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ववव / Ved / Vedas "वववव" वव वववव वव: ववववव, ववववव ववववववव ववव वववव ववववववव वववव वव "वववव" वववव वव ववव वव 'ववव' वववववव वववव वव ववववववव वववववव ववववववव वव ववव वव, वववव ववववव वववववववव ववववववव ववव ववव ववववववव वव वव वववव वववववववव वव वववववववव वव ववववववव वववववव वव वववववववववव ववव वव वववववव वव ववववव ववववव वव वववववव वव ववव वववव वव ववव ववववववव वववव वव ववववव ववव वव ववववव ववववववव वव ववववव वववव वव वव वववव वव वववव ववववव ववव-ववववववववव वववववव वव ववव व ववव वव ववव वव वववववव वववव वव वववववववव वव वववववववव वववववववववव ववव ववव वव ववव वववववव ववव वव वववववव वववव ववव ववववववववव-ववववव ववव ववववववववववव 'ववववव वववव ' ववव 'वववववव वववववववव' वव ववव वववव वववववव ववववव वव ववव ववववववव वव ववववववववव वववववव 'ववव' वववव ववव वव वववव वववव वव ववववव (वववववववव) ववव वववववववववव ववववववव-वववववववववववव वववव वव ववव वव ववववव ववव ववववव ववव ववव वव ववव वववववववववववव ववव ववव, वववववववववव वववववव वव वववववववव वववव:ववव ववव ववव वव ववववव ववव वव, वव: वववव 'ववव' ववव ववववववव ववव वववववव वव वववववव 'वव-ववव-ववववव' वववव वव वववववव वव ववव वव वववववववववव वववव ववव ववव वव ववववववव ववव ववववव ववव वववववव ववववव वव वव वव 'वववव वववववव वववव व ववववववव0'- वववववववव वव वव वववव वव वववववववव ववव ववव ववव वववववव ववववव ववव ववव वव वववववववव ववववववववववववव ववववववववववव वववव वववववव वववववववववव वववव वववववववव ववव ववववव ववव वव 'वववववववववववववववववववववववववववववववववववववव वव ववववववव वववववव व ववव:' [1] ववववववव वववव वव वव 'ववववववव ववववववव ववववववववव वववववव0' [2] 'वववववववववव-वववववव' वववव वववववव ववव ववव ववव वव वव— वववव ववव ववववववववव ववववववववववव ववववववववववववववववव ववववववव ववववववववववववव वववववववववववववववववववववव ववववववववववव: [3] 'ववववववववव वववव' वव वववव वव- 'वववववववववववववव 0' 'ववववव ववव व ववववववव' [4] वववव वव वववववववव वव वव वव ववववववववव वव वव वववववव ववव वव वववववव ववववव वववववव वव वव 'वववववव वव वववव:' ववव वव वववव वव ववववव ववववव ववववव वव, वव: ववव वव ववववव ववव ववववव वववववववववववव वव ववववववव वव वव ववव ववव ववव - 'ववववववव वववववववव: ववववववव वववववववव:'* वव ववववव वव ववव ववववव वव वववववव ववव— ववववववववव ववववववववव वववववववववववववववव वव वववव:वववववववववववववववववववववववववववववववव:ववववववव वव ववववववव ववव वववववववव वव ववववव ववववववववव , वववववववव वव ववववव ववववववववववव , ववववववववववव वव ववववव वववव वववव वव ववववववववववव वव ववववव वववववववववव ववव ममममममममम ममम ममम मम मममममम ममममममम 1 ममममममममम - ममममम ममम ममममममममममम 2 ममममममममम ममम ममम मम मममममम

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वेद / Ved / Vedas "विवद"् का अर्थ� है: जानना, ज्ञान इत्यादिद वेद शब्द संस्कृत भाषा के "विवद"् धातु से बना है । 'वेद' विहन्दू धर्म� के प्राचीन पविवत्र ग्रंर्थों का नार्म है, इससे वैदिदक संस्कृवित प्रचलि-त हुई । ऐसी र्मान्यता है विक इनके र्मन्त्रों को परर्मेश्वर ने प्राचीन ऋविषयों को अप्रत्यक्ष रूप से सुनाया र्था । इसलि-ए वेदों को श्रुवित भी कहा जाता है । वेद प्राचीन भारत के वैदिदक का- की वालिचक परम्परा की अनुपर्म कृवित है जो पीढी दर पीढी विपछ-े चार-पाँच हज़ार वष@ से च-ी आ रही है । वेद ही विहन्दू धर्म� के सवBच्च और सवBपरिर धर्म�ग्रन्थ हैं । वेद के अस- र्मन्त्र भाग को संविहता कहते हैं । वेदवाड्र्मय-परिरचय एवं अपौरूषेयवाद'सनातन धर्म�' एवं 'भारतीय संस्कृवित' का रू्म- आधार स्तम्भ विवश्व का अवित प्राचीन और सव�प्रर्थर्म वाड्र्मय 'वेद' र्माना गया है। र्मानव जावित के -ौविकक (सांसारिरक) तर्था पारर्मार्थिर्थNक अभ्युदय-हेतु प्राकट्य होने से वेद को अनादिद एवं विनत्य कहा गया है। अवित प्राचीनका-ीन र्महा तपा, पुण्यपुञ्ज ऋविषयों के पविवत्रतर्म अन्त:करण र्में वेद के दश�न हुए रे्थ, अत: उसका 'वेद' नार्म प्राप्त हुआ। ब्रह्म का स्वरूप 'सत-लिचत-आनन्द' होने से ब्रह्म को वेद का पया�यवाची शब्द कहा गया है। इसीलि-ये वेद -ौविकक एवं अ-ौविकक ज्ञान का साधन है। 'तेने ब्रह्म हृदा य आदिदकवये0'- तात्पय� यह विक कल्प के प्रारम्भ र्में आदिद कविव ब्रह्मा के हृदय र्में वेद का प्राकट्य हुआ। सुप्रलिसद्ध वेदभाष्यकार र्महान पण्डिण्डत सायणाचाय� अपने वेदभाष्य र्में लि-खते हैं विक 'इष्टप्राप्त्यविनष्टपरिरहारयोर-ौविककर्मुपायं यो ग्रन्थो वेदयवित स वेद:'[1] विनरूक्त कहता है विक 'विवदन्तिन्त जानन्तिन्त विवद्यन्ते भवन्तिन्त0' [2] 'आय�विवद्या-सुधाकर' नार्मक ग्रन्थ र्में कहा गया है विक— वेदो नार्म वेद्यन्ते ज्ञाप्यन्ते धर्मा�र्थ�कार्मर्मोक्षा अनेनवेित व्युत्पत्त्या चतुव�ग�ज्ञानसाधनभूतो ग्रन्थविवशेष:॥ [3] 'कार्मन्दकीय नीवित' भी कहती है- 'आत्र्मानर्मन्तिन्वच्छ 0।' 'यस्तं वेद स वेदविवत्॥' [4] कहने का तात्पय� यह है विक आत्र्मज्ञान का ही पया�य वेद है। श्रुवित भगवती बत-ाती है विक 'अनन्ता वै वेदा:॥' वेद का अर्थ� है ज्ञान। ज्ञान अनन्त है, अत: वेद भी अनन्त हैं। तर्थाविप र्मुण्डकोपविनषद की र्मान्यता है विक वेद चार हैं- 'ऋग्वेदो यजुवiद: सार्मवेदो ऽर्थव�वेद:॥'* इन वेदों के चार उपवेद इस प्रकार हैं— आयुवiदो धनुवiदो गान्धव�श्र्चेवित ते त्रय:।स्थापत्यवेदर्मपरर्मुपवेदश्र्चतुर्विवNध:॥उपवेदों के कता�ओं र्में आयुवiद के कता� धन्वन्तरिर, धनुवiद के कता� विवश्वामिर्मत्र, गान्धव�वेद के कता� नारद र्मुविन और स्थापत्यवेद के कता� विवश्वकर्मा� हैं।

र्मनुस्र्मृवित र्में वेद ही श्रुवितअनुक्रर्म1 वेदवाड्र्मय - परिरचय एवं अपौरूषेयवाद 2 र्मनुस्र्मृवित र्में वेद ही श्रुवित 3 वेद ईश्वरीय या र्मानवविनर्मिर्मNत 4 दश�नशास्त्र के अनुसार 5 दश�नशास्त्र का र्मू- र्मन्त्र 6 वेद के प्रकार 7 टीका दिटप्पणी और संदभ�

र्मनुस्र्मृवित कहती है- 'श्रुवितस्तु वेदो विवजे्ञय:'* 'आदिदसृमिष्टर्मारभ्याद्यपय�न्तं ब्रह्मादिदभिभ: सवा�: सत्यविवद्या: श्रूयन्ते सा श्रुवित:॥'[5] वेदका-ीन र्महातपा सत्पुरुषों ने सर्मामिध र्में जो र्महाज्ञान प्राप्त विकया और जिजसे जगत के आध्यात्मित्र्मक अभ्युदय के लि-ये प्रकट भी विकया, उस र्महाज्ञान को 'श्रुवित' कहते है। श्रुवित के दो विवभाग हैं- वैदिदक और तान्तिन्त्रक- 'श्रुवितश्च विzविवधा वैदिदकी तान्तिन्त्रकी च।' र्मुख्य तन्त्र तीन र्माने गये हैं- र्महाविनवा�ण-तन्त्र, नारदपाञ्चरात्र-तन्त्र और कु-ाण�व-तन्त्र। वेद के भी दो विवभाग हैं- र्मन्त्र विवभाग और ब्राह्मण विवभाग- 'वेदो विह र्मन्त्रब्राह्मणभेदेन विzविवध:।'

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वेद के र्मन्त्र विवभाग को संविहता भी कहते हैं। संविहतापरक विववेचन को 'आरण्यक' एवं संविहतापरक भाष्य को 'ब्राह्मणग्रन्थ' कहते हैं। वेदों के ब्राह्मणविवभाग र्में' आरण्यक' और 'उपविनषद'- का भी सर्मावेश है। ब्राह्मणविवभाग र्में 'आरण्यक' और 'उपविनषद'- का भी सर्मावेश है। ब्राह्मणग्रन्थों की संख्या 13 है, जैसे ऋग्वेद के 2, यजुवiद के 2, सार्मवेद के 8 और अर्थव�वेद के 1 । र्मुख्य ब्राह्मणग्रन्थ पाँच हैं- ऐतरेय ब्राह्मण, तैभि}रीय ब्राह्मण, त-वकार ब्राह्मण, शतपर्थ ब्राह्मण और ताण्डय ब्राह्मण। उपविनषदों की संख्या वैसे तो 108 हैं, परंतु रु्मख्य 12 र्माने गये हैं, जैसे- ईश, केन, कठ, प्रश्न, र्मुण्डक, र्माण्डूक्य, तैभि}रीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक, कौषीतविक और शे्वताश्वतर। वेद ईश्वरीय या र्मानवविनर्मिर्मNतवेद पौरूषेय (र्मानवविनर्मिर्मNत) है या अपौरूषेय (ईश्वरप्रणीत)। वेद का स्वरूप क्या है? इस र्महत्त्वपूण� प्रश्न का स्पष्ट उ}र ऋग्वेद र्में इस प्रकार है-'वेद' परर्मेश्वर के रु्मख से विनक-ा हुआ 'परावाक' है, वह 'अनादिद' एवं 'विनत्य' कहा गया है। वह अपौरूषेय ही है। * इस विवषय र्में र्मनुस्र्मृवित कहती है विक अवित प्राचीन का- के ऋविषयों ने उत्कट तपस्या zारा अपने तप:पूत हृदय र्में 'परावाक' वेदवाड्र्मय का साक्षात्कार विकया र्था, अत: वे र्मन्त्रद्रष्टा ऋविष कह-ाये-'ऋषयो र्मन्त्रद्रष्टार:।' बृहदारण्यकोपविनषद र्में उल्-ेख है- 'अस्य र्महतो भूतस्य विनश्वलिसतरे्मतद्यदृग्वेदो यजुवiद: सार्मवेदोऽर्थवा�ग्डिग्डरस।' अर्था�त उन र्महान परर्मेश्वर के zारा (सृमिष्ट- प्राकट्य होने के सार्थ ही)–ऋग्वेद, यजुवiद, सार्मवेद और अर्थव�वेद विन:श्वास की तरह सहज ही बाहर प्रकट हुए। * तात्पय� यह है विक परर्मात्र्मा का विन:श्वास ही वेद है। इसके विवषय र्में वेद के र्महापण्डिण्डत सायणाचाय� अपने वेद भाष्य र्में लि-खते हैं- यस्य विन:श्वलिसतं वेदा यो वेदेभ्योऽग्डिख-ं जगत्।विनर्म�र्मे तर्महं वन्दे विवद्यातीर्थ� र्महेश्वरर्म्॥सारांश यह विक वेद पररे्मश्वर का विन:श्वास है, अत: परर्मेश्वर zारा ही विनर्मिर्मNत है। वेद से ही सर्मस्त जगत का विनर्मा�ण हुआ है। इसीलि-ये वेद को अपौरूषेय कहा गया है। सायणाचाय� के इन विवचारों का सर्मर्थ�न पाश्चात्य वेद विवzान प्रो0 विवल्सन, प्रो0 र्मैक्सरू्म-र आदिद ने अपने पुस्तकों र्में विकया है। प्रो0 विवल्सन लि-खते हैं विक 'सायणाचाय� का वेद विवषयक ज्ञान अवित विवशा- और अवित गहन है, जिजसकी सर्मकक्षता का दावा कोई भी यूरोपीय विवzान नहीं कर सकता।' प्रो0 र्मैक्सरू्म-र लि-खते हैं विक 'यदिद र्मुझे सायणाचाय�रविहत बृहद वेदभाष्य पढ़ने को नहीं मिर्म-ता तो र्मैं वेदार्थ@ के दुभiद्य वि�-ा र्में प्रवेश ही नहीं पा सका होता।' इसी प्रकार पाश्चात्त्य वेद विवzान वेबर, बेनफी, रार्थ, ग्राम्सन, -ुडविवग, विग्रविफर्थ, कीर्थ तर्था विवNटरविनत्ज आदिद ने सायणाचाय� के वेद विवचारों का ही प्रवितपादन विकया है। विनरूक्तकार 'यास्काचाय�' भाषाशास्त्र के आद्यपण्डिण्डत र्माने गये हैं। उन्होंने अपने र्महाग्रन्थ वेदभाष्य र्में स्पष्ट लि-खा है विक 'वेद अनादिद, विनत्य एवं अपौरूषेय (ईश्वरप्रणीत)ही है।' उनका कहना है विक 'वेद का अर्थ� सर्मझे विबना केव- वेदपाठ करना पशु की तरह पीठ पर बोझा ढोना ही है; क्योंविक अर्थ�ज्ञानरविहत शब्द (र्मन्त्र) प्रकाश (ज्ञान) नहीं दे सकता। जिजसे वेद-र्मन्त्रों का अर्थ�-ज्ञान हुआ है, उसी का -ौविकक एवं पार-ौविकक कल्याण होता है।' ऐसे वेदार्थ� ज्ञान का र्माग� दश�क विनरूक्त है। जर्म�नी के वेद विवzान प्रो0 र्मैक्सरू्म-र कहते हैं विक 'विवश्व का प्राचीनतर्म वाड्र्मय वेद ही है, जो दैविवक एवं आध्यात्मित्र्मक विवचारों को काव्यर्मय भाषा र्में अद्भतु रीवित से प्रकट करने वा-ा कल्याणप्रदायक है। वेद परावाक है।' विन:संदेह परर्मेश्वर ने ही परावाक (वेदवाणी) का विनर्मा�ण विकया है- ऐसा र्महाभारत र्में स्पष्ट कहा गया है-'अनादिदविनधना विवद्या वागुत्सृष्टा स्वयमु्भवा॥' * अर्था�त जिजसर्में से सव�जगत उत्पन्न हुआ, ऐसी अनादिद वेद-विवद्यारूप दिदव्य वाणी का विनर्मा�ण जगमिन्नर्मा�ता ने सव�प्रर्थर्म विकया। ऋविष वेद र्मन्त्रों के कता� नहीं अविपतु द्रष्टा ही र्थे- 'ऋषयो र्मन्त्रद्रष्टार:।' विनरूक्तकार ने भी कहा है- वेद र्मन्त्रों के साक्षात्कार होने पर साक्षात्कारी को ऋविष कहा जाता है- 'ऋविषद�श�नात्।' इससे स्पष्ट होता है विक वेद का कतृ�त्व अन्य विकसी के पास नहीं होने से वेद ईश्वरप्रणीत ही है, अपौरूषेय ही है।

