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कबीरदास - Kabirdas

कबीर हिंदी साहित्य के महिमामण्डित व्यक्तित्व हैं। कबीर के जन्म के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कुछ लोगों के अनुसार वे रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से पैदा हुए थे, जिसको भूल से रामानंद जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था। ब्राह्मणी उस नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक आयी।

कबीर के माता- पिता के विषय में एक राय निश्चित नहीं है कि कबीर "नीमा' और "नीरु' की वास्तविक संतान थे या नीमा और नीरु ने केवल इनका पालन- पोषण ही किया था।  कहा जाता है कि नीरु जुलाहे को यह बच्चा लहरतारा ताल पर पड़ा पाया, जिसे वह अपने घर ले आया और उसका पालन-पोषण किया। बाद में यही बालक कबीर कहलाया।

कबीर ने स्वयं को जुलाहे के रुप में प्रस्तुत किया है -

"जाति जुलाहा नाम कबीराबनि बनि फिरो उदासी।'

कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर की उत्पत्ति काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुई। ऐसा भी कहा जाता है कि कबीर जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानन्द के प्रभाव से उन्हें हिंदू धर्म का ज्ञान हुआ।  एक दिन कबीर पञ्चगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े थे, रामानन्द ज उसी समय गंगास्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल `राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कबीर के ही शब्दों में- `हम कासी में प्रकट भये हैं, रामानन्द चेताये'। अन्य जनश्रुतियों से ज्ञात होता है कि कबीर ने हिंदु-मुसलमान का भेद मिटा कर हिंदू-भक्तों तथा मुसलमान फक़ीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को आत्मसात कर लिया।

जनश्रुति के अनुसार कबीर के एक पुत्र कमल तथा पुत्री कमाली थी। इतने लोगों की परवरिश करने के लिये उन्हें अपने करघे पर काफी काम करना पड़ता था। साधु संतों का तो घर में जमावड़ा रहता ही था।

कबीर को कबीर पंथ में, बाल- ब्रह्मचारी और विराणी माना जाता है। इस पंथ के अनुसार कामात्य उसका शिष्य था और कमाली तथा लोई उनकी शिष्या। लोई शब्द का प्रयोग कबीर ने एक जगह कंबल के रुप में भी किया है। वस्तुतः कबीर की पत्नी और संतान दोनों थे। एक जगह लोई को पुकार कर कबीर कहते हैं :-

"कहत कबीर सुनहु रे लोई।हरि बिन राखन हार न कोई।।'

कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे-

`मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।'

उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुँह से भाखे और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया। आप के समस्त विचारों में रामनाम की महिमा प्रतिध्वनित होती है। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्त्ति, रोज़ा, ईद, मसजिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे।

कबीर के नाम से मिले ग्रंथों की संख्या भिन्न-भिन्न लेखों के अनुसार भिन्न-भिन्न है। एच.एच. विल्सन के अनुसार कबीर के नाम पर आठ ग्रंथ हैं। विशप जी.एच. वेस्टकॉट ने कबीर के ८४ ग्रंथों की सूची प्रस्तुत की तो रामदास गौड ने `हिंदुत्व' में ७१ पुस्तकें गिनायी हैं।

कबीर की वाणी का संग्रह `बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं- रमैनी, सबद और सारवी यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, व्रजभाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी है।

कबीर परमात्मा को मित्र, माता, पिता और पति के रूप में देखते हैं। यही तो मनुष्य के सर्वाधिक निकट रहते हैं। वे कभी कहते हैं-

`हरिमोर पिउ, मैं राम की बहुरिया' तो कभी कहते हैं, `हरि जननी मैं बालक तोरा'

उस समय हिंदु जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था। कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी। उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुँच सके। इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर मिलन में सुविधा हुई। इनके पंथ मुसलमान-संस्कृति और गोभक्षण के विरोधी थे।

कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है।

कबीर का पूरा जीवन काशी में ही गुजरा, लेकिन वह मरने के समय मगहर चले गए थे।  वह न चाहकर भी, मगहर गए थे। वृद्धावस्था में यश और कीर्त्ति की मार ने उन्हें बहुत कष्ट दिया। उसी हालत में उन्होंने बनारस छोड़ा और आत्मनिरीक्षण तथा आत्मपरीक्षण करने के लिये देश के विभिन्न भागों की यात्राएँ कीं। कबीर मगहर जाकर दु:खी थे:

"अबकहु राम कवन गति मोरी।तजीले बनारस मति भई मोरी।।''

कहा जाता है कि कबीर के शत्रुओं ने उनको मगहर जाने के लिए मजबूर किया था। वे चाहते थे कि कबीर की मुक्ति न हो पाए, परंतु कबीर तो काशी मरन से नहीं, राम की भक्ति से मुक्ति पाना चाहते थे:

"जौ काशी तन तजै कबीरातो रामै कौन निहोटा।''

अपने यात्रा क्रम में ही वे कालिंजर जिले के पिथौराबाद शहर में पहुँचे। वहाँ रामकृष्ण का छोटा सा मन्दिर था। वहाँ के संत भगवान गोस्वामी जिज्ञासु साधक थे किंतु उनके तर्कों का अभी तक पूरी तरह समाधान नहीं हुआ था। संत कबीर से उनका विचार-विनिमय हुआ। कबीर की एक साखी ने उन के मन पर गहरा असर किया-

`बन ते भागा बिहरे पड़ा, करहा अपनी बान।करहा बेदन कासों कहे, को करहा को जान।।'

वन से भाग कर बहेलिये के द्वारा खोये हुए गड्ढे में गिरा हुआ हाथी अपनी व्यथा किस से कहे ?

