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पे्रमचंद

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स्नेह पर कर्त्त�व्य की वि�जय 1कमला के नाम वि�रजन के पत्र 10प्रतापचन्द्र और कमलाचरण 29

दु:ख-दशा 36मन का प्राबल्य 43

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1स्नेह पर कर्त्त�व्य की वि�जय

रोगी जब तक बीमार रहता है उसे सुध नहीं रहती किक कौन मेरी औषधिध करता है, कौन मुझे देखने के लि�ए आता है। वह अपने ही कष्ट मं इतना ग्रस्त रहता है किक किकसी दूसरे के बात का ध्यान ही उसके हृदय मं उत्पन्न नहीं होता; पर जब वह आरोग्य हो जाता है, तब उसे अपनी शुश्रष करनेवा�ों का ध्यान और उनके उद्योग तथा परिरश्रम का अनुमान होने �गता है और उसके हृदय में उनका पे्रम तथा आदर बढ़ जाता है। ठीक यही श वृजरानी की थी। जब तक वह स्वयं अपने कष्ट में मग्न थी, कम�ाचरण की व्याकु�ता और कष्टों का अनुभव न कर सकती थी। किनस्सन्देह वह उसकी खाकितरदारी में कोई अंश शेष न रखती थी, परन्तु यह व्यवहार-पा�न के किवचार से होती थी, न किक सच्चे पे्रम से। परन्तु जब उसके हृदय से वह व्यथा धिमट गयी तो उसे कम�ा का परिरश्रम और उद्योग स्मरण हुआ, और यह चिचंता हुई किक इस अपार उपकार का प्रकित-उत्तर क्या दँू ? मेरा धमL था सेवा-सत्कार से उन्हें सुख देती, पर सुख देना कैसा उ�टे उनके प्राण ही की गाहक हुई हंू! वे तो ऐसे सच्चे दिद� से मेरा पे्रम करें और मैं अपना कत्तLव्य ही न पा�न कर सकँू ! ईश्वर को क्या मुँह दिदखाँऊगी ? सच्चे पे्रम का कम� बहुधा कृपा के भाव से खिख� जाया करता है। जहॉं, रुप यौवन, सम्पत्तित्त और प्रभुता तथा स्वाभाकिवक सौजन्य पे्रम के बीच बोने में अकृतकायL रहते हैं, वहॉँ, प्राय: उपकार का जादू च� जाता है। कोई हृदय ऐसा वज्र और कठोर नहीं हो सकता, जो सत्य सेवा से द्रवीभूत न हो जाय।

कम�ा और वृजरानी में दिदनोंदिदन प्रीकित बढ़ने �गी। एक पे्रम का दास था, दूसरी कत्तLव्य की दासी। सम्भव न था किक वृजरानी के मुख से कोई बात किनक�े और कम�ाचरण उसको पूरा न करे। अब उसकी तत्परता और योग्यता उन्हीं प्रयत्नों में व्यय होती थीह। पढ़ना केव� माता-किपता को धोखा देना था। वह सदा रुख देख करता और इस आशा पर किक यह काम उसकी प्रसन्न्त का कारण होगा, सब कुछ करने पर कदिटबद्व रहता। एक दिदन उसने माधवी को फु�वाड़ी से फू� चुनते देखा। यह छोटा-सा उद्यान घर के पीछे था। पर कुटुम्ब के किकसी व्यलिc को उसे पे्रम न था, अतएव बारहों मास उस पर उदासी छायी रहती थी। वृजरानी को फू�ों से हार्दिदंक पे्रम था। फु�वाड़ी की यह दुगLकित देखी तो माधवी से कहा किक कभी-कभी इसमं पानी दे दिदया कर। धीरे-धीरे वादिटका की दशा कुछ सुधर च�ी और पौधों में फू� �गने �गे। कम�ाचरण के लि�ए इशारा बहुत था। तन-मन से वादिटका को सुसज्जिgत करने पर उतारु हो गया। दो चतुर मा�ी नौकर रख लि�ये। किवकिवध प्रकार के सुन्दर-सुन्दर पुष्प और पौधे �गाये जाने �गे। भॉँकित-भॉँकितकी घासें और पत्तित्तयॉँ गम�ों में सजायी जाने �गी, क्यारिरयॉँ और रकिवशे ठीक की जाने �गीं। ठौर-ठौर पर �ताऍं चढ़ायी गयीं। कम�ाचरण सारे दिदन हाथ में पुस्तक लि�ये फु�वाड़ी में टह�ता रहता था और मालि�यों को वादिटका की सजावट और बनावट की ताकीद किकया करता था, केव� इसीलि�ए किक

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किवरजन प्रसन्न होगी। ऐसे स्नेह-भc का जादू किकस पर न च� जायगा। एक दिदन कम�ा ने कहा-आओ, तुम्हें वादिटका की सैर कराँऊ। वृजरानी उसके साथ च�ी।

चॉँद किनक� आया था। उसके उज्ज्व� प्रकाश में पुष्प और पत्ते परम शोभायमान थे। मन्द-मन्द वायु च� रहा था। मोकितयों और बे�े की सुगन्धिm मस्तिस्तषक को सुरत्तिभत कर रही थीं। ऐसे समय में किवरजन एक रेशमी साड़ी और एक सुन्दर स्�ीपर पकिहने रकिवशों में टह�ती दीख पड़ी। उसके बदन का किवकास फू�ों को �ज्जिgत करता था, जान पड़ता था किक फू�ों की देवी है। कम�ाचरण बो�ा-आज परिरश्रम सफ� हो गया।

जैसे कुमकुमे में गु�ाब भरा होता है, उसी प्रकार वृजरानी के नयनों में पे्रम रस भरा हुआ था। वह मुसकायी, परन्तु कुछ न बो�ी।

कम�ा-मुझ जैसा भाग्यवान मुनष्य संसा में न होगा।किवरजन-क्या मुझसे भी अधिधक?केम�ा मतवा�ा हो रहा था। किवरजन को प्यार से ग�े �गा दिदया। कुछ दिदनों तक प्रकितदिदन का यही किनयम रहा। इसी बीच में मनोरंजन की नयी सामग्री

उपज्जिqत हो गयी। राधाचरण ने लिचत्रों का एक सुन्दर अ�बम किवरजन के पास भेजा। इसमं कई लिचत्र चंद्रा के भी थे। कहीं वह बैठी श्यामा को पढ़ा रही है कहीं बैठी पत्र लि�ख रही है। उसका एक लिचत्र पुरुष वेष में था। राधाचरण फोटोग्राफी की क�ा में कुश� थे। किवरजन को यह अ�बम बहुत भाया। किफर क्या था ? किफर क्या था? कम�ा को धुन �गी किक मैं भी लिचत्र खीचँू। भाई के पास पत्र लि�ख भेजा किक केमरा और अन्य आवश्यक सामान मेरे पास भेज दीजिजये और अभ्यास आरंभ कर दिदया। घर से च�ते किक स्कू� जा रहा हँू पर बीच ही में एक पारसी फोटोग्राफर की दूकान पर आ बैठते। तीन-चार मास के परिरश्रम और उद्योग से इस क�ा में प्रवीण हो गये। पर अभी घर में किकसी को यह बात मा�ूम न थी। कई बार किवरजन ने पूछा भी; आजक� दिदनभर कहाँ रहते हो। छुट्टी के दिदन भी नहीं दिदख पड़ते। पर कम�ाचरण ने हँू-हां करके टा� दिदया।

एक दिदन कम�ाचरण कहीं बाहर गये हुए थे। किवरजन के जी में आया किक �ाओ प्रतापचन्द्र को एक पत्र लि�ख डा�ूँ; पर बक्सखे�ा तो लिचट्ठी का कागज न था माधवी से कहा किक जाकर अपने भैया के डेस्क में से कागज किनका� �ा। माधवी दौड़ी हुई गयी तो उसे डेस्क पर लिचत्रों का अ�बम खु�ा हुआ धिम�ा। उसने आ�बम उठा लि�या और भीतर �ाकर किवरजन से कहा-बकिहन! दखों, यह लिचत्र धिम�ा।

किवरजन ने उसे चाव से हाथ में �े लि�या और पकिह�ा ही पन्ना उ�टा था किक अचम्भा-सा हो गया। वह उसी का लिचत्र था। वह अपने प�ंग पर चाउर ओढे़ किनद्रा में पड़ी हुई थी, बा� ��ाट पर किबखरे हुए थे, अधरों पर एक मोहनी मुस्कान की झ�क थी मानों कोई मन-भावना स्वप्न देख रही है। लिचत्र के नीचे �ख हुआ था- ‘पे्रम-स्वप्न’। किवरजन चकिकत थी, मेरा लिचत्र उन्होंने कैसे खिखचवाया और किकससे खिखचवाया। क्या किकसी फोटोग्राफर को भीतर �ाये होंगे ? नहीं ऐसा वे क्या करेंगे। क्या आश्चय्र है, स्वयं ही खींच लि�या हो। इधर महीनों से

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बहुत परिरश्रम भी तो करते हैं। यदिद स्वयं ऐसा लिचत्र खींचा है तो वस्तुत: प्रशंसनीय कायL किकया है। दूसरा पन्ना उ�टा तो उसमें भी अपना लिचत्र पाया। वह एक साड़ी पहने, आधे लिसर पर आँच� डा�े वादिटका में भ्रमण कर रही थी। इस लिचत्र के नीचे �ख हुआ था- ‘वादिटका-भ्रमण। तीसरा पन्ना उ�टा तो वह भी अपना ही लिचत्र था। वह वादिटका में पृथ्वी पर बैठी हार गूँथ रही थी। यह लिचत्र तीनों में सबसे सुन्दर था, क्योंकिक लिचत्रकार ने इसमें बड़ी कुश�ता से प्राकृकितक रंग भरे थे। इस लिचत्र के नीचे लि�खा हुआ था- ‘अ�बे�ी मालि�न’। अब किवरजन को ध्याना आया किक एक दिदन जब मैं हार गूँथ रही थी तो कम�ाचरण नी� के काँटे की झाड़ी मुस्कराते हुए किनक�े थे। अवश्य उसी दिदन का यह लिचत्र होगा। चौथा पन्ना उ�टा तो एक परम मनोहर और सुहावना दृश्य दिदखयी दिदया। किनमL� ज� से �हराता हुआ एक सरोवर था और उसके दोंनों तीरों पर जहाँ तक दृधिष्ट पहुँचती थी, गु�ाबों की छटा दिदखयी देती थी। उनके कोम� पुष्प वायु के झोकां से �चके जात थे। एसका ज्ञात होता था, मानों प्रकृकित ने हरे आकाश में �ा� तारे टाँक दिदये हैं। किकसी अंग्रेजी लिचत्र का अनुकरण प्रतीत होता था। अ�बम के और पने्न अभी कोरे थे।

किवरजन ने अपने लिचत्रों को किफर देखा और सात्तिभमान आनन्द से, जो प्रत्येक रमणी को अपनी सुन्दरता पर होता है, अ�बम को लिछपा कर रख दिदया। संध्या को कम�ाचरण ने आकर देखा, तो अ�बम का पता नहीं। हाथों तो तोते उड़ गये। लिचत्र उसके कई मास के कदिठन परिरश्रम के फ� थे और उसे आशा थी किक यही अ�बम उहार देकर किवरजन के हृदय में और भी घर कर �ूँगा। बहुत व्याकु� हुआ। भीतर जाकर किवरजन से पूछा तो उसने साफ इन्कार किकया। बेचारा घबराया हुआ अपने धिमत्रों के घर गया किक कोई उनमं से उठा �े गया हो। पह वहां भी फबकितयों के अकितरिरc और कुछ हाथ न �गा। किनदान जब महाशय पूरे किनराश हो गये तोशम को किवरजन ने अ�बम का पता बत�ाया। इसी प्रकार दिदवस सानन्द व्यतीत हो रहे थे। दोनों यही चाहते थे किक पे्रम-के्षत्र मे मैं आगे किनक� जाँऊ! पर दोनों के पे्रम में अन्तर था। कम�ाचरण पे्रमोन्माद में अपने को भू� गया। पर इसके किवरुद्व किवरजन का पे्रम कत्तLव्य की नींव पर ज्जिqत था। हाँ, यह आनन्दमय कत्तLव्य था।

तीन वषL व्यतीत हो गये। वह उनके जीवन के तीन शुभ वषL थे। चौथे वषL का आरम्भ आपत्तित्तयों का आरम्भ था। किकतने ही प्रात्तिणयों को सांसार की सुख-सामकिग्रयॉँ इस परिरमाण से धिम�ती है किक उनके लि�ए दिदन सदा हो�ी और राकित्र सदा दिदवा�ी रहती है। पर किकतने ही ऐसे हतभाग्य जीव हैं, जिजनके आनन्द के दिदन एक बार किबज�ी की भाँकित चमककर सदा के लि�ए �ुप्त हो जाते है। वृजरानी उन्हीं अभागें में थी। वसन्त की ऋतु थी। सीरी-सीरी वायु च� रही थी। सरदी ऐसे कड़ाके की पड़ती थी किक कुओं का पानी जम जाता था। उस समय नगरों में प्�ेग का प्रकोप हुआ। सहस्रों मनुष्य उसकी भेंट होने �गे। एक दिदन बहुत कड़ा ज्वर आया, एक किगल्टी किनक�ी और च� बसा। किगल्टी का किनक�ना मानो मृत्यु का संदश था। क्या वैद्य, क्या डाक्टर किकसी की कुछ न च�ती थी। सैकड़ो घरों के दीपक बुझ गये। सहस्रों बा�क अनाथ और सहस्रों किवधवा हो गयी। जिजसको जिजधर ग�ी धिम�ी भाग किनक�ा।

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प्रत्येक मनुष्य को अपनी-अपनी पड़ी हुई थी। कोई किकसी का सहायक और किहतैषी न था। माता-किपता बच्चों को छोड़कर भागे। स्त्रीयों ने पुरषों से सम्बm परिरत्याग किकया। गलि�यों में, सड़को पर, घरों में जिजधर देखिखये मृतकों को ढेर �गे हुए थे। दुकाने बन्द हो गयी। द्वारों पर ता�े बन्द हो गया। चुतुर्दिदंक धू� उड़ती थी। कदिठनता से कोई जीवधारी च�ता-किफरता दिदखायी देता था और यदिद कोई कायLवश घर से किनक�ा पड़ता तो ऐसे शीघ्रता से पॉव उठाता मानों मृत्यु का दूत उसका पीछा करता आ रहा है। सारी बस्ती उजड़ गयी। यदिद आबाद थे तो ककि�स्तान या श्मशान। चोरों और डाकुओं की बन आयी। दिदन –दोपहार तो� टूटते थे और सूयL के प्रकाश में सेंधें पड़ती थीं। उस दारुण दु:ख का वणLन नहीं हो सकता।

बाबू श्यामचरण परम दृढ़लिचत्त मनुष्य थे। गृह के चारों ओर महल्�े-के महल्�े शून्य हो गये थे पर वे अभी तक अपने घर में किनभLय जमे हुए थे �ेकिकन जब उनका साहस मर गया तो सारे घर में ख�ब�ी मच गयी। गॉँव में जाने की तैयारिरयॉँ होने �गी। मुंशीजी ने उस जिज�े के कुछ गॉँव मो� �े लि�ये थे और मझगॉँव नामी ग्राम में एक अच्छा-सा घर भी बनवा रख था। उनकी इच्छा थी किक पेंशन पाने पर यहीं रहँूगा काशी छोड़कर आगरे में कौन मरने जाय! किवरजन ने यह सुना तो बहुत प्रसन्न हुई। ग्राम्य-जीवन के मनोहर दृश्य उसके नेत्रों में किफर रहे थे हरे-भरे वृक्ष और �ह�हाते हुए खेत हरिरणों की क्रीडा और पत्तिक्षयों का क�रव। यह छटा देखने के लि�ए उसका लिचत्त �ा�ाधियत हो रहा था। कम�ाचरण लिशकार खे�ने के लि�ए अस्त्र-शस्त्र ठीक करने �गे। पर अचनाक मुन्शीजी ने उसे बु�ाकर कहा किक तम प्रयाग जाने के लि�ए तैयार हो जाओ। प्रताप चन्द्र वहां तुम्हारी सहायता करेगा। गॉवों में व्यथL समय किबताने से क्या �ाभ? इतना सुनना था किक कम�ाचरण की नानी मर गयी। प्रयाग जाने से इन्कार कर दिदया। बहुत देर तक मुंशीजी उसे समझाते रहे पर वह जाने के लि�ए राजी न हुआ। किनदान उनके इन अंकितम शब्दों ने यह किनपटारा कर दिदया-तुम्हारे भाग्य में किवद्या लि�खी ही नहीं है। मेरा मूखLता है किक उससे �ड़ता हँू!

