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जैन धर्म� / Jainism

तीर्थं�कर पार्श्व�नार्थंTirthankara Parsvanathaराजकीय जैन संग्रहालय, मरु्थंरा

जैन धम� भारत की श्रमण परम्परा से निनकला धम� और दर्श�न है। 'जैन' कहते हैं उन्हें, जो 'जिजन' के अनुयायी हों । 'जिजन' र्शब्द बना है 'जिज' धातु से। 'जिज' माने-जीतना। 'जिजन' माने जीतने वाला। जिजन्होंने अपने मन को जीत लिलया, अपनी वाणी को जीत लिलया और अपनी काया को जीत लिलया, वे हैं 'जिजन'। जैन धम� अर्थंा�त 'जिजन' भगवान् का धम� । जैन धम� का परम पनिवत्र और अनादिद मूलमन्त्र है- णमो अरिरहंताणं।णमो लिसद्धाणं।णमो आइरिरयाणं।णमो उवज्झायाणं।णमो लोए सव्वसाहूणं॥

अर्थंा�त अरिरहंतो को नमस्कार, लिसद्धों को नमस्कार, आचाय@ को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सव� साधुओं को नमस्कार।

ये पाँच परमेष्ठी हैं।

मरु्थंरा मैं निवभिभन्न कालों में अनेक जैन मूर्तितHयाँ मिमली हैं जो जैन संग्रहालय मरु्थंरा मैं संग्रहीत हैं।

जैन तीर्थं�कर, मरु्थंराJain Tirthankar, Mathura

अवैदिदक धम@ में जैन धम� सबसे प्राचीन है, प्रर्थंम तीर्थं�कर भगवान ऋषभदेव माने जाते हैं। जैन धम� के अनुसार भी ऋषभ देव का मरु्थंरा से संबंध र्थंा। जैन धम� में की प्रचलिलत अनुश्रुनित के अनुसार, नाभिभराय के पुत्र भगवान ऋषभदेव के आदेर्श से इन्द्र ने 52 देर्शों की रचना की र्थंी। रू्शरसेन देर्श और उसकी राजधानी मरु्थंरा भी उन देर्शों में र्थंी (जिजनसेनाचाय� कृत महापुराण- पव� 16,श्लोक 155)। जैन `हरिरवंर्श पुराण' में प्राचीन भारत के जिजन 18 महाराज्यों का उल्लेख हुआ है, उनमें र्शूरसेन और उसकी राजधानी मरु्थंरा का नाम भी है । जैन मान्यता के अनुसार प्रर्थंम तीर्थं�कर ऋषभदेव के सौ पुत्र हुए रे्थं।

जैन धम� के सातवें तीर्थं�कर सुपार्श्व�नार्थं का निवहार मरु्थंरा में हुआ र्थंा।* अनेक निवहार-स्थल पर कुबेरा देवी द्वारा जो स्तूप बनाया गया र्थंा, वह जैन धम� के इनितहास में बड़ा प्रलिसद्ध रहा है। चौदहवें तीर्थं�कर अनंतनार्थं का स्मारक तीर्थं� भी मरु्थंरा में यमुना नदी के तटपर र्थंा। बाईसवें तीर्थं�कर नेमिमनार्थं को जैन धम� में श्री कृष्ण के समकालीन और उनका चचेरा भाई माना जाता है। इस प्रकार जैन धम�-गं्रर्थंों की प्राचीन अनुश्रुनितयों में ब्रज के प्राचीनतम इनितहास के अनेक सूत्र मिमलते हैं। जैन गं्रर्थंों मे उल्लेख है निक यहाँ

पार्श्व�नार्थं महावीर स्वामी ने यात्रा की र्थंी। पउमचरिरय में एक कर्थंा वर्णिणHत है जिजसके अनुसार सात साधुओं द्वारा सव�प्रर्थंम मरु्थंरा में ही रे्श्वतांबर जैन संम्प्रदाय का प्रचार निकया गया र्थंा।

एक अनुश्रुनित में मरु्थंरा को इक्कीसवें तीर्थं�कर नेमिमनार्थं* की जन्मभूमिम बताया गया है, किकHतु उत्तर पुराण में इनकी जन्मभूमिम मिमलिर्थंला वर्णिणHत है।* निवनिवधतीर्थं�कल्प से ज्ञात होता है निक नेमिमनार्थं का मरु्थंरा में निवलिर्शष्ट स्थान र्थंा।* मरु्थंरा पर प्राचीन काल से ही निवदेर्शी आक्रामक जानितयों, र्शक, यवन एवं कुषाणों का र्शासन रहा।

वीलिर्थंका

जैन प्रनितमा का ऊपरी भागUpper Part of a Jina

तीर्थं�कर ऋषभनार्थंTirthankara Rishabhanath

आसनस्थ जैन तीर्थं�करSeated Jaina Tirthankara जैन प्रनितमा का धड़

Bust of Jina

जैन पुराण साहि�त्यभारतीय धम�ग्रन्थों में 'पुराण' र्शब्द का प्रयोग इनितहास के अर्थं� में आता है। निकतने निवद्वानों ने इनितहास और पुराण को पंचम वेद माना है। चाणक्य ने अपने अर्थं�र्शास्त्र में इनितवृत्त, पुराण, आख्यामियका, उदाहरण, धम�र्शास्त्र तर्थंा अर्थं�र्शास्त्र का समावेर्श निकया है। इससे यह लिसद्ध होता है निक इनितहास और पुराण दोनों ही निवभिभन्न हैं। इनितवृत्त का उल्लेख समान होने पर भी दोनों अपनी अपनी निवर्शेषता रखते हैं। इनितहास जहाँ घटनाओं का वण�न कर निनवृ�त हो जाता है वहाँ पुराण उनके परिरणाम की ओर पाठक का लिचत्त आकृष्ट करता है।

सग�श्च प्रनितसग�श्च वंर्शो मन्वन्तराभिण च। वंर्शानुचरिरतान्येव पुराणं पंचलक्षणम्॥

जिजसमें सग�, प्रनितसग�, वंर्श, मन्वन्तर और वंर्श-परम्पराओं का वण�न हो, वह पुराण है। सग�, प्रनितसग� आदिद पुराण के पाँच लक्षण हैं। तात्पय� यह निक इनितवृत्त केवल घदिटत घटनाओं का उल्लेख करता है परन्तु पुराण महापुरुषों के घदिटत घटनाओं का उल्लेख करता हुआ उनसे प्राप्त फलाफल पुण्य-पाप का भी वण�न करता है तर्थंा व्यलिt के चरिरत्र निनमा�ण की अपेक्षा बीच-बीच में नैनितक और धार्मिमHक लिर्शक्षाओं का प्रदर्श�न भी करता है। इनितवृत्त में जहाँ केवल वत�मान की घटनाओं का उल्लेख रहता है वहाँ पुराण में नायक के अतीत और अनागत भवों का भी उल्लेख रहता है और वह इसलिलये निक जनसाधारण समझ सके निक महापुरुष कैसे बना जा सकता है। अवनत से उन्नत बनने के लिलये क्या-क्या त्याग, परोपकार और तपस्याए ँकरनी पड़ती हैं। मानव के जीवन-निनमा�ण में पुराण का बड़ा ही महत्वपूण� स्थान है। यही कारण है निक उसमें जनसाधारण की श्रद्धा आज भी यर्थंापूव� अकु्षण्ण है।

वैदिदक परम्परा में पुराणों और उप-पुराणों का जैसा निवभाग पाया जाता है वैसा जैन परम्परा में नहीं पाया जाता। परन्तु यहाँ जो भी पुराण-सानिहत्य निवद्यमान है वह अपने ढंग का निनराला है। जहाँ अन्य पुराणकार प्राय: इनितवृत्त की यर्थंार्थं�ता को सुरभिक्षत नहीं रख सके हैं वहाँ जैन पुराणकारों ने यर्थंार्थं�ता को अमिधक सुरभिक्षत रखा है। इसीलिलये आज के निनष्पक्ष निवद्वानों का यह स्पष्ट मत है निक प्राक्कालीन भारतीय संस्कृनित को जानने के लिलये जैन पुराणों से उनके कर्थंा ग्रन्थ से जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह असामान्य है। यहाँ कनितपय दिदगम्बर जैन पुराणों और चरिरत्रों की सूची इस प्रकार है-

क्रमांक - पुराणनाम - कता� - रचनाकाल

1.- पद्मपुराण - पद्मचरिरत - आचाय� रनिवषेण - 705

2.- महापुराण - आदिदपुराण - आचाय� जिजनसेन - नौवीं र्शती

3.- पुराण - गुणभद्र - 10 वीं र्शती

4.- अजिजत - पुराण - अरुणमभिण - 1716

5.- आदिदपुराण - (कन्नड़) - कनिव पंप --

6.- आदिदपुराण - भट्टारक - चन्द्रकीर्तितH - 17 वीं र्शती

7.- आदिदपुराण - भट्टारक - सकलकीर्तितH - 15 वीं र्शती

8.- उत्तरपुराण - भ 0 सकलकीर्तितH - 15 वीं र्शती

9.- कणा�मृत - पुराण - केर्शवसेन - 1608

10.- जयकुमार - पुराण - ब्र 0 कामराज - 1555

11.- चन्द्रप्रभपुराण - कनिव अगासदेव - --

12.- चामुण्ड पुराण - (क 0) चामुण्डराय - र्श 0 सं0 980

13.- धम�नार्थं पुराण - (क 0) कनिव बाहुबली - --

14.- नेमिमनार्थं पुराण - ब्र 0 नेमिमदत्त - 1575 के लगभग

15.- पद्मनाभपुराण - भट्टारक र्शुभचन्द्र - 17 वीं र्शती

16.- पउमचरिरउ - (अपभं्रर्श) - चतुमु�ख देव --

17.- पउमचरिरउ - स्वयंभूदेव --

18.- पद्मपुराण - भ 0 सोमतेन -

19.- पद्मपुराण- भ 0 धम�कीर्तितH - 1656

20.- पद्मपुराण -(अपभं्रर्श) - कनिव रइधू - 15-16 र्शती

21.- पद्मपुराण - भ 0 चन्द्रकीर्तितH - 17 वीं र्शती

22.- पद्मपुराण - ब्रह्म जिजनदास - 13-16 र्शती

23.- पाण्डव पुराण - भ 0 रु्शभचन्द्र - 1608

24.- पाण्डव पुराण - (अपभं्रर्श) - भ 0 यर्शकीर्तितH - 1497

25.- पाण्डव पुराण - भ 0 श्रीभूषण - 1658

26.- पाण्डव पुराण - वादिदचन्द्र - 1658

27.- पार्श्व�पुराण - (अपभं्रर्श) - पद्मकीर्तितH - 989

28.- पार्श्व�पुराण - कनिव रइधू - 15-16 र्शती

29.- पार्श्व�पुराण - चन्द्रकीर्तितH - 1654

30.- पार्श्व�पुराण - वादिदचन्द्र - 1658

31.- महापुराण - आचाय� मल्लिल्लषेण - 1104

32.- महापुराण - (अपभं्रर्श) - महाकनिव पुष्पदन्त --

33.- मल्लिल्लनार्थंपुराण - (क) कनिव नागचन्द्र --

34.- पुराणसार - श्रीचन्द्र --

35.- महावीरपुराण (वध�मान चरिरत) - असग 910

36.- महावीर पुराण - भ 0 सकलकीर्तितH - 15 वीं र्शती

37.- मल्लिल्लनार्थं पुराण - सकलकीर्तितH - 15 वीं र्शती

38.- मुनिनसुव्रत पुराण - ब्रह्म कृष्णदास --

39.- मुनिनसुव्रत पुराण - भ 0 सुरेन्द्रकीर्तितH --

40.- वागर्थं�संग्रह पुराण - कनिव परमेष्ठी - आ 0 जिजनसेन के महापुराण से प्राक्

41.- र्शान्तिन्तनार्थं पुराण - असग - 910

42.- र्शान्तिन्तनार्थं पुराण - भ 0 श्रीभूषण - 1658

43.- श्रीपुराण - भ 0 गुणभद्र --

44.- हरिरवंर्शपुराण - पुन्नाट संघीय - जिजनसेन - र्श 0 सं0 705

45.- हरिरवंर्शपुराण - (अपभं्रर्श) - स्वयंभूदेव -

46.- हरिरवंर्शपुराण - तदैव - चतुमु�ख देव

47.- हरिरवंर्शपुराण - ब्रह्म जिजनदास - 15-16 र्शती

48.- हरिरवंर्शपुराण - तदैव् भ 0 - यर्श:कीर्तितH - 1507

49.- हरिरवंर्शपुराण - भ 0 श्रुतकीर्तितH - 1552

50.- हरिरवंर्शपुराण - महाकनिव रइधू - 15-16 र्शती

51.- हरिरवंर्शपुराण - भ 0 धम�कीर्तितH - 1671

52.- हरिरवंर्शपुराण - कनिव रामचन्द्र - 1560 के पूव�

इनके अनितरिरt चरिरत-ग्रन्थ हैं, जिजनकी संख्या पुराणों की संख्या से अमिधक है और जिजनमें वराङ्गचरिरत, जिजनदत्तचरिरत, जम्बूस्वामीचरिरत, जसहर चरिरउ, नागकुमार चरिरउ, आदिद निकतने ही महत्वपूण� ग्रन्थ सम्मिम्मलिलत हैं। इनमें रनिवषेण का पद्मपुराण, जिजनसेन का महापुराण (आदिदपुराण), गुणभद्र का उत्तर पुराण और पुन्नाट संघीय जिजनसेन का हरिरHवर्शपुराण निवशु्रत और सव�श्रेष्ठ पुराण माने जाते हैं, क्योंनिक इनमें पुराण का पूण� लक्षण घदिटत होता है। इनकी रचना पुराण और काव्य दोनों की र्शैली से की गई है।

आदि�पुराण

आचाय� जिजनसेन (9 वीं र्शती) द्वारा प्रणीत आदिद (प्रर्थंम) तीर्थं�कर ऋषभेदेव तर्थंा उनके सुयोग्य एवं निवख्यात पुत्र भरत एवं बाहुबली के पुण्य चरिरत के सार्थं-सार्थं भारतीय संस्कृनित तर्थंा इनितहास के मूल स्रोतों एवं निवकास क्रम को आलोनिकत करनेवाला अन्यत्र महत्वपूण� पुराण ग्रन्थ है। जैन संस्कृनित एवं इनितहास के जानने के लिलये इसका अध्ययन अनिनवाय� है। यह पुराण ग्रन्थ के सार्थं एक श्रेष्ठ महाकाव्य भी है। निवषय प्रनितपादन की दृमिष्ट से यह धम�र्शास्त्र, राजनीनितर्शास्त्र, लिसद्धान्तर्शास्त्र और आष�ग्रन्थ भी माना गया है। मानव सभ्यता की आद्य व्यवस्था का प्रनितपादक होने के कारण इसे अन्तरा�ष्ट्रीय ख्यानित प्राप्त है। मानव सभ्यता का निवकास-क्रम, निवभिभन्न समूहों में उसका वग�करण, धम� निवर्शेष के धार्मिमHक संस्कार आदिद अनेक आयामों की इसमें निवर्शद रूप से निववेचना की गई है। संस्कृत एवं निवभिभन्न भारतीय भाषाओं के परवत� कनिवयों के लिलये यह माग�दर्श�क रहा है। उत्तरवत� ग्रन्थकारों ने अपने ग्रन्थों में 'तदुtं आष�' इन महत्त्वपूण� र्शब्दों के सार्थं उदाहरण देते हुए अपने ग्रन्थों की गरिरमा वृद्धिद्धHगत की है। वास्तव में आदिदपुराण संस्कृत सानिहत्य का एक अनुपम ग्रन्थ है। ऐसा कोई निवषय नहीं है जिजसका इसमें प्रनितपादन न हो। यह पुराण है, महाकाव्य है, धम�र्शास्त्र है, राजनीनितर्शास्त्र है, आचार र्शास्त्र है और युग की आद्य व्यवस्था को बतलाने वाला महान इनितहास है। आचाय� जिजनसेन ने इस ग्रन्थ को 'महापुराण' नाम से रचने का संकल्प निकया र्थंा। परन्तु असमय में जीवन समाप्त हो जाने से उनका वह संकल्प पूण� नहीं हो सका। यह आदिदपुराण महापुराण का पूव� भाग हे। इससे इसका दूसरा नाम 'पूव�पुराण' भी प्रलिसद्ध

है। इसकी प्रारम्भ के 42 पव@ और 43 वें पव� के 3 श्लोकों तक की रचना आयाय� जिजनसेन के द्वारा हुई है। उनके द्वारा छोड़ा गया र्शेषभाग उनके प्रबुद्ध लिर्शष्य आचाय� गुणभद्र के द्वारा रचा गया है, जो 'उत्तर पुराण' नाम से प्रलिसद्ध है।

पुराणकथा और कथानायक

महापुराण के कर्थंा नायक मुख्यतया प्रर्थंम तीर्थं�कर आदिदनार्थं हैं और सामान्यतया नित्रषमिष्टर्शलाका पुरुष हैं। 24 तीर्थं�कर, 12 चक्रवत�, 9 नारायण, 9 बलभद्र और 9 प्रनितनारायण ये 63 र्शलाका पुरुष कहलाते हैं। इनमें से आदिदपुराण में प्रर्थंम तीर्थं�कर श्री वृषभदेव और उनके पुत्र प्रर्थंम चक्रवत� भरत का ही वण�न है। अन्य र्शलाकापुरुषों का वण�न गुणभद्राचाय� निवरलिचत उत्तरपुराण में है। आचाय� जिजनसेन ने जिजस रीनित से प्रर्थंम तीर्थं�कर और भरत चक्रवत� का वण�न निकया है, यदिद वह जीनिवत रहते और उसी रीनित से अन्य कर्थंानायकों का वण�न करते तो यह महापुराण संसार के समस्त पुराणों और काव्यों में महान होता।

भगवान् वृषभदेव इस अवसर्तिपHणी (अवननित) काल के 24 तीर्थं�करों में प्रर्थंम तीर्थं�कर हैं। तृतीय काल के अन्त में जब भोगभूमिम की व्यवस्था नष्ट हो चुकी र्थंी और कम�भूमिम की रचना का प्रारम्भ होनेवाला र्थंा, उस सम्मि� काल में अयोध्या के अन्तिन्तम कुलकर-मनु श्री नाभिभराज के घर उनकी पत्नी मरुदेवी से इनका जन्म हुआ। आप जन्म से ही निवलक्षण प्रनितभा के धारी रे्थं। कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने के बाद जब निबना बोये उपजने वाली धान का उपजना भी बन्द हो गया तब लोग भूख-प्यास से व्याकुल हो श्री नाभिभराज के पास पहुँचे। नाभिभराज र्शरणागत लोगों को श्री वृषभदेव के पास ले गये। लोगों की करुणदर्शा देख उनकी अन्तरात्मा द्रवीभूत हो गयी। उन्होंने अवमिधज्ञान से निवदेह क्षेत्र की व्यवस्था जानकर यहाँ भी भरतके्षत्र में अलिस, मषी, कृनिष, निवद्या, वाभिणज्य, और लिर्शल्प-इन षट्कम@ का उपदेर्श कर उस युग की व्यवस्था को सुखदायक बनाया।

निपता नाभिभराज के आग्रह से उन्होंने कच्छ एवं महाकच्छ राजाओं की बहनों यर्शस्वती और सुनन्दा के सार्थं निववाह निकया। उन्हें यर्शस्वती से भरत आदिद सौ पुत्र तर्थंा ब्राह्मी नामक पुत्री की प्रान्तिप्त हुई और सुनन्दा से बाहुबली पुत्र और सुन्दरी नामक पुत्री की उपलब्धि� हुई। गाह�स्थ धम� का निनवा�ह निकया। जीवन के अन्त में उन्होंने प्रव्रज्या-गृहत्याग कर तपस्या करते हुए कैवल्य प्राप्त निकया तर्थंा संसार-सागर से पार करनेवाला पारमार्थिर्थंHक (मोक्षमाग� का) उपदेर्श दिदया। तृतीय काल में जब तीन वष� आठ माह और 15 दिदन बाकी रे्थं, तब कैलार्श पव�त से निनवा�ण प्राप्त निकया।

उत्तरपुराण

महापुराण का पूवा�द्ध� आदिदपुराण तर्थंा उत्तरपुराण उत्तर भाग है। उत्तरपुराण में निद्वतीय तीर्थं�कर श्री अजिजतनार्थं से लेकर अन्तिन्तम तीर्थं�कर महावीर तक 23 तीर्थं�करों, भरत को छोड़कर रे्शष 11 चक्रवर्तितHयों, 9 बलभद्रों, 9 नारायणों और 9 प्रनितनारायणों का चरिरत्र लिचत्रण है। यह 43 वें पव� के चौरे्थं श्लोक से लेकर 47 वें पव� तक गुणभद्राचाय� के द्वारा रलिचत है। गुणभद्राचाय� ने प्रारम्भ में अपने गुरु जिजनसेनाचाय� के प्रनित जो श्रद्धा-सुमन प्रकट निकये हैं वे बडे़ मम�स्पर्श� हैं। आठवें, सोलहवें, बाईसवें, तेईसवें और चौबीसवें तीर्थं�करों को छोड़कर अन्य तीर्थं�करों के चरिरत्र यद्यनिप अत्यन्त संके्षप में लिलखे गये हैं, परन्तु वण�न र्शैली की मधुरता से वह संक्षेप भी रुलिचकर प्रतीत होता है। इस ग्रन्थ में न केवल पौराभिणक कर्थंानक ही है निकन्तु कुछ ऐसे भी स्थल हैं, जिजनमें लिसद्धान्त की दृमिष्ट से सम्यग्दर्श�नादिद का और दार्श�निनक दृमिष्ट से सृमिष्ट कतृ�त्व आदिद निवषयों का भी निवर्शेष निववेचन हुआ है।

इसकी रचना वङ्कापुर में हुई र्थंी। यह वंकापुर स्व 0 पं॰ भुजबली र्शास्त्री के उल्लेखानुसार पूना, बेंगलूर रेलवे लाइन में हरिरहर स्टेर्शन के समीप वल� हावेरी रेलवे जंक्शन से 15 मील पर धारवाड़ जि�ले में है। वहाँ र्शक संवत् 819 में गुणभद्राचाय� ने इसे पूरा निकया र्थंा। आदिदपुराण में जिजनसेनाचाय� ने 67 और उत्तरपुराण में गुणभद्राचाय� ने 16 संस्कृत छन्दों का प्रयोग निकया है। 32 अक्षर वाले अनुषु्टप् श्लोक की अपेक्षा आदिदपुराण और उत्तरपुराण का ग्रन्थ परिरमाण बीस ह�ार के लगभग है। उत्तरपुराण की प्रस्तावना में इसका परिरमाण स्पष्ट निकया है।

र्शलाकापुरुषों के लिसवाय उत्तर पुराण में लोकनिप्रय जीव�र स्वामी का भी चरिरत्र दिदया गया है। अन्त में उत्सर्तिपHणी-अवसर्तिपHणी काल का वण�न एवं महावीर स्वामी की लिर्शष्य-परम्परा का भी वण�न निवरे्शष ज्ञातव्य है।

उत्तरपुराण के भी सुसम्पादिदत एवं सानुवाद तीन संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ, दिदल्ली से प्रकालिर्शत हो चुके हैं। इसके भी संपादक और अनुवादक डा॰ (पं॰) पन्न्लाल सानिहत्याचाय� सागर है, जो स्वयं इस लेख के लेखक हैं।

र्मन्द्रप्रबोधिधनी

र्शौरसेनी प्राकृत भाषा में आचाय� नेमिमचन्द्र लिस0 चक्रवत� द्वारा निनबद्ध गोम्मटसार मूलग्रन्थ की संस्कृत भाषा में रची यह एक निवर्शद और सरल व्याख्या है। इसके रचमियता अभयचन्द्र लिसद्धान्तचक्रवत� हैं। यद्यनिप यह टीका अपूण� है निकन्तु कम�लिसद्धान्त को समझने के लिलए एक अत्यन्त प्रामाभिणक व्याख्या है। केर्शववण� ने इनकी इस टीका का उल्लेख अपनी कन्नडटीका में, जिजसका नाम कना�टकवृभित्त है, निकया है। इससे ज्ञात होता है निक केर्शववण� ने उनकी इस मन्दप्रबोमिधनी टीका से लाभ लिलया है।

गोम्मटसार आचाय� नेमिमचन्द्र लिसद्धान्तचक्रवत� द्वारा लिलखा गया कम� और जीव निवषयक एक प्रलिसद्ध एवं महत्वपूण� प्राकृत-गं्रर्थं है। इसके दो भाग हैं-

1. एक जीवकाण्ड और 2. दूसरा कम�काण्ड।

जीवकाण्ड में 734 और कम�काण्ड में 972 र्शौरसेनी-प्राकृत भाषाबद्ध गार्थंाए ंहैं। कम�काण्ड पर संस्कृत में 4 टीकाए ंलिलखी गई हैं। वे हैं-

1. गोम्मटपंजिजका, 2. मन्दप्रबोमिधनी, 3. कन्नड़ संस्कृत मिमभिश्रत जीवतत्त्वप्रदीनिपका, 4. संस्कृत में ही रलिचत अन्य नेमिमचन्द्र की जीवतत्त्वप्रदीनिपका। इन टीकाओं में निवषयसाम्य है पर निववेचन की र्शैली इनकी

अलग अलग हैं। भाषा का प्रवाह और सरलता इनमें देखी जा सकती है।

गोम्र्मटसार जीवकाण्डगोम्मटसार के जीवकाण्ड में 734 गार्थंाओं द्वारा 9 अमिधकारों में

1. गुणस्थान, 2. जीवसमास,

3. पया�न्तिप्त,

4. प्राण,

5. संज्ञा, 6. माग�णा, 7. उपयोग,

8. अन्तभा�व तर्थंा 9. आलाप- इन निवषयों का निवर्शद निववेचन निकया गया है।

यहाँ प्रस्तुत है इसमें प्रनितपादिदत इन सैद्धान्तिन्तक निवषयों का संभिक्षप्त परिरचय-

गुणस्थान

यह गुणों की अपेक्षा जीव जैसी-जैसी अपनी उन्ननित के स्थान प्राप्त करता जाता है वैसे-वैसे उसके उन स्थानों को गुणस्थान संज्ञा दी गई है। वे 14 भेदों में निवभt हैं-

1. मिमथ्यादृमिष्ट,

2. सासादन-सम्यग्दृमिष्ट,

3. मिमश्र अर्थंा�त सम्यन्तिग्मथ्यादृमिष्ट,

4. असंयतसम्यग्दृमिष्ट,

5. संयतासंयत,

6. प्रमत्तसंयत,

7. अप्रमत्तसंयत,

8. अपूव�करण,

9. अनिनवृभित्तकरण,

10. सूक्ष्मसांपराय,

11. उपर्शांतकषाय,

12. क्षीणकषाय,

13. सयोगकेवली, 14. अयोगकेवली।

इन गुणस्थानों में जीव के आध्याम्मित्मक निवकास का हमें दर्श�न होता है। जहाँ प्रर्थंम गुणस्थान में जीव की दृमिष्ट मिमथ्या रहती है वहाँ दूसरे गुणस्थान में ऐसी दृमिष्ट का उल्लेख है जिजसमें सम्यक्त्व से पतन और मिमथ्यात्व की ओर उन्मुखता पायी जाती है। तीसरे गुणस्थान में जीव की श्रद्धा सम्यक और मिमथ्या दोनों रूप मिमली जुली पाई जाती है। जैसे दही और गुड़ के मिमलने पर जो खटमिमट्ठा स्वाद प्राप्त होता है। चौरे्थं गुणस्थान में जीव की श्रद्धा समीचीन हो जाती है पर संयम की ओर लगाव नहीं होता। पाँचवें गुणस्थान में जीव का लगाव कुछ संयम की ओर और कुछ असंयम की ओर रहता है। छठे गुणस्थान में पूण� संयम प्राप्त कर लेने पर भी जीव कुछ प्रमादयुt रहता है। सातवें गुणस्थान में उसका वह प्रमाद भी दूर हो जाता है और अप्रमत्तसंयत कहा जाने लगता है। आठवें गुणस्थान में उस जीव के ऐसे अपूव� परिरणाम होते हैं, जो उससे पूव� प्राप्त नहीं हुए रे्थं, अतएव इस गुणस्थान का नाम अपूव�करण है। नवें गुणस्थान में जीव को ऐसे निवरु्शद्ध परिरणाम प्राप्त होते हैं जो निनवृत नहीं होते, उत्तरोत्तर उनमें निनम�लता आती ही रहती है। दसवें गुणस्थान में जीव की कषाय स्थूल से अत्यंत सूक्ष्म रूप धारणकर लेती है इसलिलए उसे सूक्ष्मसांपराय कहा गया है। ग्यारहवें गुणस्थान में क्रोध, मान, माया और लोभ सभी प्रकार की कषायों का उपर्शमन हो जाता है इसलिलए उसे उपर्शांत कषाय कहा जाता है। बारहवें गुणस्थान में उस जीव की वे कषायें पूण�तया क्षीण हो जाती हैं और क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ संज्ञा को वह प्राप्त कर लेता है। तेरहवें गुणस्थान में ऐसा प्रकट हो जाता है निक जिजसमें इजिन्द्रय और मन की कोई सहायता नहीं होती और उस ज्ञान द्वारा नित्रलोकवत� और नित्रकालवत� सूक्ष्म एवं स्थूल सभी प्रकार के पदार्थं@ को वह जीव जानने लगता हैं पर हाँ, योग मौजूद रहने से उसे सयोगकेवली कहा जाता है। चौदहवें गुणस्थान में उस केवली का वह योग भी नहीं रहता और अयोगकेवली कहा जाता है। अयोगकेवली अन्तमु�हूत� बाद पूण�तया संसार बंधन से मुt होकर र्शार्श्वतमोक्ष को प्राप्तकर लेता है। इस तरह जीव के आध्याम्मित्मक निवकास के ये 14 सोपान हैं, जिजन्हें जैन लिसद्धान्त में 'चौदह गुणस्थान' नाम से अभिभनिहत निकया गया है।

जीव सर्मास

जहाँ-जहाँ जीवों का स्थान है अर्थंा�त निनवास है उसे जीवसमास कहा गया है। ये 14 हैं। इजिन्द्रय की अपेक्षा जीव 5 प्रकार के हैं;

1. स्पर्श�नइजिन्द्रय वाले, 2. स्पर्श�न और रसना वाले,

3. स्पर्श�न, रसना और घ्राणवाले, 4. स्पर्श�न, रसना, घ्राण और चकु्ष वाले तर्थंा

5. स्पर्श�न, रसना, घ्राण, चकु्ष और श्रोत्रइजिन्द्रय वाले। इनमें 5 इजिन्द्रय वाले जीव दो प्रकार के हैं, मन सनिहत और मन रनिहत। इसी प्रकार एकेजिन्द्रय जीव भी बादर, और सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार के हैं। इस तरह जीवों के 3+2+2+=7 भेद हैं ये 7 प्रकार के जीव पया�प्तक और अपया�प्तक दोनों प्रकार के होते हैं। इन सबको मिमलाने पर 14 जीवसमास कहे गए हैं।

पया�प्ति)*

आहारवग�णा के परमाणुओं को खल और रस भाग रूप परिरणमाने की र्शलिt-निवरे्शष को पया�न्तिप्त कहते हैं। ये 6 हैं- आहार पया�न्तिप्त, र्शरीरपया�न्तिप्त, इजिन्द्रयपया�न्तिप्त, आनापान पया�न्तिप्त, भाषा पया�न्तिप्त तर्थंा मन:पया�न्तिप्त। इन पया�न्तिप्तयों की पूण�ता को पया�प्तक और अपूण�ता को अपया�प्तक कहा जाता है।

प्राण

जिजनके संयोग होने पर जीव को जीनिवत और निवयोग होने पर मृत कहा जाता है वे प्राण कहे जाते हैं। ये 10 हैं- 5 इजिन्द्रयाँ तर्थंा कायबल, वचनबल, मनोबल, र्श्वासोच्छ्वास, व आयु।

संज्ञा

आहार आदिद की वांछा को संज्ञा कहते हैं। इसके 4 भेद हैं – आहार, भय, मैरु्थंन और परिरग्रह। ये चारों संज्ञाए ंजगत् के समस्त प्राभिणयों में पाई जाती है।

र्माग�णा

जिजनमें अर्थंवा जिजनके द्वारा जीवों का अन्वेषण निकया जाता है उन्हें माग�णा कहा गया है। ये 14 प्रकार की हैं- गनित, इजिन्द्रय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्श�न, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संलिज्ञत्व, आहार। इनका निववेचन आगम ग्रन्थों में निवस्तारपूव�क निकया गया है, अतएव यहाँ इनका निवस्तार न कर नाम से संकेतमात्र निकया गया है।

उपयोग

जीव के चेतनागुण को उपयोग कहा गया है। यह चेतनागुण दो प्रकार का है- सामान्य अर्थंा�त् निनराकार, निवरे्शष अर्थंा�त् साकार। निनराकार उपयोग को दर्श�नोपयोग और निवर्शेष उपयोग को ज्ञानोपयोग कहा गया है।

अन्*र्भाा�व

इस अमिधकार में यह बताया गया है निक निकस मारृगणा में कौन कौन गुणस्थान होते हैं। जैसे नरकगनित में आदिद के चार गुणस्थान ही होते हैं। इसी तरह र्शेष तीन गनितयों और अन्य 13 माग�णाओं में भी गुणस्थानों के अब्धिस्तत्व का प्ररूपण निकया गया है।

आलाप

इसमें तीन आलापों का वण�न है। गुणस्थान, माग�णा और पया�न्तिप्त। आलाप का अर्थं� है गुणस्थानों में माग�णाओं, माग�णाओं में गुणस्थानों और पया�न्तिप्तयों में गुणस्थान और माग�णा की चचा� करना। इससे यह ज्ञात हो जाता है निक जीव का भ्रमण लोक में अनेकों बार और अनेकों स्थानों पर होता रहता है। इस भ्रमण की निनवृभित्त का उपाय एकमात्र तत्त्वज्ञान है। यह गोम्मटसार के प्रर्थंम भाग जीवकाण्ड पर लिलखी गई मन्दप्रबोमिधनी टीका का संभिक्षप्त परिरचय है, जो संस्कृत में निनबद्ध है और जिजसकी भाषा प्रसादगुण युt एवं प्रवाहपूण� है।

गोम्र्मट्टसार कर्म�काण्डअब कम�काण्ड का, जो गोम्मटसार का ही दूसरा भाग है, संके्षप में परिरचय दिदया जाता है। इसमें निनम्न 9 अमिधकार हैं-

प्रकृहि*सरु्मत्की*�न

इस अमिधकार में ज्ञानावरणादिद मूल-प्रकृनितयों और उनके उत्तरभेदों का कर्थंन निकया गया है। इसी में उन प्रकृनितयों को घानित और अघानित कम@ में निवभाजिजत करके घानित कम@ को भी दो भेदों में रखा गया है- सव�घानित और देर्शघानित तर्थंा इन्हीं सब कम@ को पुण्य और पाप प्रकृनितयों में निवभाजिजत निकया गया है। सार्थं ही निवपाक (फलदान) की अपेक्षा उनके चार भेद हैं। वे है- पुद्गल निवपाकी, भव निवपाकी, के्षत्र निवपाकी और जीव निवपाकी। यहाँ यह ध्यातव्य है निक जिजस जिजस कम� के उदय में जो जो बाह्य वस्तु निनमिमत्त होती है उस उस वस्तु को उस उस प्रकृनित का नोकम� कहा गया है। अभयचन्द्र ने अपनी मन्दप्रबोमिधनी टीका में इन सबका संस्कृत भाषा के माध्यम से बहुत निवर्शद निववेचन निकया है।

बन्धो�य-सत्वाधिधकार

इस अमिधकार में कम@ के ब�, उदय और सत्व का निववेचन निकया गया है। बंध के 4 भेद हैं- उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य। ये चारों भेद भी आदिद, अनादिद, ध्रुव और अध्रुव के रूप में वर्णिणHत निकए गए हैं। यह निववेचन आठों कम@ की 148 प्रकृनितयों को लेकर निकया गया है। कम�ब� के निवषय में इतना सूक्ष्म निनरूपण हमें अन्यत्र अलभ्य है। इसी तरह उदय और सत्व का भी वण�न निकया गया है। निकस गुणस्थान में निकतनी प्रकृनितयों का ब�, ब�निवचे्छद और अबंध होता है, इसी प्रकार निकसी गुणस्थान में निकतनी प्रकृनितयों का उदय, उदयनिवचे्छद और अनुदय होता है तर्थंा निकस गुणस्थान में निकतनी प्रकृनितयों का सत्व, सत्वनिवचे्छद और असत्व रहता है इन सबका भी सूक्ष्मतम निववेचन निकया गया है।

सत्वस्थान र्भांगाधिधकार

इसमें सत्वस्थानों कों भंगों के सार्थं प्ररूनिपत निकया गया है। निपछले अमिधकार के अन्त में जो सत्वस्थान का कर्थंन निकया है वह आयु के बंध और अबंध का भेद न करके निकया गया है तर्थंा इस अमिधकार में भंगों के सार्थं उनका प्ररूपण है। यह प्ररूपण सूक्ष्म तो है ही लेनिकन आत्मा को निवरु्शद्ध बनाने के लिलए उसका भी जानना जावश्यक है।

हि4चूधिलका अधिधकार

इस अमिधकार में 3 चूलिलकाए ँहैं- नवप्रश्नचूलिलका, पंचभागहारचूलिलका, दर्शकरण चूलिलका। प्रर्थंम चूलिलका में निकन निकन प्रकृनितयों की उदयव्युल्लिच्छभित्त के पहले ही ब� वु्यल्लिच्छभित्त होत है इत्यादिद 9 प्रश्नों को उठाकर उनका समाधान निकया गया है। दूसरी चूलिलका में उदे्वलना, निवध्यात, अध: प्रवृत्त, गुणसंक्रमण और सव�संक्रमण- इनका निनरूपण है। तृतीय दसकरण चूलिलका में कम@ की दस अवस्थाओं का स्वरूप बताया गया है।

कम@ की 10 अवस्थाए ँइस प्रकार हैं-

1. कम� परमाणुओं का आत्मा के सार्थं संबद्ध होना ब� है। 2. कम� की ल्लिस्थनित और अनुभाग के बढ़ने को उत्कष�ण कहते हैं। 3. आत्मा से बद्ध कम� की ल्लिस्थनित तर्थंा अनुभाग के घटने को अपकष�ण कहा गया है। 4. बंधने के बाद कम@ के सत्ता में रहने को सत्व कहते हैं। 5. समय पूरा होने पर कम� का अपना फल देना उदय है। 6. निनयत समय से पूव� फलदान को उदीरणा कहते हैं। 7. एक कम� का इतर सजातीय कम�रूप परिरणाम आना संक्रमण है। 8. कम� का उदय में आने के अयोग्य होना उपर्शम है। 9. कम� में उदय व संक्रम दोनों का युगपत् न होना निनधाभित्त है। 10. कम� में और उत्कष�ण, अपकष�ण, उदय व संक्रम का न हो सकना निनकालिचत है।

बन्धो�य सत्त्वयुक्तस्थान सर्मुत्की*�न

एक जीव के एक समय में जिजतनी प्रकृनितयों का बंध, उदय और सत्व संभव है उनके समूह का नाम स्थान है। इस अमिधकार में पहले आठों मूलकम@ और बाद में प्रत्येक कम� की उत्तर प्रकृनितयों को लेकर बंधस्थानों, उदयस्थानों और सत्वस्थानों का प्ररूपण है।

प्रत्ययाधिधकार

इसमें कम�ब� के कारणों का वण�न है। मूल कारण मिमथ्यात्व, अनिवरनित, कषाय और योग हैं। इनके भी निनम्न उत्तर भेद कहे गए हैं- मिमथ्यात्व के 5, अनिवरनित के 12, कषाय के 25 और योग के 15 ये सब मिमलाकर 57 होते हैं। इन्हीं मूल 4 और उत्तर 57 प्रत्ययों (बंधकारणों) का कर्थंन गुणस्थानों में निकया गया है निक निकस गुणस्थान में बंध के निकतने प्रत्ययकारण होते हैं। इसी तरह इनके भंगों का भी कर्थंन है।

र्भाावचूधिलका

इसमें औपर्शमिमक, क्षामियक, मिमश्र, औदमियक और पारिरणामिमक भावों का तर्थंा उनके भेदों का कर्थंन करके गुणस्थानों में उनके स्वसंयोगी और परसंयोगी भंगों का कर्थंन निकया गया है।

हि4करणचूधिलका अधिधकार

इस अमिधकार में अध:करण, अपूव�करण तर्थंा अनिनवृभित्तकरण-इन तीन करणों का स्वरूप वर्णिणHत है। करण का अर्थं� है जीव के परिरणाम, जो प्रनित समय बदलते रहते हैं।

कर्म�स्थिस्थहि*रचना अधिधकार

इसमें बताया गया है निक प्रनित समय बँधने वाले कम� प्रदेर्श आठ या सात प्रकृनितयों में निवभाजिजत हो जाते हैं। प्रत्येक को प्राप्त कम�नेषेकों की रचना उसकी ल्लिस्थनित प्रमाण (मात्र आबाधा काल को छोड़कर) हो जाती है। निफर आबाधा काल समाप्त होने पर वे कम�निनषेक उदय काल में प्रनित समय एक-एक निनषेक के यप में खिखरने प्रारंभ हो जाते हैं। उनकी रचना को ही कम�ल्लिस्थनित रचना कहते हैं। यह वण�न बहुत सूक्ष्म निकन्तु हृदयग्राही है। इस प्रकार मन्दप्रबोमिधनी टीका अपूण� होती हुई भी सार्थं�क नाम वाली है। मन्दों (मन्द बुजिद्ध वालों) को भी वह कम�लिसद्धान्त को जानने और उसमें प्रवेर्श करने में पूरी तरह सक्षम है। टीका के अवलोकन से टीकाकार का कम�लिसद्धान्त निवषयक ज्ञान अपूव� एवं गंभीर प्रकट होता है। इसकी संस्कृत बड़ी सरल है निवरे्शष कदिठन नहीं है।

जैन आचार-र्मीर्मांसा

मूल पंचसंग्रह नामक यह मूलग्रन्थ प्राकृत भाषा में है। इस पर तीन संस्कृत-टीकाए ँहैं। अनुक्रम

1. श्रीपालसुत डड्ढा निवरलिचत पंचसंग्रह टीका, 2. आचाय� अमिमतगनित रलिचत संस्कृत-

पंचसंग्रह,

3. सुमतकीर्तितHकृत संस्कृत-पंचसंग्रह।

पहली टीका दिदगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का संस्कृत-अनुषु्टपों में परिरवर्तितHत रूप है। इसकी श्लोक संख्या 1243 है। कहीं कहीं कुछ गद्यभाग भी पाया जाता है, जो लगभग 700 श्लोक प्रमाण है। इस तरह यह लगभग 2000 श्लोक प्रमाण है। यह 5 प्रकरणों का संग्रह है। वे 5 प्रकरण निनम्न

प्रकार हैं-

1. जीवसमास,

2. प्रकृनितसमुत्कीत�न,

3. कम�स्तव,

4. र्शतक और 5. सप्तनितका।

इसी तरह अन्य दोनों संस्कृत टीकाओं में भी समान वण�न है।

निवरे्शष यह है निक आचाय� अमिमतगनित कृत पंचसंग्रह का परिरमाण लगभग 2500 श्लोक प्रमाण है। तर्थंा सुमतकीर्तितH कृत पंचसंग्रह अनित सरल व स्पष्ट है।

इस तरह ये तीनों टीकाए ँसंस्कृत में लिलखी गई हैं और समान होने पर भी उनमें अपनी अपनी निवर्शेषताए ँपाई जाती हैं।

कम� सानिहत्य के निवर्शेषज्ञों को इन टीकाओं का भी अध्ययन करना चानिहए।

[संपादि�* करें] कर्म�-प्रकृहि* यह अभयचन्द्र लिसद्धान्तचक्रवत� की एक

लघु निकन्तु महत्वपूण�, प्रवाहमय र्शैलीयुt संस्कृत गद्य में लिलखी गई कृनित है। यह देखकर आश्चय� होता है निक जैन मनीनिषयों ने प्राकृत भाषा में ग्रलिर्थंत लिसद्धान्तों को संस्कृत भाषा में निववेलिचत निकया और उसके प्रनित हार्दिदHक अनुराग व्यt निकया है।

[संपादि�* करें] कर्म�-हिवपाक इसके कता� सकलकीर्तितH (14 वीं र्शताब्दी)

ने कम@ के अनुकूल-प्रनितकूल आदिद फलोदय का इसमें संस्कृत में अच्छा निववेचन निकया है। ==लिसद्धान्तसार-भाष्य आचाय� जिजनचन्द्र रलिचत प्राकृतभाषाबद्ध लिसद्धान्तसार नामक मूलग्रन्थ आचाय� पर ज्ञानभूषण ने संस्कृत में यह व्याख्या लिलखी है। इसे भाष्य के नाम से उल्लेखिखत निकया गया है। इस व्याख्या में 14 वग�णाओं, 14 जीवसमासों आदिद का कर्थंन निकया गया है। इसकी संस्कृत अत्यन्त सरल और निवर्शद है।

[संपादि�* करें] कर्म�-प्रकृहि*-र्भााष्य कम�प्रकृनित एक प्राकृत भाषा में निनबद्ध

नेमिमचन्द्र सैद्धांनितक की रचना है। इसमें कुल 162 गार्थंाए ँहैं। ये गार्थंाए ँग्रन्थकार ने गोम्मटसार कम�काण्ड से संकलिलत की हैं। इसमें प्रकृनित समुत्कीत�न, ल्लिस्थनितबंध अमिधकार, अनुभाग बंधामिधकार और प्रत्ययामिधकार ये 4 प्रकरण हैं इन चारों प्रकरणों के नामानुसार उनका इसमें संकलनकार ने वण�न निकया है। इस पर भट्टारक ज्ञानभूषण एवं सुमनितकीर्तितH ने संस्कृत में व्याख्या लिलखी है और उसे कम�प्रकृनितभाष्य नाम दिदया है। ध्यातव्य है निक भट्टारक ज्ञानभूषण सुमनितकीर्तितH के गुरु रे्थं और सुमनितकीर्तितH उनके लिर्शष्य। यह टीका सरल संस्कृत में रलिचत है इसका रचनाकाल निव0 सं0 16 वीं र्शती का चरमचरण तर्थंा 17 वीं का प्रर्थंम चरण है। इन्हीं ने पूव®t लिसद्धान्तसार-भाष्य भी रचा र्थंा।

आचाय� वसुबन्धु / Acharya Vasubandu

बौद्ध जगत में आचाय� वसुब�ु के प्रकाण्ड पाल्लिण्डत्य और र्शास्त्रार्थं�-पटुता की बड़ी प्रनितष्ठा है। अपनी अनेक कृनितयों द्वारा उन्होंने बुद्ध के मन्तव्य का लोक में प्रसार करके लोक का महान कल्याण लिसद्ध निकया है। उनके इस परनिहत कृत्य को देखकर निवद्वानों ने उन्हें 'निद्वतीय बुद्ध' की उपामिध से निवभूनिषत निकया। आचाय� वसुब�ु र्शास्त्रार्थं� में अत्यन्त निनपुण रे्थं। उन्होंने महावैयाकरण वसुरात को र्शास्त्रार्थं� में पराजिजत निकया र्थंा। सुना जाता है निक सांख्याचाय� निवन्ध्यवासी ने उनके गुरु बुद्धमिमत्र को पराजिजत कर दिदया र्थंा। इस पराजय का बदला लेने वसुब�ु निवन्ध्यवासी के पास र्शास्त्रार्थं� करने पहँुचे, निकन्तु तब तक निवन्ध्यवासी का निनधन हो गया र्थंा। फलत: उन्होंने निवन्ध्यवासी के 'सांख्यसप्तनित' ग्रन्थ के खण्डन में 'परमार्थं�सप्तनित' नामक ग्रन्थ की रचना की।

गा�ार प्रदेर्श के पुरुषपुर (पेर्शावार) में आचाय� का जन्म हुआ र्थंा। ये कौलिर्शक गोत्रीय ब्राह्मण रे्थं। ये तीन भाई रे्थं। बडे़ भाई का नाम असंग, छोटे का निवरिरल्लि°चवत्स र्थंा और ये उन दोनों के मध्य में रे्थं। भोटदेर्शीय इनितहासकार लामा तारानार्थं और बुदोन के

अनुसार इन्होंने संघभद्र से निवद्याध्ययन निकया र्थंा। आचाय� परमार्थं� के अनुसार इनके गुरु बुद्धमिमत्र रे्थं।

हे्ननसांग के मतानुसार परमार्थं� इनके गुरु रे्थं। सम्भव है निक इन्होंने निवभिभन्न गुरुओं के समीप बैठकर ज्ञानाज�न निकया हो। उस काल में अयोध्या प्रधान निवद्याकेन्द्र के रूप प्रनितमिष्ठत र्थंी। यहीं निनवास करते हुए उन्होंने गम्भीर दर्श�नों का तलस्पर्श� अध्ययन-अध्यापन और अभिभधम�कोर्श आदिद प्रलिसद्ध ग्रन्थों का प्रणयन निकया र्थंा।

तारानार्थं के मतानुसार नालन्दा में प्रव्रजिजत होकर वहीं उन्होंने सम्पूण� श्रावकनिपटक का अध्ययन निकया र्थंा और उसके बाद निवरे्शष अध्ययन के लिलए ये आचाय� संघभद्र के समीप गये रे्थं। इनकी निवद्वत्ता की कीर्तितH सव�त्र व्याप्त र्थंी। इनकी निवद्वत्ता से प्रभानिवत होकर अयोध्या के सम्राट चन्द्रगुप्त सांख्य मत को छोड़कर बौद्ध मत के अनुयायी हो गये रे्थं। उन्होंने अपने पुत्र बालादिदत्य को और अपनी पत्नी महारानी ध्रुवा को अध्ययन के लिलए इनके समीप भेजा र्थंा।

