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Page 1: प्रेमचंद - Kishore Karuppaswamy · Web viewकथ -क रम म क : 2 समर-य त र : 7 श त : 20 ब क क द व ल : 36 म क क द र और

पे्रमचंद

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कथा-क्रम

मैकू : 2समर-यात्रा : 7शांति : 20बैक का दि�वाला : 36

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मैकू

कादि�र और मैकू ाड़ीखाने के सामने पहूँचे; ो वहॉँ कॉँग्रेस के वालंदि!यर झंडा लिलए खडे़ नजर आये। �रवाजे के इधर-उधर हजारों �श.क खडे़ थे। शाम का वक्त था। इस वक्त गली में तिपयक्कड़ों के लिसवा और कोई न आ ा था। भले आ�मी इधर से तिनकल े झिझझक े। तिपयक्कड़ों की छो!ी-छो!ी !ोलिलयॉँ आ ी-जा ी रह ी थीं। �ो-चार वेश्याऍं दूकान के सामने खड़ी नजर आ ी थीं। आज यह भीड़-भाड़ �ेख कर मैकू ने कहा—बड़ी भीड़ है बे, कोई �ो- ीन सौ आ�मी होंगे।

कादि�र ने मुस्करा कर कहा—भीड़ �ेख कर डर गये क्या? यह सब हुर. हो जायँगे, एक भी न दि!केगा। यह लोग माशा �ेखने आये हैं, लादिCयॉँ खाने नहीं आये हैं।

मैकू ने सं�ेह के स्वर में कहा—पुलिलस के लिसपाही भी बैCे हैं। Cीके�ार ने ो कहा थ, पुलिलस न बोलेगी।

कादि�र—हॉँ बे , पुलिलस न बोलेगी, ेरी नानी क्यों मरी जा रही है । पुलिलस वहॉँ बोल ी है, जहॉँ चार पैसे मिमल े है या जहॉँ कोई और का मामला हो ा है। ऐसी बेफजूल बा ों में पुलिलस नहीं पड़ ी। पुलिलस ो और शह �े रही है। Cीके�ार से साल में सैकड़ों रुपये मिमल े हैं। पुलिलस इस वक्त उसकी म�� न करेगी ो कब करेगी?

मैकू—चलो, आज �स हमारे भी सीधे हुए। मुफ् में तिपयेंगे वह अलग, मगर हम सुन े हैं, कॉँग्रेसवालों में बडे़-बडे़ माल�ार लोग शरीक है। वह कहीं हम लोगों से कसर तिनकालें ो बुरा होगा।

कादि�र—अबे, कोई कसर-वसर नहीं तिनकालेगा, ेरी जान क्यों तिनकल रही है? कॉँग्रेसवाले तिकसी पर हाथ नहीं उCा े, चाहे कोई उन्हें मार ही डाले। नहीं ो उस दि�न जुलूस में �स-बारह चौकी�ारों की मजाल थी तिक �स हजार आ�मिमयों को पी! कर रख �े े। चार ो वही Cंडे हो गये थे, मगर एक ने हाथ नहीं उCाया। इनके जो महात्मा हैं, वह बडे़ भारी फकीर है ! उनका हुक्म है तिक चुपके से मार खा लो, लड़ाई म करो।

यों बा ें कर े-कर े �ोनों ाड़ीखाने के द्वार पर पहुँच गये। एक स्वयंसेवक हाथ जोड़कर सामने आ गया और बोला –भाई साहब, आपके मजहब में ाड़ी हराम है।

मैकू ने बा का जवाब चॉँ!े से दि�या । ऐसा माचा मारा तिक स्वयंसेवक की ऑंखों में खून आ गया। ऐसा मालूम हो ा था, तिगरा चाह ा है। दूसरे स्वयंसेवक ने �ौड़कर उसे सँभाला। पॉँचों उँगलिलयो का रक्तमय प्रति तिबम्ब झलक रहा था।

मगर वालंदि!यर माचा खा कर भी अपने स्थान पर खड़ा रहा। मैकू ने कहा—अब ह! ा है तिक और लेगा?

स्वयंसेवक ने नम्र ा से कहा—अगर आपकी यही इच्छा है, ो लिसर सामने तिकये हुए हँू। झिज ना चातिहए, मार लीझिजए। मगर अं�र न जाइए।

यह कह ा हुआ वह मैकू के सामने बैC गया ।मैकू ने स्वयंसेवक के चेहरे पर तिनगाह डाली। उसकी पॉचों उँगलिलयों के तिनशान

झलक रहे थे। मैकू ने इसके पहले अपनी लाCी से !ू!े हुए तिक ने ही लिसर �ेखे थे, पर आज की-सी ग्लानी उसे कभी न हुई थी। वह पाँचों उँगलिलयों के तिनशान तिकसी पंचशूल की भॉति उसके ह्र�य में चुभ रहे थे।

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कादि�र चौकी�ारों के पास खड़ा लिसगरे! पीने लगा। वहीं खडे़-खडे़ बोला—अब, खड़ा क्या �ेख ा है, लगा कसके एक हाथ।

मैकू ने स्वयंसेवक से कहा— ुम उC जाओ, मुझे अन्�र जाने �ो।‘आप मेरी छा ी पर पॉँव रख कर चले जा सक े हैं।’‘मैं कह ा हँू, उC जाओ, मै अन्�र ाड़ी न पीउँगा , एक दूसरा ही काम है।’उसने यह बा कुछ इस दृढ़ ा से कही तिक स्वयंसेवक उCकर रास् े से ह! गया। मैकू

ने मुस्करा कर उसकी ओर ाका । स्वयंसेवक ने तिफर हाथ जोड़कर कहा—अपना वा�ा भूल न जाना।

एक चौकी�ार बोला—ला के आगे भू भाग ा है, एक ही माचे में Cीक हो गया !कादि�र ने कहा—यह माचा बच्चा को जन्म-भर या� रहेगा। मैकू के माचे सह

लेना मामूली काम नहीं है।चौकी�ार—आज ऐसा Cोंको इन सबों को तिक तिफर इधर आने को नाम न लें ।कादि�र—खु�ा ने चाहा, ो तिफर इधर आयेंगे भी नहीं। मगर हैं सब बडे़ तिहम्म ी।

जान को हथेली पर लिलए तिफर े हैं।2

मैकू भी र पहुँचा, ो Cीके�ार ने स्वाग तिकया –आओ मैकू मिमयॉँ ! एक ही माचा लगा कर क्यो रह गये? एक माचे का भला इन पर क्या असर होगा? बडे़ ल खोर हैं सब। तिक ना ही पी!ो, असर ही नहीं हो ा। बस आज सबों के हाथ-पॉँव ोड़ �ो; तिफर इधर न आयें ।

मैकू— ो क्या और न आयेंगें?Cीके�ार—तिफर आ े सबों की नानी मरेगी।मैकू—और जो कहीं इन माशा �ेखनेवालों ने मेरे ऊपर डंडे चलाये ो!Cीके�ार— ो पुलिलस उनको मार भगायेगी। एक झड़प में मै�ान साफ हो जाएगा।

लो, जब क एकाध बो ल पी लो। मैं ो आज मुफ् की तिपला रहा हँू।मैकू—क्या इन ग्राहकों को भी मुफ् ?Cीके�ार –क्या कर ा , कोई आ ा ही न था। सुना तिक मुफ् मिमलेगी ो सब धँस

पडे़।मैकू—मैं ो आज न पीऊँगा।Cीके�ार—क्यों? ुम्हारे लिलए ो आज ाजी ाड़ी मँगवायी है। मैकू—यों ही , आज पीने की इच्छा नहीं है। लाओ, कोई लकड़ी तिनकालो, हाथ से

मार े नहीं बन ा ।Cीके�ार ने लपक कर एक मो!ा सों!ा मैकू के हाथ में �े दि�या, और डंडेबाजी का

माशा �ेखने के लिलए द्वार पर खड़ा हो गया ।मैकू ने एक क्षण डंडे को ौला, ब उछलकर Cीके�ार को ऐसा डंडा रसी� तिकया

तिक वहीं �ोहरा होकर द्वार में तिगर पड़ा। इसके बा� मैकू ने तिपयक्कड़ों की ओर रुख तिकया और लगा डंडों की वर्षाा. करने। न आगे �ेख ा था, न पीछे, बस डंडे चलाये जा ा था।

ाड़ीबाजों के नशे तिहरन हुए । घबड़ा-घबड़ा कर भागने लगे, पर तिकवाड़ों के बीच में Cीके�ार की �ेह बिबंधी पड़ी थी। उधर से तिफर भी र की ओर लपके। मैकू ने तिफर डंडों से आवाहन तिकया । आखिखर सब Cीके�ार की �ेह को रौ�-रौ� कर भागे। तिकसी का हाथ !ू!ा,

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तिकसी का लिसर फू!ा, तिकसी की कमर !ू!ी। ऐसी भग�ड़ मची तिक एक मिमन! के अन्�र ाड़ीखाने में एक लिचतिड़ये का पू भी न रह गया।

एकाएक म!कों के !ू!ने की आवाज आयी। स्वयंसेवक ने भी र झाँक कर �ेखा, ो मैकू म!कों को तिवध्वंस करने में जु!ा हुआ था। बोला—भाई साहब, अजी भाई साहब, यह आप गजब कर रहे हैं। इससे ो कहीं अच्छा तिक आपने हमारे ही ऊपर अपना गुस्सा उ ारा हो ा।

मैंकू ने �ो- ीन हाथ चलाकर बाकी बची हुई बो लों और म!कों का सफाया कर दि�या और ब चल े-चल े Cीके�ार को एक ला जमा कर बाहर तिनकल आया।

कादि�र ने उसको रोक कर पूछा – ू पागल ो नहीं हो गया है बे?क्या करने आया था, और क्या कर रहा है।

मैकू ने लाल-लाल ऑंखों से उसकी ओर �ेख कर कह—हॉँ अल्लाह का शुक्र है तिक मैं जो करने आया था, वह न करके कुछ और ही कर बैCा। ुममें कूव हो, ो वालं!रों को मारो, मुझमें कूव नहीं है। मैंने ो जो एक थप्पड़ लगाया। उसका रंज अभी क है और हमेशा रहेगा ! माचे के तिनशान मेरे कलेजे पर बन गये हैं। जो लोग दूसरों को गुनाह से बचाने के लिलए अपनी जान �ेने को खडे़ हैं, उन पर वही हाथ उCायेगा, जो पाजी है, कमीना है, नाम�. है। मैकू तिफसा�ी है, लCै ,गुंडा है, पर कमीना और नाम�. नहीं हैं। कह �ो पुलिलसवालों से , चाहें ो मुझे तिगरफ् ार कर लें।

कई ाड़ीबाज खडे़ लिसर सहला े हुए, उसकी ओर सहमी हुई ऑंखो से ाक रहै थे। कुछ बोलने की तिहम्म न पड़ ी थी। मैकू ने उनकी ओर �ेख कर कहा –मैं कल तिफर आऊँगा। अगर ुममें से तिकसी को यहॉँ �ेखा ो खून ही पी जाऊँगा ! जेल और फॉँसी से नहीं डर ा। ुम्हारी भलमनसी इसी में है तिक अब भूल कर भी इधर न आना । यह कॉँग्रेसवाले ुम्हारे दुश्मन नहीं है। ुम्हारे और ुम्हारे बाल-बच्चों की भलाई के लिलए ही ुम्हें पीने से रोक े हैं। इन पैसों से अपने बाल-बच्चो की परवरिरश करो, घी-दूध खाओ। घर में ो फाके हो रहै हैं, घरवाली ुम्हारे नाम को रो रही है, और ुम यहॉँ बैCे पी रहै हो? लान है इस नशेबाजी पर ।

मैकू ने वहीं डंडा फें क दि�या और क�म बढ़ा ा हुआ घर चला। इस वक्त क हजारों आ�मिमयों का हुजूम हो गया था। सभी श्रद्धा, पे्रम और गव. की ऑंखो से मैकू को �ेख रहे थे।

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समर यात्राआज सबेरे ही से गॉँव में हलचल मची हुई थी। कच्ची झोपतिड़यॉँ हँस ी हुई जान

पड़ ी थी। आज सत्याग्रतिहयों का जत्था गॉँव में आयेगा। को�ई चौधरी के द्वार पर चँ�ोवा ना हुआ है। आ!ा, घी, रकारी , दुध और �ही जमा तिकया जा रहा है। सबके चेहरों पर उमंग है, हौसला है, आनन्� है। वही बिबं�ा अहीर, जो �ौरे के हातिकमो के पड़ाव पर पाव-पाव भर दूध के लिलए मुँह लिछपा ा तिफर ा था, आज दूध और �ही के �ो म!के अतिहराने से ब!ोर कर रख गया है। कुम्हार, जो घर छोड़ कर भाग जाया कर ा था , मिमट्टी के ब .नों का अ!म लगा गया है। गॉँव के नाई-कहार सब आप ही आप �ौडे़ चले आ रहे हैं। अगर कोई प्राणी दुखी है, ो वह नोहरी बुदिढ़या है। वह अपनी झोपड़ी के द्वार पर बैCी हुई अपनी पचहत्तर साल की बूढ़ी लिसकुड़ी हुई ऑंखों से यह समारोह �ेख रही है और पछ ा रही है। उसके पास क्या है,झिजसे ले कर को�ई के ,द्वार पर जाय और कहे—मैं यह लायी हँू। वह ो �ानों को मुह ाज है।

मगर नोहरी ने अचे्छ दि�न भी �ेखे हैं। एक दि�न उसके पास धन, जन सब कुछ था। गॉँव पर उसी का राज्य था। को�ई को उसने हमेशा नीचे �बाये रखा। वह स्त्री होकर भी पुरुर्षा थी। उसका पति घर में सो ा था, वह खे मे सोने जा ी थी। मामले –मुक�में की पैरवी खु� ही कर ी थी। लेना-�ेना सब उसी के हाथों में था लेतिकन वह सब कुछ तिवधा ा ने हर लिलया; न धन रहा, न जन रहे—अब उनके नामों को रोने के लिलए वही बाकी थी। ऑंखों से सूझ ा न था, कानों से सुनायी न �े ा था, जगह से तिहलना मुश्किश्कल था। तिकसी रह जिजं�गी के दि�न पूरे कर रही थी और उधर को�ई के भाग उ�य हो गये थे। अब चारों ओर से को�ई की पूछ थी—पहूँच थी। आज जलसा भी को�ई के द्वार पर हो रहा हैं। नोहरी को अब कौन पूछेगा । यह सोचकर उसका मनस्वी ह्र�य मानो तिकसी पत्थर से कुचल उCा। हाय ! मगर भगवान उसे इ ना अपंग न कर दि�या हो ा, ो आज झोपडे़ को लीप ी, द्वार पर बाजे बजवा ी; कढ़ाव चढ़ा �े ी, पुतिड़यॉँ बनवायी और जब वह लोग खा चुक े; ो अँजुली भर रुपये उनको भें! कर �े ी।

उसे वह दि�न या� आया जब वह बूढे़ पति को लेकर यहॉँ से बीस कोस महात्मा जी के �श.न करने गयी थी। वह उत्साह , वह सात्वित्वक पे्रम, वह श्रद्धा, आज उसके ह्र�य में आकाश के मदि!याले मेंघों की भॉँति उमड़ने लगी।

को�ई ने आ कर पोपले मुँह से कहा—भाभी , आज महात्मा जी का जत्था आ रहा है। ुम्हें भी कुछ �ेना है। नोहरी ने चौधरी का क!ार भरी हुई ऑंखों से �ेखा । तिन�.यी मुझे जलाने आया है। नीचा दि�खाना चाह ा है। जैसे आकाश पर चढ़ कर बोली –मुझे जो कुछ �ेना है, वह उन्हीं लोंगो को दँूगी । ुम्हें क्यों दि�खाऊँ !

को�ई ने मुस्करा कर कहा—हम तिकसी से कहेगें नहीं, सच कह े हैं भाभी, तिनकालो वह पुरानी हॉँड़ी ! अब तिकस दि�न के लिलए रखे हुए हो। तिकसी ने कुछ नहीं दि�या। गॉंव की लाज कैसे रहैगी ?

नोहरी ने कCोर �ीन ा के भाव से कहा—जले पर नमक न लिछड़को, �ेवर जी! भगवान ने दि�या हो ा, ो ुम्हें कहना न पड़ ा । इसी द्वार पर एक दि�न साधु-सं , जोगी-ज ी,हातिकम-सूबा सभी आ े थे; मगर सब दि�न बराबर नहीं जा े !

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को�ई लज्जिt हो गया। उसके मुख की झुर्रिरंयॉँ मानों रेंगने लगीं। बोला – ुम ो हँसी-हँसी में तिबगड़ जा ी हो भाभी ! मैंने ो इसलिलए कहा था तिक पीछे से ुम यह न कहने लगो—मुझसे ो तिकसी ने कुछ कहा ही नहीं ।

यह कह ा हुआ वह चला गया। नोहरी वहीं बैCी उसकी ओर ाक ी रही। उसका वह वं्यग्य सप. की भॉँति उसके सामने बैCा हुआ मालूम हो ा था।

2नोहरी अभी बैCी हूई थी तिक शोर मचा—जत्था आ गया। पश्चिxम में ग�. उड़ ी हुई

नजर आ रही थी, मानों पृथ्वी उन यातित्रयों के स्वाग में अपने राज-रत्नों की वर्षाा. कर रही हो। गॉँव के सब स्त्री-पुरुर्षा सब काम छोड़-छोड़ कर उनका अश्चिभवा�न करने चले। एक क्षण मे ति रंगी प ाका हवा में फहरा ी दि�खायी �ी, मानों स्वराज्य ऊँचे आसन पर बैCा हुआ सबको आशीवा.� �े रहा है।

स्त्रिस्त्रयां मंगल-गान करने लगीं। जरा �ेर में यातित्रयों का �ल साफ नजर आने लगा। �ो-�ो आ�मिमयों की क ारें थीं। हर एक की �ेह पर खद्दर का कु ा. था, लिसर पर गॉँधी !ोपी , बगल में थैला ल!क ा हुआ, �ोनों हाथ खाली, मानों स्वराज्य का आलिलंगन करने को ैयार हों। तिफर उनका कण्C-स्वर सुनायी �ेने लगा। उनके मर�ाने गलों से एक कौमी राना तिनकल रहा था, गम.,गहरा, दि�लों में सू्फर्ति ं डालनेवाला—

एक दि�न वह था तिक हम सारे जहॉँ में फ�. थे,एक दि�न यह है तिक हम-सा बेहया कोई नहीं।एक दि�न वह था तिक अपनी शान पर �े े थे जान,एक दि�न यह है तिक हम-सा बेहया कोई नहीं।

गॉँववालों ने कई क�म आगे बढ़कर यातित्रयों का स्वाग तिकया। बेचारों के लिसरों पर धुल जमी हुई थी, ओC सूखे हुए, चेहरे सँवालाये; पर ऑखों में जैसे आजा�ी की ज्योति चमक रही थी ।

स्त्रिस्त्रयां गा रही थीं, बालक उछल रहै थे और पुरुर्षा अपने अँगोछों से यातित्रयों की हवा कर रहे थे। इस समारोह में नोहरी की ओर तिकसी का ध्यान न गया, वह अपनी लदिCया पकडे़ सब के पीछे सजीव आशीवा.� बनी खड़ी थी उसकी ऑंखें डबडबायी हुई थीं, मुख से गौरव की ऐसी झलक आ रही थी मानो वह कोई रानी है, मानो यह सारा गॉँव उसका है, वे सभी युवक उसके बालक है। अपने मन में उसने ऐसी शालिक्त, ऐसे तिवकास, ऐसे उत्थान का अनुभव कभी न तिकया था।

सहसा उसने लाCी फें क �ी और भीड़ को चीर ी हुई यातित्रयों के सामने आ खड़ी हुई, जैसे लाCी के साथ ही उसने बुढ़ापे और दु:ख के बोझ को फें क दि�या हो ! वह एक पल अनुरक्त ऑंखों से आजा�ी के सैतिनको की ओर ाक ी रही, मानों उनकी शलिक्त को अपने अं�र भर रही हो, ब वह नाचने लगी, इस रह नाचने लगी, जैसे कोई सुन्�री नवयौवना पे्रम और उल्लास के म� से तिवह्वल होकर नाचे। लोग �ो-�ो, चार-चार क�म पीछे ह! गये, छो!ा-सा ऑंगन बन गया और उस ऑंगन में वह बुदिढ़या अपना अ ी नृत्य-कौशल दि�खाने लगी । इस अलौतिकक आनन्� के रेले में वह अपना सारा दु:ख और सं ाप भूल गयी। उसके जीण. अंगों में जहॉँ स�ा वायु को प्रकोप रह ा था, वहॉँ न जाने इ नी चपल ा , इ नी लचक, इ नी फुर ी कहॉँ से आ गयी थी ! पहले कुछ �ेर ो लोग मजाक से उसकी ओर ाक े रहे ; जैसे बालक बं�र का नाच �ेख े हैं, तिफर अनुराग के इस पावन प्रवाह ने सभी

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को म वाला कर दि�या। उन्हें ऐसा जान पड़ा तिक सारी प्रकृति एक तिवरा! व्यापक नृत्य की गो� में खेल रही है।

को�ई ने कहा—बस करो भाभी, बस करो।नोहरी ने लिथरक े हुए कहा—खडे़ क्यों हो, आओ न जरा �ेखँू कैसा नाच े हो!को�ई बोले- अब बुढ़ापे में क्या नाचँू?नोहरी ने रुक कर कहा – क्या ुम आज भी बूढे़ हो? मेरा बुढ़ापा ो जैसे भाग गया।

