प्रत छबि ननन िस - oshodhara · प्रत छबि ननन िस ,...

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  • 1

    प्रीतम छबि नैनन िसी

    प्रवचन-क्रम

    1. तेरी जो मजी ......................................................................................................................2

    2. खोलो शून्य के द्वार ........................................................................................................... 24

    3. मेरा संन्यास वसंत है ......................................................................................................... 44

    4. जीवन एक अबिनय .......................................................................................................... 64

    5. हंसा, उड़ चल वा देस ....................................................................................................... 83

    6. मुझको रंगों से मोह ......................................................................................................... 106

    7. युवा होने की कला .......................................................................................................... 133

    8. अपने दीपक स्वयं िनो .................................................................................................... 154

    9. ध्यान का दीया............................................................................................................... 176

    10. प्रार्थना की कला ............................................................................................................. 198

    11. मेरा संदेश हैैः ध्यान में डूिो ............................................................................................. 221

    12. बनयोबजत संतानोत्पबि ................................................................................................... 247

    13. धमथ और बवज्ञान की िूबमकाएं.......................................................................................... 271

    14. तर्ाता और बवद्रोह ......................................................................................................... 298

    15. एक नई मनुष्य-जाबत की आधारबशला .............................................................................. 323

    16. हंसो, जी िर कर हंसो..................................................................................................... 347

  • 2

    प्रीतम छबि नैनन िसी

    पहला प्रवचन

    तेरी जो मजी

    पहला प्रश्नैः ओशो, नई प्रवचनमाला को आपने नाम ददया हैैः प्रीतम छबि नैनन िसी! क्या इसके

    अबिप्राय पर कुछ प्रकाश डालने की कृपा करेंगे?

    आनंद मैत्रेय, रहीम का प्रबसद्ध सूत्र हैैः

    प्रीतम छबि नैनन िसी, पर छबि कहां समाय।

    िरी सराय रहीम लबख, पबर्क आप दिर जाय।।

    मनुष्य परमात्मा के बिना खाली है, िुरी तरह खाली है। और खालीपन खलता है। खालीपन को िरने के

    हम हजार-हजार उपाय करते हैं--धन से, पद से, प्रबतष्ठा से।

    लेदकन खालीपन ऐसे िरता नहीं। धन िाहर है, खालीपन िीतर है। िाहर की कोई वस्तु िीतर के

    खालीपन को नहीं िर सकती। कुछ िीतर की ही संपदा चाबहए। िाहर की संपदा िाहर ही रह जाएगी। उसके

    िीतर पहंचने का कोई उपाय नहीं है। धन के ढेर लग जाएंगे, लेदकन िीतर का बिखमंगा बिखमंगा ही रहेगा।

    दुबनया में दो तरह के बिखमंगे हैंःैः गरीि बिखमंगे हैं और धनी बिखमंगे हैं। मगर उनके बिखमंगेपन में

    कोई िकथ नहीं। सच तो यह है दक धनी बिखमंगे को अपने बिखमंगेपन की ज्यादा प्रतीबत होती है। क्योंदक

    िाहर धन है और िीतर बनधथनता है। िाहर के धन की पृष्ठिूबम में िीतर की बनधथनता िहत उिर कर ददखाई

    पड़ती है। जैसे रात में तारे ददखाई पड़ते हैं। अंधेरे में तारे उिर आते हैं। ददन में िी हैं तारे, पर सूरज की रोशनी

    में खो जाते हैं।

    गरीि को अपनी गरीिी नहीं खलती, अमीर को अपनी गरीिी िहत िुरी तरह खलती है। यही कारण है

    दक गरीि देशों में लोग संतुष्ट मालूम पड़ते हैं, अमीर देशों की िजाय। तुम्हारे साधु-संत तुम्हें समझाते हैं दक तुम

    संतुष्ट हो, क्योंदक तुम धार्मथक हो। यह िात सरासर झूठ है। तुम संतुष्ट प्रतीत होते हो, क्योंदक तुम गरीि हो।

    िीतर िी गरीिी, िाहर िी गरीिी, तो गरीिी खलती नहीं, गरीिी ददखती नहीं, उसका अहसास नहीं होता।

    जैसे कोई सिेद दीवाल पर सिेद खबड़या से बलख दे, तो पढ़ना मुबककल होगा। इसीबलए तो स्कूल में काले तख्ते

    पर सिेद खबड़या से बलखते हैं। पृष्ठिूबम बवपरीत चाबहए, तो चीजें उिर कर ददखाई पड़ती हैं।

    गरीि देशों में जो एक तरह का संतोष ददखाई पड़ता है, वह झूठा संतोष है, उसका धमथ से कोई संिंध

    नहीं है। लेदकन तुम्हारे अहंकार को िी तृबि बमलती है। तुम्हारे साधु-महात्मा कहते हैं दक तुम संतुष्ट हो, क्योंदक

    तुम धार्मथक हो। तुम्हारा अहंकार िी प्रसन्न होता है, प्रिुबललत होता है।

    पर यह सरासर झूठ है। अहंकार जीता ही झूठों के आधार पर है। झूठ अहंकार का िोजन है। सचाई कुछ

    और है।

    तुम्हारे साधु-महात्मा कहते हैं दक देखो पबिम की कैसी दुगथबत है! वे तुम्हें समझाते हैं दक दुगथबत इसबलए

    हो रही है पबिम की, क्योंदक पबिम नाबस्तक है, क्योंदक पबिम ईश्वर को नहीं मानता।

    यह िात िी झूठ है। पबिम की दुगथबत इसबलए ददखाई पड़ रही है, क्योंदक पबिम में धन है, सुबवधा है,

    संपन्नता है। संपन्नता के ढेर, तो िीतर की बवपन्नता िहत खलने लगती है। इतना सि िाहर है और िीतर कुछ

  • 3

    िी नहीं! तो प्राण रोते हैं। प्राण चाहते हैंःैः िीतर िी िराव हो। तो आदमी दौड़ता है। धन से नहीं िरे तो पद

    से िरे। तो हो जाऊं प्रधानमंत्री दक राष्ट्रपबत! पद से न िरता हो तो शायद त्याग से िरे। तो त्याग दूं पद,

    तपियाथ करं। व्रत-उपवास, योग, हवन-यज्ञ करं।

    मगर नहीं िरता है। िीतर का खालीपन ऐसे िरता ही नहीं। िीतर का खालीपन तो बसिथ एक ही तरह

    से िरता है दक वह प्यारा तुम्हारे िीतर उतर आए। वही उतर सकता है तुम्हारे िीतर। परमात्मा के अबतररक्त

    तुम्हारे िीतर दकसी का कोई प्रवेश नहीं हो सकता। तुम्हारी प्रेयसी िी वहां नहीं जा सकती। तुम्हारा पबत,

    तुम्हारी पत्नी, तुम्हारे िच्चे, कोई वहां नहीं जा सकते। बसिथ एक परमात्मा की वहां गबत है। बसिथ वही तुम्हारे

    अंतरतम में बवराजमान हो सकता है। वह िरे तो तुम िरो। वह आए तो तुम िरो। वह जि तक नहीं ति तक

    तुम खाली हो। और खाली हो तो रोओगे। खाली हो तो दुखी होओगे। खाली हो तो नरक में जीओगे।

    ररक्तता ही तो नरक है। और सारे नरक तो कबलपत हैं--दक वहां चढ़े हैं कड़ाहे और लोग जलाए जा रहे हैं,

    और कड़ाहों में तले जा रहे हैं। यह सि िकवास है। ये सि मनगढ़ंत िातें हैं। ये तो बसिथ तुम्हें डराने के बलए

    पंबडत और पुरोबहतों की ईजादें हैं। क्योंदक तुम ियिीत हो जाते हो तो गुलाम हो जाते हो। ियिीत को गुलाम