तत्त्व संग्रह नामक ग्रन्थ की पल्लि³का के रचमियता आचाय� कमलर्शील ने अपने ग्रन्थ में इनके वैदुष्य की बड़ी प्रर्शंसा की है। अस्सी वष� की आयु में अयोध्या में ही इनका देहावसान हुआ। तारानार्थं के मतानुसार नेपाल में और महापल्लिण्डत राहुल सांकृत्यायन के मतानुसार गा�ार में इनका निनधन हुआ।

जीवन के प्रारब्धिम्भक काल में ये सवा�ब्धिस्तवादी रे्थं। आचाय� संघभद्र के प्रभाव से ये 'कश्मीर-वैभानिषक' हो गए और उसी समय इन्होंने अभिभधम�कोर्श का प्रणयन निकया। इस ग्रन्थ का निवद्वत्समाज में बड़ा आदर र्थंा। महाकनिव बाणभट्ट ने अपने हष�चरिरत ग्रन्थ में अभिभधम�कोर्श का उल्लेख निकया है। सिसHहलद्वीप के महाकनिव श्रीराहुल संघराज ने 15 वीं निवक्रम र्शताब्दी में प्रणीत अपने ग्रन्थ मोग्गलानपंलिचकाप्रदीप में अभिभधम�कोर्श के वचन का उद्धरण दिदया है।

आचाय� वसुब�ु सभी अठारह निनकाय के तर्थंा महायान के दार्श�निनक लिसद्धान्तों के अनिद्वतीय ज्ञाता रे्थं, यह बात उनकी कृनितयों से स्पष्ट होती है। सव�प्रर्थंम वे सवा�ब्धिस्तवादी

निनकाय में प्रव्रजिजत हुए। तदनन्तर उन्होंने कश्मीर में वैभानिषक र्शास्त्रों का अध्ययन निकया। उस समय कश्मीर में सौत्रान्तिन्तकों का प्रभाव के्षत्र निवस्तृत एवं धनीभूत हो रहा र्थंा। सौत्रान्तिन्तकों का दार्श�निनक परिरवेर्श निनश्चय ही वैभानिषकों की अपेक्षा सूक्ष्म भी र्थंा और युलिtसंगत भी। फलत: आचाय� ने अपने अभिभधम�कोर्श और उसके स्वभाष्य में यत्र तत्र वैभानिषकों की निवसंगनितयां की ओर इंनिगत भी निकया और उनकी आलोचना भी की है। उनकी रचनाओं के अध्ययन से एक बात निनश्चय ही स्पष्ट होती है निक वे एक स्वतन्त्र निवचारक एवं प्रनितभासम्पन्न व्यलिt रे्थं।

सौत्रान्तिन्तक निवचारों की ओर उनकी निवर्शेष अभिभरुलिच र्थंी। यह बात इस घटना से भी पुमिष्ट होती है निक वैभानिषक आचाय� संघभद्र ने वसुब�ु के अभिभधम�कोर्श के खण्डन में 'न्यायानुसार' नामक ग्रन्थ लिलखा। जिजन-जिजन स्थलों पर वसुब�ु वैभानिषक निवचारों से दूर होते दृमिष्टगोचर हुए, उन स्थलों पर संघभद्र उनकी समालोचना करते हैं। भोटदेर्शीय आचाय@ का कहना है निक वसुब�ु अपने जीवन के पूवा�द्ध� में सौत्रान्तिन्तक दर्श�न से सम्बद्ध रे्थं। वहाँ के तक्-छङ् लोचावा र्शेरब-रिरन्छेन का तो यहाँ तक कहना है निक वे सौत्रान्तिन्तक दर्श�न के प्रर्थंम आचाय� रे्थं। निकन्तु उनके इस कर्थंन में आंलिर्शक ही सत्यता है। क्योंनिक चतुर्थं�-पंचम र्शताब्दी के आचाय� वसुब�ु से बहुत पहले ही सौत्रान्तिन्तकों की दार्श�निनक निवचारधारा पया�प्त निवकलिसत हो चुकी र्थंी।

इसमें सन्देह नहीं निक आचाय� वसुब�ु असाधारण निवद्वान रे्थं, निकन्तु इसका यह तात्पय� नहीं निक वे प्रर्थंम आचाय� र्थंें। सौत्रान्तिन्तकदर्श�न से सम्बद्ध उनका कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है। इतना ही नहीं, 'किवHर्शनितका निवज्ञन्तिप्तमात्रतालिसजिद्ध' में उन्होंने सौत्रान्तिन्तकों का जमकर खण्डन भी निकया है। निनश्चय ही वसुब�ु सौत्रान्तिन्तक दर्श�न के मम�ज्ञ, सव�तन्त्रस्वतन्त्र एवं प्रामाभिणक निवद्वान रे्थं। वे केवल सौत्रान्तिन्तक दर्श�न के ही आचाय� नहीं रे्थं।

[संपादि�* करें] सर्मय

वसुब�ु के काल के निवषय में बहुत निववाद

है। ताकाकुसू के अनुसार 420-500 ईस्वीय

वष� उनका काल है। वोनिगहारा महोदय के मतानुसार आचाय�

390 से 470 ईस्वीय वष@ में निवद्यमान रे्थं। लिसलवां लेवी उनका समय पाँचवीं र्शताब्दी

का पूवा�द्ध� मानते हैं। एन. पेरी महोदय उनका समय 350

ईस्वीय वष� लिसद्ध करते हैं। फ्राउ वाल्नर महोदय इसी मत का समर्थं�न

करते हैं। इन सब निववादों के समाधान के लिलए कुछ निवद्वान दो वसुब�ुओं का अब्धिस्तत्व मानते हैं। उनमें एक वसुब�ु तो आचाय� असङ्ग के छोटे भाई रे्थं, जो महायान र्शास्त्रों के प्रणेता हुए तर्थंा दूसरे वसुब�ु सौत्रान्तिन्तक रे्थं, जिजन्होंने अभिभधम� कोर्श की रचना की।

निवन्टरनिनत्ज, मैकडोनल, डॉ॰ निवद्याभूषण, डॉ॰ निवनयतोष भट्टचाय� आदिद निवद्वान आचाय� को ईस्वीय चतुर्थं� र्शताब्दी का मानते हैं।

परमार्थं� ने आचाय� वसुब�ु की जीवनी लिलखी है। परमार्थं� का जन्म उज्जैन में हुआ र्थंा और उनका समय 499 से 569 ईस्वीय वष@ के मध्य माना जाता है। 569 में चीन के कैन्टन नगर में उनका देहावसान हुआ र्थंा। ताकाकुसू ने परमार्थं� की इस वसुब�ु की जीवनी का न केवल अनुवाद ही निकया है, अनिपतु उसका समीक्षात्मक निवलिर्शष्ट अध्ययन भी प्रस्तुत निकया है। उनके निववरण के अनुसार वसुब�ु का जन्म बुद्ध के परिरनिनवा�ण के एक ह�ार वष� के अनन्तर हुआ। इस गणना के अनुसार ईस्वीय पंचम र्शताब्दी उनका समय निनभिश्चत होता है। इससे निवक्रमादिदत्य-बालादिदत्य की समकालीनता भी समर्थिर्थंHत हो जाती है। महाकनिव वामन ने अपने 'काव्यालंकार' में भी यह बात कहीं है।

आचाय� कुमारजीव ने वसुब�ु के अनेक ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद निकया है। वे 344 से 413 ईस्वीय वष� में निवद्यमान रे्थं। सुना जाता है निक कुमारजीव ने अपने गुरु सूय�सोम से वसुब�ु के

'सद्धम�पुण्डरीकोपदेर्श र्शास्त्र' का अध्ययन निकया र्थंा। आय�देवनिवरलिचत र्शतर्शास्त्र की वसुब�रलिचत व्याख्या का चीनी भाषा में अनुवाद 404 वें ईस्वीय वष� में तर्थंा वसुब�ुप्रणीत बोमिधलिचत्तोत्पाद र्शास्त्र का 405 वें वष� में चीनी भाषा में अनुवाद हुआ र्थंा। बोमिधरुलिच ने वसुब�ु वज्रचे्छदिदकाप्रज्ञापारमिमतार्शास्त्र की वज्रर्तिषHकृत व्याख्या का अनुवाद 535 ईस्वीय वष� में सम्पन्न निकया र्थंा। इन प्रमाणों के आधार पर महायान-ग्रन्थों के रचमियता वसुब�ु अभिभधम�कोर्शकार वसुब�ु से भिभन्न प्रतीत होते हैं। अभिभधम�कोर्श के व्याख्याकार यर्शोमिमत्र अपनी व्याख्या में वसुब�ु नामक एक अन्य आचाय� की सूचना देते हैं। वे उन्हें 'वृद्धाचाय� वसुब�ु' कहते हैं। नितब्बती परम्परा आचाय� को बुद्ध के नवम र्शतक में निवद्यमान मानती है। बीसवीं र्शताब्दी में भोटदेर्शीय इनितहासकार गे-दुन-छोस-फेल महोदय का कहना है निक भोटदेर्शीय सम्राट स्रोड्-चन्-गम्पो, भारतीय सम्राट श्रीहष�, आचाय� दिदङ्नाग, कनिव कालिलदास, आचाय� दण्डी, इस्लाम धम�प्रवत�क मोहम्मद साहब ये सब महापुरुष कुछ काल के अन्तर से प्राय: समान कालिलक रे्थं। परमार्थं�, ह्रेनसांग, तारानार्थं, ताकाकुसू आदिद इनितहासवेत्ताओं का कहना है, दो वसुब�ुओं की कल्पना निनरर्थं�क है, वसुब�ु एक ही रे्थं और वे 420 से 500 ईस्वीय वष@ के मध्य निवद्यमान रे्थं। आधुनिनक इनितहासकार भी इसी मत का समर्थं�न करते हुए दृमिष्टगोचर होते हैं। आचाय� वसुब�ु की अनेक कृनितयाँ है।

रार्मकथा-साहि�त्य

मया�दा पुरुषोत्तम रामचन्द्र इतने अमिधक लोकनिप्रय हुए हैं निक उनका वण�न न केवल भारतीय सानिहत्य में हुआ है अनिपतु भारतेतर देर्शों के सानिहत्य में भी सम्मान के सार्थं हुआ है। *भारतीय सानिहत्य में जैन, वैदिदक और बौद्ध सानिहत्य में भी वह समान रूप से उपल� है।

संस्कृत , प्राकृत, अपभं्रर्श आदिद प्राचीन भाषाओं एवं प्रान्तीय निवनिवध भाषाओं में इसके ऊपर उच्च कोदिट के ग्रन्थ निवद्यमान हैं। इस पर पुराण, काव्य-महाकाव्य, नाटक-उपनाटक आदिद भी अच्छी संख्या में

उपल� हैं। जिजस निकसी लेखक ने रामकर्थंा का आश्रय

लिलखा उसके नीरस वचनों में भी रामकर्थंा ने जान डाल दी।

जैन रार्मकथा के �ो रूप जैन सानिहत्य में रामकर्थंा की दो धाराए ँ

उपल� हैं-

1. एक निवमलसूरिर के प्राकृत पउर्मचरिरय वर रनिवषेण के संस्कृत पद्मचरिरत की तर्थंा

2. दूसरी गुणभद्र के उत्तरपुराण की।

यहाँ हम वीर निनवा�ण संवत् 1204 अर्थंवा निवक्रम संवत् 734 में रनिवषेणाचाय� के द्वारा निवरलिचत पद्मपुराण (पद्मचरिरत) की चचा� कर रहे हैं। ध्यातव्य है निक जैन परम्परा में मया�दा पुरुषोत्तम राम की मान्यता ते्रसठ र्शलाकापुरुषों में है। उनका एक नाम पद्म भी र्थंा। जैनपुराणों एवं चरिरत काव्यों में यही नाम अमिधक प्रचलिलत रहा हे। जैन काव्यकारों ने राम का चरिरत्र पउमचरिरउ,

पउमचरिरउं, पद्मपुराण, पद्मचरिरत आदिद अनेक नामों से अपभ्रंर्श, प्राकृत, संस्कृत आदिद भाषाओं में प्रस्तुत निकया है।

आचाय� रनिवषेण का प्रस्तुत पद्मपुराण संस्कृत के सव®त्कृष्ट चरिरत प्रधान महाकाव्यों में परिरगभिणत है। पुरा होकर भी काव्यकला, मनोनिवश्लेषण, चरिरत्रलिचत्रण आदिद में यह इतना अद्भतु है निक इसकी तुलना अन्य निकसी पुराण से नहीं की जा सकती। काव्य लालिलत्य इसमें इतना है निक कनिव भी अन्तवा�णी के रूप में मानस-निहम-कन्दरा से निवस्तृत यह काव्यधारा मानो साक्षात मन्दानिकनी ही है।

निवषयवस्तु की दृमिष्ट से कनिव ने मुख्य कर्थंानक के सार्थं-सार्थं निवद्याधर लोक, अंजनापवनंजय, सुकुमाल, सुकौर्शल आदिद राम समकालीन महापुरुषों का भी लिचत्रण निकया है। उससे इसकी रोचकता इतनी बढ़ गई है निक एक बार पढ़ना प्रारम्भ कर छोड़ने की इच्छा नहीं होगी। पद्मचरिरत में वर्णिणHत कर्थंा निनम्नांनिकत छह निवभागों में निवभाजिजत की गई है-

1. निवद्याधर काण्ड,

2. राक्षस तर्थंा वानर वंर्श का वण�न,

3. राम और सीता का जन्म तर्थंा निववाह,

4. वनभ्रमण,

5. सीता हरण और खोज,

6. युद्ध और 7. उत्तरचरिरत।

8. लब्धि@सार-क्षपणासार टीका

मूलग्रन्थ र्शौरसेनी प्राकृत में है और उसके रचमियता नेमिमचन्द्र लिसद्धान्तचक्रवत� हैं।

इस पर उत्तरवत� निकसी अन्य नेमिमचन्द्र नाम के आचाय� द्वारा संस्कृत में यह टीका लिलखी गई है।

यह लिलखते हुए प्रमोद होता है निक आचाय� ने प्राकृत ग्रन्थों में प्रनितपादिदत लिसद्धान्तों की निववेचना संस्कृत भाषा में की है।

मुख्यतया जीव में मोक्ष की पात्रता सम्यक्त्व की प्रान्तिप्त होने पर ही मानी गयी है, क्योंनिक सम्यग्दृमिष्टजीव ही मोक्ष प्राप्त करता है, और सम्यग्दर्श�न होने के बाद वह सम्यक्चारिरत्र की ओर आकर्तिषHत होता है। अत: सम्यक्दर्श�न और सम्यक्चारिरत्र की लब्धि� अर्थंा�त प्राप्त होना जीव का लक्ष्य है। इसी से ग्रंर्थं का नाम लब्धि�सार रखा गया है।

इन दोनों का इस टीका में निवर्शद वण�न निकया गया है।

इसमें उपर्शम सम्यक्त्व और क्षामियक सम्यक्त्व के वण�न के बाद चारिरत्रलब्धि� का कर्थंन निकया गया है।

इसकी प्रान्तिप्त के लिलए चारिरत्रमोह की क्षपणा की निववेचना इसमें बहुत अच्छी की गई है।

नेमिमचन्द्र की यह वृभित्त संदृमिष्ट, लिचत्र आदिद से सनिहत है। यह न अनितल्लिक्लष्ट है न अनित सरल।

इसकी संस्कृत भाष प्रसादगुण युt है।

[संपादि�* करें] क्षपणासार (संस्कृ*)

इसमें एकमात्र संस्कृत में ही दर्श�न मोहनीय और चारिरत्र मोहनीय की प्रकृनितयों की क्षपणा का ही निववेचन है।

आचाय� बोधिधधर्म� / Acharya Bodhidharm

बोमिधधम� एक भारतीय बौद्ध भिभकु्ष एवं निवलक्षण योगी रे्थं। इन्होंने 520 या 526 ई. में चीन जाकर ध्यान-सम्प्रदाय (जैन बुजिद्धज्म) का प्रवत�न निकया। ये दभिक्षण भारत के कांचीपुरम के राजा सुग� के तृतीय पुत्र रे्थं। इन्होंने अपनी चीन-यात्रा समुद्री माग� से की। वे चीन के दभिक्षणी समुद्री तट केन्टन बन्दरगाह पर उतरे।

प्रलिसद्ध है निक भगवान बुद्ध अद्भतु ध्यानयोगी रे्थं। वे सव�दा ध्यान में लीन रहते रे्थं। कहा जाता है निक उन्होंने सत्य-सम्ब�ी परमगुह्य ज्ञान एक क्षण में महाकाश्यप में सम्प्रेनिषत निकया और यही बौद्ध धम� के ध्यान सम्प्रदाय की उत्पभित्त का क्षण र्थंा। महाकाश्यप से यह ज्ञान आनन्द में सम्प्रेनिषत हुआ। इस तरह यह ज्ञानधारा गुरु-लिर्शष्य परम्परा से निनरन्तर प्रवानिहत होती रही। भारत में बोधधम� इस परम्परा के अट्ठाइसवें और अन्तिन्तम गुरु हुए।

उत्तरी चीन के तत्कालीन राजा बू-नित ने उनके दर्श�न की इच्छा की। वे एक श्रद्धावान बौद्ध उपासक रे्थं। उन्होंने बौद्ध धम� के प्रचारार्थं� अनेक महनीय काय� निकये रे्थं। अनेक स्तूप, निवहार एवं मजिन्दरों का निनमा�ण कराया र्थंा एवं संस्कृत बौद्ध ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद कराया र्थंा। राजा के निनमन्त्रण पर बोमिधधम� की उनसे नान-किकHग में भेंट हुई । उन दोनों में निनम्न प्रकार से धम� संलाप हुआ।

बू-हि*-भन्ते, मैंने अनेक निवहार आदिद का निनमा�ण कराया है तर्थंा अनेक बौद्ध धम� के संस्कृत ग्रन्थों का अनुवाद कराया है तर्थंा अनेक व्यलिtयों को बौद्ध भिभकु्ष बनने की अनुमनित प्रदान की है। क्या इन काय@ से मुझे पुण्य-लाभ हुआ है?

बोधिधधर्म�- निबलकुल नहीं।

बू-हि*- वास्तनिवक पुण्य क्या है?

बोधिधधर्म�- निवरु्शद्ध प्रज्ञा, जो र्शून्य, सूक्ष्म, पूण� एवं र्शान्त है। निकन्तु इस पुण्य की प्रान्तिप्त संसार में संभव नहीं है।

बू-हि*- सबसे पनिवत्र धम� लिसद्धान्त कौन है?

बोधिधधर्म�- जहाँ सब रू्शन्यता है, वहाँ पनिवत्र कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

बू-हि*- तब मेरे सामने खड़ा कौन बात कर रहा है?

बोधिधधर्म�- मैं नहीं जानता।

उपयु�t संवाद के आधार पर बोमिधधम� एक रूक्ष स्वभाव के व्यलिt लिसद्ध होते हैं। उन्होंने सम्राट के पुण्य काय@ का अनुमोदन भी नहीं निकया। बाहर के कठोर दिदखाई देने पर भी उनके मन में करुणा र्थंी। वस्तुत: उन्होंने राजा को बताया निक दान देना, निवहार बनवाना, आदिद पुण्य काय� अमिधक महत्वपूण� नहीं हैं, वे अनिनत्य हैं। इस प्रकार उन्होंने सम्राट को अहंभाव से बचाया और रू्शन्यता के उच्च सत्य का उपदेर्श निकया, जो पुण्य-पाप पनिवत्र-अपनिवत्र सत-असत आदिद द्वन्द्वों और प्रपंचों से अतीत है।

उपयु�t भेंट के बाद बोमिधधम� वहाँ रहने में कोई लाभ न देखकर याङ्-त्सी-नदी पार करके उत्तरी चीन के बेई नामक राज्य में चले गये। इसके बाद उनका अमिधकतर समय उन राज्य की राजधानी लो-याङ के समीप र्शुग-र्शन पव�त पर ल्लिस्थत 'र्शार्श्व-र्शान्तिन्त' (र्श्वा-लिलन्) नामक निवहार में बीता, जिजसका निनमा�ण पांचवीं र्शती के पूवा�द्ध� में हुआ र्थंा। इस भव्य निवहार का दर्श�न करते ही बोमिधधम� मन्त्रमुग्ध हो गए और हार्थं जोडे़ चार दिदन तक निवहार के सामने खडे़ रहे। यहीं नौ वष� तक रहते हुए बोमिधधम� ने ध्यान की भावना की। वे दीवार के सामने खडे़ रहे। यहीं नौ वष� तक रहते हुए बोमिधधम� ने ध्यान की भावना की। वे दीवार की ओर मुख करके ध्यान निकया करते रे्थं। जिजस मठ में बोमिधधम� ने ध्यान निकया, वह आज भी भग्नावस्था में निवद्यमान है।

आचाय� बोमिधधम� ने चीन में ध्यान-सम्प्रदाय की स्थापना मौन रहकर चेतना के धरातल पर की। बड़ी कठोर परीक्षा के बाद उन्होंने

कुछ अमिधकारी व्यलिtयों को चुना और अपने मन से उनके मन को निबना कुछ बोले लिर्शभिक्षत निकया। बाद में यही ध्यान-सम्प्रदाय कोरिरया और जापान में जाकर निवकलिसत हुआ।

बोमिधधम� के प्रर्थंम लिर्शष्य और उत्तरामिधकारी का नाम र्शैन-क्कंग र्थंा, जिजसे लिर्शष्य बनने के बाद उन्होंने हुई-के नाम दिदया। पहले वह कनफ्यूर्शस मत का अनुयायी र्थंा। बोमिधधम� की कीर्तितH सुनकर वह उनका लिर्शष्य बनने के लिलए आया र्थंा। सात दिदन और सात रात तक दरवाजे पर खड़ा रहा, निकन्तु बोमिधधम� ने मिमलने की अनुमनित नहीं र्थंी। जाडे़ की रात में मैदान में खडे़ रहने के कारण बफ� उनके घुटनों तक जम गई, निफर भी गुरु ने कृपा नहीं की। तब र्शैन-क्कंग ने तलवार से अपनी बाई बाँह काट डाली और उसे लेकर गुरु के समीप उपल्लिस्थत हुआ और बोला निक उसे लिर्शष्यत्व नहीं मिमला तो वह अपने र्शरीर का भी बलिलदान कर देगा। तब गुरु ने उसकी ओर ध्यान देकर पूछा निक तुम मुझसे क्या चाहते हो? रै्शन-क्कंग ने निबलखते हुए कहा निक मुझे मन की र्शान्तिन्त चानिहए। बोमिधधम� ने कठोरतापूव�क कहा निक अपने मन को निनकाल कर मेरे सामने रखो, मैं उसे र्शान्त कर दँूगा। तब रै्शन्-क्कंग ने रोते हुए कहा निक मैं मन को कैसे निनकाल कर आप को दे सकता हूँ? इस पर कुछ निवनम्र होकर करुणा करते हुए बोमिधधम� ने कहा- मैं तुम्हारे मन को र्शान्त कर चुका हँू। तत्काल रै्शन्-क्कांग को र्शान्तिन्त का अनुभव हुआ, उसके सारे संदेह दूर हो गए और बौजिद्धक संघष� सदा के लिलए मिमट गए। रै्शन्-क्कांग चीन में ध्यान सम्प्रदाय के निद्वतीय धम�नायक हुए।

उपयु�t निववरण के अनितरिरt बोमिधधम� के जीवन और व्यलिtत्व के बारे में अमिधक कुछ भी ज्ञात नहीं है। चीन से प्रस्थान करने से पूव� उन्होंने अपने लिर्शष्यों को बुलाया और उनकी उपलब्धि�यों के बारे में पूछा। उनमें से एक लिर्शष्य ने कहा निक मेरी समझ में सत्य निवमिध और निनषेध दोनों से परे हैं। सत्य के संचार का यही माग� है। बोमिधधम� ने कहा- तुम्हें मेरी त्वचा प्राप्त है। इनके बाद दूसरी भिभक्षुणी लिर्शष्या बोली निक सत्य का केवल एक बार दर्श�न होता है, निफर कभी नहीं, बोमिधधम� ने कहा निक तुम्हें मेरा मांस प्राप्त

है। इसके बाद तीसरे लिर्शष्य ने कहा निक चारों महाभूत और पाँचों स्क� र्शून्य हैं और असत है। सत रूप में ग्रहण करने योग्य कोई वस्तु नहीं है। बोमिधधम� ने कहा निक तुम्हें मेरी हनि¾याँ प्राप्त हैं। अन्त में हुई-के ने आकर प्रणाम निकया और कुछ बोले नहीं, चुपचाप अपने स्थान पर खडे़ रहे। बोमिधधम� ने इस लिर्शष्य से कहा निक तुम्हें मेरी चब� प्राप्त है।

इसके बाद ही बोमिधधम� अन्तधा�न हो गए। अन्तिन्तम बार जिजन लोगों ने उन्हें देखा, उनका कहना है निक वे नंगे पैर त्सुग्-सिलHग पव�तश्रेणी में होकर पभिश्चम की ओर जा रहे रे्थं और अपना एक जूता हार्थं में लिलए रे्थं। इन लोगों के कहने पर बाद में लोयांग में बोमिधधम� की समामिध खोली गई, निकन्तु उसमें एक जूते के अलावा और कुछ न मिमला। कुछ लोगों का कहना है निक बोमिधधम� चीन से लौटकर भारत आए। जापान में कुछ लोगों का निवर्श्वास है निक वे चीन से जापान गए और नारा के समीप कतयोग-यामा र्शहर में एक भिभखारी के रूप में उन्हें देखा गया।

बोमिधधम� ने कोई ग्रन्थ नहीं लिलखा, निकन्तु ध्यान सम्प्रदाय के इनितहास ग्रन्थों में उनके कुछ वचनों या उपदेर्शों का उल्लेख मिमलता है। जापान में एक पुस्तक 'र्शोलिर्शत्सु के छह निनब�' नाम प्रचलिलत है, जिजसमें उनके छह निनब� संगृहीत माने जाते हैं। सुजुकी की राज में इस पुस्तक में निनभिश्चत ही कुछ वचन बोमिधधम� के हैं, निकन्तु सब निनब� बोमिधधम� के नहीं हैं। चीन के तुन-हुआङ् नगर के 'सहस्त्र बुद्ध गुहा निवहार' के ध्वंसावर्शेषों में हस्तलिलखिखत पुस्तकों को एक संग्रह उपल� हुआ र्थंा, जिजसमें एक प्रनित बोमिधधम� द्वारा प्रदत्त प्रवचनों से सम्बम्मि�त है। इसमें लिर्शष्य के प्रश्न और बोमिधधम� के उत्तर खल्लिण्डत रूप में संगृहीत हैं। इसे बोमिधधम� के लिर्शष्यों ने लिलखा र्थंा। इस समय यह प्रनित चीन के राष्ट्रीय पुस्तकालय में सुरभिक्षत है।

ध्यान सम्प्रदाय में सत्य की अनुभूनित में प्रकृनित का महान उपयोग है। प्रकृनित ही ध्यानी सन्तों का र्शास्त्र है। ज्ञान की प्रान्तिप्त की प्रनिक्रया में वे प्रकृनित का सहारा लेते हैं और उसी के निनगूढ प्रभाव के फलस्वरूप

चेतना में सत्य का तत्क्षण अवतरण सम्भव मानते हैं।

बोमिधधम� के निवचारों के अनुसार वस्तुतत्त्व के ज्ञान के लिलए प्रज्ञा की अन्तदृ�मिष्ट की आवश्यक है, जो तथ्यता तक सीधे प्रवेर्श कर जाती है। इसके लिलए निकसी तक� या अनुमान की आवश्यकता नहीं है। इसमें न कोई निवश्लेषण है, न तुलनात्मक लिचन्तन, न अतीत एवं अनागत के बारे में सोचना है, न निकसी निनण�य पर पहुँचना है, अनिपतु प्रत्यक्ष देखना ही सब कुछ है। इसमें संकल्प-निवकल्प और र्शब्दों के लिलए भी कोई स्थान नहीं है। इसमें केवल 'ईक्षण' की आवश्यकता है। स्वानुभूनित ही इसका लक्ष्य है, निकन्तु 'स्व' का अर्थं� निनत्य आत्मा आदिद नहीं है।

ध्यान सम्प्रदाय एलिर्शया की एक महान उपलब्धि� है। यह एक अनुभवमूलक साधना-पद्धनित है। यह इतना मौलिलक एवं निवलक्षण है, जिजसमें धम� और दर्श�न की रूदिढयों, परम्पराओं, निववेचन-पजिद्धनितयों, तक� एवं र्शब्द प्रणालिलयों से ऊबा एवं र्थंका मानव निवश्रान्तिन्त एवं सान्त्वना का अनुभव करता है। इसकी सानिहन्तित्यक एवं कलात्मक अभिभव्यलिtयाँ इतनी महान एवं सज�नर्शील हैं निक उसका निकसी भाषा में आना उसके निवचारात्मक पक्ष को पुष्ट करता है। इसने चीन, कोरिरया और जापान की भूमिम को अपने ज्ञान और उदार चया�ओं द्वारा सींचा है तर्थंा इन देर्शों के सांस्कृनितक अभ्युत्थान में अपूव� योगदान निकया है।

र्भाावसंग्र�

आचाय� देवसेन ने प्राकृत में एक भावसंग्रह लिलखा है। उसी का यह संस्कृत अनुवाद है। दोनों ग्रन्थों को आमने सामने रखकर देखने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है निक यह संस्कृत भावसंग्रह प्राकृतभावसंग्रह का र्शब्द न होकर अर्थं�र्श: भावानुवाद है। रचना अनुषु्टप् छन्द में है। इसके कता� अर्थंवा रूपान्तरकार भट्टारक लक्ष्मीचंद्र के लिर्शष्य पंनिडत वामदेव हैं। प्राकृत व संस्कृत दोनों भावसंग्रहों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर उनमें कई बातों में वैलिर्शष्ट्य भी दिदखाई देता है।

उदाहरण की लिलए पंचम गुणस्थान का

कर्थंन करते हुए संस्कृत भाव संग्रह में 11 प्रनितमाओं का भी कर्थंन है, जो मूल प्राकृतभावसंग्रह में नहीं है। प्राकृतभावसंग्रह में जिजन चरणों में चंदनलेप का कर्थंन है वह संस्कृत भावसंग्रह में नहीं है। देवपूजा, गुरु उपासना आदिद षट्कम@ का संस्कृत भावसंग्रह में कर्थंन है। प्राकृत भावसंग्रह में उनका कर्थंन नहीं है, आदिद । इस संस्कृत भावसंग्रह में कुल श्लोक 782 हैं, रचना साधारण है। इसमें गीता के उद्धरण भी कई स्थलों पर दिदए गए हैं। कई सैद्धान्तिन्तक निवषयों का खंडन-मंडन भी उपल� है। जैसे-निनत्यैकान्त, क्षभिणकैकान्त, वैनमियकवाद, केवलीभुलिt, स्त्रीमोक्ष, सगं्रर्थंमोक्ष आदिद की समीक्षा करके अपने पक्ष को प्रस्तुत निकया गया है।

जैन �र्श�न / Jain philosophy

'कमा�रातीन् जयतीनित जिजन:' इस व्युत्पभित्त के अनुसार जिजसने राग दे्वष आदिद र्शतु्रओं को जीत लिलया है वह 'जिजन' है।

अह�त, अरहन्त, जिजनेन्द्र, वीतराग, परमेष्ठी, आप्त आदिद उसी के पया�यवाची नाम हैं। उनके द्वारा उपदिदष्ट दर्श�न जैनदर्श�न हैं।

आचार का नाम धम� है और निवचार का नाम दर्श�न है तर्थंा युलिt-प्रनितयुलिt रूप हेतु आदिद से उस निवचार को सुदृढ़ करना न्याय है।

जैन दर्श�न का निनद�र्श है निक आचार का अनुपालन निवचारपूव�क निकया जाये। धम�, दर्श�न और न्याय-इन तीनों के सुमेल से ही व्यलिt के आध्याम्मित्मक उन्नयन का भव्य प्रासाद खड़ा होता है। *अत: जैन धम� का जो 'आत्मोदय' के सार्थं 'सव®दय'- सबका कल्याण उदिÁष्ट है।* उसका समर्थं�न करना जैन दर्श�न का लक्ष्य हैं जैन धम� में अपना ही कल्याण नहीं चाहा गया है, अनिपतु सारे राष्ट्र, राष्ट्र की जनता और निवर्श्व के जनसमूह, यहाँ तक निक प्राणीमात्र के सुख एवं कल्याण की कामना की गई है।*

अनुक्रर्म [छुपा] 1 जैन दर्श�न / Jain philosophy

2 जैन दर्श�न के प्रमुख अंग 3 द्रव्य - मीमांसा : 4 तत्त्व मीमांसा 5 पदार्थं� मीमांसा 6 पंचाब्धिस्तकाय मीमांसा 7 अनेकान्त निवमर्श� 8 स्याद्वाद निवमर्श� 9 आगम ( श्रुत ) 10 नय - निवमर्श� 11 जैन दर्श�न का उद्भव और निवकास 12 जैन दर्श�न के प्रमुख ग्रन्थ 13 जैन दर्श�न में अध्यात्म 14 जैन तार्तिकHक और उनके न्यायग्रन्थ 15 नित्रभंगी टीका 16 पंचसंग्रह टीका 17 मन्द्रप्रबोमिधनी

18 सम्बंमिधत सिलHक 1 श्रावकाचार : श्रावकों की आचार - पद्धनित 2 संस्कार और उनका महत्त्व 3 संस्कारों की संख्या 4 आदिदपुराण और उसमें प्रनितपादिदत

संस्कार 5 गभा�न्वय निक्रया 6 दीक्षान्वय निक्रया 7 निक्रयान्वय निक्रया

8 प्रमुख सोलह संस्कारों का स्वरूप और निवमिध

जैन धम� के अनुसार आध्याम्मित्मक निवकास की पूण�ता हेतु श्रावक या गृहस्थधम� (श्रावकाचार) पूवा�ध� है और श्रमण या मुनिनधम� (श्रमणाचार) उत्तराध�। श्रमणधम� की नींव गृहस्थ धम� पर मजबूत होती है। यहाँ गृहस्थ धम� की महत्त्वपूण� भूमिमका इसलिलए भी है क्योंनिक श्रावकाचार की

भूमिमका में एक सामान्य गृहस्थ त्याग और भोग- इन दोनों को समन्वयात्मक दृमिष्ट में रखकर आध्याम्मित्मक निवकास में अग्रसर होता है। अत: प्रस्तुत प्रसंग में सव�प्रर्थंम श्रावकाचार का स्वरूप निववेचन आवश्यक है। यद्यनिप श्रावक अर्थंा�त एक सद् गृहस्थ के आचार का निकतना महत्त्व

है? यह श्रावकाचार निवषयक र्शतामिधक बडे़- बडे़ प्राचीन और अवा�चीन ग्रन्थों की उपलब्धि� से ही पता चल जाता है। इसी दृमिष्ट से अनित संके्षप में

1. द्रव्य-मीमांसा 2. तत्त्व-मीमांसा 3. पदार्थं�-मीमांसा 4. पंचाब्धिस्तकाय-मीमांसा 5. अनेकान्त-निवमर्श� 6. स्याद्वाद निवमर्श� 7. सप्तभंगी निवमर्श�

द्रव्य-र्मीर्मांसा:वैरे्शनिषक, भाट्ट और प्रभाकर दर्श�नों में द्रव्य और पदार्थं� दोनों को स्वीकार कर उनका निववेचन निकया गया है। तर्थंा सांख्य दर्श�न और बौद्ध दर्श�नों में क्रमर्श: तत्त्व और आय� सत्यों का कर्थंन निकया गया है, वेदान्त दर्श�न में केवल ब्रह्म (आत्मतत्व) और चावा�क दर्श�न में भूत तत्त्वों को माना गया है, वहाँ जैन दर्श�न में द्रव्य, पदार्थं�, तत्त्व, और अब्धिस्तकाय को स्वीकार कर उन सबका पृर्थंक्-पृर्थंक् निवस्तृत निनरूपण निकया गया है।*

जो ज्ञेय के रूप में वर्णिणHत है और जिजनमें हेय-उपादेय का निवभाजन नहीं है पर तत्त्वज्ञान की दृमिष्ट से जिजनका जानना �रूरी है तर्थंा गुण और पया�यों वाले हैं एवं उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युt हैं, वे द्रव्य हैं।

तत्त्व का अर्थं� मतलब या प्रयोजन है। जो अपने निहत का साधक है वह उपादेय है और जो आत्मनिहत में बाधक है वह हेय है। उपादेय एवं हेय की दृमिष्ट से जिजनका प्रनितपादन के उन्हें तत्त्व कहा गया है।

भाषा के पदों द्वारा जो अभिभधेय है वे पदार्थं� हैं। उन्हें पदार्थं� कहने का एक अभिभप्राय यह भी है निक 'अथ्य�तेऽभिभलष्यते मुमुक्षुभिभरिरत्यर्थं�:' मुमुक्षुओं के द्वारा उनकी अभिभलाषा की जाती है, अत: उन्हें अर्थं� या पदार्थं� कहा गया है।

अब्धिस्तकाय की परिरभाषा करते हुए कहा है निक जो 'अब्धिस्त' और 'काय' दोनों है। 'अब्धिस्त' का अर्थं� 'है' है और 'काय' का अर्थं� 'बहुप्रदेर्शी' है अर्थंा�त जो द्रव्य है' होकर कायवाले- बहुप्रदेर्शी हैं, वे 'अब्धिस्तकाय' हैं।* ऐसे पाँच द्रव्य हैं-

1. पुद्गल,

2. धम�, 3. अधम�, 4. आकार्श और 5. जीव,

6. कालद्रव्य एक प्रदेर्शी होने से अब्धिस्तकाय नहीं है।

द्रव्य का स्वरूप

आचाय� कुन्दकुन्द* और गृद्धनिपच्छ* ने द्रव्य का स्वरूप दो तरह से बतलाया है। एक है, जो सत है वह द्रव्य है और सत वह है जिजसमें उत्पाद (उत्पभित्त), व्यय (निवनार्श) और ध्रौव्य (ल्लिस्थनित) ये तीनों पाये जाते हैं। निवर्श्व की सारी वस्तुए ँइन तीन रूप हैं। उदाहरणार्थं� एक स्वण� घट को लीजिजए। जब उसे मिमटाकर स्वण�कार मुकुट बनाता है तो हमें घट का निवनार्श, मुकुट का उत्पाद और स्वण� के रूप में उसकी ल्लिस्थनित तीनों दिदखायी देते हैं। इसका सबसे बड़ा साक्ष्य (प्रमाण) यह है* निक घट चाहने वाले को उसके मिमटने पर र्शोक, मुकुट चाहने वाले को मुकुट बनने पर हष� और स्वण� चाहने वाले को उसके मिमटने पर न र्शोक होता है और मुकुट बनने पर न हष� होता है निकन्तु वह मध्यस्थ (र्शोक-हष� निवहीन) रहता है, क्योंनिक वह जानता है निक स्वण� दोनों अवस्थाओं में निवद्यमान रहता है।

द्रव्य के र्भाे�

मूलत: द्रव्य के दो भेद हैं*-

1. जीव और 2. अजीव।

चेतन को जीव और अचेतना को अजीव द्रव्य कहा गया है। तात्पय� यह निक जिजसमें चेतना पायी जाती है वह जीव द्रव्य है और जिजसमें चेतना नहीं है वह अजीव द्रव्य है। चेतना का अर्थं� है जिजसके द्वारा जाना और देखा जाए और इसलिलए उसके दो भेद कहे हैं-

1. ज्ञान चेतना और 2. दर्श�न चेतना। ज्ञान चेतना को ज्ञानोपयोग और दर्श�नचेतना को दर्श�नोपयोग भी कहते हैं। व्यवसायात्मक रूप से जो वस्तु

का निवर्शेष ग्रहण होता है वह ज्ञानचेतना अर्थंवा ज्ञानोपयोग है और अव्यवसाय (निवकल्परनिहत) रूप से जो पदार्थं� का सामान्य ग्रहण होता है वह दर्श�नचेतना अर्थंवा दर्श�नोपयोग है। पूज्यपाद-देवनंदिद ने कहा है* 'साकारं ज्ञानं निनराकारं दर्श�नम्' आकार निवकल्प सनिहत ग्रहण का नाम ज्ञान है और आकार रनिहत ग्रहण का नाम दर्श�न है।

जीवद्रव्य और उसके र्भाे�

जीवद्रव्य दो वग@ में निवभt है*-

1. संसारी और 2. मुt।

संसारी जीव वे हैं, जो संसार में जन्म-मरण–व्यामिध आदिद के चक्र में फँसे हुए हैं। ये नरक, नितय�च, मनुष्य और देव-इन चारों गनितयों में बार-बार पैदा होते और मरते हैं तर्थंा जैसा उनका कम�निवपाक होता है तदनुसार वे वहाँ अच्छा-बुरा फल भोगते हैं। ये दो तरह के हैं*-

1. त्रस और 2. स्थावर।

दो इजिन्द्रय, तीन इजिन्द्रय, चार इजिन्द्रय और पाँच इजिन्द्रय के भेद से जीव चार प्रकार के हैं।* दो इजिन्द्रय आदिद जीवों की भी अनेक जानितयाँ हैं। उदाहरण के लिलए पंचेजिन्द्रय जीवों को लें। इनके दो भेद हैं*

1. संज्ञी, 2. असंज्ञी।

जिजनके मन पाया जाए वे संज्ञी पंचेजिन्द्रय जीव कहे जाते हैं। मनुष्य, देव, और नारकी संज्ञी पंचेजिन्द्रय ही होते हैं। असंज्ञी पंचेजिन्द्रय जीव वे हैं जिजनके मन न हो और जो सोच-निवचार न कर सकते हों तर्थंा न लिर्शक्षा ग्रहण कर सकते हों। नितय�चगनित में एकेजिन्द्रय से लेकर असंज्ञी, संज्ञी पंचेदिद्रय सभी प्रकार के जीव होते हैं।

संज्ञी पंचेजिन्द्रय नितय�चों के भी तीन भेद हैं-

1. जलचर- जल में रहने वाले मगर, मत्स्य आदिद। 2. र्थंलचर- �मीन पर चलने वाले गाय, भैंस, गदहा, रे्शर, हार्थंी आदिद और 3. नभचर- आकार्श में उड़ने वाले कौआ, कोयल, कबूतर, लिचनिड़या आदिद पक्षी।

जिजनके मात्र एक स्पर्श�न इजिन्द्रय, स्पर्श� बोध कराने वाली इजिन्द्रय पायी जाती है, वे स्थावर जीव हैं।* ये पांच प्रकार के होते है।–

1. पृथ्वी-कामियक,

2. जलकामियक,

3. अखिग्नकामियक,

4. वायुकामियक और 5. वनस्पनितकामियक।

मुtजीव वे कहे गए हैं* जो संसार के बंधनों और दु:खों से छूट मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। जैन दर्श�न में ऐसे जीवों को 'परम-आत्मा' परमात्मा कहा गया है। ये दो प्रकार के होते हैं-

1. सकल परमात्मा (आप्त), और 2. निनकल परमात्मा (लिसद्ध)।

जिजनका कुछ कल अवर्शेष है वे सकल परमात्मा, जीवन मुt ईर्श्वर हैं। जिजनका वह कल, अघानित कम�मल दूर हो जाता है वे निन: निनग�त:- निनष्क्रान्त: कलोऽघानितचतुष्टयरूपो येषाम् ते, निनकल परमात्मा, लिसद्ध परमेष्ठी है।

अजीवद्रव्य और उसके र्भाे�

चेतना-रनिहत द्रव्य अजीव द्रव्य है। इसे निनज�व जड़, अचेतन आदिद नामों से भी कहा जाता है। जैसे- काष्ठ, लोष्ठ आदिद। इसके पांच भेद हैं*-

1. पुद्गल, 2. धम�, 3. अधम�, 4. आकार्श और 5. काल। इनमें पुद्गल तो सभी के नेत्र आदिद पांचों इजिन्द्रयों द्वारा अनुभव में अहर्तिनHर्श आता है। र्शेष चार द्रव्य अतीजिन्द्रय हैं।

जीव और पुद्गल की गनित, ल्लिस्थनित, आधार और परिरणमन में अनिनवाय� निनमिमत्त (सहायक) होने से उनकी उपयोनिगता एवं आवश्यकता लिसद्ध है। तर्थंा युलिt और आगम से भी वे लिसद्ध हैं।

पुद्गल*- जो पूरण-गलन (बनने-मिमटने) के स्वभाव को लिलए हुए है, उसे पुद्गल कहा गया है। जैसे घड़ा, कपड़ा, चटाई मकान, वाहन आदिद। यह सूक्ष्म और स्थूल अर्थंवा अणु और स्क� के रूप में समस्त लोक में पाया जाता है। यह इजिन्द्रय ग्राह्य और इजिन्द्रय-अग्राह्य दोनों प्रकार का है। इसमें रूप, रस, ग�, और स्पर्श� पाये जाते हैं, जो उस के गुण हैं।

1. रूप पांच प्रकार का है- काला, पीला, नील, लाल और सफेद। इन्हें यर्थंा योग्य मिमलाकर और रूप भी बनाये जा सकते हैं। इनका ज्ञान चक्षु:इजिन्द्रय से होता है।

2. रस भी पांच तरह का है- खट्टा, मीठा, कडुवा, कषायला और चप�रा। इनका ग्रहण रसना (जिजह्वा) इजिन्द्रय से होता है। 3. ग� दो प्रकार का है- सुग� और दुग��। इन दोनों ग�ों का ज्ञान घ्राण (नालिसका) इजिन्द्रय से होता है। 4. स्पर्श� के आठ भेद हैं- कड़ा, नरम, हलका, भारी, ठंडा, गम�, लिचकना और रूखा। इन आठों स्पर्श@ का ज्ञान स्पर्श�न

इजिन्द्रय से होता है। ये रूपादिद बीस गुण पुद्गल में ही पाये जाते हैं*, अन्य द्रव्यों से नहीं। अत: पुद्गल को ही रूपी (मूर्तितHक) और रे्शष द्रव्यों को अरूपी (अमूर्तितHक) कहा गया है।

धम�-द्रव्य- यह द्रव्य* गमन करते हुए जीवों और पुद्गलों की गनित में उदासीन (सामान्य) सहायक उसी प्रकार होता है जिजस प्रकार मछली की गनित में जल, रेल के चलने में रेल की पटरी अर्थंवा वृद्ध के गमन में लाठी। यह द्रव्य 'नितलेषु तैलम्' की तरह लोक में सव�त्र व्याप्त है। इसके निबना कोई भी जीव या पुद्गल गनित नहीं कर सकता। इसके कुम्हार के चाक की कीली आदिद और उदाहरण दिदये जा सकते हैं।

अधम� द्रव्य- यह* धम� द्रव्यसे निवपरीत है। यह जीवों और पुद्गलों की ल्लिस्थनित (ठहरने) मं सामान्य निनमिमत्त है। जैसे वृक्ष की छाया पलिर्थंकको ठहरने में सहायक होती है अर्थंवा यात्री को धम�र्शाला या स्टेर्शन। ध्यातव्य है निक यह अधम� द्रव्य और उपयु�t धम�द्रव्य दोनों अप्रेरक निनमिमत्त हैं* और अतीजिन्द्रय हैं तर्थंा दोनों पुण्य एवं पापरूप धम�-अधम� नहीं है- उनसे ये दोनों पृर्थंक् हैं।

आकार्श-द्रव्य*- यह जीव आदिद सभी (पांचों) द्रव्यों को अवकार्श देता है। सभी द्रव्य इसी में अवल्लिस्थत हैं। अत: सबके अवस्थान में यह सामान्य निनमिमत्त हैं यह दो भागों में निवभt है*

1. लोकाकार्श और 2. आलोकाकार्श।

जिजतने आकार्श में, जो उसका असंख्यात वां भाग है, जीव, पुद्गल, धम�, अधम� और काल ये पांच द्रव्य पाये जाते हैं वह लोकाकार्श है और उसके चारों ओर केवल एक आकार्श द्रव्य है और जो चारों ओर अनन्त-अनन्त है वह अलोकाकार्श हे। यह इसकी अवगाहन र्शलिt की निवर्शेषता है निक असंख्यात प्रदेर्शी लोकाकार्श में अनन्तानन्त जीव, अनन्तानन्त पुद्गल, असंख्यात कालाणू, एक असंख्यात प्रदेर्शी धम�द्रव्य और एक असंख्यात प्रदेर्शी अधम� द्रव्य ये सब परस्पर के अनिवरोधपूव�क अवल्लिस्थत हैं। अलोकाकार्श में आकार्श के लिसवाय अन्य कोई द्रव्य नहीं है।

कालद्रव्य- यह*द्रव्यों की वत�ना, परिरणमन, निक्रया, परत्व (ज्येष्ठत्व) और अपरत्व (कनिनष्ठत्व) के व्यवहार में सहायक (उदासीन-अप्रेरक निनमिमत्त) होता है। यह द्रव्य न हो, तो जीवों में बाल्य, युवा, वाध�क्य और पुद्गलों में नवीनता, जीण�ता जैसा परिरवत�न, ऋतु-पलटन, दिदन-रात पक्ष-मास-वष� आदिद का निवभाग, आयु की अपेक्षा ज्येष्ठ-कनिनष्ठ आदिद का व्यवहार सम्भव नहीं है। यह दो प्रकार का है-