इन वीरों को �ेखकर भी ुम्हारी छा ी नहीं फूल ी? हमारा ही दु:ख-��. हरने के लिलए ो इन्होंने यह परन Cाना है। इन्हीं हाथों से हातिकमों की बेगार बजायी हैं, इन्ही कानों से उनकी गालिलयॉँ और घुड़तिकयॉँ सुनी है। अब ो उस जोर-जुलुम का नाश होगा –हम और ुम क्या अभी बुढे़ होने जोग थे? हमें पे! की आग ने जलाया है। बोलो ईमान से यहॉँ इ ने आ�मी हैं, तिकसी ने इधर छह महीने से पे!-भर रो!ी खायी है? घीतिकसी को सँूघने को मिमला है ! कभी नीं�-भर सोये हो ! झिजस खे का लगान ीन रुपये �े े थे, अब उसी के नौ-�स �े े हो। क्या धर ी सोना उगलेगी? काम कर े-कर े छा ी फ! गयी। हमीं हैं तिक इ ना सह कर भी जी े हैं। दूसरा हो ा, ो या ो मार डाल ा, या मर जा ा धन्य है महात्मा और उनके चेले तिक �ीनों का दु:ख समझ े हैं, उनके उद्धार का ज न कर े हैं। और ो सभी हमें पीसकर हमारा रक्त तिनकालना जान े हैं।

यातित्रयों के चेहरे चमक उCे, ह्र�य खिखल उCे। पे्रम की डूबी हुई ध्वतिन तिनकली—एक दि�न था तिक पारस थी यहॉँ की सरजमीन,एक दि�न यह है तिक यों बे-�स् ोपा कोई नहीं।

3को�ई के द्वार पर मशालें जल रही थीं। कई गॉंवों के आ�मी जमा हो गये थे। यातित्रयों

के भोजन कर लेने के बा� सभा शुरू हुई। �ल के नायक ने खडे़ होकर कहा—भाइयो,आपने आज हम लोगों का जो आ�र-सत्कार तिकया, उससे हमें यह आशा हो

रही है तिक हमारी बेतिड़यॉँ जल्� ही क! जायँगी। मैने पूरब और पश्चिxम के बहु से �ेशों को �ेखा है, और मै जरबे से कह ा हँू तिक आप में जो सरल ा, जो ईमान�ारी, जो श्रम और धम.बुझिद्ध है, वह संसार के और तिकसी �ेश में नहीं । मैं ो यही कहूँगा तिक आप मनुष्य नहीं, �ेव ा हैं। आपको भोग-तिवलास से म लब नहीं, नशा-पानी से म लब नहीं, अपना काम करना और अपनी �शा पर सं ोर्षा रखना। यह आपका आ�श. है, लेतिकन आपका यही �ेवत्व, आपका यही सीधापन आपके हक में घा क हो रहा है। बुरा न मातिनएगा, आप लोग इस संसार में रहने के योग्य नहीं। आपको ो स्वग. में कोई स्थान पाना चातिहए था। खे ों का लगान बरसा ी नाले की रह बढ़ ा जा ा है,आप चूँ नहीं कर े । अमले और अहलकार आपको नोच े रह े हैं, आप जबान नहीं तिहला े। इसका यह न ीजा हो रहा है तिक आपको लोग �ोनों हाथों लू! रहै हे; पर आपको खबर नहीं। आपके हाथों से सभी रोजगार लिछन े जा े हैं, आपका सव.नाश हो रहा है, पर आप ऑंखें खोलकर नहीं �ेख े। पहले लाखों भाई सू का कर, कपडे़ बुनकर गुजर कर े थे। अब सब कपड़ा तिव�ेश से आ ा है। पहले लाखों आ�मी यहीं नमक बना े थे। अब नमक बाहर से आ ा है। यहॉँ नमक बनाना जुम. है। आपके �ेश में इ ना नमक है तिक सारे संसार का �ो सौ साल क उससे काम चल सक ा है।, पर आप सा करोड़ रुपये लिसफ. नमक के लिलए �े े हैं। आपके ऊसरों में, झीलों में

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नमक भरा पड़ा है, आप उसे छू नहीं सक े। शाय� कुछ दि�नों में आपके कुओं पर भी महसूल लग जाय। क्या आप अब भी यह अन्याय सह े रहेंगे?

एक आवाज आयी—हम तिकस लायक हैं?नायक—यही ो आपका भ्रम हैं। आप ही की ग�.न पर इ ना बड़ा राज्य थमा हुआ

है। आप ही इन बड़ी –बड़ी फौजों, इन बडे़-बडे़ अफसरों के मालिलक है; मगर तिफर भी आप भूखों मर े हैं, अन्याय सह े हैं। इसलिलए तिक आपको अपनी शलिक्त का ज्ञान नहीं। यह समझ लीझिजए तिक संसार में जो आ�मी अपनी रक्षा नहीं कर सक ा, वह स�ैव स्वाथ� और अन्यायी आ�मिमयों का लिशकार बना रहेगा ! आज संसार का सबसे बड़ा आ�मी अपने प्राणों की बाजी खेल रहा है। हजारों जवान अपनी जानें हथेली पर लिलये आपके दु:खों का अं करने के लिलए ैयार हैं। जो लोग आपको असहाय समझकर �ोनों हाथों से आपको लू! रहे हैं, वह कब चाहेंगे तिक उनका लिशकार उनके मुँह से लिछन जाय। वे आपके इन लिसपातिहयों के साथ झिज नी सज्जि� यॉँ कर सक े हैं, कर रहै हैं ; मगर हम लोग सब कुछ सहने को ैयार हैं। अब सोलिचए तिक आप हमारी कुछ म�� करेंगे? मर�ों की रह तिनकल कर अपने को अन्याय से बचायेंगे या कायरों की रह बैCे हुए क�ीर को कोस े रहेंगे? ऐसा अवसर तिफर शाय� कभी न आयें। अगर इस वक्त चूके, ो तिफर हमेशा हाथ मल े रतिहएगा। हम न्याय और सत्य के लिलए लड़ रहे हैं; इसलिलए न्याय और सत्य ही के हलिथयारों से हमें लड़ना है। हमें ऐसे वीरों की जरूर है, जो बिहंसा और क्रोध को दि�ल से तिनकाल डालें और ईश्वर पर अ!ल तिवश्वास रख कर धम. के लिलए सब कुछ झेल सके ! बोलिलए आप क्या म�� कर सक े हैं?

कोई आगे नहीं बढ़ ा। सन्ना!ा छाया रह ा है।

4एकाएक शोर मचा—पुलिलस ! पुलिलस आ गयी !!पुलिलस का �ारोगा कांस!ेतिबलों के एक �ल के साथ आ कर सामने खड़ा हो गया।

लोगों ने सहमी हुई ऑंखों और धड़क े हुऐ दि�लों से उनकी ओर �ेखा और लिछपने के लिलए तिबल खोजने लगे।

�ारोगाजी ने हुक्म दि�या—मार कर भगा �ो इन ब�माशों को ?कांस!ेबलों ने अपने डंडे सँभाले; मगर इसके पहले तिक वे तिकसी पर हाथ चलायें,

सभी लोग हुर. हो गये ! कोई इधर से भागा, कोई उधर से। भग�ड़ मच गयी। �स मिमन! में वहाँ गॉँव का एक आ�मी भी न रहा। हॉँ, नायक अपने स्थान पर अब भी खड़ा था और जत्था उसके पीछे बैCा हुआ था; केवल को�ई चौधरी नायक के समीप बैCे हुए लिथर ऑंखों से भूमिम की ओर ाक रहे थे।

�ारोगा ने को�ई की ओर कCोर ऑंखों से �ेखकर कहा—क्यों रे को�इया, ूने इन ब�माशों को क्यों Cहराया यहॉँ?

को�ई ने लाल-लाल ऑंखों से �ारोगा की ओर �ेखा और जहर की रह गुस्से को पी गये। आज अगर उनके लिसर गृहस्थी का बखेड़ा न हो ा, लेना-�ेना न हो ा ो वह भी इसका मुँह ोड़ जवाब �े े। झिजस गृहस्थी पर उन्होंने अपने जीवन के पचास साल होम कर दि�ये थे; वह इस समय एक तिवर्षाैले सप. की भॉँति उनकी आत्मा में लिलप!ी हुई थी।

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को�ई ने अभी कोई जवाब न दि�या था तिक नोहरी पीछे से आकर बोली—क्या लाल पगड़ी बॉँधकर ुम्हारी जीभ ऐंC गयी है? को�ई क्या ुम्हारे गुलाम हैं तिक को�इया-को�इया कर रहै हो? हमारा ही पैसा खा े हो और हमीं को ऑंखें दि�खा े हो? ुम्हें लाज नहीं आ ी ?

नोहरी इस वक्त �ोपहरी की धुप की रह कॉँप रही थी। �ारोगा एक क्षण के लिलए सन्ना!े में आ गया। तिफर कुछ सोचकर और के मुँह लगना अपनी शान के खिखलाफ समझकर को�ई से बोला—यह कौन शै ान का खाला है, को�ई ! खु�ा का खौफ न हो ा ो इसकी जबान ालू से खींच ले ा।

बुदिढ़या लाCी !ेककर �ारोगा की ओर घूम ी हुई बोली—क्यों खु�ा की दुहाई �ेकर खु�ा को ब�नाम कर े हो। ुम्हारे खु�ा ो ुम्हारे अफसर हैं, झिजनकी ुम जूति यॉँ चा! े हो। ुम्हें ो चातिहए था तिक डूब मर े लिचल्लू भर पानी में ! जान े हो, यह लोग जो यहॉँ आये हैं, कौन हैं? यह वह लोग है, जो हम गरीबों के लिलए अपनी जान क होमने को ैयार हैं। ुम उन्हें ब�माश कह े हो ! ुम जो घूस के रुपये खा े हो, जुआ खेला े हो, चोरिरयॉँ करवा े हो, डाके डलवा े हो; भले आ�मिमयों को फँसा कर मुदि�यॉँ गरम कर े हो और अपने �ेव ाओं की जूति यों पर नाक रगड़ े हो, ुम इन्हें ब�माश कह े हो !

नोहरी की ीक्ष्ण बा ें सुनकर बहु -से लोग जो इधर-उधर �बक गये थे, तिफर जमा हो गये। �ारोगा ने �ेखा, भीड़ बढ़ ी जा ी है, ो अपना हं!र लेकर उन पर तिपल पडे़। लोग तिफर ति र-तिब र हो गये। एक हं!र नोहरी पर भी पड़ा उसे ऐसा मालूम हुआ तिक कोई लिचनगारी सारी पीC पर �ौड़ गयी। उसकी ऑंखों ले अँधेरा छा गया, पर अपनी बची हुई शलिक्त को एकत्र करके ऊँचे स्वर से बोली—लड़को क्यों भाग े हो? क्या नेव ा खाने आये थे। या कोई नाच- माशा हो रहा था? ुम्हारे इसी लेंड़ीपन ने इन सबों को शेर बना रखा है। कब क यह मार-धाड़, गाली-गुप् ा सह े रहोगे।

एक लिसपाही ने बुदिढ़या की गर�न पकड़कर जोर से धक्का दि�या।बदुिढ़या �ो- ीन क�म पर औंधे मुँह तिगरा चाह ी थी तिक को�ई ने लपककर उसे सँभाल लिलया और बोला—क्या एक दुखिखया पर गुस्सा दि�खा े हो यारो? क्या गुलामी ने ुम्हें नाम�. भी बना दि�या है? और ों पर , बूढ़ों पर, तिनहत्थों पर, वार कर े हो,वह मर�ों का काम नहीं है।

नोहरी ने जमीन पर पडे़-पडे़ कहा—म�. हो े ो गुलाम ही क्यों हो े ! भगवान ! आ�मी इ ना तिन�.यी भी हो सक ा है? भला अँगरेज इस रह बे�र�ी करे ो एक बा है। उसका राज है। ुम ो उसके चाकर हो, ुम्हें राज ो न मिमलेगा, मगर रॉँड मॉँड में ही खुश ! इन्हें कोई लब �े ा जाय, दूसरों की गर�न भी का!ने में इन्हें संकोच नहीं !

अब �ारोगा ने नायक को डॉँ!ना शुरु तिकया— ुम तिकसके हुक्म से इस गॉँव में आये?

नायक ने शां भाव से कहा—खु�ा के हुक्म से । �ारोगा— ुम रिरआया के अमन में खलल डाल े हो?नायक—अगर ुम्हें उनकी हाल ब ाना उनके अमन में खलल डालना है ा बेशक

हम उसके अमन में खलल डाल रहे है। भागनेवालों के क�म एक बार तिफर रुक गये। को�ई ने उनकी ओर तिनराश ऑंखों से

�ेख कर कॉँप े हुए स्वर में कहा—भाइयो इस बख कई गॉँवों के आ�मी यहॉँ जमा हैं? �ारोगा ने हमारी जैसी बेआबरुई की है, क्या उसे सह कर ुम आराम की नीं� सो सक े हो? इसकी फरिरया� कौन सुनेगा? हातिकम लोग क्या हमारी फरिरया� सुनेंगे। कभी नहीं। आज

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अगर हम लोग मार डाले जायँ, ो भी कुछ न होगा। यह है हमारी इt और आबरु? थुड़ी है इस जिजं�गी पर!

समूह ज्जिस्थर भाव से खड़ा हो गया, जैसे बह ा हुआ पानी मेंड़ से रुक जाय। भय का धुआं जो लोगों के हृ�य पर छा गया था, एकाएक ह! गया। उनके चेहरे कCोर हो गये। �ारोगा ने उनके ीवर �ेखे, ो ुरन् घोडे़ पर सवार हो गया और को�ई को तिगरफ् ार करने का हुक्म दि�या। �ो लिसपातिहयों ने बढ़ कर को�ई की बॉँह पकड़ ली। को�ई ने कहा—घबड़ा े क्यों हो, मैं कहीं भागूँगा नहीं। चलो, कहॉँ चलने हो?

ज्योंही को�ई �ोनों लिसपातिहयों के साथ चला, उसके �ोनों जवान बे!े कई आ�मिमयों के साथ लिसपातिहयों की ओर लपके तिक को�ई को उनके हाथों से छीन लें। सभी आ�मी तिवक! आवेश में आकर पुलिलसवालों के चारों ओर जमा हो गये।

�ारोगा ने कहा— ुम लोग ह! जाओ वरना मैं फायर कर दँूगा। समूह ने इस धमकी का जवाब ‘भार मा ा की जाय !’ से दि�या और एका-एक �ो-�ो क�म और आगे खिखसक आये।

�ारोगा ने �ेखा, अब जान बच ी नहीं नजर आ ी है। नम्र ा से बोला—नायक साहब, यह लोग फसा� पर अमा�ा हैं। इसका न ीजा अच्छा न होगा !

नायक ने कहा—नहीं, जब क हममें एक आ�मी भी यहॉँ रहेगा, आपके ऊपर कोई हाथ न उCा सकेगा। आपसे हमारी कोई दुश्मनी नहीं है। हम और आप �ोनों एक ही पैरों के ले �बे हुए हैं। यह हमारी ब�-नसीबी है तिक हम आप �ो तिवरोधी �लों में खडे़ हैं।

यह कह े हुए नायक ने गॉँववालों को समझाया—भाइयो, मैं आपसे कह चुका हँू यह न्याय और धम. की लड़ाई है और हमें न्याय और धम. के हलिथयार से ही लड़ना है। हमें अपने भाइयों से नहीं लड़ना है। हमें ो तिकसी से भी लड़ना नहीं है। �ारोगा की जगह कोई अंगरेज हो ा, ो भी हम उसकी इ नी ही रक्षा कर े। �ारोगा ने को�ई चौधरी को तिगरफ् ार तिकया है। मैं इसे चौधरी का सौभाग्य समझ ा हँू। धन्य हैं वे लोग जो आजा�ी की लड़ाई में सजा पायें। यह तिबगड़ने या घबड़ाने की बा नहीं है। आप लोग ह! जायँ और पुलिलस को जाने �ें। �ारोगा और लिसपाही को�ई को लेकर चले। लोगों ने जयध्वतिन की—‘भार मा ा की जय।’ को�ई ने जवाब दि�या—राम-राम भाइयो, राम-राम। ड!े रहना मै�ान में। घबड़ाने की कोई बा नहीं है। भगवान सबका मालिलक है। �ोनों लड़के ऑंखों में ऑंसू भरे आये और का र स्वर में बोले—हमें क्या कहे जा े हो �ा�ा ! को�ई ने उन्हें बढ़ावा �े े हुए कहा—भगवान् का भरोसा म छोड़ना और वह करना जो मर�ों को करना चातिहए। भय सारी बुराइयों की जड़ है। इसे मन से तिनकाल डालो, तिफर ुम्हारा कोई कुछ नहीं कर सक ा। सत्य की कभी हार नहीं हो ी। आज पुलिलस लिसपातिहयों के बीच में को�ई को तिनभ.य ा का जैसा अनुभव हो रहा था, वैसा पहले कभी न हुआ था। जेल और फॉँसी उसके लिलए आज भय की वस् ु नहीं, गौरव की वस् ु हो गयी थी! सत्य का प्रत्यक्ष रुप आज उसने पहली बार �ेखा मानों वह कवच की भॉँति उसकी रक्षा कर रहा हो।

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गॉँववालों के लिलए को�ई का पकड़ लिलया जाना लtाजनक मालूम हो रहा था। उनको ऑंखों के सामने उनके चौधरी इस रह पकड़ लिलये गये और वे कुछ न कर सके। अब वे मुँह कैसे दि�खायें! हर एक मुख पर गहरी वे�ना झलक रही थी जैसे गॉँव लु! गया ! सहसा नोहरी ने लिचल्ला कर कहा—अब सब जने खडे़ क्या पछ ा रहै हो? �ेख ली अपनी दु�.शा, या अभी कुछ बाकी है ! आज ुमने �ेख लिलया न तिक हमारे ऊपर कानून से नहीं लाCी से राज हो रहा है ! आज हम इ ने बेशरम हैं तिक इ नी दु�.शा होने पर भी कुछ नहीं बोल े ! हम इ ने स्वाथ�, इ ने कायर न हो े, ो उनकी मजाल थी तिक हमें कोड़ों से पी! े। जब क ुम गुलाम बने रहोगे, उनकी सेवा-!हल कर े रहोगे, ुम्हें भूसा-कर मिमल ा रहेगा, लेतिकन झिजस दि�न ुमने कंधा !ेढ़ा तिकया, उसी दि�न मार पड़ने लगेगी। कब क इस रह मार खा े रहोगे? कब क मु�� की रह पडे़ तिगद्धों से अपने आपको नोचवा े रहोगें? अब दि�खा �ो तिक ुम भी जी े-जाग े हो और ुम्हें भी अपनी इt -आबरु का कुछ खयाल है। जब इt ही न रही ो क्या करोगे खे ी-बारी करके, धम. कमा कर? जी कर ही क्या करोगे? क्या इसीलिलए जी रहे हो तिक ुम्हारे बाल-बचे्च इसी रह ला ें खा े जायँ, इसी रह कुचले जायँ? छोड़ो यह कायर ा ! आखिखर एक दि�न खा! पर पडे़-पडे़ मर जाओगे। क्यों नहीं इस धरम की लड़ाई में आकर वीरों की रह मर े। मैं ो बूढ़ी और हँू, लेतिकन और कुछ न कर सकँूगी, ो जहॉँ यह लोग सोयेंगे वहॉँ झाडू ो लगा दँूगी, इन्हें पंखा ो झलूँगी।

को�ई का बड़ा लड़का मैकू बोला—हमारे जी े-जी ुम जाओगी काकी, हमारे जीवन को मिधक्कार है ! अभी ो हम ुम्हारे बालक जी े ही हैं। मैं चल ा हँू उधर ! खे ी-बारी गंगा �ेखेगा।

गंगा उसका छो!ा भाई था। बोला—भैया ुम यह अन्याय कर े हो। मेरे रह े ुम नहीं जा सक े। ुम रहोगे, ो तिगरस् ी सँभालोगे। मुझसे ो कुछ न होगा। मुझे जाने �ो।

मैकू—इसे काकी पर छोड़ �ो। इस रह हमारी- ुम्हारी लड़ाई होगी। झिजसे काकी का हुक्म हो वह जाय। नोहरी ने गव. से मुस्करा कर कहा—जो मुझे घूस �ेगा, उसी को झिज ाऊँगी। मैकू—क्या ुम्हारी कचहरी में भी वही घूस चलेगा काकी? हमने ो समझा था, यहॉँ ईमान का फैसला होगा ! नोहरी—चलो रहने �ो। मर ी �ाई राज मिमला है ो कुछ ो कमा लूँ। गंगा हँस ा हुआ बोला—मैं ुम्हें घूस �ँगा काकी। अबकी बाजार जाऊँगा, ो ुम्हारे लिलए पूव� माखू का पत्ता लाऊँगा। नोहरी— ो बस ेरी ही जी है, ू ही जाना। मैकू—काकी, ुम न्याय नहीं कर रही हो। नोहरी—अ�ाल का फैसला कभी �ोनों फरीक ने पसन्� तिकया है तिक ुम्हीं करोगे?

