुछ शकनहीं विक तुम्हारे परवरविदगार के यहाँ का एक विदन तुमलोगों की विगनती के अनुसार १००० वष� के बराबर ह।ै"

वयस्तऽसिजलूनक विबल अजाविब व लयैखुलिल फल्लाहु

वऽदहु त व विअन्न यौमन् विअन्द रस्थिब्बक कअस्थिल्क

सनधितस्थिम्मम्मा तअुछून।

(मंसिजल ४ पारा १७ सूरा २२ आयत ४७)

दवुिनया के १०० वष� के बराबर खदुा की एक रातहोती ह।ै

अथा�त् १००० + १०० = ११०० वष�

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इस प्रकार कु़रआन के कथनानुसार ११वीं सदी मेंइमाम महदी अल्लाह तआला का प्रकट होना सिसm होताह।ै

मुकम्मल सही बुखारी हजरत इमाम सफा ६६४/९में भी कहा गया है- "कयामत के विदन तुम अपने अल्लाहका दीदार करोगे और कोई विदक्कत नहीं होगी।"

कु़रआन में कयामत के सात विनशानों में से एकविनशान यह भी है विक इमाम महदी के साथ जाग्रत बुधिmका फरिरश्ता इस्राफील तथा हुक्म की शविl भी होगी।

बाइबल के दृuान्त

यही बात बाइबल में भी कही गयी है विक एकशविlशाली शोर तथा सबसे बडे़ हुकम के फरिरश्ते और

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(परमात्मा की) महान तुरही से यlु आत्मा कोझकझोरने वाली तेज आवाज के साथ परब्रह्म अपनेपरम!ाम से स्वयं आयेंगे और विवश्वास करने वाले वेलोग, जो मर चुके हैं, परब्रह्म से विमलने के लिलये सबसेपहले उठेंगे।

For the the L or the d himself will come down himse lf will come down will come d himself will come downown

f will come downr the om he ave n with a mighty shout and shout and himself will come down with

the soul stir the r the ing cr the y shout and of will come down the ar the change l and himself will come down

the gr the e at tr the umpe t call of will come down G . od himself will come down And himself will come down the

be lie ve r the s who ar the e d himself will come downe ad himself will come down will be the f will come downir the st to

r the ise to me e t the L .or the d himself will come down

( Bible – The ssalonians 4 : 16)

बाइबल के इस कथन में जाग्रत बुधिm के फरिरश्ते

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इस्राविफल को परब्रह्म की तुरही कहा गया है , अथा�त् Supreme Truth God Christ (श्री प्राणनाथ जी) जब इस

दवुिनया में आयेंगे तो उनके साथ आत्मा को झकझोरनेवाला विनजबुधिm का ज्ञान , हुकम की शविl, तथाइस्राविफल फरिरश्ता होगा। मर ेहुए लोगों के दोबारा जीविवतहोने का यह अथ� है विक परब्रह्म के विदये हुए जाग्रत ज्ञानको पाकर वे अपनी तथा अ"रातीत परब्रह्म कीवास्तविवक पहचान कर लेंगे।

Supreme Truth God Christ के साथ इस्राविफल तथाहुक्म की शविl होने से यह स्पu होता है विक बाइविबल केअनुसार भी परब्रह्म के इस नश्वर जगत में प्रकट होने कावही समय विव. सं. १७३५ या ग्यारहवीं सदी १०९०विहज़री ह,ै जो विहन्द ू!म�ग्रन्थों तथा कु़रआन में लिलखा ह।ै

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संधि"प्त लीला वृत्तान्तगीता में योगेश्वर श्री कृष्ण जी कहते हैं विक जब-जब

!म� की हाविन होती है, तब-तब मैं !म� की वृधिm के लिलएअवतरिरत होता हूँ। उनका यह कथन संसार के कल्याणके लिलए अवतरिरत होने वाले महापुरुषों की भावना सेसम्बस्थिन्!त ह,ै परन्तु परब्रह्म अ"रातीत की लीला इससेणिभन्न ह।ै वेद के कथनानुसार- सधिOदानन्द परब्रह्म काअवतार होना सम्भव नहीं ह।ै वेद, गीता, उपविनषदों मेंवर्थिणत कूटस्थ, ध्रुव (अखण्ड), परिरणाम से रविहत ब्रह्मकभी भी गभ� में नहीं आ सकता। पंचभौधितक तन केजन्म लेने के पश्चात् मात्र परब्रह्म की आवेश और जोशकी शविl का ही उसमें प्रकटन हो सकता ह।ै परब्रह्म श्रीप्राणनाथ जी तथा उनकी आत्माओं का विनज स्वरूपउस अनन्त परम!ाम में अखण्ड रूप से विवद्यमान ह।ै

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यविद उनका आवेश स्वरूप इस सांसारिरक नश्वर तन मेंप्रकट होता ह,ै तो उसे ही "परब्रह्म के प्रकटन" की संज्ञादी जाती ह।ै

परम!ाम से ब्रह्मात्माओं का इस नश्वर संसार मेंप्रकटन हुआ। उनके साथ अ"रातीत परब्रह्म श्रीप्राणनाथ भी आये, और उन्होंने श्री देवचन्� और श्रीविमविहरराज नामक दो तनों में विवराजमान होकर अलौविककलीला की।

!म�ग्रन्थों के कथनानुसार कलाप ग्राम विनवासीदेवाविप के जीव ने विव .सं. १६३८ में आधिश्वन मास कोशुक्ल प" की चतदु�शी को मारवाड़ उमरकोट गाँव में श्रीदेवचन्� के रूप में जन्म लिलया। इनके विपता का नाम श्रीमत्तु मेहता तथा माता का नाम कँुवर बाइ� था। परम!ामकी श्यामा जी (परब्रह्म के आनन्द अंग) ने इनके तन में

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प्रवेश विकया।

जब श्री देवचन्� जी की उम्र मात्र ११ वष� की थी ,तभी से उनके मन में यह जानने की प्रबल सिजज्ञासाउत्पन्न हो गयी विक मैं कौन हूँ , कहाँ से आया हूँ, तथामेरी आत्मा का विप्रयतम कौन है? इन प्रश्नों का समा!ानपाने के लिलये उन्होंने बहुत प्रयास विकया, विकन्तु स्पuउत्तर नहीं विमल पाया। कुछ समय के पश्चात उमरकोट सेकच्छ के लिलये जाने वाली बारात के पीछे-पीछे चलतेसमय परब्रह्म ने दश�न देकर यथेष्ठ स्थान पर पहुँचाविदया, विकन्तु वे उनको पहचान नहीं पाये।

