hindisahityasimanchal.files.wordpress.com · web viewघ त कर म क शक त क अप...

138
जजज जजजज / Jainism तततततततत तततततततततत Tirthankara Parsvanatha तततततत ततत ततततततततत , ततततत ततत तततत तततत तत ततततत ततततततत तत ततततत तततत तत ततततत तत'ततत' तततत ततत तततततत, तत 'ततत' तत ततततततत ततत 'ततत' तततत ततत तत 'तत' तततत तत'तत' तततत-ततततत'ततत' तततत ततततत ततततततततततततत तततत तत तत ततत तततत, तततत तततत तत ततत तततत तत तततत तततत तत ततत तततत, तत ततत 'ततत'ततत तततत तततततत 'ततत' तततततत तत तततत ततत तततत तत ततत तततततत तत ततततत ततततततततत तत- ततत तततततततततततत ततततततततततत तततततततत ततत तततततततततत ततत ततत तततततततततत तततततत ततततततत तत ततततततत, ततततततत तत ततततततत, तततततततत तत ततततततत, तततततततततत तत ततततततत, तततत तततततत तत ततततततततत तततत तततततततत तततततततत ततत ततततततत ततततत ततत तततत ततत ततततततततत तततत ततत तत ततत ततततततततत ततततत ततत तततततततत तततततत तततततततत, ततततत Jain Tirthankar, Mathura

Upload: others

Post on 22-Jan-2020

33 views

Category:

Documents


0 download

TRANSCRIPT

जैन धर्म / Jainism

तीर्थंकर पार्श्वनाथTirthankara Parsvanathaराजकीय जैन संग्रहालय, मथुरा

जैन धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है। 'जैन' कहते हैं उन्हें, जो 'जिन' के अनुयायी हों । 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' माने-जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं 'जिन'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान् का धर्म । जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूलमन्त्र है- णमो अरिहंताणं।णमो सिद्धाणं।णमो आइरियाणं।णमो उवज्झायाणं।णमो लोए सव्वसाहूणं॥

अर्थात अरिहंतो को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सर्व साधुओं को नमस्कार।

ये पाँच परमेष्ठी हैं।

मथुरा मैं विभिन्न कालों में अनेक जैन मूर्तियाँ मिली हैं जो जैन संग्रहालय मथुरा मैं संग्रहीत हैं।

जैन तीर्थंकर, मथुराJain Tirthankar, Mathura

अवैदिक धर्मों में जैन धर्म सबसे प्राचीन है, प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव माने जाते हैं। जैन धर्म के अनुसार भी ऋषभ देव का मथुरा से संबंध था। जैन धर्म में की प्रचलित अनुश्रुति के अनुसार, नाभिराय के पुत्र भगवान ऋषभदेव के आदेश से इन्द्र ने 52 देशों की रचना की थी। शूरसेन देश और उसकी राजधानी मथुरा भी उन देशों में थी (जिनसेनाचार्य कृत महापुराण- पर्व 16,श्लोक 155)। जैन `हरिवंश पुराण' में प्राचीन भारत के जिन 18 महाराज्यों का उल्लेख हुआ है, उनमें शूरसेन और उसकी राजधानी मथुरा का नाम भी है । जैन मान्यता के अनुसार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के सौ पुत्र हुए थे।

जैन धर्म के सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का विहार मथुरा में हुआ था।* अनेक विहार-स्थल पर कुबेरा देवी द्वारा जो स्तूप बनाया गया था, वह जैन धर्म के इतिहास में बड़ा प्रसिद्ध रहा है। चौदहवें तीर्थंकर अनंतनाथ का स्मारक तीर्थ भी मथुरा में यमुना नदी के तटपर था। बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ को जैन धर्म में श्री कृष्ण के समकालीन और उनका चचेरा भाई माना जाता है। इस प्रकार जैन धर्म-ग्रंथों की प्राचीन अनुश्रुतियों में ब्रज के प्राचीनतम इतिहास के अनेक सूत्र मिलते हैं। जैन ग्रंथों मे उल्लेख है कि यहाँ पार्श्वनाथ महावीर स्वामी ने यात्रा की थी। पउमचरिय में एक कथा वर्णित है जिसके अनुसार सात साधुओं द्वारा सर्वप्रथम मथुरा में ही श्वेतांबर जैन संम्प्रदाय का प्रचार किया गया था।

एक अनुश्रुति में मथुरा को इक्कीसवें तीर्थंकर नेमिनाथ* की जन्मभूमि बताया गया है, किंतु उत्तर पुराण में इनकी जन्मभूमि मिथिला वर्णित है।* विविधतीर्थकल्प से ज्ञात होता है कि नेमिनाथ का मथुरा में विशिष्ट स्थान था।* मथुरा पर प्राचीन काल से ही विदेशी आक्रामक जातियों, शक, यवन एवं कुषाणों का शासन रहा।

वीथिका

जैन प्रतिमा का ऊपरी भागUpper Part of a Jina

तीर्थंकर ऋषभनाथTirthankara Rishabhanath

आसनस्थ जैन तीर्थंकरSeated Jaina Tirthankara

जैन प्रतिमा का धड़Bust of Jina

जैन मस्तक Head of a Jina

जैन तीर्थंकरJaina Tirthankara

अजमुखी जैन मातृदेवी Goat Headed Jaina Mother Goddess

आसनस्थ जैन तीर्थंकरSeated Jaina Tirthankara

तीर्थंकर ऋषभनाथTirthankara Rishabhanath

आसनस्थ जैन तीर्थंकर Seated Jaina Tirthankara

जैन मस्तकHead of a Jina

आसनस्थ जैन तीर्थंकर Seated Jaina Tirthankara

अजमुखी जैन मातृदेवीGoat Headed Jaina

जैन आयोगपट्टJaina Tablet

जैन आयोगपट्टJain Ayagapatta

संस्कार / Sanskarअनुक्रम

[छुपा]

· 1 संस्कार / Sanskar

· 2 संस्कारों का उद्देश्य

· 3 संस्कारों की कोटियाँ

· 4 संस्कारों की संख्या

· 4.1 ॠतु-संगमन

· 4.2 गर्भाधान (निषेक), चतुर्थीकर्म या होम

· 4.3 पुंसवन

· 4.4 गर्भरक्षण

· 4.5 सीमान्तोन्नयन

· 4.6 विष्णुबलि

· 4.7 सोष्यन्ती-कर्म या होम

· 4.8 जातकर्म

· 4.9 उत्थान

· 4.10 नामकरण

· 4.11 निष्क्रमण

· 4.12 कर्णवेध

· 4.13 अन्नप्राशन

· 4.14 वर्षवर्धन या अब्दपूर्ति

· 4.15 चौल या चूड़ाकर्म या चूड़ाकरण

· 4.16 विद्यारम्भ

· 4.17 उपनयन

· 4.18 व्रत (चार)

