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सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथाप्रस्तावना

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुवाद - काशीनाथ त्रिवेदी

चार या पाँच वर्ष पहले निकट के साथियों के आग्रह से मैंने आत्मकथा लिखना स्वीकार किया और उस आरंभ भी कर दिया था। किंतु फुल-स्केप का एक पृष्ठ भी पूरा नहीं कर पाया था कि इतने में बंबई की ज्वाला प्रकट हुई और मेरा काम अधूरा रह गया। उसके बाद तो मैं एक के बाद एक ऐसे व्यवसायों में फँसा कि अंत में मुझे यरवडा का अपना स्थान मिला। भाई जयरामदास भी वहाँ थे। उन्होंने मेरे सामने अपनी यह माँग रखी कि दूसरे सब काम छोड़कर मुझे पहले अपनी आत्मकथा ही लिख डालनी चाहिए। मैंने उन्हें जवाब दिया कि मेरा अभ्यास-क्रम बन चुका है और उसके समाप्त होने तक मैं आत्मकथा का आरंभ नही कर सकूँगा। अगर मुझे अपना पूरा समय यरवडा में बिताने का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो मैं जरूर आत्मकथा वहीं लिख सकता था। परंतु अभी अभ्यास क्रम की समाप्ति में भी एक वर्ष बाकी था कि मैं रिहा कर दिया गया। उससे पहले मैं किसी तरह आत्मकथा का आरंभ भी नहीं कर सकता था। इसलिए वह लिखी नहीं जा सकी। अब स्वामी आनंद ने फिर वही माँग की है। मैं दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास लिख चुका हूँ, इसलिए आत्मकथा लिखने को ललचाया हूँ। स्वामी की माँग तो यह थी कि मैं पूरी कथा लिख डालूँ और फिर वह पुस्तक के रूप में छपे। मेरे पास इकट्ठा इतना समय नहीं है। अगर लिखूँ तो 'नवजीवन' के लिए ही मैं लिख सकता हूँ। मुझे 'नवजीवन' के लिए कुछ तो लिखना ही होता है। तो आत्मकथा ही क्यों न लिखूँ? स्वामी ने मेरा यह निर्णय स्वीकार किया और अब आत्मकथा लिखने का अवसर मुझे मिला।

किंतु यह निर्णय करने पर एक निर्मल साथी ने, सोमवार के दिन जब मैं मौन में था, धीमे से मुझे यों कहा : 'आप आत्मकथा क्यों लिखना चाहते हैं? यह तो पश्चिम की प्रथा है। पूर्व में तो किसी ने लिखी जानी नहीं। और लिखेंगे क्या? आज जिस वस्तु को आप सिद्धांत के रूप में मानते हैं, उसे कल मानना छोड़ दें तो? अथवा सिद्धांत का अनुसरण करके जो भी कार्य आज आप करते हैं, उन कार्यों में बाद में हेरफेर करें तो? बहुत से लोग आपके लेखों को प्रमाणभूत समझकर उनके अनुसार अपना आचरण गढ़ते हैं। वे गलत रास्ते पर चले जाएँ तो? इसलिए सावधान रहकर फिलहाल आत्मकथा जैसी कोई चीज न लिखें तो क्या ठीक न होगा?'

इस दलील का मेरे मन पर थोड़ा-बहुत असर हुआ। लेकिन मुझे आत्मकथा कहाँ लिखनी है? मुझे तो आत्मकथा के बहाने सत्य के जो अनेक प्रयोग मैंने किए, उनकी कथा लिखनी है। यह सच है कि उनमें मेरा जीवन ओतप्रोत होने के कारण कथा एक जीवन-वृत्तांत जैसी बन जाएगी। लेकिन अगर उसके हर पन्ने पर मेरे प्रयोग ही प्रकट हों, तो मैं स्वयं उस कथा को निर्दोष मानूँगा। मै ऐसा मानता हूँ कि मेरे सब प्रयोगों का पूरा लेखा जनता के सामने रहे तो वह लाभदायक सिद्ध होगा अथवा यों समझिए कि यह मेरा मोह है। राजनीति के क्षेत्र में हुए मेरे प्रयोगों को तो अब हिंदुस्तान जानता है, यही नहीं बल्कि थोड़ी-बहुत मात्रा में सभ्य कही जाने वाली दुनिया भी जानती है। मेरे मन इसकी कीमत कम से कम है, और इसलिए इन प्रयोगों के द्वारा मुझे 'महात्मा' का जो पद मिला है, उसकी कीमत भी कम ही है। कई बार तो इस विशेषण ने मुझे बहुत अधिक दुख भी दिया है। मुझे ऐसा एक भी क्षण याद नहीं है जब इस विशेषण के कारण मैं फूल गया होऊँ। लेकिन अपने आध्यात्मिक प्रयोगों का, जिन्हें मैं ही जान सकता हूँ और जिनके कारण राजनीति के क्षेत्र में मेरी शक्ति भी जन्मी है, वर्णन करना मुझे अवश्य ही अच्छा लगेगा। अगर ये प्रयोग सचमुच आध्यात्मिक हैं तो इनमे गर्व करने की गुंजाइश ही नहीं। इनसे तो केवल नम्रता की ही वृद्धि होगी। ज्यों-ज्यों मैं विचार करता जाता हूँ, भूतकाल के अपने जीवन पर दृष्टि डालता हूँ, त्यो-त्यों अपनी अल्पता मैं स्पष्ट ही देख सकता हूँ। मुझे जो करना है, तीस वर्षों सें मैं जिसकी आतुर भाव से रट लगाए हुए हूँ, वह तो आत्म-दर्शन है, ईश्वर का साक्षात्कार है, मोक्ष है। मेरे सारे काम इसी दृष्टि से होते हैं। मेरा सब लेखन भी इसी दृष्टि से होता है, और राजनीति के क्षेत्र में मेरा पड़ना भी इसी वस्तु के अधीन है।

लेकिन ठेठ से ही मेरा यह मत रहा है कि जो एक के लिए शक्य है, वह सब के लिए शक्य है। इस कारण मेरे प्रयोग खानगी नहीं हुए, नहीं रहे। उन्हें सब देख सकें तो मुझे नहीं लगता कि उससे उनकी आध्यात्मिकता कम होगी। अवश्य ही कुछ चीजें ऐसी हैं, जिन्हें आत्मा ही जानती है, जो आत्मा में ही समा जाती हैं। परंतु ऐसी वस्तु देना मेरी शक्ति से परे की बात है। मेरे प्रयोगों में तो आध्यत्मिकता का मतलब है नैतिक, धर्म का अर्थ है नीति, आत्मा की दृष्टि से पाली गई नीति धर्म है। इसलिए जिन वस्तुओं का निर्णय बालक, नौजवान और बूढ़े करते हैं और कर सकते हैं, इस कथा में उन्हीं वस्तुओं का समावेश होगा। अगर ऐसी कथा मैं तटस्थ भाव से निरभिमान रहकर लिख सकूँ तो उसमें से दूसरे प्रयोग करनेवालों को कुछ सामग्री मिलेगी।

