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पेमच ंद

कम

एक ऑचं की कसर: 3

माता का हदय : 9

परीका : 18

तेतर : 22

नैराशय : 30

2

एक आ ंच की कस र

रे नगर मे महाशय यशोदाननद का बखान हो रहा था। नगर ही मे नही, समसत पानत मे उनकी कीित ि की जाती थी, समाचार पतो मे

ििपपिियां हो रही थी, िमतो से पशंसापूि ि पतो का तांता लगा हुआ था। समाज-सेवा इसको कहते है ! उननत िवचार के लोग ऐसा ही करते है। महाशय जी ने िशिकत समुदाय का मुख उजजवल कर िदया। अब कौन यह कहने का साहस कर सकता है िक हमारे नेता केवल बात के धनी है, काम के धनी नही है ! महाशय जी चाहते तो अपने पतु के िलए उनहे कम से कम बीज हतार रपये दहेज मे िमलते, उस पर खुशामद घाते मे ! मगर लाला साहब ने िसदांत के सामने धन की रती बराबर परवा न की और अपने पुत का िववाह िबना एक पाई दहेज िलए सवीकार िकया। वाह ! वाह ! िहममत हो तो ऐसी हो, िसदांत पेम हो तो ऐसा हो, आदशि-पालन हो तो ऐसा हो । वाह रे सचचे वीर, अपनी माता के सचचे सपूत, तूने वह कर िदखाया जो कभी िकसी ने िकया था। हम बडे गव ि से तेरे सामने मसतक नवाते है।

सा

महाशय यशोदाननद के दो पुत थे। बडा लडका पढ िलख कर फािजल हो चकुा था। उसी का िववाह तय हो रहा था और हम देख चुके है, िबना कुछ दहेज िलये।

आज का ितलक था। शाहजहांपरु सवामीदयाल ितलक ले कर आने वाले थे। शहर के गिमानय सजजनो को िनमनति दे िदये गये थे। वे लोग जमा हो गये थे। महिफल सजी7 हुई थी। एक पवीि िसतािरया अपना कौशल िदखाकर लोगो को मुगध कर रहा था। दावत को सामान भी तैयार था ?

िमतगि यशोदाननद को बधाईयां दे रहे थे। एक महाशय बोले—तुमने तो कमाल कर िदया !

दसूरे—कमाल ! यह किहए िक झणडे गाड िदये। अब तक िजसे देखा मंच पर वयाखयान झाडते ही देखा। जब काम करने का अवसर आता था तो लोग दमु लगा लेते थे।

तीसरे—कैसे-कैसे बहाने गढे जाते है—साहब हमे तो दहेज से सखत नफरत है यह मेरे िसदांत के िवरद है, पर कया करं कया, बचचे की

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अममीजान नहीं मानती। कोई अपने बाप पर फेकता है, कोई और िकसी खरािि पर।

चौथे—अजी, िकतने तो ऐसे बेहया है जो साफ-साफ कह देते है िक हमने लडके को िशका – दीका मे िजतना खच ि िकया है, वह हमे िमलना चािहए। मानो उनहोने यह रपये उनहोन िकसी बैक मे जमा िकये थे। पांचवे—खूब समझ रहा हंू, आप लोग मुझ पर छींिे उडा रहे है।इसमे लडके वालो का ही सारा दोष है या लडकी वालो का भी कुछ है।

पहले—लडकी वालो का कया दोष है िसवा इसके िक वह लडकी का बाप है।

दसूरे—सारा दोष ईशर का िजसने लडिकयां पदैा कीं । कयो ?

पांचवे—मै चयह नही कहता। न सारा दोष लडकी वालो का है, न सारा दोष लडके वालो का। दोनो की दोषी है। अगर लडकी वाला कुछ न दे तो उसे यह िशकायत करने का कोई अिधकार नही है िक डाल कयो नही लाये,

सुंदर जोडे कयो नही लाये, बाजे-गाजे पर धूमधाम के साथ कयो नही आये ?

बताइए !

चौथे—हां, आपका यह पश गौर करने लायक है। मेरी समझ मे तो ऐसी दशा मे लडके के िपता से यह िशकायत न होनी चािहए।

पांचवे---तो यो किहए िक दहेज की पथा के साथ ही डाल, गहने और जोडो की पथा भी तयाजय है। केवल दहेज को िमिाने का पयत करना वयथि है।

यशोदाननद----यह भी Lame excuse1 है। मैने दहेज नही िलया है।, लेिकन कया डाल-गहने ने ले जाऊंगा।

पहले---महाशय आपकी बात िनराली है। आप अपनी िगनती हम दिुनयां वालो के साथ कयो करते है ? आपका सथान तो देवताओं के साथ है।

दसूरा----20 हजार की रकम छोड दी ? कया बात है। ______________________

१------थोथी दलील

यशोदाननद---मेरा तो यह िनशय है िक हमे सदैव principles 1 पर िसथर रहना चािहए। principal 2 के सामने money3 की कोई value4 नही है। दहेज की कुपथा पर मैने खदु कोई वयाखयान नही िदया, शायद कोई नोि

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तक नही िलखा। हां, conference5 मे इस पसताव को second6 कर चुका हंू। मै उसे तोडना भी चाहंू तो आतमा न तोडने देगी। मै सतय कहता हंू, यह रपये लूं तो मुझे इतनी मानिसक वेदना होगी िक शायद मै इस आघात स बच ही न सकंू।

पांचवे---- अब की conference आपको सभापित न बनाये तो उसका घोर अनयाय है।

यशोदाननद—मैने अपनी duty 7 कर दीउसका recognition8 हो या न हो, मुझे इसकी परवाह नही।

इतने मे खबर हुई िक महाशय सवामीदयाल आ पंहुचे । लोग उनका अिभवादन करने को तैयार हुए, उनहे मसनद पर ला िबठाया और ितलक का संसकार आरंमभ हो गया। सवामीदयाल ने एक ढाक के पतल पर नािरयल,

सुपारी, चावल पान आिद वसतुएं वर के सामने रखीं। बाहमिो ने मंत पढे हवन हुआ और वर के माथे पर ितलक लगा िदया गया। तरुनत घर की िियो ने मंगलाचरि गाना शुर िकया। यहां पहिफल मे महाशय यशोदाननद ने एक चौकी पर खडे होकर दहेज की कुपथा पर वयाखयान देना शुर िकया। वयाखयान पहले से िलखकर तैयार कर िलया गया था। उनहोने दहेज की ऐितहािसक वयाखया की थी। पूवकि ाल मे दहेज का नाम भी न थ। महाशयो ! कोई जानता ही न था िक दहेज या ठहरोनी िकस िचिडया का नाम है। सतय मािनए, कोई जानता ही न था िक ठहरौनी है कया चीज, पशु या पकी, आसमान मे या जमीन मे, खाने मे या पीने मे । बादशाही जमाने मे इस पथा की बुंिनयाद पडी। हमारे युवक सेनाओं मे सिममिलत होने लगे । यह वीर लोग थे, सेनाओं मे जाना गव ि समझते थे। माताएं अपने दलुारो को अपने हाथ से शिो से सजा कर रिकेत भेजती थीं। इस भॉिँत युवको की संखया कम होने लगी और लडको का मोल-तोल शुर हुआ। आज यह नौवत आ गयी है िक मेरी इस तुचछ –महातचुछ सेवा पर पतो मे ििपपिियां हो रही है मानो मैने कोई असाधारि काम िकया है। मै कहता हंू ; अगर आप संसार मे जीिवत रहना चाहते हो तो इस पथा क तुरनत अनत कीिजए।---------------------------------------

१----िसदांतो । २----िसदांत 3-----धन । 4-----मूलय ।5--- सभा । 6---अनुमोदन । ७ कतवि य । ८----कदर ।

5

एक महाशय ने शंका की----कया इसका अतं िकये िबना हम सब मर जायेगे ?

यशोदाननद-अगर ऐसा होता है तो कया पूछना था, लोगो को दंड िमल जाता और वासतव मे ऐसा होना चािहए। यह ईशर का अतयाचार है िक ऐसे लोभी, धन पर िगरने वाले, बुदाि-फरोश, अपनी संतान का िवकय करने वाले नराधम जीिवत है। और समाज उनका ितरसकार नही करता । मगर वह सब बुदि-फरोश है------इतयािद।

वयाखयान बहंुतद लमबा ओर हासय भरा हुआ था। लोगो ने खूब वाह-

वाह की । अपना वकवय समाप करने के बाद उनहोने अपने छोिे लडके परमाननद को, िजसकी अवसथा ७ वष ि की थी, मंच पर खडा िकया। उसे उनहोने एक छोिा-सा वयाखयान िलखकर दे रखा था। िदखाना चाहते थे िक इस कुल के छोिे बालक भी िकतने कुशाग बुिद है। सभा समाजो मे बालको से वयाखयान िदलाने की पथा है ही, िकसी को कुतूहल न हुआ।बालक बडा सुनदर, होनहार, हंसमुख था। मुसकराता हुआ मचं पर आया और एक जेब से कागज िनकाल कर बडे गव ि के साथ उचच सवर मे पढने लगा------

िपय बधंुवर,

नमसकार !

आपके पत से िविदत होता है िक आपको मुझ पर िवशास नही है। मै ईशर को साकी करके धन आपकी सेवा मे इतनी गपु रीित से पहंुचेगा िक िकसी को लेशमात भी सनदेह न होगा । हां केवल एक िजजासा करने की धषृता करता हंू। इस वयापार को गपु रखने से आपको जो सममान और पितषा – लाभ होगा और मेरे िनकिवती मे मेरी जो िनंदा की जाएगी, उसके उपलकय मे मेरे साथ कया िरआयत होगी ? मेरा िवनीत अनुरोध है िक २५ मे से ५ िनकालकर मेरे साथ नयाय िकया जाय...........।

महाशय शयोदाननद घर मे मेहमानो के िलए भोजन परसने का आदेश करने गये थे। िनकले तो यह बाकय उनके कानो मे पडा—२५ मे से ५ मेरे साथ नयाय िकया कीिजए ।‘ चेहरा फक हो गया, झपि कर लडके के पास गये, कागज उसके हाथ से छीन िलया और बौले--- नालायक, यह कया पढ रहा है, यह तो िकसी मुविककल का खत है जो उसने अपने मकुदमे के बारे

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मे िलखा था। यह तू कहां से उठा लाया, शैतान जा वह कागज ला, जो तुझे िलखकर िदया गया था।

एक महाशय-----पढने दीिजए, इस तहरीर मे जो लुतफ है, वह िकसी दसूरी तकरीर मे न होगा।

दसूरे---जाद ूवह जो िसर चढ के बोले !

तीसरे—अब जलसा बरखासत कीिजए । मै तो चला।चौथै—यहां भी चलतु हुए।यशोदाननद—बैिठए-बैिठए, पतल लगाये जा रहे है।पहले—बेिा परमाननद, जरा यहां तो आना, तुमने यह कागज कहां पाया

?

परमाननद---बाबू जी ही तो िलखकर अपने मेज के अनदर रख िदया था। मुझसे कहा था िक इसे पढना। अब नाहक मुझसे खफा रहे है।

यशोदाननद---- वह यह कागज था िक सुअर ! मैने तो मेज के ऊपर ही रख िदया था। तूने डाअर मे से कयो यह कागज िनकाला ?