    िनाना आसान है, बनिथय को गुलाम िनाना असंिव है। तुम ियिीत हो जाते हो तो तुम हर तरह के

    अंधबवश्वास के बलए राजी हो जाते हो। कौन झंझट ले! वैसे ही तुम कंप रहे हो, और कौन झंझट ले! पता नहीं

    आगे क्या मुसीित झेलनी पड़े। तो तुम मंददर िी जाते हो, मबस्जद िी जाते हो, गुरुद्वारा िी जाते हो, पूजा-

    पाठ, जो िी तुम्हें पुरोबहत समझाते हैं, करते हो। दान-दबिणा, धमथशाला िनाते, मंददर िनाते। लेदकन

    वास्तबवक नरक एक ही है और वह हैैः िीतर ररक्त होना, खाली होना। क्योंदक जो खाली है उसकी जैसे आत्मा

    ही नहीं, जैसे अिी आत्मा का जन्म ही नहीं हआ।

    परमात्मा आए तो आत्मा का जन्म हो। उस परम प्यारे को पुकारना होगा। वही िर जाए तुम्हारी आंखों

    में। वही रम जाए तुम्हारे रोएं-रोएं में। वही िने तुम्हारे हार्ों की मेंहदी। वही िने तुम्हारे आंखों का काजल। िस

    वही हो, तुम न िचो। इतना हो वह दक तुम्हारे रहने के बलए कोई जगह ही न रह जाए। तुम्हें खाली ही कर देना

    पड़े अपने को।

    अिी तुम खाली हो, पीबड़त हो रहे हो। वह आएगा तो तुम्हें और िी अपने को खाली करना पड़ेगा।

    क्योंदक न मालूम दकतना कूड़ा-करकट--बवचारों का, वासनाओं का, आकांिाओं का, तृष्णाओं का--तुम्हारे िीतर

    है। न मालूम दकतना अहंकार, झूठा सि, बमथ्या सि, पर कुछ न हो तो आदमी को बतनके का सहारा िी िहत।

    और जो आदमी डूि रहा हो और बतनके का सहारा लेकर आंख िंद दकए सपना देख रहा हो िचने का, उससे

    कहो दक आंख खोलो, देखो, बतनके के सहारे से कोई िचता नहीं, तो वह नाराज होगा। तुम उससे उसकी

    आबखरी आशा िी छीने लेते हो।

    इसीबलए तो लोग िुद्धों से नाराज रहे हैं। जीसस को सूली ऐसे ही नहीं दी, और सुकरात को जहर ऐसे ही

    नहीं बपलाया! और अि िी उनका रवैया वही है और आगे िी उनका रवैया वही रहेगा। जो िी तुमसे कहेगा दक

    इन बतनकों के सहारे तुम पार न हो सकोगे, तुम उसी से नाराज हो जाओगे। कारण सीधा-साि है। तुम वैसे ही

    खाली हो, दकसी तरह बतनके के सहारे अपनी आंखों को िंद दकए अपने को समझा-िुझा रहे हो। और यह तुमसे

    बतनका िी छीने ले रहा है! यह तुम्हें बतनके का सहारा िी नहीं लेने देता! तुम कैसे िमा करो िुद्धों को? तुम

    उन्हें िमा नहीं कर सकते। तुम उन्हें सूली देते हो। हां, सूली देकर पछताते हो। ति पिािाप होता है, ति

  • 4

    अपराध का िाव जगता है। दिर तुम उनकी पूजा करते हो। यह िड़ा अनूठा खेल है। पहले सूली देते हो, दिर

    ससंहासन देते हो। सजंदा को सूली देते हो, मुदाथ को ससंहासन देते हो।

    तुमने िुद्ध पर दकतने पत्र्र िें के, बहसाि है कुछ? तुमने िुद्ध को मार डालने की दकतनी चेष्टाएं कीं!

    पागल हार्ी छोड़ा। िुद्ध के ऊपर चट्टानें सरकाईं पहाड़ से!

    कहाबनयां िड़ी प्रीबतकर हैं। कहानी कहती है दक जि पागल हार्ी िुद्ध के सामने आया--उस पागल हार्ी

    ने न मालूम दकतने लोगों को मार डाला र्ा--जि िुद्ध के सामने आया, िुद्ध को देखा, रठठक गया। चरणों में झुक

    गया।

    मैं नहीं सोचता ऐसा हआ होगा। पागल हाबर्यों से इतनी समझदारी की आशा नहीं की जा सकती।

    होबशयार आदबमयों से नहीं होती इतनी आशा, तो पागल हाबर्यों से क्या खाक आशा होगी! लेदकन कहानी

    कुछ और कहना चाहती है। कहानी यह कहती है दक तुम्हारे तर्ाकबर्त होबशयार आदबमयों से पागल हार्ी िी

    ज्यादा होबशयार होते हैं। पागल हार्ी को िी समझ में आ गया दक यह आदमी मारा जाए, मारने योग्य नहीं है।

    यह आदमी झुकने योग्य है, समर्पथत होने योग्य है।

    कहाबनयां कहती हैं दक जि चट्टान िुद्ध पर सरकाई गई... वे नीचे ध्यान कर रहे हैं वृि के नीचे, चट्टान

    पहाड़ से सरकाई गई, ठीक ऐसे कोण से दक दिोच ही देगी िुद्ध को। हड्डी-पसली का िी पता नहीं चलेगा। उसके

    सार् ही लुढ़क जाएंगे महागड्ढ में। लेदकन कहते हैं, चट्टान ठीक िुद्ध के पास आकर अपनी राह िदल ली।

    अि चट्टानों से कोई इतना िरोसा कर सकता है! लेदकन ये सारी कहाबनयां इशारे हैं। ऐबतहाबसक तथ्य

    नहीं, मनोवैज्ञाबनक सत्य हैं। ये यह कह रहे हैं दक आदमी पत्र्रों से िी ज्यादा पाषाण हो गया। पत्र्रों को िी

    इतना होश है दक िुद्ध मागथ में आते हों तो राह छोड़ दें, उनको चोट न पहंच जाए! आदमी को इतना होश नहीं।

    लेदकन दिर तुम पछताते हो, पीछे तुम पछताते हो। लेदकन पीछे पछताने से क्या होगा? दिर पछताए

    होत का जि बचबड़यां चुग गई खेत! दिर तुम जन्मों-जन्मों तक, सददयों-सददयों तक पूजा करते हो। तुम्हारे हार्

    पर जो खून के धब्िे पड़ जाते हैं, उनको धोते हो, धोए चले जाते हो। मगर वे धब्िे दिर बमट नहीं सकते।

    क्योंदक वे हार् पर नहीं पड़े हैं, वे तुम्हारी आत्मा पर ही पड़ गए हैं। उनको ऐसे पूजा-पाठ से धो लेना आसान

    नहीं होगा!

    तुम्हारा अहंकार एक झूठ है--एक झूठ, बजसके सहारे तुम सोचते हो दक पार कर लेंगे। कागज की नाव,

    बजस पर िैठ कर तुम अर्ाह सागर को पार करने चल पड़ते हो! कालपबनक पतवारें, बजनका कोई अबस्तत्व नहीं

    है।

    जि ईश्वर को अपने िीतर िुलावा देना हो, तो इस कूड़े-करकट को अलग कर देना होगा। झूठ के सहारे

    छोड़ देने होंगे। सत्य उनका है, जो झूठ का सहारा छोड़ देते हैं। सत्य साहबसयों का है। क्योंदक झूठ का सहारा

    छोड़ना िड़े दुस्साहस का काम है। झूठ ही तो हमारा एकमात्र सहारा है। उसको िी छीनने की िात हो, तो मन

    डरता ह,ै कंपता है, ियिीत होता है। और तो हमारे िीतर कुछ िी नहीं है। दकसी तरह अपने को समझा-िुझा

    बलया ह;ै कलपनाओं में, सपनों में अपने को रचा-पचा बलया है। अपने िीतर बवचारों का एक संसार िसा बलया

    है। उसमें ही उलझे रहते हैं, व्यस्त रहते हैं।

    तुम देखो आदमी को, सुिह उठा दक व्यस्त हआ। घड़ी िर चैन से नहीं िैठ सकता। और ये जो सदा व्यस्त

    रहते हैं, ये दूसरों को, अगर कोई शांत िैठा हो, अगर कोई चुप िैठा हो, अगर किी कोई घड़ी िर आंख िंद

    करके िैठा हो, तो उनको गाबलयां देते हैं दक ये काबहल हैं, सुस्त हैं, अकमथण्य हैं!