इन प्रयोगों के बारे में मैं किसी भी प्रकार की संपूर्णता का दावा नहीं करता। जिस तरह वैज्ञानिक अपने प्रयोग अतिशय नियम-पूर्वक, विचार-पूर्वक और बारीकी से करता है फिर भी उनसे उत्पन्न परिणामों को अंतिम नही कहता, अथवा वे परिणाम सच्चे ही हैं इस बारे में भी वह सशंक नहीं तो तटस्थ अवश्य रहता है, अपने प्रयोगों के विषय में मेरा भी वैसा ही दावा है। मैंने खूब आत्म-निरीक्षण किया है, एक-एक भाव की जाँच की है, उसका पृथक्करण किया है। किंतु उसमें से निकले हुए परिणाम सबके लिए अंतिम ही हैं, वे सच हैं अथवा वे ही सच हैं ऐसा दावा मैं कभी करना नहीं चाहता। हाँ, यह दावा मैं अवश्य करता हूँ कि मेरी दृष्टि से ये सच हैं और इस समय तो अंतिम जैसे ही मालूम पड़ते हैं। अगर न मालूम हों तो मुझे उनके सहारे कोई भी कार्य खड़ा नहीं करना चाहिए। लेकिन मैं तो पग पग पर जिन जिन वस्तुओं को देखता हूँ, उनके त्याज्य और ग्राह्य ऐसे दो भाग कर लेता हूँ और जिन्हें ग्राह्य समझता हूँ उनके अनुसार अपना आचरण बना लेता हूँ। और जब तक इस तरह बना हुआ आचरण मुझे अर्थात मेरी बुद्धि को और आत्मा को संतोष देता हैं, तब तक मुझे उसके शुभ परिणामों के बारे में अविचलित विश्वास रखना ही चाहिए।

यदि मुझे केवल सिद्धांतों का अर्थात तत्वों का ही वर्णन करना हो तो यह आत्मकथा मुझे लिखनी ही नहीं चाहिए। लेकिन मुझे तो उन पर रचे गए कार्यों का इतिहास देना है और इसीलिए मैंने इन प्रयत्नों को 'सत्य के प्रयोग' जैसा पहला नाम दिया है। इसमें सत्य से भिन्न माने जाने वाले अहिंसा, ब्रह्यचर्य इत्यादि नियमों के प्रयोग भी आ जाएँगे। लेकिन मेरे मन सत्य ही सर्वोपरि है और उसमें अगणित वस्तुओं का समावेश हो जाता है। यह सत्य स्थूल (वाचिक) सत्य नही हैं। यह तो वाणी की तरह विचार का भी है। यह सत्य केवल हमारा कल्पित सत्य ही नहीं है, बल्कि स्वतंत्र चिरस्थायी सत्य है, अर्थात परमेश्वर है।

परमेश्वर की व्याख्याएँ अनगिनत हैं, क्योंकि उसकी विभूतियाँ भी अनगिनत हैं। ये विभूतियाँ मुझे आश्चर्यचकित करती हैं। क्षण भर के लिए ये मुझे मुग्ध भी करती हैं। किंतु मैं पुजारी तो सत्यरूपी परमेश्वर का ही हूँ। वह एक ही सत्य है और दूसरा सब मिथ्या है। यह सत्य मुझे मिला नहीं है लेकिन मैं इसका शोधक हूँ। इस शोध के लिए मैं अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु का त्याग करने को तैयार हूँ और मुझे यह विश्वास है कि इस शोधरूपी यज्ञ में इस शरीर को भी होम करने की मेरी तैयारी है और शक्ति है। लेकिन जब तक मैं इस सत्य का साक्षात्कार न कर लूँ, तब तक मेरी अंतरात्मा जिसे सत्य समझती है उस काल्पनिक सत्य को आधार मानकर, अपना दीपस्तंभ, उसके सहारे अपना जीवन व्यतीत करता हूँ।

यद्यपि यह मार्ग तलवार की धार पर चलने जैसा है, तो भी मुझे यह सरल से सरल लगा है। इस मार्ग पर चलते हुए अपनी भयंकर भूलें भी मुझे नगण्य सी लगी हैं, क्योंकि वैसी भूलें करने पर भी मैं बच गया हूँ और अपनी समझ के अनुसार आगे बढ़ा हूँ। दूर दूर से विशुद्ध सत्य की - ईश्वर की - झाँकी भी मैं कर रहा हूँ। मेरा यह विश्वास दिन प्रतिदिन बढ़ता जाता है कि एक सत्य ही है, उसके अलावा दूसरा कुछ भी इस जगत में नहीं है। यह विश्वास किस प्रकार बढ़ता गया है, इसे मेरा जगत अर्थात 'नवजीवन' इत्यादि के पाठक जानकर मेरे प्रयोगों के साझेदार बनना चाहे और उस सत्य की झाँकी भी मेरे साथ करना चाहे तो भले करे। साथ ही, मैं यह भी अधिकाधिक मानने लगा हूँ कि जितना कुछ मेरे लिए संभव है, उतना एक बालक के लिए भी संभव है और इसके लिए मेरे पास सबल कारण हैं। सत्य की शोध के साधन जितने कठिन हैं उतने ही सरल हैं। वे अभिमानी को असंभव मालूम होंगे और एक निर्दोष बालक को बिल्कुल संभव लगेंगे। सत्य के शोधक को रजकण से भी नीचे रहना पड़ता है। सारा संसार रजकणों को कुचलता है पर सत्य का पुजारी तो जब तक इतना अल्प नहीं बनता कि रजकण भी उसे कुचल सके, तब तक उसके लिए स्वतंत्र सत्य की झाँकी भी दुर्लभ है। यह चीज वशिष्ठ विश्वामित्र के आख्यान में स्वतंत्र रीति से बताई गई है। ईसाई धर्म और इस्लाम भी इसी वस्तु को सिद्ध करते हैं।

मैं जो प्रकरण लिखनेवाला हूँ उनमें यदि पाठकों को अभिमान भास हो तो उन्हें अवश्य ही समझ लेना चाहिए कि मेरी शोध में खामी है और मेरी झाँकियाँ मृगजल के समान हैं। मेरे समान अनेकों का क्षय चाहे हो, पर सत्य की जय हो। अल्पात्मा को मापने के लिए हम सत्य का गज कभी छोटा न करें।

मैं चाहता हूँ कि मेरे लेखों को कोई प्रमाणभूत न समझे। यही मेरी बिनती है। मैं तो सिर्फ यह चाहता हूँ कि उसमें बताए गए प्रयोगों को दृष्टांतरूप मानकर सब अपने अपने प्रयोग यथाशक्ति और यथामति करें। मुझे विश्वास है कि इस संकुचित क्षेत्र में आत्मकथा के मेरे लेखों से बहुत कुछ मिल सकेगा, क्योंकि कहने योग्य एक भी बात मैं छिपाऊँगा नहीं। मुझे आशा है कि मैं अपने दोषों का खयाल पाठकों को पूरी तरह दे सकूँगा। मुझे सत्य को शास्त्रीय प्रयोगों का वर्णन करना है, मैं कितना भला हूँ इसका वर्णन करने की मेरी तनिक भी इच्छा नही है। जिस गज से स्वयं मैं अपने को मापना चाहता हूँ और जिसका उपयोग हम सब को अपने अपने विषय में करना चाहिए, उसके अनुसार तो मैं अवश्य कहूँगा कि :

मो सम कौन कुटिल खल कामी?जिन तनु दियो ताहि बिसरायो                         ऐसो निमकहरामी।

क्योंकि जिसे मैं संपूर्ण विश्वास के साथ अपने श्वासोच्छ्वास का स्वामी समझता हूँ जिसे मैं अपने नमक का देनेवाला मानता हूँ, उससे मैं अभी तक दूर हूँ, यह चीज मुझे प्रतिक्षण खटकती है। इसके कारणरूप अपने विकारों को मैं देख सकता हूँ पर उन्हें अभी तक निकाल नही पा रहा हूँ।