परमाननद---मुझे मेज पर नही िमला । यशोदाननद---तो मुझसे कयो नही कहा, डाअर कयो खोला ? देखो, आज

ऐसी खबर लेता हंू िक तुम भी याद करोगे।पहले यह आकाशवािी है।दसूरे----इस को लीडरी कहते है िक अपना उललू सीधा करो और

नेकनाम भी बनो।तीसरे----शरम आनी चािहए। यह तयाग से िमलता है, धोखेधडी से

नही।चौथे---िमल तो गया था पर एक आंच की कसर रह गयी।पांचवे---ईशर पांखंिडयो को यो ही दणड देता हैयह कहते हुए लोग उठ खडे हुए। यशोदाननद समझ गये िक भंडा फूि

गया, अब रंग न जमेगा। बार-बार परमाननद को कुिपत नेतो से देखते थे और डंडा तौलकर रह जाते थे। इस शैतान ने आज जीती-िजताई बाजी खो दी, मुंह मे कािलख लग गयी, िसर नीचा हो गया। गोली मार देने का काम िकया है।

उधर रासते मे िमत-वग ि यो ििपपिियां करते जा रहे थे-------

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एक ईशर ने मुंह मे कैसी कािलमा लगायी िक हयादार होगा तो अब सूरत न िदखाएगा।

दसूरा--ऐसे-ऐसे धनी, मानी, िवदान लोग ऐसे पितत हो सकते है। मुझे यही आशय ि है। लेना है तो खुले खजाने लो, कौन तुमहारा हाथ पकडता है;

यह कया िक माल चुपके-चपुके उडाओं और यश भी कमाओं !

तीसरा--मककार का मुंह काला !

चौथा—यशोदाननद पर दया आ रही है। बेचारी ने इतनी धूतति ा की, उस पर भी कलई खुल ही गयी। बस एक आंच की कसर रह गई।

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मात ा का ह दय

धवी की आंखो मे सारा संसार अधेंरा हो रहा था । काई अपना मददगार िदखाई न देता था। कहीं आशा की झलक न थी। उस

िनधनि घर मे वह अकेली पडी रोती थी और कोई आंसू पोछने वाला न था। उसके पित को मरे हुए २२ वष ि हो गए थे। घर मे कोई समपित न थी। उसने न- जाने िकन तकलीफो से अपने बचचे को पाल-पोस कर बडा िकया था। वही जवान बेिा आज उसकी गोद से छीन िलया गया था और छीनने वाले कौन थे ? अगर मतृयु ने छीना होता तो वह सब कर लेती। मौत से िकसी को देष नहीं होता। मगर सवािथयि ो के हाथो यह अतयाचार असह हो रहा था। इस घोर संताप की दशा मे उसका जी रह-रह कर इतना िवफल हो जाता िक इसी समय चलूं और उस अतयाचारी से इसका बदला लूं िजसने उस पर िनषुर आघात िकया है। मारं या मर जाऊं। दोनो ही मे संतोष हो जाएगा।

मा

िकतना सुंदर, िकतना होनहार बालक था ! यही उसके पित की िनशानी, उसके जीवन का आधार उसकी अमं भर की कमाई थी। वही लडका इस वक जेल मे पडा न जाने कया-कया तकलीफे झेल रहा होगा ! और उसका अपराध कया था ? कुछ नही। सारा मुहलला उस पर जान देता था। िवधालय के अधयापक उस पर जान देते थे। अपने-बेगाने सभी तो उसे पयार करते थे। कभी उसकी कोई िशकायत सुनने मे नहीं आयी।ऐसे बालक की माता होन पर उसे बधाई देती थी। कैसा सजजन, कैसा उदार, कैसा परमाथी ! खुद भूखो सो रहे मगर कया मजाल िक दार पर आने वाले अितिथ को रखा जबाब दे। ऐसा बालक कया इस योगय था िक जेल मे जाता ! उसका अपराध यही था, वह कभी-कभी सुनने वालो को अपने दखुी भाइयो का दखुडा सुनाया करता था। अतयाचार से पीिडत पािियो की मदद के िलए हमेशा तैयार रहता था। कया यही उसका अपराध था?

दसूरो की सेवा करना भी अपराध है ? िकसी अितिथ को आशय देना भी अपराध है ?

इस युवक का नाम आतमानंद था। दभुागि यवश उसमे वे सभी सदिु थे जो जेल का दार खोल देते है। वह िनभीक था, सपषवादी था, साहसी था, सवदेश-पेमी था, िन:सवाथ ि था, कतवि यपरायि था। जेलल जाने के िलए इनहीं

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गुिो की जररत है। सवाधीन पािियो के िलए वे गुि सवग ि का दार खोल देते है, पराधीनो के िलए नरक के ! आतमानंद के सेवा-काय ि ने, उसकी वकृतताओं ने और उसके राजनीितक लेखो ने उसे सरकारी कमचि ािरयो की नजरो मे चढा िदया था। सारा पुिलस-िवभाग नीचे से ऊपर तक उससे सतकि रहता था, सबकी िनगाहे उस पर लगीं रहती थीं। आिखर िजले मे एक भयंकर डाके ने उनहे इिचछत अवसर पदान कर िदया।

आतमानंद के घर की तलाशी हुई, कुछ पत और लेख िमले, िजनहे पुिलस ने डाके का बीजक िसद िकया। लगभग २० युवको की एक िोली फांस ली गयी। आतमानंद इसका मुिखया ठहराया गया। शहादते हुई । इस बेकारी और िगरानी के जमाने मे आतमा ससती और कौन वसतु हो सकती है। बेचने को और िकसी के पास रह ही कया गया है। नाम मात का पलोभन देकर अचछी-से-अचछी शहादते िमल सकती है, और पुिलस के हाथ तो िनकृष-

से- िनकृष गवािहयां भी देववािी का महतव पाप कर लेती है। शहादते िमल गयीं, महीने-भर तक मुकदमा कया चला एक सवांग चलता रहा और सारे अिभयुको को सजाएं दे दी गयीं। आतमानंद को सबसे कठोर दंड िमला ८ वष ि का किठन कारावास। माधवी रोज कचहरी जाती; एक कोने मे बैठी सारी कायवि ाई देखा करती।

मानवी चिरत िकतना दबुलि , िकतना नीच है, इसका उसे अब तक अनुमान भी न हुआ था। जब आतमानंद को सजा सुना दी गयी और वह माता को पिाम करके िसपािहयो के साथ चला तो माधवी मिूछित होकर िगर पडी । दो-चार सजजनो ने उसे एक तांगे पर बैठाकर घर तक पहंुचाया। जब से वह होश मे आयी है उसके हदय मे शूल-सा उठ रहा है। िकसी तरह धैय ि नही होता । उस घोर आतम-वेदना की दशा मे अब जीवन का एक लकय िदखाई देता है और वह इस अतयाचार का बदला है।

अब तक पुत उसके जीवन का आधार था। अब शतुओं से बदला लेना ही उसके जीवन का आधार होगा। जीवन मे उसके िलए कोई आशा न थी। इस अतयाचार का बदला लेकर वह अपना जनम सफल समझगी। इस अभागे नर-िपशाच बगची ने िजस तरह उसे रक के आसूं रॅलाये है उसी भांित यह भी उस रलायेगी। नारी-हदय कोमल है लेिकन केवल अनकूुल दशा मे: िजस दशा मे पुरष दसूरो को दबाता है, िी शील और िवनय की देवी हो जाती है। लेिकन िजसके हाथो मे अपना सवनि ाश हो गया हो उसके पित िी की परुष

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से कम घजिृा ओर कोध नहीं होता अंतर इतना ही है िक पुरष शािो से काम लेता है, िी कौशल से ।

रा भीगती जाती थी और माधवी उठने का नाम न लेती थी। उसका दु:ख पितकार के आवेश मे िवलीन होता जाता था। यहां तक िक इसके िसवा उसे और िकसी बात की याद ही न रही। उसने सोचा, कैसे यह काम होगा? कभी घर से नहीं िनकली।वैधवय के २२ साल इसी घर कि गये लेिकन अब िनकूलूंगीं। जबरदसती िनकलूंगी, िभखािरन बनगूीं, िहलनी बनूगी, झूठ बोलूंगी, सब कुकम ि करंगी। सतकम ि के िलए संसार मे सथान नहीं। ईशर ने िनराश होकर कदािचत ्इसकी ओर से मुंह फेर िलया है। जभी तो यहां ऐसे-

ऐसे अतयाचार होते है। और पािपयो को दडं नहीं िमलता। अब इनहीं हाथो से उसे दंड दगूी।

2

धया का समय था। लखनऊ के एक सजे हुए बगंले मे िमतो की महिफल जमी हुई थी। गाना-बजाना हो रहा था। एक तरफ

आतशबािजयां रखी हुई थीं। दसूरे कमरे मे मेजो पर खना चुना जा रहा था। चारो तरफ पुिलस के कमचि ारी नजर आते थे वह पुिलस के सुपिरंिेडेि िमसिर बगीची का बगंला है। कई िदन हुए उनहोने एक माके का मुकदमा जीता था।अफसरो ने खुश होकर उनकी तरककी की दी थी। और उसी की खुशी मे यह उतसव मनाया जा रहा था। यहां आये िदन ऐसे उतसव होते रहते थे। मुफत के गवैये िमल जाते थे, मुफत की अतशबाजी; फल और मेवे और िमठाईयां आधे दामो पर बाजार से आ जाती थीं। और चि दावतो हो जाती थी। दसूरो के जहो सौ लगते, वहां इनका दस से काम चल जाता था। दौड-धूप करने को िसपािहयो की फौज थी हीं। और यह माके का मकुदमा कया था? वह िजसमे िनरपराध युवको को बनाविी शहादत से जेल मे ठूस िदया गया था।

सं

गाना समाप होने पर लोग भोजन करने बैठे। बेगार के मजदरू और पललेदार जो बाजार से दावत और सजावि के सामान लाये थे, रोते या िदल मे गािलयां देते चले गये थे; पर एक बुििया अभी तक दार पर बठैी हुई थी। और अनय मजदरूो की तरह वह भूनभुना कर काम न करती थी। हुकम पाते ही खुश-िदल मजदरू की तरह हुकम बजा लाती थी। यह मधवी थी, जो इस

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समय मजूरनी का वेष धारि करके अपना घतक संकलप परूा करने आयी। थी।

मेहमान चले गये। महिफल उठ गयी। दावत का समान समेि िदया गया। चारो ओर सननािा छा गया; लेिकन माधवी अभी तक वहीं बैठी थी।

सहसा िमसिर बागची ने पूछा—बुडढी तू यहां कयो बैठी है? तुझे कुछ खाने को िमल गया?

माधवी—हां हुजरू, िमल गया। बागची—तो जाती कयो नहीं?

माधवी—कहां जाऊं सरकार , मेरा कोई घर-दार थोडे ही है। हुकुम हो तो यहीं पडी रहंू। पाव-भर आिे की परवसती हो जाय हुजरु।

बगची –नौकरी करेगी?2

माधवी—कयो न करंगी सरकार, यही तो चाहती हंू। बागची—लडका िखला सकती है?