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भारतीय दश�न शास्त्र के र्मतानुसार शब्द को विनत्य कहा गया है। वेद ने शब्द को विनत्य र्माना है, अत: वेद अपौरूषेय है यह विनभिश्चत होता है। विनरूक्तकार कहते हैं विक 'विनयतानुपूव्या� विनयतवाचो युक्तय:।' अर्था�त शब्द विनत्य है, उसका अनुक्रर्म विनत्य है और उसकी उच्चारण-पद्धवित भी विनत्य है, इसीलि-ये वेद के अर्थ� विनत्य हैं। ऐसी वेदवाणी का विनर्मा�ण स्वयं परर्मेश्वर ने ही विकया है। शब्द की चार अवस्थाए ँर्मानी गयी हैं- परा, पश्यन्ती, र्मध्यर्मा और वैखरी। ऋग्वेद- र्में इनके विवषय र्में इस प्रकार कहा गया है- चत्वारिर वाक् परिरमिर्मता पदाविन ताविन विवदुब्रा�ह्मणा ये र्मनीविषण:।गुहा त्रीभिण विनविहता नेग्डयन्तिन्त तुरीयं वाचो र्मनुष्य वदन्तिन्त॥अर्था�त वाणी के चार रूप होने से उन्हें ब्रह्मज्ञानी ही जानते हैं। वाणी के तीन रूप गुप्त हैं, चौर्था रूप शब्दर्मय वेद के रूप र्में -ोगों र्में प्रचारिरत होता है। * सूक्ष्र्मावितसूक्ष्र्म-ज्ञान को परावाक कहते हैं। उसे ही वेद कहा गया है। इस वेदवाणी का साक्षात्कार र्महा तपस्वी ऋविषयों को होने से इसे 'पश्यन्तीवाक' कहते हैं। ज्ञानस्वरूप वेद का आविवष्कार शब्दर्मय है। इस वाणी का सू्थ- स्वरूप ही 'र्मध्यर्मावाक' है। वेदवाणी के ये तीनों स्वरूप अत्यन्त रहस्यर्मय हैं। चौर्थी 'वैखरीवाक' ही सार्मान्य -ोगों की बो-चा- की है। शतपर्थ ब्राह्मण तर्था र्माण्डूक्योपविनषद र्में कहा गया है विक वेद र्मन्त्र के प्रत्येक पद र्में, शब्द के प्रत्येक अक्षर र्में एक प्रकार का अद्भतु सार्मर्थ्यय� भरा हुआ है। इस प्रकार की वेद वाणी स्वयं पररे्मश्वर zारा ही विनर्मिर्मNत है, यह विन:शंक है। लिशव पुराण र्में आया है विक ॐ के 'अ' कार, 'उ' कार, 'र्म' कार और सूक्ष्र्मनाद; इनर्में से ऋग्वेद, यजुवiद, सार्मवेद तर्था अर्थव�वेद विन:सृत हुए। सर्मस्त वाड्र्मय ओंकार (ॐ)- से ही विनर्मिर्मNत हुआ। 'ओंकारं विबNदुसंयुक्तर्म्' तो ईश्वररूप ही है। श्रीर्मद ्भगवद्गीता र्में भी ऐसा ही उल्-ेख है- र्ममिय सव�मिर्मदं प्रोतं सूते्र र्मभिणगणा इव॥ * श्रीर्मद्भागवत र्में तो स्पष्ट कहा गया है- वेदप्रभिणविहतो धर्मB ह्यधर्म�स्तविzपय�य:। वेदो नारायण: साक्षात् स्वयम्भूरिरवित शुश्रुर्म॥* अर्था�त वेद भगवान ने जिजन काय@ को करने की आज्ञा दी है वह धर्म� है और उससे विवपरीत करना अधर्म� है। वेद नारायण रूप र्में स्वयं प्रकट हुआ है, ऐसा श्रुवित र्में कहा गया है। श्रीर्मद्भागवत र्में ऐसा भी वर्णिणNत है- विवप्रा गावश्च वेदाश्च तप: सत्यं दर्म: शर्म:। श्रद्धा दया वितवितक्षा च क्रतवश्च हरेस्तनू:॥ * अर्था�त वेदज्ञ (सदाचारी भी) ब्राह्मण, दुधारू गाय, वेद, तप, सत्य, दर्म, शर्म, श्रद्धा, दया, सहनशी-ता और यज्ञ- ये श्रीहरिर (परर्मेश्वर) के स्वरूप हैं। र्मनुस्र्मृवित वेद को धर्म� का रू्म- बताते हुए कहती है- वेदोऽग्डिख-ो धर्म�रू्म-ं स्र्मृवितशी-े च तविzदार्म्। आचारशै्चव साधूनार्मात्र्मनस्तुमिष्टरेव च ॥* अर्था�त सर्मग्र वेद एवं वेदज्ञ र्मन,ु पराशर, याज्ञवल्क्य आदिद- की स्र्मृवित, शी-, आचार, साधु (धार्मिर्मNक)- के आत्र्मा का संतोष-ये सभी धर्म@ के र्मू- हैं। याज्ञवल्क्यस्र्मृवित र्में भी कहा गया है- श्रुवित: स्रृ्मवित: सदाचार: स्वस्य च विप्रयर्मात्र्मन:। स्म्यक्संकल्पज: कार्मो धर्म�र्मू-मिर्मदं स्र्मृतर्म्॥* अर्था�त श्रुवित, स्रृ्मवित, सत्पुरुषों का आचार, अपने आत्र्मा की प्रीवित और उ}र्म संकल्प से हुआ (धर्मा�विवरूद्ध) कार्म- ये पाँच धर्म� के र्मू- हैं। इसीलि-ये भारतीय संस्कृवित र्में वेद सव�शे्रष्ठ स्थान पर है। वेद का प्रार्माण्य वित्रका-ाबामिधत है। दश�नशास्त्र के अनुसारभारतीय आस्तिस्तक दश�नशास्त्र के र्मत र्में शब्द के विनत्य होने से उसका अर्थ� के सार्थ स्वयमू्भ-जैसा सम्बन्ध होता है। वेद र्में शब्द को विनत्य सर्मझने पर वेद को अपौरूषेय (ईश्वरप्रणीत) र्माना गया है। विनरूक्तकार भी इसका प्रवितपादन करते हैं। आस्तिस्तक दश�न ने शब्द को सव�श्रेष्ठ प्रर्माण र्मान्य विकया है। इस विवषय र्में र्मीर्मांसा- दश�न तर्था न्याय-दश�न के र्मत भिभन्न-भिभन्न हैं। जैमिर्मनीय र्मीर्मांसक, कुर्मारिर- आदिद र्मीर्मांसक, आधुविनक र्मीर्मांसक तर्था सांख्यवादिदयों के र्मत र्में वेद अपौरूषेय, विनत्य एवं स्वत:प्रर्माण हैं। र्मीर्मांसक वेद को स्वयमू्भ र्मानते हैं। उनका कहना है विक वेद की विनर्मिर्मNवित का प्रयत्न विकसी व्यलिक्त-विवशेष का अर्थवा ईश्वर का नहीं है। नैयामियक ऐसा सर्मझते हैं विक वेद तो ईश्वरप्रोक्त है। र्मीर्मांसक कहते हैं विक भ्रर्म, प्रर्माद, दुराग्रह इत्यादिद दोषयुक्त होने के कारण र्मनुष्य के zारा वेद-जैसे विनदBष र्महान ग्रन्थरत्न की रचना शक्य ही नहीं है। अत: वेद अपौरूषेय ही है। इससे आगे जाकर नैयामियक ऐसा प्रवितपादन करते हैं विक ईश्वर ने जैसे सृमिष्ट की, वैसे ही वेद का विनर्मा�ण विकया; ऐसा र्मानना उलिचत ही है। श्रुवित के र्मतानुसार वेद तो र्महाभूतों का विन:श्वास (यस्य विन:श्ववितसं वेदा...) है। श्वास-प्रश्वास स्वत: आविवभू�त होते हैं, अत: उनके लि-ये र्मनुष्य के प्रयत्न की अर्थवा बुजिद्ध की अपेक्षा नहीं होती। उस र्महाभूत का विन:श्वासरूप वेद तो अदृष्टवशात अबुजिद्धपूव�क स्वयं आविवभू�त होता है। वेद विनत्य-शब्द की संहृवित होने से विनत्य है और विकसी भी प्रकार से उत्पाद्य नहीं है; अत: स्वत: आविवभू�त वेद विकसी भी पुरुष से रचा हुआ न होने के कारण अपौरूषेय (ईश्वरप्रणीत) लिसद्ध होता है। इन सभी विवचारों को दश�न शास्त्र र्में अपौरूषेयवाद कहा गया है। अवैदिदक दश�न को नास्तिस्तक दश�न भी कहते हैं, क्योंविक वह वेद को प्रर्माण नहीं र्मानता, अपौरूषेय स्वीकार नहीं करता। उसका कहना है विक इह-ोक (जगत) ही आत्र्मा का क्रीडास्थ- है, पर-ोक (स्वग�) नार्म की कोई वस्तु नहीं है, 'कार्म एवैक: पुरुषार्थ�:'- कार्म ही र्मानव-जीवन का एकर्मात्र पुरुषार्थ� होता है, 'र्मरणर्मेवापवग�:'- र्मरण (र्मृत्यु) र्माने ही र्मोक्ष (र्मुलिक्त) है, 'प्रत्यक्षर्मेव प्रर्माणर्म्'- जो प्रत्यक्ष है वही प्रर्माण है (अनरु्मान प्रर्माण नहीं है)। धर्म� ही नहीं है, अत: अधर्म� नहीं है; स्वग�-नरक नहीं हैं। 'न परर्मेश्वरोऽविप कभिश्चत्'- परर्मेश्वर –जैसा भी कोई नहीं है,

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'न धर्म�: न र्मोक्ष:'- न तो धर्म� है न र्मोक्ष है। अत: जब तक शरीर र्में प्राण है, तब तक सुख प्राप्त करते हैं- इस विवषय र्में नास्तिस्तक चावा�क-दश�न स्पष्ट कहता है- यावज्जीवं सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं विपबेत्।भस्र्मीभूतस्य देहस्य पुनरागर्मनं कुत:॥[6] चावा�क-दश�न शब्द र्में 'चव�' का अर्थ� है-खाना। इस 'चव�' पद से ही 'खान-ेपीने और र्मौज' करने का संदेश देने वा-े इस दश�न का नार्म 'चावा�क-दश�न' पड़ा है। 'गुणरत्न' ने इसकी व्याख्या इस प्रकार से की है- परर्मेश्वर, वेद, पुण्य-पाप, स्वग�-नरक, आत्र्मा, र्मुलिक्त इत्यादिद का जिजसने 'चव�ण' (नार्मशेष) कर दिदया है, वह 'चावा�क-दश�न' है। इस र्मत के -ोगों का -क्ष्य स्वर्मतस्थापन की अपेक्षा परर्मतखण्डन के प्रवित अमिधक रहने से उनको 'वैतंविडक' कहा गया है। वे -ोग वेदप्रार्माण्य र्मानते ही नहीं। जगत, जीव, ईश्वर और र्मोक्ष- ये ही चार प्रर्मुख प्रवितपाद्य विवषय सभी दश�नों के होते हैं। आचाय� श्रीहरिरभद्र ने 'षड्दश�न-सर्मुच्चय' नार्म का अपने ग्रन्थ र्में न्याय, वैशेविषक, सांख्य, योग, र्मीर्मांसा और वेदान्त- इन छ: को वैदिदक दश�न (आस्तिस्तक-दश�न) तर्था चावा�क, बौद्ध और जैन-इन तीन को 'अवैदिदक दश�न' (नास्तिस्तक-दश�न) कहा है और उन सब पर विवस्तृत विवचार प्रस्तुत विकया है। वेद को प्रर्माण र्मानने वा-े आस्तिस्तक और न र्मानने वा-े नास्तिस्तक हैं, इस दृमिष्ट से उपयु�क्त न्याय-वैशेविषकादिद षड्दश�न को आस्तिस्तक और चावा�कादिद दश�न को नास्तिस्तक कहा गया है। दश�नशास्त्र का र्मू- र्मन्त्रदश�नशास्त्र का र्मू- र्मन्त्र है- 'आत्र्मानं विवजिद्ध।' अर्था�त आत्र्मा को जानो। विपण्ड-ब्रह्माण्ड र्में ओतप्रोत हुआ एकर्मेव आत्र्म-तत्व का दश�न (साक्षात्कार) कर -ेना ही र्मानव जीवन का अन्तिन्तर्म साध्य है, ऐसा वेद कहता है। इसके लि-ये तीन उपाय हैं- वेदर्मन्त्रों का श्रवण, र्मनन और विनदिदध्यासन- श्रोतव्य: श्रुवितवाक्येभ्यो र्मन्तव्यश्चोपपभि}भिभ:। र्मत्या तु सततं ध्येय एते दश�नहेतवे॥ इसीलि-ये तो र्मनीषी -ोग कहते हैं- 'यस्तं वेद स वेदविवत्।' अर्था�त ऐसे आत्र्मतत्त्व को जो सदाचारी व्यलिक्त जानता है, वह वेदज्ञ (वेद को जानने वा-ा) है। वेद के प्रकारऋग्वेद :वेदों र्में सव�प्रर्थर्म ऋग्वेद का विनर्मा�ण हुआ । यह पद्यात्र्मक है । यजुवiद गद्यर्मय है और सार्मवेद गीतात्र्मक है। ऋग्वेद र्में र्मण्ड- 10 हैं,1028 सूक्त हैं और 11 हज़ार र्मन्त्र हैं । इसर्में 5 शाखायें हैं - शाकल्प, वास्क-, अश्व-ायन, शांखायन, र्मंडूकायन । ऋग्वेद के दशर्म र्मण्ड- र्में औषमिध सूक्त हैं। इसके प्रणेता अर्थ�शास्त्र ऋविष है। इसर्में औषमिधयों की संख्या 125 के -गभग विनर्दिदNष्ट की गई है जो विक 107 स्थानों पर पायी जाती है। औषमिध र्में सोर्म का विवशेष वण�न है। ऋग्वेद र्में च्यवनऋविष को पुनः युवा करने का कर्थानक भी उद्धतृ है और औषमिधयों से रोगों का नाश करना भी सर्माविवष्ट है । इसर्में ज- लिचविकत्सा, वायु लिचविकत्सा, सौर लिचविकत्सा, र्मानस लिचविकत्सा एवं हवन zारा लिचविकत्सा का सर्मावेश है सार्मवेद : चार वेदों र्में सार्मवेद का नार्म तीसरे क्रर्म र्में आता है। पर ऋग्वेद के एक र्मन्त्र र्में ऋग्वेद से भी पह-े सार्मवेद का नार्म आने से कुछ विवzान वेदों को एक के बाद एक रचना न र्मानकर प्रत्येक का स्वतंत्र रचना र्मानते हैं। सार्मवेद र्में गेय छंदों की अमिधकता है जिजनका गान यज्ञों के सर्मय होता र्था। 1824 र्मन्त्रों कें इस वेद र्में 75 र्मन्त्रों को छोड़कर शेष सब र्मन्त्र ऋग्वेद से ही संकलि-त हैं। इस वेद को संगीत शास्त्र का र्मू- र्माना जाता है। इसर्में सविवता, अग्डिग्न और इन्द्र देवताओं का प्राधान्य है। इसर्में यज्ञ र्में गाने के लि-ये संगीतर्मय र्मन्त्र हैं, यह वेद रु्मख्यतः गन्धव� -ोगो के लि-ये होता है । इसर्में र्मुख्य 3 शाखायें हैं, 75 ऋचायें हैं और विवशेषकर संगीतशास्त्र का सर्मावेश विकया गया है । यजुवiद : इसर्में यज्ञ की अस- प्रविक्रया के लि-ये गद्य र्मन्त्र हैं, यह वेद रु्मख्यतः क्षवित्रयो के लि-ये होता है । यजुवiद के दो भाग हैं - कृष्ण : वैशम्पायन ऋविष का सम्बन्ध कृष्ण से है । कृष्ण की चार शाखायें है। शुक्- : याज्ञवल्क्य ऋविष का सम्बन्ध शुक्- से है । शुक्- की दो शाखायें हैं । इसर्में 40 अध्याय हैं । यजुवiद के एक र्मन्त्र र्में ‘ब्रीविहधान्यों’ का वण�न प्राप्त होता है । इसके अ-ावा, दिदव्य वैद्य एवं कृविष विवज्ञान का भी विवषय सर्माविहत है । अर्थव�वेद : इसर्में जादू, चर्मत्कार, आरोग्य, यज्ञ के लि-ये र्मन्त्र हैं, यह वेद रु्मख्यतः व्यापारिरयों के लि-ये होता है । इसर्में 20 काण्ड हैं । अर्थव�वेद र्में आठ खण्ड आते हैं जिजनर्में भेषज वेद एवं धातु वेद ये दो नार्म स्पष्ट प्राप्त हैं। टीका दिटप्पणी और संदभ�↑ अर्था�त इष्ट (इण्डिच्छत) फ- की प्रान्तिप्त के लि-ये और अविनष्ट वस्तु के त्याग के लि-ये अ-ौविकक उपाय (र्मानव-बुजिद्ध को अगम्य उपाय) जो ज्ञानपूण� ग्रन्थ लिसख-ाता है, सर्मझाता है, उसको वेद कहते हैं।

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↑ अर्था�त् जिजसकी कृपा से अमिधकारी र्मनुष्य (विzज) सविzद्या प्राप्त करते हैं, जिजससे वे विवzान हो सकते हैं, जिजसके कारण वे सविzद्या के विवषय र्में विवचार करने के लि-ये सर्मर्थ� हो जाते हैं, उसे वेद कहते हैं। ↑ अर्था�त पुरुषार्थ�चतुष्टय (धर्म�, अर्थ�, कार्म औ र्मोक्ष)- विवषयक सम्यक-ज्ञान होने के लि-ये साधन भूत ग्रन्थ विवशेष को वेद कहते हैं। ↑ अर्था�त् जिजस (नरपंुग्डव) को आत्र्मसाक्षात्कार विकNवा आत्र्मप्रत्यभिभज्ञा हो गया, उसको ही वेद का वास्तविवक ज्ञान होता है। ↑ अर्था�त सृमिष्ट के प्रारम्भ से -ेकर आज तक जिजसकी सहायता से बडे़-बडे़ ऋविष-र्मुविनयों को सत्यविवद्या ज्ञात हुई, उसे 'श्रुवित' कहते हैं। 'श्रु' का अर्थ� है 'सुनना', अत: 'श्रुवित' र्माने हुआ 'सुना हुआ ज्ञान।' ↑ अर्था�त जब तक देह र्में जीव है तब तक सुख पूव�क जीयें, विकसी से ऋण -े करके भी घी पीयें; क्योंविक एक बार देह (शरीर) र्मृत्यु के बाद जब भस्र्मीभूत हुआ, तब विफर उसका पुनरागर्मन कहाँ? अत: 'खाओ, पीओ और र्मौज करो'- यही है 'नास्तिस्तक-दश�न' या 'अवैदिदक-दश�न' का संदेश। इसको -ोकायत-दश�न, बाह�स्पत्य-दश�न तर्था चावा�क-दश�न भी कहते हैं।वेद का स्वरूप / Structure of Vedभारतीय र्मान्यता के अनुसार वेद सृमिष्टक्रर्म की प्रर्थर्म वाणी है।[1] फ-त: भारतीय संस्कृवितका र्मू- ग्रन्थ वेद लिसद्ध होता है। पाश्चात्य विवचारकों ने ऐवितहालिसक दृमिष्ट अपनाते हुए वेद को विवश्व का आदिद ग्रन्थ लिसद्ध विकया। अत: यदिद विवश्वसंस्कृवित का उद्गर्म स्त्रोत वेद को र्माना जाय तो कोई अत्युलिक्त नहीं है। वेद शब्द और उसका -क्षणात्र्मक स्वरूपशाग्डिब्दक विवधा से विवश्लेषण करने पर वेद शब्द की विनष्पभि} 'विवद-ज्ञाने' धातु से 'घञ्' प्रत्यय करने पर होती है। विवचारकों ने कहा है विक-जिजसके zारा धर्मा�दिद पुरुषार्थ�-चतुष्टय-लिसजिद्ध के उपाय बत-ाये जायँ, वह वेद है।[2] आचाय� सायण ने वेद के ज्ञानात्र्मक ऐश्वय� को ध्यान र्में रखकर -भिक्षत विकया विक- अभिभ-विषत पदार्थ� की प्रान्तिप्त और अविनष्ट-परिरहार के अ-ौविकक उपायको जो ग्रन्थ बोमिधत करता है, वह वेद है।[3] यहाँ यह ध्यातव्य है विक आचाय� सायणने वेद के -क्षण र्में 'अ-ौविककर्मुपायर््म' यह विवशेषण देकर वेदों की यज्ञर्मू-कता प्रकालिशत की है। आचाय� -ौगाभिक्ष भास्कर ने दाश�विनक दृमिष्ट रखते हुए- अपौरूषेय वाक्य को वेद कहा है।[4] आचाय� उदयन ने भी कहा है विक- जिजसका दूसरा रू्म- कहीं उप-ब्ध नहीं है और र्महाजनों अर्था�त् आस्तिस्तक -ोगों ने वेद के रूप र्में र्मान्यता दी हो, उन आनुपूवª विवलिशष्ट वाक्यों को वेद कहते हैं।[5] आपस्तम्बादिद सूत्रकारों ने वेद का स्वरूपावबोधक -क्षण करते हुए कहा है विक- वेद र्मन्त्र और ब्राह्मणात्र्मक हैं।[6] आचाय�चरण स्वार्मी श्रीकरपात्री जी र्महाराज ने दाश�विनक एवं यालिज्ञक दोनों दृमिष्टयों का सर्मन्वय करते हुए वेद का अद्भतु -क्षण इस प्रकार उपस्थाविपत विकया है-' शब्दावितरिरकं्त शब्दोपजीविवप्रर्माणावितरिरकं्त च यत्प्रर्माणं तज्जन्यप्रमिर्मवितविवषयानवितरिरक्तार्थ�को यो यस्तदन्यत्वे सवित आर्मुस्तिष्र्मकसुखजनकोच्चारणकत्वे सवित जन्यज्ञानाजन्यो यो प्रर्माणशब्दस्तत्त्वं वेदत्वर्म्।'[7] उपयु�क्त -क्षणों की विववेचना करने पर यह तर्थ्यय सार्मने आता है विक- ऐहकार्मुस्तिष्र्मक फ-प्रान्तिप्त के अ-ौविकक उपाय का विनदश�न करने वा-ा अपौरूषेय विवलिशष्टानुपूवªक र्मन्त्र-ब्राह्मणात्र्मक शब्दरालिश वेद है।

वेद के भागअनुक्रर्म1 वेद शब्द और उसका -क्षणात्र्मक स्वरूप 2 वेद के भाग 3 र्मन्त्रों कें -क्षण 4 ब्राह्मण के दो भेद हैं 5 अर्थ�वाद 6 वेद का विवभाजन 7 चार वेद और उनकी यज्ञपरकता 8 रचना - शै-ी 9 टीका दिटप्पणी और संदभ�

वेद के दो भाग र्मन्त्र और ब्राह्मण- आचाय@ ने सार्मान्यतया र्मन्त्र और ब्राह्मण-रूप से वेदों का विवभाजन विकया है।[8] इसर्में र्मन्त्रात्र्मक वैदिदक शब्दरालिश का र्मुख्य संक-न संविहता के नार्म से प्राचीन का- से व्यवहृत होता आया है। संविहतात्र्मक वैदिदक शब्दरालिश पर ही पदपाठ, क्रर्मपाठ एवं अन्य विवकृवितपाठ होते हैं। यज्ञों र्में संविहतागत र्मन्त्रों का ही प्रधान रूप से प्रयोग होता है।[9] आचाय� यास्क के अनुसार 'र्मन्त्र' शब्द र्मननार्थ�क 'र्मन'् धातु से विनष्पन्न है।[10] पाञ्चरात्र-संविहता के अनुसार र्मनन करने से जो त्राण करते हैं, वे र्मन्त्र हैं।[11]अर्थवा र्मत- अभिभर्मत पदार्थ� के जो दाता हैं, वे र्मन्त्र कह-ाते हैं। र्महर्विषN जैमिर्मविन ने र्मन्त्र का -क्षण करते हुए कहा है- 'तच्चोदकेषु र्मन्त्राख्या।' इसी को स्पष्ट करते हुए आचाय� र्माधव का कर्थन है विक-यालिज्ञक विवzानों का 'यह वाक्य र्मन्त्र है'-ऐसा सर्माख्यान(- नार्म विनदiश) र्मन्त्र का -क्षण है। तात्पय� यह है विक यालिज्ञक -ोग जिजसे र्मन्त्र कहें, वही र्मन्त्र है। वे यालिज्ञक -ोग अनुष्ठान के स्र्मारक आदिद वाक्यों के लि-ये र्मन्त्र शब्द का प्रयोग करते हैं।[12]