वृजरानी ने जब यह बात सुनी तो उसे बहुत दु:ख हुआ। वृजरानी यद्यकिप समझती थी किक कम�ा का ध्यान पढ़ने में नहीं �गता; पर जब-तब यह अरुलिच उसे बुरी न �गती थी, बस्तिल्क कभी-कभी उसका जी चाहता किक आज कम�ा का स्कू� न जाना अच्छा था। उनकी पे्रममय वाणी उसके कानों का बहुत प्यारी मा�ूम होती थी। जब उसे यह ज्ञात हुआ किक कम�ा ने प्रयाग जाना अस्वीकार किकया है और �ा�ाजी बहुत समझ रहे हैं, तो उसे और भी दु:ख हुआ क्योंकिक उसे कुछ दिदनों अके�े रहना सहय था, कम�ा किपता को आज्ञज्ञेल्�घंन करे, यह सह्रय न था। माधवी को भेजा किक अपने भैया को बु�ा �ा। पर कम�ा ने जगह से किह�ने की शपथ खा �ी थी। सोचता किक भीतर जाँऊगा, तो वह अवश्य प्रयाग जाने के लि�ए कहेगी। वह क्या जाने किक यहाँ हृदय पर क्या बीत रही है। बातें तो ऐसी मीठी-मीठी करती है, पर जब कभी पे्रम-परीक्षा का समय आ जाता है तो कत्तLव्य और नीकित की ओट में मुख लिछपाने �गती है। सत्य है किक स्त्रीयों में पे्रम की गंध ही नहीं होती।

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जब बहुत देर हो गयी और कम�ा कमरे से न किनक�ा तब वृजरानी स्वयं आयी और बो�ी-क्या आज घर में आने की शपथ खा �ी है। राह देखते-देखते ऑंखें पथरा गयीं।

कम�ा- भीतर जाते भय �गता है।किवरजन- अच्छा च�ो मैं संग-संग च�ती हँू, अब तो नहीं डरोगे?कम�ा- मुझे प्रयाग जाने की आज्ञा धिम�ी है।किवरजन- मैं भी तुम्हारे सग च�ँूगी!यह कहकर किवरजन ने कम�ाचरण की ओर आंखे उठायीं उनमें अंगूर के दोन �गे

हुए थे। कम�ा हार गया। इन मोहनी ऑखों में ऑंसू देखकर किकसका हृदय था, किक अपने हठ पर दृढ़ रहता? कमे�ा ने उसे अपने कंठ से �गा लि�या और कहा-मैं जानता था किक तुम जीत जाओगी। इसीलि�ए भीतर न जाता था। रात-भर पे्रम-किवयोग की बातें होती रहीं! बार-बार ऑंखे परस्पर धिम�ती मानो वे किफर कभी न धिम�ेगी! शोक किकसे मा�ूम था किक यह अंकितम भेंट है। किवरजन को किफर कम�ा से धिम�ना नसीब न हुआ।

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2कमला के नाम वि�रजन के पत्र

मझगाँव‘किप्रयतम,

पे्रम पत्र आया। लिसर पर चढ़ाकर नेत्रों से �गाया। ऐसे पत्र तुम न �ख करो ! हृदय किवदीणL हो जाता है। मैं लि�खंू तो असंगत नहीं। यहॉँ लिचत्त अकित व्याकु� हो रहा है। क्या सुनती थी और क्या देखती हैं ? टूटे-फूटे फूस के झोंपडे़, धिमट्टी की दीवारें, घरों के सामने कूडे़-करकट के बडे़-बडे़ ढेर, कीचड़ में लि�पटी हुई भैंसे, दुबL� गायें, ये सब दृश्य देखकर जी चाहता है किक कहीं च�ी जाऊं। मनुष्यों को देखों, तो उनकी सोचनीय दशा है। हकि�यॉँ किनक�ी हुई है। वे किवपत्तित्त की मूर्तितंयॉँ और दरिरद्रता के जीकिवत्र लिचत्र हैं। किकसी के शरीर पर एक बेफटा वस्त्र नहीं है और कैसे भाग्यहीन किक रात-दिदन पसीना बहाने पर भी कभी भरपेट रोदिटयॉँ नहीं धिम�तीं। हमारे घर के किपछवाडे़ एक गड्ढा है। माधवी खे�ती थी। पॉँव किफस�ा तो पानी में किगर पड़ी। यहॉँ किकम्वदन्ती है किक गडे्ढ में चुडै� नहाने आया करती है और वे अकारण यह च�नेवा�ों से छेड़-छाड़ किकया करती है। इसी प्रकार द्वार पर एक पीप� का पेड़ है। वह भूतों का आवास है। गडे्ढ का तो भय नहीं है, परन्तु इस पीप� का वास सारे-सारे गॉँव के हृदय पर ऐसा छाया हुआ है। किक सूयाLस्त ही से मागL बन्द हो जाता है। बा�क और स्त्रीयाँ तो उधर पैर ही नहीं रखते! हॉँ, अके�े-दुके�े पुरुष कभी-कभी च�े जाते हैं, पर पे भी घबराये हुए। ये दो qान मानो उस किनकृष्ट जीवों के केन्द्र हैं। इनके अकितरिरc सैकड़ों भूत-चुडै� त्तिभन्न-त्तिभन्न qानों के किनवासी पाये जाते हैं। इन �ोगों को चुडै़�ें दीख पड़ती हैं। �ोगों ने इनके स्वभाव पहचान किकये है। किकसी भूत के किवषय में कहा जाता है किक वह लिसर पर चढ़ता है तो महीनों नहीं उतरता और कोई दो-एक पूजा �ेकर अ�ग हो जाता है। गाँव वा�ों में इन किवषयों पर इस प्रकार वाताL�ाप होता है, मानों ये प्रत्यक्ष घटनाँ है। यहाँ तक सुना गया हैं किक चुडै़� भोजन-पानी मॉँगने भी आया करती हैं। उनकी साकिड़यॉँ प्राय: बगु�े के पंख की भाँकित उज्ज्व� होती हैं और वे बातें कुछ-कुछ नाक से करती है। हॉँ, गहनों को प्रचार उनकी जाकित में कम है। उन्ही स्त्रीयों पर उनके आक्रमणका भय रहता है, जो बनाव श्रृंगार किकये रंगीन वस्त्र पकिहने, अके�ी उनकी दृधिष्ट मे पड़ जायें। फू�ों की बास उनको बहुत भाती है। सम्भव नहीं किक कोई स्त्री या बा�क रात को अपने पास फू� रखकर सोये।

भूतों के मान और प्रकितष्ठा का अनुमान बड़ी चतुराई से किकया गया है। जोगी बाबा आधी रात को का�ी कमरिरया ओढे़, खड़ाँऊ पर सवार, गॉँव के चारों आर भ्रमण करते हैं और भू�े-भटके पलिथकों को मागL बताते है। सा�-भर में एक बार उनकी पूजा होती हैं। वह अब भूतों में नहीं वरन् देवताओं में किगने जाते है। वह किकसी भी आपत्तित्त को यथाशलिc गॉँव के भीतर पग नहीं रखने देते। इनके किवरुद्व धोबी बाबा से गॉँव-भर थराLता है। जिजस वुक्ष पर उसका वास है, उधर से यदिद कोई दीपक ज�ने के पश्चात् किनक� जाए, तो उसके प्राणों की

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कुश�ता नहीं। उन्हें भगाने के लि�ए दो बो�त मदिदरा काफी है। उनका पुजारी मंग� के दिदन उस वृक्षत�े गाँजा और चरस रख आता है। �ा�ा साहब भी भूत बन बैठे हैं। यह महाशय मटवारी थे। उन्हं कई पंकिडत असधिमयों ने मार डा�ा था। उनकी पकड़ ऐसी गहरी है किक प्राण लि�ये किबना नहीं छोड़ती। कोई पटवारी यहाँ एक वषL से अधिधक नहीं जीता। गॉँव से थोड़ी दूर पर एक पेड़ है। उस पर मौ�वी साहब किनवास करते है। वह बेचारे किकसी को नहीं छेड़ते। हॉँ, वृहस्पकित के दिदन पूजा न पहुँचायी जाए, तो बच्चों को छेड़ते हैं।

कैसी मूखLता है! कैसी धिमथ्या भलिc है! ये भावनाऍं हृदय पर वज्र�ीक हो गयी है। बा�क बीमार हुआ किक भूत की पूजा होने �गी। खेत-खलि�हान में भूत का भोग जहाँ देखिखये, भूत-ही-भूत दीखते हैं। यहॉँ न देवी है, न देवता। भूतों का ही साम्राज्य हैं। यमराज यहॉँ चरण नहीं रखते, भूत ही जीव-हरण करते हैं। इन भावों का किकस प्रकार सुधार हो ? किकमधिधकम

तुम्हारीकिवरजन

(2)मझगाँव

प्यारे,बहुत दिदनों को पश्चात् आपकी पेरम-पत्री प्राप्त हुई। क्या सचमुच पत्र लि�खने का

अवकाश नहीं ? पत्र क्या लि�खा है, मानो बेगार टा�ी है। तुम्हारी तो यह आदत न थी। क्या वहॉँ जाकर कुछ और हो गये ? तुम्हें यहॉँ से गये दो मास से अधिधक होते है। इस बीच मं कई छोटी-बड़ी छुदिट्टयॉँ पड़ी, पर तुम न आये। तुमसे कर बाँधकर कहती हँू- हो�ी की छुट्टी में अवश्य आना। यदिद अब की बार तरसाया तो मुझे सदा उ�ाहना रहेगा।

यहॉँ आकर ऐसी प्रतीत होता है, मानो किकसी दूसरे संसार में आ गयी हँू। रात को शयन कर रही थी किक अचानक हा-हा, हू-हू का को�ाह� सुनायी दिदया। चौंककर उठा बैठी! पूछा तो ज्ञात हुआ किक �ड़के घर-घर से उप�े और �कड़ी जमा कर रहे थे। हो�ी माता का यही आहार था। यह बेढंगा उपद्रव जहाँ पहुँच गया, ईंधन का दिदवा�ा हो गया। किकसी की शलिc नही जो इस सेना को रोक सके। एक नम्बरदार की मकिड़या �ोप हो गयी। उसमं दस-बारह बै� सुगमतापूवLक बाँधे जा सकते थे। हो�ी वा�े कई दिदन घात में थे। अवसर पाकर उड़ा �े गये। एक कुरमी का झोंपड़ा उड़ गया। किकतने उप�े बेपता हो गये। �ोग अपनी �ककिड़याँ घरों में भर �ेते हैं। �ा�ाजी ने एक पेड़ ईंधन के लि�ए मो� लि�या था। आज रात को वह भी हो�ी माता के पेट में च�ा गया। दो-ती� घरों को किकवाड़ उतर गये। पटवारी साहब द्वार पर सो रहे थे। उन्हें भूधिम पर ढके�कर �ोगे चारपाई �े भागे। चतुर्दिदंक ईंधन की �ूट मची है। जो वस्तु एक बार हो�ी माता के मुख में च�ी गयी, उसे �ाना बड़ा भारी पाप है। पटवारी साहब ने बड़ी धमकिकयां दी। मैं जमाबन्दी किबगाड़ दँूगा, खसरा झूठाकर दँूगा, पर

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कुछ प्रभाव न हुआ! यहाँ की प्रथा ही है किक इन दिदनों वा�े जो वस्तु पा जायें, किनर्तिवंघ्न उठा �े जायें। कौन किकसकी पुकार करे ? नवयुवक पुत्र अपने किपता की आंख बाकर अपनी ही वस्तु उठवा देता है। यदिद वह ऐसा न करे, तो अपने समाज मे अपमाकिनत समझाजा जाए।

खेत पक गये है।, पर काटने में दो सप्ताह का किव�म्ब है। मेरे द्वार पर से मी�ों का दृश्य दिदखाई देता है। गेहँू और जौ के सुथरे खेतों के किकनारे-किकनारे कुसुम के अरुण और केसर-वणL पुष्पों की पंलिc परम सुहावनी �गती है। तोते चतुर्दिदंक मँड�ाया करते हैं।

माधवी ने यहाँ कई सखिखयाँ बना रखी हैं। पड़ोस में एक अहीर रहता है। राधा नाम है। गत वषL माता-किपता प्�ेगे के ग्रास हो गये थे। गृहqी का कु� भार उसी के लिसर पर है। उसकी स्त्री तु�सा प्राय: हमारे यहाँ आती हैं। नख से लिशख तक सुन्दरता भरी हुई है। इतनी भो�ी हैकिक जो चाहता है किक घण्टों बाते सुना करँु। माधवी ने इससे बकिहनापा कर रखा है। क� उसकी गुकिड़यों का किववाह हैं। तु�सी की गुकिड़या है और माधवी का गु�ा। सुनती हँू, बेचारी बहुत किनधनL है। पर मैंने उसके मुख पर कभी उदासीनता नहीं देखी। कहती थी किक उप�े बेचकर दो रुपये जमा कर लि�ये हैं। एक रुपया दायज दँूगी और एक रुपये में बराकितयों का खाना-पीना होगा। गुकिड़यों के वस्त्राभूषण का भार राधा के लिसर हैं! कैसा सर� संतोषमय जीव� है!

