श्री प्राणनाथ महि मा श्री राजन...

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ी ाणनाथ ममा ी राजन वामी ी ाणनाथ ममा ी राजन वामी काशकः ी ाणनाथ ानपीठ काशकः ी ाणनाथ ानपीठ , , सरसावा सरसावा 1 / 217 / 217

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  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 11 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    श्री प्राणनाथ महि�मा

    लेखक

    श्री राजन स्वामी

    प्रकाशक

    श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठनकुड़ रोड, सरसावा, स�ारनपुर, उ.प्र.

    www.spjin.org

    सवा%धि'कार सुरधि(त © २०१०, श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ ट्रस्टपी.डी.एफ. संस्करण – २०१८

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 22 / 217/ 217

    http://www.spjin.org/

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    दो शब्द

    प्रथम लागूं दोऊ चरन को, 'नी ए न छुड़ाइयो खिखन।

    लांक तली लाल एहिड़यां, मेर ेजीव के ए�ी जीवन।।

    प्राणा'ार श्री सुन्दरसाथ जी!

    शाश्वत सत्य की अव�ेलना हिकसी भी दृहिG सेव्यहिI, समाज एवं राG्र के खिलये घातक �ोती �।ै सत्यका अनुशरण हिकये हिLना तो अध्यात्म के पथ पर एककदम भी न�ीं चला जा सकता।

    य� सव%मान्य तथ्य �ै हिक तारतम वाणी परब्रह्म केआवेश से अवतरिरत �ुइ% �ै तथा उन्�ीं के आदेश से श्रीलालदास जी के द्वारा श्री Lीतक सा�L की भी रचना कीगयी �।ै ऐसी स्थिस्थधित में दोनों ग्रन्थों के कथनों का

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 33 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    उल्लंघन श्री राज जी के आदेशों की अव�ेलना �ै औरऐसा करना म�ान अपरा' �।ै

    यहिद हिनष्प( हृदय से श्रीमुखवाणी एवं Lीतक सा�Lके ज्ञान सागर में गोता लगाकर अपनी अन्तरात्मा कीआवाज सुनी जाये, तो य�ी हिनष्कर्ष% हिनकलेगा हिक श्रीप्राणनाथ जी कोइ% सन्त, कहिव, भI, मनीर्षी, या श्रीदेवचन्द्र जी के शिशष्य न�ीं �ैं , Lस्थिcक सधिdदानन्द परब्रह्म�ी श्री प्राणनाथ जी के स्वरूप में लीला कर र�े �ैं।

    ऐसी स्थिस्थधित में �मारा य� नधैितक उत्तरदाधियत्व �ैहिक �म श्री प्राणनाथ जी के वास्तहिवक स्वरूप कोउजागर करें।

    हिवगत कुछ वर्षg से श्रीमुखवाणी एवं Lीतक सा�L केपरम सत्य को झुठलाते �ुए श्री जी (श्री प्राणनाथ जी)

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 44 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    को एक सन्त, कहिव, भI, शिशष्य, और म�ापुरुर्ष के रूपमें धिचहिmत करने का दषु्प्रयास हिकया जा र�ा �।ै य�प्रयास वैसे �ी �ै जैसे हि�मालय पव%त को फँूक मारकरउड़ा देने का हिदवास्वप्न देखना। भला, कुछ �cकेLादलों से संसार को प्रकाशिशत करने वाला सूय% कैसेढका जा सकता �।ै ब्रह्मवाणी के अखण्ड ज्ञान कीशीतल �वा जसेै �ी L�ेगी, Lादलों का नामोहिनशान भीन�ीं र�ेगा और चारों ओर श्री प्राणनाथ जी की महि�मा �ीगुंजिजत �ोगी।

    आपका

    राजन स्वामी

    श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ

    सरसावा

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  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    अथ श्री प्राणनाथ महि�मामेरे प्राणवल्लभ! प्राण हिप्रयतम! तू अनाहिद �ै, अनन्त

    �,ै सव%शहिIमान �,ै सकल गुण हिन'ान �ै, सव%अन्तया%मी �।ै अपनी तारतम वाणी के रूप में तू अपने'ाम, स्वरूप, एवं लीला के ज्ञान को लेकर आया �।ैयगुों-यगुों से तुझे खोजने वाले ऋहिर्षयों , मुहिनयों, औरपगैम्Lरों की आँखें तेरी Lाट देखते-देखते पथरा गइ% �ैं।

    मेरे प्राणेश्वर! लौहिकक द:ुखों की दावाहिz ''क करजल र�ी �।ै इनमें दग्' �ोने वाले प्राशिणयों के ऊपर तूअपनी मे�र की अमृत वर्षा% क्यों न�ीं करता ? तेरीआत्मायें तुझे पुकार र�ी �ैं। तू इन्�ें अपनी पूण% प�चानदेकर दीदार क्यों न�ीं देता और अपने साथ हिनज'ामक्यों न�ीं ले चलता?

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 66 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    सुहिनयों दहुिनया आखिखरी, भाग Lडे़ �ैं तुम।

    जो कLू ंकानों ना सुनी, सो करो दीदार खसम।।

    कइ% देव दानव �ो गए, कइ% तीथकर अवतार।

    हिकन सुपने न श्रवणों, सो इत हिमcया नर नार।।

    सन'ं ३३/१,३

    अL प्रस्तुत �ै श्री प्राणनाथ जी की अनन्त महि�माके फूलों की कुछ पँखहुिड़याँ।

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  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    (१)

    स्थान- �ब्शा कारागार।

    (श्री हिमहि�रराज, स्यामल जी, और उद्धव जी नजरLन्दीकी अवस्था में �।ै हिमहि�रराज जी का तन अस्थिस्थपञ्जर केरूप में हिदखायी पड़ र�ा �।ै आँसुओं के मोती गालों परलुढ़के पडे़ �ैं। हिवर� में तड़पते �ुए हिमहि�रराज जी कीसाँसे थम जाती �ैं।

    हिकन्तु य� क्या? सामने एक अलौहिकक ज्योधित प्रकट�ोती �।ै उसमें से यगुल स्वरूप दृहिGगोचर �ोते �ैं। एकअधित म'ुर आवाज श्री इन्द्रावती जी को सुनायी पड़ती�)ै

    श्री राज जी- इन्द्रावती! तूने य� क्या हिकया? मेर ेहिवर�में अपना तन �ी छोड़ हिदया। मैं तो तुम्�ारे �ी अन्दर

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  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    हिवराजमान था।

    इन्द्रावती जी- (खशुी के आँसुओं के साथ) मेरेप्राणवल्लभ! मुझे तो जरा भी अ�सास न�ीं था हिक आपमेरे �ी अन्दर Lठेै �ैं। आपने दीदार देकर मेरी आस पूरीकी �।ै

    अचानक �ी श्री इन्द्रावती जी को श्यामा जी की जग�श्री देवचन्द्र जी हिदखायी देते �ैं। श्री इन्द्रावती जीअचस्थिम्भत नेmों से उन्�ें हिन�ार र�ी �ैं। स्वगत (मन �ीमन) अर!े य� मैं क्या देख र�ी �ूँ? मैंने तो हिप्रयतम कोपाने के खिलये जिजस सद्गरुु से �ोड़ Lाँ' रखी थी, वे तोउन्�ीं के 'ाम हृदय में हिवराजमान थे। आहिड़का लीला मेंश्री कृष्ण जी का रूप देखकर मैं भ्रहिमत �ो गयी थी।मुझसे तो L�ुत Lड़ा अपरा' �ो गया �।ै

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  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    पुन: एक म'ुर आवाज श्री इन्द्रावती जी के कानों मेंअमृत घोल जाती �-ै

    इन्द्रावती! तू क्या सोच र�ी �ै? सद्गरुु रूप में मैं �ीतमु्�ार ेसामने था, हिकन्तु तुमने मुझे न�ीं प�चाना।

    इन्द्रावती जी- लगता �,ै मेरी इस भूल का कोई भीप्रायधित न�ीं �।ै

    श्री राज जी- तू इसकी धिचन्ता न कर। अL मैं प्रत्य(रूप से तुम्�ार े'ाम हृदय में हिवराजमान �ोकर जागनी कीलीला करँूगा।

    इन्द्रावती जी- मेरे प्राणेश्वर! क्या ऐसा न�ीं �ो सकताहिक आप मेरे अधितरिरI हिकसी अन्य आत्मा के अन्दरLठैें, ताहिक मैं आपको जी भरकर रिरझा सकँू।

    श्री राज जी- न�ीं, कदाहिप न�ीं। य� तो सारी शोभा

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1010 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    मैंने तझेु दे रखी �।ै अL सारा संसार तुझे �ी अ(रातीतके रूप में जानेगा। तुम्�ारे �ी तन से मैं परम'ाम कीवाणी का अवतरण कराऊँगा, जिजससे सभी आत्मायेंजाग्रत �ोंगी।

    इन्द्रावती जी- क्या मेरी भूल की य�ी सजा �ै?

    श्री राज जी- (मुस्कराते �ुए) �ाँ इन्द्रावती! अL व�समय Lीत चुका �।ै तुम्�ारे 'ाम हृदय में हिवराजमान �ोजाने के Lाद अL संसार तुम्�े रिरझायेगा। आज से तू पूण%ब्रह्म सधिdदानन्द का स्वरूप �।ै

    मैं तो अपना दे र�ी, पर तुम�ीं राख्यो जीउ।

    Lल दे आप खड़ी करी, कारज अपने पीउ।।

    क. हि�. ८/९

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1111 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    श्री इन्द्रावती जी क�ती �ैं हिक �े 'नी! मैंने तो �ब्शे में�ी अपने तन को छोड़ हिदया था, हिकन्तु आपने �ी मेरेतन को जीहिवत रखा तथा अपने आवेश का Lल देकरजागनी काय% के खिलये हिनदश हिदया।

    लगे चरचा करने, Lरनन Lानी सरूप।

    यों करते हिदल खलुा, Lठेै हिदल सुन्दर रूप अनूप।।

    Lी. सा. १७/४७

    �ब्शे में श्री इन्द्रावती जी के अन्दर श्री राजश्यामा जीका अलौहिकक स्वरूप हिवराजमान �ो गया और उनकेमुखारहिवन्द से ब्रह्मवाणी का अवतरण प्रारम्भ �ो गया।

    म�ामधित क�े ए मोहिमनों, ए �ादी मे�ेदी इमाम।

    ताकी Lीतक और क�ों, जो नूर दीन इस्लाम।।

    Lी. सा. १७/६८प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1212 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    अथा%त् आज से इस स्वरूप को हिमहि�रराज क�करसम्Lोधि'त न�ीं हिकया जा सकता, Lस्थिcक ये �ैं- पूण%ब्रह्मसधिdदानन्द अ(रातीत, आत्माओं के प्राणवल्लभ, सभीप्राशिणयों को भवसागर से पार ले जाने वाले श्रीहिवजयाशिभनन्द Lुद्ध हिनष्कलकं एवं आखरूल इमाममु�म्मद म�दी साहि�ब्Lुजमां।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1313 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    (२)

    (श्री जी दीवLन्दर में जयराम भाई के य�ाँ प�ुँचते �ैं।उन्�ें देखते �ी जयराम भाई आनन्द में हिवभोर �ो जाते�ैं)

    जयराम भाई- अर!े हिमहि�रराज! आप य�ाँ?

    श्री जी- (मुस्कराते �ुए) �ाँ भाई! (दोनों गले हिमलते�ैं)

    जयराम भाई- हिमहि�रराज! आज अचानक �ी आप य�ाँकैसे आए?

    श्री जी- 'नी के �ी आदेश से य�ाँ माm तुम्�ारे खिलये�ी मैं आया �ूँ।

    (गृ� के अन्दर Lरामदे में दोनों �ी अपने-अपने आसनोंपर Lठै जाते �ैं और श्री जी Lोलना प्रारम्भ कर देते �ैं)

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1414 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    श्री जी- जयराम भाई! दीप Lन्दर में र�ते �ुए तुम्�ेंइतने वर्ष% �ो गये। जरा, य� तो Lताओ हिक तुमने हिकतनेसुन्दरसाथ को जाग्रत हिकया �ै? परम'ाम के सम्Lन्' सेतुमने आज तक मुझे कोई पm भी न�ीं खिलखा। सद्गरुुम�ाराज के 'ामगमन के पात् �ोने वाले संस्कार में भीतुम न�ीं आये। इस भूल पर तुम्�ें जरा भी शम% न�ींआयी।

    (जयराम जी ग�न धिचन्तन में डूL जाते �ैं। उनके चे�रेपर पाताप् के भाव झलक र�े �ैं)

    श्री जी- य� तो Lताओ हिक इस Lुढ़ापे में कL तककांसे के Lत%न Lनाते र�ोगे? क�लाने को तो तुमब्रह्मसृहिG �ो, हिकन्तु राज जी की ओर तुम्�ारा जरा भीध्यान न�ीं �।ै य� तो सोचो तमु्�ारी जिजन्दगी में हिकतनेहिदन Lाकी �?ै तुम्�ारी स्थिस्थधित उस कुत्ते की तर� �ै, जो

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1515 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    सूखी �ड् डी को चूसकर अपना �ी खून पीता �ै औरखशु �ोता �ै हिक मैं रI और मांस का सुख ले र�ा �ूँ।तुम तो माया में इतने डूL गये �ो हिक अL तुम्�ें ब्रह्मज्ञानकी चचा% एवं धिचतवहिन से कोई सरोकार �ी न�ीं र� गया�।ै

    जयराम भाई- (रोते �ुए) �े हिमहि�रराज! य� तो 'ाम'नी की अपार कृपा �,ै जो उन्�ोंने आपको �मारे पासभेज हिदया �।ै यहिद �में श्री राज जी की वास्तहिवकप�चान �ो गयी �ोती, तो �म इस प्रकार माया में क्योंडूLते? ऐसा लगता � ैहिक सदगुरू म�ाराज आपके अन्दरसा(ात् Lठैकर लीला कर र�े �ैं।

    (इस प्रकार दोप�र तक चचा% चलती र�ती �।ै घर केसभी लोग व�ाँ एकहिmत �ो गये �ोते �ैं)

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1616 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    जयराम भाई- (स्वगत) अL तो य� हिनधित �ी �ो गयाहिक मेर ेघर स्वयं श्री राज जी �ी प'ार े�ैं। इसखिलये, मुझेउसी भाव से इनकी सेवा करनी चाहि�ए।

    (प्रगट रूप में) मेरे 'ाम 'नी! अL दोप�र का समय �ोगया �।ै भोजन तयैार �ै, इसखिलये आप कृपा करके उसेग्र�ण करने का कG करें।

    (श्री प्राणनाथ जी उठकर स्नानगृ� में जाते �ैं।तत्पात् नवीन वस्त्र 'ारण कर भोजन करते �ैं। भोजनकर लेने के पात् --)

    जयराम जी सहि�त परिरवार के कई सदस्य- कृपाहिन'ान! शय्या तयैार �।ै आप पौढ़ने की कृपा कीजिजए।याmा से थके �ोंगे।

    श्री जी- (मुस्कराते �ुए) मैं य�ाँ आराम करने के खिलये

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1717 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    न�ीं आया �ूँ। य�ाँ पर मेरे आने का मुख्य प्रयोजन तमु्�ेंजागृत करना �।ै (गम्भीर स्वर में) जयराम भाई! तुमउस व्रज लीला को याद करो, जिजसमें तुम्�ारी आत्मा भीअन्य गोहिपयों के साथ �ी थी। व्रज में तुम्�ें श्री राज जीके अधितरिरI अन्य हिकसी की भी चा�ना न�ीं थी।योगमाया में जाने के समय भी तुमने पल भर में इसमायावी संसार का परिरत्याग कर हिदया था। क्या तुम उसलीला को भूल गये �ो? रास के पात् परम'ाम जाकरतुम पुन: इस नये जागनी के ब्रह्माण्ड में आये �ो। अLअपने मूल स्वरूप एवं 'ाम 'नी की प�चान करो।

    जयराम भाई सहि�त सम्पूण% परिरवार- (L�ुत �ी भावुक�ोकर) 'ाम 'नी! अL �में आपके स्वरूप की प�चान�ो चुकी �।ै �मारी तो Lस एक �ी प्राथ%ना �ै हिक आप�मसे हिकसी भी स्थिस्थधित में अलग न �ोइए।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1818 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    सम्वत सm� सै Lाइसे, दीप प'ार ेश्री राज।

    दोए Lरस त�ां र�े, सL पूर ेमनोरथ काज।।

    Lी.सा. २१/१५

    हिवक्रम संवत् १७२२ में श्री प्राणनाथ जी (श्री राज जी)दीपLन्दर प'ार।े व�ाँ दो वर्ष% तक जागनी लीला करतेर�े और सभी सुन्दरसाथ को आस्थित्मक आनन्द देते र�े।

    कृपा की'ी अधित घणी, वली आव्या तत्काल।

    ते�ज वाणी ने ते�ज चरचा, प्रेम तणी रसाल।।

    रास १/७६

    'ाम 'नी ने �मारे पर इतनी म�ान कृपा की �ै हिक वेश्री देवचन्द्र जी का तन छोड़कर तुरन्त �ी श्री हिमहि�रराजजी के अन्दर आ चुके �ैं। इस प्रकार वे पुन: �मारे

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1919 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    सम्मुख �ैं। अL �में प�ले जसैी �ी प्रेम रस से भरी �ुईमीठी चचा% सुनने को हिमल र�ी �।ै

    सोई नसी�त देत सजन, खैंचत तरफ वतन।

    हिपउ पुकार ेLेर दसूरी, अL क्यों �ोए पीछे आपन।।

    प्र. हि�. १७/३

    श्री राज जी श्री इन्द्रावती जी के 'ाम हृदय मेंहिवराजमान �ोकर प�ले तन (श्री देवचन्द्र जी) की तर��ी जिसखापन दे र�े �ैं और �में पुकार कर Lुला र�े �ैं।ऐसी स्थिस्थधित में �म उनके प्रधित समर्पिपत �ोने में पीछे क्योंर�ें?

    तो वचन तुमको क�े जाए, जो तुम 'ाम की लीला मां�ें।

    व्रज वालो हिपऊ सो ए�, वचन अपन को क�त �ैं जे�।।

    प्र. हि�. २९/६१प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2020 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    रास हिमने खेलाए जिजने, प्रगट लीला करी � ैधितने।

    'नी 'ाम के के�ेलाए, ए जो साथ को Lुलावन आए।।

    प्र. हि�. २९/६२

    जिजस अ(रातीत ने व्रज एवं रास में श्री कृष्ण जी के रूपमें लीला की थी, अL व�ी 'नी श्री हिमहि�रराज जी केअन्दर हिवराजमान �ैं और जागनी लीला कर र�े �ैं।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2121 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    (३)

    (श्री प्राणनाथ जी ठट् ठानगर में हिवराजमान �ैं। उनकेचारों ओर सुन्दरसाथ Lठेै �ुए वाता% कर र�े �ैं)

    सुन्दरसाथ- 'ाम 'नी! य�ाँ पर धिचन्तामशिण नाम केएक आचाय% �ैं, जो कLीर पन्थ के अनुयायी �ैं। उनकेलगभग एक �जार शिशष्य �ैं और वे L�ुत Lडे़ योगाभ्यासीभी �ैं। यहिद आप उनसे हिमलकर , तारतम ज्ञान कीअमृत'ारा उन्�ें भी प्रदान करें , तो हिनय �ी उनकीआत्मा जाग्रत �ो जायेगी।

    श्री जी- L�ुत अच्छी Lात �।ै चलो चलते �ैं।

    (श्री प्राणनाथ जी कुछ सुन्दरसाथ के साथ धिचन्तामशिणजी के हिनवास पर प�ुँचते �ैं। धिचन्तामशिण जी श्री जी कोदेखते �ी L�ुत प्रसन्न �ोते �ैं और अशिभवादन करके उन्�ें

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2222 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    सम्मानपूव%क Lठैाते �ैं)

    धिचन्तामशिण- मान्यवर! आप क�ाँ से आये �ैं? मेरी य�ीइच्छा �ै हिक आप मुझसे आध्यास्थित्मक ज्ञान की चचा%करें। या तो आप सुनाइये या मैं सुनाऊँ। यहिद आप क�ेंतो मैं आपको हिवष्णु भगवान, ज्योधित स्वरूप, या आहिदनारायण का सा(ात्कार करा सकता �ूँ। इसके अधितरिरIदस अन�दों की म'ुर ध्वहिन का भी मैं अनुभव करासकता �ँू। यहिद इनकी अनुभूधित करने की आपकी इच्छान�ीं �ै, तो आपने जो कुछ भी आध्यास्थित्मक उपलस्थिब्'की �,ै मुझे भी उसका सा(ात्कार कराने का कG करें।

    श्री जी- मैं तो आपके पास कुछ लेने आया �ूँ। आपआत्म-ज्ञान सम्Lन्'ी सत्य को दशा%ने का कG करें।

    धिचन्तामशिण- सdा ब्रह्मज्ञान तो कLीर जी ने �ी क�ा �ै,

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2323 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    हिकन्तु कमाल जी का ज्ञान तो कLीर जी से भी ऊँचा �।ैवस्तुत: कLीर जी परमात्मा के आ'े भI �ैं और कमालजी पूर ेभI।

    श्री जी- मुझे L�ुत �ी खेदपूव%क य� क�ना पड़ र�ा �ैहिक आपका य� कथन हिLना सोचे-हिवचारे �ी क�ा गया�।ै कLीर जी अ(र ब्रह्म की वासना �ैं, जLहिक कमालजी माया के जीव �ैं। देखिखए, कLीर जी ने �द-Lे�द सेभी परे परम'ाम में �ोने वाली घटना का हिकतना मनोरमवण%न हिकया �-ै

    सधिdदानन्द परब्रह्म ने अपने हृदय में य� संकcप खिलयाहिक अ(रब्रह्म तथा आनन्द अंग सहि�त आत्माओं कोअपनी पणू% प�चान देनी �।ै उनकी य� इच्छा रूपी गंगासम्पूण% परम'ाम में फैल गयी। उस इच्छा रूपी गंगा केजल में सत् अंग तथा आनन्द अंग पूण%तया डूL गये।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2424 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    परब्रह्म की आदेश शहिI ने सभी 'म%ग्रन्थों में इसकीसाधि(यां खिलखवा दी और उसी के आदेश से इसहिmगुणात्मक ब्रह्माण्ड की उत्पखित्त �ुई �।ै कLीर जी क�ते�ैं हिक इसके र�स्य को जानने वाला तो मेरा भी सद्गरुू(परब्रह्म) �ोगा।

    धिचन्तामशिण- ('ीमे स्वर में) हिप्रय शिशष्यों! मेरे गुरूदेव नेकाशी में क�ा था हिक इसके र�स्य को केवल परब्रह्मस्वरूप सद्गरुू �ी खोल सकते �ैं। वे भहिवष्य में तुमसेअवश्य हिमलेंगे। ऐसा लगता �ै हिक आज उनकीभहिवष्यवाणी सत्य �ो गयी �।ै

    (धिचन्तामशिण अभी शिशष्यों से क� �ी र�े �ोते �ैं हिक श्रीजी अचानक उठकर चल दतेे �ैं। कुछ हिदनों के पात् धिचन्तामशिण श्री जी को खोजते-खोजते उनके हिनवास परप�ँुच जाते �ैं। उस समय चचा% चल र�ी �ोती �ै)

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2525 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    श्री जी- अध्यात्म का हिवर्षय L�ुत �ी ग�न �ोता �।ैवास्तहिवक सत्य की प्राहि के खिलये लौहिकक प्रधितष्ठा एवं"म�न्त" पद के अशिभमान को छोड़ना आवश्यक �ोता�.ै......।

    (चचा% समा �ोने के पात् एकान्त में)

    धिचन्तामशिण- मैं तो आपकी शरण में आ �ी चुका �ूँ।मेरी आपसे प्राथ%ना �ै हिक आप एकान्त में भले �ी मेरीहिकतनी भी खण्डनी क्यों न करें, हिकन्तु मेरे शिशष्यों केसामने मेरी गरिरमा का ध्यान अवश्य रख लेने की कृपाकरें।

    श्री जी- धिचन्तामशिण जी ! मेरा उद्देश्य हिकसी कोअपमाहिनत करना न�ीं �।ै यहिद मैं खण्डनी के कुछ वचनभी क�ँूगा, तो आपकी मया%दा की र(ा करते �ुए �ी

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2626 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    क�ँूगा। आप हिनधिन्त र�ें।

    अगले हिदन प्रात:काल का समय �।ै श्री जी चचा% केखिलये आसन पर हिवराजमान �ैं। नेपथ्य में (पद के पीछेसे) L�ुत �ी म'ुर ध्वहिन आती �ै-

    सुनो र ेसत के Lनजारे, एक Lात क�ू ंसमझाई।

    या फंद Lाजी रची माया की, तामें सL कोई र�या उरझाई।।

    आंटी आन के फासंी लगाई, वे भी उलहिटएं दई उलटाई।

    L'ं पर L'ं हिदए हिव' हिव' के, सो खोली हिकन�ू ंन जाई।।

    ……………

    म�ामधित क�े सावचेत �ोइयो, हिमcया � ैअंकूरो आई।

    झूठी छूटे सांची पाइए, सतगुरु लीजे रिरझाई।।

    हिक. ५/१,२,११

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2727 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    श्री जी- सत्य की रा� पर चलने की आकां(ा रखनेवाले मेरी Lात सुनो। माया के फन्दे में सभी प्राणी इसप्रकार फँसे �ुए �ैं हिक चा�कर भी इससे हिनकल न�ींपाते। माm गृ� त्यागकर म�न्त Lनने से �ी अध्यात्म केचरम लक्ष्य को न�ीं पाया जा सकता। ज्ञान के अशिभमानको छोड़कर परम'ाम के ज्ञान की वर्षा% करने वाले सद्गरुुकी शरण में स्वयं को समर्पिपत �ोना चाहि�ए।

    (धिचन्तामशिण जी भाव हिव�् वल �ोकर खडे़ �ो जाते �ैं)

    धिचन्तामशिण जी- मेरे प्राणनाथ! आपकी ज्ञानमयी लाठीसे मैंने अपने अज्ञान रूपी काले कुत्ते को मार डाला �।ैअL मैं अपना सव%स्व आपको समर्पिपत करता �ूँ।

    (सेवकों को सम्Lोधि'त करते �ुए ) हिप्रय शिशष्यों! येपरब्रह्म के सा(ात् स्वरूप �ैं। मैंने अपना शीश इनके

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2828 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    चरणों में समर्पिपत कर हिदया �।ै मेर ेपास अखण्ड 'ाम काकुछ भी ज्ञान न�ीं �।ै तुम सभी मेरी तर� �ी इनकीशरण में आ जाओ।

    भानो भरम वचन देखकर, छोड़ो नींद रोसनी हि�रदे 'र।

    श्री 'ाम के 'नी के�ेलाए, सो Lठेै आपन में इत आए।।

    प्र. हि�. १३/२

    �े साथ जी! तारतम वाणी के वचनों से अपने संशयोंको दरू कीजिजए तथा अज्ञानता की नींद को �टाइए। स्वयंपूण%ब्रह्म सधिdदानन्द श्री इन्द्रावती जी के 'ाम हृदय मेंहिवराजमान �ोकर लीला कर र�े �ैं।

    सेवा कीजे पे�ेचान धिचत्त 'र, कारन अपने आए फेर।

    भी अवसर आयो � ै�ाथ, चेतन कर हिदए प्राणनाथ।।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2929 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    प्र. हि�. १३/३

    अ(रातीत श्री प्राणनाथ जी के स्वरूप की प�चानकरके सेवा करने का य� सुन�रा अवसर �।ै अपनीतारतम वाणी से उन्�ोंने �में साव'ान भी कर हिदया �।ै�में जगाने के खिलये �ी श्री राज जी (श्री प्राणनाथ जी)श्री देवचन्द्र जी का तन छोड़कर श्री म�ामधित जी के 'ामहृदय में प्रकट �ो गये �ैं।

    या कुरान या पुरान, ए कागद दोऊ प्रवान।

    याके मगज माएने �म पास, अंदर आए खोले प्राणनाथ।।

    प्र. हि�. ३७/१०२

    वेद-कतेLों में �मारी साधि(यां �ैं। इनके गुह्य र�स्यों कोमाm �म �ी जानते �ैं क्योंहिक स्वयं अ(रातीत श्रीप्राणनाथ जी (श्री राज जी) �मारे 'ाम हृदय में

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3030 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    हिवराजमान �ोकर सभी र�स्यों को उजागर कर र�े �ैं।

    (४)

    (सेठ लक्ष्मण दास (लालदास जी) ठट् ठा नगर केप्रजिसद्ध व्यवसायी �ैं। एक हिदन गोदाम में उनकी वाता%अपने एक कम%चारी चतुरा नामक ब्राह्मण से �ोती �ै)

    चतुरा- सेठ जी! आप तो स्वयं गीता एवं भागवत् केप्रकाण्ड हिवद्वान �ैं, हिकन्तु य� Lताइये हिक अखण्ड व्रजऔर रास की लीला क�ाँ पर �ो र�ी �ै?

    लालदास जी- अखण्ड व्रज और रास को देखने केखिलये हिदव्य दृहिG चाहि�ए। इन चम%-च(ुओं से अखण्ड कीलीला को न�ीं देखा जा सकता।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3131 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    चतुरा- आप हिदव्य दृहिG कL पायेंगे? ऐसी अवस्था मेंआपकी आत्मा कL जाग्रत �ोगी? जL म�ाप्रलय में पाँचतत्व वाले इस हिmगणुात्मक ब्रह्माण्ड का �ी नाश �ोजायेगा, तो य� Lताने का कG करें हिक उस समयअखण्ड व्रज और अखण्ड रास का अस्थिस्तत्व क�ाँ पर�ोगा?

    लालदास- (मन �ी मन) य� तो आज हिदन तक मझेुमालूम �ी न�ीं �ो सका �।ै (प्रकट रूप में) अच्छा, य�तो Lताओ हिक तुमने इस प्रकार का अलौहिकक ज्ञान क�ाँपर सुना �?ै

    चतुरा- इस नगर में एक अलौहिकक म�ापुरूर्ष आये �ुए�ैं। उनके मुखारहिवन्द से �ी मैंने य� ज्ञान प्रा हिकया �।ै

    लालदास जी- तुम मुझे उनके चरणों की छmछाया में

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3232 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    ले चलो।

    चतुरा- सेठ जी! हिLना उनकी स्वीकृधित के आपकोउनके पास न�ीं ले जा सकता।

    (अगले हिदन चतुरा श्री जी के आदेश से लालदास जीको लाता �।ै श्री जी की हिदव्य वाणी को सुनकरलालदास जी को अपार शास्थिन्त हिमलती �ै और वे तारतमग्र�ण कर लेते �ैं। एक हिदन Lाग में ट�लते समय उनकीअपने �ी माली जिजन्दादास से वाता% �ोती �ै)

    जिजन्दादास- आप जिजनके चरणों में चचा% सुनने जाते �ैं,क्या आपने उनके वास्तहिवक स्वरूप को भी प�चाना �ै?

    लालदास जी- (मन �ी मन) य� मेरा हिकतना Lड़ादभुा%ग्य �ै हिक मैं अपने अ'ीनस्थ कम%चारिरयों से ज्ञान एवंप�चान के (ेm में L�ुत पीछे �ूँ। (प्रकट रूप में) भाई!

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3333 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    तुमने उन्�ें जिजस रूप में प�चाना �ै , उसे मुझे भीLताओ।

    जिजन्दादास- श्रीमद्भागवत् के Lार�वें स्कन्' मेंमारकण्डेय ऋहिर्ष की कथा �ै, जिजन्�ोंने नारायण से य�प्राथ%ना की थी हिक उन्�ें माया भी देखने को हिमल जायेतथा वे अपने इG (नारायण) के चरणों से अलग भी न�ों। आहिदनारायण ने उन्�ें माया हिदखायी तथा उन्�ें मायासे हिनकालने के खिलये स्वयं आये। इसी प्रकार परम'ामकी आत्मायें भी इस नश्वर जगत् में आयी �ुई �ैं तथाउन्�ें जाग्रत करने के खिलये स्वयं परब्रह्म श्री राज जी �ीश्री प्राणनाथ जी के स्वरूप में आये �ुए �ैं।

    अखण्ड व्रज एवं रास में श्री कृष्ण नाम से नूरी तन �ीलीला कर र�े �ैं। उनमें अ(रातीत का आवेश न�ीं �।ै

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3434 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    इसखिलये, उन तनों को अ(रातीत क�लाने की शोभान�ीं हिमल सकती।

    यहिद ऐसा क�ा जाये हिक श्री कृष्ण शब्द अनाहिद �ै एवंपरम'ाम में श्री कृष्ण �ैं, तो य� उधिचत न�ीं, क्योंहिकजL इस संसार के नश्वर शब्द Lे�द में न�ीं जा सकते तोपरम'ाम में कैसे जा सकते �ैं?

    Lे�द को शब्द न पो�ोंच�ीं, तो क्यों पो�ोंचें दरLार।

    लुगा ना पो�ोंच्या रास लों, इन पार के भी पार।।

    क. हि�. २४/४१

    य� तथ्य भी �ास्यास्पद �ी �ै हिक एकमाm श्री कृष्णनाम �ी अ(रातीत का नाम �।ै श्री जी या श्री प्राणनाथशब्द तो माm हिवशेर्षण �।ै

    सधिdदानन्द परब्रह्म के अनन्त गुणों, लीला, एवं स्वभाव

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3535 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    के आ'ार पर वेद, कुरआन आहिद 'म%ग्रन्थों मेंL�ुसंख्यक नामों का वण%न �।ै ये सभी नामहिवशेर्षणात्मक �ी �ैं। हिवशेर्षण से रहि�त कोई भी नामहिनरथ%क �ो जायेगा। श्री कृष्ण नाम भी हिवशेर्षणात्मक �ी�,ै जिजसके अथ% प्राय : सं(ेप में इस प्रकार �ैं -आकर्ष%णशील, काला, ग�रा, नीला, व्यास, अजु%न,अहिनGकर इत्याहिद।

    व्याकरण की दृहिG से एक �ी शब्द के अनेकों अथ% �ोते�ैं, जिजनका प्रयोग प्रसंग की दृहिG से हिकया जाता �।ैअ(रातीत को हिकसी भी भार्षा के शब्द हिवशेर्ष के Lन्'नमें न�ीं Lाँ'ा जा सकता।

    अ(रातीत ने व्रज में श्री कृष्ण नामक तन में ११ वर्ष%५२ हिदन तक लीला की। य�ी कारण �ै हिक अ(रातीतके नामों में श्री कृष्ण शब्द का प्रयोग लौहिकक साहि�त्य के

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3636 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    'म%ग्रन्थों में �ोने लगा। इसका मूल कारण उस तन में'नी के आवेश का �ोना था। आवेश के चले जाने केपात् मथुरा'ीश श्री कृष्ण या द्वारिरका'ीश श्री कृष्ण कोकोई भी अ(रातीत न�ीं क�ता। यहिद शब्द माm �ीअ(रातीत �,ै तो वत%मान में अनेक लोगों के नाम कृष्ण�ैं। क्या वे सभी लोग अ(रातीत �ी क�े जायेंगे?

    इस जागनी ब्रह्माण्ड में आवश्यकता �ै, अपनी आत्माके हिप्रयतम अ(रातीत को प�चानने की, जो श्रीइन्दावती जी के 'ाम हृदय में हिवराजमान �ोकर लीलाकर र�े �ैं।

    पोते प्रगट प'ारया छो, आडा देओ छो ब्रज ने रास।

    इदंावती संू अंतर कां की'ूं, तमे देओ मूने तेनो जवाL।।

    र्षटऋतु ८/९

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3737 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    �े 'नी! आप सा(ात् यगुल स्वरूप श्री राजश्यामा जीइस जागनी ब्रह्माण्ड में लीला कर र�े �ैं, हिकन्तु आहिड़कालीला के माध्यम से मझेु व्रज एवं रास के रूपों (रा'ा-कृष्ण) में क्यों उलझाते र�े �ैं ? आपने मुझसे य� भेदअL तक क्यों शिछपाए रखा? मुझे इसका उत्तर दीजिजए।

    आपोपूं ओलखावी मारा वाला, दरपण दाखो छो प्राणनाथ।

    दरपण नू ंसंू काम पडे़, ज्यार ेपे�ेरयूं ते कंकण �ाथ।।

    र्षटऋतु ८/१०

    �े 'नी! जL आपने मुझे अपने स्वरूप की प�चान करादी �ै तो हिफर व्रज-रास के उन रूपों की ओर मुझे क्योंले जाते �ैं, जो माm प्रधितहिLम्L की तर� �ैं? जL �ाथ मेंकँगन प�ना गया �ो, तो उसे प्रत्य( �ी देखा जा सकता�।ै उसे देखने के खिलये दप%ण की आवश्यकता न�ीं

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3838 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    पड़ती, अथा%त् जL श्री राजश्यामा जी 'ाम हृदय मेंप्रत्य(त: हिवराजमान �ैं, तो प्रधितहिLम्L रूप व्रज-रास मेंभटकने की कोई आवश्यकता न�ीं �।ै

    ते माटे तमे सुणजो साथ, एक क�ू ंअनुपम Lात।

    चरचा सुणजो हिदन ने रात, आपणने mुठा प्राणनाथ।।

    रास २/१७

    इसखिलये �े साथ जी! मेरी एक अनुपम Lात सुहिनये।आप सभी �मेशा �ी (हिदन-रात) चचा% सुहिनये, ताहिकअपने हिप्रयतम प्राणनाथ को पूण% रूप से रिरझा सकें , जोप�ले न�ीं रिरझा सके थे।

    द्रGव्य- यद्यहिप व्रज-रास में भी आत्माओं ने 'नी कोरिरझाया था, हिकन्तु हिनद्रा में। अL जागनी लीला में जाग्रत�ोकर रिरझाना �ै, इसखिलये य�ाँ चचा% में लीन र�ने की

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  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    Lात क�ी गयी �।ै

    Lृज लीला लीला रास मां�ें, �म खेलें जानके जार।

    जागनी लीला जाग पे�ेचान, हिपउ सों जान हिवलसे करतार।।

    हिकरतंन ५४/१५

    इस जागनी ब्रह्माण्ड में हिप्रयतम प्राणनाथ की प�चानहिकये हिLना जाग्रत �ोने का दावा करना व्यथ% �।ै

    तुम �ी उतर आए अस% से, इत तुम �ी हिकयो हिमलाप।

    तुम �ी दई सु' अस% की, ज्यों अस% में �ो आप।।

    शंृ्रगार २३/३१

    पूण% ब्रह्म सधिdदानन्द परम'ाम से आवेश द्वारा आकरश्री म�ामधित जी के 'ाम हृदय में हिवराजमान �ो गये �ैंऔर उन्�ोंने �ी ब्रह्मवाणी का अवतरण कर सभी को

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  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    परम'ाम की प�चान दी �।ै

    हिवनती एक सुनो मेर ेप्यार,े क�ू ंहिपउ जी Lात।

    आए प्रगटे फेर कर, करी कृपा देख अपन्यात् ।।

    प्र. हि�. १०/१

    �े 'ाम 'नी! आपने मूल सम्Lन्' के कारण �ी �मारेऊपर हिवशेर्ष कृपा की �ै और श्री देवचन्द्र जी के तन कोछोड़कर श्री म�ामधित जी के 'ाम हृदय में हिवराजमान�ोकर लीला कर र�े �ैं। "ते माटे तमे सुणजो साथ,आपण मां Lेठा प्राणनाथ" (प्र. गु. ४/६) का कथन य�ीजिसद्ध करता �ै हिक श्री राज जी श्री इन्द्रावती जी केअन्दर हिवराजमान �ोकर जागनी लीला कर र�े �ैं।

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  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    (५)

    स्थान- मस्कत Lन्दर। म�ाव जी भाई अपनी दकुान मेंसो र�े �ैं। आ'ी रात का समय �।ै

    (अचानक उनके गाल पर एक जोरदार थप्पड़ पड़ता�।ै त…...ड़ा…...क। म�ावजी भाई घLड़ाकर उठकरLठै जाते �ैं)

    म�ाव जी- (LुदLदुाते �ुए) ओ�! य� थप्पड़ मुझेहिकसने मारा �?ै मैं तो सोते समय दरवाजा Lन्द करके�ी सोया था।

    (उठकर दरवाजे और खिखड़हिकयों का हिनरी(ण करते �ैं)

    (मन �ी मन) दरवाजा तो पणू%तया Lन्द �।ै जालीदारखिखड़हिकयों से कोई भी मानव आ �ी न�ीं सकता। पुन :व� कौन �,ै जिजसने मुझे तमाचा मारा �ै? मेरे गाल में

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  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    अभी भी जलन �ो र�ी �।ै

    (कुछ देर सोचते �ैं। पुन: जिससहिकयां भरकर �ोठों सेLदुLुदाने लगते �ैं। ऐसा लगता �ै, जसेै उनकीअन्तरात्मा उन्�ें धि'क्कार र�ी �ो)

    म�ाव जी भाई! अपने घर आये अ(रातीत को तूने न�ींप�चाना। उनकी खण्डनी पर रूठकर तू य�ाँ सोता र�ा।तझेु हिकस Lात का अशिभमान �ै? दया के सागर, सवश्वरस्वामी की अव�ेलना का �ी तुझे य� दण्ड हिमला �।ै अLभी समय �।ै यहिद तू अपना कcयाण चा�ता �ै, तो उनकेचरणों से खिलपटकर अपनी भूल की (मा माँग।

    (प्रात:काल का समय �।ै श्री जी अपने शयन क( मेंसो र�े �ैं। म�ावजी भाई के रोने की आवाज सुनकर वेउठ Lठैते �ैं)

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4343 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    श्री जी- अरे कौन? म�ावजी भाई! इस समय कैसेआना �ुआ?

    (म�ाव जी रोते �ुए श्री जी के चरणों में हिगर पड़ते �ैं)

    म�ाव जी- एक तरफ तो आप चाँटा मारकर प�चानदेते �ैं, ऊपर से पूछते �ैं हिक कैसे आए �ो? आपकी य�हिवधिचm लीला �।ै प्राणेश्वर! आप सा(ात् अ(रातीत �ैं।य� मेरा दभुा%ग्य � ैहिक मैं आपको प�चान न�ीं सका। मेरीइस भूल को (मा कीजिजए, (मा कीजिजए।

    अ(रातीत का आवेश स्वरूप �ी इस संसार में श्रीप्राणनाथ जी के स्वरूप में अपनी आत्माओं को जगा र�ा�।ै ठट् ठानगर, मस्कत, अब्Lासी Lन्दर आहिद सभीस्थानों में वे �ी जागनी लीला कर र�े �ैं। चाँटा पड़ने केLाद म�ाव जी भाई को उनकी पूरी प�चान �ो जाती �।ै

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4444 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    मैं खण्डनी सुन के, �ोय गया Lेजार।

    मैं तो कdा साथ में, ना पहि�चाना परवरहिदगार।।

    Lी. सा. २६/२९

    सुख देऊं सुख लेऊं, सुख में जगाऊं साथ।

    इदं्रावती को उपमा, मैं दई मेर े�ाथ।।

    क. हि�. २३/६८

    श्री राज जी स्वयं क�ते �ैं हिक मैं सुन्दरसाथ कोआस्थित्मक सुख देता �ूँ तथा सुखपूव%क जगाता भी �ूँ। मैंनेअपने नाम तथा शंृ्रगार की सम्पूण% शोभा श्री इन्द्रावती जीको दे रखी �,ै अथा%त् म�ामधित जी का नाम (श्री राज,श्री प्राणनाथ, श्री जी) मेरा �ी नाम �।ै मेरी तथा इसस्वरूप की शोभा में कोई भेद न�ीं �।ै

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4545 / 217/ 217

  • श्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामीश्री प्राणनाथ महि�मा श्री राजन स्वामी

    एक सुख सुपन के, दजेू जागते ज्यों �ोए।

    तीन लीला पे�ेले ए चौथी, फरक एता इन दोए।।

    क. हि�. २३/७५

    एक सुख स्वप्न का �ोता �ै, जो माm आभास की तर�(काcपहिनक) �ोता �।ै दसूरा सुख जाग्रत अवस्था का�ोता �,ै जो यथाथ% में �ोता �।ै इसी प्रकार व्रज, रास,एवं श्री देवचन्द्र जी के तन से �ोने वाली आहिड़का लीलाआहिद का सुख भी स्वप्न के समान �ै, तथा श्री प्राणनाथजी के द्वारा �ोने वाली जागनी लीला का सुख जाग्रतअवस्था का वास्तहिवक सुख �।ै

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज