विरह के प्रकरण - टीका श्री राजन स्ामी ·...

31
रह के करण रह के करण - - टीका ी राजन ामी टीका ी राजन ामी काशकः ी ाणनाथ ानपीठ काशकः ी ाणनाथ ानपीठ , , सरसाा सरसाा 1 / 31 / 31

Upload: others

Post on 02-Sep-2019

58 views

Category:

Documents


0 download

TRANSCRIPT

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 11 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    वि�रह के प्रकरण

    राग सिंसधुड़ा

    विकरतंन प्रकरण ३५-४० उस समय उतरे, जबश्री जी मन्दसौर में सुन्दरसाथ सविहत वि�रक्त भेष मेंवि�राजमान थे और कृपाराम जी उदयपुर का दःुख भरासमाचार लेकर आये। सुन्दरसाथ के कष्टों की विन�ृत्ति> केत्तिलये ये छः प्रकरण श्री महामतित जी के धाम हृदय से फूटपड़े। इन प्रकरणों का श्रद्धापू�Fक पाठ सुन्दरसाथ कोलौविकक कष्टों से छुटकारा विदलाता ह।ै

    �ालो वि�रह रस भीनों रगं वि�रहमां रमाड़तो,

    �ासना रूदन कर ेजल धार।

    आप ओलखा�ी अलगो थयो अमथी,

    जे कोई हुती तामसिसयों सिसरदार।।१।।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 22 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    हे प्राण�ल्लभ अक्षरातीत! वि�रह का खेल देखने�ाली, वि�रह के रस में डूबी हुई, हम आत्माएँ रोते हुएआँसुओं की धारा बहा रही हैं। प्रमुख तामसी सत्तिखयों मेंआप अपनी पहचान देकर ओझल हो गये हैं।

    भा�ाथF- यद्यविप रोने का कायF जी� का है , आत्माका नहीं। आत्मा तो मात्र द्रष्टा है , विकन्तु जी� के तनद्वारा आत्मा का नाम त्तिलये जाने से यह बात कही गयी हैविक आपकी आत्मायें रो रही हैं। परमधाम की �ाविहदत(एकविदली) में सरदार (प्रमुख) अथ�ा सात्वित्�की,राजसी, और तामसी का भेद नहीं ह।ै ये सारी बातें व्रज,रास, ए�ं जागनी लीला से सम्बत्विन्धत हैं।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 33 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    कलकली कामनी �दन वि�लखावि�या,

    वि�श्वमां �रतितयो हाहाकार।

    उदमाद अटपटा अंग थी टालीने,

    माननी सहुए मनावि�यो हार।।२।।

    हे धनी! आपकी दःुखी अँगनाओ ं के चेहरों परविबलख-विबलखकर रोने का करुण दृश्य ह।ै इस समयसम्पूणF वि�श्व में दःुख फैलने से हाहाकार मचा हुआ ह।ैआपने अपनी अँगनाओं के हृदय में जो इश्क के बड़ा होनेका भा� था, उसे हटाकर हार मन�ा ली ह।ै

    भा�ाथF- "विबलखना" रोने की �ह प्रविiया है,सिजसमें जोर-जोर से सिससविकयाँ आती हैं। अधाjविगनीअपने विप्रयतम से पे्रम का मान रखती हैं, इसत्तिलये उसेमाविननी कहते हैं।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 44 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    पतितव्रता पल अंग थाए नहीं अलविगयो,

    न कांई जार�ंतितयो वि�ना जार।

    पावित्रयो विपउ थकी अमें जे अभागणिणयों,

    रविहयो अंग दाग लगा�न हार।।३।।

    इस संसार में पतितव्रता स्त्री एक पल के त्तिलये भीअपने पतित से अलग होना पसन्द नहीं करती तथा कोईप्रेविमका भी अपने पे्रमी से अलग नहीं रह पाती, विकन्तुएक हम ऐसी अभाविगन हैं, जो पतितव्रता कहलाने पर भीअपने विप्रयतम से दरू (माया में) हैं और अपने पे्रम परकलकं लग�ा रही हैं।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 55 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    स्या र ेए�ा करम करया हता कामनी,

