प्रेम का चाँद श्री राजन स्वामीप्रेम...

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ेम का चाँद ी राजन वामी ेम का चाँद ी राजन वामी काशकः ी ाणनाथ ानपीठ काशकः ी ाणनाथ ानपीठ , , सरसावा सरसावा 1 / 553 / 553

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  • प्रेम का चाँद श्री राजन स्वामीप्रेम का चाँद श्री राजन स्वामी

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 11 / 553/ 553

  • प्रेम का चाँद श्री राजन स्वामीप्रेम का चाँद श्री राजन स्वामी

    प्रेम का चादँलेखक

    श्री राजन स्वामी

    प्रकाशक

    श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठनकुड़ रोड, सरसावा, सहारनपुर, उ.प्र.

    www.spjin.org

    सवा'धि)कार सुरधि*त © २००८, श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ ट्रस्टपी.डी.एफ. ससं्करण – २०१९

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 22 / 553/ 553

    http://www.spjin.org/

  • प्रेम का चाँद श्री राजन स्वामीप्रेम का चाँद श्री राजन स्वामी

    प्राक्कथन

    मेर ेराज रसिसक मेर ेश्याम श्यामा, कब आओगे कब आओगे।

    मेर ेप्राण वल्लभ मेर ेप्राण प्रीतम, कब आओगे कब आओगे।।

    नीधित का कथन है किक "महाजनो येन गतः सपन्थः", अथा'त् उसी माग' का अनुसरण करना चाकिहएसिजस पर अलौकिकक व्यकिKत्व का स्वामी कोई महापुरुषचला हो। महान परुुषों का जीवन चरिरत्र उस प्रकाश -स्तम्भ के समान है, जो यगुों-यगुों तक अन्)कार मेंभटकने वाले प्राणिणयों को सत्य की राह किदखाता ह।ै

    परमहसं महाराज श्री राम रतन दास जी काव्यकिKत्व स्वयं में अनोखा है, सिजसमें किवरह, वैराग्य, पे्रम,सा)ना, शालीनता, सहनशीलता, एवं समरसता काअलौकिकक किमश्रण ह।ै उनके जीवन चरिरत्र को पढ़कर तो

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    ऐसा ही प्रतीत होता है किक जैसे वे हमारे सामने हीउपस्थिस्थत हैं। उनकी आँखों के सामने जो भी आया,उन्हीं का होकर रह गया। उनकी कृपा-दृकि` सिजस पर भीपड़ गयी, चाहे वह अनपढ़ ही क्यों न हो, आध्यास्थित्मक*ेत्र का वKा बन गया, कम'काण्डों के जाल में उलझाहुआ व्यकिK सा*ात् परम)ाम को देखने लगा, तो झोपड़ीमें रहने वाला करोड़पधित बन गया।

    सद्गरुु महाराज श्री राम रतन दास जी के बचपन कानाम झण्डूदत्त था। उनका जन्म किव.सं. १९५१ में वैशाखमास के कृष्ण प* की सप्तमी को सहारनपुर सिजले केजड़ौदा ग्राम में हुआ था। उनके किपता श्री छज्जूदत्त शमा'तथा माता श्रीमती मगन देवी थीं। उनका बचपन बडे़ हीक`ों में बीता। मात्र आठ वष' की उम्र में किपताश्री का देहत्याग हो गया, तो १३ वष' की आय ुमें माताश्री का।

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    लगभग पन्द्रह वष' से भी कम उम्र में उनका किववाहहो गया। एक पुत्री के जन्म हो जाने के पश्चात् उनका मनसंसार में नहीं लगा , उनके अन्दर वैराग्य की अकिsप्रज्ज्वलिलत हो उठी। परिरणाम यह हुआ किक वे मात्र १९ वष'की उम्र में घर छोड़कर किनकल पडे़। गृह-त्याग करने केपश्चात् महाराज श्री राम रतन दास जी पुरी, रामेश्वर,मुम्बई, द्वारका, पुष्कर पहुँचे। वहाँ से पुनः जन्मभूकिम आगये। इस अवधि) में लगभग दो वष' का समय लग गया।इस यात्रा में उन्होंने बहुत कठोर सा)ना की , किकन्तुशास्थिन्त प्राप्त नहीं हो सकी।

    कुछ वष' जन्मभूकिम के पास रहने के पश्चात् महाराजजी घर से पुनः किनकल पडे़। इस बार वे "करो या मरो"का ही प्रण लेकर किनकले थे। सधिzदानन्द परब्रह्म कीकृपा से वे भ्रमण करते हुए सोनगीर पहुँचे, जहाँ सद्गरुु

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    महाराज श्री नारायण दास जी से उनकी भेंट हुई। सद्गरुुमहाराज से तारतम ज्ञान प्राप्त कर वे परम)ाम के ध्यानमें लग गये। सद्गरुु की कृपा से उन्होंने सधिzदानन्द परब्रह्मतथा परम)ाम का सा*ात्कार किकया औरततै्तरीयोपकिनषद् के उस कथन को भी साथ'क किकया किक"ब्रह्मकिवदो ब्रहे्मव भवधित"। उनकी शरण में आकर बहुत सेसुन्दरसाथ ने परम)ाम की अनुभूधित की तथाआध्यास्थित्मक ज्ञान के सागर में अपने को डुबोया। उनकेप्रेम में डूबे रहने वाले सुन्दरसाथ की मान्यता तो यही हैकिक सद्गरुु महाराज पल-पल हमार ेसाथ हैं।

