श्री खुुलासा टीका श्री राजन ... · 2019-06-24 ·...

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ी खुलासा टीका ी राजन वामी एवं ी नरेश टडन ी खुलासा टीका ी राजन वामी एवं ी नरेश टडन काशकः ी ाणनाथ ानपीठ काशकः ी ाणनाथ ानपीठ , , सरसावा सरसावा 1 / 824 / 824

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  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 11 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    श्री तारतम वाणी

    खलुासाअथ& व भावाथ&

    श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    प्रकाशक

    श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठनकुड़ रोड, सरसावा, सहारनपुर, उ.प्र.

    www.spjin.org

    सवा&धि.कार सरुधि/त (चौपाई छोड़कर) © २०१८, श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ ट्रस्टपी.डी.एफ. संस्करण – २०१९

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 22 / 824/ 824

    http://www.spjin.org/

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    अनुभूमिमका

    प्राणा.ार श्री सुन्दरसाथ जी! अ/रातीत श्री राजजी का हृदय ज्ञान का अनन्त सागर ह।ै उनकी एक बूँदश्री महामधित जी के .ाम-हृदय में आयी, जो सागर कास्वरूप बन गयी। इसलिलये कहा गया है मिक "नूर सागरसूर मारफत, सब मिदलों करसी रोसन" अथा&त् यहतारतम वाणी मारिरफत के ज्ञान का सूय& ह।ै यह ब्रह्मवाणीसबके हृदय में ब्रह्मज्ञान का उजाला करती ह।ै

    "हक इलम से होत है, अस& बका दीदार" का कथनअ/रशः सत्य ह।ै इस ब्रह्मवाणी की अलौमिकक ज्योधितसुन्दरसाथ के हृदय में माया का अन्.कार कदामिप नहींरहने देगी। इस तारतम वाणी की थोड़ी सी भी अमृतमयीबूँदों का रसास्वादन जीव के लिलये परब्रह्म के सा/ात्कारएवं अखण्ड मुमि[ का द्वार खोल देता ह।ै अतः वैधि]क

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 33 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    स्तर पर इस ब्रह्मवाणी का प्रसार करना हमारा कर्त्त&व्यह।ै इस लक्ष्य की पूर्तित के लिलये यह आवश्यक है मिकअनेक भारतीय भाषाओं में अवतरिरत इस ब्रह्मवाणी काटीका सरल भाषा में प्रस्ततु हो। यद्यमिप वत&मान में अनेकसम्माननीय मनीमिषयों की टीकायें प्रचलिलत हैं, मिकन्तु ऐसाअनुभव मिकया जा रहा था मिक एक ऐसी भी टीका हो, जोमिवश्लेषणात्मक हो, सन्दभ&, भावाथ&, स्पष्टीकरण, एवंमिटप्पणिणयों से य[ु हो।

    मुझ जसेै अल्पज्ञ एवं अल्प बुधिp वाले व्यमि[ केलिलये यह कदामिप सम्भव नहीं था, मिकन्तु मेरे मन मेंअचानक ही यह मिवचार आया मिक यमिद सन्त कबीर जीऔर ज्ञाने]र जी अपने योगबल से भैंसे से वेद मन्त्रों काउच्चारण करवा सकते हैं, तो मेरे प्राणवल्लभ अ/रातीतमुझसे तारतम वाणी के टीका की सेवा क्यों नहीं करवा

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  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    सकते। इसी आशा के साथ मैंने अ/रातीत श्री जी केचरणों में अन्तरात्मा से प्राथ&ना की।

    .ाम .नी श्री राज जी एवं सद्गरुु महाराज श्रीरामरतन दास जी की मेहेर की छाँव तले मैंने यह काय&प्रारम्भ मिकया। सरकार श्री जगदीश चन्द्र जी की पे्ररणा नेमुझे इस काय& में दृढ़तापूव&क जुटे रहने के लिलये प्रेरिरतमिकया। श्री प्राणनाथ जी की पहचान के सम्बन्. मेंजनमानस में अनेक प्रकार की भ्रान्तिन्तयाँ फैली रहती हैं।.ाम .नी की कृपा से होने वाली इस टीका से उनभ्रान्तिन्तयों का समा.ान हो सकेगा, ऐसी मैं आशा करताहँू।

    इस टीका के पुनीत काय& में श्री नरशे टण्डन जी कामिवशेष सहयोग ह।ै वे कुरआन प/ के महान मिवद्वान हैं।.ाम .नी से प्राथ&ना ह ैमिक उन पर पल-पल अपनी कृपा

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  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    बरसाते रहें।

    सभी सम्माननीय पूव& टीकाकारों के प्रधित श्रpा-सुमन समर्पिपत करते हुए मैं यह आशा करता हूँ मिक यहटीका आपको रूधिचकर लगेगी। सभी सुन्दरसाथ सेमिनवेदन है मिक इसमें होने वाली तु्रमिटयों को सु.ारकर मुझेभी सूधिचत करने की कृपा करें, जिजससे मैं भी आपकेअनमोल वचनों से लाभ उठा सकँू एवं अपने को .न्य-.न्य कर सकँू।

    आपकी चरणरजराजन स्वामी

    श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ

    सरसावा

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    अनुक्रमणिणका1 ए होत फुरमाया हक का

    (खलुासा फुरमान का)

    10

    2 ए देखो खलुासा मिगरो दीन का

    (खलुासा मिगरो दीन का)

    119

    3 हक हादी रूहन सों

    (खलुासा मेयराज का)

    192

    4 असल खलुासा इसलाम का

    (खलुासा इसलाम का)