· 4.19 केशान्त या गोदान

· 4.20 समावर्तन या स्नान

· 4.21 विवाह

· 4.22 महायज्ञ

· 4.23 उत्सर्ग

· 4.24 उपाकर्म

· 4.25 अन्त्येष्टि

· 5 संस्कार एवं वर्ण

· 6 संस्कार-विधि

· 7 टीका टिप्पणी

· 8 सम्बंधित लिंक

'संस्कार' शब्द प्राचीन वैदिक साहित्य में नहीं मिलता, किन्तु 'सम्' के साथ 'कृ' धातु तथा 'संस्कृत' शब्द बहुधा मिल जाते हैं। ॠग्वेद* में 'संस्कृत' शब्द धर्म (बरतन) के लिए प्रयुक्त हुआ है, यथा 'दोनों अश्विन पवित्र हुए बरतन को हानि नहीं पहुँचाते।' ॠग्वेद* में 'संस्कृतत्र' तथा* 'रणाय संस्कृता' शब्द प्रयुक्त हुए हैं। शतपथ ब्राह्मण* में आया है-- 'सं इदं देवेभ्यो हवि: संस्कुरु साधु संस्कृतं संस्कुर्वित्येवैतदाह्।' शतपथ ब्राह्मण में आया है[1] 'स्त्री किसी संस्कृत (सुगठित) घर में खड़े पुरुष के पास पहुँचती है'।* छान्दोग्य उपनिषद में आया है--[2] 'उस यज्ञ की दो विधियाँ है, मन से या वाणी से, ब्रह्मा उनमें से एक को अपने मन से बनाता या चमकाता है।' जैमिनि के सूत्रों में संस्कार शब्द अनेक बार आया है* और सभी स्थलों पर यह यज्ञ के पवित्र या निर्मल कार्य के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, यथा ज्योतिष्टोम यज्ञ में सिर के केश मुँड़ाने, दाँत स्वच्छ करने, नाख़ून कटाने के अर्थ में*; या प्राक्षेण (जल छिड़कने) के अर्थ में*, आदि। जैमिनि के* में 'संस्कार' शब्द उपनयन के लिए प्रयुक्त हुआ है। शबर की व्याख्या में 'संस्कार' शब्द का अर्थ बताया है कि[3] संस्कार वह है जिसके होने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य के लिए योग्य हो जाता है। तन्त्रवार्तिक के अनुसार[4] संस्कार वे क्रियाएँ तथा रीतियाँ हैं जो योग्यता प्रदान करती हैं। यह योग्यता दो प्रकार की होती है; पाप-मोचन से उत्पन्न योग्यता तथा नवीन गुणों से उत्पन्न योग्यता। संस्कारों से नवीन गुणों की प्राप्ति तथा तप से पापों या दोषों का मार्जन होता है। वीर मित्रोदय ने संस्कार की परिभाषा इस तरह की है-- यह एक विलक्षण योग्यता है जो शास्त्रविहित क्रियाओं के करने से उत्पन्न होती है।…यह योग्यता दो प्रकार की है-

· जिसके द्वारा व्यक्ति अन्य क्रियाओं (यथा उपनयन संस्कार से वेदाध्ययन आरम्भ होता है) के योग्य हो जाता है, तथा

· दोष (यथा जातकर्म संस्कार से वीर्य एवं गर्भाशय का दोष मोचन होता है) से मुक्त हो जाता है।

संस्कार शब्द गृह्यसूत्रों में नहीं मिलता (वैखानस में मिलता है), किन्तु यह धर्मसूत्रों में आया है।[5]

[संपादित करें] संस्कारों का उद्देश्य

मनु* के अनुसार द्विजातियों में माता-पिता के वीर्य एवं गर्भाशय के दोषों को गर्भाधान-समय के होम तथा जातकर्म (जन्म के समय के संस्कार) से, चौल (मुण्डन संस्कार) से तथा मूँज की मेखला पहनने (उपनयन) से दूर किया जाता है। वेदाध्ययन, व्रत, होम, त्रैविद्य व्रत, पूजा, सन्तानोत्पत्ति, पंचमहायज्ञों तथा वैदिक यज्ञों से मानवशरीर ब्रह्म-प्राप्ति के योग्य बनाया जाता है। याज्ञवल्क्य* का मत है कि संस्कार करने से बीज-गर्भ से उत्पन्न दोष मिट जाते हैं। निबन्धकारों तथा व्याख्याकारों ने मनु एवं याज्ञवल्क्य की इन बातों को कई प्रकार से कहा है। संस्कार तत्व में उद्धृत हारीत[6] के अनुसार जब कोई व्यक्ति गर्भाधान की विधि के अनुसार संभोग करता है, तो वह अपनी पत्नी में वेदाध्ययन के योग्य भ्रूण स्थापित करता है, पुंसवन संस्कार द्वारा वह गर्भ को पुरुष या नर बनाता है, सीमान्तोन्नयन संस्कार द्वारा माता-पिता से उत्पन्न दोष दूर करता है, बीज, रक्त एवं भ्रूण से उत्पन्न दोष जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण एवं समावर्तन से दूर होते हैं। इन आठ प्रकार के संस्कारों से, अर्थात् गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण एवं समावर्तन से पवित्रता की उत्पत्ति होती है।

यदि हम संस्कारों की संख्या पर ध्यान दें तो पता चलेगा कि उनके उद्देश्य अनेक थे। उपनयन जैसे संस्कारों का सम्बन्ध था आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक उद्देश्यों से, उनसे गुण सम्पन्न व्यक्तियों से सम्पर्क स्थापित होता था, वेदाध्ययन का मार्ग खुलता था तथा अनेक प्रकार की सुविधाएँ प्राप्त होती थी। उनका मनौवैज्ञानिक महत्व भी था, संस्कार करने वाला व्यक्ति एक नये जीवन का आरम्भ करता था, जिसके लिए वह नियमों के पालन के लिए प्रतिश्रुत होता था। नामकरण, अन्नप्राशन एवं निष्क्रमण ऐसे संस्कारों का केवल लौकिक महत्व था, उनसे केवल प्यार, स्नेह एवं उत्सवों की प्रधानता मात्र झलकती है। गर्भाधान, पुंसवन, सीमान्तोन्नयन ऐसे संस्कारों का महत्व रहस्यात्मक एवं प्रतीकात्मक था। विवाह-संस्कार का महत्व था दो व्यक्तियों को आत्मनिग्रह, आत्म-त्याग एवं परस्पर सहयोग की भूमि पर लाकर समाज को चलते जाने देना।

[संपादित करें] संस्कारों की कोटियाँ

हारीत के अनुसार संस्कारों की दो कोटियाँ हैं;

· ब्राह्म एवं,

· दैव।

गर्भाधान ऐसे संस्कार जो केवल स्मृतियों में वर्णित हैं, ब्राह्म कहे जाते हैं। इनको सम्पादित करने वाले लोग ॠषियों के समकक्ष आ जाते हैं। पाकयज्ञ (पकाये हुए भोजन की आहुतियाँ), यज्ञ (होमाहुतियाँ) एवं सोमयज्ञ आदि दैव संस्कार कहे जाते हैं।

[संपादित करें] संस्कारों की संख्या

संस्कारों की संख्या के विषय में स्मृतिकारों में मतभेद रहा है। गौतम* ने 40 संस्कारों एवं आत्मा के आठ शील-गुणों का वर्णन किया है। 40 संस्कार ये हैं- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चौल, उपनयन (कुल 8), वेद के 4 व्रत, स्नान (या समावर्तन), विवाह, पंच महायज्ञ (देव, पितृ, मनुष्य, भूत एवं ब्रह्म के लिए), 7 पाकयज्ञ (अष्टका, पार्वण-स्थालीपाक, श्राद्ध, श्रांवणी, आग्रहायणी, चैत्री, आश्वयुजी), 7 हविर्यज्ञ जिनमें होम होता है, किन्तु सोम नहीं (अग्नयाधान, अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, आग्रयण, चातुर्मास्य, निरूढपशुबन्ध एवं सौत्रामणी), 7सोमयज्ञ (अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र, आप्तोर्याम)।