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आचाय� -ौगाभिक्ष भास्करने, अनुष्ठान (प्रयोग)- से सम्बद्ध (सर्मवेत) द्रव्य-देवतादिद (अर्थ�) का जो स्र्मरण कराते हैं, उन्हें र्मन्त्र कहा है। [13] इस प्रकार त}त् वैदिदक कर्म@ के अनुष्ठान का- र्में अनुषे्ठय विक्रया एवं उसके अंगभूत द्रव्य देवतादिदका प्रकाशन (स्र्मरण) ही र्मन्त्र का प्रयोजन है। यहाँ यह भी ध्यातव्य है विक शास्त्रकारों के अनुसार 'प्रयोगसर्मवेतार्थ�स्र्मारकत्व' र्मन्त्रों का दृष्ट प्रयोजन है, अत: यज्ञका- र्में र्मन्त्रों का उच्चारण अदृष्ट प्रयोजक है- यह कल्पना नहीं करनी चाविहये; क्योंविक दृष्ट फ- की सम्भावना के विवद्यर्मान रहने पर अदृष्ट फ- की कल्पना अनुलिचत होती है।[14] यहाँ यह प्रश्न उठता है विक र्मन्त्रों का जो अर्थ�-स्र्मरण-रूप दृष्ट प्रयोजन बत-ाया गया है, वह प्रकारान्तर से अर्था�त् ब्राह्मण-वाक्यों से भी प्राप्त हो जाता है; विफर तो र्मन्त्रोच्चारण व्यर्थ� हुआ? इस आक्षेप का सर्माधान शास्त्रकारों ने विनयर्म- विवमिध के आश्रयण से विकया है। उनका पक्ष है विक 'स्रृ्मत्वा कर्मा�भिण कुवªत' इस विवधायक वाक्य से त}त्कर्म@ के अनुष्ठानका- र्में विवविहत स्र्मरण के लि-ये उपायान्तर के अव-म्बन से त}त्प्रकरणपदिठत र्मन्त्रों का वैयर्थ्यय� आपवितत होता, अत: 'र्मन्त्रैरेव स्रृ्मत्वा कर्मा�भिण कुवªत' (र्मन्त्रों से ही स्र्मरण करके कर्म� करना चाविहये,)- यह विनयर्म विवमिध zारा स्वीकृत विकया जाता है।इसी प्रसंग को आचाय� यास्क ने अपने विनरूक्त ग्रन्थ र्में उठाकर उसके सर्माधान र्में एक व्यावहारिरक युलिक्त प्रस्तुत की है। उनका तक� है विक र्मनुष्यों की विवद्या (ज्ञान) अविनत्य है, अत: अविवगुण कर्म� के zारा फ-सम्प्रान्तिप्त –हेतु वेदों र्में र्मन्त्र- व्यवस्था है।[15] तात्पय� यह है विक इस सृमिष्ट र्में प्रत्येक र्मनुष्य बुजिद्ध ज्ञान, शब्दोच्चारण एवं स्वभावादिद र्में एक-दूसरे से विनतान्त भिभन्न एवं न्यूनामिधक है। ऐसी ण्डिस्थवित र्में यह सव�र्था सम्भव है विक सभी र्मनुष्य विवशुद्धतया एक-जैसा कर्मा�नुष्ठान नहीं कर सकते। यदिद कर्मा�नुष्ठान एक-रूप र्में नहीं विकया गया तो वह फ-दायक नहीं होगा- इस दुरवस्था को मिर्मटाने के लि-ये वैदिदक र्मन्त्रों के zारा कर्मा�नुष्ठान का विवधान विकया गया। चूँविक वेदों र्में विनयतानुपूवª हैं एवं स्वर वणा�दिद की विनभिश्चत उच्चारण-विवमिध है, अत: बुजिद्ध, ज्ञान एवं स्वभाव र्में भिभन्न रहने पर भी प्रत्येक र्मनुष्य उसे एकरूपतया गुरुर्मुखोच्चारणानुच्चारण विवमिध से अमिधगत कर उसी तरह कर्म� र्में प्रयोग करेगा, जिजसके फ-स्वरूप सभी को विनभिश्चत फ- की प्रान्तिप्त होगी। इस प्रकार र्मन्त्रों के zारा ही कर्मा�नुष्ठान विकया जाना सव�र्था तक� संगत एवं साम्यवादी व्यवस्था है। यालिज्ञक दृमिष्ट से र्मन्त्र चार प्रकार के होते हैं- करण र्मन्त्र, विक्रयर्माणानुवादिद र्मन्त्र, अनरु्मन्त्रण र्मन्त्र और जपर्मन्त्र। इनर्में जिजस र्मन्त्र के उच्चारणानन्तर ही कर्म� विकया जाता है, वह करण र्मन्त्र' है। यर्था-याज्या पुरोऽनुवाक् आदिद। कर्मा�नुष्ठान के सार्थ-सार्थ जो र्मन्त्र पढ़ा जाता है, वह 'विक्रयर्माणानुवादिद र्मन्त्र' होता है। यर्था-युवा सुवासा0 आदिद। जब यज्ञ र्में यूप-संस्कार विकया जाता है तभी यह र्मन्त्र पढ़ा जाता है। कर्म� के ठीक बाद जो र्मन्त्र पढ़ा जाता है, वह 'अनरु्मन्त्रण र्मन्त्र' कह-ाता है। यर्था- एको र्मर्म एका तस्य योऽस्र्मान् zेमिष्ट0 आदिद। यह र्मन्त्र द्रव्यत्याग रूप याग विकये जाने के ठीक बाद यजर्मान zारा पढ़ा जाता है। इनके अवितरिरक्त जो 'र्मयीदमिर्मवित यजर्मानो जपवित'[16] इत्यादिद वाक्यों zारा विवविहत समिन्नपत्योपकारक[17] र्मन्त्रों कें -क्षणर्मन्त्रों कें -क्षण के सम्बन्ध र्में वस्तु-ण्डिस्थवित का विवचार विकया जाय तो ज्ञात होता है। विक कोई भी -क्षण सटीक नहीं है। ऐसा इसलि-ये है विक वैदिदक र्मन्त्र नानाविवध हैं। [18] ही कारण है विक आपस्तम्बादिद आचाय@ ने ब्राह्मण भाग एवं अर्थ�वाद का -क्षण करने के अनन्तर कह दिदया- 'अतोऽन्तये र्मन्त्रा:'[19] अर्था�त इनके अवितरिरक्त सभी र्मन्त्र हैं। विवमिधभाग-र्मन्त्रावितरिरक्त वेद-भाग 'ब्राह्मण' पद से अभिभविहत विकया जाता है। ब्राह्मण शब्द 'ब्रह्मन्' शब्द से 'अण्' प्रत्यय करने पर नपंुसक लि-Nग र्में वेदरालिश के अभिभधायक अर्थ� र्में लिसद्ध होता है। आचाय� जैमिर्मविन ने ब्राह्मण का -क्षण करते हुए कहा है विक – र्मन्त्र से बचे हुए भाग र्में 'ब्राह्मण' शब्द का व्यवहार जानना चाविहये।[20] *आचाय� भट्ट-भास्कर के अनुसार कर्म� और कर्म� र्में प्रयुक्त होने वा-े र्मन्त्रों के व्याख्यान- ग्रन्थ ब्राह्मण हैं। [21] र्म 0 र्म 0 विवद्याधर शर्मा� जी के अनुसार- चारों वेदों के र्मन्त्रों के कर्म@ र्में विवविनयोजक, कर्म�विवधायक, नानाविवधानादिद इवितहास- आख्यानबहु- ज्ञान- विवज्ञानपूण� वेदभाग ब्राह्मण है [22] ब्राह्मण के दो भेद हैंविवमिध और अर्थ�वाद। आचाय� आपस्तम्बने दोनों का भेद प्रदर्थिशNत करते हुए कहा है- कर्म� की ओर पे्ररिरत करने वा-ी विवमिधयाँ ब्राह्मण है तर्था ब्राह्मण का शेष भाग अर्थ�वाद है।[23] आचाय� -ौगाभिक्ष भास्कर के अनुसार अज्ञात अर्थ� को अवबोमिधत करानेवा-े वेदभाग को विवमिध कहते हैं। [24] यर्था- 'अग्डिग्नहोत्रं जुहुयात् स्वग�कार्म:' अर्था�त स्वग�रूपी फ- की प्रान्तिप्त करने के लि-ये अग्डिग्नहोत्र करना चाविहये-यह विवमिधवाक्य, अन्य प्रर्माण से अप्राप्त स्वग� फ-युत होर्म का विवधान करता है, अत: अज्ञातार्थ�-ज्ञापक है। आचाय� सायण ने विवमिध के दो भेद बत-ाये हैं- 1- अप्रवृ}प्रवत�न-विवमिध और 2- अज्ञातार्थ�-ज्ञापन-विवमिध। इनर्में 'आग्नवैष्णवं पुरोडाशं विनव�ण�नादीक्षणीयर्म्' इत्यादिद कर्म�काण्डगत विवमिधयाँ अप्रवृ} की ओर प्रवृ} करने वा-ी हैं। 'आत्र्मा वा इदरे्मक एवाग्र आसीत्' इत्यादिद ब्रह्मकाण्डगत विवमिधयाँ प्रत्यक्षादिद अन्य प्रर्माणों से अज्ञात विवषय का ज्ञान कराने वा-ी हैं। यहाँ यह ध्यातव्य है विक आचाय� -ौगाभिक्ष भास्कर कर्म�काण्ड एवं ब्रह्मकाण्डगत सभी विवमिधयों को अज्ञातार्थ� ज्ञापन र्मानते हैं, विकNतु आचाय� सायण ने सूक्ष्र्म दृमिष्ट अपनाते हुए कर्म�काण्डगत विवमिधयों को 'अप्रवृ}वत�न-विवमिध' कहा और ब्रह्मकाण्डगत विवमिधयों को 'अज्ञातार्थ�-ज्ञापन-विवमिध' र्माना।[25]

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र्मीर्मांसादश�न र्में यालिज्ञक विवचार की दृमिष्ट से विवमिध- भाग के चार भेद र्माने गये हैं- उत्पभि}विवमिध, गुणविवमिध या विवविनयोग विवमिध, अमिधकारविवमिध और प्रयोगविवमिध। इनर्में जो वाक्य 'यह कर्म� इस प्रकार करना चाविहये' एवंविवध कर्म�स्वरूप-र्मात्र के अवबोधन र्में प्रवृ} हैं, वे 'उत्पभि}विवमिध' कहे जाते हैं, यर्था-'अग्डिग्नहोत्रं जुहोवित'। जो उत्पभि}विवमिध से विवविहत कर्म�सम्बन्धी द्रव्य और देवता के विवधायक हैं, वे 'गुणविवमिध' ('विवविनयोगविवमिध') कहे जाते हैं। यर्था- 'दध्रा जुहोवित'। जो उन-उन कर्म@ र्में विकस का अमिधकार है तर्था विकस फ- के उदे्दश्य से कर्म� करना चाविहये- यह बत-ाते हैं, वे 'अमिधकारविवमिध' कहे जाते हैं। यर्था- 'यस्याविहताग्नेरग्डिग्नगृ�हान् दहेत् सोऽग्नये क्ष्र्मावतेऽष्टाकपा-ं विनव�पेत्'। जो कर्म@ के अनुष्ठानक्रर्मादिदका बोधन कराते हैं, वे 'प्रयोगविवमिध' हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है विक प्रयोगविवमिध के वाक्य साक्षात उप-ब्ध नहीं होते, अविपतु प्रधान वाक्य (दश�पूण�र्मासाभ्यार्म्)- के सार्थ अंग-वाक्यों (सार्मधेयजवित0)- की एकवाक्यता होकर कण्डिल्पत वाक्य (प्रर्माणानुयाजादिदभिभरूपकृतवदभ््यां दश�पूण�र्मासाभ्यां स्वग�कार्मो यजेत) ही प्रयोगविवमिध का परिरचायक होता है। अर्थ�वादआचाय� आपस्तम्ब ने ब्राह्मण (कर्म� की ओर प्रवृ} करने वा-ी विवमिधयों)- से अवितरिरक्त को शेष अवलिशष्ट अर्थ�वाद कहा हैं।[26] अर्थ�संग्रहकार ने अर्थ�वाद का -क्षण करते हुए कहा है- प्रशंसा अर्थवा विनन्दापरक वाक्य को अर्थ�वाद कहते हैं।[27] यर्था- वायवु² के्षविपष्ठा देवता। स्तेनं र्मन: अनृतवादिदनी वाक्, आदिद। अर्थ�वाद-वाक्यों को -ेकर पाश्चात्य वेद-विवचार कों एवं कवितपय भारतीय विवचारकों ने वेद के प्रार्माण्य एवं उसकी र्मह}ा पर तीखे प्रहार विकये हैं। इसके र्मू- र्में आ-ोचकों का भारतीय लिचन्तन-दृमिष्ट से असम्पर्विकNत रहना है। भारतीय लिचन्तन-दृमिष्ट (र्मीर्मांसा)- र्में अर्थ�वाद विवधेय अर्थ� की प्रशंसा करता है। तर्था विनविषद्ध अर्थ� की विनन्दा। विकNतु इस काय� (प्रशंसा और विनन्दा)- र्में अर्थ�वाद र्मुख्यार्थ�zारा अपने तात्पया�र्थ� की अभिभव्यलिक्त नहीं करता, अविपतु शब्द की -क्षणा शलिक्त का आश्रय ग्रहण करता है। यहाँ यह भी ध्यातव्य है विक र्मीर्मांसक-दृमिष्ट से सर्मस्त वेद विक्रयापरक है[28] तर्था यागादिद विक्रया zारा ही अभीष्ट-प्रान्तिप्त एवं अविनष्टका परिरहार विकया जा सकता है। यत: 'स्वाध्यायोऽध्येतव्य:' इस विवधान से वेद के अन्तग�त ही अर्थ�वाद भी है, अत: उनको भी विक्रयापरक र्मानना उलिचत है। जैसा विक पह-े कहा गया है विक अर्थ�वाद का प्रयोजन विवधेयकी प्रशंसा एवं विनविषद्ध की विनन्दा र्में प्रकट होता है। विवधान एवं विनषेध विक्रया का ही होता है, अत: परम्परया अर्थ�वाद-वाक्य विक्रया (याग या धर्म�) परक होते हैं, अतएव उनका प्रार्माण्य एवं उपादेयता सव�र्था लिसद्ध है। इसी बात को आचाय� जैमिर्मविन ने इन शब्दों र्में कहा है- विवमिधना त्वेकवाक्यत्वात् स्तुत्यर्थiन विवधीनां स्यु:।[29] उन्नीसवीं शती के पूवा�ध� के बाद से पाश्चात्य नव्य वेदार्थ�- विवचार कों- बगा�इन आदिद ने भारतीय लिचन्तन की इस दृमिष्ट को सर्मझा तर्था उसके आ-ोक र्में नये लिसरे से वेदार्थ�-विवचार र्में दृमिष्ट डा-ी। प्राशस्त्य और विनन्दा से सम्बत्मिन्धत अर्थ�वाद-वाक्य क्रर्मश: विवमिधशेष एवं विनषेधशेष-रूप से अभिभविहत विकये गये हैं।[30] विवमिध अर्था�त विवधायक वाक्य, शेष- अर्थ�वाद-वाक्य दोनों मिर्म-कर एक सर्मग्र वाक्य की रचना करते हैं, जो विक विवलिशष्ट प्रभावोत्पादक बनता है। उदाहरणार्थ�-'वायव्यं शे्वतर्मा-भेत भूवितकार्म:' यह विवमिध-वाक्य है। इसका शेष- अर्थ�वाद वाक्य है- 'वायवु³ के्षविपष्ठा देवता'। यहाँ वायु की प्रशंसा विवमिधशेषात्र्मक अर्थ�वाद से गयी है। उपयु�क्त दोनों वाक्यों की एकवाक्यता करके -क्षणा zारा यह विवदिदत होता है विक वायुदेवता शीघ्रगार्मी हैं, अत: वे ऐश्वय� भी शीघ्र प्रदान करते हैं। अब इस विवलिशष्ट प्रभावोत्पादक अर्थ� को सुनकर अमिधकारी व्यलिक्त की प्रवृभि} होना स्वाभाविवक है। इसी प्रकार विनषेध-शेषात्र्मक अर्थ�वाद का भी साफल्य जानना चाविहये। अर्थ�वाद zारा प्रवितपादिदत विवषय-परीक्षण की दृमिष्ट से शास्त्र र्में इसके तीन भेद र्माने गये हैं- (1) गुणवाद, (2) अनुवाद और (3) भूतार्थ�वाद। गुणवाद नार्मक अर्थ�वाद र्में प्रवितपाद्य अर्थ� का प्रर्माणान्तर से विवरोध होता है। यर्था- 'आदिदत्यो यूप:'। यहाँ यूप का आदिदत्य के सार्थ अभेद प्रवितपादिदत है, जो विक प्रत्यक्षतया बामिधत है। अत: अर्थ� लिसजिद्ध के लि-ये ऐसे स्थ-ों पर -क्षणा का आश्रय -ेकर यूप का 'उज्ज्व-वादिदगुणयोगेनादिदत्यात्र्मकत्वर्म्' अर्थ� विकया जाता है। अनुवाद-संज्ञक अर्थ�वाद र्में पूव�परिरज्ञात या पूवा�नुभूत प्रर्माण से अर्थ� का बोध होता है, जबविक प्रवितपाद्य विवषय र्में केव- उसका 'अनुवाद' र्मात्र रहता है। उदारणार्थ�- 'अग्डिग्नर्विहNर्मस्य भेषजर््म' इस वाक्य र्में प्रत्यक्षतया लिसद्ध है विक अग्डिग्न शैत्य का औषध है। इस पूव�परिरज्ञात या पूवा�नुभूत विवषय (यत्र यत्राग्डिग्नस्तत्र तत्र विहर्मविनरोध:)- का प्रकाशन इस दृष्टान्त र्में है, अत: यह अनुवाद है। तृतीय भूतार्थ�वाद र्में भूतार्थ� का अर्थ� पूव�घदिटत विकसी यर्थार्थ� वस्तु के ज्ञापन से है। यहाँ गुणवाद अर्थ�वाद की भाँवित न तो विकसी प्रर्माणान्तर से विवरोध होता है और न ही अनुवाद अर्थ�वाद की भाँवित प्रर्माणान्तरावधारण होता है। अतएव शास्त्र र्में इसका -क्षण विकया गया है- 'प्रर्माणान्तर विवरोधतत्प्रान्तिप्तरविहतार्थ�बोधकोऽर्थ�वादो भूतार्थ�वाद:।' इसका दृष्टान्त है-'इन्द्रो वृत्राय वज्रर्मुदयच्छत्।' कहीं भी ऐसा प्रर्माण उप-ब्ध नहीं होता जिजससे इस कर्थन का विवरोध हो, अत: प्रर्माणान्तर-अविवरोध है, सार्थ ही ऐसा भी प्रर्माण नहीं है जिजससे इसका सर्मर्थ�न हो, अत: प्रर्माणान्तरावधारण भी नहीं है। इस प्रकार उभय पक्ष के अभाव र्में यह वाक्य भूतार्थ�वाद का उदाहरण है। अर्थ�वाद- भाग को आचाय� पारस्करने 'तक� ' शब्द से अभिभविहत विकया है।[31] आचाय� कक� ने 'तक� ' पद की व्याख्या करते हुए कहा विक जिजसके zारा संदिदग्ध अर्थ� का विनश्चय विकया जा सके, वह तक� अर्था�त अर्थ�वाद है।[32] इसका उदाहरण देते हुए कहा विक-'अक्ता शक� रा उपदधावित तेजो वै घृतर्म्' इस वाक्य र्में प्राप्त अञ्जन, तै- तर्था वसा आदिद द्रव्यों से भी सम्भव है, विकNतु 'तेजो वै घृतर््म' इस घृतसंस्तावक अर्थ�वाद-वाक्य से संदेह विनराकृत होकर घृत से अञ्जन करना यह ण्डिस्थर होता है। इस प्रकार अर्थ�वाद भाग र्महदुपकारक है। आपस्तम्ब, पारस्कर आदिद आचाय@ ने वेद के तीन ही भाग र्माने हैं- विवमिध, र्मन्त्र और अर्थ�वाद। अर्थ�- संग्रहकारने वेद के पाँच भाग र्माने हैं- विवमिध, र्मन्त्र, नार्मधेय, विनषेध और अर्थ�वाद।[33] नार्मधेय- जैसा विक संज्ञा से स्पष्ट हैं, नार्मधेय-प्रकरण र्में कवितपय नार्मों से जुडे़ हुए विवशेष भागों की आ-ोचना होती है। इनर्में 'उजिद्भदा यजेत पशुकार्म:','लिचत्रया यजेत पशुकार्म:','अग्डिग्नहोत्रं जुहोवित', 'श्येनेनाभिभचरन् यजेत'- ये चार वाक्य ही प्रर्मुख हैं। नार्मधेय विवजातीय की विनवृभि}पूव�क विवधेयार्थ� का विनश्चय कराता है।[34] यर्था- 'उजिद्भदा यजेत पशुकार्म:' इस वाक्य र्में