1. निनश्चय काल और 2. व्यवहारकाल।

जो द्रव्यों की वत्त�ना (सत्ता) में निनमिमत्त है वह निनश्चय काल अर्थंवा परमार्थं� काल है तर्थंा जो द्रव्यों के परिरवत�न आदिद से जाना जाता है वह व्यवहार काल है।

*त्त्व र्मीर्मांसातत्त्व का अर्थं� है प्रयोजन भूत वस्तु। जो अपने मतलब की वस्तु है और जिजससे अपना निहत अर्थंवा स्वरूप पहचाना जाता है वह तत्त्व है। 'तस्य भाव: तत्त्वम्' अर्थंा�त वस्तु के भाव (स्वरूप) का नाम तत्त्व है। ऋनिषयों या र्शास्त्रों का जिजतना उपदेर्श है उसका केन्द्र जीव (आत्मा) रहा है। उपनिनषदों में आत्मा के दर्श�न, श्रवण, मनन और ध्यान पर अमिधक बल दिदया गया है और इनके माध्यम से आत्मा के साक्षात्कार की बात कही गयी है*। जैन दर्श�न तो पूरी तरह आध्याम्मित्मक है। अत: इसमें आत्मा को तीन श्रेभिणयों में निवभt निकया गया है।*

1. बनिहरात्मा, 2. अन्तरात्मा और 3. परमात्मा।

मूढ आत्मा को बनिहरात्मा, जागृत आत्मा को अन्तरात्मा और अरे्शष गुणों से सम्पन्न आत्मा को परमात्मा कहा गया है। ये एक ही आत्मा के उन्नयन की निवकलिसत तीन श्रेभिणयाँ हैं। जैसे एक आरब्धिम्भक अबोध बालक लिर्शक्षक, पुस्तक, पाठर्शाला

आदिद की सहायता से सव®च्च लिर्शक्षा पाकर सुबोध बन जाता है वैसे ही एक मूढात्मा सत्संगनित, सदाचार-अनुपालन, ज्ञानाभ्यास आदिद को प्राप्त कर अन्तरात्मा (महात्मा) बन जाता है और वही ज्ञान, ध्यान तप आदिद के निनरन्तर अभ्यास से कम�-कलङ्क से मुt होकर परमात्मा (अरहन्त व लिसद्ध रूप ईर्श्वर) हो जाता है। इस दिदर्शा में जैन लिचन्तकों का लिचन्तन, आत्म निवद्या की ओर लगाव अपूव� है।

आचाय� गृद्धनिपच्छ ने* तत्त्वार्थं�सूत्र* में, जो 'अह�त् प्रवचन' के नाम से प्रलिसद्ध है, लिलखा है तत्त्वार्थं� की श्रद्धा सम्यक् दर्श�न है। सही रूप में तभी देखा परखा जा सकता है जब तत्त्वार्थं� की श्रद्धा हो। ये तत्त्वार्थं� (तत्त्व) सात हैं*-

1. जीव,

2. अजीव,

3. आस्त्रव,

4. बंध,

5. संवर, 6. निनज�रा और 7. मोक्ष।

जीव तत्त्व— यह सव®परिर प्रनितमिष्ठत और र्शार्श्वत तत्त्व है। यह चेतना लक्षण वाला है, ज्ञाता-दृष्टा है और अनंतगुणों से सम्पन्न है। चेतना वह प्रकार्श है जिजसमें चेतन-अचेतन सभी पदार्थं@ को प्रकालिर्शत करने की र्शलिt है। वह दो प्रकार की है-

1. ज्ञानचेतना (ज्ञानोपयोग) और 2. दर्श�नचेतना (दर्श�नोपयोग) निवरे्शष-ग्रहण का नाम ज्ञान-चेतना है और पदार्थं� के सामान्य-ग्रहण का नाम दर्श�नचेतना है।

ज्ञान चेतना के आठ भेद हैं- 1. मनित, 2. श्रुत, 3. अवमिध-ये तीन ज्ञान सम्यक् दर्श�न के सार्थं होने पर सम्यक् होते है। और मिमथ्यादर्श�न के सार्थं होने पर मिमथ्या भी होते हैं। इस तरह 1. सम्यक् मनितज्ञान, 2. सम्यक् श्रुतवान, 3. सम्यक् अवमिधज्ञान, 4. मिमथ्यामनितज्ञान, 5. मिमथ्याश्रुतज्ञान 6. मिमथ्या अवमिधज्ञान (निवभंगावमिध), 7. मन:पय�यज्ञान और 8 केवलज्ञान ये आठ ज्ञानोपयोग हैं। अंनितम दोनों ज्ञान सम्यक ही होते हैं, वे मिमथ्या नहीं होते।

इजिन्द्रय और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है वह मनितज्ञान है। और इस मनितज्ञानपूव�क जो उत्तरकाल में लिचन्तनात्मक ज्ञान होता है वह शु्रतज्ञान है। इजिन्द्रय और मन निनरपेक्ष एवं आत्मसापेक्ष जो मूर्तितHक (पुद्गल) का सीमायुt ज्ञान होता है वह अवमिधज्ञान है। इस अवमिधज्ञान के द्वारा जाने गए पदार्थं� के अनंतवें भाग को जो ज्ञान जानता है वह मन:पय�यज्ञान है। भूत, भनिवष्यत और वत�मान तीनों कालों से संबंमिधत और तीनों लोकों में निवद्यमान समग्र पदार्थं@ को युगपत् जानने वाला ज्ञान केवलज्ञान कहा गया है। यह ज्ञान जिजसे हो जाता है वह वीतराग सव�ज्ञ परमात्मा कहा जाता है। इन ज्ञानों के अवान्तर भेद भी जैनदर्श�न में प्रनितपादिदत हैं, जो ज्ञातव्य हैं।

दर्श�न चेतना के चार भेद हैं*- 1.चकु्षद�र्श�न, 2. अचकु्षद�र्श�न, 3. अवमिधदर्श�न और 4. केवलदर्श�न। नेत्रों से होने वाला पदार्थं� का सामान्य दर्श�न चक्षुद�र्श�न है और र्शेष इजिन्द्रयों एवं मन से होने वाला सामान्य दर्श�न अचक्षुद�र्श�न है। अवमिधज्ञान से पूव� जो दर्श�न होता है वह अवमिधदर्श�न है। केवल ज्ञान के सार्थं ही जो समस्त वस्तुओं का युगपत् दर्श�न होता है वह केवलदर्श�न है। यह जीवतत्त्व आध्याम्मित्मक दृमिष्ट से तीन प्रकार का है* अर्थंा�त इनके उत्थान की तीन शे्रभिणयां हैं। वे है- 1. बनिहरात्मा, 2. अन्तरात्मा, और 3. परमात्मा।

गीता में सम्भवत: ऐसे ही अन्तरात्मा को 'ल्लिस्थतप्रज्ञ' कहा गया है। यह अन्तरात्मा भी तीन प्रकार है*(2)- 1. जघन्य, 2. मध्यम और 3. उत्तम। मिमथ्यात्व का त्याग कर जिजसने सम्यक्त्य (स्वयरभेद श्रद्धा) को प्राप्त कर लिलया है, पर त्याग के माग� में अभी प्रवृत्त नहीं हो सका वह जघन्य अन्तरात्मा है। इसे जैन परिरभाषा में 'अनिवरत-सम्यग्दृमिष्ट' कहा जाता है।

आचाय� समन्तभद्र ने लिलखा है निक तपस्वी (साधु) वही है ज्ञान, ध्यान और तप में लवलीन रहता है- 'ज्ञान-ध्यान-तपो रtस्तपस्वी स प्रर्शस्यते।' यही उत्तम अन्तरात्मा तप और ध्यान द्वारा नवीन पुरातन कम@ को निनज�ण� करके जब

कम�कलङ्क से मुt हो जाता है तो वह परमात्मा कहा जाता है। निफर उसे संसार परिरभ्रमण नहीं करना पड़ता। अनन्त काल तक वह अपने अनन्त गुणों में लीन होकर र्शार्श्वत सुख (निन:श्रेयस) का अनुभव करता है। जैन दर्श�न में मुt जीवों की अवल्लिस्थनित लोक के अग्रभाग (लिसद्धलिर्शला) में मानी गयी है।*

गुणस्थान- उल्लेखनीय है निक इस जीव तत्त्व के आध्याम्मित्मक निवकास या उन्नयन की चौदह शे्रभिणयां जैन आगमों में निनरूनिपत हैं।* जिजन्हें 'गुणस्थान' (आत्मगुणों को निवकलिसत करने के दज�) संज्ञा दी गयी है। वे हैं-

1. मिमथ्यात्व,

2. सासादन,

3. मिमश्र,

4. अनिवरत,

5. देर्शनिवरत,

6. सव�निवरत,

7. अप्रमत्तसंयत,

8. अपूव�करण,

9. अनिनवृभित्तकरण,

10. सूक्ष्मसाम्पराय,

11. उपर्शान्त मोह,

12. क्षीण मोह,

13. सयोग केवली और 14. अयोग केवली।

इन चौदह गुणस्थानों में बारहवें गुणस्थान तक जीव संसारी कहलाता है। निकन्तु निनश्चय ही वह तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त करेगा और वहां तर्थंा चौदहवें गुणस्थान में वह 'परमात्मा' संज्ञा को प्राप्त कर लेता है तर्थंा कुछ ही क्षणों में गुणस्थानातीत होकर 'लिसद्ध' हो जाता है।

अजीव तत्त्व- यों तो जीव के लिसवाय सभी द्रव्य (पुद्गल आदिद पांचों) अजीव हैं। उनमें निकसी में भी चेतना न होने से अचेतन हैं। उनका निववेचन द्रव्य-मीमांसा में निकया जा चुका है। पर यहाँ उस अजीव से मतलब है, जो जीव को अनादिद से ब�नबद्ध निकये हुए है और जिजससे ही वस्तुत: जीव को छुटकारा पाना है। वह है पुद्गल, और पुद्गलों में भी सभी पुद्गल नहीं क्योंनिक वे तो छूटे हुए ही हैं। निकन्तु कामा�णवग�णा के जो कम�रूप परिरणत पुद्गल स्क� है और जो जीव के कषाय एवं योग के निनमिमत्त से उससे बंधे है। तर्थंा प्रनितसमय बंध रहे हैं। उन कम� रूप पुद्गल स्क�ों की यहाँ अजीव तत्त्व से निववक्षा है, जिजन्हें तत्त्वार्थं�सूत्रकार गृद्धनिपच्छ ने 'भेत्तारं कम�भूभृताम्' पद के द्वारा 'कम�भूभृत्' कहा है। इन्हें ही हेय ज्ञात कर आत्मा से दूर करना है। जैन दर्श�नों में इन कम@ को ज्ञानावरण आदिद आठ भागों में निवभt निकया गया है। आत्मदर्श�न, स्वरूपोपलब्धि� लिसद्धत्व आदिद आत्मगुण उन्हीं के कारण अवरुद्ध रहते हैं।

आस्त्रव तत्त्व— जिजनके द्वारा आत्मा में कम�स्क�ों का प्रवेर्श होता है उन्हें आस्त्रव कहा गया है। यह दो प्रकार का है*

1. भावास्त्रव और 2. द्रव्यास्त्रव।

आत्मा के जिजन कलुनिषतभावों या मन, वचन और र्शरीर की निक्रया से कम� आते हैं उन भावों तर्थंा मन, वचन और र्शरीर की निक्रया को भावास्त्रव तर्थंा कमा�गमन को द्रव्यास्त्रव प्रनितपादिदत निकया गया है। भावास्त्रव के अनेक भेद हैं- 1. मिमथ्यात्व 2. अनिवरनित, 3. प्रमाद, 4. कषाय और 5.योग। इनमें मिमथ्यात्व के 5, अनिवरनित के 5, प्रमाद के 15, कषाय के 4 और योग के 3 कुल 32 भेद हैं। ज्ञानावरण आदिद आठ कम@ के योग्य जो कामा�णवग�णा के पुद्गलस्क� आते हैं उनमें कम�रूप र्शलिt होना द्रव्यास्त्रव है। इनके ज्ञानावरण आदिद आठ मूलभेद हैं और उनके उत्तरभेद एक सौ अड़तालीस हैं।

ब� तत्त्व— आत्मा के जिजन अरु्शद्ध भावों से कम� आत्मा से बंधें वे अर्शुद्ध भाव (राग, दे्वष, छल-कपट, क्रोध मान आदिद) भावबंध हैं ये अरु्शद्ध भाव कम� व आत्मा को परस्पर लिचपकाने (बांधने) में गोंद का काय� करते हैं। कम� पुद्गलों तर्थंा आत्मा के प्रदेर्शों का जो अन्योन्य प्रवेर्श है। दूध-पानी की तरह उनका घुल-मिमल जाना है वह द्रव्य ब� है। एक दूसरी तरह से भी बंध के भेद कहे गए हैं*। वे हैं-

1. प्रकृनित,

2. ल्लिस्थनित,

3. अनुभाग और 4. प्रदेर्श।

इनमें प्रकृनित और प्रदेर्श योगों (र्शरीर, वचन और मन की निक्रयाओं) से होते हैं। ल्लिस्थनित एवं अनुभाव कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) के निनमिमत्त् से होते हैं।

संवरतत्त्व— आस्त्रव तत्त्व के कर्थंन में जिजन आस्त्रवों को (कम� के आने के द्वारों को) कहा गया है उनको रोक देना संवर है।* कम� के द्वार बन्द हो जाते हैं तब कम� आत्मा में प्रवेर्श नहीं कर सकते। जैसे- सलिछद्र जलयान (नाव आदिद) के छोटे-बडे़ सब लिछद्र बंद कर देने पर जलयान में जल का प्रवेर्श नहीं होता। संवर नये कम@ का प्रवेर्श रोकता है। इसके कई प्रकार हैं। व्रत, समिमनित, गुन्तिप्त, धम�, अनुपे्रक्षा, परीषहजय और चारिरत्र- ये उसके भेद हैं, जो आगत कम@ को आत्मा में आने नहीं देते।

निनज�रा तत्त्व— ज्ञात-अज्ञात में आये कम@ को तप आदिद के द्वारा बाहर निनकालने का जो प्रयत्न है वही निनज�रा है। यह सनिवपाक और अनिवपाक के भेद से दो प्रकार की है।* जो कम� अपना फल देकर चला जाता हे वह सनिवपाक निनज�रा हैं। यह निनज�रा प्रत्येक जीव के प्रनित समय होती रहती है, पर इससे बंधन नहीं टूटता है। तप के द्वारा जो बंधन तोड़ा जाता है वह अनिवपाक निनज�रा है। जीव को अपने उद्धार के लिलए यही निनज�रा सार्थं�क होती है। अर्थंा�त उसी से लिर्शवफल (मोक्ष) प्राप्त होता है।

मोक्ष तत्त्व— यह वह तत्त्व एवं तथ्य है जिजसके लिलए मुमुक्ष अनेक भवों से प्रयत्न करते हैं। कम� दो प्रकार के हैं। एक वे जो अतीतकाल से संबंध रखते हैं और अनादिदकाल से बंधे चले आ रहे हैं तर्थंा दूसरे वे हैं जो आगामी हैं। आगामी कम@ का अभाव बंध हेतुओं (आस्त्रव) के अभाव (संवर) से होता है। अतीत संबंधी (पूव®पात्त) कम@ का अभाव निनज�रा द्वारा होता है। इस प्रकार समस्त कम@ का छूट जाना मोक्ष है।* यही र्शुद्ध अवस्था जीव की वास्तनिवक अपनी अवस्था है, जो सादिद होकर अनंत है। इसी को प्राप्त करने के लिलए आत्मा बाह्य और आभ्यंतर तपों, उत्तम क्षमादिद धम@ एवं चारों रु्शक्लध्यानों को करता है और नाना उपसग@ एवं परीषहों को सहनकर उन पर निवजय पाता है। द्रव्यकम�, भावकम� और नोकम�- इन तीनों प्रकार के कम@ से रनिहत हो जाने पर आत्मा 'लिसद्ध' हो जाता है।

प�ाथ� र्मीर्मांसाउt सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को सम्मिम्मलिलत कर देने पर नौ पदार्थं� कहे गए हैं।* इन नौ पदार्थं@ का प्रनितपादन आचाय� कुन्दकुन्द के पंचाब्धिस्तकाय (गार्थंा 108) में सव�प्रर्थंम दृमिष्टगोचर होता है। उसके बाद नेमिमचन्द्र लिसद्धांनितदेव ने भी उनका अनुसरण निकया है।* तत्त्वार्थं� सूत्रकार ने सात तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यक्दर्श�न कहकर उन सात तत्त्वों की ही प्ररूपणा की है। नौ पदार्थं@ की उन्होंने चचा� नहीं की* यद्यनिप तत्त्वार्थं�सूत्र के आठवें अध्याय के अन्त में उन्होंने पुण्य और पाप दोनों का कर्थंन निकया है। निकन्तु वहाँ उनका पदार्थं� के रूप में निनरूपण नहीं है। बब्धिल्क बंधतत्त्व का वण�न करने वाले इस अध्याय में समग्र कम� प्रकृनितयों को पुण्य और पाप दो भागों में निवभtकर साता वेदनीय, रु्शभायु:, रु्शभनाम और र्शुभगोत्र को पुण्य तर्थंा असातावेदनीय, अर्शुभायु:,

अर्शुभनाम और अरु्शभगोत्र को पाप कहा है।* ध्यान रहे यह निवभाजन अघानितप्रकृनितयों की अपेक्षा है, घानितप्रकृनितयों की अपेक्षा नहीं, क्योंनिक वे सभी (47) पाप-प्रकृनितयां ही हैं।)

पंचास्तिस्*काय र्मीर्मांसाजैन दर्श�न में उt द्रव्य, तत्त्व और पदार्थं� के अलावा अब्धिस्तकायों का निनरूपण निकया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर र्शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धम�, अधम�, आकर्श और जीव) अब्धिस्तकाय हैं* क्योंनिक ये 'हैं' इससे इन्हें 'अब्धिस्त' ऐसी संज्ञा दी गई है और काय (र्शरीर) की तरह बहुत प्रदेर्शों वाले हैं, इसलिलए ये 'काय' हैं। इस तरह ये पांचों द्रव्य 'अब्धिस्त' और 'काय' दोनों होने से 'अब्धिस्तकाय' कहे जाते हैं। पर कालद्रव्य 'अब्धिस्त' सत्तावान होते हुए भी 'काय' (बहुत प्रदेर्शों वाला) नहीं है। उसके मात्र एक ही प्रदेर्श हैं। इसका कारण यह है निक उसे एक-एक अणुरूप माना गया है और वे अणुरूप काल द्रव्य असंख्यात हैं, क्योंनिक वे लोकाकार्श के, जो असंख्यात प्रदेर्शों वाला है, एक-एक प्रदेर्श पर एक-एक जुदे-जुदे रत्नों की रालिर्श की तरह अवल्लिस्थत हैं। जब कालद्रव्य अणुरूप है तो उसका एक ही प्रदेर्श है इससे अमिधक नहीं। अन्य पाँचों द्रव्यों में प्रदेर्श बाहुल्य है, इसी से उन्हें 'अब्धिस्तकाय' कहा गया है और कालद्रव्य को अनब्धिस्तकाय।

अनेकान्* हिवर्मर्श�'अनेकान्त' जैनदर्श�न का उल्लेखनीय लिसद्धान्त है। वह इतना व्यापक है निक वह लोक (लोगों) के सभी व्यवहारों में व्याप्त है। उसके निबना निकसी का व्यवहार चल नहीं सकता। आचाय� लिसद्धसेन ने कहा है[1] निक लोगों के उस आनिद्वतीय गुरु अनेकान्तवाद को हम नमस्कार करते हैं, जिजसके निबना उनका व्यवहार निकसी तरह भी नहीं चलता। अमृतचन्द्र उसके निवषय में कहते है[2] निक अनेकान्त परमागम जैनागम का प्राण हे और वह वस्तु के निवषय में उत्पन्न एकान्तवादिदयों के निववादों को उसी प्रकार दूर करता है जिजस प्रकार हार्थंी को लेकर उत्पन्न जन्मा�ों के निववादों को उसी प्रकार दूर करता है जिजस प्रकार हार्थंी को लेकर उत्पन्न जन्मा�ों के निववादों को सचकु्ष: (नेत्रवाला) व्यलिt दूर कर देता है। समन्तभद्र का कहना है[3] निक वस्तु को अनेकान्त मानना क्यों आवश्यक है? वे कहते हैं निक एकान्त के आग्रह से एकान्त समझता है निक वस्तु उतनी ही है, अन्य रूप नहीं है, इससे उसे अहंकर आ जाता है और अहंकार से उसे राग, दे्वष आदिद उत्पन्न होते हैं, जिजससे उसे वस्तु का सही दर्श�न नहीं होता। पर अनेकान्ती को एकानत का आग्रह न होने से उसे न अहंकार पैदा होता है और न राग, दे्वष आदिद उत्पन्न होते हैं। फलत: उसे उस अनन्तधमा�त्मक अनेकान्त रूप वस्तु का सम्यक्दर्श�न होता है, क्योंनिक एकान्त का आग्रह न करना दूसरे धम@ को भी उसमें स्वीकार करना सम्यग्दृमिष्ट का स्वभाव है। और इस स्वभाव के कारण ही अनेकान्ती के मन में पक्ष या क्षोभ पैदा नहीं होता, वह साम्य भाव को लिलए रहता है।

अनेकान्त के भेद- यह अनेकान्त दो प्रकार का है-

1. सम्यगनेकान्त और 2. मिमथ्या अनेकान्त।

परस्पर निवरुद्ध दो र्शलिtयों का प्रकार्शन करने वाला सम्यगनेकान्त है अर्थंवा सापेक्ष एकान्तों का समुच्चय सम्यगनेकान्त है* निनरपेक्ष नाना धम@ का समूह मिमथ्या अनेकान्त है। एकान्त भी दो प्रकार का है-

1. सम्यक एकान्त और 2. मिमथ्या एकान्त।

सापेक्ष एकान्त सम्यक एकान्त है। वह इतर धम@ का संग्रहक है। अत: वह नय का निवषय है और निनरपेक्ष एकान्त मिमथ्या एकान्त है, जो इतर धम@ का नितरस्कारक है वह दुनय� या नयाभास का निवषय है। अनेकान्त के अन्य प्रकार से भी दो भेद कहे गये हैं।*

1. सहानेकान्त और 2. क्रमानेकान्त।

एक सार्थं रहने वाले गुणों के समुदाय का नाम सहानेकान्त है और क्रम में होने वाले धम@-पया�यों के समुच्चय का नाम क्रमानेकान्त है। इन दो प्रकार के अनेकान्तों के उद्भावक जैन दार्श�निनक आचाय� निवद्यानंद हैं। उनके समर्थं�क वादीभसिसHह हैं। उन्होंने अपनी

स्याद्वादलिसजिद्ध में इन दोनों प्रकार के अनेकान्तों का दो परिरचे्छदों में निवस्तृत प्रनितपादन निकया है। उन के नाम हैं- सहानेकान्तलिसजिद्ध और क्रमानेकान्त लिसजिद्ध। अनेकान्त को मानने में कोई निववाद होना ही नहीं चानिहए। जो हेतु* स्वपक्ष का साधक होता है वही सार्थं में परपक्ष का दूषक भी होता है। इस प्रकार उसमें साधकत्व एवं दूषकत्व दोनों निवरुद्ध धम� एक सार्थं रूपरसादिद की तरह निवद्यमान हैं। सांख्यदर्श�न, प्रकृनित को सत्त्व, रज और तमोगुण रूप त्रयात्मक स्वीकार करता है और तीनों परस्पर निवरुद्ध है तर्थंा उनके प्रसाद-लाघव, र्शोषण-ताप, आवरण-सादन आदिद भिभन्न-भिभन्न स्वभाव हैं और सब प्रधान रूप हैं, उनमें कोई निवरोध नहीं है।[4] वैरे्शनिषक द्रव्यगुण आदिद को अनुवृभित्त-व्यावृभित्त प्रत्यय कराने के कारण सामान्य-निवरे्शष रूप मानते हैं। पृथ्वी आदिद में 'द्रव्यम्' इस प्रकार का अनुवृभित्त प्रत्यय होने से द्रव्य को सामान्य और 'द्रव्यम् न गुण:, न कम�, आदिद व्यावृभित्त प्रत्यय का कारण होने से उसे निवरे्शष भी कहते हैं और इस प्रकार द्रव्य एक सार्थं परस्पर निवरुद्ध सामान्य-निवरे्शष रूप माना गया है।[5] लिचत्ररूप भी उन्होंने स्वीकार निकया है, जो परस्पर निवरुद्ध रूपों का समुदाय है। बौद्ध दर्श�न में भी एक लिचत्रज्ञान स्वीकृत है, जो परस्परनिवरुद्ध नीलादिद ज्ञानों का समूह है।

स्याद्वा� हिवर्मर्श�स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अर्थंवा व्यवस्थापक है जिजस प्रकार ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अर्थंवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान का महत्त्व यह है निक वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है- उन्हें मिमभिश्रत नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिरल्लिच्छभित्त कराता है। स्याद्वाद का भी वही महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धम@ की मौन व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है निक ज्ञान एक सार्थं अनेक ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धम� को कह सकता है, क्योंनिक 'सकृदुच्चरिरत र्शब्द: एकमेवार्थं� गमयनित' इस निनयम के अनुसार एक बार बोला गया वचन एक ही अर्थं� का बोध कराता है।

समन्तभद्र की 'आप्त-मीमांसा', जिजसे 'स्याद्वाद-मीमांसा' कहा जा सकता है, ऐसी कृनित है, जिजसमें एक सार्थं स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का निवर्शद और निवस्तृत निववेचन निकया गया है। अकलंकदेव ने उस पर 'अष्टर्शती' (आप्त मीमांसा- निववृनित) और निवद्यानन्द ने उसी पर 'अष्टसहस्त्री' (आप्तमीमांसालंकृनित) व्याख्या लिलखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिरकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिदकों का निवर्शद व्याख्यान निकया है वहाँ इन तीनों का भी अनिद्वतीय निववेचन निकया है।

न्याय हिवद्या

'नीयते परिरल्लिच्छद्यते वस्तुतत्त्वं येन स न्याय:' इस व्युत्पभित्त के अनुसार न्याय वह निवद्या है जिजसके द्वारा वस्तु का स्वरूप निनण�त निकया जाए। इस व्युत्पभित्त के आधार पर कोई प्रमाण को, कोई लक्षण और प्रमाण को, कोई लक्षण, प्रमाण, नय और निनक्षेप को तर्थंा कोई पंचावयव-वाक्य के प्रयोग को न्याय कहते हैं क्योंनिक इनके द्वारा वस्तु-प्रनितपभित्त होती है।

न्यायदीनिपकाकार अभिभनव धम�भूषण का मत है निक न्याय प्रमाण और नयरूप है। अपने इस मत का समर्थं�न वे आचाय� गृद्धनिपच्छ के तत्त्वार्थं�सूत्रगत उस सूत्र से करते हैं*, जिजसमें कहा गया है निक वस्तु (जीवादिद पदार्थं@) का अमिधगम प्रमाणों तर्थंा नयों से होता है। प्रमाण और नय इन दो को ही अमिधगम का उपाय सूत्रकार ने कहा है। उनका आर्शय है निक चँूनिक प्रत्येक वस्तु अखंड (धम�) और सखंड (धम�) दोनों रूप है। उसे अखंडरूप में ग्रहण करने वाला प्रमाण है और खंडरूप में जानने वाला नय है। अत: इन दो के लिसवाय निकसी तीसरे ज्ञापकोपाय की आवश्यकता नहीं है।

न्यायनिवद्या को 'अमृत' भी कहा गया है।* इसका कारण यह निक जिजस प्रकार 'अमृत' अमरत्व को प्रदान करता है उसी प्रकार न्यायनिवद्या भी तत्त्वज्ञान प्राप्त कराकर आत्मा को अमर (मिमथ्याज्ञानादिद से मुt और सम्यग्ज्ञान से युt) बना देती है।

आगर्मों र्में न्याय-हिवद्या

षट्खंडागम* में श्रुत के पया�य-नामों को निगनाते हुए एक नाम 'हेतुवाद' भी दिदया गया है, जिजसका अर्थं� हेतुनिवद्या, न्यायनिवद्या, तक� -र्शास्त्र और युलिt-र्शास्त्र निकया है।

स्थानांगसूत्र[6] में 'हेतु' र्शब्द प्रयुt है, जिजसके दो अर्थं� निकये गये हैं- प्रमाण-सामान्य; इसके प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम-ये चार भेद हैं। अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र में भी इन चार

का प्रनितपादन है। पर उन्होंने इन्हें प्रमाण के भेद कहे हैं। यद्यनिप स्थानांगसूत्रकार को भी हेतुर्शब्द प्रमाण के अर्थं� में ही यहाँ निववभिक्षत है।

हेतु र्शब्द का दूसरा अर्थं� उन्होंने अनुमान का प्रमुख अंग हेतु (साधन) निकया है। उसके निनम्न चार भेद निकये हैं-

1. निवमिध-निवमिध (साध्य और साधन दोनों सद्भव रूप)

2. निवमिध-निनषेध (साध्य निवमिधरूप और साधन निनषेधरूप)

3. निनषेध-निवमिध (साध्य निनषेधरूप और हेतु निवमिधरूप)

4. निनषेध-निनषेध (साध्य और साधन दोनों निनषेधरूप)

इन्हें हम क्रमर्श: निनम्न नामों से व्यवहृत कर सकते हैं-

1. निवमिधसाधक निवमिधरूप* अनिवरुद्धोपलब्धि�* 2. निवमिधसाधक निनषेधरूप निवरुद्धानुपलब्धि� 3. निनषेधसाधक निवमिधरूप निवरुद्धोपलब्धि� 4. निनषेधसाधक निनषेधरूप अनिवरुद्धानुपलब्धि�*

इनके उदाहरण निनम्न प्रकार दिदये जा सकते हैं-

1. अखिग्न है, क्योंनिक धूम है। यहाँ साध्य और साधन दोनों निवमिध (सद्भाव) रूप हैं। 2. इस प्राणी में व्यामिध निवरे्शष है, क्योंनिक स्वस्थचेष्टा नहीं है। साध्य निवमिधरूप है और साधन निनषेधरूप है। 3. यहाँ र्शीतस्पर्श� नहीं है, क्योंनिक उष्णता है। यहाँ साध्य निनषेधरूप व साधन निवमिधरूप है। 4. यहाँ धूम नहीं है, क्योंनिक अखिग्न का अभाव है। यहाँ साध्य व साधन दोनों निनषेधरूप है।

अनुयोगसूत्र में* अनुमान और उसके भेदों की निवस्तृत चचा� उपल� है, जिजससे ज्ञात होता है निक आगमों में न्यायनिवद्या एक महत्त्वपूण� निवद्या के रूप में वर्णिणHत है। आगमोत्तरवत� दार्श�निनक सानिहत्य में तो वह उत्तरोत्तर निवकलिसत होती गई है।प्रर्माण और नय

तत्त्वमीमांसा में हेय और उपादेय के रूप में निवभt जीव आदिद सात तत्त्वों का निववेचन हैं। तत्त्व का दूसरा अर्थं� वस्तु है।* यह वस्तुरूप तत्त्व दो प्रकार का है- 1. उपेय और 2. उपाय। उपेय के दो भेद हैं- एक ज्ञाप्य (ज्ञेय) और दूसरा काय�। जो ज्ञान का निवषय होता है वह ज्ञाप्य अर्थंवा ज्ञेय कहा जाता है और जो कारणों द्वारा निनष्पाद्य या निनष्पन्न होता है वह काय� है।

उपाय तत्त्व दो तरह का है-

1. कारक,

2. ज्ञापक।

कारक वह है जो काय� की उत्पभित्त करता है अर्थंा�त काय� के उत्पादक कारणों का नाम कारक है। काय� की उत्पभित्त दो कारणों से होती है-

1. उपादान और 2. निनमिमत्त (सहकारी)।

उपादान वह है जो स्वयं काय�रूप परिरणत होता है और निनमिमत्त वह है जो उसमें सहायक होता है। उदाहरणार्थं� घडे़ की उत्पभित्त में मृन्तित्पण्ड उपादान और दण्ड चक्र, चीवर, कंुभकार प्रभृनित निनमिमत्त हैं।

न्यायदर्श�न में इन दो कारणो के अनितरिरt एक तीसरा कारण भी स्वीकृत है वह है असमवामिय पर वह समवामिय कारणगत रूपादिद और संयोगरूप होने से उसे अन्य दर्श�नों में उस से भिभन्न नहीं माना।

ज्ञापकतत्त्व भी दो प्रकार का है-

1. प्रमाण* और 2. नय*

प्रर्माण-र्भाे�

वैरे्शनिषक दर्श�न के प्रणेता कणाद ने* प्रमाण के प्रत्यक्ष और लैंनिगक- ये दो भेद स्वीकार निकये हैं। उन्होंने इन दो के लिसवाय न अन्य प्रमाणों की संभावना की है और न न्यायसूत्रकार अक्षपाद की तरह स्वीकृत प्रमाणों में अन्तभा�व आदिद की चचा� ही की है। इससे प्रतीत होता है निक प्रमाण के उt दो भेदों की मान्यता प्राचीन है। इसके अनितरिरt चावा�क ने प्रत्यक्ष को माना और मात्र अनुमान की समीक्षा की है*,अन्य उपमान, आगम आदिद की नहीं। जबनिक न्याय सूत्रकार ने* *प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम (र्शब्द)- इन चार प्रमाणों को स्वीकार निकया है तर्थंा ऐनितह्य, अर्थंा�पभित्त, संभव और अभाव-इन चार का स्पष्ट रूप से उल्लेख करके उनकी अनितरिरt प्रमाणता की आलोचना की हें सार्थं ही र्शब्द में ऐनितह्य का और अनुमान में र्शेष तीनों का अन्तभा�व प्रदर्थिर्शHत निकया है।

कणाद के व्याख्याकार प्रर्शस्तपाद ने* अवश्य उनके मान्य प्रत्यक्ष और लैंनिगक इन दो प्रमाणों का समर्थं�न करते हुए उल्लिल्लखिखत र्शब्द आदिद प्रमाणों का इन्हीं दो में समावेर्श निकया है तर्थंा चेष्टा, निनण�य, आष� (प्रानितभ) और लिसद्ध दर्श�न को भी इन्हीं दो के अन्तग�त लिसद्ध निकया है। यदिद वैरे्शनिषक दर्श�न से पूव� न्यायदर्श�न या अन्य दर्श�न की प्रमाण भेद परम्परा होती, तो चावा�क उसके प्रमाणों की अवश्य आलोचना करता। इससे निवदिदत होता है निक वैरे्शनिषक दर्श�न की प्रमाण-द्वय की मान्यता सब से प्राचीन है।

वैरे्शनिषकों की*तरह बौद्धों ने* भी प्रत्यक्ष और अनुमान- इन दो प्रमाणों की स्वीकार निकया है।

र्शब्द सनिहत तीनों को सांख्यों ने*, उपमान सनिहत चारों को नैयामियकों ने*और अर्थंा�पभित्त तर्थंा अभाव सनिहत छह प्रमाणों को जैमिमनीयों (मीमांसकों) ने* मान्य निकया है। कुछ काल बाद जैमिमनीय दो सम्प्रदायों में निवभt हो गये-

1. भाट्ट (कुमारिरल भट्ट के अनुगामी) और 2. प्राभाकर (प्रभाकर के अनुयायी)।

भाट्टों ने छहों प्रमाणों को माना। पर प्राभाकरों ने अभाव प्रमाण को छोड़ दिदया तर्थंा र्शेष पाँच प्रमाणों को अंगीकार निकया। इस तरह निवभिभन्न दर्श�नों में प्रमाण-भेद की मान्यताए*ँ दार्श�निनक क्षेत्र में चर्थिचHत हैं।जैन न्याय र्में प्रर्माण-र्भाे�

जैन न्याय में प्रमाण के रे्श्वताम्बर परम्परा में मान्य भगवती सूत्र* और स्थानांग सूत्र में* चार प्रमाणों का उल्लेख है-

1. प्रत्यक्ष,

2. अनुमान,

3. उपमान और 4. आगम।

स्थानांग सूत्र में* व्यवसाय के तीन भेदों द्वारा प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों का भी निनद�र्श है। संभव है लिसद्धसेन* और हरिरभद्र के* तीन प्रमाणों की मान्यता का आधार यही स्थानांग सूत्र हो। श्री पं. दलसुख मालवभिणया का निवचार है* निक उपयु�t चार प्रमाणों की मान्यता नैयामियकादिद सम्मत और तीन प्रमाणों

का कन सांख्यादिद स्वीकृत परम्परा मूलक हों तो आश्चय� नहीं। यदिद ऐसा हो तो भगवती सूत्र और स्थानांग सूत्र के क्रमर्श: चार और तीन प्रमाणों की मान्यता लोकानुसरण की सूचक होने से अवा�चीन होना चानिहए।

दिदगम्बर परम्परा के षड्खंडागम में* मात्र तीन ज्ञानमीमांसा उपल� होती है। वहाँ तीन प्रकार के मिमथ्या ज्ञान और पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान को निगनाकर आठ ज्ञानों का निनरूपण निकया गया है। वहाँ प्रमाणाभास के रूप में ज्ञानों का निवभाजन नहीं है और न प्रमाण तर्थंा प्रमाणाभास र्शब्द ही वहाँ उपल� होते हैं।

कुन्दकुन्द* के ग्रन्थों में भी ज्ञानमीमांसा की ही चचा� है, प्रमाण मीमांसा की नहीं। इसका तात्पय� यह है निक उस प्राचीनकाल में सम्यक और मिमथ्या मानकर तो ज्ञान का कर्थंन निकया जाता र्थंा, निकन्तु प्रमाण और प्रमाणाभास मानकर नहीं, पर एक वग� के ज्ञानों को सम्यक और दूसरे वग� के ज्ञानों को मिमथ्या प्रनितपादन करने से अवगत होता है निक जो ज्ञान सम्यक कहे गये हैं वे सम्यक परिरल्लिच्छभित्त कराने से प्रमाण तर्थंा जिजन्हें मिमथ्या बताया गया है वे मिमथ्या प्रनितपभित्त कराने से अप्रमाण (प्रमाणाभास) इष्ट है।* इसकी संपुमिष्ट तत्त्वार्थं�सूत्रकार* के निनम्न प्रनितपादन से भी होती है-

मनितश्रुतावमिधमन:पय�यकेवलानिनज्ञानम्। तत्प्रमाणे'। 'मनितश्रुतावधयो निवपय�यश्च। -तत्त्वार्थं�सूत्र 1-9, 10, 31 ।

इस प्रकार सम्यग्ज्ञान या प्रमाण के मनित, श्रुत, अवमिध आदिद पाँच भेदों की परम्परा आगम में उपल� होती है, जो अत्यन्त प्राचीन है और जिजस पर लोकानुसरण का कोई प्रभाव नहीं है।

*क� र्शास्4 र्में परोक्ष के र्भाे�

तक� र्शास्त्र में परोक्ष के पाँच भेद माने गये हैं*-

1. स्मृनित, 2. प्रत्यभिभज्ञान,

3. तक� , 4. अनुमान और 5. आगम। यद्यनिप आगम में आरम्भ के चार ज्ञानों को मनितज्ञान और आगम को श्रुतज्ञान कहकर दोनों को परोक्ष कहा है

और इस तरह तक� र्शास्त्र तर्थंा आगम के निनरूपणों में अन्तर नहीं है।

स्र्मृहि*

पूवा�नुभूत वस्तु के स्मरण को स्मृनित कहते हैं। यर्थंा 'वह' इस प्रकार से उल्लिल्लखिखत होने वाला ज्ञान। यह ज्ञान अनिवसंवादिद होता है, इसलिलए प्रमाण है। यदिद कदालिचत् उसमें निवसंवाद हो तो वह स्मृत्याभास है। इसे अप्रमाण नहीं माना जा सकता, अन्यर्थंा व्यान्तिप्त स्मरणपूव�क होने वाला अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता और निबना व्यान्तिप्त स्मरण के अनुमान संभव नहीं है। अत: स्मृनित को प्रमाण मानना आवश्यक ही नहीं, अनिनवाय� है।*

प्रत्यभिर्भाज्ञान

अनुभव तर्थंा स्मरणपूव�क होने वाला जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिभज्ञान है इसे प्रत्यभिभज्ञा, प्रत्यवमर्श� और संज्ञा भी कहते है। जैसे- 'यह वही देवदत्त हे, अर्थंवा यह (गवय) गौ के समान है, यह (मनिहष) गौ से भिभन्न है, आदिद। पहला एकत्व प्रत्यभिभज्ञान का उदाहरण है, दूसरा सादृश्य प्रत्यभिभज्ञान और तीसरा वैसा दृश्य प्रत्यभिभज्ञान का है। संकलनात्मक जिजतने ज्ञान हैं वे इसी प्रत्यभिभज्ञान में समानिहत होते हैं। उपमान प्रमाण इसी के सादृश्य प्रत्यभिभज्ञान में अन्तभू�त होता है, अन्यर्थंा वैसा दृश्य आदिद प्रत्यभिभज्ञान भी पृर्थंक् प्रमाण मानना पड़ेंगे। यह भी प्रत्यक्षादिद की तरह अनिवसंवादी होने से प्रमाण है, अप्रमाण नहीं। यदिद कोई प्रत्यभिभज्ञान निवसंवाद (भ्रमादिद) पैदा करता है तो उसे प्रत्यभिभज्ञानाभास जानना चानिहए।

*क� जो ज्ञान अन्वय और व्यनितरेकपूव�क व्यान्तिप्त का निनश्चय कराता है वह तक� है। इसे ऊह, ऊहा और लिचन्ता भी कहा जाता है। 'इसके होने पर ही यह होता है', यह अन्वय है और 'इसके न होने पर यह नहीं होता', यह व्यनितरेक है, इन दोनों पूव�क यह ज्ञान साध्य के सार्थं साधन में व्यान्तिप्त का निनमा�ण कराता है। इसका उदाहरण है- 'अखिग्न के होने पर ही धूम होता है, अखिग्न के अभाव में धूम नहीं होता' इस प्रकार अखिग्न के सार्थं धूम की व्यान्तिप्त का निनश्चय कराना तक� है। इससे सम्यक अनुमान का माग� प्रर्शस्त होता है।

अनुर्मान

निनभिश्चत साध्यानिवनाभावी साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान अनुमान कहलाता है।* जैसे धूम से अखिग्न का ज्ञान करना।

अनुर्मान के अंग:- साध्य और साधन

इस अनुमान के मुख्य घटक (अंग) दो हैं-

1. साध्य और 2. साधन।

साध्य तो वह है, जिजसे लिसद्ध निकया जाता है और वह वही होता है जो र्शक्य (अबामिधत), अभिभप्रत (वादी द्वारा इष्ट) और अलिसद्ध (प्रनितवादी के लिलए अमान्य) होता है तर्थंा इससे जो निवपरीत (बामिधत, अनिनष्ट और लिसद्ध) होता है वह साध्याभास है, क्योंनिक वह साधन द्वारा निवषय (निनश्चय) नहीं निकया जाता। अकलंकदेव ने साध्य और साध्याभास का लक्षण करते हुए यही लिलखा है-

साध्यं र्शक्यमभिभपे्रतमप्रलिसदं्ध ततोऽपरम्।साध्याभासं निवरुद्धादिद, साधनानिवषयत्वत:॥ न्यायनिवनिनश्चय 2-172

साधन वह है जिजसका साध्य के सार्थं अनिवनाभाव निनभिश्चत है- साध्य के होने पर ही होता है, उसके अभाव में नहीं होता। ऐसा साधन ही साध्य का गमक (अनुमापक) होता है। साधन को हेतु और लिलङ्ग भी कहा जाता है। माभिणक्यनजिन्द साधन का लक्षण करते हुए कहते हैं-

साध्यानिवनाभानिवत्वेन निनभिश्चतो हेतु:।*' साध्य के सार्थं जिजसका अनिवनाभाव निनभिश्चत है वह हेतु है।

अहिवनार्भााव-र्भाे�

अनिवनाभाव दो प्रकार का है*-

1. सहभाव निनयम और 2. क्रमभाव निनयम।

जो सहचारी और व्याप्य-व्यापक होते हैं उनमें सहभाव निनयम अनिवनाभाव रहता है। जैसे रूप और रस दोनों सहचारी हैं- रूप के सार्थं रस और रस के सार्थं रूप निनयम से रहता है। अत: दोनों सहचारी हैं और इसलिलए उनमें सहभाव निनयम अनिवनाभाव है तर्थंा सिर्शHर्शपात्व और वृक्षत्व इन दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव है। सिर्शHर्शपात्व व्याप्य है और वृक्षत्व व्यापक है। सिर्शHर्शपात्व होने पर वृक्षत्व अवश्य होता है। निकन्तु वृक्षत्व के होने पर सिर्शHर्शपात्व के होने का निनयम नहीं है। अतएव सहचारिरयों और व्याप्य-व्यापक में सहभाव निनयम अनिवनाभाव होता है, जिजससे रूप से रस का और सिर्शHर्शपात्व से वृक्षत्व का अनुमान निकया जाता है।

�े*ु-र्भाे�

इन दोनों प्रकार के अनिवनाभाव से निवलिर्शष्ट हेतु के भेदों का कर्थंन जैन न्यायर्शास्त्र में निवस्तार से निकया गया है, जिजसे हमने 'जैन तक� र्शास्त्र में अनुमान-निवचार' ग्रन्थ में निवर्शदतया दिदया है। अत: उस सबकी पुनरावृभित्त न करके मात्र माभिणक्यनजिन्द के 'परीक्षामुख' के अनुसार उनका दिदग्दर्श�न निकया जाता है।*

माभिणक्यनजिन्द ने अकलंकदेव की तरह आरम्भ में हेतु के मूल दो भेद बतलाये हैं-

1. उपलब्धि� और 2. अनुपलब्धि�।

तर्थंा इन दोनों को निवमिध और प्रनितषेध उभय का साधक कहा है और इस तरह दोनों के उन्होंने दो-दो भेद कहे हैं। उपलब्धि� के-

1. अनिवरुद्धोपलब्धि� और 2. निवरुद्धोपलब्धि�

अनुपलब्धि� के-

1. अनिवरुद्धानुपलब्धि� और 2. निवरुद्धानुपलब्धि�

इनके प्रत्येक के भेद इस प्रकार प्रनितपादिदत निकये हैं- अनिवरुद्धोपलब्धि� छह-

1. व्याप्त,

2. काय�, 3. कारण,

4. पूव�चर, 5. उत्तरचर और 6. सहचर।

निवरुद्धोपलब्धि� के भी अनिवरुद्धोपलब्धि� की तरह छह भेद हैं-

1. निवरुद्ध व्याप्य,

2. निवरुद्ध काय�, 3. निवरुद्ध कारण,

4. निवरुद्ध पूव�चर, 5. निवरुद्ध उत्तरचर और 6. निवरुद्ध-सहचर।

अनिवरुद्धानुपलब्धि� प्रनितषेध रूप साध्य को लिसद्ध करने की अपेक्षा 7. प्रकार की कही है-

1. अनिवरुद्धस्वभावानुपलब्धि�,

2. अनिवरुद्धव्यापकानुपलब्धि�,

3. अनिवरुद्धकाया�नुपलब्धि�,

4. अनिवरुद्धकारणानुपलब्धि�,

5. अनिवरुद्धपूव�चरानुपलब्धि�,

6. अनिवरुद्धउत्तरचरानुपलब्धि� और 7. अनिवरुद्धसहचरानुपलब्धि�।

निवरुद्धानुपलब्धि� निवमिध रूप साध्य को लिसद्ध करने में तीन प्रकार की कही गयी है-

1. निवरुद्धकाया�नुपलब्धि�,

2. निवरुद्धकारणानुपलब्धि� और 3. निवरुद्धस्वभावानुपलब्धि�।

इस तरह माभिणक्यनजिन्द ने 6+6+7= 22 हेतुभेदों का सोदाहरण निनरूपण निकया है, परम्परा हेतुओं की भी उन्होंने संभावना करके उन्हें यर्थंायोग्य उt हेतुओं में ही अन्तभा�व करने का इंनिगत निकया है। सार्थं ही उन्होंने अपने पूव�ज अकलंक की भांनित कारण, पूव�चर, उत्तरचर और सहचर-इन नये हेतुओं को पृर्थंक् मानने की आवश्यकता को भी सयुलिtक बतलाया है।

आगर्म (श्रु*)

र्शब्द, संकेत, चेष्टा आदिद पूव�क जो ज्ञान होता है वह आगम है। जैसे- 'मेरु आदिदक है' र्शब्दों को सुनने के बाद सुमेरु पव�त आदिद का बोध होता है।* र्शब्द श्रवणादिद मनितज्ञान पूव�क होने से यह ज्ञान (आगम) भी परोक्ष प्रमाण है। इस तरह से स्मृत्यादिद पाँचों ज्ञान ज्ञानान्तरापेक्ष हैं। स्मरण में धारणा रूप अनुभव (मनित), प्रत्यभिभज्ञान में अनुभव तर्थंा स्मरण, तक� में अनुभव, स्मृनित और प्रत्यभिभज्ञान, अनुमान में सिलHगदर्श�न, व्यान्तिप्त स्मरण और आगम में र्शब्द, संकेतादिद अपेभिक्षत हैं- उनके निबना उनकी उत्पभित्त संभव नहीं है। अतएव ये और इस जानित के अन्य सापेक्ष ज्ञान परोक्ष प्रमाण माने गये हैं।