    261

    5 मोमिमन आए अस& अजीम से (णिभस्त जिसफायत का बेवरा)

    315

    6 फुरमाया कहू ंफुरमान का (इलम का बेवरा नाजी मिफरका)

    352

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    7 हाए हाए देखो मुन्तिस्लम जाहेरी (हक की सूरत)

    365

    8 जो उमत होवे अस& की (रूहों की मिबने देलिखयो)

    388

    9 बुलाइयां मिनसबत जान के (नूर नूरतजल्ला की पेहेचान)

    403

    10 पढ़े तो हम हैं नहीं (जहूरनामा मिकताब)

    427

    11 अब कहू ंमिव. मिनगम (दोनामा मिकताब - मंगलाचरण)

    485

    12 दौड़ करी जिसकंदरे 50113 कंसे काला-गृह में 54714 अब कहू ंकुरान की

    (कुरान की कहू)ं630

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    15 बरस नब्बे हजार पर (कुरान के मिनसान कयामत के जाहेर हुए)

    644

    16 केहेती हों उमत को (सूरत मीजान की)

    695

    17 कहू ंअस& अरवाहों को (अस& अजीम की हक मारफत - महाकारन)

    763

    18 अब तुम मिनकसो नींद से 816

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    श्री कुलजम स्वरूप

    मिनजनाम श्री जी सामिहब जी, अनामिद अछरातीत।

    सो तो अब जामिहर भए, सब मिव. वतन सहीत।।

    " श्री खलुासा "

    सागर के अगा. जल में तरैते हुए सीपी के मुख मेंबन्द मोती का मूल्य नगण्य ही होता ह।ै इसी प्रकारमिकसी कंगाल णिभ/ुक की झोपड़ी के नीचे णिछपी हुई उसअज्ञात हीर ेकी खदान का भी कोई मूल्य नहीं होता। जबतक सीमिपयों से मोती और खदान से हीरे मिनकाले नजायें, तब तक सागर में अपनी नौका से मिनत्य भ्रमणकरने वाले नामिवक या उस दरिरद्र णिभ/ुक को दरिरद्रता केभयानक कष्ट का सामना करना ही पड़ता ह।ै

    वस्तुतः यही न्तिस्थधित .म&ग्रन्थों के सम्बन्. में भी ह।ै

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  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    वेद-कतेब की दोनों .ाराओं के ग्रन्थों में शा]त् सत्य काबीज तो ह,ै मिकन्तु वह इतने गोपनीय रूप में ह ैमिक संसारके लोग उसे यथाथ& रूप में पाने के लिलये तरसते ही रहेहैं। प्राणे]र अ/रातीत की कृपा रूपी प्रेममयी हवाओं केझोंकों से स्वप्न की बुधिp जमिनत अज्ञानता का कुहासाअब हट गया है और खलुासा ग्रन्थ के रूप में तारतमवाणी का वह ज्ञान-सूय& अपने प्रचण्ड तेज से इस प्रकारचमक रहा ह ैमिक उसके प्रकाश में एक चींटी भी णिछप नहींपा रही ह।ै

    .म&ग्रन्थों के शब्दों का बाह्य अथ& लेकर उसे अपनीसंकुधिचत मानजिसकता से इस तरह मिवकृत रूप में प्रस्तुतमिकया गया मिक सारा संसार घृणा और द्वेष की अमि मेंइस प्रकार जलने लगा मिक चारों ओर भयंकर र[पात हीर[पात हुए। .म& और अध्यात्म से पे्रम की सरिरता तो

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  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    प्रवामिहत नहीं हुई, अमिपतु चारों ओर र[ की नमिदयाँअवश्य बहायी गयीं। इस क्रम में गोरी, गजनवी, जिसकन्दरलोदी, तमैूर लगं, नामिदर शाह, और अहमद शाहअब्दाली आमिद की एक लम्बी शंृ्रखला ह।ै इसी प्रकार,गोवा में पुत&गालिलयों द्वारा अपनी कट्टरवादी ईसाइयत कोबलपूव&क थोपने के लिलये अमानवीय हिंहसा का सहारालिलया गया। क्या यही .म& या अध्यात्म ह?ै

    श्रीमुखवाणी का खलुासा ग्रन्थ ज्ञान का वह स्तम्भह,ै जिजसकी छत्रछाया में संसार के सभी .म&ग्रन्थों के गुह्यरहस्यों को जाना जा सकता है, तथा उन्हें एकीकरण कीमाला में मिपरोकर सम्पूण& मिव] को पे्रम, शान्तिन्त, तथाएकता के आँगन में लाकर सधिच्चदानन्द परब्रह्म कीपहचान करायी जा सकती है, तथा अखण्ड मुमि[ काउपहार मिदया जा सकता ह।ै उस न्तिस्थधित में वेदों के यह

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1212 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    कथन मूत& रूप ले सकते हैं-

    सवा& आशा मम मिमत्र भवन्तु।

    (अथव&वेद १९/१६/६)

    सभी मिदशायें मेरी मिमत्र हों।

    मिमत्रस्य च/ुषा अहम् सवा&णिण भूतामिन समी/े।

    (यजवुद ३६/१८)

    मैं संसार के सभी प्राणिणयों को मिमत्र की दृमिष्ट से देखूँ।

    द्यौः शान्तिन्तः अन्तरिर/ ंशान्तिन्तः पृथ्वी शान्तिन्तः।

    (यजवुद ३६/१७)

    सम्पूण& द्युलोक, अन्तरिर/, एवं पथृ्वी मण्डल मेंशान्तिन्त का साम्राज्य हो।

    "खलुासा" शब्द अरबी भाषा का है, जिजसका अथ&होता ह-ै सारांश या गहु्य रहस्यों का स्पष्टीकरण। अब