सारांश यह कि धर्म की जिज्ञासा सें प्रेरित हो कर भगवान गोसाई अपना घर छोड़ कर बाहर तो निकल आये और हरिव्यासी सम्प्रदाय के गड्ढे में गिर कर अकेले निर्वासित हो कर ऐसी स्थिति में पड़ चुके हैं।

कबीर आडम्बरों के विरोधी थे। मूर्त्ति पूजा को लक्ष्य करती उनकी एक साखी है -

पाहन पूजे हरि मिलैं, तो मैं पूजौंपहार।था ते तो चाकी भली, जासे पीसी खाय संसार।।

११९ वर्ष की अवस्था में मगहर में कबीर का देहांत हो गया। कबीरदास जी का व्यक्तित्व संत कवियों में अद्वितीय है। हिन्दी साहित्य के १२०० वर्षों के इतिहास में गोस्वामी तुलसीदास जी के अतिरिक्त इतना प्रतिभाशाली व्यक्तित्व किसी कवि का नहीं है।

तुलसीदास - Tulsidas

जन्म काल

महान कवि तुलसीदास की प्रतिभा-किरणों से न केवल हिन्दू समाज और भारत, बल्कि समस्त संसार आलोकित हो रहा है। बड़ा अफसोस है कि उसी कवि का जन्म-काल विवादों के अंधकार में पड़ा हुआ है। अब तक प्राप्त शोध-निष्कर्ष भी हमें निश्चितता प्रदान करने में असमर्थ दिखाई देते हैं। मूलगोसाईं-चरित के तथ्यों के आधार पर डा० पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल और श्यामसुंदर दास तथा किसी जनश्रुति के आधार पर "मानसमयंक' - कार भी १५५४ का ही समर्थन करते हैं। इसके पक्ष में मूल गोसाईं-चरित की निम्नांकित पंक्तियों का विशेष उल्लेख किया जाता है।

पंद्रह सै चौवन विषै, कालिंदी के तीर,सावन सुक्ला सत्तमी, तुलसी धरेउ शरीर ।

तुलसीदास की जन्मभूमि

तुलसीदास की जन्मभूमि होने का गौरव पाने के लिए अब तक राजापुर (बांदा), सोरों (एटा), हाजीपुर (चित्रकूट के निकट), तथा तारी की ओर से प्रयास किए गए हैं। संत तुलसी साहिब के आत्मोल्लेखों, राजापुर के सरयूपारीण ब्राह्मणों को प्राप्त "मुआफी' आदि बहिर्साक्ष्यों और अयोध्याकांड (मानस) के तायस प्रसंग, भगवान राम के वन गमन के क्रम में यमुना नदी से आगे बढ़ने पर व्यक्त कवि का भावावेश आदि अंतर्साक्ष्यों तथा तुलसी-साहित्य की भाषिक वृत्तियों के आधार पर रामबहोरे शुक्ल राजापुर को तुलसी की जन्मभूमि होना प्रमाणित हुआ है। 

रामनरेश त्रिपाठी का निष्कर्ष है कि तुलसीदास का जन्म स्थान सोरों ही है। सोरों में तुलसीदास के स्थान का अवशेष, तुलसीदास के भाई नंददास के उत्तराधिकारी नरसिंह जी का मंदिर और वहां उनके उत्तराधिकारियों की विद्यमानता से त्रिपाठी और गुप्त जी के मत को परिपुष्ट करते हैं।

जाति एवं वंश

जाति और वंश के सम्बन्ध में तुलसीदास ने कुछ स्पष्ट नहीं लिखा है। कवितावली एवं विनयपत्रिका में कुछ पंक्तियां मिलती हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि वे ब्राह्मण कुलोत्पन्न थे-

दियो सुकुल जनम सरीर सुदर हेतु जो फल चारि कोजो पाइ पंडित परम पद पावत पुरारि मुरारि को । (विनयपत्रिका)

भागीरथी जलपान करौं अरु नाम द्वेै राम के लेत नितै हों ।मोको न लेनो न देनो कछु कलि भूलि न रावरी और चितैहौ ।।

जानि के जोर करौं परिनाम तुम्हैं पछितैहौं पै मैं न भितैहैंबाह्मण ज्यों उंगिल्यो उरगारि हौं त्यों ही तिहारे हिए न हितै हौं।

जाति-पांति का प्रश्न उठने पर वह चिढ़ गये हैं। कवितावली की निम्नांकित पंक्तियों में उनके अंतर का आक्रोश व्यक्त हुआ है -

""धूत कहौ अवधूत कहौ रजपूत कहौ जोलहा कहौ कोऊ काहू की बेटी सों बेटा न व्याहब, काहू की जाति बिगारी न सोऊ।''

""मेरे जाति-पांति न चहौं काहू का जाति-पांति,मेरे कोऊ काम को न मैं काहू के काम को ।''

राजापुर से प्राप्त तथ्यों के अनुसार भी वे सरयूपारीण थे। तुलसी साहिब के आत्मोल्लेख एवं मिश्र बंधुओं के अनुसार वे कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। जबकि सोरों से प्राप्त तथ्य उन्हें सना ब्राह्मण प्रमाणित करते है, लेकिन "दियो सुकुल जनम सरीर सुंदर हेतु जो फल चारि को' के आधार पर उन्हें शुक्ल ब्राह्मण कहा जाता है। परंतु शिवसिंह "सरोज' के अनुसार सरबरिया ब्राह्मण थे।

ब्राह्मण वंश में उत्पन्न होने के कारण कवि ने अपने विषय में "जायो कुल मंगन' लिखा है। तुलसीदास का जन्म अर्थहीन ब्राह्मण परिवार में हुआ था, जिसके पास जीविका का कोई ठोस आधार और साधन नहीं था। माता-पिता की स्नेहिल छाया भी सर पर से उठ जाने के बाद भिक्षाटन के लिए उन्हें विवश होना पड़ा।

माता-पिता

तुलसीदास के माता पिता के संबंध में कोई ठोस जानकारी नहीं है। प्राप्त सामग्रियों और प्रमाणों के अनुसार उनके पिता का नाम आत्माराम दूबे था। किन्तु भविष्यपुराण में उनके पिता का नाम श्रीधर बताया गया है। रहीम के दोहे के आधार पर माता का नाम हुलसी बताया जाता है।