परंतु इसे यहीं समाप्त करता हूँ। प्रस्तावना में से मैं प्रयोग की कथा में नही उतर सकता। वह तो कथा प्रकरणों में ही मिलेगी।

आश्रम साबरमतीमार्गशीर्ष शुक्ल 11, 1982                                             मोहनदास करमचंद गांधी

1. जन्म

    आगे

जान पड़ता है कि गांधी-कुटुंब पहले तो पंसारी का धंधा करनेवाला था। लेकिन मेरे दादा से लेकर पिछली तीन पीढ़ियों से वह दीवानगीरी करता रहा है। ऐसा मालूम होता है कि उत्तमचंद गांधी अथवा ओता गांधी टेकवाले थे। राजनीतिक खटपट के कारण उन्हें पोरबंदर छोड़ना पड़ा था, और उन्होंने जूनागढ़ राज्य में आश्रय लिया था। उन्होंने नवाब साहब को बाएँ हाथ से सलाम किया। किसी ने इस प्रकट अविनय का कारण पूछा, तो जवाब मिला : 'दाहिना हाथ तो पोरबंदर को अर्पित हो चुका है।'

ओता गांधी के एक के बाद दूसरा यों दो विवाह हुए थे। पहले विवाह से उनके चार लड़के थे और दूसरे से दो। अपने बचपन को याद करता हूँ तो मुझे खयाल नहीं आता कि ये भाई सौतेले थे। इनमें पाँचवे करमचंद अथवा कबा गांधी और आखिरी तुलसीदास गांधी थे। दोनों भाइयों ने बारी-बारी से पोरबंदर में दीवान का काम किया। कबा गांधी मेरे पिताजी थे। पोरबंदर की दीवानगीरी छोड़ने के बाद वे राजस्थानिक कोर्ट के सदस्य थे। बाद में राजकोट में और कुछ समय के लिए वांकानेर में दीवान थे। मृत्यु के समय वे राजकोट दरबार के पेंशनर थे।

कबा गांधी के भी एक के बाद एक यों चार विवाह हुए थे। पहले दो से दो कन्याएँ थीं; अंतिम पत्नी पुतलीबाई से एक कन्या और तीन पुत्र थे। उनमें से अंतिम मैं हूँ।

पिता कुटुंब-प्रेमी, सत्यप्रिय, शूर, उदार किंतु क्रोधी थे। थोड़े विषयासक्त भी रहे होंगे। उनका आखिरी ब्याह चालीसवें साल के बाद हुआ था। हमारे परिवार में और बाहर भी उनके विषय में यह धारणा थी कि वे रिश्वतखोरी से दूर भागते हैं और इसलिए शुद्ध न्याय करते है। राज्य के प्रति वे वफादार थे। एक बार प्रांत के किसी साहब ने राजकोट के ठाकुर साहब का अपमान किया था। पिताजी ने उसका विरोध किया। साहब नाराज हुए, कबा गांधी से माफी माँगने के लिए कहा। उन्होंने माफी माँगने से इनकार किया। फलस्वरूप कुछ घंटों के लिए उन्हें हवालात में भी रहना पड़ा। इस पर भी जब वे न डिगे तो अंत में साहब ने उन्हें छोड़ देने का हुक्म दिया।

पिताजी ने धन बटोरने का लोभ कभी नहीं किया। इस कारण हम भाइयों के लिए बहुत थोड़ी संपत्ति छोड़ गए थे।

पिताजी की शिक्षा केवल अनुभव की थी। आजकल जिसे हम गुजराती की पाँचवीं किताब का ज्ञान कहते है, उतनी शिक्षा उन्हें मिली होगी। इतिहास-भूगोल का ज्ञान तो बिलकुल ही न था। फिर भी उनका व्यावहारिक ज्ञान इतने ऊँचे दरजे का था कि बारीक से बारीक सवालों को सुलझाने में अथवा हजार आदमियों से काम लेने में भी उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती थी। धार्मिक शिक्षा नहीं के बराबर थी, पर मंदिरों में जाने से और कथा वगैरा सुनने से जो धर्मज्ञान असंख्य हिंदुओं को सहज भाव से मिलता है वह उनमें था। आखिर के साल में एक विद्वान ब्राह्मण की सलाह से, जो परिवार के मित्र थे, उन्होंने गीता-पाठ शुरू किया था और रोज पूजा के समय वे थोड़े बहुत ऊँचे स्वर से पाठ किया करते थे।

मेरे मन पर यह छाप रही है कि माता साध्वी स्त्री थीं। वे बहुत श्रद्धालु थीं। बिना पूजा-पाठ के कभी भोजन न करतीं। हमेशा हवेली (वैष्णव-मंदिर) जातीं। जब से मैंने होश सँभाला तब से मुझे याद नहीं पड़ता कि उन्होंने कभी चातुर्मास का व्रत तोड़ा हो। वे कठिन से कठिन व्रत शुरू करतीं और उन्हें निर्विघ्न पूरा करतीं। लिए हुए व्रतों को बीमार होने पर भी कभी न छोड़तीं। ऐसे एक समय की मुझे याद है कि जब उन्होंने चांद्रायण का व्रत लिया था। व्रत के दिनों में वे बीमार पड़ीं, पर व्रत नहीं छोड़ा। चातुर्मास में एक बार खाना तो उनके लिए सामान्य बात थी। इतने से संतोष न करके एक चौमासे में उन्होंने तीसरे दिन भोजन करने का व्रत लिया था। लगातार दो-तीन उपवास तो उनके लिए मामूली बात थी। एक चातुर्मास में उन्होंने यह व्रत लिया था कि सूर्यनारायण के दर्शन करके ही भोजन करेंगी। उस चौमासे में हम बालक बादलों के सामने देखा करते कि कब सूरज के दर्शन हों और कब माँ भोजन करें। यह तो सब जानते है कि चौमासे में अक्सर सूर्य के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। मुझे ऐसे दिन याद हैं कि जब हम सूरज को देखते और कहते, 'माँ-माँ, सूरज दीखा' और माँ उतावली होकर आतीं इतने में सूरज छिप जाता और माँ यह कहती हुई लौट जातीं कि 'कोई बात नहीं, आज भाग्य में भोजन नहीं है' और अपने काम में डूब जातीं।

माता व्यवहार-कुशल थीं। राज-दरबार की सब बातें वह जानती थी। रनिवास में उनकी बुद्धि की अच्छी कदर होती थी। मैं बालक था। कभी कभी माताजी मुझे भी अपने साथ दरबार गढ़ ले जाती थीं। 'बा-माँसाहब' के साथ होनेवाली बातों में से कुछ मुझे अभी तक याद हैं।

इन माता-पिता के घर में संवत 1925 की भादों बदी बारस के दिन, अर्थात 2 अक्तूवर, 1869 को पोरबंदर अथवा सुदामापुरी में मेरा जन्म हुआ।

बचपन मेरा पोरबंदर में ही बीता। याद पड़ता है कि मुझे किसी पाठशाला में भरती किया गया था। मुश्किल से थोड़े पहाड़े मैं सीखा था। मुझे सिर्फ इतना याद है कि मैं उस समय दूसरे लड़कों के साथ अपने शिक्षकों को गाली देना सीखा था। और कुछ याद नहीं पड़ता। इससे मैं अंदाज लगाता हूँ कि मेरी स्मरण शक्ति उन पंक्तियों के कच्चे पापड़-जैसी होगी, जिन्हे हम बालक गाया करते थे। वे पंक्तियाँ मुझे यहाँ देनी ही चाहिए :

