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Page 1: Kishore Karuppaswamy · Web viewप र मच द 1. ईश वर य न य य 3 2. ममत 25 3. म त र 42 ईश वर य न य य क नप र ज ल म प

पे्रमचंद

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1. ईश्वरीय न्याय 32. ममता 253. मंत्र 42

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ईश्वरीय न्याय

नपुर जि�ले में पंडि�त भृगुदत्त नामक एक बडे़ �मींदार थे। मुंशी सत्यनारायण उनके कारिरंदा थे। वह बडे़ स्वामिमभक्त और सच्चरिरत्र मनुष्य थे। लाखों रुपये की

तहसील और ह�ारों मन अना� का लेन-देन उनके हाथ में था; पर कभी उनकी डिनयत �ावॉँ�ोल न होती। उनके सुप्रबंध से रिरयासत दिदनोंदिदन उन्नडित करती �ाती थी। ऐसे कत्तर्व्य@परायण सेवक का जि�तना सम्मान होना चाडिहए, उससे अमिधक ही होता था। दु:ख-सुख के प्रत्येक अवसर पर पंडि�त �ी उनके साथ बड़ी उदारता से पेश आते। धीरे-धीरे मुंशी �ी का डिवश्वास इतना बढ़ा डिक पंडि�त �ी ने डिहसाब-डिकताब का समझना भी छोड़ दिदया। सम्भव है, उनसे आ�ीवन इसी तरह डिनभ �ाती, पर भावी प्रबल है। प्रयाग में कुम्भ लगा, तो पंडि�त �ी भी स्नान करने गये। वहॉँ से लौटकर डिMर वे घर न आये। मालूम नहीं, डिकसी गढे़ में डिMसल पडे़ या कोई �ल-�ंतु उन्हें खींच ले गया, उनका डिMर कुछ पता ही न चला। अब मुंशी सत्यनाराण के अमिधकार और भी बढे़। एक हतभाडिगनी डिवधवा और दो छोटे-छोटे बच्चों के सिसवा पंडि�त �ी के घर में और कोई न था। अंत्येमिQ-डिRया से डिनवृत्त होकर एक दिदन शोकातुर पंडि�ताइन ने उन्हें बुलाया और रोकर कहा—लाला, पंडि�त �ी हमें मँझधार में छोड़कर सुरपुर को सिसधर गये, अब यह नैया तुम्ही पार लगाओगे तो लग सकती है। यह सब खेती तुम्हारी लगायी हुई है, इसे तुम्हारे ही ऊपर छोड़ती हँू। ये तुम्हारे बचे्च हैं, इन्हें अपनाओ। �ब तक मासिलक जि�ये, तुम्हें अपना भाई समझते रहे। मुझे डिवश्वास है डिक तुम उसी तरह इस भार को सँभाले रहोगे।

का

सत्यनाराण ने रोते हुए �वाब दिदया—भाभी, भैया क्या उठ गये, मेरे तो भाग्य ही Mूट गये, नहीं तो मुझे आदमी बना देते। मैं उन्हीं का नमक खाकर जि�या हँू और उन्हीं की चाकरी में मरँुगा भी। आप धीर� रखें। डिकसी प्रकार की चिचंता न करें। मैं �ीते-�ी आपकी सेवा से मुँह न मो�ूगँा। आप केवल इतना कीजि�एगा डिक मैं जि�स डिकसी की सिशकायत करँु, उसे �ॉँट दीजि�एगा; नहीं तो ये लोग सिसर चढ़ �ायेंगे।

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स घटना के बाद कई वर्षो` तक मुंशी�ी ने रिरयासत को सँभाला। वह अपने काम में बडे़ कुशल थे। कभी एक कौड़ी का भी बल नहीं पड़ा। सारे जि�ले में उनका सम्मान होने

लगा। लोग पंडि�त �ी को भूल-सा गये। दरबारों और कमेदिटयों में वे सम्मिम्मसिलत होते, जि�ले के इ

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अमिधकारी उन्हीं को �मींदार समझते। अन्य रईसों में उनका आदर था; पर मान-वृडिb की महँगी वस्तु है। और भानुकँुवरिर, अन्य म्मिस्त्रयों के सदृश पैसे को खूब पकड़ती। वह मनुष्य की मनोवृत्तित्तयों से परिरसिचत न थी। पंडि�त �ी हमेशा लाला �ी को इनाम इकराम देते रहते थे। वे �ानते थे डिक ज्ञान के बाद ईमान का दूसरा स्तम्भ अपनी सुदशा है। इसके सिसवा वे खुद भी कभी काग�ों की �ॉँच कर सिलया करते थे। नाममात्र ही को सही, पर इस डिनगरानी का �र �रुर बना रहता था; क्योंडिक ईमान का सबसे बड़ा शतु्र अवसर है। भानुकँुवरिर इन बातों को �ानती न थी। अतएव अवसर तथा धनाभाव-�ैसे प्रबल शतु्रओं के पं�े में पड़ कर मुंशी�ी का ईमान कैसे बेदाग बचता?

कानपुर शहर से मिमला हुआ, ठीक गंगा के डिकनारे, एक बहुत आ�ाद और उप�ाऊ गॉँव था। पंडि�त �ी इस गॉँव को लेकर नदी-डिकनारे पक्का घाट, मंदिदर, बाग, मकान आदिद बनवाना चाहते थे; पर उनकी यह कामना सMल न हो सकी। संयोग से अब यह गॉँव डिबकने लगा। उनके �मींदार एक ठाकुर साहब थे। डिकसी Mौ�दारी के मामले में Mँसे हुए थे। मुकदमा लड़ने के सिलए रुपये की चाह थी। मुंशी�ी ने कचहरी में यह समाचार सुना। चटपट मोल-तोल हुआ। दोनों तरM गर� थी। सौदा पटने में देर न लगी, बैनामा सिलखा गया। रजि�स्ट्री हुई। रुपये मौ�ूद न थे, पर शहर में साख थी। एक महा�न के यहॉँ से तीस ह�ार रुपये मँगवाये गये और ठाकुर साहब को न�र डिकये गये। हॉँ, काम-का� की आसानी के खयाल से यह सब सिलखा-पढ़ी मुंशी�ी ने अपने ही नाम की; क्योंडिक मासिलक के लड़के अभी नाबासिलग थे। उनके नाम से लेने में बहुत झंझट होती और डिवलम्ब होने से सिशकार हाथ से डिनकल �ाता। मुंशी�ी बैनामा सिलये असीम आनंद में मग्न भानुकँुवरिर के पास आये। पदा@ कराया और यह शुभ-समाचार सुनाया। भानुकँुवरिर ने स�ल नेत्रों से उनको धन्यवाद दिदया। पंडि�त �ी के नाम पर मजिन्दर और घाट बनवाने का इरादा पक्का हो गया।

मुँशी �ी दूसरे ही दिदन उस गॉँव में आये। आसामी न�राने लेकर नये स्वामी के स्वागत को हाजि�र हुए। शहर के रईसों की दावत हुई। लोगों के नावों पर बैठ कर गंगा की खूब सैर की। मजिन्दर आदिद बनवाने के सिलए आबादी से हट कर रमणीक स्थान चुना गया।

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द्यडिप इस गॉँव को अपने नाम लेते समय मुंशी �ी के मन में कपट का भाव न था, तथाडिप दो-चार दिदन में ही उनका अंकुर �म गया और धीरे-धीरे बढ़ने लगा। मुंशी �ी

इस गॉँव के आय-र्व्यय का डिहसाब अलग रखते और अपने स्वामिमनों को उसका ब्योरो समझाने की �रुरत न समझते। भानुकँुवरिर इन बातों में दखल देना उसिचत न समझती थी; पर दूसरे कारिरंदों से बातें सुन-सुन कर उसे शंका होती थी डिक कहीं मुंशी �ी दगा तो न देंगे।

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अपने मन का भाव मुंशी से सिछपाती थी, इस खयाल से डिक कहीं कारिरंदों ने उन्हें हाडिन पहुँचाने के सिलए यह र्षोड़यंत्र न रचा हो।

इस तरह कई साल गु�र गये। अब उस कपट के अंकुर ने वृक्ष का रुप धारण डिकया। भानुकँुवरिर को मुंशी �ी के उस माग@ के लक्षण दिदखायी देने लगे। उधर मुंशी �ी के मन ने कानून से नीडित पर डिव�य पायी, उन्होंने अपने मन में Mैसला डिकया डिक गॉँव मेरा है। हॉँ, मैं भानुकँुवरिर का तीस ह�ार का ऋणी अवश्य हँू। वे बहुत करेंगी तो अपने रुपये ले लेंगी और क्या कर सकती हैं? मगर दोनों तरM यह आग अन्दर ही अन्दर सुलगती रही। मुंशी �ी अस्त्रसज्जिqत होकर आRमण के इंत�ार में थे और भानुकँुवरिर इसके सिलए अवसर ढँूढ़ रही थी। एक दिदन उसने साहस करके मुंशी �ी को अन्दर बुलाया और कहा—लाला �ी ‘बरगदा’ के मजिन्दर का काम कब से लगवाइएगा? उसे सिलये आठ साल हो गये, अब काम लग �ाय तो अच्छा हो। जि�ंदगी का कौन दिठकाना है, �ो काम करना है; उसे कर ही �ालना चाडिहए।

इस ढंग से इस डिवर्षोय को उठा कर भानुकँुवरिर ने अपनी चतुराई का अच्छा परिरचय दिदया। मुंशी �ी भी दिदल में इसके कायल हो गये। �रा सोच कर बोले—इरादा तो मेरा कई बार हुआ, पर मौके की �मीन नहीं मिमलती। गंगातट की �मीन असामिमयों के �ोत में है और वे डिकसी तरह छोड़ने पर रा�ी नहीं।

भानुकँुवरिर—यह बात तो आ� मुझे मालूम हुई। आठ साल हुए, इस गॉँव के डिवर्षोय में आपने कभी भूल कर भी दी तो चचा@ नहीं की। मालूम नहीं, डिकतनी तहसील है, क्या मुनाMा है, कैसा गॉँव है, कुछ सीर होती है या नहीं। �ो कुछ करते हैं, आप ही करते हैं और करेंगे। पर मुझे भी तो मालूम होना चाडिहए?

मुंशी �ी सँभल उठे। उन्हें मालूम हो गया डिक इस चतुर स्त्री से बा�ी ले �ाना मुश्किश्कल है। गॉँव लेना ही है तो अब क्या �र। खुल कर बोले—आपको इससे कोई सरोकार न था, इससिलए मैंने र्व्यथ@ कQ देना मुनासिसब न समझा।

भानुकँुवरिर के हृदय में कुठार-सा लगा। पदy से डिनकल आयी और मुंशी �ी की तरM ते� ऑंखों से देख कर बोली—आप क्या कहते हैं! आपने गॉँव मेरे सिलये सिलया था या अपने सिलए! रुपये मैंने दिदये या आपने? उस पर �ो खच@ पड़ा, वह मेरा था या आपका? मेरी समझ में नहीं आता डिक आप कैसी बातें करते हैं।

मुंशी �ी ने सावधानी से �वाब दिदया—यह तो आप �ानती हैं डिक गॉँव हमारे नाम से बसा हुआ है। रुपया �रुर आपका लगा, पर मैं उसका देनदार हँू। रहा तहसील-वसूल का खच@, यह सब मैंने अपने पास से दिदया है। उसका डिहसाब-डिकताब, आय-र्व्यय सब रखता गया हँू।

भानुकँुवरिर ने Rोध से कॉँपते हुए कहा—इस कपट का Mल आपको अवश्य मिमलेगा। आप इस डिनद@यता से मेरे बच्चों का गला नहीं काट सकते। मुझे नहीं मालूम था डिक आपने हृदय में छुरी सिछपा रखी है, नहीं तो यह नौबत ही क्यों आती। खैर, अब से मेरी रोकड़

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और बही खाता आप कुछ न छुऍं। मेरा �ो कुछ होगा, ले लूँगी। �ाइए, एकांत में बैठ कर सोसिचए। पाप से डिकसी का भला नहीं होता। तुम समझते होगे डिक बालक अनाथ हैं, इनकी सम्पत्तित्त ह�म कर लूँगा। इस भूल में न रहना, मैं तुम्हारे घर की ईट तक डिबकवा लूँगी।

यह कहकर भानुकँुवरिर डिMर पदy की आड़ में आ बैठी और रोने लगी। म्मिस्त्रयॉँ Rोध के बाद डिकसी न डिकसी बहाने रोया करती हैं। लाला साहब को कोई �वाब न सूझा। यहॉँ से उठ आये और दफ्तर �ाकर काग� उलट-पलट करने लगे, पर भानुकँुवरिर भी उनके पीछे-पीछे दफ्तर में पहुँची और �ॉँट कर बोली—मेरा कोई काग� मत छूना। नहीं तो बुरा होगा। तुम डिवर्षोैले साँप हो, मैं तुम्हारा मुँह नहीं देखना चाहती।

मुंशी �ी काग�ों में कुछ काट-छॉँट करना चाहते थे, पर डिववश हो गये। ख�ाने की कुन्�ी डिनकाल कर Mें क दी, बही-खाते पटक दिदये, डिकवाड़ धड़ाके-से बंद डिकये और हवा की तरह सन्न-से डिनकल गये। कपट में हाथ तो �ाला, पर कपट मन्त्र न �ाना।

दूसरें कारिरंदों ने यह कैडिMयत सुनी, तो Mूले न समाये। मुंशी �ी के सामने उनकी दाल न गलने पाती। भानुकँुवरिर के पास आकर वे आग पर तेल सिछड़कने लगे। सब लोग इस डिवर्षोय में सहमत थे डिक मुंशी सत्यनारायण ने डिवश्वासघात डिकया है। मासिलक का नमक उनकी हडि~यों से Mूट-Mूट कर डिनकलेगा।

दोनों ओर से मुकदमेबा�ी की तैयारिरयॉँ होने लगीं! एक तरM न्याय का शरीर था, दूसरी ओर न्याय की आत्मा। प्रकृडित का पुरुर्षो से लड़ने का साहस हुआ।

भानकँुवरिर ने लाला छक्कन लाल से पूछा—हमारा वकील कौन है? छक्कन लाल ने इधर-उधर झॉँक कर कहा—वकील तो सेठ �ी हैं, पर सत्यनारायण ने उन्हें पहले गॉँठ रखा होगा। इस मुकदमें के सिलए बडे़ होसिशयार वकील की �रुरत है। मेहरा बाबू की आ�कल खूब चल रही है। हाडिकम की कलम पकड़ लेते हैं। बोलते हैं तो �ैसे मोटरकार छूट �ाती है सरकार! और क्या कहें, कई आदमिमयों को Mॉँसी से उतार सिलया है, उनके सामने कोई वकील �बान तो खोल नहीं सकता। सरकार कहें तो वही कर सिलये �ायँ।

छक्कन लाल की अत्युसिक्त से संदेह पैदा कर सिलया। भानुकँुवरिर ने कहा—नहीं, पहले सेठ �ी से पूछ सिलया �ाय। उसके बाद देखा �ायगा। आप �ाइए, उन्हें बुला लाइए।

छक्कनलाल अपनी तकदीर को ठोंकते हुए सेठ �ी के पास गये। सेठ �ी पंडि�त भृगुदत्त के �ीवन-काल से ही उनका कानून-सम्बन्धी सब काम डिकया करते थे। मुकदमे का हाल सुना तो सन्नाटे में आ गये। सत्यनाराण को यह बड़ा नेकनीयत आदमी समझते थे। उनके पतन से बड़ा खेद हुआ। उसी वक्त आये। भानुकँुवरिर ने रो-रो कर उनसे अपनी डिवपत्तित्त की कथा कही और अपने दोनों लड़कों को उनके सामने खड़ा करके बोली—आप इन अनाथों की रक्षा कीजि�ए। इन्हें मैं आपको सौंपती हँू।

सेठ �ी ने समझौते की बात छेड़ी। बोले—आपस की लड़ाई अच्छी नहीं।भानुकँुवरिर—अन्यायी के साथ लड़ना ही अच्छा है।सेठ �ी—पर हमारा पक्ष डिनब@ल है।

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भानुकँुवरिर डिMर पदy से डिनकल आयी और डिवश्किस्मत होकर बोली—क्या हमारा पक्ष डिनब@ल है? दुडिनया �ानती है डिक गॉँव हमारा है। उसे हमसे कौन ले सकता है? नहीं, मैं सुलह कभी न करँुगी, आप काग�ों को देखें। मेरे बच्चों की खाडितर यह कQ उठायें। आपका परिरश्रम डिनष्Mल न �ायगा। सत्यनारायण की नीयत पहले खराब न थी। देखिखए जि�स मिमती में गॉँव सिलया गया है, उस मिमती में तीस ह�ार का क्या खच@ दिदखाया गया है। अगर उसने अपने नाम उधार सिलखा हो, तो देखिखए, वार्षिर्षोंक सूद चुकाया गया या नहीं। ऐसे नरडिपशाच से मैं कभी सुलह न करँुगी।

सेठ �ी ने समझ सिलया डिक इस समय समझाने-बुझाने से कुछ काम न चलेगा। काग�ात देखें, अत्तिभयोग चलाने की तैयारिरयॉँ होने लगीं।

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शी सत्यनारायणलाल खिखसिसयाये हुए मकान पहुँचे। लड़के ने मिमठाई मॉँगी। उसे पीटा। स्त्री पर इससिलए बरस पडे़ डिक उसने क्यों लड़के को उनके पास �ाने दिदया। अपनी वृद्धा

माता को �ॉँट कर कहा—तुमसे इतना भी नहीं हो सकता डिक �रा लड़के को बहलाओ? एक तो मैं दिदन-भर का थका-मॉँदा घर आऊँ और डिMर लड़के को खेलाऊँ? मुझे दुडिनया में न और कोई काम है, न धंधा। इस तरह घर में बावैला मचा कर बाहर आये, सोचने लगे—मुझसे बड़ी भूल हुई। मैं कैसा मूख@ हँू। और इतने दिदन तक सारे काग�-पत्र अपने हाथ में थे। चाहता, कर सकता था, पर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहा। आ� सिसर पर आ पड़ी, तो सूझी। मैं चाहता तो बही-खाते सब नये बना सकता था, जि�समें इस गॉँव का और रुपये का जि�R ही न होता, पर मेरी मूख@ता के कारण घर में आयी हुई लक्ष्मी रुठी �ाती हैं। मुझे क्या मालूम था डिक वह चुडै़ल मुझसे इस तरह पेश आयेगी, काग�ों में हाथ तक न लगाने देगी।

मुं

इसी उधेड़बुन में मुंशी �ी एकाएक उछल पडे़। एक उपाय सूझ गया—क्यों न काय@कत्ता@ओं को मिमला लूँ? यद्यडिप मेरी सख्ती के कारण वे सब मुझसे नारा� थे और इस समय सीधे बात भी न करेंगे, तथाडिप उनमें ऐसा कोई भी नहीं, �ो प्रलोभन से मुठ्ठी में न आ �ाय। हॉँ, इसमें रुपये पानी की तरह बहाना पडे़गा, पर इतना रुपया आयेगा कहॉँ से? हाय दुभा@ग्य? दो-चार दिदन पहले चेत गया होता, तो कोई कदिठनाई न पड़ती। क्या �ानता था डिक वह �ाइन इस तरह वज्र-प्रहार करेगी। बस, अब एक ही उपाय है। डिकसी तरह काग�ात गुम कर दँू। बड़ी �ोखिखम का काम है, पर करना ही पडे़गा।

दुष्कामनाओं के सामने एक बार सिसर झुकाने पर डिMर सँभलना कदिठन हो �ाता है। पाप के अथाह दलदल में �हॉँ एक बार पडे़ डिक डिMर प्रडितक्षण नीचे ही चले �ाते हैं। मुंशी सत्यनारायण-सा डिवचारशील मनुष्य इस समय इस डिMR में था डिक कैसे सेंध लगा पाऊँ!