�ो, अब किवदा होती हँू। तुम्हारा समय किनरथLक बातो में नष्ट हुआ। क्षमा करना। तुम्हें पत्र लि�खने बैठती हँू, तो �ेखनी रुकती ही नहीं। अभी बहुतेरी बातें लि�खने को पड़ी हैं। प्रतापचन्द्र से मेरी पा�ागन कह देना।

तुम्हारीकिवरजन

(3)मझगाँव

प्यारे,तुम्हारी, पे्रम पकित्रका धिम�ी। छाती से �गायी। वाह! चोरी और मुँहजोरी। अपने न

आने का दोष मेरे लिसर धरते हो ? मेरे मन से कोई पूछे किक तुम्हारे दशनL की उसे किकतनी अत्तिभ�ाषा प्रकितदिदन व्याकु�ता के रुप में परिरणत होती है। कभी-कभी बेसुध हो जाती हँू। मेरी यह दशा थोड़ी ही दिदनों से होने �गी है। जिजस समय यहाँ से गये हो, मुझे ज्ञान न था किक वहाँ जाकर मेरी द�े� करोगे। खैर, तुम्हीं सच और मैं ही झूठ। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई किक तुमने मरे दोनों पत्र पसन्द किकये। पर प्रतापचन्द्र को व्यथL दिदखाये। वे पत्र बड़ी असावधानी से लि�खे गये है। सम्भव है किक अशुकिद्वयाँ रह गयी हों। मझे किवश्वास नहीं आता किक प्रताप ने उन्हें मूल्यवान समझा हो। यदिद वे मेरे पत्रों का इतना आदर करते हैं किक उनके सहार से हमारे ग्राम्य-जीवन पर कोई रोचक किनबm लि�ख सकें , तो मैं अपने को परम भाग्यवान् समझती हँू।

क� यहाँ देवीजी की पूजा थी। ह�, चक्की, पुर चूल्हे सब बन्द थे। देवीजी की ऐसी ही आज्ञा है। उनकी आज्ञा का उल्�घंन कौन करे ? हुक्का-पानी बन्द हो जाए। सा�-भर मं

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यही एक दिदन है, जिजस गाँवा�े भी छुट्टी का समझते हैं। अन्यथा हो�ी-दिदवा�ी भी प्रकित दिदन के आवश्यक कामों को नहीं रोक सकती। बकरा चढा। हवन हुआ। सत्तू खिख�ाया गया। अब गाँव के बचे्च-बचे्च को पूणL किवश्वास है किक प्�ेग का आगमन यहाँ न हो सकेगा। ये सब कौतुक देखकर सोयी थी। �गभग बारह बजे होंगे किक सैंकड़ों मनुष्य हाथ में मशा�ें लि�ये को�ाह� मचाते किनक�े और सारे गाँव का फेरा किकया। इसका यह अथL था किक इस सीमा के भीतर बीमारी पैर न रख सकेगी। फेरे के सप्ताह होने पर कई मनुष्य अन्य ग्राम की सीमा में घुस गये और थोडे़ फू�,पान, चाव�, �ौंग आदिद पदाथL पृथ्वी पर रख आये। अथाLत् अपने ग्राम की ब�ा दूसरे गाँव के लिसर डा� आये। जब ये �ोग अपना कायL समाप्त करके वहाँ से च�ने �गे तो उस गाँववा�ों को सुनगुन धिम� गयी। सैकड़ों मनुष्य �ादिठयाँ �ेकर चढ़ दौडे़। दोनों पक्षवा�ों में खूब मारपीट हुई। इस समय गाँव के कई मनुष्य हल्दी पी रहे हैं।

आज प्रात:का� बची-बचायी रस्में पूरी हुई, जिजनको यहाँ कढ़ाई देना कहते हैं। मेरे द्वार पर एक भट्टा खोदा गया और उस पर एक कड़ाह दूध से भरा हुआ रखा गया। काशी नाम का एक भर है। वह शरीर में भभूत रमाये आया। गाँव के आदमी टाट पर बैठे। शंख बजने �गा। कड़ाह के चतुर्दिदंक मा�ा-फू� किबखेर दिदये गये। जब कहाड़ में खूब उबा� आया तो काशी झट उठा और जय का�ीजी की कहकर कड़ाह में कूद पड़ा। मैं तो समझी अब यह जीकिवत न किनक�ेगा। पर पाँच धिमनट पश्चात् काशी ने किफर छ�ाँग मारी और कड़ाह के बाहर था। उसका बा� भी बाँका न हुआ। �ोगों ने उसे मा�ा पहनायी। वे कर बाँधकर पूछने �गे-महराज! अबके वषL खेती की उपज कैसी होगी ? बीमारी अवेगी या नहीं ? गाँव के �ोग कुश� से रहेंगे ? गुड़ का भाव कैसा रहेगा ? आदिद। काशी ने इन सब प्रश्नों के उत्तर स्पष्ट पर किकंलिचत् रहस्यपूणL शब्दों में दिदये। इसके पश्चात् सभा किवसर्जिजंत हुई। सुनती हँू ऐसी किक्रया प्रकितवषL होती है। काशी की भकिवष्यवात्तिणयाँ यब सत्य लिसद्व होती हैं। और कभी एकाध असत्य भी किनक� जाय तो काशी उना समाधान भी बड़ी योग्यता से कर देता है। काशी बड़ी पहुँच का आदमी है। गाँव में कहीं चोरी हो, काशी उसका पता देता है। जो काम पुलि�स के भेदिदयों से पूरा न हो, उसे वह पूरा कर देता है। यद्यकिप वह जाकित का भर है तथाकिप गाँव में उसका बड़ा आदर है। इन सब भलिcयों का पुरस्कार वह मदिदरा के अकितरिरc और कुछ नहीं �ेता। नाम किनक�वाइये, पर एक बोत� उसको भेंट कीजिजये। आपका अत्तिभयोग न्याया�य में हैं; काशी उसके किवजय का अनुष्ठान कर रहा है। बस, आप उसे एक बोत� �ा� ज� दीजिजये।

हो�ी का समय अकित किनकट है ! एक सप्ताह से अधिधक नहीं। अहा! मेरा हृदय इस समय कैसा खिख� रहा है ? मन में आनन्दप्रद गुदगुदी हो रही है। आँखें तुम्हें देखने के लि�ए अकु�ा रही है। यह सप्ताह बड़ी कदिठनाई से कटेगा। तब मैं अपने किपया के दशLन पाँऊगी।

तुम्हारीकिवरजन

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मझगाँवप्यारे

तुम पाषाणहृदय हो, कट्टर हो, स्नेह-हीन हो, किनदLय हो, अकरुण हो झूठो हो! मैं तुम्हें और क्या गालि�याँ दँू और क्या कोसँू ? यदिद तुम इस क्षण मेरे सम्मुख होते, तो इस वज्रहृदयता का उत्तर देती। मैं कह रही हँू, तुतम दगाबाज हो। मेरा क्या कर �ोगे ? नहीं आते तो मत आओ। मेरा प्रण �ेना चाहते हो, �े �ो। रु�ाने की इच्छा है, रु�ाओ। पर मैं क्यों रोँऊ ! मेरी ब�ा रोवे। जब आपको इतना ध्यान नहीं किक दो घण्टे की यात्रा है, तकिनक उसकी सुधिध �ेता आँऊ, तो मुझे क्या पड़ी है किक रोँऊ और प्राण खोँऊ ?

ऐसा क्रोध आ रहा है किक पत्र फाड़कर फें क दँू और किफर तुमसे बात न करंु। हाँ ! तुमने मेरी सारी अत्तिभ�ाषाए,ं कैसे घू� में धिम�ायी हैं ? हो�ी! हो�ी ! किकसी के मुख से यह शब्द किनक�ा और मेरे हृदय में गुदगुदी होने �गी, पर शोक ! हो�ी बीत गयी और मैं किनराश रह गयी। पकिह�े यह शब्द सुनकर आनन्द होता था। अब दु:ख होता है। अपना-अपना भाग्य है। गाँव के भूखे-नंगे �ँगोटी में फाग खे�ें, आनन्द मनावें, रंग उड़ावें और मैं अभाकिगनी अपनी चारपाइर पर सफेद साड़ी पकिहने पड़ी रहँू। शपथ �ो जो उस पर एक �ा� धब्बा भी पड़ा हो। शपथ �ें �ो जो मैंने अबीर और गु�ा� हाथ से छुई भी हो। मेरी इत्र से बनी हुई अबीर, केवडे़ में घो�ी गु�ा�, रचकर बनाये हुए पान सब तुम्हारी अकृपा का रोना रो रहे हैं। माधवी ने जब बहुत हठ की, तो मैंने एक �ा� टीका �गवा लि�या। पर आज से इन दोषारोपणों का अन्त होता है। यदिद किफर कोई शब्द दोषारोपण का मुख से किनक�ा तो जबान काट �ूँगी।

परसों सायंका� ही से गाँव में चह�-पह� मचने �गी। नवयुवकों का एक द� हाथ में डफ लि�ये, अश्ली� शब्द बकते द्वार-द्वार फेरी �गाने �गा। मुझे ज्ञान न था किक आज यहाँ इतनी गालि�याँ खानी पड़ेंगी। �gाहीन शब्द उनके मुख से इस प्रकार बेधड़क किनक�ते थे जैसे फू� झड़ते हों। �gा और संकोच का नाम न था। किपता, पुत्र के सम्मुख और पुत्र, किपता के सम्ख गालि�याँ बक रहे थे। किपता ��कार कर पुत्र-वधू से कहता है- आज हो�ी है! वधू घर में लिसर नीचा किकये हुए सुनती है और मुस्करा देती है। हमारे पटवारी साहब तो एक ही महात्म किनक�े। आप मदिदरा में मस्त, एक मै�ी-सी टोपी लिसर पर रखे इस द� के नायक थे। उनकी बहू-बेदिटयाँ उनकी अश्ली�ता के वेग से न बच सकीं। गालि�याँ खाओ और हँसो। यदिद बदन पर तकिनक भी मै� आये, तो �ोग समझेंग किक इसका मुहरLम का जन्म हैं भ�ी प्रथा है।

�गभग तीन बजे राकित्र के झुण्ड हो�ी माता के पास पहुँचा। �ड़के अखिग्न-क्रीड़ादिद में तत्पर थे। मैं भी कई स्त्रीयों के पास गयी, वहाँ स्त्रीयाँ एक ओर होलि�याँ गा रही थीं। किनदान हो�ी म आग �गाने का समय आया। अखिग्न �गते ही ज्वा� भड़की और सारा आकाश स्वणL-वणL हो गया। दूर-दूर तक के पेड़-पत्ते प्रकालिशत हो गय। अब इस अखिग्न-रालिश के चारों

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ओर ‘हो�ी माता की जय!’ लिचल्�ा कर दौड़ने �गे। सबे हाथों में गेहँू और जौ किक बालि�याँ थीं, जिजसको वे इस अखिग्न में फें कते जाते थे।

जब ज्वा�ा बहुत उते्तजिजत हुई, तो �ेग एक किकनारे खडे़ होकर ‘कबीर’ कहने �गे। छ: घण्टे तक यही दशा रही। �कड़ी के कुन्दों से चटाकपटाक के शब्द किनक� रहे थे। पशुगण अपने-अपने खँूटों पर भय से लिचल्�ा रहे थे। तु�सा ने मुझसे कहा- अब की हो�ी की ज्वा�ा टेढ़ी जा रही है। कुश� नहीं। जब ज्वा�ा सीधी जाती है, गाँव में सा�-भर आनन्द की बधाई बजती है। परन्तु ज्वा�ा का टेढ़ी होना अशुभ है किनदान �पट कम होने �गी। आँच की प्रखरता मन्द हुई। तब कुछ �ोग हो�ी के किनकट आकर ध्यानपूवLक देखने �गे। जैसे कोइ वस्तु ढँूढ़ रहे हों। तु�सा ने बत�ाया किक जब बसन्त के दिदन हो�ी नीवं पड़ती है, तो पकिह�े एक एरण्ड गाड़ देते हैं। उसी पर �कड़ी और उप�ों का ढेर �गाया जाता है। इस समय �ोग उस एरण्ड के पौधे का ढँूढ रहे हैं। उस मनुष्य की गणना वीरों में होती है जो सबसे पह�े उस पौधे पर ऐसा �क्ष्य करे किक वह टूट कर दूज जा किगर। प्रथम पटवारी साहब पैंतरे बद�ते आये, पर दस गज की दूसी से झाँककर च� दिदये। तब राधा हाथ में एक छोटा-सा सोंटा लि�ये साहस और दृढ़तापूवLक आगे बढ़ा और आग में घुस कर वह भरपूर हाथ �गाया किक पौधा अ�ग जा किगरा। �ोग उन टुकड़ों को �ूटन �गे। माथे पर उसका टीका �गाते हैं और उसे शुभ समझते हैं।

यहाँ से अवकाश पाकर पुरुष-मण्ड�ी देवीजी के चबूतरे की ओर बढ़ी। पर यह न समझना, यहाँ देवीजी की प्रकितष्ठा की गई होगी। आज वे भी गजिजयाँ सुनना पसन्द करती है। छोटे-बडे़ सब उन्हं अश्ली� गालि�याँ सुना रहे थे। अभी थोडे़ दिदन हुए उन्हीं देवीजी की पूजा हुई थी। सच तो यह है किक गाँवों में आजक� ईश्वर को गा�ी देना भी क्षम्य है। माता-बकिहनों की तो कोई गणना नहीं।

प्रभात होते ही �ा�ा ने महाराज से कहा- आज कोई दो सेर भंग किपसवा �ो। दो प्रकारी की अ�ग-अ�ग बनवा �ो। स�ोनी आ मीठी। महारा ज किनक�े और कई मनुष्यों को पकड़ �ाये। भांग पीसी जाने �गी। बहुत से कुल्हड़ मँगाकर क्रमपूवLक रखे गये। दो घड़ों मं दोनो प्रकार की भांग रखी गयी। किफर क्या था, तीन-चार घण्टों तक किपयक्कड़ों का ताँता �गा रहा। �ोग खूब बखान करते थे और गदLन किह�ा- किह�ाकर महाराज की कुश�ता की प्रशंसा करते थे। जहाँ किकसी ने बखान किकया किक महाराज ने दूसरा कुल्हड़ भरा बो�े-ये स�ोनी है। इसका भी स्वाद चख�ो। अजी पी भी �ो। क्या दिदन-दिदन हो�ी आयेगी किक सब दिदन हमारे हाथ की बूटी धिम�ेगी ? इसके उत्तर में किकसान ऐसी दृधिष्ट से ताकता था, मानो किकसी ने उसे संजीवन रस दे दिदया और एक की जगह तीन-तीन कुल्हड़ चट कर जाता। पटवारी कक जामाता मुन्शी जगदम्बा प्रसाद साहब का शुभागमन हुआ है। आप कचहरी में अरायजनवीस हैं। उन्हें महाराज ने इतनी किप�ा दी किक आपे से बाहर हो गये और नाचने-कूदने �गे। सारा गाँव उनसे पोदरी करता था। एक किकसान आता है और उनकी ओर मुस्कराकर कहता है- तुम यहाँ ठाढ़ी हो, घर जाके भोजन बनाओ, हम आवत हैं। इस पर

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बडे़ जोर की हँसी होती है, काशी भर मद में माता �ट्ठा कmे पर रखे आता और सभाज्जिqत जनों की ओर बनावटी क्रोध से देखकर गरजता है- महाराज, अच्छी बात नहीं है किक तुम हमारी नयी बहुरिरया से मजा �ूटते हो। यह कहकर मुन्शीजी को छाती से �गा �ेता है।

मुंशीजी बेचारे छोटे कद के मनुष्य, इधर-उधर फड़फड़ाते हैं, पर नक्कारखाने मे तूती की आवाज कौन सुनता है ? कोई उन्हें प्यार करता है और ग़�े �गाता है। दोपहर तक यही छेड़-छाड़ हुआ की। तु�सा अभी तक बैठी हुई थी। मैंने उससे कहा- आज हमारे यहाँ तुम्हारा न्योता है। हम तुम संग खायेंगी। यह सुनते ही महराजिजन दो थालि�यों में भोजन परोसकर �ायी। तु�सा इस समय खिखड़की की ओर मुँह करके खड़ी थी। मैंने जो उसको हाथ पकड़कर अपनी और खींचा तो उसे अपनी प्यारी-प्यारी ऑंखों से मोती के सोने किबखेरते हुए पाया। मैं उसे ग�े �गाकर बो�ी- सखी सच-सच बत�ा दो, क्यों रोती हो? हमसे कोइर दुराव मत रखो। इस पर वह और भी लिससकने �गी। जब मैंने बहुत हठ की, उसने लिसर घुमाकर कहा-बकिहन! आज प्रात:का� उन पर किनशान पड़ गया। न जाने उन पर क्या बीत रही होगी। यह कहकर वह फूट-फूटकर रोने �गी। ज्ञात हुआ किक राधा के किपता ने कुछ ऋण लि�या था। वह अभी तक चुका न सका था। महाजन ने सोचा किक इसे हवा�ात �े च�ँू तो रुपये वसू� हो जायें। राधा कन्नी काटता किफरता था। आज दे्वकिषयों को अवसर धिम� गया और वे अपना काम कर गये। शोक ! मू� धन रुपये से अधिधक न था। प्रथम मुझ ज्ञात होता तो बेचारे पर त्योहार के दिदन यह आपत्तित्त न आने पाती। मैंने चुपके से महाराज को बु�ाया और उन्हें बीस रुपये देकर राधा को छुड़ाने के लि�ये भेजा।