एकडे एक, पापड़ शेक;पापड़ कच्चो, - मारो -

पहली खाली जगह में मास्टर का नाम होता था। उसे मैं अमर नहीं करना चाहता। दूसरी खाली जगह में छोड़ी हुई गाली रहती थी, जिसे भरने की आवश्यकता नहीं।

2 स्वराज्य का अर्थ

पीछे     आगे

स्वराज्य एक पवित्र शब्द है; वह एक वैदिक शब्द है, जिसका अर्थ आत्मा-शासन और आत्म-संयम है। अँग्रेजी शब्द 'इंडिपेंडेंस' अक्सर सब प्रकार की मर्यादाओं से मुक्त निरंकुश आजादी का या स्वच्छंदता का अर्थ देता है; वह अर्थ स्वराज्य शब्द में नहीं।

स्वराज्य से मेरा अभिप्राय है लोक-सम्मति के अनुसार होने वाला भारतवर्ष का शासन। लोक-सम्मति का निश्चय देश के बालिग लोगों की बड़ी-से-बड़ी तादाद के मत के जरिए हो, फिर वे चाहे स्त्रियाँ हों या पुरुष, इसी देश के हों या इस देश में आकर बस गए हों। वे लोग ऐसे हों जिन्होंने अपने शारीरिक श्रम के द्वारा राज्य की कुछ सेवा की हो और जिन्होंने मतदाताओं की सूची में अपना नाम लिखवा लिया हो। ...सच्चा स्वराज्य थोड़े लोगों के द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं, बल्कि जब सत्ता का दुरुपयोग होता हो तब सब लोगों के द्वारा उसका प्रतिकार करने की क्षमता प्राप्त करके हासिल किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, स्वराज्य जनता में इस बात का ज्ञान पैदा करके प्राप्त किया जा सकता है कि सत्ता पर कब्जा करने और उसका नियमन करने की क्षमता उसमें है।

आखिर स्वराज्य निर्भर करता है हमारी आंतरिक शक्ति पर, बड़ी-से-बड़ी कठिनाइयों से जूझने की हमारी ताकत पर। सच पूछो तो वह स्वराज्य, जिसे पाने के लिए अनवरत प्रयत्न और बचाए रखने के लिए सतत् जागृति नहीं चाहिए, स्वराज्य कहलाने के लायक ही नहीं है। जैसा कि आपको मालूम है, मैंने वचन और कार्य से यह दिखलाने की कोशिश की है कि स्त्री-पुरुषों के विशाल समूह का राजनीतिक स्वराज्य एक-एक शख्स के अलग-अलग स्वराज्य से कोई ज्यादा अच्छी चीज नहीं है, और इसलिए उसे पाने का तरीका वही है जो एक-एक आदमी के आत्मा-स्वराज्य या आत्म-संयम का है।

स्वराज्य का अर्थ है सरकारी नियंत्रण से मुक्त होने के लिए लगातार प्रयत्न करना, फिर वह नियंत्रण विदेशी सरकार का हो या स्वदेशी सरकार का। यदि स्वराज्य हो जाने पर लोग अपने जीवन की हर छोटी बात के लिए मन के लिए सरकार का मुँह ताकना शुरू कर दें, तो वह स्वराज्य-सरकार किसी काम की नहीं होगी।

मेरा स्वराज्य तो हमारी सभ्यता की आत्मा को अक्षुण्ण रखना है। मैं बहुत सी नई चीजें लिखना चाहता हूँ, परंतु वे तमाम हिंदुस्तान की स्लेट पर लिखी जानी चाहिए। हाँ, मैं पश्चिम से भी खुशी से उधार लूँगा, पर तभी जब कि मैं उसे अच्छे सूद के साथ वापस कर सकूँ।

स्वराज्य की रक्षा केवल वहीं हो सकती हैं, जहाँ देशवासियों की ज्यादा बड़ी संख्या। ऐसे देशभक्तों की हो, जिनके लिए दूसरी सब चीजों से-अपने निजी लाभ से भी-देश की भलाई का ज्यादा महत्व हो। स्वराज्य का अर्थ है देश की बहुसंख्य जनता का शासन। जाहिर है कि जहाँ बहुसंख्या जनता नीति-भ्रष्ट हो या स्वार्थी हो, वहाँ उसकी सरकार अराजकता की ही स्थिति पैदा कर सकती है, दूसरा कुछ नहीं।

मेरे... हमारे... सपनों के स्वराज्य में जाति (रेस) या धर्म के भेदों का कोई स्थान नहीं हो सकता। उस पर शिक्षितों या धनवानों का एकाधिपत्य नहीं होगा। वह स्वराज्य सबके लिए-सबके कल्याण के लिए होगा। सबकी गिनती में किसान तो आते ही हैं, किंतु लूले, लंगड़े, अंधे और भूख से मरने वाले लाखों-करोंड़ों मेहनतकश मजदूर भी अवश्य आते हैं।

कुछ लोग ऐसा कहते हें कि भारतीय स्वराज्य तो ज्यादा संख्या वाले समाज का यानी हिंदुओं का ही राज्य होगा। इस मान्यता से ज्यादा बड़ी कोई दूसरी गलती नहीं हो सकती। अगर यह सही सिद्ध हो तो अपने लिए मैं ऐसा कह सकता हूँ कि मैं उसे स्वराज्य मानने से इनकार कर दूँगा और अपनी सारी शक्ति लगाकर उसका विरोध करूँगा। मेरे लिए हिंद स्वराज्य का अर्थ सब लोगों का राज्य, न्याय का राज्य है।

अगर स्वराज्य का अर्थ हमें सभ्य बनाना और हमारी सभ्यता को अधिक शुद्ध तथा मजबूत बनाना न हो, तो वह किसी कीमत का नहीं होगा। हमारी सभ्यता का मूल तत्व ही यह है कि हम अपने कामों में फिर, वे निजी हो या सार्वजानिक, नीति के पालन को सर्वोच्च स्थान देते हैं।

पूर्ण स्वराज्य… कहने में आशय यह है कि वह जितना किसी राजा के लिए होगा उतना ही किसान के लिए, जितना किसी धनवान जमींदार के लिए होगा उतना ही भूमिहीन खेतिहर के लिए, जितना हिंदुओं के लिए होगा उतना ही मुसलमानों के लिए, जितना जैन, यहूदी और सिक्ख लोगों के लिए होगा उतना ही पारसियों और ईसाइयों के लिए। उसमें जाति-पांति, धर्म अथवा दरजे के भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं होगा।

स्वराज्य शब्द का अर्थ स्वयं और उसकी प्राप्ति के साधन यानी सत्य और अहिंसा-जिनका पालन करने के लिए हम प्रतिज्ञाबद्ध हैं-ऐसी किसी संभावना को असंभव सिद्ध करते हैं कि हमारा स्वराज्य किसी के लिए तो अधिक होगा और किसी के लिए कम, किसी के लिए लाभकारी होगा और किसी के लिए हानिकारी या कम लाभकारी।