माधवी—हां हजरू, वह मेरे मन का काम है।बगची—अचछी बात है। तु आज ही से रह। जा घर मे देख, जो काम

बताये, वहा कर।3

क महीना गजुर गया। माधवी इतना तन-मन से काम करती है िक सारा घर उससे खुश है। बहू जी का मीजाज बहुम ही िचडिचडा है। वह

िदन-भर खाि पर पडी रहती है और बात-बात पर नौकरो पर झललाया करती है। लेिकन माधवी उनकी घडुिकयो को भी सहष ि सह लेती है। अब तक मुिशकल से कोई दाई एक सपाह से अिधक ठहरी थी। माधवी का कलेजा है िक जली-किी सुनकर भी मुख पर मैल नहीं आने देती।

एिमसिर बागची के कई लडके हो चकेु थे, पर यही सबसे छोिा बचचा

बच रहा था। बचचे पैदा तो हष-पषृ होते, िकनतु जनम लेते ही उनहे एक –न एक रोग लग जाता था और कोई दो-चार महीने, कोई साल भर जी कर चल देता था। मां-बाप दोनो इस िशशु पर पाि देते थे। उसे जरा जकुाम भी हो तो दोनो िवकल हो जाते। िी-पुरष दोनो िशिकत थे, पर बचचे की रका के िलए िोना-िोिका , दआुता-बीच, जनतर-मंतर एक से भी उनहे इनकार न था।

माधवी से यह बालक इतना िहल गया िक एक कि के िलए भी उसकी गोद से न उतरता। वह कहीं एक कि के िलए चली जाती तो रो-रो कर दिुनया िसर पर उठा लेता। वह सुलाती तो सोता, वह दधू िपलाती तो

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िपता, वह िखलाती तो खेलता, उसी को वह अपनी माता समझता। माधवी के िसवा उसके िलए संसार मे कोई अपना न था। बाप को तो वह िदन-भर मे केवल दो-नार बार देखता और समझता यह कोई परदेशी आदमी है। मां आलसय और कमजारी के मारे गोद मे लेकर िहल न सकती थी। उसे वह अपनी रका का भार संभालने के योगय न समझता था, और नौकर-चाकर उसे गोद मे ले लेते तो इतनी वेददी से िक उसके कोमल अगंो मे पीडा होने लगती थी। कोई उसे ऊपर उछाल देता था, यहां तक िक अबोध िशशु का कलेजा मुंह को आ जाता था। उन सबो से वह डरता था। केवल माधवी थी जो उसके सवभाव को समझती थी। वह जानती थी िक कब कया करने से बालक पसनन होगा। इसिलए बालक को भी उससे पेम था।

माधवी ने समझाया था, यहां कंचन बरसता होगा; लेिकन उसे देखकर िकतना िवसमय हुआ िक बडी मुिशकल से महीने का खच ि पूरा पडता है। नौकरो से एक-एक पैसे का िहसाब िलया जाता था और बहुधा आवशयक वसतुएं भी िाल दी जाती थीं। एक िदन माधवी ने कहा—बचचे के िलए कोई तेज गाडी कयो नहीं मंगवा देतीं। गोद मे उसकी बाि मारी जाती है।

िमसेज बागजी ने कुिठंत होकर कहा—कहां से मगवां दंू? कम से कम ५०-६० रपयं मे आयेगी। इतने रपये कहां है?

माधवी—मलिकन, आप भी ऐसा कहती है!

िमसेज बगची—झूठ नहीं कहती। बाबू जी की पहली िी से पांच लडिकयां और है। सब इस समय इलाहाबाद के एक सकूल मे पढ रही है। बडी की उम १५-१६ वष ि से कम न होगी। आधा वेतन तो उधार ही चला जाता है। िफर उनकी शादी की भी तो िफक है। पांचो के िववाह मे कम-से-

कम २५ हजार लगेगे। इतने रपये कहां से आयेगे। मै िचंता के मारे मरी जाती हंू। मुझे कोई दसूरी बीमारी नहीं है केवल िचंता का रोग है।

माधवी—घूस भी तो िमलती है।िमसेज बागची—बूिी, ऐसी कमाई मे बरकत नहीं होती। यही कयो सच

पूछो तो इसी घूस ने हमारी यह दगुति ी कर रखी है। कया जाने औरो को कैसे हजम होती है। यहां तो जब ऐसे रपये आते है तो कोई-न-कोई नकुसान भी अवशय हो जाता है। एक आता है तो दो लेकर जाता है। बार-बार मना करती हंू, हराम की कौडी घर मे न लाया करो, लेिकन मेरी कौन सुनता है।

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बात यह थी िक माधवी को बालक से सनेह होता जाता था। उसके अमंगल की कलपना भी वह न कर सकती थी। वह अब उसी की नींद सोती और उसी की नींद जागती थी। अपने सवनि ाश की बात याद करके एक कि के िलए बागची पर कोध तो हो आता था और घाव िफर हरा हो जाता था; पर मन पर कुितसत भावो का आिधपतय न था। घाव भर रहा था, केवल ठेस लगने से ददि हो जाता था। उसमे सवंय िीस या जलन न थी। इस पिरवार पर अब उसे दया आती थी। सोचती, बेचारे यह छीन-झपि न करे तो कैसे गजुर हो। लडिकयो का िववाह कहां से करेगे! िी को जब देखो बीमार ही रहती है। उन पर बाबू जी को एक बोतल शराब भी रोज चािहए। यह लोग सवयं अभागे है। िजसके घर मे ५-५कवारी कनयाएं हो, बालक हो-हो कर मर जाते हो, घरनी दा बीमार रहती हो, सवामी शराब का तली हो, उस पर तो यो ही ईशर का कोप है। इनसे तो मै अभािगन ही अचछी!

४बलि बलको के िलए बरसात बुरी बला है। कभी खांसी है, कभी जवर, कभी दसत। जब हवा मे ही शीत भरी हो तो कोई कहां तक बचाये। माधवी

एक िदन आपने घर चली गयी थी। बचचा रोने लगा तो मां ने एक नौकर को िदया, इसे बाहर बहला ला। नौकर ने बाहर ले जाकर हरी-हरी घास पर बैठा िदया,। पानी बरस कर िनकल गया था। भूिम गीली हो रही थी। कहीं-कहीं पानी भी जमा हो गया था। बालक को पानी मे छपके लगाने से जयादा पयारा और कौन खेल हो सकता है। खूब पेम से उमंग-उमंग कर पानी मे लोिने लगां नौकर बठैा और आदिमयो के साथ गप-शप करता घंिो गजुर गये। बचचे ने खूब सदी खायी। घर आया तो उसकी नाक बह रही थीं रात को माधवी ने आकर देखा तो बचचा खांस रहा था। आधी रात के करीब उसके गले से खुरखुर की आवाज िनकलने लगी। माधवी का कलेजा सन से हो गया। सवािमनी को जगाकर बोली—देखो तो बचचे को कया हो गया है। कया सदी-वदी तो नहीं लग गयी। हां, सदी ही मालूम होती है।

दु

सवािमनी हकबका कर उठ बठैी और बालक की खुरखराहि सुनी तो पांव तलेजमीन िनकल गयीं यह भंयकर आवाज उसने कई बार सुनी थी और उसे खबू पहचानती थी। वयग होकर बोली—जरा आग जलाओ। थोडा-सा तगं आ गयी। आज कहार जरा देर के िलए बाहर ले गया था, उसी ने सदी मे छोड िदया होगा।

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सारी रात दोनो बालक को सेकती रहीं। िकसी तरह सवेरा हुआ। िमसिर बागची को खबर िमली तो सीधे डाकिर के यहां दौडे। खिैरयत इतनी थी िक जलद एहितयात की गयी। तीन िदन मे अचछा हो गया; लेिकन इतना दबुलि हो गया था िक उसे देखकर डर लगता था। सच पूछो तो माधवी की तपसया ने बालक को बचायां। माता-िपता सो जाता, िकंतु माधवी की आंखो मे नींद न थी। खना-पीना तक भूल गयी। देवताओं की मनौितयां करती थी, बचचे की बलाएं लेती थी, िबलकुल पागल हो गयी थी, यह वही माधवी है जो अपने सवनि ाश का बदला लेने आयी थी। अपकार की जगह उपकार कर रही थी।िवष िपलाने आयी थी, सुधा िपला रही थी। मनुषय मे देवता िकतना पबल है!

पात:काल का समय था। िमसिर बागची िशशु के झूले के पास बैठे हुए थे। िी के िसर मे पीडा हो रही थी। वहीं चारपाई पर लेिी हुई थी और माधवी समीप बैठी बचचे के िलए दधु गरम कर रही थी। सहसा बागची ने कहा—बूिी, हम जब तक िजयेगे तुमहारा यश गयेगे। तुमने बचचे को िजला िलयां

िी—यह देवी बनकर हमारा कष िनवारि करने के िलए आ गयी। यह न होती तो न जाने कया होता। बूिी, तुमसे मेरी एक िवनती है। यो तो मरना जीना पारबध के हाथ है, लेिकन अपना-अपना पौरा भी बडी चीज है। मै अभािगनी हंू। अबकी तुमहारे ही पुणय-पताप से बचचा संभल गया। मुझे डर लग रहा है िक ईशर इसे हमारे हाथ से छीन ने ले। सच कहतीं हंू बूिी, मुझे इसका गोद मे लेते डर लगता है। इसे तुम आज से अपना बचचा समझो। तुमहारा होकर शायद बच जाय। हम अभागे है, हमारा होकर इस पर िनतय कोई-न-कोई संकि आता रहेगा। आज से तुम इसकी माता हो जाआ। तुम इसे अपने घर ले जाओ। जहां चाहे ले जाओ, तुमहारी गोद मे देर मुझे िफर कोई िचंता न रहेगी। वासतव मे तुमहीं इसकी माता हो, मै तो राकसी हंू।

माधवी—बहू जी, भगवान ्सब कुशल करेगे, कयो जी इतना छोिा करती हो?

िमसिर बागची—नहीं-नहीं बूिी माता, इसमे कोई हरज नहीं है। म ैमिसतषक से तो इन बांतो को ढकोसला ही समझता हंू; लेिकन हदय से इनहे दरू नहीं कर सकता। मुझे सवयं मेरी माता जीने एक धािबन के हाथ बेच िदया था। मेरे तीन भाई मर चकेु थे। मै जो बच गया तो मां-बाप ने समझा

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बेचने से ही इसकी जान बच गयी। तुम इस िशशु को पालो-पासो। इसे अपना पुत समझो। खच ि हम बराबर देते रहेगे। इसकी कोई िचंता मत करना। कभी –कभी जब हमारा जी चाहेगा, आकर देख िलया करेगे। हमे िवशास है िक तुम इसकी रका हम लोगो से कहीं अचछी तरह कर सकती हो। मै कुकमी हंू। िजस पेशे मे हंू, उसमे कुकम ि िकये बगैर काम नहीं चल सकता। झूठी शहादते बनानी ही पडती है, िनरपराधो को फंसाना ही पडता है। आतमा इतनी दबुलि हो गयी है िक पलोभन मे पड ही जाता हंू। जानता ही हंू िक बरुाई का फल बुरा ही होता है; पर पिरिसथित से मजबूर हंू। अगर न करं तो आज नालायक बनाकर िनकाल िदया जाऊं। अगेज हजारो भूले करे, कोई नहीं पूछता। िहनदसूतानी एक भूल भी कर बठेै तो सारे अफसर उसके िसर हो जाते है। िहंदसुतािनयत को दोष िमिाने केिलए िकतनी ही ऐसी बाते करनी पडती है िजनका अगेज के िदल मे कभी खयाल ही नहीं पैदा हो सकता। तो बोलो, सवीकार करती हो?

