डॉ० घनश्याम बादल · 2019. 10. 15. · संस्कृति:...

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संक ति: संकट पड़िी धमवजा की वाहक रामलीलाएं डॉ० घनयाम बादल सितंबर - अट बर उरी भारत के हर छोटे बड़े गांव , कबे और शहर रामलीलाएं मंचित की जाती वजयदशमी के अविर पर कहीं पहले तो कहीं बाद रामलीलाउरी भारत परपरागत ऱप िखेला जाने वाला ीराम के िपर आधाररत नाय है। लोक नाय के ऱप िसलत रामलीलाओं का देश के वध ात अलग अलग तरीक िमंिन कया जाता है। रामलीलाओं का इतिहास: ितटीय िलेकर हमालय तक खेली जाने वाली रामलीलाओं का आहद वततक कौन है , यह ववादापद है। भाव भत की यह अनाहद है पर एक कं वदंती का िके त कहती है ेता ीरामिं के वनगमनोपरांत अयोयावासिय ने 14 वत की वयोग अवचध राम की बाल लीलाओं का असभनय कर बताई थी। तभी िइिकी परंपरा का िलन आ। एक अय जन िपता िलता है इिके आहद वततक मेघा भगत थे जो काशी के कत आप हले थत टहे हन मान के तनकट के तनवािी माने जाते ह। राम के आदेश का मथ: कहते एक बार रोम रामिं जी ने उह वन दशतन देकर लीला करने का आदेश हदया ताकभत जन को भगवान ् के िात दशतन हो िक। इििे ेरणा पाकर उहने रामलीला िपन कराई। और भरत समलाप के मंिन अविर पर आराय देव राम ने अपनी झलक देकर इनकी कामना णत की। लोग के मतान िरामलीला की असभनय परंपरा के तटठापक गोवामी लिीदाि , इहने हंदी जन मनोरंजनकारी नाटक का अभाव पाकर इिका ीगणेश कया। इनकी ेरणा िअयोया और काशी के लिी घाट पर थम बार रामलीला थी पर,ििउर भारत आज रामलीला का जो वऱप वकसित है उिके जनक गोवामी लिीदाि ही माने जाते अनेक लीलाके :

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  • संस्कृति:संकट में पड़िी

    धमम ध्वजा की वाहक रामलीलाएं

    डॉ० घनश्याम बादल

    सितंबर - अक्टूबर में उत्तरी भारत के हर छोटे बड़ ेगांव , कस्ब ेऔर शहर में रामलीलाए ंमंचित की जाती हैं । ववजयदशमी केअविर पर कही ंपहले तो कहीं बाद में ‘रामलीला’ उत्तरी भारत में परम्परागत रूप िे खेला जाने वाला श्रीराम के िररत्र परआधाररत नाट्य है। लोक नाट्य के रूप में प्रिसलत रामलीलाओ ंका देश के ववववध प्रान्तों में अलग अलग तरीकों िे मंिनककया जाता है।

    रामलीलाओं का इतिहास:

    िमुद्रतटीय क्षेत्रों ि ेलेकर हहमालय तक खेली जाने वाली रामलीलाओं का आहद प्रवततक कौन है, यह वववादास्पद प्रश्न है।भावुक भक्तों की दृष्टट में यह अनाहद है पर एक ककंवदंती का िंकेत कहती है कक त्रतेा युग में श्रीरामिदं्र के वनगमनोपरातंअयोध्यावासियों ने 14 वर्त की ववयोग अवचध राम की बाल लीलाओ ंका असभनय कर बबताई थी। तभी ि ेइिकी परंपरा काप्रिलन हुआ। एक अन्य जनश्रतुत िे पता िलता है कक इिके आहद प्रवततक मेघा भगत थे जो काशी के कतुआपुर मुहल्ले मेंष्स्थत फुटहे हनुमान के तनकट के तनवािी माने जाते हैं।

    राम के आदेश का ममथ:

    कहते हैं कक एक बार पुरुर्ोत्तम रामिदं्र जी ने उन्हें स्वप्न में दशतन देकर लीला करने का आदेश हदया ताकक भक्त जनों कोभगवान ्के िाक्षात दशतन हो िकें । इििे प्रेरणा पाकर उन्होंने रामलीला िंपन्न कराई। और भरत समलाप के मंिन अविरपर आराध्य देव राम ने अपनी झलक देकर इनकी कामना पूणत की। कुछ लोगों के मतानुिार रामलीला की असभनय परंपराके प्रततटठापक गोस्वामी तुलिीदाि हैं, इन्होंने हहदंी में जन मनोरंजनकारी नाटकों का अभाव पाकर इिका श्रीगणेशककया। इनकी प्रेरणा िे अयोध्या और काशी के तुलिी घाट पर प्रथम बार रामलीला हुई थी पर,िमूि ेउत्तर भारत में आजरामलीला का जो स्वरूप ववकसित हुआ है उिके जनक गोस्वामी तुलिीदाि ही माने जाते हैं ।