कच्छ में अपने लक्ष्य की प्राविप्त के लिलये वे अनेकज्ञाविनयों, सन्यासिसयों, वैराविगयों आविद के पास गये। उनकेबताये हुए माग� के अनुसार उन्होंने सा!ना भी की ,लेविकन उन्हें सन्तोष नहीं हुआ। अन्त में रा!ा -वल्लभ

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मत के अनुयायी हरिरदास जी के साधिन्नध्य में रहकर वेसेवा-ध्यान करने लगे। हरिरदास जी ने उन्हें दी"ा भी देदी। २६ वष� की उम्र में ध्यान द्वारा दसूरी बार उन्हेंपरब्रह्म का सा"ात्कार हुआ।

इसके पश्चात् हरिरदास जी की पे्ररणा से वे नवतनपुरी(जामनगर) आकर कान्ह जी भट्ट से श्रीमद्भागवत् कीकथा सुनने लगे। जब उनकी उम्र ४० वष� की हो गयी ,तो श्याम जी के मस्थिन्दर में कथा सुनते समय सा"ात्परब्रह्म ने उन्हें दश�न विदया। परब्रह्म ने उन्हें परम!ाम केइश्क-रब्द, व्रज एवं रास लीला, तथा जागनी ब्रह्रााण्डकी सारी बातें बतायी और उनके !ाम हृदय में आवेशस्वरूप से विवराजमान हो गये।

इस घटना के पश्चात् श्री देवचन्� जी "विनजानन्दस्वामी" के रूप में प्रसिसm हो गये तथा उनके अलौविकक

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ब्रह्मज्ञान की चचा� सुनने के लिलये जनसमूह उमड़ पड़ा।उनके द्वारा विदये हुए तारतम्य ज्ञान का अनुसरण करनेवाले सुन्दरसाथ कहलाये। सुन्दरसाथ के समूह मेंहरिरदास जी भी थे, सिजन्होंने पहले श्री देवचन्� जी कोमन्त्र दी"ा दी थी।

पूव� वर्थिणत !म�ग्रन्थों के कथनानुसार राजा मरू नेजामनगर राज्य के मन्त्री (दीवान) श्री केशव ठाकुर माता!नबाइ� के सुपुत्र श्री विमविहरराज के रूप में जन्म लिलया।इनका जन्म विव.सं. १६७५ में भादो मास की कृष्ण प"की चतुद�शी को हुआ था। श्री विमविहरराज के तन मेंपरम!ाम की इन्�ावती (इस्थिन्दरा) आत्मा ने प्रवेश विकया,सिजन्हें बाद में "महामधित" की शोभा विमली, तथा इनके!ाम हृदय में विवराजमान होकर परब्रह्म ने लीला की।

श्री विमविहरराज लगभग १२ वष� की उम्र में सद्गरुू

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!नी श्री देवचन्� जी की शरण में आये तथा उनसेतारतम ज्ञान ग्रहण विकया। श्री विनजानन्द स्वामी (सद्गरुू!नी श्री देवचन्� जी) ने उन्हें देखते ही पहचान लिलयाविक भविवष्य में परब्रह्म की लीला इसी तन के द्वारा होगी।

श्री विमविहरराज बचपन से ही इतनी अधि!कअलौविकक प्रधितभा के स्वामी रहे हैं विक जामनगर केभागवत् के सबसे बडे़ विवद्वान कान्ह जी भट्ट उनके इसप्रश्न का उत्तर नहीं दे पाये विक महाप्रलय के पश्चात परब्रह्मका स्वरूप कहाँ रहता है? भट्ट जी ने स्पu रूप से कहविदया था विक इसका उत्तर ब्रह्मा जी के पास भी नहीं ह।ै

कुछ समय के पश्चात् परम!ाम के दश�न हेतु श्रीविमविहरराज जी ने इतनी कठोर सा!ना की विक उनकाशरीर जीण�-शीण� हो गया, लेविकन उन्होंने परम!ाम कीएक झलक पा ही ली। तदन्तर श्री विनजानन्द स्वामी ने

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उन्हें सेवा काय� हेतु अरब भेज विदया, जहाँ वे लगभग ५वष� तक रहे। वापस आने पर कुछ कारणवश उन्हें श्रीविनजानन्द स्वामी का साधिन्नध्य प्राप्त न हो सका।

विव.सं. १७१२ में सद्गरुू !नी श्री देवचन्� जी का!ामगमन (देह त्याग) हो गया। इसके पूव� उन्होंने श्रीविमविहरराज जी को बुलाकर भविवष्य की सारी बातें बता दीविक भविवष्य में जागनी लीला तुम्हारे तन से होगी। सद्गरुू!नी श्री देवचन्� जी के !ामगमन के पश्चात् श्रीविमविहरराज ने !म� प्रचार का उत्तरदाधियत्व सम्भाला।

श्री विमविहरराज जी ने आत्म-जाग्रधित हेतु सबसुन्दरसाथ को एकवित्रत करने की योजना बनाइ� , विकन्तुजामनगर के वजीर के यहाँ झूठी चुगली के कारण हब्सामें नजरबन्द होना पड़ा। यहाँ अपने विप्रयतम के विवरह मेंतड़प-तड़प कर उन्होंने अपने शरीर को मात्र हधिºयों का

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ढाँचा बना विदया। अन्ततोगत्वा सधिचचदानन्द परब्रह्म कोउन्हें दश�न देकर उनके !ाम हृदय में विवराजमान होनापड़ा। अब सबने उन्हें प्राणनाथ, !ाम !नी, श्री राज, श्रीजी, आविद कहना शुरू कर विदया, क्योंविक इन शब्दों काअथ� होता है अ"रातीत। उपविनषदों का यह कथन"ब्रह्मविवदो ब्रह्मोव भवधित" भी उस समय पूण� रूप सेसाथ�क हो उठा।

अब उनके तन से परब्रह्म के आवेश स्वरूप द्वारा"श्रीमुखवाणी" का अवतरण होना शुरू हो गया। सबसेपहले "रास" ग्रन्थ उतरा, सिजसमें महारास की अखण्डलीला तथा परब्रह्म द्वारा !ारण विकये गये यगुल स्वरूपकी शोभा का वण�न ह।ै इसके पश्चात् "प्रकाश" और"खटऋतु" ग्रन्थ उतरा। परम!ाम की आत्माओं कीजागनी हेतु समय-समय पर णिभन्न-णिभन्न स्थानाें पर