माधवी गदद होकर बोली—बाबू जी, आपकी इचछा है तो मुझसे भी जो कुछ बन पडेगा, आपकी सेवा कर दंगूीं भगवान ्बालक को अमर करे, मेरी तो उनसे यही िवनती है।

माधवी को ऐसा मालूम हो रहा था िक सवग ि के दार सामने खुले है और सवग ि की देिवयां अचंल फैला-फैला कर आशीवादि दे रही है, मानो उसके अंतसतल मे पकाश की लहरे-सी उठ रहीं है। सनेहमय सेवा मे िक िकतनी शांित थी।

बालक अभी तक चादर ओिे सो रहा था। माधवी ने दधू गरम हो जाने पर उसे झूले पर से उठाया, तो िचलला पडी। बालक की देह ठंडी हो गयी थी और मुंह पर वह पीलापन आ गया था िजसे देखकर कलेजा िहल जाता है, कंठ से आह िनकल आती है और आखंो से आसूं बहने लगते है। िजसने इसे एक बारा देखा है िफर कभी नहीं भूल सकता। माधवी ने िशशु को गोद से िचपिा िलया, हालािकं नीचे उतार दोना चािहए था।

कुहराम मच गया। मां बचचे को गले से लगाये रोती थी; पर उसे जमीन पर न सुलाती थी। कया बाते हो रही रही थीं और कया हो गया। मौत को धोखा दोने मे आननद आता है। वह उस वक कभी नहीं आती जब लोग उसकी राह देखते होते है। रोगी जब संभल जाता है, जब वह पथय लेने लगता है, उठने-बठैने लगता है, घर-भर खुिशयां मनाने लगता है, सबको

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िवशास हो जाता है िक सकंि िल गया, उस वक घात मे बठैी हुई मौत िसर पर आ जाती है। यही उसकी िनठुर लीला है।

आशाओं के बाग लगाने मे हम िकतने कुशल है। यहां हम रक के बीज बोकर सुधा के फल खाते है। अिगन से पौधो को सींचकर शीतल छांह मे बठैते है। हां, मंद बुिि।

िदन भर मातम होता रहा; बाप रोता था, मां तडपती थी और माधवी बारी-बारी से दोनो को समझाती थी।यिद अपने पाि देकर वह बालक को िजला सकती तो इस समया अपना धनय भाग समझती। वह अिहत का संकलप करके यहां आयी थी और आज जब उसकी मनोकामना परूी हो गयी और उसे खुशी से फूला न समाना चािहए था, उस उससे कहीं घोर पीडा हो रही थी जो अपने पतु की जेल याता मे हुई थी। रलाने आयी थी और खदु राती जा रहीं थी। माता का हदय दया का आगार है। उसे जलाओ तो उसमे दया की ही सुगंध िनकलती है, पीसो तो दया का ही रस िनकलता है। वह देवी है। िवपित की कूर लीलाएं भी उस सवचछ िनमलि सोत को मिलन नहीं कर सकतीं।

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परीका

िदरशाह की सेना मे िदलली के कतलेआम कर रखा है। गिलयो मे खनू की निदयां बह रही है। चारो तरफ हाहाकार मचा हुआ है।

बाजार बंद है। िदलली के लोग घरो के दार बंद िकये जान की खरै मना रहे है। िकसी की जान सलामत नहीं है। कहीं घरो मे आग लगी हुई है, कहीं बाजार लुि रहा है; कोई िकसी की फिरयाद नहीं सुनता। रईसो की बेगमे महलो से िनकाली जा रही है और उनकी बेहुरती की जाती है। ईरानी िसपािहयो की रक िपपासा िकसी तरह नहीं बुझती। मानव हदया की कूरता, कठोरता और पैशािचकता अपना िवकरालतम रप धारि िकये हुए है। इसी समया नािदर शाह ने बादशाही महल मे पवेश िकया।

ना

िदलली उन िदनो भोग-िवलास की केद बनी हुई थी। सजावि और तकललुफ के सामानो से रईसो के भवन भरे रहते थे। िियो को बनाव-

िसगांर के िसवा कोई काम न था। पुरषो को सुख-भोग के िसवा और कोई िचनता न थी। राजीनित का सथान शेरो-शायरी ने ले िलया था। समसत पनतो से धन िखंच-िखंच कर िदलली आता था। और पानी की भांित बहाया जाता था। वेशयाओं की चादीं थी। कहीं तीतरो के जोड होते थे, कहीं बिेरो और बुलबुलो की पिलयां ठनती थीं। सारा नगर िवलास –िनदा मे मगन था। नािदरशाह शाही महल मे पहंुचा तो वहां का सामान देखकर उसकी आंखे खुल गयीं। उसका जनम दिरद-घर मे हुआ था। उसका समसत जीवन रिभूिम मे ही किा था। भोग िवलास का उसे चसका न लगा था। कहां रि-केत के कष और कहां यह सुख-सामाजय। िजधर आखं उठती थी, उधर से हिने का नाम न लेती थी।

संधया हो गयी थी। नािदरशाह अपने सरदारो के साथ महल की सैर करता और अपनी पसंद की सचीजो को बिोरता हुआ दीवाने-खास मे आकर कारचोबी मसनद पर बैठ गया, सरदारो को वहां से चले जाने का हुकम दे िदया, अपने सबहिथयार रख िदये और महल के दरागा को बुलाकर हुकम िदया—मै शाही बेगमो का नाच देखना चाहता हंू। तुम इसी वक उनको सुंदर विाभूषिो से सजाकर मेरे सामने लाओं खबरदार, जरा भी देर न हो! मै कोई उज या इनकार नहीं सुन सकता।

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२रोगा ने यह नािदरशाही हुकम सुना तो होश उड गये। वह मिहलएं िजन पर सूय ि की दिि भी नहीं पडी कैसे इस मजिलस मे आयेगी!

नाचने का तो कहना ही कया! शाही बेगमो का इतना अपमान कभी न हुआ था। हा नरिपशाच! िदलली को खून से रंग कर भी तेरा िचत शांत नहीं हुआ। मगर नािदरशाह के सममुख एक शबद भी जबान से िनकालना अिगन के मुख मे कूदना था! िसर झुकाकर आदाग लाया और आकर रिनवास मे सब वेगमो को नादीरशाही हुकम सुना िदया; उसके साथ ही यह इतला भी दे दी िक जरा भी ताममुल न हो , नािदरशाह कोई उज या िहला न सुनेगा! शाही खानदोन पर इतनी बडी िवपित कभी नहीं पडी; पर अस समय िवजयी बादशाह की आजा को िशरोधाय ि करने के िसवा पाि-रका का अनय कोई उपाय नहीं था।

दा

बेगमो ने यह आजा सुनी तो हतबुिि-सी हो गयीं। सारेरिनवास मे मातम-सा छा गया। वह चहल-पहल गायब हो गयीं। सकैडो हदयो से इस सहायता-याचक लोचनो से देखा, िकसी ने खदुा और रसूल का सुिमरन िकया; पर ऐसी एक मिहला भी न थी िजसकी िनगाह किार या तलवार की तरफ गयी हो। यदपी इनमे िकतनी ही बेगमो की नसो मे राजपूतािनयो का रक पवािहत हो रहा था; पर इंिदयिलपसा ने जौहर की पुरानी आग ठंडी कर दी थी। सुख-भोग की लालसा आतम सममान का सवनि ाश कर देती है। आपस मे सलाह करके मयादि ा की रका का कोई उपाया सोचने की मुहलत न थी। एक-

एक पल भागय का िनियि कर रहा था। हताश का िनियि कर रहा था। हताश होकर सभी ललपाओं ने पापी के सममुख जाने का िनशय िकया। आंखो से आसूं जारी थे, अशु-िसंिचत नेतो मे सुरमा लगाया जा रहा था और शोक-वयिथत हदयां पर सुगधं का लेप िकया जा रहा था। कोई केश गुथंतीं थी, कोई मांगो मे मोितयो िपरोती थी। एक भी ऐसे पकके इरादे की िी न थी, जो इशर पर अथवा अपनी िेक पर, इस आजा का उललंघन करने का साहस कर सके।

एक घंिा भी न गजुरने पाया था िक बेगमात पूरे-के-परेू, आभूषिो से जगमगातीं, अपने मुख की कांित से बेले और गुलाब की किलयो को लजातीं, सुगंध की लपिे उडाती, छमछम करती हुई दीवाने-खास मे आकर दनािदरशाह के सामने खडी हो गयीं।

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३िदर शाह ने एक बार कनिखयो से पिरयो के इस दल को देखा और तब मसनद की िेक लगाकर लेि गया। अपनी तलवार और

किार सामने रख दी। एक कि मे उसकी आखें झपकने लगीं। उसने एक अगडाई ली और करवि बदल ली। जरा देर मे उसके खरािि ो की अवाजे सुनायी देने लगीं। ऐसा जान पडा िक गहरी िनदा मे मगन हो गया है। आध घंिे तक वह सोता रहा और बेगमे जयो की तयो िसर िनचा िकये दीवार के िचतो की भांित खडी रहीं। उनमे दो-एक मिहलाएं जो ढीठ थीं, घूघंि की ओि से नािदरशाह को देख भी रहीं थीं और आपस मे दबी जबान मे कानाफूसी कर रही थीं—कैसा भंयकर सवरप है! िकतनी रिोनमत आंखे है!

िकतना भारी शरीर है! आदमी काहे को है, देव है।

ना

सहसा नािदरशाह की आखें खुल गई पिरयो का दल पूववि त ्खडा था। उसे जागते देखकर बेगमो ने िसर नीचे कर िलये और अगं समेि कर भेडो की भांित एक दसूरे से िमल गयीं। सबके िदल धडक रहे थे िक अब यह जािलम नाचने-गाने को कहेगा, तब कैसे होगा! खुदा इस जािलम से समझे!

मगर नाचा तो न जायेगा। चाहे जान ही कयो न जाय। इससे जयादा िजललत अब न सही जायगी।

सहसा नािदरशाह कठोर शबदो मे बोला—ऐ खदुा की बंिदयो, मैने तुमहारा इमतहान लेने के िलए बुलाया था और अफसोस के साथ कहना पडता है िक तुमहारी िनसबत मेरा जो गुमान था, वह हफि -ब-हफि सच िनकला। जब िकसी कौम की औरतो मे गरैत नहीं रहती तो वह कौम मुरदा हो जाती है।

देखना चाहता था िक तुम लोगो मे अभी कुछ गरैत बाकी है या नहीं। इसिलए मैने तुमहे यहां बुलाया था। मै तुमहारी बेहुरमली नहीं करना चाहता था। मै इतना ऐश का बंदा नहीं हंू , वरना आज भेडो के गलले चाहता होता। न इतना हवसपरसत हंू, वरना आज फारस मे सरोद और िसतार की ताने सुनाता होता, िजसका मजा मै िहंदसुतानी गाने से कहीं जयादा उठा सकता हंू। मुझे िसफि तुमहारा इमतहान लेना था। मुझे यह देखकर सचा मलाल हो रहा है िक तुममे गरैत का जौहर बाकी न रहा। कया यह मुमिकन न था िक तुम मेरे हुकम को पैरो तले कुचल देतीं? जब तुम यहां आ गयीं तो मैने तुमहे एक और मौका िदया। मैने नींद का बहाना िकया। कया यह मुमिकन न था िक तुममे से कोई खुदा की बंदी इस किार को

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उठाकर मेरे िजगर मे चभुा देती। मै कलामेपाक की कसम खाकर कहता हंू िक तुममे से िकसी को किार पर हाथ रखते देखकर मुझे बेहद खुशी होती, मै उन नाजुक हाथो के सामने गरदन झुका देता! पर अफसोस है िक आज तैमूरी खानदान की एक बेिी भी यहां ऐसी नहीं िनकली जो अपनी हुरमत िबगाडने पर हाथ उठाती! अब यह सललतनत िजंदा नहीं रह सकती। इसकी हसती के िदन िगने हुए है। इसका िनशान बहुत जलद दिुनया से िमि जाएगा। तुम लोग जाओ और हो सके तो अब भी सलतनत को बचाओ वरना इसी तरह हवस की गुलामी करते हुए दिुनया से रखसत हो जाओगी।

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तेतर

िखर वही हुआ िजसकी आशंका थी; िजसकी िचंता मे घर के सभी लोग और िवषेशत: पसूता पडी हुई थी। तीनो पुतो के पशात ्

कनया का जनम हुआ। माता सौर मे सूख गयी, िपता बाहर आंगन मे सूख गये, और की विृ माता सौर दार पर सूख गयी। अनथि, महाअनथ ि भगवान ् ही कुशल करे तो हो? यह पुती नहीं राकसी है। इस अभािगनी को इसी घर मे जाना था! आना था तो कुछ िदन पहले कयो न आयी। भगवान ्सातवे शतु के घर भी तेतर का जनम न दे।

िपता का नाम था पंिडत दामोदरदत। िशिकत आदमी थे। िशका-िवभाग ही मे नौकर भी थे; मगर इस संसकार को कैसे िमिा देते, जो परमपरा से हदय मे जमा हुआ था, िक तीसरे बेिे की पीठ पर होने वाली कनया अभािगनी होती है, या िपता को लेती है या िपता को, या अपने को। उनकी विृा माता लगी नवजात कनया को पानी पी-पी कर कोसने, कलमुहंी है,

कलमुही! न जाने कया करने आयी है यहां। िकसी बांझ के घर जाती तो उसके िदन िफर जाते!