    सद्गरुु महाराज श्री राम रतन दास जी की कृपा कीछाँव तले इस ग्रन्थ में उनकी जीवन-लीला पर थोड़ाप्रकाश डालने का प्रयास किकया गया ह।ै आशा है, यहआपको रुधिचकर लगेगा। यकिद इसमें कोई भूल हुई हो, तो

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    मैं *मा प्राथ हूँ।

    आपका

    राजन स्वामी

    श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ

    सरसावा

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    (१)

    दरू धि*धितज के कोने से पणू'मासी का चन्द्रमा उकिदतहो रहा ह।ै )ीरे )ीरे वह आकाश में किवचरण करने लगताह।ै उमड़ते बादलों का समूह भी उसे रोक नहीं पा रहाह।ै शीतलता, सौम्यता, और सौन्दय' का प्रधितमानस्वरूप है वह। शीतल हवा के झोंके उसकी छकिव में औरकिनखार ला रहे हैं। थोड़ी ही देर में उसकी सुनहरी चाँदनीअपनी शीतलता के आगोश में सारे संसार को डुबो दतेीह।ै इसी के समानान्तर पथृ्वी पर एक यवुक भी तेजी सेअपने कदम बढ़ाते हुए जा रहा ह।ै मायावी बादलों कोहटाकर वह भी उस मस्थिन्जल पर पहुँचना चाहता है, जहाँसे वह पूण'मासी का पे्रममयी चन्द्रमा बनकर समस्तसंसार को अपनी शीतल किकरणों से आच्छाकिदत कर सकेऔर दःुखों के दावानल को बुझा सके।

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    आकाश के चन्द्रमा में तो )ब्बे भी किदखायी दे रहेहैं, लेकिकन सूय' रूपी परब्रह्म के ज्ञान और प्रेम कोआत्मसात् कर झण्डूदत्त नामक यह यवुक ऐसा चन्द्रमाबनने जा रहा है, सिजसमें ढँूढने पर भी कोई )ब्बा नहींकिदखायी देगा। इसके मनोहर, सुनहर,े एवं शीतल प्रकाशकी आभा सिजस प्राणी पर पडे़गी, वह )न्य-)न्य होजायेगा। यगुों-यगुों से भटकती हुई उसकी चेतना शास्थिन्तऔर आनन्द के उस अनन्त महासागर में किवहार करगेी,सिजसकी इच्छा अनाकिद काल से ऋकिष-मुकिन एवं भKजनकरते आ रहे हैं।

    उपयKु परिरस्थिस्थधितयों में ही धिचनगारी ))कती हुईज्वाला के रूप में परिरवर्तितत हो पाती है, अन्यथा मायाके थपेडे़ तो धिचनगारी को हमेशा ही बुझाने का प्रयासकरते हैं। इधितहास इस बात का सा*ी है किक प्रत्येक

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    किवभूधित ने अपनी सफलताओं की गाथा तूफानीझंझावातों के बीच ही लिलखी ह।ै

    मात्र छः वष' की आयु में झण्डूदत्त जी अपने किपताके साथ द)ुली मेले में पहुँचे। किपता श्री छज्जू शमा' जीअत्यन्त ही कोमल एवं सा)ु हृदय के थे। वे अपने लाडलेपुत्र को मेला किदखाते-किदखाते अपने जड़ौदा गाँव कीकुछ मकिहलाओं के पास छोड़ गये।

    "बब्बो! जरा इसे देखती रहना। मैं अभी आया।"

    "ठीक है भइया। इसकी हम देखभाल करेंगी। तूकिनधिश्चन्त होकर जा।"

    किपताश्री को लौटने में देर होने लगी। झण्डूदत्त जीके )यै' का बा)ँ टूटने लगा। वे मन ही मन सोचने लगे-"ऐसा लगता है किक किपताश्री जड़ौदा चले गये। उनके

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    किबना मेरा मन तो लगता नहीं। अब मुझे भी अपने गाँवचले जाना चाकिहए।"

    गाँव की मकिहलाओं से नजर बचाकर वे भाग किनकले।किपता के म)ुर स्नेह ने उन्हें अ)ीर कर रखा था। वे रोतेहुए तेज कदमों से चले जा रहे थे। लगभग तीन कोस कीदरूी तय करने के पश्चात् सामने से एक व्यकिK आता हुएकिदखायी पड़ा। उसने उन्हें गोद में उठा लिलया औरसान्त्वना भरे शब्दों में कहा - "बेटे तू क्यों रोता है?तुम्हार ेकिपताजी तो आगे मके्क के खेत में हैं। वे तुम्हारी हीबाट देख रहे हैं। चलो, मैं तुम्हें वहीं ले चलता हूँ।"

    बालक के किनश्छल मन ने उस पर किवश्वास करलिलया। वह व्यकिK उन्हें कन्)े पर किबठाकर ले चला। कुछदरू जाने के बाद वह मुख्य माग' से हटकर चलने लगा।

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    झण्डूदत्त जी को शक हुआ। उन्होंने डरते-डरतेपूछा- "जड़ौदा पाण्डा का रास्ता तो उ)र से जाता ह।ैआप इ)र से क्यों चल रहे हैं?"

    "खबरदार! जो तुमने जबान खोली। चुपचाप मेरेकन्)े पर बठैा रह। मैं तझेु वहीं पर ले चल रहा हूँ, जहाँतुम्हार ेकिपता हैं।"

    ऐसा कहकर वह तेज कदमों से खेतों के बीच सेभागने लगा। उसने मुख्य माग' को किबल्कुल ही छोड़ रखाथा। अचानक ही पाण्डव तालाब किदखायी पड़ा। झण्डूदत्तजी को अपना घरलेू नौकर "समरू" किदखायी पड़ा।उन्होंने जोर से आवाज लगायी- "समरू! समरू!"