    धाम मांहें धणी आगल आधार।

    ह�े काढ़ो मोहजल थी बूडती कर ग्रही,

    कहे महामती मारा भरतार।।४।।

    श्री महामतित जी कहते हैं विक हे मेरे विप्रयतम् ! हमनेपरमधाम में आपके प्रतित ऐसा कौन सा खोटा कायF विकयाथा, सिजसके परिरणाम स्�रूप हमें ये दःुख भरे विदन देखनेपड़ रहे हैं। अब आप भ�सागर में डूबती हुई अपनीअँगनाओं को हाथ पकड़कर विनकात्तिलये।

    ।। प्रकरण ३५ ।।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 66 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    हांर े�ाला रल झलावि�यो रामतें रो�रावि�यो,

    जुज�े प�Fतों पाड़या र ेपुकार।

    रण�गडा मांहें रोई कहे कामनी,

    धणी वि�ना तिधक तिधक आ र ेआकार।।१।।

    हे मेरे �ाला जी! इस खेल में माया ने हमें इतनादःुखी विकया है और रुलाया है विक हम अलग-अलगपहाड़ों में जोर-जोर से विबलख रही हैं। दःुखों से तपने�ाले इस रवेिगस्तान रूपी संसार में रो-रोकर हम अँगनायेंकह रही हैं विक हे धनी ! आपके विबना इस शरीर कोतिधक्कार ह,ै तिधक्कार ह।ै

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 77 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    �ेदना वि�खम रस लीधां अमें वि�रह तणां,

    ह�े दीन थई कहू ं�ार�ंार।

    सुपनमां दखु सहया घणां रासमां,

    जागतां दखु न सेहे�ाए लगार।।२।।

    हे धनी! आपके वि�रह में हमने असहनीय कष्टों काअनुभ� विकया ह।ै अब हम दीन (यतीम, सिजसके पासकुछ भी न हो) होकर आपसे बारम्बार यह बात कह रहीहैं विक स्�प्न के ब्रह्माण्ड व्रज में ५२ विदन तक वि�रह काकष्ट देखा, और उससे भी अतिधक वि�रह का कष्ट रास मेंअन्तधाFन लीला में देखा, विकन्तु इस जागनी के ब्रह्माण्डमें जाग्रत हो जाने पर थोड़ा भी वि�रह का कष्ट नहीं सहाजाता।

    भा�ाथF- व्रज में घर और सम्बन्ध का कुछ भी ज्ञाननहीं था। रास में सम्बन्ध का बोध तो था , विकन्तु विनज

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 88 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    घर का नहीं, इसत्तिलये वि�रह सहन विकया जा सका।जागनी ब्रह्माण्ड में सारे रहस्यों का पता चल जाने परवि�रह का कष्ट असह्य होता ह।ै

    दतं तरणां लई तारूणी तलविफयो,

    तमें बाहो दाहो दीन दातार।

    खमाए नहीं कठण ए�ी कसनी,

    राखो चरण तले सरण साधार।।३।।

    दःुत्तिखयों के हृदय में आनन्द रस का संचार करने�ाले हे विप्रयतम! आपकी अँगनाएं अपने दाँतों में तितनकादबाकर तड़प रही हैं। आप उनकी वि�रहावि~ को बझुाइए।अब इस प्रकार की कविठन परीक्षा नहीं सही जाती।शरणागतों के जी�न के आधार, हे मेरे धाम धनी! आपअपनी अँगनाओं को अपने चरणों की छाँ� में रत्तिखए।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 99 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    भा�ाथF- "दाँतों में तितनका दबाना" एक मुहा�रा है,सिजसका अथF होता है विक हम अपनी भूलों पर प्रायतितकरते हैं। हमारे पास अब आपके प्रतित बोलने के त्तिलयेकोई भी शब्द नहीं ह।ै हम सुख या दःुख में धनी सेविकतना पे्रम करते हैं, यह हमारे त्तिलये एक बहुत बडी़कसौटी ह।ै

    ह�े हारया हारया हू ंकहू ं�ार केटली,

    राखो रोतितयो करो विनरमल नार।

    कहे महामती मेहेबबू मारा धणी,

    आ र ेअजF रखे हांसीमा उतार।।४।।

    श्री महामतित जी कहते हैं विक मेरे प्राण जी�नविप्रयतम! अब मैं इसी बात को विकतनी बार कहूँ विक मैंहार गई, हार गई। हमारा रोना-धोना बन्द कराकर अपने

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 1010 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    प्रेम-रस से हमें विनमFल कीसिजए और हाँ! मेरी इस प्राथFनाको आप अ�श्य ही स्�ीकार कीसिजए। इसे हँसी में टालमत दीसिजएगा।