  • 5

    ये जो सदा व्यस्त लोग हैं, बवबिि लोग हैं। ये बिना व्यस्त हए नहीं रह सकते। व्यस्तता इनको एक उपाय

    है, एक सुरिा है। अपने को व्यस्त रखते हैं तो िूले रहते हैं--अपने िीतर की दररद्रता को, दीनता को, झूठ को,

    असत्य को, कूड़े-करकट को, अपने िीतर के अिाव को िूले रखते हैं। दौड़ते रहते हैं लोग, कोई िी िहाना लेकर

    दौड़ते रहते हैं। िहाना चाबहए दौड़ने के बलए। दौड़ते रहते हैं तो बवस्मरण रही आती है अपनी वास्तबवक

    बस्र्बत। रुके दक याद आई। खाली हए, मौन िैठे दक याद आई।

    इसबलए ध्यान इस जगत में करठनतम काम है। हालांदक ध्यान कोई काम नहीं; ध्यान कोई दक्रया नहीं;

    ध्यान कोई कमथ नहीं। लेदकन करठनतम काम है। चुप िैठना सिसे ज्यादा मुबककल हो गया है। और जो चुप नहीं

    िैठ सकते, वे कहते हैं दक खाली मन शैतान का घर है। िात बिलकुल उलटी है। जो खाली होने की कला जानता

    है, जो पूरी तरह खाली होने को राजी है, वही परमात्मा का घर िन जाता है।

    लेदकन ये जो तर्ाकबर्त कमथठ लोग हैं, ये तर्ाकबर्त जो कमथयोगी हैं, जो कहते हैं--लगे रहो, जूझते रहो!

    कुछ िी करो, मगर करो जरर! खाली होने से कुछ िी करना िेहतर है। गलत िी करो, मगर करो, खाली िर

    न िैठना! --इन्होंने सारी दुबनया को एक बवबििता में लगा ददया है। हम हर िच्च ेको यही जहर बपला रहे हैं।

    और हमें यह जहर बपलाने का कारण है! कारण यह है दक हम डरते हैं, बजस ददन िी कोई अपने आमने-सामने

    होगा, अपने िीतर झांकेगा, तो घिड़ा जाएगा। अतल शून्य का सािात्कार करने की सामथ्यथ!

    लेदकन जो िी उस शून्य का सािात्कार कर लेता है, उसमें पूणथ उतर आता है। उसने शतथ पूरी कर दी।

    पूणथ को पाने की शतथ हैैः महाशून्य को स्वीकार कर लेना। इसे चाहे तुम समपथण कहो, चाहे संन्यास कहो, चाहे

    ध्यान, चाहे समाबध, प्रेम, प्रार्थना, पूजा, िबक्त, जो तुम्हारी मजी, जो नाम तुम देना चाहो। नामों में मुझे िहत

    रस नहीं है। तुम्हारी आंखें उस प्यारे से िर जाएं। तुम्हारी दृबष्ट में कोई और जगह ही न रहे।

    ठीक कहते हैं रहीमैः "प्रीतम छबि नैनन िसी, पर छबि कहां समाय।"

    अि मैं चाहं िी दक कोई और छबि मेरी आंखों में समा जाए--धन की, पद की, प्रबतष्ठा की--तो जगह ही

    नहीं है। अि तो उस प्यारे से आंखें िर गई हैं।

    "िरी सराय रहीम लबख... "

    जैसे दक सराय िरी हो।

    "... पबर्क आप दिर जाय।।"

    आते हैं पबर्क, लेदकन सराय िरी देख कर लौट जाते हैं।

    वासनाएं दिर िी आएंगी, इच्छाएं दिर िी आएंगी, द्वार खटखटाएंगी। आकांिाएं दिर िी िुसलाएंगी,

    सि तरह के प्रलोिन देंगी, मगर कोई सचंता नहीं। एक िार प्रिु िीतर बवराजमान हो गया--िरी सराय रहीम

    लबख, पबर्क आप दिर जाय--दक दिर ये सि अपने आप चले जाते हैं। इन्हें छोड़ना िी नहीं पड़ता। ये खुद ही

    उदास होकर चले जाते हैं। ये खुद ही हताश होकर चले जाते हैं। जगह ही नहीं िीतर।

    परमात्मा बवराट है! वह िर जाए तुम्हारे िीतर तो कहां जगह िचेगी? रंचमात्र जगह न िचेगी। वही

    दिर िीतर होगा, वही दिर िाहर होगा। लेदकन उसे िरने की शतथ पूरी करनी होती है। शतथ सीधी-साि है। शतथ

    है दक तुम जो र्ोड़े-िहत िी हो, वह िी न रह जाओ। ऐसे तो बनन्यानिे प्रबतशत तुम खाली ही हो; एक प्रबतशत

    है जो तुमने झूठ से िर रखा है। उस झूठ को िी बगर जाने दो। एक िार साहस करके उस झूठ को िी समर्पथत

    कर दो। एक िार पूरे-पूरे शून्य हो जाओ। और दिर चमत्कार देखो!

  • 6

    अर्पथत मेरी िावना--इसे स्वीकार करो!

    तुमने गबत का संघषथ ददया मेरे मन को,

    सपनों को छबव के इंद्रजाल का सम्मोहन;

    तुमने आंसू की सृबष्ट रची है आंखों में,

    अधरों को दी है शुभ्र मधुररमा की पुलकन;

    उललास और उच्छवास तुम्हारे ही अवयव,

    तुमने मरीबचका और तृषा का सृजन दकया;

    अबिशाप िना कर तुमने मेरी सिा को,

    मुझको पग-पग पर बमटने का वरदान ददया;

    मैं हंसा तुम्हारे हंसते से संकेतों पर,

    मैं िूट पड़ा लख िंक िृकुरट का संचालन;

    अपनी लीलाओं से है बवबस्मत और चदकत!

    अर्पथत मेरी िावना--इसे स्वीकार करो!

    अर्पथत है मेरा कमथ--इसे स्वीकार करो!

    क्या पाप और क्या पुण्य इसे तो तुम जानो,

    करना पड़ता है केवल इतना ज्ञात यहां;

    आकाश तुम्हारा और तुम्हारी ही पृथ्वी,

    तुम में ही तो इन सांसों का आघात यहां;

    तुम में बनिथलता और शबक्त इन हार्ों की,

    मैं चला दक चरणों का गुण केवल चलना है;

    ये दृकय रचे, दी वहीं दृबष्ट तुमने मुझको,

    मैं क्या जानंू क्या सत्य और क्या छलना है।

    रच-रच कर करना नष्ट तुम्हारा ही गुण है,

    तुम में ही तो है कंुठा इन सीमाओं की;

    है बनज असिलता और सिलता से प्रेररत!

    अर्पथत है मेरा कमथ--इसे स्वीकार करो!

    अर्पथत मेरा अबस्तत्व--इसे स्वीकार करो!