गंगा ने नोहरी के चरण दुए, तिफर भाई से गले मिमला और बोला—कल �ा�ा को कहला भेजना तिक मै जा ा हँू।

एक आ�मी ने कहा—मेरा भी नाम लिलख लो भाई—सेवाराम।सबने जय-घोर्षा तिकया। सेवाराम आकर नायक के पास खड़ा हो गया। दूसरी आवाज आयी—मेरा नाम लिलख लो—भजनलिसंह।

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सबने जय-घोर्षा तिकया। भजनलिसंह जाकर नायक के पास खड़ा हो गया।भजन लिसंह �स-पांच गॉँवो मे पहलवानी के लिलए मशहुर था। यह अपनी चौड़ी छा ी

ाने, लिसर उCाये नायक के पास खड़ा हो हुआ, ो जैसे मंडप के नीचे एक नये जीवन का उ�य हो गया।

ुरं ही ीसरी आवाज आयी—मेरा नाम लिलखो-घूरे। यह गॉँव का चौकी�ार थ। लोगों ने लिसर उCा-उCा कर उसे �ेख। सहसा तिकसी को

तिवश्वास न आ ा था तिक घूरे अपना नाम लिलखायेगा।भजनलिसंह ने हँस े हुए पंूछा— म्हें क्या हुआ है घूरे?घूरे ने कहा—मुझे वही हुआ है, जो ुम्हें हुआ है। बीस साल क गुलामी कर े-कर े

थक गया।तिफर आवाज आयी—मेरा नाम लिलखो—काले खॉँ।वह जमीं�ार का सहना था, बड़ा ही जातिबर और �बंग। तिफर लोंगो आxय. हुआ।मैकू बोला—मालूम हो ा है, हमको लू!-लू!कर घर भर लिलया है, क्यों।काले खॉँ गम्भीर स्वर में बोला—क्या जो आ�मी भ!क ा रहै, उसे कभी सीधे रास् े

पर न आने �ोगे भाई। अब क झिजसका नमक खा ा था, उसका हुक्म बजा ा था। ुमको लू!-लू! कर उसका घर भर ा था। अब मालूम हुआ तिक मैं बडे़ भारी मुगाल े में पड़ा हुआ था। ुम सब भाइयों को मैने बहु स ाया है। अब मुझे माफी �ो।

पॉँचो रँगरू! एक दूसरे से लिलप! े थे, उछल े थे, चीख े थे, मानो उन्होंने सचमुच स्वराज्य पा लिलया हो, और वास् व में उन्हे स्वराज्य मिमल गया था। स्वराज्य लिचत्त की वृश्चित्तमात्र है। ज्योंही पराधीन ा का आ ंक दि�ल से तिनकल गया, आपको स्वराज्य मिमल गया। भय ही पराधीन ा है तिनभ.य ा ही स्वराज्य है। व्यवस्था और संगCन ो गौण है।

नायक ने उन सेवकों को सम्बोमिध करके कहा--मिमत्रों! आप आज आजा�ी के लिसपातिहयों में आ मिमले, इस पर मै आपको बधाई �े ा हंू। आपको मालूम है, हम तिकस रह लड़ाई करने जा रहे है? आपके ऊपर रह- रह की सज्जि� याँ की जायेंगी, मगर या� रखिखए, झिजस रह आज आपने मोह और लोभ का त्याग कर दि�या है, उसी रह बिहंसा और क्रोध का भी त्याग कर �ीझिजए। हम धम. संग्राम में जा रहे हैं। हमें धम. के रास् े पर जमा रहना होगा। आप इसके लिलए ैयार है!

पॉँचों ने एक स्वर में कहा— ैयार है!नायक ने आशीवा.� दि�या—ईश्वर आपकी म�� करे।

६उस सुहावने-सुनहले प्रभा में जैसे उमंग घुली हुई थी। समीर के हलके-हलके झोकों

में प्रकश की हल्की-हल्की तिकरणों में उमंग सनी हुई थी। लोग जैसे �ीवाने हो गये थें। मानो आजा�ी की �ेवी उन्हे अपनी ओर बुला रही हो। वही खे -खलिलहान, बाग-बगीचे हैं, वही स्त्री-पुरुर्षा हैं पर आज के प्रभा में जो आशीवा.� है, जो वर�ान है, जो तिवभूति है, वह और कभी न थी। वही खे -खलिलहान, बाग-बगीचे, स्त्री-पुरूर्षा आज एक नयी तिवभूति में रंग गये हैं।

सूय. तिनकलने के पहले ही कई हजार आ�मिमयों का जमाव हो गय था। जब सत्याग्रतिहयों का �ल तिनकला ो लोगों की मस् ानी आवाजों से आकाश गूँज उCा। नये

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सैतिनकों की तिव�ाई, उनकी रमश्चिणयों का का र धैय., मा ा-तिप ा का आर्द्र. गव., सैतिनको के परिरत्याग का दृश्य लोंगों को मस् तिकये �े ा था।

सहसा नोहरी लाCी !ेक ी हुई आ कर खड़ी हो गयी।मैकू ने कहा—काकी, हमें आलिशवा.� �ो।नोहरी—मै ुम्हारे साथ चल ी हँू बे!ा! तिक ना आलिशवा.� लोगे? कई आ�मिमयों ने एक स्वर से कहा—काकी, ुम चली जाओगी, ो यहॉँ कौन

रहेगा?नोहरी ने शुभ-कामना से भरे हुए स्वर में कहा—भैया, जाने के ो अब दि�न ही है,

आज न जाऊँगी, �ो-चार महीने बा� जाऊँगी। अभी आऊँगी, ो जीवन सफल हो जायेगा। �ो-चार महीने में खा! पर पडे़-पडे़ जाऊँगी, ो मन की आस मन में ही रह जायेगी। इ ने बलक हैं, इनकी सेवा से मेरी मुकु बन जायगी। भगवान करे, ुम लोगों के सुदि�न आयें और मै अपनी जिजं�गी में ुम्हारा सुख �ेख लूँ।

यह कह े हुए नोहरी ने सबको आशीवा.� दि�या और नायक के पास जाकर खड़ी हो गयी।

लोग खडे़ �ेख रहे थे और जत्था गा ा हुआ जा ा था।एक दि�न यह है तिक हम-सा बेहया कोई नहीं।नोहरी के पाँव जमीन पर न पड़ े थे; मानों तिवमान पर बैCी हुई स्वग. जा रही हो।

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शान्ति��

जब मै ससुराल आयी, ो तिबलकुल फूहड थी। न पहनने-ओढ़ने को सलीका , न बा ची करने का ढंग। लिसर उCाकर तिकसी से बा लिच न कर सक ी थीं। ऑंखें अपने आप झपक जा ी थीं। तिकसी के सामने जा े शम. आ ी, स्त्रिस्त्रयों क के सामने तिबना घूँघ! के झिझझक हो ी थी। मैं कुछ तिहन्�ी पढ़ी हुई थी; पर उपन्यास, ना!क आदि� के पढ़ने में आन्न� न आ ा था। फुस. मिमलने पर रामायण पढ़ ी। उसमें मेरा मन बहु लग ा था। मै उसे मनुष्य-कृ नहीं समझ ी थी। मुझे पूरा-पूरा तिवश्वास था तिक उसे तिकसी �ेव ा ने स्वयं रचा होगा। मै मनुष्यों को इ ना बुझिद्धमान और सहृ�य नहीं समझ ी थी। मै दि�न भर घर का कोई न कोई काम कर ी रह ी। और कोई काम न रह ा ो चख� पर सू का ी। अपनी बूढ़ी सास से थर-थर कॉँप ी थी। एक दि�न �ाल में नमक अमिधक हो गया। ससुर जी ने भोजन के समय लिसफ. इ ना ही कहा—‘नमक जरा अं�ाज से डाला करो।’ इ ना सुन े ही हृ�य कॉँपने लगा। मानो मुझे इससे अमिधक कोई वे�ना नहीं पहुचाई जा सक ी थी।

लेतिकन मेरा यह फूहड़पन मेरे बाबूजी (पति �ेव) को पसन्� न आ ा था। वह वकील थे। उन्होंने लिशक्षा की ऊँची से ऊँची तिडगरिरयॉँ पायी थीं। वह मुझ पर पे्रम अवश्य कर े थे; पर उस पे्रम में �या की मात्रा अमिधक हो ी थी। स्त्रिस्त्रयों के रहन-सहन और लिशक्षा के सम्बन्ध में उनके तिवचार बहु ही उ�ार थे; वह मुझे उन तिवचारों से बहु नीचे �ेखकर क�ालिच ् मन ही मन खिखन्न हो े थे; परन् ु उसमें मेरा कोई अपराध न �ेखकर हमारे रस्म-रिरवाज पर झुझला े थे। उन्हें मेरे साथ बैCकर बा ची करने में जरा आनन्� न आ ा। सोने आ े, ो कोई न कोई अँग्रेजी पुस् क साथ ला े, और नीं� न आने क पढ़ा कर े। जो कभी मै पूछ बैC ी तिक क्या पढ़ े हो, ो मेरी ओर करूण दृमि� से �ेखकर उत्तर �े े— ुम्हें क्या ब लाऊँ यह आसकर वाइल्ड की सव.श्रेष्ठ रचना है। मै अपनी अयोग्य ा पर बहु लज्जिt थी। अपने को मिधक्कार ी, मै ऐसे तिवद्वान पुरूर्षा के योग्य नहीं हँू। मुझे तिकसी उजड्ड के घर पड़ना था। बाबूजी मुझे तिनरा�र की दृमि� से नहीं �ेख े थे, यही मेरे लिलए सौभग्य की बा थी।

एक दि�न संध्या समय मैं रामायण पढ़ रही थी। भर जी रामचंर्द्र जी की खोज में तिनकाले थे। उनका करूण तिवलाप पढ़कर मेरा हृ�य ग�ग� ्हो रहा था। नेत्रों से अश्रुधारा बह रही थी। हृ�य उमड़ आ ा था। सहसा बाबू जी कमरे में आयें। मैने पुस् क ुरं बन्� कर �ीं। उनके सामने मै अपने फूहड़पन को भरसक प्रक! न होने �े ी थी। लेतिकन उन्होंने पुस् क �ेख ली; और पूछा—रामायण है न?

मैने अपरामिधयों की भांति लिसर झुका कर कहा—हॉँ, जरा �ेख रही थी।बाबू जी—इसमें शक नहीं तिक पुस् क बहु ही अच्छी, भावों से भरी हुई है; लेतिकन

जैसा अंग्रेज या फ्रांसीसी लेखक लिलख ें हैं। ुम्हारी समझ में ो न आवेगा, लेतिकन कहने में क्या हरज है, योरोप में अजकल ‘स्वाभातिवक ा’ ( Realism) का जमाना है। वे लोग मनोभावों के उत्थान और प न का ऐसा वास् तिवक वण.न कर े है तिक पढ़कर आxय. हो ा है। हमारे यहॉँ कतिवयो को पग-पग पर धम. था नीति का ध्यान रखना पड़ ा है, इसलिलए कभी-कभी उनके भावों में अस्वभातिवक ा आ जा ी है, और यही तु्र!ी ुलसी�ास में भी है।

मेरी समझ में उस समय कुछ भी न आया। बोली –मेरे लिलए ो यही बहु है, अँग्रेजी पुस् कें कैसे समझूँ।

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बाबू जी—कोई कदिCन बा नहीं। एक घं!े भी रोज पढ़ो, ो थोडे़ ही समय में काफी योग्य ा प्रप् कर सक ी हो; पर ुमने ो मानो मेरी बा ें न मानने की सौगंध ही खा ली है। तिक ना समझाया तिक मुझसे शम. करने की आवश्यक ा नहीं, पर ुम्हारे ऊपर असर न पड़ा। तिक ना कह ा हंू तिक जरा सफाई से रहा करो, परमात्मा सुन्�र ा �े ा है ो चाह ा है तिक उसका श्रृंगार भी हो ा रहे; लेतिकन जान पड़ ा है, ुम्हारी दृमि� में उसका कुछ भी मूल्य नहीं ! या शाय� ुम समझ ी हो तिक मेरे जैसे कुरूप मनुष्य के लिलए ुम चाहे जैसा भी रहो, आवश्यक ा से अमिधक अच्छी हो। यह अत्याचार मेरे ऊपर है। ुम मुझे Cोंक-पी! कर वैराग्य लिसखाना चाह ी हो। जब मैं दि�न-रा मेहन करके कमा ा हँू ो स्व-भाव :- मेरी यह इच्छा हो ी है तिक उस र्द्रव्य का सबसे उत्तम व्यय हो। परन् ु ुम्हारा फूहड़पन और पुराने तिवचार मेरे सारे परिरश्रम पर पानी फेर �े े है। स्त्रिस्त्रयाँ केवल भोजन बनाने, बचे्च पालने, पति सेवा करने और एका�शी व्र रखने के लिलए नहीं है, उनके जीवन का लक्ष्य इससे बहु ऊँचा है। वे मनुष्यों के समस् सामाझिजक और मानलिसक तिवर्षायों में समान रूप से भाग लेने की अमिधकारिरणी हैं। उन्हे भी मनुष्यों की भांति स्व ंत्र रहने का अमिधकार प्राप् है। मुझे ुम्हारी यह बं�ी-�शा �ेखकर बड़ा क� हो ा है। स्त्री पुरर्षा की अद्धा.तिगनी मानी गई है; लेतिकन ुम मेरी मानलिसक और सामाझिजक, तिकसी आवश्यक ा को पूरा नहीं कर सक ीं। मेरा और ुम्हारा धम. अलग, आचार-तिवचार अलग, आमो�-प्रमो� के तिवर्षाय अलग। जीवन के तिकसी काय. में मुझे ुमसे तिकसी प्रकार की सहाय ा नहीं मिमल सक ी। ुम स्वयं तिवचार सक ी हो तिक ऐसी �शा में मेरी जिजं�गी कैसी बुरी रह क! रही है।

बाबू जी का कहना तिबलकुल यथाथ. था। मैं उनके गले में एक जंजीर की भांति पड़ी हुई थी। उस दि�न से मैने उन्हीं के कहें अनुसार चलने की दृढृ प्रति ज्ञा करली, अपने �ेव ा को तिकस भॉँति अप्रसन्न कर ी?

२यह ो कैसे कहूँ तिक मुझे पहनने-ओढ़ने से पे्रम न था, और उ ना ही था, झिज ना

दूसरी स्त्रिस्त्रयों को हो ा है। जब बालक और वृद्ध क श्रृंगार पसं� कर े है, ों मैं युव ी Cहरी। मन भी र ही भी र मचल कर रह जा ा था। मेरे मायके में मो!ा खाने और मो!ा पहनने की चाल थी। मेरी मॉँ और �ा�ी हाथों से सू का ी थीं; और जुलाहे से उसी सू के कपडे़ बुनवा लिलए जा े थे। बाहर से बहु कम कपडे़ आ े थे। में जरा महीन कपड़ा पहनना चाह ीं या श्रृगार की रूची दि�खा ी ो अम्मॉँ फौरन !ोक ीं और समझा ी तिक बहु बनाव-सवॉँर भले घर की लड़तिकयों को शोभा नहीं �े ा। ऐसी आ� अच्छी नहीं। यदि� कभी वह मुझे �प.ण के सामने �ेख ले ी, ो झिझड़कने लग ी; परन् ु अब बाबूजी की झिज� से मेरी यह झिझझक जा ी रही। सास और नन�ें मेरे बनाव-श्रृंगार पर नाक-भौं लिसकोड़ ी; पर मुझे अब उनकी परवाह न थी। बाबूजी की पे्रम-परिरपूण. दृमि� के लिलए मै झिझड़तिकयां भी सह सक ी थी। अब उनके और मेरे तिवचारों में समान ा आ ी जा ी थी। वह अमिधक प्रसन्नलिचत्त जान पड़ े थे। वह मेरे लिलए फैसनेबुल सातिड़यॉँ, संु�र जाक!ें, चमक े हुए जू े और काम�ार स्लीपरें लाया कर े; पर मैं इन वस् ुओं को धारण कर तिकसी के सामने न तिनकल ी, ये वस्त्र केवल बाबू जी के ही सामने पहनने के लिलए रखे थे। मुझे इस प्रकार बनी-Cनी �ेख कर उन्हे बड़ी प्रसन्न ा हो ी थी। स्त्री अपने पति की प्रसन्न ा के लिलए क्या नहीं कर सक ी। अब घर

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के काम-काज से मेरा अमिधक समय बनाव-श्रृंगार था पुस् कावलोकन में ही बी ने लगा। पुस् कों से मुझे पे्रम हाने लगा था।

यद्यतिप अभी क मै अपने सास-ससुर का लिलहाज कर ी थी, उनके सामने बू! और गाउन पहन कर तिनकलने का मुझे साहस न हो ा था, पर मुझे उनकी लिशक्षा-पूण. बा े न भांति थी। मैं सोच ी, जब मेरा पति सैकड़ों रूपये महीने कमा ा है ो घर में चेरी बनकर क्यों रहँू? यों अपनी इच्छा से चाहे झिज ना काम करँू, पर वे लोग मुझे आज्ञा �ेने वाले कौन हो े हैं? मुझमें आत्मश्चिभमान की मात्रा बढ़ने लगी। यदि� अम्मॉँ मुझे कोई काम करने को कह ीं, ो ैं अ�ब�ा कर !ाल जा ी। एक दि�न उन्होनें कहा—सबेरे के जलपान के लिलए कुछ �ालमो! बना लो। मैं बा अनसुनी कर गयी। अम्मॉँ ने कुछ �ेर क मेरी राह �ेखी; पर जब मै अपने कमरे से न तिनकली ों उन्हे गुस्सा हो आया। वह बड़ी ही लिचड़लिचड़ी प्रकृति की थी। तिनक-सी बा पर ुनक जा ी थीं। उन्हे अपनी प्रति ष्ठा का इ ना अश्चिभमान था तिक मुझे तिबलकुल लौंडी समझ ी थीं। हॉँ, अपनी पुतित्रयों से स�ैव नम्र ा से पेश आ ीं; बश्किल्क मैं ो यह कहूँगी तिक उन्हें लिसर चढ़ा रखा था। वह क्रोध में भरी हुई मेरे कमरे के द्वार पर आकर बोलीं— ुमसे मैंने �ाल—मो! बनाने को कहा था, बनाया?

मै कुछ रू� होकर बोली—अभी फुस. नहीं मिमली।अम्मॉँ— ो ुम्हारी जान में दि�न-भर पडे़ रहना ही बड़ा काम है! यह आजकल ुम्हें

हो क्या गया है? तिकस घमंड में हो? क्या यह सोच ी हो तिक मेरा पति कमा ा है, ो मै काम क्यों करँू? इस घमंड में न भूलना! ुम्हारा पति लाख कमाये; लेतिकन घर में राज मेरा ही रहेगा। आज वह चार पैसे कमाने लगा है, ो ुम्हें मालतिकन बनने की हवस हो रही है; लेतिकन उसे पालने-पोसने ुम नहीं आयी थी, मैंने ही उसे पढ़ा-लिलखा कर इस योग्य बनाया है। वाह! कल को छोकरी और अभी से यह गुमान।

मैं रोने लगी। मुँह से एक बा न तिनकली। बाबू जी उस समय ऊपर कमरे में बैCे कुछ पढ़ रहे थे। ये बा ें उन्होंने सुनीं। उन्हें क� हुआ। रा को जब वह घर आये ो बोले—�ेखा ुमने आज अम्मॉँ का क्रोध? यही अत्याचार है, झिजससे स्त्रिस्त्रयों को अपनी जिजं�गी पहाड़ मालूम हो े लग है। इन बा ों से हृ�य में तिक नी वे�ना हो ी है, इसका जानना असम्भव है। जीवन भार हो जा ा है, हृ�य जज.र हो जा ा है और मनुष्य की आत्मोन्नति उसी प्रकार रूक जा ी है जैसे जल, प्रकाश और वायु के तिबना पौधे सूख जा े है। हमारे घरों में यह बड़ा अंधेर है। अब मैं उनका पुत्र ही Cहरा। उनके सामने मुँह नहीं खोल सकँूगा। मेरे ऊपर उनका बहु बड़ा अमिधकार है। अ एव उनके तिवरुद्ध एक शब्� भी कहना मेरे लिलये लtा की बा होगी, और यही बंधन ुम्हारे लिलए भी है। यदि� ुमने उनकी बा ें चुपचाप न सुन ली हो ीं, ो मुझे बहु ही दु:ख हो ा। क�ालिच ् मैं तिवर्षा खा ले ा। ऐसी �शा में �ो ही बा ें सम्भव है, या ो स�ैव उनकी घुड़तिकयों-झिझड़तिकयों को सहे जाओ, या अपने लिलए कोई दूसरा रास् ा ढूढ़ो। अब इस बा की आशा करना तिक अम्मॉँ के सवभाव में कोई परिरव .न होगा, तिबलकुल भ्रम है। बोलो, ुम्हें क्या स्वीकार है।

मैंने डर े डर े कहा—आपकी जो आज्ञा हो, वह करें। अब कभी न पढँू-लिलखँूगी, और जो कुछ वह कहेंगी वही करँूगी। यदि� वह इसी में प्रसन्न हैं ो यही सही। मुझे पढ़-लिलख कर क्या करना है?