उस समय मेरे द्वार पर एक टाट किबछा दिदया गया था। �ा�ाजी मध्य में का�ीन पर बैठे थे। किकसान �ोग घुटने तक धोकितयाँ बाँधे, कोई कुत¦ पकिहने कोई नग्न देह, कोई लिसर पर पगड़ी बाँधे और नंगे लिसर, मुख पर अबीर �गाये- जो उनके का�े वणL पर किवशेष छटा दिदखा रही थी- आने �गे। जो आता, �ा�ाजी के पैंरों पर थोड़ी-सी अबीर रख देत। �ा�ा�ी भी अपने तश्तरी में से थोड़ी-सी अबीर किनका�कर उसके माथे पर �गा देते और मुस्कुराकर कोई दिदल्�गी की बात कर देते थे। वह किनहा� हो जाता, सादर प्रणाम करता और ऐसा प्रसन्न होकर आ बैठता, मानो किकसी रंक ने रत्न- रालिश पायी है। मुझे स्पप्न में भी ध्यान न था किक �ा�ाजी इन उज� देहाकितयों के साथ बैठकर ऐसे आनन्द से वताL�ाप कर सकते हैं। इसी बीच में काशी भर आया। उसके हाथ में एक छोटी-सी कटोरी थी। वह उसमें अबीर लि�ए हुए था। उसने अन्य �ोगों की भाँकित �ा�ाजी के चरणों पर अबीर नहीं रखी, किकंतु बड़ी धृष्टता से मुट्ठी-भर �ेकर उनके मुख पर भ�ी-भाँकित म� दी। मैं तो डरी, कहीं �ा�ाजी रुष्ट न हो जायँ। पर वह बहुत प्रसन्न हुए और स्वयं उन्होंने भी एक टीका �गाने के qान पर दोनों हाथों से उसके मुख पर अबीर म�ी। उसके सी उसकी ओर इस दृधिष्ट से देखते थे किक किनस्संदेह तू वीर है और इस योग्य है किक हमारा नायक बने। इसी प्रकार एक-एक करके दो-ढाई सौ मनुष्य एकत्र हुए ! अचानक उन्होंने कहा-आज कहीं राधा नहीं दीख पड़ता, क्या बात है ? कोई उसके घर जाके देखा तो। मुंशी जगदम्बा प्रसाद अपनी योग्यता प्रकालिशत

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करने का अच्छा अवसी देखकर बो�े उठे-हजूर वह दफा 13 नं. अलि�फ ऐक्ट (अ) में किगरफ्तार हो गया। रामदीन पांडे ने वारण्ट जारी करा दिदया। हरीच्छा से रामदीन पांडे भी वहाँ बैठे हुए थे। �ा�ा सने उनकी ओर परम कितरस्कार दृधिष्ट से देखा और कहा- क्यों पांडेजी, इस दीन को बन्दीगृह में बन्द करने से तुम्हारा घर भर जायगा ? यही मनुष्यता और लिशष्टता अब रह गयी है। तुम्हें तकिनक भी दया न आयी किक आज हो�ी के दिदन उसे स्त्री और बच्चों से अ�ग किकया। मैं तो सत्य कहता हँू किक यदिद मैं राधा होता, तो बन्दीगृह से �ौटकर मेरा प्रथम उद्योग यही होता किक जिजसने मुझे यह दिदन दिदखाया है, उसे मैं भी कुछ दिदनों ह�दी किप�वा दँू। तुम्हें �ाज नहीं आती किक इतने बडे़ महाजन होकर तुमने बीस रुपये के लि�ए एक दीन मनुष्य को इस प्रकार कष्ट में डा�ा। डूब मरना था ऐसे �ोभ पर! �ा�ाजी को वस्तुत: क्रोध आ गया था। रामदीन ऐसा �ज्जिgत हुआकिक सब लिसट्टी-किपट्टी भू� गयी। मुख से बात न किनक�ी। चुपके से न्याया�य की ओर च�ा। सब-के-सब कृषक उसकी ओर क्रोध-पूणL दृधिष्ट से देख रहे थे। यदिद �ा�ाजी का भय न होता तो पांडेजी की ह�ी-पस�ी वहीं चूर हो जाती।

इसके पश्चात �ोगों ने गाना आरम्भ किकया। मद में तो सब-के-सब गाते ही थे, इस पर �ा�जी के भ्रातृ-भाव के सम्मान से उनके मन और भी उत्साकिहत हो गये। खूब जी तोड़कर गाया। डफें तो इतने जोर से बजती थीं किक अब फटी और तब फटीं। जगदम्बाप्रसाद ने दुहरा नशा चढ़ाया था। कुछ तो उनकें मन में स्वत: उमंग उत्पन्न हुई, कुछ दूसरों ने उते्तजना दी। आप मध्य सभा में खड़ा होकर नाचने �गे; किवश्वास मानो, नाचने �ग। मैंनें अचकन, टोपी, धोती और मूँछोंवा�े पुरुष को नाचते न देखा था। आध घण्टे तक वे बन्दरों की भाँकित उछ�ते-कूदते रहे। किनदान मद ने उन्हें पृथ्वी पर लि�टा दिदया। तत्पश्चात् एक और अहीर उठा एक अहीरिरन भी मण्ड�ी से किनक�ी और दोनों चौक में जाकर नाचने �गे। दोनों नवयुवक फुत¦�े थे। उनकी कमर और पीठ की �चक किव�क्षण थी। उनके हाव-भाव, कमर का �चकना, रोम-रोम का फड़कना, गदLन का मोड़, अंगों का मरोड़ देखकर किवस्मय होता थां बहुत अभ्यास और परिरश्रम का कायL है।

अभी यहाँ नाच हो ही रहा था किक सामने बहुत-से मनुष्य �ंबी-�ंबी �ादिठयाँ कmों पर रखे आते दिदखायी दिदये। उनके संग डफ भी था। कई मनुष्य हाथों से झाँझ और मजीरे लि�ये हुए थे। वे गाते-बजाते आये और हमारे द्वार पर रुके। अकस्मात तीन- चार मुनष्यों ने धिम�कर ऐसे आकाशभेदी शब्दों में ‘अररर...कबीर’ की ध्वकिन �गायी किक घर काँप उठा। �ा�ाजी किनक�े। ये �ोग उसी गाँव के थे, जहाँ किनकासी के दिदन �ादिठयाँ च�ी थीं। �ा�जी को देखते ही कई पुरुषों ने उनके मुख पर अबीर म�ा। �ा�ाजी ने भी प्रत्युत्तर दिदया। किफर �ोग फशL पर बैठा। इ�ायची और पान से उनका सम्मान किकया। किफर गाना हुआ। इस गाँववा�ों ने भी अबीर म�ीं और म�वायी। जब ये �ेग किबदा होने �गे, तो यह हो�ी गायी:

‘सदा आनन्द रहे किह द्वारे मोहन खे�ें होरी।’

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किकतना सुहावना गीत है! मुझे तो इसमें रस और भाव कूट-कूटकर भारा हुआ प्रतीत होता है। हो�ी का भाव कैसे साधारण और संत्तिक्षपत शब्दों में प्रकट कर दिदया गया है। मैं बारम्बार यह प्यारा गीत गाती हँू, आनन्द �ूटती हँू। हो�ी का त्योहार परस्पर पे्रम और मे� बढ़ाने के लि�ए है। सम्भव सन था किक वे �ोग, जिजनसे कुछ दिदन पह�े �ादिठयाँ च�ी थीं, इस गाँव में इस प्रकार बेधड़क च�े आते। पर यह हो�ी का दिदन है। आज किकसी को किकसी से दे्वष नहीं है। आज पे्रम और आनन्द का स्वराज्य है। आज के दिदन यदिद दुखी हो तो परदेशी बा�म की अब�ा। रोवे तो युवती किवधवा ! इनके अकितरिरc और सबके लि�ए आनन्द की बधाई है।

सन्ध्या-समय गाँव की सब स्त्रीयाँ हमारे यहाँ खे�ने आयीं। मातजी ने उन्हें बडे़ आदर से बैठाया। रंग खे�ा, पान बाँटा। मैं मारे भय के बाहर न किनक�ी। इस प्रकार छुट्टी धिम�ी। अब मुझे ध्यान आया किक माधवी दोपहर से गायब है। मैंने सोचा था शायद गाँव में हो�ी खे�ने गयी हो। परन्तु इन स्त्रीयों के संग न थी। तु�सा अभी तक चुपचाप खिखड़की की ओर मुँह किकये बैठी थी। दीपक में बत्ती पड़ी रही थी किक वह अकस्मात् उठी, मेरे चरणों पर किगर पड़ी और फूट-फूटकर रोने �गी। मैंने खिखड़की की ओर झाँका तो देखती हँू किक आगे-आगे महाराज, उसके पीछे राधा और सबसे पीछे रामदीन पांडे च� रहे हैं। गाँव के बहत से आदमी उनकेस संग है। राधा का बदन कुम्ह�ाया हुआ है। �ा�ाजी ने ज्योंही सुना किक राधा आ गया, चट बाहर किनक� आये और बडे़ स्नेह से उसको कण्ठ से �गा लि�या, जैसे कोई अपने पुत्र का ग�े से �गाता है। राधा लिचल्�ा-लिचल्�ाकर के चरणों में किगर पड़ी। �ा�ाजी ने उसे भी बडे़ पे्रम से उठाया। मेरी ऑंखों में भी उस समय ऑंसू न रुक सके। गाँव के बहुत से मनुष्य रो रहे थे। बड़ा करुणापूणL दृश्य था। �ा�ाजी के नेत्रों में मैंने कभी ऑंसू ने देखे थे। वे इस समय देखे। रामदीन पाण्डेय मस्तक झुकाये ऐसा खड़ा था, माना गौ-हत्या की हो। उसने कहा-मरे रुपये धिम� गये, पर इच्छा है, इनसे तु�सा के लि�ए एक गाय �े दँू।

राधा और तु�सा दोनों अपने घर गये। परन्तु थोड़ी देर में तु�सा माधवी का हाथ पकडे़ हँसती हुई मरे घर आयी बो�ी- इनसे पूछो, ये अब तक कहाँ थीं?

मैं- कहाँ थी ? दोपहर से गायब हो ? माधवी-यहीं तो थी। मैं- यहाँ कहाँ थीं ? मैंने तो दोपहर से नहीं देखा। सच-सख् बता दो मैं रुष्ट न

होँऊगी।माधवी- तु�सा के घर तो च�ी गयी थी।मैं- तु�सा तो यहाँ बैठी है, वहाँ अके�ी क्या सोती रहीं ? तु�सा- (हँसकर) सोती काहे को जागती रह। भोजन बनाती रही, बरतन चौका

करती रही।माधवी- हाँ, चौका-बरतर करती रही। कोई तुम्हार नौकर �गा हुआ है न!

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ज्ञात हुअ किक जब मैंने महाराज को राधा को छुड़ाने के लि�ए भेजा था, तब से माधवी तु�सा के घर भोजन बनाने में �ीन रही। उसके किकवाड़खो�े। यहाँ से आटा, घी, शक्कर सब �े गयी। आग ज�ायी और पूकिड़याँ, कचौकिड़याँ, गु�गु�े और मीठे समोसे सब बनाये। उसने सोचा थाकिक मैं यह सब बताकर चुपके से च�ी जाँऊगी। जब राधा और तु�सा जायेंगे, तो किवस्तिस्मत होंगे किक कौन बना गया! पर स्यात् किव�म्ब अधिधक हो गया और अपराधी पकड़ लि�या गया। देखा, कैसी सुशी�ा बा�ा है।

अब किवदा होती हँू। अपराध क्षमा करना। तुम्हारी चेरी हँू जैसे रखोगे वैसे रहँूगी। यह अबीर और गु�ा� भेजती हँू। यह तुम्हारी दासी का उपहार है। तुम्हें हमारी शपथ धिमथ्या सभ्यता के उमंग में आकर इसे फें क न देना, नहीं तो मेरा हृदय दुखी होगा।

तुम्हारी,किवरजन

(5)मझगाँव

‘प्यारे!तुम्हारे पत्र ने बहुत रु�ाया। अब नहीं रहा जाता। मुझे बु�ा �ो। एक बार देखकर

च�ी आँऊगी। सच बताओं, यदिद में तुम्हारे यहाँ आ जाऊं, तो हँसी तो न उड़ाओगे? न जाने मन मे क्या समझोग ? पर कैस आऊं? तुम �ा�ाजी को लि�खो खूब! कहेंगे यह नयी धुन समायी है।

क� चारपाई पर पड़ी थी। भोर हो गया था, शीत� मन्द पवन च� रहा था किक स्त्रीयाँ गाने का शब्द सुनायी पड़ा। स्त्रीयाँ अनाज का खेत काटने जा रही थीं। झाँककर देखा तो दस-दस बारह-बारह स्त्रीयों का एक-एक गो� था। सबके हाथों में हंलिसया, कmों पर गादिठयाँ बाँधने की रस्स् ओर लिसर पर भुने हुए मटर की छबड़ी थी। ये इस समय जाती हैं, कहीं बारह बजे �ौंटेगी। आपस में गाती, चुह�ें करती च�ी जाती थीं।

दोपहर तक बड़ी कुश�ता रही। अचानक आकश मेघाच्छन्न हो गया। ऑंधी आ गयी और ओ�े किगरने �गे। मैंने इतने बडे़ ओ�े किगरते न देखे थे। आ�ू से बडे़ और ऐसी तेजी से किगरे जैसे बन्दूक से गो�ी। क्षण-भर में पृथ्वी पर एक फुट ऊंचा किबछावन किबछ गया। चारों तरफ से कृषक भागने �गे। गायें, बकिकरयाँ, भेड़ें सब लिचल्�ाती हुई पेड़ों की छाया ढँूढ़ती, किफरती थीं। मैं डरी किक न-जाने तु�सा पर क्या बीती। आंखे फै�ाकर देखा तो खु�े मैदान में तु�सा, राधा और मोकिहनी गाय दीख पड़ीं। तीनों घमासान ओ�े की मार में पडे़ थे! तु�सा के लिसर पर एक छोटी-सी टोकरी थी और राधा के लिसर पर एक बड़ा-सा गट्ठा। मेरे नेत्रों में आंसू भर आये किक न जाने इन बेचारों की क्या गकित होगी। अकस्मात एक प्रखर झोंके ने राधा के लिसर से गट्ठा किगरा दिदया। गट्ठा का किगरना था किक चट तु�सा ने अपनी टोकरी उसके लिसर पर औंधा दी। न-जाने उस पुष्प ऐसे लिसर पर किकतने ओ�े पडे़। उसके हाथ कभी पीठ

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पर जाते, कभी लिसर सुह�ाते। अभी एक सेकेण्ड से अधिधक यह दशा न रही होगी किक राधा ने किबज�ी की भाँकित जपककर गट्ठा उठा लि�या और टोकरी तु�सा को दे दी। कैसा घना पे्रम है!

