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Post on 16-Jan-2020

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श्रीमद्भगवद्गीता हि�न्दीभाषाऽऽनुवादसहि�ताश्रीमद ्भगवद्गीता (Srimad Bhagawad Gita - With Hindi Translation)

श्रीमद ्भगवत गीता के बहुत से अनुवाद हैं। किकसी को कोई अच्छा लगता है, किकसी को कोई। संस्कृत सबको नही् आती इसलिलये मैं कोलि%% कर रहा हूँ सीधी किहन्दी में लिलखने की। भगवान करें मैं ठीक-ठीक लिलख पाऊँ। आप को प्रणाम है। यह आप की ही है, इस अनुवाद को आप किबना झि55क कहीं भी डालें, किकसी को भी भेजें, इसे किकसी और फ़ॉरमेट में बदलना चाहें तो वह भी आप कर सकते हैं। भगवान हम सब का भला करें। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।

अनुक्रमणिणका

1. श्रीमद्भगवद्गीता किहन्दीभाषाऽऽनुवादसकिहता 01 2. श्रीमद्भगवद्गीता किहन्दीभाषाऽऽनुवादसकिहता 02 3. श्रीमद्भगवद्गीता किहन्दीभाषाऽऽनुवादसकिहता 03 4. श्रीमद्भगवद्गीता किहन्दीभाषाऽऽनुवादसकिहता 04 5. श्रीमद्भगवद्गीता किहन्दीभाषाऽऽनुवादसकिहता 05 6. श्रीमद्भगवद्गीता किहन्दीभाषाऽऽनुवादसकिहता 06 7. श्रीमद्भगवद्गीता किहन्दीभाषाऽऽनुवादसकिहता 07 8. श्रीमद्भगवद्गीता किहन्दीभाषाऽऽनुवादसकिहता 08 9. श्रीमद्भगवद्गीता किहन्दीभाषाऽऽनुवादसकिहता 09 10. श्रीमद्भगवद्गीता किहन्दीभाषाऽऽनुवादसकिहता 10 11. श्रीमद्भगवद्गीता किहन्दीभाषाऽऽनुवादसकिहता 11 12. श्रीमद्भगवद्गीता किहन्दीभाषाऽऽनुवादसकिहता 12 13. श्रीमद्भगवद्गीता किहन्दीभाषाऽऽनुवादसकिहता 13 14. श्रीमद्भगवद्गीता किहन्दीभाषाऽऽनुवादसकिहता 14 15. श्रीमद्भगवद्गीता किहन्दीभाषाऽऽनुवादसकिहता 15 16. श्रीमद्भगवद्गीता किहन्दीभाषाऽऽनुवादसकिहता 16 17. श्रीमद्भगवद्गीता किहन्दीभाषाऽऽनुवादसकिहता 17 18. श्रीमद्भगवद्गीता किहन्दीभाषाऽऽनुवादसकिहता 18

इस प्रकार भगवान वासुदेव द्वारा दिदये ज्ञान - श्री भगवद गीत (श्रीमद गीता) का किहन्दी अनुवाद करने का मैंने प्रयत्न किकया है। भगवान हम सब को बुझिH दें की हम उन के इस अचिचंतनीय अलौकिकक ज्ञान को अपने जीवन में उतार पायें। जैसे भगवान हरिर के चरण कमलों से किनकल कर गँगा सारे संसार को पकिवत्र करती है, उसी प्रकार

भगवान हरिर के यह वचन हमारे जीवन को पकिवत्र करते हैं। श्रीमद भगवद गीता मनुष्य जीवन की गाथा है। जीवन क्या है, जीवन का उदे्दश्य क्या है, जीव का धमU क्या है, क्या प्राप्तव्य है, कैसे संकटों से मनुष्य छूटता है - यह सब भगवान हरिर के इन वाक्यों द्वारा सपष्ट होता है। इस संसार के परम गुरु, भगवान जनादUन को प्रणाम है। ॐ नमः भगवते वासुदेवाय।

श्रीमद्भगवद्गीता हि�न्दीभाषाऽऽनुवादसहि�ता 01Bold text== पहला अध्याय == धृतराष्ट्र बोले:धमUके्षते्र कुरुके्षत्रे समवेता युयुत्सवः।मामकाः पाण्डवाशै्चव किकमकुवUत संजय॥१-१॥

हे संजय, धमUक्षेत्र में युH की इच्छा से इकटे्ठ हुये मेरे और पाण्डव के पुत्रों ने क्या किकया।

संजय बोले:दृष््टवा तु पाण्डवानीकं वू्यढं दुयhधनस्तदा।आचायUमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्॥१-२॥

हे राजन, पाण्डवों की सेना व्यवस्था देख कर दुयhधन ने अपने आचायU के पास जा कर उनसे कहा।पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचायU महतीं चमूम्।वू्यढां द्रुपदपुत्रेण तव लि%ष्येण धीमता॥१-३॥

हे आचायU, आप के तेजस्वी लि%ष्य द्रुपदपुत्र द्वारा व्यवस्थिस्थत की इस किव%ाल पाण्डू सेना को देखिखये।अत्र %ूरा महेष्वासा भीमाजुUनसमा यधुिध।युयुधानो किवराटश्च द्रुपदश्च महारथः॥१-४॥धृष्टकेतुशे्चकिकतानः कालि%राजश्च वीयUवान्।पुरुझिजत्कुन्तिन्तभोजश्च %ैब्यश्च नरपुङ्गवः॥१-५॥युधामन्युश्च किवक्रान्त उत्तमौजाश्च वीयUवान्।सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सवU एव महारथाः॥१-६॥

इसमें भीम और अजुUन के ही समान बहुत से महान %ूरवीर योधा हैं जैसे युयुधान, किवराट और महारथी द्रुपद, धृष्टकेतु, चेकिकतान, बलवान कालि%राज, पुरुझिजत, कुन्तिन्तभोज तथा नरश्रेष्ट %ैब्य। किवक्रान्त युधामन्यु, वीयUवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र (अणिभमन्यु), और द्रोपदी के पुत्र - सभी महारथी हैं।अस्माकं तु किवलि%ष्टा य ेताधि{बोध किद्वजोत्तम।नायका मम सैन्यस्य संज्ञाथ| तान्ब्रवीधिम ते॥१-७॥

हे किद्वजोत्तम, हमारी ओर भी जो किवलि%ष्ट योHा हैं उन्हें आप को बताता हूँ। हमारी सैन्य के जो प्रमुख नायक हैं उन के नाम मैं आप को बताता हूँ।भवान्भीष्मश्च कणUश्च कृपश्च सधिमतितंजयः।अश्वत्थामा किवकणUश्च सौमदणित्तस्तथैव च॥१-८॥

आप स्वयं, भीष्म किपतामह, कणU, कृप, अश्वत्थामा, किवकणU तथा सौमदत्त (सोमदत्त के पुत्र) - यह सभी प्रमुख योधा हैं।अन्ये च बहवः %ूरा मदथ� त्यक्तजीकिवताः।नाना%स्त्रप्रहरणाः सव� युHकिव%ारदाः॥१-९॥

हमारे पक्ष में युH में कु%ल, तरह तरह के %स्त्रों में माकिहर और भी अनेकों योHा हैं जो मेरे लिलये अपना जीवन तक त्यागने को त्यार हैं।अपयाUप्तं तदस्माकं बलं भीष्माणिभरणिक्षतम्।पयाUप्तं न्तित्वदमेतेषां बलं भीमाणिभरणिक्षतम्॥१-१०॥

भीष्म किपतामह द्वारा रणिक्षत हमारी सेना का बल पयाUप्त नहीं है, परन्तु भीम द्वारा रणिक्षत पाण्डवों की सेना बल पूणU है।अयनेषु च सव�षु यथाभागमवस्थिस्थताः।भीष्ममेवाणिभरक्षन्तु भवन्तः सवU एव किह॥१-११॥

इसलिलये सब लोग झिजन झिजन स्थानों पर किनयुक्त हों वहां से सभी हर ओर से भीष्म किपतामह की रक्षा करें।तस्य संजनयन्हष| कुरुवृHः किपतामहः।चिसंहनादं किवनद्योच्चैः %ङ्खं दध्मौ प्रतापवान्॥१-१२॥

तब कुरुवृH प्रतापवान भीष्म किपतामह ने दुयhधन के हृदय में हषU उत्प{ करते हुये उच्च स्वर में चिसंहनाद किकया और %ंख बजाना आरम्भ किकया।ततः %ङ्खाश्च भेयUश्च पणवानकगोमुखाः।सहसैवाभ्यहन्यन्त स %ब्दस्तुमुलोऽभवत्॥१-१३॥

तब अनेक %ंख, नगारे, ढोल, %ंृगी आदिद बजने लगे झिजनसे घोर नाद उत्प{ हुआ।ततः शे्वतैहUयैयुUके्त महकित स्यन्दने स्थिस्थतौ।माधवः पाण्डवशै्चव दिदव्यौ %ङ्खौ प्रदध्मतुः॥१-१४॥

तब शे्वत अश्वों से वकिहत भव्य रथ में किवराजमान भगवान माधव और पाण्डव पुत्र अजुUन नें भी अपने अपने %ंख बजाये।पाञ्चजन्यं हृषीके%ो देवदतं्त धनञ्जयः।पौण्डं्र दध्मौ महा%ङ्खं भीमकमाU वृकोदरः॥१-१५॥

भगवान हृकिषके% नें पाञ्चजन्य नामक अपना %ंख बजाया और धनंजय (अजुUन) ने देवदत्त नामक %ंख बजाया। तथा भीम कमाU भीम नें अपना पौण्ड्र नामक महा%ंख बजाया।अनन्तकिवजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिधधि�रः।नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिणपुष्पकौ॥१-१६॥

कुन्तीपुत्र राजा युधिधधि�र नें अपना अनन्त किवजय नामक %ंख, नकुल नें सुघोष और सहदेव नें अपना मणिणपुष्पक नामक %ंख बजाये।काश्यश्च परमेष्वासः लि%खण्डी च महारथः।धृष्टदु्यम्नो किवराटश्च सात्यकिकश्चापराझिजतः॥१-१७॥द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सवU%ः पृलिथवीपते।सौभद्रश्च महाबाहुः %ङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक्॥१-१८॥

धनुधर कालि%राज, महारथी लि%खण्डी, धृष्टदु्यम्न, किवराट तथा अजेय सात्यकिक, द्रुपद, द्रोपदी के पुत्र तथा अन्य सभी राजाओं नें तथा महाबाहु सौभद्र (अणिभमन्यु) नें - सभी नें अपने अपने %ंख बजाये।स घोषो धातUराष्ट्राणां हृदयाकिन व्यदारयत्।नभश्च पृलिथवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्॥१-१९॥

%ंखों की उस महाध्वकिन से आका% और पृलिथकिव गँूजने लगीं तथा धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदय णिभ{ गये।अथ व्यवस्थिस्थतान्दृष््टवा धातUराष्ट्रान्ककिपध्वजः।प्रवृते्त %स्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः॥१-२०॥हृषीके%ं तदा वाक्यधिमदमाह महीपते।

तब धृतराष्ट्र के पुत्रों को व्यवस्थिस्थत देख, ककिपध्वज (झिजनके ध्वज पर हनुमान जी किवराजमान थ)े श्री अजुUन नें %स्त्र उठाकर भगवान हृकिषके% से यह वाक्य कहे।

अजुUन बोले:

सेनयोरुभयोमUध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत॥१-२१॥यावदेताधि{रिरक्षेऽहं योद ्धुकामानवस्थिस्थतान्।कैमUया सह योHव्यमस्मिस्मन् रणसमुद्यमे॥१-२२॥

हे अच्युत, मेरा रथ दोनो सेनाओं के मध्य में स्थाकिपत कर दीझिजये ताकी मैं युH की इच्छा रखने वाले इन योHाओं का किनरीक्षण कर सकंू झिजन के साथ मु5े युH करना है।योत्स्यमानानवेके्षऽहं य एतेऽत्र समागताः।धातUराष्ट्रस्य दुबुUHेयुUHे किप्रयलिचकीषUवः॥१-२३॥

दुबुUझिH दुयhधन का युH में किप्रय चाहने वाले राजाओं को जो यहाँ युH के लिलये एककित्रत हुये हैं मैं देखँू लंू।

संजय बोले:

एवमुक्तो हृषीके%ो गुडाके%ेन भारत।सेनयोरुभयोमUध्ये स्थापधियत्वा रथोत्तमम्॥१-२४॥

हे भारत (धृतराष्ट्र), गुडाके% के इन वचनों पर भगवान हृकिषके% नें उस उत्तम रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में स्थाकिपत कर दिदया।

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सव�षां च महीणिक्षताम्।उवाच पाथU पश्यैतान्समवेतान्कुरूकिनकित॥१-२५॥

रथ को भीष्म किपतामह, द्रोण तथा अन्य सभी प्रमुख राजाओं के सामने (उन दोनो सेनाओं के बीच में) स्थाकिपत कर, कृष्ण भगवान नें अजुUन से कहा की हे पाथU इन कुरुवं%ी राजाओं को देखो।तत्रापश्यस्थित्स्थतान्पाथUः किपतॄनथ किपतामहान्।आचायाUन्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा॥१-२६॥श्व%ुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरकिप।तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सवाUन्बन्धूनवस्थिस्थतान्॥१-२७॥

वहां पाथU नें उस सेना में अपने किपता के भाईयों, किपतामहों (दादा), आचाय�, मामों, भाईयों, पुत्रों, धिमत्रों, पौत्रों, श्व%ुरों (ससुर), संबन्धीयों को दोनो तरफ की सेनोओं में देखा।कृपया परयाकिवष्टो किवषीदधि{दमब्रवीत्।

इस प्रखार अपने सगे संबन्धिन्धयों और धिमत्रों को युH में उपस्थिस्थत देख अजुUन का मन करुणा पूणU हो उठा और उसने किवषाद पूवUक कृष्ण भगवान से यह कहा।

अजुUन बोले:दृष््टवेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्संु समुपस्थिस्थतम्॥१-२८॥

हे कृष्ण, मैं अपने लोगों को युH के लिलये तत्पर यहाँ खडा देख रहा हूँ।सीदन्तिन्त मम गात्राणिण मुखं च परिर%ुष्यकित।वेपथुश्च %रीरे मे रोमहषUश्च जायते॥१-२९॥

इन्हें देख कर मेरे अंग ठण्डे पड रहे है, और मेरा मुख सूख रहा है, और मेरा %रीर काँपने लगा है।गाण्डीवं सं्रसते हस्तात्त्वक्चैव परिरदह्यते।न च %क्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः॥१-३०॥

मेरे हाथ से गाण्डीव धनुष किगरने को है, और मेरी सारी त्वचा मानो आग में जल उठी है। मैं अवस्थिस्थत रहने में अ%क्त हो गया हूँ, मेरा मन भ्रधिमत हो रहा है।किनधिमत्ताकिन च पश्याधिम किवपरीताकिन के%व।न च शे्रयोऽनुपश्याधिम हत्वा स्वजनमाहवे॥१-३१॥

हे के%व, जो किनधिमत्त है उसे में भी मु5े किवपरीत ही दिदखाई दे रहे हैं, क्योंकिक हे के%व, मु5े अपने ही स्वजनों को मारने में किकसी भी प्रकार का कल्याण दिदखाई नहीं देता।न काङ्के्ष किवजयं कृष्ण न च राज्यं सुखाकिन च।तिकं नो राज्येन गोकिवन्द तिकं भोगैज¢किवतेन वा॥१-३२॥

हे कृष्ण, मु5े किवजय, या राज्य और सुखों की इच्छा नहीं है। हे गोतिवंद, (अपने किप्रय जनों की हत्या कर) हमें राज्य से, या भोगों से, यहाँ तक की जीवन से भी क्या लाभ है।येषामथ� काङ्णिक्षतं नो राज्यं भोगाः सुखाकिन च।त इमेऽवस्थिस्थता युHे प्राणांस्त्यक्त्वा धनाकिन च॥१-३३॥

झिजन के लिलये ही हम राज्य, भोग तथा सुख और धन की कामना करें, वे ही इस युH में अपने प्राणों की बलिल चढने को त्यार यहाँ अवस्थिस्थत हैं।आचायाUः किपतरः पुत्रास्तथैव च किपतामहाः।मातुलाः श्व%ुराः पौत्राः श्यालाः संबन्धिन्धनस्तथा॥१-३४॥

गुरुजन, किपता जन, पुत्र, तथा किपतामहा, मातुल, ससुर, पौत्र, साले आदिद सभी संबन्धिन्ध यहाँ प्रस्तुत हैं।एता{ हन्तुधिमच्छाधिम घ्नतोऽकिप मधुसूदन।अकिप तै्रलोक्यराज्यस्य हेतोः तिकं नु महीकृते॥१-३५॥

हे मधुसूदन। इन्हें हम तै्रलोक्य के राज के लिलये भी नहीं मारना चाहेंगें, किफर इस धरती के लिलये तो बात ही क्या है, चाहे ये हमें मार भी दें।किनहत्य धातUराष्ट्रा{ः का प्रीकितः स्याज्जनादUन।पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानातताधियनः॥१-३६॥

धृतराष्ट्र के इन पुत्रों को मार कर हमें भला क्या प्रस{ता प्राप्त होगी हे जनादUन। इन आतताधियनों को मार कर हमें पाप ही प्राप्त होगा।तस्मा{ाहाU वयं हन्तु ंधातUराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।स्वजनं किह कथं हत्वा सुखिखनः स्याम माधव॥१-३७॥

इसलिलये धृतराष्ट्र के पुत्रो तथा अपने अन्य संबन्धिन्धयों को मारना हमारे लिलये उलिचत नहीं है। हे माधव, अपने ही स्वजनों को मार कर हमें किकस प्रकार सुख प्राप्त हो सकता है।यद्यप्येते न पश्यन्तिन्त लोभोपहतचेतसः।कुलक्षयकृतं दोषं धिमत्रद्रोहे च पातकम्॥१-३८॥

यद्यकिप ये लोग, लोभ के कारण झिजनकी बुझिH हरी जा चुकी है, अपने कुल के ही क्षय में और अपने धिमत्रों के साथ द्रोह करने में कोई दोष नहीं देख पा रहे।कथं न जे्ञयमस्माणिभः पापादस्माधि{वर्तितंतुम्।कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यझिद्भजUनादUन॥१-३९॥

परन्तु हे जनादUन, हम लोग तो कुल का क्षय करने में दोष देख सकते हैं, हमें इस पाप से किनवृत्त क्यों नहीं होना चाकिहये (अथाUत इस पाप करने से टलना चाकिहये)।

कुलक्षये प्रणश्यन्तिन्त कुलधमाUः सनातनाः।धम� नष्टे कुलं कृत्स्नमधमhऽणिभभवत्युत॥१-४०॥

कुल के क्षय हो जाने पर कुल के सनातन (सदिदयों से चल रहे) कुलधमU भी नष्ट हो जाते हैं। और कुल के धमU नष्ट हो जाने पर सभी प्रकार के अधमU बढने लगते हैं।अधमाUणिभभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्तिन्त कुलन्धिस्त्रयः।स्त्रीषु दुष्टासु वाष्ण�य जायते वणUसंकरः॥१-४१॥

अधमU फैल जाने पर, हे कृष्ण, कुल की न्धिस्त्रयाँ भी दूकिषत हो जाती हैं। और हे वाष्ण�य, न्धिस्त्रयों के दूकिषत हो जाने पर वणU धमU नष्ट हो जाता है।संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।पतन्तिन्त किपतरो हे्यषां लुप्तकिपण्डोदककिक्रयाः॥१-४२॥

कुल के कुलघाती वणUसंकर (वणU धमU के न पालन से) नरक में किगरते हैं। इन के किपतृ जन भी किपण्ड और जल की परम्पराओं के नष्ट हो जाने से (श्राH आदिद का पालन न करने से) अधोगकित को प्राप्त होते हैं (उनका उHार नहीं होता)।दोषैरेतैः कुलघ्नानां वणUसंकरकारकैः।उत्साद्यन्ते जाकितधमाUः कुलधमाUश्च %ाश्वताः॥१-४३॥

इस प्रकार वणU भ्रष्ट कुलघाकितयों के दोषों से उन के सनातन कुल धमU और जाकित धमU नष्ट हो जाते हैं।उत्स{कुलधमाUणां मनुष्याणां जनादUन।नरकेऽकिनयतं वासो भवतीत्यनु%ुशु्रम॥१-४४॥

हे जनादUन, कुलधमU भ्रष्ट हुये मनुष्यों को अकिनणिश्चत समय तक नरक में वास करना पडता है, ऐसा हमने सुना है।अहो बत महत्पापं कतु| व्यवलिसता वयम्।यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥१-४५॥

अहो ! हम इस महापाप को करने के लिलये आतुर हो यहाँ खडे हैं। राज्य और सुख के लोभ में अपने ही स्वजनों को मारने के लिलये व्याकुल हैं।यदिद मामप्रतीकारम%स्तं्र %स्त्रपाणयः।धातUराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे के्षमतरं भवेत्॥१-४६॥

यदिद मेरे किवरोध रकिहत रहते हुये, %स्त्र उठाये किबना भी यह धृतराष्ट्र के पुत्र हाथों में %स्त्र पकडे मु5े इस युH भूधिम में मार डालें, तो वह मेरे लिलये (युH करने की जगह) ज्यादा अच्छा होगा।

संजय बोलेएवमुक्त्वाजुUनः संख्ये रथोपस्थ उपाकिव%त्।किवसृज्य स%रं चापं %ोकसंकिवग्नमानसः॥१-४७॥

श्रीमद्भगवद्गीता हि�न्दीभाषाऽऽनुवादसहि�ता 02दूसरा अध्याय

संजय बोलेतं तथा कृपयाकिवष्टमश्रुपूणाUकुलेक्षणम्।किवषीदन्तधिमदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥२- १॥

तब चिचंता और किव%ाद में डूबे अजुUन को, झिजसकी आँखों में आँसू भर आऐ थ,ेमधुसूदन ने यह वाक्य कहे॥

श्रीभगवान बोलेकुतस्त्वा कश्मलधिमदं किवषमे समुपस्थिस्थतम्।अनायUजुष्टमस्वग्यUमकीर्तितकंरमजुUन॥२- २॥

हे अजुUन, यह तुम किकन किवचारों में डूब रहे हो जो इस समय गलत हैं औरस्वगU और कीत¢ के बाधक हैं॥क्लैब्यं मा स्म गमः पाथU नैतत्त्वय्युपपद्यते।कु्षदं्र हृदयदौबUल्यं त्यक्त्वोणित्त� परन्तप॥२- ३॥

तुम्हारे लिलये इस दुबUलता का साथ लेना ठीक नहीं।इस नीच भाव, हृदय की दुबUलता, का त्याग करके उठो हे परन्तप॥

अजुUन बोलेकथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन।इषुणिभः प्रकित योत्स्याधिम पूजाहाUवरिरसूदन॥२- ४॥

हे अरिरसूदन, मैं किकस प्रकार भीष्म, संख्य और द्रोण से युध करँुगा।वे तो मेरी पूजा के हकदार हैं॥गुरूनहत्वा किह महानुभावान् शे्रयो भोकंु्त भैक्ष्यमपीह लोके।हत्वाथUकामांस्तु गुरूकिनहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिधरप्रदिदग्धान्॥२- ५॥

इन महानुभाव गुरुयों की हत्या से तो भीख माँग कर जीना ही बेहतर होगा।इन को मारकर जो भोग हमें प्राप्त होंगे वे सब तो खून से रँगे होंगे॥

न चैतकिद्वद्मः कतर{ो गरीयो यद्वा जयेम यदिद वा नो जयेयुः।यानेव हत्वा न झिजजीकिवषाम- स्तेऽवस्थिस्थताः प्रमुखे धातUराष्ट्राः॥२- ६॥

हम तो यह भी नहीं जानते की हम जीतेंगे याँ नहीं, और यह भी नहीं की दोनो में से बेहतर क्या है, उनका जीतना या हमारा,क्योंकिक झिजन्हें मार कर हम जीना भी नहीं चाहेंगे वही धातUराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने खड़ें हैं॥कापUण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छाधिम त्वां धमUसम्मूढचेताः।यचे्छ्रयः स्याधि{णिश्चतं बू्रकिह तन्मे लि%ष्यस्तेऽहं %ाधिध मां त्वां प्रप{म्॥२- ७॥

इस दुख चिचंता ने मेरे स्वभाव को छीन लिलया है और मेरा मन %ंका से धिघरकरसही धमU को नहीं हेख पा रहा है। मैं आप से पूछता हूँ, जो मेरे लिलये किनस्थिष्चत प्रकार से अच्छाहो वही मु5े बताइये॥मैं आप का लि%ष्य हूँ और आप की ही %रण लेता हूँ॥न किह प्रपश्याधिम ममापनुद्याद ्यच्छोकमुच्छोषणधिमझिन्द्रयाणाम्।अवाप्य भूमावसपत्नमृHं राज्यं सुराणामकिप चाधिधपत्यम्॥२- ८॥

मु5े नहीं दिदखता कैसे इस दुखः का, जो मेरी इन्द्रीयों को सुखा रहा है, अन्त हो सकता है,भले ही मु5े इस भूमी पर अकित समृH और %त्रुहीन राज्य यां देवतायों का भी राज्यपद क्यों न धिमल जाऐ॥

संजय बोलेएवमुक्त्वा हृषीके%ं गुडाके%ः परन्तप।न योत्स्य इकित गोकिवन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह॥२- ९॥

हृकिषके%, श्री गोकिवन्द जी को परन्तप अजुUन, गुडाके% यह कह कर चुप हो गये किक मैं युध नहीं करँुगा॥तमुवाच हृषीके%ः प्रहसधि{व भारत।सेनयोरुभयोमUध्ये किवषीदन्तधिमदं वचः॥२- १०॥

हे भारत, दो सेनाओं के बीच में %ोक और दुख से धिघरे अजुUन को प्रस{ता से हृषीके% ने यह बोला॥

श्रीभगवान बोलेअ%ोच्यानन्व%ोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।गतासूनगतासूंश्च नानु%ोचन्तिन्त पस्थिण्डताः॥२- ११॥

झिजन के लिलये %ोक नहीं करना चाकिहये उनके लिलये तुम %ोक कर रहेहो और बोल तुम बुHीमानों की तरहँ रहे हो। ज्ञानी लोग न उन के लिलये %ोक करते हैजो चले गऐ और न उन के लिलये जो हैं॥

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिधपाः।न चैव न भकिवष्यामः सव� वयमतः परम्॥२- १२॥

न तुम्हारा न मेरा और न ही यह राजा जो दिदख रहे हैं इनका कभी ना% होता है॥और यह भी नहीं की हम भकिवष्य मे नहीं रहेंगे॥देकिहनोऽस्मिस्मन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।तथा देहान्तरप्रान्तिप्तध¢रस्तत्र न मुह्यकित॥२- १३॥

आत्मा जैसे देह के बाल, युवा यां बूढे होने पर भी वैसी ही रहती हैउसी प्रकार देह का अन्त होने पर भी वैसी ही रहती है॥बुHीमान लोग इस परव्यलिथत नहीं होते॥मात्रास्प%ाUस्तु कौन्तेय %ीतोष्णसुखदुःखदाः।आगमापाधियनोऽकिनत्यास्तांस्मिस्तकितक्षस्व भारत॥२- १४॥

हे कौन्तेय, सरदी गरमी सुखः दुखः यह सब तो केवल स्प%U मात्र हैं।आते जाते रहते हैं, हमे%ा नहीं रहते, इन्हें सहन करो, हे भारत॥यं किह न व्यथयन्त्येत ेपुरुषं पुरुषषUभ।समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥२- १५॥

हे पुरुषषUभ, वह धीर पुरुष जो इनसे व्यलिथत नहीं होता, जो दुख और सुख मेंएक सा रहता है, वह अमरता के लायक हो जाता है॥नासतो किवद्यते भावो नाभावो किवद्यते सतः।उभयोरकिप दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शि%ंणिभः॥२- १६॥

न असत कभी रहता है और सत न रहे ऐसा हो नहीं सकता।इन होनो की ही असलीयत वह देख चुके हैं जो सार को देखते हैं॥अकिवनालि% तु तकिद्वझिH येन सवUधिमदं ततम्।किवना%मव्ययस्यास्य न कणिश्चत्कतुUमहUकित॥२- १७॥

तुम यह जानो किक उसका ना% नहीं किकया जा सकता झिजसमे यह सब कुछ स्थिस्थत है।क्योंकिक जो अमर है उसका ना% करना किकसी के बस में नहीं॥अन्तवन्त इमे देहा किनत्यस्योक्ताः %रीरिरणः।अनालि%नोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥२- १८॥

यह देह तो मरण%ील है, लेकिकन %रीर में बैठने वाला अन्तहीन कहा जाता है।इस आत्मा का न तो अन्त है और न ही इसका कोई मेल है, इसलिलऐ युH करो हे भारत॥य एनं वेणित्त हन्तारं यशै्चनं मन्यते हतम्।उभौ तौ न किवजानीतो नायं हन्तिन्त न हन्यते॥२- १९॥

जो इसे मारने वाला जानता है या किफर जो इसे मरा मानता है,वह दोनों ही नहीं जानते। यह न मारती है और न मरती है॥न जायते धि±यते वा कदालिच- {ायं भूत्वा भकिवता वा न भूयः।अजो किनत्यः %ाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने %रीरे॥२- २०॥

यह न कभी पैदा होती है और न कभी मरती है। यह तो अजन्मी,अन्तहीन, %ाश्वत और अमर है। सदा से है, कब से है। %रीर के मरनेपर भी इसका अन्त नहीं होता॥वेदाकिवनालि%नं किनत्य ंय एनमजमव्ययम्।कथं स पुरुषः पाथU कं घातयकित हन्तिन्त कम्॥२- २१॥

हे पाथU, जो पुरुष इसे अकिवना%ी, अमर और जन्महीन, किवकारहीन जानता है,वह किकसी को कैसे मार सकता है यां खुद भी कैसे मर सकता है॥वासांलिस जीणाUकिन यथा किवहाय नवाकिन गृह्णाकित नरोऽपराणिण।तथा %रीराणिण किवहाय जीणाU न्यन्याकिन संयाकित नवाकिन देही॥२- २२॥

जैसे कोई व्यक्ती पुराने कपडे़ उतार कर नऐ कपडे़ पहनता है,वैसे ही %रीर धारण की हुई आत्मा पुराना %रीर त्याग करनया %रीर प्राप्त करती है॥नैनं लिछन्दन्तिन्त %स्त्राणिण नैनं दहकित पावकः।न चैनं क्लेदयन्त्यापो न %ोषयकित मारुतः॥२- २३॥

न %स्त्र इसे काट सकते हैं और न ही आग इसे जला सकती है।न पानी इसे णिभगो सकता है और न ही हवा इसे सुखा सकती है॥अचे्छद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽ%ोष्य एव च।किनत्यः सवUगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥२- २४॥

यह अछेद्य है, जलाई नहीं जा सकती, णिभगोई नहीं जा सकती, सुखाई नहीं जा सकती।यह हमे%ा रहने वाली है, हर जगह है, स्थिस्थर है, अन्तहीन है॥

अव्यक्तोऽयमलिचन्त्योऽयमकिवकायhऽयमुच्यते।तस्मादेवं किवदिदत्वैनं नानु%ोलिचतुमहUलिस॥२- २५॥

यह दिदखती नहीं है, न इसे सम5ा जा सकता है। यह बदलाव सेरकिहत है, ऐसा कहा जाता है। इसलिलये इसे ऐसा जान कर तुम्हें %ोकनहीं करना चाकिहऐ॥अथ चैनं किनत्यजातं किनत्यं वा मन्यसे मृतम्।तथाकिप त्वं महाबाहो नैवं %ोलिचतुमहUलिस॥२- २६॥

हे महाबाहो, अगर तुम इसे बार बार जन्म लेती और बार बार मरती भी मानो,तब भी, तुम्हें %ोक नहीं करना चाकिहऐ॥जातस्य किह धु्रवो मृत्युध्रुUवं जन्म मृतस्य च।तस्मादपरिरहाय�ऽथ� न त्वं %ोलिचतुमहUलिस॥२- २७॥

क्योंकिक झिजसने जन्म लिलया है, उसका मरना किनस्थिष्चत है। मरने वाले का जन्म भी तय है।झिजसके बारे में कुछ किकया नहीं जा सकता उसके बारे तुम्हें %ोक नहीं करना चाकिहऐ॥अव्यक्तादीकिन भूताकिन व्यक्तमध्याकिन भारत।अव्यक्तकिनधनान्येव तत्र का परिरदेवना॥२- २८॥

हे भारत, जीव %ुरू में अव्यक्त, मध्य में व्यक्त और मृत्यु के बाद किफरअव्यक्त हो जाते हैं। इस में दुखी होने की क्या बात है॥आश्चयUवत्पश्यकित कणिश्चदेन- माश्चयUवद्वदकित तथैव चान्यः।आश्चयUवच्चैनमन्यः %ृणोकित शु्रत्वाप्येनं वेद न चैव कणिश्चत्॥२- २९॥

कोई इसे आश्चयU से देखता है, कोई इसके बारे में आश्चयU से बताता है,और कोई इसके बारे में आश्चयUलिचत होकर सुनता है, लेकिकन सुनने के बाद भीकोई इसे नहीं जानता॥देही किनत्यमवध्योऽयं देहे सवUस्य भारत।तस्मात्सवाUणिण भूताकिन न त्वं %ोलिचतुमहUलिस॥२- ३०॥

हे भारत, हर देह में जो आत्मा है वह किनत्य है, उसका वध नहीं किकया जा सकता।इसलिलये किकसी भी जीव के लिलये तुम्हें %ोक नहीं करना चाकिहये॥स्वधमUमकिप चावेक्ष्य न किवकन्धिम्पतुमहUलिस।धम्याUझिH यHुाचे्छ्रयोऽन्यत्क्षकित्रयस्य न किवद्यते॥२- ३१॥

अपने खुद के धमU से तुम्हें किहलना नहीं चाकिहये क्योंकिक न्याय के लिलये किकये गयेयुH से बढकर ऐक क्षत्रीय के लिलये कुछ नहीं है॥यदृच्छया चोपप{ं स्वगUद्वारमपावृतम्।सुखिखनः क्षकित्रयाः पाथU लभन्ते यHुमीदृ%म्॥२- ३२॥

हे पाथU, सुखी हैं वे क्षकित्रय झिजन्हें ऐसा युH धिमलता है जो स्वयंम ही आया होऔर स्वगU का खुला दरवाजा हो॥अथ चेत्त्वधिममं धम्य| संग्रामं न करिरष्यलिस।ततः स्वधम| कीर्तिंतं च किहत्वा पापमवाप्स्यलिस॥२- ३३॥

लेकिकन यदिद तुम यह न्याय युH नहीं करोगे, को अपने धमU और य%की हाकिन करोगे और पाप प्राप्त करोगे॥अकीर्तिंतं चाकिप भूताकिन कथधियष्यन्तिन्त तेऽव्ययाम्।सम्भाकिवतस्य चाकीर्तितंमUरणादकितरिरच्यते॥२- ३४॥

तुम्हारे अन्तहीन अपय% की लोग बातें करेंगे। ऐसी अकीत¢ एक प्रतीधि�तमनुष्य के लिलये मृत्यु से भी बढ कर है॥भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यलिस लाघवम्॥२- ३५॥

महारथी योHा तुम्हें युH के भय से भागा सम5ेंगें।झिजनके मत में तुम ऊँचे हो, उन्हीं की नजरों में किगर जाओगे॥अवाच्यवादांश्च बहून्वदिदष्यन्तिन्त तवाकिहताः।किनन्दन्तस्तव सामर्थ्यंय| ततो दुःखतरं नु किकम्॥२- ३६॥

अकिहत की कामना से बहुत ना बोलने लायक वाक्यों से तुम्हारेकिवपक्षी तुम्हारे सामर्थ्यंयU की किनन्दा करेंगें। इस से बढकर दुखदायी क्या होगा॥हतो वा प्राप्स्यलिस स्वग| झिजत्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।तस्मादुणित्त� कौन्तेय यHुाय कृतकिनश्चयः॥२- ३७॥

यदिद तुम युH में मारे जाते हो तो तुम्हें स्वगU धिमलेगा और यदिद जीतते होतो इस धरती को भोगोगे। इसलिलये उठो, हे कौन्तेय, और किनश्चय करके युH करो॥

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।ततो युHाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यलिस॥२- ३८॥

सुख दुख को, लाभ हाकिन को, जय और हार को ऐक सा देखते हुऐ हीयुH करो। ऍसा करते हुऐ तुम्हें पाप नहीं धिमलेगा॥एषा तेऽणिभकिहता सांख्ये बुझिHयhगे न्तित्वमां %ृणु।बुद्ध्या युक्तो यया पाथU कमUबनं्ध प्रहास्यलिस॥२- ३९॥

यह मैने तुम्हें साँख्य योग की दृष्टी से बताया। अब तुम कमU योग की दृष्टी से सुनो।इस बुHी को धारण करके तुम कमU के बन्धन से छुटकारा पा लोगे॥नेहाणिभक्रमना%ोऽस्मिस्त प्रत्यवायो न किवद्यते।स्वल्पमप्यस्य धमUस्य त्रायते महतो भयात्॥२- ४०॥