बाबूजी –पर यह मैं नहीं चाह ी। अम्मॉँ ने आज आरम्भ तिकया है। अब रोज बढ़ ी ही जायँगी। मैं ुम्हें झिज नी ही सभ्य था तिवचार-शील बनाने की चे�ा करँूगा, उ ना ही उन्हें

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बुरा लगेगा, और उनका गुस्सा ुम्हीं पर उ रेगा। उन्हें प ा नहीं झिजस अबहवा में उन्होंने अपनी झिजन�गी तिब ायी है, वह अब नहीं रही। तिवचार-स्वा ंत्र्य और समयानुकूल ा उनकी दृमि� में अधम. से कम नहीं। मैंने यह उपाय सोचा है तिक तिकसी दूसरे शहर में चल कर अपना अड्डा जमाऊँ। मेरी वकाल भी यहॉँ नहीं चल ी; इसलिलए तिकसी बहाने की भी आवश्यक ा न पडे़गी।

मैं इस जबीज के तिवरुद्ध कुछ न बोली। यद्यतिप मुझे अकेले रहने से भय लग ा था, थातिप वहॉँ स्व न्त्र रहने की आशा ने मन को प्रफुज्जिल्ल कर दि�या।

3उसी दि�न से अम्मॉँ ने मुझसे बोलना छोड़ दि�या। महरिरयों, पड़ोलिसनों और नन�ों के

आगे मेरा परिरहास तिकया कर ीं। यह मुझे बहु बुरा मालुम हो ा था। इसके पहले यदि� वह कुछ भली-बुरी बा ें कह ले ीं, ो मुझे स्वीकार था। मेरे हृ�य से उनकी मान-मया.�ा घ!ने लगी। तिकसी मनुष्य पर इस प्रकार क!ाक्ष करना उसके हृ�य से अपने आ�र को मिम!ने के समान है। मेरे ऊपर सबसे गुरु र �ोर्षाारोपण यह था तिक मैंने बाबू जी पर कोई मोहन मंत्र फुक. दि�या है, वह मेरे इशारों पर चल े है; पर याथाथ. में बा उल्!ी ही थी।

भार्द्र मास था। जन्म�ामी का त्यौहार आया था। घर में सब लोगों ने व्र रखा। मैंने भी स�ैव की भांति व्र रखा। Cाकुर जी का जन्म रा को बारह बजे होने वाला था , हम सब बैCी गां ी बजा ी थी। बाबू जी इन असभ्य व्यवहारों के तिबलकुल तिवरुद्ध थे। वह होली के दि�न रंग भी खेल े, गाने बजाने की ो बा ही अलग । रा को एक बजे जब मैं उनके कमरे में गयी, ो मुझे समझाने लगे- इस प्रकार शरीर को क� �ेने से क्या लाभ? कृष्ण महापुरूर्षा अवश्य थे, और उनकी पूजा करना हमारा क व्य. है: पर इस गाने-बजाने से क्या फाय�ा? इस ढोंग का नाम धम. नहीं है। धम. का सम्बन्ध सचाई ओर ईमान से है, दि�खावे से नहीं । बाबू जी स्वयं इसी माग. का अनुकरण कर े थे। वह भगव�गी ा की अत्यं प्रशंसा कर े पर उसका पाC कभी न कर े थे। उपतिनर्षा�ों की प्रशंसा में उनके मुख से मानों पुष्प- बमि� होने लग ी थी; पर मैंने उन्हें कभी कोई उपतिनर्षा� ्पढ़ े नहीं �ेखा। वह बिहंदु धम. के गूढ़ त्व ज्ञान पर लट्टू थे, पर उसे समयानुकूल नहीं समझ े थे। तिवशेर्षाकर वे�ां को ो भार की अबनति का मूल कारण समझा े थे। वह कहा कर े तिक इसी वे�ां ने हमको चोप! कर दि�या; हम दुतिनया के प�ाथ� को ुच्छ समझने लगे, झिजसका फल अब क भुग रहे हैं। अब उन्नति का समय है। चुपचाप बैCे रहने से तिनवा.ह नहीं। सं ोर्षा ने ही भार को गार कर दि�या । उस समय उनको उत्तर �ेने की शलिक्त �ेने की शलिक्त मुझमें कहॉ थी ? हॉ, अब जान पड़ ा है यह योरोतिपयन सभ्य ा के चक्कर में पडे़ हुए थे। अब वह स्वयं ऐसी बा े नहीं कर े, वह जोश अब !ंडा हो चला है।

4इसके कुछ दि�न बा� हम इलाहाबा� चेले आये। बाबू जी ने पहले ही एक �ो-

मंझिजला मकान ले रखा था –सब रह से सजा-सजाया। हमो यहाँ पॉच नौकर थे— �ो स्त्रिस्त्रयाँ, �ो पुरुर्षा और एक महाराज। अब मैं घर के कुल काम-काज से छु!ी पा गयी । कभी जी घबरा ा को कोई उपन्यास लेकर पढ़ने लग ी ।

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यहॉं फूल और पी ल के ब .न बहु कम थे। चीनी की रकातिबयॉं और प्याले आलमारिरयों में सजे रखे थे । भोजन मेज पर आ ा था। बाबू जी बडे़ चाब से भोजन कर े। मुझे पहले कुछ शरम आ ी थी; लेतिकन धीरे-धीरे मैं भी मेज ही पर भोजन करने लगी। हमारे पास एक सुन्�र !म!म भी थी। अब हम पै�ल तिबलकुल न चल े। बाबू जी कह े – यही फैशन है ! बाबू जी की आम�नी अभी बहु कम थी। भली-भांति खच. भी न चल ा था। कभी-कभी मैं उन्हें लिचं ाकुल �ेख ी ो समझा ी तिक जब आया इ नी कम है ो व्यय इ ना क्यों बढ़ा रखा है? कोई छो!ो–सा मकान ले लो। �ो नौकरों से भी काम चल सक ा है। लेतिकनं बाबू जी मेरी बा ों पर हॅस �े े और कह े–मैं अपनी �रिरर्द्र ा का दिढढोरा अपने-आप क्यों पी!ँू? �रिरर्द्र ा प्रक! करना �रिरर्द्र होने से अमिधक दु:ख�ायी हो ा है। भूल जाओं तिक हम लोग तिनध.न है, तिफर लक्ष्मी हमारे पास आप �ौड़ी आयेगी । खच. बढ़ना, आवश्यक ाओं का अमिधक होना ही र्द्रव्योपाज.न की पहली सीढ़ी हैं इससे हमारी गुप् शलिक्त तिवकलिस हो जा ी हैं। और हम उन क�ों को झेल े हुए आगे पंग धरने के योग्य हो े हैं। सं ोर्षा �रदिर्द्र ा का दूसरा नाम है। अस् ु, हम लोगों का खच. दि�न –दि�न बढ़ ा ही जा ा था। हम लोग सप् ाह में ीन बार लिथये!र जरूर �ेखने जा े। सप् ाह में एक बार मिमत्रों को भोजन अवश्य ही दि�या जा ा। अब मुझे सूझने लगा तिक जीवन का लक्ष्य सुख –भोग ही है। ईश्वर को हमारी उपासाना की इच्छा नहीं । उसने हमको उत्तम- उत्तम बस् ुऍ भोगने के लिलए ही �ी हैं उसको भोगना ही उसकी सव� म आराधना है। एक इसाई लेडी मुझे पढ़ाने था गाना लिसखाने आने लंगी। घर में एक तिपयानो भी आ गया। इन्हीं आनन्�ों में फँस कर मैं रामायण और भक्तमाल को भूल गयी । ये पुस् कें मुझे अतिप्रय लगने लगीं । �ेव ाओं से तिवश्वास उC गया । धीरे-धीरे यहॉ के बडे़ लोगों से स्नेह और सम्बन्ध बढ़ने लगा। यह एक तिबलकुल नयी सोसा!ी थीं इसके रहन-सहन, आहार-व्यवहार और आचार- तिवचार मेरे लिलए सव.था अनोखे थे। मै इस सोसाय!ी में उसे जान पड़ ी, जैसे मोरों मे कौआ । इन लेतिडयों की बा ची कभी लिथये!र और घुड़�ौड़ के तिवर्षाय में हो ी, कभी !ेतिनस, समाचार –पत्रों और अचे्छ-अचे्छ लेखकों के लेखों पर । उनके चा ुय. ,बुझिद्ध की ीव्र ा फु � और चपल ा पर मुझे अचंभा हो ा । ऐसा मालूम हो ा तिक वे ज्ञान और प्रकाश की पु लिलयॉ हैं। वे तिबना घूंघ! बाहर तिनकल ीं। मैं उनके साहस पर चतिक रह जा ी । मुझे भी कभी-कभी अपने साथ ले जाने की चे�ा कर ी, लेतिकन मैं लtावश न जा सक ी । मैं उन लेतिडयों को भी उ�ास या लिचंति न पा ी। मिमसस्!र �ास बहु बीमार थे। परन् ु मिमसेज �ास के माथे पर लिचन् ा का लिचन्ह क न था। मिमस्!र बागड़ी नैनी ाल में प ेदि�क का इलाज करा रहे थे, पर मिमसेज बागड़ी तिनत्य !ेतिनस खेलने जा ी थीं । इस अवस्था में मेरी क्या �शा हो ी मै ही जान ी हंू। इन लेतिडयो की रीति नीति में एक आक. र्षाण- शालिक्त थी, जो मुझे खींचे लिलए जा ी थी। मै उन्हैं स�ैव आमो�–प्रमो�क के लिलए उत्सुक �ेख ी और मेरा भी जी चाह ा तिक उन्हीं की भांति मैं भी तिनस्संकोच हो जा ी । उनका अंग्रजी वा ा.लाप सुन मुझे मालूम हो ा तिक ये �ेतिवयॉ हैं। मैं अपनी इन तु्रदि!यों की पूर्ति ं के लिलए प्रयत्न तिकया कर ी थीं। इसी बीच में मुझे एक खे�जनक अनुभव होने लगा। यद्यतिप बाबूजी पहले से मेरा अमिधक आ�र कर े,मुझे स�ैव ‘तिडयर-डार्लिलंग कहकर पूकार े थे, थातिप मुझे उनकी बा ो में एक प्रकार की बनाव! मालूम हो ी थीं। ऐसा प्र ी हो ा, मानों ये बा ें उनके हृ�य से

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नहीं, केवल मुख से तिनकल ी है। उनके स्नेह ओर प्यार में हार्दि�ंक भावों की जगह अलंकार ज्या�ा हो ा था; तिकन् ु और भी अचमे्भ की बा यह थी तिक अब मुझे बाबू जी पर वह पहले की –सी श्राद्धा न रही। अब उनकी लिसर की पीड़ा से मेरे हृ�य में पीड़ा न हो ी थी। मुझमें आत्मगौरव का आतिवभा.व होने लगा था। अब मैं अपना बनाव-श्रृंगार इसलिलए कर ी थी तिक संसार में सह भी मेरा क .व्य है; इसलिलए नहीं तिक मैं तिकसी एक पुरूर्षा की व्र धारिरणी हँू। अब मुझे भी अपनी सुन्�र ा पर गव. होने लगा था । मैं अब तिकसी दूसरे के लिलए नहीं, अपने लिलए जी ी थीं। त्याग था सेवा का भाव मेरे हृ�य से लुप होने लग था।

मैं अब भी पर�ा कर ी थी; परन् ु हृ�य अपनी सुन्�र ा की सराहना सुनने के लिलए व्याकुल रह ा था। एक दि�न मिमस्!र �ास था और भी अनेक सभ्य–गण बाबू जी के साथ बैCे थे। मेरे और उसके बीच में केवल एक पर�े की आड़ थी। बाबू जी मेरी इस झिझझक से बहु ही लज्जिt थे। इसे वह अपनी सभ्य ा में कला धब्बा समझ े थे । क�ालिच ् यह दि�खाना चाह े तिक मेरी स्त्री इसलिलए पर�े में नहीं है तिक वह रूप था वस्त्राभूर्षाणों में तिकसी से कम है बश्किल्क इसलिलए तिक अभी उसे लtा आ ी है। वह मुझे तिकसी बहाने से बार-बार पर�े के तिनक! बुला े; झिजसमें अनके उनके मिमत्र मेरी सुन्�र ा और वस्त्राभूर्षाण �ेख लें । अन् में कुछ दि�न बा� मेरी झिझझक गायब हो गयी। इलाहाबा� आने के पूरे �ो वर्षा. बा� में बाबू जी के साथ तिबना पर�े के सैर करने लगी। सैर के बा� !ेतिनस की नोब आयीं अन् में मैंने क्लब में जाकर �म लिलया । पहले यह !ेतिनस और क्लब मुझे माशा –सा मालूम हो था मानों वे लोग व्यायाम के लिलए नहीं बश्किल्क फैशन के लिलए !ेतिनस खेलने आ े थे। वे कभी न भूल े थे तिक हम !ेतिनस खेल रहे है। उनके प्रत्येक काम में, झुकने में, �ौड़ने में, उचकने में एक कृतित्रम ा हो ी थी, झिजससे यह प्र ी हो ा था तिक इस खेल का प्रयोजन कसर नहीं केवल दि�खावा है। क्लब में इससे तिवलिचत्र अवस्था थी। वह पूरा स्वांग था, भद्दा और बेजोड़ । लोग अंग्ररेजी के चुने हुए शब्�ों का प्रयोग कर े थे, झिजसमें कोई सार न हो ा था।स्त्रिस्त्रयों की वह फूहड़ तिनल.t ा और पुरूर्षाों की वह भाव-शून्य स्त्री –पूजा मुझे भी न भा ी थी। चारों ओर अंग्ररेजी चाल-ढ़ाल की हास्यजनक नकल थीं। परन् ु क्रमश: मैं भी वह रंग पकड़ने और उन्हीं का अनुकरण करने लगी । अब मुझे अनुभव हुआ तिक इस प्र�शन.-लोलुप ा में तिक नी शलिक्त है। मैं अब तिनत्य नये श्रृंगार कर ी, तिनत्य नया रूप भर ी, केवल इस लिलए तिक क्लब में सबकी आँखों में चुभ जाऊँ ! अब मुझे बाबू जी के सेवा सत्कार से अमिधक अपने बनाब श्रृंगार की धुन रह ी थी । यहॉ क तिक यह शौक एक नशा–सा बन गया। इ ना ही नहीं, लोगों से अपने सौ�न्य. की प्रशंसा सुन कर मुझे एक अश्चिभमान –मिमश्चिश्र आंन� का अनुभव होने लगा। मेरी लtाशील ा की सीमांऍ तिवस् ृ हो गयी ।वह दृमि�पा जो कभी मेरे शरीर के प्रत्येक रोऍ को खड़ा कर �े ा और वह हास्यक!ाक्ष, जो कभी मुझे तिवर्षा खा लेने को प्रस् ु कर �े ा, उनसे अब मुझे एक उनमा� पूण. हर्षा. हो ा था परन् ु जब कभी में अपनी अवस्था पर आं रिरक दृमि� डाल ी ो मुझे बड़ी घबराह! हो ी थी। यह नाव तिकस घ! लगेगी? कभी-कभी इरा�ा कर ी तिक क्लब न जाऊँगी; परन् ु समय आ े ही तिफर ैयार हो जा ी । मैं अपने वश में न थी । मेरी सत्कल्पनाऍ तिनब.ल हो गयी थीं।

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�ो वर्षा. और बी गये और अब बाबू जी के स्भाव में एक तिवलिचत्र परिरव .न होने लगा । वह उ�ास और लिचंति रहने लगे। मुझसे बहु कम बोल े। ऐसा जान पड़ ा तिक इन्हें कदिCन लिचं ा ने घेर रखा है, या कोईबीमारी हो गयी है। मुँह तिबलकुल सुखा रह ा था। तिनक – तिनक –सी बा पर नौकरों से झल्लाने लग े, और बाहर बहु कम जा े ।

अभी एक ही मास पहले वह सौ काम छोड़कर क्लब अवश्य जा े थे, वहॉ गये तिबना उन्हें कल न पड़ ी थी; अब अमिधक र अपने कमरे में आराम –कुस� पर ले!े हुए समाचार-पत्र और पुस्क ें �ेखा कर े थे । मेरी समझ में न आ ा तिक बा क्या है। एक दि�न उन्हें बडे़ जोर का बुखार आया, दि�न-भर बेहोश रहे, परन ु मुझे उनके पास बैCने में अनकुस –सा लग ा था। मेरा जी एक उपन्यास में लगा हुआ था । उनके पास जा ी थी और पल भर में तिफर लौ! आ ी। !ेतिनस का समय आया, ो दुतिवधा में पड़ गयी तिक जाउँ या न जाऊँ । �ेर क मन में यह संग्राम हो ा रहा अन् को मैंने यह तिनण.य तिकया तिक मेरे यहॉ रहने से वह कुछ अचे्छ ो हो नहीं जायँगे, इससे मेरा यहॉ बैCा रहना तिबलकुल तिनर.थक है। मैंने बदिढ़या बस्त्र पहने, और रैके! लेकर क्लब घर जा पहूँची । वहॉ मैंने मिमसेज �ास और मिमसेज बागची से बाबू जी की �शा ब लायी, और सजल नेत्र चुपचाप बैCी रही । जब सब लोग को!. में जाने लगे और मिमस्!र �ास ने मुझसे चलने को कहा ो मैं Cंडी आह भरकर को!. में जा पहूँची और खेलने लगी। आज से ीन वर्षा. बाबू जी को इसी प्रकार बुखार आ गया था। मैं रा भर उन्हें पंखा झेल ी रही थी; हृ�य व्याकुल था और यही चाह ा था तिक इनके ब�ले मुझे बुखार आ जाय, परन् ु वह उC बैCें । पर अब हृ�य ो स्नेह –शून्य हो गया था, दि�खावा अमिधक था। अकेले रोने की मुझमें क्षम ा न रह गयी थी । मैं स�ैव की भाँति रा को नौ बजे लौ!ी। बाबू जी का जी कुछ अच्छा जान पड़ा । उन्होंने मुझे केवल �बी दृमि� से �ेखा और करब! ब�ल ली; परन् ु मैं ले!ी, ो मेरा हृ�य मुझे अपनी स्वाथ.पर ा और प्रमो�ासलिक्त पर मिधक्कार ा । मैं अब अंग्ररेजी उपन्यासों को समझने लगी । हमारी बा ची अमिधक उत्कृ� और आलोचनात्मक हो ी थी। हमारा सभ्य ा का आ�श. अब बहु ही उच्च हो गया । हमको अब अपनी मिमत्र मण्डली से बाहर दूसरों से मिमलने–जुलने में संकोच हो ा था। हम अपने से छो!ी श्रेणी के लोंगो से बोलने में अपना अपमान समझ े थे। नौकरों को अपना नौकर समझ े थे, और बस । हम उनके तिनजी मामलों से कुछ म लब न था। हम उनसे अलग रह कर उनके ऊपर अपना जोर जमाये रखना चाह े थे। हमारी इच्छा यह थी तिक वह हम लोगों को साहब समझें । तिहन्दुस ानी स्त्रिस्त्रयों को �ेखकर मुझे उनसे घृणा हो ी थी, उनमें लिश� ा न थी। खैर! बाबू जी का जी दूसरे दि�न भी न सॅभला । मैं क्लब न गयी । परन् ु जब लगा ार ीन दि�न क उन्हें बुखार आ ा गया और मिमसेज �ास ने बार-बार एक नस. बुलाने का आ�ेश तिकया, ो मैं सहम हो गयी । उस दि�न से रोगी की सेवा-शुश्ररू्षाा से छुट्टी पा कर बड़ा हर्षा. हुआ।यद्यतिप �ो दि�न मैं क्लब न गयी थी, परं ु मेरा जी वहीं लगा रह ा था , बश्किल्क अपने भीरू ापूण. त्याग पर क्रोध भी आ ा था।

6 एक दि�न ीसरे पहर मैं कुस� पर ले!ी हुई अंग्ररेजी पुस् क पढ़ रही थी। अचानक मनमें यह तिवचार उCा तिक बाबू जी का बुखार असाध्य हो जाय ो ? पर इस तिवचार से लेश-

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मात्र भी दु:ख न हुआ । मैं इस शोकमय कल्पना का मन ही मन आनं� उCाने लगी । मिमसेज �ास, मिमसेज नायडू मिमसेज श्रीवास् ब, मिमस खरे, मिमसेज शरगर अवश्य ही मा मपूस� करने आवेगीं। उन्हें �ेख े ही मैं सजल नेत्र हो उCँूगी, और कहूँगी- बहनों ! मैं लू! गयी । हाय मै लु! गयी । अब मेरा जीवन अँधेरी रा के भयावह वन या श्मशान के �ीपक के समान है, परं ु मेरी अवस्था पर दु:ख न प्रक! करो । मुझ पर जो पडे़गी, उसे मै उस महान् आत्म के मोक्ष के तिवचार से सह लूँगी ।

मैंने इस प्रकार मन में एक शोकपूण. व्या�यान की रचना कर डाल। यहॉँ क तिक अपने उस वस्त्र के तिवर्षाय में भी तिनxय कर लिलया, जो मृ क के साथ श्मशान जा े समय पहनँूगी।

इस घ!ना की शहर भर में चचा. हो जायेगी । सारे कैन्!ोमें! के लोग मुझे समवे�ना के पत्र भेजेगें । ब में उनका उत्तर समाचार पत्रों में प्रकालिश करा दँूगी तिक मैं प्रत्येक शोंक-पत्र का उत्तर �ेने में असमथ. हंू । हृ�य के !ुकडे़-!ुकडे़ हो गऐ है, उसे रोने के लिसवा और तिकसी काम के लिलए समय नहीं है। मै इस मह��ª के लिलए उन लोगों की कृ ज्ञ हंू , ओर उनसे तिवनय- पूव.क तिनवे�न कर ी हंू तिक वे मृ क की आत्मा की स�गति के तिनमिमत्त ईश्वर से प्राथ.ना करें। मै इन्हीं तिवचारों मे डूब हुई थी तिक नस. ने आकर कहा – आपको साहब या� कर े हैं। यह मेरे क्लब जाने का समय था। मुझे उनका बुलाना अखर गया, लेतिकन एक मास हो गया था। वह अत्यन् दुब.ल हो रहे थे। उन्होंने मेेरी और तिवनयपूण. दृमि� से �ेखा। उसमे ऑसू भरे हुए थे। मुझे उन पर �या आयी। बैC गयी, और ढ़ाढस �े े हुए बोली –क्या करँू ? कोई दूसरा डाक्!र बुलाऊ?