अनथLकारी दुद«व ने सारा खे� किबगाड़ दिदया ! प्रात:का� स्त्रीयाँ गाती हुई जा रही थीं। सन्ध्या को घर-घर शोक छाया हुआ था। किकतना के लिसर �हू-�ुहान हो गये, किकतने हल्दी पी रहे हैं। खेती सत्यानाश हो गयी। अनाज बफL के त�े दब गया। ज्वर का प्रकोप हैं सारा गाँव अस्पता� बना हुआ है। काशी भर का भकिवष्य प्रवचन प्रमात्तिणत हुआ। हो�ी की ज्वा�ा का भेद प्रकट हो गया। खेती की यह दशा और �गान उगाहा जा रहा है। बड़ी किवपत्तित्त का सामना है। मार-पीट, गा�ी, अपशब्द सभी साधनों से काम लि�या जा रहा है। दोंनों पर यह दैवी कोप!

तुम्हारीकिवरजन

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मझगाँवमेरे प्राणधिधक किप्रयतम,

पूरे पन्द्रह दिदन के पश्चात् तुमने किवरजन की सुधिध �ी। पत्र को बारम्बार पढ़ा। तुम्हारा पत्र रु�ाये किबना नहीं मानता। मैं यों भी बहुत रोया करती हँू। तुमको किकन-किकन बातों की सुधिध दिद�ाऊँ? मेरा हृदय किनबL� है किक जब कभी इन बातों की ओर ध्यान जाता है तो किवलिचत्र दशा हो जाती है। गम¦-सी �गती है। एक बड़ी व्यग्र करने वा�ी, बड़ी स्वादिदष्ट, बहुत रु�ानेवा�ी, बहुत दुराशापूणL वेदना उत्पन्न होती है। जानती हँू किक तुम नहीं आ रहे और नहीं आओगे; पर बार-बार जाकर खड़ी हो जाती हँू किक आ तो नहीं गये।

क� सायंका� यहाँ एक लिचत्ताकषLक प्रहसन देखने में आया। यह धोकिबयों का नाच था। पन्द्रह-बीस मनुष्यों का एक समुदाय था। उसमे एक नवयुवक शे्वत पेशवाज पकिहने, कमर में असंख्य घंदिटयाँ बाँधे, पाँव में घुघँरु पकिहने, लिसर पर �ा� टोपी रखे नाच रहा था। जब पुरुष नाचता था तो मृअंग बजने �गती थी। ज्ञात हुआ किक ये �ोग हो�ी का पुरस्कार माँगने आये हैं। यह जाकित पुरस्कार खूब �ेती है। आपके यहाँ कोई काम-काज पडे़ उन्हें पुरस्कार दीजिजये; और उनके यहाँ कोई काम-काज पडे़, तो भी उन्हें पारिरतोकिषक धिम�ना चाकिहए। ये �ोग नाचते समय गीत नहीं गाते। इनका गाना इनकी ककिवता है। पेशवाजवा�ा पुरुष मृदंग पर हाथ रखकर एक किवरहा कहता है। दूसरा पुरुष सामने से आकर उसका प्रत्युत्तर देता है और दोनों तत्क्षण वह किवरहा रचते हैं। इस जाकित में ककिवत्व-शलिc अत्यधिधक है। इन किवरहों को ध्यान से सुनो तो उनमे बहुधा उत्तम ककिवत्व भाव प्रकट किकये जाते हैं। पेशवाजवा�े पुरुषों ने प्रथम जो किवरहा कहा था, उसका यह अथL किक ऐ धोबी के बच्चों! तुम किकसके द्वार पर आकर खडे़ हो? दूसरे ने उत्तर दिदया-अब न अकबर शाह है न राजा भोज, अब जो हैं हमारे मालि�क हैं उन्हीं से माँगो। तीसरे किवरहा का अथL यह है किक याचकों की

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प्रकितष्ठा कम होती है अतएव कुछ मत माँगों, गा-बाजकर च�े च�ो, देनेवा�ा किबन माँगे ही देगा। घण्टे-भर से ये �ोग किवरहे कहते रहे। तुम्हें प्रतकित न होगी, उनके मुख से किवरहे इस प्रकार बेधड़क किनक�ते थे किक आश्चयL प्रकट होता था। स्यात इतनी सुगमता से वे बातें भी न कर सकते हों। यह जाकित बड़ी किपयक्कड़ है। मदिदरा पानी की भाँकित पीती है। किववाह में मदिदरा गौने में मदिदरा, पूजा-पाठ में मदिदरा। पुरस्कार माँगेंगे तो पीने के लि�ए। धु�ाई माँगेंगे तो यह कहकर किक आज पीने के लि�ए पैसे नहीं हैं। किवदा होते समय बेचू धोबी ने जो किवरहा कहा था, वह काव्या�ंकार से भरा हुआ है। तुम्हारा परिरवार इस प्रकार बढे़ जैसे गंगा जी का ज�। �ड़के फू�े-फ�ें, जैसे आम का बौर। मा�किकन को सोहाग सदा बना रहे, जैसे दूब की हरिरया�ी। कैसी अनोखी ककिवता है।

तुम्हारीकिवरजन

(7)मझगाँव

प्यारे, एक सप्ताह तक चुप रहने की क्षमा चाहती हँू। मुझे इस सप्ताह में तकिनक भी

अवकाश न धिम�ा। माधवी बीमार हो गयी थी। पह�े तो कुनैन को कई पुकिड़याँ खिख�ायी गयीं पर जब �ाभ न हुआ और उसकी दशा और भी बुरी होने �गी तो, दिदह�ूराय वैद्य बु�ाये गये। कोई पचास वषL की आयू होगी। नंगे पाँव लिसर पर एक पगड़ो बाँधे, कmे पर अंगोछा रखे, हाथ में मोटा-सा सोटा लि�ये द्वार पर आकर बैठ गये। घर के जमींदार हैं, पर किकसी ने उनके शरीर मे धिमजई तक नहीं देखी। उन्हें इतना अवकाश ही नहीं किक अपने शरीर-पा�न की ओर ध्यान दे। इस मंड� में आठ-दस कोस तक के �ोग उन पर किवश्वास करते हैं। न वे हकीम को �ाने, न डाक्टर को। उनके हकीम-डाक्टर जो कुछ हैं वे दिदह�ूराय है। सन्देशा सुनते ही आकर द्वार पर बैठ गये। डाक्टरों की भाँकित नहीं की प्रथम सवारी माँगेंगे- वह भी तेज जिजसमें उनका समय नष्ट न हो। आपके घर ऐसे बैठे रहेंगे, मानों गूँगें का गुड़ खा गये हैं। रोगी को देखने जायेंगे तो इस प्रकार भागेंगे मानो कमरे की वायु में किवष भरा हुआ है। रोग परिरचय और औषधिध का उपचार केव� दो धिमनट में समाप्त। दिदह�ूराय डाक्टर नहीं हैं- पर जिजतने मनुष्यों को उनसे �ाभ पहुँचता हैं, उनकी संख्या का अनुमान करना कदिठन है। वह सहानुभूकित की मूर्तितं है। उन्हें देखते ही रेगी का आधा रोग दूर हो जाता है। उनकी औषधिधयाँ ऐसी सुगम और साधारण होती हैं किक किबना पैसा-कौड़ी मनों बटोर �ाइए। तीन ही दिदन में माधवी च�ने-किफरने �गी। वस्तुत: उस वैद्य की औषधिध में चमत्कार है।

यहाँ इन दिदनों मुगलि�ये ऊधम मचा रहे हैं। ये �ोग जाडे़ में कपडे़ उधार दे देते हैं और चैत में दाम वसू� करते हैं। उस समय कोई बहाना नहीं सुनते। गा�ी-ग�ौज मार-पीट सभी बातों पर उतरा आते हैं। दो-तीन मनुष्यों को बहुत मारा। राधा ने भी कुछ कपडे़ लि�ये थे।

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उनके द्वार पर जाक सब-के-सब गालि�याँ देने �गे। तु�सा ने भीतर से किकवाड़ बन्द कर दिदये। जब इस प्रकार बस न च�ा, तो एक मोहनी गाय को खँूटे से खो�कर खींचते हुए �े च�ा। इतने मं राधा दूर से आता दिदखाई दिदया। आते ही आते उसने �ाठी का वह हाथ मारा किक एक मुगलि�ये की क�ाई �टक पड़ी। तब तो मुगलि�ये कुकिपत हुए, पैंतरे बद�ने �गे। राधा भी जान पर खेन गया और तीन दुष्टों को बेकार कर दिदया। इतने काशी भर ने आकर एक मुगलि�ये की खबर �ी। दिदह�ूराय को मुगालि�यों से लिचढ़ है। सात्तिभमान कहा करते हैं किक मैंने इनके इतने रुपये डुबा दिदये इतनों को किपटवा दिदया किक जिजसका किहसाब नहीं। यह को�ाह� सुनते ही वे भी पहुँच गये। किफर तो सैकड़ो मनुष्य �ादिठयाँ �े-�ेकर दौड़ पडे़। उन्होंने मुगलि�यों की भ�ी-भाँकित सेवा की। आशा है किक इधर आने का अब साहस न होगा।

अब तो मइ का मास भी बीत गया। क्यों अभी छुट्टी नहीं हुई ? रात-दिदन तम्हारे आने की प्रतीक्षा है। नगर में बीमारी कम हो गई है। हम �ोग बुहत शीघ्र यहँ से च�े जायगे। शोक ! तुम इस गाँव की सैर न कर सकोगे।

तुम्हारीकिवरजन

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3प्रतापचन्द्र और कमलाचरण

प्रतापचन्द्र को प्रयाग का�ेज में पढ़ते तीन सा� हो चुके थे। इतने का� में उसने अपने सहपादिठयों और गुरुजनों की दृधिष्ट में किवशेष प्रकितष्ठा प्राप्त कर �ी थी। का�ेज के जीवन का कोई ऐसा अंग न था जहाँ उनकी प्रकितभा न प्रदर्शिशंत हुई हो। प्रोफेसर उस पर अत्तिभमान करते और छात्रगण उसे अपना नेता समझते हैं। जिजस प्रकार क्रीड़ा-के्षत्र में उसका हस्त�ाघव प्रशंसनीय था, उसी प्रकार व्याख्यान-भवन में उसकी योग्यता और सूक्ष्मदर्शिशंता प्रमात्तिणत थी। का�ेज से सम्बद्व एक धिमत्र-सभा qाकिपत की गयी थी। नगर के साधारण सभ्य जन, का�ेज के प्रोफेसर और छात्रगण सब उसके सभासद थे। प्रताप इस सभा का उज्ज्व� चन्द्र था। यहां देलिशक और सामाजिजक किवषयों पर किवचार हुआ करते थे। प्रताप की वcृताऍं ऐसी ओजस्तिस्वनी और तकL -पूणL होती थीं की प्रोफेसरों को भी उसके किवचार और किवषयान्वेषण पर आश्चयL होता था। उसकी वcृता और उसके खे� दोनों ही प्रभाव-पूणL होते थे। जिजस समय वह अपने साधारण वस्त्र पकिहने हुए प्�ेटफामL पर जाता, उस समय सभाज्जिqत �ोगों की आँखे उसकी ओर एकटक देखने �गती और लिचत्त में उत्सुकता और उत्साह की तरंगें उठने �गती। उसका वाक्चातुयL उसक संकेत और मृदु� उच्चारण, उसके अंगों-पांग की गकित, सभी ऐसे प्रभाव-पूरिरत होते थे मानो शारदा स्वयं उसकी सहायता करती है। जब तक वह प्�ेटफामL पर रहता सभासदों पर एक मोकिहनी-सी छायी रहती। उसका एक-एक वाक्य हृदय में त्तिभद जाता और मुख से सहसा ‘वाह-वाह!’ के शब्द किनक� जाते। इसी किवचार से उसकी वcृताऍं प्राय: अन्त में हुआ करती थी क्योंकिक बहुतधा श्रोतागण उसी की वाcीक्ष्णता का आस्वादन करने के लि�ए आया करते थे। उनके शब्दों और उच्चारणों में स्वाभाकिवक प्रभाव था। साकिहत्य और इकितहास उसक अन्वेषण और अध्ययन के किवशेष थे। जाकितयों की उन्नकित और अवनकित तथा उसके कारण और गकित पर वह प्राय: किवचार किकया करता था। इस समय उसके इस परिरश्रम और उद्योग के प्ररेक तथा वद्वLक किवशेषकर श्रोताओं के साधुवाद ही होते थे और उन्हीं को वह अपने कदिठन परिरश्रम का पुरस्कार समझता था। हाँ, उसके उत्साह की यह गकित देखकर यह अनुमान किकया जा सकता था किक वह होनहार किबरवा आगे च�कर कैसे फू�-फू� �ायेगा और कैसे रंग-रुप किनका�ेगा। अभी तक उसने क्षण भी के लि�ए भी इस पर ध्यान नहीं दिदया था किक मेरे अगामी जीवन का क्या स्वरुप होगा। कभी सोचता किक प्रोफेसर हो जाँऊगा और खूब पुस्तकें लि�खँूगा। कभी वकी� बनने की भावना करता। कभी सोचता, यदिद छात्रवृत्तित्त प्राप्त होगी तो लिसकिव� सकिवसL का उद्योग करंुगा। किकसी एक ओर मन नहीं दिटकता था।

परन्तु प्रतापचन्द्र उन किवद्यालिथयों में से न था, जिजनका सारा उद्योग वcृता और पुस्तकों ही तक परिरधिमत रहता है। उसके संयम और योग्यता का एक छोटा भाग जनता के �ाभाथL भी व्यय होता था। उसने प्रकृकित से उदार और दया�ु हृदय पाया था और

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सवLसाधरण से धिम�न-जु�ने और काम करने की योग्यता उसे किपता से धिम�ी थी। इन्हीं काय® में उसका सदुत्साह पूणL रीकित से प्रमात्तिणत होता था। बहुधा सन्ध्या समय वह कीटगंज और कटरा की दुगLmपूणL गलि�यों में घूमता दिदखायी देता जहाँ किवशेषकर नीची जाकित के �ोग बसते हैं। जिजन �ोगों की परछाई से उच्चवणL का किहन्दू भागता है, उनके साथ प्रताप टूटी खाट पर बैठ कर घंटों बातें करता और यही कारण था किक इन मुहल्�ों के किनवासी उस पर प्राण देते थे। पे्रमाद और शारीरिरक सुख-प्र�ोभ ये दो अवगुण प्रतापचन्द्र में नाममात्र को भी न थे। कोई अनाथ मनुष्य हो प्रताप उसकी सहायता के लि�ए तैयार था। किकतनी रातें उसने झोपड़ों में कराहते हुए रोकिगयों के लिसरहाने खडे़ रहकर काटी थीं। इसी अत्तिभप्राय से उसने जनता का �ाभाथL एक सभा भी qाकिपत कर रखी थी और ढाई वषL के अल्प समय में ही इस सभा ने जनता की सेवा में इतनी सफ�ता प्राप्त की थी किक प्रयागवालिसयों को उससे पे्रम हो गया था।