दामोदरदत िदल मे तो घबराये हुए थे, पर माता को समझाने लगे—अममा तेतर-बेतर कुछ नहीं, भगवान ्की इचछा होती है, वही होता है। ईशर चाहेगे तो सब कुशल ही होगा; गानेवािलयो को बुला लो, नहीं लोग कहेगे, तीन बेिे हुए तो कैसे फूली िफरती थीं, एक बेिी हो गयी तो घर मे कुहराम मच गया।

माता—अरे बेिा, तुम कया जानो इन बातो को, मेरे िसर तो बीत चकुी है, पाि नहीं मे समाया हुआ है तेतर ही के जनम से तुमहारे दादा का देहांत हुआ। तभी से तेतर का नाम सुनते ही मेरा कलेजा कांप उठता है।

दामोदर—इस कष के िनवारि का भी कोई उपाय होगा?माता—उपाय बताने को तो बहुत है, पिंडत जी से पछूो तो कोई-न-कोई

उपाय बता देगे; पर इससे कुछ होता नहीं। मैने कौन-से अनषुान नहीं िकये, पर पंिडत जी की तो मुििठयां गरम हुई, यहां जो िसर पर पडना था, वह पड ही गया। अब िके के पंिडत रह गये है, जजमान मरे या िजये उनकी बला से, उनकी दिकिा िमलनी चािहए। (धीरे से) लकडी दबुली-पतली भी नहीं है।

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तीनो लकडो से हष-पुष है। बडी-बडी आंखे है, पतले-पतले लाल-लाल ओंठ है,

जैसे गलुाब की पती। गोरा-िचििा रंग है, लमबी-सी नाक। कलमुही नहलाते समय रोयी भी नहीं, िुकुरिुकुर ताकती रही, यह सब लचछन कुछ अचछे थोडे ही है।

दामोदरदत के तीनो लडके सांवले थे, कुछ िवशेष रपवान भी न थे। लडकी के रप का बखान सुनकर उनका िचत कुछ पसनन हुआ। बोले—अममा जी, तुम भगवान ्का नाम लेकर गानेवािलयो को बुला भेजो, गाना-बजाना होने दो। भागय मे जो कुछ है, वह तो होगा ही।

माता-जी तो हुलसता नहीं, करं कया?दामोदर—गाना न होने से कष का िनवारि तो होगा नहीं, िक हो

जाएगा? अगर इतने ससते जान छूिे तो न कराओ गान।माता—बुलाये लेती हंू बेिा, जो कुछ होना था वह तो हो गया। इतने मे

दाई ने सौर मे से पुकार कर कहा—बहूजी कहती है गानावाना कराने का काम नहीं है।

माता—भला उनसे कहो चपु बैठी रहे, बाहर िनकलकर मनमानी करेगी, बारह ही िदन है बहुत िदन नहीं है; बहुत इतराती िफरती थी—यह न करंगी, वह न करंगी, देवी कया है, मरदो की बाते सुनकर वही रि लगाने लगी थीं, तो अब चुपके से बठैती कयो नहीं। मै तो तेतर को अशुभ नहीं मानतीं, और सब बातो मे मेमो की बराबरी करती है तो इस बात मे भी करे।

यह कहकर माता जी ने नाइन को भेजा िक जाकर गानेवािलयो को बुला ला, पडोस मे भी कहती जाना।

सवेरा होते ही बडा लडका सो कर उठा और आंखे मलता हुआ जाकर दादी से पूछने लगा—बडी अममा, कल अममा को कया हुआ?

माता—लडकी तो हुई है।बालक खुशी से उछलकर बोला—ओ-हो-हो पैजिनयां पहन-पहन कर

छुन-छुन चलेगी, जरा मुझे िदखा दो दादी जी?माता—अरे कया सौर मे जायगा, पागल हो गया है कया?

लडके की उतसुकता न मानीं। सौर के दार पर जाकर खडा हो गया और बोला—अममा जरा बचची को मुझे िदखा दो।

दाई ने कहा—बचची अभी सोती है।बालक—जरा िदखा दो, गोद मे लेकर।

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दाई ने कनया उसे िदखा दी तो वहां से दौडता हुआ अपने छोिे भाइये के पास पहंुचा और उनहे जगा-जगा कर खुशखबरी सुनायी।

एक बोला—ननहीं-सी होगी।बडा—िबलकुल ननहीं सी! जसैी बडी गिुडया! ऐसी गोरी है िक कया

िकसी साहब की लडकी होगी। यह लडकी मै लूंगा।सबसे छोिा बोला—अमको बी िदका दो।तीनो िमलकर लडकी को देखने आये और वहां से बगले बजाते

उछलते-कूदते बाहर आये।बडा—देखा कैसी है!

मंझला—कैसे आखें बंद िकये पडी थी।छोिा—हमे हमे तो देना।बडा—खूब दार पर बारात आयेगी, हाथी, घोडे, बाजे आतशबाजी। मंझला

और छोिा ऐसे मगन हो रहे थे मानो वह मनोहर दशय आखंो के सामने है,

उनके सरल नेत मनोललास से चमक रहे थे।मंझला बोला—फुलवािरयां भी होगी।छोिा—अम बी पूल लेगे!

२िठी भी हुई, बरही भी हुई, गाना-बजाना, खाना-िपलाना-देना-िदलाना सब-कुछ हुआ; पर रसम परूी करने के िलए, िदल से नहीं, खुशी से

नहीं। लडकी िदन-िदन दबुलि और असवसथ होती जाती थी। मां उसे दोनो वक अफीम िखला देती और बािलका िदन और रात को नशे मे बेहोश पडी रहती। जरा भी नशा उतरता तो भूख से िवकल होकर रोने लगती! मां कुछ ऊपरी दधू िपलाकर अफीम िखला देती। आशय ि की बात तो यह थी िक अब की उसकी छाती मे दधू नहीं उतरा। यो भी उसे दधू दे से उतरता था; पर लडको की बेर उसे नाना पकार की दधूवििक औषिधयां िखलायी जाती, बार-

बार िशशु को छाती से लगाया जाता, यहां तक िक दधू उतर ही आता था; पर अब की यह आयोजनाएं न की गयीं। फूल-सी बचची कुमहलाती जाती थी। मां तो कभी उसकी ओर ताकती भी न थी। हां, नाइन कभी चिुिकयां बजाकर चुमकारती तो िशशु के मुख पर ऐसी दयनीय, ऐसी करि बेदना अिंकत िदखायी देती िक वह आंखे पोछती हुई चली जाती थी। बहु से कुछ कहने-

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सुनने का साहस न पडता। बडा लडका िसि ुबार-बार कहता—अममा, बचची को दो तो बाहर से खेला लाऊं। पर मां उसे िझडक देती थी।

तीन-चार महीने हो गये। दामोदरदत रात को पानी पीने उठे तो देखा िक बािलका जाग रही है। सामने ताख पर मीठे तेल का दीपक जल रहा था, लडकी िकिकी बांधे उसी दीपक की ओर देखती थी, और अपना अंगूठा चसूने मे मगन थी। चभु-चुभ की आवाज आ रही थी। उसका मुख मरुझाया हुआ था, पर वह न रोती थी न हाथ-पैर फेकती थी, बस अंगठूा पीने मे ऐसी मगन थी मानो उसमे सुधा-रस भरा हुआ है। वह माता के सतनो की ओर मुहं भी नहीं फेरती थी, मानो उसका उन पर कोई अिधकार है नहीं, उसके िलए वहां कोई आशा नहीं। बाबू साहब को उस पर दया आयी। इस बेचारी का मेरे घर जनम लेने मे कया दोष है? मुझ पर या इसकी माता पर कुछ भी पडे, उसमे इसका कया अपराध है? हम िकतनी िनदियता कर रहे है िक कुछ किलपत अिनष के कारि इसका इतना ितरसकार कर रहे है। मानो िक कुछ अमंगल हो भी जाय तो कया उसके भय से इसके पाि ले िलये जायेगे। अगर अपराधी है तो मेरा पारबध है। इस ननहे-से बचचे के पित हमारी कठोरता कया ईशर को अचछी लगती होगी? उनहोने उसे गोद मे उठा िलया और उसका मुख चमूने लगे। लडकी को कदािचत ्पहली बार सचचे सनेह का जान हुआ। वह हाथ-पैर उछाल कर ‘गू-ंगू’ं करने लगी और दीपक की ओर हाथ फैलाने लगी। उसे जीवन-जयोित-सी िमल गयी।

पात:काल दामोदरदत ने लडकी को गोद मे उठा िलया और बाहर लाये। िी ने बार-बार कहा—उसे पडी रहने दो। ऐसी कौन-सी बडी सुनदर है,

अभािगन रात-िदन तो पाि खाती रहती है, मर भी नहीं जाती िक जान छूि जाय; िकंतु दामोदरदत ने न माना। उसे बाहर लाये और अपने बचचो के साथ बैठकर खेलाने लगे। उनके मकान के सामने थोडी-सी जमीन पडी हुई थी। पडोस के िकसी आदमी की एकबकरी उसमे आकर चरा करती थी। इस समय भी वह चर रही थी। बाबू साहब ने बडे लडके से कहा—िसि ूजरा उस बकरी को पकडो, तो इसे दधू िपलाये, शायद भूखी है बेचारी! देखो, तुमहारी ननहीं-सी बहन है न? इसे रोज हवा मे खेलाया करो।

िसि ुको िदललगी हाथ आयी। उसका छोिा भाई भी दौडा। दोनो ने घेर कर बकरी को पकडा और उसका कान पकडे हुए सामने लाये। िपता ने िशशु का मुंह बकरी थन मे लगा िदया। लडकी चबुलाने लगी और एक कि मे

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दधू की धार उसके मुंह मे जाने लगी, मानो ििमििमाते दीपक मे तेल पड जाये। लडकी का मुंह िखल उठा। आज शायद पहली बार उसकी कधुा तपृ हुई थी। वह िपता की गोद मे हुमक-हुमक कर खेलने लगी। लडको ने भी उसे खबू नचाया-कुदाया।

उस िदन से िसि ु को मनोरजन का एक नया िवषय िमल गया। बालको को बचचो से बहुत पेम होता है। अगर िकसी घोसनले मे िचिडया का बचचा देख पायं तो बार-बार वहां जायेगे। देखेगे िक माता बचचे को कैसे दाना चगुाती है। बचचा कैसे चोच खोलता है। कैसे दाना लेते समय परो को फडफडाकर कर चे-चे करता है। आपस मे बडे गमभीर भाव से उसकी चरचा करेगे, उपने अनय सािथयो को ले जाकर उसे िदखायेगे। िसि ूताक मे लगा देता, कभी िदन मे दो-दो तीन-तीन बा िपलाता। बकरी को भूसी चोकर िखलाकार ऐसा परचा िलया िक वह सवयं चोकर के लोभ से चली आती और दधू देकर चली जाती। इस भांित कोई एक महीना गजुर गया, लडकी हष-पुष हो गयी, मुख पुषप के समान िवकिसत हो गया। आंखे जग उठीं, िशशुकाल की सरल आभा मन को हरने लगी।

माता उसको देख-देख कर चिकत होती थी। िकसी से कुछ कह तो न सकती; पर िदल मे आशंका होती थी िक अब वह मरने की नहीं, हमीं लोगो के िसर जायेगी। कदािचत ्ईशर इसकी रका कर रहे है, जभी तो िदन-िदन िनखरती आती है, नहीं, अब तक ईशर के घर पहंुच गयी होती।

३गर दादी माता से कहीं जयादा िचंितत थी। उसे भम होने लगा िक वह बचचे को खूब दधू िपला रही है, सांप को पाल रही है। िशशु की

ओर आंख उठाकर भी न देखती। यहां तक िक एक िदन कह बैठी—लडकी का बडा छोह करती हो? हां भाई, मां हो िक नहीं, तुम न छोह करोगी, तो करेगा कौन?

