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ससससससस / सससससस सससस ससस ससससस सससससससस ससस-ससस ससससस ससस-ससस सससस सससस सससस सससस सससस, सससस ससस सस ससस ससससस ससससस सससस, सससस सससस सससस ,ससस ससस ससस सससस सससस सससससस सससससस ससससससस, ससस-ससस ससससस ससससस ससस 1सससससससससस ससससस-ससस ससस ससस स ससस ससससस ससससस सससस सस सस सस सससससस ससस सससस ससस ससससस सससस सस सससससस सससस ससस सससससस सस-सससस ससस ससस ससससस, सस सससस सस सससस ससस-ससस-ससस-सससस ससससस-सससस ससससससस ससस सससस सस सससस ससस सससससससस ससससस ससस सससस -सस सससस 1सससस-ससससससस ससससससस सस सससस ससससस ससस सससस, ससससस, ससस-सससस, ससस सससससस-सस ससस ससससस सससस सस ससस सससस सस ससस, सससस ससस ससस-सससससस ससस-सससससस सससस ससस ससस, सस ससस सससस ससस स ससस सससस-ससससस ससससस ससस ससस, सससससस सससस ससस ससससससस सससस ससस सस सससस सससससस, ससससस सससस ससस सस ससस ससस ससस ससस सससस सस, सस ससस सस सससससस सससस सससस ससससससस सस ससस ससस-ससससस, ससस ससस सससससस सससससस 1ससससस सस सससस सस ससससस ससस-ससससस-सससस-सससस ससस, ससस-ससससससस ससस ससससस ससस सससस सससस ससस सससस सससस-सससस ससससस ससस ससससस-ससससससससस सससस-ससससस ससससस

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सुखसागर / सूरदासविनय तथा भक्ति�मंगलाचरण

चरन-कमल बंदौं हरिर-राइ ।जाकी कृपा पंगु विगरिर लंघ,ै अँधे कों सब कछु दरसाइ ।बविहरौ सुनै, गूँग पुविन बोलै ,रंक चलै क्तिसर छत्र धराइ ।सूरदास स्ामी करुनामय, बार-बार बंदौं वितहिहं पाइ ॥1॥सगुणोपासनाअविबगत-गवित कछु कहत न आै ।ज्यौं गूँगै मीठे फल कौ रस अंतरगत हीं भाै ।परम स्ाद सबही सु विनरंतर अमिमत तोष उपजाै ।मन-बानी कौं अगम अगोचर, सो जानै जो पाै ।रूप-रेख-गुन-जावित जुगवित-विबन ुविनरालंब विकत धाै ।सब विमिध अगम विबचारहिहं तातैं सूर सगुन -पद गाै ॥1॥भ�-त्सलताबासुदे की बड़ी बड़ाई ।जगत विपता, जगदीस, जगत-गुरु, विनज भ�विन-की सहत ढि@ठाई ।भृगु कौ चरन राखिख उर ऊपर, बोले बचन सकल-सुखदाई ।क्तिस-विबरंक्तिच मारन कौं धाए, यह गवित काहू दे न पाई ।विबन-ुबदलैं उपकार करत हैं, स्ारथ विबना करत मिमत्राई ।रान अरिर कौ अनुज विभीषन, ताकौं मिमले भरत की नाई ।बकी कपट करिर मारन आई, सौ हरिर जू बैकंुठ पठाई ।विबन ुदीन्हैं ही देत सूर-प्रभु, ऐसे हैं जदुनाथ गुसाईं ॥1॥प्रभु कौ देखौ एक सुभाइ ।अवित-गंभीर-उदार-उदमिध हरिर, जान-क्तिसरोमविन राइ ।वितनका सौं अपने जनकौ गुन मानत मेरु-समान ।सकुक्तिच गनत अपराध-समुद्रहिहं बूँद-तुल्य भगान ।बदन-प्रसन्न कमल सनमुख है्व देखत हौं हरिर जैसें ।विबमुख भए अकृपा न विनमिमषहूँ, विफरिर क्तिचतयौं तौ तैसें ।भ�-विबरह-कातर करुनामय, डोलत पाछैं लागे ।सूरदास ऐसे स्ामौ कौं देहिहं पीढिठ सो अभागे ॥2॥रामभ�त्सल विनज बानौं ।जावित, गोत कुल नाम, गनत नहिहं, रंक होइ कै रानौं ।क्तिस-ब्रह्माढिदक कौन जावित प्रभु, हौं अजान नहिहं जानौं ।हमता जहाँ तहाँ प्रभु नाहीं, सो हमता क्यौं मानौं ?प्रगट खंभ तैं दए ढिदखाई, जद्यविप कुल कौ दानौ ।रघुकुल राघ कृष्न सदा ही, गोकुल कीन्हौं थानौ ।बरविन न जाइ भ� की मविहमा, बारंबार बखानौं ।धु्र रजपूत, विबदुर दासी-सुत कौन कौन अरगानौ ।जुग जुग विबरद यहै चक्तिल आयौ, भ�विन हाथ विबकानौ ।राजसूय मैं चरन पखारे स्याम क्तिलए कर पानौ ।रसना एक, अनेक स्याम-गुन, कहँ लविग करौं बखानौ !सूरदास-प्रभु की मविहमा अवित, साखी बेद पुरानी ॥3॥

काहू के कुल तन न विचारत ।अविबगत की गवित कविह न परवित है, व्याध अजामिमल तारत ।कौन जावित अरु पाँवित विबदुर की, ताही कैं पग धारत ।भोजन करत माँविग घर उनकैं , राज मान-मद टारत ।ऐसे जनम-करम के ओछविन हँू ब्यौहारत ।यहै सुभा सूर के प्रभु कौ, भ�-बछल-पन पारत ॥4॥सरन गए को को न उबार्‌यौ ।जब जब भीर परी संतविन कौं, चक्र सुदरसन तहाँ सँभार्‌यौ ।भयौ प्रसाद जु अंबरीष कौं, दुरबासा को क्रोध विनार्‌यौ ।ग्ाक्तिलन हेत धर्‌यौ गोबध]न, प्रगट इंद्र कौ गब] प्रहार्‌यौ ।कृपा करी प्रहलाद भ� पर, खंभ फारिर विहरनाकुस मार्‌यौ ।नरहरिर रूप धर्‌यौ करुनाकर, क्तिछनक माहिहं उर नखविन विबदार्‌यौ ।

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ग्राह ग्रसत गज कौं जल बूड़त, नाम लेत ाकौ दुख टार्‌यौ ।सूर स्याम विबनु और करै को, रंग भूमिम मैं कंस पछार्‌यौ ॥5॥

स्याम गरीबविन हँू के गाहक ।दीनानाथ हमारे ठाकुर , साँचे प्रीवित-विनाहक ।कहा विबदुर की जावित-पाँवित, कुल, पे्रमी-प्रीवित के लाहक ।कह पांड कैं घर ठकुराई ? अरजुन के रथ-बाहक ।कहा सुदामा कैं धन हौ ? तौ सत्य-प्रीवित के चाहक ।सूरदास सठ, तातैं हरिर भजिज आरत के दुख-दाहक ॥6॥जैसें तुम गज कौ पाउँ छुड़ायौ ।अपन ेजन कौं दुखिखत जाविन कै पाउँ विपयादे धायौ ।जहँ जहँ गाढ़ परी भ�विन कौं, तहँ तहँ आपु जनायौ ।भक्ति� हेतु प्रहलाद उबार्‌यौ, द्रौपढिद-चीर बढ़ायौ ।प्रीवित जाविन हरिर गए विबदुर कैं , नामदे-घर छायौ ।सूरदास विbज दीन सुदामा, वितहिहं दारिरद्र नसायौ ॥7॥विबनती सुनौ दीन की क्तिचत्त दै, कैसें तु गुन गाै ? माय नटी लकुटी कर लीन्हें कोढिटक नाच नचाै । दर-दर लोभ लाविग क्तिलये डोलवित, नाना स्ाँग बनाै । तुम सौं कपट करावित प्रभु जू, मेरी बुमिध भरमाै । मन अभिभलाश-तरंगविन करिर करिर, मिमथ्या विसा जगाै । सोत सपने मैं ज्यौं संपवित, त्यौ ढिदखाइ बौराै । महा मोहनी मोविह आतमा, अपमारगहिहं लगाै । ज्यौं दूती पर-बधू भोरिर कै, लै पर-पुरुष ढिदखाै । मेरे तो तुम पवित , तुमहिहं गवित, तुम समान को पाै ? सूरदास प्रभु तुम्हरी कृपा विबनु, को मो दुख विबसराै ॥1॥

हरिर, तेरो भजन विकयौ न जाइ । कह करौं, तेरी प्रबल माया देवित मन भरमाइ । जबै आौं साधु-संगवित, कछुक मन ठहराइ । ज्यौं गयंद अन्हाइ सरिरता, बहुरिर है सुभाइ । बेष धरिर धरिर हर्‌यौ पर-धन, साधु-साधु कहाइ । जैसे नटा लोभ -कारन करत स्ाँग बनाइ । करौं जतन, न भजौं तुमकों, कछुक मन उपजाई । सूर प्रभु की सबल माया. देवित मोविह भुलाइ ॥2॥ गुरुमविहमागुरु विबन ुऐसी कौन करै ? माला-वितलक मनोहर बाना, लै क्तिसर छत्र धरै । भसागर तैं बूड़त राख,ै दीपक हाथ धरै । सूर स्याम गुरु ऐसौ समरथ, क्तिछन मैं ले उधरै ॥1॥ नाम मविहमाहमारे विनध]न के धन राम चोर न लेत, घटत नहिहं कबहूँ, आत गाढ़ैं काम । जल नहिहं बूड़त अविगविन न दाहत, है ऐसौ हरिर नाम । बैकँुठनाथ सकल सुख-दाता, सूरदास-सुख-धाम ॥1॥

बड़ी है राम नाम की ओट । सरन गऐं प्रभु काढिढ़ देत नहिहं, करत कृपा कैं कोट । बैठत सबै सभा हरिर जू की, कौन बड़ौ को छोट ? सूरदास पारस के परसैं मिमटवित लोह की खोट ॥2॥

जो सुख होत गुपालहिहं गाएk । सो सुख होत न जप-तप कीन्हैं, कोढिटक तीरथ न्हाएk । ढिदए ँलेत नहिहं चारिर पदारथ, चरन-कमल क्तिचत लाएk । तीविन लोक तृन-सम करिर लेखत, नंद-नँदन उर आऐं । बंसीबट, बृंदान, जमुना, तजिज बैकँुठ न जाै । सूरदास हरिर कौ सुमिमरन करिर, बहुरिर न भ-जल-आै ॥3॥

बंदों चरन-सरोज वितहारे ।

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संुदर स्याम कमल-दल-लोचन, लक्तिलत वित्रभंगी प्रान विपयारे । जे पद-पदुम सदा क्तिस के धन, सिसंधु-सुता उर तैं नहिहं टारे । जे पद-पदुम तात-रिरस-त्रासत, मनबच-क्रम प्रहलाद सँभारे । जे पद-पदुम-परस-जल-पान सुरसरिर-दरस कटत अब भारे । जे पद-पदम-परस रिरविष-पवितनी बक्तिल, नृग, व्याध, पवितत बहु तारे । जे पद-पदुम रमत बृंदान अविह-क्तिसर धरिर, अगविनत रिरपु मारे । जे पद-पदुम परक्तिस ब्रज-भामिमविन सरबस दै, सुत-सदन विबसारे । जे पद-पदुम रमत पांड-दल दूत भए, सब काज सँारे । सूरदास तेई पद-पंकज वित्रविबध-ताप-दुख-हरन हमारे ॥4॥

अब कैं राखिख लेहु भगान । हौं अनाथ बैठ्यौ द्रुम-डरिरया, पारमिध साधे बान । ताकैं डर मैं भाज्यौ चाहत, ऊपर @ुक्यौ सचान । दुहँू भाँवित दुख भयौ आविन यह, कौन उबारे प्रान ? सुमिमरत ही अविह डस्यौ पारधी, कर छूट्यौ संधान । सूरदास सर लग्यौ सचानहिहं, जय जय कृपाविनधान ॥5॥

आछौ गात अकारथ गार्‌यौ । करीन प्रीवित कमल-लोचन सौं, जनम जुा ज्यौं हायp । विनक्तिस ढिदन विषय-विबलाक्तिसन विबलसत, फूट गईं तब चार्‌यौ । अब लाग्यौ पक्तिछतान पाइ दुख, दीन दई कौ मार्‌यौ । कामी, कृपन;कुचील, कुडरसन, को न कृपा करिर तार्‌यौ । तातैं कहत दयाल दे-मविन, काहैं सूर विबसार्‌यौ ॥6॥

तुम विबनु भूलोइ भूलौ डोलत । लालच लाविगकोढिट देन के, विफरत कपाटविन खोलत । जब लविग सरबस दीजै उनकौं, तबहिहं लविग यह प्रीवित । फलमाँगत विफरिर जात मुकर है्व यह देन की रीवित । एकविन कौं जिजय-बक्तिल दै पूजै, पूजत नैंकु न तूठे । तब पविहचाविन सबविन कौं छाँडे़ नख-क्तिसख लौं सब झूठे । कंचन मविन तजिज काँचहिहं सैंतत, या माया के लीन्हे ! तुम कृतज्ञ, करुनामय, केस, अखिखल लोक के नायक । सूरदास हम दृढ़ करिर पकरे, अब ये चरन सहायक ॥7॥

आजु हौं एक-एक करिर टरिरहौं । कै तुमहीं, कै हमहीं माधौ, अपन ेभरोसैं लरिरहौं । हौं पवितत सात पीढ़विन कौ, पविततै है्व विनस्तरिरहौं । अब हौं उघरिर नच्यौ चाहत हौं, तुम्हैं विबरद विबन करिरहौं । कत अपनी परतीवित नसात , मैं पायौ हरिर हीरा । सूर पवितत तबहीं उठहै, प्रभु जब हँक्तिस दैहौ बीरा ॥8॥ प्रभु हौं सब पविततन कौ टीकौ । और पवितत सब ढिदस चारिर के, हौं तौ जनमत ही कौ । बमिधक अजामिमल गविनका तारी और पूतना ही कौ । मोहिहं छाँविड़ तुम और उधारे, मिमटै सूल क्यौं जी कौ । कोऊ न समरथ अघ करिरबे कौं, खैंक्तिच कहत हौं लीको । मरिरयत लाज सूर पविततन में, मोहँु तैं को नीकौ ! ॥9॥

अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल । काम-क्रोध कौ पविहरिर चोलना, कंठ विषय की माल ॥ महामोह के नुपूर बाजत, हिनंदा-सब्द-रसाल । भ्रम-भोयौ मन भयौ पखाज, चलत असंगत चाल । तृष्ना नाद करवित घट भीतर, नाना विबमिध दै ताल । माया को कढिट फेटा बाँध्यौ, लोभ-वितलक ढिदयौ भाल । कोढिटक कला काक्तिछ ढिदखराई जल-थल सुमिध नहिहं काल । सूरदास की सबै अविद्या दूरिर करौ नँदलाल ॥10॥

हमारे प्रभु, औगुन क्तिचत न धरौ । समदरसी है नाम तुम्हारौ, सोई पार करौ ।

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इक लोहा पूजा मैं राखत, इक घर बमिधक परौ । सो दुविबधा पारस नहिहं जानत, कंचन करत खरौ । इक नढिदया इक नार कहात, मैलौ नीर भरौ । जब मिमक्तिल गए तब एक बरन है्व. गंगा नाम परौ । तन माया, ज्यौं ब्रह्म कहात, सूर सु मिमक्तिल विबगरौ ॥ कै इनकौ विनरधार कीजिजयै, कै प्रन जात टरौ ॥11॥ भगदाश्रममेरौ मन अनत कहाँ सुख पाै । जैसें उविड़ जहाज को पच्छी; विफरिर जहाज पर आै । कलम-नैन कौ छाँविड़ महातम, और दे कौं ध्ाै ॥ परम गंग कौं छाँविड़ विपयासौ, दुरमवित कूप खनाै । जिजहिहं मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्यौं करील-फल भाै । सूरदास-प्रभु कामधेनु तजिज, छेरी कौन दुहाै ॥1॥

हमैं नँदनंदन मोल क्तिलये । जम के फंद काढिट मुकराए, अभय अजाद विकये । भाल वितलक, स्रबनविन तुलसीदल, मेटे अंक विबये । मूँड्यौ मूँड़, कंठ बनमाला, मुद्रा चक्र ढिदये । सब कोउ कहत गुलाम स्याम कौ, सुनत क्तिसरात विहये । सूरदास कों और बड़ौ सुख, जूठविन खाइ जिजये ॥2॥

राखौ पवित विगरिरर विगरिर-धारी ! अब तौ नाथ, रह्यौ कछु नाविहन, उघरत माथ अनाथ पुकारी । बैठी सभा सकल भूपविन की, भीषम-द्रोन-करन व्रतधारी । कविह न सकत कोउ बात बदन पर, इन पविततविन मो अपवित विबचारीपाँडु-कुमार पन से डोलत, भीम गदा कर तैं मविह डारी । रही न पैज प्रबल पारथ की, जब तैं धरम-सुत धरनी हारी । अब तौ नाथ न मेरौ कोई, विबनु श्रीनाथ-मुकंुद-मुरारी । सूरदास असर के चूकैं विफरिर पक्तिछतैहौ देखिख उघारी ॥2॥ भाीकरी गोपाल की सब होइ । जो अपनौ पुरुषारथ मानत, अवित झूठौ है सोइ । साधन, मंत्र, जंत्र, उद्यम, बल, ये सब डारौ धोइ । जो कछु क्तिलखिख राखी नँदनंदन, मेढिट सकै नहिहं कोइ । दुख-सुख, लाभ-अलाभ समुजिझ तुम, कतहिहं मरत हौ रोइ । सूरदास स्ामी करुनामय, स्याम-चरन मन पोइ ॥1॥

होत सो जो रघुनाथ ठटै । पक्तिच-पक्तिच रहैं क्तिसद्ध, साधक, मुविन , तऊ न बढै़-घटै । जोगी जोग धरत मन अपनैं अपनैं क्तिसर पर राखिख जटै । ध्यान धरत महादेऽरु ब्रह्मा, वितनहँू पै न छटै । जती, सती, तापस आराधैं, चारौं बेद रटै । सूरदास भगंत-भजन विबन,ु करम-फाँस न कटै ॥2॥

भाी काहू सौं न टरे । कहँ ह राहु, कहाँ ै रवि सक्तिस, आविन सँयोग पर ै। मुविन बक्तिसष्ट पंविडत अवित ज्ञानी, रक्तिच-पक्तिच लगन धरै । तात-मरन, क्तिसय हरन, राम बन-बपुधरिर विबपवित भरै । रान जीवित कोढिट तैंतीसौ, वित्रभुन राज करै । मृत्युहिहं बाँमिध कूप मैं राख,ै भाी-बस सो मरै । अरजुन के हरिर हुते सारथी, सोऊ बन विनकरै । द्रुपद-सुता कौ राजसभा, दुस्सासन चीर हरै । हरीचंद सो को जगदाता, सो घर नीच भरै । जौ गृह छाँविड़ देस बहु धाै, तउ सग विफरै । भाी कैं बस तीन लोक हैं, सुर नर देह धरै । सूरदास प्रभु रची सु है्व है, को करिर सोच मरै ॥3॥

तातैं सेइयै श्री जदुराइ ।

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संपवित विबपवित, विबपविततैं संपवित, देह कौ यहै सुभाइ । तरुर फूलै, फरै, पतझरै, अपने कालहिहं पाइ । सरर नीर भरै भरिर, उमडै़ सूखै खेह उड़ाइ । दुवितया चंद बढ़त ही बाढे़ , घटत-घटत घढिट जाइ । सूरदास संपदा-आपदा, जिजविन कोऊ पवितआइ ॥4॥ ैराग्यविकते ढिदन हरिर-सुमिमरन विबन ुखोए । परहिनंदा रसना के रस करिर, केवितक जनम विबगोए । तेल लगाइ विकयौ रुक्तिच मद]न, बस्तर मक्तिल-मक्तिल धोए । वितलक बनाई चले स्ामी है्व, विषमियविन के मुख जोए । काल बली तैं सब जग काँप्यौ, ब्रह्माढिदक हँू रोए । सूर अधम की कहौ कौन गवित, उदर भरे, परिर सोए ॥1॥

नर तैं जनम पाइ कह कीनो ? उदर भरयौ कूकर सूकर लौं, प्रभु कौ नाम न लीनौ । श्री भागत सुनी नहिहं श्रनविन, गुरु गोहिबंद नहिहं चीनौ । भा-भक्ति� कछु हृदय न उपजी, मन विषया मैं दीनौ । झूठौ सुभ अपनौ करिर जान्यौ, परस विप्रया कैं भीनी । अघ कौ मेरु बढ़ाइ अधम तू, अंत भयौ बलहीनौ । लख चौरासी जोविन भरमिम कै विफरिर ाहीं मन दीनौ । सूरदास भगंत-भजन विबन ुज्यौ अंजक्तिल-जल छीनौ ॥2॥

इत-उत देखत जनम गयौ । या झूठी माया कैं कारन, दुहँु दृग अंध भयौ । जनम-कष्ट तैं मातु दुखिखत भई, अवित दुख प्रान सह्यो । ै वित्रभुनपवित विबसरिर गए तोहिहं, सुमिमरत क्यों न रह्यो । श्रीभागत सुन्यौ नहिहं कबहूँ, बीचहिहं भटविक मर्‌यौ । सूरदास कहै, सब जग बूड़्यौ, जुग-जुग भ� तयp ॥3॥

सबै ढिदन गए विषय के हेत । तीनौं पन ऐसौं हीं खोए, केस भए क्तिसर सेत । आँखिखविन अंध, स्रन नहिहं सुविनयत, थाके चरन समेत । गंगा-जल तजिज विपयत कूप-जल, हरिर पूजत पे्रत । मन-बच-क्रम जौ भजै स्याम कौं, चारिर पदारथ देत । ऐसी प्रभू छाँविड़ क्यों भटकै, अजहूँ चेवित अचेत । रामनाम विबनु क्यों छूटौगै, कंद गहैं ज्यौं केत । सूरदास कछु खरच न लागत , राम नाम मुख लेत ॥4॥

bै मैं एकौ तौ न भई । ना हरिर भज्यौ, न गृह सुख पायौ, बृथा विबहाइ गई । ठानी हुती और कछु मन मैं, औरे आविन ठई । अविबगत-गवित कछु समुजिझ परत नहिहं जो कछु करत दई ।सुत सनवेिह-वितय सकल कुटँुब मिमक्तिल, विनक्तिस-ढिदन होत खई । पद-नख-चंद चकोर विबमुख मन, खात अँगार मई । विषय-विकार-दाानल उपजी, मोह-बयारिर लई । भ्रमत-भ्रमत बहुतै दुख पायौ, अजहुँ न टें गई । होत कहा अबके पक्तिछताए,ँ बहुत बेर विबतई । सूरदास सेये न कृपाविनमिध, जो सुख सकल मई ॥5॥

अब मैं जानी देह बुढ़ानी । सीस, पाउँ, कर कह्यौ न मानत, तन की दसा क्तिसरानी । आन कहत, आन ैकविह आत, नैन-नाक बहै पानी । मिमढिट गई चमक-दमक अँग-अँग की, मवित अरु दृमिष्ट विहरानी । नाहिहं रही कछु सुमिध तन-मन की, भई जु बात विबरानी । सूरदास अब होत विबगूचविन, भजिज लै सारँगपानी ॥6॥ मन प्रबोधसब तजिज भजिजऐ नंद कुमार । और भजै तैं काम सर ैनहिहं, मिमटै न भ जंजार ।

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जिजहिहं जिजहिहं जोविन जन्म धार्‌यौ, बहु जोर्‌यौ अघ कौ भार । जिजहिहं काटन कौं समरथ हरिर कौ तीछन नाम-कुठार । बेद, पुरान, भागत, गीता, सब कौ यह मत सार । भ समुद्र हरिर-पद-नौका विबनु कोउ न उतारै पार । यह जिजय जाविन, इहीं क्तिछन भजिज, ढिदन बीते जात असार । सूर पाइ यह समौ लाहु लविह, दुल]भ विफरिर संसार ॥1॥

जा ढिदन मन पंछी उविड़ जैहै । ता ढिदन तेर ेतन-तरुर के सबै पात झरिर जैहैं । या देही कौ गरब न करिरयै, स्यार-काग-विगध खैहैं । तीनविन में तन कृमिम, कै विष्टा, कहै्व खाक उडै़है । कहँ ह नीर, कहाँ ह सोभा कहँ रँग-रूप ढिदखैहै । जिजन लोगविन सौं नेह करत है, तेई देखिख मिघनैहैं । घर के कहत सबारे काढ़ौ, भूत होइ धर खैहैं । जिजन पुत्रविनहिहं बहुत प्रवितपाल्यौ, देी-दे मनैहैं । तेई लै खोपरी बाँस दै, सीस फोरिर विबखरैहैं ! अजहूँ मूढ़ करौ सतसंगवित, संतविन मैं कछु पैहै । नर-बपु धारिर नाहिहं जन हरिर कौं, जम की मार सो खैहै । सूरदास भगंत-भजन विबन ुबृथा सु जनम गँैहै ॥2॥

वितहारौ कृष्न कहत कह जातृ ? विबछुरैं मिमलन बहुरिर कब है्व है, ज्यों तरर के पात । सीत-बात-कफ कंठ विबरौधै, रसना टूटै बात । प्रान लए जम जात, मूढ़-मवित देखत जननी-तात । छन इक माहिहं कोढिट जुग बीतत, नर की केवितक बात । यह जग-प्रीवित सुा-सेमर ज्यों, चाखत ही उविड़ जात । जमकैं फंद पर्‌यौ नहिहं जब लविग, चरनविन विकन लपटात ? कहत सूर विबरथा यह देही, एतौ कत इतरात ॥3॥

मन, तोसों विकती कही समुझाइ । नंदनँदन के, चरन कमल भजिज तजिज पाखँड-चतुराइ । सुख-संपवित, दारा-सुत, हय-गय, छूट सबै समुदाइ । छनभंगुर यह सबै स्याम विबन,ु अंत नाहिहं सँग जाइ । जनम-मरत बहुत जुग बीते, अजहुँ लाज न आइ । सूरदास भगंत-भजन विबन ुजैहै जनम गँाइ ॥4॥

धोखैं ही धोखै डहकायौ समुजिझ न परी, विषय-रस गीध्यौ; हरिर-हीरा घर माँझ गँायौ । ज्यों कुरंग जल देखिख अविन कौ, प्यास न गई चहँू ढिदक्तिस धायौ । जनम-जनम बह करम विकए हैं, वितनमैं आपुन आपु बँधायो । ज्यौं सुक सेमर से आस लविग, विनक्तिस-बासर हढिठ क्तिचत्त लगायौ । रीतौ पर्‌यौ जबै फल चाख्यौ,उविड़ गयौ तूल, ताँरौ आयौ । ज्यौं कविप डोर बाँमिध बाजीगर, कन-कन कौं चौहटैं नचायौ । सूरदास भगंत-भजन विबन,ु काल-व्याल पै आपु डसायौ ॥5॥

भक्ति� कबन करिरहौ, जनम क्तिसरानौ । बालापन खेलतहीं खोयो, तरुनाई गरबानौ । बहुत प्रपंच विकए माया के, तऊ न अधम अघानौ । जतन जतन करिर माया जोरी, लै गयौ रंक न रानौ । सुत-वित-बविनता-प्रीवित लगाई, झूठे भरम भुलानौ । लोभ-मोह तें चेत्यौ नाहीं, सुपने ज्यौं डहकानौ । विबरध भऐं कफ कंठ विबरौध्यौ, क्तिसर धुविन-धुविन पक्तिछतानौ । सूरदास भगंत-भजन-विबनु, जम कैं हाथ विबकानौ ॥6॥

तजौ मन हरिर, विबमुखविन कौ संग । जिजनकैं संग कुमवित उपजवित है, परत भजन में भंग । कहा होत पय पान कराएk, विष नहिहं तजत भुजंग । कागहिहं कहा कपूर चुगाऐं, स्ान न्हााऐं गंग ।

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खर कौं कहा अरगजा-लेपन, मरकट भूषन-अंग । गज कौं कहा सरिरत अन्हाऐं, बहुरिर धरै ह @ंग । पाहन पवितत बान नहिहं बेधत, रीतौ करत विनषंग । सूरदास कारी कामरिर पै, चढ़त न दूजी रंग ॥7॥

रे मन मूरख जनम गँायौ । करिर अभिभमान ुषय-रस गीध्यौ, स्याम-सरन नहिहं आयौ । यह संसार सुा-सेमर ज्यौं, सुन्दर देखिख लुभायौ । चाखन लाग्यौ रुई गई उविड़ हाथ कहिहं आयौ । कहा होत अब के पक्तिछताएk पविहलैं पाप कमायौ । कहत सूर भगंत-भजन विबन,ु क्तिसर धुविन-धुविन पक्तिछतायौ ॥8॥ क्तिचत्-बुजिद्ध-संादचकई री, चक्तिल चरन-सरोर, जहाँ न पे्रम वियोग । जहँ भ्रम-विनसा होवित नहिहं कबहूँ, सोइ सायर सुख जोग । जहाँ सनक-क्तिस हंस, मीन मुविन, नख रवि-प्रभा प्रकास । प्रफुक्तिलत कमल, विनमिमष नहिहं सक्तिस-डर, गुंजत विनगम सुास । जिजहिहं सर सभग-मुक्ति�-मु�ाफल, सुकृत-अमृत-रस पीजै । सो सर छाँविड़ कुबुजिद्ध विबहंगम,इहाँ कहाँ रविह कीजे ॥ लक्षमी सविहत होवित विनत क्रीड़ा, सोभिभत सूरजदास । अब न सुहात विषय-रस-छीलर,ा समुद्र की आस ॥1॥

सुा, चक्तिल ता बन कौ रस पीजै । जा बन राम-नाम अम्रवित-रस, स्रन पात्र भरिर लीजै । को तेरौ पुत्र, विपता तू काकौ, धरनी, घर को तेरौ ? काग सृगाल-स्ान कौ भोजन, तू कहै मेरौ मेरौ ! बन बाराविनक्तिस मुक्ति�-के्षत्र है, चक्तिल तोकौ, ढिदखराऊँ । सूरदास साधुविन की संगवित, बडे़ भाग्य जो पाऊँ ॥2॥ हरिरविमुख-विनन्दाअचंभो इन लोगविन कौ आै । छाँडे़ स्याम-नाम-अमिम्रत फल, माया-विष-फल भाै । हिनंदत मूढ़ मलय चंदन कौं राख अंग लपटाै । मानसरोर छाँविड़ हंस तट काग-सरोर न्हाै । पगतर जरत न जानै मूरख, घर तजिज घूर बुझाै । चौरासी लख स्ाँग धरिर, भ्रमिम-भ्रमिम जमविह हँसाै । मृगतृष्ना आचार-जगत जल, ता सँग मन ललचाै । कहत जु सूरदास संतविन मिमक्तिल हरिर जस काहे न गाै ॥1॥

भजन विबन ुकूकर-सूकर जैसौ । जैसै घर विबला के मूसा, रहत विषय-बस ैसौ । बग-बगुली अरु गीध-गीमिधनी, आइ जनम क्तिलयौ तैसी । उनहूँ कैं गृह, सुत, दारा हैं, उन्हैं भेद कहु कैसौ । जी मारिर कै उदर भरत हैं; वितनकौ लेखी ऐसी । सूरदास भगंत-भजन विबन,ु मनो ऊँट-ृष-भैसौं ॥2॥ सत्संग-मविहमाजा ढिदन संत पाहुने आत । तीरथ कोढिट सनान करैं फल जैसी दरसन पात । नयौ नेह ढिदन-ढिदन प्रवित उनकै चरन-कमल क्तिचत-लात । मन बच कम] और नहिहं जानत, सुमिमरत और सुमिमरात । मिमथ्या बाद उपामिध-रविहत ह्वैं, विबमल-विबमल जस गात । बंधन कम] जे पविहले, सोऊ काढिट बहात । सँगवित रहैं साधु की अनढुिदन, भ-दुख दूरिर नसात । सूरदास संगवित करिर वितनकी, जे हरिर-सुरवित कहात ॥1॥ स्थि�तप्रज्ञहरिर-रस तौंऽब जाई कहुँ लविहयै । गऐं सोच आएk नहिहं आनँद, ऐसौ मारग गविहयै । कोमल बचन, दीनता सब सौं, सदा आनँढिदत रविहयै । बाद विबाद हष]-आतुरता, इतौ bँद जिजय सविहयै । ऐसी जो आै या मन मैं, तौ सुख कहँ लौं कविहयै ।

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अष्ट क्तिसढि�;नविनमिध, सूरज प्रभु, पहुँचै जो कछु चविहयै ॥1॥

जौ लौं मन-कामना न छूटै । तौ कहा जोग-जज्ञ-व्रत कीन्हैं, विबनु कन तुस कौं कूटै । कहा सनान विकयैं तीरथ के, अंग भस्म जट जूटै ? कहा पुरान ज ुपढ़ैं अठारह, ऊध्] धूम के घूँटे । जग सोभा की सकल बड़ाई इनतैं कछू न खूटै ॥2॥

आत्मज्ञानअपुनपौ आपुन ही विबसर्‌यौ । जैसे स्ान काँच-मंढिदर मैं, भ्रमिम-भ्रमिम भूविक पर्‌यौ । ज्यौं सौरभ मृग-नाभिभ बसत है, द्रुम तृन सँूमिध विफर्‌यौ । ज्यौं सपने मै रंक भूप भयौ, तसकर अरिर पकर्‌यौ । ज्यौं केहरिर प्रवितहिबंब देखिख कै, आपन कूप पर्‌यौ । जैसें गज लखिख फढिटकक्तिसला मैं, दसनविन जाइ अर्‌यौ । मक] ट मूढिठ छाँविड़ नहीं दीनी, घर-घर-bार विफर्‌यौ । सूरदास नक्तिलनी कौ सुटा, कविह कौनैं पकर्‌यौ ॥1॥

अपुनपौ आपुन ही मैं पायौ । सब्दविह सब्द भयौ उजिजयारो, सतगुरु भेद बतायौ । ज्यौं कुरंग-नाभी कस्तूरी, @ँूढ़त विफरत भुलायौ । विफरिर क्तिचतयौ जब चेतन है्व करिर, अपनैं ही तन छायौ । राज-कुमारिर कंठ-मविन-भूषन भ्रम भयौ कहँू गँायौ । ढिदयौ बताइ और सखिखयविन तब, तनु कौ ताप नसायौ । सपने माहिहं नारिर कौं भ्रम भयौ, बालक कहँू विहरायौ । जाविग लख्यौ, ज्यौं कौ त्यौं ही है, ना कहँू गयौ न आयौ । सूरदास समुझे को यह गवित, मनहीं मन मुसुकायौ ।कविह न जाइ या सुख की मविहमा, ज्यौं गूँगैं गुर खायौ ॥2॥ गोकुल लीलाकृष्ण-जन्मआनंदै आनंद बढ्यौ अवित ।देविन ढिदवि दंुदुभी बजाई,सुविन मथुरा प्रगटे जादपवित ।विद्याधर-विकन्नर कलोल मन उपजात मिमक्तिल कंठ अमिमत गवित ।गात गुन गंध] पुलविक तन, नाचहितं सब सुर-नारिर रक्तिसक अवित ।बरषत सुमन सुदेस सूर सुर, जय-जयकार करत, मानत रवित ।क्तिस-विबरस्थि�च-इन्द्राढिदअमर मुविन, फूले सुखन समात मुढिदत मवित ॥1॥देकी मन मन चविकत भई ।देखहु आइ पुत्र-मुख काहे न, ऐसी कहँु देखी न दई ।क्तिसर पर मुकुट, पीत उपरैना, भृगु-पद-उर, भुज चारिर धरे ।पूरब कथा सुनाइ कही हरिर, तुम माँग्यौ इहिहं भेष करे ।छोर ेविनगड़, सोआए पहरू, bार ेकी कपाट उधर्‌यौ ।तुरत मोविह गोकुल पहुँचाहु, यह कविहकै विकसु ेष धर्‌यौ ।तब बसुदे उठे यह सुनतहिहं, नँद-भन गए ।बालक धरिर, लै सुरदेी कौं, आइ सूर मधुपुरी ठए ॥2॥गोकुल प्रगट भए हरिर आइअमर-उधारन, असुर-सँहारन, अंतरजामी वित्रभुन राइ ।माथै धरिर बसुदे जु ल्याए, नंद-महर-घर गए पहुँचाइ ।जागी महरिर, पुत्र-मुख देख्यौ, पुलविक अंग उर मैं न समाइ ।गदगद कंठ, बोल नहिहं आै, हरषंत है्व नंद बुलाइ ।आहु कंत, दे परसन भए, पुत्र भयौ, मुख देखौ धाइ ।दौरिर नंद गए, सुत-मुख देख्यौ, सो सुख मोपै बरविन न जाइ सूरदास पविहलैं ही माँग्यौ, दूध विपयात जसुमवित माइ ॥3॥हौं इक नई बात सुविन आई ।महरिर जसौदा @ोटा जायौ, घर-घर होवित बधाई ।bारैं भीर गोप-गोविपन की, मविहमा बरिरन न जाई ।अवित आनन्द होत गोकुल मैं, रतन भूमिम अब छाई ।नाचत ृद्ध, तरुन अरु बालक, गोरस-कीच मचाई ।सूरदास स्ामी सुख-सागर, सुन्दर स्याम कन्हाई ॥4॥

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आजु नन्द के bारें भीर ।इक आत, इक जात विबदा है्व, इक ठाडे़ मजिन्दर कैं तीर ।कोउ केसरिर कौ वितलक बनावित, कोउ पविहरवित कंचकी सरीर ।एकविन कौं गो-दान समप]त, एकविन कौं पविहरात चीर ।एकविन कौं भूषन पाटंबर; एकविन कौं जु देत नग हीर ।एकविन कौं पुहपविन की माला, एकविन कौं चन्दन घक्तिस नीर ।एकविन मथैं दूध-रोचना, एकविन कौं बोधवित दै धीर ।सूरदास धविन स्याम सनेही, धन्य जसोदा पुन्य-सरीर ॥5॥सोभा-क्तिसनु्ध न अन्त रही री ।नंद-भन भरिर उमँविग चक्तिल, ब्रज की बीक्तिथन विफरवित बही री ।देखी जाइ आजु गोकुल मैं, घर-घर बेंचवित विफरवित दही री ।कहँ लविग कहौं बनाइ बहुत विमिध, कहत न मुख सहसहँु विनबही री ।जसुमवित-उदर-अगाध-उदमिध तैं उपजी ऐसी सबविन कही री ।सूरश्याम प्रभु इंद्र-नीलमविन, ब्रज-बविनता उर लाइ गही री ॥6॥ शैश-चरिरतजसोदा हरिर पालनैं झुलाै ।हलराै, दुलराइ मल्हाै, जोइ-सोइ कछु गाै ।मेरे लाल को आउ विनदँरिरया, काहैं न आविन सुाै ।तू काहें नहिहं बेगहिहं आै, तोकों कान्ह बुलाै ।कबहुँक पलक हरिर मूँद लेत हैं, कबहुँ अधर फरकाै ।सोत जाविन मौन है्व कै रविह, करिर-करिर सैन बताै ।इहिहं अन्तर अकुलाइ उठे हरिर, जसुमवित मधुरै गाै ।जो सुख सूर अमर-मुविन दुरलभ, सो नँद भामिमविन पाै ॥1॥

कपट करिर ब्रजहिहं पूतना आई ।अवित सुरूप, विष अस्तन लाए, राजा कंस पठाई ।मुख चूमवित अरु नैन विनहारवित, राखवित कंठ लगाई ।भाग बडे़ तुम्हरे नन्दरानी, जिजहिहं के कँुर कन्हाई ।कर गविह छीर विपयावित अपनी, जानत केसराई ।बाहर है्व कै असुर पुकारी अब बक्तिल लहु छुड़ाई ।गइ मुरझाइ, परी धरनी पर, मनी भुंगम खाई ।सूरदास प्रभु तुम्हरी लीला, भ�विन गाई सुनाई ॥2॥काग--रूप इक दनुज धर्‌यौ ।नृप-आयसु लै धरिर माथे पर, हरषंत उर गरब भर्‌यौ ।विकवितक बात प्रभु तुम आयुसु तें, ह जानी मो जात मर्‌यौ ।इतनी कविह गोकुल उड़ आयौ, आइ नन्द-घर-छाज रह्यौ ।पलना पर पौढै़ हरिर देखे, तुरन्त आइ नैनविनहिहं अर्‌यौ ।कंठ चाविप बहु बार विफरायौ, गविह पटक्यौ, नृप पास पर्‌यौ ।तुरत कंस पूछन वितहिहं लाग्यौ, क्यौं आयौ नहिहं काज कर्‌यौ ।बीतें जाम बोक्तिल तब आयौ, सुनहु कंस, तब आइ सर्‌यौ ।धरिर अतार महाबल कोऊ, एकहिहं कर मेरी ग] हर्‌यौ ।सूरदास प्रभु कंस-विनकंदन, भ�-हेत अतार धर्‌यौ ॥3॥

कर पग गविह, अंगूठा मुख मेलत ।प्रभु पौढे़ पालनैं अकेले, हरविष-हरविष अपनैं रंग खेलत ।क्तिस सोचत, विबमिध बुजिद्ध विचारत, बट बाढ्यौ सागर-जल झेलत ।विबडरिर चले घन प्रलय जाविन कै, ढिदगपवित ढिदग दंतीविन सकेलत ।मुविन मन भीत भए, भु कंविपत सेष सकुक्तिच सहसौ फन पेलत ।उन ब्रज-बाक्तिसन बात न जानी, समझे सूर सकट पग ठेलत ॥4॥

महरिर मुढिदत उलटाइ कै मुख चूमन लागी ।क्तिचरजीौ मेरौ लाविड़लौ , मैं भई सभागी ।एक पाख त्रय-मास कौ मेरी भयौ कन्हाई ।पटविक रान उलटौ पर्‌यौ, मैं, करौं बधाई । नन्द-धरविन आनन्द भरी, बोली ब्रजनारी ।यह सुख सुविन आईं सबै, सूरज बक्तिलहारी ॥5॥

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जसुमवित मन अखिखलाष करै ।कब मेरौ लाल घुटुरुविन रेंगै, कब धरनी पग bैक धरै ।कब bै दाँत दूध के देखीं, कब तोतरैं मुख बचन करै ।कब नंदविह बाबा कविह बोलै, कब जननी कविह मोहिहं ररै ।कब मेरी अँचरा गविह मोहन, जोइ-सोइ कविह मोसौं झगरै ।कब धौं तनक-तनक कछु खैहै, अपन ेकर सौं मुखहिहं भरै ।कब हँक्तिस बात कहैगो मोसौं, जा छविब तैं दुख दूरिर हरै ।स्याम अकेले आँगन छाँडे़, आपु गई कछु काज घरै ।इहिहं अंतर अँधाह उठ्यो इक, गरजत गगन सविहत घहरै ।सूरदास ब्रज-लोग सुनत धुविन, जो जहँ-तहँ सब अवितहिहं डर ै॥6॥सुत मुख देखिख जसौदा फूली ।हरविषत देखिख दूमिध की दँवितयाँ, पे्रममगन तन की सुमिध भूली ।बाविहर तैं तब नंद बुलाए, देखौ धौं सुन्दर सुखदाई ।तनक-तनक सी दूध दँतुक्तिलया, देखौ, नैन सफल करी आई ।आनँद सविहत महर तब आए , मुख क्तिचतत दोउ नैन अघाई ।सूर स्याम विकलकत विbज देख्यो, मनौ कमल पर विबज्जु जमाई ॥7॥हरिर विकलकत जसुमवित की कविनयाँ ।मुख मैं तीविन लोक ढिदखराए, चविकत भई नद-रविनयाँ ।घर-घर हाथ ढिदावित डोलवित, बाँधवित गरैं बघविनयाँ ।सूर स्याम की अद्भतु लीला नहिहं जानत मुविनजविनयाँ ॥8॥कान्ह कँुर की करहु पासनी, कछु ढिदन घढिट षट मास गए ।नंद महर यह सुविन पुलविकत जिजय , हरिर अनप्रासन जोग भए ।विबप्र बुलाई नाम लै बूझ्यौ, राक्तिस सोमिध इक सुढिदन धर्‌यौ ।आछौ ढिदन सुविन महरिर जसोदा, सखिखविन बोक्तिल सुभ गान कर्‌यौ ।जुवित महरिर कौं गारी गावित, और महर कौ नाम क्तिलए !ब्रज-घर-घर आनंद बढ्यौ अवित, पे्रम पुलक न समान विहए ।जाकौं नवेित-नवेित सु्रवित गात, ध्यात सुर-मुविन ध्यान धरे ।सूरदास वितहिहं कौं ब्रज-बविनता, झकझोरवित उर अंक भरे ॥9॥लाल हैं ारी तेर ेमुख पर ।कुढिटल अलक, मोहविन-मन विबहँसविन, भृकुढिट विकट लक्तिलत नैनविन पर ।दमकवित दूध-दँतुक्तिलया विबहँसत, मनु सीपज घर विकयौ बारिरज पर ।लघ-ुलघ ुलट क्तिसर घूँघरारी, लटकन लटविक रह्यौ माथैं पर ।यह उपमा कापै कविह आै, कछुक कहौं सकुचवित हौं जिजय पर ।न-तन-चंद्र रेख-ममिध राजत, सुरगुरु-सुक्र-उदोत परसपर ।लोचन लोल कपोल लक्तिलत अवित, नासा कौ मुकता रदछद पर ।सूर कहा न्यौछार करिरये अपन ेलाल लक्तिलत लरखर पर ॥10॥उमहिगं ब्रजनारिर सुभग, कान्ह बरष गाँढिठ उमंग, चहहितं बरष बरषविन ।गाविह मंगल सुगान, नीके सुर नीकी तान, आनँद अवित हरषवित ।कंचन मविन-जढिटत-थार, रोचन, दमिध, फूल-डार,मिमक्तिलबे की तरसविन ।प्रभु बरष-गाँढिठ जोरवित, ा छवि पर तृन तोरिर, सूर अरस परसविन ॥11॥ बालगोपालसोभिभत कर ननीत क्तिलए ।घुटुरुविन चलत रेन ुतन-मंविडत, मुख दमिध लेप विकये ।चारू कपोल , लोल लोचन, गोरोचन-वितलक ढिदये ।लट-लटकविन मनु मधुप-गन मादक मधूहिहं विपए ।कठुला-कंठ, ब्रज केहरिर-नख, राजत रुक्तिचर विहए ।धन्य सूर एकौ पल इहिहं सुख, का सत कल्प जिजए ॥1॥

विकलकत कान्ह घुटुरुविन आत ।मविनमय कनक नंद कैं आँगन, हिबंब पकरिरबैं धात ।कबहुँ विनरखिख हरी आपु छाँह कौं, कर पकरन चाहत ।विकलविक हँसत राजत bै दवितयाँ, पुविन-पुविन अगाहत ।कनक-भूमिम पर कर-पग-छाया, यह उपमा इन राजवित ।करिर-करिर प्रवितपद प्रवितमविन बसुधा, कमल बैठकी साजवित ।बाल दसा-सुख विनरखिख जसोदा, पुविन-पुविन नन्द बुलावित ।अँचरा तर लै ढ़ाँविक, सूर के प्रभु कौं दूध विपयावित ॥2॥

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क्तिसखवित चलन जसोदा मैया ।अरबराइ कर पाविन गहात, डगमगाइ धरनी धरे पैया ।कबहुँक संुदर बदन विलोकवित, उर आनंद भरिर लेत बलैया ।कबहुँक कुल देता मनावित, क्तिचरजीहु मेरौ कँुर कन्हैया ।कबहुँक बल कौं टेरिर बुलावित , इहिहं आँगन खेलौ दोउ भैया ।सूरदास स्ामी की लीला, अवित प्रताप विबलसत नँदरैया ॥3॥चलत देखिख जसुमवित सुख पाै ।ठुमविक-ठुमविक पग धरनी रेंगत, जननी देखिख ढिदखाै ।देहरिर लौ चक्तिल जात, बहुरिर विफरिर-विफरिर इतहीं कौं आै ।विगरिर-विगरिर परत, बनत नहिहं नाँघत सुर-मुविन सोच कराै ।कोढिट ब्रह्मांड करत क्तिछन भीतर, हरत विबलंब न लाै ।ताकौं क्तिलए नंद की रानी, नाना खेल खिखलाै ।तब जसुमवित कर टेविक स्याम की, क्रम-क्रम करिर उतराै ।सूरदास प्रभु देखिख देखिख, सुर-नर-मुविन-बुजिद्ध भुलाै ।4॥

नंद जू के बारे कान्ह, छाँविड दै मथविनयाँ ।बार-बार कहवित मातु जसुमवित नंदरविनयाँ ।नैंकु रही माखन देउँ मेरे प्रान-धविनयाँ ।आरिर जविन करौ, बक्तिल जाउँ हौं विनधविनयाँ ।जाकौ ध्यान धरैं सबै, सुर-नर-मुविन जविनयाँ ।ताकौ नँदरानी मुख चूमै क्तिलए कविनयाँ ।सेष सहस आनन गुन गात नहिहं बविनयाँ ।सूर स्याम देखिख सबै भूलीं गोप-धविनयाँ ॥5॥कहन लागे मोहन मैया-मैया ।नंद महर सौं बाबा बाबा, अरु हलधर सौं भैया ।ऊँचे चड़ी चढ़ी कहवित जसोदा, लै लै नाम कन्हैया ।दूरिर खेलन जविन जाहु लला रे, मारैगी काहु की मैया ।गोपी ग्ाल करत कौतूहल, घर घर बजवित बधैया ।सूरदास प्रभु तुम्हरें दरस कौं, चरनविन की बक्तिल जैया ॥6॥गोपालराइ दमिध माँगत अरु रोटी ।माखन सविहत देविह मेरी मैया,सुषक सुमंगल, मोटी । कत हौ आरिर करत मेरे मोहन तुम आँगन मै लोटी ।जौ चाहौ सो लेहु तुरतहीं, छाँड़ी यह मवित खोटी ।करिर मनुहारिर कलेऊ दीन्हौ, मुख चुपर्‌यौ अरु चोटी ।सूरदास को ठाकुर ठाढ़ौ, हाथ लकुढिटया छोटी ॥7॥

बरनौं बाल-बेष मुरारिर ।थविकत जिजत-वितत अमर-मुविन-गन, नंद-लाल विनहारी ।केस क्तिसर विबन बपन के चहँु ढिदसा क्तिछटके झारिर ।सीस पर धरिर जटा, मनु विनसु रूप विकयौ वित्रपुरारिर ।वितलक लक्तिलत ललाट केसरहिबंदु सोभाकारिर ।रोष-अरुन तृतीय लोचन, रह्यौ जनु रिरपु जारिर ।कंठ कठुला नील मविन, अंभोज-माल सँारिर ।गरल ग्री, कपाल डर इहिहं भाइ भए मदनारिर ।कुढिटल हरिर-नख विहएk हरिर के हरविष विनरखवित नारिर ।ईस जनु रजनीस राख्यौ भाल तैं जु उतारिर ।सदन-रज स्याम सोभिभत, सुभग इहिहं अनुहारिर ।मनहँु अंग विबभूवित-राजवित संभु सो मधुहारिर ।वित्रदस-पवित-पवित असन कौं अवित जनविन सौं करै आरिर ।सूरदास विरंक्तिच जाकौं जपत विनज मुख चारिर ॥8॥मैया, कबहिहं बढै़गी चोटी ?विकती बार मोहिहं दूध विपयत भई, यह अजहूँ है छोटी ।तू जो कहवित बल की बेनी ज्यौं, है्व है लाँबी-मोटी ।का@ँत-गुहत न्हात जैहै नाविगन सी भुइँ लोटी ।काचौ दूध विपयावित पक्तिच-पक्तिच, देवित न माखन-रोटी ।सूरज क्तिचरजीी दोउ भैया, हरिर-हलधर की जोटी ॥9॥

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हरिर अपनैं आँगन कछु गात ।तनक-तनक चरनविन सौं नाचत , मनहिहं मनहिहं रिरझात ।बाँह उठाइ काजरी-धौरी, गैयविन टेरिर बुलात ।कबहुँक बाबा नंद पुकारत, कबहुँक घर मैं आत ।माखन तनक आपनैं कर लै, तनक बदन मैं नात ।कबहुँक क्तिचतै प्रवितहिबंब खंभ मैं, लौनी क्तिलए खात ।दुरिर देखवित जसुमवित यह लीला, हरष अनंद बढ़ात । सूर स्याम के बाल-चरिरत, विनत विनतही देखत भात ॥10॥

जसुमवित जबविह कह्यौ अन्हान, रोइ गए हरिर लोटत री ।तेल उबटनौ लै आगै धरिर, लालहिहं चोटत पोटत री ।मैं बक्तिल जाउँ न्हाउ जविन मोहन, कत रोत विबन ुकाजैं री ।पाछै धरिर राख्यौ छपाइ कै, उबटन-तेल-समाजैं री ।महरिर बहुत विबनती करिर राखवित, मानत नहीं कन्हैया री ।सूर स्याम अवितहीं विबरुझाने, सुर-मुविन अंत न पैया री ॥11॥ठाढ़ी अजिजर जसोदा अपनैं, हरिरहिहं क्तिलए चंद ढिदखरात ।रोत कत बक्तिल जाउँ तुम्हारी, देखौं धौ भरिर नैन जुड़ात ।क्तिचतै रहै तब आपुन सक्तिस-तन अपने कर लै-लै जु बतात ।मीठौ लागत विकधौं यह खाटौ, देखन अवित सुन्दर मन भात !मनहीं मन हरिर बुजिद्ध करत हैं माता सौं कविह ताहिहं मँगात ।लागी भूख, चँद मैं खैहौं, देविह देविह रिरस करिर विबरुझात ।जसुमवित कहवित कहा मैं कीनौ, रोत मोहन अवित दुख पात ।सूर स्याम कौं जसुमवित बोधवित, गगन क्तिचरैया उड़त ढिदखात ॥12॥

सुविन सुत, एक कथा कहौं प्यारी ।कमल-नैन मन आनँद उपज्यौ, चतुर क्तिसरोमविन देत हँुकारी ।दसरथ नृपवित हुतौ रघुबंसी, ताकै प्रगट भए सुत चारी ।वितनमैं मुक्य राम जो कविहयत, जनक सुता ताकी बर नारी ।तात-बचन लविग राज तज्यौ वितन, अनुज धरविन सँग गए बनचारी ।धात कनक मृगा के पाछैं, राजिज लोचन परम उदारी ।रान हरन क्तिसया कौ कीन्हौ, सुविन नँद-नंदन नींद हिनंारीचाप चाप करिर उठे सूर प्रभु, लक्तिछमन देहु, जनविन भ्रम भारी ॥13॥

जागौ, जागौ हो गोपाल ।नाहिहंन इतौ सोइयत सुविन सुत ,प्रात परम सुक्तिच काल ।विफर-विफर जात विनरखिख मुख क्तिछन क्तिछन, सब गोपविन के बाल ।विबन विबकसे कल कमल-कोष तैं मनु मधुपविन की माल ।जो तुम मोहिहं न पत्याहु सूर प्रभु, सुन्दर स्याम तमाल ।तौ तुमहीं देखौ आपुन तजिज विनद्रा नैन विबसाल ॥14॥

कमल-नैन हरिर करौ कलेा ।माखन-रोटी, सद्य जम्यौ दमिध, भाँवित-भाँवित के मेा ।खारिरक, दाख, क्तिचरौंजी, विकसमिमस, उज्ल गरी बदाम ।सफरी, से, छुहारे, विपस्ता, जे तरबूजा नाम ।अरु मेा बहु बाँवित-भाँवित हैं षटरस के मिमष्ठान्न ।सूरदास प्रभु करत कलेा, रीझे स्याम सुजान ॥15॥

मैया मोहिहं दाऊ बहुत खिखझायौ ।मोसौं कहत मोल कौ लीन्हौं, तू जसुमवित कब जायौ ।कहा करौं इविह रिरस के मारैं खेलन हौं नहिहं जात ।पुविन-पुविन कहत कौन है माता, को है तेरौ तात । गोरे नंद, जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात ।चुटकी दै-दै ग्ाल नचात, हँसत सबै मुसकात तू मोहीं कौं मारन सीखी, दाउविह कबहुँ न खीझै ।मोहन मुख रिरस की ये बातैं, जसुमवित सुविन-सुविन रीझै ।सुनहु कान्ह, बलभद्र चबाई,जनमत ही कौ धूत ।सूर स्याम मोहिहं गोधन की सौं, हौं माता तू पूत ॥16॥

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खेलन दूरिर जात कत कान्हा ।आजु सुन्यौ मैं हाऊ आयौ, तुम नहिहं जानत नान्हा ।इक लरिरका अबहीं भजिज आयौ, रोत देख्यौ ताविह ।कान तोरिर ह लेत सबविन के, लरिरका जानत जाविह ।चलौ न, बेविग सबारै जैये, भाजिज आपनें धाम ।सूर स्याम यह बात सुनतही बोक्तिल क्तिलए बलराम ॥17॥खेलत मैं को काकौ गुसैयाँ ।हरिर हारे जीते श्रीदामा, बरबस हीं कत करत रिरसैया ।जावित-पाँवित हमतैं बड़ नाहीं, बसत तुम्हारी छैयाँ ।अवित अमिधकार जनात यातै जातै अमिधक तुम्हारै गैयाँ ।रूहढिठ करै तासौं को खेलै, रहे बैढिठ जहँ-तहँ ग्ैयाँ ।सूरदास प्रभु खैल्योइ चाहत, दाउँ ढिदयौ करिर नंद-दुहैयाँ ॥18॥

हर कौं टेरवित है नंदरानी ।बहुत अबार भई कहै खेलत रहे मेरे सारँग पानी ?सुनतहिहं टेर, दौरिर तहँ आए, कब के विनकसे लाल । जेंत नहीं नंद तुम्हरै विबनु, बेविग चलौ, गोपाल ।स्यामहिहं ल्याई महरिर जसोदा तुरतहिहं पाइँ पखारे ।सूरदास प्रभु संग नंद कैं बैठे हैं दोउ बारे ॥19॥जेंत कान्ह नंद इकठौरे ।कछुक खात लपटात दोऊ कर बालकेक्तिल अवित भोरे ।बरा कौर मेलत मुख भीतर, मिमरिरच दसन टकटौरे ।तीछन लगी नैन भरिर आए, रोत बाहर दौर े।फँूकवित बदन रोविहनी ठाढ़ी, क्तिलए लगाइ अँकोर े।सूर स्याम कीं मधुर कौर दै, कीन्हे तात विनहोरे ॥20॥मोहन काहें न उविगलौ माटी ।बार-बार अनरुक्तिच उपजावित, महरिर हाथ क्तिलए साँटी ।महतारी सौं मानत नाहीं, कपट-चतुरई ठाटी ।बदन उघारिर ढिदखायौ अपनौ, नाटक की परिरपाटी ।बड़ी बार भई लोचन उघरे, भरम-जविनका फाटी ।सूर विनरख नँदराविन भ्रमिमत भई, कहवित न मीठी-खाटी ॥21॥नंद करत पूजा, हरिर देखत ।घंट बजाइ दे अन्हायौ, दल चंदन लै भेटत ।पट अंतर दै भोग लगायौ, आरवित करी बनाइ ।कहत कान्ह, बाबा तुम अरप्यौ, दे नहीं कछु खाइ ।क्तिचतै रहे तब नंद महरिर-मुख सुनहु कान्ह की बात ।सूर स्याम देविन कर जोरहु, कुसल रहै जिजहिहं गात ॥22॥कहत नंद ,जसुमवित सौं बात ।कहा जाविनए कह तै देख्यौं मेरैं कान्ह रिरसात ।पाँच बरष को मेरौ कन्हैया, अचरज तेरी बात ।विबनहीं काज साँढिट ले धावित, ता पाछै विबललात ।कुसल रहैं बलराम स्याम दोउ, खेलत-खात--अन्हात ।सूर स्याम कौं कहा लगावित, बालक कोमल गात ॥23॥ माखन-चोरी

मैया री, मोहिहं माखन भाै ।जो मेा पकान कहवित तू, मोहिहं नहीं रुक्तिच आै । ब्रज-जुती इक पाछै ठाढ़ी, सुनत श्याम की बात ।मन-मन कहवित कबहुँ अपनैं घर, देखौं माखन खात ।बैठे जाइ मथविनयाँ कैं ढि@ग, मैं तब रहौं छपानी ।सूरदास प्रभु अंतरजामीं ग्ाक्तिलविन मन की जानी ॥1॥

गए स्याम वितहिहं ग्क्तिलविन कैं घर ।देख्यौ bार नहीं कोउ, इत-उत क्तिचतै चलै तब भीतर ।हरिर आत गोपी जब जान्यौ, आपुन रही छपाइ ।सूनें सदन मथविनयाँ कैं ढि@ग, बैढिठ रहे अरगाइ ।माखन भरी कमोरी देखत लै-लै लागे खान ।क्तिचतै रहे मविन-खंभ-छाँह तन, तासौं करत सयान ।

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प्रथम आजु मैं चोरी आयौ, भलौ बन्यौ है संग ।आपु खात प्रवितहिबंब खात, विगरत कहत, का रंग ?जौ चाहौ सब देउँ कमोरी, अवित मीठो कत डारत ।तुमविह देवित मैं अवित सुख पायौ, तुम जिजय कहा विबचारत ।सुविन-सुविन बात स्याम के मुख की उमँविग उठी ब्रजनारी ।सूरदास प्रभु विनरखिख ग्ाक्तिल मुख तब भजिज चले मुरारी ॥2॥

प्रथम करी हरिर माखन-चोरी ।ग्ाक्तिलविन मन इच्छा करिर पूरन, आपु भजे ब्रज खोरी ।मन मैं यहै विचार करत हरिर, ब्रज घर-घर सब जाऊँ ।गोकुल जनम क्तिलयौ सुख कारन, सबकैं माखन खाऊँ ।बाल-रूप जसुमवित मोहिहं जानै,गोपविन मिमक्तिल सुख भोग ।सूरदास प्रभु कहत पे्रम सौं, ये मेरे ब्रज-लोग ॥3॥

गोपालहिहं माखन खान दै ।सुविन री सखी, मौन है्व रविहए, बदन दही लपटान दै । गविह बविहयाँ हौं लैके जैहैं, नैनविन तपवित बुझान दै ।याकौ जाइ चौगुनी लैहौं, मोहिहं जसुमवित लौं जान दै ।तू जानवित हरिर कछू न जानत,सुनत मनोहर कान दै ।सूर स्याम ग्ाक्तिलविन बस कीन्हीं, राखहितं तन मन प्रान दै ॥4॥

जसुदा कहँ लैं कीजै कानी ।ढिदन-प्रवित कैसें सही परवित है, दूध-दही की हाविन ।अपन ेया बालक की करनी, जौ तुम देखौ आविन ।गोरस खाइ, खाै लरिरविकन, भजत भाजन भाविन ।मैं अपन ेमंढिदर के कोन,ै राख्यौ माखन छाविन ।सोई जाइ वितहारैं @ौटा, लीन्हौ है पविहचाविन ।बूजिझ ग्ाक्तिल विनज गृह मैं आयौ, नैं कु न संका माविन ।सूर स्याम यह उतर बनायौ, चींटी काढ़त पाविन ॥5॥आपु गए हरुऐं सूनैं घर । सखा सबै बाविहर ही छाँडे़, देख्यौ दमिध-माखन हरिर भीतर ।तुरत मथ्यौ दमिध-माखन पायौ, लै लै खात, धरत अधरविन पर ।सैन देइ सब सखा बुलाए, वितनहिहं देत भरिर-भरिर अपनैं कर ।क्तिछटकी रही दमिध-बूँढिद हृदय पर, इत-उत क्तिचतत करिर मन मैं डर ।उठत ओट लै लखत सबविन कौं , पुविन लै खात ग्ालविन बर ।अंतर भई ग्ाक्तिल यह देखवित मगन भई, अवित उर आनंद भरिर ।सूर स्याम मुख विनरखिख थविकत भई, कहत न बनै, रही मन दै हरिर ॥6॥