    समरू आवाज सुनकर भागा-भागा आया। उसनेदेखा किक इस दु̀ ने तो अपने ही झण्डूदत्त का अपहरण

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  • प्रेम का चाँद श्री राजन स्वामीप्रेम का चाँद श्री राजन स्वामी

    कर रखा ह।ै बस किफर क्या था । मारपीट, खींचतान शुरुहो गयी, दोनों एक-दसूरे पर लात-घूसों की बरसातकरने लगे। झण्डूदत्त को प्राप्त करने के उद्देश्य से दोनों नेही अपनी सारी शकिK लगा दी।

    अचानक समरू ने एक जोरदार लात द ु̀ की छातीमें मारी। द ु̀ को किदन में तारे नजर आने लगे। उसनेसमझ लिलया किक अब इससे पार पाना सम्भव नहीं ह।ैकोई रास्ता न देखकर वह अकेले ही भाग किनकला।

    उसके पीछे-पीछे शोर करते हुए समरू भी भागा-"यह बzा-चोर ह।ै इसे पकड़ो! पकड़ो!"

    शाम ढल चुकी थी। चारों ओर घना अन्)कार छाचुका था, इसलिलये कोई भी समरू की सहायता के लिलयेनहीं पहुँच पाया।

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    जो )म' की र*ा करता है , )म' छतरी के समानउसकी र*ा करता ह।ै मारने का प्रयास करने वाला चाहेकिकतना भी शकिKशाली क्यों न हो, बचाने वाले के सामनेकमजोर अवश्य पड़ जाता ह।ै

    दु̀ को पकड़ने में असफल समरू लौट आया औरझण्डूदत्त जी से सारी बात पूछने लगा किक तुम इसकेजाल में कैसे फँस गये? उन्होंने सारी बात किवस्तारपूव'कबता दी।

    समरू ने सोचा किक सबसे पहले मेले में जाकरपस्थिण्डत जी को सूचना दी जाये, अन्यथा वे बहुत परशेानहोंगे। यह सोचकर उसने बालक झण्डूदत्त को जयपुरगाँव के धिचरजंीव पस्थिण्डत के यहाँ ठहरा किदया तथा दौड़ा-दौड़ा मेले में पहुँचा।

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    उ)र, मेले में चप्पे-चप्पे पर बालक की खोज जारीथी। बालक के गुम हो जाने की सूचना सिजसे भी किमली,वह खोज में लग गया। समरू के मुख से सारी बात सुननेके पश्चात् पस्थिण्डत जी को )यै' आया। वे जयपुर के लिलयेतुरन्त दौड़ पडे़।

    अपने किपताश्री को देखते ही झण्डूदत्त उनके हृदयसे जा लिलपटे। एक-एक बात उन्होंने अपने किपता को कहसुनायी। सब कुछ सुनकर पस्थिण्डत छज्जू जी होठों ही होठोंमें बुदबदुा उठे- "किबना घरवालों की किमली-भगत के यहसब घकिटत नहीं हो सकता। भगवान ही सब ठीक करेंगे।"

    घर आकर श्री छज्जू पस्थिण्डत जी यह जानने काप्रयास करते रहे किक अपहरण करने की यह कुकिटल नीधितकिकसने बनायी थी। बहुत प्रयास करने पर भी वे इसकारहस्य नहीं जान सके।

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    बडे़ ताऊ के मन में हमेशा पाप भरा रहता था। वेहमेशा यही चाहते थे किक छज्जू के घर का दीपक बुझजाये, ताकिक उनकी सारी सम्पलित्त पर अपना एकाधि)कारहो जाये।

    समय बीतता गया। झण्डूदत्त जी के सिसर पर मात्र ८वष' तक ही किपता का साया रहा। अपनी मृत्यु की घोषणाउन्होंने पहले ही कर दी थी। किपता के )ामगमन के पश्चात्लौकिकक जीवन में क`ों की बाढ़ सी आ गयी।

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    (२)

    किदन और राकित्र की भांधित सुख और दःुख का चक्रभी बदलता रहता ह।ै सागर के किकनारे सिजस प्रकारदृढ़तापूव'क खडे़ रहकर ही अपनी सुर*ा की जाती है,उसी प्रकार मायावी क`ों से अपनी र*ा के लिलये )यै' हीसबसे बड़ा शस्त्र ह।ै

    किपताश्री छज्जू पस्थिण्डत जी के देह-त्याग के पश्चात्परिरवार में गरीबी ने अपना डेरा जमा लिलया। बालकझण्डूदत्त जी की माता मगन देवी के लिलये वै)व्य के साथगरीबी का क` वैसे ही था, जसेै कोढ़ में खाज। वे पड़ोसवालों के घर जाकर आटा पीसने का काम करतीं, उनसेजो कुछ किमलता, वही आहार का सा)न होता।

    परिरवार में अब केवल तीन ही सदस्य थे- बालक

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    झण्डूदत्त, छोटा भाई बुधिदास, और माता श्री। गरीबीइतनी किक तीनों सदस्यों को कई किदन किबना खाये हीसोना पड़ता।

    जंगल में लगी हुई अकिs हवा के झोंकों से औरप्रचण्ड होती जाती ह।ै माया के क` भी किवपरीतपरिरस्थिस्थधितयों में और अधि)क बढ़ते जाते हैं।