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आवश्यकतानुसार वाणी उतरती रही। लिखलवत,परिरक्रमा, सागर, शंृ्रगार, तथा सिसन्!ी के ग्रन्थ मेंपरम!ाम का आनन्द उडे़ला गया ह।ै सन!ं, खलुासा,मारफत सागर, तथा कयामतनामा में कुरआन केेहकीकत एवं मारिरफत के भेदों को स्पu विकया गया है ,सिजससे शरीयत के नाम पर होने वाले विहन्द-ूमुस्थिस्लम केविवरो! को विमटाकर शास्थिन्त का माग� प्रशस्त विकया जासके। विकरन्तन ग्रन्थ सम्पणू� वाणी का संधि"प्त रूप है ,सिजसमें वेद -वेदान्त तथा भागवत आविद के गढू़ एवंअनसुलझे प्रश्नों का समा!ान विकया गया ह।ै कलश ग्रन्थमें भी विहन्द ू!म�ग्रन्थों के रहस्यों को बहुत अच्छी तरह सेप्रकट विकया गया ह।ै

वस्तुत: श्री प्राणनाथ जी के मुखारविवन्द सेअवतरिरत होने वाली ब्रह्मवाणी की महत्ता को वही समझ

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सकता ह,ै जो सम्पूण� वेद-वेदांग तथा कतेब ग्रन्थों मेंडुबकी लगाते-लगाते थक गया हो, विकन्तु यथाथ� सत्यको जानने का सOा सिजज्ञासु हो।

अब श्री प्राणनाथ जी परम!ाम की आत्माओं कोजाग्रत करने हेतु देश-विवदेश में भ्रमण करने लगे। यात्राकी कविठनाइयाँ होते हुए भी भारतवष� के कइ� प्रान्तगुजरात, महाराu्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश,विदल्ली, सिसन्! प्रान्त, तथा अरब देशों में भी उन्होंनेपरम!ाम के अलौविकक ब्रह्मज्ञान का रस बरसाया।

सव�प्रथम विव.सं. १७१८ में उन्होंने जूनागढ़ केशास्त्राथ� महारथी "हरजी व्यास" को अपने अलौविककज्ञान से नतमस्तक विकया। भागवत् के इस एक प्रश्न काउत्तर हरजी व्यास नहीं दे सके थे विक अ"र ब्रह्म का वहअखण्ड विनवास (महल) कहाँ ह?ै

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इसके पश्चात् श्री प्राणनाथ जी दीप बन्दर, कच्छ,मंडइ�, कपाइये, भोजनगर में आत्माओं को जाग्रत करतेहुए ठट्ठानगर आये, जहाँ कबीर पन्थ के आचाय�धिचन्तामणिण जी णिशष्यों सविहत जाग्रत हुए , सिजनके एकहजार णिशष्य थे। इसके पश्चात् सेठ लक्ष्मण दास भीजाग्रत हुए, सिजनका ९९ जहाजों से व्यापार हुआ करताथा। ये ही बाद में श्री लालदास जी के रूप में प्रसिसm हुए।

इसके पश्चात् श्री जी (श्री प्राणनाथ जी) अरब देशोंमें गये, जहाँ उन्होंने मस्कत बन्दर तथा अबासी बन्दर मेंसैकड़ों आत्माओं को जाग्रत विकया। अबासी बन्दर में!न, मांस, और शराब में डूबे रहने वाले भरैव ठक्कर जसेैव्यविl ने भी श्री जी की कृपा दृृविu से परब्रह्म कासा"ात्कार कर लिलया।

विव.सं. १७२८ में श्री प्राणनाथ जी अरब से वापस

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भारत ठट्ठानगर (वत�मान कराची) आ गये। इसके पश्चात्सूरत में सत्रह माह रहे, सिजसमें श्याम भाइ� जसेै वेदान्तके आचाय� एवं गोविवन्दजी व्यास सविहत सैंकड़ों लोगाें नेअपनी अध्यास्थित्मक प्यास बझुायी। सूरत से ही बहुत सेसुन्दरसाथ ने अपना घर-द्वार हमेशा के लिलये छोड़ विदयाऔर श्री प्राणनाथ जी के साथ जागनी अणिभयान परविनकल पडे़।

सूरत से सिसmपुर होते हुए श्री प्राणनाथ जी मेड़तापहँुचे। वहाँ मुल्ला के मुख से बाँग सुनकर उन्होंने विहन्द-ूमुस्थिस्लम मतों के एकीकरण करने का दृढ़ संकल्प विकया।औरगंजे़ब को कुरआन के हकीकत और मारिरफत केज्ञान द्वारा शरीयत से दरू करने के उ£ेश्य से वे विदल्लीपहँुचे, विकन्तु भेंट न होने के कारण वाता� न हो सकी।पुन: विदल्ली से विव.सं. १७३५ में वे हरिरद्वार के महाकुम्भ में

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सस्थिम्मलिलत हुए, जहाँ वैष्णवों के चारों सम्प्रदायों , दशनाम सन्यास मत, तथा षट् दश�न के आचाय� के साथउनका शास्त्राथ� हुआ। सिजसमें सभी ने हार मानकर उन्हें"श्री विवजयाणिभनन्द बुm विनष्कलकं" मानकर उनके नामकी ध्वजा फहराई तथा बुm जी का शाका भी प्रचलिलतविकया।

हरिरद्वार से श्री जी पुन: विदल्ली आये और औरगंजे़बको विकयामत के जाविहर होने का सन्देश णिभजवाने काप्रयास विकया गया। विदल्ली से अनूपशहर आते समयसनन्! की वाणी भी उतरी। विदल्ली में १२ सुन्दरसाथ कोऔरगंजे़ब के पास भेजा, विकन्तु बादशाह के अधि!कारिरयोंने उन १२ सुन्दरसाथ के साथ बहुत ही कuदायकव्यवहार विकया, जबविक बादशाह ने उन्हें सम्मानपूव�करखने को कहा था।

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इसके पश्चात् श्री प्राणनाथ जी ने औरगंजे़ब केअत्याचार का विवरो! करने के लिलये उदयपुर, औरगंाबाद,रामनगर, आविद के राजाओं को जाग्रत करने का प्रयासविकया, विकन्तु परम!ाम का अँकुर न होने के कारण कोइ�जाग्रत न हो सका। विनदान श्री जी पद्मावती पुरी !ामपन्ना आये, जहाँ महाराजा छत्रसाल जी ने उन्हें पणू�ब्रह्मका स्वरूप मानकर अपना तन, मन, !न उन परन्योछावर कर विदया।

छत्रसाल जी ने महारानी के साथ श्री जी कीपालकी को स्वयं उठाकर महल में प!राया। चौपडे़ कीहवेली में उन्होंने सिंसहासन पर बाइ� जी के साथ बठैाकरसा"ात् पूण� ब्रह्म के रूप में मानकर श्री जी की आरतीउतारी और सबके सामने स्पu रूप से कह विदया विक जोकोइ� भी इन्हें अ"रातीत मानने में संशय करता है , वह