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    श्री प्राणनाथ जी के स्वरों में अवतरिरत खलुासा ग्रन्थरूपी मनोहर पुष्प की मिदव्य सुगन्तिन्. के झोंकों का यहाँमिदग्दश&न प्रस्तुत ह-ै

    मिकताब खलुासा वानी हकी सूरत फजर की।

    रूहें अस& की मिदल दे देखो।।

    परम.ाम की आत्माओं! यह "खलुासा" ग्रन्थ परब्रह्मस्वरूप श्री प्राणनाथ जी के मुखारमिवन्द से अवतरिरतहुआ ह।ै जाग्रत ज्ञान रूपी सूय& के उदय होने पर जबअज्ञानता की रामित्र समाप्त हो गयी होती है, उस समयइसका अवतरण हुआ ह।ै अतः आप सभी सच्चे हृदय(पूण& मन) से इसका धिचन्तन करें।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1414 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    खलुासा फुरमान का

    खलुासा फुरमान का अथा&त् वेद-कुरआन कास्पष्टीकरण।

    द्रष्टव्य- सामान्यतः फुरमान (फरमान) एवं मुसहाफ(मुसाफ) का अथ& मात्र कुरआन से लिलया जाता ह,ैमिकन्तु इसका तात्पय& परब्रह्म के आदेश से अवतरिरत वेद,भागवत, कुरआन आमिद सभी मिदव्य ग्रन्थों से ह।ै "वेदआया देवन पे, असुरन पे कुरान" (खलुासा १३/९२),"साहेब कह्या मिहन्दअुन का, संग गीता भागवत ग्यान"(खलुासा १३/२९), और "फुरमान एक दसूरा, सुकजील्याए भागवत" (खलुासा ८/१०) से यही जिसp होताह।ै

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1515 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    ए होत फुरमाया हक का, जो मिकया खलुासा ए।

    मिकए हादीने जाहेर, याही मगज मुसाफ के।।१।।

    यह खलुासा ग्रन्थ स्वयं अ/रातीत परब्रह्म का कहाहुआ ह,ै जिजसे उन्होंने इस न]र जगत् में श्री प्राणनाथजी के स्वरूप में प्रकट होकर उजागर मिकया ह।ै इसमें वेदतथा कुरआन के गुह्य रहस्यों को सबके लिलये प्रकटमिकया गया ह।ै

    ए देखो खलुासा फुरमान का, मोमिमन करें मिवचार।

    रूहें हक सूरत मिदल में लई, छोड़ी दमुिनयाँ कर मरुदार।।२।।

    .म&ग्रन्थों के स्पष्टीकरण रूप इस खलुासा ग्रन्थ कोआप देलिखए। परम.ाम की उन आत्माओं के लिलये यहग्रन्थ धिचन्तन करने योग्य है, जो इस संसार को न]रमानकर त्याग देती हैं तथा अपने हृदय के प्रेम रूपी

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1616 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    सिंसहासन पर परब्रह्म की शोभा को मिवराजमान कर लेतीहैं।

    चौदे तबक होसी कायम, इन नुकते इलम हुकम।

    हक अस& वाहेदत में, हुआ रोसन मिदन खसम।।३।।

    सधिच्चदानन्द परब्रह्म के आदेश से अवतरिरत इस तारतमवाणी के ज्ञान से यह सम्पूण& ब्रह्माण्ड अखण्ड मुमि[ कोप्राप्त करगेा। तारतम वाणी के मिदव्य ज्ञान से यह बातप्रकाणिशत हो गयी ह ैमिक अ/रातीत का वास्तमिवक स्वरूपइस न]र जगत् से परे उस स्वलीला अद्वैत परम.ाम मेंह,ै जहाँ एकत्व (एकमिदली) का साम्राज्य ह।ै इससे इसस्वान्तिप्नक जगत् की अज्ञानता का अन्.कार नष्ट हो गयाह ैतथा अखण्ड ज्ञान का उजाला फैल गया ह।ै

    भावाथ&- "नुक़्ता" का अथ& होता ह-ै मिबन्दु रूप।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1717 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    वस्तुतः अ/रातीत श्री राज जी के हृदय में उमड़ने वालेज्ञान के अनन्त सागर की एक बूँद श्री महामधित जी के.ाम-हृदय में आयी और सागर बन गयी। इस सम्बन्.में श्रीमुखवाणी शंृ्रगार ११/४५ का ये कथन देखने योग्यह-ै

    एक बूदं आया हक मिदल से, धितन कायम मिकए णिथर चर।

    इन बूदं की जिसफत दलेिखयो, ऐसे हक मिदल में कई सागर।।

    जिजस प्रकार मूल स्वरूप श्री राज जी के हृदय मेंज्ञान का अनन्त सागर लहरा रहा है, उसी प्रकार श्रीमहामधित जी के हृदय में भी ज्ञान (इल्म) का अथाहसागर क्रीड़ा कर रहा ह।ै "नूर सागर सूर मारफत, सबमिदलों करसी रोसन" (मारफत सागर ४/७१) का यहकथन यही जिसp करता ह।ै

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1818 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    बड़ाई नुकते इलम की, कहू ंजाहेर न एते मिदन।

    खोले द्वार लिखलवत के, एही कुन्जी बका वतन।।४।।

    श्रीमुखवाणी के ज्ञान की ममिहमा अनुपम ह।ै आज मिदनतक संसार में परम.ाम का ज्ञान कहीं भी स्पष्ट रूप सेउजागर नहीं हो सका था, मिकन्तु इस वाणी ने परम.ामकी लिखल्वत के आनन्द का द्वार खोल मिदया ह।ै वस्ततुःअखण्ड परम.ाम की अनुभूधित कराने की कुञ्जी तारतमवाणी ही ह।ै