    दभुा'ग्यवश, गाँव में पे्लग की महामारी फैल गयी।चारों तरफ मृतकों की बाढ़ सी किदखायी देने लगी। लोगअपना घर-द्वार छोड़कर जंगलों में भागने लगे। एक-एकधिचता पर दो-दो को जलाया जाने लगा। उस समय तोस्थिस्थधित यह थी किक श्मशान तक अथ ले जाने वाला भीबहुत ककिठनाई से ही किमलता था। चारों ओर मौत कानगंा नृत्य हो रहा था। सिज)र देखो उ)र सूनापन हीसूनापन नजर आ रहा था।

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    स्नेह की मूर्तित माता दोनों बालकों को घर के बाहरकिनकलने ही नहीं देती थी। यह डर था किक पता नहीं कबकाल पे्लग के रूप में आकर दबोच ले। घर में खाने केलिलये एक दाना भी नहीं था। इस किवषम परिरस्थिस्थधित मेंमाताश्री अचानक ही बीमार हो गयीं। माया की कू्ररता कीतो अभी यह छोटी सी किमसाल थी।

    मात्र सहनशीलता के सहारे कब तक बीमारी कोसहन किकया जाता? लाचार होकर उन्होंने शयै्या पकड़ली। घर में जब भोजन के लिलये भी एक पसैा नहीं, तोदवा कहाँ से लायी जाती?

    एकमात्र पानी का ही भरोसा था। वही भोजन थाऔर वही दवा भी। झण्डूदत्त चम्मच से मुँह में पानी डालकिदया करते, लेकिकन ऐसा कब तक चलता।

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  • प्रेम का चाँद श्री राजन स्वामीप्रेम का चाँद श्री राजन स्वामी

    एक किदन........। प्रातःकाल ताऊ ने दरवाजे केबाहर से आवाज दी- "झण्डूदत्त! झण्डूदत्त!"

    "जी अभी आया", कहते हुए झण्डूदत्त जी नेदरवाजा खोला।

    "बेटे! तेरी माँ की तकिबयत कैसी है?"

    "ताऊ जी! मेरी तो समझ में ही नहीं आ रहा है किकक्या करँू? वह किदन-रात पलगं पर लेटी रहती ह।ै मैंउनके मुँह में चम्मच से पानी डाल किदया करता हूँ।"

    यह सुनकर ताऊ जी वापस चले गये, लेकिकनउनका मन बेचैन था। बीच-बीच में हाल पूछते रहते।झण्डूदत्त जी ने उत्तर किदया था- "अब तो माँ ने बोलनाबन्द कर किदया ह।ै पानी भी अब नहीं माँगती है, लेकिकनमैं मुँह में पानी डाल किदया करता हूँ।"

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    आ)ी रात को ताऊ देखने आये। देखते ही वे सन्नरह गये। झण्डूदत्त जी को सिझड़कते हुए बोले- "तू तोकहता था किक माँ सो रही ह ैऔर कुछ बोलती ही नहीं ह।ैयह बहुत पहले ही इस दकुिनया से जा चुकी ह।ै"

    माँ का खलुा हुआ मुख देखकर झण्डूदत्त जी कीआँखों में आँसू भर आये। होनी को भला कौन टालसकता था।

    पुनः ताऊ जी सान्त्वना देते हुए बोले- "तू जाकरगाँव में देख किक कहीं कोई और तो मरा हुआ नहीं ह।ैसिजस गाड़ी में उसकी अथ ले जायी जा रही होगी, उसमेंही इसको भी रख देंगे, नहीं तो यहाँ पर पडे़-पडे़ इसकीलाश सड़ जायेगी। इसको ले जाने वाला तो कोई आयेगाभी नहीं।"

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  • प्रेम का चाँद श्री राजन स्वामीप्रेम का चाँद श्री राजन स्वामी

    थोड़ी देर के बाद वे पुनः बोले- "मेरे पास थोड़ासा आटा भी रख दो। मैं किपण्ड बनाकर उसकी अथ केसाथ रख दूँगा।"

    झण्डूदत्त जी ने आँसुओं में डूबे हुए अपने मुख कोऊपर उठाते हुए उत्तर किदया- "ताऊ जी! इस घर मेंजब दो किदन से हमने कुछ खाया ही नहीं है, तो आटाकहाँ से लायें? थोड़ा सा गुड़ पड़ा हुआ ह,ै उसे ही थोड़ासा खाकर हम पानी पीकर सो जाया करते हैं। देखता हूँ,यकिद कहीं से किमल जाता ह ैतो लेकर आता हूँ।"

    कू्रर काल के पंजों ने किपता का स्नेहमयी हाथ तोपहले ही छीन लिलया था, माँ का ममतामयी आञ्चल भीछीन लिलया। यह किव)ाता की कैसी रचना है सिजसमें मायाके जीव तो किवलासिसता में डूबे रहते हैं , जबकिक सबकोमुकिK के स्वर्णिणम पथ पर ले जाने वाले इस भावी परमहसं

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2222 / 553/ 553

  • प्रेम का चाँद श्री राजन स्वामीप्रेम का चाँद श्री राजन स्वामी

    के पास अपनी माँ के दाह-संस्कार के लिलये भी पसेै नहींहैं।

    उन्हें अचानक ही याद आया किक किपताजी ने कुछरुपया गाँव के एक सोनार को उ)ार किदया था। भोले मनमें यह बात आयी किक यकिद वह सोनार पसैा वापस कर दे,तो माँ का दाह संस्कार हो जायेगा। यह सोचते-सोचते वेउस सोनार के घर जा पहुँचे।