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परम!ाम की ब्रह्मसृविu ही नहीं ह।ै

छत्रसाल जी की ऐसी विनष्ठा देखकर श्री प्राणनाथजी ने उन्हें अपने हुक्म की शविl दे दी तथा स्वयं माथेपर धितलक करके "महाराजा" घोविषत कर विदया। यह श्रीप्राणनाथ जी की कृपा का ही फल था विक ५२ लड़ाइयोंमें वे हमेशा ही विवजयी रहे और पन्ना की !रती हीराउगलने लगी।

महाराजा छत्रसाल जी के चाचा बलदीवान सविहतकुछ लोगों के मन में श्री प्राणनाथ जी के स्वरूप केसम्बन्! में संशय था, सिजसे दरू करने के लिलये कुरआनऔर वेद-शास्त्रों के विवद्वान बुलाये गये। महोबा के काज़ीअब्दलु रसूल से श्री जी की कुरआन पर चचा� हुइ�। पाँचतरह की पदैाइश के प्रश्न के सम्बन्! में काज़ी ने हारमानकर श्री प्राणनाथ जी के चरणों में प्रणाम विकया और

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कुरआन को सिसर पर रखकर यह कसम खाते हुए कहाविक ये श्री प्राणनाथ जी ही विकयामत के समय में आनेवाले "आखरूल जमां इमाम महदी" (खदुा) हैं। इसीप्रकार सुप्रसिसm विवद्वान ब�ीदास जी ने भी शास्त्राथ� मेंहार मानकर उन्हें "श्री विवजयाणिभनन्द बुm विनष्कलकंस्वरूप" माना।

लगभग दस वष� तक श्री प्राणनाथ जी की कृपा सेपन्ना जी में परम!ाम का आनन्द बरसता रहा। सबने यहीमाना विक हमारे मध्य में परब्रह्म की लीला चल रही ह।ैआज भी श्री पन्ना जी के गुम्मट मस्थिन्दर में श्री महामधितजी ध्यानावस्था में विवराजमान हैं।

(विवस्ततृ वण�न पढ़ने के लिलए "श्री बीतक" या "दोपहरका सूरज" का अवलोकन करें)

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ऐधितहासिसक प्रमाणहरिरद्वार का शास्त्राथ�

विव.सं.१७३५ (सन् 1678) में हरिरद्वार केमहाकुम्भ में श्री प्राणनाथ जी सुन्दरसाथ के साथ पहुँचे।वहाँ पर वैष्णवों के चारों सम्प्रदायों , दश नाम सन्यासमत, तथा षट दश�नों के आचाय� के साथ श्रीजी काशास्त्राथ� हुआ। वैष्णव के आचाय� तथा दश नाम सन्यासमत की सातों मन्याआें के आचाय� ने अपना तथा अपनेआराध्य का !ाम, इu, मुविl का स्वरूप और स्थान,सुख विवलास का स्थान, सभी कुछ नश्वर जगत के अन्दर(१४ लोक, विनराकार तक) बताया। केवल विनम्बाक�तथा छठी मन्या ने थोड़ी बहुत अखण्ड की बात की।श्रीजी ने पूछा विक महाप्रलय में जब १४ लोक ,विनराकार-मोहतत्व तक का लय हो जायेगा, तब आपका

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!ाम, ब्रह्म का स्वरूप , तथा मुविl का स्थान कहाँरहेगा? सभी आचाय� के पास श्रीजी के इस प्रश्न का कोइ�भी उत्तर नहीं था।

न्याय दश�न के आचाय� ने कहा विक द ु:ख की २१सीविढ़यों (५ इस्थिन्�य + मन, छ: इस्थिन्�यों के विवषय, छ:प्रकार के विवषयों का ज्ञान, सुख, द:ुख, तथा शरीर) केनाश होने पर अखण्ड सुख की प्राविप्त होती ह।ै

श्री प्राणनाथजी ने कहा विक महाप्रलय में जब यहस्थूल जगत या शरीर ही नहीं रहेगा , तब उस अनाविदब्रह्म तथा जीव का विनवास कहाँ होगा? इस पर उन्हें मौनहोना पड़ा।

मीमांसा दश�न के आचाय� ने कहा विक कम� अनाविदऔर अविद्वतीय ह।ै इसके विबना और कुछ ह ैही नहीं।

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श्रीजी ने कहा- कम� में सदा भ्रास्थिन्त रहती है ,जबविक ब्रह्म अखण्ड, एकरस स्वरूप वाला ह।ै जीव केअहकंार तथा मन के संकल्प-विवकल्प के कारण कम� कीउत्पलित्त होती ह।ै जहाँ पर ब्रह्म का अखण्ड स्वरूप है ,वहाँ पर मन की गधित नहीं ह।ै इसलिलये ब्रह्म के स्वरूप मेंकम� की स्थिस्थधित का प्रश्न नहीं ह।ै ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो जानेपर कम�-बन्!न भी समाप्त हो जाते हैं। आपका आशयजवैिमविन के कथनों के विवपरीत ह।ै इस पर वे मौन हो गये।

मीमांसकाें के शान्त होने पर सांख्य दश�न केविवद्वानों ने कहा विक जब पुरुष तथ प्रकृधित का संयोगहोता है तब जगत की उत्पलित्त होती है , तथा अलगावहोने पर महाप्रलय हो जाता है, दोनों ही विनत्य एवंअनाविद हैं।

श्री प्राणनाथ जी ने पूछा विक पहले आप यह बताइये

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विक प्रकृधित और पुरुष का स्वरूप क्या है? यविद विनराकारह,ै तो ये कहाँ पर और कैसे विमलते हैं? महाप्रलय केपश्चात् प्रकृधित का स्वरूप कहाँ रहता है? इस बात परउन्हें मौन होना पड़ा।

वैशेविषक दश�न के आचाय� ने कहा विक सारे जगतकी उत्पलित्त तथा लय का मूल काल ह।ै अत: यह ही ब्रह्मह।ै

श्रीजी ने कहा विक जहाँ पर ब्रह्म का अखण्ड स्वरूपह,ै वहाँ पर काल की सत्ता नहीं होती , जबविक यहसम्पूण� जगत काल के अ!ीन ह।ै जगत के स्वरूप औरब्रह्म के स्वरूप को एक-दसूरे में ओत-प्रोत माननाआपकी भूल ह।ै

योग दश�न के आचाय� ने कहा विक सव�व्यापक होने

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के कारण इस शरीर में ही ब्रह्म का दश�न हो जाता ह।ैयोग के अंगों के अनुष्ठान तथा नाड़ी-चक्र शो!न द्वाराउस ज्योधितम�य ब्रह्म का सा"ात्कार होता ह।ै उस ब्रह्म मेंयह जगत् विकरणों के समान स्थिस्थत है।ै