शंख एवं मिताक्षरा* की सुबोधिनी गौतम की संख्या को मानते हैं। वैखानस ने नेटवर्क शरीर संस्कारों के नाम गिनाये हैं (जिनमें उत्थान, प्रवासागमन, पिण्डवर्धन भी सम्मिलित हैं, जिन्हें कहीं भी संस्कारों की कोटि में नहीं गिना गया है) तथा 22 यज्ञों का वर्णन किया है (पंच आह्निक यज्ञ, सात पाकयज्ञ, सात हविर्यज्ञ एवं सात सोमयज्ञ; यहाँ पंच आह्निक यज्ञों को एक ही माना गया है, अत: कुल मिलाकर 22 यज्ञ हुए)। गृह्यसूत्रों, धर्मसूत्रों एवं स्मृतियों में अधिकांश इतनी लम्बी संख्या नहीं मिलती। अंगिरा ने (संस्कारभयूख एवं संस्कारप्रकाश तथा अन्य निबन्धों में उद्धृत) 25 संस्कार गिनाये हैं। इनमें गौतम के गर्भाधान से लेकर पाँच आह्निक यज्ञों (जिन्हें अंगिरा ने आगे चलकर एक ही संस्कार गिना है) तक तथा नामकरण के उपरान्त निष्क्रमण जोड़ा गया है। इनके अतिरिक्त अंगिरा ने विष्णुबलि, आग्रयण, अष्टका, श्रावणी, आश्वयुजी, मार्गशीर्षी (आग्रहायणी के समान), पार्वण, उत्सर्ग एवं उपाकर्म को शेष संस्कारों में गिना है। व्यास* ने 16 संस्कार गिनाये हैं। मनु, याज्ञवल्क्य, विष्णुधर्मसूत्र ने कोई संख्या नहीं दी है, प्रत्युत निषेक (गर्भाधान) से श्मशान (अन्त्येष्टि) तक के संस्कारों की ओर संकेत किया है। गौतम एवं कई गृह्यसूत्रों ने अन्त्येष्टि को गिना ही नहीं है। निबन्धों में अधिकांश ने सोलह प्रमुख संस्कारों की संख्या दी है, यथा- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, विष्णुबलि, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चौल, उपनयन, वेदव्रत-चतुष्टय, समावर्तन एवं विवाह। स्मृतिचन्द्रिका द्वारा उद्धृत जातूकर्ण्य में ये 16 संस्कार वर्णित हैं- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्त, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चौल, मौञ्जी (उपनयन), व्रत (4), गोदान, समावर्तन, विवाह एवं अन्त्येष्टि। व्यास की दी हुई तालिका से इसमें कुछ अन्तर है।

गृह्यसूत्रों में संस्कारों का वर्णन दो अनुक्रमों में हुआ है। अधिकांश विवाह से आरम्भ कर समावर्तन तक चले आते हैं। हिरण्यकेशि गृह्य, भारद्वाज गृह्य एवं मानव गृह्यसूत्र उपनयन से आरम्भ करते हैं। कुछ संस्कार, यथा कर्णवेध एवं विद्यारम्भ गृह्यसूत्रों में नहीं वर्णित हैं। ये कुछ कालान्तर वाली स्मृतियों एवं पुराणों में ही उल्लिखित हुए हैं। हम नीचे संस्कारों का अति संक्षिप्त विवरण उपस्थित करेंगें।

[संपादित करें] ॠतु-संगमन

वैखानस* ने इसे गर्भाधान से पृथक् संस्कार माना है। यह इसे निषेक भी कहता है* और इसका वर्णन* में करता है। गर्भाधान का वर्णन* में हुआ है। वैखानस ने संस्कारों का वर्णन निषेक से आरम्भ किया है।

[संपादित करें] गर्भाधान (निषेक), चतुर्थीकर्म या होम

मनु*, याज्ञवल्क्य*, विष्णु धर्मसूत्र* ने निषेक को गर्भाधान के समान माना जाता है। शांखायान गृह्यसूत्र*, पारस्कर गृह्यसूत्र* तथा आपस्तम्ब गृह्यसूत्र* के मत में चतुर्थी-कर्म या चतुर्थी-होम की क्रिया वैसी ही होती है जो अन्यत्र गर्भाधान में पायी जाती है तथा गर्भाधान के लिए पृथक् वर्णन नहीं पाया जाता। किन्तु बौधायन गृह्यसूत्र*, काठक गृह्यसूत्र*, गौतम* एवं याज्ञवल्क्य* में गर्भाधान शब्द का प्रयोग पाया जाता है। वैखानस* के अनुसार गर्भाधान की संस्कार-क्रिया निषेक या ॠतु-संगमन (मासिक प्रवाह के उपरान्त विवाहित जोड़े के संभोग) के उपरान्त की जाती है और वह गर्भाधान को दृढ करती है।

[संपादित करें] पुंसवन

यह सभी गृह्यसूत्रों में पाया जाता है; गौतम एवं याज्ञवल्क्य* में भी।

[संपादित करें] गर्भरक्षण

शांखायन गृह्यसूत्र* में इसकी चर्चा हुई है। यह अनवलोभन के समान है जो आश्वलायन गृह्यसूत्र* के अनुसार उपनिषद में वर्णित है और आश्वलायन गृह्यसूत्र* ने जिसका स्वयं वर्णन किया है।

[संपादित करें] सीमान्तोन्नयन

यह संस्कार सभी धर्मशास्त्र-ग्रन्थों में उल्लिखित है। याज्ञवल्क्य* ने केवल सीमन्त शब्द का व्यवहार किया है।

[संपादित करें] विष्णुबलि

इसकी चर्चा बौधायन गृह्यसूत्र*, वैखानस* एवं अंगिरा ने की है किन्तु गौतम तथा अन्य प्राचीन सूत्रकारों ने इसकी चर्चा नहीं की है।

[संपादित करें] सोष्यन्ती-कर्म या होम

खादिर एवं गोभिल द्वारा यह उल्लिखित है। इसे काठक गृह्यसूत्र में सोष्यन्ती-सवन, आपस्तम्ब गृह्यसूत्र एवं भारद्वाज गृह्यसूत्र में क्षिप्रसुवन तथा हिरण्यकेशि गृह्यसूत्र में क्षिप्रसवन कहा गया है। बुधस्मृति* में भी इसकी चर्चा है।

[संपादित करें] जातकर्म

इसकी चर्चा सभी सूत्रों एवं स्मृतियों में हुई है।

[संपादित करें] उत्थान

केवल वैखानस* एवं शांखायन गृह्यसूत्र* ने इसकी चर्चा की है।

[संपादित करें] नामकरण

सभी स्मृतियों में वर्णित है।

[संपादित करें] निष्क्रमण

इसे उपनिष्क्रमण या आदित्यदर्शन या निर्णयन भी कहते है। याज्ञवल्क्य*, पारस्कर गृह्यसूत्र* तथा मनु* ने इसे क्रम से निष्क्रमण, निष्क्रमणिका तथा निष्क्रमण कहा है। किन्तु कौशिक सूत्र*, बौधायन गृह्यसूत्र*, मानव गृह्यसूत्र* ने क्रम ने इसे निर्णयन, उपनिष्क्रमण एवं आदित्यदर्शन कहा है। विष्णु धर्मसूत्र* एवं शंख* ने भी इसे आदित्य दर्शन कहा है। गौतम, आपस्तम्ब गृह्यसूत्र तथा कुछ अन्य सूत्र इसका नाम ही नहीं लेते।

[संपादित करें] कर्णवेध

सभी प्राचीन सूत्रों में इसका नाम नहीं आता। व्यास स्मृति*, बौधायन गृह्यसूत्र* एवं कात्यायन-सूत्र ने इसकी चर्चा की है।