सुरतिय नरतिय नागतिय, सब चाहत अस होय ।गोद लिए हुलसी फिरैं, तुलसी सों सुत होय ।।

गुरु

तुलसीदास के गुरु के रुप में कई व्यक्तियों के नाम लिए जाते हैं। भविष्यपुराण के अनुसार राघवानंद, विलसन के अनुसार जगन्नाथ दास, सोरों से प्राप्त तथ्यों के अनुसार नरसिंह चौधरी तथा ग्रियर्सन एवं अंतर्साक्ष्य के अनुसार नरहरि तुलसीदास के गुरु थे। राघवनंद के एवं जगन्नाथ दास गुरु होने की असंभवता सिद्ध हो चुकी है। वैष्णव संप्रदाय की किसी उपलब्ध सूची के आधार पर ग्रियर्सन द्वारा दी गई सूची में, जिसका उल्लेख राघवनंद तुलसीदास से आठ पीढ़ी पहले ही पड़ते हैं। ऐसी परिस्थिति में राघवानंद को तुलसीदास का गुरु नहीं माना जा सकता। 

सोरों से प्राप्त सामग्रियों के अनुसार नरसिंह चौधरी तुलसीदास के गुरु थे। सोरों में नरसिंह जी के मंदिर तथा उनके वंशजों की विद्यमानता से यह पक्ष संपुष्ट हैं। लेकिन महात्मा बेनी माधव दास के "मूल गोसाईं-चरित' के अनुसार हमारे कवि के गुरु का नाम नरहरि है।

बाल्यकाल और आर्थिक स्थिति

तुलसीदास के जीवन पर प्रकाश डालने वाले बहिर्साक्ष्यों से उनके माता-पिता की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर प्रकाश नहीं पड़ता। केवल "मूल गोसाईं-चरित' की एक घटना से उनकी चिंत्य आर्थिक स्थिति पर क्षीण प्रकाश पड़ता है। उनका यज्ञोपवीत कुछ ब्राह्मणों ने सरयू के तट पर कर दिया था। उस उल्लेख से यह प्रतीत होता है कि किसी सामाजिक और जातीय विवशता या कर्तव्य-बोध से प्रेरित होकर बालक तुलसी का उपनयन जाति वालों ने कर दिया था। 

तुलसीदास का बाल्यकाल घोर अर्थ-दारिद्रय में बीता। भिक्षोपजीवी परिवार में उत्पन्न होने के कारण बालक तुलसीदास को भी वही साधन अंगीकृत करना पड़ा। कठिन अर्थ-संकट से गुजरते हुए परिवार में नये सदस्यों का आगमन हर्षजनक नहीं माना गया -

जायो कुल मंगन बधावनो बजायो सुनि,भयो परिताप पाय जननी जनक को ।बारें ते ललात बिललात द्वार-द्वार दीन,जानत हौं चारि फल चारि ही चनक को । (कवितावली)

मातु पिता जग जाय तज्यो विधि हू न लिखी कछु भाल भलाई ।नीच निरादर भाजन कादर कूकर टूकनि लागि ललाई ।राम सुभाउ सुन्यो तुलसी प्रभु, सो कह्यो बारक पेट खलाई ।स्वारथ को परमारथ को रघुनाथ सो साहब खोरि न लाई ।।

होश संभालने के पुर्व ही जिसके सर पर से माता - पिता के वात्सल्य और संरक्षण की छाया सदा -सर्वदा के लिए हट गयी, होश संभालते ही जिसे एक मुट्ठी अन्न के लिए द्वार-द्वार विललाने को बाध्य होना पड़ा, संकट-काल उपस्थित देखकर जिसके स्वजन-परिजन दर किनार हो गए, चार मुट्ठी चने भी जिसके लिए जीवन के चरम प्राप्य (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) बन गए, वह कैसे समझे कि विधाता ने उसके भाल में भी भलाई के कुछ शब्द लिखे हैं। उक्त पदों में व्यंजित वेदना का सही अनुभव तो उसे ही हो सकता है, जिसे उस दारुण परिस्थिति से गुजरना पड़ा हो। ऐसा ही एक पद विनयपत्रिका में भी मिलता है -

द्वार-द्वार दीनता कही काढि रद परिपा हूंहे दयालु, दुनी दस दिसा दुख-दोस-दलन-छम कियो संभाषन का हूं ।तनु जन्यो कुटिल कोट ज्यों तज्यों मातु-पिता हूं ।काहे को रोष-दोष काहि धौं मेरे ही अभाग मो सी सकुचत छुइ सब छाहूं । (विनयपत्रिका, २७५)

 

सूरदास - Surdas

सूरदास जी वात्सल्य रस के सम्राट माने जाते हैं। उन्होंने श्रृंगार और शान्त रसों का भी बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है।  

सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्मस्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है। "साहित्य लहरी'सूर की लिखी रचना मानी जाती है। इसमें साहित्य लहरी के रचना-काल के सम्बन्ध मेंनिम्न पद मिलता है -

मुनि पुनि के रस लेख ।दसन गौरीनन्द को लिखि सुवल संवत् पेख ।।

इसका अर्थ संवत् १६०७ वि० माना जाता है, अतएवं "साहित्य लहरी' का रचना काल संवत् १६०७ वि० है। इस ग्रन्थ से यह भी प्रमाणित होता है कि सूर के गुरु श्री बल्लभाचार्य थे। इस आधार पर सूरदास का जन्म सं० १५३५ वि० के लगभग ठहरता है, क्योंकि बल्लभ सम्प्रदाय की मान्यता है कि बल्लभाचार्य सूरदास से दस दिन बड़े थे और बल्लभाचार्य का जन्म उक्त संवत् की वैशाख् कृष्ण एकादशी को हुआ था। इसलिए सूरदास की जन्म-तिथि वैशाख शुक्ला पंचमी, संवत् १५३५ वि० समीचीन मानी जाती है। उनकी मृत्यु संवत् १६२० से १६४८ वि० के मध्य मान्य है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी के मतानुसार सूरदास का जन्म संवत् १५४० वि० के सन्निकट और मृत्यु संवत् १६२० वि० के आसपास मानी जाती है।

जन्म स्थल

 'चौरासी वैष्णव की वार्ता' के आधार पर उनका जन्म रुनकता अथवा रेणु का क्षेत्र (वर्तमान जिला आगरान्तर्गत) में हुआ था। मथुरा और आगरा के बीच गऊघाट पर ये निवास करते थे। बल्लभाचार्य से इनकी भेंट वहीं पर हुई थी। "भावप्रकाश' में सूर का जन्म स्थान सीही नामक ग्राम बताया गया है। वे सारस्वत ब्राह्मण थे और जन्म के अंधे थे।

"आइने अकबरी' में (संवत् १६५३ वि०) तथा "मुतखबुत-तवारीख' के अनुसार सूरदास को अकबर के दरबारी संगीतज्ञों में माना है। 

 

अधिकतर विद्वानों का मत है कि सूर का जन्म सीही नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाद में ये आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे।

खंजन नैन रुप मदमाते ।अतिशय चारु चपल अनियारे, पल पिंजरा न समाते ।।चलि - चलि जात निकट स्रवनन के,उलट-पुलट ताटंक फँदाते ।"सूरदास' अंजन गुन अटके,नतरु अबहिं उड़ जाते ।।

क्या सूरदास अंधे थे ?