    भावाथ&- बाह्य रूप में सम्पूण& परम.ाम ही मिप्रया-मिप्रयतम की एकान्तमयी लीला भूमिम (लिखल्वत) ह,ै मिकन्तुआन्तरिरक रूप से दोनों का हृदय लिखल्वत है और इसकीकुञ्जी तारतम वाणी ह।ै यद्यमिप परम.ाम के सा/ात्कार केलिलए पे्रम अमिनवाय& ह,ै मिकन्तु मिबना ज्ञान के अपनेआराध्य के प्रधित पे्रम कहाँ से पदैा हो सकता ह।ै

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1919 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    खलेु द्वार सब अस के, एही रूह अल्ला इलम।

    एही लदनु्नी खदुाई, ए कौल हक हुकम।।५।।

    इस तारतम वाणी ने तीनों सृमिष्टयों के तीनों .ामों काद्वार खोल मिदया ह।ै इस ज्ञान को अवतरिरत करने वालेस्वयं श्यामा जी हैं। इस प्रकार यह तारतम वाणी परब्रह्मद्वारा कही गयी ह।ै श्री राज जी के आदेश से, श्रीमहामधित जी के .ाम-हृदय में इसके वचन प्रकट हुए हैं।

    भावाथ&- जीव सृमिष्ट का .ाम वैकुण्ठ और मिनराकार है,ई]री सृमिष्ट का .ाम बेहद मण्डल है, तथा ब्रह्मसृमिष्टयों कामिनजघर परम.ाम ह।ै जब श्यामा जी ने अपने दसूरे तन(श्री मिममिहरराज के तन) में प्रवेश मिकया, तो (मिवक्रमसम्वत् १७१२ के पश्चात्) तारतम वाणी का अवतरणप्रारम्भ हुआ। श्री महामधित जी के .ाम-हृदय में श्रीअ/रातीत मिवराजमान होकर इस वाणी को कह रहे हैं।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2020 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    "ए रसना स्यामाजीए की, मिपलावत रस रब्ब का"(बीतक ७१/१२) का कथन यही भाव दशा&ता ह।ै

    ए कलाम आए हक से, ए नुकता कह्या जे।

    ए जानें मिवचारें मोमिमन, जिजन वास्ते हुआ ए।।६।।

    श्री महामधित जी के .ाम-हृदय में उमड़ने वाला यहतारतम ज्ञान स्वयं श्री राज जी का कहा हुआ ह।ै जिजनब्रह्मात्माओं के लिलये यह तारतम वाणी अवतरिरत हुई ह,ैएकमात्र वे ही इसकी ममिहमा को यथाथ& रूप से जानती हैंऔर इसके गुह्य रहस्यों के सम्बन्. में धिचन्तन करती हैं।

    मिकया बेवरा इन वास्ते, उतर ेअस& से रूहें फरिरस्ते।

    मोमिमन मुतकी ए सुन के, रहेे न सकें जदुे।।७।।

    परम.ाम से ब्रह्मसृमिष्टयाँ तथा अ/र.ाम (बेहद मण्डल)प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2121 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    से ई]री सृमिष्टयाँ इस न]र जगत् में आयी हुई हैं। उन्हींके लिलये खलुासा ग्रन्थ के रूप में .म&ग्रन्थों कास्पष्टीकरण कराने वाली यह पुस्तक अवतरिरत हुई ह।ैइसकी वाणी को सुनकर ई]री सृमिष्ट और ब्रह्मसृमिष्टमिप्रयतम (श्री प्राणनाथ जी) के चरणों से अलग नहीं रहसकती हैं, अथा&त् माया को छोड़कर .ाम .नी को अपनेहृदय में बसा लेंगी।

    जाहेर हुआ फुरमान से, क्यों आरिरफ करें न सहूर।

    रूहें फरिरस्ते और दमुिनया,ँ ए लिलख्या तीनों का मजकूर।।८।।

    परब्रह्म के आदेश से अवतरिरत .म&ग्रन्थों में ब्रह्मसृमिष्ट,ई]री सृमिष्ट, तथा जीव सृमिष्ट का मिववरण मिदया गया है जोअब तारतम वाणी द्वारा प्रकट हो गया है, मिकन्तु आश्चय&है मिक मिवद्वत्जन अभी भी इस मिवषय में धिचन्तन क्यों नहीं

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2222 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    कर रहे हैं।

    देखो दोऊ पलडे़, एक दनुी और अस& अरवाए।

    रूहें फरिरस्ते पूजें बका सूरत, और लिलख्या दमुिनयाँ खदुा हवाए।।९।।

    हे साथ जी! आप इस संसार की जीवसृमिष्टयों तथापरम.ाम की ब्रह्मसृमिष्टयों को तुलनात्मक दृमिष्ट से देलिखए।ब्रह्मसृमिष्ट तथा ई]रीय सृमिष्ट का मानना है मिक परब्रह्म कीअधित सुन्दर नूरमयी मिकशोर शोभा ह,ै जबमिक जीवसृमिष्टअपने ग्रन्थों के अनुसार परमात्मा को मिनराकार हीमानती ह।ै

    ए जो मिगरो अस& अजीम की, धितन पे हकीकत मारफत।

    बड़ी बड़ाई रूहन की, बीच लाहूत बका वाहेदत।।१०।।

    परम.ाम की रहने वाली ब्रह्मसृमिष्टयाँ सत्य एवं परमसत्यप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2323 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    (हकीकत और मारिरफत) के तत्व ज्ञान को जानती हैं।स्वलीला अद्वैत परम.ाम के एकत्व में लीलाम इनब्रह्मात्माओं की अपार ममिहमा ह।ै