    अनेक रूप ‘लीला’ के:

    https;//sahityasudha.com

  • दक्षक्षण-पूवत एसशया के इततहाि में समले प्रमाणों िे पता िलता है कक इि क्षेत्र में प्रािीन काल िे ही रामलीला का प्रिलन था। जावा के िम्राट वसलतुंग के एक सशलालेख में एक िमारोह का वववरण है ष्जिके अनुिार सिजालुक ने नतृ्य और गीत के िाथ रामायण का प्रदशतन ककया था। इि सशलालेख की ततचथ 907 ई. है।

    थाई नरेश बोरमत्रयी लोकनाथ की राजभवन तनयमावली में भी रामलीला मंिन का उल्लेख है ष्जिकी ततचथ 1458 ई. है। बमात के राजा ने 1767 ई. में स्याम (थाईलैड) पर आक्रमण ककया था। युद्ध में स्याम पराष्जत हो गया। ववजेता िम्राट रामलीला कलाकारों को भी बमात ले गया। बाद में बमात के राजभवन में थाई कलाकारों द्वारा रामलीला का प्रदशतन होने लगा। माइकेल िाइमंि ने बमात के राजभवन में ‘राम नाटक’ 1794 ई. में देखा था। दक्षक्षण एसशया के ववसभन्न देशों में रामलीला के अनेक नाम और रूप हैं। उन्हें प्रधानतः दो मुखौटा रामलीला व छाया रामलीला वगों में ववभाष्जत ककया जा िकता है-

    देश ववदेश में मुखौटा रामलीलाए:ं

    मुखौटा रामलीला के अतंगतत इंडोनेसशया और मलेसशया के लाखोन, कंपूचिया के ल्खोनखोल तथा बमात के श्यामप्वे का प्रमुख स्थान है। इंडोनेसशया और मलेसशया में लाखोन के माध्यम िे रामायण के अनेक प्रिंगों को मंचित ककया जाता है। कंपूचिया में रामलीला का असभनय ल्खोनखोल के माध्यम के होता है। ल्खोन इंडोनेशयाई मूल का शब्द है ष्जिका अथत नाटक है।

    कंपूचिया की भार्ा खमेर में खोल का अथत बंदर होता है। इिसलए ल्खोनखोल को बंदरों का नाटक या हास्य नाटक कहा जा िकता है। ल्खोनखोल वस्तुतः एक प्रकार का नतृ्य नाटक है ष्जिमें कलाकार ववसभन्न प्रकार के मुखौटे लगाकर अपनी-अपनी भूसमका तनभाते हैं। इिके असभनय में मुख्य रूप िे ग्राम्य पररवेश के लोगों की भागीदारी होता है। कंपूचिया के राजभवन में रामायण के प्रमुख प्रिंगों का असभनय होता था।

    मुखौटा नाटक के माध्यम िे प्रदसशतत की जाने वाली रामलीला को थाईलैंड में ल्खौन कहा जाता है। इिमें िंवाद के अततररक्त नतृ्य, गीत एवं हाव-भाव प्रदशतन की प्रधानता होती है। ल्खौन का नतृ्य बहुत कहठन और िमयिाध्य है। इिमें गीत और िंवाद का प्रिारण पदे के पीछे िे होता है। केवल ववदरू्क अपने िंवाद स्वयं बोलता है। मुखौटा केवल दानव और बंदर-भालू की भूसमका तनभाने वाले असभनेता ही लगात ेहैं। देवता और मानव पात्र मुखौटे धारण नहीं करते।

    बमात की मुखौटा रामलीला को यामप्व ेकहा जाता है। बमात की रामलीला स्याम िे आयी थी। इिसलए इिके गीत, वाद्य और नतृ्य पर स्यामी प्रभाव को नकारा नहीं जा िकता, ककंतु वास्तववकता यह है कक बमात आने के बाद यह स्याम की रामलीला नहीं रह गयी, बष्ल्क यह पूरी तरह बमात के रंग में डूब गयी। बमात के लोग हास्यरि के प्रेमी होते हैं। इिसलए यामप्व ेमें भी ववदरू्क की प्रधानता होती है।