कम�ाचरण जिजस समय प्रयाग पहुँचा, प्रतापचन्द्र ने उसका बड़ा आदर किकया। समय ने उसके लिचत्त के दे्वष की ज्वा�ा शांत कर दी थी। जिजस समय वह किवरजन की बीमारी का समाचार पाकर बनारस पहुँचा था और उससे भेंट होते ही किवरजन की दशा सुधर च�ी थी, उसी समय प्रताप चन्द्र को किवश्वास हो गया था किक कम�ाचरण ने उसके हृदय में वह qान नहीं पाया है जो मेरे लि�ए सुरत्तिक्षत है। यह किवचार दे्वषाखिग्न को शान्त करने के लि�ए काफी था। इससे अकितरिरc उसे प्राय: यह किवचार भी उकिद्वगन किकया करता था किक मैं ही सुशी�ा का प्राणघातक हँू। मेरी ही कठोर वात्तिणयों ने उस बेचारी का प्राणघात किकया और उसी समय से जब किक सुशी� ने मरते समय रो-रोकर उससे अपने अपराधों की क्षमा माँगी थी, प्रताप ने मन में ठान लि�या था। किक अवसर धिम�ेगा तो मैं इस पाप का प्रायत्तिश्चत अवश्य करंुगा। कम�ाचरण का आदर-सत्कार तथा लिशक्षा-सुधार में उसे किकसी अंश में प्रायत्तिश्चत को पूणL करने का अपूवL अवसर प्राप्त हुआ। वह उससे इस प्रकार व्यवहार रखता, जैसे छोटा भाई के साथ अपने समय का कुछ भाग उसकी सहायता करने में व्यय करता और ऐसी सुगमता से लिशक्षक का कत्तLवय पा�न करता किक लिशक्षा एक रोचक कथा का रुप धारण कर �ेती।

परन्तु प्रतापचन्द्र के इन प्रयत्नों के होते हुए भी कम�ाचरण का जी यहाँ बहुत घबराता। सारे छात्रवास में उसके स्वाभावनुकू� एक मनुष्य भी न था, जिजससे वह अपने मन का दु:ख कहता। वह प्रताप से किनस्संकोच रहते हुए भी लिचत्त की बहुत-सी बातें न कहता था। जब किनजLनता से जी अधिधक घबराता तो किवरजन को कोसने �गता किक मेरे लिसर पर यह सब आपत्तित्तयाँ उसी की �ादी हुई हैं। उसे मुझसे पे्रम नहीं। मुख और �ेखनी का पे्रम भी कोई पे्रम है ? मैं चाहे उस पर प्राण ही क्यों न वारंु, पर उसका पे्रम वाणी और �ेखनी से बाहर न किनक�ेगा। ऐसी मूर्तितं के आगे, जो पसीजना जानती ही नहीं, लिसर पटकने से क्या �ाभ। इन किवचारों ने यहाँ तक जोर पकड़ा किक उसने किवरजन को पत्र लि�खना भी त्याग दिदया। वह बेचारी अपने पत्रों में क�ेजा किनक�ाकर रख देती, पर कम�ा उत्तर तक न देता। यदिद देता भी तो रुखा और हृदयकिवदारक। इस समय किवरजन की एक-एक बात, उसकी एक-एक

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चा� उसके पे्रम की लिशलिथ�ता का परिरचय देती हुई प्रतीत होती थी। हाँ, यदिद किवस्मरण हो गयी थी तो किवरजन की स्नेहमयी बातें, वे मतवा�ी ऑंखे जो किवयोग के समय डबडबा गयी थीं और कोम� हाथ जिजन्होंने उससे किवनती की थी किक पत्र बराबर भेजते रहना। यदिद वे उसे स्मरण हो आते, तो सम्भव था किक उसे कुछ संतोष होता। परन्तु ऐसे अवसरों पर मनुष्य की स्मरणशलिc धोखा दे दिदया करती है।

किनदान, कम�ाचरण ने अपने मन-बह�ाव का एक ढंग सोच ही किनका�ा। जिजस समय से उसे कुछ ज्ञान हुआ, तभी से उसे सौन्दयL-वादिटका में भ्रमण करने की चाट पड़ी थी, सौन्दय¯पासना उसका स्वभाव हो गया था। वह उसके लि�ए ऐसी ही अकिनवायL थी, जैसे शरीर रक्षा के लि�ए भोजन। बोर्डिंडंग हाउस से धिम�ी हुई एक सेठ की वादिटका थी और उसकी देखभा� के लि�ए मा�ी नौकर था। उस मा�ी के सरयूदेवी नाम की एक कँुवारी �ड़की थी। यद्यकिप वह परम सुन्दरी न थी, तथाकिप कम�ा सौन्दयL का इतना इचु्छक न था, जिजतना किकसी किवनोद की सामग्री का। कोई भी स्त्री, जिजसके शरीर पर यौवन की झ�क हो, उसका मन बह�ाने के लि�ए समुलिचत थी। कम�ा इस �ड़की पर डोरे डा�ने �गा। सन्ध्या समय किनरन्तर वादिटका की पटरिरयों पर टह�ता हुआ दिदखायी देता। और �ड़के तो मैदान में कसरत करते, पर कम�ाचरण वादिटका में आकर ताक-झाँक किकया करता। धीरे-धीरे सरयूदेवी से परिरचय हो गया। वह उससे गजरे मो� �ेता और चौगुना मूल्य देता। मा�ी को त्योहार के समय सबसे अधिधक त्योहरी कम�ाचरण ही से धिम�ती। यहाँ तक किक सरयूदेवी उसके प्रीकित-रुपी जा� का आखेट हो गयी और एक-दो बार अmकार के पद« में परस्पर संभोग भी हो गया।

एक दिदन सन्ध्या का समय था, सब किवद्याथ¦ सैर को गये हुए थे, कम�ा अके�ा वादिटका में टह�ता था और रह-रहकर मा�ी के झोपड़ों की ओर झाँकता था। अचानक झोपडे़ में से सरयूदेवी ने उसे संकेत द्वारा बु�ाया। कम�ा बड़ी शीघ्रता से भीतर घुस गया। आज सरयूदेवी ने म�म� की साड़ी पहनी थी, जो कम�ाबाबू का उपहार थी। लिसर में सुगंधिधत ते� डा�ा था, जो कम�ा बाबू बनारस से �ाये थे और एक छींट का स�ूका पहने हुई थी, जो बाबू साहब ने उसके लि�ए बनवा दिदया था। आज वह अपनी दृधिष्ट में परम सुन्दरी प्रतीत होती थी, नहीं तो कम�ा जैसा धनी मनुष्य उस पर क्यों पाण देता ? कम�ा खटो�े पर बैठा हुआ सरयूदेवी के हाव-भाव को मतवा�ी दृधिष्ट से देख रहा था। उसे उस समय सरयूदेवी वृजरानी से किकसी प्रकार कम सुन्दरी नहीं दीख पड़ती थी। वणL में तकिनक सा अन्तर था, पर यह ऐसा कोई बड़ा अंतर नहीं। उसे सरयूदेवी का पे्रम सच्चा और उत्साहपूणL जान पड़ता था, क्योंकिक वह जब कभी बनारस जाने की चचाL करता, तो सरयूदेवी फूट-फूटकर रोने �गती और कहती किक मुझे भी �ेते च�ना। मैं तुम्हारा संग न छोडूगँी। कहाँ यह पे्रम की तीव्रता व उत्साह का बाहुल्य और कहाँ किवरजन की उदासीन सेवा और किनदLयतापूणL अभ्यथLना !

कम�ा अभी भ�ीभाँकित ऑंखों को सेंकने भी न पाया था किक अकस्मात् मा�ी ने आकर द्वार खटखटाया। अब काटो तो शरीर में रुधिधर नहीं। चेहरे का रंग उड़ गया। सरयूदेवी

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से किगड़किगड़ाकर बो�ा- मैं कहाँ जाऊं? सरयूदेवी का ज्ञान आप ही शून्य हो गया, घबराहट में मुख से शब्द तक न किनक�ा। इतने में मा�ी ने किफर किकवाड़ खटखटाया। बेचारी सरयूदेवी किववश थी। उसने डरते-डरते किकवाड़ खो� दिदया। कम�ाचरण एक कोनें में श्वास रोककर खड़ा हो गया।

जिजस प्रकार बलि�दान का बकरा कटार के त�े तड़पता है उसी प्रकार कोने में खडे़ हुए कम�ा का क�ेजा धज्ञड़क रहा था। वह अपने जीवन से किनराश था और ईश्वर को सच्चे हृदय से स्मरण कर रहा था और कह रहा था किक इस बार इस आपत्तित्त से मुc हो जाऊंगा तो किफर कभी ऐसा काम न करंुगा।

इतने में मा�ी की दृधिष्ट उस पर पड़ी, पकिह�े तो घबराया, किफर किनकट आकर बो�ा- यह कौन खड़ा है? यह कौन है ?

इतना सुनना था किक कम�ाचरण झपटकर बाहर किनक�ा और फाटक की ओर जी छोड़कर भागा। मा�ी एक डंडा हाथ में लि�ये ‘�ेना-�ेना, भागने न पाये?’ कहता हुआ पीछे-पीछे दौड़ा। यह वह कम�ा है जो मा�ी को पुरस्कार व पारिरतोकिषक दिदया करता था, जिजससे मा�ी सरकार और हुजूर कहकर बातें करता था। वही कम�ा आज उसी मा�ी सम्मुख इस प्रकार जान �ेकर भागा जाता है। पाप अखिग्न का वह कुण्ड है जो आदर और मान, साहस और धैयL को क्षण-भर में ज�ाकर भस्म कर देता है।

कम�ाचरण वृक्षों और �ताओं की ओट में दौड़ता हुआ फाटक से बाहर किनक�ा। सड़क पर ताँगा जा रहा था, जो बैठा और हाँफते-हाँफते अशc होकर गाड़ी के पटरे पर किगर पड़ा। यद्यकिप मा�ी ने फाटक भी पीछा न किकया था, तथाकिप कम�ा प्रत्येक आने-जाने वा�े पर चौंक-चौंककर दृधिष्ट डा�ता थ, मानों सारा संसार शतु्र हो गया है। दुभाLग्य ने एक और गु� खिख�ाया। स्टेशन पर पहुँचते ही घबराहट का मारा गाड़ी में जाकर बैठ गय, परन्तु उसे दिटकट �ेने की सुधिध ही न रही और न उसे यह खबर थी किक मैं किकधर जा रहा हँू। वह इस समय इस नगर से भागना चाहता था, चाहे कहीं हो। कुछ दूर च�ा था किक अंग्रेज अफसर �ा�टेन लि�ये आता दिदखाई दिदया। उसके संग एक लिसपाही भी था। वह याकित्रयों का दिटकट देखता च�ा आता था; परन्तु कम�ा ने जान किक कोई पुलि�स अफसर है। भय के मारे हाथ-पाँव सनसनाने �गे, क�ेजा धड़कने �गा। जब अंग्रेज दसूरी गकिड़यों में जाँच करता रहा, तब तक तो वह क�ेजा कड़ा किकये पे्रकार बैठा रहा, परन्तु ज्यों उसके किडब्बे का फाटक खु�ा कम�ा के हाथ-पाँव फू� गये, नेत्रों के सामने अंधेरा छा गया। उताव�ेपन से दूसरी ओर का किकवाड़ खो�कर च�ती हुई रे�गाड़ी पर से नीचे कूद पडा। लिसपाही और रे�वा�े साहब ने उसे इस प्रकार कूदते देखा तो समझा किक कोई अभ्यस्त डाकू है, मारे हषL के फू�े न समाये किक पारिरतोकिषक अ�ग धिम�ेगा और वेतनोन्नकित अ�ग होगी, झट �ा� बत्ती दिदखायी। तकिनक देर में गाड़ी रुक गयी। अब गाडL, लिसपाही और दिटकट वा�े साहब कुछ अन्य मनुष्यों के सकिहत गाड़ी उतर गयी। अब गाडL, लिसपाही और दिटकट वा�े साहब कुछ अन्य मुनष्यों के सकिहत गाड़ी से उत्तर पडे़ और �ा�टेन �े-�ेकर इधर-उधर देखने �गे। किकसी ने कहा-अब

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उसकी धून भी न धिम�ेगी, पक्का डकैत था। कोई बो�ा- इन �ोगों को का�ीजी का इष्ट रहता है, जो कुछ न कर दिदखायें, थोड़ा हैं परन्तु गाडL आगे ही बढ़ता गया। वेतन वुकिद्व की आशा उसे आगे ही लि�ये जाती थी। यहाँ तक किक वह उस qान पर जा पहुँचा, जहाँ कमे�ा गाड़ी से कूदा था। इतने में लिसपाही ने ख�े की ओर सकंकेत करके कहा- देखो, वह शे्वत रंग की क्या वस्तु है ? मुझे तो कोई मनुष्य-सा प्रतीत होता है और �ोगों ने देखा और किवश्वास हो गया किक अवश्य ही दुष्ट डाकू यहाँ लिछपा हुआ है, च�केर उसको घेर �ो ताकिक कहीं किनक�ने न पावे, तकिनक सावधान रहना डाकू प्राणपर खे� जाते हैं। गाडL साहब ने किपस्तौ� सँभा�ी, धिमयाँ लिसपाही ने �ाठी तानी। कई स्त्रीयों ने जूते उतार कर हाथ में �े लि�ये किक कहीं आक्रमण कर बैठा तो भागने में सुभीता होगा। दो मनुष्यों ने ढे�े उठा लि�ये किक दूर ही से �क्ष्य करेंगे। डाकू के किनकट कौन जाय, किकसे जी भारी है? परन्तु जब �ोगों ने समीप जाकर देखा तो न डाकू था, न डाकू भाई; किकन्तु एक सभ्य-स्वरुप, सुन्दर वणL, छरहरे शरीर का नवयुवक पृथ्वी पर औंधे मुख पड़ा है और उसके नाक और कान से धीरे-धीरे रुधिधर बह रहा है।

कम�ा ने इधर साँस तोड़ी और किवरजन एक भयानक स्वप्न देखकर चौंक पड़ी। सरयूदेवी ने किवरजन का सोहाग �ूट लि�या।

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4दु:ख-दशा

सौभाग्यवती स्त्री के लि�ए उसक पकित संसार की सबसे प्यारी वस्तु होती है। वह उसी के लि�ए जीती और मारती है। उसका हँसना-बो�ना उसी के प्रसन्न करने के लि�ए और उसका बनाव-श्रृंगार उसी को �ुभाने के लि�ए होता है। उसका सोहाग जीवन है और सोहाग का उठ जाना उसके जीवन का अन्त है।

कम�ाचरण की अका�-मृत्यु वृजरानी के लि�ए मृत्यु से कम न थी। उसके जीवन की आशाए ँऔर उमंगे सब धिमट्टी मे धिम� गयीं। क्या-क्या अत्तिभ�ाषाए ँथीं और क्या हो गय? प्रकित-क्षण मृत कम�ाचरण का लिचत्र उसके नेत्रों में भ्रमण करता रहता। यदिद थोड़ी देर के लि�ए उसकी ऑखें झपक जातीं, तो उसका स्वरुप साक्षात नेत्रों कें सम्मुख आ जाता।