नय-हिवर्मर्श�नय-स्वरूप— अभिभनव धम�भूषण ने* न्याय का लक्षण करते हुए कहा है निक 'प्रमाण-नयात्मको न्याय:'- प्रमाण और नय न्याय हैं, क्योंनिक इन दोनों के द्वारा पदार्थं@ का सम्यक् ज्ञान होता है। अपने इस कर्थंन को प्रमाभिणत करने के लिलए उन्होंने आचाय� गृद्धनिपच्छ के तत्त्वार्थं�सूत्र के, जिजसे 'महार्शास्त्र' कहा जाता है, उस सूत्र को प्रस्तुत निकया है, जिजसमें प्रमाण और मय को जीवादिद तत्त्वार्थं@ को जानने का उपाय बताया गया है और वह है- 'प्रमाणनयैरमिधगम:*'। वस्तुत: जैन न्याय का भव्य प्रासाद इसी महत्त्वपूण� सूत्र के आधार पर निनर्मिमHत हुआ है।

नय-र्भाे�

उपयु�t प्रकार से मूल नय दो हैं*-

1. द्रव्यार्थिर्थंHक और 2. पया�यार्थिर्थंHक।

इनमें द्रव्यार्थिर्थंHक तीन प्रकार का हैं*-

1. नैगम,

2. संग्रह,

3. व्यवहार। तर्थंा

पया�यार्थिर्थंHक नय के चार भेद हैं*-

1. ऋजुसूत्र,

2. र्शब्द,

3. समभिभरूढ़ और 4. एवम्भूत।

नैगर्म नय जो धम� और धम� में एक को प्रधान और एक को गौण करके प्ररूपण करता है वह नैगम नय है। जैसे जीव का गुण सुख है, ऐसा कहना। इसमें 'सुख' धम� की प्रधानता और 'जीव' धम� की गौणता है अर्थंवा यह सुखी जीव है, ऐसा कहना। इसमें 'जीव' धम� की प्रधानता है, क्योंनिक वह निवर्शेष्य है और 'सुख' धम� गौण है, क्योंनिक वह निवर्शेषण है। इस नय का अन्य प्रकार से भी लक्षण निकया गया है। जो भावी काय� के संकल्प को बतलाता है वह नैगम नय है।

संग्र� नय जो प्रनितपक्ष की अपेक्षा के सार्थं 'सन्मात्र' को ग्रहण करता है वह संग्रह नय है। जैसे 'सत्' कहने पर चेतन, अचेतन सभी पदार्थं@ का संग्रह हो जाता है, निकन्तु सव�र्थंा 'सत्' कहने पर 'चेतन, अचेतन निवरे्शषों का निनषेध होने से वह संग्रहाभास है। निवमिधवाद इस कोदिट में समानिवष्ट होता है।

व्यव�ार नय संग्रहनय से ग्रहण निकये 'सत्' में जो नय निवमिधपूव�क यर्थंायोग्य भेद करता है वह व्यवहारनय है। जैसे संग्रहनय से गृहीत 'सत्' द्रव्य हे या पया�प्त है या गुण है। पर मात्र कल्पना से जो भेद करता है वह व्यवहारनयाभास है।

ऋजुसू4 नय भूत और भनिवष्यत पया�यों को गौण कर केवल वत�मान पया�य को जो नय ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्रनय है। जैसे प्रत्येक वस्तु प्रनित समय परिरणमनर्शील है। वस्तु को सव�र्थंा क्षभिणक मानना ऋजुसूत्रनय है, क्योंनिक इसमें वस्तु में होने वाली भूत और भनिवष्यत की पया�यों तर्थंा उनके आधारभूत अन्वयी द्रव्य का लोप हो जाता है।

र्शब्� नय

जो काल, कारक और लिलङ्ग के भेद से र्शब्द में करं्थं लिचत् अर्थं�भेद को बतलाता है वह र्शब्दनय है। जैसे 'नtं निनर्शा' दोनों पया�यावाची हैं, निकन्तु दोनों में सिलHग भेद होने के करं्थं लिचत् अर्थं�भेद है। 'नtं' र्शब्द नंपुसक सिलHग है और 'निनर्शा' र्शब्द स्त्रीसिलHग है। 'र्शब्दभेदात् ध्रुवोऽर्थं�भेद:' यह नय कहता है। अर्थं�भेद को करं्थं लिचत् माने निबना र्शब्दों को सव�र्थंा नाना बतलाकर अर्थं� भेद करना र्शब्दनयाभास हैं

सर्मभिर्भारूढ़ नय

जो पया�य भेद पदार्थं� का करं्थंलिचत् भेद निनरूनिपत करता है वह समभिभरूढ़ नय है। जैसे इन्द्र, र्शक्र, पुरन्दर आदिद र्शब्द पया�य र्शब्द होने से उनके अर्थं� में करं्थं लिचत् भेद बताना। पया�य भेद माने निबना उनका स्वतंत्र रूप से कर्थंन करना समभिभरूढ नयाभास है।*'

एवंर्भाू* नय

जो निक्रया भेद से वस्तु के भेद का कर्थंन करता है वह एवंभूत नय हैं जैसे पढ़ाते समय ही पाठक या अध्यापक अर्थंवा पूजा करते समय ही पुजारी कहना। यह नय निक्रया पर निनभ�र है। इसका निवषय बहुत सूक्ष्म है। निक्रया की अपेक्षा न कर निक्रया वाचक र्शब्दों का कल्पनिनक व्यवहार करना एवं भूतनयाभास है।

जैन �र्श�न का उद्भव और हिवकासउद्भव

आचाय� भूतबली और पुष्पदन्त द्वारा निनबद्ध 'षट्खंडागम'* में, जो दृमिष्टवाद अंग का ही अंर्श है, 'लिसया पज्जत्ता', 'लिसया अपज्जता', 'मणुस अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवनिडया', 'अखंखेज्जा* 'जैसे 'लिसया' (स्यात्) र्शब्द और प्रश्नोत्तरी र्शैली को लिलए प्रचुर वाक्य पाए जाते हैं।

'षट्खंडागम' के आधार से रलिचत आचाय� कुन्दकुन्द के 'पंचाब्धिस्तकाय', 'प्रवचनसार' आदिद आष� ग्रन्थों में भी उनके कुछ और अमिधक उद्गमबीज मिमलते हैं।* 'लिसय अब्धित्थणब्धित्थ उहयं', 'जम्हा' जैसे युलिt प्रवण वाक्यों एवं र्शब्द प्रयोगों द्वारा उनमें प्रश्नोत्तर पूव�क निवषयों को दृढ़ निकया गया है।

हिवकास

काल की दृमिष्ट से उनके निवकास को तीन कालखंडों में निवभt निकया जा सकता है और उन कालखंडों के नाम निनम्न प्रकार रखे जा सकते हैं :-

आदिदकाल अर्थंवा समन्तभद्र-काल (ई॰ 200 से ई॰ 650)। मध्यकाल अर्थंवा अकलंक-काल (ई॰ 650 से ई॰ 1050)। उत्तरमध्ययुग (अन्त्यकाल) अर्थंवा प्रभाचन्द्र-काल (ई॰ 1050 से 1700)। आगे निवस्तार में पढ़ें:- जैन दर्श�न का उद्भव

और निवकास

जैन �र्श�न के प्ररु्मख ग्रन्थआचाय� जिजनसेन और गुणभद्र : एक परिरचय

ये दोनों ही आचाय� उस पंचस्तूप नामक अन्वय में हुए हैं जो आगे चलकर सेनान्वय का सेनसंघ के नाम से प्रलिसद्ध हुआ है। जिजनसेन स्वामी के गुरु वीरसेन ने भी अपना वंर्श प°चस्तूपान्वय ही लिलखा है। परन्तु गुणभद्राचाय� ने सेनान्वय लिलखा है। इन्द्रानन्दी ने अपने श्रुतावतार में लिलखा है निक जो मुनिन पंचस्तूप निनवास से आये उनमें से निकन्हीं को सेन और निकन्हीं को भद्र नाम दिदया गया। तर्थंा कोई आचाय� ऐसा भी कहते हैं निक जो गुहाओं से आये उन्हें नन्दी, जो अर्शोक वन से आये उन्हें देव और जो पंचस्तूप से आये उन्हें सेन नाम दिदया गया। शु्रतावतार के उt उल्लेख से प्रतीत होता है निक सेनान्त और भद्रान्त नाम वाले मुनिनयों का समूह ही आगे चलकर सेनान्वय या सेना संघ से प्रलिसद्ध हुआ है।

जिजनसेनाचाय� लिसद्धान्तर्शास्त्रों के महान् ज्ञाता रे्थं। इन्होंने कषायप्राभृत पर 40 ह�ार श्लोक प्रमाण जयधवल टीका लिलखी है। आचाय� वीरसेन स्वामी उस पर 20 ह�ार श्लोक प्रमाण टीका लिलख पाये रे्थं और वे दिदवंगत हो गये रे्थं। तब उनके लिर्शष्य जिजनसेनाचाय� ने 40 ह�ार श्लोक प्रमाण टीका लिलखकर उसे पूण� निकया। आगे निवस्तार में पढ़ें:- जैन दर्श�न के प्रमुख ग्रन्थ

जैन �र्श�न र्में अध्यात्र्म'अध्यात्म' र्शब्द अमिध+आत्म –इन दो र्शब्दों से बना है, जिजसका अर्थं� है निक आत्मा को आधार बनाकर लिचन्तन या कर्थंन हो, वह अध्यात्म है। यह इसका व्युत्पभित्त अर्थं� हे। यह जगत जैन दर्श�न के अनुसार छह द्रव्यों के समुदायात्मक है। वे छह द्रव्य हैं-

जीव, पुद्गल,

धम�, अधम�, आकार्श और काल। आगे निवस्तार में पढ़ें:- जैन दर्श�न में अध्यात्म

जैन *ार्किकWक और उनके न्यायग्रन्थबीसवीं र्श*ी के जैन *ार्किकWक

बीसवीं र्शती में भी कनितपय दार्श�निनक एवं नैयामियक हुए हैं, जो उल्लेखनीय हैं। इन्होंने प्राचीन आचाय@ द्वारा लिलखिखत दर्श�न और न्याय के ग्रन्थों का न केवल अध्ययन-अध्यापन निकया, अनिपतु उनका राष्ट्रभाषा निहन्दी में अनुवाद एवं सम्पादन भी निकया है। सार्थं में अनुसंधानपूण� निवस्तृत प्रस्तावनाए ँभी लिलखी हैं, जिजनमें ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के ऐनितहालिसक परिरचय के सार्थं ग्रन्थ के प्रनितपाद्य निवषयों का भी तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक आकलन निकया गया है। कुछ मौलिलक ग्रन्थ भी निहन्दी भाषा में लिलखे गये हैं। सन्तप्रवर न्यायचाय� पं॰ गणेर्शप्रसाद वण� न्यायचाय�, पं॰ माभिणकचन्द्र कौन्देय, पं॰ सुखलाल संघवी, डा॰ पं॰ महेन्द्रकुमार न्यायाचाय�, पं॰ कैलार्श चन्द्र र्शास्त्री, पं॰ दलसुख भाइर मालवभिणया एवं इस लेख के लेखक डा॰ पं॰ दरबारी लाला कोदिठया न्यायाचाय� आदिद के नाम निवर्शेष उल्लेख योग्य हैं। आगे निवस्तार में पढ़ें:- जैन तार्तिकHक और उनके न्यायग्रन्थ

हि4रं्भागी टीका1. आस्रवनित्रभंगी, 2. बंधनित्रभंगी, 3. उदयनित्रभंगी और 4. सत्त्वनित्रभंगी-इन 4 नित्रभंनिगयों को संकलिलत कर टीकाकार ने इन पर संस्कृत में टीका की है।

आस्रवनित्रभंगी 63 गार्थंा प्रमाण है।

इसके रचमियता श्रुतमुनिन हैं। बंधनित्रभंगी 44 गार्थंा प्रमाण है तर्थंा उसके कता� नेमिमचन्द लिर्शष्य माधवचन्द्र हैं। आगे निवस्तार में पढ़ें:- नित्रभंगी टीका

पंचसंग्र� टीकामूल पंचसंग्रह नामक यह मूलग्रन्थ प्राकृत भाषा में है। इस पर तीन संस्कृत-टीकाए ँहैं।

1. श्रीपालसुत डड्ढा निवरलिचत पंचसंग्रह टीका, 2. आचाय� अमिमतगनित रलिचत संस्कृत-पंचसंग्रह,

3. सुमतकीर्तितHकृत संस्कृत-पंचसंग्रह।

पहली टीका दिदगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का संस्कृत-अनुषु्टपों में परिरवर्तितHत रूप है। इसकी श्लोक संख्या 1243 है। कहीं कहीं कुछ गद्यभाग भी पाया जाता है, जो लगभग 700 श्लोक प्रमाण है। इस तरह यह लगभग 2000 श्लोक प्रमाण है। यह 5 प्रकरणों का संग्रह है। वे 5 प्रकरण निनम्न प्रकार हैं-

1. जीवसमास,

2. प्रकृनितसमुत्कीत�न,

3. कम�स्तव,

4. र्शतक और 5. सप्तनितका।

इसी तरह अन्य दोनों संस्कृत टीकाओं में भी समान वण�न है। निवरे्शष यह है निक आचाय� अमिमतगनित कृत पंचसंग्रह का परिरमाण लगभग 2500 श्लोक प्रमाण है। तर्थंा सुमतकीर्तितH कृत

पंचसंग्रह अनित सरल व स्पष्ट है। इस तरह ये तीनों टीकाए ँसंस्कृत में लिलखी गई हैं और समान होने पर भी उनमें अपनी अपनी निवरे्शषताए ँपाई जाती हैं। कम� सानिहत्य के निवर्शेषज्ञों को इन टीकाओं का भी अध्ययन करना चानिहए। आगे निवस्तार में पढ़ें :- पंचसंग्रह टीका

र्मन्द्रप्रबोधिधनी र्शौरसेनी प्राकृत भाषा में आचाय� नेमिमचन्द्र लिस0 चक्रवत� द्वारा निनबद्ध गोम्मटसार मूलग्रन्थ की संस्कृत भाषा में रची यह

एक निवर्शद ्और सरल व्याख्या है। इसके रचमियता अभयचन्द्र लिसद्धान्तचक्रवत� हैं। यद्यनिप यह टीका अपूण� है निकन्तु कम�लिसद्धान्त को समझने के लिलए एक अत्यन्त प्रामाभिणक व्याख्या है। केर्शववण� ने इनकी इस टीका का उल्लेख अपनी कन्नडटीका में, जिजसका नाम कना�टकवृभित्त है, निकया है। इससे ज्ञात होता है निक केर्शववण� ने उनकी इस मन्दप्रबोमिधनी टीका से लाभ लिलया है।

गोम्मटसार आचाय� नेमिमचन्द्र लिसद्धान्तचक्रवत� द्वारा लिलखा गया कम� और जीव निवषयक एक प्रलिसद्ध एवं महत्वपूण� प्राकृत-ग्रन्थ है। इसके दो भाग हैं-

1. एक जीवकाण्ड और 2. दूसरा कम�काण्ड।

जीवकाण्ड में 734 और कम�काण्ड में 972 र्शौरसेनी-प्राकृत भाषाबद्ध गार्थंाए ंहैं। कम�काण्ड पर संस्कृत में 4 टीकाए ंलिलखी गई हैं। वे हैं-

1. गोम्मट पंजिजका , 2. मन्दप्रबोमिधनी, 3. कन्नड़ संस्कृत मिमभिश्रत जीवतत्त्वप्रदीनिपका, 4. संस्कृत में ही रलिचत अन्य नेमिमचन्द्र की जीवतत्त्वप्रदीनिपका। इन टीकाओं में निवषयसाम्य है पर निववेचन की र्शैली इनकी

अलग अलग हैं। भाषा का प्रवाह और सरलता इनमें देखी जा सकती है।

जैन �र्श�न का उद्भव और हिवकासअनुक्रम[छुपा]

1 जैन दर्श�न का उद्भव और निवकास 2 आदिदकाल अर्थंवा समन्तभद्र - काल 3 मध्यकाल अर्थंवा अकलंक - काल 4 नव निनमा�ण 5 अन्त्यकाल ( मध्य - उत्तरवत� ) अर्थंवा प्रभाचन्द्रकाल

6 सम्बंमिधत सिलHक

उद्भव 'अध्यात्म' र्शब्द अमिध+आत्म –इन दो र्शब्दों से बना है, जिजसका अर्थं� है निक आत्मा को आधार बनाकर लिचन्तन या कर्थंन हो, वह अध्यात्म है। यह इसका वु्यत्पभित्त अर्थं� हे। यह जगत जैन दर्श�न के अनुसार छह द्रव्यों के समुदायात्मक है। वे छह द्रव्य हैं-

1. जीव, 2. पुद्गल,

3. धम�, 4. अधम�, 5. आकार्श और 6. काल।

इनमें जीव द्रव्य चेतन है, जिजसे 'आत्मा' र्शब्द से भी कहा जाता है। रे्शष पाँचों द्रव्य अजीव हैं, जिजन्हें अचेतन, जड़ और अनात्म र्शब्दों से भी व्यवहृत निकया जाता है। पुद्गल द्रव्य स्पर्श�, रस, ग� और रूप गुणोंवाला होने से इजिन्द्रयों का निवषय है। पर आकार्श, काल, धम� और अधम� ये चार अजीव द्रव्य इजिन्द्रयगोचर नहीं हैं, क्योंनिक उनमें स्पर्श�, ग�, रस और रूप नहीं हैं। पर आगम और अनुमान से उनका अब्धिस्तत्व लिसद्ध है।

हमारे भीतर दो द्रव्यों का मेल है- र्शरीर और आत्मा र्शरीर अचेतन या जड़ है और आत्मा सचेतन है, ज्ञाता-दृष्टा है। निकन्तु वह स्पर्श�-रस-ग�-वण�-र्शब्द रूप नहीं है। अत: पाँचों इजिन्द्रयों का निवषय नहीं है। ऐसा होने पर भी वह र्शरीर से भिभन्न अपने पृर्थंक् अब्धिस्तत्व को मानता है। यद्यनिप जन्म में तो र्शरीर के सार्थं ही आया। पर मरण के समय यह स्पष्ट हो जाता है निक देह मात्र रह गयी, आत्मा पृर्थंक् हो गया, चला गया।

काय� की उत्पभित्त में दो कारण माने जाते है-

1. उपादान और 2. निनमिमत्त।

निनमिमत्त कारण वह होता है जो उस उपादान का सहयोगी होता है, पर कारक नहीं। यदिद प्रत्येक द्रव्य के परिरवत�न में पर द्रव्य को कता� माना जाये तो वह परिरवत�न स्वाधीन न होगा, निकन्तु पराधीन हो जायेगी और ऐसी ल्लिस्थनित में द्रव्य की स्वतन्त्रता समाप्त हो जायेगी। इस लिसद्धान्त के अनुसार जीव द्रव्य की संसार से मुलिt पराधीन हो जायेगी, जब निक मुलिt स्वाधीनता का नाम है या ऐसा कनिहए निक पराधीनता से छूटने का नाम ही मुलिt है।

संसार में जीवन का बंधन यद्यनिप पर के सार्थं है, पर उस बंधन में अपराध उस जीव का स्वयं का हें वह निनज के स्वरूप को न जानने की भूल से पर को अपनाता है और वहीं उसका बंधन है। और यह बंधन ही संसार है। इस बंधन से छूटने के लिलये जब उसे अपनी भूल का ज्ञान होता है, तो वह उस माग� से निवरt होता है।

सारांर्श यह है निक संसारी आत्मा अपने निवकारी भावों के कारण कम� से बंधा है और अपने आत्मज्ञान रूप अनिवकारी भाव से ही कम�बंधन से मुt होता है। पर संसारी और मुलिt दोनों अवस्था में अपने उन उन भावों का कत्ता� वह स्वयं है, अन्य कोई नहीं। ज्ञानी ज्ञान भाव का कत्ता� है और अज्ञानी अज्ञानमय भावों का कत्ता� है। समयसार में आचाय� कुन्दकुन्द ने यही लिलखा है—

यं करोनित भावमात्मा कत्ता� सो भवनित तस्य भावस्य।ज्ञानिननस्तुज्ञानमयोऽज्ञानमयोऽज्ञानिनन:॥ -संस्कृत छाया,126॥

अर्थंा�त जो आत्मा जिजस समय जिजस भाव को करता है उस समय उस भाव का कत्ता� वही है। ज्ञानी का भाव ज्ञानमय होता है और अज्ञानी का भाव अज्ञानमय होता है।

आचाय� अमृतचन्द्र भी लिलखते हैं-

ज्ञानिननो ज्ञाननिनवृ�त्ता: सव� भावा भवन्तिन्त निह।सव�ऽप्यज्ञाननिनवृ�त्ता भवन्त्यज्ञानिननस्तु ते॥67॥

कता� और कम� के सम्ब� में आचाय� अमृतचन्द्र कहते हैं-

य: परिरणमनित स कता� य: परिरणामो भवेत्तु तत् कम�। या परिरणनित: निक्रया सा त्रयमनिप भिभन्नं न वस्तुतया ॥51॥

जो पदार्थं� परिरवर्तितHत होता है वह अपनी परिरणनित का स्वयं कत्ता� है और वह परिरणमन उसका कम� है और परिरणनित ही उसकी निक्रया हैं। ये तीनों वस्तुत: एक ही वस्तु में अभिभन्न रूप में ही हैं, भिभन्न रूप में नहीं।

एक: परिरणमनित सदा परिरणामो जायते ते सदैकस्य। एकस्य परिरणनित: स्यात् अनेकमप्येकमेव यत: ॥52॥

द्रव्य अकेला ही निनरन्तर परिरणमन करता है वह परिरणमन भी उस एक द्रव्य में ही पाया जाता है और परिरणनित निक्रया उसी एक में ही होती है इसलिलये लिसद्ध है कता�, कम�, निक्रया अनेक होकर भी एक सत्तात्मक है। तात्पय� यह है निक हम अपने परिरणमन के कता� स्वयं हैं दूसरे के परिरणमन के कता� नहीं हैं। आगे चलकर आचाय� अमृतचन्द्र लिलखते हैं-

आसंसारत एव धावनित परं कुव�ऽहमिमत्युच्चकै:दुवा�रं ननु मोनिहनामिमह महाहङ्काररूपं तम:।तद्भतूार्थं�परिरग्रहेण निवलयं यदे्यकवारं व्रजेत्तत् किकH ज्ञानधनस्य बंधनमहो भूयो भवेदात्मन:॥55॥

अर्थंा�त संसारी प्राभिणयों की अनादिद काल से ही ऐसी दौड़ लग रही है निक मैं पर को ऐसा कर लूँ। यह मोही अज्ञानी पुरुषों का मिमथ्या अहंकार है। जब तक यह टूट न हो तब तक उसका कम� बंध नहीं छूटता। इसीलिलये वह दु:खी होता है और बंधन में पड़ता है। इसी को स्पष्ट करने के लिलये उन्होंने यह लिसद्धांत स्थानिपत निकया है निक-

आत्मभावान् करोत्यात्मा परभावान् सदा पर:।आत्मैव ह्यात्मनो भावा: परस्य पर एव ते॥56॥

इसका तात्पय� यह है निक आत्मा अपने ही भावों का कता� है और परद्रव्यों के भावों का (परिरवत�नों का) कता� परद्रव्य ही है। आत्मभाव आत्मा ही है।

जैन कर्म� धिसद्धान्* : नार्मकर्म� के हिवर्शेष सन्�र्भा� र्मेंजैन कम� लिसद्धान्त इसलिलए महत्वपूण� है निक इसके माध्यम से ईर्श्वरादिद परकतृ�त्व या सृष्टनिकतृ�त्व के भ्रम को तोड़कर प्रत्येक प्राणी को अपने पुरुषार्थं� द्वारा उस अनन्त चतुष्टय (अनन्त-दर्श�न, अनन्त-ज्ञान, अनन्त-बल और अनन्त-वीय�) की प्रान्तिप्त का माग� सहज और प्रर्शस्त निकया है। वस्तुत: प्रत्येक प्राणी अपने भाग्य का स्वयं सष्टा, स्वग�-नरक का निनमा�ता और स्वयं ही बंधन और मोक्ष को प्राप्त करने वाला है। इसमें ईर्श्वर आदिद निकसी अन्य माध्यम को बीच में लाकर उसे कतृ�त्व मानना घोर मिमथ्यात्व बतलाया गया है। इसीलिलए 'बुल्लिज्झज्जभित्त उदिट्टज्जा बंधणं परिरजाभिणया'- आगम का यह वाक्य स्मरणीय है जिजसमें कहा गया है निक बंधन को समझो और तोड़ों, तुम्हारी अनन्तर्शलिt के समक्ष ब�न की कोई हस्ती नहीं है।

इसलिलए जैन एवं वेदान्त दर्श�न का यही स्वर बार-बार याद आता है निक रे आत्मन्। तेरी मुलिt तेरे ही हार्थं में है, तू ही ब�न करने वाला है और तू ही अपने को मुt करने वाला भी है-

स्वयं कम� करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते।स्वयं भ्रमनित संसारे स्वयं तस्माद ्निवमुज्यते॥

इसीलिलए एक को दूसरों के सुख-दु:ख, जीवन-मरण का कता� मानना अज्ञानता है। यदिद ऐसा मान लिलया जाए तो निफर स्वयं कृत र्शुभार्शुभ कम� निनष्फल लिसद्ध होंगे। इस सन्दभ� में आचाय� अमिमतगनित का यह कर्थंन स्मरणीय है-

स्वयं कृतं कम� यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते रु्शभारु्शभम्।परेणदत्तं यदिद लभ्यते सु्फटं, स्वयं कृतं कम� निनरर्थं�कं तदा॥निनजार्जिजHतं कम� निवहाय देनिहनो, न कोऽनिप कस्यानिप ददानित किकHचन।निवचारयन्नेवमनन्य मानस: परो ददातीनित निवमुच्य र्शेमुषीम्॥

इस तरह जैन कम� लिसद्धान्त दैववाद नहीं अनिपतु अध्यात्मवाद है। क्योंनिक इसमें दृश्यमान सभी अवस्थाओं को कम�जन्य कहकर यह प्रनितपादन निकया गया है निक 'आत्मा अलग है और कम�जन्य र्शरीर अलग हैं।' इस भेद निवज्ञान का सव®च्च उपदेष्टा होने के कारण जैन कम� लिसद्धान्त अध्यात्मवाद का ही दूसरा नाम लिसद्ध होता है।

कम�ब� के चार भेद हैं —

1. कम@ में ज्ञान आदिद गुणों को घातने, सुख-दु:खादिद देने का स्वभाव पड़ना प्रकृनितबंध है। 2. कम� बंधने पर जिजतने समय तक आत्मा के सार्थं बद्ध रहेंगे, उस समय की मया�दा का नाम ल्लिस्थनितबंध है। 3. कम� तीव्र या मन्द जैसा फल दे उस फलदान की र्शलिt का पड़ना अनुभागब� है। 4. कम� परमाणुओं की संख्या के परिरणाम को प्रदेर्शबंध कहते हैं।

नार्मकर्म� का स्वरूपनामकम� के निवर्शेष निववेचन के पूव� सव�प्रर्थंम उसका स्वरूप जान लेना भी आवश्यक है।

आचाय� कुन्दकुन्द ने कहा है-

कम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणो सहावेण। अभिभभूय णरं नितरिरयं णेरइयं वासुरं कुणदिद ॥ प्रवचनसार 117॥

अर्थंा�त नाम संज्ञा वाला कम� जीव के र्शुद्ध स्वभाव को आच्छादिदत करके उसे मनुष्य, नितय�च, नारकी अर्थंवा देवरूप करता है। धवला टीका* में कहा है- जो नाना प्रकार की रचना निनवृ�त्त करता है वह नामकम� है*। र्शरीर, संस्थान, संहनन, वण�, ग� आदिद काय@ के करने वाले जो पुद्गल जीव में निननिवष्ट हैं वे 'नाम' इस संज्ञा वाले होते हैं*।

आचाय� पूज्यपाद ने सवा�र्थं�लिसजिद्ध* में बतलाया है निक आत्मा का नारक आदिद रूप नामकरण करना नामकम� की प्रकृनित (स्वभाव) है, जो आत्मा को नमाता है या जिजसके द्वारा आत्मा नमता है, वह 'नामकम�' है।

इस नामकम� की बयालीस प्रकृनितयाँ तर्थंा तैरानवे उत्तर प्रकृनितयाँ हैं। इनमें र्शरीर नामकम� के अन्तग�त र्शरीर के पाँच भेदों का निनरूपण निवर्शेष दृष्टव्य है। वस्तुत: औदारिरक या वैनिक्रमियक र्शरीर योग्य कम� वग�णाओं को ग्रहण करना-यही जन्म का प्रारम्भ है। कम@ के ही उदय से वह जीव निबना चाहे हुए मरण करके दूसरी पया�य में उत्पन्न होता है। वहाँ वग�णाओं का ग्रहण नामकम� के उदय से स्वयमेव होता रहता है। ये वग�णायें स्वयं ही पया�न्तिप्त, निनमा�ण, अंगोपांग आदिद के उदय से औदारिरक या वैनिक्रमियक र्शरीर के आकार परिरणमन कर जाती है। जैसे- जीव के अर्शुद्ध भावों का निनमिमत्त पाकर लोक में सव�त्र फैली हुई काम�ण वग�णायें स्वयं ही अपने-अपने स्वभावनानुसार ज्ञानावरणादिद पूव®t आठ कम�स्थ परिरणमन कर जाती है। इसी तरह नामकम� तर्थंा गोत्रकम� के उदय से भिभन्न-भिभन्न जानित की वग�णायें स्वयं ही अनेक प्रकार के देव, नारकी, मनुष्य, नितय�चों के र्शरीर के आकार रूप परिरणमन कर जाती है। इस तरह यह र्शरीर आत्मा का कोई कारण या काय� नहीं है, कम@ का ही काय� है।

नार्मकर्म� और उसकी प्रकृहि*याँ नामकम� की बयालीस प्रकृनितयाँ हैं। इन्हें निपण्ड प्रकृनितयाँ भी कहते हैं। ये इस प्रकार हैं- गनित, जानित, र्शरीर, ब�न,

संघात, संस्थान, संहनन, अंगोपांग, वण�, रस, ग�, स्पर्श�, आनुपूव�, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, निवहायोगनित, त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर, पया�प्त, अपया�प्त, साधारण, प्रत्येक, ल्लिस्थर, रु्शभ, सुभग, आदेय, अल्लिस्थर, अर्शुभ, दुभ�ग, अनादेय, दु:स्वर, अयर्शस्कीर्तितH, सुस्वर, यर्शस्कीर्तितH, निनमा�ण और तीर्थं�करत्व*।

ये बयालीस प्रकृनितयाँ ही नामकम� के भेद (प्रकार) कहे जाते हैं। इस प्रकार हैं-

1. गनित नामकम�-गनित, भव, संसार— ये पया�यवाची र्शब्द है*। जिजसके उदय से आत्मा भवान्तर को गमन करता है वह गनित नामकम� है। यदिद वह कम� न हो तो जीव गनित रनिहत हो जायेगा। इसी गनित नामकम� के उदय से जीव में रहने से आयु कम� की ल्लिस्थनित रहती है और र्शरीर आदिद कम� उदय को प्राप्त होते हैं। नरक, नितय�च, मनुष्य और देवगनित – ये इसके चार भेद हैं। जिजन कम�स्क�ों के उदय से आत्मा को नरक, नितय�च आदिद भव प्राप्त होते हैं, उनसे युt जीवों को उन-उन गनितयों में नरक-गनित, नितय�कगनित आदिद संज्ञायें प्राप्त होती हैं।

2. जानित नामकम�— जिजन कम�स्क�ों से सदृर्शता प्राप्त होती है, जीवां के उस सदृर्श परिरणाम को जानित कहते हैं* अर्थंा�त उन गनितयों में अत्यभिभचारी सादृर्श से एकीभूत स्वभाव (एकरूपका) का नाम जानित है। यदिद जानित नामकम� न हो तो खटमल-खटमल के समान, निबचू्छ-निबचू्छ के समान इसी प्रकार अन्य सभी सामान्यत: एक जैसे नहीं हो सकते। जानित के पांच भेद हैं- एकेजिन्द्रय द्वीजिन्द्रय, त्रीजिन्द्रय, चतुरिरजिन्द्रय और पंचेजिन्द्रय। इनके लक्षण इस प्रकार हैं – जिजसके उदय से जीव एकेजिन्द्रय जानित में पैदा हो अर्थंा�त एकेजिन्द्रय र्शरीर धारण करे उसे एकेजिन्द्रय जानित नामकम� कहते हैं। इसी प्रकार द्वीजिन्द्रयादिद का स्वरूप बनता है।

3. र्शरीरनामकम�— जिजसके उदय से आत्मा के लिलए र्शरीर की रचना होती है वह र्शरीर नामकम� है। यह कम� आत्मा को आधार या आश्रय प्रदान करता है। क्योंनिक कहा है निक 'यदिद र्शरीर-नामकम� न स्यादात्मा निवमुt: स्यात्* अर्थंा�त यदिद यह कम� न हो तो आत्मा मुt हो जाय। इसके भी पांच भेद हैं – औदारिरक, वैनिक्रमियक, आहारक, तेजस और कामा�ण र्शरीर। जिजसके उदय से जीव के द्वारा ग्रहण निकये गये आहार वग�णा रूप पुद्गलस्क� रस, रुमिधर, मांस, अल्लिस्थ, मज्जा और रु्शक्र स्वभाव से परिरणत होकर औदारिरक र्शरीर रूप हो जाते हैं उसका नाम औदारिरक र्शरीर है। इसी प्रकार अन्य भेदों का स्वरूप बनता है*।

4. ब�न नामकम�— र्शरीर नामकम� के उदय से जो आहार-वग�णारूप पुद्गल-स्क� ग्रहण निकये उन पुद्गलस्क�ों का परस्पर संशे्लष सम्ब� जिजस कम� के उदय से हो उसे बंधन-नामकम� कहते हैं। यदिद यह कम� न हो तो यह र्शरीर बालू द्वारा बनाये हुए पुरुष के र्शरीर की तरह हो जाय। इसके भी औदारिरक, वैनिक्रमियक र्शरीर, ब�न आदिद पांच भेद हैं*।

5. संघात नामकम�— जिजसके उदय से औदारिरक र्शरीर, लिछद्र रनिहत परस्पर प्रदेर्शों का एक क्षेत्रावगाह रूप एकत्व प्राप्त हो उसे संघात नामकम� कहते हैं* इसके भी औदारिरक-र्शरीर संघात आदिद पांच भेद हैं।

6. संस्थान नामकम�— जिजसके उदय से औदारिरक आदिद र्शरीर के आकार की रचना हो वह संस्थान नामकम� है। इसके छह भेद हैं- समचतुरस्त्र, न्यग्रोधपरिरमण्डल, स्वानित कुष्जक, वामन और हुंडक (निवषम आकार) संस्थान।

7. संहनन नामकम�— जिजसके उदय से हनि¾यों की संमिध में बंधन निवर्शेष होता है वह संहनन नामकम� है। इसके छह भेद हैं। 1.वज्रष�भनाराच, 2.वज्रनाराच, 3. नाराच, 4.अद्ध�नाराच, 5.कीलक और 6. असंप्राप्तासृपादिटका संहनन*।

8. अंगोपांग नामकम�— जिजस कम� के उदय से अंग और उपांगों की स्पष्ट रचना हो वह अंगोपांग नामकम� हैं इसके तीन भेद हैं- औदारिरक, वैनिक्रमियक और आहारक र्शरीर, अंगोपांग*

9. वण� नामकम�— जिजस कम� के उदय से र्शरीर में कृष्ण, नील, रt, हरिरत और र्शुक्ल – ये वण� (रंग या रूप) उत्पन्न हों वह वण� नामकम� है। इन 5 वण@ से ही इसके पांच भेद बनते हैं। जिजस कम� के उदय से र्शरीर के पुद्गलों में कृष्णता प्राप्त होती है वह कृष्णवण� नामकम� है। इसी तरह अन्य हैं*।

10. रस नामकम�— इसके उदय से र्शरीर में जानित के अनुसार जैसे नीबू, नीम आदिद में प्रनितनिनयत नितt, कटुक, कषाय, अम्ल और मधुर रस उत्पन्न होते हैं। यही इस नामकम� के पांच भेद हैं।

11. ग� नामकम�— जिजसके उदय से जीव के र्शरीर में उसकी जानित के अनुसार ग� उत्पन्न हो वह ग� नामकम� है। इसके दो भेद हैं- सुग� और दुग��।

12. स्पर्श� नामकम�— जिजस कम�स्क� के उदय से जीव के र्शरीर में उसकी जानित के अनुरूप स्पर्श� उत्पन्न हो। जैसे सभी उत्पल, कमल आदिद में प्रनितनिनयत स्पर्श� देखा जाता है। इसके आठ भेद हैं- कक� र्श, मृदु, गुरु, लघु, म्मिस्नग्ध, सूक्ष, र्शीत और उष्ण।

13. आनुपूव� नामकम�— जिजस कम� के उदय से निवग्रहगनित में पूव�र्शरीर (मरण से पहले के र्शरीर) का आकार रहे उसका नाम आनुपूव� है। इस कम� का अभाव नहीं कहा जा सकता क्योंनिक निवग्रहगनित में उस अवस्था के लिलए निनभिश्चत आकार उपल� होता है और उत्तम र्शरीर ग्रहण करने के प्रनित गमन की उपलब्धि� भी पायी जाती है। इसके चार भेद हैं- नरकगनित प्रायोग्यानुपूव्य�, नितय�ग्गनित., मनुष्यगनित., देवगकितHप्रायोग्यानुपूव�।

14. अगुरुलघु नामकम�— जिजसके उदय से यह जीव अनन्तानन्त पुद्गलों से पूण� होकर भी लोहनिपण्ड की तरह गुरु (भारी) होकर न तो नीचे निगरे और रुई के समान हल्का होकर ऊपर भी न जाय उसे अगुरुलघु नामकम� कहते हैं।

15. उपघात नामकम�— 'उपेत्य घात: उपघात:' अर्थंा�त पास आकर घात होना उपघात है। जिजस कम� के उदय से अपने द्वारा ही निकये गये गलपार्श आदिद बंधन और पव�त से निगराना आदिद निनमिमत्तों से अपना घात हो जाता है वह उपघात नामकम� है। अर्थंवा जो कम� जीवको अपने ही पीड़ा में कारणभूत बडे़-बडे़ सींग, उदर आदिद अवयवों को रचना है वह उपघात है।

16. परघात नामकम�— जिजसके उदय से दूसरे का घात करने वाले अंगोपांग हो उसे परघात नामकम� कहते हैं। जैसे निबचू्छ की पंूछ आदिद।

17. उच्छ्रवास— जिजसके उदय से जीव को र्श्वासोच्छवास हो। 18. आतप— जिजसके उदय से जीव का र्शरीर आतप अर्थंा�त् उसमें अन्य को संतप्त करने वाला प्रकार्श उत्पन्न होता

है वह आतप है। जैसे सूय� आदिद में होने वाले पृथ्वी कामियक आदिद में ऐसा तापकारी प्रकार्श दिदखता है। 19. उद्योत— जिजसके उदय से जीव के र्शरीर में उद्योत (र्शीतलता देने वाला प्रकार्श) उत्पन्न होता है वह उद्योत

नामकम� है। जैसे चन्द्रमा, नक्षत्र, निवमानों और जुगनू आदिद जीवों के र्शरीरों में उद्योत होता है। 20. निवहायोगनित— जिजसके उदय से आकार्श में गमन हो उसे निवहायोगनित नामकम� कहते हैं। इसके प्रर्शस्त और

अप्रर्शस्त ये दो भेद हैं। 21. त्रस नामकम�— जिजसके उदय से द्वीजिन्द्रयादिदक जीवों में उत्पन्न हो, उसे त्रस नामकम� कहते हैं।

22. स्थावर (सू्थल)- जिजसके उदय से एकेजिन्द्रय जीवों (स्थावर कायों) में उत्पन्न हो वह स्थावर नामकम� है। 23. बादर (सू्थल)— जिजसके उदय से दूसरे को रोकने वाला तर्थंा दूसरे से रुकने वाला सू्थल र्शरीर प्राप्त हो उसे

बादर र्शरीर नामकम� कहते हैं। 24. सूक्ष्म नामकम�— जिजसके उदय से ऐसा र्शरीर प्राप्त हो, जो न निकसी को रोक सकता हो और न निकसी से रोका

जा सकता हो, उसे सूक्ष्म र्शरीर नामकम� कहते हैं। 25. पया�न्तिप्त— जिजसके उदय से आहार, र्शरीर, इजिन्द्रय, र्श्वासोच्छवास, भाषा और मन-इन छह पया�न्तिप्तयों की रचना

होती है वह पया�न्तिप्त नामकम� है। ये ही इसके छह भेद हैं। 26. अपया�न्तिप्त— उपयु�t पया�न्तिप्तयों की पूण�ता का न होना अपया�न्तिप्त है। 27. प्रत्येक र्शरीर नामकम�— जिजसके उदय से एक र्शरीर का एक ही जीव स्वामी हो उसे प्रत्येक र्शरीर नामकम�

कहते हैं। 28. साधारण र्शरीर नामकम�— जिजसके उदय से एक र्शरीर के अनेक जीव स्वामी हों, उसे साधारण-र्शरीर नामकम�

कहते हैं। 29. ल्लिस्थर नामकम�— जिजस कम� के उदय से र्शरीर की धातुए ं(रस, रुमिधर, मांस, मेद, मज्जा, ह¾ी और र्शुक्र) इन

सात धातुओं की ल्लिस्थरता होती है वह ल्लिस्थर नामकम� है। 30. अल्लिस्थर— जिजसके उदय से इन धातुओं में उत्तरोत्तर अल्लिस्थर रूप परिरणमन होता जाता है वह अल्लिस्थर नामकम�

है। 31. रु्शभनामकम�— जिजसके उदय से र्शरीर के अंगों और उपांगों में रमणीयता (सुन्दरता) आती है वह रु्शभ नामकम�

है। 32. अर्शुभनामकम�— जिजसके उदय से र्शरीर के अवयव अमनोज्ञ हों उसे अर्शुभनाम कम� कहते हैं। 33. सुभग,

34. दुभ�गनामकम�— जिजसके उदय से स्त्री-पुरुष या अन्य जीवों में परस्पर प्रीनित उत्पन्न हो उसे सुभग नामकम� तर्थंा रूपादिद गुणों से युt होते हुए भी लोगों के जिजसके उदय से अप्रीनितकार प्रतीत होता है उसे दुभ�ग नामकम� कहते हैं।

35. आदेय,

36. अनादेय नामकम�— जिजसके उदय से आदेय-प्रभा सनिहत र्शरीर हो वह आदेय तर्थंा निनष्प्रभ र्शरीर हो वह अनादेय नामकम� है।

37. सुस्वर, 38. दुस्वर नामकम�- जिजसके उदय से र्शोभन (मधुर) स्वर हो वह सुस्वर तर्थंा अमनोज्ञ स्वर होता है वह दु:स्वर

नामकम� है। 39. यर्श:कीर्तितH, 40. अयर्श:कीर्तितH नामकम�— जिजसके उदय से जीव की प्रर्शंसा हो वह यर्श:कीर्तितH तर्थंा निनप्दा हो वह अयर्श: कीर्तितH

नामकम� है। 41. निनमान (निनमा�ण) नामकम�— निनभिश्चत मान (माप) को निनमान कहते हैं। इसके दो भेद हैं – प्रमाण और स्थान।

जिजस कम� के उदय से अंगोपांगों की रचना यर्थंाप्रमाण और यर्थंास्थान हो उसे निनमान या निनमा�ण नामकम� कहते हैं। 42. तीर्थं�कर नामकम�— जिजस कम� के उदय से तीन लोकों में पूज्य परम आह�न्त्य पद प्राप्त होता है वह परमोत्कृष्ट

तीर्थं�कर नामकम� है।

इस प्रकार ये नामकम� की 42 निपण्ड प्रकृनितयाँ हैं। इन्हीं में एक-एक की अपेक्षा इनके 93 भेद हैं। इनमें अन्तिन्तम तीर्थं�कर नामकम� का आस्त्रव दर्श�ननिवर्शुजिद्ध आदिद सोलहकारण भावनाओं का निवधान है। यद्यनिप ये एक सार्थं सभी सोलह भावनायें आवश्यक नहीं है। निकन्तु एक दर्श�ननिवरु्शजिद्ध अनित आवश्यक होती है। दो से लेकर सोलह कारणों के निवकास से भी तीर्थं�कर नामकम� का बंध होता है।

बीसवीं र्श*ी के जैन *ार्किकWकबीसवीं र्शती में भी कनितपय दार्श�निनक एवं नैयामियक हुए हैं, जो उल्लेखनीय हैं। इन्होंने प्राचीन आचाय@ द्वारा लिलखिखत दर्श�न और न्याय के ग्रन्थों का न केवल अध्ययन-अध्यापन निकया, अनिपतु उनका राष्ट्रभाषा निहन्दी में अनुवाद एवं सम्पादन भी निकया है। सार्थं में अनुसंधानपूण� निवस्तृत प्रस्तावनाए ँभी लिलखी हैं, जिजनमें ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के ऐनितहालिसक परिरचय के सार्थं ग्रन्थ के प्रनितपाद्य निवषयों का भी तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक आकलन निकया गया है। कुछ मौलिलक ग्रन्थ भी निहन्दी भाषा में लिलखे गये हैं। सन्तप्रवर न्यायचाय� पं॰ गणेर्शप्रसाद वण� न्यायचाय�, पं॰ माभिणकचन्द्र कौन्देय, पं॰ सुखलाल संघवी, डा॰ पं॰ महेन्द्रकुमार न्यायाचाय�, पं॰ कैलार्श चन्द्र र्शास्त्री, पं॰ दलसुख भाइर मालवभिणया एवं इस लेख के लेखक डा॰ पं॰ दरबारी लाला कोदिठया न्यायाचाय� आदिद के नाम निवर्शेष उल्लेख योग्य हैं।

जैन *ार्किकWक और उनके न्यायग्रन्थ गृद्धनिपच्छ समन्तभद्र लिसद्धसेन देवनजिन्द पूज्यपाद श्रीदत्त पात्रस्वामी अकलंकदेव हरिरभद्र लिसद्धसेन निद्वतीय वादीभसिसHह बृहदनन्तवीय� निवद्यानन्द कुमारनजिन्द ( कुमारनजिन्द भट्टारक ) अनन्तकीर्तितH माभिणक्यनजिन्द देवसेन वादिदराज प्रभाचन्द्र अभयदेव

लघु अनन्तवीय� देवसूरिर हेमचन्द्र भावसेन तै्रनिवद्य लघु समन्तभद्र अभयचन्द्र रत्नप्रभसूरिर मल्लिल्लषेण अभिभनव धम�भूषणयनित र्शान्तिन्तवण� नरेन्द्रसेन भट्टारक चारुकीर्तितH भट्टारक निवमलदास अजिजतसेन यर्शोनिवजय

चारुकीर्कि*W, हिवर्मल�ास और यर्शोहिवजयये तीन तार्तिकHक ऐसे हैं, जिजन्होंने अपने न्याय ग्रन्थों में नव्यन्याय को भी अपनाया है, जो नैयामियक गङे्गर्श उपाध्याय से उद्भतू हुआ और निपछले तीन-चार दर्शक तक अध्ययन- अध्यापन में रहा। हमने स्वयं नव्यन्याय के अवचे्छदकत्वनिनरुलिt, लिसद्धांतलक्षण, व्यान्तिप्तपंचक, दिदनकरी आदिद ग्रन्थों का अध्ययन निकया तर्थंा नव्यन्याय में मध्यता-परीक्षा प्रर्थंम श्रेणी में उत्तीण� की।

*ीथ̂कर-उप�ेर्श : द्वा�र्शांगश्रु* 24 तीर्थं�करों ने अपने-अपने समय में धम� माग� से च्युत हो रहे जन समुदाय को संबोमिधत निकया और उसे धम� माग� में

लगाया। इसी से इन्हें धम� माग�-मोक्ष माग� का नेता तीर्थं� प्रवत्त�क-तीर्थं�कर कहा गया है। जैन लिसद्धान्त के अनुसार 'तीर्थं�कर' नाम की एक पुण्य, प्रर्शस्त कम� प्रकृनित है। उसके उदय से तीर्थं�कर होते और वे तत्त्वोपदेर्श करते हैं।

आचाय� निवद्यानंद ने स्पष्ट कहा है[1] निक 'निबना तीर्थं�करत्वेन नाम्ना नार्थं®पदेर्शना' अर्थंा�त निबना तीर्थं�कर-पुण्यनामकम� के तत्त्वोपदेर्श संभव नहीं है।*

इन तीर्थं�करों का वह उपदेर्श जिजन र्शासन, जिजनागम, जिजनश्रुत, द्वादर्शांग, जिजन प्रवचन आदिद नामों से उल्लिल्लखिखत निकया गया है। उनके इस उपदेर्श को उनके प्रमुख एवं प्रनितभार्शाली लिर्शष्य निवषयवार भिभन्न-भिभन्न प्रकरणों में निनबद्ध या ग्रलिर्थंत करते हैं। अतएव उसे 'प्रबंध' एवं 'ग्रन्थ' भी कहते हैं। उनके उपदेर्श को निनबद्ध करने वाले वे प्रमुख लिर्शष्य जैनवाङमय में गणधर कहे जाते हैं। ये गणधर अत्यन्त सूक्ष्मबुजिद्ध के धारक एवं निवलिर्शष्ट क्षयोपर्शम वाले होते हैं। उनकी धारणार्शलिt और स्मरणर्शलिt असाधारण होती है।