[संपादित करें] अन्नप्राशन

प्राय: सभी स्मृतियों ने इसका उल्लेख किया है।

[संपादित करें] वर्षवर्धन या अब्दपूर्ति

गोभिल, शांखायन, पारस्कर एवं बौधायन ने इसका नाम लिया है।

[संपादित करें] चौल या चूड़ाकर्म या चूड़ाकरण

सभी स्मृतियों में वर्णित है।

[संपादित करें] विद्यारम्भ

किसी भी स्मृति में वर्णित नही है, केवल अपरार्क एवं स्मृतिचन्द्रिका द्वारा उद्धृत मार्कण्डेय पुराण में उल्लिखित है।

[संपादित करें] उपनयन

सभी स्मृतियों में वर्णित है। व्यास* ने इसका व्रतादेश नाम दिया है।

[संपादित करें] व्रत (चार)

अधिकांशतया सभी गृह्यसूत्रों में वर्णित हैं।

[संपादित करें] केशान्त या गोदान

अधिकांशत: सभी धर्मशास्त्र-ग्रन्थों में उल्लिखित है।

[संपादित करें] समावर्तन या स्नान

इन दोनों के विषय में कई मत हैं। मनु* ने छात्र-जीवनोपरान्त के स्नान को समावर्तन से भिन्न माना है। गौतम, आपस्तम्ब गृह्यसूत्र*, हिरण्यकेशि गृह्यसूत्र*, याज्ञवल्क्य*, पारस्कर गृह्यसूत्र ने स्नान शब्द को दोनों अर्थात् छात्र-जीवन के उपरान्त स्नान तथा गुरु-गृह्य से लौटने की क्रिया के अर्थ में प्रयुक्त किया है। किन्तु आश्वलायन गृह्यसूत्र*, बौधायन गृह्यसूत्र*, शांखायन गृह्यसूत्र* एवं आपस्तम्ब धर्मसूत्र* ने समावर्तन शब्द का प्रयोग किया है।

[संपादित करें] विवाह

सभी में संस्कार रूप में वर्णित है।

[संपादित करें] महायज्ञ

प्रति दिन के पाँच यज्ञों के नाम गौतम, अंगिरा तथा अन्य ग्रन्थों में आते हैं।

[संपादित करें] उत्सर्ग

वैखानस* एवं अंगिरा ने इसे संस्कार रूप में उल्लिखित किया है।*

[संपादित करें] उपाकर्म

वैखानस* एवं अंगिरा में वर्णित है।*

[संपादित करें] अन्त्येष्टि

मनु* एवं याज्ञवल्क्य* ने इसकी चर्चा की है।

शास्त्रों में ऐसा आया है कि जातकर्म से लेकर चूड़ाकर्म तक के संस्कारों के कृत्य द्विजातियों के पुरुष वर्ग में वैदिक मन्त्रों के साथ किन्तु नारी-वर्ग में बिना वैदिक मन्त्रों के किये जायें।* किन्तु तीन उच्च वर्णों के नारी-वर्ग के विवाह में वैदिक मन्त्रों का प्रयोग होता है।*

[संपादित करें] संस्कार एवं वर्ण

द्विजातियों में गर्भाधान से लेकर उपनयन तक के संस्कार अनिवार्य माने गये हैं तथा स्नान एवं विवाह नामक संस्कार अनिवार्य नहीं हैं, क्योंकि एक व्यक्ति छात्र-जीवन के उपरान्त संन्यासी भी हो सकता है (जाबालोपनिषद)। संस्कारप्रकाश ने क्लीब बच्चों के लिए संस्कारों की आवश्यकता नहीं मानी है।

क्या शूद्रों के लिए कोई संस्कार है? व्यास ने कहा है कि शूद्र लोग बिना वैदिक मन्त्रों के गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चौल, कर्णवेध एवं विवाह नामक संस्कार कर सकते है। किन्तु वैजवाप गृह्यसूत्र में गर्भाधान (निषेक) से लेकर चौल तक के सात संस्कार शूद्रों के लिए मान्य हैं। अपरार्क* के अनुसार गर्भाधान से चौल तक के आठ संस्कार सभी वर्णों के लिए (शूद्रों के लिए भी) मान्य हैं। किन्तु मदनरत्न, रूपनारायण तथा निर्णयसिन्धु में उद्धृत् हरिहरभाष्य के मत से शूद्र लोग केवल छ; संस्कार, यथा-- जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ा एवं विवाह तथा पंचाह्निक (प्रति दिन के पाँच) महायज्ञ कर सकते हैं। रघुनन्दन के शूद्रकृत्यतत्व में लिखा है कि शूद्र के लिए पुराणों के मन्त्र ब्राह्मण द्वारा उच्चरित हो सकते हैं, शूद्र केवल 'नम:' कह सकता है। निर्णयसिन्धु ने भी यही बात कही है। ब्रह्म पुराण के अनुसार शूद्रों के लिए केवल विवाह का संस्कार मान्य है। निर्णयसिन्धु ने मत-वैभिन्न्य की चर्चा करते हुए लिखा है कि उदार मत सत्-शूद्रों के लिए तथा अनुदार मत असत्-शूद्रों के लिए है। उसने यह भी कहा है कि विभिन्न देशों में विभिन्न नियम हैं।

[संपादित करें] संस्कार-विधि

आधुनिक समय में गर्भाधान, उपनयन एवं विवाह नामक संस्कारों को छोड़कर अन्य संस्कार बहुधा नहीं किये जा रहे हैं। आश्चर्य तो यह है कि ब्राह्मण लोग भी इन्हें छोड़ते जा रहे है। अब कहीं-कहीं गर्भाधान भी त्यागा-सा जा चुका है। नामकरण एवं अन्नप्राशन संस्कार मनाये जाते हैं, किन्तु बिना मन्त्रोच्चारण तथा पुरोहित को बुलाये। अधिकतर चौल उपनयन के दिन तथा समावर्तन उपनयन के कुछ दिनों के उपरान्त किये जाते हैं। बंगाल ऐसे प्रान्तों में जातकर्म तथा अन्नप्राशन एक ही दिन सम्पादित होते हैं। स्मृत्यर्थसार का कहना है कि उपनयन को छोड़कर यदि अन्य संस्कार निर्दिष्ट समय पर न किये जायें तो व्याह्रतिहोम[7] के उपरान्त ही वे सम्पादित हो सकते हैं। यदि किसी आपत्ति के कारण कोई संस्कार न सम्पादित सका हो तो पादकृच्छ्र नामक प्रायश्चित्त करना आवश्यक माना जाता है। इसी प्रकार समय पर चौल न करने पर अर्घ-कृच्छ्र करना पड़ता है। यदि बिना के आपत्ति के जान-बूझकर संस्कार न किये जायें तो दूना प्रायश्चित्त करना पड़ता है। इस विषय में निर्णयसिन्धु ने शौनक के श्लोक उद्धृत किये हैं।[8] निर्णयसिन्धु ने कई मतों का उद्धरण दिया है। एक के अनुसार प्रायश्चित्त के उपरान्त छोड़े हुए संस्कार पुन: नहीं किये जाने चाहिए, दूसरे मत के अनुसार सभी छोड़े हुए संस्कार एक बार ही कर लिये जा सकते हैं और तीसरे मत से छोड़ा हुआ चौलकर्म उपनयन के साथ सम्पादित हो सकता है। धर्मसिन्धु (तृतीय परिच्छेद, पूर्वार्ध) ने उपर्युक्त प्रायश्चित्तों के स्थान पर अपेक्षाकृत सरल प्रायश्चित्त बताये हैं, यथा एक प्राजापत्य तीन पादकृच्छों के बराबर है, प्राजापत्य के स्थान पर एक गाय का दान तथा गाय के अभाव में एक सोने का निष्क (320 गुञ्जा), पूरा या आधा या चौथाई भाग दिया जा सकता है। दरिद्र व्यक्ति चाँदी के निष्क का भाग या उसी मूल्य का अन्न दे सकता है। क्रमश: इन सरल परिहारों (प्रत्याम्नायों) के कारण लोगों ने उपनयन एवं विवाह को छोड़कर अन्य संस्कार करना छोड़ दिया। आधुनिक काल में संस्कारों के न करने से प्रायश्चित्त का स्वरूप चौल तक के लिए प्रति संस्कार चार आना दान रह गया है तथा आठ आना दान चौल के लिए रह गया है।[9]

[संपादित करें] टीका टिप्पणी

1. ↑ शतपथ ब्राह्मण, 3।2।1।22-'तस्मादु स्त्री पुमांसं संस्कृते तिष्ठन्तमभ्येति'

2. ↑ 'तस्मादेष एवं यज्ञस्तस्य मनश्च वाक् च वर्तिनी। तयोरन्तरां मनसा संशरोति ब्रह्मा वाचा होता', छान्दोग्यो उपनिषद, 4।16।1-2

3. ↑ 'संस्कारी नाम स भवति यस्मिन्जाते पदर्थो भवति योग्य: कस्यचिदर्थस्य', शबर, 3।1।3

4. ↑ 'योग्यतां चादधाना: क्रिया: संस्कारा इत्युच्यन्ते'

5. ↑ देखिए, गौतम धर्मसूत्र, 8।8; आपस्तम्ब धर्मसूत्र, 1।1।1।9 एवं वासिष्ठ धर्मसूत्र, 4।1

6. ↑ गर्भाधानवदुपेतो ब्रह्मगर्भं संदधाति। पुंसवनात्पुंसीकरोमति। फलस्थापनान्मातापितृजं पाप्मानमपोहति।रेतोरक्तगर्भोपघात: पञ्चगुणो जातकर्मणा प्रथममपोहति नामकरणेन द्वितीयं प्राशनेन तृतीयं चूडाकरणेन चतुर्थं स्नापनेन पञ्चममेतैरष्टाभि: संस्कारैर्गर्भोपघातात् पूतो भवतीति। संस्कारतत्व (पृष्ठ, 857)।

7. ↑ भू:, भुव:, स्व: (या सुव:) नामक रहस्यात्मक शब्दों के उच्चारण्के साथ विमलीकृत मक्खन की आहुति देना व्याह्रति-होम कहलाता है।

8. ↑ अथ संस्कारलोपे शौनक:- आरभ्याधानमाचौलात् कालेऽतीते तु कर्मणाम्। व्याह्रत्याग्निं तु संस्कृत्य हुत्वा कर्म यथाक्रमम्॥एतेष्वेकैकलोपे तुं पादकृच्छ्र समाचरेत्। चूड़ायामर्धकृच्छ्र स्यादापदि त्वेवमीरितम्। अनापदि तु सर्वत्र द्विगुणं द्विगुणं चरेत्॥ निर्णयसिन्धु, 3 पूर्वार्ध; स्मृति मु॰ (वर्णाश्रम धर्म, पृष्ठ 99)।

9. ↑ देखिए, मदनपारिजात (पृष्ठ 752 कृच्छ्रप्रत्याम्नाय); संस्कारकौस्तुभ (पृष्ठ 141-142 अन्य प्रत्याम्नायों के लिए)। आजकल उपनयन के समय देर में संस्कार-सम्पादन के लिए निम्न संकल्प है--अमुकशमर्ण पुत्रस्य गर्भाधानपुंसवनसीमन्तोन्नयन-जातकर्मनामकरणान्नप्राशनचौलान्तानां संस्काराणां कालातिपतिजन्ति (या लोपजनित)प्रत्यवायपरिहारार्थ प्रतिसंस्कारं पादकृच्छ्रात्यकप्रायश्चित्तं चूडाया अर्षकृच्छ्रात्मकं प्रतिकृच्छ्रं पोमूलारयस निष्कपादपादप्रत्याम्नायद्वाराहमाचरिष्ये।

जैन अन्नप्राशन संस्कार / Jain Annaprashan Sanskar

· अन्नप्राशन का अर्थ है कि बालक को अन्न खिलाना।

· इसमें बालक को अन्न खिलाने का शुभारम्भ उस अन्न द्वारा बालक की पुष्टि होने के लिए यह संस्कार किया जाता है।

· यह संस्कार सातवें, आठवें अथवा नौवें मास में करना चाहिए।

जैन आधान संस्कार / Jain Adhan Sanskar

· पाणिग्रहण (विवाह) के बाद सौभाग्यवती नारियाँ उस स्त्री तथा उसके पति को मण्डप में लाकर वेदी के निकट बैठातीं हैं।

· शुद्ध वस्त्र धारण कर संस्कार विधि इस प्रकार की जाती है-

1. सर्वप्रथम मंगलाचरण,

2. मंगलाष्टक का पाठ,

3. पुन: हस्तशुद्धि,

4. भूमिशुद्धि,

5. द्रव्यशुद्धि,

6. पात्रशुद्धि,

7. मन्त्रस्नान,

8. साकल्यशुद्धि,

9. समिधाशुद्धि,

10. होमकुण्ड शुद्धि,

11. पुण्याहवाचन के कलश की स्थापना,

12. दीपक प्रज्वलन,

13. तिलककरण,

14. रक्षासूत्रबन्धन,

15. संकल्प करना,

16. यन्त्र का अभिषेक,

17. आन्तिधारा,

18. गन्धोदक,

19. वन्दन,

20. इसके पूर्व अर्घसमर्पण,

21. पूजन के प्रारम्भ में स्थापना,

22. स्वस्तिवचान,

23. इसके बाद देव-शास्त्र-गुरुपूजा, एवं

24. सिद्धयन्त्र का पूजन करना चाहिए।

· अनन्तर शास्त्रोक्त विधिपूर्वक पति और धर्मपत्नी द्वारा विश्वशान्तिप्रदायक हवन पूर्वक यह क्रिया सम्पन्न की जाती है।

जैन उपनीति संस्कार / Jain Upniti Sanskar

· इस उपनीति संस्कार को उपनयन एवं यज्ञोपवीत भी कहते हैं।

· इसका विधान है कि यह संस्कार ब्राह्मणों को गर्भ से आठवें वर्ष में, क्षत्रियों को ग्यारहवें वर्ष में और वैश्यों को बारहवें वर्ष में करना चाहिए।

· यदि किसी कारण नियत समय तक उपनयन विधान न हो सका तो ब्राह्मणों की सोलह वर्ष तक, क्षत्रियों को बाईस वर्ष तक और वैश्यों को चौबीस वर्ष तक यज्ञोपवीत संस्कार कर लेना उचित हे।

· पूजा-प्रतिष्ठा, जप, हवन आदि करने के लिए इस संस्कार को आवश्यक बतलाया है।

जैन केशवाय संस्कार / Jain Keshvay Sanskar

· यह संस्कार पहले, तीसरे, पाँचवें अथवा सातवें वर्ष में करना उचित है।

· परन्तु यदि बालक की माता गर्भवती हो तो मुण्डन करना सर्वथा अनुचित है।

· माता के गर्भवती होने पर यदि मुण्डन किया जाएगा तो गर्भ पर अथवा उस बालक पर कोई विपत्ति सम्भव है।

· यदि बालक के पाँच वर्ष पूर्ण हो गये हों तो फिर माता का गर्भ पर किसी प्रकार का दोष नहीं कर सकता अर्थात सातवें वर्ष में यदि माता गर्भवती भी हो तथापि बालक का विधिपूर्वक मुण्डन करा देना ही उचित है।