    नूर मकान से पदैा हुई, ए जो मिगरो फरिरस्तन।

    कायम वतन से उतर,े सो पोहोंचे न हकीकत मिबन।।११।।

    ई]रीय सृमिष्ट बेहद मण्डल से प्रकट हुई हैं। ये भीअखण्ड .ाम से आयी हैं। इसलिलये परम.ाम कावास्तमिवक तत्व ज्ञान पाये मिबना अपने .ाम में नहीं जासकतीं।

    भावाथ&- परम.ाम में न्तिस्थत अ/र.ाम में अ/र ब्रह्म कामिनवास ह,ै मिकन्तु उनकी लीला बेहद मण्डल में होती ह।ैव्रज, रास, और जागनी लीला का आनन्द लेने के लिलयेअ/र ब्रह्म ने २४००० सुरताओं को .ारण मिकया था।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2424 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    अब इनका मिनवास सत्स्वरूप (बेहद मण्डल) में होगा,परम.ाम के अ/र.ाम में ये नहीं जा सकतीं।

    ए बेवरा जिसपार ेआम में, इन्ना इन्जुलना सूरत।

    रूहें फरिरस्ते दे सलामती, करें हुकम फजर बखत।।१२।।

    यह सम्पूण& मिववरण कुरआन के तीसवें पारे (अ़म्मजिसपार)े की सूरतुल क़मिद्र में लिलखा हुआ ह।ै इसमें यह भीकहा गया है मिक मिक़यामत के समय जब तारतम ज्ञान सेउजाला फैल जायेगा, उस समय ब्रह्मसृमिष्टयाँ तथाई]रीय सृमिष्टयाँ इस संसार को अखण्ड मुमि[ का उपहारदेंगी तथा आध्यान्तित्मक ज्ञान का मिनदशन करेंगी।

    भावाथ&- शंृ्रगार २९/२९ में कहा गया है मिक "जो मेरीसु. दयो औरों को, धितत चले तुमारा हुकम" से यह स्पष्टहै मिक तारतम ज्ञान का प्रकाश जिजसके पास पहुँचेगा, वह

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2525 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    ब्रह्मात्माओं के मिनदश को अवश्य मानेगा।

    कुरआन मज़ीद पारा ३० अम्-यत्-तसा-लूनसूरतुल क़दरिर ९७ आयत ४ का कथन है- "तन्नज़्ज़ुलमलाइ-कतु व रूहु मिब इमिज़न रन्तिब्ब मिहम् मिमन् कुजिल्लअमिम्रन", अथा&त् उतरते हैं फरिरश्ते व रूहें अपने रब केहुक्म से समस्त काय के लिलए। इसमें मिवद्वान "म लाइकव रूह" का अथ& फरिरश्ते एवं मिज़ब्रील लेते हैं, जबमिकमिज़ब्रील स्वयं फरिरश्तों में सन्तिम्मलिलत ह।ै अतः सव&जिसधिpहै मिक रूह णिभन्न है क्योंमिक मिज़ब्रील परम.ाम में नहीं ह।ैजबमिक रूहों से अश& अज़ीम परम.ाम में वचन लिलया मिक"अलस्तु मिबरन्तिब्ब कंुम" व "कअलु वला", अथा&त् क्या मैंतुम्हारा स्वामी नहीं? मिनःसन्देह हैं।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2626 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    ए पदैा बनी-आदम की, ए जो सकल जहान।

    सो क्यों कर आवे अस& में, मिबना अपने मकान।।१३।।

    यह सम्पूण& सृमिष्ट आदम से उत्पन्न हुई ह।ै उसका मूलघर वैकुण्ठ या मिनराकार ह।ै उसे छोड़कर भला वहअखण्ड .ाम के माग& को क्यों अपनायेगी?

    भावाथ&- तारतम वाणी में आदम के अनेक अथ& हैं। इसचौपाई में मानवीय सृमिष्ट के प्रथम पुरुष स्वयम्भुव मनु कोआमिदआदम के नाम से सम्बोधि.त मिकया गया ह।ै वत&मानमन्वन्तर के प्रथम पुरुष वैवस्वत मनु हैं। उन्हें भी आदमकहा जाता ह।ै मिकयामतनामा में कहीं आदम का अथ& श्रीदेवचन्द्र जी ह,ै तो कहीं श्री प्राणनाथ जी ह।ै

    जाहेर जिसपार ेआठमें, लिलख्या पदैा आदम हवाए।

    अबलीस लिलख्या दनुी नसलें, और मिदल पर ए पातसाह।।१४।।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2727 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    कुरआन के आठवें पारे में यह बात प्रत्य/ रूप सेलिलखी हुई है मिक यह सम्पूण& सृमिष्ट आदम और हव्वा सेउत्पन्न हुई ह।ै कुरआन में यह बात भी कही गयी है मिकसंसार के जीवों के हृदय पर इब्लीश अथा&त् शतैान कासाम्राज्य ह।ै

    भावाथ&- इस ब्रह्माण्ड की प्रथम सृमिष्ट सांकन्तिल्पक होतीह,ै जिजसे देव सृमिष्ट कहते हैं। ब्रह्मा आमिद महर्पिष इसी केअन्तग&त आते हैं। ब्रह्मा के पुत्र तथा णिशष्य स्वयम्भुव मनुऔर उनकी पत्नी शतरूपा से मानवीय सृमिष्ट की उत्पलिर्त्तमानी जाती ह।ै इस मन्वन्तर में वैवस्वत मनु तथा उनकीपत्नी श्रpा को इस मानवीय सृमिष्ट का मूल (आदम औरहव्वा) माना जाता ह।ै