मुंशी �ी ने सोचा—क्या सेंध लगाना आसान है? इसके वास्ते डिकतनी चतुरता, डिकतना साहब, डिकतनी बुडिb, डिकतनी वीरता चाडिहए! कौन कहता है डिक चोरी करना आसान काम है? मैं �ो कहीं पकड़ा गया, तो मरने के सिसवा और कोई माग@ न रहेगा।

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बहुत सोचने-डिवचारने पर भी मुंशी �ी को अपने ऊपर ऐसा दुस्साहस कर सकने का डिवश्वास न हो सका। हॉँ, इसमें सुगम एक दूसरी तदबीर न�र आयी—क्यों न दफ्तर में आग लगा दँू? एक बोतल मिमट्टी का तेल और दिदयासलाई की �रुरत हैं डिकसी बदमाश को मिमला लूँ, मगर यह क्या मालूम डिक वही उसी कमरे में रखी है या नहीं। चुडै़ल ने उसे �रुर अपने पास रख सिलया होगा। नहीं; आग लगाना गुनाह बेलqत होगा।

बहुत देर मुंशी �ी करवटें बदलते रहे। नये-नये मनसूबे सोचते; पर डिMर अपने ही तक` से काट देते। वर्षोा@काल में बादलों की नयी-नयी सूरतें बनती और डिMर हवा के वेग से डिबगड़ �ाती हैं; वही दशा इस समय उनके मनसूबों की हो रही थी।

पर इस मानसिसक अशांडित में भी एक डिवचार पूण@रुप से ज्जिस्थर था—डिकसी तरह इन काग�ात को अपने हाथ में लाना चाडिहए। काम कदिठन है—माना! पर डिहम्मत न थी, तो रार क्यों मोल ली? क्या तीस ह�ार की �ायदाद दाल-भात का कौर है?—चाहे जि�स तरह हो, चोर बने डिबना काम नहीं चल सकता। आखिखर �ो लोग चोरिरयॉँ करते हैं, वे भी तो मनुष्य ही होते हैं। बस, एक छलॉँग का काम है। अगर पार हो गये, तो रा� करेंगे, डिगर पडे़, तो �ान से हाथ धोयेंगे।

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त के दस ब� गये। मुंशी सत्यनाराण कंुजि�यों का एक गुच्छा कमर में दबाये घर से बाहर डिनकले। bार पर थोड़ा-सा पुआल रखा हुआ था। उसे देखते ही वे चौंक पडे़।

मारे �र के छाती धड़कने लगी। �ान पड़ा डिक कोई सिछपा बैठा है। कदम रुक गये। पुआल की तरM ध्यान से देखा। उसमें डिबलकुल हरकत न हुई! तब डिहम्मत बॉँधी, आगे बडे़ और मन को समझाने लगे—मैं कैसा बौखल हँू

राअपने bार पर डिकसका �र और सड़क पर भी मुझे डिकसका �र है? मैं अपनी राह

�ाता हँू। कोई मेरी तरM डितरछी ऑंख से नहीं देख सकता। हॉँ, �ब मुझे सेंध लगाते देख ले—नहीं, पकड़ ले तब अलबते्त �रने की बात है। डितस पर भी बचाव की युसिक्त डिनकल सकती है।

अकस्मात उन्होंने भानुकँुवरिर के एक चपरासी को आते हुए देखा। कले�ा धड़क उठा। लपक कर एक अँधेरी गली में घुस गये। बड़ी देर तक वहॉँ खडे़ रहे। �ब वह सिसपाही ऑंखों से ओझल हो गया, तब डिMर सड़क पर आये। वह सिसपाही आ� सुबह तक इनका गुलाम था, उसे उन्होंने डिकतनी ही बार गासिलयॉँ दी थीं, लातें मारी थीं, पर आ� उसे देखकर उनके प्राण सूख गये।

उन्होंने डिMर तक@ की शरण ली। मैं मानों भंग खाकर आया हँू। इस चपरासी से इतना �रा मानो डिक वह मुझे देख लेता, पर मेरा कर क्या सकता था? ह�ारों आदमी रास्ता चल रहे हैं। उन्हीं में मैं भी एक हँू। क्या वह अंतया@मी है? सबके हृदय का हाल �ानता है? मुझे देखकर वह अदब से सलाम करता और वहॉँ का कुछ हाल भी कहता; पर मैं उससे ऐसा

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�रा डिक सूरत तक न दिदखायी। इस तरह मन को समझा कर वे आगे बढे़। सच है, पाप के पं�ों में Mँसा हुआ मन पतझड़ का पत्ता है, �ो हवा के �रा-से झोंके से डिगर पड़ता है।

मुंशी �ी बा�ार पहुँचे। अमिधकतर दूकानें बंद हो चुकी थीं। उनमें सॉँड़ और गायें बैठी हुई �ुगाली कर रही थी। केवल हलवाइयों की दूकानें खुली थी और कहीं-कहीं ग�रेवाले हार की हॉँक लगाते डिMरते थे। सब हलवाई मुंशी �ी को पहचानते थे, अतएव मुंशी �ी ने सिसर झुका सिलया। कुछ चाल बदली और लपकते हुए चले। एकाएक उन्हें एक बग्घी आती दिदखायी दी। यह सेठ बल्लभदास सवकील की बग्घी थी। इसमें बैठकर ह�ारों बार सेठ �ी के साथ कचहरी गये थे, पर आ� वह बग्घी कालदेव के समान भयंकर मालूम हुई। Mौरन एक खाली दूकान पर चढ़ गये। वहॉँ डिवश्राम करने वाले सॉँड़ ने समझा, वे मुझे पदच्युत करने आये हैं! माथा झुकाये Mंुकारता हुआ उठ बैठा; पर इसी बीच में बग्घी डिनकल गयी और मुंशी �ी की �ान में �ान आयी। अबकी उन्होंने तक@ का आश्रय न सिलया। समझ गये डिक इस समय इससे कोई लाभ नहीं, खैरिरयत यह हुई डिक वकील ने देखा नहीं। यह एक घाघ हैं। मेरे चेहरे से ताड़ �ाता।

कुछ डिवbानों का कथन है डिक मनुष्य की स्वाभाडिवक प्रवृत्तित्त पाप की ओर होती है, पर यह कोरा अनुमान ही अनुमान है, अनुभव-सिसद्ध बात नहीं। सच बात तो यह है डिक मनुष्य स्वभावत: पाप-भीरु होता है और हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं डिक पाप से उसे कैसी घृणा होती है।

एक Mला�ग आगे चल कर मुंशी �ी को एक गली मिमली। वह भानुकँुवरिर के घर का एक रास्ता था। धँुधली-सी लालटेन �ल रही थी। �ैसा मुंशी �ी ने अनुमान डिकया था, पहरेदार का पता न था। अस्तबल में चमारों के यहॉँ नाच हो रहा था। कई चमारिरनें बनाव-चिसंगार करके नाच रही थीं। चमार मृदंग ब�ा-ब�ा कर गाते थे— ‘नाहीं घरे श्याम, घेरिर आये बदरा।

सोवत रहेउँ, सपन एक देखेउँ, रामा।खुसिल गयी नींद, ढरक गये क�रा।

नाहीं घरे श्याम, घेरिर आये बदरा।’दोनों पहरेदार वही तमाशा देख रहे थे। मुंशी �ी दबे-पॉँव लालटेन के पास गए और

जि�स तरह डिबल्ली चूहे पर झपटती है, उसी तरह उन्होंने झपट कर लालटेन को बुझा दिदया। एक पड़ाव पूरा हो गया, पर वे उस काय@ को जि�तना दुष्कर समझते थे, उतना न �ान पड़ा। हृदय कुछ म�बूत हुआ। दफ्तर के बरामदे में पहुँचे और खूब कान लगाकर आहट ली। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। केवल चमारों का कोलाहल सुनायी देता था। इस समय मुंशी �ी के दिदल में धड़कन थी, पर सिसर धमधम कर रहा था; हाथ-पॉँव कॉँप रहे थे, सॉँस बडे़ वेग से चल रही थी। शरीर का एक-एक रोम ऑंख और कान बना हुआ था। वे स�ीवता की मूर्षितं हो रहे थे। उनमें जि�तना पौरुर्षो, जि�तनी चपलता, जि�तना-साहस, जि�तनी चेतना,

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जि�तनी बुडिb, जि�तना औसान था, वे सब इस वक्त स�ग और सचेत होकर इच्छा-शसिक्त की सहायता कर रहे थे।

दफ्तर के दरवा�े पर वही पुराना ताला लगा हुआ था। इसकी कंु�ी आ� बहुत तलाश करके वे बा�ार से लाये थे। ताला खुल गया, डिकवाड़ो ने बहुत दबी �बान से प्रडितरोध डिकया। इस पर डिकसी ने ध्यान न दिदया। मुंशी �ी दफ्तर में दाखिखल हुए। भीतर सिचराग �ल रहा था। मुंशी �ी को देख कर उसने एक दMे सिसर डिहलाया, मानो उन्हें भीतर आने से रोका।

मुंशी �ी के पैर थर-थर कॉँप रहे थे। एडिड़यॉँ �मीन से उछली पड़ती थीं। पाप का बोझ उन्हें असह्य था।

पल-भर में मुंशी �ी ने बडिहयों को उलटा-पलटा। सिलखावट उनकी ऑंखों में तैर रही थी। इतना अवकाश कहॉँ था डिक �रुरी काग�ात छॉँट लेते। उन्होंनें सारी बडिहयों को समेट कर एक गट्ठर बनाया और सिसर पर रख कर तीर के समान कमरे के बाहर डिनकल आये। उस पाप की गठरी को लादे हुए वह अँधेरी गली से गायब हो गए।

तंग, अँधेरी, दुग@न्धपूण@ कीचड़ से भरी हुई गसिलयों में वे नंगे पॉँव, स्वाथ@, लोभ और कपट का बोझ सिलए चले �ाते थे। मानो पापमय आत्मा नरक की नासिलयों में बही चली �ाती थी।

बहुत दूर तक भटकने के बाद वे गंगा डिकनारे पहुँचे। जि�स तरह कलुडिर्षोत हृदयों में कहीं-कहीं धम@ का धँुधला प्रकाश रहता है, उसी तरह नदी की काली सतह पर तारे जिझलमिमला रहे थे। तट पर कई साधु धूनी �माये पडे़ थे। ज्ञान की ज्वाला मन की �गह बाहर दहक रही थी। मुंशी �ी ने अपना गट्ठर उतारा और चादर से खूब म�बूत बॉँध कर बलपूव@क नदी में Mें क दिदया। सोती हुई लहरों में कुछ हलचल हुई और डिMर सन्नाटा हो गया।

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शी सतयनाराणलाल के घर में दो म्मिस्त्रयॉँ थीं—माता और पत्नी। वे दोनों असिशत्तिक्षता थीं। डितस पर भी मुंशी �ी को गंगा में �ूब मरने या कहीं भाग �ाने की �रुरत न होती थी ! न

वे बॉ�ी पहनती थी, न मो�े-�ूते, न हारमोडिनयम पर गा सकती थी। यहॉँ तक डिक उन्हें साबुन लगाना भी न आता था। हेयरडिपन, ब्रुचे�, �ाकेट आदिद परमावश्यक ची�ों का तो नाम ही नहीं सुना था। बहू में आत्म-सम्मान �रा भी नहीं था; न सास में आत्म-गौरव का �ोश। बहू अब तक सास की घुड़डिकयॉँ भीगी डिबल्ली की तरह सह लेती थी—हा मूखy ! सास को बचे्च के नहलाने-धुलाने, यहॉँ तक डिक घर में झाड़ू देने से भी घृणा न थी, हा ज्ञानांधे! बहू स्त्री क्या थी, मिमट्टी का लोंदा थी। एक पैसे की �रुरत होती तो सास से मॉँगती। सारांश यह डिक दोनों म्मिस्त्रयॉँ अपने अमिधकारों से बेखबर, अंधकार में पड़ी हुई पशुवत् �ीवन र्व्यतीत

मंु

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करती थीं। ऐसी Mूहड़ थी डिक रोदिटयां भी अपने हाथों से बना लेती थी। कं�ूसी के मारे दालमोट, समोसे कभी बा�ार से न मँगातीं। आगरे वाले की दूकान की ची�ें खायी होती तो उनका म�ा �ानतीं। बुदिढ़या खूसट दवा-दरपन भी �ानती थी। बैठी-बैठी घास-पात कूटा करती।

मुंशी �ी ने मॉँ के पास �ाकर कहा—अम्मॉँ ! अब क्या होगा? भानुकँुवरिर ने मुझे �वाब दे दिदया।

माता ने घबरा कर पूछा—�वाब दे दिदया?मुंशी—हॉँ, डिबलकुल बेकसूर!माता—क्या बात हुई? भानुकँुवरिर का मिम�ा� तो ऐसा न था।मुंशी—बात कुछ न थी। मैंने अपने नाम से �ो गॉँव सिलया था, उसे मैंने अपने

अमिधकार में कर सिलया। कल मुझसे और उनसे साM-साM बातें हुई। मैंने कह दिदया डिक गॉँव मेरा है। मैंने अपने नाम से सिलया है, उसमें तुम्हारा कोई इ�ारा नहीं। बस, डिबगड़ गयीं, �ो मुँह में आया, बकती रहीं। उसी वक्त मुझे डिनकाल दिदया और धमका कर कहा—मैं तुमसे लड़ कर अपना गॉँव ले लूँगी। अब आ� ही उनकी तरM से मेरे ऊपर मुकदमा दायर होगा; मगर इससे होता क्या है? गॉँव मेरा है। उस पर मेरा कब्�ा है। एक नहीं, ह�ार मुकदमें चलाए,ं डि�गरी मेरी होगी?

माता ने बहू की तरM ममा�तक दृमिQ से देखा और बोली—क्यों भैया? वह गॉँव सिलया तो था तुमने उन्हीं के रुपये से और उन्हीं के वास्ते?

मुंशी—सिलया था, तब सिलया था। अब मुझसे ऐसा आबाद और मालदार गॉँव नहीं छोड़ा �ाता। वह मेरा कुछ नहीं कर सकती। मुझसे अपना रुपया भी नहीं ले सकती। �ेढ़ सौ गॉँव तो हैं। तब भी हवस नहीं मानती।

माना—बेटा, डिकसी के धन ज्यादा होता है, तो वह उसे Mें क थोडे़ ही देता है? तुमने अपनी नीयत डिबगाड़ी, यह अच्छा काम नहीं डिकया। दुडिनया तुम्हें क्या कहेगी? और दुडिनया चाहे कहे या न कहे, तुमको भला ऐसा करना चाडिहए डिक जि�सकी गोद में इतने दिदन पले, जि�सका इतने दिदनों तक नमक खाया, अब उसी से दगा करो? नारायण ने तुम्हें क्या नहीं दिदया? म�े से खाते हो, पहनते हो, घर में नारायण का दिदया चार पैसा है, बाल-बचे्च हैं, और क्या चाडिहए? मेरा कहना मानो, इस कलंक का टीका अपने माथे न लगाओ। यह अप�स मत लो। बरक्कत अपनी कमाई में होती है; हराम की कौड़ी कभी नहीं Mलती।

मुंशी—ऊँह! ऐसी बातें बहुत सुन चुका हँू। दुडिनया उन पर चलने लगे, तो सारे काम बन्द हो �ायँ। मैंने इतने दिदनों इनकी सेवा की, मेरी ही बदौलत ऐसे-ऐसे चार-पॉँच गॉँव बढ़ गए। �ब तक पंडि�त �ी थे, मेरी नीयत का मान था। मुझे ऑंख में धूल �ालने की �रुरत न थी, वे आप ही मेरी खाडितर कर दिदया करते थे। उन्हें मरे आठ साल हो गए; मगर मुसम्मात के एक बीडे़ पान की कसम खाता हँू; मेरी �ात से उनको ह�ारों रुपये-मासिसक की बचत होती थी। क्या उनको इतनी भी समझ न थी डिक यह बेचारा, �ो इतनी ईमानदारी से मेरा काम

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करता है, इस नMे में कुछ उसे भी मिमलना चाडिहए? यह कह कर न दो, इनाम कह कर दो, डिकसी तरह दो तो, मगर वे तो समझती थी डिक मैंने इसे बीस रुपये महीने पर मोल ले सिलया है। मैंने आठ साल तक सब डिकया, अब क्या इसी बीस रुपये में गुलामी करता रहँू और अपने बच्चों को दूसरों का मुँह ताकने के सिलए छोड़ �ाऊँ? अब मुझे यह अवसर मिमला है। इसे क्यों छो�ू?ँ �मींदारी की लालसा सिलये हुए क्यों मरँु? �ब तक �ीऊँगा, खुद खाऊँगा। मेरे पीछे मेरे बचे्च चैन उड़ायेंगे।