जान जु पाए हौं हरिर नीकैं ।चोरिर-चोरिर दमिध माखन मेरी, विनत प्रवित गीमिध रहे हो छीकैं ।रोक्यौ भन-bार ब्रज-सुन्दरिर, नूपुर मूँढिद अचानक ही कै ।अब कैसे, जैयतु अपने बल, भाजन भाँजिज, दूध दमिध पी कै ?सूरदास प्रभु भलैं परे फंद, देउँ न जान भाते जी कैं ।भरिर गंडुष, क्तिछरविक दै नैनविन, विगरिरधर भाजिज चले दै कीकै ॥7॥

अब ये झूठहु बोलत लोग ।पाँच बरष अरु कछुक ढिदनविन कौ, कब भयौ चोरी जोग ।इहिहं मिमस देखन आवित ग्ाक्तिलविन, मुँह फाटे जु गँारिर ।अनदोषे कौं दोष लगाहितं, दई देइगौ टारिर ।कैसें करिर याकी भुज पहुँची, खौन बेग ह्याँ आयौ ?ऊखल ऊपर आविन, पीढिठ दै, तापर सखा चढ़ायौ ।जौ न पत्याहु चलो सँग जसुमवित, देखौ नैन विनहारी ।सूरदास प्रभु नैकँु न बरजौ, मन मै महरिर विचारी ॥8॥इन अखिखयन आगैं तै मोहन, एकौ पल जविन होहु विनयारे ।हौं बक्तिल गई, दरस देखैं विबन ुतलफत है नैनविन के तारे ।औरों सखा बुलाइ आपने इहिहं आँगन खेलौ मेरे बारे ।विनरखवित रहौं फविनग की मविन ज्यौं, सुन्दर बाल-विनोद वितहारे ।

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मधु, मेा, पकान, मिमठाई वं्यजन खाटे, मीठे खारे ।सूर स्याम जोइ-जोइ तुम चाहौ. सोइ-सोइ माँविग लेहु मेरे बारे ॥9॥

चोरी करत कान्ह धरिर पाए ।विनक्तिस-बासर मोहिहं बहुत सतायौ अब हरिर हाथहिहं आए ।माखन-दमिध मेरौ सब खायौ, बहुत अचगरी कीन्ही ।अब तौ घात पर ेहौ लालन, तुम्हैं भलैं मैं चीन्ही ।दोउ भुज पकरिर, कह्यौ कहँ जैहौं, माखन लेउँ मँगाइ ।तेरी सौं मैं नैकँु न खायौ, सखा गये सब खाइ । मुख तन क्तिचतै, विबहँक्तिस हरिर दीन्हौं, रिरस तब गई बुझाइ ।क्तिलयौ स्याम उर लाइ ग्ाक्तिलनी, सूरदास बक्तिल जाइ ॥10॥

कान्हहिहं बरजवित विकन नँदरानी ।एक गाउँ कैं बसत कहाँ लौं करैं नंद की कानी ।तुम जो कहवित हौ, मेरो कन्हैया, गंगा कैसौ पानी ।बाविहर तरुन विकसोर बयस बर, बाट घाट कौ दानी ।बचन विबक्तिचत्र, कमल-दल-लोचन, कहत सरस बर बानी ।अचरज महरिर तुम्हारे आगैं अबै जीभ तुतरानी ।कहँ मेरौ कान्ह, कहाँ तुम ग्ारिरविन, यह विबपरीवितन जानी ।आवित सूर उरहने कैं मिमस,देखिख कँुर मुसुकानी ॥11॥

मथुरा जावित हौं बेचन दविहयौ ।मरै घर कौ bार, सखी री, तललौं देखवित रविहयौ ।दमिध-माखन bै माट अछूते तोहिहं सौंपवित हौं सविहयौ ।और नहीं या ब्रज मैं कोऊ, नन्द-सुन सखिख लविहयौ । ते सब बचन सुन ेमन-मोहन, है राह मन गविहयौ ।सूर पौरिर लौं गई न ग्ाक्तिलन, कूद परे दै धविहयौ ॥12॥

गए स्याम ग्ाक्तिलविन घर सूनैं ।माखन खाइ, डारिर सब गोरस, फोरिर विकए सब चूने ।बड़ौ माट इक बहुत ढिदनविन कौ, ताविह कर्‌यौ दस टूक ।सोतत लरिरकविन क्तिछरविक महीं सौं, हँसत चले दै कूक ।आई ग्ाक्तिलविन वितहिहं औसर, विनकसत हरिर धरिर पाए ।देखे घर बासन सब फूटे, दूध दही @रकाए ।दोउ भुज धरिर गाढ़ैं करिर लीन्हे, गई महरिर कै आगै ।सूरदास अब बसे कौन ह्याँ, पवित रविहहैं ब्रज त्यागैं ॥13॥करत कान्ह ब्रज-घरिरन अचगरी ।खीझवित महरिर कान्ह सौं पुविन-पुविन, उरहन लै आवित हैं सगरी । बडे़ बाप के पूत कहात, हम ै ास बसत इक बगरी ।नन्दहु तैं ये बडे़ कहैहैं फेरिर बसैहैं यह ब्रज नगरी ।जननी कैं खीझत हरिर रोए, झूठहिहं मोहिहं लगावित धगरी ।सूर स्याम मुख पोंक्तिछ जसोदा. कहवित सबै जुती हैं लँगरी ॥14॥

अपनौ गाउँ लेउ नँदरानी ।बडे़ बाप की बेटी, पूतविह भली पढ़ावित बानी ।सखा-भीर लै पैठत घर मैं आपु खाइ तौ सविहऐ ।मैं जब चली सामहैं पकरन, तब के गुन कहा कविहऐ ।भाजिज गए दुरिर देखत कतहूँ, मैं घर पौढ़ी आइ ।हरैं हरैं बेनी गविह पाछैं, बाँधी पाटी लाइ ।सुन ुमैया, याके गुन मोसौं, इन मोहिहं लयौ बुलाई ।दमिध मैं पड़ी सेंत की मोपै चीटी सबै कढ़ाई ।टहल करत मैं याके घर की यह पवित सँग मिमक्तिल सोई ।सूर बचन सुविन हँसी जसोदा, ग्ाल रही मुख गोई ॥15॥

महरिर तें बड़ी कृपन है माई ।दूध-दही बहु विबमिध कौ दीनौ, सुत सौं धरवित छपाई ।बालक बहुत नहीं री तेरैं एकै कँुर कन्हाई ।

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सोऊ तौ घरही घर डोलतु, माखन खात चोराई ।ृद्ध बयस, पूरे पुन्यविन तैं, बहुतै विनमिध पाई ।ताहँू के खैबे-पीबे कौं, कहा करवित चतुराई ।सुनहुँ न चन चतुर नागरिर के जसुमवित नन्द सुनाई ।सूर स्याम कौं चोरी कैं मिमस देखन है यह आई ॥16॥अनत सुत गोरस कौं कत जात ?घर सुरभी कारी धौरी कौ माखन माँविग न खात ।ढिदन प्रवित सबै उरहने कैं मिमस, आवित है उढिठ प्रात ।अनलहते अपराध लगावित, विबकढिट बनाहितं बात ।विनपट विनसंक विबबादहिहं संमुख, सुविन-सुविन नन्द रिरसात ।मोसौं कहहितं कृपन तेरैं घर @ौटाहू न अघात ।करिर मनुहरिर उठाइ गोद लै, बरजवित सुत कौं मात ।सूर स्याम विनत उरहनौ, दुख पान तेरौ तात ॥17॥ हरिर सब भाजन फोरिर परान े।हाँक देत पैठे दै पेला नैंकु न मनहिहं डराने ।सींके छोरिर, मारिर लरकविन कौं, माखन-दमिध सब खाई ।भन मच्यौ दमिध काँदौ, लरिरकन रोत पाए जाई ।सुनहु-सुनहु सबविहविन के लरिरका, तैरौ सौ कहँु नाहिहं ।हाटहिनं-बाटविन, गक्तिलविन कहँु कोउ चलत नहीं डरपाहिहं ।रिरतु आए कौ खेल, कन्हैया सब ढिदन खेलत फाग ।रोविक रहत गविह गली साँकरी, टेढ़ी बाँधत पाग ।बारे तैं सुत ये @ंग लाए, मनहीं मनहिहं क्तिसहावित ।सुनैं सूर ग्ाक्तिलविन की बातैं, सकुक्तिच महरिर पक्तिछतावित ॥18॥कन्हैया तू नहिहं मोहिहं डरात ।षटरस धरे छाँविड़ कत पर घर, चोरी करिर करिर खात ।बकत-बकत तोसौं पक्तिचहारी, नैंकुहँु लाज न आई ।ब्रज-परगन-क्तिसगदार महर, तू ताकी करत नन्हाई ।पूत सपूत भयौ कुल मेरैं, अब मैं जानी बात ।सूर स्याम अब लौं तुहिहं बकस्यौ, तेरी जानी घात ॥19॥मैया मैं नहिहं माखन खायौ ।ख्याल परैं ये सखा सबै मिमक्तिल, मेरै मुख लपटायौ ।देखिख तुही सींके पर भाजन, ऊँचे धरिर लटकायौ ।हौं जु कहत नान्हे कर अपनैं मैं कैसें करिर पायौ ।मुख दमिध पोंक्तिछ, बुजिद्ध एक कीन्ही, दोना पीढिठ दुरायौ ।डारिर साँढिट मुसुकाइ जसोदा, स्यामहिहं कंठ लगायौ ।बालविबनोद मोद मन मोह्यौ, भक्ति� प्रताप ढिदखायौ ।सूरदास जसुमत कौ यह सुख, क्तिस विबरस्थि�च नहिहं पायौ ॥20॥जसुमवित तेरौ बारौ कान्ह अवितही जु अचगरौ ।दूध-दही माखन लै डारिर देत सगरौ ।भोरहिहं विनत प्रवितही उढिठ, मोसौं करत झगरौ ।ग्ाल-बाल संग क्तिलए घरेिर रहै डगरौ ।हम-तुम सब बैस एक, कातैं को अगरौ ।क्तिलयौ ढिदयौ सोई कछु, डारिर देहु झगरौ ।सूर श्याम तेरौ अवित, गुनविन माहिहं अगरौ ।चोली अरु हार तोरिर, छोरिर क्तिलयौ सगरौ ॥21॥

ऐसी रिरस मैं जौ धरिर पाऊँ ।कैसे हाल करौं धरिर हरिर के, तुमकौं प्रकट ढिदखाऊँ ।सँढिटया क्तिलए हाथ नँदरानी, थरथरात रिरस गात ।मारे विबना आजु जौ छाँड़ौं, लागै मेंरैं तात ।इहिहं अंतर ग्ारिरविन इक औरै, धरे बाँह हरिर ल्यावित। भली महरिर सूधौ सुत जायौ, चोली-हार बतावित ।रिरस मैं रिरस अवितहीं उपजाई, जाविन जनविन अभिभलाष ।सूर स्याम भुज गहे जसोदा, अब बाँधौ कविह माष ॥22॥

बाँधौ आजु कौन तोहिहं छौरें ।बहुत लँगरई कीन्हौं मोसों, भुज गविह रजु ऊखल सौं जोरै ।जननी अवित रिरस लाविन बँधायौ, विनरखिख बदन, लोचन जल @ोर ै।यह सुविन ब्रज-जुतीं सब धाईं कहहितं कान्ह अब गयौं नहिहं छौर ै।

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ऊखल सौं गविह बाँमिध जसोदा, मारन कौं साँटी कर तोरै ।साँटी देखिख ग्ाक्तिल पक्तिछतानी, विबकल भई जहँ-तहँ मुख मोरै ।सुनहु महरिर ऐसी न बूजिझऐ सुत बाँधवित माखन दमिध थोरैं ।सूर स्याम कौं बहुत सतायो, चूक परी हम तैं यह भौरैं ॥23॥

कहा भयौ जौ घर कैं लरिरका चोरी माखन खायौ ।अहो जसोदा कत त्रासवित हौ यहै कोखिख को जायौ ।बालक अजौं अजान न जानै केवितक दह्यौ लुटायौ ।तेरी कहा गयौ ? गोरस कौ गोकुल अंत न पायौ ।हा हा लकुट त्रास ढिदखरावित आँगन पास बँधायौ ।रुदन करत दोउ नैन रचे हैं, मनहँु कमल-कन छायौ ।पीढिढ़ रहे धरनी पर वितरछैं विबलखिख बदन मुरझायौ ।सूरदास प्रभु रक्तिसक-क्तिसरोमविन , हँक्तिस करिर कंठ लगायौ ॥24॥

हलधर सौं कविह ग्ाक्तिल सुनायौ ।प्रातहिहं तैं तुम्हरौ लघु भैया, जसुमवित ऊखल बाँमिध लगायौ ।काहू के लरिरकहिहं हरिर मार् यो, भोरविह आविन वितनहिहं गुहरायौ ।तबहीं तें बाँधे हरिर बैठे, सो हम तुमकौं आविन जनायौ ।हम बरजी,बरज्यौ नहिहं मानवित; सुनतहिहं बल आतुर है्व धायौ ।सूर स्याम बैठे ऊखल लविग, माता उर तनु अवितविह त्रसायौ ॥25॥यह सुविन कै हलधर तहँ धाए ।देखिख स्याम ऊखल सौं बाँधे, तबहों दोउ लोचन भरिर आए ।मैं बरज्यौ कै बार कन्हैया, भली करी दोउ हाथ बँधाए ।अजहूँ छाँड़ौगे लँगराई, दोउ कर जोर जनविन पै आए ।स्यामहिहं छोरिर मोहिहं बाँधे बरु, विनकसत सगुन मले नहिहं पाए ।मेरे प्रान-जिजन-धन कान्हा, वितनके भुज मोहिहं बँधे ढिदखाए ।माता सौं कह करौं ढि@ठाई, सो सरूप कविह नाम सुनाए । सूरदास तब कहवित जसोदा दोउ भैया तुम इक मत पाए ॥26॥तबहिहं स्याम इक बुजिद्ध उपाई ।जुती गईं घरविन सब अपनैं, गृह कारज जननी अटकाई । आपु गए जमलाजु]न-तरु-तर, परसत पात उठै झहराई ।ढिदए विगराइ धरविन दोऊ तरु, सुत कुेर के प्रगटे आई ।दोउ कर जोर करत दोउ अस्तुवित, चारिर भुजा वितन्ह प्रगट ढिदखाई ।सूर धन्य ब्रज जनम क्तिलयौ हरिर, धरनी की आपदा नसाई ॥27॥

अब घर काहूँ कैं जविन जाहु ।तुम्हरैं आजु कमी काहे की,कत तुम अनतहिहं खाहु ।बरै जेंरी जिजहिहं तुम बाँधै, पर ैहाथ भहराह ।नंद मोहिहं अवितहीं त्रासत हैं, बाँधँ कँुर कन्हाइ ।रोग जाउ हलधर के, छोरत हो तब स्याम ।सूरदास प्रभु खात विफरौ जविन, माखन-दमिध तु धाम॥28॥भूखौ भयौ आजु मेरी बारौ ।भोरहिहं ग्ारिर उरहनौ ल्याई, उहिहं यह विकयौ पसारौ ।पविहलेहिहं रोविहविन सौं कविह राख्यौ, तुरत कर जेनार ।ग्ाल-बाल सब बोक्तिल क्तिलए, मिमक्तिल बैठे नन्द-कुमार ।भोजन बेविग ल्याउ कछु मैया, भूख लाविग मोविह भारी ।आजु सबारे कछु नहिहं खायौ, सुनत हँसी महतारी ।रोविहनी क्तिचतै रही जसुमवित-तन, क्तिसर धुविन-धुविन पक्तिछतानी ।परसहु बेविग बेर कत लावित, भूखे साँरगपानी ।बहु ब्यंजन बहु भाँवित रसोई, षटरस के परकार ।सूरस्याम हलधर दोउ भैया, और सखा सब ग्ार ॥29॥मोहिहं कहहितं जुती सब चोर ।खेलत कहूँ रहौं मैं बाविहर, क्तिचतै रहहितं सब मेरी ओर ।बोक्तिल लेहितं भीतर घर अपनैं, मुख चूमहितं भरिर लेहितं अँकोर ।माखन हेरिर देहितं अपनैं कर कछु कविह विबमिध सौं करहितं विनहोर ।जहाँ मोहिहं देखहितं, तहँ टेरहितं, मैं नहिहं जात दुहाई तोर ।सूर स्याम हँक्तिस कंठ लगायौ, ै तरुनी कहँ बालक मोर ॥30॥जसुमवित कहवित कान्ह मेरे प्यारे, अपनैं ही आँगन तुम खेलौ ।बोक्तिल लेहु सब सखा संग के, मेरी कह्यौ कबहँु जिजविन पेलौ ।

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ब्रज-बविनता सब चोर कहहितं तोहिहं, लाजन सकुक्तिच जात मुख मेरौ ।आजु मोहिहं बलराम कहत हे, झूठहिहं नाम धरवित हैं तेरी ।जब मोहिहं रिरस लागवित तब त्रासवित, बाँधवित, मारवित जैसें चेरी ।सूर हँसवित ग्ाक्तिलन दे तारी, चोर नाम कैसेहुँ सुत फेरौ ॥31॥

ंृदान लीलांृदान प्र�ानमहरिर-महरिर कैं मन यह आई ।गोकुल होत उपद्र ढिदन प्रवित, बक्तिसऐ बृंदान मैं जाई ।सब गोपविन मिमक्तिल सकटा साजे, सबविहविन के मन मैं यह भाई ।सूर जमुन-तट डेरा दीन्हे, बरष के कँुर कन्हाई ॥1॥ गोदोहनमैं दुविहहौं मोहिहं दुहन क्तिसखाहु ।कैसें गहत दोहनी घुटुविन, कैसैं बछरा थन लै लाहु ।कैसैं लै नोई पग बाँधत, कैसे लै गैया अटकाहु ।कैसैं धार दूध की बाजवित, सोई सोइ विमिध तुम मोहिहं बताहु ।विनपट भई अब साँझ कन्हैया, गैयविन पै कहँु चोट लगाहु ।सूर श्याम सौं कहत ग्ाल सब,धेनु दुहन प्रातविह उढिठ आहु ॥2॥ गो-चारणआजु मैं गाइ चरान जैहौं ।बृंदाबन के भाँवित भाँवित फल अपने कर मैं खैहौं ।ऐसी बात कहौ जविन बारे, देखौ अपनी भाँवित ।तनक तनक पग चक्तिलहौ कैसैं, आत ह्वैं है अवित रावित ।प्रात जात गैया लै चारन, घर आत हैं साँझ ।तुम्हरौ कमल बदन कुम्हिम्हलैहै, रेंगत घामहिहं माँझ ।तेरी सौं मोहिहं घाम न लागत, भूख नहीं कछु नेक ।सूरदास प्रभु कह्यौ न मानत , पर् यौ आपनो टेक ॥1॥

बृंदान देख्यौ नँम-नंदन, अवितहिहं परम सुख पायौ ।जहँ-जहँ गाइ चरवित ग्ालविन सँग, तहँ-तहँ आपुन धायौ ।बलदाऊ मोकौं जविन छाँड़ौ संग तुम्हारैं ऐहौं ।कैसेहँु आजु जसोदा छाँड़्यौ, काल्हिल्ह न आन पैहौं ।सोत मोकौं टेरिर लेहुगे, बाबा नंद-दुहाई ।सूर स्याम विबनती करिर बल सों, सखविन समेत सुनाई ॥2॥

विबहारी लाल, आहु, आई छाक ।भई अबार, गाइ बहुराहु, उलटाहु दै हाँक ।अजु]न, भोज अरु सुबल, सुदामा, मधुमंगल इक ताक ।मिमक्तिल बैठ सन जेन लागे, बहुत बने कविह पाक ।अपनी पत्राक्तिल सब देखत, जहँ-तहँ फेविन विपराक ।सूरदास प्रभु खात ग्ाल सँग, ब्रह्मलोक यह धाक ॥3॥

ब्रज मैं को उपज्यौ यह भैया ।संग सखा सब कहत परस्पर, इनके गुन अगमैया ।जब तैं ब्रज अतार धर् यौ, इन, कोउ नहिहं घात करैया ।तृनात] पूतना पछारी, तब अवित रहे नन्हैया ।विकवितक बात यह बका विदार् यौ, धविन जसुमवित जिजन जैयासूरदास प्रभु की यह लीला, हम कत जिजय पक्तिछतैया ॥4॥

आजु जसोदा जाइ कन्हैया महा दुष्ट इक माँर्‌यौ ॥पन्नग-रूप मिमले क्तिससु गो-सुत इहिहं सब साथ उबार् यौ ।विगरिर -कंदरा समान भयानक जब अघ बदन पसार् यौ ।विनडर गोपाल पैढिठ मुख भीतर, खंड-खंड करिर डार् यौ ।याकैं बल हम बदत न काहुहिहं, सकल भूमिम तृन चार् यौ ।जीते सबै असुर हम आगैं, हरिर कबहुँ नहिहं हार् यौ ।हरविष गए सब कहविन महरिर सौं अबहिहं अघासुर मार् यौ ।सूरदास प्रभु की यह लीला ब्रज कौ काज सँार् यौ ॥5॥ब्रह्मा बालक-बच्छ हरे ।आढिद अंत प्रभु अंतरजामी, मनसा तैं जु करे ।सोइ रूप ै बालक गौ-सुत, गोकुल जाइ भरे ।

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एक बरष विनक्तिस बासर रविह सँग, कहु न जाविन परे ।त्रास भयौ अपराध आपु लखिख, अस्तुवित करत सरे ।सूरदास स्ामी मनमोहन, तामै मन न धरे ॥6॥

आजु कन्हैया बहुत बच्यौ री ।खेलत रह्यौ घोष कैं बाहर, कोउ आयौ क्तिससु रूप रच्यौ री ।मिमक्तिल गयौ आइ सखा की नाईं, लै चढ़ाइ हरिर कंध सच्यौ री । गगन उड़ाइ गयौ लै स्यामविह, आविन धरविन पर आप दच्यौ री ।धम] सहाइ होत है जहँ-जहँ स्रम करी पूरब पुन्य पच्यौ री ।सूर स्याम अब कैं बक्तिच आए, ब्रज-घर-घर सुख-सिसंधु मच्यौ री ॥7॥

अब कैं राखिख लेहु गोपाल ।दसहुँ ढिदसा दुसह दााविगविन उपजी है इहिहं काल ।पटकत बाँस, काँस कुल चटकत, लटकत ताल तमाल ।उचटत अवित अंगार, फुटत फर, झपटत लपट कराल ।घूम धँूमिध बाढ़ी घर अंबर, चमकत विबच-विबच ज्ाल ।हरिरन,बराह, मोर, चातक, विपक जरत जी बेहाल ॥जविन जिजय डरहु, नैन मूँदहु सब, हँक्तिस बोले नँदलाल ।सूर अविगविन सब बदन समानी ,अभय विकये ब्रज-बाल ॥8॥बन तैं आत धेनु चराए ।संध्या समय साँरे मुख पर, गो-पद-रज लपटाए ।बरह मुकुट कैं विनकट लसवित लट, मधुप मनौ रुक्तिच पाए ।विबलसत सुधा जलज-आनन पर, उड़त न जात उड़ाए ।विबमिध बाहन-भच्छन की माला, राजत उर पविहराए ।एक बरन बपु नहिहं बड़ छोटे, ग्ाल बने इक धाए ।सूरदास बक्तिल लीला प्रभु की, जीत जन जस गाए ॥9॥

मैया बहुत बुरो बलदाऊ ।कहन लग्यौ मन बड़ो तमासी, सब मोढ़ा मिमक्तिल आऊ ।मोहँु कौं चुचकार गयो लै, जहाँ सघन बन झाऊ ।भाविग चलौ कविह गयौ उहाँ तै, काढिट खाइ रे हाऊ ।हौं डरपौं अरु रोौं, कोउ नहिहं धीर धराऊ ।थरक्तिस गयौं नहिहं भाविग सकौं, ै भागे जात अगाऊ ।मोसौं कहत मोल कौ लीनो, आपु कहात साऊ ।सूरदास बल बड़ौ चबाई, तैसेहिहं मिमले सखाऊ ॥10॥

मैया हौं न चरैहौं गाइ ।क्तिसगरे ग्ाल मिघरात मोसौं, मेरे पाइ विपराइ ।जौ न पत्याविह पूक्तिछ बलदाऊहिहं, अपनी सौंह ढिदाइ ।यह सुविन माइ जसोदा ग्ालविन, गारी देवित रिरसाइ ।मैं पठवित अपन ेलरिरका कौं, आै मन बहराइ ।सूर स्याम मेरौ अवित बालक, मारत ताविह रिरंगाइ ॥11॥धविन यह ंृदान की रेन ु।नंद-विकसोर चरात गैयाँ, मुखहिहं बजात बेनु ।मन-मोहन कौ ध्यान धरै जिजय, अवित सुख पात चैन ।चलत कहाँ मन और पुरी तन, जहँ कछु लैन न दैनु ।इहाँ रहहु जहँ जूठविन पाहु, ब्रजाक्तिसन कै ऐनु ।सूरदास ह्याँ की सररिर नविह, कल्पृच्छ सुर-धैनु ॥12॥

सोत नींद आइ गई स्यामहिहं ।महरिर उठी पौढ़ाइ दुहँुविन कौं, आपु लगी गृह कामहिहं ।बरजवित है घर के लोगविन कौं, हरुऐं लै-लै नामहिहं ।गाढै़ बोक्तिल न पात कोऊ, डर मोहन बलरामहिहं ।क्तिस सनकाढिद अंत नहिहं पात, ध्यात अह-विनक्तिस जामहिहं ।सूरदास-प्रभु ब्रह्म सनातन, सो सोत नँद-धामहिहं ॥13॥

देखत नंद कान्ह अवित सोत ।भूखे भए आजु बन-भीतर, यह कविह कविह मुख जोत ।कह्यौ नहीं मानत काहू कौ, आपु हठी दोउ बीर ।बार-बार तनु पोंछत कर सों , अवितहिहं पे्रम की पीर ।

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सेज मँगाइ लई तहँ अपनी, जहाँ स्याम-बलराम ।सूरदास प्रभु कै ढि@ग सोए, सँग पौढ़ी नँद-बाम ॥14॥

जाविग उठे तब कँुर कन्हाई ।मैया कहाँ गई मो ढि@ग तै, संग सोवित बल भाई ।जागे नंद, जसोदा जागी, बोक्तिल क्तिलए हरिर पास ।सोत झझविक उठे काहे तै; दीपक विकयौ प्रकास ।सपनैं कूढिद पर् यौ जमुना दह, काहूँ ढिदयो विगराइ ।सूर स्याम सौं कहवित जसोदा, जविन हो लाल डराइ ॥15॥

मैं बरज्यौ जमुना-तट जात ।सुमिध रविह गई न्हात की तेर,ै जविन डरपौ मेरे तात ।नंद उठाइ क्तिलयौ कोरा करिर, अपने संग पौढ़ाइ । ंृदान मैं विफरत जहाँ तहँ, विकहिहं कारन तू जाइ ।अब जविन जैहौ गाइ चरान, कहँ को रहवित बलाइ ।सूर स्याम दंपवित विबच सोए, नींद गई तब आइ ॥16॥

काली-दमननारद ऋविष नृप तौ यौं भाषत । े हैं काल तुम्हारे प्रगटे काहैं उनकौं राखत ।काली उरग रहै जमुना मैं, तहै तैं कमल मँगाहु ।दूत पठाइ देहु ब्रज ऊपर, नंदहिहं अवित डरपाहु ।यह सुविन कै ब्रज लोग डरैंगै, ैं सुविनहैं यह बात ।पुहुप लैन जैहैं नँद-@ौटा, उरग करै तहँ घात ।यह सुविन कंस बहुत पायौ, भली कही यह मोविह ।सूरदास प्रभु कौं मुविन जानत, ध्यान धरत मन जोविह ॥1॥

कंस बुलाइ दूत इक लीन्हौ ।कालीदह के फूल मँगाए, पत्र क्तिलखाइ ताविह कर दीन्हौ ।यह कविहयौ ब्रज जाइ नंद सौं, कंस राज अवित काज मँगायो ।तुरत पठाइ ढिदऐं हो बविन है, भली-भाँवित कविह-कविह समुझायौ ।येह अंतरजामी जानी जिजय ,आपु रहे बन ग्ाल पठाए ।सूरस्याम, ब्रज-जन-सुखदायक, कंस-काल, जिजय हरष बढ़ाए॥2॥

पाती बाँचत नंद डराने ।कालीदेह के फूल पठाहु,सुविन सबही घबराने ।जो मौकौं नहिहं फूल पठाहु, तौ ब्रज देहँु उजारिर ।महर, गोप, उपनंद न राखौं, सबविहविन डारौं मारिर ।पुहुप देहु तौ बनै तुम्हारी, ना तरु गए विबलाइ ।सूर स्याम बलरामु वितहारे, माँगौं उनहिहं धराइ ॥3॥पूछौ जाइ तात सौं बात ।मैं बक्तिल जाउँ मुखारहिबंद की, तुहीं काज कंस अकुलात ।आए स्याम नंद पै धाए जान्यौ मातु-विपता विबलखात ।अबहीं दूर करौं दुख इनकौ, कंसहिहं पठै देऊँ जलजात ।मोसौ कही बात बाबा यह, बहुत करत तुम सोच विचार ।कहा कहौं तुमसौं मैं प्यारे, कंस करत तुमसौं कछु झार ।जब तैं जनम भयौ है तुम्हरौ, केते करबर टरे कन्हाइ ।सूर स्याम कुलदेविन तुमकौं जहाँ तहाँ करिर क्तिलयौ सहाइ ॥4॥

खेलत स्याम, सखा क्तिलए संग ।इक मारत, इक रोकत गेंदहिहं, इक भागत करिर नाना रंग ।मार परसपर करत आपु मैं, अवित आनंद भए माहिहं ।खेलत ही मैं स्याम सबविन कौं, जमुना तट कौं, लीन्हैं जाहिहं ।मारिर भजत जो जाविह, ताविह सो मारत, लेत आपनौ दाउ ।सूर स्याम के गुन को जानै कहत और कछु और उपाउ ॥5॥

स्याम सखा कौ गेंद चलाई ।श्रीदामा मुरिर अंग बचायौ, गेंद परी कालीदह जाई ।धाइ गही तब फें ट स्याम की, देहु न मेरी गेंद मँगाई ।

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और सखा जविन मौकों जानौ, मोसौं तुम जविन करौ ढि@ठाई ।जाविन-बूजिझ तुम गेंद विगराई, अब दीन्हैं ही बनै कन्हाई ।सूर सखा सब हँसत परसपर, भली करी हरिर गेंद गँाई ॥6॥

फें ट छाँविड़ मेरी देहु श्रीदामा ।काहे कौं तुम रारिर बढ़ात,तनक बात कैं कामा ।मेरी गेंद लेहु ता बदलैं, बाँह गहत हौ धाइ ।छोटौ बड़ौ न जानत काहूँ करत बराबरिर आइ ।हम काहे कौं तुमहिहं बराबर बडे़ नंद के पूत ।सूर स्याम दीन्हैं ही बविनहै, बहुत कहात धूत ॥7॥

रिरस करिर लीन्ही फें ट छुड़ाई ।सखा सबै देखत हैं ठाढे़, आपुन चढे़ कदम पर धाइ ।तारी दै दै हँसत सबै मिमक्तिल, स्याम गए तुम भाजिज डराइ ।रोत चले श्रीदामा घर कौं, जसुमवित आगैं कविहहौं जाइ ।सखा-सखा कविह स्याम पुकार् यौ, गेंद आपनौ लेहु न आइ ।सूर-स्याम पीतांबर काछे, कूढिद परे दह में भहराइ ॥8॥

चौंविक परी तन की सुध आई ।आजु कहा ब्रज सोर मचायौ, तब जान्यौ दह विगर् यौ कन्हाई ।पुत्र-पुत्र कविहकै उढिठ दौरी, व्याकुल जमुना तीरविह धाई ।ब्रज-बविनता सब संगविह लागीं आइ गए बल, अग्रज भाई ।जननी व्याकुल देखिख प्रबोधत धीरज करिर नीकैं जदुराई ।सूर स्याम कौं नैं कँु नहीं डर, जविन तू रोै जसुमवित माई ॥9॥जसुमवित टेरवित कँुर कन्हैया ।आगैं देखिख कहत बलरामहिहं, कहाँ रह्यौ तु भैया ।मेरौ भैया आत अबहीं तौविह ढिदखाऊँ मैया ।धीरज करहु, नैकु तुम देखहु, यह सुविन लेत बलैयापुविन यह कहवित मोहिहं परमोधत, धरविन विगरी मुरझैया ।सूर विबना सुत भई अवित व्याकुल, मेरौ बाल कन्हैया ॥10॥

अवित कोमल तनु धर् यौ कन्हाई ।गए तहाँ जहँ काली सोत, उरग-नारिर देखत अकुलाई ।कह्यौ कौन कौ बालक है तू, बार-बार कही; भाविग न जाई ।छनकविह मैं जरिर भस्म होइगो, जब देखे उढिठ जाग जम्हाई ।उरग-नारिर की बानी सुविन कै, आपु हँसे मन मैं मुसुकाई ।मौकौं कंस पठायौ देखन, तू याकौं अब देविह जगाई ।कहा कंस ढिदखरात इनकौं, एक फँूकहिहं मैं जरिर जाई ।पुविन-पुविन कहत सूर के प्रभु कौ, तू अब काहे न जाई पराई ॥11॥

जिझरविक कै नारिर, दै गारिर धारिर तब, पँूछ पर लात दै अविह जगायौ ।उठ्यौ अकुलाइ, डर पाइ खग-राइ कौं, देखिख बालक गरब अवित बढ़ायौ ।पँूछ लीन्ही झटविक, धरविन सौं गविह पटविक, फँुकर् यौ लटविक करिर क्रोध फूले ।पँूछ राखी चाँविप, रिरसविन काली काँविप, देखिख सब साँविप-असान भूले ।करत फन घात, विष जात उतरात, अवित नीर जरिर जात नहिहं गात परसै ।सूर के स्याम प्रभु, लोक अभिभराम, विबनु जान अविहराज विष ज्ाल बरसै ॥12॥

उरग क्तिलयौ हरिर कौं लपटाइ ।ग]-चन कविह-कविह मुख भाषत, मौकौ नहिहं जानत अविहराइ ।क्तिलयौ लपेढिट चरन तैं क्तिसख लौं, अवित इहिहं मोसौं करत ढि@ठाइ ।चाँपी पँूछ लुकात अपनी, जुवितविन कौं नहिहं सकत ढिदखाइ ।प्रभु अंतरजामी सब जानत, अब डारौं इहिहं सकुक्तिच मिमटाइ ।सूरदास प्रभु तन विबस्तार् यौ, काली विबकल भयौ तब जाइ ॥13॥जबहिहं स्याम तन, अवित विबस्तार् यौ ।पटपटात टूटत अँग जान्यौ, सरन-सरन सु पुकार् यौ ।यह बानी सुनतहिहं करुनामय, तुरत गए सकुचाइ ।यहै बचन सुविन द्रुपद-सुता-मुख दीन्हौं बसन बढ़ाइ ।यहै बचन गजराज सुनायौ, गरुड़ छाँविड़ तहँ धाए ।यहै चन सुविन लाखा गृह मैं, पांड जरत बचाए ।

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यह बानी सविह जात न प्रभु सौं, ऐसे परम कृपाल ।सूरदास प्रभु अंग सकोर् यौ, ब्याकुल देख्यौ ब्याल ॥14॥

नाथत ब्याल विबलंब न कीन्हौं।पग सौं चाँविप धींच बल तोर् यौ नाविक फोरिर गविह लीन्हौ ।कूढिद चढे़ ताके माथे पर, काली करत विबचार ।स्रनविन सुनी रही यह बानी, ब्रज है्व है अतार ।तेइ अतरे आइ गोकुल मैं, मैं जानी यह बात ।अस्तुवित करन लग्यौ सहसौ मुख, धन्य-धन्य जग-तात ।बार-बार कविह सरन पुकार् यौ, राखिख-राखिख गोपाल ।सूरदास प्रभु प्रगट भए जब, देख्यौ ब्याल विबहाल ॥15॥

आत उरग नाथे स्याम ।नंद जसुदा, गोप गोपी, कहत हैं बलराम ।मोर-मुकुट, विबसाल लोचन, स्रन कंुडल लोल ।कढिट विपतंबर, ेष नटर, नूतन फन प्रवित डोल ।दे ढिदवि दँुदुभिभ बजात, सुमन गन बरषाइ ।सूर स्याम विबलोविक ब्रज-जन, मातु, विपतु सुख पाइ ॥16॥

गोपाल रइ विनरतत फन-प्रवित ऐसे ।विगरिर पर आए बादर देखत मोर अनढंिदत जैसे ।डोलत मुकुट सीस पर हरिर के, कंुडल-मंविडत-गंड ।पीत बसन, दामिमन मनु घन पर, तापर सूर-कोदंड ।उरग-नारिर आगैं सब ठाढ़ीं, मुख मुख अस्तुवित गाैं ।सूर स्याम अपराध छमहु अब, हम माँगैं पवित पाैं ॥17॥

गरुड़-त्रास तैं जौ ह्याँ आयौ ।तौ प्रभु चरन-कमल-फन-फन-प्रवित, अपनैं सीस धरायौ ।धविन रिरविष साप ढिदयौ खगपवित कौं, ह्याँ तब रह्यौ छपाइ ।प्रभु ाहन-डर भाजिज बच्यौ, नातरु लेतौ खाइ ।यह सुविन कृपा करी नँन-नंदन, चरन क्तिचह्न प्रगटाए ।सूरदास प्रभु अभय ताविह करिर, उरग-bीप पहुँचाए ॥18॥

सहस सकट भरिर कमल चलाए । अपनी समसरिर और गोप जे, वितनकौ साथ पठाए ।और बहुत काँरिर दमिध-माखन, अविहरविन काँधै जोरिर ।नृप कैं हाथ पत्र यह दीजौ, विबनती कीजौ मोरिर ।मेरो नाम नृपवित सौं लीजौ, स्याम कमल लै आए ।कोढिट कमल आपुन नृप माँगे, तीविन कोढिट हैं पाए ।नृपवित हमहिहं अपनौं करिर जानौ, तुम लायक हम नाहिहं ।सूरदास कविहयौ नृप आगैं, तुमहिहं छाँविड़ कहँ जाहिहं ॥19॥

मुरलीजब हरिर मुरली अधर धरत ।क्तिथर चर, चर क्तिथर, पन थविकत रहैं, जमुना जल न बहत ॥खग मौहैं मृग-जूथ भुलाहीं, विनरखिख मदन-छविब छरत ।पसु मोहैं सुरभी विथविकत, तृन दंतविन टेविक रहत ॥सुक सनकाढिद सकल मुविन मोहैं ,ध्यान न तनक गहत ।सूरदास भाग हैं वितनके, जे या सुखहिहं लहत ॥1॥(कहौं कहा) अंगविन की सुमिध विबसरिर गई ।स्याम-अधर मृदु सुनत मुरक्तिलका, चविकत नारिर भईं ॥जौ जैसैं तो तैसै रविह गईं, सुख-दुख कह्यौ न जाइ ।क्तिलखी क्तिचत्र सी सूर है्व रहिहं, इकटक पल विबसराइ ॥2॥

मुरली धुविन स्रन सुनत,भन रविह न परै;ऐसी को चतुर नारिर, धीरज मन धरै ॥सुर नर मुविन सुनत सुमिध नम क्तिस-समामिध टरै ।अपनी गवित तजत पन, सरिरता नहिहं @रै ॥

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मोहन-मुख-मुरली, मन मोविहविन बस करै ।सूरदास सुनत स्रन, सुधा-सिसंधु भरै ॥3॥बाँसुरी बजाइ आछे, रंग सौं मुरारी ।सुविन कै धुविन छूढिट गई, सँकर की तारी ॥ेद पढ़न भूक्तिल गए, ब्रह्मा ब्रह्मचारी ।रसना गुन कविह न सकै, ऐसी सुमिध विबसारी !इंद्र-सभा थविकत भइ, लगो जब करारी ।रंभा कौ मान मिमट्यौ, भूली नृत कारी ॥जमुना जू थविकत भई, नहीं सुमिध सँभारी ।सूरदास मुरली है, तीन-लोक-प्यारी ॥4॥

मुरली तऊ गुपालहिहं भात ।सुविन री सखी जदविप नँदलालहिहं, नाना भाँवित नचावित ।राखवित एक पाइ ठाढ़ौ करिर, अवित अमिधकार जनावित ।कोमल तन आज्ञा करावित, कढिट टेढ़ौ है्व आवित ॥अवित आधीन सुजान कनौडे़, विगरिरधर नार नावित ।आपुन पौंढिढ़ अधर सज्जा पर, कर पल्ल पलुटावित ।झुकुटी कुढिटल, नैन नासा-पुट, हम पर कोप करावित ।सूर प्रसन्न जाविन एकौ क्तिछन , धर तैं सीस डुलावित ॥5॥

अधर-रस मुरली लूटन लागी ।जा रस कौं षटरिरतु तप कीन्हौ, रस विपयवित सभागी ॥कहाँ रही, कहँ तैं इह आई, कौनैं याविह बुलाई ?चविकत भई कहहितं ब्रजबाक्तिसविन, यह तौ भली न आई ॥साधान क्यौं होहितं नहीं तुम, उपजी बुरी बलाई ।

सूरदास प्रभु हम पर ताकौं, कीन्हों सौवित बजाई ॥6॥

अबहौ तें हम सबविन विबसारी ।ऐसे बस्य भये हरिर बाके, जावित न दसा विबचारी ॥कबहूँ कर पल्ल पर राखत, कबहूँ अधर लै धारी ।कबहुँ लगाइ लेत विहरदै सौं, नैंकहँु करत न न्यारी मुरली स्याम विकए बस अपनैं, जे कविहयत विगरिरधारी ।सूरदास प्रभु कैं तन-मन-धन , बाँस बँसुरिरया प्यारी ॥7॥मुरली की सरिर कौन करै ।नंद-नंदन वित्रभुन-पवित नागर सो जो बस्य करै ॥जबहीं जब मन आत तब तब अधरविन पान करै ।रहत स्याम आधीन सदाई आयसु वितनहिहं करै ॥ ऐसी भई मोविहनी माई मोहन मोह करै ।सुनहु सूर याके गुन ऐसे ऐसी करविन करै ॥8॥

काहै न मुरली सौं हरिर जौरै। काहैं न अधरविन धरै जु पुविन-पुविन मिमली अचानक भोरैं ॥काहैं नहीं ताविह कर धारैं, क्यौं नहिहं ग्री नाैं ।काहैं न तनु वित्रभंग करिर राखैं, ताके मनहिहं चुराैं ॥काहैं न यौ आधीन रहैं है्व, ै अहीर ह बेनु ।सूर स्याम कर तैं नहिहं टारत, बन-बन चारत धेनु ॥9॥

मुरक्तिलया कपट चतुरई ठानी ।कैसें मिमक्तिल गई नंद-नंदन कौं, उन नाहिहं न पविहचानी ॥इक ह नारिर , बचन मुख मीठे, सुनत स्याम ललचाने ।जाँवित-पाँवित की कौन चलाै, ाकैं रंग भुलान े॥जाकौ मन मानत है जासौं , सो तहँई सुख मानै ।सूर स्याम ाके गुन गात, ह हरिर के गुन गान ै॥10॥

स्यामहिहं दोष कहा कविह दीजै ।कहा बात सुरली सौं कविहयै, सब अपनहेिहं क्तिसर लीजै ॥हमहीं कहवित बजाहु मोहन, यह नाहीं तब जानी ।हम जानी यह बाँस बँसुरिरया, को जानै पटरानी ॥

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बारे तैं मुँह लागत लागत, अब है्व गई सयानी ।सुनहु सूर हम भौरी-भारी, याकी अकथ कहानी ॥11॥

मुरली कहै सु स्याम करैं री ।ाही कैं बस भये रहत हैं, ाकैं रंग @रैं री ॥घर बन, रैन-ढिदना सँग डोलत, कर तैं करत न न्यारी ।आई उन बलाइ यह हमकौं, कहा दीजिजयै गारी ।अब लौं रहें हमारे माई, इहिहं अपन ेअब कीन्हे ।सूर स्याम नागर यह नागरिर, दुहँुविन भलै कर चीन्हे ॥12॥

मेरे दुख कौ ओर नहीं ।षट रिरतु सीत उष्न बरषा मैं, ठाढे़ पाइ रही ॥कसकी नहीं नैकुहँू काटत, घामैं राखी डारिर ।अविगविन सुलाक देत नहिहं मुरकी, बेह बनात जारिर ॥तुम जानवित मोहिहं बाँस बँसुरिरया, अविगविन छाप दै आई ।सूर स्याम ऐसैं तुम लेहु न, खिखझवित कहाँ हौ माई ॥13॥

श्रम करिरहौ जब मेरी सौ ।तब तुम अधर-सुधा-रस विबलसहु, मैं है्व रविहहौं चेरी सी ।विबना कष्ट यह फल न पाइहौं, जानवित हौ अडेरी सी ।षटरिरतु सीत तपविन तन गारौ, बाँस बँसुरिरया केरी सी ॥कहा मौन है्व है्व जु रही हौ, कहा करत असेरी सी ।सुनहु सूर मैं न्यारी है्व हौं, जब देखौं तुम मेरी सी ॥14॥मुरली स्याम बजान दै री ।स्रनविन सुधा विपयवित काहैं नहिहं, इहिहं तू जविन बरजै री ।सुनवित नहीं ह कहवित कहा है, राधा राधा नाम ।तू जानवित हरिर भूल गए मोहिहं, तुम एकै पवित बाम ॥ाही कैं मुख नाम धरात, हमहिहं मिमलात ताहिहं ।सूर स्याम हमकौं नही विबसर,े तुम डरपवित हौ काविह ॥15॥

मुरक्तिलया मोकौं लागवित प्यारी ।मिमली अचानक आइ कहँू तैं, ऐसी रही कहाँ री ॥धविन याके विपतु-मातु, धन्य यह, धन्य-धन्य मृदु बालविन ।धन स्याम गुन गुविन कै ल्याए, नागरिर चतुर अमोलविन ॥यह विनरमोल मोल नहिहं याकौ,भली न यातैं कोई ।सूरदास याके पटतर कौ, तौ दीजै जौ होई ॥16॥ कमरीधविन धविन यह कामरी मोहन स्याम की ।यहै ओढिढ़ जात बन, यहै सेज कौ बसन, यहै विनारिरविन मेहबूँद छाँह घाम की ।याही ओट सहत क्तिसक्तिसर-सीत, याहीं गहने हरत, लै धरत ओट कोढिट बाम की ।यहै जावित-पाँवित, परिरपाटी यह क्तिसखत, सूरज प्रभु के यह सब विबसराम की ॥1॥

यह कमरी कमरी करिर जानवित ।जाके जिजतनी बुजिद्ध हृदय मैं, सौ विततनौ अनुमानवित ॥या कमरी के एक रोम पर, ारी चीर पटंबर ।सो कमरी तुम हिनंदवित गोपी, जो वितहँु लोक अडंबर ॥कमरी कैं बल असुर सँहारे, कमरिरहिहं तैं सब भोग ।जावित-पाँवित कमरी सब मेरी, सूर सबै यह जोग ॥2॥

चीर-हरनभन रन सबही विबसरायौ ।नंद-नँदन जब तैं मन हरिर क्तिलयौ, विबरथा जनम गँायौ ॥जप, तप व्रत, संजम, साधन तैं, द्रवित होत पाषान ।जैसैं मिमलै स्याम संुदर बर, सोइ कीजै, नहिहं आन ।यहै मंत्र दृढ़ विकयौ सबविन मिमक्तिल, यातैं होइ सुहोइ ।ृथा जनम जग मैं जिजविन खौहु, ह्याँ अपनौ नहिहं कोइ ॥तब प्रतीत सबविहविन कौं आई, कीन्हौं दृढ़ विस्ास ।सूर स्यामसंुदर पवित पाैं, यहै हमारी आस ॥1॥

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जमुना तट देखे नँद नंदन ।मोर-मुकुट मकराकृत-कंुडल, पीत-सन तन चंदन ॥लोचन तृप्त भए दरसन तैं, उर की तपवित बुझानी ।पे्रम-मगन तब भई संुदरी, उर गदगद, मुख-बानी ॥कमल-नयन तट पर हैं ठाढे़, सकुचहिहं मिमक्तिल ब्रज-नारी ।सूरदास-प्रभु अंतरजामी, ब्रत-पूरन पगधारी ॥2॥

बनत नहिहं जमुना कौ ऐबौ ।संुदर स्यामघाट पर ठाढे़, कहौ कौन विबमिध जैबी ॥कैसें बसन उतारिर धरैं हम, कैसैं जलहिहं समैबौ ।नंद-नँदन हमकौं देखैंगे, कैसै करिर जु अन्हैबौ ॥चोली, चीर , हार लै भाजत, सो कैसैं करिर पैबी ।अंकन भरिर-भरिर लेत सूर प्रभु, काल्हिल्ह न इहिहं पथ ऐबौ ॥3॥नीकैं तप विकयौ तनु गारिर ।आपु देखत कदम पर चढ़ी, माविन क्तिलयौ मुरारिर ॥ष] भर ब्रत-नेम-संजम, स्रम विकयौ मोहिहं काज ।कैसै हँू मोहिहं भजै कोऊ, मोहिहं विबरद की लाज ॥धन्य ब्रत इन विकयौ पूरन, सीत तपवित विनारिर ।काम-आतुर भजीं ,मोकौ, न तरुविन ब्रज-नारिर ॥कृपा-नाथ कृपाल भए तब, जाविन जन की पीर ।सूर प्रभु अनुमान कीन्हौ, हरौं इनके चीर ॥4॥

बसन हरे सब कदम चढ़ए ।सोरह सहस गोप-कन्यविन के, अंग अभूषन सविहत चुराए ॥नीलांबर, पाटंबर, सारी, सेत पीत चुनरी, अरुनाए ।अवित विबस्तार नोप तरु तामै लै लै जहाँ-तहाँ लटकाए ॥मविन-आभरन डार डारविन प्रवित, देखत छविब मनहीं अँटकाए ॥सूर,स्याम जु वितविन ब्रत पूरन, कौ फल डारविन कदम फराए ॥5॥

हमारे अंबर देहु मुरारी ।लै सब चोर कदम चढिढ़ बैठे, हम जल-माँझ उघारी ॥तट पर विबना बसन क्यौं आैं ,लाज लगवित है भारी ।चोली हार तुमहिहं कौं दीन्हौं, चीर हमहिहं द्यौ डारी ॥चोली हार तुमहिहं कौं दीन्हौं, चीर हमहिहं द्यौ डारी ॥तुम यह बात अचंभौ भाषत,नाँगी आहु नारी ।सूर स्याम कछु छोह करौ जू, सीत गई तनु मारी ॥6॥

लाज ओट यह दूरिर करौ ।जोइ मैं कहौं करौ तुम सोई, सकुच बापुरिरविह कहा करौ ॥जल तैं तीर आइ कर जोरहु, मैं देखौं तुम विबनय करौ ।पूरन ब्रत अब भयौ तुम्हारौ, गुरुजन संका दूरिर करौ ।अब अंतर मोसौं जविन राखहुँ , बार बार हठ ृथा करौ ।सूर स्याम कहैं चीर देत हौं, मौ आगैं सिसंगार करौ ॥7॥

ब्रत पूरन विकयौ नंदकुमार । जुवितविन के मेटे जंजार ॥जप तप करिर तनु अब जविन गारौ । तुम घरनी मैं कंत तुम्हारौ ॥अंतर सोच दूरिर करिर डारौ । मेरौ कह्यौ सत्य उर धारौ ॥सरद-रास तुम आस पुराऊँ । अंकन भरिर सबकौं उर लाऊँ ॥यह सुविन सब मन हरष बढ़ायौ । मन-मन कह्यौ कृष्न पवित पायौ ॥जाहु सबै घर घोष-कुमारी । सरद-रास देहौं सुख भारी ॥सूर स्याम प्रगटे विगरिरधारी । आनँद सविहत गईं घर नारी ॥8॥ गोद्ध]नधारण

बाजवित नंद-अास बधाई ।बैठे खेलत bार आपनैं, सात बरस के कँुर कन्हाई ॥बैठे नंद सविहत ृषभानहुिहं, और गोप बैठे सब आई ।थापैं देत घरिरन के bारैं, गाहितं मंगल नारिर बधाई ॥पूजा करत इंद्र की जानी, आए स्याम तहाँ अतुराई ।बार-बार हरिर बूझत नंदहिहं , कौन दे की करत पुजाई ॥

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इंद्र बडे़ कुल-दे हमारे, उनतैं सब यह होवित बड़ाई ।सूर स्याम तुम्हरे विहत कारन, यह पूजा करत सदाई ॥1॥

मेरौ कह्यो सत्य करिर जानौ ॥जौ चाहौ ब्रज की कुसलाई, तौ गोबध]न मानौ ॥दूध दही तुम विकतनौ लैहौ, गोसुत बढ़ैं अनेक ।कहा पूजिज सुरपवित सैं पायौ, छाँविड़ देहु यह टेक ॥मुँह माँगे फल जौ तुम पाहु, तो तुम मानहु मोहिहं ।सूरदास प्रभु कहत ग्ालसौं, सत्य बचन करिर दोविह ॥2॥

विबप्र बुलाइ क्तिलए नँदराइ ।प्रथमारंभ जज्ञ कौ कीन्हौ, उठे बेद-धुविन गाइ ॥गोबध]न क्तिसर वितलक चढ़ायौ, मेढिट इंद्र ठकुराइ ।अन्नकूट ऐसौ रक्तिच राख्यौ, विगरिर की उपमा पाइ ॥भाँवित-भाँवित ब्यंजन परसाए, काँपै बरन्यौ जाइ ।सूर स्याम सौं कहत ग्ाल, विगरिर जेहिहं कहौ बुझाइ ॥3॥विगरिरर स्याम की अनुहारिर ।करत भोजन अमिधक रुक्तिच यह, सहस भुजा पसारिर ॥नंद कौ कर गहे ठाढे़, यहै विगरिर कौ रूप ।सखी लक्तिलता रामिधका सौं, कहवित देखिख स्रूप ॥यहै कँुडल, यहै माला, यहै पीत विपछौरिर ।क्तिसखर सोभा स्याम की छविब, स्याम-छविब विगरिर जोरिर ॥नारिर बदरोला रही, ृषभानु-घर रखारिर ।तहाँ तैं उहिहं भोग अरप्यौ, क्तिलयौ भुजा पसारिर ॥रामिधका-छवि भूली, स्याम विनरखैं ताविह ।सूर प्रभु-बस भई प्यारी, कोर-लोचन चाविह ॥4॥

ब्रज बाक्तिसविन मोकौं विबसरायौ ।भली करी बक्तिल जो कछु, सो सब लै परबतहिहं चढ़ायौ ॥मोसौं पब] विकयौ लघु प्रानी, ना जाविनयै कहा मन आयौ ।तैंवितस कोढिट सुरविन कौ नायक, जाविन-बूजिझ इन मोहिहं भुलायौ ॥अब गोपविन भूतल नहिहं राखौं, मेरी बक्तिल मोहिहं नहिहं पहुँचायौ ।सुनहु सूर मेरै मारतत धौं, परबत कैसें होत सहायौ ॥5॥

विगरिर पर बरषन लागे बादर ॥मेघत्त], जलत], सैन सजिज, आए लै लै आदर ॥सक्तिलक्तिल अखंड धार धर टूटत, विकये इंद्र मन सादर ।मेघ परस्पर यहै कहत हैं, धोई करहु विगरिर खादर ॥देखिख देखिख डरपत ब्रजासी , अवितहिहं भए मन कादर ।यहै कहत ब्रज कौन उबारै, सुरपवित विकयैं विनरादर ॥सूर स्याम देखैं विगरिर अपनैं. मेघविन कीन्हौ दादर ।दे आपनी नहीं सम्हारत, करत इन्द्र सौ ठादर ॥6॥

ब्रज के लोग विफरत विबतताने ।गैतविन लै बन ग्ाल गए, ते धाए आत ब्रजहिहं परान े॥कोउ क्तिचतत नभ-तन, चविक्रत है्व, कोउ विगरिर परत,धरविन अकुलाने ।कोउ लै रहत ओट ृच्छविन की, अंध-अंध ढिदक्तिस -विबढिदक्तिस भुलाने ॥कोउ पहुँचे जैसें तैसें गृह, @ंूढ़त गृह नहिहं पविहचाने ।सूरदास गोबध]न-पूजा, कीन्हे कौ फल लेहु विबहाने ॥7॥

राखिख लेहु अब नंदविकसोर ।तुम जो इंद्र की मेटी पूजा, बरसत है अवित जोर ॥ब्रजासी तुम तन क्तिचतत हैं, ज्यौं करिर चंद चकोर ।जविन जिजय डरौ, नैन जविन मूँदौ, धरिरहौं नख की ओर ॥करिर अभिभमान इंद्र झरिर लायौ, करत घटा घन घोर ।सूर स्याम कह्यौ तुम कौं, राखौं बूँद न आै छोर ॥8॥

स्याम क्तिलयौ विगरिरराज उठाइ ।धीर धरौ हर कहत सबविन सौं, विगरिर गोबध]न करत सहाइ ॥नंद गोप ग्ालविन के आगैं, दे कह्यौ यह प्रगट सुनाइ ।

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काहे कौं व्याकुल भए ँडोलत, रच्छा करै देता आइ ॥सत्य बचन विगरिर-दे कहत हैं, कान्ह लेविह मोहिहं कर उचकाइ ।सूरदास नारी-नर ब्रज के, कहत धण्य तुम कँुर कन्हाइ ॥9॥

विगरिर जविन विगरै स्याम के कर तैं ।करत विबचार ब्रजबासी, भय उपजत अवित उर तैं ॥लै-लै लकुट सब धाए करत सहाय जु तुरतैं ।यह अवित प्रबल, स्याम अवित कोमल, रबविक रबविक हरबर तैं ॥सप्त ढिदस कर पर विगरिर धार् यौ, बरक्तिस थक्यौं अंबर तैं ।गोपी ग्ाल नंद-सुत राख्यौ, मेघ-धार जलधर तैं ॥जमलाजु]न दोउ सुत कुबेर के, तेउ उखारे जर तैं ।सूरदास प्रभु इंद्र-गब] हरिर, ब्रज राख्यौ करबर तैं ॥10॥

मेघविन जाइ कही पुकारिर ।दीन ह्वैं सुरराज आगैं, अस्त्र दीन्हे डारिर ॥सात ढिदन भरिर बरक्तिस ब्रज पर, गई नैकँु न झारिर ।अखँड धारा सक्तिलत विनझर् यौ, मिमटी नाहिहं लगारिर ॥धरविन नैकँु न बूँद पहुँची, हरषे ब्रज-नर-नारिर ।सूर धन सब इंद्र आगैं, करत यहै गुहारिर ॥11॥घरविन घरविन ब्रज होवित बधाई ।सात बरष को कँुर कन्हैया, विगरिरर धरिर जीत्यौ सुरराई ॥ग] सविहत आयौ ब्रज बोरन, ह कविह मोरी भक्ति� घटाई ।सात ढिदस जल बरविष क्तिसरान्यौ, तब आयौ पाइविन तर धाई ॥कहाँ कहाँ नहिहं संकट मेटत, नर-नारी सब करत बड़ाई ।सूरस्याम अब कैं ब्रज राख्यौ, ग्ाल करत सब नंद दोहाई ॥12॥

(तेरे) भुजविन बहुत बल होइ कन्हैया ।बार-बार भुज देखिख तनक सै, कहवित जसोदा मैया ॥स्याम कहत नहिहं भुजा विपरानी, ग्ालविन विकयौ सहैया ।लकुढिटविन टेविक सबविन मिमक्तिल राख्यौ, अरु बाबा नँदरैया ॥मोसौं क्यौं रहतौ गोबरधन, अवितहिहं बड़ौ ह भारी ।सूरस्याम यह कविह परबोध्यौ चविकत देखिख महतारी ॥13॥

मातु विपता इनके नहिहं कोइ ।आपहिहं करता, वित्रगुन रविहत हैं सोइ ॥विकवितक बार अतार क्तिलयौ ब्रज, ये हैं ऐसे ओइ ।जल-थल कीट-ब्रह्म के व्यापक, और न इन सरिर होइ ॥बसुधा-भार-उतारन-काजैं, आपु रहत तनु गोइ ।सूर स्याम माता-विहत-कारन, भोजन माँगत रोइ ॥14॥सुरगन सविहत इंद्र ब्रज आत ।धल बरन ऐराल देख्यौ उतरिर गगन तैं धरविन धँसात ॥अमरा-क्तिस-रविब-सक्तिस चतुरानन, हय-गय बसह हंस-मृग जात ।धम]राज, बनराज, अनल, ढिद, सारद, नारद, क्तिस-सुत भात ॥मेढ़ा, मविहष, मगर, गुदरारौ, मोर, आखु, मनाह गनात गात ।ब्रज के लौग देखिख डरपे मन, हरिर आगैं कविह कविह जु सुनात ॥सात ढिदस जल बरविष क्तिसरान्यौ, आत चल्यौ ब्रजहिहं अतुरात ।घेरौ करत जहाँ तहँ ठाढे़, ब्रजबाक्तिसन कौं नाहिहं बचात ॥दूरहिहं तैं बाहन सौ, उतर् यौ, देविन सविहत चल्यौ क्तिसर नात ।आइ पर् यौ चरनविन तर आतुर, सूरदास-प्रभु सीस उठात ॥15॥

रास लीलाजबहिहं बन मुरली स्रन परी ।चविकत भईं गोप-कन्या सब, काम-धाम विबसरीं ॥कुल मजा]द बेद की आज्ञा, नैंकहँु नहीं डरीं ।स्याम-सिसंधु, सरिरता-ललना-गन, जल की @रविन @रीं ॥अंग-मरदन करिरबे कौं लागौं, उबटन तेल धरी ।जो जिजहिहं भाँवित चली सो तैसेहिहं, विनक्तिस बन कौं जुखरी ॥सुत पवित-नेह, भन-जन-संका, लज्जा नाहिहं करी ।सूरदास-प्रभु मन हरिर लीन्हौ, नागर नल हरी ॥1॥

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चली बन बेनु सुनत जब धाइ ।मातु विपता-बाँध अवित त्रासत, जावित कहाँ अकुलाइ ॥सकुच नहीं, संका कछु नाहीं, रैविन कहाँ तुम जावित ।जननी कहवित दई की घाली, काहे कौं इतरावित ॥मानवित नहीं और रिरस पावित, विनकसी नातौ तोरिर ।जैसैं जल-प्राह भादौं कौ, सो को सकै बहोरिर ॥ज्यौं कें चुरी भुअंगम त्यागत, मात विपता यो त्यागे ।सूर स्याम कैं हाथ विबकानी, अक्तिल अंबुज अनुराग े॥2॥मातु-विपता तुम्हरे धौं नाहीं ।बारंबार कमल-दल-लोचन, यह कविह-कविह पक्तिछताहीं ॥उनकैं लाज नहीं, बन तुमकौं आत दीन्हीं रावित ।सब संुदरी, सबै नजोबन, विनठुर अविहर की जावित ।की तुम कविह आईं, की ऐसेहिहं कीन्हीं कैसी रीवित ।सूर तुमहिहं यह नहीं बूजिझयै, करी बड़ी विबपरीवित ॥3॥