    दरवाजे पर पहुँचकर उन्होंने "ताऊ जी, ताऊ जी"कहकर आवाज लगायी। पुकार सुनकर सोनार नेदरवाजा खोला। झण्डूदत्त जी के उदास चेहरे की ओरदेखते हुए बोला- "बेटे, तुम इतने अधि)क परशेान क्योंकिदख रहे हो? तुम्हारा चेहरा बता रहा है किक तुम बहुतअधि)क दःुखी हो।"

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  • प्रेम का चाँद श्री राजन स्वामीप्रेम का चाँद श्री राजन स्वामी

    "क्या करें ताऊ जी! किपताजी तो पहले ही चले गयेथे, अब माँ भी चल बसी। भाग्य का ऐसा खेल है किकदाह-संस्कार के लिलये भी पसेै नहीं ह।ै"

    "यह तो बहुत ही बुरा हुआ। तुम )यै' रखो। भगवानतुम्हारा भला करेंगे। तुम्हारे किपताजी से मैंने कुछ रुपयेउ)ार लिलये थे। मैं तुम्हें ५ किकलो गेहूँ देता हूँ। इससे तुमअपनी माँ का किपण्ड-दान करवाओ।"

    गेहँू लेकर झण्डूदत्त जी घर वापस आये तथा उसेरखकर बलैगाड़ी की खोज में किनकल पडे़, ताकिक उस परमाँ को श्मशान तक पहुँचाया जा सके। अथ में कन्)ादेने के लिलये तो कोई तयैार था ही नहीं।

    चलते-चलते उन्होंने एक घर का दरवाजाखटखटाया। काफी देर के पश्चात् एक मकिहला ने दरवाजा

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  • प्रेम का चाँद श्री राजन स्वामीप्रेम का चाँद श्री राजन स्वामी

    खोला और बोली- "भाई! जल्दी बता। क्या बात ह?ै"

    "तुम्हार ेयहाँ आज कोई मरा तो नहीं है?"

    "मरें तुम्हार ेघर वाले। चल, भाग यहाँ से। क्या यहीकहने के लिलये तू दरवाजा पीट रहा था?"

    यह कहते हुए वह गालिलयाँ देने लगी। उसका चेहराक्रो) से लाल हो रहा था। झण्डूदत्त जी ने वहाँ सेचुपचाप चल देना ही उधिचत समझा।

    आगे के मकान पर उन्होंने दस्तक दी। यहाँ परपहले जसैा ही घकिटत हुआ। एक अ)ेड़ मकिहला नेदरवाजा खोला। झण्डूदत्त जी ने उससे पूछ लिलया -"ताई, तमु्हार ेघर आज कोई मरा तो नहीं।"

    यह सुनते ही उसका पारा सातवें आसमान तक जापहँुचा, लगी गालिलयाँ बकने। झण्डूदत्त जी को यह समझ

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  • प्रेम का चाँद श्री राजन स्वामीप्रेम का चाँद श्री राजन स्वामी

    में ही नहीं आ रहा था किक आलिखरकार सभी क्यों नाराजहो रही हैं? वहाँ से सिसर नीचा कर चल देने के सिसवायकोई अन्य चारा भी नहीं था।

    इसके पश्चात् झण्डूदत्त जी ने घर-घर में झाँक-झाँक कर यह पता लगाना शरुु किकया किक किकस घर मेंभीड़ लगी ह।ै अन्ततोगत्वा, एक परिरवार ऐसा किमल हीगया जहाँ कोई मरा हुआ था। उन्होंने उस घर के एकसदस्य से बात की- "भाई! क्या आप भी दाह-संस्कारकरवाना चाहते हैं?"

    "हाँ! क्या बात है?"

    "मेरी माँ की मृत्यु हो चुकी ह।ै मैं चाहता हूँ किक जबआप गाड़ी में अथ ले जायें, तो मेरी माँ के मृतक शरीरको भी लेते जायें। आपकी अधित कृपा होगी।"

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    "कोई बात नहीं। तुम अथ तयैार किकये रहो। हमबहुत जल्दी ही गाड़ी लेकर आयेंगे। उसमें तुम उसे रखदेना।"

    इ)र ताऊ ने किपण्डदान के लिलये गुड़ और गेहूँ काकिमश्रण तयैार कर रखा था। झण्डूदत्त जी ने जसेै ही गाड़ीकिमल जाने की सूचना ताऊ को दी, वैसे ही थोड़ी देर मेंगाड़ी आ गयी। बोझ ढोने वाली उस गाड़ी में माँ के मृतकशरीर को भी लाद किदया गया।

    मानव जीवन में क`ों की बाढ़ तो रहती ही है ,किकन्तु समुधिचत रूप से दाह-संस्कार न हो पाना बहुत हीक`कारी होता ह।ै

    वस्तुतः क`ों और संघष  की अकिs में तपकर हीउस महान व्यकिKत्व का किनमा'ण होता है, सिजसके द्वारा

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2727 / 553/ 553

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    सम्पूण' मानव समाज का माग'दश'न होता ह।ै

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    (३)

    संसार के रिरश्ते टूटते रहते हैं। आत्मा तथापरमात्मा का सम्बन्) अनाकिद और अखण्ड ह।ै जहाँ कोईभी सहारा नहीं होता, वहाँ परमात्मा ही आ)ार होता ह।ै

    माता के देह-त्याग के पश्चात् किवपलित्तयों का पहाड़टूट पड़ा। पढ़ाई-लिलखाई तो छूट ही गयी, पेट भरने केभी लाले पड़ने लगे। नौ वष' की उम्र तक नाम मात्र केलिलये किहन्दी और संस्कृत की पढ़ाई हो सकी थी।