सूरदास श्रीनाथ भ की "संस्कृतवार्ता मणिपाला', श्री हरिराय कृत "भाव-प्रकाश", श्री गोकुलनाथ की "निजवार्ता' आदि ग्रन्थों के आधार पर, जन्म के अन्धे माने गए हैं। लेकिन राधा-कृष्ण के रुप सौन्दर्य का सजीव चित्रण, नाना रंगों का वर्णन, सूक्ष्म पर्यवेक्षणशीलता आदि गुणों के कारण अधिकतर वर्तमान विद्वान सूर को जन्मान्ध स्वीकार नहीं करते। 

श्यामसुन्दरदास ने इस सम्बन्ध में लिखा है - ""सूर वास्तव में जन्मान्ध नहीं थे, क्योंकि श्रृंगार तथा रंग-रुपादि का जो वर्णन उन्होंने किया है वैसा कोई जन्मान्ध नहीं कर सकता।'' डॉक्टर हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है - ""सूरसागर के कुछ पदों से यह ध्वनि अवश्य निकलती है कि सूरदास अपने को जन्म का अन्धा और कर्म का अभागा कहते हैं, पर सब समय इसके अक्षरार्थ को ही प्रधान नहीं मानना चाहिए।

रचनाएं

सूरदास की रचनाओं में निम्नलिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं -

१ सूरसागर २ सूरसारावली ३ साहित्य-लहरी ४ नल-दमयन्ती ५ ब्याहलो

उपरोक्त में अन्तिम दो ग्रंथ अप्राप्य हैं।

नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित पुस्तकों की विवरण तालिका में सूरदास के १६ ग्रन्थों का उल्लेख है। इनमें सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो के अतिरिक्त दशमस्कंध टीका, नागलीला, भागवत्, गोवर्धन लीला, सूरपचीसी, सूरसागर सार, प्राणप्यारी, आदि ग्रन्थ सम्मिलित हैं। इनमें प्रारम्भ के तीन ग्रंथ ही महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं।

 अज्ञेय का जीवन परिचय -

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'

अज्ञेय का जन्म 7 मार्च, 1911 को कसया में हआ। बचपन 1911 से ’15 तक लखनऊ में। शिक्षा का प्रारम्भ संस्कृत-मौखिक परम्परा से हुआ 1915 से ’19 तक  श्रीनगर और जम्मू में। यहीं पर संस्कृत पंडित से रघुवंश रामायण, हितोपदेश, फारसी मौलवी से शेख सादी और अमेरिकी पादरी से अंग्रेजी की शिक्षा घर पर शुरू हुई। शास्त्री जी को स्कूल शिक्षा में विश्वास नहीं था। बचपन में व्याकरण के पण्डित से मेल नहीं हुआ। घर पर धार्मिक अनुष्ठान स्मार्त ढंग से होते थे। बड़ी बहन जो लगभग आठ की थीं, जितना अधिक स्नेह करती थीं। उतना ही दोनों बड़े भाई (ब्रह्मानन्द और जीवानन्द जो’ 34 में दिवंगत हो गए) प्रतिस्पर्धा रखते थे। छोटे भाई वत्सराज के प्रति सच्चिदानन्द का स्नेह बचपन से ही था, 1919 में पिता के साथ नालन्दा आए, इसके बाद’ 25 तक पिता के ही साथ रहे, पिता जी ने हिन्दी सिखाना शुरू किया। वे सहज और संस्कारी भाषा के पक्ष में थे। हिन्दुस्तानी के सख़्त ख़िलाफ़ थे। नालन्दा से शास्त्री जी पटना आए और वहीं स्व- काशी प्रसाद जायसवाल और स्व. राखालदास वन्द्योपाध्याय से इस परिवार का सम्बन्ध हुआ, पटना में ही अंग्रेजी से विद्रोह का बीज सच्चिदानन्द के मन में अंकुरित हुआ।

शास्त्रीजी के पुराने मित्र रायबहादुर हीरालाल ही उनकी हिन्दी भाषा की लिखाई की जाँच करते। राखालदास के सम्पर्क में आने से बंग्ला की लिखाई की जाँच करते। राखालदास के संपर्क में आने से बंग्ला सीखी और इसी अवधि में इण्डियन प्रेस से छपी बाल रामायण बाल महाभारत, बालभोज इन्दिरा (बकिमचन्द्र) जैसी पुस्तकें पढ़ने को मिलीं और हरिनारायण आप्टे और राखालदास वन्द्योपाध्याय के ऐतिहासिक उपन्यास इसी अवधि में पढ़े गए। 1921-’25 तक ऊटकमंड में रहे यहां नीलिगिरि की श्यामल उपत्यका ने बहुत अधिक प्रभाव डाला। 1921 में उडिपी के मध्याचार्य के द्वारा इनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। इसी मठ के पण्डित ने छः महीने तक संस्कृत और तमिल की शिक्षा दी। इस समय ‘भड़ोत’ से ‘वात्स्यायन’ में परिवर्तन भी हुआ, जो प्राचीनतम संस्कार के नये उत्साह से जीने का एक संकल्प था। पिता ने संकीर्ण प्रदेशिका से ऊपर उठकर गोत्रनाम का प्रचलन कराया। इसी समय पहली बार गीता पढ़ी।