माता की ऑंखों में ऑंसू भर आये। बोली—बेटा, मैंने तुम्हारे मुँह से ऐसी बातें कभी नहीं सुनी थीं, तुम्हें क्या हो गया है? तुम्हारे आगे बाल-बचे्च हैं। आग में हाथ न �ालो।

बहू ने सास की ओर देख कर कहा—हमको ऐसा धन न चाडिहए, हम अपनी दाल-रोटी में मगन हैं।

मुंशी—अच्छी बात है, तुम लोग रोटी-दाल खाना, गाढ़ा पहनना, मुझे अब हल्वे-पूरी की इच्छा है।

माता—यह अधम@ मुझसे न देखा �ायगा। मैं गंगा में �ूब मरँुगी।पत्नी—तुम्हें यह सब कॉँटा बोना है, तो मुझे मायके पहुँचा दो, मैं अपने बच्चों को

लेकर इस घर में न रहँूगी!मुंशी ने झुँझला कर कहा—तुम लोगों की बुडिb तो भॉँग खा गयी है। लाखों सरकारी

नौकर रात-दिदन दूसरों का गला दबा-दबा कर रिरश्वतें लेते हैं और चैन करते हैं। न उनके बाल-बच्चों ही को कुछ होता है, न उन्हीं को है�ा पकड़ता है। अधम@ उनको क्यों नहीं खा �ाता, �ो मुझी को खा �ायगा। मैंने तो सत्यवादिदयों को सदा दु:ख झेलते ही देखा है। मैंने �ो कुछ डिकया है, सुख लूटँूगा। तुम्हारे मन में �ो आये, करो।

प्रात:काल दफ्तर खुला तो काग�ात सब गायब थे। मुंशी छक्कनलाल बौखलाये से घर में गये और मालडिकन से पूछा—काग�ात आपने उठवा सिलए हैं।

भानुकँुवरिर ने कहा—मुझे क्या खबर, �हॉँ आपने रखे होंगे, वहीं होंगे।डिMर सारे घर में खलबली पड़ गयी। पहरेदारों पर मार पड़ने लगी। भानुकँुवरिर को

तुरन्त मुंशी सत्यनारायण पर संदेह हुआ, मगर उनकी समझ में छक्कनलाल की सहायता के डिबना यह काम होना असम्भव था। पुसिलस में रपट हुई। एक ओझा नाम डिनकालने के सिलए बुलाया गया। मौलवी साहब ने कुरा@ Mें का। ओझा ने बताया, यह डिकसी पुराने बैरी का काम है। मौलवी साहब ने Mरमाया, डिकसी घर के भेदिदये ने यह हरकत की है। शाम तक यह दौड़-धूप रही। डिMर यह सलाह होने लगी डिक इन काग�ातों के बगैर मुकदमा कैसे चले। पक्ष तो पहले से ही डिनब@ल था। �ो कुछ बल था, वह इसी बही-खाते का था। अब तो सबूत भी हाथ से गये। दावे में कुछ �ान ही न रही, मगर भानकँुवरिर ने कहा—बला से हार �ाऍंगे। हमारी ची� कोई छीन ले, तो हमारा धम@ है डिक उससे यथाशसिक्त लड़ें, हार कर बैठना कायरों का काम है। सेठ �ी (वकील) को इस दुघ@टना का समाचार मिमला तो उन्होंने भी यही कहा डिक अब दावे में �रा भी �ान नहीं है। केवल अनुमान और तक@ का भरोसा है। अदालत ने माना

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तो माना, नहीं तो हार माननी पडे़गी। पर भानुकँुवरिर ने एक न मानी। लखनऊ और इलाहाबाद से दो होसिशयार बैरिरस्टिस्टर बुलाये। मुकदमा शुरु हो गया।

सारे शहर में इस मुकदमें की धूम थी। डिकतने ही रईसों को भानुकँुवरिर ने साथी बनाया था। मुकदमा शुरु होने के समय ह�ारों आदमिमयों की भीड़ हो �ाती थी। लोगों के इस खिखंचाव का मुख्य कारण यह था डिक भानुकँुवरिर एक पदy की आड़ में बैठी हुई अदालत की कारवाई देखा करती थी, क्योंडिक उसे अब अपने नौकरों पर �रा भी डिवश्वास न था।

वादी बैरिरस्टर ने एक बड़ी मार्मिमंक वकृ्तता दी। उसने सत्यनाराण की पूवा@वस्था का खूब अच्छा सिचत्र खींचा। उसने दिदखलाया डिक वे कैसे स्वामिमभक्त, कैसे काय@-कुशल, कैसे कम@-शील थे; और स्वग@वासी पंडि�त भृगुदत्त का उस पर पूण@ डिवश्वास हो �ाना, डिकस तरह स्वाभाडिवक था। इसके बाद उसने सिसद्ध डिकया डिक मुंशी सत्यनारायण की आर्थिथंक र्व्यवस्था कभी ऐसी न थी डिक वे इतना धन-संचय करते। अंत में उसने मुंशी �ी की स्वाथ@परता, कूटनीडित, डिनद@यता और डिवश्वास-घातकता का ऐसा घृणोत्पादक सिचत्र खींचा डिक लोग मुंशी �ी को गोसिलयॉँ देने लगे। इसके साथ ही उसने पंडि�त �ी के अनाथ बालकों की दशा का बड़ा करूणोत्पादक वण@न डिकया—कैसे शोक और लqा की बात है डिक ऐसा चरिरत्रवान, ऐसा नीडित-कुशल मनुष्य इतना डिगर �ाय डिक अपने स्वामी के अनाथ बालकों की गद@न पर छुरी चलाने पर संकोच न करे। मानव-पतन का ऐसा करुण, ऐसा हृदय-डिवदारक उदाहरण मिमलना कदिठन है। इस कुदिटल काय@ के परिरणाम की दृमिQ से इस मनुष्य के पूव@ परिरसिचत सदगुणों का गौरव लुप्त हो �ाता है। क्योंडिक वे असली मोती नहीं, नकली कॉँच के दाने थे, �ो केवल डिवश्वास �माने के डिनमिमत्त दशा@ये गये थे। वह केवल संुदर �ाल था, �ो एक सरल हृदय और छल-छंद से दूर रहने वाले रईस को Mँसाने के सिलए Mैलाया गया था। इस नर-पशु का अंत:करण डिकतना अंधकारमय, डिकतना कपटपूण@, डिकतना कठोर है; और इसकी दुQता डिकतनी घोर, डिकतनी अपावन है। अपने शतु्र के साथ दया करना एक बार तो क्षम्य है, मगर इस मसिलन हृदय मनुष्य ने उन बेकसों के साथ दगा दिदया है, जि�न पर मानव-स्वभाव के अनुसार दया करना उसिचत है! यदिद आ� हमारे पास बही-खाते मौ�ूद होते, अदालत पर सत्यनारायण की सत्यता स्पQ रुप से प्रकट हो �ाती, पर मुंशी �ी के बरखास्त होते ही दफ्तर से उनका लुप्त हो �ाना भी अदालत के सिलए एक बड़ा सबूत है।

शहर में कई रईसों ने गवाही दी, पर सुनी-सुनायी बातें जि�रह में उखड़ गयीं। दूसरे दिदन डिMर मुकदमा पेश हुआ।

प्रडितवादी के वकील ने अपनी वकृ्तता शुरु की। उसमें गंभीर डिवचारों की अपेक्षा हास्य का आमिधक्य था—यह एक डिवलक्षण न्याय-सिसद्धांत है डिक डिकसी धनाढ़य मनुष्य का नौकर �ो कुछ खरीदे, वह उसके स्वामी की ची� समझी �ाय। इस सिसद्धांत के अनुसार हमारी गवन@मेंट को अपने कम@चारिरयों की सारी सम्पत्तित्त पर कब्�ा कर लेना चाडिहए। यह स्वीकार करने में हमको कोई आपत्तित्त नहीं डिक हम इतने रुपयों का प्रबंध न कर सकते थे और यह धन हमने स्वामी ही से ऋण सिलया; पर हमसे ऋण चुकाने का कोई तका�ा न करके वह

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�ायदाद ही मॉँगी �ाती है। यदिद डिहसाब के काग�ात दिदखलाये �ायँ, तो वे साM बता देंगे डिक मैं सारा ऋण दे चुका। हमारे मिमत्र ने कहा डिक ऐसी अवस्था में बडिहयों का गुम हो �ाना भी अदालत के सिलये एक सबूत होना चाडिहए। मैं भी उनकी युसिक्त का समथ@न करता हँू। यदिद मैं आपसे ऋण ले कर अपना डिववाह करँु तो क्या मुझसे मेरी नव-डिववाडिहत वधू को छीन लेंगे?

‘हमारे सुयोग मिमत्र ने हमारे ऊपर अनाथों के साथ दगा करने का दोर्षो लगाया है। अगर मुंशी सत्यनाराण की नीयत खराब होती, तो उनके सिलए सबसे अच्छा अवसर वह था �ब पंडि�त भृगुदत्त का स्वग@वास हुआ था। इतने डिवलम्ब की क्या �रुरत थी? यदिद आप शेर को Mँसा कर उसके बचे्च को उसी वक्त नहीं पकड़ लेते, उसे बढ़ने और सबल होने का अवसर देते हैं, तो मैं आपको बुडिbमान न कहूँगा। यथाथ@ बात यह है डिक मुंशी सत्यनाराण ने नमक का �ो कुछ हक था, वह पूरा कर दिदया। आठ वर्षो@ तक तन-मन से स्वामी के संतान की सेवा की। आ� उन्हें अपनी साधुता का �ो Mल मिमल रहा है, वह बहुत ही दु:ख�नक और हृदय-डिवदारक है। इसमें भानुकँुवरिर का दोर्षो नहीं। वे एक गुण-सम्पन्न मडिहला हैं; मगर अपनी �ाडित के अवगुण उनमें भी डिवद्यमान हैं! ईमानदार मनुष्य स्वभावत: स्पQभार्षोी होता है; उसे अपनी बातों में नमक-मिमच@ लगाने की �रुरत नहीं होती। यही कारण है डिक मुंशी �ी के मृदुभार्षोी मातहतों को उन पर आक्षेप करने का मौका मिमल गया। इस दावे की �ड़ केवल इतनी ही है, और कुछ नहीं। भानुकँुवरिर यहॉँ उपज्जिस्थत हैं। क्या वे कह सकती हैं डिक इस आठ वर्षो@ की मुद्दत में कभी इस गॉँव का जि�R उनके सामने आया? कभी उसके हाडिन-लाभ, आय-र्व्यय, लेन-देन की चचा@ उनसे की गयी? मान लीजि�ए डिक मैं गवन@मेंट का मुलाजि�म हँू। यदिद मैं आ� दफ्तर में आकर अपनी पत्नी के आय-र्व्यय और अपने टहलुओं के टैक्सों का पचड़ा गाने लगूँ, तो शायद मुझे शीघ्र ही अपने पद से पृथक होना पडे़, और सम्भव है, कुछ दिदनों तक बरेली की अडितसिथशाला में भी रखा �ाऊँ। जि�स गॉँव से भानुकँुवरिर का सरोवार न था, उसकी चचा@ उनसे क्यों की �ाती?’

इसके बाद बहुत से गवाह पेश हुए; जि�नमें अमिधकांश आस-पास के देहातों के �मींदार थे। उन्होंने बयान डिकया डिक हमने मुंशी सत्यनारायण असामिमयों को अपनी दस्तखती रसीदें और अपने नाम से ख�ाने में रुपया दाखिखल करते देखा है।

इतने में संध्या हो गयी। अदालत ने एक सप्ताह में Mैसला सुनाने का हुक्म दिदया।

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त्यनाराण को अब अपनी �ीत में कोई सन्देह न था। वादी पक्ष के गवाह भी उखड़ गये थे और बहस भी सबूत से खाली थी। अब इनकी डिगनती भी �मींदारों में होगी

और सम्भव है, यह कुछ दिदनों में रईस कहलाने लगेंगे। पर डिकसी न डिकसी कारण से अब शहर के गणमान्य पुरुर्षोों से ऑंखें मिमलाते शमा@ते थे। उन्हें देखते ही उनका सिसर नीचा हो

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�ाता था। वह मन में �रते थे डिक वे लोग कहीं इस डिवर्षोय पर कुछ पूछ-ताछ न कर बैठें । वह बा�ार में डिनकलते तो दूकानदारों में कुछ कानाMूसी होने लगती और लोग उन्हें डितरछी दृमिQ से देखने लगते। अब तक लोग उन्हें डिववेकशील और सच्चरिरत्र मनुष्य समझते, शहर के धनी-मानी उन्हें इqत की डिनगाह से देखते और उनका बड़ा आदर करते थे। यद्यडिप मुंशी �ी को अब तक इनसे टेढ़ी-डितरछी सुनने का संयोग न पड़ा था, तथाडिप उनका मन कहता था डिक सच्ची बात डिकसी से सिछपी नहीं है। चाहे अदालत से उनकी �ीत हो �ाय, पर उनकी साख अब �ाती रही। अब उन्हें लोग स्वाथ�, कपटी और दगाबा� समझेंगे। दूसरों की बात तो अलग रही, स्वयं उनके घरवाले उनकी उपेक्षा करते थे। बूढ़ी माता ने तीन दिदन से मुँह में पानी नहीं �ाला! स्त्री बार-बार हाथ �ोड़ कर कहती थी डिक अपने प्यारे बालकों पर दया करो। बुरे काम का Mल कभी अच्छा नहीं होता! नहीं तो पहले मुझी को डिवर्षो खिखला दो।

जि�स दिदन Mैसला सुनाया �ानेवाला था, प्रात:काल एक कंु�डिड़न तरकारिरयॉँ लेकर आयी और मुंसिशयाइन से बोली—

‘बहू �ी! हमने बा�ार में एक बात सुनी है। बुरा न मानों तो कहूँ? जि�सको देखो, उसके मुँह से यही बात डिनकलती है डिक लाला बाबू ने �ालसा�ी से पंडि�ताइन का कोई हलका ले सिलया। हमें तो इस पर यकीन नहीं आता। लाला बाबू ने न सँभाला होता, तो अब तक पंडि�ताइन का कहीं पता न लगता। एक अंगुल �मीन न बचती। इन्हीं में एक सरदार था डिक सबको सँभाल सिलया। तो क्या अब उन्हीं के साथ बदी करेंगे? अरे बहू! कोई कुछ साथ लाया है डिक ले �ायगा? यही नेक-बदी रह �ाती है। बुरे का Mल बुरा होता है। आदमी न देखे, पर अल्लाह सब कुछ देखता है।’

बहू �ी पर घड़ों पानी पड़ गया। �ी चाहता था डिक धरती Mट �ाती, तो उसमें समा �ाती। म्मिस्त्रयॉँ स्वभावत: लqावती होती हैं। उनमें आत्मात्तिभमान की मात्रा अमिधक होती है। डिनन्दा-अपमान उनसे सहन नहीं हो सकता है। सिसर झुकाये हुए बोली—बुआ! मैं इन बातों को क्या �ानूँ? मैंने तो आ� ही तुम्हारे मुँह से सुनी है। कौन-सी तरकारिरयॉँ हैं?

मुंशी सत्यनारायण अपने कमरे में लेटे हुए कंु�डिड़न की बातें सुन रहे थे, उसके चले �ाने के बाद आकर स्त्री से पूछने लगे—यह शैतान की खाला क्या कह रही थी।

स्त्री ने पडित की ओर से मुंह Mेर सिलया और �मीन की ओर ताकते हुए बोली—क्या तुमने नहीं सुना? तुम्हारा गुन-गान कर रही थी। तुम्हारे पीछे देखो, डिकस-डिकसके मुँह से ये बातें सुननी पड़ती हैं और डिकस-डिकससे मुँह सिछपाना पड़ता है।

मुंशी �ी अपने कमरे में लौट आये। स्त्री को कुछ उत्तर नहीं दिदया। आत्मा लqा से परास्त हो गयी। �ो मनुष्य सदैव सव@-सम्माडिनत रहा हो; �ो सदा आत्मात्तिभमान से सिसर उठा कर चलता रहा हो, जि�सकी सुकृडित की सारे शहर में चचा@ होती हो, वह कभी सव@था लqाशून्य नहीं हो सकता; लqा कुपथ की सबसे बड़ी शतु्र है। कुवासनाओं के भ्रम में पड़ कर मुंशी �ी ने समझा था, मैं इस काम को ऐसी गुप्त-रीडित से पूरा कर ले �ाऊँगा डिक डिकसी को कानों-कान खबर न होगी, पर उनका यह मनोरथ सिसद्ध न हुआ। बाधाऍं आ खड़ी हुई।

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उनके हटाने में उन्हें बडे़ दुस्साहस से काम लेना पड़ा; पर यह भी उन्होंने लqा से बचने के डिनमिमत्त डिकया। जि�समें यह कोई न कहे डिक अपनी स्वामिमनी को धोखा दिदया। इतना यत्न करने पर भी निनंदा से न बच सके। बा�ार का सौदा बेचनेवासिलयॉँ भी अब अपमान करतीं हैं। कुवासनाओं से दबी हुई लqा-शसिक्त इस कड़ी चोट को सहन न कर सकी। मुंशी �ी सोचने लगे, अब मुझे धन-सम्पत्तित्त मिमल �ायगी, ऐश्वय@वान् हो �ाऊँगा, परन्तु डिनन्दा से मेरा पीछा न छूटेगा। अदालत का Mैसला मुझे लोक-डिनन्दा से न बचा सकेगा। ऐश्वय@ का Mल क्या है?—मान और मया@दा। उससे हाथ धो बैठा, तो ऐश्वय@ को लेकर क्या करँुगा? सिचत्त की शसिक्त खोकर, लोक-लqा सहकर, �नसमुदाय में नीच बन कर और अपने घर में कलह का बी� बोकर यह सम्पत्तित्त मेरे डिकस काम आयेगी? और यदिद वास्तव में कोई न्याय-शसिक्त हो और वह मुझे इस कुकृत्य का दं� दे, तो मेरे सिलए सिसवा मुख में कासिलख लगा कर डिनकल �ाने के और कोई माग@ न रहेगा। सत्यवादी मनुष्य पर कोई डिवपत्त पड़ती हैं, तो लोग उनके साथ सहानुभूडित करते हैं। दुQों की डिवपत्तित्त लोगों के सिलए रं्व्यग्य की सामग्री बन �ाती है। उस अवस्था में ईश्वर अन्यायी ठहराया �ाता है; मगर दुQों की डिवपत्तित्त ईश्वर के न्याय को सिसद्ध करती है। परमात्मन! इस दुद@शा से डिकसी तरह मेरा उद्धार करो! क्यों न �ाकर मैं भानुकँुवरिर के पैरों पर डिगर पड़ूँ और डिवनय करँु डिक यह मुकदमा उठा लो? शोक! पहले यह बात मुझे क्यों न सूझी? अगर कल तक में उनके पास चला गया होता, तो बात बन �ाती; पर अब क्या हो सकता है। आ� तो Mैसला सुनाया �ायगा।