    अपना पेट भरने के लिलये झण्डूदत्त जी को गायेंचरानी पड़ीं। भरपेट भोजन तो कभी-कभी ही किमल पाताथा। इतना कुछ होने पर भी उन्होंने कभी यह जाकिहरनहीं होने किदया किक वे भूखे हैं। न तो उन्होंने कभी किकसीके आगे हाथ फैलाया और न किकसी के घर में बनने वाले

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    स्वाकिद` भोजन की ओर देखा।

    माँ के देह-त्याग के पश्चात् दोनों भाइयों के लिलयेसंसार में ऐसा कोई सम्बन्)ी था ही नहीं , जो उन्हेंभोजन बनाकर लिखलाता। कभी तो वे आटा घोलकर पीलेते, तो कभी मुट्ठी भर अन्न ही चबा लेते। वह भी नकिमलने पर पानी से अपना पेट भर लेते। दसूरों के खेतोंमें जब खड़ी फसल कट जाती थी, तो जमीन पर किगरेहुए अन्न को वे इकट्ठा कर लेते थे। एकमात्र यही उनकीसम्पलित्त हुआ करती थी।

    एक बार कई किदनों तक दोनों भाइयों को भोजननहीं किमला। गाय चराने के काम में दोनों ही साथ -साथरहा करते थे। बुधिदास जी को गायों की देखभाल करनेके लिलये छोड़कर, झण्डूदत्त जी गाँव में थोड़ी देर के लिलयेआ गये। गाँव में उन्होंने कहीं से थोडे़ से आटे की

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    व्यवस्था की, ताकिक रोकिटयाँ बनायी जा सकें । ये रोकिटयाँबहुत किदनों के बाद बनी थीं। उसे लेकर वे जँगल में गयेतथा एक पेड़ के नीचे रख किदया और बुधिदास जी कोबुलाने चले गये। जब भाई को लेकर वापस आये, तोदेखा किक वहाँ पर तो रोकिटयाँ हैं ही नहीं। चारों तरफ जबनजर दौड़ाई तो देखा किक एक बन्दर पेड़ पर बठैकर बहुतमजे से रोकिटयाँ खाता जा रहा ह।ै

    वह दोनों भाइयों की ओर देखकर घुड़की भी दतेाऔर धिचढ़ा-धिचढ़ा कर रोकिटयाँ खाता जाता। लाचारहोकर दोनों भाई उसकी ओर देखते रहे। सच है बुरेसमय में कोई भी साथ नहीं देता। जँगल में महाराणाप्रताप के बzों के हाथ से भी तो घास की रोटी कोऊदकिबलाव छीन ले गया था।

    पतैृक सम्पलित्त के रूप में यजमानों से किमलने वाली

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    दधि*णा की आय थी, सिजसे ताऊ ही डकार जाता था।उस किनद'यी के हृदय में जरा भी किवचार नहीं आता किक येछोटे-छोटे बzे क्या खायेंगे?

    इस सृकि` में हमेशा से ही यह होता आया ह ैकिक बड़ीमछली छोटी मछलिलयों को किनगलती रही ह।ै ताऊ इसीसिसान्त की एक कड़ी था।

    यद्यकिप यजमान लोग कभी-कभी दोनों भाइयों कोभी बुलाते थे, लेकिकन ताऊ उन तक दधि*णा पहुँचने हीनहीं देते।

    अपना पहला दाँव असफल होते देख, ताऊ नेदसूरा तीर छोड़ा। उसने झण्डूदत्त को शाम के समयबुलवाया और बडे़ प्यार से कहा- "बेटे! यहाँ से चारकोस की दरूी पर लालोनखेड़ी गाँव ह।ै वहाँ से यजमानों

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    का सन्देश लेकर यह नाई आया हुआ ह।ै सवेरे ही वहाँकुछ काय'क्रम होना ह।ै शाम को ही तुम्हारा वहाँ जानाजरूरी ह,ै क्योंकिक प्रातःकाल चलने पर समय से नहींपहँुचा जा सकता। मैं तो अब बूढ़ा हो गया हूँ। तुम तो बzेहो, दौड़ते-दौड़ते ही चले जाओगे।"

    भोले मन वाले झण्डूदत्त ने ताऊ की आज्ञास्वीकार की और तुरन्त ही लालोनखेड़ी के लिलये चलकिदए। वे अपने ताऊ के षड्यन्त्र को जरा भी भाँप नसके।

    जब वे घर से चले, तो शाम ढलने लगी थी। थोड़ीही देर में अन्)ेरा छा गया। सुनसान रास्ते में भय लगनेलगा।

    उस समय भेकिड़यों का इतना अधि)क आतकं था किक

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    वे गाँवों में भी घुसकर बzों को उठा लिलया करते थे। रातमें किनहत्थे चलना तो मौत को ही किनमन्त्रण देना था।ताऊ ने तो इसी मानसिसकता से भेजा ही था किक साँप भीमरे और लाठी भी न टूटे, अथा'त् झण्डूदत्त भेकिड़यों काणिशकार बन जाये और मेरे ऊपर दोष भी न आए। बाद मेंछोटे को भी अपनी राह से हटाकर घर पर कब्जा जमालूँगा।

    मरने के बाद मनुष्य एक कण भी अपने साथ नहींले जाता, किफर भी वह )न कमाने में इतना बेसु) होजाता है किक पाप की गठरी अपने सिसर पर लादने में जराभी संकोच नहीं करता।

    झण्डूदत्त जी को जब भेकिड़यों का डर लगने लगा ,तो उन्होंने एक वृ* पर चढ़कर रात गुजारने का किनण'यलिलया। जसेै ही वे एक वृ* की ओर बढ़े, सामने से आता

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3434 / 553/ 553

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    एक व्यकिK किदखाई पड़ा। उसने स्नेह भरे शब्दों में पूछा-"बेटे! इतनी रात गये तुम अकेले ही इ)र कहाँ जा रहेहो?"