इनके द्वारा निनबद्ध वह उपदेर्श 'द्वादर्शाङ्ग-अङ्गप्रनिवष्ट' कहा जाता है।*

अंगप्रनिवष्ट के निवषयक्रम से 12 भेद हैं जिजनकी मूल 'अंग आगम' संज्ञा है। वे हैं:-

1. आचारांग,

2. सूत्रकृतांग,

3. स्थानांग,

4. समवायांग,

5. व्याख्याप्रज्ञन्तिप्त,

6. ज्ञातृधम�कर्थंा, 7. उपासकाध्ययन,

8. अंत:कृत्दर्शांग,

9. अनुत्तरौपपादिदकदर्शांग,

10. प्रश्नव्याकरण,

11. निवपाकसूत्र और 12. दृमिष्टवाद।

इनमें अन्तिन्तम 12 वें दृमिष्टवाद अंग के 5 भेद हैं-

1. परिरकम�, 2. सूत्र,

3. प्रर्थंमानुयोग,

4. पूव�गत और 5. चूलिलका।

परिरकम� के 5 भेद ये हैं-

1. चन्द्रप्रज्ञन्तिप्त,

2. सूय�प्रज्ञन्तिप्त,

3. जम्बूद्वीपप्रज्ञन्तिप्त,

4. द्वीपसागरप्रज्ञन्तिप्त, और 5. व्याख्याप्रज्ञन्तिप्त (यह 5 वें अंग व्याख्याप्रज्ञन्तिप्त से भिभन्न है)।

पूव�गत के 14 भेद इस प्रकार हैं-

1. उत्पाद,

2. आग्रायणीय,

3. वीया�नुवाद,

4. अब्धिस्तनाब्धिस्तप्रवाद,

5. ज्ञानप्रवाद,

6. सत्यप्रवाद,

7. आत्मप्रवाद,

8. कम�प्रवाद,

9. प्रत्याख्यान प्रवाद,

10. निवद्यानुवाद,

11. कल्याणवाद,

12. प्राणावाय,

13. निक्रयानिवर्शाल और 14. लोकनिबन्दुसार।

चूलिलका के 5 भेद हैं –

1. जलगता, 2. स्थलगता, 3. मायागता, 4. रूपगता और 5. आकार्शगता।

इनमें उनके नामानुसार निवषयों का वण�न है।*

अंगप्रनिवष्ट उपदेर्श गणधरों द्वारा निनबद्ध निकया जाता है।*

अंगबाह्य उपदेर्श उसके आधार से उनके लिर्शष्यों-प्रलिर्शष्यों, आचाय® द्वारा रचा जाता है।*(3) इससे वह अंगबाह्य कहा जाता है, निकन्तु प्रामभिणकता की दृमिष्ट से दोनों ही प्रकार का श्रुत समान है, क्योंनिक उसके उपदेष्टा भी परम्परा से तीर्थं�कर ही माने जाते हैं।

इस अंगबाह्य जिजनोपदेर्श के 14 भेद हैं। वे इस प्रकार हैं* हैं-

1. सामामियक,

2. चतुर्विंवHर्शनितस्तव,

3. वंदना, 4. प्रनितक्रमण,

5. वैनमियक,

6. कृनितकम�, 7. दर्शवैकालिलक,

8. उत्तराध्ययन,

9. कल्पव्यवहार, 10. कल्पाकल्प्य,

11. महाकल्प,

12. पुण्डरीक,

13. महापुण्डरीक और 14. निननिषजिद्धका।

इस अंगबाह्य श्रुत में श्रमणाचार का मुख्यतया वण�न है। उत्तरकाल में अल्पमेधा के धारक उत्तरवत� आचाय� इसी शु्रत का आश्रय लेकर अपने निवनिवध ग्रंर्थंों की रचना करते हैं और

उनके द्वारा उसी जिजनोपदेर्श को जन-जन तक पहंुचाने का प्रर्शस्त प्रयास करते हैं तर्थंा के्षत्रीय भाषाओं में भी उसे ग्रलिर्थंत करते हैं। इनका स्त्रोत (मूल) तीर्थं�कर-उपदेर्श होने से उन्हें भी प्रमाण माना जाता है।

उपल@ श्रु* प्रर्थंम तीर्थं�कर ऋषभदेव का शु्रत तीर्थं�कर अजिजत तक, अजिजत का सम्भव तक और सम्भव का अभिभनंदन तक, इस तरह

पूव� तीर्थं�कर का श्रुत उत्तरवत� अगले तीर्थं�कर तक रहा। तेइसवें तीर्थं�कर पार्श्व� का द्वादर्शांग श्रुत तब तक रहा, जब तक महावीर तीर्थं�कर धम®पदेष्टा नहीं हुए। आज जो आंलिर्शक द्वादर्शांग श्रुत उपल� है वह अंनितम 24 वें तीर्थं�कर महावीर से संबद्ध है। अन्य सभी तीर्थं�करों का श्रुत लेख बद्ध न होने तर्थंा स्मृनितधारकों के न रहने से नष्ट हो चुका है। वद्ध�मान महावीर का द्वादर्शांग श्रुत भी पूरा उपल� नहीं है। प्रारम्भ में वह आचाय�-लिर्शष्य परम्परा में स्मृनित के आधार पर निवद्यमान रहा। उत्तर काल में स्मृनितधारकों की स्मृनित मन्द पड़ जाने पर उसे निनबद्ध निकया गया।

दिदगम्बर परम्परा के* अनुसार वत�मान में जो श्रुत उपल� हैं वह 12 वें अंग दृमिष्टवाद का कुछ अंग हैं, जो धरसेनाचाय� को आचाय� परम्परा से प्राप्त र्थंा और जिजसे उनके लिर्शष्य आचाय� भूतबली और पुष्पदन्त ने उनसे प्राप्त कर षट्खण्डागम नामक आगम ग्रन्थ में लेखबद्ध निकया। र्शेष 11 अंग और 12 वें अंग का बहुभाग नष्ट हो चुका है।

रे्श्वताम्बर परम्परा* के अनुसार आचाय� क्षमाश्रमण देवर्जिद्धHगणी के नायकत्व में तीसरी और अन्तिन्तम बलभी वाचना में संकलिलत 11 अंग मौजूद हैं, जिजन्हें दिदगम्बर परम्परा में मान्य नहीं निकया गया। रे्श्वताम्बर परम्परा 12 वें अंग दृमिष्टवाद का समग्र रूप में निवचे्छद स्वीकार करती है। जबनिक दिदगम्बर परम्परा कसायपाहुड और षट्खण्डागम-इन दो आगम ग्रन्थों के आधार पर इस दृमिष्टवाद का कुछ ज्ञान वत�मान में उपल� मानती है, रे्शष प्रर्थंम से लेकर ग्यारहवें अंग तक सभी का लोप मानती है।

धर्म�, �र्श�न और न्याय उt श्रुत में तीर्थं�कर महावीर ने जहाँ धम� का उपदेर्श दिदया वहाँ दर्श�न और न्याय का भी उपदेर्श दिदया है। इन तीनों में भेद

करते हुए उन्होंने बताया निक मुख्यतया आचार का नाम धम� है। धम� का जिजन निवचारों द्वारा समर्थं�न एवं संपोषण निकया जाता है, वे निवचार दर्श�न हैं और धम� के संपोषण के लिलए प्रस्तुत निवचारों को युलिt-प्रनितयुलिt, खंडन-मंडन, प्रश्न-उत्तर एवं र्शंका-समाधानपूव�क दृढ़ करना न्याय प्रमाणर्शास्त्र है।

इन तीनों के पार्थं�क्य को समझने के लिलए हम यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। सब जीवों पर दया करो, निकसी जीव की किहHसा न करो अर्थंवा सत्य बोलो, असत्य मत बोलो आदिद निवमिध और निनषेधरूप आचार का नाम धम� है। जब इसमें क्यों का सवाल उठता है तो उसके समर्थं�न में कहा जाता है निक जीवों पर दया करना कत�व्य है, गुण (अच्छ) है, पुण्य है और इससे सुख मिमलता है। निकन्तु जीवों की किहHसा करना अकत�व्य है, दोष है, पाप है और उससे दु:ख मिमलता है। इसी तरह सत्य बोलना कत�व्य है, गुण है, पुण्य है और उससे सुख मिमलता है।

यदिद अकिहHसा जीव का स्वभाव न माना जाए तो कोई भी जीव जीनिवत नहीं रह सकता, सब सबके भक्षक या घातक हो जाएगंे। परिरवार में, देर्श में और निवर्श्व के राष्ट्रों में अनवतर किहHसा रहने पर र्शन्तिन्त और सुख कभी उपल� नहीं हो सकें गे।

इसी प्रकार सत्य बोलना मनुष्य का स्वभाव न माना जाए तो संसार में अनिवर्श्वास छा जाएगा और लेन-देन आदिद के सारे लोक-व्यवहार लुप्त हो जाएगें और वे अनिवर्श्वसनीय बन जावेंगे। इस तरह धम� के समर्थं�न में प्रस्तुत निवचार, रूप, दर्श�न को दृढ़ करना न्याय, युलिt या प्रमाणर्शास्त्र है।

धम� जहाँ सदाचार के निवधान और असदाचार के निनषेध के रूप हैं वहाँ दर्श�न उनमें कत्त�व्याकत्त�व्य, पुण्यापुण्य और सुख-दु:ख का निववेक जागृत करता है तर्थंा न्याय दर्श�न रूप निवचारों को हेतु पूव�क मब्धिस्तष्क में निबठा देता है।

वस्तुत: न्याय र्शास्त्र से दर्श�न र्शास्त्र को जो दृढ़ता मिमलती है वह स्थायी, निववेकयुt और निनण�यात्मक होती है। यही कारण है निक सभी भारतीय जैन, बौद्ध और वैदिदक धम@ में दर्श�न र्शास्त्र और न्याय र्शास्त्र का पृर्थंक्-पृर्थंक् प्रनितपादन निकया गया है तर्थंा दोनों को महत्त्वपूण� स्थान दिदया गया है। इतना ही नहीं, उन पर बल देते हुए इन्हें निवकलिसत एवं समृद्ध निकया गया है।

टीका दिट)पणी1. ↑

ऋषभादिदमहावीरान्तेभ्य: स्वात्मोपल�ये। धम�तीर्थं�करेभ्योऽस्तु स्याद्वादिदभ्यो नमोनम:॥ अकलंक, लघीयस्त्रय, 1

जैन संग्र�ालय / Jain Museum

राजकीय जैन संग्रहालय, मरु्थंराGovt. Jain Museum, Mathura

प्रारम्भ में यह संग्रहालय स्थानीय तहसील के पास एक छोटे भवन में रखा गया र्थंा । कुछ परिरवत�नों के बाद सन् 1881 में उसे जनता के लिलए खोल दिदया गया । सन् 1900 में संग्रहालय का प्रब� नगरपालिलका के हार्थं में दिदया गया । इसके पांच वष� बाद तत्कालीन पुरातत्त्व अमिधकारी डा. ज.े पी. एच. फोगल के द्वारा इस संग्रहालय की मूर्तितHयों का वग�करण निकया गया और सन् 1910 में एक निवस्तृत सूची प्रकालिर्शत की गई । इस काय� से संग्रहालय का महत्त्व र्शासन की दृमिष्ट में बढ़ गया और सन् 1912 में इसका सारा प्रब� राज्य सरकार ने अपने हार्थं में ले लिलया । सन् 1908 से रायबहादुर पं. राधाकृष्ण यहाँ के प्रर्थंम सहायक संग्रहालय अध्यक्ष के रूप में निनयुt हुए, बाद में वे अवैतनिनक संग्रहाध्यक्ष हो गये। अब संग्रहालय की उन्ननित होने लगी, जिजसमें तत्कालीन पुरातत्त्व निनदेर्शक सर जॉन मार्श�ल और रायबहादुर दयाराम साहनी का बहुत बड़ा हार्थं र्थंा सन् 1929 में प्रदेर्शीय र्शासन ने एक लाख छत्तीस ह�ार रुपया लगाकर स्थानीय डैम्मिम्पयर पाक� में संग्रहालय का सम्मुख भाग बनवाया और सन् 1930 में यह जनता के लिलए खोला गया । इसके बाद निब्रदिटर्श र्शासन काल में यहाँ कोई नवीन परिरव�तन नहीं हुआ ।

भारत का र्शासन सूत्र सन् 1947 में जब अपने हार्थं में आया तब से अमिधकारिरयों का ध्यान इस सांस्कृनितक तीर्थं� की उन्ननित की ओर भी गया । निद्वतीय पंचवष�य योजना में इसकी उन्ननित के लिलए अलग धनरालिर्श की व्यवस्था की गयी और काय� भी प्रारम्भ हुआ । सन् 1958 से काय� की गनित तीव्र हुई । पुराने भवन की छत का नवीनीकरण हुआ और सार्थं ही सार्थं सन् 1930 का अधूरा बना हुआ भवन पूरा निकया गया । वत�मान ल्लिस्थनित में अष्टकोण आकार का एक सुन्दर भवन उद्यान के बीच ल्लिस्थत है । इनमें 34 फीट चौड़ी सुदीघ� दरीची बनाई गई है और प्रत्येक कोण पर एक छोटा षट्कोण कक्ष भी बना है । र्शीघ्र ही मरु्थंरा कला का यह निवर्शाल संग्रह पूरे वैभव के सार्थं सुयोग्य वैज्ञानिनक उपकरणों की सहायता से यहाँ प्रदर्थिर्शHत होगा । र्शासन इससे आगे बढ़ने की इच्छा रखता है और परिरल्लिस्थनित के अनुरूप इस संग्रहालय में व्याख्यान कक्ष, गं्रर्थंालय, दर्श�कों का निवश्राम स्थान आदिद की स्वतंत्र व्यवस्था की जा रही है । इसके अनितरिरt कला पे्रमिमयों की सुनिवधा के लिलए मरु्थंरा कला की प्रनितकृनितयां और छायालिचत्रों को लागत मूल्य पर देने की वत�मान व्यवस्था में भी अमिधक सुनिवधाए ंदेने की योजना है ।

जैन संग्रहालय वीलिर्थंका

जैन प्रनितमा का धड़

Bust of Jina

जैन मस्तक

Head of a Jina

आसनस्थ जैन तीर्थं�कर

Seated Jaina Tirthankara

सव�तोभदिद्रकाSarvato Bhadrrika

तीर्थं�कर युt चौमुखी

Stele With Nude Jinas

प्रर्थंम तीर्थं�कर ऋषभनार्थं1st Tirthankara Rishabhanatha

लिसर निवहीन जैन तीर्थं�कर

Headless Jaina Tirthankara

तीर्थं�कर प्रनितमा

Jaina Tirthankara

आचाय� अकलंक�ेव / Acharya Aklankdev आचाय� अकलंकदेव ईसा 7 वीं, 8 वीं र्शती के तीक्ष्णबुजिद्धएवं महान् प्रभावर्शाली तार्तिकHक हैं।

ये जैन न्याय के प्रनितष्ठाता कहे जाते हैं। अनेकांत, स्याद्वाद आदिद लिसद्धान्तों पर जब तीक्ष्णता से बौद्ध और वैदिदक निवद्वानों द्वारा दोहरा प्रहार निकया जा रहा र्थंा

तब सूक्ष्मप्रज्ञ अकलंकदेव ने उन प्रहारों को अपने वाद-निवद्याकवच से निनरस्त करके अनेकांत, स्याद्वाद, सप्तभंगी आदिद लिसद्धान्तों को सुरभिक्षत निकया र्थंा तर्थंा प्रनितपभिक्षयों को सबल जवाब दिदया र्थंा।

इन्होंने सैकड़ों र्शास्त्रार्थं� निकये और जैनन्याय पर बडे़ जदिटल एवं दुरूह ग्रन्थों की रचना की है। उनके वे न्यायग्रन्थ निनम्न हैं-

1. न्याय-निवनिनश्चय,

2. लिसजिद्ध-निवनिनश्चय,

3. प्रमाण-संग्रह,

4. लघीयस्त्रय,

5. देवागम-निववृनित (अष्टर्शती), 6. तत्त्वार्थं�वार्तितHक व उसका भाष्य आदिद।

इनमें तत्त्वार्थं�वार्तितHक व भाष्य तत्त्वार्थं�सूत्र की निवर्शाल, गम्भीर और महत्पूवण� वार्तितHक रूप में व्याख्या है। इसमें अकलंकदेव ने सूत्रकार गृद्धनिपच्छाचाय� का अनुसरण करते हुए लिसद्धांत, दर्श�न और न्याय तीनों का निवर्शद निववेचन

निकया है। निवद्यानन्द ने सम्भवत: इसी कारण 'लिसदे्धवा�त्राकलंकस्य महतो न्यायवेदिदन:*' वचनों द्वारा अकलंक को 'महान्यायवेत्ता'

जन्तिस्टक-न्यायधीर्श कहा है।

आचाय� अजिज*सेन / Acharya Ajitsen ये भी निव0 सं0 18 वीं र्शती के तार्तिकHक हैं। इन्होंने 'परीक्षामुख' पर 'न्यायमभिणदीनिपका' नाम की व्याख्या लिलखी है, जो उसकी पाँचवीं टीका है। इसका उल्लेख चारुकीर्तितH ने 'प्रमेयरत्नालंकार*' में निकया है।

आचाय� अनन्*कीर्कि*W / Acharya Anantkirti इनका समय निव0 सं0 9 वीं र्शती है। इन्होंने 'बृहत्सव�ज्ञलिसजिद्ध' और 'लघुसव�ज्ञलिसजिद्ध' ये दो तक� ग्रन्थ रचे हैं और दोनों ही महत्त्वपूण� हैं। इन दोनों निवद्वत्तापूण� रचनाओं से आचाय� अनन्तकीर्तितH का पाल्लिण्डत्य एवं तक� र्शैली अनुपमेय प्रतीत होती है। इनकी एक रचना 'स्वत: प्रामाण्यभंग' भी है, जो अनुपल� है। इसका उल्लेख अनन्तवीय� (प्रर्थंम) ने निकया है।

आचाय� अर्भायचन्द्र / Acharya Abhaychandra ये निव0 सं0 13 वीं र्शती के तार्तिकHक हैं। इन्होंने अकलंकदेव के तक� ग्रन्थ 'लघीयस्त्रय' पर 'लघीयस्त्रयतात्पय�वृभित्त' नाम की स्पष्टार्थं�बोधक लघुकाय वृभित्त लिलखी

है, जो माभिणकचन्द्र दिद0 जैन ग्रन्थमाला, बम्बई से प्रकालिर्शत हो चुकी है, पर वह अलभ्य है।

उसका एक अच्छा आधुनिनक सम्पादन के सार्थं संस्करण निनकलना चानिहए। इसकी तक� पद्धनित सुगम एवं आकष�क है।

आचाय� अर्भाय�ेव / Acharya Abhaydev अभयदेव ने लिसद्धसेन के 'सन्मनित सूत्र', 'सन्मनिततक� टीका' लिलखी है। इसमें स्याद्वाद और अनेकान्त पर निवस्तृत प्रकार्श डाला गया है। इनका समय ईसा की 12 वीं र्शती है। अभयदेव प्रभाचन्द्र से खू़ब प्रभानिवत हैं और उनकी इस टीका पर प्रभाचन्द्र की उt व्याख्याओं का अमिमट प्रभाव है।

अभिर्भानव धर्म�रू्भाषणयहि* / Abhinav Dharmbhushanyati जैन तार्तिकHकों में ये अमिधक लोकनिप्रय और उल्लेखनीय हैं। इनकीं 'न्यायदीनिपका' एक ऐसी महत्वपूण� एवं यर्शस्वी कृनित है जो न्यायर्शास्त्र में प्रवेर्श करने के लिलए बहुत ही सुगम और

सरल है। न्यायर्शास्त्र के प्रार्थंमिमक अभ्यासी इसी के माध्यम से अकलंकदेव और निवद्यानन्द के दुरूह एवं जदिटल न्यायग्रन्थों में प्रवेर्श

करते हैं। न्याय का ऐसा कोई निवषय नहीं छूटा जिजसका धम�भूषणयनित ने इसमें संके्षपत: और सरल भाषा में प्रनितपादन न निकया हो। प्रमाण, प्रमाण के भेदों, नय और नय के भेदों के अलावा अनेकान्त, सप्तभंगी, वीतरागकर्थंा, निवजिजगीषुकर्थंा जैसे

निवषयों का भी इस छोटी-सी कृनित में समावेर्श कर उनका संक्षेप में निवर्शद निनरूपण निकया है। अनुमान का निववेचन तो ग्रन्थ के बहुभाग में निनबद्ध है और बडे़ सरल ढंग से उसे दिदया है। वास्तव में यह अभिभनव धम�भूषण की प्रनितभा, योग्यता और कुर्शलता की परिरचामियका कृनित है। इनका समय ई॰ 1358 से 1418 है।

आचाय� कुर्मारनजिन्� / Acharya Kumarnandi ये अकलंकदेव के उत्तरवत� और आचाय� निवद्यानन्द के पूव�वत� अर्थंा�त 8 वीं, 9 वीं र्शताब्दी के निवद्वान है। निवद्यानन्द ने इनका और इनके 'वादन्याय' का अपने तत्त्वार्थं�श्लोकवार्तितHक*, प्रमाण-परीक्षा* और पत्र-परीक्षा* में

नामोल्लेख निकया है* तर्थंा उनके इस ग्रन्थ से कुछ प्रासंनिगक कारिरकाए ँउद्धतृ की हैं। एक जगह* तो निवद्यानन्द ने इन्हें बहुसम्मान देते हुए 'वादन्यायनिवचक्षण' भी कहा है। इनका यह 'वादन्याय' ग्रन्थ आज उपल� नहीं है। बौद्ध निवद्वान धम�कीर्तितH* का 'वादन्याय' उपल� है। संभव है कुमारनजिन्द को अपना 'वादन्याय' रचने की प्रेरणा उसी से मिमली हो। दु:ख है निक जैनों ने अपने वाङमय की रक्षा करने में घोर प्रमाद निकया तर्थंा उसकी उपेक्षा की है। आज भी वही ल्लिस्थनित है, जो दुभा�ग्यपूण� है।

आचाय� गृद्धहिपच्छ / Acharya Graddhapichha

आचाय� वीरसेन और आचाय� निवद्यानन्द ने इनका आचाय� गृद्धनिपच्छ नाम से उल्लेख निकया है। दसवीं-11 वीं र्शताब्दी के लिर्शलालेखों तर्थंा इस समय में अर्थंवा उत्तरकाल में रचे गये सानिहत्य में इनके-

1. उमास्वामी और 2. उमास्वानित ये दो नाम भी उपल� हैं।

इनका समय निवक्रम की प्रर्थंम र्शताब्दी है। ये लिसद्धान्त, दर्श�न और न्याय तीनों निवषयों के प्रकाण्ड निवद्वान रे्थं। इनका रचा एकमात्र सूत्रग्रन्थ 'तत्त्वर्थं�सूत्र' है, जिजस पर

1. पूज्यपाद ने सवा�र्थं�लिसजिद्ध,

2. अकलंकदेव ने तत्त्वार्थं�वार्तितHक एवं भाष्य,

3. निवद्यानन्द ने तत्त्वार्थं�श्लोक वार्तितHक एवं भाष्य और 4. श्रुतसागरसूरिर ने तत्त्वार्थं�वृभित्त-ये चार निवर्शाल टीकायें लिलखी हैं।

रे्श्वताम्बर परम्परा में तत्त्वार्थं�भाष्य और लिसद्धसेन गणी की तत्त्वार्थं�व्याख्या- ये दो व्याख्याए ँरची गयी हैं। इसमें लिसद्धान्त, दर्श�न और न्याय की निवर्शद एवं संक्षेप में प्ररूपणा की गयी है*।

उत्तरवत� आचाय@ ने इसका बड़ा महत्त्व घोनिषत करते हुए लिलखा है निक जो इस दस अध्यायों वाले तत्त्वार्थं�सूत्र का एक बार भी पाठ करता है उसे एक उपवास का फल प्राप्त होता है।*

आचाय� चारुकीर्कि*W र्भाट्टारक / Acharya Charukirti bhattarak ये निव0 सं0 की 18 वीं र्शती के तार्तिकHक हैं। इन्होंने माभिणक्यनजिन्द के परीक्षामुख पर बहुत से ही निवर्शद एवं प्रौढ़ व्याख्या 'प्रमेयरत्नालंकार' लिलखी है, जो मैसूर

यूनिनवर्थिसHटी से प्रकालिर्शत है। रचना तक� पूण� है। इसमें नव्यन्याय का भी अनेक स्थलों पर समावेर्श है। चारुकीर्तितH की निवद्वत्ता और पाल्लिण्डत्य दोनों इसमें दृमिष्टगोचर होते हैं। इन्हीं अर्थंवा दूसरे चारुकीर्तितH की 'अर्थं�प्रकालिर्शका' भी है, जो प्रमेयरत्नमाला की संभिक्षप्त व्याख्या है। ये 'पल्लिण्डताचाय�' की उपामिध से निवभूनिषत रे्थं।

आचाय� �ेवनजिन्� पूज्यपा� / Acharya Devanandi Pujyapad आचाय� देवनजिन्द-पूज्यपाद निवक्रम सम्वत की छठीं और ईसा की पाँचवीं र्शती के बहुश्रुत निवद्वान हैं। ये तार्तिकHक, वैयाकरण, कनिव और स्तुनितकार हैं। तत्त्वार्थं�सूत्र पर लिलखी गयी निवर्शद व्याख्या सवा�र्थं�लिसजिद्ध में इनकी दार्श�निनकता और तार्तिकHकता अनेक स्थलों पर उपल�

होती है। इनका एक न्याय-ग्रन्थ 'सार-संग्रह' रहा है, जिजसका उल्लेख आचाय� वीरसेन ने निकया है और उनमें दिदये गये नयलक्षण

को धवला-टीका में उद्धतृ निकया है। जैनेन्द्रव्याकरण, समामिधर्शतक, इष्टोपदेर्श, निनवा�णभलिt आदिद अनेक रचनाए ँभी इन्होंने लिलखी हैं।

आचाय� �ेवसूरिर / Acharya Devsuri देवसूरिर 'वादिद' उपामिध से निवभूनिषत अभिभनिहत हैं। इनके 'प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार' और उसकी व्याख्या 'स्याद्वादरत्नाकर' ये दो तक� ग्रंर्थं प्रलिसद्ध हैं। इन दोनों पर आचाय� माभिणक्यनजिन्द के 'परीक्षामुख' का र्शब्दर्श: और अर्थं�र्श: पूरा प्रभाव है। इसके 6 परिरचे्छद तो 'परीक्षामुख' की तरह ही हैं और अन्तिन्तम दो परिरचे्छद (नयपरिरचे्छद तर्थंा वादपरिरचे्छद) परीक्षामुख

से ज़्यादा हैं। पर उन पर भी परीक्षामुख* के सूत्रों का प्रभाव लभिक्षत होता है।

आचाय� �ेवसेन / Acharya Devsen आचाय� देवसेन ने प्राकृत में नयचक्र लिलखा है। संभव है इसी का उल्लेख आचाय� निवद्यानन्द ने अपने तत्त्वार्थं�श्लोकवार्तितHक* में निकया हो और उससे ही नयों को निवर्शेष

जानने की सूचना की हो। इनका अब्धिस्तत्व समय निव0 सं0 9 वीं र्शती माना जाता है। यह नय-मम�ज्ञ मनीषी रे्थं।

आचाय� नरेन्द्रसेन र्भाट्टारक / Acharya Narendrasen Bhattarak इनका एकमात्र न्याय-ग्रन्थ 'प्रमाणप्रमेयकलिलका' है। इसमें तत्त्व-सामान्य की जिजज्ञासा करते हुए उसके दो भेद-

1. प्रमाणतत्त्व और 2. प्रमेयतत्त्व बतलाकर उनका समीक्षापूव�क निववेचन निकया है।

कृनित सुन्दर और सुगम है। हमारे सम्पादन के सार्थं यह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकालिर्शत हो चुकी है। ग्रन्थकार का समय निव0 सं0 1787 है।

पा4स्वार्मी / Patraswami ये निवक्रम की छठीं, 7 वीं र्शती के जैन नैयामियक हैं। इनका एकमात्र ग्रन्थ 'नित्रलक्षणकदर्थं�न' प्रलिसद्ध है। पर यह अनुपल� है। अकलंकदेव , अनन्तवीय�, वादिदराज आदिद उत्तरकालीन तार्तिकHकों ने इसका उल्लेख निकया है। बौद्ध तार्तिकHक तत्त्वसंग्रहकार र्शान्तरभिक्षत (ई॰ 8 वीं र्शती) ने तो इनके नामोल्लेख के सार्थं इनकी अनेक कारिरकाए ँभी

उद्धतृ की हैं और उनका खण्डन निकया है। सम्भव है ये कारिरकाए ँउनके उसी 'नित्रलक्षणकदर्थं�न' ग्रन्थ की हों।

आचाय� प्रर्भााचन्द्र / Acharya Prabhachandra

प्रभाचन्द्र जैन सानिहत्य में तक� ग्रन्थकार के रूप में सवा�मिधक प्रलिसद्ध हैं। आचाय� माभिणक्यनजिन्द के लिर्शष्य और उन्हीं के परीक्षामुख पर निवर्शालकाय एवं निवस्तृत व्याख्या 'प्रमेयकमलमात्त�ण्ड'

लिलखने वाले ये अनिद्वतीय मनीषी हैं। इन्होंने अकलंकदेव के दुरूह 'लघीयस्त्रय' नाम के न्याय ग्रन्थ पर भी बहुत ही निवर्शद और निवस्तृत टीका लिलखी है,

जिजसका नाम 'न्यायकुमुदचन्द्र' है। न्यायकुमुदचन्द्र वस्तुत: न्याय रूपी कुमुदों को निवकलिसत करने वाला चन्द्र है। इसमें प्रभाचन्द्र ने लघीयस्त्रय की कारिरकाओं, उनकी स्वोपज्ञ वृभित्त और उसके दुरूह पद-वाक्यादिद की निवर्शद व्याख्या तो

की ही है, निकन्तु प्रसंगोपात्त निवनिवध तार्तिकHक चचा�ओं द्वारा अनेक अनुद्घादिटत तथ्यों एवं निवषयों पर भी नया प्रकार्श डाला है।

इसी प्रकार उन्होंने प्रमेयकमलमात्ता�ण्ड में भी अपनी तक� पूण� प्रनितभा का पूरा उपयोग निकया है और परीक्षामुख के प्रत्येक सूत्र व उसके पदों का निवस्तृत एवं निवर्शद व्याख्यान निकया है।

प्रभाचन्द्र के ये दोनों व्याख्यान ग्रन्थ मूल जैसे ही हैं। इनके बाद इन जैसा कोई मौलिलक या व्याख्याग्रन्थ नही लिलखा गया। समन्तभद्र , अकलंक और निवद्यानन्द के बाद प्रभाचन्द्र जैसा कोई जैन तार्तिकHक हुआ दिदखाई नहीं देता। इनका समय ई॰ 1053 है।

आचाय� बृ��नन्*वीय� / Acharya Brihadnantavirya ये निवक्रम संवत 9 वीं र्शती के प्रनितभा सम्पन्न तार्तिकHक हैं। इन्होंने अकलंकदेव के 'लिसजिद्धनिवनिनश्चय' और 'प्रमाणसंग्रह' इन दो न्याय-ग्रन्थों पर निवर्शाल व्याख्याए ँलिलखी हैं। लिसजिद्धनिवनिनश्चय पर लिलखी 'लिसजिद्धनिवनिनश्चयालंकार' व्याख्या उपल� है, परन्तु प्रमाणसंग्रह पर लिलखा 'प्रमाणसंग्रहभाष्य'

अनुपल� है। इसका उल्लेख स्वयं अनन्तवीय� ने 'लिसजिद्धनिवनिनश्चयालंकार' में अनेक स्थलों पर निवर्शेष जानने के लिलए निकया है। इससे उसका महत्त्व जान पड़ता है। अन्वेषकों को इसका पता लगाना चानिहए। इन्होंने अकलंकदेव के पदों का जिजस कुर्शलता और बुजिद्धमत्ता से मम� खोला है उसे देखकर आचाय� वादिदराज* और

प्रभाचन्द्र* कहते हैं निक 'यदिद अनन्तवीय� अकलंक के दुरूह एवं जदिटल पदों का मम®द्घाटन न करते तो उनके गूढ़ पदों का अर्थं� समझने में हम असमर्थं� रहते।

उनके द्वारा निकये गये व्याख्यानों के आधार से ही हम (प्रभाचन्द्र और वादिदराज, क्रमर्श: लघीयस्त्रय की व्याख्या (लघीयस्त्रयालंकार- न्यायकुमुदचन्द्र) एवं न्यायनिवनिनश्चय की टीका (न्यायनिवनिनश्चयालंकार अर्थंवा न्यायनिवनिनश्चय निववरण) लिलख सके हैं।*

आचाय� र्भाावसेन 4ैहिवद्य / Acharya Bhavsen traividh ये निव0 सं0 12 वीं, 13 वीं र्शताब्दी के जैन नैयामियक हैं। इनकी उपल� एकमात्र कृनित 'निवर्श्वतत्त्वप्रकार्श' है। इसका प्रकार्शन जीवराज जैन ग्रन्थमाला, सोलापुर से हो चुका है।

यह बृहद ग्रन्थ महत्त्वपूण� और बोधप्रद है।

आचाय� र्मस्थिbलषेण / Acharya Mallishen इन्होंने हेमचन्द्र की 'अन्ययोगव्यवचे्छदिदका' नाम की द्वाकित्रHर्शनितका पर 'स्याद्वाद मंजरी' लिलखी है। यह निवद्वन्तित्प्रय एवं सरल होने से अनेक निवर्श्वनिवद्यालयों के पाठ्यक्रम में निनधा�रिरत है। मल्लिल्लषेण निवक्रम की 14 वीं र्शती के मनीषी हैं।

आचाय� र्माभिणक्यनजिन्� / Acharya Manikyanandi ये नजिन्दसंघ के प्रमुख आचाय� रे्थं। इनके गुरु रामनजिन्द दादागुरु वृषभनजिन्द और परदादागुरु पद्मनजिन्द रे्थं। इनके कई लिर्शष्य हुए। आद्य निवद्या-लिर्शष्य नयनजिन्द रे्थं, जिजन्होंने 'सुदंसणचरिरउ' एवं 'सयलनिवनिहनिवहान' इन अपभ्रंर्श रचनाओं से अपने को उनका

आद्य निवद्या-लिर्शष्य तर्थंा उन्हें 'पंनिडतचूड़ामभिण' एवं 'महापंनिडत' कहा है। नयनजिन्द* ने अपनी गुरु-लिर्शष्य परम्परा उt दोनों ग्रन्थों की प्रर्शब्धिस्तयों में दी है। इनके तर्थंा अन्य प्रमाणों के अनुसार माभिणक्यनजिन्द का समय ई॰ 1028 अर्थंा�त 11 वीं र्शताब्दी लिसद्ध है। प्रभाचन्द्र * ने न्याय र्शास्त्र इन्हीं माभिणक्यनजिन्द से पढ़ा र्थंा तर्थंा उनके 'परीक्षामुख' पर निवर्शालकाय 'प्रमेयकमलमात्त�ण्ड'

नाम की व्याख्या लिलखी र्थंी, जिजसके अन्त में उन्होंने भी माभिणक्यनजिन्द को अपना गुरु बताया है। माभिणक्यनजिन्द का 'परीक्षामुख' सूत्रबद्ध ग्रन्थ न्यायनिवद्या का प्रवेर्श द्वार है। ख़ास कर अकलंकदेव के जदिटल न्याय-ग्रन्थों में प्रवेर्श करने के लिलए यह निनश्चय ही द्वार है। तात्पय� यह निक अकलंकदेव ने जो अपने कारिरकात्मक न्यायनिवनिनश्चयादिद न्याय ग्रन्थों में दुरूह रूप में जैन न्याय को

निनबद्ध निकया है, उसे गद्य-सूत्रबद्ध करने का शे्रय इन्हीं आचाय� माभिणक्यनजिन्द को है। इन्होंने जैन न्याय को इसमें बड़ी सरल एवं निवषद भाषा में उसी प्रकार ग्रंलिर्थंत निकया है जिजस प्रकार मालाकार माला में

यर्थंायोग्य स्थान पर प्रवाल, रत्न आदिद को गूंर्थंता है। इस पर प्रभाचन्द्र ने 'प्रमेयकमलमात्त�ण्ड', लघुअनन्तवीय� ने 'प्रमेयरत्नमाला', अजिजतसेन ने 'न्यायमभिणदीनिपका',

चारुकीर्तितH नाम के एक या दो निवद्वानों ने 'अर्थं�प्रकालिर्शका' और 'प्रमेयरत्नालंकार' नाम की टीकाए ँलिलखी हैं। इससे इस 'परीक्षामुख' का महत्त्व प्रकट है।

आचाय� यर्शोहिवजय / Acharya Yashovijay ये निव0 सं0 18 वीं र्शती के प्रौढ़ तार्तिकHक और नव्यन्याय र्शैली, दर्श�न र्शास्त्र के महान दार्श�निनक हैं। इन्होंने निनम्न तक� ग्रन्थ रचे हैं-

1. अष्टसहस्री-तात्पय�निववरण,

2. जैन तक� भाषा, 3. न्यायलोक,

4. ज्ञाननिबन्दु,

5. अनेकान्तव्यवस्था,

6. न्यायखण्डनखाद्य,

7. अनेकान्तप्रवेर्श,

8. र्शास्त्रवाता�समुच्चयटीका और 9. गुरुत वनिवनिनश्चय।

आचाय� रत्नप्रर्भासूरिर / Acharya Ratnaprabhsuri इनका समय निव0 सं0 13 वीं र्शती है। इनकी एकमात्र तक� कृनित 'स्याद्वादरत्नाकरावतारिरका' है, जो प्रकालिर्शत है और स्याद्वाद पर अच्छा प्रकार्श डालती है। दर्श�न र्शास्त्र के अंतग�त निवद्वान माने जाते हैं

लघु अनन्*वीय� / Laghu Anantvirya इन्होंने माभिणक्यनजिन्द के परीक्षामुख पर मध्यम परिरमाण की निवर्शद एवं सरल वृभित्त लिलखी है, जिजसे 'प्रमेयरत्नमाला' कहा

जाता है। निवद्यार्थिर्थंHयों और जैन न्याय के निवज्ञासुओं के लिलए यह बड़ी उपयोग एवं बोधप्रद है। इन्होंने परीक्षामुख को अकलंकदेव के दुरुगाह न्यायग्रन्थसमुच्चयरूप समुद्र का मन्थन करके निनकाला गया

'न्यायनिवद्यामृत' बतलाया है। वस्तुत: अनन्तवीय� का यह कर्थंन काल्पनिनक नहीं है। हमने 'परीक्षामुख और उसका उद्गम' र्शीष�क लेख में अनुस�ान पूव�क निवमर्श� निकया है, और यर्थंार्थं� में 'परीक्षामुख'

अकलंक के न्याय-ग्रन्थों का दोहन है। निवद्यानन्द के ग्रन्थों का भी उस पर प्रभाव रहा है। इनका समय निव0 सं0 की 12 वीं र्शती है।

लघु सर्मन्*र्भाद्र / Laghu Samantbhadra इनका समय निव0 सं0 13 वीं र्शती है। इन्होंने निवद्यानन्द की अष्टसहस्री पर एक दिटप्पणी लिलखी है, जो अष्टसहस्री के कदिठन पदों के अर्थं�बोध में सहायक है। इसका नाम 'अष्टसहस्रीनिवषमपदतात्पय�टीका' है। यह स्वतन्त्र रूप से अभी अप्रकालिर्शत है। निकन्तु अष्टसहस्री की पाद-दिटप्पभिणयों में यह प्रकालिर्शत है, जिजनके सहारे से पाठक अष्टसहस्री के उन पदों का अर्थं� कर

लेते हैं, जो ल्लिक्लष्ट और प्रसंगोपात्त हैं।

आचाय� वादि�राज / Acharya Vadiraj ये न्याय, व्याकरण, काव्य आदिद सानिहत्य की अनेक निवद्याओं के पारंगत रे्थं और 'स्याद्वादनिवद्यापनित' कहे जाते रे्थं। ये अपनी इस उपामिध से इतने अभिभन्न रे्थं निक इन्होंने स्वयं और उत्तरवत� ग्रन्थकारों ने इनका इसी उपामिध से उल्लेख निकया

है। इन्होंने अपने पार्श्व�नार्थंचरिरत में उसकी समान्तिप्त का समय ई॰ 1025 दिदया है।

अत: इनका समय ई॰ 1025 है। पार्श्व�नार्थंचरिरत के अनितरिरt इन्होंने न्यायनिवनिनश्चयनिववरण और प्रमाण-निनण�य ये दो न्यायग्रन्थ लिलखे हैं। न्यायनिवनिनश्चयनिववरण अकलंकदेव के न्यायनिवनिनश्चय की निवर्शाल और महत्वपूण� टीका है। प्रमाणनिनण�य इनका मौलिलक तक� ग्रन्थ है। वादिदराज, जो नाम से भी वादिदयों के निवजेता जान पड़ते हैं, अपने समय के महान तार्तिकHक ही नहीं, वैयाकरण,

काव्यकार और अह�द्भt भी रे्थं। 'एकीभावस्तोत्र' के अन्त में बडे़ अभिभमान से कहते हैं निक जिजतने वैयाकरण हैं वे वादिदराज के बाद हैं, जिजतने तार्तिकHक हैं

वे वादिदराज के पीछे हैं तर्थंा जिजतने काव्यकार हैं वे भी उनके पश्चाद्वत� हैं और तो क्या, भालिtक लोग भी भलिt में उनकी बराबरी नहीं कर सकते। यर्थंा-

वादिदराजमनुर्शाखिब्दकलोको वादिदराजमनुतार्तिकHकसिसHह:। वादिदराजमनुकाव्यकृतस्ते वादिदराजमनुभव्यसहाय:॥ -एकीभावस्तोत्र, श्लोक 26)

[संपादि�* करें] सम्बंधिध* लिलWकआचाय� वा�ीर्भालिसW� / Acharya Vadibhsingh

इनके इस नाम से ही ज्ञात होता है निक ये वादिद रूप हालिर्थंयों को पराजिजत करने के लिलए सिसHह के समान रे्थं। इनका जैन दर्श�न और जैन न्याय पर लिलखा ग्रन्थ 'स्याद्वादलिसजिद्ध' है। इसमें स्याद्वाद पर प्रनितवादिदयों द्वारा दिदये गये दूषणों का परिरहार करके उसकी युलिtयों से प्रनितष्ठा की है। इनका समय निवक्रम की 9 वीं र्शती है। इनके रचे 'क्षत्रचूड़ामभिण' (पद्य) और 'गद्यलिचन्तामभिण' (गद्य) ये दो काव्यग्रन्थ भी हैं, जिजनमें भगवान महावीर के काल में

हुए क्षनित्रय मुकुट जीव�र कुमार का पावन चरिरत्र निनबद्ध है। गद्य लिचन्तामभिण नामक ग्रन्थ तो संस्कृत गद्य सानिहत्य का बेजोड़ ग्रन्थ है।

आचाय� हिवद्यानन्� / Acharya Vidhyanand आचाय� निवद्यानन्द उन सारस्वत मनीनिषयों में गणनीय हैं, जिजन्होंने एक-से-एक निवद्वत्तापूण� ग्रन्थों की रचना की हैं। इनका समय ई॰ 775-840 है। इन्होंने अपने समग्र ग्रन्थ प्राय: दर्श�न और न्याय पर ही लिलखे हैं, जो अनिद्वतीय और बडे़ महत्त्व के हैं। ये दो तरह के हैं-

1. टीकात्मक, और 2. स्वतंत्र।

टीकात्मक ग्रन्थ निनम्न हैं-

1. तत्त्वार्थं�श्लोकवार्तितHक (साभाष्य),

2. अष्टसहस्री (देवागमालंकार) और 3. युक्त्यनुर्शासनालंकार।

प्रर्थंम टीका आचाय� गृद्धनिपच्छ के तत्त्वार्थं�सूत्र पर पद्यवार्तितHकों और उनके निवर्शाल भाष्य के रूप में है। निद्वतीय टीका आचाय� समन्तभद्र के देवागम (आप्तमीमांसा) पर गद्य में लिलखी गयी अष्टसहस्री है। ये दोनों टीकाए ँअत्यन्त दुरूह, ल्लिक्लष्ट और प्रमेयबहुल हैं। सार्थं ही गंभीर और निवस्तृत भी हैं। तीसरी टीका स्वामी समन्तभद्र के ही दूसरे तक� ग्रन्थ युक्त्यनुर्शासन पर रची गयी है। यह मध्यम परिरमाण की है और निवर्शद है। इनकी स्वतन्त्र कृनितयाँ निनम्न प्रकार हैं-

1. निवद्यानन्दमहोदय,

2. आप्त-परीक्षा, 3. प्रमाण-परीक्षा, 4. पत्र-परीक्षा, 5. सत्यर्शासन-परीक्षा और 6. श्री पुरपार्श्व�नार्थंस्तोत्र।

इस तरह इनकी 9 कृनितयाँ प्रलिसद्ध हैं। इनमें 'निवद्यानन्द महोदय' को छोड़कर सभी उपल� हैं। सत्यर्शासनपरीक्षा अपूण� है, जिजससे वह निवद्यानन्द की अन्तिन्तम रचना प्रतीत होती है। निवद्यानन्द और उनके व्यलिtत्व एवं कृनितत्व आदिद पर निवस्तृत निवमर्श� इस लेख के लेखक द्वारा लिलखिखत आप्तपरीक्षा की

प्रस्तावना तर्थंा 'जैन दर्श�न और प्रमाणर्शास्त्र परिरर्शीलन*' में निकया गया है। वह दृष्टव्य है।

आचाय� हिवर्मल�ास / Acharya Vimaldas इनकी 'सप्तभंगीतरंनिगणी' नाम की तक� कृनित है, जिजसमें सप्तभंगों का अच्छा निववेचन निकया गया है। यह दर्श�न और न्याय दोनों की प्रनितपादिदका है। इनका समय निव0 की 18 वीं र्शती है।

आचाय� र्शाप्तिन्*वणf / Acharya Shantivarni परीक्षामुख के प्रर्थंम सूत्र पर इन्होंने 'प्रमेयकम्मिण्ठका' नाम की वृभित्त लिलखी है। यह एक न्याय-निवद्या की लघु रचना है और प्रमाण पर इसमें संक्षेप में प्रकार्श डाला गया है। यह वीर सेवा मजिन्दर ट्रस्ट, कार्शी से प्रकालिर्शत हो चुकी है। यह अध्येतव्य है।

श्री�त्त / Shridatt ये छठीं र्शताब्दी के वादिदनिवजेता प्रभावर्शाली तार्तिकHक हैं।

आचाय� निवद्यानन्द ने त वार्थं�श्लोकवानितक* में इन्हें 'नित्रषष्टेवा�दिदनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिनण�ये'- नितरेसठ वादिदयों का निवजेता और 'जल्पनिनण�य' ग्रन्थ का कता� बतलाया है।

'जल्पनिनण�य' एक वाद ग्रन्थ रहा है, जिजसमें दो प्रकार के जल्पों (वादों) का निववेचन निकया गया है। परन्तु यह ग्रन्थ आज उपल� नहीं है।

निवद्यानन्द को सम्भवत: प्राप्त र्थंा और जिजसके आधार से उन्होंने दो प्रकार के वादों (ताब्धित्त्वक एवं प्रान्तिप्तय) का प्रनितपादन निकया है।

आचाय� सर्मन्*र्भाद्र / Acharya Samantbhadra ये आचाय� कुन्दकुन्द के बाद दिदगम्बर परम्परा में जैन दार्श�निनकों में अग्रणी और प्रभावर्शाली तार्तिकHक हुए हैं। उत्तरवत� आचाय@ ने इनका अपने ग्रन्थों में जो गुणगान निकया है वह अभूतपूव� है। इन्हें वीरर्शासन का प्रभावक और सम्प्रसारक कहा है। इनका अब्धिस्तत्व ईसा की 2 सरी 3 सरी र्शती माना जाता है। स्याद्वाददर्श�न और स्याद्वादन्याय के ये आद्य प्रभावक हैं। जैन न्याय का सव�प्रर्थंम निवकास इन्होंने अपनी कृनितयों और र्शास्त्रार्थं@ द्वारा प्रस्तुत निकया है। इनकी निनम्न कृनितयाँ प्रलिसद्ध

हैं-

1. आप्तमीमांसा (देवागम),

2. युक्त्यनुर्शासन,

3. स्वयम्भू स्तोत्र,

4. रत्नकरण्डकश्रावकाचार और 5. जिजनर्शतक।

इनमें आरम्भ की तीन रचनाए ँदार्श�निनक एवं तार्तिकHक एवं तार्तिकHक हैं, चौर्थंी सैद्धान्तिन्तक और पाँचवीं काव्य है। इनकी कुछ रचनाए ँअनुपल� हैं, पर उनके उल्लेख और प्रलिसजिद्ध है। उदाहरण के लिलए इनका 'ग�हब्धिस्त-महाभाष्य'

बहुचर्थिचHत है। जीवलिसजिद्ध प्रमाणपदार्थं�, तत्त्वानुर्शासन और कम�प्राभृत टीका इनके उल्लेख ग्रन्थान्तरों में मिमलते हैं। पं॰ जुगलनिकर्शोर मुख्तार ने इन ग्रन्थों का अपनी 'स्वामी समन्तभद्र' पुस्तक में उल्लेख करके र्शोधपूण� परिरचय दिदया है।