    ।। प्रकरण ३६ ।।

    हांर े�ाला बधं पड़या बल हरया तार ेफंदड़े,

    बधं वि�ना जाए बातंिधयो हार।

    हसंिसए रोइए पविड़ए पछताइए,

    पण छूटे नहीं जे लागी लार कतार।।१।।

    हे �ाला जी! आपके द्वारा इस खेल के फन्दे में आनेसे हम माया के बन्धनों में फँस गयी हैं। अब हमारी सारीशविक्त (ज्ञान, पे्रम, वि��ेक इत्याविद) क्षीण हो गयी ह।ैदेखने में कोई प्रत्यक्ष बन्धन तो नहीं विदखाई पड़ता ,लेविकन सभी अँगनाएं पंविक्तबद्ध होकर विकसी न विकसी रूप

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 1111 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    में माया से बँधी हुई हैं। इससे विनकलने के त्तिलये कोईविकतना भी रोए, हँसे, या पाताप कर,े लेविकन माया काबन्धन ऐसा वि�कट है विक �ह छूटता ही नहीं। इसमेंफँसते जाने �ालों की लम्बी पँविक्तयां लगी हुई हैं।

    जेहेर चढ़यो हाथ पांउं झटकतितयो,

    सर�ा अंग साले कोई सके न उतार।

    समरथ सुखथाय साथने ततत्तिखण,

    गुण�ंता गारुडी जेहेर तेहेने तेणी वि�धें झार।।२।।

    सिजस प्रकार विकसी व्यविक्त के शरीर में जहर फैलजाने पर उसके सभी अंगों में पीड़ा होने लगती है , तथा�ह अपने हाथों और परैों को पटकने लगता है , उसीप्रकार हे धनी! हमार ेइन तनों में भी माया का जहर फैलगया ह,ै सिजससे हम दःुखी हैं। इस माया के जहर को

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 1212 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    कोई भी अन्य व्यविक्त उतारने में समथF नहीं ह।ै जसेै कोईगुण�ान ओझा अपने मन्त्र-बल से जहर को उतार देताह,ै उसी प्रकार आप ही तारतम �ाणी के रस से हमारेवि�ष को उतारने में समथF हैं। हे प्राण�ल्लभ! हमें इसी क्षणवि�ष से रविहत कर दीसिजए, ताविक हम सभी आनन्द में म~हो जायें।

    भा�ाथF- "हाथ-पाँ� पटकना" एक मुहा�रा ह,ैसिजसका अथF होता है- व्याकुलता प्रकट करना। यहाँयह कथन इस सन्दभF में प्रयकु्त हुआ है विक सिजस प्रकारवि�ष से व्याकुल व्यविक्त वि�ष न उतर पाने पर अपने हाथोंऔर परैों को झटकने लगता है , उसी प्रकार माया केवि�ष (काम, iोध, लोभ, मोह, अहकंार और ईर्ष्यायाF) सेव्याकुल सुन्दरसाथ प्रायतित् के रूप में अपने हाथ-पाँ�पटक रहे हैं। बेहद �ाणी ३१/१३७ में माया के वि�ष को

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 1313 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    उतारने के सम्बन्ध में कहा गया है-

    तारतम रस बानी कर, विपलाइये जाको।

    जेहेर चढ़या होय सिजमीका, सुख हो�े ताको।।

    माहें धखे दा�ानल दसो विदसा,

    ह�े बलण �ासनाओं थी विन�ार।

    हुकम मोहथी नजर करो विनरमल,

    मूल मुखदाखी वि�रह अंग थी वि�सार।।३।।

    इस संसार की दशों विदशाओं (पू�F, पतिम, उ>र,दतिक्षण, आ~ेय, नऋैत्य, �ायव्य, ईशान, ऊपर, औरनीचे) में वि�षयों की दा�ावि~ जल रही ह।ै इनमें झुलसने�ाली आत्माओं को बचा लीसिजए। हे विप्रयतम! अपनेहुक्म से इनकी दृविष्ट को माया से हटाकर स्�च्छ करदीसिजए और अपना नूरी सुन्दर स्�रूप विदखाकर हृदय से

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 1414 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    वि�रह के कष्ट को दरू कर दीसिजए।