बाबू जी आँखें नीची करके अत्यं करूण भाव से बोले – यहॉ कभी नहीं अच्छा हो सक ा, मुझे अम्मॉ के पास पहूँचा �ो। मैंने कहा- क्या आप समझ े है तिक वहाँ आपकी लिचतिकत्सा यहाँ से अच्छी होगी ?

बाबू जी बोले – क्या जाने क्यों मेरा जी अम्मॉ के �श.नों को लालामिय हो रहा है। मुझे ऐसा मालूम हो ा है तिक में वहॉ बना �वा- �प.ण के भी अच्छा हो जाऊँगा । मैं- यह आपका केवल तिवचार मात्र है।बाबजी – शाय� ऐसा ही हो । लेतिकन मेरी तिवनय स्वीकार करो। मैं इस रोग से नहीं इस जीवन से ही दु:खिख हँू। मैंने अचरज से उनकी ओर �ेखा ! बाबू जी तिफर बोले – हॉ, इस जिजं�गी से ंग आ गया हँू! में अब समझ रहा हँू मै झिजस स्वच्छ, लहरा े, हुए तिनम.ल जल की ओर �ौड़ा जा रहा था, वह मरूभूमिम हैं। मैं इस प्रकार जीवन के बाहरी रूप पर लट्टू हो रहा था; परं ु अब मुझे उसकी आं रिरक अवस्थाओं का बोध हो रहा है! इन चार बर्षा� मे मेने इस उपवन मे सूब भ्रमण तिकया, और उसे आदि� से अं क कं!कमय पाया । यहॉ न ो ह�य को शांति है, न आस्त्रित्मक आंनं�। यह एक उन्म , अशांति मय, स्वाथ.-पूण., तिवलाप–युक्त जीवन है। यहॉ न नीति है; न धम., न सहानुभुति , न सह�य ा। परामात्मा के लिलए मुझे इस अखिग्न से बचाओं। यदि� और कोई उपाय न हो ो अम्माँ को एक पत्र ही लिलख �ो । वह आवश्य यहॉ आयेगीं। अपने अभागे पुत्र का दु:ख उनसे न �ेखा जाएगा। उन्हें इस सोसाइ!ी की हवा अभी नहीं लगी, वह आयेगी। उनकी वह माम ापूण. दृमि�, वह स्नेहपूण. शुश्ररृ्षाा मेरे लिलए सौ ओर्षामिधयों का काम करेगी। उनके मुख पर

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वह ज्योति प्रकाशमान होगी, झिजसके लिलए मेरे नेत्र रस रहे हैं। उनके ह�य मे स्नेह है, तिवश्वास है। यदि� उनकी गो� मे मैं मर भी जाऊँ ो मेरी आत्मा का शांति मिमलेगी। मैं समझी तिक यह बुखार की बक-झक हैं। नस. से कहा – जरा इनमा !ेम्परेचर ो लो, मैं अभी डाक्!र के पास जा ी हँू। मेरा हृ�य एक अज्ञा भय से कॉप े लगा। नस. ने थमा.मी!र तिनकाला; परन् ु ज्यों ही वह बाबू जी के समीप गयी, उन्होनें उसके हाथ से वह यंत्र छीन कर पृथ्वी पर प!क दि�या। उसके !ुकडे़-!ुकडे़ हो गये। तिफर मेरी ओर एक अवहेलनापूण. दृमि� से �ेखकर कहा – साफ- साफ क्यों नहीं कह ी हो तिक मै क्लब –घर जा ी हँू झिजसके लिलए ुमने ये वस्त्र धारण तिकये है और गाउन पहनी है। खैर, घूम ी हुई यदि� डाक्!र के पास जाना, ो कह �ेना तिक यहॉ !ेम्परेचर उस बिबंदु पर पहुँच चुका है, जहॉ आग लग जा ी है।

मैं और भी अमिधक भयभी हो गयी। ह�य में एक करूण लिचं ा का संचार होने लगा। गला भर आया। बाबूजी ने नेत्र मूँ� लिलये थे और उनकी साँस वेग से चल रही थी। मैं द्वार की ओर चली तिक तिकसी को डाक्!र के पास भेजूँ। यह फ!कार सुन कर स्वंय कैसे जा ी। इ ने में बाबू जी उC बैCे और तिवनी भाव से बोले –श्यामा! मैं ुमसे कुछ कहना चाह ा हँू। बा �ो सप् ाह से मन में थी: पर साहस न हुआ। आज मैंने तिनxय कर लिलया है तिक ही डालूँ। में अब तिफर अपने घर जाकर वही पहले की–सी जिजं�गी तिब ाना चाह ा हँू। मुझे अब इस जीवन से घृणा हो गयी है, ओर यही मेरी बीमारी का मु�य कारण हैं। मुझे शारीरिरक नहीं मानलिसक क� हैं। मैं तिफर ुम्हें वही पहले की–सी सलt, नीचा लिसर करके चलनेवाली, पुजा करनेवाली, रमायण पढ़नेवाली, घर का काम-काज करनेवाली, चरखा का नेवाली, ईश्वर से डरनेवाली, पति श्रद्धा से परिरपूण. स्त्री �ेखना चाह ा हँू। मै तिवश्वास कर ा हँू ुम मुझे तिनराश न करेगी। ुमको सोलहो आना अपनी बनाना और सोलहो आने ुम्हारा बनाना चाह ा हँू। मैं अब समझ गया तिक उसी सा�े पतिवत्र जीवन मे वास् तिवक सुख है। बोलो , स्वीकार है? ुमने स�ैव मेरी आज्ञाओं का पालन तिकया है, इस समय तिनराश न करना; नहीं ो इस क� और शोंक का न जाने तिक ना भयंकर परिरणाम हो। मै सहसा कोई उ र न �े सकी। मन में सोचने लगी – इस स्व ंत्र जीवन मे तिक ना सुख था? ये मजे वहॉ कहॉँ? क्या इ ने दि�न स्व ंत्र वायु मे तिवचरण करने के पxा तिफर उसी बिपंजडे़ मे जाऊँ? वही लौंडी बनकर रहँू? क्यों इन्होंने मुझे वर्षा­ स्व ंत्र ा का पाC पढ़ाया, वर्षा� �ेव ाओं की, रामायण की पूजा–पाC की, व्र –उपवास की बुराई की, हॅंसी उड़ायी? अब जब मैं उन बा ों को भूल गयीं, उन्हें मिमथ्या समझने लगी, ो तिफर मुझे उसी अंधकूप मे ढकेलना चाह े हैं। मैं ो इन्हीं की इच्छा के अनुसार चल ी हँू, तिफर मेरा अपराध क्या है? लेतिकन बाबूजी के मुख पर एक ऐसा �ीन ा-पूण. तिववश ा थी तिक मैं प्रत्यक्ष अस्वीकार न कर सकी। बोली- आखिखर यहॉ क्या क� है ?

मैं उनके तिवचारों की ह क पहेँुचना चाह ी थीं। बाबूजी तिफर उC बैCे और मेरी ओर कCोर दृ� से �ेखकर बोल-बहु ही अच्छा हो ा तिक ुम इस प्रश्न को मुझसे पूछने के ब�ले अपने ही ह�य से पूछ ले ी। क्या अब मैं ुम्हारे लिलए वही हँू जो आज से ीन वर्षा. पहले था। जब मैं ुमसे अमिधक लिशक्षा प्राप् , अमिधक बुतिद्वमान, अमिधक जानकार होकर ुम्हारे लिलए वह नहीं रहा जो पहले था – ुमने चाहे इसका अनुभव न तिकया हो परन् ु मैं स्वंय कर रहा हँू— ो मैं अनमान करँू तिक उन्हीं भावों ने ुम्हें रखलिल न तिकया होगा? नहीं, बश्किल्क प्रत्यक्ष लिचह्ल �ेख पड़ े है तिक ुम्हारे ह�य पर उन भावों

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का और भी अमिधक प्रभाव पड़ा है। ुमने अपने को ऊपरी बनाव-चुनाव ओर तिवलास के भॅवर में डाल दि�या, और ुम्हें उसकी लेशमत्र भी सुमिध नहीं हैं। अब मुझे पूण. तिवश्वास हो गया तिक सभ् ा, स्वेछाचारिर का भू स्त्रिस्त्रयों के कोमल ह�य पर बड़ी सुगम ा से कब्जा कर सक ा है। क्या अब से ीन वर्षा. पूव. भी ुम्हें यह साहस हो सक ा था तिक मुझे इस �शा में छोड़ कर तिकसी पड़ोलिसन के यहॉ गोन–बजाने चली जा ी? मैं तिबछोने पर रह ा, और ुम तिकसी के घर जाकर कलोलें कर ी। स्त्रिस्त्रयों का ह�य आमिधक्य-तिप्रय हो ा हैं; परन् ु इस नवीन आमिधक्य के ब�ले मुझे वह पुराना आमिधक्य कहीं ज्या�ा पसन्� हैं। उस अमिधक्य का फल आस्त्रित्मक एव शारीरिरक अभ्यु�य ओर हृ�य की पतिवत्र ा और स्वेच्छाचार। उस समय यदि� ुम इस प्रकार मिमस्!र �ास के सम्मुख हॅंस ी-बोल ी, ो मैं या ो ुम्हें मार डाल ा, या स्वयं तिवर्षा-पान कर ले ा । परन् ु बेहयाई ऐसे जीवन का प्रधान त्व है। मै सब कुछ स्वयं �ेख ा ओर सह ा हँू। क�ालिच ् सहे भी जा ा यदि� इस बीमारी ने मुझे सचे न कर दि�या हो ा। अब यदि� ुम यहॉ बैCी भी रहो, ो मुझे सं ोर्षा न होगा, क्योंतिक मुझे यह तिवचार दु:खिख कर ा रहेगा तिक ुम्हारा ह�य यहॉ नहीं हैं। मैंने अपने को उस इन्र्द्रजाल से तिनकालने का तिनxय कर लिलया है, जहॉ धन का नाम मान है, इझिन्र्द्रया लिलप्सा का सभ्य ा और भ्र� ा का तिवचार स्व न्त्र्य। बोलो, मेरा प्रस् ाव स्वीकार है? मेरे ह�य पर वज्रपा –सा हो गया। बाबूजी का अश्चिभप्राय पूण. या हृ�यंगम हो गया। अभी ह�य में कुछ पुरानी लtा बाकी थी। यह यंत्रणा असह्रा हो गयी। लज्जिt हो उCी। अं रात्मा ने कहा– अवश्य! मैं अब वह नहीं हँू, जो पहले थी। उस समय मैं इनको अपना इ��ेव मान ी थी, इनकी आज्ञा लिशरोधाय. थी; पर अब वह मेरी दृमि� में एक साधारण मनुष्य हैं। मिमस्!र �ास का लिचत्र मेरे नेत्रों के सामने खिखंच गया। कल मेरे ह�य पर इस दुरात्मा की बा ों का कैसा नशा छा गया था, यह सोच े ही नेत्र लtा से झुक गये। बाबूजी की आं रिरक अवस्था उनके मुखडे़ ही से प्रकाशमान हो रही थी। स्वाथ. और तिवलास-लिलप्सा के तिवचार मेरे ह�य से दूर हो गये। उनके ब�ले ये शब्� ज्वलं अक्षरों मे लिलखे हुए नजर आये- ूने फैशन और वस्त्राभूर्षाणों में अवश्य उन्नति की है, ुझमें अपने स्वाथ³ का ज्ञान हो आया है, ुझमें जीवन के सुख भागने की योग्य ा अमिधक हो गयी है, ू अब अमिधक गर्तिवंणी, दृढ़ह�य और लिशक्षा-सम्पन्न भी हो गयी: लेतिकन ेरे आस्त्रित्मक बल का तिवनाश हो गया, क्योंतिक ू अपने क .व्य को भूल गयी। मै �ोंनों हाथ जोड़कर बाबूजी के चरणों पर तिगर पड़ी। कंC रँूध गया, एक शब्� भी मुंह से न तिनकला, अश्रुधारा बह चली। अब मैं तिफर अपने घर पर आ गयी हंू। अम्माँ जी अब मेरा अमिधक सम्मान कर ी हैं, बाबूजी सं ु� �ीख पड़ े है। वह अब स्वयं प्रति दि�न संध्यावं�न कर े है। मिमसेज �ास के पत्र कभी कभी आ े हैं, वह इलाहाबा�ी सोसाइ!ी के नवीन समाचारों से भरे हो े हैं। मिमस्!र �ास और मिमस भादि!या से संबंध में कलुतिर्षाक बा ें उड़ रही है। मैं इन पत्रों का उ र ो �े ी हँू, परन् ु चाह ी हँू तिक वह अब आ े ो अच्छा हो ा। वह मुझे उन दि�नों की या� दि�ला े हैं, झिजन्हें मैं भूल जाना चाह ी हँू। कल बाबूजी ने बहु -सी पुरानी पालिथयॉँ अखिग्न�ेव को अप.ण कीं। उनमें आसकर वाइल्ड की कई पुस् कें थीं। वह अब अँग्रेजी पुस् कें बहु कम पढ़ े हैं। उन्हें काला.इल, रस्त्रिस्कन और एमरसन के लिसवा और कोई पुस् क पढ़ े मैं नहीं �ेख ी। मुझे ो अपनी

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रामायण ओर महाभार में तिफर वही आनन्� प्राप् होने लगा है। चरखा अब पहले के अमिधक चला ी हँू क्योंतिक इस बीच चरखे ने खूब प्रचार पा लिलया है।

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बैंक का दिदवाला लखनऊ नेशनल बैंक के �फ् र में लाला साईं�ास आराम कुस� पर ले!े हुए शेयरो का भाव �ेख रहे थे और सोच रहे थे तिक इस बार तिहस्से�ारों को मुनाफ़ा कहॉं से दि�या जायग। चाय, कोयला या जु! के तिहस्से खरी�ने, चॉ�ी, सोने या रूई का सट्टा करने का इरा�ा कर े; लेतिकन नुकसान के भय से कुछ य न कर पा े थे। नाज के व्यापार में इस बार बड़ा घा!ा रहा; तिहस्से�ारों के ढाढस के लिलए हातिन- लाभ का कज्जिल्प ब्योरा दि�खाना पड़ा ओर नफा पँूजी से �ेना पड़ा। इससे तिफर नाज के व्यापार में हाथ डाल े जी कॉप ा था। पर रूपये को बेकार डाल रखना असम्भव था। �ो-एक दि�न में उसे कहीं न कहीं लगाने का उलिच उपाय करना जरूरी था; क्योंतिक डाइरेक्!रों की ति माही बैCक एक ही सप् ाह में होनेवाली थी, और यदि� उस समय कोई तिनxय न हुआ, ो आगे ीन महीने क तिफर कुछ न हो सकेगा, और छमाही मुनाफे के बॅ!वारे के समय तिफर वही फरजी कार.वाई करनी पडे़गी, झिजसका बार-बार सहन करना बैंक के लिलए कदिCन है। बहु �ेर क इस उलझन में पडे़ रहने के बा� साईं�ास ने घं!ी बजायी। इस पर बगल के दूसरे कमरे से एक बंगाली बाबू ने लिसर तिनकाल का झॉंका। साईं�ास – ाजा-स्!ील कम्पनी को एक पत्र लिलख �ीझिजए तिक अपना नया बैलेंस शी! भेज �ें।

बाबू- उन लोगों को रुपया का गरज नहीं। लिच�ी का जवाब नहीं �े ा।साई�ास – अच्छा: नागपुर की स्व�ेशी मिमल को लिलखिखए।

बाबू-उसका कारोबार अच्छा नहीं है। अभी उसके मजदूरों ने हड़ ाल तिकया था। �ो महीना क मिमल बं� रहा। साईं�ास – अजी, ो कहीं लिलखों भी! ुम्हारी समझ में सारी दुतिनयाबेइमानों से भरी है। बाबू –बाबा, लिलखने को ो हम सब जगह लिलख �ें;: मगर खाली लिलख �ेने से ो कुछ लाभ नहीं हो ा। लाला साईं�ास अपनी कुल –प्रति ष्ठा ओर मया.�ा के कारण बैक के मैंनेजिजंग डाइरेक्!र हो गये थे पर व्यावहरिरक बा ों से अपरलिच थे । यहीं बंगाली बाबू इनके सलाहाकर थे और बाबू साहब को तिकसी कारखाने या कम्पनी पर भरोसा न था। इन्हीं के अतिवश्वास के कारण तिपछले साल बैंक का रूपया सन्दूक से बाहर न तिनकल सका था, ओर अब वही रंग तिफर दि�खायी �े ा था। साईं�ास को इस कदिCनाई से बचने का कोई उपाय न सुझ ा था। न इ नी तिहम्म थी तिक अपने भरोसे तिकसी व्यापार में हाथ डालें। बैचेनी की �शा में उCकर कमरे में !हलने लगे तिक �रबान ने आकर खबर �ी – बरहल की महारानी की सवारी आयी है। 2 लाल साईं�ास चैंक पडे़। बरहल की महारानी को लखनउ आये ीन-चार दि�न हुए थे ओर हर एक मे मुंह से उन्हीं की चचा. सुनायी �े ी थी। कोई उनके पहनावे पर मुग्ध था, कोई उनकी सुन्�र ा पर, काई उनकी स्वचं्छ� वृति पर। यहॉ क तिक उनकी �ालिसयॉ और लिसपाही आदि� भी लोगों की चचा. के पात्र बने हुए थे। रायल हो!ल के द्वार पर �श.को की भीड़ लगी रह ी है। तिक ने ही शौकीन, बेतिफकरे लोग, इ र-फरोश, बज़ाज या म्बाकूगर

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का वेश धर का उनका �श.न कर चुके थे। झिजधर से महारानी की सवारी तिनकल जा ी, �श.को से C! लग जा े थे। वाह –वाह, क्या शान! ऐसी इराकी जोड़ी ला! साहब के लिसवा तिकसी राजा-रईस के यहॉ ो शाय� ही तिनकले, और सजाव! भी क्या खूब है! भई, ऐसा गोरे आ�मी ो यहॉ भी नहीं दि�खायी �े े। यहॉं के रईस ो मृगांक, चंर्द्रो�य और ईश्वर जाने, क्या-क्या खाक-बला खा े है, पर तिकसी के ब�न पर ेज या प्रकाश का नाम नहीं। ये लोग न जाने क्या भोजन कर े और तिकस कुऍं का पानी पी े हैं तिक झिजसे �ेखिखए, ाजा सेब बना हुआ है! यह सब जलबायु का प्रभाब है। बरहल उ र दि�शा में नैपाल के समीप, अँगरेजी–राज्य में एक रिरयास थी। यद्यतिप जन ा उसे बहु माल�ार समझ ी थी; पर वास् ब में उस रिरयास की आम�नी �ो लाख से अमिधक न थी। हॉं, के्षत्रफल बहु तिवस् ृ था। बहु भूमिम ऊसर और उजाड़ थी। बसा हुआ भाग भी पहाड़ी और बंजर था। जमीन बहु सस् ी उC ी थी।

लाला साईें�ास न ुरन अलगानी से रेशमी सू! उ ार कर पहन लिलया ओर मेज पर आकर शान से बैC गए। मानों राजा-रातिनयों का यहॉ आना कोई सधारण बा है। �फ् र के क्लक. भी सॅभल गए। सारे बैंक में सन्ना!े की हलचल पै�ा हो गई। �रबान ने पगड़ी सॅभाली। चौकी�ार ने लवार तिनकाली, और अपने स्थान पर खड़ा हो गया। पंखा–कुली की मीCी नीं� भी !ू!ी और बंगाली बाबू महारानी के स्वाग के लिलए �फ् र से बाहर तिनकले। साईं�ास ने बाहरी Cा! ो बना लिलया, बिकं ु लिच आशा और भय से चंचल हो रहा था। एक रानी से व्यवहार करने का यह पहला ही अवसर था; घबरा े थे तिक बा कर े बने या न बने। रईसों का मिमजाज असमान पर हो ा है। मालूम नहीं, मै बा करने मे कही चूक जॉंऊं। उन्हें इस समय अपने में एक कमी मालूम हो रही थी। वह राजसी तिनयमों से अनश्चिभज्ञ थे। उनका सम्मान तिकस प्रकार करना चातिहए, उनसे बा ें करने में तिकन बा ों का ध्यान रखना चातिहए, उसकी मया.�ा–रक्षा के लिलए तिक नी नम्र ा उलिच है, इस प्रकार के प्रश्न से वह बडे़ असमंजस में पडे़ हुए थे, और जी चाह ा था तिक तिकसी रह परीक्षा से शीघ्र ही छु!कारा हो जाय। व्यापारिरयों, मामूली जमीं�ारों या रईसों से वह रूखाई ओर सफाई का ब ा.ब तिकया कर े थे और पढे़-लिलखे सtनों से शील और लिश� ा का। उन अवसरों पर उन्हें तिकसी तिवशेर्षा तिवचार की आवश्यक ान हो ी थी; पर इस समय बड़ी परेशानी हो रही थी। जैसे कोई लंका–वासी ति बब में आ गया हो, जहॉ के रस्म–रिरवाज और बा -ची का उसे ज्ञान न हो। एकाएक उनकी दृ�ी घड़ी पर पड़ी। ीसरे पहर के चार बज चुके थे। परन् ु घड़ी अभी �ोपहर की नीं� मे मग्न थी। ारीख की सुई ने �ौड़ मे समय को भी मा कर दि�या था। वह जल्�ी से उCे तिक घड़ी को Cीक कर �ें, इ ने में महारानी के कमरे मे प�ाप.ण हुआ। साई�ास ने घड़ी को छोड़ा और महारनी के तिनक! जा बगल मे खडे़ हो गये। तिनxय न कर कर सके तिक हाथ मिमलायें या झुक कर सलाम करें। रानी जी ने स्वंय हाथ बढ़ा कर उन्हें इस उलझन से छुड़ाया। जब कुर्लिसंयों पर बैC गए, ो रानी के प्राइवे! सेके्र!री ने व्यवहार की बा ची शुरू कीं। बरहल की पुरानी गाथा सुनाने के बा� उसने उन उन्नति यों का वण.न तिकया, जो रानी साहब के प्रयत्न से हुई थीं। इस समय नहरों की एक शाखा तिनकालने के लिलए �स लाख रूपयों की आवश्यक ा थी: परन् ु उन्होंने एक तिहन्दुस् ानी बैंक से ही व्यवहार करना अच्छा

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समझा। अब यह तिनण.य नेशनल बैंक के हाथ में था तिक वह इस अवसर से लाभ उCाना चाह ा है या नहीं।

बंगाली बाबू-हम रुपया �े सक ा है, मगर कागज-पत्तर �ेखे तिबना कुछ नहीं कर सक ा।

सेके्र!री-आप कोई जमान चाह े हैं?साईं�ास उ�ार ा से बोले- महाशय, जमान के लिलए आपकी जबान ही काफी है।बंगाली बाबू-आपके पास रिरयास का कोई तिहसाब-तिक ाब है?लाला साईं�ास को अपने हेडक्लक. का दुतिनया�ारी का ब ा.व अच्छा न लग ा था। वह

इस समय उ�ार ा के नशे में चूर थे। महारानी की सूर ही पक्की जमान थी। उनके सामने कागज और तिहसाब का वण.न करना बतिनयापन जान पड़ ा था, झिजससे अतिवश्वास की गंध आ ी है।

मतिहलाओं के सामने हम शील और संकोच के पु ले बन जा े हैं। साईं�ास बंगाली बाबू की ओर कू्रर-कCोर दृमि� से �ेख का बोले-कागजों की जॉँच कोई आवश्यक बा नहीं है, केवल हमको तिवश्वास होना चातिहए।

बंगाली बाब- डाइरेक्!र लोग कभी न मानेगा।साईं�ास-–हमको इसकी परवाह नहीं, हम अपनी झिजम्मे�ारी पर रुपये �े सक े हैं।रानी ने साईं�ास की ओर कृ ज्ञ ापूण. दृमि� से �ेखा। उनके होCों पर हल्की मुस्कराह!