आचाय� धिसद्धसेन / Acharya Siddhasen आचाय� लिसद्धसेन बहुत प्रभावक तार्तिकHक हुए हैं। इन्हें दिदगम्बर और र्श्वेताम्बर दोनों परम्परायें मानती हैं। इनका समय निव॰ सं॰ 4 र्थंी-5 वीं र्शती माना जाता है। इनकी महत्त्वपूण� रचना 'सन्मनित' अर्थंवा 'सन्मनितसूत्र' है। इसमें सांख्य, योग आदिद सभी वादों की चचा� और उनका समन्वय बडे़ तक� पूण� ढंग से निकया गया है। इन्होंने ज्ञान व दर्श�न के युगपद्वाद और क्रमवाद के स्थान में अभेदवाद की युलिtपूव�क लिसजिद्ध की है, यह उल्लेखनीय है।

इसके अनितरिरt ग्रन्थान्त में मिमथ्यादर्श�नों (एकान्तवादों) के समूह को 'अमृतसार', 'भगवान', 'जिजनवचन' जैसे निवरे्शषणों के सार्थं उल्लिल्लखिखत करके उसे 'भद्र'- सबका कल्याणकारी कहा है।*

उन्होंने सापेक्ष (एकान्तों) के समूह को भद्र कहा है, निनरपेक्ष (एकान्तों के समूह को नहीं, क्योंनिक जैन दर्श�न में निनरपेक्षता को मिमथ्यात्व और सापेक्षता को सम्यक् कहा गया है तर्थंा सापेक्षता ही वस्तु का स्वरूप है, और वह ही अर्थं�निक्रयाकारी है।

आचाय� समन्तभद्र ने भी, जो उनके पूव�वत� हैं, आप्तमीमांसा* में यही प्रनितपादन निकया है।

धिसद्धसेन हिद्व*ीय / Siddhasen 2nd इनका समय 9 वीं र्शती माना जाता है। इन्होंने न्यायर्शास्त्र का एकमात्र 'न्यायावतार' ग्रन्थ लिलखा है, जिजसमें जैन न्यायनिवद्या का 32 कारिरकाओं में सांगोपांग

निनरूपण निकया है। इनकी रची कुछ द्वाकित्रHर्शनितकाए ँभी हैं जिजनमें तीर्थं�कर की स्तुनित के बहाने जैन दर्श�न और जैन न्याय का भी दिदग्दर्श�न

निकया गया है।

आचाय� �रिरर्भाद्र / Acharya Haribhadra आचाय� हरिरभद्र निव0 सं0 8 वीं र्शती के निवश्रुत दार्श�निनक एवं नैयामियक हैं। इन्होंने-

1. अनेकान्तजयपताका, 2. अनेकान्तवादप्रवेर्श,

3. र्शास्त्रवाता�समुच्चय,

4. षड्दर्श�नसमुच्चय आदिद 5. जैनन्याय के ग्रन्थ रचे हैं।

यद्यनिप इनका कोई स्वतंत्र न्याय का ग्रन्थ उपल� नहीं है। निकन्तु उनके इन दर्श�न ग्रंर्थंों में न्याय की भी चचा� हमें मिमलती है। उनका षड्दर्श�न-समुच्चय तो ऐसा दर्श�न ग्रन्थ है, जिजसमें भारतीय प्राचीन छहों दर्श�नों का निववेचन सरल और निवर्शद रूप

में निकया गया है, तर्थंा जैन दर्श�न को अच्छी तरह स्पष्ट निकया गया है। इसके द्वारा जैनेतर निवद्वानों को जैनदर्श�न का सही आकलन हो जाता है।

आचाय� �ेर्मचन्द्र / Acharya Hemchandra ये दर्श�न, न्याय, व्याकरण, सानिहत्य, लिसद्धान्त और योग इन सभी निवषयों के प्रखर निवद्वान रे्थं। इनका न्याय-ग्रन्थ 'प्रमाण-मीमांसा' निवरे्शष प्रलिसद्ध है। इसके सूत्र और उनकी स्वोपज्ञ टीका दोनों ही सुन्दर और बोधप्रद हैं। न्याय के प्रार्थंमिमक अभ्यासी के लिलए परीक्षामुख और न्यायदीनिपका की तरह इसका भी अभ्यास उपयोगी है। ये ई॰ 1089-1173 र्शती के निवद्वान माने जाते हैं।

जैनश्रुत के 12 वें अंग दृमिष्टवाद में जैन दर्श�न और न्याय के उद्गम बीज प्रचुर मात्रा में उपल� हैं।

आचाय� भूतबली और पुष्पदन्त द्वारा निनबद्ध 'षट्खंडागम'* में, जो दृमिष्टवाद अंग का ही अंर्श है, 'लिसया पज्जत्ता', 'लिसया अपज्जता', 'मणुस अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवनिडया', 'अखंखेज्जा*'जैसे 'लिसया' (स्यात्) र्शब्द और प्रश्नोत्तरी र्शैली को लिलए प्रचुर वाक्य पाए जाते हैं।

'षट्खंडागम' के आधार से रलिचत आचाय� कुन्दकुन्द के 'पंचाब्धिस्तकाय', 'प्रवचनसार' आदिद आष� ग्रन्थों में भी उनके कुछ और अमिधक उद्गमबीज मिमलते हैं।* 'लिसय अब्धित्थणब्धित्थ उहयं','जम्हा' जैसे युलिt प्रवण वाक्यों एवं र्शब्द प्रयोगों द्वारा उनमें प्रश्नोत्तर पूव�क निवषयों को दृढ़ निकया गया है।

रे्श्वताम्बर परम्परा में मान्य* आगमों में भी जैन दर्श�न और जैन न्याय के बीज मिमलते हैं। उनमें अनेक जगह से केणटे्ठणं र्भां*े एवर्मुच्चई जीवाणं, र्भां*े किकW सासया असासया? गोयर्मा। जीवा धिसय सासया धिसय असासया। गोयर्मा। �व्वट्ठयाए सासया र्भावट्ठयाए असासया। जैसे तक� गभ� प्रश्नोत्तर प्राप्त होते हैं।

'लिसया' या 'लिसय' प्राकृत र्शब्द हैं, जो संस्कृत के 'स्यात्' र्शब्द के पया�यवाची है। और करं्थंलिचदर्थं�बोधक हैं तर्थंा स्याद्वाददर्श�न एवं स्याद्वादन्याय के प्रदर्श�क हैं। द्वादर्शांग में अन्तिन्तम दृमिष्टवाद अंग का जो स्वरूप दिदया गया है, उसमें बतलाया गया है।* निक जिजसमें निवनिवध दृमिष्टयों-वादिदयों की मान्यताओं का प्ररूपण और उनकी समीक्षा है वह दृमिष्टवाद है। यह समीक्षा हेतुओं एवं युलिtयों के निबना संभव नहीं है।

इससे स्पष्ट जान पड़ता है निक जैन दर्श�न और जैन न्याय का उदृगम दृमिष्टवाद-अंगश्रुत से हुआ है। जैन मनीषी यर्शोनिवजय* ने भी लिलखा है निक 'स्याद्वादार्थं@ दृमिष्टवादाण�वोत्थ:' अर्थंा�त् स्याद्वादार्थं�-जैन दर्श�न और जैन न्याय

दृमिष्टवादरूप अण�व (समुद्र) से उत्पन्न हुए हैं। यहाँ यर्शोनिवजय ने दृमिष्टवाद को अण�व (समुद्र) बतलाकर उसकी निवर्शालता, गंभीरता और महत्ता को प्रकट निकया है तर्थंा स्याद्वाद का उद्भव उससे प्रनितपादिदत निकया है। यर्थंार्थं� में स्याद्वाददर्श�न और स्याद्वादन्याय ही जैन दर्श�न एवं जैनन्याय हैं।

आचाय� समन्तभद्र ने सभी तीर्थं�करों को 'स्याद्वादी' कहकर उनके उपदेर्श को बहुत स्पष्ट रूप में स्याद्वाद-न्याय, जिजसमें दर्श�न भी अंतभू�त है, बतलाया है।* उनके उत्तरवत� अकलंकदेव* तो कहते हैं निक ऋषभ से लेकर महावीर पय�न्त सभी तीर्थं�कर स्याद्वादी-स्याद्वाद के उपदेर्शक हैं। आचाय� समन्तभद्र, अकलंक, यर्शोनिवजय के लिसवाय लिसद्धसेन*, निवद्यानंद* और हरिरभद्र जैसे दार्श�निनकों एवं तार्तिकHकों ने भी स्याद्वाददर्श�न और स्याद्वाद नयाय को जैन दर्श�न और जैन न्याय प्रनितपादिदत निकया है। यह संभव है निक वैदिदक और बौद्ध दर्श�नों एवं न्यायों का निवकास जैन दर्श�न और जैन न्याय के निवकास में पे्ररक हुआ हो तर्थंा उनकी क्रमिमक र्शास्त्र रचना जैन दर्श�न और जैन न्याय की क्रमिमक र्शास्त्ररचना में बलप्रद हुई हो। समकालीनों में ऐसा आदान-प्रदान या पे्ररणा-ग्रहण स्वाभानिवक है, जिजसे नकारा नहीं जा सकता।

हिवकास काल की दृमिष्ट से उनके निवकास को तीन कालखंडों में निवभt निकया जा सकता है और उन कालखंडों के नाम निनम्न

प्रकार रखे जा सकते हैं :-

1. आदिदकाल अर्थंवा समन्तभद्र-काल (ई॰ 200 से ई॰ 650)। 2. मध्यकाल अर्थंवा अकलंक-काल (ई॰ 650 से ई॰ 1050)। 3. उत्तरमध्ययुग (अन्त्यकाल) अर्थंवा प्रभाचन्द्र-काल (ई॰ 1050 से 1700)। 4. आदि�काल अथवा सर्मन्*र्भाद्र-काल

जैन दर्श�न के निवकास का आरम्भ यों तो आचाय� कुन्दकुन्द* से उपल� होने लगता है। उनके पंचाब्धिस्तकाय, प्रवचनसार आदिद प्राकृत ग्रन्थों में दर्श�न के बीज प्राप्त हैं। भगवती सूत्र*, स्थानांगसूत्र* आदिद अनेक स्थल में भी दर्श�न की चचा�यें मिमलती* हैं। गृद्धनिपच्छ के तत्त्वार्थं�सूत्र* में, जो जैन संस्कृत वाङमय का आद्यसूत्र ग्रन्थ है, लिसद्धान्त के सार्थं दर्श�न और न्याय का भी अच्छा प्ररूपण है।

आचाय� समन्तभद्रस्वामी ने उस आरम्भ को आगे बढ़ाया और बहुत स्पष्ट निकया है। उनकी उपल� पांच कृनितयों में चार कृनितयाँ हैं सो तीर्थं�करों के स्तवनरूप में होने पर भी उनमें दर्श�न और न्याय के प्रचुर उपकरण पाये जाते हैं, जो प्राय: उनसे पूव� अप्राप्य हैं। उन्होंने इनमें एकान्तवादों का निनराकरण करके अनेकान्त और स्याद्वाद की प्रस्थापना की है। उनकी वे चार कृनितयाँ हैं- #आप्तमीमांसा (देवागम),

1. युक्त्यनुर्शासन,

2. स्वयम्भू और देवनजिन्द पूज्यपाद 3. जिजनर्शतक।

इनमें उन्होंने स्याद्वाद और सप्रभङ्गनय का सुन्दर एवं प्रौढ़ संस्कृत में प्रनितपादन निकया है, जो उस प्राचीन जैन संस्कृत-वाङमय में पहली बार मिमलता है। प्रतीत होता है निक समन्तभद्र ने भारतीय दार्श�निनक एवं तार्तिकHक के्षत्र में जैन दर्श�न और जैन न्याय के युग प्रवत�क का काय� निकया है। उनसे पूव� जैन संस्कृनित के प्राणभूत 'स्याद्वाद' को प्राय: आगम रूप ही प्राप्त र्थंा और उसका आगमिमक निवषयों के निनरूपण में ही उपयोग निकया जाता र्थंा तर्थंा सीधी-सादी एवं सरल निववेचना की जाती र्थंी। जैसा निक हम 'लिसया', 'लिसय' के सन्दभ� में पहले देख आये हैं। उसके समर्थं�न में निवर्शेष युलिtवाद की आवश्यकता नहीं समझी जाती र्थंी। परन्तु समन्तभद्र के काल में उसकी आवश्यकता बढ़ गई, क्योंनिक ई॰ 2 री, 3 री र्शताब्दी का समय भारतवष� के दार्श�निनक इनितहास में अपूव� क्रांनित का र्थंा। इस समय निवभिभन्न दर्श�नों में अनेक प्रभावर्शाली दार्श�निनक हुए हैं।

यद्यनिप महावीर और बुद्ध के अकिहHसापूण� उपदेर्शों से यज्ञप्रधान वैदिदक परम्परा का प्रभाव बहुत क्षीण हो गया र्थंा और श्रमण- जैन तर्थंा बौद्ध परम्परा का, जो अकिहHसा, तप, त्याग और ध्यान पर बल देती र्थंी, प्रभाव प्राय: सव�त्र फैल गया र्थंा। निकन्तु कुछ र्शताखिब्दयों के पश्चात वैदिदक संस्कृनित का पुन: प्रभाव बढ़ गया और वैदिदक निवद्वानों द्वारा श्रमण-परम्परा के उt अकिहHसादिद लिसद्धांतों की आलोचना एवं खंडन आरंभ हो गया र्थंा। फलत: बौद्ध परम्परा में अर्श्वघोष, मातृचेट , नागाजु�न, बसुकिबHदु आदिद निवद्वानों तर्थंा जैन परम्परा में कुन्दकुन्द, गृद्धनिपच्छ, प्रभृनित मनीनिषयों का उद्भव हुआ। इन्होंने अपने लिसद्धांतों का संपोषण, प्रनितष्ठापन करने के सार्थं ही वैदिदक निवद्वानों की आलोचनां का उत्तर भी दिदया तर्थंा उनके किहHसापूण� निक्रयाकांड का खंडन निकया। बाद को वैदिदक परम्परा में कणाद, जमैिमनिन, अक्षपाद, वादरायण आदिद महा-उद्योगी प्राज्ञ हुए और उन्होंने अपने लिसद्धांतों का समर्थं�न तर्थंा श्रमण निवद्वानों के खंडन-मंडन का जवाब दिदया।

यद्यनिप वैदिदक परम्परा वैरे्शनिषक, मीमांसा, न्याय, वेदान्त, सांख्य आदिद अनेक र्शाखाओं में निवभाजिजत र्थंी और उनके भी परस्पर खंडन-मंडन आलोचन-प्रत्यालोचन चलता र्थंा। निकन्तु श्रमणों और श्रमण लिसद्धान्तों के निवरुद्ध (खण्डन में) सब एक रे्थं और सभी अपने लिसद्धान्तों का आधार प्राय: वेद को मानते रे्थं। इसी दार्श�निनक उठापटक में ईर्श्वर-कृष्ण, निवन्ध्यवासी, वात्स्यायन, असंग, वसुब�ु आदिद निवद्वान दोनों परम्पराओं में आनिवभू�त हुए और उन्होंने स्वपक्ष के समर्थं�न एवं परपक्ष के खंडन के लिलए अनेक र्शास्त्रों की रचना की। इस तरह वह समय सभी दर्श�नों का अखाड़ा बन गया र्थंा। सभी दार्श�निनक एक दूसरे को परास्त करने में लगे रे्थं। इस सबका आभास इस काल के रचे एवं उपल� दार्श�निनक सानिहत्य से होता है।

�ार्श�हिनक जग* को आचाय� सर्मन्*र्भाद्र का अव�ान

इसी समय जैन परम्परा में दभिक्षण भारत में महामनीषी समन्तभद्र का उदय हुआ, जो उनकी उपल� कृनितयों से प्रनितभार्शाली और तेजस्वी पांनिडत्य से युt प्रतीत होते हैं। उन्होंने उt दार्श�निनकों के संघष� को देखा और अनुभव निकया निक परस्पर के आग्रह से वास्तनिवक तत्त्व लुप्त हो रहा है। सभी दार्श�निनक अपने अपने पक्षाग्रह के अनुसार तत्त्व का प्रनितपादन करते हैं। कोई तत्त्व को मात्र भाव अब्धिस्तत्वरूप, कोई अभाव नाब्धिस्तत्वरूप, कोई अदै्वत एकरूप, कोई दै्वत अनेकरूप, कोई अपृर्थंक् अभेदरूप आदिद मान रहा है। जो तत्व वस्तु का एक-एक अंर्श है, उसका समग्र नहीं है। इस सबकी झलक हमें उनकी 'आप्तमीमांसा' में मिमलती है। उसमें उन्होंने इन सभी एकान्त मान्यताओं को प्रस्तुत कर स्याद्वाद से उनका समन्वय कर उन सभी को स्वीकार निकया है।

भाव*वादी का मत र्थंा* निक तत्त्व*भावरूप ही है, अभावरूप नहीं- 'सव� सव�त्र निवद्यते'- सब सब जगह है। न प्रागभाव है, न प्रध्वंसाभाव है, न अन्योन्याभाव है, न अत्यंताभाव है।

इसके निवपरीत*वादी का कर्थंन*र्थंा निक अभावरूप ही तत्त्व है। रू्शन्य के लिसवाय कुछ नहीं है। न प्रमाण है और न प्रमेय है।

अदै्वतवादी प्रनितपादन करता र्थंा* निक तत्त्व एक ही है, अनेक का प्रनितभास माया निवजबृ्धिम्भत अर्थंवा अनिवद्योपकल्लिल्पत है। अदै्वतवादी भी एक नहीं रे्थं, वे भिभन्न भिभन्न रूप में त व का प्ररूपण करते रे्थं। कोई एक मात्र ब्रह्म का कर्थंन करते रे्थं। कोई मात्र ज्ञान का, कोई मात्र बाह्यार्थं� का और कोई र्शब्दमात्र का निनरूपण करते रे्थं।

दै्वतवादी* इसका निवरोध करके तत्त्व को दै्वत (अनेक) बतलाते रे्थं। वैर्शेनिषक तत्त्व को सात पदार्थं� (द्रव्य, गुण, कम�, सामान्य, निवरे्शष, समवाय, अभाव) रूप, नैयामियक 16 पदार्थं� (प्रमाण, प्रमेय, संर्शय, प्रयोजन, दृष्टान्त, लिसद्धान्त, अवयव, तक� , निनण�य, वाद, जल्प, निवतण्डा, हेत्वाभास, छल, जानित और निनग्रह स्थान) रूप, सांख्य 25 (पुरुष, प्रकृनित, महान, अहंकार, 16 का गण, 5 ज्ञानेजिन्द्रय, 5 कम�जिन्द्रय, 1 मत, 5 तन्मात्राए ंतर्थंा इन 5 तन्मात्राओं से उत्पन्न 5 भूत -1. आकार्श, 2. वायु, 3. अखिग्न, 4. जल, 5. पृथ्वी) रूप कहते रे्थं।

अनिनत्यवादी* कहते रे्थं निक वस्तु प्रनित समय नष्ट हो रही है, कोई भी ल्लिस्थर नहीं है। अन्यर्थंा जन्म, मरण, निवनार्श, अभाव, परिरवत�न आदिद नहीं हो सकते, जो स्पष्ट दिदखाई देते हैं और बतलाते हैं निक वस्तु अनिनत्य है, निनत्य नहीं है।

निनत्यवादी का कहना र्थंा* निक यदिद वस्तु अनिनत्य होता तो उसके नार्श हो जाने पर यह संपूण� जगत और वस्तुए ंनिफर दिदखाई नहीं देतीं। एक व्यलिt, जो बाल्य, युवा और वाध�क्य में अन्वयरूप से निवद्यमान रहता है, स्थायी नहीं रह सकता। अत: वस्तु निनत्य है।

इस तरह भेद-अभेदवाद, अपेक्षा-अनपेक्षावाद, हेतु-अहेतुवाद, देव-पुरुषार्थं�वाद आदिद एक-एक वाद (पक्ष) को माना जाता र्थंा और परस्पर में संघष� होता र्थंा।*

यद्यनिप श्रमण और श्रमणेतरों के वादों की चचा� जैन परम्परा के दृमिष्टवाद एवं भगवती सूत्र* और सूत्रकृतांग* में तर्थंा बौद्ध परम्परा के नित्रनिपटकों* में भी उपल� होती है। निकन्तु वह उतने प्रबल रूप में नहीं हैं, जिजतने सर्शt रूप में समन्तभद्र के काल में वह उभरकर आई। इसी से समन्तभद्र ने इन प्रचलिलत वादों का स्पष्ट और कुछ निवस्तार से कर्थंन करते हुए उन वादों में दोष प्रदर्थिर्शHत निकये तर्थंा उन सभी को स्याद्वाद द्वारा स्वीकार निकया। उन्होंने निकसी के पक्ष को मिमथ्या बतलाकर नितरस्कृत नहीं निकया। अनिपतु उन्हें वस्तु का अपना एक-एक अंर्श बताया, क्योंनिक वस्तु अनंतधमा� है।* जो उसके जिजस धम� को देखेगा वही धम� उसे उस समय दिदखाई देगा, ऐसी ल्लिस्थनित में द्रष्टा को यह निववेक रखना आवश्यक है निक वह वस्तु को उतना ही न मान बैठे। निववभिक्षत धम� की अपेक्षा उसका दर्श�न और कर्थंन सही होने पर भी अनिववभिक्षत, निकन्तु निवद्यमान अन्य धम@ की अस्वीकृनित होने से वह मिमथ्या है अत: एक-एक अंर्श को मिमथ्या नहीं कहा जा सकता। मिमथ्या तभी है जब वह इतर का नितरस्कार करता है*।

आचाय� समन्तभद्र ने निवपक्ष के सभी उt निवरोधी पक्ष-युगनों में स्याद्वाद द्वारा सप्तभंगी (सप्तवाक्यनय) की निवर्शद योजना करके उनके आपसी संघष@ को जहाँ र्शमन करने की दृमिष्ट प्रदान की वहाँ उन्होंने को जहाँ र्शमन करने की दृमिष्ट प्रदान की वहाँ उन्होंने पक्षाग्रहरू्शन्य निवचार-सरभिणकी समन्वयवादी दृमिष्ट भी प्रस्तुत की। यही दृमिष्ट स्याद्वाद है, जो परम्परा से उन्हें प्राप्त र्थंी। स्याद्वाद में सभी पक्षों (वादों) का समादर एवं समावेर्श है। एकान्त दृमिष्टयों (एकान्तवादों) में अपनी-अपनी ही मान्यता का आग्रह होने से उनमें अन्य (निवरोधी) पक्षों का न समादर है और न समावेर्श है।

समन्तभद्र की यह अनोखी, निकन्तु सही अकिहHसक दृमिष्ट भारतीय दार्श�निनकों, निवरे्शषकर उत्तरवत� जैन दार्श�निनकों के लिलए माग�दर्श�न लिसद्ध हुई। लिसद्धसेन, श्रीदत्त, पात्रस्वामी, अकलंकदेव, हरिरभद्र, निवद्यानन्द, वादीभसिसHह आदिद तार्तिकHकों ने उनका पूरा अनुगमन निकया है। सम्भवत: इसी कारण उन्हें इस कलिल युग में स्याद्वादतीर्थं�प्रभावक*, स्याद्वादाग्रणी* आदिद रूप में स्मरण निकया गया है और श्रद्धापूव�क उनका गुणगान निकया गया है।

समन्तभद्र से पूव� आगमों में स्याद्वाद और सप्तभङगी का निनद�र्श अवश्य मिमलता है। निकन्तु वह बहुत कम और आगमिमक निवषयों के निनरूपण में है। पर उन दोनों का जिजतना निवर्शद, निवस्तृत और व्यावहारिरक प्रनितपादन समन्तभद्र की कृनितयों में* उपल� है, उतना उनसे पूव� नहीं है। समन्तभद्र ने स्याद्वाद द्वारा सप्तभंगनयों (सात उत्तर वाक्यों) से 44 अनेकान्तरूप वस्तु की व्यवस्था का निवधान निकया और उस निवधान को व्यावहारिरक भी बनाया।* उदाहरण के लिलए हम उनके आप्तमीमांसागत भाववाद और अभाववाद के समन्वय को यहाँ प्रस्तुत करते हैं।* इन्हें सप्तभंगी नय व्यवस्था भी कहते हैं। यहाँ सप्तभंगी की दार्थिर्शHनक निववेचना प्रस्तुत है—

स्या�स्तिस्*स्यात् (करं्थंलिचत्) वस्तु भावरूप ही है, क्योंनिक वह स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव से वैसी ही प्रतीत होती है। यदिद उसे परद्रव्य, परके्षत्र, परकाल और परभाव से भी भावरूप माना जाये, तो 'न' का व्यवहार अर्थंा�त अभाव का व्यवहार कहीं भी नहीं हो सकेगा। फलत: प्रागभाव के अभाव हो जाने पर वस्तु अनादिद (अनुत्पन्न) प्रध्वंसाभाव के अभाव में अनन्त (निवनार्शका अभावर्शार्श्वत निवद्यमान), अन्योन्याभाव के अभाव में सब सबरूप (परस्पर भेद का अभाव) और अत्यन्ताभाव के अभाव में स्वरूप रनिहत (अपने-अपने प्रानितब्धिस्वक् रूप की हानिन) रूप हो जायेगी। जब निक वस्तु उत्पन्न होती है, नष्ट होती है, परस्पर भिभन्न रहती है और अपने-अपने स्वरूप को लिलए हुए है। अत: वस्तु स्वरूपचतुष्टय की अपेक्षा से भावरूप ही है।स्या*् नास्तिस्*स्यात् (करं्थंलिचत्) वस्तु अभावरूप ही है, क्योंनिक वह परद्रव्य, परके्षत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा से वैसा ही अवगत होती है। यदिद उसे सव�र्थंा (स्व और पर दोनों से) अभावरूप ही स्वीकार निकया जाये, तो निवमिध (सद्भाव) रूप में होनेवाले ज्ञान और वचन वे समस्त व्यवहार लुप्त हो जाएगें और उस ल्लिस्थनित में समस्त जगत् अ� (ज्ञान के अभाव में अज्ञानी) तर्थंा मूक (वचन के अभाव में गँूगा) हो जायेगा, क्योंनिक (रू्शन्य) वाद में न ज्ञेय है, न उसे जानने वाला ज्ञान है, न अभिभधेय है और न उसे कहने वाला वचन है। ये सभी (चारों) भाव (सद्भाव) रूप हैं। इस तरह वस्तु को सव�र्थंा अभाव (रू्शन्य) मानने पर न ज्ञान-ज्ञेय का और न वाच्य-वाचक का व्यवहार हो सकेगा- कोई व्यवस्था नहीं हो सकेगी। अत: वस्तु पर चतुष्टय से अभावरूप ही है।स्या�स्तिस्*-नास्तिस्*वस्तु करं्थंलिचत् उभयरूप ही है, क्योंनिक क्रमर्श: दोनों निववक्षाए ंहोती हैं। ये दोनों निववक्षाए ंतभी संभव हैं जब वस्तु करं्थंलिचत दोनों रूप हो। अन्यर्थंा वे दोनों निववक्षाए ंक्रमर्श: भी संभव नहीं है।

स्या*् अवक्तव्यवस्तु करं्थंलिचत् अवtव्य ही है, क्योंनिक दोनों को एक सार्थं कहा नहीं जा सकता। एक बार में उच्चरिरत एक र्शब्द एक ही अर्थं� (वस्तु धम�-भाव या अभाव) का बोध कराता है, अत: एक सार्थं दोनों निववक्षाओं के होने पर वस्तु को कह न सकने से वह अवtव्य ही है। इन चार भंगों को दिदखलाकर वचन की र्शक्यता और अर्शक्यता के आधार पर समन्तभद्र ने अपुनरुt तीन भंग और बतलाकर सप्तभंगी संयोजिजत की है। वे तीन भंग ये है*स्या*् अस्तिस्* अवक्तव्य अर्थंा�त् वस्तु करं्थंलिचत् भाव और अवtव्य ही है।स्या*् नास्तिस्* अवक्तव्य अर्थंा�त् वस्तु करं्थंलिचत् अभाव और अवtव्य ही है।स्या*् अस्तिस्* च नास्तिस्* च अवक्तव्य अर्थंा�त् वस्तु करं्थंलिचत भाव, अभाव और अवtव्य ही है।

इन 7 से ही वस्तु की सही-सही व्यवस्था होती है। वास्तव में ये सात भंग सात उत्तरवाक्य* हैं। जो प्रश्नकता� के सात प्रश्नों के उत्तर हैं। उसके सात प्रश्नों का कारण उसकी सात जिजज्ञासायें हैं, उन सात जिजज्ञासाओं का कारण उसके सात संदेह हैं और उन सात संदेहों का भी कारण वस्तुनिनष्ठ सात धम� (1. सत्, 2. असत, 3. उभय, 4. अवtव्यत्व, 5. सत्वtव्यत्व, 6. असत्वtव्यत्व और 7. सत्वासत्वावtव्यत्व) हैं। ये सात धम� वस्तु में स्वभावत: हैं, और स्वभाव में तक� नही होता।*

इस तरह समन्तभद्र ने भाव और अभाव के पक्षों में होनेवाले आग्रह को समाप्त कर दोनों को सम्यक बतलाया तर्थंा उन्हें वस्तु के अपने वास्तनिवक धम� निनरूनिपत निकया।

इसी प्रकार उन्होंने दै्वत-अदै्वत (एकानेक), निनत्य-अनिनत्य भेद-अभेद-अपेक्षा-अनपेक्षा, हेतुवाद-अहेतुवाद, पुण्य-पाप आदिद युगलों के एक-एक पक्ष को लेकर होने वाले वादिदयों के निववाद को समाप्त करते हुए दोनों को सत्य बतलाया। दोनों को ही वस्तुधम� निनरूनिपत निकया। उन्होंने युलिtपूव�क कहा* निक वस्तु को सव�र्थंा अदै्वत (एक) मानने पर निक्रया-कारक का भेद, पुण्य-पाप का भेद, लोक-परलोक का भेद, बंध-मोक्ष का भेद, स्त्री-पुरुष का भेद आदिद लोक प्रलिसद्ध अनेकत्व का व्यवहार नहीं बन सकेगा, जो यर्थंार्थं� है, मिमथ्या नहीं है। इसी तरह वस्तु को सव�र्थंा अनेक स्वीकार करने पर कता� ही फल भोtा होता है और जिजसे बंध होता है उसे ही मोक्ष (बंध से छूटना) होता है, आदिद व्यवस्था भी नहीं बन सकेगी। इसी प्रकार वस्तु को सव�र्थंा उभय, सव�र्थंा अवtव्य मानने पर भी लोक व्यवस्था समाप्त हो जाएगी। अत: वस्तु करं्थंलिचत एक ही है क्योंनिक उसका सभी गुणों और पया�यों में अन्वय (एकत्व) पाया जाता है। वस्तु करं्थंलिचत् अनेक ही है क्योंनिक वह उन गुणों और पया�यों से अनिवष्कभूत है। आगे यहाँ भी भाव और अभाव की तरह अदै्वत और दै्वत में तीसरे आदिद 5 भंगों की और योजना करके सप्तभंगनय से वस्तु को समन्तभद्र ने अनेकान्त लिसद्ध निकया है।

निनत्य-अनिनत्य आदिद एकान्त मान्यताओं में भी सप्तभंगी पद्धनित से समन्वय निकया है। उन सभी को वास्तनिवक बतलाकर वस्तु को निनत्य अनिनत्य की अपेक्षा अनेकान्तात्मक प्रकट निकया

है।* उन्होंने सयुलिtक प्रनितपादन निकया है निक अपने निवरोधी के निनषेधक 'सव�र्थंा' (एकान्त) के आग्रह को छोड़कर उस (निवरोधी) के संग्राहक 'स्यात्' (करं्थंलिचत) के वचन से तत्त्व का निनरूपण करना चानिहए। इस प्रकार के निनरूपण अर्थंवा स्वीकार में वस्तु और उसके सभी धम� सुरभिक्षत रहते हैं। एक-एक पक्ष तो सत्यांर्शों को ही निनरूनिपत या स्वीकार करते हैं, संपूण� सत्य को नहीं। संपूण� सत्य का निनरूपण तो तभी संभव है जब सभी पक्षों को आदर दिदया जाए, उनका लोप, नितरस्कार, निनषेध या उपेक्षा (अस्वीकार) न निकया जाए। समन्तभद्र ने* स्पष्ट घोषणा की निक 'निनरपेक्ष इतर नितरस्कार पक्ष सम्यक नहीं है, सापेक्ष-इतर संग्राहक पक्ष ही सम्यक (सत्य प्रनितपादक) है।

श्रवणवेलगोला के लिर्शलालेखों और उत्तरवत� ग्रन्थकारों के समुल्लेखों आदिद से अवगत होता है निक समन्तभिभद्र ने अपने समय में प्रचलिलत एकांतवादों का स्याद्वाद द्वारा अपनी कृनितयों में ही समन्वय नहीं निकया, अनिपतु भारत के पूव�, पभिश्चम, दभिक्षण और उत्तर के सभी देर्शों तर्थंा नगरों में पदयात्रा करके वादिदयों से र्शास्त्रार्थं� भी निकये और उन एकान्तवादों के निववाद भी स्याद्वाद से समाप्त निकये। उदाहरण के लिलए श्रवणवेलगोला का एक लिर्शलालेख नं0 54 यहाँ दे रहे हैं*:-

पूव� पाटलिलपुत्रमध्यनगरे भेरी मया तानिडतापश्चान्मालव-लिसधु ठक्कनिवषये कांचीपुरे वैदिदर्शे।प्राप्तोहं करहाटकं बहुभटं निवद्योत्कटं संकटंवादार्थं� निवचराम्यहं नरपते र्शादू�लनिवक्रीनिडतम्॥

इस पद्य मं समन्तभद्र अपना परिरचय देते हुए कहते हैं निक राजन्! मैंने सबसे पहले पाटलिलपुत्र (पटना) नगर में भेरी बजाई, उसके बाद मालव, लिस�ु ठक्क (पंजाब) देर्श, कांचीपुर (कांजीवरम) और वैदिदर्श (निवदिदर्शा) में बाद के लिलए वादिदयों का आहूत निकया और अब करहाटक (कोल्हापुर) में, जहाँ निवद्याभिभमानी बहुत वादिदयों का गढ़ है, सिसHह की तरह वाद के लिलए निवचरता हुआ आया हँू।'

वादार्थं� के अनितरिरt वे एक अन्य पद्य में अपना और भी निवरे्शष परिरचय देते हुए कहते हैं*:-

आचाय®ऽहं र्शृणु कनिवरहं वादिदराट् पंनिडतोऽहंदैवज्ञोऽहं जिजन भिभषगहं मान्तिन्त्रकस्तांनित्रकोऽहम्।राजन्नस्यां जलमिधवलयामेखलायामिमलाया-माज्ञालिसद्ध: निकमिमनित बहुना लिसद्धसारस्वतोऽहम्॥

यह परिरचय भी समन्तभद्र ने वाद के लिलए आयोजिजत निकसी राजसभा में दिदया है और कहा है निक 'हे राजन्! मैं आचाय� हूँ, मैं कनिव हूँ, मैं वादिदराट् हूँ, मैं पंनिडत हूँ, मैं देवज्ञ हूँ, मैं भिभषग् हूँ, मैं मांनित्रक हूँ, मैं तांनित्रक हूँ, और तो क्या मैं इस समुद्रवलया पृथ्वी पर आज्ञालिसद्ध हूँ- जो आदेर्श दँू वही होता है तर्थंा लिसद्ध सारस्वत भी हूँ- सरस्वती मुझे लिसद्ध हैं।'

समन्तभद्र ने एकान्तवादों को तोड़ा नहीं, जोड़ा है और वस्तु को अनेकान्तस्वरूप लिसद्ध निकया है।* सार्थं ही प्रमाण का लक्षण*, उसके भेद, प्रमाण का निवषय*, प्रमाण के फल की व्यवस्था*, नयलक्षण* सप्तभंगी की समस्त वस्तुओं में योजना*, अनेकान्त में भी अनेकान्त का प्रनितपादन*, हेतुलक्षण* वस्तु का स्वरूप*, स्याद्वाद की संस्थापना*, सव�ज्ञ की लिसजिद्ध* आदिद जैन दर्श�न एवं जैन न्याय के आवश्यक अंगों एवं निवषयों का भी प्रनितपादन निकया, जो उनके पूव� प्राय: उपल� नहीं होता अर्थंवा बहुत कम प्राप्त होता है। अतएव यह काल जैन दर्श�न और जैन न्याय के निवकास का आदिदकाल है और इस काल को 'समन्तभद्रकाल' कहा जा सकता है, जैसा निक उपरिरनिनर्दिदHष्ट उनकी उपलब्धि�यों से अवगत होता है। निन:संदेह जैन दर्श�न और जैन न्याय के लिलए निकया गया उनका यह महाप्रयास है।

समन्तभद्र के इस काय� को उनके उत्तरवत� श्रीदत्त, पूज्यपाद देवनजिन्द, लिसद्धसेन, मल्लवादी, सुमनित, पात्रस्वामी आदिद दार्श�निनकों एवं तार्तिकHकों ने अपनी महत्वपूण� रचनाओं द्वारा अग्रसारिरत निकया। श्रीदत्त ने जो 63 वादिदयों के निवजेता रे्थं*, जल्प-निनण�य, पूज्यपाद देवनंदिद ने*, सार-संग्रह, सवा�र्थं�लिसजिद्ध, लिसद्धसेन ने सन्मनित, मल्लवादी ने द्वादर्शारनयचक्र, सुमनितदेव ने सन्मनितटीका और पात्रस्वामी ने नित्रलक्षणकदर्श�न जैसी तार्तिकHक कृनितयों को रचा है। दुभा�ग्य से जल्पनिनण�य, सारसंग्रह, सन्मनित टीका और नित्रलक्षणकदर्श�न आज उपल� नहीं है, केवल उनके ग्रंर्थंों में तर्थंा लिर्शलालेखों में उल्लेख

पाए जाते हैं। लिसद्धसेन का सन्मनित तक� और मल्लवादी का द्वादर्शारनयचक्र उपल� हैं, जो समंतभद्र की कृनितयों के आभारी हैं।

इस काल में और भी दर्श�न एवं न्याय के गं्रर्थं रचे गये होंगे, और जो आज हमें उपल� नहीं हैं। बौद्ध, वैदिदक और जैन र्शास्त्र भंडारों का अभी पूरी तरह अन्वेषण नहीं हुआ। अन्वेषण होने पर कोई ग्रंर्थं उनमें उपल� हो जाए, यह संभव है। पहले अश्रुत एवं दुल�भ 'लिसजिद्धनिवनिनश्चय', 'प्रमाण-संग्रह', जैसे अनेक गं्रर्थं कुछ दर्शक पूव� प्राप्त हुए और अब वे भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकालिर्शत हो चुके हैं। जैन साधुओं में धम� और दर्श�न के गं्रर्थंों को रचने की प्रवृभित्त रहती र्थंी। बौद्ध दार्श�निनक र्शांतरभिक्षत* और उनके साक्षात लिर्शष्य कमलर्शील ने* क्रमर्श: तत्वसंग्रह तर्थंा उसकी टीका में जैन तार्तिकHकों के तक� गं्रर्थंों के उद्धरण प्रस्तुत करके उनकी निवस्तृत आलोचना की है। परन्तु वे ग्रंर्थं आज उपल� नहीं हैं।* इस तरह हम देखते हैं निक इस आदिदकाल अर्थंवा समंतभद्रकाल* में जैन दर्श�न और जैन न्याय की एक योग्य एवं उत्तम भूमिमका बन चुकी र्थंी।

र्मध्यकाल अथवा अकलंक-काल यह काल ई॰ सन 650 से ई॰ सन् 1050 तक माना जाता है। इस काल के आरंभ में उt भूमिमका पर जैन दर्श�न और

जैन न्याय का उत्तुंग एवं सवा�गपूण� महान प्रासाद जिजस कुर्शल एवं तीक्ष्णबुजिद्ध तार्तिकHक-लिर्शल्पी ने खड़ा निकया वह है सूक्ष्म प्रज्ञ-अकलंकदेव।

अकलंकदेव के काल में भी आचाय� समंतभद्र से अमिधक दार्श�निनक मुठभेड़ र्थंी। एक ओर र्शब्दादै्वतवादी भतृ�हरिर, प्रलिसद्ध मीमांसक कुमारिरल, न्यायनिनष्णात नैयामियक उद्योतकर आदिद वैदिदक निवद्वान जहाँ अपने-अपने पक्षों पर आरूढ़ रे्थं, वहीं दूसरी ओर धम�कीर्तितH, उनके तक� पटु लिर्शष्य एवं समर्थं� व्याख्याकार प्रज्ञाकर, धम®त्तर, कण�कगोमिम जैसे बौद्ध मनीषी भी अपनी मान्यताओं पर आग्रहबद्ध रे्थं। र्शास्त्रार्थं@ और र्शास्त्रों के निनमा�ण की पराकाष्ठा र्थंी। प्रत्येक दार्श�निनक का प्रयत्न र्थंा निक जिजस निकसी तरह वह अपने पक्ष को लिसद्ध करे और परपक्ष का निनराकरण कर अपनी निवजय प्राप्त करे। इसके अनितरिरt परपक्ष को असदप््रकारों से नितरस्कृत एवं पराजिजत निकया जाता है। निवरोधी को 'पर्शु', 'अह्नीक', 'जड़मनित' जैसे अभद्र र्शब्दों का प्रयोग तो सामान्य र्थंा। यह काल जहाँ तक� के निवकास का मध्याह्न माना जाता है वहाँ इस काल में दर्श�न और न्याय का बड़ा उपहास भी हुआ है। तत्त्व के संरक्षण के लिलए छल, जानित, निनग्रहस्थान जैसे असद साधनों का खुलकर प्रयोग करना और उन्हें स्वपक्षलिसजिद्ध का साधन एवं र्शास्त्रार्थं� का अंग मानना इस काल की देन बन गई र्थंी।* क्षभिणकवाद, नैरात्मवाद, रू्शन्यवाद, र्शब्दादै्वत-ब्रह्मादै्वत, निवज्ञानादै्वत आदिद वादों का पुरजोर समर्थं�न इस काल में निकया गया और कट्टरता से निवपक्ष का निनरास निकया गया। सूक्ष्मदृमिष्ट अकलंक इस समग्र ल्लिस्थनित का अध्ययन निकया तर्थंा सभी दर्श�नों का गहरा एवं सूक्ष्म अभ्यास निकया। तत्कालीन लिर्शक्षा केन्द्रों- कांची, नालन्दा आदिद निवर्श्वनिवद्यालयों में प्रछन्न वेष में तत्त्वत्शास्त्रों का अध्ययन निकया।

समन्तभद्र द्वारा पुन: स्थानिपत स्याद्वाद और अनेकान्त को ठीक तरह से न समझने के कारण दिदङ्नाग, धम�कीर्तितH आदिद बौद्ध निवद्वानों तर्थंा उद्योतकर, कुमारिरल आदिद वैदिदक मनीनिषयों ने अपनी एकान्त दृमिष्ट का समर्थं�न करते हुए स्याद्वाद और अनेकान्त की समीक्षा की अकलंक ने उनका उत्तर देने के लिलए महाप्रयास करके दो अपूव� काय� निकए।

1. एक तो स्याद्वाद और अनेकान्त पर निवपक्ष द्वारा निकए गए आके्षपों का सबल जवाब दिदया।*

2. दूसरा काय� उन्होंने जैन दर्श�न और जैन न्याय के चार महत्त्वपूण� ग्रन्थों का सृजन निकया, जिजनमें उन्होंने न केवल अनेकान्त और स्याद्वाद पर निकए गए आके्षपों का उत्तर दिदया, अनिपतु उन सभी एकान्तपक्षों में दूषण भी प्रदर्थिर्शHत निकए तर्थंा उनका अनेकान्त दृमिष्ट से समन्वय भी निकया। उनके वे दोनों काय� इस प्रकार हैं-

3. दूषणोद्धारआप्तमीमांसा में समन्तभद्र ने आप्त की सव�ज्ञता और उनके उपदेर्श-स्याद्वाद (श्रुत) की सहेतुक लिसजिद्ध की है।* दोनों में साक्षात (प्रत्यक्ष) और असाक्षात (परोक्ष) का भेद बतलाते हुए उन्होंने दोनों को सव�तत्त्वप्रकार्शक कहा है*। आप्त (अरहंत) और उनके उपदेर्श (स्याद्वाद) दोनों का महत्त्वपूण� स्थान है। उनमें अन्तर इतना ही है निक जहाँ आप्त वtा है वहाँ स्याद्वाद उनका वचन है। यदिद वtा प्रमाण है तो उसका वचन भी प्रमाण माना जाता है। आप्तमीमांसा में 'अह�त्' को युलिtपुरस्सर आज्ञा-लिसद्ध निकया है। वचन ही में से वह भी प्रमाण है।

मीमांसक कुमारिरल को यह सह्य नहीं हुआ, क्योंनिक वे निकसी पुरुष को सव�ज्ञ स्वीकार नहीं करते। अतएव समन्तभद्र द्वारा मान्य 'अह�त्' की सव�ज्ञता पर कुमारिरल आपभित्त करते हुए कहते हैं*:-

एवं यै: केवलज्ञानमिमजिन्द्रयाधनपेभिक्षण:। सूक्ष्मातीतादिदनिवषयं जीवस्य परिरकल्लिल्पतम्। नत� तदागमाल्लित्सदे्ध्यन्न च तेनागमो निवना॥

'जो सूक्ष्म तर्थंा अतीत आदिद निवषयक अतीजिन्द्रय केवलज्ञान जीव (पुरुष) के माना जाता है। वह आगम के निबना लिसद्ध नहीं होता और आगम उसके निबना संभव नहीं, इस प्रकार दोनों में अन्योन्याश्रय दोष होने से न अह�त् सव�ज्ञ हो सकता है और न उनका आगम (स्याद्वाद) ही लिसद्ध हो सकता है।' यह 'अह�त्' की सव�ज्ञता और उनके स्याद्वाद पर कुमारिरल का एक सार्थं आके्षप है। समन्तभद्र के उत्तरवत� जैन तार्तिकHक आचाय� अकलंक ने कुमारिरल के इस आके्षप का जवाब देते हुए कहा हैं*:-

एवं यत्केवलज्ञानमनुमाननिवजबृ्धिम्भतम्।नत� तदागमात् लिसदे्ध्यन्न च तेन निवनाऽऽगम:। सत्यमर्थं�बलादेव पुरुषानितर्शयो मत:। प्रभव: पौरुषेयोऽस्य प्रब�ेऽनादिदरिरष्यते॥

'यह सत्य है निक अनुमान द्वारा लिसद्ध केवलज्ञान (सव�ज्ञता) आगम के निबना और आगम केवलज्ञान के निबना लिसद्ध नहीं होता, तर्थंानिप उनमें अन्योन्याश्रय नहीं है, क्योंनिक पुरुषानितर्शय (केवलज्ञान) को अर्थं�बल (प्रतीनितवर्श) से माना जाता है। दोनों (केवलज्ञान और आगम) का प्रब� (प्रवाह) बीजांकुर प्रब� की तरह अनादिद माना गया है। अत: उनमें अन्योन्याश्रय है। अतएव 'अह�त्' की सव�ज्ञता और उनका उपदेर्श स्याद्वाद दोनों ही युtलिसद्ध हैं।'

समन्तभद्र ने जो अनुमान* से सव�ज्ञता (केवलज्ञान) की लिसजिद्ध की है और जिजसका कुमारिरल ने उt प्रकार से आपभित्त उठाकर खण्डन निकया है, अकलंकदेव ने उसी का बहुत निवर्शदता के सार्थं सहेतुक उत्तर दिदया है तर्थंा सव�ज्ञता (केवलज्ञान) और आगम (स्याद्वाद) में बीजांकुर सन्तनित की तरह अनादिद प्रवाह बतलाया है।

बौद्ध तार्तिकHक धम�कीर्तितH ने भी स्याद्वाद पर निनम्न प्रकार से आके्षप निकया है*:-

एतेनैव यत्कित्कHलिचदयुtमश्लीलमाकुलम्।प्रलपन्तिन्त प्रनितभिक्षप्तं तदप्येकान्तसम्भवात्॥

'कनिपल मत के खण्डन से ही अयुt, अश्लील और आकुल जो 'किकHलिचत्' (स्यात्) का प्रलाप है वह खल्लिण्डत हो जाता है, क्योंनिक वह भी एकान्त सम्भव है।' यहाँ धम�कीर्तितH ने स्पष्टतया समन्तभद्र के 'सव�र्थंा एकान्त के त्यागपूव�क किकHलिचत् के निवधानरूप' स्याद्वाद लक्षण* का खण्डन निकया है। समन्तभद्र से पूव� जैन दर्श�न में स्याद्वाद का इस प्रकार से लक्षण उपल� नहीं होता। उनके पूव�वत� आचाय� कुन्दकुन्द ने सप्तभंगों के नाम तो दिदये हैं परन्तु स्याद्वाद की उन्होंने कोई परिरभाषा अंनिकत नहीं की। यहाँ धम�कीर्तितH द्वारा खण्डन में प्रयुt 'तदप्येकान्त सम्भवात्' पद भी ध्यान देने योग्य है, जिजससे ध्वनिनत होता है निक उनके समक्ष सव�र्थंा एकान्त के त्याग रूप स्याद्वाद की वह मान्यता रही है, जो 'किकHलिचत्', 'कर्थंालिचत्' के निवधान द्वारा व्यt की जाती र्थंी, उसी का खण्डन धम�कीर्तितH ने 'तदप्येकान्तसम्भवात्'- वह भी एकान्त संभव है जैसे र्शब्दों द्वारा निकया है। धम�कीर्तितH के इस आके्षप का उत्तर समन्तभद्र के उत्तरवत� अकलंकदेव ने निनम्न प्रकार दिदया:-