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पशु-रूप फ- के लि-ये याग का विवधान विकया गया है। यह याग वाक्यान्तर से अप्राप्त है और इस वाक्य zारा विवविहत विकया जा रहा है। यदिद इस वाक्य से 'उजिद्भद'् शब्द हटा दिदया जाय तो 'यजेत पशुकार्म:' यह वाक्य होगा, जिजसका अर्थ� है-'यागेन पशुं भावयेत्', विकNतु इससे याग-सार्मान्य का विवधान होगा जो विक अविवधेय है, क्योंविक याग विवशेष का नार्म अभिभविहत विकये विबना अनुष्ठान सम्भव नहीं है। 'उजिद्भदा' पदzारा इस प्रयोजन की पूर्वितN होती है, अत: 'उजिद्भद'् याग का नार्म हुआ तर्था याग-विवशेष का विनदiशक होने से विवधेयार्थ�-परिरचे्छद भी हुआ। नार्मधेयत्व चार कारणों से होता है-(1) र्मत्वर्थ�--क्षणा के भय से, (2) वाक्य भेद के भय से, (3) तत्प्रख्यशास्त्र से और (4) तद्व्यपदेश से। विनषेध- जो वाक्य पुरुष को विकसी विक्रया को करने से विनवृ} कराता है, उसे 'विनषेध' कहते हैं।[35] शास्त्रों ने नरकादिदको अनर्थ� र्माना है। इस नरक-प्रान्तिप्त का हेतु क-ञ्जभक्षणादिद है, अत: पुरुष को ऐसे काय@ से 'विनषेध-वाक्य' विनवर्वितNत करते हैं इस प्रकार अनर्थ� उत्पन्न करने वा-ी विक्रयाओं से पुरुष का विनवत�न कराना ही विनषेध-वाक्यों का प्रयोजन है। र्मन्त्र-ब्राह्मणात्र्मक (विवमिधर्मन्त्र-नार्मधेय-विनषेधार्थ�वाद-रूप) वेद र्में कवितपय विवचारकों ने ब्राह्मणभाग को वेद नहीं र्माना है। उनके प्रधान तक� ये हैं- (1)- ब्राह्मण-ग्रन्थ वेद नहीं हो सकते, क्योंविक उन्हीं का नार्म इवितहास, पुराण, कल्प, गार्था और नाराशंसी भी है। (2)- एक कात्यायन को छोड़कर विकसी अन्य ऋविष ने उनके वेद होने र्में साक्षी नहीं दी है। (3)- ब्राह्मण-भाग को भी यदिद वेद र्माना जाय तो 'छन्दोब्राह्मणाविन च तविzषयाभिण'[36] इत्यादिद पाभिणविन-सूत्र र्में 'छन्द:' शब्द के ग्रहण से ही ब्राह्मणों का भी ग्रहण हो जाने से अ-ग से 'ब्राह्मण' शब्द का उल्-ेख करना व्यर्थ� होगा। (4)- ब्राह्मण-ग्रन्थ चँूविक र्मन्त्रों के व्याख्यान हैं, अत: ईश्वरोक्त नहीं हैं, अविपतु र्महर्विषN -ोगों zारा प्रोक्त हैं।

इसके सर्माधान र्में यह कहना अत्यन्त संगत है विक ऐतरेय, शतपर्थ आदिद ब्राह्मणों को पुराण अर्थवा इवितहास नहीं कहा जाता; रार्मायण, र्महाभारत, विवष्णु पुराण आदिद को ही इवितहास, पुराण कहा जाता है। यदिद पुरातन अर्थ� के प्रवितपादक होने से तर्था ऐवितहालिसक अर्थ� के प्रवितपादक होने से इनको पुराण-इवितहास कहा जायगा तो इस तरह की संज्ञा से 'वेद' संज्ञा का कोई विवरोध नहीं है, 'वेद' संज्ञा के रहते हुए भी ब्राह्मण-भाग की पुराण-इवितहास संज्ञा भी हो सकती है। भारतीय दृमिष्ट से-भूत, भविवष्य और वत�र्मान सब कुछ वेद से ज्ञात होता है।[37] अत: जिजस प्रकार कम्बु-ग्रीवादिद से युक्त एक ही पदार्थ� के घट, क-श आदिद अनेक नार्मधेय होने से कोई विवरोध उपण्डिस्थत नहीं होता, उसी तरह एक ही ब्राह्मण-ग्रन्थ के वेद होने र्में और पुराण-इवितहास होने र्में कोई विवरोध नहीं है।[38] कात्यायनको छोड़कर विकसी अन्य ऋविष ने ब्राह्मणभाग के वेद होने र्में प्रर्माण नहीं दिदया है- यह कर्थन भी आधार रविहत है, क्योंविक भारतीय दृमिष्ट से विकसी भी आप्त ऋविष का प्रार्माण्य अव्याहत है। विफर ऐसी बात भी नहीं है विक अन्य ऋविषयों ने ब्राह्मण-भाग के वेदत्व को नहीं स्वीकारा है। आपस्तम्ब श्रौतसूत्र, सत्याषाढ श्रौतसूत्र, बौधायन गृह्यसूत्र आदिद ग्रन्थों र्में त}त् आचाय@ ने र्मन्त्र और ब्राह्मण दोनों को वेद र्माना है। अत: यह शंका विनर्मू�- लिसद्ध होती है। पाभिणविन के 'छन्दोब्राह्मणाविन0' इत्यादिद सूत्रों र्में 'छन्द:' शब्द से ही ब्राह्मण का ग्रहण र्मानने पर 'ब्राह्मणाविन' यह पद व्यर्थ� होगा, अत: यह कर्थन भी तक� -संगत नहीं है। आचाय� पाभिणविन ने 'छन्दस्' पद से र्मन्त्र और ब्राह्मण दोनों का ग्रहण विकया है, क्योंविक 'छन्दस्' इस अमिधकार र्में जो-जो आदेश, प्रत्यय, स्वर आदिद का विवधान विकया गया है, वे दोनों र्में पाये जाते हैं। जो काय� केव- र्मन्त्र-भाग र्में इष्ट र्था, उनके लि-ये सूत्रों र्में 'र्मन्त्रे' पद तर्था जो ब्राह्मण र्में इष्ट र्था उनके लि-ये 'ब्राह्मण' पद दिदया है। यह भी ध्यातव्य है विक 'छन्द:' पर यद्यविप र्मन्त्र-ब्राह्मणात्र्मक वेद का बोधक है, विकNतु कभी-कभी वे इनर्में से विकसी एक अवयव के भी बोधक होते हैं। र्महाभाष्य पस्पशामि·क एवं ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य र्में यह स्पष्ट विकया गया है विक सरु्मदायार्थ�क शब्दों की कभी-कभी उनके अवयवों के लि-ये भी प्रवृभि} देखी जाती है। यर्था-'पूव�पाञ्चा-, उ}रपाञ्चा- आदिद का प्रयोग।' अत: शास्त्र र्में छन्द अर्थवा वेद शब्द केव- र्मन्त्रभाग, केव- ब्राह्मण-भाग अर्थवा दोनों भागों के लि-ये प्रसंगानुसार प्रयुक्त होते हैं। ब्राह्मण-भाग र्मन्त्रों के व्याख्यान हैं, अत: वे वेदान्तग�त नहीं हो सकते- यह कर्थन भी सव�र्था असंगत है। र्मीर्मांसा एवं न्यायशास्त्र र्में वेद के जो विवषय-विवभाग विकये गये हैं- विवमिध, अर्थ�वाद, नार्मधेय और विनषेध, वे सभी र्मुख्यतया ब्राह्मण र्में ही घदिटत होते हैं। कृष्णयजुवiद की तैभि}रीय-संविहता आदिद र्में तो र्मन्त्र और ब्राह्मण सत्मिम्र्मलि-त-रूप र्में ही हैं। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है विक र्महाभाष्यकार पतञ्चलि- ने यह विवचार उठाया है विक व्याकरण केव- सूत्रों को कहना चाविहये या व्याख्यासविहत सूत्रों को? इसका लिसद्धान्त यही दिदया गया है विक व्याख्यासविहत सूत्र ही व्याकरण है। इसी प्रकार व्याख्या (ब्राह्मण)-सविहत र्मन्त्र वेद है। इसके अवितरिरक्त ब्राह्मण-भाग र्मात्र र्मन्त्रों का व्याख्यान नहीं करता; अविपतु यज्ञादिद कर्म@ की विवमिध, इवितकत�व्यता, स्तुवित तर्था ब्रह्मविवद्या आदिद का स्वतन्त्रतया विवधान करता है। अत: ब्राह्मण-भाग का वेदत्व सव�र्था अव्याहत है। र्मन्त्र-ब्राह्मणात्र्मक वेद के विवषय-सम्बन्धी तीन भेद परम्परा से च-े आ रहे हैं। इनर्में कर्म�काण्ड के प्रवितपादक भाग का नार्म 'ब्राह्मण', उपासनाकाण्ड के प्रवितपादक भाग का नार्म 'आरण्यक' तर्था ज्ञानकाण्ड के प्रवितपादक भाग का नार्म 'उपविनषद' है। वेद का विवभाजनभारतीय वाड्र्मय र्में बत-ाया गया है विक सृमिष्ट के प्रारम्भ र्में ऋग्यजु:सार्म-अर्थवा�त्र्मक वेद एकत्र संकलि-त र्था। सत युग, त्रेता युग तर्था zापर युग की -गभग सर्मान्तिप्त तक एकरूप वेद का ही अध्ययन-अध्यापन यर्थाक्रर्म च-ता रहा। zापर युग की सर्मान्तिप्त के कुछ वष@-पूव� र्महर्विषN व्यास ने भावी कलि- युग के व्यलिक्तयों की बुजिद्ध, शलिक्त और आयुष्य के ह्रास की ण्डिस्थवित को दिदव्य-दृमिष्ट से जानकर ब्रह्मपरम्परा से प्राप्त एकात्र्मक वेद का यज्ञ-विक्रयानुरूप चार विवभाजन विकया। इन चार विवभाजनों र्में उन्होंने होत्र कर्म� के उपयोगी र्मन्त्र एवं विक्रयाओं का संक-न ऋग्वेद के नार्म से, यज्ञ के आध्वय�व कर्म� (आन्तरिरक र्मू-स्वरूप-विनर्मा�ण) के उपयोगी र्मन्त्र एवं विक्रयाओं का संक-न यजुवiद के नार्म से, औद्गात्र कर्म� के उपयोगी र्मन्त्र एवं विक्रयाओं का संक-न सार्मवेद के नार्म से और शान्तिन्तक-पौमिष्टक अभिभ-ाषाओं (जातविवद्या)- के उपयोगी र्मन्त्र एवं विक्रयाओं का संक-न अर्थव�वेद के नार्म से विकया। इस विवभाजन र्में भगवती श्रुवित के वचन को ही आधार रखा गया। यहाँ यह ज्ञातव्य है विक सम्प्रवित प्रवत�र्मान वेद-शब्दरालिश का वैवस्वत र्मन्वन्तर र्में कृष्ण zैपायन र्महर्विषN व्यास zारा यह 28 वाँ विवभाजन है। अर्था�त्

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पौराभिणक र्मान्यता के अनुसार इकह}र चतुयु�गी का एक र्मन्वन्तर होता है। प्रत्येक चतुयु�गी के अन्तग�त zापरयुग की सर्मान्तिप्त र्में विवलिशष्ट तप:सम्पन्न र्महर्विषN के zारा एकात्र्मक वेद का चार विवभाजन अनवरत होता रहता है। यह विवभाजन कलि- युग के लि-ये होता है और कलि- युग के अन्त तक ही रहता है। सम्प्रवित र्मन्वन्तरों र्में सप्तर्म वैवस्वत नार्मक र्मन्वन्तर का यह 28 वाँ कलि- युग है। इसके पूव� 27 कलि-युग एवं 27 ही वेद विवभाग कता� वेदव्यास (विवभिभन्न नार्मों के) हो चुके हैं। वेदों का यह 28 वाँ उप-ब्ध विवभाजन र्महर्विषN पराशर के पुत्र कृष्णzैपायन के zारा विकया गया है। वेदों का विवभाजन करने के कारण ही उन र्महर्विषN को 'वेदव्यास' शब्द से जाना जाता है। चार वेद और उनकी यज्ञपरकतावेदविवभागकता� व्यासोपामिध-विवभूविषत र्महर्विषN कृष्णzैपायन ने यज्ञ-प्रयोजन की दृमिष्ट से वेद का ऋग्वेद-यजुवiद, सार्मवेद और अर्थव�वेद-यह विवभाजन प्रसारिरत विकया; क्योंविक भारतीय लिचन्तन र्में वेदों का अभिभप्रवत�न ही यज्ञ एवं उसके र्माध्यर्म से सर्मस्त ऐविहकार्मुस्तिष्र्मक फ-लिसजिद्ध के लि-ये हुआ है। वैदिदक यज्ञों का रहस्यात्र्मक स्वरूप क्या है एवं साक्षात्कृतधर्मा� ऋविषयों ने विकन बीजों zारा प्रकृवित से अभिभ-विषत पदार्थ@ का दोहन इस भौवितक यज्ञ के र्माध्यर्म से आविवष्कृत विकया, यह पृर्थक् विववेचनीय विवषय है। यहाँ स्थू-दृष्टया यह जानना है विक प्रत्येक छोटे (इमिष्ट) और बडे़ (सोर्म, अग्डिग्नचयन) यज्ञों र्में रु्मख्य चार ऋन्तित्वक्- होता, अध्वयु�, उद्गाता और ब्रह्मा होते हैं। बडे़ यज्ञों र्में एक-एक के तीन सहायक और होकर सो-ह ऋन्तित्वक् हो जाते हैं, विकNतु वे तीन सहायक उसी र्मुख्य के अन्तग�त र्मान लि-ये जाते हैं। इनर्में 'अध्वयु�' नार्मक ऋन्तित्वक् द्रव्य-देवतात्यागात्र्मक यज्ञस्वरूप का विनर्मा�ण यजुवiद से करता है। 'होता' नार्मक ऋन्तित्वक् यज्ञ के अपेभिक्षत शस्त्र (अप्रगीत र्मन्त्रसाध्य स्तुवित) एवं अन्य अंगक-ापों का अनुष्ठान ऋग्वेद zारा तर्था 'उद्गाता' नार्मक ऋन्तित्वक् स्तोत्र (गेय र्मन्त्रसाध्य स्तुवित) और उसके अंगक-ापों का अनुष्ठान सार्मवेद zारा करता है।'ब्रह्मा' नार्मक चतुर्थ� ऋन्तित्वक् यलिज्ञय कर्म@ के न्यूनादिद दोषों का परिरहार एवं शान्तिन्तक-पौमिष्टक-आभिभचारिरकादिद सव�विवध अभिभ-ाषा-सम्पूरक कर्म� अर्थव�वेद zारा सम्पादिदत करता है। वेद-त्रयी- कवितपय अवा�चीन वेदार्थ�-विवचारक 'सैषा त्रय्येव विवद्या तपवित' [39], 'त्रयी वै विवद्या' [40], 'इवित वेदास्त्रयस्त्रयी' इत्यादिद वचनों के zारा वेद वस्तुत: तीन हैं तर्था का-ान्तर र्में अर्थव�वेद को चतुर्थ� वेद के रूप र्में र्मान्यता दी गयी-ऐसी कल्पना करते हैं, विकNतु यह कल्पना भारतीय परम्परा से सव�र्था विवपरीत है। भारतीय आचाय@ ने रचना-भेद की दृमिष्ट से वेदचतुष्टयी का वित्रत्वर्में अन्तभा�व कर उसे -भिक्षत विकया है। रचना-शै-ीरचना-शै-ी तीन ही प्रकार की होती है- गद्य, पद्य और गान। इस दृमिष्ट से-छन्द र्में आबद्ध, पादव्यवस्था से युक्त र्मन्त्र 'ऋक्' कह-ाते हैं; वे ही गीवित-रूप होकर 'सार्म' कह-ाते हैं तर्था वृ} एवं गीवित से रविहत प्रण्डिश्लष्टपदिठत (-गद्यात्र्मक) र्मन्त्र 'चजुष्' कह-ाते हैं।[41] यहाँ यह ध्यातव्य है विक छन्दोबद्ध ऋग्डिग्वशेष र्मन्त्र ही अर्थवा�विगNरस हैं, अत: उनका ऋग्रूपा (पद्यात्मित्र्मका) रचना-शै-ी र्में ही अन्तभा�व हो जाता है और इस प्रकार वेदत्रयी की अन्वर्थ�ता होती है। वैदिदक वाङ्मय का शास्त्रीय स्वरूपसंस्कृत साविहत्य की शब्द-रचना की दृमिष्ट से 'वेद' शब्द का अर्थ� ज्ञान होता है, परंतु इसका प्रयोग साधारणतया ज्ञान के अर्थ� र्में नहीं विकया जाता। हर्मारे र्महर्विषNयों ने अपनी तपस्या के zारा जिजस 'शाश्वत ज्योवित' का परम्परागत शब्द-रूप से साक्षात्कार विकया, वही शब्द-रालिश 'वेद' है। वेद अनादिद हैं और परर्मात्र्मा के स्वरूप हैं। र्महर्विषNयों zारा प्रत्यक्ष दृष्ट होने के कारण इनर्में कहीं भी असत्य या अविवश्वास के लि-ये स्थान नहीं है। ये विनत्य हैं और र्मू- र्में पुरुष-जावित से असम्बद्ध होने के कारण अपौरूषेय कहे जाते हैं। [संपादिदत करें] प्रार्माभिणकतावेद अनादिद अपौरूषेय और विनत्य हैं तर्था उनकी प्रार्माभिणकता स्वत: लिसद्ध है, इस प्रकार का र्मत आस्तिस्तक लिसद्धान्तवा-े सभी पौराभिणकों एवं सांख्य, योग, र्मीर्मांसा और वेदान्त के दाश�विनकों का है। न्याय और वैशेविषक के दार्थिशNनकों ने वेद को अपौरूषेय नहीं र्माना है, पर वे भी इन्हें परर्मेश्वर (पुरुषो}र्म)- zारा विनर्मिर्मNत, परंतु पूवा�नुरूपी का ही र्मानते हैं। इन दोनों शाखाओं के दाश�विनकों ने वेद को परर्म प्रर्माण र्माना है और आनुपूवª (शब्दोच्चारणक्रर्म)- को सृमिष्ट के आरम्भ से -ेकर अब तक अविवण्डिच्छन्न-रूप से प्रवृ} र्माना है।