न इसमें की गई मेहनत व्यथU जाती है और न ही इसमें कोई नुकसान होता है।इस धमU का जरा सा पालन करना भी महान डर से बचाता है॥व्यवसायान्धित्मका बुझिHरेकेह कुरुनन्दन।बहु%ाखा ह्यनन्ताश्च बुHयोऽव्यवसाधियनाम्॥२- ४१॥

इस धमU का पालन करती बुHी ऐक ही जगह स्थिस्थर रहती है।लेकिकन झिजनकी बुHी इस धमU में नहीं है वह अन्तहीन दिद%ाओं में किबखरी रहती है॥याधिममां पुन्धिष्पतां वाचं प्रवदन्त्यकिवपणिश्चतः।वेदवादरताः पाथU नान्यदस्तीकित वादिदनः॥२- ४२॥कामात्मानः स्वगUपरा जन्मकमUफलप्रदाम्।किक्रयाकिव%ेषबहुलां भोगैश्वयUगतितं प्रकित॥२- ४३॥

हे पाथU, जो घुमाई हुईं फूलों जैसीं बातें करते है, वेदों का भाषण करते हैं औरझिजनके लिलये उससे बढकर और कुछ नहीं है, झिजनकीआत्मा इच्छायों से जकड़ी हुई है और स्वगU झिजनका मकस्द है वह ऍसेकमU करते हैं झिजनका फल दूसरा जनम है। तरह तरह के कम� में फसे हुऐ औरभोग ऍश्वयU की इच्छा करते हऐ वे ऍसे लोग ही ऐसे भाषणों की तरफ खिखचते हैं॥भोगैश्वयUप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।व्यवसायान्धित्मका बुझिHः समाधौ न किवधीयते॥२- ४४॥

भोग ऍश्वयU से जुडे़ झिजनकी बुHी हरी जा चुकी है, ऍसी बुHी कमU योगमे स्थिस्थरता ग्रहण नहीं करती॥

तै्रगुण्यकिवषया वेदा किनस्तै्रगुण्यो भवाजुUन।किनद्वUन्द्वो किनत्यसत्त्वस्थो किनयhगक्षेम आत्मवान्॥२- ४५॥

वेदों में तीन गुणो का व्यखान है। तुम इन तीनो गुणों का त्याग करो, हे अजुUन।द्वन्द्वता और भेदों से मुक्त हो। सत में खुद को स्थिस्थर करो। लाभ और रक्षा की चिचंता छोड़ोऔर खुद में स्थिस्थत हो॥यावानथU उदपाने सवUतः संप्लुतोदके।तावान्सव�षु वेदेषु ब्राह्मणस्य किवजानतः॥२- ४६॥

हर जगह पानी होने पर झिजतना सा काम ऐक कँूऐ का होता है,उतना ही काम ज्ञानमंद को सभी वेदों से है॥मतलब यह की उस बुझिHमान पुरुष के लिलयेजो सत्य को जान चुका है, वेदों में बताये भोग प्राप्ती के कम� से कोई मतलब नहीं है॥कमUण्येवाधिधकारस्ते मा फलेषु कदाचन।मा कमUफलहेतुभूUमाU ते सङ्गोऽस्त्वकमUणिण॥२- ४७॥

कमU करना तो तुम्हारा अधिधकार है लेकिकन फल की इच्छा से कभी नहीं।कमU को फल के लिलये मत करो और न ही काम न करने से जुड़ो॥योगस्थः कुरु कमाUणिण सङं्ग त्यक्त्वा धनंजय।लिसद्ध्यलिसद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥२- ४८॥

योग में स्थिस्थत रह कर कमU करो, हे धनंजय, उससे किबना जुडे़ हुऐ।काम सफल हो न हो, दोनो में ऐक से रहो। इसी समता को योग कहते हैं॥दूरेण ह्यवरं कमU बुझिHयोगाHनंजय।बुHौ %रणमन्तिन्वच्छ कृपणाः फलहेतवः॥२- ४९॥

इस बुHी योग के द्वारा किकया काम तो बहुत ऊँचा है। इस बुझिH की %रणलो। काम को फल किक इच्छा से करने वाले तो कंजूस होते हैं॥बुझिHयुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कमUसु कौ%लम्॥२- ५०॥

इस बुझिH से युक्त होकर तुम अचे्छ और बुरे कमU दोनो से छुटकारा पा लोगे।इसलिलये योग को धारण करो। यह योग ही काम करने में असली कु%लता है॥कमUजं बुझिHयुक्ता किह फलं त्यक्त्वा मनीकिषणः।जन्मबन्धकिवकिनमुUक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्॥२- ५१॥

इस बुझिH से युक्त होकर मुकिन लोग किकये हुऐ काम के नतीजों को त्याग देते हैं।इस प्रकार जन्म बन्धन से मुक्त होकर वे दुख से परे स्थान प्राप्त करते हैं॥यदा ते मोहकलिललं बुझिHव्यUकिततरिरष्यकित।तदा गन्तालिस किनव�दं श्रोतव्यस्य शु्रतस्य च॥२- ५२॥

जब तुम्हारी बुझिH अन्धकार से ऊपर उठ जाऐगी तब क्या सुन चुके हो और क्या सुनने वाला हैउसमे तुमहें कोई मतलब नहीं रहेगा॥शु्रकितकिवप्रकितप{ा ते यदा स्थास्यकित किनश्चला।समाधावचला बुझिHस्तदा योगमवाप्स्यलिस॥२- ५३॥

ऐक दूसरे को काटते उपदे% और श्रुकितयां सुन सुन कर जब तुम अकिडग स्थिस्थर रहोगे,तब तुम्हारी बुHी स्थिस्थर हो जायेगी और तुम योग को प्राप्त कर लोगे॥

अजुUन बोलेस्थिस्थतप्रज्ञस्य का भाषा समाधिधस्थस्य के%व।स्थिस्थतधीः तिकं प्रभाषेत किकमासीत व्रजेत किकम्॥२- ५४॥

हे के%व, झिजसकी बुझिH ज्ञान में स्थिस्थर हो चुकिक है, वह कैसा होता है।ऍसा स्थिस्थरता प्राप्त किकया व्यक्ती कैसे बोलता, बैठता, चलता, किफरता है॥

श्रीभगवान बोलेप्रजहाकित यदा कामान्सवाUन्पाथU मनोगतान्।आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थिस्थतप्रज्ञस्तदोच्यते॥२- ५५॥

हे पाथU, जब वह अपने मन में स्थिस्थत सभी कामनाओं को किनकाल देता है,और अपने आप में ही अपनी आत्मा को संतुष्ट रखता है, तब उसे ज्ञान और बुझिHमता मेंस्थिस्थत कहा जाता है॥दुःखेष्वनुकिद्वग्नमनाः सुखेषु किवगतसृ्पहः।वीतरागभयक्रोधः स्थिस्थतधीमुUकिनरुच्यते॥२- ५६॥

जब वह दुखः से किवचलिलत नहीं होता और सुख से उसके मन में कोई उमंगेनहीं उठतीं, इच्छा और तड़प, डर और गुस्से से मुक्त, ऐसे स्थिस्थत हुऐ धीर मनुष्यको ही मुकिन कहा जाता है॥यः सवUत्रानणिभस्नेहस्तत्तत्प्राप्य %ुभा%ुभम्।नाणिभनन्दकित न दे्वधिष्ट तस्य प्रज्ञा प्रकितधि�ता॥२- ५७॥

किकसी भी ओर न जुड़ा रह, अच्छा या बुरा कुछ भी पाने पर, जो ना उसकीकामना करता है और न उससे नफरत करता है उसकी बुझिH ज्ञान में स्थिस्थत है॥यदा संहरते चायं कूमhऽङ्गानीव सवU%ः।इझिन्द्रयाणीझिन्द्रयाथ�भ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रकितधि�ता॥२- ५८॥

जैसे कछुआ अपने सारे अँगों को खुद में समेट लेता है,वैसे ही झिजसने अपनी इन्द्रीयाँ को उनके किवषयों सेकिनकाल कर खुद में समेट रखा है, वह ज्ञान में स्थिस्थत है॥किवषया किवकिनवतUन्ते किनराहारस्य देकिहनः।रसवज| रसोऽप्यस्य परं दृष््टवा किनवतUते॥२- ५९॥

किवषयों का त्याग के देने पर उनका स्वाद ही बचता है।परम् को देख लेने पर वह स्वाद भी मन से छूट जाता है॥यततो ह्यकिप कौन्तेय पुरुषस्य किवपणिश्चतः।इझिन्द्रयाणिण प्रमाथीकिन हरन्तिन्त प्रसभं मनः॥२- ६०॥

हे कौन्तेय, सावधानी से संयमता का अभयास करते हुऐ पुरुष केमन को भी उसकी चंचल इन्द्रीयाँ बलपूवUक छीन लिलती हैं॥ताकिन सवाUणिण संयम्य युक्त आसीत मत्परः।व%े किह यस्येझिन्द्रयाणिण तस्य प्रज्ञा प्रकितधि�ता॥२- ६१॥

उन सब को संयम कर मेरा धयान करना चाकिहये, क्योंकिक झिजसकीइन्द्रीयाँ व% में है वही ज्ञान में स्थिस्थत है॥ध्यायतो किवषयान्पंुसः सङ्गस्तेषूपजायते।सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽणिभजायते॥२- ६२॥

चीजों के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उन से लगाव हो जाता है।इससे उसमे इच्छा पौदा होती है और इच्छाओं से गुस्सा पैदा होता है॥क्रोधाद्भवकित संमोहः संमोहात्स्मृकितकिवभ्रमः।स्मृकितभ्रं%ाद्बझुिHना%ो बुझिHना%ात्प्रणश्यकित॥२- ६३॥

गुस्से से दिदमाग खराब होता है और उस से यादाश्त पर पड़दा पड़ जाता है।यादाश्त पर पड़दा पड़ जाने से आदमी की बुझिH नष्ट हो जाती है और बुझिH नष्ट हो जानेपर आदमी खुद ही का ना% कर बौठता है॥

रागदे्वषकिवयुकै्तस्तु किवषयाकिनझिन्द्रयैश्चरन्।आत्मवश्यैर्तिवंधेयात्मा प्रसादमधिधगच्छकित॥२- ६४॥

इन्द्रीयों को राग और दे्वष से मुक्त कर, खुद के व% में कर, जब मनुष्य किवषयों कोसंयम से ग्रहण करता है, तो वह प्रस{ता और %ान्ती प्राप्त करता है॥प्रसादे सवUदुःखानां हाकिनरस्योपजायते।प्रस{चेतसो ह्या%ु बुझिHः पयUवकित�ते॥२- ६५॥

%ान्ती से उसके सारे दुखों का अन्त हो जाता है क्योंकिक%ान्त लिचत मनुष्य की बुझिH जलदिद ही स्थिस्थर हो जाती है॥नास्मिस्त बुझिHरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।न चाभावयतः %ान्तिन्तर%ान्तस्य कुतः सुखम्॥२- ६६॥

जो संयम से युक्त नहीं है, झिजसकी इन्द्रीयाँ व% में नहीं हैं, उसकी बुझिH भी स्थिस्थरनही हो सकती और न ही उस में %ान्तिन्त की भावना हो सकती है। और झिजसमे%ान्तिन्त की भावना नहीं है वह %ान्त कैसे हो सकता है। जो %ान्त नहीं है उसे सुख कैसा॥इझिन्द्रयाणां किह चरतां यन्मनोऽनु किवधीयते।तदस्य हरकित प्रज्ञां वायुनाUवधिमवाम्भलिस॥२- ६७॥

मन अगर किवचरती हुई इन्द्रीयों के पीछे कहीं भी लग लेता है तोवह बुझिH को भी अपने साथ वैसे ही खीँच कर ले जाता है जैसेएक नाव को हवा खीच ले जाती है॥तस्माद्यस्य महाबाहो किनगृहीताकिन सवU%ः।इझिन्द्रयाणीझिन्द्रयाथ�भ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रकितधि�ता॥२- ६८॥

इसलिलये हे महाबाहो, झिजसकी सभी इन्द्रीयाँ अपने किवषयों से पूरी तरहहटी हुई हैं, लिसमटी हुई हैं, उसी की बुझिH स्थिस्थर होती है॥या किन%ा सवUभूतानां तस्यां जागर्तितं संयमी।यस्यां जाग्रकित भूताकिन सा किन%ा पश्यतो मुनेः॥२- ६९॥

जो सब के लिलये रात है उसमें संयमी जागता है,और झिजसमे सब जागते हैं उसे मुकिन रात की तरह देखता है॥आपूयUमाणमचलप्रकित�ं समुद्रमापः प्रकिव%न्तिन्त यद्वत्।तद्वत्कामा यं प्रकिव%न्तिन्त सव� स %ान्तिन्तमाप्नोकित न कामकामी॥२- ७०॥

नदिदयाँ जैसे समुद्र, जो एकदम भरा, अचल और स्थिस्थर रहता है, में आकर %ान्त हो जाती हैं,उसी प्रकार झिजस मनुष्य में सभी इच्छाऐं आकर %ान्त हो जाती हैं, वह %ान्ती प्राप्त करता है।न किक वह जो उनके पीछे भागता है॥किवहाय कामान्यः सवाUन् पुमांश्चरकित किनःस्पृहः।किनमUमो किनरहंकारः स %ान्तिन्तमधिधगच्छकित॥२- ७१॥

सभी कामनाओं का त्याग कर, जो मनुष्य सृ्पह रकिहत रहता है,जो मै और मेरा रूपी अहंकार को भूल किवचरता है, वह %ान्ती कोप्राप्त करता है॥एषा ब्राह्मी स्थिस्थकितः पाथU नैनां प्राप्य किवमुह्यकित।स्थिस्थत्वास्यामन्तकालेऽकिप ब्रह्मकिनवाUणमृच्छकित॥२- ७२॥

श्रीमद्भगवद्गीता हि�न्दीभाषाऽऽनुवादसहि�ता 03तीसरा अध्याय

अजुUन बोलेज्यायसी चेत्कमUणस्ते मता बुझिHजUनादUन।तत्कित्कं कमUणिण घोरे मां किनयोजयलिस के%व॥३- १॥

हे के%व, अगर आप बुझिH को कमU से अधिधक मानते हैं तो मु5े इसघोर कमU में क्यों न्योझिजत कर रहे हैं॥व्याधिमशे्रणेव वाक्येन बुद्धिHं मोहयसीव में।तदेकं वद किनणिश्चत्य येन शे्रयोऽहमाप्नुयाम्॥३- २॥

धिमले हुऐ से वाक्यों से मेरी बुझिH %ंकिकत हो रही है।इसलिलये मु5े वह एक रस्ता बताईये जो किनस्थिष्चत प्रकारसे मेरे लिलये अच्छा हो॥

श्रीभगवान बोलेलोकेऽस्मिस्मखिन्द्वकिवधा किन�ा पुरा प्रोक्ता मयानघ।ज्ञानयोगेन सांख्यानां कमUयोगेन योकिगनाम्॥३- ३॥

हे स्थिÃनष्पाप, इस लोक में मेरे द्वारा दो प्रकार की किन�ाऐं पहले बताई गयीं थीं।ज्ञान योग सन्यास से जुडे़ लोगों के लिलये और कमU योग उनके लिलये जो कमUयोग से जुडे़ हैं॥

न कमUणामनारम्भा{ैष्कम्य| पुरुषोऽश्नुते।न च संन्यसनादेव लिसद्धिHं समधिधगच्छकित॥३- ४॥

कमU का आरम्भ न करने से मनुष्य नैष्कमU लिसHी नहीं प्राप्त कर सकताअतः कमU योग के अभ्यास में कम� का करना जरूरी है। और न ही केवलत्याग कर देने से लिसHी प्राप्त होती है॥न किह कणिश्चत्क्षणमकिप जातु कित�त्यकमUकृत्।कायUते ह्यव%ः कमU सवUः प्रकृकितजैगुUणैः॥३- ५॥

कोई भी एक क्षण के लिलये भी कमU किकये किबना नहीं बैठ सकता।सब प्रकृकित से पैदा हुऐ गुणों से किवव% होकर कमU करते हैं॥कम�झिन्द्रयाणिण संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।इझिन्द्रयाथाUन्तिन्वमूढात्मा धिमर्थ्यंयाचारः स उच्यते॥३- ६॥

कमU किक इन्द्रीयों को तो रोककर, जो मन ही मन किवषयों के बारे में सोचता हैउसे धिमर्थ्यंया अतः ढोंग आचारी कहा जाता है॥यस्थिस्त्वझिन्द्रयाणिण मनसा किनयम्यारभतेऽजुUन।कम�झिन्द्रयैः कमUयोगमसक्तः स किवलि%ष्यते॥३- ७॥

हे अजुUन, जो अपनी इन्द्रीयों और मन को किनयधिमत कर कमU का आरम्भ करते हैं,कमU योग का आसरा लेते हुऐ वह कहीं बेहतर हैं॥किनयतं कुरु कमU त्वं कमU ज्यायो ह्यकमUणः।%रीरयात्राकिप च ते न प्रलिसदे्ध्यदकमUणः॥३- ८॥

जो तुम्हारा काम है उसे तुम करो क्योंकिक कमU से ही अकमU पैदा होता है,मतलब कमU योग द्वारा कमU करने से ही कम� से छुटकारा धिमलता है।कमU किकये किबना तो यह %रीर की यात्रा भी संभव नहीं हो सकती। %रीरहै तो कमU तो करना ही पडे़गा॥यज्ञाथाUत्कमUणोऽन्यत्र लोकोऽयं कमUबन्धनः।तदथ| कमU कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर॥३- ९॥

केवल यज्ञा सम5 कर तुम कमU करो हे कौन्तेय वरना इस लोक में कमU बन्धन का कारण बनता है।उसी के लिलये कमU करते हुऐ तुम संग से मुक्त रह कर समता से रहो॥सहयज्ञाः प्रजाः सृष््टवा पुरोवाच प्रजापकितः। अनेन प्रसकिवष्यध्वमेष वोऽस्थिस्त्वष्टकामधुक्॥३- १०॥

यज्ञ के साथ ही बहुत पहले प्रजापकित ने प्रजा की सृधिष्ट की और कहा की इसी प्रकारकमU यज्ञ करने से तुम बढोगे और इसी से तुम्हारे मन की कामनाऐं पूरी होंगी॥देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।परस्परं भावयन्तः शे्रयः परमवाप्स्यथ॥३- ११॥

तुम देवताओ को प्रस{ करो और देवता तुम्हें प्रस{ करेंगे,इस प्रकार परस्पर एक दूसरे का खयाल रखते तुम परम श्रेय को प्राप्त करोगे॥इष्टान्भोगाखिन्ह वह देवा दास्यन्ते यज्ञभाकिवताः।तैदUत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्के्त स्तेन एव सः॥३- १२॥

यज्ञों से संतुष्ट हुऐ देवता तुम्हें मन पसंद भोग प्रदान करेंगे। जो उनके दिदये हुऐभोगों को उन्हें दिदये किबना खुद ही भोगता है वह चोर है॥यज्ञलि%ष्टालि%नः सन्तो मुच्यन्ते सवUकिकस्थिल्बषैः।भुञ्जते ते त्वघं पापा यह पचन्त्यात्मकारणात्॥३- १३॥

जो यज्ञ से किनकले फल का आनंद लेते हैं वह सब पापों से मुक्त हो जाते हैंलेकिकन जो पापी खुद पचाने को लिलये ही पकाते हैं वे पाप के भागीदार बनते हैं॥अ{ाद्भवन्तिन्त भूताकिन पजUन्याद{सम्भवः।यज्ञाद्भवकित पजUन्यो यज्ञः कमUसमुद्भवः॥३- १४॥

जीव अनाज से होते हैं। अनाज किबरिर% से होता है।और किबरिर% यज्ञ से होती है। यज्ञ कमU से होता है॥(यहाँ प्राकृकित के चलने को यज्ञ कहा गया है)कमU ब्रह्मोद्भवं किवझिH ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।तस्मात्सवUगतं ब्रह्म किनत्यं यजे्ञ प्रकितधि�तम्॥३- १५॥

कमU ब्रह्म से सम्भव होता है और ब्रह्म अक्षर से होता है।इसलिलये हर ओर स्थिस्थत ब्रह्म सदा ही यज्ञ में स्थाकिपत है।एवं प्रवर्तितंतं चकं्र नानुवतUयतीह यः।अघायुरिरझिन्द्रयारामो मोघं पाथU स जीवकित॥३- १६॥

इस तरह चल रहे इस चक्र में जो किहस्सा नहीं लेता, सहायक नहीं होता,अपनी ईन्द्रीयों में डूबा हुआ वह पाप जीवन जीने वाला, व्यथU ही, हे पाथU, जीता है॥

यस्त्वात्मरकितरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य काय| न किवद्यते॥३- १७॥

लेकिकन जो मानव खुद ही में स्थिस्थत है, अपने आप में ही तृप्त है,अपने आप में ही सन्तुष्ट है, उस के लिलये कोई भी कायU नहीं बचता॥नैव तस्य कृतेनाथh नाकृतेनेह कश्चन।न चास्य सवUभूतेषु कणिश्चदथUव्यपाश्रयः॥३- १८॥

न उसे कभी किकसी काम के होने से कोई मतलब है और न ही न होने से।और न ही वह किकसी भी जीव पर किकसी भी मतलब के लिलये आश्रय लेता है॥तस्मादसक्तः सततं काय| कमU समाचर।असक्तो ह्याचरन्कमU परमाप्नोकित पूरुषः॥३- १९॥

इसलिलये कमU से जुडे़ किबना सदा अपना कमU करते हुऐ समता का अचरण करो॥किबना जुडे़ कमU का आचरण करने से पुरुष परम को प्राप्त कर लेता है॥कमUणैव किह संलिसझिHमास्थिस्थता जनकादयः।लोकसंग्रहमेवाकिप संपश्यन्कतुUमहUलिस॥३- २०॥

कमU के द्वारा ही जनक आदिद लिसHी में स्थाकिपत हुऐ थे। इस लोक समूह, इस संसारके भले के लिलये तुम्हें भी कमU करना चाकिहऐ॥यद्यदाचरकित शे्र�स्तत्तदेवेतरो जनः।स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवतUते॥३- २१॥

क्योंकिक जो ऐक श्रे� पुरुष करता है, दूसरे लोग भी वही करते हैं। वह जोकरता है उसी को प्रमाण मान कर अन्य लोग भी पीछे वही करते हैं॥न में पाथाUस्मिस्त कतUवं्य कित्रषु लोकेषु तिकंचन।नानवाप्तमवाप्तवं्य वतU एव च कमUणिण॥३- २२॥

हे पाथU, तीनो लोकों में मेरे लिलये कुछ भी करना वाला नहीं है। औरन ही कुछ पाने वाला है लेकिकन किफर भी मैं कमU में लगता हूँ॥यदिद ह्यहं न वत�यं जातु कमUण्यतझिन्द्रतः।मम वत्माUनुवतUन्ते मनुष्याः पाथU सवU%ः॥३- २३॥

हे पाथU, अगर मैं कमU में नहीं लगूँ तो सभी मनुष्य भी मेरे पीछे वही करने लगेंगे॥

उत्सीदेयुरिरमे लोका न कुया| कमU चेदहम्।संकरस्य च कताU स्यामुपहन्याधिममाः प्रजाः॥३- २४॥

अगर मै कमU न करँू तो इन लोकों में तबाही मच जायेगी और मैंइस प्रजा का ना%कताU हो जाऊँगा॥सक्ताः कमUण्यकिवद्वांसो यथा कुवUन्तिन्त भारत।कुयाUकिद्वद्वांस्तथासक्तणिश्चकीषुUलhकसंग्रहम्॥३- २५॥

जैसे अज्ञानी लोग कम� से जुड़ कर कमU करते हैं वैसे हीज्ञानमन्दों को चाकिहये किक कमU से किबना जुडे़ कमU करें। इससंसार चक्र के लाभ के लिलये ही कमU करें।न बुझिHभेदं जनयेदज्ञानां कमUसकिङ्गनाम्।जोषयेत्सवUकमाUणिण किवद्वान्युक्तः समाचरन्॥३- २६॥

जो लोग कमh के फलों से जुडे़ है, कम� से जुडे़ हैं ज्ञानमंद उनकी बुझिH कोन छेदें। सभी कामों को कमUयोग बुझिH से युक्त होकर समता काआचरण करते हुऐ करें॥प्रकृतेः किक्रयमाणाकिन गुणैः कमाUणिण सवU%ः।अहंकारकिवमूढात्मा कताUहधिमकित मन्यते॥३- २७॥

सभी कमU प्रकृकित में स्थिस्थत गुणों द्वारा ही किकये जाते हैं। लेकिकनअहंकार से किवमूढ हुआ मनुष्य स्वय्म को ही कताU सम5ता है॥तत्त्वकिवतु्त महाबाहो गुणकमUकिवभागयोः।गुणा गुणेषु वतUन्त इकित मत्वा न सज्जते॥३- २८॥

हे महाबाहो, गुणों और कम� के किवभागों को सार तक जानने वाला,यह मान कर की गुण ही गुणों से वतU रहे हैं, जुड़ता नहीं॥प्रकृतेगुUणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकमUसु।तानकृत्स्नकिवदो मन्दान्कृत्स्नकिव{ किवचालयेत्॥३- २९॥

प्रकृकित के गुणों से मूखU हुऐ, गुणों के कारण हुऐ उन कम� से जुडे़ रहते है।सब जानने वाले को चाकिहऐ किक वह अधूरे ज्ञान वालों को किवचलिलत न करे॥मधिय सवाUणिण कमाUणिण संन्यस्याध्यात्मचेतसा।किनरा%ीर्तिनमंUमो भूत्वा युध्यस्व किवगतज्वरः॥३- ३०॥

सभी कम� को मेरे हवाले कर, अध्यात्म में मन को लगाओ।आ%ाओं से मुक्त होकर, "मै" को भूल कर, बुखार मुक्त होकर युH करो॥यह में मतधिमदं किनत्यमनुकित�न्तिन्त मानवाः।श्रHावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽकिप कमUणिभः॥३- ३१॥

मेरे इस मत को, जो मानव श्रHा और किबना दोष किनकालेसदा धारण करता है और मानता है, वह कम� से मु्क्ती प्राप्तकरता है॥यह त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुकित�न्तिन्त में मतम्।सवUज्ञानकिवमूढांस्तान्तिन्वझिH नष्टानचेतसः॥३- ३२॥

जो इसमें दोष किनकाल कर मेरे इस मत का पालन नहीं करता,उसे तुम सारे ज्ञान से वंलिचत, मूखU हुआ और नष्ट बुHी जानो॥सदृ%ं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेज्ञाUनवानकिप।प्रकृतितं यान्तिन्त भूताकिन किनग्रहः तिकं करिरष्यकित॥३- ३३॥

सब वैसा ही करते है जैसी उनका स्वभाव होता है, चाहे वह ज्ञानवान भी हों।अपने स्वभाव से ही सभी प्राणी होते हैं किफर सयंम से क्या होगा॥इझिन्द्रयस्येझिन्द्रयस्याथ� रागदे्वषौ व्यवस्थिस्थतौ।तयोनU व%मागचे्छत्तौ ह्यस्य परिरपन्धिÅनौ॥३- ३४॥

इझिन्द्रयों के लिलये उन के किवषयों में खींच और घृणा होती है। इन दोनो केव% में मत आओ क्योंकिक यह रस्ते के रुकावट हैं॥शे्रयान्स्वधमh किवगुणः परधमाUत्स्वनुधि�तात्।स्वधम� किनधनं शे्रयः परधमh भयावहः॥३- ३५॥

अपना काम ही अच्छा है, चाहे उसमे कधिमयाँ भी हों, किकसी और के अच्छी तरह किकये काम से।अपने काम में मृत्यु भी होना अच्छा है, किकसी और के काम से चाहे उसमे डर न हो॥

अजुUन बोलेअथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरकित पूरुषः।अकिनच्छ{किप वाष्ण�य बलादिदव किनयोझिजतः॥३- ३६॥

लेकिकन, हे वाष्ण�य, किकसके जोर में दबकर पुरुष पाप करता है, अपनी मरजी के किबना भी, जैसे

किक बल से उससे पाप करवाया जा रहा हो॥

श्रीभगवान बोलेकाम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।महा%नो महापाप्मा किवदे्ध्यनधिमह वैरिरणम्॥३- ३७॥

इच्छा और गुस्सा जो रजो गुण से होते हैं, महा किवना%ी, महापापीइसे तुम यहाँ दुश्मन जानो॥धूमेनाकिव्रयते वधिÆयUथाद%h मलेन च।यथोल्बेनावृतो गभUस्तथा तेनेदमावृतम्॥३- ३८॥

जैसे आग को धूआँ ढक लेता है, %ी%े को धिमट्टी ढक लेती है,लि%%ू को गभU ढका लेता है, उसी तरह वह इनसे ढका रहता है॥

(क्या ढका रहता है, अगले श्लोक में है )आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञाकिननो किनत्यवैरिरणा।कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥३- ३९॥

यह ज्ञान को ढकने वाला ज्ञानमंद पुरुष का सदा वैरी है,इच्छा का रूप लिलऐ, हे कौन्तेय, झिजसे पूरा करना संभव नहीं॥इझिन्द्रयाणिण मनो बुझिHरस्याधिध�ानमुच्यते।एतैर्तिवंमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देकिहनम्॥३- ४०॥

इन्द्रीयाँ मन और बुझिH इसके स्थान कहे जाते हैं। यह देहधिधरिरयों कोमूखU बना उनके ज्ञान को ढक लेती है॥तस्मात्त्वधिमझिन्द्रयाण्यादौ किनयम्य भरतषUभ।पाप्मानं प्रजकिह हे्यनं ज्ञानकिवज्ञानना%नम्॥३- ४१॥

इसलिलये, हे भरतषUभ, सबसे पहले तुम अपनी इन्द्रीयों को किनयधिमत करो औरइस पापमयी, ज्ञान और किवज्ञान का ना% करने वाली इच्छा का त्याग करो॥इझिन्द्रयाणिण पराण्याहुरिरझिन्द्रयेभ्यः परं मनः।मनसस्तु परा बुझिHयh बुHेः परतस्तु सः॥३- ४२॥

इन्द्रीयों को उत्तम कहा जाता है, और इन्द्रीयों से उत्तम मन है,मन से ऊपर बुझिH है और बुझिH से ऊपर आत्मा है॥

एवं बुHेः परं बुदध््वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।जकिह %तंु्र महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥३- ४३॥

इस प्रकार स्वयंम को बुद्धि" से ऊपर जान कर, स्वयंम को स्वयंम के वशमें कर, �े म�ाबा�ो, इस इच्छा रूपी शतु्र, पर जीत प्राप्त कर लो, जिजसे जीतनाकठि0न �ै॥

श्रीमद्भगवद्गीता हि�न्दीभाषाऽऽनुवादसहि�ता 04चौथा अध्याय

श्रीभगवानुवाचइमं किववस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।किववस्वान्मनवे प्राह मनुरिरक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥४-१॥

इस अव्यय योगा को मैने किववस्वान को बताया। किववस्वान ने इसे मनु को कहा।और मनु ने इसे इक्ष्वाक को बताया॥एवं परम्पराप्राप्तधिममं राजषUयो किवदुः।स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप॥४-२॥

हे परन्तप, इस तरह यह योगा परम्परा से राजष¢यों को प्राप्त होती रही। लेकिकनजैसे जैसे समय बीतता गया, बहुत समय बाद, इसका ज्ञान नष्ट हो गया॥स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।भक्तोऽलिस मे सखा चेकित रहस्यं हे्यतदुत्तमम्॥४-३॥

वही पुरातन योगा को मैने आज किफर तुम्हे बताया है। तुम मेरेभक्त हो, मेरे धिमत्र हो और यह योगा एक उत्तम रहस्य है॥

अजुUन उवाचअपरं भवतो जन्म परं जन्म किववस्वतः।कथमेतकिद्वजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवाकिनकित॥४-४॥

आपका जन्म तो अभी हुआ है, किववस्वान तो बहुत पहले हुऐ हैं। कैसे मैंयह सम5ँू किक आप ने इसे %ुरू मे बताया था॥

श्रीभगवानुवाचबहूकिन मे व्यतीताकिन जन्माकिन तव चाजुUन।तान्यहं वेद सवाUणिण न त्वं वेत्थ परन्तप॥४-५॥

अजुUन, मेरे बहुत से जन्म बीत चुके हैं और तुम्हारे भी। उन सब कोमैं तो जानता हूँ पर तुम नहीं जानते, हे परन्तप॥अजोऽकिप स{व्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽकिप सन्।प्रकृतितं स्वामधिध�ाय संभवाम्यात्ममायया॥४-६॥

यद्यकिप मैं अजन्मा और अव्यय, सभी जीवों का महेश्वर हूँ,तद्यकिप मैं अपनी प्रकृकित को अपने व% में कर अपनी माया से हीसंभव होता हूँ॥यदा यदा किह धमUस्य ग्लाकिनभUवकित भारत।अभ्युत्थानमधमUस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥४-७॥

हे भारत, जब जब धमU का लोप होता है, और अधमU बढता है, तब तब मैंस्वयंम सवयं की रचना करता हूँ॥परिरत्राणाय साधूनां किवना%ाय च दुष्कृताम्।धमUसंस्थापनाथाUय सम्भवाधिम युगे युगे॥४-८॥

साधू पुरुषों के कल्याण के लिलये, और दुष्कर्मिमंयों के किवना% के लिलये,तथा धमU किक स्थापना के लिलये मैं युगों योगों मे जन्म लेता हूँ॥जन्म कमU च मे दिदव्यमेवं यो वेणित्त तत्त्वतः।त्यक्त्वा देहं पुनजUन्म नैकित मामेकित सोऽजुUन॥४-९॥

मेरे जन्म और कमU दिदव्य हैं, इसे जो सारवत जानता है,देह को त्यागने के बाद उसका पुनजUन्म नहीं होता, बस्मिल्क वोमेरे पास आता है, हे अजुUन॥वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाणिश्रताः।बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः॥४-१०॥

लगाव, भय और क्रोध से मुक्त, मु5 में मन लगाये हुऐ, मेरा हीआश्रय लिलये लोग, ज्ञान और तप से पकिवत्र हो, मेरे पास पहुँचते हैं॥

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।मम वत्माUनुवतUन्ते मनुष्याः पाथU सवU%ः॥४-११॥

जो मेरे पास जैसे आता है, मैं उसे वैसे ही धिमलता हूँ। हे पाथU,सभी मनुष्य हर प्रकार से मेरा ही अनुगमन करते हैं॥काङ्क्षन्तः कमUणां लिसद्धिHं यजन्त इह देवताः।णिक्षप्रं किह मानुषे लोके लिसझिHभUवकित कमUजा॥४-१२॥

जो किकये काम मे सफलता चाहते हैं वो देवताओ का पूजन करते हैं। इसमनुष्य लोक में कम� से सफलता %ीघ्र ही धिमलती है॥चातुवUण्य| मया सृष्टं गुणकमUकिवभाग%ः।तस्य कताUरमकिप मां किवद्ध्यकताUरमव्ययम्॥४-१३॥

ये चारों वणU मेरे द्वारा ही रचे गये थ,े गुणों और कम� केकिवभागों के आधार पर। इन कम� का कताU होते हुऐ भीपरिरवतUन रकिहत मु5 को तुम अकताU ही जानो॥न मां कमाUणिण लिलम्पन्तिन्त न मे कमUफले स्पृहा।इकित मां योऽणिभजानाकित कमUणिभनU स बध्यते॥४-१४॥

न मु5े कमU रंगते हैं और न ही मु5 में कम� के फलों के लिलये कोई इच्छा है।जो मु5े इस प्रकार जानता है, उसे कमU नहीं बाँधते॥एवं ज्ञात्वा कृतं कमU पूवËरकिप मुमुक्षुणिभः।कुरु कमËव तस्मात्त्वं पूवËः पूवUतरं कृतम्॥४-१५॥

पहले भी यह जान कर ही मोक्ष की इच्छा रखने वाले कमUकरते थे। इसलिलये तुम भी कमU करो, जैसे पूव� ने पुरातन समयमें किकये॥तिकं कमU किकमकम�कित कवयोऽप्यत्र मोकिहताः।तते्त कमU प्रवक्ष्याधिम यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽ%ुभात्॥४-१६॥

कमU क्या है और अकमU कया है, किवद्वान भी इस के बारे मेंमोकिहत हैं। तुम्हे मैं कमU कया है, ये बताता हूँ झिजसे जानकरतुम अ%ुभ से मुलिक्त पा लोगे॥कमUणो ह्यकिप बोHवं्य बोHवं्य च किवकमUणः।अकमUणश्च बोHवं्य गहना कमUणो गकितः॥४-१७॥

कमU को जानना जरूरी है और न करने लायक कमU को भी।अकमU को भी जानना जरूरी है, क्योंकिक कमU रहस्यमयी है॥कमUण्यकमU यः पश्येदकमUणिण च कमU यः।स बुझिHमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकमUकृत्॥४-१८॥

