उर ाखड म ु िव िव ालय - uttarakhand open universityग स हय -2...

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ग सािहय -2 एव योजनम लक िहदी BAHL-102 उराख ड म िविवालय,हानी उराखड म िविवालय मानिवक िवाशाखा ग सािहय -2 एव योजनम लक िहदी

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  • ग� सािह�य -2 एवं योजनमलूक िह�दी BAHL-102

    उ�राखंड मु� िव�िव�ालय,ह� �ानी

    उ�राख�ड मु� िव�िव�ालय

    मानिवक� िव�ाशाखा

    ग� सािह�य -2 एवं योजनमूलक िह�दी

  • ग� सािह�य -2 एवं योजनमलूक िह�दी BAHL-102

    उ�राखंड मु� िव�िव�ालय,ह� �ानी

    िवशेष� सिमित

    �ो.एच.पी. श�ुला �ो. लमण िसंह िब� ‘बटरोही’

    िनदशेक, मानिवक� िव�ाशाखा, िनदशेक, महादवेी वमा� सजृन पीठ, उ!राख#ड म%ु िव&िव�ालय, रामगढ़, नैनीताल

    ह()ानी, नैनीताल

    �ो.एस.डी.ितवारी डा. िजते+, -ीवा.तव

    िवभागा1य2, िह+दी िहदंी िवभाग,

    गढवाल िव&िव�ालय, गढ़वाल इिंदरा गांधी रा67ीय म%ु िविव.िद(ली

    �ो.डी.एस.पोख8रया �ो.नीरजा टंडन

    िवभागा1य2, िह+दी िह+दी िवभाग

    कुमाऊं िव&िव�ालय ,नैनीताल कुमाऊं िव&िव�ालय ,नैनीताल

    पाठ्य�म सम� वयक, सयंोजन एवं सपंादन

    डा.शशांक शु�ला डा.राजे+, कैड़ा

    अिस.ट>ट �ोफेसर, िह+दी िवभाग, अकादिमक परामश�दाता, िह+दी िवभाग,

    उ!राख#ड म%ु िव&िव�ालय, उ!राख#ड म%ु िव&िव�ालय,

    ह()ानी, नैनीताल ह()ानी, नैनीताल कापीराइट@उ!राख#ड म%ु िव&िव�ालय सं.करण: 2015 सीिमत िवतरण हते ुपवू� �काशन �ित �काशकः उ!राख#ड म%ु िव&िव�ालय, ह()ानी ,नैनीताल -263139 म,ुक : �ीिमयर ि�िंटंग �ेस, जयपरु उ!राख#ड म%ु िव&िव�ालय, ह()ानी ,नैनीताल -263139 ISBN - 978-93-84632-64-9

  • ग� सािह�य -2 एवं योजनमलूक िह�दी BAHL-102

    उ�राखंड मु� िव�िव�ालय,ह� �ानी

    इकाई लेखक इकाई स�ंया

    डा. सिवता मोहन, 1,2,3,4,5 िनदेशक, उ� तराख� ड भाषा सं� थान, देहरादनू

    डा. �भा पंत 6,7,8 िहदंी िवभाग एम.बी.पी.जी. कॉलेज, ह� �ानी

    डा. राजे� � कैड़ा 9,10,11 िहदंी िवभाग उ� तराख� ड म�ु त िव� विव�ालय, ह� �ानी

    डा. शशांक श�ु ला, 12,13,14,15,19,20 िहदंी िवभाग, उ� तराख� ड म�ु त िव� विव�ालय, ह� �ानी

    डा.च�� �काश िम%ा 16,17,18 उपाचाय&,मोतीलाल नेह* कॉलेज िद�ली िव-िव�ालय ,िद�ली

    डा.शीला रजवार 21,22 नैनीताल, उ.राख�ड

  • ग� सािह�य -2 एवं योजनमलूक िह�दी BAHL-102

    उ�राखंड मु� िव�िव�ालय,ह� �ानी

    ख� ड 1 – िह� दी नाटक पृ� ठ सं� या

    इकाई 1 – िह� दी नाट्य सािह� य का िवकास एवं � व*प िववेचन 1-16

    इकाई 2 – जयशंकर �साद : प2रचय एवं कृि.�व 17-26

    इकाई 3 – च� �ग5ु त : कथाव� त,ुप2रवेश तथा उ6�े य 27-41

    इकाई 4 – च� �ग5ु त म7 च2र8 िच8ण 42-57

    इकाई 5 – भाषा – शैली और रंगमंचीय �� तिुत 58-71

    ख� ड 2 – िनबंध एव ंअ� य ग� िवधाए ँ पृ� ठ सं� या

    इकाई 6 – िह� दी िनबंध सािह� य का � व*प व ताि�वक िववेचन 72-88

    इकाई 7 – अ� य ग� िवधाओ ंका � व*प व ताि�वक िववेचन -1 89-102

    इकाई 8 – अ� य ग� िवधाओ ंका � व*प व ताि�वक िववेचन-2 103-117

    ख� ड 3 – िह� दी िनबधं : पाठ एवं आलोचना पृ� ठ सं� या

    इकाई 9 – क*णा : प2रचय,पाठ एवं आलोचना 118-140

    इकाई 10 – पंिडत@ कA पचंायत : प2रचय, पाठ एवं आलोचना 141-160

    इकाई 11 – उ.राख�ड म7 संत मत और संत सािह�य :

    प2रचय, पाठ एवं आलोचना 161-174

    ख� ड 4 – अ� य ग� िवधाए ँ : पाठ एवं आलोचना पृ� ठ स�ं या

    इकाई 12 – आ� मकथा-अपनी खबर : प2रचय, पाठ एवं आलोचना 175-194

    इकाई 13 – जीवनी- िनराला : प2रचय, पाठ एवं आलोचना 195-215

    इकाई 14 – सं� मरण-पथ के साथी : प2रचय, पाठ एवं आलोचना 216-236

  • ग� सािह�य -2 एवं योजनमलूक िह�दी BAHL-102

    उ�राखंड मु� िव�िव�ालय,ह� �ानी

    ख� ड 5 – �योजनमूलक िह�दी पृ� ठ सं� या

    इकाई 15 – �योजनमलूक िह�दी 237-249

    इकाई 16 – प8ाचार : काया&लयी प8, Dयावसाियक प8 250-276

    इकाई 17 – भाषा कE5यटुिनंग(कE5यटूर और िह�दी ) 277-293

    इकाई 18 – ई-प8का2रता 294-311

    इकाई 19 – प8का2रता का इितहास 312-324

    इकाई 20 – संपादन कला 325-342

    इकाई 21 – मीिडया/समाचार लेखन 343-364

    इकाई 22 – अनवुाद 365-385

  • ग� सािह�य -2 एवं योजनमलूक िह�दी BAHL-102

    उ�राखंड मु� िव�िव�ालय,ह� �ानी

    पाठ्य�म प�रचय

    . नातक उपािध काय�Bम के अतंग�त आप ग� सािह� य II एवं �योजनमूलक िहदंी

    शीष�क ि)तीय �E न पF का अ1 ययन कर रह े ह।ै यह पाठ्यBम अ+ य ग� िवधा एवं �योजनमलूक िहदंी पर आधा8रत ह।ै इस पाठ्यBम का मJु य उKEे य आपको ग� सािहL य क� अ+ य िवधाओ ंके �मखु NपO के सैPाि+तक एवं Q यावहा8रक Nप से तो प8रचय कराना ही ह,ै साथ-ही-साथ �योजनमूलक िहदंी क� अवधारणा से भी प8रिचत कराना ह।ै इस पाठ्यBम के अतंग�त हमने नाटक सािहL य के िवकास उसके �योिगक पाठ का िववचेन एवं अ+ य ग� िवधाओ-ंिनबंध, सं. मरण, रेखािचF, याFावLृ त, डायरी, पF के . वNप का तािLवक िववचेन िकया ह।ै आप िनबंध, पF, सं. मरण, याFासािहL य से प8रिचत हT आपने बचपन से नाटक का का मंचन होते हUए या टेलीिवजन पर उनक� �. तिुत होते हUए भी दखेा ह,ै िक+ त ुउसक� नाट्य �िBया एवं मू( यांकन के तL वO से अप8रिचत हT। इस पाठ्यBम का उKEे य नाटक एवं अ+ य ग� िवधाओ ंका सैPाि+तक एवं Q यावहा8रक प8रचय कराना ह।ै