    रंगों की सुषमा रच, मधुऋतु जल जाती है,

    सौरि बिखरा कर िूल धूल िन जाता है;

    धरती की प्यास िुझा जाता गल कर िादल,

    पाषाणों से टकरा कर बनझथर गाता है;

    तुमने ही तो पागलपन का संगीत ददया,

    करुणा िन गलना तुमने मुझको बसखलाया;

    तुमने ही मुझको यहां धूल से ममता दी,

    रंगों में जलना मैंने तुम से ही पाया।

  • 7

    उस ज्ञान और भ्रम में ही तो तुम चेतन हो,

    बजनसे मैं िरिस उठता-बगरता रहता हं;

    बनज खंड-खंड में हे असीम तुम हे अखंड!

    अर्पथत मेरा अबस्तत्व--इसे स्वीकार करो!

    एक िार सि छोड़ दो उस अज्ञात के चरणों में--अपने अहंकार को, अपने कताथिाव को। कह दो उससेैः

    तेरी जो मजी! जैसा नचाएगा, नाचेंगे! जो कराएगा, करेंगे! हम करने वाले नहीं हैं, हम बसिथ अबिनेता हैं। तू जो

    बनणथय लेगा, जो पात्र िनने की आज्ञा देगा, वही िन जाएंगे। न हमारा कोई बनणथय है, न हमारी अपनी कोई

    बनयबत है। तेरे हार्ों में सि है।

    इतना समपथण जो कर सके वह पूणथ शून्य हो जाता है। और जि तुम पूणथ शून्य हो जाते हो, तो तुम्हारा

    शून्य, तुम्हारा शून्य ही उस पूणथ के बलए बनमंत्रण है। वह पूणथ तत्िण उतर आता है--नाचता, गुनगुनाता,

    महोत्सव बलए।

    दूसरा प्रश्नैः ओशो, मैं अत्यंत आलसी हं। इससे ियिीत होता हं दक मोि-उपलबब्ध कैसे होगी? मागथ-

    दशथन दें!

    धमेंद्र, मोि कोई उपलबब्ध नहीं है। उपलबब्ध की िाषा में तुमने मोि को सोचा, दक चूके। मोि कोई

    लक्ष्य नहीं है, बजसको पाना है; मोि हमारा स्विाव है। बजसे पाना नहीं है; बजसे हमने किी खोया ही नहीं है।

    बसिथ िूल गए हैं, बवस्मृत कर िैठे हैं। पुनस्मथरण करना है, िस केवल पुनस्मथरण करना है।

    किीर, नानक, दादू एक शब्द का उपयोग करते हैं, प्यारा शब्द है--सुरबत। सुरबत आया िुद्ध के शब्द

    स्मृबत से। िस स्मृबत करनी है, उसकी सुरबत करनी है, सुबमरण करना है।

    लेदकन सुबमरण लोगों ने कुछ का कुछ िना डाला। सुबमरण का अर्थ हो गयाैः िैठ कर माला िेर रहे हैं,

    दक राम-नाम की चदररया ओढ़े हैं, दक िैठे हैं तोते की तरह राम-राम राम-राम राम-राम कहे जा रहे हैं।

    सुबमरण, सुरबत, स्मृबत, स्मरण--इतनी सस्ती िात नहीं, दक तुमने कुछ मंत्र सीख बलए और दोहराने लगे

    तोतों की तरह, तो तुम उपलब्ध हो जाओगे। सुरबत की प्रदक्रया हैैः तुम्हें अपने सारे झूठ छोड़ने होंगे। तुम्हें एक-

    एक झूठ को पहचान-पहचान कर छोड़ना होगा।

    और झूठ की परतों पर परतें हैं तुम्हारे ऊपर। तुमने झूठ के दकतने वस्त्र पहन रखे हैं! तुम अगर गौर से

    देखोगे तो िहत मुबककल में पड़ जाओगे। जैसे प्याज पर बछलके पर बछलके होते हैं, ऐसे तुम पर झूठ पर झूठ,

    पतथ पर पतथ है। जैसे प्याज को छीलने िैठ जाओ तो एक पतथ बछली नहीं दक दूसरी पतथ आ जाती है, दूसरी पतथ

    बछली नहीं दक तीसरी पतथ आ जाती है--ऐसी ही तुम्हारी दशा है। सददयों-सददयों में, जन्मों-जन्मों में स्विावतैः

    तुमने िहत धूल की परतें इकट्ठी कर ली हैं, िहत बमथ्या इकट्ठे कर बलए हैं। तुम जो नहीं हो, ददखलाते हो। तुम

    जो नहीं हो, ितलाते हो। तुम कुछ करते हो, कुछ कहते हो, कुछ होते हो। इस तरह तुम्हारे जीवन में, तुम जो

    हो, उसका बवस्मरण हो गया है। दूसरों को झूठ ददखाते-ददखाते तुमने खुद ही अपने झूठों पर िरोसा कर बलया

    है।

    तुम एक झूठ िोलते रहो दस-पांच वषथ तक। दिर दस-पांच वषथ के िाद यह याद करना मुबककल ही हो

    जाएगा दक यह झूठ है या सच है! दस वषों तक दोहराओगे, पुनरुबक्त करोगे... और अगर दूसरों ने तुम्हारे झूठ

  • 8

    को मान िी बलया, ति तो और मुबककल हो जाएगी। उनकी आंखों में िरोसा देख कर तुम्हारी आंखों में िी

    िरोसा जगेगा। लगेगा दक जि इतने लोग मान रहे हैं तो िात ठीक ही होगी। धीरे-धीरे तुम िूल ही जाओगे दक

    तुमने एक झूठ की शुरुआत की र्ी।

    और ऐसा हम सददयों से कर रहे हैं, अनंत जन्मों से कर रहे हैं। इसबलए हमें अपने मूल स्विाव का िोध

    नहीं रहा है। बमट नहीं गया है हमारा मूल स्विाव; जो बमट जाए वह स्विाव नहीं। जो नहीं बमटता है उसी का

    नाम स्विाव है। जो खो जाए उसका नाम स्वरप नहीं। जो नहीं खोया जा सकता उसी का नाम स्वरप है।

    और मोि का क्या अर्थ होता है?

    झूठ के जाल से अपने स्वरप को मुक्त कर लेना है। मोि कुछ पाने की िात नहीं दक कहीं दूर है। मोि

    कोई ददलली नहीं है। मोि तुम्हारे िीतर है। मोि तुम हो।

    सो धमेंद्र, सचंता न करो। और दकसने तुम्हें समझा ददया दक तुम आलसी हो? आस-पास लोग हैं, जो इस

    तरह की िातें कहते रहते हैं। अगर तुम धन की दौड़ में र्ोड़े धीमे हो, वे कहेंगे दक आलसी हो। अरे दूसरों को

    देखो, धनों के अंिार लगा बलए! और तुम वही के वही! दूसरों को देखो, क्या से क्या हो गए! और तुम वही के

    वही! महल खड़े कर बलए औरों ने, तुम अपना झोपड़ा िी नहीं सम्हाल पा रहे हो! यह िी कि दकस िाढ़ में िह

    जाएगा पता नहीं।

    तो लोग कहते हैं, आलसी हो। तुम्हारी पत्नी तुमसे कहेगी, आलसी हो। क्योंदक देखते नहीं दूसरे पबतयों

    को, क्या-क्या िेंटें अपनी पबत्नयों को नहीं ल ेआते हैं! हीरे-जवाहरातों से लाद ददया है! और एक तुम हो! देखो

    दूसरों को!

    तुम्हारे िेट,े तुम्हारे िच्चे तुमसे कहेंगे दक आप आलसी हो। दूसरों के िच्च ेकारों में स्कूल जा रहे हैं और हम

    अिी िी पैदल घबसट रहे हैं!