म‘अममा जी, ईशर जानते है जो मै इसे दधू िपलाती होऊं?’

‘अरे तो मै मना थोडे ही करती हंू, मुझे कया गरज पडी है िक मुफत मे अपने ऊपर पाप लूं, कुछ मेरे िसर तो जायेगी नहीं।’

‘अब आपको िवशास ही न आये तो कया करे?’

‘मुझे पागल समझती हो, वह हवा पी-पी कर ऐसी हो रही है?’

‘भगवान ्जाने अममा, मुझे तो अचरज होता है।’26

बहू ने बहुत िनदोिषता जतायी; िकंतु विृा सास को िवशास न आया। उसने समझा, वह मेरी शंका को िनमूलि समझती है, मानो मुझे इस बचची से कोई बैर है। उसके मन मे यह भाव अंकुिरत होने लगा िक इसे कुछ हो जोये तब यह समझे िक मै झूठ नहीं कहती थी। वह िजन पािियो को अपने पािो से भी अिधक समझती थीं। उनहीं लोगो की अमगंल कामना करने लगी, केवल इसिलए िक मेरी शंकाएं सतय हा जायं। वह यह तो नहीं चाहती थी िक कोई मर जाय; पर इतना अवशय चाहती थी िक िकसी के बहाने से मै चेता दं ूिक देखा, तुमने मेरा कहा न माना, यह उसी का फल है। उधर सास की ओर से जयो-जयो यह देष-भाव पकि होता था, बहू का कनया के पित सनेह बिता था। ईशर से मनाती रहती थी िक िकसी भांित एक साल कुशल से कि जाता तो इनसे पूछती। कुछ लडकी का भोला-भाला चेहरा, कुछ अपने पित का पेम-वातसलय देखकर भी उसे पोतसाहन िमलता था। िविचत दशा हो रही थी, न िदल खोलकर पयार ही कर सकती थी, न समपूि ि रीित से िनदिय होते ही बनता था। न हंसते बनता था न रोते।

इस भांित दो महीने और गजुर गये और कोई अिनष न हुआ। तब तो विृा सासव के पेि मे चहेू दौडने लगे। बहू को दो-चार िदन जवर भी नहीं जाता िक मेरी शकंा की मयादि ा रह जाये। पुत भी िकसी िदन पैरगाडी पर से नहीं िगर पडता, न बहू के मैके ही से िकसी के सवगवि ास की सुनावनी आती है। एक िदन दामोदरदत ने खलेु तौर पर कह भी िदया िक अममा, यह सब ढकोसला है, तेतेर लडिकयां कया दिुनया मे होती ही नहीं, तो सब के सब मां-बाप मर ही जाते है? अंत मे उसने अपनी शंकाओं को यथाथ ि िसि करने की एक तरकीब सोच िनकाली। एक िदन दामोदरदत सकूल से आये तो देखा िक अममा जी खाि पर अचेत पडी हुई है, िी अगंीठी मे आग रखे उनकी छाती सेक रही है और कोठरी के दार और िखडिकयां बंद है। घबरा कर कहा—अममा जी, कया दशा है?

िी—दोपहर ही से कलेजे मे एक शूल उठ रहा है, बेचारी बहुत तडफ रही है।दामोदर—मै जाकर डॉकिर साहब को बुला लाऊं न.? देर करने से शायद रोग बि जाय। अममा जी, अममा जी कैसी तिबयत है?

माता ने आखें खोलीं और कराहते हुए बोली—बेिा तुम आ गये?

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अब न बचूंगी, हाय भगवान ्, अब न बचूंगी। जसेै कोई कलेजे मे बरछी चुभा रहा हो। ऐसी पीडा कभी न हुई थी। इतनी उम बीत गयी, ऐसी पीडा कभी न हुई।

िी—वह कलमुही छोकरी न जाने िकस मनहूस घडी मे पैदा हुई।सास—बेिा, सब भगवान करते है, यह बेचारी कया जाने! देखो मै मर

जाऊं तो उसे कशि मत देना। अचछा हुआ मेरे िसर आयीं िकसी कके िसर तो जाती ही, मेरे ही िसर सही। हाय भगवान, अब न बचूगंी।

दामोदर—जाकर डॉकिर बुला लाऊं? अभभी लौिा आता हंू।माता जी को केवल अपनी बात की मयादि ा िनभानी थी, रपये न खच

कराने थे, बोली—नहीं बेिा, डॉकिर के पास जाकर कया करोग?े अरे, वह कोई ईशर है। डॉकिर के पास जाकर कया करोगे? अरे, वह कोई ईशर है। डॉकिर अमतृ िपला देगा, दस-बीस वह भी ले जायेगा! डॉकिर-वैद से कुछ न होगा। बेिा, तुम कपडे उतारो, मेरे पास बठैकर भागवत पिो। अब न बचूंगी। अब न बचूगंी, हाय राम!

दामोदर—तेतर बुरी चीज है। मै समझता था िक ढकोसला है।िी—इसी से मै उसे कभी नहीं लगाती थी।माता—बेिा, बचचो को आराम से रखना, भगवान तुम लोगो को सुखी

रखे। अचछा हुआ मेरे ही िसर गयी, तुम लोगो के सामने मेरा परलोक हो जायेगा। कहीं िकसी दसूरे के िसर जाती तो कया होता राम! भगवान ्ने मेरी िवनती सुन ली। हाय! हाय!!

दामोदरदत को िनशय हो गया िक अब अममा न बचेगी। बडा द :ुख हुआ। उनके मन की बात होती तो वह मां के बदले तेतर को न सवीकार करते। िजस जननी ने जनम िदया, नाना पकार के कष झेलकर उनका पालन-पोषि िकया, अकाल वैधवय को पाप होकर भी उनकी िशका का पबंध िकया, उसके सामने एक दधुमुहीं बचची का कया मूलय था, िजसके हाथ का एक िगलास पानी भी वह न जानते थे। शोकातुर हो कपडे उतारे और मां के िसरहाने बैठकर भागवत की कथा सुनाने लगे।

रात को बहू भोजन बनाने चली तो सास से बोली—अममा जी, तुमहारे िलए थोडा सा साबूदाना छोड दंू?

माता ने वयगंय करके कहा—बेिी, अनय िबना न मारो, भला साबूदाना मुझसे खया जायेगा; जाओं, थोडी पिूरयां छान लो। पडे-पडे जो कुछ इचछा

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होगी, खा लूंगी, कचौिरयां भी बना लेना। मरती हंू तो भोजन को तरस-तरस कयो मरं। थोडी मलाई भी मंगवा लेना, चौक की हो। िफर थोडे खाने आऊंगी बेिी। थोडे-से केले मंगवा लेना, कलेजे के ददि मे केले खाने से आराम होता है।

भोजन के समय पीडा शांत हो गयी; लेिकन आध घंिे बाद िफर जोर से होने लगी। आधी रात के समय कहीं जाकर उनकी आंख लगी। एक सपाह तक उनकी यही दशा रही, िदन-भर पडी कराहा करतीं बस भोजन के समय जरा वेदना कम हो जाती। दामोदरदत िसरहाने बठेै पखंा झलते और मातिृवयोग के आगत शोक से रोते। घर की महरी ने मुहलले-भर मे एक खबर फैला दी; पडोिसने देखने आयीं, तो सारा इलजाम बािलका के िसर गया।

एक ने कहा—यह तो कहो बडी कुशल हुई िक बुििया के िसर गयी; नहीं तो तेतर मां-बाप दो मे से एक को लेकर तभी शांत होती है। दैव न करे िक िकसी के घर तेतर का जनम हो।

दसूरी बोली—मेरे तो तेतर का नाम सुनते ही रोये खडे हो जाते है। भगवान ्बांझ रखे पर तेतर का जनम न दे।

एक सपाह के बाद विृा का कष िनवारि हुआ, मरने मे कोई कसर न थी, वह तो कहो पुरखाओं का पुणय-पताप था। बाहिो को गोदान िदया गया। दगुाि-पाठ हुआ, तब कहीं जाके संकि किा।

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नैरा शय

ज आदमी अपनी िी से इसिलए नाराज रहते है िक उसके लडिकयां ही कयो होती है, लडके कयो नहीं होते। जानते है िक इनमे

िी को दोष नहीं है, या है तो उतना ही िजतना मेरा, िफर भी जब देिखए िी से रठे रहते है, उसे अभािगनी कहते है और सदैव उसका िदल दखुाया करते है। िनरपमा उनही अभािगनी िियो मे थी और घमंडीलाल ितपाठी उनहीं अतयाचारी पुरषो मे। िनरपमा के तीन बेिियां लगातार हुई थीं और वह सारे घर की िनगाहो से िगर गयी थी। सास-ससुर की अपसननता की तो उसे िवशेष िचतंा न थी, वह परुाने जमाने के लोग थे, जब लडिकयां गरदन का बोझ और पूवजि नमो का पाप समझी जाती थीं। हां, उसे दु:ख अपने पितदेव की अपसननता का था जो पिे-िलखे आदमी होकर भी उसे जली-किी सुनाते रहते थे। पयार करना तो दरू रहा, िनरपमा से सीधे मुंह बात न करते, कई-

कई िदनो तक घर ही मे न आते और आते तो कुछ इस तरह िखंचे-तने हुए रहते िक िनरपमा थर-थर कांपती रहती थी, कहीं गरज न उठे। घर मे धन का अभाव न था; पर िनरपमा को कभी यह साहस न होता था िक िकसी सामानय वसतु की इचछा भी पकि कर सके। वह समझती थी, मे यथाथ ि मे अभािगनी हंू, नहीं तो भगवान ्मेरी कोख मे लडिकयां ही रचते। पित की एक मदृ ु मुसकान के िलए, एक मीठी बात के िलए उसका हदय तडप कर रह जाता था। यहां तक िक वह अपनी लडिकयो को पयार करते हुए सकुचाती थी िक लोग कहेगे, पीतल की नथ पर इतना गुमान करती है। जब ितपाठी जी के घर मे आने का समय होता तो िकसी-न-िकसी बहाने से वह लडिकयो को उनकी आंखो से दरू कर देती थी। सबसे बडी िवपित यह थी िक ितपाठी जी ने धमकी दी थी िक अब की कनया हुई तो घर छोडकर िनकल जाऊंगा, इस नरक मे कि-भर न ठहरंगा। िनरपमा को यह िचंता और भी खाये जाती थी।

बा

वह मंगल का वत रखती थी, रिववार, िनजलि ा एकादसी और न जाने िकतने वत करती थी। सनान-पजूा तो िनतय का िनयम था; पर िकसी अनुषान से मनोकामना न परूी होती थी। िनतय अवहेलना, ितरसकार, उपेका, अपमान सहते-सहते उसका िचत संसार से िवरक होता जाता था। जहां कान

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एक मीठी बात के िलए, आंखे एक पेम-दिष के िलए, हदय एक आिलंगन के िलए तरस कर रह जाये, घर मे अपनी कोई बात न पछेू, वहां जीवन से कयो न अरिच हो जाय?