पिताजी के आग्रह से अन्य धर्मों के ग्रन्थ भी पढ़े और घर पर ही पिताजी के पुस्तकालयों का सदुपयोग शुरू किया। वर्ड्सवर्थ, टेनिसन, लांगफेलो और व्हिटमैन की कविताएं इस अवधि में पढ़ीं। शेक्सियर, मारलो, वेब्स्टर के नाटक तथा लिटन, जार्ज एलियट, थैकरे, गोल्डस्मिथ, तोल्स्तोय, तुर्गनेव, गोगोल, विक्टर ह्यूगो तथा मेलविल के उपन्यास भी पढ़े गये। लयबद्ध भाषा के कारण टेनिसन का प्रभाव बड़ा गहरा पड़ा। टेनिसन के अनुकरण में, अंग्रेजी में ढेरों कविताएं भी लिखीं। उपन्यासकारों में ह्यूगो का प्रभाव, विशेषकर उनकी रचना टॉयलर ऑफ़ द सी का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। इसी अवधि में विश्वेश्वर नाथ रेऊ तथा गौरीचन्द हीराचन्द ओझा की हिन्दी में लिखी इतिहास की रचनाएं पढ़ने को मिलीं तथा मीरा, तुलसी के साहित्य का अध्ययन भी इन्होंने किया। साहित्यिक कृतित्व के नाम पर इस अवधि की देन है आनन्द बन्धु जो इस परिवार की निजी पत्रिका थी। इस पत्रिका के समीक्षक थे हीरालाल जी और डॉ.. मौद्गिल। इस अवधि में एक छोटा उपन्यास भी लिखा और इसी अवधि में जब मैट्रिक की तैयारी ये कर रहे थे, मां के साथ इन्होंने जलियावाला बाग-काण्ड की घटना के आसपास पंजाब की यात्रा की थी और अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध विद्रोह की भावना ने जन्म लिया था। इनके पिताजी स्वयं अंग्रेजी की अधीनता की चुभन  कभी-कभी व्यक्त करते थे।

 एक घटना भी ब्लैकस्टोन नामक अंग्रेजी अधिकारी के साथ घट चुकी थी। वह शास्त्रीजी और राखालदास के साथ यात्रा कर रहा था। डिब्बे में राखालदास की पत्नी भी थीं। वह स्नानकक्ष से अर्धनग्न डिब्बे के भीतर आया। शास्त्रीजी ने उस से पूछा, ‘‘क्या इस रूप में तुम किसी अंग्रेज महिला के सामने आ सकते थे ?’ उत्तर में वह कुछ बोला नहीं, हंसता रहा। शास्त्रीजी ने उसे उठाकर डिब्बे से बाहर फेंक दिया। उसने आजीवन शत्रुता निभाई, यहां तक कि पिता द्वारा किए गए इस अपमान का बदला पुत्र से चुकाया, जब वे लाहौर किले में नज़रबन्द हुए। दूसरी घटना ऊटी में स्वंय सच्चिदानन्द के साथ घटी थी, जब वे दो-तीन महीने अंग्रेज़ों के साथ स्कूल में पढ़ने गए। वहां अंग्रेज लड़कों की मरम्मत करके ही इन्हें स्कूल में कार्ड मिला, जिसे फेंक कर ये घर चले आए। 1925 में पंजाब से मैट्रिक की प्राइवेट परीक्षा दी और उसी वर्ष इण्टरमीडिएट साइंस पढ़ने मद्रास क्रिश्चियन कालेज में दाखिल हुए। यहाँ उन्होंने गणित, भौतिकशास्त्र और संस्कृत विषय लिए थे। यहां इनके अंग्रेजी प्रोफेसर हेण्डरसन ने (जिन्हें त्रिशंकु समर्पित की गई) साहित्य के अध्ययन की प्रेरणा दी।

ये स्वयं भारत के भक्त थे। इन्हीं के साथ टैगोर अध्ययन-मण्डल की स्थापना की और रस्किन के सौन्दर्यशास्त्र तथा आचरणशास्त्र का अध्ययन किया। कला-क्षेत्रों के बीच घूमते-घूमते  स्थाप्तय और शिल्प दोनों का राग-बोध परिपक्व होता गया। दक्षिण के मन्दिर और नीलगिरि के दृश्य ने उनके व्यक्तित्व में प्रकृति-प्रेम और कलाप्रेम को निखार दिया। मद्रास में सामाजिक विषमता की चेतना जगने लगी थी और जाति के विरुद्ध विद्रोह मन में इसी अवधि में उमड़ना शुरू हुआ। शास्त्रीजी स्वयं जाति में विश्वास न कर के वर्ण में विश्वास करते थे और पुत्रों से आशा करते थे कि ब्राह्मणवर्ण का स्वभाव—त्याग, अभय और सत्य—उन्हें कभी नहीं छोड़ना चाहिए।

बचपन से किशोरावस्था तक की यह अवधि उलझन और आकुलता के बीच कठिन अध्यवसाय की अवधि है। एक ओर परिवार के और बाहर के अनेक प्रकार के प्रिय-अप्रिय प्रभावों ने उनके चित्त को उद्वेलित किया, तो दूसरी ओर पिता के कठिन अनुशासन ने परिश्रम में लगातार लगाए रख कर मन और शरीर को संयम में ढाला। बचपन में इन्हें ‘सच्चा’ के नाम से पुकारा जाता था और जब-जब इनकी सच्चाई पर विश्वास नहीं किया गया, इन्होंने मौन विद्रोह किया। एक बार की घटना ऐसी है कि बड़े भाई और इनमें होड़ लगी कि चौदह रोटी कौन खा सकता है ? बड़े भाई ने कहा कि तुम खाओ तो तुम्हें मैं इनाम दूँगा। ये खाने बैठे, पिता जी को इसकी सूचना मिली, उन्होंने बड़े भाई को डांटा और इनसे कहा कि तुम न खाओ, उठ जा। ये चौदह के आस-पास तक पहुंच रहे थे, अपने मन से उठे नहीं, इसलिए उन्होंने भाई से इनाम मांगा। उन्होंने देने से इन्कार किया तो मौन विरोध में इन्होंने खाना ही कम कर दिया इस प्रकार का आत्मपीड़क क्रोध इनमें बहुत दिनों तक रहा है। और अब भी किसी न किसी रूप में कभी न कभी उभर आता है। इसी क्रोध में आकर इन्होंने अपनी आर्थिक बर्बादी भी कम नहीं की।