ज्ञात्वा निवज्ञन्तिप्तमातं्र परमनिप च बनिहभा�लिसभावप्रवादं,चके्र लोकानुरोधान् पुनरनिप सकलं नेनित तत्त्वं प्रपेदे। न ज्ञाता तस्य तब्धिस्मन् न च फलमपरं ज्ञायते नानिप किकHलिचत्,इत्यश्लीलं प्रमत्त: प्रलपनित जडधीराकुलं व्याकुलाप्त:॥

'कोई बौद्ध निवज्ञन्तिप्तमात्र तत्त्वको* मानते हैं, कोई बाह्य पदार्थं� के सद्भाव को स्वीकार करते हैं तर्थंा कोई इन दोनों को लोकदृमिष्ट से अंगीकार करते हैं और कोई कहते हैं निक न बाह्य तत्त्व है, न आभ्यन्तर तत्त्व है, न उनको जानने वाला है और न उसका अन्य फल है, ऐसा निवरुद्ध प्रलाप करते हैं, उन्हें अश्लील, उन्मत्त, जड़बुजिद्ध, आकुल और आकुलताओं से व्याप्त कहा जाना चानिहए।' अकलंक ने स्याद्वाद पर निकये गये धम�कीर्तितH के आके्षप का 'सेर को सवा सेर' जैसा सबल उत्तर दिदया है।

एक दूसरी जगह 'अनेकान्त' (स्याद्वाद के वाच्य) पर भी धम�कीर्तितH उपहास पूव�क आके्षप करते हैं*:-

सव�स्ययरूपत्वे तनिद्वरे्शषनिनराकृते:। चोदिदतो दमिध खादेनित निकमुषं्ट्र नाभिभधावनित॥

'यदिद सब पदार्थं� उभय रूप – अनेकान्तात्मक हैं, तो उनमें कुछ भेद न होने से निकसी को 'दही खा' कहने पर वह ऊँट को खाने के लिलए क्यों नहीं दौड़ता।' यहाँ धम�कीर्तितH ने जिजस उपहास एवं व्यंग्य के सार्थं अनेकान्त की खिखल्ली उड़ाई है, अकलंकदेव ने भी उसी उपहास के सार्थं धम�कीर्तितH को उत्तर दिदया है*:-

दध्युष्ट्रादेरभेदत्व- प्रसंगादेकचोदनम्। पूव�पक्षमनिवज्ञाय दूषकोनिप निवदूषक:॥सुगतोऽनिप मृगो जातो मृगोऽनिप सुगत: स्मृत:। तर्थंानिप सुगतो बन्द्यो मृग: खाद्यो यरे्थंष्यते॥तर्थंा वस्तुबलादेव भेदाभेदव्यवल्लिस्थते:।चोदिदतो दमिध खादेनित निकमुष्ट्रमभिभधावनित॥

'दही और ऊँट को एक बतलाकर दोष' देना धम�कीर्तितH का पूव�पक्ष (अनेकान्त) को न समझना है और वे दूषक (दूषण प्रदर्श�क) होकर भी निवदूषक-दूषक नहीं, उपहास के ही पात्र हैं, क्योंनिक सुगत भी पूव� पया�य में मृग रे्थं और वह मृग भी सुगत हुआ, निफर भी सुगत वंदनीय और मृग भक्षणीय कहा गया है और इस तरह सुगत एवं मृग में पया�यभेद से जिजस प्रकार क्रमर्श: वंदनीय एवं भक्षणीय की भेद-व्यवस्था तर्थंा एकलिचत्तसंतान की अपेक्षा से उनमें अभेद व्यवस्था की जाती है, उसी प्रकार वस्तुबल (प्रतीनितवर्श) से सभी पदार्थं@ में भेद और अभेद दोनों की व्यवस्था है। अत: निकसी को 'दही खा' कहने पर वह ऊँट को खाने के लिलए क्यों दौडे़गा, क्योंनिक सत् सामान्य की अपेक्षा उसे उनमें अभेद होने पर भी पया�य (पृर्थंक्-पृर्थंक् प्रत्यय के निवषय) की अपेक्षा से उनमें स्पष्टतया भेद है। संज्ञा-भेद भी है। एक का नाम दही है और दूसरे का नाम ऊँट है, तब जिजसे दही खाने को कहा वह दही ही खायेगा, ऊँट को नहीं, क्योंनिक दही भक्षणीय है, ऊँट भक्षणीय नहीं। जैसे सुगत वन्दनीय एवं मृग भक्षणीय है। यही वस्तु-व्यवस्था है। भेदाभेद (अनेकान्त) तो वस्तु का स्वरूप है, उसका अपलाप नहीं निकया जा सकता।

यहाँ अकलंक ने धम�कीर्तितH के आक्षेप का र्शालीन उपहासपूव�क, निकन्तु चुभने वाला करारा उत्तर दिदया है। यह निवदिदत है निक बौद्ध परम्परा में आप्त रूप से मान्य सुगत पूव�जन्म में मृग रे्थं, उस समय वे मांसभभिक्षयों के भक्ष्य रे्थं। निकन्तु जब वही पूण� पया�य का मृग मरकर सुगत हुआ तो वह वंदनीय हो गया। इस प्रकार एकलिचत्त संतान की अपेक्षा उनमें अभेद है और मृग तर्थंा सुगत इन दो पूवा�पर अवस्थाओं की दृमिष्ट से उनमें भेद है। इसी तरह जगत की प्रत्येक वस्तु प्रत्यक्षदृष्ट भेदाभेद (अनेकान्त) को लिलए हुए है। कोई वस्तु इस स्याद्वाद मुद्राकिकHत अनेकान्त की अवहेलना नहीं कर सकती। इस तरह अकलंकदेव ने निवभिभन्न वादिदयों द्वारा स्याद्वाद और अनेकान्त पर आरोनिपत दूषणो का सयुलिtक परिरहार निकया।

नव हिनर्मा�ण आचाय� अकलंकदेव का दूसरा महत्त्वपूण� काय� यह है निक जैन दर्श�न और जैन न्याय के जिजन आवश्यक तत्त्वों का निवकास

और प्रनितष्ठा उनके समय तक नहीं हो सकी र्थंी, उनका उन्होंने निवकास एवं प्रनितष्ठा की। इसके हेतु उन्होंने दर्श�न और न्याय के निनम्न चार महत्त्वपूण� ग्रन्थों का प्रणयन निकया*-

1. न्याय-निवनिनश्चय (स्वोपज्ञवृभित्त सनिहत)

2. लिसजिद्ध-निवनिनश्चय (स्वोपज्ञवृभित्त सनिहत)

3. प्रमाण-संग्रह (स्वोपज्ञवृभित्त सनिहत)

4. लघीयस्त्रय (स्वोपज्ञवृभित्त समन्तिन्वत)

बौद्ध परम्परा में धम�कीर्तितH ने बौद्धदर्श�न और बौद्धन्याय को प्रमाणवार्तितHक एवं प्रमाणनिवनिनश्चय जैसे कारिरकात्मक ग्रन्थों के रूप में निनबद्ध निकया है उसी तरह अकलंकदेव ने भी ये चारों ग्रन्थ कारिरकात्मक रूप में रचे हैं। न्याय-निवनिनश्चय में 430, लिसजिद्धनिवनिनश्चय में 367, प्रमाणसंग्रह में 87 और लघीयस्त्रय में 78 कारिरकाए ंहैं चारों गं्रर्थंों की कुल कारिरकाए ं962 हैं। प्रत्येक कारिरका सूत्रात्मक, बहर्थं�गभ� और गम्भीर है। चारों ग्रन्थ अत्यन्त ल्लिक्लष्ट और दुरूह हैं। इन चारों पर उनकी स्वोपज्ञवृभित्तयों के अलावा वैदुष्यपूण� व्याख्याए ंभी लिलखी गयी हैं।

न्यायनिवनिनश्चय ग्रन्थ पर स्याद्वादनिवद्यापनित आचाय� वादिदराज* ने न्यायनिवनिनश्चयालंकार अपरनाम न्यायनिवनिनश्चयनिववरण, लिसजिद्धनिवनिनश्चय पर तार्तिकHकलिर्शरोमभिण आचाय� बृहदनन्तवीय�* ने लिसजिद्धनिवनिनश्चयालंकार तर्थंा इन्होंने ही प्रमाणसंग्रह पर प्रमाण संग्रहभाष्य और आचाय� माभिणक्यनजिन्द* के लिर्शष्य आचाय� प्रभाचन्द्र* ने लघीयस्त्रय पर लघीयस्त्रयालंकार अपरनाम न्यायकुमुदचन्द्र नाम की निवस्तृत एवं प्रौढ़ टीकाए ंलिलखी हैं। इनमें प्रमाण संग्रहभाष्य अनुपल� है। र्शेष तीनों टीकाए ंउपल� हैं और अपने मूल के सार्थं प्रकालिर्शत हैं। प्रमाण संग्रहभाष्य का उल्लेख स्वयं अनन्तवीय� ने लिसजिद्धनिवनिनश्चयालंकार में अनेक स्थलों पर निकया है।* इससे प्रतीत होता है निक वह अमिधक निवस्तृत एवं महत्त्वपूण� व्याख्या रही है।

अकलंकदेव ने इन चारों तक� ग्रन्थों में अन्य दार्श�निनकों की एकान्त मान्यताओं और लिसद्धान्तों की कड़ी तर्थंा मम�स्पर्श� समीक्षा की है। जैन दर्श�न में मान्य प्रमाण, नय और निनके्षप के स्वरूप, उनके भेद, निवषय तर्थंा प्रमाणफल का निववेचन इनमें निवर्शदतया निकया है। इसके अनितरिरt जैन दृमिष्ट से निकये गये प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष दो भेदों, प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिरक और मुख्य- इन दो प्रकारों की प्रनितष्ठा, परोक्ष प्रमाण के स्मृनित, प्रत्यभिभज्ञान, तक� , अनुमान और आगम- इन पांच भेदों में उपमान, अर्थंा�पभित्त, संभव, अभाव आदिद अन्य दार्श�निनकों द्वारा स्वीकृत प्रमाणों का अंतभा�व, सव�ज्ञ की निवनिवध युलिtयों से निवर्शेष लिसजिद्ध, अनुमान के साध्य-साधन अंगों के लक्षण और भेदों का निवस्तृत निनरूपण, कारण हेतु, पूव�चर, उत्तरचर, सहचर आदिद अनिनवाय� नये हेतओं की प्रनितष्ठा, अन्यर्थंानुपपभित्त के अभाव से एक अकिकHलिचत्कर हेत्वाभास का स्वीकार और उसके भेद रूप से अलिसद्धादिद हेत्वाभासों का प्रनितपादन, जय-पराजय व्यवस्था, दृष्टान्त, धम�, वाद, जानित और निनग्रहस्थान के स्वरूप आदिद का निकतना ही नया प्रनितष्ठापन करके जैन दर्श�न और जैन न्याय को अकलंकदेव ने न केवल समृद्ध एवं परिरपुष्ट निकया, अनिपतु उन्हें भारतीय दर्श�नों एवं न्यायों में वह प्रनितमिष्ठत एवं गौरवपूण� स्थान दिदलाया, जो बौद्ध दर्श�न और बौद्ध न्याय को धम�कीर्तितH ने दिदलाया। अत: अकलंक को जैन दर्श�न और जैन न्याय के मध्यकाल का प्रनितष्ठाता और इसीलिलये उनके इस काल को 'अकलंककाल' कहा जा सकता है।

अकलंकदेव ने जैन दर्श�न और जैन न्याय को जो दिदर्शा दी और उनका जो निनधा�रण निकया उसी का अनुगमन उत्तरवत� प्राय: सभी जैन दार्श�निनकों एवं नैयामियकों ने निकया है। हरिरभद्र, वीरसेन, कुमारनंदिद, निवद्यानंद, अनंतवीय�प्रर्थंम, वादिदराज, माभिणक्यनंदिद आदिद मध्ययुगीन जैन तार्तिकHकों ने उनके काय� को आगे बढ़ाया और उसे यर्शस्वी एवं प्रभावपूण� बनाया। उनके गंभीर एवं सूत्रात्मक निनरूपण और सिचHतन को इन तार्तिकHकों ने अपने ग्रंर्थंों में सुनिवस्तृत, सुपुष्ट और सुप्रसारिरत करके बहुत महत्त्व दिदया। हरिरभद्र की अनेकांतजयपताका, र्शास्त्रवाता�समुच्चय, वीरसेन की लिसद्धान्त एवं तक� बहुला ध्वला-जय-धवलाटीकाए,ँ वादन्यायनिवचक्षण, कुमारनंदिद का वादन्याय*, निवद्यानंद के आचाय� निवद्यानंद महोदय[1], तत्त्वार्थं�श्लोकवार्तितHक, अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यर्शासनपरीक्षा, युक्त्यनुर्शासनालंकार, अनंतवीय� प्रर्थंम की लिसजिद्धनिवनिनश्चय टीका व प्रमाणसंग्रहभाष्य, वादिदराज के न्याय-निवनिनश्चय निववरण, प्रमाण-निनण�य और माभिणक्यनंदिद का परीक्षामुख (आद्य जैन न्यायसूत्र), अकलंक के वाङमय से पूण�तया प्रभानिवत एवं उसके आभारी तर्थंा उल्लेखनीय दार्श�निनक एवं तार्तिकHक रचनाए ंहैं, जिजन्हें अकलंककाल (मध्यकाल) की महत्त्वपूण� देन कहा जा सकता है।

अन्त्यकाल (र्मध्य-उत्तरव*f) अथवा प्रर्भााचन्द्रकाल यह काल जैन दर्श�न और जैन न्याय के निवकास का अंनितम काल कहा जाता है। इस काल में मौलिलक गं्रन्थों के निनमा�ण की

क्षमता कम हो गई और व्याख्या ग्रंर्थंों का निनमा�ण मुख्यतया हुआ। यह काल तार्तिकHक ग्रंर्थंों के सफल और प्रभावर्शाली व्याख्याकार जैन-तार्तिकHक प्रभाचन्द्र से आरंभ होता है। उन्होंने इस काल में अपने पूव�वत� जैन दार्श�निनकों एवं तार्तिकHकों का अनुगमन करते हुए जैन दर्श�न और जैन न्याय के गं्रर्थंों पर जो निवर्शालकाय व्याख्या ग्रंर्थं लिलखे हैं वे अतुलनीय हैं। उत्तरकाल में उन जैसे व्याख्या गं्रर्थं नहीं लिलखे गए। अतएव इस काल को प्रभाचन्द्रकाल कहा गया है। प्रभाचन्द्र ने अकलंकदेव के लघीयस्त्रय पर लघीयस्त्रयालंकार अपरनाम न्यायकुमुदचन्द्र व्याख्या लिलखी है।

न्यायकुमुदचन्द्र वस्तुत: न्याय रूपी कुमुदों को निवकलिसत करने वाला चन्द्र है। इसमें प्रभाचन्द्र ने अकलंक के लघीयस्त्रय की कारिरकाओं और उसकी स्वोपज्ञवृभित्त तर्थंा उनके दुरूह पदवाक्यादिदकों की निवर्शद एवं निवस्तृत व्याख्या तो की ही है, निकन्तु प्रसंगोपात्त निवनिवध तार्तिकHक चचा�ओं द्वारा अनेक अनुद्घादिटत तथ्यों एवं निवषयों पर भी नया प्रकार्श डाला र्थंा। इसी तरह उन्होंने अकलंक के वाङमय-मंर्थंन से प्रसूत माभिणक्यनंदिद के आद्य जैन न्यायसूत्र परीक्षामुख पर, जिजसे 'न्यायनिवद्यामृत' कहा गया है* परीक्षामुखालंकार अपरनाम प्रमेयकमलमात�ण्ड नाम की प्रमेयबहुला एवं तक� गभा� व्याख्या रची है। इसमें भी प्रमाचन्द्र ने अपनी तक� पूण� प्रनितभा का पूरा उपयोग निकया है। परीक्षामुख के प्रत्येक सूत्र का निवस्तृत एवं निवर्शद व्याख्यान निकया है। इसके सार्थं ही अनेक रं्शकाओं का सयुलिtक समाधान प्रस्तुत निकया है। मनीनिषयों को यह

व्याखा ग्रन्थ इतना निप्रय है निक वे जैन दर्श�न और जैन न्याय संबमिधत प्रश्नों के समाधान के लिलए इसे बड़ी रूलिच से पढ़ते हैं और अपने समाधान प्राप्त कर लेते हैं। वस्तुत: प्रभाचन्द्र के ये दोनों व्याख्या ग्रन्थ मूल जैसे ही हैं, जो उनकी तक� णा और यर्श को प्रसृत करते हैं।*

आचाय� प्रभाचन्द्र के कुछ ही काल बाद अभयदेव ने लिसद्धसेन के सन्मनितसूत्र पर निवस्तृत सन्मनिततक� टीका लिलखी है। यह टीका अनेकान्त और स्याद्वाद पर निवर्शेष प्रकार्श डालती है। देवसूरिर का स्याद्वादरत्नाकर अपरनाम प्रमाण नयतत्त्वालोकालंकार टीका भी उल्लेखनीय है। ये दोनों व्याख्याए ँप्रभाचन्द्र की उपयु�t दोनों व्याख्याओं से प्रभानिवत एवं उनकी आभारी है। प्रभाचन्द्र की तक� पद्धनित और र्शैली इन दोनों में परिरलभिक्षत है।

इन व्याख्याओं के लिसवाय इस काल में लघु अनंतवीय� ने परीक्षामुख पर मध्यम परिरणाम की परीक्षामुखवृभित्त अपरनाम प्रमेयरत्नमाला की रचना की है। यह वृभित्त मूलसूत्रों का तो व्याख्यान करती ही है, सृमिष्टकत्ता� जैसे वादग्रस्त निवषयों पर भी अच्छा एवं निवर्शद प्रकार्श डालती है। लघीयस्त्रय पर लिलखी अभयचन्द्र की लघीयस्त्रयतात्पय�वृभित्त, हेमचन्द्र की प्रमाणमीमांसा, मल्लिल्लषण सूरिर की स्याद्वादमंजरी, आर्शाधर का प्रमेयरत्नाकर, भावसेन का निवर्श्वतत्त्वप्रकार्श, अजिजतसेन की न्यायमभिणदीनिपका, अभिभनव-धम�भूषणयनित की न्यायदीनिपका, नरेन्द्रसेन की प्रमाणप्रमेयकलिलका, निवमलदास की सप्तभंगीतरंनिगणी, चारुकीर्तितH के अर्थं�प्रकालिर्शका तर्थंा प्रमेयरत्नालंकार, यर्शोनिवजय के अष्टसहस्रीनिववरण, जैनतक� भाषा और ज्ञाननिबन्दु इस काल के उल्लेखनीय दार्श�निनक एवं तार्तिकHक महान ग्रन्थ हैं।

अंनितम तीन तार्तिकHकों ने अपनी रचनाओं में नव्यन्यायरै्शली को भी अपनाया है, जो गंगेर्श उपाध्याय* से उद्भतू हुआ और निपछले तीन-चार दर्शक तक अध्ययन-अध्यापन में निवद्यमान रहा। इसके बाद जैन दर्श�न और जैन न्याय का कोई मौलिलक या व्याख्या ग्रंर्थं लिलखा गया हो, यह अज्ञात है। फलत: उत्तरकाल में जैन दर्श�न और जैन न्याय का प्रवाह अवरुद्ध हो गया। यही ल्लिस्थनित अन्य भारतीय दर्श�नों एवं न्याय क्षेत्र की हुई है। उनके अध्ययन-अध्यापन और र्शास्त्रप्रणयन की जो प्राचीन परम्परा (पद्धनित) र्थंी क्रमर्श: ह्रास होता गया। निकन्तु अब इन निवधाओं का पुन: निवकास आवश्यक है।

आचाय� जिजनसेन और गुणर्भाद्र : एक परिरचय

ये दोनों ही आचाय� उस पंचस्तूप नामक अन्वय में हुए हैं जो आगे चलकर सेनान्वय का सेनसंघ के नाम से प्रलिसद्ध हुआ है। जिजनसेन स्वामी के गुरु वीरसेन ने भी अपना वंर्श प°चस्तूपान्वय ही लिलखा है। परन्तु गुणभद्राचाय� ने सेनान्वय लिलखा है। इन्द्रानन्दी ने अपने श्रुतावतार में लिलखा है निक जो मुनिन पंचस्तूप निनवास से आये उनमें से निकन्हीं को सेन और निकन्हीं को भद्र नाम दिदया गया। तर्थंा कोई आचाय� ऐसा भी कहते हैं निक जो गुहाओं से आये उन्हें नन्दी, जो अर्शोक वन से आये उन्हें देव और जो पंचस्तूप से आये उन्हें सेन नाम दिदया गया। शु्रतावतार के उt उल्लेख से प्रतीत होता है निक सेनान्त और भद्रान्त नाम वाले मुनिनयों का समूह ही आगे चलकर सेनान्वय या सेना संघ से प्रलिसद्ध हुआ है।

जिजनसेनाचाय� लिसद्धान्तर्शास्त्रों के महान् ज्ञाता रे्थं। इन्होंने कषायप्राभृत पर 40 ह�ार श्लोक प्रमाण जयधवला टीका लिलखी है। आचाय� वीरसेन स्वामी उस पर 20 ह�ार श्लोक प्रमाण टीका लिलख पाये रे्थं और वे दिदवंगत हो गये रे्थं। तब उनके लिर्शष्य जिजनसेनाचाय� ने 40 ह�ार श्लोक प्रमाण टीका लिलखकर उसे पूण� निकया।

संस्कृत महाकाव्य जगत् में इनका यह 'पार्श्वा�भ्युदयमहाकाव्य' एक महत्वपूण� ग्रन्थ है, जिजसमें समस्यापूर्तितH के रूप में महाकनिव कालिलदास के समग्र मेघदूत को बड़ी कुर्शलता से समानिहत करके 23 वें तीर्थं�कर पार्श्व�नार्थं का चरिरत्र लिचत्रण निकया गया है और अपनी निवलक्षण प्रनितभा का दिदग्दर्श�न निकया गया है।

पुराणजगत में आचाय� जिजनसेन का आदिदपुराण और उनके साक्षात् लिर्शष्य आचाय� गुणभद्र का उत्तरपुराण-ये दोनों अत्यन्त प्रलिसद्ध पुराण-ग्रन्थ हैं। गुणभद्र की अन्य महत्त्वपूण� कृनितयों में आत्मानुर्शासन और जिजनदत्तचरिरत्र निवर्शेष उल्लेखनीय एवं निवशु्रत हैं।

�रिरवंर्शपुराण आदिदपुराण के कता� आचाय� जिजनसेन से भिभन्न पुन्नाटसंघीय आचाय� जिजनसेन का हरिरवंर्श पुराण दिदगम्बर सम्प्रदाय के कर्थंा

सानिहत्य में अपना प्रमुख स्थान रखता है। यह निवषय-निववेचना की अपेक्षा तो निवर्शेषता रखता ही है, प्राचीनता की अपेक्षा भी संस्कृत कर्थंाग्रन्थों में इसका तीसरा स्थान ठहरता है। पहला रनिवषेणाचाय� का पद्मपुराण, दूसरा जटासिसHहनजिन्द का वरांगचरिरत और तीसरा जिजनसेन का यह हरिरवंर्शपुराण है। हरिरवंर्शपुराण और महापुराण दोनों को देखने के बाद ऐसा लगता है निक महापुराणकार ने हरिरवंर्शपुराण को देखने के बाद उसकी रचना की है। हरिरवंर्शपुराण में तीन लोकों का,

संगीत का तर्थंा व्रत निवधान आदिद का जो बीच-बीच में निवराट वण�न निकया गया है उससे कर्थंा के सौन्दय� की हानिन हुई है। इसलिलये महापुराण में उन सबके निवस्तृत वण�न को छोड़कर प्रसंगोपात्त संभिक्षप्त ही वण�न निकया गया है। काव्योलिचत भाषा तर्थंा अलंकार की निवल्लिच्छभित्त भी हरिरवंर्श की अपेक्षा महापुराण में अत्यन्त परिरष्कृत है।

�रिरवंर्शपुराण का आधार

जिजस प्रकार सेनसंघीय जिजनसेन के महापुराण का आधार परमेष्ठी कनिव का 'वागर्थं�संग्रह' पुराण है, उसी प्रकार हरिरवंर्श का आधार भी कुछ-न-कुछ अवश्य रहा होगा। हरिरवंर्श के कता� जिजनसेन ने प्रकृत ग्रन्थ के अन्तिन्तम सग� में भगवान् महावीर से लेकर 683 वष� तक की और उसके बाद अपने समय तक की निवस्तृत अनिवल्लिच्छन्न परम्परा की लेखा दी है उससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है निक इनके गुरु कीर्तितHषेण रे्थं और संभवतया हरिरवंर्श की कर्थंावस्तु उन्हें उनसे प्राप्त हुई होगी। वण�नर्शैली को देखते हुए ऐसा लगता है निक जिजनसेन ने रनिवषेण के पद्मपुराण को अच्छी तरह देखा है। पद्यमय ग्रन्थों में गद्य का उपयोग अन्यत्र देखने में नहीं आया। परन्तु जिजस प्रकार रनिवषेण ने पद्मपुराण में वृत्तानुब�ी गद्य का उपयोग निकया है उसी प्रकार जिजनसेन ने भी हरिरवंर्श के 49 वें नेमिम जिजनेन्द्र का स्तवन करते हुए वृत्तानुब�ीगद्य का उपयोग निकया है। हरिरवंर्श का लोकनिवभाग एवं र्शलाकापुरुषों का वण�न आचाय� यनितवृषभ की 'नितलोयपण्णत्ती' से मेल खाता है। द्वादर्शांग का वण�न तत्त्वार्थं�वार्तितHक के अनुरूप है, संगीत का वण�न भरत मुनिन के नाट्यर्शास्त्र से अनुप्राभिणत है और तत्त्वों का वण�न तत्त्वार्थं�सूत्र तर्थंा सवा�र्थं�लिसजिद्ध के अनुकूल है। इससे जान पड़ता है निक आचाय� जिजनसेन ने उन सब ग्रन्थों का अच्छी तरह आलेख निकया है। तत्तत प्रकरणों में दिदये गये तुलनात्मक दिटप्पणों से उt बात का निनण�य सुगम है। हाँ, क्रमनिवधान, समवसरण तर्थंा जिजनेन्द्र निवहार निकससे अनुप्राभिणत है, यह निनण�य मैं नहीं कर सका।

�रिरवंर्शपुराण के रचयिय*ा आचाय� जिजनसेन हरिरवंर्शपुराण के रचमियता जिजनसेन पुन्नाट संघ के रे्थं। ये महापुराण के कता� जिजनसेन से भिभन्न हैं। इनके गुरु का नाम

कीर्तितHषेण और दादा गुरु का नाम जिजनसेन र्थंा। महापुराण के कता� जिजनसेन के गुरु वीरसेन और दादा गुरु आय�नन्दी रे्थं। पुन्नाट कणा�टक का प्राचीन नाम है। इसलिलये इस देर्श के मुनिन संघ का नाम पुन्नाट संघ र्थंा। जिजनसेन के जन्म स्थान, माता-निपता तर्थंा प्रारब्धिम्भक जीवन के कोई उल्लेख उपल� नहीं है। गृहनिवरत पुरुष के लिलये इन सबके उल्लेख की आवश्यकता भी नहीं है।

�रिरवंर्शपुराण का रचना स्थान और सर्मय हरिरवंर्शपुराण की रचना का प्रारम्भ वध�मानपुर में हुआ और समान्तिप्त दोस्तदिटका के र्शान्तिन्तनार्थं जि�लालय में हुआ। यह

वद्ध�मानपुर सौराष्ट्र का प्रलिसद्ध र्शहर वडवाण जान पड़ता है। वडवाण से निगरिरनगर को जानेवाले माग� में 'दोत्तानिड' स्थान है। वही 'दोस्तानिडका' है। हरिरवंर्शपुराण के 66 वें सग� के 52 और 53 श्लोक में कहा गया है निक र्शक-संवत् 705 में, जब निक उत्तर दिदर्शा की इन्द्रायुध, दभिक्षण दिदर्शा की कृष्ण का पुत्र श्रीवल्लभ, पूव� की अवन्तिन्तराज वत्सराज और पभिश्चम की वीर जयवराह रक्षा करता र्थंा तब अनेक कल्याणों अर्थंवा पुर के पार्श्व�जिजनालय में जो निक नन्नराज वसनित के नाम से प्रलिसद्ध र्थंा, यह ग्रन्थ पहले प्रारम्भ निकया गया और पीछे चलकर दोस्तदिटका की प्रजा के द्वारा उत्पादिदत प्रकृष्ट पूजा से युt र्शान्तिन्तजिजनेन्द्र के र्शान्तिन्तपूण� गृह मजिन्दर में रचा गया।

�रिरवंर्शपुराण की कथावस्*ु हरिरवंर्शपुराण में पुन्नाट संघीय जिजनसेनाचाय� प्रधान रूप से बाईसवें तीर्थं�कर नेमिमनार्थं भगवान् का चरिरत्र लिलखना चाहते

रे्थं। परन्तु प्रसंगोपात्त अन्य कर्थंानक भी इसमें लिलखे गये हैं। भगवान नेमिमनार्थं का जीवन आदर्श� त्याग का जीवन है। वे हरिरवंर्श-गगन के प्रकार्शमान सूय� रे्थं। भगवान नेमिमनार्थं के सार्थं उनके वंर्शज नारायण और बलभद्र पद के धारक श्रीकृष्ण तर्थंा बलराम के भी कौतुकी वह चरिरत इसमें अंनिकत है। पाण्डवों और कौरवों का लोकनिप्रय चरिरत इसमें बड़ी सुन्दरता के सार्थं अंनिकत निकया गया है। श्रीकृष्ण के पुत्र प्रदु्यम्न का चरिरत्र भी इसमें अपना पृर्थंक् स्थान रखता है और बड़ा मार्मिमHक है।

पद्मपुराण संस्कृत-सानिहत्य, सागर के समान निवर्शाल है। जिजस प्रकार सागर के भीतर अगभिणत रत्न निवद्यमान हैं उसी प्रकार संस्कृत

सानिहत्य सागर में पुराण, काव्य, न्याय, व्याकरण, लिसद्धान्त, दर्श�न, नाटक, ज्योनितष और आयुव�द आदिद रत्न निवद्यमान हैं। प्राचीन संस्कृत-सानिहत्य में ऐसा कोई निवषय नहीं हैं, जिजस पर निकसी ने कुछ न लिलखा हो। वैदिदक संस्कृत सानिहत्य तो निवर्शालतम है ही, परन्तु जैन संस्कृत-सानिहत्य भी उसके अनुपात में अल्प प्रमाण होने पर भी उच्च कोदिट का है। जैन

सानिहत्य की प्रमुख निवर्शेषता यह है निक उसमें वस्तु स्वरूप का वण�न काल्पनिनक नहीं है और इसीलिलये वह प्राणी मात्र का कल्याणकारी है।

हिनष्कष� इस प्रकार उपल� र्शौरसेनी प्राकृत एवं संस्कृतभाषा निनबद्ध कम�सानिहत्य के ग्रन्थों का परिरचयात्मक इनितहास लिलखा

गया, इनमें दिदगम्बर जैन परम्परा के गं्रर्थंों का ही परिरचय दिदया जा सका। र्श्वेताम्बर परम्परा में भी कम� ग्रन्थ आदिद के रूप में कम�लिसद्धान्त निवषयक निवपुल सानिहत्य उपल� है। इस तरह हम मूल्यांकन करें तो पाते हैं निक जैन मनीनिषयों ने कम�सानिहथ्य को ही संस्कृत भाषा में नहीं लिलखा अनिपतु लिसद्धान्त, दर्श�न, न्याय, ज्योनितष, आयुव�द, व्याकरण, काव्य आदिद निवषयों का निववेचन भी लोकनिप्रय संस्कृत भाषा में निनरूपण निकया है या यों कहना चानिहए निक इन निवषयों का निनरूपण संस्कृत में ही निकया गया है। उदाहरण के लिलए तत्त्वार्थं�सूत्र (गृद्धनिपच्छाचाय�), तत्त्वार्थं�सार (अमृतचन्द्र), तत्त्वार्थं�वार्तितHक (अकलंकदेव), तत्त्वार्थं�वृभित्त (श्रुतसागरसूरिर), तत्त्वार्थं�श्लोकवार्तितHक-भाष्य (निवद्यानन्द), अष्टसहस्री (निवद्यानन्द), पत्रपरीक्षा (निवद्यानंद), सत्यर्शासनपरीक्षा (आ 0 निवद्यानन्द), तत्त्वार्थं�भाष्य (उमास्वामिम), तत्त्वार्थं�वृभित्त (लिसद्धर्तिषHगणी) आदिद सहस्रों ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिलखें गये हैं। जैन परम्परा का संस्कृत वाङमय निवर्शाल और अटूट है। और यह सच है निक कोई भी भाषा, जब वह लोकनिप्रय हो जाती है, तब वह सभी के लिलए आदरणीय एवं ग्राह्य हो जाती है।

जैन �र्श�न र्में अध्यात्र्म अनुक्रर्म [छुपा] 1 जैन दर्श�न में अध्यात्म 2 जैन कम� लिसद्धान्त   : नामकम� के निवर्शेष सन्दभ� में 3 नामकम� का स्वरूप 4 नामकम� और उसकी प्रकृनितयाँ

5 सम्बंमिधत सिलHक

श्रावकाचार:श्रावकों की आचार-पद्धहि*

जैन परम्परा में आचार के स्तर पर श्रावक और साधु-ये दो श्रेभिणयाँ हैं। श्रावक गृहस्थ होता है, उसे जीवन के संघष� में हर प्रकार का काय� करना पड़ता है। जीनिवकोपाज�न के सार्थं ही आत्मोत्थान एवं समाजोत्थान के काय� करने पड़ते हैं। अत: उसे ऐसे ही आचारगत निनयमों आदिद के पालन का निवधान निकया गया, जो व्यवहाय� हों क्योंनिक लिसद्धान्तों की वास्तनिवकता निक्रयात्मक जीवन में ही चरिरतार्थं� हो सकती है। इसलिलए श्रावकोलिचत आचार-निवचार के प्रनितपादन और परिरपालन का निवधान श्रावकाचार की निवरे्शषता है। श्रावकाचार आदर्श� जीवन के उत्तरोत्तर निवकास की जीवन र्शैली प्रदान करता है। श्रावकाचार के परिरपालन हेत साधु वग� सदा से श्रावकों का पे्ररणास्त्रोत रहा है। वस्तुत: साधु राग-दे्वष से परे समाज का संरक्षक होता है, वह समाज निहत में श्रावकों को छोटे-छोटे स्वार्थं@ के त्याग करने एवं समता भाव की लिर्शक्षा देता है।

संस्कार और उनका र्म�त्त्व

संस्कार र्शब्द का प्रयोग लिर्शक्षा, संस्कृनित, प्रलिर्शक्षण, सौजन्य पूण�ता, व्याकरण सम्ब�ी र्शुजिद्ध, धार्मिमHक कृत्य, संस्करण या परिरष्करण की निक्रया, प्रभावर्शीलता, प्रत्यास्मरण का कारण, स्मरणर्शलिt पर पड़ने वाला प्रभाव अभिभमन्त्रण आदिद अनेक अर्थं@ में होता है। सामान्यत: संस्कार वह है जिजसके होने से कोई पदार्थं� या व्यलिt निकसी काय� के लिलए योग्य हो जाता है अर्थंा�त संस्कार वे निक्रयाए ंएवं निवमिधयाँ हैं जो व्यलिt को निकसी काय� को करने की आमिधकारिरक योग्यता प्रदान करती हैं। र्शुलिचता का समिन्नवेर्श मन का परिरष्कार, धमा�र्थं�-सदाचरण, रु्शजिद्ध-समिन्नधान आदिद ऐसी योग्यताऐं हैं जो र्शास्त्रनिवनिहत निक्रयाओं के करने से प्राप्त होती हैं। संस्कार र्शब्द उन अनेक धार्मिमHक निक्रया-कलापों को भी व्याप्त कर लेता है जो र्शुजिद्ध, प्रायभिश्चत्त, व्रत आदिद के अन्तग�त आते हैं।

संस्कारों की संख्या

दिदगम्बर परम्परा के पुराणों में संस्कार के लिलए 'निक्रया' र्शब्द का प्रयोग निकया गया है। यह सत्य है निक संस्कार र्शब्द सामान्यतया धार्मिमHक निवमिध-निवधान या निक्रया का ही सूचक है। दिदगम्बर जैन परम्परा के आचाय� जिजनसेन कृत 'आदिदपुराण' में निवनिवध संस्कारों का उल्लेख करते हुए इन्हें तीन भागों में निवभाजिजत निकया गया है। उसके अनुसार

1. गभा�न्वय निक्रयाए-ँ53, 2. दीक्षान्वय निक्रयाए-ँ48, और 3. कत्र�न्वय निक्रयाए-ँ7 हैं। 4. इस प्रकार इसमें कुल मिमलाकर 108 संस्कारों तक की चचा� है। रे्श्वताम्बर जैन परम्परा के वध�मानसूरिरकृत

'आचारदिदनकर' में संस्कारों की चचा� करते हुए उनकी संख्या 40 बताई गई है, जिजनमें से 16 संस्कार गृहस्थों के, 16 संस्कार यनितयों के एवं 8 सामान्य संस्कार हैं।

5. आदि�पुराण और उसर्में प्रहि*पादि�* संस्कार6. संस्कार, वण� व्यवस्था आदिद का निववेचन आचाय� जिजनसेन ने महापुराण के प्रर्थंम भाग अर्थंा�त आदिदपुराण में निवस्तार से

निकया है। वस्तुत: महापुराण के मुख्य दो खण्ड हैं-

1. आदिदपुराण और 2. उत्तरपुराण। 3. सम्पूण� आदिदपुराण के 47 पव@ में से 42 पव� पूण� तर्थंा 43 वें पव� के तीन श्लोक तक आठवीं-नवीं र्शती के

भगवल्लिज्जनसेनाचाय� द्वारा रलिचत हैं और इसके अवलिर्शष्ट पाँच पव� तर्थंा उत्तरपुराण की रचना जिजनसेनाचाय� के बाद उनके प्रमुख लिर्शष्य गुणभद्राचाय� के द्वारा की गई। एक गृहस्थ श्रावक को समाज की मुख्य धारा से अलग हुए निबना नैनितक, आदर्श� और संस्कारिरत जीवन जीने के लिलए आचाय� जिजनसेन ने संस्कार पद्धनित मुख्यत: तीन भागों में निवभt की-

1. गभा�न्वय निक्रया, 2. दीक्षान्वय निक्रया, 3. निक्रयान्वय निक्रया। 4. गर्भाा�न्वय हिक्रया5. इसमें श्रावक या गृहस्थ की 53 निक्रयाओं, संस्कारों का वण�न है। वह इस प्रकार है :

1. आधान निक्रया (संस्कार), 2. प्रीनित निक्रया, 3. सुप्रीनित,

4. धृनित,

5. मोद,

6. निप्रयोद्भव जातकम�, 7. नामकम� या नामकरण,

8. बनिहया�न,

9. निनषद्या,

10. अन्नप्रार्शन,

11. वु्यमिष्ट (वष�गांठ),

12. केर्शवाय,

13. लिलनिपसंख्यान,

14. उपनीनित (यज्ञोपवीत),

15. व्रतावरण,

16. निववाह,

17. वण�लाभ,

18. कुलचया�, 19. गृहीलिर्शता, 20. प्रर्शान्तिन्त,

21. गृहत्याग,

22. दीक्षाग्रहण,

23. जिजनरूपता, 24. मौनाध्ययन,

25. तीर्थं�कृद्भावना, 26. गणोपग्रहण,

27. स्वगुरुस्थानावान्तिप्त,

28. निनसंगत्वात्मभावना, 29. योगनिनवा�णसम्प्रान्तिप्त,

30. योगनिनवा�णसाधन,

31. इन्द्रोपपाद,

32. इन्द्राभिभषेक,

33. इन्द्रनिवमिधदान,

34. सुखोदय,

35. इन्द्रत्याग,

36. अवतार, 37. निहरण्योत्कृष्टजन्मग्रहण,

38. मन्दराभिभषेक,

39. गुरुपूजन,

40. यौवराज्यनिक्रया, 41. स्वराज्यप्रान्तिप्त,

42. दिदर्शांजय,

43. चक्राभिभषेक,

44. साम्राज्य,

45. निनष्क्रान्त,

46. योगसम्मह,

47. आह�न्त्य निक्रया, 48. निवहारनिक्रया, 49. योगत्याग,

50. अग्रनिनवृ�भित्त, तीन अन्य निक्रया (संस्कार) इस प्रकार गभ� से लेकर निनवा�ण पय�न्त 53 निक्रयाओं (संस्कारों) का कर्थंन निकया गया है।

51. �ीक्षान्वय हिक्रया52. वह इस प्रकार है-

1. अवतार, 2. वृत्तलाभ,

3. स्थानलाभ,

4. गणग्रह,

5. पूजाराध्य,

6. पुण्ययज्ञ,

7. दृढ़चया�, 8. उपयोनिगता, 9. उपनीनित,

10. व्रतचया�, 11. व्रतावतरण,

12. पाभिणग्रहण 13. वण�लाभ,

14. कुलचया�, 15. गृहीलिर्शता,

16. प्रर्शान्तता, 17. गृहत्याग,

18. दीक्षाद्य,

19. जिजनरूपत्व,

20. दीक्षान्वय। 21. हिक्रयान्वय हिक्रया22. सज्जानित: सद्गहृस्थत्वं, पारिरव्रज्यं सुरेन्द्रता।

साम्राज्यं पदमाह�न्त्यं, निनवा�णं चेनित सप्तकम्॥

1. सज्जानितत्व (सत्कुलत्व)

2. सद्गहृस्थता, 3. पारिरव्रज्य,

4. सुरेन्द्रपदत्व,

5. साम्राज्यपद,

6. अह�न्तपद,

7. निनवा�णपदप्रान्तिप्त-ये सात निक्रयान्वय निक्रयाए ँहैं।

धार्मिमHक एवं संस्कारिरत जीवन पद्धनित के निनमा�ण में इन समस्त निक्रयाओं का महत्व है। इन निक्रयाओं (संस्कारों) में देव-र्शास्त्र-गुरु की पूजा भलिt का यर्थंायोग्य-निवधान है।

प्रर्मुख सोल� संस्कारों का स्वरूप और हिवधिध जिजन संस्कारों से सुसंस्कृत मानव निद्वज (संस्कारिरत श्रावक) कहा जाता है, वे संस्कार सोलह होते हैं*-

आधान संस्कार , प्रीनित संस्कार , सुप्रीनित निक्रया - संस्कार , धृनित संस्कार , मोद निक्रया संस्कार , जात ( जन्म ) कम� , नामकरण संस्कार , बनिहया�न संस्कार , निनषद्या संस्कार , अन्नप्रार्शन निवमिध या संस्कार , वु्यमिष्ट संस्कार ,

चौलकम� अर्थंवा केर्शवाय संस्कार , लिलनिपसंख्यान ( निवद्यारम्भ ) संस्कार , उपनीनित संस्कार , व्रताचरण संस्कार , निववाह संस्कार गोम्र्मटपंजिजका

आचाय� नेमिमचन्द्र लिसद्धान्त चक्रवत� (10 वीं र्शती) द्वारा प्राकृत भाषा में लिलखिखत गोम्मटसार पर सव�प्रर्थंम लिलखी गई यह एक संस्कृत पंजिजका टीका है।

इसका उल्लेख उत्तरवत� आचाय� अभयचन्द्र ने अपनी मन्दप्रबोमिधनी टीका में निकया है।*

इस पंजिजका की एकामात्र उपल� प्रनित (सं0 1560) पं. परमानन्द जी र्शास्त्री के पास रही। इस टीका का प्रमाण पाँच ह�ार श्लोक है। इस प्रनित में कुल पत्र 98 हैं। भाषा प्राकृत मिमभिश्रत संस्कृत है।* दोनों ही भाषाए ंबड़ी प्रांजल और सरल हैं। इसके रचमियता निगरिरकीर्तितH हैं। इस टीका के

अन्त में टीकाकार ने इसे गोम्मटपंजिजका अर्थंवा गोम्मटसार दिटप्पणी ये दो नाम दिदए हैं। इसमें गोम्मटसार जीवकाण्ड और कम�काण्ड की गार्थंाओं के निवलिर्शष्ट र्शब्दों और निवषमपदों का अर्थं� दिदया गया है, कहीं

कहीं व्याख्या भी संभिक्षप्त में दी गई है। यह पंजिजका सभी गार्थंाओं पर नहीं है। इसमें अनेक स्थानों पर सैद्धान्तिन्तक बातों का अच्छा स्पष्टीकरण निकया गया है और इसके लिलए पंजिजकाकार ने अन्य गं्रर्थंकारों के उल्लेख भी उद्धतृ निकए हैं।

यह पंजिजका र्शक सं0 1016 (निव0 सं0 1151) में बनी है। निवरे्शषता यह है निक टीकाकार ने इसमें अपनी गुरु परम्परा भी दी हे। यर्थंा-श्रुतकीर्तितH, मेघचन्द्र, चन्द्रकीर्तितH और

निगरिरकीर्तितH। प्रतीत होता है निक अभयचन्द्राचाय� ने अपनी मन्दप्रबोमिधनी टीका में इसे आधार बनाया है। अनेक स्थानों पर इसका

उल्लेख निकया है। इससे स्पष्ट है निक मन्दप्रबोमिधनी टीका से यह गोम्मट पंजिजका प्राचीन है। प्राकृत पदों का संस्कृत में स्पष्टीकरण करना इस पंजिजका की निवर्शेषता है। गोम्र्मटसार-जीव*त्त्व प्र�ीहिपका

यह टीका केर्शववण� द्वारा रलिचत है। उन्होंने इसे संस्कृत और कन्नड़ दोनों भाषाओं में लिलखा है। जैसे वीरसेन स्वामी ने अपनी संस्कृत प्राकृत मिमभिश्रत धवला टीका द्वारा षट्खंडागम के रहस्यों का उद्घाटन निकया है उसी

प्रकार केर्शववण� ने भी अपनी इस जीवतत्त्व प्रदीनिपका द्वारा जीवकाण्ड के रहस्यों का उद्घाटन कन्नड़ मिमभिश्रत संस्कृत में निकया है।

केर्शववण� की गभिणत में अबाध गनित र्थंी इसमें जो करणसूत्र उन्होंने दिदए हैं वे उनके लौनिकक और अलौनिकक गभिणत के ज्ञान को प्रकट करते हैं।

इन्होंने अलौनिकक गभिणत संबंधी एक स्वंतत्र ही अमिधकार इसमें दिदया है, जो नित्रलोक प्रज्ञन्तिप्त और नित्रलोक सार के आधार पर लिलखा गया मालूम होता है।

आचाय� अकलंक के लघीयस्त्रय और आचाय� निवद्यानंद की आप्तपरीक्षा आदिद गं्रन्थों के निवपुल प्रमाण इसमें उन्होंने दिदए हैं।

यह टीका कन्नड़ में होते हुए भी संस्कृत बहुल है। इससे प्रतीत होता है निक जैन आचाय@ में दभिक्षण में अपनी भाषा के लिसवाय संस्कृत भाषा के प्रनित भी निवर्शेष अनुराग रहा

है। जयधवल टीका

आचाय� वीरसेन स्वामी* ने धवला की पूण�ता* के पश्चात र्शौरसेनी प्राकृत भाषा में निनबद्ध आचाय� गुणधर द्वारा निवरलिचत कसायपाहुड* की टीका जयधवला का काय� आरंभ निकया और जीवन के अंनितम सात वष@ में उन्होंने उसका एक नितहाई भाग लिलखा। तत्पश्चात र्शक सं0 745 में उनके दिदवंगत होने पर र्शेष दो नितहाई भाग उनके योग्यतम लिर्शष्य जिजनसेनाचाय� (र्शक सं0 700 से 760) ने पूरा निकया। 21 वष@ की सुदीघ� ज्ञानसाधना की अवमिध में यह लिलखी जाकर र्शक सं0 759 में पूरी हुई।

आचाय� जिजनसेन स्वामी ने सव�प्रर्थंम संस्कृत महाकाव्य पार्श्वा�भ्युदय की रचना* में की र्थंी। इनकी दूसरी प्रलिसद्ध कृनित 'महापुराण' है। उसके पूव�भाग-'आदिदपुराण' के 42 सग� ही वे बना पाए रे्थं और दिदवंगत हो गए। रे्शष की पूर्तितH उनके लिर्शष्य गुणभद्राचाय� ने की।*

जयधवल टीका का आरंभ वाटपुरग्राम संभवत: बड़ौदा* में चन्द्रप्रभुस्वामी के मंदिदर में हुआ र्थंा। मूल ग्रन्थ 'कषायपाहुड' है*, जो गुणधराचाय� द्वारा 233 प्राकृत गार्थंाओं में रचा गया है। इस पर यनितवृषभाचाय� द्वारा चूर्णिणHसूत्र* लिलखे गये और इन दोनों पर आचाय� वीरसेन और जिजनसेन ने जयधवला व्याख्या लिलखी। इस तरह जयधवला की 16 पुस्तकों में मूलग्रन्थ कषायपाहुड इस पर लिलखिखत चूर्णिणHसूत्र और इसकी जयधवला टीका-ये तीनों गं्रर्थं एक सार्थं प्रकालिर्शत हैं।

जयधवला की भाषा भी धवला टीका की तरह मभिणप्रवालन्याय से प्राकृत और संस्कृत मिमभिश्रत है। जिजनसेन ने स्वयं इसकी अन्तिन्तम प्रर्शब्धिस्त में लिलखा है-

प्राय: प्राकृतभारत्या क्वलिचत् संस्कृतमिमश्रया।मभिणप्रवालन्यायेन प्रोtोयं ग्रन्थनिवस्तर:॥(37)

जयधवला में दार्श�निनक चचा�ए ंऔर वु्यत्पभित्तयां तो संस्कृत भाषा में निनबद्ध हैं। पर सैद्धान्तिन्तक चचा� प्राकृत में है। किकHलिचत ऐसे वाक्य भी मिमलते हैं, जिजनमें युगपत दोनों भाषाओं का प्रयोग हुआ है। जयधवल की संस्कृत और प्राकृत दोनो भाषाएं प्रसादगुण युt और प्रवाहपूण� तर्थंा परिरमार्जिजHत हैं। दोनों भाषाओं पर टीकाकारों का प्रभुत्व है और इच्छानुसार उनका वे प्रयोग करते हैं। इस टीका का परिरमाण 60 ह�ार श्लोकप्रमाण है। इसका निहन्दी अनुवाद वाराणसी में जैनागमों और लिसद्धान्त के महान मम�ज्ञ निवद्वान लिसद्धान्ताचाय� पं॰ फूलचन्दजी र्शास्त्री ने तर्थंा सम्पादनादिद काय� पं॰ कैलार्श चंद जी र्शास्त्री ने निकया है। इसका प्रकार्शन 16 पुस्तकों में, जिजनके कुल पृष्ठ 6415 हैं, जैन संघ चौरासी, र्मथुरा से हुआ है। इसके निहन्दी अनुवाद सनिहत प्रकार्शन में 48 वष� (ई॰ 1940 से 1988) लगे।

इसमें मात्र मोहनीय कम� का ही वण�न है। रे्शष सात कम@ की प्ररूपणा इसमें नही की गयी। जैसा निक निनम्न वाक्य से प्रकट है- 'एत्थ कसायपाहुडे सेससन्तण्हं कम्माणं परूवणा णब्धित्थ'- जयधवला, पुस्तक 1, पृ0 165, 136, 235 आदिद।

हिवषय परिरचय मूलग्रन्थ का नाम कसायपाहुड (कषायप्राभृत) है। इसका दूसरा नाम 'पेज्जदोसपाहुड' है। 'पे्रज्ज' अर्थंा�त् पे्रय का अर्थं�

है। 'राग' और 'दोस' अर्थंा�त दे्वष का अर्थं� है र्शतु्रभाव (र्शत्रुता)। सारा जगत इन दोनों से व्याप्त है। इन्हीं दोनों का वण�न इसमें निकया गया है। वीरसेन और जिजनसने ने इसका और इस पर यनितवृषभाचाय� द्वारा लिलखे गये चूर्णिणHसूत्रों का स्पष्टीकरण करने के लिलए अपनी यह निवर्शाल टीका जयधवला लिलखी है। इसमें 15 अमिधकार हैं। वे इस प्रकार हैं-

1. पे्रय-दे्वष-निवभलिt,

2. ल्लिस्थनितनिवभलिt,

3. अनुभाग निवभलिt,

4. ब�क,

5. संक्रम,

6. वेदक,

7. उपयोग,

8. चतु:स्थान,

9. वं्यजन,

10. दर्श�नमोह की उपर्शामना, 11. दर्श�नमोह की क्षपणा, 12. देर्शनिवरनित,

13. संयम,

14. चारिरत्रमोह की उपर्शमना और 15. चारिरत्रमोह की क्षपणा। इन अमिधकारों के निनरूपण के पश्चात पभिश्चमस्क� नामक एक पृर्थंक् अमिधकार का भी

वण�न निकया गया है। इनका निवषय संक्षेप में यहाँ दिदया जाता है। 16. पेज्ज�ोस हिवर्भाधिक्त 17. इस अमिधकार का यह नाम मूल ग्रन्थ के निद्वतीय नाम पेज्जदासपाहुड की अपेक्षा से रखा गया है। इसी से इसमें

राग और दे्वष का निवस्तार से निवशे्लषण निकया गया है। अतएव उदय की अपेक्षा मोह का इसमें वण�न है। चार कषायों में क्रोध और मान दे्वष रूप हैं और माया एवं लोभ पे्रय (राग) रूप हैं। इस अमिधकार में इनका बड़ा सूक्ष्म वण�न है। निवरे्शषता यह है निक यह अमिधकार पुस्तक 1 में पूण� हुआ है और न्यायर्शास्त्र की र्शैली से इसे खू़ब पुष्ट निकया गया है।

18. स्थिस्थहि* हिवर्भाधिक्त 19. इसमें मोहनीय कम� की प्रकृनित और ल्लिस्थनित इन दो का वण�न है। जब मोहनीय कम� नामक जड़ पुद्गलों का आत्मा

के सार्थं लिचपकना-बंधना-एकमेकपना या संशे्लष सम्ब� होता है तब वे कम� परमाणु आत्मा के सार्थं कुछ समय दिटक कर निफर फल देकर, तर्थंा फलदान के समय आत्मा को निवमूढ़ (निवमोनिहत), रागी, दे्वषी आदिद रूप परिरणत करके आत्मा से अलग हो जाते हैं। इस मोहनीय कम� का जो उt प्रकार का निवमोनिहत करने रूप स्वभाव है, वह 'प्रकृनित' कहलाता है तर्थंा जिजतने समय वह आत्मा के सार्थं रहता है वह 'ल्लिस्थनित' कहा जाता है, उसकी फलदानर्शलिt 'अनुभाग' कहलाती है तर्थंा उस कम� के परमाणुओं की संख्या 'प्रदेर्श' कहलाती है। प्रकृत अमिधकार में प्रकृनित और ल्लिस्थनित का निवस्तृत, सांगोपांग एवं मौलिलक प्ररूपण है, जो पुस्तक 2,3 व 4 इन तीन में पूरा हुआ है।

20. अनुर्भााग हिवर्भाधिक्त 21. इसके दो भेद हैं-

1. मूल प्रकृनित अनुभागनिवभलिt और 2. उत्तरप्रकृनित अनुभागनिवभलिt। इन मूल प्रकृनितयों के अनुभाग और उत्तरप्रकृनितयों के अनुभाग का पुस्तक 5 में निवस्तृत

वण�न है।

3. प्र�ेर्श हिवर्भाधिक्त 4. इसके भी दो भेद हैं-

1. मूल और 2. उत्तर। मूल प्रकृनित प्रदेर्श निवभलिt और उत्तर प्रकृनित प्रदेर्श निवभलिt इन दोनों अमिधकारों में क्रमर्श: मूल और उत्तर कम�

प्रकृनितयों के प्रदेर्शों की संख्या वर्णिणHत है। यह अमिधकार पुस्तक 6 व 7 में समाप्त हुआ है। निकस ल्लिस्थनित में ल्लिस्थत प्रदेर्श- कम� परमाणु उत्कष�ण, अपकष�ण, संक्रमण और उदय के योग्य एवं अयोग्य हैं, इसका निनरूपण इस अमिधकार में सूक्ष्मतम व आश्चय�जनक निकया गया है। इसके सार्थं ही उत्कृष्ट ल्लिस्थनित को प्राप्त, जघन्य ल्लिस्थनित को प्राप्त आदिद प्रदेर्शों का भी वण�न इस अमिधकार में है।

3. बन्धक 4. इसके दो भेद हैं-

1. ब� और 2. संक्रम। मिमथ्यादर्श�न, कषाय आदिद के कारण कम� रूप होने के योग्य काम�णपुद्गलस्क�ों का जीव के प्रदेर्शों के सार्थं एक

के्षत्रावगाह- सम्ब� को ब� कहते हैं। इसके प्रकृनित, ल्लिस्थनित, अनुभाग और प्रदेर्श के भेद से चार भेद कहे गये हैं। इनका इस अमिधकार में वण�न है। यह अमिधकार पुस्तक 8 व 9 में पूरा हुआ है।

3. संक्रर्म 4. बंधे हुए कम@ का जीवन के अचे्छ-बुरे परिरणामों के अनुसार यर्थंायोग्य अवान्तर भेदों में संक्रान्त (अन्य कम�रूप

परिरवर्तितHत) होना संक्रम कहलाता है। इसके प्रकृनितसंक्रम, ल्लिस्थनितसंक्रम, अनुभागसंक्रम, और प्रदेर्शसंक्रम ये चार भेद हैं। निकस प्रकृनित का निकस प्रकृनित रूप होना और निकस रूप न होना प्रकृनितसंक्रम है। जैसे सातावेदनीय का असातावेदनीय रूप होना। मिमथ्यात्वकम� का क्रोधादिद कषायरूप न होना। इसी तरह ल्लिस्थनितसंक्रम आदिद तीन के सम्ब� में भी बताया गया है। इस प्रकार इस अमिधकार में संक्रम का सांगोपांग वण�न निकया गया है, जो पुस्तक 8 व 9 में उपल� है।

5. वे�क 6. इस अमिधकार में मोहनीय कम� के उदय व उदीरणा का वण�न है। अपने समय पर कम� का फल देने को उदय कहते हैं तर्थंा

उपाय निवर्शेष से असमय में ही कम� का पहले फल देना उदीरणा हुं यत: दोनों ही अवस्थाओं में कम�फल का वेदन (अनुभव) होता है। अत: उदय और उदीरणा दोनों ही वेदक संज्ञा है।* यह अमिधकार पुस्तक 10 व 11 में समाप्त हुआ है।

7. उपयोग 8. इस अमिधकार में क्रोधादिद कषायों के उपयोग का स्वरूप वर्णिणHत है। इस जीव के एक कषाय का उदय निकतने काल तक

रहता है। निकस जीव के कौन-सी कषाय बार-बार उदय में आती है, एक भव में एक कषाय का उदय निकतनी बार होता है, एक कषाय का उदय निकतने भवों तक रहता है, आदिद निववेचन निवर्शदतया इस अमिधकार में निकया गया है। यह अमिधकार पुस्तक 12 में पृ0 1 से 147 तक प्रकालिर्शत है।

9. च*ु:संस्थान 10. घानितकम@ की र्शलिt की अपेक्षा लता, दारु, अल्लिस्थ और र्शैलरूप 4 स्थानों का निवभाग करके उन्हें क्रमर्श: एक

स्थान, निद्वस्थान, नित्रस्थान और चतु:स्थान कहा गया है। इस अमिधकार में क्रोध, मान, माया और लोभ के उन 4-4 स्थानों का वण�न है। जैसे-पव�त, पृथ्वी, रेत तर्थंा पानी में खींची गई लकीरों के समान क्रोध 4 प्रकार का होता है। पव�तलिर्शला पर पड़ी लकीर निकसी कारण से उत्पन्न होकर निफर कभी मिमटती नहीं है वैसे ही जीव का अन्य जीव पर हुआ क्रोध का संस्कार इस भव में नहीं मिमटता तर्थंा जन्मान्तर में भी वह क्रोध उसके सार्थं में जाता है, ऐसा क्रोध पव�तलिर्शला सदृर्श कहलाता है। ग्रीष्मकाल में पृथ्वी पर हुई लकीर पृथ्वी का रस क्षय होने से वह बन जाती है, पुन: वषा�काल में जल के प्रवाह से वह मिमट जाती है। इसी तरह जो क्रोध लिचरकाल तक रहकर भी पुन: निकसी दूसरे निनमिमत्त से या गुरु उपदेर्श से

उपर्शांत हो जाता है वह पृथ्वी सदृर्श क्रोध कहलाता है। रेत में खींची गई रेखा हवा आदिद से मिमट जाती है। वैसे ही जो क्रोध मंदरूप से उत्पन्न होकर गुरु उपदेर्श रूप पवन से नष्ट हो जाता है। वह रेतसदृर्श क्रोध है। जल में लगड़ी आदिद से खींची गई रेखा जैसे निबना उपाय से उसी समय मिमट जाती है वैसे ही जो क्षभिणक क्रोध उत्पन्न होकर मिमट जाता है वह जलसदृर्श कहलाता है। इसी तरह माल, माया और लोभ भी 4-4 प्रकार के होते हैं। इन सबका निववेचन इस अमिधकार में निवस्तारपूव�क निकया गया है। यह अमिधकार पुस्तक 12, पृष्ठ 149 से 183 में समाप्त हुआ है।

11. वं्यजन 12. इस अमिधकार में क्रोध, मान, माया और लोभ के पया�यवाची र्शब्दों को बताया गया है। यह अमिधकार पुस्तक

12 पृ0 184 से 192 तक है। 13. �र्श�नर्मो�ोपर्शार्मना 14. इसमें दर्श�नमोहनीय कम� की उपर्शामना का वण�न है। यह पुस्तक 12, पृष्ठ 193 से 328 तक है। 15. �र्श�नर्मो�नीयक्षपणा 16. इसमें दर्श�नमोहनीयकम� का जीव निकस तरह नार्श करता है इसका निवस्तारपूव�क वण�न निकया गया है। जीव को

दर्श�नमोहनीय की क्षपणा करने में कुल अन्तमु�हूत� काल ही लगता है। पर उसकी तैयारी में दीघ�काल लगता है। दर्श�नमोह की क्षपणा करने वाला मनुष्य (जीव द्रव्य से पुरुष) एक भव में अर्थंवा अमिधक से अमिधक आगामी तीन भवों में अवश्य मुलिt पा लेता है। यह अमिधकार पुस्तक 13 पृष्ठ 1 से 103 में वर्णिणHत है।

17. �ेर्शहिवर* 18. इस अमिधकार में देर्शसंयमी अर्थंा�त् संयमासंयमी (पंचय गुणस्थान) का वण�न है। यह अमिधकार पुस्तक 13, पृष्ठ

105 से 156 में पूरा हुआ है। 19. संयर्म 20. संयम को संयमलब्धि� के रूप में वर्णिणHत निकया गया है। यह निकस जीव को प्राप्त होती है वह बाहर से निनयम से

दिदगम्बर (नग्न) होता है तर्थंा अन्दर आत्मा में उसके मात्र संज्वलनकषायों का ही उदय र्शेष रहता है। र्शेष तीन चौकनिड़यों का नहीं। संयमासंयम लब्धि� से ज़्यादा यह संयमलब्धि� मुमुकु्ष के लिलए अनिनवाय� रूप में उपादेय है। यह अमिधकार पुस्तक 13, पृष्ठ 157 से 187 तक है।

21. चारिर4र्मो�ोपर्शार्मना 22. यह अमिधकार में चारिरत्रमोह की 21 प्रकृनितयों का उपर्शामना का निवनिवध प्रकार से प्ररूपण निकया गया हा, जो

अन्यत्र अलभ्य है। यह अमिधकार पुस्तक 13, पृष्ठ 189 से 324 तर्थंा पुस्तक 14, पृष्ठ 1 से 145 में समाप्त है। 23. चारिर4र्मो�क्षपणा 24. यह अमिधकार बहुत निवस्तृत है। यह पुस्तक 14, पृष्ठ 147 से 372 तर्थंा पुस्तक 15 पूण� और पुस्तक 16 पृष्ठ

1 से 138 में समाप्त हुआ है। इसमें क्षपक श्रेणी का बहुत अच्छा एवं निवर्शद ्निववेचन निकया गया है। इसके बाद पुस्तक 16 पृष्ठ 139 से 144 में क्षपणा-अमिधकार-चूलिलका है, इमें क्षपणा संब�ी निवलिर्शष्ट निववेचन है। इसके उपरान्त पुस्तक 16, पृष्ठ 146 से 195 में पभिश्चमस्क� अर्थंा�मिधकार है। उसमें जयधवलाकार ने चार अघानितयाकम@ (आयु, नाम, गोत्र, और वेदनीय) के क्षय का निवधान निकया है। इस प्रकार यह जयधवला टीका वीरसेन और उनके लिर्शष्य जिजनसेन इन दो आचाय@ द्वारा संपन्न हुई है। बीस ह�ार आचाय� वीरसेन द्वारा और 40 ह�ार आचाय� जिजनसेन द्वारा कुल 60 ह�ार श्लोक प्रमिमत यह टीका है।

25. जीव*त्त्व प्र�ीहिपका

यह नेमिमचन्द्रकृत चतुर्थं� टीका है।

तीसरी टीका की तरह इसका नाम भी जीवतत्त्व प्रदीनिपका है। यह केर्शववण� की कना�टकवृभित्त में लिलखी गई संस्कृत मिमभिश्रत जीवतत्त्व प्रदीनिपका का ही संस्कृत रूपान्तर है। इसके रचमियता नेमिमचन्द्र लिसद्धान्त चक्रवत� से भिभन्न और उत्तरवत� नेमिमचन्द्र हैं। ये नेमिमचन्द्र ज्ञानभूषण के लिर्शष्य रे्थं। गोम्मटसार के अचे्छ ज्ञाता रे्थं। इनका कन्नड़ तर्थंा संस्कृत दोनों पर समान अमिधकार है। यदिद इन्होंने केर्शववण� की टीका

को संस्कृत रूप नहीं दिदया होता तो पं॰ टोडरमल जी निहन्दी में लिलखी गई अपनी सम्यग्ज्ञानचंदिद्रका नहीं लिलख पाते। ये नेमिमचन्द्र गभिणत के भी निवरे्शषज्ञ रे्थं। इन्होंने अलौनिकक गभिणसंख्यात, असंख्यात, अनंत, श्रेभिण, जगत्प्रवर, घनलोक आदिद रालिर्शयों को अंकसंदृमिष्ट के द्वारा

स्पष्ट निकया है। इन्होंने जीव तर्थंा कम� निवषयक प्रत्येक चर्थिचHत निबन्दु का सुन्दर निवश्लेषण निकया है। इनकी र्शैली स्पष्ट और संस्कृत परिरमार्जिजHत है। टीका में दुरूहता या संदिदग्धता नहीं है। न ही अनावश्यक निवषय का निवस्तार निकया है। टीका में संस्कृत तर्थंा प्राकृत के लगभग 100 पद्य पद्धतृ हैं। आचाय� समन्तभद्र की आप्तमीमांसा, निवद्यानंद की आप्तपरीक्षा, सोमदेव के यर्शब्धिस्तलक, लिसद्धान्तचक्रवत� नेमिमचन्द्र के

नित्रलोकसार, पं॰ आर्शाधर के अनागारधमा�मृत आदिद ग्रन्थों से उt पद्यों को लिलया गया है। यह टीका ई॰ 16 वीं र्शताब्दी की रलिचत है। आगर्म / Aagam

भगवान महावीर के उपदेर्श जैन धम� के मूल लिसद्धान्त हैं, जिजन्हें 'आगम' कहा जाता है । वे अध�मागधी प्राकृत भाषा में हैं । उन्हें आचारांगादिद बारह 'अंगों' में संकलिलत निकया गया, जो 'द्वादरं्शग आगम' कहे

जाते हैं । वैदिदक संनिहताओं की भाँनित जैन आगम भी पहले श्रुत रूप में ही रे्थं । महावीर जी के बाद भी कई र्शताखिब्दयों तक उन्हें लिलनिपबद्ध नहीं निकया गया र्थंा । रे्श्वताम्बर और दिदगम्बर आम्नाओं में जहाँ अनेक बातों में मत-भेद र्थंा, वहीं आगमों को लिलनिपबद्ध न करने में दोनों एक

मत रे्थं । कालांतर में उन्हें लिलनिपबद्ध तो निकया गया; निकन्तु लिलखिखत रूप की प्रमाभिणकता इस धम� के दोनों संप्रदायों को समान रूप

से स्वीकृत नहीं हुई । रे्श्वताम्बर संप्रदाय के अनु्सार समस्त आगमों के छ: निवभाग हैं, जो 'अंग', 'उपांग', 'प्रकीण�क', 'छेदसूत्र', 'सूत्र' और

मूलसूत्र कहलाते हैं । इनमें 'एकादर्श अंग सूत्र' सबसे प्राचीन माने जाते हैं । दिदगम्बर संप्रदाय उपयुt आगमों को नहीं मानता है। इस संप्रदाय का मत है, अंनितम श्रुतकेवली भद्रवाहु के पश्चात

आगमों का ज्ञान लुप्तप्राय हो गया र्थंा। हि4र्भांगी टीका

1. आस्रवनित्रभंगी,

2. बंधनित्रभंगी, 3. उदयनित्रभंगी और 4. सत्त्वनित्रभंगी-इन 4 नित्रभंनिगयों को संकलिलत कर टीकाकार ने इन पर संस्कृत में टीका की है।

आस्रवनित्रभंगी 63 गार्थंा प्रमाण है। इसके रचमियता श्रुतमुनिन हैं। बंधनित्रभंगी 44 गार्थंा प्रमाण है तर्थंा उसके कता� नेमिमचन्द लिर्शष्य माधवचन्द्र हैं। उदयनित्रभंगी 73 गार्थंा प्रमाण है और उसके निनमा�ता नेमिमचन्द्र हैं। सत्त्व नित्रभंगी 35 गार्थंा प्रमाण है और उसके कता� भी नेमिमचन्द्र हैं। इन चारों पर सोमदेव ने संस्कृत में व्याख्याए ँलिलखी हैं। ये सोमदेव, यर्शब्धिस्तत्वक चम्पू काव्य के कता� प्रलिसद्ध सोमदेव से भिभन्न और 16 वीं, 17 वीं र्शताब्दी के एक भट्टारक

निवद्वान हैं। इनकी संस्कृत भाषा बहुत स्खलिलत प्रतीत होती है। उन्होंने अपनी इस नित्रभंगी चतुष्टय पर लिलखी गई टीका की भाषा को

'लाटीय भाषा' कहा है। टीका में सोमदेव ने कम@ के आस्रव, बंध, उदय और सत्वनिवषय का कर्थंन निकया है, जो सामान्य जिजज्ञासुओं के लिलए

उपयोगी है। [संपादि�* करें] धवला टीका आचाय� गुणधर कृत 'कसाय-पाहुड' एवं आचाय� पुष्पदन्त एवं भूतबलिल कृत 'षट्खण्डागम' –ये दो जैनधम� के ऐसे

निवर्शाल एवं अमूल्य-लिसद्धान्त ग्रन्थ हैं, जिजनका सीधा सम्ब� तीर्थं�कर महावीर स्वामी की द्वादर्शांग वाणी से माना जाता है। दिदगम्बर जैन परम्परा के अनुसार र्शेष शु्रतज्ञान इससे पूव� ही क्रमर्श: लुप्त व लिछन्न-भिभन्न हो गया र्थंा।* द्वादर्शांग के अंनितम अंग दृमिष्टवाद के अन्तग�त परिरकम�, सूत्र, प्रर्थंमानुयोग, पूव�गत और चूलिलका ये 5 प्रभेद हैं। इनमें पूव�गत नामक चतुर्थं� प्रभेद के पुन: 14 भेद हैं। उनमें से निद्वतीय भेद अग्रायणीय पूव�* से षट्खण्डागम का उद्भव हुआ है। इस र्शौरसेनी प्राकृत-भाषाबद्ध कम�ग्रन्थ की टीका का नाम धवला है। यह धवला टीका संस्कृत मिमभिश्रत र्शौरसेनी प्राकृत भाषाबद्ध है।

सम्प्रनित दिदगम्बर जैन परम्परा के कम�ग्रन्थों में धवलत्रय अर्थंा�त 'धवल, जयधवल तर्थंा महाधवल' का नाम सव®परिर है, जिजनका सम्मिम्मलिलत प्रमाण 72000+60,000+30,000=162,000 श्लोक प्रमाण हैं। इनका प्रकार्शन निहन्दी अनुवाद सनिहत कुल 16+16+7=39 पुस्तकों में, जिजनके कुल पृष्ठ 16,341 हैं, हुआ है। इस सानुवाद 16,341 पृष्ठ प्रमाण परमागम में जैन धम� सम्मत निवर्शाल व मौलिलक कम�लिसद्धान्त का निववेचन है। इनमें सव�प्रर्थंम आचाय� पुष्पदन्त एवं भूतबलिल कृत षट्खण्डागम पर लिलखिखत निवर्शाल टीका धवला का यहाँ परिरचय प्रस्तुत है।

धवला टीका र्शक सं0 738 कार्तितHक र्शुक्ला 13, ता0 8-10-816 ई॰ बुधवार को पूण� हुई र्थंी। इसका प्रमाण 60,000 श्लोक है। यह 16 भागों में तदनुसार 7067 पृष्ठों में 20 वष@ की दीघ� अवमिध (सन् 1938 से 1958) में प्रकालिर्शत हुई हैं*।

इसके लेखक आचाय� वीरसेन स्वामी हैं। इनका जीवनकाल र्शक-संवत् 665 से 745 है*। आपके गुरु ऐलाचाय� हैं। अर्थंवा मतान्तर से आय�नजिन्द हैं। ये लिसद्धान्त, छन्द, ज्योनितष, व्याकरण और न्याय आदिद र्शास्त्रों में पारंगत मनीषी रे्थं। *आचाय� जिजनसेन के र्शब्दों में 'वीरसेन साक्षात केवली के समान सकल निवर्श्व के पारदर्श� रे्थं। उनकी सवा�र्थं�गामिमनी नैसर्तिगHक प्रज्ञा को देखकर सव�ज्ञ की सत्ता में निकसी मनीषी को र्शंका नहीं रही र्थंी। निवद्वान लोग उनके ज्ञान-निकरणों के प्रसाद को देखकर उन्हें प्रज्ञाश्रमणों में श्रेष्ठ आचाय� और श्रुतकेवली कहते रे्थं। वे वृन्दारक, लोक-निवज्ञ, वाचस्पनितवत् वाग्मी, लिसद्धान्तोपनिनब�कता�, उनकी धवला टीका भुवन-व्यानिपनी है। वे र्शब्दब्रह्म गणधरमुनिन, निवर्श्वनिनमिध के द्रष्टा, सूक्ष्म वस्तु को जानने में साक्षात् सव�ज्ञ रे्थं।*' इनके द्वारा रलिचत धवला टीका की भाषा प्राकृत-संस्कृत मिमभिश्रत है। उदाहरणार्थं�

प्रर्थंम पुस्तक में टीका का लगभग तृतीय भाग प्राकृत में है और रे्शष बहुभाग संस्कृत में है। इसमें उद्धतृ पद्यों की संख्या 221 में से 17 संस्कृत में तर्थंा र्शेष प्राकृत में है। एवमेव आगे के भाग में भी जानना चानिहए। इस प्रकार संस्कृत-प्राकृत इन दोनों भाषाओं के मिमश्रण से मभिण-प्रवालन्यायानुसार यह रची गई हैं*। इसकी प्राकृत भाषा र्शोरसैनी है, जिजसमें कुन्दकुन्दादिद आचाय@ के ग्रन्थ पाये जाते हैं। ग्रन्थ की प्राकृत अत्यन्त परिरमार्जिजHत और प्रौढ़ है। संस्कृत भाषा भी अत्यन्त प्रौढ़, प्रा°जल तर्थंा न्यायर्शास्त्रों जैसी होकर भी कम�-लिसद्धान्त प्ररूपक है।

ग्रन्थ की रै्शली सव�त्र र्शंका उठाकर उसके समाधान करने की रही हे। जैसे प्रर्थंम पुस्तक में ही लगभग 600 रं्शका समाधान है। टीका में आचाय� वीरसेन सूत्र-निवरुद्ध व्याख्यान नहीं करते, परस्पर निवरुद्ध दो सूत्रों में समन्वयात्मक दृमिष्टकोण अपनाते हुए दोनों के संग्रह का उपदेर्श देते हैं। कहीं निवर्शेष आधारभूत सामग्री के सद्भाव में एक का ग्रहण तर्थंा दूसरे का निनषेध करने से भी नहीं चूके हैं। देर्शामर्श�क सूत्रों का सुनिवस्तृत व्याख्यान करते हैं, निकसी निववभिक्षत प्रकरण में प्रवाह्यमान-अप्रवाह्यमान उपदेर्श भी प्रदर्थिर्शHत करते हैं। निकन्दीं सूक्ष्म निवषयों पर उपदेर्श के अभाव में प्रसंग-प्राप्त निवषय की भी अप्ररूपणा करते हैं, तो कहीं उपदेर्श प्राप्त कर जान लेने की सम्प्रेरणा करते हैं। सव�त्र निवषय का निवस्तार सनिहत न्याय आदिद र्शैली से वण�न इसमें उपल� है। यह भारतीय वाङमय की अद्भतु कृनित है।

हिवषय-परिरचय षट्खण्डागम की यह धवला टीका 16 पुस्तकों में पूण� एवं प्रकालिर्शत हुई है। छ: पुस्तकों में षट्खण्डागम के जीवस्थान

नामक प्रर्थंम खण्ड की टीका निनबद्ध है। 1.- प्रर्थंम पुस्तक में गुणस्थानों और माग�णास्थानों का निववरण है। 2.- निद्वतीय पुस्तक में गुणस्थान, जीवसमास, पया�न्तिप्त आदिद 20 प्ररुपणाओं द्वारा जीव की परीक्षा की गई है। 3.- तीसरी पुस्तक द्रव्य प्रमाणानुगम है, जिजसमें ब्रह्माण्ड में व्याप्त सकल जीवों और उनकी भिभन्न-भिभन्न अवस्थाओं तर्थंा

गनितयों में भी उनकी संख्याए ंसनिवस्तार गभिणत र्शैली से सप्रमाण बताई है। 4.- चौर्थंी पुस्तक के्षत्र-स्पर्श�न-कालानुगम है। इसमें बताया है निक जीवों के निनवास व निवहार आदिद संबं�ी निकतना क्षेत्र

(ब्रह्माण्ड में) होता है, तर्थंा अतीत काल में निवभिभन्न गुणस्थानी व माग�णस्थ जीव निकतना के्षत्र स्पर्श� कर पाते हैं। वे निवभिभन्न गुणस्थानादिद में एवं गनित आदिद में निकतने काल तक रहते हैं?

5.- पंचम पुस्तक अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व निवषयक है। निववभिक्षत गुणस्थान को छोड़कर अन्यत्र जाकर पुन: उसी गुणस्थान में निकतने समय बाद आना सम्भव है? यह मध्य की निवरह-अवमिध अन्तर कहलाती है। कम@ के उपर्शम, क्षयोपर्शम, क्षय, उदय आदिद के निनमिमत्त से जो परिरणाम होते हैं उन्हें भाव कहते हैं।निवभिभन्न गुणस्थानादिदक में जीवों की हीन अमिधक संख्या की तुलना का कर्थंन करना अल्पबहुत्व है।

6.- छठीं पुस्तक चूलिलका स्वरूप है। इसमें 1-प्रकृनित-समुत्कीत�न,

2-स्थान-समुत्कीत�न,

3-5- तीनदण्डक,

6- उत्कृष्ट ल्लिस्थनित,

7- जघन्यल्लिस्थनित,

8- सम्यक्त्वोत्पभित्त तर्थंा 9- गनित-आगनित नामक 9 चूलिलकाए ंहैं।

इनमें से प्रर्थंम दो चूलिलकाओं में कम�प्रकृनित (कम@) के भेदों और उनके स्थानों की प्ररूपणा की है। सम्यक्त्व के सन्मुख जीव निकन प्रकृनितयों को बाँधता है, इसके स्पष्टीकरणार्थं� तीन दण्डक रूप तीन चूलिलकाए ंहैं। कम@ की उत्कृषं्ट तर्थंा जघन्यल्लिस्थनित छठीं व सातवीं चूलिलकाए ंप्ररूनिपत करती हैं। प्रर्थंम की 7 चूलिलकाओं द्वारा कम� का निवस्तार से वण�न निकया

गया है। रे्शष दो में क्रमर्श: कम�वण�नाधारिरत सम्यक्दर्श�न-उत्पभित्त तर्थंा जीवों की गनित आगनित सनिवस्तार वर्णिणHत है। छठीं पुस्तक के कम@ का सनिवस्तार सभेद-प्रभेद वण�न है, अत: प्रासंनिगक जानकर किकHलिचत लिलखा जाता है-

जैनदर्श�न में कम� के दो प्रकार कहे हैं-

1. एक द्रव्यकम�, 2. दूसरा भावकम�। यह कम� एक संस्कार मात्र नहीं है, निकन्तु एक वस्तुभूत पदार्थं� है। जो रागी, दे्वषी जीव की निक्रया का

निनमिमत्त पाकर उसकी ओर आकृष्ट होता है और दूध व पानी की तरह वह जीव के सार्थं घुल-मिमल जाता है। यह (द्रव्य कम�) है तो भौनितक पदार्थं�, निकन्तु उसका कम� नाम इसलिलए रूढ़ हो गया निक वह जीव की मानलिसक, वाचनिनक और कामियक निक्रया से आकृष्ट होकर जीव के सार्थं बँध जाता है। जहाँ अन्य दर्श�न राग और दे्वष से आनिवष्ट जीव की निक्रया को कम� ओर इस कम� के क्षभिणक होने से तज्जन्य संस्कार को स्थायी मानते हैं वहाँ जैन दर्श�न का मत है निक रागदे्वष से आनिवष्ट जीव की प्रत्येक निक्रया के द्वारा एक प्रकार का द्रव्य आत्मा के सार्थं आकृष्ट होता है और उसके जो रागदे्वषरूप परिरणामों का निनमिमत्त पाकर वह आत्मा के सार्थं बँध को प्राप्त हो जाता है। तर्थंा कालान्तर में वही द्रव्य आत्मा को अच्छा या बुरा फल मिमलने में हेतु होता है*।

जीव के राग, दे्वष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदिद रूप भाव (निवकारी परिरणाम) ही भावकम� है। इनके निनमिमत्त से उसी क्षण, निनयत, सूक्ष्म (इजिन्द्रयों से आग्राह्य) पुद्गल परमाणु आत्मा के सार्थं संशे्लष को प्राप्त हो जाते हैं। यही संशे्लष को प्राप्त होने वाले परमाणु द्रव्यकम� कहलाते हैं। ये र्शुभभावों के समय आत्मा के सार्थं बँधकर पुन: निनयत काल तक दिटक कर पृर्थंक् होते समय आत्मा को रु्शभ फल देते हैं। तर्थंा मियद ये ही कम� अरु्शभ भावों के द्वारा बँधते हैं तो कालान्तर में पृर्थंक् होते समय अर्शुभ फल देकर पृर्थंक् होते हैं। प्रनित समय अनन्त कम� परमाणु बँधते हैं तर्थंा अनन्त ही खिखरते हैं।

द्रव्यकम� के मूल आठ भेद हैं-

1. जो आत्मा के ज्ञान गुण का आवरण (प्रच्छादन) करता है वह ज्ञानावरणी कम� है, 2. जो दर्श�न गुण को आवृत करता है वह दर्श�नावरण कम� है,

3. जो वेदन अर्थंा�त सुख या दु:ख का अनुभवन निकया जाता है वह वेदनीय कम� है, 4. जो मोनिहत करता है वह मोहनीय कम� है, 5. जो भवधारण के प्रनित जाता है वह आयु कम� है,

6. जो नाना प्रकार की रचना निनष्पन्न करता है वह नाम कम� है, 7. जो उच्च व नीच कुल में ले जाता है वह गोत्र कम� है,

8. जो दान, लाभ, भोग, उपभोग व वीय� में निवघ्न करता है वह अन्तराय कम� है*। इन आठ कम@ के भी भेद क्रमर्श: 5, 9, 2, 28, 4, 93, 2, 5 हैं। इस तरह द्रव्यकम� के कुल 148 उत्तर भेद हो जाते हैं।

ज्ञानावरण के 5 भेद-

1. मनितज्ञानावरण,

2. श्रुताज्ञावरण,

3. अवमिधज्ञानावरण,

4. मन:पय�यज्ञानावरण व 5. केवलज्ञानावरण हैं। जो मनितज्ञान का आवरण करता है वह मनितज्ञानावरण कम� है। इसी तरह श्रुतज्ञान आदिद ज्ञानों के

आवारक कम� ज्ञातानावरण आदिद नाम से अभिभनिहत होते हैं।

दर्श�नावरण के 9 भेद हैं-

1. चकु्षद�र्शनावरण,

2. अचकु्षद�र्श�नावरण,

3. अवमिधदर्श�ना0

4. केवलदर्श�ना0,

5. निनद्रा, 6. निनद्रानिनद्रा, 7. प्रचला, 8. प्रचलाप्रचला, 9. स्त्यानगृजिद्ध।

चकु्षद�र्श�न का आच्छादक-आवारक कम� चक्षुद�र्श�नावरण है इसी तरह आगे भी जानना चानिहए। निनद्रा आदिद 5 भी आत्मा के दर्श�नागुण के घातक होने से दर्श�नावरण के भेदों में परिरगभिणत निकए हैं। सुख तर्थंा दु:ख का वेदन कराने वाले क्रमर्श: साता व असाता नामक दो वेदनीय कम� हैं।

मोहनीय के 28 भेद हैं- 4 अनन्तानुबंधी, 4 अप्रत्याख्यानावरण, 4 प्रत्याख्यानावरण, 4 संज्वलन- ये 16 कषायें तर्थंा हास्य, रनित, अरनित, भय, जुगुप्सा, र्शोक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद- ये 9 नोकषाय और मिमथ्यात्व, सम्यक्त्व तर्थंा सम्यन्तिग्मथ्यात्व – ये तीन दर्श�नमोह। इन 28 भेदों में से आदिद के 25 भेद चारिरत्रगुण का घात करते हैं तर्थंा अन्तिन्तम तीन भेद आत्मा के सम्यक्त्व गुण को रोकते हैं। आयुकम� के 4 भेद- नरक, नितय�च, मनुष्य तर्थंा देव। नरक-आयुकम� नरक को धारण करता है। इसी तरह नितय�च आदिद भवों को धारण कराने वाले भवकम� नितय�चायुकम� आदिद संज्ञा प्राप्त करते हैं। आयुकम� जीव की स्वतंन्त्रता को रोकता तर्थंा अवगाहनत्व गुण को घातता है।

नामकम� के 93 भेद हैं-

1. गनित 4,

2. जानित 5,

3. र्शरीर 5,

4. र्शरीर-बंधन 5,

5. र्शरीरसंघात 5,

6. र्शरीर अंगोपांग 3,

7. संहनन 6,

8. संस्थान 6,

9. वण� 5,

10. गंध 2,

11. रस 5,

12. स्पर्श� 8,

13. आनुपूव� 4,

14. अगुरुलघु 1,

15. उपघात 1,

16. उच्छ्वास 1,

17. आतप 1, उ 18. द्योत 1,

19. निवहायोगनित 2,

20. त्रस 1,

21. स्थावर 1,

22. बादर 1,

23. सूक्ष्म 1,

24. पया�प्त 1,

25. अपया�प्त 1,

26. प्रत्येक 1,

27. साधारण 1,

28. ल्लिस्थर 1,

29. अल्लिस्थर 1,

30. रु्शभ 1,

31. अर्शुभ 1,

32. सुभग 1,

33. दुभ�ग 1,

34. सुस्वर 1,

35. दु:स्वर 1,

36. आदेय 1,

37. अनादेय 1,

38. यर्श:कीर्तितH 1,

39. अयर्श:कीर्तितH 1,

40. निनमा�ण 1, व 41. तीर्थं�कर 1। यह नामकम� अर्शरीरिरत्व (सूक्ष्मत्व) गुण का घात करता है*।

गोत्रकम� के दो भेद हैं-

1. जो उच्चगोत्र का कारक है वह उच्च गोत्र कम� है तर्थंा 2. जिजस कम� के उदय से जीवों के नीच गोत्र (गोत्र= कुल, वंर्श, संतान) होता है वह नीच गोत्र कम� हैं*।

अन्तराय कम� के 5 भेद हैं- जिजस कम� के उदय से दान देते हुए जीव के निवघ्न होता है वह दानान्तराय कम� है। इसी तरह लाभ, भोग, उपभोग व वीय� में निवघ्नकारक कम� लाभान्तराय आदिद नामों से कहे जाते हैं।*

गोत्रकम� के अभाव में आत्मा का अनुरुलघुत्व गुण प्रकट होता है तर्थंा अन्तराय के अभाव में अनन्तवीय� आदिद 5 क्षामियकलब्धि� भी प्रकट होती है।*

इन कम@ की निवस्तृत परिरभाषाए ंप्रकृनित, ल्लिस्थनित, अनुभाग और प्रदेर्शब�, उदय, स व आदिद धवल आदिद मूल ग्रन्थों से जानना चानिहए।*

7.- सातवीं पुस्तक में षट्खण्डागम के दूसरे खण्ड 'कु्षद्रब�' की टीका है, जिजसमें संके्षपत: कम�ब� का प्रनितपादन निकया गया है।

8.- आठवीं पुस्तक में ब�स्वामिमत्वनिवचय नामक तृतीय खण्ड की टीका पूरी हुई है। इस पुस्तक में बताया गया है निक कौन-सा कम�ब� निकस गुणस्थान व माग�णास्थान में सम्भव है। इसी सन्दभ� में निनरन्तरबंधी, सान्तरबंधी, ध्रुवबंधी आदिद प्रकृनितयों का खुलासा निकया गया है।

9.- नवम पुस्तक में वेदनाखण्ड सम्ब�ी कृनितअनुयोगद्वार की टीका है। आद्य 44 मंगल सूत्रों की टीका में निवभिभन्न ज्ञानों की निवर्शद प्ररूपणा है। निफर सूत्र 45 से ग्रन्थान्त तक कृनित अनेयागद्वार का निवभिभन्न अनुयोग द्वारों से प्ररूपण है।

10.-दसवीं पुस्तक में वेदनानिनके्षप, नयनिवभाषणता, नामनिवधान तर्थंा वेदना-द्रव्य-निवधान अनुयोगद्वारों का सनिवस्तार निववेचन है।

11.- ग्यारहवीं पुस्तक में वेदना के्षत्रनिवधान तर्थंा कालनिवधान का निवभिभन्न अनुयोगद्वारों (अमिधकारों) द्वारा वण�न करके निफर दो चूलिलकाओं द्वारा अरुलिचत अर्थं� का प्ररूपण तर्थंा प्ररूनिपत अर्थं� निवलिर्शष्ट खुलासा निकया है।

12.-बारहवीं पुस्तक में वेदना भावनिवधान आदिद 10 अनुयोगद्वारों द्वारा गुणश्रेणी निनज�रा, अनुभाग-निवषयक सूक्ष्मतम, निवस्तृत तर्थंा अन्यत्र अलभ्य ऐसी प्ररूपणाए ँकी गई हैं।

इस तरह वेदना अनुयोगद्वार के 16 अमिधकार तीन पुस्तकों (10, 11 व 12) में सटीक पूण� होते हैं। 5 वें खण्ड की टीका पुस्तक 13 व 14 में पूण� हुई है, जिजसमें 13 वीं पुस्तक में स्पर्श� कम� व प्रकृनित अनुयोगद्वार हैं। स्पर्श� अनुयोगद्वार का अवान्तर अमिधकारों द्वारा निववेचन करके निफर कम� अनुयोगद्वार का अकल्प्य 16 अनुयोगद्वारों द्वारा वण�न करके तत्पश्चात अन्त में प्रकृनित अनुयोगद्वार में आठों कम@ का सांगोपांग वण�न निकया है। चौदहवीं पुस्तक में ब�न अनुयोगद्वार द्वारा ब�, ब�क, ब�नीय (जिजसमें 24 वग�णाओं तर्थंा पंचर्शरीरों का प्ररूपण है) तर्थंा ब� निवधान (इसका प्ररूपण नहीं है, मात्र नाम निनद�र्श है) इन 4 की प्ररूपणा की है। अन्तिन्तम दो पुस्तकों में सत्कमा�न्तग�त रे्शष 18 अनुयोगद्वारों (निनब�न, प्रक्रम आदिद) की निवस्तृत निववेचना की गई है। इस तरह 16 पुस्तकों में धवला टीका पूण� होती है।

धवला र्में अन्यान्य वैभिर्शष्ट्य गभिण* के के्ष4 र्में धवला का र्मौधिलक अव�ान इसमें गभिणत संब�ी करणसूत्र व गार्थंाए ं54 पायी जाती हैं, जो लेखक के गभिणत निवषयक गम्भीर ज्ञान की परिरचायक

हैं।* उस जमाने (युग) में भी धवलाकार दार्शमिमक पद्धनित से पूण� परिरलिचत रे्थं।* इसमें बड़ी संख्याओं का भी बहुतायत से उपयोग हुआ है। धवला में जोड़, बाकी, गुणा, भाग, वग�मूल, घनमूल, संख्याओं का घात (वग�) आदिद मौलिलक प्रनिक्रयाओं का कर्थंन उपल� है। धवल का घातांक लिसद्धान्त 500 ई॰ पूव� का है। वग�, घन, उत्तरोत्तरवग� (निद्वरूपवग�धारा में), उत्तरोत्तरघन, निकसी संख्या का संख्यातुल्यघात निनकालना, उत्तरोत्तरवग�मूल, घनमूल, लोगरिरर्थंम (लघुरिरक्र्थं), अद्ध�चे्छद, वग�र्शलाका, नित्रकचे्छद, चतुर्थं�चे्छद, भिभन्न,तै्ररालिर्शक, अनंतवग�करण, असंख्यात, संख्यात तर्थंा इनके सुव्यवल्लिस्थत भेदों का निनरूपण पुस्तक 3, 4, 10 में बहुतायत से देखने को मिमलता है।*

व्याकरण-र्शास्4 र्शब्दर्शास्त्र में लेखक की अबाध गनित के धवला में अनेक उदाहरण हैं। र्शब्दों के निनरुtार्थं� प्रकट करते हुए उसे

व्याकरणर्शास्त्र से लिसद्ध निकया गया है। उदाहरण के लिलए धवला 1/9-10, 32-34, 42-44, 48, 51, 131 द्रष्टव्य है। समासों के प्रयोग हेतु धवला 3/ 4-7, 1/90-91, 1/133, धवल 12/290-91 आदिद तर्थंा प्रत्यय प्रयोग हेतु धवल 13/243-3 आदिद देखने योग्य हैं।

न्यायर्शास्4 न्यायर्शास्त्रीय पद्धनित होने से धवला में अनेक न्यायोलिtयाँ भी मिमलती हैं। यर्थंा-धवल 3/27-130, धवल पु0 1 पं॰

28, 219, 218, 237, 270, धवल 1/200, 205, 140, 72, 196, धवल 3/18, 120, धवल 13, पृष्ठ 2, 302, 307, 317 आदिद। अन्य दर्श�न के मत-उदाहरण (धवल 6/490 आदिद) तर्थंा काव्य प्रनितभा एवं गद्य भाषालंकरण तो मूल ग्रन्थ देखने पर ही जान पड़ता है।

र्शास्4ों के नार्मोbलेख प्रमाण देते समय लेखक ने धवला में कषायपाहुड, आचारांग आदिद 27 ग्रन्थों के नाम निनद�र्शपूव�क उद्धरण दिदये हैं* तो

वहीं पर पचासों ग्रन्थों की गार्थंाओं और गद्यांर्शों आदिद को ग्रन्थनाम निबना भी उद्धतृ निकया है। कुल दोनों प्रकार के उद्धरण 775 हैं। द्वादर्शांग से निन:सृत होने से यह ग्रन्थ प्रमाण है। सार्थं ही इसमें आचाय� परम्परागत व गुरुपदेर्श को ही मह व दिदया है।* तर्थंा जहाँ उन्हें उपदेर्श अप्राप्त रहा वहाँ स्पष्ट कह दिदया निक इस निवषय में जानकर (यानिन उपदेर्श प्राप्त कर) कहना चानिहए* इन सबसे* ग्रन्थ की प्रामाभिणकता निनबा�ध लिसद्ध होती है।

प्राचीन �ार्श�हिनकों के नार्मोbलेख धवल में 137 दार्श�निनकों के नाम आए हैं। यर्थंा-अष्टपुत्र, आनन्द, ऋनिषदास, औपमन्यव, कनिपल, कंसाचाय�,

कार्तितHकेय, गोवध�न, गौतम, लिचलातपुत्र, जयपाल, जमैिमनिन, निपप्पलाद, वादरायण, निवष्णु, वलिसष्ठ आदिद।*

*ीथ�स्थानों, नगरों के नार्मोbलेख इसी तरह 42 भौगोलिलक स्थानों के नाम भी आए हैं। यर्थंा आ�*, अंकुलेर्श्वर*, ऊज�यन्त*, ऋजुकूला नदी*,

चन्द्रगुफ़ा*, जबृ्धिम्भकाग्राम*, पाण्डुनिगरिर*, वैभार*सौराष्ट्र*आदिद। इन उल्लेखों से तत्कालीन युग के स्थानों का अब्धिस्तत्व ज्ञात होता है।

पंचसंग्र�टीका / Panchsangrah Teeka

अनुक्रर्म [छुपा] 1 पंचसंग्रहटीका / Panchsangrah Teeka 2 कम� - प्रकृनित 3 कम� - निवपाक 4 कम� - प्रकृनित - भाष्य

5 सम्बंमिधत सिलHक

संस्कार / Sanskar

अनुक्रर्म 1 संस्कार / Sanskar 2 संस्कारों का उÁेश्य

3 संस्कारों की कोदिटयाँ 4 संस्कारों की संख्या

o 4.1 ॠतु - संगमन o 4.2 गभा�धान ( निनषेक ), चतुर्थं�कम� या होम o 4.3 पंुसवन o 4.4 गभ�रक्षण o 4.5 सीमान्तोन्नयन o 4.6 निवष्णुबलिल o 4.7 सोष्यन्ती - कम� या होम o 4.8 जातकम� o 4.9 उत्थान o 4.10 नामकरण o 4.11 निनष्क्रमण o 4.12 कण�वेध o 4.13 अन्नप्रार्शन o 4.14 वष�वध�न या अब्दपूर्तितH o 4.15 चौल या चूड़ाकम� या चूड़ाकरण o 4.16 निवद्यारम्भ o 4.17 उपनयन o 4.18 व्रत ( चार ) o 4.19 केर्शान्त या गोदान o 4.20 समावत�न या स्नान o 4.21 निववाह o 4.22 महायज्ञ o 4.23 उत्सग� o 4.24 उपाकम� o 4.25 अन्त्येमिष्ट

5 संस्कार एवं वण�

6 संस्कार - निवमिध

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