    आलसी तो तुलनात्मक िात है। कौन तुमसे कह रहा है दक तुम आलसी हो? दकस कारण कह रहा है?

    जरा इस पर गौर करना! धन की दौड़ में तुम शायद बपछड़ रहे हो। मगर हजथ क्या? जो आगे हो गए हैं वे ही

    क्या कुछ खाक पा लेंगे! बसकंदरों ने क्या पा बलया? और जो पीछे रह गए उन्होंने क्या गंवा ददया? यहां न कुछ

    पाना ह,ै न कुछ गंवाना है। सि खेल है। दकसी ने रेत का िड़ा मकान िना बलया, दकसी ने रेत का छोटा मकान

    िनाया। दोनों मकान बगर जाने के हैं। दोनों के नाम-बनशान बमट जाने के हैं। तो क्या दिकर दक तुम छोटा ही

    िना पाए और दूसरे ने िहत िड़ा िना बलया! ताश के घर हैं, अिी आएगा हवा का झोंका और सिको ले

    जाएगा। न छोटे को छोड़ेगा न िड़े को छोड़ेगा। क्या सचंता करते हो?

    दूसरों ने तुम्हें समझा-समझा कर... चारों तरि से यह िात उठी होगी दक तुम प्रबतदं्वबद्वता में बपछड़ रहे

    हो... और हो सकता है तुम िले आदमी होओ। नाम से, धमेंद्र, अच्छा लगता है नाम। हो सकता है िले आदमी

    होओ। यह गला-घोंट प्रबतयोबगता, बजसमें जि तक एक-दूसरे की गदथन न काटो, कोई गबत नहीं है, इसमें अगर

    तुम बपछड़ गए हो, तो हो सकता है र्ोड़े िलेमानुष हो, सज्जन हो। इसमें तो दुजथनों की गबत है। इसमें तो दुष्ट

    आगे हो जाने वाले हैं। क्योंदक वे दिकर ही नहीं करते। सौ-सौ जूते खाएं, तमाशा घुस कर देखें! उन्हें कोई सचंता

    ही नहीं, दकतने ही जूते पड़ें, कोई दिकर नहीं; दकतने ही कुटें, दकतने ही बपटें, लेदकन ददलली पहंच कर रहेंगे।

    रास्ते िर कुटेंगे-बपटेंगे, कोई दिकर नहीं!

    मैंने सुना, िनारस के एक कुिे को ददलली जाने का दितूर समाया। देखा होगा सिी ददलली जा रहे हैं,

    चुनाव का वक्त! कुि ेके िी ददमाग में धुन समा गई। उसने कहा, मैं िी ददलली जाऊंगा। िनारस के दूसरे धार्मथक

  • 9

    कुिों ने समझाया दक पागल, सारी दुबनया िनारस आती है, तू ददलली जा रहा है? मगर वह नहीं माना। नहीं

    माना तो उन्होंने कहा, ठीक है, अि तू जा ही रहा है तो हमारे प्रबतबनबध की तरह जा! सारे कुिों ने उसे बमल

    कर िूलमालाएं पहनाईं और कहा दक तू हमारा प्रबतबनबध है। प्रधानमंत्री से िी बमल लेना, राष्ट्रपबत से िी बमल

    लेना और हम कुिों के सार् जो दुव्यथवहार दकया जा रहा है सददयों-सददयों से, उसकी बशकायत िी कर देना।

    लंिी यात्रा र्ी। कुिा तेज र्ा, लेदकन आशा र्ी दक कम से कम इक्कीस ददन लगेंगे पहंचने में। तो इक्कीस

    ददन के बलए िोजन इत्यादद की उन्होंने िांध दी पोटली। कलेवा इत्यादद का इंतजाम कर ददया। लेदकन वह

    कुिा सात ददन में ही ददलली पहंच गया! ददलली के कुिों को िी खिर हो चुकी र्ी दक िनारस से कुिा आता है,

    तो वे िी स्वागत की तैयारी कर रहे रे्। मगर उनकी तैयाररयां ही पूरी नहीं हो पाई र्ीं। न मंच िना र्ा, न झंडे

    लगे रे्, न झंबडयां िंधी र्ीं और यह कुिा पहंच गया! उन्होंने कहा, हद्द कर दी िाई! इक्कीस ददन की यात्रा सात

    ददन में पूरी कर ली! यह हआ कैसे?

    वह कुिा मुस्कुराया और उसने कहा, अपने ही िाई-िंधुओं के कारण हआ।

    कुिों ने पूछा, हम समझे नहीं! पहेली न िूझो, सीधी-सीधी िात करो। यह क्या हआ? अि तक दकसी ने

    िी सात ददन में यात्रा नहीं की!

    उस कुिे ने कहा दक यात्रा इक्कीस ददन की ही र्ी, लेदकन सात ददन में इसबलए पूरी हो गई दक बजस गांव

    में घुसा उसी गांव के कुिे मेरे पीछे पड़ गए! ऐसी िौंका-िांकी मचाई, रटकने ही नहीं ददया कहीं! और जि तक

    वे छोड़ कर गए, दूसरे गांव के कुिों ने पकड़ बलया! एक रात बवश्राम नहीं दकया। यह कलेवे की पोटली खोलने

    का मौका नहीं बमला। िूखा-प्यासा हं, मगर बचि प्रसन्न है दक ददलली तो आ गया! जो राह में गुजरी सो गुजरी,

    जो िीती सो िीती--िीती ताबह बिसार दे, आगे की सुध ले। कोई दिकर नहीं, जीबवत आ गए, इतना ही िहत

    है।

    लोग िागे जा रहे हैं। इक्कीस ददन की यात्राएं सात ददनों में पूरी हो जाती हैं। लोग गबत के दीवाने हैं।

    स्विावतैः तुम अगर धीमे-धीमे चलोगे, तुम अगर मस्ती से चलोगे, लोग कहेंगेैः आलसी हो। यह कोई चाल हई!

    यह कोई ढंग हआ! अरे िीसवीं सदी में जी रहे हो और यह िैलगाड़ी की चाल! यह जनवासे की चाल के ददन

    नहीं रहे! दौड़ो! ये ढीले-ढाले कपड़े पहने हए नहीं पहंच पाओगे। चूड़ीदार पाजामा!

    चूड़ीदार पाजामा चीज ऐसी है दक मुदे को िी पहना दो तो वह दौड़े। क्योंदक उसमें ऐसा िंसा हआ

    मालूम पड़ता है दक लगता है कैसे बनकल जाऊं! इसबलए तो नेताओं के बलए हमने चूड़ीदार पाजामा चुना है।

    मरे-मराए, मुदे, बजनको किी का कब्रों में होना चाबहए र्ा, वे चूड़ीदार पाजामा के िल से चलते हैं। तुम िी

    देखो एक ददन चूड़ीदार पाजामा पहन कर। दो घंटे तो पहनने में लगते हैं, दो आदमी पहनाने को चाबहए। और

    उतारने की तो तुम पूछो ही मत! और जि आदमी एकदम कस जाता है तो दो सीदढ़यां एक सार् छलांग लगाता

    है।

    तो इस िाग-दौड़ की दुबनया में, धमेंद्र, लोग क्या कहते हैं, इसकी सचंता न करो। और लोगों ने ही तुम्हें

    यह भ्रांबत बिठा दी होगी दक आलसी हो!