जैन धृति संस्कार / Jain Dhrati Sanskar

· 'धृति' को 'सीमन्तोन्नयन' अथवा सीमान्त क्रिया भी कहते हैं।

· इसको सातवें माह के शुभ दिन, नक्षत्र, योग, मुहूर्त आदि में करना चाहिए।

· इसमें प्रथम संस्कार समान सब विधि कर लेना चाहिए।

· पश्चात यन्त्र-पूजन एवं हवन करना चाहिए।

· इसके बाद सौभाग्यवती नारियाँ गर्भिणी के केशों में तीन माँग निकालें।

जैन नामकरण संस्कार / Jain Naamkaran Sanskar

· पुत्रोत्पत्ति के बारहवें, सोलहवें, बीसवें या बत्तीसवें दिन नामकरण करना चाहिए।

· किसी कारण बत्तीसवें दिन तक भी नामकरण न हो सके तो जन्मदिन से वर्ष पर्यन्त इच्छानुकूल या राशि आदि के आधार पर शुभ नामकरण कर सकते हैं।

· पूर्व के संस्कारों के समान मण्डप, वेदी, कुण्ड आदि सामग्री तैयार करना चाहिए।

· पुत्र सहित दम्पती को वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कर वेदी के सामने बैठाना चाहिए।

· पुत्र माँ की गोद में रहे।

· धर्मपत्नी पति की दाहिनी ओर बैठे।

· मंगलकलश भी कुण्डों के पूर्व दिशा में दम्पती के सन्मुख रखे।

जैन निषद्या संस्कार / Jain Nishdya Sanskar

· जन्म से पाँचवें मास में निषद्या वा उपवेशन विधि करना चाहिए।

· निषद्या वा उपवेशन का अर्थ है बिठाना अर्थात पाँचवें मास में बालक को बिठाना चाहिए।

· प्रथम ही भूमि-शुद्धि, पूजन और हवन कर पंचबालयति तीर्थंकरों का पूजन करें।

· वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ तीर्थंकर, पार्श्वनाथ और महावीर – इन पाँच बालब्रह्मचारी तीर्थंकरों को कुमार या बालयति कहते हैं।

· अनन्तर चावल, गेहूँ, उड़द, मूँद, तिल, जवा- इनसे रंगावली चौक (रंगोली) बनाकर उस पर एक वस्त्र बिछा दें।

· बालक को स्नान कराकर वस्त्रालंकारों से विभूषित करें।

· पश्चात् 'ओं ह्रीं अहं अ सि आ उ सा नम: बालकं उपवेशयामि स्वाहा'- यह मन्त्र पढ़कर उस रंगावली पर बिछे वस्त्र पर उस बालक को पूर्व दिशा की ओर मुखकर पासन बिठाना चाहिए।

· अनन्तर बालक की आरती उतारकर प्रमुख जनों, विद्वानों आदि सभी का उसे आशीर्वाद प्रदान करावें।

जैन प्रीति संस्कार / Jain Priti Sanskar

· प्रीति संस्कार गर्भाधान के तीसरे माह में किया जाता है।

· प्रथम ही गर्भिणी स्त्री को तैल, उबटन आदि लगाकर स्नानपूर्वक वस्त्र-आभूषणों से अलंकृत करें तथा शरीर पर चन्दन आदि का प्रयोग करें।

· इसके बाद प्रथम संस्कार की तरह हवन क्रिया करें।

· प्रतिष्ठाचार्य कलश के जल से दम्पति का सिंचन करें।

· पश्चात त्रैलोक्यनाथो भव, त्रैकाल्यज्ञानी भव, त्रिरत्नस्वामी भव, इन तीनों मन्त्रों को पढ़कर दम्पति पर पुष्प (पीले चावल छिड़के) शान्ति पाठ-विसर्जन पाठ पढ़कर थाली में भी ये पुष्प क्षेपण करें।

· 'ओं कं ठं व्ह: प: असिआउसा गर्भार्भकं प्रमोदेन परिरक्षत स्वाहा' यह मन्त्र पढ़कर पति गन्धोदक से गर्भिणी के शरीर का सिंचन करें, स्त्री अपने उदर पर गन्धोदक लगा सकती है।

जैन बहिर्यान संस्कार / Jain Bahiryaan Sanskar

· बहिर्यान का अर्थ बालक को घर से बाहर ले जाने का शुभारम्भ।

· यह संस्कार दूसरे, तीसरे अथवा चतुर्थ महीने में करना चाहिए।

· प्रथम बार घर से बाहर निकालने पर सर्वप्रथम समारोह पूर्वक बालक को मंदिर को जाकर जिनेन्द्रदेव का प्रथम दर्शन कराना चाहिए।

· अर्थात जन्म से दूसरे, तीसरे अथवा चौथे महीने में बच्चे को घर से बाहर निकालकर प्रथम ही किसी चैत्यालय अथवा मन्दिर में ले जाकर श्री जिनेन्द्रदेव के दर्शन श्रीफल के साथ मंगलाष्टक पाठ आदि पढ़ते हुए करना चाहिए।

· फिर यहीं केशर से बच्चे के ललाट में तिलक लगाना आवश्यक है।

· यह क्रिया योग्य मुहूर्त अथवा शुक्लपक्ष एवं शुभ नक्षत्र में सम्पन्न होनी चाहिए।

जैन लिपिसंख्यान संस्कार / Jain Lipisankhyan Sanskar

· लिपि संख्यान संस्कार अर्थात बालक को अक्षराभ्यास कराना।

· शास्त्रारम्भ यज्ञोपवीत के बाद होता है।

· लिपिसंख्यान संस्कार पाँचवें वर्ष में करना चाहिए।

· ग्रन्थकारों का मत है- 'प्राप्ते तु पंचमे वर्षें, विद्यारम्भं समाचरेत्।' अर्थात पाँचवें वर्ष में विद्यारम्भ संस्कार करना चाहिए।

ततोऽस्य पंचमे वर्षे, प्रथमाक्षरदर्शने।ज्ञेय: क्रियाविधिर्नाम्ना, लिपिसंख्यानसंग्रह:॥यथाविभवमत्रापि, ज्ञेय: पूजापरिच्छद:।उपाध्याय पदे चास्य, मतोऽधीती गृहव्रती॥

अर्थात लिपिसंख्यान (विद्यारम्भ) संस्कार पाँचवें वर्ष में करना चाहिए।

· इस संस्कार में शुभ मुहूर्त अत्यावश्यक है।

· योग, वार, नक्षत्र-ये सब ही शुभ अर्थात विद्यावृद्धिकर होने चाहिए।

· उपाध्याय (गुरु) को इस विषय का विशेष ध्यान रखना आवश्यक है।

जैन विवाह संस्कार / Jain Vivah Sanskar

· विवाह संस्कार सोलह संस्कारों में अन्तिम एवं महत्वपूर्ण संस्कार है।

· सुयोग्य वर एवं कन्या के जीवन पर्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध सहयोग और दो हृदयों के अखण्ड मिलन या संगठन को विवाह कहते हैं।

· विवाह, विवहन, उद्वह, उद्वहन, पाणिग्रहण, पाणिपीडन- ये सब ही एकार्थवाची शब्द हैं।

· 'विवहनं विवाह:' ऐसा व्याकरण से शब्द सिद्ध होता है।

· विवाह के पाँच अंग-

वाग्दानं च प्रदानं च, वरणं पाणिपीडनम्।सप्तपदीति पंचांगो, विवाह: परिकीर्तित:॥

1. वाग्दान (सगाई करना),

2. प्रदान (विधिपूर्वक कन्यादान),

3. वरण (माला द्वारा परस्पर स्वीकारना),

4. पाणिग्रहण (कन्या एवं वर का हाथ मिलाकर, उन हाथों पर जलधारा छोड़ना),

5. सप्तपदी (देवपूजन के साथ सात प्रदक्षिणा (फेरा) करना)- ये विवाह के पाँच अंग आचार्यों ने कहे हैं।