    प्रत्येक कल्प में १४ मन्वन्तर होते हैं। एक कल्प में४ अरब ३२ करोड़ वष& होते हैं। प्रत्येक मन्वन्तर में

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2828 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    अलग-अलग मनु होते हैं, जिजनसे मानव जाधित की वृधिpहोती ह।ै इस ब्रह्माण्ड (सौर मण्डल) की आयु ४ अरब३२ करोड़ वष& ह।ै करोड़ों सौरमण्डलों वाली हमारीआकाशगंगा की वत&मान आयु १३.६ अरब वष& ह।ै ऐसीकरोड़ों आकाशगंगायें इस सृमिष्ट के अन्दर हैं। सभीआकाशगंगाओं समिहत सम्पूण& सृमिष्ट एवं इसके रचनाकारआमिदनारायण (अजाजील) की आयु ३१ नील १०खरब और ४० अरब वष& की होनी मिनधिश्चत ह।ै मिनराकारकी ममुि[ पाने वालों की मुमि[ का सुख भी इतने ही समयका होता ह।ै जीव के कारण एवं सूक्ष्म शरीर का मिनमा&णसृमिष्ट के प्रारम्भ में ही हो जाता है और वह एक ब्रह्माण्डका लय होने पर भी जीव के साथ बना रहता ह।ै सांख्यदश&न के कथन "महदाख्यं काय¦ तन्मनः" अथा&त्महर्त्तत्व से मन, बुधिp आमिद की उत्पलिर्त्त होती है - से

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2929 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    यही मिनष्कष& मिनकलता ह।ै

    महामिवष्णु (अजाजील) इस सम्पूण& सृमिष्ट का कता&ह।ै उसकी ही चेतना का प्रधितभास (धिचदाभास) सभीप्राणिणयों के जीव रूप में दृमिष्टगोचर होता ह।ै सभी जीवों केहृदय रूप में न्तिस्थत मन ही इब्लीश ह।ै इब्लीश को शतैानकी संज्ञा इसलिलये दी गयी है क्योंमिक वह रज एवं तम सेआक्रान्त होकर जीव को माया में डुबोये रखता है तथापरब्रह्म से पे्रम नहीं होने देता। कुरआन के आठवें पार ेकीआयत १६ एवं १७ में यह कथन इस प्रकार है-

    का-ल फ़ामिबमा अग्वै-तनी ल-अक़्अुदन्-न लहुम्जिसरा-त-कल् मुस्तक़ीम (१६)

    बोला मिक क़सम उसकी मिक आपने मुझे गुमराहमिकया, तो मैं आपके सी.े माग& पर उनकी ताक में बठँूैगा।

    सुम्-म लआ धितयन्नहुम् मिमम् बमैिन ऐदीमिहम् व मिमन्

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3030 / 824/ 824

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    ख़न्तिल्फ़मिहम व अन् ऐमामिनमिहम व अन् शमा-इलिलमिहम्

    (१७)

    मिफर अवश्य मैं उनके पास आऊँगा, उनके आगे-पीछे, दामिहने, और बायें से....(मुसलमान जब नमाज़समापन के पश्चात् भयातुर रहकर दाएं-बाएं सलाम फेरतेहैं, तो उसका तात्पय& यह ह ैमिक वह इब्लीश को दतु्कारतेहैं मिक कहीं आया तो नहीं, यद्यमिप वह तो मन का स्वरूपह ैजो मिक अदृश्य ह)ै।

    भया मिनकाह आदम हवा, दनुी मिनकाह अबलीस।

    ए जाहेर लिलख्या फुरमान में, पूजे हवा अपनी खामिहस।।१५।।

    आमिद आदम का सम्बन्. हव्वा से हुआ और संसार केजीवों का मिववाह इब्लीश अथा&त् मन रूपी शतैान सेहुआ। यह बात कुरआन में स्पष्ट रूप से लिलखी हुई है मिक

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3131 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    सांसारिरक जीव अपनी लौमिकक तषृ्णाओं की पूर्तित केलिलये शून्य-मिनराकार को ही परमात्मा मानकर पूजाकरते हैं।

    भावाथ&- सांसारिरक प्राणी अपने मन के अ.ीन होते हैं,इसलिलये उपरो[ चौपाई में मन रूप शतैान (इब्लीश) सेइनके मिववाह की बात कही गयी ह।ै सामान्य रूप सेआदम को आमिदनारायण तथा उनकी पत्नी हव्वा कोमिनराकार (मोहसागर) माना जाता ह,ै मिकन्तु यह उधिचतनहीं ह।ै आदम तो एक मानव (प्रथम पगैम्बर) है औरउनकी पत्नी का नाम हव्वा ह।ै वे सृमिष्टकता& नहीं हैं। इसन]र जगत् को बनाने वाला अजाजील फरिरश्ता(आमिदनारायण) ह।ै

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3232 / 824/ 824

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    धितन हवा मिहरस से पदैा हुई, अपनी खामिहसें जे।

    सो फैल कर जुदे पड़े, ए जो मिफर ेदमुिनयां के मिफरके।।१६।।

    उस मिनराकार अथा&त् अज्ञान रूपी तषृ्णा से प्राणिणयों मेंलौमिकक सुखों की इच्छा उत्पन्न हुई। इस प्रकार, संसारके सभी पन्थों के अनुयायी मायावी भोगों में पड़कर सत्यसे मिवमुख हो गये।

    भावाथ&- "मिहस&" अरबी भाषा का शब्द है, जिजसका अथ&होता है तृष्णा। भगवान बुp ने तृष्णा को सभी प्रकार केदःुखों का कारण कहा ह।ै मोह (मिनराकार) रूप अज्ञानसे ही तृष्णा की उत्पलिर्त्त होती ह।ै "ख्वामिहश" फारसीभाषा का शब्द ह,ै जिजसका अणिभप्राय भोगों की इच्छा सेह।ै वस्तुतः तृष्णा बीज रूप है और इच्छा उसका व्य[स्वरूप ह।ै

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3333 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    पदैास बीच अबलीस कहया, ए जो आदम की नसल।

    पूजे हवा को खदुा कर, दमुिनयां एह अकल।।१७।।

    आदम से उत्पन्न होने वाले सभी मनुष्यों के हृदय में मनका स्वामिमत्व ह।ै इस प्रकार इस संसार के लोगों कीकैसी मिवधिचत्र बुधिp है मिक वे जड़ मिनराकार को हीसधिच्चदानन्द परब्रह्म मानकर भमि[ करते हैं।

    भावाथ&- सान्तित्वक मन में ज्ञान, भमि[, एवं वैराग्य काउदय होता ह,ै जो जीव को मो/ की ओर अग्रसर करताह।ै तमोगुण से ग्रजिसत मन ही शतैान या दज्जाल रूप मेंजीव को परमात्मा से दरू करता ह।ै उपमिनषदों के कथन"यतो वाचो मिनवत&न्ते, अप्राप्य मनसा सह"(तरै्त्तरीयोपमिनषद्) तथा "बुधिpः न मिवचेष्टते"(कठोपमिनषद्) से यह जिसp है मिक मन एवं बुधिp द्वारापरमात्मा के स्वरूप का यथाथ& मिन.ा&रण नहीं हो सकता,

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3434 / 824/ 824

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    क्योंमिक ये मायाजन्य हैं। यहीं कारण है मिक मिवद्वानों नेअटकल से परमात्मा को मिनराकार मान लिलया।

    कहया कुलफ आडे़ ईमान के, हवाई का देख।

    दनुी का लिलख्या बेवरा, सो ए कहू ंमिववेक।।१८।।

    सधिच्चदानन्द परब्रह्म के प्रधित अटूट मिव]ास लाने में यहमोह रूप मिनराकार की उपासना ही जीवों के लिलये बा.क(पदा&) बन जाती ह।ै कुरआन में संसार के जीवों कीवास्तमिवकता दशा&यी गयी ह,ै जिजसे मैं अच्छी प्रकार सेप्रकट कर रहा हूँ।

    भावाथ&- मोह अज्ञान भरमना, करम काल और संुन।

    ऐ नाम सार ेनींद के, मिनराकार मिनरगुन।।

    कलस मिह. २४/१९

    इस जड़ रूप मिनराकार (मोहसागर) मेंप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3535 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    आमिदनारायण (अजाजील) का प्रकटन होता ह।ै इसप्रकार, जब अजाजील मिनराकार से परे नहीं जा पाता,तो उसके धिचदाभास (प्रधितमिबन्तिम्बत चैतन्य) से उत्पन्नहोने वाले जीव मिनराकार से पर ेब्रह्म के वास्तमिवक स्वरूपके मिवषय में कैसे जान सकते हैं?

    राह पकडे़ तौहीद की, .र ेमहमंद कदमों कदम।

    सो जानो मिदल मोमिमन, जिजन मिदल अस& इलम।।१९।।

    जो श्री प्राणनाथ जी द्वारा दशा&ये हुए माग& का अनुसरणकरके एकमात्र अ/रातीत परब्रह्म को ही अनन्य प्रेम सेरिरझाये, उसे ही ब्रह्मात्मा समझना चामिहए। उसके हीहृदय में परम.ाम का ज्ञान भरा होता ह।ै

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3636 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    कहया जिसजदा आदम पर, अजाजीलें फेरया फुरमान।

    सो लिलखी लानत सबन को, जो औलाद आदम जहान।।२०।।

    अल्लाहतआला ने अजाजील फरिरश्ते को आदम परजिसज्दा (प्रणाम) करने के लिलए कहा, मिकन्तु उसने वैसाकरने से मना कर मिदया। इस प्रकार, अल्लाह की ओर सेदन्तिण्डत मिकये जाने पर बदले की भावना से इब्लीश नेआदम से उत्पन्न होने वाले सभी मानव समाज कोभटकाने के लिलये उनके हृदय पर अधि.कार पाने का वरप्राप्त कर लिलया। इस प्रकार का वण&न कुरआन में लिलखाहुआ ह।ै

    भावाथ&- यह संशय होता है मिक सव&शमि[मानअ/रातीत के आदेश का उल्लंघन करने का सामथ्य& एकफरिरश्ते में कैसे आ गया? क्या परब्रह्म के समानान्तर भीकोई अन्य सर्त्ता ह?ै

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3737 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    इस कथानक के रहस्य को माहे]र तन्त्र के इसकथन से समझा जा सकता है-

    अनृत ंतु तदज्ञान ंसत्यं ब्रह्मवै केवलम्।

    न तृषादकुंरोत्पधितः केवलातण्डुलादमिप।।

    तुषतण्डुलयोगेन जायेतेड्कुरमिवस्तृधितः।

    ब्रह्मण्यज्ञानयोगेन जायते मिव] सम्भवः।।

    माहे]र तन्त्र ५/२६,२७

    अथा&त् असत्य ही अज्ञान है और केवल सत्य हीब्रह्म ह।ै भूसी से अँकुर नहीं मिनकल सकता और न केवलचावल से, बन्तिल्क भूसी और चावल के संयोग से अँकुरका मिवस्तार होता ह।ै ऐसे ही ब्रह्म (अव्याकृत-सुमंगलापुरुष) में जब अज्ञान का योग होता है, तो मिव] का जन्मलेना सम्भव होता ह।ै