    यह पाठ्यBम ग� क� अ+ य िवधाओ ंएवं �योजनमूलक िहदंी पर आध8रत ह।ै इस पाठ्यBम म> आप अ+ य ग� िवधाओ ं एवं �योजनमूलक िहदंी के सैPाि+तक एव ं Q यावहा8रक . वNप स ेप8रचय �ाV त कर>गी।

    5 ख# डO म> िवभ� त इस पाठ्यBम का िववरण इस �कार ह ै

    ख# ड 1 : िहदंी नाटक

    ख# ड 2 : िनबंध एवं अ+ य ग� िवधाएँ (तािLवक िववेचन)

    ख# ड 3 : िहदंी िनबंध : पाठ एवं आलोचना

    ख# ड 4 : अ+ य ग� िवधाएँ : पाठ एवं आलोचना

    ख# ड 5 : �योजनमलूक िहदंी

    ख# ड 1 नाटक सािहL य पर केि+,त ह।ै इस ख# ड म> नाटक क� सैPाि+तक अवधारणा एवं उसके

    इितहास का तो अ1 ययन कर>गे ही साथ-ही-साथ �मखु नाटककार जयशंकर �साद के नाटक च+,गVु त क� नाट्क िवशेषताओ ं से भी प8रिचत हOगे। यह ख# ड जहाँ नाटक के तL वO का सैPाि+तक Xान कराता ह ैवहY Q यावहा8रक आलोचना भी करता ह।ै

    ख# ड 2 िनबंध एव ंअ+ य ग� िवधाओ ंपर क> ि,त ह।ै ग� सािहL य के वगZकरण के Bम म> आप

    अ1 ययन कर>गे िक िनबंध, रेखािचF, सं. मरण, याFासािहL य, 8रपोताज�, डायरी, पF लखेन, आलोचना जैसी िवधाएँ आधिुनक काल म> अि.तL व लेती हT। इस ख# ड म> आप इन िवधाओ ंके तािLवक . वNप से प8रचय �ाV त कर>गे।

  • ग� सािह�य -2 एवं योजनमलूक िह�दी BAHL-102

    उ�राखंड मु� िव�िव�ालय,ह� �ानी

    ख# ड 3 का संबंध िहदंी िनबधं के अ1 ययन Bम म> आप रामच+ , श�ु ल, हजारी �साद ि)वेदी

    एवं पीता[ बर दL त बड़\ वाल के िनबंधO का मलू पाठ का अ1 ययन कर>ग ेतथा उसक� आलोचना से भी प8रिचत होग>। िनबंध को ग� सािहL य क� कसौटी कहा गया ह,ै इस ^ि� से इस ख# ड म> आप िनबंध िवधा के महL व को Q यावहा8रक धरातल पर समझ>गे।

    ख# ड 4 अ+ य ग� िवधाओ ं(डायरी, जीवनी, रेखािचF, सं. मरण, Q यं` य, पF इL यािद) के पाठ

    एवं आलोचना से संबंिधत ह।ै अ+ य ग� िवधाएँ िदन-�ितिदन जिटल होत ेजा रह ेसमाज को अिभQ य� त करने के Bम म> िवकिसत हUई हT। इस ^ि� से इनके . वNप को आL मसात करने के िलए मलू पाठ एव ंआलोचना दी गई ह ैिजससे आप . वयं इनक� िवशेषताओ ंको समझ सक> ।

    ख# ड 5 �योजनमलूक िहदंी पर आधा8रत ह।ै �योजनमलूक िहदंी बोलचाल क� िहदंी एवं

    सािहिLयक िहदंी से िभ+ न Q यावसाियक �योजनO को अपने भीतर समेटे हUए ह।ै इसम> वािणb य-Q यापार, काया�लय, बTक, कचहरी, खेल, मीिडया इL यािद 2FेO से जड़ुी भाषा का अ1 ययन िकया जाता ह।ै

  • गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102

    उत्तराखंड मकु्त विश्वविद्यालय 1

    इकाई 1 हिन्दी नाट्य साहित्य का हिकास एिं स्िरूप हििेचन इकाई की रूपरेखा

    1.1 प्रस्तािना

    1.2 उद्दशे्य

    1.3 नाटक का स्िरूप

    1.3.1 नाटक के तत्ि

    1.4 विन्दी नाट्य सावित्य का विकास एिं पररचय

    1.4.1 भारतेन्द ुयगु

    1.4.2 प्रसाद यगु

    1.4.3 प्रसादोत्तर यगु

    1.4.4 स्िातन््योत्तर यगु

    1.5 सारांश

    1.6 शब्दािली

    1.7 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर

    1.8 संदभभ ग्रंथ सचूी

    1.9 वनबंधात्मक प्रश्न

    1.1 प्रस्तावना आपको ज्ञात िोगा वक सरू और तलुसी का भवक्त काल में जो स्थान ि ैििी स्थान जयशकंर

    प्रसाद में आधवुनक सावित्य में ि,ै प्रसाद जी ने विन्दी सावित्य को व्यापक दृविकोण और निीन

    विषय प्रदान वकया। प्रसाद जी ने वििदेी यगुीन काव्यादशभ के विरूद्ध विद्रोि कर निीन काव्य-धारा

    और गद्य विधाओ ंका लेखन प्रारम्भ वकया, समकालीन समस्याओ ंके वनराकरण के वलए प्राचीन

    भारतीय इवतिास का आश्रय वलया ि।ै जयशकंर प्रसाद वक गणना आधवुनक काल के सिभश्रेष्ठ

    कवियों में की जाती ि,ै प्रसाद मलूतः कवि ि ैपरन्त ुउन्िोंने सावित्य की प्रत्येक विधा की रचना की

    ि।ैकवि के पश्चात उनका नाटककार स्िरूप सिाभवधक चवचभत रिा ि।ै

    भारतीय सावित्य के इवतिास में ‘नाटक’ को पणूभ सावित्य की गररम दी गयी ि ै किानी,

    कविता, नाटक में स्ितः िी समावित िो जाते िैं। भरतमवुन के नाट्यशास्त्र में ‘नाटक’ की विस्ततृ

  • गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102

    उत्तराखंड मकु्त विश्वविद्यालय 2

    व्याख्या की गयी ि,ै इस इकाई में आपको नाटक के स्िरूप, विन्दी नाटक के इवतिास की विस्ततृ

    जानकारी दी जा रिी ि।ै

    1.2 उद्दशे्य इस तथ्य से आप पररवचत की सांस्कृवतक चेतना का उत्कृि रूप काव्य ि ैऔर काव्य के

    उत्कृितम रूप को नाटक किा जाता ि।ै किा भी गया ि ैकी ‘काव्येष ुनाटक रम्यम’् अथाभत काव्य में

    नाटक सबसे अवधक रमणीय िोता ि।ै इसे वििानों ने नाट्य िदे की संज्ञा दी ि।ै सामावजक संबंधों की

    दृवि से सावित्य की अन्य विधाओ ंकी अपेक्षा नाटक का जीिन से अवभन्न संबंध ि।ै इसका समथभन

    करते िुए भरत मवुन ने किा था- नानाभािोपसम्पन्न नानािस्थान्तरात्मकम,् लोकितृ्तानकुरण

    नाट्यमतेन्मयाकृतम ् (1/112 नाटयशास्त्र), नाटक के माध्यम से एक साथ सभी िगों का मनोरंजन

    एि ं वचत्तिवृत्त का संस्कार िोता ि,ै जबवक सावित्य की अन्य विधाओ ं के वलए साक्षर िोना, एि ं

    सावित्य का ज्ञान िोना आिश्यक ि।ै नाटक समस्त सामावजकों के वलए वलखा जाता ि ै वजसमें

    कविता, िास्त,ु संगीत, वशल्प आवद विविध कलाओ ंका समािशे िोता ि।ै ि।ै

    विन्दी नाट्य सावित्य के विकास एि ंस्िरूप को सम्यक रूप से जानने का उद्दशे्य यि ि ैकी