मेरे सपने का स्वराज्य तो गरीबों का स्वराज्य होगा। जीवन की जिन आवश्यकताओं का उपभोग राजा और अमीर लोगो करते हैं, वहीं तुम्हें भी सुलभ होना चाहिए; इसमें फर्क के लिए स्थान नहीं हो सकता। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं हमारे पास उनके जैसे महल होने चाहिए। सुखी जीवन के लिए महलों की कोई आवश्यकता नहीं। हमें महलों में रख दिया जाए तो हम घबरा जाएँ। लेकिन तुम्हें जीवन की वे सामान्य सुविधाएँ अवश्य मिलनी चाहिए, जिनका उपभोग अमीर आदमी करता है। मुझे इस बात में बिल्कुल भी संदेश नहीं है कि हमारे स्वराज्य तब तक पूर्ण स्वराज्य नहीं होगा, जब तक वह तुम्हें ये सारी सुविधाएँ देने की पूरी व्यवस्था नहीं कर देता।

पूर्ण स्वराज्य की मेरी कल्पना दूसरे देशों से कोई नाता न रखने वाली स्वतंत्रता की नहीं, बल्कि स्वस्थ और गंभीर किस्म की स्वतंत्रता की है। मेरा राष्ट्रप्रेम उग्र तो है, पर वह वर्जनशील नहीं है; उसमें किसी दूसरे राष्ट्र या व्यक्ति को नुकसान पहुँचाने की भावना नहीं है। कानूनी सिद्धांत असल में नैतिक सिद्धांत ही हैं। 'अपनी संपत्ति का उपयोग इस तरह करो कि पड़ोसी की संपत्ति को कोई हानि न पहुँचे।' - यह कानूनी सिद्धांत एक सनातन सत्य को प्रकट करता है और उसमें मेरा पूरा विश्वास है।

यह सब इस बात पर निर्भर है कि पूर्ण स्वराज्य से हमारा आशय क्या है और उसके द्वारा हम पाना क्या चाहते हैं। अगर हमारा आशय यह है कि जनता में जागृति होनी चाहिए, उसे अपने सच्चे हित का ज्ञान होना चाहिए और सारी दुनिया के विरोध का सामना करके भी उस हित की सिद्धि के लिए कोशिश करने की योग्यता होनी चाहिए; और यदि पूर्ण स्वराज्य के द्वारा हम सुमेल, भीतरी या बाहरी आक्रमण से रक्षा और जनता की आर्थिक स्थिति में उत्तरोत्तर सुधार चाहते हो, तो हम अपना सीधा प्रभाव डालकर, सिद्ध कर सकते हैं।

स्वराज्य की मेरी कल्पना के विषय में किसी को कोई गलतफहमी नहीं होनी चाहिए। उसका अर्थ विदेशी नियंत्रण से पूरी मुक्ति और पूर्ण आर्थिक स्वतंत्रता है। उसके दो दूसरे उद्देश्य भी हैं। धर्म एक छोर पर है नैतिक और सामाजिक उद्देश्य और दूसरे छोर पर इसी कक्षा का दूसरा उद्देश्य है धर्म। यहाँ धर्म शब्द का सर्वोच्च अर्थ अभीष्ट है। उसमें हिंदू धर्म, इस्लाम, ईसाई धर्म आदि सबका समावेश होता है, लेकिन वह इन सबसे ऊँचा है। ...इसे हम स्वराज्य का सम-चतुर्भुज कह सकते हैं; यदि उसका एक भी कोण विषम हुआ तो उसका रूप विकृत हो जाएगा।

मेरी कल्पना का स्वराज्य तभी आएगा जब हमारे मन में यह बात अच्छी तरह जम जाए कि हमें अपना स्वराज्य सत्य और अहिंसा के शुद्ध साधनों द्वारा ही हासिल करना हैं, उन्हीं के द्वारा हमें उसका संचालन करना है और उन्हीं के द्वारा हमें उसे कायम रखना है। सच्ची लोकसत्ता या जनता का स्वराज्य कभी भी असत्यमय और हिंसक साधनों से नहीं आ सकता। कारण स्पष्ट और सीधा है : यदि असत्यमय और हिंसक उपायों का प्रयोग किया गया, तो उसका स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि सारे विरोधियों को दबाकर या उनका नाश करके खतम कर दिया जाएगा। ऐसी स्थिति में वैयक्ति स्वतंत्रता की रक्षा नहीं हो सकती। वैयक्तिक स्वतंत्रता को प्रकट होने का पूरा अवकाश केवल विशुद्ध अहिंसा पर आधारित शासन में ही मिल सकता है।

अहिंसा पर आधारित स्वराज्य में लोगों को अपने अधिकारों का ज्ञान न हो तो कोई बात नहीं, लेकिन उन्हें अपने कर्त्तव्यों का ज्ञान अवश्य होना चाहिए। हर एक कर्त्तव्य के साथ उसकी तौल का अधिकार जुड़ा हुआ होता ही है, और सच्चे अधिकार तो वे ही हैं जो अपने कर्त्तव्यों का योग्य पालन करके प्राप्त किए गए हों। इसलिए नागरिकता के अधिकार सिर्फ उन्हीं को मिल सकते हैं, जो जिस राज्य में वे रहते हों उसकी सेवा करते हों। और सिर्फ वे ही इन अधिकारों के साथ पूरा न्याय कर सकते हैं। हर एक आदमी को झूठ बोलने और गुंडागिरी करने का अधिकार हैं, किंतु इस अधिकार का प्रयोग उस आदमी और समाज, दोनों के लिए हानिकारक है। लेकिन जो व्यक्ति सत्य और अहिंसा का पालन करता है, उसे प्रतिष्ठा मिलती है और इस प्रतिष्ठा के फलस्वरूप उसे अधिकार मिल जाते हैं। और जिन लोगों को अधिकार अपने कर्त्तव्यों के पालन के फलस्वरूप मिलते हैं, वे उनका उपयोग समाज की सेवा के लिए ही करते हैं, अपने लिए कभी नहीं। किसी राष्ट्रीय समाज के स्वराज्य का अर्थ उस समाज के विभिन्न व्यक्तियों के द्वारा (अर्थात आत्म-शासन) का योग ही है। और ऐसा स्वराज्य व्यक्तियों के द्वारा नागरिकों के रूप में अपने कर्त्तव्य के पालन से ही आता है। उसमें कोई अपने अधिकारों की बात नहीं सोचता। जब उनकी आवश्यकता होती है तब वे उन्हें अपने-आप मिल जाते है और इसलिए मिलते हैं कि वे अपने कर्त्तव्य का संपादन ज्यादा अच्छी तरह कर सकें।

अहिंसा पर आधारित स्वराज्य में कोई किसी का शत्रु नहीं होता, सारी जनता की भलाई का सामान्य उद्देश्य सिद्ध करने में हर एक अपना अभीष्ट योग देता है सब लिख-पढ़ सकते हैं और उनका ज्ञान दिन-दिन बढ़ता रहता है। बीमारी और रोग कम-से-कम हो जाएँ, ऐसी व्यवस्था की जाती है। कोई कंगाल नहीं होता और मजदूरी करना चाहने वाले को काम अवश्य मिल जाता है। ऐसी शासन-व्यवस्था में जुआ, शराबखोरी और दुराचार का या वर्ग-विद्वेष का कोई स्थान नहीं होता। अमीर लोग अपने धन का उपयोग बुद्धिपूर्वक उपयोग कार्यों में करेंगे; अपनी शान-शौकत बढ़ाने में या शारीरिक सुखों की वृद्धि में उसका अपयव्य नहीं करेंगे। उसमें ऐसा नहीं हो सकता, होना नहीं चाहिए, कि चंद अमीर तो रत्न-जटित महलों में रहे और लाखों-करोड़ों ऐसा मनहूस झोपड़ियों में, जिनमें हवा ओर प्रकाश का प्रवेश न हों। अहिंसक स्वराज्य में न्यायपूर्ण अधिकारों का किसी के भी द्वारा कोई अतिक्रमण नहीं हो सकता और इसी तरह किसी को कोई अन्यायपूर्ण अधिकार नहीं हो सकते। सुसंघटित राज्य में किसी न्याय अधिकार का किसी दूसरे के द्वारा अन्यायपूर्वक छीन जाना असंभव होना चाहिए और कभी ऐसा हो जाए तो अपहर्ता को अपदस्थ करने के लिए हिंसा का आश्रय लेने की जरूरत नहीं होनीं चाहिए।