कमU करने मे जो अकमU देखता है, और कमU न करने मे भीजो कमU होता देखता है, वही मनुष्य बुझिHमान है और इसीबुझिH से युक्त होकर वो अपने सभी कमU करता है॥यस्य सव� समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिजंताः।ज्ञानाखिग्नदग्धकमाUणं तमाहुः पस्थिण्डतं बुधाः॥४-१९॥

झिजसके द्वारा आरम्भ किकया सब कुछ इच्छा संकल्प सेमुक्त होता है, झिजसके सभी कमU ज्ञान रूपी अखिग्न में जलकर राख हो गये हैं, उसे ज्ञानमंद लोग बुझिHमान कहते हैं॥त्यक्त्वा कमUफलासङं्ग किनत्यतृप्तो किनराश्रयः।कमUण्यणिभप्रवृत्तोऽकिप नैव तिकंलिचत्करोकित सः॥४-२०॥

कमU के फल से लगाव त्याग कर, सदा तृप्त और आश्रयहीन रहने वाला,कमU मे लगा हुआ होकर भी, कभी कुछ नहीं करता है॥किनरा%ीयUतलिचत्तात्मा त्यक्तसवUपरिरग्रहः।%ारीरं केवलं कमU कुवU{ाप्नोकित किकस्थिल्बषम्॥४-२१॥

मोघ आ%ाओं से मुक्त, अपने लिचत और आत्मा को व% मेंकर, घर सम्पणित्त आदिद धिमनलिसक परिरग्रहों को त्याग, जोकेवल %रीर से कमU करता है, वो कमU करते हुऐ भी पाप नहींप्राप्त करता॥यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो किवमत्सरः।समः लिसHावलिसHौ च कृत्वाकिप न किनबध्यते॥४-२२॥

सवयंम ही चल कर आये लाभ से ही सन्तुष्ट, किद्वन्द्वता से ऊपर उठा हुआ,और दिदमागी जलन से मुक्त, जो सफलता असफलता मे एक सा है, वोकायU करता हुआ भी नहीं बँधता॥गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थिस्थतचेतसः।यज्ञायाचरतः कमU समग्रं प्रकिवलीयते॥४-२३॥

संग छोड़ जो मुक्त हो चुका है, झिजसका लिचत ज्ञान में स्थिस्थत है,

जो केवल यज्ञ के लिलये कमU कर रहा है, उसके संपूणU कमU पूरीतरह नष्ट हो जाते हैं॥ब्रह्मापUणं ब्रह्म हकिवब्रUह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।ब्रह्मैव तेन गन्तवं्य ब्रह्मकमUसमाधिधना॥४-२४॥

ब्रह्म ही अपUण करने का साधन है, ब्रह्म ही जो अपUण हो रहा है वो है,ब्रह्म ही वो अखिग्न है झिजसमे अपUण किकया जा रहा है, और अपUण करनेवाला भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार कमU करते समय जो ब्रह्म मे समाधिधत हैं,वे ब्रह्म को ही प्राप्त करते हैं॥दैवमेवापरे यजं्ञ योकिगनः पयुUपासते।ब्रह्माग्नावपरे यजं्ञ यजे्ञनैवोपजुह्वकित॥४-२५॥

कुछ योगी यज्ञ के द्वारा देवों की पूजा करते हैं।और कुछ ब्रह्म की ही अखिग्न मे यज्ञ किक आहुकित देते हैं॥श्रोत्रादीनीझिन्द्रयाण्यन्ये संयमाखिग्नषु जुह्वकित।%ब्दादीन्तिन्वषयानन्य इझिन्द्रयाखिग्नषु जुह्वकित॥४-२६॥

अन्य सुनने आदिद इझिन्द्रयों की संयम अखिग्न मे आहुकित देते हैं।और अन्य %ब्दादिद किवषयों किक इझिन्द्रयों रूपी अखिग्न मे आहूकित देते हैं॥सवाUणीझिन्द्रयकमाUणिण प्राणकमाUणिण चापरे।आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वकित ज्ञानदीकिपते॥४-२७॥

और दूसरे कोई, सभी इझिन्द्रयों और प्राणों को कमU मे लगा कर,आत्म संयम द्वारा, ज्ञान से जल रही, योग अखिग्न मे अर्तिपंत करते हैंद्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संलि%तव्रताः॥४-२८॥

इस प्रकार कोई धन पदाथ� द्वारा यज्ञ करते हैं, कोई तप द्वारा यज्ञ करते हैं,कोई कमU योग द्वारा यज्ञ करते हैं और कोई स्वाध्याय द्वारा ज्ञान यज्ञ करते हैं,अपने अपने व्रतों का सावधाकिन से पालन करते हुऐ॥अपाने जुह्वकित प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।प्राणापानगती रुदध््वा प्राणायामपरायणाः॥४-२९॥

और भी कई, अपान में प्राण को अर्तिपंत कर और प्राण मे अपान को अर्तिपंत कर,इस प्रकार प्राण और अपान किक गकितयों को किनयधिमत कर, प्राणायाम मे लगते हैँ॥

अपरे किनयताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वकित।सव�ऽप्येते यज्ञकिवदो यज्ञक्षकिपतकल्मषाः॥४-३०॥

अन्य कुछ, अहार न ले कर, प्राणों को प्राणों मे अर्तिपंत करते हैं।ये सभी ही, यज्ञों द्वारा क्षीण पाप हुऐ, यज्ञ को जानने वाले हैं॥यज्ञलि%ष्टामृतभुजो यान्तिन्त ब्रह्म सनातनम्।नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम॥४-३१॥

यज्ञ से उत्प{ इस अमृत का जो पान करते हैं अथाUत जो यज्ञ करपापों को क्षीण कर उससे उत्प{ %ान्तिन्त को प्राप्त करते हैं, वे सनातनब्रह्म को प्राप्त करते हैं। जो यज्ञ नहीं करता, उसके लिलये यह लोक हीसुखमयी नहीं है, तो और कोई लोक भी कैसे हो सकता है, हे कुरुसत्तम॥एवं बहुकिवधा यज्ञा किवतता ब्रह्मणो मुखे।कमUजान्तिन्वझिH तान्सवाUनेवं ज्ञात्वा किवमोक्ष्यसे॥४-३२॥

इस प्रकार ब्रह्म से बहुत से यज्ञों का किवधान हुआ। इन सभीको तुम कमU से उत्प{ हुआ जानो और ऍसा जान जाने परतुम भी कमU से मोक्ष पा जाओगे॥शे्रयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।सव| कमाUखिखलं पाथU ज्ञाने परिरसमाप्यते॥४-३३॥

हे परन्तप, धन आदिद पदाथ� के यज्ञ से ज्ञान यज्ञ ज्यादा अच्छा है।सारे कमU पूणU रूप से ज्ञान धिमल जाने पर अन्त पाते हैं॥तकिद्वझिH प्रणिणपातेन परिरप्रश्नेन सेवया।उपदेक्ष्यन्तिन्त ते ज्ञानं ज्ञाकिननस्तत्त्वदर्शि%नंः॥४-३४॥

सार को जानने वाले ज्ञानमंदों को तुम प्रणाम करो, उनसे प्र%नकरो और उनकी सेवा करो॥वे तुम्हे ज्ञान मे उपदे% देंगे॥यज्ज्ञात्वा न पुनमhहमेवं यास्यलिस पाण्डव।येन भूतान्य%ेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मधिय॥४-३५॥

हे पाण्डव, उस ज्ञान में, झिजसे जान लेने पर तुम किफर से मोकिहतनहीं होगे, और अ%ेष सभी जीवों को तुम अपने में अन्यथा मु5 मेदेखोगे॥अकिप चेदलिस पापेभ्यः सव�भ्यः पापकृत्तमः।सव| ज्ञानप्लवेनैव वृझिजनं सन्तरिरष्यलिस॥४-३६॥

यदिद तुम सभी पाप करने वालों से भी अधिधक पापी हो, तब भीज्ञान रूपी नाव द्वारा तुम उन सब पापों को पार कर जाओगे॥यथैधांलिस सधिमHोऽखिग्नभUस्मसात्कुरुतेऽजुUन।ज्ञानाखिग्नः सवUकमाUणिण भस्मसात्कुरुते तथा॥४-३७॥

जैसे समृH अखिग्न भस्म कर डालती है, हे अजुUन, उसी प्रकारज्ञान अखिग्न सभी कम� को भस्म कर डालती है॥न किह ज्ञानेन सदृ%ं पकिवत्रधिमह किवद्यते।तत्स्वयं योगसंलिसHः कालेनात्मकिन किवन्दकित॥४-३८॥

ज्ञान से अधिधक पकिवत्र इस संसार पर और कुछ नहीं है। तुमसवयंम ही, योग में लिसH हो जाने पर, समय के साथ अपनी आत्मामें ज्ञान को प्राप्त करोगे॥श्रHावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेझिन्द्रयः।ज्ञानं लब्ध्वा परां %ान्तिन्तमलिचरेणाधिधगच्छकित॥४-३९॥

श्रHा रखने वाले, अपनी इझिन्द्रयों का संयम कर ज्ञान लभते हैं।और ज्ञान धिमल जाने पर, जलद ही परम %ान्तिन्त को प्राप्त होते हैं॥अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च सं%यात्मा किवनश्यकित।नायं लोकोऽस्मिस्त न परो न सुखं सं%यात्मनः॥४-४०॥

ज्ञानहीन और श्रHाहीन, %ंकाओं मे डूबी आत्मा वालों का किवना% हो जाता है।न उनके लिलये ये लोक है, न कोई और न ही %ंका में डूबी आत्मा को कोईसुख है॥योगसंन्यस्तकमाUणं ज्ञानसंलिछ{सं%यम्।आत्मवन्तं न कमाUणिण किनबध्नन्तिन्त धनंजय॥४-४१॥

योग द्वारा कम� का त्याग किकये हुआ, ज्ञान द्वारा %ंकाओं को लिछ{ णिभ{ किकया हुआ,आत्म मे स्थिस्थत व्यलिक्त को कमU नहीं बाँधते, हे धनंजय॥तस्मादज्ञानसमू्भतं हृत्सं्थ ज्ञानालिसनात्मनः।लिछत्त्वैनं सं%यं योगमाकित�ोणित्त� भारत॥४-४२॥

इसलिलये अज्ञान से जन्मे इस सं%य को जो तुम्हारे हृदय मे

घर किकया हुआ है, ज्ञान रूपी तल्वार से चीर डालो, और योग को धारणकर उठो हे भारत॥

श्रीमद्भगवद्गीता हि�न्दीभाषाऽऽनुवादसहि�ता 05पाँचवां अध्याय

अजुUन उवाचसंन्यासं कमUणां कृष्ण पुनयhगं च %ंसलिस।यचे्छ्रय एतयोरेकं तन्मे बू्रकिह सुकिनणिश्चतम्॥५- १॥

हे कृष्ण, आप कम� के त्याग की प्र%ंसा कर रहे हैं और किफरयोग द्वारा कम� को करने की भी। इन दोनों में से जो ऐक मेरेलिलये ज्यादा अच्छा है वही आप किनणिश्चत कर के मु5े ककिहये॥

श्रीभगवानुवाचसंन्यासः कमUयोगश्च किनःश्रेयसकरावुभौ।तयोस्तु कमUसंन्यासात्कमUयोगो किवलि%ष्यते॥५- २॥

संन्यास और कमU योग, ये दोनो ही श्रेय हैं, परम की प्रान्तिप्त करानेवाले हैं। लेकिकन कम� से संन्यास की जगह, योग द्वारा कम� काकरना अच्छा है॥जे्ञयः स किनत्यसंन्यासी यो न दे्वधिष्ट न काङ्क्षकित।किनद्वUन्द्वो किह महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥५- ३॥

उसे तुम सदा संन्यासी ही जानो जो न घृणा करता है और नइच्छा करता है। हे महाबाहो, किद्वन्दता से मुक्त व्यलिक्त आसानी सेही बंधन से मुक्त हो जाता है॥सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्तिन्त न पस्थिण्डताः।एकमप्यास्थिस्थतः सम्यगुभयोर्तिवंन्दते फलम्॥५- ४॥

संन्यास अथवा सांख्य को और कमU योग को बालक ही णिभ{ णिभ{देखते हैं, ज्ञानमंद नहीं। किकसी भी एक में ही स्थिस्थत मनुष्य दोनो के हीफलों को समान रूप से पाता है॥यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरकिप गम्यते।एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यकित स: पश्यकित॥५- ५॥

सांख्य से जो स्थान प्राप्त होता है, वही स्थान योग से भी प्राप्त होता है।जो सांख्य और कमU योग को एक ही देखता है, वही वास्तव में देखता है॥संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।योगयुक्तो मुकिनब्रUह्म नलिचरेणाधिधगच्छकित॥५- ६॥

संन्यास अथवा त्याग, हे महाबाहो, कमU योग के किबना प्राप्त करना कदिठन है।लेकिकन योग से युक्त मुकिन कुछ ही समय मे ब्रह्म को प्राप्त कर लेते है॥योगयुक्तो किव%ुHात्मा किवझिजतात्मा झिजतेझिन्द्रयः।सवUभूतात्मभूतात्मा कुवU{किप न लिलप्यते॥५- ७॥

योग से युक्त हुआ, %ुH आत्मा वाला, सवयंम और अपनी इझिन्द्रयों परजीत पाया हुआ, सभी जगह और सभी जीवों मे एक ही परमात्मा को देखताहुआ, ऍसा मुकिन कमU करते हुऐ भी लिलपता नहीं है॥नैव तिकंलिचत्करोमीकित युक्तो मन्येत तत्त्वकिवत्।पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृ%स्थिञ्जघ्र{श्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्॥५- ८॥प्रलपन्तिन्वसृजन्गृह्ण{ुन्धिन्मषधि{धिमष{किप।इझिन्द्रयाणीझिन्द्रयाथ�षु वतUन्त इकित धारयन्॥५- ९॥

सार को जानने वाला यही मानता है किक वो कुछ नहीं कर रहा।देखते हुऐ, सुनते हुऐ, छूते हुऐ, सँूघते हुऐ, खाते हुऐ, चलते किफरते हुऐ, सोते हुऐ,साँस लेते हुऐ, बोलते हुऐ, छोड़ते या पकडे़ हुऐ, यहाँ तक किक आँखें खोलते या बंद करते हुऐ,अथाUत कुछ भी करते हुऐ, वो इसी भावना से युक्त रहता है किक वो कुछ नहीं कर रहा।वो यही धारण किकये रहता है किक इझिन्द्रयाँ अपने किवषयों के साथ वतU रही हैं॥ब्रह्मण्याधाय कमाUणिण सङं्ग त्यक्त्वा करोकित यः।लिलप्यते न स पापेन पद्मपत्रधिमवाम्भसा॥५- १०॥

कम� को ब्रह्म के हवाले कर, संग को त्याग कर जो कायU करता है,वो पाप मे नहीं लिलपता, जैसे कमल का पत्ता पानी में भी गीला नहीं होता॥कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिरझिन्द्रयैरकिप।योकिगनः कमU कुवUन्तिन्त सङं्ग त्यक्त्वात्म%ुHये॥५- ११॥

योगी, आत्म%ुझिH के लिलये, केवल %रीर, मन, बुझिH और इझिन्द्रयोंसे कमU करते हैं, संग को त्याग कर॥युक्तः कमUफलं त्यक्त्वा %ान्तिन्तमाप्नोकित नैधि�कीम्।अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो किनबध्यते॥५- १२॥

कमU के फल का त्याग करने की भावना से युक्त होकर, योगी परम%ान्तिन्त पाता है। लेकिकन जो ऍसे युक्त नहीं है, इच्छा पूर्तितं के लिलयेकमU के फल से जुडे़ होने के कारण वो बँध जाता है॥सवUकमाUणिण मनसा संन्यस्यास्ते सुखं व%ी।नवद्वारे पुरे देही नैव कुवU{ कारयन्॥५- १३॥

सभी कम� को मन से त्याग कर, देही इस नौं दरवाजों केदे% मतलब इस %रीर में सुख से बसती है। न वो कुछ करती हैऔर न करवाती है॥न कतृUत्वं न कमाUणिण लोकस्य सृजकित प्रभुः।न कमUफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवतUते॥५- १४॥

प्रभु, न तो कताU होने किक भावना की, और न कमU की रचना करते हैं।न ही वे कमU का फल से संयोग कराते हैं। यह सब तो सवयंम के कारणही होता है।नादते्त कस्यलिचत्पापं न चैव सुकृतं किवभुः।अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्तिन्त जन्तवः॥५- १५॥

न भगवान किकसी के पाप को ग्रहण करते हैं और न किकसी के अचे्छकायU को। ज्ञान को अज्ञान ढक लेता है, इलिसलिलये जीव मोकिहत हो जाते हैं॥ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नालि%तमात्मनः।तेषामादिदत्यवज्ज्ञानं प्रका%यकित तत्परम्॥५- १६॥

झिजन के आत्म मे स्थिस्थत अज्ञान को ज्ञान ने नष्ट कर दिदया है,वह ज्ञान, सूयU की तरह, सब प्रकालि%त कर देता है॥तद्बHुयस्तदात्मानस्तधि{�ास्तत्परायणाः।गच्छन्त्यपुनरावृत्तित्तं ज्ञानकिनधूUतकल्मषाः॥५- १७॥

ज्ञान द्वारा उनके सभी पाप धुले हुऐ, उसी ज्ञान मे बुझिH लगाये,उसी मे आत्मा को लगाये, उसी मे श्रHा रखते हुऐ, और उसी मेंडूबे हुऐ, वे ऍसा स्थान प्राप्त करते हैं झिजस से किफर लौट करनहीं आते॥किवद्याकिवनयसंप{े ब्राह्मणे गकिव हस्मिस्तकिन।%ुकिन चैव श्वपाके च पस्थिण्डताः समदर्शि%ंनः॥५- १८॥

ज्ञानमंद व्यलिक्त एक किवद्या किवनय संप{ ब्राह्मण को, गाय को, हाथी को, कुत्ते कोऔर एक नीच व्यलिक्त को, इन सभी को समान दृधिष्ट से देखता है।इहैव तैर्जिजंतः सगh येषां साम्ये स्थिस्थतं मनः।किनदhषं किह समं ब्रह्म तस्मादब््रह्मणिण ते स्थिस्थताः॥५- १९॥

झिजनका मन समता में स्थिस्थत है वे यहीं इस जन्म मृत्यु को जीत लेते हैं। क्योंकिक ब्रह्मकिनदhष है और समता पूणU है, इसलिलये वे ब्रह्म में ही स्थिस्थत हैं।न प्रहृष्येन्तित्प्रय ंप्राप्य नोकिद्वजेत्प्राप्य चाकिप्रयम्।स्थिस्थरबुझिHरसंमूढो ब्रह्मकिवदब््रह्मणिण स्थिस्थतः॥५- २०॥

न किप्रय लगने वाला प्राप्त कर वे प्रस{ होते हैं, और न अकिप्रय लगने वाला प्राप्त करने परव्यलिथत होते हैं। स्थिस्थर बुझिH वाले, मूखUता से परे, ब्रह्म को जानने वाले, एसे लोग ब्रह्म में हीस्थिस्थत हैं।बाह्यस्प%�ष्वसक्तात्मा किवन्दत्यात्मकिन यत् सुखम्।स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥५- २१॥

बाहरी स्प%� से न जुड़ी आत्मा, अपने आप में ही सुख पाती है। एसी, ब्रह्म योग से युक्त,आत्मा, कभी न अन्त होने वाले किनरन्तर सुख का आनन्द लेती है।ये किह संस्प%Uजा भोगा दुःखयोनय एव ते।आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥५- २२॥

बाहरी स्प%U से उत्तप{ भोग तो दुख का ही घर हैं। %ुरू और अन्तहो जाने वाले ऍसे भोग, हे कौन्तेय, उनमें बुझिHमान लोग रमा नहीं करते।%क्नोतीहैव यः सोढंु प्राक्शरीरकिवमोक्षणात्।कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥५- २३॥

यहाँ इस %रीर को त्यागने से पहले ही जो काम और क्रोध से उत्तप{ वेगोंको सहन कर पाले में सफल हो पाये, ऍसा युक्त नर सुखी है।योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तज्यhकितरेव यः।स योगी ब्रह्मकिनवाUणं ब्रह्मभूतोऽधिधगच्छकित॥५- २४॥

झिजसकी अन्तर आत्मा सुखी है, अन्तर आत्मा में ही जो तुष्ट है, और झिजसका अन्त करण प्रका%मयी है,ऍसा योगी ब्रह्म किनवाUण प्राप्त कर, ब्रह्म में ही समा जाता है।लभन्ते ब्रह्मकिनवाUणमृषयः क्षीणकल्मषाः।लिछ{दै्वधा यतात्मानः सवUभूतकिहते रताः॥५- २५॥

ॠषी झिजनके पाप क्षीण हो चुके हैं, झिजनकी किद्वन्द्वता लिछ{ हो चुकी है,जो संवयम की ही तरह सभी जीवों के किहत में रमे हैं, वो ब्रह्म किनवाUण प्राप्त करते हैं।कामक्रोधकिवयुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।अणिभतो ब्रह्मकिनवाUणं वतUते किवदिदतात्मनाम्॥५- २६॥

काम और क्रोध को त्यागे, साधना करते हुऐ, अपने लिचत को किनयधिमत किकये,आत्मा का ज्ञान झिजनहें हो चुका है, वे यहाँ होते हुऐ भी ब्रह्म किनवाUण में हीस्थिस्थत हैं।स्प%ाUन्कृत्वा बकिहबाUह्यांश्चकु्षश्चैवान्तरे भु्रवोः।प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिरणौ॥५- २७॥यतेझिन्द्रयमनोबुझिHमुUकिनमhक्षपरायणः।किवगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः॥५- २८॥

बाहरी स्प%� को बाहर कर, अपनी दृधिष्ट को अन्दर की ओर भु्रवों केमध्य में लगाये, प्राण और अपान का नालिसकाओं में एक सा बहाव कर,इझिन्द्रयों, मन और बुझिH को किनयधिमत कर, ऍसा मुकिन जो मोक्ष प्रान्तिप्त में ही लगा हुआ है,इच्छा, भय और क्रोध से मुक्त, वह सदा ही मुक्त है।भोक्तारं यज्ञतपसां सवUलोकमहेश्वरम्।सुहृदं सवUभूतानां ज्ञात्वा मां %ान्तिन्तमृच्छकित॥५- २९॥

मु5े ही सभी यज्ञों और तपों का भोक्ता, सभी लोकों का महान ईश्वर,और सभी जीवों का सुहृद जान कर वह %ान्तिन्त को प्राप्त करता है।

श्रीमद्भगवद्गीता हि�न्दीभाषाऽऽनुवादसहि�ता 06 छटा अध्याय

श्रीभगवानुवाचअनाणिश्रतः कमUफलं काय| कमU करोकित यः।स संन्यासी च योगी च न किनरखिग्ननU चाकिक्रयः॥६- १॥

कमU के फल का आश्रय न लेकर जो कमU करता है, वह संन्यासी भी है औरयोगी भी। वह नहीं जो अखिग्नहीन है, न वह जो अकिक्रय है।यं संन्यासधिमकित प्राहुयhगं तं किवझिH पाण्डव।न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवकित कश्चन॥६- २॥

झिजसे सन्यास कहा जाता है उसे ही तुम योग भी जानो हे पाण्डव।क्योंकिक सन्यास अथाUत त्याग के संकल्प के किबना कोई योगी नहीं बनता।आरुरुक्षोमुUनेयhगं कमU कारणमुच्यते।योगारूढस्य तस्यैव %मः कारणमुच्यते॥६- ३॥

एक मुकिन के लिलये योग में स्थिस्थत होने के लिलये कमU साधन कहा जाता है।योग मे स्थिस्थत हो जाने पर %ान्तिन्त उस के लिलये साधन कही जाती है।यदा किह नेझिन्द्रयाथ�षु न कमUस्वनुषज्जते।सवUसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते॥६- ४॥

जब वह न इझिन्द्रयों के किवषयों की ओर और न कम� की ओर आकर्तिषंत होता है,सभी संकल्पों का त्यागी, तब उसे योग में स्थिस्थत कहा जाता है।उHरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।आत्मैव ह्यात्मनो बनु्धरात्मैव रिरपुरात्मनः॥६- ५॥

सवयंम से अपना उHार करो, सवयंम ही अपना पतन नहीं। मनुष्य सवयंमही अपना धिमत्र होता है और सवयंम ही अपना %त्रू।बनु्धरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना झिजतः।अनात्मनस्तु %तु्रत्वे वत�तात्मैव %तु्रवत्॥६- ६॥

झिजसने अपने आप पर जीत पा ली है उसके लिलये उसका आत्म उसका धिमत्र है।लेकिकन सवयंम पर जीत नही प्राप्त की है उसके लिलये उसका आत्म ही %त्रु की तरह वतUता है।झिजतात्मनः प्र%ान्तस्य परमात्मा समाकिहतः।%ीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥६- ७॥

अपने आत्मन पर जीत प्राप्त किकया, सरदी गरमी, सुख दुख तथा मान अपमान मेंएक सा रहने वाला, प्रस{ लिचत्त मनुष्य परमात्मा मे बसता है।ज्ञानकिवज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो किवझिजतेझिन्द्रयः।युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः॥६- ८॥

ज्ञान और अनुभव से तृप्त हुई आत्मा, अ-किहल, अपनी इन्द्रीयों पर जीत प्राप्त कीये,इस प्रकार युक्त व्यलिक्त को ही योगी कहा जाता है, जो लोहे, पत्थर और सोने को एक सादेखता है।सुहृन्धिन्मत्रायुUदासीनमध्यस्थदे्वष्यबनु्धषु।साधुष्वकिप च पापेषु समबुझिHर्तिवंलि%ष्यते॥६- ९॥

जो अपने सुहृद को, धिमत्र को, वैरी को, कोई मतलब न रखने वाले को, किबचोले को, घृणा करने वाले को,सम्बन्धी को, यहाँ तक की एक साधू पुरूष को और पापी पुरूष को एक ही बुझिH से देखता है वह उत्तम है।योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहलिस स्थिस्थतः।एकाकी यतलिचत्तात्मा किनरा%ीरपरिरग्रहः॥६- १०॥

योगी को एकान्त स्थान पर स्थिस्थत होकर सदा अपनी आत्मा को किनयधिमत करना चाकिहये।एकान्त मे इच्छाओं और घर, धन आदिद मास्मिन्सक परिरग्रहों से रकिहत हो अपने लिचत और आत्माको किनयधिमत करता हुआ।%ुचौ दे%े प्रकित�ाप्य स्थिस्थरमासनमात्मनः।नात्युस्थिच्छ्रतं नाकितनीचं चैलाझिजनकु%ोत्तरम्॥६- ११॥

उसे ऍसे आसन पर बैठना चाकिहये जो साफ और पकिवत्र स्थान पर स्थिस्थत हो, स्थिस्थर हो, और जोन ज़्यादा ऊँचा हो और न ज़्यादा नीचा हो, और कपडे़, खाल या कु% नामक घास से बना हो।ततै्रकागं्र मनः कृत्वा यतलिचते्तझिन्द्रयकिक्रयः।उपकिवश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मकिव%ुHये॥६- १२॥

वहाँ अपने मन को एकाग्र कर, लिचत्त और इन्द्रीयों को अकिक्रय कर, उसे आत्म %ुझिH के लिलयेध्यान योग का अभ्यास करना चाकिहये।समं कायलि%रोग्रीवं धारय{चलं स्थिस्थरः।सम्प्रेक्ष्य नालिसकागं्र स्वं दिद%श्चानवलोकयन्॥६- १३॥

अपनी काया, लिसर और गदUन को एक सा सीधा धारण कर, अचल रखते हुऐ,स्थिस्थर रह कर, अपनी नाक के आगे वाले भाग की ओर एकाग्रता से देखते हुये,और किकसी दिद%ा में नहीं देखना चाकिहये।प्र%ान्तात्मा किवगतभीब्रUह्मचारिरव्रते स्थिस्थतः।मनः संयम्य मस्थिच्चत्तो युक्त आसीत मत्परः॥६- १४॥

प्रस{ आत्मा, भय मुक्त, ब्रह्मचायU के व्रत में स्थिस्थत, मन को संयधिमत कर,मु5 मे लिचत्त लगाये हुऐ, इस प्रकार युक्त हो मेरी ही परम चाह रखते हुऐ।युञ्ज{ेवं सदात्मानं योगी किनयतमानसः।%ान्तिन्तं किनवाUणपरमां मत्संस्थामधिधगच्छकित॥६- १५॥

इस प्रकार योगी सदा अपने आप को किनयधिमत करता हुआ, किनयधिमत मन वाला,मु5 मे स्थिस्थत होने ने कारण परम %ान्तिन्त और किनवाUण प्राप्त करता है।

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्मिस्त न चैकान्तमनश्नतः।न चाकित स्वप्न%ीलस्य जाग्रतो नैव चाजुUन॥६- १६॥

हे अजुUन, न बहुत खाने वाला योग प्राप्त करता है, न वह जो बहुत ही कम खाता है।न वह जो बहुत सोता है और न वह जो जागता ही रहता है।युक्ताहारकिवहारस्य युक्तचेष्टस्य कमUसु।युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवकित दुःखहा॥६- १७॥

जो किनयधिमत आहार लेता है और किनयधिमत किनर-आहार रहता है, किनयधिमत ही कमU करता है,किनयधिमत ही सोता और जागता है, उसके लिलये यह योगा दुखों का अन्त कर देने वाली हो जाती है।यदा किवकिनयतं लिचत्तमात्मन्येवावकित�ते।किनःस्पृहः सवUकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥६- १८॥

जब सवंयम ही उसका लिचत्त, किबना हलचल के और सभी कामनाओं से मुक्त, उसकी आत्मामे किवराजमान रहता है, तब उसे युक्त कहा जाता है।यथा दीपो किनवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।योकिगनो यतलिचत्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः॥६- १९॥

जैसे एक दीपक वायु न होने पर किहलता नहीं है, उसी प्रकार योग द्वारा किनयधिमत किकया हुआयोगी का लिचत्त होता है।यत्रोपरमते लिचतं्त किनरुHं योगसेवया।यत्र चैवात्मनात्मानं पश्य{ात्मकिन तुष्यकित॥६- २०॥

जब उस योगी का लिचत्त योग द्वारा किवषयों से हट जाता है तब वह सवयं अपनी आत्मा कोसवयं अपनी आत्मा द्वारा देख तु� होता है।सुखमात्यन्तिन्तकं यत्तद ्बुझिHग्राह्यमतीझिन्द्रयम्।वेणित्त यत्र न चैवायं स्थिस्थतश्चलकित तत्त्वतः॥६- २१॥

वह अत्यन्त सुख जो इझिन्द्रयों से पार उसकी बुझिH मे समाता है, उसे देख लेने के बादयोगी उसी मे स्थिस्थत रहता है और सार से किहलता नहीं।यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिधकं ततः।यस्मिस्मस्थिन्स्थतो न दुःखेन गुरुणाकिप किवचाल्यते॥६- २२॥

तब बडे़ से बड़ा लाभ प्राप्त कर लेने पर भी वह उसे अधिधक नहीं मानता, और न ही,उस सुख में स्थिस्थत, वह भयानक से भयानक दुख से भी किवचलिलत होता है।तं किवद्याद्दःुखसंयोगकिवयोगं योगसंलिज्ञतम्।स किनश्चयेन योक्तव्यो योगोऽकिनर्तिवंण्णचेतसा॥६- २३॥

दुख से जो जोड़ है उसके इस टुट जाने को ही योग का नाम दिदया जाता है। किनश्चय कर और पूरे मन सेइस योग मे जुटना चाकिहये।संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सवाUन%ेषतः।मनसैवेझिन्द्रयग्रामं किवकिनयम्य समन्ततः॥६- २४॥

%ुरू होने वालीं सभी कामनाओं को त्याग देने का संकल्प कर, मन सेसभी इझिन्द्रयों को हर ओर से रोक कर।%नैः %नैरुपरमेद्बदु्ध्या धृकितगृहीतया।आत्मसंसं्थ मनः कृत्वा न तिकंलिचदकिप लिचन्तयेत्॥६- २५॥

धीरे धीरे बुझिH की स्थिस्थरता ग्ररण करते हुऐ मन को आत्म मे स्थिस्थत कर,कुछ भी नहीं सोचना चाकिहये।यतो यतो किनश्चरकित मनश्चञ्चलमस्थिस्थरम्।ततस्ततो किनयम्यैतदात्मन्येव व%ं नयेत्॥६- २६॥

जब जब चंचल और अस्थिस्थर मन किकसी भी ओर जाये, तब तब उसे किनयधिमत करअपने व% में कर लेना चाकिहये।प्र%ान्तमनसं हे्यनं योकिगनं सुखमुत्तमम्।उपैकित %ान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥६- २७॥

ऍसे प्रस{ लिचत्त योगी को उत्तम सुख प्राप्त होता है झिजसका रजो गुण %ान्त हो चुका है,जो पाप मुक्त है और ब्रह्म मे समा चुका है।युञ्ज{ेवं सदात्मानं योगी किवगतकल्मषः।सुखेन ब्रह्मसंस्प%Uमत्यन्तं सुखमश्नुते॥६- २८॥

अपनी आत्मा को सदा योग मे लगाये, पाप मुक्त हुआ योगी, आसानी सेब्रह्म से स्प%U होने का अत्यन्त सुख भोगता है।सवUभूतस्थमात्मानं सवUभूताकिन चात्मकिन।ईक्षते योगयुक्तात्मा सवUत्र समद%Uनः॥६- २९॥

योग से युक्त आत्मा, अपनी आत्मा को सभी जीवों में देखते हुऐ और सभी जीवों मेअपनी आत्मा को देखते हुऐ हर जगह एक सा रहता है।यो मां पश्यकित सवUत्र सव| च मधिय पश्यकित।तस्याहं न प्रणश्याधिम स च मे न प्रणश्यकित॥६- ३०॥

जो मु5े हर जगह देखता है और हर चीज़ को मु5 में देखता है,उसके लिलये मैं कभी ओ5ल नहीं होता और न ही वो मेरे लिलये ओ5ल होता है।सवUभूतस्थिस्थतं यो मां भजत्येकत्वमास्थिस्थतः।सवUथा वतUमानोऽकिप स योगी मधिय वतUते॥६- ३१॥

सभी भूतों में स्थिस्थत मु5े जो अ{य भाव से स्थिस्थत हो कर भजता है, वह सब कुछकरते हुऐ भी मु5 ही में रहता है।आत्मौपम्येन सवUत्र समं पश्यकित योऽजुUन।सुखं वा यदिद वा दुःखं स योगी परमो मतः॥६- ३२॥

हे अजुUन, जो सदा दूसरों के दुख सुख और अपने दुख सुख को एक सा देखता है,वही योगी सबसे परम है।

अजुUन उवाचयोऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।एतस्याहं न पश्याधिम चञ्चलत्वास्थित्स्थतितं स्थिस्थराम्॥६- ३३॥

हे मधुसूदन, जो आपने यह समता भरा योग बताया है, इसमें मैंस्थिस्थरता नहीं देख पा रहा हूँ, मन की चंचलता के कारण।चञ्चलं किह मनः कृष्ण प्रमालिथ बलवद्दढृम्।तस्याहं किनग्रहं मन्ये वायोरिरव सुदुष्करम्॥६- ३४॥

हे कृष्ण, मन तो चंचल, हलचल भरा, बलवान और दृढ होता है। उसेरोक पाना तो मैं वैसे अत्यन्त कदिठन मानता हूँ जैसे वायु को रोक पाना।

श्रीभगवानुवाचअसं%य ंमहाबाहो मनो दुर्तिनगं्रहं चलम्।अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥६- ३५॥

बे%क, हे महाबाहो, चंचल मन को रोक पाना कदिठन है, लेकिकन हेकौन्तेय, अभ्यास और वैराग्य से इसे काबू किकया जा सकता है।असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इकित मे मकितः।वश्यात्मना तु यतता %क्योऽवाप्तुमुपायतः॥६- ३६॥

मेरे मत में, आत्म संयम किबना योग प्राप्त करना अत्यन्त कदिठन है। लेकिकन अपनेआप को व% मे कर अभ्यास द्वारा इसे प्राप्त किकया जा सकता है।

अजुUन उवाचअयकितः श्रHयोपेतो योगाच्चलिलतमानसः।अप्राप्य योगसंलिसद्धिHं कां गतितं कृष्ण गच्छकित॥६- ३७॥

हे कृष्ण, श्रHा होते हुए भी झिजसका मन योग से किहल जाता है, योग लिसझिH कोप्राप्त न कर पाने पर उसको क्या परिरणाम होता है।कस्थिच्च{ोभयकिवभ्रष्टस्थिश्छ{ाभ्रधिमव नश्यकित।अप्रकित�ो महाबाहो किवमूढो ब्रह्मणः पलिथ॥६- ३८॥

क्या वह दोनों पथों में असफल हुआ, टूटे बादल की तरह नष्ट नहीं हो जाता। हे महाबाहो,अप्रकितधि�त और ब्रह्म पथ से किवमूढ हुआ।एतन्मे सं%यं कृष्ण छेतु्तमहUस्य%ेषतः।त्वदन्यः सं%यस्यास्य छेत्ता न हु्यपपद्यते॥६- ३९॥