1927 में लाहौर फॉरमन कॉलेज में ये बी. एस-सी. में भर्ती हुए। इसी कालेज में नवजवान भारत-सभा के सम्पर्क में आए और हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के प्रमुख सदस्य आज़ाद, सुखदेव और भगवतीचरण बोहरा से परिचय हुआ। इस कालेज में बी.एस-सी. तक तो ये सक्रिय रूप से कान्तिकारी आन्दोलन में प्रविष्ट नहीं हुए थे, यद्यपि 1929 में पं. मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का जो अधिवेशन लाहौर में हुआ, उस में ये स्वयं सेवक अफसर के रूप में मौजूद थे। यहीं इन्हीं के स्वयं सेवक दल ने उन लोगों को जबरदस्ती स्वयंसेवक कैम्प में बन्द रखा था, जो गांधीजी के उस प्रस्ताव का अप्रिय रूप में विरोध करने वाले थे, जो उन्होंने इरविन को बधाई देने के लिए रखा था। इसी स्वयंसेवक शिविर में कदाचित पहली बार कांग्रेस के मंच से ‘इन्कलाब ज़िन्दाबाद’ का नारा लगाया गया था।

1929 में बी.एस-सी. करके अंग्रेजी एम.ए. में दाखिल हुए। इसी साल से ये क्रान्तिकारी दल में भी प्रविष्ट हुए इनके साथ थे देवराज, कमलकृष्ण और वेदप्रकाश नन्दा। कालेज में जिन दो अध्यापकों ने सबसे अधिक इन्हें प्रभावित किया, वे थे, जे.एम. बनेड और डेनियल। जे.एम.बनेड ने तो इनके जेल जाने पर भी अपना स्नेह सम्बन्ध बनाए रखा। बनेड ने ही (यद्यपि वे भौतिकशास्त्र के अध्यापक थे) विभिन्न धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन की प्रेरणा दी।  प्रो. डेनियल ने इन्हें ब्राउनिंग की ओर उन्मुख किया। इनके क्रान्तिकारी जीवन की अवधि 1929 से आरम्भ होकर 1936 तक है। इस अवधि का अधिकांशतः इतिहास देश के इतिहास से सम्बद्ध है। उसमें कहने की इतनी बातें हैं कि यहां उन पर विस्तार से विचार करना अनावश्यक है। घटनाक्रम कुल यह है कि पहला क्रर्यक्रम इन का और इनके साथियों का भगतसिंह को छुड़ाने का हुआ। इस बीच में भगवती चरण वोहरा एक दुर्घटना में शहीद हुए और यह कार्यक्रम स्थगित हो गया।

दूसरा कार्यक्रम दिल्ली-हिमालयन-टॉयलेट्स फैक्ट्री के बहाने बम बनाने का कारखाना कायम करने का था। उस फैक्ट्री में अज्ञेय वैज्ञानिक के रूप में सलाहकार थे। तीसरा कार्यक्रम अमृतसर में पिस्तौल की मरम्मत और कारतूस भरने का कारखाना कायम करने का शुरू हुआ और यहीं देवराज और कमलकृष्ण के साथ 15 नवम्बर, 1930 को गिरफ्तार हुए। गिरफ्तारी के बाद एक महीने लाहौर किले में, फिर अमृतसर की हवालात में। यहीं से यातना शुरू हुई। आर्म्स ऐक्ट वाले मुकदमें में ये छूटे, पर दिल्ली में 1931 में नया मुकदमा शुरू किया गया। यह मुकदमा 1933 तक चलता रहा। दिल्ली जेल में ही काल-कोठरी में बन्द रहे और यहीं रह कर छायावाद से मनोविज्ञान, राजनीति अर्थशास्त्र और कानून—ये सारे विषय पढ़े। यहीं रहकर चिन्ता, विपथगा की अनेक कहानियां और शेखर लिखा; पर यह पूरी अवधि कुल ले-देकर घोर आत्ममन्थन, शारीरिक यातना और स्वप्नभंग की पीड़ा की अवधि रही।

 1934 की फरवरी में छूटे, फिर लाहौर में दूसरे कानून के अन्तर्गत नज़रबन्द किये गये। यहीं रह कर कोठरी की बात और चिन्ता की रचना की और इसी अवधि में कहानियों का छपना शुरू हुआ। 1934 के मध्य में घर के अन्दर नज़रबन्द हो गई और घर आने पर एक साथ छोटे भाई और माता की मृत्यु और पिता जी की नौकरी से निवृत्ति—इन सभी घटनाओं ने रोते चित्त में नये उद्वेलन पैदा किए नज़रबन्दी हटने तक ये डलहौजी़ और लाहौर रहे। सात साल के इस अर्से ने कई छाप छोड़ी हैं। रावी के पुल से छलांग मारने पर घुटने की टोपी उतरी और वह दर्द मौका पाते ही आज भी लौट आता है। क्रान्तिकारी जीवन के साथियों में जो लोग आदर्शच्युत हुए या जो टूटने लगे उनके कारण घोर आत्मपीड़न का भाव जाग गया और एकाकीपन का अभ्यास जो बढ़ा, वह अभी भी नहीं छूटा। अज्ञेय को अत्यधिक सामाजिकता इतनी असह्य है, इसका प्रमाण मैं स्वयं दे सकता हूं। कभी-कभी वे स्वागत-समारोहों के बाद लौटने पर ऐसा अनुभव करते हैं कि किसी यन्त्रणा से गुजर कर आए हैं। पर सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण छाप इस जीवन की उनकी राग अनुभूति को सघन बनाने में है। इस जीवन में प्रखर शक्ति और ताप जिस स्रोत से मिला था, उसके आकस्मिक निधन की चोट बड़ी गहरी पड़ी है।