मुंशी �ी देर तक इसी डिवचार में पडे़ रहे, पर कुछ डिनश्चय न कर सके डिक क्या करें।भानुकँुवरिर को भी डिवश्वास हो गया डिक अब गॉँव हाथ से गया। बेचारी हाथ मल कर

रह गयी। रात-भर उसे नींद न आयी, रह-रह कर मुंशी सत्यनारायण पर Rोध आता था। हाय पापी! ढोल ब�ा कर मेरा पचास ह�ार का माल सिलए �ाता है और मैं कुछ नहीं कर सकती। आ�कल के न्याय करने वाले डिबलकुल ऑंख के अँधे हैं। जि�स बात को सारी दुडिनया �ानती है, उसमें भी उनकी दृमिQ नहीं पहुँचती। बस, दूसरों को ऑंखों से देखते हैं। कोरे काग�ों के गुलाम हैं। न्याय वह है �ो दूध का दूध, पानी का पानी कर दे; यह नहीं डिक खुद ही काग�ों के धोखे में आ �ाय, खुद ही पाखंडि�यों के �ाल में Mँस �ाय। इसी से तो ऐसी छली, कपटी, दगाबा�, और दुरात्माओं का साहस बढ़ गया है। खैर, गॉँव �ाता है तो �ाय; लेडिकन सत्यनारायण, तुम शहर में कहीं मुँह दिदखाने के लायक भी न रहे।

इस खयाल से भानुकँुवरिर को कुछ शास्टिन्त हुई। शतु्र की हाडिन मनुष्य को अपने लाभ से भी अमिधक डिप्रय होती है, मानव-स्वभाव ही कुछ ऐसा है। तुम हमारा एक गॉँव ले गये, नारायण चाहेंगे तो तुम भी इससे सुख न पाओगे। तुम आप नरक की आग में �लोगे, तुम्हारे घर में कोई दिदया �लाने वाला न रह �ायगा।

Mैसले का दिदन आ गया। आ� इ�लास में बड़ी भीड़ थी। ऐसे-ऐसे महानुभाव उपज्जिस्थत थे, �ो बगुलों की तरह अMसरों की बधाई और डिबदाई के अवसरों ही में न�र आया करते हैं। वकीलों और मुख्तारों की पलटन भी �मा थी। डिनयत समय पर �� साहब

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ने इ�लास सुशोत्तिभत डिकया। डिवस्तृत न्याय भवन में सन्नाटा छा गया। अहलमद ने संदूक से त�बी� डिनकाली। लोग उत्सुक होकर एक-एक कदम और आगे खिखसक गए।

�� ने Mैसला सुनाया—मुद्दई का दावा खारिर�। दोनों पक्ष अपना-अपना खच@ सह लें।

यद्यडिप Mैसला लोगों के अनुमान के अनुसार ही था, तथाडिप �� के मुँह से उसे सुन कर लोगों में हलचल-सी मच गयी। उदासीन भाव से Mैसले पर आलोचनाऍं करते हुए लोग धीरे-धीरे कमरे से डिनकलने लगे।

एकाएक भानुकँुवरिर घूँघट डिनकाले इ�लास पर आ कर खड़ी हो गयी। �ानेवाले लौट पडे़। �ो बाहर डिनकल गये थे, दौड़ कर आ गये। और कौतूहलपूव@क भानुकँुवरिर की तरM ताकने लगे।

भानुकँुवरिर ने कंडिपत स्वर में �� से कहा—सरकार, यदिद हुक्म दें, तो मैं मुंशी �ी से कुछ पूछँू।

यद्यडिप यह बात डिनयम के डिवरुद्ध थी, तथाडिप �� ने दयापूव@क आज्ञा दे दी।तब भानुकँुवरिर ने सत्यनारायण की तरM देख कर कहा—लाला �ी, सरकार ने

तुम्हारी डि�ग्री तो कर ही दी। गॉँव तुम्हें मुबारक रहे; मगर ईमान आदमी का सब कुछ है। ईमान से कह दो, गॉँव डिकसका है?

ह�ारों आदमी यह प्रश्न सुन कर कौतूहल से सत्यनारायण की तरM देखने लगे। मुंशी �ी डिवचार-सागर में �ूब गये। हृदय में संकल्प और डिवकल्प में घोर संग्राम होने लगा। ह�ारों मनुष्यों की ऑंखें उनकी तरM �मी हुई थीं। यथाथ@ बात अब डिकसी से सिछपी न थी। इतने आदमिमयों के सामने असत्य बात मुँह से डिनकल न सकी। लqा से �बान बंद कर ली—‘मेरा’ कहने में काम बनता था। कोई बात न थी; निकंतु घोरतम पाप का दं� समा� दे सकता है, उसके मिमलने का पूरा भय था। ‘आपका’ कहने से काम डिबगड़ता था। �ीती-जि�तायी बा�ी हाथ से डिनकली �ाती थी, सव`त्कृQ काम के सिलए समा� से �ो इनाम मिमल सकता है, उसके मिमलने की पूरी आशा थी। आशा के भय को �ीत सिलया। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ, �ैसे ईश्वर ने मुझे अपना मुख उqवल करने का यह अंडितम अवसर दिदया है। मैं अब भी मानव-सम्मान का पात्र बन सकता हँू। अब अपनी आत्मा की रक्षा कर सकता हँू। उन्होंने आगे बढ़ कर भानुकँुवरिर को प्रणाम डिकया और कॉँपते हुए स्वर से बोले—आपका!

ह�ारों मनुष्यों के मुँह से एक गगनस्पश� ध्वडिन डिनकली—सत्य की �य!�� ने खडे़ होकर कहा—यह कानून का न्याय नहीं, ईश्वरीय न्याय है! इसे कथा न

समजिझएगा; यह सच्ची घटना है। भानुकँुवरिर और सत्य नारायण अब भी �ीडिवत हैं। मुंशी �ी के इस नैडितक साहस पर लोग मुगध हो गए। मानवीय न्याय पर ईश्वरीय न्याय ने �ो डिवलक्षण डिव�य पायी, उसकी चचा@ शहर भर में महीनों रही। भानुकँुवरिर मुंशी �ी के घर गयी, उन्हें मना कर लायीं। डिMर अपना सारा कारोबार उन्हें सौंपा और कुछ दिदनों उपरांत यह गॉँव उन्हीं के नाम डिहब्बा कर दिदया। मुंशी �ी ने भी उसे अपने अमिधकार में रखना उसिचत न

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समझा, कृष्णाप@ण कर दिदया। अब इसकी आमदनी दीन-दुखिखयों और डिवद्यार्थिथंयों की सहायता में खच@ होती है।

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ममता

बू रामरक्षादास दिदल्ली के एक ऐश्वय@शाली खत्री थे, बहुत ही ठाठ-बाट से रहनेवाले। बडे़-बडे़ अमीर उनके यहॉँ डिनत्य आते-आते थे। वे आयें हुओं का आदर-सत्कार ऐसे

अचे्छ ढंग से करते थे डिक इस बात की धूम सारे मुहल्ले में थी। डिनत्य उनके दरवा�े पर डिकसी न डिकसी बहाने से इQ-मिमत्र एकत्र हो �ाते, टेडिनस खेलते, ताश उड़ता, हारमोडिनयम के मधुर स्वरों से �ी बहलाते, चाय-पानी से हृदय प्रMुज्जिल्लत करते, अमिधक और क्या चाडिहए? �ाडित की ऐसी अमूल्य सेवा कोई छोटी बात नहीं है। नीची �ाडितयों के सुधार के सिलये दिदल्ली में एक सोसायटी थी। बाबू साहब उसके सेRेटरी थे, और इस काय@ को असाधारण उत्साह से पूण@ करते थे। �ब उनका बूढ़ा कहार बीमार हुआ और डिRत्तिश्चयन मिमशन के �ाक्टरों ने उसकी सुश्रुर्षोा की, �ब उसकी डिवधवा स्त्री ने डिनवा@ह की कोई आशा न देख कर डिRत्तिश्चयन-समा� का आश्रय सिलया, तब इन दोनों अवसरों पर बाबू साहब ने शोक के रे�ल्यूशन्स पास डिकये। संसार �ानता है डिक सेRेटरी का काम सभाऍं करना और रे�ल्यूशन बनाना है। इससे अमिधक वह कुछ नहीं कर सकता।

बा

मिमस्टर रामरक्षा का �ातीय उत्साह यही तक सीमाबद्ध न था। वे सामाजि�क कुप्रथाओं तथा अंध-डिवश्वास के प्रबल शतु्र थे। होली के दिदनों में �ब डिक मुहल्ले में चमार और कहार शराब से मतवाले होकर Mाग गाते और �M ब�ाते हुए डिनकलते, तो उन्हें, बड़ा शोक होता। �ाडित की इस मूख@ता पर उनकी ऑंखों में ऑंसू भर आते और वे प्रात: इस कुरीडित का डिनवारण अपने हंटर से डिकया करते। उनके हंटर में �ाडित-डिहतैडिर्षोता की उमंग उनकी वकृ्तता से भी अमिधक थी। यह उन्हीं के प्रशंसनीय प्रयत्न थे, जि�न्होंने मुख्य होली के दिदन दिदल्ली में हलचल मचा दी, Mाग गाने के अपराध में ह�ारों आदमी पुसिलस के पं�े में आ गये। सैकड़ों घरों में मुख्य होली के दिदन मुहर@म का-सा शोक Mैल गया। इधर उनके दरवा�े पर ह�ारों पुरुर्षो-म्मिस्त्रयॉँ अपना दुखड़ा रो रही थीं। उधर बाबू साहब के डिहतैर्षोी मिमत्रगण अपने उदारशील मिमत्र के सद्व्यवहार की प्रशंसा करते। बाबू साहब दिदन-भर में इतने रंग बदलते थे डिक उस पर ‘पेरिरस’ की परिरयों को भी ईष्या@ हो सकती थी। कई बैंकों में उनके डिहस्से थे। कई दुकानें थीं; निकंतु बाबू साहब को इतना अवकाश न था डिक उनकी कुछ देखभाल करते। अडितसिथ-सत्कार एक पडिवत्र धम@ है। ये सच्ची देशडिहतैडिर्षोता की उमंग से कहा करते थे—अडितसिथ-सत्कार आदिदकाल से भारतवर्षो@ के डिनवासिसयों का एक प्रधान और सराहनीय गुण है। अभ्यागतों का आदर-सम्मान करनें में हम अडिbतीय हैं। हम इससे संसार में मनुष्य कहलाने योग्य हैं। हम सब कुछ खो बैठे हैं, डिकन्तु जि�स दिदन हममें यह गुण शेर्षो न रहेगा; वह दिदन निहंदू-�ाडित के सिलए लqा, अपमान और मृत्यु का दिदन होगा।

मिमस्टर रामरक्षा �ातीय आवश्यकताओं से भी बेपरवाह न थे। वे सामाजि�क और रा�नीडितक काय` में पूण@रुपेण योग देते थे। यहॉँ तक डिक प्रडितवर्षो@ दो, बश्किल्क कभी-कभी

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तीन वकृ्तताऍं अवश्य तैयार कर लेते। भार्षोणों की भार्षोा अत्यंत उपयुक्त, ओ�स्वी और सवा�ग संुदर होती थी। उपज्जिस्थत �न और इQमिमत्र उनके एक-एक शब्द पर प्रशंसासूचक शब्दों की ध्वडिन प्रकट करते, तासिलयॉँ ब�ाते, यहॉँ तक डिक बाबू साहब को र्व्याख्यान का Rम ज्जिस्थर रखना कदिठन हो �ाता। र्व्याख्यान समाप्त होने पर उनके मिमत्र उन्हें गोद में उठा लेते और आश्चय@चडिकत होकर कहते—तेरी भार्षोा में �ादू है! सारांश यह डिक बाबू साहब के यह �ातीय पे्रम और उद्योग केवल बनावटी, सहायता-शून्य तथ Mैशनेडिबल था। यदिद उन्होंने डिकसी सदुद्योग में भाग सिलया था, तो वह सम्मिम्मसिलत कुटुम्ब का डिवरोध था। अपने डिपता के पश्चात वे अपनी डिवधवा मॉँ से अलग हो गए थे। इस �ातीय सेवा में उनकी स्त्री डिवशेर्षो सहायक थी। डिवधवा मॉँ अपने बेटे और बहू के साथ नहीं रह सकती थी। इससे बहू की सवाधीनता में डिवघ्न पड़ने से मन दुब@ल और मश्किस्तष्क शसिक्तहीन हो �ाता है। बहू को �लाना और कुढ़ाना सास की आदत है। इससिलए बाबू रामरक्षा अपनी मॉँ से अलग हो गये थे। इसमें संदेह नहीं डिक उन्होंने मातृ-ऋण का डिवचार करके दस ह�ार रुपये अपनी मॉँ के नाम �मा कर दिदये थे, डिक उसके ब्या� से उनका डिनवा@ह होता रहे; निकंतु बेटे के इस उत्तम आचरण पर मॉँ का दिदल ऐसा टूटा डिक वह दिदल्ली छोड़कर अयोध्या �ा रहीं। तब से वहीं रहती हैं। बाबू साहब कभी-कभी मिमसे� रामरक्षा से सिछपकर उससे मिमलने अयोध्या �ाया करते थे, निकंतु वह दिदल्ली आने का कभी नाम न लेतीं। हॉँ, यदिद कुशल-के्षम की सिचट्ठी पहुँचने में कुछ देर हो �ाती, तो डिववश होकर समाचार पूछ देती थीं।

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सी मुहल्ले में एक सेठ डिगरधारी लाल रहते थे। उनका लाखों का लेन-देन था। वे हीरे और रत्नों का र्व्यापार करते थे। बाबू रामरक्षा के दूर के नाते में साढ़ू होते थे। पुराने ढंग

के आदमी थे—प्रात:काल यमुना-स्नान करनेवाले तथा गाय को अपने हाथों से झाड़ने-पोंछनेवाले! उनसे मिमस्टर रामरक्षा का स्वभाव न मिमलता था; परन्तु �ब कभी रुपयों की आवश्यकता होती, तो वे सेठ डिगरधारी लाल के यहॉँ से बेखटके मँगा सिलया करते थे। आपस का मामला था, केवल चार अंगुल के पत्र पर रुपया मिमल �ाता था, न कोई दस्तावे�, न स्टाम्प, न सात्तिक्षयों की आवश्यकता। मोटरकार के सिलए दस ह�ार की आवश्यकता हुई, वह वहॉँ से आया। घुड़दौड़ के सिलए एक आस्टे्रसिलयन घोड़ा �ेढ़ ह�ार में सिलया गया। उसके सिलए भी रुपया सेठ �ी के यहॉँ से आया। धीरे-धीरे कोई बीस ह�ार का मामला हो गया। सेठ �ी सरल हृदय के आदमी थे। समझते थे डिक उसके पास दुकानें हैं, बैंकों में रुपया है। �ब �ी चाहेगा, रुपया वसूल कर लेंगे; डिकन्तु �ब दो-तीन वर्षो@ र्व्यतीत हो गये और सेठ �ी तका�ों की अपेक्षा मिमस्टर रामरक्षा की मॉँग ही का अमिधक्य रहा तो डिगरधारी लाल को सन्देह हुआ। वह एक दिदन रामरक्षा के मकान पर आये और सभ्य-भाव से बोले—भाई साहब, मुझे एक हुण्�ी का रुपया देना है, यदिद आप मेरा डिहसाब कर दें तो बहुत अच्छा हो। यह कह कर

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डिहसाब के काग�ात और उनके पत्र दिदखलायें। मिमस्टर रामरक्षा डिकसी गा�@न-पाट© में सम्मिम्मसिलत होने के सिलए तैयार थे। बोले—इस समय क्षमा कीजि�ए; डिMर देख लूँगा, �ल्दी क्या है?