दि�खलायी पड़ी।३

परन् ु डाइरेक्!रों ने तिहसाब तिक ाब आय व्यय �ेखना आवश्यक समझा और यह काम लाला साईं�ास के सुपु�. हुआ; क्योंतिक और तिकसी को अपने काम से फुस. न थी तिक वह एक पूरे �फ् र का मुआयना कर ा। साईं�ास ने तिनयमपालन तिकया। ीन-चार क तिहसाब जॉँच े रहे। ब अपने इ मीनान के अनुकूल रिरपो!. लिलखी। मामला य हो गया। �स् ावेज लिलखा गया, रुपये �े दि�ए गये। नौ रुपये सैकडे़ ब्याज Cहरा।

ीन साल क बैंक के कारोबार की अच्छी उन्नति हुईं। छCे महीने तिबना कहे सुने पैं ालिलस हजार रुपयों की थैली �फ् र में आ जा ी थी। व्यवहारिरयों को पॉँच रुपये सैकडे़ ब्याज �े दि�या जा ा था। तिहस्से�ारों को सा रुपये सैकडे़ लाभ था।

साईं�ास से सब लोग प्रसन्न थे। सब लोग उनकी सूझ-बूझ की प्रशंसा कर े। यहॉँ क तिक बंगाली बाबू भी धीरे धीरे उनके कायल हो े जा े थे। साईं�ास उनसे कहा कर े-बाबू जी तिवश्वास संसार से न लुप् हुआ है। और न होगा। सत्य पर तिवश्वास रखना प्रत्येक मनुष्य का धम. हैं। झिजस मनुष्य के लिचत्त से तिवश्वास जा ा रह ा है उसे मृ क समझना चातिहए। उसे जान पड़ ा है, मैं चारों ओर शतु्रओं से मिघरा हुआ हँू। बडे़ से बडे़ लिसद्ध महात्मा भी उसे रंगे-लिसयार जान पड़ े हैं। सच्चे से सच्चे �ेशपे्रमी उसकी दृमि� में अपनी प्रशंसा के भूखे ही Cहर े हैं। संसार उसे धोखे और छल से परिरपूण. दि�खलाई �े ा है। यहॉँ क तिक उसके मन में परमात्मा पर श्रद्धा और भलिक्त लुप् हो जा ी हैं। एक प्रलिसद्ध तिफलासफर का कथन है तिक प्रत्येक मनुष्य को जब क तिक उसके तिवरूद्ध कोई प्रत्यक्ष प्रमाण न पाओ भलामानस समझो। व .मान शासन प्रथा इसी महत्वपूण. लिसद्धां पर गदिC है। और घृणा ो तिकसी से करनी ही न चातिहए। हमारी आत्माऍं पतिवत्र हैं। उनसे घृणा करना परमात्मा से घृणा करने के समान है। मैं यह नहीं कह ा हँू तिक संसार में कप! छल है ही नहीं, है और बहु अमिधक ा से

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है परन् ु उसका तिनवारण अतिवश्वास से नहीं मानव चरिरत्र के ज्ञान से हो ा है और यह ईश्वर �त्त गुण है। मैं यह �ावा ो नहीं कर ा परन् ु मुझे तिवश्वास है तिक मैं मनुष्य को �ेखकर उसके आं रिरक भावों क पहुँच जा ा हँू। कोई तिक ना ही वेश ब�ले, रंग-रूप सँवारे परन् ु मेरी अं दृ.मि� को धोखा नहीं �े सक ा। यह भी ध्यान रखना चातिहए तिक तिवश्वास से तिवश्वास उत्पन्न हो ा है। और अतिवश्वास से अतिवश्वास। यह प्राकृति क तिनयम है। झिजस मनुष्य को आप शुरू से ही धू ., कप!ी, दुज.न, समझ लेगें, वह कभी आपसे तिनष्कप! व्यवहार न करेगा। वह एकाएक आपको नीचा दि�खाने का यत्न करेगा। इसके तिवपरी आप एक चोर पर भी भरोसा करें ो वह आपका �ास हो जायगा। सारे संसार को लू!े परन् ु आपको धोखा न �ेगा वह तिक ना ही कुकम� अधम� क्यों न हो, पर आप उसके गले में तिवश्वास की जंजीर डालकर उसे झिजस ओर चाहें ले जा सक े है। यहॉँ क तिक वह आपके हाथों पुण्यात्मा भी बन सक ा है।

बंगाली बाबू के पास इन �ाश.तिनक क­ का कोई उत्तर न था।

४चौथे वर्षा. की पहली ारिरख थी। लाला साईं�ास बैंक के �फ् र में बैC डातिकये की

राह �ेख रहे थे। आज बरहल से पैं ालीस हजार रुपये आवेंगे। अबकी इनका इरा�ा था तिक कुछ सजाव! के सामान और मोल ले लें। अब क बैंक में !ेलीफोन नहीं था। उसका भी खमीना मँगा लिलया था। आशा की आभा चेहरे से झलक रही थी। बंगाली बाबू से हँस कर कह े थे-इस ारीख को मेरे हाथों में अ�ब�ा के खुजली होने लग ी है। आज भी हथेली खुजला रही है। कभी �फ् री से कह े-अरे मिमयॉँ शराफ , जरा सगुन ो तिवचारों; लिसफ. सू� ही सू� आ रही है, या �फ् र वालों के लिलए नजराना शुकराना भी। आशा का प्रभाव क�ालिच स्थान पर भी हो ा है। बैंक भी आज खुला हुआ दि�खायी पड़ ा था।

डातिकया Cीक समय पर आया। साईं�ास ने लापरवाही से उसकी ओर �ेखा। उसने अपनी थैली से कई रझिजस्!री लिलफाफे तिनकाले। साईं�ास ने लिलफाफे को उड़ ी तिनगाह से �ेखा। बहरल का कोई लिलफाफा न था। न बीमा, न मुहर, न वह लिलखाव!। कुछ तिनराशा-सी हुई। जी में आया, डातिकए से पूछें , कोई रझिजस्!री रह ो नहीं गयी पर रुक गए; �फ् र के क्लक­ के सामने इ ना अधैय. अनुलिच था। बिकं ु जब डातिकया चलने लगा ब उनसे न रह गया? पूछ ही बैCे-अरे भाई, कोई बीमा का लिलफाफा रह ो नहीं गया? आज उसे आना चातिहए था। डातिकये ने कहा—सरकार भला ऐसी बा हो सक ी है! और कहीं भूल-चूक चाहे हो भी जाय पर आपके काम में कही भूल हो सक ी है?

साईं�ास का चेहरा उ र गया, जैसे कच्चे रंग पर पानी पड़ जाय। डातिकया चला गया, ो बंगाली बाबू से बोले-यह �ेर क्यों हुई ? और ो कभी ऐसा न हो ा था।

बंगाली बाबू ने तिनषु्ठर भाव से उत्तर दि�या-तिकसी कारण से �ेर हो गया होगा। घबराने की कोई बा नहीं।

तिनराशा असम्भव को सम्भव बना �े ी है। साईं�ास को इस समय यह �याल हुआ तिक क�ालिच ् पास.ल से रुपये आ े हों। हो सक ा है ीन हजार अशर्तिफंयों का पास.ल करा दि�या हो। यद्यतिप इस तिवचार को औरों पर प्रक! करने का उन्हें साहस न हुआ, पर उन्हें यह आशा उस समय क बनी रही जब क पास.लवाला डातिकया वापस नहीं गया। अं में संध्या को वह बेचैनी की �शा में उC कर चले गये। अब ख या ार का इं जार था। �ो- ीन

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बार झुंझला कर उCे, डॉँ! कर पत्र लिलखँू और साफ साफ कह दँू तिक लेन �ेन के मामले मे वा�ा पूरा न करना तिवश्वासघा है। एक दि�न की �ेर भी बैंक के लिलए घा क हो सक ी है। इससे यह होगा तिक तिफर कभी ऐसी लिशकाय करने का अवसर न मिमलेगा; परं ु तिफर कुछ सोचकर न लिलखा।

शाम हो गयी थी, कई मिमत्र आ गये। गपशप होने लगी। इ ने में पोस्!मैन ने शाम की डाक �ी। यों वह पहले अखबारों को खोला कर े पर आज लिचदि!ठ्यॉँ खोलीं तिकन् ु बरहल का कोई ख न था। ब बे�म हो एक अँगरेजी अखबार खोला। पहले ही ार का शीर्षा.क �ेखकर उनका खून स�. हो गया। लिलखा था-

‘कल शाम को बरहल की महारानी जी का ीन दि�न की बीमारी के बा� �ेहां हो गया।’

इसके आगे एक संश्चिक्षप् नो! में यह लिलखा हुआ था—‘बरहल की महारानी की अकाल मृत्यु केवल इस रिरयास के लिलए ही नहीं तिकन् ु समस् प्रां के लिलए शोक जनक घ!ना है। बडे़-बडे़ श्चिभर्षागाचाय. (वैद्यराज) अभी रोग की परख भी न कर पाये थे तिक मृत्यु ने काम माम कर दि�या। रानी जी को स�ैव अपनी रिरयास की उन्नति का ध्यान रह ा था। उनके थोडे़ से राज्यकाल में ही उनसे रिरयास को जो लाभ हुए हैं, वे लिचरकाल क स्मरण रहेंगे। यद्यतिप यह मानी हुई बा थी तिक राज्य उनके बा� दूसरे के हाथ जायेगा, थातिप यह तिवचार कभी रानी साहब के कत्त.व्य पालन में बाधक नहीं बना। शास्त्रानुसार उन्हें रिरयास की जमान पर ऋण लेने का अमिधकार न था, परं ु प्रजा की भलाई के तिवचार से उन्हें कई बार इस तिनयम का उल्लंघन करना पड़ा। हमें तिवश्वास है तिक यदि� वह कुछ दि�न और जीतिव रह ीं ो रिरयास को ऋण से मुक्त कर �े ी। उन्हें रा -दि�न इसका ध्यान रह ा था। परं ु इस असाममियक मृत्यु ने अब यह फैसला दूसरों के अधीन कर दि�या। �ेखना चातिहए, इन ऋणों का क्या परिरणाम हो ा है। हमें तिवश्वस् रीति से यह मालूम हुआ है तिक नये महाराज ने, जो आजकल लखनऊ में तिवराजमान हैं, अपने वकीलों की सम्मति के अनुसार मृ क महारानी के ऋण संबंधी तिहसाबों को चुकाने से इन्कार कर दि�या है। हमें भय है तिक इस तिनxय से महाजनी !ोले में बड़ी हलचल पै�ा होगी और लखनऊ के तिक ने ही धन सम्पति के स्वामिमयों को यह लिशक्षा मिमल जायगी तिक ब्याज का लोभ तिक ना अतिन�कारी हो ा है।

लाला साईं�ास ने अखबार मेज पर रख दि�या और आकाश की ओर �ेखा, जो तिनराशा का अंति म आश्रय है। अन्य मिमत्रों ने भी यह समाचार पढ़ा। इस प्रश्न पर वा�-तिववा� होने लगा। साईं�ास पर चारों ओर से बौछार पड़ने लगी। सारा �ोर्षा उन्हीं के लिसर पर मढ़ा गया और उनकी लिचरकाल की काय.कुशल ा और परिरणाम-�र्लिशं ा मिमट्टी मे मिमल गयी। बैंक इ ना बड़ा घा!ा सहने में असमथ. था। अब यह तिवचार उपज्जिस्थ हुआ तिक कैसे उसके प्राणों की रक्षा की जाय।

५शहर में यह खबर फैल े ही लोग अपने रुपये वापस लेने के लिलए आ ुर हो गये।

सुबह शाम क लेन�ारों का ां ा लगा रह ा था। झिजन लोगों का धन चालू तिहसाब में जमा था, उन्होंने ुरं तिनकाल लिलया, कोई उज्र न सुना। यह उसी पत्र के लेख का फल था तिक नेशनल बैंक की साख उC गयी। धीरज से काम ले े ो बैंक सँभल जा ा। परं ु ऑंधी और ूफान में कौन नौका ज्जिस्थर रह सक ी है? अन् में खजांची ने !ा! उल! दि�या। बैंक की नसों से इ नी रक्तधाराऍं तिनकलीं तिक वह प्राण-रतिह हो गया।

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ीन दि�न बी चुके थे। बैंक घर के सामने सहस्त्रों आ�मी एकत्र थे। बैंक के द्वार पर सशस्त्र लिसपातिहयों का पहरा था। नाना प्रकार की अफवाहें उड़ रहीं थीं। कभी खबर उड़ ी, लाला साईं�ास ने तिवर्षा-पान कर लिलया। कोई उनके पकडे़ जाने की सूचना ला ा था। कोई कह ा था-डाइरेक्!र हवाला के भी र हो गये।

एकाएक सड़क पर से एक मो!र तिनकली और बैंक के सामने आ कर रुक गयी। तिकसी ने कहा-बरहल के महाराज की मो!र है। इ ना सुन े ही सैकड़ों मनुष्य मो!र की ओर घबराये हुए �ौडे़ और उन लोगों ने मो!र को घेर लिलया।

कँुवर जग�ीशलिसंह महारानी की मृत्यु के बा� वकीलों से सलाह लेने लखनऊ आये थे। बहु कुछ सामान भी खरी�ना था। वे इच्छाऍं जो लिचरकाल से ऐसे सुअवसर की प्र ीक्षा में बँधी थी, पानी की भॉँति राह पा कर उबली पड़ ी थीं। यह मो!र आज ही ली गयी थी। नगर में एक कोCी लेने की बा ची हो रही थी। बहुमूल्य तिवलास-वस् ुओं से ल�ी एक गाड़ी बरहल के लिलए चल चुकी थी। यहॉँ भीड़ �ेखी, ो सोचा कोई नवीन ना!क होने वाला है, मो!र रोक �ी। इ ने में सैकड़ों की भीड़ लग गयी।

कँुवर साहब ने पूछा-यहॉँ आप लोग क्यों जमा हैं? कोई माशा होने वाला है क्या?एक महाशय, जो �ेखने में कोई तिबगडे़ रईस मालूम हो े थे, बोले-जी हॉँ, बड़ा

मजे�ार माशा है।कँुवर-तिकसका माशा है?वह क�ीर का।कँुवर महाशय को यह उत्तर पाकर आxय. ो हुआ, परं ु सुन े आये थे तिक लखनऊ

वाले बा -बा में बा तिनकाला कर े हैं; अ : उसी ढंग से उत्तर �ेना आवश्यक हुआ। बोले- क�ीर का खेल �ेखने के लिलए यहाँ आना ो आवश्यक नहीं।

लखनवी महाशय ने कहा-आपका कहना सच है लेतिकन दूसरी जगह यह मजा कहॉँ? यहाँ सुबह शाम क के बीच भाग्य ने तिक नों को धनी से तिनध.न और तिनध.न से श्चिभखारी बना दि�या। सबेरे जो लोग महल में बैCे थे उन्हें इस समय रोदि!यों के लाले पडें हैं। अभी एक सप् ाह पहले जो लोग काल-गति भाग्य के खेल और समय के फेर को कतिवयों की उपमा समझ े थे इस समय उनकी आह और करुण कं्र�न तिवयोतिगयों को भी लज्जिt कर ा है। ऐसे माशे और कहॉँ �ेखने में आवेंगें?

कँुवर-जनाब आपने ो पहेली को और गाढ़ा कर दि�या। �ेहा ी हँू मुझसे साधारण ौर से बा कीझिजए।

इस पर सtन ने कहा-साहब यह नेशनल बैंक हैं। इसका दि�वाला तिनकल गया है। आ�ाब अज., मुझे पहचाना?