    मैंने तो दकसी को आलसी नहीं देखा। सांस ले रहे हो मजे से। आलसी तो सांस ही न ले। खाते-पीते हो,

    पचाते िी हो। आलसी तो पचाए ही नहीं। आलसी तो खाए-पीए कौन, कौन झंझट करे! उठते-िैठते हो, नहाते-

    धोते हो, चलते-दिरते हो। पर आदमी जैसे आदमी हो तो आलसी समझे जाओगे। घिड़ाओ मत, तुम तो दास

    मलूका का स्मरण रखोैः

  • 10

    अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।

    दास मलूका कह गए, सिके दाता राम।।

    तुम िी कहां की िातों में पड़े हो--आलसी! और तुमने मान िी बलया, औरों ने समझा िी ददया! मान

    लोगे तो समस्या िन जाएगी।

    और मोि से तो कोई अड़चन ही नहीं है। अगर आलसी िी हो--चलो मान ही लें, बसिथ मानने के बलए,

    िात पूरी करने के बलए दक आलसी ही हो--तो िी मोि से कोई बवरोध नहीं है आलस्य का। मोि कोई दौड़ र्ोड़े

    ही है। मोि तो दौड़ छोड़ना है।

    अक्सर ऐसा हआ है दक आलबसयों ने पा बलया है और कमथठ चूक गए हैं। क्योंदक आलसी िैठ सकता है

    शांत, लेट सकता है शांत। उसे िहत आपा-धापी नहीं है। वह ज्यादा िाग-दौड़ में नहीं है। वह आंख िी िंद कर

    ले सकता है, वह घड़ी दो घड़ी के बलए बिलकुल बनसिंत अपने में डूि िी सकता है। उसका ही मोि है। क्योंदक

    मोि अर्ाथत स्विाव। तुम्हारी झूठों की परतों के िीतर बछपी जो तुम्हारी स्वरप की धारा है, उसका अनुिव।

    तुम जो वस्तुतैः हो, उसकी पहचान। तुम्हारे मौबलक रप की प्रतीबत, सािात्कार।

    कोई मोि ऐसा र्ोड़े ही है दक सीढ़ी लगानी है आकाश पर। लोगों का यही ख्याल है दक मोि यानी कहीं

    दूर आकाश में। जि िी तुम्हें मोि का ख्याल आएगा या स्वगथ का ख्याल आएगा तो िस देखोगे आकाश की

    तरि। और नरक का जि ख्याल आएगा तो सोचोगे नीचे, पाताल!

    मगर िाई मेरे, पाताल में अमरीका है! और अमरीकी जि सोचते हैं नरक की, तो तुम हो। क्योंदक तुम

    उनके नीचे पड़ रहे हो। और अमरीकी जि स्वगथ की सोचते हैं, तो तुम जहां नरक सोचते हो वहां उनका स्वगथ है,

    और तुम जहां स्वगथ सोचते हो वहां उनका नरक है। जमीन गोल है, र्ोड़ा इसका ख्याल रखो। इसमें कौन नीचे,

    कौन ऊपर! और आकाश की कोई सीमा नहीं है, इसबलए ऊपर-नीचे कुछ हो नहीं सकता। ऊपर-नीचे तो तिी

    कोई चीज हो सकती है जि सीमा हो। आकाश तो असीम है, और पृथ्वी गोल है। कोई सीढ़ी र्ोड़े ही लगानी है।

    कहीं और र्ोड़े ही जाना है। अपने में जाना है।

    और मोि उपलबब्ध नहीं है। उपलबब्ध की िाषा अहंकार की िाषा है। मोि तो वह है जो तुम्हें बमला ही

    हआ ह,ै तुम िूले-बिसरे िैठे हो। जैसे जेि में तो पैसे पड़े हों और तुम िूल गए। कई िार तुम्हें ऐसा हो जाता है--

    जो लोग चकमा लगाते हैं उनको याद होगा--चकमा तो लगाए हए हैं और चकमा खोज रहे हैं। चकमा ही लगा कर

    चकमे ही को खोज रहे हैं! बजन लोगों की आदतें हैं कलम को कान में खोंस लेने की, वे कान में कलम को खोंस

    लेंगे और दिर कलम को खोजते दिरेंगे।

    िस िूली, बिसर गई िात। र्ोड़ा स्मरण लाना है। और स्मरण की िमता सिी में है। वह हमारे चैतन्य

    का स्विाव है। वह चैतन्य की आंतररक िमता है, उसका गुण है। जैसे आग का गुण है गमथ होना और ििथ का

    गुण है ठंडा होना, वैसे चैतन्य का गुण है--सुरबत, स्मृबत। चैतन्य का गुण है--होश, याद। इसबलए व्यर्थ अपने मन

    को छोटा न करो, ओछा न करो।

    देखो, सोचो, समझो; सुनो-गुनो औ" जानो,

    इसको, उसको--संिव हो बनज को पहचानो।

    लेदकन अपना चेहरा जैसा है, रहने दो;

    जीवन की धारा में अपने को िहने दो,

  • 11

    तुम जो कुछ हो, वही रहोगे--मेरी मानो!

    कोई तुम्हें अन्यर्ा नहीं होना है, तुम्हें कुछ और नहीं होना है।

    तुम जो कुछ हो, वही रहोगे--मेरी मानो!

    देखो, सोचो, समझो; सुनो-गुनो औ" जानो,

    इसको, उसको--संिव हो बनज को पहचानो।

    लेदकन अपना चेहरा जैसा है, रहने दो;

    जीवन की धारा में अपने को िहने दो,

    तुम जो कुछ हो, वही रहोगे--मेरी मानो!

    वैसे तुम चेतन हो, तुम प्रिुद्ध ज्ञानी हो

    तुम समर्थ तुम कताथ, अबतशय अबिमानी हो,

    लेदकन अचरज इतना, तुम दकतने िोले हो,

    ऊपर से ठोस ददखो, अंदर से पोले हो।

    िन कर बमट जाने की तुम एक कहानी हो!

    पल में हंस देते हो, पल में रो पड़ते हो,

    अपने में रम कर तुम अपने से लड़ते हो,

    पर यह सि तुम करते, इस पर मुझे शक है

    दशथन-मीमांसा--यह िुसथत की िकझक है!

    जमने की कोबशश में रोज तुम उखड़ते हो!

    र्ोड़ी-सी घुटन और र्ोड़ी रंगीनी में;

    चुटकी िर बमरचे में, मुट्ठी िर चीनी में

    सजंदगी तुम्हारी सीबमत है--इतना सच है,

    इससे जो कुछ ज्यादा, वह सि तो लालच है।

    दोस्त उम्र कटने दो, इस तमाशिीनी में!

    धोखा है प्रेम-िैर, इसको तुम मत ठानो,

    कड़वा या मीठा, रस तो है छक कर छानो!

    चलने का अंत नहीं, ददशा-ज्ञान कच्चा है।

    भ्रमने का मारग ही सीधा है, सच्चा है।

    जि-जि र्क कर उलझो ति-ति लंिी तानो!

    देखो, सोचो, समझो; सुनो-गुनो औ" जानो,

    इसको, उसको--संिव हो बनज को पहचानो।

    लेदकन अपना चेहरा जैसा है, रहने दो;

    जीवन की धारा में अपने को िहने दो,

    तुम जो कुछ हो, वही रहोगे--मेरी मानो!

  • 12

    जीवन की धारा में िहे चलो। अबिनय की तरह पूरा दकए चलो। एक तमाशिीन की तरह। तादात्म्य न

    िनाओ। एक द्रष्टा की तरह। जैसे दक कोई नाटक देखता हो, ऐसे ही जीवन को देखते हए िहे चलो। परमात्मा

    जहां ल ेचले, जो करवाए, दकए चलो। कताथ वही, बनयंता वही, तुम सि उस पर छोड़ कर बनिाथर हो रहो। अगर

    तुम िह सको तो क्या सचंता है आलस्य की! सिके दाता राम!

    इतना िड़ा बवराट अबस्तत्व, दकस माधुयथ से, दकस संगीत से, दकस लयिद्धता से चल रहा है! तुम एक

    अकेले व्यर्थ परेशान हो रहे हो। लेदकन कारण है, समझाया गया है िार-िार तुम्हेंःैः मोि को पाना है! मोि के

    बलए श्रम करना है! मोि के बलए तपियाथ करनी है! मोि के बलए संकलप जुटाना है! मोि को एक गंतव्य िना

    ददया ह-ै-एक दूर का तारा! मोि को िी अहंकार के बलए एक लक्ष्य िना ददया है। जि दक अहंकार का लक्ष्य

    मोि किी िी नहीं िन सकता। जि तक अहंकार है ति तक कहां मोि! जि अहंकार नहीं है तो जो शेष रह

    जाता ह,ै वही मुबक्त की अवस्र्ा है, वही मोि है, वही बनवाथण है, वही ब्रह्म-िाव है।

    धमेंद्र, व्यर्थ सचंता न करो। यहां तक आ गए, यही कुछ कम प्रमाण है दक तुम आलसी नहीं हो! तुमने

    आलबसयों की कहाबनयां तो पढ़ी ही होंगी।

    दो आलसी लेट ेहैं एक वृि के नीचे। जामुन पक गई हैं और जामुन टपाटप पड़ रही हैं। एक आलसी दूसरे

    से कहता है दक िाई मेरे, यह िी क्या दोस्ती हई! अरे दोस्त वह जो वक्त पर काम पड़े। जामुनें टपाटप बगर रही

    हैं, पड़े तुम सुन रहे हो, तुमसे यह िी नहीं होता दक एक जामुन उठा कर मेरे मंुह में दे दो!

    दूसरे ने कहा दक जा-जा, िड़ा दोस्त िनने आया है! हां, यह मैं िी मानता हं दक दोस्त वही जो वक्त पर

    काम आए। अिी र्ोड़ी देर पहले एक कुिा मेरे कान में मूत रहा र्ा, तूने िगाया?

    एक आदमी यह सुन रहा र्ा, राह से जाता हआ। उसने कहा हद हो गई! आया, एक-एक जामुन उठा कर

    दोनों के मंुह में रख दीं। चलने को हआ तो एक ने आवाज दी, िाई, जाते कहां! कम से कम गुठली तो बनकाल

    जाओ। नहीं तो अि तासजंदगी हम गुठली ही मंुह में रखे पड़े रहेंगे! और एक झंझट कर दी। जरा रुको।

    लेदकन इनको िी मैं आलसी नहीं कहंगा। अगर सच्चे आलसी होते तो इतनी िी कौन िातचीत करता, दक

    िाई, जामुनें टपाटप बगर रही हैं, हमारे मंुह में डालो। इतना िी आलसी से होता? दक कहां चले, दक जरा

    गुठली तो बनकाल जाओ। यह िी आलसी से होता? आलसी तो जी ही नहीं सकता। यहां कोई आलसी नहीं है।

    हां, तारतम्यता है, क्रम है। कुछ कम दौड़ते हैं, कुछ ज्यादा दौड़ते हैं।

    लेदकन कम दौड़ने वाले के बलए कुछ मोि करठन है, मुबककल है, दूर है--ऐसा मत समझना। मोि कोई

    ओलंबपक की दौड़ नहीं। मोि तुम्हारी बनजता है। वृि के नीचे पड़े-पड़े िी, ये जो दो आलसी हैं, ये िी मुक्त हो

    सकते हैं। ये वृि के नीचे पड़े-पड़े ही मुक्त हो सकते हैं।

    इस िात को तुम गांठ िांध लो दक मोि तो तुम्हारे िीतर ही है। इतना िी नहीं है दक टपाटप हो रहा हो

    दक कोई तुम्हारे मंुह में डाले। तुम्हारे िीतर ही है, तुम ही हो! तुम से जरा िी बिन्न नहीं है। बजस िण शांत हो

    जाओगे, उसी िण जान लोगे। बजस िण मौन हो जाओगे, उसी िण यह अपूवथ रोशनी तुम्हारे िीतर जगमग हो

    उठेगी, जैसे हजार-हजार सूरज एक सार् ऊग आए हों!

    कहीं बशबर्ल कुछ, कहीं अबधक कुछ सखंचे,

    आज क्यों तार िीन के?

    लरज-लरज जाते,

    स्वर संुदर सहज नहीं सुकुमार िीन के!

  • 13

    बशबर्ल हई संगीत-साधना,

    बचढ़-बचढ़ कर चढ़ गईं त्योररयां;

    बहला सहज बवश्वास हृदय का,

    अंगुबलयों की कंपी पोररयां;

    ध्यान िंग हो गया, गया तदिाव,

    नयन रे् पार िीन के!

    कहीं बशबर्ल कुछ, कहीं अबधक कुछ सखंचे,

    आज क्यों तार िीन के?

    मनोयोग से, वीणावादी!

    कर वादी-संवादी वश में!

    समय सत्य तो अमृत प्रेम तू

    िर वीणा के युगल कलश में!

    सुधा-बसक्त स्वर-लहर जगाएं तार-तार--

    शत िार िीन के!

    कहीं बशबर्ल कुछ, कहीं अबधक कुछ सखंचे,

    आज क्यों तार िीन के?

    जरा सी िात करने की है। हम िी वीणा हैं--वैसी ही वीणा जैसे िुद्ध, जैसे कृष्ण; वैसी ही वीणा जैसे

    महावीर, जैसे मोहम्मद। लेदकन िस तार हमारे कहीं कुछ र्ोड़े ज्यादा सखंचे हैं, कहीं कुछ र्ोड़े ढीले हैं, इसबलए

    स्वर ठीक से जगते नहीं, स्मृबत ठीक से उठती नहीं; िोध ठीक से पकड़ में नहीं आता, छूट-छूट जाता है। िस

    जरा तारों को र्ोड़ा सा ठीक बिठा लेना है।

    वीणा के तार ठीक िैठ जाएं, सम-स्वर हो जाएं, तो संगीत अिी उठा! तारों में संगीत सोया पड़ा है,

    छेड़ने की ही िात है। तार िी िीतर हैं, छेड़ने वाला िी िीतर है, संगीत िी िीतर है--सि कुछ तुम्हारे िीतर

    है। र्ोड़े से कुछ तार ज्यादा सखंच गए हैं, उनको र्ोड़ा ढीला करो; कुछ तनाव हैं मन में, उन तनावों को र्ोड़ा

    बशबर्ल करो। कुछ तार र्ोड़े ढीले हो गए हैं, कुछ जीवन में अबतशय बलप्सा है, िोग है, उन तारों को र्ोड़ा सा

    कसो।

    मगर िूल मत कर लेना, जैसा दक अक्सर हो जाती है। अक्सर ऐसा हो जाता है दक जो तार ढीले रे्,

    उनको लोग ज्यादा कस लेते हैं; जो तार ज्यादा कसे रे्, उनको ज्यादा ढीला कर देते हैं। िात वही की वही रहती

    है। िीमारी वही की वही रहती है। दवा िी हो गई और िीमारी िदलती िी नहीं।

    यही तुम्हारे तर्ाकबर्त साधु-संन्यासी करते हैं। बजनको तुम तपस्वी कहते हो, ये तुमसे उलटे लोग हैं,

    मगर तुमसे बिन्न नहीं। तुम पैर के िल खड़े हो, वे बसर के िल खड़े हैं, मगर ठीक तुम जैसे ही लोग हैं। तुम्हारे

    आधे तार सखंचे रे्, उनके िी आधे तार सखंचे हैं। तुम्हारे आधे तार ढीले रे्, उनके िी आधे तार ढीले हैं। हां,

    तुम्हारे दूसरे आधे तार ढीले हैं, उनके दूसरे। तुम्हारे दूसरे आधे तार सखंचे रे्, उनके दूसरे आधे तार सखंचे हैं।

    मगर न वीणा तुम्हारी संगीत उठा रही है, न वीणा उनकी संगीत उठा रही है। सच तो यह है दक साधारण

    जीवन में तुम्हें लोगों के चेहरों पर ज्यादा प्रिुललता, ज्यादा प्रकाश ददखाई पड़ जाएगा, िजाय तुम्हारे

    तर्ाकबर्त मुबन, तपबस्वयों के। उनके चेहरे तो िड़े उदास हैं। तपबस्वयों का तो एक नाम ही धीरे-धीरे उदासी

  • 14

    हो गया। उनके एक संप्रदाय का नाम ही उदासीन संप्रदाय हो गया। ये जीते-जी मुदाथ हो गए, इनसे क्या खाक

    स्वर उठें गे! इन्होंने तो वीणा से आशा ही छोड़ दी। ये तो बनराश ही होकर िैठ गए। ये तो हताश ही हो गए।

    परमात्मा उत्सव है, महासंगीत है। तुम िी उसके सार् सबम्मबलत हो सकते हो--संगीत होकर ही, उत्सव

    होकर ही।

    लेदकन हमारी सददयों-सददयों की धारणाओं ने हमें खूि अंधा कर ददया है।

    एक जैन मुबन िहत ददनों पहले मुझे बमले। उनके िक्तों ने कहा दक देखते हैं आप, तपियाथ से इनकी काया

    कैसी कंुदन जैसी हो गई है!

    उनकी काया हो रही र्ी पीले पिे जैसी और िक्त कह रहे कंुदन जैसी! बनखरा हआ सोना! मैंने उनसे

    कहा, तुम र्ोड़ा आंख खोल कर तो देखो! इसी आदमी को अगर ससून अस्पताल में बलटा ददया जाए बिस्तर पर

    और दिर तुम से कहा जाए दक इसको देखो, यह कौन है? तो तुम्हीं कहोगे दक न मालूम दकतनी िीमाररयों से

    परेशान है! तुम्हें दिर इसके चेहरे पर कंुदन जैसी आिा नहीं ददखाई पड़ेगी। और तुम्हीं को ददखाई पड़ रही है।

    दकसी गैर-जैन से पूछो! दकसी गैर-जैन को नहीं ददखाई पड़ेगी। जैन को ददखाई पड़ रही है। गैर-जैन की तो िात

    छोड़ दो--ये ददगंिर जैन मुबन रे्--तुम जरा श्वेतांिर जैन से पूछो! उसको िी नहीं ददखाई पड़ेगी। वह िी जरा

    नीची आंख कर लेगा--कहां का नंग-धड़ंग आदमी खड़ा है! और नंग-धड़ंग िी हो, कम से कम देखने-ददखाने में

    िी संुदर हो तो िी ठीक। नंग-धड़ंग होना ही कािी नहीं है, शरीर को सि तरह से कुरप कर लेना िी जररी

    है। हड्डी-हड्डी हो गया है। इसको देख कर तुम्हें बसिथ मौत की याद आ सकती है, और कुछ िी नहीं। इसको देख

    कर तुम्हें यही होगा दक जलदी घर जाएं, अपने िाल-िच्चों को देखें, दक एक दिा तो देख लें।

    अिी-अिी िंिई में एक ददगंिर जैन मुबन आए हए रे्ैः एलाचारी बवद्यानंद। उनसे तो िंिई में िेल िेचने

    वाले िेलाचारी िी िेहतर ददखाई पड़ें। उनके चेहरे पर िी र्ोड़ी रौनक, र्ोड़ा रंग, र्ोड़ी आिा! मगर ददगंिर

    जैनों को लगेगा दक अहा! कैसा कंुदन जैसा रप! स्वणथ जैसा रप!

    उनके मैंने अखिारों में बचत्र देखे। बजतने बचत्र देखे सिी में वे... अि नंग-धड़ंग िैठे हैं, तो नंग-धड़ंग तो

    अखिार कोई छापने को राजी होगा नहीं, और खुद िी संकोच होता होगा, और िक्तों को िी र्ोड़ी लाज आती

    होगी... तो सि अखिारों में जो उनके िोटो छप ेहैं, उसमें एक िहत िड़ा गं्रर् अपने घुटनों पर रखे हए िैठे हैं,

    बजसमें दक उनका नंग-धड़ंगपन न ददखाई पड़े। तो िैया मेरे, एक लंगोट ही पहन लेते, उसमें क्या हजाथ र्ा?

    इतना िड़ा गं्रर्, इससे लंगोट हलका होता, ज्यादा सरल होता! एक बतग्गी िांध लेते। इतना िड़ा गं्रर् बलए िैठे

    हो--जरा सी िात बछपाने को!

    मगर जो हमारी धारणा हो, वहां हमें कुछ नहीं गड़िड़ ददखाई पड़ती। जैन घरों में महावीर की तस्वीरें

    टंगी होती हैं। तो तस्वीरें इस तरह से िनाते हैं वे दक महावीर खड़े हैं, ध्यान कर रहे हैं और एक झाड़ की शाखा

    लंगोटी का काम कर रही है।

    क्यों सता रहे हो िेचारों को!

    मैं एक घर में मेहमान र्ा। तस्वीर संुदर र्ी, मगर एक शाखा सि गड़िड़ कर देती है। और घने पिे उसमें

    उगे हए हैं, तो महावीर की नग्नता बछप जाती है। मैंने उनसे पूछा दक एक िात पूछंू, पतझड़ के ददनों में क्या

    करते होंगे? उन्होंने कहा, मतलि? मैंने कहा, जि ये पिे बगर जाते होंगे, दिर? उन्होंने कहा, आप िी क्या िात

    कर रहे हैं, अरे यह तस्वीर है! मैंने कहा, तस्वीर है, वह तो मुझे िी मालूम है, मगर असबलयत की तो सोचो!

    महावीर अगर ऐसे हमेशा ही जि देखो ति झाड़ की आड़ में खड़े रहते होंगे, पतझड़ में क्या करते होंगे? और

  • 15

    कहीं आते-जाते रे् दक नहीं? क्योंदक जि देखो ति, जहां जाता हं वहीं ये झाड़ की आड़ में ही खड़े हैं! या तो इस

    झाड़ को सि जगह सार् ले जाते होंगे, दक रखे हैं एक िैलगाड़ी में झाड़! तो वह असली जीवन न हआ, वह तो

    ऐसे ही हआ जैसे दक झांदकयां बनकलती हैं--दक ट्रक पर सवार हैं, झाड़ लगा हआ है, उसके िगल में खड़े हए हैं।

    इतना उपद्रव! एक जरा सी हनुमान जी की लंगोटी, लाल लंगोटी से काम पूरा हो जाता। जांबघया, चड्ढी, जो

    तुम्हारा इरादा हो ले लो!

    मगर जो हमारी धारणा है वह हमें नहीं ददखाई पड़ती। हम अपनी धारणाओं के प्रबत अंधे होते हैं। हमने

    सददयों-सददयों से उदासीन आदमी को समझा है दक यह बवरक्त, पहंचा हआ है!

    बसद्ध तो वही है जो परम उत्सवमय है; बजसके जीवन में नृत्य है, गीत है। और जीवन में नृत्य और गीत

    तिी होता है जि वीणा के सारे तार ठीक-ठीक कस गए हों। न ज्यादा ढीले, न ज्यादा कसे; ठीक मध्य में आ

    जाएं। जि ठीक मध्य में होते हैं, जहां सम्यकत्व होता है, जहां समता होती है या समाबध... ये सि शब्द िड़े

    प्यारे हैं। हमारे पास बजतने महत्वपूणथ शब्द हैं, सि सम से िने हैं। सम्यकत्व, समता, समाबध, संिोबध, ये सारे

    शब्द सम से िने हैं। सम का अर्थ है वह मध्य-सिंदु जो अबतयों से पार है, जो अबतयों का अ

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