यह वियोग उन्हीं के शब्दों में ‘स्थायी वियोग’ है। उस ‘अत्यन्तगता’ की स्मृति एक अमूल्य थाती है। इसी के सहारे हारिल का धर्म निभाना सबसे बड़ा पार्थिव धर्म उन्होंने जाना है। यह उन्होंने जाना और अपनी ‘मांग को स्वंय अपना खंडन’ माना। ‘आहुति बनकर’ ही उन्होंने प्रेम को ‘यज्ञ की ज्वाला’ के रूप में देखा। ‘वंचनाओं के दुर्ग के रुद्ध सिंहद्वार खोल कर मुक्त आकाश’ के लिए जो अदम्य आशा उनके चित्त में हमेशा भरती रहती है अपने को तटस्थ और एकाकी रख सकने का वह लम्बा अभ्यास। यह सही है कि शिल्प की दृष्टि से और भाषा की दृष्टि से इस अवधि की कविताओं पर छायावाद का गहरा प्रभाव है, पर साथ ही यह भी निर्विवाद है कि कथ्य छायावाद की भूमिका से बिलकुल अलग है। उसका आधार अरूप प्रेम नहीं, न मिटने वाली प्यास नहीं, रहस्य-अन्वेषण नहीं, है ऊर्जस्वी और मांसल प्रेम, प्रत्यंचा तोड़ धनुष का सन्धान (शक्ति के परे आत्मोत्सर्ग) और एक दुर्निवार ऊर्ध्वग ज्वाल। इस दृष्टि से इस अवधि को भट्ठी में गलाई की अवधि कहा जा सकता है।

गदहपचीसी पार करके 1936 में जब जीविका के लिए कर्मक्षेत्र में उतरे तो पहले एक आश्रम खोलने की बात सोची। पर पिता की एक डांट ने इस भिखमंगी से इन्हें विरत कर दिया। फिर सैनिक के सम्पादन-मण्डल में आए और वहां साल-भर रहे। इसी समय मेरठ के किसान आन्दोलन में भी काम किया और इस अवधि में रामविलास शर्मा, प्रकाश चन्द्र गुप्त, भारतभूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे और नेमिचन्द्र जैन से परिचय हुआ। राजनैतिक विचारों में भी उथल-पुथल शुरू हुई। गांधीजी के प्रति जहां श्रद्धा बिलकुल नहीं थी, वहां आदर-भाव जगा, पर कांग्रेस के मन्त्रिमण्डल में सम्मिलित न होने के पक्ष में न होते हुए भी, और सुभाष चन्द्र बसु के साथ त्रिपुरी में न्याय नहीं हुआ यह मानते हुए भी, सुभाष बाबू के लिए श्रद्धा न कर सके। जवाहरलाल नेहरू के खतरनाक विचार और खतरनाक जीवन के नारे ने पहले बहुत प्रभावित किया था, बाद में उनकी बौद्धिक सच्चाई की ही छाप मन में अधिक गहरी पड़ी।

1937 के अन्त में बनारसीदास चतुर्वेदी के आग्रह से विशाल भारत में गये। लगभग डेढ़ वर्ष कलकत्ता रहे। यहां सुधीन्द्र दत्त, बुद्धदेव बसु, हजारी प्रसाद द्विवेदी, बलराज साहनी और पुलिन सेन परिचय की परिधि में आए। कलकत्ता के महानगर का पहला अनुभव बहुत तीखा रहा। इसके विमानवीकृत पहलू ने इनके संवेदनशील चित्त को बहुत व्यथित किया। विशाल भारत को व्यक्तिगत कारणों से इन्होंने छोड़ा और 1939 में पिताजी के पास बड़ौदा गये। पिताजी ने विदेश जाकर अध्ययन पूरा करने के लिए कहा। इतने में ही महायुद्ध छिड़ गया और दिल्ली आल इण्डिया रेडियो में नौकरी करने चले आये। इसी अन्तराल में हिन्दी साहित्य के अनेकानेक आयामों और चक्रों से तो परिचित हुए ही, पत्रकारिता के आदर्श और व्यवहार के वैषम्य का भी साक्षात् अनुभव प्राप्त किया। इन आकाशवृत्तियों के लाभ मुख्यतः दो हुए। एक तो हिन्दी की साहित्यिक परिधि के भीतर पैठ और दूसरा-अपना जीवन-पथ निर्माण करने का एक विश्वास। यह विश्वास कुछ आवश्यकता से अधिक ही हुआ और इसी के कारण 1940 में एक बहुत बड़ी गलती सिविल मैरेज करके इन्होंने की। यह शादी बहुत बड़ी चुभन बनी। इस चुभन के कारण, कुछ अपने फ़ासिस्ट-विरोधी विश्वास के उफान में इन्होंने 1942 के आन्दोलन को उपयोगी न समझा और उसी साल दिल्ली में अखिल भारतीय फ़ासिस्ट-विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन के बाद में प्रगतिशील लेखक संघ का एक अलग गुट बन गया।

 पर उससे इनका सम्बन्ध नहीं था। शाहिद और ये एक साथ थे और कृश्नचन्दर, रामविलास और शिवदानसिंह दूसरी ओर। दोनों विचारधाराओं के लोग अलग-अलग उद्देश्यों से फासिस्ट-विरोधी युद्ध में शरीक हो रहे थे। युद्ध को गलत मानते हुए  सुरक्षात्मक युद्ध की अनिवार्यता ये मानते थे। इसीलिए अपने विश्वास को मात्र प्रमाणित करने के लिए युद्ध में 1943 में सम्मिलित हुए। युद्ध के पहले इनका समय अपनी पूर्वपत्नी से अलग मेरठ और दिल्ली में अधिक बीता था। युद्ध में जिस यूनिट में ये सम्मिलित हुए, उसका कार्य प्रतिरोध अभियान (रेजिस्टेंस मूवमेंट) की तैयारी करना था।

मुँशी प्रेमचन्द का जीवन परिचय (Premchand's Biography)

जन्म

प्रेमचन्द का जन्म ३१ जुलाई सन् १८८० को बनारस शहर से चार मील दूर समही गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे।

जीवन

धनपतराय की उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता के स्वर्गवास हो जाने के बाद से अपने जीवन के अन्त तक लगातार विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय को करना पड़ा। पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। आपका जीवन गरीबी में ही पला। कहा जाता है कि आपके घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था।