    इसके माध्यम से िम विन्दी भाषा की विकास यात्रा, विन्दी सावित्य की विकास यात्रा के साथ- साथ

    भारतीय समाज में िोने िाले सामावजक, राजनैवतक, एि ंआवथभक पररिभतन का ज्ञान प्राप्त कर सकते

    ि।ै जसैा की उपर स्पि वकया जा चकुा ि ैकी नाटक सावित्य की सबसे सशक्त विधा ि ैअतः सपि िी

    ि ैवक नाटक के वििचेन के मध्य सम्पणूभ सावित्य का वििचेन भी िो जाता ि।ै

    1.3 नाटक का स्वरूप संस्कृत के आचायो ने नाटक के स्िरूप पर विस्तार से विचार वकया ि।ै भरत मवुन के

    ‘नाट्यशास्त्र’ में किा गया ि-ै वजसमें स्िभाि से िी लोक का सखु-दःुख समवन्ित िोता ि ैतथा अगंों

    आवद के िारा अवभनय वकया जाता िै, उसी को नाटक किते िैं। अवभनि गपु्त ने वलखा ि-ै नाटक

    िि दृश्य-काव्य ि ैजो प्रत्यक्ष कल्पना एि ंअध्यिसाय का विषय बन सत्य एि ंअसत्य से समवन्ित

    विलक्ष्ण रूप धारण करके सिभसाधारण को आनन्दोपलवब्ध प्रदान करता ि।ै मविम भट्ट के अनसुार-

    अनभुाि- विभािावद के िणभन से जब रसानभुवूत िोती ि ैतो उसे काव्य किते िैं और जब काव्य को

    गीतावद से रंवजत एिं अवभनेताओ ंिारा प्रदवशभत वकया जाता ि ैतो िि नाटक का स्िरूप धारण कर

    लेता ि।ै रामचन्द्र, गणुचन्द्र के अनसुार- जो प्रवसि आद्य (पौरावणक एि ंऐवतिावसक) रामचररत पर

    आधाररत िो, जो धमभ, काम एि ंअथभ का फलदाता िो और जो अकं , आय (पााँच अथभ-प्रकृवत)

    दशा (पंचािस्था) से समवन्ित िो, उसे नाटक किा जाता ि।ै भारतीय आचायभ रस- वनष्पवत्त को

    उद्दशे्य मानते िुए िी नाटक का स्िरूप वनर्ाभररत करते िैं, जबवक पाश्चात्य आचायों ने ‘कायभ’ को

    मित्ि दतेे िुए, संर्षभ, संकलन त्रय, दःुखान्त, सखुान्त आवद लक्षणों को प्रमखुता दी ि।ै

  • गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102

    उत्तराखंड मकु्त विश्वविद्यालय 3

    1.3.1 नाटक के तत्व

    संस्कृत नाट्यशास्त्र में नाटक के तीन मलूभतू तत्ि माने िैं- िस्त,ु नेता और रस। और इन्िीं तीनों का

    विस्ततृ वनरूपण वकया ि।ै पाश्चात्य काव्य शास्त्र में नाटक के छः तत्ि माने गए िैं । आज यिी छः

    तत्ि विन्दी नाट्यकला के प्रमखु तत्िों के रूप में ग्रिण वकए गए िैं- 1. कथािस्त ु2. पात्र या चररत्र-

    वचत्रण 3. कथोपकथन या संिाद 4. दशेकाल या िातािरण 5. भाषा- शलैी 6. उद्दशे्य ।

    वस्तु अथवा कथावस्तु- नाटक की मलू कथा को िी िस्तु, कथानक या कथािस्त ुआवद नामों से

    पकुारा जाता ि।ै कथािस्त ुदो प्रकार की िोती ि-ै 1. आवधकाररक अथाभत ्मखु्य 2. प्रासंवगक अथिा

    प्रसंगिश ् आई िुई गौण कथाए।ं यि मखु्य कथा के विकास और सौन्दयभिद्धभन में सिायक िोती ि।ै

    आधार के भदे से कथािस्त ुतीन प्रकार की िोती ि-ै 1. प्रख्यात, वजसका आधार इवतिास, परुाण या

    जनश्रवुत िोता ि।ै 2. उत्पाद्य, जो नाटककार की अपनी कल्पना िोती ि।ै 3. वमवश्रत, वजसमें इवतिास

    और कल्पना का वमश्रण िोता ि।ै नाटक को कथािस्तु में कायभ-व्यापार की दृवि से पााँच अिस्थाएाँ

    मानी गयी िैं- 1. आरम्भ, 2. विकास, 3. चरमसीमा, 4. उतार, 5. अतं या समावप्त। भारतीय प्राचीन

    आचायाां का िगीकरण भी इसी प्रकार का ि,ै केिल नाम का भदे ि,ै जो इसी क्रम में इसी प्रकार ि,ै

    1. आरम्भ, 2. प्रयत्न, 3. प्रात्याशा, 4. वनयतावप्त, 5. फल। कथानक की पााँचों अिस्थाऐ ंमलूक िैं।

    पाश्चात्य नाटक में संर्षभ को मित्ि प्राप्त ि,ै जबवक भारतीय नाटक में नेता और उसके आदशभ को।

    भारतीय नाटको में भी संर्षभ देखा जा सकता ि ैवकन्त ुउसकी वस्थवत सीधी और स्पि िोती ि।ै

    पात्र और चररत्र हचत्रण- सम्पणूभ नाटक पात्र और उनकी गवतविवधयों पर िी आधाररत िोता ि।ै

    पात्र िी कथानक को आग ेबढ़ाता िुआ अन्त की ओर ले जाता ि।ै ििी कथा का संिािक भी िोता

    ि।ै पाश्चात्य नाट्य कला में भारतीय नाट्य कला की भांवत नायक का कोई सवुनवश्चत स्िरूप निीं ि,ै

    िि साधारण और असाधारण, वकसी भी वस्थती का िो सकता ि।ै आधवुनक नाटको में पात्रों का

    चररत्र-वचत्रण आदभश से िटकर यथाथभिादी पद्धवत पर वकया जा रिा ि।ै पात्रों को व्यवक्त पात्र,

    प्रवतवनवध पात्र इन दो भदेो में विभक्त वकया जा सकता ि।ै नाटक के नायकों के चार प्रकार मानें िैं-

    धीरोदात्त , धीर-लवलत, धीर-प्रशांत , और धीरोद्धत। नाटको में भी चररत्र- वचत्रण उपन्यास की िीं

    भांवत िोता ि।ै परन्त ु उपन्यासकार की भांवत नाटक का विशे्लषणात्मक या प्रत्यक्ष रूप से चररत्र-

    वचत्रण निीं कर सकता, उसे परोक्ष या अवभनयात्मक ढंग से काम लेना पड़ता ि।ै कथािस्त,ु

    र्टनाओ ंऔर कथोपकथनों के िारा नाटकीय पात्रों के चररत्र का उद्घाटन िोता ि।ै

    कथोपकथन- नाटक संिादों के माध्यम से िी वलखा जाता ि,ै पात्र का चररत्र- वचत्रण में, कथा का

    विकास, रोचकता और िातािरण सजृन सभी संिादों से िी िोता ि।ै संिाद अन्य विधाओ ं की

    अपेक्षा नाटक का अवधक प्राण तत्ि िोता ि।ै संिाद की प्रसंग- पररवस्थवत, पात्रानरुूपता उसका मलू

  • गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102

    उत्तराखंड मकु्त विश्वविद्यालय 4

    तत्ि ि।ै संिाद वजसके साथभक, संवक्षप्त, िक्र और अन्तः शवक्त सम्पन्न िोते िैं, नाटक उतना िी

    सफल िोता ि।ै नाटक में संिादों की भाषा सरल, सरस और प्रभािपणूभ िोनी चाविए।

    देश काल वातावरण: संकलनत्रय- नाटक में दशेकाल का वनिाभि आिश्यक ि।ै यगुीन सन्दभों

    को रूपावयत करने के वलए नाटक में दशेकाल के अनरुूप िी पात्र की िषेभषूा, पररवस्थवतयों,

    आचार-विचार आवद िोने चाविए। इसके सफल वनिाभि से पात्र सजीि प्रतीत िोते िैं। कथा-यगु के