2. बचपन

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पोरबंदर से पिताजी राजस्थानिक कोर्ट के सदस्य बनकर राजकोट गए। उस समय मेरी उमर सात साल की होगी। मुझे राजकोट की ग्रामशाला में भरती किया गया। इस शाला के दिन मुझे अच्छी तरह याद हैं। शिक्षकों के नाम-धाम भी याद हैं। पोरबंदर की तरह यहाँ की पढ़ाई के बारे में भी ज्ञान के लायक कोई खास बात नहीं हैं। मैं मुश्किल से साधारण श्रेणी का विद्यार्थी रहा होऊँगा। ग्रामशाला से उपनगर की शाला में और वहाँ से हाईस्कूल में। यहाँ तक पहुँचने में मेरा बारहवाँ वर्ष बीत गया। मुझे याद नहीं पड़ता कि इस बीच मैंने किसी भी समय शिक्षकों को धोखा दिया हो। न तब तक किसी को मित्र बनाने का स्मरण हैं। मैं बहुत ही शरमीला लड़का था। घंटी बजने के समय पहुँचता और पाठशाला के बंद होते ही घर भागता। 'भागना' शब्द मैं जान-बूझकर लिख रहा हूँ, क्योंकि बातें करना मुझे अच्छा न लगता था। साथ ही यह डर भी रहता था कि कोई मेरा मजाक उड़ाएगा तो?

हाईस्कूल के पहले ही वर्ष की, परीक्षा के समय की एक घटना उल्लेखनीय है। शिक्षा विभाग के इन्स्पेक्टर जाइल्स विद्यालय का निरीक्षण करने आए थे। उन्होंने पहली कक्षा के विद्यार्थियों को अंग्रेजी के पाँच शब्द लिखाए। उनमें एक शब्द 'केटल' (kettle) था। मैंने उसके हिज्जे गलत लिखे थे। शिक्षक ने अपने बूट की नोक मारकर मुझे सावधान किया। लेकिन मैं क्यों सावधान होने लगा? मुझे यह खयाल ही नहीं हो सका कि शिक्षक मुझे पासवाले लड़के की पट्टी देखकर हिज्जे सुधार लेने को कहते हैं। मैंने यह माना था कि शिक्षक तो यह देख रहे हैं कि हम एक-दूसरे की पट्टी में देखकर चोरी न करें। सब लड़कों के पाँचों शब्द सही निकले और अकेला मैं बेवकूफ ठहरा। शिक्षक ने मुझे मेरी बेवकूफी बाद में समझाई लेकिन मेरे मन पर कोई असर न हुआ। मैं दूसरे लड़कों की पट्टी में देखकर चोरी करना कभी न सीख सका।

इतने पर भी शिक्षक के प्रति मेरा विनय कभी कम न हुआ। बड़ों के दोष न देखने का गुण मुझमें स्वभाव से ही था। बाद में इन शिक्षक के दूसरे दोष भी मुझे मालूम हुए थे। फिर भी उनके प्रति मेरा आदर बना ही रहा। मैं यह जानता था कि बड़ों की आज्ञा का पालन करना चाहिए। वे जो कहें सो करना; करें उसके काजी न बनना।

इसी समय के दो और प्रसंग मुझे हमेशा याद रहे हैं। साधारणतः पाठशाला की पुस्तकों को छोड़कर और कुछ पढ़ने का मुझे शौक नहीं था। सबक याद करना चाहिए, उलाहना सहा नहीं जाता, शिक्षक को धोखा देना ठीक नहीं, इसलिए मैं पाठ याद करता था। लेकिन मन अलसा जाता, इससे अक्सर सबक कच्चा रह जाता। ऐसी हालत में दूसरी कोई चीज पढ़ने की इच्छा क्यों कर होती? किंतु पिताजी की खरीदी हुई एक पुस्तक पर मेरी दृष्टि पड़ी। नाम था 'श्रवण-पितृभक्ति नाटक'। मेरी इच्छा उसे पढ़ने की हुई और मैं उसे बड़े चाव के साथ पढ़ गया। उन्हीं दिनों शीशे में चित्र दिखानेवाले भी घर-घर आते थे। उनके पास मैंने श्रवण का वह दृश्य भी देखा, जिसमें वह अपने माता-पिता को काँवर में बैठाकर यात्रा पर ले जाता है। दोनों चीजों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। मन में इच्छा होती कि मुझे भी श्रवण के समान बनना चाहिए। श्रवण की मृत्यु पर उसके माता-पिता का विलाप मुझे आज भी याद है। उस ललित छंद को मैंने बाजे पर बजाना भी सीख लिया था। मुझे बाजा सीखने का शौक था और पिताजी ने एक बाजा दिला भी दिया था।

इन्हीं दिनों कोई नाटक कंपनी आई थी और उसका नाटक देखने की इजाजत मुझे मिली थी। हरिश्चंद्र का आख्यान था। उस बार-बार देखने की इच्छा होती थी। उस नाटक को देखते हुए मैं थकता ही न था। उसे बार-बार देखने की इच्छा होती थी। लेकिन यों बार-बार जाने कौन देता? पर अपने मन में मैंने उस नाटक को सैकड़ों बार खेला होगा। मुझे हरिश्चंद्र के सपने आते। हरिश्चंद्र की तरह सत्यवादी सब क्यों नहीं होते? यह धुन बनी रहती। हरिश्चंद्र पर जैसी विपत्तियाँ पड़ीं वैसी विपत्तियों को भोगना और सत्य का पालन करना ही वास्तविक सत्य है। मैंने यह मान लिया था कि नाटक में जैसी लिखी हैं, वैसी विपत्तियाँ हरिश्चंद्र पर पड़ी होगी। हरिश्चंद्र के दुख देखकर उसका स्मरण करके मैं खूब रोया हूँ। आज मेरी बुद्धि समझती हैं कि हरिश्चंद्र कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं था। फिर भी मेरे विचार में हरिश्चंद्र और श्रवण आज भी जीवित हैं। मैं मानता हूँ कि आज भी उन नाटकों को पढ़ूँ तो आज भी मेरी आँखों से आँसू बह निकलेंगे।