शादी

आपके पिता ने केवल १५ साल की आयू में आपका विवाह करा दिया। पत्नी उम्र में आपसे बड़ी और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने आपके जले पर नमक का काम किया। आप स्वयं लिखते हैं, "उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।......." उसके साथ - साथ जबान की भी मीठी न थी। आपने अपनी शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है "पिताजी ने जीवन के अन्तिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दिया: मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।" हालांकि आपके पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया।

विवाह के एक साल बाद ही पिताजी का देहान्त हो गया। अचानक आपके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। पाँच लोगों में विमाता, उसके दो बच्चे पत्नी और स्वयं। प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी। एक दिन ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने आपको अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।

शिक्षा

अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में आप अपने गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने - जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। इस दो रुपये से क्या होता महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया।

साहित्यिक रुचि

गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रेमचन्द के साहित्य की ओर उनके झुकाव को रोक न सकी। प्रेमचन्द जब मिडिल में थे तभी से आपने उपन्यास पढ़ना आरंभ कर दिया था। आपको बचपन से ही उर्दू आती थी। आप पर नॉवल और उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप बुकसेलर की दुकान पर बैठकर ही सब नॉवल पढ़ गए। आपने दो - तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों नॉवेलों को पढ़ डाला।

आपने बचपन में ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने हो गये कि जहाँ भी इनकी किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे। आपकी रुचि इस बात से साफ झलकती है कि एक किताब को पढ़ने के लिए आपने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती करली और उसकी दुकान पर मौजूद "तिलस्मे - होशरुबा" पढ़ डाली।

अंग्रेजी के अपने जमाने के मशहूर उपन्यासकार रोनाल्ड की किताबों के उर्दू तरजुमो को आपने काफी कम उम्र में ही पढ़ लिया था। इतनी बड़ी - बड़ी किताबों और उपन्यासकारों को पढ़ने के बावजूद प्रेमचन्द ने अपने मार्ग को अपने व्यक्तिगत विषम जीवन अनुभव तक ही महदूद रखा।

तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरु में आपने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह आपका साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ - साथ रहा।

प्रेमचन्द की दूसरी शादी

सन् १९०५ में आपकी पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई फिर वह कभी नहीं आई। विच्छेद के बावजूद कुछ सालों तक वह अपनी पहली पत्नी को खर्चा भेजते रहे। सन् १९०५ के अन्तिम दिनों में आपने शीवरानी देवी से शादी कर ली। शीवरानी देवी एक विधवा थी और विधवा के प्रति आप सदा स्नेह के पात्र रहे थे।

यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात् आपके जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। आपके लेखन में अधिक सजगता आई। आपकी पदोन्नति हुई तथा आप स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए। इसी खुशहाली के जमाने में आपकी पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ।

व्यक्तित्व

सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। अपने जीवन की परेशानियों को लेकर उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा "हमारा काम तो केवल खेलना है- खूब दिल लगाकर खेलना- खूब जी- तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे। किन्तु हारने के पश्चात् - पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास कह गए हैं, "तुम जीते हम हारे। पर फिर लड़ेंगे।" कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी-शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे।

जहां उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं "कि जाड़े के दिनों में चालीस - चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये। मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें।"

प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। आपको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुजारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी-शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।

ईश्वर के प्रति आस्था

जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे - धीरे वे अनीश्वरवादी से बन गए थे। एक बार उन्होंने जैनेन्दजी को लिखा "तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो - जा रहीं रहे पक्के भग्त बनते जा रहे हो। मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ।"

मृत्यू के कुछ घंटे पहले भी उन्होंने जैनेन्द्रजी से कहा था - "जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।"

प्रेमचन्द की कृतियाँ

प्रेमचन्द ने अपने नाते के मामू के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना लिखी। १३ साल की आयु में इस रचना के पूरा होते ही प्रेमचन्द साकहत्यकार की पंक्ति में खड़े हो गए। सन् १८९४ ई० में "होनहार बिरवार के चिकने-चिकने पात" नामक नाटक की रचना की। सन् १८९८ में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय "रुठी रानी" नामक दूसरा उपन्यास जिसका विषय इतिहास था की रचना की। सन १९०२ में प्रेमा और सन् १९०४-०५ में "हम खुर्मा व हम सवाब" नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा-जीवन और विधवा-समस्या का चित्रण प्रेमचन्द ने काफी अच्छे ढंग से किया।

जब कुछ आर्थिक निर्जिंश्चतता आई तो १९०७ में पाँच कहानियों का संग्रह सोड़ो वतन (वतन का दुख दर्द) की रचना की। जैसा कि इसके नाम से ही मालूम होता है, इसमें देश प्रेम और देश को जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तुत किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक मालूम हुई। इस समय प्रेमचन्द नायाबराय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नायाब राय की खोज शुरु हुई। नायाबराय पकड़ लिये गए और शासक के सामने बुलाया गया। उस दिन आपके सामने ही आपकी इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया और बिना आज्ञा न लिखने का बंधन लगा दिया गया।

इस बंधन से बचने के लिए प्रेमचन्द ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि वह अब कभी नयाबराय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचन्द नाम सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचन्द हो गये।

"सेवा सदन", "मिल मजदूर" तथा १९३५ में गोदान की रचना की। गोदान आपकी समस्त रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई अपनी जिन्दगी के आखिरी सफर में मंगलसूत्र नामक अंतिम उपन्यास लिखना आरंभ किया। दुर्भाग्यवश मंगलसूत्र को अधूरा ही छोड़ गये। इससे पहले उन्होंने महाजनी और पूँजीवादी युग प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए "महाजनी सभ्यता" नाम से एक लेख भी लिखा था।

मृत्यु

सन् १९३६ ई० में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। अपने इस बीमार काल में ही आपने "प्रगतिशील लेखक संघ" की स्थापना में सहयोग दिया। आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये जाने के कारण ८ अक्टूबर १९३६ में आपका देहान्त हो गया। और इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण-कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।

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