    "मैं जा तो रहा था लालोनखेड़ी के लिलये, लेकिकनअकेले होने से मैंने सोचा किक सामने वाले पेड़ पर चढ़कररात गुजार लूँ।"

    "डरने की कोई आवश्यकता नहीं ह।ै चलो, मैं तुम्हेंवहीं पहुँचा देता हूँ।"

    दोनों ही चल पडे़। थोड़ी देर में लालोनखेड़ी गाँवआ गया। झण्डूदत्त जी अपने यजमानों के बीच पहुँचगये। अगले किदन उन्नीस रुपये और पाँच किकलो लडू्ड देकरयजमानों ने उन्हें किवदा किकया।

    इतने पसेै और लडू्ड पाकर झण्डूदत्त जी बहुत ही

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3535 / 553/ 553

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    खशु थे। वे खशुी से उछलते हुए घर की ओर चल पडे़।रास्ते में एकान्त जगह में उन्होंने अपने लडु्डओं को किगनाऔर इस बात से वे किवभोर हो उठे किक यकिद प्रधितकिदनएक-एक लडू्ड भी हम दोनों खायेंगे तो भी काफी किदनकिनकल जायेंगे।

    इसी उ)ेड़बुन में वे रास्ता भूल गये और असलीराह छोड़कर दसूरी राह जा पकडे़। जँगल-जँगलभटकना पड़ा। इस प्रकिक्रया में सूया'स्त हो गया तथा चारोंओर अन्)कार छा गया। वे घबरा गये किक कल की तरहआज भी भटकने वाली स्थिस्थधित बन गयी ह।ै

    परमात्मा की कृपा से एक व्यकिK किदखायी पड़ा। वहगड़रिरया था और पास के किकसी गाँव से आ रहा था। जबउससे बातचीत हुई, तो पता चला किक वह जड़ौदा ही जारहा था। वह अपने साथ झण्डूदत्त जी को ले चलने के

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    लिलये राजी हो गया।

    गड़रिरये ने झण्डूदत्त जी को उनके घर पर पहुँचाकिदया। जैसे ही कू्रर-हृदय ताऊ को पता चला किकझण्डूदत्त तो सकुशल जीकिवत आ गया है तथा साथ हीदधि*णा में ५ किकलो लडू्ड तथा १९ रुपये भी लाया है, तोवह मन मसोस कर रह गया। पश्चाताप में सिसर पटकने केसिसवाय वह और क्या कर सकता था।

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    (४)

    नारी ही किनमा'त्री ह।ै अध्यात्मवादी नारी जहाँ सृकि`को स्वग' बनाने का सामथ्य' रखती है , वहीं भोगवादीनारी पृथ्वी को नक' में भी परिरवर्तितत कर सकती ह।ै

    झण्डूदत्त जी की बआु करुणा और स्नेह कीसा*ात् मूर्तित थीं। माता के देह-त्याग के पश्चात् उन्होंनेही माँ की भूकिमका किनभायी। दोनों भाइयों को जरा भी माँकी कमी का अहसास नहीं होने किदया।

    एक किदन बआु ने झण्डूदत्त जी से एकान्त में बहुतप्यार से पूछा- "बेटे! मेरा किदल कहता है किक तुम्हारी माँने घर में अवश्य ही कहीं न कहीं )न णिछपा रखा ह।ै उस)न की खोज करना बहुत ही आवश्यक ह।ै क्या तुमनेअपनी माँ को किकसी स्थान पर दीपक जलाते हुए देखा

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    ह?ै"

    "हाँ बआु! हमने माँ को उस स्थान पर दीपकजलाते हुए देखा ह।ै जब हम उससे पूछते थे किक वहाँ तुमकिकसलिलये दीपक जलाती हो, तो वह )मकाने लगतीथी।"

    "यह तो बहुत खशुी की बात ह।ै तुम दरवाजे कोअन्दर से बन्द कर दो और चलो अभी खोदते हैं।"

    झण्डूदत्त जी ने फावड़ा सम्भाला और खोदना शुरुकर किदया। खोदने पर एक छोटा सा घड़ा किनकला,सिजसमें पन्द्रह सौ रुपये णिछपाकर रखे गये थे। उन्हेंदेखकर तीनों ही बहुत खशु हो गये। बआु ने दोनों भाइयोंको समझाते हुए कहा- "इस पसेै के बारे में तुम किकसीसे भी कुछ नहीं कहना। तुम्हारे चारों ओर ठग ही ठग हैं।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3939 / 553/ 553

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    इस )न से तुम्हारा किववाह भी हो जायेगा तथा अन्यआवश्यक काय' भी पूर ेहो जायेंगे।"

    माँ के णिछपाये हुए पसेै किमल जाने पर घर का कामअच्छी तरह से चलने लगा। बआु दोनों भाइयों से बहुतअधि)क स्नेह करती थीं। कभी तो अपने ससुराल रहतींऔर कभी अपने मायके में दोनों भाइयों के पास।आवश्यकता पड़ने पर अपने पास से )न भी खच'करतीं।

    उस समय बहुत ही छोटी उम्र में किववाह हो जायाकरते थे। किपता के देह-त्याग के समय झण्डूदत्त जी कीउम्र मात्र आठ वष' की थी। किपता के समय में ही दोनोंभाइयों की मँगनी हो गयी थी, किकन्तु उनके शरीर छूटतेही रिरश्ते टूट गये थे।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4040 / 553/ 553