जैन व्युष्टि संस्कार / Jain Vyushti Sanskar

· व्युष्टि का अर्थ वर्ष-वृद्धि अर्थात प्रत्येक जन्म दिन के बाद उसमें एक-एक वर्ष की वृद्धि है।

· जिस दिन बालक का वर्ष पूर्ण हो उस दिन यह संस्कार करना चाहिए।

· इस संस्कार में कोई विशेष क्रिया नहीं है, केवल जन्मोत्सव मनाना है।

· यहाँ पर पूर्व के समान श्रीजिनेन्द्र देव की पूजा करें एवं हवन करें।

· नीचे लिखे मन्त्र को पढ़कर उस बालक पर पीले चावल (पुष्प) की वर्षा करें। मन्त्र-

· 'उपनयन जन्मवर्षवर्धनभागी भव,

· वैवाहनिष्ठवर्षवर्धनभागी भव,

· मुनीन्द्रवर्षवर्धनभागी भव,

· महाराज्यवर्षवर्धनभागी भव,

· परमराज्यवर्षवर्धनभागी भव,

· आर्हन्त्यराज्यवर्षवर्धनभागी भव'।

· अनन्तर यथाशक्ति औषधि, शास्त्र, अभय और आहार- ये चार प्रकार के दान सुपात्रों को देकर इष्टजन तथा बन्धु-वर्गों को भोजनादि द्वारा सन्तुष्ट करना चाहिए।

जैन व्रताचरण संस्कार / Jain Vratacharan Sanskar

· यज्ञोपवीत के पश्चात विद्याध्ययन करने का समय है, विद्याध्ययन करते समय कटिलिंग (कमर का चिह्न), ऊरुलिंग (जंघा का चिह्न), उरोलिंग (हृदयस्थल का चिह्न) और शिरोलिंग (शिर का चिह्न) धारण करना चाहिए।

1. कटिलिंग – इस विद्यार्थी का कटिलिंग त्रिगुणित मौजीबन्धन है जो कि पूर्वोक्त रत्नत्रय का विशुद्ध अंग और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का चिह्न है।

2. ऊरुलिंग- इस शिष्य का ऊरुलिंग धुली हुई सफेद धोती तथा लँगोट है जो कि जैनधर्मी जनों के पवित्र विशाल कुल को सूचित करती है।

3. उरोलिंग- इस विद्यार्थी के हृदय का चिह्न सात सूत्रों से बनाया हुआ यज्ञोपवीत है। यह यज्ञोपवीत सात परमस्थानों का सूचक है।

4. शिरोलिंग- विद्यार्थी का शिरोलिंग शिर का मुण्डन कर शिखा (चोटी) सुरक्षित करना है। जो कि मन वचन काय की शुद्धता का सूचक है।

· यज्ञोपवीत धारण करने के पश्चात नमस्कार मन्त्र को नौ बार पढ़कर इस विद्यार्थी को प्रथम ही उपासकाचार (श्रावकाचार) गुरुमुख से पढ़ना चाहिए।

· गुरुमुख से पढ़ने का अभिप्राय यह है कि श्रावणों की बहुत-सी ऐसी क्रियाएँ हैं जो अनेक शास्त्रों से मन्थन करने से निकलती हैं, गुरुमुख से वे सहज ही प्राप्त हो सकते हैं।

जैन सुप्रीति संस्कार / Jain Supriti Sanskar

· इसे सुप्रीति अथवा पुंसवन संस्कार क्रिया भी कहते हैं।

· यह संस्कार गर्भ के पाँचवें माह में किया जाता है।

· इसमें भी प्रीतिक्रिया के समान सौभाग्यवती स्त्रियाँ उस गर्भिणी को स्नान के बाद वस्त्राभूषणों से तथा चन्दन आदि से सुसज्जित कर मंगलकलश लेकर वेदी के समीप लाएं और स्वस्तिक पर मंगलकलश रखकर, लाल-वस्त्राच्छादित पाटे पर दम्पति को बैठा दें।

· इस समय घर पर सिन्दूर तथा अँजन (काजल) भी अवश्य लगाना चाहिए।

· प्रथम क्रिया की तरह यथाविधि दर्शन, पूजन एवं हवन इसमें भी किया जाता है।

जैन जातकर्म / Jain Jaatkarm

· पुत्र अथवा पुत्री का जन्म होते ही पिता अथवा कुटुम्ब के व्यक्तियों को उचित है कि वे श्रीजिनेन्द्र मन्दिर में तथा अपने दरवाजे पर मधुर वाद्य-बाजे बजवाएँ।

· भिक्षुक जनों को दान तथा पशु-पक्षियों को दाना आदि दें।

· बन्धु वर्गों को वस्त्र-आभूषण, श्रीफल आदि शुभ वस्तुओं को प्रदान करें।

· पश्चात 'ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ह्रौं ह्रूँ ह्र: नानानुजानुप्रजो भव भव अ सि आ उ सा स्वाहा' यह मन्त्र पढ़कर, पुत्र का मुख देखकर, घी, दूध और मिश्री मिलाकर, सोने की चमची अथवा सोने के किसी बर्तन से उसे पाँच बार पिलाएँ।

· पश्चात नाल कटवाकर उसे किसी शुद्धभूमि में मोती, रत्न अथवा पीले चावलों के साथ प्रक्षिप्त करा देना चाहिए।

जैन मोद क्रिया / Jain Mod Kriya

· मोद प्रमोद या हर्ष-ये एक ही अर्थ वाले शब्द हैं।

· इस संस्कार में हर्षवर्धक ही सब कार्य किये जाते हैं।

· अत: इसको 'मोद' कहते हैं।

· गर्भ से नौवे माह में यह मोद क्रिया की जाती है।

· प्रथम संस्कार की तरह सब क्रिया करते हुए सिद्धयन्त्र पूजन और हवन करना चाहिए।

· अनन्तर प्रतिष्ठा-आचार्य गर्भिणी के मस्तक पर णमोकार मन्त्र पढ़ते हुए ओं श्री आदि बीजाक्षर लिखना चाहिए।

· पीले चावलों (पुष्पों) की वर्षा मन्त्रपूर्वक करनी चाहिए। वस्त्र-आभूषण धारण कराने के साथ हस्त में कंकण सूत्र का बन्धन करना चाहिए।

· शान्ति-विसर्जन पाठ पढ़ते हुए पुष्पों की वर्षा करना ज़रूरी है।

· पश्चात गर्भिणी को सरस भोजन करना चाहिए तथा आमन्त्रित सामाजिक बन्धुओं का यथायोग्य आदर-सत्कार करें।

· जैन धर्म / Jainism

·

·

· तीर्थंकर पार्श्वनाथTirthankara Parsvanathaराजकीय जैन संग्रहालय, मथुरा

· जैन धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है। 'जैन' कहते हैं उन्हें, जो 'जिन' के अनुयायी हों । 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' माने-जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं 'जिन'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान् का धर्म । जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूलमन्त्र है- णमो अरिहंताणं।णमो सिद्धाणं।णमो आइरियाणं।णमो उवज्झायाणं।णमो लोए सव्वसाहूणं॥

· अर्थात अरिहंतो को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सर्व साधुओं को नमस्कार।