कँुवर साहब ने उसकी ओर �ेखा, ो मो!र से कू� पडे़ और उनसे हाथ मिमला े हुए बोले अरे मिमस्!र नसीम? ुम यहॉँ कहॉँ? भाई ुमसे मिमलकर बड़ा आनं� हुआ।

मिमस्!र नसीम कँुवर साहब के साथ �ेहरादूर कालेज में पढ़ े थे। �ोनों साथ-साथ �ेहरादून की पहातिड़यों पर सैर कर े थे, परं ु जब से कँुवर महाशय ने घर के झंझ!ों से तिववश होकर कालेज छोड़ा, ब से �ोंनों मिमत्रों में भें! न हुई थी। नसीम भी उनके आने के कुछ समय पीछे अपने घर लखनऊ चले आये थे।

नसीम ने उत्तर दि�या-शुक्र है, आपने पहचाना ो। कतिहए अब ो पौ-बारह है। कुछ �ोस् ों की भी सुध है।

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कँुवर-सच कह ा हँू, ुम्हारी या� हमेशा आया कर ी थी । कहो आराम से ो हो? मैं रायल हो!ल में दि!का हँू, आज आओं ो इ मीनान से बा ची हो।

नसीम—जनाब, इ मीनान ो नेशनल बैंक के साथ चला गया। अब ो रोजी की तिफक्र सवार है। जो कुछ जमा पँूजी थी सब आपको भें! हुई। इस दि�वाले ने फकीर बना दि�या। अब आपके �रवाजे पर आ कर धरना दंूगा।

कँुवर- ुम्हारा घर हैं, बेख!के आओ । मेरे साथ ही क्यों न चलों। क्या ब लाऊँ, मुझे कुछ भी घ्यान न था तिक मेरे इन्कार करने का यह फल होगा। जान पड़ ा हैं, बैंक ने बहु ेरों को बाह कर दि�या।

नसीम-घर-घर मा म छाया हुआ है। मेरे पास ो इन कपड़ों के लिसवा और कुछ नहीं रहा।

इ ने में एक ‘ति लकधारी पंतिड ’ जी आ गये और बोले-साहब, आपके शरीर पर वस्त्र ो है। यहॉँ ो धर ी आकाश कहीं दिCकाना नहीं। राघोजी पाCशाला का अध्यापक हंू। पाCशाला का सब धन इसी बैंक में जमा था। पचास तिवद्याथ� इसी के आसरे संस्कृ पढ़ े और भोजन पा े थे। कल से पाCशाला बं� हो जायगी। दूर-दूर के तिवद्याथ� हैं। वह अपने घर तिकस रह पहुँचेंगे, ईश्वर ही जानें।

एक महाशय, झिजनके लिसर पर पंजाबी ढंग की पगड़ी थी, गाढे़ का को! और चमरौधा जू ा पहने हुए थे, आगे बढ़ आये और ने ¾त्व के भाव से बोले-महायाय, इस बैंक के फेलिलयर ने तिक ने ही इंस्!ीट्यूशनों को समाप् कर दि�या। लाला �ीनानाथ का अनथालय अब एक दि�न भी नहीं चल सक ा। उसके एक लाख रुपये डूब गये। अभी पन्र्द्रह दि�न हुए, मैं डेपु!ेशन से लौ!ा ो पन्र्द्रह हजार रुपये अनाथालय कोर्षा में जमा तिकये थे, मगर अब कहीं कौड़ी का दिCकाना नहीं।

एक बूढे़ ने कहा-साहब, मेरी ो झिज�ंगी भी की कमाई मिमट्टी में मिमल गयी। अब कफन का भी भरोसा नहीं।

धीरे-धीरे और लोग भी एकत्र हो गये और साधारण बा ची होने लगी। प्रत्येक मनुष्य अपने पासवाले को अपनी दु:खकथा सुनाने लगा। कँुवर साहब आधे घं!े क नसीम के साथ खडे़ ये तिवप ् कथाए ँसुन े रहे। ज्यों ही मो!र पर बैCे और हो!ल की ओर चलने की आज्ञा �ी, त्यों ही उनकी दृमि� एक मनुष्य पर पड़ी, जो पृथ्वी पर लिसर झुकाये बैCा था। यह एक अपीर था जो लड़कपन में कँुवर साहब के साथ खेला था। उस समय उनमें ऊँच-नीच का तिवचार न था, कबड्डी खेले, साथ पेड़ों पर चढे़ और लिचतिड़यों के बचे्च चुराये थे। जब कँुवर जी �ेहरादून पढ़ने गये ब यह अहीर का लड़का लिशव�ास अपने बाप के साथ लखनऊ चला आया। उसने यहॉँ एक दूध की दूकान खोल ली थी। कँुवर साहब ने उसे पहचाना और उच्च स्वर से पुकार-अरे लिशव�ास इधर �ेखो।

लिशव�ास ने बोली सुनी, परन् ु लिसर ऊपर न उCाया। वह अपने स्थान पर बैCा ही कँुवर साहब को �ेख रहा था। बचपन के वे दि�न-या� आ रहे थे, जब वह जग�ीश के साथ गुल्ली-डंडा खेल ा था, जब �ोनों बुडे्ढ गफूर मिमयॉँ को मुँह लिचढ़ा कर घर में लिछप जा े थे जब वह इशारों से जग�ीश को गुरु जी के पास से बुला ले ा था, और �ोनों रामलीला �ेखने चले जा े थे। उसे तिवश्वास था तिक कँुधर जी मुझे भूल गये होंगे, वे लड़कपन की बा ें अब कहॉँ? कहॉँ मैं और कहॉँ यह। लेतिकन कँुवर साहब ने उसका नाम लेकर बुलाया, ो उसने प्रसन्न

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होकर मिमलने के ब�ले और भी लिसर नीचा कर लिलया और वहॉँ से !ल जाना चाहा। कँुवर साहब की सहृ�य ा में वह साम्यभाव न था। मगर कँुवर साहब उसे ह! े �ेखकर मो!र से उ रे और उसका हाथ पकड़ कर बोले-अरे लिशव�ास, क्या मुझे भूल गये?

अब लिशव�ास अपने मनोवेग को रोक न सका। उसके नेत्र डबडबा आये। कँुवर के गले से लिलप! गया और बोला-भूला ो नहीं, पर आपके सामने आ े लtा आ ी है।

कुवर-यहॉँ दूध की दूकान कर े हो क्या? मुझे मालूम ही न था, नहीं अCवारों से पानी पी े-पी े जुकाम क्यों हो ा? आओ, इसी मो!र पर बैC जाओ। मेरे साथ हो!ल क चलो। ुमसे बा ें करने को जी चाह ा है। ुम्हें बरहल ले चलँूगा और एक बार तिफर गुल्ली-ड़डे का खेल खेलेंगे।

लिशव�ास-ऐसा न कीझिजए, नहीं ो �ेखनेवाले हँसेंगे। मैं हो!ल में आ जाऊँगा। वही हजर गंजवाले हो!ल में Cहरे हैं न?

कँुवर––हॉँ, अवश्य आओगे न?लिशव�ास––आप बुलायेंगे, और मैं न आऊँगा?कँुवर––यहॉँ कैसे बैCे हो? दूकान ो चल रही है न?लिशव�ास––आज सबेरे क ो चल ी थी। आगे का हाल नहीं मालूम। कँुवर–– ुम्हारे रुपये भी बैंक में जमा थे क्या?लिशव�ास––जब आऊँगा ो ब ाऊँगा।कँुवर साहब मो!र पर आ बैCे और ड्राइवर से बोले-हो!ल की ओर चलो।ड्राइवर––हुजूर ने ह्वाइ!वे कम्पनी की दूकान पर चलने की आज्ञा जो �ी थी। कँुवर––अब उधर न जाऊँगा। ड्राइवर––जेकब साहब बारिरस्!र के यहॉँ भी न चलेंगे?कँुवर––(झँझलाकर) नहीं, कहीं म चलो। मुझे सीधे हो!ल पहुँचाओ।तिनराशा और तिवपश्चित्त के इन दृश्यों ने जग�ीशलिसंह के लिचत्त में यह प्रश्न उपज्जिस्थ कर

दि�या था तिक अब मेरा क्या क .व्य है?६

आज से सा वर्षा. पूव. जब बरहल के महाराज Cीक युवावस्था में घोडे़ से तिगर कर मर गये थे और तिवरास का प्रश्न उCा ो महाराज के कोई सन् ान न होने के कारण, वंश-क्रम मिमलाने से उनके सगे चचेरे भाई Cाकुर रामलिसंह को तिवरास का हक पहुँच ा था। उन्होंने �ावा तिकया, लेतिकन न्यायालयों ने रानी को ही हक�ार Cहराया। Cाकुर साहब ने अपीलें कीं, तिप्रवी कौंलिसल क गये, परन् ु सफल ा न हुई। मुक�मेबाजी में लाखों रुपये नष्ठ हुए, अपने पास की मिमलतिकय भी हाथ से जा ी रही, तिकन् ु हार कर भी वह चैन से न बैCे। स�ैव तिवधवा रानी को छेड़ े रहे। कभी असामिमयों को भड़का े, कभी असामिमयों से रानी की बुराई कर े, कभी उन्हें जाली मुक�मों में फँसाने का उपाय कर े, परन् ु रानी बडे़ जीव! की स्त्री थीं। वह भी Cाकुर साहब के प्रत्येक आघा का मुँह ोड़ उत्तर �े ीं। हॉँ, इस खींच ान में उन्हें बड़ी-बड़ी रकमें अवश्य खच. करनी पड़ ी थीं। असामिमयों से रुपये न वसूल हो े इसलिलए उन्हें बार-बार ऋण लेना पड़ ा था, परन् ु कानून के अनुसार उन्हें ऋण लेने का अमिधकार न था। इसलिलए उन्हें या ो इस व्यवस्था को लिछपाना पड़ ा था, या सू� की गहरी �र स्वीकार करनी पड़ ी थी।

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कँुवर जग�ीशलिसंह का लड़कपन ो लाड़-प्यार से बी ा था, परन् ु जब Cाकुर रामलिसंह मुक�मेबाजी से बहु ंग आ गये और यह सन्�ेह होने लगा तिक कहीं रानी की चालों से कँुवर साहब का जीवन संक! में पड़ जाय, ो उन्होंने तिववश होकर कँुवर साहब को �ेहरादून भेज दि�या। कँुवर साहब वहॉँ �ो वर्षा. क ो आनन्� से रहे, तिकन् ु ज्योंही कॉलेज की प्रथम श्रेणी में पहुँचे तिक तिप ा परलोकवासी ही गये। कँुवर साहब को पढ़ाई छोड़नी पड़ी। बरहल चले आये, लिसर पर कु!ुम्ब-पालन और रानी से पुरानी शतु्र ा के तिनभाने का बोझ आ पड़ा। उस समय से महारानी के मृत्यु-काल क उनकी �शा बहु तिगरी रही। ऋण या स्त्रिस्त्रयों के गहनों के लिसवा और कोई आधार न था। उस पर कुल-मया.�ा की रक्षा की लिचन् ा भी थी। ये ीन वर्षा. क उनके लिलए कदिCन परीक्षा के समय थे। आये दि�न साहूकारों से काम पड़ ा था। उनके तिन�.य बाणों से कलेजा लिछ� गया था। हातिकमों के कCोर व्यवहार और अत्याचार भी सहने पड़ े, परन् ु सबसे हृ�य-तिव�ारक अपने आत्मीयजनों का ब ा.व था, जो सामने बा न करके बगली चो!ें कर े थे, मिमत्र ा और ऐक्य की आड़ में कप! हाथ चला े थे। इन कCोर या नाओं ने कँुवर साहब को अमिधकार, स्वेच्छाचार और धन-सम्पश्चित्त का जानी दुश्मनी बना दि�या था। वह बडे़ भावुक पुरुर्षा थे। सम्बस्त्रिन्धयों की अकृपा और �ेश-बंधुओ की दुन�ति उनके हृ�य पर काला लिचन्ह बना ी जा ी थी, सातिहत्य-पे्रम ने उन्हें मानव प्रकृति –का त्त्वान्वेर्षाी बना दि�या था और जहां यह ज्ञान उन्हें प्रति दि�न सभ्य ा से दूर लिलये जा ा था, वहॉँ उनके लिचत्त में जन-सत्ता और साम्यवा� के तिवचार पु� कर ा जा ा था। उनपर प्रक! हो गया था यदि� सद्व्यवहार जीतिव हैं, ो वह झोपड़ों और गरीबों में ही है। उस कदिCन समय में, जब चारों और अँधेरा छाया हुआ था, उन्हें कभी-कभी सच्ची सहानुभूति का प्रकाश यहीं दृमि�गोचर हो जा ा था। धन-सम्पश्चित्त को वह श्रेष्ठ प्रसा� नहीं, ईश्वर का प्रकोप समझ े थे जो मनुष्य के हृ�य से �या और पे्रम के भावों को मिम!ा �े ा है, यह वह मेघ हैं, जो लिचत्त के प्रकालिश ारों पर छा जा ा है।

परन् ु महारानी की मृत्यु के बा� ज्यों ही धन-सम्पश्चित्त ने उन पर वार तिकया, बस �ाश.तिनक क� की यह ढाल चूर-चूर हो गयी। आत्मतिन�श.न की शलिक्त न� हो गयी। वे मिमत्र बन गये जो शतु्र सरीखे थे और जा सच्चे तिह ैर्षाी थे, वे तिवस्मृ हो गये। साम्यवा� के मनोग तिवचारों में घोर परिरव .न आरम्भ हो गया। हृ�य में असतिहष्णु ा का उद्भव हुआ। त्याग ने भोग की ओर लिसर झुका दि�या, मया.�ा की बेड़ी गले में पड़ी। वे अमिधकारी, झिजन्हें �ेखकर उनके ेवर ब�ल जा े थे, अब उनके सलाहकार बन गये। �ीन ा और �रिरर्द्र ा को, झिजनसे उन्हे सच्ची सहानुभूति थी, �ेखकर अब वह ऑंखे मूँ� ले े थे।

इसमें सं�ेह नहीं तिक कँुवर साहब अब भी साम्यवा� के भक्त थे, तिकन् ु उन तिवचारों के प्रक! करने में वह पहले की-सी स्व ंत्र ा न थी। तिवचार अब व्यवहार से डर ा था। उन्हें कथन को काय.-रुप में परिरण करने का अवसर प्राप् था; पर अब काय.-के्षत्र कदिCनाइयों से मिघरा हुआ जान पड़ ा था। बेगार के वह जानी दुश्मन थे; परन् ु अब बेगार को बं� करना दुष्कर प्र ी हो ा था। स्वच्छ ा और स्वास्थ्यरक्षा के वह भक्त थे, तिकन् ु अब धन-व्यय न करके भी उन्हें ग्राम-वालिसयों की ही ओर से तिवरोध की शंका हो ी थी। असामिमयों से पो उगाहने में कCोर ब ा.व को वह पाप समझ े थे; मगर अब कCोर ा के तिबना काम चल ा न जान पड़ ा था। सारांश यह तिक तिक ने ही लिसद्धां , झिजन पर पहले उनकी श्रद्धा थी अब असंग मालूम हो े थे।

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परन् ु आज जो दु:खजनक दृश्य बैंक के हो े में नजर आये उन्होंने उनके �या-भाव को जाग्र कर दि�या। उस मनुष्य की-सी �शा हो गयी, जो नौका में बैCा सुरम्य ! की शोभा का आनन्� उCा ा हुआ तिकसी श्मशान के सामने आ जाय, लिच ा पर लाशें जल ी �ेखे, शोक-सं प् ों के करुण-कं्र�न को सुने ओर नाव से उ र कर उनके दु:ख में सस्त्रिम्मलिल हो जाय।

रा के �स बज गये थे। कँुवर साहब पलँग पर ले!े थे। बैंक के हो का दृश्य ऑंखों के सामने नाच रहा था। वही तिवलाप-ध्वतिन कानों में आ रही थी। लिचत्त में प्रश्न हो रहा था, क्या इस तिवडम्बना का कारण मैं ही हंू। मैंने ो वही तिकया, झिजसका मुझे कानूनन अमिधकार था। यह बैंक के संचालकों की भूल है, जो उन्होंने तिबना जमान के इ नी रकम कज. �े �ी, लेन�ारों को उन्हीं की गर�न नापनी चातिहए। मैं कोई खु�ाई फौज�ार नहीं हंू, तिक दूसरों की ना�ानी का फल भोगूँ। तिफर तिवचार पल!ा, मैं नाहक इस हो!ल में Cहरा। चालीस रुपये प्रति दि�न �ेने पडे़गे। कोई चार सौ रुपये के मते्थ जायेगी। इ ना सामान भी व्यथ. ही लिलया। क्या आवश्यक ा थी? मखमली गदे्द की कुर्लिसंयों या शीशे की सजाव! से मेरा गौरव नहीं बढ़ सक ा। कोई साधारण मकान पॉँच रुपये पर ले ले ा, ो क्या काम न चल ा? मैं और साथ के सब आ�मी आराम से रह े यही न हो ा तिक लोग बिनं�ा कर े। इसकी क्या लिचं ा। झिजन लोगों के मते्थ यह Cा! कर रहा हंू, वे गरीब ो रोदि!यों को रस े हैं। ये ही �स-बारह हजार रुपये लगा कर कुऍं बनवा �े ा, ो सहस्रों �ीनों का भला हो ा। अब तिफर लोगों के चकमें में न जाऊँगा। यह मो!रकार व्यथ. हैं। मेरा समय इ ना महँगा नही हैं तिक घं!े-आध-घं!े की तिकफाय के लिलए �ो सौ रुपये का खच. बढ़ा लूँ। फाका करनेवाले असामिमयों के सामने �ौड़ना उनकी छाति यों पर मूँग �लना है। माना तिक वे रोब में आ जायेंगे, झिजधर से तिनकल जाऊँगा, सैकड़ों स्त्रिस्त्रयों और बचे्च �ेखने के लिलए खडे़ हो जायेंगे, मगर केवल इ ने ही दि�खावे के लिलए इन ा खच. बढ़ाना मूख. ा है। यदि� दूसरे रईस ऐसा कर े हैं ो करें, मैं उनकी बराबरी क्यों करँु। अब क �ो हजार रुपये सालाने में मेरा तिनवा.ह हो जा ा था। अब �ो के ब�ले चार हजार बहु हैं। तिफर मुझे दूसरों की कमाई इस प्रकार उड़ाने का अमिधकार ही क्या है? मैं कोई उद्योग-धंधा, कोई कारोबार नहीं कर ा झिजसका यह नफा हो। यदि� मेरे पुरुर्षाों ने हCधम�, जबर�स् ी से इलाका अपने हाथों में रख लिलया, ो मुझे उनके लू! के धन में शरीक होने का क्या अमिधकार हैं? जो लोग परिरश्रम कर े हैं, उन्हें अपने परिरश्रम का पूरा फल मिमलना चातिहए। राज्य उन्हें केवल दूसरों के कCोर हाथों से बचा ा है। उसे इस सेवा का उलिच मुआवजा मिमल ा चातिहए। बस, मैं ो राज्य की ओर से यह मुआवजा वसूल करने के लिलए तिनय हंू। इसके लिसवा इन गरीबों की कमाई में मेरा और कोई भाग नहीं। बेचारे �ीन हैं, मूख. हैं, बेजबान हैं, इस समय हम इन्हें चाहे झिज ना स ा लें। इन्हें अपने स्वत्व का ज्ञान नहीं। मैं अपने महत्व को नहीं समझ ा पर एक समय ऐसा अवश्य आयेगा, जब इनके मुँह में भी जबान होगी, इन्हें भी अपने अमिधकारों का ज्ञान होगा। ब हमारी �शा बुरी होगी। ये भोग-तिवलास मुझे अपने आ�मिमयों से दूर तिकये �े े हैं। मेरी भलाई इसी में है तिक इन्हीं में रहँू, इन्हीं की भॉँति जीवन-तिनवा.ह और इनकी सहाय ा करँु। कोई छो!ी-मा!ी रकम हो ी, ो कह ा लाओ, झिजस लिसर पर बहु भार है; उसी रह यह भी सही। मूल के अलावा कई हजार रुपये सू� के अलग हुए। तिफर महाजनों के भी ीन लाख रुपये हैं। रिरयास की आम�नी डेढ़-�ो लाख रुपये सालाना है, अमिधक नहीं। मैं इ ना बड़ा साहस करँु भी, ो तिकस तिबर े पर? हॉँ, यदि� बैरागी हो जाऊँ ो सम्भव है, मेरे जीवन में--यदि� कहीं अचानक

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मृत्यु न हो जाय ो यह झगड़ा पाक हो जाय। इस अखिग्न में कू�ना अपने सम्पूण. जीवन, अपनी उमंगों और अपनी आशाओं को भस्म करना है। आह ! इन दि�नों की प्र ीक्षा में मैंने क्या-क्या क� नहीं भोगे। तिप ा जी ने इस लिचं ा में प्राण-त्याग तिकया। यह शुभ मुहू . हमारी अँधेरी रा के लिलए दूर का �ीपक था। हम इसी के आसरे जीतिव थे। सो े-जाग े स�ैव इसी की चचा. रह ी थी। इससे लिचत्त को तिक ना सं ोर्षा और तिक ना अश्चिभमान था। भूखे रहने के दि�न भी हमारे ेवर मैले ने हो े थे। जब इ ने धैय. और सं ोर्षा के बा� अचे्छ दि�न आये ो उससे कैसे तिवमुख हुआ जाय। तिफर अपनी ही लिचं ा ो नहीं, रिरयास की उन्नति की तिक नी ही स्कीमें सोच चुका हँू। क्या अपनी इच्छाओं के साथ उन तिवचारों को भी त्याग दँू। इस अभागी रानी ने मुझे बुरी रह फँसाया, जब क जी ी रही, कभी चैन से न बैCने दि�या। मरी ो मेरे लिसर पर यह बला डाल �ी। परन् ु मैं �रिरर्द्र ा से इ ना डर ा क्यों हँू? कोई पाप नहीं है। यदि� मेरा त्याग हजारो घरानों को क� और दुरावस्था से बचाये ो मुझे उससे मुँह न मोड़ना चातिहए। केवल सुख से जीवन व्य ी करना ही हमारा ध्येय नहीं है। हमारी मान-प्रति ष्ठा और कीर्ति ं सुख-भोग ही से ो नहीं हुआ कर ी। राजमंदि�रों में रहने वालों और तिवलास में र राणाप्र ाप को कौन जान ा हैं? यह उनका आत्मा-समप.ण और कदिCन व्र पालन ही हैं, लिलसने उन्हें हमारी जाति का सूय. बना दि�या है। श्रीरामचंर्द्र ने यदि� अपना जीवन सुख-भोग में तिब ाया हो ा ो, आज हम उनका नाम भी न जान े। उनके आत्म बलिल�ान ने ही उन्हें अमर बना दि�या। हमारी प्रति ष्ठा धन और तिवलास पर अवलस्त्रिम्ब नहीं है। मैं मो!र पर सवार हुआ ो क्या, और !ट्टू पर चढ़ा ो क्या, हो!ल में Cहरा ो क्या और तिकसी मामूली घर Cहरा ो क्या। बहु होगा, ाल्लुक�ार लोग मेरी हँसी उड़ावेंगे। इसकी परवा नहीं। मैं ो हृ�य से चाह ा हँू तिक उन लोगों से अलग-अलग रहँू। यदि� इ नी बिनं�ा से सैकड़ों परिरवार का भला हो जाय, ो मैं मनुष्य नहीं, यदि� प्रसन्न ा से उसे सहन न करँु। यदि� अपने घोडे़ और तिफ!न, सैर और लिशकार, नौकर, चाकर और स्वाथ.-साधक तिह -मिमत्रों से रतिह होकर मैं सहस्रों अमीर-गरीब कु!ुम्बों को, तिवधवाओं, अनाथों का भला कर सकँू, ो मुझे इसमें क�ातिप तिवलम्ब न करना चातिहए। सहस्रों परिरवारों के भाग्य इस समय मेरी मुट्टी में हैं। मेरा सुखभोग उनके लिलए तिवर्षा और मेरा आत्म-संयम उनके लिलए अमृ है। मैं अमृ बन सक ा हँू, तिवर्षा क्यों बनँू। और तिफर इसे आत्म त्याग समझना मेरी भूल है। यह एक संयोग है तिक मैं आज इस जाय�ा� का अमिधकारी हँू, मैंने उसे कमाया नहीं। उसके लिलए रक्त नहीं बहाया। न पसीना बहाया। यदि� जाय�ा� मुझे न मिमली हो ी ो मैं सहस्रों �ीन भाइयों की भॉँति आज जीतिवकोपाज.न में लगा रह ा। मैं क्यों न भूल जाऊँ तिक में इस राज्य का स्वामी हँू। ऐसे ही अवसरों पर मनुष्य की परख हो ी है। मैंने वर्षा� पुस् कावलोकन तिकया, वर्षा� परोपकार के लिसद्धान् ों का अनुनायी रहा। यदि� इस समय उन लिसद्धां ो को भूल जाऊँ, स्वाथ. को मनुष्य ा और स�ाचार से बढ़ने दंू ो, वस् ु : यह मेरी अत्यन् कायर ा और स्वाथ.पर ा होगी। भला स्वाथ.साधन की लिशक्षा के लिलए गी ा, मिमल एमस.न और अरस् ू का लिशष्य बनने की क्या आवश्यक ा थी? यह पाC ो मुझे अपने दूसरे भाइयों से यों ही मिमल जा ा। प्रचलिल प्रथा से बढ़ कर और कौन गुरु था? साधारण लोगों की भॉँति क्या मैं भी स्वाथ. के सामने लिसर झुका दँू। ो तिफर तिवशेर्षा ा क्या रही? नहीं, मैं नानशंस (तिववेक-बुझिद्ध) का खू्रन न करँुगा। जहां पुण्य कर सक ा हँू, पाप न करँूगा। परमात्मन्, ुम मेरी सहाय ा करो ुमने मुझे राजपू -घर में जन्म दि�या है। मेरे कम. से इस महान् जाति को लज्जिt न करो। नहीं,