    अनरुूप िी समाज राजनीवत और पररवस्थवतयों का अकंन भी िोना चाविए। सफल नाटककार दृश्य

    विधान, मचं व्यिस्था, िशेभषूा और अवभनय आवद के िारा सजीि िातािरण की सवृि कर लेता ि।ै

    प्राचीन ग्रीक आचायों न ेदशे तथा काल की समस्या पर विचार कर, ‘संकलन त्रय’ का विधान वकया

    ि।ै इसके अनसुार स्थल, कायभ तथा काल की एकता पर विशषे ध्यान दनेा पड़ता ि।ै उनका मत ि ैवक

    वकसी नाटक में र्टी र्टना वकसी एक िी कृत्य से, एक िी स्थान से सम्बवन्धत िो और एक िी वदन

    में र्टी िो। ऐसा करने से देश- काल और िातािरण का ससंुगत वचत्रण करने में कोई बाधा निीं आ

    पाती।

    भाषा-शैली- नाटक एक दृश्य काव्य ि।ै दशभक संिादों के िारा िी कथ्य को ग्रिण करता ि,ै अवभनय

    उसे हृदय में उतार देता ि,ै अतः भाषा सरल, स्पि और सजीि िोने पर िी दशभक और श्रोता को

    रसानभुवूत कराने में समथभ िोती ि।ै इसवलए नाटक में शब्दा, िाक्य और भाषा का ऐसा प्रयोग िोना

    चाविए, जो सिज ग्रािय िो। नाटक के वलए भाषा-शलैी की सरसता अवनिायभ ि।ै भाषा-शलैी

    विषयानकूुल, प्रसाद, ओज और माधयुभ गणु यकु्त िोनी चाविए, साथ िी प्रभािपणूभ भी िोनी चाविए।

    उदे्दश्य- नाट्य शास्त्र में परुूषाथभ- चति्ुय धमभ, अथभ, काम, मोक्ष को नाटक का उद्दशे्य माना गया ि।ै

    इसी के साथ रसानभुवूत को भी नाटक का प्रयोजन माना गया ि।ै आज के नाटक जीिन का वचत्रण

    करते िैं, अतः जीिन की समस्याओ ं की प्रस्तवुत और उनकी व्याख्या तथा समाधान नाटकों का

    उद्दशे्य ि।ै नाटककार इस उद्दशे्य की वसवद्ध पात्रों के संिाद, उनके कायभ- कलाप और नाना र्टनाओ ं

    िारा करता ि।ै नाटक में नाटककार जीिन की व्याख्या परोक्ष रूप में व्यंवजत करता ि।ै वजतना िी

    उद्दशे्य मिान िोगा, उतनी िी रचना श्रेष्ठ िोगी। जो लेखक वजतनी अवधक उदात्त मानिीय संिदेना के

    रूप में अपना जीिनोद्दशे्य प्रकट करता िै, िि उतना िी मिान कलाकार बनता ि।ै

    अहभनेयता एव ं रंगमंच- भारतीय आचायों के अनसुार ‘अवभनय’ नाटक का प्रमखु अगं ि।ै यि

    नाटक की अवभव्यवक्त का प्रधान साधन ि।ै भरत मवुन ने नाटक के चार प्रकार माने िैं- 1. आवंगक,

    2. िावचक, 3. आिायभ, 4. सावत्िक। नाटक की साथभकता उसके अवभनीत िोने में िी ि।ै यद्यवप कुछ

    नाटक केिल पढ़ने के वलए िी िोते िैं, जसेै अवधकांश प्रसाद जी के नाटक। प्राचीन काल में संस्कृत-

    नाटकों का अवभनय िोता था,इसवलए रंगमचं की सचुारू व्यिस्था थी। रंगमचं की लम्बाई , चौड़ाई,

    ऊाँ चाई आवद की सीमाएाँ वनवश्चत थी, परन्त ुप्राचीन विन्दी नाटकों का अभाि िोने से रंगमचं का कोई

    विकास निीं िो पाया। आधवुनक काल में आकर जब नाटकों की रचना आरम्भ िुई तो रंगमचं

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    अत्यन्त वनम्नकोवट का और अव्यिवस्थत िो गया था। भारतेन्द ुजी ने उसमें कुछ सधुार वकए, उसी

    समय से विन्दी के रंगमचं का अवस्तत्ि आरम्भ िोता ि।ै

    अतः अवभनय या रंगमचं नाटक का अवनिायभ तत्ि ि।ै नाटक की सफलता की मित्िपणूभ

    कसौटी ि।ै रंगमचं पर अवभनय के िारा प्रस्ततु िोने पर िी नाटक की साथभकता वसद्ध िोती ि,ै अतः

    नाटक अवभनय के योग्य िोना चाविए।

    1.4 हिन्दी नाटय साहित्य का हवकास एवं स्वरूप विन्दी में नाटक के स्िरूप का समवुचत विकास आधवुनक यगु से आरम्भ िोता ि।ै

    सन1्850 से अब तक के यगु को िम नाट्य- रचना की दृवि से तीन खण्डों में विभक्त कर सकते िैं-

    (1) भारतेन्द ु यगु (1857-1900 ई.), (2) प्रसाद यगु (1900-1930), और (3) प्रसादोत्तर यगु

    (1930 से अब तक)। इनमें से प्रत्येक यगु का पररचय यिााँ कमशः प्रस्ततु वकया जाता ि।ै

    1.4.1 भारतेन्दु युग

    स्ियं बाब ूिररश्चन्द्र ने विन्दी का प्रथम नाटक अपने वपता बाब ूगोपालचन्द्र िारा रवचत ‘निुष नाटक’

    (सन ् 1841 ई.) को बताया ि।ै वकन्त ु तावत्िक दृवि से यि पिूभिती ब्रजभाषा पद्य नाटकों की िी

    परम्परा ि।ै सन ् 1861 ई. में राजा लक्ष्मणवसंि ने ‘अवभज्ञान शाकुन्तल’ का अनिुाद प्रकावशत

    करिाया। भारतेन्द ुजी की प्रथम नाटक ‘विद्या-सनु्दर’ (सन1्868 ई.) भी वकसी बंगला के नाटक का

    छायानिुाद था। इसके अनन्तर उनके अनेक मौवलक ि अनिुावदत नाटक प्रकावशत िुए वजनमें

    पाखण्ड-वबडम्बन (1872), िवैदकी विसंा विसंा न भिवत (1872), धनंजय-विजय, मदु्राराक्षस

    (1875), सत्य- िरीश्चन्द्र (1875), प्रेम योवगनी (1875), विषस्य विषमौषधम ्(1876), कपूभर- मजंरी

    (1876), चन्द्रािली (1877), भारत ददुभशा (1876), नील दिेी (1877), अधंेर नगरी(1881) और

    सती- प्रताप (1884) आवद उल्लेखनीय ि।ै भारतेन्द ु के नाटक मखु्यतः पौरावणक, सामावजक एि ं

    राजनैवतक विषयों पर आधाररत ि।ै सत्य िरीश्चन्द्र, धनंजय-विजय, मदु्राराक्षस, कपूभर-मजंरी ये चारों

    अनिुावदत ि।ै अपने मौवलक नाटकों में उन्िोंने सामावजक कुरीवतयों एि ंधमभ के नाम पर िोने िाले

    कुकृत्यों आवद पर तीखा व्यंग्य वकया ि।ै ‘पाखण्ड- वबडम्बन’, िवैदकी विसंा विसंा न भिवत, इसी

    प्रकार के नाटक िैं। ‘विषस्य- विषमौषधम’् में दशेी नरेशों की ददुभशा, राष्रभवक्त का स्िर उदर्ोवषत

    िुआ ि।ै इसमें ‘अगं्रेज’ को भारत-ददुिे के रूप में वचवत्रत करते िुए भारतिावसयों के दभुाभग्य की

    किानी को यथाथभ रूप में प्रस्ततु वकया गया ि।ै इसमें स्थान- स्थान पर विदशेी शासकों की

    स्िचे्छाचाररता, पवुलस िालों के दवु्यभििार, भारतीय जनता की मोिान्धता पर गिरे आर्ात वकए गए

    ि।ै

    भारतेन्द ुिररश्चन्द्र को संस्कृत, प्राकृत, बंगला ि अगं्रेजी के नाटक-सावित्य का अच्छा ज्ञान