    भा�ाथF- �न में एक �ृक्ष की अवि~ दसूरे �ृक्ष तकपहँुच कर उसे भी जला देती है, वि�षय का वि�ष भी उसीप्रकार ह।ै वि�षयों का सिजतना ही से�न विकया जायेे ,दा�ावि~ की तरह उनकी इच्छा उतनी ही बढ़ती जाती ह।ैविप्रयतम के मुखारवि�न्द के दशFन से ही शात्विन्त विमलती ह।ैइसके अतितरिरक्त अन्य कोई भी मागF नहीं ह।ै

    छल मोटे अमने अतित छेतरया,

    थया हयैा झांझरा न सेहे�ाए मार।

    कहे महामती मारा धणी धामना,

    राखो रोतितयों सुख देयो ने करार।।४।।

    इस ठविगनी माया के लुभा�ने छल ने हमें बहुतअतिधक ठगा ह,ै सिजससे हमारा हृदय छलनी हो गया ह।ै

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 1515 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    अब इसकी मार सही नहीं जाती। श्री महामतित जी कहतेहैं विक हे मेर ेधाम के धनी! अब हमारा रोना बन्द कराकरपरमधाम का अखण्ड सुख दीसिजए, सिजससे हमारे हृदयको सुकून (शात्विन्त) विमल सके।

    ।। प्रकरण ३७ ।।

    केम र ेझंपाए अंग ए र ेझालाओ,

    �ली �ली �ाध्यो वि�ख वि�स्तार।

    जी� सिसर जुलम कीधो फरी फरी,

    हविठयो हरामी अंग इदं्री वि�कार।।१।।

    हे धाम धनी! हृदय में उठने �ाली वि�रह की लपटोंको कैसे बझुायें? माया के वि�ष का वि�स्तार तो विदन-पर-विदन बढ़ता ही जा रहा ह।ै अन्तःकरण (मन, तिच>,बुतिद्ध, तथा अहकंार) ए�ं इत्विन्द्रयों के हठी तथा पापी

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 1616 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    वि�कारों ने जी� के ऊपर बारम्बार अत्याचार विकया ह।ै

    भा�ाथF- अन्तःकरण तथा इत्विन्द्रयों के विबना जी�कोई भी कायF नहीं कर सकता। इनके अन्दर उत्पन्न होने�ाले वि�कारों से ही �ह माया के बन्धन में फँस जाता है,अन्यथा अपने मूल रूप में �ह मात्र द्रष्टा ह।ै

    झांप झालाओ ह�े उठतितयो अंगथी,

    सुख सीतल अंग अंगना ने ठार।

    बाल्या �ली �ली ए मन ए कबधुें,

    कमसील काम कां कराव्या करतार।।२।।

    हे धनी! आप हमारे हृदय से उठने �ाली वि�रह कीअवि~ की लपटों को बझुा दीसिजए। अपने पे्रम का शीतलसुख देकर अँगनाओं के हृदय को पूणF रूप से तृप्त करदीसिजए। कुबुतिद्ध �ाले इस मन ने हम अँगनाओं को बार-

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 1717 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    बार माया में भटकाया ह।ै न जाने क्यों हमसे माया मेंनीच कमF कराये गये?

    भा�ाथF- "करतार" शब्द का प्रयोग यद्यविप अक्षर-अक्षरातीत के त्तिलये होता है, विकन्तु प्रश्न यह होता है विकक्या अक्षरातीत भी अपनी आत्माओं से खोटे कमF कर�ासकते हैं?

    कदाविप नहीं! इस चौपाई में करतार शब्द सम्बोधनह।ै यजु�द में कहा गया है- "यस्मान्न ऋते किंकचन कमFiीयते", अथाFत् सिजस मन के विबना कोई भी कायF नहींहोता। स्पष्ट है सिजस मन को बारम्बार माया में फँसाने�ाला कहा गया है, उसने ही ब्रह्मसृविष्टयों के जी�ों सेखोटे कमF कर�ाये, सिजसका दाग ब्रह्मसृविष्टयों के नाम केसाथ जुड़ जाता ह।ै

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 1818 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    गुण पख इदं्री �स करी अबलीस ने,