हे कृष्ण, मेरे इस सं%य को आप पूरी तरह धिमटा दीजीऐ क्योंकिक आप के अलावा और कोईनहीं है जो इस सं%य को छेद पाये।

श्रीभगवानुवाचपाथU नैवेह नामुत्र किवना%स्तस्य किवद्यते।न किह कल्याणकृत्कणिश्चद्दगुUतितं तात गच्छकित॥६- ४०॥

हे पाथU, उसके लिलये किवना% न यहाँ है और न कहीं और ही। क्योंकिक, हे तात,कल्याण कारी कमU करने वाला कभी दुगUकित को प्राप्त नहीं होता।प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुकिषत्वा %ाश्वतीः समाः।%ुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽणिभजायते॥६- ४१॥

योग पथ में भ्रष्ट हुआ मनुष्य, पुन्यवान लोगों के लोकों को प्राप्त कर, वहाँ बहुत समय तक रहता है औरकिफर पकिवत्र और श्रीमान घर में जन्म लेता है।अथवा योकिगनामेव कुले भवकित धीमताम्।एतझिH दुलUभतरं लोके जन्म यदीदृ%म्॥६- ४२॥

या किफर वह बुझिHमान योकिगयों के घर मे जन्म लेता है। ऍसा जन्म धिमलना इस संसारमें बहुत मुस्मिश्कल है।तत्र तं बुझिHसंयोगं लभते पौवUदेकिहकम्।यतते च ततो भूयः संलिसHौ कुरुनन्दन॥६- ४३॥

वहाँ उसे अपने पहले वाले जन्म की ही बुझिH से किफर से संयोग प्राप्त होता है। किफर दोबाराअभ्यास करते हुऐ, हे कुरुनन्दन, वह लिसझिH प्राप्त करता है।पूवाUभ्यासेन तेनैव किØयते ह्यव%ोऽकिप सः।झिजज्ञासुरकिप योगस्य %ब्दब्रह्माकितवतUते॥६- ४४॥

पुवU जन्म में किकये अभ्यास की तरफ वह किबना व% ही खिखच जाता है। क्योंकिक योग मेझिजज्ञासा रखने वाला भी वेदों से ऊपर उठ जाता है।प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी सं%ुHकिकस्थिल्बषः।अनेकजन्मसंलिसHस्ततो याकित परां गकितम्॥६- ४५॥

अनेक जन्मों मे किकये प्रयत्न से योगी किव%ुH और पाप मुक्त हो, अन्त में परम लिसझिH को प्राप्तकर लेता है।तपस्मिस्वभ्योऽधिधको योगी ज्ञाकिनभ्योऽकिप मतोऽधिधकः।कर्मिमंभ्यश्चाधिधको योगी तस्माद्योगी भवाजुUन॥६- ४६॥

योगी तपस्मिस्वयों से अधिधक है, किवद्वानों से भी अधिधक है, कमU से जुडे़ लोगों से भीअधिधक है, इसलिलये हे अजुUन तुम योगी बनो।योकिगनामकिप सव�षां मद्गतेनान्तरात्मना।श्रHावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥६- ४७॥

और सभी योगीयों में जो अन्तर आत्मा को मु5 में ही बसा कर श्रHा सेमु5े याद करता है, वही सबसे उत्तम है।

श्रीमद्भगवद्गीता हि�न्दीभाषाऽऽनुवादसहि�ता 07

सातवाँ अध्याय

श्रीभगवानुवाच

मय्यासक्तमनाः पाथU योगं युञ्जन्मदाश्रयः।असं%य ंसमग्रं मां यथा ज्ञास्यलिस तचृ्छणु॥७- १॥

मु5 मे लगे मन से, हे पाथU, मेरा आश्रय लेकर योगाभ्यास करते हुऐ तुम किबना %क केमु5े पूरी तरह कैसे जान जाओगे वह सुनो।ज्ञानं तेऽहं सकिवज्ञानधिमदं वक्ष्याम्य%ेषतः।यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवलि%ष्यते॥७- २॥

मैं तुम्हे ज्ञान और अनुभव के बारे सब बताता हूँ, झिजसे जान लेने के बादऔर कुछ भी जानने वाला बाकिक नहीं रहता।मनुष्याणां सहस्रेषु कणिश्चद्यतकित लिसHये।यततामकिप लिसHानां कणिश्चन्मां वेणित्त तत्त्वतः॥७- ३॥

हजारों मनुष्यों में कोई ही लिसH होने के लिलये प्रयत्न करता है। और लिसझिH के लिलयेप्रयत्न करने वालों में भी कोई ही मु5े सार तक जानता है।भूधिमरापोऽनलो वायुः खं मनो बुझिHरेव च।अहंकार इतीयं मे णिभ{ा प्रकृकितरष्टधा॥७- ४॥

भूधिम, जल, अखिग्न, वायु, आका%, मन, बुझिH और अहंकार – यह णिभ{ णिभ{ आठ रूपोंवाली मेरी प्रकृकित है।अपरेयधिमतस्त्वन्यां प्रकृतितं किवझिH मे पराम्।जीवभूतां महाबाहो ययेदं धायUते जगत्॥७- ५॥

यह नीचे है। इससे अलग मेरी एक और प्राकृकित है जो परम है – जो जीवात्मा का रूपलेकर, हे महाबाहो, इस जगत को धारण करती है।एतद्योनीकिन भूताकिन सवाUणीत्युपधारय।अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा॥७- ६॥

यह दो ही वह योकिन हैं झिजससे सभी जीव संभव होते हैं। मैं ही इस संपूणUजगत का आरम्भ हूँ औऱ अन्त भी।मत्तः परतरं नान्यत्कित्कंलिचदस्मिस्त धनंजय।मधिय सवUधिमदं प्रोतं सूत्रे मणिणगणा इव॥७- ७॥

मु5े छोड़कर, हे धनंजय, और कुछ भी नहीं है। यह सब मु5 से वैसे पुरा हुआ हैजैसे मणिणयों में धागा पुरा होता है।रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मिस्म %लि%सूयUयोः।प्रणवः सवUवेदेषु %ब्दः खे पौरुषं नृषु॥७- ८॥

मैं पानी का रस हूँ, हे कौन्तेय, चन्द्र और सूयU की रौ%नी हूँ, सभी वेदों में वर्णिणतंॐ हूँ, और पुरुषों का पौरुष हूँ।पुण्यो गन्धः पृलिथव्यां च तेजश्चास्मिस्म किवभावसौ।जीवनं सवUभूतेषु तपश्चास्मिस्म तपस्मिस्वषु॥७- ९॥

पृथकिव की पुन्य सुगन्ध हूँ और अखिग्न का तेज हूँ। सभी जीवों का जीवन हूँ, और तपकरने वालों का तप हूँ।बीजं मां सवUभूतानां किवझिH पाथU सनातनम्।बुझिHबुUझिHमतामस्मिस्म तेजस्तेजस्मिस्वनामहम्॥७- १०॥

हे पाथU, मु5े तुम सभी जीवों का सनातन बीज जानो। बुझिHमानों की बुझिH मैं हूँ औरतेजस्मिस्वयों का तेज मैं हूँ।बलं बलवतां चाहं कामरागकिववर्जिजंतम्।धमाUकिवरुHो भूतेषु कामोऽस्मिस्म भरतषUभ॥७- ११॥

बलवानों का वह बल जो काम और राग मुक्त हो वह मैं हूँ। प्राणिणयों में वह इच्छा जो धमU किवरुH नहो वह मैं हूँ हे भारत श्रे�।ये चैव सास्मित्त्वका भावा राजसास्तामसाश्च ये।मत्त एवेकित तान्तिन्वझिH न त्वहं तेषु ते मधिय॥७- १२॥

जो भी सत्तव, रजो अथवा तमो गुण से होता है उसे तुम मु5 से ही हुआ जानो, लेकिकनमैं उन में नहीं, वे मु5 में हैं।कित्रणिभगुUणमयैभाUवैरेणिभः सवUधिमदं जगत्।मोकिहतं नाणिभजानाकित मामेभ्यः परमव्ययम्॥७- १३॥

इन तीन गुणों के भाव से यह सारा जगत मोकिहत हुआ, मु5 अव्यय और परम को नहीं जानता।दैवी हे्यषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्तिन्त ते॥७- १४॥

गुणों का रूप धारण की मेरी इस दिदव्य माया को पार करना अत्यन्त कदिठन है।लेकिकन जो मेरी ही %रण में आते हैं वे इस माया को पार कर जाते हैं।न मां दुष्कृकितनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाणिश्रताः॥७- १५॥

बुरे कमU करने वाले, मूखU, नीच लोग मेरी %रण में नहीं आते। ऍसे दुष्कृत लोग, माया द्वाराझिजनका ज्ञान लिछन चुका है वे असुर भाव का आश्रय लेते हैं।चतुर्तिवंधा भजन्ते मां जनाः सुकृकितनोऽजुUन।आतh झिजज्ञासुरथाUथ¢ ज्ञानी च भरतषUभ॥७- १६॥

हे अजुUन, चार प्रकार के सुकृत लोग मु5े भजते हैं। मुसीबत में जो हैं, झिजज्ञासी,धन आदिद के इचु्छक, और जो ज्ञानी हैं, हे भरतषUभ।तेषां ज्ञानी किनत्ययुक्त एकभलिक्तर्तिवंलि%ष्यते।किप्रयो किह ज्ञाकिननोऽत्यथUमहं स च मम किप्रयः॥७- १७॥

उनमें से ज्ञानी ही सदा अनन्य भलिक्तभाव से युक्त होकर मु5े भजता हुआ सबसे उत्तम है। ज्ञानी कोमैं बहुत किप्रय हूँ और वह भी मु5े वैसे ही किप्रय है।उदाराः सवU एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।आस्थिस्थतः स किह युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गकितम्॥७- १८॥

यह सब ही उदार हैं, लेकिकन मेरे मत में ज्ञानी तो मेरा अपना आत्म ही है। क्योंकिक मेरीभलिक्त भाव से युक्त और मु5 में ही स्थिस्थत रह कर वह सबसे उत्तम गकित - मु5े, प्राप्त करता है।बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।वासुदेवः सवUधिमकित स महात्मा सुदुलUभः॥७- १९॥

बहुत जन्मों के अन्त में ज्ञानमंद मेरी %रण में आता है। वासुदेव ही सब कुछ हैं, इसी भाव मेंस्थिस्थर महात्मा धिमल पाना अत्यन्त कदिठन है।कामैस्तैस्तैहृUतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः।तं तं किनयममास्थाय प्रकृत्या किनयताः स्वया॥७- २०॥

इच्छाओं के कारण झिजन का ज्ञान लिछन गया है, वे अपने अपने स्वभाव के अनुसार, नीयमों का पालन करते हुऐअन्य देवताओं की %रण में जाते हैं।यो यो यां यां तनंु भक्तः श्रHयार्शिचंतुधिमच्छकित।तस्य तस्याचलां श्रHां तामेव किवदधाम्यहम्॥७- २१॥

जो भी मनुष्य झिजस झिजस देवता की भलिक्त और श्रHा से अचUना करने की इच्छाकरता है, उसी रूप (देवता) में मैं उसे अचल श्रHा प्रदान करता हूँ।स तया श्रHया युक्तस्तस्याराधनमीहते।लभते च ततः कामान्मयैव किवकिहताखिन्ह तान्॥७- २२॥

उस देवता के लिलये (मेरी ही दी) श्रHा से युक्त होकर वह उसकी अराधना करता है और अपनी इच्छा पूत¢प्राप्त करता है, जो मेरे द्वारा ही किनरधारिरत की गयी होती है।

अन्तवतु्त फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।देवान्देवयजो यान्तिन्त मद्भक्ता यान्तिन्त मामकिप॥७- २३॥

अल्प बुझिH वाले लोगों को इस प्रकार प्रप्त हुऐ यह फल अन्त%ील हैं। देवताओं का यजन करने वालेदेवताओं के पास जाते हैं लेकिकन मेरा भक्त मु5े ही प्राप्त करता है।अव्यकं्त व्यलिक्तमाप{ं मन्यन्ते मामबुHयः।परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्॥७- २४॥

मु5 अव्यक्त (अदृश्य) को यह अवतार लेने पर, बुझिHहीन लोग देहधारी मानते हैं। मेरे परमभाव को अथाUत मु5े नहीं जानते जो की अव्यय (किवकार हीन) और परम उत्तम है।नाहं प्रका%ः सवUस्य योगमायासमावृतः।मूढोऽयं नाणिभजानाकित लोको मामजमव्ययम्॥७- २५॥

अपनी योग माया से ढका मैं सबको नहीं दिदखता हूँ। इस संसार में मूखU मु5 अजन्मा और किवकार हीनको नहीं जानते।वेदाहं समतीताकिन वतUमानाकिन चाजुUन।भकिवष्याणिण च भूताकिन मां तु वेद न कश्चन॥७- २६॥

हे अजुUन, जो बीत चुके हैं, जो वतUमान में हैं, और जो भकिवष्य में होंगे, उन सभी जीवों को मैं जानता हूँ, लेकिकन मु5ेकोई नहीं जानता।इच्छादे्वषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।सवUभूताकिन संमोहं सग� यान्तिन्त परन्तप॥७- २७॥

हे भारत, इच्छा और दे्वष से उठी द्वन्द्वता से मोकिहत हो कर, सभी जीव जन्म चक्र में फसे रहते हैं, हे परन्तप।येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकमUणाम्।ते द्वन्द्वमोहकिनमुUक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः॥७- २८॥

लेकिकन झिजनके पापों का अन्त हो गया है, वह पुण्य कमU करने वाले लोग द्वन्द्वता सेकिनमुUक्त होकर, दृढ व्रत से मु5े भजते हैं।जरामरणमोक्षाय मामाणिश्रत्य यतन्तिन्त ये।ते ब्रह्म तकिद्वदुः कृत्स्नमध्यात्मं कमU चाखिखलम्॥७- २९॥

बुढापे और मृत्यु से छुटकारा पाने के लिलये जो मेरा आश्रय लेते हैं वे उस ब्रह्म को,सारे अध्यात्म को, और संपूणU कमU को जानते हैं।साधिधभूताधिधदैवं मां साधिधयजं्ञ च ये किवदुः।प्रयाणकालेऽकिप च मां ते किवदुयुUक्तचेतसः॥७- ३०॥

वे सभी भूतों में, दैव में, और यज्ञ में मु5े जानते हैं। मृत्युकाल में भी इसीबुझिH से युक्त लिचत्त से वे मु5े ही जानते हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता हि�न्दीभाषाऽऽनुवादसहि�ता 08 आ0वाँ अध्याय

अजुUन उवाचतिकं तदब््रह्म किकमध्यात्मं तिकं कमU पुरुषोत्तम।अधिधभूतं च तिकं प्रोक्तमधिधदैवं किकमुच्यते॥८- १॥

हे पुरुषोत्तम, ब्रह्म क्या है, अध्यात्म क्या है, और कमU क्या होता है। अधिधभूत किकसे कहते हैं और अधिधदैवकिकसे कहा जाता है।अधिधयज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिस्मन्मधुसूदन।प्रयाणकाले च कथं जे्ञयोऽलिस किनयतात्मणिभः॥८- २॥

हे मधुसूदन, इस देह में जो अधिधयज्ञ है वह कौन है। और सदा किनयधिमत लिचत्त वाले कैसेमृत्युकाल के समय उसे जान जाते हैं।

श्रीभगवानुवाचअक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।भूतभावोद्भवकरो किवसगUः कमUसंलिज्ञतः॥८- ३॥

झिजसका क्षर नहीं होता वह ब्रह्म है। जीवों के परम स्वभाव को ही अध्यात्म कहा जाता है। जीवों की झिजससे उत्पणित्तहोती है उसे कमU कहा जाता है।अधिधभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिधदैवतम्।अधिधयज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥८- ४॥

इस देह के क्षर भाव को अधिधभूत कहा जाता है, और पुरूष अथाUत आत्मा को अधिधदैव कहा जाता है।इस देह में मैं अधिधयज्ञ हूँ - देह धारण करने वालों में सबसे श्रे�।अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।यः प्रयाकित स मद्भावं याकित नास्त्यत्र सं%यः॥८- ५॥

अन्तकाल में मु5ी को याद करते हुऐ जो देह से मुलिक्त पाता है, वह मेरे ही भाव को प्राप्त होताहै, इस में कोई सं%य नहीं।यं य ंवाकिप स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।तं तमेवैकित कौन्तेय सदा तद्भावभाकिवतः॥८- ६॥

प्राणी जो भी स्मरन करते हुऐ अपनी देह त्यागता है, वह उसी को प्राप्त करता है हे कौन्तेय, सदाउन्हीं भावों में रहने के कारण।तस्मात्सव�षु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।मय्यर्तिपंतमनोबुझिHमाUमेवैष्यस्यसं%यम्॥८- ७॥

इसलिलये, हर समय मु5े ही याद करते हुऐ तुम युH करो। अपने मन और बुझिH कोमु5े ही अर्तिपंत करने से, तुम मु5 में ही रहोगे, इस में कोई सं%य नहीं।अभ्यासयोगयुके्तन चेतसा नान्यगाधिमना।परमं पुरुषं दिदवं्य याकित पाथाUनुलिचन्तयन्॥८- ८॥कतिवं पुराणमनु%ालिसतारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।सवUस्य धातारमलिचन्त्यरूपमादिदत्यवण| तमसः परस्तात्॥८- ९॥

हे पाथU, अभ्यास द्वारा लिचत्त को योग युक्त कर और अन्य किकसी भी किवषय का लिचन्तन न करतेहुऐ, उन पुरातन ककिव, सब के अनु%ासक, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, सबके धाता, अलिचन्त्य रूप, सूयUके प्रकार प्रका%मयी, अंधकार से परे उन ईश्वर का ही लिचन्तन करते हुऐ, उस दिदव्य परम-पुरुष को ही प्राप्त करोगे।प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।भु्रवोमUध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैकित दिदव्यम्॥८- १०॥

इस देह को त्यागते समय, मन को योग बल से अचल कर और और भलिक्त भाव से युक्त हो, भु्रवों केमध्य में अपने प्राणों को दिटका कर जो प्राण त्यागता है वह उस दिदव्य परम पुरुष को प्राप्त करता है।यदक्षरं वेदकिवदो वदन्तिन्त किव%न्तिन्त यद्यतयो वीतरागाः।यदिदच्छन्तो ब्रह्मचय| चरन्तिन्त तते्त पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये॥८- ११॥

झिजसे वेद को जानने वाले अक्षर कहते हैं, और झिजसमें साधक राग मुक्त हो जाने पर प्रवे% करते हैं,झिजसकी प्राप्ती की इच्छा से ब्रह्मचारी ब्रह्मचयाU का पालन करते हैं, तुम्हें मैं उस पद के बारे में बताता हूँ।सवUद्वाराणिण संयम्य मनो हृदिद किनरुध्य च।मूध्न्याUधायात्मनः प्राणमास्थिस्थतो योगधारणाम्॥८- १२॥ओधिमत्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।यः प्रयाकित त्यजन्देहं स याकित परमां गकितम्॥८- १३॥

अपने सभी द्वारों (अथाUत इझिन्द्रयों) को संयम%ील कर, मन और हृदय को किनरोH कर (किवषयों से किनकाल कर),प्राणों को अपने मस्मिश्तष्क में स्थिस्थत कर, इस प्रकार योग को धारण करते हुऐ। ॐ से अक्षर ब्रह्म को संबोधिधत करतेहुऐ, और मेरा अनुस्मरन करते हुऐ, जो अपनी देह को त्यजता है, वह परम गकित को प्राप्त करता है।अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरकित किनत्य%ः।तस्याहं सुलभः पाथU किनत्ययुक्तस्य योकिगनः॥८- १४॥

अनन्य लिचत्त से जो मु5े सदा याद करता है, उस किनत्य युक्त योगी के लिलये मु5े प्राप्त करनाआसान है हे पाथU।

मामुपेत्य पुनजUन्म दुःखालयम%ाश्वतम्।नाप्नुवन्तिन्त महात्मानः संलिसद्धिHं परमां गताः॥८- १५॥

मु5े प्राप्त कर लेने पर महात्माओं को किफर से, दुख का घर और मृत्युरूप, अगला जन्म नहीं लेना पड़ता, क्योंकिकवे परम लिसझिH को प्राप्त कर चुके हैं।आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तितनंोऽजुUन।मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनजUन्म न किवद्यते॥८- १६॥

ब्रह्म से नीचे झिजतने भी लोक हैं उनमें से किकसी को भी प्राप्त करने पर जीव को वाकिपस लौटना पड़ता है (मृत्यु होती है),लेकिकन मु5े प्राप्त कर लेने पर, हे कौन्तेय, किफर दोबारा जन्म नहीं होता।सहस्रयुगपयUन्तमहयUदब््रह्मणो किवदुः।रातितं्र युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रकिवदो जनाः॥८- १७॥

जो जानते हैं की सहस्र (हज़ार) युग बीत जाने पर ब्रह्म का दिदन होता है और सहस्र युगों के अन्त पर हीरात्री होती है, वे लोग दिदन और रात को जानते हैं।अव्यक्ताद्व्यक्तयः सवाUः प्रभवन्त्यहरागमे।रात्र्यागमे प्रलीयन्ते ततै्रवाव्यक्तसंज्ञके॥८- १८॥

दिदन के आगम पर अव्यक्त से सभी उत्तप{ होकर व्यक्त (दिदखते हैं) होते हैं, और राकित्र केआने पर प्रलय को प्राप्त हो, झिजसे अव्यक्त कहा जाता है, उसी में समा जाते हैं।भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।रात्र्यागमेऽव%ः पाथU प्रभवत्यहरागमे॥८- १९॥

हे पाथU, इस प्रकार यह समस्त जीव दिदन आने पर बार बार उत्प{ होते हैं, और रात होने पर बार बारव%हीन ही प्रलय को प्राप्त होते हैं।परस्तस्मातु्त भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।यः स सव�षु भूतेषु नश्यत्सु न किवनश्यकित॥८- २०॥

इन व्यक्त और अव्यक्त जीवों से परे एक और अव्यक्त सनातन पुरुष है, जो सभी जीवों का अन्त होने पर भी नष्टनहीं होता।अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गकितम्।यं प्राप्य न किनवतUन्ते तHाम परमं मम॥८- २१॥

झिजसे अव्यक्त और अक्षर कहा जाता है, और झिजसे परम गकित बताया जाता है,झिजसे प्राप्त करने पर कोई किफर से नहीं लौटता वही मेरा परम स्थान है।पुरुषः स परः पाथU भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।यस्यान्तःस्थाकिन भूताकिन येन सवUधिमदं ततम्॥८- २२॥

हे पाथU, उस परम पुरुष को, झिजसमें यह सभी जीव स्थिस्थत हैं और जीसमें यह सब कुछ हीबसा हुआ है, तुम अनन्य भलिक्त से पा सकते हो।यत्र काले त्वनावृणित्तमावृत्तित्तं चैव योकिगनः।प्रयाता यान्तिन्त तं कालं वक्ष्याधिम भरतषUभ॥८- २३॥

हे भरतषUभ, अब मैं तुम्हें वह समय बताता हूँ झिजसमें %रीर त्यागते हुऐ योगीलौट कर नहीं आते और झिजसमें वे लौट कर आते हैं।अखिग्नज्यhकितरहः %ुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।तत्र प्रयाता गच्छन्तिन्त ब्रह्म ब्रह्मकिवदो जनाः॥८- २४॥

रौ%नी में, अखिग्न की ज्योकित के समीप, दिदन के समय, या सुयU के उत्तर में होने वाले छः महीने (गरमी), उस मेंजाने वाले ब्रह्म को जानने वाले, ब्रह्म को प्राप्त करते हैं।धूमो राकित्रस्तथा कृष्णः षण्मासा दणिक्षणायनम्।तत्र चान्द्रमसं ज्योकितयhगी प्राप्य किनवतUते॥८- २५॥

धूऐं, राकित्र, अंधकार और सूयU के दणिक्षण में होने वाले छः महीने (सदÝ), उस में योगीचन्द्र की ज्योकित को प्राप्त कर पुनः लौटते हैं।%ुक्लकृष्णे गती हे्यते जगतः %ाश्वते मते।एकया यात्यनावृणित्तमन्ययावतUते पुनः॥८- २६॥

इस जगत में सफेद और काला - ये दो %ाश्वत पथ माने जाते हैं। एक पर चलने वाले किफर लौट कर नहीं आते औरदूसरे पर चलने वाले किफर लौट कर आते हैं।नैते सृती पाथU जानन्योगी मुह्यकित कश्चन।तस्मात्सव�षु कालेषु योगयुक्तो भवाजुUन॥८- २७॥

हे पाथU, ऍसा एक भी योगी नहीं है जो इसे जान जाने के बाद किफर कभी मोकिहत हुआ हो। इसलिलये,हे अजुUन, तुम हर समय योग-युक्त बनो।वेदेषु यजे्ञषु तपःसु चैव दानेषु यत् पुण्यफलं प्रदिदष्टम्।अत्येकित तत्सवUधिमदं किवदिदत्वा योगी परं स्थानमुपैकित चाद्यम्॥८- २८॥

इस सब को जान कर, योगी, वेदों, यज्ञों, तप औऱ दान से जो भी पुण्य फल प्राप्त होते हैं उन सब सेऊपर उठकर, पुरातन परम स्थान प्राप्त कर लेता है।

श्रीमद्भगवद्गीता हि�न्दीभाषाऽऽनुवादसहि�ता 09 नौंवा अध्याय

श्रीभगवानुवाच

इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।ज्ञानं किवज्ञानसकिहतं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽ%ुभात्॥९- १॥

मैं तुम्हे इस परम रहस्य के बारे में बताता हूँ क्योंकिक तुममें इसके प्रकित कोई वैर वहीं है। इसे ज्ञान और अनुभव सकिहत जान लेने परतुम अ%ुभ से मुलिक्त पा लोगे।राजकिवद्या राजगुह्यं पकिवत्रधिमदमुत्तमम्।प्रत्यक्षावगमं धम्य| सुसुखं कतुUमव्ययम्॥९- २॥

यह किवद्या सबसे श्रे� है, सबसे श्रे� रहस्य है, उत्तम से भी उत्तम और पकिवत्र है, सामने ही दिदखने वाली है (टेढी नहीं है),न्याय और अच्छाई से भरी है, अव्यय है और आसानी से इसका पालन किकया जा सकता है।अश्रद्दधानाः पुरुषा धमUस्यास्य परन्तप।अप्राप्य मां किनवतUन्ते मृत्युसंसारवत्मUकिन॥९- ३॥

हे परन्तप, इस धमU में झिजन पुरुषों की श्रHा नहीं होती, वे मु5े प्राप्त न कर, बार बार इसमृत्यु संसार में जन्म लेते हैं।मया ततधिमदं सव| जगदव्यक्तमूर्तितंना।मत्स्थाकिन सवUभूताकिन न चाहं तेष्ववस्थिस्थतः॥९- ४॥

मैं इस संपूणU जगत में अव्यक्त (जो दिदखाई न दे) मूर्तितं रुप से किवराझिजत हूँ। सभी जीव मु5 में ही स्थिस्थत हैं,मैं उन में नहीं।न च मत्स्थाकिन भूताकिन पश्य मे योगमैश्वरम्।भूतभृ{ च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः॥९- ५॥

लेकिकन किफर भी ये जीव मु5 में स्थिस्थत नहीं हैं। देखो मेरे योग ऍश्वयU को, इन जीवों में स्थिस्थत न होते हुये भी मैंइन जीवों का पालन हार, और उत्पणित्त कताU हूँ।यथाका%स्थिस्थतो किनत्य ंवायुः सवUत्रगो महान्।तथा सवाUणिण भूताकिन मत्स्थानीत्युपधारय॥९- ६॥

जैसे सदा हर ओर फैले हुये आका% में वायु चलती रहती है, उसी प्रकार सभी जीवमु5 में स्थिस्थत हैं।सवUभूताकिन कौन्तेय प्रकृतितं यान्तिन्त माधिमकाम्।कल्पक्षये पुनस्ताकिन कल्पादौ किवसृजाम्यहम्॥९- ७॥

हे कौन्तेय, सभी जीव कल्प का अन्त हो जाने पर (1000 युगों के अन्त पर) मेरी ही प्रकृकित में समा जाते हैं औरकिफर कल्प के आरम्भ पर मैं उनकी दोबारा रचना करता हूँ।प्रकृतितं स्वामवष्टभ्य किवसृजाधिम पुनः पुनः।भूतग्रामधिममं कृत्स्नमव%ं प्रकृतेवU%ात्॥९- ८॥

इस प्रकार प्रकृकित को अपने व% में कर, पुनः पुनः इस संपूणU जीव समूह की मैं रचना करता हूँ जो इस प्रकृकित केव% में होने के कारण व%हीन हैं।न च मां ताकिन कमाUणिण किनबध्नन्तिन्त धनंजय।उदासीनवदासीनमसकं्त तेषु कमUसु॥९- ९॥

यह कमU मु5े बांधते नहीं हैं, हे धनंजय, क्योंकिक मैं इन कमÞ को करते हुये भीइनसे उदासीन (झिजसे कोई खास मतलब न हो) और संग रकिहत रहता हूँ।मयाध्यके्षण प्रकृकितः सूयते सचराचरम्।हेतुनानेन कौन्तेय जगकिद्वपरिरवतUते॥९- १०॥

मेरी अध्यक्षता के नीचे यह प्रकृकित इन चर और अचर (चलने वाले और न चलने वाले) जीवों कोजन्म देती है। इसी से, हे कौन्तेय, इस जगत का परिरवतUन चक्र चलता है।अवजानन्तिन्त मां मूढा मानुषीं तनुमाणिश्रतम्।परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥९- ११॥

इस मानुषी तन का आश्रय लेने पर (मानव रुप अवतार लेने पर), जो मूखU हैं वे मु5े नहीं पहचानते। मेरे परमभाव को न जानते किक मैं इन सभी भूतों का (संसार और प्राणीयों का) महान् ईश्वर हूँ।मोघा%ा मोघकमाUणो मोघज्ञाना किवचेतसः।राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतितं मोकिहनीं णिश्रताः॥९- १२॥

व्यथU आ%ाओं में बँधे, व्यथU कम� में लगे, व्यथU ज्ञानों से झिजनका लिचत्त हरा जा चुका है, वे किवमोकिहत करने वाली राक्षसी औरआसुरी प्रकृकित का सहारा लेते हैं।महात्मानस्तु मां पाथU दैवीं प्रकृकितमाणिश्रताः।भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिदमव्ययम्॥९- १३॥

लेकिकन महात्मा लोग, हे पाथU, दैवी प्रकृकित का आश्रय लेकर मु5े ही अव्यय (किवकार हीन) और इस संसार का आदिद जान कर,अनन्य मन से मु5े भजते हैं।सततं कीतUयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।नमस्यन्तश्च मां भक्त्या किनत्ययुक्ता उपासते॥९- १४॥

ऍसे भक्त सदा मेरी प्र%ंसा (कीर्तितं) करते हुये, मेरे सामने नतमस्तक हो और सदा भलिक्त से युक्त होदृढ व्रत से मेरी उपासने करते हैं।ज्ञानयजे्ञन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा किवश्वतोमुखम्॥९- १५॥

और दूसरे कुछ लोग ज्ञान यज्ञ द्वारा मु5े उपासते हैं। अलग अलग रूपों में एक ही देखते हुये, और इन बहुत से रुपों कोईश्वर का किवश्वरूप ही देखते हुये।

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमखिग्नरहं हुतम्॥९- १६॥

मैं क्रतु हूँ, मैं ही यज्ञ हूँ, स्वधा मैं हूँ, मैं ही औषधी हूँ। मन्त्र मैं हूँ, मैं ही घी हूँ, मैं अखिग्न हूँ और यज्ञ मेंअर्तिपंत करने का कमU भी मैं ही हूँ।किपताहमस्य जगतो माता धाता किपतामहः।वेद्यं पकिवत्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च॥९- १७॥

मैं इस जगत का किपता हूँ, माता भी, धाता भी और किपतामहः (दादा) भी। मैं ही वेदं्य (झिजसे जानना चाकिहये) हूँ, पकिवत्र ॐ हूँ, औरऋग, साम, और यजुर भी मैं ही हूँ।गकितभUताU प्रभुः साक्षी किनवासः %रणं सुहृत्।प्रभवः प्रलयः स्थानं किनधानं बीजमव्ययम्॥९- १८॥

मैं ही गकित (परिरणाम) हूँ, भताU (भरण पोषण करने वाला) हूँ, प्रभु (स्वामी) हूँ, साक्षी हूँ, किनवास स्थान हूँ, %रण देनेवाला हूँ और सुहृद (धिमत्र अथवा भला चाहने वाला) हूँ। मैं ही उत्पणित्त हूँ, प्रलय हूँ, आधार (स्थान) हूँ, कोष हूँ। मैं हीकिवकारहीन अव्यय बीज हूँ।तपाम्यहमहं वष| किनगृह्णाम्युत्सृजाधिम च।अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमजुUन॥९- १९॥

मैं ही भूधिम को (सूयU रूप से) तपाता हूँ और मैं ही जल को सोक कर वषाU करता हूँ। मैं अमृत भी हूँ, मृत्यु भी, हे अजुUन,और मैं ही सत् भी और असत् भी।तै्रकिवद्या मां सोमपाः पूतपापा यजै्ञरिरष््टवा स्वगUतितं प्राथUयन्ते।ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्तिन्त दिदव्याझिन्दकिव देवभोगान्॥९- २०॥

तीन वेदों (ऋग, साम, यजुर) के ज्ञाता, सोम (चन्द्र) रस का पान करने वाले, क्षीण पाप लोग स्वगU प्रान्तिप्त की इच्छा सेयज्ञों द्वारा मेरा पूजन करते हैं। उन पुण्य कम� के फल स्वरूप वे देवताओं के राजा इन्द्र के लोक को प्राप्त कर, देवताओं के दिदव्यभोगों का भोग करते हैं।ते तं भुक्त्वा स्वगUलोकं किव%ालं क्षीणे पुण्ये मत्यUलोकं किव%न्तिन्त।एवं त्रयीधमUमनुप्रप{ा गतागतं कामकामा लभन्ते॥९- २१॥

वे उस किव%ाल स्वगU लोक को भोगने के कारण क्षीण पुण्य होने पर किफर से मृत्यु लोक पहुँचते हैं। इस प्रकारकामी (इच्छाओं से भरे) लोग, तीन %ीखाओं वाले धमU (तीन वेदों) का पालन कर, अपनी इच्छाओं को प्राप्त कर बार बारआते जाते हैं।

अनन्याणिश्चन्तयन्तो मां ये जनाः पयुUपासते।तेषां किनत्याणिभयुक्तानां योगके्षमं वहाम्यहम्॥९- २२॥

किकसी और का लिचन्तन न कर, अनन्य लिचत्त से जो जन मेरी उपासना करते हैं, उन किनत्य अणिभयुक्त (सदा मेरी भलिक्त से युक्त)लोगों को मैं योग और के्षम (जो नहीं है उसकी प्रान्तिप्त और जो है उसकी रक्षा - लाभ की प्रान्तिप्त और अलाभ से रक्षा) प्रदान करता हूँ।येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रHयान्तिन्वताः।तेऽकिप मामेव कौन्तेय यजन्त्यकिवधिधपूवUकम्॥९- २३॥

जो (अन्य देवताओं के) भक्त अन्य देवताओं का श्रHा से पूजन करते हैं, वे भी, हे कौन्तेय,मेरा ही पूजन करते हैं लेकिकन अकिवधिध पूणU ढँग से।अहं किह सवUयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।न तु मामणिभजानन्तिन्त तत्त्वेनातश्च्यवन्तिन्त ते॥९- २४॥

मैं ही सभी यज्ञों का भोक्ता (भोगने वाला) और प्रभु हूँ। वे मु5े सार तक नहीं जानते, इसी लिलयेवे किगर पड़ते हैं।यान्तिन्त देवव्रता देवान्तिन्पतॄन्यान्तिन्त किपतृव्रताः।भूताकिन यान्तिन्त भूतेज्या यान्तिन्त मद्याझिजनोऽकिप माम्॥९- २५॥

देवताओं (के अचUन) का व्रत रखने वाले देवताओं के पास जाते हैं, किपतृ पूजन वाले किपतरों को प्राप्त करते हैं,जीवों का पूजन करने वाले जीवों को प्राप्त करते हैं, और मेरी भलिक्त करने वाले मु5े ही प्राप्त करते हैं।पतं्र पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छकित।तदहं भक्त्युपहृतमश्नाधिम प्रयतात्मनः॥९- २६॥

मेरा भक्त %ुH मन से मु5े जो भी पत्ता, फूल, फल अथवा जल अर्तिपंत करता है, उस भलिक्त भरे मन से अर्तिपंत की वस्तु कोमैं भोगता (स्मिस्वकार करता) हूँ।यत्करोकिष यदश्नालिस यज्जुहोकिष ददालिस यत्।यत्तपस्यलिस कौन्तेय तत्कुरुष्व मदपUणम्॥९- २७॥

हे कौन्तेय, तुम जो भी करते हो, जो भी खाते हो, जो भी यज्ञ करते हो, जो भी दान करते हो, जो भी तप करते हो,वह सब मु5े ही अपUण कर दो।%ुभा%ुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कमUबन्धनैः।संन्यासयोगयुक्तात्मा किवमुक्तो मामुपैष्यलिस॥९- २८॥

इस प्रकार %ुभ और अ%ुभ फलों से और कमU बन्धन से मुलिक्त पा कर,सन्यास (त्याग) और योग युक्त आत्मा द्वारा किवमुक्त हो तुम मु5े प्राप्त कर लोगे।

समोऽहं सवUभूतेषु न मे दे्वष्योऽस्मिस्त न किप्रयः।ये भजन्तिन्त तु मां भक्त्या मधिय ते तेषु चाप्यहम्॥९- २९॥

मेरे लिलये सभी जीव एक से हैं - न मु5े किकसी से दे्वष है और न ही कोई किप्रय है। लेकिकन जोभलिक्त भाव से मु5े भजते हैं वे मु5 में हैं और मैं उन में हुँ।अकिप चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवलिसतो किह सः॥९- ३०॥

यदिद बहुत दुराचारी व्यलिक्त भी अनन्य भाव से मु5े भजता है तो उसे साधु पुरूष ही सम5ना चाकिहयेक्योंकिक उसने उत्तम किनणUय कर लिलया है।णिक्षप्रं भवकित धमाUत्मा %श्वच्छान्तिन्तं किनगच्छकित।कौन्तेय प्रकित जानीकिह न मे भक्तः प्रणश्यकित॥९- ३१॥

वह जल्द ही धमाUत्मा (सदाचार करने वाला) बन %ाश्वत %ान्तिन्त को प्राप्त कर लेता है। कौन्तेय, तुम एकदम जानो कीमेरे भक्त का कभी ना% नहीं होता।मां किह पाथU व्यपाणिश्रत्य येऽकिप स्युः पापयोनयः।न्धिस्त्रयो वैश्यास्तथा %ूद्रास्तेऽकिप यान्तिन्त परां गकितम्॥९- ३२॥

हे पाथU, मेरा ही आश्रय लेकर वे लोग जो पाप योकिनयों से उत्प{ हुये हैं, और न्धिस्त्रयाँ, वैश्य और %ूद्र भी परम गकित कोप्राप्त कर लेते हैं।तिकं पुनब्राUह्मणाः पुण्या भक्ता राजषUयस्तथा।अकिनत्यमसुखं लोकधिममं प्राप्य भजस्व माम्॥९- ३३॥

किफर पुण्य और भलिक्तमान ब्राह्मण और राज (क्षकित्रय) ऋकिषयों की तो बात ही क्या है। इसलिलये, इसअकिनत्य (अन्त%ील) और असुखी लोक में जन्म लेने पर मेरी ही भलिक्त करो।मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।मामेवैष्यलिस युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९- ३४॥

मु5ी में अपने मन को लगाओ, मेरे भक्त बनो, मेरा ही पूजन करो, मेरे ही सामने नत् मस्तक हो। इस प्रकारयुक्त रहते हुये, मेरे ही ओर लगे हुये तुम मु5े ही प्राप्त करोगे।

श्रीमद्भगवद्गीता हि�न्दीभाषाऽऽनुवादसहि�ता 10दसवाँ अध्याय

श्रीभगवानुवाच

भूय एव महाबाहो %ृणु मे परमं वचः।यते्तऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्याधिम किहतकाम्यया॥१०- १॥

किफर से, हे महाबाहो, तुम मेरे परम वचनों को सुनो। क्योंकिक तुम मु5े किप्रय हो इसलिलयमैं तुम्हारे किहत के लिलये तुम्हें बताता हूँ।न मे किवदुः सुरगणाः प्रभवं न महषUयः।अहमादिदर्तिहं देवानां महष¢णां च सवU%ः॥१०- २॥

न मेरे आदिद (आरम्भ) को देवता लोग जानते हैं और न ही महान् ऋकिष जन क्योंकिक मैं ही सभी देवताओं का और महर्तिषंयों काआदिद हूँ।यो मामजमनादिदं च वेणित्त लोकमहेश्वरम्।असंमूढः स मत्य�षु सवUपापैः प्रमुच्यते॥१०- ३॥

जो मु5े अजम (जन्म हीन) और अन-आदिद (झिजसका कोई आरम्भ न हो) और इस संसार का महान ईश्वर (स्वाधिम) जानता है, वहमूखUता रकिहत मनुष्य इस मृत्यु संसार में सभी पापों से मुक्त हो जाता है।बुझिHज्ञाUनमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः %मः।सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च॥१०- ४॥अतिहंसा समता तुधिष्टस्तपो दानं य%ोऽय%ः। भवन्तिन्त भावा भूतानां मत्त एव पृथखिग्वधाः॥१०- ५॥

बुझिH, ज्ञान, मोकिहत होने का अभाव, क्षमा, सत्य, इझिन्द्रयों पर संयम, मन की सैम्यता (संयम), सुख, दुख,होना और न होना, भय और अभय, प्राणिणयों की तिहंसा न करना (अतिहंसा), एक सा रहना एक सा देखना (समता),संतोष, तप, दान, य%, अपय% - प्राणिणयों के ये सभी अलग अलग भाव मु5 से ही होते हैं।महषUयः सप्त पूव� चत्वारो मनवस्तथा।मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः॥१०- ६॥

पुवUकाल में उत्प{ हुये सप्त (सात) महर्तिषं, चार ब्रह्म कुमार, और मनु - ये सब मेरे द्वारा ही मन से (योग द्वारा) उत्प{हुये हैं और उनसे ही इस लोक में यह प्रजा हुई है।एतां किवभूतितं योगं च मम यो वेणित्त तत्त्वतः।सोऽकिवकमे्पन योगेन युज्यते नात्र सं%यः॥१०- ७॥

मेरी इस किवभूकित (संसार के जन्म कताU) और योग ऍश्वयU को सार तक जानता है, वह अचल(भलिक्त) योग में स्थिस्थर हो जाता है, इसमें कोई %क नहीं।अहं सवUस्य प्रभवो मत्तः सव| प्रवतUते।इकित मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्तिन्वताः॥१०- ८॥

मैं ही सब कुछ का आरम्भ हूँ, मु5 से ही सबकुछ चलता है। यह मान कर बुझिHमानलोग पूणU भाव से मु5े भजते हैं।मस्थिच्चत्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।कथयन्तश्च मां किनत्यं तुष्यन्तिन्त च रमन्तिन्त च॥१०- ९॥

मु5 में ही अपने लिचत्त को बसाऐ, मु5 में ही अपने प्राणों को संजोये, परस्पर एक दूसरे कोमेरा बोध कराते हुये और मेरी बातें करते हुये मेरे भक्त सदा संतुष्ट रहते हैं और मु5 में ही रमते हैं।तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीकितपूवUकम्।ददाधिम बुझिHयोगं तं येन मामुपयान्तिन्त ते॥१०- १०॥

ऍसे भक्त जो सदा भलिक्त भाव से भरे मु5े प्रीकित पूणU ढंग से भजते हैं, उनहें मैं वह बुझिH योग (सार युक्त बुझिH)प्रदान करता हूँ झिजसके द्वारा वे मु5े प्राप्त करते हैं।तेषामेवानुकम्पाथUमहमज्ञानजं तमः।ना%याम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥१०- ११॥

उन पर अपनी कृपा करने के लिलये मैं उनके अन्तकरण में स्थिस्थत होकर, अज्ञान से उत्प{ हुये उनके अँधकार कोज्ञान रूपी दीपक जला कर नष्ट कर देता हूँ।

अजुUन उवाचपरं ब्रह्म परं धाम पकिवतं्र परमं भवान्।पुरुषं %ाश्वतं दिदव्यमादिददेवमजं किवभुम्॥१०- १२॥

आप ही परम ब्रह्म हैं, आप ही परम धाम हैं, आप ही परम पकिवत्र हैं, आप ही दिदव्य %ाश्वतपुरुष हैं, आप ही हे किवभु आदिद देव हैं, अजम हैं।आहुस्त्वामृषयः सव� देवर्तिषंनाUरदस्तथा।अलिसतो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीकिष मे॥१०- १३॥

सभी ऋकिष, देवर्तिषं नारद, अलिसत, व्याल, व्यास जी आपको ऍसे ही बताते हैं। यहाँ तक की स्वयं आपनेभी मु5 से यही कहा है।सवUमेतदृतं मन्ये यन्मां वदलिस के%व।न किह ते भगवन्व्यचिक्तं किवदुद�वा न दानवाः॥१०- १४॥

हे के%व, आपने मु5े जो कुछ भी बताया उस सब को मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन, आप केव्यक्त होने को न देवता जानते हैं और न ही दानव।स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।भूतभावन भूते% देवदेव जगत्पते॥१०- १५॥

स्वयं आप ही अपने आप को जानते हैं हे पुरुषोत्तम। हे भूत भावन (जीवों के जन्म दाता)।हे भूते% (जीवों के ई%)। हे देवों के देव। हे जगतपकित।

वकु्तमहUस्य%ेषेण दिदव्या ह्यात्मकिवभूतयः।याणिभर्तिवभंूकितणिभलhकाकिनमांस्त्वं व्याप्य कित�लिस॥१०- १६॥

आप झिजन झिजन किवभूकितयों से इस संसार में व्याप्त होकर किवराजमान हैं, मु5े पुरी तरहं (अ%ेष) अपनी उनदिदव्य आत्म किवभूकितयों का वणUन कीझिजय (आप ही करने में समथU हैं)।कथं किवद्यामहं योतिगंस्त्वां सदा परिरलिचन्तयन्।केषु केषु च भावेषु लिचन्त्योऽलिस भगवन्मया॥१०- १७॥

हे योगी, मैं सदा आप का परिरलिचन्तन करता (आप के बारे में सोचता) हुआ किकस प्रकार आप को जानंू (अथाUत किकसप्रकार मैं आप का लिचन्तन करँू)। हे भगवन, मैं आपके किकन किकन भावों में आपका लिचन्तन करँू।किवस्तरेणात्मनो योगं किवभूतितं च जनादUन।भूयः कथय तृन्तिप्तर्तिहं %ृण्वतो नास्मिस्त मेऽमृतम्॥१०- १८॥

हे जनादUन, आप आपनी योग किवभूकितयों के किवस्तार को किफर से मु5े बताइये, क्योंकिक आपके वचनों रुपीइस अमृत का पान करते (सुनते) अभी मैं तृप्त नहीं हुआ हूँ।

श्रीभगवानुवाचहन्त ते कथधियष्याधिम दिदव्या ह्यात्मकिवभूतयः।प्राधान्यतः कुरुश्रे� नास्त्यन्तो किवस्तरस्य मे॥१०- १९॥

मैं तुम्हें अपनी प्रधान प्रधान दिदव्य आत्म किवभूकितयों के बारे में बताता हूँ क्योंकिक हे कुरु श्रे� मेरेकिवसतार का कोई अन्त नहीं है।अहमात्मा गुडाके% सवUभूता%यस्थिस्थतः।अहमादिदश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥१०- २०॥

मैं आत्मा हूँ, हे गुडाके%, सभी जीवों के अन्तकरण में स्थिस्थत। मैं ही सभी जीवों का आदिद (जन्म), मध्य औरअन्त भी हूँ।आदिदत्यानामहं किवष्णुज्यhकितषां रकिवरं%ुमान्।मरीलिचमUरुतामस्मिस्म नक्षत्राणामहं %%ी॥१०- २१॥

आदिदत्यों (अदिदकित के पुत्रों) में मैं किवष्णु हूँ। और ज्योकितयों में किकरणों युक्त सूयU हूँ। मरुतों (49 मरुत नाम के देवताओं) में से मैंमरीलिच हूँ। और नक्षत्रों में %लि% (चन्द्र)।वेदानां सामवेदोऽस्मिस्म देवानामस्मिस्म वासवः।इझिन्द्रयाणां मनश्चास्मिस्म भूतानामस्मिस्म चेतना॥१०- २२॥

वेदों में मैं साम वेद हूँ। देवताओं में इन्द्र। इझिन्द्रयों में मैं मन हूँ। और जीवों में चेतना।

रुद्राणां %ंकरश्चास्मिस्म किवते्त%ो यक्षरक्षसाम्।वसूनां पावकश्चास्मिस्म मेरुः लि%खरिरणामहम्॥१०- २३॥

रुद्रों में मैं %ंकर (लि%व जी) हूँ, और यक्ष एवं राक्षसों में कुबेर हूँ। वसुयों में मैं अखिग्न (पावक) हूँ।और लि%खर वाले पवUतों में मैं मेरु हूँ।पुरोधसां च मुख्यं मां किवझिH पाथU बृहस्पकितम्।सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मिस्म सागरः॥१०- २४॥

हे पाथU तुम मु5े पुरोकिहतों में मुख्य बृहस्पकित जानो। सेना पकितयों में मु5े स्कन्ध जानो और जला%यों मेंसागर।महष¢णां भृगुरहं किगरामस्म्येकमक्षरम्।यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मिस्म स्थावराणां किहमालयः॥१०- २५॥

महष¢यों में मैं भृगु हूँ, %ब्दों में मैं एक ही अक्षर ॐ हूँ। यज्ञों में मैं जप यज्ञ हूँ और न किहलने वालों मेंकिहमालय।अश्वत्थः सवUवृक्षाणां देवष¢णां च नारदः।गन्धवाUणां लिचत्ररथः लिसHानां ककिपलो मुकिनः॥१०- २६॥

सभी वृक्षों में मैं अश्वत्थ हूँ, और देव ऋर्तिषंयों में नारद। गन्धव� में मैं लिचत्ररथ हूँ और लिसHों मेंभगवान ककिपल मुकिन।उचै्चःश्रवसमश्वानां किवझिH माममृतोद्भवम्।ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिधपम्॥१०- २७॥

सभी घोड़ों में से मु5े तुम अमृत के लिलये किकये सागर मंथन से उत्प{ उचै्चश्रव सम5ो। हाथीयों काराजा ऐरावत सम5ो। और मनुष्यों में मनुष्यों का राजा सम5ो।आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मिस्म कामधुक्।प्रजनश्चास्मिस्म कन्दपUः सपाUणामस्मिस्म वासुकिकः॥१०- २८॥

%स्त्रों में मैं वज्र हूँ। गायों में कामधुक। प्रजा की बढौकित करने वालों मेंकन्दपU (काम देव) और सप� में मैं वासुकिक हूँ।अनन्तश्चास्मिस्म नागानां वरुणो यादसामहम्।किपतॄणामयUमा चास्मिस्म यमः संयमतामहम्॥१०- २९॥

नागों में मैं अनन्त (%ेष नाग) हूँ और जल के देवताओं में वरुण। किपतरों में अयाUमा हूँ और किनयंकित्रत करनेवालों में यम देव।प्रह्लादश्चास्मिस्म दैत्यानां कालः कलयतामहम्।मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पणिक्षणाम्॥१०- ३०॥

दैत्यों में मैं भक्त प्रह्लाद हूँ। परिरवतUन %ीलों में मैं समय हूँ। किहरणों में मैं उनका इन्द्र अथाUत %ेर हूँ औरपणिक्षयों में वैनतेय (गरुड)।पवनः पवतामस्मिस्म रामः %स्त्रभृतामहम्।5षाणां मकरश्चास्मिस्म स्रोतसामस्मिस्म जाÆवी॥१०- ३१॥

पकिवत्र करने वालों में मैं पवन (हवा) हूँ और %स्त्र धारण करने वालों में भगवान राम। मछलिलयों मेंमैं मकर हूँ और नदीयों में जाÆवी (गँगा)।सगाUणामादिदरन्तश्च मध्यं चैवाहमजुUन।अध्यात्मकिवद्या किवद्यानां वादः प्रवदतामहम्॥१०- ३२॥

सृधिष्ट का आदिद, अन्त और मध्य भी मैं ही हूँ हे अजुUन। सभी किवद्याओं मे से अध्यात्म किवद्या मैं हूँ।और वाद किववाद करने वालों के वाद में तकU मैं हूँ।अक्षराणामकारोऽस्मिस्म द्वन्द्वः सामालिसकस्य च।अहमेवाक्षयः कालो धाताहं किवश्वतोमुखः॥१०- ३३॥

अक्षरों में अ मैं हूँ। मैं ही अन्तहीन (अक्षय) काल (समय) हूँ। मैं ही धाता हूँ (पालन करने वाला),मैं ही किवश्व रूप (हर ओर स्थिस्थत हूँ)।मृत्युः सवUहरश्चाहमुद्भवश्च भकिवष्यताम्।कीर्तितंः श्रीवाUक्च नारीणां स्मृकितम�धा धृकितः क्षमा॥१०- ३४॥

सब कुछ हर लेने वीली मृत्यु भी मैं हूँ और भकिवष्य में उत्प{ होने वाले जीवों की उत्पणित्त भी मैं ही हूँ।नारीयों में कीर्तितं (य%), श्री (धन संपणित्त सत्त्व), वाक %लिक्त (बोलने की %लिक्त), स्मृकित (यादाश्त), मेधा (बुझिH), धृकित (स्थिस्थरता) औरक्षमा मैं हूँ।बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।मासानां मागU%ीषhऽहमृतूनां कुसुमाकरः॥१०- ३५॥

गाये जाने वाली श्रुकितयों (सामों) में मैं बृहत्साम हूँ और वैदिदक छन्दों में गायत्री। महानों में मैं मागU-%ीषU हूँ और ऋतुयों मेंकुसुमाकर (फूलों को करने वाली अथाUत वसन्त)।दू्यतं छलयतामस्मिस्म तेजस्तेजस्मिस्वनामहम्।जयोऽस्मिस्म व्यवसायोऽस्मिस्म सत्त्वं सत्त्ववतामहम्॥१०- ३६॥

छल करने वालों का जुआ मैं हूँ और तेजस्मिस्वयों का तेज मैं हूँ। मैं ही किवजय (जीत) हूँ, मैं ही सही किनश्चय (सही मागU) हूँ।मैं ही सान्तित्वकों का सत्त्व हूँ।वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मिस्म पाण्डवानां धनंजयः।मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामु%ना ककिवः॥१०- ३७॥

वृस्थिष्णयों में मैं वासुदेव हूँ और पाण्डवों में धनंजय (अजुUन)। मुकिनयों में मैं भगवान व्यास मुकिन हूँ औरलिसH ककिवयों में मैं उ%ना ककिव (%ुक्राचायU) हूँ।दण्डो दमयतामस्मिस्म नीकितरस्मिस्म झिजगीषताम्।मौनं चैवास्मिस्म गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्॥१०- ३८॥

दमन (लागू) करने वालों में दण्ड नीकित मैं हूँ और किवजय की इच्छा रखने वालों में न्याय (नीकित) मैं हूँ।गोपनीय बातों में मौनता मैं हूँ और ज्ञाकिनयों का ज्ञान मैं हूँ।यच्चाकिप सवUभूतानां बीजं तदहमजुUन।न तदस्मिस्त किवना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥१०- ३९॥

झिजतने भी जीव हैं हे अजुUन, उन सबका बीज मैं हूँ। ऍसा कोई भी चर अचर (चलने या न चलने वाला) जीवनहीं है जो मेरे किबना हो।नान्तोऽस्मिस्त मम दिदव्यानां किवभूतीनां परन्तप।एष तूदे्द%तः प्रोक्तो किवभूतेर्तिवसं्तरो मया॥१०- ४०॥

मेरी दिदव्य किवभूकितयों का कोई अन्त नहीं है हे परन्तप। मैने अपनी इन किवभूकितयों की किवस्तार तुम्हेंकेवल कुछ उदाहरण देकर ही बताया है।यद्यकिद्वभूकितमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जिजंतमेव वा।तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽ%संभवम्॥१०- ४१॥

जो कुछ भी (प्राणी, वस्तु आदिद) किवभूकित मयी है, सत्त्व%ील है, श्री युक्त हैं अथवा %लिक्तमान है,उसे तुम मेरे ही अं% के तेज से उत्प{ हुआ जानो।अथवा बहुनैतेन तिकं ज्ञातेन तवाजुUन।किवष्टभ्याहधिमदं कृत्स्नमेकां%ेन स्थिस्थतो जगत्॥१०- ४२॥

और इस के अकितरिरक्त बहुत कुछ जानने की तुम्हें क्या आवश्यकता है हे अजुUन। मैंने इस संपूणU जगत कोअपने एक अं% मात्र से प्रवे% करके स्थिस्थत कर रखा है।

श्रीमद्भगवद्गीता हि�न्दीभाषाऽऽनुवादसहि�ता 11 ग्यारवाँ अध्याय

अजुUन उवाचमदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंलिज्ञतम्।यत्त्वयोकं्त वचस्तेन मोहोऽयं किवगतो मम॥११- १॥

मु5 पर अनुग्रह कर आपने यह परम गुह्य अध्यात्म ज्ञान जो मु5े बताया, आपके इन वचनों सेमेरा मोह (अन्धकार) चला गया है।

भवाप्ययौ किह भूतानां शु्रतौ किवस्तर%ो मया।त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमकिप चाव्ययम्॥११- २॥

हे कमलपत्र नयन, मैंने आपसे सभी प्राणिणयों की उत्पणित्त और अन्त को किवस्तार से सुना है औरहे अव्यय, आपके महात्मय का वणUन भी।एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर।द्रषु्टधिमच्छाधिम ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम॥११- ३॥

जैसा आप को बताया जाता है, है परमेश्वर, आप वैसे ही हैं। हे पुरुषोत्तम,मैं आप के ईश्वर रुप को देखना चाहता हूँ।मन्यसे यदिद तच्छक्यं मया द्रषु्टधिमकित प्रभो।योगेश्वर ततो मे त्वं द%Uयात्मानमव्ययम्॥११- ४॥

हे प्रभो, यदिद आप मानते हैं किक आपके उस रुप को मेरे द्वारा देख पाना संभव है, तो हे योगेश्वर, मु5ेआप अपने अव्यय आत्म स्वरुप के द%Uन करवा दीझिजये।

श्रीभगवानुवाचपश्य मे पाथU रूपाणिण %त%ोऽथ सहस्र%ः।नानाकिवधाकिन दिदव्याकिन नानावणाUकृतीकिन च॥११- ५॥

हे पाथU, तुम मेरे रुपों का द%Uन करो। सैंकड़ों, हज़ारों, णिभ{ णिभ{ प्रकार के, दिदव्य,णिभ{ णिभ{ वण� और आकृकितयों वाले।पश्यादिदत्यान्वसून्रुद्रानणिश्वनौ मरुतस्तथा।बहून्यदृष्टपूवाUणिण पश्याश्चयाUणिण भारत॥११- ६॥

हे भारत, तुम आदिदत्यों, वसुओं, रुद्रों, अणिश्वनों, और मरुदों को देखो। और बहुत सेपहले कभी न देखे गये आश्चय� को भी देखो।इहैकसं्थ जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्।मम देहे गुडाके% यच्चान्यद ्द्रषु्टधिमच्छलिस॥११- ७॥

हे गुडाके%, तुम मेरी देह में एक जगह स्थिस्थत इस संपूणU चर-अचर जगत को देखो। और भी जो कुछतुम्हे देखने की इच्छा हो, वह तुम मेरी इस देह सकते हो।न तु मां %क्यसे द्रषु्टमनेनैव स्वचकु्षषा।दिदवं्य ददाधिम ते चकु्षः पश्य मे योगमैश्वरम्॥११- ८॥

लेकिकन तुम मु5े अपने इस आँखों से नहीं देख सकते। इसलिलये, मैं तुम्हे दिदव्य चकु्ष (आँखें) प्रदानकरता हूँ झिजससे तुम मेरे योग ऍश्वयU का द%Uन करो।

संजय उवाच

एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिरः।द%Uयामास पाथाUय परमं रूपमैश्वरम्॥११- ९॥

यह बोलने के बाद, हे राजन, महायोगेश्वर हरिरः ने पाथU को अपने परम ऍश्वयUमयी रुपका द%Uन कराया।अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भतुद%Uनम्।अनेकदिदव्याभरणं दिदव्यानेकोद्यतायुधम्॥११- १०॥

अजुUन ने देखा किक भगवान के अनेक मुख हैं, अनेक नेत्र हैं, अनेक अद्भतु द%Uन (रुप) हैं।उन्होंने अनेक दिदव्य अभुषण पहने हुये हैं, और अनेकों दिदव्य आयुध (%स्त्र) धारण किकये हुये हैं।दिदव्यमाल्याम्बरधरं दिदव्यगन्धानुलेपनम्।सवाUश्चयUमयं देवमनन्तं किवश्वतोमुखम्॥११- ११॥

उन्होंने दिदव्य मालायें और दिदव्य वस्त्र धारण किकये हुये हैं, दिदव्य गन्धों से लिलकिपत हैं। सवU ऍश्वयUमयीवे देव अनन्त रुप हैं, किवश्व रुप (हर ओर स्थिस्थत) हैं।दिदकिव सूयUसहस्रस्य भवेदु्यगपदुस्मित्थता।यदिद भाः सदृ%ी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः॥११- १२॥

यदिद आका% में हज़ार (सहस्र) सूयU भी एक साथ उदय हो जायें, %ायद ही वे उन महात्माके समान प्रका%मयी हो पायें।ततै्रकसं्थ जगत्कृत्स्नं प्रकिवभक्तमनेकधा।अपश्यदे्दवदेवस्य %रीरे पाण्डवस्तदा॥११- १३॥

तब पाण्डव (अजुUन) ने उन देवों के देव, भगवान् हरिर के %रीर में एक स्थान पर स्थिस्थत, अनेककिवभागों में बंटे संपूणU संसार (कृत्स्न जगत) को देखा।ततः स किवस्मयाकिवष्टो हृष्टरोमा धनंजयः।प्रणम्य लि%रसा देवं कृताञ्जलिलरभाषत॥११- १४॥

तब किवस्मय (आश्चयU) प्ूणU होकर झिजसके रोंगटे खडे़ हो गये थ,े उस धनंजयः ने उन देव को लिसर5ुका कर प्रणाम किकया और हाथ जोड़ कर बोले।

अजुUन उवाचपश्याधिम देवांस्तव देव देहे सवा|स्तथा भूतकिव%ेषसंघान्।ब्रह्माणमी%ं कमलासनस्थमृषींश्च सवाUनुरगांश्च दिदव्यान्॥११- १५॥

हे देव, मु5े आप के देह में सभी देवता और अन्य समस्त जीव समूह, कमल आसन परस्थिस्थत ब्रह्मा ईश्वर, सभी ऋकिष, और दिदव्य सपU दिदख रहे हैं।अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्याधिम त्वां सवUतोऽनन्तरूपम्।नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिदं पश्याधिम किवश्वेश्वर किवश्वरूप॥११- १६॥

अनेक बाहें, अनेक पेट, अनेक मुख, अनेक नेत्र, हे देव, मैं आप को हर जगह देख रहा हूँ, हे अनन्त रुप। ना मु5े आपकाअन्त, न मध्य, और न ही आदिद (%ुरुआत) दिदख रहा, हे किवशे्वश्वर (किवश्व के ईश्वर), हे किवश्व रुप (किवश्व का रुप धारण किकये हुये)।किकरीदिटनं गदिदनं चकिक्रणं च तेजोराचि%ं सवUतो दीन्तिप्तमन्तम्।पश्याधिम त्वां दुर्तिनरंीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलाकU द्युकितमप्रमेयम्॥११- १७॥

मुकुट, गदा और चक्र धारण किकये, और अपनी तेजोरालि% से संपूणU दिद%ाओं को दीप्त करते हुये, हे भगवन्, आप को मैं देखता हूँ,लेकिकन आपका किनरीक्षण करना अत्यन्त कदिठन है क्योंकिक आप समस्त ओर से प्रका%मयी, अप्रमेय (झिजसके समान कोईन हो) तेजोमयी हैं।त्वमक्षरं परमं वेदिदतवं्य त्वमस्य किवश्वस्य परं किनधानम्।त्वमव्ययः %ाश्वतधमUगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे॥११- १८॥

आप ही अक्षर (झिजसका कभी ना% नहीं होता) हैं, आप ही परम हैं, आप ही जानना ज़रुरी है (झिजन्हें जाना जाना चाकिहये),आप ही इस किवश्व के परम किनधान (आश्रय) हैं। आप ही अव्यय (किवकार हीन) हैं, मेरे मत में आप ही %ाश्वत धमU के रक्षक सनातनपुरुष हैं।अनादिदमध्यान्तमनन्तवीयUमनन्तबाहंु %लि%सूयUनेत्रम्।पश्याधिम त्वां दीप्तहुता%वक्त्रं स्वतेजसा किवश्वधिमदं तपन्तम्॥११- १९॥

आप आदिद, मध्य और अन्त रकिहत (अनादिदमध्यान्तम), अनन्त वीयU (पराक्रम), अनन्त बाहू (बाजुयें) हैं।चन्द्र (%लि%) और सूयU आपके नेत्र हैं। हे भगवन, मैं आपके आखिग्न पूणU प्रज्वलिलत वक्त्रों (मूँहों) को देखता हूँ जोअपने तेज से इस किवश्व को तपा (गरमा) रहे हैं।द्यावापृलिथव्योरिरदमन्तरं किह व्याप्तं त्वयैकेन दिद%श्च सवाUः।दृष््टवाद्भतुं रूपमुगं्र तवेदं लोकत्रयं प्रव्यलिथतं महात्मन्॥११- २०॥

स्वगU (आका%) और पृलिथवी के बीच में जो भी स्थान है, सभी दिद%ाओं में, वह केवल एक आपके द्वारा ही व्याप्त है (स्वगU से लेकर पृलिथवी तक केवल आप ही हैं)। आप के इस अद्भतु उग्र (घोर) रूपको देख कर, हे महात्मा, तीनों लोक प्रव्यलिथत (भय व्याकुल) हो रहे हैं।अमी किह त्वां सुरसंघा किव%न्तिन्त केलिचद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्तिन्त।स्वस्तीत्युक्त्वा महर्तिषलंिसHसंघाः स्तुवन्तिन्त त्वां स्तुकितणिभः पुष्कलाणिभः॥११- २१॥

आप ही में देवता गण प्रवे% कर रहे हैं। कुछ भयभीत हुये हाथ जोडे़ आप की स्तुकित कर रहे हैं। महष¢ और लिसH गणस्वस्मिस्त (कल्याण हो) उच्चारण कर उत्तम स्तुकितयों द्वारा आप की प्र%ंसा कर रहे हैं।रुद्रादिदत्या वसवो ये च साध्या किवश्वेऽणिश्वनौ मरुतश्चोष्मपाश्च।गन्धवUयक्षासुरलिसHसंघा वीक्षन्ते त्वां किवस्मिस्मताशै्चव सव�॥११- २२॥

रूद्र, आदिदत्य, वसु, साध्य गण, किवश्वदेव, अणिश्वनी कुमार, मरूत गण, किपतृ गण,गन्धवU, यक्ष, असुर, लिसH गण - सब आप को किवस्मय से देखते हैं।रूपं महते्त बहुवक्त्रनेतं्र महाबाहो बहुबाहूरुपादम्।बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष््टवा लोकाः प्रव्यलिथतास्तथाहम्॥११- २३॥

हे महाबाहो, बहुत से मुख, बहुत से नेत्र, बहुत सी बाहुयें, बहुत सी जँगाऐं (उरु), पैर,बहुत से उदर (पेट), बहुत से किवकराल दांतो वाले इस महान् रूप को देख कर यह संसारप्रव्यलिथत (भयभीत) हो रहा है और मैं भी।नभःस्पृ%ं दीप्तमनेकवण| व्यात्ताननं दीप्तकिव%ालनेत्रम्।दृष््टवा किह त्वां प्रव्यलिथतान्तरात्मा धृतितं न किवन्दाधिम %मं च किवष्णो॥११- २४॥

आका% को छूते, अनेकों प्रकार (वण�) वाले आपके दीप्तमान रूप, झिजनके खुले हुये किव%ाल मुख हैं औरप्रज्वलिलत (दिदप्तमान) किव%ाल नेत्र हैं - आपके इस रुप को देख कर मेरी अन्तर आत्मा भयभीत (प्रव्यलिथत)हो रही है। न मु5े धैयU धिमल रहा हैं, हे किवष्णु, और न ही %ान्तिन्त।दंष्ट्राकरालाकिन च ते मुखाकिन दृष््टवैव कालानलसधि{भाकिन।दिद%ो न जाने न लभे च %मU प्रसीद देवे% जगधि{वास॥११- २५॥

आपके किवकराल भयानक दाँतो को देख कर और काल-अखिग्न के समान भयानक प्रज्वलिलत मुखों कोदेख कर मु5े दिद%ाओं किक सुध नहीं रही, न ही मु5े %ान्तिन्त प्राप्त हो रही है। प्रस{ होईये हे देवे% (देवों के ई%),हे जगन्-किनवास।अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सव� सहैवावकिनपालसंघैः।भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरकिप योधमुख्यैः॥११- २६॥वक्त्राणिण ते त्वरमाणा किव%न्तिन्त दंष्ट्राकरालाकिन भयानकाकिन।केलिचकिद्वलग्ना द%नान्तरेषु संदृश्यन्ते चूर्णिणंतैरुत्तमाङै्गः॥११- २७॥

धृतराष्ट्र के सभी पुत्र और उनके साथ और भी राजा लोग, श्री भीष्म, द्रोण,तथा कणU और हमारे पक्ष के भी कई मुख्य योधा आप के भयानक किवकराल दाँतों वालेमुखों में प्रवे% कर रहे हैं। और आप के दाँतों मे बीच फसें कईयों के लिसर चूणU हुये दिदखाई दे रहे हैं।यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाणिभमुखा द्रवन्तिन्त।तथा तवामी नरलोकवीरा किव%न्तिन्त वक्त्राण्यणिभकिवज्वलन्तिन्त॥११- २८॥

जैसे नदिदयों के अनेक जल प्रवाह वेग से समुद्र में प्रवे% करते हैं (की ओर बढते हैं), वैसे हीनर लोक (मनुष्य लोक) के यह योHा आप के प्रज्वलिलत मुखों में प्रवे% करते हैं।यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा किव%न्तिन्त ना%ाय समृHवेगाः।तथैव ना%ाय किव%न्तिन्त लोकास्तवाकिप वक्त्राणिण समृHवेगाः॥११- २९॥

जैसे जलती अखिग्न में पतंगे बहुत तेज़ी से अपने ही ना% के लिलये प्रवे% करते हैं, उसी प्रकारअपने ना% के लिलये यह लोग अकित वेग से आप के मुखों में प्रवे% करते हैं।लेलिलह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनैज्वUलझिद्भः।तेजोणिभरापूयU जगत्समगं्र भासस्तवोग्राः प्रतपन्तिन्त किवष्णो॥११- ३०॥

अपने प्रज्वलिलत मुखों से इन संपूणU लोकों को किनगलते हुये और हर ओर से समेटते हुये, हे किवष्णु,आपका यह उग्र प्रका% संपूणU जगत में फैल कर इन लोकों को तपा रहा है।आख्याकिह मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद।किवज्ञातुधिमच्छाधिम भवन्तमाद्यं न किह प्रजानाधिम तव प्रवृणित्तम्॥११- ३१॥

इस उग्र रुप वाले आप कौन हैं, मु5 से ककिहये। आप को प्रणाम है हे देववर, प्रस{ होईये।हे आदिददेव, मैं आप को अनुभव सकिहत जानना चाहता हूँ। मैं आपकी प्रवृणित्त अथाUत इस रुप लेने केकारण को नहीं जानता।

श्रीभगवानुवाच

कालोऽस्मिस्म लोकक्षयकृत्प्रवृHो लोकान्समाहतुUधिमह प्रवृत्तः।ऋतेऽकिप त्वां न भकिवष्यन्तिन्त सव� येऽवस्थिस्थताः प्रत्यनीकेषु योधाः॥११- ३२॥

मैं संसार का क्षय करने के लिलये प्रवृH (बढा) हुआ काल हूँ। और इस समय इन लोकों का संहार करने मेंप्रवृत्त हूँ। तुम्हारे किबना भी, यहाँ तुम्हारे किवपक्ष में जो योHा गण स्थिस्थत हैं, वे भकिवष्य में नहीं रहेंगे।तस्मात्त्वमुणित्त� य%ो लभस्व झिजत्वा %तू्रन् भुङ्क्ष्व राज्यं समृHम्।मयैवैते किनहताः पूवUमेव किनधिमत्तमातं्र भव सव्यसालिचन्॥११- ३३॥

इसलिलये तुम उठो और अपने %त्रुयों को जीत कर य% प्राप्त करो और समृH राज्य भोगो। तुम्हारे यह %त्रु मेरे द्वारापैहले से ही मारे जा चुके हैं, हे सव्यसालिचन्, तुम केवल किनधिमत्त-मात्र (कहने को) ही बनो।द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कण| तथान्यानकिप योधवीरान्।मया हतांस्त्वं जकिह मा व्यलिथ�ा युध्यस्व जेतालिस रणे सपत्नान्॥११- ३४॥