इहिहं विबमिध बेद-मारग सुनौ ।कपट तजिज पवित करौ, पूजा कहा तुम जिजय गुनौ ॥कंत मानहु भ तरौगी, और नाहिहं उपाइ ।ताविह तजिज क्यौं विबविपन आईं, कहा पायौ आइ ॥विबरध अरु विबन भागहँू कौ, पवितत जौ पवित होइ ।जऊ मूरख होइ रोगी, तजै नाहीं जोइ ॥यहै मैं पुविन कहत तुम सौं, जगत मैं यह सार ॥सूर पवित-सेा विबना क्यौं, तरौगी संसार ॥4॥

तुम पात हम घोष न जाहिहं ।कहा जाइ लैहैं हम ब्रज, यह दरसन वित्रभुन नाहिहं ॥तुमहूँ तैं ब्रज विहतू न कोऊ, कोढिट कहौं नहिहं मानैं ।काके विपता. मातु हैं काकी, काहूँ हम नहिहं मानैं ॥काके पवित, सुत-मोह कौन कौ, घरही कहा पठात ।कैसौ धम], पाप है कैसौ, आप विनरास करात ॥हम जानैं केल तुमहीं कौं, और बृथा संसार ।सूर स्याम विनठुराई तजिजयै, तजिजयै बचन-विकार ॥5॥

कहत स्याम श्रीमुख यह बानी ।धन्य-धन्य दृढ़ नेम तुम्हारौ, विबनु दामविन मो हाथ विबकानी ॥विनरदय बचन कपट के भाखे, तुम अपनैं जिजय नैंकु न आनी ।भजीं विनसंक आइ तुम मोकौं, गुरुजन की संका नहिहं मानी ॥सिसंह रहैं जंबुक सरनागत, देखी सुनी न अकथ कहानी ।सूर स्याम अंकम भरिर लीन्हीं, विबरह अखिग्न-झर तुरत बुझानी ॥6॥

विकयौ जिजहिहं काज ताप घोष-नारी ।देहु फल हौं तुरत लेहु तुम अब घरी; हरष क्तिचत करहु दुख देहु डारी ॥रास रस रचौं, मिमक्तिल संग विबलसौ, सबै बस्त्र हरिर कविह जो विनगम बानी ।हँसत मुख मुख विनरखिख, बचन अमृत बरविष, कृपा-रस-भरे सारंग पानी ॥ब्रज-जुवित चहँु पास, मध्य सँुदर स्याम, रामिधका बाम, अवित छविब विबराजै ।सूर न-जलद-तनु, सुभन स्यामल कांवित, इंदु-बहु-पाँवित-विबच अमिधक छाजै ॥7॥

मानो माई घन घन अंतर दामिमविन ।घन दामिमविन दामिमविन घन अंतर, सोभिभत हरिर-ब्रज भामिमविन ॥जमुन पुक्तिलन मस्थिल्लका मनोहर, सरद-सुहाई-जामिमविन ।सुन्दर सक्तिस गुन रूप-राग-विनमिध, अंग-अंग अभिभरामिमविन ॥रच्यौ रास मिमक्तिल रक्तिसक राइ सौं, मुढिदत भईं गुन ग्रामिमविन ।रूप-विनधान स्याम संुदर तन, आनँद मन विबस्रामिमविन ॥खंजन-मीन-मयूर-हंस-विपक, भाइ-भेद गज-गामिमविन ।को गवित गनै सूर मोहन सँग, काम विबमोह्यौ कामिमविन ॥8॥

गरब भयौ ब्रजनारिर कौं, तबहिहं हरिर जाना ।राधा प्यारी सँग क्तिलये, भए अंतधा]ना ॥गोविपविन हरिर देख्यौ नहीं, तब सब अकुलाई ।

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चविकत होइ पूछन लगीं, कहँ गए कन्हाई ॥कोउ मम] जानै नहीं, व्याकुल सब बाला ।सूर स्याम @ूढ़वित विफरैं, जिजत-जिजत ब्रज-बाला ॥9॥

तुम कहँू देखे श्याम विबसासी ।तनक बजाइ बाँस की मुरली, लै गए प्रान विनकासी ॥कबहुँक आगैं, कबहूँक पाछैं, पग-पग भरवित उसाक्तिस ।सूर स्याम-दरसन के कारन, विनकसीं चंद-कला सी ॥10॥

कविह धौं री बन बेक्तिल कहँू तैं देखे हैं नँद-नंदन ।बूझहु धौं मालती कहँू तैं, पाए हैं तन-चंदन ॥कहिहं धौं कंुद कदंब बकुल, बट, चंपक, ताल तमाल ।कहिहं धौं कमल कहाँ कमलापवित, सुन्दर नैन विबसाल ॥कविह धौं री कुमुढिदन, कदली, कछु कविह बदरी कर बीर ।कविह तुलसी तुम सब जानवित हौ, कहँघनस्याम सरीर ॥कहिहं धौं मृगी मया करिर हमसौं, कविह धौं मधुप मराल ।सूरदास-प्रभु के तुम संगी, हैं कहँ परम कृपाल ॥11॥

स्याम सबविन कौं देखही, ै देखहितं नाहीं ।जहाँ तहाँ व्याकुल विफरैं, धीर न तनु माहीं ॥कोउ बंसीबट कौं चलो, कोउ बन घन जाहीं ।देखिख भूमिम ह रास की, जहँ-तहँ पग-छाहीं ॥सदा हठीली, लाविड़ली, कविह-कविह पक्तिछताहीं ।नैन सजल जल @ारहीं, ब्याकुल मन माहीं ।एक-एक है्व @ँूढ़हीं, तरुनी विबकलाहीं ।सूरज प्रभु कहँु नहिहं मिमले, @ँूढ़वित द्रुम पाहीं ॥12॥

तुम नागरिर जिजय बढ़ायौ ।मो समान वितय और नहिहं कोउ, विगरधर मैं हीं बस करिर पायौ ॥जोइ-जोइ कहवित करत विपय सोइ सोइ, मेरैं ही विहत रास उपायौ ।संुदर, चतुर और नहिहं मोसी, देह धरे कौ भा जनायौ ॥कबहुँक बैढिठ जावित हरिर कर धरिर, कबहुँ मैं अवित स्रम पायौ ।सूर स्याम गविह कंठ रही वितय, कंध चढ़ौ यह बचन सुनायौ ॥13॥

कहै भामिमनी कंत सौं,मौहिहं कंध चढ़ाहु ।नृत्य करत अवित स्रम भयो, ता स्रमहिहं मिमटाहु ॥धरनी धरत बनै नहीं, पट अवितहिहं विपराने ।वितया-बचन सुविन गब] के, विपय मन मुसुकाने ॥मैं अविबगत, अज, अकल हौं, यह मरम न पायौ ।भा बस्य सब पैं रहौं, विनगमविन यह गायौ ॥एक प्रान bै देह हैं, विbविधा नहिहं यामैं ॥गब]विकयौ नरदेह तैं, मैं रहौं, न तामैं ॥सूरज-प्रभु अंतर भए, संग तैं तजिज प्यारी ।जहँ की तहँ ठाढ़ी रही, ह घोष-कुमारी ॥14॥

जौ देखैं द्रुम के तरैं, मुरझी सुकुमारी ।चविकत भईं सब संुदरी यह तौ राधा री ॥याही कौं खोजवित सबै, यह रही कहाँ री ॥धाइ परीं सब संुदरी, जो जहाँ-तहाँ री ।तन की तनकहुँ सुमिध नहीं, व्याकुल भईं बाला ।यह तौ अवित बेहाल है, कहँु गए गोपाला ॥बार-बार बूझहितं सबै,नहिहं बोलवित बानी ।सूर स्याम काहैं तजी, कविह सब पक्तिछतानी ॥15॥केहिहं मारग मैं जाऊँ सखी री, मारग मोहिहं विबसर् यौ ।ना जानौं विकत है्व गए मोहन, जात न जाविन पर् यौ ॥अपनौ विपय @ँूढ़वित विफरौं, मौहिहं मिमक्तिलबे कौ चा ।काँटो लाग्यौ पे्रम कौ, विपय यह पायौ दा ॥बन डोंगर @ँूढ़त विफरी, घर-मारग तजिज गाउँ ।बूझौं द्रुम, प्रवित बेक्तिल कोउ, कहै न विपय कौ नाउँ ॥चविकत भई, क्तिचतन विफरी, ब्याकुल अवितहिहं अनाथ ।

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अब कैं जौ कैसहँु मिमलौं, पलक न त्यागौं साथ ॥हृदय माँझ विपय-घर करौं, नैनविन बैठक देउँ ।सूरदास प्रभु सँग मिमलैं, बहुरिर रास-रस लेउँ ॥16॥

कृपा सिसंधु हरिर कृपा करौ हो ।अनजानैं मन ग] बढ़ायौ, सो जिजविन हृदय धरौ हो ।सोरह सहस पीर तनु एकै, राधा जिजब, सब देह ।ऐसी दसा देखिख करुनामय, प्रगटौ हृदय-सनेह ॥ग]-हत्यौ तनु विबरह प्रकास्यौ, प्यारी व्याकुल जाविन ।सुनहु सूर अब दरसन दीजै, चूक लई इविन माविन ॥17॥

अंतर तैं हरिर प्रगट भए ।रहत पे्रम के बस्य कन्हाई, जुवितविन कौं मिमक्तिल हष] दए ॥ेसोइ सुख सबकौ विफरिर दीन्हौं, है भा सब माविन क्तिलयौ ।ै जानवित हरिर संग तबहिहं तै, है बुजिद्ध सब, है विहयौ ॥है रास-मंडल-रस जानहितं, विबच गोपी, विबच स्याम धनी ।सूर स्याम स्यामा ममिध नायक, है परस्पर प्रीवित ॥18॥आजु हरिर अद्भतु रास उपायौ ।एकहिहं सुर सब मोविहत कीन्हे, मुरली नाद सुनायौ ॥अचल चले, चल थविकत भए, सब मुविनजन ध्यान भुलायौ ।चंचल पन थक्यौ नहिहं डोलत, जमुना उलढिट बहायौ ॥थविकत भयौ चंद्रमा सविहत-मृग, सुधा-समुद्र बढ़ायौ ।सूर स्याम गोविपविन सुखदायक, लायक दरस ढिदखायौ ॥19॥

बनात रास मंडल प्यारी ।मुकुट की लटक, झलक कंुडल की, विनरतत नंद दुलारौ ।उर बनमाला सोह संुदर बर, गोविपविन कैं सँग गाै ।लेत उपज नागर नागरिर सँग, विबच-विबच तान सुनाै ॥बंसीबट-तट रास रच्यौ है, सब गोविपविन सुखकारौ ।सूरदास प्रभु तुम्हरे मिमलने सौं, भ�विन प्रान अधारौ ॥20॥

रास रस स्रमिमत भईं ब्रजबाला ।विनक्तिस सुख दै यमुना-तट लै गए, भोर भयो वितहिहं काल ॥मनकामना भई परिरपूरन, रही न एकौ साध ।षोड़स सहस नारिर सँग मोहन, कीन्हौं सुख अगामिध ॥जमुना-जल विबहरत नँद-नंदन, संग मिमला सुकुमारिर ।सूर धन्य धरनी बृन्दान, रविब तनया सुखकारिर ॥21॥ललकत स्याम मन ललचात ।कहत हथं घर जाहु संुदरिर, मुख न आवित बात ।षट सहस दस गोप कन्या, रैविन भोगीं रास ।एक क्तिछन भईं कोउ न प्यारी, सबविन पूजी आस ।विबहँक्तिस सब घर-घर पठाईं ब्रज-बाल ।सूर-प्रभु नँद-धाम पहुँचे, लख्यौ काहु न ख्याल ॥22॥

ब्रजबासी तब सोत पाए ।नंद-सुन मवित ऐसी ठानी, उविन घर लोग जगाए ।उठे प्रात-गाथा मुख भाषत, आतुर रैनी विबहानी ॥एडँत अँग जम्हात बदन भरिर, कहत सबै यह बानी ॥जो जैसे सो तैसे लागे, अपनैं-अपन ैकाज ।सूर स्याम के चरिरत अगोचर, राखी कुल की लाज ॥23॥

ब्रज-जुती रस-रास पगीं ।विकयौ स्याम सब को मन भायौ विनक्तिस रवित -रंग जगीं ॥पूरन ब्रह्म, अकल, अविबनासी, सबविन संग सुख चीन्हौ ।जिजतनी नारिर भेष भए विततने, भेद न काहु कीन्हौ ॥ ह सुख टरत न काहूँ मन तैं, पवित विहत-साध पुराईं ।सूर स्याम दूलह सब दुलविहविन, विनक्तिस भाँरिर दै आईं ॥24॥रास रस लीला गाइ सुनाऊँ ।यह जस जहै, सुनै मुख स्रनविन, वितविह चरनविन क्तिसर नाऊँ ॥कहा कहौं �ा स्रोता फल, इक रसना क्यौं गाऊँ ।

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अष्ट क्तिसजिद्ध नविनमिध सुख-संपवित, लघुता कर दरसाऊँ ।जौ परतीवित होइ विहरदै मैं, जग-माया मिधक देखै ।हरिर-जन दरस हरिरविह सम बूझे, अंतर कपट न लेखै ॥धविन �ा, तेई धन श्रोता, स्याम विनकट हैं ताकैं ।सूर धन्य वितविह के विपतु माता, भा भगवित है जाकें ॥25॥ पनघट लीलापनघट रोके रहत कन्हाई ।जमुना-जल कोउ भरन न पाै, देखत हीं विफर जाई ॥तबहिहं स्याम इक बुजिद्ध उपाई, आपुन रहे छपाई ।तट ठाढे़ जे सखा संग के, वितनकौं क्तिलयौ बुलाई ॥बैठार् यौ ग्ालविन कौंद्रुमतर, आपुन विफर-विफरिर देखत ।बढ़ी ार भई कोउ न आई, सूर स्याम मन लेखत ॥1॥

जुवित इक आवित देखी स्याम ।द्रुम कैं ओट रहै हरिर आपुन, जमुना तट गई ाम ॥जल हलोरिर गागरिर भरिर नागरिर, जबहीं सीस उठायौ ।घर कौं चली जाइ ता पाछैं, क्तिसर तें घट @रकायौ ॥चतुर ग्ाक्तिल कर गह्यौ स्याम कौ कनक लकुढिटया पाई ।औरविन सौं करिर रहे अचगरी, मोसौं लगत कन्हाई ॥गागरिर लै हँक्तिस देत ग्ारिर-कर, रीतौ घट नहिहं लैहौं ।सूर स्याम ह्याँ आविन देहु भरिर तबविह लकुट कर दैहौं ॥2॥घट भरिर ढिदयौ स्याम उठाइ ।नैंकु तन की सुमिध न ताकौं, चलौ ब्रज-समुहाइ ॥स्याम संुदर नैन-भीतर, रहे आविन समाइ ।जहाँ जहँ भरिर दृमिष्ट देखै, तहाँ-तहाँ कन्हाइ ॥उतहिहं तैं इक सखी आई; कहवित कहा भुलाइ ।सूर अबहीं हँसत आई, चली कहाँ गाँइ ॥3॥

नीकैं देहु न मेरी हिगंडुरी ।लै जैहैं धरिर जसुमवित आगैं, आहु री सब मिमक्तिल झँुड री ।काहूँ नहीं डरात कन्हाई, बाट घाट तुम करत अचगरी ।जमुना-दह हिगंडुरी फटकारी, फौरी सब मटुकी अरु गगरी ॥भली करी यह कँुर कन्हाई, आजु मेटहै तुम्हरी लँगरी ।चलीं सूर जसुमवित के आगैं, उरहन लै ब्रज-तरुनी सगरी ॥4॥

सुनहु महरिर तेरौ लाविड़लौ, अवित करत अचकरी ।जमुन भरन जल हम गईं, तहँ रोकत डगरी ॥क्तिसरतैं नीर @राइ दै, फोरी सब गगरी ।गेडुरिर दई फटकारिर कै, हरिर करत जु लँगरी ॥विनत प्रवित ऐसे @ँग करै, हमसौं कहै धगरी ।अब बस-बास बनैं, नहिहं इहिहं तु ब्रज-नगरी ॥आपु गयौ चढिढ़ कदम पर, क्तिचतत रहीं सगरी ।सूर स्याम ऐसैं विह सदा, हम सौं करै झगरी ॥5॥

ब्रज-घर-घर यह बात चलात ।जसुमवित कौ सुत करत अचगरी जमुना जल कोउ भरन न पात ॥स्याम रन नटर बपु काछे, मुरली राग मलार बजात ।कंुडल-छविब रविब विकरनहुँ तैं दुवित, मुकुट इंद्र-धनुहँु तैं भात ॥मानत काहु न करत अचगरी, गागरिर धरिर जल मुँह @रकात ।सूर स्याम कौं मात विपता दोउ, ऐसे @ँग आपुनहिहं पढ़ात ॥6॥

करत अचगरी नंद महर कौ ।सखा क्तिलये जमुना तट बैठ्यौ, विनबह न लोग डगर को ॥कोउ खीझो, कोउ विकन बरजौ, जुवितविन कैं मन ध्यान ।मन-बच-कम] स्याम सुन्दर तजिज, और उ जानवित आन ॥यह लीला सब स्याम करत हैं, ब्--रज-जुवितविन कैं हेत ।सूर भजे जिजहिहं भा कृष्न कौं, ताकौं सोइ फल देत ॥7॥ दान लीलाऐसौ दान माँगयै नहिहं जौ, हम पैं ढिदयौ न जाइ । बन मैं पाइ अकेली जुवितविन, मारग रोकत धाइ ॥

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घाट बाट औघट जमुना-तट, बातैं कहत बनाइ । कोऊ ऐसौ दान लेत है, कौनैं पठए क्तिसखाइ ॥ हम जानहितं तुम यौं नहिहं रैहौ, रविहहौ गारी खाइ । जो रस चाहौ सो रस नाहीं, गोरस विपयौ अघाइ ॥ औरविन सौं लै लीजै मोहन, तब हम देहिहं बुलाइ । सूर स्याम कत करत अचगरी, हम सौं कँुर कन्हाइ ॥1॥

ऐसे जविन बोलहु नँद-लाला । छाँविड़ देहु अँचरा मेरौ नीकैं , जानत और सी बाला ॥ बार-बार मैं तुमहिहं कहत हौं, परिरहौ बहुरिर जँजाला । जोबन, रूप देखिख ललचाने, अबहीं तैं ये ख्याला ॥ तरुनाई तनु आन दीजै, कत जिजय होत विबहाला । सूर स्याम उर तैं कर टारहु टूटै मोवितविन-माला ॥2॥

तैं कत तोर्‌यौ हार नौ सरिर कौ । मोती बगरिर रहे सब-बन मैं, गयौ कान कौ तरिरकौ ॥ ये अगुन जु करत गोकुल मैं, वितलक ढिदये केसरिर कौ । @ीठ गुाल दही कौ मातौ, औढ़नहार कमरिर कौ ॥ जाइ पुकारैं जसुमवित आगैं, कहवित जु मोहन लरिरकौ । सूर स्याम जानी चतुराई, जिजहिहं अभ्यास महुअरिर कौ ॥3॥

आपुन भईं सबै अब भोरी । तुम हरिर कौ पीतांबर झटक्यौ, उन तुम्हरी मोवितन लर तोरी । माँगत दान ज्बाब नहिहं देतीं, ऐसी तुम जोबन की जोरी । डर नविहहँ मानहितं नंद-नँदन कौ, करतीं आविन झकझोरा झोरी ॥ इक तुम नारिर गँारिर भली हौ, वित्रभुन मैं इनकी सरिर को री । सूर सुनहु लैहै छँड़ाइ सब, अबहिहं विफरौगी दौरी दौरी ॥4॥

हँसत सखविन यह कहत कन्हाई । जाइ चढ़ौ तुम सघन द्रुमविन पर, जहँ तहँ रहौ छपाई ॥ तब लौं बैढिठ रहौ मुख मूँदे जब जानहु सब आईं । कूढिद परौ तब द्रुमविन-द्रुमविन तैं, दै दै नंद-दुहाई ॥ चविकत होहिहं जैसें जुती-गन, चरविन जाविह अकुलाई । बेनु-विषान-मुरक्तिल-धुन, कीजौ संख-सब्द घहनाई ॥ विनत प्रवित जावित हमारैं मारग, यह कविहयौ समुझाई । सूर स्याम माखन दमिध दानी, यह सुमिध नाहिहं न पाई ?॥5॥

ग्ारिरविन जब देखे नँद-नंदन । मोर मुकुट पीतांबर काछे, खौरिर विकए तन कंदन ॥ तब यह कह्यौ कहाँ अब जैहौ, आगैं कँुर कन्हाई । यह सुविन मन आनन्द बढ़ायौ, मुख कहैं, बात डराई ॥ कोउ-कोउ कहवित चलौ री जैये, कोउ कहै घर विफर जैयै । कोउ-कोउ कहवित कहा करिरहैं हरिर, इनसौं कहा परैयै ॥ कोउ-कोउ कहवित काक्तिलहीं हमकौं, लूढिट लई नँद लाल । सूर स्याम के ऐसे गुन हैं, घरविह विफरी ब्रज-बाल ॥6॥

कान्ह कहत दमिध-दान न दैहौ ? लैहौं छीविन दूध दमिध माखन, देखवित ही तुम रैहौ ॥ सब ढिदन कौ भरिर लेउँ आजुहीं, तब छाड़ौं मैं तुमकौ । उघटवित हौ तुम मातु-विपता लौं, नहिहं जानवित हो हमकौ ॥ हम जानवित हैं तुमकौ मोहन, लै-लै गोद खिखलाए । सूर स्याम अब भय जगाती, ै ढिदन सब विबसराए ॥7॥

जाइ सबै कंसविह गुहराबहु । दमिध माखन घृत लेत छुड़ाए, आजु हजूर बुलाहु ॥

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ऐसे कौं कविह मोहिहं बतावित, पल भीतर गविह मारौं । मथुरापवितहिहं सुनौगी तुमहीं, जब धरिर केस पछारौ ॥ बार-बार ढिदन हमहिहं बतावित, अपनौ ढिदन न विचार् यौ । सूर इंद्र ब्रज जबहिहं बहात, तब विगरिर राखिख उबार् यौ ॥8॥

मोसौं बात सुनहु ब्रज-नारी । इक उपखान चलत वित्रभुन मैं, तुमसौं कहौं उघारी । कबहूँ बालक मुँह न दीजिजयै, मुँह न दीजिजयै नारी । जोइ उन करै सोइ करिर डारैं, मूँड़ चढ़त हैं भारी । बात कहत अढँिठलावित जात सब, हँसवित देवित कर तारी । सूर कहा ये हमकों जानै, छाँछहिहं बेंचनहारी ॥9॥

यह जानवित तुम नंदमहर-सुत । धेनु दुहत तुमकौं हम देखहितं, जबहीं जावित खरिरकहिहं उत ॥ चारी करत यहौं पुविन जानवित, घर-घर @ँूढ़त भाँडे़ । मारग रोविक गए अब दानी, े @ँग कब तैं छाँडे़ ॥ और सुनौ जसुमवित जब बाँधे, तब हम विकयौ सहाइ । सूरदास-प्रभु यह जानवित हम, तुम ब्रज रहत कन्हाइ ॥10॥

को माता को विपता हमारैं । कब जनमत हमकौ तुम देख्यौ, हँक्तिसयत बचन तुम्हारैं ॥ कब माखन चोरी करिर खायौ, कब बाँधे महतारी । दुहत कौन की गैया चारत, बात कहौ यह भारी ॥ तुम जानत मोविह नंद-@ुटौना, नंद कहाँ तैं आए । मैं पूरन अविबगत, अविबनासी, माया सबविन भुलाए । यह सुविन ग्ाक्तिल सबै मुसुक्यानी, ऐसे गुन हौ जानत । सूर स्याम जो विनदर् यौ सबहीं, मात-विपता नहिहं मानत ॥11॥ भ� हेत अतार धरौं । कम]-धम] कैं बस मैं नाहीं, जोग जज्ञ मन मैं न करौं ॥ दीन-गुहारिर सुनौं स्रनविह भरिर, गब]-बचन सुविन हृदय जरौं । भा-अमिधन रहौं सबही कैं , और न काहू नैंकु डरौं । ब्रह्मा कीट आढिद लौं ब्यापक, सबकौ सुख दै दुखहिहं हरौं । सूर स्याम तब कही प्रगटही, जहाँ भा तहँ तैं न टरौं ॥12॥

जौ तुमहीं हौ सबके राजा । तो बैठौ सिसंहासन चढिढ़ कै, चँर, छत्र, क्तिसर भ्राजा ॥ मोर-मुकुट, मुरली पीतांबर, छाड़ौ नटर-साजा । बेनु, विबषान, संख क्यौं पूरत, बाजै नौबत बाजा ॥ यह जु सुनैं हमहँू सुख पाैं संग करैं कछु काजा । सूर स्याम ऐसी बातैं सुविन, हमकौं आवित लाजा ॥13॥

हमहिहं और सो रोकै कौन । रोकनहारौ नंदमहर सुत. कान्ह नाम जाकौ है तौन ॥ जाकै बल है काम नृपवित कौ, ठगत विफरत जुवितविन कौं जौन । टोना डारिर देत क्तिसर ऊपर, आपुरहत ठाढ़ौ है्व मौन ॥ सुनहु स्याम ऐसी न बूजिझयौ, बाविन परी तुमकौं यह कौन । सूरदास-प्रभु कृपा करहु अब, कैसेंहु जाहिहं आपनै भौन ॥14॥

राधा सौं माखन हरिर माँगत । औरविन की मटुकी कौ खायौ; तुम्हरौ कैसौ लागत ॥ लै आई ृषभान-ुसुता, हँक्तिस, सद लनी है मेरी । लै दीन्हौं अपन ँकर हरिर-मुख, खात अल्प हँक्तिस हेरी ॥ सबविहविन तैं मीठी दमिध है यह, मधुरैं कह्यौ सुनाइ । सूरदास-प्रभु सुख उपजायौ, ब्रज ललना मनभाइ ॥15॥

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मेरे दमिध को हरिर स्ाद न पायौ । जानत इन गुजरिरविन कौ सौ है, लयौ क्तिछड़ाइ मिमक्तिल ग्ालविन खायौ ॥ धौरी धेनु दुहाइ छाविन पय, मधुर आँक्तिच मैं आँढिट क्तिसरायौ । नई दोहनी पोंक्तिछ पखारी, धरिर विनरधूम खिखरविन पै तायौ ॥ तामैं मिमक्तिल मिमभिस्रत मिमक्तिसरी करिर, दै कपूर पुट जान नायौ । सुभग @कविनयाँ @ाँविक बाँमिध पट, जतन राखिख छीखैं समुदायौ ॥ हौं तुम कारनलै आई गृह, मारग मैं न कहँू दरसायौ । सूरदास-प्रभु रक्तिसक-क्तिसरोमविन, विकयौ कान्ह ग्ाक्तिलविन मन भायौ ॥16॥

गोपी कहवित धन्य हम नारी । धन्य दूध, धविन दमिध, धविन माखन, हम परुसवित जेंत विगरधारी ॥ धन्य घोष, धविन ढिदन, धविन विनक्तिस ह, धविन गोकुल प्रगटे बनारी । धन्य सुकृत पाँक्तिछलौ, धन्य धविन नँद, धन्य जसुमवित महतारी । धन्य दान, धविन कान्ह मँगैया, सूर वित्रन -द्रुम बन-डारी ॥17॥

गन गंध] देखिख क्तिसहात । धन्य ब्रज-ललनाविन कर तैं, ब्रह्म माखन खात ॥ नहीं रेख, न रूप, नहीं तनु बरन नहिहं अनुहारी । मातु-विपतु नहिहं दोउ जाकैं , हरत-मरत न जारिर ॥ आपु कत्ता] आपु हत्ता], आपु वित्रभुन नाथ । आपुहीं सब घट कौ ब्यापी, विनगम गात गाथ ॥ अंग प्रवित-प्रवित रोम जाकै, कोढिट-कोढिट ब्रह्मंड । कीट ब्रह्म प्रजंत जल-थल, इनहिहं तें नह मंड ॥ येइ विस्ंभरविन नायक, ग्ाल-संग-विबलास । सोइ प्रभु दमिध दान माँगत, धन्य सुरजदास ॥18॥

ब्रह्म जिजनहिहं यह आयसु दीन्हौ । वितन वितन संग जन्म क्तिलयौ परगट, सखी सखा करिर कीन्हौ ॥ गोपी ग्ाल कान्ह bै नाहीं, ये कहँु नैंकु न न्यारे । जहाँ जहाँ अतार धरत हरिर, ये नहिहं नैंकु विबसारे ॥ एकै देह बहुत करिर राखे, गोपी ग्ाल मुरारी । यह सुख देखिख सूर के प्रभु कौं, थविकत अमर-सँग-नारी ॥19॥

यह मविहमा येई पै जानैं । जोग-यज्ञ-तप ध्यान न आत, सो दमिध-दान लेत सुख मानैं ॥ खात परस्पर ग्ालविन मिमक्तिल कै, मीठौ कविह कविह आपु बखानैं । विबस्ंभर जगदीस कहात, ते दमिध दोना माँझ अघाने ॥ आपुहिहं करता, आपुहिहं हरता, आपु बनात आपुहिहं भानै । ऐसे सूरदास के स्ामी, ते गोविपन कै हाथ विबकाने ॥20॥

सुनहु बात जुती इक मेरी । तुमतैं दूरिर होत नहिहं कबहूँ, तुम राख्यौ मोहिहं घेरी ॥ तुम कारन बैकंुठ तजत हौं, जनम लेत ब्रज आइ । ंृदान राधा-गोपी संग, यविह नहिहं विबसर् यौ जाइ ॥ तुम अंतर-अंतर कह भाषवित, एक प्रान bै देह । क्यौं राधा ब्रज बसैं विबसारौं, सुमिमरिर पुरातन नेह ॥ अब घर जाहु दान मैं पायौ, लेखा विकयौ न जाइ । सूर स्याम हँक्तिस-हँक्तिस जुबवितविन सौं ऐसी कहत बनाइ ॥21॥

तुमहिहं विबना मन मिधक अरु मिधक घर । तुमहिहं विबना मिधक-मिधक माता विपतु, मिधक कुल-काविन, लाज, डर ॥ मिधक सुत पवित, मिधक जीन जग कौ, मिधक तुम विबन ुसंसार । सूरदास प्रभु तुम विबनु घर ज्यौं, बन-भीतर के कूप ॥22 ॥

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रीती मटुकी सीस धरैं ॥ बन की घर को सुरवित न काहूँ, लेहु दही या कहवित विफरैं । कबहुँक जावित कंुज भीतर कौं, तहाँ स्याम की सुरवित करैं । चौंविक परहितं, कछु तन सुमिध आवित, जहाँ तहाँ सखिख सुनवित ररैं ॥ तब यह कहती कहाँ मैं इनसौं, भ्रमिम भ्रमिम बन मैं बृथा मरैं । सूर स्याम कैं रस पुविन छाकहितं, बैसैं हीं @ँग बहरिर @रैं ॥23॥

तरुनी स्याम-रस मतारिर । प्रथम जोबन-रस चढ़ायौ, अवितविह भई खुमारिर ॥ दूध नहिहं, दमिध नहीं, माखन नहीं, रीतौ माट । महा-रस अंग-अंग पूरन, कहाँ घर, कहँ बाट ॥ मातु-विपतु गुरुजन कहाँ के, कौन पवित, को नारिर ।

सूर प्रभु कैं पे्रम पूरन, छविक रहीं ब्रजनारिर ॥24॥

कोउ माई लैहै री गोपालहिहं । दमिध कौ नाम स्यामसंुदर-रस, विबसरिर गयौ ब्रज-बालहिहं ॥ मटुकी सीस, विफरवित ब्रज-बीक्तिथविन, बोलवित बचन रसालहिहं । उफनत तक्र चहँु ढिदक्तिस क्तिचतत, क्तिचत लाग्यौ नँद-लालहिहं ॥ हँसवित, रिरसावित, बुलावित, बरजवित देखहु इनकी चालहिहं । सूर ेस्याम विबनु और न भाै, या विबरहविन बेहालहिहं ॥25॥ गोविपका अनुरागलोक-सकुच कुल-काविन तजौ । जैसैं नदी सिसंधु कौं धाै ैसैंविह स्याम भजी ॥ मातु विपता बहु त्रास ढिदखायौ, नैकँु न डरी, लजी । हारिर माविन बैठे, नहिहं लागवित, बहुतै बुजिद्ध सजी ॥ मानवित नहीं लोक मरजादा, हरिर कैं रंग मजी । सूर स्याम कौं मिमक्तिल, चूनौ-हरदी ज्यौं रंग रँजी ॥1॥

कहा कहवित तू मोहिहं ,री माई । नंद-नँदन मन हरिर क्तिलयो मेरौ, तब तैं मोकौं कछु न सुहाई ॥ अब लौं नहिहं जानवित मैं को ही, कब तैं तू मेरैं ढि@ग आई । कहाँ गेह, कहँ मातु विपता हैं, कहाँ सजन, गुरुजन कहँ भाई ॥ कैसी लाज, काविन है कैसी, कहा कहवित है्व है्व रिरसहाई ?। अब तौ सूर भजी नँद-लालहिहं, की लघुता की होइ बड़ाई ॥2॥

मेरे कहे मैं कोउ नाहिहं । कह कहौं, कछु कविहन आै, नैं कुहँु न डराहिहं ॥ नैन ये हरिर-दरस-लोभी, स्रन सब्द-रसाल । प्रथमहीं मन गयौ तन तजिज, तब भई बेहाल ॥ इंढिद्रयविन पर भूप मन है, सबविन क्तिलयौ बुलाइ । सूर प्रभु कौं मिमले सब ये, मोहिहं करिर गए बाइ ॥3॥

अब तौ प्रगट भई जग जानी ा मोहन सौं प्रीवित विनरंतर, क्यौंऽब रहैगौ छानी ॥ कहा करौं संुदर मूरवित, इन नैनविन माँझ समानी । विनकसवित नहीं बहुत पक्तिच हारी, रोम-रोम अरुझानी ॥ अब कैसैं विनरारिर जावित है, मिमली दूध ज्यौं पानी । सूरदास प्रभु अंतरजामी, उर अंतर की जानी ॥4॥

सखिख मोहिहं हरिरदरस रस प्याइ । हौं रँगी अब स्याम-मूरवित, लाख लोग रिरसाइ ॥ स्यामसंुदर मदन मोहन, रंग-रूप सुभाइ । सूर स्ामी-प्रीवित-कारन, सीस रहौ विक जाइ ॥5॥

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नंदलाल सौं मेरौ मन मान्यौ, कहा करैगौ कोउ । मैं तौ चरन-कमल लपटानी, जो भाै सो होउ ॥ बाप रिरसाइ, माइ घर मारै, हँसै विबराने लोग । अब तौ स्यामहिहं सौं रवित बाढ़ी, विबधना रच्यौ सँजोग ॥ जावित महवित पवित जाइ न मेरी, अरु परलोक नसाइ । विगरधर बर मैं नैंकु न छाँड़ौ, मिमली विनसान बजाइ ॥ बहुरिर कबहिहं यह तन धरिर पैहौं, कहँ पुविन श्री बनारिर । सूरदास स्ामी कैं ऊपर यह तन डारौं ारिर ॥6॥

करन दै लोगविन कौं उपहास । मन क्रम बचन नंद-नंदन कौ, नैकु न छाड़ौं पास ॥ सब या ब्रज के लोग क्तिचकविनयाँ, मेरे भाऐं घास । अब तौ यहै बसी री माई, नहिहं मानौं गुरु त्रास ॥ कैसैं रह्यौ पर ैरी सजनी,एक गाँ कै बास । स्याम मिमलन की प्रीवित सखी री, जानत सूरजदास ॥7॥

एक गाउँ कै बास सखी हौं, कैसै धीर धरौं । लोचन-मधुप अटक नहिहं मानत, जद्यविप जतन करौं ॥ ै इहिहं मग विनत प्रवित आत है, हौं दमिध लै विनकरौं । पुलविकत रोम रोम, गद-गद सुर, आनँद उमँग भरौं ॥ पर अंतर चक्तिल जात, कलप बर विबरहा अनल जरौं । सूर सकुच कुल-काविन कहाँ लविग, आरज-पथहिहं डरौं ॥8॥ हौं सँग साँरे के जैहौ । होनी होइ होइ सो अबहीं, जस अपजस काहूँ न डरैहौं ॥ कहा रिरसाइ करे कोउ मेरौं, कछु जो कहै प्रान वितहिहं दैहौं । देहौ त्याविग राखिखहौं यह ब्रत, हरिर-रवित बीज बहुरिर कब बैहौं ॥ का यह सूर अक्तिचर अनी, तनु तजिज अकास विपय-भन समैहौं । का यह ब्रज-बापी क्रीड़ा जल, भजिज नँद-नँद सुख लैहौं ॥9॥ नेत्र अनुरागनैन न मेरे हाथ रहै । देखत दरस स्याम संुदर कौ, जल की @रविन बहे ॥ ह नीचे कौं धात आतुर , ैसेविह नैन भए । ह तौ जाइ समात उदमिध मैं, ये प्रवित अंग रए ॥ यह अगाध कहँु ार पार नहिहं, येउ सोभा नहिहं पार ॥ लोचन मिमले वित्रबेनी है्वकै, सूर समुद्र अपार ॥1॥

इन नैनविन मोहिहं बहुत सतायौ । अब लौं काविन करी मैं सजनी, बहुतै मूँड़ चढ़ायौ ॥ विनदरे रहत गहे रिरस मोसौं, मोहिहं दोष लगायौ । लूटत आपुन श्री-अंग सोभा, ज्यौं विनधनी धन पायौ ॥ विनक्तिसहूँ ढिदन ये करत अचकरी, सुनहिहं कहा धौं आयौ । सुनहु सूर इनकौं प्रवितपालत, आलस नैंकु न लायौ ॥2॥

नैन करैं सुख, हम दुख पाै । ऐसौ को पर-बेदन जानै, जासौं कविह जु सुनाैं ॥ तातैं मौन भलौ सबही तैं, कविह कै मान गँाैं। लोचन, मन, इंद्री हरिर कौं भवित, तजिज हमकौं सुख पाैं ॥ ै तौ गए आपने कर तैं, ृथा जी भरमाैं । सूर स्याम हैं चतुर क्तिसरोमविन , वितनसौं भेद जनाैं ॥3॥

ऐसे आपुस्ारथी नैन । अपनोइ पेट भरत हैं विनक्तिस-ढिदन, और न लैन न दैन ॥ बस्तु अपार परी ओछैं कर, ये जानत घढिट जैहैं । को इनसैं समुझाइ कहै यह, दीन्हैं हों अमिधकैहैं ॥ सदा नहीं रैहैं अमिधकारी, नाउ राखिख जौ लेते । सूर स्याम सुख लूटैं आपुन, औरविन हँू कौं देते ॥4॥

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नैन भए बस मोहन तैं । ज्यौं कुरंग बस होत नाद के, टरत नहीं ता गोहन तैं ॥ ज्यौं मधुकर बस कमल-कोस के, ज्यौं बस चंद चकोर । तैसेंविह ये बस भए स्याम के, गुड़ी-बस्य ज्यौं डोर ॥ ज्यौं बस स्ावित-बूँद के चातक, ज्यौं बस जल के मीन । सूरज-प्रभु के बस्य भए ये , क्तिछनु-क्तिछनु प्रीवित नीन ॥5॥ तब तैं नैन रहे इकटकहीं । जब तैं दृमिष्ट पर ेनँद-नंदन, नैंकुन अंत मटकहीं । मुरली घरे अरुन अधरविन पर, कंुडल झलक कपोल । विनरखत इकटक पलक भुलान,े मनौ विबकाने मोल ॥ हमकौं ै काहै न विबसारैं, अपनी सुमिध उन नाहिहं । सूर स्याम-छविब-सिसंधु समाने, बृथा तरुविन पक्तिछताहिहं ॥6॥

नैनविन सौं झगरी करिरहौं री । कहा भयौ जौ स्याम-संग हैं, बाँह पकरिर सम्मुख लरिरहै री ॥ जन्महिहं तैं प्रवितपाक्तिल बडे़ विकये, ढिदन-ढिदन कौ लेखौ करिरहौं री । रूप-लूट कीन्ही तुम काहै, अपने बाँटै कौं धरिरहौं री ॥ एक मातु विपतु भन एक रहे, मैं काहैं उनकौं डरिरहौं री । सूर अंस जो नहीं देविहगे, उनकें रंग मैं हँू @रिरहौं री ॥7॥

कपटी नैनविन तैं कोउ नाहीं । घर कौ और के आगैं, क्यौं कविहबे कौं जाहीं ॥ आपु गए विनरधक है्व हमतें, बरजिज-बरजिज पक्तिचहारी । मदकामना भई परिरपूरन, @रिर रीझे विगरिरधारी । इनहिहं विबना बे, उनहिहं विबना ये, अंत र नाहीं भात

सूरदास यह जुग की मविहमा, कुढिटल तुरत फल पात ॥8॥

नैना घूँघट मैं न समात । संुदर बदन नंद-नंदन कौ, विनरखिख-विनरखिख न अघात ॥ अवित रस-लुब्ध महा लंपट, जानत एक न बात । कहा कहौं दरसन-सुख माते, ओट भए ँअकुलात ॥ बार-बार बरजत हौं हारी तऊ टे नहिहं जात । सूर तनक विगरिरधर विबन ुदेखै, पलक कलप सम जात ॥9॥

े नैना मेरे @ीठ भए री । घूँघट-ओट रहत नहिहं रौकैं , हरिर-मुख देखत लोभिभ गए री ॥ जउ मैं कोढिट जतन करिर राख,े पलक-कपाटविन मूँढिद लए री । तउ ते उमँविग चले दोउ हठ करिर, करौं कहा मैं जान दए री ॥ अवितहिहं चपल, बरज्यौ नहिहं मानत, देखिख बदन तन फेरिर नए री । सूर स्यामसंुदर-रस अटके, मानहुँ लोभी उहँइ चए री ॥10॥

अखँिखयाँ हरिर कैं हाथ विबकानीं । मृदु मुसुकाविन मोल इविन लीन्ही, यह सुविन सुविन पक्तिछतानी । कैसैं रहवित रहीं मेरैं बस, अब कछु औरै भाँवित । अब ै लाज मरहितं मोहिहं देखत, बैठीं मिमक्तिल हरिर-पाँवित ॥

सपने की क्तिस मिमलविन करवित हैं, कब आहितं कब जाहितं । सूरमिमली @रिर नँद-नंदन कौं, अनत नहीं पवितयाहितं ॥11॥

अखँिखयविन तब तें बैर धर् यौ । जब हम हटकी हरिर-दरसन कौं, सो रिरस नहिहं विबसर् यौ ॥ तबही तै उविन हमहिहं भुलायौ, गईं उतहिहं कौं धाइ । अब तौं तरविक तरविक ऐंठवित है; लेनी लेहितं बनाइ ॥ भईं जाइ ै स्याम-सुहाविगविन, बड़भाविगविन कहाैं । सूरदास ैसी प्रभुता तजिज, हम पै कब ै आैं ॥12॥ राधा-कृष्ण

प्रथम मिमलन

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खेलत हरिर विनकसै ब्रज-खोरीकढिट कछनी पीतांबर बाँधे, हाथ क्तिलये भौंरा,चक, डोरी ॥मोर-मुकुट, कंुडल स्रनविन बर, बसन-दमक दामिमविन-छविब छोरी ।गए स्याम रविब-तनया कैं तट, अंग लसवित चंदन की खोरी ॥औचक ही देखी तहँ राधा, नैन विबसाल भाल ढिदये रोरी ।नील बसन फरिरया कढिट पविहरे, बेनी पीढिठ रुलवित झकझोरी ।संग लरिरविकनी चक्तिल इत आवित, ढिदन-थोरी, अवित छविब तन-गोरी ।सूर स्याम देखत हीं रीझे, नैन-नैन मिमक्तिल परी ठगोरी ॥1॥

बूझत स्याम कौन तू गौरी ।कहाँ रहवित,काकी है बेटी, देखी नहीं कहूँ ब्रज खोरी ॥काहे कौं हम ब्रज-तन आहितं, खेलवित रहहितं आपनी पौरी ।सुनत रहहितं स्रन नँद-@ोटा, करत विफरत माखन-दमिध-चोरी ॥तुम्हरौ कहा चोरिर हम लैहैं, लेखन चलौ संग मिमक्तिल जोरी ।सूरदास प्रभु रक्तिसक-क्तिसरोमविन, बातविन भुरइ रामिधका भोरी ॥2॥

प्रथम सनेह दुहुँविन मन जान्यौ ।नैन नैन कीन्ही सब बातें, गुप्त प्रीवित प्रगटान्यौ ॥खेलन कबहँु हमरै आहु,नंद-सदन, ब्रज गाउँ ॥bारैं आइ टेरिर मोहिहं लीजौ, कान्ह हमारौ नाउँ ॥जौ कविहयै घर दूरिर तुम्हारौ, बोलत सुविनयै टेरिर ।तुमहिहं सौंह बृषभानु बबा की, प्रात-साँझ इक फेरिर ॥सूधी विनपट देखिखयत तुमकौं, तातैं करिरयत साथ ।सूर स्याम नागर-उत नागरिर, राधा दोउ मिमक्तिल गाथ ॥3॥

गई तषभानु-सुता अपनैं घर ।

संग सखी सौं कहवित चली यह, लको जैहैं इनकें दर ।बड़ी बैर भई जमुना आए , खीझवित ह्वैं है मैया ।बचन कहवित मुख, हृदय-पे्रम-दुख, मन हरिर क्तिलयौ कन्हैया ॥माता कहवित कहाँ ही प्यारी, कहाँ अबेर लगाई ।सूरदास तब कहवित रामिधका, खरिरक देखिख हौं आई ॥4॥

नंद गए खरिरकहिहं हरिर लीन्हें ॥देखी तहाँ रामिधका ठाढ़ी, बोली क्तिलए वितहिहं चीन्हे ॥महर कह्यौ खेलौ तुम दोऊ, दूरिर कहूँ जिजविन जैहौ ।गनती करत ग्ाल गैयविन की, मोहिहं विनयरैं तुम रैहो ॥सुविन बेटी ृषभानु महर की, कान्हहिहं लेइ खिखलाइ ।सूर स्याम कौं देखे रविहहो, मारै जविन कोउ गाइ ॥5॥

नंद बबा की बात सुनौ हरिर ।मोहिहं छाँविड़ जौ कहूँ जाहुगे, ल्याउँगी तुमकौं धरिर ॥भली भई तुम्हैं सौंविप गए मोहिहं, जान न देहौं तुमकौं ।बाँह तुम्हरी नैंकु न छाँड़ौ, महर खीजिझहैं हमकौं ॥मेरी बाँह छाँड़ी दै राधा , करत उपरफट बातैं ।सूर स्याम नागरिर सौं, करत पे्रम की घातैं ॥6॥

खेलन कैं मिमस कँुरिर रामिधका, नंद-महरिर कै आई (हो) ।सकुच सविहत मधुरे करिर बोली, घर हो कँुर कन्हाई (हो) ॥सुनत स्याम कोविकल सम बानी, विनकसे अवित अतुराई (हो) ।माता सौं कछु करत कलह हे, रिरस डारी विबसराई (हो) ॥मैया री तू इनकौं चीन्हवित, बारंबार बताई (हो) ।जमुना-तीर काल्हिल्ह मैं भूल्यौ, बाँह पकरिर लै आई (हो) ॥

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आवित इहाँ तोहिहं सकुचवित है, मैं दै सौंह बुलाई (हो) ।सूर स्याम ऐसे गुन-आगर, नागरिर बहुत रिरझाई (हो) ॥7॥

नाम कहा तेरो री प्यारी ।बेटी कौन महर की है तू, को तेरी महतारी ॥धन्य कोख जिजहिहं राख्यौ, घविन धरिर जिजहिहं अतारी ।धन्य विपता माता तेरे, छवि विनरखवित हरिर-महतारी ॥मैं बेटी बृषभानु महर की, मैया तुमकौं जानवित ।जमुना-तट बहु बार मिमलन भयौ, तुम नाहिहंन पविहचानहितं ॥ऐसी कविह, ाकौं मैं जानवित, ह तो बड़ी क्तिछनारिर ।महर बड़ौ लंगर सब ढिदन कौ, हँसवित देवित मुख गारिर ॥राधा बोल उठी, बाबा कछु तुमसौं @ीठी कीन्हौ ।ऐसे समरथ कब मैं देखे, हँक्तिस प्यारिरविह उर लीन्ही ॥महरिर कँुरिर सौं यह भारवित आउ करौं तेरी चोटी ।सूरदास हरविषत नँदरानी, कहवित महरिर हम जोटी ॥8॥

जसुमवित राधा कँुरिर सँारवित ।बडे़ बार सीमंत सीस के, पे्रम सविहत विनरुारवित ।माँग पारिर बेनी ज ुसँारवित गँूथी संुदर भाँवित ।गोरैं भाल हिबंदु बदन, मनु इंदु प्रात-रवि काँवित ॥सारी चीरिर नई फरिरया लै, अपने हाथ बनाइ ।अंचल सौं मुख पोंक्तिछ अंग सब, आपुविह लै पविहराइ ॥वितल चाँरी, बतासे, मेा, ढिदयौ कँुरिर की गोद ।सूर स्याम-राधा तनु क्तिचतत, जसुमवित मन-मन मोद ॥9॥

बूझवित जनविन कहाँ हुती प्यारी ।विकन तेरे भाल वितलक रक्तिच कीनी, विकहिहं कच गँूढिद माँग क्तिसर पारी ।खेलवित रही नंद कैं आँगन जसुमवित कही कँुरिर ह्याँ आ री ।मेरौ नाउँ बूजिझ बाबा कौ, तेरौ बूजिझ दई हँक्तिस गारी ॥वितल चारी गोद करिर दीनी, फरिरया दई फारिर न सारी ।मो तन क्तिचतै, क्तिचतै @ौटा-तन कछु सविबता सों गोद पसारी ॥यह सुविन कै ृषभानु मुढिदत क्तिचत, हँक्तिस-हँक्तिस बूझत बात दुलारी ।सूर सुनत रस-सिसंधु ब@् यौ अवित , दंपवित एकै बात विबचारी ॥10॥

गारुड़ी कृष्णसखिखयविन मिमक्तिल राधा घर लाईं । देखहु महरिर सुता अपनी कौं, कहँू इहिहं कारैं खाई ॥ हम आगैं आवित, यह पाछैं धरविन परी भहराई । क्तिसर तैं गई दोहनी @रिरकै, आपु रही मुरझाई ॥ स्याम-भुअंग डस्यौ हम देखत, ल्याहु गुनी बुलाई । रोवित जनविन कंठ लपटानी, सूर स्याम गुन राई ॥1॥

नंद-सुन गारुड़ी बुलाहु । कह्यौ हमारौ सुत न कोऊ, तुरत जाहु, लै आहु ॥ ऐसी गुनी नहिहं वित्रभुन कहँू, हम जानहितं हैं नीकैं । आइ जाइ तौ तुरत जिजयाविह, नैंकु छुत उठै जी कै ॥ देखौ धौं यह बात हमारी, एकविह मंत्र जिजाै । नंद महर कौ सुत सूरज जौ, कैसेहँु ह्याँ लौं आै ॥2॥

महरिर, गारुड़ी कँुर कन्हाई । एक विबढिटविनयाँ कारैं खाई, ताकौं स्याम तुरतहीं ज्याई ॥ बोक्तिल लेहु अपने @ौटा कौं, तुम कविह कै देउ नैंकु पठाई ।

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कँुरिर रामिधका प्राप्त खरिरक गई , तहाँ कहँू-धौं कारैं खाई ॥ यह सुविन महरिर मनहिहं मुसुक्यानी, अबहिहं रही मेरैं गृह आई । सूर स्याम राधहिहं कछु कारन, जसुमवित समुजिझ रही अरगाई ॥3॥

तब हरिर कौं टेरवित नँदरानी । भली भई सुत भयौ गारुड़ी, आजु सुनी यह बानी ॥ जननी-टेर सुनत हरिर आए, कहा कहवित री मैया ? कीरवित महरिर बुलान आई, जाहु न कँुर कन्हैया ॥ कहँू रामिधका कारैं खायौ, जाहु न आौ झारिर । जंत्र-मंत्र कछु जानत हौ तुम, सूर स्याम बनारिर ॥4॥

हरिर गारुड़ी तहाँ तब आए । यह बाविन ृषभानुसुता सुविन मन-मन हरष बढ़ाए ॥ धन्य-धन्य आपुन कौं कीन्हौं अवितहिहं गई मुरझाइ । तनु पुलविकत रोमांच प्रगट भए आनँद-असु्र बहाइ ॥ विह्वल देखिख जनविन भई व्याकुल अंग विष गयौ समाइ । सूर स्याम-प्यारी दोउ जानत अंतरगत कौ भाइ ॥5॥

रोवित महरिर विफरवित विबततानी । बार-बार लै कंठ लगावित, अवितहिहं क्तिसक्तिथल भई पानी । नंद सुन कैं पाइ परी लै, दौरिर महरिर तब आइ । व्याकुल भई लाविड़ली मेरी, मोहन देहु जिजाइ ॥ कछु पढिढ़ पढिढ़ कर, अंग परस करिर, विबष अपनौ क्तिलयौ झारिर । सूरदास-प्रभु बडे़ गारुड़ी, क्तिसर पर गाड़ू डारिर ॥6॥

लोचन दए कँुरिर उधारिर । कँुर देख्यौ नंद कौ तब सकुची अंग सम्हारिर ॥ बात बूझवित जनविन सौं री कहा है यह आज । मरत तैं तू बचो प्यारी करवित है कह लाज ॥ तब कहवित तोहिहं कारैं खाई कछु न रविह सुमिध गात । सूर प्रभु तोहिहं ज्याइ लीन्हीं कहौ कँुरिर सौं मात ॥7॥ बड़ौं मंत्र विकयौ कँुर कन्हाई । बार-बार लै कंठ लगायौ; मुख चूम्यौ ढिदयौ घरहिहं पठाई ॥ धन्य कोविष ह महरिर जसोमवित, जहाँ अतर् यौ यह सुत आई । ऐसौ चरिरत तुरतहीं कीन्हौं, कँुरिर हमारी मरी जिजाई ॥ मनहीं मन अनुमान विकयौं यह, विबमिधना जोरी भली बणाई । सूरदास प्रभु बडे़ गारुड़ी, ब्रज घर-घर यह घैरु चलाई ॥8॥ संबंध रहस्यतुम सौं कहा कहौं संुदर घन । या ब्रज मैं उपहास चलत है, सुविन सुविन स्रन रहवित मनहीं मन ॥ जा ढिदन सविन पछारिर, नोइ करिर, मोविह दुविह नई धेनु बंसीबन । तुम गही बाहँ सुभाइ आपनैं हौं क्तिचतई हँक्तिस नैकु बदन-तन । ता ढिदन तैं घर मारग जिजत वितत, करत चा सकल गोपीजन । सूर-स्याम अब साँच पारिरहौं, यह पवितब्रत तुमसौं नँद-नंदन ॥1॥

स्याम यह तुमसौं क्यौं न कहौं । जहाँ तहाँ घर घर कौ घैरा, कौनी भाँवित सहौं ॥ विपता कोविप कराल गहत कर, बंधु बधन कौं धाै । मातु कहै कन्या कौ दुख, जविन बीक्तिथविन जविन आहु । जौ आहु तौ मुरक्तिल-मधुर-धुविन, मो जविन कान सुनाहु ॥ मन क्रम बचन कहवित हौं साँची, मैं मन तुमहिहं लगायौ । सूरदास प्रभु अंतरजामी, क्यौ न करौ मन भायौ ॥2॥

हँक्तिस बोले विगरिरधर रस-बानी । गुरजन खिखजैं कतहिहं रिरस पावित, काहे कौं पछतानी ॥

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देह धरे को धम] यहै , स्जन कुटंुब गृह -प्रानी । कहन देहु, कविह कहा करैंगे, अपनी सुरत विहरानी ?॥ लोक लाज काहै कौ छाँड़वित, ब्रजहीं बसैं भुलानी । सूरदास घट bै हैं, मन इक, भेद नहीं कछु जानी ॥3॥

ब्रज बक्तिस काके बोल सहौं । तुम विबनुस्याम और नहिहं जानौ, सकुक्तिच न तुमहिहं कहौं ॥ कुल की काविन कहा लै करिरहौं तुमकौं कहाँ लहौं । मिधक माता, मिधक विपता विबमुख तु भाै तहाँ बहौ ॥ कोउ कछु करै, कहै कछु कोऊ, हरष न सोक गहौं । सूर स्याम तुमकौं विबन ुदेखैं, तनु मन जी दहौं ॥4॥

ब्रजहिहं बसैं आपुहिहं विबसरायौं । प्रकृवित पुरुष एकविह करिर जानहु, बातविन भेद करायौं ॥ जल थल जहाँ रहौं तुम विबनु नहिहं, बेद उपविनषद गायौ । bै-तन जी-एक हम दोऊ, सुख-कारन उपजायौ ॥ ब्रह्म-रूप विbतीया नहिहं कोऊ, तब मन वितया जनायौ । सूर स्याम-मुख देखिख अलप हँक्तिस, आनँद-पँुज बढ़ायौ ॥5॥ तब नागरिर मन हरष भई । नेह पुरातन जाविन स्याम कौ अवित आनंद-भई ॥ प्रकृवित पुरुष, नारी मैं ै पवित, कहैं भूक्तिल गई । को माता, को विपता,बंधु को, यह तो भेंट नई ॥ जन्म जन्म, जुग-जुग यह लीला, प्यारी जाविन लई । सूरदास प्रभु की यह मविहमा, यातैं विबबस भई ॥6॥

देह धरे कौ कारन सोई । लोक-लाज कुल-काविन न तजिजयै, जातैं भलौ कहै सब कोई ॥ मातु विपता के डर कौं मानै, मानै सजन कुटँुब सब सोई । तात मातु मोहँू कौं भात, तन धरिर कै माया-बस होई ॥ सुविन बृषभानु-सुता मेरी बानी, प्रीवित पुरातन राकहु गोई । सूर स्याम नागरिरहिहं सुनात, मैं तुम एक नाविह हैं दोई ॥7॥ राधा-सखी संादघरहिहं जावित मन हरष बढ़ायौ । दुख डार् यौ, सुख अंग भार भरिर, चली लूट सौ पायौ ॥ भौंह सकोरवित चलवित मंद गवित, नैकु बदन मुसुकायौ । तहँ इक सखी मिमली राधा कौं, कहवित भयौ मन भायौ । कँुज-भन हरिर-सँग विबलक्तिस रस, मन कौ सुफल करायौ ॥ सूर सुगंध चुरानहारौ, कैसैं दुरत दुरायौ ॥1॥

मोसौं कहा दुरावित राधा । कहाँ मिमली नँद-नंदन कौं, जिजविन पुरई मन की साधा ॥ ब्याकुल भई विफरवित ही अबहीं, काम-विबथा तनु बाधा । पुलविकत रोम रोम गद-गद, अब अँग अँग रूप अगाधा ॥ नहिहं पात जो रस जोगी जन, जप तप करता समाधा । सुनहुँ सूर वितहिहं रस परिरपूरन, दूरिर विकयौ तनु दाधा ॥2॥

स्याम कौन कारे की गोरे । कहाँ रहत काकै पै @ोटा, ृद्ध, तरुन की धौं हैं भोरे ॥ इहँई रहत विक और गाउँ कहँू, मैं देखे नाहिहं न कहू उनको । कहै नहीं समुझाइ बात यह मोहिहं लगावित हौ तुम जिजनकौं ॥ कहाँ रहौं मैं, ै धौं कहँकै, तुम मिमलवित हो काहैं ऐसी । सुनहु सूर मोसी भोरी कौं, जोरिर जोरिर लावित हौ कैसी ॥3॥

सुनहु सखी राधा की बातैं । मौसौ कहवित स्याम हैं कैसे, ऐसी मिमलई घातैं ॥ की गोरे, की कारे-रँग हरिर, की जोबन, की भोरे । की इहिहं गाउँ बसत, की अनतहिहं, ढिदनविन बहुत की थोरे ॥ की तू कहवित बात हँक्तिस मोसौं, की बूझवित सवित -भाउ ।

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सपनैं हँू उनकौं नहिहं देखे, बाके सुनहु उपाउ ॥ मोसौ कही कौन तोसी विप्रय, तोसौं बात दुरैहौं । सूर कही राधा मो आगैं, कैसें मुख दरसैहौं ॥4॥

राधा तेरौ बदन विबराजत नीकौ । जब तू इत-उत बंक विबलोकवित, होत विनसा-पवित फीकौ ॥ भृकुटी धनुष, नैन सर, साँधे, क्तिसर केसरिर कौ टीकौ । मन घूँघट-पट मैं दुरिर बैठ्यौ, पारमिध रवित-पवितही कौ ॥ गवित मैमंत नाग ज्यौं नागरिर, करे कहवित हौं लीकौ ! सूरदास-प्रभु विबविबध भाँवित करिर, मन रिरझायौ हरिर पी कौ ॥5॥

काकौ काकौ मुख माई बातविन कौं गविहयै ॥ पाँत की सात लगायौ, झूठी झूठी कै बनायौ, साँची जौ तनक होइ, तौलौं सब सविहयै ॥ बातविन गह्यौ अकास, सुनत न आै साँस, बोक्तिल तौ कछु न आै,तातैं मौन गविहयै । ऐसैं कहैं नर नारिर, विबना भीवित क्तिचत्रकारिर, काहे कों देखे मैं कान्ह कहा कहौ कविहयै ॥ घर घर यहै घैर, बृथा मोसौं करै बैर यह सुविन स्रौन, विहरदय दविहए । सूरदास बरु उपहास होइ क्तिसर मैरैं, नँद की सुन मिमलै तौ पै कहा चविहयै ॥6॥

कैसै हैं नँद-सुन कन्हाई । देखे नहीं नैन भरिर कबहूँ, ब्रज मैं रहत सदाई ॥ सकुचवित हौं इक बात कहवित तोहिहं, सो नहिहं जावित सुनाई ॥ कैसैहँु मोहिहं ढिदखाहु उनकौं, यह मेरैं मन आई ॥ अवितहीं संुदर कविहयत हैं ै, मोकौं देहु बताई । सूरदास राधा की बानी, सुनत सखी भरमाई ॥7॥ सुनहु सखी राधा की बानी । ब्रज बक्तिस हरिर देखे नहिहं कबहूँ, लोग कहत कछु अकथ कहानी ॥ यह अब कहवित ढिदखाहु हरिर कौं , देखहु री यह अक्तिचरज मानी । जो हम सुनवित रही सो नाहीं, ऐसै ही यह ायु बहानी ॥ ज्ाब न देत बनै काहू सौं, मन मैं यह काहू नहिहं मानी । सूर सबै तरुनी मुख चाहहितं, चतुर चतुर सौं चतुरई ठानी ॥8॥

सुविन राधे तोहिहं स्याम ढिदखैहैं । जहाँ तहाँ ब्रज-गक्तिलविन विफरत हैं, जब इहिहं मारग ऐहैं ॥ जबहीं हम उनकौ देखैंगी तबहीं तोहिहं बुलैहैं । उनहूँ कै लालसा बहुत यह, तोहिहं देखिख सुख पैहैं ॥ दरसन तैं धीरज जब रैहै, तब हम तोविह पत्यैहैं तुमकौं देखिख स्याम संुदर घन, मुरली मधुर बजैहैं ॥ तनु वित्रभंग करिर अंग-अंग सौं, नाना भा जनैंहैं । सूरदास-प्रभु नल कान्ह बर, पीतांबर फहरैहैं ॥9॥ माता की सीखकाहै कौं पर-घर क्तिछनु-क्तिछनु जावित । घर मैं डाँढिट देवित क्तिसख जननी, नाहिहं न नैंकु डरावित ॥ राधा-कान्ह कान्ह राधा ब्रज, है्व रह्यौ अवितविह लजावित । अब गोकुल को जैबौ छाँड़ौ, अपजस हू न अघावित ॥ तू बृषभानु बडे़ की बेटी, उनकैं जावित न पाँवित । सूर सुता समुझावित जननी, सकुचवित नहिहं मुसुकावित ॥1॥