3. बाल-विवाह

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मैं चाहता हूँ कि मुझे यह प्रकरण न लिखना पड़ता। लेकिन इस कथा में मुझको ऐसे कितने कड़वे घूँट पीने पड़ेंगे। सत्य का पुजारी होने का दावा करके मैं और कुछ कर ही नहीं सकता। यह लिखते हुए मन अकुलाता है कि तेरह साल की उमर में मेरा विवाह हुआ था। आज मेरी आँखों के सामने बारह-तेरह वर्ष के बालक मौजूद है। उन्हें देखता हूँ और अपने विवाह का स्मरण करता हूँ तो मुझे अपने ऊपर दया आती है और इन बालकों को मेरी स्थिति से बचने के लिए बधाई देने की इच्छा होती है। तेरहवें वर्ष में हुए अपने विवाह के समर्थन में मुझे एक भी नैतिक दलील सूझ नहीं सकती।

पाठक यह न समझें कि मैं सगाई की बात लिख रहा हूँ। काठियावाड़ में विवाह का अर्थ लग्न है, सगाई नहीं। दो बालकों को ब्याहने के लिए माँ-बाप के बीच होनेवाला करार सगाई है। सगाई टूट सकती है। सगाई के रहते वर यदि मर जाए तो कन्या विधवा नहीं होती। सगाई में वर-कन्या के बीच कोई संबंध नहीं रहता। दोनों को पता नहीं होता। मेरी एक-एक करके तीन बार सगाई हुई थी। ये तीन सगाइयाँ कब हुई, इसका मुझे कुछ पता नहीं। मुझे बताया गया था कि दो कन्याएँ एक के बाद एक मर गईं। इसीलिए मैं जानता हूँ कि मेरी तीन सगाइयाँ हुई थी। कुछ ऐसा याद पड़ता है कि तीसरी सगाई कोई सात साल की उमर में हुई होगी। लेकिन मैं नहीं जानता कि सगाई के समय मुझसे कुछ कहा गया था। विवाह में वर-कन्या की आवश्यकता पड़ती है, उसकी विधि होती है और मैं जो लिख रहा हूँ सो विवाह के विषय में ही है। विवाह का मुझे पूरा-पूरा स्मरण है।

पाठक जान चुके हैं कि हम तीन भाई थे। उनमें सबसे बड़े का ब्याह हो चुका था। मँझले भाई मुझसे दो या तीन साल बड़े थे। घर के बड़ों ने एक साथ तीन विवाह करने का निश्चय किया। मँझले भाई का, मेरे काकाजी के छोटे लड़के का, जिनकी उमर मुझसे एकाध साल अधिक रही होगी, और मेरा। इसमें हमारे कल्याण की बात नहीं थी। हमारी इच्छा की तो थी ही नहीं। बात सिर्फ बड़ों की सुविधा और खर्च की थी।

हिंदू-संसार में विवाह कोई ऐसी-वैसी चीज नहीं। वर-कन्या के माता-पिता विवाह के पीछे बरबाद होते हैं, धन लुटाते हैं और समय लुटाते हैं। महीनों पहले से तैयारियाँ होती हैं। कपड़े बनते है, गहने बनते है, जातिभोज के खर्च के हिसाब बनते हैं, पकवानों के प्रकारों की होड़ बदी जाती है। औरतें, गला हो चाहे न हो तो भी गाने गा-गाकर अपनी आवाज बैठा लेती हैं, बीमार भी पड़ती हैं। पड़ोसियों की शांति में खलल पहुँचाती हैं। बेचारे पड़ोसी भी अपने यहाँ प्रसंग आने पर यही सब करते हैं, इसलिए शोरगुल, जूठन, दूसरी गंदगियाँ, सब कुछ उदासीन भाव से सह लेते है। ऐसा झमेला तीन बार करने के बदले एक बार ही कर लिया जाए, तो कितना अच्छा हो? खर्च कम होने पर भी ब्याह ठाठ से हो सकता है, क्योंकि तीन ब्याह एक साथ करने पर पैसा खुले हाथों खर्चा जा सकता है। पिताजी और काकाजी बूढ़े थे। हम उनके आखिरी लड़के ठहरे। इसलिए उनके मन में हमारे विवाह रचाने का आनंद लूटने की वृत्ति भी रही होगी। इन और ऐसे दूसरे विचारों से ये तीनों विवाह एक साथ करने का निश्चय किया गया, और सामग्री जुटाने का काम तो, जैसा कि मैं कह चुका हूँ महीनों पहले से शुरू हो चुका था।

हम भाइयों को तो सिर्फ तैयारियों से ही पता चला कि ब्याह होनेवाले हैं। उस समय मन में अच्छे-अच्छे कपड़े पहनने, बाजे बजने, वर यात्रा के समय घोड़े पर चढ़ने, बढ़िया भोजन मिलने, एक नई बालिका के साथ विनोद करने आदि की अभिलाषा के सिवा दूसरी कोई खास बात रही हो, इसका मुझे कोई स्मरण नहीं है। विषय-भोग की वृत्ति तो बाद में आई। वह कैसे आई, इसका वर्णन कर सकता हूँ, पर पाठक ऐसी जिज्ञासा न रखें। मैं अपनी शरम पर परदा डालना चाहता हूँ। जो कुछ बतलाने लायक है, वह इसके आगे आएगा। किंतु इस चीज के ब्योरे का उस केंद्र बिंदु से बहुत ही थोड़ा संबंध है, जिसे मैंने अपनी निगाह के सामने रखा है।

हम दो भाइयों को राजकोट से पोरबंदर ले जाया गया। वहाँ हल्दी चढ़ाने आदि की विधि हुई, वह मनोरंजन होते हुए भी उसकी चर्चा छोड़ देने लायक है। पिताजी दीवान थे, फिर भी थे तो नौकर ही; तिस पर राज-प्रिय थे, इसलिए अधिक पराधीन रहे। ठाकुर साहब ने आखिरी घड़ी तक उन्हें छोड़ा नहीं। अंत में जब छोड़ा तो ब्याह के दो दिन पहले ही रवाना किया। उन्हें पहुँचाने के लिए खास डाक बैठाई गई। पर विधाता ने कुछ और ही सोचा था। राजकोट से पोरबंदर साठ कोस है। बैलगाड़ी से पाँच दिन का रास्ता था। पिताजी तीन दिन में पहुँचे। आखिरी में तांगा उलट गया। पिताजी को कड़ी चोट आई। हाथ पर पट्टी, पीठ पर पट्टी। विवाह-विषयक उनका और हमारा आनंद आधा चला गया। फिर भी ब्याह तो हुए ही। लिखे मुहूर्त कहीं टल सकते है? मैं तो विवाह के बाल-उल्लास में पिताजी का दुख भूल गया!