द्रोण, श्री भीष्म, जयद्रथ, कणU तथा अन्य वीर योधा भी, मेरे द्वारा (पहले ही) मारे जा चुके हैं। व्यथा (गलत आग्रह)त्यागो और युध करो, तुम रण में अपने %त्रुओं को जीतोगे।

संजय उवाचएतच्छäत्वा वचनं के%वस्य कृताञ्जलिलव�पमानः किकरीटी।नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य॥११- ३५॥

श्री के%व के इन वचनों को सुन कर मुकुटधारी अजुUन ने हाथ जोड़ कर श्री कृष्ण को नमस्कार किकया औरकाँपते हुये भयभीत हृदय से किफरसे प्रणाम करते हुये बोले।

अजुUन उवाचस्थाने हृषीके% तव प्रकीत्याU जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।रक्षांलिस भीताकिन दिद%ो द्रवन्तिन्त सव� नमस्यन्तिन्त च लिसHसंघाः॥११- ३६॥

यह योग्य है, हे हृषीके%, किक यह जगत आप की कीत¢ का गुणगान कर हर्तिषंत होतै है और अनुराकिगत (पे्रम युक्त) होता है।आप से भयभीत हो कर राक्षस हर दिद%ाओं में भाग रहे हैं और सभी लिसH गण आपको नमस्कार कर रहे हैं।कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिदकत्र�।अनन्त देवे% जगधि{वास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्॥११- ३७॥

और हे महात्मा, आपको नमस्कार करें भी क्यों नहीं। आप ही सबसे बढकर हैं, ब्रह्मा जी के भीआदिद कताU हैं (ब्रह्मा जी के भी आदिद हैं)। आप ही अनन्त हैं, देव-ई% हैं, जगत्-किनवास हैं। आप ही अक्षर हैं,आप ही सत् और असत् हैं, और उन संज्ञाओं से भी परे जो है वह भी आप ही हैं।

त्वमादिददेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य किवश्वस्य परं किनधानम्।वेत्तालिस वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं किवश्वमनन्तरूप॥११- ३८॥

आप ही आदिद-देव (पुरातन देव) हैं, सनातन पुरुष हैं, आप ही इस संसार के परम आश्रय (किनधान) हैं।आप ही ज्ञाता हैं और ज्ञेय (झिजन्हें जानना चाकिहये) हैं। आप ही परम धाम हैं और आप से ही यह संपूणU संसारव्याप्त है, हे अनन्त रुप।वायुयUमोऽखिग्नवUरुणः %%ाङ्कः प्रजापकितस्त्वं प्रकिपतामहश्च।नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽकिप नमो नमस्ते॥११- ३९॥

आप ही वायु हैं, आप ही यम हैं, आप ही अखिग्न हैं, आप ही वरुण (जल देवता) हैं, आप ही चन्द्र हैं,प्रजापकित भी आप ही हैं, और प्रकिपतामहा (किपतामह अथाUत किपता-के-किपता के भी किपता) भी आप हैं।आप को नमस्कार है, नमस्कार है, सहस्र (हज़ार) बार मैं आपको नमस्कार करता हूँ। और किफर सेआपको नमस्कार है, नमस्कार है।नमः पुरस्तादथ पृ�तस्ते नमोऽस्तु ते सवUत एव सवU।अनन्तवीयाUधिमतकिवक्रमस्त्वं सव| समाप्नोकिष ततोऽलिस सवUः॥११- ४०॥

हे सवU, आप को आगे से नमस्कार है, पीछे से भी नमस्कार है, हर प्रकार से नमस्कार है। हे अनन्त वीयU,हे अधिमत किवक्रम%ाली, सबमें आप समाये हुये हैं (व्याप्त हैं), आप ही सब कुछ हैं।सखेकित मत्वा प्रसभं यदुकं्त हे कृष्ण हे यादव हे सखेकित।अजानता मकिहमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वाकिप॥११- ४१॥

हे भगवन्, आप को केवल आपना धिमत्र ही मान कर मैंने प्रमादव% (मूखUता कारण) यां पे्रम व% आपको जो हे कृष्ण, हे यादव,हे सखा (धिमत्र) - कह कर संबोधिधत किकया, आप के मकिहमानता को न जानते हुये।यच्चावहासाथUमसत्कृतोऽलिस किवहार%य्यासनभोजनेषु।एकोऽथवाप्यच्युत तत्समकं्ष तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्॥११- ४२॥

और हास्य मज़ाक करते हुये, या चलते किफरते, लेटे हुये, बैठे हुये अथवा भोजन करते हुये,अकेले में या आप के सामने मैंने जो भी असत् व्यवहार किकया हो (झिजतना आदर पूणU व्यहार करना चाकिहयेउतना न किकया हो) उसके लिलये, हे अप्रमेय, आप मु5े क्षमा कर दीझिजये।

किपतालिस लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुगUरीयान्।न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिधकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रकितमप्रभाव॥११- ४३॥

आप इस चर-अचर लोक के किपता हैं, आप ही पूजनीय हैं, परम् गुरू हैं। हे अप्रकितम प्रभाव, इन तीनो लोकों मेंआप के बराबर (समान) ही कोई नहीं है, आप से बढकर तो कौन होगा भला।तस्मात्प्रणम्य प्रणिणधाय कायं प्रसादये त्वामहमी%मीड्यम्।किपतेव पुत्रस्य सखेव सख्युः किप्रयः किप्रयायाहUलिस देव सोढुम्॥११- ४४॥

इसलिलये मैं 5ुक कर आप को प्रणाम करता, मु5 से प्रस{ होईये हे ईश्वर। जैसे एक किपताअपने पुत्र के, धिमत्र आपने धिमत्र के, औप किप्रय आपने किप्रय की गलकितयों को क्षमा कर देता है,वैसे ही हे देव, आप मु5े क्षमा कर दीझिजये।अदृष्टपूव| हृकिषतोऽस्मिस्म दृष््टवा भयेन च प्रव्यलिथतं मनो मे।तदेव मे द%Uय देव रूपं प्रसीद देवे% जगधि{वास॥११- ४५॥

जो मैंने पहले कभी नहीं देखा, आप के इस रुप को देख लेने पर मैं अकित प्रस{ हो रहा हूँ, और साथ हीसाथ मेरा मन भय से प्रव्यलिथत (व्याकुल) भी हो रहा है। हे भगवन्, आप कृप्या कर मु5े अपना सौम्य देव रुप(चार बाहों वाला रुप) ही दिदखाईये। प्रस{ होईये, हे देवे%, हे जगधि{वास (इस जगत के किनवास स्थान)।किकरीदिटनं गदिदनं चक्रहस्तधिमच्छाधिम त्वां द्रषु्टमहं तथैव।तेनैव रूपेण चतुभुUजेन सहस्रबाहो भव किवश्वमूत�॥११- ४६॥

मैं आप को मुकुट धारण किकये, और हाथों में गदा और चक्र धारण किकये देखने का इचु्छक हूँ। हे भगवन्, आपचतुभुUज (चार भुजाओं वाला) रुप धारण कर लीझिजये, हे सहस्र बाहो (हज़ारों बाहों वाले), हे किवश्व मूत� (किवश्व रूप)।

श्रीभगवानुवाचमया प्रस{ेन तवाजुUनेदं रूपं परं दर्शि%ंतमात्मयोगात्।तेजोमयं किवश्वमनन्तमादं्य यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूवUम्॥११- ४७॥

हे अजुUन, तुम पर प्रस{ होकर मैंने तुम्हे अपनी योग%लिक्त द्वारा इस परम रूप का द%Uन कराया है। मेरे इसतेजोमयी, अनन्त, आदिद किवश्व रूप को तुमसे पहले किकसी ने नहीं देखा है।न वेदयज्ञाध्ययनैनU दानैनU च किक्रयाणिभनU तपोणिभरुगै्रः।एवंरूपः %क्य अहं नृलोके द्रषंु्ट त्वदन्येन कुरुप्रवीर॥११- ४८॥

हे कुरुप्रवीर (कुरूओं में श्रे� वीर), तुम्हारे अकितरिरक्त इस नर लोक में कोई भी वेदों द्वारा, यज्ञों द्वारा, अध्ययन द्वारा,दान द्वारा, या क्रयाओं द्वारा (योग किक्रयाऐं आदिद), या किफर उग्र तप द्वारा भी मेरे इस रुप को नहीं देख सकता।मा ते व्यथा मा च किवमूढभावो दृष््टवा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्।व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपधिमदं प्रपश्य॥११- ४९॥

मेरे इस घोर रुप को देख कर न तुम व्यथा करो न मूढ भाव हो (अतः भयभीत और स्तब्ध न हो)। तुम भयमुक्त होकर

किफर से किप्रकित पूणU मन से (प्रस{ लिचत्त से) मेरे इस (सौम्य) रूप को देखो।

संजय उवाचइत्यजुUनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं द%Uयामास भूयः।आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुमUहात्मा॥११- ५०॥

अजुUन को यह कह कर वासुदेव ने किफर से उन्हें अपने (सौम्य) रुप के द%Uन कराये। इस प्रकारउन महात्मा (भगवान्) ने भयभीत हुये अजुUन को अपना सौम्य रूप दिदखा कर आश्वासन दिदया।

अजुUन उवाचदृष््टवेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनादUन।इदानीमस्मिस्म संवृत्तः सचेताः प्रकृतितं गतः॥११- ५१॥

हे जनादUन, आपके इस सौम्य (मधुर) मानुष रूप को देख कर %ान्तलिचत्त होकर अपनी प्रकृकित को प्राप्त हो गया हूँ (अथाUत अब मेरी सुध बुध वाकिपस आ गई है)।

श्रीभगवानुवाचसुदुदU%Uधिमदं रूपं दृष्टवानलिस यन्मम।देवा अप्यस्य रूपस्य किनत्य ंद%Uनकाङ्णिक्षणः॥११- ५२॥

मेरा यह रूप जो तुमने देखा है, इसे देख पाना अत्यन्त कदिठन (अकित दुलUभ) है। इसे देखने कीदेवता भी सदा कामना करते हैं।नाहं वेदैनU तपसा न दानेन न चेज्यया।%क्य एवंकिवधो द्रषंु्ट दृष्टवानलिस मां यथा॥११- ५३॥

न मु5े वेदों द्वारा, न तप द्वारा, न दान द्वारा और न ही यज्ञ द्वारा इस रूप मेंदेखा जा सकता है, झिजस रूप में मु5े तुमने देखा है हे अजुUन।भक्त्या त्वनन्यया %क्य अहमेवंकिवधोऽजुUन।ज्ञातुं द्रषंु्ट च तत्त्वेन प्रवेषु्टं च परंतप॥११- ५४॥

लेकिकन अनन्य भलिक्त द्वारा, हे अजुUन, मु5े इस प्रकार (रूप को) जाना भी जा सकता है, देखा भी जा सकता है, औरमेरे तत्व (सार) में प्रवेष भी किकया जा सकता है हे परंतप।मत्कमUकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जिजंतः।किनवËरः सवUभूतेषु यः स मामेकित पाण्डव॥११- ५५॥

जो मनुष्य मेरे लिलये ही कमU करता है, मु5ी की तरफ लगा हुआ है, मेरा भक्त है, और संग रकिहत है (दूसरी चीज़ों, किवषयों केलिचन्तन में डूबा हुआ नहीं है), सभी जीवों की तरफ वैर रकिहत है, वह भक्त मु5े प्राप्त करता है हे पाण्डव।

श्रीमद्भगवद्गीता हि�न्दीभाषाऽऽनुवादसहि�ता 12== बारहवाँ अध्याय ==अजुUन उवाचएवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पयुUपासते।ये चाप्यक्षरमव्यकं्त तेषां के योगकिवत्तमाः॥१२- १॥

दोनों में से कौन उत्तम हैं - जो भक्त सदा आपकी भलिक्त युक्त रह कर आप की उपासना करते हैं,और जो अक्षर और अव्यक्त की उपासना करते हैं।

श्रीभगवानुवाचमय्यावेश्य मनो ये मां किनत्ययुक्ता उपासते।श्रHया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥१२- २॥

जो भक्त मु5 में मन को लगा कर किनरन्तर श्रHा से मेरी उपासना करते हैं,वे मेरे मत में उत्तम हैं।ये त्वक्षरमकिनद�श्यमव्यकं्त पयुUपासते।सवUत्रगमलिचन्त्यं च कूटस्थमचलं धु्रवम्॥१२- ३॥

जो अक्षर, अकिनद�श्य (झिजसके स्वरुप को बताया नहीं जा सकता), अव्यक्त, सवUत्र गम्य (हर जगह उपस्थिस्थत),अलिचन्तीय, सदा एक स्थान पर स्थिस्थत, अचल और ध्रुव (पक्का, न किहलने वाला) की उपासना करते हैं।संकिनयम्येझिन्द्रयग्रामं सवUत्र समबुHयः।ते प्रापु्नवन्तिन्त मामेव सवUभूतकिहते रताः॥१२- ४॥

इझिन्द्रयों के समूह को संयधिमत कर, हर ओर हर जगह समता की बुझिH से देखते हुये, सभी प्राणीयों के किहतकर, वे भीमु5े ही प्राप्त करते हैं।क्ले%ोऽधिधकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।अव्यक्ता किह गकितदुUःखं देहवझिद्भरवाप्यते॥१२- ५॥

लेकिकन उन के पथ में कदिठनाई ज़्यादा है, जो अव्यक्त में लिचत्त लगाने में आसक्त हैं क्योंकिक देह धारिरयों के लिलयेअव्यक्त को प्राप्त करना कदिठन है।ये तु सवाUणिण कमाUणिण मधिय संन्यस्य मत्पराः।अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥१२- ६॥

लेकिकन जो सभी कम� को मु5 पर त्याग कर मु5ी पर आसार हुये (मेरी प्रान्तिप्त का लक्ष्य किकये)अनन्य भलिक्त योग द्वारा मु5 पर ध्यान करते हैं और मेरी उपासना करते हैं।

तेषामहं समुHताU मृत्युसंसारसागरात्।भवाधिम नलिचरात्पाथU मय्यावेलि%तचेतसाम्॥१२- ७॥

ऍसे भक्तों को मैं बहुत जन्धिल्द (किबना किकसी देर किकये) ही इस मृत्यु संसार रुपी सागर से उHार करने वालाबनता हूँ झिजनका लिचत्त मु5 ही में लगा हुआ है (मु5 में ही समाया हुआ है)।मय्येव मन आधत्स्व मधिय बुद्धिHं किनवे%य।किनवलिसष्यलिस मय्येव अत ऊध्व| न सं%यः॥१२- ८॥

इसलिलये, अपने मन को मु5 में ही स्थाकिपत करो, मु5 में ही अपनी बुझिH को लगाओ, इस प्रकार करते हुयेतुम केवल मु5 में ही किनवास करोगे (मु5 में ही रहोगे), इस में को सं%य नहीं है।अथ लिचतं्त समाधातुं न %क्नोकिष मधिय स्थिस्थरम्।अभ्यासयोगेन ततो माधिमच्छाप्तुं धनंजय॥१२- ९॥

और यदिद तुम अपने लिचत्त को मु5 में स्थिस्थरता से स्थाकिपत (मु5 पर अटूट ध्यान) नहीं कर पा रहे हो,तो अभ्यास (भगवान में लिचत्त लगाने के अभ्यास) करो और मेरी ही इच्छा करो हे धनंजय।अभ्यासेऽप्यसमथhऽलिस मत्कमUपरमो भव।मदथUमकिप कमाUणिण कुवUस्मिन्सझिHमवाप्स्यलिस॥१२- १०॥

और यदिद तुम मु5 में लिचत्त लगाने का अभ्यास करने में भी असमथU हो, तो मेरे लिलये ही कमU करने की ठानो। इस प्रकार,मेरे ही लिलये कमU करते हुये तुम लिसझिH (योग लिसझिH) प्राप्त कर लोगे।अथैतदप्य%क्तोऽलिस कतु| मद्योगमाणिश्रतः।सवUकमUफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्॥१२- ११॥

और यदिद, तुम यह करने में भी सफल न हो पाओ, तो मेरे बताये योग का आश्रय लेकरअपने मन और आत्मा पर संयम कर तुम सभी कम� के फलों को छोड़ दो (त्याग कर दो)।शे्रयो किह ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं किवलि%ष्यते।ध्यानात्कमUफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिन्तरनन्तरम्॥१२- १२॥

अभ्यास से बढकर ज्ञान (सम5 आ जाना) है, ज्ञान (सम5) से बढकर ध्यान है। और ध्यान से भी उत्तमकणU के फल का त्याग है, क्योंकिक ऍसा करते ही तुरन्त %ान्तिन्त प्राप्त होती है।अदे्वष्टा सवUभूतानां मैत्रः करुण एव च।किनमUमो किनरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी॥१२- १३॥

जो सभी जीवों के प्रकित दे्वष-हीन है, मैत्री (धिमत्र भाव) है, करुण%ाल है। जो 'मैं और मेरे' के किवचारों से मुक्त है,अहंकार रकिहत है, सुख और दुखः को एक सा देखता है, जो क्षमी है।संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढकिनश्चयः।मय्यर्तिपंतमनोबुझिHयh मद्भक्तः स मे किप्रयः॥१२- १४॥

जो योगी सदा संतुष्ट है, झिजसका अपने आत्म पर काबू है, जो दृढ किनश्चय है। जो मन और बुझिH सेमु5े अर्तिपंत है, ऍसा मनुष्य, मेरा भक्त, मु5े किप्रय है।यस्मा{ोकिद्वजते लोको लोका{ोकिद्वजते च यः।हषाUमषUभयोदे्वगैमुUक्तो यः स च मे किप्रयः॥१२- १५॥

झिजससे लोग उकिद्वलिचत (व्याकुल, परे%ान) नहीं होते (अथाUत जो किकसी को परे%ान नहीं करता, उकिद्वग्न नहीं देता), और जो स्वयं भीलोगों से उकिद्वझिजत नहीं होता, जो हषU, ईषाU, भय, उदे्वग से मुक्त है, ऍसा मनुष्य मु5े किप्रय है।अनपेक्षः %ुलिचदUक्ष उदासीनो गतव्यथः।सवाUरम्भपरिरत्यागी यो मद्भक्तः स मे किप्रयः॥१२- १६॥

जो आकाङ्क्षा रकिहत है, %ुH है, दक्ष है, उदासीन (मतलब रकिहत) है, व्यथा रकिहत है, सभी आरम्भों का त्यागी है,ऍसा मेरी भक्त मु5े किप्रय है।यो न हृष्यकित न दे्वधिष्ट न %ोचकित न काङ्क्षकित।%ुभा%ुभपरिरत्यागी भलिक्तमान्यः स मे किप्रयः॥१२- १७॥

जो न प्रस{ होता है, न दुखी (दे्वष) होता है, न %ोक करता है और न ही आकाङ्क्षा करता है। %ुभ औरअ%ुभ दोनों का झिजसने त्याग कर दिदया है, ऍसा भलिक्तमान पुरुष मु5े किप्रय है।समः %त्रौ च धिमते्र च तथा मानापमानयोः।%ीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गकिववर्जिजंतः॥१२- १८॥

जो %त्रु और धिमत्र के प्रकित समान है, तथा मान और अपमान में भी एक सा है, झिजसके लिलये सरदी गरमीएक हैं, और जो सुख और दुख में एक सा है, हर प्रकार से संग रकिहत है।तुल्यकिनन्दास्तुकितमèनी सन्तुष्टो येन केनलिचत्।अकिनकेतः स्थिस्थरमकितभUलिक्तमान्मे किप्रयो नरः॥१२- १९॥

जो अपनी किनन्दा और स्तुकित को एक सा भाव देता है (एक सा मानता है), जो मौनी है, किकसी भी तरह (थोडे़ बहुत में) संतुष्ट है,घर बार से जुड़ा नहीं है। जो स्थिस्थर मकित है, ऍसा भलिक्तमान नर मु5े किप्रय है।ये तु धम्याUमृतधिमदं यथोकं्त पयुUपासते।श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे किप्रयाः॥१२- २०॥

और जो श्रHावान भक्त मु5 ही पर परायण (मु5े ही लक्ष्य मानते) हुये, इस बताये गये धमU अमृत की उपासना करतेहैं (मानते हैं और पालन करते हैं), ऍसे भक्त मु5े अत्यन्त (अतीव) किप्रय हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता हि�न्दीभाषाऽऽनुवादसहि�ता 13

तेर�ँवां अध्याय

श्रीभगवानुवाचइदं %रीरं कौन्तेय के्षत्रधिमत्यणिभधीयते।एतद्यो वेणित्त तं प्राहुः के्षत्रज्ञ इकित तकिद्वदः॥१३- १॥

इस %रीर को, हे कौन्तेय, के्षत्र कहा जाता है। और ज्ञानी लोग इस के्षत्र को जो जानता है उसेके्षत्रज्ञ कहते हैं।के्षत्रजं्ञ चाकिप मां किवझिH सवUके्षते्रषु भारत।के्षत्रके्षत्रज्ञयोज्ञाUनं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥१३- २॥

सभी क्षोत्रों में तुम मु5े ही के्षत्रज्ञ जानो हे भारत (सभी %रीरों में मैं के्षत्रज्ञ हूँ)। इस के्षत्र और के्षत्रज्ञ का ज्ञान(सम5) ही वास्तव में ज्ञान है, मेरे मत से।तत्के्षतं्र यच्च यादृक्च यकिद्वकारिर यतश्च यत्।स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे %ृणु॥१३- ३॥

वह के्षत्र जो है और जैसा है, और उसके जो किवकार (बदलाव) हैं, और झिजस से वो उत्प{ हुआ है,और वह के्षत्रज्ञ जो है, और जो इसका प्रभाव है, वह तुम मु5 से संके्षप में सुनो।ऋकिषणिभबUहुधा गीतं छन्दोणिभर्तिवकंिवधैः पृथक्।ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमझिद्भर्तिवकंिनणिश्चतैः॥१३- ४॥

ऋकिषयों ने बहुत से गीतों में और किवकिवध छन्दों में पृथक पृथक रुप से इन का वणUन किकया है। तथासोच सम5 कर संपूणU तरह किनणिश्चत कर के ब्रह्म सूत्र के पदों में भी इसे बताया गया है।महाभूतान्यहंकारो बुझिHरव्यक्तमेव च।इझिन्द्रयाणिण द%ैकं च पञ्च चेझिन्द्रयगोचराः॥१३- ५॥

महाभूत (मूल प्राकृकित), अहंकार (मैं का अहसास), बुझिH, अव्यक्त प्रकृकित (गुण), दस इझिन्द्रयाँ (पाँच इझिन्द्रयां और मन औरकमU अंग), और पाँचों इझिन्द्रयों के किवषय।इच्छा दे्वषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृकितः।एतत्के्षतं्र समासेन सकिवकारमुदाहृतम्॥१३- ६॥

इच्छा, दे्वष, सुख, दुख, संघ (देह समूह), चेतना, धृकित (स्थिस्थरता) - यह संके्षप मेंके्षत्र और उसके किवकार बताये गये हैं।अमाकिनत्वमदस्मिम्भत्वमतिहंसा क्षान्तिन्तराजUवम्।आचायhपासनं %ौचं सै्थयUमात्मकिवकिनग्रहः॥१३- ७॥

अणिभमान न होना (स्वयं के मान की इच्छा न रखना), 5ुठी दिदखावट न करना, अतिहंसा (जीवों की तिहंसा न करना), %ान्तिन्त,सरलता, आचायU की उपासना करना, %ुHता (%ौच), स्थिस्थरता और आत्म संयम।इझिन्द्रयाथ�षु वैराग्यमनहंकार एव च।जन्ममृत्युजराव्याधिधदुःखदोषानुद%Uनम्॥१३- ८॥

इझिन्द्रयों के किवषयों के प्रकित वैराग्य (इच्छा %ून्यता), अहंकार का अभाव, जन्म मृत्यु जरा (बुढापे) और किबमारी (व्याधिध) केरुप में जो दुख दोष है उसे ध्यान में रखना (अथाUत इन से मुक्त होने का प्रयत्न करना)।असलिक्तरनणिभष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिदषु।किनत्यं च समलिचत्तत्वधिमष्टाकिनष्टोपपणित्तषु॥१३- ९॥

आसलिक्त से मुक्त रहना (संग रकिहत रहना), पुत्र, पत्नी और गृह आदिद को स्वयं से जुड़ा न देखना (ऐकात्मता का भाव न होना),इष्ट (किप्रय) और अकिनष्ट (अकिप्रय) का प्रान्तिप्त में लिचत्त का सदा एक सा रहना।मधिय चानन्ययोगेन भलिक्तरव्यणिभचारिरणी।किवकिवक्तदे%सेकिवत्वमरकितजUनसंसदिद॥१३- १०॥

मु5 में अनन्य अव्यणिभचारिरणी (स्थिस्थर) भलिक्त होना, एकान्त स्थान पर रहने का स्वभाव होना, औरलोगों से धिघरे होने को पसंद न करना।अध्यात्मज्ञानकिनत्यत्वं तत्त्वज्ञानाथUद%Uनम्।एतज्ज्ञानधिमकित प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा॥१३- ११॥

सदा अध्यात्म ज्ञान में लगे रहना, तत्त्व (सार) का ज्ञान होना, और अपनी भलाई (अथU अथाUत भगवात् प्रान्तिप्त झिजसे परमाथU - परम अथU कहा जाता है) को देखना,इस सब को ज्ञान कहा गया है, और बाकी सब अज्ञान है।जे्ञयं यत्तत्प्रवक्ष्याधिम यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते।अनादिद मत्परं ब्रह्म न सत्त{ासदुच्यते॥१३- १२॥

जो ज्ञेय है (झिजसका ज्ञान प्राप्त करना चाकिहये), मैं उसका वणUन करता हूँ, झिजसे जान कर मनुष्यअमरता को प्राप्त होता है। वह (ज्ञेय) अनादिद है (उसका कोई जन्म नहीं है), परम ब्रह्म है। न उसेसत कहा जाता है, न असत् कहा जाता है (वह इन संज्ञाओं से परे है)।सवUतः पाणिणपादं तत्सवUतोऽणिक्षलि%रोमुखम्।सवUतः शु्रकितमल्लोके सवUमावृत्य कित�कित॥१३- १३॥

हर ओर हर जगह उसके हाथ और पैर हैं, हर ओर हर जगह उसके आँखें और लिसर तथा मुख हैं, हर जगहउसके कान हैं। वह इस संपूणU संसार को ढक कर (हर जगह व्याप्त हो) किवराजमान है।सव�झिन्द्रयगुणाभासं सव�झिन्द्रयकिववर्जिजंतम्।असकं्त सवUभृच्चैव किनगुUणं गुणभोकृ्त च॥१३- १४॥

वह सभी इझिन्द्रयों से वर्जिजंत होते हुये सभी इझिन्द्रयों और गुणों को आभास करता है। वह असक्त होते हुये भी सभी का भरण पोषण करता है। किनगुUणहोते हुये भी सभी गुणों को भोक्ता है। बकिहरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।सूक्ष्मत्वात्तदकिवजे्ञयं दूरसं्थ चान्तिन्तके च तत्॥१३- १५॥

वह सभी चर और अचर प्राणिणयों के बाहर भी है और अन्दर भी। सूक्षम होने के कारण उसे देखा नहीं जा सकता। वहदुर भी स्थिस्थत है और पास भी।अकिवभकं्त च भूतेषु किवभक्तधिमव च स्थिस्थतम्।भूतभतृU च तज्जे्ञयं ग्रलिसष्णु प्रभकिवष्णु च॥१३- १६॥

सभी भूतों (प्राणिणयों) में एक ही होते हुये भी (अकिवभक्त होते हुये भी) किवभक्त सा स्थिस्थत है। वहीं सभी प्राणिणयों का पालन पोषण करने वाला है,वहीं ज्ञेयं (झिजसे जाना जाना चाकिहये) है, ग्रलिसष्णु है, प्रभकिवष्णु है।ज्योकितषामकिप तज्ज्योकितस्तमसः परमुच्यते।ज्ञानं जे्ञयं ज्ञानगम्यं हृदिद सवUस्य किवधि�तम्॥१३- १७॥

सभी ज्योकितयों की वही ज्योकित है। उसे तमसः (अन्धकार) से परे (परम) कहा जाता है। वही ज्ञान है, वहीं ज्ञेय है, ज्ञान द्वारा उसेप्राप्त किकया जाता है। वही सब के हृदयों में किवराजमान है।इकित के्षतं्र तथा ज्ञानं जे्ञय ंचोकं्त समासतः।मद्भक्त एतकिद्वज्ञाय मद्भावायोपपद्यते॥१३- १८॥

इस प्रकार तुम्हें संके्षप में के्षत्र (यह %रीर आदिद), ज्ञान और ज्ञेय (भगवान) का वणUन किकया है। मेरा भक्त इन को सम5 जाने परमेरे स्वरुप को प्राप्त होता है।प्रकृतितं पुरुषं चैव किवद्ध्यनादी उभावकिप।किवकारांश्च गुणांश्चैव किवझिH प्रकृकितसंभवान्॥१३- १९॥

तुम प्रकृकित और पुरुष दोनो की ही अनादिद (जन्म रकिहत) जानो। और किवकारों और गुणों को तुम प्रकृकित सेउत्प{ हुआ जानो।कायUकरणकतृUत्वे हेतुः प्रकृकितरुच्यते।पुरुषः सुखदुःखानां भोकृ्तत्वे हेतुरुच्यते॥१३- २०॥

कायU के साधन और कताU होने की भावना में प्रकृकित को कारण बताया जाता है। और सुख दुख के भोक्ता होने में पुरुष कोउसका कारण कहा जाता है।पुरुषः प्रकृकितस्थो किह भुङ् के्त प्रकृकितजान्गुणान्।कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योकिनजन्मसु॥१३- २१॥

यह पुरुष (आत्मा) प्रकृकित में स्थिस्थत हो कर प्रकृकित से ही उत्प{ हुये गुणों को भोक्ता है। इन गुणों से संग (जुडा होना) हीपुरुष का सद और असद योकिनयों में जन्म का कारण है।उपद्रष्टानुमन्ता च भताU भोक्ता महेश्वरः।परमात्मेकित चाप्युक्तो देहेऽस्मिस्मन्पुरुषः परः॥१३- २२॥

यह पुरुष (जीव आत्मा) इस देह में स्थिस्थत होकर देह के साथ संग करता है इसलिलये इसे उपद्रष्टा कहा जाता है, अनुमकित देता है इसलिलये इसे अनुमन्ताकहा जा सकता है, स्वयं को देह का पालन पोषण करने वाला सम5ने के कारण इसे भताU कहा जा सकता है, और देह को भोगने के कारण भोक्ता कहा जा सकता है, स्वयंको देह का स्वाधिम सम5ने के कारण महेष्वर कहा जा सकता है। लेकिकन स्वरूप से यह परमात्मा तत्व ही है अथाUत इस का देह से कोई संबंध नहीं।य एवं वेणित्त पुरुषं प्रकृतितं च गुणैः सह।सवUथा वतUमानोऽकिप न स भूयोऽणिभजायते॥१३- २३॥

जो इस प्रकार पुरुष और प्रकृकित तथा प्रकृकित में स्थिस्थत गुणों के भेद को जानता है, वह मनुष्य सदा वतUता हुआ भी दोबारा किफर मोकिहत नहीं होता।ध्यानेनात्मकिन पश्यन्तिन्त केलिचदात्मानमात्मना।अन्ये सांख्येन योगेन कमUयोगेन चापरे॥१३- २४॥

कोई ध्यान द्वारा अपने ही आत्मन से अपनी आत्मा को देखते हैं, अन्य सांख्य ज्ञान द्वारा अपनी आत्मा का ज्ञान प्राप्त करते हैं,तथा अन्य कई कमU योग द्वारा।अन्ये त्वेवमजानन्तः शु्रत्वान्येभ्य उपासते।तेऽकिप चाकिततरन्त्येव मृत्युं शु्रकितपरायणाः॥१३- २५॥

लेकिकन दूसरे कई इसे न जानते हुये भी जैसा सुना है उस पर किवश्वास कर, बताये हुये की उपासना करते हैं। वे श्रुकित परायण(सुने हुये पर किवश्वास करते और उसका सहारा लेते) लोग भी इस मृत्यु संसार को पार कर जाते हैं।यावत्संजायते तिकंलिचत्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।के्षत्रके्षत्रज्ञसंयोगात्तकिद्वझिH भरतषUभ॥१३- २६॥

हे भरतषUभ, जो भी स्थावर यां चलने-किफरने वाले जीव उत्प{ होते हैं, तुम उन्हें इस के्षत्र (%रीर तथा उसके किवकार आदिद) और के्षत्रज्ञ (आत्मा) के संयोग से ही उत्प{ हुआ सम5ो।समं सव�षु भूतेषु कित�न्तं परमेश्वरम्।किवनश्यत्स्वकिवनश्यन्तं यः पश्यकित स पश्यकित॥१३- २७॥

परमात्मा सभी जीवों में एक से स्थिस्थत हैं। किवना% को प्राप्त होते इन जीवों में जो अकिवना%ी उन परमात्मा को देखता है, वही वास्तव में देखता है।

समं पश्यखिन्ह सवUत्र समवस्थिस्थतमीश्वरम्।न किहनस्त्यात्मनात्मानं ततो याकित परां गकितम्॥१३- २८॥

हर जगह इश्वर को एक सा अवस्थिस्थत देखता हुआ जो मनुष्य सवUत्र समता से देखता है, वह अपने ही आत्मन द्वारा अपनी तिहंसा नहीं करता, इसलिलयेवह परम पकित को प्राप्त करता है।प्रकृत्यैव च कमाUणिण किक्रयमाणाकिन सवU%ः।यः पश्यकित तथात्मानमकताUरं स पश्यकित॥१३- २९॥

जो प्रकृकित को ही हर प्रकार से सभी कमU करते हुये देखता है, और स्वयं को अकताU (कमU न करने वाला) जानता है, वही वास्तव में सत्य देखता है।यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यकित।तत एव च किवस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा॥१३- ३०॥

जब वह इन सभी जीवों के किवकिवध भावों को एक ही जगह स्थिस्थत देखता है (प्रकृकित में) और उसी एक कारण से यह सारा किवस्तार देखता है,तब वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।अनादिदत्वाधि{गुUणत्वात्परमात्मायमव्ययः।%रीरस्थोऽकिप कौन्तेय न करोकित न लिलप्यते॥१३- ३१॥

हे कौन्तेय, जीवात्मा अनादिद और किनगुUण होने के कारण किवकारहीन (अव्यय) परमात्मा तत्व ही है। यह %रीर में स्थिस्थत होते हुये भी न कुछ करती है और न ही लिलपती है।यथा सवUगतं सौक्ष्म्यादाका%ं नोपलिलप्यते।सवUत्रावस्थिस्थतो देहे तथात्मा नोपलिलप्यते॥१३- ३२॥

जैसे हर जगह फैला आका% सूक्षम होने के कारण लिलपता नहीं है उसी प्रकार हर जगह अवस्थिस्थत आत्मा भी देह से लिलपती नहीं है।यथा प्रका%यत्येकः कृत्स्नं लोकधिममं रकिवः।के्षतं्र के्षत्री तथा कृत्स्नं प्रका%यकित भारत॥१३- ३३॥

जैसे एक ही सूयU इस संपूणU संसार को प्रकालि%त कर देता है, उसी प्रकार हे भारत, के्षत्री (आत्मा) भी के्षत्र को प्रकालि%त कर देती है।के्षत्रके्षत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचकु्षषा।भूतप्रकृकितमोकं्ष च ये किवदुयाUन्तिन्त ते परम्॥१३- ३४॥

इस पका<र जो के्षत्र और के्षत्रज्ञ के बीच में ज्ञान दृहिA से भेद देखते �ैं और उन को अलग अलग जानते �ैं, वे इस प्रकृहित से हिवमुक्त �ो परम गहित कोप्राप्त करते �ैं।

श्रीमद्भगवद्गीता हि�न्दीभाषाऽऽनुवादसहि�ता 14चौद�वाँ अध्याय

श्री भगवान बोले:

परं भूयः प्रवक्ष्याधिम ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।यज्ज्ञात्वा मुनयः सव� परां लिसझिHधिमतो गताः॥१४- १॥

हे अजुUन, मैं किफर से तुम्हें वह बताता हूँ जो सभी ज्ञानों में से उत्तम ज्ञान है। इसे जान कर सभी मुनी परम लिसझिH को प्राप्त हुये हैं।इदं ज्ञानमुपाणिश्रत्य मम साधम्यUमागताः।सग�ऽकिप नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्तिन्त च॥१४- २॥

इस ज्ञान का आश्रय ले जो मेरी स्थिस्थत को प्राप्त कर चुके हैं, वे सगU के समय किफर जन्म नहीं लेते, और न ही प्रलय में व्यलिथत होते हैं।मम योकिनमUहदब््रह्म तस्मिस्मन्गभ| दधाम्यहम्।संभवः सवUभूतानां ततो भवकित भारत॥१४- ३॥

हे भारत, यह महद ्ब्रह्म (मूल प्रकृकित) योकिन है, और मैं उसमें गभU देता हूँ। इस से ही सभी जीवों का जन्म होता है हे भारत।सवUयोकिनषु कौन्तेय मूतUयः संभवन्तिन्त याः।तासां ब्रह्म महद्योकिनरहं बीजप्रदः किपता॥१४- ४॥

हे कौन्तेय, सभी योकिनयों में जो भी जीव पैदा होते हैं, उनकी महद ्ब्रह्म तो योकिन है (कोख है), और मैं बीज देने वाला किपता हूँ।सत्त्वं रजस्तम इकित गुणाः प्रकृकितसंभवाः।किनबध्नन्तिन्त महाबाहो देहे देकिहनमव्ययम्॥१४- ५॥

हे माहाबाहो, सत्त्व, रज और तम - प्रकृकित से उत्प{ होने वाले यह तीन गुण अकिवकारी अव्यय आत्मा को देह में बाँधते हैं।तत्र सत्त्वं किनमUलत्वात्प्रका%कमनामयम्।सुखसङे्गन बध्नाकित ज्ञानसङे्गन चानघ॥१४- ६॥

हे आनघ (पापरकिहत), उन में से सत्त्व किनमUल और प्रका%मयी, पीडा रकिहत होने के कारण सुख के संग और ज्ञान द्वारा आत्मा को बाँधता है।रजो रागात्मकं किवझिH तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।तधि{बध्नाकित कौन्तेय कमUसङे्गन देकिहनम्॥१४- ७॥

तृष्णा (भूख, इच्छा) और आसलिक्त से उत्प{ रजो गुण को तुम रागात्मक जानो। यह देकिह (आत्मा) को कमU के प्रकित आसलिक्त से बाँधता है, हे कौन्तेय।तमस्त्वज्ञानजं किवझिH मोहनं सवUदेकिहनाम्।प्रमादालस्यकिनद्राणिभस्तधि{बध्नाकित भारत॥१४- ८॥

तम को लेकिकन तुम अज्ञान से उत्प{ हुआ जानो जो सभी देहवासीयों को मोकिहत करता है। हे भारत, वह प्रमाद, आलस्य और किनद्रा द्वारा आत्मा को बाँधता है।सत्त्वं सुखे संजयकित रजः कमUणिण भारत।ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत॥१४- ९॥

सत्त्व सुख को जन्म देता है, रजो गुण कम� (काय�) को, हे भारत। लेकिकन तम गुण ज्ञान को ढक कर प्रमाद (अज्ञानता, मुखUता) को जन्म देता है।रजस्तमश्चाणिभभूय सत्त्वं भवकित भारत।रजः सत्त्वं तमशै्चव तमः सत्त्वं रजस्तथा॥१४- १०॥

हे भारत, रजो गुण और तमो गुण को दबा कर सत्त्व बढता है, सत्त्व और तमो गुण को दबा कर रजो गुण बढता है, और रजो और सत्त्व को दबाकर तमो गुण बढता है।सवUद्वारेषु देहेऽस्मिस्मन्प्रका% उपजायते।ज्ञानं यदा तदा किवद्याकिद्ववृHं सत्त्वधिमत्युत॥१४- ११॥

जब देह के सभी द्वारों में प्रका% उत्प{ होता है और ज्ञान बढता है, तो जानना चाकिहये की सत्त्व गुण बढा हुआ है।लोभः प्रवृणित्तरारम्भः कमUणाम%मः स्पृहा।रजस्येताकिन जायन्ते किववृHे भरतषUभ॥१४- १२॥

हे भरतषUभ, जब रजो गुण की वृझिH होती है तो लोभ प्रवृणित्त और उदे्वग से कम� का आरम्भ, सृ्पहा (अ%ान्तिन्त) होते हैं।अप्रका%ोऽप्रवृणित्तश्च प्रमादो मोह एव च।तमस्येताकिन जायन्ते किववृHे कुरुनन्दन॥१४- १३॥

हे कुरुनन्दन। तमो गुण के बढने पर अप्रका%, अप्रवृणित्त (न करने की इच्छा), प्रमाद और मोह उत्प{ होते हैं।यदा सत्त्वे प्रवृHे तु प्रलयं याकित देहभृत्।तदोत्तमकिवदां लोकानमलान्प्रकितपद्यते॥१४- १४॥

जब देहभृत सत्त्व के बढे होते हुये मृत्यु को प्राप्त होता है, तब वह उत्तम ज्ञानमंद लोगों के अमल (स्वच्छ) लोकों को जाता है।रजलिस प्रलयं गत्वा कमUसकिङ्गषु जायते।तथा प्रलीनस्तमलिस मूढयोकिनषु जायते॥१४- १५॥

रजो गुण की बढोती में जब जीव मृत्यु को प्राप्त होता है, तो वह कम� से आसक्त जीवों के बीच जन्म लेता है। तथा तमो गुण की वृझिH में जब मनुष्य मृत्यु को प्राप्तहोता है तो वह मूढ योकिनयों में जन्म लेता है।कमUणः सुकृतस्याहुः सास्मित्त्वकं किनमUलं फलम्।रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्॥१४- १६॥

सान्तित्वक (सत्त्व गुण में आधारिरत) अचे्छ कम� का फल भी किनमUल बताया जाता है, राजलिसक कम� का फल लेकिकन दुख ही कहा जाता है, औरतामलिसक कम� का फल अज्ञान ही है।सत्त्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च॥१४- १७॥

सत्त्व ज्ञान को जन्म देता है, रजो गुण लोभ को। तमो गुण प्रमाद, मोह और अज्ञान उत्प{ करता है।ऊध्व| गच्छन्तिन्त सत्त्वस्था मध्ये कित�न्तिन्त राजसाः।जघन्यगुणवृणित्तस्था अधो गच्छन्तिन्त तामसाः॥१४- १८॥

सत्त्व में स्थिस्थत प्राणिण ऊपर उठते हैं, रजो गुण में स्थिस्थत लोग मध्य में ही रहते हैं (अथाUत न उनका पतन होता है न उ{कित), लेकिकन तामलिसक जघन्य गुण की वृणित्त में स्थिस्थतहोने के कारण (तिनंदनीय तमो गुण में स्थिस्थत होने के कारण) नीचें को किगरते हैं (उनका पतन होता है)।नान्यं गुणेभ्यः कताUरं यदा द्रष्टानुपश्यकित।गुणेभ्यश्च परं वेणित्त मद्भावं सोऽधिधगच्छकित॥१४- १९॥

जब मनुष्य गुणों के अकितरिरक्त और किकसी को भी कताU नहीं देखता सम5ता (स्वयं और दूसरों को भी अकताU देखता है), केवल गुणों को ही गताU देखता है,और स्वयं को गुणों से ऊपर (परे) जानता है, तब वह मेरे भाव को प्राप्त करता है।गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्।जन्ममृत्युजरादुःखैर्तिवंमुक्तोऽमृतमशु्नते॥१४- २०॥

इन तीनों गुणों को, जो देह की उत्पणित्त का कारण हैं, लाँघ कर देही अथाUत आत्मा जन्म, मृत्यु और जरा आदिद दुखों से किवमुक्त हो अमृत का अनुभव करता है।

अजुUन जी बोले:कैर्शिलंङै्गस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवकित प्रभो।किकमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानकितवतUते॥१४- २१॥

हे प्रभो, इन तीनो गुणों से अतीत हुये मनुष्य के क्या लक्षण होते हैं। उस का क्या आचरण होता है। वह तीनों गुणो से कैसे पार होता है।

श्रीभगवान बोले:

प्रका%ं च प्रवृत्तित्तं च मोहमेव च पाण्डव।न दे्वधिष्ट संप्रवृत्ताकिन न किनवृत्ताकिन काङ्क्षकित॥१४- २२॥

हे पाण्डव, तानों गुणों से ऊपर उठा महात्मा न प्रका% (ज्ञान), न प्रवृणित्त (रजो गुण), न ही मोह (तमो गुण) के बहुत बढने पर उन से दे्वष करता है और न हीलोप हो जाने पर उन की इच्छा करता है।उदासीनवदासीनो गुणैयh न किवचाल्यते।गुणा वतUन्त इत्येव योऽवकित�कित नेङ्गते॥१४- २३॥

जो इस धारणा में स्थिस्थत रहता है की गुण ही आपस में वतU रहे हैं, और इसलिलये उदासीन (झिजसे कोई मतलब न हो) की तरह गुणों से किवचलिलत न होता, न ही उन से कोईचे�ा करता है।समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।तुल्यकिप्रयाकिप्रयो धीरस्तुल्यकिनन्दात्मसंस्तुकितः॥१४- २४॥

सुख और दुख में एक सा, अपने आप में ही स्थिस्थत जो धिमदिट्ट, पत्थर और सोने को एक सा देखता है। जो किप्रय और अकिप्रय की एक सी तुलना करता है, जो धीर मनुष्यतिनंदा और आत्म संस्तुकित (प्र%ंसा) को एक सा देखता है।मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो धिमत्रारिरपक्षयोः।सवाUरम्भपरिरत्यागी गुणातीतः स उच्यते॥१४- २५॥

जो मान और अपमान को एक सा ही तोलता है (बराबर सम5ता है), धिमत्र और किवपक्षी को भी बराबर देखता है। सभी आरम्भों का त्याग करने वाला है, ऐसे महात्मा को गुणातीत (गुणों के अतीत) कहा जाता है।मां च योऽव्यणिभचारेण भलिक्तयोगेन सेवते।स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते॥१४- २६॥

और जो मेरी अव्यणिभचारी भलिक्त करता है, वह इन गुणों को लाँघ कर ब्रह्म की प्रान्तिप्त करने का पात्र हो जाता है।ब्रह्मणो किह प्रकित�ाहममृतस्याव्ययस्य च।%ाश्वतस्य च धमUस्य सुखस्यैकान्तिन्तकस्य च॥१४- २७॥

क्योंकिक मैं ही ब्रह्म का, अमृतता का (अमरता का), अव्ययता का, %ाश्वतता का, धमU का, सुख का और एकान्तिन्तक लिसझिH का आधार हूँ (वे मु5 में ही स्थाकिपत हैं)।

श्रीमद्भगवद्गीता हि�न्दीभाषाऽऽनुवादसहि�ता 15 पंद्र�वाँ अध्याय

श्रीभगवान बोले

ऊध्वUमूलमधः%ाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।छन्दांलिस यस्य पणाUकिन यस्तं वेद स वेदकिवत्॥१५- १॥

अश्वत्थ नाम वृक्ष झिजसे अव्यय बताया जाता है, झिजसकी जडें ऊपर हैं और %ाखायें नीचे हैं, वेद छन्द झिजसके पत्ते हैं, जो उसे जानता है वह वेदों का ज्ञाता है।अधश्चोध्व| प्रसृतास्तस्य %ाखा गुणप्रवृHा किवषयप्रवालाः।अधश्च मूलान्यनुसंतताकिन कमाUनुबन्धीकिन मनुष्यलोके॥१५- २॥

उस वृक्ष की गुणों और किवषयों द्वारा चिसंचीं %ाखाएं नीचे ऊपर हर ओर फैली हुईं हैं। उसकी जडें भी मनुष्य के कम� द्वारा मनुष्य को हर ओर से बाँधे नीचे उपर बढीहुईं हैं।न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिदनU च संप्रकित�ा।अश्वत्थमेनं सुकिवरूढमूल-मसङ्ग%स्ते्रण दृढेन लिछत्त्वा॥१५- ३॥

न इसका वास्तकिवक रुप दिदखता है, न इस का अन्त और न ही इस का आदिद और न ही इस का मूल स्थान (जहां यह स्थाकिपत है)। इस अश्वथ नामक वृक्ष की बहुत धृढ %ाखाओं को असंग रूपी धृढ %स्त्र से काट कर -।ततः पदं तत्परिरमार्तिगंतव्यंयस्मिस्मन्गता न किनवतUन्तिन्त भूयः।तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्येयतः प्रवृणित्तः प्रसृता पुराणी॥१५- ४॥

उसके बाद परम पद की खोज करनी चाकिहये, झिजस मागU पर चले जाने के बाद मनुष्य किफर लौट कर नहीं आता। उसी आदिद पुरुष की %रण में चले जाना चाकिहये झिजन से यह पुरातन वृक्ष रूपी संसार उत्प{ हुआ है।किनमाUनमोहा झिजतसङ्गदोषा अध्यात्मकिनत्या किवकिनवृत्तकामाः।द्वन्दै्वर्तिवंमुक्ताः सुखदुःखसंजै्ञगUच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५- ५॥

मान और मोह से मुक्त, संग रूपी दोष पर जीत प्राप्त किकये, किनत्य अध्यात्म में लगे, कामनाओं को %ान्त किकये, सुख दुख झिजसे कहा जाता है उस द्वन्द्व से मुक्त हुये, ऐसे मूखUता हीन महात्मा जन उस परम अव्यय पद को प्राप्त करते हैं।न तद्भासयते सूयh न %%ाङ्को न पावकः।यद्गत्वा न किनवतUन्त ेतHाम परमं मम॥१५- ६॥

न उस पद को सूयU प्रकालि%त करता है, न चन्द्र और न ही अखिग्न (वह पद इस सभी लक्षणों से परे है), जहां पहुँचने पर वे पुनः वाकिपस नहीं आते, वही मेरा परम धाम (स्थान) है।ममैवां%ो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।मनःष�ानीझिन्द्रयाणिण प्रकृकितस्थाकिन कषUकित॥१५- ७॥

मेरा ही सनातन अं% इस जीव लोक में जीव रूप धारण कर, मन सकिहत छे इझिन्द्रयों (मन और पाँच अन्य इझिन्द्रयों) को, जो प्रकृकित में स्थिस्थत हैं, आकर्तिषंत करता है।%रीरं यदवाप्नोकित यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।गृकिहत्वैताकिन संयाकित वायुगUन्धाकिनवा%यात्॥१५- ८॥

जैसे वायु गन्ध को ग्रहण कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाता है, उसी प्रकार आत्मा इन इझिन्द्रयों को ग्रहण कर झिजस भी %रीर को प्राप्त करता है वहां ले जाता है।श्रोत्रं चकु्षः स्प%Uनं च रसनं घ्राणमेव च।अधिध�ाय मनश्चायं किवषयानुपसेवते॥१५- ९॥

%रीर में स्थिस्थत हो वह सुनने की %लिक्त, आँखें, छूना, स्वाद, सँूघने की %लिक्त तथा मन द्वारा इन सभी के किवषयों का सेवन करता है।उत्क्रामन्तं स्थिस्थतं वाकिप भुञ्जानं वा गुणान्तिन्वतम्।किवमूढा नानुपश्यन्तिन्त पश्यन्तिन्त ज्ञानचकु्षषः॥१५- १०॥

%रीर को त्यागते हुये, या उस में स्थिस्थत रहते हुये, गुणों को भोगते हुये, जो किवमूढ (मूखU) हैं वे उसे (आत्मा) को नहीं देख पाते, परन्तु झिजनके पास ज्ञान चकु्ष (आँखें) हैं, अथाUत जो ज्ञान युक्त हैं, वे उसे देखते हैं।यतन्तो योकिगनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थिस्थतम्।यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः॥१५- ११॥

साधना युक्त योगी जन इसे स्वयं में अवस्थिस्थत देखते हैं (अथाUत अपनी आत्मा का अनुभव करते हैं), परन्तु साधना करते हुये भी अकृत जन, झिजनका लिचत अभी ज्ञान युक्त नहीं है, वे इसे नहीं देख पाते।यदादिदत्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिखलम्।यच्चन्द्रमलिस यच्चाग्नौ तते्तजो किवझिH मामकम्॥१५- १२॥

जो तेज सूयU से आकर इस संपूणU संसार को प्रकालि%त कर देता है, और जो तेज चन्द्र औऱ अखिग्न में है, उन सभी को तुम मेरा ही जानो।गामाकिवश्य च भूताकिन धारयाम्यहमोजसा।पुष्णाधिम चौषधीः सवाUः सोमो भूत्वा रसात्मकः॥१५- १३॥

मैं ही सभी प्राणिणयों में प्रकिवष्ट होकर उन्हें धारण करता हूँ (उनका पालन पोषण करता हूँ)। मैं ही रसमय चन्द्र बनकर सभी औषधीयाँ (अनाज आदिद) उत्प{ करता हूँ।अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिणनां देहमाणिश्रतः।प्राणापानसमायुक्तः पचाम्य{ं चतुर्तिवंधम्॥१५- १४॥

मैं ही प्राणिणयों की देह में स्थिस्थत हो प्राण और अपान वायुओं द्वारा चारों प्रकार के खानों को पचाता हूँ।सवUस्य चाहं हृदिद संकिनकिवष्टो मत्तः स्मृकितज्ञाUनमपोहनं च।वेदैश्च सवËरहमेव वेद्यो वेदान्तकृदे्वदकिवदेव चाहम्॥१५- १५॥

मैं सभी प्राणिणयों के हृदय में स्थिस्थत हूँ। मु5 से ही स्मृकित, ज्ञान होते है। सभी वेदों द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ। मैं ही वेदों का सार हुँ और मैं ही वेदों का ज्ञाता हुँ।द्वाकिवमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।क्षरः सवाUणिण भूताकिन कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५- १६॥

इस संसार में दो प्रकार की पुरुष संज्ञायें हैं - क्षर और अक्षऱ (अथाUत जो नश्वर हैं और जो %ाश्वत हैं)। इन दोनो प्रकारों में सभी जीव (देहधारी) क्षर हैं और उन देहों में किवराजमान आत्मा को अक्षर कहा जाता है।उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।यो लोकत्रयमाकिवश्य किबभत्यUव्यय ईश्वरः॥१५- १७॥

परन्तु इन से अकितरिरक्त एक अन्य उत्तम पुरुष और भी हैं झिजन्हें परमात्मा कह कर पुकारा जाता है। वे किवकार हीन अव्यय ईश्वर इन तीनो लोकों में प्रकिवष्ट होकर संपूणU संसार का भरण पोषण करते हैं।यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादकिप चोत्तमः।अतोऽस्मिस्म लोके वेदे च प्रलिथतः पुरुषोत्तमः॥१५- १८॥

क्योंकिक मैं क्षर (देह धारी जीव) से ऊपर हूँ तथा अक्षर (आत्मा) से भी उत्तम हूँ, इस लिलये मु5े इस संसार में पुरुषोत्तम के नाम से जाना जाता है।यो मामेवमसंमूढो जानाकित पुरुषोत्तमम्।स सवUकिवद्भजकित मां सवUभावेन भारत॥१५- १९॥

जो अन्धकार से परे मनुष्य मु5े पुरुषोत्तम जानता है, वह ही सब कुछ जानता है और संपूणU भावना से हर प्रकार मु5े भजता है, हे भारत।इकित गुह्यतमं %ास्त्रधिमदमुकं्त मयानघ।एतद ्बुदध््वा बुझिHमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत॥१५- २०॥

हे अनघ (पाप हीन अजुUन), इस प्रकार मैंने तुम्हें इस गुह्य %ास्त्र को सुनाया। इसे जान लेने पर मनुष्य बुझिHमान और कृतकृत्य हो जाता है, हे भारत।

श्रीमद्भगवद्गीता हि�न्दीभाषाऽऽनुवादसहि�ता 16सोल्�वाँ अध्याय

श्री भगवान बोले:अभयं सत्त्वसं%ुझिHज्ञाUनयोगव्यवस्थिस्थकितः।दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आजUवम्॥१६- १॥

अभय, सत्त्व सं%ुझिH, ज्ञान और कमU योग में स्थिस्थरता, दान, इझिन्द्रयों का दमन, यज्ञ (जैसे प्राणायाम, जप यज्ञ, द्रव्य यज्ञ आदिद), स्वध्याय, तपस्या, सरलता।अतिहंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः %ान्तिन्तरपै%ुनम्।दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मादUवं Øीरचापलम्॥१६- २॥

अतिहंसा (किकसी भी प्राणी की तिहंसा न करना), सत्य, क्रोध न करना, त्याग, मन में %ान्तिन्त होना (दे्वष आदिद न रखना), सभी जीवों पर दया, संसारिरक किवषयों की तरफ उदासीनता, अन्त करण में कोमलता, अकतUव्य करने में लज्जा।

तेजः क्षमा धृकितः %ौचमद्रोहो नाकितमाकिनता।भवन्तिन्त संपदं दैवीमणिभजातस्य भारत॥१६- ३॥

तेज, क्षमा, धृकित (स्थिस्थरता), %ौच (सफाई और %ुHता), अद्रोह (द्रोह - वैर की भावना न रखना), मान की इच्छा न रखना - हे भारत, यह दैवी प्रकृकित में उत्प{ मनुष्य के लक्षण होते हैं।दम्भो दपhऽणिभमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।अज्ञानं चाणिभजातस्य पाथU संपदमासुरीम्॥१६- ४॥

दम्भ (क्रोध अणिभमान), दपU (घमन्ड), क्रोध, कठोरता और अपने बल का दिदखावा करना, तथा अज्ञान - यह असुर प्राकृकित को प्राप्त मनुष्य के लक्षण होते हैं।दैवी संपकिद्वमोक्षाय किनबन्धायासुरी मता।मा %ुचः संपदं दैवीमणिभजातोऽलिस पाण्डव॥१६- ५॥

दैवी प्रकृकित किवमोक्ष में सहायक बनती है, परन्तु आसुरी बुझिH और ज्यादा बन्धन का कारण बनती है। तुम दुखी मत हो क्योंकिक तुम दैवी संपदा को प्राप्त हो हे अजुUन।द्वौ भूतसगè लोकेऽस्मिस्मन्दैव आसुर एव च।दैवो किवस्तर%ः प्रोक्त आसुरं पाथU मे %ृणु॥१६- ६॥

इस संसार में दो प्रकार के जीव हैं - दैवी प्रकृकित वाले और आसुरी प्रकृकित वाले। दैवी स्वभाव के बारे में अब तक किवस्तार से बताया है। अब आसुरी बुझिH के किवषय में सुनो हे पाथU।प्रवृत्तित्तं च किनवृत्तित्तं च जना न किवदुरासुराः।न %ौचं नाकिप चाचारो न सत्यं तेषु किवद्यते॥१६- ७॥

असुर बुझिH वाले मनुष्य प्रवृणित्त और किनवृणित्त को नहीं जानते (अथाUत किकस चीज में प्रवृत्त होना चाकिहये किकस से किनवृत्त होना चाकिहये, उन्हें इसका आभास नहीं)। न उनमें %ौच (%ुHता) होता है, न ही सही आचरण, और न ही सत्य।असत्यमप्रकित�ं ते जगदाहुरनीश्वरम्।अपरस्परसंभूतं किकमन्यत्कामहैतुकम्॥१६- ८॥

उनके अनुसार यह संसार असत्य और प्रकित�ा हीन है (अथाUत इस संसार में कोई दिदखाई देने वाले से बढकर सत्य नहीं है और न ही इसका कोई मूल स्थान है) , न ही उनके अनुसार इस संसार में कोई ईश्वर हैं, केवल परस्पर (न्धिस्त्र पुरुष के) संयोग से ही यह संसार उत्प{ हुआ है, केवल काम भाव ही इस संसार का कारण है।एतां दृधिष्टमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुHयः।प्रभवन्त्युग्रकमाUणः क्षयाय जगतोऽकिहताः॥१६- ९॥

इस दृधिष्ट से इस संसार को देखते, ऐसे अल्प बुझिH मनुष्य अपना ना% कर बैठते हैं और उग्र कम� में प्रवृत्त होकर इस संसार के अकिहत के लिलये ही प्रयत्न करते हैं।काममाणिश्रत्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्तिन्वताः।मोहाद ्गृहीत्वासदग््राहान्प्रवतUन्तेऽ%ुलिचव्रताः॥१६- १०॥

दुलUभ (असंभव) इच्छाओं का आश्रय लिलये, दम्भ (घमन्ड) मान और अपने ही मद में चुर हुये, मोहव% (अज्ञान व%) असद आग्रहों को पकड कर अपकिवत्र (अ%ुलिच) व्रतों में जुटते हैं।लिचन्तामपरिरमेयां च प्रलयान्तामुपाणिश्रताः।कामोपभोगपरमा एतावदिदकित किनणिश्चताः॥१६- ११॥

मृत्यु तक समाप्त न होने वालीं अपार लिचन्ताओं से धिघरे, वे काम उपभोग को ही परम मानते हैं।आ%ापा%%तैबUHाः कामक्रोधपरायणाः।ईहन्ते कामभोगाथUमन्यायेनाथUसञ्चयान्॥१६- १२॥

सैंकडों आ%ाओं के जाल में बंधे, इच्छाओं और क्रोध में डूबे, वे अपनी इच्छाओं और भोगों के लिलये अन्याय से कमाये धन के संचय में लगते हैं।इदमद्य मया लब्धधिममं प्राप्स्ये मनोरथम्।इदमस्तीदमकिप मे भकिवष्यकित पुनधUनम्॥१६- १३॥

'इसे तो हमने आज प्राप्त कर लिलया है, अन्य मनोरथ को भी हम प्राप्त कर लेंगें। इतना हमारे पास है, उस धन भी भकिवष्य में हमारा हो जायेगा'।असौ मया हतः %तु्रहUकिनष्ये चापरानकिप।ईश्वरोऽहमहं भोगी लिसHोऽहं बलवान्सुखी॥१६- १४॥

'इस %त्रु तो हमारे द्वारा मर चुका है, दूसरों को भी हम मार डालेंगें। मैं ईश्वर हूँ (मालिलक हूँ), मैं सुख स±झिH का भोगी हूँ, लिसH हुँ, बलवान हुँ, सुखी हुँ '।आढ्योऽणिभजनवानस्मिस्म कोऽन्योऽस्मिस्त सदृ%ो मया।यक्ष्य ेदास्याधिम मोदिदष्य इत्यज्ञानकिवमोकिहताः॥१६- १५॥

'मेरे समान दूसरा कौन है। हम यज्ञ करेंगें, दान देंगें और मजा उठायेंगें ' - इस प्रकार वे अज्ञान से किवमोकिहत होते हैं।अनेकलिचत्तकिवभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्तिन्त नरकेऽ%ुचौ॥१६- १६॥

उनका लिचत्त अनेकों दिद%ाओं में दौडता हुआ, अज्ञान के जाल से ढका रहता है। इच्छाओं और भोगों से आसक्त लिचत्त, वे अपकिवत्र नरक में किगरते जाते हैं।आत्मसंभाकिवताः स्तब्धा धनमानमदान्तिन्वताः।यजन्ते नामयजै्ञस्ते दमे्भनाकिवधिधपूवUकम्॥१६- १७॥

अपने ही घमन्ड में डूबे, सवयं से सुध बुध खोये, धन और मान से लिचपके, वे केवन ऊपर ऊपर से ही (नाम के लिलये ही) दम्भ और घमन्ड में डूबे अकिवधिध पूणU ढंग से यज्ञ करते हैं।अहंकारं बलं दप| कामं क्रोधं च संणिश्रताः।मामात्मपरदेहेषु प्रकिद्वषन्तोऽभ्यसूयकाः॥१६- १८॥

अहंकार, बल, घमन्ड, काम और क्रोध में डूबे वे सवयं की आत्मा और अन्य जीवों में किवराजमान मु5 से दे्वष करते हैं और मु5 में दोष ढँूडते हैं।तानहं किद्वषतः कु्ररान्संसारेषु नराधमान्।णिक्षपाम्यजस्रम%ुभानासुरीष्वेव योकिनषु॥१६- १९॥

उन दे्वष करने वाले कू्रर, इस संसार में सबसे नीच मनुष्यों को मैं पुनः पुनः असुरी योकिनयों में ही फें कता हुँ।आसुरीं योकिनमाप{ा मूढा जन्मकिन जन्मकिन।मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गकितम्॥१६- २०॥

उन आसुरी योकिनयों को प्राप्त कर, जन्मों ही जन्मों तक वे मूखU मु5े प्राप्त न कर, हे कौन्तेय, किफर और नीच गकितयों को (योकिनयों अथवा नरकों) को प्राप्त करते हैं।कित्रकिवधं नरकस्येदं द्वारं ना%नमात्मनः।कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥१६- २१॥

नरक के तीन द्वार हैं जो आत्मा का ना% करते हैं - काम (इच्छा), क्रोध, तथा लोभ। इसलिलये, इन तीनों का ही त्याग कर देना चाकिहये।एतैर्तिवंमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैन्धिस्त्रणिभनUरः।आचरत्यात्मनः शे्रयस्ततो याकित परां गकितम्॥१६- २२॥

इन तीनों अज्ञान के द्वारों से किवमुक्त होकर मनुष्य अपने श्रेय (भले) के लिलये आचरण करता है, और किफर परम गकित को प्राप्त होता है।यः %ास्त्रकिवधिधमुत्सृज्य वतUते कामकारतः।न स लिसझिHमवाप्नोकित न सुखं न परां गकितम्॥१६- २३॥

जो %ास्त्र में बताये मागU को छोड कर, अपनी इच्छा अनुसार आचरण करता है, न वह लिसझिH प्राप्त करता है, न सुख और न ही परम गकित।तस्माच्छास्तं्र प्रमाणं ते कायाUकायUव्यवस्थिस्थतौ।ज्ञात्वा %ास्त्रकिवधानोकं्त कमU कतुUधिमहाहUलिस॥१६- २४॥

इसलिलये तुम्हारे लिलये %ास्त्र प्रमाण रूप है (%ास्त्र को प्रमाण मानकर) झिजससे तुम जान सकते हो की क्या करने योग्य है और क्या नहीं करने योग्य है। %ास्त्र द्वारा मागU को जान कर किह तुम्हें उसके अनुसार कमU करना चाकिहये।

श्रीमद्भगवद्गीता हि�न्दीभाषाऽऽनुवादसहि�ता 17सतारँ�वा अध्याय

अजुUन बोले:

ये %ास्त्रकिवधिधमुत्सृज्य यजन्ते श्रHयान्तिन्वताः।तेषां किन�ा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः॥१७- १॥

हे कृष्ण। जो लोग %ास्त्र में बताई किवधिध की चिचंता न कर, अपनी श्रHा अनुसार यजन (यज्ञ) करते हैं, उन की किन�ा कैसी ही - सातकिवक, राजलिसक अथवा तामलिसक।

श्री भगवान बोले:

कित्रकिवधा भवकित श्रHा देकिहनां सा स्वभावजा।सास्मित्त्वकी राजसी चैव तामसी चेकित तां %ृणु॥१७- २॥

हे अजुUन। देहधारिरयों की श्रHा उनके स्वभाव के अनुसार तीन प्रकार की होती है - सास्मित्त्वक, राजलिसक और तामलिसक। इस बारे में मु5 से सुनो।सत्त्वानुरूपा सवUस्य श्रHा भवकित भारत।श्रHामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रHः स एव सः॥१७- ३॥

हे भारत, सब की श्रHा उन के अन्तःकरण के अनुसार ही होती है। झिजस पुरुष की जैसी श्रHा होती है, वैसा ही वह स्वयं भी होता है।यजन्ते सास्मित्त्वका देवान्यक्षरक्षांलिस राजसाः।प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः॥१७- ४॥

सातकिवक जन देवताओं को यजते हैं। राजलिसक लोग यक्ष औऱ राक्षसों का अनुसरण करते हैं। तथा तामलिसक लोग भूत पे्रतों की यजना करते हैं।अ%ास्त्रकिवकिहतं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।दम्भाहंकारसंयुक्ताः कामरागबलान्तिन्वताः॥१७- ५॥कषUयन्तः %रीरसं्थ भूतग्राममचेतसः।मां चैवान्तः%रीरसं्थ तान्तिन्वद्ध्यासुरकिनश्चयान्॥१७- ६॥

जो लोग %ास्त्रों में नहीं बताये घोर तप करते हैं, ऐसे दम्भ, अहंकार, काम, राग औऱ बल से चूर अज्ञानी (बुझिH हीन) मनुष्य इस %रीर में स्थिस्थत पाँचों तत्वों को कर्तिषंत करते हैं, साथ में मु5े भी जो उन के %रीर में स्थिस्थत हुँ। ऐसे मनुष्यों को तुम आसुरी किनश्चय (असुर वृ्णित्त) वाले जानो।आहारस्त्वकिप सवUस्य कित्रकिवधो भवकित किप्रयः।यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदधिममं %ृणु॥१७- ७॥

प्राणिणयों को जो आहार किप्रय होता है वह भी तीन प्रकार का होता है। वैसे ही यज्ञ, तप तथा दानसभी - ये सभी भी तीन प्रकार के होते हैं। इन का भेद तुम मु5 से सुनो।आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीकितकिववधUनाः।रस्याः न्धिस्नग्धाः स्थिस्थरा हृद्या आहाराः सास्मित्त्वककिप्रयाः॥१७- ८॥

जो आहार आयु बढाने वाला, बल तथा तेज में वृझिH करने वाला, आरोग्य प्रदान करने वाला, सुख तथा प्रीकित बढाने वाला, रसमयी, न्धिस्नग्ध (कोमल आदिद), हृदय की स्थिस्थरता बढाने वाला होता है - ऐसा आहार सातकिवक लोगों को किप्रय होता है।

कट् वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षकिवदाकिहनः।आहारा राजसस्येष्टा दुःख%ोकामयप्रदाः॥१७- ९॥

कटु (कडवा), खट्टा, ज्यादा नमकीन, अकित तीक्षण (तीखा), रूखा या कष्ट देने वाला - ऐसा आहार जो दुख, %ोक और राग उत्प{ करने वाला है वह राजलिसक मनुष्यों को भाता है।यातयामं गतरसं पूकित पयुUकिषतं च यत्।उस्थिच्छष्टमकिप चामेध्यं भोजनं तामसकिप्रयम्॥१७- १०॥

जो आहार आधा पका हो, रस रकिहत हो गया हो, बासा, दुगUन्धिन्धत, गन्दा या अपकिवत्र हो - वैसा तामलिसक जनों को किप्रय लगता है।अफलाकाङ्णिक्षणिभयUज्ञो किवधिधदृष्टो य इज्यते।यष्टव्यमेवेकित मनः समाधाय स सास्मित्त्वकः॥१७- ११॥

जो यज्ञ फल की कामना किकये किबना, यज्ञ किवधिध अनुसार किकया जाये, यज्ञ करना कतUव्य है - मन में यह किबठा कर किकया जाये वह सास्मित्त्वक है।अणिभसंधाय तु फलं दम्भाथUमकिप चैव यत्।इज्यते भरतश्रे� तं यजं्ञ किवझिH राजसम्॥१७- १२॥

जो यज्ञ फल की कामना से, और दम्भ (दिदखावे आदिद) के लिलये किकया जाये, हे भारत श्रे�, ऐसे यज्ञ को तुम राजलिसक जानो।किवधिधहीनमसृष्टा{ं मन्त्रहीनमदणिक्षणम्।श्रHाकिवरकिहतं यजं्ञ तामसं परिरचक्षते॥१७- १३॥

जो यज्ञ किवधिध हीन ढंग से किकया जाये, अ{ दान रकिहत हो, मन्त्रहीन हो, झिजसमें कोई दणिक्षणा न हो, श्रHा रकिहत हो - ऐसे यज्ञ को तामलिसक यज्ञ कहा जाता है।देवकिद्वजगुरुप्राज्ञपूजनं %ौचमाजUवम्।ब्रह्मचयUमतिहंसा च %ारीरं तप उच्यते॥१७- १४॥

देवताओं, ब्राह्मण, गुरु और बुझिHमान ज्ञानी लोगों की पूजा, %ौच (सफाई, पकिवत्रता), सरलता, ब्रह्मचायU, अतिहंसा - यह सब %रीर की तपस्या बताये जाते हैं।अनुदे्वगकरं वाक्यं सत्य ंकिप्रयकिहतं च यत्।स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥१७- १५॥

उदे्वग न पहुँचाने वाले सत्य वाक्य जो सुनने में किप्रय और किहतकारी हों - ऐसे वाक्य बोलना, %ास्त्रों का स्वध्याय तथा अभ्यास ये वाणी की तपस्या बताये जाते है।मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मकिवकिनग्रहः।भावसं%ुझिHरिरत्येतत्तपो मानसमुच्यते॥१७- १६॥

मन में %ान्तिन्त (से उत्प{ हुई प्रस{ता), सौम्यता, मौन, आत्म संयम, भावों (अन्तःकरण) की %ुझिH - ये सब मन की तपस्या बताये जाते हैं।श्रHया परया तप्तं तपस्तन्धित्त्रकिवधं नरैः।अफलाकाङ्णिक्षणिभयुUकै्तः सास्मित्त्वकं परिरचक्षते॥१७- १७॥

मनुष्य झिजस श्रHा से तपस्य करता है, वह भी तीन प्रकार की है। सातकिवक तपस्या वह है जो फल की कामना से मुक्त होकर की जाती है।सत्कारमानपूजाथ| तपो दमे्भन चैव यत्।किक्रयते तदिदह प्रोकं्त राजसं चलमधु्रवम्॥१७- १८॥

जो तपस्या सत्कार, मान तथा पूज ेजाने के लिलये की जाती है, या दिदखावे अथवा पाखण्ड से की जाती है, ऐसी अस्थिस्थर और अध्रुव (झिजस का असकितत्व स्थिस्थर न हो) तपस्या को राजलिसक कहा जाता है।मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया किक्रयते तपः।परस्योत्सादनाथ| वा तत्तामसमुदाहृतम्॥१७- १९॥

वह तप जो मूखU आग्रह कारण (गलत धारणा के कारण) और स्वयं को पीडा पहुँचाने वाला अथवा दूसरों को कष्ट पहुँचाने हेतु किकया जाये, ऐसा तप तामलिसक कहा जाता है।दातव्यधिमकित यद्दानं दीयतेऽनुपकारिरणे।दे%े काले च पाते्र च तद्दानं सास्मित्त्वकं स्मृतम्॥१७- २०॥

जो दान यह मान कर दिदया जाये की दान देना कतUव्य है, न किक उपकार करने के लिलये, और सही स्थान पर, सही समय पर उलिचत पात्र (झिजसे दान देना चाकिहये) को दिदया जाये, उस दान को सान्तित्वक दान कहा जाता है।यतु्त प्रत्युपकाराथ| फलमुदिद्दश्य वा पुनः।दीयते च परिरस्थिक्लष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्॥१७- २१॥

जो दान उपकार हेतु, या पुनः फल की कामना से दिदया जाये, या कष्ट भरे मन से दिदया जाये उसे राजलिसक कहा जाता है।अदे%काले यद्दानमपाते्रभ्यश्च दीयते।असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥१७- २२॥

परन्तु जो दान गलत स्थान पर या गलत समय पर, अनुलिचत पात्र को दिदया जाये, या किबना सत्कार अथवा कितरस्कार के दिदया जाये, उसे तामलिसक दान कहा जायेगा।ॐतत्सदिदकित किनद�%ो ब्रह्मणन्धिस्त्रकिवधः स्मृतः।ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च किवकिहताः पुरा॥१७- २३॥

ॐ तत सत् - इस प्रकार ब्रह्म का तीन प्रकार का किनद�% कहा गया है। उसी से पुरातन काल में ब्राह्मणों, वेदों और यज्ञों का किवधान हुआ है।

तस्मादोधिमत्युदाहृत्य यज्ञदानतपःकिक्रयाः।प्रवतUन्ते किवधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिदनाम्॥१७- २४॥

इसलिलये ब्रह्मवादिद %ास्त्रों में बताई किवधिध द्वारा सदा ॐ के उच्चारण द्वारा यज्ञ, दान और तप किक्रयायें आरम्भ करते हैं।तदिदत्यनणिभसन्धाय फलं यज्ञतपःकिक्रयाः।दानकिक्रयाश्च किवकिवधाः किक्रयन्ते मोक्षकाङ्णिक्षणिभः॥१७- २५॥

और मोक्ष की कामना करने वाले मनुष्य "तत" कह कर फल की इच्छा त्याग कर यज्ञ, तप औऱ दान किक्रयायें करते हैं। (तत अथाUत वह)

सद्भावे साधुभावे च सदिदत्येतत्प्रयुज्यते।प्र%स्ते कमUणिण तथा सच्छब्दः पाथU युज्यते॥१७- २६॥

हे पाथU, सद-भाव (सत भाव) तथा साधु भाव में सत %ब्द का प्रयोग किकया जाता है। उसी प्रकार प्र%ंसनीय कायU में भी 'सत' %ब्द प्रयुक्त होता है।यजे्ञ तपलिस दाने च स्थिस्थकितः सदिदकित चोच्यते।कमU चैव तदथ¢यं सदिदत्येवाणिभधीयते॥१७- २७॥

यज्ञ, तप तथा दान में स्थिस्थर होने को भी सत कहा जाता है। तथा भगवान के लिलये ही कमU करने को भी 'सत' कहा जाता है।अश्रHया हुतं दतं्त तपस्तप्तं कृतं च यत्।असदिदत्युच्यते पाथU न च तत्प्रेत्य नो इह॥१७- २८॥

जो भी यज्ञ, दान, तपस्या या कायU श्रHा किबना किकया जाये, हे पाथU उसे 'असत्' कहा जाता है, न उस से यहाँ कोई लाभ होता है, और न ही आगे।

श्रीमद्भगवद्गीता हि�न्दीभाषाऽऽनुवादसहि�ता 18अ0ार�ँवा अध्याय

अजुUन बोले:संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वधिमच्छाधिम वेदिदतुम्।त्यागस्य च हृषीके% पृथक्केलि%किनषूदन॥१८- १॥

हे महाबाहो, हे हृषीके%, हे केलि%किनषूदन, मैं संन्यास और त्याग (कमU योग) के सार को अलग अलग जानना चाहता हूँ।

श्री भगवान बोले:

काम्यानां कमUणां न्यासं संन्यासं कवयो किवदुः।सवUकमUफलत्यागं प्राहुस्त्यागं किवचक्षणाः॥१८- २॥

बुझिHमान ज्ञानी जन कामनाओं से उत्प{ हुये कम� के त्याग को सन्यास सम5ते हैं और सभी कम� के फलों के त्याग को बुझिHमान लोग त्याग (कमU योग) कहते हैं।त्याज्यं दोषवदिदत्येके कमU प्राहुमUनीकिषणः।यज्ञदानतपःकमU न त्याज्यधिमकित चापरे॥१८- ३॥

कुछ मुकिन जन कहते हैं की सभी कमU दोषमयी होने के कारण त्यागने योग्य हैं। दूसरे कहते हैं की यज्ञ, दान और तप कम� का त्याग नहीं करना चाकिहये।किनश्चयं %ृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम।त्यागो किह पुरुषव्याघ्र कित्रकिवधः संप्रकीर्तितंतः॥१८- ४॥

कम� के त्याग के किवषय में तुम मेरा किनश्चय सुनो हे भरतसत्तम। हे पुरुषव्याघ्र, त्याग को तीन प्रकार का बताया गया है।यज्ञदानतपःकमU न त्याज्यं कायUमेव तत्।यज्ञो दानं तपशै्चव पावनाकिन मनीकिषणाम्॥१८- ५॥

यज्ञ, दान और तप कम� का त्याग करना उलिचत नहीं है - इन्हें करना चाकिहये। यज्ञ, दान और तप मुकिनयों को पकिवत्र करते हैं।एतान्यकिप तु कमाUणिण सङं्ग त्यक्त्वा फलाकिन च।कतUव्यानीकित मे पाथU किनणिश्चतं मतमुत्तमम्॥१८- ६॥

परन्तु ये कमU (यज्ञ दान तप कमU) भी संग त्याग कर तथा फल की इच्छा त्याग कर करने चाकिहये, केवल अपना कतUव्य जान कर। यह मेरा उत्तम किनश्चय है।किनयतस्य तु संन्यासः कमUणो नोपपद्यते।मोहात्तस्य परिरत्यागस्तामसः परिरकीर्तिततंः॥१८- ७॥

किनयत कमU का त्याग करना उलिचत नहीं हैं। मोह के कारण कतUव्य कमU का त्याग करना तामलिसक कहा जाता है।दुःखधिमत्येव यत्कमU कायक्ले%भयात्त्यजेत्।स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्॥१८- ८॥

%रीर को कष्ट देने के भय से कमU को दुख मानते हुये उसे त्याग देने से मनुष्य को उस त्याग का फल प्राप्त नहीं होता। ऐसे त्याग को राजलिसक त्याग कहा जाता है।कायUधिमत्येव यत्कमU किनयतं किक्रयतेऽजुUन।सङं्ग त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सास्मित्त्वको मतः॥१८- ९॥

हे अजुUन, झिजस किनयत कायU को कतUव्य सम5 कर किकया जाये, संग को त्याग कर तथा फल को मन से त्याग कर, ऐसे त्याग को सातकिवक माना जाता है।

न दे्वष्ट्यकु%लं कमU कु%ले नानुषज्जते।त्यागी सत्त्वसमाकिवष्टो मेधावी लिछ{सं%यः॥१८- १०॥

जो मनुष्य न अकु%ल कमU से दे्वष करता है और न ही कु%ल कमU के प्रकित खिखचता है (अथाUत न लाभदायक फल की इच्छा करता है और न अलाभ के प्रकित दे्वष करता है), ऐसा त्यागी मनुष्य सत्त्व में समाकिहत है, मेधावी (बुझिHमान) है और सं%य हीन है।न किह देहभृता %क्यं त्यकंु्त कमाUण्य%ेषतः।यस्तु कमUफलत्यागी स त्यागीत्यणिभधीयते॥१८- ११॥

देहधारीयों के लिलये समस्त कम� का त्याग करना सम्भव नहीं है। परन्तु जो कम� के फलों का त्याग करता है, वही वास्तव में त्यागी है।अकिनष्टधिमषं्ट धिमशं्र च कित्रकिवधं कमUणः फलम्।भवत्यत्याकिगनां प्रेत्य न तु संन्यालिसनां क्वलिचत्॥१८- १२॥

कमU का तीन प्रकार का फल हो सकता है - अकिनष्ट (बुरा), इष्ट (अच्छा अथवा किप्रय) और धिमला-जुला (दोनों)। जन्होंने कमU के फलों का त्याग नहीं किकया, उन्हें वे फल मृत्यु के पश्चात भी प्राप्त होते हैं, परन्तु उन्हें कभी नहीं झिजन्होंने उन का त्याग कर दिदया है।पञ्चैताकिन महाबाहो कारणाकिन किनबोध मे।सांख्ये कृतान्ते प्रोक्ताकिन लिसHये सवUकमUणाम्॥१८- १३॥

हे महाबाहो, सभी कम� के लिसH होने के पीछे पाँच कारण साँख्य लिसHांत में बताये गये हैं। उनका तुम मु5 से ज्ञान लो।अधिध�ानं तथा कताU करणं च पृथखिग्वधम्।किवकिवधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्॥१८- १४॥

ये पाँच हैं - अधिध�ान, कताU, किवकिवध प्रकार के करण, किवकिवध प्रकार की चेष्टायें तथा देव।%रीरवाङ् मनोणिभयUत्कमU प्रारभते नरः।न्याय्यं वा किवपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः॥१८- १५॥

मनुष्य अपने %रीर, वाणी अथवा मन से जो भी कमU का आरम्भ करता है, चाहे वह न्याय पूणU हो या उसके किवपरीत, यह पाँच उस कमU के हेतु (कारण) होते हैं।ततै्रवं सकित कताUरमात्मानं केवलं तु यः।पश्यत्यकृतबुझिHत्वा{ स पश्यकित दुमUकितः॥१८- १६॥

जो मनुष्य अ%ुH बुझिH द्वारा केवल अपने आत्म को ही कताU देखता है (कमU करने का एक मात्र कारण), वह दुमUकित सत्य नहीं देखता।यस्य नाहंकृतो भावो बुझिHयUस्य न लिलप्यते।हत्वाकिप स इमाँल्लोका{ हन्तिन्त न किनबध्यते॥१८- १७॥

झिजस में यह भाव नहीं है की 'मैंने किकया है' और झिजस की बुझिH लिलकिप नहीं है (%ुH है), वह इस संसार में (किकसी जीव को) मार कर भी नहीं मारता और न ही (कमU फल में) बँधता है।ज्ञानं जे्ञयं परिरज्ञाता कित्रकिवधा कमUचोदना।करणं कमU कत�कित कित्रकिवधः कमUसंग्रहः॥१८- १८॥

ज्ञान, ज्ञेय (जाने जाने योग्य) औऱ परिरज्ञाता - ये कमU में पे्ररिरत करते हैं, और करण, कमU और कताU - यह कमU के संग्रह (किनवास स्थान) हैं।ज्ञानं कमU च कताU च कित्रधैव गुणभेदतः।प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावचृ्छणु तान्यकिप॥१८- १९॥

ज्ञान (कोई जानकारी), कमU और कताU भी साँख्य लिसHांत में गुणों के अनुसार तीन प्रकार के बताये गये हैं। उन का भी तुम मु5से यथावत श्रवण करो।सवUभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।अकिवभकं्त किवभके्तषु तज्ज्ञानं किवझिH सास्मित्त्वकम्॥१८- २०॥

झिजस ज्ञान द्वारा मनुष्य सभी जीवों में एक ही अव्यय भाव (परमेश्वर) को देखता है, एक ही अकिवभक्त (जो बाँटा हुआ नहीं है) को किवणिभ{ किवणिभ{ रूपों में देखता है, उस ज्ञान को तुम सान्तित्वक जानो।पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथखिग्वधान्।वेणित्त सव�षु भूतेषु तज्ज्ञानं किवझिH राजसम्॥१८- २१॥

झिजस ज्ञान द्वारा मनुष्य सभी जीवों को अलग अलग किवणिभ{ प्रकार का देखता है, उस ज्ञान दृधिष्ट को तुम राजलिसक जानो।यतु्त कृत्स्नवदेकस्मिस्मन्काय� सक्तमहैतुकम्।अतत्त्वाथUवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्॥१८- २२॥

और झिजस ज्ञान से मनुष्य एक ही व्यथU कायU से जुड जाता है मानो वही सब कुछ हो, वह तत्वहीन, अल्प (छोटे) ज्ञान को तुम तामलिसक जानो।किनयतं सङ्गरकिहतमरागदे्वषतः कृतम्।अफलप्रेप्सुना कमU यत्तत्सास्मित्त्वकमुच्यते॥१८- २३॥

जो कमU किनयत है (कतUव्य है), उसे संग रकिहत और किबना राग दे्वष के किकया गया है, झिजसे फल की इच्छा नहीं रख कर किकया गया है, उस कमU को सान्तित्वक कहा जाता है।यतु्त कामेप्सुना कमU साहंकारेण वा पुनः।किक्रयते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्॥१८- २४॥

जो कमU बहुत परिरश्रम से फल की कामना करते हुये किकया गया है, अहंकार युक्त पुरुष द्वारा किकया गया है, वह कमU राजलिसक है।

अनुबनं्ध क्षय ंतिहंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्।मोहादारभ्यते कमU यत्तत्तामसमुच्यते॥१८- २५॥

जो कमU सामथUय का, परिरणाम का, हाकिन और तिहंसा का ध्यान न करते हुये मोह द्वारा आरम्भ किकया गया है, जो कमU तामलिसक कहलाता है।मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्तिन्वतः।लिसद्ध्यलिसद्ध्योर्तिनरं्तिवंकारः कताU सास्मित्त्वक उच्यते॥१८- २६॥

जो कताU संग मुक्त है, 'अहम' वादी नहीं है, धृकित (स्थिस्थरता) और उत्साह पूणU है, तथा कायU के लिसH और न लिसH होने में एक सा है (अथाUत फल से झिजसे कोई मतलब नहीं), ऐसे कताU को सान्तित्वक कहा जाता है।रागी कमUफलप्रेप्सुलुUब्धो तिहंसात्मकोऽ%ुलिचः।हषU%ोकान्तिन्वतः कताU राजसः परिरकीर्तिततंः॥१८- २७॥

जो कताU रागी होता है, अपने किकये काम के फल के प्रकित इच्छा और लोभ रखता है, तिहंसात्मक और अपकिवत्र वृणित्त वाला होता है, तथा (कमU के लिसH होने या न होने पर) प्रस{ता और %ोक ग्रस्त होता है, उसे राजलिसक कहा जाता है।अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः %ठो नैष्कृकितकोऽलसः।किवषादी दीघUसूत्री च कताU तामस उच्यते॥१८- २८॥

जो कताU अयुक्त (कमU भावना का न होना, सही चेतना न होना) हो, स्तब्ध हो, आलसी हो, किवषादी तथा दीघU सूत्री हो (लम्बा खीचने वाला हो) (झिजसकी कमU न करने में ही रुची हो तथा आलस से भरा हो) - ऐसे कताU को तामलिसक कहते हैं।बुHेभ�दं धृतेश्चैव गुणतन्धिस्त्रकिवधं %ृणु।प्रोच्यमानम%ेषेण पृथक्त्वेन धनंजय॥१८- २९॥

हे धनंजय, अब तुम अ%ेष रूप से अलग अलग बुझिH तथा धृकित (स्थिस्थरता) के भी तीनों गुणों के अनुसार जो भेद हैं, वे सुनो।प्रवृत्तित्तं च किनवृत्तित्तं च कायाUकाय� भयाभये।बनं्ध मोकं्ष च या वेणित्त बुझिHः सा पाथU सास्मित्त्वकी॥१८- ३०॥

प्रवृणित्त (किकसी भी चीज़ या कमU में लगना) और किनवृणित्त (किकसी भी चीज़ या कमU से मानलिसक छुटकारा पाना) क्या है (तथा किकस चीज में प्रवृत्त होना चाकिहये और किकस से किनवृत्त होना चाकिहये), कायU क्या है, और अकायU (कायU न करना) क्या है, भय क्या है और अभय क्या है, किकस से बन्धन उत्प{ होता है, और किकस से मोक्ष उत्प{ होता है - जो बुझिH इन सब को जानती है (इनका भेद देखती है), हे पाथU वह बुझिH सास्मित्त्वकहै।यया धमUमधम| च काय| चाकायUमेव च।अयथावत्प्रजानाकित बुझिHः सा पाथU राजसी॥१८- ३१॥

हे पाथU, झिजस बुझिH द्वारा मनुष्य अपने धमU (कतUव्य) और अधमU को, तथा कायU (जो करना चाकिहये) और अकायU को सार से नहीं जानता, वह बुझिH राजलिसक है।

अधम| धमUधिमकित या मन्यते तमसावृता।सवाUथाUन्तिन्वपरीतांश्च बुझिHः सा पाथU तामसी॥१८- ३२॥

हे पाथU, झिजस बुझिH से मनुष्य अधमU को ही धमU मानता है, अंधकार से ठकी झिजस बुझिH द्वारा मनुष्य सभी किहतकारी गुणों अथवा कतUव्यों को किवपरीत ही देखता है, वह बुझिH तामलिसक है।धृत्या यया धारयते मनःप्राणेझिन्द्रयकिक्रयाः।योगेनाव्यणिभचारिरण्या धृकितः सा पाथU सास्मित्त्वकी॥१८- ३३॥

हे पाथU, झिजस धृकित (मानलिसक स्थिस्थरता) द्वारा मनुष्य अपने प्राण और इझिन्द्रयों की किक्रयाओं को किनयधिमत करता है, तथा उन्हें किनत्य योग साधना में प्रकिवष्ट करता है, ऐसी धृकित सातकिवक है।यया तु धमUकामाथाUनृ्धत्या धारयतेऽजुUन।प्रसङे्गन फलाकाङ्क्षी धृकितः सा पाथU राजसी॥१८- ३४॥

हे अजुUन, जब मनुष्य फलों की इच्छा रखते हुये, अपने (स्वाथU हेतु) धमU, इच्छा और धन की प्रान्तिप्त के लिलये कम� तथा चेष्टाओं में प्रवृत्त रहता है, वह धर्तितं राजलिसक है हे पाथU।यया स्वप्नं भयं %ोकं किवषादं मदमेव च।न किवमुञ्चकित दुम�धा धृकितः सा पाथU तामसी॥१८- ३५॥

हे पाथU, झिजस दुबुUझिH भरी धृकित के कारण मनुष्य स्वप्न (किनद्रा), भय, %ोक, किवषाद, मद (मूखUता) को नहीं त्यागता, वह तामलिसक है।सुखं न्तित्वदानीं कित्रकिवधं %ृणु मे भरतषUभ।अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च किनगच्छकित॥१८- ३६॥यत्तदगे्र किवषधिमव परिरणामेऽमृतोपमम्।तत्सुखं सास्मित्त्वकं प्रोक्तमात्मबुझिHप्रसादजम्॥१८- ३७॥

उसी प्रकार, हे भरतषUभ, तुम मु5 से तीन प्रकार के सुख के किवषय में भी सुनो। वह सुख जो (योग) अभ्यास द्वारा प्राप्त होता है, तथा झिजस से मनुष्य को दुखों का अन्त प्राप्त होता है, जो %ुरु में तो किवष के समान प्रतीत होता है (किप्रय नहीं लगता), परन्तु उस का परिरणाम अमृत समान होता है (किप्रय लगता है), उस स्वयं की बुझिH की प्रस{ता (सुख) से प्राप्त होने वाले सुख को सान्तित्वक कहा जाता है।किवषयेझिन्द्रयसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।परिरणामे किवषधिमव तत्सुखं राजसं स्मृतम्॥१८- ३८॥

जो सुख भावना किवषयों की इझिन्द्रयों के संयोग से प्राप्त होती है (जैसी स्वादिदष्ट भोजन आदिद), जो %ुरु में तो अमृत समान प्रतीत होता है, परन्तु उसका परिरणाम किवष जैसा होता है, उस सुख को तुम राजलिसक जानो।यदगे्र चानुबने्ध च सुखं मोहनमात्मनः।किनद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्॥१८- ३९॥

जो सुख %ुरु में तथा अन्त में भी आत्मा को मोकिहत करता है, किनद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्प{ होने वाले ऐसी सुख भावना को तामलिसक कहा जाता है।

न तदस्मिस्त पृलिथव्यां वा दिदकिव देवेषु वा पुनः।सत्त्वं प्रकृकितजैमुUकं्त यदेणिभः स्यान्धित्त्रणिभगुUणैः॥१८- ४०॥

ऐसा कोई भी जीव नहीं है, न इस पृथकिव पर और न ही दिदव्य लोक के देवताओं में, जो प्रकृकित से उत्प{ हुये इन तीन गुणों से मुक्त हो।ब्राह्मणक्षकित्रयकिव%ां %ूद्राणां च परन्तप।कमाUणिण प्रकिवभक्ताकिन स्वभावप्रभवैगुUणैः॥१८- ४१॥

हे परन्तप, ब्राह्मणों, क्षकित्रयों, वैश्यों और %ूद्रों के कमU उन के स्वभाव से उत्प{ गुणों के अनुसार ही किवभक्त किकये गये हैं।%मो दमस्तपः %ौचं क्षान्तिन्तराजUवमेव च।ज्ञानं किवज्ञानमास्मिस्तक्य ंब्रह्मकमU स्वभावजम्॥१८- ४२॥

मानलिसक %ान्तिन्त, संयम, तपस्या, पकिवत्रता, %ान्तिन्त, सरलता, ज्ञान तथा अनुभव - यह सब ब्राह्मण के स्वभाव से ही उत्प{ कमU हैं।%ौय| तेजो धृकितदाUक्ष्यं युHे चाप्यपलायनम्।दानमीश्वरभावश्च क्षातं्र कमU स्वभावजम्॥१८- ४३॥

%ौयU, तेज, स्थिस्थरता, दक्षता, युH में पीठ न दिदखाना, दान, स्वामी भाव - यह सब एक क्षत्रीय के स्वभाकिवक कमU हैं।कृकिषगौरक्ष्यवाणिणज्य ंवैश्यकमU स्वभावजम्।परिरचयाUत्मकं कमU %ूद्रस्याकिप स्वभावजम्॥१८- ४४॥

कृकिष, गौ रक्षा, वाणिणज्य - यह वैश्य के स्वभाव से उत्प{ कमU हैं। परिरचयU - यह %ूद्र के स्वाणिभक कमU हैं।स्वे स्वे कमUण्यणिभरतः संलिसद्धिHं लभते नरः।स्वकमUकिनरतः लिसद्धिHं यथा किवन्दकित तचृ्छणु॥१८- ४५॥

अपने अपने (स्वभाव से उत्प{) कम� का पालन करते हुये मनुष्य लिसझिH (सफलता) को प्राप्त करता है। मनुष्य वह लिसझिH लाभ कैसे प्राप्त करता है - वह तुम सुनो।यतः प्रवृणित्तभूUतानां येन सवUधिमदं ततम्।स्वकमUणा तमभ्यच्यU लिसद्धिHं किवन्दकित मानवः॥१८- ४६॥

झिजन (परमात्मा) से यह सभी जीव प्रवृत्त हुये हैं (उत्प{ हुये हैं), झिजन से यह संपूणU संसार व्याप्त है, उन परमात्मा की अपने कमU करने द्वारा अचUना कर, मनुष्य लिसझिH को प्राप्त कर लेता है।शे्रयान्स्वधमh किवगुणः परधमाUत्स्वनुधि�तात्।स्वभावकिनयतं कमU कुवU{ाप्नोकित किकस्थिल्बषम्॥१८- ४७॥

दूसरे का गुण संप{ धमU के बराबर अपना धमU (कतUव्य, कमU) ही श्रेय है (बेहतर है), भले ही उस में कोई गुण न हों, क्योंकिक अपने स्वभाव द्वारा किनयत कमU करते हुये मनुष्य पाप प्राप्त नहीं करता।

सहजं कमU कौन्तेय सदोषमकिप न त्यजेत्।सवाUरम्भा किह दोषेण धूमेनाखिग्नरिरवावृताः॥१८- ४८॥

हे कौन्तेय, अपने जन्म से उत्प{ (स्वभाकिवक) कमU को उसमें दोष होने पर भी नहीं त्यागना चाकिहये, क्योंकिक सभी आरम्भों में (कम� में) ही कोई न कोई दोष होता है, जैसे अखिग्न धूँयें से ठकी होती है।असक्तबुझिHः सवUत्र झिजतात्मा किवगतसृ्पहः।नैष्कम्यUलिसद्धिHं परमां संन्यासेनाधिधगच्छकित॥१८- ४९॥

हर जगह असक्त (संग रकिहत) बुझिH मनुष्य झिजसने अपने आप पर जीत पा ली है, हलचल (सृ्पह) मुक्त है, ऐसा मनुष्य सन्यास (मन से इच्छा कम� के त्याग) द्वारा नैष्कमU लिसझिH को प्राप्त होता है।लिसद्धिHं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोकित किनबोध मे।समासेनैव कौन्तेय किन�ा ज्ञानस्य या परा॥१८- ५०॥

इस प्रकार लिसझिH प्राप्त किकया मनुष्य किकस प्रकार ब्रह्म को प्राप्त करता है, तथा उसके ज्ञान की क्या किन�ा होती है वह तुम मु5 से संके्षप में सुनो।बुद्ध्या किव%ुद्ध्या युक्तो धृत्यात्मानं किनयम्य च।%ब्दादीन्तिन्वषयांस्त्यक्त्वा रागदे्वषौ वु्यदस्य च॥१८- ५१॥किवकिवक्तसेवी लघ्वा%ी यतवाक्कायमानसः।ध्यानयोगपरो किनत्यं वैराग्यं समुपाणिश्रतः॥१८- ५२॥अहंकारं बलं दप| कामं क्रोधं परिरग्रहम्।किवमुच्य किनमUमः %ान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥१८- ५३॥

पकिवत्र बुझिH से युक्त, अपने आत्म को स्थिस्थरता से किनयधिमत कर, %ब्द आदिद किवषयों को त्याग कर, तथा राग-दे्वष आदिद को छोड कर, एकेले स्थान पर किनवास करते हुये, किनयधिमत आहार करते हुये, अपने %रीर, वाणी और मन को योग में प्रकिवष्ट करते हुये वह योगी किनत्य ध्यान योग में लगा, वैराग्य पर आणिश्रत रहता है। तथा अहंकार, बल, घमन्ड, इच्छा, क्रोध और घर संपणित्त आदिद को मन से त्याग कर, 'मैं' भाव से मुक्त हो %ान्तिन्त को प्राप्त करता है और ब्रह्म प्रान्तिप्त का पात्र बनता है।ब्रह्मभूतः प्रस{ात्मा न %ोचकित न काङ्क्षकित।समः सव�षु भूतेषु मद्भचिक्तं लभते पराम्॥१८- ५४॥

ब्रह्म के साथ एक हो जाने पर, वह प्रस{ आत्मा, न %ोक करता है न इच्छा करता है। सभी जीवों के प्रकित एक सा हो कर, वह मेरी परम भलिक्त प्राप्त करता है।भक्त्या मामणिभजानाकित यावान्यश्चास्मिस्म तत्त्वतः।ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा किव%ते तदनन्तरम्॥१८- ५५॥

उस भलिक्त द्वारा वह मु5े पूणUत्या, झिजतना मैं हुँ, सार तक मु5े जान लेता है। और मु5े सार तक जान लेने पर मु5 में ही प्रवे% कर जाता है (मु5 में एक हो जाता है)।सवUकमाUण्यकिप सदा कुवाUणो मद्व्यपाश्रयः।मत्प्रसादादवाप्नोकित %ाश्वतं पदमव्ययम्॥१८- ५६॥

सभी कम� के सदा मेरा ही आश्रय लेकर करो। मेरी कृपा से तुम उस अव्यय %ाश्वत पद को प्राप्त कर लोगे।

चेतसा सवUकमाUणिण मधिय संन्यस्य मत्परः।बुझिHयोगमुपाणिश्रत्य मस्थिच्चत्तः सततं भव॥१८- ५७॥

सभी कम� को अपने लिचत्त से मु5 पर त्याग दो (उन के फलों को मु5 पर छोड दो, और कम� को मेरे हवाले करते केवल मेरे लिलये करो)। सदी इसी बुझिH योग का आश्रय लेते हुये, सदा मेरे ही लिचत्त वाले बनो।मस्थिच्चत्तः सवUदुगाUणिण मत्प्रसादात्तरिरष्यलिस।अथ चेत्त्वमहंकारा{ श्रोष्यलिस किवनङ्क्ष्यलिस॥१८- ५८॥

मु5 में ही लिचत्त रख कर, तुम मेरी कृसा से सभी कदिठनाईयों को पार कर जाओगे। परन्तु यदिद तुम अहंकार व% मेरी आज्ञा नहीं सुनोगे तो किवना% को प्राप्त होगे।यदहंकारमाणिश्रत्य न योत्स्य इकित मन्यसे।धिमर्थ्यंयैष व्यवसायस्ते प्रकृकितस्त्वां किनयोक्ष्यकित॥१८- ५९॥

यदिद तुम अहंकार व% (अहंकार का आश्रय लिलये) यह मानते हो किक तुम युH नहीं करोगे, तो तुम्हारा यह व्यवसाय (धारणा) धिमर्थ्यंया है, क्योंकिक तुम्हारी प्रकृकित तुम्हें (युH में) किनयोझिजत कर देगी।स्वभावजेन कौन्तेय किनबHः स्वेन कमUणा।कतु| नेच्छलिस यन्मोहात्करिरष्यस्यव%ोऽकिप तत्॥१८- ६०॥

हे कौन्तेय, सभी अपने स्वभाव के कारण अपने कम� से बंधे हुये हैं। झिजसे तुम मोह के कारण नहीं करना चाहते, उसे तुम किवव% होकर किफर भी करोगे।ईश्वरः सवUभूतानां हृदे्द%ेऽजुUन कित�कित।भ्रामयन्सवUभूताकिन यन्त्रारूढाकिन मायया॥१८- ६१॥

हे अजुUन, ईश्वर सभी प्राणिणयों के हृदय में किवराजमान हैं और अपनी माया द्वारा सभी जीवों को भ्रधिमत कर रहे हैं, मानो वे (प्राणी) किकसी यन्त्र पर बैठे हों।तमेव %रणं गच्छ सवUभावेन भारत।तत्प्रसादात्परां %ान्तिन्तं स्थानं प्राप्स्यलिस %ाश्वतम्॥१८- ६२॥

उन्हीं की %रण में तुम संपूणU भावना से जाओ, हे भारत। उन्हीं की कृपा से तुम्हें परम %ान्तिन्त और %ाश्वत स्थान प्राप्त होगा।इकित ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद ्गुह्यतरं मया।किवमृश्यैतद%ेषेण यथेच्छलिस तथा कुरु॥१८- ६३॥

इस प्रकार मैंने तुम्हें गुह्य से भी गूह्य इस ज्ञान का वणUन किकया। इस पर पूणUत्या किवचार करके जैसी त्ुम्हारी इच्छा हो करो।सवUगुह्यतमं भूयः %ृणु मे परमं वचः।इष्टोऽलिस मे दृढधिमकित ततो वक्ष्याधिम ते किहतम्॥१८- ६४॥

तुम एक बार किफर से सबसे ज्यादा रहस्यमयी मेरे परम वचन सुनो। तुम मु5े बहुत किप्रय हो, इसलिलये मैं तुम्हारे किहत के लिलये तुम्हें बताता हूँ।मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।मामेवैष्यलिस सत्यं ते प्रकितजाने किप्रयोऽलिस मे॥१८- ६५॥

मेरे मन वाले बनो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करने वाले बनो, मु5े नमस्कार करो। इस प्रकार तुम मु5े ही प्राप्त करोगे, मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकिक तुम मु5े किप्रय हो।सवUधमाUन्परिरत्यज्य मामेकं %रणं व्रज।अहं त्वां सवUपापेभ्यो मोक्षधियष्याधिम मा %ुचः॥१८- ६६॥

सभी धम� को त्याग कर (हर आश्रय त्याग कर), केवल मेरी %रण में बैठ जाओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुलिक्त दिदला दँुगा, इसलिलये %ोक मत करो।इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।न चा%ुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयकित॥१८- ६७॥

इसे कभी भी उसे मत बताना जो तपस्या न करता हो, जो मेरा भक्त ना हो, और न उसे झिजसमें सेवा भाव न हो, और न ही उसे जो मु5 में दोष किनकालता हो।य इमं परमं गुह्यं मद्भके्तष्वणिभधास्यकित।भचिक्तं मधिय परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसं%यः॥१८- ६८॥

जो इस परम रहस्य को मेरे भक्तों को बताता है, वह मेरी परम भलिक्त करने के कारण मु5े ही प्राप्त करता है, इस में कोई सं%य नहीं।न च तस्मान्मनुष्येषु कणिश्चन्मे किप्रयकृत्तमः।भकिवता न च मे तस्मादन्यः किप्रयतरो भुकिव॥१८- ६९॥

न ही मनुष्यों में उस से बढकर कोई मु5े किप्रय कमU करने वाला है, और न ही इस पृस्मिर्थ्यंव पर उस से बढकर कोई और मु5े किप्रय होगा।अध्येष्यत ेच य इमं धम्य| संवादमावयोः।ज्ञानयजे्ञन तेनाहधिमष्टः स्याधिमकित मे मकितः॥१८- ७०॥

जो हम दोनों के इस धमU संवाद का अध्ययन करेगा, वह ज्ञान यज्ञ द्वारा मेरा पूजन करेगा, यह मेरा मत है।श्रHावाननसूयश्च %ृणुयादकिप यो नरः।सोऽकिप मुक्तः %ुभाँल्लोकान्प्रापु्नयात्पुण्यकमUणाम्॥१८- ७१॥

जो मनुष्य इसको श्रHा और दोष-दृधिष्ट रकिहत मन से सुनेगा, वह भी (अ%ुभ से) मुक्त हो पुण्य कमU करने वालों के %ुभ लोकों में स्थान ग्रहण करेगा।कस्थिच्चदेतच्छäतं पाथU त्वयैकाग्रेण चेतसा।कस्थिच्चदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनंजय॥१८- ७२॥

हे पाथU, क्या यह तुमने एकाग्र मन से सुना है। हे धनंजय, क्या तुम्हारा अज्ञान से उत्प{ सम्मोह नष्ट हुआ है।

अजुUन बोले:नष्टो मोहः स्मृकितलUब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।स्थिस्थतोऽस्मिस्म गतसन्देहः करिरष्य ेवचनं तव॥१८- ७३॥

हे अच्युत, आप की कृपा से मेरा मोह नष्ट हुआ, और मु5े वाकिपस स्मृकित प्राप्त हुई है। मेरे सन्देह दूर हो गये हैं, और मैं आप के वचनों पर स्थिस्थत हुआ आप की आज्ञा का पालन करंूगा।

संजय बोले:

इत्यहं वासुदेवस्य पाथUस्य च महात्मनः।संवादधिमममश्रौषमद्भतुं रोमहषUणम्॥१८- ७४॥

इस प्रकार मैंने भगवान वासुदेव और महात्मा पाथU के इस अद्भतु रोम हर्तिषंत करने वाले संवाद को सुना।व्यासप्रसादाच्छäतवानेतद्गहु्यमहं परम्।योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्॥१८- ७५॥

भगवान व्यास जी के कृपा से मैंने इस परम गूह्य (रहस्य) योग को साक्षात योगेश्वर श्री कृष्ण के वचनों द्वारा सुना।राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादधिमममद्भतुम्।के%वाजुUनयोः पुण्यं हृष्याधिम च मुहुमुUहुः॥१८- ७६॥

हे राजन, भगवान के%व और अजुUन के इस अद्भतु पुण्य संवाद को बार बार याद कर मेरा हृदय पुनः पुनः हर्तिषंत हो रहा है।तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भतुं हरेः।किवस्मयो मे महान् राजन्हृष्याधिम च पुनः पुनः॥१८- ७७॥

और पुनः पुनः भगवान हरिर के उस अकित अद्भतु रूप को याद कर, मु5े महान किवस्मय हो रहा है हे राजन, और मेरा मन पुनः पुनः हषU से भरे जा रहा है।यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पाथh धनुधUरः।तत्र श्रीर्तिवंजयो भूकितध्रुUवा नीकितमUकितमUम॥१८- ७८॥

जहां योगेश्वर कृष्ण हैं, जहां धनुधUर पाथU हैं, वहीं पर श्री (लक्ष्मी, ऐश्वयU, पकिवत्रता), किवजय, किवभूकित और स्थिस्थर नीकित हैं - यही मेरा मत है।

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