एक िदन घोर िनराशा की दशा मे उसने अपनी बडी भावज को एक पत िलखा। एक-एक अकर से असह वेदना िपक रही थी। भावज ने उतर िदया—तुमहारे भैया जलद तुमहे िवदा कराने जायेगे। यहां आजकल एक सचचे महातमा आये हुए है िजनका आशीवाद कभी िनषफल नहीं जाता। यहां कई संतानहीन िियां उनक आशीवाद से पुतवती हो गयीं। पूि ि आशा है िक तुमहे भी उनका आशीवाद कलयािकारी होगा।

िनरपमा ने यह पत पित को िदखाया। ितपाठी जी उदासीन भाव से बोले—सिृष-रचना महातमाओं के हाथ का काम नहीं, ईशर का काम है।

िनरपमा—हां, लेिकन महातमाओं मे भी तो कुछ िसिि होती है।घमंडीलाल—हां होती है, पर ऐसे महातमाओं के दशनि दलुभि है।िनरपमा—मै तो इस महातमा के दशनि करंगी।घमंडीलाल—चली जाना।िनरपमा—जब बांिझनो के लडके हुए तो मै कया उनसे भी गयी-गजुरी

हंू।घमंडीलाल—कह तो िदया भाई चली जाना। यह करके भी देख लो।

मुझे तो ऐसा मालूम होता है, पुत का मुख देखना हमारे भागय मे ही नहीं है।2

ई िदन बाद िनरपमा अपने भाई के साथ मकेै गयी। तीनो पुितयां भी साथ थीं। भाभी ने उनहे पेम से गले लगाकर कहा, तुमहारे घर

के आदमी बडे िनदियी है। ऐसी गलुाब –फूलो की-सी लडिकयां पाकर भी तकदीर को रोते है। ये तुमहे भारी हो तो मुझे दे दो। जब ननद और भावज भोजन करके लेिीं तो िनरपमा ने पछूा—वह महातमा कहां रहते है?

कभावज—ऐसी जलदी कया है, बता दंगूी।िनरपमा—है नगीच ही न?

भावज—बहुत नगीच। जब कहोगी, उनहे बुला दंगूी।िनरपमा—तो कया तुम लोगो पर बहुत पसनन है?

भावज—दोनो वक यहीं भोजन करते है। यहीं रहते है।

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िनरपमा—जब घर ही मे वैद तो मिरये कयो? आज मुझे उनके दशनि करा देना।

भावज—भेि कया दोगी?िनरपमा—मै िकस लायक हंू?

भावज—अपनी सबसे छोिी लडकी दे देना।िनरपमा—चलो, गाली देती हो।भावज—अचछा यह न सही, एक बार उनहे पेमािलगंन करने देना।िनरपमा—चलो, गाली देती हो।भावज—अचछा यह न सही, एक बार उनहे पेमािलगंन करने देना।िनरपमा—भाभी, मुझसे ऐसी हंसी करोगी तो मै चली आऊंगी।भावज—वह महातमा बडे रिसया है।िनरपमा—तो चूलहे मे जायं। कोई दषु होगा।भावज—उनका आशीवाद तो इसी शत ि पर िमलेगा। वह और कोई भेि

सवीकार ही नहीं करते।िनरपमा—तुम तो यो बाते कर रही हो मानो उनकी पितिनिध हो।भावज—हां, वह यह सब िवषय मेरे ही दारा तय िकया करते है। मै

भेि लेती हंू। मै ही आशीवाद देती हंू, मै ही उनके िहताथ ि भोजन कर लेती हंू।

िनरपमा—तो यह कहो िक तुमने मुझे बुलाने के िलए यह हीला िनकाला है।

भावज—नहीं, उनके साथ ही तुमहे कुछ ऐसे गरु दंगूी िजससे तुम अपने घर आराम से रहा।

इसके बाद दोनो सिखयो मे कानाफूसी होने लगी। जब भावज चुप हुई तो िनरपमा बोली—और जो कहीं िफर कया ही हुई तो?

भावज—तो कया? कुछ िदन तो शांित और सुख से जीवन किेगा। यह िदन तो कोई लौिा न लेगा। पुत हुआ तो कहना ही कया, पुती हुई तो िफर कोई नयी युिक िनकाली जायेगी। तुमहारे घर के जैसे अकल के दशुमनो के साथ ऐसी ही चाले चलने से गजुारा है।

िनरपमा—मुझे तो सकंोच मालूम होता है।भावज—ितपाठी जी को दो-चार िदन मे पत िलख देना िक महातमा जी

के दशनि हुए और उनहोने मुझे वरदान िदया है। ईशर ने चाहा तो उसी िदन 32

से तुमहारी मान-पितषा होने लगी। घमंडी दौडे हुए आयेगे और तमहारे ऊपर पाि िनछावर करेगे। कम-से-कम साल भर तो चनै की वंशी बजाना। इसके बाद देखी जायेगी।

िनरपमा—पित से कपि करं तो पाप न लगेगा?भावज—ऐसे सवािथयि ो से कपि करना पुणय है।

3

न चार महीने के बाद िनरपमा अपने घर आयी। घमंडीलाल उसे िवदा कराने गये थे। सलहज ने महातमा जी का रंग और भी चोखा कर

िदया। बोली—ऐसा तो िकसी को देखा नहीं िक इस महातमा जी ने वरदान िदया हो और वह पूरा न हो गया हो। हां, िजसका भागय फूि जाये उसे कोई कया कर सकता है।

ती

घमंडीलाल पतयक तो वरदान और आशीवाद की उपेका ही करते रहे,

इन बातो पर िवशास करना आजकल संकोचजनक मालूम होता ह; पर उनके िदल पर असर जरर हुआ।

िनरपमा की खाितरदािरयां होनी शुर हुई। जब वह गभवि ती हुई तो सबके िदलो मे नयी-नयी आशाएं िहलोरे लेने लगी। सास जो उठते गाली और बैठते वयंगय से बाते करती थीं अब उसे पान की तरह फेरती—बेिी, तुम रहने दो, मै ही रसोई बना लूगंी, तुमहारा िसर दखुने लगेगा। कभी िनरपमा कलसे का पानी या चारपाई उठाने लगती तो सास दौडती—बहू,रहने दो, मै आती हंू,

तुम कोई भारी चीज मत उठाया करा। लडिकयो की बात और होती है, उन पर िकसी बात का असर नहीं होता, लडके तो गभ ि ही मे मान करने लगते है। अब िनरपमा के िलए दधू का उठौना िकया गया, िजससे बालक पुष और गोरा हो। घमंडी विाभूषिो पर उतार हो गये। हर महीने एक-न-एक नयी चीज लाते। िनरपमा का जीवन इतना सुखमय कभी न था। उस समय भी नहीं जब नवेली वधू थी।

महीने गजुरने लगे। िनरपमा को अनुभूत लकिो से िविदत होने लगा िक यह कनया ही है; पर वह इस भेद को गपु रखती थी। सोचती, सावन की धूप है, इसका कया भरोसा िजतनी चीज धपू मे सुखानी हो सुखा लो, िफर तो घिा छायेगी ही। बात-बात पर िबगडती। वह कभी इतनी मानशीला न थी। पर घर मे कोई चूं तक न करता िक कहीं बहू का िदल न दखेु, नहीं बालक को कष होगा। कभी-कभी िनरपमा केवल घरवालो को जलाने के िलए

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अनुषान करती, उसे उनहे जलाने मे मजा आता था। वह सोचती, तुम सवािथयि ो को िजतना जलाऊं उतना अचछा! तुम मेरा आदर इसिलए करते हो न िक मै बचच जनूंगी जो तुमहारे कुल का नाम चलायेगा। मै कुछ नहीं हंू,

बालक ही सब-कुछ है। मेरा अपना कोई महतव नहीं, जो कुछ है वह बालक के नाते। यह मेरे पित है! पहले इनहे मुझसे िकतना पेम था, तब इतने संसार-लोलुप न हुए थे। अब इनका पेम केवल सवाथ ि का सवांग है। मै भी पशु हंू िजसे दधू के िलए चारा-पानी िदया जाता है। खरै, यही सही, इस वक तो तुम मेरे काबू मे आये हो! िजतने गहने बन सके बनवा लूं, इनहे तो छीन न लोगे।

इस तरह दस महीने परेू हो गये। िनरपमा की दोनो ननदे ससुराल से बुलायी गयीं। बचचे के िलए पहले ही सोने के गहने बनवा िलये गये, दधू के िलए एक सुनदर दधुार गाय मोल ले ली गयी, घमंडीलाल उसे हवा िखलाने को एक छोिी-सी सेजगाडी लाये। िजस िदन िनरपमा को पसव-वेदना होने लगी, दार पर पिंडत जी मुहूत ि देखने के िलए बुलाये गये। एक मीरिशकार बंदकू छोडने को बुलाया गया, गायने मंगल-गान के िलए बिोर ली गयीं। घर से ितल-ितल कर खबर मंगायी जाती थी, कया हुआ? लेडी डॉकिर भी बुलायी गयीं। बाजे वाले हुकम के इंतजार मे बठेै थे। पामर भी अपनी सारंगी िलये ‘जचचा मान करे नंदलाल सो’ की तान सुनाने को तैयार बैठा था। सारी तैयािरयां; सारी आशाएं, सारा उतसाह समारोह एक ही शबद पर अवलिमब था। जयो-जयो देर होती थी लोगो मे उतसुकता बिती जाती थी। घमंडीलाल अपने मनोभावो को िछपाने के िलए एक समाचार –पत देख रहे थे, मानो उनहे लडका या लडकी दोनो ही बराबर है। मगर उनके बूिे िपता जी इतने सावधान न थे। उनकी पीछे िखली जाती थीं, हंस-हंस कर सबसे बात कर रहे थे और पैसो की एक थैली को बार-बार उछालते थे।

मीरिशकार ने कहा—मािलक से अबकी पगडी दपुििा लूंगा।िपताजी ने िखलकर कहा—अबे िकतनी पगिडयां लेगा? इतनी बेभाव की

दंगूा िक सर के बाल गजें हो जायेगे।पामर बोला—सरकार अब की कुछ जीिवका लूं।िपताजी िखलकर बोले—अबे िकतनी खायेगा; िखला-िखला कर पेि फाड

दंगूा।

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सहसा महरी घर मे से िनकली। कुछ घबरायी-सी थी। वह अभी कुछ बोलने भी न पायी थी िक मीरिशकार ने बनदकू फैर कर ही तो दी। बनदकू छूिनी थी िक रोशन चौकी की तान भी िछड गयी, पामर भी कमर कसकर नाचने को खडा हो गया।

महरी—अरे तुम सब के सब भंग खा गये हो गया?मीरिशकार—कया हुआ?

महरी—हुआ कया लडकी ही तो िफर हुई है?

िपता जी—लडकी हुई है?

यह कहते-कहते वह कमर थामकर बठै गये मानो वज िगर पडा। घमंडीलाल कमरे से िनकल आये और बोले—जाकर लेडी डाकिर से तो पूछ। अचछी तरह देख न ले। देखा सुना, चल खडी हुई।

महरी—बाबूजी, मैने तो आखंो देखा है!

घमंडीलाल—कनया ही है?

िपता—हमारी तकदीर ही ऐसी है बेिा! जाओ रे सब के सब! तुम सभी के भागय मे कुछ पाना न िलखा था तो कहां से पाते। भाग जाओ। सैकडो रपये पर पानी िफर गया, सारी तैयारी िमििी मे िमल गयी।

घमंडीलाल—इस महातमा से पूछना चािहए। मै आज डाक से जरा बचा की खबर लेता हंू।

िपता—धूत ि है, धूति!घमंडीलाल—मै उनकी सारी धूतति ा िनकाल दंगूा। मारे डंडो के खोपडी

न तोड दं ूतो किहएगा। चांडाल कहीं का! उसके कारि मेरे सैकडो रपये पर पानी िफर गया। यह सेजगाडी, यह गाय, यह पलना, यह सोने के गहने िकसके िसर पिकंू। ऐसे ही उसने िकतनो ही को ठगा होगा। एक दफा बचा ही मरममत हो जाती तो ठीक हो जाते।

िपता जी—बेिा, उसका दोष नहीं, अपने भागय का दोष है।घमंडीलाल—उसने कयो कहा ऐसा नहीं होगा। औरतो से इस पाखडं के

िलए िकतने ही रपये ऐठें होगे। वह सब उनहे उगलना पडेगा, नहीं तो पुिलस मे रपि कर दंगूा। कानून मे पाखंड का भी तो दंड है। मै पहले ही चौका था िक हो न हो पाखंडी है; लेिकन मेरी सलहज ने धोखा िदया, नहीं तो मै ऐसे पािजयो के पजें मे कब आने वाला था। एक ही सुअर है।

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िपताजी—बेिा सब करो। ईशर को जो कुछ मंजरू था, वह हुआ। लडका-लडकी दोनो ही ईशर की देन है, जहां तीन है वहां एक और सही।

िपता और पुत मे तो यह बाते होती रहीं। पामर, मीरिशकार आिद ने अपने-अपने डंडे संभाले और अपनी राह चले। घर मे मातम-सा छा गया, लेडी डॉकिर भी िवदा कर दी गयी, सौर मे जचचा और दाई के िसवा कोई न रहा। विृा माता तो इतनी हताश हुई िक उसी वक अिवास-खिवास लेकर पड रहीं।

जब बचचे की बरही हो गयी तो घमंडीलाल िी के पास गये और सरोष भाव से बोले—िफर लडकी हो गयी!

िनरपमा—कया करं, मेरा कया बस?

घमंडीलाल—उस पापी धूत ि ने बडा चकमा िदया।िनरपमा—अब कया कहे, मेरे भागय ही मे न होगा, नहीं तो वहां िकतनी

ही औरते बाबाजी को रात-िदन घेरे रहती थीं। वह िकसी से कुछ लेते तो कहती िक धूत ि है, कसम ले लो जो मैने एक कौडी भी उनहे दी हो।

घमंडीलाल—उसने िलया या न िलया, यहां तो िदवाला िनकल गया। मालूम हो गया तकदीर मे पुत नहीं िलखा है। कुल का नाम डूबना ही है तो कया आज डूबा, कया दस साल बाद डूबा। अब कहीं चला जाऊंगा, गहृसथी मे कौन-सा सुख रखा है।

वह बहुत देर तक खडे-खडे अपने भागय को रोते रहे; पर िनरपमा ने िसर तक न उठाया।

िनरपमा के िसर िफर वही िवपित आ पडी, िफर वही ताने, वही अपमान, वही अनादर, वही छीछालेदार, िकसी को िचंता न रहती िक खाती-पीती है या नहीं, अचछी है या बीमार, दखुी है या सुखी। घमंडीलाल यदिप कहीं न गये, पर िनरपमा को यही धमकी पाय: िनतय ही िमलती रहती थी। कई महीने यो ही गुजर गये तो िनरपमा ने िफर भावज को िलखा िक तुमने और भी मुझे िवपित मे डाल िदया। इससे तो पहले ही भली थी। अब तो काई बात भी नहीं पूछता िक मरती है या जीती है। अगर यही दशा रही तो सवामी जी चाहे संनयास ले या न ले, लेिकन मै संसार को अवशय तयाग दंगूी।

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भी य पत पाकर पिरिसथित समझ गयी। अबकी उसने िनरपमा को बुलाया नहीं, जानती थी िक लोग िवदा ही न करेगे, पित को

लेकर सवयं आ पहंुची। उसका नाम सुकेशी था। बडी िमलनसार, चतुर िवनोदशील िी थी। आते ही आते िनरपमा की गोद मे कनया देखी तो बोली—अरे यह कया?

भासास—भागय है और कया?सुकेशी—भागय कैसा? इसने महातमा जी की बाते भुला दी होगी। ऐसा

तो हो ही नहीं सकता िक वह मुंह से जो कुछ कह दे, वह न हो। कयो जी, तुमने मगंल का वत रखा?

िनरपमा—बराबर, एक वत भी न छोडा।सुकेशी—पांच बाहिो को मंगल के िदन भोजन कराती रही?िनरपमा—यह तो उनहोने नहीं कहा था।सुकेशी—तुमहारा िसर, मुझे खबू याद है, मेरे सामने उनहोने बहुत जोर

देकर कहा था। तुमने सोचा होगा, बाहिो को भोजन कराने से कया होता है। यह न समझा िक कोई अनुषान सफल नहीं होता जब तक िविधवत ्उसका पालन न िकया जाये।

सास—इसने कभी इसकी चचा ि ही नहीं की;नहीं;पांच कया दस बाहिो को िजमा देती। तुमहारे धम ि से कुछ कमी नहीं है।

सुकेशी—कुछ नहीं, भूल हो गयी और कया। रानी, बेिे का मुंह यो देखना नसीब नहीं होता। बडे-बडे जप-तप करने पडते है, तुम मंगल के वत ही से घबरा गयीं?

सास—अभािगनी है और कया?घमंडीलाल—ऐसी कौन-सी बडी बाते थीं, जो याद न रहीं? वह हम लोगो

को जलाना चाहती है।सास—वही तो कहंू िक महातमा की बात कैसे िनषफल हुई। यहां सात

बरसो ते ‘तुलसी माई’ को िदया चिाया, जब जा के बचचे का जनम हुआ।घमंडीलाल—इनहोने समझा था दाल-भात का कौर है!

सुकेशी—खरै, अब जो हुआ सो हुआ कल मंगल है, िफर वत रखो और अब की सात बाहिो को िजमाओ, देखे, कैसे महातमा जी की बात नहीं परूी होती।

घमंडीलाल-वयथ ि है, इनके िकये कुछ न होगा।37

सुकेशी—बाबूजी, आप िवदान समझदार होकर इतना िदल छोिा करते है। अभी आपककी उम कया है। िकतने पुत लीिजएगा? नाको दम न हो जाये तो किहएगा।सास—बेिी, दधू-पूत से भी िकसी का मन भरा है।

सुकेशी—ईशर ने चाहा तो आप लोगो का मन भर जायेगा। मेरा तो भर गया।

घमंडीलाल—सुनती हो महारानी, अबकी कोई गोलमोल मत करना। अपनी भाभी से सब बयोरा अचछी तरह पूछ लेना।

सुकेशी—आप िनिशंत रहे, मै याद करा दंगूी; कया भोजन करना होगा, कैसे रहना होगा कैसे सनान करना होगा, यह सब िलखा दंगूी और अममा जी, आज से अठारह मास बाद आपसे कोई भारी इनाम लूगंी।

सुकेशी एक सपाह यहां रही और िनरपमा को खूब िसखा-पिा कर चली गयी।

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रपमा का एकबाल िफर चमका, घमंडीलाल अबकी इतने आशािसत से रानी हुई, सास िफर उसे पान की भांित फेरने लगी, लोग उसका मुंह

जोहने लगे।िन

िदन गजुरने लगे, िनरपमा कभी कहती अममां जी, आज मैने सवपन देखा िक विृ िी ने आकर मुझे पकुारा और एक नािरयल देकर बोली, ‘यह तुमहे िदये जाती हंू; कभी कहती,’अममां जी, अबकी न जाने कयो मेरे िदल मे बडी-बडी उमंगे पैदा हो रही है, जी चाहता है खूब गाना सुनूं, नदी मे खूब सनान करं, हरदम नशा-सा छाया रहता है। सास सुनकर मुसकराती और कहती—बहू ये शुभ लकि है।

िनरपमा चुपके-चपुके माजूर मंगाकर खाती और अपने असल नेतो से ताकते हुए घमंडीलाल से पछूती-मेरी आंखे लाल है कया?

घमंडीलाल खशु होकर कहते—मालूम होता है, नशा चिा हुआ है। ये शुभ लकि है।

िनरपमा को सुगधंो से कभी इतना पेम न था, फूलो के गजरो पर अब वह जान देती थी।

घमंडीलाल अब िनतय सोते समय उसे महाभारत की वीर कथाएं पिकर सुनाते, कभी गरु गोिवंदिसंह कीित ि का विनि करते। अिभमनयु की

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कथा से िनरपमा को बडा पेम था। िपता अपने आने वाले पुत को वीर-

संसकारो से पिरपूिरत कर देना चाहता था।एक िदन िनरपमा ने पित से कहा—नाम कया रखोगे?घमंडीलाल—यह तो तुमने खबू सोचा। मुझे तो इसका धयान ही न

रहा। ऐसा नाम होना चािहए िजससे शौय ि और तेज िपके। सोचो कोई नाम।दोनो पािी नामो की वयाखया करने लगे। जोरावरलाल से लेकर

हिरशनद तक सभी नाम िगनाये गये, पर उस असामानय बालक के िलए कोई नाम न िमला। अंत मे पित ने कहा तेगबहादरु कैसा नाम है।

िनरपमा—बस-बस, यही नाम मुझे पसनद है?

घमंडी लाल—नाम ही तो सब कुछ है। दमडी, छकौडी, घुरहू, कतवार,

िजसके नाम देखे उसे भी ‘यथा नाम तथा गुि’ ही पाया। हमारे बचचे का नाम होगा तेगबहादरु।

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सव-काल आ पहंुचा। िनरपमा को मालूम था िक कया होने वाली है;

लेिकन बाहर मंगलाचरि का पूरा सामान था। अबकी िकसी को लेशमात भी संदेह न था। नाच, गाने का पबंध भी िकया गया था। एक शािमयाना खडा िकया गया था और िमतगि उसमे बठेै खशु-गिपपयां कर रहे थे। हलवाई कडाई से पिूरयां और िमठाइयां िनकाल रहा था। कई बोरे अनाज के रखे हुए थे िक शुभ समाचार पाते ही िभकुको को बांिे जाये। एक कि का भी िवलमब न हो, इसिलए बोरो के मुंह खोल िदये गये थे।

लेिकन िनरपमा का िदल पितकि बैठा जाता था। अब कया होगा?

तीन साल िकसी तरह कौशल से कि गये और मजे मे कि गये, लेिकन अब िवपित िसर पर मंडरा रही है। हाय! िनरपराध होने पर भी यही दंड! अगर भगवान ्की इचछा है िक मेरे गभ ि से कोई पुत न जनम ले तो मेरा कया दोष! लेिकन कौन सुनता है। मै ही अभािगनी हंू मै ही तयाजय हंू मै ही कलमुंही हंू इसीिलए न िक परवश हंू! कया होगा? अभी एक कि मे यह सारा आनंदातसव शोक मे डूब जायेगा, मुझ पर बौछारे पडने लगेगी, भीतर से बाहर तक मुझी को कोसेगे, सास-ससुर का भय नहीं, लेिकन सवामी जी शायद िफर मेरा मुंह न देखे, शायद िनराश होकर घर-बार तयाग दे। चारो तरफ अमगंल ही अमगंल है मै अपने घर की, अपनी संतान की ददुिशा देखने के िलए कयो जीिवत हंू। कौशल बहुत हो चकुा, अब उससे कोई आशा नहीं। मेरे िदल मे

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कैसे-कैसे अरमान थे। अपनी पयारी बिचचयो का लालन-पालन करती, उनहे बयाहती, उनके बचचो को देखकर सुखी होती। पर आह! यह सब अरमान झाक मे िमले जाते है। भगवान ्! तुमही अब इनके िपता हो, तुमहीं इनके रकक हो। मै तो अब जाती हंू।

लेडी डॉकिर ने कहा—वेल! िफर लडकी है।भीतर-बाहर कुहराम मच गया, िपििस पड गयी। घमडंीलाल ने कहा—

जहननुम मे जाये ऐसी िजंदगी, मौत भी नहीं आ जाती!उनके िपता भी बोले—अभािगनी है, वज अभािगनी!िभककुो ने कहा—रोओ अपनी तकदीर को हम कोई दसूरा दार देखते

है।अभी यह शोकादगार शांत न होने पाया था िक डॉकिर ने कहा मां का

हाल अचछा नहीं है। वह अब नहीं बच सकती। उसका िदल बंद हो गया है।

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