मैं पितृ-भक्त तो था ही, पर विषय-भक्त भी वैसा ही था न? यहाँ विषय का मतलब इंद्रिय का विषय नहीं है, बल्कि भोग-मात्र है। माता-पिता की भक्ति के लिए सब सुखों का त्याग करना चाहिए, यह ज्ञान तो आगे चलकर मिलनेवाला था। तिस पर भी मानो मुझे भोगेच्छा को दंड ही भुगतना हो, इस तरह मेरे जीवन में एक विपरीत घटना घटी, जो मुझे आज तक अखरती है। जब-जब निष्कुलानंद का 'त्याग न टके रे वैराग बिना, करिए कोटि उपाय जी' गाता हूँ या सुनता हूँ, तब-तब वह विपरीत और कड़वी घटना मुझे याद आती है और शरमाती है।

पिताजी ने शरीर से पीड़ा भोगते हुए भी बाहर से प्रसन्न दीखने का प्रयत्न किया और विवाह में पूरी तरह योग दिया। पिताजी किस-किस प्रसंग में कहाँ-कहाँ बैठे थे, इसकी याद मुझे आज भी जैसी की वैसी बनी है। बाल-विवाह की चर्चा करते हुए पिताजी के कार्य की जो टीका मैंने आज की है, वह मेरे मन में उस समय थोड़े ही की थी? तब तो सब कुछ योग्य और मनपसंद ही लगा था। ब्याहने का शौक था और पिताजी जो कर रहे ठीक ही कर रहे है, ऐसा लगता था। इसलिए उस समय के स्मरण ताजे है।

मंडप में बैठे, फेरे फिरे, कंसार खाया-खिलाया, और तभी से वर-वधू साथ में रहने लगे। वह पहली रात! दो निर्दोष बालक अनजाने संसार-सागर में कूद पड़े। भाभी ने सिखलाया कि मुझे पहली रात में कैसा बरताव करना चाहिए। धर्मपत्नी को किसने सिखलाया, सो पूछने की बात मुझे याद नहीं। पूछने की इच्छा तक नहीं होती। पाठक यह जान लें कि हम दोनों एक-दूसरे से डरते थे, ऐसा भास मुझे है। एक-दूसरे से शरमाते तो थे ही। बातें कैसे करना, क्या करना, सो मैं क्या जानूँ? प्राप्त सिखापन भी क्या मदद करती? लेकिन क्या इस संबंध में कुछ सिखाना जरूरी होता है? यहाँ संस्कार बलवान है, वहाँ सिखावन सब गैर-जरूरी बन जाती है। धीरे-धीरे हम एक-दूसरे को पहचानने लगे, बोलने लगे। हम दोनों बराबरी की उमर के थे। पर मैंने तो पति की सत्ता चलाना शुरू कर दिया।

4. पतित्व

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जिन दिनों मेरा विवाह हुआ, उन दिनो निबंधों की छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ - पैसे-पैसे या पाई-पाई की, सो तो कुछ याद नही - निकलती थीं। उनमे दंपती-प्रेम, कमखर्ची, बालविवाह आदि विषयो की चर्चा रहती थी। उनमें से कुछ निबंध मेरे हाथ मे पड़ते और मैं उन्हें पढ़ जाता। मेरी यह आदत तो थी कि पढ़े हुए में से जो पसंद न आए उसे भूल जाना और जो पसंद आए उस पर अमल करना। मैंने पढ़ा था कि एकपत्नी-व्रत पालना पति का धर्म है। बात हृदय में रम गई। सत्य का शौक तो था ही इसलिए पत्नी को धोखा तो दे ही नहीं सकता था। इसी से यह भी समझ में आया कि दूसरी स्त्री के साथ संबंध नहीं रहना चाहिए। छोटी उमर में एकपत्नी-व्रत के भंग की संभावना कम ही रहती है।

पर इन सद्विचारो का एक बुरा परिणाम निकला। अगर मुझे एक-पत्नी-व्रत पालना है, तो पत्नी को एक-पति-व्रत पालना चाहिए। इस विचार के कारण मैं ईर्ष्यालु पति बन गया। 'पालना चाहिए' में से मैं 'पलवाना चाहिए' के विचार पर पहुँचा। और अगर पलवाना है तो मुझे पत्नी की निगरनी रखनी चाहिए। मेरे लिए पत्नी की पवित्रता में शंका करने का कोई कारण नहीं था। पर ईर्ष्या कारण क्यों देखने लगी? मुझे हमेशा यह जानना ही चाहिए कि मेरी स्त्री कहाँ जाती है। इसलिए मेरी अनुमति के बिना वह कहीं जा ही नहीं सकती। यह चीज हमारे बीच दुखद झगड़े की जड़ बन गई। बिना अनुमति के कहीं भी न जा सकना तो एक तरह की कैद ही हुई। पर कस्तूरबाई ऐसी कैद सहन करनेवाली थी ही नहीं। जहाँ इच्छा होती वहाँ मुझसे बिना पूछे जरूर जाती। मैं ज्यों-ज्यों दबाव डालता, त्यों-त्यों वह अधिक स्वतंत्रता से काम लेती, और मैं अधिक चिढ़ता। इससे हम बालकों के बीच बोलचाल का बंद होना एक मामूली चीज बन गई। कस्तूरबाई ने जो स्वतंत्रता बरती, उसे मैं निर्दोष मानता हूँ। जिस बालिका के मन में पाप नहीं है, वह देव-दर्शन के लिए जाने पर या किसी से मिलने जाने पर दबाव क्यों सहन करें? अगर मैं उस पर दबाव डालता हूँ, तो वह मुझ पर क्यों न डाले? ...यह तो अब मुझे समझ में आ रहा है। उस समय तो मुझे अपना पतित्व सिद्ध करना था। लेकिन पाठक यह न मानें कि हमारे गृहजीवन में कहीं भी मिठास नहीं थी। मेरी वक्रता की जड़ प्रेम में थी। मैं अपनी पत्नी को आदर्श पत्नी बनाना चाहता था। मेरी यह भावना थी कि वह स्वच्छ बने, स्वच्छ रहे, मैं सीखूँ सो सीखे, मैं पढ़ूँ सो पढ़े और हम दोनों एक दूसरे में ओत-प्रोत रहें।

कस्तूरबाई में यह भावना थी या नहीं, इसका मुझे पता नहीं। वह निरक्षर थी। स्वभाव से सीधी, स्वतंत्र, मेहनती और मेरे साथ तो कम बोलनेवाली थी। उसे अपने अज्ञान का असंतोष न था। अपने बचपन में मैंने कभी उसकी यह इच्छा नहीं जानी कि वह मेरी तरह वह भी पढ़ सके तो अच्छा हो। इसमें मैं मानता हूँ कि मेरी भावना एकपक्षी थी। मेरा विषय-सुख एक स्त्री पर ही निर्भर था और मैं उस सुख का प्रतिघोष चाहता था। जहाँ प्रेम एक पक्ष की ओर से होता है वहाँ सर्वांश में दुख तो नहीं ही होता। मैं अपनी स्त्री के प्रति विषायाक्त था। शाला में भी उसके विचार आते रहते। कब रात पड़े और कब हम मिलें, यह विचार बना ही रहता। वियोग असह्य था। अपनी कुछ निकम्मी बकवासों से मैं कस्तूरबाई को जगाए ही रहता। मेरा खयाल है कि इस आसक्ति के साथ ही मुझमें कर्तव्य-परायणता न होती, तो मैं व्याधिग्रस्त होकर मौत के मुँह में चला जाता, अथवा इस संसार में बोझरूप बनकर जिंदा रहता। 'सवेरा होते ही नित्यकर्म में तो लग जाना चाहिए, किसी को धोखा तो दिया ही नहीं जा सकता' ...अपने इन विचारों के कारण मैं बहुत से संकटों से बचा हूँ।

मैं लिख चुका हूँ कि कस्तूरबाई निरक्षर थी। उसे पढ़ाने का मेरी बड़ी इच्छा थी। पर मेरी विषय-वासना मुझे पढ़ाने कैसे देती? एक तो मुझे जबरदस्ती पढ़ाना था। वह भी रात के एकांत में ही हो सकता था। बड़ों के सामने तो स्त्री की तरफ देखा भी नहीं जा सकता था। फिर बात-चीत कैसे होती? उन दिनों काठियावाड़ में घूँघट निकालने का निकम्मा और जंगली रिवाज था; आज भी बड़ी हद तक मौजूद है। इस कारण मेरे लिए पढ�

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