    ववचित्र छाया रामलीला:

    ववववधता और ववचित्रता के कारण छाया नाटक के माध्यम िे प्रदसशतत की जाने वाली रामलीला मुखौटा रामलीला िे भी तनराली है। इिमें जावा तथा मलेसशया के वेयांग और थाईलैंड के नंग का ववसशटट स्थान है। जापानी भार्ा में वेयांग का अथत छाया है। इिसलए यह अगें्रजी में शैडोप्ले और हहन्दी में छाया नाटक के नाम िे ववख्यात है। इिके अतंगतत िफेद पदे को

  • प्रकासशत ककया जाता है और उिके िामने िमड़ ेकी पुतसलयों को इि प्रकार निाया जाता है कक उिकी छाया पदे पर पड़।े छाया नाटक के माध्यम िे रामलीला का प्रदशतन पहले ततब्बत और मगंोसलया में भी होता था। थाईलैंड में छाया-रामलीला को नंग कहा जाता है। नंग के दो रूप है-नंगयाई व नंगतुलुंगनंग का अथत िमत या िमड़ा और याई का अथत बड़ा है। नंगयाई का तात्पयत िमड़ ेकी बड़ी पुतसलयों िे है। इिका आकार एक ि ेदो मीटर लंबा होता है। इिमें दो डडं ेलगे होते हैं। नट दोनों हाथों िे डडं ेको पकड़कर पुतसलयों के ऊपर उठाकर निाता है। इिका प्रिलन अब लगभग िमाप्त हो गया है।

    नंग तुलुंग दक्षक्षणी थाईलैंड में मनोरंजन का लोकवप्रय िाधन है। इिकी िमत पुतसलयााँ नंगयाई की अपेक्षा बहुत छोटी होती हैं। नंग तुलुगं के माध्यम िे मुख्य रूप ि ेथाई रामायण रामककयेन का प्रदशतन होता है। थाईलैंड के नंग तलुुंग और जावा तथा मलेसशया के वेयांग कुसलत में बहुत िमानता है। वेयांग कुसलत को वेयंग पूवात अथवा वेयांग जाव भी कहा जाता है। यथाथत यह है कक थाईलैंड, मलयेसशया और इंडोनेसशया में ववसभन्न नामों िे इिका प्रदशतन होता है।

    वेयांग वेयांग प्रदसशतत करन ेवाले मुख्य कलाकार को दालांग कहा जाता है। वह नाटक का कें द्र बबन्द ुहोता है। वह बाजे की ध्वतन पर पुतसलयों को निाता है। इिके अततररक्त वह गाता भी है। वह आवाज बदल-बदल कर बारी-बारी िे ववसभन्न पात्रों के िंवादों को भी बोलता है, ककंतु जब पुतसलयााँ बोलती रहती हैं, बाजे बंद रहते हैं। वयेांग में दालांग के अततररक्त िामान्यतः बारह व्यष्क्त होते हैं, ककंतु व्यवहार में इनकी िंख्या नौ या दि होती है। वेयांग में िामान्यतः 148 पुतसलयााँ होती हैं ष्जनमें िेमार का स्थान िवोच्ि है। िेमार ईश्वर का प्रतीक है और उिी की तरह अपररभावर्त और वणतनातीत भी। उिकी गोल आकृतत इि तथ्य का िूिक है कक उिका न आहद है और न अतं। उिके नारी की तरह स्तन और पुरुर् की तरह मूाँछ हैं। इि प्रकार वह अद्तधनारीश्वर का प्रतीक है। जावा में िेमार को सशव का बड़ा भाई माना जाता है। वह कभी कायान्गन (स्वगत लोक) में तनवाि करता था, जहााँ उिका नाम ईिमय था। वेयांग का िंबंध केवल मनोरंजन िे ही नही,ं प्रत्युत आध्याष्त्मक िाधना िे भी है ।

    परंपरा और शैमलयााँ:

    राम की कथा को नाटक के रूप में मंि पर प्रदसशतत करने वाली रामलीला भी ‘‘हरर अनंत हरर कथा अनंता ’’ की तजत पर ववववध शैसलयों वाली है, रामकथा तो ख्यात कथा है, ककंत ुष्जि प्रकार वह भारत भर की ववसभन्न भार्ाओं में असभव्यक्त हुई है तो उि भार्ा, उि स्थान और उि िमाज की कुछ तनजी ववसशटटताएाँ भी उिमें अनायाि ही िमाहहत हो गई हैं - रंगनाथ रामायण और कृततवाि या भावाथत रामायण और अिसमया रामायण की मूल कथा एक होते हुए भी अपने-अपने भार्ा-भार्ी िमाज की रामकथाएाँ बन गई हैं।