श्री प्राणनाथ जी ने कहा विक वेद, उपविनषद में तोमात्र परमगुहा, एकादश द्वार में ही ब्रह्म के सा"ात्कार कावण�न ह,ै जबविक योग दश�न में परमगुहा से सम्बस्थिन्!तकोइ� भी सूत्र नहीं ह।ै ब्रह्म और मायावी जगत् की तुलनासूय� तथा उसकी विकरणों से करना गलत है , क्योंविकदोनों (ब्रह्म तथा जगत्) ही विवपरीत गणुों वाले हैं, जबविकसूय� की विकरणें उसका ही स्वरूप कही जाती हैं।

नवीन वेदास्थिन्तयों ने कहा- ब्रह्म की तरह माया भीअनाविद है और उसी के अन्दर रहती ह।ै यह सारा जगतब्रह्मरूप ह।ै अविद्वतीय ब्रह्म के अधितरिरl विकसी अन्य को

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देखना बहुत बड़ी अज्ञानता ह।ै इच्छारविहत वह ब्रह्मसबसे अलग ह।ै

श्री जी ने कहा विक हे वेदान्त के आचाय�! आप यहबताइये विक वित्रगुणातीत ब्रह्म के अन्दर माया विकस प्रकारसे ह ैतथा इस मायावी जगत् के अन्दर एकरस ब्रह्म विकसप्रकार व्यापक ह?ै यविद माया अनाविद है, तो वह साकारहै या विनराकार, इसे स्पu करें। यविद यह सारा जगत हीब्रह्मरूप ह,ै तो ज्ञान के ग्रन्थों की आवश्यकता ही क्याह?ै वेदान्त के आचाय� के पास श्री प्राणनाथ जी के इनतक� का कोइ� प्रामाणिणक उत्तर नहीं था।

तद्पश्चात् सभी सम्प्रदाय के आचाय� ने श्री जी सेउनकी पmधित पूछी। श्री प्राणनाथ जी ने !म�ग्रन्थों केसाक्ष्यों के साथ श्री विनजानन्द सम्प्रदाय की पmधितसुनायी, जो इस प्रकार ह-ै

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"भगवान णिशव पाव�ती जी से कहते हैं-

हे सुन्दरी! ब्रह्मानन्द रस को जानने वाली तथाब्रह्मज्ञाविनयों में सव�शे्रष्ठ ब्रह्मसृविuयों की पmधित को मैंतुमसे कहता हूँ, उसे सुनो। विनश्चय ही गोत्र धिचदानन्दकहा गया ह।ै आनन्दमय परब्रह्म ही सदगुरु हैं। णिशखाज्ञानमयी कही गयी है और सूत्र अ"र ब्रह्म ह।ै विकशोरस्वरूप वाली परब्रह्म की आह्लाविदनी शविl श्यामा जी हीइu हैं और पुरुषोत्तम अ"रातीत पूज्यनीय हैं सिजनकोपाने का एकमात्र सा!न पधितव्रता सा!न ह।ै विनत्यवृन्दावन ही सुख विवलास का स्थान माना गया ह।ै परब्रह्मके यगुल स्वरूप का जप एवं मन्त्र तारतम्य कहा गया ह।ैब्रह्मविवद्या ही देवी है तथा पूण� ब्रह्म ही सनातन देव हैं।गोलोक को शाला तथा अखण्ड का द्वार कहा गया ह।ैस्वसं वेद (आत्मवेद) तारतम वाणी ही वेद है, सिजसके

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अनुकरण का फल अखण्ड में विनत्य विवहार ह।ै बेहद सेपरे विदव्य ब्रह्मपुर ही !ाम ह।ै सदगुरु (परब्रह्म) के चरणही "ेत्र हैं, जो सबको शुm करने वाले हैं। परम!ाम कीअखण्ड यमुना जी ही तीथ� हैं। एकमात्र अनन्य प्रेमल"णा भविl ही मान्य ह।ै महाविवष्णु ही ऋविष हैं। सभीशास्त्रों के अद्भतु साररूप श्रीमदभागवत् (रास) का श्रवणकरना माना गया ह।ै जाग्रत स्वरूप वाला ज्ञान (श्रीप्राणनाथ प्रणीत) ही ग्राह्य ह।ै परम!ाम में परब्रह्म काआनन्द स्वरूप ही कुल (वंश) ह,ै सिजनके अंग रूप सभीब्रह्ममुविन हैं। परब्रह्म की आनन्द स्वरूपा आत्माओं द्वाराप्रकाणिशत विकया हुआ सम्प्रदाय धिचदानन्द (विनजानन्द)ह।ै इस प्रकार ब्रह्मसृविuयों की यह "पुरुषोत्तम" नामकपmधित कही गयी ह।ै हे सुन्दरी! अपने विनज स्वरूप केसा"ात्कार के लिलये इस पmधित के अनुसार आचरण

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करना चाविहए।" (माहेश्वर तन्त्र २८/४५-५४)

अन्ततः सभी मत के विवद्वानों ने हार मानकर उन्हें"श्री विवजयाणिभनन्द बुm विनष्कलंक स्वरूप" माना औरउनके नाम की ध्वजा फहराइ� तथा आरती उतारी।उन्होंने श्री प्राणनाथ जी के सम्मान में बुm जी का शाकाभी प्रारम्भ विकया।

औरगंजे़ब को जाग्रत करने का प्रयास

उस समय लगभग सम्पूण� देश पर औरगंजे़ब काशासन था। वह इस्लाम की ओट में जबरन !मा�न्तरणकरवाने पर तुला हुआ था। यद्यविप औरगंजे़ब कुरआन काबहुत बड़ा विवद्वान था, विफर भी शरीयत के काविज़यों केदबाव में वह विहन्दओुं के प्रधित बहुत अधि!क घृणा का भाव

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रखता था।

कुछ समय तक औरगंजे़ब के अधि!कारिरयों केमाध्यम से बादशाह से विमलने का प्रयास विकया गया,विकन्तु सफलता नहीं विमली। अन्त में बारह सुन्दरसाथ(लालदास, शेख बदल, भीम भाइ�, धिचन्तामणिण, लिखमाइ�भाइ�, चंचलदास, नागजी भाइ�, सोमजी भाइ�, कायममुल्ला, दयाराम, बनारसी, गंगाराम) मुस्थिस्लम फकीरों केवेश में जामा मसिसजद में जाकर सनन्! (वाणी) गानेलगे। जामा मस्थिस्जद के शाही इमाम ने उनकी भेंटऔरगंजे़ब बादशाह से करवा दी।