    अंगना अंग थाप्यो दई तिधकार।

    अथF उपले एम केहे�ाइयो �ासना,

    फरी एणे �चने दीधी विफटकार।।३।।

    इब्लीश ने हमारी इत्विन्द्रयों (ज्ञानेत्विन्द्रयों तथाकमत्विन्द्रयों), पक्ष (जाग्रत, स्�प्न्, ए�ं सुषुविप्त), ए�ं गणुों(सत्�, रज, ए�ं तम) को अपने अधीन कर त्तिलया ह।ैइस इब्लीश की बठैक हमारे विदलों में भी हो गयी है ,लेविकन दोषी हमें ही ठहराया जा रहा ह।ै यद्यविप बाह्यअथ में तो हमें ब्रह्मसृविष्ट कहा जा रहा है , विकन्तु इनशब्दों की शोभा देकर एक प्रकार से हमें लत्तित ही विकयाजा रहा ह।ै

    भा�ाथF- कतेब परम्परा में "इब्लीश" का अथF होताह,ै �ह शविक्त जो रूह को अल्लाह तआला से दरू करने का

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 1919 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    प्रयास कर।े �ैविदक परम्परा में इसे कत्तिलयगु कहा गया है,सिजसका तात्पयF होता है, अज्ञान रूपी अन्धकार। मन मेंअज्ञान या तमोगुण का अन्धकार छा जाने पर �ह चञ्चलहो जाता ह,ै सिजससे भविक्त दरू हो जाती ह।ै

    खलुासा में कहा है- "�ेदे नारद कहयो मन वि�र्ष्याणुको, जाको सराप्यो प्रजापतित।" कतेब परम्परा में सिजसप्रकार अजाजील के मन की शविक्त इब्लीश है , उसीप्रकार �ैविदक परम्परा में वि�र्ष्याणु के मन का रूप नारद ह।ै�स्तुतः यह ऐतितहासिसक प्रसंग न होकर आलकंारिरक ह।ैपौराणिणक मान्यता में नारद जी को ब्रह्मा जी के श्राप�शस�Fत्र भ्रमण करते हुए दशाFया गया है, विकन्तु ज्ञान काप्रकाश विमलने पर नारद जी को �ीणा के साथ आराधनाए�ं ध्यान करते हुए भी विदखाया गया ह।ै तात्पयF यह हैविक मन में अज्ञान या तमोगणु आने पर परमात्मा से दरू

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 2020 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    कर देता ह,ै तथा ज्ञान और सात्वित्�कता आने परपरमात्मा की ओर ले जाता ह।ै "मनः ए� मनुर्ष्यायाणांबन्धन मोक्ष कारणम्।"

    कतेब परम्परा में नमाज के समय इब्लीश के डर सेतल�ार रखने की बात नादानी ह।ै इब्लीश अथाFत् मन केअन्दर के तमोगणु को हटाना ही इब्लीश को मारना ह।ैइब्लीश को देहधारी (नारद आविद) मानना अनुतिचत ह।ै

    मांहेले माएने जोपे ज्यार ेजोइए,

    त्यार ेदीधी तारूणी तन तछकार।

    कलकली महामती कहे हो कंथजी,

    ए�ा स्या र ेदोष अंगनाओं ना आधार।।४।।

    अन्दर के भा�ों से यविद देखा जाये तो यह स्पष्टहोता ह ैविक आपने हम अँगनाओं को इस माया में भेजकर

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 2121 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    शरीर काटने जसैी पीड़ादायक सजा दी ह।ै विबलखती हुईमहामतित जी कह रही हैं विक हे प्राणाधार विप्रयतम ! इसमेंहम अँगनाओं का क्या अपराध ह?ै

    द्रष्टव्य- अक्षरातीत कभी भी विकसी प्रकार की पीड़ानहीं दे सकते। पीड़ादायक सजा पाने की बात के�लप्रेममयी उलाहने के रूप में कही गयी ह।ै

    ।। प्रकरण ३८ ।।

    हांर े�ाला कांर ेआप्या दखु अमने अनघटतां,

    ब्राध लगाडी वि�ध वि�ध ना वि�कार।

    वि�मुख कीधां रस दई वि�रह अ�ला,

    साथ सनमुख मांहें थया र ेतिधकार।।१।।

    हे मेरे विप्रयतम! आपने हमें माया में कभी न समाप्तहोने �ाला दःुख क्यों दे विदया? हमारे विदल में वि�षय-

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 2222 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    वि�कारों के अविमट रोग भी लगा विदये। अपनी शोभा ए�ंशंृ्रगार के दीदार से दरू हटाकर उलटा वि�रह के हीदःुखदायी रस में डुबो विदया। इस प्रकार सुन्दरसाथ केबीच में मुझे लत्तित होना पड़ रहा ह।ै