    था। उन्िोंने इन सभी भाषाओ ंमें अनिुाद वकए थे। नाट्यकला के वसिान्तों का भी उन्िोंने अध्ययन

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    वकया था, उन्िोनें अपने नाटकों में अवभनय की भी व्यिस्था की थी तथा उन्िोनें अवभनय में भाग

    भी वलया था। इस प्रकार नाट्यकला के सभी अगंों का उन्िें परूा ज्ञान और अनभुि था। यवद िम एक

    ऐसा नाटकार ढूंढ ेवजसने नाट्य- शास्त्र के गभंीर अध्ययन के आधार पर नाट्य-कला पर सैद्धावन्तक

    आलोचना वलखी िो, वजसने प्राचीन और निीन, स्िदशेी और विदशेी नाटकों का अध्ययन ि

    अनिुाद प्रस्ततु वकया िो, वजसने ियैवक्तक, सामावजक एिं राष्रीय समस्याओ ं को लेकर अनेक

    पौरावणक, ऐवतिावसक एि ंमौवलक नाटकों की रचना की िो ओर वजसने नाटकों की रचना की निीं,

    अवपत ुउन्िें रंग- मचं पर खले कर वदखाया िो इन सब विशेषताओ ंसे सम्पन्न नाटककार, विन्दी में

    िी निीं- अवपत ुसमस्त विश्व-सावित्य में केिल दो चार िी वमलेंगें ओर उन सब में भारतेन्द ुका स्थान

    सबसे ऊाँ चा िोगा। उनकी शैली सरलता, रोचकता एि ंस्िाभाविकता गणुों से पररपणूभ ि ै

    भारतेन्द ुयगु के अन्य नाटककारों में लाला श्रीवनिास दास, राधाकृष्णदास, बालकृष्ण दास

    भट्ट, बद्रीनारायण चौधरी प्रेमधन’, राधाचरण गोस्िामी, प्रताप नारायण वमश्र, प्रभवूत का नाम

    उल्लेखनीय ि।ै लाला श्रीवनिास दास ने -‘प्रिलाद चररत्र’, रणधीर-प्रेम मोविनी (1877), और

    संयोवगता- स्ियंिर (1855), की रचना की। इनमें सिभश्रेष्ठ रचना ‘रणिीर वसंि और प्रेम-मोिनी ि।ै

    इसका ससंुगवित, चररत्र- वचत्रण स्िाभाविक तथा कथोपकथन िाताकुवलत एिं पररवस्थवतयों के

    अनसुार िैं। लाला जी ने किीं-किीं प्रादवेशक भाषाओ ंका भी प्रयोग िातािरण को यथाथभ रूप दने े

    के वलए वकया ि।ै इसे विन्दी का पिला दःुखान्त नाटक भी माना गया ि।ै

    राधाकृष्ण के िारा रवचत नाटकों में ‘मिारानी पदमािती (1883), धमाभलाभ (1885),

    मिाराणाप्रताप वसंि तथा राजस्थानकेसरी (1897) उल्लेखनीय िैं। वजसमें मिारानी पदमािती का

    कथानक ऐवतिावसक ि।ै वजसमें सतीत्ि के गौरि की व्यंजना की गई ि।ै धमाभलाभ में विवभन्न धमो

    के प्रवतवनवधयों का िाताभलाप वदखातें िुए अतं में सभी धमों की एकता का प्रवतपादन वकया गया ि।ै

    ‘दवुखनी बाला’ अनमले वििाि के पररणामों को व्यक्त करता ि।ै इनका सिभश्रषे्ठ नाटक

    ‘मिाराणाप्रताप वसंि’ ि ै वजसमें मिाराणा के सािस, शौयभ, त्याग की व्यंजना अन्त्यन्त ओजपणूभ

    शलैी में की गई ि।ै मिाराणा का चररत्र स्ियं उन्िीं के शब्दों में इस प्रकार ि-ै

    जब लौं तन प्रर्ाण न तब लौं मखु की मोड़ौं।

    जब लौं कर में शवक्त न तब लौं शस्त्रवि ंछोड़ौं

    जब लौं वजह्वा सरस दीन िच नावि ंउचारौं।

    जब लौं धड़ पर सीस झकुािन नावि ंविचारौं।

    मिाराणा के साथ- साथ अकबर के चररत्र को भी सिानभुवूत के साथ उजागर वकया ि।ै

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    बालकृष्ण भट्ट ने लगभग एक दजभन मौवलक एि ं अनवुदत नाटक प्रस्ततु वकए िैं। उनके मौवलक

    नाटकों में ‘दमयंती स्ियंिर’, ‘ििृन्नला’, ‘िणेसंुिार’, ‘कवलराज’, की सभा, ‘रेल का विकट खले’,

    ‘बाल वििाि’, ‘जसैा काम िसैा पररणाम’, आवद उल्लेखनीय िैं। इनमें अवन्तम चार प्रिसन िैं

    वजनमें अपने यगु ओर समाज के विवभन्न िगो एिं पररवस्थवतयों पर व्यंग्य वकया गया ि।ै िस्ततुः

    प्रिसनों की परम्परा को आग े गढ़ाने में भट्ट जी का अदु्भत येागदान ि।ै बद्रीनारायण ‘प्रेमर्न’ ने

    समाज एि ंराष्र की विवभन्न पररवस्थयों से प्रेररत िोकर ‘भरत सौभाग्य’ (1888), ‘प्रयागरामागमन’

    (1904), िारांगन-रिस्य’ (अपणूभ), िदृ्ध- विलाप’ आवद नाटकों की रचना की जो राष्र-सधुार की

    भािनाओ ंसं अनपु्रावणत ि।ै इसी प्रकार राधाचरण गोस्िामी ने भी अनेक नाटकों की रचना की जसेै-

    ‘सती चन्द्रािली’ (1890), ‘अमर-रािौर’ (1894), ‘श्रीदामा’ (1904), ‘बढ़ूे मुिं मुिंासे’ (1887),

    ‘भगं-तरंग’ (1892),। इनमें प्रथम तीन को छोडकर शेष प्रिसन ि।ै वजनमें अपने युग की सामावजक

    एि ंधावमभक बरुाईयों की आलोचना व्यंग्यात्मक शैली में की गई ि।ै प्रताप नारायण वमश्र के ‘भारत-

    ददुभशा’ (1902), ‘गो-संकट’ (1886), ‘ ििी िमीर’, ‘कवलकौतकु रूपक’, आवद भी राष्र जागरण

    एि ंसमाज सधुार की प्रेरणा से रवचत िैं, वकन्त ुनाट्य कला की दृवि से साधारण कोवट के िैं। भारतेन्द ु

    यगु के अन्य मौवलक नाटक-रवचयताओ ं में दिेकीनन्दन वत्रपािी शावलग्राम, अवम्बकादत्त व्यास,

    जगंबिादरु मल्ल, बलदिे प्रसाद, तोताराम, ज्िालाप्रसाद वमश्र, दामोदर शास्त्री आवद का नाम

    उल्लेखनीय िैं। दिेकी नन्दन वत्रपािी ने अनेक पौरावणक नाटकों एि ंप्रिसनों की रचना की थी। उनके

    पौरावणक नाटक ‘सीता-िरण’ (1876),‘रूक्मणी-िरण’ (1876), कंस िध’ (1904), आवद िैं तथा

    प्रिसनों की नामािली इस प्रकार ि-ै ‘रक्षा बन्धन’ (1878), ‘एक-एक के तीन-तीन’ (1879), ‘स्त्री

    चररत्र’ (1879), ‘िशे्य-विलास’, ‘बैल छः टके को’, आवद। वत्रपािी जी के पौरावणक नाटक उच्च

    कोवट के निीं िैं, वकन्त ुप्रिसनों में व्यग्यात्मक शैली का विकास यथेष्ठ रूप में िुआ ि।ै शावलग्राम ने

    भी ‘अवभमन्य ुिध’ (1896), ‘परुू-विक्रम’ (1906), ‘मोरघ्िज (1890), आवद पौरावणक तथा

    ‘लािण्यिती-सदुशभन’ (1892), ‘ माध्िानन्द-कामकंदला’ (1904), आवद रोमांवटक नाटकों की

    रचना की थी, जो कलात्मक दृवि से सामान्य कोवट के िैं। अवम्बकादत्त व्यास के दो नाटक-‘भारत-

    सौभाग्य’ (1887), ‘गो संकट नाटक’ (1886), यगुीन पररवस्थयों पर आधाररत ि।ै इनके अवतररक्त

    उनके िारा रवचत ‘लवलता नावटका’, ‘मन की उमगं’, आवद भी उपल्बध ि।ै इनमें प्रेम और िास्य का

    सवम्मश्रण िैं। खड्ग बिादरु मल्ल ने भी ‘मिारास’ (1885), ‘िर-तावलका’ (1887), ‘कल्प-िकृ्ष’

    (1887), आवद पौरावणक नाटकों की रचना की िैं, वकन्त ुइनके अवतररक्त उनका एक प्रिसन ‘भारते-

    भारत’ (1888) भी उपलब्ध ि।ै बलदिे प्रसाद वमश्र का ‘मीराबाई’ (1897), भवक्त-भाि से पररपणूभ

    ि।ै इसमें बीच-बीच में मीरा के पदों का भी उपयोग वकया गया ि।ै इनके अवतररक्त तोताराम रवचत

    ‘वििाि विडम्बन’ (1900), कृष्णदिे शरण वसंि’ गोप’ का ‘माधरुी रूपक’ (1888), दामोदर शास्त्री

    का ‘ रामलीला नाटक’ (1869), ज्िाला प्रसाद वमश्र का ‘सीता-बनिास’ (1875), काशीनाथ खत्री

    के ‘तीन ऐवतिावसक रूपक’ (1884), आवद भी इस यगु की उल्लेखनीय कृवतयां िैं। प्रिसनों की

    परम्परा को आग ेबढ़ाने की दृवि से वकशोरी लाल गोस्िामी का ‘चौपट-चपेट’ (1891), गोपालराम

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    गिमरी का ‘जसैे का तैसा’, निल वसंि का ‘िशे्य नाटक’, विजया नंद वत्रपािी का ‘मिा अधंेर

    नगरी’ (1895), बलदिे प्रसाद वमश्र का ‘ लल्ला बाबू’ आवद उल्लेखनीय ि।ै इनमें समाज के

    विवभन्न िगो की कलवुषत प्रिवृत्तयों पर व्यगं्य वकया गया ि।ै

    अनुवाद- इस यगु में संस्कृत, बंगला और अगं्रेजी के नाटकों के अनिुाद भी बिुत बडी संख्या में

    प्रस्ततु िुए। संस्कृत के कावलदास, भिभवूत, शदू्रक, िषभ आवद के नाटकों के विन्दी अनिुाद लाला

    सीताराम, दिेदत्त वतिारी, नन्दलाल, ज्िालाप्रसाद वमश्र ने तथा बंगला के ‘पदमािती’,

    ‘कृष्णकुमारी’, ‘िीरनारी’ आवद का बाब ू रामकृष्ण िमाभ, उवदत नारायण लाल, ब्रजनाथ आवद ने

    प्रस्ततु वकए। अगं्रेजी के शके्सवपयर के नाटकों के अनिुाद भी तोताराम, रत्नचन्द्र, मथरुाप्रसाद

    उपाघ्याय आवद के िारा वकए गए। िस्ततुः 19िीं सदी के अन्त तक विवभन्न भाषाओ ं के अनेक

    उत्कृि नाटकों के अनिुाद विन्दी में प्रस्ततु िो गए थ,े वजनकी परिती नाटककारों को बडी प्रेरणा

    वमली।

    1.4.2 प्रसाद युग

    इस यगु के नाटक- सावित्य को भी विषय गत प्रिवृत्तयों की दृवि स ेचार िगो में विभक्त वकए जा

    सकता ि-ै 1. ऐवतिावसक, 2. पौरावणक, 3. काल्पवनक, 4. अनवुदत नाटक। इनमें से प्रत्येक िगभ का

    संवक्षप्त पररचय यिां क्रमशः वदया जाता ि।ै

    (1) ऐहतिाहसक नाटक - इस यगु के सिभ-प्रमखु नाटककार जयशकंर प्रसाद ने मखु्यतः ऐवतिावसक

    नाटकों की िी रचना की थी। उनके नाटकों का रचना-क्रम इस प्रकार ि-ै ‘सज्जन’ (1910),

    ‘कल्याणी- पररणय’ (1912), ‘करूणालय’ (1913), ‘प्रायवश्चत’ (1914), ‘राजश्री’ (1915),

    ‘विशाख’ (1921), ‘अजातशत्र ु ’ (1922), ‘जनमेजय का नाग-यज्ञ’ (1926), ‘स्कन्दगपु्त’

    (1928), ‘ एक र्ूाँट’ (1929), ‘चन्द्रगपु्त’ (1929), और ‘ध्रिुस्िावमनी’ (1933)। प्रसाद जी अपने

    दशे िावसयों में आत्म-गौरि, स्िावभमान उत्साि एि ंप्रेरणा का संचार करने के वलए अतीत के गौरि

    पणूभ दृश्यों को अपनी रचनाओ ं में वचवत्रत वकया। यिी कारण ि ै वक उनके अवधकांश नाटकों का

    कथानक उस बौद्ध-यगु से सम्बवन्धत ि।ै जबवक भारत की सांस्कृवतक-पताका विश्व के विवभन्न भागों

    में फिरा रिीं थीं। प्राचीन इवतिास एि ंसंस्कृवत को प्रसाद न ेबड़ी सकू्ष्मता से प्रस्ततु वकया ि,ै उसमें

    केिल उस यगु की स्थलू रेखाए ंिी निीं वमलती िैं। धमभ की बािय-पररवस्थवतयों की अपेक्षा उन्िोंने

    दशभन की अन्तरंग गवुत्थयों को स्पि करना अवधक उवचत समझा ि।ै पात्रों के चररत्र-वचत्रण में भी

    उन्िोंने मानवसक अन्तिभन्ि का वचत्रण करते िुए उनमें पररवस्थवत के अनसुार पररिभतन ि विकास

    वदखाया िैं। मानि-चररत्र के सत ्और असत ्दोनो पक्षों को पणूभ प्रवतवनवधत्ि उन्िोनें प्रदान वकया ि।ै

    नारी-रूप को जसैी मिानता, सूक्ष्मता, शालीनता एि ंगम्भीरता कवि प्रसाद के िाथों प्राप्त िुई ि ैउससे

    भी अवधक सवक्रय एि ं तेजस्िी रूप उसे नाटककार प्रसाद ने प्रदान वदया ि।ै प्रसाद के प्रायः सभी

    नाटकों में वकसी न वकसी ऐसी नारी-पात्र की अिधारणा िुई ि ैजो धरती के दःुखपूणभ अन्धकार के

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    बीच प्रसन्नता की ज्योवत की भांवत उद्दीप्त ि,ैजो पाशविकता, दनजुता और कू्ररता के बीच क्षमा,

    करूणा एि ं प्रेम के वदव्य संदशे की प्रवतष्ठा करती ि ै जो अपने प्रभाि से दजभनों को सज्जन,

    दरुाचाररयों को सदाचारी, और नशृसं अत्याचाररयों को उदार लोक -सेिी बना दतेी ि।ै ‘नारी तमु

    केिल श्रिा िो’ की उवक्त को इन वदव्य नावयकाओ ंपर पणूभतः लाग ूिोती ि।ै

    इस यगु के अन्य ऐवतिावसक नाटकों में बद्रीनाथ भट्ट िारा रवचत‘ चन्द्रगपु्त’ (1915),

    ‘दगुाभिती’ (1926), ‘तलुसीदास’ (1925), सदुशभन िारा रवचत ‘ दयानन्द’ (1917), मुशंी प्रेमचन्द

    का ‘कबभला’ (1924), पाण्डेय बेचन शमाभ ‘उग्र’ का ‘मिात्मा ईसा’ (1922), जगन्नाथप्रसाद

    ‘वमवलन्द’ के ‘प्रताप-प्रवतज्ञा’ (1928), गोविन्द बल्लभ पंत का ‘िरमाला’ (1925), चन्द्रराज

    भण्डारी का ‘सम्राट-अशोक’ (1923), आवद उल्लेखनीय ि।ै बद्रीनाथ भट्ट के नाटकों में ‘दगुाभिती’

    सिभश्रेि ि।ै इसकी र्टनाऐ ंऐवतिावसक ि,ै तथा चररत-वचत्रण में स्िाभाविकता ि।ै संिाद एि ंभाषा-

    शलैी की दृवि से यि उत्कृि रचना ि।ै सदुशभन का ‘दयानन्द’ चररत्र प्रधान नाटक ि।ै चररत्र- वचत्रण

    एिं र्टना क्रम के विकास की दृवि से यि भी एक सफल नाटक ि।ै ‘प्रेमचन्द का ‘काबा कबभला’

    पाि्य रचना की दृवि से तो िीक ि ैवकन्त ुअवभनय की दृवि से दोष-पणूभ ि।ै नाटक की असाधारण

    लम्बाई, पात्रों की अत्यवधक संख्या, यदु्ध, मार-काट, सेना के प्रयोग आवद के दृश्यों के कारण यि

    अनवभनेय बन जाता ि।ै इस िगभ के अन्य नाटक, मिात्मा ईसा, ‘प्रताप-प्रवतज्ञा’, ‘िरमाला’ आवद

    अिश्य उच्च कोवट के नाटक ि।ै इनमें ऐवतिावसकता, स्िाभाविकता, एि ंकल्पना का सनु्दर संयोग

    िुआ ि।ै

    (2) पौराहणक नाटक- पौरावणक नाटकों की एक सशक्त परम्परा का प्रिभतन इस यगु से बिुत पिूभ

    िी भारतेन्द-ु मण्डल के विवभन्न लेखकों िारा िो चकुा था, वजसकी चचाभ पीछे की जा चकुी ि।ै इस

    यगु के पौरावणक नाटकों की एक सचूी यिां प्रस्ततु ि-ै 1. गगंाप्रसाद कृत ‘रामावभषके नाटक’

    (1910), 2. ब्रजनंद कृत ‘रामलीला नाटक’ (1908), 3. वगररधर लाल का ‘रामिन यात्रा’

    (1910), 4. नारायण सिाय का ‘रामलीला नाटक’ (1911), 5. राम गलुाम का ‘धनषु-यज्ञ लीला’

    (1912), 6. मिािीर वसंि का ‘नल-दमयन्ती’ (1905), 7. गोचरण गोस्िामी का ‘अवभमन्य-ुिध’

    (1906), 8. लक्ष्मी प्रसाद का ‘उिभशी’ (1910), 9. वशिनन्दन सिाय का ‘सदुामा नाटक’ (1907),

    10. ब्रजनन्दन सिाय का ‘उद्धि’ (1909), 11. रामनारायण वमश्र का ‘कंस-िध’ (1910), 12.

    परमशे्वर वमश्र का ‘रूपिती’ (1907), 13. िररनारायण का ‘कावमनी-कुसमु’ (1907), 14. रामदिेी

    प्रसाद का ‘चन्द्रकला-भान ु कुमार’ (1904)। ये नाटक सामान्यतः साधारण कोवट के िैं। इनमें से

    अनेक पर पारसी रंगमचं की छाप ि।ै

    (3) कल्पनाहित नाटक- वजन नाटकों की कथा िस्त ुमें इवतिास परुाण और कल्पनावमवश्रत िोती

    ि ैउन्िें कल्पनावश्रत नाटक किा जाता ि।ै इस िगभ के नाटकों के दो भदे वकए जा सकते िै- 1. प्रिसन

    एि ं2. सामावजक नाटक। प्रिसनों के अन्तभगत मखु्यतः ज.ेपी श्रीिास्ति िारा रवचत ‘दमुदार आदमी’

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    (1919), उलट फेर (1919), ‘मदाभनी औरत’ (1920), बद्रीनारायण भट्ट िारा रवचत 'चगुीं की

    उम्मीदिारी' (1919), ‘वििाि विज्ञापन’ (1927), बेचेन शमाभ के दो नाटक चार बेचारे सवम्मवलत

    वकए जा सकते ि।ै सामावजक नाटकों के अन्तभगत वमश्र बन्धओु ंके नाटक मुशंी प्रेमचंद का ‘संग्राम’,

    लक्ष्मण वसंि का ‘गलुामी का नशा’ प्रमखु नाटक ि।ै

    (4) अनुहदत नाटक- इस यगु में संस्कृत, बंगला और अरगं्रेजी से अनेक नाटकों के अनिुाद वकए गए

    सत्य नारायण भिभतूी के नाटकों का, रूपनारायण पाण्डेय ने बंगला के विजने्द्र लाल राय के

    ऐवतिावसक नाटकों का तथा रविन्द्र नाथ िाकुर के नाटकों का अनिुाद वकया । अगं्रेजी के नाटकों का

    अनिुाद भी मुंशी प्रेमचन्द्र और लवलत प्रसाद शकु्ल िारा वकया गया।

    1.4.3 प्रसादोत्तर युग

    (1) ऐहतिाहसक नाटक - इस यगु में ऐवतिावसक नाटकों की परम्परा का विकास िुआ। िररकृष्ण

    प्रेमी, िनृ्दािन लाल िमाभ, गोविन्द बल्लभ पंत, उदय शकंर भटट, इस यगु के प्रमखु नाटककार

    ि।ैिररकृष्ण प्रेमी के ऐवतिावसक नाटकों में रक्षाबंधन (1934), वशि साधना (1937), स्िपन भगं

    (1940), आिुवत (1940), उद्धार (1949), शपथ (1951), भग्न प्राचीर (1954) आवद को

    सवम्मवलत ि।ै प्रेमी जी ने अपने नाटकों में प्राचीन इवतिास को न लेकर मगुल कालीन इवतिास का

    संदभभ वलया ि ैऔर उसके पररपेक्ष में ितभमान राजनैवतक, साम्प्रदावयक एि ं राष्रीय समस्याओ ंको

    सलुझाने का प्रयास वकया ि।ै िदृांिनलाल िमाभ इवतिास के विशेषज्ञ िैं उनके ऐवतिावसक नाटकों में

    झासीं की रानी (1948), बीरबल (1950), लवलत विक्रम (1953) आवद उल्लेखनीय िैं।

    (2) सामाहजक नाटक - गोविन्द बल्लभ पंत ने अनेक सामावजक ि ऐवतिावसक नाटकों की रचना

    की ि।ै उनके ‘राज-मकुुट’ (1935), ‘अन्तःपरु का वछद्र’ (1940), आवद ऐवतिावसक नाटक िैं।

    पिले नाटक में मिेाड़ की पन्ना धाय का पतु्र के बवलदान तथा दसूरे में ित्सराज उदयन के अन्तःपरु

    की कलि का वचत्रण प्रभािोत्पादक रूप में वकया गया ि।ै पंत जी के नाटकों पर संस्कृत, अगं्रेजी,

    पारसी आवद विवभन्न परम्पराओ ंका प्रभाि पररलवक्षत िोता ि।ै अवभनेयता का उन्िोंने अत्यवधक

    ध्यान रखा ि।ै उनकी कला का उत्कृितम रूप उनके सामावजक नाटकों में वमलता ि।ै

    (3) पौराहणक नाटक - इस यगु में पौरावणक नाटकों की परम्परा का भी विकास िुआ। विवभन्न

    लेखकों ने पौरावणक आधार को ग्रिण करते िुए अनेक उत्कृि नाटक प्रर्स्ततु वकए, सेि गोविन्द

    दास का ‘कतभव्य’ (1935), चतरुसेन शास्त्री का ‘मरे्नाद’ (1936), पथृ्िीनाथ शमाभ का ‘उवमभला’

    (1950), सद्गरुूशरण अिस्थी का ‘मझली रानी’, रामिकृ्ष बेनीपरुी का ‘सीता की मां’, गोकुल चन्द्र

    शमाभ का ‘अवभनय रामायण’, वकशोरीदास िाजपेयी का ‘सदुामा’ (1939), चतरुसेन शास्त्री का

    ‘राधा-कृष्ण’, विरेन्द्र कुमार गपु्त का ‘ सभुद्रा-पररणय’, कैलाशनाथ भटनागर के ‘भीम-पवतज्ञा’