खेलन कौं मैं जाउँ नहीं ? और लरिरविकनी घर घर खैलहिहं,मोहीं कौं पै कहत तुहीं ॥ उनकैं मातु विपता नहिहं कोई, खेलत डोलहितं जहीं तहीं । तोसी महतारी बविह जाइ न, मैं रैहौं तुमहीं विबनुहीं ॥ कबहुँ मोकौं कछू लगावित , कबहूँ कहवित जविन जाहु कही । सूरदास बातैं अनखौहीं, नाहिहं न मौ पै जाहितं सही ॥2॥

मनहीं मन रीझवित महतारी ।

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कहा भई जौ बाढिढ़ तनक गई, अबहों तौ मेरी है बारी ॥ झूठें हीं यह बात उड़ी है, राधा-कान्ह कहत नर-नारी । रिरस की बात सुता के मुख की, सुनत हँसवित मनहीं मन भारी ॥ अब लौं नहीं कछू इहिहं जान्यौ, खेलत देखिख लगाें गारी । सूरदास जननी उर लावित, मुख चूमवित पोंछवित रिरस टारी ॥3॥

सुता लए जननी समुझावित । संग विबढिटविनअविन कैं मिमक्तिल खेलौ, स्याम-साथ सुन-ुसुविन रिरस पावित । जातें हिनंदा होइ आपनी,जातैं कुल कौं गारो आवित । सुविन लाड़लो कहवित यह तोसैं, तोकों यातैं रिरस करिर धावित ॥ अब समुझी मैं बात सबविन की, झूठैं ही यह बात उड़ावित । सूरदास सूविन सुविन ये बातें, राधा मन अवित हरष बढ़ावित ॥4॥

राधा विबनय करत मनहीं मन, सुनहू स्याम अंतर के जामी । मातु-विपता कुल-काविनहिहं मानत, तुमहिहं न जानत हैं जग स्ामी ॥ तुम्हरौ नाउ लेत सकुचत हैं, ऐसे ठौर रही हौं आनी । गुरु परिरजन को काविन मानयों, बारंबार कही मुख बानी ॥ कैसे सँग रहौं विबमुखविन कैं , यह कविह-कविह नागरिर पक्तिछतानी । सूरदास -प्रभु कौं विहरदै धरिर, गृह-जन देखिख-देखिख मुसुकानी ॥5॥

कृष्ण दश]नराधा जल विबहरवित सखिखयविन सँग । ग्री-प्रजंत नीर मै ठाढ़ी, क्तिछरकवित जल अपनैं अपनैं रंग ॥ मुख भरिर नीर परसपर डारहितं, सोभा अवितहिहं अनूप बढ़ी तब । मनहु चंद-मन सुधा गँडूषविन, डारवित हैं आनंद भरे सब ॥ आईं विनकक्तिस जानु कढिट लौं सब, अँजुरिरविन तैं लै लै जल डारहितं । मानहु सूर कनक-बल्ली जुरिर अमृत-बूँद पन-मिमस झारहितं ॥1॥

जमुना-जल विबहरवित ब्रज-नारी । तट ठाढे़ देखत नँद-नंदन, मधुरिर मुरक्तिल कर धारी ॥ मोर मुकुट, स्रनविन मविन कंुडल, जलज-माल उर भ्राजत । संुदर सुभग स्याम तन न घन, विबच बग पाँवित विबराजत ॥ उर नमाल सुमन बहु भाँवितविन, सेत, लाल, क्तिसत,पीत । मनहु सुरसरी तट बैठे सुक, बरन बरन तजिज भीत ॥ पीतांबर कढिट तट छुद्राक्तिल, बाजवित परम रसाल । सूरदास मनु कनकभूमिम ढि@ग, बोलत रुक्तिचर मराल ॥2॥

क्तिचतविन रोकै हँू न रही । स्याम संुदर सिसंधु-सनमुख, सरिरत उमंविग बही ॥ पे्रम-सक्तिलल-प्राह भँरविन, मिमक्तिल न कबहुँ लही । लोभ लहर कटाच्छ, घूँघट-पट-करार @ही ॥ थके पल पथ, ना धीरज परवित नहिहंन गही । मिमली सूर सुभा स्यामहिहं, फेरहू न चही ॥3॥

हमहिहं कह्यौ हौ स्याम ढिदखाहु । देखहु दरस नैन भरिर नीकैं , पुविन-पुविन दरस न पाहु ॥ बहुत लालसा करवित रही तुम, े तुम कारन आए । पूरी साध मिमली तुम उनकौं, यातैं हमहिहं भुलाए ॥ नीकैं सगुन आजु ह्याँ आईं, भयौ तुम्हारी काज । सुनहु सूर हमकौं कछु देहौ, तुमहिहं मिमले ब्रजराज ॥4॥

राधा चलहु भनहिहं जाविह । कबहिहं की हम जमुन आई, कहहिहं अरु पक्तिछताहिहं ॥ विकयौ दरसन स्याम कौ तुम, चलौगी की नाहिहं । बहुरिर मिमक्तिलहौ चीखिन्ह राखहु, कहत, सब मुसुकाहिहं ॥ हम चलीं घर तुमहुँ आहु, सोच भयौ मन माहिहं सूर राधा सविहत गोपी, चलीं ब्रज-समुहाहिहं ॥5॥

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कविह राधा हरिर कैसे हैं । तेर ैमन भाए की नाहीं, की संुदर, की नैसे हें ॥ की पुविन हमहिहं दुरा करौगी, की कैहौ ै जैसे हैं । की हम तुमसौ कहवित रहीं ज्यौं, साँच कहौ की तैसे है ॥ नटर-ेष काछनी काछे, अंगविन रवित-पवित-सै से हैं । सूर स्याम तुम नीकैं देखे, हम जानत हरिर ऐसे हैं ॥6॥

स्याम सखिख नीकैं देखे नाहिहं । क्तिचतन ही लोचन भरिर आए, बार-बार पक्तिछताहिहं ॥ कैसेहँु करिर इकटक मैं राखवित, नैंकहिहं मैं अकुलाहिहं । विनमिमष मनौ छविब पर रखार े, तातैं अवितहिहं डराहिहं ॥ कहा करै इनकौ कह दूषन,इन अपनी सी कीन्ही । सूर स्याम-छविब पर मन अटक्यौ, उन सोभा लीन्ही ॥7॥ राधा का अनुरागपुविन पुविन कहवित हैं ब्रज नारिर । धन्य बड़ भाविगनी राधा, तेरैं बस विगरिरधारिर ॥ धन्य नंद-कुमार धविन तुम, धन्य तेरी प्रीवित । धन्य दोउ तुम नल जोरी, कोक कलाविन जीवित ॥ हम विमुख, तुम कृष्न-संविगविन, प्रान इक, bै देह । एक मन, इक बुजिद्ध, इक क्तिचत, दुहँुविन एक सनेह ॥ एक क्तिछन ुविबन ुतुमहिहं देखै, स्याम धरत न धीर । मुरक्तिल मैं तु नाम पुविन, पुविन कहत हैं बलबीर । स्याम मविन तैं परखिख लीन्हौ, महा चतुर सुजान । सूर के प्रभु पे्रमहीं बस, कौन तो सरिर आन ॥1॥

राधा परम विनम]ल नारिर । कहवित हौं मन कम]ना करिर, हृदय-दुविधा टारिर ॥ स्याम कौं इक तुहीं जान्यौ, दुराचारिरविन और । जैसें घटपूरन न डोलै, अघ भरौ डगडौर ॥ धनी धन कबहूँ न प्रगटै, धरै ताविह छपाइ । तैं महानग स्याम पायौ, प्रगढिट कैसें जाइ ॥ कहवित हौं यह बात तोसौं, प्रगट करिरहौ नाहिहं । सूर सखी सुजान राधा, परसपर मुसुकाहिहं ॥2॥

तैं ही स्याम भले पविहचाने । साँची प्रीवित जाविन मनमोहत, तेरहेिहं हाथ विबकाने ॥ हम अपराध विकयौ कविह तुमसौं, हमहीं कुलटा नारिर । तुमसौं उनसौं बीच नहीं कछु, तुम दोऊ बर-नारिर ॥ धन्य सुहाग भाग है तेरौ, धविन बड़भागी स्याम । सूरदास-प्रभु से पवित जाकैं , तोसी जाकैं बाम ॥3॥

राधा स्याम की प्यारी । कृष्न पवित स]दा तेरे, तू सदा नारी ॥ सुनत बनी सखी-मुख की, जिजय भयौ अनुराग । पे्रम-गदगद, रोम पुलविकत,समुजिझ अपनौ भाग ॥ प्रीवित परगट विकयौ चाहै, बचन बोक्तिल न जाइ । नंद-नंदन काम-नायक रहे, नैनविन छाइ ॥ हृदय तैं कहँु टरत नाहीं, विकयौ विनहचल बास । सूर प्रभु-रस भरी राधा, दुरत नहीं प्रकास ॥4॥

जौ विबधना अपबस करिर पाऊँ । तो सखिख कह्यौ होइ कछु तेरौ, अपनी साध पुराऊँ ॥ लोचन रोम-रोम-प्रवित माँगौं, पुविन-पुविन त्रास ढिदखाऊँ । इकटक रहैं पलक नहिहं लागैं , पद्धवित नई चलाऊँ ॥ कहा करौं छविब-राक्तिस स्यामधन, लोचन bै नहिहं ठाऊँ । एते पर ये विनमिमष सूर सुविन , यह दुख काविह सुनाऊँ ॥5॥

कविह रामिधका बात अब साँची । तुम अब प्रगट कही मो आगैं, स्याम-पे्रम-रस माँची ॥

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तुमकौं कहाँ मिमले, नँद-नंदन, जब उनकैं रँग राँची । खरिरक मिमले, की गोरस बेंचत, की जब विबषहर बाँची ॥ कहैं बने छाँड़ौ चतुराई, बात नहीं यह काँची । सूरदास रामिधका सयानी, रूप-राक्तिस-रस-खाँची ॥6॥

कब री मिमले स्याम नहिहं जानौं । तेरी सौं करिर कहवित सखी री, अजहूँ नहिहं पविहचानौं ॥ खरिरक मिमले, की गोरस बेंचत, की अबहीं, की काक्तिल । नैनविन अंतर होत न कबहूँ, कहवित कहा री आक्तिल ॥ एकौ पल हरिर होत न न्यारे, नीकैं देखे नाहिहं । सूरदास-प्रभु टरत न टारैं, नैनविन सदा बसाही ॥7॥

स्याम मिमले मोहिहं ऐसैं माई । मैं जल कौं जमुना तट आई ।

औचक आए तहाँ कन्हाई । देखत ही मोविहनी लगाई ।

तबहीं तैं तन-सुरवित गँाई । सूधैं मारग गई भुलाई ।

विबन ुदेखैं कल परै न माई । सूर स्याम मोविहनी लगाई ॥8॥

तबहीं तैं हरिर हाथ विबकानी । देह-गेह-सुमिध सबै भुलानी ।

अंग क्तिसक्तिथल भए जैसें पानी । ज्यौं-ज्यौं करिर गृह पहुँची आनी ।

बोले तहा अचानक बानी । bारैं देखे स्याम विबनानी ।

कहा कहौं सुविन सखी सयानी । सूर स्याम ऐसी मवित ठानी ॥9॥

जा ढिदन तैं हरिर दृमिष्ट पर ेरी । जा ढिदन तैं मेरे इन नैनविन, दुख सुख सब विबसर ेरी । मोहन अंग गुपाल लाल के, पे्रम-विपयूष भरे री । बसे उहाँ मुसुकविन-बाँह लै, रक्तिच रुक्तिच भन करे री ॥ पठवित हौं मन वितनहिहं मनान, विनसढिदन रहत अर ेरही । ज्यौं ज्यौं जतन करवित उलटावित, त्यौं त्यौं उठत खरे री ॥ पक्तिचहारी समुझाई ऊँच-विनच, पुविन-पुविन पाइ परे री । सो सुख सूर कहाँ लौं बरनौं, इक टक तैं न टरे री ॥10॥ जब तौं प्रीवित स्याम सौं कीन्हीं । ता ढिदन तैं मेरैं इन नैनविन, नैकुहँु न लीन्हीं ॥ सदा रहै मन चाक चढ़्यौ, और न कछू सुहाई । करत उपाइ बहुत मिमक्तिलबे कौं, यहै विबचारत जाई ॥ सूर सकल लागवित ऐसीयै,सो दुख कासौं कविहयै । ज्यौं अचेत बालक की बेदन, अपने ही तन सविहयै ॥11॥

ना जानौं तबहीं तैं मोकौं, स्याम कहा धौं कीन्हौ री । मेरी दृमिष्ट परे जा ढिदन तैं, ज्ञान ध्यान हरिर लीन्हौ री ॥ bार ेआइ गए औचक हीं, मैं आँगन ही ठाढ़ी री । मनमोहन-मुख देखिख रही तब, काम-विबथा तनु बाढ़ी री ॥ नैन-सैन दै दै हरिर मो तन, कछु इक भा बतायौ री । पीतांबर उपरैना कर गविह ,अपनैं सीस विफरायौ री ॥ लोक-लाज, गुरुजन की संका, कहत न आै बानी री ।

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सूर स्याम मेरैं आँगन आए, जात बहुत पक्तिछतानी री ॥12॥

मैं अपनी मन हरत न जान्यौ । कीधौं गयो संग हरिर कैं ह, कीधौं पंथ भुलान्यौ ॥ कीधौं स्याम हटविक है राख्यौ, कीधौं आपु रतान्यौ । काहे तैं सुमिध करी न मेरी. मोपै कहा रिरसान्यौ ॥ जबहीं तैं हरिर ह्याँ है्व विनकसे, बैरु तबहिहं तैं ठान्यौ । सूर स्याम सँग चलन कह्यौ मोहिहं, कह्यौ नहीं तब मान्यौ ॥13॥

स्याम करत हैं मन की चोरी । कैसैं मिमलत आविन पविहलैं ही, कविह-कविह बवितयाँ भोरी ॥ लोक-लाज की काविन गँाई, विफरवित गुड़ी बस डोरी । ऐसे @ंग स्याम अब सीख्यौ, चोर भयौ क्तिचत कौ री ॥ माखन की चोरी सविह लीन्ही, बात रही ह थोरी । सूर स्याम भयौ विनडर तबहिहं तैं, गोरस लेत अँजोरी ॥14॥

माई कृष्न-नाम जब तैं स्रन सुन्यौ है री , तब तें भूली री मौन बारी सी भई री । भरिर भरिर आैं नैन, क्तिचत न रहत चैन, बैन नहिहं सूधौ दसा औरही है्व गई री ॥ कौन माता,कौन विपता, कौन भैनी, कौन भ्राता, कौन ज्ञान , कौन ध्यान, मनमथ हई री । सूर स्याम जब तैं परैं परै री मेरी डीढिठ, बाम, काम, धाम, लोक-लाज कुल काविन नई री ॥15।

राधा तैं हरिर कैं रंग राँची । तो तैं चतुर और नहिहं कोऊ, बात कहौं मैं साँची ॥ तैं उनकौ मन नहीं चुरायौ, ऐसी है तू काँची । हरिर तेरौ मन अबविह चुरायौ, प्रथम तुहीं है नाँची । तुम अरु स्याम एक हौ दोऊ, बाकी नाहीं बाँची । सूर स्याम तेरैं बस, राधा, कहवित लीक मैं खाँची ॥16॥

तुम जानवित राधा है छोटी । चतुराई अँग-अँग भरी है, पूरन-ज्ञान , न बुमिध की मोटी ॥ हमसौं सदा दुरा विकयौं इहिहं, बात कहै मुख चोटी-पोटी । कबहुँ स्याम तैं नैंकु न विबछुरवित, विकये रहवित हमसौं हठ ओटी ॥ नँद-नंदन याही कैं बस हैं, विबबस देखिख बेंदी छविब-चोटी । सूरदास-प्रभु ै अवित खोटे, यह उनहूँ तैं अवितहीं खोटी ॥17॥

सुनहु सखी राधा सरिरको है । जो हरिर है रवितपवित मनमोहन, याकौ मुख सो जोहै ॥ जैसौ स्याम नारिर यह तैसी, संुदर जोरी सोहै ॥ यह bादस बहऊ दस bै कौ, ब्रज-जुचवितविन मन मोहै ॥ मैं इनकौं घढिट बढिढ़ नहीं जानवित, भेद करै सो को है ॥ सूर स्याम नागर, यह नागरिर, एक प्रान तन दो है ॥18॥

राधा नँद-नंदन अनुरागी । भय सिचंता विहरदै नहिहं एकौं, स्याम रंग-रस पागी ॥ हृदय चून रँग, पय पानी ज्यौं, दुविधा दुहँु की भागी । तन-मन-प्रान समप]न कीन्हौ, अंग-अंग रवित खागी ॥ ब्रज-बविनता अलोकन करिर-करिर, पे्रम-विबबस तनु त्यागी ॥ सूरदास प्रभु सौं क्तिचत्त लाग्यौ सोत तैं मनु जागी ॥19॥

आँखिखविन मैं बसै, जिजय मैं बसै,विहय मैं बसत विनक्तिस ढिदस प्यारी । तन मैं बसै, मन मैं बसै, रसना हँू मैं बसै नँदारौ ॥ सुमिध मैं बसै, बुमिधहू मैं बसै, अंग-अंग बसै मुकुटारौ । सूर बन बसै, घरहु मैं बसै, संग ज्यौ तरंग जल न न्यारौ ॥20॥ उपहासयह करनी उनहीं कौं छाजै, उनकैं संग न जैहौ ॥ राध-कान्ह-कथा ब्रज-घर-घर, ऐसें जविन कहैहौ । यह करनी उन नई चलाई, तुम जविन हमहिहं हँसैहौ ॥ तुम हौ बडे़ महर की बेटी, कुल जविन नाउँ धरैहौ । सूर स्याम राधा की मविहमा, यहै जाविन सरमैहौ ॥1॥

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यह सुविन कै हँक्तिस मौन रहीं री । ब्रज उपहास कान्ह-राधा कौ, यह मविहमा जानी उनहीं री ॥ जैसी बुजिद्ध हृदय है इनकैं , तैसीयै मुख बात कही री । रविब कौ तेज उलूक न जानै, तरविन सदा पूरन नभहीं री ॥ विष कौ कीट विबरहिहं रुक्तिच मानै, कहा सुधा रसहीं री । सूरदास वितल-तेल-सादी , स्ाद कहा जानै घृतहीं री ॥2॥ सहसा भेंटइततें राधा जावित जमुन-तट, उततैं हरिर आत घर कौं । कढिट काछनी, ेष नटर कौ, बीच मिमली मुरलीधर कौं ॥ क्तिचतै रही मुख-इंदु मनोहर, ा छविब पर ारवित तन कौं । दूरहु तै देखत ही जाने, प्राननाथ संुदर घन कौं ॥ रोम पुलक, गदगद बानी कही, कहाँ जात चोरे मन कौं । सूरदास-प्रभु चोरन सीखे, माखन तैं क्तिचत-विबत-धन कौं ॥1॥

भुजा पकरिर ठाढे़ हरिर कीन्हे । बाँह मरोरिर जाहुगे कैसै, मै, तुम नीकैं चीन्है ॥ माखन-चोरी करत रहे तुम, अब भए मन के चोर । सुनत रही मन चोरत हैं हरिर, प्रगट क्तिलयौ मन मोर ॥ ऐसे @ीठ भए तुम डोलत, विनदरे ब्रज की नारिर । सूर स्याम मोहँू विनदरौगे, देहँु पे्रम की गारिर ॥2॥

यह बल केवितक जादौ राइ । तुम जु तमविक कै मो अबला सौं, चले बाँह छुटकाइ ॥ कविहयत हो अवित चतुर सकल अंग, आत बहुत उपाइ । तौ जानौं जौ अब एकौ छन, सकौ हृदय तैं जाइ ॥

सूरदास स्ामी श्रीपवित कौं, भावित अंतर भाइ । सविह न सके रवित-बचन, उलढिट हँक्तिस लीन्ही कंठ लगाइ ॥3॥

कुल की लाज अकाज विकयौ । तुम विबन स्याम सुहात नहीं कछु, कहा करौं अवित जरत विहयौ ॥ आपु गुप्त करिर राखी मोकौं, मैं आयसु क्तिसर माविन क्तिलयौ । देह-गेह-सुमिध रहवित विबसारे, तुम तैं विहतु नहिहं और विबयौ ॥ अब मोकौं चरनविन तर राखौ, हँक्तिस नँदनंदन अंग क्तिछयौ । सूर स्याम श्रीमुख की बानी, तुम पैं प्यारी बसत जिजयौ ॥4॥

मातु विपता अवित त्रास ढिदखात। भ्राता मोहिहं मारन कौं मिघरै, देखैं मोहिहं न भात । जननी कहवित बडे़ की बेटी, तोकौं लाज न आवित ॥ विपता कहे कैसी कुल उपजी, मनहीं मन रिरस पावित ॥ भविगनी देख देवित मोहिहं गारी, काहैं कुलहिहं लजावित । सूरदास-प्रभु सौं यह कविह-कविह, अपनी विबपवित जनावित ॥5॥

संुदर स्याम कमल-दल-लोचन । विमुख जनविन की संगवित कौ दुख, कब धौं करिरहौ मोचन ॥ भन मोहिहं भाठी सौ लागत, मरवित सोचहीं सोचन । ऐसी गवित मेरी तुम आगैं, करत कहा जिजय दोचन ॥ मिधक ै मातु-विपता, मिधक भ्राता, देत रहत मोहिहं खोंचन ॥ सूर स्याम मन तुमहिहं लगान्यौ, हरद-चून-रँग-रोचन ॥6॥

कुल की काविन कहा लविग करिरहौं । तुम आगैं मैं कहौं जु साँची, अब काहू नहिहं डरिरहौं ॥ लोग कुटंुब जग के जे कविहयत, पेला सबहिहं विनदरिरहौं । अब यह दुख सविह जात न मोपैं, विबमुख बचन सुविन मरिरहौं ॥ आप सुखी तौ सब नीके हैं, उनके सुख कह सरिरहौं । सूरदास प्रभु चतुरक्तिसरोमविन , अबकै हौं कछु लरिरहौं ॥7॥

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प्राननाथ हो मेरी सुरवित विकन करौ । मैं जु दुख पावित हौं, दीनदयाल, कृपा करौ, मेरौ कामदंद-दुख औ विबरह हरौ ॥ तुम बहु रमनी रमन सो तो जानवित हौं, याही के जु धौखैं हौ मौसौं कहैं लरो । सूरदास-स्ामी तुम हौ अंतरजामी सुनी मनसा बाचा मैं ध्यान तुम्हरौई धरौं ॥8॥

हौं या माया ही लागी तुम कत तोरत । मेरौ तौ जिजय वितहारे चरविन ही मैं लाग्यौ, धीरज क्यौं रहै रारे मुख मोरत ॥ कोऊ लै बनाइ बातैं, मिमलवित तुम आगैं, सोई विकन आइ मोसौं अब है जोरत । सूरदास-विपय, मेरे तौ तुमहिहं हो जु जिजय, तुम विबनु देखैं मेरौ विहयौ ककोरत ॥9॥

विबहँक्तिस राधा कृष्न अंक लीन्ही ॥ अधर सौं अधर जुरिर, नैन सौं नैन मिमक्तिल हृदय सौं हृदय लविग, हरष कीन्ही ॥ कंठ भुज-भुज जोरिर, उछंग लीन्ही नारिर, भुन-दुख टारिर, सुख ढिदयौ भारी । हरविष बोले स्याम, कुञ्ज-बन-घन-घाम, तहाँ हम तुम संग मिमलैं प्यारी । जाहु गृह परम धन, हमहँु जैहैं सदन, आइ कहँु पास मोहिहं सैन दैही । सूर यह भा दै, तुरतहीं गन करिर, कंुज-गृह सदन तुम जाइ रैहौ ॥10॥ व्याज मिमलनसुविन री मैया काल्हिल्हहीं, मोवितसरी गँाई । सखिखविन मिमलै जमुना गई, धौं उनही चुराई ॥ कीधौं जलही मैं गई, यह सुमिध नहिहं मेरैं ! तब तैं मैं पक्तिछतावित हौं, कहवित न डर तेरैं ॥ पलक नहीं विनक्तिस कहँु लगी, मोहिहं सपथ वितहारी । इविह डर तैं मैं आजुहीं,अवित उठी सबारी ॥ महरिर सुनत चविकत भई, मुख ज्ाब न आै । सूर रामिधका गुन भरी, कोउ पार न पाै ॥1॥

सुविन राधा अब तोहिहं न पत्यैहौं । और हार चौकी हमेल अब, तेरैं कंठ न नैहौं ॥ लाख टका की हाविन करी तैं, सो जब तोसौं लैहौं । हार विबना ल्याऐं लड़बौरी, घर नहिहं पैठन दैहौं ॥ जब देखौंगी है मोवितसरिर, तबविहण तौ सचु पैहौं । नातरू सूर जन्म भरिर तेरो, नाउँ नहीं मुख लैहौं ॥2॥

जैहै कहाँ मोवितसरिर मोरिर । अब सुमिध भई लई ाही नैं, हँसवित चली बृषभानु-विकसोरी ॥ अबहीं मैं लीन्हे आवित हौं , मेरै संग आै जविन को री । देखौ धौं कह करिरहौं ाकौ, बडे़ लोग सीखत हैं चोरी । मौकौं आजु अबेर लाविग है, @ूढ़ौंगो घर-घर ब्रज खोरी । सूर चली विनधरक है्व सब सौं, चतुर रामिधका बातविन भोरी ॥3॥

नंद-महर-घर के विपछारैं, राधा आइ बतानी ॥ मनौ अंब-दल-मौर देखिख के, कुहुकी कोविकल बानी ॥ झूठेहिहं नाम लेवित लक्तिलता कौ, काहै जाहु परानी । ृन्दाबन-मग जावित अकेली, क्तिसर लै दही-मथानी ॥ मैं बैठी परखवित ह्वाँ रैहौं, स्याम तबहिहं वितहिहं जानी । कोक-कला-गुन आगरिर नागरिर, सूर चतुरई ठानी ॥4॥

सैन दै नागरी गई बन कौं । तबहिहं कर-कौर ढिदयौ डारिर, रविह सकै, ग्ाल जेंत तजे, मोह्यौ उनकौं ॥ चले अकुलाइ बन धाइ, ब्याई गाइ देखिखहौं जाइ, मन हरष कीन्हौ । विप्रया विनरखवित पंथ, मिमलैं कब हरिर कंत, गए इहिहं अंत हँक्तिस अंक लीन्हौ । अवितहिहं सुख पाइ, अतुराइ मिमले धाइ दोउ, मनौ अवित रंक नविनमिधहिहं पाई । सूर प्रभु की विप्रया रामिधका अवित नल, नल नँदलाल के मनहिहं भाई ॥5॥

दीजै कान्ह काँधे कौ कंबर । नान्ही नान्ही बूँदविन बरषन लाग्यौ, भीजत कुसँभी अंबर ॥ बार-बार अकुलाई रामिधका, देखिख, मेघ-आडंबर ।

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हँक्तिस हँक्तिस रीजिझ बैढिट रहे दोऊ, ओढिढ़ सुभउ पीतंबर ॥ क्तिस सनकाढिदक नारद-सारद, अंत न पाै तंुबर । सूरस्याम-गवित लखिख न परवित कछु, खात ग्ाल सँग संबर ॥6॥

कान्ह कह्यौ बन रैविन न कीजै, सुनहु रामिधका प्यारी । अवित विहत सौं उर लाइ कह्यौ, अब भन आपनैं जा री ॥ मातु-विपता जिजय जानै न कोऊ, गुप्त-प्रीवित रस भारी । कर तैं कौर डारिर मैं आयौ, देखत दोउ महतारी ॥ तुम जैसी मोहिहं प्यारी लागवित, चंद चकोर कहा री । सूरदास स्ामी इन बातविन, नागरिर रिरझई भारी ॥7॥

मै बक्तिल जाऊँ कन्हैया की । करतैं कौर डारिर उढिठ धायौ, बात सुनी बन गैया की ॥ धौरी गाइ आपनी जानी, उपजी प्रीवित लैया की । तातैं जल समोइ पग धोवित, स्याम देखिख विहत मैया की ॥ जो अनुराग जसोद कै उर, मुख की कहविन कन्हैया की । यह सुख सूर और कहँू नाहीं, सौंह करत बल भैया की ॥8॥

राधा अवितहिहं चतुर प्रीन । कृष्न कौ सुख दै चल हँक्तिस, हंस-गवित कढिट छीन ॥ हार कैं मिमस इहाँ आई, स्याम मविन -कैं काज । भयौ सब पूरन मनोरथ, मिमले श्रीब्रजराज ॥ गाँढिठ-आँचर छोरिर कै, मोवितसरी लीन्ही हाथ । सखी आवित देख राधा, लई ताकौं साथ ॥ जुबवित बूझवित कहाँ नागरिर, विनक्तिस गई इक जाम । सूर ब्यौरो कविह सुनायौ, मैं गई वितहिहं काम ॥9॥

करवित असेर बृषभानु-नारी । प्रात तै गई, बासर गयौ बीवित सब , जाम विनक्तिस गई, धौं कहा बारो ॥ हार कैं त्रास मैं, कँुरिर त्रासी बहुत, वितहिहं डरविन अजहुँ नाविह सदन आई । कहाँ मैं जाऊँ, कह धौं रही रूक्तिस कैं , सखिखविन सौं कहवित कहँु मिमली माई ॥ हार बविह जाइ , अवित गई अकुलाइ कैं , सुता कै नाउँ इक है मेरैं । सूर यह बात जौ सुनैं अबहीं महर, कहैं मोहिहं यै @ंग तेरे ॥10॥ राधा डर डरावित घर आई । देखत हीं कीरवित महतारी, हरविष, कँुरिर उर लाई ॥ धीरज भयौ सुता-माता जिजय, दूरिर गयौ तनु-सोच । मेरी कौं मैं काहैं त्रासी, कहा विकयौ यह पोच ॥ लै री मैया हार मोवितसरी, जा कारन मोहिहं त्रासी । सूर रामिधका के गुन ऐसे, मिमक्तिल आई अविबनासी ॥11॥

परम चतुर ृषभान-ुदुलारी । यह मवित रची कृष्न मिमक्तिलबे की, परम पुनीत महा री ॥ उत सुख ढिदयौ नंद-नंदन कौं, इतहिहं हरष महतारी । हार इतौ उपकार करायौ, कबहुँ न उर तैं टारी ॥ जे क्तिस-सनक-सनातन दुल]भ, ते बस विकये कुमारी । सूरदास-प्रभु-कृपा अगोचर, विनगमविन हू तैं न्यारी ॥12॥

प्रीवित के बस्य के हैं मुरारी । प्रीवित के बस्य नटर सुभेषहिहं धर्‌यौ, प्रीवित बस करज विगरिरराज धारी । प्रीवित के बस्य ब्रज भए-माखन चोर, प्रीवित बस्य दाँरिर बँधाई । प्रीवित के बस्य गोपी-रमन नाम विप्रय, प्रीवित बस जमल तरु मोच्छदाई । प्रीवितबस नंद-बंधन बरुन गृह गए, प्रीवित के बस्य-बन-धाम कामी । प्रीवित के बस्य प्रभु सूर वित्रभुन विबढिदत, प्रीवित बस सदा रामिधका स्ामी ॥13॥

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भ्रमआजु सखी अरुनोदय मेरे, नैनविन कौं धोख भयौ । की हरिर आजु पंथ इहिहं गन,े स्याम जलद की उनयौ ॥ की बग पाँवित भाँवित, उर पर की मुकुट-माल बहु मोल । कीधौं मोर मुढिदत नाचत, की बरह-मुकुट की डोल ॥ की घनघोर गंभीर प्रात उटी, की ग्ालविन की टेरविन । की दामिमनी कौंधवित चहँु ढिदक्तिस, की सुभग पीत पट फेरविन ॥ की बनमाल लाल-उर राजवित, की सुरपवित-धनु चारू । सूरदास-प्रभु-रस भरिर उमँगी, राधा कहवित विबचारु ॥1॥

रामिधका हृदय तैं धोख टारौ । नंद के ला देखे प्रात-काल तैं, मेघ नहिहं स्याम तनु-छविब विबचारौ । इंद्र-धनु नहीं बन दाम बहु सुमन के, नहीं बग पाँवित बर मोवित-माला । क्तिसखी ह नहीं क्तिसर मुकुट सीखंड पछ, तविड़त नहिहं पीत पट-छवि रसाला ॥ मंद गरजन नहीं चरन नूपुर-सबद, भोरही आजु हरिर गन कीन्हौ ॥ सूर प्रभु भामिमनी भन करिर गन, मन रन दुख के दन जाविन लीन्हौ ॥2॥ एकविनष्टाधन्य धन्य बृषभानु-कुमारी । धविन माता, धविन विपता वितहारे , तोसी जाई बारी ॥ धन्य ढिदस, धविन विनसा तबहिहं, धन्य घरी, धविन जाम । धन्य कान्ह तेरैं बस जे हैं, धविन कीन्हे बस स्याम ॥ धविन मवित, धविन रवित, धविन तेरौ विहत, धन्य भक्ति�, धविन भाउ । सूर स्याम पवित धन्य नारिर तु, धविन-धविन एक सुभाउ ॥1॥

तोहिहं स्याम हम कहा ढिदखाैं ।तुमतै न्यारे रहत कहँू न ै, नैकु नहीं विबसराैं ॥एक जी देहो bै राची, यह कविह कविह जु सुनाै ।उनकी पटतर तुमकौं दीजैं, तुम पटतर ै पाैं ॥अमृत कहा अमृत-गुन प्रगटै, सो हम कहा बताैं ॥सूरदास गूँगे कौ गुर ज्यौं, बूझवित कहा बुझाैं ॥2॥सुविन राधा यह कहा विबचारै ।ै तैरैं तू उनके रँग, अपनौ मुख क्यौं न विनहारै ॥जौ देखै तौ छाँह आपनी, स्याम-हृदै ह्याँ छाया ।ऐसी दसा नंद-नंदन की, तुम दोउ विनम]ल काया ॥नीलांबर स्यामल तनु, कीं छवि पीत सुबास ।घन-भीतर दामिमविन प्रकाक्तिसत, दामिमविन घन-चहँू पास ॥सुन री सखी विबलछ कहौं तौसौं, चाहवित हरिर कौ रूप ।दूर सुनहु तुम दोउ सम जोरी, एक स्रूप अनूप ॥3॥विपय तेरैं बस यौं री माई ।ज्यौं संगविह सँग छाँह देह-बस, पे्रम कह्यौ नहिहं जाई ॥ज्यौं चकोर बस सरद चंद्र कैं चक्राक बस भान ।जैसें मधुकर कमल-कोस-बस, त्यौं बस स्याम सुजान ॥ज्यौं चातक बस स्ावित बूँद कै, तन कैं बस ज्यौं जीयसूरदास-प्रभु अवित बस तेरैं, समुझ देखिख धौं हीय ॥4॥लघुमान लीलामैं अपनैं जिजय ग] विकयौ ।ै अंतरजामी सब जानत देखत ही उन चरक्तिच क्तिलयौ ॥कासौं कहौ मिमलाै को अब,नैकु न धीरज धरत जिजयौ ।ैतौ विनठुर भए या बुमिध सौं, अहंकार फल यहै ढिदयौ ॥तब आपुन कौं विनठुर करावित, प्रीवित सुमिमरिर भरिर लेवित विहयौ ।सूर स्याम प्रभु ै बहु नायक , मोसी उनकैं कोढिट क्तिसयौ ॥1॥महा विबरह-बन माँझ परी ।चविकत भई ज्यौ क्तिचत्र-पूतरी, हरिर मारग विबसरी ॥सँग बटपार-गब] जब देख्यौ, साथी छोविड़ परान े।स्याम -सहर-अँग -अंग-माधुरो, तहँ ै जाइ लुकाने ।यह बन माँझ अकेली ब्याकुल, संपवित गब] छँड़ायौं ।सूर स्याम-सुमिध टरवित न उर तैं यह मनु जी बचायौ ॥2॥

राधा-भन सखी मिमक्तिल आईं ।

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अवित व्याकुल सुमिध-बुमिध कछु नाहीं , देह दसा विबसराई ॥बाँह गही वितविह बूझन लागीं, कहा भयौ री माई ।ऐसी विबबस भई तू काहैं, कहौ न हमहिहं सुनाई ॥काक्तिलहिहं और बरन तोहिहं देखी, आजु गई मुरझाई ।सूर स्याम देखे की बहुरौ, उनहिहं ठगौरी लाई ॥3॥अब मैं तोसौ कहा दुराऊँ ।अपनी कथा, स्याम की करनी, तो आगै कविह प्रगट सुनाऊँ ॥मैं बैठी ही भन आपनैं, आपुन bार ढिदयौ दरसाऊँ ।जाविन लई मेरे जिजय की उन, गब]-प्रहारन उनकौं नाऊँ ॥तबहीं तैं ब्याकुल भई डोलवित, क्तिचत न रहै विकतनौ समुझाऊँ ।सुनहु सूर गृह बन बयौ मोकौं, अब कैसैं हरिर-दरसन पाऊँ ॥4॥

हमरी सुरवित विबसारी बनारी, हम सरबस दै हारी ।पै न भइ अपने सनेह बस, सपनेहू विगरधारी ॥ै मोहन मधुकर समान सखिख, अनगन बेली-चारी ।ब्याकुल विबरह व्यापी ढिदन-ढिदन हम, नीर जु नैनविन @ारी ॥हम तन मन दै हाथ विबकानी, ै अवित विनठुर मुरारी ।सूर स्याम बहु रमविन रमन , हम इक ब्रत, मदन-प्रजारी ॥5॥

मैं अपनी सी बहुत करी री ।मोसौं कहा कहवित तू माई, मन कैं सँग मैं बहुत लरी री ॥राखौं हटविक ,उतहिहं कौ धात, बाकी ऐक्तिसयै परविन परी री ।मोसौं बैर करै रवित उनसौ, मोकौ राख्यौ bार खरी री ॥अजहूँ मान करौं, मन पाऊँ, यह कविह इत-उत क्तिचतै डरी री ।सुनहु सूर पाँचगविन मत एकै, मैं ही मोही रही परी री ॥6॥भूक्तिल नहीं, अब मान करौं री ।जातैं होइ अकाज आपनौ, काहैं बृथा मरौं री ॥ऐसे तन मैं गब] न राखौं । सिचंतामविन विबसरौं री ।ऐसी बात कहै जो कोऊ, ताकैं संग लरौं री ।आरजपंथ चलैं कह सरिरहै, स्यामहिहं संग विफरौं री ।सूर स्याम जउ आपु स्ारथी, दरसन नैन भरौं री ॥7॥

माई मेरौ मन विपय सों यौं लाग्यौ, ज्यौं सँग लागी छाँविह ।मेरौ मन विपय जी बसत है, विपय जिजय मो मैं नाविह ॥ज्यौं चकोर चंदा कौं विनरखत, इत-उत दृमिष्ट न जाइ ।सूर स्याम विबनु क्तिछन-क्तिछन जुग सम, क्यौं करिर रैन विबहाइ ॥8॥

अद्भतु एक अनूपम बाग ।जुगल कमल पर गज बर क्रीड़त, तापर सिसंह करत अनुराग ।हरिर पर सरबर, सर पर विगरिरर , विगर पर फूले कंज-पराग ।रुक्तिचर कपोत बसत ता ऊपर, ता ऊपर अमृत फल लाग ।फल पर पुहुप, पुहुप पर पल्ल, ता पर सुक, विपक, मृग मद काग ।खंजन, धनुष, चंद्रमा ऊपर, ता ऊपर एक मविनधर नाग ।अंग-अंग प्रवित और-और छविब, उपमा ताकौं करत न त्याग ।सूरदास प्रभु विपयौ सुधा-रस, मानौ अधरविन के बड़ भाग ॥9॥भुज भरिर लई विहरदय लाइ ।विबरह ब्याकुल देखिख बाला, नैन दोउ भरिर आइ ॥रैविन बासर बीचही मैं, दोउ गए मुरझाइ ।मनौ बृच्छ तमाल बेली, कनक सुधा सिसंचाइ ॥हरष डहडह मुसुविक फूले, पे्रम फलविन लगाइ ।काम मुरझविन बेली तरु की, तुरत ही विबसराइ॥देखिख लक्तिलता मिमलन ह, आनंद उर न समाइ ।सूर के प्रभु स्याम स्यामा, वित्रविबध ताप नसाइ ॥10॥

लक्तिलता पे्रम-विबबस भई भारी ।ह क्तिचतबविन, ह मिमलविन परस्पर , अवित सोभा र नारी ॥इकटक अंग-अंग अलोकवित, उत बस भए विबहारी ।ह आतुर छविब लेत देत ै, इक तैं इक अमिधकारी ॥

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लक्तिलता संग सखिखविन सौं भाषवित , देखौ छविब विपय-प्यारी ।सुनहु सूर ज्यौं होम अविगविन घृत, ताहँू तैं यह न्यारी ॥11॥

राधेहिहं मिमलेहँु प्रतीवित न आवित ।जदविप नाथ विबधु बदन विबलोकत, दरसन कौ सुख पावित ॥भरिर भरिर लोचन रूप-परम-विनमिध, उरमैं आविन दुरावित ।विबरह-विकल मवित दृमिष्ट दुहँू ढिदक्तिस, संक्तिच सरघा ज्यौं धावित ॥क्तिचतत चविकत रहवित क्तिचत अंतर, नैन विनमेष न लावित ।सपनौ आविह विक सत्य ईस यह, बुजिद्ध विबतक] बनावित ॥कबहुँक करवित विबचार कौन हौं, को हरिर कैं विहय भावित ।सूर पे्रम की बात अटपटी, मन तरंग उपजावित ॥12॥

स्याम भए राधा बस ऐसैं ।चातक स्ावित, चकोर चंद ज्यौं, चक्राक रविब जैसें ॥नाद कुरंग, मीन जल की गवित, ज्यौं तनु कैं बस छाया ।इकटक नैन अंग-छविब मोहे, थविकत भए पवित जाया ॥उठैं उठत, बैठैं बैठत हैं, चलैं चलत सुमिध नाहीं ।सूरदास बड़भाविगविन राधा, समुजिझ मनहिहं मुसुकाहीं ॥13॥

विनरखिख विपय-रूप वितय चविकत भारी ।विकधौं ै पुरुष मैं नारिर, की ै नारिर मैं ही हौं तन सुमिध विबसारी ॥आपु तन क्तिचतै क्तिसर मुकुट, कंुडल स्रन, अधर मुरली, माल बन विबराजै ॥उतहिहं विपय-रूप क्तिसर माँग बेनी सुभग, भाल बेंदी-हिबंदु महा छाजै ॥नागरी हठ तजौ, कृपा करिर मोहिहं भजौ , परी कह चूक सो कहौ प्यारी ।सूर नागरी प्रभु-विबरह-रस मगन भई, देखिख छविब हँसत विगरिरराजधारी ॥14॥ कृष्ण गोविपकानंद-नंदन वितय-छविब तनु काछे । मनु गोरी साँरी नारिर दोउ, जावित सहज मै आछे ॥ स्याम अंग कुसुमी नई सारी, फल-गुँजा की भाँवित । इत नागरिर नीलांबर पविहरे, जन ुदामिमविन घन काँवित ॥ आतुर चले जात बन धामहिहं, मन अवित हरष बढ़ाए । सूर स्याम ा छविब कौं नागरिर, विनरखवित नैन चुराए ॥1॥

स्यामा स्याम कंुज बन आत । भुज भुज-कंठ परस्पर दीन्है, यह छविब उनहीं पात ॥ इततैं चंद्राली-जावित ब्रज, उततैं ये दौउ आए । दूरविह तैं क्तिचतवित उनहीं तन, इक टक नैन लगाए ॥ एक रामिधका दूसरिर को है, याकौं नविह पविहचानैं । ब्रज-बृषभानु-पुरा-जुवितविन कौं, इक-इक करिर मैं जानौ ॥ यह आई कहँू और गाँ तैं, छविब साँरौ सलोनी । सूर आजु यह नई बतानी, एकौ अँग न विबलोनी ॥2॥

यह भृषभानु-सुता ह को है । याकी सरिर जुती कोउ नाहीं, यह वित्रभुन-मन मोहै ॥ अवित आतुर देखन कौं आवित, विनकट जाइ पविहचानौं । ब्रज मैं रहवित विकधौं कहँु ओरै, बूझे तैं तब जानौं ॥ यह मोविहनी कहाँ तैं आई, परम सलोनी नारी । सूर स्याम देखत मुसुक्यानी, करी चतुरई भारी॥3॥

कविह राधा ये को हैं री । अवित संुदरी साँरी सलोनी, वित्रभुन-जन-जन मोहैं री । और नारिर इनकी सरिर नाहीं, कहौ न हम-तन जोहैं । काकी सुता, बधू हैं काकी, जुती धौं हैं री ॥ जैसी तुम तैसी हैं येऊ, भली बनी तुमसौं है री । सुनहु सूर अवित चतुर रामिधका, येइ चतुरविन की गौ हैंरी ॥4॥

मथुरा तैं ये आई हैं । कछु संबंध हमारी इनसौं, तातैं इनहिहं बुलाई हैं ॥ लक्तिलता संग गई दमिध बेंचन, उनहीं इनहीं क्तिचन्हाई हैं । उहै सनेह जाविन री सजनी, आजु मिमलन हम आई हैं ॥

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तब ही की पविहचाविन हमारी,ऐसी सहज सुभाई हैं । सूरदास मोहिहं आत देखी, आपु संग उढिठ धाई हैं ॥5॥ इनकौं ब्रजहीं क्यौं न बुलाहु । की ृषभान पुरा, की गोकुल, विनकटहिहं आविन बसाहु ॥ येऊ नल नल तुमहूँ हौ, मोहन कौं दोउ भाहु । मोकौं देखिख विकयौ अवित घूँघट, बाहैं न लाज छुड़ाहु । यह अचरज देख्यौ नहिहं कबहुँ, जुवितहिहं जुवित दुराहु । सूर सखी राधा सौं पुविन पुविन, कहवित जु हमहिहं मिमलाहु ॥6॥

मथुरा मैं बस बास तुम्हारौ ? राधा तैं उपकार भयौ ह, दुल]भ दरसन भयो तुम्हारी ॥ बार-बार कर गविह विनरखवित, घूँघट-ओट करौ विकन न्यारौ । कबहुँक कर परसवित कपौल छुइ, चुटविक लेवित ह्याँ हमहिहं विनहारी ॥ कछु मैं हँू पविहचानवित तुमकौं, तुमविह मिमलाऊँ नंद-दुलारौ । काहें कौं तुम सकुचवित हौ जू, कहौ काह है नाम तुम्हारौ ॥ ऐसौ सखी मिमली तोविह राधा, तौ हमकौं काहै न विबसारौ । सूरदास दंपवित मन जान्यौ, यातैं कैसैं होत उबारौ ॥7॥

ऐसी कँुरिर कहाँ तुम पाई । राधा हँू तैं नख-क्तिसख संुदरिर, अब लौं कहाँ दुराई ॥ काकी नारिर कौन की बेटी, कौन गाउँ तैं आई । देखी सुविन न ब्रज, ंृदान, सुमिध-बुमिध हरवित पराई ॥ धन्य सुहाग भाग याकौ, यह जुवितविन की मनभाई । सूरदास-प्रभु हरिरविष मिमले हँक्तिस, लै उर कंठ लगाई ॥8॥

नंद-नंदन हँसे नागरी-मुख क्तिचतै, हरिरविष चंद्राली कंठ लाई । बाम भुज रविन, दस्थिच्छन भुजा सखी पर, चले बन धाम सुख कविह न जाई । मनौ विबविब दामिमनी बीच न घन सुभग, देखिख छविब काम रवित सविहत लाजै ॥ विकधौं कंचन लता बीच सु तमाल तरु, भामिमविनविन बीच विगरधर विबराजै । गए गृहकंुज, अक्तिलगुंज, सुमनविन पंुज, देखिख आनंद भरे सूर स्ामी । रामिधका-रन, जुती-रन, मन-रन विनरखिख छवि होत मनकाम कामी ॥9॥ मान लीलामौहिहं छुौ जविन दूर रहौ जू । जाकौं हृदय लगाइ लयौ है, ताकी ाहँ गहौ जू ॥ तुम स]ज्ञ और सब मूरख, सो रानी अरु दासी । मैं देखत विहरदय ह बैठी, हम तुमकौ भइ ँहाँसी ॥ बाँह गहत कछु सरम न आवित, सुख पावित मन माहीं । सुनहु सूर मो तन यह इकटक,क्तिचतवित ,डरपवित नाहीं ॥1॥

कहा भई घविन बारी, कविह तुमहिहं सुनाऊँ ॥ तुम तैं को है भाती, जिजहिहं हृदय बसाऊँ ॥ तुमहिहं स्रन, तुम नैन हौ, तुम प्रान-अधारा । ृथा क्रोध वितय क्यौं करौ, कविह बारंबारा ॥ भुज गविह ताविह बसाहू, जेविह हृदय बतावित । सूरज प्रभु कहैं नागरी, तुम तैं को भावित ॥2॥

विपयहिहं विनरखिख प्यारी हँक्तिस दीन्हीं । रीझे स्याम अंग अँग विनरखत, हँक्तिस नागरिर उर लीन्हौ ॥ आसिलंगनदै अधर दसत खँविड, कर गविह क्तिचबुक उठात । नासा सौं नासा लै जोरत, नैन नैन परसात ॥ इहिहं अँतर प्यारी उर विनरख्यौ, झझविक भई तब न्यारी । सूर स्याम मौकौं ढिदखरात, उर ल्याए धरिर प्यारी ॥3॥

मान करौ तुम और साई । कोढिट कौ एकै पुविन है्व हौ, तुम अरु मोहन माई ॥ मोहन सो सुविन नाम स्रनहीं, मगन भई सुकुमारी । मान गयौ, रिरस गई तुरतहीं, लस्थिज्जत भई मन भारी ॥ धाइ मिमलौ दूवितका कंठ सौ, धन्य-धन्य कविह बानी ।

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सूर स्याम बन धाम जाविनकै, दरसन कौं अतुरानी ॥4॥

चलौ विकन माविनविन कंुज-कुटीर । तुब विबन ुकँुर कोढिट बविनता तजिज, सहत मदन की पीर ॥ गदगद स्र संभ्रम अवित आतुर, स्रत सुलोचन नीर । ाक्तिस क्ाक्तिस बृषभानु नढंिदनी, विबलपत विबविपन अधीर ॥ बसी विबक्तिसष, माल ब्यालाविह, पंचानन विपक कीर । मलयज गरल, हुतासन मारुत, साखामृगरिरपु चीर ॥ विहय मैं हरविष पे्रम अवित आतुर, चतुर चली विपय तीर । सुविन भयभीत बज्र के हिपंजर ,सूर सुरवित-रनधीर ॥5॥ श्याम नारिर कैं विबरह भरे । कबहुँक बैठत कँुज द्रुमविन तर, कबहुँक रहत खरे ॥ कबहुँक तनु की सुरवित विबसारत, कबहुँक तनु सुमिध आत । तब नागरिर के गुनविह विबचारत, तेइ गुन गविन गात ॥ कहँु मुकुट, कहँू मुरक्तिल रही विगरिर, कहँू कढिट पीत विपछौरी । सूर स्याम ऐसी गवित भीतर, आइ दूवितका दौरी ॥6॥

धविन बृषभानु-सुता बड़ भाविगविन । कहा विनहारवित अंग-अंग छविब, धण्य स्याम-अनुराविगविन ॥ और वित्रया नख क्तिशख सिसंगार सजिज, तेर ैसहज न पूरैं । रवित, रंभा, उरबसी, रमा सी, तोहिहं विनरखिख मन झूर ै॥ ये सब कंत सुहाविगविन नाहीं, तू है कंत-विपयारी । सूर धन्य तेरी संुदरता, तोसी और न नारी ॥7॥

सँग राजिजत बृषभानु कुमारी । कंुज-सदन कुसुमविन सेज्या पर दंपवित सोभा भारी ॥ आलम भरे मगन रस दोउ, अंग-अंग प्रवित जोहत । मनहँू गौर स्यामल सक्तिस न तन, बैठे सन्मुख सोहत ॥ कंुज भन राधा-मनमोहन, चहँू पास ब्रजनारी । सूर रहीं लोचन इकटक करिर, डारहितं तन मन ारी ॥8॥ खंविडता प्रकरणकाहे कौं कविह गए आइहैं, काहैं झूठी सौ हैं खाए । ऐसे मैं नहिहं जाने तुमकौं, जे गुन करिर तुम प्रगट ढिदखाए । भली करी यह दरसन दीन्हे, जनम जनम के ताप नसाए । तब क्तिचतए हरिर नैंकु वितया-तन, इतनैविह सब अपराध समाए ॥ सूरदास संुदरी सयानी, हँक्तिस लीन्हें विपय अंकम लाए ॥1॥

धीर धरहु फल पाहुगे । अपनेहीं सुख के विपय चाँडे़, कबहूँ तौ बस आहुगे ॥ हम सौं कहत और की औरै, इन बातविन मन भाहुगे । कबहूँ रामिधका मान करैगी, अंतर विबरह जनाहुगे ॥ तब चरिरत्र हमहीं देखैंगी, जैसें नाच नचाहुगे । सूर स्याम अवित चतुर कहात, चतुराई विबसराहुगे ॥2॥

मैं हरिर सौं हो मान विकयौ री । आत देखिख आन बविनता-रत, bार कपाट ढिदयौ री ॥ अपनैं हीं कर साँकर सारी, संमिधहिहं संमिध क्तिसयौ री ॥ जौ देखौं तौ सेज सुमूरवित, काँप्यौ रिरसविन विहयौ री ॥ जब झुविक चली भन तैं बाहरिर, त हढिठ लौढिट क्तिलयौ री । कहा कहौं कछु कहत न आे, तहँ गोहिंद विबयौ री । विबसरिर गई सब रोष, हरष मन, पुविन करिर मदन जिजयौ री ॥ सूरदास प्रभु अवित रवित नागर, छल मुख अमृत विपयौ री ॥3॥

नंद-नँदन सुखदायक हैं । नैन सैन दै हरत नारिर मन, काम काम-तनु दायक हैं ॥ कबहूँ रैविन बसत काहू कैं , कबहूँ भोर उढिठ आत हैं । काहू कौ मन आपु चुरात, काहू कैं मन भात हैं ॥ काहू कैं जागत सगरी विनक्तिस, काहूँ विरह जगात हैं । सुनहु सूर जोइ जोइ मन भाै, सोइ सोइ रँग उपजात हैं ॥4॥

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नाना रँग उपजात स्याम । कोउ रीझवित, कोउ खीझवित बाम । काहू कैँ विनक्तिस बसत बनाइ । काहू मुख छुै आत जाइ । बहु नायक है्व विबलसत आपु । जाकौ क्तिस पात नाहिहं जापु । ताकौं ब्रजनारी पवित जानैं । कोउ आदरैं, कोउ अपमानैं । काहु सौं कविह आन साँझ । रहत और नागरिर घर माँझ । कबहुँ रैन सब संग विबहात । सुनहु सूर ऐसे नँद-तात ॥5॥

अब जुवितविन सौं प्रगटे स्याम । अरस-परस सबविहविन यह जानी, हरिर लुबे्ध सबविहविन कैं धाम ॥ जा ढिदन जाकैं भन न आत, सो मन मैं यह करवित विबचार । आजु गए औरहिहं काहू कै, रिरस पावित, कविह बडे़ लबार ॥ यह लीला हरिर कैं मन भात, खंविडत बचन कहत सुख होत । साँझ बोल दै जात सूर-प्रभु, ताकैं आत होत उदोत ॥6॥

रामिधका गेह हरिर-देह-बासी । और वितय धरविन धर तनु-प्रकासी ॥ ब्रह्म पूरन विbतीय नहीं कोऊ । रामिधका सबै हरिर सबै ोऊ । दीप सौं दीप जैसैं उजारी । तैसें ही ब्रह्म घर-घर विबहारी ॥ खंविडत बचन विहत यह उपाई । कबहुँ कहँु जात, कहु नहिहं कन्हाई । जन्म कौ सुफल हरिर यहै पाैं । नारिर रस-चन स्रनविन सुनाैं ॥ सूर-प्रभु अनतहीं गमन कीन्हौं । तहाँ नहिहं गए जहँ बचन दीन्हौ ॥7॥ मध्यम मानस्याम ढिदया सन्मुख नहिहं जोत ।कबहुँ नैन की कोर विनहारत, कबहुँ बदन पुविन गोत ।मन मन हँसत त्रसत तनु परगट, सुनत भाती बात ।खंविडत बचन सुनत प्यारी के पुलक होत सब गात ।यह सुख सूरदास कछु जानै, प्रभु अपन ेकौ भा ।श्रीराधा रिरस करवित, विनरखिख मुख वितहिहं छवि पर ललचा ॥1॥

नैन चपलता कहाँ गँाई ।मोसौं कहा दुरात नागर, नागरिर रैविन जगाई ॥ताहौ कैं रँग अरुन भए है, धविन यह संुदरताई ।मनौ अरुन असमबुज पर बैठै , मत्त भंृग रस पाई ॥उविड़ न सकत ऐसे मतारे. लागत पलक जम्हाई ।सुनहु सूर यह अंग माधुरी, आलस भरे कन्हाई ॥2॥

यह कविह कै वितय धाम गई ।रिरसविन भरी नख-क्तिसख लौं प्यारी, जोबन-गब]-मई ॥सखी चलीं गृह देखिख दसा यह, हठ करिर बैठी जाइ ।बोलवित नहीं मान करिर हरिर सौं, हरिर अंतर रहे आइ ।इहिहं अंतर जुतो सब आईं जहाँ स्याम घर-bारैं ।विप्रया मान करिर बैढिठ रविह है, रिरस करिर क्रोध तुम्हारैं ॥तुम आत अवितहीं झहरानी, कहा करी चतुराई ।सुनत सूर यह बात चविकत विपय, अवितहिहं गए मुरझाई ॥3॥

नैंकु विनकंुज कृपा कर आइयै ॥अवित रिरस कृस ह्वैं रही विकसोरी, करिर मनुहारी मनाइयै ॥कर कपोल अंतर नहिहं पात, अवित उसास तन ताइयै ।छूटे क्तिचहुर बदन कुम्हिम्हलानौ, सुहथ सँारिर बनाइयै ।इतनौ कहा गाँढिठ कौ लागत, जौ बातविन सुख पाइयै ।रूठेहिहं आदर देत सयाने, यहै सूर जस गाइयै ॥4॥

बैठी माविननी गविह मौन ।मनौ क्तिसद्ध समामिध सेत सुरविन साधे पौन ॥अचल आसन, पलक तारी, गुफा घूँघट-भौन ।रोषही कौ ध्यान धारै, टेक टारै कौन ॥अबहिहं जाइ मनाइ लीजै, अबक्तिस कीजै गौन ।सूर के प्रभु जाइ देखौ, क्तिचत्त चौंधी जौन ॥5॥

स्यामा तू अवित स्यामहिहं भाै ।बैठत-उठत, चलत ,गौ चारत , तेरी लीला गाै ॥

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पीत बरन लखिख पीत बसन उर, पीत धातु अँग लाै ।चंद्रानविन सुविन, मोर चंढिद्रका, माथैं मुकुट बनाै ॥अवित अनुराग सैन संभ्रम मिमक्तिल, संग परम सुख पाै ।विबछुरत तोहिहं क्ाक्तिस राधा कविह, कंुज-कंुज प्रवित धाै ॥तेरौ क्तिचत्र क्तिलखै, अरु विनरखै, बासर-विबरह नसाै ।सूरदास रस-राक्तिस-रक्तिसक सौं, अंतर क्यौं करिर आै ॥6॥

राधे हरिर तेरौ नाम विबचारैं ।तुम्हरेइ गुन ग्रंक्तिथत करिर माला, रसनाकर सौं टारै ।लोचन मूँढिद ध्यान धरिर, दृढ़ करिर, पलक न नैंक उघारैं ॥अंग अंग प्रवित रूप माधुरी, उत तैं नहीं विबसारैं ॥ऐसौ नेम तुम्हारी विपय कैं , कह जिजय विनठुर वितहारैं ।सूर स्याम मनकाम पुराहु, उढिठ चक्तिल कहैं हमारैं ॥7॥

कहा तुम इतनैंविह कौं गरबानी ॥ जीन रूप ढिदस दसही कौ, जल अँचुरी कौ जानी ।तृन की अविगविन ,धूप की मंढिदर, ज्यौं तुषार-कन-पानी ।रिरसहीं जरवित पतंग ज्योवित ज्यौं, जानवित लाभ न हानी ॥कर कछु ज्ञानऽभिभमान जान दै, हैऽब कौन मवित ठानी ।तन धन जाविन जाम जुग छाया, भूलवित कहा अयानी ॥नसै नदी चलवित मरजादा, सूमिधयै सिसंधु समानी ।सूर इतर ऊसर के बरषैं, थौरैं विह जल इतरानी ॥8॥

रविहत री माविननी कान न कीजै ।यह जोबन अँजुरी कौ जल है, ज्यौं गुपाल माँगै त्यौं दीजै ॥क्तिछनुछीन ुघटवित, बढ़वित नहिहं रजनी, ज्यौं ज्यौं कलाचंद्र की छीजै ।पूरब पुन्य सुकृत फल तेरौ, काहैं न रूप नैन भरिर पीजै ॥सौंह करवित तेरे पाइविन की, ऐसी जिजयनीदसौ विनत जीजै ।सूर सु जीन सफल जगत कौ,बेरी बाँमिध विबबस करिर लीजै ॥9॥

राधा सखी देखी हरषानी ।आतुर स्याम पठाई याकौं, अंतरगत की जानी ॥ह सोभा विनरखत अँग-अँग की,रही विनहारिर विनहारिर ।चविकतदेखिख नागरिर मुख ाकौ, तुरत क्तिसगारविन सारिर ।ताविह कह्यौ सुख दै चक्तिल हरिर कौं, मैं आवित हौं पाछैं ॥10॥

हरविष स्याम वितय बाँह गही ।अपनैं कर सारी अँग साजत , यह इक साध गही ॥सकुक्तिचत नारिर बदन मुसुकाविन, उतकौं क्तिचतै रही ।कोक-कला परिरपूरन दोऊ, वित्रभुन और नहीं ॥कंुज-भन सँग मिमक्तिल दोउ बैठै, सोभा एक चही ।सूर स्याम स्यामा क्तिसर बेनी, अपनैं करविन गुही ॥11॥

अवितसय चारू विमल, चंचल ये,पल हिपंजरा न समाते ।बसे कहँू सोइ बातसखी, कविह रहे इहाँ विकहिहं नात ै?सोइ संज्ञा दैखवित औरासी, विकल उदास कला तैं ॥चक्तिल चक्तिल जात विनकट स्रविन के, सविक नाटंक फँदाते ।सूरदास अंजन गुन अटके, नतरु कबै उविड़ जाते ॥12॥

धन्य धन्य ृषभान ु-कुमारी, विगरिररधर बस कीन्हे (री) ।जोइ जोइ साथ करी विपय की, सो सब उनकौं दीन्हे (री) ॥तोसी वितया और वित्रभुन मैं, पुरुष स्याम से नाहीं (री ) ।कोक-कला पूरन तुम दोऊ, अब न कहँू हरिर जाहीं ।(री) ॥ऐसे बस तुम भए परस्पर , मौसौं पे्रम दुराै (री) ।सूर सखी आनंद न सम्हारवित, नागरिर कंठ लगाै (री) ॥13॥बड़ी मान लीलाराधेहिहं स्याम देखी आइ । महा मान दृढ़ाइ बैठी, क्तिचतै काँपैं जाइ ॥ रिरसहिहं रिरस भई मगन संुदरिर, स्याम अवित अकुलात । चविकत है्व जविक रहे ठाढे़, कविह न आै बात ॥

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देखिख व्याकुल नंद-नंदन, रूखी करवित विचार । सूर दोउ मिमलैं, जैसैं, करौ सोइ उपचार ॥1॥

यह ऋतु रूक्तिसबे की नाहीं । बरषत मेघ मेढिदनी कैं विहत, प्रीतम हरविष मिमलाहीं ॥ जेती बेक्तिल ग्रीष्म ऋतु डाहीं, ते तरर लपटाहीं । जे जल विबनु सरिरता ते पूरन, मिमलन समुद्रहिहं जाही ॥ जोबन धन है ढिदस चारिर कौ, ज्यौं बदरी की छाहीं । मैं, दंपवित-रस-रीवित कही है, समुजिझ चतुर मन माहीं ॥ यह क्तिचत धरिर री सखी रामिधका, दै दूती कौ बाहीं । सूरदास उढिठ चली री प्यारी, मेरैं सँग विपय पाहीं ॥2॥

तोविह विकन रूठन क्तिसखई प्यारी । नल बैस न नागरिर स्यामा, े नागर विगरिरधारी ॥ क्तिसगरी रैविन मनावित बीती, हा हा करिर हौं हारी । एते पर हठ छाँड़वित नाहीं, तू ृषभान ुदुलारी ॥ सरद-समय-सक्तिस-दरस समरसर, लागै उन तन भारी । मेटहु त्रास ढिदखाइ बदन-विबधु, सूर स्याम विहतकारी ॥3॥

हर-मुख राधा-राधा बानी । धरिरनी परे अचेत नहीं सुमिध, सखी देखिख अकुलानी ॥ बासर गयौ, रैन इक बीती, विबन ुभोहन विबन ुपानी । बाहँ पकरिर तब सखिखविन जगायौ, धविन-धविन सारँगपानी ॥ ह्याँ तुम विबबस भए हौ ऐसे, ह्वाँ तौ े विबबसानी । सूर बने दोउ नारिर पुरुष तुम, दुहँु की अकथ कहानौ ॥4॥

सुविन री सयानी वितय रूक्तिसबे कौ नेम क्तिलयौ, पास ढिदनविन कोऊ ऐसौ है करत री । ढिदक्तिस ढिदक्तिस घटा उठी मिमली री विपया सौं रूठी, विनडर विहयौ है तेरौं नैंकु न सरत री ॥ चक्तिलए री मेरी प्यारी, मौकौं मान देन हारी, प्रानहँु तैं प्यारे पवित धीर न धरत री । सूरदास प्रभु तोहिहं ढिदयौ चाहै विहत-विबत, हँक्तिस क्यौं न मिमलै तेरौ नेम है टरत री ॥5॥ बेरस कीजै नाहिहं भामिमनी, मैं रिरस की बात । हौं पठई तोहिहं लेन साँरैं, तोहिहं विबन ुकछु न सुहात ॥ हा हा करिर तेर ेपाइँ परवित हौं, क्तिछनु क्तिछनु विनक्तिस घढिट जात । सूर स्याम तेरौ मग जोत, अवित आतुर अकुलात ॥6॥

माधौ, तहाँ बुलाई राधे, जमुना विनकट सुसीतल छविहयाँ । आछी नीकी कुसँुभी सारी गोरैं तन, चक्तिल हरिर विपय पविहयाँ ॥ दूती एक गई मोविहविन पै, जाइ कह्यौ यह प्यारी कविहयाँ । सूरदास सुविन चतुर रामिधका,स्याम रैविन बृंदाबन मविहयाँ ॥7॥

झँूमक सारी तन गोरैं हो । जगमग रह्यौ जराइ कौ टीकौ, छविब की उठवित झकोरैं हो ॥ रत्न जढिटत के सुभग तर् यौना, मनहँु जावित रविब भोरैं हो । दुलरी खंठ विनरखिख विपय इक टक, दृग भए रहैं चकोरैं हो । सूरदास-प्रभु तुम्हरे मिमलन खौं, रीजिझ=रीजिझ तृन तोरैं हो ॥8॥

रामिधका बस्य करिर स्याम पाए । विबरह गयो दूरिर, जिजय हरष हरिर के भयौ, सहस मुख विनगम जिजहिहं नवेित गायौ ॥ मान तजिज माविननी मैन कौ बल हर् यौ, करत तनु कंत जो त्रास भारी । कोक विबद्या विनपुन, स्याम स्यामा विबपुल. कंुज-गृह bार ठाढे़ मुरारी ॥ भ�-विहत-हेत अतार लीला करत, रहत प्रभु तहाँ विनजु ध्यान जाकैं । प्रगट प्रभु सूर ब्रजनारिर कैं विहत बँधे, तेत मन-काम-फल संग ताकैं ॥9॥ संतोत्सझूलत स्याम स्यामा संग । विनरखिख दंपवित अंग सोभा, लजत कोढिट अनंग । मंद वित्रविध समीर सीतल, अंग अंग सुगंध । मचत उड़त सुबास सँग, मन रहे मधुकर बंध ॥ तैक्तिसये जमुना सुभग जहँ, रच्यौ रंग हिहंडोल । तैक्तिसयै बृज-बदू बविन, हरिर क्तिचतै लोचन कोर ॥

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तैसोई बृंदा-विबविपन-घन-कँुज bार-विबहार । विबपुल गोपी विबपुल बन गृह, रन नंदकुमार ॥ विनत्य लीला, विनत्य आनँद, विनत्य मंगल गान । सूर सुर-मुविन मुखविन अस्तुवित, धन्य गोपी कान्ह ॥1॥

विनत्य धाम बृंदाबन स्याम। विनत्य रूप राधा ब्रज-बाम ॥ विनत्य रास, जल विनत्य विबहार । विनत्य मान, खंविडताऽभिभसार ॥ ब्रह्म-रूप येई करतार । करन हरन वित्रभुन येइ सार ॥ विनत्य कंुज-सुख विनत्य हिहंडोर । विनत्यहिहं वित्रविबध-समीर-झकोर ॥ सदा बसंत रहत जहँ बास । सदा हष],जहँ नहीं उदास ॥ कोविकल कीर सदा तहँ रोर । सदा रूप मन्मथ क्तिचतचोर ॥ विबविबध सुमन बन फूले डार । उन्मत मधुकर भ्रमत अपार ॥ न पल्ल बन सोभा एक । विबहरत हरिर सँग सखी अनेक ॥ कुहू कुहू कोविकला सुनाई । सुविन सुविन नारिर परम हरषाईं ॥ बार बार सो हरिरहिहं सुनावित । ऋतु बसंत आयौ समुझाहितं ॥ फागु-चरिरत-रस साध हमारैं । खेलहिहं सब मिमक्तिल संग तुम्हारैं ॥ सुविन सुविन सूर स्याम मुसुकाने । ऋतु बसंत आयौ हरषाने ॥2॥

विपय प्यारी केलैं जमुन तीर । भरिर केसरिर कुमकुम अरु अबीर ॥ घक्तिस मृगमद चंदन अरु गुलाल । रँग भीने अरगज स्त्र माल ॥ कूजत कोविकल कल हँस मोर । लक्तिलताढिदक स्यामा एक ओर ॥ बृँदाढिदक मोहन लई जोर । बाजै ताल मृदंग रबाब घोर ॥ प्रभु हँक्तिस कै गेंदुक दई चलाइ । मुख पट दै राधा गई बचाइ ॥ लक्तिलता पट-मोहन गह्यौ धाइ । पीतांबर मुरली लई सिछंड़ाइ ॥ हौं सपथ करौं छाँड़ौ न तोविह । स्यामा जू आज्ञा दई मोहिहं ॥ इक विनज सहचरिर आई बसीढिठ । सुनी री लक्तिलता तू भई @ीढिठ ॥ पट छाँविड़ ढिदयौ तब न विकसोर । छविब रीजिझ सूर तृन ढिदयौं तोर ॥3॥

तेरैं आैंगे आजु सखी हरिर, खेलन कौं फागु री । सगुन सँदेसौ हौं सुन्यौं, तेरै आँगन बोलै काग री ॥ मदनमोहन तेरैं बस माई, सुविन राधे बड़भाग री । बाजत ताल मृदंग ताल मृदंग झाँझ डफ, का सोै, उढिठ जाग री ॥ चोा चंदन लै कुमकुम अरु, केसरिर पैयाँ लाग री । सूरदास-प्रभु तुम्हरे दरस कौं, राधा अचल सुहाग री ॥4॥

हरिर सँग खेलवित हैं सब फाग । इहिहं मिमस करवित प्रगट गोपी,,उर-अंतर कौ अनुराग ॥ सारी पविहरिर सुरँग, कक्तिस कंचुविक, काजर दै दै नैन । बविन बविन विनकक्तिस-विनकक्तिस भईं ठाढ़ी, सुविन माधौ कै बैन ॥ डफ बाँसुरी रंुज अरु महुअरिर, बाजत ताल मृदंग । अवित आनंद मनोहर बानी, गात उठवित तरंग ॥ एक कोध गोहिंद ग्ाल सब, एक कोध ब्रज-नारिर । छाँविड़ सकुच सब देहितं परस्पर, अपनी भाई गारिर ॥ मिमक्तिल दस पाँच अली चली कृष्नहिहं, गविह लाहितं अचकाइ । भरिर अरगजा अबीर कनक-घट, देहितं सीस तैं नाइ ॥ क्तिछरकहितं सखी कुमकुमा केसरिर, भुरकहितं बंदन धूरिर । सोभिभत हैं तनु साँझ-समै-घन , आए हैं मनु पूरिर ॥ दसहूँ ढिदसा भयौ परिरपूरन, सूर सुरंग प्रमोद । सुर-विबमान कौतुहल भूले,विनरखत स्याम-बनोद ॥5॥

नंद नँदन बृषभानु विकसोरी, मोहन राधा खेलत होरी । श्रीबृंदान अवितहिहं उजागर, बरन बरन न दंपवित भोरी ॥ एकविन कर है अगरु कुमकुमा , एकविन कर केसरिर लै घोरी । एक अथ] सौं भा ढिदखावित, नाचवित तरुविन बाल बृध भोरी ॥ स्यामा उतहिहं सकल ब्रज-बविनता, इतहिहं स्याम रस रूप लहो री । कंचन की विपचकारी छूटवित, क्तिछरकत ज्यौं सचुपाैं गोरी ॥ अवितहिहं ग्ाल दमिध गोरस माते, गारी देत कहौ न करौ री । करत दुहाइ नंदराइ की, लै जु गयौ कल बल छल जोरी ॥ झंुडविन जोरिर रही चंद्राक्तिल, गोकुल मैं कछु खेल मच्यौ री । सूरदास -प्रभु फगुआ दीजै, क्तिचरजीौ राधा बर जोरी ॥6॥

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गोकुलनाथ विबराजत डोल । संग क्तिलये बृषभानु-नढंिदनी, पविहरे नील विनचोल ॥ कंचन खक्तिचत लाल मविन मोती, हीरा जढिटत अमोल । झुलहिहं जूथ मिमलै ब्रजसुँदरिर, हरविषत करहितं कलोल ॥ खेलहितं, हँसहितं, परस्पर गाहितं, बोलवित मीठे बोल । सूरदास-स्ामी, विपय-प्यारी, झूलत हैं झकझोल ॥7॥ मथुरा गमनअकू्रर ब्रज आगमनकंस नृपवित अकू्रर बुलाये ।बैढिठ इकंत मंत्र दृढ़ कीन्हौ, दोऊ बंधु मँगाये ॥कहँू मल्ल, कहँु गज दै राखे, कहँू धनुष, कहँु ीर ।नंद महर के बालक मेरैं करषत रहत सरीर ॥उनहिहं बुलाइ बीच ही मारौ, नगर न आन पाैं ।सूर सुनत अकू्रर कहत, नृप मन-मन मौज बढ़ाै ॥1॥उत नंदहिहं सपनौ भयौ, हरिर कहँू विहरान े।बल-मोहन कोउ लै गयौ, सुविन कै विबलखाने ॥ग्ाल सखा रोत कहैं, हरिर तौ कहँु नाहीं ।संगविह सँग खेलत रहे, यह कविह पक्तिछताहीं ॥दूत एक संग लै गयौ, बलराम कन्हाई ।कहा ठगोरी सी करी, मोविहनी लगाई ॥ाही के दोउ है्व गए, हम देखत ठाढे़ ।सूरज प्रभु ै विनठुर है्व, अवितहिहं गए गाढै़ ॥2॥ सुफलक-सुत हरिर दरसन पायौ ।रविह न सक्यौ रथ पर सुख-व्याकुल , भयौ है मन भायौ ॥भू पर दौरिर विनकट हरिर आयौ, चरनविन क्तिचत्त लगायौ ।पुलक अंग, लोचन जल-धारा, श्रीपद क्तिसर परसायौ ॥कृपासिसंधु करिर कृपा मिमले हँक्तिस, क्तिलयौ भ� उर लाइ ।सूरदास यह सुख सोइ जानै, कहौं कहा मैं गाइ ॥3॥चलन चलन स्याम कहत, लैन कोउ आयौ ।नंद-भन भनक सुनी, कंस कविह पठायौ ॥ब्रज की नारिर गृह विबसारिर , ब्याकुल उढिठ धाईं ।समाचार बूझन कौं, आतुर है्व आईं ॥प्रीवित जाविन , हेत माविन, विबलखिख बदन ठाढ़ीं ।मानहु ै अवित विक्तिचत्र , क्तिचत्र क्तिलखी काढ़ी ॥ऐसी गवित ठौर-ठौर, कहत न बविन आै ।सूर स्याम विबछुरैं , दुख-विबरह काविह भाै ॥4॥चलत जाविन क्तिचतहितं ब्रज-जुबती, मानहु क्तिलखीं क्तिचतेरैं ।जहाँ सु तहाँ एकटक रविह गईं, विफरत न लोचन फेरैं ॥विबसरिर गई गवित भाँवित देह की, सुनवित न स्रनविन टेरैं ।मिमक्तिल जु गईं मानौ पै पानी , विनबरहितं नहीं विनबेरैं ॥लागीं संग मतंग मत्त ज्यौं, मिघरवित न कैसैंहँु घेरैं ।सूर पे्रम-आसा अंकुस जिजय, ै नहिहं इत-उत हेरें ॥5॥(मेरे) कमलनैन प्रानविन तैं प्यारे ।इन्है कहा मधुपुरी पठाऊँ, राम कृष्न दोऊ जन बारे ॥जसुदा कहै सुनौ सुफलक-सुत, मैं इन बहुत दुषविन सौं पारे ।ये कहा जानै राज सभा कौं, ये गुरुजन विबप्रहँु न जुहारे ॥मथुरा असुर समूह बसत है, कर-कृपान, जोधा हत्यारे ।सूरदास ये लरिरका दोऊ, इन कब देखे मल्ल-अखार े॥6॥जसमवित अवित हीं भई विबहाल ।सुफलक सुत यह तुमहिहं बूजिझयत, हरत हमारे बाल ॥ये दोऊ भैया जीन हमरे, कहवित रोविहनी रोइ ।धरविन विगरत उठवित अवित ब्याकुल, कविह राखत नहिहं कोइ ॥विनठुर भए जब तैं यह आयौ, घरहू आत नाहिहं ।सूर कहा नृप पास तुम्हारौ, हम तुम विबनु मरिर जाहिहं ॥7॥सुन ैहैं स्याम मधुपुरी जात ।सकुचविन कविह न सकवित काहू सौं, गुप्त हृदय की बात ॥संविकत बचन अनागत कोऊ, कविह जु गयौ अधरात ।नींद न पर,ै घटै नहिहं रजनी, कब उढिठ देखौं प्रात ॥

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नंद नँदन तौ ऐसौ लागे, ज्यौ जल पुरइविन पात ।सूर स्याम सँग तैं विबछुरत हैं, कब ऐहैं कुसलात ॥8॥मथुरा प्रयाणअब नँद गाइ लेहु सँभारिर ।जो तुम्हारैं आविन विबलमे, ढिदन चराई चारिर ॥दूध दही खाइ कीन्हेम बड़ अवित प्रवितपारिर ।दूध दही खाइ कीन्हे, बड़ अवित प्रवितपारिर । ये तुम्हारे गुन हृदय तैं; डारिरहौं न विबसारिर ॥मातु जसुदा bार ठाढ़ी, चलै आँसू @ारिर ।कह्यौ रविहयौ सुक्तिचत सौं, यह ज्ञान गुर उर धारिर ॥कौन सुत, को विपता-माता देखिख हृदै विबचारिर ।सूर के प्रभु गन कीन्हौं, कपट कागद फारिर ॥1॥ जबहीं रथ अकू्रर चढे़ । तब रसना हरिर नाम भाविष कै, लोचन नीर बढे़ ॥महरिर पुत्र कविह सोर लगायौ, तरु ज्यौं धरविन लुटाइ ।देखहितं नारिर क्तिचत्र सी ठाढ़ी, क्तिचतये कँुर कन्हाइ ॥इतनैं विह मैं सुख ढिदयौ सबविन कौं, दीन्ही अमिध बताइ ।तनक हँसे, हरिर मन जुवितन कौं विनठुर ठगौरी लाइ ॥बोलहितं नहीं रहीं सब ठाढ़ी, स्याम-ठगीं ब्रज नारिर ।सूर तुरत मधुबन पग धारे, धरनी के विहतकारिर ॥2॥ रहीं जहाँ सो तहाँ सब ठाढ़ीं ।हरिर के चलत देखिखयत ऐसी, मनहु क्तिचत्र क्तिलखिख काढ़ी ॥सूख ेबदन, स्रविन नैनविन तैं, जल-धारा उर बाढ़ी ।कंधविन बाँह धरे क्तिचतहितं मनु, द्रुमविन बेक्तिल द दाढ़ी ॥नीरस करिर छाँड़ी सुफलक सुत, जैसें दूध विबन ुसाढ़ी ।सूरदास अकू्रर कृपा तैं, सही विपवित तन गाढ़ी ॥3॥विबछुरत श्री ब्रजराज आजु, इविन नैनविन की परतीवित गई ।उविड़ न गए हरिर संग तबहिहं तैं, है्व न गए सखिख स्याममई ॥रूप रक्तिसक लालची कहात , सो करनी कछुै न भई ।साँचे कू्रर कुढिटल यै लोचन, ृथा मीन-छवि छीन लई ॥अक काहैं जल-मोचत, सोचत, सभौ गए तैं सूल नई ।सूरदास याही तैं जड़ भए, पलकविनहूँ हढिठ दगा दई ॥4॥ आजु रैविन नहिहं नींद परी ।जागत विगनत गगनके तारे, रसना हटत गोहिंद हरी ॥ह क्तिचतविन, ह रथ की बैठविन, जब अकू्रर की बाहँ गही ।क्तिचतवित रही ठगीसी ठाढ़ी, कविह न सकवित कछु काम दही ॥इते मान व्याकुल भइ सजनी, आरज पंथहँु तैं विबडरी ।सूरदास-प्रभु जहाँ क्तिसधारे, विकवितक दूर मथुरा नगरी ॥5॥री मोहिहं भन भयानक लागै, माई स्याम विबना ।कविह जाइ देखौं भरिर लोचन, जसुमवित कैं अँगना ॥ को संकट सहाइ करिरबे कौं, मेटै विबघन घना ।लै गयौ कू्रर अकू्रर साँरी, ब्रज कौ प्रानधना ॥काविह उठाइ गोद करिर लीजै, करिर करिर मन मगना ।सूरदास मोहन दरसन विबन,ु सुख संपवित सपना ॥6॥ कहा हौं ऐसै ही मरिर जैहौं ।इहिहं आँगन गोपाल लाल कौ, कबहुँ विक कविनया लैहौं ॥कब ह मुख बहुरौ देखौंगी, कह ैसो सचुपैहौं ।कब मोपै माखन माँगैगे, कब रोटी धरिर देहौं ॥मिमलन आस तन-प्रान रहत हैं, ढिदन दस मारग ज्ैहौं ।जौ न सूर अइहैं इते र, जाइ जमुन धक्तिस लैहौं ॥7॥मथुरा प्रेश तथा कंस बधबूझत हैं अकू्ररहिहं स्याम ।तरविन विकरविन महलविन पर झाईं, इहै मधुपुरी नाम ॥स्रनविन सुनत रहत हे जाकौं, सो दरसन भए नैन ।कंचन कोट कँगूरविन की छविब , मानौ बैठे मैन ॥उपन बन्यौ चहँूधा पुर के, अवितहिहं मोकौं भात ।सूर स्याम बलरामहिहं पुविन पुविन, कर पल्लविन ढिदखात ॥1॥ मथुरा हरविषत आजु भई ।ज्यौं जुती पवित आत सुविन कै, पुलविकत अंग मई ॥नसत साजिज सिसंगार संुदरी, आतुर पंथ विनहारवित ।

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उड़वित धुजा तनु सुरवित विबसारे , अंचल नहीं सँभारवित ॥उरज प्रगट महलविन पर कलसा, लसवित पास बन सारी ।ऊँचे अटविन छाज की सोभा, सीस उचाइ विनहारी ॥जालरंध्र इकटक मग जोवित, हिकंविकन कंचन दुग] ।बेनी लसवित कहाँ छविब ऐसी , महलविन क्तिचत्रे उग] ॥बाजत नगर बाजने जहँ तहँ, और बजत घरिरयार ।सूर स्याम बविनता ज्यौं चंचल, पग नूपुर झनकार ॥मथुरा बविनता ज्यौं चंचल, पग नूपुर झनकार ॥2॥ मथुरा पुर मैं सोर पर् यौ ।गरजत कंस बंस सब साजे, मुख कौ नीर हर् यौ ॥पीरौ भयौ, फेफरी अधरविन, विहरदै अवितहिहं डर् यौ ॥नंद महर के सुत दोउ सुविन कै, नारिरविन हष] सर् यौ ॥कोउ महलविन पर कोउ छजविन पर, कुल लज्जा न कर्‌यौ ।कोउ धाई पुर गक्तिलन गक्तिलन है्व, काम-धाम विबसर् यौ ॥इंदु बदन न जलद सुभग तनु, दोउ खग नयन कर् यौ ।सूर स्याम देखत पुर-नारी, उर-उर पे्रम भर् यौ ॥3॥ @ौटा नंद कौ यह री ।नाविह जानवित बसत ब्रज मैं, प्रगट गोकुल री ॥धर् यौ विगरिरर याम कर जिजहिहं, सोइ है यह री ।दैत्य सब इनहीं सँहारे, आपु-भुज-बल री ॥ब्रज-घरविन जो करत चोरी, खात माखन री ।नंद-घरनी जाहिहं बान्यौ, अजिजर ऊखल री ॥सुरभिभ-ठान क्तिलये बन तैं आत , सबहिहं गुन इन री ।सूर-प्रभु ये सबहिहं लायक, कंस डर ैजिजन री ॥4॥ भए सखिख नैन सनाथ हमारे ।मदनगोपाल देखतहिहं सजनी, सब दुख सोक विबसारे ॥पठये हे सुफलक-सुत गोकुल, लैन सो इहाँ क्तिसधारे !मल्ल जुद्ध प्रवित कंस कुढिटल मवित, छल करिर इहाँ हँकारे ॥मुमिष्टक अरु चानूर सैल सम, सुविनयत हैं अवित भारे ।कोमल कमल समान देखिखयत, ये जसुमवित के बारे ॥होे जीवित विधाता इनकी, करहु सहाइ सबारे ।सूरदास क्तिचर जिजयहु दुष्ट दक्तिल, दोऊ नंद-दुलारे ॥5॥ धनुषसाला चले नँदलाला ।सखा क्तिलए संग प्रभु रंग नाना करत, दे नर कोउ न लखिख सकत ख्याला ॥नृपवित के रजक सौं भेंट मग मैं भई, कह्यौ दै बसन हम पविहरिर जाहीं ।बसन ये नृपवित के जासु प्रजा तुम, ये बचन कहत मन डरत नाहीं ॥एक ही मुमिष्टका प्रान ताके गए, लए सब बसन कछु सखविन दीन्हे ।आइ दरजी गयौ बोक्तिल ताकौं लयौ, सुभग अँग साजिज उन विनय कीन्हे ॥पुविन सुदामा कह्यौ गेह मम अवित विनकट, कृपा करिर तहाँ हरिर चरन धारे । धोइ पद-कमल पुविन हार आगैं धरे, भक्ति� दै, तासु सब काज सारे ॥क्तिलए चंदन बहुरिर आविन कुविबजा मिमली, स्याम अँग लेप कीन्हौ बनाई ॥रीजिझ वितहिहं रूप ढिदयौ, अंग सुधौ विकयौ, बचन सुभ भाविष विनज गृह पठाई ।पुविन गए तहाँ जहँ धनुष, बोले सुभट हौंस, जविन मन करौ बन-विबहारी ।सूर प्रभु छुत धनु टूढिट धरनी पर् यौ, सोर सुविन कंस भयौ भ्रमिमत भारी ॥6॥ सुविनविह महात बात हमारी ।बार-बार संकष]न भाषत, लेत नाहिहं ह्याँ तौं गज टारी ॥मेरौ कह्यौ माविन रे मूरख, गज समेत तोहिहं डारौं मारी ।bार ैखरे रहे हैं कबके, जाविन रे ग] करविह जिजय भारी ॥न्यारौ करिर गयंद तू अजहूँ, जान देविह कै आपु सँभारी ।सूरदास प्रभु दुष्ट विनकंदन, धरनी भार उतारनकारी ॥7॥ तब रिरस विकयौ महात भारिर ।जौ नहिहं आज मारिरहौं इनकौं, कंस डारिरहै मारिर ॥आँकुस राखिख कंुभ पर करष्यौ, हलधर उठे हँकारिर ।तब हरिर पँुछ गह्यौ दस्थिच्छन कर, कँबुक फेरिर क्तिसर ारिर ।पटक्यौ भूमिम, फेरिर नहिहं मटक्यौ, क्तिलन्हीं दंत उपारिर ॥दुहँु कर दुरद दसन इक इक छविब, सो विनरखहितं पुरनारिर ।सूरदास प्रभु सुर सुखदायक, मार् यौ नाग पछारिर ॥8॥ एई सुत नँद अहीर के ।मार् यौ रजक बसन सब लूटे, संग सखा बल ीर के ॥काँधे धरिर दोऊ जन आए , दंत कुबलयापीर के ।पसुपवित मंडल मध्य मनौ, मविन छीरमिध नीरमिध नीर के ॥

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उविड़ आए तजिज हंस मात मनु, मानसरोर तीर के ।सूरदास प्रभु ताप विनबारन, हरन संत दुख पीर के ॥9॥सुनौ हो बीर मुमिष्टक चानूर सबै, हमहिहं नृप पास नाहिहं जान दैहौ ।घरेिर राख ेहमैं, नहीं बूझै तुम्हैं, जगत में कहा उपहास लैहौ ॥सबै यहै कैहै भली मत तुम पै है, नंद के कँुर दोउ मल्ल मारे ।यहै जस लेहुगे, जान नहिहं देहुगे, खौजहीं परे अब तुम हमारे ॥हम नहीं कहैं तुम मनहिहं जौ यह बसी, कहत हौ कहा तौ करौ तैसी ।सूर हम तन विनरखिख देखिखयै आपुकौं, बात तुम मनहिहं यह बसी नैसी ॥10॥गह्यौ कर स्याम भुज मल्ल अपने धाइ , झटविक लीन्हौ तुरत पटविक धरनी ।भटविक अवित सब्द भयौ, खटक नृप के विहयैं, अटविक प्रानविन पर् यौ चटक करनी ॥लटविक विनरखन लग्यौ, मटक सब भूक्तिल गइ, हटक करिर देउँ इहै लागी।झटविक कँुडल विनरखिख, अटल है्व कै गयौ, गटविक क्तिसल सौं रह्यौ मीच जागी ॥मल्ल जे जे रहे सबै मारे तुरत, असुर जोधा सबै तेउ सँहारे ।धाइ दूतन कह्यौ, कोउ न रह्यौ, सूर बलराम हरिर सब पछारे ॥11॥ नल नंदनंदन रंगभूमिम राजैं ।स्याम तन, पीत पट मनौ घन में तविड़त, मोर के पंख माथैं विबराजैं ॥स्रन कंुडल झलक मनौ चपला चमक, दृग अरुन कमल दल से विबसाला ।भौंह संुदर धनुष, बान सम क्तिसर वितलक, केस कंुक्तिचत सोह भंृग माला ॥हृदय बनमाल, नूपुर चरन लाल, चलत गज चाल, अवित बुमिध विबराजैं ।हंस मानौ मानसर अरुन अंबुज सुभर, विनरखिख आनंद करिर हरविष गाजैं ।कुबलया मारिर चानूर मुमिष्टक पटविक, बीर दोउ कंध जग-दंत धारे ।जाइ पहुँचे तहाँ कंस बैठ्यौ जहाँ, गए असान प्रभु के विनहारे ॥@ाल तरारिर आगैं धरी रविह गई , महल कौ पंथ खोजत न पात ।लात कैं लगत क्तिसर तैं गयौ मुकुट विगरिर, केस गविह लै चले हरिर खसात । चारिर भुज धारिर तेहिहं चारु दरसन ढिदयौ, चारिर आयुध चहँू हाथ लीन्हे ।असुर तजिज प्रान विनरान पद कौं गयौ, विबमल मवित भई प्रभु रूप चीन्हे ॥देखिख यह पुहुप षा] करिर सुरविन मिमक्तिल, क्तिस� गंद] जय धुविन सुनाई ।सूर प्रभु अगम मविहमा न कछु कविह परवित, सुरविन की गवित तुरत असुर पाई ॥12॥ उग्रसेन कौं ढिदयौ हरिर राज ।आनँद मगन सकल पुरासी, चँर डुलात श्री ब्रजराज ॥जहाँ तहाँ तैं जाद आए, कंस डरविन जे गए पराइ ।मागध सूत करत सब अस्तुवित, जै जै श्री जादराइ ॥जुग जुग विबरद यहै चक्तिल आयौ, भए बक्तिल के bारैं प्रवितहार ।सूरदास प्रभु अज अविबनासी, भ�विन हेत लेत अतार ।13॥ तब बसुदे हरविषत गात । स्याम रामहिहं कंठ लाए,हरविष देै मात ।अमर ढिदवि दंुदुभी दीन्ही, भयौ जैजैकार ।दुष्ट दक्तिल सुख ढिदयौ संतविन, ये बसुदे कुमार ॥दुख गयौ बविह हष] पूरन, नगर के नर-नारिर ।भयौ पूरब फल सँपूरन, लह्यौ सुत दैत्यारिर ॥तुरत विबप्रविन बोक्तिल पठये, धेनु कोढिट मँगाइ ।सूर के प्रभु ब्रह्मपूरन, पाइ हरषै राइ ॥14॥ बसुद्यौ कुल-ब्यौहार विबचारिर ।हरिर हलधर कौं ढिदयौ जनेऊ, करिर षटरस ज्यौनारिर ।जाके स्ास-उसाँस लेत मैं, प्रगट भये श्रुवित चार ।वितन गायत्री सुनी गग] सौं, प्रभु गवित अगम अपार ॥विमिध सौं धेनु दई बहु विबप्रविन,सविहत स]ऽलंकार ।जदकुल भयौ परम कौतूहल जहँ तहँ गाहितं नार ॥मातु देकी परम मुढिदत है्व, देवित विनछारिर ारिर ।सूरदास की यहै आक्तिसषा, क्तिचर जयौ नंदकुमार ॥15॥ कुबरी पूरब तप करिर राख्यौ ।आए स्याम भन ताहीं कै, नृपवित महल सब राख्यौ ॥प्रथमहिहं धनुष तोरिर आत हे, बीच मिमली यह धाइ ।वितहिहं अनुराग बस्य भए ताकैं , सो विहत कह्यौ न जाइ ॥दे-काज करिर आन कविह गए, दीन्हौ रूप अपार ।कृपा दृमिष्ट क्तिचततहीं श्री भइ, विनगम न पात पार ॥हम तैं दूरिर दीन के पाछैं, ऐसे दीनदयाल ।सूर सुरविन करिर काज तुरतहीं, आत तहाँ गोपाल ॥16॥ विकयौ सुर-काज गृह चले ताकैं ।पुरुष औ नारिर कौ भेद भेदा नहीं, कुक्तिलन अकुलीन अतर् यौ काकैं ॥

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दास दासी कौन, प्रभु विनप्रभु कौन है, अखिखल ब्रह्मांड इक रोम जाकैं ।भा साँचौ हृदय जहाँ, हरिर तहाँ हैं, कृपा प्रभु की माथ भाग ाकैं ॥दास दासी स्याम भजनहु तैं जिजये, रमा सम भई सो कृष्नदासी ।मिमली ह सूर प्रभु पे्रम चंदन चरक्तिच, विकयौ जप कोढिट, तप कोढिट कासी ॥17॥ मथुरा ढिदन-ढिदन अमिधक विबराजै ।तेज प्रताप राइ कैसौ कैं , तीविन लोक पर गाजै ॥पग पग तीरथ कोढिटक राजैं, ममिध विश्रांवित विबराजै ।करिर अस्नान प्रात जमुना कौ, जनम मरन भय भाजै ॥विबट्ठल विबपुल विबनोद विबहारन, ब्रज कौ बक्तिसबौ छाजै ।सूरदास सेक उनहीं कौ, कृपा सु विगरधर राजै ॥18॥नंद का ब्रज प्रत्यागमनबेविग ब्रज कौं विफरिरए नँदराइ ।हमहिहं तुमहिहं सुत तात कौ नातौं, और पर् यौ हैं आइ ॥बहुत विकयौ प्रवितपाल हमारौ, सो नहिहं जी तैं जाइ ।जहाँ रहैं तहँ तहाँ तुम्हारे, डार् यौ जविन विबसराइ ॥जनविन जसोदा भेंढिट सखा सब, मिमक्तिलयौ कंठ लगाइ ।साधु समाज विनगम जिजनके गुन, मेरैं गविन न क्तिसराइ ।माया मोह मिमलन अरु विबछुरन, ऐसै ही जग जाइ ।सूर स्याम के विनठुर बचन सुविन, रहे नैन जल छाइ ॥1॥ नंद विबदा होइ घोष क्तिसधारौ ।विबछुरन मिमलन रच्यौ विबमिध ऐसौ; यह संकोच विनारौ ॥कविहयौ जाइ जसोदा आगैं, नैंन नीर जविन @ारौ ।सेा करी जाविन सुत अपनौ, विकयौ प्रवितपाल हमारौ ॥हमैं तुम्हैं अंतर कछु नाहीं , तुम जिजय ज्ञान विबचारौ ।सूरदास प्रभु यह विबनती है, उर जविन प्रीवित विबसारौ ॥2॥ गोपालराइ हौं न चरन तजिज जैहौं ।तुमविह छाँविड़ मधुबन मेरे मोहन, कहा जाइ ब्रज लैहौं ॥कैहौं कहा जाइ जसुमत सौं, जब सन्मुख उढिठ ऐहै ।प्रात समय दमिध मथत छाँविड़ कै, काविह कलेऊ दैहै ॥बारह बरस ढिदयौ हम @ीठौ, यह प्रताप विबन ुजाने ।अब तुम प्रगट भए बसुद्यौ-सुत गग] बचन परमाने ॥रिरपु हवित काज सबै कत कीन्हौ, कत आपदा विबनासी ।डारिर न ढिदयौ कमल कर तैं विगरिर, दविब मरते ब्रजासी ॥बासर संग सखा सब लीन्हे, टेरिर न धेनु चरैहौ ।क्यौ रविहहैं मेरे प्रान दरस विबन,ु जब संध्या नहिहं ऐहौं ॥ऊरध स्ाँस चरन गवित थाकी, नैन नीर मरहाइ ।सूर नंद विबछुरत की ेदविन, मो पै कही न जाइ ॥3॥

(मेरे) मोहन तुमहिहं विबना नहिहं जैहौं ।महरिर दौरिर आगे जब ऐहै, कहा ताविह मैं कैहौं ॥माखन मक्तिथ राख्यौ है्व है तुम हेत, चलौ मेरे बारे ।विनठुर भए मधुपुरी आइ कै , काहैं असुरविन मारे ॥सुख पायौ बसुदे देकी, अरु सुख सुरविन ढिदयौ ।यहै कहत नँद गोप सखा सब, विबदरन चहत विहयौ ॥तब माया जड़ता उपजाई, विनठुर भए जदुराइ ।सूर नंद परमोमिध पठाए, विनठुर ठगोरी लाइ ॥4॥ उठे कविह माधौ इतनौ बात ।जिजते मान सेा तुम कीन्ही, बदलौ दयौ न जात ॥पुत्र हेत प्रवितपार विकयौ तुम, जैसैं जननी तात ॥गोकुल बसत हँसत खेलत मोहिहं द्यौस न जान्यौ जात ॥होहु विबदा घर जाहु गुसाईं, माने रविहयौ नात ।ठाढ़ौ थक्यौ उतर नविह आै, ज्यौं बयारिर बस पात ।धकधकात विहय बहुत सूर उढिठ, चले नंद पक्तिछतात ॥5॥बार-बार मग जोवित माता ब्याकनु मोहन बल-भ्राता ॥आत देखिख गोप नँद साथा । विबवि बालक विबनु भई अनाथा ॥धाई धेनु बच्छ ज्यौं ऐसैं । माखन विबना रहे धौं कैसैं ॥ब्रज-नारी हरविषत सब धाईं । महरिर जहाँ-तहँ आतुर आईं ॥हरविषत मातु रोविहनी आई । उर भरिर जलधर लेउँ कन्हाई ॥देखे नंद गोप सब देखे । बल मोहन कौं तहाँ न पेखे ॥आतुर मिमलन-काज ब्रज नारी । सूर मधुपुरी रहे मुरारी ॥6॥

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उलढिट पग कैसैं दीन्हौ नंद ।छाँडे़ कहाँ उभै सुत मोहन, मिधक जीन मवितमंद ॥कै तुम धन-जोबन-मद माते, कै तुम छूटे बंद ।सुफलक-सुत बैरी भयौ हमकौं, लै गयौ आनँदकंद ॥राम कृष्न विबन ुकैसैं जीजै, कढिठन प्रीवित कैं फंद ।सूरदास मैं भई अभाविगन, तुम विबनु गोकुलचंद ॥7॥ दोउ @ोटा गोकुल-नायक मेरे ।काहैं नंद छाँविड़ तुम आए, प्रान-जिजन सब केरे ॥(मेरे) मोहन तुमहिहं विबना नहिहं जैहौं ।महरिर दौरिर आगे जब ऐहै, कहा ताविह मैं कैहौं ॥माखन मक्तिथ राख्यौ है्व है तुम हेत, चलौ मेरे बारे ।विनठुर भए मधुपुरी आइ कै , काहैं असुरविन मारे ॥सुख पायौ बसुदे देकी, अरु सुख सुरविन ढिदयौ ।यहै कहत नँद गोप सखा सब, विबदरन चहत विहयौ ॥तब माया जड़ता उपजाई, विनठुर भए जदुराइ ।सूर नंद परमोमिध पठाए, विनठुर ठगोरी लाइ ॥8॥ उठे कविह माधौ इतनौ बात ।जिजते मान सेा तुम कीन्ही, बदलौ दयौ न जात ॥पुत्र हेत प्रवितपार विकयौ तुम, जैसैं जननी तात ॥गोकुल बसत हँसत खेलत मोहिहं द्यौस न जान्यौ जात ॥होहु विबदा घर जाहु गुसाईं, माने रविहयौ नात ।ठाढ़ौ थक्यौ उतर नविह आै, ज्यौं बयारिर बस पात ।धकधकात विहय बहुत सूर उढिठ, चले नंद पक्तिछतात ॥9॥बार-बार मग जोवित माता ब्याकनु मोहन बल-भ्राता ॥आत देखिख गोप नँद साथा । विबवि बालक विबनु भई अनाथा ॥धाई धेनु बच्छ ज्यौं ऐसैं । माखन विबना रहे धौं कैसैं ॥ब्रज-नारी हरविषत सब धाईं । महरिर जहाँ-तहँ आतुर आईं ॥हरविषत मातु रोविहनी आई । उर भरिर जलधर लेउँ कन्हाई ॥देखे नंद गोप सब देखे । बल मोहन कौं तहाँ न पेखे ॥आतुर मिमलन-काज ब्रज नारी । सूर मधुपुरी रहे मुरारी ॥10॥उलढिट पग कैसैं दीन्हौ नंद ।छाँडे़ कहाँ उभै सुत मोहन, मिधक जीन मवितमंद ॥कै तुम धन-जोबन-मद माते, कै तुम छूटे बंद ।सुफलक-सुत बैरी भयौ हमकौं, लै गयौ आनँदकंद ॥राम कृष्न विबन ुकैसैं जीजै, कढिठन प्रीवित कैं फंद ।सूरदास मैं भई अभाविगन, तुम विबन ुगोकुलचंद ॥11॥ दोउ @ोटा गोकुल-नायक मेरे ।काहैं नंद छाँविड़ तुम आए, प्रान-जिजन सब केरे ॥वितनकैं जात बहुत दुख पायौ, रोर परी इहिहं खेरे ।गोसुत गाइ विफरत हैं दहँु ढिदक्तिस, ै न चरैं तृन घेरे ॥प्रीवित न करी राम दसरथ की, प्रान तजे विबनु हेरैं ।सूर नंद सौं कहवित जसोदा, प्रबल पाप सब मेरैं ॥12॥ नंद कहौ हो कहँ छाँडे़ हरिर ।लै जु गए जैसैं तुम ह्याँतैं, ल्याए विकन ैसहिहं आगैं धरिर ॥पाक्तिल पोविष मैं विकए सयाने, जिजन मारे जग मल्ल कंस अरिर ।अब भए तात देकी बसुद्यौ, बाँह पकरिर ल्याये न न्या करिर ।देखौ दूध दही घृत माखन, मैं राख ेसब ैसें ही धरिर ।अब को खाइ नंदनंदन विबनु, गोकुल मविन मथुरा जु गए हरिर ॥श्रीमुख देखन कौं ब्रजासी, रहे ते घर आँगन मेरैं भरिर ।सूरदास प्रभु के जु सँदेसे, कहे महर आँसू गदगद करिर ॥13॥ जसुदा कान्ह कान्ह कै बूझै ।फूढिट न गईं तुम्हारी चारौ, कैसैं मारग सूझै ॥इक तौ जरी जात विबन ुदेखैं, अब तुम दीन्हौं फँूविक ।यह छवितया मेरे कान्ह कँुर विबन,ु फढिट न भई bे टूक ॥मिधक तुम मिधक ये चरन अहौ पवित, अध बोलत उढिठ धाए ।सूर स्याम विबछुरन की हम पै, दैन बधाई आए ॥14॥ नर हरिर तुमसौं कहा कह्यौ ।सुविन सुविन विनठुर बचन के कैसैं हृदय रह्यौ ॥छाँविड़ सनेह चले मंढिदर कत, दौरिर न चरन गह्यौ ।दरविक न गई बज्र की छाती, कत यह सूल सह्यौ ॥सुरवित करत मोहन की बातैं, नैनविन नीर बह्यौ ।

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सुमिध न रही अवित गक्तिलत गात भयौ, मनु डक्तिस गयौ अह्यौ ॥उन्हैं छाँविड़ गोकुल कत आए, चाखन दूध दह्यौ ।तजे न प्रान सूर दसरथ लौं, हुतौ जन्म विनबह्यौ ॥15॥ कहाँ रह्यौ मेरौ मनमोहन ।ह मूरवित जिजय तैं नहिहं विबसरवित, अंग अंग सब सोहन ॥कान्ह विबना गोैं सब व्याकुल, को ल्याै भरिर दोहन ।माखन खात खात ग्ालविन, सखा क्तिलए सब गोहन ॥जब ै लीला सुरवित करवित हौं, क्तिचत चाहत उढिठ जोहन ।सूरदास-प्रभु के विबछुरे तैं, मरिरयत है अवित छोहन ॥16॥गोपी बचन तथा ब्रजदशाग्ारविन कही ऐसी जाइ ।भए हरिर मधुपुरी राजा, बडे़ बंस कहाइ ॥सूत मागध बदत विबरदविन, बरविन बसुद्यौ तात ।राज-भूषन अंग भ्राजत, अविहर कहत लजात ॥मातु विपतु बसुदे दैै, नंद जसुमवित नाहिहं ।यह सुनत जल नैन @ारत, मींजिज कर पक्तिछताहिहं ॥मिमली कुविबजा मलै लै कै, सो भई अरधंग ।सूरप्रभु बस भए ताकैं , करत नाना रंग ॥1॥ कैसै री यह हरिर करिरहैं । राधा कौं तजिजहै मनमोहन, कहा कंस दासी धरिरहैं ॥कहा कहवित ह भइ पटरानी, ै राजा भए जाइ उहाँ ।मथुरा बसत लखत नहिहं कोऊ, को आयौ, को रहत कहाँ ॥लाज बेंक्तिच कूबरी विबसाहो, संग न छाँड़वित एक घरी ।सूर जाविह परतीवित न काहू, मन क्तिसहात यह करविन करी ॥2॥ कुविबजा नहिहं तुम देखी है ।दधी बेचन जब जावित मधुपुरी, मैं नीकैं करिर पेषी है ॥महल विनकट माली की बेटी, देखत जिजहिहं नर-नारिर हँसै ।कोढिट बार पीतरिर जौ दाहौ, कोढिट बार जो कहा कसैं ॥सुविनयत ताविह संुदरी कीन्ही, आपु भए ताकौं राजी ।सूर मलै मन जाविह जाविह सौं, ताकौ कहा करै काजी ॥3॥ कोढिट करौ तनु प्रकृवित न जाइ ।ए अहीर ह दासी पुर की, विबमिधना जोरी भली मिमलाइ ॥ऐसेन कौं मुख नाउँ न लीजै, कहा करौं कविह आत मोहिहं ।स्यामहिहं दोष विकधौं कुविबजा कौ, यहै कहो मैं बूझवित तोविह ।स्यामहिहं दोष कहा कुविबजा कौ, चेरी चपल नगर उपहास ।टेढ़ी टेविक चलवित पग धरनी, यह जानै दुख सूरजदास ॥4॥ कंस बध्यौ कुविबजा कैं काज ।और नारिर हरिर कौं न मिमली कहँू, कहा गँाई लाज ॥जैसैं काग हँस की संगवित, लहसुन संग कपूर ।जैसैं कंचन काँच बराबरिर, गेरू काम सिसंदूर ॥भोजन साथ सूद्र बाम्हन के, तैसौ उनकौ साथ ।सुनहु सूर हरिर गाइ चरैया, अब भए कुविबजानाथ ॥5॥ ै कह जानैं पीर पराई ।संुदर स्याम कमल-दल लोचन, हरिर हलधर के भाई ॥मुख मुरली क्तिसर मोर पखौा, बन बन धेनु चराई ।जे जमुना जल, रंग रँगे हैं, अजहुँ न तजत कराई ॥हई देखिख कूबरी भूले, हम सब गईं विबसराई ।सूरज चातक बूँद भई है, हेरत रहे विहराई ॥6॥ तब तैं मिमटे सब आनंद ।या ब्रज के सब भाग संपदा, लै जु गए नँदनंद ॥विबह्वल भई जसोदा डोलवित, दुखिखत नंद उपनंद ।धेनु नहीं पय स्रहितं रुक्तिचर मुख, चरहितं नहीं तृण कंध ॥विबषम विबयोग दहत उर सजनी, बाढिढ़ रहे दुख दंद ।सीतल कौन करै री माई, नाविह इहाँ ब्रजचंद ॥रथ चढिढ़ चले गहे नहिहं काहू, चाविह रहीं मवितमंद ।सूरदास अब कौन छुड़ाै, पर ेविबरह कैं फंद ॥7॥ इक ढिदन नंद चलाई बात ।कहत सुनत गुन रामकृष्ण कै, है्व आयौ परभात ॥ैसैंविह भोर भयौ जसुमवित कौ, लोचन जल न समात ।सुमिमरिर सनेह विबहरिर उर अंतर, @रिर आत @रिर जात ।

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जद्यविप ै बसुदे देकी, हैं विनज जननी तात ।बार एक मिमक्तिल जाहु सूर प्रभु, धाई हू कैं नात ॥8॥ चूक परी हरिर की सेकाई ।यह अपराध कहाँ लौं बरनौं,कविह कविह नंद महर पक्तिछताई ॥कोमल चरन-कमल कंटक कुस, हम उन पै बन गाइ चराई ।रंचक दमिध के काज जसोदा, बाँधे कान्ह उलूषल लाई ॥ इंद्र-प्रकोप जाविन ब्रज राखे, बरुन फांस तैं मोहिहं मुकराई ।अपन ेतन-धन-लोभ, कंस-डर, आगैं कै दीन्हे दोउ भाई ॥विनकट बसत कबहूँ न मिमक्तिल आयौ, इते मान मेरी विनठुराई ।सूर अजहुँ नातौ मानत हैं, पे्रम सविहत करैं नंद-दुहाई ॥9॥ लै आहु गोकुल गोपालहिहं ।पाइँविन परिर क्यौं हँू विबनती करिर, छल बल बाहु विबसालहिहं ॥अब की बार नैंकु ढिदखराहु, नंद आपने लालहिहं ।गाइविन गनत ग्ार गोसुत सँग, क्तिसखत बैन रसालहिहं ॥जद्यविप महाराज सुख संपवित, कौन गनै मविन लालहिहं ।तदविप सूर ै क्तिछन न तजत हैं, ा घुँघची की मालहिहं ॥10॥ हौं तौ माई मथुरा ही पै जैहौं ।दासी है्व बसुदे राइ की, दरसन देखत रैहौं ॥राखिख एते ढिदसविन मोहिहं, कहा विकयौ तुम नीकौ ।सोऊ तौ अकू्रर गए लै, तनक खिखलौना जी कौ ।मोविह देखिख कै लोग हसैंगे, अरु विकन कान्ह हँसै ।सूर असीस जाइ देहौं, जविन न्हातहु बार खसै ॥11॥ पंथी इतनी कविहयौ बात ।तुम विबन ुइहाँ कँुर र मेरे, होत जिजते उतपात ॥बकी अघाशुर टरत न टारे, बालक बनहिहं न जात ।ब्रज हिपंजरी रुमिध मानौ राख,े विनकसन कौं अकुलात ॥गोपी गाइ सकल लघु दीरघ, पीत बरन कृस गात ।परम अनाथ देखिखयत तुम विबन,ु केहिहं अलंबैं तात ॥कान्ह कान्ह कै टेरत तब धौं, अब कैसैं जिजय मानत ।यह व्यहार आजु लौं हैं ब्रज, कपट नाट छल ठानत ॥दसहूँ ढिदक्तिस तैं उढिदत होत हैं, दाानल के कोट ।आँखविन मूँढिद रहत सनमुख है्व, नाम-कच दै ओट । ए सब दुष्ट हते हरिर जेते, भए एकहीं पेट ।सत्र सूर सहाइ करौ अब, समुजिझ पुरातन हेट ॥12॥ सँदेसौ देकी सौं कविहयौ ।हौं तौ धाइ वितहारे सुत की, मया करत ही रविहयौ ॥जदविप टे तुम जानहितं उनकी, तऊ मोहिहं कविह आै ।प्रात होत मेरे लाल लडै़तें, माखन रोटी भाै ॥तेल उबटनौ अरु तातौ जल, ताविह देखिख भजिज जाते ।जोइ जोइ माँगत सोइ सोइ देती, क्रम-क्रम करिर कै न्हाते ॥सूर पक्तिथक सुविन मोहिहं रैविन ढिदन बढ़यौ रहत उर सोच ।मेरो अलक लडै़तो मोहन; है्व है करत सँकोच ॥13॥मेरे कँुर कान्ह विबन ुसब कुछ ैसेहिहं धर् यौ रहे ।को उढिठ प्रात होत ले माखन, को कर नवेित गहै ॥सून ेभन जसोदा सुत के, गुन गुविन सूल सहै ।ढिदन उढिठ घर घेरत ही ग्ारिरविन, उरहन कोउ न कहै ॥जो ब्रजमैं आनंद हुतौ, मुविन मनसा हू न गहै ।सूरदास स्ामी विबन ुगोकुल, कौड़ी हू न लहै ॥14॥गोपी विरहचलत गुपाल के सब चले ।यह प्रीतम सौं प्रीवित विनरंतर, रहे न अध] पले ।धीरज पविहल करी चक्तिलबैं की, जैसी करत भले ।धीर चलत मेरे नैनविन देखे, वितहिहं क्तिछविन आँसु हले ॥आँसु चलत मेरी बलयविन देखे, भए अंग क्तिसक्तिथले ।मन चक्तिल रह्यौ हुतौ पविहलैं ही,चले सबै विबमले ।एक न चलै प्रान सूरज प्रभु, असलेहु साल सले ॥1॥ करिर गए थोरे ढिदन की प्रीवित ।कहँ ह प्रीवित कहाँ यह विबछुरविन, कहँ मधुबन की रीवित ॥अब की बेर मिमलौ मनमोहन, बहुत भई विबपरीत ।कैसैं प्रान रहत दरसन विबनु, मनहु गए जुग बीवित ॥

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कृपा करहु विगरिरधर हम ऊपर, पे्रम रह्यौ तन जीवित ।सूरदास प्रभु तुम्हरे मिमलन विबन,ु भईं भुस पर की भीवित ॥2॥ प्रीवित करिर दीन्ही गरैं छुरी ।जैसैं बमिधक चुगाइ कपट-कन, पाछैं करत बुरी ॥मुरली मधुर चेप काँपा करिर , मोर चंद्र फँदारिर ।बंक विबलोकविन लगी, लोभ बस, सकी न पंख पसारिर ॥तरफत गए मधुबन कौं , बहुरिर न कीन्ही सार ।सूरदास प्रभु संग कल्पतरु, उलढिट न बैठी डार ॥3॥ नाथ अनाक्तिथन की सुमिध लीजै ।गोपी, ग्ाल, गाइ, गोसुत सब, दीन मलीन ढिदनहिहं ढिदन छीजैं ॥नैनविन जलधारा बाढ़ी अवित, बूड़त ब्रज विकन कर गविह लीजै ॥इतनी विबनती सुनहु हमारी, बारक हँू पवितया क्तिलखिख दीजै ॥चरन कमल दरसन न नका, करुनासिसंधु जगत जस लीजै ।सूरदास प्रभु आस मिमलन की, एक बार आन ब्रज लीजै ॥4॥ देखिखयत कासिलंदी अवित कारी ।अहौ पक्तिथक कविहयौ उन हरिर सौं, भयौ विबरह जुर जारी ॥विगरिर-प्रजंक तैं विगरवित धरविन धक्तिस, तरंग तरफ तन भारी ।तट बारू उपचार चूर, जल-पूर प्रस्ेद पनारी ॥विबगक्तिलत कच कुस काँस कूल पर पंक जु काजल सारी ।भौंर भ्रमत अवित विफरवित भ्रमिमत गवित, विनक्तिस ढिदन दीन दुखारी ॥विनक्तिस ढिदन चकई विपय जु रटवित है, भई मनौ अनुहारी ।सूरदास-प्रभु जो जमुना गवित, सो गवित भई हमारी ॥5॥ परेखौ कौन बोल कौ कीजै ।ना हरिर जावित न पाँवित हमारी, कहा माविन दुख लीजै ॥नाविह न मोर-चंढिद्रका माथैं, नाविह न उर बनमाल ।नहिहं सोभिभत पुहुपविन के भूषन, संुदर स्याम तमाल ॥नंद-नँदन गोपी-जन-ल्लभ, अब नहिहं कान्ह कहात ।बासुदे, जादकुल-दीपक, बंदी जन बरनात ॥विबसर् यौ सुख नातौ गोकुल को, और हमारे अंग ।सूर स्याम ह गई सगाई , ा मुरली कैं संग ॥6॥ अब ै बातैं उलढिट गईं ।जिजन बातविन लागत सुख आली, तेऊ दुसह भई ॥रजनी स्याम संुदर सँग, अरु पास की गरजविन ।सुख समूह की अमिध माधुरी, विपय रस बस की तरजविन ॥मोर पुकार गुहार कोविकला , अक्तिल गुंजार सुहाई ।अब लागवित पुकार दादुर सम, विबनही कँुर कन्हाई ।चंदन चंद समीर अविगन सम, तनहिहं देत द लाई ।कासिलंदी अरु कमल कुसुम सब, दरसन ही दुखदाई ॥सरद बसंत क्तिसक्तिसर अरु ग्रीषम, विहम-रिरतु की अमिधकाई ।पास जरैं सूर के प्रभु विबन,ु तरफत रैविन विबहाई ॥7॥ मिमक्तिल विबछुरन की बेदन न्यारी ।जाविह लगै सोई पै जानै, विबरह-पीर अवित भारी ॥जब यह रचना रची विबधाता, तबहीं क्यौं न सँभारी ।सूरदास प्रभु काहैं, जिजाई, जनमत ही विकन मारी ॥8॥ मधुबन तुम क्यौं रहत हरे ।विबरह विबयोग स्याम संुदर के ठाढे़ क्यौं न जरे ॥मोहन बेनु बनात तुम तर, साखा टेविक खरे ।मोहे थार अरु जड़ जंगम, मविन जन ध्यान टरे ॥ह क्तिचतविन तू मन न धरत है, विफरिर विफरिर पुहुप धरे ।सूरदास प्रभु विबरह दानल, नख क्तिसख लौं न जरे ॥9॥ बहुरौ देखिखबौ इविह भाँवित ।असन बाँटत खात बैठे, बालकन की पाँवित ॥एक ढिदन ननीत चोरत, हौं रही दुरिर जाइ ।विनरखिख मम छाया भजे, मैं दौरिर पकरे धाइ ॥पोंक्तिछ कर मुख लई कविनयाँ, तब गई रिरस भाविग ।ह सुरवित जिजय जावित नाहीं, रहे छाती लाविग ॥जिजन घरविन ह सुख विबलोक्यौ, ते लगत अब खान ।सूर विबन ुब्रजनाथ देखे, रहत पापी प्रान ॥10॥ कब देखौं इहिहं भाँवित कन्हाई ।मोरविन के चँदा माथे पर, काँध कामरी लकुट सुहाई ॥बासर के बीतैं सुरभिभन सँग, आत एक महाछविब पाई ।

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कान अँगुरिरया घाक्तिल विनकट पुर, मोहन राग अहीरी गाई ॥क्यौं हँु न रहत प्रान दरसन विबनु, अब विकत जतन करै री माई ।सूरदास स्ामी नहिहं आए, बढिद जु गए अध्यौऽब भराई ॥11॥ गोपालहिहं पाौं धौं विकविह देस ।सिसंगी मुद्रा कर खप्पर लै, करिरहौं जोविगविन भेस ।कंथा पविहरिर विबभूती लगाऊँ, जटा बँधाऊँ केस ।हरिर कारन गोरखहिहं जगाऊँ, जैसैं स्ाँग महेस ॥तन मन जारौं भस्म चढ़ाऊँ, विबरहाके उपदेस ।सूर स्याम विबनु हम हैं ऐसी, जैसें मविन विबन ुसेस ॥12॥ विफरिर ब्रज बसौ गोकुलनाथ ।अब न तुमहिहं जगाइ पठैं, गोधनविन के साथ ॥बरजैं न माखन खात कबहूँ, दह्यौ देत लुठाइ ।अब न देहिहं उराहनौ, नँद-घरविन आगैं जाइ ॥दौरिर दारिर देहिहं नहिहं, लकुटी जसोदा पाविन ।चोरिर न देहिहं उघारिर कै, औगुन न कविहहैं आविन ॥कविहहैं न चरनविन देन जाक, गहन बेनी फूल ।कविहहैं न करन सिसंगार कबहूँ, बसन जमुना कूल ॥करिरहैं न कबहूँ मान हम, हढिठहैं न माँगत दान ।कविहहैं न मृदु मुरली बजान, करन तुमसौं गान ॥देहु दरसन नंद-नंदन, मिमलन की जय आस ।सूर हरिर के रूप कारन, मरत लोचन प्यास ॥13॥ काहैं पीढिठ दई हरिर मोसौं ।तुमही पीढिठ भाते दीन्हौ, और कहा कविह कोसौं ॥मक्तिल विबछुरै की पीर सखी री, राम क्तिसया पविहचाने ।मिमक्तिल विबछुरे की पीर सखी री, पय पाविन उर आने ॥मिमक्तिल विबछुरे की पीर कढिठन है, कहैं न कोऊ मानै ।मिमक्तिल विबछुरे की पीर सखी री, विबछुर् यौ होइ सो जानै ॥विबछुरे रामचंद्र औ दसरथ, प्रान तजे क्तिछन माहीं ।विबछुर् यौ पात विगर् यौ तरुर तैं, विफर न लगे उविह ठाहीं ॥विबछुर् यौ हँस काय घटहूँ तैं, विफरिर न आ घट माहीं ।मैं अपरामिधविन जीत विबछुरी, विबछुर् यौ जीत नाहीं ॥नाद कुरंग मीन जल विबछुरे, होइ कीट जरिर खेहा ।स्याम विबयोविगविन अवितहिहं सखी री, भई साँरी देहा ॥गरजिज गरजिज बादर उनये हैं, बूँदविन बरषत मेहा ।सूरदास कहु कैसें विनबहै, एक ओर कौ नेहा ॥14॥ बारक जाइयौ मिमक्तिल माधौ ।को जानै तन छूढिट जाइगौ, सूल रहै जिजय साधौ ॥पहुनैंहु नंदबबा के आबहु, देखिख लेउँ पल आधौ ।मिमलैं ही मैं विपरीत करी विबमिध, होत दरस कौ बाधौ ॥सो सुख क्तिस सनकाढिद न पात, जो सुख गोविपन लाधौ ।सूरदास राधा विबलपवित है, हरिर कौ रूप अगाधौ ॥15॥ सखी इन नैनविन तैं घन हारे ।विबनहीं रिरतु बरषत विनक्तिस बासर, सदा मक्तिलन दोउ तारे ॥ऊरध स्ास समीर तेज अवित, सुख अनेक द्रुम डारे ।बदन सदन करिर बसे बचन खग, दुख पास के मारे ॥दुरिर दुरिर बूँद परत कंचुविक पर, मिमक्तिल अंजन सौं कारे ।मानौ परनकुटी क्तिस कीन्ही, विबविब मूरवित धरिर न्यारे ॥घुमरिर घुमरिर बरषत जल छाँड़त, डर लागत अमँिधयारे ।बूड़त ब्रहह सूर को राखै, विबन ुविगरिरर धर प्यारे ॥16॥ विनक्तिस ढिदन बरषत नैन हमारे ।सदा रहवित बरषा रिरतु हम पर, जब तैं स्याम क्तिसधारे ।दृग अंजन न रहत विनक्तिस बासर, कर कपोल भए कारे ।कंचुविक-पट सूखत नहिहं कबहूँ, उर विबच बहत पनार े॥आँसू सक्तिलल सबै भइ काया, पल न जात रिरस टारे ।सूरदास प्रभु है परेखौ, गोकुल काहैं विबसारे ॥17॥ हर दरसन को तरसवित अखँिखयाँ ।झाँकवित झखहितं झरोखा बैठी, कर मीड़हितं ज्यौं मखिखयाँ ॥विबछुरीं बदन-सुधाविनमिध-रस तैं, लगहितं नहीं पल पँखिखयाँ ।इकटक क्तिचतहितं उविड़ न सकहितं जन,ु थविकत भईं लखिख सखिखयाँ ॥

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बार-बार क्तिसर धूनहितं विबसूरहितं, विबरह ग्राह जन ुभखिखयाँ ।सूर सुरूप मिमलै तैं जीहिहं, जीहिहं, काट विकनारे नखिखयाँ ॥18॥ (मेरे) नैना विबरह की बेक्तिल बई ।सींचत नैन-नीर के सजनी, मूल पताल गई ।विबगक्तिसत लता सुभाइ आपनैं, छाया सघन भई ।अब कैसैं विनरारौं सजनी , सब तन पसरिर छई ॥को जानै काहू के जिजय की, क्तिछन क्तिछन होत नई ।सूरदास स्ामी के विबछुरैं, लागी पे्रम जई ॥19॥ब्रज बक्तिस काके बोल सहौं ॥इन लोभी नैनविन के काजैं, परबस भइ जो रहौं ॥विबसरिर लाज गइ सुमिध नहिहं तन की, अबधौं कहा कहौं ।मेरे जिजय मैं ऐसी आवित, जमुना जाइ बहौं ॥इक बन @ँूढिढ़ सकल बन @ँूढ़ौं, कहँू न स्याम लहौं।सूरदास-प्रभु तुम्हरे दरस कौं, इहिहं दुख अमिधक दहौं ॥20॥ हो, ता ढिदन कजरा मैं देहौं ।जा ढिदन नंदनंदन के नैनविन, अपने नैन मिमलैहौं ॥सुविन री सखी यहै जिजय मेरैं, भूक्तिल न और क्तिचतैहौं ।अब हठ सूर यहै ब्रत मेरौ, कौविकर खै मरिर जैहौं ॥21॥ देखिख सखी उत है ह गाउँ ।जहाँ बसत नँदलाल हमारे, मोहन मथुरा नाउँ ॥कासिलंदी कैं कूल रहत हैं, परम मनोहे ठाउँ ।जौ तब पंख होइँ सुविन सजनी, अबविह उहाँ उविड़ जाउँ ॥होनी होइ होइ सो अबहीं, इहिहं ब्रज अन्न न खाउँ ॥सूर नंदनंदन सौं विहत करिर, लोगविन कहा डराउँ ॥22॥ क्तिलखिख नहिहं पठत हैं bै बोल ।bै कौड़ी के कागद मक्तिस कौ, लागत है बहु मोल ?हम इविह पार, स्याम पैले तट, बीच विबरह कौ जोर ।सूरदास प्रभु हमरे मिमलन कौं, विहरदै विकयौ कठोर ॥23॥ सुपनैं हरिर आए हौं विकलकी ।नींद जु सौवित भई रिरपु हमकौं, सविह न सकी रवित वितल को ।जौ जागौं तौ कोऊ नाहीं, रोके रहवित न विहलकी ।तन विफरिर जरविन भई नख क्तिसख तैं, ढिदया बावित जनु मिमलकी ॥पविहली दसा पलढिट लीन्ही है, त्चा तचविक तनु विपलको ।अब कैसैं सविह जावित हमारी, भई सूर गवित क्तिसल की ॥24॥ विपय विबन ुनाविगविन कारी रात ।जौ कहँू जामिमविन उवित जुन्हैया, डक्तिस उलढिट है्व जात ॥जंत्र न पूरत मंत्र नहिहं लागत, प्रीवित क्तिसरानी जात ।सूर स्याम विबनु विबकल विबरहनी, मुरिर मुरिर लहरैं खात ॥25॥मौकौं माई जमुना जम है्व रही ।कैसैं मिमलीं स्यामसंुदर कौं, बैरिरविन बीच बही ॥विकवितक बीच मथुरा अरु गोकुल, आत हरिर जु नहीं ।हम अबला कछु मरम न जान्यौ, चलत न फें ट गही ॥अब पक्तिछतावित प्रान दुख पात, जावित न बात कही ।सूरदास प्रभु सुमिमरिर-सुमिमरिर गुन, ढिदन ढिदन सूल सही ॥26॥ नैन सलोने स्याम, बहुरिर कब आहिहंगे ।ै जौ देखत राते राते, फुलविन फूली डार ।हरिर विबनु फूलझरी सी लागत, झरिर झरिर परत अँगार ॥फूल विबनन नहिहं जाउँ सखी री, हरिर विबन ुकैसे फूल ।सुविन री सखिख मोहिहं राम दुहाई, लागत फूल वित्रसूल ।जब मैं पनघट जाउँ सखिख री, ा जमुना कै तीर ।भरिर भरिर जमुना उमविड़ चलवित है, इन नैनविन कैं नीर ॥इन नैनविन कैं नीर सखी री, सेज भई घरनाउ ।चाहवित हौं ताही पै चढिढ़ कै, हरिर जू कैं ढि@ग जाउँ ॥लाल विपयारे प्रान हमारे, रहे अधर पर आइ ।सूरदास प्रभु कंुज-विबहारी, मिमलत नहीं क्यौं धाइ ॥27॥ प्रीवित करिर काहू सुख न लह्यौ ।प्रीवित पतंग करी पाक सौं, आप प्रान दह्यौ ॥अक्तिल-सुत प्रीवित करी जल-सुत सौं, संपुट मांझ गह्यौ ।सारंग प्रीवित करी जु नाद सौं, सन्मुख बान सह्यौ ॥

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हम जौ प्रीवित करी माध सौं, चलत न कछू कह्यौ ॥ सूरदास प्रभु विबनु दुख पात, नैनविन नीर बह्यौ ॥28॥ प्रीवित तौ मरिरबौऊ न विबचारै ।विनरखिख पतंग ज्योवित-पाक ज्यौं, जरत न आपु सँभारै ॥प्रीवित कुरंग नाद मन मोविहत, बमिधक विनकट है्व मारै ।प्रीवित परेा उड़त गगन तैं, विगरत न आपु सँभारै ।सान मास पपीहा बोलत, विपय विपय करिर जु पुकारै ।सूरदास-प्रभु दरसन कारन, ऐसी भाँवित विबचारै ॥29॥ जविन कोउ काहू कैं बस होविह ।ज्यौ चकई ढिदनकर बस डोलत, मोहिहं विफरात मोविह ॥हम तौ रीजिझ लटू भई लालन, महा पे्रम वितय जाविन ।बंधन अमिध भ्रमिमत विनक्तिस-बासर, को सुरझात आविन ॥उरझे संग अंग अंगविन प्रवित, विबरह बेक्तिल की नाईं ।मुकुक्तिलत कुसुम नैन विनद्रा तजिज, रूप सुधा क्तिसयराई ॥अवित आधीन हीन-मवित व्याकुल, कहँ लौं कहौं बनाई ।ऐसी प्रीवित-रीवित रचना पर, सूरदास बक्तिल जाई ॥30॥ हरिर परदेस बहुत ढिदन लाए ।कारी घटा देखिख बादर की, नैन नीर भरिर आए ॥बीर बटअऊ पंथी हौ तुम, कौन देस तैं आए ।यह पाती हमरौ लै दीजौ, जहाँ साँरै छाए ॥दादुर मोर पपीहा बोलत, सोत मदन जगाए ।सूर स्याम गोकुल तैं विबछरे, आपुन भए पराए ॥31॥ ये ढिदन रूक्तिसबे के नाहीं ।कारी घटा पौन झकझोरै, लता तरुन लपटाहीं ॥दादुर मोर चकोर मधुप विपक, बोलत अमृत बानी ।सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस विबनु, बैरिरन रिरतु विनयरानी ॥32॥ अब बरषा कौ आगम आयो ।ऐसे विनठुर भए नँदनंदन, संदैसौ न पठायौ ।बादर घरेिर उठे चहँु ढिदक्तिस तैं, जलधर गरजिज सुनायौ ।अकै सूल रही मेरैं जिजय, बहरिर नहीं ब्रज छायौ ॥दादुर मोर पपीहा बोलत, कोविकल सब्द सुनायौ ।सूरदास के प्रभु सौं कविहयौ, नैनविन है झर लायौ ॥33॥सँदेसविन मधुबन कूप भरे ।अपन ेतौ पठत नहिहं मोहन, हमरे विफरिर न विफरे ॥जिजते पक्तिथक पठए मधुन कों, बहुरिर न सोध करे ।कै ै स्याम क्तिसखाइ प्रमोधे, कै कहँू बीच मरे ॥कागद गरे मेघ, मक्तिस खूटी, सर द लाविग जरे ।सेक सूर क्तिलखन कौ आँधौ, पलक कपाट अर े॥34॥ ब्रज पर बदरा आए गाजन ।मधुबन को पठए सुविन सजनी, फौज मदन लाग्यौ साजन ॥ग्रीा रंध्र नैन चातक जल, विपक मुख बाजे बाजन ।चहँुढिदक्तिस तैं तन विबरहा घेर् यौ, कैसैं पावित भाजन ॥कविहयत हुते स्याम पर पीरक, आए संकट काजन ।सूरदास श्रीपवित की मविहमा, मथुरा लागे राजन ॥35॥ बहुरिर हरिर आहिहंगे विकविह काम ।रिरतु बसंत अरु ग्रीषम बीते, बादर आए स्याम ॥क्तिछन मंढिदर क्तिछन bारैं ठाढ़ी, यौं सूखवित हैं घाम ।तारे गनत गगन के सजनी, बीतैं चारौ जाम ॥औरौ कथा सबै विबसराई, लेत तुम्हारौ नाम ।सूर स्याम ता ढिदन तैं विबछुरे, अस्थि� रहै कै चाम ॥36॥ विकधौं घन गरजत नहिहं उन देसविन।विकधौं हरिर हरविष इंद्र हढिठ बरजे, दादुर खाए सेषविन ॥विकधौं उहिहं देस बगविन मग छाँडे़, घरविन न बूँद प्रेसविन ।चातक मोर कोविकला उहिहं बन, बमिधकविन बधे विबसेषविन ॥विकधौं उहिहं देस बाल नहिहं झूलहितं, गाहितं सखिख न सुदेसविन ।सूरदास प्रभु पक्तिथक न चलहीं, कासौं, कहौं सँदेसविन ॥37॥ आजु घन स्याम की अनुहारिर ।आए उनइ साँरे सजनी, देखिख रूप की आरिर ॥इंद्र धनुष मनु पीत बसन छविब, दामिमविन दसन विबचारिर ।जन ुबगपाँवित माल मोवितविन की, क्तिचतत क्तिचत्त विनहारिर ॥

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गरजत गगन विगरा गोहिंद मनु, सुनत नयन भरे ारिर ।सूरदास गुन सुमिमरिर स्याम के, विबकल भईं ब्रजनारिर ॥38॥ हमारे माई मोरा बैर पर े।घन गरजत बरज्यौ नहिहं मानत, त्यौं त्यौं रटत खरे ॥करिर करिर प्रगट पंख हरिर इनके, लै लै सीस धरे ।याही तैं न बदत विबरहविन कौं, मोहन ठीठ करे ॥को जाने काहे तैं सजनी, हमसौं रहत अर े।सूरदास परदेस बसे हरिर, ये बन तैं न टरे ॥39॥ बहुरिर पपीहा बौल्यौ माई ।नींद गई सिचंता क्तिचत बाढ़ी, सूरवितस्याम की आई ॥सान मास मेघ की बररषा, हौं उढिठ आँगन आई ।चहँुढिदक्तिस गगन दामिमनी कौंधवित, वितहिहं जिजय अमिधक डराई ॥काहूँ राग मलार अलाप्यौ, मुरक्तिल मधुर सुर गाई ।सूरदास विबरविहविन भइ ब्याकुल, धरविन परी मुरझाई ॥40॥

सखी री चातक मोहिहं जिजयात ।जैसेंविह रैविन रटवित हौं विपय विपय, तैसैंविह ह पुविन गात ॥अवितहिहं सुकंठ, दाह प्रीतम कैं , तारू जीभ न लात ।आपुन विपयत सुधा-रस अमृत, बोक्तिल विबरविहनी प्यात ॥यह पंछी जु सहाइ न होतौ, प्रान महा दुख पात ।जीन सुफल सूर ताही कौ, काज पराए आत ॥41॥ कोविकल हरिर कौ बोल सुनाउ।मधुबन तैं उपटारिर स्याम कौं, इहिहं ब्रज कौं लै आउ ॥जा जस कारन देत सयाने, तन मन धन सब साज ।सुजस विबकात बचन के बदलैं, क्यौं न विबसाहतु आज ॥कीजै कछु उपकार परायौ, इहै सयानौ काज ।सूरदास पुविन कहँ यह असर, विबन ुबसंत रिरतुराज ॥42॥ अब यह बरषौ बीवित गई ।जविन सोचविह, सुख माविन सयानी, भली रिरतु सरद भई ॥फुल्ल सरोज सरोर संुदर, न विबमिध नक्तिलविन नई ।उढिदत चारु चंढिद्रका विकरन, उर अंतर अमृत मई ॥घटी घटा अभिभमान मोह मद, तमिमता तेज हई ।सरिरता संजम स्च्छ सक्तिलल सब, फाटी काम कई ॥यहै सरद संदेस सूर सुविन, करुना कविह पठई ।यह सुविन सखी सयानी आईं, हरिर-रवित अमिध हई ॥43॥ सरद समै हू स्याम न आए ।को जानै काहे तैं सजनी, विकहिहं बैरिरविन विबरमाए ॥अमल अकास कास कुसुमवित क्तिछवित, लच्छन स्च्छ जनाए ।सर सरिरता सागर जल-उज्ज्ल, अवित कुल कमल सुहाए ॥अविह मयंक, मकरंद कंज अक्तिल, दाहक गरज जिजबाए ।प्रीतम रँग संग मिमक्तिल संुदरिर, रक्तिच सक्तिच सींच क्तिसराए ॥सूनी सेज तुषार जमत क्तिचर, विबरह सिसंधु उपजाए ।अब गई आस सूर मिमक्तिलबे की, भए ब्रजनाथ पराए ॥44॥ दूरिर करविह बीना कर धरिरबौ ।रथ थाक्यौ, मानौ मृग मोहे, नाहिहंन होत चंद्र को @रिरबौ ॥बीतै जाविह सोइ पै जानै, कढिठन सु पे्रम पास कौ परिरबौ ।प्राननाथ संगहिहं तैं विबछुरे, रहत न नैन नीर कौ झरिरबौ ॥सीतल चंद अविगन सम लागत, कविहए धीर कौन विबमिध धरिरबौ ।सूर सु कमलनयन के विबछरैं, झूठौ सब जतनविन कौ करिरबौ ॥45॥ कोउ माई बरजै री या चंदहिहं ।अवित हीं क्रोध करत है हम पर, कुमुढिदविन कुल आनंदहिहं ॥कहाँ कहौ बरषा रविब तमचुर, कमल बकाहक कारे ।चलत न चपल रहत क्तिथर कै रथ, विबरविहविन के तन जारे ॥हिनंदहितं सैल उदमिध पन्नग कौं, स्रीपवित कमठ कठोरहिहं ।देहितं असीस जरा देी कौ, राहु केतु विकन जोरहिहं ॥ज्यौं जल-हीन मीन तन तलफहितं, ऐसी गवित ब्रजबालहिहं ।सूरदास अब आविन मिमलाहु, मोहन मदन गुपालहिहं ॥46॥ माई मोकौं चंद लग्यौ दुख दैन ।कहँ ै स्याम कहाँ ै बवितयाँ, कहँ ै सुख की रैन ॥

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तारे गनत गनत हौं हारी, टपकत लागे नैन ।सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस विबनु, विबरविहविन कौं नहिहं चैन ॥47॥अब या तनहिहं राखिख कह कीजै ।सुविन री सखी स्याम संुदर विबनु, बाँढिट विबषम विबष पीजै ॥कै विगरिरऐ विगरिर चढिढ़ सुविन सजनी, सीस संकरविह दीजै ।कै दविहऐ दारून दाानल, जाइ जमुन धँक्तिस लीजै ॥दुसह विबयोग विबरह माधौ के , कौ ढिदन ही ढिदन छीजै ।सूर स्याम प्रीतम विबनु राधे, सोक्तिच सोक्तिच कर मींजै ॥48॥काहे कौं विपय विपयहिहं रटवित हौ, विपय कौ पे्रम तेरो प्रान हरैगौ ।काहे कौं लेवित नयन जल भरिर भरिर, नैन भरै कैसैं सूल टरैगौ ॥काहे कौं स्ास उसास लेवित हौ विबरह कौ दबा बरैगौ ।छार सुगंध सेज पुहपाक्तिल, हार छुै, विहय हार जरैगो ॥बदन दुराइ बैढिठ मंढिदर मैं, बहुरिर विनसापवित उदय करैगौ ।सूर सखी अपने इन नैनविन, चंद क्तिचतै जविन चंद जरैगौ ॥49॥ विबछुरे री मेरे बाल-सँघाती ।विनकक्तिस न जात प्रान ये पापी, फाटविन नाहिहंन छाती ॥हौं अपरामिधविन दही मथवित ही, भरी जोबन मदमाती ।जौ हौं जानवित हरिर कौ चक्तिलबौ, लाज छाँविड़ सँग जाती ॥@रकत नीर नैन भरिर संुदरिर, कछु न सोह ढिदन-राती ।सूरदास प्रभु दरसन कारन , सखिखयविन मिमक्तिल क्तिलखी पाती ॥50॥ एक द्यौस कंुजविन मैं माई ।नाना कुसुम लेइ अपनैं कर, ढिदए मोहिहं सो सुरवित न जाई ॥इतने मैं घन गरजिज ृमिष्ट करी, तनु भीज्यौ मो भई जुड़ाई ।कंपत देखिख उढ़ाइ पीत पट, लै करुनामय कंठ लगाई ॥कहँ ह प्रीवित रीवित मोहन की, कहँ अब धौं एती विनठुराई ।अब बलीर सूर प्रभु सखिख री, मधुबन बक्तिस सब रवित विबसराई ॥51॥ मेरे मन इतनी सूल रही ।े बवितयाँ छवितयाँ क्तिलखिख राखीं, जे नँदलाल कही ॥एक द्यौस मेरैं गृह आए, हौं ही मथत दही ।रवित माँगत मैं मान विकयौ सखिख, सो हरिर गुसा गही ॥सोचवित अवित पक्तिछतावित रामिधका, मुरक्तिछत धरविन @ही ।सूरदास प्रभु के विबछुरे तैं, विबथा न जावित सही ॥52॥ हरिर कौ मारग ढिदन प्रवित जोवित ।क्तिचतत रहत चकोर चंद ज्यौं, सुमिमरिर-सुमिमरिर गुन रोवित ॥पवितयाँ पठवित मक्तिस नहिहं खूँटवित, क्तिलखिख क्तिलखिख मानहु धोवित ।भूख न ढिदन विनक्तिस नींद विहरानी, एकौ पल नहिहं सोवित ॥जे जे बसन स्याम सँग पविहरे, ते अजहूँ नहिहं धोवित ।सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस विबनु, बृथा जनम सुख खोवित ॥53॥ इहिहं दुख तन तरफत मरिर जैहैं ।कबहुँ न सखी स्याम-संुदर घन, मिमक्तिलहैं आइ अंक भरिर लैहै ?कबहुँ न बहुरिर सखा सँग ललना, लक्तिलत वित्रभंगी छविबहिहं ढिदखै हैं ?कबहुँ न बेनु अधर धरिर मोहन, यह मवित लै लै नाम बुलैहैं ।कबहुँ न कंुज भन सँग जैहैं, कबहुँ न दूती लैन पठैहैं ?कबहुँ न पकरिर भुजा रस बस है्व, कबहुँन पग परिर मान मिमटैहैं ?याही तै घट प्रान रहत हैं, कबहुँक विफरिर दरसन हरिर देहैं ?सूरदास परिरहरत न यातैं, प्रान तजैं नहिहं विपय ब्रज ऐहैं ॥54॥ सबैं सुख ले जु गए ब्रजनाथ ।विबलखिख बदन क्तिचतहितं मधुबन तन, इस न गईं उढिठ साथ ॥ह मूरवित क्तिचत तैं विबसरवित नहिहं, देखिख साँरे गात । मदन गोपाल ठगौरी मेली , कहत न आै बात ।नंद-नँदन जु विबदेस गबन विकयौ, बैसी मींजहितं हाथ ।सूदास प्रभु तुम्हरें विबछुरे, हम सब भईं अनाथ ॥55॥करिरहौ मोहन कहँू सँभारिर, गोकुल-जन सुखहारे ।खग, मृग,तृन, बेली ंृदान, गैया ग्ाल विबसारे ॥नंद जसोदा मारग जोैं, विनक्तिस ढिदन दीन दुखारे ।क्तिछन क्तिछन सुरवित करत चरनविन की, बाल विबनोद तुम्हारे ॥दीन दुखी ब्रज रह्यौ न परिर है, संुदर स्याम ललारे ।दीनानाथ कृपा के सागर, सूरदास-प्रभु प्यारे ॥56॥ उनकौ ब्रज बक्तिसबौ नहिहं भाै ।ह्वाँ ै भुप भए वित्रभन के, ह्याँ कत ग्ाल कहाैं ॥ह्वाँ ै छत्र सिसंहासन राजत, की बछरविन सँग धाै ।

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ह्वा तौ विबविबधँ स्त्र पाटंबर, को कमरी सचु पाै ॥नंद जसोदा हँू कौ विबसर् यौ, हमरी कौन चलाै ॥सूरदास प्रभु विनठुर भए री, पावितहु क्तिलखिख न पठाै ॥57॥उद्ध संदेशउद्ध को ब्रज भेजनाअंतरजामी कंुर कन्हाई ।गुरु गृह पढ़त हुते जहँ विद्या, तहँ ब्रज-बाक्तिसविन की सुमिध आई ॥गुरु सौं कह्यौ जोरिर कर दोऊ, दक्तिछना कहौ सो देउँ मँगाई ।गुरु-पतनी कह्यौ पुत्र हमारे, मृतक भये सो देहु जिजाई ॥आविन ढिदए गुरु-सुत जमपुर तैं, तब गुरुदे असीस सुनाई ।सूरदास प्रभु आइ मधुपुरी, ऊधौ कौं ब्रज ढिदयौ पठाई ॥1॥जदुपवित जाविन उद्ध रीवित ।जिजहिहं प्रगट विनज सखा कविहयत, करत भा अनीवित ॥विबरह दुख जहँ नाहिहं-नैकहँू, तहँ न उपजै पे्रम ।रेख, रूप न बरन जाकैं , इहिहं धयp ह नेम ॥वित्रगुन तन करिर लखत हमकौं, ब्रह्म मानत और ।विबना गुना क्यौं पुहुमिम उघरै, यह करत मन डौर ॥विबरस रस के मंत्र कहुऐ, क्यौ, चलै संसार ।कछु कहत यह एक प्रगटत, अवित भयp अहंकार ॥पे्रम भजन न नैंकु याकौं, जाइ क्यौं समुझाइ ।सूर प्रभु मन यहै आनी, ब्रजहिहं देउँ पठाइ ॥2॥ संग मिमक्तिल कहौं कासौं बात ।यह तौ कहत जोग की बातैं, जामै रस जरिर जात ॥कहत कहा विपतु मातु कौन के, पुरुष नारिर कह नात ।कहाँ जसोदा सी है मैया, कहाँ नंद सम तात ॥कहँ बृषभान-सुता सँग कौ सुख, ह बासर ह प्रात ।सखी सखा सुख नहिहं वित्रभुन मैं, नहिहं बैकंुठ सुहात ॥ै बातें कविहयै विकहिहं आगै, यह गुविन हरिर पक्तिछतात ।दूरदास प्रभु ब्रज मविहमा कविह, क्तिलकी बदत बल ब्रात ॥3॥ तबहिहं उपंग-सुत आइ गए ।सखा सखा कछु अंतर नाहीं, भरिर भरिर अंक लए ॥अवित सुन्दर तन स्याम सरीखो, देखत हरिर पक्तिछताने ।ऐसे कैं ैसी बुमिध होती, ब्रज पठऊँ मन आन े॥या आगैं रस-कथा प्रकासौं, जोग-कथा प्रगटाऊँ ।सूर ज्ञान याकौ दृढ़ करिरकै, जुवितन्ह पास पठाऊँ ॥4॥ हरिर गोकुल की प्रीवित चलाई ।सुनहु उपँग-सुत मोविह न विबसरत, ब्रज बासी सुखदाई ॥यह क्तिचत होत जाऊँ मैं अबहीं, इहाँ नहीं मन लागत ।गोपी ग्ाल गाइ बन चारन, अवित दुख पायौ त्यागत ॥कहँ माखन-रोटी, कहँ जहँ जसुमवित, जेंहु कविह-कविह पे्रम ।सूर स्याम के बचन हँसत सुविन, थापत अपनौ नेम ॥5॥ जदुपवित लख्यौ वितहिहं मुसुकात ।कहत हम मन रही जोई, भई सोई बात ॥बचन परगट करन कारन, पे्रम कथा चलाई । सुनहु ऊधौ मोहिहं ब्रज की, सुमिध नहीं विबसराइ ॥रैविन सोत ढिदस जागत, नाहिहं न ैमन आन ।नंद-जसुमवित, नारिर-नर-ब्रज तहाँ मेरौ प्रान ॥कहत हरिर सुविन उपँग सुत यह, कहत हौम रस रीवित ।सूर क्तिचत तैं टरवित नाहीं, रामिधका की प्रीवित ॥6॥ सखा सुविन एक मेरी बात ।ह लता गृह संग गोपविन, सुमिध करत पक्तिछतात ॥विबमिध क्तिलखी नहिहं टरत क्यौं हँू, यह कहत अकुलात ।हँक्तिस उपँग-सुत बचन बोले, कहा करिर पक्तिछतात ॥सदा विहत यह रहत नाहीं, सकल मिमथ्या जात ।सूरप्रभु एक यह सुनो मोसौं, एक ही सौं नात ॥7॥ जब ऊधौ यह बात कही ।तब जदुपवित अवित ही सुख पायौ, मानी प्रगट सही ।श्री मुख कह्यौ जाहु तुम ब्रज कौं, मिमलहु जाइ ब्रज-लोग ।

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मो विबनु, विबरह भरीं ब्रजबाला, जाउ सुनाहु जोग ॥ पे्रम मिमटाइ ज्ञान परबोधहु, तुम हौ पूरन ज्ञानी ।सूर उपंग-सुत मन हरषाने, यह मविहमा इन जानी ॥8॥ ऊधौ तुम यह विनश्चय जानौ ।मन, बच, क्रम, मैं तुमहिहं पठात, ब्रज कौं तुरत पलानौ ॥पूरन ब्रह्म अकल अविनासी, ताके तुम हौ ज्ञाता ।रेख न रूप जावित कुल नाहीं, जाके नहिहं विपतु माता ॥यह मत दै गोविपविन कौं आहु, विबरह नदी मैं भासत ।सूर तुरत तुम जाइ कहौ यह, ब्रह्म विबना नहिहं आसत ॥9॥ ऊधौ मन अभिभमान बढ़ायो ।जदुपवित जोग जाविन जिजय साँचौ, नैन अकास चढ़ायौ ॥नारिरविन पै मोकौं पठत हैं, कहत क्तिसखान जोग ।मन ही मन अप करत प्रसंसा, यह मिमथ्या सुख-भोग ॥आयसु माविन क्तिलयौ क्तिसर ऊपर, प्रभु आज्ञा परमान ।सूरदास प्रभु गोकुल पठत, मैं क्यौं हौं विक आन ॥10॥ तुम पठत गोकुल कै जैहौं ।जौ माविनहैं ब्रह्म की बातें, तो उनसौं मै कैहौं ॥गदगद बचन कहत मन प्रपूक्तिलत, बार-बार समझैहौं ।आजु नहीं जो करौं काज तु, कौन काज फुविन लैहौं ॥यह मिमथ्या संसार सदाई, यह कविहकै उढिठ ऐहौं ।सूर ढिदना bै ब्रज-जन सुख दै, आइ चरन पुविन गैहौं ॥11॥ तुरत ब्रज जाहु उपँग-सुत आजु ।ज्ञान बुझाइ खबरिर दै आहु , एक पंथ bै काज ॥जब तैं मधुबन कौं हम आए , फेरिर गयौ नहिहं कोइ ।जुवितविन पै ताही कौं पठैं, जो तुम लायक होइ ॥इक प्रीन अरु सखा हमारे, ज्ञानी तुम सरिर कौन ।सोइ कीजौ जातैं ब्रज-बाला, साधन सीखैं पौन ॥श्रीमुख स्याम कहत यह बानी, ऊधौ सुनत क्तिसहात ।आयसु माविन सूर प्रभु जैहौं, नारिर माविनहैं बात ॥12॥ हलधर कहत प्रीवित जसुमवित की ।कहा रोविहनी इतनी पाै, ह बोलविन अवित विहत की ॥एक ढिदस हरिर खेलत मो सँग, झगरौ कीन्हौ पेक्तिल ।मौकौं दौरिर गोद करिर लीन्हौ, इनहिहं ढिदयौ कर ठेक्तिल ॥नंद बबा तब कान्ह गोद करिर, खीजन लागे मोकौं ।सूर स्याम नान्हौं तेरौ भैया, छोह न आत तोकौं ॥13॥ जसुमवित करवित मोकौं हेत ।सुनौ ऊधौ कहत बनत न, नैन भरिर-भरिर लेत ॥दुहँुविन कौ कुसलात कविहयौ, तुमहिहं भूलत नाहिहं ।स्याम हलधर सुत तुम्हारे, और के न कहाहिहं ॥आइ तुमकौं धाइ मिमक्तिलहैं, कछुक कारज और ।सूर हमकौ तुम विबना सुख, कौ नहीं कहँु ठौर ॥14॥तीन पाती तथा संदेशस्याम कर पत्री क्तिलखी बनाइ ।नंद बाबा सौं विबन,ै कर जोरिर जसुदा माइ ॥गोप ग्ाल सखान कौं विहक्तिल-मिमलन कंठ लगाइ ।और ब्रज-नर-नारिर जे हैं, वितनहिहं प्रीवित जनाइ ॥गोविपकविन क्तिलखिख जोग पठयो, भा जाविन न जाइ ।सूर प्रभु मन और यह कविह, पे्रम लेत ढिदढ़ाइ ॥15॥ ऊधौ जात ब्रजहिहं सुन े।देकी बसुदे सुविन कै, हृदे हेत गुने ॥आप सौं पाती क्तिलखी, कविह धन्य जसुमवित नंद ।सुत हमारे पाक्तिल पठए, अवित ढिदयौ आनंद ॥आइकै मिमक्तिल जात कबहुँ न , स्याम अरु बलराम ।इहौ कहत पठाइहौं अब, तबहिहं तन विबस्राम ॥बाल-सुख सब तुमहिहं लूट्यौ, मोहिहं मिमले कुमार ।सूर यह उपकार तुम तैं, कहत बारंबार ॥16॥ हम पर काहैं झुकहितं ब्रजनारी ।साझे भाग नहीं काहू कौ, हरिर की कृपा विननारी ॥

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कुविबजा क्तिलख्यौ सँदेस सबविन कौ, अरु कीन्हीं मनुहारी ।हौं तौ दासी कंसराइ की, देखौ मनहिहं विबचारी ॥फलविन माँझ ज्यौं करुइ तोमरी, रहत घुरे पर डारी ।अब तौ हाथ परी जंत्री के,, बाजत राग दुलारी ॥तनुतैं टेढ़ी सब कोउ जानत, परक्तिस भई अमिधकारी ॥सूरदास स्ामी करुनामय, अपने हाथ सँारी ॥17॥सुविनयत ऊधौ लए सँदेसौ, तुम गोकुल कौं जात ।पाछैं करिर गोविपविन सौं कविहयौ, एक हमारी बात ॥मातु विपता को नेह समुजिझ कै, स्याम मधुपुरी आए ।नाहिहं न कान्ह तुम्हारे प्रीतम, ना जसुदा के जाए ॥देखौ बूजिझ आपने जिजय मैं, तुम धौं कौन सुख दीन्हे ।ये बालक तुम मत्त ग्ाक्तिलनी, सबे मूड़ करिर लीन्हे ॥तनक दही माखन के कारन, जसुदा त्रास ढिदखाै ।तुम हँक्तिस सब बाँधन कौं दौरीं, काहू दया न आै ॥जो बृषभान-सुता उत कीन्ही, सो सब तुम जिजय जानौ ॥ताहीं जाल तज्यौ ब्रज मोहन, अब काहैं दुख मानौ ॥सूरदास प्रभु सुविन-सुविन बातैं, रहे भूमिम क्तिसर नाए ।इत कुविबजा उत पे्रम गोविपकविन, कहत न कछु बविन आए ॥18॥ तब ऊधौ हरिर विनकट बुलायौ ।क्तिलखिख पाती दोउ हाथ दई वितहिहं, औ मुख बचन सुनायौ ॥ब्रजासी जात नारी नर, जल थल द्रुम बन पात ।जो जिजहिहं विबमिध तासौं तैसैंही, मिमक्तिल कविहयौ कुसलात ॥ जो सुख स्याम तुमहिहं तैं पात, सो वित्रभुन कहँु नाहिहं ।सूरज प्रभु दई सौंह आपुनी, समुझत हौ मन माहिहं ॥19॥ पविहलैं प्रनाम नँदराइ सौं ।ता पाछैं मेरौ पालागन, कविहयौ जसुमवित माइ सौं ॥बार एक तुम बरसाने लौं, जाइ सबै सुमिध लीजौ ।कविह बृषभानु महर सौं मेरौ, समाचार सब दीजौ ॥श्रीदामाऽढिद सकल ग्ालविन कौं, मेरौ कोतौ भेंटयौ ।सुख संदेस सुनाइ सबविन कौं, ढिदन ढिदन कौ दुख मेट्यौ ॥मिमत्र एक मन बसत हमारैं, ताविह मिमलै सुख पाइहौ ।करिर समाधान नीकी विबमिध, मोकौ माथौ नाइहौ ॥डरपहु जविन तुम सघन कंुज मै, हैं तहँ के तरु भारी ॥बृंदाबन मवित रहवित विनरंतर, कबहुँ न होवित विननारी ॥ऊधौ सौं समुझाइ प्रगट करिर, अपने मन की बीती ।सूरदास स्ामी सौ छल सौं, कही सकल ब्रज-प्रीती ॥20॥ऊधौ इतनौ कविहयौ जाइ ।हम आैंगे दोऊ भैया, मैया जविन अकुलाइ ॥याकौ विबलग बहुत हम मान्यौ, जो कविह पठयौ धाइ ।ह गुन हमकौं कहा विबसरिरहै, बडे़ विकए पय प्याइ ॥अरु जब मिमल्यौ नंद बाबा सौं, तब कविहयौ समुझाइ ।तौ लौ दुखी होन नहिहं पाैं, धौरी धूमरिर गाइ ॥जद्यविप इहाँ अनेक भाँवित सुख, तदविप रह्यौ नहिहं जाइ ।सूरदास देखौं ब्रजबाक्तिसविन, तबहीं विहयौ क्तिसराइ ॥21॥ नीकैं रविहयौ जसुमवित मैया ।आैंगे ढिदन चारिर पाँच मैं, हम हलधर दोउ भैया ॥नोई, बेंत,विबषान, बाँसुरी bार अबेर सबेरैं ।लै जविन जाइ चुराइ रामिधका, कछुक खिखलौना मेरैं ॥जा ढिदन तैं हम तुमतै विबछुरै, कोउ न कहत कन्हैया ।उढिठ न सबेरे विकयौ कलेऊ, साँझ न चीषी धैया ॥कविहये कहा नंद बाबा सौं, जिजतौ विनठुर मन कीन्हौ ।सूरदास पहूँचाइ मधुपुरी, फेरिर न सोधौ लौन्हौ ॥22॥ गहरु जविन लाहु गोकुल जाइ ।तुमहिहं विबना ब्याकुल हम है्व हैं, जदुपवित करी चतुराइ ॥अपनौ ही रथ तुरत मँगायौ, ढिदयौ पुरत पलनाइ ।अपन ेअंग अभूषन करिर-करिर, आपुन ही पविहराइ ॥अपणौ सुकुट विपतंबर अपनौ, देत सबै सुख पाइ ।सूर स्याम तदरूप उपंगसुत, भृगुपद एक बचाइ ॥23॥ उद्ध ब्रज आगमन

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जबहिहं चले ऊधौ मधुबन तैं, गोविपविन मनहिहं जनाइ गई ।बार-बार अक्तिल लागे स्रनविन, कछु दुख कछु विहय हष] भई ॥जहँ तहँ काग उड़ान लागी, हरिर आत उविड़ जाहिहं नहीं ।समाचार कविह जबहिहं मनाहितं, उविड़ बैठत सुविन औचकहीं ॥सखी परस्पर यह कही बातैं, आजु स्याम कै आत हैं ।विकधौ सूर कोऊ ब्रज पठयौ, आजु खबरिर कै पात हैं ॥1॥ आजु कोऊ नीकी बात सुनाै ।कै मधुबन तैं नंद लाड़लौ, कैऽब दूत कोउ आै ॥भौंर एक चहँूढिदक्तिस तैं उविड़-उविड़, कानन लविग-लविग गाै ।उत्तम भाषा ऊँचे चढिढ़-चढिढ़, अंग-अंग सगुनाै ॥ भामिमविन एक सखी सौं विबनै, नैन नीर भरिर आै ।सूरदास कोऊ ब्रज ऐसौ, जो ब्रजनाथ मिमलाै ॥2॥ तौ तू उविड़ न जाइ रे काग ।जौ गुपाल गोकुल कौं आैं, तो है्व है बड़भाग ॥दमिध ओदन भरिर दोनौं दैहौं, अरु अंचल कौ पाग ।मिमक्तिल हौं हृदय क्तिसराइ स्रन सुविन, मेढिट विबरह के दाग ॥जैसें मातु विपता नहिहं जानत, अंतर कौ अनुराग ।सूरदास प्रभु करैं कृपा जब, तब तैं देह सुहाग ॥3॥ है कोउ ैसी ही अनुहारिर ।मधुबन तन तैं आत सखिख री, देखौ नैन विनहारिर ॥ैसोइ मुकुट मनोहर कँुडल, पीत बसन रुक्तिचकारिर ।ैसहिहं बात कहत सारक्तिथ सौं,ब्रज तन बाँह पसारिर ॥केवितक बीच विकयौ हरिर अंतर, मनु बीते जुग चारिर ।सूर सकल आतुर अकुलानी, जैसें मीन विबन ुबारिर ॥4॥ घर घर इहै सब्द पर्‌यौ ।सुनत जसुमवित धाइ विनकसी, हरष विहयौ भर्‌यौ ॥नंद हरविषत चले आगैं, सखा हरक्तिसत अंग ।झंुड झंुडविन नारिर हरविषत, चलीं उदमिध तरंग ॥गाइ हरविषत ते स्रहितं थन, चौकरत गौ बाल ।उमँविग अंग न मात कोऊ, विबरध तरुनऽरु बाल ॥कोउ कहत बलराम नाहीं, स्याम रथ पर एक ।कोउ कहत प्रभु सूर दोऊ, रक्तिचत बात अनेक ॥5॥ कोउ माई आत है तनु स्याम ।ैसे पट बैक्तिसय रथ ैठविन, ैसीयै उर दाम ॥जो जैसैं तैसैं उढिठ धाईं, छाँविड़ सकल गृह काम ॥पुलक रोम गदगद तेहीं छन, सोभिभत अँग अभिभराम ॥इतने बीच आइ गए ऊधौ, रहीं ठगी सब बाम ।सूरदास प्रभु ह्याँ कत आैं, बँधे कुविबजा रस-दाम ॥6॥जबहिहं कह्यौ ये स्याम नहीं ।परीं मुरक्तिछ धरनी ब्रजबाला, जो जहँ रही सु तहीं ॥सपने की रजधानी है्व गइ, जो जागीं कछु नाहीं ।बार बार रथ ओर विनहारहिहं, स्याम विबना अकुलाहीं ॥कहा आइ करिरहैं ब्रज मोहन, मिमली कूबरी नारी ।सूर कहत सब उधौ आए , गईं काम -सर मारी ॥7॥ भली भई हरिर सुरवित करी ।उठौ महरिर कुसलात बूजिझऐ, आनँद उमँग भरी ॥भुजा गहे गोपी परबोधवित, मानहु सुफल घरी ।पाती क्तिलखिख कछु स्याम पठायौ, यह सुविन मनहिहं @री ॥विनकट उपँगसुत आइ तुलाने, मानौ रूप हरी ।सूर स्याम कौ सखा यहै री, स्रनविन सुनी परी ॥8॥ विनरखत ऊधौ कौं सुख पायौ ।संुदर सुलज सुबंस देखिखयत, यातैं स्याम पठायौ ॥नीकैं हरिर-संदेस कहैगौ, स्रन सुनन सुख पैहै ।यह जानवित हरिर तुरत आइहैं, यह कविह हृदै क्तिसरैहै ॥घरेिर क्तिलए रथ पास चहँूधा, नंद गोप ब्रजनारी ।महर क्तिलाइ गए विनज मंढिदर , हरविषत क्तिलयौ उतारी ॥अरघ देत भीतर वितहिहं लीन्हौ, धविन धविन ढिदन कविह आज ।धविन धविन सूर उपँगसुत आए , मुढिदत कहत ब्रजराज ॥9॥

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कबहुँ सुमिध करत गुपाल हमारी ।पूछत विपता नंद ऊधौ सौं, अरु जसुदा महतारी ॥बहुतै चूक परी अनजानत, कहा अबकैं पक्तिछताने ।बासुदे घर भीतर आए , मैं अहीर करिर जाने ॥पविहलैं गग] कह्यौ हुतौ हमसौ, संग दुःख गयौ भूल ।सूरदास स्ामी के विबछुरै, रावित ढिदस भयौ सूल ॥10॥ कह्यौ कान्ह सुविन जसुदा मैया ।आहिहंगे ढिदन चारिर पाँच मैं, हम हलधर दोउ भैया ।मुरली बेंत विबषान हमारौ, कहँू अबेर सबेरौ ।मवित लै जाइ चुराइ रामिधका, कछुक खिखलौना मेरौ ॥जा ढिदन तैं हम तुम सौं विबछरै, काहु न कह्यौ कन्हैया ।प्रात न विकयौ कलेऊ कबहूँ, साँझ न पय विपयौ घैया ॥कहा कहौं कछु कहत न आै, जननी जो दुख पायौ ।अब हमसौं बसुदे देकी, कहत आपनौ जायौ ॥कविहऐ कहा नंद बाबा सौं, बहुत विनठुर मन कीन्हौ ।सूर हमहिहं पहुँचाइ मधुपुरी, बहुरिर न सोधौ लीन्हौ ॥11॥ हमतैं कछु सेा न भई ।धोखैं ही धोखैं जु रहे हम, जाने नाहिहं वित्रलोकमई ॥चरन पकरिर कर विबनती करिरबौ, सब अपराध क्षमा कीबै ।ऐसौ भाग होउगौ कबहूँ, स्याम गोद पुविन मैं लीबै ॥कहै नंद आगैं ऊधौ के, एक बेर दरसन दीबे ।सूरदास स्ामी मिमक्तिल अबकैं , सबै दोष विनज मन कीबे ॥12॥ ऊधौ कहौ साँची बात ।दमिध, मह्यौ ननीत माध, कौन के घर खात ॥विकन सखा सँग संग लीन्हे, गहे लकुटी हाथ ।कौन की गैयाँ चरात, जात को धौं साथ ॥कौन गोपी कूल-जमुना, रहत गविह गविह घाट ।दान हट कै लेत कापै, रोक विकनकी बाट ॥कौन ग्ाक्तिलविन साथ भोजन, करत विकनतैं बात ॥कौन कैं माखन चुरान, जावित उढिठकै प्रात ॥इतौ बूझत माइ जसुमवित, परी मुरक्तिछत गात ।सूरदास विकसोर मिमलबहु, मढिट विहय की तात ॥13॥ उद्ध का गोविपयों को पाती देनाब्रज घर-घर सब होवित बधाइ ।कँचन कलस दूब दमिध रोचन ,लै ँृदाबन आइ ॥मिमली ब्रजनारिर वितलक क्तिसर कीनौ, करिर प्रदस्थिच्छना तासु ।पूछत कुसल नारिर-नर हरषत, आए सब ब्रज-बासु ॥सकसकात तनधकधकात उर, अकबकात सब ठाढे़ ।सूर उपँग-सुत बोलत नाहीं, अवित विहरदै है्व गाढे़ ॥1॥ ऊधौ कहौ हरिर कुसलात ।कह्यौ आन विकधौं नाहीं, बोक्तिलऐ मुख बात ॥एक क्तिछन जुग जात हमकौं, विबनु सुन ेहरिर प्रीवित ।आपु आए कृपा कीन्हीं , अब कहौ कछु नीवित ॥तब उपँग-सुत सबविन बोले, सुनौ श्रीमुख जोग ।सूर सुविन सब दौरिर आईं, हटविक दीन्हौ लोग ॥2॥ गोपी सुनहु हरिर संदेस ।गए संग अकू्रर मधुबन, हत्यौ कंस नरेस ॥रजक मार्‌यौ बसन पविहरे, धनुष तोर्‌यौ जाइ ।कुबलया, चानूर मुमिष्टक, ढिदए धरविन विगराइ ॥मातु विपतु के बंद छोरे, बासुदे कुमार ।राज दीन्हौ उग्रसेनहिहं, चौंर विनज कर @ार ॥कह्यौ तुमकौं ब्रह्म ध्यान, छाँविड़ विबषय विबकार ।सूर पाती दई क्तिलखिख मोंहिहं, पढ़ौ गोप-कुमारिर ॥3॥ पाती मधुबन ही तैं आई ।संुदर स्याम आपु क्तिलखिख पठई, आइ सुनौ री माई ॥अपन ेगृह तैं दौरीं, लै पाती उर लाई ।नैनविन विनरखिख विनमेष न खंविडत, पे्रम-तृषा न बुझाई ॥

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कहा करौं सूनौ गह गोकुल, हरिर विबनु कछु न सुहाई ।सूरदास ब्रज चूक तैं, स्याम सुरवित विबसराई ॥4॥विनरखवित अंक स्याम संुदर के बार बार लाहितं लै छाती ।लोचन जल कागद मक्तिस मिमक्तिल कै, है्व गइ स्याम स्याम जू की पाती ॥गोकुल बसत नंदनंदन के, कबहुँक बयारिर न लागी ताती ।अरु हम उती कहा कहैं ऊधौ, जब सुविन बेनु नाद सँग जाती ॥उनकैं लाड़ बनवित नहिहं काहूँ, विनक्तिस ढिदन रक्तिसक-रास-रस राती ।प्रान-नाथ तुम कबविह मिमलौगे, सूरदास प्रभु बाल-सँघाती ॥5॥ पाती मधुबन तैं आई ।ऊधौ हरिर के परम सनेही, ताकैं हाथ पठाई ॥कोले पढ़वित, कोउ धरवित नैन पर, काहूँ हृदै लगाई ।कोउ पूछवित विफरिर विफर ऊधौ कौं, आपुन क्तिलखी कन्हाई ?बहुरौ दई फेरिर ऊधौ कौं, तब उन बाँक्तिच सुनाई ।मन मैं ध्यान हमारौ राख्यौ, सूर सदा सुखदाई ॥6॥क्तिलखिख आई ब्रजनाथ की छाप ।ऊधौ बाँधे विफरत सीस पर, बाचत आै ताप ॥उलढिट रीवित नंदनंदन की, घर-घर भयौ संताप ।कविहयौ जाइ जोग आराधैं, अविगत अकथ अमाप ॥हरिर आगैं कुविबजा अमिधकारिरविन, को जीै इहिहं दाप ।सूर सँदेस सुनात लागे, कहौ कौन यह पाप ॥7॥ कोउ ब्रज बाँचत नाहिहंन पाती ।कत क्तिलखिख-क्तिलखिख पठत नंद-नंदन, कढिठन विबरह की काँती ॥नैन स्रजल कागद अवित कोमल , कर अँगुरी अवित ताती ।परसैं जरैं, विबलौकैं भीजै, दुहँू भाँवित दुख छाती ॥को बाँचै ये अंक सूरप्रभु कढिठन मदन-सर-घाती ।सब सुख लै गए स्याम मनौहर, हमकौं दुख दै थाती ॥8॥ ऊधौ कहा करैं लै पाती ।जौ लौं मदनगुपाल न देखैं, विबरह जरात छाती ॥विनमिमष विनमिमष मोविह विबरसत नाहीं, सरद जुहाई राती ।पीर हमारी जानत नाहीं, तुम हौ स्याम सँघाती ॥यह पाती लै जाहु मधुपुरी, जहँ ै बसैं सुजाती ।मन जु हमारे उहाँ लै गए, काम कढिठन सर घाती ॥सूरदास प्रभु कहा चहत हैं, कोढिटक बात सुहाती ।एक बेर मुख बहुरिर ढिदखाहु, रहैं चरन रज-राती ॥9॥ भ्रमर गीतऊधौ मन ना भये दस-बीसएक हुतो सो गयौ स्याम संग, कौ आराधे ईस॥1॥ भम]र गीत में सूरदास न ेउन पदों को समाविहत विकया है जिजनमें मथुरा से कृष्ण bारा उद्ध को बज] संदेस लेकर भेजा जाता है आैैर उद्ध जो हैं योग आैैर बह्म] के ज्ञाता हैं उनका पे्रम से दूर दूर का कोई सरोकार नहीं है। जब गोविपयाँ व्याकुल होकर उद्ध से कृष्ण के बारे में बात करती हैं आैैर उनके बारे में जानने को उत्सुक होती हैं तो े विनराकार बह्म] आैैर योग की बातें करने लगते हैं तो खीजी हुई गोविपयाँ उन्हें काले भँरे की उपमा देती हैं। बस इन्हीं करीब १०० से अमिधक पदों का संकलन भम]रगीत या उद्ध-संदेश कहलाया जाता है।

कृष्ण जब गुरु संदीपन के यहाँ ज्ञानाजन] के क्तिलये गए थे तब उन्हें बज] की याद सताती थी। हाँ उनका एक ही मिमत्र था उद्ध, ह सदै रीत-िैनीवित की, विनगुणर् बह्म] आैैर योग की बातें करता था। तो उन्हें क्तिचन्ता हुई विक यह संसार मात्र विरिर�यु� विनगुणर् बह्म] से तो चलेगा नहीं, इसके क्तिलये विरह आैैर पे्रम की भी आश्यकता है। आैैर अपने इस मिमत्र से े उकताने लगे थे विक यह सदै कहता है, कौन माता, कौन विपता, कौन सखा, कौन बंधु। े सोचते इसका सत्य विकतना अपूणर् आैैर भैर्ामक है। भला कहाँ यशोदा आैैर नंद जैसे माता-विपता होने का सुख आैैर राधा के साथ बीते पलों का आनंद। आैैर तीनों लोकों में बज] के गोप-गोविपयों के साथ मिमलकर खेलन ेजैसा सुख कहाँ? ऐसा नहीं है विक bारा उद्ध को बज] संदेस लेकर भेजते समय कृष्ण संशय में न थे, े स्वं्य सोच रहे थे यह कैसे संदेस ले जाएगा जो विक पे्रम का ममर् ही नहीं समझता, कोरा बह्म]ज्ञा]न झाड़ता है। तबविह उपंगसुत आई गए।सखा सखा कछु अंतर नाहिहं, भरिर भरिर अंक लए।।अवित सुन्दर तन स्याम सरीखो, देखत विहर पछताने ।ऐसे कैं ैसी बुधी होती, बज] पठऊं मन आने।।या आगैं रस कथा प्रकासौं, जोग कथा प्रकटाऊं।सूर ज्ञान याकौ दृढ़ विकरके, जुवितन्ह पास पठाऊं॥2॥तभी उपंग के पुत्र उद्ध आ जाते हैं। कृष्ण उन्हें गले लगाते हैं।

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दोनों सखाआ ेैं में खास अन्तर नहीं। उद्ध का रंग-रूप कृष्ण के समान ही है। पर कृष्ण उन्हें देख कर पछताते हैं विक इस मेरे समान रूपान युक के पास काश, पे्रमपूणर् बुजिद्ध भी होती। तब कृष्ण मन बनाते हैं विक क्यों न उद्ध को बज] संदेस लेकर भेजा जाए, संदेस भी पहुँच जाएगा आैैर इसे पे्रम का पाठ गोविपयाँ भली भाँिैत पढ़ा देंगी। तब यह जान सकेगा पे्रम का ममर्। उधर उद्ध सोचते हैं विक े विरह में जल रही गोविपयों को विनगुणर् बह्म] के पे्रम की क्तिशक्षा दे कर उन्हें इस सांसारिरक पे्रम से की पीड़ा मुक्ति� से मुक्ति� ढिदला देंगे। कृष्ण मन ही मन मुस्का कर उन्हें अपना पत्र थमाते हैं विक देखते हैं विक कौन विकसे क्या क्तिसखा कर आता है। उद्ध पत्र गोविपयों को दे देते हैं आैैर कहते हैं विक कृष्ण न ेकहा है विक - सुनौ गोपी विहर कौ संदेस।विकर समामिध अंतर गवित ध्याहु, यह उनको उपदेस।।ै अविगत अविनासी पूरन, सब घट रहे समाई।तत्ज्ञान विबन ुमुक्ति� नहीं, ेद पुरानविन गाई।।सगुन रूप वितज विनरगुन ध्याहु, इक क्तिचत्त एक मन लाई।ह उपाई विकर विबरह तरौ तुम, मिमले बह्म] तब आई।।दुसह संदेस सुन माधौ को, गोविप जन विबलखानी।सूर विबरह की कौन चलाै, बूविड़तं मनु विबन पानी॥3॥हे गोविपयों, विहर का संदेस सुनो। उनका यही उपदेस है विक समामिध लगा कर अपन ेमन में विनगुणर् विनराकार बह्म] का ध्यान करो। यह अजे्ञय, अविनाशी पूणर् सबके मन में बसा है। ेद पुराण भी यही कहते हैं विक तत्ज्ञान के विबना मुक्ति� संभ नहीं। इसी उपाय से तुम विरह की पीड़ा से छुटकारा पा सकोगी। अपने कृष्ण के सगुण रूप को छोड़ उनके बह्म] विनराकार रूप की अराधना करो। उद्ध के मुख से अपने विप्रय का उपदेश सुन पे्रममागीर् गोविपयाँ व्यक्तिथत हो जाती हैं। अब विरह की क्या बात े तो विबन पानी पीड़ा के अथाह सागर डूब गईं। तभी एक भम]र हाँ आता है तो बस जली-भुनी गोविपयों को मौका मिमल जाता है आैैर ह उद्ध पर काला भम]र कह कर खूब कटाक्ष करती हैं। रहु रे मधुकर मधु मतारे।कौन काज या विनरगुन सौं, क्तिचरजीहू कान्ह हमारे।।लोटत पीत पराग कीच में, बीच न अंग सम्हारै।भारम्बार सरक मढिदरा की, अपरस रटत उघारे।।तुम जानत हो ैसी ग्ारिरनी, जैसे कुसुम वितहारे।घरी पहर सबविहनी विबरनात, जैसे आत कारे।।संुदर बदन, कमल-दल लोचन, जसुमवित नंद दुलारे।तन-मन सूर अरिरप रहीं स्यामह,िै का पै लेहिहं उधारै॥4॥गोविपयाँ भम]र के बहाने उद्ध को सुना-सुना कर कहती हैंर् हे भंरे। तुम अपने मधु पीन ेमें व्यस्त रहो, हमें भी मस्त रहन ेदो। तुम्हारे इस विनरगुण से हमारा क्या लेना-देना। हमारे तो सगुण साकार कान्हा क्तिचरंजीी रहें। तुम स्यं तो पराग में लोट लोट कर ऐसे बेसुध हो जाते हो विक अपन ेशरीर की सुध नहीं रहती आैैर इतना मधुरस पी लेते हो विक सनक कर रस के विरुद्ध ही बातें करने लगते हो। हम तुम्हारे जैसी नहीं हैं विक तुम्हारी तरह फूल-फूल पर बहकें , हमारा तो एक ही है कान्हा जो सुन्दर मुख ाला, नीलकमल से नयन ाला यशोदा का दुलारा है। हमने तो उन्हीं पर तन-मन ार ढिदया है अब विकसी विनरगुण पर ारने के क्तिलये तन-मन विकससे उधार लें? उधौ जोग क्तिसखाविन आए।संृगी भस्म अथारी मुदैर्ा, दै बज]नाथ पठाए।।जो पै जोग क्तिलख्यौ गोविपन कौ, कत रस रास खिखलाए।तब ही क्यों न ज्ञान उपदेस्यौ, अधर सुधारस लाए।।मुरली शब्द सुनत बन गहिनं, सुत विपतगृह विबसराए।सूरदास संग छांिैड स्याम कौ, हमहिहं भये पछताए॥5॥गोविपयाँ कहती हैंर् हे सखिख! आआैे, देखो ये श्याम सुन्दर के सखा उद्ध हमें योग क्तिसखाने आए हैं। स्यं बज]नाथ न ेइन्हें श्रृंगी, भस्म, अथारी आैैर मुदैर्ा देकर भेजा है। हमें तो खेद है विक जब श्याम को इन्हें भेजना ही था तो, हमें अदभुत रास का रसमय आनंद क्यों ढिदया था? जब े हमें अपन ेअथरों का रस विपला रहे थे तब ये ज्ञान आैैर योग की बातें कहाँ गईं थीं? तब हम श्री कृष्ण की मुरली के स्रों में सुधबुध खो कर अपन ेबच्चों आैैर विपत के घर को भुला ढिदया करती थीं। श्याम का साथ छोड़ना हमारे भाग्य में था ही तो हमने उनसे पे्रम ही क्यों विकया अब हम पछताती हैं। मधुबनी लोविग को विपतयाई।मुख आैैरै अंतरगवित आैैरै, विपतयाँ क्तिलख पठत जु बनाई।।ज्यौं कोयल सुत काग जिजयाै, भा भगवित भोजन जु खाई।कुहुविक कुहुविक आए ंबसंत रिरतु, अंत मिमलै अपने कुल जाई।।ज्यौं मधुकर अम्बुजरस चाख्यौ, बहुरिर न बूझे बातें आई।सूर जहाँ लविग स्याम गात हैं, वितनसौं कीजै कहा सगाई॥6॥कोई गोपी उद्ध पर वं्यग्य करती है।मथुरा के लोगों का कौन विश्वास करे? उनके तो मुख में कुछ आैैर मन में कुछ आैैर है। तभी तो एक आैेर हमें स्नवेिहल पत्र क्तिलख कर बना रहे हैं दूसरी आैेर उद्ध को जोग के संदेस लेके भेज रहे हैं। जिजस तरह से कोयल के बचे्च को कौआ पे्रमभा से भोजन करा के पालता है आैैर बसंत रिरतु आन ेपर जब कोयलें कूकती हैं तब ह भी अपनी विबरादरी में जा मिमलता है आैैर कूकने लगता है। जिजस प्रकार भंरा कमल के पराग को चखने के बाद उसे पूछता तक नहीं। ये सारे काले शरीर ाले एक से हैं, इनसे सम्बंध बनाने से क्या लाभ? विनरगुन कौन देस को ासी।मधुकर विकह समुझाई सौंह दै, बूझहितं सांिैच न हांसी।।को है जनक, कौन है जनविन, कौन नारिर कौन दासी।कैसे बरन भेष है कैसो, विकहं रस मैं अभिभलाषी।।पाैगो पुविन विकयौ आपनो, जो रे करेगौ गांसी।सुनत मौन है रहयौ बारो, सूर सबै मवित नासी॥6॥

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अब गोविपयों न ेतकर् विकयार् हाँ तो उद्ध यह बताआैे विक तुम्हारा यह विनगुण] विकस देश का रहन ेाला है? सच सौगंध देकर पूछते हैं, हंसी की बात नहीं है। इसके माता-विपता, नारी-दासी आखिखर कौन हैं? कैसा है इस विनरगुण का रंग-रूप आैैर भेष? विकस रस में उसकी रिरुच है? यढिद तुमने हमसे छल विकया तो तुम पाप आैैर दंड के भागी होगे। सूरदास कहते हैं विक गोविपयों के इस तकर् के आगे उद्ध की बुजिद्ध कंुद हो गई। आैैर े चुप हो गए। लेविकन गोविपयों के वं्यग्य खत्म न हुए े कहती रहीं - जोग ठगौरी बज] न विबकैहे।मूरिर के पावितन के बदलै, कौ मु�ाहल देहै।।यह ब्यौपार तुम्हारो उधौ, ऐसे ही धरयौ रेहै।जिजन पें तैं लै आए उधौ, वितनहीं के पेट समैंहै।।दाख छांिैड के कटुक विनम्बौरी, कौ अपन ेमुख देहै।गुन विकर मोविह सूर साँरे, कौ विनरगुन विनरेहै॥8॥हे उद्ध ये तुम्हारी जोग की ठगविद्या, यहाँ बज] में नहीं विबकने की। भला मूली के पत्तों के बदले माणक मोती तुम्हें कौन देगा? यह तुम्हारा व्यापार ऐसे ही धरा रह जाएगा। जहाँ से ये जोग की विद्या लाए हो उन्हें ही ापस क्तिसखा दो, यह उन्हीं के क्तिलये स्थिउचत है। यहाँ तो कोई ऐसा बेकूफ नहीं विक विकशमिमश छोड़ कर कड़ी हिनंबौली खाए! हमने तो कृष्ण पर मोविहत होकर पे्रम विकया है अब तुम्हारे इस विनरगुण का विनाह] हमारे बस का नहीं। काहे को रोकत मारग सूधो।सुनहु मधुप विनरगुन कंटक तै, राजपंथ क्यौं रंूथौ।।कै तुम क्तिसखिख पठए हो कुब्जा, कहयो स्यामघनहंू धौं।ेद-पुरान सुमृवित सब @ंू@ों, जुवितनी जोग कहँू धौं।।ताको कहां परैंखों की जे, जाने छाछ न दूधौ।सूर मूर अकू्रर गयौ लै, ब्याज विनैरत उधौ॥9॥गोविपयां क्तिचढ़ कर पूछती हैं विक कहीं तुम्हें कुबजा न ेतो नहीं भेजा? जो तुम स्नेह का सीधा साधा रास्ता रोक रहे हो। आैैर राजमागर् को विनगुणर् के कांटे से अरुद्ध कर रहे हो! ेद-पुरान, स्मृवित आढिद गरं्थ सब छान मारो क्या कहीं भी युवितयों के जोग लेने की बात कही गई है? तुम जरूर कुब्जा के भेजे हुए हो। अब उसे क्या कहें जिजसे दूध आैैर छाछ में ही अंतर न पता हो। सूरदास कहते हैं विक मूल तो अकू्रर जी ले गए अब क्या गोविपयों से ब्याज लेन ेउद्ध आए हैं? उधौ मन ना भए दस बीस।एक हुतौ सौ गयौ स्याम संग, को आराधे ईस।।इंदैर्ी क्तिसक्तिथल भई केस विबनु, ज्यौं देही विबन ुसीस।आसा लाविग रविहत तन स्ासा, जीहिहं कोढिट बरीस।तुम तौ सखा स्याम संुदर के, सकल जोग के ईस।सूर हमारै नंद-नंदन विबनु, आैैर नहीं जगदीस॥10॥अब थक हार कर गोविपयाँ वं्यग्य करना बंद कर उद्ध को अपन ेतन मन की दशा कहती हैं। उद्ध हतप्रभ हैं, भक्ति� के इस अदभुत स्रूप से। हे उद्ध हमारे मन दस बीस तो हैं नहीं, एक था ह भी श्याम के साथ चला गया। अब विकस मन से ईश्वर की अराधना करें? उनके विबना हमारी इंिैदया̄ क्तिशक्तिथल हैं, शरीर मानो विबना क्तिसर का हो गया है, बस उनके दरशन की क्षीण सी आशा हमें करोड़ों षर् जीवित रखेगी। तुम तो कान्ह के सखा हो, योग के पूणर् ज्ञाता हो। तुम कृष्ण के विबना भी योग के सहारे अपना उद्धार कर लोगे। हमारा तो नंद कुमार कृष्ण के क्तिसा कोई ईश्वर नहीं है। गोपी उद्ध संाद के ऐसे कई कई पद हैं जो कटाक्षों, विरह दशाआ ेैं, राधा के विरह आैैर विनरगुण का विपरहास आैैर तकर्-कुतकर् व्य� करते हैं। सभी एक से एक उत्तम हैं पर यहाँ सीमा है लेख की। अंततः गोविपयाँ राधा के विरह की दशा बताती हैं, बज] के हाल बताती हैं। अंततः उद्ध का विनरगुण गोविपयों के पे्रममय सगुण पर हाी हो जाता है आैैर उद्ध कहते हैं - अब अवित चविकतंत मन मेरौ।आयौ हो विनरगुण उपदेसन, भयौ सगुन को चैरौ।।जो मैं ज्ञान गहयौ गीत को, तुमहिहं न परस्यौं नेरौ।अवित अज्ञान कछु कहत न आै, दूत भयौ विहर कैरौ।।विनज जन जाविन-माविन जतनविन तुम, कीन्हो नेह घनेरौ।सूर मधुप स्थिउठ चले मधुपुरी, बोरिर जग को बेरौ॥11॥कृष्ण के प्रवित गोविपयों के अनन्य पे्रम को देख कर उद्ध भा विभोर होकर कहते हैंर् मेरा मन आश्चयच]विकत है विक मैं आया तो विनगुण] बह्म] का उपदेश लेकर था आैैर पे्रममय सगुण का उपासक बन कर जा रहा हँू। मैं तुम्हें गीता का उपदेश देता रहा, जो तुम्हें छू तक न गया। अपनी अज्ञानता पर लस्थिज्जत हँू विक विकसे उपदेश देता रहा जो स्यं लीलामय हैं। अब समझा विक विहर न ेमुझे यहाँ मेरी अज्ञानता का अंत करने भेजा था। तुम लोगों न ेमुझे जो स्नेह ढिदया उसका आभारी हँू। सूरदास कहते हैं विक उद्ध अपने योग के बेडे़ को गोविपयों के पे्रम सागर में डुबो के, स्यं पे्रममागर् अपना मथुरा लौट गए।

इहिहं अंतर मधुकर इक आयौ ।विनज स्भा अनुसार विनकट है्व,संुदर सब्द सुनायौ ॥पूछन लागीं ताविह गोविपका, कुविबजा तोहिहं पठायौ ।कीधौं सूर स्याम संुदर कौं, हमै संदेसौ लायौ ॥12॥ (मधुप तुम) कहौ कहाँ तैं आए हौ ।जानवित हौं अनुमान आपनै, तुम जदुनाथ पठाए हौ ॥ैसेइ बसन, बरन तन संुदर, ेइ भूषन सजिज ल्याए हौ ।लै सरबसु सँग स्याम क्तिसधारे, अब का पर पविहराए हौ ।

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अहो मधुप एकै मन सबकौ, सु तौ उहाँ लै छाए हौ ।अब यह कौन सयान बहुरिर ब्रज, ता कारन उढिठ धाए हौ ॥मधुबन की माविननी मनोहर, तहीं जात जहँ भाये हौ ।सूर जहाँ लौं स्याम गात हैं , जाविन भले करिर पाए हौ ॥13॥ रहु रे मधुकर मधु मतारे ।कौन काज या विनरगुन सौं, क्तिचर जीहु कान्ह हमारे ॥लोटत पीत पराग कीच मै, बीच न अंग संम्हारे ।बारंबार सरक मढिदरा की, अपरस रटत उघारे ॥तुम जानत हौ ैसी ग्ारिरविन, जैसे कुसुम वितहारे ।घरी पहर सबविहविन विबरमात, जेते आत कारे ॥संुदर बदन कमल-दल लोचन, जसुमवित नंददुलारे ।तन मन सूर अरविप रहीं स्यामहिहं, का पै लेहिहं उघारे ॥14॥ मधुकर हम न होहिहं ै बेक्तिल । जिजन भजिज तजिज तुम विफरत और रँग, करन कुसुम-रस केक्तिल ॥बारे तैं बर बारिर बनी हैं, अरु पोषी विपय पाविन ।विबन ुविपय परस प्रात उढिठ फूलत, होवित सदा विहत हाविन ॥ये बेली विबरहीं बृंदान; उरझी स्याम तमाल ।पे्रम-पुहुप-रस-बास हमारे, विबलसत मधुप गोपाल ॥जोग समीर धीर नहिहं डोलहितं,रूप डार दृढ़ लागीं ।सूर पराग न तजहिहं विहए तें, श्री गुपाल अनुरागीं ॥15॥उद्ध-गोपी संाद भाग १सुनौ गोपी हरिर कौ संदेसकरिर समामिध अंतर गवित ध्याहु, यह उनकौ उपदेस ॥ै अविगत अविनासी पूरन, सब-घट रहे समाइ ।तत् ज्ञान विबन ुमुक्ति� नहीं है, बेद पुरानविन गाइ ॥सगुन रूप तजिज विनरगुन ध्याहु, इस क्तिचत इक मन लाइ ।ह उपाइ करिर विबरह तरौ तुम, मिमलै ब्रह्म तब आइ ॥दुसह सँदेस सुनत माधौ को, गोपी जन विबलखानी ।सूर विबरह की कौन चलाै, बुड़हितं मनु विबनु पानी ॥1॥परी पुकार bार गृह-गृह तैं, सुनी सखी इक जोगी आयौ ।पन सधान, भन छुड़न, रन-रसाल, गोपाल पठायौ ॥आसन बाँमिध, परम ऊरध क्तिचत, बनत न वितनहिहं कहा विहत ल्यायौ ।कनक बेक्तिल , कामिमविन ब्रजबाला, जोग अविगविन दविहबे कौं धायौ ॥भ-भय हरन, असुर मारन विहत, कारन कान्ह मधुपुरी छायौ ।ब्रज मै जाद एकौ नाहीं, काहैं उलटौ जस विबथरायौ ॥सुथल जु स्याम धाम मैं बैठौ, अबलविन प्रवित अमिधकार जनायौ ॥सूर विबसारी प्रीवित साँरै, भली चतुरता जगत हँसायौ ॥2॥ देन आए ऊधौ मत नीकौ ।आहु री मिमक्तिल सुनहु सयानी, लेहु सुजस कौ टीकौ ॥तजन कहत अंबर आभूषन, गेह नेह सुत ही कौ ।अंग भस्म करिर सीस जटा धरिर,क्तिसखत विनरगुन फीकौ ॥मेरे जान यहै जुवितविन कौ, देत विफरत दुख पी कौ ।ता सराप तें भयौ स्याम तन, तउ न गहत डर जी कौ ॥जाकी प्रकृवित परी जिजय जेसी, सोच न भली बुरी कौ ।जैसैं सूर ब्याल रस चाखैं, मुख नहिहं होत अमी कौ ॥3॥ प्रकृवित जो जाकैं अंग परी ।स्ान पँूछ कोउ कोढिटक लागै, सूधी कहँु न करी ॥जैसें काग भच्छ नहिहं छाँडै़, जनमत जौन घरी ।धौए रंग जात नहिहं कैसेहँु, ज्यौं कारी कमरी ॥ज्यौं अविह डसत उदर नहिहं पूरत, ऐसी धरविन धरी ।सूर होइ सो होइ सोच नहिहं, तैसेइ एऊ री ॥4॥ समुजिझ न परवित वितहारो ऊधौ ।ज्यौं वित्रदोष उपजैं जक लागत, बोलत बचन न सूधौ ॥आपुन कौ उपचार करो अवित, तब औरविन क्तिसख देहु ।बड़ौ रोग उपयौ है तुमकौं भन सबारैं लेहु ।ह्वाँ भेषज नाना बाँवितन के, अरु मधु-रिरपु से बैद ।हम कातर डरपहितं अपन ैक्तिसर, यह कलंक है खेद ॥

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साँची बात छाँविड़ अक्तिल तेरी, झूठी को अब सुविनहै ।सूरदास मु�ाहल भोगी, हंस ज्ारिर क्यौं चुविनहै ॥5॥ ऊधौ हम आजु भईं बड़ भागी ।जिजन अखँिखयन तुम स्याम विबलोके, ते अखँिखयाँ हम लागीं ॥जैसे सुमन बास लै आत, पन मधुप अनुरागी ।अवित आनंद होत है तैसें, अंग-अंग सुख रागी ॥ज्यौं दरपन मैं दरस देखिखयत, दृमिष्ट परम रुक्तिच लागी ।तैसैं सूर मिमले हरिर हमकौं, विबरह-विबथा तन त्यागी ॥6॥(अक्तिल हौं) कैसैं कहौं हरिर के रूप रसहिहं ।अपन ेतन मैं भेद बहुत विबमिध, रसना जानै न नैन दसहिहं ॥जिजन देखे ते आहिहं बचन विबनु, जिजनहिहं बचन दरसन न वितसहिहं ।विबन ुबानी ये उमँविग पे्रम जल, सुमिमरिर-सुमिमरिर ा रूप जसहिहं ॥बार-बार पक्तिछतात यहै कविह, कहा करौं जो विबमिध न बसहिहं ।सूर सकल अँगविन की गवित, क्यौं समुझाैं छपद पसुहिहं ॥7॥ हम तौ सब बातविन सचु पायौ ।गोद खिखलाइ विपाइ देह पय, पुविन पालन ैझुलायौ ॥देखवित रही फविनग की मविन ज्यौं, गुरुजन ज्यौं न भुलायौ ।अब नहिहं समुजवित कौन पाप तै, विबधना सो उलटायौ ॥विबन ुदेखैं पल-पल नहिहं छन-छन, ये ही क्तिचत ही चायौ ।अबहिहं कठोर भए ब्रजपवित-सुत, रोत मुँह न धुायौ ॥तब हम दूध दही के कारन, घर घर बहुत खिखझायौ ।सो सब सूर प्रगट ही लाग्यौ , योगऽरु ज्ञान पठायौ ॥8॥ मधुकर कविहऐ काविह सुनाइ ।हरिर विबछुरत हम जिजते सहे दुख, जिजते विबरह के धाइ ॥बरु माधौ मधुबन ही रहते, कत जसुदा कैं आए ।कत प्रभु गोप-बेष ब्रज धरिर कै, कत ये सुख उपजाए ॥कत विगरिर धर्‌यौ, इन्द्र मद मेट्यौ, कत बन रास बनाए ।अब कहा विनठुर भए अबलविन कौं, क्तिलखिख क्तिलखिख जोग पठाए ॥तुम परबीन सबे जानत हौ, तातैं यह कविह आई ।अपनी को चालै सुविन सूरज, विपता जनविन विबसराई ॥9॥ उद्ध-गोपी संाद भाग २जाविन करिर बारी जविन होहु ।तत् भजै ैसी है्व जैहौ, पारस परसैं लोहु ॥मेरौ बचन सत्य करिर मानौ, छाँड़ौ सबकौ मोहु ।तौ लविग सब पानी की चुपरी, जौ लविग अस्थि�त दोहु ॥अर ेमधुप ! बातैं ये ऐसी, क्यौं कविह आहितं तोह ।सूर सुबस्ती छाविड़ परम सुख, हमैं बतात खौह ॥1॥

ऊधौ हरिर गुन हम चकडोर ।गुन सौं ज्यौं भाै त्यौं फेरौ, यहे बात कौ ओर ॥पैड़ पैंड़ चक्तिलयै तो चक्तिलयै, ऊबट रपटै पाइँ ।चकडोरी की रीवित यहै विफरिर, गुन हीं सौं लपटाइ ॥सूर सहज गुन ग्रंक्तिथ हमारैं, दई स्याम उर माहीं ।हरिर के हाथ परै तौ छूटै, और जतन कछु नाहिहं ॥2॥उलटी रीवित वितहारी ऊधौ, सुन ैसो ऐसी को है ।अलप बयस अबला अहीरिर सठ, वितनहीं जोग कत सोहे ॥बूक्तिच खुभी, आँधरी काजर, नकटी पविहरै बेसरिर ।मुड़ली पढिटया पारौ चाहै, कोढ़ी लाै केसरिर ॥बविहरी पवित सौ मतौ करै तौ, तैसोइ उत्तर पाै ।सो गवित होइ सबै ताकी जो ,ग्ारिरविन जोग क्तिसखाै ॥क्तिसखई कहत स्याम की बवितयाँ, तुमकौं नाहीं दोष ।राज काज तुम तैं न सरैगो, काया अपनी पोष ॥जाते भूक्तिल सबै मारग मैं, इहाँ आविन का कहते ।भली भई सुमिध रही सूर, नतु मोह धार मैं बहते ॥3॥ अखँिखयाँ हरिर दरसन की प्यासी ।देख्यौ चाहहितं कमलनैन कौं, विनक्तिस-ढिदन रहहितं उदासी ॥आए ऊधौ विफरिर गए आँगन, डारिर गए गर फाँसी ।केसरिर वितलक मोवितविन की माला, बृंदान के बासी ॥

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काहु के मन की कोउ जानत, लोगविन के मन हाँसी ।सूरदास-प्रभु तुम्हरे दरस कौं, करट लेहौं कासी ॥4॥ जब तैं संुदर बदन विनहार्‌यौ ।ता ढिदनतैं मधुकर मन अटक्यौ, बहुत करी विनकरै न विनकार्‌यौ ॥मातु, विपता, पवित, बंधु, सुजन नहिहं, वितनहँू कौ कविहबौ क्तिसर धार्‌यो ।रही न लोक लाज विनरखत, दुसह क्रोध फीकौ करिर डार्‌यौ ॥है्वबौ होइ सु होइ सु होइ कम]बस, अब जी कौ सब सोच विनार्‌यौ ।दासी भई जु सूरदास प्रभु, भलौ पोच अपनौ न विचार्‌यौ ॥5॥और सकल अँगविन तैं ऊधौ, अखँिखयाँ अमिधक दुखारी ।अवितहिहं विपराहितं क्तिसराहितं, न कबहूँ, बहुत जतन करिर हारी ॥मग जोत पलकी नहिहं लाहितं, विबरह विबकल भइ ँभारी ।भरिर गइ विबरह बयारिर दरस विबन,ु विनक्तिस ढिदन रहहितं उघारी ॥ते अक्तिल अब ये ज्ञान सलाकैं , क्यौं सविह सकहितं वितहारी ।सूर सु अंजन आँजिज रूप रस, आरवित हरहु हमारी ॥6॥ उपमा नैन न एक रही ।कवि जन कहत कहत सब आए, सुमिध कर नाहिहं कही ॥कविह चकोर विबधु मुख विबन ुजीत , भ्रमर नहीं उविड़ जात ।हरिर-मुख कमल कोष विबछुरे तैं, ठाले कत ठहरात ॥ऊधौ बमिधक ब्याध है्व आए, मृग सम क्यौं न पलात ।भाविग जाहिहं बन सघन स्याम मैं , जहाँ न कोऊ घात ॥खंजन मन-रंजन न होहिहं ये, कबहुँ नहीं अकुलात ।पंख पसारिर न होत चपल गवित, हरिर समीप मुकुलात ॥पे्रम न होइ कौन विबमिध कविहयै, झूठैं हीं तन आड़त ।सूरदास मीनता कछू इक, जल भरिर कबहुँ न छाँड़त ॥7॥ ऊधौ अखँिखयाँ अवित अनुरागी ।इकटक मग जोहितं अरु रोहितं, भूलेहँु पलक न लागी ॥विबन ुपास पास करिर राखी, देखत हौ विबदमान ।अब धौं कहा विकयौ चाहत हौ, छाँड़ौ विनरगुगन ज्ञान ॥तुम हौ सखा स्याम संुदर के, जानत सकल सुभाइ ।जैसैं मिमलै सूर के स्ामी, सोई करहु उपाइ ॥8॥ सब खौटे मधुबन के लोग ।जिजनके संग स्याम संुदर सखिख, सीखे हैं अपजोग ॥आए हैं ब्रज के विहत ऊधौ, जुवितविन कौ लै जोग ।आसन, ध्यान नैन मूँदे सखिख, कैसैं कढै़ वियोग ॥हम अहीरिर इतनी का जानैं, कुविबजा सौं संजोग ।सूर सुैद कहा लै कीजै, कहैं न जानै रोग ॥9॥ मधुबन लोगविन को पवितयाइ ।मुख औरे अंतरगत औरे, पवितयाँ क्तिलखिख पठत जु बनाइ ॥ज्यौं कोइल सुत-काग जिजाै, भा भगवित जु खाइ ।कुहुविक कुहुविक आऐं बसंत रिरतु, अंत मिमलै अपने कुल जाइ ॥ज्यौं मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, बहुरिर न बूझे बातैं आइ ।सूर जहाँ लविग स्याम गात हैं, वितनसौं कीजै कहा सगाइ ॥10॥ आए जोग क्तिसखान पाँडे़ ।परमारथी पुरानविन लादे, ज्यौं बनजारे टाँडे़ ॥हमरे गवित-पवित कमल-नयन की, जोग क्तिसखें ते राँडे़ ।कहौ मधुप कैसे समाहिहंगे, एक म्यान दो खाँडे ॥कहु षट्पद कैसें खैयतु है, हाक्तिथविन कैं सँग गाँडे़ ॥काकी भूख गई बयारिर भविष, विबना दूध घृत माँडे़ ।काहे कौं झाला लै मिमलत, कौन चोर तुम डाँडे़ ॥सूरदास तीनौ तहिहं उपजत, धविनया, धान कुम्हाडे़ ॥11॥ उद्ध-गोपी संाद भाग ३ज्ञान विबना कहँुै सुख नाहीं ।घट घट व्यापक दारु अविगविन ज्यौं, सदा बसै उर माहीं ॥विनरगुन छाँड़ी सगुन कौं दौरहितं, सुधौं कहौ विकहिहं पाहीं ।तत् भजौ जो विनकट न छूटै, ज्यौं तनु तैं परछाहीं ॥वितविह तें कहौ कौन सुख पायौ, जिजहिहं अब लौं अगाहीं ।सूरदास ऐसैं करिर लागत, ज्यौं कृविष कीन्हें पाही ॥1॥

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ऊधो कही सु फेरिर न कविहऐ ।जौ तुम हमैं जिजायौ चाहत, अनबोले है्व रविहए ॥प्रान हमारे घात होत है, तुम्हारे भाऐं हाँसी ।या जीन तैं मरन भलौ है, करट लैहैं कासी ॥पूरब प्रीवित सँभारिर हमारी, तुमकौं कहन पठायौ ।हम तौ जरिर बरिर भस्म भईं तुम आविन मसान जगायौ ॥कै हरिर हमकौं आविन मिमलाहु, कै लै चक्तिलये साथै ।सूर स्याम विबनु प्रान तजवित हैं, दोष तुम्हारे माथैं ॥2॥ घर ही के बाढे़ रारे ।नाविहन मीत-वियोग बस पर,े अनब्यौगे अक्तिल बारे ॥बरु मरिर जाइ चरैं नाहिहं वितनुका, सिसंह को यहै स्भा रे ।स्रन सुधा-मुरली के पोषे, जोग जहर न खाब रे ॥ऊधौ हमहिहं सीख कह दैहौ, हरिर विबनु अनत न ठाँ रे ।सूरदास कहा लै कीजै, थाही नढिदया ना रे ॥3॥ हमकौं हरिर कौ कथा सुनाउ ।ये आपनी ज्ञान गाथा अक्तिल, मथुरा ही लै जाउ ॥नागरिर नारिर भलैं समझैंगी, तेरौ बचन बनाउ ।पा लागौं ऐसी इन बातविन, उनही जाइ रिरझाउ ॥जौ सुक्तिच सखा स्याम संुदर कौ, अरु जिजय मैं सवित भाउ ।तौ बारक आतुर इन नैनविन, हरिर मुख आविन दैखाउ ॥जौ कोउ कोढिट करै, कैक्तिसहूँ विबमिध, बल विद्या व्यसाउ ।तउ सुविन सूर मीन कौं जल विबनु, नाहिहं न और उपाउ ॥4॥ ऊधौ बानी कौन @रैगौ, तोसैं उत्तर कौन करेगौ ।या पाती के देखत हीं अब, जल सान कौ नैन @रैगौ ।विबरह-अविगविन तन जरत विनसा-ढिदन, करहिहं छुत तु जोग जरैगौ ।नैन हमारे सजल हैं तारे, विनखत ही तेरौ ज्ञान गरैगौ ॥हमहिहं वियोगऽरु सोग स्याम कौ, जोग रोग सौं कौन अरैगौ ।ढिदन दस रहौ जु गोकुल मविहयाँ, तब तेरौ सब ज्ञान मरैगौ ॥सिसंगी सेल्ही भसमऽरु कंथा, कविह अक्तिल काके गरैं परैगौ ।जे ये लट हरिर सुमनविन गूँधीं, सीस जटा अब कौन धरैगौ ॥जोग सगुन लै जाहु मधुपुरी, ऐसे विनरगुन कौन तरैगो ।हमहिहं ध्यान पल क्तिछन मोहन कौं, विबन दरसन कछुै न सरैगौ ॥विनक्तिस ढिदन सुमिमरन रहत स्याम कौ, जोग अविगविन मैं कौन जरैगौ ।कैसैंहु पे्रम नेम मोहन कौं, विहत क्तिचत तैं हमरैं न टरैगौ ।विनत उढिठ आत जोग क्तिसखान, ऐसी बातविन कौन भरैगौ ।कथा तुम्हारी सुनत न कोऊ, ठाढे़ ही अब आप ररैगौ ॥बाढिदहिहं रटत उठत अपने जिजय, को तोसौं बेकाज लरैगौ । हम अँग अँग स्याम रँग भीनी, को इन बातविन सूर डरैगौ ॥5॥ ऊधौ तुम ब्रज की दसा विबचारौ ता पाछैं यह क्तिसद्ध आपनी, जोग कथा विबस्तारौ ॥जा कारन तुम पठए माधौ सो सोचौ जिजय माहीं ।केवितक बीच विबरह परमारथ, जानत हौ विकधौं नाहीं ॥तुम परीन चतुर कविहयत हौ, संतत विनकट रहत हौ ।जल बूड़त अलंब फेन कौ, विफरिर विफरिर कहा सकत हौ ॥ह मुसकान मनोहर क्तिचतविन, कैसैं उर तैं टारौं ।जोग जुक्ति� अरु मुक्ति� परम विनमिध, ा मुरली पर ारौं ॥जिजहिहं उर कमल-नयन जु बसत हैं, वितहिहं विनरगुन क्यौं आै ।सूरदास सो भजन बहाऊँ, जाविह दूसरौ भाै ॥6॥ ऊधौ हरिर काहे के अंतरजामी ।अजहुँ न आइ मिमलत इहँ असर, अमिध बतात लामी ॥अपनी चोप आइ उविड़ बैठत, अक्तिल ज्यौं रस के कामी ।वितनकौ कौन परेखौ कीजौ, जे हैं गरुड़ के गामी ॥आई उघरिर प्रीवित कलई सी, जैसी खाटी आमी ।सूर इते पर अनखविन मरिरयत, ऊधौ पीत मामी ॥7॥ विनरगुन कौन देस कौ बासी ?मधुकर कविह समुझाइ सौंह दै, बूझहितं साँक्तिच न हाँसी ॥कौ है जनक कौन है जननी, कौन नारिर को दासी ?

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कैसे बरन, भेष है कैसौ, विकहिहं रस मैं अभिभलाषी ?पाैगौ पुविन विकयौ आपनौ, जो रे करैगौ गाँसी ।सुनत मौन है्व रह्यौ बारौ, सूर सबै मवित नासी ॥8॥ कविहयौ ठकुराइवित हम जानी ।अब ढिदन चारिर चलहु गोकुल मैं, सेहु आइ बहुरिर रजधानी ॥हमकौं हौंस बहुत देखन की, संग क्तिलयैं कुविबजा पटरानी ।पहुनाई ब्रज कौ दमिध माखन, बड़ौ पलँग, अरु तातौ पानी ॥तुम जविन डरौ उखल तौ तोर्‌यौ, दाँरिरहू अब भई पुरानी ।ह बल कहाँ जसोमवित कैं कर , देह रारैं सोच बुढ़ानी ॥सुरभी बाँढिट दई ग्ालविन कौं, मोर-चंद्रका सबै उड़ानी ।सूर नंद जू के पालागौं, देखहु आइ रामिधका स्यानी ।9॥ सुविन सुविन ऊधौ आवित हाँसी ।कहँ ै ब्रह्माढिदक के ठाकुर, कहाँ कंस की दासी ॥इंद्राढिदक की कौन चलाै; संकर करत खासी ।विनगम आढिद बंदीजन जाके, सेष सीस के बासी ॥जाकैं रमा रहवित चरनविन तर, कौन गनै कुविजा सी ।सूरदास-प्रभु दृढ़ करिर बाँधे, पे्रम-पंुज की पासी ॥10॥ काहे कौं गोविपनाथ कहात ।जौ मधुकर ै स्याम हमारे, क्यौं न इहाँ लौं आत ॥सपने की पविहचाविन माविन जिजय, हमहिहं कलंक लगात ।जो पै कृष्न कूबरी रीझे, सोइ विकन विबरद बुलात ।ज्यौं गजराज काज के औरै, औरे दसन ढिदखात ।ऐसैं हम कविहबे सुविनबे कौं , सूर अनत विबरमात ॥11॥ साँरौ साँरी रैविन कौ जायौ ।आधी रावित कंस के त्रासविन, बसुद्यौ गोकुल ल्यायौ ॥नंद विपता अरु मातु जसोदा, माखन मही खायौ ।हाथ लकुट कामरिर काँधे पर,बछरुन साथ डुलायौ ॥कहा भयौ मधुपुरी अतरे, गोपीनाथ कहायौ ।ब्रज बधुअविन मिमक्तिल साँट कटीली, कविप ज्यौं नाच नचायौ ॥अब लौं कहाँ रहे हो ऊधौ, क्तिलखिख-क्तिलख जोग पठायौ ।सूरदास हम यहै परेखौ, कुबरी हाथ विबकायौ ॥12॥

जोग ठगौरी ब्रज न विबकैहै ।मूरी के पातविन के बदलैं, कौ मु�ाहल देहै ॥यह व्यौपार तुम्हारो ऊधौ, ऐसैं ही धर्‌यौ रैहै ।जिजन पै तैं लै आए ऊधौ, वितनहिहं के पेट समैहै ॥दाख छाँविड़ के कटुक विनबौरी, को अपने मुख खैहै ।गुन करिर मोही सूर सारैं, को विनरगुन विनरबैहै ॥13॥ मीठी बातविन मैं कहा लीजै ।जौ पै ै हरिर होहिहं हमारे, करन कहैं सोइ कीजै ॥जिजन मोहन अपनैं कर कानविन, करनफूल पविहराए ।वितन मोहन माटी के मुद्रा, मधुकर हाथ पठाए ॥एक ढिदस बेनी बृंदान, रक्तिच पक्तिच विबविबध बनाइ ।ते अब कहत जटा माथे पर, बदलौ नाम कन्हाइ ॥लाइ सुगंध बनाइ अभूषन, अरु कीन्ही अरधंग ।सो ै अब कविह-कविह पठत हैं, भसम चढ़ान अंग ॥हम कहा करैं दूरिर नँद-नंदन, तुम जु मधुप मधुपाती ।सूर न होहिहं स्याम के मुख को, जाहु न जारहु छाती ॥14॥ ऊधौ तुम हौ विनकट के बासी ।यह विनरगुन लै वितनहिहं सुनाहु, जे मुविड़या बसैं कासी ॥मुरलीधरन सकल अँग संुदर, रूप सिसंधु की रासी ।जोग बटोरे क्तिलए विफरत हौ, ब्रजाक्तिसन की फाँसी ॥राजकुमार भलैं हम जाने, घर मैं कंस की दासी ।सूरदास जदुकुलहिहं लजात, ब्रज मैं होवित है हाँसी ॥15॥ जा ढिदन तैं गोपाल चले ।ता ढिदन तैं ऊधौ या ब्रज के,सब स्भा बदले ॥घटे अहार विहार हरष विहत, सुख सोभा गुन गान ।ओज तेज सब रविहत सकल विबमिध, आरवित असम समान ॥

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बाढ़ी विनसा, बलय आभूषन, उन-कंचुकी उसास ।नैनविन जल अंजन अंचल प्रवित,आन अमिध की आस ॥अब यह दसा प्रगट या तन की, कविहयौ जाइ सुनाइ ।सूरदास प्रभु सो कीजौ जिजहिहं, बेविग मिमलहिहं अब आइ ॥16॥ हम तौ कान्ह केक्तिल की भूखी ।कहा करैं लै विनगु]न तुम्हरौ, विबरविहन विरह विबदूषी ॥कविहयै कहा यहै नहिहं जानत, कहौ जोग विकविह जोग ।पालागौं तुमहीं से ा पुर, बसत बारे लोग ॥चंदन अभरन, चीर चारू बर, नेकु आपु तन कीजै ।दंड, कमंडल, भसम, अधारी, तब जुवितविन कौं दीजै ॥सूर देखिख दृढ़ता गोविपन की, ऊधौ दृढ़ ब्रत पायौ ।करी कृपा जदुनाथ मधुप कौं, पे्रमहिहं पढ़न पठायौ ॥17॥उद्ध-गोपी संाद भाग ४गोपी सुनहु हरिर संदेस । कह्यौ पूरन ब्रह्म ध्याहु, वित्रगुन मिमथ्या भेष ॥मैं कहौं सो सत्य मानहु, सगुन डारहु नाखिख ।पंच त्रय-गुन सकल देही, जगत ऐसौ भाविष ॥ज्ञान विबन ुनर-मुक्ति� नाहीं, यह विषय संसार ।रूप-रेख, न नाम जल थल, बरन अबरन सार ॥मातु विपतु कोउ नाहिहं नारी, जगत मिमथ्या लाइ ।सूर सुख-दुख नहीं जाकैं , भजौ ताकौं जाइ ॥1॥ ऐसी बात कहौ जविन ऊधौ ।कमलनैन की काविन करवित हैं, आत बचन न सूधौ ॥बातविन ही उविड़ जाहिहं और ज्यौं, त्यौं नाहीं हम काँची ।मन, बच, कम] सोमिध एकै मत, नंद-नंदन रँग राँची ॥सो कछु जतन करौ पालागौ, मिमटै विहयै की सूल ।मुरलीधरहिहं आविन ढिदखराहु, ओढे़ पीत दुकूल ॥इनहीं बातविन भए स्याम तनु , मिमलत हौ गढिढ़ छोक्तिल ।सूर बचन सुविन रह्यौ ठगौसौ, बहुरिर न आयौ बोक्तिल ॥2॥ विफरिर विफरिर कहा बनात बात ।प्रात काल उढिठ खेलत ऊधौ, घर घर माखन खात ॥जिजनकी बात कहत तुम हमसौं, सो है हमसौं दूरिर ।ह्याँ हैं विनकट जसोदा-नंदन, प्रान सजीन मूरिर ॥बालक संग क्तिलएk दमिध चोरत, खात खात डोलत ।सूर सीस नीचौ कत नात, अब काहैं नहिहं बोलत ॥3॥ विफरिर-विफरिर कहा क्तिसखात मौन ॥बचन दुसह लागत अक्तिल तेर,े ज्यौं पजरे पर लौन ॥संृगी, मुद्रा, भस्म, त्चा-मृग, अरु अराधन पौन ।हम अबला अहीरिर सठ मधुकर,धरिर जानहिहं कविह कौन ॥यह मत जाइ वितनहिहं तुम क्तिसखहु, जिजनहिहं आजु सब सोहत ।सूरदास कहँु सुनी न देखी, पोत सूतरी पोहत ॥4॥ ऊधौ हमहिहं न जोग क्तिसखैयै ।जिजविह उपदेश मिमलै हरिर हमकौं, सो ब्रत नेम बतैयै ॥मुक्ति� रहौ घर बैढिठ आपने,,विनगु]न सुविन दुख पैयै ।जिजहिहं क्तिसर केस कुसुम भरिर गूँदे, कैसैं भस्म चढै़यै ॥जाविन जाविन सब मगन भई हैं, आपुन आपु लखैयै ।सूरदास-प्रभु सनहु नौ विनमिध, बहुरिर विक इहिहं ब्रज अइयै ॥5॥मधुकर स्याम हमारे ईस ।वितनकौ ध्यान धरैं विनक्तिस बासर, औरहिहं नै न सीस ॥जोविगविन जाइ जोग उपदेसहु, जिजनके मन दस-बीस ।एकै क्तिचत एकै ह मूरवित, वितन क्तिचतहितं ढिदन तीस ॥काहें विनरगुन ग्यान आपनौ, जिजत विकत डारत खीस ।सूरदास प्रभु नंदनंदन विबन,ु हमरे को जगदीश ॥6॥ सतगुरु चरन भजे विबन ुविद्या, कहु, कैसैं कोउ पाै ।उपदेसक हरिर दूरिर रहे तैं, क्यौं हमरे मन आै ॥जो विहत विकयौ तौ अमिधक करविह विकन, आपुन आविन क्तिसखाैं ।जोग बोझ तैं चक्तिल न सकैं तौ, हमहीं क्यौं न बुलाैं ॥जोग ज्ञान मुविन नगर तजे बरु, सघन गहन बन धाैं ।

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आसन मौन नेम मन संजम, विबविपन मध्य बविन आैं ॥आपुन कहैं करैं कछु औरै, हम सबविहविन डहकाैं ।सूरदास ऊधौ सौं स्यामा, अवित संकेत जनाैं ॥7॥ ऊधौ मन नहिहं हाथ हमारैं ।रथ चढ़इ हरिर संग गए लै, मथुरा जबहिहं क्तिसधारे ॥नातरु कहा जोग हम छाँड़विह, अवित रुक्तिच कै तुम ल्याए ।हम तौ झँखहितं स्याम की करनी मन लै जोग पठाए ॥अजहूँ मन अपनौ हम पाैं, तुम तैं होइ तौ होइ ।सूर सपथ हमैं कोढिट वितहारी, कही करैंगी सोइ ॥8॥ ऊधौ मन न भए दस बीस ।एक हुतौ सो गयौ स्याम सँग, को आराधै ईस ॥इन्द्री क्तिसक्तिथल भई केस विबन,ु ज्यौं देही विबनु सीस ।आसा लाविग रहवित तन स्ासा, जीहिहं कोढिट बरीस ॥तुम तौ सखा स्याम संुदर के, सकल जोग के ईस ।सूर हमारै नंद-नंदन विबनु, और नहीं जगदीस ॥9॥ इहिहं उर माखन चोर गडे़ ।अब कैसैं विनकसत सुविन ऊधौ, वितरछे है्व जु अडे़ ॥जदविप अहीर जसोदा-नंदन, कैसैं जात छँडे़ ।ह्वाँ जादौपवित प्रभु कविहयत हैं, हमैं न लगत बडे़ ॥को बसुदे देकी नंदन, को जानै को बूझै ।सूर नंदनंदन के देखत, और न कोऊ सूझै ॥10॥ मन मैं रह्यौ नाहिहं न ठौर ।नंदनंदन अछत कैसैं, आविनयै उर और ॥चलत क्तिचतत ढिदस जागत, स्प्न सोत रावित ।हृदय तैं ह मदन मूरवित, क्तिछन न इत उत जावित ॥कहत कथा अनेक ऊधौ, लोग लौभ ढिदखाइ ।कह करौं मन पे्रम पूरन, घट न सिसंधु समाइ ॥स्याम गात सरोज आनन, लक्तिलत मदु मुख हास ।सूर इनकैं दरस कारन, मरत लोचन प्यास ॥11॥ मधुकर स्याम हमारे चोर ।मन हरिर क्तिलयौ तनक क्तिचतविन मैं, चपल नैन की कोर ॥पकरे हुते हृदय उर अंतर, पे्रम प्रीवित कैं जोर ।गए छँड़ाइ तोरिर सब बंधन , दै गए हँसविन अँकोर ॥चौविक परीं जागत विनक्तिस बीती, दूर मिमल्यौ इक भौंर ।दूरदास प्रभु सरबस लूट्यौ, नागर नल-विकसोर ॥12॥ सब ढिदन एकहिहं से नहिहं होते ।तब अक्तिल सक्तिस सीरौ अब तातौ, बयौ विबरह जरिर मो तैं ।तब षट मास रास-रस-अंतर, एकहु विनमिमष न जाने । अब औरै गवित भई कान्ह विबनु पल पूरन जुग माने ।कहा मवित जोग ज्ञान साखा सु्रवित, ते विकन कहे घनेर े।अब कछु और सुहाइ सूर नहिहं, सुमिमरिर स्याम गुविन केरे ॥13॥ सखी री स्याम सबै इक सार ।मीठे बचन सुहाए बोलत, अंतर जारनहार ।भंर कुरंग काक अरु कोविकल, कपटविन की चटसार ।कमलनैन मधुपुरी क्तिसधारे, मिमढिट गयो मंगलचार ।सुनहु सखी री दोष न काहू, जो विबमिध क्तिलख्यौ क्तिललार ।यह करतूवित उनहिहं की नाहीं, पूरब विबविबध विबचार ॥कारी घटा देखिख बादर की, सोभा देवित अपार ।सूरदास सरिरता सर पोषत, चातक करत पुकार ॥14॥विबलग जविन मानौ ऊधौ कारे ।ह मथुरा काजर की ओबरी, जे आैं ते कारे ॥तुम कारे सुफलक सुत कारे, कारे कुढिटल सँारे ॥कमलनैन की कौन चलाै, सबविहविन मैं मविनयारे ॥मानौ नील माट तैं काढे़, जमुना आइ पखारे ।तातैं स्याम भई कासिलंदी, सूर स्याम गुन न्यारे ॥15॥ ऊधौ भली भई ब्रज आए ।विबमिध कुलाल कीन्हे काँचे घट, ते तुम आविन पकाए ॥रंग दीन्हौं हो कान्ह साँरैं, अँग-अँग क्तिचत्र बनाए ।

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यातैं गरे न नैन नेह तैं, अमिध अटा पर छाए ॥ब्रज करिर अँा जोग ईंधन करिर, सुरवित आविन सुलगाए ।फँूक उसास विबरह प्रजरविन सँग, ध्यान दरस क्तिसयराए ॥भरे सँपूरन सकल पे्रम-जल, छुन न काहू पाए ।राज-काज तैं गए सूर प्रभु , नँद-नंदन कर लाए ॥16॥ जौ पै विहरदै माँझ हरी ।तौ कविह इती अज्ञा उनपै, कैसैं सही परी ॥तब दाानल दहन न पायौ, अब इहिहं विबरह जरी ।उर तैं विनकक्तिस नंद नंदन हम, सीतल क्यौं न करी ॥ढिदन प्रवित नैन इंद्र जल बरषत, घटत न एक घरी ।अवित ही सीत भीत तन भींजत, विगरिर अंचल न धरी ॥कर-कंकन दरपन लै देखौ, इहिहं अवित अनख मरी ।क्यौं अब जिजयहिहं जोग सुविन सूरज, विबरहविन विबरह भरी ॥17॥ ऐसौ जोग न हम पै होइ ।आँखिख मूँढिद कह पाैं @ँूढे़, अँधरे ज्यौं टकराइ ॥भसम लगान कहत जु हमकौ, अंग कंुकमा घोइ ।सुविन कै बचन तुम्हारे ऊधौ, नैना रात रोइ ॥कंुतल कुढिटल मुकुट कंुडल छविब, रही जु क्तिचत मैं पोइ ।सूरज प्रभु विबन ुप्रान रहै नहिहं, कोढिट करौ विकन कोइ ॥18॥ हमसौं उनसौं कौन सगाई ।हम अहीर अबला ब्रजासी , ै जदुपवित जदुराई ॥कहा भयौ जु भए जदुनंनदन, अब यह पदी पाई ।कुच न आत घोष बसत की, तजिज ब्रज गए पराई ॥ऐसे भए उहाँ जादौपवित, गए गोप विबसराई ।सूरदास यह ब्रज कौ नातौ, भूक्तिल गए बलभाई ॥19॥ तौ हम मानै बात तुम्हारी ।अपनौ ब्रह्म ढिदखाहु ऊधौ, मुकुट विपतांबर धारी ॥भविनहैं तब ताकौ सब गोपी, सविह रविहहैं बरु गारी ।भूत समान बतात हमकैं , डारहु स्याम विबसारी ॥जे मुख सदा सुधा अँचत हैं, ते विष क्यौं अमिधकारी ।सूरदास -प्रभु एक अँग पर, रीजिझ रहीं ब्रजनारी ॥20॥ ऊधौ जोग विबसरिर जविन जाहु ।बाँधौ गाँढिठ छूढिट परिरहै कहँु, विफरिर पाछैं पक्तिछताहु ॥ऐसौ बहुत अनूपम मधुकर, मरम न जानै और ।ब्रज बविनतविन के नहीं काम की, तुम्हरेई ठौर ॥जो विहत करिर पठयौ मनमोहन, सो हम तुमकौ दीनौं ॥21॥ ऊधौ काहे कौ भ� कहात । जु पै जोग क्तिलखिख पठ्यौ हमकौ, तुमहुँ भस्म चढ़ात ॥श्रृंगी मुद्रा भस्म अधारी, हमहीं कहा क्तिसखात ।कुविबजा अमिधक स्याम की प्यारी, ताहिहं नहीं पविहरात ॥यह तौ हमकौं तबहिहं न क्तिसखयौ, जब तैं गाइ चरात ।सूरदास प्रभु कौं कविहयौ अब, क्तिलखिख-क्तिलखिख पठात ॥22॥ (ऊधौ) ना हम विबरविहविन ना तुम दास कहत सुनत घट प्रान रहत हैं, हरिर तजिज भजहु अकास ॥विबरही मीन मरै जल विबछुरैं , छाँविड़ जिजयन की आस ।दास भा नहिहं तजत पपीहा, बरषत मरत विपयास ॥पंकज परम कमल मैं विबहरत, विबमिध विकयौ नीर विनरास ।राजिज रवि कौ दोष न मानत, सक्तिस सौ सहज उदास ॥प्रगट प्रीवित दसरथ प्रवितपाली, प्रीतम कैं बनास ।सूर स्याम सौं दृढ़ ब्रत राख्यौ, मेढिट जगत उपहास ॥23॥ऊधौ लै चल लै चल ।जहँ ै संुदर स्याम विबहारी, हमकौ तहँ लै चल ॥आन-आन कविह गए ऊधौ, करिर गए हमसौं छल ।हृदय की प्रीवित स्याम जू जानत ,विकवितक दूरिर गोकुल ॥आपुन जाइ मधुपुरी छाए, उहाँ रहे विहक्तिल मिमल ।सूरदास स्ामी के विबछुरैं , नवैिन नीर प्रबल ॥24॥गुप्त मते की बात कहौं, जो कहौ न काहू आगैं।कै हम जानै कै हरिर तुमहूँ, इतनी पाहिहं माँगें ॥

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एक बेर खेलत बृंदान, कंटक चुभिभ गयौ पाइँ ।कंटक सौं कंटक लै काढ़्यौ, अपनें हाथ सुभाइ ॥एक ढिदस विबहरत बन भीतर, मैं जु सुनाई भूख ।पाके फल ै देखिख मनोहर, चढे़ कृपा करिर रूख ॥ऐसी प्रीवित हमारी उनकी, बसतें गोकुल बास ।सूरदास प्रभु सब विबसराई, मधुबन विकयौ विनास ॥25॥ ऊधौ जौ हरिर विहतू तुम्हारे ।तौ तुम कविहयौ जाइ कृपा करिर, ए दुख सबै हमारे ॥तन तरिरर उर स्ास पन मैं, विबरग दा अवित जारे ।नहिहं क्तिसरात नहिहं जात छार है्व, सुलविग-सुलविग भए कारे ॥जद्यविप पे्रम उमँविग जल सींचे, बरविष-बरविष घन हारे ।जो सींचे इहिहं भाँवित जतन करिर, तौ एतैं प्रवितपारे ॥कीर कपोत कोविकला चातक, बमिधक विबयोग विबडारे ।क्यौ जीैं इहिहं भाँवित सूर-प्रभु, ब्रज के लोग विबचारे ॥26॥ विबलग हम मानैं ऊधौ काकौ ।तरसत रहे बसुदे देकी, नहिहं विहत मातु विपता कौ ॥काके मातु विपता कौ काकौ, दूध विपयौ हरिर जाकौ । नंद जसोदा लाड़ लड़ायौ, नाहिहं भयौ हरिर ताकौ ॥कविहयौ जाइ बनाइ बात यह, को विहत है अबला कौ ।सूरदास प्रभु प्रीवित है कासौं, कुढिटल मीत कुविबजा कौ ॥27॥ जीन मुख देखे कौ नीकौ ।दरस, परस ढिदन रावित पाइयत, स्याम विपयारे पी कौ ॥सूनौ जोग कहा लै कीजै, जहाँ ज्यान है जी कौ ।नैनविन मूँढिद मूँढिद कह देखौ, बँधौ ज्ञान पोथी कौ ॥आछे संुदर स्याम हमारे, और जगत सब फीकौ ।खाटी मही कहा रुक्तिच मानै, सूर खैया घी कौ ॥28॥अपन ेसगुन गोपालहिहं माई, इहिहं विबमिध काहैं देवित ।ऊधौ की इन मीठी बातविन, विनगु]न कैसें लेवित ॥धम], अथ] कामना सुनात, सब सुख मुक्ति� समेवित ।काकी भूख गई मन लाड़ू, सो देखहु क्तिचत चेवित ॥जाकौ मोक्ष विबचारत बरनत, विनगम कहत हैं नवेित ।सूर स्याम तजिज को भुस फटकै, मधुप तुम्हारे हेवित ॥29॥ उद्ध-गोपी संाद भाग ५े हरिर सकल ठौर के बासी ।पूरन ब्रह्म अखवंिडत मंविडत, पंविडत मुविनविन विबलासी ॥सप्त पताल ऊरध अध पृथ्ी, तल नभ बरुन बयारी ।अभ्यंतर दृष्टी देखन कौ, कारन रूप मुरारी ॥मन बुमिध क्तिचत्त अहंकार दसेंढिद्रय, पे्ररक थंभनकारी ।ताकैं काज वियोग विबचारत, ये अबला-ब्रजनारी ॥जाकौ जैसो रूप मन रुचै, सौ अपबस करिर लीजै ।आसन बेसन ध्यान धारना, मन आरोहन कीजै ॥षट दल अठ bादस दल विनरमल, अजपा जाप जपाली ।वित्रकुटी संगम ब्रह्म bार भिभढिद, यौं मिमक्तिलहैं बनमाली ॥एकादस गीता श्रुवित साखी, जिजविह विबमिध मुविन समुझाए ॥ते सँदेस श्रीमुख गोविपविन कौ, सूर सु मधुप सुनाए ॥1॥ ऊधौ हमरी सौं तुम जाहु ।यह गोकुल पूनौ कौ चंदा, तुम है्व आए राहु ॥ग्रह के ग्रसे गुसा परगास्यौ, अब लौं करिर विनरबाहु ।सब रस लै नँदलाल क्तिसधारे , तुम पठए बड़ साहु ॥जोग बेक्तिच कै तंदुल लीजै, बीच बसेरे खाहु ।सूरदास जबहीं उठी जैहौ, मिमढिटहै मन कौ दाहू ॥2॥ऊधौ मौन सामिध रहे ।जोग कविह पक्तिछतात मन-मन, बहुरिर कछु न कहे ॥स्याम कौं यह नहीं बूझै, अवितविह रहे खिखसाइ ।कहा मैं कविह-कविह लजानी, नार रह्यौ नाइ ॥प्रथम ही कविह बचन एकै, रह्यौ गुरु करिर माविन ।सूर प्रभु मोकौ पठायौ, यहै कारन जाविन ॥3॥

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मधुकर भली करी तुम आए ।ै बातैं कविह कविह या दुख मैं, ब्रज के लोग हँसाए ।मोर मुकुट मुरली पीतांबर, पठहु सौंज हमारी ।आपुन जटाजूट, मुद्रा धरिर, लीजै भस्म अधारी ॥कौन काज बृंदान कौ, सुख दही भात की छाक ।अब ै स्याम कूबरी दोऊ, बने एक ही ताक ॥ै प्रभु बडे़ सखा तुम उनके, जिजनकै सुगम अनीवित।या जमुना जल कौ सुभा यह, सूर विबरह की प्रीवित ॥4॥ काहे कौं रोकत मारग सूधौ ।सुनहु मधुप विनरगुन कंटक तैं, राजपंथ क्यौं रूधौं ॥कै तुम क्तिसखिख पठए हौ कुविबजा, कह्यौ स्यामघनहँू धौं ।ेद पुरान सुमृवित सब @ँूढ़ौ, जुवितविन जोग कहँू धौं ॥ताकौ कहा परेखौ कीजै, जानै छाँछ न दूधौ।सूर सूर अकू्रर गयौ लै ब्याज विनबेरत ऊधौ ॥5॥ ऊधौ कोउ नाहिहं न अमिधकारी ।लै न जाहु यह जोग आपनौ, कत तुम होत दुखारी ॥यह तौ बेद उपविनषद मत है, महा पुरुष ब्रतधारी ।कम अबला अहीरिर ब्रज-बाक्तिसविन, नाहीं परत सँभारी ॥को है सुनत कहत हौ कासौं, कौन कथा विबस्तारी ।सूर स्याम कैं संग गयौ मन, अविह काँचुली उतारी ॥6॥ ै बातैं जमुना-तीर की । कबहुँक सुरवित करत हैं मधुकर, हरन हमारे चीर की ॥लीन्हे बसन देखिख ऊँचे द्रुम, रबविक च@ँन बलबीर की ।देखिख-देखिख सब सखी पुकारहितं, अमिधक जुड़ाई नीर की ॥दोउ हाथ जोरिर करिर माँगैं, ध्ाई नंद अहीर की ।सूरदास प्रभु सब सुखदाता, जानत हैं पर पीर की ॥7॥ पे्रम न रुकत हमारे बूतैं ।विकहिहं गयंद बाँध्यौ सुविन मधुकर, पदुम नाल के काँचे सूतैं ?सोत मनक्तिसज आविन जगायौ, पठै सँदेस स्याम के दूतैं ।विबरह-समुद्र सुखाइ कौन विबमिध, रंचक जोग अविगविन के लूतैं ॥सुफलक सुत अरु तुम दोऊ मिमक्तिल, लीजै मुकुवित हमारे हूतैं ।चाहहितं मिमलन सूर के प्रभु कौं, क्यौं पवितयाहिहं तुम्हारे धूतैं ॥8॥ऊधौ सुनहु नैकु जो बात ।अबलविन कौं तुम जोग क्तिसखात, कहत नहीं पक्तिछतात ॥ज्यौं सक्तिस विबना मलीन कुमुदनी, रविब विबनुहीं जलजात ।त्यौं हम कमलनैंन विबनु देखे, तलविफ-तलविफ मुरझात ॥जिजन स्रनविन मुरली सुर अँचयौं, मुद्रा सुनत डरात ।जिजन अधरविन अमृत फल चाख्यौ, ते क्यौं कटु फल खात ॥कंुकुम चंदन घक्तिस तन लातं, वितहिहं न विबभूवित सुहात ।सूरदास प्रभु विबनु हम यों हैं, ज्यौं तरु जीरन पात ॥9॥ ऊधौ जोग हम नाहीं ।अबला सार-ज्ञान कह जानैं, कैसैं ध्यान धराहीं ॥तेई मूँदन नैन कहत हौ, हरिर मूरवित जिजन माहीं ।ऐसी कथा कपट की मधुकर, हमतैं सुनी न जाहीं ॥स्रन चीरिर क्तिसर जटा बँधाबहु, ये दुख कौन समाहीं ।चंदन तजिज अंग भस्म बतात, विबरह-अनल अवित दाहीं ॥जोगी भ्रमत जाविह लविग भूले, सो तो है अप माहीं ।सूरस्याम तैं न्यारी न पल-क्तिछन , ज्यौं घट तै परछाहीं ॥10॥ हम तौ नंद-घोष के बासी ।नाम गुपाल जावित कुल गोपक, गोप गुपाल उपासी ॥विगरर धारी गोधन चारी, बृंदान अभिभलाषी ।राजा नंद जसोदा रानी, सजल नदी जमुना सी ॥मीत हमारे परम मनोहर, कमलनैन सुख रासी ।सूरदास-प्रभु कहौं कहाँ लौं, अष्ट महा-क्तिसमिध दासी ॥11॥यह गोकुल गोपाल उपासी ।जे गाहक विनगु]न के ऊधौ, ते सब बसत ईस-पुर कासी ॥जद्यविप हरिर हम तजी अनाथ करिर , तदविप रहहितं चरनविन रस

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अपनी सीतलता नहिहं छाँड़त, जद्यविप विबधु भयौ राहु-गरासी ॥विकहिहं अपराध जोग क्तिलखिख पठत, पे्रम भगवित तैं करत उदासी ।सूरदास ऐसी को विबरहविन, माँविग मुक्ति� छाँडै़ गुन रासी ॥12॥ ऐसौ सुविनयत bै बैसाख ।देखवित नहीं ब्यौंत जीे कौ, जतन करौ कोउ लाख ॥मृगमद मलय कपूर कुमकुमा, केसर मक्तिलयै साख ।जरत अविगविन मैं ज्यौं घृत नायौ, तन जरिर है्व है राख ॥ता ऊपर क्तिलखिख जोग पठात, खाहु नीम तजिज दाख ।सूरदास ऊधौ की बवितयाँ, सब उविड़ बैठीं ताख ॥13॥ इहिहं विबमिध पास सदा हमारैं ।पूरब पन स्ास उर ऊरध, आविन मिमले इकठारैं ॥बादर स्याम सेत नैनविन मैं, बरक्तिस आँसु जल ढ़ारैं ।अरुन प्रकास पलक दुवित दामिमविन, गरजविन नाम विपयारैं ॥जातक दादुर मोर प्रगट ब्रज, बसत विनरंतर धारैं ।ऊध ये तब तैं अटके ब्रज, स्याम रहे विहत टारैं ॥कविहऐ काविह सुन ैकत कोऊ, या ब्रज के ब्यौहारैं ।तुमही सौं कविह-कविह पक्तिछतानी, सूर विबरह के धारैं ॥ 14॥ ऊधौ कोविकल कूजत कानन ।तुम हमकौं उपदेस करत हौ, भस्म लगान आनन ॥औरौ क्तिसखी सखा सँग लै लै, टेरत चढे़ पखानन ।बहुरौ आइ पपीहा कैं मिमस, मदन हनत विनज बानन ॥हमतौ विनपट अहीरिर बारी, जोग दीजिजऐ जानन ।कहा कथत मासी के आगैं, जानत नानी नानन ॥तुम तौ हमैं क्तिसखान आए, जोग होइ विनरानन ।सूर मुक्ति� कैसैं पूजवित है, ा मुरली के तानन ॥15॥ हमतैं हरिर कबहूँ न उदास ।रास खिखलाइ विपलाइ अधर रस, क्यौं विबसरत ब्रज बास ॥तुमसौं पे्रम कथा कौ कविहबौ, मनौ काढिटबौ घास ।बविहरौ तान-स्ाद कह जानै, गूँगौ बात मिमठास ॥सुविन री सखी बहुरिर हरिर ऐहैं, ह सुख है विबलास ।सूरदास ऊधौ अब हमकौं, भाए तेरहौं मास ॥16॥ आयौ घोष बड़ौ ब्यौपारी ।खेप लाढिद गुरु ज्ञान जोग की, ब्रज मैं आविन उतारी ॥फाटक दै कै हाटक माँगत, भोरौ विनपट सुधारी ।धुरही तैं खौटौ खायौ है, क्तिलये विफरत क्तिसर भारी ॥इनकैं कहे कौन डहकाे, ऐसी कौन अनारी ।अपनौं दूध छाँविड़ को पीै, खारे कूप कौ बारी ॥ऊधौ जाहु सबारैं ह्याँ तै, बेविग गहरु जविन लाहु ।मुख मागौ पैहौ सूरज प्रभु, साहुहिहं आविन ढिदखाहु ॥17॥ ऊधौ जोग कहा है कीजतु ।ओढिढ़यत है विक विबछैयत है, विकधौं खैयत है विकधौं पीजतु ॥कीधौं कछू खिखलौना संुदर, की कछु भूषन नीकौ ।हमरे नंद-नंदन जो चविहयतु, मोहन जीन जी कौ ॥तुम जु कहत हरिर विनगुन विनरंतर, विनगम नवेित है रीवित ।प्रगट रूप की राक्तिस मनोहर, क्यौं छाँडे़ परतीवित ॥गाइ चरान गए घोष तैं, अबहीं हैं विफरिर आत ।सोई सूर सहाइ हमारे, बेनु रसाल बजात ॥18॥ अपन ेस्ारथ के सब कोऊ ।चुप करिर रहौ मधुप रस-लंपट, तुम देखे अरु ओऊ ॥जो कछु कह्यौ कह्यौ चाहत हौ, कविह विनरारौ सोऊ ।अब मेरैं मन ऐक्तिसयै, षटपद, होनी होउ सु होऊ ॥तब कत रास रच्यौ ंृदान, जौ पै ज्ञान हुतोऊ ।लीन्हे जोग विफरत जुवितविन मैं, बडे़ सुपत तुम दोऊ ॥छुढिट गयौ मान परेखौ रे अक्तिल, हृदै हुतौ ह जोऊ ।सूरदास प्रभु गोकुल विबसर्‌यौ, क्तिचत सिचंतामविन खौऊ ॥19॥ मधुकर प्रीवित विकये पक्तिछतानी ।हम जानी ऐसैंविह विनबहैगी, उन कछु औरे ठानी ॥ा मोहन कौं कौन पतीजै, बोलत मधुरी बानी ।

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हमकौं क्तिलखिख जोग पठात, आपु करत रजधानी ॥सूनी सेज सुहाइ न हरिर विबनु, जागवित रैविन विबहानी ।जब तैं गन विकयौ मधुबन कौं, नैनविन बरषत पानी ॥कविहयौ जाइ स्याम संुदर कौं, अंतरगत की जानी ।सूरदास प्रभु मिमक्तिल कै विबछुरे, तातें भई ढिदानी ॥20॥ हमारैं हरिर हारिरल की लकरी ।मनक्रम चन नंद-नंदन उर, यह दृड़ करिर पकरी ॥जागत सोत स्प्न ढिदस-विनक्तिस, कान्ह-कान्ह जक री ।सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी ।सुतौ व्यामिध हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी ।यह तौ सूर विनतहिहं ले सौंपौ, जिजनके मन चकरी ॥21॥कहा होत जो हरिर विहत क्तिचत धरिर, एक बार ब्रज आते ।तरसत ब्रज के लोग दरस कौं, विनरखिख विनरखिख सुख पाते ॥मुरली सब्द सुनात सबविहविन, हरते तन की पीर ।मधुरे बचन बोक्तिल अमृत मुख, विबरविहहिनं देते धीर ॥सब मिमक्तिल जग गात उनकौ, हरष माविन उर आनत ।नासत क्तिचन्ता ब्रज बविनतविन की, जनम सुफल करिर जानत ।दुरी दुरा कौ खेल न कोऊ, खेलत है ब्रज मविहयाँ ।बाल दसा लपटाइ गहत हे, हँस-हँक्तिस हमरी बहिहंयाँ ॥हम दासी विबनु मोल की उनकी, हमहिहं जु क्तिचत्त विबसारी ।इत तें उन हरिर रहे अब तौ, कुविबजा भई विपयारी ॥विहय मैं बातैं समुजिझ-समुजिझ कै, लोचन भरिर-भरिर आए ।सूर सनेही स्याम प्रीवित के, ते अब भए पराए ॥22॥ मधुकर आपुन होहिहं विबराने ।बाहर हेत विहतू कहात, भीतर काज सयाने ॥ज्यौं सुक हिपंजर माहिहं उचारत, ज्यौं ज्यौं कहत बखाने ।छुटत हीं उविड़ मिमलै अपुन कुल, प्रीवित न पल ठहराने ॥जद्यविप मन नहिहं तजत मनोहर, तद्यविप कपटी जाने ।सूरदास प्रभु कौन काज कौं, माखी मधु लपटाने ॥23॥हरिर तैं भलौ सुपवित सीता कौ ।जाकै विबरह जतन ए कीन्हे, सिसंधु विकयौ बीता कौ ॥जाकै विबरह जतन ए कीन्हे, सिसंधु विकयौ बीता कौ ॥लंका जारिर सकल रिरपु मारे, देख्यौ मुख पुविन ताकौ ।दूत हाथ उन क्तिलखिख जु पठायौ, ज्ञान कह्यौ गीता कौ ॥वितनकौ कहा परेखौ कीजै, कुविबजा के मीता कौ ।चढै़ सेज सातौं सुमिध विबसरी, ज्यौं पीता चीता कौ ॥करिर अवित कृपा जोग क्तिलखिख पठयौ, देखिख डराइµ ताकौ ।सूरजदास प्रीवित कह जानैं, लोभी ननीता कौ ॥24॥ ऊधौ क्यौं विबसरत ह नेह ।हमरैं हृदय आविन नँदनंदन, रक्तिच-रक्तिच कीन्हे गेह ॥एक ढिदस गई गाइ दुहान, हाँ जु बरष्यौ मेह ।क्तिलए उढ़ाइ कामरी मोहन, विनज करिर मानी देह ॥अब हमकौं क्तिलखिख-क्तिलखिख पठत हैं जोग जुगुवित तुम लेह ।सूरदास विबरविहविन क्यौं जीैं कौन सयानप एहु ॥25॥ ऊधौ मन माने की बात ।दाख छुहारा छाँविड़ अमृत-फल, विषकीरा विष खात ॥ज्यौं चकोर कौं देइ कपूर कोउ, तजिज अंगार अघात ।मधुप करत घर कोरिर काठ मैं, बँधत कमल के पात ॥ज्यौं पतंग विहत जाविन आपनौ, दीपक सौं लपटात ।सूरदास जाकौ मन जासौं, सोई ताविह सुहात ॥26॥ इहिहं डर बहुरिर न गोकुल आए ।सुविन री सखी हमारी करनी, समुजिझ मधुपुरी छाए ॥अधरातक तैं उढिठ सब बालक, मोहिहं टेरैंगे आइ ।मातु विपता मौकौं पठैंगे, बनहिहं चरान गाइ ॥सून ेभन आइ रौकें गी, दमिध-चोरत ननीत ।पकरिर जसोदा पै लै जैहैं, नाचहु गाहु गीत ॥ग्ारिरविन मोहिहं बहुरिर बाँधैगी, कैत बचन सुनाइ ।ै दुख सूर सुमिमरिर मन ही मन, बहुरिर सहै को जाइ ॥27॥

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जौ कोउ विबरविहविन कौ दुख जानै । तौ तजिज सगुन साँरी मूरवित, कत उपदेसै ज्ञानै ॥कुमुद चकोर मुढिदत विबधु विनरखत, कहा करै लै भानै ।चातक सदा स्ावित कौ सेक, दुखिखत होत विबन ुपान ै॥भौंर, कुरंग काग कोइल कौं, कविजन कपट बखानैं ।सूरदास जौ सरबस दीजै, कारै कृतविह न मानैं ॥28॥ ऊधौ सुमिध नाहीं या तन की ।जाइ कहौ तुम विकत हौ भूले, हमऽब भईं बन-बन की ॥इन बन ढँ़ूढिढ़ सकल बन @ँूढे़, बन बेली मधुबन की ।हारी परीं बृंदान @ँूढ़त, सुमिध न मिमली मोहन की ॥विकए विबचार उपचार न लागत, कढिठन विबथा भइ मन की ।सूरदास कोउ कहै स्याम सौं, सुरवित करैं गोविपविन की ॥29॥ लरिरकाई की पे्रम कहौ अक्तिल कैसैं छूटत । कहा कहौं ब्रजनाथ चरिरत, अंतरगवित लूटत ॥ह क्तिचतविन ह चाल मनोहर ह मुसकाविन मंद-धुविन गाविन ।नटर-भेष नंद-नंदन कौ ह विनोद, ह बन तैं आविन ॥चरन कमल की सौंह करवित हौं, यह संदेस मोहिहं विष लागत ।सूरदास पल मोहिहं न विबसरवित, मोहन मूरवित सोत जागत ॥30॥ उद्ध हृदय परिरत]न तथा गोपी सन्देशमैं ब्रजबाक्तिसन की बक्तिलहारी ।जिजनके संग सदा क्रीड़त हैं, श्री गोबरधन-धारी ॥विकनहूँ कैं घर माखन चोरत, विकनहूँ कैं संग दानी ।विकनहूँ कैं सँग धेनु चरात, हरिर की अकथ कहानी ॥विकनहूँ कैं सँग जमुना कै तट, बशी टेरिर सुनात ।सूरदास बक्तिल-बक्तिल चरनविन की, यह सुख मोहिहं विनत भात ॥1॥ हौं इन मोरविन की बक्तिलहारी ।जिजनकी सुभग चंढिद्रका माथैं, धरत गोबरधनधारी ॥बक्तिलहारी ा बाँस-बंस की, बंसी सी सुकुमारी ।सदा रहवित है कर जु स्याम कैं , नैकहँु होवित न न्यारी ॥बक्तिलहारी ा गुंज-जावित की, उपजी जगत उज्यारी ।सुन्दर हृदय रहत मोहन कैं , कबहूँ टरत न टारी ॥बक्तिलहारी कुल सैल सरवित जिजहिहं, कहत कसिलंद-दुलारी ।विनक्तिस-ढिदन कान्ह अंग आसिलंगन आपुनहँु भई कारी ॥बक्तिलहारी ंृदान भूमिमहिहं, सुतौ भाग की सारी ।सूरदास प्रभुन नाँगे पाइविन, ढिदन प्रवित गैया चारी ॥2॥ हम पर हेत विकये रविहबौ ।या ब्रज कौ ब्यौहार सखा तुम, हरिर सौं सब कविहबौ ॥देखे जात आपनी अखँिखयन, या तन को दविहबौ ।तन की विबथा कहा कहौं तुमसौं, यह हमकौं सविहबौ ॥तब न विकयौ प्रहार प्रानविन कौ, विफरिर विफरिर क्यौं चविहबौ ।अब न देह जरिर जाइ सूर इविन नैनविन कौ बविहबौ ॥3॥ स्ामी पविहलौ पे्रम सँभारौ ।ऊधौ जाइ चरन गविह कविहयै, जी तैं विहत न उतारौ ॥जो तुम मधुबन राज काज भए, गोकुल हम न अधारौ ॥कमल नयन सो चैन न देखौ, विनत उढिठ गोधन चारौ ॥ये ब्रज लोग मया के सेक, वितनसौं क्यौं न विबहारौ ।सूरदास प्रभु एक बार मिमक्तिल, सकल विबरह दुख टारौ ॥4॥इतनी बात अक्तिल कविहयौ हरिर सौं, कब लविग यह मन दुख मैं गारैं ।पथ जोहत तन कोविकल बरन भइँ, विनक्तिस न नींद विपय विपयहिहं पुकारैं ॥जा ढिदन तैं विबछुरे नँद-नंदन, अवित दुख दारुन क्यौं विनरबारैं ।सूरदास प्रभु विबनु यह विबपदा, काकौ दरसन देखिख विबसारैं ॥5॥ऊधौ जू, कविहयौ तुम हरिर सौं जाइ, हमारे विहय की दरद ।ढिदन नहिहं चैन, रैन नहिहं सोवित, पाक भई जुन्हाई सरद ॥जबतैं लै अकु्रर गए हैं, भई विबरह तन बाइ छरद ।काम प्रबल जाके अवित ऊधौ, सोचत भइ जस पीत हरद ॥सखा प्रीन विनरंतर हरिर के, तातैं कहवित हैं खोक्तिल परद ।ध्याहितं रूप दरस तजिज हरिर कौ, सूर मूरिर विबन ुहोहितं मुरद ॥6॥ ऊधौ इक पवितया हमरी लीजै ।

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चरन लाविग गोहिंद सौं कविहयौ, क्तिलखौ हमारौ दीजै ॥हम तौ कौन रूप गुन आगरिर, जिजहिहं गुपाल जू रीझैं ।विनरखत नैन-नीर भरिर आए, अरु कंचुविक पट भीजैं ॥तलफत रहवित मीन चातक ज्यौं,जल विबन ुतृषा न छीजै ।अवित ब्याकुल अकुलाहितं विबरविहनी, सुरवित हमारी कीजै ॥अखँिखयाँ खरी विनहारहितं मधुबन, हरिर-विबनु विबष पीजै ।सूरदास-प्रभु कबहिहं मिमलैंगे, देखिख देखिख मुख जीजै ॥7॥हम मवित हीन कहा कछु जानैं, ब्रजबाक्तिसनी अहीर ।ै जु विकसोर नल नागर तन, बहुत भूप की भीर ॥बचन की लाज सुरवित करिर राखौं, तुम अक्तिल इतनौ कविहयौ ।भली भई जो दूत पठायौ, इतनौ बोल विनबविहयौ ॥एक बार तौ मिमलौ कृपा करिर, जौ अपनौ ब्रज जानौ ।यहै रीवित संसार सबविन की, कहा रंक कह रानौ ॥हम अनाथ तुम नाथ गुसाईं, क्यौं, नहिहं सोई ।षट रिरतु ब्रज पै आविन पुकारैं, सूरदास अब कोई ॥8॥ नंदनँदन सौं इतनी कविहयौ ।जद्यविप ब्रज अनाथ करिर डार्‌यौ, तद्यविप सुरवित विकये क्तिचत रविहयौ ।वितनका तोर करहु जविन हम सौं, एक बास की लाज विनबविहयौ ।गुन आँगुनविन दोष नहिहं कीजतु, हम दाक्तिसविन की इतनी सविहयौ ॥तुम विबनु प्रान कहा हम करिरहैं, यह अलंब न सुपनेहु लविहयौ ।सूरदास पाती क्तिलखिख पठई, जहाँ प्रीवित तहँ ओर विनबविहयौ ॥9॥ विबन ुगुपाल बैरिरविन भईं कंुजै ।तब ै लता लगवित तन सीतल, अब भईं विबषम ज्ाल की पंुजैं ॥ृथा बहवित जमुना, खग बोलत ृथा कमल-फूलविन अक्तिल गुंजैं ।पन, पान, घनसार, सजीन, दमिध-सुत विकरविन भानु भईं भंुजैं ॥यह ऊधौ कविहयौ माधौ सौं,मदन मारिर कीन्हीं हम लंुजैं ।सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौं, मग-जोत अखँिखयाँ भईं छंुजै ॥10॥ ऊधौ इतनी कविहयौ बात ।मदन गुपाल विबना या ब्रज मैं, होन लगे उतपात ॥तृनात] , बक, बकी, अघासुर , धेनुक विफरिर विफरिर जात ।ब्योम, प्रलंब, कंस केसी इत, करत जिजअविन की घात ॥काली काल-रूप ढिदखिखयत है, जमुना जलहिहं अन्हात ।बरुन फाँस फाँस्यौ चाहत है, सुविनयत अवित मुरझात ॥इंद्र आपने परिरहँस कारन, बार-बार अनखात ।गोपी,गाइ, गोप, गोसुत सब, थर थर काँपत गात ।अंचल फारवित जनविन जसोदा, पाग क्तिलये कर तात ।लागौ बेविग गुहारिर सूर प्रभु, गोकुल बैरिरविन घात ॥11॥ ऊधौ इतनी कविहयौ जाइ ।अवित कृस गात भईं ये तुम विबन,ु परम दुखारी गाइ ॥जल समूह बरषहितं दोउ अखँिखयाँ, हँूकवित लौन्है नाउँ ।जहाँ जहाँ गो दोहन कीन्हौ, सँूघवित सोई ठाउँ ।परवित पछार खाइ क्तिछन ही क्तिछन, अवित आतुर है्व दीन ।मानहु सूर काढिढ़ डारी हैं, बारिर मध्य तैं मीन ॥12॥ अवित मलीन बृषभानुकुमारी ।हरिर स्रम -जल भींज्यौ उर-अंचल, वितहिहं लालच न धुावित सारी ॥अध मुख रहवित अनत नहिहं क्तिचतवित, ज्यौं गथ हारे थविकत जुारी ।छुटे क्तिचकुर बदन कुम्हिम्हलाने, ज्यौ नक्तिलनी विहमकर की मारी ॥हरिर सँदेस सुविन सहज मृतक भइ, इक विबरविहविन , दूजे अक्तिल जारी ।सूरदास कैसें करिर जीैं, ब्रज बविनता विबन स्याम दुखारी ॥13॥ऊधौ वितहारे पा लागवित हौं , बहुरिरहँु इहिहं ब्रज करबी भाँरी ।विनक्तिस न नींद भोजन नहीं भाै; क्तिचतत मग भइ दृमिष्ट झाँरी ॥है ंृदान, बहै कँुज-धन, है जमुना है सुभग साँरी ।एक स्याम विबनु कछु न भाै, रटवित विफरहितं ज्यौं बकवित बारी ॥चक्तिल न सकवित मग डुलत धरत -पग, आवित बैठत उठत ताँरी ।सूरदास-प्रभु आविन मिमलाहु,जग मैं कीरवित होइ रारी ॥14॥ पूण] परिरत]न तथा यशोदा संदेशअब अवित चविकतंत मन मेरौ ।आयौ हो विनरगुन, उपदेसन भयौ सगुन कौ चेरौ ॥

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जो मैं ज्ञान कह्यौगीता कौ, तुमहिहं न परस्यौ नैरो ।अवित अज्ञान कछु कहत न आै, दूत भयौ हरिर केरौ ॥विनज जन जाविन माविन जतनविन तुम, कीन्हो नेह घनेरौ ।सूर मधुप उढिठ चले मधुपुरी, बोरिर जोग कौ बेरौ ॥1॥ऊधौ पा लागवित हौं कविहयौ, स्यामहिहं इतनी बात ।इतनी दूर बसत क्यौं विबसर,े अपन ेजननी-जात ॥जा ढिदन तैं मधुपुरी क्तिसधारे, स्याम मनोहर गात । ता ढिदन तैं मेरे नैन पपीहा, दरस प्यास अकुलात ॥जहँ खेलन के ठौर तुम्हारे, नंद देखिख मुरझात ।जौ कबहूँ इढिठ जात खरिरक लौं, गाइ दुहान प्रात ॥दुहत देखिख औरविन के लरिरका, प्रान विनकक्तिस नहिहं जात ।सूरदास बहुरौ कब देखौं, कोमल कर दमिध-खात ॥2॥ तब तुम मेरैं काहे कौं आए ।मथुरा क्यौं न रहे जदुनंदन, जौ पै कान्ह देकी जाए ॥दूध, दही काहे कौं चोर्‌यौ, काहे कौं बन बच्छ चराए ।अध अरिरष्ट, काली फविन काढ्यौ, विष जलतैं सब सखा जिजाए ॥पय पीत हरे प्रान पूतना, सदा विकए जसुमवित के भाए ।सूरदास लोगविन के भुरए, काहैं कान्ह अब होत पराए ॥3॥ मोहन) अपनी गैयाँ घरेिर लै ।विबडरी जाहितं काहु नहिहं मानहितं, नैंकु मुरक्तिल की टेर दै ॥धौरी, घूमरिर, पीरी, काजरिर, बन-बन विफरती पीय ।अपनी जाविन कै आविन सँभारहँु, धरी चेत अब जीय ॥तुम हौ जग जीविन प्रवितपालक , विनठुराई नहिहं कीजै ।ग्ालऽरु बाल बच्छ गो विबलखत, सूर सु दरसन दीजै ॥4॥ तब तैं छीन सरीर सुबाहु ।आधौ भोजन सुबल करत है, सब ग्ालविन उर दाहु ॥नंद गोप विपछारे डोलत, नैनविन नीर प्राहु ।आनँद मिमट्यौ मिमटी सब लीला, काहू मन न उछाहु ॥एक बेर बहुरौ बज आहु, दूध पतूखी खाहु ।सूर सपथ गोकुल जौ पैठहु, उलढिट मधुपुरी जाहु ॥5॥ कविहयौ जसुमवित की अअसीस ।जहाँ रहौ तहँ लाविड़लौ, जीौ कोढिट बरीस ।मुरली दई दोहनी घृत भरिर , ऊधौ धरिर लई सीस ।यह तौ घृत उनही सुरभिभविन कौ, जे प्यारी जगदीस ॥ऊधौ चलत सखा मिमक्तिल आए , ग्ाल बाल दस -दीस ।अबकैं यह ब्रज फेरिर बसाहु, सूरदास के ईस ॥6॥ उद्ध मथुरा प्रत्यागमन तथा कृष्ण उद्ध संादऊधौ जब ब्रज पहुँचे जाइ ।तबकी कथा कृपा करिर कविहयै, हम सुविनहैं मन लाइ ॥बाबा नंद जसोदा मैया, मिमले कौन विहत आइ ?कबहूँ सुरसवित करत माखन की, विकधौं रहे विबसराइ ॥गोप सखा दमिध-भात खात बन, अरु चाखते चखाइ ।गऊ बच्च मुरली सुविन उमड़त , अब जु रहत विकहँ भाइ ॥गोविपन गृह ब्यहार विबसारे, मुख सन्मुख सुख पाइ ।पलक ओट विनमिम पर अनखातीं, यह दुख कहाँ समाइ ॥एक सखी उनमैं जो राधा, लेवित मनहिहं जु चुराइ ।सूर स्याम यह बार-बार कविह, मनहिहं मन पक्तिछताइ ॥1॥जब मैं इहाँ तै जु गयौ ।तब ब्रजराज सकल गोपी जन, आगैं होइ लयौ ॥उतरे जाइ नंद बाबा कैं , सबही सोध लह्यौ ।मेरी सौं मोसौं साँची कविह, मैया कहा कह्यौ ?बारंबार कुसल पूछी मोहिहं, लै लै तुम्हरौ नाम ।ज्यौं जल तृषा बढ़ी चातक क्तिचत, कृष्न-कृष्न बलराम ॥संुदर परम विबक्तिचत्र मनोहर, यह मुरली दै घाली ।लई उठाइ सुख माविन सूर प्रभु, प्रीवित आविन उर साली ॥2॥ सुविनयै ब्रज की दसा गुसाई ।रथ की धुजा पीत-पट भूषन , देखत ही उढिठ धाई ॥जो तुम कही जोग की बातैं, सो हम सबै बताईं ।

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श्रन मूँढिद गुन-कम] तुम्हारे, पे्रम मगन मन गाईं ॥औरौ कछू सँदेस सखी इक, कहत दूरिर लौं आई ।हुतौ कछू हमहँू सौं नातौ, विनपट कहा विबसराई ॥सूरदास प्रभु बन विनोद करिर, जे तुम गाइ चराई ।ते गाइ अब ग्ाल न घेरत , मानौ भईं पराई ॥3॥ ब्रज के विबरही लोग दुखारे ।विबन गोपाल ठगे से ठाढै़, अवित दुब]ल तन कारे ॥नंद, जसोदा मारग जोवित , विनक्तिस-ढिदन साँझ, सकारे ।चहँु-ढिदक्तिस कान्ह-कान्ह कविह टेरत, अँसुन बहत पनार े।गोपी, ग्ाल, गाइ, गो सुत सब, अवितहीं दीन विबचारे ।सूरदास-प्रभु विबन ुयौं देखिखयत, चंद विबना ज्यौं तारे ॥4॥सुनहु स्याम ै सब ब्रज-बविनता विबरह तुम्हारैं भईं बारी ।नाहीं बात और कविह आवित , छाँविड़ जहाँ लविग कथा रारी ।कबहुँ कहहितं हरिर माखन खायौ, कौन बसै या कढिठन गाँ री ।कबहुँ कहहितं हरिर ऊखल बाँधे, घर-घर ते लै चलौ दाँरी ॥कबहुँ कहहितं ब्रजनाथ बन गए, जोत-मग भई दृमिष्ट झाँरी ।कबहुँ कहहितं ा मुरली मविहयाँ लै-लै बोलत हमरौ ना री ॥कबहुँ कहहितं ब्रजनाथ साथ तैं, चंद उयौ है इहै ठाँ री ।सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस विबनु, बह मूरवित भईं साँरी ॥5॥ विफरिर ब्रज बसौ नंदकुमार ।हरिर वितहारे विबरह राधा,भई तन जरिर छार ॥विबन अभूषन मैं जु देखी, परी है विबकरार ।एकई रट रटत भामिमविन, पी पी पुकार ॥सजल लोचन चुअत उनके, बहवित जमुना धार ।विबरह अविगविन प्रचंड उनकै, जरे हाथ लुहार ॥दूसरी गवित और नाहीं, रटवित बारंबार ।सूर प्रभु कौ नाम उनकैं , लकुट अंध अधार ॥6॥ ब्रज तैं bै रिरतु पै न गई ।ग्रीषम अरु पास प्रीन हरिर, तुम विबन ुअमिधक भई ॥ऊध] उसास समीर नैन घन, सब जल जोग जुरे ।बरविष प्रगट-कीन्हे दुख दादुर, हुते जो दूरिर दुरे ॥विषम वियोग जु ृष ढिदनकर सम, विहय अवित उदौ करै ।हरिर-पद विबमुख भए सुविन सूरज, को तन ताप हरै ॥7॥ ढिदन दस घौष चलहु गोपाल ।गाइविन की असेरिर मिमटाहु, मिमलहु आपने ग्ाल ॥नाचत नहीं मोर ता ढिदन तैं, रटत न बरषा-काल ।मृग दुबरे दरसन विबन,ु सुनत न बेनु रसाल ॥बृंदान हर्‌यौ होत न भात , देख्यौ स्याम तमाल ।सूरदास मैया अनाथ है, घर चक्तिलयै नँदलाल ॥8॥ ऊधौ भलो ज्ञान समुझायौ ।तुम मोसौं अब कहा कहत हौं, मैं कविह कहा पठायौ ॥कहात हौ बडे़ चतुर पै, उहाँ न कछु कविह आयौ ।सूरदास ब्रजाक्तिसन कौ विहत, हरिर विहय माँह दुरायौ ॥9॥ मै समुझाई अवित अपनौ सौ ।तदविप उन्हैं परतीवित न उपजी, सबै लख्यौ सपनौ सौ ॥कही तुम्हारी सबै कही मैं, और कही कछु अपनी ।स्रनविन बचन सुनत भइ उनकैं , ज्यौं घृत नाएk अगनी ॥कोऊ कहौ बनाइ पचासक, उनकी बात जु एक ।धन्य-धन्य ब्रजनारिर बापुरी, जिजनकौ और न टेक ॥देखत उमग्यौ पे्रम इहाँ कौ, धरै रहे सब ऊलौ ।सूर स्याम हौं रह्यौ थक्यौ सौ, ज्यौं मृग चौका भूलौ ॥10॥ बातें सुनहु तौ स्याम सुनाऊँ ।जुबवितविन सौं कविह कथा जोग की, क्यौं न इतौ दुख पाऊँ ॥हौं पक्तिच एक कहौं विनरगुन की, ताहू मैं अटकाऊँ ।ै उमड़ैं बारिरमिध के जल ज्यौं, क्यौं हँू थाह न पाऊँ ॥कौन कौन कौ उत्तर दीजै, ताते भज्यौ अगाऊँ ।ै मेरे क्तिसर पढिटया पारैं, कथा काविह उढ़ाऊँ ॥एक आँधरौ, विहय की फूटी, दौरत पविहरिर खराऊँ ।

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सूर सकल षट दरसन ै, हौं बारइखरी पढ़ाऊँ ॥11॥ कविहबे मैं न कछू सक राखी ।बुजिद्ध विबबेक अनुमान आपनैं, मुख आई सो भाषी ॥हौं मरिर एक कहौं पहरक मैं, ै पल माहिहं अनेक ।हारिर माविन उढिठ चल्यौ दीन है्व, छाँविड़ आपनी टेक ॥हौं पठयो कतहीं बेकाजै सठ मूरख जु अयानौ ।तुमहिहं बूझ बहुतै बातविन की, उहाँ जाहु तौ जानौं ॥श्री मुख के क्तिसखाए ग्रंथाढिदक, ते सब भए कहानी ।एक होइ तौ उत्तर दीजै, सूर सु मठी उफानी ॥12॥ कोऊ सुनत न बात हमारी ।मानैं कहा जोग जादपवित, प्रगट पे्रम ब्रजनारी ॥कोऊ कहहितं हरिर गए कंुज बन, सैन धाम ै देत ।कोऊ कहहितं हरिर गए कंुज बन, सैन धाम ै देत ।कोऊ कहहितं इंद्र बरषा तविक, विगरिर गोबध]न लेत ॥कोउ कहहितं नाग काली सुविन, हरिर गए जमुना तीर ।कोऊ कहहितं अघासुर मारन, गए संग बलबीर ॥कोऊ कहत ग्ाल बालविन सँग, खेलत बनहिहं क्तिलकाने ।सूर सुमिमरिर गुन णाथ तुम्हारे, कोऊ कह्यो न माने ॥13॥ माधौ जू कहा कहौं उनकी गवित ।देखत बनै कहत नहिहं आै, अवित प्रतीवित तुम तैं रवित ॥जद्यविप हौं षट मास रह्यौ ढि@ग, लही नहीं उनकी मवित ।तासौं कहौं सबै एकै बुमिध, परमोघौ नहिहं मानवित ॥तुम कृपाल करुनामय कविहयत, तातैं मिमलत कहा छवित ।सूरदास प्रभु सोई कीजै जातैं तुम पाहु पवित ॥14॥ ब्रज मै एकै धरम रह्यौ ।सु्रवित सुमृवित और बेद पुरानविन, सबै गोविन्द कह्यौ ।बालक बृद्ध तरुन अबलविन कौ, एक पे्रम विनबह्यौ ।सूरदास प्रभु छाविड़ जमुन जल, हरिर की सरन गह्यौ ॥15॥ तब तैं इन सबविहविन सचु पायौ ॥जब तैं हरिर सँदेस तुम्हारौ, सुनत ताँरौ आयौ ॥फूले ब्याल दुरे ते प्रगटे, पन पेट भरिर खायौ ॥खोले मृगविन चौक चरनविन के, हुतौ जु जिजय विबसरायौ ॥ऊँचे बैढिठ विबहग सभा मैं, सुक बनराइ कहायौ ॥विकलविक-विकलविक कुल सविहत आपनैं, कोविकल मंगल गायौ ॥विनकक्तिस कंदराहू तैं केहरिर, पँूछ मूड़ पर ल्यायौ ॥गहर तैं गजराज आइकै, अँगहिहं ग] बढ़ायौ ॥अब जविन गहरु करहु हो मोहन, जो चाहत हौ ज्यायौ ।सूर बहुरिर है्व है राधा कौं, सब बैरिरविन कौ भायौ ॥16॥ माधो जू मैं अवितही सचु पायौ ।अपनो जावित सँदेस ब्याज करिर, ब्रज जन मिमलन पठायौ ॥छमाकरौ तौ करौं बीनती, उनहिहं देखिख जौ आयौ । श्रीमुख ग्यान पथ जौ उचर्‌यौ, सो पै कछु न सुहायौ ॥सकल विनगम क्तिसद्धांत जन्म क्रम, स्यामा सहज सुनायौ ।नहिहं सु्रवित, सेष, महेस प्रजापवित, जो रस गोविपन गायो ॥कटुक कथा लागी मोहिहं मेरी, ह रस सिसंधु उम्हायौ ।उत तुम देखे और भाँवित मैं, सकल तृषा जु बुझायौ ॥तुम)हरौ अकत कथा तुम जानौ, हम जन नाहिहं बसायो ।सूर स्याम संुदर यह सुविन कै, नैनविन नीर बहायौ ॥17॥ ब्रज मैं संभ्रम मोहिहं भयौ ।तुम्हरौ ज्ञान संदेसौ प्रभु जू, सब जु भूक्तिल गयौ ॥तुमहीं सौं बालक विकसोर बपु, मैं घर-घर प्रवित देख्यौ ।मुरलीधर घन स्याम मनोहर, अद्भतु नटर पेख्यौ ॥कौतुक रूप ग्ाल बृंदविन सँग, गाइ चरान जात ।साँझ प्रभातहिहं गौ दोहन मिमस, चोरी माखन खात ॥नँद-नंदन अनेक लीला करिर, गोविपविन क्तिचत्त चुरात ।ह सुख देखिख जु नैन हमारे, ब्रह्म न देख्यौ भात ॥करिर करुना उन दरसन दीन्हौं, मैं पक्तिच जोग बह्यौ ।छन मानहु षट्मास सूर प्रभु, देखत भूक्तिल रह्यौ ॥18॥

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ब्रज मैं एक अचंभौ देख्यौ ।मोर मुकुट पीतांबर धारे, तुम गाइविन सँग पेख्यौ ॥गोप बाल सँग धात तुम्हारें, तुम घर घर प्रवित जात ।दूध दहीऽरु महीं लै ढ़रत, चोरी माखन खात ॥गोपी सब मिमक्तिल पकरहितं तुमकौ, तुम छुड़ाइ कर भागत ।सूर स्याम विनत प्रवित यह लीला, देखिख देखिख मन लागत ॥19॥ श्रीकृष्ण चनसुविन ऊधौ मोहिहं नैकू न विबसरत ै ब्रजासी लोग ।तुम उनकौ कछु भली न कीन्ही, विनक्तिस ढिदनढिदयौ वियोग ॥जउ सुदे-देकी मथुरा, सकल राज-सुख भोग ।तदविप मनहिहं बसत बंसी बट, बन जमुना संजोग ॥ै उत रहत पे्रम अलंबन, इत तैं पठयौ जोग ।सूर उसाँस छाँडी भरिर लोचन, बढ्यौ विबरह ज्र सोग ॥1॥ ऊधौ मौंविह ब्रज विबसरत नाहीं । बृंदान गोकुल बन उपन, सघन कंुज की छाहीं ॥प्रात समय माता जसुमवित अरु, नंद देखिख सुख पात ।माखन रोटी दह्यौ सजायौ, अवित विहत साथ खसात ॥गोपी ग्ाल बाल सँग खेलत, सब ढिदन हँसत क्तिसरात ।सूरदास धविन-धविन ब्रजबासी, जिजनसौं विहत जदु-तात ॥2॥ ऊधौ मोहिहं ब्रज विबसरत नाहीं ।हंस सुता की संुदर कगरी, अरु कंुजविन की छाँही ॥ै सुरभी ै बच्छ दोहनी, खरिरक दुहान जाहीं ।ग्ाल-बाल मिमक्तिल करत कुलाहल, नाचत गविह गविह बाहीं ॥यह मथुरा कंचन की नगरी, मविन-मु�ाहल जाहीं ।जबहिहं सुरवित आवित ा सुख की, जिजय उमगत तन नाहीं ॥अनगन भाँवित करी बहु लीला, जसुदा नंद विनबाहीं ।सूरदास प्रभु रहे मौन है्व, यह कविह कविह पक्तिछताही ॥3॥जो जन ऊधौ मोहिहं न विबसारत, वितहिहं न विबसारौं एक घरी ।मेटौं जनम जनम के संकट, राखौं सुख आनंद भरी ॥जो मोहिहं भजै भजौं मैं ताकौ, यह परिरमिमवित मेरे पाइँ परी ।सदा सहाइ करैं ा जन की, गुप्त हुती सो प्रगट करी ॥ ज्यौ भारत भरुही के अंडा, राखे गज के घंट तरी ।सूरदास ताविह डर काकौ, विनक्तिस बासर जौ जपत हरी ॥4॥bारिरका चरिरतbारिरका प्रमाणबार सत्तरह जरासंध, मथुरा चढिढ़ आयौ ।गयो सो सब ढिदन हारिर, जात घर बहुत लजायौ ॥तब खिखस्याइ कै कालजन, अपनैं सँग ल्यायौ ।हरिर जू विकयौ विबचार, सिसंधु तट नगर बसायौ ॥उग्रसेन सब लै कुटंुब, ता ठौर क्तिसधायौ ।अमर पुरी तैं अमिधक, तहाँ सुख लोगविन पायौ ॥कालजन मुचुकंुदहिहं सौं, हरिर भसम करायौ ।बहुरिर आइ भरमाइ, अचल रिरपु ताविह जरायौ ॥जरासिसंधु हू ह्वाँ तैं पुविन, विनज देस क्तिसधायौ ।गए bारिरका स्याम राम, जस सूरज गायौ ॥1॥रुस्थिक्मणी परिरणयहरिर हरिर हरिर सुमिमरन करौ । हरिर चरनारहिबंद उर धरौ ॥हरिर सुमिमरन जब रुकमिमविन कयp । हरिर करिर कृपा ताविह तब बयp ॥कहौं सो कथा सुनौ क्तिचत लाइ । कहै सुनै सो रहै सुख पाइ ॥कंुविडनपुर को भीषम राइ । विबश्नु भक्ति� कौ वितहिहं क्तिचत्त चाइ ॥रुक्म आढिद ताके सुत पाँच, रुकमिमविन पुत्री हरिर रँग राँच ॥नृपवित रुक्म सों कह्यौ बनाइ । कँुरिर जोग बर श्री जदुराइ ।।रुक्म रिरसाइ विपता सौं कह्यौ । जदुपवित ब्रज जो क्तिचरत मह्यौ ॥रुक्मविन कौं क्तिससुपालविह दीजै । करिर विाह जग मैं जस लीजै ॥यह सुविन नृप नारी सौं कह्यौ । सुविन ताकौं अंतरगत दह्यौ ॥रुक्म चँदेरी विबप्र पठायौ । ब्याह काज क्तिससुपाल बुलायौ ॥सो बारात जोरिर तहँ आयौ । श्री रुकमिमविन के मन नहिहं भायौ कह्यौ मेरे पवित श्री भगान । उनहिहं बरौं कै तजौ परान ॥

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यह विनहचै करिर पत्री क्तिलखी । बोल्यौ विबप्र सहज इक सखी ॥पाती दै कह्यौ बचन बाम । सूर जपवित विनक्तिस ढिदन तु नाम ॥भीषण सुता रुकमिमनी बाम । सूर जपवित विनक्तिस ढिदन तु नाम ॥1॥विbज पाती दै कविहयौ स्यामहिहं ।कंुविडनपुर की कँुरिर रुकमविन, जपवित तुम्हारे नामहिहं ॥पालागौं तुम जाहु bारिरका, नंद-नंदनके धामहिहं ।कंचन, चीर-पटंबर देहौं, कर कंकन जु इनामहिहं ॥यह क्तिससुपाल असुक्तिच अज्ञानी, हरत पराई बामहिहं ।सूर स्याम प्रभु तुम्हरौ भरोसौ, लाज करौ विकन नामहिहं ॥2॥ विbज कविहयौ जदुपवित सौं बात बेद विबरुद्ध होत कंुविडनपुर, हंस के अंस काग विनयरात ॥जविन हमरे अपराध विबचारहु, कन्या क्तिलख्यौ मेढिट गुरु तात ।तन आत्मा समरप्यौ तुमकौं, उपजिज परी तातैं यह बात ॥कृपा करहु उढिठ बेविग चढ़हु रथ, लगे समै आहु परभात ।कृष्न सिसंह बक्तिल धरी तुम्हारी, लैबै कौं जंबुक अकुलात ॥तातैं मैं विbज बेविग पठायौ, नेम धरम मरजादा जात ।सूरदास क्तिससुपाल पाविन गहै, पाक रचौं करौं आघात ॥3॥ सुनत हरिर रुकमिमविन कौ संदेस ।चढिढ़ रथ चलै विबप्र कौं सँग लै, विकयौ न गेह प्रेस ॥बारंबार विबप्र कों पूछत, कँुरिर बचन सो सुनात ।दीनबंधु करुना विनधान सुविन, नैन नीर भरिर आत ॥कह्यौ हलधर सौं आहु दल लै, मैं पहुँचत हौं धाइ ।सूरज प्रभु कंुविडनपुर आए, विबप्र सो जाइ सुनाइ ॥4॥ रुस्थिक्मविन देी-मंढिदर आई ।धूप दीप पूजा-सामग्री, अली संग सब ल्याई ॥रखारी कौं बहुत महाभट, दीन्हे रुकम पठाई ।ते सब साधान भए चहँु ढिदक्तिस, पंछी तहाँ न जाई ॥कँुरिर पूजिज गौरी विबनती करी, र देउ जादराई ।मैं पूजा कीन्ही इहिहं कारन, गौरी सुविन मुसकाई ॥पाइ प्रसाद अवंिबका-मंढिदर, रुकमिमविन बाहर आई ।सुभट देखिख संुदरता मोहे, धरविन विगरे मुरझाई ॥इहिहं अंतर जादौपवित आए, रुकमिमविन रथ बैठाई ।सूरज प्रभु पहुँचे दल अपनैं, तब सुभटविन सुमिध पाई ॥5॥आहु री मिमक्तिल मंगल गाहु ।हरिर रुकमिमनी क्तिलए आत हैं, यह आनँद जदुकुलहिहं सुनाहु ॥बाँधहु बंदनार मनोहर, कनक कलस भरिर नीर धराहु ।दमिध अच्छत फल फूल परम रुक्तिच, आँगन चंदन चौक पुराहु ॥कदली जूथ अनूप विकसल दल, सुरँग सुमन लै मंडल छाहु ।हरद दूब केसर मग क्तिछरकहु; भेरी मृदंग विनसान बजाहु ॥जरासंध क्तिससुपाल नृपवित तैं , जीते हैं उढिठ अरघ चढ़ाहु ।बल समेत तन कुसल सूर प्रभु, आए हैं आरती बनाहु ॥6॥ बलभद्र ब्रज यात्राश्याम राम के गुन विनत गाऊँ । स्याम राम ही सौं क्तिचत लाऊँ ॥एक बार हरिर विनज पुर छाए । हलधर जी ंृदाबन गए रथ देखत लोगविन सुख पाए । जान्यौ स्याम राम दोउ आए ।नंद जसोमवित जब सुमिध पाई । देह गेह की सुरवित भुलाई ॥आगैं है्व लैबै कौ धाए । हलधर दौरिर चरन लपटाए ॥बल कौ विहत करिर करें लगाए । दै असीस बोले या भाए ॥तुम तौ बली करी बलराम । कहाँ रहे मन मोहन स्याम ॥देखौ कान्हर की विनठुराई । कबहूँ पाती हू न पठाई ॥आपु जाइ ह्वाँ राजा भए । हमकौं विबछुरिर बहुत दुख दए ॥कहौ कबहुँ हमरी सुमिध करत । हम तौ उन विबन ुकहु दुख भरत ॥कहा करैं ह्वाँ कोउ न जात । उन विबन ुपल पल जुग सम जात ।इहिहं अंतर आए सब ग्ार । भेंटे सबविन जथा ब्यौहार ॥नमस्कार काहूँ कौ विकयौ । काहू कौं अंकम भरिर क्तिलयौ ॥पुविन गौपी जुरिर मिमक्तिल सब आईं । वितन विहत साथ असीस सुनाई ॥हरिर सुमिध करिर बुमिध विबसराई । वितनकौ पे्रम कह्यौ नहिहं जाई ॥कोउ कहै हरिर ब्याहीं बहु नार । वितनकौ बड्यौ बहुत परिरार ॥

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उनकौं यह हम देंवित असीस । सुख सौं जीैं कोढिट बरीस ॥कौउ कहै हरिर नाहीं हम चीन्ही । विबनु चीन्हैं उनकौं मन दीन्हौ ॥विनक्तिस ढिदन रोत हमैं विबछोइ । कहौ करैं अब कहा उपाइ ॥कोउ कहै इहाँ चरात गाइ । राजा भए bारिरका जाइ ॥काहे कौं ै आैं इहाँ । भोग विबलास करत विनत उहाँ ॥कोऊ कहै हरिर रिरपु छै विकए । अरु मिमत्रविन की बहु सुख ढिदए ॥विबरह हमारौ कहँ रविह गयौ । जिजन हमकौ अवित हीं दुख दयौ ॥कोउ कहै जे हरिर की रानी । कौन भाँवित हरिर कौं पवितयानी ॥कोऊ चतुर नारिर जो होइ । करै नहिहं पवितआरौ सोइ ॥कोउ कहे हम तुम कत पवितयाईं । उनकें विहत कुल लाज गाईं ॥हरिर कछु ऐसौ टोना जानत । सबकौं मन अपनैं बस आनत ॥कोउ कहै हरिर हम विबसराईं । कहाँ कहैं कछु कह्यौ न जाई ॥हरिरकौं सुमिमरिर नयन जल @ारैं । नैंकु नहीं मन धीरज धारैं ॥यह सुविन हलधर धीरज धारिर । कह्यौ आइहैं हरिर विनरधारिर ॥जब बल यह संदेस सुनायौ । तब कछु इक मन धीरज आयौ ॥बल तहँ बहुरिर रहे bै मास । ब्रज बाक्तिसविन सौं करत विबलास ॥सब सौं मिमक्तिल पुविन विनजपुर आए । सूरदास हरिर के गुन गाए ॥1॥ सुदामा चरिरतकंत क्तिसधारी मधुसूदन पै सुविनयत हैं े मीत तुम्हारे ।बाल सखा अरु विबपवित विबभंजन, संकट हरन मुकंुद मुरारे ॥और जु अतुसय प्रीवित देखिखयै, विनज तन मन की प्रीवित विबसारे ।सरबस रीजिझ देत भ�विन खौं, रंक नृपवित काहूँ न विबचारे ॥जद्यविप तुम संतोष भजत हौ, दरसन सुख तैं होत जु न्यारे ।सूरदास प्रभु मिमले सुदामा, सब सुख दै पुविन अटल न टारे ॥1॥ सुदामा सोचत पंथ चले ।कैसे करिर मिमक्तिलहैं मोहिहं श्रीपवित, भए तब सगुन भले ॥पहुँच्यौ जाइ राजbारे पर, काहूँ नहिहं अटकायौ ।इत उत क्तिचतै धस्यौ मंढिदर मैं, हरिर कौ दरसन पायौ ।मन मैं अवित आनंद विकयौ हरिर, बाल-मीत पविहचान ।धाए मिमलन नगन पग आतुर, सूरजप्रभु भगान ॥2॥ दूरिरहिहं तैं देख्यौ बलीर ।अपन ेबालसखा जु सुदामा, मक्तिलन बसन अरु छीन सरीर ॥पौढे़ हे परजंक परम रुक्तिच ,रुकमिमविन चैरिर डुलावित तीर ।उढिठ अकुलाइ अगमने लीन्हें, मिमलत नैन भरिर आए नीर ॥विनज आसन बैठारिर स्याम-धन, पूछी कुसल कह्यौ मवित धीर ।ल्याए हौ सु देहु विकन हमकौं, कहा दुरान लागै चीर ॥दरस परस हम भए सभाग, रही न मन मैं एकहु पीर ।सूर सुमवित तंदुल चाबत ही, कर पकयp कमला भई धीर ॥3॥ ऐसी प्रीवित की बक्तिल जाउँ ॥सिसंहासन तजिज चले मिमलन कौं, सुनत सुदामा नाउँ ॥कर जोरे हरिर विबप्र जाविन कै, विहत करिर चरन पखारे ।अंकमाल दै मिमले सुदामा , अधा]सन बैठारे ॥अधग̄ी पूछवित मोहन सौं, कैसे विहतू तुम्हारे ।तन अवित छीन मलीन देखिखयत, पाउँ कहाँ तैं धारे ॥संदीपन कैं हमऽरु सुदामा, पढे़ एक चटसार ।सूर स्याम की कौन चलाै, भ�विन कृपा अपार ॥4॥ गुरु-गृह हम जब बन कौं जात ।जोरत हमरे बदलैं लकरी, सविह सब दुख विनज गात ॥एक ढिदस बरषा भई बन मैं, रविह गए ताहीं ठौर ।इनकी कृपा भयौ नहिहं मोहिहं श्रम, गुरु आए भऐं भोर ॥सो ढिदन मोहिहं विबसरत न सुदामा, जो कीन्हौ उपकार ।प्रवित उपकार कहा करौं सूरज, भाषत आप मुरार ॥5॥ सुदामा गृह कौं गमन विकयौ ।प्रगट विबप्र कौं कछु न जनायौ, मन मैं बहुत ढिदयौ ॥ेई चीर कुचील है विबमिध, मोकौं कहा भयौ ।धरिरहौं कहा जाय वितय आगैं, भरिर भरिर लेत विहयौ ॥सो संतोष माविन मन हीं मन, आदर बहुत क्तिलयौ ।सूरदास कीन्हे करनी विबनु, को पवितयाइ विबयौ ॥6॥

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सुदामा मंढिदर देखिख डयp ।इहाँ हुती मेरी तनक मडै़या, को नृप आविन छयp ॥सीस धुनै दोऊ कर मींडै़, अंतर सोच पयp ।ठाढ़ी वितया जु मारग जोै, ऊँचैं चरन धयp ॥तोहिहं आदयp वित्रभुन कौ नायक, अब क्यों जात विफयp ।सूरदास प्रभु की यह लीला, दारिरद दुःख हयp ॥7॥ हौं विफरिर बहुरिर bारिरका आयौ ।समुजिझ न परी मोहिहं मारग की, कोउ बूझौ न बतायो ।कविहहैं स्याम सत इन छाँड़यौ, उतौ राँक ललचायौ ।तृन की छाँह मिमटी विनमिध माँगत , कौन दुखविन सौं छायौ ॥सागर नहीं समीप कुमवित कैं , विबमिध कह अंत भ्रमायौ ।क्तिचतत क्तिचत्त विबचारत मेरी, मन सपनैं डर छायौ ॥सुरतरु, दासी,दास, अस्, गज, विबभौ विबनोद बनायौ ।सूरज प्रभु नँद-सुन मिमत्र है्व, भ�विन लाड़ लड़ायौ ॥8॥ कहा भयौ मेरो गृह माटी कौ ।हौं तो गयौ गुपालहिहं भेंटन, और खरच तंदुल गाँठी कौ ॥विबन ुग्रीा कल सुभग न आन्यौ, हुतौ कमंडल दृढ़ काठी कौ ।घुनौ बाँस जुत बुनो खटोला, काहु कौ पलँग कनक पाटी कौ ॥नूतन छीरोदक जुती पै, भूषन हुतौ न लोहह माटी कौ ।सूरदास प्रभु कहा विनहोरौ, मानत रंक त्रास टाटी कौ ॥9॥ भूलौ विbज देखत अपनौ घर । औरहिहं भाँवित रचौ रचना रुक्तिच , देखतही उपज्यौ विहरदै डर ॥कै ह ठौर छुड़ाइ क्तिलयौ विकहूँ, कोऊ आइ बस्यौ समरथ नर ।कै हौं भूक्तिल अनतहीं आयौ, यह कैलास जहाँ सुविनयत हर ॥बुध-जन कहत द्रुबल घातक विमिध, सो हम आजु लही या पटतर । ज्यौं विनक्तिलनी बन छाँविड़ बसै जल, दाहै हेम जहाँ पानी-सर ॥पाछै तैं वितय उतरिर कह्यौ पवित, चक्तिलए bार गह्यौ कर सौं कर ।सूरदास यह सब विहत हरिर को, bारैं, आइ भयौ जु कलपतर ॥10॥ कैसैं मिमले विपय स्याम सँघाती ।कविहयै कत कौन विबमिध परसे, बसन कुचील छीन अवित गाती ॥उढिठकै दौरिर अंक भरिर लीन्हौ, मिमक्तिल पूछी इत-उत कुसलाती ।पटतैं छोरिर क्तिलए कर तंदुल, हरिर समीप रुकमिमनी जहाँ ती ॥देखिख सकल वितय स्याम-संुदर गुन, पट दै ओट सबै मुसक्यातीं ।सूरदास प्रभु नविनमिध दीन्ही, देते और जो वितय न रिरसातीं ॥11॥ हरिर विबन ुकौन दरिरद्र हरै ।कहत सुदामा सुविन संुदरिर, हरिर मिमलन न मन विबसर ै॥और मिमत्र ऐसी गवित देखत, को पविहचान करै । पवित परैं कुसलात न बूझै, बात नहीं विबचरै ॥उढिठ भेंटे हरिर तंदुल लीन्हें मोहिहं न बचन फुरैसूरदास लक्तिछ दई कृपा करिर, टारी विनमिध न टरै ॥12॥ ब्रजनारी पक्तिथक संादतब तैं बहुरिर न कोऊ आयौ ।है जु एक बेर ऊधौ सौं, कछु संदेसौ पायौ ॥क्तिछन क्तिछन सुरवित करत जदुपवित की, परत न मन समुझायौ ।गोकुलनाथ हमारैं विहत लविग, क्तिलखिख हू क्यौं न पठायौ ॥यहै विचार करौं धौं सजनी, इती गहरु क्यौं लायौ ।सूर स्याम अब बेविग न मिमलहू, मेघविन अंबर छायौ ॥1॥बहुरौ हो ब्रज बात न चाली ।है सु एक बेर ऊधौ कर, कमल नयन पाती दै घाली ॥पक्तिथक वितहारे पा लागवित हौं, मथुरा जाहु जहाँ बनमाली ।कविहयौ प्रगट पुकारिर bार है्व, कासिलंदी विफरिर आयौ काली ॥तब ह कृपा हुती नँदनंदन , रुक्तिच रुक्तिच रक्तिसक प्रीवित प्रवितपाली ।माँगत कुसुम देखिख ऊँचे द्रुम, लेत उछंग गोद करिर आली ॥जब ह सुरवित होवित उर अंतर, लागवित काम बान की भाली ।सूरदास प्रभु प्रीवित पुरातन , सुमिमरत दुसह, सूल उर साली ॥2॥ तुम्हरे देस कागद मक्तिस खूटी ।भूख प्यास अरु नींद गई सब, विबरह लयौ तन लूटी ॥दादुर मोर पपीहा बोले, अमिध भई सब झूठी ।

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पाछैं आइ तुम कहा करौगे, जब तन जैहै छूटी ॥राधा कहवित सँदेस स्याम सौं, भई प्रीवित की टूढिट ।सूरदास प्रभु तुम्हरे मिमलन विबन,ु सखी करवित हैं कूढिट ॥3॥पक्तिथक कह्यौ ब्रज जाइ, सुने हरिर जात सिसंधु तट ।सुविन सब अंग भए क्तिसक्तिथल, गयौ नहिहं बज्र विहयौ फट ॥नर नारी घर-घरविन सबै यह करहितं विबचारा ।मिमक्तिलहैं कैसी भाँवित हमैं अब नंद कुमारा ॥विनकट बसत हुती आस विकयौ अब दूरिर पयाना ।विबना कृपा भगान उपाइ न सूरज आना ॥4॥ नैना भए अनाथ हमारे ।मदनगुपाल उहाँ तैं सजनी, सुविनयत दूरिर क्तिसधारे ॥ै समुद्र हम मीन बापुरी, कैसे जीैं न्यारे ।हम चातक े जलद स्याम-घन, विपयहितं सुधा-रस प्यारे ॥मथुरा बसत आस दरसन की, जोइ नैन मग हारे ।सूरदास हमकौ उलटी विबमिध, मृतकहँू तैं पुविन मारे ॥5॥ उती दूर तैं को आै री ।जासौं कविह संदेस पठाऊँ, सो कविह कहन कहा पाै री ॥सिसंधु कूल इक देस बसत है, देख्यो सुन्यौ न मन धाै री ।तहँ न-नगर जु रच्यौ नंद-सुत , bारावित पुरी कहाै री ॥कंचन के बहु भन मनोहर, रंक तहाँ नहिहं त्रन छाै री ।ह्वाँ के बासी लोगविन कौं क्यौं, ब्रज कौ बक्तिसबौं मन भाै री ॥बहु विबमिध करहितं विबलाप विबरहनी, बहुत उपायविन क्तिचत लाैं री ।कहा करौं करहितं विबलाप विबरहनी, बहुत उपायविन क्तिचत लाैं री ।कहा करौं कहँ जाउँ सूर प्रभु, को हरिर विपय पै पहुँचाै री ॥6॥ हौं कैसौं कै दरसन पाऊँ ।सुनहु पक्तिथक उहिहं देस bारिरका जौ तुम्हरैं सँग जाऊँ ॥बाहर भीर बहुत भूपविन की, बूझत बदन दुराऊँ ।भीतर भीर भोग भामिमविन की, वितविह ठाँ काविह पठाऊँ ॥बुमिध बल जुक्ति� जतन करिर उहिहं पुर, हरिर विपय पै पहुँचाऊँ ।अब बन बक्तिस विनक्तिस कंुज रक्तिसक विबन,ु कौनैं दसा सुनाऊँ ॥श्रम कै सूर जाउँ प्रभु पासहिहं, मन सैं भलैं मनाऊँ ।न-विनकोर मुख मुरक्तिल विबना इन, नैनविन कहा ढिदखाऊँ ॥7॥ तातें अवित मरिरयत अपसोसविन ।मथुरा हु तैं गए सखी री, अब हरिर कारे कोसविन ॥यह अचरज सु बड़ौ मेरैं जिजय, यह छाड़विन ह पोषविन ।विनपट विनकाम जावित हम छाँड़ी, ज्यौं कमान विबन गोसविन ॥इक हरिर के दरसन विबनु मरिरयत, अरु कुविबजा के ठोसविन ।सूर सु जरविन उपजी जो, दूरिर होवित करिर ओसविन ॥8॥ माई री कैसैं बनै हरिर कौ ब्रज आन ।कविहयत है मधुन तैं सजनी, विकयौ स्याम कहँु अनत गबन ।अगम जु पंथ दूरिर दस्थिच्छन ढिदक्तिस, तहँ सुविनयत सखिख सिसंधु लन ।अब हरिर ह्वाँ परिरार सविहत गए, मग मैं मायp कालजन ॥विनकट बसत मवितहीन भईं हम, मिमक्तिलहुँ न आईं सुत्याविग भन ।सूरदास तरसत मन विनक्तिस-ढिदन, जदुपवित लौं लै जाइ कन ॥9॥ सुविनयत कहँु bारिरका बसाई दस्थिच्छन ढिदशा तीर सागर कैं , कंचन कोढिट गोमती खाई ॥पंथ न चलै सँदेस न आै, इतनी दूर नर कोऊ ना जाई ।सत जोजन मथुरा तैं कविहयत, यह सुमिध एक पक्तिथक पै पाई ॥सब ब्रज दुखी नंद जसुदा हू, एक टक स्याम राम ल लाई ।सूरदास प्रभु के दरसन विबन,ु भई विबढिदत ब्रज काम दुहाई ॥10॥ बीर बटाऊ पाती लीजौ ।जब तुम जाहु bारिरका नगरी, हमरे गुपालहिहं दीजौ ॥रंगभूमिम रमनीक मधुपुरी, रजधानी ब्रज की सुमिध कीजौ ।छार समुद्र छाँविड़ विकन आत, विनम]ल जल जमुना कौ पीजौ ॥या गोकुल की सकल ग्ाक्तिलनी, देहितं असीस बहुत जुग जीजौ ।सूरदास प्रभु हमरे कोतैं, नंद नंदन के पा इ ँपरीजौ ॥ 11॥ रुस्थिक्मनी कृष्ण संाद

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रुकमिमविन बूझवित हैं गोपालहिहं ।कहौ बात अपन ेगोकुल की विकवितक प्रीवित ब्रजबालहिहं ॥तब तुम गाइ चरान जाते, उर धरते बनमालहिहं ।कहा देखिख रीझे राधा सौं, संुदर नैन विबसालहिहं ॥इतनी सुनत नैन भरिर आए, पे्रम विबबस नँदलालहिहं ।सूरदास प्रभु रहे मौन है्व, घोष बात जविन चालहिहं ॥1॥रुकमिमनी मोहिहं विनमेष न विबसरत, े ब्रजबासी लोग ।हम उनसौं कछु भली न कीन्ही, विनक्तिस-ढिदन मरत विबयोग ॥जदविप कनक मविन रची bारिरका, विषय सकल संभोग ।तद्यविप मन जु हरत बंसी-बट, लक्तिलता कैं संजोग ॥मैं ऊधौ पठयौ गोविपविन पै, दैन संदेसौ जोग ।सूरदास देखत उनकी गवित, विकहिहं उपदेसै सोग ॥2॥ रुकमिमविन ब्रज विबसरत नाहीं । ह क्रीड़ा ह केक्तिल जमुन तट, सघन कदम की छाहीं ॥गोप बधुविन की भुजा कंध धरिर, विबहरत कंुजविन माहीं ।और विबनोद कहाँ लविग बरनौं, बरनत बरविन न जाहीं ॥जद्यविप विनधान bारवित,गोकुल के सम नाहीं ।सूरदास घनस्याम मनोहर, सुमिमर-सुमिमरिर पक्तिछताहीं ॥3॥ रुस्थिक्मविन चलौ जन्म भूमिम जाहिहं ।जद्यविप तुम्हरौ विबभ bारिरका, मथुरा कैं सम नाहिहं ॥जमुना कैं तट गाइ चरात, अमृत जल अँचाहिहं ।कंुज केक्तिल अरु भुजा कंध धरिर, सीतल द्रुम की छाँविह ॥सरस सुगंध मंद मलयाविनल, विबहरत कंुजन माहिहं ।जो क्रीड़ा श्री बृंदान मैं, वितहँू लोक मैं नाहिहं ॥सुरभी ग्ाल नंद अरु जक्तिसमवित, मन क्तिचत तैं न टराहिहं ।सूरदास प्रभु चतुर क्तिसरोमविन, वितनकी से कराहिहं ॥4॥ कुरुके्षत्र में कृष्ण-ब्रजासी भेंटब्रज बाक्तिसन कौ हेतु, हृदय मैं राखिख मुरारी ।सब जाद सौं कह्यौ, बैढिठ कै सभा मझारी ॥बड़ौ परब रवि-ग्रहन, कहा कहौं तासु बड़ाई ।चलौ सकल कुरुखेत, तहाँ मिमक्तिल न्हैयै जाई ॥तात, मात विनज नारिर क्तिलए, हरिर जू सब संगा ।चले नगर के लोग, साजिज रथ तरल तुरंगा ॥कुरुचे्छत्र मैं आइ, ढिदयौ इक दूत पठाई ।नंद जसोमवित गोविप ग्ाल सब सूर बुलाई ॥1॥ हौं उहाँ तेरवेिह कारन आयौ ।तेरी सौं सुविन जनविन जसोदा, मोहिहं गोपाल पठायौ ॥कहा भयौ जो लोग कहत हैं, देविक माता जायौ ।खान-पान परिरधान सबै सुख, तैंही लाड़ लड़ायौ ॥ इतौ हमारौ राज bारिरका, मों जी कछू न भायौ ।जब जब सुरवित होवित उहिहं विहत की, विबछुरिर बच्छ ज्यौं धायौ ॥अब हरिर कुरुछेत्र मैं आए , सो मैं तुम्हैं सुनायौ ।सब कुल सविहत नंद सूरज प्रभु, विहत करिर उहाँ बुलायौ ॥2॥ायस गहगहात सुविन संुदरिर, बानी विबमल पूब] ढिदक्तिस बोली ।आजु मिमलाा होइम कौ, तू सुविन सखी रामिधका भोली ॥ कुच भुज नैन अधर फरकत हैं, विबनहिहं बात अंचल ध्ज डोली ।सोच विनारिर करौ मन आनँद, मानौ भाग दसा विबमिध खोली ॥सुनत बात सजनी के मुख की, पुलविकत पे्रम तरविक गई चोली ।सूरदास अभिभलाष नंदसुत, हरषी सुभग नारिर अनमोली ॥3॥ राधा नैन नीर भरिर आए ।कब धौं मिमलैं स्याम संुदर सखिख, जदविप विनकट हैं आए ॥कहा करौं विकहिहं भाँवित जाहँु अब, पंख नहीं तन पाए ।सूर स्याम सँुदर घन दरसैं तन के ताप नसाए ॥4॥ अब हरिर आइहैं जविन सोचै ।सुन ुविबधुमुखी बारिर नैनविन तैं, अब तू काहैं मोचे ॥लै लेखविन मक्तिस क्तिलखिख अपने, संदेसहिहं छाँविड़ सँकोचे ।सूर सु विबरह जनाउ करत कत, प्रबल मदन रिरपु पोचै ॥5॥पक्तिथक, कविहयौ हरिर सौं यह बात ।भ� बछल विबरद तुम्हारौ, हम सब विकए सनाथ ॥

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प्रान हमारे संग विनहारैं, हमहँू हैं अब आत ।सूर स्याम सौं कहत सँदेसौ, नैनन नीर बहात ॥6॥ नंद जसोदा सब ब्रजबासी ।अपन-ेअपन ेसकट साजिजके, मिमलन चले अविनासी ॥कोउ गात कोउ बेनु बजात, कोउ उताल धात ।हरिर दरसन की आसा कारन, विबविबध मुढिदत सब आत ॥दरसन विकयौ आइ हरिर जू कौ, कहत स्प्न कै साँची ।पे्रम मगन कछु सुमिध न रही अँग, रहे स्याम रँग राँची ॥जासौं जैसी भाँवित चाविहयै, ताविह मिमलै त्यौं धाइ ।देस-देस के नृपवित देखिख यह, प्रीवित रहे अरगाइ ।उमँग्यौ पे्रम समुद्र दुहँू ढिदक्तिस, परिरमिमवित कही न जाइ ।सूरदास यह सुख सो जानै, जाकैं हृदय समाई ॥7॥ तेर ेजीन मूरिर मिमलविह विकन माई ।महाराज जदुनाथ कहात, तबहिहं हुते क्तिससु कँुर कन्हाई ॥पाविन पर ेभुज धरे कमल मुख, पेखत पूरब कथा चलाई ।परम उदार पाविन अलोकत, हीन जाविन कछु कहत न जाई ॥विफर-विफरिर अब सनमुख ही क्तिचतवित, प्रीवित सकुच जानी जदुराई ।अब हँक्तिस भेंटहु कविह मोविह विनज-जन, बाल वितहारौ नंद दुहाई ॥रोम पुलक गदगद तन तीछन, जलधारा नैनविन बरषाई ॥मिमले सु तात, मात, बाँध सब, कुसल-कुसल करिर प्रस्न चलाई ।आसन देइ बहुत करी विबनती, सुत धोखै तब बुजिद्ध विहराई ॥सूरदास प्रभु कृपा करी अब, क्तिचतहिहं धरै पुविन करी बड़ाई ॥8॥ माध या लविग है जग जीतत ।जातैं हरिर सौं पे्रम पुरातन, बहुरिर नयौ करिर लीजत ॥कहँ ह्वाँ तुम जदुनाथ सिसंधु तट, कहँ हम गोकुल बासी ।ह विबयोग, यह मिमलन कहाँ अब, काल चाल औरासी ॥कहँ रविब राहु कहाँ यह असर, विमिध संजोग बनायौ ।उहिहं उपकार आजु इन नैनविन, हरिर दरसन सचुपायौ ॥तब अरु अब यह कढिठन परम अवित विनमिमष पीर न जानी ।सूरदास प्रभु जाविन आपने, सबविहविन सौं रुक्तिच मानी ।सूरदास प्रभु जाविन आपने, सबविहविन सौं रुक्तिच मानी ॥9॥ब्रजबाक्तिसविन सौ कह्यौ सबविन तैं ब्रज-विहत मेरैं ।तुमसौं नाही दूरिर रहत हौं विनपटहिहं नेरैं ॥भजै मोहिहं जो कोइ, भजौं मैं तेहिहं ता भाई ।मुकुर माहिहं ज्यौ रूप, आपनैं सम दरसाई ॥यह कविह के समदे सकल, नैन रहे जल छाइ ।सूर स्याम कौ पे्रम लछु, मो पै कह्यौ न जाइ ॥10॥सबविहविन तैं विहत है जन मेरौं ।जनम जनम सुविन सुबल सुदामा, विनबहौं यह प्रन बेरौ ॥ब्रह्माढिदक इंद्राढिदक तेऊ, जानत बल सब केरौ ।एकहिहं साँस उसास त्रास उविड़, चलते तजिज विनज खेरौ ॥कहा भयौ जो देस bारिरका, कीन्हौ दूर बसेरौ ।आपुन ही या ब्रज के कारन, करिरहौं विफरिर विफरिर फेरौ ॥इहाँ उहाँ हम विफरत साधु विहत, करत असाधु अहेरौ ।सूर हृदय तैं टरत न गोकुल, अंग छुअत हौं तेरौ ॥11॥ हम तौ इतनै हौ सचु पायौ । संुदर स्याम कमल-दल-लोचन, बहुरौ दरस ढिदखायौ ॥कहा भयौ जो लोग कहत हैं, कान्ह bारिरका छायौ ।सुविनकै विबरह दशा गोकुल की, अवित आतुर है्व धायौ ॥रजक धेनु गज कंस मारिर कै, कीन्हौ जन को भायौ ।महाराज है्व मातु विपता मिमक्तिल, तऊ न ब्रज विबसरायौ ॥गविप गोपऽरु नंद चले मिमक्तिल, समुद्र बढ़ायौ ।अपन ेबाल गुपाल विनरखिख मुख, नैनविन नीर बहायौ ॥जद्यविप हम सकुचे जिजय अपनैं, हरिर विहत अमिधक जनायौ ।ैसेइ सूर बहुरिर नंदनंदन, घर-घर माखन खायौ ॥12॥ राधा कृष्ण मिमलनहरिर सौं बूझवित रुकमिमविन इनमैं को बृषभानु विकसोरी ।बारक हमै ढिदखाहु अपने, बालापन की जोरी ॥जाकौ हेत विनरंतर लीन्हे, डोलत ब्रज की खोरी ।अवित आतुर है्व गाइ दुहान, जाते पर-घर चोरी ॥

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रचते सेज स्कर सुमनविन की, न-पल्ल पुट तोरी ।विबन देखैं ताके मन तरसै, क्तिछन बीतै जुग कोरी ॥सूर सोच सुख करिर भरिर लोचन, अंतर प्रीवित न थोरी ।क्तिसक्तिथल गात मुख बचन नहिहं, है्व , जु गई मवित भोरी ॥1॥बूजवित है रुकमविन विहय इनमैं को बृषभानु विकसोरी ।नैंकु हमैं ढिदखराहु अपनी बालापन की जोरी ॥परम चतुर जिजन कीन्हे मोहन, अल्प बैस ही थोरी ।बारे तै जिजहिहं यहै पढ़यौ, बुमिध बल कल विबमिध चोरी ।जाके गुन गविन ग्रंक्तिथत माला, कबहुँ न उर तैं छोरी ।मनसा सुमिमरन, रूप ध्यान उर, दृमिष्ट न इत उत मोरी ।ह लखिख-जुवित ंृदा मैं ठाढ़ी, नील बसन तन गोरी ।सूरदास मेरौ मन ाकी, क्तिचतविन बंक हयp री ॥2॥ रुकमिमविन राधा ऐसैं भेंटी ।जैसैं बहुत ढिदनविन की विबछुरी, एक बाप की बेटी ॥एक सुभा एक य दोऊ दोऊ हरिर कौं प्यारी ।एक प्रान मन एक दुहुविन कौ, तन करिर दीसवित न्यारी ॥विनज मंढिदर लै गई रुकमिमनी, पहनाई विबमिध ठानी ।सूरदास प्रभु तहँ पग धारे, जहँ दोऊ ठकुरानी ॥3॥ हरिर जू इते ढिदन कहाँ लगाए ।तबविह अमिध मैं कहत न समुझी, गनत अचानक आए ॥भली करी जु बहुरिर इन नैनविन, संुदर दरस ढिदखाए ।जानी कृपा राज काजहु हम, विनमिमष नहीं विबसराए ॥विबरविहविन विबकल विबलोविक सूर, प्रभु, धाइ हृदै करिर लाए ।कछु इक सारक्तिथ सौं कविह पठयौ, रथ के तुरँग छुड़ाए ॥4॥ हरिर जू ै सुख बहुरिर कहाँ ।जदविप नैन विनरखत ह मूरवित, विफरिर मन जात तहाँ ? मुख मुरली क्तिसर मौर पखौा, गर घुँघक्तिचविन कौ।आगैं धेनु तन मंविडत, वितरछी क्तिचतविन चार ॥रावित ढिदस सब सखा क्तिलए सँग, हँक्तिस मिमक्तिल खेलत खात ।सूरदास प्रभु इत उत क्तिचतत, कविह न सकत कछु बात ।5॥ राधा माध भेंट भई ।राधा माध, माध राधा,कीट भंृग गवित ह्वैं जु गई ॥माध राधा के रँग राँचे, राधा माध रंग रई ।माध राधा प्रीवित विनरंतर, रसना करिर सो कविह न गई ।विबहँक्तिस कह्यौ हम तुम नहिहं अंतर, यह कविहकै उन ब्रज पठई ॥सूरदास प्रभु राधा माध, ब्रज-विबहार विनत नई नई ॥6॥