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    छोटे भाई बुधिदास जी से सिजस कन्या का रिरश्तातय किकया गया था, वह टूट गया और उसकी सगाईझण्डूदत्त जी से हो गयी। इसी प्रकार किकसी अन्य लड़कीसे बुधिदास जी की भी सगाई हो गयी।

    यद्यकिप झण्डूदत्त जी किववाह के बन्)न में नहीं बँ)नाचाहते थे, किकन्तु उनकी सुनने वाला कौन था। सगे-सम्बस्थिन्)यों ने जबरन ही दोनों भाइयों का किववाह एक हीमण्डप के नीचे कर किदया।

    किववाह का अथ' ही होता है- किवशेष रूप से बोझाढोना। घर में पत्नी को देखते ही झण्डूदत्त भय से सिसहरजाते। उन्हें ऐसा प्रतीत होता जसेै किक किकसी ने उनकोजेल में बन्)क बना रखा हो।

    हृदय में अब किदन -पर-किदन वैराग्य की अकिs

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4141 / 553/ 553

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    ))कने लगी। रामायण और सुख सागर के अध्ययन मेंरुधिच बढ़ी। पन्द्रह वष' की उम्र तक रामायण कण्ठस्थ होगयी थी।

    वैराग्य का प्रभाव किदन-पर-किदन बढ़ता ही जा रहाथा। घर में कन्या भी जन्म ले चुकी थी। जब भीझण्डूदत्त जी एकान्त में होते, तो संसार छोड़ने की बातेंसोचा करते। पत्नी का बन्)न बहुत ही क`कारी प्रतीतहो रहा था।

    झण्डूदत्त जी के लिलये सारा संसार ही अकिs कीलपटों के समान दःुखमय लगने लगा। किकसी भी रिरश्ते केप्रधित उनके मन में कोई आकष'ण नहीं रहा। उन्हें लगताजसेै घर-द्वार, रिरश्ते-नाते सभी खाने को दौड़ रहे हों।

    किववाह के बाद वे पिंपजडे़ में बन्द प*ी की तरह ही

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4242 / 553/ 553

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    फँस गए थे। अन्तरात्मा पुकार उठी- "कब तक तू इनबन्)नों में फँसा रहेगा। इन बन्)नों को शीघ्र तोड़ औरअपने किप्रयतम को प्राप्त कर ले।"

    पूव'काल में गौतम ने भी तो सत्य की खोज में पत्नीऔर पुत्र का त्याग किकया था। हृदय में किववेक की ज्योधितजल जाने पर भला कौन संसार के बन्)नों में रहनाचाहेगा।

    नकिदयों के बहते प्रवाह को तो रोका जा सकता है,किकन्तु शु वैराग्य के वेग को नहीं रोका जा सकता ह।ै

    अपनी अन्तरात्मा की पुकार पर झण्डूदत्त जी नेगृह-त्याग का दृढ़ किनश्चय कर लिलया। संसार में कोई ऐसाबन्)न नहीं था, जो उनके किनण'य को बदल पाता।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4343 / 553/ 553

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    (५)

    आ)ी रात का घोर सन्नाटा छाया हुआ ह।ै झण्डूदत्तजी अपनी उम्र के उन्नीसवें वसन्त में प्रवेश कर चुके हैं।हृदय में वैराग्य की ))कती हुई ज्वाला उन्हें घर छोड़नेके लिलये मजबूर कर रही ह।ै वे परिरवार के प्रत्येक सदस्यको एक नजर देखकर प्रणाम करते हैं और चल पड़ते हैंशाश्वत सत्य की खोज में...........।

    घर से चलते समय उन्होंने अपने पास मात्र सवारुपये, एक चद्दर, और एक )ोती रखी। अपनी जन्मभूकिमसे पदैल चलकर अगली राकित्र मुजफ्फरनगर पहुँचे, जहाँएक मस्थिन्दर में उन्होंने किवश्राम किकया। उनके सुन्दर रूप-रगं को देखकर किकसी ने भी यह नहीं सोचा किक ये भूखे हैंऔर इनके भोजन की कोई व्यवस्था करनी चाकिहए।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4444 / 553/ 553

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    अगले किदन भी उन्हें किकसी ने भोजन के लिलये नहींपूछा। इस प्रकार तीन किदन भूखों रहने के पश्चात् उनकेमन में यह किवचार आया किक यकिद मैं मथुरा चलूँ तोपरमात्मा के दश'न हो सकते हैं।

    यह सोचकर उन्होंने मथुरा के लिलये पदैल हीप्रस्थान किकया। कहीं-कहीं कुछ भोजन किमल जाता था।कई किदन की यात्रा के पश्चात् वे अलीगढ़ पहुँचे। वहाँ एकदयालु-हृदय लाला जी से भेंट हुई।

    उसने पूछा- "आपका चेहरा इतना उतरा हुआक्यों ह?ै यकिद आप भूखे हैं तो मैं आपको भोजन करवानाचाहता हूँ और यकिद आपको कुछ पसैों की आवश्यकता हैतो मैं उसकी भी सेवा करना चाहता हूँ।"

    उसके अन्दर मानवीय संवेदना देखकर झण्डूदत्त

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4545 / 553/ 553

  • प्रेम का चाँद श्री राजन स्वामीप्रेम का चाँद श्री राजन स्वामी

    जी ने अपने मन की बात कह डाली- "भाई! मैं तीनकिदन से भूखा हूँ। मेरे चेहरे के उतरे होने का यही कारणह।ै मैं परमात्मा के अधितरिरK अन्य किक