    (1934), और ‘श्रीित्स’ (1941), उदय शकंर भटट के ‘विद्रोविणी अम्बा’ (1935), और ‘सगर-

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    विजय’ (1937), पाण्डेय बेचन शमाभ ‘उग्र’ का ‘गगंा का बेटा’ (1940), डॉ.लक्ष्मण स्िरूप का

    ‘नल-दमयन्ती’ (1941), प्रभदुत्त ब्रह्रमचारी का ‘श्री शकु’ (1944), तारा वमश्रा का ‘दिेयानी’

    (1944), गोविन्द दास का ‘कणभ’ (1946), प्रेमवनवध शास्त्री का ‘प्रणपवूतभ’ (1950), उमाशकंर

    बिादरु का ‘िचन का मोल’ (1951), गोविन्द बल्लभ पंत का ‘ययावत’ (1951), डॉ.कृष्ण दत्त

    भारिाज का ‘अज्ञातिास’ (1952), मोिन लाल ‘वजज्ञासु’ का ‘पिभदान’ (1952), िररशंकर वसन्िा

    ‘श्रीिास’ का ‘मां दगु’े (1953), लक्ष्मी नारायण वमश्र के ‘नारद की िीणा’ (1946), और

    ‘चक्रव्यिू’ (1954), रांगये रार्ि का ‘स्िणभ भवूम का यात्री’ (1951), मखुजी गुजंन का ‘शवक्त-

    पजूा’ (1952), जगदीश का ‘प्रादभुाभि’ (1955), सयूभनारायण मवूतभ का ‘मिा विनाश की ओर’

    (1960) आवद। प्राचीन संस्कृवत के आधार पर पौरावणक गाथाओ ंके असम्बद्ध एिं असंगत सतू्रों में

    सबंधं एि ंसंगवत स्थावपत करने का प्रयास पौरावणक नाटक िमें आज के जीिन की व्यापकता एि ं

    विशालता का संदशे दतेे िैं। रंग-मचं एि ं नाटकीय वशल्प की दृवि से अिश्य इनमें अनेक नाटक

    दोषपणूभ वसि िोंग ेवकन्त ुगोविन्द बल्लभ पंत, सेि गोविन्द दास, लक्ष्मीनारायण वमश्र, जसेै मजं ेिुए

    नाटककारों ने इसका कोई संदिे निीं वकया की ये नाटक विषय- िस्त ुकी दृवि से पौरावणक िोते िुए

    प्रवतपादन- शलैी एि ंकला के विकास की दृवि से पौरावणक िोते िुए प्रवतपादन- शलैी एि ंकला के

    विकास की दृवि से आधवुनक ि ैतथा ि ेसमाज की रूवच एिं समस्याओ ंके प्रवतकूल निीं िैं।

    (4)कल्पनाहित नाटक - इस यगु के कल्पनावश्रत नाटकों को भी उनकी मलू प्रिवृत्त की दृवि से

    तीन िगो में विभक्त वकया जा सकता ि-ै 1. समस्या-प्रधान नाटक, 2. भाि- प्रधान, 3. प्रतीकात्मक

    नाटक। समस्या- प्रधान नाटकों का प्रचलन मखु्यतः इब्सन, बनाभडभ शा आवद पाश्चात्य नाटककारों के

    प्रभाि से िी िुआ ि।ै पाश्चात्य नाटक के के्षत्र में रोमांवटक नाटकों की प्रवतवक्रया के फलस्िरूप

    यथाभथिादी नाटकों का प्रादभुाभि िुआ, वजनमें सामान्य जीिन की समस्याओ ंका समाधान विशदु्ध

    बौवद्धक दृविकोण से खोजा जाता ि।ै लक्ष्मीनारायण वमश्र के समस्या प्रधान नाटकों में ‘सन्यासी’

    (1931), ‘राक्षस का मवन्दर’ (1931), ‘मवुक्त का रिस्य’ (1932), ‘राजयोग’ (1934), ‘वसन्दरू की

    िोली’ (1934), ‘आधीरात’ (1937), आवद उल्लेखनीय ि।ै इनके अवतररक्त इन्िोने कुछ

    ऐवतिावसक नाटक भी वलखे थे। वमश्र जी के इन नाटकों में बौवद्धकतािाद, यथाभथिाद, एि ं

    फ्रायडिाद की प्रमखुता ि।ै सामावजक नाटकों के क्षेत्र में सेि गोविन्द दास, उपेन्द्र नाथ अश्क,

    िृदंािनलाल िमाभ, िररकृष्ण प्रेमी आवद का मित्िपूणभ येागदान ि।ै सेि गोविन्ददास ने ऐवतिावसक,

    पौरावणक विषयों के अवतररक्त सामावजक समस्याओ ंका वचत्रण भी अपने अनेक नाटकों में वकया ि,ै

    वजनमें से ‘कुलीनता’ (1940), ‘सेिा-पथ’ (1940), ‘दःुख क्यों?’ (1946), वसद्धांत- स्िातं्य’

    (1938), ‘त्याग या ग्रिण’ (1943), ‘संतोष किााँ’ (1945), ‘पावकस्तान’ (1946), ‘मित्ि वकसे’

    (1947), गरीबी-अमीरी’ (1947), ‘बड़ा पापी कौन’ (1948) आवद उल्लेखनीय िैं। सेि जी ने

    आधवुनक यगु की विवभन्न सामावजक, राजनीवतक एि ंराष्रीय समस्याओ ंका वचत्रण सफलतापिूभक

    वकया ि।ै ऊाँ च-नीच का भदे, ‘भ्रिाचार एि ंराजनीवत के आधार पर नाटक वलख।े उपेन्द्र नाथ अश्क

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    ने राष्र की विवभन्न समस्याओ ंका वचत्रण अपने नाटकों में वकया उनके उल्लेखनीय नाटकों में - कैद

    (1945), उड़ान (1949), छिा बेटा (1955), अलग- अलग रास्ते प्रमखु िैं।

    िृदंािनलाल िमाभ ने ऐवतिावसक और सामावजक नाटक वलख ेउनके नाटकों में राखी की

    लाज (1943), बांस की फांस (1947), नीलकंि (1951), प्रमखु िैं। िमाभ जी इन नाटकों में वििाि

    जावत - पावत और सामावजक बरुाइयों का अकंन वकया ि।ै इस यगु के अन्य सामावजक नाटकों में

    उदय शकंर भटट का कमला (1950), िररकृष्ण प्रेमी का ‘छाया’, प्रेमचन्द का प्रेम की बेवद

    (1933), चतरुसेन शास्त्री का पद घ्िवन 1952, शम्भ ूनाथ वसंि का धरती और आकाश (1954),

    उल्लेखनीय िैं। प्रतीकिादी नाटकों की परम्परा जयशकंर प्रसाद के कामना से मानी जा सकती ि।ै

    सवुमत्रानन्दन का 'ज्योत्सना' (1934), भगिती प्रसाद िाजपेयी का ‘छलना’, सेि गोविन्द दास का

    निरस एि ंडॉ. लक्ष्मी नारायण दास का 'मादा कैक्टस' उल्लेखनीय ि।ै

    1.4.4 स्वातन््योत्तर युग

    स्ितन्त्रता प्रावप्त के पश्चात विन्दी नाटक का विकास तेजी से िुआ कुछ लेखकों ने परुानी परम्परा का

    िी वनिाभि वकया वकन्त ुकुछ लेखकों ने नए वशल्प का प्रयोग वकया । इसे िम तीन िगो में विभक्त कर

    सकता ि-ै

    1. सामाहजक एवं सांस्कृहतक नाटक - इस िगभ में मखु्यतया जगदीश चन्द्र माथरु, नरेश

    मिेता , विनोद रस्तोगी, डॉ. लक्ष्मी नारायण दास एि ंडॉ. शकंर शषे की रचनाए ंआती ि।ै जगदीश

    चन्द्र माथरु ने 'कोणाभक'(1952), पिला राजा(1969), 'दशरथनन्दन'(1974) में सामावजक एिं

    सांस्कृवतक मलू्यों के विषय में वलखा ि।ै विष्ण ु प्रभाकर ने डॉ 1958, 'यगु-ेय