    ववशषे है कुमाऊाँ नी रामलीला:

    भगवान राम की कथा पर आधाररत रामलीला नाटक के मंिन की परंपरा भारत में युगों िे िली आयी है। लोक नाट्य के रूप में प्रिसलत इि रामलीला का देश के ववववध प्रान्तों में अलग अलग तरीकों िे मंिन ककया जाता है। उत्तराखण्ड के खािकर कुमायू ंअिंल में रामलीला मुख्यतः गीत-नाट्य शैली में प्रस्ततु की जाती है। वस्तुतः पूवत मे यहां की रामलीला ववशुद्ध मौखखक परंपरा पर आधाररत थी, जो पीढ़ी दर पीढ़ी लोक मानि में रिती-बिती रही। शास्त्रीय िंगीत के तमाम पक्षों का ज्ञान न होते हुए भी लोग िुनकर ही इन पर आधाररत गीतों को िहजता ि ेयाद कर लेते थे।

  • पूवत में तब आज के िमान िुववधाएं न के बराबर थी।ं स्थानीय बुजुगत लोगों के अनुिार उि िमय की रामलीला मशाल,लालटेन व पैट्रोमैक्ि की रोशनी में मंचित की जाती थी। कुमायू ंमें रामलीला नाटक के मंिन की शुरुआत अठारहवीं िदी केमध्यकाल के बाद हो िुकी थी। बताया जाता है कक कुमायू ंमें पहली रामलीला 1860 में अल्मोड़ा नगर के बदे्रश्वर मष्न्दर मेंहुई। ष्जिका शे्रय तत्कालीन डडप्टी कलैक्टर स्व. देवीदत्त जोशी को जाता है। बाद में नैनीताल, बागेश्वर व वपथौरागढ़ मेंक्रमशः 1880, 1890 व 1902 में रामलीला नाटक का मिंन प्रारम्भ हुआ। अल्मोड़ा नगर में 1940-41 में ववख्यात नतृ्यिम्राट पंडडत उदय शंकर न ेछाया चित्रों के माध्यम ि ेरामलीला में नवीनता लाने का प्रयाि ककया। हालांकक पंडडत उदयशंकर द्वारा प्रस्तुत रामलीला यहा ंकी परंपरागत रामलीला िे कई मायनों में सभन्न थी लेककन उनके छायासभनय, उत्कृटटिंगीत व नतृ्य की छाप यहा ंकी रामलीला पर अवश्य पड़ी। कुमायू ंकी रामलीला में बोले जाने वाले िंवादों, धनु, लय, तालव िुरों में पारिी चथयेटर की छाप हदखाई देती है, िाथ ही िाथ ब्रज के लोक गीतों और नौटंकी की झलक भी। िंवादों मेंआकर्तण व प्रभावोत्पादकता लाने के सलये कहीं-कही ंपर नेपाली भार्ा व उदूत की गजल का िष्म्मश्रण भी हुआ है। कुमायूं कीरामलीला में िंवादों में स्थानीय बोलिाल के िरल शब्दों का भी प्रयोग होता है। आधतुनक बदलाव में कुछ जगह कीरामलीलाओं में कोरि गायन, नतृ्य के अलावा कुछ महहला पात्रों में लड़ककयों को भी शासमल ककया जाने लगा है।

    संकट में रामलीला परंपरा:

    और बात तो िब ठीक हैं पर ,मनोरंजन के अधतुनकतम िाधनों के आने िे रामलीलाए ंअब िंकट का िामना कर रही हैं ।हदल्ली जैि ेमहानगरों को छोड़ दें तो अब परंपरागत रामलीलाएं दम तोड़ने के कगार पर ही हैं । और अगर ऐिा ही िलतारहा तो भारत की कई दिूरी परंपरागत कलाओं की तरह रामलीला भी लुप्त हों जाएगी । यहद इिे बिाना है तो इिमें आएभोंडपेन व बढ़ते भारी खित को तो रोकना ही होगा । इिे िंरक्षण भी देना होगा ष्जिके सलए स्वैष्च्छक िंस्थाओं के िाथ हीिांस्कृततक जगत व िरकार को भी आगे आने की जरूरत है ।

    mailto: [email protected]