किकसी-किकसी समय में भौकितक त्रय-तापों को किकसी किवशेष व्यलिc या कुटुम्ब से पे्रम-सा हो जाता है। कम�ा का शोक शान्त भी न हुआ था बाबू श्यामाचरण की बारी आयी। शाखा-भेदन से वृक्ष को मुरझाया हुआ न देखकर इस बार दुद«व ने मू� ही काट डा�ा। रामदीन पाँडे बडा दंभी मनुष्य था। जब तक किडप्टी साहब मझगाँव में थे, दबका बैठा रहा, परन्तु ज्योंही वे नगर को �ौटे, उसी दिदन से उसने उल्पात करना आरम्भ किकया। सारा गाँव–का-गाँव उसका शतु्र था। जिजस दृधिष्ट से मझगाँव वा�ों ने हो�ी के दिदन उसे देखा, वह दृधिष्ट उसके हृदय में काँटे की भाँकित खटक रही थी। जिजस मण्ड� में माझगाँव ज्जिqत था, उसके थानेदार साहब एक बडे घाघ और कुश� रिरश्वती थे। सहस्रों की रकम पचा जायें, पर डकार तक न �ें। अत्तिभयोग बनाने और प्रमाण गढ़ने में ऐसे अभ्यस्त थे किक बाट च�ते मनुष्य को फाँस �ें और वह किफर किकसी के छुड़ाये न छूटे। अधिधकार वगL उसक हथकण्डों से किवज्ञ था, पर उनकी चतुराई और कायLदक्षता के आगे किकसी का कुछ बस न च�ता था। रामदीन थानेदार साहब से धिम�ा और अपने हृद्रोग की औषधिध माँगी। उसक एक सप्ताह पश्चात् मझगाँव में डाका पड़ गया। एक महाजन नगर से आ रहा था। रात को नम्बरदार के यहाँ ठहरा। डाकुओं ने उसे �ौटकर घर न जाने दिदया। प्रात:का� थानेदार साहब तहकीकात करने आये और एक ही रस्सी में सारे गाँव को बाँधकर �े गये।

दैवात् मुकदमा बाबू श्यामाचारण की इज�ास में पेश हुआ। उन्हें पह�े से सारा कच्चा-लिचट्ठा किवदिदत था और ये थानेदार साहब बहुत दिदनों से उनकी आंखों पर चढे़ हुए थे। उन्होंने ऐसी बा� की खा� किनका�ी की थानेदार साहब की पो� खु� गयी। छ: मास तक अत्तिभयोग च�ा और धूम से च�ा। सरकारी वकी�ों ने बडे़-बडे़ उपाय किकये परन्तु घर के भेदी से क्या लिछप सकता था? फ� यह हुआ किक किडप्टी साहब ने सब अत्तिभयुcों को बेदाग छोड़ दिदया और उसी दिदन सायंका� को थानेदार साहब मुअत्त� कर दिदये गये।

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जब किडप्टी साहब फैस�ा सुनाकर �ौटे, एक किहतलिचन्तक कमLचारी ने कहा- हुजूर, थानेदार साहब से सावधान रकिहयेगा। आज बहुत झल्�ाया हुआ था। पह�े भी दो-तीन अफसरों को धोखा दे चुका है। आप पर अवश्य वार करेगा। किडप्टी साहब ने सुना और मुस्कराकर उस मुनष्य को धन्यवाद दिदया; परन्तु अपनी रक्षा के लि�ए कोई किवशेष यत्न न किकया। उन्हें इसमें अपनी भीरुता जान पड़ती थी। राधा अहीर बड़ा अनुरोध करता रहा किक मै। आपके संग रहँूगा, काशी भर भी बहुत पीछे पड़ा रहा ; परन्तु उन्होंने किकसी को संग न रखा। पकिह�े ही की तरह अपना काम करते रहे।

जालि�म खाँ बात का धनी था, वह जीवन से हाथ धोकर बाबू श्यामाचरण के पीछे पड़ गया। एक दिदन वे सैर करके लिशवपुर से कुछ रात गये �ौट रहे थे पाग�खाने के किनकट कुछ किफदिटन का घोड़ा किबदकां गाड़ी रुक गयी और प�भर में जालि�म खाँ ने एक वृक्ष की आड़ से किपस्तौ� च�ायी। पड़ाके का शब्द हुआ और बाबू श्यामाचरण के वक्षq� से गो�ी पार हो गयी। पाग�खाने के लिसपाही दौडे़। जालि�म खाँ पकड़ लि�य गया, साइस ने उसे भागने न दिदया था।

इस दुघLटनाओं ने उसके स्वभाव और व्यवहार में अकस्मात्र बड़ा भारी परिरवतLन कर दिदया। बात-बात पर किवरजन से लिचढ़ जाती और कटूज्जिक्त्तयों से उसे ज�ाती। उसे यह भ्रम हो गया किक ये सब आपात्तित्तयाँ इसी बहू की �ायी हई है। यही अभाकिगन जब से घर आयी, घर का सत्यानाश हो गया। इसका पौरा बहुत किनकृष्ट है। कई बार उसने खु�कर किवरजन से कह भी दिदया किक-तुम्हारे लिचकने रुप ने मुझे ठग लि�या। मैं क्या जानती थी किक तुम्हारे चरण ऐसे अशुभ हैं ! किवरजन ये बातें सुनती और क�ेजा थामकर रह जाती। जब दिदन ही बुरे आ गये, तो भ�ी बातें क्योंकर सुनने में आयें। यह आठों पहर का ताप उसे दु:ख के आंसू भी न बहाने देता। आँसूं तब किनक�ते है। जब कोई किहतैषी हा और दुख को सुने। ताने और वं्यग्य की अखिग्न से ऑंसू ज� जाते हैं।

एक दिदन किवरजन का लिचत्त बैठे-बैठे घर में ऐसा घबराया किक वह तकिनक देर के लि�ए वादिटका में च�ी आयी। आह ! इस वादिटका में कैसे-कैसे आनन्द के दिदन बीते थे ! इसका एक-एक पध मरने वा�े के असीम पे्रम का स्मारक था। कभी वे दिदन भी थे किक इन फू�ों और पत्तित्तयों को देखकर लिचत्त प्रफुज्जिल्�त होता था और सुरत्तिभत वायु लिचत्त को प्रमोदिदत कर देती थी। यही वह q� है, जहाँ अनेक सन्ध्याऍं पे्रमा�ाप में व्यतीत हुई थीं। उस समय पुष्पों की कलि�याँ अपने कोम� अधरों से उसका स्वागत करती थीं। पर शोक! आज उनके मस्तक झुके हुए और अधर बन्द थे। क्या यह वही qान न था जहाँ ‘अ�बे�ी मालि�न’ फू�ों के हार गूंथती थी? पर भो�ी मालि�न को क्या मा�ूम था किक इसी qान पर उसे अपने नेतरें से किनक�े हुए मोकितयों को हाँर गूँथने पडे़गें। इन्हीं किवचारों में किवरजन की दृधिष्ट उस कंुज की ओर उठ गयी जहाँ से एक बार कम�ाचरण मुस्कराता हुआ किनक�ा था, मानो वह पत्तित्तयों का किह�ना और उसके वस्तरें की झ�क देख रही है। उससे मुख पर उसे समय मन्द-मन्द मुस्कान-सी प्रकट होती थी, जैसे गंगा में डूबते हुर्श्र्ययL की पी�ी और मलि�न किकणें का

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प्रकितकिबम्ब पड़ता है। आचानक पे्रमवती ने आकर कणLकटु शब्दों में कहा- अब आपका सैर करने का शौक हुआ है !

किवरजन खड़ी हो गई और रोती हुई बो�ी-माता ! जिजसे नारायण ने कुच�ा, उसे आप क्यों कुच�ती हैं !

किनदान पे्रमवती का लिचत्त वहाँ से ऐसा उचाट हुआ किक एक मास के भीतर सब सामान औने-पौने बेचकर मझगाँव च�ी गयी। वृजरानी को संग न लि�या। उसका मुख देखने से उसे घृणा हो गयी थी। किवरजन इस किवस्तृत भवन में अके�ी रह गयी। माधवी के अकितरिरc अब उसका कोई किहतैषी न रहा। सुवामा को अपनी मुँहबो�ी बेटी की किवपत्तित्तयों का ऐसा हीशेक हुआ, जिजतना अपनी बेटी का होता। कई दिदन तक रोती रही और कई दिदन बराबर उसे सझाने के लि�ए आती रही। जब किवरजन अके�ी रह गयी तो सुवमा ने चाहा हहक यह मेरे यहाँ उठ आये और सुख से रहे। स्वयं कई बार बु�ाने गयी, पर किवररजन किकसी प्रकार जाने को राजी न हुई। वह सोचती थी किक ससुर को संसार से लिसधारे भी तीन मास भी नहीं हुए, इतनी जल्दी यह घर सूना हो जायेगा, तो �ोग कहेंगे किक उनके मरते ही सास और बेहु �ड़ मरीं। यहाँ तक किक उसके इस हठ से सुवामा का मन मोटा हो गया।

मझगाँव में पे्रमवती ने एक अंधेर मचा रखी थी। असाधिमयों को कटु वजन कहती। कारिरन्दा के लिसर पर जूती पटक दी। पटवारी को कोसा। राधा अहीर की गाय ब�ात् छीन �ी। यहाँ किक गाँव वा�े घबरा गये ! उन्होंने बाबू राधाचरण से लिशकायत की। राधाचण ने यह समाचार सुना तो किवश्वास हो गया किक अवश्य इन दुघLटनाओं ने अम्माँ की बुकिद्व भ्रष्ट कर दी है। इस समय किकसी प्रकार इनका मन बह�ाना चाकिहए। सेवती को लि�खा किक तुम माताजी के पास च�ी जाओ और उनके संग कुछ दिदन रहो। सेवती की गोद में उन दिदनों एक चाँद-सा बा�क खे� रहा था और प्राणनाथ दो मास की छुट्टी �ेकर दरभंगा से आये थे। राजा साहब के प्राइवेट सेक्रटेरी हो गये थे। ऐसे अवसर पर सेवती कैस आ सकती थी? तैयारिरयाँ करते-करते महीनों गुजर गये। कभी बच्चा बीमार पड़ गया, कभी सास रुष्ट हो गयी कभी साइत न बनी। किनदान छठे महीने उसे अवकाश धिम�ा। वह भी बडे़ किवपत्तित्तयों से।

परन्तु पे्रमवती पर उसक आने का कुछ भी प्रभाव न पड़ा। वह उसके ग�े धिम�कर रोयी भी नहीं, उसके बचे्च की ओर ऑंख उठाकर भी न देखा। उसक हृदय में अब ममता और पे्रम नाम-मात्र को भी न रह गयाञ। जैसे ईख से रस किनका� �ेने पर केव� सीठी रह जाती है, उसकी प्रकार जिजस मनुष्य के हृदय से पे्रम किनक� गया, वह अज्जिq-चमL का एक ढेर रह जाता है। देवी-देवता का नाम मुख पर आते ही उसके तेवर बद� जाते थे। मझागाँव में जन्माष्टमी हुई। �ोगों ने ठाकुरजी का व्रत रख और चन्दे से नाम कराने की तैयारिरयाँ करने �गे। परन्तु पे्रमवती ने ठीक जन्म के अवसर पर अपने घर की मूर्तितं खेत से किफकवा दी। एकादशी �त टूटा, देवताओं की पूजा छूटी। वह पे्रमवती अब पे्रमवती ही न थी।

सेवती ने ज्यों-त्यों करके यहाँ दो महीने काटे। उसका लिचत्त बहुत घबराता। कोई सखी-सहे�ी भी न थी, जिजसके संग बैठकर दिदन काटती। किवरजन ने तु�सा को अपनी सखी

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बना लि�या था। परन्तु सेवती का स्भव सर� न था। ऐसी स्त्रीयों से मे�-जो� करने में वह अपनी मानहाकिन समझती थी। तु�सा बेचारी कई बार आयी, परन्तु जब दख किक यह मन खो�कर नहीं धिम�ती तो आना-जाना छोड़ दिदया।

तीन मास व्यतीत हो चुके थे। एक दिदन सेवती दिदन चढे़ तक सोती रही। प्राणनाथ ने रात को बहुत रु�ाया था। जब नींद उचटी तो क्या देखती है किक पे्रमवती उसके बचे्च को गोद में लि�य चूम रही है। कभी आखें से �गाती है , कभी छाती से लिचपटाती है। सामने अंगीठी पर ह�ुवा पक रहा है। बच्चा उसकी ओर उंग�ी से संकेत करके उछ�ता है किक कटोरे में जा बैठँू और गरम-गरम ह�ुवा चखँू। आज उसक मुखमण्ड� कम� की भाँकित खिख�ा हुआ है। शायद उसकी तीव्र दृधिष्ट ने यह जान लि�या है किक पे्रमवती के शुष्क हृदय में पे्रमे ने आज किफर से किनवास किकया है। सेवती को किवश्वास न हुआ। वह चारपाई पर पु�किकत �ोचनों से ताक रही थी मानों स्वप्न देख रही थी। इतने में पे्रमवती प्यार से बो�ी- उठो बेटी ! उठो ! दिदन बहुत चढ़ आया है।

सेवती के रोंगटे खडे़ हो गओ और आंखें भर आयी। आज बहुत दिदनों के पश्चात माता के मुख से पे्रममय बचन सुने। झट उठ बैठी और माता के ग�े लि�पट कर रोने �गी। पे्रमवती की खें से भी आंसू की झड़ी �ग गयीय, सूखा वृक्ष हरा हुआ। जब दोनों के ऑंसू थमे तो पे्रमवती बो�ी-लिसत्तो ! तुम्हें आज यह बातें अचरज प्रतीत होती है ; हाँ बेटी, अचरज ही न। मैं कैसे रोऊं, जब आंखों में आंसू ही रहे? प्यार कहाँ से �ाऊं जब क�ेजा सूखकर पत्थर हो गया? ये सब दिदनों के फेर हैं। ऑसू उनके साथ गये और कम�ा के साथ। अज न जाने ये दो बूँद कहाँ से किनक� आये? बेटी ! मेरे सब अपराध क्षमा करना।

यह कहते-कहते उसकी ऑखें झपकने �गीं। सेवती घबरा गयी। माता हो किबस्तर पर �ेटा दिदया और पख झ�ने �गी। उस दिदन से पे्रमवती की यह दशा हो गयी किक जब देखों रो रही है। बचे्च को एक क्षण लि�ए भी पास से दूर नहीं करती। महरिरयों से बो�ती तो मुख से फू� झड़ते। किफर वही पकिह�े की सुशी� पे्रमवती हो गयी। ऐसा प्रतीत होता था, मानो उसक हृदय पर से एक पदाL-सा उठ गया है ! जब कड़ाके का जाड़ा पड़ता है, तो प्राय: नदिदयाँ बफL से ढँक जाती है। उसमें बसनेवा�े ज�चर बफL मे पद« के पीछे लिछप जाते हैं, नौकाऍं फँस जाती है और मंदगकित, रजतवणL प्राण-संजीवन ज�-स्रोत का स्वरुप कुछ भी दिदखायी नहीं देता है। यद्यकिप बफL की चद्दर की ओट में वह मधुर किनद्रा में अ�लिसत पड़ा रहता था, तथाकिप जब गरमी का साम्राज्य होता है, तो बफL किपघ� जाती है और रजतवणL नदी अपनी बफL का चद्दर उठा �ेती है, किफर मछलि�याँ और ज�जन्तु आ बहते हैं, नौकाओं के पा� �हराने �गते हैं और तट पर मनुष्यों और पत्तिक्षयों का जमघट हो जाता है।

परन्तु पे्रमवती की यह दशा बहुत दिदनों तक ज्जिqर न रही। यह चेतनता मानो मृत्यु का सन्देश थी। इस लिचत्तोकिद्वग्नता ने उसे अब तक जीवन-कारावास में रखा था, अन्था पे्रमवती जैसी कोम�-हृदय स्त्री किवपत्तित्तयों के ऐसे झोंके कदाकिप न सह सकती।

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सेवती ने चारों ओर तार दिद�वाये किक आकर माताजी को देख जाओ पर कहीं से कोई न आया। प्राणनाथ को छुट्टी न धिम�ी, किवरजन बीमार थी, रहे राधाचरण। वह नैनीता� वायु-परिरवतLन करने गये हुए थे। पे्रमवती को पुत्र ही को देखने की �ा�सा थी, पर जब उनका पत्र आ गया किक इस समय मैं नहीं आ सकता, तो उसने एक �म्बी साँस �ेकर ऑंखे मूँद �ी, और ऐसी सोयी किक किफर उठना नसीब न हुआ !