डिगरधारी लाल को बाबू साहब की रुखाई पर Rोध आ गया, वे रुQ होकर बोले—आपको �ल्दी नहीं है, मुझे तो है! दो सौ रुपये मासिसक की मेरी हाडिन हो रही है! मिमस्टर के असंतोर्षो प्रकट करते हुए घड़ी देखी। पाट© का समय बहुत करीब था। वे बहुत डिवनीत भाव से बोले—भाई साहब, मैं बड़ी �ल्दी में हँू। इस समय मेरे ऊपर कृपा कीजि�ए। मैं कल स्वयं उपज्जिस्थत हँूगा।

सेठ �ी एक माननीय और धन-सम्पन्न आदमी थे। वे रामरक्षा के कुरुसिचपूण@ र्व्यवहार पर �ल गए। मैं इनका महा�न हँू—इनसे धन में, मान में, ऐश्वय@ में, बढ़ा हुआ, चाहँू तो ऐसों को नौकर रख लूँ, इनके दरवा�ें पर आऊँ और आदर-सत्कार की �गह उलटे ऐसा रुखा बता@व? वह हाथ बॉँधे मेरे सामने न खड़ा रहे; डिकन्तु क्या मैं पान, इलायची, इत्र आदिद से भी सम्मान करने के योग्य नहीं? वे डितनक कर बोले—अच्छा, तो कल डिहसाब साM हो �ाय।

रामरक्षा ने अकड़ कर उत्तर दिदया—हो �ायगा।रामरक्षा के गौरवशाल हृदय पर सेठ �ी के इस बता@व के प्रभाव का कुछ खेद-�नक

असर न हुआ। इस काठ के कुन्दे ने आ� मेरी प्रडितष्ठा धूल में मिमला दी। वह मेरा अपमान कर गया। अच्छा, तुम भी इसी दिदल्ली में रहते हो और हम भी यही हैं। डिनदान दोनों में गॉँठ पड़ गयी। बाबू साहब की तबीयत ऐसी डिगरी और हृदय में ऐसी सिचन्ता उत्पन्न हुई डिक पाट© में आने का ध्यान �ाता रहा, वे देर तक इसी उलझन में पडे़ रहे। डिMर सूट उतार दिदया और सेवक से बोले—�ा, मुनीम �ी को बुला ला। मुनीम �ी आये, उनका डिहसाब देखा गया, डिMर बैंकों का एकाउंट देखा; डिकन्तु ज्यों-ज्यों इस घाटी में उतरते गये, त्यों-त्यों अँधेरा बढ़ता गया। बहुत कुछ टटोला, कुछ हाथ न आया। अन्त में डिनराश होकर वे आराम-कुस� पर पड़ गए और उन्होंने एक ठं�ी सॉँस ले ली। दुकानों का माल डिबका; डिकन्तु रुपया बकाया में पड़ा हुआ था। कई ग्राहकों की दुकानें टूट गयी। और उन पर �ो नकद रुपया बकाया था, वह �ूब गया। कलकते्त के आढ़डितयों से �ो माल मँगाया था, रुपये चुकाने की डितसिथ सिसर पर आ पहुँची और यहॉँ रुपया वसूल न हुआ। दुकानों का यह हाल, बैंकों का इससे भी बुरा। रात-भर वे इन्हीं चिचंताओं में करवटें बदलते रहे। अब क्या करना चाडिहए? डिगरधारी लाल सqन पुरुर्षो हैं। यदिद सारा हाल उसे सुना दँू, तो अवश्य मान �ायगा, डिकन्तु यह कQप्रद काय@ होगा कैसे? ज्यों-ज्यों प्रात:काल समीप आता था, त्यों-त्यों उनका दिदल बैठा �ाता था। कच्चे डिवद्याथ� की �ो दशा परीक्षा के समिन्नकट आने पर होती है, यही हाल इस समय रामरक्षा का था। वे पलंग से न उठे। मुँह-हाथ भी न धोया, खाने को कौन कहे। इतना �ानते थे डिक दु:ख पड़ने पर कोई डिकसी का साथी नहीं होता। इससिलए एक आपत्तित्त से बचने के सिलए कई आपत्तित्तयों का बोझा न उठाना पडे़, इस खयाल से मिमत्रों को इन मामलों की खबर तक न दी।

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�ब दोपहर हो गया और उनकी दशा ज्यों की त्यों रही, तो उनका छोटा लड़का बुलाने आया। उसने बाप का हाथ पकड़ कर कहा—लाला �ी, आ� दाने क्यों नहीं तलते?

रामरक्षा—भूख नहीं है।‘क्या काया है?’‘मन की मिमठाई।’‘और क्या काया है?’‘मार।’‘डिकसने मारा है?’‘डिगरधारीलाल ने।’लड़का रोता हुआ घर में गया और इस मार की चोट से देर तक रोता रहा। अन्त में

तश्तरी में रखी हुई दूध की मलाई ने उसकी चोट पर मरहम का काम डिकया।3

गी को �ब �ीने की आशा नहीं रहती, तो और्षोमिध छोड़ देता है। मिमस्टर रामरक्षा �ब इस गुत्थी को न सुलझा सके, तो चादर तान ली और मुँह लपेट कर सो रहे। शाम को

एकाएक उठ कर सेठ �ी के यहॉँ पहुँचे और कुछ असावधानी से बोले—महाशय, मैं आपका डिहसाब नहीं कर सकता।

रोसेठ �ी घबरा कर बोले—क्यों?रामरक्षा—इससिलए डिक मैं इस समय दरिरद्र-डिनहंग हँू। मेरे पास एक कौड़ी भी नहीं है।

आप का रुपया �ैसे चाहें वसूल कर लें।सेठ—यह आप कैसी बातें कहते हैं?रामरक्षा—बहुत सच्ची।सेठ—दुकानें नहीं हैं?रामरक्षा—दुकानें आप मुफ्त लो �ाइए।सेठ—बैंक के डिहस्से?रामरक्षा—वह कब के उड़ गये।सेठ—�ब यह हाल था, तो आपको उसिचत नहीं था डिक मेरे गले पर छुरी Mेरते?रामरक्षा—(अत्तिभमान) मैं आपके यहॉँ उपदेश सुनने के सिलए नहीं आया हँू।यह कह कर मिमस्टर रामरक्षा वहॉँ से चल दिदए। सेठ �ी ने तुरन्त नासिलश कर दी।

बीस ह�ार मूल, पॉँच ह�ार ब्या�। डि�गरी हो गयी। मकान नीलाम पर चढ़ा। पन्द्रह ह�ार की �ायदाद पॉँच ह�ार में डिनकल गयी। दस ह�ार की मोटर चार ह�ार में डिबकी। सारी सम्पत्तित्त उड़ �ाने पर कुल मिमला कर सोलह ह�ार से अमिधक रमक न खड़ी हो सकी। सारी गृहस्थी नQ हो गयी, तब भी दस ह�ार के ऋणी रह गये। मान-बड़ाई, धन-दौलत सभी मिमट्टी में मिमल गये। बहुत ते� दौड़ने वाला मनुष्य प्राय: मुँह के बल डिगर पड़ता है।

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स घटना के कुछ दिदनों पश्चात् दिदल्ली म्युडिनसिसपैसिलटी के मेम्बरों का चुनाव आरम्भ हुआ। इस पद के अत्तिभलार्षोी वोटरों की स�ाऍं करने लगे। दलालों के भाग्य उदय हुए।

सम्मडितयॉँ मोडितयों की तोल डिबकने लगीं। उम्मीदवार मेम्बरों के सहायक अपने-अपने मुवज्जिक्कल के गुण गान करने लगे। चारों ओर चहल-पहल मच गयी। एक वकील महाशय ने भरी सभा में मुवज्जिक्कल साहब के डिवर्षोय में कहा—

इ‘मैं जि�स बु�रुग का पैरोकार हँू, वह कोई मामूली आदमी नहीं है। यह वह शख्स है,

जि�सने Mर�ंद अकबर की शादी में पचीस ह�ार रुपया सिसM@ रक्स व सरुर में सM@ कर दिदया था।’

उपज्जिस्थत �नों में प्रशंसा की उच्च ध्वडिन हुईएक दूसरे महाशय ने अपने मुहल्ले के वोटरों के सम्मुख मुवज्जिक्कल की प्रशंसा यों की

—“मैं यह नहीं कह सकता डिक आप सेठ डिगरधारीलाल को अपना मेम्बर बनाइए। आप

अपना भला-बुरा स्वयं समझते हैं, और यह भी नहीं डिक सेठ �ी मेरे bारा अपनी प्रशंसा के भूखें हों। मेरा डिनवेदन केवल यही है डिक आप जि�से मेम्बर बनायें, पहले उसके गुण-दोर्षोों का भली भॉँडित परिरचय ले लें। दिदल्ली में केवल एक मनुष्य है, �ो गत वर्षो` से आपकी सेवा कर रहा है। केवल एक आदमी है, जि�सने पानी पहुँचाने और स्वच्छता-प्रबंधों में हार्दिदंक धम@-भाव से सहायता दी है। केवल एक पुरुर्षो है, जि�सको श्रीमान वायसराय के दरबार में कुस� पर बैठने का अमिधकार प्राप्त है, और आप सब महाशय उसे �ानते भी हैं।”

उपज्जिस्थत �नों ने तासिलयॉँ ब�ायीं।सेठ डिगरधारीलाल के मुहल्ले में उनके एक प्रडितवादी थे। नाम था मुंशी Mै�ुलरहमान

खॉँ। बडे़ �मींदार और प्रसिसद्ध वकील थे। बाबू रामरक्षा ने अपनी दृढ़ता, साहस, बुडिbमत्ता और मृदु भार्षोण से मुंशी �ी साहब की सेवा करनी आरम्भ की। सेठ �ी को परास्त करने का यह अपूव@ अवसर हाथ आया। वे रात और दिदन इसी धुन में लगे रहते। उनकी मीठी और रोचक बातों का प्रभाव उपज्जिस्थत �नों पर बहुत अच्छा पड़ता। एक बार आपने असाधारण श्रद्धा-उमंग में आ कर कहा—मैं �ंके की चोट पर कहता हँू डिक मुंशी Mै�ुल रहमान से अमिधक योग्य आदमी आपको दिदल्ली में न मिमल सकेगा। यह वह आदमी है, जि�सकी ग�लों पर कडिव�नों में ‘वाह-वाह’ मच �ाती है। ऐसे श्रेष्ठ आदमी की सहायता करना मैं अपना �ातीय और सामाजि�क धम@ समझता हँू। अत्यंत शोक का डिवर्षोय है डिक बहुत-से लोग इस �ातीय और पडिवत्र काम को र्व्यसिक्तगत लाभ का साधन बनाते हैं; धन और वस्तु है, श्रीमान वायसराय के दरबार में प्रडितमिष्ठत होना और वस्तु, निकंतु सामाजि�क सेवा तथा �ातीय चाकरी और ही ची� है। वह मनुष्य, जि�सका �ीवन ब्या�-प्रास्टिप्त, बेईमानी, कठोरता तथा डिनद@यता और सुख-डिवलास में र्व्यतीत होता हो, इस सेवा के योग्य कदाडिप नहीं है।

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ठ डिगरधारीलाल इस अन्योसिक्तपूण@ भार्षोण का हाल सुन कर Rोध से आग हो गए। मैं बेईमान हँू! ब्या� का धन खानेवाला हँू! डिवर्षोयी हँू! कुशल हुई, �ो तुमने मेरा नाम नहीं

सिलया; निकंतु अब भी तुम मेरे हाथ में हो। मैं अब भी तुम्हें जि�स तरह चाहँू, नचा सकता हँू। खुशामदिदयों ने आग पर तेल �ाला। इधर रामरक्षा अपने काम में तत्पर रहे। यहॉँ तक डिक ‘वोटिटंग-�े’ आ पहुँचा। मिमस्टर रामरक्षा को उद्योग में बहुत कुछ सMलता प्राप्त हुई थी। आ� वे बहुत प्रसन्न थे। आ� डिगरधारीलाल को नीचा दिदखाऊँगा, आ� उसको �ान पडे़गा डिक धन संसार के सभी पदाथ` को इकट्ठा नहीं कर सकता। जि�स समय Mै�ुलरहमान के वोट अमिधक डिनकलेंगे और मैं तासिलयॉँ ब�ाऊँगा, उस समय डिगरधारीलाल का चेहरा देखने योग्य होगा, मुँह का रंग बदल �ायगा, हवाइयॉँ उड़ने लगेगी, ऑंखें न मिमला सकेगा। शायद, डिMर मुझे मुँह न दिदखा सके। इन्हीं डिवचारों में मग्न रामरक्षा शाम को टाउनहाल में पहुँचे। उपज्जिस्थत �नों ने बड़ी उमंग के साथ उनका स्वागत डिकया। थोड़ी देर के बाद ‘वोटिटंग’ आरम्भ हुआ। मेम्बरी मिमलने की आशा रखनेवाले महानुभाव अपने-अपने भाग्य का अंडितम Mल सुनने के सिलए आतुर हो रहे थे। छह ब�े चेयरमैन ने Mैसला सुनाया। सेठ �ी की हार हो गयी। Mै�ुलरहमान ने मैदान मार सिलया। रामरक्षा ने हर्षो@ के आवेग में टोपी हवा में उछाल दी और स्वयं भी कई बार उछल पडे़। मुहल्लेवालों को अचम्भा हुआ। चॉदनी चौक से सेठ �ी को हटाना मेरु को स्थान से उखाड़ना था। सेठ �ी के चेहरे से रामरक्षा को जि�तनी आशाऍं थीं, वे सब पूरी हो गयीं। उनका रंग Mीका पड़ गया था। खेद और लqा की मूर्षितं बने हुए थे। एक वकील साहब ने उनसे सहानुभूडित प्रकट करते हुए कहा—सेठ �ी, मुझे आपकी हार का बहुत बड़ा शोक है। मैं �ानता डिक खुशी के बदले रं� होगा, तो कभी यहॉँ न आता। मैं तो केवल आपके ख्याल से यहॉँ आया था। सेठ �ी ने बहुत रोकना चाहा, परंतु ऑंखों में ऑंसू �ब�बा ही गये। वे डिन:सृ्पह बनाने का र्व्यथ@ प्रयत्न करके बोले—वकील साहब, मुझे इसकी कुछ चिचंता नहीं, कौन रिरयासत डिनकल गयी? र्व्यथ@ उलझन, चिचंता तथा झंझट रहती थी, चलो, अच्छा हुआ। गला छूटा। अपने काम में हर� होता था। सत्य कहता हँू, मुझे तो हृदय से प्रसन्नता ही हुई। यह काम तो बेकाम वालों के सिलए है, घर न बैठे रहे, यही बेगार की। मेरी मूख@ता थी डिक मैं इतने दिदनों तक ऑंखें बंद डिकये बैठा रहा। परंतु सेठ �ी की मुखाकृडित ने इन डिवचारों का प्रमाण न दिदया। मुखमं�ल हृदय का दप@ण है, इसका डिनश्चय अलबत्ता हो गया।

से

निकंतु बाबू रामरक्षा बहुत देर तक इस आनन्द का म�ा न लूटने पाये और न सेठ �ी को बदला लेने के सिलए बहुत देर तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। सभा डिवसर्जि�ंत होते ही �ब बाबू रामरक्षा सMलता की उमंग में ऐंठतें, मोंछ पर ताव देते और चारों ओर गव@ की दृमिQ �ालते हुए बाहर आये, तो दीवानी की तीन सिसपाडिहयों ने आगे बढ़ कर उन्हें डिगरफ्तारी का वारंट दिदखा दिदया। अबकी बाबू रामरक्षा के चेहरे का रंग उतर �ाने की, और सेठ �ी के इस

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मनोवांसिछत दृश्य से आनन्द उठाने की बारी थी। डिगरधारीलाल ने आनन्द की उमंग में तासिलयॉँ तो न ब�ायीं, परंतु मुस्करा कर मुँह Mेर सिलया। रंग में भंग पड़ गया।

आ� इस डिवर्षोय के उपलक्ष्य में मुंशी Mै�ुलरहमान ने पहले ही से एक बडे़ समारोह के साथ गा�@न पाट© की तैयारिरयॉं की थीं। मिमस्टर रामरक्षा इसके प्रबंधकत्ता@ थे। आ� की ‘आफ्टर डि�नर’ स्पीच उन्होंने बडे़ परिरश्रम से तैयार की थी; निकंतु इस वारंट ने सारी कामनाओं का सत्यानाश कर दिदया। यों तो बाबू साहब के मिमत्रों में ऐसा कोई भी न था, �ो दस ह�ार रुपये �मानत दे देता; अदा कर देने का तो जि�R ही कया; निकंतु कदासिचत ऐसा होता भी तो सेठ �ी अपने को भाग्यहीन समझते। दस ह�ार रुपये और म्युडिनस्पैसिलटी की प्रडितमिष्ठत मेम्बरी खोकर इन्हें इस समय यह हर्षो@ हुआ था।

मिमस्टर रामरक्षा के घर पर ज्योंही यह खबर पहुँची, कुहराम मच गया। उनकी स्त्री पछाड़ खा कर पृथ्वी पर डिगर पड़ी। �ब कुछ होश में आयी तो रोने लगी। और रोने से छुट्टी मिमली तो उसने डिगरधारीलाल को कोसना आरम्भ डिकया। देवी-देवता मनाने लगी। उन्हें रिरश्वतें देने पर तैयार हुई डिक ये डिगरधारीलाल को डिकसी प्रकार डिनगल �ायँ। इस बडे़ भारी काम में वह गंगा और यमुना से सहायता मॉँग रही थी, प्लेग और डिवसूसिचका की खुशामदें कर रही थी डिक ये दोनों मिमल कर उस डिगरधारीलाल को हड़प ले �ायँ! निकंतु डिगरधारी का कोई दोर्षो नहीं। दोर्षो तुम्हारा है। बहुत अच्छा हुआ! तुम इसी पू�ा के देवता थे। क्या अब दावतें न खिखलाओगे? मैंने तुम्हें डिकतना समझया, रोयी, रुठी, डिबगड़ी; डिकन्तु तुमने एक न सुनी। डिगरधारीलाल ने बहुत अच्छा डिकया। तुम्हें सिशक्षा तो मिमल गयी; डिकन्तु तुम्हारा भी दोर्षो नहीं। यह सब आग मैंने ही लगायी। मखमली स्लीपरों के डिबना मेरे पॉँव ही नहीं उठते थे। डिबना �ड़ाऊ कड़ों के मुझे नींद न आती थी। से�गाड़ी मेरे ही सिलए मँगवायी थी। अंगरे�ी पढ़ने के सिलए मेम साहब को मैंने ही रखा। ये सब कॉँटे मैंने ही बोये हैं।

मिमसे� रामरक्षा बहुत देर तक इन्हीं डिवचारों में �ूबी रही। �ब रात भर करवटें बदलने के बाद वह सबेरे उठी, तो उसके डिवचार चारों ओर से ठोकर खा कर केवल एक केन्द्र पर �म गये। डिगरधारीलाल बड़ा बदमाश और घमं�ी है। मेरा सब कुछ ले कर भी उसे संतोर्षो नहीं हुआ। इतना भी इस डिनद@यी कसाई से न देखा गया। त्तिभन्न-त्तिभन्न प्रकार के डिवचारों ने मिमल कर एक रुप धारण डिकया और Rोधाखिग्न को दहला कर प्रबल कर दिदया। ज्वालामुखी शीशे में �ब सूय@ की डिकरणें एक होती हैं, तब अखिग्न प्रकट हो �ाती हैं। स्त्री के हृदय में रह-रह कर Rोध की एक असाधारण लहर उत्पन्न होती थी। बचे्च ने मिमठाई के सिलए हठ डिकया; उस पर बरस पड़ीं; महरी ने चौका-बरतन करके चूल्हें में आग �ला दी, उसके पीछे पड़ गयी—मैं तो अपने दु:खों को रो रही हँू, इस चुडै़ल को रोदिटयों की धुन सवार है। डिनदान नौ ब�े उससे न रहा गया। उसने यह पत्र सिलख कर अपने हृदय की ज्वाला ठं�ी की—

‘सेठ �ी, तुम्हें अब अपने धन के घमं� ने अंधा कर दिदया है, डिकन्तु डिकसी का घमं� इसी तरह सदा नहीं रह सकता। कभी न कभी सिसर अवश्य नीचा होता है। अMसोस डिक कल शाम को, �ब तुमने मेरे प्यारे पडित को पकड़वाया है, मैं वहॉँ मौ�ूद न थी; नहीं तो अपना

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और तुम्हारा रक्त एक कर देती। तुम धन के मद में भूले हुए हो। मैं उसी दम तुम्हारा नशा उतार देती! एक स्त्री के हाथों अपमाडिनत हो कर तुम डिMर डिकसी को मुँह दिदखाने लायक न रहते। अच्छा, इसका बदला तुम्हें डिकसी न डिकसी तरह �रुर मिमल �ायगा। मेरा कले�ा उस दिदन ठं�ा होगा, �ब तुम डिनव�श हो �ाओगे और तुम्हारे कुल का नाम मिमट �ायगा।

सेठ �ी पर यह Mटकार पड़ी तो वे Rोध से आग हो गये। यद्यडिप कु्षद्र हृदय मनुष्य न थे, परंतु Rोध के आवेग में सौ�न्य का सिचह्न भी शेर्षो नहीं रहता। यह ध्यान न रहा डिक यह एक दु:खिखनी की Rंदन-ध्वडिन है, एक सतायी हुई स्त्री की मानसिसक दुब@लता का डिवचार है। उसकी धन-हीनता और डिववशता पर उन्हें तडिनक भी दया न आयी। मरे हुए को मारने का उपाय सोचने लगे।

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सके तीसरे दिदन सेठ डिगरधारीलाल पू�ा के आसन पर बैठे हुए थे, महरा ने आकर कहा—सरकार, कोई स्त्री आप से मिमलने आयी है। सेठ �ी ने पूछा—कौन स्त्री है? महरा ने

कहा—सरकार, मुझे क्या मालूम? लेडिकन है कोई भलेमानुस! रेशमी साड़ी पहने हुए हाथ में सोने के कडे़ हैं। पैरों में टाट के स्लीपर हैं। बडे़ घर की स्त्री �ान पड़ती हैं।

इयों साधारणत: सेठ �ी पू�ा के समय डिकसी से नहीं मिमलते थे। चाहे कैसा ही

आवश्यक काम क्यों न हो, ईश्वरोपासना में सामाजि�क बाधाओं को घुसने नहीं देते थे। डिकन्तु ऐसी दशा में �ब डिक डिकसी बडे़ घर की स्त्री मिमलने के सिलए आये, तो थोड़ी देर के सिलए पू�ा में डिवलम्ब करना निनंदनीय नहीं कहा �ा सकता, ऐसा डिवचार करके वे नौकर से बोले—उन्हें बुला लाओं

�ब वह स्त्री आयी तो सेठ �ी स्वागत के सिलए उठ कर खडे़ हो गये। तत्पश्चात अत्यंत कोमल वचनों के कारुत्तिणक शब्दों से बोले—माता, कहॉँ से आना हुआ? और �ब यह उत्तर मिमला डिक वह अयोध्या से आयी है, तो आपने उसे डिMर से दं�वत डिकया और चीनी तथा मिमश्री से भी अमिधक मधुर और नवनीत से भी अमिधक सिचकने शब्दों में कहा—अच्छा, आप श्री अयोध्या �ी से आ रही हैं? उस नगरी का क्या कहना! देवताओं की पुरी हैं। बडे़ भाग्य थे डिक आपके दश@न हुए। यहॉँ आपका आगमन कैसे हुआ? स्त्री ने उत्तर दिदया—घर तो मेरा यहीं है। सेठ �ी का मुख पुन: मधुरता का सिचत्र बना। वे बोले—अच्छा, तो मकान आपका इसी शहर में है? तो आपने माया-�ं�ाल को त्याग दिदया? यह तो मैं पहले ही समझ गया था। ऐसी पडिवत्र आत्माऍं संसार में बहुत थोड़ी हैं। ऐसी देडिवयों के दश@न दुल@भ होते हैं। आपने मुझे दश@न दिदया, बड़ी कृपा की। मैं इस योग्य नहीं, �ो आप-�ैसी डिवदुडिर्षोयों की कुछ सेवा कर सकँू? निकंतु �ो काम मेरे योग्य हो—�ो कुछ मेरे डिकए हो सकता हो—उसे करने के सिलए मैं सब भॉँडित से तैयार हँू। यहॉँ सेठ-साहूकारों ने मुझे बहुत बदनाम कर रखा है, मैं सबकी ऑंखों में खटकता हँू। उसका कारण सिसवा इसके और कुछ नहीं डिक �हॉँ वे लोग

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लाभ का ध्यान रखते हैं, वहॉँ मैं भलाई पर रखता हँू। यदिद कोई बड़ी अवस्था का वृद्ध मनुष्य मुझसे कुछ कहने-सुनने के सिलए आता है, तो डिवश्वास मानों, मुझसे उसका वचन टाला नहीं �ाता। कुछ बुढ़ापे का डिवचार; कुछ उसके दिदल टूट �ाने का �र; कुछ यह ख्याल डिक कहीं यह डिवश्वासघाडितयों के Mंदे में न Mंस �ाय, मुझे उसकी इच्छाओं की पूर्षितं के सिलए डिववश कर देता है। मेरा यह सिसद्धान्त है डिक अच्छी �ायदाद और कम ब्या�। निकंतु इस प्रकार बातें आपके सामने करना र्व्यथ@ है। आप से तो घर का मामला है। मेरे योग्य �ो कुछ काम हो, उसके सिलए मैं सिसर ऑंखों से तैयार हँू।

वृद्ध स्त्री—मेरा काम आप ही से हो सकता है।सेठ �ी—(प्रसन्न हो कर) बहुत अच्छा; आज्ञा दो।स्त्री—मैं आपके सामने त्तिभखारिरन बन कर आयी हँू। आपको छोड़कर कोई मेरा

सवाल पूरा नहीं कर सकता।सेठ �ी—कडिहए, कडिहए।स्त्री—आप रामरक्षा को छोड़ दीजि�ए।सेठ �ी के मुख का रंग उतर गया। सारे हवाई डिकले �ो अभी-अभी तैयार हुए थे,

डिगर पडे़। वे बोले—उसने मेरी बहुत हाडिन की है। उसका घमं� तोड़ �ालूँगा, तब छोड़ूगँा।स्त्री—तो क्या कुछ मेरे बुढ़ापे का, मेरे हाथ Mैलाने का, कुछ अपनी बड़ाई का डिवचार

न करोगे? बेटा, ममता बुरी होती है। संसार से नाता टूट �ाय; धन �ाय; धम@ �ाय, निकंतु लड़के का स्नेह हृदय से नहीं �ाता। संतोर्षो सब कुछ कर सकता है। निकंतु बेटे का पे्रम मॉँ के हृदय से नहीं डिनकल सकता। इस पर हाडिकम का, रा�ा का, यहॉँ तक डिक ईश्वर का भी बस नहीं है। तुम मुझ पर तरस खाओ। मेरे लड़के की �ान छोड़ दो, तुम्हें बड़ा यश मिमलेगा। मैं �ब तक �ीऊँगी, तुम्हें आशीवा@द देती रहँूगी।

सेठ �ी का हृदय कुछ पसी�ा। पत्थर की तह में पानी रहता है; निकंतु तत्काल ही उन्हें मिमसेस रामरक्षा के पत्र का ध्यान आ गया। वे बोले—मुझे रामरक्षा से कोई उतनी शतु्रता नहीं थी, यदिद उन्होंने मुझे न छेड़ा होता, तो मैं न बोलता। आपके कहने से मैं अब भी उनका अपराध क्षमा कर सकता हँू! परन्तु उसकी बीबी साहबा ने �ो पत्र मेरे पास भे�ा है, उसे देखकर शरीर में आग लग �ाती है। दिदखाउँ आपको! रामरक्षा की मॉँ ने पत्र ले कर पढ़ा तो उनकी ऑंखों में ऑंसू भर आये। वे बोलीं—बेटा, उस स्त्री ने मुझे बहुत दु:ख दिदया है। उसने मुझे देश से डिनकाल दिदया। उसका मिम�ा� और �बान उसके वश में नहीं; निकंतु इस समय उसने �ो गव@ दिदखाया है; उसका तुम्हें ख्याल नहीं करना चाडिहए। तुम इसे भुला दो। तुम्हारा देश-देश में नाम है। यह नेकी तुम्हारे नाक को और भी Mैला देगी। मैं तुमसे प्रण करती हँू डिक सारा समाचार रामरक्षा से सिलखवा कर डिकसी अचे्छ समाचार-पत्र में छपवा दँूगी। रामरक्षा मेरा कहना नहीं टालेगा। तुम्हारे इस उपकार को वह कभी न भूलेगा। जि�स समय ये समाचार संवादपत्रों में छपेंगे, उस समय ह�ारों मनुष्यों को तुम्हारे दश@न की अत्तिभलार्षोा होगी। सरकार

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में तुम्हारी बड़ाई होगी और मैं सच्चे हृदय से कहती हँू डिक शीघ्र ही तुम्हें कोई न कोई पदवी मिमल �ायगी। रामरक्षा की अँगरे�ों से बहुत मिमत्रता है, वे उसकी बात कभी न टालेंगे।

सेठ �ी के हृदय में गुदगुदी पैदा हो गयी। यदिद इस र्व्यवहार में वह पडिवत्र और माननीय स्थान प्राप्त हो �ाय—जि�सके सिलए ह�ारों खच@ डिकये, ह�ारों �ासिलयॉँ दीं, ह�ारों अनुनय-डिवनय कीं, ह�ारों खुशामदें कीं, खानसामों की जिझड़डिकयॉँ सहीं, बँगलों के चक्कर लगाये—तो इस सMलता के सिलए ऐसे कई ह�ार मैं खच@ कर सकता हँू। डिन:संदेह मुझे इस काम में रामरक्षा से बहुत कुछ सहायता मिमल सकती है; निकंतु इन डिवचारों को प्रकट करने से क्या लाभ? उन्होंने कहा—माता, मुझे नाम-नमूद की बहुत चाह नहीं हैं। बड़ों ने कहा है—नेकी कर दरिरयां में �ाल। मुझे तो आपकी बात का ख्याल है। पदवी मिमले तो लेने से इनकार नहीं; न मिमले तो तृष्णा नहीं, परंतु यह तो बताइए डिक मेरे रुपयों का क्या प्रबंध होगा? आपको मालूम होगा डिक मेरे दस ह�ार रुपये आते हैं।

रामरक्षा की मॉँ ने कहा—तुम्हारे रुपये की �मानत में करती हँू। यह देखों, बंगाल-बैंक की पास बुक है। उसमें मेरा दस ह�ार रुपया �मा है। उस रुपये से तुम रामरक्षा को कोई र्व्यवसाय करा दो। तुम उस दुकान के मासिलक रहोगे, रामरक्षा को उसका मैने�र बना देना। �ब तक तुम्हारे कहे पर चले, डिनभाना; नहीं तो दूकान तुम्हारी है। मुझे उसमें से कुछ नहीं चाडिहए। मेरी खो�-खबर लेनेवाला ईश्वर है। रामरक्षा अच्छी तरह रहे, इससे अमिधक मुझे और न चाडिहए। यह कहकर पास-बुक सेठ �ी को दे दी। मॉँ के इस अथाह पे्रम ने सेठ �ी को डिवह्वल कर दिदया। पानी उबल पड़ा, और पत्थर के नीचे ढँक गया। ऐसे पडिवत्र दृश्य देखने के सिलए �ीवन में कम अवसर मिमलते हैं। सेठ �ी के हृदय में परोपकार की एक लहर-सी उठी; उनकी ऑंखें �ब�बा आयीं। जि�स प्रकार पानी के बहाव से कभी-कभी बॉँध टूट �ाता है; उसी प्रकार परोपकार की इस उमंग ने स्वाथ@ और माया के बॉँध को तोड़ दिदया। वे पास-बुक वृद्ध स्त्री को वापस देकर बोले—माता, यह अपनी डिकताब लो। मुझे अब अमिधक लज्जिqत न करो। यह देखो, रामरक्षा का नाम बही से उड़ा देता हँू। मुझे कुछ नहीं चाडिहए, मैंने अपना सब कुछ पा सिलया। आ� तुम्हारा रामरक्षा तुम को मिमल �ायगा।

इस घटना के दो वर्षो@ उपरांत टाउनहाल में डिMर एक बड़ा �लसा हुआ। बैं� ब� रहा था, झंडि�यॉँ और ध्व�ाऍं वायु-मं�ल में लहरा रही थीं। नगर के सभी माननीय पुरुर्षो उपज्जिस्थत थे। लैं�ो, डिMटन और मोटरों से सारा हाता भरा हुआ था। एकाएक मुश्ती घोड़ों की एक डिMटन ने हाते में प्रवेश डिकया। सेठ डिगरधारीलाल बहुमूल्य वस्त्रों से स�े हुए उसमें से उतरे। उनके साथ एक Mैशनेबुल नवयुवक अंग्रे�ी सूट पहने मुस्कराता हुआ उतरा। ये मिमस्टर रामरक्षा थे। वे अब सेठ �ी की एक खास दुकान का मैने�र हैं। केवल मैने�र ही नहीं, निकंतु उन्हें मैंनेजि�ंग प्रोप्राइटर समझना चाडिहए। दिदल्ली-दरबार में सेठ �ी को राबहादुर का पद मिमला है। आ� डि�स्टिस्ट्रक्ट मैजि�स्टे्रट डिनयमानुसार इसकी घोर्षोणा करेंगे और सूसिचत करेंगे डिक नगर के माननीय पुरुर्षोों की ओर से सेठ �ी को धन्यवाद देने के सिलए बैठक हुई है।

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सेठ �ी की ओर से धन्यवाद का वक्तर्व्य रामरक्षा करेंगे। जि�ल लोगों ने उनकी वकृ्तताऍं सुनी हैं, वे बहुत उत्सुकता से उस अवसर की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

बैठक समाप्त होने पर सेठ �ी रामरक्षा के साथ अपने भवन पर पहुँचे, तो मालूम हुआ डिक आ� वही वृद्धा उनसे डिMर मिमलने आयी है। सेठ �ी दौड़कर रामरक्षा की मॉँ के चरणों से सिलपट गये। उनका हृदय इस समय नदी की भॉँडित उमड़ा हुआ था।

‘रामरक्षा ऐं� फे्र�स’ नामक चीनी बनाने का कारखाना बहुत उन्नडित पर हैं। रामरक्षा अब भी उसी ठाट-बाट से �ीवन र्व्यतीत कर रहे हैं; निकंतु पार्दिटयंॉँ कम देते हैं और दिदन-भर में तीन से अमिधक सूट नहीं बदलते। वे अब उस पत्र को, �ो उनकी स्त्री ने सेठ �ी को सिलखा था, संसार की एक बहुत अमूल्य वस्तु समझते हैं और मिमसे� रामरक्षा को भी अब सेठ �ी के नाम को मिमटाने की अमिधक चाह नहीं है। क्योंडिक अभी हाल में �ब लड़का पैदा हुआ था, मिमसे� रामरक्षा ने अपना सुवण@-कंकण धाय को उपहार दिदया था मनों मिमठाई बॉँटी थी।

यह सब हो गया; निकंतु वह बात, �ो अब होनी चाडिहए थी, न हुई। रामरक्षा की मॉँ अब भी अयोध्या में रहती हैं और अपनी पुत्रवधू की सूरत नहीं देखना चाहतीं।

मंत्र

ध्या का समय था। �ाक्टर चड्ढा गोल्M खेलने के सिलए तैयार हो रहे थे। मोटर bार के सामने खड़ी थी डिक दो कहार एक �ोली सिलये आते दिदखायी दिदये। �ोली के पीछे एक सं

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बूढ़ा लाठी टेकता चला आता था। �ोली और्षोाधालय के सामने आकर रूक गयी। बूढे़ ने धीरे-धीरे आकर bार पर पड़ी हुई सिचक से झॉँका। ऐसी साM-सुथरी �मीन पर पैर रखते हुए भय हो रहा था डिक कोई घुड़क न बैठे। �ाक्टर साहब को खडे़ देख कर भी उसे कुछ कहने का साहस न हुआ।

�ाक्टर साहब ने सिचक के अंदर से गर� कर कहा—कौन है? क्या चाहता है?�ाक्टर साहब ने हाथ �ोड़कर कहा— हु�ूर बड़ा गरीब आदमी हँू। मेरा लड़का कई

दिदन से.......�ाक्टर साहब ने सिसगार �ला कर कहा—कल सबेरे आओ, कल सबेरे, हम इस वक्त

मरी�ों को नहीं देखते।बूढे़ ने घुटने टेक कर �मीन पर सिसर रख दिदया और बोला—दुहाई है सरकार की,

लड़का मर �ायगा! हु�ूर, चार दिदन से ऑंखें नहीं.......�ाक्टर चड्ढा ने कलाई पर न�र �ाली। केवल दस मिमनट समय और बाकी था।

गोल्M-स्टिस्टक खँूटी से उतारने हुए बोले—कल सबेरे आओ, कल सबेरे; यह हमारे खेलने का समय है।

बूढे़ ने पगड़ी उतार कर चौखट पर रख दी और रो कर बोला—हू�ुर, एक डिनगाह देख लें। बस, एक डिनगाह! लड़का हाथ से चला �ायगा हु�ूर, सात लड़कों में यही एक बच रहा है, हु�ूर। हम दोनों आदमी रो-रोकर मर �ायेंगे, सरकार! आपकी बढ़ती होय, दीनबंधु!

ऐसे उ�ड़� देहाती यहॉँ प्राय: रो� आया करते थे। �ाक्टर साहब उनके स्वभाव से खूब परिरसिचत थे। कोई डिकतना ही कुछ कहे; पर वे अपनी ही रट लगाते �ायँगे। डिकसी की सुनेंगे नहीं। धीरे से सिचक उठाई और बाहर डिनकल कर मोटर की तरM चले। बूढ़ा यह कहता हुआ उनके पीछे दौड़ा—सरकार, बड़ा धरम होगा। हु�ूर, दया कीजि�ए, बड़ा दीन-दुखी हँू; संसार में कोई और नहीं है, बाबू �ी!

मगर �ाक्टर साहब ने उसकी ओर मुँह Mेर कर देखा तक नहीं। मोटर पर बैठ कर बोले—कल सबेरे आना।

मोटर चली गयी। बूढ़ा कई मिमनट तक मूर्षितं की भॉँडित डिनश्चल खड़ा रहा। संसार में ऐसे मनुष्य भी होते हैं, �ो अपने आमोद-प्रमोद के आगे डिकसी की �ान की भी परवाह नहीं करते, शायद इसका उसे अब भी डिवश्वास न आता था। सभ्य संसार इतना डिनम@म, इतना कठोर है, इसका ऐसा मम@भेदी अनुभव अब तक न हुआ था। वह उन पुराने �माने की �ीवों में था, �ो लगी हुई आग को बुझाने, मुदy को कंधा देने, डिकसी के छप्पर को उठाने और डिकसी कलह को शांत करने के सिलए सदैव तैयार रहते थे। �ब तक बूढे़ को मोटर दिदखायी दी, वह खड़ा टकटकी लागाये उस ओर ताकता रहा। शायद उसे अब भी �ाक्टर साहब के लौट आने की आशा थी। डिMर उसने कहारों से �ोली उठाने को कहा। �ोली जि�धर से आयी थी, उधर ही चली गयी। चारों ओर से डिनराश हो कर वह �ाक्टर चड्ढा के पास आया था।

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इनकी बड़ी तारीM सुनी थी। यहॉँ से डिनराश हो कर डिMर वह डिकसी दूसरे �ाक्टर के पास न गया। डिकस्मत ठोक ली!

उसी रात उसका हँसता-खेलता सात साल का बालक अपनी बाल-लीला समाप्त करके इस संसार से सिसधार गया। बूढे़ मॉँ-बाप के �ीवन का यही एक आधार था। इसी का मुँह देख कर �ीते थे। इस दीपक के बुझते ही �ीवन की अँधेरी रात भॉँय-भॉँय करने लगी। बुढ़ापे की डिवशाल ममता टूटे हुए हृदय से डिनकल कर अंधकार आत्त@-स्वर से रोने लगी।

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ई साल गु�र गये। �ाक्टर चड़ढा ने खूब यश और धन कमाया; लेडिकन इसके साथ ही अपने स्वास्थ्य की रक्षा भी की, �ो एक साधारण बात थी। यह उनके डिनयमिमत

�ीवन का आश�वाद था डिक पचास वर्षो@ की अवस्था में उनकी चुस्ती और Mुत� युवकों को भी लज्जिqत करती थी। उनके हरएक काम का समय डिनयत था, इस डिनयम से वह �ौ-भर भी न टलते थे। बहुधा लोग स्वास्थ्य के डिनयमों का पालन उस समय करते हैं, �ब रोगी हो �ाते हें। �ाक्टर चड्ढा उपचार और संयम का रहस्य खूब समझते थे। उनकी संतान-संध्या भी इसी डिनयम के अधीन थी। उनके केवल दो बचे्च हुए, एक लड़का और एक लड़की। तीसरी संतान न हुई, इसीसिलए श्रीमती चड्ढा भी अभी �वान मालूम होती थीं। लड़की का तो डिववाह हो चुका था। लड़का काले� में पढ़ता था। वही माता-डिपता के �ीवन का आधार था। शील और डिवनय का पुतला, बड़ा ही रसिसक, बड़ा ही उदार, डिवद्यालय का गौरव, युवक-समा� की शोभा। मुखमं�ल से ते� की छटा-सी डिनकलती थी। आ� उसकी बीसवीं सालडिगरह थी।

संध्या का समय था। हरी-हरी घास पर कुर्थिसंयॉँ डिबछी हुई थी। शहर के रईस और हुक्काम एक तरM, काले� के छात्र दूसरी तरM बैठे भो�न कर रहे थे। डिब�ली के प्रकाश से सारा मैदान �गमगा रहा था। आमोद-प्रमोद का सामान भी �मा था। छोटा-सा प्रहसन खेलने की तैयारी थी। प्रहसन स्वयं कैलाशनाथ ने सिलखा था। वही मुख्य एक्टर भी था। इस समय वह एक रेशमी कमी� पहने, नंगे सिसर, नंगे पॉँव, इधर से उधर मिमत्रों की आव भगत में लगा हुआ था। कोई पुकारता—कैलाश, �रा इधर आना; कोई उधर से बुलाता—कैलाश, क्या उधर ही रहोगे? सभी उसे छोड़ते थे, चुहलें करते थे, बेचारे को �रा दम मारने का अवकाश न मिमलता था। सहसा एक रमणी ने उसके पास आकर पूछा—क्यों कैलाश, तुम्हारे सॉँप कहॉँ हैं? �रा मुझे दिदखा दो।

कैलाश ने उससे हाथ मिमला कर कहा—मृणासिलनी, इस वक्त क्षमा करो, कल दिदखा दूगॉँ।

मृणासिलनी ने आग्रह डिकया—�ी नहीं, तुम्हें दिदखाना पडे़गा, मै आ� नहीं मानने की। तुम रो� ‘कल-कल’ करते हो।

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मृणासिलनी और कैलाश दोनों सहपाठी थे ओर एक-दूसरे के पे्रम में पगे हुए। कैलाश को सॉँपों के पालने, खेलाने और नचाने का शौक था। तरह-तरह के सॉँप पाल रखे थे। उनके स्वभाव और चरिरत्र की परीक्षा करता रहता था। थोडे़ दिदन हुए, उसने डिवद्यालय में ‘सॉँपों’ पर एक माकy का र्व्याख्यान दिदया था। सॉँपों को नचा कर दिदखाया भी था! प्रात्तिणशास्त्र के बडे़-बडे़ पंडि�त भी यह र्व्याख्यान सुन कर दंग रह गये थे! यह डिवद्या उसने एक बडे़ सँपेरे से सीखी थी। साँपों की �ड़ी-बूदिटयॉँ �मा करने का उसे मर� था। इतना पता भर मिमल �ाय डिक डिकसी र्व्यसिक्त के पास कोई अच्छी �ड़ी है, डिMर उसे चैन न आता था। उसे लेकर ही छोड़ता था। यही र्व्यसन था। इस पर ह�ारों रूपये Mँूक चुका था। मृणासिलनी कई बार आ चुकी थी; पर कभी सॉँपों को देखने के सिलए इतनी उत्सुक न हुई थी। कह नहीं सकते, आ� उसकी उत्सुकता सचमुच �ाग गयी थी, या वह कैलाश पर उपने अमिधकार का प्रदश@न करना चाहती थी; पर उसका आग्रह बेमौका था। उस कोठरी में डिकतनी भीड़ लग �ायगी, भीड़ को देख कर सॉँप डिकतने चौकें गें और रात के समय उन्हें छेड़ा �ाना डिकतना बुरा लगेगा, इन बातों का उसे �रा भी ध्यान न आया।

कैलाश ने कहा—नहीं, कल �रूर दिदखा दँूगा। इस वक्त अच्छी तरह दिदखा भी तो न सकँूगा, कमरे में डितल रखने को भी �गह न मिमलेगी।

एक महाशय ने छेड़ कर कहा—दिदखा क्यों नहीं देते, �रा-सी बात के सिलए इतना टाल-मटोल कर रहे हो? मिमस गोनिवंद, हर्षिगं� न मानना। देखें कैसे नहीं दिदखाते!

दूसरे महाशय ने और रद्दा चढ़ाया—मिमस गोनिवंद इतनी सीधी और भोली हैं, तभी आप इतना मिम�ा� करते हैं; दूसरे संुदरी होती, तो इसी बात पर डिबगड़ खड़ी होती।

तीसरे साहब ने म�ाक उड़ाया—अ�ी बोलना छोड़ देती। भला, कोई बात है! इस पर आपका दावा है डिक मृणासिलनी के सिलए �ान हाजि�र है।

मृणासिलनी ने देखा डिक ये शोहदे उसे रंग पर चढ़ा रहे हैं, तो बोली—आप लोग मेरी वकालत न करें, मैं खुद अपनी वकालत कर लूँगी। मैं इस वक्त सॉँपों का तमाशा नहीं देखना चाहती। चलो, छुट्टी हुई।

इस पर मिमत्रों ने ठट्टा लगाया। एक साहब बोले—देखना तो आप सब कुछ चाहें, पर दिदखाये भी तो?

कैलाश को मृणासिलनी की झेंपी हुई सूरत को देखकर मालूम हुआ डिक इस वक्त उनका इनकार वास्तव में उसे बुरा लगा है। ज्योंही प्रीडित-भो� समाप्त हुआ और गाना शुरू हुआ, उसने मृणासिलनी और अन्य मिमत्रों को सॉँपों के दरबे के सामने ले �ाकर महुअर ब�ाना शुरू डिकया। डिMर एक-एक खाना खोलकर एक-एक सॉँप को डिनकालने लगा। वाह! क्या कमाल था! ऐसा �ान पड़ता था डिक वे कीडे़ उसकी एक-एक बात, उसके मन का एक-एक भाव समझते हैं। डिकसी को उठा सिलया, डिकसी को गरदन में �ाल सिलया, डिकसी को हाथ में लपेट सिलया। मृणासिलनी बार-बार मना करती डिक इन्हें गद@न में न �ालों, दूर ही से दिदखा दो। बस, �रा नचा दो। कैलाश की गरदन में सॉँपों को सिलपटते देख कर उसकी �ान डिनकली

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�ाती थी। पछता रही थी डिक मैंने र्व्यथ@ ही इनसे सॉँप दिदखाने को कहा; मगर कैलाश एक न सुनता था। पे्रमिमका के सम्मुख अपने सप@-कला-प्रदश@न का ऐसा अवसर पाकर वह कब चूकता! एक मिमत्र ने टीका की—दॉँत तोड़ �ाले होंगे।

कैलाश हँसकर बोला—दॉँत तोड़ �ालना मदारिरयों का काम है। डिकसी के दॉँत नहीं तोड़ गये। कडिहए तो दिदखा दँू? कह कर उसने एक काले सॉँप को पकड़ सिलया और बोला—‘मेरे पास इससे बड़ा और �हरीला सॉँप दूसरा नहीं है, अगर डिकसी को काट ले, तो आदमी आनन-Mानन में मर �ाय। लहर भी न आये। इसके काटे पर मन्त्र नहीं। इसके दॉँत दिदखा दँू?’

मृणासिलनी ने उसका हाथ पकड़कर कहा—नहीं-नहीं, कैलाश, ईश्वर के सिलए इसे छोड़ दो। तुम्हारे पैरों पड़ती हँू।

इस पर एक-दूसरे मिमत्र बोले—मुझे तो डिवश्वास नहीं आता, लेडिकन तुम कहते हो, तो मान लूँगा।

कैलाश ने सॉँप की गरदन पकड़कर कहा—नहीं साहब, आप ऑंखों से देख कर माडिनए। दॉँत तोड़कर वश में डिकया, तो क्या। सॉँप बड़ा समझदार होता हैं! अगर उसे डिवश्वास हो �ाय डिक इस आदमी से मुझे कोई हाडिन न पहुँचेगी, तो वह उसे हर्षिगं� न काटेगा।

मृणासिलनी ने �ब देखा डिक कैलाश पर इस वक्त भूत सवार है, तो उसने यह तमाशा न करने के डिवचार से कहा—अच्छा भाई, अब यहॉँ से चलो। देखा, गाना शुरू हो गया है। आ� मैं भी कोई ची� सुनाऊँगी। यह कहते हुए उसने कैलाश का कंधा पकड़ कर चलने का इशारा डिकया और कमरे से डिनकल गयी; मगर कैलाश डिवरोमिधयों का शंका-समाधान करके ही दम लेना चाहता था। उसने सॉँप की गरदन पकड़ कर �ोर से दबायी, इतनी �ोर से इबायी डिक उसका मुँह लाल हो गया, देह की सारी नसें तन गयीं। सॉँप ने अब तक उसके हाथों ऐसा र्व्यवहार न देखा था। उसकी समझ में न आता था डिक यह मुझसे क्या चाहते हें। उसे शायद भ्रम हुआ डिक मुझे मार �ालना चाहते हैं, अतएव वह आत्मरक्षा के सिलए तैयार हो गया।

कैलाश ने उसकी गद@न खूब दबा कर मुँह खोल दिदया और उसके �हरीले दॉँत दिदखाते हुए बोला—जि�न सqनों को शक हो, आकर देख लें। आया डिवश्वास या अब भी कुछ शक है? मिमत्रों ने आकर उसके दॉँत देखें और चडिकत हो गये। प्रत्यक्ष प्रमाण के सामने सन्देह को स्थान कहॉँ। मिमत्रों का शंका-डिनवारण करके कैलाश ने सॉँप की गद@न ढीली कर दी और उसे �मीन पर रखना चाहा, पर वह काला गेहँूवन Rोध से पागल हो रहा था। गद@न नरम पड़ते ही उसने सिसर उठा कर कैलाश की उँगली में �ोर से काटा और वहॉँ से भागा। कैलाश की ऊँगली से टप-टप खून टपकने लगा। उसने �ोर से उँगली दबा ली और उपने कमरे की तरM दौड़ा। वहॉँ मे� की दरा� में एक �ड़ी रखी हुई थी, जि�से पीस कर लगा देने से घतक डिवर्षो भी रMू हो �ाता था। मिमत्रों में हलचल पड़ गई। बाहर महडिMल में भी खबर हुई। �ाक्टर साहब घबरा कर दौडे़। Mौरन उँगली की �ड़ कस कर बॉँधी गयी और �ड़ी

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पीसने के सिलए दी गयी। �ाक्टर साहब �ड़ी के कायल न थे। वह उँगली का �सा भाग नश्तर से काट देना चाहते, मगर कैलाश को �ड़ी पर पूण@ डिवश्वास था। मृणासिलनी प्यानों पर बैठी हुई थी। यह खबर सुनते ही दौड़ी, और कैलाश की उँगली से टपकते हुए खून को रूमाल से पोंछने लगी। �ड़ी पीसी �ाने लगी; पर उसी एक मिमनट में कैलाश की ऑंखें झपकने लगीं, ओठों पर पीलापन दौड़ने लगा। यहॉँ तक डिक वह खड़ा न रह सका। Mश@ पर बैठ गया। सारे मेहमान कमरे में �मा हो गए। कोई कुछ कहता था। कोई कुछ। इतने में �ड़ी पीसकर आ गयी। मृणासिलनी ने उँगली पर लेप डिकया। एक मिमनट और बीता। कैलाश की ऑंखें बन्द हो गयीं। वह लेट गया और हाथ से पंखा झलने का इशारा डिकया। मॉँ ने दौड़कर उसका सिसर गोद में रख सिलया और डिब�ली का टेबुल-Mैन लगा दिदया।

�ाक्टर साहब ने झुक कर पूछा कैलाश, कैसी तबीयत है? कैलाश ने धीरे से हाथ उठा सिलए; पर कुछ बोल न सका। मृणासिलनी ने करूण स्वर में कहा—क्या �ड़ी कुछ असर न करेंगी? �ाक्टर साहब ने सिसर पकड़ कर कहा—क्या बतलाऊँ, मैं इसकी बातों में आ गया। अब तो नश्तर से भी कुछ Mायदा न होगा।

आध घंटे तक यही हाल रहा। कैलाश की दशा प्रडितक्षण डिबगड़ती �ाती थी। यहॉँ तक डिक उसकी ऑंखें पथरा गयी, हाथ-पॉँव ठं�े पड़ गये, मुख की कांडित मसिलन पड़ गयी, नाड़ी का कहीं पता नहीं। मौत के सारे लक्षण दिदखायी देने लगे। घर में कुहराम मच गया। मृणासिलनी एक ओर सिसर पीटने लगी; मॉँ अलग पछाडे़ खाने लगी। �ाक्टर चड्ढा को मिमत्रों ने पकड़ सिलया, नहीं तो वह नश्तर अपनी गद@न पर मार लेते।

एक महाशय बोले—कोई मंत्र झाड़ने वाला मिमले, तो सम्भव है, अब भी �ान बच �ाय।

एक मुसलमान सqन ने इसका समथ@न डिकया—अरे साहब कब्र में पड़ी हुई लाशें जि�न्दा हो गयी हैं। ऐसे-ऐसे बाकमाल पडे़ हुए हैं।

�ाक्टर चड्ढा बोले—मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गया था डिक इसकी बातों में आ गया। नश्तर लगा देता, तो यह नौबत ही क्यों आती। बार-बार समझाता रहा डिक बेटा, सॉँप न पालो, मगर कौन सुनता था! बुलाइए, डिकसी झाड़-Mँूक करने वाले ही को बुलाइए। मेरा सब कुछ ले ले, मैं अपनी सारी �ायदाद उसके पैरों पर रख दँूगा। लँगोटी बॉँध कर घर से डिनकल �ाऊँगा; मगर मेरा कैलाश, मेरा प्यारा कैलाश उठ बैठे। ईश्वर के सिलए डिकसी को बुलवाइए।

एक महाशय का डिकसी झाड़ने वाले से परिरचय था। वह दौड़कर उसे बुला लाये; मगर कैलाश की सूरत देखकर उसे मंत्र चलाने की डिहम्मत न पड़ी। बोला—अब क्या हो सकता है, सरकार? �ो कुछ होना था, हो चुका?

अरे मूख@, यह क्यों नही कहता डिक �ो कुछ न होना था, वह कहॉँ हुआ? मॉँ-बाप ने बेटे का सेहरा कहॉँ देखा? मृणासिलनी का कामना-तरू क्या पल्लव और पुष्प से रंजि�त हो उठा? मन के वह स्वण@-स्वप्न जि�नसे �ीवन आनंद का स्रोत बना हुआ था, क्या पूरे हो गये?

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�ीवन के नृत्यमय तारिरका-मंडि�त सागर में आमोद की बहार लूटते हुए क्या उनकी नौका �लमग्न नहीं हो गयी? �ो न होना था, वह हो गया।

वही हरा-भरा मैदान था, वही सुनहरी चॉँदनी एक डिन:शब्द संगीत की भॉँडित प्रकृडित पर छायी हुई थी; वही मिमत्र-समा� था। वही मनोरं�न के सामान थे। मगर �हाँ हास्य की ध्वडिन थी, वहॉँ करूण Rन्दन और अश्रु-प्रवाह था।

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हर से कई मील दूर एक छोट-से घर में एक बूढ़ा और बुदिढ़या अगीठी के सामने बैठे �ाडे़ की रात काट रहे थे। बूढ़ा नारिरयल पीता था और बीच-बीच में खॉँसता था।

बुदिढ़या दोनों घुटडिनयों में सिसर �ाले आग की ओर ताक रही थी। एक मिमट्टी के तेल की कुप्पी ताक पर �ल रही थी। घर में न चारपाई थी, न डिबछौना। एक डिकनारे थोड़ी-सी पुआल पड़ी हुई थी। इसी कोठरी में एक चूल्हा था। बुदिढ़या दिदन-भर उपले और सूखी लकडिड़यॉँ बटोरती थी। बूढ़ा रस्सी बट कर बा�ार में बेच आता था। यही उनकी �ीडिवका थी। उन्हें न डिकसी ने रोते देखा, न हँसते। उनका सारा समय �ीडिवत रहने में कट �ाता था। मौत bार पर खड़ी थी, रोने या हँसने की कहॉँ Mुरसत! बुदिढ़या ने पूछा—कल के सिलए सन तो है नहीं, काम क्या करोंगे?

‘�ा कर झग�ू साह से दस सेर सन उधार लाऊँगा?’‘उसके पहले के पैसे तो दिदये ही नहीं, और उधार कैसे देगा?’‘न देगा न सही। घास तो कहीं नहीं गयी। दोपहर तक क्या दो आने की भी न

काटँूगा?’इतने में एक आदमी ने bार पर आवा� दी—भगत, भगत, क्या सो गये? �रा

डिकवाड़ खोलो।भगत ने उठकर डिकवाड़ खोल दिदये। एक आदमी ने अन्दर आकर कहा—कुछ सुना,

�ाक्टर चड्ढा बाबू के लड़के को सॉँप ने काट सिलया।भगत ने चौंक कर कहा—चड्ढा बाबू के लड़के को! वही चड्ढा बाबू हैं न, �ो छावनी में

बँगले में रहते हैं?‘हॉँ-हॉँ वही। शहर में हल्ला मचा हुआ है। �ाते हो तो �ाओं, आदमी बन �ाओंगे।‘बूढे़ ने कठोर भाव से सिसर डिहला कर कहा—मैं नहीं �ाता! मेरी बला �ाय! वही चड्ढा

है। खूब �ानता हँू। भैया लेकर उन्हीं के पास गया था। खेलने �ा रहे थे। पैरों पर डिगर पड़ा डिक एक न�र देख लीजि�ए; मगर सीधे मुँह से बात तक न की। भगवान बैठे सुन रहे थे। अब �ान पडे़गा डिक बेटे का गम कैसा होता है। कई लड़के हैं।

‘नहीं �ी, यही तो एक लड़का था। सुना है, सबने �वाब दे दिदया है।‘

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‘भगवान बड़ा कारसा� है। उस बखत मेरी ऑंखें से ऑंसू डिनकल पडे़ थे, पर उन्हें तडिनक भी दया न आयी थी। मैं तो उनके bार पर होता, तो भी बात न पूछता।‘

‘तो न �ाओगे? हमने �ो सुना था, सो कह दिदया।‘‘अच्छा डिकया—अच्छा डिकया। कले�ा ठं�ा हो गया, ऑंखें ठं�ी हो गयीं। लड़का भी

ठं�ा हो गया होगा! तुम �ाओ। आ� चैन की नींद सोऊँगा। (बुदिढ़या से) �रा तम्बाकू ले ले! एक सिचलम और पीऊँगा। अब मालूम होगा लाला को! सारी साहबी डिनकल �ायगी, हमारा क्या डिबगड़ा। लड़के के मर �ाने से कुछ रा� तो नहीं चला गया? �हॉँ छ: बचे्च गये थे, वहॉँ एक और चला गया, तुम्हारा तो रा� सुना हो �ायगा। उसी के वास्ते सबका गला दबा-दबा कर �ोड़ा था न। अब क्या करोंगे? एक बार देखने �ाऊँगा; पर कुछ दिदन बाद मिम�ा� का हाल पूछँूगा।‘

आदमी चला गया। भगत ने डिकवाड़ बन्द कर सिलये, तब सिचलम पर तम्बाखू रख कर पीने लगा।

बुदिढ़या ने कहा—इतनी रात गए �ाडे़-पाले में कौन �ायगा?‘अरे, दोपहर ही होता तो मैं न �ाता। सवारी दरवा�े पर लेने आती, तो भी न �ाता।

भूल नहीं गया हँू। पन्ना की सूरत ऑंखों में डिMर रही है। इस डिनद@यी ने उसे एक न�र देखा तक नहीं। क्या मैं न �ानता था डिक वह न बचेगा? खूब �ानता था। चड्ढा भगवान नहीं थे, डिक उनके एक डिनगाहदेख लेने से अमृत बरस �ाता। नहीं, खाली मन की दौड़ थी। अब डिकसी दिदन �ाऊँगा और कहूँगा—क्यों साहब, कडिहए, क्या रंग है? दुडिनया बुरा कहेगी, कहे; कोई परवाह नहीं। छोटे आदमिमयों में तो सब ऐव हें। बड़ो में कोई ऐब नहीं होता, देवता होते हैं।‘

भगत के सिलए यह �ीवन में पहला अवसर था डिक ऐसा समाचार पा कर वह बैठा रह गया हो। अस्सी वर्षो@ के �ीवन में ऐसा कभी न हुआ था डिक सॉँप की खबर पाकर वह दौड़ न गया हो। माघ-पूस की अँधेरी रात, चैत-बैसाख की धूप और लू, सावन-भादों की चढ़ी हुई नदी और नाले, डिकसी की उसने कभी परवाह न की। वह तुरन्त घर से डिनकल पड़ता था—डिन:स्वाथ@, डिनष्काम! लेन-देन का डिवचार कभी दिदल में आया नहीं। यह सा काम ही न था। �ान का मूल्य कोन दे सकता है? यह एक पुण्य-काय@ था। सैकड़ों डिनराशों को उसके मंत्रों ने �ीवन-दान दे दिदया था; पर आप वह घर से कदम नहीं डिनकाल सका। यह खबर सुन कर सोने �ा रहा है।

बुदिढ़या ने कहा—तमाखू अँगीठी के पास रखी हुई है। उसके भी आ� ढाई पैसे हो गये। देती ही न थी।

बुदिढ़या यह कह कर लेटी। बूढे़ ने कुप्पी बुझायी, कुछ देर खड़ा रहा, डिMर बैठ गया। अन्त को लेट गया; पर यह खबर उसके हृदय पर बोझे की भॉँडित रखी हुई थी। उसे मालूम हो रहा था, उसकी कोई ची� खो गयी है, �ैसे सारे कपडे़ गीले हो गये है या पैरों में कीचड़ लगा हुआ है, �ैसे कोई उसके मन में बैठा हुआ उसे घर से सिलकालने के सिलए कुरेद रहा है।

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बुदिढ़या �रा देर में खरा@टे लेनी लगी। बूढे़ बातें करते-करते सोते है और �रा-सा खटा होते ही �ागते हैं। तब भगत उठा, अपनी लकड़ी उठा ली, और धीरे से डिकवाड़ खोले।

बुदिढ़या ने पूछा—कहॉँ �ाते हो?‘कहीं नहीं, देखता था डिक डिकतनी रात है।‘‘अभी बहुत रात है, सो �ाओ।‘‘नींद, नहीं आतीं।’‘नींद काहे आवेगी? मन तो चड़ढा के घर पर लगा हुआ है।‘‘चड़ढा ने मेरे साथ कौन-सी नेकी कर दी है, �ो वहॉँ �ाऊँ? वह आ कर पैरों पडे़, तो

भी न �ाऊँ।‘‘उठे तो तुम इसी इरादे से ही?’‘नहीं री, ऐसा पागल नहीं हँू डिक �ो मुझे कॉँटे बोये, उसके सिलए Mूल बोता डिMरँू।‘बुदिढ़या डिMर सो गयी। भगत ने डिकवाड़ लगा दिदए और डिMर आकर बैठा। पर उसके

मन की कुछ ऐसी दशा थी, �ो बा�े की आवा� कान में पड़ते ही उपदेश सुनने वालों की होती हैं। ऑंखें चाहे उपेदेशक की ओर हों; पर कान बा�े ही की ओर होते हैं। दिदल में भी बापे की ध्वडिन गूँ�ती रहती हे। शम@ के मारे �गह से नहीं उठता। डिनद@यी प्रडितघात का भाव भगत के सिलए उपदेशक था, पर हृदय उस अभागे युवक की ओर था, �ो इस समय मर रहा था, जि�सके सिलए एक-एक पल का डिवलम्ब घातक था।

उसने डिMर डिकवाड़ खोले, इतने धीरे से डिक बुदिढ़या को खबर भी न हुई। बाहर डिनकल आया। उसी वक्त गॉँव को चौकीदार गश्त लगा रहा था, बोला—कैसे उठे भगत? आ� तो बड़ी सरदी है! कहीं �ा रहे हो क्या?

भगत ने कहा—नहीं �ी, �ाऊँगा कहॉँ! देखता था, अभी डिकतनी रात है। भला, के ब�े होंगे।

चौकीदार बोला—एक ब�ा होगा और क्या, अभी थाने से आ रहा था, तो �ाक्टर चड़ढा बाबू के बॅगले पर बड़ी भड़ लगी हुई थी। उनके लड़के का हाल तो तुमने सुना होगा, कीडे़ ने छू सिलयाहै। चाहे मर भी गया हो। तुम चले �ाओं तो साइत बच �ाय। सुना है, इस ह�ार तक देने को तैयार हैं।

भगत—मैं तो न �ाऊँ चाहे वह दस लाख भी दें। मुझे दस ह�ार या दस लाखे लेकर करना क्या हैं? कल मर �ाऊँगा, डिMर कौन भोगनेवाला बैठा हुआ है।

चौकीदार चला गया। भगत ने आगे पैर बढ़ाया। �ैसे नशे में आदमी की देह अपने काबू में नहीं रहती, पैर कहीं रखता है, पड़ता कहीं है, कहता कुछ हे, �बान से डिनकलता कुछ है, वही हाल इस समय भगत का था। मन में प्रडितकार था; पर कम@ मन के अधीन न था। जि�सने कभी तलवार नहीं चलायी, वह इरादा करने पर भी तलवार नहीं चला सकता। उसके हाथ कॉँपते हैं, उठते ही नहीं।

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भगत लाठी खट-खट करता लपका चला �ाता था। चेतना रोकती थी, पर उपचेतना ठेलती थी। सेवक स्वामी पर हावी था।

आधी राह डिनकल �ाने के बाद सहसा भगत रूक गया। निहंसा ने डिRया पर डिव�य पायी—मै यों ही इतनी दूर चला आया। इस �ाडे़-पाले में मरने की मुझे क्या पड़ी थी? आराम से सोया क्यों नहीं? नींद न आती, न सही; दो-चार भ�न ही गाता। र्व्यथ@ इतनी दूर दौड़ा आया। चड़ढा का लड़का रहे या मरे, मेरी कला से। मेरे साथ उन्होंने ऐसा कौन-सा सलूक डिकया था डिक मै उनके सिलए मरँू? दुडिनया में ह�ारों मरते हें, ह�ारों �ीते हें। मुझे डिकसी के मरने-�ीने से मतलब!

मगर उपचेतन ने अब एक दूसर रूप धारण डिकया, �ो निहंसा से बहुत कुछ मिमलता-�ुलता था—वह झाड़-Mँूक करने नहीं �ा रहा है; वह देखेगा, डिक लोग क्या कर रहे हें। �ाक्टर साहब का रोना-पीटना देखेगा, डिकस तरह सिसर पीटते हें, डिकस तरह पछाडे़ खाते है! वे लोग तो डिवbान होते हैं, सबर कर �ाते होंगे! निहंसा-भाव को यों धीर� देता हुआ वह डिMर आगे बढ़ा।

इतने में दो आदमी आते दिदखायी दिदये। दोनों बाते करते चले आ रहे थे—चड़ढा बाबू का घर उ�ड़ गया, वही तो एक लड़का था। भगत के कान में यह आवा� पड़ी। उसकी चाल और भी ते� हो गयी। थकान के मारे पॉँव न उठते थे। सिशरोभाग इतना बढ़ा �ाता था, मानों अब मुँह के बल डिगर पडे़गा। इस तरह वह कोई दस मिमनट चला होगा डिक �ाक्टर साहब का बँगला न�र आया। डिब�ली की बत्तित्तयॉँ �ल रही थीं; मगर सन्नाटा छाया हुआ था। रोने-पीटने के आवा� भी न आती थी। भगत का कले�ा धक-धक करने लगा। कहीं मुझे बहुत देर तो नहीं हो गयी? वह दौड़ने लगा। अपनी उम्र में वह इतना ते� कभी न दौड़ा था। बस, यही मालूम होता था, मानो उसके पीछे मोत दौड़ी आ री है।

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ब� गये थे। मेहमान डिवदा हो गये। रोने वालों में केवल आकाश के तारे रह गये थे। और सभी रो-रो कर थक गये थे। बड़ी उत्सुकता के साथ लोग रह-रह आकाश की ओर

देखते थे डिक डिकसी तरह सुडिह हो और लाश गंगा की गोद में दी �ाय।दो

सहसा भगत ने bार पर पहुँच कर आवा� दी। �ाक्टर साहब समझे, कोई मरी� आया होगा। डिकसी और दिदन उन्होंने उस आदमी को दुत्कार दिदया होता; मगर आ� बाहर डिनकल आये। देखा एक बूढ़ा आदमी खड़ा है—कमर झुकी हुई, पोपला मुँह, भौहे तक सMेद हो गयी थीं। लकड़ी के सहारे कॉँप रहा था। बड़ी नम्रता से बोले—क्या है भई, आ� तो हमारे ऊपर ऐसी मुसीबत पड़ गयी है डिक कुछ कहते नहीं बनता, डिMर कभी आना। इधर एक महीना तक तो शायद मै डिकसी भी मरी� को न देख सकँूगा।

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भगत ने कहा—सुन चुका हँू बाबू �ी, इसीसिलए आया हँू। भैया कहॉँ है? �रा मुझे दिदखा दीजि�ए। भगवान बड़ा कारसा� है, मुरदे को भी जि�ला सकता है। कौन �ाने, अब भी उसे दया आ �ाय।

चड़ढा ने र्व्यसिथत स्वर से कहा—चलो, देख लो; मगर तीन-चार घंटे हो गये। �ो कुछ होना था, हो चुका। बहुतेर झाड़ने-Mँकने वाले देख-देख कर चले गये।

�ाक्टर साहब को आशा तो क्या होती। हॉँ बूढे पर दया आ गयी। अन्दर ले गये। भगत ने लाश को एक मिमनट तक देखा। तब मुस्करा कर बोला—अभी कुछ नहीं डिबगड़ा है, बाबू �ी! यह नारायण चाहेंगे, तो आध घंटे में भैया उठ बैठेगे। आप नाहक दिदल छोटा कर रहे है। �रा कहारों से कडिहए, पानी तो भरें।

कहारों ने पानी भर-भर कर कैलाश को नहलाना शुरू डिकयां पाइप बन्द हो गया था। कहारों की संख्या अमिधक न थी, इससिलए मेहमानों ने अहाते के बाहर के कुऍं से पानी भर-भर कर कहानों को दिदया, मृणासिलनी कलासा सिलए पानी ला रही थी। बुढ़ा भगत खड़ा मुस्करा-मुस्करा कर मंत्र पढ़ रहा था, मानो डिव�य उसके सामने खड़ी है। �ब एक बार मंत्र समाप्त हो �ाता, वब वह एक �ड़ी कैलाश के सिसर पर �ाले गये और न-�ाने डिकतनी बार भगत ने मंत्र Mँूका। आखिखर �ब उर्षोा ने अपनी लाल-लाल ऑंखें खोलीं तो केलाश की भी लाल-लाल ऑंखें खुल गयी। एक क्षण में उसने अंगड़ाई ली और पानी पीने को मॉँगा। �ाक्टर चड़ढा ने दौड़ कर नारायणी को गले लगा सिलया। नारायणी दौड़कर भगत के पैरों पर डिगर पड़ी और म़णासिलनी कैलाश के सामने ऑंखों में ऑंसू-भरे पूछने लगी—अब कैसी तडिबयत है!

एक क्षण् में चारों तरM खबर Mैल गयी। मिमत्रगण मुबारकवाद देने आने लगे। �ाक्टर साहब बडे़ श्रद्धा-भाव से हर एक के हसामने भगत का यश गाते डिMरते थे। सभी लोग भगत के दश@नों के सिलए उत्सुक हो उठे; मगर अन्दर �ा कर देखा, तो भगत का कहीं पता न था। नौकरों ने कहा—अभी तो यहीं बैठे सिचलम पी रहे थे। हम लोग तमाखू देने लगे, तो नहीं ली, अपने पास से तमाखू डिनकाल कर भरी।

यहॉँ तो भगत की चारों ओर तलाश होने लगी, और भगत लपका हुआ घर चला �ा रहा था डिक बुदिढ़या के उठने से पहले पहुँच �ाऊँ!

�ब मेहमान लोग चले गये, तो �ाक्टर साहब ने नारायणी से कहा—बुड़ढा न-�ाने कहाँ चला गया। एक सिचलम तमाखू का भी रवादार न हुआ।

नारायणी—मैंने तो सोचा था, इसे कोई बड़ी रकम दँूगी।चड़ढा—रात को तो मैंने नहीं पहचाना, पर �रा साM हो �ाने पर पहचान गया। एक

बार यह एक मरी� को लेकर आया था। मुझे अब याद आता हे डिक मै खेलने �ा रहा था और मरी� को देखने से इनकार कर दिदया था। आप उस दिदन की बात याद करके मुझें जि�तनी ग्लाडिन हो रही है, उसे प्रकट नहीं कर सकता। मैं उसे अब खो� डिनकालूँगा और उसके पेरों पर डिगर कर अपना अपराध क्षमा कराऊँगा। वह कुछ लेगा नहीं, यह �ानता हँू,

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उसका �न्म यश की वर्षोा@ करने ही के सिलए हुआ है। उसकी सqनता ने मुझे ऐसा आदश@ दिदखा दिदया है, �ो अब से �ीवनपय@न्त मेरे सामने रहेगा।

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