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क�ातिप नहीं। यह ग�.न स्वाथ. के सम्मुख न झुकेगी। मैं राम, भीष्म और प्र ाप का वंशज हँू। शरीर-सेवक न बनँूगा।

कँुवर जग�ीश लिसंह को इस समय ऐसा ज्ञा हुआ, मानो वह तिकसी ऊँचे मीनार पर चड़ गये हैं। लिचत्त अश्चिभमान से पूरिर हो गया। ऑंखे प्रकाशमान हो गयीं। परन् ु एक ही क्षण में इस उमंग का उ ार होने लगा, ऊँचे मानार के नीचे की ओर ऑंखे गयीं। सारा शरीर कॉँप उCा। उस मनुष्य की-सी �शा हो गयी, जो तिकसी न�ी के ! पर बैCा उसमें कू�ने का तिवचार कर रहा हो।

उन्होंने सोचा, क्या मेरे घर के लोग मुझसे सहम होंगे? यदि� मेरे कारण वे सहम भी हो जायँ, ो क्या मुझे अमिधकार हैं तिक अपने साथ उनकी इच्छाओं का भी बलिल�ान करँु? और- ो-और, मा ाजी कभी न मानेंगी, और क�ालिच भाई लोग भी अस्वीकार करें। रिरयास की हैलिसय को �ेख े हुए वे कम हजार सालाना के तिहस्से�ार हैं। और उनके भाग में तिकसी प्रकार का हस् क्षेप नहीं कर सक ा। मैं केवल अपना मालिलक हँू, परन् ु में भी ो अकेला नहीं हँू। सातिवत्री स्वयं चाहे मेरे साथ आग में कू�ने को ैयार हो, बिकं ु पने प्यारे पुत्र को इस ऑच के समीप क�ातिप न आने �ेगी।

कँुवर महाशय और अमिधक न सोच सके । वह एक तिवकल �शा में पलंग पर से उC बैCे और कमरे में !हलने लगे। थोड़ी �ेर बा� उन्होंने जँगले के बाहर की ओर झॉँका और तिकवाड़ खोलकर बाहर चले गये। चारों ओर अँधेरा था। उनकी लिचं ाओं की भॉँति सामने अपार और भंयकर गोमी न�ी बह रही थी। वह धीरे-धीरे न�ी के ! पर चले गये और �ेर क वहॉँ !हल े रहे। आकुल हृ�य को जल- रंगों से पे्रम हो ा है। शाय� इसलिलए तिक लहरें व्याकुल हैं। उन्होंने उपने चंचल को तिफर एकाग्र तिकया। यदि� रिरयास की आम�नी से ये सब वृश्चित्तयॉँ �ी जायँगी, ो ऋण का सू� तिनकलना भी कदिCन होगा। मूल का ो कहना ही क्या ! क्या आय में वृझिद्ध नहीं हो सक ी? अभी अस् बल में बीस घोडे़ हैं। मेरे लिलए एक काफी हैं। नौकरों की सं�या सौ से कम न होगी। मेरे लिलए �ो भी अमिधक हैं। यह अनुलिच हैं तिक अपने ही भाइयों से नीचे सेवाए ँकरायी जायँ। उन मनुष्यों को मैं अपने सीर की जमीन �े दँूगा। सुख से खे ी करेंगे और मुझे आशीवा.� �ेंगे। बगीचों के फल अब क डालिलयों की भें! हो जा े थे। अब उन्हें बेचँूगा, और सबसे बड़ी आम�नी ो बयाई की है। केवल महेशगंज के बाजार के �स हजार रुपये आ े है। यह सब आम�नी महं जी उड़ा जा े हैं। उनके लिलए एक हजार रुपये साल होना चातिहए। अबकी इस बाजार का Cेका दँूगा। आC हजार से कम न मिमलेंगे। इन भ�ों से पचीस हजार रुपये की वार्तिर्षांक आय होगी। सातिवत्री और लल्ला (लड़के) के लिलए एक हजार रुपये काफी हैं। मैं सातिवत्री से स्प� कह दँूगा तिक या ो एक हजार रुपये मालिसक लो और मेरे साथ रहो या रिरयास की आधी आम�नी ले लो, ओर मुझे छोड़ �ो। रानी बनने की इच्छा हो, ो खुशी से बनो, परं ु मैं राजा न बनँूगा।

अचानक कँुवर साहब के कानों में आवाज आयी--राम नाम सत्य है। उन्होंने पीछे मुड़कर �ेखा। कई मनुष्य एक लाश लिलए आ े थे। उन लोगों ने न�ी तिकनारे लिच ा बनायी और उसमें आग लगा �ी। �ो स्त्रिस्त्रयॉँ लिचंग्धार कर रो रही थीं। इस तिवलाप का कँुवर साहब के लिचत्त पर कुछ प्रभाव न पड़ा। वह लिचत्त में लज्जिt हो रहे थे तिक मैं तिक ना पार्षाण-हृ�य हँू ! एक �ीन मनुष्य की लाश जल रही हैं, स्त्रिस्त्रयाँ रो रही हैं और मेरा हृ�य तिनक भी नहीं पसीज ा ! पत्थर की मूर्ति ं की भॉँति खड़ा हँू । एकबारगी स्त्री ने रो े हुए कहा- ‘हाय मेरे राजा ! ुम्हें तिवर्षा कैसे मीCा लगा? यह हृ�य-तिव�ारक तिवलाप सुन े ही कँुवर साहब के लिचत्त

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में एक घाव-सा लग गया। करुण सजग हो गयी और नेत्र अश्रुपूण. हो गये। क�ालिच इसने तिवर्षा-पान करके प्राण दि�ये हैं। हाय ! उसे तिवर्षा कैसे मीCा लगा ! इसमें तिक नी करुणा हैं, तिक ना दु:ख, तिक ना आxय. ! तिवर्षा ो कड़वा प�ाथ. है। क्योंकर मीCा हो गया। क!ु, तिवर्षा के ब�ले झिजसने अपने मधुर प्राण �े दि�ये उस पर कोई कड़ी मुसीब पड़ी होगी। ऐसी ही �शा में तिवर्षा मधुर हो सक ा है। कँुवर साहब ड़प गये। कारुश्चिणक शब्� बार-बार उनके हृ�य में गूंज े थे। अब उनसे वहॉँ न खड़ा रहा गया। वह उन आ�मिमयों के पास आये, एक मनुष्य से पूछा--क्या बहु दि�नों से बीमार थे? इस मनुष्य ने कँुवर साहब की और आँसू-भरे नेत्रों से �ेखकर कहा--नहीं साहब, कहॉँ की बीमारी ! अभी आज संध्या क भली-भांति बा ें कर रहे थे। मालूम नहीं, संध्या को क्या खा लिलया की खून की कै होने लगी। जब क वैद्य-राज के यहॉँ जायॅ, ब क ऑंखे उल! गयीं। नाड़ी छू! गयी। वैद्यराज ने आकर �ेखा, ो कहा--अब क्या हो सक ा हैं.? अभी कुल बाईस- ेईस वर्षा. की अवस्था थी। ऐसा प�ा सारे लखनऊ में नहीं था।

कँुवर--कुछ मालूम हुआ, तिवर्षा क्यों खाया?उस मनुष्य ने सं�ेह-दृमि� से �ेखकर कहा--महाशय, और ो कोई

बा नहीं हुई । जब से यह बड़ा बैंक !ू!ा है, बहु उ�ास रह े थे। कोई हजार रुपये बैंक में जमा तिकये थे। घी-दूध-मलाई की बड़ी दूकान थी। तिबरा�री में मान था। वह सारी पँूजी डूब गयी। हम लोग राक े रहे तिक बैंक में रुपये म जमा करो ; तिकन् ु होनहार यह थी। तिकसी की नहीं सुनी। आज सबेरे स्त्री से गहने मॉँग े थे तिक तिगरवी रखकर अहीरों के दूध के �ाम �े �ें। उससे बा ों-बा ों में झगड़ा हो गया। बस न जाने क्या खा लिलया।

कँुवर साहब हृ�य कांप उCा। ुरन् ध्यान आया--लिशव�ास ो नहीं है। पूछा इनका नाम लिशव�ास ो नहीं था। उस मनुष्य ने तिवस्मय से �ेख कर कहा-- हॉँ, यही नाम था। क्या आपसे जान-पहचान थी?

कँुवर--हॉँ, हम और यह बहु दि�नों क बरहल में साथ-साथ खेले थे। आज शाम को वह हमसे बैंक में मिमले थे। यदि� उन्होंने मुझसे तिनक भी चचा. की हो ी, ो मैं यथाशलिक्त उनकी सहाय ा कर ा। शोक?

उस मनुष्य ने ब ध्यानपूव.क कँुवर साहब को �ेखा, और जाकर स्त्रिस्त्रयों से कहा--चुप हो जाओ, बरहल के महाराज आये है। इ ना सुन े ही लिशव�ास की मा ा जोर-जोर से लिसर प!क ी और रो ी हुई आकर कँुवर साहब के पैरों पर तिगर पड़ी। उसके मुख से केवल ये शब्� तिनकले--‘बे!ा, बचपन से झिजसे ुम भैया कहा कर े थे--और गला रँुध गया।

कँुवर महाशय की ऑंखों से भी अश्रुपा हो रहा था। लिशव�ास की मूर्ति ं उनके सामने खड़ी यह कह ी �ेख पड़ ी थी तिक ुमने मिमत्र होकर मेरे प्राण लिलए।

७भोर हो गया; परन् ु कँुवर साहब को नीं� न आयी। जब से वह ीर से लौ!े थे, उनके

लिचत्त पर एक वैराग्य-सा छाया हुआ था। वह कारुश्चिणक दृश्य उपने स्वाथ. के क� को लिछन्न-श्चिभन्न तिकये �े ा था। सातिवत्री के तिवरोध, लल्ला के तिनराशा-युक्त हC और मा ा के कुशब्�ों का अब उन्हें लेशमात्र भी भय न था। सातिवत्री कुढे़गी कुढे़, लल्ला को भी संग्राम के के्षत्र में कू�ना पडे़गा, कोई लिचं ा नहीं ! मा ा प्राण �ेने पर त्पर होगी, क्या हज. है। मैं अपनर स्त्री-पुत्र था तिह -मिमत्रादि� के लिलए सहस्रों परिरवारो की हत्या न करँुगा। हाय ! लिशव�ास को जीतिव रखने के लिलए मैं ऐसी तिक नी रिरयास ें छोड़ सक ा हँू। सातिवत्री को भूखों रहना पडे़,

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लल्ला को मजदूरी करनी पडे़, मुझे द्वार-द्वार भीख मॉँगनी पडे़ ब भी दूसरों का गला न �बाऊँगा। अब तिवलम्ब का अवसर नहीं। न जाने आगे यह दि�वाला और क्या-क्या आपश्चित्तयॉँ खड़ी करे। मुझे इ ना आगा-पीछा क्यों हा रहा है? यह केवल आत्म-तिनब.ल ा हैं वरना यह कोई ऐसा बड़ा काम नहीं, जो तिकसी ने न तिकया हो। आये दि�न लोग रुपये �ान-पुण्य कर े है। मुझे अपने क .व्य का ज्ञान है। उससे क्यों मुँह मोडू।ँ जो कुछ हो, जो चाहे लिसर पडे़, इसकी क्या लिचन् ा। कँुवर ने घं!ी बजायी। एक क्षण में अर�ली ऑंखे मल ा हुआ आया।

कँुवर साहब बोले--अभी जेकब बारिरस्!र के पास जाकर मेरा सलाम �ो। जाग गये होंगे। कहना, जरुरी काम है। नहीं, यह पत्र ले े जाओ। मो!र ैयार करा लो।

८मिमस्!र जेकब ने कँुवर साहब को बहु समझाया तिक आप इस �ल�ल में न फँसें,

नहीं ो तिनकलना कदिCन होगा। मालूम नहीं, अभी तिक नी ऐसी रकमें हैं झिजनका आपको प ा नहीं है, परन् ु लिचत्त में दृढ़ हो जानेवाला तिनxय चूने का फश. है, झिजसको आपति के थपेडे़ और भी पु� कर �े े हैं, कँुवर साहब अपने तिनxय पर दृढ़ रहे। दूसरे दि�न समाचार-पत्रों में छपवा दि�या तिक मृ महारानी पर झिज ना कज. हैं वह सकार े हैं और तिनय समय के भी र चुका �ेगे।

इस तिवज्ञापन के छप े ही लखनऊ में खलबली पड़ गयी। बुझिद्धमानों की सम्मति में यह कँुवर महाशय की तिन ां भूल थी, और जो लोग कानून से अनश्चिभज्ञ थे, उन्होंने सोचा तिक इसमें अवश्य कोई भे� है। ऐसे बहु कम मनुष्य थे, झिजन्हें कँुवर साहब की नीय की सचाई पर तिवश्वास आया हो परन् ु कँुवर साहब का बखान चाहे न हुआ हो, आशीवा.� की कमी न थी। बैंक के हजारों गरीब लेन�ार सच्चे हृ�य से उन्हे आशीवा.� �े रहे थे।

एक सप् ाह क कँुवर साहब को लिसर उCाने का अवकाश न मिमला। मिमस्!र जेकब का तिवचार सत्य लिसद्ध हुआ। �ेना प्रति दि�न बढ़ ा जा ा था। तिक ने ही प्रोनो! ऐसे मिमले, झिजनका उन्हें कुछ भी प ा न था। जौहरिरयों और अन्य बडे़-बडे़ दूकान�ारों का लेना भी कम न था। अन्�ाजन ेरह- चौ�ह लाख का था। मीजान बीस लाख क पहुँचा। कँुवर साहब घबराये। शंका हुई--ऐसा न हो तिक उन्हें भाइयों का गुजारा भी बन्� करना पडे़, झिजसका उन्हें कोई अमिधकर नहीं था। यहॉँ क तिक सा वें दि�न उन्होंने कई साहूकारों को बुरा-भला कहकर सामने से दूर तिकया। जहॉँ ब्याज का �र अमिधक थी, उस कम कराया और झिजन रकमों की मीया�ें बी चुकी थी, उनसे इनकार कर दि�या।

उन्हें साहूकारों की कCोरा ा पर क्रोध आ ा था। उनके तिवचार से महाजनों को डूब े धन का एक भाग पा कर ही सन् ोर्षा कर लेना चातिहए था। इ नी खींच ान करने पर भी कुल उन्नीस लाख से कम न हुआ।

कँुवर साहब इन कामों से अवकाश पाकर एक दि�न नेशनल बैंक की ओर जा तिनकले। बैंक खुला था। मृ क शरीर में प्राण आ गये थे। लेन�ारों की भीड़ लगी हुई थी। लोग प्रसन्नलिचत्त लौ!े जा रहे थे। कँुवर साहब को �ेख े ही सैकड़ो मनुष्य बडे़ पे्रम से उनकी ओर �ौडे़। तिकसी ने रोकर, तिकसी ने पैरों पर तिगर कर और तिकसी ने सभ्य ापूव.क अपनी कृ ज्ञ ा प्रक! की। वह बैंक के काय.क ा.ओं से भी मिमले। लोगों ने कहा--इस तिवज्ञापन ने बैंक को जीतिव कर दि�या। बंगाली बाबू ने लाला साईं�ास की आलोचना की--वह समझ ा था संसार में सब मनुष्य भलामानस है। हमको उप�ेश कर ा था। अब उसकी ऑंख खुल गई है। अकेला घर में बैCा रह ा है ! तिकसी को मुँह नहीं दि�खा ा हम सुन ा है, वह यहॉँ से भाग

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जाना चाह ा था। परन् ु बड़ा साहब बोला, भागेगा ो ुम्हारा ऊपर वारं! जारी कर �ेगा। अब साईं�ास की जगह बंगाली बाबू मैंनेजर हो गये थे।

इसके बा� कँुवर साहब बरहल आये। भाइयों ने यह वृत्तां सुना, ो तिबगडे़, अ�ाल की धमकी �ी। मा ाजी को ऐसा धक्का पहुँचा तिक वह उसी दि�न बीमार होकर एक ही सप् ाह में इस संसार से तिव�ा हो गयीं। सातिवत्री को भी चो! लगी; पर उसने केवल सन् ोर्षा ही नहीं तिकया, पति की उ�ार ा और त्याग की पं्रशसा भी की ! रह गये लाल साहब। उन्होंने जब �ेखा तिक अस् वल से घोडे़ तिनकले जा े हैं, हाथी मकनपुर के मेले में तिबकने के लिलए भेज दि�ये गये हैं और कहार तिव�ा तिकये जा रहे हैं, ो व्याकुल हो तिप ा से बोले--बाबूजी, यह सब नौकर, घोडे़, हाथी कहॉँ जा रहे हैं?

कँुवर--एक राजा साहब के उत्सव में।लालजी--कौन से राजा?कँुवर—उनका नाम राजा �ीनलिसंह है।लालजी—कहॉँ रह े हैं?कँुवर—�रिरर्द्रपुर।लालजी— ो हम भी जायेंगे।कँुवर— ुम्हें भी ले चलेंगे; परं ु इस बारा में पै�ल चलने वालों का सम्मान सवारों

से अमिधक होगा।लालजी— ो हम भी पै�ल चलेंगे। कँुवर--वहॉँ परिरश्रमी मनुष्य की प्रशंसा हो ी हैं।लालजी— ो हम सबसे ज्या�ा परिरश्रम करेंगे। कँुवर साहब के �ोनों भाई पॉँच-पॉच हजार रुपये गुजारा लेकर अलग हो गये। कँुवर

साहब अपने और परिरवार के लिलए कदिCनाई से एक हजार सालाना का प्रबन्ध कर सके, पर यह आम�नी एक रईस के लिलए तिकसी रह पया.प् नहीं थी। अति लिथ-अभ्याग प्रति दि�न दि!के ही रह े थे। उन सब का भी सत्कार करना पड़ ा था। बड़ी कदिCनाई से तिनवा.ह हो ा था। इधर एक वर्षा. से लिशव�ास के कु!ुम्ब का भार भी लिसर पर पड़ा, परन् ु कँुवार साहब कभी अपने तिनxय पर शोक नहीं कर े। उन्हें कभी तिकसी ने लिचंति नहीं �ेखा। उनका मुख-मंडल धैय. और सच्चे अश्चिभयान से स�ैव प्रकालिश रह ा है। सातिहत्य-पे्रम पहले से था। अब बागवानी से पे्रम हो गया है। अपने बाग में प्रा :काल से शाम क पौ�ों की �ेख-रेख तिकया कर े हैं और लाल साहब ो पक्के कृर्षाक हो े दि�खाई �े े है। अभी नव-�ास वर्षा. से अमिधक अवस्था नहीं है, लेतिकन अँधेरे मुँह खे पहुँच जा े हैं। खाने-पीने की भी सुध नहीं रह ी।

उनका घोड़ा मौजू� हैं; परन् ु महीनों उस पर नहीं चढ़ े। उनकी यह धुन �ेखकर कँुवर साहब प्रसन्न हो े हैं और कहा कर े हैं—रिरयास के भतिवष्य की ओर से तिनश्चिx हँू। लाल साहब कभी इस पाC को न भूलेंगे। घर में सम्पश्चित्त हो ी, ो सुख-भोग, लिशकार, दुराचार से लिसवा और क्या सूझ ा ! सम्पश्चित्त बेचकर हमने परिरश्रम और सं ोर्षा खरी�ा, और यह सौ�ा बुरा नहीं। सातिवत्री इ नी सं ोर्षाी नहीं। वह कँुवर साहब के रोकने पर भी असामिमयां से छो!ी-मा!ी भें! ले लिलया कर ी है और कुल-प्रथा नहीं ोड़ना चाह ी।

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