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5मन का प्राबल्य

मानव हृदय एक रहस्यमय वस्तु है। कभी तो वह �ाखों की ओर ऑख उठाकर नहीं देखता और कभी कौकिड़यों पर किफस� पड़ता है। कभी सैकड़ों किनदLषों की हत्या पर आह ‘तक’ नहीं करता और कभी एक बचे्च को देखकर रो देता है। प्रतापचन्द्र और कम�ाचरण में यद्यकिप सहोदर भाइयों का-सा पे्रम था, तथाकिप कम�ा की आकस्तिस्मक मृत्यु का जो शोक चाकिहये वह न हुआ। सुनकर वह चौंक अवश्य पड़ा और थोड़ी देर के लि�ए उदास भी हुआ, पर शोक जो किकसी सच्चे धिमत्र की मृत्यु से होता है उसे न हुआ। किनस्संदेह वह किववाह के पूवL ही से किवरजन को अपनी समझता था तथाकिप इस किवचार में उसे पूणL सफ�ता कभी प्राप्त न हुई। समय-समय पर उसका किवचार इस पकिवत्र सम्बm की सीमा का उल्�ंघन कर जाता था। कम�ाचरण से उसे स्वत: कोई पे्रम न था। उसका जो कुछ आदर, मान और पे्रम वह करता था, कुछ तो इस किवचार से किक किवरजन सुनकर प्रसन्न होगी और इस किवचार से किक सुशी� की मृत्यु का प्रायत्तिश्चत इसी प्रकार हो सकता है। जब किवरजन ससुरा� च�ी आयी, तो अवश्य कुछ दिदनों प्रताप ने उसे अपने ध्यान में न आने दिदया, परन्तु जब से वह उसकी बीमारी का समाचार पाकर बनारस गया था और उसकी भेंट ने किवरजन पर संजीवनी बूटी का काम किकया था, उसी दिदन से प्रताप को किवश्वास हो गया था किक किवरजन के हृदय में कम�ा ने वह qान नहीं पाया जो मेरे लि�ए किनयत था।

प्रताप ने किवरजन को परम करणापूणL शोक-पत्र लि�खा पर पत्र लि�ख्ता जाता था और सोचता जाता था किक इसका उस पर क्या प्रभाव होगा? सामान्यत: समवेदना पे्रम को प्रौढ़ करती है। क्या आश्चयL है जो यह पत्र कुछ काम कर जाय? इसके अकितरिरc उसकी धार्मिमंक प्रवृकित ने किवकृत रुप धारण करके उसके मन में यह धिमथ्या किवचार उत्पन्न किकया किक ईश्वर ने मेरे पे्रम की प्रकितष्ठा की और कम�ाचरण को मेरे मागL से हटा दिदया, मानो यह आकाश से आदेश धिम�ा है किक अब मैं किवरजन से अपने पे्रम का पुरस्कार �ूँ। प्रताप यह जो जानता था किक किवरजन से किकसी ऐसी बात की आशा करना, जो सदाचार और सभ्यता से बा� बराबर भी हटी हुई हो, मूखLता है। परन्तु उसे किवश्वास था किक सदाचार और सतीत्व के सीमान्तगLत यदिद मेरी कामनाए ँपूरी हो सकें , तो किवरजन अधिधक समय तक मेरे साथ किनदLयता नहीं कर सकती।

एक मास तक ये किवचार उसे उकिद्वग्न करते रहे। यहाँ तक किक उसके मन में किवरजन से एक बार गुप्त भेंट करने की प्रब� इच्छा भी उत्पन्न हुई। वह यह जानता था किक अभी किवरजन के हृदय पर तात्कालि�कघव है और यदिद मेरी किकसी बात या किकसी व्यवहार से मेरे मन की दुशे्चष्टा की गm किनक�ी, तो मैं किवरजन की दृधिष्ट से हमश के लि�ए किगर जाँऊगा। परन्तु जिजस प्रकार कोई चोर रुपयों की रालिश देखकर धैयL नहीं रख सकता है, उसकी प्रकार प्रताप अपने मन को न रोक सका। मनुष्य का प्रारब्ध बहुत कुछ अवसर के हाथ से रहता है।

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अवसर उसे भ�ा नहीं मानता है और बुरा भी। जब तक कम�ाचरण जीकिवत था, प्रताप के मन में कभी इतना लिसर उठाने को साहस न हुआ था। उसकी मृत्यु ने मानो उसे यह अवसर दे दिदया। यह स्वाथLपता का मद यहाँ तक बढ़ा किक एक दिदन उसे ऐसाभस होने �गा, मानों किवरजन मुझे स्मरण कर रही है। अपनी व्यग्रता से वह किवरजन का अनुमान करेन �गा। बनारस जाने का इरादा पक्का हो गया।

दो बजे थे। राकित्र का समय था। भयावह सन्नाटा छाया हुआ था। किनद्रा ने सारे नगर पर एक घटाटोप चादर फै�ा रखी थी। कभी-कभी वृक्षों की सनसनाहट सुनायी दे जाती थी। धुआं और वृक्षों पर एक का�ी चद्दर की भाँकित लि�पटा हुआ था और सड़क पर �ा�टेनें धुऍं की कालि�मा में ऐसी दृधिष्ट गत होती थीं जैसे बाद� में लिछपे हुए तारे। प्रतापचन्द्र रे�गाड़ी पर से उतरा। उसका क�ेजा बांसों उछ� रहा था और हाथ-पाँव काँप रहे थे। वह जीवन में पह�ा ही अवसर था किक उसे पाप का अनुभव हुआ! शोक है किक हृदय की यह दशा अधिधक समय तक ज्जिqर नहीं रहती। वह दुगLm-मागL को पूरा कर �ेती है। जिजस मनुष्य ने कभी मदिदरा नहीं पी, उसे उसकी दुगLm से घृणा होती है। जब प्रथम बार पीता है, तो घण्टें उसका मुख कड़वा रहता है और वह आश्चयL करता है किक क्यों �ोग ऐसी किवषै�ी और कड़वी वस्तु पर आसc हैं। पर थोडे़ ही दिदनों में उसकी घृणा दूर हो जाती है और वह भी �ा� रस का दास बन जाता है। पाप का स्वाद मदिदरा से कहीं अधिधक भंयकर होता है।

प्रतापचन्द्र अंधेरे में धीरे-धीरे जा रहा था। उसके पाँव पेग से नहीं उठते थे क्योंकिक पाप ने उनमें बेकिड़याँ डा� दी थी। उस आह�ाद का, जो ऐसे अवसर पर गकित को तीव्र कर देता है, उसके मुख पर कोई �क्षण न था। वह च�ते-च�ते रुक जाता और कुछ सोचकर आगे बढ़ता था। पे्रत उसे पास के ख�े में कैसा लि�ये जाता है?

प्रताप का लिसर धम-धम कर रहा था और भय से उसकी किपंडलि�याँ काँप रही थीं। सोचता-किवचारता घण्टे भर में मुन्शी श्यामाचरण के किवशा� भवन के सामने जा पहुँचा। आज अmकार में यह भवन बहुत ही भयावह प्रतीत होता था, मानो पाप का किपशाच सामने खड़ा है। प्रताप दीवार की ओट में खड़ा हो गया, मानो किकसी ने उसक पाँव बाँध दिदये हैं। आध घण्टे तक वह यही सोचता रहा किक �ौट च�ँू या भीतर जाँऊ? यदिद किकसी ने देख लि�या बड़ा ही अनथL होगा। किवरजन मुझे देखकर मन में क्या सोचेगी? कहीं ऐसा न हो किक मेरा यह व्यवहार मुझे सदा के लि�ए उसकी दध्िष्ट से किगरा दे। परन्तु इन सब सन्देहों पर किपशाच का आकषLण प्रब� हुआ। इजिन्द्रयों के वश में होकर मनुष्य को भ�े-बुरे का ध्यान नहीं रह जाता। उसने लिचत्त को दृढ़ किकया। वह इस कायरता पर अपने को धिधक्कार देने �गा, तदन्तर घर में पीछे की ओर जाकर वादिटका की चहारदीवारी से फाँद गया। वादिटका से घर जाने के लि�ए एक छोटा-सा द्वार था। दैवयेग से वह इस समय खु�ा हुआ था। प्रताप को यह शकुन-सा प्रतीत हुआ। परन्तु वस्तुत: यह अधमL का द्वार था। भीतर जाते हुए प्रताप के हाथ थराLने �गे। हृदय इस वेग से धड़कता था; मानो वह छाती से बाहर किनक� पडे़गा। उसका दम घुट रहा था। धमL ने अपना सारा ब� �गा दिदया। पर मन का प्रब� वेग न रुक सका। प्रताप द्वार

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के भीतर प्रकिवष्ट हुआ। आंगन में तु�सी के चबूतरे के पास चोरों की भाकित खड़ा सोचने �गा किक किवरजन से क्योंकर भेंट होगी? घर के सब किकवाड़ बन्द है? क्या किवरजन भी यहाँ से च�ी गयी? अचानक उसे एक बन्द दरवाजे की दरारों से पे्रकाश की झ�क दिदखाई दी। दबे पाँव उसी दरार में ऑंखें �गाकर भीतर का दृश्य देखने �गा।

किवरजन एक सफेद साड़ी पह�े, बा� खो�े, हाथ में �ेखनी लि�ये भूधिम पर बैठी थी और दीवार की ओर देख-देखकर कागेज पर लि�खती जाती थी, मानो कोई ककिव किवचार के समुद्र से मोती किनका� रहा है। �खनी दाँतों त�े दबाती, कुछ सोचती और लि�खती किफर थोड़ी देर के पश्चात् दीवार की ओर ताकने �गती। प्रताप बहुत देर तक श्वास रोके हुए यह किवलिचत्र दृश्य देखता रहा। मन उसे बार-बार ठोकर देता, पर यह धLम का अन्तिन्तम गढ़ था। इस बार धमL का पराजिजत होना मानो हृदाम में किपशाच का qान पाना था। धमL ने इस समय प्रताप को उस ख�े में किगरने से बचा लि�या, जहाँ से आमरण उसे किनक�ने का सौभाग्य न होता। वरन् यह कहना उलिचत होगा किक पाप के ख�े से बचानेवा�ा इस समय धमL न था, वरन् दुष्परिरणाम और �gा का भय ही था। किकसी-किकसी समय जब हमारे सदभाव पराजिजत हो जाते हैं, तब दुष्परिरणाम का भय ही हमें कत्तLव्यच्युत होने से बचा �ेता है। किवरजन को पी�े बदन पर एक ऐसा तेज था, जो उसके हृदय की स्वच्छता और किवचार की उच्चता का परिरचय दे रहा था। उसके मुखमण्ड� की उज्ज्व�ता और दृधिष्ट की पकिवत्रता में वह अखिग्न थी ; जिजसने प्रताप की दुशे्चष्टाओं को क्षणमात्र में भस्म कर दिदया ! उसे ज्ञान हो गया और अपने आन्धित्मक पतन पर ऐसी �gा उत्पन्न हुई किक वहीं खड़ा रोने �गा।

इजिन्द्रयों ने जिजतने किनकृष्ट किवकार उसके हृदय में उत्पन्न कर दिदये थे, वे सब इस दृश्य ने इस प्रकार �ोप कर दिदये, जैसे उजा�ा अंधेरे को दूर कर देता है। इस समय उसे यह इच्छा हुई किक किवरजन के चरणों पर किगरकर अपने अपराधों की क्षमा माँगे। जैसे किकसी महात्मा संन्यासी के सम्मुख जाकर हमारे लिचत्त की दशा हो जाती है, उसकी प्रकार प्रताप के हृदय में स्वत: प्रायत्तिश्चत के किवचार उत्पन्न हुए। किपशाच यहाँ तक �ाया, पर आगे न �े जा सका। वह उ�टे पाँवों किफरा और ऐसी तीव्रता से वादिटका में आया और चाहरदीवारी से कूछा, मानो उसका कोई पीछा करता है।

अरूणोदय का समय हो गया था, आकाश मे तारे जिझ�धिम�ा रहे थे और चक्की का घुर-घुर शब्द कL णगोचर हो रहा था। प्रताप पाँव दबाता, मनुष्यों की ऑंखें बचाता गंगाजी की ओर च�ा। अचानक उसने लिसर पर हाथ रखा तो टोपी का पता न था और जेब जेब में घड़ी ही दिदखाई दी। उसका क�ेजा सन्न-से हो गया। मुहॅ से एक हृदय-वेधक आह किनक� पड़ी।

कभी-कभी जीवन में ऐसी घटनाँए हो जाती है, जो क्षणमात्र में मनुष्य का रुप प�ट देती है। कभी माता-किपता की एक कितरछी लिचतवन पुत्र को सुयश के उच्च लिशखर पर पहुँचा देती है और कभी स्त्री की एक लिशक्षा पकित के ज्ञान-चकु्षओं को खो� देती है। गवLशी� पुरुष अपने सगों की दृधिष्टयों में अपमाकिनत होकर संसार का भार बनना नहीं चाहते। मनुष्य जीवन में ऐसे अवसर ईश्वरदत्त होते हैं। प्रतापचन्द्र के जीवन में भी वह शुभ अवसर था, जब वह

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संकीणL गलि�यों में होता हुआ गंगा किकनारे आकर बैठा और शोक तथा �gा के अश्रु प्रवाकिहत करने �गा। मनोकिवकार की पे्ररणाओं ने उसकी अधोगकित में कोई कसर उठा न रखी थी परन्तु उसके लि�ए यह कठोर कृपा�ु गुरु की ताड़ना प्रमात्तिणत हुई। क्या यह अनुभवलिसद्व नहीं है किक किवष भी समयानुसार अमृत का काम करता है ?

जिजस प्रकार वायु का झोंका सु�गती हुई अखिग्न को दहका देता है, उसी प्रकार बहुधा हृदय में दबे हुए उत्साह को भड़काने के लि�ए किकसी बाह्य उद्योग की आवश्यकता होती है। अपने दुखों का अनुभव और दूसरों की आपत्तित्त का दृश्य बहुधा वह वैराग्य उत्पन्न करता है जो सत्संग, अध्ययन और मन की प्रवृकित से भी संभव नहीं। यद्यकिप प्रतापचन्द्र के मन में उत्तम और किनस्वाथL जीवन व्यतीत करने का किवचार पूवL ही से था, तथाकिप मनोकिवकार के धक्के ने वह काम एक ही क्षण में पूरा कर दिदया, जिजसके पूरा होने में वषL �गते। साधारण दशाओं में जाकित-सेवा उसके जीवन का एक गौण कायL होता, परन्तु इस चेतावनी ने सेवा को उसके जीवन का प्रधान उदे्दश्य बना दिदया। सुवामा की हार्दिदंक अत्तिभ�ाषा पूणL होने के सामान पैदा हो गये। क्या इन घटनाओं के अन्तगLत कोई अज्ञात पे्ररक शालिc थी? कौन कह सकता है?

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