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3838 / 824/ 824

  • श्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डनश्री खलुासा टीका श्री राजन स्वामी एवं श्री नरशे टण्डन

    यथाच्छादयधित स्वल्पो मेघो भानु ंसहस्रगुम्।

    तथाच्छादयते मिमथ्या ब्रह्मानन्तमखण्डकम्।।

    ददशा&सौ तदात्मानं नारायणमिमधित न्तिस्थतम्।

    वेदानां वेदमागा&णां लोकानां च परायणम्।।

    माहे]र तन्त्र ५/३६,४०

    जिजस प्रकार से मेघ का छोटा सा टुकड़ा अनन्तमिकरणों वाले सूय& को आच्छामिदत कर लेता ह,ै उसीप्रकार यह मिमथ्या अज्ञान अखण्ड ब्रह्म को आच्छामिदतकर लेता ह।ै उस समय वह स्वयं को उस आमिदनारायणके रूप में देखता है, जो वेद माग& तथा संसार के आ.ारहैं।

    इस सम्बन्. में मिकरतंन ६५/१० का कथन ह-ै

    प्रकृती पदैा कर,े ऐसे कई इण्ड आलम।

    ए ठौर माया ब्रह्म सबलिलक, मित्रगुन की परआतम।।प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3939 / 824/ 824

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    अथा&त् आमिदनारायण का मूल स्थान अव्याकृत केमहाकारण (सबलिलक के स्थूल) में न्तिस्थत सुमंगला पुरुषह।ै वस्तुतः कुरआन में कणिथत अजाजील ही मिहन्दू.म&ग्रन्थों का आमिदनारायण ह,ै जो अपने शुp रूप मेंबमिहश्त (अव्याकृत के महाकारण) में रह रहा था। मोह(अज्ञान) के कारण ही वह उस आदम को प्रणाम नहींकरता ह,ै जिजसमें अल्लाह ने अपनी रूह डाली थी।अहकंार मन में होता है और वह अज्ञान से उत्पन्न होताहैं। यही कारण है मिक अजाजील के अहकंार य[ु मन(इब्लीश) को शतैान या दज्जाल की संज्ञा दी गयी ह।ै

    मिमट्टी से बना होने पर भी आदम को इसलिलये पूज्यमाना गया ह,ै क्योंमिक एकमात्र मानव तन में ही परब्रह्मका सा/ात्कार हो सकता है, फरिरश्ते (अज़ाज़ील) केतन में नहीं। यह सृमिष्ट तभी तक अन्तिस्तत्व में है, जब तक

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4040 / 824/ 824

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    आमिदनारायण का स्वप्न चल रहा ह।ै आमिदनारायण कीनींद के समाप्त होते ही यह जगत् समाप्त हो जायेगा। इसप्रकार, आमिदनारायण (अजाजील) को ब्रह्म केसा/ात्कार के योग्य नहीं माना गया, जबमिक आदम कोयह सौभाग्य सहज ही प्राप्त ह।ै यही कारण है मिक वहअपने मन की शमि[ से सभी प्राणिणयों को भटकाता रहताह।ै मिकयामत के समय में मानव तन (श्री देवचन्द्र जीतथा श्री मिममिहरराज जी) में ही श्री राज जी के आवेश एवंश्यामा जी को लीला करनी ह।ै यही अल्लाह का आदम मेंअपनी रूह फँूकना ह।ै

    बमिहश्त के द्वार पर पहरा देने वाले मोर एवं सप&रजोगुण तथा तमोगुण के प्रतीक हैं, जिजनकी सहायता सेमन रूपी इब्लीश सम्पूण& मानव जाधित को भटकाकरपरब्रह्म के ज्ञान एवं प्रेम से दरू कर देता है तथा संसार-

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4141 / 824/ 824

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    सागर में भटकाता रहता ह।ै उपरो[ कथन के सम्बन्. मेंसनन्. ग्रन्थ ३८/३२,३३ के ये कथन देखने योग्य हैं-

    जिजन कहो अजाजील को, इनने फेरया हुकम।

    इन हुकम की इसारतें, हादी वास्ते करी खसम।।

    अजाजील भूल्या नहीं, पर हुकमें भुलाया ताए।

    ओ तो जिसर ले हुकम, खड़ा ह ैएक पाए।।

    असल दनुी की ए भई, जो लिलखी माहें फुरमान।

    पातसाही अबलीस मिदल पर, जो करत ह ैसतैान।।२१।।

    कुरआन में सांसारिरक प्राणिणयों की यही न्तिस्थधित दशा&यीगयी ह।ै सभी जीवों के हृदय (मिदल) पर शतैान रूपीइब्लीश (अज्ञानमयी मन) का साम्राज्य है, जिजसकेकारण वे अन्.कार में भटकते रहते हैं।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4242 / 824/ 824

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    गुनाह मिकया अजाजीलें, दनुी मिदल लगी लानत।

    ढंूढ़ें दज्जाल को बाहेर, पावें ना लिलखी इसारत।।२२।।

    आदम को प्रणाम न करने का अपरा. अजाजील नेमिकया, मिकन्तु उसका दण्ड संसार के सभी प्राणिणयों केमिदल को भोगना पड़ रहा ह।