इन सुन्दरसाथ ने बादशाह से विकयामत के प्रकटहोने एवं इमाम महदी के जाविहर होने के सम्बन्! मेंएकान्त में बात करना चाहा। औरगंजे़ब स्वयं आन्तरिरकरूप से इमाम महदी से विमलने का इच्छुक था, विकन्तु

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शरीयत के दबाव में वह एकान्त में विमल नहीं सका।बादशाह के काज़ी शेख इस्लाम के इशारे पर कोतवालसीविदक पौलाद द्वारा उन १२ सुन्दरसाथ को काफीयातना दी गयी, सिजसकी सूचना विमलने पर श्रीजी नेबहुत द:ुख माना और महाप्रलय के लिलये मन बना लिलया,विकन्तु परब्रह्म की प्रेरणा से जागनी लीला की अवधि! औरबढ़ा दी गयी।

काज़ी शेख इस्लाम ने अपनी भूल स्वीकार कर ली।यद्यविप उसने स्पu कहा विक आपके द्वारा दी गई कुरआनकी साधि"यों से हम यह स्वीकार करते हैं विक विकयामतका समय आ गया है तथा इमाम महदी प्रकट हो गये हैं,विकन्तु हम इसे अभी जाविहर नहीं कर सकते , क्योंविकऐसा होने पर इस्लामी शरीयत का राज्य समाप्त होजायेगा। औरगंजे़ब भी इसी डर से श्री प्राणनाथ जी के

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चरणों में नहीं आ सका , क्योंविक उसे डर था विक यविदउसने ऐसा कर विदया तो शरीयत को चाहने वालेमुसलमान उसे ही मरवा देंगे।

मक्का-मदीना से आये हुए वसीयतनामें तथा कालपीके मौलविवयों का लिलखा हुआ महज़रनामा (स्वीकृधित पत्र)देखकर उसे विवश्वास तो हो गया था विक इमाम महदीजाविहर हो चुके हैं, विकन्तु शरीयत और भय के कारणश्रीजी की शरण में आना उसके लिलये सम्भव नहीं होसका, सिजसका उसे मृत्य ुसमय तक पश्चाताप रहा। इसकेअधितरिरl मुगल साम्राज्य के पतन का रहस्य भी उसेमालूम हो चुका था।

इन बातों का प्रमाण है औरगंजे़ब द्वारा अपने पुत्रआज़म को लिलखा अस्थिन्तम पत्र, सिजसका कुछ अंश यहाँउmरिरत विकया जा रहा है-

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"..............मेरा अमूल्य जीवन व्यथ� में ही चलागया। मेरे घर मालिलक आये थे, परन्तु मेरी अं!ी आँखेंउसका तेज प्रताप नहीं देख सकी। जीवन का अंत नहींहोता। उन वाक्यों का कोई अवशेष नहीं है , वे अब नहींह,ै और न ही भविवष्य में कोई आशा ह…ै……"

(औरगंजे़ब का इधितहास, भाग ५ पृष्ठ २१० ,लेखक- यदनुाथ सरकार)

मक्का-मदीना से आये वसीयतनामे

श्री जी साहेब श्री प्राणनाथ जी की लीला के दौरान,विक़यामत के आने व आखरुल जमां इमाम महदी केप्रकट होने की सा"ी में मदीने की मस्थिस्जद की दो मीनारेंविगर पड़ीं तथा वहाँ से वसीयतनामें लिलखकर विहन्द के

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बादशाह औरगंजे़ब के पास आये। इन वसीयतनामों मेंलिलखा था विक इमाम महदी विहन्द में ज़ाविहर हो गए हैं तथाज़बराइल यहाँ से कु़रआन (नूरी झण्डा) विहन्द में ले गयाह।ै उन वसीयतनामों का विहन्दी अनुवाद यहाँ विदया जारहा ह।ै

पहला वसीयतनामा

वसीयतनामा पहला, जो विवक्रम संवत् १७१२ मेंऔर कु़रआन की विगनती से विहज़री १०६४ में आया।

णिशक� (गुनाह) व ज़ुल्म और सिसतम फैल बुरे विफतनेदज्जाल के से बीच इस साल के ह।ै चार लाख ग्यारहहज़ार मुसलमान बेइमान हो गये हैं। बीच विकसी के भीविनशानी ईमान की न रही, और बहुत विनशाविनयांविक़यामत की और फैल बुरे के से ऊपर तुम्हारे ज़ाविहरआयी। और ज़हूर ईसा अलवैिहस्सलाम का भी नज़दीक

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आ पहँुचा ह।ै आगे इससे सुनेंगे। चाविहए विक तोबा करोऔर खदुाय से पनाह माँगो।

दसूरा वसीयतनामा

दसूरा वसीयतनामा विव. सं. १७३२-३३ में आयाऔर कु़रआन की विगनती से विहज़री १०८६ में आया।

इस भांधित से विक बीच इस साल के चार लाख औरनव हज़ार आदमी बेइमान होकर मरे, विक ऊपर विनहायतसख्ती उसके विक ज़माना नज़दीक इमाम महदी का आपहँुचा। यह मेरा तांई लिलए हुक्म मुहम्मद महदी का ह।ैऔर भी नज़दीक है, विक दरवाज़ा तौबा का बन्द होता ह।ैउस सबब से दस खशलते बुरी ज़ाविहर होने की विनशानीविक़यामत के ऊपर जात तमु्हारी के ज़ाविहर आयी।

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तीसरा वसीयतनामा

तीसरा वसीयतनामा विव. सं. १७३५ में आया औरकु़रआन की विगनती से विहज़री १०९० में आया।

विक बीच इस हफ्ते के इस ज़ुमां से ले तो उस ज़ुमां(तक ताईं) बहुत सख्ती उस विफतने के से ७०,०००आदमी मेरी उम्मत में से बेइमान हो गये। उसमें से छूटकेवल सात आदमी और कोई भी ईमान से सलामत नरह गया। इस सबब से विक दरगाह हक़ तआला की सेलिखताब आया विक ऐ मुहम्मद ! तेरी उम्मत गुनाहों केकहर से और ज़ुल्म से नहीं डरती। तझेु सौगन्! इज़्जतऔर ज़लाल अपने की ह।ै अब तुमसे सूरतें इनों कीबदलता हूँ। उस वl पगैम्बर ससिल्ललाहो अलवैिह वसल्लमने आविज़जी और जारी विनयाज सत याने अज� की विक ऐबख़्शने वाले और रहम करने वाले ! इस वl अपना