जो वेद को प्रर्माण नहीं र्मानते, वे आस्तिस्तक नहीं कहे जाते। अत: सभी आस्तिस्तक र्मतवा-े वेद को प्रर्माण र्मानने र्में एकर्मत हैं, केव- न्याय और वैशेविषक दाश�विनकों की अपौरूषेय र्मानने की शै-ी भिभन्न है। नास्तिस्तक दाश�विनकों ने वेदों को भिभन्न-भिभन्न व्यलिक्तयों zारा रचा हुआ ग्रन्थ र्माना है। चावा�क र्मतवा-ों ने तो वेद को विनत्मिष्क्रय -ोगों की जीविवका का साधन तक कह डा-ा है। अत: नास्तिस्तक दश�न वा-े वेद को न तो अनादिद न अपौरूषेय, और न विनत्य ही र्मानते हैं तर्था न इनकी प्रार्मभिणकता र्में ही विवश्वास करते हैं। इसीलि-ये वे नास्तिस्तक कह-ाते हैं। आस्तिस्तक दश�नशास्त्रों ने इस र्मत का युलिक्त, तक� एवं प्रर्माण से पूरा खण्डन विकया है। वेद चार हैंअनुक्रर्म1 वैदिदक वाङ्मय का शास्त्रीय स्वरूप 2 प्रार्माभिणकता 3 वेद चार हैं 4 त्रयी 5 श्रुवित - आम्नाय 6 चार वेद 7 कर्म�काण्ड र्में भिभन्न वगªकरण 8 वेदों का विवभाजन और शाखा - विवस्तार

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9 यालिज्ञक दृमिष्ट 10 अध्ययन - शै-ी 11 ऋविष , छन्द और देवता 11.1 ऋविष 11.2 छन्द 11.3 देवता 12 वेद के अंग , उपांग एवं उपवेद 13 विवशेष उपयोगी ग्रन्थ 14 श्रौतसूत्र 15 गृह्यसूत्र 16 धर्म�सूत्र 17 शुल्बसूत्र

वत�र्मान का- र्में वेद चार र्माने जाते हैं। उनके नार्म हैं- ॠग्वेद, यजुवiद, सार्मवेद और अर्थव�वेद। zापर युग की सर्मान्तिप्त के पूव� वेदों के उक्त चार विवभाग अ-ग-अ-ग नहीं र्थे। उस सर्मय तो 'ऋक्', 'यजु:' और 'सार्म'- इन तीन शब्द-शैलि-यों की संग्रहात्र्मक एक विवलिशष्ट अध्ययनीय शब्द-रालिश ही वेद कह-ाती र्थी। यहाँ यह कहना भी अप्रासंविगक नहीं होगा विक परर्मविपता परर्मेश्वर ने प्रत्येक कल्प के आरम्भ र्में सव�प्रर्थर्म ब्रह्माजी (परर्मेष्ठी प्रजापवित)- के हृदय र्में सर्मस्त वेदों का प्रादुभा�व कराया र्था, जो उनके चारों र्मुखों र्में सव�दा विवद्यर्मान रहते हैं। ब्रह्मा जी की ऋविष संतानों ने आगे च-कर तपस्या zारा इसी शब्द-रालिश का साक्षात्कार विकया और पठन-पाठन की प्रणा-ी से इनका संरक्षण विकया। त्रयीविवश्व र्में शब्द-प्रयोग की तीन ही शैलि-याँ होती हैं; जो पद्य (कविवता), गद्य और गान रूप से जन-साधारण र्में प्रलिसद्ध हैं। पद्य र्में अक्षर-संख्या तर्था पाद एवं विवरार्म का विनभिश्चत विनयर्म रहता है। अत: विनभिश्चत अक्षर-संख्या और पाद एवं विवरार्म वा-े वेद-र्मन्त्रों की संज्ञा 'ऋक्' है। जिजन र्मन्त्रों र्में छन्द के विनयर्मानुसार अक्षर-संख्या और पाद एवं विवरार्म ऋविषदृष्ट नहीं हैं, वे गद्यात्र्मक र्मन्त्र 'यजु:' कह-ाते हैं और जिजतने र्मन्त्र गानात्र्मक हैं, वे र्मन्त्र 'सार्म' कह-ाते हैं। इन तीन प्रकार की शब्द-प्रकाशन-शैलि-यों के आधार पर ही शास्त्र एवं -ोक र्में वेद के लि-ये 'त्रयी' शब्द का भी व्यवहार विकया जाता है। 'त्रयी' शब्द से ऐसा नहीं सर्मझना चाविहये विक वेदों की संख्या ही तीन हैं, क्योंविक 'त्रयी' शब्द का व्यवहार शब्द-प्रयोग की शै-ी के आधार पर है। श्रुवित-आम्नायवेद के पठन-पाठन के क्रर्म र्में गुरु र्मुख से श्रवण कर स्वयं अभ्यास करने की प्रविक्रया अब तक है। आज भी गुरु र्मुख से श्रवण विकये विबना केव- पुस्तक के आधार पर ही र्मन्त्राभ्यास करना विनन्दनीय एवं विनष्फ- र्माना जाता है। इस प्रकार वेद के संरक्षण एवं सफ-ता की दृमिष्ट से गुरु र्मुख से श्रवण करने एवं उसे याद करने का अत्यन्त र्महत्त्व है। इसी कारण वेद को 'श्रुवित' भी कहते हैं। वेद परिरश्रर्मपूव�क अभ्यास zारा संरक्षणीय है। इस कारण इसका नार्म 'आम्नाय' भी है। त्रयी, श्रुवित और आम्नाय- ये तीनों शब्द आस्तिस्तक ग्रन्थों र्में वेद के लि-ये व्यवहृत विकये जाते हैं। चार वेदउस सर्मय (zापरयुग की सर्मान्तिप्त के सर्मय) र्में भी वेद का पढ़ाना और अभ्यास करना सर- काय� नहीं र्था। कलि- युग र्में र्मनुष्यों की शलिक्तहीनता और कर्म आयु होने की बात को ध्यान र्में रखकर वेद पुरुष भगवान नारायण के अवतार श्रीकृष्णzैपायन वेदव्यास जी र्महाराज ने यज्ञानुष्ठान के उपयोग को दृमिष्टगत रखकर उस एक वेद के चार विवभाग कर दिदये और इन चारों विवभागों की लिशक्षा चार लिशष्यों को दी। ये ही चार विवभाग आजक- ऋग्वेद, यजुवiद और अर्थव�वेद के नार्म से प्रलिसद्ध हैं। पै-, वैशम्पायन, जैमिर्मविन और सुर्मन्तु नार्मक- इन चार लिशष्यों ने अपने-अपने अधीत वेदों के संरक्षण एवं प्रसार के लि-ये शाक- आदिद भिभन्न-भिभन्न लिशष्यों को पढ़ाया। उन लिशष्यों के र्मनोयोग एवं प्रचार के कारण वे शाखाए ँउन्हीं के नार्म से आज तक प्रलिसद्ध हो रही हैं। यहाँ यह कहना अनुलिचत नहीं होगा विक शाखा के नार्म से सम्बत्मिन्धत कोई भी र्मुविन र्मन्त्रद्रष्टा ऋविष नहीं है और न वह शाखा उसकी रचना है। शाखा के नार्म से सम्बत्मिन्धत व्यलिक्त का उस वेदशाखा की रचना से सम्बन्ध नहीं है, अविपतु प्रचार एवं संरक्षण के कारण सम्बन्ध है। कर्म�काण्ड र्में भिभन्न वगªकरणवेदों का प्रधान -क्ष्य आध्यात्मित्र्मक ज्ञान देना ही है, जिजससे प्राभिण र्मात्र इस असार संसार के बन्धनों के रू्म-भूत कारणों को सर्मझकर इससे र्मुलिक्त पा सके। अत: वेद र्में कर्म�काण्ड और ज्ञानकाण्ड –इन दोनों विवषयों का सवा�गीण विनरूपण विकया गया है। वेदों का प्रारस्तिम्भक भाग कर्म�काण्ड है और वह ज्ञानकाण्ड वा-े भाग से बहुत अमिधक है। कर्म�काण्ड र्में यज्ञानुष्ठान-सम्बन्धी विवमिध-विनषेध आदिद का सवा�गीण विववेचन है। इस भाग का प्रधान उपयोग यज्ञानुष्ठान र्में होता है। जिजन अमिधकारी वैदिदक विवzानों को यज्ञ कराने का यजर्मान zारा अमिधकार प्राप्त होता है, उनको 'ऋन्तित्वक्' कहते हैं। श्रौतयज्ञ र्में इन ऋन्तित्वजों के चार गण हैं। सर्मस्त ऋन्तित्वक् चार वग@ र्में बँटकर अपना-अपना काय� करते हुए यज्ञ को सवा�गींण बनाते हैं। गणों के नार्म हैं- होतृगण, अध्वयु�गण,

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उद्गातृगण और ब्रह्मगण। उपयु�क्त चारों गणों या वग@ के लि-ये उपयोगी र्मन्त्रों के संग्रह के अनुसार वेद चार हुए हैं। उनका विवभाजन इस प्रकार विकया गया है- ऋग्वेद- इसर्में होतृवग� के लि-ये उपयोगी र्मन्त्रों का संक-न है। इसका नार्म ऋग्वेद इसलि-ये पड़ा है विक इसर्में 'ऋक्' संज्ञक (पद्यबद्ध) र्मन्त्रों की अमिधकता है। इसर्में होतृवग� के उपयोगी गद्यात्र्मक (यजु:) स्वरूप के भी कुछ र्मन्त्र हैं। इसकी र्मन्त्र-संख्या अन्य वेदों की अपेक्षा अमिधक है। इसके कई र्मन्त्र अन्य वेदों र्में भी मिर्म-ते हैं। सार्मवेद र्में तो ऋग्वेद के र्मन्त्र ही अमिधक हैं। स्वतन्त्र र्मन्त्र कर्म हैं। यजुवiद- इसर्में यज्ञानुष्टान-सम्बन्धी अध्वयु�वग� के उपयोगी र्मन्त्रों का संक-न है। इसका नार्म यजुवiद इसलि-ये पड़ा है विक इसर्में 'गद्यात्र्मक' र्मन्त्रों की अमिधकता है। इसर्में कुछ पद्यबद्ध , र्मन्त्र भी हैं जो अध्वयु�वग� के उपयोगी हैं। इसके कुछ र्मन्त्र अर्थव�वेद र्में भी पाये जाते हैं। यजुवiद के दो विवभाग हैं- (1) शुक्-यजुवiद और (2) कृष्णयजुवiद। सार्मवेद- इसर्में यज्ञानुष्ठान के उद्गातृवग� के उपयोगी र्मन्त्रों का संक-न है। इसका नार्म सार्मवेद इसलि-ये पड़ा है विक इसर्में गायन-पद्धवित के विनभिश्चत र्मन्त्र ही हैं। इसके अमिधकांश र्मन्त्र ऋग्वेद र्में उप-ब्ध होते हैं, कुछ र्मन्त्र स्वतन्त्र भी हैं। अर्थव�वेद- इसर्में यज्ञानुष्ठान के ब्रह्मवग� के उपयोगी र्मन्त्रों का संक-न है। इस ब्रह्मवग� का काय� है यज्ञ की देख-रेख करना, सर्मय-सर्मय पर विनयर्मानुसार विनदiश देना, यज्ञ र्में ऋन्तित्वजों एवं यजर्मान के zारा कोई भू- हो जाय या कर्मी रह जाय तो उसका सुधार या प्रायभिश्च} करना। अर्थव� का अर्थ� है कमिर्मयों को हटाकर ठीक करना या कर्मी-रविहत बनाना। अत: इसर्में यज्ञ-सम्बन्धी एवं व्यलिक्त-सम्बन्धी सुधार या कर्मी-पूर्वितN करने वा-े भी र्मन्त्र हैं। इसर्में पद्यात्र्मक र्मन्त्रों के सार्थ कुछ गद्यात्र्मक र्मन्त्र भी उप-ब्ध हैं। इस वेद का नार्मकरण अन्य वेदों की भाँवित शब्द-शै-ी के आधार पर नहीं है, अविपतु इसके प्रवितपाद्य विवषय के अनुसार है। इस वैदिदक शब्दरालिश का प्रचार एवं प्रयोग र्मुख्यत: अर्थव� नार्म के र्महार्विषN zारा विकया गया। इसलि-ये भी इसका नार्म अर्थव�वेद है। कुछ र्मन्त्र सभी वेदों र्में या एक-दो वेदों र्में सर्मान-रूप से मिर्म-ते हैं, जिजसका कारण यह है विक चारों वेदों का विवभाजन यज्ञानुष्ठान के ऋन्तित्वक जनों के उपयोगी होने के आधार पर विकया गया है। अत: विवभिभन्न यज्ञावसरों पर विवभिभन्न वग@ के ऋन्तित्वजों के लि-ये उपयोगी र्मन्त्रों का उस वेद र्में आ जाना स्वाभाविवक है, भ-े ही वह र्मन्त्र दूसरे ऋन्तित्वक के लि-ये भी अन्य अवसर पर उपयोगी होने के कारण अन्यत्र भी मिर्म-ता हो। वेदों का विवभाजन और शाखा-विवस्तारआधुविनक विवचारधारा के अनुसार चारों वेदों की शब्द रालिश के विवस्तार र्में तीन दृमिष्टयाँ पायी जाती हैं- यालिज्ञक दृमिष्ट, प्रायोविगक दृमिष्ट और साविहन्तित्यक दृमिष्ट। यालिज्ञक दृमिष्टइसके अनुसार वेदोक्त यज्ञों का अनुष्ठान ही वेद के शब्दों का र्मुख्य उपयोग र्माना गया है। सृमिष्ट के आरम्भ से ही यज्ञ करने र्में साधारणतया र्मन्त्रोच्चारण की शै-ी, र्मन्त्राक्षर एवं कर्म�-विवमिध र्में विवविवधता रही है। इस विवविवधता के कारण ही वेदों की शाखा का विवस्तार हुआ है। प्रत्येक वेद की अनेक शाखाए ँबतायी गयी हैं। यर्था-ऋग्वेद की 21 शाखा, यजुवiद की 101 शाखा, सार्मवेद की 1,000 शाखा और अर्थव�वेद की 9 शाखा- इस प्रकार कु- 1,131 शाखाए ँहैं। इस संख्या का उल्-ेख र्महर्विषN पतञ्जलि- ने अपने र्महाभाष्य र्में भी विकया है। अन्य वेदों की अपेक्षा ऋग्वेद र्में र्मन्त्र-संख्या अमिधक है, विफर भी इसका शाखा-विवस्तार यजुवiद और सार्मवेद की अपेक्षा कर्म है। इसका कारण यह है विक ऋग्वेद र्में देवताओं के स्तुवित रूप र्मन्त्रों का भण्डार है। स्तुवित-वाक्यों की अपेक्षा कर्म�प्रयोग की शै-ी र्में भिभन्नता होनी स्वाभाविवक है। अत: ऋग्वेद की अपेक्षा यजुवiद की शाखाए ँअमिधक हैं। गायन-शै-ी की शाखाओं का सवा�मिधक होना आश्चय�जनक नहीं है। अत: सार्मवेद की 1000 शाखाए ँबतायी गयी हैं। फ-त: कोई भी वेद शाखा-विवस्तार के कारण एक-दूसरे से उपयोविगता, श्रद्धा एवं र्महत्त्व र्में कर्म-ज़्यादा नहीं है। चारों का र्महत्व सर्मान है। उपयु�क्त 1,131 शाखाओं र्में से वत�र्मान र्में केव- 12 शाखाए ँही रू्म- ग्रन्थों र्में उप-ब्ध हैं। वे हैं— ऋग्वेद की 21 शाखाओं र्में से केव- 2 शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- शाक--शाखा और शांखायन-शाखा। यजुवiद र्में कृष्णयजुवiद की 86 शाखाओं र्में से केव- 4 शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त हैं- तैभि}रीय शाखा, र्मैत्रायणीय शाखा, कठ शाखा और कविपष्ठ- शाखा।

शुक्-यजुवiद की 15 शाखाओं र्में से केव- 2 शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त हैं- र्माध्यजिन्दनीय-शाखा और काण्व-शाखा। सार्मवेद की 1000 शाखाओं र्में से केव- 2 शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- कौर्थुर्म-शाखा और जैमिर्मनीय-शाखा। अर्थव�वेद की 9 शाखाओं र्में से केव- 2 शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- शौनक-शाखा और

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पैप्प-ाद-शाखा। अध्ययन-शै-ीउपयु�क्त 12 शाखाओं र्में से केव- 6 शाखाओं की अध्ययन-शै-ी प्राप्त है, जो नीचे दी जा रही है- ऋग्वेद र्में केव- शाक--शाखा, कृष्णयजुवiद र्में केव- तैभि}रीय शाखा और शुक्-यजुवiद र्में केव- र्माध्यजिन्दनीय शाखा तर्था काण्व-शाखा, सार्मवेद र्में केव- कौर्थुर्म-शाखा, अर्थवiवेद र्में केव- शौनक-शाखा। यह कहना भी अनुपयुक्त नहीं होगा विक अन्य शाखाओं के कुछ और भी ग्रन्थ उप-ब्ध हैं, विकNतु उनसे उस शाखा का पूरा परिरचय नहीं मिर्म- सकता एवं बहुत-सी शाखाओं के तो नार्म भी उप-ब्ध नहीं हैं। कृष्णयजुवiद की र्मैत्रायणी शाखा र्महाराष्ट्र र्में तर्था सार्मवेद की जैमिर्मनीय शाखा केर- के कुछ व्यलिक्तयों के ही उच्चारण र्में सीमिर्मत हैं। प्रायोविगक दृमिष्ट इसके अनुसार प्रत्येक शाखा के दो भाग बताये गये हैं। एक र्मन्त्र-भाग और दूसरा ब्राह्मण-भाग। र्मन्त्र-भाग र्मन्त्र-भाग उस शब्दरालिश को कहते हैं, जो यज्ञ र्में साक्षात्-रूप से प्रयोग र्में आती है। ब्राह्मण-भाग ब्राह्मण शब्द से उस शब्दरालिश का संकेत है, जिजसर्में विवमिध (आज्ञाबोधक शब्द), कर्था, आख्यामियका एवं स्तुवित zारा यज्ञ कराने की प्रवृभि} उत्पन्न कराना, यज्ञानुष्ठान करने की पद्धवित बताना, उसकी उपपभि} और विववेचन के सार्थ उसके रहस्य का विनरूपण करना है। इस प्रायोविगक दृमिष्ट के दो विवभाजनों र्में साविहन्तित्यक दृमिष्ट के चार विवभाजनों का सर्मावेश हो जाता है। साविहन्तित्यक दृमिष्ट इसके अनुसार प्रत्येक शाखा की वैदिदक शब्द-रालिश का वगªकरण- संविहता वेद का जो भाग प्रवितदिदन विवशेषत: अध्ययनीय है, उसे 'संविहता' कहते हैं। इस शब्द रालिश का उपयोग श्रौत एवं स्र्मात� दोनों प्रकार के यज्ञानुष्ठानों र्में होता है। प्रत्येक वेद की अ-ग-अ-ग शाखा की एक-एक संविहता है। वेदों के अनुसार उनको- ऋग्वेद-संविहता, यजुवiद- संविहता, सार्मवेद-संविहता और अर्थव�वेद-संविहता कहा जाता है। इन संविहताओं के पाठ र्में उनके अक्षर, वण�, स्वर आदिद का विकNलिचत र्मात्र भी उ-ट-पु-ट न होने पाये, इसलि-ये प्राचीन अध्ययन-अध्यापन के सम्प्रदाय र्में संविहता-पाठ, पद-पाठ, क्रर्म-पाठ-ये तीन प्रकृवित पाठ और जटा, र्मा-ा, लिशखा, रेखा, ध्वज, दण्ड, रर्थ तर्था घन- ये आठ विवकृवित पाठ प्रचलि-त हैं। ब्राह्मण वह वेद-भाग जिजसर्में विवशेषतया यज्ञानुष्ठान की पद्धवित के सार्थ-ही-सार्थ तदुपयोगी प्रवृभि} का उद्बोधन कराना, उसको दृढ़ करना तर्था उसके zारा फ--प्रान्तिप्त आदिद का विनरूपण विवमिध एवं अर्थ�वाद के zारा विकया गया है, 'ब्राह्मण' कहा जाता है। आरण्यक वह वेद-भाग जिजसर्में यज्ञानुष्ठान-पद्धवित, यालिज्ञक र्मन्त्र, पदार्थ� एवं फ- आदिद र्में आध्यात्मित्र्मकता का संकेत दिदया गया है, 'आरण्यक' कह-ाता है। यह भाग र्मनुष्य को आध्यात्मित्र्मक बोध की ओर झुकाकर सांसारिरक बन्धनों से ऊपर उठाता है। अत: इसका विवशेष अध्ययन भी संसार के त्याग की भावना के कारण वानप्रस्थाश्रर्म के लि-ये अरण्य (जंग-)- र्में विकया जाता है। इसीलि-ये इसका नार्म 'आरण्यक' प्रलिसद्ध हुआ है। उपविनषद वह वेद-भाग जिजसर्में विवशुद्ध रीवित से आध्यात्मित्र्मक लिचन्तन को ही प्रधानता दी गयी है और फ- सम्बन्धी फ-ानुबन्धी कर्म@ के दृढानुराग को लिशलिर्थ- करना सुझाया गया है, 'उपविनषद' कह-ाता है। वेद का यह भाग उसकी सभी शाखाओं र्में है, परंतु यह बात स्पष्ट-रूप से सर्मझ -ेनी चाविहये विक वत�र्मान र्में उपविनषद संज्ञा के नार्म से जिजतने ग्रन्थ उप-ब्ध हैं, उनर्में से कुछ उपविनषदों (ईशावास्य, बृहदारण्यक, तैभि}रीय, छान्दोग्य आदिद)- को छोड़कर बा�ी के सभी उपविनषद –भाग र्में उप-ब्ध हों, ऐसी बात नहीं है। शाखागत उपविनषदों र्में से कुछ अंश को सार्ममियक, सार्माजिजक या वैयलिक्तक आवश्यकता के आधार पर उपविनषद संज्ञा दे दी गयी है। इसीलि-ए इनकी संख्या एवं उप-स्तिब्धयों र्में विवविवधता मिर्म-ती है। वेदों र्में जो उपविनषद-भाग हैं, वे अपनी शाखाओं र्में सव�र्था अकु्षण्ण हैं। उनको तर्था उन्हीं शाखाओं के नार्म से जो उपविनषद-संज्ञा के ग्रन्थ उप-ब्ध हैं, दोनों को एक नहीं सर्मझना चाविहये। उप-ब्ध उपविनषद-ग्रन्थों की संख्या र्में से ईशादिद 10 उपविनषद तो सव�र्मान्य हैं। इनके अवितरिरक्त 5 और उपविनषद (शे्वताश्वतरादिद), जिजन पर आचायB की टीकाए ँतर्था प्रर्माण-उद्धरण आदिद मिर्म-ते हैं, सव�सम्र्मत

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कहे जाते हैं। इन 15 के अवितरिरक्त जो उपविनषद उप-ब्ध हैं, उनकी शब्दगत ओजस्तिस्वता तर्था प्रवितपादनशै-ी आदिद की विवभिभन्नता होने पर भी यह अवश्य कहा जा सकता है विक इनका प्रवितपाद्य ब्रह्म या आत्र्मतत्त्व विनश्चयपूव�क अपौरूषेय, विनत्य, स्वत:प्रर्माण वेद-शब्द-रालिश से सम्बद्ध है। ऋविष, छन्द और देवतावेद के प्रत्येक र्मन्त्र र्में विकसी-न-विकसी ऋविष, छन्द एवं देवता का उल्-ेख होना आवश्यक है। कहीं-कहीं एक ही र्मन्त्र र्में एक से अमिधक ऋविष, छन्द और देवता के नार्म मिर्म-ते हैं। इसलि-ये यह आवश्यक है विक एक ही र्मन्त्र र्में एक से अमिधक ऋविष, छन्द और देवता क्यों हैं, यह स्पष्ट कर दिदया जाय। इसका विववेचन विनम्न पंलिक्तयों र्में विकया गया है- ऋविषयह वह व्यलिक्त है, जिजसने र्मन्त्र के स्वरूप को यर्थार्थ� रूप र्में सर्मझा है। 'यर्थार्थ�'- ज्ञान प्राय: चार प्रकार- से होता है परम्परा के र्मू- पुरुष होने से, उस तत्त्व के साक्षात दश�न से, श्रद्धापूव�क प्रयोग तर्था साक्षात्कार से और इण्डिच्छत (अभिभ-विषत)-पूण� सफ-ता के साक्षात्कार से। अतएव इन चार कारणों से र्मन्त्र-सम्बत्मिन्धत ऋविषयों का विनदiश ग्रन्थों र्में मिर्म-ता है। जैसे— कल्प के आदिद र्में सव�प्रर्थर्म इस अनादिद वैदिदक शब्द-रालिश का प्रर्थर्म उपदेश ब्रह्माजी के हृदय र्में हुआ और ब्रह्माजी से परम्परागत अध्ययन-अध्यापन होता रहा, जिजसका विनदiश 'वंश-ब्राह्मण' आदिद ग्रन्थों र्में उप-ब्ध होता है। अत: सर्मस्त वेद की परम्परा के र्मू- पुरुष ब्रह्मा (ऋविष) हैं। इनका स्र्मरण पररे्मष्ठी प्रजापवित ऋविष के रूप र्में विकया जाता है। इसी पररे्मष्ठी प्रजापवित की परम्परा की वैदिदक शब्दरालिश के विकसी अंश के शब्द तत्त्व का जिजस ऋविष ने अपनी तपश्चया� के zारा विकसी विवशेष अवसर पर प्रत्यक्ष दश�न विकया, वह भी उस र्मन्त्र का ऋविष कह-ाया। उस ऋविष का यह ऋविषत्व शब्दतत्त्व के साक्षात्कार का कारण र्माना गया है। इस प्रकार एक ही र्मन्त्र का शब्दतत्त्व-साक्षात्कार अनेक ऋविषयों को भिभन्न-भिभन्न रूप से या सार्मूविहक रूप से हुआ र्था। अत: वे सभी उस र्मन्त्र के ऋविष र्माने गये हैं। कल्प ग्रन्थों के विनदiशों र्में ऐसे व्यलिक्तयों को भी ऋविष कहा गया है, जिजन्होंने उस र्मन्त्र या कर्म� का प्रयोग तर्था साक्षात्कार अवित श्रद्धापूव�क विकया है। वैदिदक ग्रन्थों विवशेषतया पुराण-ग्रन्थों के र्मनन से यह भी पता -गता है विक जिजन व्यलिक्तयों ने विकसी र्मन्त्र का एक विवशेष प्रकार के प्रयोग तर्था साक्षात्कार से सफ-ता प्राप्त की है, वे भी उस र्मन्त्र के ऋविष र्माने गये हैं। उक्त विनदiशों को ध्यान र्में रखने के सार्थ यह भी सर्मझ -ेना चाविहये विक एक ही र्मन्त्र को उक्त चारों प्रकार से या एक ही प्रकार से देखने वा-े भिभन्न-भिभन्न व्यलिक्त ऋविष हुए हैं। फ-त: एक र्मन्त्र के अनेक ऋविष होने र्में परस्पर कोई विवरोध नहीं है, क्योंविक र्मन्त्र ऋविषयों की रचना या अनुभूवित से सम्बन्ध नहीं रखता; अविपतु ऋविष ही उस र्मन्त्र से बविहरंग रूप से सम्बद्ध व्यलिक्त है। छन्दर्मन्त्र से सम्बत्मिन्धत (र्मन्त्र के स्वरूप र्में अनुस्यूत) अक्षर, पाद, विवरार्म की विवशेषता के आधार पर दी गयी जो संज्ञा है, वही छन्द है। एक ही पदार्थ� की संज्ञा विवभिभन्न लिसद्धान्त या व्यलिक्त के विवश्लेषण के भाव से नाना प्रकार की हो सकती है। अत: एक ही र्मन्त्र के भिभन्न नार्म के छन्द शास्त्रों र्में पाये जाते हैं। विकसी भी संज्ञा का विनयर्मन उसके तत्त्वज्ञ आप्त व्यलिक्त के zारा ही होता है। अत: कात्यायन, शौनक, विपNग- आदिद छन्द:शास्त्र के आचाय@ की एवं सवा�नुक्रर्मणीकारों की उलिक्तयाँ ही इस सम्बन्ध र्में र्मान्य होती हैं। इसलि-ये एक र्मन्त्र र्में भिभन्न नार्मों के छन्दों के मिर्म-ने से भ्रर्म नहीं होना चाविहये। देवतार्मन्त्रों के अक्षर विकसी पदार्थ� या व्यलिक्त के सम्बन्ध र्में कुछ कहते हैं। यह कर्थन जिजस व्यलिक्त या पदार्थ� के विनमिर्म} होता है, वही उस र्मन्त्र का देवता होता है, परंतु यह स्र्मरण रखना चाविहये विक कौन र्मन्त्र, विकस व्यलिक्त या पदार्थ� के लि-ये कब और कैसे प्रयोग विकया जाय, इसका विनण�य वेद का ब्राह्मण-भाग या तत्त्वज्ञ ऋविषयों के शास्त्र-वचन ही करते हैं। एक ही र्मन्त्र का प्रयोग कई यलिज्ञय अवसरों तर्था कई कार्मनाओं के लि-ये मिर्म-ता है। ऐसी ण्डिस्थवित र्में उस एक ही र्मन्त्र के अनेक देवता बताये जाते हैं। अत: उन विनदiशों के आधार पर ही कोई पदार्थ� या व्यलिक्त 'देवता' कहा जाता है। र्मन्त्र के zारा जो प्रार्थ�ना की गयी है, उसकी पूर्वितN करने की क्षर्मता उस देवता र्में रहती है। -ौविकक व्यलिक्त या पदार्थ� ही जहाँ देवता हैं, वहाँ वस्तुत: वह दृश्य जड पदार्थ� ही जहाँ देवता हैं, वहाँ वस्तुत: वह दृश्य जड पदार्थ� या अक्षर्म व्यलिक्त देवता नहीं है, अविपतु उसर्में अन्तर्विहNत एक प्रभु-शलिक्तसम्पन्न देवता-तत्त्व है, जिजससे हर्म प्रार्थ�ना करते हैं। यही बात 'अभिभर्मानीव्यपदेश' शब्द से शास्त्रों र्में स्पष्ट की गयी है। -ौविकक पदार्थ� या व्यलिक्त का अमिधष्ठाता देवता-तत्त्व र्मन्त्रात्र्मक शब्द-तत्त्व से अभिभन्न है, यह र्मीर्मांसा-दश�न का विवचार है। वेदान्तशास्त्र र्में र्मन्त्र से प्रवितपादिदत देवता-तत्व को शरीरधारी चेतन और अतीजिन्द्रय कहा गया है। पुराणों र्में कुछ देवताओं के स्थान, चरिरत्र, इवितहास आदिद का वण�न करके भारतीय संस्कृवित के इस देवता-तत्त्व के प्रभुत्व को हृदयंगर्म कराया गया है। विनष्कष� यही है विक इच्छा की पूर्वितN कर सकने वा-े अतीजिन्द्रय र्मन्त्र से प्रवितपादिदत तत्त्व को देवता कहते हैं और उस देवता का संकेत शास्त्र-वचनों से ही मिर्म-ता है। अत: वचनों के अनुसार अवसर-भेद से एक र्मन्त्र के विवभिभन्न देवता हो सकते हैं। वेद के अंग, उपांग एवं उपवेदवेदों के सवा�गींण अनुशी-न के लि-ये लिशक्षा, कल्प, व्याकरण, विनरूक्त छन्द और ज्योवितष-इन 6 अंगों के ग्रन्थ हैं। प्रवितपदसूत्र, अनुपद, छन्दोभाषा (प्रावितशाख्य), धर्म�शास्त्र, न्याय तर्था वैशेविषक- ये 6 उपांग ग्रन्थ भी उप-ब्ध हैं। आयुवiद, धनुवiद, गान्धव�वेद तर्था स्थापत्यवेद-ये क्रर्मश: चारों वेदों के उपवेद कात्यायन ने बत-ाये हैं। विवशेष उपयोगी ग्रन्थ

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वैदिदक शब्दों के अर्थ� एवं उनके प्रयोग की पूरी जानकारी के लि-ये वेदांग आदिद शास्त्रों की व्यवस्था र्मानी गयी है। उसर्में वैदिदक स्वर और शब्दों की व्यवस्था के लि-ये लिशक्षा तर्था व्याकरण दोनों अंगों के ग्रन्थ वेद के विवलिशष्ट शब्दार्थ� के उपयोग के लि-ये अ-ग-अ-ग उपांग ग्रन्थ 'प्रावितशाख्य' हैं, जिजन्हें वैदिदक व्याकरण भी कहते हैं। प्रयोग-पद्धवित की सुव्यवस्था के लि-ये कल्पशास्त्र र्माना जाता है। इसके चार भेद हैं- (1) श्रौतसूत्र, (2) गृह्यसूत्र, (3) धर्म�सूत्र और (4) शुल्बसूत्र। इनका स्पष्टीकरण विनम्न प्रकार हैं- श्रौतसूत्रइसर्में श्रौत-अग्डिग्न (आवहनीय-गाह�पत्य एवं दभिक्षणाग्डिग्न)- र्में होने वा-े यज्ञ-सम्बन्धी विवषयों का स्पष्ट विनरूपण विकया गया है। गृह्यसूत्रइसर्में गृह्य (औपासन)-अग्डिग्न र्में होने वा-े कर्म@ एवं उपनयन, विववाह आदिद संस्कारों का विनरूपण विकया गया है। धर्म�सूत्रइसर्में वण� तर्था आश्रर्म-सम्बन्धी धर्म�, आचार, व्यवहार आदिद का विनरूपण है। शुल्बसूत्रइसर्में यज्ञ-वेदी आदिद के विनर्मा�ण की ज्यामिर्मतीय प्रविक्रया तर्था अन्य तत्सम्बद्ध विनरूपण है। इस प्रकार से प्रत्येक शाखा के लि-ये अ-ग-अ-ग व्याकरण और कल्पसूत्र हैं, जिजससे उस शाखा का पूरा ज्ञान हो जाता है और कर्मा�नुष्ठान र्में सुविवधा होती है। इस बात को भी ध्यान र्में रखना चाविहये विक यर्थार्थ� र्में ज्ञानस्वरूप होते हुए भी वेद; कोई वेदान्त-सूत्र की तरह केव- दाश�विनक ग्रन्थ नहीं हैं, जहाँ केव- आध्यात्मित्र्मक लिचन्तन का ही सर्मावेश हो। ज्ञान-भण्डार र्में -ौविकक और अ-ौविकक सभी विवषयों का सर्मावेश रहता है और साक्षात या परम्परा से ये सभी विवषय परर्म तत्त्व की प्रान्तिप्त र्में सहायक होते हैं। यद्यविप विकसी दाश�विनक विवषय का सांगोपांग विवचार वेद र्में विकसी एक स्थान पर नहीं मिर्म-ता, विकNतु छोटे-से-छोटे तर्था बडे़-से-बडे़ तत्त्वों के स्वरूप का साक्षात दश�न तो ऋविषयों को हुआ र्था और वे सब अनुभव वेद र्में व्यक्त रूप से विकसी न विकसी स्थान पर वर्णिणNत हैं। उनर्में -ौविकक और अ-ौविकक सभी बातें हैं। सू्थ-तर्म तर्था सूक्ष्र्मतर्म रूप से भिभन्न-भिभन्न तत्त्वों का परिरचय वेद के अध्ययन से प्राप्त होता है। अत: वेद के सम्बन्ध र्में यह नहीं कहा जा सकता विक वेद का एक ही प्रवितपाद्य विवषय है या एक ही दश�न है या एक ही र्मन्तव्य है। यह तो साक्षात –प्राप्त ज्ञान के स्वरूपों का शब्द-भण्डार है। इसी शब्दरालिश के तत्त्वों को विनका- कर आचाय@ ने अपनी-अपनी अनुभूवित, दृमिष्ट एवं गुरु-परम्परा के आधार पर विवभिभन्न दश�नों तर्था दाश�विनक प्रस्थानों (र्मौलि-क दृमिष्ट से सुविवचारिरत र्मतों)- का संचयन विकया है। इस कारण भारतीय दृमिष्ट से वेद विवश्व का संविवधान है। अनुव्रत: विपतु: पुत्रो र्मात्रा भवतु संर्मना:।जाया पत्ये र्मधुर्मतीं वाचं वदतु शान्तिन्तवार्म्॥ [1] वेदों का रचना का- / Vedic Periodवेदों का रचनाका--विनधा�रण वैदिदक साविहत्येवितहास की एक जदिट- सर्मस्या है। विवभिभन्न विवzानों ने भाषा, रचनाशै-ी, धर्म� एवं दश�न, भूर्मभ�शास्त्र, ज्योवितष, उत्खनन र्में प्राप्त सार्मग्री, अभिभ-ेख आदिद के आधार पर वेदों का रचनाका- विनधा�रिरत करने का प्रयास विकया है, विकन्तु इनसे अभी तक कोई सव�र्मान्य रचनाका- विनधा�रिरत नहीं हो सकता है। इसका कारण यही है विक सबका विकसी न विकसी र्मान्यता के सार्थ पूवा�ग्रह है। 18 वीं शती के अन्त तक भारतीय विवzानों की यह धारणा र्थी विक वेद अपौरूषेय है, अर्था�त विकसी र्मनुष्य की रचना नहीं है। संविहताओं, ब्राह्मणों, दाश�विनक ग्रन्थों, पुराणों तर्था अन्य परवतª साविहत्य र्में अनेक उद्धरण मिर्म-ते हैं जिजनर्में वेद के अपौरुषेयत्व का कर्थन मिर्म-ता है। वेद-भाष्यकारों की भी परम्परा वेद को अपौरुषेय ही र्मानती रही। इस प्रकार वेद के अपौरुषेयत्व की धारणा उसके का-विनधा�रण की सम्भावना को ही अस्वीकार कर देती है। दूसरी तरफ 19 वीं सदी के प्रारम्भ से ही, जबविक पाश्चात्य विवzानों के zारा वेदाध्ययन का र्महत्त्वपूण� प्रयास विकया गया, यह धारणा प्रवितमिष्ठत होने -गी विक वेद अपौरुषेय नहीं, र्मानव ऋविषयों की रचना है; अतएव उनके का-विनधा�रण की सम्भावना को अस्वीकार नहीं विकया जा सकता। फ-स्वरूप, अनेक पाश्चात्य विवzानों के zारा इस दिदशा र्में प्रयास विकया गया। वैदिदक विकNवा आय�-संस्कृवित विवश्व की प्राचीनतर्म संस्कृवित है, इस तर्थ्यय को चूँविक पाश्चात्य र्मानलिसकता अंगीकार न कर सकी, इसलि-ये वेदों का रचनाका- ईसा से सहस्त्राग्डिब्दयों पूव� र्मानना उनके लि-ये सम्भव नहीं र्था, क्योंविक विवश्व की अन्य संस्कृवितयों की स}ा इतने सुदूरका- तक प्रर्माभिणत नहीं हो सकती र्थी, यद्यविप उन्होंने इतना अवश्य स्वीकार विकया विक वेद विवश्व का प्रचीनतर्म साविहत्य है। इस प्रकार वेद विवश्व का प्राचीनतर्म वाड्र्मय है इस विवषय र्में भारतीय तर्था पाश्चात्य सभी विवzान् एकर्मत हैं, वैर्मत्य केव- इस बात र्में है विक इसकी प्राचीनता का-ावमिध र्में कहाँ रखी जाय। वेद के रचनाका--विनधा�रण की दिदशा र्में अब तक विवzानों ने जो काय� विकये हैं तर्था एतविzषयक अपने र्मत स्थाविपत विकये है उनका यहाँ संके्षप र्में उल्-ेख विकया(1) जाता है।* रै्मक्सर्मू-र का र्मतबौद्ध धर्म� के आविवभा�वका- को आधार बनाकर सव�प्रर्थर्म र्मैक्सर्मू-र ने वेद के रचनाका- को सुविनभिश्चत करने का प्रयास विकया। उसने यह र्माना विक जिजस प्रकार विक्रभिश्चयन वष� प्रारम्भ दुविनया के इवितहास को दो भागों र्में बांटता है, उसी प्रकार बुद्ध-युग भारत के इवितहास को दो भागों र्में बांटता है। बुद्ध के का-विनधा�रण र्में उसने ग्रीक इवितहासकारों को प्रर्माण र्मानकर बुद्ध का विनवा�णका- 477 ई॰पू॰ र्माना जो चन्द्रगुप्त के राजलिसNहासन पर बैठने से 162 वष� पूव� का है। ग्रीक इवितहासकारों के अनुसार 325 ई॰पू॰ र्में लिसकन्दर ने भारत पर आक्रर्मण विकया र्था और पभिश्चर्मो}र भारत को अपने अधीन कर लि-या र्था। लिसकन्दर के उ}रामिधकारिरयों की र्मृत्यु के बाद 317 ई॰पू॰ र्में चन्द्रगुप्त ने पाटलि-पुत्र पर अमिधकार विकया और 315 ई॰पू॰ र्में सम्राट बन गया। ग्रीक इवितहासकारों zारा उद्धतृ सैण्ड्राकोटस (Sandracottus) को रै्मक्सर्मू-र ने चन्द्रगुप्त र्मौय� सर्मझा। कात्यायन, जो सूत्र-साविहत्य के प्ररु्मख -ेखक हैं, चन्द्रगुप्त र्मौय� से पूव�वतª तर्था बुद्ध से परवतª हैं। दोनों के र्मध्य उनकी ण्डिस्थवित र्मानकर र्मैक्सरू्म-र ने कात्यायन का सर्मय चतुर्थ� शताब्दी का उ}ारध� विनधा�रिरत विकया। कात्यायन सूत्रका- के प्रर्थर्म -ेखक नहीं, शौनक आदिद आचाय� उनसे पूव� के हैं। पाभिणविन ने भी शौनक का उल्-ेख विकया है, इसलि-ये शौनक पाभिणविन से भी पूव� के हैं। कात्यायन से बाद के भी कई

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सूत्रकार हैं। इसलि-ये शौनक से भी पूव�वतª तर्था कात्यायन से भी परवतª सूत्रकारों का विवचार करते हुए र्मैक्सरू्म-र ने सूत्रका- को 600 ई॰पू॰ से -ेकर 200 ई॰पू॰ तक र्माना।* चार सौ वष@ का यह सूत्रका- है। इन्हीं चार सौ वष@ र्में सर्मस्त सूत्र-साविहत्य रचा गया। सम्पूण� सूत्र-साविहत्य जिजसके आधार पर लि-खा गया र्था, वह है ब्राह्मण-साविहत्य। इसका अभिभप्राय यह है विक सूत्रका- तक समू्पण� ब्राह्मण साविहत्य की रचना हो चुकी र्थी। जिजस प्रकार सूत्रका- और परवतª -ौविकक संस्कृत के बीच की कड़ी परिरलिशष्ट-साविहत्य है उसी प्रकार ब्राह्मणका- और सूत्रका- के बीच की कड़ी आरण्यक और उपविनषद हैं। कई आरण्यकों के रचमियता तो विनभिश्चत रूप से सूत्रकार ही हैं। शौनक के लिशष्य आश्व-ायन ऐतरेय आरण्यक के पंचर्म अध्याय के रचमियता र्माने जाते हैं। इस प्रकार आरण्यक और उपविनषदें ब्राह्मणका- के अन्तिन्तर्म भाग की उपज हैं। ब्राह्मण साविहत्य की विवशा-ता, प्राचीन ब्राह्मणों की कई शाखाओं, चरणों, प्राचीन एवं अवा�चीन चरणों के र्मतभेदों, ब्राह्मण--ेखकों की वंशावलि-यों तर्था उनकी गद्यात्र्मक रचनाशै-ी को देखते हुए र्मैक्सर्मू-र ने इनकी रचना के लि-ये 200 वष@ का सर्मय पया�प्त र्मानकर सम्पूण� ब्राह्मणसाविहत्य का रचनाका- 800 ई॰पू॰ से -ेकर 600 ई॰पू॰ तक र्माना।* र्मैक्सरू्म-र ने यह भी र्माना विक यजुवiद-संविहता तर्था सार्मवेद-संविहता इसी ब्राह्मणका- की रचनायें हैं। अर्थव�वेद-संविहता इन दोनों से अवा�चीन है। ब्राह्मणका- वैदिदक वाड्र्मय का आदिदका- नहीं है। इनकी रचना से पूव� वैदिदक साविहत्य र्में एक ऐसी प्रवृभि} दिदखाई पड़ती है जो र्मौलि-क, स्वतन्त्र तर्था सृजनात्र्मक नहीं, अविपतु विकसी पूव�युग की परम्परा पर आभिश्रत है। इसर्में केव- पूव�युग की रचनाओं का संक-न, वगªकरण तर्था अनुकरण ही दिदखाई पड़ता है। ब्राह्मणपूव�-युग की इन प्रवृभि}यों को परिर-भिक्षत करने वा-ी एक ही रचना ॠग्वेद-संविहता उप-ब्ध है। र्मैक्सरू्म-र ने इस का- को र्मन्त्रका- की संज्ञा दी। इस र्मन्त्रका- की रु्मख्य प्रवृभि} यद्यविप पूव�युग की रचनाओं को संकलि-त करना र्था, विकन्तु जहां वे प्राचीन ऋविष-कविवयों की रचनाओं को -ोगों के र्मुख से सुनकर संकलि-त करते रे्थ, वहां उनर्में संशोधन भी करते रे्थ। अमिधक संख्या र्में र्मन्त्रों को संकलि-त और संशोमिधत करते सर्मय अमिधकांश व्यलिक्त अपनी काव्य-प्रवितभा का प्रदश�न करने की इच्छा भी करते होंगे और उन्हीं र्मन्त्रों की अनुकृवित पर कवितपय नये र्मन्त्रों की रचना भी करने -गे होंगे। इस प्रकार के र्मन्त्र ग्डिख- के नार्म से मिर्म-ते हैं। इन ग्डिख--र्मन्त्रों के अवितरिरक्त ऋग्वेद के दश र्मण्ड-ों के अन्दर भी कुछ ऐसे कविवयों के र्मन्त्र संकलि-त हैं जो पूव�वतª का- के कविवयों के अनुकता� हैं। ये कविव ऋग्वेद के अन्तिन्तर्म संक-न के सर्मय के हैं। इस प्रकार इन दो प्रकार के र्मन्त्रों की रचना इस र्मन्त्रका- र्में हुई। रै्मक्सर्मू-र का कहना है विक प्राचीन ऋविषयों की रचनाओं को संकलि-त करने, उनका वगªकरण करने तर्था उनके अनुकरण पर नये र्मन्त्रों की रचना के लि-ये 200 वष@ का सर्मय अमिधक नहीं कहा जा सकता। ऋग्वेद र्में अवा�चीन कविवयों की वंशावलि-यों तर्था संक-नकता�ओं के भी दो वग@ को देखते हुए र्मैक्सर्मू-र ने र्मन्त्र का- को 1000 ई॰ पू॰ से 800 ई॰ पू॰ तक र्माना।* वैदिदक काव्यधारा के इवितहास र्में र्मैक्सरू्म-र ने र्मन्त्रका- से पूव� एक छन्द:का- की स}ा स्वीकार की। र्मन्त्र रचना का यह वह युग र्था जिजसर्में र्मौलि-क, सृजनात्र्मक, स्वच्छन्द एवं स्वाभाविवक काव्य-रचना हुई जिजसका अनुसरण र्मन्त्र का- र्में दिदखाई पड़ता है। इस छन्द:का- की भी रचनायें ऋग्वेद-संविहता र्में संकलि-त हैं। र्मैक्सर्मू-र ने इस छन्द:का- के लि-ये भी 200 वष@ का सर्मय स्वीकार कर इसकी अवमिध 1200 ई॰पू॰ से 1000 ई॰पू॰ तक र्मानी।* इस प्रकार र्मैक्सर्मू-र के अनुसार सम्पूण� वैदिदक साविहत्य-सूत्र-साविहत्य से -ेकर प्राचीनतर्म ऋड्-र्मन्त्र तक- एक सहस्त्र वष@ अर्था�त 200 ई॰पू॰ 1200 ई॰पू॰ र्में रचा गया। रै्मक्सर्मू-र के र्मत की सर्मीक्षावैदिदक वाड्र्मय के विनभिश्चत-का-विनधा�रण की दिदशा र्में चूँविक र्मैक्सर्मू-र ने सव�प्रर्थर्म प्रयास विकया र्था, इसलि-ये यह स्वाभाविवक र्था विक विवzानों का ध्यान उस ओर आकृष्ट हो। प्रारम्भ र्में अमिधकांश विवzानों ने उसके इस र्मत को प्रार्माभिणक र्माना। बाद र्में कुछ ही ऐसे विवzान र्थे जो र्मैक्सरू्म-र के सर्मर्थ�क बने रहे। अमिधकांश ने अपनी धारणा बद- -ी और उसके र्मत की काफ़ी आ-ोचना की। जिजस बुद्ध के विनवा�णका-, लिसकन्दर के आक्रर्मण, चन्द्रगुप्त के राज्यका- तर्था ग्रीक इवितहासकारों के उल्-ेखों को र्मैक्सर्मू-र ने वैदिदक वाडर्मय के का-विनधा�रण का आधार बनाया, उसको विवzानों ने र्महत्त्वहीन घोविषत कर दिदया। वैदिदक वाड्र्मय को चार भागों र्में विवभाजिजत कर प्रत्येक के लि-ये उसने जो 200 वष@ की अवमिध विनधा�रिरत की, उसकी विवzानों ने कड़ी आ-ोचना की। र्मैक्सरू्म-र के आ-ोचकों र्में प्रर्मुख र्थे विवल्सन, र्मार्दिटNन हाग, ब्यू-र, विहटनी, ब्-ूर्मफील्ड, याकोवी आदिद। विवल्सन ने 200 वष@ की जगह पर 400 या 500 वष@ की प्रत्येक का- की अवमिध र्मानकर ब्राह्मणों का रचनाका- 1000 ई॰ पू॰ या 1100 ई॰पू॰ र्माना।* आगे उसने यह भी सम्भावना व्यक्त की विक वैदिदक वाड्र्मय के प्रत्येक का- का यह अन्तरा- एक सहस्त्र वष@ से भी अमिधक का होगा।* र्मार्दिटNन हाग ने रै्मक्सर्मू-र के का- विनधा�रण के विवरुद्ध विवशा- ब्राह्मण-साविहत्य के 1400-1200 ई॰पू॰ र्में रचे जाने का उल्-ेख विकया। उसने लि-खा है विक संविहताओं की रचना र्में कर्म-से-कर्म 500-600 वष@ का सर्मय -गा होगा और संविहताओं के अन्त और ब्राह्मणों के प्रारम्भ होने र्में भी कर्म-से-कर्म 200 वष@ का सर्मय -गा होगा। इस प्रकार हाग के अनुसार 2000-1400 ई॰पू॰ संविहताका- है। ऋग्वेद के प्राचीन सूक्तों की रचना इससे भी कुछ सौ वष� की हो सकती है, ऐसा र्मानकर उसने वैदिदक वाड्र्मय का आदिदका- 2400-2000 ई॰पू॰ विनधा�रिरत विकया।* वू्य-र ने भारत की तत्का-ीन राजनीवितक, सार्माजिजक तर्था भौगोलि-क परिरण्डिस्थवितयों को देखते हुए रै्मक्सर्मू-र zारा विनधा�रिरत सर्मय को अत्यल्प, अतएव त्याज्य बताया। उसका कहना र्था विक केव- यही तर्थ्यय विक ब्राह्मणसाविहत्य का दभिक्षण र्में प्रसार ईसा से कई शताग्डिब्दयों पूव� हो चुका र्था, इस बात को लिसद्ध करने के लि-ये पया�प्त है विक आय@ की दभिक्षण-विवजय 7 वीं या 8 वीं सदी ई॰ पूव� र्में सम्पन्न हो चुकी र्थी। तैभि}रीय, बौधायन, आपस्तम्ब, भारzाज, विहरण्यकेशी आदिद अनेक शाखायें दभिक्षण र्में फै- चुकी र्थीं। ऐसी ण्डिस्थवित र्में यह कल्पना विक भारतीय आय� 1200 ई॰पू॰ या 1500 ई॰पू॰ र्में भारत की उ}री सीर्मा तर्था अफ़ग़ाविनस्तान की पूवª सीर्मा पर ण्डिस्थत र्थे, पूण�तया असम्भव लिसद्ध हो जाती है।* ब्यू-र ने बौद्ध साविहत्य र्में उप-ब्ध प्रर्माणों के आधार पर भी र्मैक्सरू्म-र के र्मत का प्रवितवाद विकया। उसका कहना र्था विक बौद्धों के धार्मिर्मNक साविहत्य से इस बात का पता च-ता है विक 500 ई॰पू॰ तक ब्राह्मण-सम्बन्धी विवविवध विवज्ञान और साविहत्य विवकास की उस सीर्मा तक पहंुच चुका र्था जो बहुत प्राचीनका- से जाना जाता है। ब्यू-र ने जैन परम्परा के आधार पर भी र्मैक्सरू्म-र के वैदिदक का-विनधा�रण को ग़-त लिसद्ध विकया। उसका कहना र्था विक जैनी परम्परा के अनुसार उनके एक तीर्थ�कर का विनवा�णका- 776 ई॰पू॰ है। इस प्रकार जब

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एक ब्राह्मण कर्म�काण्ड-विवरोधी सम्प्रदाय, जिजसके उपदेश ज्ञानर्माग� के लिसद्धान्त पर आधारिरत है, ई॰पू॰ आठवीं शताब्दी र्में प्रादुभू�त हुआ तो यह र्मानना विक उसके 50 वष� पूव� ब्राह्मणका- प्रारम्भ हुआ असंगत विकNवा असम्भव प्रतीत होता है और इससे भी अमिधक असम्भव यह स्वीकार हुआ असंगत विकNवा असम्भव प्रतीत होता है और इससे भी अमिधक असम्भव यह स्वीकार करना है विक 1200 या 1500 ई॰पू॰ से भारतीय आयB की साविहन्तित्यक गवितविवमिधयों का प्रारम्भ हुआ होगा।* विवल्सन, हाग, ब्यू-र आदिद विवzानों zारा की गई आ-ोचना का परिरणार्म यह हुआ विक स्वयं र्मैक्सर्मू-र अपने र्मत की अप्रार्माभिणकता का अनुभव करने -गा और अन्ततोगत्वा उसने अपना र्मत बद- दिदया। सन् 1862 र्में ऋग्वेद-संविहता के चतुर्थ� भाग की प्रस्तावना र्में उसको स्वीकार करना पड़ा विक वैदिदक वाड्र्मय के प्रर्थर्म तीन का-ों के वितलिर्थविनधा�रण र्में जो उसने र्मत व्यक्त विकया है वह पूण�रूपेण काल्पविनक है। 1890 र्में 'जिजफोड� व्याख्यानर्मा-ा, र्में उसने स्पष्ट रूप से स्वीकार विकया विक वैदिदक र्मन्त्रों की रचना 1000 ई॰ पू॰ र्में या 1500 ई॰पू॰ या 2000 ई॰ पू॰ र्में या 3000 ई॰ पू॰ र्में हुई इसको दुविनया की कोई शलिक्त विनधा�रिरत नहीं कर सकती।* याकोबी का र्मतर्मैक्सरू्म-र के र्मत की प्रवितविक्रया र्में जर्म�न विवzान याकोवी ने ज्योवितष-सम्बन्धी तर्थ्ययों के आधार पर वेदों का रचनाका- विनधा�रिरत करने का प्रयास विकया। उसने वैदिदक साविहत्य के का- विनधा�रण के लि-ये विवभिभन्न ऋतुओं तर्था नक्षत्रों र्में वषा�रम्भ की ण्डिस्थवित तर्था गृह्यसूत्रों र्में प्रचलि-त धु्रव दश�न की प्रर्था को आधार बनाया। उसने देखा विक वैदिदक ग्रन्थों र्में विवभिभन्न ऋतुओं तर्था नक्षत्रों से वष� के प्रारम्भ होने का उल्-ेख मिर्म-ता है। वषा�, शरद, तर्था विहर्म ऋतुओं से वष� के प्रारम्भ होने का उल्-ेख अनेक स्थ-ों पर मिर्म-ता है। वष�, वषा�-ऋतु अर्था�त प्रौष्ठपाद से शुरू होता र्था।, शरद-वष� र्माग�शीष� से तर्था विहर्म-वष� फाल्गुन से। चातुर्मा�स्य याग के प्रसंग र्में वषा�रम्भ के विवषय र्में एक दूसरे के विवरोधी कर्थन ब्राह्मण तर्था श्रौत सूत्रों र्में मिर्म-ते हैं। याकोबी का कहना र्था विक विवभिभन्न ऋतुओं तर्था नक्षत्रों से वषा�रम्भ के विवषय र्में जो विवरोध दिदखाई पड़ता है। वह तब सर्माप्त हो जायेगा जब हर्म यह र्मान -ेंगे विक ऋग्वेद के सर्मय र्में प्रचलि-त ये तीनों वष� बाद र्में केव- याजिजक कायB र्में ही सुरभिक्षत रहे, वास्तविवक रूप र्में प्रचलि-त नहीं र्थे। ये वष� केव- ऋग्वेद-का- र्में वास्तविवक रूप र्में प्रचलि-त रहे। उ}र-वैदिदकका- र्में उन र्महीनों से जिजनसे वष� के शुरु होने का उल्-ेख विकया गया र्था नक्षत्रों की ण्डिस्थवित-परिरवत�न के कारण उस र्महीने र्में ऋतुयें शरु होती नहीं देखी गई, इनर्में आवश्यक संशोधन कर दिदया गया। याकोवी का कहना र्था विक यह ण्डिस्थवित ही विनभिश्चत वितलिर्थ का ज्ञान कराने र्में सहायक है। ब्राह्मणसाविहत्य र्में कृभि}का को नक्षत्रों र्में प्रर्थर्मस्थानीया र्माना गया है। जिजस सर्मय कृभि}का प्रर्थर्मस्थानीया र्थी उस सर्मय वसन्तसम्पात (Vernal equirnox) की ण्डिस्थवित कृभि}का र्में र्थी, ग्रीष्र्म-संक्रान्तिन्त (Summer Solstice) र्मघा र्में र्थी। याकोबी के अनुसार यह सर्मय 2500 ई॰ पू॰ का है जिजसर्में ब्राह्मणों की रचना हुई।* कौषीतविक-ब्राह्मण* र्मे जो यह कहा गया है विक उ}राफाल्गुनी वष� का र्मुख है और पूवा�फाल्गुनी पूंछ है, तर्था तैतरीय ब्राह्मण* र्में जो यह कहा गया है विक पूवा�फल्गुनी वष� की अन्तिन्तर्म रात है और उ}राफाल्गुनी वष� की प्रर्थर्म रात है, इससे याकोवी ने यह विनष्कष� विनका-ा विक उ}राफाल्गुनी से ही विकसी सर्मय वष� का प्रारम्भ होता र्था। वषा� ऋतु से शुरु होने वा-ा वष� ग्रीष्र्म-सक्रांन्तिन्त से शुरू होता र्था जिजसकी ण्डिस्थवित उ}राफाल्गुनी र्में र्थी। जिजस सर्मय ग्रीष्र्मसंक्रान्तिन्त उ}राफाल्गुनी र्में र्थी विहर्म संक्रान्तिन्त पूव� भाद्रपद र्में र्थी, शरत-सम्पात रू्म- र्में र्था और वसन्त-सम्पात रृ्मगलिशरा र्में र्था। र्मृगलिशरा र्में वसन्त-सम्पात की ण्डिस्थवित कृभि}का र्में वसन्त-सम्पात की ण्डिस्थवित से प्राचीन है। रृ्मगलिशरा कृभि}का से दो नक्षत्र पीछे पड़ती है। सम्पात को एक नक्षत्र पीछे सरकने र्में -गभग एक हज़ार वष� का सर्मय -ग जाता है। दो नक्षत्र पीछे सरकने र्में 2000 वष� का सर्मय -गता है। इस प्रकार र्मृगलिशरा र्में वसन्त-सम्पात की ण्डिस्थवित कृभि}का र्में वसन्त-सम्पात की ण्डिस्थवित से 2000 वष� पूव� की है। अर्था�त 4500 ई॰पू॰ र्में वसन्त-सम्पात की ण्डिस्थवित र्मृगलिशरा र्में र्थी। याकोबी के अनुसार यही सर्मय ऋग्वेद के र्मन्त्रों का रचनाका- है। उसका कहना है विक ऋग्वेद की रचना भ-े उस सर्मय न हुई हो, विकन्तु उस सर्मय की एक उच्चकोदिट की विवकलिसत सभ्यता का परिरणार्म तो उसे अवश्य कहा जायेगा। उस सभ्यता का सर्मय 4500-2500 ई॰पू॰ का है और इसी के उ}राध� का सर्मय ऋग्वेद-संविहता का है।* याकोबी ने गृह्यसूत्रों र्में प्रचलि-त धु्रवदश�न की प्रर्था के आधार पर भी वेदों के रचना का- को विनधा�रिरत करने का प्रयास विकया जो पूव�-स्थाविपत र्मत के सर्मर्थ�न र्में ही र्था। उसका कहना है विक यद्यविप उ}री तारा (North Star) और पो--स्टार (Pole Star) दोनों को पया�य सर्मझा जाता है, विकन्तु इनर्में अन्तर है। उ}री तारा वह प्रकाशर्मान तारा है। जो उ}री धु्रव के अत्यमिधक सर्मीप होता है। वह तारा जिजसकी दूरी उ}री धु्रव से इतनी कर्म होती है विक उसको व्यवहार र्में धु्रव कहने -गते हैं पो- स्टार कह-ाता है। याकोबी के अनुसार डै्रकोविनस (Draconis) नार्मक तारा की पो- स्टार से 0°. 6' पर तर्था उस�इ र्माइनोरिरस (Ursae Minoris) की 0°.28' पर दूरी सबसे कर्म है। इन दूरिरयों पर इन दोनों तारों को ध्रुव र्माना जा सकता है। गृह्यसूत्रों र्में विववाह के प्रसंग र्में जिजस ध्रुवदश�न की बात कही गई है वह वास्तविवक पो-स्टार र्था। उसके बाद केव- डै्रकोविनस ही पो-स्टार हो सकता है। यह सर्मय तारों की गवित की गणना के अनुसार 2780 ई॰पू॰ लिसद्ध होता है। बहुत दिदनों तक वह र्मू- धु्रब के पास रहा, इसलि-ये यह स्वाभाविवक र्था विक विहन्दू उसको अपने रीवित रिरवाजों र्में सम्बत्मिन्धत करें। इस प्रकार याकोबी के अनुसार धु्रव का नार्मकरण तर्था विववाह र्में र्मू- ध्रुव के प्रत्यक्ष दश�न की प्रर्था को नक्षत्र गणना के आधार पर 3000 ई॰ पू॰ के प्रर्थर्मार्थ� र्में र्माना जा सकता है। ऋग्वेद के विववाहसूक्त र्में ध्रुवदश�न की प्रर्था का उल्-ेख नहीं, इसलि-ये यह कहा जा सकता है विक ऋग्वेद के सूक्तों की रचना 3000 ई॰ पू॰ से पह-े हो चुकी होगी। इस प्रकार संके्षप र्में याकोबी के अनुसार 4500 ई॰पू॰ से 3000 ई॰पू॰ ऋग्वेद का रचनाका- है तर्था 3000 ई॰पू॰ से 2000 ई॰ पू॰ ब्राह्मणों का रचनाका- है। बा-गंगाधर वित-क का र्मतजिजस सर्मय बॉन र्में याकोबी ने ज्योवितष सम्बन्धी तर्थ्ययों के आधार पर ऋग्वेद का रचनाका- 4500 ई॰पू॰ विनधा�रिरत विकया उसी सर्मय भारत र्में ज्योवितष-सम्बन्धी तर्थ्ययों के ही आधार पर स्वतन्त्र रूप से काय� करते हुए बा-गंगाधर वित-क भी उसी विनष्कष� पर पहुँचे। दोनों र्में अन्तर यह र्था विक वित-क ने वैदिदक साविहत्य से अनेक ऐसे भी प्रर्माण उद्धतृ विकये जिजनसे वेदर्मन्त्रों का रचना का- दो हज़ार वष� और पूव� लिसद्ध होता है। वित-क के अनुसार वैदिदक यालिज्ञक साविहत्य के अव-ोकन से यह बात स्पष्ट रूप से र्मा-ूर्म होती है विक जिजस प्रकार ऋतुओं के सार्थ वष� या सत्र के प्रारम्भ का सम्बन्ध र्माना जाता र्था उसी प्रकार नक्षत्रों के सार्थ भी वष� या सत्र के प्रारम्भ का सम्बन्ध र्माना जाता र्था। जिजस नक्षत्र से वष� का

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प्रारम्भ वैदिदक साविहत्य र्में मिर्म-ता है, उससे यह बात पुष्ट होती है विक वसन्त-सम्पात से ही वष� या उ}रायण का प्रारम्भ होता र्था। सम्पात या संक्रान्तिन्त हरे्मशा एक ही नक्षत्र पर नहीं होते। जिजस नक्षत्र र्में एक सर्मय सम्पात पडे़गा कई सौ वष� बाद वह उसी नक्षत्र र्में नहीं पडे़गा। इस असंगवित को दर करने के लि-ये सर्मय-सर्मय पर वैदिदक ज्योवितष-वैज्ञाविनकों के zारा सुधार विकये जाते रहे। वित-क के अनुसार प्राचीन कै-ेण्डर र्में तीन परिरवत�नों के प्रर्माण वैदिदक वाङर्मय र्में मिर्म-ते हैं: एक सर्मय कृभि}का नक्षत्र र्में, एक सर्मय र्मृगलिशरा नक्षत्र र्में तर्था एक सर्मय पुनव�सु नक्षत्र र्में वसन्त-सम्पात पड़ता र्था। जिजस सर्मय कृवित्रका, वसन्त-सम्पात, उ}रायण तर्था वष� का प्रारम्भ एक सार्थ र्था वह सर्मय 2500 ई॰पू॰ का है। कृभि}का से एक नक्षत्र पूव� अर्था�त भरणी नक्षत्र के 10° र्में वसन्त-सम्पात को उल्-ेख वेदांग ज्योवितष र्में मिर्म-ता है। यह सर्मय 1400 ई॰ पू॰ का है। इस प्रकार 2500 ई॰ पू॰ से 1400 ई॰ पू॰ तक के का- को वित-क ने कृभि}काका- की संज्ञा दी।* इसी सर्मय तैभि}रीय-संविहता तर्था अनेक ब्राह्मणों की रचना हुई। इस सर्मय तक ऋग्वेद के सूक्त प्राचीन और अस्पष्ट हो चुके र्थे। यह वह का- र्था जिजसर्में सम्भवत: वेदों की संविहताओं का व्यवण्डिस्थत रूप से ग्रन्थ के रूप र्में संक-न हुआ और प्राचीनतर्म सूक्तों के अर्थ�बोध की दिदशा र्में भी प्रयत्न हुए। इसी सर्मय भारतीयों का चीविनयों के सार्थ सम्पक� हुआ और चीविनयों ने उनकी नक्षत्रविवद्या ग्रहण की। जिजस सर्मय र्मृगलिशरा नक्षत्र, वसन्त-सम्पात, उ}रायण तर्था वष� का प्रारम्भ एक सार्थ र्था वह सर्मय 4500 ई॰पू॰ का है। कृभि}का का- से पूव� अर्था�त 2500 ई॰पू॰ से -ेकर 4500 ई॰ पू॰ के का- को वित-क ने र्मृगलिशराका- की संज्ञा दी। आय� सम्भ्यता के इवितहास र्में सवा�मिधक र्महत्त्वपूण� का- यही है। ऋग्वेद के अमिधकांश सूक्तों की रचना इसी सर्मय हुई। अनेक नये आख्यानों तर्था प्राचीन आख्यानों के नये रूपों का विवकास भी इसी सर्मय हुआ। इस का- र्में आय�, ग्रीक, तर्था पारसी एक सार्थ विनवास करते र्थे। इसके अन्तिन्तक का- र्में वे एक दूसरे से अ-ग हुए।* ऋग्वैदिदक र्मन्त्रों के रचनाका- की 4500 ई॰ पू॰ तक की अवमिध याकोबी ने भी विनधा�रिरत की र्थी। विकन्तु वह उससे पीछे नहीं जा सका। वित-क ने वैदिदक साविहत्य र्में कई ऐसे उद्धरण खोज विनका-े जिजसर्में वसन्त-सम्पात, उ}रायण तर्था वष� के आरम्भ का पुनव�सु नक्षत्र र्में होने का संकेत मिर्म-ता है। वित-क ने देखा विक तैतरीय संविहता तर्था तांडय ब्राह्मण र्में जहां फाल्गुनी पूण�र्मास से वष� के प्रारम्भ होने का उल्-ेख विकया गया है वहां लिचत्रा पूण�र्मास से भी वष� के प्रारम्भ होने की बात कही गई है।* वित-क के अनुसार तैतरीय संविहता र्में जिजस वष� के प्रारम्भ होने का उल्-ेख विकया गया है वह वष� वस्तुत: पुनव�सु नक्षत्र से शुरु होता र्था। उस दिदन वसन्त-सम्पात भी होता र्था। पुनव�सु नक्षत्र, वसन्त-सम्पात और वष� का प्रारम्भ तीनों की ण्डिस्थवित एक सार्थ र्थी, इसके सर्मर्थ�न र्में वित-क ने कई प्रर्माण दिदये हैं। पुन�वसु को नक्षत्रों र्में प्रर्थर्म स्थान प्रदान करने वा-ी सूची यद्यविप वैदिदक साविहत्य र्में नहीं मिर्म-ती और न आग्रहायण जैसा उसका पया�यवाची शब्द ही मिर्म-ता है, विफर भी यालिज्ञक साविहत्य र्में पुनव�सु को नक्षत्रों की सूची र्में प्रर्थर्मस्थानीय र्मानने का संकेत मिर्म-ता है। *पुनव�सु नक्षत्र की अमिधष्ठात्री देवता अदिदवित है। ऐतरेय ब्राह्मण* र्में अदिदवित से सभी यज्ञों के शुरू होने तर्था उसी र्में सर्माप्त होने का उल्-ेख है। र्माध्यजिन्दन संविहता* र्में अदिदवित को 'उभयत: शीष्णª' अर्था�त दोनों तरफ लिशरवा-ी कहा गया ह्ै। ऋग्वेद* र्में अदिदवित को देवयान को विपतृयान से अ-ग करने वा-ी और देवर्माता कहा गया है। वित-क के अनुसार ये सारे उल्-ेख अदिदवित से वष� के प्रारम्भ होने का कर्थन करते हैं। अदिदवित से वष� के प्रारम्भ र्मानने का र्मत-ब है पुनव�सु से वष� का प्रारम्भ र्मानना। इस प्रकार जिजस सर्मय अदिदवित से यज्ञ का प्रारम्भ होता र्था, उस सर्मय पुनव�सु नक्षत्र र्मृगालिशरा से दो नक्षत्र बाद र्में पड़ती है। वसन्त-सम्पात को र्मृगलिशरा से सरककर पीछे हटने र्में -गभग 2000 वष� -गे होंगे। इस प्रकार वित-क के अनुसार यह सर्मय 4000+2000= 6000 ई॰ पू॰ का है। आय�सभ्यता का यही प्राचीनतर्म का- है। 4000 ई॰ पू॰ से 6000 ई॰ पू॰ के सर्मय को वित-क ने अदिदवित-का- की संज्ञा दी। यह वह सर्मय है जबविक अ-ंकृत ऋचाओं तर्था सूक्तों की स}ा नहीं र्थी। गद्य-पद्य- उभयात्र्मक यज्ञपरक विनविवद ्र्मन्त्रों की स}ा इस का- की है। ग्रीक तर्था पारलिसयों के पास इस का- की कोई परम्परा सुरभिक्षत नहीं।* याकोबी तर्था वित-क के र्मत की सर्मीक्षायाकोबी तर्था वित-क की वेदों के रचनाका--विवषयक नई खोज ने विवzानों र्में एक ह-च- र्मचा दी। सव�प्रर्थर्म इनका र्मत विवzानों को पूण�तया काल्पविनक, असंभव विकNवा व्यर्थ� प्रतीत हुआ और कई विवzानों ने इसका र्मज़ा� उड़ाया। विहटनी* और लिर्थबौत* ने इस र्मत का डटकर विवरोध विकया। प्राचीन वैदिदक आय@ को ज्योवितष-सम्बन्धी ज्ञान र्था यह इनको स्वीकाय� नहीं र्था। लिर्थबौत की आपभि}यां विहटनी की अपेक्षा कुछ अमिधक उग्र र्थीं, यद्यविप उसने यह भी अपना भाव अभिभव्यक्त विकया विक वित-क और याकोबी के विनष्कष@ को पूण�तया असम्भव कहने का उसे अमिधकार नहीं। उसका कहना र्था विक हो सकता है विक वैदिदक साविहत्य और सभ्यता कहीं उससे भी अमिधक प्राचीन हो और इस बात के अनेक प्रर्माण परवतª वैदिदक साविहत्य र्में मिर्म- सकते हैं। विकन्तु इस बात को स्वीकार करने से पूव� उसे इस बात की पूण�तया पुमिष्ट हो जानी चाविहये विक जिजन वैदिदक ज्योवितष-सम्बन्धी उद्धरणों के आधार पर वित-क तर्था याकोबी ने अपने विनष्कष� विनका-े हैं उनके अर्थ� वहीं हैं जो उन्होंने विकये हैं। लिर्थबौत के अनुसार ज्योवितष-गणना के आधार पर यह सर्मय 1100 ई॰ पू॰ का लिसद्ध होता है। एक तरफ विहटनी तर्था लिर्थबौत ने वित-क तर्था याकोबी के र्मतों की जहां कड़ी आ-ोचना की, वहां दूसरी ओर ब्यू-र ने अपने एक -ेख र्में उनकी काफ़ी प्रशंसा की।* उसने उनके zारा प्रस्तुत विकये गये प्रर्माणों की परीक्षा की और वेदों के रचनाका--विनधा�रण र्में उन्हें पुष्ट पाया। उसने विनष्कष� रूप र्में इस बात को कहा विक प्राचीन विहन्दुओं को ज्योवितष-विवषयक ज्ञान र्था जो वैज्ञाविनक लिसद्धान्तों तर्था वास्तविवक पय�वेक्षण पर आधारिरत र्था। ब्यू-र ने अभिभ-ेखों तर्था जैन एवं बौद्ध-साविहत्य के आधार पर भी वित-क तर्था याकोबी के zारा स्थाविपत वैदिदक साविहत्य की प्राचीनता का सर्मर्थ�न विकया। सन 1965 र्में नरेन्द्र नार्थ -ा ने अपनी पुस्तक र्में वित-क तर्था याकोबी के र्मतों का विववेचन विकया तर्था विहटनी एवं लिर्थबौत zारा उठाई गई सभी आपभि}यों का एक-एक करके सर्माधान विकया।* डा॰ -ा ने भारतीय ऐवितहालिसक परम्परा र्में प्राप्त राजवंशों की का-गणना zारा भी वित-क के र्मत की पुमिष्ट की।

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यजुर्वे�द / Yajurveda यजवुiद गद्यात्र्मक है। यज्ञ र्में कहे जाने वा-े गद्यात्र्मक र्मन्त्रों को ‘यजुस’ कहा जाता है। यजवुiद के पद्यात्र्मक र्मन्त्र ॠग्वेद या अर्थव�वेद से लि-ये गये है। इनर्में स्वतन्त्र पद्यात्र्मक र्मन्त्र बहुत कर्म हैं। यजवुiद र्में यज्ञों और हवनों के विनयर्म और विवधान हैं। यह ग्रन्थ कर्म�काण्ड प्रधान है। यदिद ॠग्वेद की रचना सप्त-लिसनु्ध क्षेत्र र्में हुई र्थी तो यजुवiद की रचना कुरुके्षत्र के प्रदेश र्में। इस ग्रन्थ से आय@ के सार्माजिजक और धार्मिर्मNक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। वण�-व्यवस्था तर्था वणा�श्रर्म की झाँकी भी इसर्में है।

अथर्वेर्वेेद / Athrvaveda अर्थव�वेद की भाषा और स्वरूप के आधार पर ऐसा र्माना जाता है विक इस वेद की रचना सबसे बाद र्में हुई। इसर्में ॠग्वेद और सार्मवेद से भी र्मन्त्र लि-ये गये हैं। जादू से सम्बत्मिन्धत र्मन्त्र-तन्त्र, राक्षस, विपशाच, आदिद भयानक शलिक्तयाँ अर्थव�वेद के र्महत्वपूण� विवषय हैं। इसर्में भूत-पे्रत, जादू-टोने आदिद के र्मन्त्र हैं। ॠग्वेद के उच्च कोदिट के देवताओं को इस वेद र्में गौण स्थान प्राप्त हुआ है। धर्म� के इवितहास की दृमिष्ट से ॠग्वेद और अर्थव�वेद दोनों का बड़ा ही र्मूल्य है। अर्थव�वेद से स्पष्ट है विक का-ान्तर र्में आय@ र्में प्रकृवित-पूजा की उपेक्षा हो गयी र्थी और पे्रत-आत्र्माओं व तन्त्र-र्मन्त्र र्में

विवश्वास विकया जाने -गा र्था।

ॠग्र्वेेद / Rigveda सबसे प्राचीनतर्म है। 'ॠक' का अर्थ� होता है छन्दोबद्ध रचना या श्लोक। ॠग्वेद के सूक्त विवविवध देवताओं की स्तुवित करने वा-े भाव भरे गीत हैं। इनर्में भलिक्तभाव की प्रधानता है। यद्यविप ॠग्वेद र्में

अन्य प्रकार के सूक्त भी हैं, परन्तु देवताओं की स्तुवित करने वा-े स्त्रोतों की प्रधानता है। ॠग्वेद र्में कु- दस र्मण्ड- हैं और उनर्में 1,029 सूक्त हैं और कु- 10,580 ॠचाए ँहैं। ये स्तुवित र्मन्त्र हैं। ॠग्वेद के दस र्मण्ड-ों र्में कुछ र्मण्ड- छोटे हैं और कुछ र्मण्ड- बडे़ हैं। प्रर्थर्म और अन्तिन्तर्म र्मण्ड-, दोनों ही सर्मान रूप से बडे़ हैं। उनर्में सूक्तों की संख्या भी 191 है। दूसरे र्मण्ड- से सातवें र्मण्ड- तक का अंश ॠग्वेद का शे्रष्ठ भाग है, उसका ह्रदय है। आठवें र्मण्ड- और प्रर्थर्म र्मण्ड- के प्रारस्तिम्भक पचास सूक्तों र्में सर्मानता है।

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नवाँ र्मण्ड- सोर्म से सम्बत्मिन्धत होने से पूण� रुप से स्वतन्त्र है। यह नवाँ र्मण्ड- आठ र्मण्ड-ों र्में सत्मिम्र्मलि-त सोर्म सम्बन्धी सूक्तों का संग्रह है, इसर्में नवीन सूक्तों की रचना नहीं है।

दसवें र्मण्ड- र्में प्रर्थर्म र्मण्ड- की सूक्त संख्याओं को ही बनाये रखा है। पर इस र्मण्ड- का विवषय, कर्था, भाषा आदिद सभी परिरवतªकरण की रचनाए ँहैं।

ॠग्वेद के र्मन्त्रों या ॠचाओं की रचना विकसी एक ॠविष ने एक विनभिश्चत अवमिध र्में नहीं की अविपतु विवभिभन्न का- र्में विवभिभन्न ॠविषयों zारा ये रची और संकलि-त की गयीं।

ॠग्वेद के र्मन्त्र स्तुवित र्मन्त्र होने से ॠग्वेद का धार्मिर्मNक और आध्यात्मित्र्मक र्महत्व अमिधक है।

सामर्वेेद / Samveda सार्मवेद से तात्पय� है विक वह ग्रन्थ जिजसके र्मन्त्र गाये जा सकते हैं और जो संगीतर्मय हों। यज्ञ, अनुष्ठान और हवन के सर्मय ये र्मन्त्र गाये जाते हैं। सार्मवेद र्में र्मू- रूप से 99 र्मन्त्र हैं और शेष ॠग्वेद से लि-ये गये हैं। इसर्में यज्ञानुष्ठान के उद्गातृवग� के उपयोगी र्मन्त्रों का संक-न है। इसका नार्म सार्मवेद इसलि-ये पड़ा है विक इसर्में गायन-पद्धवित के विनभिश्चत र्मन्त्र ही हैं। इसके अमिधकांश र्मन्त्र ॠग्वेद र्में उप-ब्ध होते हैं, कुछ र्मन्त्र स्वतन्त्र भी हैं। सार्मवेद र्में ॠग्वेद की कुछ ॠचाए ंआकलि-त है। वेद के उद्गाता, गायन करने वा-े जो विक सार्मग (सार्म गान करने वा-े) कह-ाते रे्थ। उन्होंने वेदगान र्में केव- तीन स्वरों

के प्रयोग का उल्-ेख विकया है जो उदा}, अनुदा} तर्था स्वरिरत कह-ाते हैं। सार्मगान व्यावहारिरक संगीत र्था। उसका विवस्तृत विववरण उप-ब्ध नहीं हैं। वैदिदक का- र्में बहुविवध वाद्य यंत्रों का उल्-ेख मिर्म-ता है जिजनर्में से

1. तंतु वाद्यों र्में कन्नड़ वीणा, कक� री और वीणा, 2. घन वाद्य यंत्र के अंतग�त दंुदुभिभ, आडंबर, 3. वनस्पवित तर्था सुविषर यंत्र के अंतग�तः तुरभ, नादी तर्था 4. बंकुरा आदिद यंत्र विवशेष उल्-ेखनीय हैं।