· ये पाँच परमेष्ठी हैं।

·

· मथुरा मैं विभिन्न कालों में अनेक जैन मूर्तियाँ मिली हैं जो जैन संग्रहालय मथुरा मैं संग्रहीत हैं।

·

·

· जैन तीर्थंकर, मथुराJain Tirthankar, Mathura

· अवैदिक धर्मों में जैन धर्म सबसे प्राचीन है, प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव माने जाते हैं। जैन धर्म के अनुसार भी ऋषभ देव का मथुरा से संबंध था। जैन धर्म में की प्रचलित अनुश्रुति के अनुसार, नाभिराय के पुत्र भगवान ऋषभदेव के आदेश से इन्द्र ने 52 देशों की रचना की थी। शूरसेन देश और उसकी राजधानी मथुरा भी उन देशों में थी (जिनसेनाचार्य कृत महापुराण- पर्व 16,श्लोक 155)। जैन `हरिवंश पुराण' में प्राचीन भारत के जिन 18 महाराज्यों का उल्लेख हुआ है, उनमें शूरसेन और उसकी राजधानी मथुरा का नाम भी है । जैन मान्यता के अनुसार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के सौ पुत्र हुए थे।

· जैन धर्म के सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का विहार मथुरा में हुआ था।* अनेक विहार-स्थल पर कुबेरा देवी द्वारा जो स्तूप बनाया गया था, वह जैन धर्म के इतिहास में बड़ा प्रसिद्ध रहा है। चौदहवें तीर्थंकर अनंतनाथ का स्मारक तीर्थ भी मथुरा में यमुना नदी के तटपर था। बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ को जैन धर्म में श्री कृष्ण के समकालीन और उनका चचेरा भाई माना जाता है। इस प्रकार जैन धर्म-ग्रंथों की प्राचीन अनुश्रुतियों में ब्रज के प्राचीनतम इतिहास के अनेक सूत्र मिलते हैं। जैन ग्रंथों मे उल्लेख है कि यहाँ पार्श्वनाथ महावीर स्वामी ने यात्रा की थी। पउमचरिय में एक कथा वर्णित है जिसके अनुसार सात साधुओं द्वारा सर्वप्रथम मथुरा में ही श्वेतांबर जैन संम्प्रदाय का प्रचार किया गया था।

· एक अनुश्रुति में मथुरा को इक्कीसवें तीर्थंकर नेमिनाथ* की जन्मभूमि बताया गया है, किंतु उत्तर पुराण में इनकी जन्मभूमि मिथिला वर्णित है।* विविधतीर्थकल्प से ज्ञात होता है कि नेमिनाथ का मथुरा में विशिष्ट स्थान था।* मथुरा पर प्राचीन काल से ही विदेशी आक्रामक जातियों, शक, यवन एवं कुषाणों का शासन रहा।

· वीथिका

जैन प्रतिमा का ऊपरी भागUpper Part of a Jina

तीर्थंकर ऋषभनाथTirthankara Rishabhanath

आसनस्थ जैन तीर्थंकरSeated Jaina Tirthankara

जैन प्रतिमा का धड़Bust of Jina

जैन मस्तक Head of a Jina

जैन तीर्थंकरJaina Tirthankara

अजमुखी जैन मातृदेवी Goat Headed Jaina Mother Goddess

आसनस्थ जैन तीर्थंकरSeated Jaina Tirthankara

तीर्थंकर ऋषभनाथTirthankara Rishabhanath

आसनस्थ जैन तीर्थंकर Seated Jaina Tirthankara

जैन मस्तकHead of a Jina

आसनस्थ जैन तीर्थंकर Seated Jaina Tirthankara

अजमुखी जैन मातृदेवीGoat Headed Jaina

जैन आयोगपट्टJaina Tablet

जैन आयोगपट्टJain Ayagapatta

जैन पुराण साहित्य

भारतीय धर्मग्रन्थों में 'पुराण' शब्द का प्रयोग इतिहास के अर्थ में आता है। कितने विद्वानों ने इतिहास और पुराण को पंचम वेद माना है। चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में इतिवृत्त, पुराण, आख्यायिका, उदाहरण, धर्मशास्त्र तथा अर्थशास्त्र का समावेश किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि इतिहास और पुराण दोनों ही विभिन्न हैं। इतिवृत्त का उल्लेख समान होने पर भी दोनों अपनी अपनी विशेषता रखते हैं। इतिहास जहाँ घटनाओं का वर्णन कर निर्वृत हो जाता है वहाँ पुराण उनके परिणाम की ओर पाठक का चित्त आकृष्ट करता है।

सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च। वंशानुचरितान्येव पुराणं पंचलक्षणम्॥

जिसमें सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंश-परम्पराओं का वर्णन हो, वह पुराण है। सर्ग, प्रतिसर्ग आदि पुराण के पाँच लक्षण हैं। तात्पर्य यह कि इतिवृत्त केवल घटित घटनाओं का उल्लेख करता है परन्तु पुराण महापुरुषों के घटित घटनाओं का उल्लेख करता हुआ उनसे प्राप्त फलाफल पुण्य-पाप का भी वर्णन करता है तथा व्यक्ति के चरित्र निर्माण की अपेक्षा बीच-बीच में नैतिक और धार्मिक शिक्षाओं का प्रदर्शन भी करता है। इतिवृत्त में जहाँ केवल वर्तमान की घटनाओं का उल्लेख रहता है वहाँ पुराण में नायक के अतीत और अनागत भवों का भी उल्लेख रहता है और वह इसलिये कि जनसाधारण समझ सके कि महापुरुष कैसे बना जा सकता है। अवनत से उन्नत बनने के लिये क्या-क्या त्याग, परोपकार और तपस्याएँ करनी पड़ती हैं। मानव के जीवन-निर्माण में पुराण का बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है। यही कारण है कि उसमें जनसाधारण की श्रद्धा आज भी यथापूर्व अक्षुण्ण है।

वैदिक परम्परा में पुराणों और उप-पुराणों का जैसा विभाग पाया जाता है वैसा जैन परम्परा में नहीं पाया जाता। परन्तु यहाँ जो भी पुराण-साहित्य विद्यमान है वह अपने ढंग का निराला है। जहाँ अन्य पुराणकार प्राय: इतिवृत्त की यथार्थता को सुरक्षित नहीं रख सके हैं वहाँ जैन पुराणकारों ने यथार्थता को अधिक सुरक्षित रखा है। इसीलिये आज के निष्पक्ष विद्वानों का यह स्पष्ट मत है कि प्राक्कालीन भारतीय संस्कृति को जानने के लिये जैन पुराणों से उनके कथा ग्रन्थ से जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह असामान्य है। यहाँ कतिपय दिगम्बर जैन पुराणों और चरित्रों की सूची इस प्रकार है-

क्रमांक - पुराणनाम - कर्ता - रचनाकाल

1.- पद्मपुराण - पद्मचरित - आचार्य रविषेण - 705

2.- महापुराण - आदिपुराण - आचार्य जिनसेन - नौवीं शती

3.- पुराण - गुणभद्र - 10वीं शती

4.- अजित - पुराण - अरुणमणि - 1716

5.- आदिपुराण - (कन्नड़) - कवि पंप --

6.- आदिपुराण - भट्टारक - चन्द्रकीर्ति - 17वीं शती

7.- आदिपुराण - भट्टारक - सकलकीर्ति - 15वीं शती

8.- उत्तरपुराण - भ0 सकलकीर्ति - 15वीं शती

9.- कर्णामृत - पुराण - केशवसेन - 1608

10.- जयकुमार - पुराण - ब्र0 कामराज - 1555

11.- चन्द्रप्रभपुराण - कवि अगासदेव - --

12.- चामुण्ड पुराण - (क0) चाम