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कहर इनों से फेर रख। मैं वसीयतनामा विफर भेजता हूँ।उन्हें चाविहए विक तेरे गज़ब से डरें और इन्साफ में याविनसच में आवें। चाविहए विक मेरी उम्मत इन फैल नालायकसे डर के चंगुल बीच दीन खदुाय के मरे विक कहर वगुनाह तुम्हारे के से नहीं। जानता हूँ, विक तुम्हारीसिसफायत फेर करावेगा। विक गज़ब खदुाय का आ पहुँचा।विक तमाम होने को सदी अग्यारहीं की ह।ै विज़बरीलनाविज़ल हुआ विक बरकत दवुिनया की, शफ़कत फकीरोंकी, और कु़रआन मज़ीद को इस ज़हान से उठाये केअपने मकान को ले गया, और दरवाज़ा तौबा का बन्दहोता ह।ै सो खाविदमान दरगाह के ऊपर साविबत उस बातकी सौगन्! सख्त खाय के लिलखा है विक हम यह बातहुक्म मुहम्मद मुस्तफा सल्ल. के से और इमाम मुहम्मदमहदी के से लिलखते हैं। अगर हमने झूठ आपसे लिलखा

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होय तो दोनों ज़हान में हमारा मुंह स्याह होय औरखदुाये के दीदार से और मुहम्मद सल्ल. की सिसफायत सेमहरूम रहें और जो इसे साँच करके न माने और ऐतबारन कर,े तो बस वही काविफ़र ह।ै

चौथा वसीयतनामा

तीन वसीयतनामों में दीन के विनशान की खबर नहींपायी थी, सो खबर इस दीन के विनसान की पीछे इसबरस के बीच दीन आलिखर सदी अग्यारहीं केवसीयतनामा चौथा आलिखर के से बीच विहज़री १०९०और १०९९ के आया है, लगभग विव. सं. १७३५।

मालूम और समझा गया विक विहसाब आलिखरत काबीच विहन्दसु्तान के होवे। ए हुक्म खदुाय का और रसूलका हुआ विक संवारने इस काम को आगे से ही लेनेतमीज़ विहसाब उम्मत का (१०१) देव तनैात विहन्दसु्तान

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के हुए ह।ै हुक्म खदुाय का तीन रात तीन विदन बीचतमाम खलक के चलावे। और तमाम होने सदी अग्यारहींके मेहेतर विज़बरील नाविज़ल होए बरकत दवुिनया की औरसफ़कत फकीरों की और कु़रआन मज़ीद को इस ज़हानसे उठाय के अपने मकान को ले जाय और दरवाज़ातौबा के बन्द हो जाय।

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मविहमासधिOदानन्द श्री प्राणनाथ जी की मविहमा का शब्दों

में वण�न करना असम्भव काय� ह।ै सिजस हकी सूरत श्रीमहामधित जी के स्वरूप में पाँचों सव�शे्रष्ठ शविlयाँविवराजमान हैं, उनके स्वरूप की मविहमा का गान करने केलिलए यह सिजह्वा तथा यह मनुष्य जीवन दोनों ही बहुतछोटे हैं। परम सत्य तो यह है विक श्री प्राणनाथ जी कीशोभा, ज्ञान, पे्रम, कृपा, व शविl अतुलनीय हैं।

सधिOदानन्द श्री प्राणनाथ जी के इस स्वरूप केप्रकटन की प्रती"ा सभी देव, तीथÇकर, अवतार,औलिलया, पगैम्बर, फकीर, ऋविष, योगी आविद कर रहे थे।उनके स्वरूप का दश�न पाकर सभी !न्य हो गये।पूण�ब्रह्म श्री प्राणनाथ जी विहन्द,ू मुसलमान, यहूदी, औरईसाई सभी के हैं। परमात्मा कभी भी !म� या सम्प्रदाय

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के आ!ार पर भेद नहीं करते, वे तो सिसफ� प्रेम व समप�णको महत्व दतेे हैं।

श्री प्राणनाथ जी के लिलए राज, अ"रातीत,विप्रयतम, सुन्दरवर, परब्रह्म, परमात्मा, पूण�ब्रह्म,सधिOदानन्द, श्याम, सनातन पुरुष, उत्तम पुरुष, !ाम!नी, विवजयाणिभनन्द विनष्कलकं बुm, विप्रयतम, खु़दा,अल्लाह तआला, खसम, हक़ तआला , रब्ब, इमाममुहम्मद महदी साविहबुज़्ज़मां, , The Lord Christ Supreme

, Truth God Christ ,Second Christ Christ आलिखरी मूसा, आविदसम्बो!न प्रयlु होते हैं।

सम्वत् १७४०-१७५१ तक की लीला में जो भीसुन्दरसाथ अपने भावों के अनुसार श्री प्राणनाथ जी कोपरम!ाम के यगुल स्वरूप श्री राजश्यामा जी, व्रज-रासके श्री कृष्ण, अरब के मुहम्मद साहब, या सदगुरु !नी

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श्री देवचन्� जी के स्वरूप में मानता था , उसे चचा� केदौरान उसी स्वरूप का दश�न होता था।

श्री विवजयाणिभनन्द बुm जी की मविहमा

भविवष्योत्तर पुराण के अन्तग�त बुm गीता का वण�नह,ै सिजसमें ब्रह्मा जी ने नारद जी को श्री विवजयाणिभनन्दबुm जी की पहचान व मविहमा का वण�न विकया ह।ै बुmगीता में वर्थिणत कुछ श्लोक विनम्न हैं-

हे नारद ! मोहरूपी नींद में ही ब्रह्मा, विवष्ण,ु तथाणिशव उत्पन्न हुए हैं। नींद के अपने कारण में लीन हो जानेपर ब्रह्मा, विवष्ण,ु णिशव, तथा सभी प्राणी भी उसी में लीनहो जाते हैं ।।८।।

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यह अ"र ब्रह्म उस मोह रूपी नींद से परे हैं। इसकथन का वण�न पहले विकया जा चुका ह।ै हे पुत्र ! विकन्तुबुm जी तो उस अ"र ब्रह्म से भी पर ेहैं ।।९।।

श्री विवजयाणिभनन्द बुm जी सबकी बधुिm को सुन्दरकरने वाले हैं, अथा�त् सबको जाग्रत बुधिm प्रदान करनेवाले हैं। ये परब्रह्म के ही स्वरूप हैं। ये अत्यन्त तेजोमयहैं एवं अ"र ब्रह्म से भी परे के सा"ात् परम पुरुष हैं। येसभी प्राणिणयों का परम कल्याण करने वाले हैं। इस कथनमें कोई भी संशय नहीं ह ै।।१६।।

यह श्री बुm जी ही अ"रातीत पुरुष कहे जाते हैं। येअत्यन्त तेजोमय हैं तथा मूल स्वरूप परब्रह्म के विनजस्वरूप कहे जाते हैं ।।१७।।

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जागृत बुधिm की शविl को अपने अन्दर !ारण करनेवाले बुm जी शुm ज्ञान स्वरूप कहे जाते हैं। ये सबकोजाग्रत बुधिm देने वाले हैं , इसलिलए ये ब्रह्मज्ञान काज्योधितम�य स्वरूप कहे जाते हैं ।।१८।।

सिजसके हृदय में बुm जी का स्वरूप विवराजमानहोता ह,ै उसके मन में दःुख या धिचन्ता नहीं होती, औरउसे लौविकक सुख का पूण� ज्ञान भी नहीं रहता , और नउसे अपने शरीर का ही वास्तविवक ज्ञान रहता है अथा�त्वह सुख-दःुख, हष�-शोक, एवं शरीर के मोह जविनतद्वन्द्वों से पर ेहो जाता ह ै।।२१।।

स्वयं आविदनारायण भी सिजन बुm जी से विनराकार सेपरे का ज्ञान प्राप्त करने वाले हैं और ऐसा करके वे भीयोगमाया के ब्रह्माण्ड में जाग्रत एवं अखण्ड स्वरूप वाले

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हो जायेंगे। इस कथन में संशय जसैी कोई भी बात करनेयोग्य नहीं ह ै।।२४।।

वे श्री बुm जी ही मो" के स्वरूप हैं अथा�त् सभीप्राणिणयों को अखण्ड मवुिl देने वाले हैं । इस भवसागरको मथकर वे पाँच रत्नों णिशव , सनकाविद, कबीर,शुकदेव, और विवष्णु भगवान (अ"र ब्रह्म कीपँचवासनाएँ) को विनकालकर स्वयं तेजोमय परब्रह्म केरूप में अपनी मविहमा से व्यापक होंगे ।।२५।।

श्री बुm जी का वह स्वरूप परम!ाम की सलिखयों(आत्माओं) के साथ जागनी रास की लीला करगेा। वेसलिखयाँ शु्रधितयों का स्वरूप हैं, अथा�त् सिजस प्रकार वेदकी ऋचायें वेद का स्वरूप होती हैं, उसी प्रकार परम!ामकी आत्मायें अ"रातीत का ही स्वरूप होती हैं।

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ब्रह्ममुविनयों के रूप में प्रकट होने वाली वे सलिखयाँ तुम्हारेद्वारा हमेशा ही जानने योग्य हैं ।।३८।।

शु्रधितयों के समान पविवत्र स्वरूप वाली वे सलिखयाँ ,अ"रातीत के साथ क्रीड़ा करती हुई उनके बुmमयस्वरूप में स्वयं व्याप्त हैं तथा बुm जी भी उनके अन्दरव्यापक हैं। इस कथन में कोई भी संशय नहीं हो सकता।।३९।।

श्री बुm जी का स्वरूप विवशुm गौर वण� का होगा ,अथा�त् उनके यश में विकसी भी प्रकार की कालिलमा नहींहोगी। वे सभी प्रकार के भेदभाव से रविहत, समदश�, एवंअविद्वतीय परब्रह्म के स्वरूप होंगे। वे समान अंगों वाले ,अथा�त् ऊँच-नीच की भावना से रविहत, और मायावीविवकारों से पणू�तया रविहत होंगे। वे कल्प के प्रारम्भ में हीप्रकट होने वाले हैं ।।४०।।

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उस समय एकमात्र बुm जी ही वेद के समान सम्पूण�ज्ञान के भण्डार होंगे तथा स्वयं वे ही आनन्दमय परब्रह्मके रूप में जाविहर होंगे ।।४१।।

हे पुत्र ! श्री बुm जी की कृपा से पशु और अपशु,चर और अचर, तथा मोह (नींद, विनराकार) से उत्पन्नहोने वाले जो भी प्राणी हैं, वे सभी अखण्ड !ाम(योगमाया) में अखण्ड स्वरूप वाले हो जायेंगे ।।४८।।

सत्व, रज, तथा तम- इन तीनों गणुों तथा इनकेकारण होने वाले कम� से रविहत, सबसे अतीत, अ"रब्रह्म के भी स्वामी, शास्थिन्त स्वरूप, उन श्री बुm जी कोप्रणाम ह ै।।५५।।

श्री बुm जी के विवषय में न तो सांख्य दश�न की हीगधित है , न वेदान्त की, और न मीमांसा दश�न की,

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अथा�त् ये शास्त्र उस अ"रातीत पूण� ब्रह्म की स्पuपहचान नहीं करा सकते हैं। सिजनके स्वरूप में विकसी भीप्रकार से माया की गम नहीं है, सबके आश्रय स्वरूप ऐसेबुm जी को प्रणाम ह ै।।५६।।

अत्यधि!क सुन्दर एवं शास्थिन्त स्वरूप, ज्ञानमयी दीविप्तसे भरपूर, तेजोमय स्वरूप वाले, लौविकक कम�काण्डों कापालन न करने वाले, सुख स्वरूप, संसार को ब्रह्मज्ञानकी आभा से भरपूर करने वाले, उन श्री बुm जी कोप्रणाम ह ै।।५७।।

सम्पूण� जगत के स्वामी, अपनी आत्माओं के प्रधितपधितपने के सम्बन्! को विनभाने वाले, जाग्रत बुधिm रूपीघोडे़ पर विवराजमान, उन परब्रह्म स्वरूप श्री बुm जी कोप्रणाम ह ै।।५८।।

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लिंलग पुराण में णिशव-पाव�ती संवाद के रूप में बुmस्तोत्र का वण�न ह।ै उसमें वर्थिणत कुछ श्लोक विनम्न हैं-

अ"र ब्रह्म की जाग्रत बुधिm से यlु उन श्रीविवजयाणिभनन्द विनष्कलकं बुm जी को प्रणाम ह।ै सभीआत्माओं के !ाम स्वरूप तथा शास्थिन्त के स्वरूप श्री बुmजी को प्रणाम ह ै।।१।।

माया से मोविहत होने वाले सभी प्राणी उस परब्रह्मको विनराकार कहते हैं। सिजस परम!ाम का ज्ञान कलिलयगुमें प्रकट होगा, उसके विवषय में वे नहीं जानते हैं ।।६।।

इसलिलए हे देवी ! तमु्हारे सामने मैंने सिजस कलिलयगुका वण�न विकया है, वह !न्य ह।ै श्री बुm जी के ज्ञान सेयह सम्पूण� ब्रह्माण्ड ही योगमाया के ब्रह्माण्ड में अखण्डहोने वाला ह ै।।१२।।

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