    भा�ाथF- माया से संयोग होने के कारण जी� को हीवि�षय-वि�कारों के रोग लगते हैं , आत्मा को नहीं। यहअक्षरातीत की नहीं, बत्विल्क माया की लीला कहीजायेगी। चौपाई में लाक्षणिणक ए�ं उलाहना देने की भाषाप्रयोग में लायी गयी ह,ै इसत्तिलए ऐसा प्रतीत हो रहा ह।ै

    अनेक रामत बीजी हती अतित घणी,

    सुपने अग्राह ठेले संसार।

    उघड़ी आंख विदन उगते एणे छले,

    जागतां जनम रूडा खोया आ�ार।।२।।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 2323 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    हे धनी! परमधाम में तो बहुत अतिधक सुन्दर दसूरीरामतें भी थीं, लेविकन आपने हमें इस न रहने योग्य झूठेसंसार में धकेल विदया (भेज विदया)। तारतम ज्ञान केउजाले में जब हम अपनी आँखें खोलकर जाग्रत हुए, तोयह स्पष्ट हुआ विक इस जागनी ब्रह्माण्ड में आने कासुन्दर अ�सर (सुन्दर जन्म) हमने खो विदया।

    सनमुख तमसंू वि�रह रस तम तणो,

    कां न कीधां जाली बाली अंगार।

    त्राविह त्राविह ए �ातों थासे घेर साथमां,

    सेहेसंू केम दाग जे लाग्या आकार।।३।।

    हे धनी! परमधाम के मूल विमला�ा में तो मैं आपकेसामने ही बठैी हुई हँू, लेविकन इस संसार में मैं आपकेवि�रह के रस में तड़प रही हूँ। आपने �हाँ ही मुझे वि�रह

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 2424 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    की अवि~ में जलाकर अँगारा क्यों नहीं बना विदया ? अबइस संसार में दःुखों से बचने के त्तिलए मैं जो त्राविह-त्राविहकी पुकार कर रही हूँ, यह सारी बातें परमधाम मेंसुन्दरसाथ के बीच में होंगी। यहीं के तन के माध्यम सेमेर ेऊपर गुनाहों का जो दाग लगा है, उसे मैं परमधाम मेंसुन्दरसाथ के बीच में कैसे सहन करँूगी?

    वि�रह थी वि�छोडी दखु दीधां वि�समां,

    अहविनस विनस्�ासा अंग उठे कटकार।

    दखु भंजन सहु वि�ध विपउजी समरथ,

    कहे महामती सुख देंण सिसणगार।।४।।

    मेरे विप्रयतम! आपने अपने वि�रह से भी अलग करकेइस माया�ी संसार का कविठन दःुख विदया, सिजसकी आहोंसे विदन-रात हमारे हृदय के टुकड़े-टुकड़े हो रहे हैं।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 2525 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    आप तो सभी प्रकार के दःुखों को विमटाने में हर प्रकार सेसमथF हैं। श्री महामतित जी कहते हैं विक हे धनी ! आपअपने शंृ्रगार का सुख हमें दीसिजए, अथाFत् हमारे धामहृदय में अपने नख से णिशख तक के शंृ्रगार सविहतवि�राजमान हो जाइए।

    भा�ाथF- पू�F की चौपाइयों में वि�रह के कष्टों का�णFन विकया गया है और इस चौपाई में वि�रह से भीहटाकर लौविकक कष्टों के भोगने का �णFन विकया गया ह।ैकलस किंहदसु्तानी में कहा गया है- "एता सुख तेरे वि�रहमें, तो सुख होसी कैसा वि�हार।" यद्यविप वि�रह का कष्टसहा जा सकता है, क्योंविक उसमें पल-पल विप्रयतम कीसातिन्नध्यता का अहसास होता है, विकन्तु धनी के वि�रहसे रविहत होकर माया का कष्ट सहना बहुत ही दःुखमयीह।ै सिजस प्रकार दःुख में कलेजे के टुकड़े-टुकड़े होने की

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 2626 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    बात की जाती है, उसी प्रकार यहाँ हृदय (विदल) केटुकड़े-टुकड़े होने का प्रसंग ह।ै

    ।। प्रकरण ३९ ।।

    हांर े�ाला अविगन उठे अंग ए र ेअमारड़े,

    वि�मुख वि�प्रीत कमर कसी हणिथयार।

    स्�ाद चढ़या स्�ाम द्रोही संग्रामें,

    वि�कट बकंा कीधा अमें आसाधार।।१।।

    हे मेरे धनी! हमारे हृदय में प्रायतित की यह अवि~जल रही है विक हमने आपसे वि�मुख होकर अपना पे्रमखो विदया ह,ै तथा काम, iोध आविद माया�ी वि�कारों केहणिथयार लेकर आपसे लड़ने के त्तिलये तयैार हो गये हैं। हेविप्रयतम! आपसे द्रोह रूपी यदु्ध का हमें चस्का (स्�ाद)लग गया ह।ै इस प्रकार हमने बहुत ही भयंकर ए�ं उल्टा

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 2727 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    काम विकया ह।ै

    भा�ाथF- इस चौपाई में प्रायतित की अवि~ के जलनेका प्रसंग है न विक वि�रह की, क्योंविक वि�रह से ही पे्रमप्रकट होता है ए�ं विप्रयतम का दीदार होता है, जबविकइस चौपाई में स्�यं को धनी से वि�मुख ए�ं पे्रम से रविहतकहा गया ह।ै विनसबत की अ�हेलना करके माया मेंडूबना ही धाम धनी से द्रोह करना ह।ै

    कुकरम कसा� जुध कई करावि�यां,

    पलीत अबलीस अम मांहें बेसार।

    जागतां विदन कई देखतां अमने छेतरया,

    खरा ने खराब ए खलक खआुर।।२।।

    हे धाम धनी! इस नीच इब्लीश को हमारे अन्दरबठैाकर आपने हमसे कई अनुतिचत यदु्ध ए�ं खोटे कमF

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 2828 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    कर�ाये हैं। ज्ञान के उजाले में जाग्रत हो जाने पर भी इसइब्लीश ने हमें कई बार ठगा ह।ै विनतित रूप से यह सभीप्राणिणयों को पथभ्रष्ट ए�ं तितरस्कृत करने �ाला ह।ै

    भा�ाथF- धनी हमें माया से विनकालना चाहते हैंऔर हम वि�षयों में फँसकर माया के अधीन हो जाते हैं।उस समय हमारे हृदय में धनी का प्रेम नहीं रह जाता।इसी प्रविiया को धनी से यदु्ध करना कहते हैं। �ाणी काज्ञान होने पर भी यविद हमार ेहृदय में विप्रयतम के प्रतित पे्रमनहीं है, तो यह मन रूपी इब्लीश हमें माया में भटकासकता ह।ै

    ओलखी तमने अमें जुध कीधां तमसंू,

    मन तिचत बुध मोह ग्रही अहकंार।

    ए वि�मुख �ातों मोटे मेले �ंचासे,

    मलसे जुथ जहां बार ेहजार।।३।।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 2929 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    मेरे प्राण�ल्लभ! ज्ञान दृविष्ट से आपकी पहचान करलेने के बाद भी मैंने आपसे यदु्ध विकया, क्योंविक मेरे मन,तिच>, बुतिद्ध मोह ए�ं अहकंार से ग्रसिसत थे। यहाँ की बारहहजार ब्रह्मसृविष्ट जब अपने मूल तनों में जाग्रत होंगी , तोहमारे द्वारा विकये हुए इन उल्टे कामों की चचाF सबकेसम्मुख होगी।

    कहे महामती हू ंगांऊं मोहोर ेथई,

    पण वि�मुख वि�धो �ीती सहु मांहें नर नार।

    धाम मांहें धणी अमें ऊंचंू केम जोईसंू,

    पोहोंचसे प�ाड़ा परआतम मोंझार।।४।।

    श्री महामतित जी कहते हैं विक ये सारी बातें मैंआगे�ान बनकर ही कह रही हूँ, विकन्तु इस माया मेंउल्टी राह तो सब सुन्दरसाथ ने अपना रखी ह।ै हे धनी!

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 3030 / 31/ 31

  • वि�रह के प्रकरण वि�रह के प्रकरण - - टीका श्री राजन स्�ामीटीका श्री राजन स्�ामी

    सबसे तिचन्तनीय बात तो यह है विक परआतम में जाग्रतहोने के बाद यहाँ का सारा प्रसंग जब �हाँ �र्णिणत विकयाजायेगा, तो हम आपके सामने आँखें विमलाकर कैसेदेखेंगे?

    ।। प्रकरण ४०।।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसा�ा सरसा�ा 3131 / 31/ 31